प्रस्तुति-- स्वामी शरण , किशोर प्रियदर्शी --
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मार्क टली को उनकी पत्रकारिता के लिए नाइटहुड, पद्मश्री, पद्मभूषण से सम्मानिक किया जा चुका है |
बीबीसी हिंदी सेवा के विशेष कार्यक्रम 'एक मुलाक़ात'में हम भारत के जाने-माने लोगों की ज़िंदगी के अनछुए पहलुओं से आपको अवगत कराते हैं.
बीबीसी एक मुलाक़ात में इस हफ़्ते के मेहमान हैं बहुत कामयाब, प्रतिभावान, लोकप्रिय और बहुत से पत्रकारों के रोल मॉडल मार्क टली.
जब हम लोग पत्रकारिता में आ रहे थे और कोई भी पत्रकारिता में कुछ करने की कोशिश करता था तो तुलना आपसे या फिर अरुण शौरी से होती थी. कैसा लगता था आपको?
मुझे ये तो पता नहीं कि लोग ऐसा क्यों बोलते थे. मैं ये नहीं कहूँगा कि मेरा करियर सिर्फ़ मेरी मेहनत का नतीजा था. मेरी क़िस्मत और ईश्वर मेरे साथ था.
दरअसल, उस दौर में भारत में टेलीविज़न नहीं था या फिर बहुत कम था. रेडियो सिर्फ़ सरकार के हाथ में था. लोग कहते थे कि ऑल इंडिया रेडियो सरकारी रेडियो है. लोग दूसरे नज़रिए से ख़बरें सुनना चाहते थे तो बीबीसी सुनते थे. मैं बीबीसी से जुड़ा था, इसी वजह से मेरा नाम भी बड़ा हुआ.
आज भी हम जब कभी श्रोताओं या वीआईपी के बीच होते हैं तो लोग पूछते हैं कि वो आपके मार्क टली साहब होते थे, अब कहाँ हैं. तो इस तरह की प्रतिष्ठा या छवि बनाना, यानी बीबीसी यानी मार्क टली. तो इस तरह के करियर के बाद कैसा महसूस होता है?
नहीं. ऐसा कुछ ख़ास महसूस नहीं होता है. ऐसा होगा तो मुझमें घमंड आ जाएगा. घमंड होना पत्रकारिता के लिए अच्छा नहीं है. मैं युवा पत्रकारों से भी यही कहता हूँ कि पत्रकारिता के लिए घमंड सबसे बड़ा पाप है.
ये सोचना कि मैंने बहुत बड़ी स्टोरी लिख दी, मैं बड़ा पत्रकार बन गया, ग़लत है. मसलन, मैंने ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की फाँसी की स्टोरी कवर की थी तो वो मेरी स्टोरी नहीं थी वो भुट्टो की स्टोरी थी. इसलिए जब कभी लोग कहते हैं कि मैं बहुत बड़ा आदमी हूँ तो मुझे डर लगता है कि कहीं मुझमें घमंड न आ जाए.
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भुट्टो की तरह ही आपने इंदिरा गांधी हत्याकांड को भी कवर किया था. राजीव गांधी की ट्रांजिस्टर सुनने की तस्वीर. पता नहीं राजीव गांधी ट्रांजिस्टर पर क्या सुन रहे थे, लेकिन लोगों को कहना है कि वो बीबीसी सुन रहे थे?
लेकिन आपको बताना चाहूँगा कि ट्रांजिस्टर पर आवाज़ मार्क टली की नहीं, बल्कि सतीश जैकब की थी. मैं तो ये कहूँगा कि सतीश जैकब का साथ न मिलता तो शायद मेरा भी इतना नाम नहीं होता.
चलिए, शुरुआत में लौटते हैं. आपकी पैदाइश भारत में हुई फिर आप लंदन गए. अपने जीवन के बारे में कुछ बताएँ?
