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ब्लॉगिंग के विस्तार से ब्लॉगरों के बीच प्रतिस्पर्धात्मक चुनौती

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वार्षिक ब्लॉग विश्लेषण-२०१०

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१९९९ में आरम्भ हुआ ब्लॉग वर्ष २०१० में ११ साल का सफर पूरा कर चुका है ,वहीं हिंदी ब्लॉग ७ साल का । गौरतलब है कि पीटर मर्होत्ज ने १९९९ में ‘वी ब्लॉग’ नाम की निजी वेबसाइट आरम्भ की थी, जिसमें से कालान्तर में ‘वी’ शब्द हटकर मात्र ‘ब्लॉग’ रह गया। ब्लॉग की शुरुआत में किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक दिन ब्लॉग इतनी बड़ी व्यवस्था बन जायेगा कि दुनिया की नामचीन हस्तियाँ भी अपने दिल की बात इसके माध्यम से कहने लगेंगी। आज पूरी दुनिया में १५ करोड़ से ज्यादा ब्लॉगर्स हैं तो भारत में लगभग ३५ लाख लोग ब्लॉगिंग से जुड़े हुए हैं। इनमें करीब २५ हजार हिन्दी ब्लॉगर हैं, इस संख्या को देखा जाए तो हिंदी में ब्लोगिंग अभी भी संक्रमण के दौर में है ।
हिन्दीभाषी किसी मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त करने, भड़ास निकालने, दैनिक डायरी लिखने, खेती-किसानी की बात करने से लेकर तमाम तरह के विषयों पर लिख रहे हैं।आज तो ब्लॉगिंग केवल एक शौक या अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं रहा बल्कि ब्लॉगर अपने ब्लॉग की लोकप्रियता के अनुसार लाखों रुपए हर महीने कमा रहे हैं। कंपनियाँ अपने उत्पादों का प्रचार करने के लिए ब्लॉगरों की मदद लेती हैं और विज्ञापन देने वाली कंपनियाँ विज्ञापन पोस्ट करने के लिएकिन्तु ऐसा हिंदी में अभी संभव नहीं हो पाया इसका एक मात्र कारण है हिंदी में ब्लोगिंग का व्यापक विस्तार न होना ।
हिंदी ब्लॉगिंग वर्ष-२०१० में ७ वर्ष पूर्ण कर चुकी है । यह सुखद पहलू है कि विगत कई वर्षों की तुलना में वर्ष-२०१० में हिंदी ब्लोगिंग समृद्धि की ओर तेज़ी से अग्रसर हुई है । इस वर्ष लगभग ८ से 10 हजार के बीच नए ब्लोगर्स का आगमन हुआ है , किन्तु सक्रियता के मामले में इस वर्ष आये ब्लोगर्स में से केवल ५०० से १००० के बीच ही सक्रिय हैं और सार्थक लेखन के मामले में ३०० के आसपास ।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि तपी जमीन को कुछ ठंडक देने का काम हुआ , लेकिन विकासक्रम की द्रष्टि से अन्य भाषाओं की तुलना में बहुत संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता । हिंदी ब्लोगिंग की सात वर्षों की इस यात्रा में अमूमन यही देखा गया कि यह ब्लॉगरों के लिए एक ऐसा धोबीघाट रहा ,जहां बैठकर वे अपने घर से लेकर गली-मोहल्ले तक की तमाम मैली चादरों को धोने का काम करते रहे और सुखाते रहे ।
दो अत्यंत दुखद बातें हुई हिंदी ब्लॉगजगत में । पहली यह कि ११ मई को ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का विवादास्पद आलेख आया -कौन बेहतर ब्लॉगर है शुक्ल या लाल? फिर तो हिंदी ब्लॉगजगत में ऐसा घमासान मचा कि लगभग एक पखवारे तक हिंदी ब्लॉग जगत को संकटग्रस्त बनाए रखा ……राजीव तनेजा ने पूरी घटना को व्यंग्यात्मक लहजे में कुछ यूँ रखा -मुकद्दर का सिकंदर कौन ? दूसरी अत्यंत दु:ख की बात यह हुई कि इस वर्ष अचानक महावीर शर्मा जी का निधन हो गया । उनकी मृत्यु से हिंदी ब्लॉगजगत की अपूरणीय क्षति हुयी है इसमें कोई संदेह नहीं की हम सभी ने एक प्रेरक मार्गदर्शक को खो दिया ।इस वर्ष चिट्ठा चर्चा के माध्यम से होने वाली खेमेवाजी पर भी प्रश्न खड़े किये गए और अनूप शुक्ल जैसे प्रारंभिक ब्लोगर की कथित विवादास्पद टिप्पणियों पर भी छतीसगढ़ में चर्चा हुयी ब्लोगर मीट के दौरा. उस ब्लोगर मीट में चिट्ठा चर्चा के नाम से डोमेन लेने की भी बात हुयी ….पूरा प्रकरण पर नज़र डालने के लिए संजीत त्रिपाठी का यह पोस्ट देखें- कथन: विनीत, राजकुमार ग्वालानी, अनूप शुक्ल और झा जी के आलोक में यह पोस्ट -आइए कुछ बात करें अब छत्तीसगढ़ ब्लॉगर मीट की रपट पर मिली टिप्पणियों पर। इनमें सबसे खास ध्यान देने लायक हैं विनीत कुमार, राजकुमार ग्वालानी और अनूप शुक्ल जी की। दरअसल ये टिप्पणी ही नहीं बल्कि पोस्टनुमा टिप्पणी हैं इसलिए इनकी चर्चा अलग से आवश्यक है। एकदम मुद्दे पर है। चिट्ठा चर्चा का डोमेन लेने के मुद्दे पर दिए गए ब्लॉग पोस्ट्स के अलावा मिसफ़िट, सारथी, अलबेला खत्री, बिना लाग लपेट के जो कहा जाए वही सच हैं, टिप्पणी चर्चा, ज़िम्दगी के मेले, कुछ भी कभी भी, मसिजीवी आदि पर आई पोस्ट पर भी नज़र डाली जा सकती है !
इस दौरान एक काम और हुआ -डा अरविन्द मिश्र के अनुसार – कुछ रुग्ण और व्यथित मानसिकता के लोगों ने मिलकर डॉ अरविन्द मिश्र की नारी विरोधी ,उद्दंड ,इमेज प्रोजेक्ट की और काफी हद तक सफल भी रहे ।
वर्ष-२०१० का जहां तक सवाल है यह महसूस किया गया कि ब्लोगिंग के तीब्र विस्तार से ब्लोगरों के बीच प्रतिस्पर्धात्मक चुनौती पैदा हुई है । इस बार यह भी महसूस किया गया हिंदी ब्लॉगजगत में कि ब्लॉग की विश्वसनीयता का मापदंड बनाया जाए ताकि सार्थक और निरर्थक ब्लॉगों में अंतर किया जा सके, पर ऐसा सोचने वालों के बिपरीत एक वर्ग ऐसा भी उभरा जो पूरी दृढ़ता के साथ यह बताने की बार-बार कोशिश की कि यह कतई संभव नहीं है, क्योंकि ब्लोगिंग दुनिया भर के नव साक्षरों के लिए यह एक अनूठी प्रयोगशाला है। ऐसा भला और कौन सा माध्यम है जहां आदमी बिना कोई बड़ी पूंजी खर्च किए किसी भी बड़ी हस्ती के साथ कंधा जोड़ कर खड़ा हो जाए? इसलिए इसे किसी नियम-क़ानून में नहीं बांधा जा सकता …!
वर्ष-२०१० में हिंदी ब्लोगिंग के प्रति ज्यादा से ज्यादा रुझान पैदा करने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम चलाये गए । १६ वर्गों में सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने वाले चर्चित ब्लोगरों के लिए तथा हिंदी ब्लोगिंग में सकारात्मक लेखन को बढ़ावा देने के लिए संवाद डोट कॉम ने संवाद सम्मान की घोषणा की । दो चिट्ठाकारों क्रमश: बसंत आर्य और ललित शर्मा को फगुनाहट सम्मान से नवाजा गया । ताऊ डोट इन के द्वारा बैशाखनंदन सम्मान की घोषणा की गयी । पहली बार इंटरनेट पर लोकसंघर्ष पत्रिका और परिकल्पना के द्वारा प्रायोजित ब्लॉग उत्सव मनाया गया । ब्लोगोत्सव-२०१० में सृजनात्मक उपस्थिति को आधार मानते हुए पहली बार किसी भाषा के ब्लॉग द्वारा ५१ ब्लोगरों के लिए एक साथ सारस्वत सम्मान (लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान -२०१० ) की उद्घोषणा की गयी । शिबना प्रकाशन के द्वारा इस वर्ष माह दिसंबर में ब्लोगर एवं गीतकार राकेश खंडेलवाल को सम्मानित करने की उद्घोषणा की गयी !
ललित शर्मा ने इस वर्ष सकारात्मक चिट्ठों की चर्चा के लिए ब्लॉग4 वार्ता आरंभ किया , वहीं चिट्ठा चर्चा पर अनूप शुक्ल, रवि रतलामी, डा अनुराग,मनोज कुमार, तरुण,मसिजीवी, चर्चा मंच पर डॉ.रुपचन्द्र शास्त्री “मयंक”,मनोज कुमार , संगीता स्वरुप, वन्दना और ब्लोग४वार्ता पर ललित शर्मा,शिवम् मिश्रा, अजय झा, संगीता पुरी चर्चा हिंदी चिट्ठों की पर पंकज मिश्रा , समय चक्र पर महेंद्र मिश्र और झा जी कहीन पर अजय कुमार झा आदि के द्वारा लगातार चिट्ठों को प्रमोट करने का महत्वपूर्ण कार्य किया गया ।इसी वर्ष लखनऊ ब्लोगर्स असोसिएशन के द्वारा अलवेला खत्री को चिट्ठा हास्य रत्न से अलंकृत करते हुए सम्मानित किया गया , वहीं संजीत त्रिपाठी को हिंदी ब्लोगिंग में उल्लेखनीय योगदान के लिए सृजगाथा ने सम्मानित किया । दो साल पहले चिट्ठाकारी से अस्थायी संन्यास लेकर चले गये ई -पंडित की इस वर्ष फरवरी माह में वापसी हुई । विनीत कुमार ने भी ब्लोगिंग में तीन वर्ष का सफ़र पूरा कर लिया । इस वर्ष हिंदी में एक बेहतर ब्लॉग “जानकी पूल” लेकर आये प्रभात रंजन । १५ जून को डा सुभाष राय ने हिंदी ब्लोगिंग की संभावनाओं और खतरों से आगाह किया ।इस वर्ष तीन महत्वपूर्ण ब्लॉग परिकल्पना के माध्यम से आये, हिंदी ब्लोगिंग के दस्तावेजीकरण हेतु ब्लॉग परिक्रमा , हिंदी जगत की गतिविधियों को प्राणवायु देने के उद्देश्य से शब्द सभागार तथा गीत-ग़ज़ल-कविता-नज़्म के क्षेत्र में सक्रिय नए -पुराने रचनाकारों को एक मंच प्रदान करने हेतु वटवृक्ष, यह ब्लॉग इंटरनेट की मशहूर कवियित्री रश्मि प्रभा के संचालन में सितंबर में शुरू हुआ और लोकप्रियता का नया मुकाम बनाने में सफल भी हुआ ।
साहित्यांजलि के नाम से परिकल्पना की एक और पहल हुई इस वर्ष जिसके अंतर्गत साहित्यिक कृत्यों का प्रकाशन होगा । अभी इसपर रवीन्द्र प्रभात का नया उपन्यास ” ताकि बचा रहे गणतंत्र ” की कड़ियाँ प्रकाशित हो रही है ।अंधविश्वास के प्रति अपनी मुहीम के अंतर्गत जाकिर अली रजनीश इस वर्ष एक नया ब्लॉग लेकर आये जिसका नाम है सर्प संसार । लगभग एक दर्जन ब्लॉग के संचालक अविनाश वाचस्पति लेकर आये मैं आपसे मिलना चाहता हूँ और अजय कुमार झा ब्लॉग बकबक ।इस वर्ष मनोज कुमार का भी एक नया ब्लॉग विचार आया !इसी वर्ष कुअंर कुसुमेश का नया ब्लॉग भी आया, जो सृजनात्मक अभिव्यक्ति की सार्थक प्रस्तुति कही जा सकती है !
इस वर्ष बिभिन्न शहरों में काफी संख्या में ब्लोगर सम्मलेन और गोष्ठियां हुई ,२२ फरवरी को राँची में जमा हुए कलकतिया और झारखण्डी ब्लॉगर,अमिताभ मीत (कोलकाता),शिव कुमार मिश्रा (कोलकाता),बालकिशन (कोलकाता),शम्भू चौधरी (कोलकाता),रंजना सिंह (जमशेदपुर),श्यामल सुमन (जमशेदपुर),पारूल चाँद पुखराज (बोकारो),संगीता पुरी (बोकारो),मनीष कुमार (राँची),नदीम अख्तर (राँची),घनश्याम श्रीवास्तव उर्फ घन्नू झारखंडी (राँची),डॉ॰ भारती कश्यप (राँची),निराला तिवारी (राँची),संध्या गुप्ता (दुमका),सुशील कुमार (चाईंबासा),शैलेश भारतवासी (दिल्ली),लवली कुमारी (धनबाद),अभिषेक मिश्र (वाराणसी) आदि। १२ अप्रैल को लखनऊ में हास्यकवि अलवेला खत्री की उपस्थिति में उपस्थित हुए लखनऊ के ब्लोगर । लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन और संवाद डोट कौम के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस ब्लोगर संगोष्ठी में श्रीमती अलका मिश्रा, श्रीमती सुशीला पुरी, श्रीमती उषा राय, श्रीमती अनीता श्रीवास्तव, श्री अमित कुमार ओम, श्रीमती मीनू खरे, श्री रवीन्द्र प्रभात, श्री मो० शुएब, श्री हेमंत, श्री विनय प्रजापति, श्री जाकिर अली रजनीश आदि ब्लोगर्स उपस्थित हुए ।२५ अप्रैल को मुम्बई ब्लोगर मीट का आयोजन हुआ, जिसमें विभारानी, बोधिसत्व, आभा मिश्रा, विमल कुमार, अभय तिवारी, राज सिंह, अनिल रघुराज, यूनुस खान, अनीता कुमार, घुघुती बासुती, ममता, जादू, रश्मि रविजा, विवेक रस्तोगी ने शिरकत की । २६ अगस्त को आगरा में अवीनाश वाचस्पति की अध्यक्षता में उपस्थित हुए आगरा और उसके आसपास के ब्लोगर,जयपुर हिन्‍दी ब्‍लॉगर मिलन में तकनीक के एक नए पक्ष से परिचय हुआ अर्थात लिंक पर क्लिक करके आप टेलीफोन समाचार सुन भी सकते हैं। जयपुर में आयोजित पहले हिन्‍दी ब्‍लॉगर मिलन का समाचार इस नए माध्‍यम से प्रसारित हुआ। ०६ जून को मेरठ में ब्लोगर्स गोष्ठी हुई जिसमें अबिनाश वाचस्पति, सुमित प्रताप सिंह, मिथिलेश दुबे आदि उपस्थित हुए । २२ मई को दिल्ली ब्लोगर मिलन का कार्यक्रम हुआ, जिसमें जय कुमार झा, रतन सिंह शेखावत, एम वर्मा, राजीव तनेजा, संगीता पुरी, विनोद कुमार पाण्डे, बागी चाचा, पी के शर्मा, ललित शर्मा, अमर ज्योति, अविनाश वाचस्पति, संजू तनेजा, मानिक तनेजा, मयंक सक्सेना, नीरज जाट, अंतर साहिल, मयंक, आशुतोष मेहता, शाहनवाज़ सिद्दिकी, राहुल राय, डाँ वेद व्यथित, राजीव रंजन प्रसाद, अजय यादव, अभिषेक सागर, डाँ प्रवीन चोपड़ा, प्रतिभा कुशवाहा, प्रवीण कुमार शुक्ला, खुशदीप सहगल, इरफान खान, योगेश कुमार गुलाटी, उमाशंकर मिश्रा, सुलभ जायसवाल, चंडीदत्त शुक्ल, राम बाबू सिंह, अजय कुमार झा, देवेन्द्र गर्ग, घनश्याम बघेला, सुधीर कुमार आदि उपस्थित हुए । १३ नवंबर को मशहूर ब्लोगर समीर लाल समीर के भारत आगमन पर दिल्ली में नुक्कड़ के संचालक अवीनाश वाचस्पति की अगुआई में उनका शानदार स्वागत हुआ । २१ नवंबर को रोहतक में ब्लोगर मीट हुए , जिसमें राज भाटिया, ललित शर्मा, अजय झा, खुशदीप सहगल, अंतर सोहिल , संगीता पुरी, शहनवाज़, नीरज जाट, संजय भास्कर, योगेन्द्र मौदगिल , राजीव तनेजा आदि उपस्थित हुए और ०१ दिसंबर को संस्कारधानी जबलपुर में जबलपुर ब्लागर्स द्वारा “हिंदी विकास और संभावनाएं” विषय पर संगोष्टी आयोजित की गई जिसमें रायपुर छत्तीसगढ़ से ललित शर्मा ,जी. के अवधिया , हैदराबाद से विजय कुमार सतपति और समीर लाल ( उड़न तश्तरी) उपस्थित हुए ।
किन्तु २७ अगस्त को पांच दिवसीय ‘ब्लॉग लेखन के द्वारा विज्ञान संचार‘ कार्यशाला का आयोजन लखनऊ में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौ्द्यौगिकी संचार परिषद, नई दिल्ली एवं तस्लीम के संयुक्त तत्वाधान में किया,बरकतुल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल एवं देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर के पूर्व कुलपति एवं प्रसिद्ध शिक्षाविद श्री महेन्द्र सोढ़ा,साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन के अध्यक्ष डा0 अरविंद मिश्र,जाने पहचाने ब्लॉगर श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, इंडियन साइंस कम्युनिकेशन सोसाइटी के अध्यक्ष डा0 वी0 पी0 सिंह,अमित ओम,ब्लॉग तकनीक के महारथी रवि रतलामी और शैलेष भारतवासी,“एक आलसी का चिठ्ठा” फेम के ब्लॉगर श्री गिरिजेश राव,राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद के निदेशक डा0 मनोज पटैरिया,जानी पहचानी ब्लॉगर अल्पना वर्मा,प्रख्यात रचनाकार हेमंत द्विवेदी, लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन के अध्यक्ष रवीन्द्र प्रभात, लोकसंघर्ष पत्रिका के रणधीर सिंह, सुमन, मोहम्मद शुएब, जीशान हैदर जैदी,अल्का मिश्रा,समाजसेवी ईं0 राम कृष्ण पाण्डेय और ‘तस्लीम’ के महामंत्री जाकिर अली ‘रजनीश’की उपस्थिति रही। देश में पहली बार सांस ब्लोगिंग पर आधारित इस प्रकार के आयोजन हुए ।
९ -१० अक्तूबर को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के द्वारा ब्लोगिंग की आचार संहिता पर हुई दो दिवसीय संगोष्ठी को इस वर्ष की महत्वपूर्ण गतिविधियाँ कही जा सकती है । ९ अक्टूबर को ‘हिंदी ब्लॉगिंग की आचार-संहिता’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला एवं संगोष्ठी का उद्‍घाटन विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूति नारायण राय ने किया।संगोष्ठी में उदयपुर,राजस्थान से पधारीं डॉ.(श्रीमती) अजित गुप्ता,“दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा” के विश्वविद्यालय विभाग के हैदराबाद केंद्र के विभागाध्यक्ष और प्रोफ़ेसर डॉ. ऋषभ देव शर्मा,वरिष्ठ कवि श्री आलोकधन्वा,जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. अनिल राय ‘अंकित’,‘चिट्ठा चर्चा’ के संचालक व लोकप्रिय ‘फुरसतिया’ ब्लॉग के लेखक अनूप शुक्ल, लखनऊ से रवीन्द्र प्रभात, जाकिर अली रजनीश ,भड़ास4मीडिया डॉट कॉम’ के यशवंत सिंह, हिंद युग्म के शैलेश भारतवासी ,अहमदाबाद से आये संजय वेंगाणी, उज्जैन से पधारे सुरेश चिपलूनकर, पानीपत से विवेक सिंह, दिल्ली से हर्षवर्धन त्रिपाठी,दिल्ली से हीं अवीनाश वाचस्पति, मेरठ से अशोक कुमार मिश्र, वर्धा से श्रीमती रचना त्रिपाठी, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी,दिल्ली से विनोद शुक्ल,मुम्बई से श्रीमती अनिता कुमार, बंगलोर से प्रवीण पांडेय, कोलकाता से डॉ. प्रियंकर पालीवाल, छतीसगढ़ से संजीत त्रिपाठी, डॉ.महेश सिन्हा तथा प्रमुख ब्लॉगर और आप्रवासी कवयित्री डॉ. कविता वाचक्नवी आदि उपस्थित थे। पहली बार हिंदी ब्लोगिंग की किसी सार्वजनिक संगोष्ठी में देश के प्रमुख साईबर विशेषज्ञ पवन दुग्गल उपस्थित हुए ।
ब्लोगिंग में ठलुआते हुए प्रमोद तांबट का एक साल पूरा हुआ इस वर्ष और पहले ही वर्ष में वे ब्लोगोत्सव-२०१० में शामिल भी हुए और सम्मानित भी । विगत वर्ष हिंदी ब्लोगिंग में लालू प्रसाद यादव और मनोज बाजपाई जैसी बिहार की चर्चित हस्तियाँ शामिल हुई थी, इस वर्ष नितीश कुमार का भी ब्लॉग आया ।
अभी तक आप ब्लॉग लिखते रहे हैं, माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के जरिए १४० अक्षरों में अपनी बात कहते रहे हैं, सेलेब्रिटी को फॉलो कर उनके दिल की बात जानते रहे हैं, फेसबुक-ऑकरुट जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर स्टेटस अपडेट कर अपना हाल दुनिया को बताते रहे हैं या अपने दोस्तों-परीचितों का हाल जानते रहे हैं। लेकिन, वर्ष -२००९ में ब्लॉगिंग की दुनिया में मीठी आवाज का रस घुलना शुरू हुआ और इस वर्ष की समाप्ति तक पूरे परवान पर है यह ‘वॉयस ब्लॉगिंग’ की दुनिया।
ज्ञान दत्त पाण्डेय ने मानसिक हलचल पर १५ जनवरी २०१० को अपने पोस्ट में ब्लोगिंग की सीमाएं बतायी है वहीं इस आलेख की प्रतिक्रया में समीर लाल समीर का कहना है कि ” वेब तो दिन पर दिन स्मार्ट होता ही जा रहा है, जरुरत है हमारे कदम ताल मिलाने की. जितना तेजी से मिल पायेंगे, उतनी ज्याद उपयोगिता सिद्ध कर पायेंगे.माला भार्गव के आलेख के लिंक के लिए अति आभार !”
१२ मार्च २०१० को परिकल्पना पर यह महत्वपूर्ण घोषणा की गयी कि हिंदी ब्लॉग जगत को आंदोलित करने के उद्देश्य से परिकल्पना ब्लॉग उत्सव का आयोजन किया जाएगा । यह आयोजन १६ अप्रैल२०१० को शुरू हुआ हिंदी के मशहूर चित्रकार इमरोज के साक्षात्कार , हिंदी ग़ज़लों के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अदम गोंडवी की ग़ज़लों, देश के प्रमुख व्यंग्यकार अशोक चक्रधर की शुभकामनाओं से । अंतरजाल पर यह आयोजन लगभग दो महीनों तक चला ।इस उत्सव का नारा था – ” अनेक ब्लॉग नेक हृदय ” । इस उत्सव में प्रस्तुत की गयी कतिपय कालजयी रचनाएँ , विगत दो वर्षों में प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण ब्लॉग पोस्ट , ब्लॉग लेखन से जुड़े अनुभवों पर वरिष्ठ चिट्ठाकारों की टिप्पणियाँ ,साक्षात्कार , मंतव्य आदि ।विगत वर्ष-२००९ में ब्लॉग पर प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण कवितायें, गज़लें , गीत, लघुकथाएं , व्यंग्य , रिपोर्ताज, कार्टून आदि का चयन करते हुए उन्हें प्रमुखता के साथ ब्लॉग उत्सव के दौरान प्रकाशित किये गए ।कुछ महत्वपूर्ण चिट्ठाकारों की रचनाओं को स्वर देने वाले पुरुष या महिला ब्लोगर के द्वारा प्रेषित ऑडियो/वीडियो भी प्रसारित किये गए ।उत्सव के दौरान प्रकाशित हर विधा से एक-एक ब्लोगर का चयन कर , गायन प्रस्तुत करने वाले एक गायक अथवा गायिका का चयन कर तथा उत्सव के दौरान सकारात्मक सुझाव /टिपण्णी देने वाले श्रेष्ठ टिप्पणीकार का चयन कर उन्हें सम्मानित किया गया । साथ ही हिन्दी की सेवा करने वाले कुछ वरिष्ठ चिट्ठाकारों को विशेष रूप से सम्मानित किया गया । पहली बार एक साथ लगभग ५१ ब्लोगरों को परिकल्पना सम्मान से नवाज़ा गया ।
इसी दौरान ताऊ ने बुढऊ ब्लागर एसोसियेशन की स्थापना कर दी हुक्का गुड गुड़ाते हुए …….. कौन कौन बुढाऊ ब्लागर वहां पहुचे ये देखिये…….लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन के तर्ज पर इस वर्ष कानपुर ब्लोगर असोसिएशन, आजमगढ़ ब्लोगर असोसिएशन और जूनियर ब्लोगर असोसिएशन की भी स्थापना हुई ।
बी एस पावला , हिंदी ब्लॉगजगत के सबसे जिंदादिल ब्लॉगर , जिन्हें संवाद डोट कॉम ने वर्ष-२००९ का ब्लॉग संरक्षक का सम्मान दिया । १७ जून २०१० के अपने पोस्ट में उन्होंने कहा है कि -”ब्लॉगिंग की दुनिया में एक अनोखा ब्लॉग-संकलक, एग्रीगेटर कर रहा आपका इंतज़ार” । बी एस पावला के द्वारा संचालित ‘प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा HEADLINE ANIMATOR’ इस वर्ष योजनाबद्ध तरीके से निष्क्रिय किया गया । प्रिंट मीडिया ब्लॉग को ही वेबसाईट का रूप दे कर http://www.blogsinmedia.com/बनाया गया है।अपने कथन के अनुसार बी एस पावला ने इसे कार्य रूप में परिवर्तित भी किया,जो इस वक्त यह सरपट चल रहा http://www.blogsinmedia.com/ ।
व्यंग्य वर्ग से परिकल्पना सम्मान-२०१० पाने वाले अविनाश वाचस्पतिने २६ अप्रैल २०१० को ब्लोगोत्सव-२०१० पर एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि ” हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की ताकत को कम करके आंकना बिल्‍कुल ठीक नहीं है “०५ मई २०१० को मुहल्ला लाईव पर विनीत कुमार ने कहा कि ” ज्ञानोदय में हिंदी ब्लोगिंग पर शुरू हुआ उनका स्तंभ ” । अपनी आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए आलेख में उन्होंने कहा है कि -”ब्लॉग के बहाने पहले तो वर्चुअल स्पेस में और अब प्रिंट माध्यमों में एक ऐसी हिंदी तेजी से पैर पसार रही है जो कि देश के किसी भी हिंदी विभाग की कोख की पैदाइश नहीं है। पैदाइशी तौर पर हिंदी विभाग से अलग इस हिंदी में एक खास किस्म का बेहयापन है, जो पाठकों के बीच आने से पहले न तो नामवर आलोचकों से वैरीफिकेशन की परवाह करती है और न ही वाक्य विन्यास में सिद्धस्थ शब्दों की कीमियागिरी करनेवाले लोगों से अपनी तारीफ में कुछ लिखवाना चाहती है। पूरी की पूरी एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जो निर्देशों और नसीहतों से मुक्त होकर हिंदी में कुछ लिख रही है। इतनी बड़ी दुनिया के कबाड़खाने से जिसके हाथ अनुभव का जो टुकड़ा जिस हाल में लग गया, वह उसी को लेकर लिखना शुरू कर देता है। इस हिंदी को लिखने के पीछे का सीधा-सा फार्मूला है जो बात जैसे दिल-दिमाग के रास्ते कीबोर्ड पर उतर आये उसे टाइप कर डालो, भाषा तो पीछे से टहलती हुई अपने-आप चली आएगी।”
“जबसे ब्लोगिंग की लत लगी है हमको, हमेशा परेशान रहते हैं। ना दिन में चैन और ना रात में नींद। दिमाग रूपी आकाश में ब्लोग, ब्लोगर, पोस्ट, टिप्पणियाँ रूपी मेघ ही घुमड़ते रहते हैं। परेशान रहा करते हैं कि आज तो ले-दे के पोस्ट लिख लिया है हमने पर कल क्या लिखेंगे? कई बार मन में आता है कि कल से हर रोज लिखना बंद। निश्चय कर लेते हैं कि आज के बाद से अब सप्ताह में सिर्फ एक या दो पोस्ट लिखेंगे पर ज्योंही आज बीतता है और कल है कि है। तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा और अंगुष्ठ याने कि सारी की सारी उँगलियाँ रह-रह कर कम्प्यूटर के कीबोर्ड की ओर जाने लगती हैं। जब तक एक पोस्ट ना लिख लें, चैन ही नहीं पड़ता। पर रोज-रोज आखिर लिखें तो लिखें भी क्या? ” यह मैं नहीं कह रहा हूँ ऐसा कहा है जी के अवधिया ने अपने ब्लॉग धान के देश में पर १२ जुलाई २०१० को “बड़ी बुरी लत है ब्लोगिंग की “१४ अगस्त २०१० को अफलातून ने यही है वह जगह पर “ब्लॉगिंग के चार साल : आंकड़ों में ” प्रस्तुत किया है । छींटे और बौछारें पर ०४ नवंबर २०१० को रवि रतलामी ने टेक्नोराती ब्लॉग सर्वे का व्योरा प्रस्तुत किया है और कहा है कि “टेक्नोराती ब्लॉग सर्वे 2010 आंकड़े – क्या ब्लॉगिंग पुरूषों की बपौती है?”
२५ फरवरी को उड़न तश्तरी पर प्रकाशित ऑपरेशन कनखुजरा में मनुष्य और बाघ को लेकर की गयी टिप्पणी को पाठकों ने काफी सराहा । वहीँ डा अनवर जमाल के द्वारा ०२ अगस्त को मन की दुनिया पर कथा के दर्पण में सच को प्रतिबिम्बित करने का एक अनूठा प्रयास किया गया । ०१ अप्रैल मुर्ख दिवस पर शरद कोकाश ने व्यंग्य के माध्यम से ब्लोगिंग से जुड़े महत्वपूर्ण पहलूओं पर प्रकाश डाला , शीर्षक था -बाल (ब्लॉग ) ना बाँका कर सके जो जग बैरी होय….२९ अप्रैल को नन्ही ब्लोगर पाखी ने चिड़िया टापू की सैर के माध्यम से एक सुन्दर यात्रा वृत्तांत प्रस्तुत किया । २७अगस्त को सफ़ेद घर पर ब्लॉग महंत………..ब्लॉगिंग का ककहरा पढ़ते मिस्टर मदन…….आलू का जीजा……..ढेला ढोवन…….सतीश पंचम का व्यंग्य आया जिसे पाठकों ने काफी सराहा वहीँ ३१ अगस्त को सरस पायस पर सूर्य कुमार पाण्डेय की एक बहुत ही सारगर्भित कविता प्रकाशित हुई ।१६ अगस्त को भला बुरा ब्लॉग ने ५०० वीं पोस्ट लिखी । २७ अक्तूबर को मैं मुरख तुम ज्ञानी पर वर्धा सम्मलेन का पोस्टमार्टम किया गया। १८ नवंबर को स्वास्थ सबके लिए पर ब्लोगिंग और तनाव से संबंधित महत्वपूर्ण पहलूँ को उकेरा ।
१६ मार्च कों विवेक सिंह न ब्लोगिंग कों पत्र लिख कर कहा कि उदास मत हो ब्लोगिंग । ०९ अप्रैल को मा पलायनम पर मनोज मिश्र ने मित्र मिलन की अजब कहानी से अवगत कराया । ११ अप्रैल को ब्लोग्स पंडित ने जी -८ से ब्लॉग जगत में एक नयी क्रान्ति से पाठकों को रूबरू कराया ।३१ जुलाई को प्रवीण जाखर ने कहा कि साइबर सुरक्षा खतरे में : एक्सक्लूसिव पड़ताल २१ अगस्त को डायरी में मनीषा पाण्डेय नकसबे में बसे रबीश कुमार की चर्चा की । एक महत्वपूर्ण सर्वेक्षण करते हुए आशीष खंडेलवाल ने हिंदी ब्लॉग टिप्स पर 100 से ज़्यादा फॉलोवर वाले हिन्दी चिट्ठों के शतक की जानकारी दी । १७ जुलाई को जानकी पूल पर मनोहर श्याम जोशी की बातचीत प्रकाशित की गयी । सृजन यात्रा में सुभाष नीरव ने अपनी सृजनात्मक यात्रा से अवगत कराया । राजीव तनेजा ने हंसते रहो पर अत्यंत सारगर्भित व्यंग्य प्रस्तुत करते हुए कहा है कि हे पार्थ!…अर्जुन गाँडीव उठाए तो किसके पक्ष में?… ।दिव्य नर्मदा ने ब्लोगिंग की आचार संहिता : कुछ सवाल उठाये हैं ।
१८ नवंबर को दबीर निउज ने अपने एक आलेख में बताया कि फेसबुक की लोकप्रियता 5 साल की मेहमान ….०३ दिसंबर को अपने एक आलेख में भारतीय नागरिक ने यह सूचना दी कि अभी तीन दिन पहले तक wikileaks.org ठीक-ठाक ढ़ंग से खुल रही थी। लेकिन आज यह साइट नहीं खुल पा रही। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस साइट को प्रतिबन्धित कर दिया गया है।
………वर्ष-२०१० में जो कुछ भी हुआ उसे हिंदी चिट्ठाजगत ने किसी भी माध्यम की तुलना में बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की है। कुछ ब्लॉग ऐसे है जिनकी चर्चा विगतवर्ष-२००९ में भी हुयी थी और आशा की गई थी की वर्ष- २०१० में इनकी चमक बरक़रार रहेगी । सिनेमा पर आधारित तीन ब्लॉग वर्ष-२००९ में शीर्ष पर थे । एक तरफ़ तो प्रमोद सिंह के ब्लॉग सिलेमा सिलेमा पर सारगर्भित टिप्पणियाँ पढ़ने को मिलीं थी वहीं दिनेश श्रीनेत ने इंडियन बाइस्कोप के जरिये निहायत ही निजी कोनों से और भावपूर्ण अंदाज से सिनेमा को देखने की एक बेहतर कोशिश की थी । तीसरे ब्लॉग के रूप में महेन के चित्रपट ब्लॉग पर सिनेमा को लेकर अच्छी सामग्री पढ़ने को मिली थी । यह अत्यन्त सुखद है की उपरोक्त तीनों ब्लोग्स में से महेन के चित्रपट को छोड़कर शेष दोनों ब्लोग्स वर्ष २०१० में भी अपनी चमक और अपना प्रभाव बनाये रखने में सफल रहे हैं ।
इसीप्रकार जहाँ तक राजनीति को लेकर ब्लॉग का सवाल है तो अफलातून के ब्लॉग समाजवादी जनपरिषद, नसीरुद्दीन के ढाई आखर, अनिल रघुराज के एक हिन्दुस्तानी की डायरी, अनिल यादव के हारमोनियम, प्रमोदसिंह के अजदक और हाशिया का जिक्र किया जाना चाहिए। ये सारे ब्लोग्स वर्ष २००९ में भी शीर्ष पर थे और वर्ष २०१० में अनियमितता के बावजूद शीर्ष पर न सही किन्तु अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल जरूर हुए हैं ।
वर्ष २००९ में सृजनात्मक ब्लोग्स की श्रेणी में सुरपेटी, कबाड़खाना, ठुमरी, पारूल चाँद पुखराज का चर्चित हुए थे , जिनपर सुगम संगीत से लेकर क्लासिकल संगीत को सुना जा सकता था , पिछले वर्ष रंजना भाटिया का ब्लॉग ने भी ध्यान खींचा था और जहाँ तक खेल का सवाल है, एनपी सिंह का ब्लॉग खेल जिंदगी है पिछले वर्ष शीर्ष पर था। पिछले वर्ष वास्तु, ज्योतिष, फोटोग्राफी जैसे विषयों पर भी कई ब्लॉग शुरू हुए थे और आशा की गई थी कि ब्लॉग की दुनिया में २०१० ज्यादा तेवर और तैयारी के साथ सामने आएगा। यह कम संतोष की बात नही कि इस वर्ष भी उपरोक्त सभी ब्लोग्स सक्रीय ही नही रहे अपितु ब्लॉग जगत में एक प्रखर स्तंभ की मानिंद दृढ़ दिखे । निश्चित रुप से आनेवाले समय में भी इनके दृढ़ता और चमक बरकरार रहेगी यह मेरा विश्वास है ।
यदि साहित्यिक लघु पत्रिका की चर्चा की जाए तो पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष ज्यादा धारदार दिखी मोहल्ला । अविनाश का मोहल्ला कॉलम में चुने ब्लॉगों पर मासिक टिप्पणी करते हैं और उनकी संतुलित समीक्षा भी करते हैं। इसीप्रकार वर्ष २००९ की तरह वर्ष-२०१० में भी अनुराग वत्स के ब्लॉग ने एक सुविचारित पत्रिका के रूप में अपने ब्लॉग को आगे बढ़ाया हैं।
पिछले वर्ष ग्रामीण संस्कृति को आयामित कराने का महत्वपूर्ण कार्य किया था खेत खलियान ने , वहीं विज्ञान की बातों को बहस का मुद्दा बनाने सफल हुए थे पंकज अवधिया अपने ब्लॉग मेरी प्रतिक्रया में । हिन्दी में विज्ञान पर लोकप्रिय और अरविन्द मिश्रा के निजी लेखों के संग्राहालय के रूप में पिछले वर्ष चर्चा हुयी थी सांई ब्लॉग की ,गजलों मुक्तकों और कविताओं का नायाब गुलदश्ता महक की ,ग़ज़लों एक और गुलदश्ता है अर्श की, युगविमर्श की , महाकाव्य की, कोलकाता के मीत की , “डॉ. चन्द्रकुमार जैन ” की, दिल्ली के मीत की, “दिशाएँ “की, श्री पंकज सुबीर जी के सुबीर संवाद सेवा की, वरिष्ठ चिट्ठाकार और सृजन शिल्पी श्री रवि रतलामी जी का ब्लॉग “ रचनाकार “ की, वृहद् व्यक्तित्व के मालिक और सुप्रसिद्ध चिट्ठाकार श्री समीर भाई के ब्लॉग “ उड़न तश्तरी “ की, ” महावीर” ” नीरज ” “विचारों की जमीं” “सफर ” ” इक शायर अंजाना सा…” “भावनायें… ” आदि की।इस वर्ष हिंदी ब्लोगिंग को नयी दिशा देने के उद्देश्य से कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में श्रेष्ठ सहयोगी की भूमिका में दिखे एडवोकेट रंधीर सिंह सुमन यानी इस वर्ष की उनकी गतिविधिया को nice कहा जा सकता है ! फिल्म अभिनेता सलमान खान की तरह सलीम खान भी इस वर्ष लगातार विवादों में घिरे रहे, इसके बावजूद वे अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए संवाद सम्मान और लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान ससे नवाजे गए !
