मुरेश कुमार
सन् 2014 मीडिया को नए ढंग से परिभाषित करने का वर्ष रहा है। ये भी कहा जा सकता है कि वह उसी दिशा में एक क़दम आगे और बढ़ा है जिसमें उसकी यात्रा नवउदारवादी दौर में चल रही थी और ये भी सच है कि ये मीडिया के असली चरित्र से परदा उठने का साल रहा है। उसका ढाँचा, उसके उद्देश्य, उसके निर्माता, निर्देशक और उसके लाभार्थियों, सबके चेहरे पिछले 365 दिनों में मानो बेनकाब हो गए। वह किसका स्वार्थ साधक है, उसके सरोकार क्या हैं, लोकतंत्र के प्रति उसका रवैया क्या है और वह किस दिशा में जा रहा है, इन सबको लेकर किसी तरह की ग़लतफ़हमियों के लिए कोई गुंज़ाइश बीते वर्ष ने नहीं छोड़ी है। वे प्रवृत्तियाँ जो उसके अंदर उसके जन्मकाल से ही विद्यमान थीं, लेकिन दबी-छिपी होने की वजह से भ्रम पैदा करती थीं, इस परिवर्तनकारी वर्ष में ख़त्म हो गई हैं। ये सचमुच सच का सामना करने का समय है। उस कड़वे सच का जो हमें यथार्थ की ज़मीन पर निर्ममता से पटककर कह रहा है कि भ्रमों की भूल-भुलैया से निकलो, मुख्यधारा के मीडिया द्वारा गढ़ी जा रही भ्रांतियों में मत फँसो, मृग मारीचिकाओं का पीछा मत करो और नए विकल्प खोजो। ये मीडिया न तो लोकतंत्र का हितैषी है और न ही जनहितकारी है। ये कार्पोरेट का दलाल है, मार्केट का एजेंट है। ये फासीवादी बनने को उद्धत है, निरंकुशता का पुजारी है, व्यक्तिवाद का महिमामंडन करता है, समाज को गुमराह करता है।
बीते वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण घटना ज़ाहिर है कि आम चुनाव में विजय हासिल करके नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार का सत्तारोहण और फिर उसके बाद बदला हुआ राजनीतिक परिदृश्य रही। समूचा मीडिया सब कुछ भूलकर इसी एक घटना के इर्द-गिर्द परिक्रमा करता रहा। पत्रकारीय विवेक को परे रखकर उसने वही किया जो मोदी और उनकी सेना ने चाहा। परोक्ष रूप से उसने मार्केट के द्वारा प्रोजेक्ट किए गए नेता को सत्तारूढ़ करवाने में अपना भरपूर योगदान दिया। पहली बार लोगों ने कार्पोरेट जगत के द्वारा संचालित मीडिया की भूमिका को करीब से जाना-पहचाना। सबने महसूस किया कि मीडिया की निष्ठा किसके प्रति है और वह उसे सिद्ध करने के लिए कितना निर्लज्ज हो सकता है। उसने नवउदारवादी एजेंडा को अपना एजेंडा बना लिया और वही सब करने लगा जो उद्योग एवं व्यापार जगत चाहता था और जिसके लिए उसने मोदी को अपना प्रतिनिधि के रूप में पेश किया था। माहौल बेशक़ मनमोहन-सोनिया की सरकार के विरूद्ध था, लेकिन उसके प्रति घृणा का वातावरण बनाने और मोदी एंड कंपनी को एकमात्र विकल्प के रूप में पेश करने का काम उसी ने किया। इसके लिए उसने बहुत सारे तथ्यों को छिपाया, बहुतों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया और कई मिथ गढ़े। मार्केटिंग के ज़रिए गढ़े गए तमाशों को उसने इस तरह पेश किया मानो भारत में नए युग का सूत्रपात हो गया हो और अब रामराज बस आने वाला है। उसने आलोचनात्मक दृष्टि को छोड़ दिया और प्रशंसात्मक शैली को अपनाते हुए