मेरा जन्म कोलकाता के टॉलीगंज में हुआ. मेरे पिता वहाँ एक कंपनी ग्लैंडर रॉबर्ट्सनॉब में पार्टनर थे. ये कंपनी तब बहुत बड़ी हुआ करती थी और इसके कब्ज़े में कोयला खानें, रेलवे और बीमा कंपनी हुआ करती थी. मेरी मां का जन्म बांग्लादेश में छोटी सी जगह ऑकेरा जंक्शन में हुआ था. आज भी वहाँ सिर्फ़ ट्रेन से जाया जा सकता है.
10-15 साल पहले जब मैं ऑकेरा जंक्शन गया तो स्टेशन मास्टर ने मुझसे पूछा कि आप यहाँ क्यों आये हो. तब मैंने उनसे कहा कि मेरी माँ का जन्म यहाँ हुआ है. तो उसका जवाब था कि तब तो आपका नागरिक अभिनंदन होना चाहिए. मैं वहाँ से जल्द ही खिसक गया.
बचपन कलकत्ता में बीता. हम भारतीय बच्चों के साथ नहीं खेलते थे. स्कूल में अंग्रेज़ बच्चों के साथ ही पढ़ते थे. यहाँ तक कि जब मैंने थोड़ी बहुत हिंदी लिखने की कोशिश की तो मेरे पीछे 24 घंटे के लिए एक आया लगा दी गई कि मैं हिंदी ज़बान न सीख सकूँ. मुझे कहा जाता था कि मैं ख़ानसामों या दूसरे नौकरों के ज़्यादा क़रीब न जा सकूँ.
एक बार मेरे माता-पिता के ड्राइवर के साथ मैं हिंदी में गिनती बोल रहा था तो मेरी आया ने मुझे थप्पड़ जमाया और कहा कि ये आपकी ज़बान नहीं है. तो बचपन में हमें हिंदी या बंगाली सीखने का मौक़ा नहीं मिला.
फिर पढ़ाई-लिखाई. स्कूल कॉलेज?
मैं इंग्लैंड में एक पब्लिक स्कूल में पढ़ा. ये लड़कों का स्कूल था. बदमाशी करने या ठीक से पढ़ाई-लिखाई न करने पर टीचर ख़ूब पिटाई किया करते थे. फिर मैं दो साल के लिए फौज में भी गया. लेकिन मुझे फ़ौज क़तई पसंद नहीं आई. फिर मैं केंब्रिज यूनिवर्सिटी गया. वहाँ मैंने इतिहास और धार्मिक पढ़ाई की. मैंने पादरी बनने की सोची थी. लेकिन पढ़ाई नहीं हो सकी.
पाँच साल तक मेरी पढ़ाई दार्जिलिंग में बोर्डिंग में हुई. फिर मैं इंग्लैंड चला गया. 21 साल तक सिर्फ़ पढ़ाई-पढ़ाई हुई. यूनिवर्सिटी पहुँचा तो एक तरह की आज़ादी का अहसास हुआ. तो पढ़ाई बहुत कम करते थे, खेलते-कूदते थे और लड़कियों के पीछे भागते थे.
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मार्क टली भारत के शहर कलकत्ता में पैदा हुए |
जब आप 9 साल की उम्र में कोलकाता से इंग्लैंड गए तो कैसा लगा?
मुझे लगा कि मैं बहुत ख़राब जगह आ गया हूँ. इसकी दो-तीन वजहें थी. एक तो वहाँ मौसम बहुत ख़राब था और धूप बहुत कम आती थी. भारत में हमारे पास बहुत नौकर थे, वहाँ अपना काम ख़ुद करना पड़ता था. भारत में मेरे बहुत दोस्त थे, वहाँ ज़्यादा दोस्ती नहीं थी. फिर वहाँ पहुँचते ही स्कूल में मेरा दाख़िला करा दिया गया था. स्कूल अध्यापक बहुत कड़े और सख्त थे. दार्जिलिंग में हमारा स्कूल बहुत अच्छा था.
