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प्रस्तुति- हुमरा असद, राहुल मानव
आज से 150 साल पहले दिल्ली से सटा मेरठ शहर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का गढ़ बना था. हथियारों से लैस भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह की शुरुआत की थी.
ये बात बहुत लोग जानते हैं.
लेकिन ये बात आपको शायद पता न हो कि आज भी मेरठ अपने हथियारों के लिए जाना जा रहा है.
ये और बात है कि अबके हथियार असली लड़ाई में नहीं फिल्मी लड़ाई में इस्तेमाल हो रहे हैं – वो भी हॉलीवुड की फिल्मों की.
बड़ी भागीदारी
ऑस्कर विजेता फिल्म ग्लैडिएटर, 300, पाइरेस्ट्स ऑफ द कैरेबियन, द लास्ट सामुराई जैसी हॉलीवुड की ऐतिहासिक या यु्द्ध से जुड़ी ऐसी कई फिल्में आपने देखी होंगी.क्या आपने कभी सोचा है कि जो कपड़े या हथियार इन हॉलीवुड फिल्मों में इस्तेमाल होते हैं वो कहाँ बनते हैं?
ये बनते हैं मेरठ में.
आइए ले चलते हैं आपको भारत के मेरठ शहर की फैक्ट्रियों में. कहीं हथौड़े की मार और कहीं आग की लपटों से निकलकर तेज होती धार..ऐसी ही आवाजें आपका फैक्ट्री में स्वागत करती हैं.
हॉलीवुड फिल्मों और विश्व प्रसिद्ध टीवी धारावाहिकों में कलाकार जो कवच, हेलमेट, भाले इस्तेमाल करते हैं उनमें से बड़ा हिस्सा इन्हीं फैक्ट्रियों में बनता है.
मेरठ की दीपिका एक्सपोर्ट्स कंपनी पिछले 20 साल से ये काम कर रही है.
कंपनी के प्रबंध निदेशक गगन अग्रवाल कहते हैं, "हमने कई फिल्मों के लिए कॉस्ट्यूम, कवच और अन्य हथियार तैयार किए हैं. कई ऐसी वितरक हैं जो हमें नमूने भेजते हैं कि ऐसी सामग्री चाहिए. इतिहास से जुड़े म्यूज़ियमों से भी माँग रहती है. जैसे हमारे यहाँ रामलीला का मंचन होता है वैसे ही विदेशों में पारंपरिक कहानियों का मंचन होता है. हम इतिहासकारों से भी सलाह लेते हैं कि उस दौर की सामग्री कैसी रहती होगी. इस कारोबार में काफी संभावनाएँ हैं."
गगन बताते हैं, “हमने टॉम क्रूज और ब्रैड पिट की फिल्मों के लिए सामान तैयार किया है. अभी एक अंग्रेजी फिल्म सिंगुलैरिटी आने वाली है जिसमें बिपाशा बासु हैं, उसके लिए भी हमने चीज़ें बनाई हैं. बीबीसी की रोम सिरीज़ में भी हम भागीदार रहे हैं."
हुनर और मेहनत
यहाँ कारीगर ज्यादातर काम आज भी हाथ से ही करते हैं जिसमें काफी हुनर की जरूरत होती है. फैक्ट्री में एक-एक हथियार और सामान की कटाई होती है, तैयार होने के बाद पॉलिशिंग होती है.इस काम में लगे एक कारीगर देवेंद्र कुमार धीमी आवाज़ में बताते हैं, “हम ये काम बड़ी मेहनत से करते हैं. समय-सीमा का भी पालन करना पड़ता है क्योंकि ये सामान विदेशों में जाता है. कई सामान बनाने में तो काफी समय लग जाता है. चाहे चमड़ा लगाने की बात हो या रिवेटिंग हो, सब बेहतर तरीके से किया जाता है. इस बात का ध्यान रखा जाता है कि कोई गलती न हो.”
वो जितनी धीमी आवाज़ में बात करते हैं, उनका काम उतना ही तेज़ है.
बॉलीवुड के बजट में नहीं
इस तरह विदेशी फिल्मों या म्यूजियमों के लिए सामान बनाने में चुनौतियाँ भी कई होती हैं. जिस काल के हथियार या कपड़े हैं, उन्हें शोध के बाद ज्यों का त्यों फैक्ट्री में तैयार करना होता है.दीपिका एक्सपोर्ट्स के वाइस प्रेसिडेंट राजीव रस्तोगी कहते हैं, "हमारे पास शोध सामग्री, तस्वीरें और रसाले भेजे जाते हैं. इन्हें पढ़ने और देखने के बाद सामान हू ब हू तैयार किया जाता है. चूँकि सामान हॉलीवुड फिल्मों या म्यूज़ियमों में इस्तेमाल होना होता है इसलिए गुणवत्ता का विशेष ध्यान रखा जाता है. अपने कारीगरों को हम पूरी ट्रेनिंग देते हैं."
जब हमने पूछा कि क्या भारत की फिल्मों के लिए ऐसा सामान तैयार करने का ऑडर नहीं मिलता तो गगन अग्रवाल ने बताया, "एक तो भारत में ऐतिहासिक फिल्में बनती ही कम हैं और दूसरा इन फिल्मों का बजट कम होता है. इस कारण बॉलीवुड फिल्में ऐसा ऑडर कम ही देती हैं. एक फिल्मकार की टीम आई भी थी हमारे पास. लेकिन उनका बजट कम था इसिलए उन्होंने मना कर दिया."
मेरठ और आस-पास के इलाकों में कई ऐसी कंपनियों हैं जो फिल्मों के लिए सामान बनाने के कारोबार में लगी हैं.
ये कंपनियाँ हॉलीवुड फिल्मों के अलावा विदेशी म्यूज़ियमों और बड़े नाटकीय मंचनों के लिए भी सामग्री तैयार करते हैं.
तो अगली बार जब विदेशी फिल्में या धारावाहिक देखें तो उसमें आप मेरठ के इन कारीगरों की मेहनत का रंग भी देख सक