Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

मैंने_जिनसे_भाषा_सीखी- 10/ सुरेन्द्र किशोर

$
0
0

 

एक थे प्रभाष जोशी- 1


शंभूनाथ  शुक्ल


साल 1994 के गहमा-गहमी वाले दिन थे और यूपी में तब सपा-बसपा की मिली-जुली सरकार थी। उस समय वहां पर एक गैर-आईएएस नौकरशाह शशांक शेखर सिंह की तूती बोला करती थी। सुना जाता था कि वे अखबारों को निर्देश देते कि अमुक खबर नहीं जाएगी तो सपा-बसपा सरकार से डरे-सहमे अखबार वाले मशीन पर चल रहा अखबार रुकवाते और खबर रोक लेते। ऐसे ही दिनों में एक रात कोई दस बजे मुझे फोन आया। पीबीएक्स से बताया गया कि लखनऊ से कोई शशांक शेखर बोल रहे हैं और उन्होंने कहा है कि शंभूनाथ शुक्ला को फोन दो। मेरे फोन उठाते ही उधर से आवाज आई देखिए आपके यहां लखनऊ से अमुक खबर आई है उसे जाना नहीं है।

मैनें कहा कि पहली बात तो मैं आपको जानता नहीं दूसरे खबर रोकने का अधिकार आपको नहीं सिर्फ हमारे संपादक प्रभाष जोशी को है। तब उन्होंने अपना नाम बताया और कहा कि अगर खबर आप नहीं रोकेंगे तो आपके पास अभी नुस्ली वाडिया का फोन आएगा और आपको पता ही होगा कि वे आपके अखबार के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में हैं। मैने विनम्रतापूर्वक कहा कि आप खबर रुकवाने के लिए मुझे क्यों धमका रहे हैं, आप स्वयं क्यों नहीं प्रभाष जी से बात करते? और श्रीमान जी मैं अखबार के किसी डायरेक्टर को नहीं जानता बस संपादक को जानता हूं या मैनेजिंग डायरेक्टर विवेक गोयनका को। खबर रोकने का आदेश यही दोनों सज्जन दे सकते हैं। यह कहते हुए मैने फोन काट दिया और प्रभाष जी को फोन कर यह बात बता दी। प्रभाष जी ने बस हां-हूं कहा और यह भी नहीं बताया कि अगर नुस्ली वाडिया का फोन आए तो मुझे क्या जवाब देना है। स्टोरी के बारे में उन्होंने कोई निर्देश नहीं दिया और न मैने पूछा। लखनऊ से आई हेमंत शर्मा की स्टोरी मैंने पहले पेज़ पर लगवा दी। तीन-चार दिनों बाद प्रभाष जी लॉबी में दिखे तो दूर से ही आवाज दी- रुकना पंडित। वे मेरे करीब आए और बोले कि नुस्ली का फोन आया था और अपन ने कह दिया कि हमारे यहां खबर रोकने का अधिकार डेस्क के प्रभारी को है। और अगर वह संतुष्ट है तो खबर नहीं रोकी जा सकती। प्रभाष जी की यह बात सुनकर मैं भावुक हो गया। तब मैं एक सामान्य-सा डिप्टी न्यूज एडिटर था और जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी का मेरे ऊपर ऐसा भरोसा। मेरा तो गला ही भर आया। 