फ़ौज से आए, कैंब्रिज में इतिहास और थियोलॉजी पढ़ी. फिर बीबीसी से कैसे जुड़े?
ये भी इत्तेफ़ाक़ से हुआ जब मैं पादरी बनने के लिए पूरी पढ़ाई नहीं कर सका. प्रिंसिपल ने मुझे बुलाकर कहा कि आप अच्छे इंसान हैं, लेकिन गंभीर नहीं हैं. इसलिए आप लोगों को उपदेश न दें और पब्लिक हाउस में रहें.
उसके बाद मैंने एक बुज़ुर्ग लोगों की मदद करने वाली एक ग़ैर सरकारी संस्था में चार साल तक काम किया. इत्तेफ़ाक़ से मैंने एक विज्ञापन देखा और बीबीसी में आवेदन किया. लेकिन मुझे पत्रकारिता का मौक़ा नहीं मिला. वहाँ मैं पर्सनल डिपार्टमेंट में था. बाबूगिरी का काम था. मुझे एक साल बाद भारत आने का मौक़ा मिला. भारत जाने के लिए जब मेरा इंटरव्यू हुआ तो उन्हें उम्मीद थी कि मैंने नौ साल भारत में गुज़ारे हैं, इसलिए थोड़ी बहुत हिंदी ज़रूर जानता हूँगा. लेकिन मुझे सिर्फ़ छोटी-मोटी कविता ही आती थी.
तो भारत में जब आए, तभी पत्रकारिता करने का मौका मिला?
दरअसल, भारत में जब आया तो पर्सनल विभाग में ही आया था. यहाँ ज़्यादा काम नहीं था. मैंने ख़ुद से पत्रकार बनने का फ़ैसला किया. मैं टेलीविज़न टीम की मदद किया करता था. मैंने सबसे पहले स्टेट्समैन विंटेज कार रैली पर फ़ीचर किया था. उस दौरान प्रोड्यूसर एक महिला थीं और उन्हें ये फ़ीचर बहुत पसंद आया था.
बचपन में तो आप हिंदी सीख नहीं सके. फिर इंग्लैंड चले गए. तो आप हिंदी बोलना कैसे सीखे?
मैंने हिंदी बोलने की कोशिश तो की थी, लेकिन पत्रकारिता के दौरान व्यस्तता काफ़ी बढ़ गई थी. नियमित रूप से तो हिंदी नहीं सीख सका, लेकिन अख़बार पढ़ लिखकर ही मैंने हिंदी सीखी. मैं हमेशा कहता हूँ कि इस देश के लिए ये बहुत शर्म की बात है कि मैं जब कभी किसी से हिंदी में बात करने की कोशिश करता हूँ तो वो जवाब अंग्रेज़ी में देता है.
क्या आपको भी लगता है कि हिंदी भले ही राष्ट्रभाषा हो, लेकिन एक दौर ऐसा था कि जो लोग अंग्रेज़ी नहीं बोल पाते थे ख़ुद को छोटा महसूस करते थे?
उस दौर में अगर आप लोगों से हिंदी में बात करते थे तो लोग नाराज़ हो जाते थे कि ये आदमी सोचता है कि मैं अंग्रेज़ी नहीं जानता हूँ. मेरा मानना है कि भारत का आत्मविश्वास और बढ़ा है. लेकिन हिंदी बोलने वालों का आत्मविश्वास और बढ़ना चाहिए.
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बतौर पत्रकार आपने बहुत सारी कहानियाँ की हैं. कोई यादगार कहानी?
एक दिलचस्प घटना है. आपातकाल के दौरान विद्याचरण शुक्ला सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे. उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा कि आप लोगों को ख़बरें कहाँ से मिलती हैं. मैंने जवाब दिया कि हमारे पास पत्रकार हैं, हम आकाशवाणी पर ख़बरें सुनते हैं. फिर उन्होंने कहा कि मैं सोचता हूँ कि आप जासूसी करते हैं. मैंने पूछा कि आपको क्यों लगता है कि मैं जासूस हूँ तो उनका कहना था कि अगर आप जासूस नहीं हैं तो फिर आपने हिंदी क्यों सीखी?