इसी क्रम में हास्य के एक अति महत्वपूर्ण ब्लॉग “ठहाका ” हिंदी जोक्स तीखी नज़र current CARTOONS बामुलाहिजा चिट्ठे सम्बंधित चक्रधर का चकल्लस और बोर्ड के खटरागी यानी अविनाश वाचस्पति तथा दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका आदि की । वर्ष २००९ के चर्चित ब्लॉग की सूची में और भी कई महत्वपूर्ण ब्लॉग जैसे जबलपुर के महेंद्र मिश्रा के निरंतर अशोक पांडे का -“ कबाड़खाना “ , डा राम द्विवेदी की अनुभूति कलश , योगेन्द्र मौदगिल और अविनाश वाचस्पति के सयुक्त संयोजन में प्रकाशित चिट्ठा हास्य कवि दरबार , उत्तर प्रदेश के फतेहपुर के प्रवीण त्रिवेदी का “ प्राइमरी का मास्टर “ , लोकेश जी का “अदालत “ , बोकारो झारखंड की संगीता पुरी का गत्यात्मक ज्योतिष , उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर सकल डीहा के हिमांशु का सच्चा शरणम , विवेक सिंह का स्वप्न लोक , शास्त्री जे सी फ़िलिप का हिन्दी भाषा का सङ्गणकों पर उचित व सुगम प्रयोग से सम्बन्धित सारथी , ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल और दिनेशराय द्विवेदी का तीसरा खंबा आदि की चर्चा वर्ष -२००९ में परिकल्पना पर प्रमुखता के साथ हुयी थी और हिंदी ब्लॉगजगत के लिए यह अत्यंत ही सुखद पहलू है , की ये सारे ब्लॉग वर्ष-२०१० में भी अपनी चमक बनाये रखने में सफल रहे हैं ।
जून-२००८ से हिंदी ब्लॉगजगत में सक्रिय के. के. यादव का वर्ष-२०१० में प्रकाशित एक आलेख अस्तित्व के लिए जूझते अंडमान के आदिवासी ,वर्ष-२००८ से दस ब्लोगरों क्रमश: अमित कुमार यादव, कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, रश्मि प्रभा, रजनीश परिहार, राज यादव, शरद कुमार, निर्मेश, रत्नेश कुमार मौर्या, सियाराम भारती, राघवेन्द्र बाजपेयी के द्वारा संचालित सामूहिक ब्लॉग युवा जगत पर इस वर्ष प्रकाशित एक आलेख हिंदी ब्लागिंग से लोगों का मोहभंग ,२४ जून २००९ से सक्रीय और लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान से सम्मानित वर्ष की श्रेष्ठ नन्ही ब्लोगर अक्षिता पाखी के ब्लॉग पर प्रकाशित आलेख डाटर्स-डे पर पाखी की ड्राइंग… १० नवम्बर-२००८ से सक्रीय राम शिव मूर्ति यादव का इस वर्ष प्रकाशित आलेख मानवता को नई राह दिखाती कैंसर सर्जन डॉ. सुनीता यादव, २६ अगस्त -२००८ से सक्रीय सामूहिक ब्लॉग साहित्य शिल्पी (जिसके मुख्य संचालक हैं राजिव रंजन प्रसाद ) पर इस वर्ष प्रकाशित पोस्ट बस्तर के वरिष्ठतम साहित्यकार लाला जगदलपुरी से बातचीत ,दिसंबर-२००८ से सक्रीय ब्लोगर त्रिपुरारी कुमार शर्मा का ब्लॉग तनहा फलक पर प्रकाशित पोस्ट हिंदुस्तान की हालत ,जनवरी-२००८ से सक्रीय राम कुमार त्यागी के कविता संग्रह पर प्रकाशित पोस्ट अकेला हूँ तो क्या हुआ ? , मेरी आवाज़ पर प्रकाशित आलेख पश्चताप, गान्धी और मेरे पिता, शोध का सोच और आत्मनिर्भरत पर प्रभाव ,२० जनवरी -२०१० में मनोज कुमार, संगीता स्वरूप, रेखा श्रीवास्तव, अरुण चन्द्र राय, संतोष गुप्ता, परशुराम राय, करण समस्ती पुरी, हरीश प्रकाश गुप्त आदि ब्लोगर के सामूहिक संचालन में प्रकाशित ब्लॉग राजभाषा पर प्रकाशित पोस्ट आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए ,सितंबर-२००९ से सक्रीय लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान /बैसाखनंदन सम्मान से सम्मानित ब्लोगर मनोज कुमार का पोस्ट फ़ुरसत में … बूट पॉलिश!,मई-२००७ से सक्रीय वन्दना गुप्ता का वर्ष-२०१० में प्रकाशित आलेख :”पिता का योगदान” और “राष्ट्रमंडल खेलों का असर ?” ,अप्रैल- २००९ से सक्रीय और लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान से सम्मानित शिखा वार्शनेय का आलेखक्या करें क्या ना करें ये कैसी मुश्किल हाय.२१ सितंबर-२००८ से सक्रीय रेखा श्रीवास्तव के अपने ब्लॉग पर वर्ष-२०१० में प्रकाशित एक आलेख का शीर्षक और यू आर एल …..किसी की आँख का आंसूं! आदि को पाठकों की सर्वाधिक सराहना प्राप्त हुयी है .
हिन्दी ब्लॉगिंग में “एकल” लिखने वालों तथा यदि इसमें “समूह” ब्लॉग भी जोड़ दिया जाये तो, फ़िलहाल “1000 सब्स्क्राइबर क्लब” के सदस्य गिने-चुने ही हैं, लेकिन जिस रफ़्तार से हिन्दी ब्लॉगरों की संख्या बढ़ रही है और पाठकों की संख्या भी तेजी से विस्तार पा रही है, जल्दी ही 1000 सब्स्क्राइबर की संख्या बेहद मामूली लगने लगेगी और जल्दी ही कई अन्य ब्लॉगर भी इसे पड़ाव को पार करेंगे।०६ दिसम्बर के अपने पोस्ट में सुरेश चिपलूनकर ने कहा है कि महाजाल ब्लॉग के 1000 सब्स्क्राइबर हो गये हैं।
हिंदी ब्लोगिंग को प्राणवायु देने के उद्देश्य से चिट्ठाजगत लगातार सक्रिय रहा इस वर्ष भी, किन्तु हिंदी के बहुचर्चित एग्रीगेटर ब्लोगवाणी का अचानक बंद हो जाना इस वर्ष की महत्वपूर्ण घटना है, ब्लोगवाणी के बंद होने के पश्चात हमारीवाणी आयी, जिसका उद्देश्य है हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ तथा विदेशी भाषाओँ में लिखने वाले भारतियों को अपनी आवाज़ रखने के लिए एक उचित मंच उपलब्ध करना तथा भारतीय भाषाओँ तथा लेखन को एक नई सोच के साथ प्रोत्साहित करना, क्योंकि हमारीवाणी का उद्देश्य लेखकों के लिए अपना ब्लॉग संकलक उपलब्ध करना है, तो इसमें सबसे अधिक ध्यान इस बात पर है कि लेखकों की भावनाओं का पूरा ख्याल रखाजाए । इसीवर्ष इन्डली भी आयी और इसने भी भारतीय ब्लॉग को प्रमोट करने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही है । इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे समूह में http://www.feedcluster.com/ के सहयोग से कई छोटे-छोटे एग्रीगेटर भी कार्यरत है जैसे – आज का हस्ताक्षर, परिकल्पना समूह,महिलावाणी, अपनी वाणी, अपनी माटी , लक्ष्य आदि । हलांकि जिस दृढ़ता के साथ ब्लॉग प्रहरी का आगमन हुआ , वह हिंदी ब्लॉगजगत में लंबी रेस का घोड़ा नहीं बन सका ।
वर्ष-२०१० की शुरुआत में जिस ब्लॉग पर मेरी नज़र सबसे पहले ठिठकी वह है शब्द शिखर , जिस पर हरिवंशराय बच्चन का नव-वर्ष बधाई पत्र !! प्रस्तुत किया गया ।हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग का कोई भी लम्‍हा कहीं नहीं गया है। सब स्‍मृतियों में है। ब्‍लॉगिंग के इस ‘ठंडा ठंडा कूल कूल’ को बिल्‍कुल मत भूलें और न किसी को भूलने दें। ब्‍लॉगिंग के झूले में सदा ही झूलें। पोस्‍टों और टिप्‍पणियों के हिंडोले में डोलें। ब्‍लॉग बो लें। पोस्‍टों को सींचें और टिप्‍पणियों को भी मत भींचें। इन तीनों का होना विश्‍वास का प्रतीक है। इसे जीवन में रचने बसने दें।ऐसा बताया की-बोर्ड के खटरागी ने अपने पोस्ट हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग का आने वाला हर पल हर बरस मंगलमय हो (अविनाश वाचस्‍पति)।मुर्दा पीटना बन्द कर कुछ अच्छा सोचें नये साल में… कुछ ऐसा ही कहा सिद्दार्थ शंकर त्रिपाठी ने सत्यार्थ मित्र पर अपने इस पोस्ट में । विगत वर्ष परिकल्पना ब्लॉग विश्लेषण -२००९ में एक महत्वपूर्ण ब्लॉग हिंदी टेक ब्लॉग की चर्चा नहीं की जा सकी थी कारण था वर्ष के आखिरी महीनो में उस ब्लॉग का आना । इसलिए परिकल्पना पर पहली चर्चा मैंने इसी ब्लॉग से शुरू की । इस वर्ष की शुरुआत में ममता टी वी का स्थानान्तरण हो गया गोवा से इटानगर ।
१५ जनवरी को हिंदी टेक ब्लॉग पर एक महत्वपूर्ण जानकारी इंटरनेट पर हिंदी पत्रिकाओं के संबंध में दी गयी ।उल्लास की संभावनायें लेकर आता है नववर्ष । न जाने कितनी शुभाकांक्षायें, स्वप्न, छवियाँ हम सँजोते हैं मन में नये वर्ष के लिये । अनगिन मधु-कटु संघात समोये अन्तस्तल में विगत वर्ष का विहंग उड़ जाता है शून्य-गगन में । हम नये फलक के लिये उत्सुक हो उठते हैं । क्या-क्या चाहते हैं, क्या-क्या सोचते हैं, क्या फरियाद है हमारी हमारे राम से – अपने प्रिय कवि ’कैलाश गौतम’ की रचना से रूबरू कराया हिमांशु ने – “नये साल में रामजी…” । कुछ मेरी कलम से पर रंजना (रंजू भाटिया ) ने कहा ” झूमता हुआ नया साल फिर आया ” । गत्यात्मक ज्योतिष पर संगीता पुरी ने कहा कि वर्ष-२०१० ही क्यों उसके बाद आने बाले वर्ष भी मंगलमय हो ।यदि ब्लॉग पर बसंत की बात की जाए तो सबसे पहले मैं चर्चा करना चाहूंगा घुघूती बासूती का जिन्होंने एक प्यारी सी कविता के माध्यम से यह प्रश्न किया कि क्या यही है बसंत ? । वहीं दफ अतन पर अपूर्व ने एक प्यारा सा गीत प्रस्तुत किया जो पूर्व में हिंद युग्म पर प्रकाशित किया जा चुका है । महाकवि निराला को याद करते हुए परिकल्पना पर शुरू हुआ “बसंतोत्सव ” जिसके अंतर्गत हिंदी के कालजयी साहित्यकारों के साथ- साथ आज के कुछ महत्वपूर्ण कवियों की वसंत पर आधारित कवितायें प्रस्तुत लगभग महीने भर की गयी और फगुनाहट की यह बयार थमी होली की मस्ती के साथ . इसमें कवितायें भी थी , व्यंग्य भी , ग़ज़ल भी , दोहे भी और वसंत की मादकता से सराबोर गीत भी और अंत में फगुनाहट सम्मान की उद्घोषणा । स्वप्न मञ्जूषा “अदा” ने काव्य मंजूषा पर अनोखे अंदाज़ में प्रस्तुत किया ब्लॉग में फाग । ताऊ ने कहा कि मेरा गधा राम प्यारे अभी भी होली की तरंग में है । इसी दौरान संजीव तिवारी ने आरंभ में फगुनाहट सम्मान के अंतर्गत वोटिंग में छत्तीसगढ़ के ब्लोगरों की सहभागिता पर प्रश्न उठाते बहुत सुन्दर पोस्ट लिखा “आभासी दुनिया के दिबाने और भूगोल के परवाने ” । etips blog ने कुछ ब्लॉग जो सचमुच कर रहे है हिंदी और ब्लॉग की सेवा से अवगत कराया ।
जिस प्रकार जीवन के चार आयाम होते हैं उसी प्रकार हिंदी चिट्ठाकारी की भी चार सीढियां है जिससे गुजरकर हिंदी चिट्ठाकारी संपूर्ण होता है ।प्रथम सीढ़ी – भावना ….जिससे दिखती है लक्ष्य की संभावना ,संभावना से प्रष्फुटित होता है विश्वास ,विश्वास से दृढ़ता , दृढ़ता से प्रयास ….!यानी दूसरी सीढ़ी – प्रयास ….प्रयास परिणाम कम शोध है…यह तभी सार्थक है जब कर्त्तव्य बोध है । यानी तीसरी सीढ़ी – कर्त्तव्य….कर्त्तव्य से होता है समन्वय आसान…और यही है उत्तरदायित्व का प्रत्यक्ष प्रमाण । यानी चौथी सीढ़ी है – उत्तरदायित्व…..जिसमें न भय , न भ्रम , न भ्रान्ति होती है…..केवल स्वावलंबन के साथ जीवन में शांति होती है…..तो -
आईये अब आगे बढ़ते हुए वर्ष के कुछ उपयोगी और सार्थक पोस्ट पर नज़र डालते हैं , क्योंकि ब्लॉग लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है अपने सामाजिक सरोकार के प्रति सजग रहना और ब्लोगिंग के माध्यम से दूसरों को उत्प्रेरित करना , ऐसा ही कारनामा कर दिखाया ब्लोगर राजकुमार सोनी ने । राजकुमार सोनी ने अपने ब्लाग बिगुल पर बड़ी बेबाकी से अनाथ आश्रम के बच्चों और संचालक के साथ हुए अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाया , उन्होंने कहा कि “जीवन में पहली बार ऐसे कमीनों से मुलाकात हो रही है जिन्हें देखकर मैं क्या कोई भी यह कहने का मजबूर हो जाएगा कि बस अब इस धरती का अंत निकट है।” वहीँ अनिल पुसदकर ने एक ब्लोगर की हिम्मत और ताक़त से समाज और राजनीति के कथित ठेकेदारों को अवगत कराते हुए अपने ब्लॉग आमिर धरती गरीब लोग पर कहा कि -”थानेदारों को भ्रष्ट कहना आपकी ईमानदारी नही बेबसी का सबूत है गृहमंत्री जी!” वहीं डॉ.कुमारेन्द्र सिंह ने वित्त मंत्री को माफ़ करिए कहते हुए कहा है कि उनकी नादानी को नजर अंदाज किया जाये……
इस वर्ष महिला आरक्षण को लेकर भी बहुत सारे पोस्ट आये, जिसमें से एक है ललित डोट कौम पर ललित शर्मा का यह पोस्ट -गांव बसा नहीं डकैत पहले पहुंचे……..महिला आरक्षण । अपने इस पोस्ट में ललित शर्मा का कहना है कि “अभी अभी ही महिला आरक्षण विधेयक पास हुआ है राज्य सभा से और इसे कानून बनने में कुछ समय और लगेगा ……. लेकिन इसमें मिले महिला आरक्षण अधिकारों पर सेंध लगाने की क्या कहें…….. सीधे सीधे डाका डालने ने मनसूबे बान्धे जाने लगे हैं…… !” इसी दौरान अजित गुप्ता का कोना पर डॉ. श्रीमती अजित गुप्ता के एक संस्मरण पर मेरी नज़र पड़ी , शीर्षक है – ना मेल है और ना ही फिमेल है………!
२४ जनवरी को पंकज मिश्रा ने हिंदी चिट्ठों की चर्चा के क्रम में अत्यंत उपयोगी प्रश्न उठाये कि “मुंबई बम कांड का अपराधी आजकल मराठी भाषा का बहुत प्रयोग कर रहा है ,अदालत के सवाल जवाब मे भी वह मराठी भाषा का प्रयोग करता है..राज साहब ठाकरे तो बहुत खुश होगे कि कोई तो उनकी पीडा समझता है :)न्युज चैनल अखबार समाचार सभी जगह कसाब के इस भाषा प्रयोग का चर्चा हो रहा है और उन खबरिया बाजार मे कोई भी माई का लाल ये पुछने की जुर्रत नही कर रहा है कि ऐसे अपराधी से जेल मे दोस्ती कौन किया है जो उसको मराठी भाषा और सभ्यता सिखा रहा है ..क्या यह एक नेक काम है कि आप जेल के समय मे उस्का टाईम पास कर रहे है भाषा सिखाकर ?
हिंदी ब्लॉग जगत में इस वर्ष कई अजीबो गरीब घटनाएँ हुई , जिसमें से एक ऐसी घटना हुई कि ब्लोगरों को काफी दिनों तक बेनामी टिप्पणियों से संबंधित खतरों पर चर्चा के लिए मजबूर होना पडा । वह घटना थी किसी छद्म नामधारी कुमार जलजला की व्यथित कर देने वाली टिप्पणियों को लेकर । अपनी,उनकी,सबकी बातें पर रश्मि रविजा ने जलजला को एक खुला पत्र लिखा , जिसमें उन्होंने कहा कि -”कोई मिस्टर जलजला एकाध दिन से स्वयम्भू चुनावाधिकारी बनकर.श्रेष्ठ महिला ब्लोगर के लिए, कुछ महिलाओं के नाम प्रस्तावित कर रहें हैं. (उनके द्वारा दिया गया शब्द, उच्चारित करना भी हमें स्वीकार्य नहीं है) पर ये मिस्टर जलजला एक बरसाती बुलबुला से ज्यादा कुछ नहीं हैं, पर हैं तो कोई छद्मनाम धारी ब्लोगर ही ,जिन्हें हम बताना चाहते हैं कि हम इस तरह के किसी चुनाव की सम्भावना से ही इनकार करते हैं।”१७ मई २०१० को छतीसगढ़ के बस्तर में नक्सलियों ने पहली बार यात्री बस को बारुदी सुरंग से उडा दिया। बस मे यात्रियों के साथ कुछ जवान भी सवार थे। इसमें लगभग ५० लोगों की मौत हो गयी ।देश में एक इतनी बड़ी घटना हो गई जिसको सारा मीडिया चीख-चीख कर बता रहा था , किन्तु अपने को मीडिया के समकक्ष समझने वाला ब्लाग जगत में कुछ विशेष खलबली नहीं देखी गयी , फिर भी नक्सली समस्या पर एक आध ब्लॉग जो बोला उसमें पहला नाम आता है डा सत्यजित साहू का जिन्होंने अपने ब्लॉग पोस्ट में कहा कि “मेरे देश में अशांति लानें वालों ,यहाँ की जमीं को खुनी रंग से संगने वालों ,इंसानों की इस बेरहमी से जन लेने वालों ,कातिल ,हत्यारे ,जालिम हो हो तुम , तुम्हारा अंत अब नजदीक ही है ,इस तरह से तुमने जनता और जवानों का क़त्ल किया है ,की क़त्ल ही तुमसे अब अपना हिसाब लेगा ,अवाम की ताकत को तुमने पहचना नहीं है ,इस धरती की नियत को जाना नहीं है ,इस धरती को अब उठकर खड़ा होना होगा, जम्हूरियत को ही अब तुम्हारा हिसाब करना होगा,अपराधियों ,हत्यारे नक्सलियों ,तुम्हारा अंत अब निकट ही है ……! कलम बंद में शशांक शुक्ला ने कहा आखिर नक्सलियों को क्या चाहिए ?सद्भावना दर्पण में गिरीश पंकज ने पूछा किसुन्दर-प्यारे बस्तर में ये हिंसा भरे नज़ारे कब तक ॥? छतीसगढ़ पर उदय ने कहा कौन कहता है कि नस्लवाद एक विचारधारा है ?
२६ जून २०१० को माईकल जैक्सन को याद करते हुए कुमायूनी चिली में शेफाली पाण्डेय ने कहा कि “दुःख से भरा , देखा जब चेहरा ….बोल उठे यमराज …..मत हो विकल , बेटा माईकल ! मरने के बाद , कौन सा दुःख…..सता रहा है तुझको ,सब पता है मुझको …!” संवेदनाओं के पंख पर २६ जून को डा महेश परिमल का एक आलेख आया जिसमें उन्होंने अंदेशा व्यक्त किया कि …हम सब अघोषित आपातकाल की ओर… अब पेट्रोल-डीजल और केरोसीन के दाम बढ़ गए। रसोई गैस भी महँगी हो गई। सरकार ने अपना रंग अब दिखाना शुरू कर दिया है। पहले भी यही कहा जाता रहा है कि कांग्रेस व्यापारियों की सरकार है,इसका गरीबों से कोई लेना-देना नहीं है। महँगाई काँग्रेस शासन में ही बेलगाम हो जाती है। एक तो मानसून आने में देर हो रही है। दूध, बिजली के दाम अभी-अभी बढ़े हैं। उस पर सरकार का यह रवैया, आम आदमी को बुरी तरह से त्रस्त करके रख देगा। २५ जून १९७५ को देश में आपातकाल की घोषणा हुई थी। उसी तारीख को इस बार पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस और केरोसीन के दाम बढ़ाकर सरकार ने हम सबको एक अघोषित आपातकाल की तरफ धकेल दिया हैलोकसंघर्ष-परिकल्पना द्वारा आयोजित ब्लागोत्सव-2010 में वर्ष की श्रेष्ठ नन्ही चिट्ठाकारा का ख़िताब अक्षिता (पाखी) को मिलाने पर आकांक्षा यादव का कहना था कि आजकल के बच्चे हमसे आगे है ।
सृजन ही वह माध्यम है जिससे समाज समृद्ध होता है, किन्तु सृजन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है कार्टून्स । यदि ब्लॉग जगत में सक्रिय कार्टूनिस्टों की बात की जाए तो इस वर्ष लोकसंघर्ष- परिकल्पना ने काजल कुमार को ब्लोगोत्सव-2010 के आधार पर वर्ष के श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट का खिताब दिया । वैसे ब्लॉग जगत में इस वर्ष जिन कार्टूनिस्टो की सार्थक उपस्थिति देखी गयी उसमें से प्रमुख हैं काजल कुमार, इरफ़ान खान,अनुराग चतुर्वेदी , कीर्तिश भट्ट , अजय सक्सेना , कार्टूनिस्ट चंदर , राजेश कुमार दुबे, अभिषेक आदि ।
जब सृजन की बात चली है तो सबसे पहले आपको मैं बता दूं कि वेब पत्रिका तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित, साहित्य, संस्कृति, विचार और भाषा की मासिक पोर्टल सृजनगाथा डॉट कॉम के चार वर्ष पूर्ण होने पर चौंथे सृजनगाथा व्याख्यानमाला का आयोजन ६ जुलाई, को स्थानीय प्रेस क्लब, रायपुर में किया गया था। इसमें कविता के सफ़र पर अच्छी चर्चा हुई । इस अवसर पर संजीत त्रिपाठी का सम्मान सृजनगाथा टीम ने किया।
आईये उन ब्लॉग्स की ओर रुख करते हैं जहां बसती है साहित्य की आत्मा । इस दिशा में पहला ब्लॉग है जाकिर अली रजनीश के हमराही जिसमें उन्होंने अदम गोंडवी की ग़ज़ल प्रकाशित की “सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे, मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है। साधना वैद्य ने कहा – अनगाये रह गए गीत! राजतन्त्र में खुशबू फूलों की…. । सूर्यकान्त गुप्ता के कुछ अटपटे कुछ चटपटे दोहे ,शानू शुक्ला की- कुछ हाइकु कवितायेँ ,बग़ावत के कमल खिलते हैं.. ,गिरीश पंकज का-”गीतालेख”./ अबला गैया हाय तुम्हारी है यह दुखद कहानी.., संजीव तिवारी का – छत्तीसगढ़ की संस्‍कृति से संबंधित महत्‍वपूर्ण लिंक,ई-साहित्‍य और हिन्‍दी ब्‍लॉग : सार्थक अभिव्‍यक्ति का एक झरोखा – ब्‍लॉग जगत पर एक विहंगम दृष्टि वशिनी शर्मा की। अन्तर सोहिल की कविता – आशिकी म्है तेज घनी छोरां सै भी छोरी सैं ,राजकुमार सोनी की – पोस्टर कविताएं,जी.के. अवधिया ने कहा – इक समुन्दर ने आवाज दी मुझको पानी पिला दीजिये………..!
वर्ष-२०१० में सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने वाले ब्लोग्स की सूची में उड़न तश्तरी, ताऊ डाट इन, मानसिक हलचल, लो क सं घ र्ष!, ज्ञान दर्पण, दीपक भारतदीप का चिंतन, दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका, हिन्द-युग्म, ललितडॉटकॉम, Hindi Blog Tips, दीपक भारतदीप की शब्द- पत्रिका, चिट्ठा चर्चा, फुरसतिया, काव्य मंजूषा, शब्दों का सफर, नुक्कड़, उच्चारण, देशनामा, रचनाकार, मेरा पन्ना, ओशो – सिर्फ एक, भड़ास blog, ब्लॉगोत्सव २०१०, परिकल्पना, कस्‍बा, कबाड़खाना, अनवरत, राजतन्त्र, दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका, अमीर धरती गरीब लोग, प्रवक्‍ता, तीसरा खंबा, क्वचिदन्यतोअपि, छींटें और बौछारें, आरंभ, कुछ इधर की कुछ उधर की, दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका, नारी, दीपक भारतदीप की शब्दलेख सारथी-पत्रिका, मेरी शेखावाटी,मेरी दुनिया मेरे सपने,सारथी हिन्दी चिट्ठा, आम जन, अदालत, अग्निमन, Vyom ke Paar…व्योम के पार, अमृता प्रीतम की याद में…..,TSALIIM,चर्चा हिन्दी चिट्ठों की !!!,अनसुनी आवाज,अर्पित ‘सुमन’,स्व प्न रं जि ता,चक्रधर की चकल्लस,अविनाश वाचस्पति,अज़दक,जिंदगी : जियो हर पल, उन्मुक्त,चोखेर बाली,महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar),ब्लॉग मदद,आरंभ Aarambha,चिट्ठे सम्बंधित कार्टून,ब्लाग चर्चा “मुन्ना भाई” की,ITNI SI BAAT,चैतन्य का कोना,डॉ. चन्द्रकुमार जैन,चराग़े-दिल,चर्चा पान की दुकान पर,वटवृक्ष,क्रिएटिव मंच-Creative Manch,Hindi Tech Blog,दालान,दाल रोटी चावल,डाकिया डाक लाया,मानवीय सरोकार,Darvaar दरबार,DHAI AKHAR ढाई आखर,एक हिंदुस्तानी की डायरी,स्वप्नलोक,संवेदनाओं के पंख,आइये करें गपशप,एक लोहार की, ghaur bati,गत्‍यात्‍मक चिंतन,पाल ले इक रोग नादां…,गीत कलश,ग़ज़लों के खिलते गुलाब,घुघूतीबासूती,एक आलसी का चिठ्ठा,सद्भावना दर्पण,हँसते रहो Hanste Raho,आदिवासी जगत,हाशिया,”हिन्दी भारत”,Hasya Kavi Albela Khatri,HIndi Jokes,हा र मो नि य म,इंडियन बाइस्कोप,साईब्लाग [sciblog],ब्लॉगरों के जनमदिन,janshabd,झा जी कहिन,Kajal Kumar’s Cartoons काजल कुमार के कार्टून,कल्पनाओं का वृक्ष,कोसी खबर..,खेत खलियान KHET KHALIYAN,सुदर्शन,मेरी रचनाएँ ,मेरी भावनायें…,Lucknow Bloggers’ Association लख़नऊ ब्‍लॉगर्स असोसिएशन,महाशक्ति,मंथन,महावीर,स म य च क्र,प्रत्येक वाणी में महाकाव्य…,मैत्री,mamta t .v.,मनोरमा,मसिजीवी,खिलौने वाला घर,mehek,परवाज़…..शब्दों के पंख,नीरज,निरन्तर,मौन के खाली घर में… ओम आर्य,******दिशाएं******,…पारूल…चाँद पुखराज का……,गुलाबी कोंपलें,पिताजी,An Indian in Pittsburgh – पिट्सबर्ग में एक भारतीय,चाँद, बादल और शाम,पुण्य प्रसून बाजपेयी,प्रत्यक्षा,प्राइमरी का मास्टर,” अर्श “,रेडियोनामा,रेडियो वाणी,सफर – राजीव रंजन प्रसाद,अनुभूति कलश,सच्चा शरणम्,कुछ मेरी कलम से kuch meri kalam se **,,…,रेखा की दुनिया,आशियाना,इक शायर अंजाना सा…,शब्द सभागार,समाजवादी जनपरिषद,जिंदगी के रंग,Science Bloggers’ Association,शब्द-शब्द अनमोल,शस्वरं,पास पड़ोस,सुबीर संवाद सेवा,बावरा मन,कार्टून धमाका…!,सुर-पेटी,तीखी नज़र,तेताला,ठुमरी,टूटी हुई बिखरी हुई,मेरी कलम से,वीर बहुटी,विज्ञान» चर्चा,लावण्यम्` ~अन्तर्मन्`,जोगलिखी:संजयबेंगाणीकाहिन्दी ब्लॉग,TheNetPress.Com,व्यंग्यलोक,ना जादू ना टोना, युग-विमर्श (YUG -VIMARSH), गत्यात्मक ज्योतिष, ब्लॉग परिक्रमा आदि !
