Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

महात्मा गांधी अं. हिन्दी विवि के पुराने छात्रों के कुछ आलेख

$
0
0


 

 

प्रस्तुति-- निम्मी नर्गिस, मनीषा यादव, हिमानी सिंह, इम्त्याज रजा, वशीम शेख, अभिषेक रस्तोगी, विनय यादव, वर्धा

 

 

कोश का आधुनिक स्वरूप एवं निर्धारित मापदंड

वैज्ञानिकीकरण और आधुनिकीकरण दो ऐसे रूप हैं – जो विज्ञान को एक नयी दृष्टि प्रदान करते हैं. कोश विज्ञान भी इसी का एक भाग है. कोश विज्ञान के अंतर्गत कोश की रूपरेखा को वैज्ञानिकी एवं आधुनिकी स्वरूप प्रदान करना अतिआवश्यक है. यूँ तो कोश निर्माण की प्रकिया अत्यंत प्राचीन है किन्तु प्राचीनता के साथ आधुनिकता भी जरूरी है. जिससे कोश के नये क्रम को समझा जा सके.
कोश के वैज्ञानिक होने का मापदंड उसके क्रमबद्धता, सुव्यवस्थित, क्रमानुसार होने के साथ आज के आधुनिक समय में उसकी उपोयगिता से लिया जा सकता है. जब किसी ‘शब्द’ को कोश में प्रविष्ट करते हैं तो उसके पीछे कई प्रकार के तर्क होते हैं जैसे- वह शब्द कितना प्रसिद्ध है, प्रयोग में आने वाला है या नहीं, कितना उपयोगी है, उसकी आर्थीय संरचना किस प्रकार की है, इन प्रश्नगत तर्कों के आधार पर उस शब्द को कोश में प्रविष्ट किया जाता है और इस प्रकार से कोश सार्थकता की दृष्टि से उपयोगी होता है. जिसे हम वैज्ञानिक स्वरूप या ढांचा कहते हैं.
कोश को आधुनिक स्वरुप देने के लिए चित्र, रेखाचित्र का उपयोग भी आवश्यक है. कुछ कोश ऐसे भी होते हैं, जिनमें चित्रों की संख्या, रेखाचित्रों की संख्या बहुत होती है. तथा कुछ कोश ऐसे भी होते हैं जिसमें चित्रों, रेखाचित्रों का प्रयोग नहीं किया जाता है. ऐसी स्थिति में कोश में चित्रों, रेखाचित्रों के उपयोग का सही मापदंड निर्धारित होना चाहिए.
रूसी विद्वान ‘श्चेरबा’ ने कोश निर्माण संबंधी विचारों का परिचय देते हुए कोश का वैज्ञानिक विवेचन किया है. श्चेरबा ने कोश का उद्देश्य, उपयोगकर्ता तथा उसकी रचना प्रणाली के आधार पर नौ प्रकार के कोशों को बताया है.
‘’ There is good deal of truth in the statement that soviet scholars have excelled in the field of Lexicography –a field which though is Applied in nature yet, demands a full lenth treatment of its theoretical perspective and basic constructs. Without at present dream of developing model and method for lexicographic work. It is for this reason that soviet scholars recognized and field of Lexicography as one of the distinct activities of linguistics study’’
1- Reference (vade-Mecum) 6- Bilingual- BD
2- Academic – AD 7- Ideological- ID
3- Encyclopedia-EnD 8- Synchronic- SD
4- Thesaurus- Thd 9- Diachronic- DD
5- Explanatory-ExD

आज हमारे कोश की संकल्पना विशुद्ध शास्त्र के प्राचीन स्तर से हटकर आज के कोश वैज्ञानिक रचना प्रकिया के स्तर पर पहुँच गया है. ये कोश रुप विकास और अर्थ विकास की ऐतिहासिक प्रमाणिकता के साथ-साथ भाषा वैज्ञानिक सिद्धांत की संगति ढूंढने का पूर्ण प्रयत्न करते हैं. सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नवीन क्रातिं के फलस्वरुप कोश को एक नया रूप मिला है. जिसमें ई-लर्निंग की विशेष भूमिका है. आज के दिन में यदि कोई व्यक्ति विदेशी भाषा सीखना चाहे तो बड़ी आसानी से ‘ऑनलाइन कोश’ के माध्यम से सीख सकता है. वेब पर कोश के बढते कदम ई-लर्निंग और ई-शिक्षण के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रमों को भी सरल बना देते हैं. वेब आधरित कोश की कोई भौगौलिक सीमा नहीं होती है. आधुनिक कोश अब ग्लोबल हो चुका है. कोश का आधुनिक स्वरूप एवं निर्धारित मापदंडः-
१- अंतःक्रियात्मकता
- अंतःक्रियात्मकता पाठक और कोश के बीच
- पाठक के लिए किसी भी भाषा में कोश प्राप्त होने का अवसर
- ऑनलाइन के बाद विषय आधारित कोश
२- तैयारी
- इंटरनेट से जुडने की सुविधा
- प्रशिक्षण और शिक्षण कार्य में ऑनलाइन-ऑनगोइंग सहायता
- विदेशी भाषा को सीखने तथा अद्यतन बनाना
३- पाठक की भुमिका-
- अंतःक्रियात्मकता
- परिपक्वता
४- परिपकल्पना- - सभी भाषाओं के सम्पर्क में
- नये-नये शब्दों एवं अर्थों की जानकारी
- प्रचलित शब्दों का ही प्रयोग
- भारत के सभी क्षेत्रीय भाषाओं का एक साथ ऑनलाइन कोश
५- ई-कोश के सफल प्रयोग के लिए दो प्रमुख तत्वों की आवश्यकता - - कोश की संकल्पना
- संगणक का ज्ञान
वर्तमान युग में ‘आधुनिक कोश’ की संकल्पना और संरचना अधिक व्यापक है. ई-कोश एक ऐसे ज्ञान पर आधरित है जहाँ पाठक ऑनलाइन अपने विषय से संबंधित आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है.
Online Hindi Dictionaries_
http://www.shabdkosh.com
http://www.lexilogos.com/english/hindi_dic
http://www.websters-online-dictionary.org/.
http://utopianvision.co.uk/hindi/dictionary/
http://tamilcube.com/res/hindi_diction
http://explore.oneindia.inn/.../hindi/
http://www.hindienglishdictionary.org/
http://dsal.uchicago.edu/dictionaries/platts/ http://www.infobankofindia.com/newdic/englishtohindi/gethindi.htm
http://wordanywhere.com/
http://dsal.uchicago.edu/dictionaries/platts
http://www.gy.com/online/hiol.htm
http://www.3.aa.tufs.ac.jp/_kmach/hnd_la-e.htm