विद्याचरण शुक्ला को संजय गांधी का बहुत क़रीबी माना जाता था. हाल ही में टेलीविज़न देख रहा था कि वरुण गांधी मामले में शुक्ला से किसी ने पूछा कि अगर संजय गांधी होते तो क्या करते. शुक्ला का जवाब था कि संजय वरुण को दो थप्पड़ जड़ते. आपका क्या कहना है?
संजय गांधी बहुत ही कड़क मिजाज़ के थे. उनका मानना था कि डंडे के ज़ोर पर सब ठीक हो सकता है. इसलिए आपातकाल बहुत ख़राब था.
श्रीमती इंदिरा गांधी से आपकी मुलाक़ात थी. उनके बारे में आपका क्या कहना है?
इंदिरा गांधी के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कह सकता. कभी वह बहुत मित्रवत व्यवहार करती थीं तो कभी बहुत रूखा. आपातकाल के बाद एक-दो बार मैं डायरेक्टर जनरल के साथ इंदिरा गांधी के पास गया था. वहाँ डायरेक्टर जनरल ने इंदिरा जी से पूछ लिया कि आपको लोगों ने हरा दिया, आप क्या सोचती हैं. इंदिरा गांधी का कहना था कि लोगों को अफवाह फैलाकर गुमराह किया गया है और अधिकतर अफवाहें बीबीसी ने फैलाई हैं.
आख़ीरी बार मैं इंदिरा गांधी से 1983 में कॉमनवेल्थ प्राइम मिनिस्टर कॉन्फ्रेंस में मिला था. मैंने उनका छोटा सा इंटरव्यू लिया. इंटरव्यू के बाद इंदिरा जी ने मुझसे टेप रिकॉर्डर बंद करने को कहा और 10-15 मिनट तक देश के हालात के बारे में चर्चा करती रहीं.
यादगार घटनाओं की बात करें तो?
सबसे आख़िरी घटना अयोध्या की थी. जिस समय वहाँ तोड़फोड़ चल रही थी मैं वहीं मौजूद था. अयोध्या से स्टोरी भेजना संभव नहीं था तब मैं तुरंत फ़ैज़ाबाद गया और वहां से स्टोरी भेजी.
बीबीसी ने सबसे पहले तोड़फोड़ की खबर दी थी. बाद में अयोध्या और फ़ैज़ाबाद के बीच हमें कुछ लोगों ने घेर लिया. मेरे साथ कुछ भारतीय पत्रकार भी थे. मुझे और मेरे भारतीय पत्रकार दोस्तों को एक कमरे में बंद कर लिया.
आपके करियर का सबसे मुश्किल असाइनमेंट?
मुझे लगता है ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के मुक़दमे की सुनवाई की कवरेज बहुत मुश्किल थी. मैं हर शाम को जज के पास जाता था. उनका कहना था कि वो मुझे सब कुछ बताएँगे, लेकिन अगर स्टोरी चलेगी तो वो खंडन कर देंगे. तो ये मेरे लिए बहुत मुश्किल स्थिति थी.
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मार्क टली बीबीसी के सबसे लोकप्रिय पत्रकारों में से एक हैं |
आपके करियर की सबसे अच्छी स्टोरी?
मुझे रेलवे बहुत पसंद है. मेरा पसंदीदा विषय है. मैंने कराची से ख़ैबर दर्रे तक रेल यात्रा पर बीबीसी के लिए फ़िल्म बनाई. पेशावर से ख़ैबर दर्रे तक की ऐतिहासिक रेल लाइन कई साल से बंद थी. हमने पाकिस्तान रेलवे से इसे खोलने का आग्रह किया और उन्होंने इसे मान लिया.
