मीडिया - No Comments » - Posted on March, 12 at 8:42 am
प्रभाष जोशी
कहा जा रहा है कि सारा संसार विश्वग्राम हो गया है। इसमें सभी छोटे हैं और बड़ी हैतो सिर्फ टेक्नोलाजी। जिस विज्ञान ने यह कहा कि द वर्ल्ड इज बिकमिंग अ ग्लोबलविलेज, वह ग्लोबल तो जानता था लेकिन विलेज को नहीं जानता था। गांव केवल छोटी सीबस्ती नहीं है बल्कि गांव एक जैविक समाज है। हम जिस टेक्नोलाजी को बढ़ा रहे हैं वहसब चीजों को छोटी करके जैविक समाज को नष्ट करने वाली टेक्नोलाजी है। यानी आदमी छोटाहै, उसकी मशीन उससे बड़ी है।
मोबाइलतो छोटा है। पर अगर उसके कारण मेरा सीधा संबंध पत्नी से होगा तब पत्नी से ज्यादामहत्वपूर्ण तो मोबाइल बन जाएगा। ये टेक्नोलाजी तार को तार से जोड़ने वाली है, दिल कोदिल से जोड़ने वाली नहीं। तो जिसने भी यह कहा कि दुनिया एक विश्व ग्राम बनती जा रहीहै वह छोटी बस्ती बनाना चाहता था जैविक समाज नहीं। इसका संबंध पत्रकारिता से भी है।पत्रकारिता में मुख्य अब ये नहीं है कि हम अपनी बात दूसरे से क्या कह रहे हैं। सबसेज्यादा महत्वपूर्ण है कि कितनी तेजी से कह रहे हैं और कितनी चमक से कह रहे हैं।यानी फार्म इज मोर इंपार्टेंट दैन कंटेंट। कंटेंट तो हम किसी तरह बना सकते हैं, उसको जितने अच्छे से हम पहुंचाएंगे उतना ही हमारा महत्व है। यह मुख्यत: दो बातों परनिर्भर है।
मैंकिस्से के जरिए अपनी बात कहूंगा। पिछले साल पंद्रह अगस्त के आसपास चेन्नई में जन्मीइंदिरा नूई को पेप्सी ने अपना सीईओ बना दिया। जब इंदिरा पेप्सी की सीईओ हुईं तोटाइम्स नाऊ के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी ने अपने चैनल पर खबर पढ़ते समय इस घटनाका उल्लेख करते हुए कहा कि ‘वाट एन एचिवमेंट आन इंडिपेंडेंस डे’ यानी स्वतंत्रतादिवस पर क्या उपलब्धि है। यानी आपने स्वतंत्रता संग्राम इसलिए चलाया कि एक दिन आपकेयहां की लड़की पेप्सी बेचने वाली कंपनी की सीईओ हो जाएगी। क्या इसे स्वतंत्रताआंदोलन की उपलब्धि माना जाए?
