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मेरठ का बॉलीवुड/ साल में बन जाते हैं सैकड़ों फिल्में




[Deewan] देशी फिल्मों का कारोबार - 1

Ravikantravikant at sarai.net
Sat Apr 1 15:01:39 IST 2006

दोस्तो, नमस्कार।
मैं अनिल पांडेय हूं और मेरा शोध का विषय है 'देशी फिल्मों का कारोबार
(पश्चिमी उत्तार प्रदेश के विशेष संदर्भ में)। करीब ढ़ाई महीने के दौरान मैंने जो शोध किया है उसका
संक्षिप्त व रोचक विवरण आपके सामने है।

आपने मशहूर फिल्म शोले जरूर देखी होगी। क्या आपने वह 'शोले'देखी है जिसमें बसंती तांगे की बजाय
बुग्गी (भैंसा गाड़ी) पर और गब्बर सिंह घोड़े के बजाय गधो पर आता है? वह 'धाूम'फिल्म देखी है
जिसमें हाइटेक चोर सुपर रेसर मोटर साईकिल की बजाय साईकिल पर आते हैं? या फिर बंटी और बबली
को भैंस चुराते देखा है? नहीं देखी है तो जरूर देखिए। आप हँसते-हँसते लोट पोट हो जाएंगे। इस फिल्म
का नाम है 'देशी शोले', देशी धाूम'और 'यूपी के बंटी और बबली'। इन फिल्मों की सीडी आपको देश
की राजधाानी दिल्ली सहित हरियाणा और पश्चिमी उत्तार प्रदेश में कहीं भी मिल जाएगी। इतना
ही नहीं बालीवुड की तमाम सुपरहिट फिल्मों के देशी संस्करण भी आपको यहां मिल जाएंगे। जी जां,
हम बात कर रहे हैं देशी फिल्मों की।

संचार तकनीक के क्षेत्र में आई क्रांति ने लोगों को जन संचार माधयमों के करीब लाने का काम किया
है। अखबार, टेलीविजन और रेडियो तो घर-घर पहुंच ही चुका है, अब फिल्में भी लोगों के घरों तक
पहुंच रही हैं। डीवीडी और वीसीडी ने घरों को 'होम थिएटरों'में तब्दील कर दिया है। संचार
तकनीक के विकास ने देश भर में कई स्थानों पर 'नए बालीवुड'को जन्म दिया है। जहां अपनी भाषा
और परिवेश को धयान में रखकर फिल्में बनाई जा रही हैं। देशी फिल्मों का यह सफर महाराष्ट्र के
मालेगांव से शुरू होकर बाया दिल्ली मेरठ पहुंच गया है। इन देशी फिल्मों की खासियत यह होती है
कि मामूली बजट में तैयार ये फिल्में सिनेमाहाल में नहीं सीडी पर रीलीज होती हैं। यानी इन्हें सिर्फ
सीडी प्लेयर के माधयम से छोटे पर्दे पर देखा जा सकता है। ये फिल्में शहरों में कम गांवों में ज्यादा
देखी जाती हैं।