अगली घटना इसके तीन या चार साल बाद की है। बरेली के मंडलायुक्त की पत्नी ने एक एनजीओ बनाकर विकलांग कल्याण के नाम पर कई लाख के अनुदान लिए थे और काम धेला भर का नहीं किया। वे एक और अनुदान लेने के चक्कर में थीं। तब उत्तर प्रदेश सरकार के प्रमुख सचिव विकलांग कल्याण मेरे मित्र थे और उन्होंने मंडलायुक्त की पत्नी का सारा चिट्ठा मेरे पास भेज दिया इस अनुरोध के साथ कि बॉस मेरा नाम नहीं आना चाहिए। यह स्टोरी विशाल आकार में छपी और पुख्ता सबूतों के साथ। उस समय प्रभाष जोशी संपादक नहीं थे, वे सलाहकार संपादक हो गए थे। लेकिन मंडलायुक्त महोदय उस समय के संपादक के मित्र थे, इसलिए मंडलायुक्त ने उन संपादक महोदय को फोन कर कहा कि शंभूनाथ शुक्ल से कहें कि खबर को सोर्स बताएं। संपादक महोदय ने कह दिया कि मैं शंभूनाथ शुक्ल से यह बात नहीं कह सकता आप इसके लिए प्रभाष जोशी से कहें।

मंडलायुक्त प्रभाष जी को भी अच्छी तरह से जानते थे इसलिए उन्हें फोन कर दिया। पर प्रभाष जी ने साफ मना कर दिया और कह दिया कि यह शंभूनाथ शुक्ल का विशेषाधिकार है आप उनसे ही बात करें। उनका फोन मेरे पास आया और एकदम से रौबीले अंदाज में बोले कि मैं अमुक अधिकारी बोल रहा हूं, आपको स्टोरी लिखने के पूर्व मुझसे पूछना था। मैने कहा क्यों आप मेरे संपादक तो हैं नहीं। मेरे इस रूखे व्यवहार से वे नरम पड़े और बोले- शुक्ला जी आप तो बड़े सीनियर पत्रकार हैं आप एक बार मुझसे पूछ तो लेते। मैनें कहा- एक तो मेरे पास सारे सबूत रिटेन में मौजूद थे और पुख्ता भी और फिर आप अधिकारी तो हैं और यह भी सही है कि जिस एनजीओ की ग्रांट रुकी वह आपकी पत्नी की थी मगर इसमें आपकी सफाई किस अधिकार से छापी जाती। इसके बाद न तो वे अधिकारी मुझसे पूछने की हिम्मत कर पाए और न ही मैने कुछ बताया।

ये दोनों उदाहरण प्रभाष जी के व्यक्तित्व का अहसास कराते हैं। कितने संपादक इस तराजू पर खरे उतरते हैं, शायद आज की तारीख में कोई नहीं। प्रभाष जी का अपने साथियों और अपने अधीन काम करने वालों पर पूरा भरोसा था और हर किसी के विरुद्घ खबर छापने का उनका हक भी। अगर सबूत पुख्ता हैं और संवाददाता का आशय ईमानदारी का है तो प्रभाष जी कभी भी खबर नहीं रोकते थे और कोई भी दबाव उन पर काम नहीं करता था। जनसत्ता का जो सूत्र वाक्य था- सबकी खबर, सबको खबर, उस पर जनसत्ता और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी सदैव खरे उतरे। प्रभाष जी अपने अधीनस्थों के सम्मान और हितों की रक्षा के लिए प्रबंधन से भी लड़ लेते थे तथा अक्सर अपनी जेब से धन देकर उनकी आर्थिक मदद भी।

