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| ![]() | ![]() ![]() ![]() प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में अंतर है. भारी भरकम लंबे शब्दों से हम बचते हैं, (जैसे, प्रकाशनार्थ, द्वंद्वात्मक, गवेषणात्मक, आनुषांगिक, अन्योन्याश्रित, प्रत्युत्पन्नमति, जाज्वल्यमान आदि. ऐसे शब्दों से भी बचने की कोशिश करते हैं जो सिर्फ़ हिंदी की पुरानी किताबों में ही मिलते हैं – जैसे अध्यवसायी, यथोचित, कतिपय, पुरातन, अधुनातन, पाणिग्रहण आदि. एक बात और. बहुत से शब्दों या संस्थाओं के नामों के लघु रूप प्रचलित हो जाते हैं जैसे यू. एन., डब्लयू. एच. ओ. वग़ैरह. लेकिन हम ये भी याद रखते हैं कि हमारे प्रसारण को शायद कुछ लोग पहली बार सुन रहे हों और वे दुनिया की राजनीति के बारे में ज़्यादा नहीं जानते हों. इसलिए, यह आवश्यक हो जाता है कि संक्षिप्त रूप के साथ उनके पूरे नाम का इस्तेमाल किया जाए. जहाँ संस्थाओं के नामों के हिंदी रूप प्रचलित हैं, वहाँ उन्हीं का प्रयोग करते हैं (संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन) लेकिन कुछ संगठनों के मूल अँग्रेज़ी रूप ही प्रचलित हैं जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वाच. संगठनों-संस्थाओं के अलावा, नित्य नए समझौतों-संधियों के नाम भी आए दिन हमारी रिपोर्टों में शामिल होते रहते हैं. ऐसे नाम हैं- सीटीबीटी और आइएईए वग़ैरह. भले ही यह संक्षिप्त रूप प्रचलित हो चुके हैं मगर सुनने वाले की सहूलियत के लिए हम सीटीबीटी कहने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते चलते हैं कि इसका संबंध परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध से है. या कहते हैं आइएईए यानी संयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा एजेंसी. कई बार जल्दबाज़ी में या नए तरीक़े से न सोच पाने के कारण घिसे पिटे शब्दों, मुहावरों या वाक्यों का सहारा लेना आसान मालूम पड़ता है. लेकिन इससे रेडियो की भाषा बोझिल और बासी हो जाती है. ज्ञातव्य है, ध्यातव्य है, मद्देनज़र, उल्लेखनीय है या ग़ौरतलब है – ऐसे सभी प्रयोग बौद्धिक भाषा लिखे जाने की ग़लतफ़हमी तो पैदा कर सकते हैं पर ये ग़ैरज़रूरी हैं. एक और शब्द है द्वारा. इसे रेडियो और अख़बार दोनों में धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है लेकिन ये भी भाषाई आलस्य का नमूना है. क्या आम बातचीत में कभी आप कहते हैं कि ये काम मेरे द्वारा किया गया है? या सरकार द्वारा नई नौकरियाँ देने की घोषणा की गई है? अगर द्वारा शब्द हटा दिया जाए तो बात सीधे सीधे समझ में आती है और कहने में भी आसान हैः (ये काम मैंने किया. या सरकार ने नई नौकरियाँ देने की घोषणा की है.) रेडियो की भाषा मंज़िल नहीं, मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता है. मंज़िल है- अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना. इसलिए, सही मायने में रेडियो की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो बातचीत की भाषा हो, आपसी संवाद की भाषा हो. उसमें गर्माहट हो जैसी दो दोस्तों के बीच होती है. यानी, रेडियो की भाषा को क्लासरुम की भाषा बनने से बचाना बेहद ज़रुरी है. याद रखने की बात यह भी है कि रेडियो न अख़बार है न पत्रिका जिन्हें आप बार बार पढ़ सकें. और न ही दूसरी तरफ़ बैठा श्रोता आपका प्रसारण रिकॉर्ड करके सुनता है. आप जो भी कहेंगे, एक ही बार कहेंगे. इसलिए जो कहें वह साफ-साफ समझ में आना चाहिए. इसलिए रेडियो के लिए लिखते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि वाक्य छोटे-छोटे हों, सीधे हों. जटिल वाक्यों से बचें. साथ ही इस बात का ध्यान रखिए कि भाषा आसान ज़रूर हो लेकिन ग़लत न हो. |