गंगा में स्नान तो दूर आचमन तक मुश्किल
शनिवार, 12 जनवरी, 2013 को 09:50 IST तक के समाचार
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कन्नौज के नजदीक गंगा नदी का नानामऊ घाट
शाम करीब पांच बजे का समय है. ढलते सूरज की परछाईं गंगा नदी में पड़ रही है. नदी के दूसरे छोर पर कुछ चिताएं जल रही हैं.
मै गंगा नदी के नानामऊ घाट पुल के ऊपर खड़ा हूँ. यह जगह कानपुर से गंगा नदी की ऊपरी धारा में करीब 80 किलोमीटर दूर है. इत्र नगरी कन्नौज यहाँ से करीब 20 किलोमीटर है.केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कुछ दिनों पहले ही यहीं पुल के ऊपर एक मशीन लगाई है. इस मशीन से एक पाइप नीचे नदी में गई है.
यह मशीन नदी की सेहत की जानकारी ठीक उसी तरह देगी, जैसे अस्पताल में आईसीयू की मशीनें किसी रोगी की सेहत की जानकारी देती हैं.
लेकिन मेरे लिए तो मछुआरे ही नदी के इंजीनियर और डॉक्टर हैं. इसलिए मै पुल से उतरकर नीचे घाट की तरफ जाता हूँ.
मछुआरों की एक टोली मछली पकड़ने का जाल बना रही है. तभी एक मछुआरा अपनी छोटी सी नाव घाट के किनारे लगाता है और अपने जाल से एक- एक करके मछलियाँ निकालता है.
बढ़ता प्रदूषण घटती मछलियां
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मछुआरों का कहना है कि ऊपर से मिलों का गंदा पानी आने से मछलियाँ बहुत कम रह गई हैं.
नदी में मछलियाँ न बचने का मतलब है कि नदी गंभीर रूप से प्रदूषित है.
दरअसल यहीं से कुछ किलोमीटर ऊपर कन्नौज के पास राम गंगा और काली नदियाँ, उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कागज़ कारखानों, चीनी मिलों, शराब कारखानों, रासायनिक उद्योगों और मेरठ, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद, बरेली जैसे शहरों का गंदा पानी गंगा में मिलता हैं.
चमड़ा उद्योग और प्रदूषण
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी मानते हैं कि सरकार की तमाम सख्ती के बावजूद ये उद्योग चोरी-छिपे अपनी गंदगी नदियों में डाल देते हैं.बुलंदशहर के नरोरा बैराज से ऊपर हरिद्वार में गंगा में 14-15 हजार क्यूसेक तक पानी आता है.
लेकिन इसका अधिकांश भाग नहरों के जरिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सिंचाई और दिल्ली की पेयजल आपूर्ति के लिए भेज दिया जाता है.
कुछ समय पहले तक नरोरा से आगे गंगा में केवल 350 क्यूसेक पानी छोड़ा जाता था.
इसलिए राम गंगा और काली नदियों की गंदगी मिलने से कन्नौज के नीचे गंगा का पानी एकदम काला दिखता था. यहां के पानी में बहुत अधिक मात्रा में बैक्टीरिया कोलीफार्म रहता है, जिससे पानी न पीने लायक होता है और न नहाने लायक.
गंगा में घातक बैक्टीरिया
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मेरे सफर का अगला पड़ाव कानपुर शहर की ऊपरी सीमा पर बना गंगा बैराज है. यहां शहर की पेयजल आपूर्ति के लिए पानी निकाला जाता है, इसलिए गंगा को रोककर रखा जाता है ताकि जलस्तर समुद्र तल से लगभग 111 मीटर ऊपर बना रहे.
कानपुर जल संस्थान के हवाले से ख़बरों में कहा गया है कि यहाँ पानी में कोलीफोर्म बैक्टीरिया का स्तर घातक है. इसके अलावा कुछ जहरीले रसायन भी हैं.
यानी उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से गंगा में इतना ज्यादा प्रदूषण डाला जाता है कि अपनी अनोखी स्वयं-शुद्धि क्षमता के बावजूद कन्नौज से लगभग 80 किलोमीटर के सफर में भी गंगा अपने को उससे मुक्त नहीं कर पाती.
बैराज से निकलते हलके भूरे पानी में उठते झाग इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है.