HINDI LANGUAGE RESOURSES , INCLUDING DICTIONARIES, GRAMMER AND USEFUL PHARASES
http://www.hindilanguage.org
http://www.languagehom/
धीरेन्द्र प्रताप सिंह

भाषा-प्रौद्योगिकी से संबंधित लिंक

www.infomatics.indiana.edu/rocha/;do1/index.html
http://en.wikipedia.org/wiki/information-science

http://www.informatics.indiana.edu/roch/;101/pdfs/101_lecture3.pdf

।google.com/c/book/computational_linguistics.htm#_for">http://mail।google.com/c/book/computational_linguistics.htm#_for
मधु प्रिया पाठक

12 अप्रैल 2010

इस अंक के सदस्य

संपादक - करुणा निधि
संपादन-मण्डल -नितीन ज. रामटेके, शिल्‍पा
शब्द-संयोजन-अविचल गौतम, सलाम अमित्रा देवी
(सभी हिंदी भाषा प्रौद्योगिकी के छात्र )

संपादक के की-बोर्ड से

भाषा के संबंध में कुछ कहना और भाषा के माध्‍यम से कुछ कहना, दोनों भिन्‍न संकल्पनाएँ होते हुए भी एक पुल के दो छोर हैं, जिससे होकर गुजरने के लिए व्‍यक्ति को एक दूसरे के संपर्क में आना ही पड़ता है। इसी संपर्क बिंदु पर भाषा के नए आयाम खुलते भी हैं और जुड़ते भी हैं। चाहे वह वाद (-ism) के रूप में हो या करण (-tion) के रूप में। परंतु यह उन व्‍यक्तियों पर कदाचित् लागू नहीं होती, जिनके लिए भाषा संप्रेषण का माध्‍यम मात्र है। हाँ, उनके लिए यह रोचक और चिंतनीय विषय अवश्‍य है, जो भाषा के रहस्‍य को जानने और समझाने का दावा करते हैं। हिंदी के संदर्भ में यह बात और अधिक रोचक इसलिए भी है क्‍योंकि भारतेंदुयुगीन काल से लेकर अब तक के हिंदी ने अपना जो स्‍वरूप गढ़ा है और अपने परिवर्तनशील स्‍वरूप के साथ स्‍वयं को जिस प्रकार स्‍थापित किया है, उसके लिए हिंदीभाषी समाज स्‍वयं को सामने लाने में कभी नहीं हिचकिचाता। परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आज हिंदी जिस राजनीतिक आवरण से लिपट कर ग्‍लोबलाइज़ेशन जैसी संकल्‍पना को प्रस्‍तुत कर रही है, इससे यह जाहिर होता है कि अब यह क्षेत्र ‘क’ के साथ ‘ख’ और ‘ग’ में भी समान प्रतिष्‍ठा पा चुकी है। दो भिन्‍न भाषाओं के संपर्क में आने के फलस्‍वरूप, अनुवाद के माध्‍यम से हिंदी का जो रूप दृष्टिगोचर होता है, उसके लिए हिंदीभाषी समाज स्‍वयं को पूर्णत: जिम्‍मेदार नहीं मान सकता। स्‍पष्‍ट है कि सूचना-प्रौद्योगिकी के आगमन से हिंदी का गाँव इतना विस्‍तृत हो चुका है कि उसका अस्तित्‍व हर घर में किसी न किसी रूप में उपस्थित है।
इसी परिप्रेरक्ष्‍य में इस अंक का कलेवर तैयार हुआ है। संरचनावादी और मार्क्‍सवादी भाषा चिंतन के आलोक में भाषा विषयक जो समग्री प्रस्‍तुत की गई है, उससे भाषा को देखने की अलग दृष्टि मिलेगी। भूमंडलीकरण की संकल्‍पना में हिंदी का जो रूप प्रस्‍तुत हुआ है, वह इसकी वर्तमान स्थिति के साथ, नवीन विश्‍लेषण पद्धति को अपनाने की ओर भी संकेत करती है। समाज के संसर्ग में भाषा का रूप परिवर्तित होता है। इसी संदर्भ में मगही बोली तथा प्रयोग-क्षेत्र एवं प्रयुक्ति के रूप में प्रायोगिक तथ्‍य प्रस्‍तुत हुए हैं। साथ ही प्रकारांतर से प्रौद्योगिकी संबंधित अनेक विषयों लिपि, शब्‍द और अनुवाद पर विचार उकेरे गए हैं और मशीनी अनुवाद जैसे गूढ़ विषय को लेकर व्‍याकरण संबंधित जो तथ्‍यात्‍मक विवरण प्रस्‍तुत किए गए हैं, उससे पाठक लाभांवित हो सकेंगे।
09 अप्रैल, 2009 को इस पत्रिका के प्रथमांक प्रकाशित होने पर यह अनुमान भी नहीं लगाया गया होगा कि लगभग आमजन से अनभिज्ञ विषय एवं अत्‍यल्‍प पाठक वर्ग की उपस्थिति में यह पत्रिका विकास के इस चरण पर आकर खड़ी होगी। यह उन सबके प्रयास का ही परिणाम है, जिनके लेख और प्रति‍क्रियाएँ हमें उत्‍साहित करते रहे। इसके लिए उन सभी को बधाई और इस आशा के साथ, प्रस्‍तुत अंक के सभी लेखकों एवं कार्यकर्ताओं का धन्‍यवाद कि यह पत्रिका भावी पीढ़ी के लिए भाषा संबंधित परंपरा और संभावना के अंतर को पारदर्शित करने में सहायक सिद्ध होगी।
करूणानिधि