साल 1986 में मेरी छोटी बहन की शादी थी। मुझे तब इंडियन एक्सप्रेस समूह में आए महज तीन साल ही हुए थे और वेतन था मात्र दो हजार। टीएंडसी वगैरह से भी कर्ज लेने के बाद दो हजार रुपए कम पड़ रहे थे। प्रबंधन ने कर्ज देने से हाथ खड़े कर दिए क्योंकि नियमत: ऐसा हो नहीं सकता था। जिस दिन मुझे कानपुर जाना था उस दिन दोपहर को मुझे प्रभाष जी ने बुलाया और पूछा कि कंपनी से लोन मिल गया? मैने कहा- नहीं मुझे लोन मिल नहीं सकता। पूछा- कितने रुपए कम पड़ रहे हैं? मैने कहा कि दो हजार।  उन्होंने तत्काल अपने पीए राम बाबू को बुलाया और कहा कि जरा मेरा एकाउंट देखकर बताओ कि उसमें कितने रुपए हैं? रामबाबू ने बताया कि कुल पांच सौ। प्रभाष जी ने उन्हें कहा कि मेरे लिए एकाउंट को कहो जाकर कि प्रभाष जोशी को अपने वेतन का एडवांस चाहिए दो हजार। रामबाबू के जाने के कुछ ही क्षण बाद इंडियन एक्सप्रेस के विशेष कार्याधिकारी पीसी जैन प्रभाष जोशी के पास आए और बोले- लो जी तुम्हारे बंदे को मैने अपनी रिस्क पर लोन दिलवा दिया। और मुझे तत्क्षण दो हजार रुपए मिल गए। यह थी प्रभाष जी की अपने साथियों के प्रति सहृदयता। अब जब ऐसे संपादक ही नहीं रहे तो कौन उप संपादक भला अपने संपादक के लिए जान तक देने को तत्पर होगा।

प्रभाष जी द्वारा भाषा दीक्षा  

हिंदी की अखबारी पत्रकारिता में जनसत्ता के योगदान को जब भी याद किया जाएगा प्रभाष जोशी जरूर याद आएंगे। प्रभाष जोशी के बिना जनसत्ता का कोई मतलब नहीं होता हालांकि प्रभाष जोशी का मतलब जनसत्ता नहीं है। उन्होंने तमाम ऐसे काम किए जिनसे जनसत्ता के तमाम वरिष्ठ लोगों का जुड़ाव वैसा तीव्र नहीं रहा जैसा कि प्रभाष जी का स्वयं। मसलन प्रभाष जी का 1992 के बाद का रोल। यह रोल प्रभाष जी की अपनी विशेषता थी। जनसत्ता में तो तब तक वे लोग कहीं ज्यादा प्रभावशाली हो गए थे जो छह दिसंबर 1992 की बाबरी विध्वंस की घटना को राष्ट्रीय गर्व के रूप में याद करते हैं। लेकिन प्रभाष जी ने इस एक घटना के बाद एक सनातनी हिंदू का जो धर्मनिरपेक्ष स्वरूप दिखाया वह शायद प्रभाष जी के अलावा और किसी में संभव नहीं था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक दल भाजपा के इस धतकरम का पूरा चिट्ठा खोलकर प्रभाष जी ने बताया कि धर्म के मायने क्या होते हैं। 

आज प्रभाष जी की परंपरा को जब हम याद करते हैं तो उनके इस योगदान पर विचार करना बहुत जरूरी हो जाता है। प्रभाष जी ने जनसत्ता की शुरुआत करते ही हिंदी पत्रकारिता से आर्यासमाजी मार्का हिंदी को अखबारों से बाहर करवाया। उन्होंने हिंदी अखबार नवीसों के लिए नए शब्द गढ़े जो विशुद्घ तौर पर बोलियों से लिए गए थे। वे कहा करते थे जैसा हम बोलते हैं वैसा ही लिखेंगे। और यही उन्होंने कर दिखाया। जनसत्ता शुरू करने के पूर्व एक-एक शब्द पर उन्होंने गहन विचार किया। कठिन और खोखले शब्दों के लिए उन्होंने बोलियों के शब्द निकलवाए। हिंदी के एडजक्टिव, क्रियापद और सर्वनाम तथा संज्ञाओं के लिए उन्होंने नए शब्द गढ़े। संज्ञा के लिए उनका तर्क था देश के जिस किसी इलाके की संज्ञा जिस तरह पुकारी जाती है हम उसे उसी तरह लिखेंगे। अमरेंद्र नाम की संज्ञा का उच्चारण अगर पंजाब में अमरेंदर होगा तो उसे उसी तरह लिखा जाएगा। आज जब उड़ीसा को ओडीसा कहे जाने के लिए ओडिया लोगों का दबाव बढ़ा है तब प्रभाष जी उसे ढाई दशक पहले ही ओडीसा लिख रहे थे। उसी तरह अहमदाबाद को अमदाबाद और काठमांडू को काठमाड़ौ जनसत्ता में शुरू से ही लिखा जा रहा है। प्रभाष जी के बारे में मैं जो कुछ लिख रहा हूं इसलिए नहीं कि मैने उनके बारे में ऐसा सुना है बल्कि इसलिए कि मैने एकदम शुरुआत से उनके साथ काम किया और उनको अपना पहला पथ प्रदर्शक व गुरू माना तथा समझा। 

