टेलीग्राम: 1857 का विद्रोह 'दबाने'वाले की मौत
- 13 जुलाई 2013
भारतीयडाक-तार सेवा के इतिहास पर शोध करने वाले अरविंद कुमार सिंह बताते हैं, ‘1857 के विद्रोह के वक़्त अंग्रेज़ों के टेलीग्राफ़ विभाग की असल परीक्षाहुई, जब विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों को जगह-जगह मात देनी शुरू कर दी थी.अंग्रेज़ों के लिए तार ऐसा सहारा था जिसके ज़रिए वो सेना की मौजूदगी, विद्रोह की ख़बरें, रसद की सूचनाएं और अपनी व्यूहरचना सैकड़ों मील दूर बैठेअपने कमांडरों के साथ साझा कर सकते थे.’
( भारत में तार सेवा हमेशा के लिए बंद होने जा रही है)
हिटलिस्ट में थे टेलीग्राफ़ ऑफ़िस
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि तार की वजह से बग़ावत दबानेमें अंग्रेज़ों को काफ़ी मदद मिली. एक तरफ़ विद्रोहियों के पास ख़बरेंभेजने के लिए हरकारे थे, दूसरी तरफ़ अंग्रेजों के पास बंदूक़ों के अलावासबसे बड़ा हथियार था- तार, जो मिनटों में सैकड़ों मील की दूरी तय करता था.इस वजह से अंग्रेज़ों का टेलीग्राफ़ विभाग बाग़ियों की हिट लिस्ट में आगया.नतीजा यह हुआ कि दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, इंदौर जैसी जगहों परबाग़ियों ने तार लाइनें ध्वस्त कर दीं और वहां काम कर रहे अंग्रेज़कर्मचारियों को मार डाला. मेरठ समेत कई जगहों पर बाग़ियों ने तार के खंभोंको जलावन की तरह इस्तेमाल किया.कुछ जगह तार गोलियां बनाने के काम आए. लोहारों ने खंभों का इस्तेमाल तोप बनाने तक में किया. 918 मील लंबी तार की लाइनें तोड़ दी गईं.अरविंदकुमार सिंह बताते हैं, ‘बिहार के सासाराम और आरा, इलाहाबाद और अलीगढ़ मेंइन्हें उखाड़कर तोप की तरह इस्तेमाल किया गया. दिल्ली में विद्रोही तारविभाग के काम से इतने नाराज़ थे कि जब उन्हें कुछ समझ न आया तो उन्होंनेराइफल के कुंदों से तार मशीनें ही तोड़ डालीं.'
बाद में सन 1902 मेंइन कर्मियों की याद में दिल्ली में टेलीग्राफ मैमोरियल खड़ा किया गया. जिसपर उन कर्मचारियों के नाम दर्ज किए गए जिन्होंने विद्रोह की ख़बरें तार सेभेजते हुए जान गंवाई थीं.
1857 के बाद बिछीं सैकड़ों मील लंबी लाइनें
आज़ादी के बाद 1 जनवरी 1949 को नौ तारघरों– आगरा, इलाहाबाद, जबलपुर, कानपुर, पटना और वाराणसी आदि में हिंदी में तार सेवा कीशुरुआत हुई. आज़ादी मिलने के बाद भारत ने पहली पंचवर्षीय योजना में हीसिक्किम के खांबजांग इलाके में दुनिया की सबसे ऊंची तार लाइन पहुंचा दी.
162 साल पुराने तार की कहानी
कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में प्रोफ़ेसर रहे शांगुनसे को भारत में तार का जनक कहा जाता है.11 फरवरी 1855 को आम जनता के लिए यह सुविधा शुरू हुई. तब एक रुपए में 16 शब्दों का तार 400 मील की दूरी तक भेजा जा सकता था.पहलीप्रायोगिक तार लाइन 21 मील की थी जो 1839 में डब्ल्यू बी ओ शांगुनसे औरउनके सहयोगी एफ़ बी मोर्स की पहल पर कलकत्ता-डायमंड हार्बर के बीच बिछाईगई.यह लाइन 5 नवंबर 1850 को ही खोली जा सकी, जब शिबचंद्र नंदी काडायमंड हार्बर से भेजा गया संदेश गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी की मौजूदगी मेंपढ़ा गया.
1854 में कोलकाता से आगरा टेलीग्राफ़ लाइन से जुड़ा और क़रीब 800 मील की दूरी कुछ मिनटों में तय हो गई.अक्टूबर 1854 में पहली बार टेलीग्राफ़ एक्ट बनाया गया.
‘रेल से पहले आया था तार’
1849 तक भारत में एक किलोमीटर रेलवे लाइन तक नहीं बिछी थी. 1857 के बाद रेलवेलाइन बिछाने पर ब्रिटिश सरकार ने पूरी तरह ध्यान देना शुरू किया. इसके बाद 1853 में पहली बार बंबई (मौजूदा मुंबई) से ठाणे तक पहली ट्रेन चली.सन 1865 के बाद देश में लंबी दूरियों को रेल से जोड़ना शुरू किया गया लेकिन तार उससे पहले ही अपना काम शुरू कर चुका था.
अरविंदकुमार सिंह कहते हैं, 'भारत में रेलों के विस्तार से पहले ही तार का आगमनहो चुका था. इसने उस वक़्त समाज को नज़दीक किया और उसके एकीकरण का कामकिया. इसके अलावा इसका सबसे बड़ा फ़ायदा अंग्रेज़ों को अपना नागरिक औरसैन्य प्रशासन मज़बूत करने में मिला.'
‘ख़बरें 10 दिन नहीं, 10 मिनट में पहुंचीं’
भारतीयमीडिया के लिए तार एक वरदान ही था. भारत में जब अख़बारों की शुरुआत हुई तोउस वक़्त देश के किसी हिस्से में होने वाली घटना की ख़बरें एक हफ़्ते या 10 दिन बाद तक अख़बारों में जगह हासिल कर पाया करती थीं.मगर तार केइस्तेमाल के बाद उन्हें उसी दिन छापना मुमकिन हो पाया. इसके लिए ब्रिटिशसरकार ने अख़बारों को ख़ास किस्म के कार्ड मुहैया कराए थे.
अरविंदकुमार सिंह ने बताया, "तार की वजह से ही अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ख़बरें भीतेज़ी से अख़बारों के पन्नों पर आने लगीं. यह बात भी कही गई कि ये सुविधाबंद कर दी जाए. मद्रास कूरियर अख़बार पर सरकार ने बंदिशें लगाने की कोशिशभी की, लेकिन बंगाल असेंबली की मीटिंग में इसका जमकर विरोध हुआ और इसेदेखते हुए इनलैंड टेलीग्राम पर रोक नहीं लगाई जा सकी."
भारत में तारअब इतिहास का हिस्सा बनने जा रहा है. हो सकता है कि ईमेल, मोबाइल फ़ोन औरइंटरनेट मैसेंजर की दुनिया में पली-बढ़ी पीढ़ी इसके लंबे इतिहास और अहमियतको भूल ही जाए.
मगर जिस टेलीग्राम ने भारत को एक कोने से दूसरे तकजोड़ने में मदद की, ब्रिटिश राज को पैर जमाने में जिसने अपना योगदान दिया, वो आसानी से भूल जाने योग्य नहीं है.