देशी फिल्मों के लिहाज से बात करें तो ठेठ खड़ी हिंदी में संभवत: सबसे ज्यादा फिल्में बन रही हैं। इनमें
से ज्यादातर फिल्में पश्चिमी उत्तार प्रदेश में बनाई जाती हैं। कुछ फिल्मों का निर्माण हरियाणा में
भी होता है। इनमें से ज्यादातर फिल्में हास्य प्रधाान होती हैं। पश्चिमी उत्तार प्रदेश की ठेठ
भाषा इसके लिए सबसे उपयुक्त होती है क्योंकि पश्चिमी उत्तार प्रदेश की भाषा गुदगुदी और चुटीली
है। पश्चिमी उत्तार प्रदेश में देशी फिल्मों का कारोबार देश के दूसरे हिस्सों से शायद कहीं ज्यादा
है।
मेरठ के केबल चैनलों के लिए कार्यक्रम निर्माण करने वाले अनीस भारती कहते हैं, ''मेरठ में हर महीने
तकरीबन दर्जन भर नई फिल्में बन जाती हैं। करीब पचास हजार लागत वाली ये फिल्में डेढ़ से दो लाख
का कारोबार कर लेती हैं।''
तीन-चार वर्षों में मेरठ में एक 'नए बालीवुड'का अवतार हुआ है। यह है 'देशी बालीवुड'। हम यहां
इसी देशी बालीवुड की चर्चा कर रहे हैं। दिल्ली से सटे होने और पश्चिमी उत्तार प्रदेश के किसानों
के समृध्द होने के कारण मेरठ में देशी फिल्म उद्योग के फलने-फूलने में मदद मिली है। देश की राजधाानी
दिल्ली में फिल्म निर्माण से संबंधिात उपकरण व तकनीक आसानी से उपलब्धा हो जाते हैं। दूसरा कारण
मेरठ का रंगमंच से गहरा जुड़ाव है। मेरठ के वरिष्ठ रंगकर्मी, फिल्म निर्माता, निर्देशक और सभासद
जगजीत सिंह के मुताबिक मेरठ रंगकर्मियों का गढ़ रहा है। यहां के थिएटर से निकले तमाम कलाकार
बालीवुड में काम कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से यहां नाटय गतिविधिायां बंद सी हो गई हैं।
लिहाजा थिएटर से जुड़े लोगों ने देशी फिल्मों का निर्माण शुरू कर दिया। मशहूर निर्देशक केदार शर्मा
के शार्गिद रह चुके जगजीत ने 'दोस्ती के हाथ'नामक हिंदी फिल्म का निर्माण किया है जो जल्दी
ही रीलीज होने वाली है।
देशी फिल्मों को चार श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो बालीवुड
फिल्मों का देशी रूपांतरण होती हैं। ऐसी फिल्मों की भरमार है। मशहूर फिल्म शोले पर आधाारित अब
तक यहां तीन फिल्में बन चुकी हैं। देशी तेरे नाम, देशी युवा, देशी धाूम, देशी गदर और देशी हीरो
नंबर वन व यूपी के बंटी और बबली आदि फिल्मों ने अच्छा कारोबार किया है। दूसरी श्रेणी में हास्य
प्रधाान फिल्में आती हैं। जिनकी भाषा चुटीली व संवादों में हंसी के फौव्वारे होते हैं। हालांकि कई
बार इन फिल्मों के संवाद द्विअर्थी व भाषा फूहड़ होती है। टी सीरीज की ताऊ रंगीला इस श्रेणी
की सुपर-डुपर हिट फिल्म है। इसके अलावा इस श्रेणी की छिछोरों की बारात, ताऊ बहरा, ब्याह
और गौंणा घोल्लू का, दुधिाया हरामी, करे मनमानी रम्पत हरामी, बेवकूफ खानदान और साली
दिल्ली वाली जैसी फिल्में भी खूब देखी जाती हैं।
तीसरी श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो यहां के सांस्कृतिक ताने-बाने पर तैयार की जाती हैं। जिन्हें हम
मौलिक देशी फिल्म कह सकते हैं। इनमें भी बम्बइया फिल्मों की तरह कई बार मसाला मिला दिया
जाता है। ये फिल्में सालीन होती हैं। इसीलिए गांव के लोग इसे पसंद करते हैं। इन फिल्मों में
सामाजिक उद्देश्य भी छिपा होता है।
'धााकड़ छोरा'इस श्रेणी की चर्चित और सुपरहिट फिल्म है। इसके अलावा निकम्मा, कर्मवीर और
बुध्दूराम भी इसी श्रेणी की सुपरहिट फिल्में हैं। चौथी श्रेणी में धाार्मिक फिल्में आती हैं। इनकी भी
खूब मांग है। कृष्ण सुदामा, चारों धााम, माता-पिता के चरणों में, द्रौपदी चीर हरण, सती
सुनोचना और पिंगला भरथरी जैसी फिल्में पश्चिमी उत्तार प्रदेश और हरियाणा में खूब देखी जाती हैं।
देशी फिल्मों का सबसे मजबूत पक्ष चुटीली भाषा और किरदारों के संवाद अदायगी का खालिस देशी
अंदाज है। बालीवुड की फिल्मों का देशी रूपांतरण तो बहुत ही रोचक होता है। कहानी और संवादों
का स्थानीयकरण्ा कर दिया जाता है। यहां देशी शोले का उदाहरण दिया जा सकता है। फिल्म का एक
प्रसिध्द सीन है। वह है जब 'कालिया'जय और बीरू के हाथों पिटकर वापस आता है तो ''अब तेरा
क्या होगा कालिया''की जगह देशी शोले का संवाद देखिए। गब्बर कहता है, ''के समझ रख्या था
गब्बर तने पनीर के पकोड़े खिलावगा.... तने तो गब्बर का नाम मूत में लड़ा दिया।''इसी फिल्म में
एक जगह बीरू बसंती को गब्बर के समाने नाचने को मना करता है तो गब्बर का एक डायलाग बहुत
प्रसिध्द हुआ था, ''बहूत याराना लगता है।''तो देशी शोले के गब्बर की सुनिए। वह बसंती से
कहता है, ''घणी सेटिंग लग री है।''