अर्णबगोस्वामी ऑक्सफोर्ड में पढ़े विद्वान आदमी हैं। वे हमारे मित्र हैं। उनको एक क्षण भीनहीं लगा कि मल्टीनेशनल्स के खिलाफ 190 सालों तक लड़ाई लड़ने वाले देश की बेटी केपेप्सी जैसे किसी मल्टीनेशनल के सीईओ होने पर नाचना उचित नहीं है। उन्होंने इसेभारत की बहुत बड़ी उपलब्धि माना। आज हमारा मध्यवर्ग पैसे कमाने का पराक्रम करता हैतो उसे ही भारतीय स्वतंत्रता का पराक्रम मानकर प्रचारित किया जाता है। यानी भारतइसलिए स्वतंत्र हुआ कि हम एक दिन दुनिया में सबसे अमीर देश होंगे और हमारा डंकाअमेरिका में भी बजेगा। ये हमारे पढ़े-लिखे और बहुत ही समझदार वर्ग की धारणा है।
एकजमाना वह था जब 1946-47 में अजित भट्टाचार्य ने स्टेट्समैन का प्रस्ताव ठुकरा करहिंदुस्तान टाइम्स से पत्रकारिता शुरू की थी। स्टेट्समैन उस जमाने में बहुतप्रतिष्ठित अखबार था और बहुत ज्यादा पैसे देता था। उन्होंने सोचा कि मैं क्यों देशकी स्वतंत्रता के विरूद्ध खड़े रहने वाले अखबार स्टेटसमैन में जाऊं जबकि मेरा देशआजाद हो रहा है। उस समय हिंदुस्तान टाइम्स स्वतंत्रता संग्राम का समर्थक अखबार था।इसलिए स्टेट्समैन की प्रतिष्ठा और पैसा छोड़कर अजित भट्टाचार्य हिंदुस्तान टाइम्समें अप्रेंटिस सब एडीटर हुए।
मैंइसे देखकर चकित रह गया कि जिस अखबार को अजित बाबू ने काम करने के लिए इसलिए चुना किवह स्वतंत्रता संग्राम का समर्थक अखबार था, उसी का हिंदी अखबार खुद को बेचने के लिएपुलित्जर पुरस्कार दिलवाने की कामना कर रहा है। अब भला पुलित्जर पुरस्कार का भारतीयपत्रकारिता की परंपरा से क्या लेना-देना। पुलित्जर पुरस्कार सिर्फ अंग्रेजी में औरअमेरिकी पत्रकारिता करने वाले को मिल सकता है। भारतीय पत्रकारिता और हिंदी मेंपत्रकारिता करने वाले को वह पुरस्कार कभी नहीं मिल सकता। लेकिन हिंदुस्तान नाम काहिंदी अखबार पुलित्जर पुरस्कार की ओर इसलिए झुक रहा है कि उसके पाठकों को यह लगे किये तो सारे संसार में भारत का डंका पीटने वाला ध्वजावाहक अखबार है। हिंदुस्तान नेहर तरह से यह बताने की कोशिश की है कि इस दौर की रीमिक्स वाली पत्रकारिता ही भविष्यकी पत्रकारिता है। पत्रकारिता में देसी परंपरा की बात तो एंग्री ओल्ड मैन टाईप लोगही करते हैं।
मैंभारतीय मध्यवर्ग के अमेरिकी प्रेम के बारे मे कह रहा हूं। ये दो उदाहरण मैंने कोईमाखौल उड़ाने के मकसद से नहीं दिए हैं। आधी सदी पत्रकारिता में गुजारने के बाद मुझेकिसी पर कुल्हाड़ी चलाने या किसी पर खुंदक निकालने की कोई इच्छा नहीं हैं। बाइबल मेंकहा है कि ये जो घंटी बज रही है, इसको देखकर चिंतित हो जाओ क्योंकि यह किसी और केलिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए बज रही है। पत्रकारिता में मैं जो भी होते हुए देखताहूं तो लगता है कि मेरे लिए घंटी बज रही है। हमने पत्रकारिता में आधी सदी इसलिएगुजारी कि हमें लगता था कि पत्रकारिता के जरिए समाज में थोड़ा-बहुत शुभ्र परिवर्तनकर सकेंगे। ऐसा नहीं होता तो क्रिकेट खेलते और आज दस करोड़ सालाना लेकर टेलीविजन परमजे से कमेंट्री करते।
