भटका’ और ‘अटका’ पत्रकारिता विश्वविद्यालय
By Tehelka Post, 8 April, 2015, 10:59
सबसे हैरानी की बात है कि यूनिवर्सिटी के किसी भी मीडिया विभाग में एक भी प्रोफ़ेसर नहीं है. कुल मिला कर विश्वविद्यालय में केवल दो ही प्रोफ़ेसर है। एक भोपाल में कम्प्यूटर एप्लीकेशन विभाग में और दूसरा नोयडा सेंटर में लायब्रेरी साइंस विभाग में। पत्रकारिता, जन संचार, इलेक्ट्रानिक मीडिया,जनसंपर्क एवं विज्ञापन,प्रबन्धन न्यूमीडिया टेक्नोलाजी, रिसर्च मेथेडोलाजी आदि विभाग के अध्यक्ष पद पर एसोसिएट प्रोफ़ेसर विराजमान है। इनमें से कई पीएचडी तक नहीं है और वे यूजीसी के अन्य मानदंडो को भी पूरा नहीं करते हैं। प्रबन्धन के विभागाध्यक्ष पर्यावरण विज्ञान में पीएचडी है जिस कारण वह तो सहायक प्राध्यापक के लिए भी पात्र नहीं है। इनके अलावा भी विगत वर्ष की गई कई नियुक्तियां विवादस्पद है और न्यायालय में लंबित है।
भोपाल। मार्गदर्शक सिद्धान्तों से दूर होने से कोई अच्छी-खासी संस्था अपने उदेश्यों से कैसे भटक जाती है, इसका सटीक उदहारण भोपाल स्थित एशिया का पहला पत्रकारिता विश्वविद्यालय है। स्वाधीनता सेनानी एवं पत्रकारिता के आचार्य पं. माखनलाल चतुर्वेदी के नाम पर 25 वर्ष पूर्व स्थापित राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय एक अर्से तक प्रदेश के सुधीजनों के लिए गर्व का विषय था, लेकिन हाल के वर्षो में अपने घोषित उदेश्यों से भटक जाने उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची है। इस संस्थान के इस दशा तक पहुँचने का सबसे बड़ा कारण तो उस पत्रकार पुरोधा के व्यक्तित्व और कृतित्व को नज़रअन्दाज करना ही है, जिनके नाम पर इसकी स्थापना की गई थी। दादा माखनलालजी ने पत्रकार के रूप में ना केवल राष्ट्रीय जागरण का मंत्र फूँका वरन अपने समाचार पत्र ‘कर्मवीर’ के द्वारा अन्याय और अत्याचार के प्रति विद्रोह स्वर को मुखरित किया। वे राजनेता और राष्ट्रीय कवि भी थे, उन्होंने अपने अखबार एवं पत्रिकाओं के माध्यम से अनेक कवियों और लेखकों को हिंदी साहित्य लेखन की प्रेरणा प्रदान की। इसीलिए वे बाद में ”एक भारतीय आत्मा” के नाम से भी विख्यात हुएं।
कर्मवीर के संपादन के समय चतुर्वेदी जी ने अपने अखबार के लिए एक आचार संहिता तैयार की थी जो मौजूदा दौर में भी समाचार पत्रों के लिए अनुकरणीय है। वे आजादी के बाद दो बार कांग्रेस के सांसद भी रहें,उन्होंने किसान आन्दोलन और गौ रक्षा अभियान में भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया। लेकिन विश्वविद्यालय को जब ऐसे युगपुरुष के जन्म दिवस तक की सुध नहीं रहती है तो उनकी पत्रकारिता और कर्मवीर की आदर्श संहिता पर शोध-अध्ययन की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? कोई 126 वर्ष पहले 4 अप्रैल 1889 को मध्यप्रदेश के खण्डवा कस्बे में उनका जन्म हुआ था।
विश्वविद्यालय के कुलपति ने पिछले 5 वर्ष में ताबड़तोड़ तरीके से एक के बाद एक-दर्जन भर अनुसन्धान पीठों का गठन किया है, जिनमें से ज्यादातर हमारे पौराणिक/सांस्कृतिक पात्रों या विभूतियों के नाम पर है जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। इनमें भरतमुनि, पतंजलि, पाणिनि, विवेकानंद,दीनदयाल उपाध्याय, महर्षि अरबिंद शोध पीठ प्रमुख है। यह सबसे अफ़सोसजनक पहलू है कि इतनी सारी शोध पीठे हैं और कई इतर विषयों पर मगर माखनलाल चतुर्वेदी पर केन्द्रित अनुसन्धान पीठ नहीं है। उल्लेखनीय है कि उनकी ही प्रेरणा से वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम पत्रकारिता का विषय के रूप में अध्यापन शुरू किया गया था।