आपने दशकों तक भारत में रिपोर्टिंग की. आपकी नज़र में भारत की सबसे बड़ी शक्ति क्या है?
मेरी राय में भारत की सबसे बड़ी ताक़त उसकी स्थिरता है. भारत की सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि यहाँ हर धर्म के लोग हैं. पहाड़ हैं, रेगिस्तान है, समुंदर के किनारे हैं. ये एकजुट देश है और एकजुट रहेगा.
सबसे बड़ी कमज़ोरी क्या है?
मेरी नज़र में सबसे बड़ी कमज़ोरी ये है कि आप लोगों ने अंग्रेज़ राज से बाबूगिरी प्रणाली ली और अब तक ये चल रही है.
बाबूगिरी के बग़ैर देश कैसे चले. कौन सी व्यवस्था लागू की जाए?
अब भी यहाँ थानेदार का सिस्टम है. इंग्लैंड में मॉडर्न पुलिस फ़ोर्स है. आप नहीं कह सकते कि भारत में मॉडर्न पुलिस है. आज भी गांवों में आपको आम शिकायत मिलेगी कि बाबू लोग उनकी सुनवाई नहीं करते हैं. बाबू लोगों की आज भी यही सोच है कि उन्हें लोगों के ऊपर राज करना है.
आपको नाइटहुड, पद्मश्री, पद्मभूषण मिला है. कैसा लगता है?
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे ये सम्मान मिलेंगे. ब्रिटिश उच्चायुक्त ने मुझसे पूछा था कि मैं नाइटहुड की उपाधि लूँगा कि नहीं, तब मैंने उनसे कहा कि मैं पहले ज़माने का हूँ अब का नहीं. उच्चायुक्त ने कहा कि हम तो अब भी आपको इसी ज़माने का मानते हैं.
जब पद्मश्री और पद्मभूषण मिला तो भी बहुत अच्छा लगा.
भारतीयों में आपके पसंदीदा राजनेता?
चौधरी देवीलाल. वो मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे. चुनाव के समय एक बार मैं उनके पास गया. चौधरी साहब ने कहा कि वो बहुत बोर हो गए हैं. मैंने पूछा कि मैंने तो सुना है कि घोषणापत्र में तो बहुत अच्छी बात हुई है. तो उनका जवाब था ‘बेवकूफ़ मैं गिन नहीं सकता कि मैंने कितने चुनाव लड़े, लेकिन इतना कहता हूँ कि मैंने एक भी घोषणा पत्र नहीं पढ़ा.’
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एक बात चौधरी साहब के बारे में बहुत अच्छी थी. उन्हें गांव-गांव में हर आदमी जानता था.
दूसरे, मुझे राजीव गांधी बहुत पसंद थे. मेरी राय में अगर उनकी हत्या नहीं होती तो भारत और तरक्क़ी करता. क्योंकि उन्हें पता था कि क्या करना है.
दूसरे, मुझे राजीव गांधी बहुत पसंद थे. मेरी राय में अगर उनकी हत्या नहीं होती तो भारत और तरक्क़ी करता. क्योंकि उन्हें पता था कि क्या करना है.
क्रिकेट का भी आपको बहुत शौक है. आपके पसंदीदा क्रिकेटर?
असलियत ये है कि मैं क्रिकेट में भारतीय टीम का बहुत समर्थन करता हूँ. ख़ासकर आज की टीम को. मुझे महेंद्र सिंह धोनी बहुंत पसंद है. जब मैंने पहली-पहली बार धोनी को देखा तो मैंने अपने आसपास के लोगों से कह दिया था कि वो बहुत आगे जाएँगे.
इनके अलावा सौरभ गांगुली भी मुझे बहुत पसंद हैं. हरभजन सिंह भी मुझे पसंद हैं. हालाँकि वो बहुत उदास नज़र आते हैं.
आपको हिंदी फ़िल्में भी पसंद हैं. आपकी पसंदीदा फ़िल्में?