इसमें से कुछ ब्लॉग ऐसे हैं जो वर्ष-२०१० में आये हैं किन्तु इससे जुड़े हुए मूल ब्लॉग की चर्चा वर्ष-२००९ में की जा चुकी है और विस्तार के अंतर्गत उन्हें विषय से जुड़े अन्य ब्लॉग इस वर्ष लाने पड़े, ऐसे ब्लॉग की संख्या एक दर्जन के आसपास है ।
इन्टरनेट पर उपलब्ध हिंदी पत्रिकाओ में अनुभूति,अभिव्यक्ति,प्रवक्‍ता समाचार-विचार वेबपोर्टल,पाखी हिंदी पत्रिका,अरगला इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका,तरकश – हिन्दी का लोकप्रिय पोर्टल,एलेक्ट्रॉनिकी -एलेक्ट्रॉनिक्स, कम्प्यूटर, विज्ञान एवं नयी तकनीक की मासिक पत्रिका,सृजनगाथा- साहित्य, संस्कृति और भाषा की मासिक ,अनुरोध : भारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठापन का अनुरोध,ताप्तीलोक, कैफे हिन्दी, हंस – हिन्दी कथा मासिक,अक्षय जीवन – आरोग्य मासिक पत्रिका,अक्षर पर्व – साहित्यिक वैचारिक मासिक,पर्यावरण डाइजेस्ट – पर्यावरण चेतना का हिन्दी मासिक,ड्रीम २०४७ – विज्ञान प्रसार की मासिक पत्रिका (पीडीएफ),गर्भनाल ( प्रकाशक : श्री आत्माराम शर्मा ),मीडिया विमर्श,वागर्थ : साहित्य और संस्कृति का समग्र मासिक,काव्यालय,कलायन पत्रिका,निरन्तर – अब सामयिकी जालपत्रिका में समाहित,भारत दर्शन – न्यूजीलैण्ड से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका,सरस्वती (कनाडा से),अन्यथा – magazine of Friends from India in America,परिचय – सायप्रस से अप्रवासी भारतीयों की हिन्दी पत्रिका,Hindi Nest dot Com, तद्भव, उद्गम : हिन्दी की साहित्यिक मासिका,कृत्या : कविताओं की पत्रिका, Attahaas : हास्य पत्रिका, रंगवार्ता : विविध कलारुपों का मासिक,क्षितिज – त्रैमासिक हिन्दी साहित्यिक पत्रिका,इन्द्रधनुष इण्डिया : साहित्य और प्रकृति को समर्पित,सार-संसार : विदेशी भाषाओं से सीधे हिंदी में अनूदित साहित्य की त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका,लेखनी – हिन्दी और अंग्रेजी की मासिक जाल-पत्रिका,मधुमती – राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका,साहित्य वैभव – संघर्षशील रचनाकारों का राष्ट्रीय प्रतिनिधि,विश्वा,सनातन प्रभात,हम समवेत,वाङ्मय – त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका,समाज विकास – अखिल भारतीय मारवाडी सम्मेलन की पत्रिका,गृह सहेली,साहित्य कुंज – पाक्षिक पत्रिका,लोकमंच,उर्वशी – सहित्य और शोध के लिये समर्पित़ डा०राजेश श्रीवास्तव शम्बर द्वारा सम्पादित वेब पत्रिका प्रतिमाह प्रकाशित,संस्कृति – सांस्कृतिक विचारों की प्रतिनिधि अर्द्धवार्षिक पत्रिका, प्रेरणा , जनतंत्र , समयांतर , में केवल साहित्य कुञ्ज वर्ष -२०१० में अनियमित रही , शेष सभी पत्रिकाओं ने अपनी सक्रियता को बनाए रखा ।
वर्ष-२०१० में ब्लॉग पर हिंदी में कई विषयों पर सामग्री उपलब्ध कतिपय ब्लॉग द्वारा उपलब्ध कराई गयी । यह देखकर संतोष हुआ कि ब्लॉग साहित्य को नकारने वाले कुछ लोग ब्लॉग पर लगभग प्रत्येक विधा का साहित्य उपलब्ध कराने की दिशा में सक्रिय रहे । कविता व कहानी के साथ-साथ तत्कालीन साहित्यिक जानकारी लगातार परोसी गयी । आज भले ही हिंदी साहित्य ब्लॉग पर अपनी शैशवास्था में हो पर आने वाला समय निश्चित रूप से उसी का है, ऐसा मेरा मानना है ।
आज भले ही हिंदी के साहित्यकारों की पहुंच ब्लॉगों पर लगभग १० प्रतिशत के आसपास ही है। लेकिन इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं की बढ़ती संख्या आस्वस्त करती है कि हिंदी का दायरा अब देश की सीमाएं लांघकर दुनिया भर में अपनी पैठ बना रहा है । अनेक सामूहिक ब्लॉग साहित्यकारों-लेखकों को एक दूसरे के क़रीब ला रहा हैं। फलत: उन्हें एक दूसरे के द्वारा किए गए लेखन के संबंध में जानकारी मिलती है।
साहित्यकारों /संस्कृतिकर्मियों की विश्राम स्थली के रूप में विख्यात इन वेब पत्रिकाओं के अतिरिक्त कुछ ऐसे ब्लॉग हैं जो हिंदी साहित्य को समृद्ध करने और साहित्यिक कृतियों को प्रकाशित करने की दिशा में सक्रिय रहे इस वर्ष । इस वर्ष ब्लॉग पत्रिकाओं के रूप में अपनी पहचान और स्तरीयता बनाए रखने में जो ब्लॉग सफल रहा उसमें पहला नाम आता है हिंद युग्म का । हिंद युग्म एक तरह से हिंदी ब्लोगिंग में साहित्य को प्रतिष्ठापित करने की दिशा में क्रान्ति का प्रतीक है , दूसरा नाम आता है -रचनाकार का , उसके बाद साहित्य शिल्पी और फिर विचार मीमांशा , नारी का कविता ब्लॉग, नारी ,हिंदी साहित्य मंच,हिंदी साहित्य,हिंदी साहित्य,साहित्य ,साहित्य वैभव ,मोहल्ला लाईव, साखी,वटवृक्ष, सृजन (सुरेश यादव ), वाटिका, मंथन, महावीर, शब्द सभागार, राजभाषा, लोकसंघर्ष पत्रिका, राजभाषा हिंदी , गवाक्ष, काव्य कल्पना, ब्लोगोत्सव-२०१०, साहित्यांजलि, कुछ मेरी कलम से ,चोखेर वाली, नवोत्पल ,युवा मन , सुबीर संवाद सेवा, अपनी हिंदी , हथकढ , हिंदी कुञ्ज , पढ़ते पढ़ते , तनहा फलक, आवाज़ , नयी बात, कबाडखाना , कारवां , सोचालय, पुरवाई ,एक शाम मेरे नाम ,साहित्य सेतु कबीरा खडा बाज़ार में आदि ।
कुछ ऐसे व्यक्तिगत ब्लॉग जो ब्लोगरों की निजिगत रचंनाओं से भरे है, किन्तु उनकी सृजनधर्मिता का कायल है हिंदी ब्लॉगजगत । वर्ष-२०१० में जिन व्यक्तिगत ब्लॉग पर सृजनधर्मिता काफी देखी गयी उसमें प्रमुख है – उड़न तश्तरी,फुरसतिया, सद्भावना दर्पण, आखर कलश,…..मेरी भावनाएं, काव्य मंजूषा, यमुनानगर हलचल, कुछ कहानियां कुछ नज्में, विचार , गीत…मेरी अनुभूतियाँ , बिखरे मोती, स्पंदन, खिलौने वाला घर , एक सवाल तुम करो, नन्हा मन, कविता, नज्मों की सौगात, ठाले बैठे , वीर बहुटी , अनुशील,शब्द शिखर, उत्सव के रंग , बाल दुनिया , काव्य कल्पना, अफरा-तफरीह, जख्म जो फूलों ने दिए , एक प्रयास, ज़िन्दगी एक खामोश सफ़र , स्वप्न मेरे , देखिये एक नज़र इधर भी , कविता रावत ,कुछ मेरी कलम से, अमृता प्रीतम की याद में ,सदा ,ज्ञान वाणी ,गीत मेरे ,दो बातें एक एहसास की ,न दैन्यं न पलायनम , मिसफिट सीधी बात ,दिशाएँ ,अर्पित सुमन, बाबरा मन , कोना एक रुबाई का ,सत्यार्थ मित्र,संवाद ,पारुल चाँद पुखराज का,हिंदी भारत , ज़िन्दगी कि आरज़ू , मसि कागद ,मेरे विचारों की दुनिया..श्याम स्म्रिति( The world of my thoughts,shyamsmrtiie modern manusmriti…), हमराही , गुस्ताख ,आदि ।
अब तक यही कहा जाता रहा है कि ब्लॉग पर प्रकाशन की स्वतन्त्रता के कारण जो साहित्य परोसा जा रहा है वह स्तरीयता और प्रभाव के दृष्टिगत मानक के बिपरीत है , किन्तु इस वर्ष कुछ ब्लोगरों ने उस मिथक को तोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है, जिसमें प्रमुख हैं – अशोक चक्रधर,रवि रतलामी,समीर लाल समीर,गिरीश पंकज,हिमांशु कंबोज,रश्मि प्रभा,डा कविता वाचकनवी,निर्मला कपिला,रश्मि रविजा,रन्जू भाटिया,शिखा वार्ष्णेय,महफूज़ अली,गिरीश बिल्लोरे ‘मुकुल’,जय प्रकाश मानस,अविनाश वाचस्पति,अनूप शुक्ल,अलवेला खत्री,जाकिर अली रजनीश,डा श्याम गुप्त,स्वप्न मंजूषा अदा,शरद कोकाश,डा ऋषभ देव शर्मा,अनिता कुमार ,डा अजीत गुप्ता,प्रेम जनमेजय,जगदीश्वर चतुर्वेदी,दिविक रमेश,खुशदीप सहगल ,राम त्यागी,अनुराग शर्मा,महावीर शर्मा,सुभाष नीरव,रवीन्द्र प्रभात,बसंत आर्य ,ओम आर्य,राजेन्द्र स्वर्णकार,प्रमोद सिंह ,दीपक मशाल,अविनाश,सुदर्शन,डॉ. टी एस दराल,महेन्द्र वर्मा,बबली ,कविता रावत ,सुज्ञ ,देवेन्द्र पाण्डे ,संजीव तिवारी ,महेंद्र मिश्र,वाणी गीत ,परमजीत सिंह बाली ,डॉ. मोनिका शर्मा ,प्रवीण त्रिवेदी ,रावेन्द्र कुमार रवि ,इस्मत ज़ैदी ,पारुल पुखराज ,ज्योति सिंह ,पूनम श्रीवास्तव,संगीता स्वरूप ,वन्दना,शाहिद मिर्ज़ा,शोभना चौरे,राहुल सिंह ,श्री पी सी गोदियाल ,अशोक कुमार पाण्डेय,मीनू खरे,हेमंत कुमार ,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी,विनीता यशस्वी ,मिता दास ,लावण्या शाह ,पंकज नारायण ,कुलवंत हैप्पी,कुसुम कुसुमेश,राजेश उत्साही,दिगम्बर नासवा,वन्दना अवस्थी दुबे,ZEAL,प्रज्ञा पाण्डेय ,आशा जोगलेकर ,आकांक्षा यादव ,ललित शर्मा,के के यादव,मनोज कुमार ,लक्ष्मी शंकर बाजपाई,शेफालिका वर्मा,मिता दास,जयकृष्ण राय तुषार,दीपक बाबा,अर्पिता ,सदा ,डॉ. अनुराग ,अनिल कांत , झरोखा ,उपेन्द्र ,महेन्द्र वर्मा ,प्रवीण पाण्डेय ,प्रवीण शाह,सुशीला पुरी,संजय भास्कर ,राजेश्वर वशिष्ठ ,डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ,अभिषेक ओझा,सुनील गज्जाणी,राजेश्वर वशिष्ठ ,अशोक बजाज,अमिताभ श्रीवास्तव,रानी विशाल,डॉ. दिव्या,अमिताभ मीत,अनामिका की सदायें ,अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी,राजेश उत्साही ,डॉ. दिव्या ,डॉ. मोनिका शर्मा,रचना दीक्षित ,इस्मत ज़ैदी ,सूर्यकांत गुप्ता ,प्रवीण त्रिवेदी ,गिरिजा कुलश्रेष्ठ ,अशोक बजाज ,नूतन नीति,अराधना चतुर्वेदी मुक्ति,वन्दना गुप्ता,मुकेश कुमार सिन्हा,ज्योत्सना पाण्डेय,डा सुभाष राय,सरस्वती प्रसाद,सुमन मीत,खतेलू,अपर्णा,रेखा श्रीवास्तव,विजय कुमार सपत्ति, अपराजिता कल्याणी ,साधना वैद,राजीव कुमार,शेफाली पाण्डेय,नीलम पुरी,अख्तर खान अकेला,संगीता स्वरुप,खुशबू प्रियदर्शनी ,प्रिया चित्रांसी ,नरेन्द्र व्यास नरेन्,राज कुमार शर्मा राजेश,किशोर कुमार खोरेन्द्र,पंकज उपाध्याय,सत्य प्रकाश पाण्डेय,राम पति, एम वर्मा,आलोक खरे,सुमन सिन्हा,नीलम प्रभा,सुधा भार्गव,प्रीति भाटिया,जेन्नी शबनम,अरुण सी राय,प्रतीक माहेश्वरी,डोरोथी,शेखर सुमन,अविनाश चन्द्र,अनिता निहलानी,मुदिता गर्ग,अंजना (गुडिया ),पूजा,अशोक बजाज,क्षितिजा,सीमा सिंघल,अनुपम कर्ण,दीप्ती शर्मा,बबिता अस्थाना,हरिहर झा,अनुपमा पाठक,अर्चना वर्मा,अर्चना देशपांडे,तौशिफ हिन्दुस्तानी,शिशुपाल प्रजापति,अनवारुल हसन,डा आदित्य कुमार,डा मान्धाता सिंह,एजाजुल हक़,जावेद ए जाफ्हरी,गुफरान मोहम्मद,ज्योति वर्मा,फिरदौस खान,लोकेन्द्र,रचना त्रिपाठी,प्रबल प्रताप सिंह,संतोष कुमार प्यासा,सर्बत एम जमाल,सुधीर गुप्ता चक्र,अरविन्द कुमार शर्मा,अशोक मेहता,अताउर रहमान,आवेश,वेद व्यथित,गोपाल जी श्रीवास्तव,डा निरुपमा वर्मा,पवन मेराज,प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) ,रजनीश राज,राकेश पाण्डेय,आचार्य संजीव वर्मा सलिल,सिद्धार्थ कलहंस,सचिन अग्रवाल,उमेश मिश्र,विकास कुमार,अपर्णा बाजपाई,डा अयाज़ अहमद,डी पी मिश्रा,असलम कासमी,हरीश सिंह, एजाज़ अहमद इद्रिशी,घनश्याम मौर्या,हिमांशु पन्त,दुर्गेश कुमार,डा अज़मल खान,आनंद पाण्डेय,विनोद परासर,प्रकाश पाखी,अंबरीश श्रीवास्तव,अंकुर कुमार अश्क,डा कृष्ण मित्तल,दर्शन लाल बबेजा,वीणा,डा अनवर जमाल,अरुणेश मिश्र,मनीष मिश्र,रेखा सिन्हा,शाजिद,सह्वेज मल्लिक,शिवम् मिश्रा,शाहनवाज़,शेषनाथ पाण्डेय,नीरज गोस्वामी,गौतम राजरिशी,पंकज सुबीर,रवि कान्त पाण्डेय,प्रकाश सिंह अर्श,संगीता सेठी,शमा कश्यप,डा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर,विनोद कुमार पाण्डेय,राम शिव मूर्ति यादव,अमित कुमार,प्रवीण पथिक,शोभना चौधरी शुभी,विनय प्रजापति नज़र,हर्षवर्द्धन,अशोक कुमार मिश्र,डा महेश सिन्हा,संजीत त्रिपाठी,प्रियरंजन पालीवाल,जी के अवधिया,इंदु पुरी,विवेक रस्तोगी,रूप सिंह चंदेल,अशोक कुमार पाण्डेय ,देवेन्द्र प्रकाश मिश्रा,चिराग जैन,राकेश खंडेलवाल,सोनल रस्तोगी,संजीव तिवारी,विवेकानंद पांडे,यशवंत मेहता यश,श्यामल सुमन, पवन चन्दन,दीपक शुक्ल,अजित कुमार मिश्र,सुरेश यादव,अमित केशरी,राज कुमार ग्वालानी,पंडित डी के शर्मा बत्स, पंकज मिश्र,मसिजीवी,संगीतापुरी,उदय,एस एम मासूम,विवेक सिंह ,प्रकाश गोविन्द,माधव,दीपक भारतदीप,शैलेश भारतवासी,रतन सिंह शेखाबत,कुंवर कुशुमेश,प्रभातरंजन,अरविन्द श्रीवास्तव,अक्षिता पाखी,प्रताप सहगल,प्रमोद तांबट,योगेन्द्र मौदगिल, डा आशुतोष शुक्ल,एच पी शर्मा,अजित राय,हिमांशु,चंडी दत्त शुक्ल,सिद्दार्थ जोशी,संगीता मनराल,राजीव तनेजा,पद्म सिंह,उपदेश सक्सेना,नरेश सिंह राठौड़,गगन शर्मा,कनिष्क कश्यप,विजय तिवारी किसलय,ब्रिज मोहन श्रीवास्तव,मानव मेहता,राजीव रंजन प्रसाद (साहित्य शिल्पी ),त्रिपुरारी कुमार शर्मा,रोहिताश कुमार,शेखर कुमावत,जितमोहन झा ,बृज शर्मा,अंकुर गुप्ता ,चन्द्रकुमार सोनी,पवनकुमार अरविन्द,जयराम विप्लव,अमरज्योति,अमलेंदु उपाध्याय,विनीत कुमार, शिरीष खरे,इष्ट देव संकृत्यायन,शिव नारायण,श्रुति,सुशील वकलिबास आदि ।
जहां तक मुद्दों की बात है, इस वर्ष प्रमुखता के साथ छ: मुद्दे छाये रहे हिंदी ब्लॉगजगत में । पहला बिभूती नारायण राय के बक्तव्य पर उत्पन्न विवाद, दूसरा नक्सली आतंक,तीसरा मंहगाई,चौथा अयोध्या मामले पर कोर्ट का फैसला,पांचवां कॉमनवेल्थ गेम में भ्रष्टाचार और छठा बराक ओबामा की भारत यात्रा ।इन्हीं छ: मुद्दों के ईर्द-गिर्द घूमता रहा हिंदी ब्लॉगजगत पूरे वर्ष भर ।
साझा संवाद, साझी विरासत, साझी धरोहर, साझा मंच आप जो मान लीजिये हिंदी ब्लॉग जगत की एक कैफियत यह भी है । विगत कड़ियों में आपने अवश्य ही महसूस किया होगा कि हम इस विश्लेषण के माध्यम से यही बातें पूरी दृढ़ता के साथ आपसे साझा करते आ रहे हैं , कुछ यादों, कुछ इबारतों और कुछ तस्वीरों के मार्फ़त ।
जिक्र करना चाहूंगा एक ऐसे परिवार का जो पद-प्रतिष्ठा-प्रशंसा और प्रसिद्धि में काफी आगे होते हुए भी हिंदी ब्लोगिंग में सार्थक हस्तक्षेप रखता है । साहित्य को समर्पित व्यक्तिगत ब्लॉग के क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम उभरकर सामने आया है वह शब्द सृजन की ओर , जिसके संचालक है इस परिवार के मुखिया के के यादव । ये जून -२००८ से सक्रिय ब्लोगिंग से जुड़े हैं । इनका एक और ब्लॉग है डाकिया डाक लाया । यह ब्लॉग विषय आधारित है तथा डाक विभाग के अनेकानेक सुखद संस्मरणों से जुडा है ।
आकांक्षा यादव इनकी धर्मपत्नी है और ये हिंदी के चार प्रमुख क्रमश: शब्द शिखर, उत्सव के रंग, सप्तरंगी प्रेम और बाल दुनिया ब्लॉग की संचालिका हैं और इनकी एक नन्ही बिटिया है जिसे पूरा ब्लॉग जगत अक्षिता पाखी (ब्लॉग : पाखी की दुनिया ) के नाम से जानता है, इस वर्ष के श्रेष्ठ नन्हा ब्लोगर का अलंकरण पा चुकी है , चुलबुली और प्यारी सी इस ब्लोगर को कोटिश: शुभकामनाएं !
इनसे जुड़े हुए दो नाम और है एक राम शिवमूर्ति यादव और दूसरा नाम अमित कुमार यादव , जिन्होनें वर्ष -२०१० में अपनी सार्थक और सकारात्मक गतिविधियों से हिंदी ब्लॉगजगत का ध्यान खींचने में सफल रहे हैं । ये एक सामूहिक ब्लॉग भी संचालित करते हैं जिसका नाम है युवा जगत । यह ब्लॉग दिसंबर-२००८ में शुरू हुआ और इसके प्रमुख सदस्य हैं अमित कुमार यादव, कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, रश्मि प्रभा, रजनीश परिहार, राज यादव, शरद कुमार, निर्मेश, रत्नेश कुमार मौर्या, सियाराम भारती, राघवेन्द्र बाजपेयी आदि ।
जनबरी-२००८ से सक्रिय ब्लॉगिंग में आये राम कुमार त्यागी इस वर्ष अचानक शीर्ष रचनात्मक फलक पर दिखाई दिए । उन्होंने अपने कतिपय आलेखों से हिंदी ब्लॉगजगत को आत्म केन्द्रित करवाने में सफलता पायी । इस वर्ष उन्हें लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान से भी नवाज़ा गया । इनका प्रंमुख ब्लॉग है कविता संग्रह । इनका कहना है कि “इस साल हिन्दी ब्लोगिंग में थोडा सक्रीय हुआ तो बहुत सारे दोस्त बने, कई पाठक भी मिले और कई पुरुष्कार भी ! हिन्दी ब्लॉग्गिंग के हिसाब से ये मेरे लिए काफी उपलब्धि वाला वर्ष रहा !एक छोटा सा लेख अपने पिता के महान और प्रेरणादायी कार्यक्रमों के बारे में भी लिखा और जिस हिसाब से मित्रों ने मुझे अपना स्नेह दिखाया उससे यह जरूर सिद्ध हुआ कि हिन्दी ब्लॉग्गिंग लेखन के साथ साथ एक परिवार का वातावरण भी प्रदान कराती है !” इनका मुख्य ब्लॉग है -मेरी आवाज़ ।
इस क्रम के अगले ब्लॉगर हैं सितंबर-२००९ से सक्रिय मनोज कुमार , जो कोलकाता स्थित रक्षा मंत्रालय में कार्यरत हैं ।वेहद प्रखर चिट्ठा चर्चा कार , यशस्वी ब्लोगर और हिंदी के अनुरागी मनोज कुमार का प्रमुख ब्लॉग है – मनोज , इस ब्लॉग पर वर्ष-२०१० में फुर्सत में…बूट पोलिश काफी चर्चित रहा । ये एक सामूहिक ब्लॉग से भी जुड़े हैं जिसका नाम है राज भाषा , इसके प्रमुख सदस्यों में मनोज कुमार, संगीता स्वरूप, रेखा श्रीवास्तव, अरुण चन्द्र राय, संतोष गुप्ता, परशुराम राय, करण समस्ती पुरी, हरीश प्रकाश गुप्तआदि हैं ।
०१ सितंबर -२००९ से हिंदी ब्लॉगिंग में आये नए और प्रतिभाशाली ब्लोगर मानव मेहता ने इस वर्ष अपनी प्रतिभा और योग्यता के बल पर अपनी एक अलग पहचान बनायी ।
दिसंबर-२००८ से सक्रिय त्रिपुरारी कुमार शर्मा ने भी इस वर्ष हिंदी ब्लोगिंग में पाठकों को आकर्षित किया । इस वर्ष के प्रारंभ में यानी १६ जनवरी को एक प्रखर ब्लोगर और कवियित्री का आगमन हुआ , नाम है सुमन कपूर यानी सुमन मीत । ये पूरे वर्ष भर अपनी सुन्दर और भावपूर्ण रचनाओं से हिंदी ब्लॉगजगत को अभिसिंचित करती रही । मई-२०१० से इन्होनें दूसरा ब्लॉग भी शुरू किया जिसका नाम है अर्पित सुमन । इसी वर्ष मार्च महीने में एक और ब्लोगर ने अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई जिसका नाम है शेखर कुमावत ।
मई-२००७ से सक्रिय ब्लोगिंग में कार्यरत वन्दना भी इस वर्ष काफी लोकप्रिय रही , इनके तीन ब्लॉग क्रमश: ज़िन्दगी एक खामोश सफ़र , एक प्रयास और ज़ख्म जो फूलों ने दिए हैं । इस वर्ष की अपनी गतिविधियों के बारे में इनका कहना है कि “सिर्फ इतनी कि आज काफी ब्लोगर्स जानने लगे हैं कि वन्दना नाम की ब्लोगर भी इस जाल जगत के महासागर की छोटी सी बूँद है ………..इस साल गूगल प्रतियोगिता “है बातों में दम ” में भाग लिया था और एक आलेख “राष्ट्रमंडल खेलों का असर ?” पर पुरस्कार स्वरुप टी-शर्ट प्राप्त हुई थी गूगल की तरफ से ………….बाकी सप्तरंगी प्रेम , वटवृक्ष,काव्यलोक जैसे ब्लोग्स पर मेरी रचनायें प्रकाशित होती रहती हैं और अभी इ-पत्रिका गर्भनाल पर कुछ रचनायें भेजी हैं जो अगले महीने के अंक में प्रकाशित होंगी ।”
इस क्रम में एक और प्रमुख नाम है विजय कुमार सपत्ति , जो वर्ष-२००८ से सक्रिय ब्लोगिंग में हैं । इनका प्रमुख ब्लॉग है ख़्वाबों के दामन में , कविताओं के मन से ,आर्ट बाई विजय कुमार सपत्ति , भारतीय कॉमिक्स , अंतर्यात्रा , हृदयम आदि है ।
अप्रैल -२००९ से सक्रिय शीखा वार्ष्णेय ने भी इस वर्ष अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रही है । वर्ष-२०१० में इन्हें दो प्रमुख सम्मान क्रमश: लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान-२०१० तथा वैशाखनंदन कांस्य सम्मान-२०१० से नवाज़ा गया ।
“… मन के भावों को कैसे सब तक पहुँचाऊँ कुछ लिखूं या फिर कुछ गाऊँ । चिंतन हो जब किसी बात पर और मन में मंथन चलता हो उन भावों को लिख कर मैं शब्दों में तिरोहित कर जाऊं । सोच – विचारों की शक्ति जब कुछ उथल -पुथल सा करती हो उन भावों को गढ़ कर मैं अपनी बात सुना जाऊँ जो दिखता है आस – पास मन उससे उद्वेलित होता है उन भावों को साक्ष्य रूप दे मैं कविता सी कह जाऊं….!” ऐसे कोमल शब्दों के साथ हिंदी ब्लॉगजगत की सतत सेवा करने वाली संगीता स्वरुप गीत भी इस वर्ष काफी चर्चा में रही । उन्हें इस वर्ष श्रेष्ठ टिप्पणीकार का ब्लोगोत्सव-२०१० के अंतर्गत परिकल्पना सम्मान -२०१० से और शारदा साहित्य मंच खटीमा (उद्धम सिंह नगर ) का साहित्य श्री सम्मान से नवाज़ा गया । इस वर्ष इनका पोस्ट सच बताना गांधारी काफी चर्चित रहा ।
वर्ष-२००७ से सक्रिय परमजीत वाली भी इस वर्ष कुछ महत्वपूर्ण और सार्थक पोस्टों के कारण चर्चा में रहे । २१ सितंबर २००८ से सक्रिय रेखा श्रीवास्तव इस वर्ष के सर्वाधिक सक्रिय ब्लोगरों में से एक रही हैं । इस वर्ष उनका पोस्ट किसी की आंख के आंसू , अदम्य इच्छाएं सीधी है अपराध की , दाम्पत्य जीवन में दरार और ग्रंथियां , जाऊं तो जाऊं कहाँ और संस्कारों का ढोंग काफी चर्चित रहा ।
सर्वाधिक चर्चित ब्लोगरों की श्रेणी में एक और नाम इस वर्ष प्रमुखता के साथ आया लोकसंघर्ष सुमन , जो १५ मार्च-२००९ से हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय हैं , किन्तु ब्लोगोत्सव-२०१० के साथ ये अचानक चर्चा में आये । ये पूरे वर्ष भर चिट्ठाजगत की सक्रियता सूची में चौथे- पांचवें स्थान पर बने रहे । इस वर्ष इनका पोस्ट गिरगिट भी शरमा जाता है काफी लोकप्रिय रहा ।
२३ सितंबर २००९ से हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय चन्द्र कुमार सोनी की भी पोस्ट की इस वर्ष काफी चर्चा हुई । अगस्त-२००८ से हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय पवन कुमार अरविन्द भी इस वर्ष चर्चा में रहे । इस वर्ष इनका पोस्ट अयोध्या फैसले के निहितार्थ काफी चर्चा में रहा । इस वर्ष अपनी दृढ़ता और साफगोई से रचनात्मक फलक पर प्रमुखता के साथ स्थान बनाने वाली महिला ब्लोगरों में एक नाम डा दिव्या श्रीवास्तव (ZEAL) का आता है , जिनका आगमन वर्ष -२०१० के उत्तरार्द्ध में हुआ है , किन्तु लगभग ९० के आसपास पोस्ट के माध्यम से हिंदी ब्लोगिंग में इन्होने धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है ।
इस वर्ष एक आश्चर्यजनक पहलू और दिखाई दिया कि पुरुष ब्लोगरों की तुलना में महिला ब्लोगर ज्यादा दृढ़ता के साथ हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय रही । यथा घुघूती बासूती, प्रत्यक्षा , नीलिमा, बेजी, संगीता पुरी, लवली, पल्लवी त्रिवेदी, अदा, सीमा गुप्ता, निशामधुलिका, लावण्या, कविता वाचक्नवी, अनीता कुमार, pratibhaa, mamta, रंजना [रंजू भाटिया ], Geetika gupta, वर्षा, डॉ मंजुलता सिंह, डा.मीना अग्रवाल,Richa,neelima sukhija arora, फ़िरदौस ख़ान, Padma Srivastava, neelima garg, Manvinder, MAYA, रेखा श्रीवास्तव, स्वप्नदर्शी, KAVITA RAWAT, सुनीता शानू , शायदा, Gyaana-Alka Madhusoodan Patel, rashmi ravija, अनुजा, अराधना चतुर्वेदी मुक्ति ,तृप्ति इन्द्रनील , सुमन मीत , साधना वैद , सुमन जिंदल, Akanksha Yadav ~ आकांक्षा यादव, उन्मुक्ति, मीनाक्षी, आर. अनुराधा, रश्मि प्रभा, संगीता स्वरुप, सुशीला पुरी, मीनू खरे,नीलम प्रभा , शमा कश्यप, अलका सर्वत मिश्र, मनीषा, रजिया राज, शेफाली पाण्डेय, शीखा वार्ष्णेय, अनामिका, अपनत्व, रानी विशाल, निर्मला कपिला, प्रिया,संध्या गुप्ता, वन्दना गुप्ता , रानी नायर मल्होत्रा, सारिका सक्सेना, पूनम अग्रवाल , उत्तमा, Meenakshi Kandwal, वन्दना अवस्थी दुबे, Deepa, रचना, Dr. Smt. ajit gupta, रंजना, गरिमा, मोनिका गुप्ता, दीपिका कुमारी, शोभना चौरे, अल्पना वर्मा, निर्मला कपिला, वाणीगीत, विनीता यशश्वी, भारती मयंक, महक, उर्मी चक्रवर्ती बबली , सेहर, शेफ़ाली पांडे, प्रेमलता पांडे, पूजा उपाध्याय,कंचन सिंह चौहान, संध्या गुप्ता , सोनल रस्तोगी, हरकीरत हीर, कविता किरण , अर्चना चाव , जेन्नी शबनम , ZEAL” वन्दना, mala , ρяєєтι , Asha , Neelima , डॉ. नूतन – नीति , सुधा भार्गव, Vandana ! ! ! , Dorothy , पारुल , किरण राजपुरोहित नितिला , नीलम ,ज्योत्स्ना पाण्डेय जैसी महिला ब्लागर्स नितांत सक्रिय हैं और अपने अपने क्षेत्र मे बहुत अच्छा लिख रही हैं ।
चिट्ठाचर्चा पर चर्चा करने वाली ब्लॉग जगत की प्रमुख महिला चर्चाकारों में सुश्री नीलिमा, सुजाता, डा0 कविता वाचकनवी और संगीता स्वरुप गीत हैं जिनके द्वारा निरंतरता के साथ विगत २-३-४ वर्षों से पूरी तन्मयता के साथ चिट्ठा चर्चा की जा रही है । इसके अलावा एक और महिला चर्चाकार हैं वन्दना जिनके द्वारा चर्चा मंच पर लगातार अच्छे -अच्छे चिट्ठों से परिचय कराया गया ।
आईये उन ब्लोगरों के बारे में जानें जिन्होनें वर्ष-२०१० में अपनी गतिविधियों से हिंदी ब्लोगिंग को प्राण वायु देने का कार्य किया, इसमें शामिल हैं नए और पुराने, किन्तु सार्थक हस्तक्षेप रखने वाले ब्लोगर !
इस श्रेणी में आईये सबसे पहले मिलते हैं अशोक चक्रधर से । ये हिंदी के मंचीय कवियों में से एक हैं। हास्य की विधा के लिये इनकी लेखनी जानी जाती है। कवि सम्मेलनों की वाचिक परंपरा को घर घर में पहुँचाने का श्रेय गोपालदास नीरज, शैल चतुर्वेदी, सुरेंद्र शर्मा, ओमप्रकाश आदित्य, कुमार विश्वास आदि के साथ-साथ इन्हें भी जाता है। ब्लोगिंग में वर्ष-२००६ से सक्रीय….इनका प्रमुख ब्लॉग है चक्रधर का चक्कलस ।
और अब समीर लाल समीर से , जिनका जन्म २९ जुलाई, १९६३ को रतलाम म.प्र. में हुआ। विश्व विद्यालय तक की शिक्षा जबलपुर म.प्र से प्राप्त कर आप ४ साल बम्बई में रहे और चार्टड एकाउन्टेन्ट बन कर पुनः जबलपुर में १९९९ तक प्रेक्टिस की. सन १९९९ में आप कनाडा आ गये और अब वहीं टोरंटो नामक शहर में निवास… इस वर्ष ब्लोगोत्सव-२०१० में इन्हें वर्ष का श्रेष्ठ ब्लोगर घोषित किया गया ……हिंदी ब्लोगिंग में वर्ष-२००६ से सक्रीय ….इनका मुख्य ब्लॉग है -उड़न तश्तरी ।
आईये आपको मिलवाते है अब वाराणसी निवासी डा अरविन्द मिश्र से , जो वर्ष-२००७ से हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय हैं और तर्क युक्तियों के साथ अभिव्यक्ति में पारंगत भी । इनके पोस्ट तथा इनकी टिप्पणियाँ बरबस ही पाठकों को आकर्षित करती है । विज्ञान विषयक लेखन में इन्हें एकाधिकार प्राप्त है हिंदी ब्लॉगजगत में । इन्हें ब्लोगोत्सव-२०१० में वर्ष का श्रेष्ठ विज्ञान लेखक का अलंकरण प्रदान किया गया है । इन्हें विज्ञान में उच्च कोटि के लेखन के लिए संवाद सम्मान से नवाज़ा गया है । इनका प्रमुख ब्लॉग है -साई ब्लॉग , जबकि इनका सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग है क्वचिदन्यतोअपि….. , ये साईंस ब्लोगर असोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं ।
इसके बाद चलिए चलते हैं अनूप शुक्ल के पास , जिनका जन्म १६ सितंबर, १९६३ को हुई । इन्होनें बी.ई़.(मेकेनिकल), एम ट़ेक (मशीन डिज़ाइन) की शिक्षा ग्रहण कर संप्रति भारत सरकार रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत कानपुर स्थित आयुध निर्माणी में राजपत्रित अधिकारी हैं । ये अगस्त-२००४ से सक्रिय हैं । इनका हिंदी चिट्ठा फुरसतिया और चिट्ठा चर्चा खासा लोकप्रिय है।
आईये अब मिलते हैं रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ़ रवि रतलामी से । ये नामचीन हिन्दी चिट्ठाकार, तकनीकी सलाहकार व तकनीकी अनुवादक हैं। ये मध्य प्रदेश शासन में टेक्नोक्रेट रह चुके हैं। इन्होनें लिनक्स तंत्रांशों के हिन्दी अनुवादों के लिए भागीरथी प्रयास किए हैं। गनोम, केडीई, एक्सएफसीई, डेबियन इंस्टालर, ओपन ऑफ़िस मदद इत्यादि सैकड़ों प्रकल्पों का हिन्दी अनुवाद स्वयंसेवी आधार पर किया है। वर्ष २००७ -०९ के लिए ये माइक्रोसॉफ़्ट मोस्ट वेल्यूएबल प्रोफ़ेशनल से पुरस्कृत हैं तथा केडीई हिन्दी टोली के रूप में प्रतिष्ठित राष्ट्रीय फॉस.इन २००८ से पुरस्कृत हैं। सराय द्वारा FLOSS फेलोशिप के तहत केडीई के छत्तीसगढ़ी स्थानीयकरण के महती कार्य के लिये, जिसके अंतर्गत उन्होंने १ लाख से भी अधिक वाक्यांशों का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया, रवि को २००९ के प्रतिष्ठित मंथन पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया।इन्हें ब्लोगोत्सव-२०१० में वर्ष के श्रेष्ठ लेखक का अलंकरण प्रदान किया गया । छीटें और बौछारें तथा रचनाकार इनके प्रमुख ब्लॉग हैं।
अब आईये मिलते हैं हर दिल अजीज ब्लोगर अविनाश वाचस्पति से , जिन्हें सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मान से सम्‍मानित किया है। उनको यह सम्‍मान राजभाषा पुरस्‍कार वितरण समारोह में माननीय सचिव ने विगत दिनों प्रदान किया । अंतर्जाल पर हिन्‍दी के लिए किया गया उनका कार्य किसी परिचय का मोहताज नहीं है। अविनाश जी साहित्य शिल्पी से भी लम्बे समय से जुडे हुए हैं इसके अलावा सामूहिक वेबसाइट नुक्‍कड़ के मॉडरेटर हैं, जिससे विश्‍वभर के एक सौ प्रतिष्ठित हिन्‍दी लेखक जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्‍त उनके ब्‍लॉग पिताजी, बगीची, झकाझक टाइम्‍स, तेताला अंतर्जाल जगत में अपनी विशिष्‍ट पहचान रखते हैं। उन्हें इस वर्ष ब्लोगोत्सव-२०१० में वर्ष के श्रेष्ठ व्यंग्यकार से तथा वर्ष-२००९ के संवाद सम्मान से अलंकृत किया गया है ।
आईये अब मिलते हैं गिरीश पंकज से जो एक बहुआयामी रचनाकार है । ये एक साथ व्यंग्यकार, उपन्यासकार, ग़ज़लकार एवं प्रख्यात पत्रकार हैं । सद्भावना दर्पण नामक वैश्विक स्तर पर चर्चित अनुवाद पत्रिका के संपादक हैं । देश एवं विदेश में सम्मानित । युवाओं के प्रेरणास्त्रोत । सद्भावना, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव के लिए एक विशिष्ट स्थान रखने वाले गिरीश पंकज को पढ़ना अपने आप में एक विशिष्ट अनुभव से गुजरना है । – सृजन-सम्मान …ब्लोगोत्सव-२०१० में इन्हें वर्ष का श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक का अलंकरण प्रदान किया गया …..ब्लोगिंग में वर्ष-२००७ से सक्रीय ….इनका मुख्य ब्लॉग है गिरीश पंकज !
अब आईये मिलते हैं एक और चर्चित ब्लोगर जाकिर अली रजनीश से , ये देश के जाने-माने बाल साहित्यकार और सक्रिय ब्लोगर हैं । ये मूलत: विज्ञान विषयक गतिविधियों को प्राणवायु देने की दिशा में लगातार सक्रिय हैं । इन्हें वर्ष-२०१० के श्रेष्ठ बाल साहित्यकार का अलंकरण प्राप्त है । इनके प्रमुख ब्लॉग है मेरी दुनिया मेरे सपने, हमराही और सर्प संसार । ये गैर राजनीतिक संस्था TASLIMके महामंत्री और साईंस ब्लोगर असोसिएसन के सचिव है । इनका बच्चों पर आधारित प्रमुख ब्लॉग है बाल मन ।
जैसे किसी आईने को आप भले ही सोने के फ्रेम में मढ़ दीजिये वह फिर भी झूठ नहीं बोलता । सच ही बोलता है । ठीक वैसे ही कुछ ब्लोग्स हैं हिंदी ब्लॉगजगत में जो हर घटना, हर गतिविधि , हर योजना का सच बयान करते मिलते हैं । वह घटना चाहे किसी छोटी जगह की हो या किसी बड़ी जगह की , चाहे दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलोर, लखनऊ , पटना की हो अथवा सुदूर गौहाटी, डिब्रूगढ़ या सिक्किम में गंगटोक की हो । आपको हर जगह का सचित्र ब्योरा अवश्य मिलेगा उन ब्लोग्स में ।
कहा जाता है कि भारत वर्ष विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों का देश है । सच है । पर इसका एक साथ मेल देखना हो तो रांची निवासी मनीष क़ुमार के ब्लॉग मुसाफिर हूँ यारों पर देख सकते हैं । अप्रैल -२००५ से सक्रिय हिंदी ब्लोगिंग में कार्यरत मनीष क़ुमार का यह ब्लॉग वर्ष-२००८ में आया है और अपनी सारगर्भित अभिव्यक्ति तथा सुन्दर तस्वीरों के माध्यम से हिंदी ब्लॉगजगत में सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हुआ है । इन्हें वर्ष-२००९ का संवाद सम्मान प्रदान किया जा चुका है । सुखद संस्मरणों के गुलदस्ता के रूप में इनका दूसरा ब्लॉग एक शाम मेरे नाम काफी चर्चित है ।
मनीष क़ुमार की तरह ही हिंदी ब्लॉगजगत में एक और घुमक्कर हैं नीरज जाट , जिनका ब्लॉग है मुसाफिर हूँ यारों । आप क्या पढ़ना चाहेंगे यात्रा वृत्तांत, इतिहास, मूड फ्रेश या रेल संस्मरण सब कुछ मिलेगा आपको इस ब्लॉग में । नीरज जाट का अपने बारे में कहना है कि -” घुमक्कडी जिंदाबाद … घुमक्कडी एक महंगा शौक है। समय खपाऊ और खर्चीला। लेकिन यहां पर आप सीखेंगे किस तरह कम समय और सस्ते में बेहतरीन घुमक्कडी की जा सकती है। घुमक्कडी के लिये रुपये-पैसे की जरुरत नहीं है, रुपये -पैसे की जरुरत है बस के कंडक्टर को, जरुरत है होटल वाले को। अगर यहीं पर कंजूसी दिखा दी तो समझो घुमक्कडी सफल है।”
डा.सुभाष राय इस वर्ष हिंदी ब्लॉगिंग के समर्पित व सक्रिय विद्यार्थियों में से एक रहे हैं…निरंतर सीखते जाना और जीवन को समझना ही इनका लक्ष्य रहा हैं । यह हम सभी के लिए वेहद सुखद विषय है कि वे ब्लोगिंग के माध्यम से अपने अर्जित ज्ञान को बांटने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं …… ब्लोगोत्सव-२०१० पर प्रकाशित इनके आलेख : जाति न पूछो साध की को आधार मानते हुए ब्लोगोत्सव की टीम ने इन्हें वर्ष के श्रेष्ठ सकारात्मक ब्लोगर (पुरुष ) का खिताब देते हुए सम्मानित किया हैं । प्रयाग के नार्दर्न इंडिया पत्रिका ग्रुप में सेवा शुरू करके तीन दशकों की इस पत्रकारीय यात्रा में अमृत प्रभात, आज, अमर उजाला , डी एल ए (आगरा संस्करण ) जैसे प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्रों में शीर्ष जिम्मेदारियां संभालने के बाद इस समय लखनऊ में जन सन्देश (हिंदी दैनिक ) में मुख्य संपादक के पद पर कार्यरत, इनके प्रमुख ब्लॉग हैं -बात बेबात और साखी……!
