प्रस्तुति-- रेणु दत्ता
एक तो हिंदी में समसामयिक इतिहास लेखन का प्रचलन ही कम है और जितना कुछ है वह राजनीति तक ही सीमित रहा है. यही हाल संस्मरणों का है. अंग्रेज़ी और दूसरी भारतीय भाषाओं की तुलना देखें तो हिंदी में संस्मरण लिखने की कोई बहुत अच्छी परंपरा नहीं बची है मानों वह साहित्य या लेखन की कोई विधा ही न हो. हाल के दिनों में इस प्रथा को तोड़ने के प्रयास होते दिख रहे हैं. गंगाधर शुक्ल की पुस्तक 'वक़्त गुज़रता है'को इसी की एक कड़ी माना जा सकता है. गंगाधर शुक्ल ने आकाशवाणी में काम करना तब शुरु किया जब वह अपने शैशवकाल में था और फिर उन्होंने भारत में दूरदर्शन को शुरुआती दिनों में देखा. 1942 में वे रेडियो की नौकरी में आए और 1959 में दूरदर्शन में आ गए थे. रेडियो और दूरदर्शन की विकास यात्रा को व्यक्तिगत संस्मरणों का रुप देकर उन्होंने एक पुस्तक लिखी है. जो पठनीय होने के अलावा एक महत्वपूर्ण विषय पर इतिहास दर्ज करती चलती है. प्रस्तुत है इस बार पखवाड़े की पुस्तकमें इसी पुस्तक का एक अंश बीबीसी का योगदान भारतीय रेडियो(एआईआर) यूरोपीय रेडियो सेवाओं के निस्बत क्षेत्र में नया था, उसे विकसित होने के लिए समय व तकनीकी सहायता चाहिए थी. इसकी अहमियत प्रो. बुख़ारी अच्छी तरह समझते और तकनीकी (प्रोग्राम व इंजीनियरी) प्रशिक्षण के हामी थे, मदद बीबीसी से मिल सकती थी. वैसे दूसरे देशों के रेडियो प्रसारण संस्थान भी थे, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिल चुकी थी, पर भारत उस समय ब्रिटिश सरकार के अधीन था, इसलिए बीबीसी को वरीयता देना एक प्रकार से ज़रूरी था. यह भी बिना संकोच कहना होगा कि बीबीसी का योगदान, ख़ास तौर पर रेडियो विस्तार के आरंभिक चरण में, काफ़ी उपयोगी रहा. रेडियो से संलग्न प्रोग्रामकर्मियों को लंदन भेजकर प्रशिक्षण दिलाने की व्यवस्था बहुत बाद में शुरू हुई, पहले वहाँ से विशेषज्ञ आकर यहीं प्रोग्राम-संयोजन से जुड़े लोगों को तकनीकी जानकारी देते थे. इनमें से एक थे केव ब्राउन केव जिन्होंने अपने समय में प्रोड्यूसर रहते बीबीसी के लिए बहुतेरे प्रोग्राम बनाए थे. वे भारत काफ़ी अर्से रहे, ख़ास तौर पर दिल्ली रेडियो स्टेशन पर. योग्यता के साथ दोस्ताना व्यवहार से वे सभी के साथ घुलमिल कर रहे.
केव ब्राउन केव अपने छोटे नाम “जिम” से जाने जाते थे और इसी नाम से संबोधित किए जाना पसंद करते थे. रेडियो प्रोग्राम संयोजन (प्रोडक्शन) से संबंधित छोटी-बड़ी बातों की जानकारी किसी चल रहे रिहर्सल के दौरान बताने को वे अपने प्रशिक्षण कार्य का विशेष अंग मानते थे. क्लास लगाकर उसे संबोधित करना उनको अधिक रास नहीं आता था. नियमित तो नहीं, पर कभी-कभी सबको इक्ट्ठा कर आवश्यक प्रोग्राम प्रोडक्शन संबंधी तथ्यों की ऐतिहासिक जानकारी भी देते थे. उनसे सुनी और जानी बातें उस वक़्त मेरे लिए नई थीं, पर याद अब तक हैं. व्यवसाय के रूप में रेडियो प्रसारण संभव करने में मारकोनी कंपनी ने अनेक प्रयोगों के बाद 23 फरवरी, 1920 को पहले सफल रेडियो प्रसारण का प्रदर्शन किया. इसके क़रीब दो साल बाद, नवंबर, 1922 से दैनिक प्रसारण की व्यवस्था की जा सकी. लगभग उसी समय ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कंपनी (बीबीसी) की स्थापना हुई. यह पूरी तरह से व्यापारिक सेवा थी, जिसके पहले जनरल मैनेजर बने जेई रीथ, जो कि एक योग्य प्रशासक होने के साथ दूरदर्शी या कहें कि भविष्यद्रष्टा थे. रेडियो के जल्दी ही एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरने पर उनका पूरा विश्वास था. इसी विश्वास और दूरदर्शिता के आधार पर इंग्लैंड में बीबीसी की स्थापना करने के साथ ही उन्होंने दूसरे देशों की सरकारों से संपर्क कर उन्हें इस नए शक्तिशाली माध्यम की ओर विशेष रूप से ध्यान देने और इसे अपनाने को प्रेरित किया. रीथ चाहते थे कि भारत में भी इसे 1923 से ही अपना लिया जाए. