सुनील कुमार सीरिज
‘फैबुलस फोर’ को हिन्दी में क्या लिखेंगे? ‘यूजर फ्रेंडली’ के लिए क्या शब्द इस्तेमाल करना चाहिए? क्या ‘पोलिटिकली करक्ट’ के लिए कोई कायदे का अनुवाद नहीं है? ऐसे कई सवालों से इन दिनों हिन्दी पत्रकारिता रो जूझ रही है। अक्सर उसे बिल्कुल सटीक अनुवाद नहीं मिलता और वह थक-हार कर अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करने को बाध्य होती है। हमारा उद्देश्य यह शुद्धतावादी विलाप नहीं है कि हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द घुल-मिल रहे हैं, बस यह याद दिलाना है कि इन दिनों हमारी पूरी भाषा अंग्रेजी के वाक्य विन्यास और संस्कार से बुरी तरह संक्रमित है। जो वाक्य शुद्ध और निरे हिन्दी के लगते हैं, उनकी संरचना पर भी ध्यान दें तो समझ में आता है कि वे मूलत: अंग्रेजी में सोचे गए हैं और अनजाने में मस्तिष्क ने उनका हिन्दी अनुवाद कर डाला है। मीडिया की भाषा पर अंग्रेजी के इस प्रभाव की दो वजहें बेहद साफ हैं। एक तो यह कि जो लोग इन दिनों पत्रकारिता या किसी भी किस्म का प्रशिक्षण प्राप्त करके आ रहे हैं, उनके समूचे अभ्यास में यह अनुवादधर्मी भाषा शामिल है। दूसरी बात यह कि हमारी वर्तमान पत्रकारिता के ज्यादातर सरोकार और संदर्भ बाहर से आ रहे हैं, जो अपने साथ सिर्फ भाषा नहीं, एक पूरा संसार ला रहे हैं। ऐसे विजातीय संदर्भो के लिए अंग्रेजी शब्दों का सहारा लेने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। लेकिन क्या हमारी पूरी पत्रकारिता ही नहीं, पूरी आधुनिक जीवनपद्धति इस बाहरी अभ्यास की देन नहीं है? और क्या इसका वास्ता बीते एक दो दशकों में दिखाई पड़ने वाले भूमंडलीकरण भर से है या इसका कोई अतीत भी है? भाषाओं में लेन-देन नई बात नहीं है। जो भाषाएं ऐसे लेन-देन से बचती हैं और अपनी परिशुद्धता के अहन्मन्य घेर में रहना चाहती हैं, वे मरने को अभिशप्त होती हैं। दुनिया की सारी भाषाओं में यह लेन-देन दिखता है जो शब्दों से लेकर वाक्य रचनाओं तक जाता है। लेकिन हर भाषा की अपनी एक प्रकृति होती है। उसमें जब दूसरी भाषा के शब्द आते हैं तो उनका रूप बदलता है, उनसे जुड़े उच्चारण बदलते हैं, कई बार माने भी बदल जाते हैं। हिन्दी ने इसी तर्क से ऑफिसर से अफसर बनाया, रिपोर्ट से रपट बनाई और साइकिल को एक दूसर अर्थ में इस्तेमाल किया। कार और बस ही नहीं, स्कूल और कॉलेज हमार शब्द हो चुके हैं और उन पर व्याकरण के हमार ही नियम लगते हैं। उर्दू ने भी ब्राह्मण को अपनी प्रकृति के हिसाब से बिरहमन में बदला है और ऋतु को रुत में ढाला है। अंग्रेजी में भी ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में अब जो नई प्रवृत्ति दिख रही है, वह अंग्रेजी के शब्दों को ज्यों का त्यों स्वीकार और इस्तेमाल करने की है। इसमें किसी शब्द के साथ खेलने, उनको अपनी प्रकृति में ढालने, उससे मुठभेड़ करने और एक नई तरह का, अपनी जरूरत की टकसाल में ढला शब्द बनाने की कोशिश नहीं दिखती। एक वैचारिक शैथिल्य नजर आता है, जिसमें अपनी आत्महीनता का एहसास भी शामिल है। कोई चाहे तो यह वाजिब सवाल पूछ सकता है कि किसी भी भाषा के शब्दों या नामों को ठीक उसी तरह अपनाने और बोलने में क्या र्हा है? अगर कनाडा को कैनेडा बोलें और अवार्डस का इस्तेमाल करं तो क्या इससे हमारा काम नहीं चलता? निस्संदेह काम चल जाता है, लेकिन धीर-धीर हम पाते हैं कि यह भाषिक पराीविता एक वैचारिक पराीविता में भी बदल रही है। और इस पराीविता का सबसे करुणा पक्ष यह है कि हम अपने पोषण के लिए कुछ चुनने को स्वतंत्र नहीं हैं, बल्कि एक दी हुई शब्दावली के आसपास जो कुछ मिल रहा है, उसे चरते हुए जीने को मजबूर हैं। इसका सबसे अच्छा प्रमाण आज के मीडिया की भाषा है, जो लगभग सार चैनलों, सार संवाददाताओं और सार एंकरों की बिल्कुल एक हो गई है। हर जगह ‘सनसनीखे खुलासा’ दिखता है, हर जगह ‘सीरियल ब्लास्ट में दहली दिल्ली’ नजर आता है, हर तरफ ‘सिंगूर को टाटा’ हो जाता है। जो इस भाषिक इकहरपन को मीडिया की मजबूरी बताते हैं और इसे आम बोलचाल तक पहुंचने की कोशिश से जोड़ते हैं, वे मीडिया में न कोई संभावना खोजना चाहते हैं, न आम बोलचाल में कोई समझ देखना चाहते हैं। पहले हम नहीं सोचते, कोई और सोचता है, जिसकी हम नकल करते हैं। कह सकते हैं कि यह सिर्फ पत्रकारिता की नहीं, भारत में इन दिनों दिख रहे समूचे वैचारिक उद्यम की मजबूरी है। लेकिन क्या खुद पत्रकारिता ही इस मजबूरी के पार का रास्ता नहीं खोज सकती? भाषा सिर्फ माध्यम नहीं होती, एक पूरा संदर्भ भी होती है। आज अगर मीडिया की भाषा में हमारी कोई जातीय अनुगूंज नहीं दिखती, उससे हमारे भीतर बना कोई भाषिक तार नहीं हिलता तो खबर भी हमार लिए मायने नहीं पैदा करती। शायद यही वजह है कि कोसी की बाढ़ को बेदखल हुए 25 लाख लोगों की तबाही पीछे छूट जाती है और ‘आईटी सेक्टर’ के 25,000 ‘प्रोफेशनल्स’ के ‘जॉबलेस’ हो जाने के अंदेशे में अमेरिका का आर्थिक संकट बड़ा हो जाता है। लेखक एनडीटीवी से जुड़े हैं।ं