हिंदी-मराठी मशीनी अनुवाद प्रणाली में रूपवैज्ञानिक विश्‍लेषण की भूमिका

किसी भी भाषा को समझने के लिए हमें उस भाषा के व्याकरण को समझना जरूरी है। रूप-विज्ञान ऐसी ही एक भाषा विज्ञान की शाखा है. जिसमें, हम विभिन्न भाषिक प्रयोग एवं रचना में आने वाले शब्दों का अध्ययन रूप रचना के अंर्तगत करते हैं. उसी तरह प्राकृतिक भाषाई संसाधन में रूप विज्ञान का अध्ययन किया जाता हैं. इसमें शब्दों को संज्ञात्मक (NP)और क्रियात्मक (VP)रूप में वर्गिकृत करते हैं. इन कोटियों का हम निष्पादन और व्युत्पादन के वर्ग में विश्लेषण करते है. इस प्रबंध में हिंदी मराठी की क्रियाओं का रूप विश्लेषण किया गया है. यह विश्लेषण पक्ष, वाच्य, वृत्य के व्याकरणिक परिपेक्ष्य स्पष्ट करता है जो अपने आप लिंग, वचन और पुरूष की व्याकरणिक कोटियों को भी स्पष्ट करने में मदद करता है यह विश्लेषण निष्पादक कोटि का है. हिंदी भाषा में जो पक्ष वाच्य और वृत्ति की जो संकल्पनाएं है उसी को आधार बना कर हिंदी-मराठी क्रियाओं का किया गया है जबकि हिंदी और मराठी की पक्ष वाच्य और वृत्ति की संकल्पनाएं कुछ भिन्न हैं जैसे हिदी वृत्ति मराठी में काल का अर्थ, हिंदी वाच्य मराठी प्रयोग और पक्ष जो मराठी संकल्पनाओं में अभिप्रेत नहीं है.
इन व्याकरणिक कोटियों का जब विश्लेषण किया गया तब ज्यादातर क्रियाएं आसानी से हिंदी से मराठी में अनुवादित हुई. लेकिन कुछ ऐसी कोटियाँ हैं जिनका हम आसानी से अनुवाद नहीं कर सकते जैसे हिंदी में वृत्ति की निश्चित संभाव्य क्रिया
१ -जा रहा होगा २ -जाता होगा का मराठी में इस प्रकार अनुवादहोगा तब इसका अर्थ यह है कि जब ’रहा होगा’ और -ताहोगा. प्रत्यय होंगे तो मराठी में -त- नारयह प्रत्यय ही लगेंगे इस समस्या को समझने के लिए हमें स्वनिमिक व्यवस्था PHENOLOGY के स्ट्रेस और PITCH संदर्भ की सहायता लेनी होगी
उसी प्रकार 1. लिखता चला आ रहा है 2. वह लिखता चलेगा इन दोनों वाक्यों के समय को दर्शाने वाला अर्थ मराठी में क्रिया के वर्ग में ना रहकर क्रिया विश्लेषण के वर्ग को दर्शाता है. इसका अर्थ यह है कि मराठी में इन दोनों क्रियाओं को हम स्पष्ट नहीं करते है अर्थात उसका शब्दभेद (PART OF SPEECH) वर्ग बदलता है। जाने को है’ और जाने वाला हैइन दोनों क्रियाओं को मराठी में समान रूप अर्थात एक ही प्रत्यय जानार आहे’ में प्रयोग करते है.
यह हिंदी मराठी के क्रियाओं का विश्लेषण और समानताएं और असमानताओं को स्पष्ट करता है जिससे सम्बंधित अनुवाद की समस्या होती है चाहे मानव अनुवाद द्वारा हो या मशीनी अनुवाद के द्वारा हो। अगर एक शब्द का भावार्थ हम पूरे पाठ में नहीं दे पाते तो पाठ का स्वरूप बदलता है इसलिए मशीनी अनुवाद में सभी भारतीय भाषाओं के लिए ’रूपिम विश्लेषण’ यह पहला कदम होना चाहिए जो शब्द के अर्थ और उसकी व्याकरणिक कोटियों को व्यक्त करने में सहायक हो सकेगा।
हिंदी मराठी मशीनी अनुवाद पक्ष, वाच्य और वृत्ति के परिप्रेक्ष्य में क्रियाओं का विश्लेशण एक महत्त्वपूर्ण पहलू को स्पष्ट कर रहा है जो यह भी सूचित करता है कि अगर यह क्रियाओ का विश्लेषण मराठी हिंदी मशीनी अनुवाद को आधार बनाकर मराठी के पक्ष, वाच्य, वृत्ति की संकल्पनाएँ स्पष्ट करके एक अलग संभावना को व्यक्त करेगी।

(शोध-छात्रा अर्चना थूल द्वारा एम.फिल. हिंदी (भाषा-प्रौद्योगिकी) में
प्रस्तुत शोध-प्रबंध का सार-लेख)

रुपसाघक बनाम व्युत्पादक रुपिम

-मधुप्रिया
एम।ए। भाषा प्रौद्योगिकी
भाषा की लधुतम अर्थवान इकाई रुपिम कहलाता है| रूपसाधक रुपिम वह है, जिसमें एक के बाद दूसरा रुपिम नहीं जोड़ जा सकता, जैसे-लड़की-लड़कीयॉ, किताब-किताबें, दुकान-दुकानें आदि। ऑ, एँ. ऐं के बाद दूसरा और रुपिम नहीं जोड़ा जा सकता है, जबकि व्युत्पादक रुपिम में एक से अघिक रुपिम जोड़ा जा सकता है, जैसे- राष्ट्र-राष्ट्रीयता, भारत-भारतीयता रुपसाघक रुपिम व्याकरणीक रुपों की रचता करता हैअर्थात एकवचन से बहुवचन में, जबकि व्युत्पादक रुपिम व्याकरणीक कोटी को बदलता है | जैसे -सुंदर-सुंदरता। इसमें विशेषण से संज्ञा में परिवर्तन होता है। रुपसाघक रुपिम व्युत्पादक रुपिम के बाद लगता है । रुपसाघक रुपिम लगने से रुपिम के अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता हैजैसे -रात-रातें, लिखा-लिखा ।
इसमें अर्थ एक ही है जबकि व्युत्पादक रुपिम में अर्थ में परिवर्तन आ जाता है ।

