रविवार, 6 जनवरी, 2013 को 09:23 IST तक के समाचार

कुछ लोगों ने परम्परा के अनुरुप पुराना राग आलापा और कुछ ने क्लिक करें क्रांतिकारी बदलावों की मांगकी.
क्लिक करें बीबीसीने इस घटना और उसके बाद के घटनाक्रम पर भारत के कुछ लोगों की राय जुटाई जिसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है.
वी सुरेश, मानवाधिकार मामलों के वकील

सामूहिक बलात्कार की घटना के विरोध में दिल्ली में व्यापक प्रदर्शन हुए
पहली चुनौती यौन हिंसा को रोकना है.
आप एक अरब से ज्यादा आबादी की सोच आखिर किस तरह बदलेंगे?
औरतों के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने के कार्यक्रम चलाए जाते हैं. लेकिन ये महज नाम के लिए हैं. इनमें रचनात्मकता नहीं है.
इन कार्यक्रमों से औरतों के प्रति नज़रिया बदलने में बहुत ज्यादा मदद नहीं मिलती है.
इस दिशा में शुरुआत प्राथमिक स्कूलों से होनी चाहिए जो कॉलेज की पढ़ाई तक जारी रहे.
समाज के नजरिए और संस्थागत तौर-तरीकों को नए सिरे से गढ़ने की जरूरत है.
हर साल आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौक पर गांव-देहातों में सभाएं होनी चाहिए, महिलाओं को अपने घरों के भीतर
होने वाली यौन हिंसा के बारे में खुलकर बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
संसद और विधानसभाओं में विशेष सत्र होने चाहिए जिनमें महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर बोलने के लिए महिलाओं को बुलाया जाना चाहिए.
शराब का सरकारी कारोबार एक शर्मनाक सच्चाई है जो महिलाओं के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देता है.
ऊपर से तर्क दिया जाता है कि शराब के कारोबार से सरकार को मोटा राजस्व मिलता है जिसका इस्तेमाल कल्याणकारी कार्यों में किया जाता है.
शराब के सराकारी कारोबार को फौरन बंद कर दिया जाना चाहिए और अवैध शराब की ब्रिकी पर पूरी तरह पाबंदी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए.
भारत के लिए यह लम्बा सफर होगा लेकिन इससे महिलाओं के प्रति समाज के रवैये में बदलाव आएगा.
उर्वशी बुटालिया, नारीवादी लेखिका और प्रकाशक

जबकि इससे पहले तक मीडिया इस तरह संयम नहीं बरतता था और पुराने अंदाज़ में राग आलापता था.
टेलीविज़न हो या रेडियो या फिर अखबार, सभी ने संयम बरता और सम्मान जताया.
पीड़ित लड़की का नाम ज़ाहिर नहीं किया गया जबकि इससे पहले के मामलों में अक्सर लड़की का नाम जाहिर कर दिया गया था.
सरकार के खिलाफ जनाक्रोश को आगे बढ़ाने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई.
यह कहना मुश्किल है कि ये बदलाव लम्बे समय तक दिखाई देंगे लेकिन इससे यह तो पता चला कि मीडिया के लिए हमेशा सनसनीखेज़ होना जरूरी नहीं है.
क्या इससे हमें टेलीविज़न पर नज़र आने वाली कुछ महिलाओं में भी किसी तरह का बदलाव नज़र आएगा.
टेलीविज़न धारावाहिकों को भी महिला सशक्तिकरण, बाल विवाह, तलाक या गर्भपात जैसे सामाजिक मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है.
लेकिन ये उच्च वर्ग और धनी भारत तक सीमित रहते हैं, गरीबों की बात कभी नहीं होती, अल्पसंख्यकों की बात नहीं होती, जाति का मुद्दा भी अछूता रह जाता है.
शायद महिलाओं के मुद्दे ज्यादा गंभीरता से उठाए जाएंगे लेकिन बहुत ज्यादा बदलाव की उम्मीद नहीं है.
महिलाओं के मुद्दों को गंभीरता से लेने की जरूरत है और कम से कम शुरुआत तो होनी ही चाहिए.
प्रिया हिंगोरानी, सुप्रीम कोर्ट में वकील