प्रभाष जी को मैने पहली दफा तब ही देखा था जब मैं जनसत्ता की लिखित परीक्षा देने दिल्ली आया था। लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसा जुड़ाव हुआ कि मेरे लिखने-पढऩे में हर वक्त प्रभाष जी ही हावी रहते हैं। 28 मई 1983 को मैने प्रभाष जी को पहली बार देखा था और 4 जून 2009 को, जब मैं लखनऊ में अमर उजाला का संपादक था, वे लखनऊ आए थे और वहीं एअरपोर्ट पर विदाई के वक्त उनके अंतिम दर्शन किए थे। जनसत्ता में हमारी एंट्री अगस्त 1983 में हो गई थी लेकिन अखबार निकला नवंबर में। बीच के चार महीनों में हमारी कड़ी ट्रेनिंग चली। प्रभाष जी रोज हम लोगों को हिंदी का पाठ पढ़ाते कि जनसत्ता में कैसी भाषा इस्तेमाल की जाएगी। यह बड़ी ही कष्टसाध्य प्रक्रिया थी। राजीव शुक्ला और मैं जनसत्ता की उस टीम में सबसे बड़े अखबार से आए थे। दैनिक जागरण भले ही तब क्षेत्रीय अखबार कहा जाता हो लेकिन प्रसार की दृष्टि से यह दिल्ली के अखबारों से कहीं ज्यादा बड़ा था। इसलिए हम लोगों को यह बहुत अखरता था कि हम इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार और मध्य प्रदेश के प्रभाष जोशी से खांटी भाषा सीखें। हमें अपने कनपुरिया होने और इसी नाते हिंदी भाषा व पत्रकारिता की प्रखरता पर नाज था। प्रभाष जोशी तो खुद ही कुछ अजीब भाषा बोलते थे। मसलन वो हमारे और मेरे को अपन तथा चौधरी को चोदरी कहते। साथ ही हमारे बार-बार टोकने पर भी अपनी बोली को ठीक न करते। एक-दो हफ्ते तो अटपटा लगा लेकिन धीरे-धीरे हम उनकी शैली में पगने लगे। 