भारतीयपत्रकारिता दुनिया के अन्य देशों की पत्रकारिता से इसलिए भिन्न और श्रेष्ठ हैक्योंकि इसने अपने देश को जगाया और उसे आजाद कराने में अहम भूमिका निभाई। इसमेंलोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी जैसे संपादक हुए, जिन्होंने मानवता को जगाया।महात्मा गांधी ने डरबन में संपादक के नाम पत्र लिखकर शुरूआत की थी। यह पत्रउन्होंने तब लिखा जब उन्हें पगड़ी उतारने को कहा गया था और उन्होंने ऐसा करने सेइनकार कर दिया था। महात्मा गांधी ने अपनी राजनीति की शुरूआत पत्रकारिता के साथ-साथकी। उस समय एक भी नेता ऐसा नहीं था जिसने यह नहीं सोचा हो कि पहले अच्छा अखबारनिकालकर लोगों से बात करनी चाहिए, फिर मुझे नेता बनाना चाहिए। अगरऐसा नहीं होता तो अकबर इलाहाबादी नहीं कहता कि जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।इस तरह की पंक्ति दुनिया की किसी कविता में नहीं मिलेगी।
अगरहम पत्रकारिता की अपनी परंपरा को छोड़ देंगे तो रेगिस्तान में पानी के लिए तरसनेवाले एक जीव की तरह पड़े रहेंगे। क्योंकि प्राणवायु तो इसी परंपरा से मिलेगी। इस देशका पहला अखबार एक अंग्रेज ने निकाला। हिकी ने अखबार इसलिए नहीं निकाला कि उसकोअंग्रेजी सरकार का गुणगान करते हुए विज्ञापन प्राप्त करना था। अंग्रेज और अंग्रेजीराज होते हुए भी उसने अखबार इसलिए निकाला क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी में जो घोटालेहोते थे, उनका भंडाफोड़ किया जाना उसे आवश्यक लगा। अंग्रेजों को अपने ही आदमी द्वारानिकाले जाने वाला अखबार रास नहीं आया। अंग्रेजी सरकार ने न सिर्फ अखबार बंद करवाया, बल्कि हिकी को तत्काल वापस भेज दिया।
भारतकी मिट्टी में कुछ ऐसा है कि अंग्रेज भी जब राज करने आता है तो उसके साथ आयापत्रकार भंडाफोड़ करने में लग जाता है। इसलिए मैं चकित हूं कि मनमोहन सिंह के साथकाम करने वाले पत्रकार अमेरिका के साथ हो रहे परमाणु करार की क्यों इतनी तारीफ करतेहैं। हिकी तक को समझ में आता था कि मेरी सरकार क्या गड़बड़ कर रही है। वह जानता था किउसका काम इसकी तारीफ करना नहीं, बल्कि भंडाफोड़ करना है। इसके उलट हमारे सारेअंग्रेजी अखबारों को ये समझ में नहीं आता कि सवा लाख लोगों को उजाड़कर जो सरदारसरोवर बनाया गया है उसकी बिजली सिर्फ पांच कारपोरेशनों को दी जाती है। इसके अलावापटेलों की एक-आध कालोनियों में ही यह बिजली जाती है।
जबओंकारा फिल्म मैं देखने गया तो गौर किया कि कई चैनल और अखबार इसके मीडिया पार्टनरहैं। इसके कुछ दिन बाद मैंने ‘आज तक’ पर ओंकारा फिल्म पर आधारित आधे घंटे काकार्यक्रम देखा। इसमें रितुल जोशी ने बताया कि ओंकारा शेक्सपियर के उपन्यास ओथेलोपर आधारित है। अब उन्हें कौन बताए कि शेक्सपियर ने सिर्फ नाटक और कविता लिखी थी, एकभी उपन्यास या कहानी नहीं। अगर सारे चैनल और अखबार फिल्मों के मीडिया पार्टनर बननेलगे तो लोगों को फिल्म समीक्षा पढ़ने को नहीं मिलेगी। वे तो फिल्मों को प्रमोट करनेमें लगे रहेंगे। इस तरह से महान भारतीय पत्रकारिता आलोचना और समीक्षा की अपनीपरंपरा को खो देगी। क्योंकि फिल्म की समीक्षा करने की बजाए उसे प्रमोट करना मजबूरीबन जाएगी।