न्याय और न्याय की धाराएं इतनी पेचीदा हो गयी है , कि अदालत का नाम सुनकर व्यक्ति एकबार काँप जाता है जरूर क्योंकि बहुत कठिन है इन्साफ पाने की डगर । हमारा मकसद यहाँ न तो न्यायपालिका पर ऊंगली उठाने का है और न ही किसी की अवमानना का । पर यह कड़वा सच है की हमारी प्रक्रिया इतनी जटिल हो गयी है की इन्साफ का मूलमंत्र उसमें कहीं खोकर रह गया है। आदमी को सही समय पर सही न्याय चाहकर भी नही मिल पाता। ऐसे में अगर कोई नि:स्वार्थ भाव से आपको क़ानून की पेचीदिगियों से रू-ब-रू कराये और क़ानून की धाराओं के अंतर्गत सही मार्ग दर्शन दे तो समझिये सोने पे सुहागा । ऐसा ही इक ब्लॉग है – तीसरा खम्बा. ब्लोगर हैं कोटा राजस्थान के दिनेश राय द्विवेदी,जो १९७८ से वकालत से जुड़े हैं । साहित्य, कानून, समाज, पठन,सामाजिक संगठन लेखन,साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में इनकी रूचि चरमोत्कर्ष पर रही है । ये जून -२००७ से हिंदी ब्लोगिंग में लगातार सक्रिय हैं और प्रत्येक वर्ष इनकी सक्रियता में इजाफा होता रहता है ।
अब एक ऐसे ब्लॉगर की चर्चा , जिन्हें वरिष्ठ ब्लोगर श्री ज्ञान दत्त पाण्डेय ने भविष्य की सम्भावनाओं का ब्लॉगर कहा है ,श्री अनूप शुक्ल ने शानदार ब्लोगर कहा है वहीं श्री समीर लाल समीर ने उनके फैन होने की बात स्वीकार की है । रंजना (रंजू) भाटिया ने स्वीकार किया है कि उनका लिखा हमेशा ही प्रभावित करता है जबकि सरकारी नौकरी में रहते हुए भी अपनी संवेदना को बचाये रखना ….उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं डा अनुराग । नाम है सिद्दार्थ शंकर त्रिपाठी जिनके बारे में बहुचर्चित ब्लोगर डा अरविन्द मिश्र कहते हैं कि -”मैं सिद्धार्थ जी की लेखनी का कायल हूँ -ऐसा शब्द चित्र खींचते है सिद्धार्थ जी कि सारा दृश्य आखों के सामने साकार हो जाता है । उनमें सम्मोहित करने वाली शैली और संवेदनशीलता को सहज ही देखा, महसूस किया जा सकता है और एक प्रखर लेखनी की सम्भावनाशीलता के प्रति भी हम आश्वस्त होते है !” सत्यार्थ मित्र इनका प्रमुख ब्लॉग है । इन्होनें पूर्व की भाँती इस वर्ष भी महत्वपूर्ण पहल करते हुए महात्मा गांधी अंतरार्ष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के तत्वावधान में राष्ट्रीय ब्लोगर संगोष्ठी आयोजित की , जिसकी ब्लॉगजगत में काफी चर्चा हुई । इनकी मौन साधना के बारे में यही कहा जा सकता है कि इस वर्ष इनकी मौन साधना आगे-आगे चलती रही और सारे स्वर-व्यंजन के साथ समय पीछे-पीछे चलता रहा ।
खुशदीप सहगल हिंदी चिट्ठाकारी के वेहद उदीयमान,सक्रीय और इस वर्ष के सर्वाधिक चर्चित चिट्ठाकारों में से एक रहे हैं ! जिनके पोस्ट ने पाठकों को खूब आकर्षित किया और भाषा सम्मोहित करती रही लगातार ….जिनके कथ्य और शिल्प में गज़ब का तारतम्य रहा इस वर्ष ! विगत दिनों ब्लोगोत्सव-२०१० के दौरान उनका व्यंग्य “टेढा है पर मेरा है” और “किसी का सम्मान हो गया ” प्रकाशित हुआ था जिसे आधार बनाते हुए उन्हें ब्लोगोत्सव की टीम ने वर्ष के चर्चित उदीयमान ब्लोगर का अलंकरण देते हुए सम्मानित करने का निर्णय लिया ।
बीते दिनों में बहुत कुछ गुजरा है, बहुत कुछ बदला है समय, समाज और हिंदी ब्लोगिंग में भी। हिंदी ब्लोगिंग इस बदलाव का साक्षी रहा है कदम-दर-कदम । लगातार अच्छे और कुशल ब्लोगरों के आगमन से यह हर पल केवल बदलाव का भागीदार ही नहीं रही है, अपितु बदलाव की अंगराई भी लेती रही है वक़्त-दर-वक़्त । सबसे सुखद बात तो यह है कि हिंदी ब्लोगिंग ने देवनागरी लिपि के माध्यम से हिंदी और उर्दू को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया है ।
कहा गया है कि अभिव्यक्ति की ताक़त असीम होती है और अर्थवान भी । वह संवाद कायम करती है , आपस में जोड़ती है , बिगड़ जाए तो दूरी पैदा करती है और खुश हो जाए तो भावनात्मक एकता का अद्भुत सेतु बना सकती है , वसुधैव कुटुंबकम की संकल्पना साकार कर सकती है । इसे साध लिया तो हर मंजिल आसान हो जाती है । आईये हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय कुछ ऐसे साधकों से आपको मिलवाते हैं जिन्होनें वर्ष-२०१० में अपनी सार्थक साहित्यिक-सांस्कृतिक और सकारात्मक गतिविधियों से हिंदी ब्लोगिंग को अभिसिंचित किया है ।
यदि वरिष्ठता क्रम को नज़रंदाज़ कर दिया जाए तो इस श्रेणी में पहला नाम आता है शैलेश भारतवासी का , जिनका प्रमुख ब्लॉग है हिंद युग्म । ये विगत पांच वर्षों से इंटरनेट पर यूनिकोड (हिंदी) के प्रयोग के प्रचार -प्रसार का कार्य कर रहे हैं । १६ अगस्त १९८२ को सोनभद्र (उ0 प्र0 ) में जन्में शैलेश का ब्लॉग केवल ब्लॉग नहीं एक संस्था है जो हिंदी भाषा, साहित्य,कला, संगीत और इनके अंतर्संवंधों को अपने वैश्विक मंच हिंद-युग्म डोट कॉम के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रयासरत हैं । दुनिया के सभी वेबसाइटो को ट्रैफिक के हिसाब से रैंक देने वाली वेबसाईट अलेक्सा के अनुसार इस ब्लॉग का रैंक एक लाख के आसपास है जो हिंदी भाषा के कला-साहित्य -संस्कृति-मनोरंजन वर्ग के वेबसाईट में सर्वाधिक है । दुनिया की सभी वेबसाइटो के ट्रैफिक पर नज़र रखने वाली वेबसाईट स्टेटब्रेनडोटकॉम के अनुसार हिंद युग्म को प्रतिदिन लगभग ११००० से ज्यादा हिट्स मिलते हैं । भारत का ऐसा कोई कोना नहीं है , जहां पर इसके प्रयासों के बारे में कुछ लोग ही सही, परिचित नहीं है । विश्व में हर जगह , जहां पर हिंदी भाषा भाषी रहते हैं वहां इस ब्लॉग की चर्चा अवश्य होती है ।
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर हैं देश के प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय , जिनका ब्लॉग है प्रेम जनमेजय ।ये व्यंग्य को एक गंभीर कर्म तथा सुशिक्षित मस्तिष्क के प्रयोजन की विधा मानने वाले आधुनिक हिंदी व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैंऔर ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक भी । ये नुक्कड़ से भी जुड़े हैं । इनकी उपस्थिति मात्र से समृद्धि की नयी परिभाषा गढ़ने की ओर अग्रसर है हिंदी ब्लोगिंग । इस वर्ष ब्लोगोत्सव-२०१० पर प्रकाशित हिंदी ब्लोगिंग के विभिन्न पहलूओं पर उनके साक्षात्कार काफी चर्चा में रहे ।
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर हैं डा दिविक रमेश , हिंदी चिट्ठाजगत में सक्रीय एक ऐसा कवि जो २० वीं शताब्दी के आठवें दशक में अपने पहले ही कविता संग्रह ‘रास्ते के बीच’ से चर्चित हुए ! जो ३८ वर्ष की ही आयु में ‘रास्ते के बीच’ और ‘खुली आँखों में आकाश’ जैसी अपनी मौलिक कृतियों पर ‘सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड’ जैसा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले पहले कवि बने । जिनका जीवन निरंतर संघर्षमय रहा है। जो ११ वीं कक्षा के बाद से ही आजीविका के लिए काम करते हुए शिक्षा पूरी की। जो १७ -१८ वर्षों तक दूरदर्शन के विविध कार्यक्रमों का संचालन किया और १९९४ से १९९७ में भारत की ओर से दक्षिण कोरिया में अतिथि आचार्य के रूप में भेजे गए, जहाँ साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किए।ब्लोगोत्सव-२०१० में उन्हें वर्ष के श्रेष्ठ कवि का अलंकरण प्रदान किया गया ।
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर हैं -रवीश कुमार, जिनका प्रमुख ब्लॉग है कस्बा qasba । ये एऩडीटीवी में कार्यरत हैं । ये अपने ब्लॉग पर अपनी ज़िन्दगी के वाकयों, सामयिक विषयों व साहित्य पर खुलकर चर्चा करते हैं, वहीं दैनिक हिन्दुस्तान में प्रत्येक बुद्धवार को ब्लॉग वार्ता के अंतर्गत प्रमुख उपयोगी और सार्थक ब्लॉग को प्रमोट करते है । इनके विषय में बरिष्ठ ब्लोगर रवि रतालामी का कहना है कि “चिट्ठाकारी ने लेखकों को जन्म दिया है तो विषयों को भी। आप अपने फ्रिज पर भी लिख सकते हैं और दिल्ली के सड़कों के जाम पर भी। नई सड़क पर रवीश ने बहुत से नए विषयों पर नए अंदाज में लिखा है और ऐसा लिखा है कि प्रिंट मीडिया के अच्छे से अच्छे लेख सामने टिक ही नहीं पाएँ। हिन्दी चिट्ठाकारी को नई दिशा की और मोड़ने का काम नई सड़क के जिम्मे भले ही न हो, मगर उसने नई दिशा की ओर इंगित तो किया ही है।”
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर है गिरीश मुकुल , जिनके दो मुख्य ब्लॉग है गिरेश बिल्लोरे का ब्लॉग और मिसफिट सीधी बात जिसकी चर्चा इसबार खूब हुई । २९ नवंबर १९६३ को जन्में गिरीश मुकुल एम कोम, एल एल बी की शिक्षा प्राप्त करने के बाद बाल विकास परियोजना अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । आकाशवाणी जबलपुर से नियमित प्रसारण,पोलियो ग्रस्त बचों की मदद के लिए “बावरे-फकीरा” भक्ति एलबम,स्वर आभास जोशी,तथा नर्मदा अमृतवाणी गायक स्वर रविन्द्र शर्मा इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है । इनका मानना है कि हमेशा धोखा मिलने पर भी मामद माँगने वालों से कोई दुराग्रह नहीं होता। मदद मेरा फ़र्ज़ है …!!
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर हैं डा० टी० एस० दाराल :मेडिकल डॉक्टर, न्युक्लीअर मेडीसिन फिजिसियन– ओ आर एस पर शोध में गोल्ड मैडल– एपीडेमिक ड्रोप्सी पर डायग्नोस्टिक क्राइटेरिया — सरकार से स्टेट अवार्ड प्राप्त– दिल्ली आज तक पर –दिल्ली हंसोड़ दंगल चैम्पियन — नव कवियों की कुश्ती में प्रथम पुरूस्कार — अब ब्लॉग के जरिये जन चेतना जाग्रत करने की चेष्टा — इनका यह उसूल है, हंसते रहो, हंसाते रहो. — जो लोग हंसते हैं, वो अपना तनाव हटाते हैं. — जो लोग हंसाते हैं, वो दूसरों के तनाव भगाते हैं. बस इन्हीं पवित्र सोच के साथ इन्होनें पूरे वर्ष भर अपनी सक्रियता से पाठकों को आकर्षित किया । इनका प्रमुख ब्लॉग है – अंतर्मंथन और चित्रकथा !
इस श्रेणी के अगले, किन्तु महत्वपूर्ण ब्लोगर हैं ललित शर्मा : ललित शर्मा एक ऐसे सृजनकर्मी हैं जिनकी सृजनशीलता को किसी पैमाने में नहीं बांधा जा सकता ….हम सभी इन्हें गीतकार, शिल्पकार, कवि, रचनाकार आदि के रूप में जानते थे, किन्तु इस वर्ष हम उनके एक अलग रूप से मुखातिव हुए । जी हाँ चित्रकार और पेंटर बाबू के रूप में जब मैंने उनकी पेंटिंग की एक गैलरी लगाई ब्लोगोत्सव-२०१० में , इसमें से कुछ छायाचित्र सेविंग ब्लेड से बनाई गयी थी और कुछ एक्रेलिक कलर से । इनके निर्माण में ब्रुश की जगह सेविंग ब्लेड का प्रयोग किया था तथा उससे ही कलर के स्ट्रोक दिये गए थे । इन्हें ब्लोगोत्सव-२०१० में वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार (आंचलिक ) का अलंकरण प्रदान किया गया । इनके प्रमुख ब्लॉग है – ललित वाणी, अड़हा के गोठ, ललित डोट कोम ,ब्लोग४ वार्ता , शिल्पकार के मुख से आदि है ।
हमारे देश में इस वक्त दो अति-महत्वपूर्ण किंतु ज्वलंत मुद्दे हैं – पहला नक्सलवाद का विकृत चेहरा और दूसरा मंहगाई का खुला तांडव । अगली चर्चा की शुरुआत हम नक्सलवाद और मंहगाई से ही करेंगे ।फ़िर हम बात करेंगे मजदूरों के हक के लिए कलम उठाने वाले ब्लॉग , प्राचीन सभ्यताओं के बहाने कई प्रकार के विमर्श को जन्म देने वाले ब्लॉग और देश के अन्य ज्वलंत मुद्दे जैसे अयोध्या मुद्दा, भ्रष्टाचार आदि ….!
जब मुद्दों की बात चलती है तो एक ब्लॉग अनायास ही मेरी आँखों के सामने प्रतिविंबित होने लगता है । जनसंघर्ष को समर्पित इस ब्लॉग का नाम है लोकसंघर्ष । मुद्दे चाहे जैसे हो, जन समस्याओं से संवंधित मुद्दे हों अथवा राष्ट्रीय , सामाजिक हो अथवा असामाजिक, राजनीतिक हों अथवा गैर राजनीतिक …..सभी मुद्दों पर खुल कर अपना पक्ष रखा इस ब्लॉग ने इस वर्ष । इस वर्ष यह ब्लॉग चिट्ठाजगत की सक्रियता सूची में भी चौथे-पांचवें स्थान पर रहा । अयोध्या मुद्दे पर इनका एक पोस्ट (मंदिर के कोई पुख्ता प्रमाण भी नहीं मिले :विनोद दास ) जहां गंभीर विमर्श को जन्म देता दिखाई देता है वहीँ उनका दूसरा पोस्ट ( पुरातत्ववेता प्रोफ़ेसर मंडल का कथन अयोध्या उत्खनन के संवंध में ) विवादों को ।अपने एक पोस्ट में यह ब्लॉग गिन-गिनकर अयोध्या फैसले के गुनाहगार का नाम गिनाते हैं वहीं अपने एक पोस्ट में यह ब्लॉग कहता है कि दुर्लभ मौक़ा आपने गँवा दिया न्यायाधीश महोदय । दूसरा मुद्दा बराक ओबामा की भारत यात्रा पर यह ब्लॉग बोलता है ” चापलूसी हमारा स्वभाव है ” । भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यह ब्लॉग कहता है कि भ्रष्टाचार पर कौंग्रेस और भाजपा मौसेरे भाई है वहीं इसी विषय पर एक पोस्ट में ये कहते हैं – गुलामी और लूट का खेल तमाशा ।हाल ही प्रकाशित उनका एक आलेख औद्योगिक घरानों की लोकतंत्र के साथ सांठगाँठ को उजागर करता है शीर्षक है -संसद,लोकतंत्र कठपुतलियाँ हैं औद्योगिक कंपनियों की …..!
मुद्दों पर आधारित इस वर्ष का अगला चर्चित ब्लॉग है दुधवा लाईव , इस ब्लॉग पर २४ जुलाई २०१० को विश्व जनसंख्या पर एक सार्गभितआलेख प्रस्तुत किया गया जिसका शीर्षक था “हम दूसरों के कदमों पर कदम रखना कब छोड़ेंगे ? अगला ब्लॉग है चोखेर वाली जिसपर ३१ अक्तूबर को अरुंधती राय के बहाने कई मुद्दे दृढ़ता के साथ उठाये गए , शीर्षक था ‘अरुंधती राय की विच हंटिंग ….! देश का दर्द बांटने वाला देश का चर्चित सामूहिक ब्लॉग हिन्दुस्तान का दर्द पर ०३ मई २०१० को प्रकाशित इस रिपोर्ट का सच क्या है ? पर बेनजीर भुट्टों से संवंधित कई चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में लाए गए ।
“मुझे ये पूरा विश्वास है कि भ्रष्टाचार आज हम भारतीयों का स्वीकृत आचार बन चुका है. क्षमा चाहूंगा, मैं यहां “हम भारतीयों” पर जोर डालना चाहता हूं. क्योंकि, आज एक-दो आदमी या संस्था नहीं, हम सभी भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे हैं। ” ऐसा कहा है आजकल ब्लॉग ने अपने २१ अगस्त के पोस्ट पर जिसका शीर्षक है हम सभी भ्रष्ट हैं ।’राजीव गांधी हों, वीपी सिंह हों या मुलायम सिंह यादव हों, कोई भी मुसलमानों का हमदर्द नहीं है।’ ऐसा कहा है २८ अक्तूबर को सलीम अख्तर सिद्दीकी ने अपने ब्लॉग हक की बात में । मीडिया पर असली मुद्दा छुपाने का आरोप लगाया है रणविजय प्रताप सिंह ने समाचार ४ मीडिया पर वहीँ भड़ास 4 मीडिया पर पंकज झा ने अपने एक पोस्ट में कहा है कि अयोध्या मुद्दे को उत्पात न बनाएं । अनिता भारती ने मुहल्ला लाईव में ०७ अगस्त को पूछा कि मुद्दों को डायल्युट कौन कर रहा है ? जनतंत्र के ३० सितंबर के एक आलेख में सलीम अख्तर सिद्दीकी ने भाजपा पर यह आरोप लगाया है कि राख हो चुके मंदिर मुद्दे में आग लगने की कोशिश हो रही है ।
वर्ष के आखिरी चरणों में भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में जानी मानी हस्तियों ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान शुरू करते हुए देश के भ्रष्टाचार निरोधक तंत्र में कमियों को दूर करने के वास्ते लोकपाल बिल का मजमून तैयार किया और इसे कानून का रूप देने के अनुरोध के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेजा । ब्लॉग पर भी कुछ इसी तरह की चर्चाएँ गर्म रही उस दौरान , यथा- रायटोक्रेट कुमारेन्द्र पर : भ्रष्टाचार का विरोध सब कर रहे हैं, आइये हम सफाया करें । जय जय भारत पर :२ जी स्पेक्ट्रम : ये (भ्रष्टाचार का ) प्रदूषण तो दिमाग को हिला देने वाला है । कडुआ सच पर : भ्रष्टाचार….भ्रष्टाचार ….चलो आज हम हाथ लगा दें । आचार्य जी पर : भ्रष्टाचार । खबर इंडिया डोट कोम पर : भ्रष्टाचार की भारतीय राजनीति मेंविकासयात्रा । ब्लोगोत्सव-२०१० पर : भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए क्या करना चाहिए । ब्लोगोत्सव-२०१० पर : बदलाव जरूरी है… । दबीर निउज में : सुप्रीम कोर्ट की दो टूक भ्रष्टाचार सिस्टम का बदनुमा दाग है । परिकल्पना पर : चर्चा-ए-आम भ्रष्टाचार की आगोश में आवाम और खबर इंडिया डोट कोम पर :भ्रष्टाचार से खोखला हो रहा है देश । ये सभी ब्लॉग भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम को हवा देने का कार्य किया हैं , जो प्रशंसनीय है । इस वर्ष के उत्तरार्द्ध में एक नया ब्लॉग आया मंगलायतन , इस पर भी भ्रष्टाचार से संबंधित मुद्दे उठाये गए ।
भारत ने एक संप्रभुता संपन्न राष्ट्र के रूप में १५ अगस्त -२०१० को ६३ वी वर्षगाँठ मनाई । इस समयांतराल में नि:संदेह एक राष्ट्र के रूप में उसने बड़ी-बड़ी उपलब्धियां प्राप्त की । आई टी सेक्टर में दुनिया में उसका डंका बजता है । चिकित्सा,शिक्षा, वाहन, सड़क, रेल, कपड़ा, खेल, परमाणु शक्ति, अंतरिक्ष विज्ञान आदि क्षेत्रों में बड़े काम हुए हैं । परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र का रुतवा भी हासिल किया है । आर्थिक महाशक्ति बनने को अग्रसर है । मगर राष्ट्र समग्र रूप से विकसित हो रहा है इस दृष्टि से विश्लेषण करें तो बहुत कुछ छूता हुआ भी मिलता है, विकास में असंतुलन दिखाई देता है एवं उसे देश के आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने में सफलता नहीं मिली है । जिससे भावनात्मक एकता कमजोर हो रही है , जो किसी राष्ट्र को शक्ति संपन्न , समृद्धशाली,अक्षुण बनाए रखने के लिए जरूरी है । यह समस्या चिंता की लकीर बढाती है ।
१५ अगस्त से २४ अगस्त तक परिकल्पना पर एक परिचर्चा आयोजित हुई ” क्या है आपके लिए आज़ादी के मायने ? इस परिचर्चा में शामिल हुए लगभग दो दर्जन ब्लोगर । परिचर्चा में शामिल होते हुए समीर लाल समीर ने कहा कि ” पीर पराई समझ सको तो जीवन भर आज़ाद रहोगे , बरना तुम बर्बाद रहोगे । ” रश्मि प्रभा ने कहा कि ” सब शतरंज के प्यादे राजा बनने की होड़ में और ताज पहनानेवाले अनपढ़ , गंवार !” दीगंबर नासवा ने कहा कि “यदि आप आज की पीढ़ी से पूछें तो शायद आज़ाद भारत में आज़ादी का मतलब ढूँढने में लंबा वक़्त लगेगा । ” दीपक मशाल ने कहा कि “यू के में एक मज़दूर भी चैन का जीवन बिता सकता है मगर क्या आज़ाद भारत में ?” सरस्वती प्रसाद ने कहा कि “”यहाँ पर ज़िन्दगी भी मौत सी सुनसान होती है….यहाँ किस दोस्त की किस मेहरबां की बात करते हो….अमां तुम किस वतन के हो कहाँ की बात करते हो !” अविनाश वाचस्पति ने कहा कि “जिस दिन सोने और सपने देखने की आजादी मिल जाए तो समझना संपूर्ण आजादी मिल गई है। इसे हासिल करना दुष्‍कर है, यह मक्‍का मदीना नहीं है, यह पुष्‍कर है।” शीखा वार्ष्णेय ने कहा कि “घर से निकलती है बेटी तो दिल माँ का धड़कने लगता है,जब तक न लौटे काम से साजन दिल प्रिया का बोझिल रहता है,अपने ही घर में हर तरफ़ भय की जंजीरों का जंजाल हैं, हाँ हम आजाद हैं।” गिरीश पंकज ने कहा कि ” आज़ादी मेरे लिए जीने का सामान है,इश्वर का बरदान है !” अर्चना चाव ने कहा कि ” समय के साथ चलो सिर्फ इतना भर कह देने से कुछ नहीं होगा…!” प्रमोद तांबट ने कहा कि ” आज़ादी का फल भोगने की आज़ादी सब को होना चाहिए ।” उदय केशरी ने कहा कि “क्या भारतीय लोकतंत्र की दशा व दिशा तय करने वाली भारतीय राजनीतिक गलियारे के प्रति युवाओं के दायित्व की इति श्री केवल इस कारण हो गई, क्योकि यह गलियारा मुट्ठी भर पखंडियो और भ्रष्ट राजनीतिकों के सडांध से बजबजाने लगा है …!” खुशदीप सहगल ने कहा कि “दुनिया भर में मंदी की मार पड़ी हो लेकिन भारत में पिछले साल अरबपतियों की तादाद दुगने से ज़्यादा हो गई…पहले २४ थे अब ४९ हो गए हैं….वहीं ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ताजा सर्वे के मुताबिक भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या ६४ करोड़ ५० लाख है…ये देश की आबादी का कुल ५५ फीसदी है…!” अशोक मेहता ने कहा कि “अगर हम गौर करें तो ये पायेंगे कि हमने अपने देश को तो अंग्रेजों से आज़ाद करवा लिया, मगर यहाँ के लोग और उनकी सोच को हम अंग्रेजीपन से आजाद नहीं करवा पाए. आज भी हम उसी अंग्रेजीपन के गुलाम हैं. अपने स्कूल, ऑफिस, या सोसाइटी में तिरंगा फेहरा के हम अगर ये समझते हैं कि हमने आज़ादी हासिल कर ली है तो ये गलत है….!” संगीता पुरी ने कहा कि ” हर प्रकार की स्‍वतंत्रता प्राप्‍त करने के लिए , हर प्रकार की स्‍वतंत्रता को बनाए रखने के लिए नागरिकों के द्वारा अधिकार और कर्तब्‍य दोनो का पालन आवश्‍यक है , ये दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। स्‍वतंत्रता का अर्थ उच्‍छृंखलता या मनमानी नहीं होती ।” डा सुभाष राय ने कहा कि “जो समाज आजादी का अर्थ निरंकुशता, उन्मुक्ति या मनमानेपन के रूप में लगाता है, वह भी उसी असावधान पक्षी की तरह नष्ट हो जाता है। अराजकता हमेशा गुलामी या विनाश की ओर ले जाती है। सच्ची आजादी का मतलब ऐसे कर्म और चिंतन के लिये आसमान का पूरी तरह खुला होना है, जो समूचे समाज को, देश को लाभ पहुंचा सके।” प्रेम जनमेजय ने कहा कि ” पहले भी गरीब पिटता था और आज भी गरीबों को पीटने की पोरी आज़ादी है !” इसके अलावा इस महत्वपूर्ण परिचर्चा में शामिल होने वाले ब्लोगर थे -विनोद कुमार पाण्डेय ,एडवोकेट रणधीर सिंह सुमन,राजीव तनेजा , डा दिविक रमेश , दीपक शर्मा , शकील खान , सलीम खान , ललित शर्मा आदि ।
अयोध्या के हनुमानगढ़ी के पास ही ऊंचाई पर रामद्वार मंदिर के पुजारी चंद्र प्रसाद पाठक की व्यथा-कथा कुछ अलग अंदाज़ में सुनाया रबीश कुमार ने कस्बा पर दिनांक १२.०९.२०१० को । वहीं जिज्ञासा पर २४ सितंबर को प्रमोद जोशी ने कहा कि कॉमनवैल्थ खेल के समांतर अयोध्या का मसला काफी रोचक हो गया है। १० अक्तूबर को विचारार्थ पर राज किशोर ने कहा कि “बचपन से ही मैं नास्तिक हूं। फिर भी राम का व्यक्तित्व मुझे बेहद आकर्षित करता रहा है। वैसे, हिन्दू संस्कारों में पले बच्चे के लिए मिथकीय दुनिया में चुनने के लिए होता ही कितना है? राममनोहर लोहिया ने राम, कृष्ण और शिव की चर्चा कर एक तरह से महानायकों की ओर संकेत कर दिया है। पूजने वाले गणेश, लक्ष्मी और हनुमान को भी पूजते हैं। पर राम, कृष्ण और शिव की मोहिनी ही अलग है। इनकी मूर्ति जन-जन के मन में समाई हुई है। मैं अपने को इस जन का ही एक सदस्य मानता हूं। सीता का परित्याग और शंबूक की हत्या, ये दो ऐसे प्रकरण हैं, जो न होते, तो राम की स्वीकार्यता और बढ़ जाती। लेकिन इधर मेरा मत यह बना है कि महापुरुषों का मूल्यांकन उनकी कमियों के आधार पर नहीं, बल्कि उनकी श्रेष्ठताओं के आधार पर किया जाना चाहिए। मैं तो कहूंगा, अपने परिवार और साथ के लोगों के प्रति भी हमें यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। दूसरों की बुराइयों और कमियों में रस लेना मानसिक रुग्णता है।” भडास4मीडिया पर डा नूतन ठाकुर अयोध्या के लिए नेताओं की तरह मीडिया को भी जिम्मेदार ठहराया है । हमारी भी सुनो पर गुफरान सिद्दीकी ने पूछा है कि किसकी अयोध्या ?
जहां तक महंगाई जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों का प्रश्न है १४ जून २०१० को मनोज पर सत्येन्द्र झा कहते है कि ” मंहगाई पहले पैसे खर्च करवाती थी। अब माँ से बेटे को अलग कर के धर दे रही है। इस मंहगाई का. … ऐसी मानसिकता का क्या कहें ? मंहगाई केवल माँ को रखने में ही दिखाई देती है. …(यह एक लघुकथा है जो मूल कृति मैथिली में “अहींकें कहै छी” में संकलित ‘महगी’ से केशव कर्ण द्वारा हिंदी में अनुदित है )।१७ अगस्त २०१० को बाल सजग पर कक्षा-८ में पढ़ने वाले आशीष कुमार की बड़ी प्यारी कविता प्रकाशित हुई है … मंहगाई इतनी बढ़ी है मंहगाई । किसी ने की न जिसकी आवाज सुन मेरे भाई ॥ पूँछा आलू का क्या दाम है भइया । उसने बोला एक किलो का दस रुपया ॥ टमाटर का दाम वो सुनकर । … ०५ अगस्त २०१० को लोकमंच पर यह खबर छपी है कि मंहगाई पर सरकार वेबस है ।आरडी तैलंग्स ब्लॉग पर बहुत सुन्दर व्यंग्य प्रकाशित हुआ है जिसमें कहा गया है कि मंहगाई हमारे देश का गुण है, और हम अपना गुण नष्ट करने में लगे हैं। मैं तो चाह रहा हूं, हर चीज़ मंहगी हो जाए, यहां तक कि आलू भी…ताकि किसी को अगर आलू के चिप्स भी खिला दो, तो वो गुण गाता फिरे कि कितना अच्छा स्वागत किया। पैसे की कीमत भी तभी पता चलेगी, जब पैसा कम हो, और मंहगाई ज्यादा…। सारे रिश्ते नाते, मंहगाई पर ही टिके हैं… जिस दिन मंहगी साड़ी मिलती है, उस दिन बीवी भी Extra प्यार करती है… मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा कि वो जल्द से जल्द मंहगाई बढ़ाए, देश बढ़ाए…!”
आईये अब वर्ष की कुछ यादगार पोस्ट की चर्चा करते हैं , क्रमानुसार एक नज़र मुद्दों को उठाने वाले प्रमुख ब्लॉग पोस्ट की ओर-
ब्रजेश झा के ब्लॉग खंबा में ०१ जनबरी को प्रकाशित पोस्ट “आखिर भाजपा में क्यों जाऊं ? गोविन्दाचार्य ” , जंगल कथा पर ०२ जनवरी को प्रकाशित ऑनरेरी टाईगर का निधन , नयी रोशनी पर ०२ जनवरी को प्रकाशित सुधा सिंह का आलेख स्त्री आत्मकथा में इतना पुरुष क्यों ? ,तीसरा रास्ता पर 02 जनवरी को एक कंबल के लिए ह्त्या, अपराधी कौन ? , इंडिया वाटर पोर्टल पर पानी जहां जीवन नहीं मौत देता है , नुक्कड़ पर ०४ जनवरी को प्रतिभा कटियार का आलेख नीत्शे,देवता और स्त्रियाँ , हाशिया पर ०४ जनवरी को प्रकाशित प्रमोद भार्गव का आलेख कारपोरेट कल्चर से समृद्धिलाने का प्रयास , ०६ जनवरी को अनकही पर रजनीश के झा का आलेख बिहार विकास का सच (जी डी डी पी ) , ०७ जनवरी को उड़न तश्तरी पर सर मेरा झुक ही जाता है, ०७ जनवरी को चर्चा पान की दूकान पर में बात महिमावान उंगली की , ०७ जनवरी को नारी पर दोषी कौन ?,०८ जनवरी को निरंतर पर महेंद्र मिश्र का आलेख बाकी कुछ बचा तो मंहगाई और सरकार मार गयी , ०८ जनवरी को भारतीय पक्ष पर कृष्ण कुमार का आलेख जहर की खेती ,शोचालय पर चांदी के चमचे से चांदी चटाई ,हिमांशु शेखर का आलेख कब रुकेगा छात्रों का पलायन ,१० जनवरी को आम्रपाली पर हम कहाँ जा रहे हैं ? , १० जनवरी को उद्भावना पर थुरुर को नहीं शऊर , हाहाकार पर अनंत विजय का आलेख गरीबों की भी सुनो , अनाम दास का चिट्ठा पर १७ जनवरी को पोलिश जैसी स्याह किस्मत , टूटी हुई बिखरी हुई पर मेरी गुर्मा यात्रा ,१२ जनवरी को ज़िन्द्ज्गी के रंग पर पवार की धोखेवाज़ी से चीनी मीलों को मोटी कमाई, अज़दक पर प्रमोद सिंह का आलेख बिखरे हुए जैसे बिखरी बोली , विनय पत्रिका पर बोधिसत्व का आलेख अपने अश्क जी याद है आपको , पहलू पर २६ जनवरी को ठण्ड काफी है मियाँ बाहर निकालो तो कुछ पहन लिया करो , १२ जनवरी को तीसरी आंख पर अधिक पूँजी मनुष्य की सामाजिकता को नष्ट कर देती है , १३ जनवरी को उदय प्रकाश पर कला कैलेण्डर की चीज नहीं है , भंगार पर ९१ कोजी होम , कल की दुनिया पर बल्ब से भी अधिक चमकीली, धुप जैसी सफ़ेद रोशनी देने वाले कागज़ जहां चाहो चिपका लो , १० जनवरी को दोस्त पर शिरीष खरे का आलेख लड़कियां कहाँ गायब हो रही हैं , १२ जनवरी को हमारा खत्री समाज पर अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष कर रहा है ‘कडा’ शहर , १८ जनवरी को संजय व्यास पर बस की लय को पकड़ते हुए , नुक्कड़ पर कितनी गुलामी और कबतक , २१ जनवरी को गत्यात्मक चिंतन पर चहरे, शरीर और कपड़ों की साफ़-सफाई के लिए कितनी पद्धतियाँ है ?, ज़िन्दगी की पाठशाला पर किसी भी चर्चा को बहस बनने से कैसे रोकें ?, १८ जनवरी को क्वचिदन्यतोअपि……….! पर अपनी जड़ों को जानने की छटपटाहट आखिर किसे नहीं होती ? ,२१ जनवरी को प्राईमरी का मास्टर पर प्रवीण त्रिवेदी का आलेख यही कारण है कि बच्चे विद्यालय से ऐसे निकल भागते हैं जैसे जेल से छूटे हुए कैदी , २६ जनवरी को नुक्कड़ पर प्रकाशित अमिताभ श्रीवास्तव का आलेख मुश्किल की फ़िक्र और ३० जनवरी को मानसिक हलचल पर रीडर्स डाईजेस्ट के बहाने बातचीत ……..
जनवरी महीने के प्रमुख पोस्ट के बाद अब उन्मुख होते हैं फरवरी माह की ओर , प्रतिभा कुशवाहा की इस कविता के साथ , कि -
ओ! मेरे संत बैलेंटाइन
आप ने ये कैसा प्रेम फैलाया
प्रेम के नाम पर कैसा प्रेम “भार” डाला
आप पहले बताएं
प्यार करते हुए आप ने कभी
बोला था अपने प्रिय पात्र से
कि …..