अपने और अपने आकाओं के उद्देश्यों में खुद को झोंक दिया। सबसे ख़तरनाक़ बात तो ये थी कि उसने उन फासीवादी शक्तियों से सीधी मुठभेड़ करने से कन्नी काट ली जो लोकतंत्र को पटरी से उतारने, बहुसंख्यकवाद को स्थापित करने और भय तथा आतंक के वातावरण के स्रजन में प्राणपण से जुटा हुआ था। सांप्रदायिक सद्भाव की आड़ में वह विवादों और विद्वेष को हवा देता रहा। मीडिया के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर मोदीकाल के छह महीनों में कम से कम एक दर्ज़न ऐसे मुद्दे उठे हैं जिन्हें सीधे-सीधे सरकार के संरक्षण में, उसके इशारे से हवा दी गई। प्रधानमंत्री की खामोशी, साध्वी निरंजन ज्योति, साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ और इन सबके महागुरू अमित शाह जैसे कुख्यात लोगों को छोड़ दें, मंत्रिमंडल के सदस्यों और बीजेपी के नेताओं ने भड़काऊ बयानों की जैसी फसल काटी है, वह स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में अभूतपूर्व रही है। लेकिन क्या मीडिया ने इसे इस रूप में देखा और दिखाया। नहीं, वह ऐसा करने में नाकाम रहा और इसकी वजह पत्रकारों की कमअक्ली नहीं सरकार और प्रबंधन का दबाव रहा है। कहने का मतलब ये है कि चुनाव के ज़रिए सन् 2014 मुख्य धारा के मीडिया के चरित्र में आए लगभग स्थायी बदलाव का साल रहा है। यानी आप चाहें तो बेहिचक कह सकते हैं कि मीडिया अब पूरी तरह जनता की नहीं, मालिकों, कार्पोरेट जगत और सत्ताधारियों की आवाज़ बन चुका है। कार्पोरेट के कसते शिकंजे का ही परिणाम था नेटवर्क 18 का मुकेश अंबानी द्वारा अधिग्रहण और राजदीप सरदेसाई तथा सागोरिका घोष की वहाँ से अचानक विदाई। कुछ और बड़े मीडिया समूहों में कार्पोरेट हिस्सेदारी में इज़ाफ़ा हुआ, जिसका मतलब है उनका नियंत्रण बढ़ना। ज़ी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा और उद्योगपति नवीन जिंदल का टकराव भी इसी का एक नमूना था। मुकेश अंबानी का मीडिया साम्राज्य बढ़ता जा रहा है और वह दिन भी दूर नहीं जब हम उनका एकाधिकार देखेंगे। कुछ लोग इसे कंसोलिडेशन का नाम दे रहे हैं यानी अब धीरे-धीरे मगरमच्छ छोटी मछलियों को निगल जाएंगे और उन्हीं का साम्राज्य कायम हो जाएगा। निश्चय ही अधिग्रहण और विलय की ये प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, बिना किसी ठोस तैयारी और बड़े खज़ाने के चलने वाले चैनलों की शामत आने वाली है। हालाँकि विरोधाभास ये भी है कि चैनलों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा होता जा रहा है। मंत्रालय की सूची के मुताबिक भारत में इस समय 821 चैनल हैं जिनमें से 407 तो न्यूज़ के ही हैं। पत्र-पत्रिकाओं की संख्या भी पचान्नवे हज़ार के आसपास जा पहुँची है।