सवाल आस्था का
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पंडित सम्पूर्णानंद मिश्रा पन्द्रह सालों से गंगा की शरण में हैं
वे कहते हैं, ''गंगा जी में आस्था तो संपूर्ण है. आस्था के नाम पर तो हम गंगा जी की शरण में हैं. जीवन-मौत का फैसला देने वाली वही माँ हैं. वही अंत में तारती हैं.''
करीब 30 लाख की आबादी वाले औद्योगिक शहर कानपुर से रोजाना लगभग 70 करोड़ लीटर सीवेज गंगा में जाता है. इस सीवेज में कई उद्योगों का खतरनाक केमिकल शामिल है.
इन उद्योगों में सबसे खतरनाक है जाजमऊ का चमड़ा उद्योग. शहर के 400 से अधिक चमड़ा कारखानों से करीब पाँच करोड़ लीटर प्रदूषित पानी निकलता है.
कानूनन चमड़ा कारखानों की जिम्मेदारी है कि वे अपने कैम्पस में प्राथमिक उपचार करके कचरा छान लें. लेकिन वास्तव में ऐसा नही हो रहा है.
ट्रीटमेंट प्लांट की हकीकत
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कई ट्रीटमेंट प्लांट गंदे पानी को साफ करने में सक्षम नहीं हैं
वहां चमड़ा कारखानों से आने वाले गंदे पानी के साथ आ रही चमड़े की कतरन इस बात की गवाही दे रही थी कि चमड़ा कारखानों के प्राइमरी ट्रीटमेंट प्लांट ठीक से काम नही कर रहे हैं.
आईआईटी कानपुर की एक जांच में बताया गया है कि चमड़ा कारखानों के इस गंदे पानी में क्रोमियम की मात्रा लगभग 124 मिलीग्राम प्रति लीटर है, जो निर्धारित मात्रा से 62 गुना अधिक है.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अब से करीब 17 साल पहले बने इस ट्रीटमेंट प्लांट की तकनीक भी क्रोमियम को साफ़ करने में सक्षम नही है.
यहां पर करीब 16 करोड़ लीटर शहरी सीवेज के ट्रीटमेंट की भी व्यवस्था है. चिंता की बात यह है कि इस सीवेज में भी क्रोमियम की मात्रा करीब 17 मिलीग्राम प्रति लीटर, यानी खतरनाक स्तर तक पाई गई.
इस ट्रीटमेंट प्लांट में चमड़ा कारखानों का औसतन एक करोड़ लीटर दूषित जल लेने की क्षमता है. यानी बाक़ी करीब चार करोड़ लीटर पानी सीधे गंगा में जाता है.
चमड़ा कारखानों की करतूत
अधिकारियों का कहना है कि कई चमड़ा कारखानों के मालिक अपना जहरीला कचरा शहर की सीवर लाइन में डाल देते हैं.आईआईटी कानपुर में पर्यावरण इंजीनियर प्रो. विनोद तारे पिछले कई सालों से गंगा में प्रदूषण की जांच-पड़ताल कर रहे हैं. उनका कहना है कि यह ट्रीटमेंट प्लांट बेकार हो चुका है. उसके संचालन और रखरखाव की भी समस्या है.
"क्रोमियम तो मिलना ही मिलना है. कई जगह प्राथमिक उपचार होते ही नही हैं और कई जगह होते भी हैं तो ठीक से नहीं. फिर उसमें क्रोमियम तो आएगा ही. वह प्लांट इसके लिए डिजाइन भी नहीं किया गया है"
प्रोफेसर विनोद तारे, पर्यावरण इंजीनियर
एक और खतरनाक बात यह है कि जल निगम के इस ट्रीटमेंट प्लांट से क्रोमियम युक्त जहरीला गंदा पानी एक नहर के जरिए आसपास के गांवों को सिंचाई के लिए दिया जाता है जिससे इलाके के लोग बीमार हैं. यह नहर भी अंत में गंगा में मिलती है.
जल निगम ने कई एकड़ में फैले अपने कैम्पस में बड़े-बड़े कच्चे तालाब बना रखे हैं. इनमें भरा दूषित पानी आसपास के गाँवों के भूमिगत जल को प्रदूषित कर रहा है.