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय का ना तो राष्ट्रीय स्वरूप है और ना ही यह पूर्णतः पत्रकारिता को समर्पित विश्वविद्यालय है। मध्यप्रदेश विधानसभा के अधिनियम से गठित इस विश्वविद्यालय के चान्सलर हाँलाकि उपराष्ट्रपति होते है लेकिन उनकी यह पदेन स्थिति वैधानिक नहीं है, क्योंकि उपराष्ट्रपति तो केवल संसद के एक्ट के अनुसार ही अपनी शक्तियों और दायित्व का निर्वहन करते है। इसी संवैधानिक आधार पर उपराष्ट्रपति ने दो वर्ष पूर्व विवि की जाँच के एक मामले में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया था। विधानसभा के द्वारा पारित एक्ट से बने इस विश्वविद्यालय पर राज्य से बाहर किसी तरह का अध्ययन केंद्र खोलने की पाबन्दी है।
इसके बावजूद विवि का एक अध्ययन केंद्र नोयडा में कार्यरत है जिस पर विवाद होने के बाद विश्वविद्यालय ने हाई कोर्ट से स्टे लिया है। इसलिए इसको राष्ट्रीय विश्वविद्यालय कहना अनुचित है, इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भी धारा 12 बी की मान्यता नहीं दी है, यहीं वजह है कि दो साल पहले यूजीसी की टीम के निरीक्षण के बाद भी विवि को कोई ग्रान्ट नहीं मिलती है। मान्यता नहीं मिलने का एक बड़ा कारण इसकी गवर्निंग बाडी में मुख्यमंत्री और तीन मंत्रियों, तीन-तीन सचिवों एवं नेता प्रतिपक्ष का घालमेल होना है। राज्यपाल चान्सलर नहीं है जबकि मुख्यमंत्री महापरिषद के अध्यक्ष होते है।
स्थापना के समय से इस संस्थान का प्रमुख उद्देश्य विश्वविद्यालय को हिन्दी पत्रकारिता पर विशेष फोकस के साथ पत्रकारिता, जनसंचार और सूचना प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में प्रशिक्षण व अनुसन्धान के राष्ट्रीय केंद्र के तौर पर विकसित करना है। मगर पिछले 5 वर्षो से इस विश्वविद्यालय में पत्रकारिता व जनसंचार के प्रासंगिक कोर विषयों से इतर प्रबन्धन, न्यू मीडिया टेक्नोलाँजी, पौराणिक–पारम्परिक संचार, प्रिन्टिंग टेक्नोलाँजी और आईटी कम्प्यूटर के नए-नए कोर्स की भरमार हो गई है। विवि के कुलपति ने विगत माहों में प्रदेश भर में ताबड़तोड़ ढंग से 5-6 सौ से ज्यादा केन्द्रों को खोलने की मंजूरी दे दी। मौजूदा नौ सौ स्टडी सेन्टर्स में से 96 फीसदी से भी ज्यादा तो केवल कम्प्यूटर-आईटी शिक्षण के केंद्र है।
वैसे भी विश्वविद्यालय में कुल रजिस्टर्ड करीब डेढ़ लाख छात्रों में से मात्र चार प्रतिशत से कम (5-6 हजार) विद्यार्थी ही पत्रकारिता के विषयों से सम्बद्ध है। उसमें से भी विशुद्ध पत्रकारिता के कोर्स में तो एक फीसदी से भी कम छात्र अध्ययनरत है। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में इसे अब पत्रकारिता की जगह आईटी यूनिवर्सिटी कहा जाएँ तो गलत नहीं होगा। एक और गंभीर पहलू विश्वविद्यालय में यूजीसी के मानदंडो के अनुसार शिक्षकों की अत्यंत कमी है। यह जोक नहीं वरन हकीकत है कि संस्थान में जितने तरह के नए-नए कोर्स शुरू किये है उतने भी टीचर्स नहीं है।
सबसे हैरानी की बात है कि यूनिवर्सिटी के किसी भी मीडिया विभाग में एक भी प्रोफ़ेसर नहीं है. कुल मिला कर विश्वविद्यालय में केवल दो ही प्रोफ़ेसर है। एक भोपाल में कम्प्यूटर एप्लीकेशन विभाग में और दूसरा नोयडा सेंटर में लायब्रेरी साइंस विभाग में। पत्रकारिता, जन संचार, इलेक्ट्रानिक मीडिया,जनसंपर्क एवं विज्ञापन,प्रबन्धन न्यूमीडिया टेक्नोलाजी, रिसर्च मेथेडोलाजी आदि विभाग के अध्यक्ष पद पर एसोसिएट प्रोफ़ेसर विराजमान है। इनमें से कई पीएचडी तक नहीं है और वे यूजीसी के अन्य मानदंडो को भी पूरा नहीं करते हैं। प्रबन्धन के विभागाध्यक्ष पर्यावरण विज्ञान में पीएचडी है जिस कारण वह तो सहायक प्राध्यापक के लिए भी पात्र नहीं है। इनके अलावा भी विगत वर्ष की गई कई नियुक्तियां विवादस्पद है और न्यायालय में लंबित है।