आई लव यू…
यह कविता १४ फरवरी २०१० को ठिकाना पर प्रकाशित हुई , शीर्षक था वो मेरे वेलेन्टाय़इन …. यह दिवस भी हमारे समाज के लिए एक मुद्दा है , नि:संदेह !०२ फरवरी को आओ चुगली लगाएं पर गंगा के लिए एक नयी पहल ,०३ फरवरी को भारतनामा पर रहमान के बहाने एक पोस्ट संगीत की सरहदें नहीं होती , ०३ फरवरी को यही है वह जगह पर प्रकाशित आलेख राष्ट्रमंडल खेल २०१०-आखिर किसके लिए? ,खेल की खबरें पर शाहरूख का शिव सेना को जवाब , रोजनामचा पर अमर कथा का अंत , ०४ फ़रवरी को अजित गुप्ता का कोना पर अमेरिकी-गरीब के कपड़े बने हमारे अभिनेताओं का फैशन , पटियेवाजी पर ठाकुर का कुआं गायब , जनतंत्र पर माया का नया मंत्र, विश करो , जिद करो , दीपक भारतदीप की हिंदी सरिता पत्रिका पर प्रकाशित आलेख विज्ञापन तय करते हैं कहानी आलेख , ०५ फरवरी को कल्किऔन पर पेंड़ों में भी होता है नर-मादा का चक्कर, एक खोज , नारीवादी बहस पर स्त्रीलिंग-पुलिंग विवाद के व्यापक सन्दर्भ , ०५ फरवरी को लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन पर लोकसंघर्ष सुमन द्वारा प्रस्तुत प्रेम सिंह का आलेख साहित्य अकादमी सगुन विरोध ही कारगर होगा , ०२ फरवरी को राजतंत्र पर प्रकाशित आलेख हजार-पांच सौ के नोट बंद होने से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा , १४ फरवरी को कबाडखाना पर नहीं रहा तितली वाला फ्रेडी तथा २२ फरवरी को विचारों का दर्पण में आधुनिकता हमारे धैर्य क्षमता को कमजोर कर रही है आदि ।
मार्च में हिंदी ब्लॉग पर महिला आरक्षण की काफी गूँज रही । समाजवादी जनपरिषद, ध्रितराष्ट्र ,नया ज़माना आदि ब्लॉग इस विषय को लेकर काफी गंभीर दिखे । ०५ मार्च को नारी में ना..री..नारी ,०९ मार्च को वर्त्तमान परिस्थितियों पर पियूष पाण्डेय का सारगर्भित व्यंग्य आया मुझे दीजिये भारत रत्न …….,०६ मार्च को प्रतिभा की दुनिया पर बेवजह का लिखना, १० मार्च को यथार्थ पर क़ानून को ठेंगा दिखाते ये कारनामे ,१० मार्च को अक्षरश: में महिला आरक्षण ,१२ मार्च को ललित डोट कौम पर महिला आरक्षण,१४ मार्च को साईं ब्लॉग पर अरविन्द मिश्र का आलेख बैंक के खाते-लौकड़ अब खुलेंगे घर-घर आकर , १५ मार्च को प्रवीण जाखड पर उपभोक्ता देवो भव: , १८ मार्च को अनुभव पर शहर के भीतर शहर की खोज,१६ मार्च को काशिद पर कौन हसरत मोहानी ?,१८ मार्च को संवाद का घर पर उपभोक्ता जानता सब है मगर बोलता नहीं ,२३ मार्च को लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन पर अशोक मेहता का आलेख आतंकवाद की समस्या का समाधान आदि ।
ये तो केवल तीन महीनों यानी वर्ष के प्रथम तिमाही की स्थिति है , क्या आपको नहीं लगता कि हिंदी ब्लॉग जिसतरह मुद्दों पर सार्थक बहस की गुंजाईश बनाता जा रहा है , यह समानांतर मीडिया का स्वरुप भी लेता जा रहा है ? आईये इस बारे में प्रमुख समीक्षक रवीन्द्र व्यास जी की राय से रूबरू होते हैं ।
रवीन्द्र व्यास का मानना है कि “हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया फैल रही है, बढ़ रही है। इसे मिलती लोकप्रियता आम और खास को लुभा रही है। इसे संवाद के नए और लोकप्रिय माध्यम के रूप में जो पहचान मिली है उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि सीधे लोगों तक पहुँच कर आप उनसे हर बात बाँट सकते हैं, कह सकते हैं।”
इस तकनीक के नवीन युग में अपनी बात कहने के माध्यम भी बदल गये हैं पहले लोगों को इतनी स्वतन्त्रता नहीं थी कि वह अपनी बात को खुले तौर पर सभी के सामने तक पंहुचा सके लेकिन आज के इस तकनीकी विकास ने यह संभव कर दिया है इन्ही नए माध्यमों में एक नया नाम ब्लाग का भी है ये कहना है लखीमपुर खीरी के अशोक मिश्र का जो इसी वर्ष अगस्त में हिंदी ब्लॉगजगत से जुड़े हैं ,आईये चलते हैं उनके ब्लॉग निट्ठले की मजलिसमें, जहां इन्होने दिल्ली विश्वविद्यालय दक्षिण परिसर में पत्रकारिता पाठ्यक्रम से जुड़े छात्रों के ब्लाग की जानकारी दी है ।
दूसरी तिमाही के प्रमुख पोस्ट की चर्चा करें उससे पहले एक ऐसे ब्लॉग पर नज़र डालते हैं जिसपर इस तिमाही में आये तो केवल १२ पोस्ट किन्तु हर पोस्ट किसी न किसी विषय पर गंभीर वहस की गुंजाईश छोड़ता दिखाई दिया , संजय ग्रोवर के इस ब्लॉग का नाम है संवाद घर यानी चर्चा घर । इस घर में ब्लॉग की तो चर्चा नहीं होती , किन्तु जिसकी चर्चा होती है वह कई मायनों में महत्वपूर्ण है । इस पर चर्चा होती है समसामयिक मुद्दों की , समसामयिक जरूरतों की , समाज की, समाज के ज्वलंत मुद्दों की यानी विचारों के आदान-प्रदान को चर्चा के माध्यम से गंभीर विमर्श में तब्दील करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है इस तिमाही में इस ब्लॉग ने, यथा ०१ अप्रैल को फिर तुझे क्या पडी थी वेबकूफ ?,११ अप्रैल को बिन जुगाड़ के छापना , २२ मई को मोहरा अफवाहें फैलाकर….तथा २४ जून को टी वी के पहले टी वी के बाद आदि ।
वर्ष की दूसरी तिमाही में मेरी डायरी पर फिरदौस खान के कई यादगार पोस्ट देखने को मिले , यथा ३० मार्च को मुस्लिम मर्दों पर शरीया कानून क्यों नहीं लागू होता? ,२९ मई को “जान हमने भी गंबायी है वतन की खातिर” ,२७ जून को “लुप्त होती कठपुतली कला” आदि ।
इसके अलावा ०१ अप्रैल को रचना की धरती पर आलोचना की पहली आंख पर “विस्थापन का साहित्य “,०३ अप्रैल को अनिल पाण्डेय का आलेख क्या सानिया की शादी राष्ट्रीय मुद्दा है ?, लडू बोलता है ..इंजिनियर के दिल से पर आलेख सानिया तुम जहां भी रहो खुश रहो पुरुषों ने तुम्हारे लिए क्या किया है ? , एडी चोटी पर ना आना इस देश मेरी लाडो ,०४ अप्रैल को नयी रोशनी पर “भाषा में वर्चस्व निर्माण की प्रक्रिया , १५ अप्रैल को उठो जागो पर विज्ञान की नज़र से क्या पुनर्जन्म होता है ?,१७ अप्रैल को विचार विगुल पर कौन ख़त्म करेगा जातिवाद विचारों का दर्पण पर मीडिया खडी है कटोरा लेके , राजकाज पर शहीदों के शव पर जश्न यही है माओवाद ,१९ अप्रैल को कहाँ गयी वो घड़ों -सुराहियों की दुकानें , २१ अप्रैल को अमीर गरीब लोग पर अनिल पुसदकर का आलेख “जहां दिल ख़ुशी से मिला मेरा वहीं सर भी मैंने झुका दिया , २३ अप्रैल को बतंगड़ पर और भी खेल है इस देश में क्रिकेट के सिवा २६ अप्रैल को सोचालय पर समानांतर सिनेमा तथा २८ अप्रैल को काहे को ब्याहे विदेश पर फोन कुछ पलों के लिए गुणगा हो गया आदि यादगार पोस्ट पढ़े जा सकते हैं ।
यदि मई की बात करें तो ०३ मई को हंसा की कलम से पर एक आलेख आया शहरों के बीच भी है एक जंगल तथा ०६ मई को उपदेश सक्सेना का आलेख आया नुक्कड़ पर कि जनगणना है जनाब मतगणना नहीं एक गंभीर विमर्श को जन्म देता महसूस हुआ वहीं १४ मई को अल्पना पाण्डेय की कलाकृतियों से रूबरू हुए हिंदी ब्लॉग जगत के पाठक ब्लोगोत्सव-२०१० के माध्यम से ।०६ मई ko हलफनामा पर धंधे का मास्टर स्ट्रोक, ०७ मई को घुघूती बासूती पर क्या किसी के कहने पर मैं कलम का रूख बदल लूं , ०८ मई को धम्मसंघ पर पोर्तव्लेयर, पानी और काला पहाड़ , ०९ मई को अमित शर्मा पर कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति” ——— , ०९ मई को दिशाएँ पर मेरी डायरी का पन्ना -२, १० मई को स्वप्न मंजूषा अदा ने अपने ब्लॉग पर एक नया प्रयोग किया पोडकास्ट के माध्यम से ब्लॉग समाचार प्रस्तुत करने का , कल हो न हो पर धोनी का अवसान , ११ मई को वेद-कुरआन पर नियमों का नाम ही धर्म है , १२ मई को जंतर-मंतर पर शेष नारायण सिंह का आलेख मर्द वादी सोच के बौने नेता देश के दुश्मन हैं , १५ मई को आर्यावर्त पर धोनी की कप्तानी बरकरार , १४ मई को बलिदानी पत्रकार पर जातीय आधार पर जनगणना राष्ट्रहित में नहीं , १५ मई को शब्द शिखर पर शेर नहीं शेरनियों का राज ,२५ मई को हारमोनियम पर पी एम , प्रेस कोंफ्रेंस और पत्रकारिता,२७ मई को खबरिया पर कुछ कहता है मणिपुर , २७ मई को तीसरी आंख पर चिन्ता का विषय होना चाहिए सगोत्रीय विवाह, २८ मई को नटखट पर माया के आगे ओबामा फिस्स , २८ मई को दोस्त पर जंगल से कटकर सूख गए माल्धारी तथा ३१ मई को सत्यार्थ मित्र पर ये प्रतिभाशाली बच्चे घटिया निर्णय क्यों लेते हैं ? और हिमांशु शेखर पर प्रतिष्ठा के नाम पर को यादगार पोस्ट की श्रेणी में रखा जा सकता है ।
और प्रथम छमाही के आखिरी महीने जून की बात की जाए तो इस महीने में भी कुछ यादगार पोस्ट पढ़ने को मिले हैं , मसलन – मीडिया डॉक्टर पर आखिर हम लोग नमक क्यों नहीं कम कर पाते ? , तस्वीर घर पर संगेमरमर की नायाब इमारतों की धड़कन सुनो , अनबरत पर सांप सालों पहले निकल गया और लकीर अब तक पित रहे हैं , जुगाली पर क्या हम सामूहिक आत्महत्या की ओर बढ़ रहे हैं , नां जादू न टोना पर इस तरह से आ रही है मृत्यु, देश्नामा पर क्रोध अनलिमिटेड आदि ।
वर्ष की दूसरी तिमाही की एक महत्वपूर्ण घटना पर नज़र डाली जाए तो २३ मई को पश्चिमी दिल्ली के नांगलोई में सर दीनबंधु छोटूराम जाट धर्मशाला में दिल्ली हिन्‍दी ब्‍लॉगरों की एक बैठक संपन्न हुई । आभासी दुनिया के जरिए एक दूसरे से जुडे़ , समाज के विभिन्न वर्गों और देश के विभिन्न्न क्षेत्रों के लेखक और पाठक एक दूसरे के साथ साझे मंच पर न सिर्फ़ लिखने पढने तक सीमित रहे बल्कि उन्होंने आभासी रिश्तों के आभासी बने रहने के मिथकों को तोडते हुए आपस में एक दूसरे के साथ बैठ कर बहुत से मुद्दों पर विचार विमर्श किया। इस बैठक में लगभग ४० से भी अधिक ब्‍लॉगरों ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। शामिल होने वाले ब्‍लॉगर थे श्री ललित शर्मा, श्रीमती संगीता पुरी, श्री अविनाश वाचस्पति, श्री रतन सिंह शेखावत, श्री अजय कुमार झा, श्री खुशदीप सहगल,श्री इरफ़ान, श्री एम वर्मा, श्री राजीव तनेजा, एवँ श्रीमती संजू तनेजा, श्री विनोद कुमार पांडे , श्री पवन चन्दन , श्री मयंक सक्सेना, श्री नीरज जाट, श्री अमित (अंतर सोहिल), सुश्री प्रतिभा कुशवाहा जी, श्री एस त्रिपाठी, श्री आशुतोष मेहता, श्री शाहनवाज़ सिद्दकी ,श्री जय कुमार झा, श्री सुधीर, श्री राहुल राय, डॉ. वेद व्यथित, श्री राजीव रंजन प्रसाद, श्री अजय यादव ,अभिषेक सागर, डॉ. प्रवीण चोपडा,श्री प्रवीण शुक्ल प्रार्थी , श्री योगेश गुलाटी, श्री उमा शंकर मिश्रा, श्री सुलभ जायसवाल, श्री चंडीदत्त शुक्ला, श्री राम बाबू, श्री देवेंद्र गर्ग , श्री घनश्याम बागला, श्री नवाब मियाँ, श्री बागी चाचा आदि ।
एक वेहतरीन लेखक हैं दिनेश कुमार माली, जो पेशे से खनन-अभियंता हैं पर उन्हें नशा है लेखन का। सम्प्रति ओडिशा में कोल इंडिया की अनुषंगी कंपनी महानदी कोल-फील्ड्स लिमिटेड की खुली खदान सम्ब्लेश्वरी, ईब-घाटी क्षेत्र में खान-अधीक्षक के रूप में कार्यरत हैं। इनका एक ब्लॉग है जगदीश मोहंती की श्रेष्ठ कहानियां । उड़ीसा भारत के नक्सल प्रभावित प्रान्तों में एक है। सत्तर के दशक से लेकर आज तक इस खतरनाक समस्या से जूझते उड़ीसा के जनमानस में एक अलग छाप छोड़ने वाले इस आन्दोलन के कुछ अनकहे अनदेखे पक्ष को उजागर करने वाली यह कहानी लेखक का न केवल सार्थक व जीवंत प्रयास है, बल्कि भारतीय कहानियों में अपना एक स्वतन्त्र परिचय रखती है। ‘सचित्र विजया’ पत्रिका में छपने के बाद यह कहानीकार के कहानी संग्रह ‘बीज- बृक्ष – छाया’ में संकलित हुई है। लेखक जगदीश महंती द्वारा इस कहानी में किये गए शैली के नवीन प्रयोग इस कहानी को अद्वितीय बना देती है ।
अब आईये आपको मिलवाते हैं इस वर्ष के द्वितिय तिमाही में ब्लॉग जगत का हिस्सा बने एस.एम.मासूम से जो सेवा निवृत शाखा प्रवन्धक हैं और देश की मर्यादा, सना नियुज़ मुम्बई से जुड़े हैं । इनका iमानना है कि ब्लोगेर की आवाज़ बड़ी दूर तक जाती है, इसका सही इस्तेमाल करें और समाज को कुछ ऐसा दे जाएं, जिस से इंसानियत आप पे गर्व करे / यदि आप की कलम में ताक़त है तो इसका इस्तेमाल जनहित में करें” इन्होनें वर्ष -२०१० के मई महीने में अपना ब्लॉग अमन का पैगाम बनाया ,जिसमें सभी धर्म के लोगों को साथ ले के चलने की कोशिश जारी है . बहुत हद तक इसमें कामयाब भी रहे हैं ये । ये हमेशा जब किसीसे मिलते हैं तो यह सोंच के मिलते हैं कि मैं अपने जैसे इंसान से मिल रहा हूँ ना की किसी हिन्दू , मुसलमान सिख या ईसाई से, और ना यह की किसी अमीर से या ग़रीब से। ये जब किसी को पढ़ते हैं तो यह नहीं देखते कि कौन कह रहा है बल्कि यह देखते हैं कि क्या कह रहा है?’ इनके प्रमुख ब्लॉग हैं अमन का पैगाम, ब्लॉग संसार , बेजवान आदि ।
सबसे अहम् बात यह कि “अमन के पैग़ाम पे सितारों की तरह चमकें” श्रेणी में अलग अलग ब्लोगेर्स ने अपने शांति सन्देश “अमन का पैग़ाम ” से दिए जिनमें से २१ लेख़ और कविताएँ पेश की जा चुकी हैं..’और अनगिनत अभी पेश की जानी है। कोई भी व्यक्ति समाज में शांति कैसे कायम की जाए इस विषय पे अपने लेख़ ,कविता, विचार इन्हें भेज सकता है, उसको उस ब्लोगर के नाम, ब्लॉग लिंक और तस्वीर के साथ ये प्रस्तुत करते रहते हैं ।
जून महीने में एक और ब्लॉग आया नाज़-ए-हिंद सुभाष , ब्लोगर हैं जय दीप शेखर । जय दीप भूतपूर्व वायु सैनिक हैं और सम्प्रति भारतीय स्टेट बैंक में सहायक के पद पर कार्यरत हैं । इस ब्लॉग में मिलेंगे आपको नेताजी से प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष रुप से जुड़े वे तथ्य और प्रसंग, जिन्हें हर भारतीय को- खासकर युवा पीढ़ी को- जानना चाहिए, मगर दुर्भाग्यवश नहीं जान पाते हैं।
इस चर्चा को विराम देने से पूर्व एक एक चर्चाकार की चर्चा , क्योंकि यह ब्लोगर अपने सामाजिक सरोकार रूपी प्रभामंडल के भीतर ही निवास करता है और अच्छे-अच्छे पोस्ट की चर्चा करके हिंदी ब्लॉग जगत को समृद्ध करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । नाम है शिवम् मिश्रा और काम सत्यम शिवम् सुन्दरम से ब्लॉग जगत को अवगत कराना यानी नाम और काम दोनों दृष्टि से साम्य । इन्होनें ब्लोगिंग मार्च’ २००९ में शुरू की … अपना पहला ब्लॉग बनाया … बुरा भला के नाम से … तब से ले कर आज तक ये हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय हैं हाँ बीच में नवम्बर २००९ से ले कर अप्रैल २०१० तक ये इस ब्लॉग जगत से दूर रहे पर केवल तकनीकी कारणों से ! आज ये ९ ब्लोगों से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं जिस में से कि २ ब्लॉग इनके है बाकी सामूहिक ब्लॉग है ! जिन-जिन ब्लोग्स से ये जुड़े हैं उनमें प्रमुख है बुरा भला , जागो सोने वाले, सत्यम नियुज़ मैनपुरी , लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन , नुक्कड़ , ब्लॉग4वार्ता , ब्लॉग संसद , मन मयूर और दुनिया मेरी नज़र से । इन प्रतिभाशाली ब्लोगरों को मेरी शुभकामनाएं !
प्रथम छमाही के यादगार आलेखों/रचनाओं तथा महत्वपूर्ण पोस्ट की चर्चा के बाद आईये चलते हैं दूसरी छमाही में प्रकाशित कुछ यादगार पोस्ट की ओर । दूसरी तिमाही के उत्तरार्ध में हिंदी ब्लॉग टिप्स ने यह जानकारी दी की १०० से अधिक फॉलोवर वाले ब्लॉग की संख्या १०० तक पहुँच चुकी है , यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ, किन्तु यह स्थिति १८ सितम्बर तक की थी । ३१ दिसंबर तक की स्थिति पर गौर करें तो व्यक्तिगत ब्लॉग की श्रेणी में हिंदी ब्लॉग टिप्स १००० प्रशंसकों के संमूह में तथा शब्दों का सफ़र ५०० प्रशंसकों के समूह में एकलौते नज़र आये, जबकि १०० से ४०० प्रशंसकों वाले ब्लॉग की सूची में लगभग १२५ के आसपास , जिनमें से प्रमुख है -महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर,हरकीरत ‘ हीर, दिल की बात छींटें और बौछारें,ताऊ डाट इन,काव्य मंजूषा,मेरी भावनाएं,व्योम के पार ,GULDASTE – E – SHAYARI,लहरें,ज़िन्दगी…एक खामोश सफ़र,पाल ले इक रोग नादां…,Rhythm of words…,प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा,अंतर्द्वंद्व ,Hindi Tech Blog – तकनीक हिंदी में,उच्चारण,नीरज,मेरी कलम – मेरी अभिव्यक्ति,चक्रधर की चकल्लस,अमीर धरती गरीब लोग,गुलाबी कोंपलें,गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष,रेडियो वाणी,उड़न तश्तरी,कुछ मेरी कलम से,वीर बहुटी,ज्ञान दर्पण,मेरी रचनाएँ,चाँद, बादल और शाम,KISHORE CHOUDHARY,सुबीर संवाद सेवा,स्पंदन,संवेदना संसार,प्राइमरी का मास्टर,स्वप्न मेरे,” अर्श “,आरंभ,कुश की कलम,झरोखा ,अमृता प्रीतम की याद में…..,ज़ख्म…जो फूलों ने दिये,आदत.. मुस्कुराने की,मनोरमा,महाशक्ति,अलबेलाखत्री .कॉम ,कुमाउँनी चेली,शस्वरं,ज्योतिष की सार्थकता,मसि-कागद,हिंदीब्लॉगरोंकेजनमदिन,कवि योगेन्द्र मौदगिल,ललितडॉटकॉम,संवाद घर ,गठरी,उल्लास: मीनू खरे का ब्लॉग,क्वचिदन्यतोअपि,शब्द-शिखर,घुघूतीबासूती,संचिका,देशनामा,मेरी छोटी सी दुनिया,जज़्बात,बिखरे मोती,चाँद पुखराज का,अनामिका की सदायें,मनोज,मुझे कुछ कहना है,सच्चा शरणम ,दिशाएं,आनंद बक्षी,नारदमुनि जी,BlogsPundit by E-Guru Rajeev,ज़िंदगी के मेले,अलग सा ,बेचैन आत्मा,काव्य तरंग,मेरी दुनिया मेरे सपने,सरस पायस,नवगीत की पाठशाला,पिट्सबर्ग में एक भारतीय,काव्य तरंग,मुझे शिकायत हे,अदालत,काजल कुमार के कार्टून,अजित गुप्‍ता का कोना,हृदय गवाक्ष,आज जाने कि जिद न करो ,अंधड़,गीत मेरी अनुभूतियाँ,एक आलसी का चिठ्ठा,महावीर , रचना गौड़ ’भारती’ की रचनाएं,एक नीड़ ख्वाबों,ख्यालों और ख्वाहिशों का,कल्पनाओं का वृक्ष,ZEAL, मेरा सागर, कुछ एहसास ‘सतरंगी यादों के इंद्रजाल,वटवृक्ष,परिकल्पना,मुसाफिर हूँ यारों,कुछ भी…कभी भी..,ज्ञानवाणी,आदित्य (Aaditya), लावण्यम्` ~अन्तर्मन्`,समयचक्र,मेरे विचार, मेरी कवितायें,पराया देश,मानसिक हलचल,”सच में!” आदि।
कुछ ब्लॉग जो सामूहिक लेखन से या संग्रहित सामग्री से चलते हैं और जिनके वर्ष-२०१० तक १००० से ज़्यादा प्रशंसक हो चुके हैं, उनमें प्रमुख हैं -भड़ास blog, इसके अलावा १००से ९९९ प्रशंसकों वाले सामूहिक/सामुदायिक ब्लॉग की सूची में स्थान बनाने में सफल रहे -रचनाकार,चिट्ठा चर्चा,नारी, नुक्कड़, TSALIIM,हिन्दीकुंज, Science Bloggers’ Association, हिन्दुस्तान का दर्द, चर्चा मंच, माँ ! ,चोखेर बाली, क्रिएटिव मंच-Creative Manch, ब्लॉग 4 वार्ता, ब्लॉगोत्सव २०१०, लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन,कथा चक्र,”हिन्दी भारत”,चर्चा हिन्दी चिट्ठों की, मुहल्ला लाईव , कबाड़खाना आदि।
३१ दिसंबर तक के आंकड़ों के आधार पर Shobhna: The Mystery ९२ प्रशंसकों ,मा पलायनम ! ९५ प्रशंसकों ,THE SOUL OF MY POEMS ९५ प्रशंसकों ,आवाज़ ९६ प्रशंसकों,मानसी ९९ प्रशंसकों के साथ निकटतम स्थिति में रहे हैं ।
बड़ों की चर्चा के बाद आईये बच्चों की ओर उन्मुख होते हैं । बच्चों की बात ही निराली होती है। फिर बच्चों से जुड़े ब्लॉग भी तो निराले हैं। अब तो बाकायदा इनकी चर्चा प्रिंट-मीडिया में भी होने लगी है। ‘ हिंदुस्तान’ अख़बार के दिल्ली संस्करण में १६ सितम्बर, २०१० को प्रकाशित भारत मल्होत्रा के लेख ‘ब्लॉग की क्रिएटिव दुनिया’ में बच्चों से जुड़े ब्लॉगों की इस वर्ष भरपूर चर्चा हुई है । अक्सर विश्लेषण के क्रम में बच्चों का ब्लॉग छूट जाता रहा है , किन्तु इस वर्ष पहली बार किसी नन्हे ब्लोगर (अक्षिता पाखी )को वर्ष का श्रेष्ठ नन्हा ब्लोगर घोषित किया गया और उनकी रचनात्मकता को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया गया इसलिए आईये कुछ नन्हे ब्लोगरों के ब्लॉग पर नज़र डालते हैं ।
जब बड़ों के प्रशंसक इतने ज्यादा हैं तो बच्चे भला कैसे पीछे रह सकते हैं । १०० से ज्यादा प्रशंसकों के समूह में शामिल बाल ब्लॉग सूची में इस वर्ष केवल चार नन्हे ब्लोगर शामिल हुए इनके ब्लॉग है क्रमश: – पाखी , आदित्य ,सरस पायस और मेरी छोटी सी दुनिया……!
इस वर्ष के चर्चित नन्हे ब्लोगरों की सूची में शामिल रहे हैं जो ब्लॉग उनके नाम है- आदित्य, पाखी की दुनिया , नन्हे सुमन , बाल संसार , नन्हा मन , क्रिएटिव कोना , बाल दुनिया, बाल सजग, बाल मन , चुलबुली,नन्ही परी, मेरी छोटी सी दुनिया, माधव , अक्षयांशी, LITTLE FINGER , मैं शुभम सचदेव आदि ।
बच्चों के ब्लॉग को प्रमोट करने हेतु एक चर्चा मंच भी है जिसका नाम है बाल चर्चा मंच जो इन ब्लोग्स की निरंतर चर्चा करके उत्साह वर्द्धन का कार्य करता रहा पूरे वर्ष भर । इस ब्लॉग के ८४ प्रशंसक हैं ।
आज की चर्चा को विराम देने से पूर्व आपको एक ऐसे ब्लॉग से रूबरू कराने जा रहे हैं ,जों एक मंच है और समर्पित है भारत चर्चा को। भारत से सम्बन्धित किसी भी विषय पर आपके विचार चर्चा के लिये आमन्त्रित हैं। भारत विश्व की सर्वाधिक धनी और प्राचीन सभ्यता का स्थान है, जिसका अस्तित्व सदियो तक रहा है, तथा जिसके प्रमाण हमे आज भी मिलते हैं। प्राचीन भारत को विश्व ज्ञान गुरु कहा जाता है। गणित और विज्ञान की कई विधाओं की जन्म-स्थली है यह भूमि। इस मंच पर आप भारत के स्वर्णिम इतिहास के बारे मे अपने विचार रख सकते हैं। भारत तो अनगिनत विविधताओ से भरा देश है। इसे पूर्णतः जानना तो असंभव प्रतीत होता है, परन्तु यह एक प्रयास है और इस प्रयास मे अपना योगदान दीजिए।
विगत वर्ष कतिपय तकनिकी ब्लोग्स के द्वारा हिंदी ब्लोगिंग की सेहत को दुरुस्त करने में अहम् भूमिका अदा की गयी , कुछ समय के साथ अनियमित भी हुए और कुछ काल कलवित भी, किन्तु कुछ ब्लोग्स की भूमिका महत्वपूर्ण बनी रही लगातार , उसमें प्रमुख है श्री रवि रतलामी का ब्लॉग छीटें और बौछारें, आशीष खंडेलवाल का ब्लॉग हिंदी ब्लॉग टिप्स, विनय प्रजापति नज़र का ब्लॉग TECH PREVUE यानी तकनीकी द्रष्टा आदि । इन ब्लोग्स को हिन्दी चिट्ठाजगत में तकनीकी चिट्ठाकारी को लोकप्रिय बनाने हेतु जाना जाता है।
इस वर्ष जनवरी के उत्तरार्द्ध में कई वर्षों की अनियमितता के बाद अचानक श्रीश शर्मा यानी “epandit” का आगमन हुआ । उल्लेखनीय है कि ‘ई-पण्डित’ का आरम्भ २००६ में अधिक से अधिक अन्तर्जाल प्रयोक्ताओं को हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रति आकर्षित करने, नए लोगों की सहायता करने तथा हिन्दी में तकनीकी ब्लॉगिंग को प्रमोट करने (और चिट्ठाकार की गीकी खुजली मिटाने) के लिए किया गया। ‘ई-पण्डित’ तकनीक, हिन्दी कम्प्यूटिंग, हिन्दी टाइपिंग, इनपुट विधियों पर बहुत से लेख लाया। विशेषकर कम्प्यूटर पर यूनिकोड हिन्दी टाइपिंग नामक लेख बहुत ही सराहा गया एवं विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। य़ह पहला लेख था जिसमें कम्प्यूटर पर हिन्दी टाइपिंग के विभिन्न तरीकों को सुव्यवस्थित तरीके से डॉक्यूमेंट किया गया।
‘ई-पण्डित’ महज एक ब्लॉग नहीं एक विचार था, एक दृष्टिकोण, एक स्वप्न कि हिन्दी को भी इण्टरनेट पर अपना उपयुक्त स्थान मिले। हिन्दी की स्थिति तब भी और अब भी अन्य देशों की भाषाओं यथा चीनी, अरबी आदि से बहुत पीछे थी और है। चिट्ठाकारों का स्वप्न था कि इण्टरनेट पर अपनी भाषा हिन्दी की भी अलग दुनियाँ हो। ‘ई-पण्डित’ इसी दिशा में एक अदना सा प्रयास था। दूसरा मुख्य उद्देश्य था कि आम हिन्दी भाषी जिसकी अंग्रेजी तक किञ्चित कारणों से पहुँच नहीं है उसे अपनी भाषा में सरल रुप से तकनीकी जानकारी मिले।
दूसरे उस समय हिन्दी में कोई भी तकनीकी ब्लॉग नहीं था। कुछ चिट्ठाकार यदा-कदा तकनीकी पोस्टें लिखते रहते थे परन्तु कोई सम्पूर्ण, संगठित और विषय आधारित चिट्ठा नहीं था। कुछेक चिट्ठे तकनीकी विषयों पर शुरु हुए पर दो-चार पोस्टें लिखकर गायब भी हो गए। कारण था कि उस समय हिन्दी में तकनीकी पोस्टों को विशेष पढ़ा नहीं जाता था, न तो पर्याप्त हिट्स मिलते थे और न पर्याप्त टिप्पणियाँ। इस कारण कोई भी तकनीकी विषयों पर लिखता न था। यद्यपि इससे कई बार मनोबल गिरता था परन्तु कुछ साथियों के हौसला बढ़ाने और कुछ ही सही लेकिन अच्छी फीडबैक के चलते लेखन जारी रहा। साथ ही एक उम्मीद थी की शायद इससे से प्रेरित होकर भविष्य में कुछ अन्य लोग भी तकनीकी ब्लॉग लिखने लगें। खैर धीरे-धीरे समय के साथ बदलाव आया और ‘ई-पण्डित’ प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय होता गया। इनके अज्ञातवास पर जाने के समय ‘ई-पण्डित’ की लोकप्रियता चरम पर थी और रविरतलामी जी के बाद ‘ई-पण्डित’ के सबसे ज्यादा फीड सबस्क्राइबर थे।
नवम्बर २००७ के दौरान ‘ई-पण्डित’ किञ्चित कारणों से अवकाश (या अज्ञातवास) पर चले गए तथा दो वर्ष पश्चात २७ जनवरी २०१० को वापस आये । खैर हार्दिक खुशी की बात है कि हिन्दी चिट्ठाजगत अब भाषाई अल्पसंख्यक ब्लॉगरों का कुनबा न रहकर विशाल कॉम बन गया है। पुराने समय तकनीक सम्बन्धी अपडेट्स जानने के लिए अंग्रेजी चिट्ठों का रुख करना पड़ता था पर अब बहुत सी खबरें हिन्दी चिट्ठों से ही मिल जाती हैं। उम्मीद है यह स्थिति धीरे-धीरे और सुधरेगी।
मेरी जानकारी में कई तकनीकी चिट्ठे हैं जो वर्ष-२०१० में धमाल मचाते रहे मगर सबकी चर्चा करना संभव नही । तो आईये कुछ चिट्ठों पर प्रकाशित तकनीकी पोस्ट जो मुझे अत्यन्त उपयोगी लगे उसी की चर्चा करते हैं -पहला चिट्ठा है “Raviratlami Ka Hindi Blog ” इस ब्लॉग पर इस वर्ष प्रकाशित १४३ पोस्ट्स में से कुछ पोस्ट जो सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ उनमें प्रमुख है – हिंदी पी डी एफ फाईलों को यूनिकोड वर्ड डाक्यूमेंट में कैसे जोड़ें ?, ५० मजेदार कम्प्यूटिंग कहावतें , सावधान ऊर्जा वचत के लिए अर्थ आवर बन सकता है’डिजास्टर आवर’ , अपने हिंदी ऑफिस में जोडीये एक लाख शब्दों की कस्टम डिक्सनरी , बच्चों के लिए ख़ास -लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम -क्विमो लिनक्स-तथा ऑफिस सूट ….., ये कम्फर्ट स्टेशन क्या होता है ?, ब्लॉग : आईये आचार संहिता को मारे गोली आदि ।
इस वर्ष सर्वाधिक चर्चित तकनीकी ब्लॉग की श्रेणी में रवि रतलामी के ब्लॉग बाद जिस ब्लॉग का नाम शीर्ष फलक पर दिखाई दिया उसमें पहला नाम आता है आशीष खंडेलवाल का , जिनके ब्लॉग का नाम है हिंदी ब्लॉग टिप्स । इसपर प्रकाशित कुछ पोस्ट काफी लोकप्रिय हुए, जिनमें से प्रमुख है – ब्लोग्स पर कॉमेंट से जुडी दो नयी सुविधाएं , सौ से ज्यादा फौलोवर वाले हिंदी चिट्ठों का शतक , एक घंटे में गूगल से ३४९७.६२ रुपये कमाने का मौक़ा आदि ।
इस वर्ष उन्मुक्त पर तकनीकी बातें कम देखने को मिली, किन्तु इसके एक पोस्ट ने मुझे आकर्षित किया वह है हमने भगवान शिव को याद किया और आप मिल गए …! तकनीकी दस्तक पर इस वर्ष मात्र एक पोस्ट प्रकाशित हुआ । इस बार दस्तक ने चार साल पूरे किये , दस्तक पर एक सार्गाभित पोस्ट देखने को मिला यथा IRCTC अब नए अंदाज़ में । अंकुर गुप्ता के हिंदी ब्लॉग पर इस वर्ष कुछ सार्थक और सारगर्भित पोस्ट देखने को मिले यथा -फायरफौक्स अब नए रूप में, फेसबुक को जी मेल से जोड़ें , अंतरजाल.इन , तकनीकी चिट्ठे का शुभारंभ , देशभक्ति संगीत डाऊनलोड करें आदि . kunnublog – Means Total Entertainment पर भी इस वर्ष काफी अच्छे-अच्छे पोस्ट पढ़ने को मिले यथा मेरा नया साईट : किसी भी साईट को अनब्लोक करे , ब्लॉग/ साईट का बैक लिंक कैसे बनाएं, पेज रैंक बढायें , जी मेल का वैक अप बनाकर कंप्यूटर पर सेव करें आदि ।
तकनीकी जानकारी देने में हिंद युग्म का ई -मदद इस वर्ष काफी सक्रिय तो नहीं रहा किन्तु इस वर्ष प्रकाशित उसके दोनों पोस्ट कई अर्थों में काफी महत्वपूर्ण रहा । यथा चैट करके जानिये अंग्रेजी शब्दों के हिंदी अर्थ तथा कृतिदेव ०१० से यूनिकोड से कृतिदेव ०१० प्रवर्तक आदि ।
परिकल्पना के विश्लेषण में विगत वर्ष-२००९ में सर्वाधिक सक्रिय क्षेत्र छत्तीसगढ़ के सक्रीय शहर रायपुर के खरोरा के रहने वाले नवीन प्रकाश २४ अगस्त २००९ को अपना नया चिटठा हिंदी टेक ब्लॉग लेकर आये और ब्लॉग जगत को समर्पित करते हुए कहा कि “बस एक कोशिश है -जो थोडी बहुत जानकारियां मुझे है मैं चाहता हूँ कि आप सभी के साथ बांटी जाए। “
इस वर्ष इस चिट्ठे ने हिंदी ब्लोगिंग में पूरी दृढ़ता के साथ अपना कदम बढाया है और लगातार अपने महत्वपूर्ण विचारो /जानकारियों से हिन्दी चिट्ठाकारी को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।इसके अलावा इधर उधर की , ब्लॉग मदद, टेक वार्ता , ज्ञान दर्पण , तकनीकी संवाद आदि ब्लॉग की भी सक्रियता और प्रासंगिकता बनी रही है इस वर्ष ।
तकनीकी चिट्ठों की प्रासंगिकता और उद्देश्यपूर्ण सक्रियता के सन्दर्भ में तकनीकी चिट्ठाकार विनय प्रजापति का मानना है कि “हिन्दी चिट्ठाजगत से जुड़े सभी ब्लोगर हिन्दी का मान बढ़ाकर भारत का गौरव बढ़ा रहे हैं जबकि अंग्रेजी कोस-कोस में व्याप्त हो चुकी है और उसके बिना तो किसी साक्षात्कार में दाल ही नहीं गलती। हिन्दी के प्रचार-प्रसार को लेकर हम जो भी कर रहे हैं, वह बहुत ही सराहनीय है पर हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जो सब कुछ जानते हैं लेकिन तकनीकि सरल स्रोत उपलब्ध न होने के कारण अपने पृष्ठों पर प्रस्तुतिकरण ठीक से नहीं कर पा रहे हैं, जिससे पाठक के मन से उन्हें पढ़ने की रुचि जाती रहती है और वह टिप्पणी करके या उससे भी बचकर निकल जाता है। ऐसे में तकनीकी जानकारी प्रदान करने वाले चिट्ठों की आवश्यकता महसूस होती है । तकनीकी चिट्ठों के आगमन में लगातार इजाफा हो रहा है और यह इजाफा आने वाले दिनों में हिंदी ब्लोगिंग को निश्चित रूप से समृद्ध करने में अहम् भूमिका निभाएगा , इसमें कोई संदेह नहीं है । “