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मारकोनी रेडियो प्रसारण संभव हुआ, पर उसकी व्यावसायिक संभावना को दृष्टि में रखते हुए रीथ ने बीबीसी की स्थापना भी व्यावसायिक प्राथमिकता के आधार पर की थी. अपने यहाँ भी एक ग़ैरसरकारी कंपनी ने इसी दृष्टि से प्रभावित हो “इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी” स्थापित की. कंपनी सरकार के साथ मिलकर पहले दो प्रसारण केंद्रों से प्रसारण-व्यवस्था के पक्ष में थी. शीघ्र ही बंबई केंद्र 23 जुलाई, 1927 को स्थापित किया गया. उसके एक महीने के अंतर से 26 अगस्त 1927 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में दूसरा रेडियो स्टेशन लगा. दोनों के ट्रांसमीटर शक्तिशाली न थे-डेढ़ किलोवाट के होने से प्रसारण क्षेत्र 30 मील तक ही सीमित था. मुख्य आमदनी का ज़रिया था रेडियो लाइसेंस, जिनकी संख्या उस समय मात्र 1000 थी. इन केंद्रों से नियमित प्रसारण 1927 से किए जाने की सूचना मिलती है. “इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी” 1926 से रेडियो-प्रसारण के क्षेत्र में आई. यह कंपनी 6 लाख रुपए की लागत से शुरू की गई थी, जिसमें से साढ़े चार लाख रुपए केंद्रों की स्थापना में ही लग गए. 10 रुपए प्रति रेडियो लाइसेंस फीस रखी गई थी. बहुत कोशिश के बाद लगभग 8000 लाइसेंस दिए जा सके. ले-देकर कंपनी जल्दी ही 1930 में दिवालिया हो गई और प्रयोग असफल रहा. कहा जाता है कि पश्चिमी देशों में सांस्कृतिक परंपराएँ व्यापक रूप से विकसित हुई जो कि भारत में नहीं. यहाँ की सांस्कृतिक विविधता और बहुलता को उचित रूप से प्रसारण में लाने के लिए दक्ष कार्यकर्ता चाहिए थे और उसके साथ ही ख़र्च के लिए पर्याप्त अर्थ की व्यवस्था. दोनों ही पक्ष कमज़ोर होने से जो होना था हुआ यानी मजबूरी, और तंबू उखड़ गए. इस प्रयास के बाद काफ़ी समय-क़रीब 6-7 वर्ष तक कोई प्रगति यहाँ के रेडियो क्षेत्र में नहीं हुई. अगर कुछ हुआ तो सरकारी स्तर पर 1934 में. ई जी एडमंड पहले रेडियो कंट्रोलर नियुक्त किए गए. इसके पीछे भी बीबीसी के रीथ का ही हाथ था. अगस्त 1935 में लायनेल फील्डेन स्थायी रूप से रेडियो कंट्रोलर के पद पर बीबीसी के सौजन्य से आए और उसके बाद ही रेडियो ब्रॉडकास्टिंग की नियमबद्ध नींव पड़ी और विकास आरंभ हुआ. अगले वर्ष यानी 1936 में सी डब्ल्यू गोयडर चीफ इंजीनियर की हैसियत से आए. कहना न होगा कि ये भी बीबीसी की ही देन थे. दिल्ली रेडियो की स्थापना दिल्ली रेडियो की स्थापना “स्टेट ब्रॉडकास्टिंग सर्विस” के अंतर्गत पहली जनवरी, 1936 को हुई, पर शीघ्र ही, उसी साल के जून महीने में, सर्विस का फिर से नामकरण होकर “ऑल इंडिया रेडियो” का नाम मिला और इसी से आगे जाना गया. रेडियो सेटों की संख्या जब 38 हज़ार से 74 हज़ार तक बढ़ी(1936-1939में), तब 1938 में लाहौर रेडियो स्टेशन बना.
सच तो यह कि दूसरे महायुद्ध के समय से रेडियो की व्यापकता का महत्व समझ में आने लगा. ख़बरों के प्रसारण के साथ सरकारी प्रोपेगेंडा के लिए इसकी उपयोगिता देखी गई जब इसकी पहुँच देश की सीमाएँ लाँघकर विदेशों तक होने लगी थी. इन तथ्यों के चिंतन के बाद एआईआर के “न्यूज़ सर्विसेज़ डिवीज़न और एक्सटर्नल ब्रॉडकास्ट ” के असरदार प्रसारण के लिए व्यवस्थित रूप से अलग बड़े विभागों का गठन किया गया. मेरे जीवन के 80 वर्षों में अधिकांश (वयस्क होने पर) रेडियो और फिर टेलीविज़न से जुड़े रहकर या उनसे निकट संपर्क रखते हुए बीते हैं. इसे भी दो भागों में बॉटा जा सकता है. पहला, सेवा काल में बिताए वर्ष और दूसरा, सेवानिवृत्त होने के बाद का समय, जिसमें भी इन संस्थाओं से संपर्क टूटा नहीं. माध्यमों की गतिविधियों और प्रयासों का आलोचनात्मक आकलन नौ वर्षों से कुछ अधिक समय तक “मीडिया ट्रेंड्स” के साप्ताहिक कालम के माध्यम से, तो लगभग दस वर्ष टीवी सलाहकार बने रहकर किया. इस लंबे अर्से में कुछ व्यक्ति-विशेषों से मिलने या साथ रहकर काम करने का मौक़ा मिला. कुछ, जिस समय उनसे मिलना हुआ, साधारण कोटि में थे, किंतु आगे चलकर जाने-माने हो गए. ऐसे में इन व्यक्तियों या माध्यम की आरंभिक स्थिति की चर्चा उठाकर वर्तमान तक आ पहुँचना स्वाभाविक है. (पृष्ठ 61 से 63 तक) ---------------------------------- पुस्तक - वक़्त गुज़रता है लेखक - गंगाधर शुक्ल प्रकाशक - सारांश प्रकाशन, 142-ई, पॉकेट-4, मयूर विहार, फ़ेज़-I, दिल्ली - 110 091 मूल्य - 200 रुपए |