देवनागरी लिपि की विशेषता

-अम्‍ब्रीश त्रिपाठी
एम।फिल. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

सर्वप्रथम हम देवनगारी के इतिहास पर एक नजर डालेंगे। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700-800ई.) के शिलालेख में मिलता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट, नवीं में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया करते थे।समूचे विश्व में प्रयुक्त होने वाली लिपियों में देवनागरी लिपि की विशेषता सबसे भिन्न है। अगर हम रोमन, उर्दू लिपि से इसका तुलनात्मक अध्ययन करें तो देवनागरी लिपि इन लिपियों से अधिक वैज्ञानिक है। रोमन और उर्दू लिपियों के स्वर-व्यंजन मिले-जुले रूप में रखे गए हैं, जैसे- अलिफ़, बे; , बी, सी, डी, , एफ आदि।
दोनों लिपियों की तुलना में देवनागरी में इस तरह की अव्यवस्था नहीं है, इसमें स्वर-व्यंजन अलग-अलग रखे गए हैं। स्वरों के हृस्व-दीर्घ युग्म साथ-साथ रहते हैं, जैसे- अ-आ, इ-ई, उ-ऊ। इन स्वरों के बाद संयुक्त स्वरों की बात करते हैं इनको भी इस लिपि में अलग से रखा जाता है, जैसे- ए,,,,
देवनागरी के व्यंजनों की विशेषता इस लिपि को और वैज्ञानिक बनाती है, जिसके फलस्वरूप क,,,,, वर्ग के स्थान पर आधारित है और हर वर्ग के व्यंजन में घोषत्व का आधार भी सुस्पष्ट है, जैसे- पहले दो व्यंजन (च,छ) अघोष और शेष तीन व्यंजन (ज,,ञ) घोष होते हैं। देवनागरी व्यंजनों को हम प्राणत्व के आधार पर भी समझ सकते हैं, जैसे- प्रथम, तृतीय और पंचम व्यंजन अल्पप्राण और द्वितीय और चतुर्थ व्यंजन महाप्राण होता है। इस तरह का वर्गीकरण और किसी और लिपि व्यवस्था में नहीं है।
देवनागरी की कुछ और महत्तवपूर्ण विशेषता निम्नवत् हैं -
1) लिपि चिह्नों के नाम ध्वनि के अनुसार- इस लिपि में चिह्नों के द्योतक उसके ध्वनि के अनुसार ही होते हैं और इनका नाम भी उसी के अनुसार होता है जैसे- अ, , , , , ख आदि। किंतु रोमन लिपि चिह्न नाम में आई किसी भी ध्वनि का कार्य करती है, जैसे- भ्(अ) ब्(क) ल्(य) आदि। इसका एक कारण यह हो सकता है कि रोमन लिपि वर्णात्मक है और देवनागरी ध्वन्यात्मक।
2) लिपि चिह्नों की अधिकता - विश्व के किसी भी लिपि में इतने लिपि प्रतीक नहीं हैं। अंग्रेजी में ध्वनियाँ 40 के ऊपर है किंतु केवल 26 लिपि-चिह्नों से काम होता है। 'उर्दू में भी ख, , , , , , , , , भ आदि के लिए लिपि चिह्न नहीं है। इनको व्यक्त करने के लिए उर्दू में 'हे'से काम चलाते हैं'इस दृष्टि से ब्राह्मी से उत्पन्न होने वाली अन्य कई भारतीय भाषाओं में लिपियों की संख्याओं की कमी नहीं है। निष्कर्षत: लिपि चिह्नों की पर्याप्तता की दृष्टि से देवनागरी, रोमन और उर्दू से अधिक सम्पन्न हैं।
3)स्वरों के लिए स्वतंत्र चिह्न - देवनागरी में ह्स्व और दीर्घ स्वरों के लिए अलग-अलग चिह्न उपलब्ध हैं और रोमन में एक ही (।) अक्षर से ''और ''दो स्वरों को दिखाया जाता है। देवनागरी के स्वरों में अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
4) व्यंजनों की आक्षरिकता - इस लिपि के हर व्यंजन के साथ-साथ एक स्वर ''का योग रहता है, जैसे- च्+अ=, इस तरह किसी भी लिपि के अक्षर को तोड़ना आक्षरिकता कहलाता है। इस लिपि का यह एक अवगुण भी है किंतु स्थान कम घेरने की दृष्टि से यह विशेषता भी है, जैसे- देवनागरी लिपि में 'कमल'तीन वर्णों के संयोग से लिखा जाता है, जबकि रोमन में छ: वर्णों का प्रयोग किया जाता है!
5) सुपाठन एवं लेखन की दृष्टि- किसी भी लिपि के लिए अत्यन्त आवश्यक गुण होता है कि उसे आसानी से पढ़ा और लिखा जा सके इस दृष्टि से देवनागरी लिपि अधिक वैज्ञानिक है। उर्दू की तरह नहीं, जिसमें जूता को जोता, जौता आदि कई रूपों में पढ़ने की गलती अक्सर लोग करते हैं।
देवनागरी के दोष -
देवनागरी के चारों ओर से मात्राएं लगना और फिर शिरोरेखा खींचना लेखन में अधिक समय लेता है, रोमन और उर्दू में नहीं होता। ''के एक से अधिक प्रकार का होना, जैसे- रात, प्रकार, कर्म, राष्ट्र।
अत: यह कहा जा सकता है कि देवनागरी लिपि अन्य लिपियों की अपेक्षा अच्छी मानी जा सकती है, जिसमें कुछ सुधार की आवश्यकता महसूस होती है जैसे- वर्णों के लिखावट में सुधार की आवश्कता है क्योंकि 'रवाना'लिखने की परम्परा में सुधार हो कर अब 'खाना'इस तरह से लिखा जाने लगा है। इसी तरह से लिखने के पश्चात हमें शिरोरेखा पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जैसे- 'भर'लिखते समय हमें शिरोरेखा थोड़ा जल्द बाजी कर दे तो 'मर'पढ़ा जागा। इन छोटी-छोटी बातों पर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए।
संदर्भ-
डॉ. तिवारी भोलानाथ, हिंदी भाषा की लिपि संरचना, साहित्य सहकार दिल्ली
प्रो. त्रिपाठी सत्यनारायण हिंदी भाषा और लिपि का ऐतिहासिक विकास, विश्वविद्यालय प्रकाशन,
वराणसी, चतुर्थ संस्करण 2006

भाषा चिंतन

तांकसे आगे..
अमितेश्‍वर कुमार पाण्‍डेय
पी-एच.डी. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