यहाँ एक और प्रतिभाशाली ब्लोगर की चर्चा आवश्यक प्रतीत हो रही है वे हैं संजय वेंगाणी , जिनके ब्लॉग का नाम है जोग लिखी यानी तरकश.कॉम , इसपर भी समय-समय पर तकनिकी जानकारियाँ दी जाती रही है ।वर्तमान में भारत के अहमादाबाद (कर्णावती) शहर से मीडिया कम्पनी चला रहे हैं , हिन्दी के प्रति मोह राष्ट्रवादी विचारधारा की छाया में पनपा. इन्हें जिस काम में सबसे ज्यादा आनन्द मिलता है वे है अभिकल्पना और वेब-अनुप्रयोगों का ।
परिवर्तन दुनिया का आईना है इसलिए हर वर्ष परिस्थितियाँ बदली हुई होती है । परिस्थितियों का अंतर्द्वंद्व , सोचने-समझने का नज़रिया, वैचारिक दृष्टिकोण और कहने की शैली में बदलाव साफ़ दिखाई देता है । हमारा समाज नयी-नयी चीजें अपना तो रहा है , साथ ही बहुत पुरानी चीजें छोड़ भी रहा है । बीता हुआ २०१० भी इसका गवाह रहा है और आने वाले दिनों में भी यह दौर कायम रहेगा । कुछ लोग कहते हैं कि ब्लॉग डायरी का दूसरा रूप है और दूसरी तरफ ब्लोगर की निजता पर प्रश्न भी उठाये जाते हैं । कुछ ब्लोगर पोस्ट के माध्यम से सफल नहीं हो पाते तो अनावश्यक प्रलाप में निमग्न रहते हैं ताकि मुख्यधारा में बने रह सके । कुछ तो जानबूझकर विवाद को हवा देते हैं और कुछ अपनी सहूलियतों के हिसाब से अपने लिए पैमाने तय कर लेते हैं । यही है हिंदी ब्लोगिंग की सच्चाई ।
सदी के दूसरे दशक का पहला साल २०११ नयी उम्मीदें और उमंगें लेकर आ रहा है । इस वर्ष जनवरी में विकिपीडिया अपनी दसवीं वर्षगाँठ मनायेगा । नेट पर दुनिया के लगभग सभी देशों में उपलब्ध यह विश्वकोष पढ़ने -लिखने वालों के लिए वरदान है । मार्च में सोशल नेटवर्क ट्विटर अपने पांच साल पूरा करेगी । संयोग से उसी दिन विश्व कविता दिवस भी मनाया जाएगा । इसी महीने दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण में जुटे लोग एक घंटे तक बिजली के उपकरणों को बंद करके ‘अर्थ आवर मनाएंगे । उद्देश्य होगा उर्जा की बचत करना और जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को दर्शाना । जून के महीने में ‘आई बी एम ‘ अपनी सौवीं वर्षगाँठ मनाने के साथ हीं यह साबित कर देगी वक़्त के साथ बदलते रहना जरूरी है ।
भारतीय परिदृश्य में ब्लोगिंग की भूमिका की बात करें तो इस वर्ष के प्रारंभ में पांच राज्यों में प्रस्तावित चुनाव पर ब्लोगिंग की ख़ास नज़र देखी जा सकती है । राष्ट्रीय राजधानी के सौ साल पूरे हो रहे हैं इस पर भी हिंदी ब्लॉग की नज़र रहेगी इस वर्ष खासकर दिल्ली के ब्लोगरों की । खट्टी-मीठी यादों के साथ वर्ष-२०१० को हम सभी ने अलविदा कह दिया किन्तु भ्रष्टाचार का सवाल हमें पूरे साल सालता रहा , इस वर्ष भी यह मुद्दा ब्लॉग जगत का हिस्सा बना रह सकता है ऐसी संभावना है । मौजूदा ब्लोगिंग परिदृश्य में विरोधी पक्ष को नीचा दिखाने और उसके मुकावले ज्यादा टिप्पणियाँ बटोरने का सिलसिला अभी जारी रह सकता है , क्योंकि हिंदी ब्लोगिंग अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं हो पाया है । विगत वर्ष के आखिरी क्षणों में प्याज ने लगाई महंगाई में आग , टमाटर और पेट्रोल के ऊँचे दामों से खाद्य मुद्रास्फीति १४.४४ फीसदी तक पहुंची अगले वर्ष में भी रियायत की संभावना कम है , यह भी मुद्दा छाया रहेगा अगले वर्ष ब्लोगिंग में ।
वर्ष-२०१० ब्लोगर गहमागहमी, ब्लोगर मिलन,ब्लोगर संगोष्ठी और ब्लॉग बबाल से भरपूर रहा । हिंदी ब्लोगिंग के चहुमुखी विकासमें भले ही अवरोध की स्थिति बनी रही पूरे वर्ष भर, किन्तु बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका अपने इस आकलन को लेकर करीब-करीब एकमत है कि आने वाला कल हमारा है यानी हिंदी ब्लोगिंग का है ।
इसकों लेकर किन्तु-परन्तु हो सकता है कि हिंदी ब्लोगिंग का विकास अन्य भाषाओं की तुलना में धीमा रहा , लेकिन इसे लेकर किसी को संशय नहीं होना चाहिएकि हिंदी चिट्ठाकारी उर्जावान ब्लोगरों का एक ऐसा बड़ा समूह बनता जा रहा है जो किसी भी तरह की चुनौतियों प़र पार पाने में सक्षम है और उसने अपने को हर मोर्चे पर साबित भी किया है । वस्तुत: विगत वर्ष की एक बड़ी उपलब्धि और साथ ही आशा की किरण यह रही है कि ब्लॉग के माध्यम से वातावरण का निर्माण केवल वरिष्ठ ब्लोगरों ने ही नहीं किया है , अपितु एक बड़ी संख्या नए और उर्जावान ब्लोगरों की हुई है , जिनके सोचने का दायरा बहुत बड़ा है । वे सकारात्मक सोच रहे हैं , सकारात्मक लिख रहे हैं और सकारात्मक गतिविधियों में शामिल भी हो रहे हैं ।
साहित्य और पत्रकारिता से गायब हो चुके यात्रा वृतांतों ने ब्लॉग में अपनी जगह तलाशनी शुरू कर दी है । इसी तलाश के क्रम में इस वर्ष जून के महीने में ललित शर्मा लेकर आये चलती का नाम गाडी । भुखमरी पर चर्चा में अब मीडिया की दिलचश्पी भले ही न रह गयी हो किन्तु ब्लॉग में इस समस्या पर गंभीर लेखन की शुरुआत हो चुकी है यह जानकर संतोष होता है । ब्लॉग का नाम है दोस्त । सचमुच यह दोस्त है संवेदनाओं का , दोस्त है उन भूखों का जो अपनी आवाज़ उचित प्लेटफोर्म पर नहीं उठा पाते , दोस्त है उन बच्चों का जो कुपोषण के कारण हर वर्ष एक बड़ी संख्या में काल कलवित होने की स्थिति में हैं । सवालों से जूझते-टकराते इस ब्लॉग से नए वर्ष में कुछ और सार्थक पहल की उम्मीद की जा सकती है । अब तो इंटरनेट पर लहलहाने लगी है फसलें, सिखाये जाने लगे हैं गेहूं-धान आदि । शिव नारायण के ब्लॉग खेत खलियान ने विगत वर्ष की तरह इस वर्ष भी कुछ सार्थक पोस्ट दिए हैं अपने ब्लॉग पर । उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर फतहपुर से प्रवीण त्रिवेदी वर्त्तमान शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलते हुए इस वर्ष भी नज़र आये , उनका ब्लॉग ‘प्राईमरी का मास्टर’ कई सार्थक और सकारात्मक बहस का गवाह बनने में सफल रहा । संस्मरणों से भरी ब्लॉग की दुनिया में बेजान मुकदमों में सामाजिक प्रसंग ढुन्ढने में सफल रहा इस वर्ष भी अदालत ।
हिंदी ब्लॉग अंतर्विरोधों से भरा है, क्योंकि हम ऐसे ही हैं । एक ओर हम विदेशी संस्कृति से अपनी संस्कृति को बचा कर रखना चाहते हैं , तो दूसरी तरफ उसी को पूरी तरह अपनाने में अपना गौरव समझते हैं । ऐसे में एक ब्लॉग से साक्षात्कार सुखद रहा इस वर्ष । ब्लॉग का नाम है लोकरंग और ब्लोगर हैं गाजियावाद की प्रतिमा वत्स। वहीं अनुभवों के आधार पर बाज़ार के उत्पादों की विवेचना करता एक गृहणी का ब्लॉग ‘सवा सेर शॉपर’ इस वर्ष पूरी तरह अनियमित रहा । ऐसे ब्लॉग का अनियमित होना शालता रहा पूरे वर्ष भर । विगत वर्ष विश्लेषण के दौरान एक आदिवासी ब्लोगर की चर्चा हुई थी और ख़ुशी जाहिर की गयी थी कि जब एक आदिवासी ब्लोगर बन गया है तो प्राचीन मानवीय संस्कृति को ग्लोबलाईज करने में मदद मिलेगी, किन्तु हरिराम मीणा के ब्लॉग आदिवासी जगत पर केवल पांच पोस्ट ही प्रकाशित हुए । पर ये पाँचों पोस्ट आदिवासी संस्कृति को वयां करता हुआ कई महत्वपूर्ण विमर्श को जन्म देने में सफल रहा ।
अंतरजाल पर कुछ वेब पत्रिकाएं हैं जो ब्लॉग को प्रमोट करने की दिशा में सक्रिय है, उसमें प्रमुख है सृजनगाथा, अभिव्यक्ति, अनुभूति, दि सन्दे पोस्ट, पाखी ,एक कदम आगे, गर्भनाल , पुरवाई, प्रवासी टुडे, अन्यथा, भारत दर्शन, सरस्वती पत्र आदि , किन्तु साहित्य कुञ्ज इस वर्ष पूरी तरह अनियमित रहा । इस वर्ष एक और वेब पत्रिका पांडुलिपि का आगमन हुआ जो अनेक साहित्यिक सन्दर्भों को प्रस्तुत करके कम समय में ही अपनी पहचान बनाने में सफल रही है । यह प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका है , जो पूरी तरह अंतरजाल पर सक्रिय नहीं हो पायी है ।
विशुद्ध साहित्यिक सन्दर्भों को सहेजने में पूरे वर्ष मशगूल रहा प्रभात रंजन का ब्लॉग जानकी पुल । बना रहे बनारस पर पूरे वर्ष गंभीर साहित्यिक सामग्रियां परोसी जाती रही , साथ ही रचनाकार ,कृत्या ,साखी ,स स्वरं ,आखर कलश,नेगचार,कांकड़,अनुसिर्जन, शब्दों का उजाला,साहित्य शिल्पी, कागद हो तो हर कोई बांचे,अनुवाद घर,गवाक्ष, सेतु साहित्य,नयी कलम उभरते हस्ताक्षर ,पंचमेल ,उद्धव जी ,पढ़ते-पढ़ते , मोहल्ला लाईव, नया ज़माना , जनपक्ष , जनशब्द , हुंकार , तनहा फलक , वटवृक्ष , पुरविया , काव्य प्रसंग , स्वप्नदर्शी , हरी मिर्च , सरगम ,हरकीरत हीर , संचिका , उदय प्रकाश , शहर के पैगंबरों से कह दो , शहरोज का रचना संसार , कतरनें , समीक्षा , हाशिया , अनकही, आलोचक , जिरह , नास्तिकों का ब्लॉग , नयी रोशनी , दिल की बात , कुछ औरों की कुछ अपनी , पुनर्विचार , हमजवान , गीता श्री , हारमोनियम , रिजेक्ट माल , मेरी डायरी, शरद कोकाश , शुशीला पुरी , दिलें नादाँ , पाल ले एक रोग नादाँ , संजय व्यास ,डा कविता किरण , मुक्तिवोध ,जिंदगी-ए-जिंदगी , हमारी आवाज़ ,जोग लिखी, नयी बात ,मेरी भावनाएं ,खिलौने वाला घर,हिंद युग्म हिंदी कविता, पद्मावली ,जिंदगी एक खामोश सफ़र, , काव्य तरंग,राजभाषा हिंदी, ज्ञान वाणी,यात्रा एक मन की, लम्हों का सफ़र,एहसास अंतर्मन के ,पलकों के सपने,अनुशील,आदत मुस्कुराने की,जज्वात ज़िंदगी और मैं,इक्कीसवीं सदी का इन्द्रधनुष, बस यूँ हीं , रसबतिया, मेरी बात, न दैनयम न पलायनम, उल्लास मीनू खरे का ब्लॉग,अमन का पैगाम,जो मेरा मन कहे,शीखा दीपक, स्वप्न मेरे ,सरोकार,आवाज़ दो हमको,दिल का दर्पण ,सच में, फुलबगिया,चाँद की सहेली, रचना रवीन्द्र, कासे कहें, कुछ मेरी कलम से, नीरज,शाश्वत शिल्प,अनामिका की सदायें , नजरिया , मेरी छोटी सी दुनिया ,हास्य कवि अलवेला खत्री, भाषा सेतु , हुंकार , काजल कुमार के कार्टून , शब्दों का सफ़र ,आखर माया,मेरा सामान ,बचपन, बेचैनआत्मा, अनवरत,कबाडखाना,आवाराहूँ,अनकहीबातें,अलफ़ाज़,ज़िन्दगीकेमेले,चवन्नीचैप,कविताएँ ,बरगद ,क्वचिदन्यतोअपि……….! , अनुनाद , कस्बा , नुक्कड़ ,कर्मनाशा आदि ब्लोग्स पर कतिपय रचनात्मक पोस्ट देखने को मिले हैं इस वर्ष ।
इसप्रकार सक्रियता में अग्रणी रहे श्री समीर लाल समीर और सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी चिट्ठाकारी में अपनी उद्देश्यपूर्ण भागीदारी में अग्रणी दिखे डा अरविन्द मिश्र । रचनात्मक आन्दोलन के पुरोधा रहे श्री रवि रतलामी , जबकि सकारात्मक लेखन के साथ-साथ हिन्दी के प्रचार -प्रचार में अग्रणी दिखे श्री शास्त्री जे सी फिलिप । विधि सलाह में अग्रणी रहे श्री दिनेश राय द्विवेदी और तकनीकी सलाह में अग्रणी रहे श्री आशीष खंडेलवाल । वहीं अनूप शुक्ल समकालीन चर्चा में अग्रणी दिखे और दीपक भारतदीप गंभीर चिंतन में । इसीप्रकार चिट्ठा चर्चा में अग्रणी रहे मनोज कुमार और राकेश खंडेलवाल कविता-गीत-ग़ज़ल में अग्रणी दिखे इस वर्ष ।
महिला चिट्ठाकारों के विश्लेषण के आधार पर हम जिन नतीजों पर पहुंचे है उसके अनुसार साहित्यिक गतिविधियों को प्राण वायु देने में अग्रणी रही रश्मि प्रभा । काव्य रचना में अग्रणी रहीं रंजना उर्फ़ रंजू भाटिया वहीं कथा-कहानी में अग्रणी रहीं निर्मला कपिला , ज्योतिषीय परामर्श में अग्रणी रही संगीता पुरी । टिप्पणियों में अग्रणी रही संगीता स्वरुप वहीं रचनात्मक पहल में अग्रणी रही स्वप्न मंजूषा अदा । समकालीन सोच में अग्रणी रही डा दिव्या श्रीवास्तव यानी ZEAL और गंभीर लेखन में अग्रणी दिखी रश्मि रविजा । सांस्कृतिक जागरूकता में अग्रणी दिखी अल्पना वर्मा वहीं समकालीन सृजन में अग्रणी रही आकांक्षा यादव । डा कविता वाचकनवी सांस्कृतिक दर्शन में अग्रणी रही और नन्हे ब्लोगर की श्रेणी में अग्रणी रही अक्षिता पाखी । इसी क्रम में एक बात और बताना चाहूंगा कि अल्पना देशपांडे इस वर्ष सर्वाधिक चर्चित चित्रकार के रूप में लोकप्रिय हुई , उन्हें लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रिकोर्ड में स्थान मिला, साथ ही वन्दना ने चर्चा मंच के माध्यम से अपना एक अलग मुकाम बनाने में सफल रही ।
प्रतिभाशाली लेखन में सर्वाधिक योगदान देने वालों में श्री सुभाष राय,दिगंबर नासवा,अलवेला खत्री,खुशदीप सहगल,राजीव तनेजा,गिरीश बिल्लोरे मुकुल,महफूज अली, मिथिलेश दुबे,केवलराम,डा सुशील बाकलीवाल,सुरेश चिपलूनकर, हिमांशुपाण्डेय, शिवम् मिश्र ,रेखा श्रीवास्तव ,रचना,उदय,रणधीर सिंह सुमन,मनोज कुमार,डा टी एस दाराल,राम त्यागी,के के यादव ,सतीश पंचम,परमजीत सिंह बाली, संजय ग्रोबर, सतीश सक्सेना, कुमार राधारमण, डा ऋषभ देव शर्मा, घनश्याम मौर्या, डा श्याम गुप्त, जय कुमार झा , संजीत त्रिपाठी, प्रियरंजन पालीवाल,उन्मुक्त, प्रमोद तांबट,अमित कूमार यादव,डॉ महेश सिन्हा ,जाकिर अली रजनीश ,हरीश गुप्त,प्रकाश गोविन्द,संजय झा, संजय भास्कर,संजीव तिवारी,प्रवीण त्रिवेदी,प्रवीण पाण्डेय,राज कुमार ग्वालानी , सुदर्शन ,सिद्धेश्वर, बसंत आर्य ,ओम आर्य, पंकज मिश्र,पवन चन्दन,नीलम प्रभा, मानव मेहता,अविनाश चन्द्र, राजीव कुमार ,शाहिद मिर्ज़ा शाहिद,पंकज त्रिवेदी,राजेश उत्साही,दीपक मशाल,एम वर्मा,सुनील गज्जानी,मुकेश कुमार सिन्हा,नरेन्द्र व्यास नरेन्,पंकज उपाध्याय, सत्य प्रकाश पाण्डेय,अमलेंदु उपाध्याय,ओम पुरोहित कागद, प्रकाश सिंह अर्श,विवेक रस्तोगी,राजेश उत्साही,यशवंत सिंह,राजेन्द्र स्वर्णकार,यशवंत मेहता,देव कुमार झा,सूर्यकांत गुप्ता ,पंकज सुबीर, नीरज गोस्वामी,गौतम राज ऋषि,रवि कान्त पाण्डेय, डा मनोज मिश्र,सलिल शर्मा (चला बिहारी ब्लोगर बनने ),रतन सिंह शेखावत,राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ ,अरविन्द श्रीवास्तव ,प्रवीण शाह,गौरव,सुमन सिन्हा,अभियान भारतीय,प्रतुल,सुज्ञ,अमितशर्मा,महेंद्र वर्मा ,रजनीश तिवारी,विजय माथुर,मयंक भारतद्वाज,सत्यम शिवम्,अपर्णा मनोज भटनागर,दीपक बाबा,विना श्रीवास्तव,कविता रावत,उषा राय,सुरेश यादव, प्रबल प्रताप सिंह,डा महेंद्र भटनागर, तोशी गुप्ता, गगन शर्मा, प्रेम सागर सिंह,अनुराग शर्मा,राजीव
महेश्वरी ,भूषण,आशीष,एस.एम.मासूम,कौशलेन्द्र,कुवंरकुशुमेश,अमितओम,अभिषेक,करणसमस्तीपुरी,डॉअनुराग,राजभाटिया,भारतीय नागरिक,स्मार्ट इन्डियन,डा रूप चन्द्र शास्त्री मयंक,सलीम खान,डा अनिता कुमार, श्रीमती अजित गुप्ता,वन्दना गुप्ता, वन्दना अवस्थी दुबे,सरस्वती प्रसाद, वाणी शर्मा, प्रीति मेहता ,शोभना चौरे,शिखा वार्शनेय ,सदा,रचना,साधना वैद्य,आशा जोगलेकर ,अंशुमाला,सदा,डॉ नूतन निति,इस्मत जैदी,फिरदौस खान ,वाणी गीत,गिरिजा कुलश्रेष्ठ,प्रतिभा कटियार, मीनू खरे, अलका सर्बत मिश्र,मनविंदर भिन्बर,रंजना सिंह,सीमा सिंघल,अराधना चतुर्वेदी मुक्ति, अपराजिता कल्याणी,शेफाली पाण्डेय, ज्योत्सना पाण्डेय,नीलम पुरी, रिज़वाना कश्यप,शमा, रानी विशाल और प्रतिभा कुशवाहा आदि के नाम इस वर्ष शीर्ष पर रहे ।इनके सिवा बहुत से लेखक एवं लेखिका है जो हिंदी भाषा और विभिन्न विषयों पर अच्छी पकड़ रखते हैंऔर ब्लोगिंग के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को धार देने की दिशा में सक्रिय हैं ।
वर्ष -२०१० में श्री दीपक भारतदीप जी के द्वारा अपने ब्लॉग क्रमश: ….. दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका …शब्दलेख सारथी …..अनंत शब्दयोग ……दीपक भारतदीप की शब्द योग पत्रिका …..दीपक बाबू कहीन …..दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका …..दीपक भारतदीप की ई पत्रिका …..दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका …..दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका ……दीपक भारतदीप की शब्द ज्ञान पत्रिका …..राजलेख की हिंदी पत्रिका ….दीपक भारत दीप की अभिव्यक्ति पत्रिका …दीपक भारतदीप की शब्द प्रकाश पत्रिका …..आदि के माध्यम से पुराने चिट्ठाकारों के श्रेणी में सर्वाधिक व्यक्तिगत ब्लॉग पोस्ट लिखने का गौरव प्राप्त किया है ।
इस वर्ष रचनात्मकता के प्रति कटिबद्धता पारुल चाँद पुखराज का …पर देखी गयी । इस ब्लॉग पर पहले तो गंभीर और गहरी अभिव्यक्ति की साथ कविता प्रस्तुत की जाती थी , किन्तु अब गहरे अर्थ रखती गज़लें सुने जा सकती है । सुश्री पारुल ने शब्द और संगीत को एक साथ परोसकर हिंदी ब्लॉगजगत में नया प्रयोग कर रही हैं , जो प्रशंसनीय है ।
वर्ष-२०१० में हास्य को सपर्पित चिट्ठों में सर्वाधिक अग्रणी चिट्ठा रहा ” ताऊ डोट इन ” इस ब्लॉग ने सक्रियता-सफलता और सरसता का जो कीर्तिमान स्थापित किया है वह शायद अबतक किसी भी ब्लॉग को प्राप्त नहीं हुआ होगा । अपनी चुटीली टिप्पणियों के कारण यह ब्लॉग इस वर्ष लगातार सुर्ख़ियों में बना रहा ।इस ब्लॉग की सर्वाधिक रचनाएँ चिट्ठाकारों को केंद्र में रखकर प्रस्तुत की जाती रही और कोई भी ब्लोगर इनके व्यंग्य बाण से आहत होकर न मुस्कुराया हो , ऐसा नहीं हुआ ….यानी यह ब्लॉग वर्ष के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग की कतार में अपना स्थान बनाने में सफल हुआ ।
चिट्ठाकारी में अपने ख़ास अंदाज़ और स्पस्टवादिता के लिए मशहूर हास्य कवि एवं सपर्पित चिट्ठाकार श्री अलवेला खत्री परिकल्पना के लिए विशेष साक्षात्कार देते हुए सीधी बात के अंतर्गत कहा कि- “साहित्य अकादमी की तरह ब्लोगिंग अकादमियां भी बननी चाहियें , जिस प्रकार देहात तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से प्रकाशित होने वाले हिन्दी प्रकाशनों को विशेष मदद मिलती है उसी तर्ज़ पर दूर दराज़ तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के ब्लोगर्स को विशेष सहायता मिलनी ही चाहिए।”
हास्य कवि अलवेला खत्री ने अपनी चुटीली टिप्पणियों से इस वर्ष पाठकों को सर्वाधिक आकर्षित किया । इसके अलावा वर्ष-२०१० में हास्य-व्यंग्य के दो चिट्ठों ने खूब धमाल मचाया पहला है श्री राजीव तनेजा का हंसते रहो । आज के भाग दौर , आपा धापी और तनावपूर्ण जीवन में हास्य ही वह माध्यम बच जाता है जो जीवन में ताजगी बनाये रखता है । इस दृष्टिकोण से राजीव तनेजा का यह ब्लॉग वर्ष-२०१० में हास्य का बहुचर्चित ब्लॉग होने का गौरव हासिल किया है । इनके एक पोस्ट “झोला छाप डॉक्टर ” को वर्ष का श्रेष्ठ व्यंग्य पोस्ट का अलंकरण प्राप्त हुआ है इस वर्ष । के. एम. मिश्र का सुदर्शन हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समाज की विसंगतियों पर प्रहार करने में पूरी तरह सफल रहा इस वर्ष , किन्तु राजीव तनेजा की तुलना में इस ब्लॉग की सक्रियता में थोड़ी शिथिलता देखी गयी ।
सांस्कृतिक नगर वाराणसी के डा अरविन्द मिश्र और राजनैतिक नगरी दिल्ली के अविनाश वाचस्पति अपने स्पष्टवादी दृष्टिकोण के साथ-साथ विभिन्न चिट्ठों पर अपनी तथ्यपरक टिप्पणियों के लिए लगातार चर्चा में बने रहे । डा० अमर कुमार ने इस वर्ष टिप्पणियों के माध्यम से खूब धमाल मचाया । -रवीश कुमार ने महत्वपूर्ण चिट्ठों के बारे में लगातार प्रिंट मिडिया में लिखकर पाठकों को खूब आकर्षित किया । पुण्य प्रसून बाजपेयी अपनी राजनीतिक टिप्पणियों तथा तर्कपूर्ण वक्तव्यों के लिए लगातार चर्चा में बने रहे । एक वरिष्ठ मार्गदर्शक की भूमिका में इस वर्ष दिखे रवि रतलामी ,शास्त्री जे सी फिलिप,दिनेश राय द्विवेदी, जी के अवधिया, गिरीश पंकज, ज्ञान दत्त पाण्डेय, निर्मला कपिला,अनिता कुमार , मसिजीवी आदि ।
हिंदी ब्लोगिंग के लिए सबसे सुखद बात यह रही कि इस वर्ष हिंदी चिट्ठों कि संख्या २२००० के आसपास पहुंची विगत वर्ष की तरह इस बार भी वर्ष का सर्वाधिक सक्रीय क्षेत्र रहा छतीसगढ़ । वर्ष का सर्वाधिक सक्रीय शहर रहा रायपुर । विगत दो वर्षों में सर्वाधिक पोस्ट लिखने वाले नए चिट्ठाकार रहे थे डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक , किन्तु इस बार सर्वाधिक पोस्ट लिखने का श्रेय गया लोकसंघर्ष को । विगत वर्ष की तरह इस बार भी वर्ष में सर्वाधिक टिपण्णी करने वाले चिट्ठाकार रहे श्री समीर लाल । विगत वर्ष-२००९ में हिंदी चिट्ठों की चर्चा करने वाला चर्चित सामूहिक चिटठा था चिट्ठा चर्चा किन्तु इस वर्ष मार्च में आया एक नया चर्चा ब्लॉग “ब्लॉग4वार्ता” ने पोस्ट, चर्चा और लोकप्रियता में चिट्ठा चर्चा से ज्यादा प्रखर दिखा । इसने महज नौ महीनों में २९३ पोस्ट प्रकाशित करके एक नयी मिसाल कायम की, जबकि लगभग तीन दर्जन योगदानकर्ता होने के वाबजूद चिट्ठा चर्चा पर १२ महीनों में केवल १९९ पोस्ट प्रकाशित हुए ।
उल्लेखनीय है कि वर्ष-२०१० में चिट्ठा चर्चा के ६ वर्ष पूरे हुए, यह एक सुखद पहलू रहा हिंदी ब्लोगिंग के लिए, क्योंकि वर्ष-२००४ में ज़ब इसकी शुरुआत हुई थी, तब उस समय हिन्दी ब्लॉगजगत मे गिने चुने ब्लॉगर ही हुआ करते थे। उस समय हिन्दी ब्लॉगिंग को आगे बढाने और उसका प्रचार प्रसार करने पर पूरा जोर था, इसलिए चिट्ठा चर्चा ब्लोगिंग को एक नयी दिशा देने में सफल हुआ, किन्तु विगत वर्षों में इस सामूहिक चिट्ठा पर ठहराव की स्थिति देखी गयी है । यही कारण है कि ब्लॉग4वार्ता अपनी निष्पक्ष गतिविधियों के कारण इस वर्ष अग्रणी बनने में सफल हुआ ।
उल्लेखनीय है कि ललित शर्मा नें पहली वार्ता १० मार्च २०१० की टेस्ट पोस्ट में की ,जबकि पहली (आफ़िसियल) वार्ता ११ मार्च २०११ को ना कोई खर्चा-पढ़ने को मिलेगी ब्लॉग चर्चा —- लेकर आए यशवंत मेहता । इस वार्ता के सदस्य के तीसरे रूप में आए राजीव तनेजा ,उसके बाद संगीतापुरी ने भी ब्लॉग4वार्ता के मंच पर शुरुआत की, उनके द्वारा नए ब्लोगरों की सर्वाधिक चर्चा की गयी । केवल पांच दिनों के अन्दर ही ब्लॉग4वार्ता ने अपना असर दिखानें लगी और ब्लॉग जगत में एक अलग स्थान बनाने में सफल हुई । १६ मार्च को गिरीश बिल्लोरे मुकुल नें चर्चा आरम्भ की,फिर इससे जुड़े राजकुमार ग्वालानी के साथ-साथ सूर्यकान्त गुप्ता ,१५ अप्रैल तक ताऊ रामपुरिया भी आ पहुंचे, फ़िर आया जून का महीना….. “रोज वार्ता लगेगी” के संकल्प पर सभी अडिग थे फलत: रोजाना वार्ता लगती रही। फ़िर वार्ताकार के रूप में आये शिवम मिश्र …. और उन्होनें व्यर्थ वार्ताओं से क्या लाभ लगाकर अपनी पारी की शुरुआत की।११ नवम्बर को ब्लॉग4वार्ता परिवार में इंट्री हुईनवोदित ब्लोगर रुद्राक्ष पाठक की …तत्पश्चात इस टीम से अजय कुमार झा भी जुड़ गए … फ़िर २३ नवम्बर को देव कुमार झा भी ब्लॉग4वार्ता के परिवार में शामिल हो गए । इसप्रकार लोग साथ आते गए और कारवां बनाता गया ! इसी का नतीजा है महज नौ महीनों में ३०० के आसपास पोस्ट (२९३ ) !यही है इस सामूहिक चर्चा ब्लॉग की सबसे बड़ी उपलब्धि,जबकि सर्वाधिक समर्थकों वाला व्यक्तिगत तकनीकी ब्लॉग बना रहाविगत वर्ष की तरह इस वर्ष भी हिंदी ब्लॉग टिप्स ।
इस वर्ष साहित्य-संस्कृति और कला को समर्पित अत्यधिक चिट्ठों का आगमन हुआ, जिसमें प्रमुख है कवियित्री रश्मि प्रभा के द्वारा संपादित ब्लॉग “वटवृक्ष ” । चिट्ठों कि चर्चा करते हुए इस वर्ष मनोज कुमार ज्यादा मुखर दिखे । चुनौतीपूर्ण पोस्ट लिखने में इस बार महिला चिट्ठाकार पुरुष चिट्ठाकार की तुलना में ज्यादा प्रखर रहीं । इस वर्ष मुद्दों पर आधारित कतिपय ब्लॉग से हिंदी पाठकों का परिचय हुआ । मुद्दों पर आधारित नए राजनीतिक चिट्ठों में सर्वाधिक अग्रणी रहा – लोकसंघर्ष …….आदि ।
इस वर्ष का सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा रहा -कॉमनवेल्थ गेम, अयोध्या प्रकरण, विभूति नारायण और रवीन्द्र कालिया प्रकरण, भ्रष्टाचार, घोटाला, मंहगाई आदि ।
वर्ष-२०१० में मेरी निगाह कई ऐसे ब्लॉग पर गयी, जहां स्तरीय शब्द रचनाएँ प्रस्तुत की गयी थी !शब्द का साहित्य के साथ वही रिश्ता है जो ब्लॉग के साथ है !ब्लॉग हमारी इच्छाओं की वह भावभूमि है जहां पहचान का कोई संकट नहीं होता, अपितु विचारों की श्रेष्ठता का बीजारोपण होता है, भावनाओं का विस्तार होता है और परस्पर स्नेह-संवंधों का आदान-प्रदान !
वर्ष-२०१० में कुछ ऐसे ब्लॉग से मैं रूबरू हुआ जिसमें सृजन की जिजीविषा देखी गयी वहीं कुछ सार्थक करने की ख्वाहिश भी !जिसमें जागरूकता और सक्रियता भी देखी गयी तथा जीवन के उद्देश्यों को समझते हुए अनुकूल कार्य करते रहने की प्रवृति भी ! इन ब्लोगरों ने अपने चिंतन को इतना स्पष्ट बनाए रखा कि किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह इसे न ढक पाए ! ये जो कुछ भी निर्णय करे उसमें उद्देश्यों की स्पष्टता रहे और एकाग्रता की सघनता भी !इस प्रवृति को आदर्श प्रवृति कहते हैं तो ऐसे ब्लोगर को आप क्या कहेंगे ?
आदर्श ब्लोगर !
यही न ?
वर्ष -२०१० में हिन्दी ब्लॉगजगत के लिए सबसे बड़ी बात यह रही कि इस दौरान अनेक सार्थक और विषयपरक ब्लॉग की शाब्दिक ताकत का अंदाजा हुआ । अनेक ब्लोगर ऐसे थे जिन्होनें लेखन के दौरान अपने चंदीली मीनार से बाहर निकलकर जीवन के कर्कश उद्घोष को महत्व दिया , तो कुछ ने भावनाओं के प्रवाह को । कुछ ब्लोगर की स्थिति तो भावना के उस झूलते हुए बटबृक्ष के समान रही जिसकी जड़ें ठोस जमीन में होने के बजाय अतिशय भावुकता के धरातल पर टिकी हुयी नजर आयी । जीवन के कर्कश उद्घोष को महत्व देने वाले प्रखर ब्लोगरों में इस वर्ष ज्यादा सार्थक और ज्यादा सकारात्मक नज़र आये शब्दों के सर्जक अजीत वाडनेकर , जिनका ब्लॉग है – शब्दों का सफर । अजीत कहते हैं कि- “शब्द की व्युत्पति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नजरिया अलग-अलग होता है । मैं भाषा विज्ञानी नही हूँ , लेकिन जब उत्पति की तलाश में निकालें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नज़र आता है । “अजीत की विनम्रता ही उनकी विशेषता है । वर्ष-२०१० में इनके ब्लॉग पर प्रकाशित २२४ पोस्टों में से जिन-जिन पोस्ट ने पाठकों को सर्वाधिक आकर्षित किया उनमें से प्रमुख है पहले से फौलादी हैं हम… , फोकट के फुग्गे में फूंक भरना , जड़ से बैर, पत्तों से यारी ,भीष्म, विभीषण और रणभेरी ,[नामपुराण-6]नेहरू, झुमरीतलैया, कोतवाल, नैनीताल ….. आदि !
शब्दों का सफर की प्रस्तुति देखकर यह महसूस होता है की अजीत के पास शब्द है और इसी शब्द के माध्यम से वह दुनिया को देखने का विनम्र प्रयास करते हैं . यही प्रयास उनके ब्लॉग को गरिमा प्रदान करता है .सचमुच यह ब्लॉग नही शब्दों का अद्भुत संग्राहालय है, असाधारण प्रभामंडल है इसका और इसमें गजब का सम्मोहन भी है ….!
इस श्रेणी का दूसरा ब्लॉग है कर्मनाशा !
कर्मनाशा !
विंध्याचल के पहाड़ों से निकल कर काफ़ी दूर तक उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा उकेरने वाली यह छुटकी-सी नदी अंतत: गंगा में मिल जाती है किन्तु आख्यानों और लोक विश्वासों में इसे अपवित्र माना गया है ! आखिर कोई भी नदी कैसे हो सकती है अपवित्र? इस ब्लॉग से जुड़े शब्दों के सर्जक सिद्धेश्वर का कहना है कि “अध्ययन और अभिव्यक्ति की सहज साझेदारी की नदी है कर्मनाशा …..!”
“खोजते – खोजते
बीच की राह
सब कुछ हुआ तबाह।
बनी रहे टेक
राह बस एक…!”
ये पंक्तियाँ सिद्धेश्वर ने अपने ब्लॉग पर लिखे १० फरवरी-२०१० को, जो हिंदी ब्लोगिंग के उद्देश्यों को रेखांकित कर रही है !इसे यदि हिंदी ब्लोगिंग हेतु पञ्च लाईन के रूप में इस्तेमाल किया जाए तो शायद किसी को भी आपत्ति नहीं होगी ,क्योंकि मानव जीवन से जुड़े विविध विषयों को मन के परिप्रेक्ष्य में देखना ही इस ब्लॉग की मूल अवधारणा है ! उपरोक्त दोनों शब्दकार कबाडखाना से जुड़े हैं और श्रेष्ठ कबाडियों की श्रेणी में आते हैं !
शब्द प्राणवान होते हैं,गतिमान होते हैं और इसे गति प्रदान करता है ब्लॉग !इस तथ्य को जिन ब्लोगरों ने दृढ़ता के साथ प्रतिष्ठापित किया उनमें प्रमुख हैं – क्रिएटिव मंच-Creative Manch ….एक ऐसा मंच जहां आप पहुँच कर सृजनशीलता का सच्चा सुख अनुभव करेंगे । इस ब्लॉग के मुख्य संयोजक हैं प्रकाश गोविन्द और उनके प्रमुख सहयोगी हैं मानवी श्रेष्ठा, अनंत , श्रद्धा जैन ,शोभना चौधरी , शुभम जैन और रोशनी साहू ।
इस ब्लॉग से जुड़े चिट्ठाकारों का शरू से यह प्रयास रहा है कि कुछ सार्थक करने का प्रयास किया जाए ! आप कोई भी पोस्ट देख सकते हैं भले ही परिलक्षित न हो किन्तु अत्यंत मेहनत छुपी है हर एक पोस्ट में !साज-सज्जा के लिहाज से आम तौर पर किसी के लिए ऐसी पोस्ट तैयार करना संभव नहीं है ब्लॉग जगत में जैसा कि कहा जाता है यहाँ प्रतिक्रियाएं लेन-देन के अंतर्गत होती हैं ! ऐसे माहौल में ‘क्रिएटिव मंच’ की लोकप्रियता हतप्रभ करती है क्योंकि ‘क्रिएटिव मंच’ कभी कहीं जाकर प्रतिक्रिया नहीं देता ! इसके बावजूद भी किसी भी पोस्ट पर २५ – ३० प्रतिक्रियाएं आना आम बात है !
इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो हमारे लिए प्रेरणा के प्रकाशपुंज हैं । हमें ग़लत करने से वे बचाते हैं और सही करने की दिशा में उचित मार्गदर्शन देते हैं । ऐसे लोग हमारे प्रेरणा स्त्रोत होते हैं । हमारे लिए अनुकरनीय और श्रधेय होते हैं। हिन्दी ब्लॉग जगत की कमोवेश जमीनी सच्चाईयां भी यही है।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके विचार तो महान होते हैं, कार्य महान नही होते । कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके कार्य तो महान होते हैं विचार महान नही होते । मगर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके कार्य और विचार दोनों महान होते हैं । हमारे कुछ हिन्दी ब्लोगर भी इसी श्रेणी में आते हैं जिनकी उपस्थिति मात्र से बढ़ जाती है नए चिट्ठों की गरिमा ।
वर्ष-२०१० में सकारात्मक प्रस्तुति को आधार मानते हुए कुछ ऐसे ब्लॉग का चयन किया है,जिसपर अनुपातिक रूप से पोस्ट तो कम प्रकाशित हुए किन्तु पोस्ट की प्रासंगिकता बनी रही , इसमें साहित्यिक ब्लॉग भी हैं और सामाजिक-सांस्कृतिक भी …………… जिनमें प्रमुख है -
सदा का (सद़विचार) / रमण कॉल का ब्लॉग (इधर उधर की) / युनुस खान का (रेडियो वाणी) / रविश कुमार का (कस्बा qasba ) / डा आशुतोष शुक्ल का (सीधी खरी बात..) / मनोज कुमार का (मनोज) /अमरेन्द्र त्रिपाठी का (कुछ औरों की , कुछ अपनी …)/ प्रेम प्रकाश का ब्लॉग (पूरबिया) / डा रूप चन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ का (शब्दों का दंगल) / राजीव ठेपडा का ब्लॉग (दखलंदाज़ी) / यशवंत माथुर का (जो मेरा मन कहे) / विजय माथुर का (विद्रोही स्व-स्वर में….) / अशोक कुमार पाण्डेय का (जनपक्ष) /रश्मि प्रभा- रवीन्द्र प्रभात का (वटवृक्ष) /रवि रतलामी का (रचनाकार) /मनीष कुमार का (एक शाम मेरे नाम)/ अमितेश का (रंगविमर्श) / आना का ब्लॉग (कविता) / (Lucknow Bloggers’ Association लख़नऊ ब्लॉगर्स असोसिएशन) / ललित कुमार का (राइटली एक्सप्रेस्ड) / पारुल पुखराज का (…….चाँद पुखराज का……) / अनूप शुक्ल का (फुरसतिया) / एस एम मासूम का (अमन का पैग़ाम) / मनोज कुमार का (राजभाषा हिंदी) / अमीत-निवेदिता का (बस यूँ ही) /डा पवन कुमार मिश्र का ब्लॉग (पछुआ पवन (pachhua पवन) / विनीता यशस्वी का (यशस्वी) / जीतेन्द्र चौधरी का (मेरा पन्ना) / केवल राम का (चलते -चलते ….!) / सुमनिका का (सुमनिका) / मनोज कुमार का (विचार) / परमेन्द्र सिंह का (काव्य-प्रसंग) / अनुपमा पाठक का (अनुशील) / दिनेश शर्मा का ब्लॉग (प्रेरणा) / सदा का ब्लॉग (SADA ) / प्रत्यक्षा की (प्रत्यक्षा) / प्रकाश बादल का ब्लॉग (प्रकाश बादल) / (नया सवेरा) / संजय बेंगानी का (जोगलिखी : संजय बेंगाणी का हिन्दी ब्लॉग :: Hindi Blog of Sanjay bengani, Hindi site, tarakash blog, Hindi न्यूज़) / अरविन्द श्रीवास्तव का (जनशब्द) / माधवी शर्मा गुलेरी का ब्लॉग (उसने कहा था ..) / नीरज गोस्वामी का (नीरज) / शास्त्री जे सी फिलिप का (सारथी) /(संकल्प शर्मा . . .) / (विद्रोही स्व-स्वर में….) / दीप्ती शर्मा का (स्पर्श) आदि !
हर क्रिया की प्रतिक्रया होती है, जो चंचलता को बनाए रखती है ! हर वाद के साथ प्रतिवाद होता है, जो चंचलता को बनाए रखता है !हर राग के साथ द्वेष जुडा होता है जो चंचलता को बनाए रखता है !विकास के लिए समभाव की,योग की आवश्यकता होती है !चंचलता को शान्ति में परिवर्तित करने की आवश्यकता होती है !अपने आत्मविश्वास को जगाने की आवश्यकता है, ताकि एक सुन्दर और खुशहाल सह-अस्तित्व की परिकल्पना को मूर्तरूप दिया जा सके ! इसके लिए जरूरी है विचारों की द्रढता, क्योंकि कहा भी गया है कि विचार विकास का बीज होता है !
आईये अब एक ऐसे ही दृढ विचारों वाले ब्लोगर की बात करते हैं,जो ब्लॉग के माध्यम से एक नयी सामाजिक क्रान्ति का उद्घोष कर रहा है नाम है जय कुमार झा और ब्लॉग है-honestyprojectrealdemocracy
ब्लॉगर का कहना है कि -”क्या जनता सिर्फ इसलिए है कि वोट डालकर 5साल के लिए अंधी-बहरी-गूंगी होकर भ्रष्ट नेताओं की अव्यावहारिक,अतर्कसंगत नीतियों को असहाय होकर सहती रहे और यह पूछने को मज़बूर हो कि किससे कहें,कहां जाएं,कौन सुनेगा हमारी? भारत एक गणतंत्र है और अब हम जनता असल मालिक बनकर रहेंगे । क्या आप हैं हमारे साथ? आइए,मिलकर सरकार को आदेश दें।”उपरोक्त विचारों को पढ़कर आपको अंदाजा लग ही गया होगा कि यह ब्लोगर देश और समाज के लिए कुछ करने की जीबटता रखता है,इनके ब्लॉग पोस्ट्स से गुजरते हुए भी यही महसूस होता है !
एक चौंकाने वाला तथ्य आपके सामने रख रहा हूँ कि एक ब्लॉग जिसकी शुरुआत २७ नवम्बर २०१० को हुई ! वर्ष के आखिरी ३५ दिनों में इसपर वैसे तो मात्र १२ पोस्ट प्रकाशित हुए मगर इस ब्लॉग के प्रशंसकों की संख्या ५० के आसपास पहुँच गयी , ब्लॉग का नाम है नज़रिया और ब्लोगर हैं – सुशील बाकलीवाल जबकि -एक पुराना ब्लॉग है अमरेन्द्र त्रिपाठी का कुछ औरों की , कुछ अपनी, जो वर्ष २००९ से ब्लॉगजगत का हिस्सा है, किन्तु इस ब्लॉग पर पूरे वर्ष में केवल १४ पोस्ट ही प्रकाशित हुए !हलांकि इस पर जो भी पोस्ट प्रकाशित हुए हैं वह गंभीर विमर्श को जन्म देने में सक्षम है !
वर्ष-२०१० में हिंदी ब्लॉगजगत को अचानक सदमें में ले गयी ब्लोगवाणी ! कई लोगों ने इसका कारण बताया ब्लोगवाणी का अव्यवसायिक होना तो कईयों ने कहा कि ब्लोगवाणी कुछ लोगों के साथ पक्षपातपूर्ण रबैया अपना रही थी और जब विरोध हुआ तो उसने बोरिया-विस्तार समेट ली ! कारण कुछ भी रहा हो मगर ब्लोवाणी का बंद होना हिंदी ब्लॉगजगत के लिए एक दु:खद पहलू रहा !
वरिष्ठ ब्लोगर श्री रवि रतलामी का मानना है कि -”ब्लॉगवाणी और फिर चिट्ठाजगत की अकाल मृत्यु के पीछे इनका घोर अ-व्यवसायिक होना ही रहा है. मेरे विचार में यदि ये घोर व्यवसायिक होते, अपने सृजकों के लिए नावां कमाकर देने की कूवत रखते और परमानेंट वेब मास्टर रखने, नित नए सपोर्ट व इनफ्रास्ट्रक्चर जुटाने की कवायदें करते रहते तो इनमें सभी में व्यवसायिक रूप से पूर्ण सफल होने की पूरी संभावनाएँ थीं….!” वहीं एक और प्रमुख ब्लोगर श्री जाकिर अली रजनीश का मानना है कि -”वहाँ पर जान बूझकर एक खास प्रकार की नकारात्मक मानसिकता वाली पोस्टों को तो लगातार बढ़ावा दिया जा रहा था पर कम्यूनिष्ट तथा अन्‍य विचारधारा वाले लोगों के ब्लॉग तक नहीं रजिस्टर्ड किये जा रहे थे। जो लोग इसके शिकार बने, उनमें ‘नाइस’ मार्का सुमन जी का नाम सबसे ऊपर है। यहाँ तक तो जैसे-तैसे मामला चल रहा था, लेकिन जब ब्लॉगवाणी ने जानबूझकर पाबला जी को भी अपने लपेटे में ले लिया, तो पानी सिर के ऊपर निकलना ही था, और निकला भी। नतीजतन ब्लॉगवाणी वालों को लगा कि उनका अपमान किया जा रहा है और उन्होंने उसकी अपग्रेडेशन रोक दी।” वहीं डा.अरविन्द मिश्र जी जाकिर भाई के उक्त विचारों से सहमत नहीं थे, उनका कहना था कि -”मैथिली और सिरिल जी ने बिना आर्थिक प्रत्याशा केब्लोगवाणी के माध्यम से हिन्दी ब्लागिंग में जो अवदान दिया उसकी सानी नहीं है ..!”
चिट्ठा-विश्व और नारद का पतन वर्ष-२०१० से पूर्व हो चुका है, किन्तु हिंदी ब्लॉगिंग को प्रमोट करने की दिशा में अग्रणी ब्लॉग एग्रीगेटर ब्लोगवाणी की अकाल मृत्यु पूरे ब्लॉगजगत को चौंका गयी एकबारगी !हिंदी ब्लॉगजगत को सबसे बड़ा झटका लगा वर्ष के आखिरी माह में अनायास ही चिट्ठाजगत के अस्वस्थ हो जाने से, हलांकि अस्वस्थता से उबरकर कुछ ही दिनों में चिट्ठाजगत उठ खडा हुआ था, तब ब्लोगरों, खासकर नए ब्लोगरों में आशा की एक किरण तैर गयी थी ,किन्तु कुछ दिन ज़िंदा रहने के उपरांत चिट्ठाजगत की भी अकाल मृत्यु हो गयी !
उल्लेखनीय है कि चिट्ठाजगत से संदर्भित महत्वपूर्ण सन्दर्भ देते हुए पावला जी ने कहा है कि -” चिट्ठाजगत के पीछे मूलत: 3 व्यक्ति हैं,आलोक कुमार, विपुल जैन, कुलप्रीत (सर्व जी) !आलोक कुमार हिन्दी जाल जगत के आदि पुरूष कहलाते हैं। ये वही हैं जिन्होंने हिन्दी का पहला चिट्ठा “नौ दो ग्यारह” में लिखना शुरू किया और ब्लॉग को चिट्ठा कह कर पुकारा। वर्षों से ये अपनी वेबसाईट “देवनागरी॰नेट” द्वारा दुनिया को अन्तर्जाल पर हिन्दी पढ़ना व लिखना सिखाते आ रहे हैं। 2007 की शुरूआत में आलोक जी ने अपने चिट्ठाजगत की कल्पना को अपने मित्र विपुल जैन के समक्ष रखा और विपुल उनकी कल्पना से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसको वास्तविक रूप देने की ठान ली। विपुल का अपना एक जाल स्थल “हि॰मस्टडाउनलोड्स॰कॉम” है जहाँ से आप अनेक उपयोगी सॉफ्टवेयरों के नवीनतम संस्करण डाउनलोड कर सकते हैं।इस कार्य में अहम मदद की कुलप्रीत सिंह ने। कुलप्रीत कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में पीएचडी हैं और डबलिन, आयरलैंड में कार्यरत हैं। इन्होंने चिट्ठाजगत की संरचना को बनाने में विपुल की खास मदद की है। कुलप्रीत भारतीय बहुभाषीय जालस्थल “शून्य॰इन” के संस्थापक हैं। जहाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में तकनीकी विषयों पर बहस की जाती है।चिट्ठाजगत पर दिखने वाले विभिन्न ग्राफ़िक्स संजय बेंगाणी जी द्वारा प्रदत्त हैं !” यह वर्ष हलांकि एग्रीगेटर के आने और काल कलवित हो जाने के वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, क्योंकि इस वर्ष दो अतिमहत्वपूर्ण ब्लॉग एग्रीगेटर की अकाल मौत हुई है और इसी शोक के बीच कई महत्वपूर्ण ब्लॉग एग्रीगेटर का आगमन भी हुआ है !
आठ माह पूर्व इंडली आई और उसने कई भारतीय भाषाओं में एक साथ ब्लॉग फीड की सुविधा प्रदान किया,इसकी सबसे बड़ी समस्या है ब्लॉग की फीड को ऑटोमैटिक न लेना। ब्लोगवाणी की अकाल मौत के बाद हमारीवाणी अस्तित्व में आई,किन्तु कई प्रकार के अफवाहों के बीच यह अभी भी कायम है !हामारीवाणी की टीम के द्वारा प्रसारित वक्तव्य के आधार पर ” हमारीवाणी की ALEXA रैंकिंग विश्व में 81,000 तक पहुंच चुकी है। इसमें हर दिन सुधार हो रहा है।हमारीवाणी का एक अभिनव प्रयास ये भी है कि एग्रीगेटर को निर्विवाद रूप से चलाने के लिए ब्लॉगजगत से ही मार्गदर्शक-मंडल बनाया जाए। प्रसिद्ध अधिवक्ता और सम्मानित वरिष्ठ ब्लॉगर श्री दिनेशराय द्विवेदी (अनवरत, तीसरा खंभा) ने मार्गदर्शक-मंडल का प्रमुख बनना स्वीकार कर लिया है। लोकप्रिय ब्लॉगर श्री समीर लाल समीर (उड़नतश्तरी), मार्गदर्शक-मंडल के उप-प्रमुख के तौर पर मार्गदर्शन देने के लिए तैयार हो गए हैं। पांच सदस्यीय मंडल के तीन अन्य सदस्य श्री सतीश सक्सेना (मेरे गीत), श्री खुशदीप सहगल (देशनामा), और श्री शाहनवाज़ (प्रेमरस)हैं। हमारीवाणी की पूरी कोशिश रहेगी कि जहां तक संभव हो सके, एग्रीगेटर से विवादों का साया दूर ही रहे। फिर भी कभी ऐसी स्थिति आती है तो मार्गदर्शक मंडल का बहुमत से लिया फैसला ही अमल में लाया जाएगा।”
एक और नया हिंदी ब्लॉग एग्रीगेटर -अपना ब्लॉग हाल ही में चालू हुआ है जो ब्लोगवाणी और चिट्ठाजगत की तरह बेहतरीन, ढेर सारी सुविधाओं वाला, तेज ब्लॉग एग्रीगेटर महसूस हो रहा है !इसके अलावा एक स्वचालित ब्लॉग संकलक यहाँ पर है जिसमें आप रीयल टाइम गूगल सर्च के जरिए संग्रहित ताज़ा 500 हिंदी ब्लॉग पोस्टों को देख सकते हैं. पर चूंकि यह स्वचालित है, और कुछ कुंजीशब्द के जरिए संग्रह करता है, अतः सारे के सारे नवीन ब्लॉग पोस्टें नहीं आ पातीं, फिर भी कुछ पढ़ने लायक लिंक के संग्रह तो मिलते ही हैं !
इस वर्ष एक और ब्लॉग एग्रीगेटर लालित्य पर मेरी नज़र पडी ,यह एग्रीगेटर ललित कुमार का व्यक्तिगत एग्रीगेटर है ,जिसमें उनके द्वारा कुछ उत्कृष्ट ब्लॉग को जोड़ा गया है !ललित कुमार का कहना है कि -” हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में कहा जाता है कि यह अभी तक भी शैशव अवस्था में है। मैं नहीं जानता कि यह कितना सच है लेकिन लालित्य हिन्दी ब्लॉग्स का एक ऐसा एग्रीगेटर है जिसमें केवल अच्छे और उन्नत हो चुके ब्लॉग्स ही संकलित किए जाते हैं। यह ब्लॉग्स केवल तब तक संकलित रहते हैं जब तक उन पर उपलब्ध सामग्री की गुणवत्ता बनी रहती है। इस तरह लालित्य के ज़रिये आपको सीधे, सरल तरीके से उम्दा हिन्दी ब्लॉग्स तक पँहुचने में आसानी होती है !”
कुछ और साईट है जो ब्लॉग को प्रमोट करने की दिशा में कार्य करती है, या फिर जहां आप अपने पसंदीदा ब्लॉग को ढूंढ सकते हैं,जिसमें प्रमुख है ब्लॉग अड्डा ,Woman Who Blog In Hindi , ब्लोग्कुट, इंडी ब्लोगर, रफ़्तार , ब्लॉग प्रहरी, क्लिप्द इन , हिंदी चिट्ठा निर्देशिका, गूगल लॉग , वर्ड प्रेस की ब्लोग्स ऑफ द डे , वेब दुनिया की हिंदी सेवा, जागरण जंक्सन ,बीबीसी के ब्लॉग प्लेटफार्म आदि !साथ ही हिंदी मे ब्लॉग लिखती नारी की अद्भुत रचना यहाँ पढे जा सकते हैं ! इसके अतिरिक्त यदि आपको उन ब्लोग्स के बारे में जानने की इच्छा है जिसे समाचार पत्र में समय-समय पर स्थान दिया गया हो तो आप ब्लोग्स इन मीडिया पर क्लिक कर सकते हैं !
इस वर्ष कुछ ब्लोगरों ने फीड क्लस्टर.कॉम के सहयोग से भी ब्लॉग एग्रीगेटर बनाकर अपने साथियों को परस्पर जोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया है, जिसमें प्रमुख है आज के हस्ताक्षर, परिकल्पना समूह, महिलावाणी , हिन्दीब्लॉग जगत, हिन्दी – चिट्ठे एवं पॉडकास्ट, ब्लॉग परिवार, चिट्ठा संकलक, लक्ष्य, हमर छत्तीसगढ़, हिन्दी ब्लॉग लिंक आदि ।
और चलते-चलते मैं आपको एक ऐसे ब्लॉग पर ले चलता हूँ जो ब्लॉगजगत के वेहद कर्मठ और हर दिल अजीज ब्लॉग संरक्षक श्री बी एस पावला का ब्लॉग है ब्लॉग बुखार,जिसपर आप ब्लॉग से संवंधित महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त कर सकते हैं ! यह ब्लॉग अपने-आप में अनूठा है !
ब्लॉग लेखन एक तेजी से उभरता हुआ क्षेत्र है और लोग तेजी से इसकी ओर आकृष्ट हो रहे हैं। ऐसे में इसके द्वारा विज्ञान संचार की अपार सम्भावनाएं छिपी हुई हैं। ब्लॉग लेखन की सबसे बडी विशेषता यह है कि यह पूरे विश्व में पढा जा सकता है और अनन्त समय तक अंतर्जाल पर सुरक्षित रहता है। इसके साथ ही साथ विश्व के किसी भी कोने से किसी भी सर्च इंजन द्वारा खोजने पर ब्लॉग में उपलब्ध सामग्री तत्काल ही इच्छुक व्यक्ति तक पहुंच जाती है। यही कारण है कि ब्लॉग लेखन द्वारा विज्ञान संचार की अपार सम्भावनाएं बनती हैं। यदि ब्लॉग लेखकों और विज्ञान संचारकों को इसके महत्व एवं प्रक्रिया की समुचित जानकारी प्रदान की जाए, तो विज्ञान संचार के लिए यह एक महत्वपूर्ण क्षेत्र साबित हो सकता है।
जी हाँ ,मैं बात कर रहा हूँ समाजिक एवं वैज्ञानिक चेतना के प्रचार के लिए कार्य करने वाले ब्लॉग की ,जिनके द्वारा केवल ब्लॉग पर ही नहीं,अपितु अनेक कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया जाता है, ताकि जन चेतना को विज्ञान से जोड़ा जा सके !विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान या विद्या है जो विचार, अवलोकन, अध्ययन, और प्रयोग से मिलती है, जो कि किसी अध्ययन के विषय की प्रकृति या सिद्धान्तों को जानने के लिये किये जाते हैं। विज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान की ऐसी शाखा के लिये भी करते हैं, जो तथ्य, सिद्धान्त और तरीकों को प्रयोग और परिकल्पना से स्थापित और व्यवस्थित करती है । इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी भी विषय का क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कह सकते है। ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान के ‘ज्ञान-भण्डार’के बजाय वैज्ञानिक विधि विज्ञान की असली कसौटी है।
इस दिशा में एक ब्लॉग है तस्लीम , जिसके द्वारा विभिन्न स्थानों एवं समयों पर विविध कार्यक्रम सम्पन्न किये जाते रहे हैं तथा वैज्ञानिक जागरूकता के काम को नियमित रूप से सम्पादित किया जाता रहा है।‘तस्लीम‘ द्वारा निष्पादित उक्त गतिविधियों को विद्वतजनों ने न सिर्फ पसंद किया है, बल्कि समाचार पत्रों आदि में इस सम्बंध में प्रकाशित रिपोर्टों आदि ने संस्था का उत्साहवर्द्धन किया है। इसके अतिरिक्त ब्लॉग पर उपलब्ध सामग्री को सम्पूर्ण विश्व में ११ हजार से अधिक पाठकों द्वारा न सिर्फ पढ़ा गया है, बल्कि अपनी टिप्पणियों के द्वारा इसे सराहा और प्रोत्साहित भी किया गया है।‘तस्लीम‘ ने अपने ब्लॉग कार्यशालाओं के माध्यम से विज्ञान संचार के अपने प्रयासों के दौरान यह देखा है कि हिन्दी भाषी लागों में इससे जुड़ने की प्रबल आकांक्षा है किन्तु तकनीकी जानकारी न होने के कारण वे पीछे रह जाते हैं। इस दिशा में तस्लीम के द्वारा किया जा रहा कार्य प्रसंशनीय है ! इस ब्लॉग के ३३९ प्रशंसक हैं ! इस संस्था के अध्यक्ष हैं अब्दुल कवी, उपाध्यक्ष हैं डा0 अरविंद मिश्र, सचिव हैं ज़ाकिर अली ‘रजनीश, ‘ कोषाध्यक्ष हैं अर्शिया अली, सक्रिय सहयोगी हैं जीशान हैदर ज़ैदी !
दूसरा ब्लॉग है साईंस ब्लोगर असोसिएशन,इसकी स्‍थापना 20 दिसम्‍बर 2008 को हुई थी। यह भी अंधविश्वास के प्रति एक अभियान का हिस्सा है, जो ब्लॉग पोस्ट और विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से वैज्ञानिक गतिविधियों को प्राणवायु देने का महत्वपूर्ण कार्य करता है ! इस पर प्रत्येक वर्ष “साईंस ब्लोगर ऑफ़ दी ईयर” का खिताब किसी एक ब्लोगर को प्रदान किया जाता है !यह मंच है विज्ञान के ब्लागरों का, यहाँ होता है विज्ञान का संवाद और संचार ब्लॉग के जरिये और होती हैं विज्ञान और टेक्नोलॉजी की बातें, जन जन के लिए, आम और खास के लिए भी! इनका कहना है कि आप वैज्ञानिक हो तो भी इस ब्लॉग से जुडें, जन संचारक हों तो भी आपका स्वागत है इस ब्लॉग पर ! इस संस्था के अध्यक्ष हैं डा0 अरविंद मिश्र, उपाध्यक्ष हैं ज़ीशान हैदर ज़ैदी,सचिव हैं ज़ाकिर अली ‘रजनीश’, कोषाध्यक्ष हैं अर्शिया अली,तकनीकि निर्देशक हैं विनय प्रजापति तथा इसके सक्रिय सहयोगी हैं रंजना भाटिया,अल्पना वर्मा,मनोज बिजनौरी,जी0के0 अविधया,सलीम खान,डा0 प्रवीण चोपड़ा,अभिषेक मिश्रा,अंकुर गुप्ता,अंकित,हिमांशु पाण्डेय,पूनम मिश्रा और दर्शन बवेजा आदि !
विज्ञान का एक और महत्वपूर्ण ब्लॉग है साईब्लाग [sciblog] , ब्लोगर हैं डा अरविन्द मिश्र !यह ब्लॉग २९ सितंबर -२००७ को अस्तित्व में आया !ब्लॉग पर वैज्ञानिक जागरूकता लाने के उद्देश्य से सक्रिय लोगों में सर्वाधिक चर्चित ब्लोगर हैं डा अरविन्द मिश्र , जिनका इस ब्लॉग को शुरू करने के पीछे जो उद्देश्य रहा है उसके बारे में इनका कहना है कि -” मेरा मानना है कि ब्लॉग एक खुली डायरी है ,वेब दुनिया का एक सर्वथा नया प्रयोग .अभिव्यक्ति का एक नया दौर .एक डायरी चिट्ठा कैसे बन गयी /या बन सकती है मेरा मन स्वीकार नहीं कर पा रहा.फिर चिट्ठे से कच्चे चिट्ठे जैसी बू भी आती है .मगर चूँकि नामचीन चिट्ठाकारों ने इस पर मुहर लगा दी है और यह शब्द भी अब रूढ़ सा बन गया है मैंने पूरे सम्मान के साथ असहमत होते हुए भी इसे स्वीकार तो कर लिया है पर अपने हिन्दी ब्लॉग पर इस प्रयोग के दुहराने की हिम्मत नही कर पाया -इसलिए देवनागरी मे ही अंगरेजी के शब्दान्शों को जोड़ कर काम चलाने की अनुमति आप सुधी जनों से चाहता हूँ.इस ब्लॉग पर मैं विज्ञान के विविध विषयों पर अपना दिलखोल विचार रख सकूंगा .यह ब्लॉग तो अभी इसके नामकरण पर ही आधारित है .आगे विज्ञान की चर्चा होगी …!”
इसके अलावा इस वर्ष जहां-जहां ब्लॉग पर वैज्ञानिक गतिविधियाँ देखी गयीं उसमें प्रमुख Science Fiction in India , विज्ञान गतिविधियां Science Activities , क्यों और कैसे विज्ञान मे , प्रश्न मंच ,ईमली ईको क्लब Tamarind Eco Club ,सर्प संसार (World of Snakes) , Dynamic , स्वच्छ सन्देश: विज्ञान की आवाज़ , विज्ञान की दुनिया… हिंदी के झरोखे से…, विज्ञान हिन्दी वेबसाइट , विज्ञान – विक्षनरी , विज्ञान BBC Hindi , Hash out Science » विज्ञान » चर्चा,विज्ञान , विज्ञान « Hindizen – निशांत का हिंदीज़ेन …, कलिकऑन , विज्ञान मन आदि !
वर्ष-२०१० में स्वास्थ्य संवंधित जागरूकता लाने वाले ब्लॉग की चर्चा
कहा गया है पहला सुख निरोगी काया,स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है !शरीर की रुग्णता के कारण मन की अनेक इच्छाएं पूरी होने से रह जाती है !शरीर में भी प्रकृति ने इतनी शक्ति दी है कि व्यक्ति हर तरह से स्वयं को स्वस्थ रख सके !धर्म-विचार- हास्य -रुदन अपनी जगह है, पर आरोग्यता की शीतल छाया के लिए कोई आयुर्वेद को अपनाता है तो कोई होमियोपैथ तो कोई अंग्रेजी अथवा यूनानी दवाओं को !हिंदी ब्लॉगजगत में स्वास्थ्य सलाह देने वाले ब्लोग्स की काफी कमी है !आयुर्वेद और होमियोपैथ के ब्लॉग तो कुछ अत्यंत स्तरीय है मगर संख्या के लिहाज से अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में काफी कम ! ऐसे में जब स्वास्थ्य परामर्श को लेकर सचालित ब्लोग्स की काफी कमी महसूस होती है वहीं दो ब्लॉग अपनी गतिविधियों से हमें काफी चमत्कृत करते हैं पहला कुमार राधारमण और विनय चौधरी का साझा ब्लॉग स्वास्थ्य सबके लिए और दूसरा लखनऊ निवासी अलका सर्बत मिश्र का ब्लॉग मेरा समस्त !
स्वास्थ्य सबके लिए हिंदी एक ऐसा महत्वपूर्ण ब्लॉग है, जिसमें समस्त असाध्य विमारियों से लड़ने के उपचार बताये जाते हैं ! चूँकि, व्यक्ति अनेक धरातलों पर जीता है, अत: रोग भी हर धरातल पर अलग-अलग स्वरूपों में प्रकट होते हैं ! सबके लिए स्वास्थ्य का अभिप्राय यह है कि हर बीमारी से लड़ने का हर किसी को साहस प्रदान करना !इस ब्लॉग के द्वारा किया जा रहा कार्य श्रेष्ठ और प्रशंसनीय है !
दूसरा ब्लॉग है मेरा समस्त जो पूर्णत: आयुर्वेद को समर्पित है ! आयुर्वेद के सन्दर्भ में ब्लोगर का कहना है कि “आयुर्वेद का अर्थ औषधि – विज्ञान नही है वरन आयुर्विज्ञान अर्थात ” जीवन-का-विज्ञान” है…ऐड्स, थायराइड, कैंसर के अतिरिक्त भूलने की बीमारी, चिड़चिड़ापन आदि से खुद को सुरक्षित रखा जा सकता है,बस आयुर्वेद पर भरोसा होना चाहिये !ब्लोगर अलका मिश्र केवल आलेखों से ही पाठकों को आकर्षित नहीं करती वल्कि आलेखों में उल्लिखित औषधियों के आदेश पर आपूर्ति भी करतीं हैं……!
आयुर्वेद से संवंधित इस वर्ष की प्रमुख पोस्ट इन ब्लोग्स पर देखी जा सकती है अर्थात आयुर्वेद : आयुषमन , आयुर्वेद,पर्यायी व पूरक औषध पद्धती –Indian Alternative Medicine , only my health , अपने विचार, The Art of Living , shvoong .com , वन्दे मातरम्, आयुष्मान, हरवल वर्ल्ड, चौथी दुनिया, ब्रज डिस्कवरी , Dr. Deepak Acharya , दिव्य हिमांचल , उदंती . com , विचार मीमांशा, दिव्ययुग निर्माण न्यास , स्वास्थ्य चर्चा , स्वास्थय के लिये टोटके , प्रवक्ता आदि पर !
जहां तक होमियोपथिक से संवंधित ब्लॉग का सवाल है तो हिंदी ब्लॉगजगत में ज्यादा ब्लॉग नहीं दिखाई देता, एक ब्लॉग है E – HOMOEOPATHIC MIND magazine जिसपर यदाकदा कुछ उपयोगी पोस्ट देखने को मिले हैं ! इस ब्लॉग को वर्डप्रेस पर भी वर्ष-२००९ में बनाया गया, किन्तु नियमित नहीं रखा जा सका !जब होमियोपैथिक की बात चली है तो वकील साहब दिनेश राय द्विवेदी के अनवरत पर विगत वर्ष कुछ महत्वपूर्ण पोस्ट देखे गए , किन्तु आलोचनात्मक ! १० अप्रैल को उनका आलेख आया होमियोपैथी हमारी स्वास्थ्यदाता हो गई ,११ अप्रैल-२०१० को उनका कहना था कि क्या होमियोपैथी अवैज्ञानिक है? इस पोस्ट के प्रकाशन के दो दिन बाद उनका एक और आलेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था होमियोपैथी को अभी अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है !
आयुर्वेदिक पध्‍दति की तरह ही होम्‍योपेथी भी धैर्य की मॉंग करती है। यह एक मात्र ‘पेथी’ है जिसके प्रयोग पशुओं पर नहीं, मनुष्‍यों पर होते हैं। इन दिनों इनका सस्‍तापन कम हो रहा है। यह चिकित्‍सा पध्‍दति भी मँहगी होने लगी है। ऐसा कहना है विष्णु वैरागी का, जबकि मनोज मिश्र का मानना है कि निश्चित रूप से डॉ. हैनिमेन एक विलक्षण व्यक्तित्व थे जिन्हों ने एक नई चिकित्सा पद्धति को जन्म दिया। जो मेरे विचार में सब से सस्ती चिकित्सा पद्धति है। इसी पद्धति से करोड़ों गरीब लोग चिकित्सा प्राप्त कर रहे हैं। यही नहीं करोड़पति भी जब अन्य चिकित्सा पद्धतियों से निराश हो जाते हैं तो इस पद्धति में उन्हें शरण मिलती है….!
“वैज्ञानिकों एवं चिकित्साशास्त्रियों ने विभिन्न प्रकार के अनुसंधानों से यह निश्चित रूप से पुष्टि कर दिया है की मनुष्य के शरीर की रचना एवं शरीर के विभिन्न अंग जैसे मुंह, दाँत, हाथों की अंगुलियाँ,नाख़ून एवं पाचन तंत्र की बनावट के अनुसार वह एक शाकाहारी प्राणी है …..!”ऐसा कहना है स्वास्थ्य विशेषज्ञ राम बाबू सिंह का अपने ब्लॉग एलोबेरा प्रोडक्ट में !०५ जून-२०१० को प्रकाशित इस आलेख का शीर्षक है शाकाहारी बनें स्वस्थ रहें !
वर्ष-२०१० के उत्तरार्द्ध में स्वास्थ्य से संवंधित एक वेहतर ब्लॉग का आगमन हुआ है,जिसका नाम है स्वास्थ्य सुख ! इसकी पञ्चलाईन है निरोगी शरीर -सुखी जीवन का आधार…..३० अक्तूबर-२०१० को सुशील बाकलीवाल द्वारा प्रसारित इस ब्लॉग का पहला आलेख पाठकों को ऐसा आकर्षित किया कि मानों उनका मनोनुकूल ब्लॉग आ गया है हिंदी ब्लॉगजगत में ! इस ब्लॉग को मेरी अनंत आत्मिक शुभकामनाएं !
चिन्ता , क्रोध , आतम ,लोभ , उत्तेजना और तनाव हमारे शरीर के अंगों एवम नाड़ियो मे हलचल पैदा करते हैं , जिससे हमारी रक्त धमनियों मे कई प्रकार के विकार हो जाते हैं । शारीरिक रोग इन्ही विकृतियों के परिणाम हैं ।शारीरिक रोग मानसिक रोगों से प्रभावित होते है । अत्याधिक चिंता , निराशा , आत्म ग्लानी , उदासीनता , जरुरत से ज्यादा खुश दिखना , बहुत बोलना या एक दम चुप रहना , संदेह करना , आत्महत्या के प्रयास बीमारी के लक्षण है । जन्म जात बीमारी को छोड़ कर रेकी के द्वारा सभी बीमारियों का इलाज संभव हैं । रेकी बीमारी के कारण को जड़ मूल से नष्ट करती हैं , स्वास्थ्य स्तर को उठाती है , बीमारी के लक्षणों को दबाती नहीं हैं । रेकी के द्वारा मानसिक भावनायो का संतुलन होता है और शारीरिक तनाव , बैचेनी व दर्द से छुटकारा मिलता जाता हैं ।
रेकी गठिया , दमा , कैंसर , रक्तचाप , फालिज , अल्सर , एसिडिटी , पथरी , बावासीर , मधुमेह , अनिद्रा , मोटापा , गुर्दे के रोग , आंखो के रोग , स्त्री रोग , बाँझपन , शक्तिन्युनता , पागलपन तक दूर करने मे समर्थ है । यदि बीमारी का इलाज शुरू मे ही कर लिया जाये तो रेकी शीघ्र रोग मुक्त कर देती हैं । ऐसा कहना है रेकी विशेषज्ञ डा. मंजुलता सिंह का, ये ब्लोगर भी हैं और इनका ब्लॉग है My Sparsh Tarang ….!
रेकी से संवंधित यह ब्लॉग संभवत: हिंदी का एकलौता ब्लॉग है, जो वर्ष-२००७ से अस्तित्व में है , किन्तु पोस्ट की अनियमितता के कारण यह ब्लॉग आम पाठकों का ध्यान खींचने में पूर्णत:सफल नहीं रहा है,इस वर्ष इसपर केवल तीन पोस्ट ही प्रकाशित हुए हैं !
कुलमिलाकर देखा जाए तो स्वास्थ्य संबंधी जानकारी देने में अभी भी अंग्रेजी या फिर अन्य भाषाओं की तुलना में हिंदी बहुत पीछे है,किन्तु आनेवाले दिनों में वेहतर स्थिति होगी ऐसी आशा की जा रही है !
भारतीय संगीत की गूँज पूरी दुनिया में सुनाई देती है ! संगीत के कारण आज हमारा भारत दुनिया में अपनी एक अलग छवि प्रस्तुत करने में सफल हुआ है ! अपने इस गौरवशाली परंपरा को जीवंत बनाए रखने की दिशा में कई घराने सक्रिय हैं और उन घरानों की जानकारी देने के लिए हिंदी में कई ब्लॉग भी सक्रिय है ,जो भारतीय संगीत की इस परंपरा को आम जन-जीवन से जोड़ते है !
“एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी, ऐसा तो कम ही होता है वो भी हों तनहाई भी, गीतों की बात ही कुछ ऐसी होती है। खुद को ही मैं ढूँढ रहा नज्मों में, कुछ गीतों में और नज्म? वो तो गोया गुलजार के लफ्जों में अगर कहूँ तो -नज़्म उलझी हुई है सीने में/मिसरे अटके हुए हैं होठों पर/उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह। गर किसी मोड़ पे अगर मिल जाऊँ तो बस एक गीत गुनगुना देना…!” ऐसा कहना है तरुण का अपने बारे में, ब्लॉग गीत गाता चल पर ! यह ब्लॉग पूरी तरह भारतीय गीत-संगीत की प्रस्तुति से जुडा है !
