राकेश रंजन कुमार
पत्रकारिता में एथिक्स को लेकर लंबी बहस रही है। क्योंकि पत्रकारिता औऱ एथिक्स का चोली-दामन का संबंध रहा है । ऐसे में जैसे-जैसे पत्रकारिता बदली है उसके एथिक्स में भी बदलाव देखने को मिला है।
थोड़ा पहले चलते हैं, पत्रकारिता के आरंभिक काल में। जब पत्रकारिता एक मिशन हुआ करती थी। उसका उद्देश्य, उसके सिद्धांत एक मिशन के रूप में आगे बढ़ते थे। और एक निश्चित उद्देश्य को पूरा करने वाले होते थे। वैसे भी उस समय की पत्रकारिता और उपांगो को देखकर पता चलता है कि पत्रकारिता के तेवर औऱ उसके साथ एथिक्स का मिलन किस तरह एक दूसरे को साथ लेकर आगे बढ़ते थे ।
उस समय की पत्रकारिता को इन शब्दों में बयां कर सकते हैं-
मेरे दर्द को मेरी ज़ुबां मिले,
मुझे मेरा नामोनिशां मिले।
धीरे-धीरे पत्रकिरता में बदलाव आया । कॉरपोरेट घराने इस व्यवसाय की तरफ उन्मुख हुए। पत्रकारिता का मिशन शब्द जो एक तरह इसके सिद्दांत को प्रतिपादित करता था। वह बाज़ारवाद का रूप लेता गया। वैसे भी कॉरपोरेट का मतलब होता है, फ़ायदा और फिर फ़ायदा चाहिए तो कुछ तो विशेष करना ही होगा। हाँ, एक बात और वैश्वीकरण औऱ अपने देश में उदारीकरण के दौर ने इन्हें और बढ़ावा दिया या यूँ कहें कि इन्हें फलने-फूलने का मौक़ा दिया।
अब पत्रकारिता की शक़्ल बदल चुकी थी और पत्रकारों का भी । क्योंकि, अब न तो पत्रकारिता के साथ तेवर और सिद्धांतों की बलिहारी रही और न ही वह पत्रकार जिन्हें हम कुर्ता-पायजामा और झोले के तौर पर जानते थे।
यह 90 के बाद का दशक था। पत्रकारिता में आमूल-चूल परिवर्तन जारी था। उस समय का “मंडल-कमंडल” की राजनीति और उसके बाद पत्रकारिता की मिलीभगत का भी बख़ूबी दौर चला। 1992 का बाबरी विध्वंस पत्रकारिता के एथिक्स का एक नया अध्याय लिख रहा था। देश में चल रही लहर की आड़ में कुछ मीडिया संस्थानों ने पत्रकारिता के सिद्धांतों को तार-तार कर दिया।
इसके बाद जैसे-जैसे पैसे का तड़का लगता गया वैसे-वैसे एथिक्स कहीं बाहर छिटकता रहा। दरअसल, कई बार एथिक्स को लेकर मीडिया इंडस्ट्री में बहस उमड़ती रही है। और उसकी स्वतंत्रता को स्वछंदता क़रार देकर (जो एक हद तक आज की पत्रकारिता को देखते हुए सही भी है) उस पर अंकुश लगाने की कोशिश की जाती है तो इसी कॉरपोरेट मीडिया का एक खेमा संविधान में दिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया की स्वायत्तता को लेकर कई तरह के सवाल खड़े करने लगता है। बाद में यही मीडिया एक लंबे निष्कर्ष के बाद सेल्फ़ रेग्यूलेशन के तथाकथित आड़ में अपनी ज़िम्मेदारियों से बचने का बहाना बनाकर गुपचुप तरीक़े से पत्रकारिता एथिक्स को तार-तार करता रहा है लेकिन मंचों पर किसी बहस में वह हमेशा इस एथिक्स को बचाए रखने की दुहाई देता है।