बहरहाल, मीडिया के इस कारोबारीकरण ने पत्रकारिता और पत्रकारों की साख को पूरी तरह से पलीता लगा दिया। बहुत सारे पत्रकार इस साल फिसलते नज़र आए। यही वजह थी कि मोदी ने उन्हें न्यूज़ ट्रेडर के तमगे से नवाज़ने की हिम्मत जुटा ली और वे बेशर्मी से खिखियाते रह गए। अब बड़े पत्रकारों को या तो कार्पोरेट हितों का प्रतिनिधि माना जाता है या फिर उन्हें दलालों की तरह देखा जाने लगा है। कुछ पत्रकार तो वाकई में फिक्की और सीआईआई के नौकर हो गए। बहुत सारे पत्रकार इस साल विभिन्न दलों के बाकायदा सदस्य भी बने। एम जे अकबर जैसे लोग प्रवक्ता बनने तक से नहीं शर्माए तो हरिवंश नीतीश कुमार के प्रति अपनी निष्ठाओं का पुरस्कार राज्यसभा की सदस्यता के रूप में प्राप्त करके उपकृत हुए। कई नामचीन पत्रकारों की विशाल संपत्ति के चर्चे मीडिया में प्रमाण सहित सामने आए। ज़ाहिर है ये पत्रकारीय हुनर से तो नहीं ही इकट्ठी की गई होगी। मीडिया संस्थानों ने भी धन उगाही के लिए भयादोहन आदि के तरीकों को और तरज़ीह दी। पेड न्यूज़, क्रास प्रमोशन आदि हथकंडों का चलन और बढ़ गया।
मीडिया में सुधार की आवाज़ें इस साल एकदम से बिला गईं। सेल्फ रेगुलेशन के पैरोकारों को या तो अपनी सीमाओं अथवा मिथ्या धारणाओं का एहसास हो गया या फिर वे भी कार्पोरेट की बारात में शामिल हो गए। मीडिया के शैशवास्था में होने की उनकी दलील कितनी खोखली थी ये भी साफ़ ज़ाहिर हो गया। इलेक्ट्रानिक मीडिया बच्चा नहीं है और अगर है भी तो ऐसा शैतान बच्चा है, जिसे अपने स्वार्थ सिद्ध करने के सारे गुर आते हैं। वह झूठ बोलता है, धोखा देता है, डराता-धमकाता है और अपने भोलेपन की आड़ में बहुत कुछ ऐसा करता है जिसकी किसी बच्चे से अपेक्षा नहीं की जा सकती। वैसे ये कहना ज़्यादा सही होगा कि उस बच्चे को शातिर दिमाग चला रहे हैं। बड़बोले मार्कंडेय काटजू दूसरे कार्यकाल के चक्कर में मीडिया को दुरूस्त करने की बात भूल गए और न्याय व्यवस्था और राजनीतिज्ञों को पाठ पढ़ाने में लग गए। नई सरकार ने सरकारी मीडिया को पूरी तरह से टेक ओवर कर लिया। सरकारी नियंत्रण में चलने वाले तमाम मीडिया संस्थान यानी प्रसार भारती से लेकर लोकसभा, राज्यसभा टीवी तक सब मोदी के गुणगान करने लगे। वहाँ तमाम नियुक्तियाँ संघनिष्ठा के आधार पर की जा रही हैं इसलिए ज़ाहिर है कि उन्हें किस काम के लिए तैयार किया जा रहा होगा। निजी चैनलों को तो मोदी और उनके कारकूनों ने पहले से ही कस दिया था इसलिए उनकी तरफ से कोई विरोध न होना था न हुआ। दरअसल, मीडिया को झुकाने की कोशिश की गई थी लेकिन अब उनके चरणों में लोट रहा है। पत्रकार मोदी के दरबार में हाज़िरी लगाने और उनके साथ सेल्फी के लिए मरे जा रहे हैं।
यही है इस साल की सबसे महत्वपूर्ण प्रवृत्ति कि मीडिया के संघीकरण हो गया है और उसी का नतीजा है कि धर्म तथा जाति का महत्व बढ़ गया है (याद करें राजदीप सरदेसाई का जीएसबी प्रसंग)। सवर्ण हिंदू जातियाँ अब ठस्से से मीडिया के एजेंडे को सेट कर रही हैं, जिससे उसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र तो ध्वस्त हो ही रहा है, वह ऐसी राजनीति का भी हमसफर बन गया है जो खुले आम फासीवाद की वकालत करता है। इस्लामी आतंकवाद की इकहरी व्याख्या करके वे एक धर्म विशेष के प्रति ऩफरत का लावा उगलते रहते हैं। लव जिहाद, गोडसे का महिमामंडन, धर्मांतरण, गो-रक्षा आदि वे सारे मुद्दे प्रमुखता से मीडिया में छा गए हैं जो विद्वेष को बढ़ाते हैं। मीडिया इस तरह के अभियान चलाने वालों को खुली बहस का नाम देकर मंच मुहैया करवा रहा है। वे मीडिया का इस्तेमाल करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को अंजाम दे रहे हैं।