भारतमें जन्मे और यूरोप में व्यवसाय कर रहे अरुण नायर पिछले साल एलिजाबेथ हर्ले नाम कीएक सुंदर महिला को लेकर भारत आए। वे भारतीय पध्दति से भारत में विवाह करना चाहतेथे। ईसाई पध्दति से इंग्लैंड में वे शादी कर चुके थे। अरुण नायर और एलिजाबेथ हर्लेका फोटो टाइम्स आफ इंडिया ने छापा और शीर्षक दिया ”यट अनदर इंडियन टेकओवर।” वो बड़ेशानदार दिन थे जब मित्तल ने आर्सेलर का अधिग्रहण किया था और टाटा ने कोरस का टेकओवरकिया था।
टाइम्सआफ इंडिया ने इसके जरिए एलिजाबेथ हर्ले को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में बदल दिया।क्योंकि टेकओवर तो बड़ी कंपनी छोटी कंपनी का करती है। यानी एलिजाबेथ हर्ले प्रेम मेंपड़कर भारतीय पध्दति से शादी करने भारत नहीं आई थी बल्कि एक प्राइवेट कंपनी थी जिसकाटेकओवर अरुण नायर नाम की भारतीय कंपनी ने कर लिया। विवाह की परंपरा को उस अखबार नेटेकओवर की व्यावसायिक परंपरा के साथ खड़ा कर दिया।
जोधपुरमें राजस्थानी रस्मो-रिवाज के साथ उनकी शादी हुई। विवाह के बाद अरुण के माता पिताने यह कहा कि शादी में उनकी अनदेखी हुई है। इस बात को लेकर झगड़ा चला। इस झगड़े मेंयह बात सामने आई कि एलिजाबेथ हर्ले ने भारतीय पद्धति से ब्याह रचाने को ‘हेलो’ नामकी लाइफस्टाइल पत्रिका को एक करोड़ चालीस लाख रुपए में पहले ही बेच दिया था। इसलिएभारत में उसका कोई कवरेज नहीं कर सकता था। उस विवाह का पूरा खर्चा एक करोड़ हुआ।यानि एलिजाबेथ हर्ले ने भारतीय पध्दति से ब्याह रचाने में चालीस लाख रुपए बनाए।
जोधपुरके एक व्यक्ति ने अदालत में केस किया कि इन दोनों ने हमारी विवाह की परंपरा को ठेसपहुंचाया है। कुछ दिन बाद टाइम्स आफ इंडिया में खबर छपी कि भारत कीन्यायपालिका परकरोड़ों केस का दबाव पहले से है और इस आदमी ने एक केस और कर दिया। ये आदमी समझतानहीं है कि इस विवाह के जरिए भारतीय पध्दति को दुनिया के अमीरों के हाथों बेचने काकितना अच्छा अवसर मिला था।
अगरआप अखबारों को प्रकाशन उद्योग में और समाचार चैनलों को विडियो कंपनी में सीमित करदेंगे तो अंदाजा लगा सकते हैं कि पत्रकारिता का क्या होगा? आजकल अखबार वाले पैसालेकर खबर छापते हैं। चुनावों के दौरान तो उम्मीदवार पन्ने के पन्ने खरीद लेते हैं।इस बाबत एक मालिक ने कहा कि अगर हम पैसे नहीं लेंगे तो हमारे लुच्चे रिपोर्टर पैसाले लेंगे। पिछले दिनों मैं एक जिला मुख्यालय में किसी कार्यक्रम में गया था। वहांमुझे बताया गया कि फलां अखबार का फलां ब्यूरो पांच लाख रुपए में नीलाम हो गया।
एक‘स्वराज’ नाम का अखबार था अपने यहां। उसके मालिक ने कहा कि जब्त हो जाए लेकिनअंग्रेज सरकार द्वारा मांगा जा रहा पैसा नहीं दूंगा। ‘स्वराज’ के आठ संपादक जिंदगीभर कालापानी के लिए अंडमान भेज दिए गए। क्योंकि वे झुकने के लिए तैयार नहीं हुए, उन्होंने अंग्रेजी सत्ता की परवाह नहीं की। पर आज यह देश की पत्रकारिता का कैसादुर्भाग्य है कि पैसा लेकर खबर लिखी और दिखाई जा रही है। ऐसे में पत्रकारिता काबचना मुश्किल है। आने वाले समय में अगर नीर क्षीर विवेक से हम पत्रकारिता नहींकरेंगे तो अपनी पत्रकारिता की परंपरा पर गर्व नहीं कर सकेंगे।