मुझे हिंदी फ़िल्मों का शौक़ है. ओंकारा, ‘तारे ज़मीं पर’ मुझे पसंद आई. पुरानी फ़िल्मों में मुझे ‘नया दौर’ पसंद है. मुझे अमरीश पुरी बहुत पसंद थे. नसरुद्दीन शाह, सैफ़ अली ख़ान बहुत अच्छे अभिनेता हैं. बोमन ईरानी भी मुझे पसंद हैं.
अमरीश पुरी के बारे में एक बात कहना चाहूँगा. जब मुझे नाइटहुड की उपाधि मिली तो पत्रकारों ने मुझसे पूछा कि आपकी और क्या इच्छा है. तो मैंने कहा कि मेरी इच्छा हिंदी फ़िल्मों में एक छोटी भूमिका करने की है, लेकिन उस फ़िल्म में अमरीश पुरी होने चाहिए. कुछ दिनों बाद मुझे एक फ़ोन आया कि मार्क टली साहब मैं आपका दोस्त अमरीश पुरी बोल रहा हूँ और आपकी इच्छा जल्द पूरी होगी. लेकिन दुख की बात है कि इस घटना के कुछ समय बाद उनका देहांत हो गया.
बीबीसी एक मुलाक़ात में आगे बढ़ें. आप अपनी पसंद के गाने बताएँ?
मुझे ‘सारे जहाँ से अच्छा...’. इसके अलावा ओंकारा का टाइटल गाना ‘ओंकारा’, फ़िल्म जुनून का गाना ‘आज रंग है’, परिणिता का गाना ‘ये हवा गुनगुनाए’ मुझे बहुत पसंद है. लगान फ़िल्म का गाना ‘घनन घनन बरसे रे बदला’ और ज़ुबैदा फ़िल्म का गाना ‘धीमे-धीमे’ भी मुझे पसंद है. कॉमेडी फ़िल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस और तारे ज़मीं के गाने भी मुझे पसंद है. पुरानी फ़िल्म नया दौर के गाने भी मुझे पसंद हैं.
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मार्क टली ने अपनी उम्र का ज़्यादातर हिस्सा भारत में गुज़ारा |
अच्छा, आपने भारत में साठ के दशक के बाद से अब तक के चुनाव देखे हैं. भारत में चुनाव में क्या बदलाव आया है?
बहुत बदला है. सबसे बड़ा बदलाव इंतज़ाम में आया है. अब तो चुनाव एक-एक महीने तक चलते हैं. पहले सिर्फ़ कांग्रेस ही राष्ट्रीय पार्टी थी और बाकी़ दूसरी पार्टियां छोटी-मोटी थी. अब दो राष्ट्रीय पार्टियां हैं और छोटी पार्टियों की ताक़त भी बहुत बढ़ी है.
आपको क्या लगता है. इतनी सारी पार्टियों का होना भारत के लिए अच्छा है?
एक बहुत अच्छी बात है कि सिर्फ़ एक ही राष्ट्रीय पार्टी नहीं होनी चाहिए. इन छोटी पार्टियों के उभरने से एक अच्छी बात हुई है कि दलित और ओबीसी को मौका मिला है. 10-15 साल पहले कौन सोच सकता था कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री दलित महिला होगी. और कौन कहेगा कि ये बदलाव अच्छा नहीं है.
आने वाले वर्षों में आप भारत को कहाँ देखते हैं?
आने वाले समय में भारत की आर्थिक प्रगति और तेज़ होगी. राजनीतिक प्रणाली में सुधार होगा. लेकिन ये सुधार तभी होंगे जब आम लोग अपनी आवाज़ बुलंद करेंगे.
आपके शुभचिंतकों को आपसे क्या उम्मीदें रखनी चाहिए?
मैं अभी भारत में आर्थिक सुधारों पर एक किताब लिख रहा हूँ. मेरे हिसाब से ये मेरी आख़िरी किताब होगी. इसके बाद मैं संन्यास ले लूँगा.