पत्रकारिता के चरित्र में एक बदलाव ये देखने में आया कि उसमें रिपोर्टिंग का तत्व कमतर होता चला गया। न्यूज़ एजेंसी एनएऩआई सारे चैनलों का सबसे बड़ा ज़रिया बन गई। उसी की ख़बरें सारे चैनलों पर छा गईं। वही लाइव उपलब्ध करवाने लगा और यहां तक कि नरेंद्र मोदी ने उसे लंबा इंटरव्यू दिया जो सभी चैनलों ने बढ़-चढ़कर दिखाया। इससे विविधता का विकल्प ख़त्म हो गया। रही-सही कसर राजनीतिक दलों, ख़ास तौर पर बीजेपी द्वारा मुफ़्त में फीड उपलब्ध कराए जाने से पूरी हो गई। मोदी की सेना ने सभी दलों को एक ही तरह की लाइव सुविधा प्रदान कर दी, जिससे उनके संसाधन तो बच गए मगर उन्होंने खुद को इस्तेमाल होने के लिए भी प्रस्तुत कर दिया। धन बचाने की प्रवृत्ति मीडिया में इस तरह हावी हो गई कि प्रमुख घटनाओं के कवरेज के लिए भी मीडिया घरानों ने संवाददाताओं को नहीं भेजा और एजंसियों से मिलने वाली सामग्री को ही सजा-सँवारकर दिखाया। यही वजह है कि छोटे-मोटे स्टिंग ऑपरेशन के अलावा इस वर्ष मीडिया ने बड़ी स्टोरी ब्रेक नहीं कीं। ले-देकर एक वेद प्रताब वैदिक द्वारा हाफ़िज़ सईद का हल्का-फुल्का इंटरव्यू उसकी उपलब्धि कही जा सकती है। बाक़ी तो वे इधर-उधर से मिलने वाली ख़बरों का पीछा ही करते रहे। ख़ास तौर पर व्यापार एवं उद्योग जगत के काले कारनामों को उजागर करने के मामले में तो उन्होंने ज़ुबान सिलकर रखी। ये मीडिया में रिपोर्टिंग की हत्या का भी साल रहा। हालाँकि ये दुनिया भर में हो रहा है और आप कह सकते हैं कि नवउदारवादी मीडिया की पॉलिटिकल इकॉनामी का ही हिस्सा है। केवल इंडियन एक्सप्रेस और हिंदू ही दो ऐसे मीडिया संस्थान रहे जिन्होंने काफी हद तक मीडिया की नाक बचाए रखी। टीवी चैनल अपनी वीरता का परिचय अपने गले से देते रहे।
सन् 2014 को सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और उसके आतंक दोनों ही चीज़ों के लिए याद रखा जाएगा। राजनीतिक दलों, ख़ास तौर पर मोदी के मीडिया मैनेजरों ने तो उसका जमकर इस्तेमाल ही नहीं किया बल्कि उसे रणभूमि में भी तब्दील कर दिया। मोदी की सेना ने जैसा गंद सोशल मीडिया में मचाया उससे उस मीडिया की उपयोगिता और सार्थकता ही संदिग्ध हो गई। उसने सामान्य शिष्टाचार का ही उल्लंघन नहीं किया बल्कि अपनी घृणा, विद्वेष और हिंसक व्यवहार से संवाद के वातावरण को दूषित कर दिया। लेकिन डिजिटल का दूसरा पक्ष ये भी है कि इलेक्ट्रानिक तथा प्रिंट मीडिया के लिए वह समाचारों का एक बड़ा स्रोत बन गया है। अब बहुत सारी ख़बरें ट्वीटर, फेसबुक आदि से ही पैदा हो रही हैं। पश्चिम में तो पत्र-पत्रिकाओं के दुर्दिन ही डिजिटल मीडिया की वजह से आ रहे हैं और वहाँ उसी का बोलबाला बढ़ रहा है। ताज़ ख़बर ये है कि ब्रिटेन में कुल विज्ञापन राजस्व का आधे से ज़्यादा डिजिटल मीडिया को जा रहा है। ये ट्रेंड देर अबेर भारत में भी आएगा। इसी के मद्देनज़र बड़े मीडिया घरानों ने डिजिटल मीडिया में निवेश बढ़ा दिया है और वे इस पर अधिक ध्यान भी केंद्रित करने लगे हैं।