हालिया उदाहरण इसे सिद्ध करने के लिए काफ़ी है। 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले के बाद देश में लगातार खुल रहे घोटालों के बीच जिस तरह से मीडिया के दो दिग्गजों बरखा दत्त और वीर सांघ्वी का नाम उछला है वह यूँ ही नहीं है। आख़िर इन उद्योगपतियों से इनका क्या संबंध है और क्यों है बस यही तो है असल पत्रकारिता । भईया ये कॉरपोरेट पत्रकार हैं और आज कॉरपोरेट पत्रकारों का ही दौर है। सत्ता और मीडिया रूपी पावर के संगम से किस तरह से पत्रकारिता के सिद्धांतों की बलि चढ़ाई जाती है ये पत्रकार इसे बख़ूबी पेश कर रहे हैं। और यह कारवां सिर्फ़ बरखा या सांघ्वी तक ही सीमित नहीं है। दर्जनों पत्रकार इस फ़ेहरिस्त में शामिल हैं। और देश की विडंबना है कि वह सिर्फ़ इन्हीं लोगों को पत्रकार समझता है। यहाँ प्रभू चावला का ज़िक्र भी ज़रूरी है। दूरदशर्न पर एक संगोष्ठी के दौरान जब यह कहते हैं कि हमने समाजिक सराकारों का ठेका ले रखा है क्या ? अगर राखी सावंत को बुलाने से हमारे टीवी की टीआरपी बढ़ती है तो हम उसे बुलाएंगे। और फिर, दूसरे मंच से जब वही ( प्रभू चावला) पत्रकारिता में एथिक्स को ज़िंदा रखने की दुहाई देता है तो अनायास ही यह शायरी याद आ जाती है…
अब तो दरवाज़े से अपने नाम की तख़्ती उतार,
लफ़्ज़ नंगे हो गए शोहरत भी गाली हो गई।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पत्रकारिता में एथिक्स का अब कोई भविष्य नहीं है या यह वर्तमान में बची नहीं है। अभी भी पत्रकारिता में एथिक्स के लिए स्पेस है और कुछ पत्रकार औऱ मीडिया का एक तबका अभी भी इसको साथ लेकर चलने की हिमाकत कर रहा है। हाँ, मैने हिमाकत शब्द का जानबूझकर यहाँ प्रयोग किया है। क्योंकि आज के दौर में तो एथिक्स को लेकर जो चलने की क़वायद करता है और उसके उद्देश्यों के साथ पत्रकारिता को जो भी ज़िंदा रखने की कोशिश है, तो वह हिमाकत का ही एक रूप है क्योंकि यह बहुत कम देखने को मिलता है। और यह कॉरपोरेट मीडिया से परे तो होता ही है कारपोरेट के हमेशा निशाने पर भी होता है।
लेकिन अगर वर्तमान परिवेश में और भविष्य में मीडिया एथिक्स की जब भी बात होगी पत्रकारिता के इसी रूप को याद रखा जाएगा। वर्तमान समय में कुछ मीडिया संस्थानों और कुछ पत्रकारों ने देर-सवेर जगी एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया और कुछ सीमित संपादकों, और पत्रकारों के प्रयासों के चलते पत्रकारिता का बिछड़ा एथिक्स एक बार फिर अपने रास्ते लौटता दिख रहा है। वैसे भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बिना एथिक्स के पत्रकारिता का सफ़र बहुत छोटा है और उसे लंबे समय तक ख़ुद को अस्तित्व मे बनाए रखने के लिए आगे बढ़ना होगा। इस में सिर्फ़ पत्रकारिता ही नहीं अपितु देश,समाज सब की तरक्की छुपी है। ऐसे में यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि कॉरपोरेट के वर्चस्व और मिशन के बाज़ारवाद में तब्दील होने के बावजूद पत्रकारिता में एथिक्स के लिए स्पेस है और यह आगे भी जारी रहेगा…………
छात्र