आसपास रहने वाले कई लोगों ने बताया कि अक्सर जब ट्रीटमेंट प्लांट में खराबी होती है तो जहरीला सीवेज नाले के जरिए सीधे गंगा नदी में डाल दिया जाता है.
जाजमऊ में वाजिद नगर इलाके में मैंने एक खुला नाला सीधे गंगा में जाते देखा. गंगा की सफाई से जुड़ी संस्था 'ईको-फ्रेंड्स' के सचिव राकेश जायसवाल ने पानी के नीले रंग पर ध्यान दिलाते हुए बताया कि चमड़ा कारखानों की गंदगी सीधे गंगा में जा रही है.
वे कहते हैं, ''इसमें चमड़ा कारखानों का पानी है. आप देख सकते हैं ये नीले और भूरे रंग का पानी है. इस समय थोड़ी न्यायालय की भी सख्ती है, सरकार भी दिखाती है कि कुछ सख्ती की जा रही है, इसलिए दिन में काम बाईपास करते हैं, रात में ज्यादा करते हैं.''
नाले के किनारे खड़े लोगों ने बताया कि चमड़ा फैक्ट्रियां रात के अंधेरे में बड़ी मात्रा में अपनी जहरीली गंदगी नाले के जरिए सीधे गंगा में डालती हैं.
लोगों ने बताया कि वाजिदपुर के अलावा शीतला बाजार, बुढ़िया घाट और दबका घाट नालों से भी चमडा कारखानों की गंदगी चोरी-छिपे सीधे गंगा में जाती है.
गंगा प्रदूषण के मामले में कई जनहित याचिकाएं हाई कोर्ट में चल रही हैं. सुनवाई के दौरान एक बार अदालत ने सुझाव दिया था कि चमड़ा कारखानों को कानपुर से हटाकर कहीं अन्यत्र स्थापित कर दिया जाए.
बात साधु समाज की
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स्वामी अरुण पुरी कहते हैं कि संतों को भी गंगा की सुध लेनी चाहिए
वे कहते हैं, ''अगर चमड़ा कारखानों को यहां से शिफ्ट करके गंगा से कहीं दूर स्थापित किया जाए और वहां उनको समस्त सुविधाएं जैसे साझा ट्रीटमेंट प्लांट बनाए जाएं तो यह बहुत ही उत्तम होगा. जब तक ये चमड़ा कारखाने जाजमऊ में है, गंगा में जहर घुलता ही रहेगा.''
इस सबका परिणाम है कि गंगा में श्रद्धा के बावजूद बहुत से लोग यहां पानी पीना या आचमन करना तो दूर नहाना भी पसंद नहीं करते.
कानपुर का मशहूर सिद्धनाथ मंदिर घाट इन दिनों सूना है. एक-दो जो लोग घाट पर मिले भी, उनका कहना है कि अब वे यहां नहाते नहीं, केवल गंगा जी के दर्शन के लिए आते हैं. गंगे तव दर्शनात मुक्ति.
"दुराचार हम लोग गंगा के साथ कर रहे हैं. यह अमानवीय कृत्य है. इसको किसी भी तरह से बर्दाश्त नही किया जा सकता. "
स्वामी अरुण पुरी
स्वामी अरुण पुरी कहते हैं, ''दुराचार हम लोग गंगा के साथ कर रहे हैं. यह अमानवीय कृत्य है. इसको किसी भी तरह से बर्दाश्त नही किया जा सकता. किसी भी स्तर से इसको उचित नही ठहराया जा सकता है. समस्त मानव समाज दोषी है इसके लिए. कहीं न कहीं साधु समुदाय भी दोषी है इसके लिए क्योंकि साधु समुदाय मठों में बैठकर प्रवचन करता है और इसके लिए अपने भक्तों को आंदोलित नही करता है.''
लेकिन गंगा जी की इस दुर्दशा के बावजूद भारतीय जनमानस के अवचेतन में सदियों से यह विश्वास भरा है कि हिमालय में गंगोत्री से जो अमृत जल आता है, वह उनके सारे पापों को धोकर उनके चित्त को निर्मल कर देगा और पुनर्जन्म के बंधन से मोक्ष भी देगा.
इसलिए देश-विदेश से करोड़ों लोग प्रदूषित पानी में भी गंगोत्री से आए एक बूंद अमृत जल की तलाश में गंगा में डुबकी लगाते रहते हैं.