आलोक तोमर का अंतिम लेख
मध्य प्रदेश में इंदौर और ग्वालियर में क्रिकेट के विश्व स्तरीय मैच हो जाते हैं और वहां भी बाकी देश की तरह खूब भीड़ होती है. ग्वालियर में अब तक हॉकी के सितारे और मेजर ध्यानचंद्र के भाई कैप्टन रूप सिंह के नाम पर बने स्टेडियम को ही क्रिकेट का स्टेडियम बना लिया जाता है और दिवंगत माधव राव सिंधिया ने दिन रात खेलने लायक बनाने के लिए रौशनियों का इंतजाम यहां कर दिया था. माधव राव सिंधिया क्रिकेट के पीछे इतने दीवाने थे कि उसके लिए मंत्रिमंडल की बैठक छोड़ सकते थे और अपने जन्मदिन के समारोह छोड़ सकते थे. छोड़ते भी थे.
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आलोक तोमर 27.12.1960-20.03.2011 |
अगर मर जाउं तो श्रद्धांजलि जरुर छापना.... होली वाले दिन दिल्ली से पत्रकार साथी अभिषेक श्रीवास्तव का संदेश आया तो लगा कि होली की शुभकामना होगी. लेकिन वह आलोक जी के निधन की सन्न कर देने वाली खबर थी. 2 दिन पहले उनके अस्पताल में भर्ती होने की खबर तो थी पर मैं आश्वस्त था कि वो मौत को फिर आंखें दिखा कर अस्पताल से लौट आयेंगे. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. लैंड लाइन के ज़माने में उनसे बात होती थी लेकिन मोबाईल के बाद एक संकोच बना रहता था कि जानें कहां और कैसी व्यस्तता हो. लेकिन मेल पर चैट चलता रहता था. अपने पुराने मेल बॉक्स को खाली करने की ज़रुरत के बीच आलोक तोमर के साथ के कई चैट अब भी बचे हुये हैं. 22 फरवरी 2009 को आलोक तोमर के साथ चैट का एक हिस्सा मेरे सामने है. उस दिन सुबह अस्पताल में थे वे. मैं ऑनलाइन हुआ तो बिखरी हुई रोमन हिंदी के एक वाक्य के साथ वो चैट पर आये- आलोक, मैं अस्पताल में हूं...जांच चल रही है.मैंने उन्हें लिखा- सब कुछ अच्छा होगा, तय जानिये.स्क्रीन पर उनका जवाब था- अगर मर जाउं तो श्रद्धांजलि छरुर छापना.मैंने हमेशा की तरह उन्हें उलाहना दिया- चकल्लस मत करिये. बेकार की बातें. मैंने कहा न, कुछ भी नहीं निकलेगा चेक-अप में.उन्होंने फिर बिखरे हुये अक्षरों में लिखा-डॉक्टर ने जो बोला, वही कह रहा हूं.मैंने फिर से लिखा- मान लिया. लेकिन दुनिया में ऐसा क्या है, जिसका इलाज नहीं हो ? और ये इतनी हताशा आलोक तोमर के शब्दों में है ?उनका कोई अस्पष्ट सा उत्तर था- paasal.मैंने उन्हें लिखा- मैं फिर कहूंगा-कुछ नहीं होगा आपको. चेक-अप की रिपोर्ट तो आने दीजिये.उन्होंने संक्षिप्त-सा जवाब दिया- ओके.मैंने फिर उन्हें लिखा- आप हमेशा मुश्किलों की ऐसी-तैसी करने वालों में से रहे हैं, अब भी वही कीजिए. उसके कुछ ही दिन बाद आलोक जी से बात हुई, पता चला कि अब ठीक हैं. मैंने मजाक किया- सहानुभूति लहर चलाना चाहते हो ?उन्होंने जवाब दिया- मर जाउंगा, तब फिर मत कहना गुरु ! उनके साथ कई वादे थे. सब पर पक्के की मुहर भी. कई वायदों के शनिवार या रविवार तक पूरे हो जाने की लिखित सहमति भी. इन वायदों के साथ दिन-महीने-बरस गुजर गये. लगता था कि ये वादे तो कभी भी पूरे हो जायेंगे. मन-मस्तिष्क में ढ़ेर सारी यादें उमड़-घुमड़ रही हैं. शमशेर बहादुर सिंह की कविता बहुत याद आ रही है- लौट आ, ओ धार! टूट मत ओ साँझ के पत्थर हृदय पर। ...(मैं समय की एक लंबी आह! मौन लंबी आह!) लौट आ, ओ फूल की पंखडी! फिर फूल में लग जा। चूमता है धूल का फूल कोई, हाय!! बहुत याद आयेंगे आलोक तोमर... ! आलोक प्रकाश पुतुल editor@raviwar.com |
इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं कि मध्य प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के वे लगभग हमेशा अध्यक्ष रहे और बीसीसीआई के अध्यक्ष पद पर भी मध्य प्रदेश से पहुंचने वाले वे अकेले पात्र थे. यह बात अलग है कि उनके उस चुनाव में दबा कर राजनीति हुई थी और शायद एक या दो वोट से उन्होंने क्रिकेट का सिंहासन अर्जित किया था. इस वोट के पीछे कोलकाता में रह चुके अमर सिंह का हाथ बताया जाता है और वोट भी जगमोहन डालमिया का बताया गया है और शायद यही वजह थी कि अमर सिंह को शुरूआती राजनीति में चंबल घाटी के मुरैना तक से जमाने में माधव राव सिंधिया ने पूरी रुचि दिखाई. वह तो अगर श्री सिंधिया बने रहते या उनके जाने के बाद कांग्रेसियों ने अमर सिंह को भाव दिया होता तो वे शायद मुलायम सिंह यादव के पास कभी नहीं जाते.
बाद में माधव राव सिंधिया ने पत्रकारिता से उठा कर राजीव शुक्ला को क्रिकेट की राजनीति में जगह दी और यह राजीव शुक्ला की प्रबंधन और राजनैतिक क्षमता का ही कमाल है कि शरद पवार के क्रिकेट दिग्विजय काल में वे पूरी ताकत से बने हुए है और अब तो ललित मोदी और बाकी बड़े बड़े खिलाड़ियों से पंजा लड़ाने की मुद्रा में आ गए हैं. माधव राव सिंधिया खुद भी खेलते थे और उनकी पीढ़ी के बिशन सिंह बेदी और गावस्करों से पूछो तो बुरा नहीं खेलते थे. वे राजनीति की शतरंज के लिए बने ही नहीं थे और क्रिकेट जैसी खुले हाथ वाली राजनीति करते करते अचानक चले गए.
अब माधव राव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया मध्य प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं. उन्हें किसी ने क्रिकेट खेलते नहीं देखा. वैसे पढ़े लिखे आदमी है. हावर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ चुके हैं, स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय से एमबीए कर चुके हैं और दुनिया भर का कारोबार तय करने वाली मैरिल लिंच और मोर्गन स्टेन्ले जैसी वित्तीय मूल्यांकन संस्थाओं में बड़े पदों पर काम करने के अलावा संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक प्रकोष्ठ में प्रशिक्षण ले चुके हैं.
मगर क्या यही योग्यताएं ज्योतिरादित्य सिंधिया को मध्य प्रदेश क्रिकेट का प्रशासन चलाने के लिए पात्र बनाती है. क्या इंदौर के जमीनी नेता और राम कथा से ले कर नगर निगम कथा तक में पारंगत कैलाश विजयवर्गीय को हराने भर से यह स्थापित हो जाता है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया क्रिकेट की राजनीति में भोपाल से आगे बढ़ेंगे और मध्य प्रदेश में भी क्रिकेट को उनसे बहुत ज्यादा उम्मीद करनी चाहिए. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में आनंद शर्मा ने जितना काम दिया है वही करते रहे तो उनके अपने लिए और शायद देश के लिए भी ठीक रहेगा.
मध्य प्रदेश में क्रिकेट की विरासत अच्छी खासी रही है और अगर ठीक से चलाया जाता तो मध्य प्रदेश की टीम तो अच्छा करती ही, देश की टीमें भी मध्य प्रदेश से बहुत लोग हो सकते थे. 1934 मे रणजी ट्राफी खेलने के लिए मध्य भारत की एक टीम बनाई गई थी और इसी तरह की दूसरी टीम 1939- 40 में बनाई गई. उस समय के राज परिवार होल्कर ने मध्य भारत की टीम के संयोजन का काम संभाला और खुद महाराजा यशवंत राव होल्कर 14 साल तक इस टीम के मैनेजर बने रहे. इस टीम में सी के नायडू और मुश्ताक अली जैसे खिलाड़ी थे और मध्य प्रदेश की टीम में रणजी चार बार जीती और छह बार रनर्स अप रहे. अब तो मध्य प्रदेश की टीम को रणजी के फाइनल में आए भी जमाना बीत गया है.