ऐसी फिल्मों में एक और प्रयोग किया जाता है। बालीवुड फिल्मों के पात्रों और किरदारों में 'लोकल
टच'डालकर फिल्म की कहानी का स्थानीयकरण कर दिया जाता है। मसलन गोविंदा की हीरो
नंबर-वन पर आधाारित फिल्म देशी नंबर वन की कहानी एक गांव के बनिए (लाला) और उसके नौकर
की कहानी है। लाला नौकरी देते हुए नौकर के सामने शर्त रखता है कि अगर वह नौकरी छोड़कर
जाएगा तो लाला उसके नाक कान काट लेगा। नौकर भी शर्त रखता है कि अगर लाला ने उसे नौकरी से
निकाला तो वह भी मालिक के नाक कान काट लेगा और उसकी बेटी से ब्याह करेगा। नौकर के रूप में
होता है 'देशी हीरो नंबर वन'। वह अपने कारनामों से लाला को परेशान कर दर्शकों को खूब हंसाता
है। देशी हीरो की वेश भूषा असली फिल्म के हीरो गोविंदा की नकल है। हाफ पेंट और चमकीली शर्ट
के साथ देशी हीरो ने गले में टाई व कंधो पर गमछा लटका रखा है। सिर पर गांधाी टोपी पहने देशी
हीरो देखते ही बनता है।
इसके अलावा फिल्मों को हास्य का पुट देने के लिए दृश्यों को रोचक बनाया जाता है। जैसे शोले में
गब्बर चट्टान पर खड़ा होता है तो देशी शोले में वह गोबर के उपलों के ढेर पर खड़ा होता है। दूसरी
बनी 'देशी शोले'में डाकू घोड़े की बजाय गधो पर आते हैं और बंदूक की बजाय उनके हाथों में लाठियां
होती हैं। फिल्मों में गाने भी होते हैं उन्हें भी देशी भाषा में अनुवादित कर दिया जाता है।
कई बार कुछ फिल्में हास्य पैदा करने के चक्कर में फूहड़ता और अश्लीलता की हदों को पार कर जाती हैं।
यहां फिल्मों का जिक्र लाजिमी है। ये हैं कलियुग की रामायण और कलियुग का महाभारत। इन दोनों
फिल्मों पर धाार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने के कारण प्रतिबंधा लगा दिया गया है। कलियुग
की रामायण में सीता को बीड़ी पीते हुए और राम को मुजरा सुनते हुए दिखाया गया था तो कलियुग
का महाभारत में कृष्ण रथ की बजाय मोटर साईकिल पर आते हैं और अर्जुन और दूसरे योध्दा तीर धानुष
की बजाय हाकी लेकर युध्द करने जाते हैं। देशी फिल्मों में बढ़ती फूहड़ता से चिन्तित जगजीत सिंह कहते
हैं, ''यह सब ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। लोग ऐसी फिल्मों को देखना पसंद नहीं करते।''
लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसी फिल्में देखी भी खूब जाती हैं और कारोबार की दृष्टि से सफल भी मानी
जाती हैं। टी सीरीज ने छिछोरों की बारात'नामक एक फिल्म बनाई और खूब बिकी। इस फिल्म के
निर्देशक एस. गोपाल टाटा ने फिल्म का नाम सुनकर पहले तो इसे बनाने से इनकार कर दिया। लेकिन
बाद में व्यावसायिक मजबूरियों के चलते जब फिल्म बनाई तो यह चल निकली। बकौल श्री टाटा,
''इस फिल्म को देखकर जब लोग मेरी तारीफ करते हैं तो मुझे अपने आप पर हंसी आती है।''
देशी फिल्मों का कारोबार निकटता के सिध्दांत पर आधाारित है। अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त युवा
निर्देशक यतीश यादव इसे भारतीय लोगों के अपनी संस्कृति से गहरे लगाव के रूप में देखते हैं। उनके
मुताबिक, ''भारतीयों को अपनी जमीन और भाषा से बड़ा प्यार होता है। यही वजह है कि मेरठ का
दूधिाया या किसान अमोल पालेकर की 'पहेली'की बजाय 'धााकड़ छोरा'देखना ज्यादा पसंद
करेगा। इसमें उन्हें अपनापन सा लगता है।

देशी फिल्मों के निर्माण और प्रचलन का एक महत्वपूर्ण कारण गांवों से मनोरंजन के पारंपरिक साधानों
मसलन लोक नृत्य, लोक गीत व नाटकों का लुप्त होना है। गांव के लोक कलाकार रोजी रोटी की
तलाश में शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। ऐसे में शाम को चौपालों पर 'गवइयों'की जगह अब देशी
फिल्मों ने ले ली है। सचार क्रांति ने इसे और भी आसान बना दिया है।
बालीवुड की पहुंच शहरों तक है। देशी बालीवुड ने मुंबई और गांव की दूरी को कम कर दिया है। इसने
फिल्मों को गांवों तक और सही कहें तो आम लोगों तक पहुंचा रहा है। देशी बालीवुड ने साबित कर
दिया है कि फिल्म जनसंचार का एक सशक्त माधयम है। अभी तक इसका उपयोग केवल मनोरंजन के लिए
किया जा रहा है। जबकि सामाजिक चेतना पैदा करने और लोगों को जागरुक करने में इस माधयम को एक
हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

क्रमश.....

प्रस्तुति- राहुल मानव







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