ये साल मीडिया के आर्थिक संकट और पत्रकारों की छँटनी के लिए भी जाना जाएगा। इस साल कई छोटे-बड़े चैनलों के बंद होने की ख़बरें आईँ तो, कई बड़े नेटवर्क में बड़े स्तर पर छँटनियाँ भी हुईँ। इसमें नेटवर्क-18 अगुआ रहा। ख़बर भारती, पी7, भास्कर न्यूज़, 4रीयल न्यूज. आदि के बंद होने से बड़ी संख्या में पत्रकार बेरोज़गार हुए। इनमें से ज़्यादातर चैनल चिट फंड कंपनियों द्वारा चलाए जा रहे थे और जब उनकी मातृकंपनियाँ धोखाधड़ी के आरोपों में फँस गईं तो ऐसा होना लाजिमी हो गया। प्रिंट मीडिया में भी हालात कुछ बेहतर नहीं रहे। वहाँ से भी एकमुश्त छँटनी के समाचार पूरे साल सुनाई पड़ते रहे। आउटलुक समूह की कई पत्रिकाओं के बंद होने का मामला तो राष्ट्रीय मीडिया में बेहद उछला मगर क्षेत्रीय अख़बारों में हुआ कत्ले आम वहीं दबा रह गया। तमाम तरह की बहानेबाज़ियों तथा तिकड़मों के ज़रिए मजीठिया आयोग की सिफारिशें मानने से इंकार करने वाले अख़बारों को अंतत सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के सामने घुटने टेकने पड़े, लेकिन इसके बावज़ूद उन्होंने उन्हें लागू करने में बहुत तरह के घालमेल किए। अभी भी इसे लेकर कर्मचारियों में गहरा असंतोष है।
अगर कंटेंट के स्तर पर देखें तो वही सनसनी और मनोरंजनवाद हावी रहा। हालाँकि निर्मल बाबा लौट आया और कुछ नए बाबा भी कुंडली मारकर बैठ गए मगर पिछले दो साल में चुनावों की भरमार होने की वजह से मीडिया बेशक भूत-प्रेत और चमत्कार आदि छोड़कर राजनीति की तरफ लौट आया, लेकिन उसे प्रस्तुत करने का तौर तरीका सतही और अगंभीर था। ज़ाहिर है जब मक़सद टीआरपी जुटाना या प्रसार संख्या बढ़ाना हो जाए तो कंटेंट का ट्रीटमेंट, पैकेजिंग और प्रेजेंटेशन वही रहता है, उसमें कोई बदलाव नहीं आता। टेलीविज़न पर होने वाली बहसें भी इसी का शिकार रहीं। वे माहौल में उत्तेजना घोलने से ज़्यादा योगदान नहीं दे सकीं। दूससंचार नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई विज्ञापनों की अवधि 12 मिनट तक सीमित करने का निर्देश देने के बावजूद दर्शकों को किसी तरह की राहत देने में नाकाम रहा। वैसे ट्राई दूसरे मोर्चों पर भी कुछ नहीं कर पाया। मसलन, क्रॉस मीडिया ऑनरशिप के सवाल पर उसकी सिफ़ारिशें धूल खा रही हैं। मीडिया के स्वामित्व में पारदर्शिता लाने उसे संपादकीय सामग्री पर प्रभाव डालने से रोकने के लिए दी गई रिपोर्ट भी ठंडे बस्ते में डाल दी गई है। इसके पहले सैम पित्रोदा की भी रिपोर्ट का भी यही हश्र हुआ था। ज़ाहिर है कि सत्तातंत्र और मीडिया घरानों के बीच साठ-गाँठ का मामला है, जो मीडिया मे सुधार को होने ही नहीं देता। इसी तरह केबल डिस्ट्रीब्यूशन के डिजिटाइशन से टीवी चैनलों द्वारा जो उम्मीदें बाँधी गई थी वे भी बेकार साबित हुईं। केबल से वितरण के खर्च में बीस-तीस फ़ीसदी की कमी ज़रूर आई, लेकिन डीटीएच की लुटाई ने उन्हें वहीं ले जाकर खड़ा कर दिया। ये खर्च ही चैनलों का सबसे बड़ा संकट साबित हो रहा है क्योंकि कुल खर्च का ये पचास-साठ फ़ीसदी तक होता है।