अधिकतम सज़ा की अवधि बढ़ाने और जघन्य अपराधों में मौत की सज़ा होनी चाहिए.
बलात्कार की परिभाषा को और अधिक व्यापक बनाना होगा. किशारों से संबंधित कानूनों में भी बदलाव की जरूरत है क्योंकि इस मामले में एक अभियुक्त को किशोर बताया गया है.
कानून में बदलाव के अलावा यह भी जरूरी है कि कानून को प्रभावी तरीके से लागू किया जाए. फास्ट-ट्रैक कोर्ट और न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता की जरूरत है.
पुलिस प्रणाली में भी सुधार की जरूरत है. पुलिस को संवेदनशील बनाना होगा और महिला अधिकारियों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है.
मामलों की पड़ताल के लिए तकनीक का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
समस्या के दीर्घकालीन समाधान के लिए महिलाओं के प्रति समाज की बुनियादी सोच में बदलाव की जरूरत है.
शिक्षा के माध्यम से लैंगिक समानता को बढ़ाने और लोगों के नजरिए को बदलना होगा, साथ ही कानून के प्रति लोगों की जागरुकता भी बढ़ानी होगी.
महिलाएं यदि अपने अधिकारों के प्रति जागरुक रहें तो उन्हें किसी भी तरह शिकार बनाना आसान नहीं होगा.
रूपा सुब्रमण्यम, अर्थशास्त्री और लेखिका
महिलाओं के खिलाफ हिंसा और तमाम हिंसक अपराधों की रोकथाम के लिए आपराधिक न्याय प्रक्रिया में सुधारों पर ध्यान केंद्रित करना होगा.बलात्कार के ज्यादातर मामलों में अभियुक्तों छूट जाते हैं. इसके लिए ऐसी विधिक प्रणाली की जरूरत है जिसमें इन अपराधों को गंभीरता से लिया जाए और दोषियों को कड़ी सज़ा मिले.
राजनीतिक प्रतीकात्मक उपायों के बजाए समस्या की जड़ में गहराई से जाने की जरूरत है.
बलात्कार की घटनाएं रोकने के लिए नया कानून लाया जाए और दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई लड़की के नाम पर इस कानून का नामकरण किया जाए.
लड़की का नाम जाहिर किया जाए या नहीं, यह एक अंतहीन विवाद है.
बलात्कार करने वालों को किस तरह की सज़ा दी जाए, इस पर विचार करना जरूरी है.
वैसे इस बात के कोई आंकड़ें नहीं हैं कि जिन मुल्कों में बलात्कारियों को कड़ी सज़ा दी जाती है, वहां बलात्कार या यौन हिंसा के मामले कम हो गए हैं.
बेहतर होगा कि आपराधिक न्याय प्रक्रिया को दुरुस्त बनाया जाए.
अतुल संगर, बीबीसी हिंदी
दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले में तरह-तरह के स्वर सुनाए दे रहे हैं.राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के कांग्रेस पार्टी से सांसद बेटे अभिजीत मुखर्जी ने राजधानी दिल्ली में छात्रों के प्रदर्शन को 'फैशन' करार दिया.
उन्होंने प्रदर्शनकारियों को 'बनावटी' बताया. हालांकि कड़ी आलोचनाओं के बाद उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया.
वहीं हरियाणा में पुरुष प्रधान एक ग्राम पंचायत ने कहा कि अधिकारियों को प्रदर्शनों और बलात्कारियों के लिए मौत की सज़ा की मांग पर भावनाओं में नहीं बहना चाहिए.
समाज के रूढ़िवादी तबके से इस तरह के स्वर भी सुनाए दिए कि महिलाओं को अपने पारम्परिक कपड़े पहनना चाहिए और रात को अकेले निकलने से बचना चाहिए.
हरियाणा में बीते साल ऐसा ही मामला सामने आया था जब राज्य सरकार के एक अधिकारी ने महिला कर्मचारियों के आधुनिक परिधानों पर आपत्ति जताई थी और उन्हें सलवार कमीज़ पहनकर आने के लिए कहा था.
इस तरह का नजरिया दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले में बर्बरता को शायद कभी मंजूर नहीं करेगा.
उमा सुब्रमण्यम, सामाजिक कार्यकर्ता
बलात्कारियों के खिलाफ हम बोलते नहीं है, ये हमारी सामूहिक विफलता है. दिल्ली सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएं इसी वजह से होती हैं.लेकिन मेरा मानना है कि इस मामले ने पूरे देश का ख्याल सिर्फ बर्बरता की वजह से नहीं खींचा, बल्कि इसलिए भी कि वो एक छात्रा थी जिसने भारतीय परिधान ही पहना था.
ये घटना रात साढ़े नौ बजे घटी जो बहुत रात का वक्त नहीं था. वह अपने दोस्त के साथ फिल्म देखने गई थी और घर लौट रही थी.
मैं सोचकर हैरान हो जाती हूं यदि यही घटना किसी मॉडल या नर्तकी के साथ घटी होती, या जिसने छोटे कपड़े पहने होते या वह अपने दोस्त के साथ नाइट क्लब से लौट रही होती.
तब क्या बर्बरता कम होती?
क्या हम आधुनिक कहलाने वाली महिलाओं के प्रति दूसरी नज़र नहीं रखते, क्या उनके प्रति हमारा रवैया दूसरा नहीं होता.
हम उन महिलाओं की अनदेखी कर देते हैं जिनके साथ गांवों में बलात्कार होता है. ऊंची जाति के लोगों ने सैकड़ों दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया, लेकिन हमनें आंख मूंद ली.
वैश्वीकरण की बयार बहने के बाद भारतीय महिलाओं ने, खासतौर पर शहरों में कई पारम्परिक बाधाओं को तोड़ा है.
लेकिन शहर और गांव में रहने वाले ज्यादातर मर्दों की मानसिकता नहीं बदली है. महिलाओं का नया अवतार उनसे बर्दाश्त नहीं होता.
लेकिन पहली बार ऐसा हो रहा है जब लड़कों को महिलाओं का सम्मान करना सिखाने की बात हो रही है.