संरचनावादी भाषाविज्ञान का विधिवत प्रारंभ फर्दिनांद द सस्युर की पुस्तक Course in General Linguistics(1916) से माना जाता है। आगे चलकर संरचनावादी भाषाविज्ञान की अलग-अलग देशों में अलग-अलग चिंतन सारणी विकसित हुई जिनमें अमेरिकी संरचनावादी भाषाविज्ञान या चित्रणवाद (Discriptivism),प्राग भाषावैज्ञानिक स्कूल या पूर्वी यूरोपीय संरचनावाद तथा कोपेनहेगन स्कूल मुख्य रूप से उभरे। इनमें भी (1930) कोपेनहेगन स्कूल संरचनावाद के केन्द्र में उभरा। 1960 के दशक में इनमें भी एक नई प्रवृत्तिनिर्मितिवादका जन्म हुआ।
निर्मितिवाद सैद्धांतिक वस्तुओं की आवश्यकता के सिद्धांत पर आधारित थी। शुरू-शुरू में इस सिद्धांत का सूत्रीकरण गणितीय तर्कशास्त्र के फ्रेमवर्क के भीतर हुआ, जिसे बाद में भाषाविज्ञान में विस्तार कियागया। इस सिद्धांतमें दो मुख्य भाग हैं- 1. किसी वस्तु को सिद्धांत की वस्तु तभी माना जाता है, जब उसकी निर्मिति संभव हो; और 2. वस्तुओं के अस्तित्व या उनके संज्ञान की संभावना की बात तभी की जा सकती है जब उनकी सैद्धान्तिक निर्मिति या अनुरूपण संभव हो। निर्मितिवाद पद्धति का आधार कलन-गणित पर आधारित है जिसपर सबसे पहले अफलातून और पाणिनी तथा आगे चलकर स्पिनोजा जैसे दार्शनिक विचार कर चुके थे। कलन-गणित से निगमितहुअवधारणाओं ने निर्मितिवाद कएक विशेष प्रकार को जन्म दिया जो प्रजनक व्याकरणों और गणितीय भाषाविज्ञान के सिद्धांत का आधार बना।
प्रजनक व्याकरण के सिद्धांत और गणितीय तर्कशास्त्र की एक शाखा के रूप में औपचारिक भाषा के सिद्धांत की आधारशिला नॉम चॉम्स्की ने रखी थी। प्रजनक व्याकरण ने संरचनावादी भाषाविज्ञान की कई कमियों को दूर करने का दावा किया, लेकिन विशिष्ट भाषा-वैज्ञानिक आंकड़ों पर इसके सिद्धांत को लागू करने के बाद पाया गया कि ये सिद्धांत अतिसीमित दायरे में ही प्रभावी एवं उपयोगी है। चॉम्स्की का एक विवादास्पद विचार यह था कि किसी प्राकृतिक भाषा के वाक्य-विन्यास तथा अर्थविज्ञान के विविध पहलूओं के निरूपण के लिए प्रजनक व्याकरण का औपचारिक उपकरण पर्याप्त है। इस आधार पर कि दुनिया की सभी भाषाओं की बुनियादी अंतर्भूत संरचनाएं समान होती हैं, चॉम्स्की ने मस्तिष्क के अध्ययन के साधन के रूप में भाषाविज्ञान के इस्तेमाल की संभावनाओं की ओर भी इशारा किया। चॉम्स्की के इन भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों की नवप्रत्यक्षवादी और औपचारिक तर्कवादी प्रवृति की सीमाएं भी आज स्पष्ट हो चुकी हैं। अबतक आए तमाम भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों के विविधरूपी आलोचनाओं ने भाषाविज्ञान में कई नई प्रवृतियों को भी जन्म दे दिया, जैसे- नवभाषाविज्ञान, क्षेत्रीय भाषाविज्ञान ), लेकिन ये आमभाषाविज्ञान के सैद्धांतिक फ्रेमवर्क के रूप में किसी व्यापक सिद्धांत को प्रतिपादित करने योग्य नहीं थीं। इसका दार्शनिक आधार कमजोर और प्रयोग सीमित थे।
इस उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर भाषा-विज्ञान के ठोस मुकाम पर असंतोष जाहिर करते हुए वोलोशिनोव मार्क्सवाद और समकालीन भाषा-विज्ञान के संबंधों के आधार पर मार्क्सवादी भाषाविज्ञान’ की बात करते हैं, यह कहतेहुए कि मार्क्सवाद मानव-सभ्यता के भौतिक-आत्मिक विकास का इतिहास प्रस्तुत करते हुए मानव-भाषाओं की व्याख्या के प्रति एक सुनिश्चित अप्रोच’ प्रस्तुत करता है और एक सुनिश्चित पद्धति लागू करते हुए कुछ सुनिश्चित स्थापनाएं प्रस्तुत करता है।
भाषा के संदर्भ में मार्क्सवादी सिद्धांत का आधार यह था कि भाषा का चरित्र सामाजिक है और यह मानव की सामाजिक श्रम-प्रक्रियाओं और सामाजीकरण की प्रक्रियाओं के सतत् विकास के क्रम में उन्नत से उन्नतर अवस्थाओं में विकसित होती गई है (फ्रेडरिक एंगेल्स)। भाषा संज्ञान का प्रत्यक्ष यथार्थ है जो सामाजिक संसर्ग के दौरान अस्तित्व में आई (मार्क्स-एंगेल्स)। लेनिन के परावर्तन-सिद्धांत के अनुसार भी वस्तुगत यथार्थ का परावर्तन मानव चेतना के साथ ही, भाषा-रूपों की अंतर्वस्तु के धरातल पर भी होता है।
मार्क्सवादी भाषा-दर्शन संरचनावादियों की इस एक बुनियादी स्थापना को स्वीकार करता है कि भाषा संकेतों की एक निश्चित प्रणाली, अपने आंतरिक संगठन समेत एक संरचना’ होती है, जिसके बाहर भाषा के संकेत और अर्थ को नहीं समझा सकता। लेकिन तुलनात्मक-ऎतिहासिक भाषाविज्ञान और संरचनावादी भाषाविज्ञान के पूरे काल के दौरान, प्रत्यक्षवाद, रूपवाद और नवप्रत्यक्षवाद द्वारा विभिन्न रूपों में भाषा के संकेत-वैज्ञानिक और अर्थ-वैज्ञानिक अध्ययनों का जो निरपेक्षीकरण किया जाता रहा और दार्शनिक अध्ययन या ज्ञान-मीमांसा की सारी समस्याओं को भाषा के तार्किक विश्लेषण तक सीमित कर देने के जो प्रयास होते रहे, मार्क्सवाद ने उनका विरोध किया। 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में नवप्रत्यक्षवाद ने दर्शन की समस्याओं को मिथ्या समस्या घोषित करते हुए भाषा और विचार व्यक्त करने की अन्य सभी संकेत-प्रणालियों के भाषाई-अर्थवैज्ञानिक विश्लेषण को प्रतिष्ठापित करने की कोशिश की और विज्ञान के रूप में दर्शन को सारतः विघटित करने का प्रयास किया जिसका मार्क्सवादी भाषावैज्ञानिकों ने तर्कपूर्ण विरोध किया और अपने तर्क से भाषाविज्ञान के दार्शनिक बातों को उभारा ।
मार्क्सवादी भाषाविज्ञान के उद्भव और विकास के दौरान इसे अनेक वादों (रूपवाद, नवप्रत्यक्षवाद आदि) से संघर्ष करना पड़ा तो दूसरी ओर इसके भीतर भी विचलन पैदा होते रहे। भाषाविज्ञान के विस्तार और सूक्ष्मता के कई ऎसे प्रश्न आज भी खड़े हैं जिनसे मार्क्सवाद जझ रहा है और भौतिक-आत्मिक जीवन का विकास ऎसे बहुत सारे प्रश्न भी खड़ा करता जा रहा है जिनका उत्तर ढूंढ़ते हुए मार्क्सवादी भाषाविज्ञान को आगे विकसित होना है। आधुनिक सैद्धांतिक भाषाविज्ञान व्याकरणिक संरचनाओं के जिन प्रश्नों से जुझ रहा है, वह मार्क्सवादी भाषाविज्ञान के सामने भी मौजूद है।
सन्दर्भ : मार्क्सवाद और भाषा का दर्शन,जे.वी. वोलोशिनोव. द्वारा रचित, अनुवाद-विश्‍वनाथ मिश्र, राजकमल प्रकाशन, 2002