प्रभाषजी ने बताया कि हम वही लिखेंगे जो हम बोलते हैं। जिस भाषा को हम बोल नहीं पाते उसे लिखने का क्या फायदा? निजी तौर पर मैं भी अपने लेखों में सहज भाषा का ही इस्तेमाल करता था। इसलिए प्रभाष जी की सीख गांठ से बांध ली कि लिखना है उसी को जिसको हम बोलते हैं। भाषा के बाद अनुवाद और अखबार की धारदार रिपोर्टिंग शैली आदि सब चीजें प्रभाष जी ने हमें सिखाईं। अगस्त बीतते-बीतते हम जनसत्ता की डमी निकालने लगे थे। सितंबर और अक्तूबर भी निकल गए लेकिन जनसत्ता बाजार में अभी तक नहीं आया था। उसका विज्ञापन भी संपादकीय विभाग के हमारे एक साथी कुमार आनंद ने ही तैयार किया था- जनसत्ता, सबको खबर दे सबकी खबर ले। 1983 नवंबर की 17 तारीख को जनसत्ता बाजार में आया। प्रभाष जी का लेख- “सावधान आगे पुलिया संकीर्ण है”, जनसत्ता की भाषानीति का खुलासा था। हिंदी की भाषाई पत्रकारिता को यह एक ऐसी चुनौती थी जिसने पूरी हिंदी पट्टी के अखबारों को जनसत्ता का अनुकरण करने के लिए विवश कर दिया। उन दिनों उत्तर प्रदेश में राजभाषा के तौर पर ऐसी बनावटी भाषा का इस्तेमाल होता था जो कहां बोली जाती थी शायद किसी को पता नहीं था। यूपी के राजमार्गों में आगे सकरा रास्ता होने की चेतावनी कुछ यूं लिखी होती थी- सावधान! आगे पुलिया संकीर्ण है। अब रास्ता संकीर्ण कैसे हो सकता है, वह तो सकरा ही होगा। हिंदी की एक समस्या यह भी है कि चूंकि यह किसी भी क्षेत्र की मां-बोली नहीं है इसलिए एक बनावटी व गढ़ी हुई भाषा है। साथ ही यह अधूरी व भावों को दर्शाने में अक्षम है। प्रकृति में कोई भी भाषा इतनी अधूरी शायद ही हो जितनी कि यह बनावटी आर्या समाजी हिंदी थी। इसकी वजह देश में पहले से फल फूल रही हिंदी, हिंदवी, रेख्ता या उर्दू भाषा को देश के आम लोगों से काटने के लिए अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम में बैठकर एक बनावटी और किताबी भाषा तैयार कराई जिसका नाम आधुनिक हिंदी था। इसे तैयार करने का मकसद देश में देश के दो बड़े धार्मिक समुदायों की एकता को तोडऩा था। 

उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा हिंदी को हिंदुओं के लिए गढ़ तो लिया गया लेकिन इसका इस्तेमाल करने को कोई तैयार नहीं था यहां तक कि वह ब्राह्मïण समुदाय भी नहीं जिसके बारे में मानकर चला गया कि वो हिंदी को हिंदू धर्म की भाषा मान लेगा। लेकिन बनारस के ब्राह्मणों ने शुरू में इस बनावटी भाषा को नहीं माना था। भारतेंदु बाबू को बनारस के पंडितों की हिंदी पर मुहर लगवाने के लिए हिंदी में उर्दू और बोलियों का छौंक लगवाना पड़ा था। हिंदी का अपना कोई धातुरूप नहीं हैं, लिंगभेद नहीं है, व्याकरण नहीं है। यहां तक कि इसका अपना सौंदर्य बोध नहीं है। यह नागरी लिपि में लिखी गई एक ऐसी भाषा है जिसमें उर्दू की शैली, संस्कृत की धातुएं और भारतीय मध्य वर्ग जैसी संस्कारहीनता है। ऐसी भाषा में अखबार भी इसी की तरह बनावटी और मानकहीन खोखले निकल रहे थे। प्रभाष जी ने इस बनावटी भाषा के नए मानक तय किए और इसे खांटी देसी भाषा बनाया। प्रभाष जी ने हिंदी में बोलियों के संस्कार दिए। इस तरह प्रभाष जी ने उस वक्त तक उत्तर भारतीय बाजार में हावी आर्या समाजी मार्का अखबारों के समक्ष एक चुनौती पेश कर दी। इसके बाद हिंदी जगत में प्रभाष जी की भाषा में अखबार निकले और जिसका नतीजा यह है कि आज देश में एक से छह नंबर तो जो हिंदी अखबार छाए हैं उनकी भाषा देखिए जो अस्सी के दशक की भाषा से एकदम अलग है। प्रभाष जी का यह एक बड़ा योगदान है जिसे नकारना हिंदी समाज के लिए मुश्किल है।

(प्रभाष प्रसंग अभी ज़ारी रहेगा)


Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>