पु्रस्तुति-- प्रियदर्शी किशोर, उपेन्द्र कश्यप
उच्च्तम न्यायालय ने सूचना तकनीक कानून की धारा 66 ए को खत्म कर दरअसल, सोशल मीडिया को पुलिस के अनावश्यक भय से मुक्त किया है। न्यायालय ने सही कहा है कि सूचना तकनीक कानून की यह धारा संविधान के अनुच्छेद 19(1) का उल्लंघन है, जो भारत के हर नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। इसके अनुसार धारा 66 ए अभिव्यक्ति की आजादी के मूल अधिकार का हनन है।
यूपीए सरकार द्वारा लाया गया अनुच्छेद 66 ए निस्संदेह विधि के शासन के नाम पर एकाधिकारवादी धारा थी। इसके तहत दूसरे को आपत्तिजनक लगने वाली कोई भी जानकारी कंप्यूटर या मोबाइल फ़ोन से भेजना दंडनीय अपराध बना दिया गया था। इसका दुरुपयोग हर पार्टी कर रही थी। लेकिन इसमें समाजवादी पार्टी और कांग्रेस आगे थी। ममता बनर्जी ने भी इसका दुरुपयोग किया।
अनुच्छेद 66 ए निस्संदेह विधि के शासन के नाम पर एकाधिकारवादी धारा थी। इस कानून में दोषी पाए जाने पर व्यक्ति को तीन साल की सजा या जुर्माना या दोनों हो सकती थी।
धारा 66 ए में उसके दुरुपयोग की पूरी संभावना निहित थी और ऐसा हुआ। किसी नेता के खिलाफ पोस्ट पर किसी को जेल भेज देना आपातकालीन कानून सदृश कदम था। किसी व्यक्ति का पोस्ट राष्ट्र विरोधी औऱ सुरक्षा के लिए खतरा है तो इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई हो सकती है। इसके अलावा सूचना तकनीक मंत्रालय में सचिव के तहत एक कमेटी भी है, जिसके तहत आपत्तिजनक और राष्ट्र विरोधी पोस्ट को तुंरत हटाया जा सकता है। इस धारा की आवश्यकता नहंीं थी।
अभी तक कांग्रेस, शिवसेना या सपा नेता के खिलाफ कुछ लिखने पर जेल हो रही थी।
वास्तव में उच्चतम न्यायायलय ने संविधान मंे दिए गए लोगों के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कायम रखा है। अब किसी के पोस्ट पर किसी को आपत्ति होगी तो न्यायायलय फैसला करेगा कि ये गलत है या सही।
निस्संदेह, नेताओं की आलोचना किसी तरह काल कोठरी में जाने का कारण नहीं बनना चाहिए था। यह भी कहा जा रहा है कि लोग खुल कर अपनी बात रखने में भयभीत नहीं होंगे, क्योंकि जेल जाने का डर खत्म होगा।
पर यह सच है कि सोशल नेटवर्किंग विचार अभिव्यक्ति नियंत्रणविहीन है। विचार और शब्दों के स्तर पर ऐसे अतिवादी, आपत्तिजनक, अश्लील, असभ्य, गरिमाहीन, अनैतिक,झूठ,निराधार, तथ्यहीन.....अभिव्यक्तियां प्रसारित हो रहीं है जिनको कोई संतुलित और सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता।
इस फैसले से ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा नहीं मिलनी चाहिए। आत्मनियंत्रण सोच उनके लिए है जो इसके लिए तैयार हैं,जिनके पास विवेक है, जो घृणा व द्वेष से भरे नहीं हैं। इसलिए कोई तरीका निकलना चाहिए ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित न हो तथा सोशल मीडिया सही सूचना, विचार और संवाद का माध्यम बने।
धारा 66 ए में उसके दुरुपयोग की पूरी संभावना निहित थी और ऐसा हुआ। किसी नेता के खिलाफ पोस्ट पर किसी को जेल भेज देना आपातकालीन कानून सदृश कदम था। किसी व्यक्ति का पोस्ट राष्ट्र विरोधी औऱ सुरक्षा के लिए खतरा है तो इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई हो सकती है। इसके अलावा सूचना तकनीक मंत्रालय में सचिव के तहत एक कमेटी भी है, जिसके तहत आपत्तिजनक और राष्ट्र विरोधी पोस्ट को तुंरत हटाया जा सकता है। इस धारा की आवश्यकता नहंीं थी।
अभी तक कांग्रेस, शिवसेना या सपा नेता के खिलाफ कुछ लिखने पर जेल हो रही थी।
वास्तव में उच्चतम न्यायायलय ने संविधान मंे दिए गए लोगों के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कायम रखा है। अब किसी के पोस्ट पर किसी को आपत्ति होगी तो न्यायायलय फैसला करेगा कि ये गलत है या सही।
निस्संदेह, नेताओं की आलोचना किसी तरह काल कोठरी में जाने का कारण नहीं बनना चाहिए था। यह भी कहा जा रहा है कि लोग खुल कर अपनी बात रखने में भयभीत नहीं होंगे, क्योंकि जेल जाने का डर खत्म होगा।
पर यह सच है कि सोशल नेटवर्किंग विचार अभिव्यक्ति नियंत्रणविहीन है। विचार और शब्दों के स्तर पर ऐसे अतिवादी, आपत्तिजनक, अश्लील, असभ्य, गरिमाहीन, अनैतिक,झूठ,निराधार, तथ्यहीन.....अभिव्यक्तियां प्रसारित हो रहीं है जिनको कोई संतुलित और सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता।
इस फैसले से ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा नहीं मिलनी चाहिए। आत्मनियंत्रण सोच उनके लिए है जो इसके लिए तैयार हैं,जिनके पास विवेक है, जो घृणा व द्वेष से भरे नहीं हैं। इसलिए कोई तरीका निकलना चाहिए ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित न हो तथा सोशल मीडिया सही सूचना, विचार और संवाद का माध्यम बने।