ग्लोबलाइज्‍ड हिंदी

-चंदन सिंह
पी-एच।डी. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

भूमंडलीकरण के इस दौर में मानव जीवन एवं व्यवहार के हरएक पहलू में निरंतर बदलाव सहज ही महसूस किए जा सकते हैं। खासकरभाषा के संदर्भ में सूचना माध्यमों के बढ़ते प्रभाव ने जिस तरह से सामाजिक परिवर्तन को तीव्रताप्रदान की है, संपूर्ण विश्व एक गांव का आकार ले रहा है, तो ऐसी स्थिति में हिंदी और इसका भाषिक स्वरूप समकालीन व्यवहार और परिवर्तन की बयार से कैसे बचा रह सकता है? आज हिंदी ने जिस प्रकार का नया रूप अख्तियार किया है, जिस मिलती-जुलती भाषिक संस्कृति के रूप में स्वंय को प्रस्तुत किया है, वह भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है। हिंदी का यह नया संस्करण उदार है, बहुरंगी है। हिंदी नए-नए शब्द गढ़ रही है। हो सकता है कि आज ये नए शब्द सुनने में अटपटे लगे, किंतु कल हिंदी के किसी नए शब्दकोश का हिस्सा बन सकते हैं। विश्व के विभिन्न भाषाओं के शब्दों को हिंदी जिस तरह से आत्मसात कर रही है, उससे अंदाज लगाया जा सकता है कि भविष्य की हिंदी का चेहरा कैसा मानकीकृत स्वरुप धारण किए होगा।
हिंदी का यह नवीन रूप विश्व में इस कदर व्याप्त है कि विश्व के अनेक देशों में हिंदी के कई समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं जिसमें एक नए किस्म की हिंदी रची जा रही है। विभिन्न भारतीय एवं विदेशी विज्ञापन, बाजार तथा कंपनियां जिस तरह हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित कर रही है, वह विश्व स्तर पर हिंदी के ठोस आधार का परिचायक है। इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण है अमेरिकी दूतावास ने अपने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा दारा शपथ ग्रहण करने के बाद दिए गए भाषण का हिंदी अनुवाद जारी किया है तथा इस भाषण के लिए अमेरिकी जनसंपर्क विभाग ने अपना लेटरपैड भी हिंदी में प्रकाशित किया है।
दरअसल, हिंदी का यह मिश्रित स्वरूप भूमंडलीकरण के परिदृश्य में व्यवसायिकता का आवरण लिए हुए है। यह समझ लेना चाहिए कि अब हिंदी केवल हिंदी पट्टी की ही भाषा नहीं रह गई है। लंदन के 'तुषाद् संग्राहलय'में स्थापित बालीवुड सितारों की मोम प्रतिमा यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि हिंदी अब सात समुंदर पार तक पहुंच चुकी है। हालांकि, सात समुंदर पार कर हिंदी के ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया बहुत कठिन और जटिल रही। इस संदर्भ में हिंदी से हिंग्लिश की लोकप्रियता कम रोचक नहीं है। वैसे हिंदी के विस्तार के लिए यह वरदान साबित हुआ है क्योंकि जीवित रहने और फलने-फूलने के लिए'बदलाव'एक अनिवार्य शर्त होती है। गोया, हिंदी को विश्व स्तर पर, संपर्क, रोजगार एवं सांस्कृतिक भाषा के तौर पर स्थापित करता है तो इसे नवीन प्रौद्योगिक के साथ-साथ इसके प्रयोजनमूलक संदर्भ में सामंजस्य स्थापित करना होगा, जिससे न केवल हिंदी का प्रचार प्रसार होगा बल्कि रह रोजगारपरक भाषा भी बनेगी। कारण स्पष्ट है कोई भाषा जब तक अपने बोलने व समझनेवालोंके लिए रोजगार का साधन नहीं बनती तबतक लोगों का उसके प्रति आकर्षित होना संदिग्ध होता है, क्षणिक होता है । हिंदी भाषा के संदर्भ में यह सुखदहै कि इसका मिश्रित स्वरुप आज के भारतीय युवा वर्ग की पसंद है जो कुल भारतीय आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक विशाल बाजार भी है। इसी कारण इस मिश्रित हिंदी के लिए विश्व बाजार रोजगार के लाखों अवसरों से भरा पड़ा है, जिसमें करोड़ो डालर की पूंजी निवेश की गई है।
हिंदी का यह नया मानचित्र इंटरनेट के साथ हिंदी के रिश्तों का ब्यौरा किए बिना पूरा नहीं हो सकता। इंटरनेट एक नवीन लेकिन तेजी से उभरता हुआ संचार माघ्यम है। बतौर भाषा हिंदी का प्रौद्योगिकी के साथ पहले-पहले एक उद्यमहीन और हिचकता हुआ रिश्ता रहा है, किंतु अब इंटरनेट पर गुगल, हॉटमेल या याहु सभी ने अपने हिंदी संस्करण शुरु करदिए है। माइक्रोसॉफ्ट द्वारा युनीकोड और हिंदी में सहजता से सीखने की सुविधा मिलने के बाद ब्लॉग-संस्कृति बिना किसी रोक-टोक के चल पड़ी है।
किंतु सवाल यह है कि क्या हिंदी भाषा के इस रूप को सहज तकनीकी विकास और बाजार की जरुरतों का प्रतिफल मान लिया जाए या फिर हिंदी के इस नए चेहरे को सिर्फ बदलती परिस्थितियों की देन मानकर संतुष्ट हो लिया जाए। यहां यह भी स्मरणीय है कि हिंदी भाषा का यह चेहरा कई मायनों में विगत कुछ वषों की धूप-छांव का सामना करते हुए निखरा है। कई मायनों में यह परिवर्तनशील समाज का प्रतिबिंब है जिसके तहत हिंदी ने अपना नया रुप धारण किया है, विकसित किया है। यह स्वाभाविक है कि हिंदी को ग्लोबल होने के लिए नए रुप में ढ़लना ही होगा।

भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी

-डॉ. अनिल कुमार दुबे
व्‍याख्‍याता, भाषा विद्यापीठ

समाजिक-आर्थिक संबंधो का संपूर्ण विश्व तक विस्तार वैश्वीकरण या भूमंण्डलीकरण है। भूमंण्डलीकरण को लेट कैपिटलिज्म का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण माना गया है। इससे उत्पादन साधनों,विशेषकर पूंजी के विश्वव्यापी अबाधित प्रवाह से लिया जाता है, जिसमें सूचना संजाल की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। परिणमस्वरुप सारा विश्व एक गाँव या एक बाजार बन जाता है, तथा राष्ट्र -राज्य की भौगोलिक सीमाएं अप्रासंगिक हो जाती हैं। संसार में कुछ भी,कहीं भी बेचा या खरीदा जा सकता है। उत्पादन और प्रबंधन की तकनीकों में तीव्रगामी सुधार और प्रतियोगिता को एक मूल्य मान लिए जाने के कारण करीब-करीब दूसरी औद्योगिक क्रांति की स्थितियां उपस्थित हो गई हैं। उपभोक्ता,कीमत के प्रति और उत्पादक,लागत के प्रति अत्यंत सतर्क होते हैं। ये ग्लोबल कंपनी इस अर्थ में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से भिन्न होती हैं कि वह सभी स्थानों पर बिल्कुल समान,एक सी वस्तु बेचती हैं। स्थानीक आधार पर पाया जानेवाला रुची-वैविध्य घटता जाता है और इसके बरअक्स सभी स्थानों पर रुचियों में एक जैसा पन आने लगता है। इसके परिणामस्वरुप उत्पाद,उत्पादन-विधियों,विक्रय और वित्त इत्यादि से संबंधित वैश्विक मानक व्यव्हृत होने लगते हैं, क्योंकि समूचे विश्व में बेची जा रही वस्तु में कृत्रिम अंतर नहीं है और वह एक वैश्विक मानकीकरण के अंतर्गत है कि स्पर्धा भी वैश्विक ही होगी।
परंतु साथ ही उतना ही सच है कि एक ग्लोबल कंपनी स्थानीय बाजार, वहाँ की संस्कृति तथा उपभोक्ताओं कि प्राथमिकताओं आदि को जानने में अधिक दिलचस्पी रखती है। सोनी कार्पोरेशन के अकीओ मोरिता इसे ''वैश्विक स्थानिकरण''अथवा ''मल्टीनैशनल्स''का उदय कहते हैं। बाजार ही चीज के सापेक्षिक महत्व को निर्धारित करने लगता है। बाजार में जो योग्यतम सिध्द होगा वही टिकेगा। जीवन के सभी पहलू जिस केन्द्र से नियंत्रित और निर्देशित होंगे वह है बाजार।
जहाँतक भाषा का सवाल है,बाजार इस बात को अपने हित में मानता है कि भाषाओं की संख्या जितनी कम हो सके हो, इतनी अधिक भाषाओं की क्या जरुरत है? यही नहीं एक भाषा में भी एकाधिक यानी पर्यायवाची शब्दों की जरुरत नहीं है। हम साफ देख सकते हैं कि आज हमारा शब्द-भंडार किस तेजी से घट रहा है। यह सच है कि कंप्यूटर आदि से संबध्द ढेरों नए शब्द हमारी शब्दावली में शामिल हुए हैं परंतु अब हम अपने दादा -परदादा की तरह बहुत सारी वनस्पतियों, कीटों और बहुत-सी दूसरी चीजों के नाम नहीं जानते। बाजार हमारे घर बल्कि दिलोदिमाग में भी घुसता जा रहा है और हम बडी तेजी से, शब्दों के रसिक नहीं,शब्दों के उपभोक्ता बनते जा रहे हैं।ऐसे में, जैसा कि यूनेस्को की एक रिपोर्ट बताती है कि हर वर्ष संसार से अनेक जैविक प्रजातियों की ही तरह बीसियों भाषाएं भी सदा के लिए लुप्त होती जा रही हैं। अंतत: कुछ बडी सक्षम भाषाएं ही शायद बची रह पाएँ।
इस दृष्टि से, किसी विश्वसनीय निष्कर्ष तक पहँचने में सहायक हो सके ऐसा कोई विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन या आंकडे उपलब्ध नहीं हैं।
ऐसे में, यह संभावना अधिक आशाजनक नहीं लगती कि निजी क्षेत्र में राजभाषा संबंधी प्रावधानों को लागू किया जाए। वैसे भी हिस्सेदारी वाले निजी उपक्रमों में तो ये प्रावाधन लागू होंगे ही। पर इससे शायद ही कोई अंतर पडे।
अधिकतर लोगों को हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी में रोजगार की विश्वव्यापी संभावनाएं दिखाई पड़ने लगी है। सॉफ्टवेयर क्षेत्र में अमेरिका तथा पश्चिमी राष्टों में भारतायों ने चीनियों आदि को पीछे छोड़ते हुए अपने ज्ञान की भी अहम भूमिका का परिचय दिया है। चीन और जापान जैसे देश तक में अब अंग्रेजी का प्रचार -प्रसार बढ़ रहा है।
यह सच है कि हिंदी के उद्भव और विकास का समूचा कालखंड उसके लिए निहायत प्रतिकूल रहा है और स्वाधीनता से पूर्व तक वह प्रायः राजाश्रय विहीन ही रही. हिंदी मूलतः भारतीय जन की ओर जन-प्रतिरोध की ही भाषा रही है. लेकिन वर्तमान सांस्कृतिक भूमंडलीकरण ने हिंदी के समक्ष अत्यंत गंभीर तथा अभूतपूर्व चुनौती प्रस्तुत की है. सांस्कृतिक भूमंडलीकरण तो आर्थिक भूमंडलीकरण के बाद होना ही है. भूमंडलीकरण के एक निहितार्थ के तौर पर कह सकते हैं कि बाजार की शक्तियों व बाजारवाद के लिए पोषक संस्कृति और उस संस्कृति पर पश्चिमी अमरिकी वर्चस्व। सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए जैसा कि हावर्ट शीलर जैसे विचारकों का मत है भाषा माध्यम पर वर्चस्व जरूरी है. यूं तो ’वर्चस्व’ शब्द का उपयोग मुख्य रूप से सत्ता और राजनीति के संदर्भ में ही होता आया है. पर विगत वर्षों में इसे संस्कृति और भाषा के क्षेत्रों में भी लागू किया जा रहा है. अन्य विकासशील देशों की तरह ही भारत और उसकी राजभाषा। राष्ट्रभाषा हिंदी भी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से दो-चार है।