मध्य प्रदेश ने टीम के तौर पर 1950 में खेलना शुरू किया और महाराजा होल्कर 1954 और 1955 तक रणजी मैचों मे नजर आते रहे. फिर एक बार मध्य भारत टीम बनी मगर दो साल बाद इसे फिर मध्य प्रदेश में बदल दिया गया. मध्य भारत के मुख्यमंत्री रहे लीलाधर जोशी गोपीकृष्ण विजयवर्गीय और तख्तमल जैन की क्रिकेट में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. यह बात अलग है कि ऑफ स्पीनर चंदू सर्वटे 1946 से 1952 तक 9 बार भारत की टीम में पूरी दुनिया में खेले. मुश्ताक अली जैसे ऐतिहासिक रूप से प्रतिभाशाली खिलाड़ी और हीरा लाल गायकवाड़ भी भारतीय क्रिकेट के इतिहास में रहेंगे.
राजेश चौहान 21 बार भारत के लिए खेले और 47 विकेट ले कर यह साबित किया कि मध्य प्रदेश की जमीन में क्रिकेट की विरासत के लिए जगह है. नरेंद्र हिरवानी उत्तर प्रदेश से आ कर मध्य प्रदेश की टीम में शामिल हुए और पहले दर्जे की क्रिकेट में चार सौ से ज्यादा विकेट ले कर दिखाएं. वैसे संदीप पाटिल और चंद्रकांत पंडित जैसे खिलाड़ी भी मध्य प्रदेश की टीम के कैप्टन रह चुके हैं और अमय खुरसैया और नमन ओझा तो भारत की ओर भी खेल चुके हैं. इस विरासत का ज्यादातर हिस्सा मालवा और खास तौर पर इंदौर के पाले में जाता है मगर मध्य प्रदेश की क्रिकेट पर राजनैतिक दावेदारी फिलहाल ग्वालियर की है. होनी इंदौर की चाहिए थी मगर क्रिकेट शायद साहबों का खेल है और विश्व के सर्वश्रेष्ठ महापौरों की कतार में दो बार आ चुके कैलाश विजयवर्गीय तीन पीस का सूट और टाई नहीं पहनते और शायद इसीलिए अभिजात क्रिकेट के मैदान में नाजुक मिजाज ज्योतिरादित्य ज्यादातर अफसरों और क्लबों के वोटों से उन्हें हरा कर चले जाते हैं.
यह भाजपा और कांग्रेस के बीच का मामला नहीं है. आखिर भाजपा के बड़े नेता अरुण जेटली दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष है और यह बात अलग है कि वे बड़े वकील है और दक्षिण दिल्ली में रहने के अलावा शान से टाई वगैरह पहनते हैं. इंदौर के संदीप जोशी का नाम कम लोग जानते होंगे मगर क्रिकेट के दीवाने संपादक प्रभाष जोशी के इस बेटे ने वर्षों लंदन में काउंटी खेली है और कपिल देव से ले कर बड़े बड़े दिग्गजों के विकेट उड़ाए हैं. ऐसी प्रतिभाओं की तो गिनती ही नहीं है.
मध्य प्रदेश में क्रिकेट नहीं पनपेगी तो अंधेरा नहीं छा जाएगा मगर जब क्रिकेट के सितारे इलाहाबाद और बड़ोदरा के गली मोहल्लो के मैदानों से आ सकते हैं तो जहां पूरी विरासत हैं, संभावना हैं और दीवानगी हैं वहां क्रिकेट का विस्तार और सफलता की स्थापना क्यों नहीं हो सकती? ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में सुनते हैं कि वे अब मध्य प्रदेश की राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी लेने वाले हैं और उनका सपना मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा कांग्रेसी नेता बनने का है तो ऐसे में क्रिकेट को वे आखिर किससे सहारे छोड़ रहे हैं और क्या कभी इंदौर, ग्वालियर, भोपाल के किसी लड़के को हम क्रिकेट का सितारा बनता देखेंगे?
21.03.2011, 23.42 (GMT+05:30) पर प्रकाशित