सवाल उठता है कि नए वर्ष के लिए 2014 सबसे बड़ा संदेश क्या छोड़कर जा रहा है? वह कौन सी प्रवृत्ति है जो अवाँछित होते हुए भी उस पर हावी रहेगी? अगर संक्षेप में इसका जवाब देना हो तो कहा जा सकता है कि वे हैं तरह-तरह के भय और आतंक। ये भय पत्रकारों के जीवन में अस्थिरता और अनिश्चतता से लेकर सत्तातंत्र एवं उसके सहयोगी संघ परिवारियों तक के हैं। उद्योग-व्यापार जगत, पुलिस, सेना, नौकरशाही अब सबके सब उन लोगों की सेवा में हैं जो इस लोकतांत्रिक देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए कृत संकल्प हैं और इस हाथ आए मौके को चूकना नहीं चाहते। ऐसे में डेमोक्रेसी क्या और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या। उन्हें स्वेच्छाचारी, निरंकुश सत्ता अपने बूटों तले रौंदने के लिए तैयार बैठी है। इसने एक आतंक का स्रजन किया है। इसीलिए बहुत से लोग या तो पाला बदलकर सत्ताप्रतिष्ठान के साथ हो गए हैं या फिर अब खामोश रहकर सलामती की दुआएँ कर रहे हैं। ये एक अघोषित आपातकाल की सी स्थिति है। इस अघोषित आपातकाल का मीडिया कैसा होगा सोचा जा सकता है। ऐसे हालात में चाहता तो बहुत हूँ कि नए साल की शुरूआत में आशावादी रहूँ, मगर क्या करूं। बकौल ग़ालिब-
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती।
वैसे मीडिया के इस अंधकार युग में अगर अब उम्मीद की भी जा सकती है तो उन वैकल्पिक पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल मीडिया पर लगे जुझारूओं से जो तमाम जोखिम उठाकर जी जान से जुटे हुए हैं। पश्चिमी देशों में भी गंभीर पत्रकार यही कर रहे हैं। वे अपने तमंचों से मुख्यधारा के मीडिया की तोपों का मुक़ाबला कर रहे हैं और यकीन मानिए उनकी कोशिश प्रभाव दिखा रही है। क्या पता कल को हमारे देश में भी कोई जुलियन असांज, कोई एडवर्ड स्नोडेन इतना विस्फोटक जुटा ले कि मीडिया के होने का औचित्य लोगों को समझ में आए और उसकी पुनर्प्रतिष्ठा हो सके।
ख़बरों की दुनिया से इतर मनोरंजन चैनलों की अगर सुध ली जाए तो वहाँ ऐसा कोई परिवर्तनकारी चीज़ें नहीं हुईं जिन्हें चिन्हित किया जाए। ज़िंदगी नामक चैनल पर पाकिस्तानी धारावाहिकों और लघु फिल्मों का प्रसारण एक ताज़ा हवा का झोंका ज़रूर लाया मगर बाक़ी के चैनल मनोरंजन के उसी घिसे-पिटे फार्मूलों के इर्द गिर्द अपना कारोबार बुनते रहे। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के धारावाहिकों का एक और दौर आया मगर उनका ट्रीटमेंट या तो सांप्रदायिकता से ओत-प्रोत और पुनरूत्थानवादी रहा या फिर वे साज़िशों की अंतहीन गाथा के रूप में पेश किए गए। हाल में शुरू हुए एपिक चैनल की सामग्री का आकलन करने में अभी समय लगेगा