मीडिया इत्यादि के द्वारा बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सांस्कृतिक उत्पादों के लगातार विकाशशील देशों में प्रवेश के चलते यहां की संस्कृति तथा भाषाओं के लिए खतरा पैदा हो गया है. इंटरनेट, टी.वी. चैनल और सिनेमा जैसे माध्यमों के जरिए अंग्रेजी की पैठ बढती जा रही है या वह हमारे यहां एक ग्लोबल भाषा के रूप में पैर जमाती जा रही है इसके विपरीत हमारे सांस्कृतिक उत्पादों के लिए अमरीका आदि में अत्यल्प बाजार है।
इसमें संदेह नहीं कि अपने उद्भव - काल से ही हिंदी को निरन्तर प्रतिकूलताओं से सामना करते रहना पडा है। स्वतंत्रता से पूर्व वह कभी राजभाषा या राज्याश्रय-प्राप्त भाषा नहीं थी। पर वह जनप्रतिरोध की भाषा, जन-आकांक्षा का खुला मंच और इस महादेश की संश्लिष्ट, सामासिक- संस्कृति की सशक्त पहचान बनकर जनभाषा बनी। उपमहाद्वीप के प्राय: हर क्षेत्र में न्युनाधिक रूप में हिंदी की उपस्थिति उसकी विलक्षण क्षमता की परिचायक हैं। हिंदी की इसी क्षमता को पहचानते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा अन्य राष्ट्रनायकों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा की सम्मानयुक्त संज्ञा दी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद देश में स्थितियों ने हिंदी के मार्ग को और अधिक कंटकाकीर्ण बना दिया। हालांकि इन स्थितियों को भारतीय राष्ट्र-राज्य की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में ही देखा-समझा जाना होगा। पहले के हिंदी-उर्दू या हिंदी-हिन्दुस्तानी विवाद तो अब प्राय: अप्रासंगिक हो चले, लेकिन क्षेत्रीय अस्मिताओं के उभार ने राष्ट्रीय अस्मिता और उसका प्रतिनिधित्व कर रही हिंदी को कमजोर करने की दिशा में काम किया। 'अंग्रेजी हटाओ'या 'हिंदी लाओ'जैसे नारों ने हिंदी या राजभाषा के सवाल को सुलझाने की बजाय और उलझा दिया। भाषा को लेकर संकीर्णताओं ने नए दायरे खडे करने के प्रयास चलते रहे। उत्तर बनाम दक्षिण और आर्य बनाम द्रविड जैसे विवादों को वोट की राजनीति ने हवा दी और परिणामत: जहाँ एक ओर नवोदित राष्ट्र के पुनर्गठना की विसंगतियों को चौडा किया गया वहीं एक अंतरदेशीय सांस्कृतिक सेतु के रूप में हिंदी की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पडा। क्षेत्रीय तथा उप क्षेत्रीय अस्मिता के पक्षधर राजनीतिज्ञों ने अगर मातृभाषाओं के साथ-साथ हिंदी को भी जोडा होता तो कदाचित आज वैश्वीकरण की चुनौती का सामना करने की दृष्टि से हिंदी अधिक अच्छी स्थिति में होती। पर आज तो हम देख रहें हैं कि राजस्थानी और भोजपुरी जैसी हिंदी की बोलियों को ही हिंदी के समानान्तर खडा किया जा रहा है। आशा की जा सकती है कि यह एक अस्थायी प्रवृत्ति ही साबित हो।
आज हिंदी अपने लचीलेपन का पूर्वापेक्षा अधिक परिचय दे रही है। उर्दू, अंग्रेजी, अन्य भारतीय भाषाओं तथा अपनी बोलियों से हिंदी उदारतापूर्वक शब्द ग्रहण कर रही है। फिर भी भाषा के कुछ स्वयंभु खलीफा हिंदी को और अधिक सरल बनाए जाने का राग अलापते रहते हैं। हालाकिं ऐसी सलाह कोई अंग्रेजी के लिए नहीं देता ।
राष्ट्रलिपि देवनागरी तो और भी अधिक बडी चुनौती से दो चार है। देश विदेश में हिंदी की लिपि के रूप में रोमन का व्यवहार दैनिक जीवन में बढा है। भारत देवनागरी के जरिये ही अपने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की महान विरासत से जुडा रह सकता है।
हिंदी पुस्तकों के प्रकाशन तथा विक्री के आकडे देकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि हिंदी की लोकप्रियता बढ. रही है। लेकिन ऎसे दावे भी अंशत: ही ठीक हैं। हिंदी पुस्तकों की बिक्री मुख्यत: सरकारी तथा संस्थागत खरीद तक ही सीमित है।
निष्कर्षत: कहना पड़ता है कि निकट भविष्य में हिंदी की स्थिति में सुधार और सच्चे अर्थो में उसके राजभाषा बनने की संभावना बहुत कम है। विदेशों में रहनेवाले भारतीयों के लिए भी हिंदी का महत्व अधिकांश में प्रतीकात्मक ही है। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्यापन बंद होता जा रहा है, जैसा कि हाल ही में कैम्ब्रिज में हुआ। जहॉ हिंदी पढ़ाई भी जा रही है वहॉ छात्रों की संख्या अत्यल्प है। ऐसे में हिंदी के बोली मात्र बन कर रह जाने का खतरा अवास्तविक नहीं कहा जा सकता।

Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>