इस वर्ष संगीत को समर्पित ब्लॉग्स पर ज्यादा हलचल नहीं देखी गयी , सुर-पेटी पर केवल दो पोस्ट प्रकाशित हुए ,वहीं सुर साधकों से मुलाक़ात पर आधारित ब्लॉग एक मुलाक़ात पर पूरे वर्ष में केवल तीन पोस्ट ही देखे गए !जाने क्या मैंने कही पर केवल चार,शब्द सृष्टि पर केवल एक ही पोस्ट देखे गए,गीतों की महफ़िल पर केवल छ:पोस्ट देखे गए , किन्तु वर्ष-२००६ से हिंदी ब्लॉगजगत का हिस्सा बने एक बेहद खुबसूरत ब्लॉग एक शाम मेरे नाम ने इस वर्ष खूब धमाल मचाया !इस पर कुल ७७ पोस्ट देखे गए इस वर्ष “वार्षिक संगीत माला ” की प्रस्तुति इस ब्लॉग की सबसे बड़ी उपलब्धि है ! इस पर आप फैज़ अहमद फैज़, कातिल शिफाई, परवीन शाकर, अहमद फ़राज़ , सुदर्शन फाकिर आदि कि गज़लें और नज्में ….वर्ष की चुनिन्दा संगीत मालाओं से आप रूबरू हो सकते हैं ! यह ब्लॉग हिंदी का एक नायाब ब्लॉग है !
वर्ष-२०१० में संगीत से जुड़े जिन ब्लॉग्स पर सार्थक पोस्ट की उपस्थिति देखी गयी उसमें प्रमुख है-”ठुमरी”ब्लोगर हैं विमल वर्मा !अपने बारे में विमल कहते हैं कि- “बचपन की सुहानी यादों की खुमारी अभी भी टूटी नही है.. जवानी की सतरंगी छाँह आज़मगढ़, इलाहाबाद,बलिया और दिल्ली मे.. फिलहाल १६-१७ साल से मुम्बई मे..मनोरंजन चैनल के साथ रोजी-रोटी का नाता……!”
न शास्‍त्रीय टप्‍पा.. न बेमतलब का गोल-गप्‍पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्‍तो, है रंगमंच तैयार.. छाया गांगुली की आवाज में फागुन के गीत या फिर कवि नीरज जी की आवाज़ में… ” कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे , ग्रामोफोनीय रिकोर्ड के कबाड़खाने से कुछ रचनाएँ सुननी हो अथवा एक अफ़गानी की आवाज़ में ….जब दिल ही टूट गया ….पूरे वर्ष में केवल १२ पोस्ट और सभी नायाब !
सर्दियों की ठुठुरती रातें…दूर एक वीरान सा महल…घुप्प अँधेरा और किसी के पायल की झंकार…सफ़ेद चोले में लहराता एक बदन…और एक सुरीली आवाज़….जी हाँ ऐसी ही आवाज़ से पूरे वर्ष हमें रूबरू कराता रहा हिंद युग्म का आवाज़ ब्लॉग!मशहूर फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज के साथ – वर्ष २०१० के टॉप गीत सुनना हो तो इस खुबसूरत ब्लॉग पर अवश्य पधारें !
संगीत की बात हो और रेडियो न बजे तो सबकुछ नीरस सा लगता है , ऐसे में रेडियोनामा हमारी उस कमी को पूरा करता है ! यह एक सामूहिक ब्लॉग है और इससे जुड़े हैं-पियूष मेहता, अन्नपूर्णा, ममता, डा.प्रवीण चोपड़ा,अफलातून,युनुस खान, रवि रतलामी, डा अजित कुमार, संजय पटेल, इरफ़ान,काकेश, तरुण, प्रियंकर, अनिता कुमार, सजीव सारथी ,कमल शर्मा ,मनीष कुमार, लावण्या शाह, जगदीश भाटिया, विकास शुक्ला, बी.एस. पावला आदि !
रेडियोनामा रेडियो-विमर्श का सामूहिक-प्रयास है। अगर आप भी रेडियो-प्रेमी हैं और रेडियो से जुड़ी अपनी यादें या बातें इनके साथ साथ बांटना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। अपनी बात आपको हिंदी में लिखनी होगी। अगर आप केवल अंग्रेजी में लिखते हैं तो भी कोई बात नहीं, आपका लेख ये हिंदी -अनुवाद करके प्रकाशित करेंगे। हिन्दी सबंधी तकनीकी सहायता के लिए नि:संकोच आप इनसे संपर्क कर सकते हैं । रेडियोनामा के अलावा यदि आप रेडियो प्रेमी हैं तो यहाँ भी सुन सकते हैं रेडियो -यानी कौल साहब का रेडियो-पन्ना, सागर नाहर की सूची, बीबीसी हिंदी, वॉइस ऑफ अमेरिका हिंदी, हम एफ एम सऊदी अरब, डॉयचे वेले–जर्मनी की हिंदी सेवा, रेडियो जापान की हिंदी सेवा, आकाशवाणी समाचार, रेडियोवर्ल्ड, रेडियो तराना आदि पर !
संवाद सम्मान-२००९ से सम्मानित युनुस खान का ब्लॉग रेडियोवाणी पर इस वर्ष भी अनेक सार्थक पोस्ट देखे गए !मध्‍यप्रदेश के दमोह शहर में पैदा हुए ब्लोगर युनुस खान म0प्र0के कई शहरों में पाले बढ़ें । बचपन से ही संगीत, साहित्‍य और रेडियो में गहरी दिलचस्‍पी थी । सन 1996 से मुंबई स्थित देश के प्रतिष्ठित रेडियो चैनल विविध भारती (vividh bharati) में एनाउंसर के पद पर कार्यरत हैं । नए पुराने तमाम अच्‍छे गीतोंके साथ-साथ दुनिया भर की फिल्‍मों में इनकी गहरी रूचि है । कविताएं और अखबारों में लेखन भी ये यदा कडा करते रहते हैं !इस ब्लॉग पर कुल ३०० पोस्ट प्रकाशित है जो आपका भरपूर मनोरंजन करने में पूरी तरह सक्षम है !
वहीं मिर्जापुर में पैदा हुए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़े और समकालीन जनमत के साथ पटना होते हुए दिल्ली पहुंचे इरफ़ान स्वतंत्र पत्रकारिता,लेखन और ऒडियो-विज़ुअल प्रोडक्शन्स से जुड़े होने के वावजूद हिंदी ब्लोगिंग को समृद्ध करने की दिशा में दृढ़ता के साथ सक्रिय हैं ! इनका ब्लॉग है टूटी हुई बिखरी हुई !इस ब्लॉग पर इस वर्ष कुल २७ पोस्ट प्रकाशित हुए और सब एक से बढ़कर एक !
संगीत की साधना को समर्पित ब्लॉग का यह विश्लेषण तबतक पूर्ण नहीं हो सकता जबतक पारुल चंद पुखराज का ….की चर्चा न हो जाए , क्योंकि यह ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत के लिए विशिष्ट है !युनुश खान की तरह पारुल भी संवाद सम्मान-२००९ से सम्मानित हैं ! इस ब्लॉग पर इस वर्ष ६५ पोस्ट प्रकाशित हुए हैं, जो पूरी तरह साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों और संगीत को समर्पित है !पारुल “पुखराज” को गुलज़ार की ये पंक्तियाँ बहुत पसंद है -”कुछ भी क़ायम नही है,कुछ भी नही…रात दिन गिर रहे हैं चौसर पर…औंधी-सीधी-सी कौड़ियों की तरह…हाथ लगते हैं माह-ओ साल मगर …उँगलियों से फिसलते रहते है…धूप-छाँव की दौड़ है सारी……कुछ भी क़ायम नही है,कुछ भी नही………………और जो क़ायम है,बस इक मैं हूँ………मै जो पल पल बदलता रहता हूँ …!”
इसके अलावा वर्ष-२०१० में गीत-संगीत से जुड़े जिन ब्लोग्स पर सार्थक पोस्ट की प्रस्तुति हुई है, उसमें प्रमुख है – संगीत, किससे कहें , गीतों की महफ़िल, सुख़नसाज़ ,रंगे सुखन , जोग लिखी संजय पटेल की , बाजे वाली गली , दिलीप के दिल से , आगाज़ , कबाड़खाना आदि !इन सारे ब्लोग्स का उद्देश्य रहा है अच्छे संगीत,साहित्य और उससे जुड़े पहलुओं को उजागर करना रहा है, जो प्रशंसनीय है !इनपर सुगम संगीत से लेकर क्लासिकल संगीत को सुना जा सकता है , मन के अंतर में हर क्षण अनेकों भाव उमडते रहतें हैं ,इन्ही भावों को हिन्दी भाषा के माध्यम से अंतर्जाल पर लिखने का प्रयास है अंतर्ध्वनि ! नीरज रोहिल्ला का यह ब्लॉग अन्य ब्लॉग कि तुलना में कुछ अलग है यह संगीत का ब्लॉग नहीं है अनुभूतियों का ब्लॉग है ! इस पर भी अनेक सार्थक पोस्ट देखे गए इस वर्ष !
वर्ष- २००६ से संचालित हास्य-व्यंग्य का प्रमुख ब्लॉग है चक्रधर का चक्कलस ! यह ब्लॉग हिन्दी के श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि अशोक चक्रधर का है ,वर्ष-२०१० में इस पर कुल ५८ पोस्ट प्रकाशित हुए जो वर्ष-२००८ और २००९ में प्रकाशित पोस्ट के बराबर है अर्थात इस वर्ष अशोक चक्रधर जी के इस ब्लॉग पर सक्रियता अचंभित करती है !
इस वर्ष ताऊ डोट इन ने हास्य व्यंग्य को माध्यम बनाकर पाठकों को भरपूर रूप से आकर्षित किया,इस ब्लॉग की सर्वाधिक रचनाएँ चिट्ठाकारों को केंद्र में रखकर प्रस्तुत की जाती रही और कोई भी ब्लोगर इनके व्यंग्य बाण से आहत होकर न मुस्कुराया हो , ऐसा नहीं हुआ ….यानी यह ब्लॉग वर्ष के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग की कतार में अपना स्थान बनाने में सफल हुआ है ,इस ब्लॉग पर इस वर्ष से वैशाखनंदन सम्मान की भी शुरुआत हुई है ! अलग हरियाणवी शैली और प्रस्तुति के कारण यह हिंदी ब्लॉगजगत में रातो-रात मशहूर हो गया है ।वर्ष-२०१० के वहुचर्चित हास्य ब्लोगर ताऊ रामपुरिया ने जहां ब्लॉग पर अनेक प्रयोग किये हैं इस वर्ष, वहीं संजय झाला ने भी पाठकों को हंसा हंसाकर लोटपोट करने में कोई कसर नहीं छोड़ा !
हास्य व्यंग्य पर आधारित ब्लॉग सुदर्शन की सक्रियता लगातार हमें अचंभित करती रही है !विगत दो वर्षों में इस ब्लॉग पर मैंने अनेक अच्छी-अच्छी सामग्रियां देखी है,प्रस्तुतिकरण और भाषा का लालित्य इसकी विशेषता है ,क्योंकि ब्लोगर के.एम .मिश्रा को स्वस्थ हास्य परोसने में महारत हासिल है !यह ब्लॉग पूरी तरह हास्य और व्यंग्य को समर्पित है !देश के लगभग सभी ज्वलंत मुद्दों पर चुटीली टिप्पणियाँ इस वर्ष यहाँ देखने को मिली है !
GWALIOR TIMES हास्‍य व्‍यंग्‍य में पूरे वर्ष में केवल ८ पोस्ट प्रकाशित हुए, वहीं ठहाका में केवल ३ पोस्ट ! दीपकबापू कहिन पर यद्यपि इस वर्ष कुछ अच्छी हास्य-व्यंग्य रचनाएँ देखी गयी, तीखी नज़र पर हास्य-व्यंग्य की क्षणिकाएं लगातार देखने को मिली ।बामुलाहिजा पर कार्टून के माध्यम से आज के सामाजिक ,राजनैतिक कुसंगातियों पर पूरे वर्ष भर व्यंग्य बरसते रहे । कार्टूनिष्ट हैं कीर्तिश भट्ट । current CARTOONS ताज़ा राजनैतिक घटनाक्रमों पर आधारित कार्टून का महत्वपूर्ण चिट्ठा बनने में सफल रहा । कार्टूनिस्ट हैं -चंद्रशेखर हाडा जयपुर ।मजेदार हिंदी एस एम एस चटपटे और मजेदार चुटकुलों अथवा हास्य क्षणिकाओं का अनूठा संकलन बनने में सफल रहा इस वर्ष,वहीं चिट्ठे सम्बंधित कार्टून हिन्दी चिट्ठाजगत में हो रही गतिविधियों को कार्टून रूप में पेश करने की पूरी कोशिश करता रहा विगत वर्ष, किन्तु इस वर्ष यह पूरी तरह अनियमित रहा ।; SAMACHAR AAJ TAK पर आज की ताज़ा खबरें परोसी गयी मगर मनोरंजक ढंग से और यही इस ब्लॉग की विशेषता रही । अज़ब अनोखी दुनिया के काफी दिलचस्प रहा इस वर्ष ।
आईये अब मिलते हैं की बोर्ड के खटरागी से यानी अविनाश वाचस्पति से जिनके ब्लॉग पर हास्य-व्यंग्य और अन्य साहित्यिक समाचार खूब पढ़ने को मिले हैं इस वर्ष । यूँ ही निट्ठल्ला….. का प्रस्तुतीकरण अपने आप में अनोखा , अंदाज़ ज़रा हट के , आप भी पढिये और डूब जाईये व्यंग्य के सरोबर में ।डूबेजी के ब्लोगर श्री राजेश कुमार डूबे जी का कार्टून सामाजिक आन्दोलन की अगुआई करता रहा । दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका पर भी कभी-कभार अच्छी और संतुलित हास्य कवितायें देखने कोमिलती रही , यह ब्लॉग सुंदर और सारगर्भित और स्तरीय है । hasya-vyang पर ब्लोगर हास्य-व्यंग्य के साथ न्याय करता हुआ दिखा ।
सितंबर-२०१० में हास्य-व्यंग्य का एक नया ब्लॉग आया,नाम है वक़्त ही वक़्त कमबख्त !हास्य कविता,व्यंग्य,शायरी व अन्य दिमागी खुराफतों का संकलन (Majaal)है यह !वर्ष-२०१० के आखिरी चार महीनों में इस ब्लॉग पर कुल८९ पोस्ट प्रकाशित हुए जो प्रशंसनीय है !
किसी ने कहा है कि हंसना रवि की प्रथम किरण सा,कानन में नवजात शिशु सा ……हमारा वर्त्तमान इतना विचित्र है कि हमने अपनी सहज-सुलभ विशिष्टताओं को ओढ़ लिया है,आज हर आदमी इतना उदास है कि उसे हंसाने के लिए लाखों जतन करने पड़ते हैं !ऐसे में यदि कोई हमारे उदास चहरे पर हंसी की लालिमा फैलाने की दिशा में कार्य करता है या करती है तो प्रशंसनीय है !हास्य के ऐसे ही एक ब्लॉग से मैं रूबरू हुआ इस वर्ष ,नाम है हास्य फुहार ….इस ब्लॉग को संचालित करने वाली ब्लोगर का कहना है कि “मैं एक घरेलु महिला हूं , हंसो और हंसाओ में विश्वास रखती हूं।”
निरंतर पर भी आप व्यंग्य के तीक्ष्ण प्रहार को महसूस किया गया इस वर्ष । अनुभूति कलश पर डा राम द्विवेदी की हास्य-व्यंग्य कविताओं से हम रू-ब रू हुए । इसी प्रकार योगेन्द्र मौदगिल और अविनाश वाचस्पति के सयुक्त संयोजन में प्रकाशित चिट्ठा है हास्य कवि दरबार पर आपको मिली हास्य-व्यंग्य कविताएं, कथाएं, गीत-गज़लें, चुटकुले-लतीफे, मंचीय टोटके, संस्मरण, सलाह व संयोजन। विचार मीमांशा पर भी पढ़े गए इस वर्ष कुछ उच्च कोटि की हास्य रचनाएँ !
हास्य की चर्चा हो और हास्य कवि अलवेला खत्री की चर्चा न हो तो हिंदी ब्लॉगजगत की कोई भी वह चर्चा अधूरी ही मानी जायेगी, क्योंकि अलवेला खत्री टी वी जगत और मंच के मशहूर हस्ताक्षर है, किन्तु ब्लॉग के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अनुकरणीय है ! चलते-चलते आपको बता दूँ कि नई दिल्ली में 27 जुलाई को हास्य-कविता की कार्यशाला आयोजित हुई, जिसकी अध्यक्षता राष्ट्रीय कविसंगम के अध्यक्ष श्री जगदीश मित्तल ने की। विषय पर व्याख्यान देने के लिए मंच के जाने-माने हस्ताक्षर श्री अरुण जैमिनी, डॉ. प्रवीण शुक्ला,ब्लोगर चिराग़ जैन, डॉ. प्रवीण शुक्ला तथा डॉ.विनय विश्वास मौजूद थे।
आईये अब आपको एक ऐसे ब्लॉग से परिचय करवाते हैं जो संभवत: हिंदी में अनूठा और अद्वितीय है ब्लॉग का नाम है मिसफिट:सीधीबात, ब्लोगर हैं गिरीश बिल्लोरे मुकुल ….हिंदी ब्लॉगजगत में होने वाली हर गतिविधियों पर इनकी तीखी नज़र रहती है और हर आम व ख़ास ब्लोगर के मन की बात पाठको के समक्ष दृढ़ता के साथ परोसना इनकी आदत है !ये अपने ब्लॉग के बारे में बड़े फक्र से कहते हैं कि “जी हां !मिसफ़िट हूं हर उस पुर्ज़े की नज़र में जो हर जो हर ज़गह फ़िट बैठता हो.आप जी आप और आप जो मिसफ़िट हो वो मेरी ज़मात में फ़िट है !!”ऐसे ब्लोगर को अतुलनीय और अद्वितीय न कहा जाए तो क्या कहा जाए ? ये हिंदी ब्लोगिंग में लाईव वेबकास्ट की प्रस्तुति करने वाले पहले ब्लोगर हैं !
कुल मिलाकर देखा जाए तो वर्ष २०१० में हिंदी ब्लॉगिंग में व्यापक विस्तार देखा गया, किन्तु कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर आपसी मतैक्यता का अभाव दिखा, साथ अपनी डफली अपना राग अलापने का सिलसिला इस वर्ष भी जारी रहा !
रवीन्द्र प्रभात
मुख्य संपादक : परिकल्पना ब्लॉगोत्सव
लेखक परिचय:
हिंदी के मुख्य ब्लॉग विश्लेषक के रूप में चर्चित रवीन्द्र प्रभात विगत ढाई दशक से निरंतर साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखनरत हैं । इनकी रचनाएँ भारत तथा विदेश से प्रकाशित लगभग सभी प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा कविताएँ लगभग डेढ़ दर्जन चर्चित काव्य संकलनों में संकलित हैं। इन्होंने सभी साहित्यिक विधाओं में लेखन किया है परंतु व्यंग्य, कविता और ग़ज़ल लेखन में विशेष सक्रिय हैं। लखनऊ से प्रकाशित हिंदी “दैनिक जनसंदेश टाइम्स” के नियमित स्तंभकार, जिसमें व्यंग्य पर इनका साप्ताहिक स्तंभ “चौबे जी की चौपाल ” काफी लोकप्रिय है। “हमसफ़र” और “मत रोना रमजानी चाचा” दो ग़ज़ल संग्रह तथा एक कविता संग्रह “स्मृति शेष” प्रकाशित है । इन्होंने “समकालीन नेपाली साहित्य” में सक्रिय हस्ताक्षरों की रचनाओं का एक संकलन भी संपादित किया है । विगत चार वर्षों से हिंदी चिट्ठों का विहंगम विश्लेषण कर रहे रवीन्‍द्र को “संवाद सम्मान” से वर्ष-२००९ में सम्मानित किया गया। साहित्यिक संस्था “काव्य संगम” के प्रकाशन सचिव,”लख़नऊ ब्लॉगर एसोसिएशन” के अध्यक्ष तथा “प्रगतिशील बज्जिका लेखक संघ” के राष्ट्रीय महासचिव रह चुके हैं । वर्त्तमान में ये अंतरजाल की बहुचर्चित ई-पत्रिका “हमारी वाणी” के सलाहकार संपादक तथा प्रमुख सांस्कृतिक संस्था “अन्तरंग” के राष्ट्रीय सचिव हैं। अनियतकालीन “उर्विजा” ,” फागुनाहट” का संपादन तथा हिंदी मासिक संवाद और “साहित्यांजलि” का विशेष संपादन कर चुके हैं। “ड्वाकरा” की टेली डक्यूमेंटरी फ़िल्म “नया विहान” के पटकथा लेखन से भी जुड़े रहे हैं। जीवन और जीविका के बीच तारतम्य स्थापित करने के क्रम में इन्होंने अध्यापन का कार्य भी किया, पत्रकारिता भी की, वर्त्तमान में ये विश्व के एक बड़े व्यावसायिक समूह में प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं। आजकल लखनऊ में हैं। इस वर्ष इनकी तीन पुस्तकें क्रमश: ताकि बचा रहे लोकतंत्र (उपन्यास) , हिंदी ब्लॉगिंग : अभिव्यक्ति की नई क्रान्ति (संपादित) तथा हिंदी ब्लॉगिंग का इतिहास एक साथ प्रकाशित हुई है है तथा प्रेम न हाट विकाय(उपन्यास ) प्रकाशनाधीन है !

राजनीति और मीडिया : बिहार में मीडिया का यथार्थ /अटल तिवारी

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अटल तिवारी
media-for-saleबिहार में मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप की बात काफी दिनों से चल रही थी। पटना विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में बोलते हुए भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने इसका जिक्र किया तो हंगामा खड़ा हो गया। राज्य सरकार ने उनके बयान को आधारहीन बताया तो विपक्ष ने मीडिया पर पाबंदी लगाने की सरकारी कोशिश को लेकर विधानसभा में आवाज बुलंद की। आरोप-प्रत्यारोप के बीच मामले की जांच के लिए जस्टिस काटजू ने पत्रकार राजीव रंजन नाग की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन कर दिया। समिति सदस्यों ने जांच के दौरान राज्य के 16 जिलों का दौरा किया। उसे बताया गया कि पत्रकारों पर प्रबंधन का दबाव रहता है कि सरकार के खिलाफ खबरें न लिखी जाएं। इससे अखबार को मिलने वाला विज्ञापन रुक सकता है। आंदोलनों एवं जनता से जुड़ी खबरों को तवज्जो नहीं दी जा रही है। जांच रिपोर्ट के अनुसार बिहार सरकार मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है। विज्ञापन रोक देने से लेकर विरोधी खबर लिखने वाले पत्रकार का तबादला करने से लेकर नौकरी से निकलवा दिया जाना आम बात है। कवरेज में विपक्ष की अनदेखी कर सत्तापक्ष की मनमाफिक खबरों को तरजीह दी जा रही है। सरकार अक्सर अपनी खबर छपवाने के लिए पत्रकारों अथवा संपादकीय विभाग को न भेजकर सीधे अखबार के प्रबंधन को भेजती है। प्रबंधन, संपादकीय विभाग पर दबाव बनाकर ये खबरें प्रकाशित कराता है। इसका मूल कारण यह है कि राज्य में मीडिया उद्योग पूरी तरह सरकारी विज्ञापनों पर आश्रित है। जांच टीम ने कहा है—’सरकार के दबाव के चलते ही अखबार भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को कम तरजीह दे रहे हैं। वे केवल राज्य सरकार के विकास और योजनाओं की खबरें ही छाप रहे हैं।’ इस बीमारी से बचने के लिए टीम ने दस से अधिक बिंदु सुझाए हैं। इनमें एक अहम सुझाव राज्य में एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन करने का है, जो नियमों का सख्ती से पालन करते हुए मीडिया को विज्ञापन जारी करे।
प्रेस परिषद के सदस्यों की मुहर लगने से पहले जांच रिपोर्ट ही यह मीडिया के हाथ लग गई। इसमें हुई सरकार की आलोचना पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि परिषद की रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण है। नीतीश के सहयोगी दल भाजपा ने भी काटजू पर हमला बोलते हुए कहा कि वह एक कांग्रेसी की तरह गैरकांग्रेसी सरकारों को निशाना बना रहे हैं। इधर गुजरात और वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर लिखे गए काटजू के एक लेख ने रही—सही कसर पूरी कर दी। राज्यसभा में भाजपा नेता अरुण जेटली ने बाकायदा काटजू के इस्तीफे की मांग कर डाली। हालांकि गैरकांग्रेसी सरकारों को निशाना बनाने वाली तोहमत जड़ते हुए भाजपा नेता यह भूल गए कि फेसबुक पर टिप्पणी करने पर गिरफ्तार की जाने वाली दो लड़कियों के मामले में सबसे पहले काटजू ने ही महाराष्ट्र सरकार को निशाना बनाया था।
खैर! यहां बात बिहार की हो रही है, जहां मुख्य धारा का मीडिया विज्ञापनों की लूट में लगा है। अखबार एक ही पंजीकरण संख्या के आधार पर अनेक जिलों से अपने स्थानीय संस्करण निकाल रहे हैं। मीडिया के इस रवैये को पटना उच्च न्यायालय ने भी गैरकानूनी माना है क्योंकि आरएनआइ से प्राप्त एक पंजीकरण संख्या के आधार पर केवल एक ही स्थान से संस्करण निकाला जा सकता है। प्रेस परिषद की जांच समिति के अध्यक्ष राजीव रंजन नाग कहते हैं—’बिहार में अघोषित आपातकाल जैसे हालात हैं। अखबार एकतरफा तस्वीर पेश कर रहे हैं। घपले, घोटालों, भ्रष्टाचार और अपराध की खबरों को दबा दिया जाता है या दिखाने के लिए काट-छांट के बाद भीतर के पन्नों पर एक कॉलम में छापकर दबा दिया जाता है। दरअसल सरकारी विज्ञापनों पर सरकार का एकाधिकार होने की वजह से मीडिया संस्थानों ने अपने अखबारों को नीतीश सरकार का मुखपत्र बना दिया है, वहां सार्वजनिक हित की खबरों से परहेज किया जा रहा है। ‘
अखबारों में चल रहे विज्ञापनों के इस खेल को परिषद ने पहली बार नहीं रेखांकित किया है। इसके पहले 2010 में परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष जस्टिस जीएन रे ने भी अखबारों में बढ़ते विज्ञापनों व खबरों पर पड़ते उनके असर के संबंध में चिंता जाहिर की थी। उन्होंने कहा था कि ‘प्रेस के लिए विज्ञापन आमदनी का मुख्य स्रोत बन गए हैं। महानगरों में तो अखबारों की कुल आमदनी का लगभग 80 फीसदी विज्ञापनों से आ रहा है। इस वजह से अखबारों में विज्ञापन ही ज्यादा जगह घेरने लगे हैं। समाचार और विज्ञापन का अनुपात लगातार विज्ञापनों के पक्ष में झुक रहा है। अखबारों की नीति और विचारों पर विज्ञापनों का दखल जितना लगता है उससे ज्यादा हो चुका है।’
कारपोरेट युग में मीडिया इतना ताकतवर हो गया है कि वह अपने हित के लिए सभी नियम-कायदे ध्वस्त कर रहा है। दोनों तरफ ‘राजनीति व मीडिया’ से हित साधन की मुहिम चल रही है। इसी के तहत लंबे समय से मीडिया का इस्तेमाल राजनीति को मनमाफिक ढालने में हो रहा है तो मीडिया भी नेताओं का इस्तेमाल कर पूंजी बनाने में लगा है।
बिहार में पिछले सात साल से मीडिया का एकसुरा नीतीश राग चल रहा है। सबसे पहले 2008 में आने वाली कोसी नदी की तबाही की बात। प्रलयंकारी बाढ़ आने पर नीतीश सरकार की लापरवाही पर बिहार की पत्रकारिता मौन रही। वह बाढ़ की विभीषिका को कमतर दिखाने का प्रयास करती रही। सरकारी राहत कार्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती रही। इसी तरह जून 2011 में फारबिसगंज में पुलिस फायरिंग और हिंसा में चार लोगों की मौत का विभिन्न संगठनों व बौद्धिक जगत के लोगों ने विरोध किया, लेकिन अखबारों ने इस कांड को दबाना ही उचित समझा। हां, सोशल मीडिया की वजह से घटना की खबर एवं विरोध की आवाज लोगों तक जरूर पहुंची। नालंदा में शांति कायम करने के बहाने पुलिस ने आम लोगों पर कहर बरपाया। अनुबंध आधारित नौकरी को नियमित करने और वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर सड़क पर उतरे शिक्षकों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। महिलाओं तक को नहीं बख्शा गया। आशा महिलाओं के विरोध प्रदर्शन से लेकर हर आंदोलन का दमन किया जाता रहा है। यह घटनाएं किसी भी लोकतंात्रिक राज्य के लिए कलंक हैं। लेकिन लोकतंत्र का राग अलापने वाली सरकार में ऐसी घटनाएं नहीं दिखनी व छपनी चाहिए सो इसके लिए नीतीश राग में लगा मीडिया अपना काम कर रहा है। शिक्षकों को पीटने (सर्वोच्च न्यायालय ने जिसका संज्ञान लिया) की बात पर सरकार ने उनके अराजक होने की बात कही। यह आरोप जड़ते हुए वह भूल गई कि जून 2012 में रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह की शव यात्रा में शामिल भीड़ को गुंडागर्दी मचाने को खुला छोड़ देने के लिए उसने क्या दलील दी थी? उस समय पुलिस महानिदेशक ने कहा था कि अगर भीड़ पर शिकंजा कसा जाता तो बिहार अराजकता के दौर में जा सकता था। यानी भीड़ को गुंडागर्दी करने की खुली छूट प्रशासन ने दी वहीं अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे शिक्षकों को पुलिस द्वारा पीटने को उसने उचित ठहरा दिया। सरकार की इस संवेदनहीनता पर स्थानीय मीडिया उंगली नहीं उठाता है। सरकार पर उंगली उठाने वाली खबरें प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों में कमोबेश नहीं दिखती। ऐसे में विकल्प के रूप में समाचार के वैकल्पिक माध्यम ‘इसमें सोशल मीडिया एवं कुछ पत्र-पत्रिकाएं’ बचते हैं, जिसमें उसके कारनामों की पोल अवश्य खुल रही है। मीडिया किस तरह पक्षपात करता है इसके लिए पटना उच्च न्यायालय की 2011 की एक टिप्पणी पर नजर डालना जरूरी है। न्यायालय ने टिप्पणी की कि ‘पटना में जंगलराज है, यहां नियम नहीं चलते, ऑफीसर और बाबुओं की मिलीभगत से हर काम संभव है।’ न्यायालय की इस टिप्पणी पर मीडिया ने गौर तक नहीं किया…सवाल उठाने की तो बात छोडि़ए। लेकिन न्यायालय की एक ऐसी ही टिप्पणी को आधार बनाकर मीडिया ने लालू के शासनकाल को जंगलराज घोषित कर दिया था। लेखक प्रमोद रंजन कहते हैं-”आज बिहारी पत्रकारिता का परिदृश्य खुला हमाम है। सरकार में शामिल सामंती ताकतें इस अश्लीलता का चटखारा ले रही हैं जबकि जनांदोलनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी पार्टियों के हिस्से में उसकी नंगई आई है। जितनी धूर्तता से सरकारी उपलब्धियों का ढोल पीटा जा रहा है, उससे कहीं अधिक चालाकी से विरोध की आवाजें सेंसर की जा रही हैं। हर खबर में यह ध्यान रखा जा रहा है कि कहीं मौजूदा सरकार को राजनीतिक नुकसान न हो जाए। …लोकतंत्र के मूलाधार विरोध प्रदर्शनों को मुख्यमंत्री गुंडागर्दी कहते हैं तो अखबार सुशासन और विकास के अवरोधक।”
अखबार ऐसा क्यों कर रहे हैं इसके लिए मीडिया के पूरे तंत्र को समझना होगा। देश में मीडिया कंपनियों का कारोबार फैलता जा रहा है। इसके साथ ही साल-दर-साल उसकी बहुलता कम होती जा रही है। अब वह चंद घरानों में सिमट गया है। ऐसे में राजनीति और कारपोरेट के हाथों वह आसानी से सध रहा है। वह सत्ता एवं कारपोरेट के पक्ष में राय बनाने का काम कर रहा है। मीडिया की इस ताकत को देखते हुए जरूरी है कि वह कैसे काम करता है? किसके कहने पर करता है? किसके हित में करता है, इसकी निगरानी की जाए। बिहार में मुख्यधारा का मीडिया चंद घरानों तक कैसे सिमट गया इसकी गवाही आंकड़े देते हैं। राज्य में हिंदुस्तान टाइम्स समूह व दैनिक जागरण समूह का प्रिंट मीडिया पर एकाधिकार है। इंडियन रीडरशिप सर्वे 2010 की चौथी तिमाही रिपोर्ट के अनुसार राज्य में सबसे अधिक बिकने वाले दस अखबारों की कुल औसत पाठक संख्या 81.01 लाख है। इसमें से 46.25 लाख (57 प्रतिशत) पाठक केवल हिंदुस्तान के पास हैं। हिंदुस्तान टाइम्स की पाठक संख्या जोड़ लें तो इस मीडिया समूह के पास बिहार के टॉप दस अखबारों की 58.37 प्रतिशत पाठक संख्या है। अगर हिंदुस्तान टाइम्स समूह व दैनिक जागरण समूह के अखबारों (हिंदुस्तान, हिंदुस्तान टाइम्स व दैनिक जागरण, आई-नेक्स्ट) की पाठक संख्या मिला लें तो यह संख्या 72.73 लाख हो जाती है। यानी दो मीडिया समूह बिहार के टॉप दस अखबारों के पाठकों का 89.67 प्रतिशत कंट्रोल करते हैं। इस तरह दो मीडिया कंपनियों को साधन (मैनेज) कर बिहार के टॉप दस अखबारों के लगभग 90 फीसदी को मैनेज किया जा सकता है। नीतीश सरकार यही काम कर रही है। पत्रकार दिलीप मंडल लिखते हैं-’नीतीश सरकार (पहली सरकार) के चार साल पूरे होने पर 24 नवंबर 2009 को एक ही दिन 1.15 करोड़ रुपए के विज्ञापन 24 अखबारों को दिए गए। …इन विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा लगभग 72.5 लाख रुपए हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर और आज अखबार को दिए गए। सबसे ज्यादा 37 लाख के विज्ञापन हिंदुस्तान को मिले। इस विज्ञापन के फौरन बाद 31 दिसंबर 2009 को हिंदुस्तान ने एक एसएमएस पोल के नतीजे छापे, जिसके मुताबिक राष्ट्रीय हीरो के तौर पर नीतीश कुमार देश में सबसे आगे रहे।’ नीतीश को हीरो बनाने की यह कहानी एक मीडिया संस्थान की नहीं है। मीडिया द्वारा गढ़ी जाने वाली ऐसी कहानियां अक्सर सामने आती रही हैं। साल 2010 में विधानसभा चुनाव से पहले एनडीटीवी इंडिया समाचार चैनल ने नीतीश को बेहतरीन मुख्यमंत्री का खिताब दिया। दरअसल पैसों से बिकने वाला मीडिया नीतीश के इशारे पर उठ-बैठ रहा है। विकास का कागजी किला बनाकर नीतीश उसी के कारण विकास पुरुष बन गए। मीडिया के बनाए इस विकास पुरुष को दूसरे चुनाव में भी मतदाताओं ने वोटों की गठरी से लाद दिया। इस कागजी किले का एक उदाहरण देखिए। बिहार में कम प्रसार संख्या वाला प्रभात खबर चेतना संपन्न लोगों का अखबार माना जाता रहा है। इसे विज्ञापन कम मिलते थे। मुख्यमंत्री ने इसके विज्ञापन में लगभग तीन गुना तक बढ़ोतरी कर दी। इसका असर भी देखने को मिला। अखबार ने 11 जुलाई 2009 को अपने स्थापना दिवस पर मुख पृष्ठ पर टिप्पणी लिखी: ”नीतीश सरकार के नेतृत्व में बिहार बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है। विश्व बैंक ने पटना को बिजनेस के लिए देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से बेहतर माना है। पिछले तीन सालों में बिहार की आर्थिक विकास दर 10.5 फीसदी हो गई है। हम बिहार को विकसित बनाना चाहते हैं, तो हमें उद्यमी बनना होगा। सूबे में उद्यमिता का माहौल बनाने की दिशा में एक मामूली कोशिश है प्रभात खबर के स्थापना दिवस पर प्रकाशित यह विशेषांक।” उद्यमिता पर केंद्रित इस विशेषांक में पूरी सामग्री ही सरकार का गुणगान करने वाली है, जिसमें उद्यमियों का बिहार की ओर आकर्षित होना। उद्योग घरानों से औद्योगिक निवेश के लिए 92 हजार करोड़ रुपए का प्रस्ताव आना। निवेशकों का तांता लगा रहना आदि-आदि। इस तरह निवेश की बात को लेकर सरकार अखबारों के जरिए फर्जी किले बनाती रही… जबकि धरातल पर स्थानीय व्यापारियों द्वारा महज दस हजार करोड़ के अंदर निवेश किया गया था। मुख्यमंत्री ने यह स्वीकार भी किया कि बाहरी पूंजीपति बिहार में रुचि नहीं ले रहे हैं। इसके बावजूद अखबार जबरन हजारों करोड़ का निवेश करा रहे थे। ये घटनाएं महज कुछ अखबारों की बानगी हैं वरना इस तरह की खबरों से बिहार के अखबार भरे रहे हैं। चापलूस पत्रकारों की एक पूरी जमात मुख्यमंत्री व उनकी सरकार की जी-हुजूरी करने को बेताब रहती है।
इसी तरह नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य का दरजा दिए जाने की मांग को लेकर बयानबाजी कर रहे थे। इसको लेकर पिछले साल 19 सितंबर को ‘अधिकार यात्रा’ की शुरुआत की। यात्रा से पहले बड़ी रकम उसके प्रचार पर खर्ची। अखबारों को खूब विज्ञापन दिए। राज्य में बड़े-बड़े होर्डिंग लगे। पर, नीतीश की घोषणाओं और जमीनी धरातल पर असमानता को लेकर नाराज लोग यात्रा का जगह-जगह विरोध करने लगे। विरोध इतना बढ़ा कि यात्रा बीच में ही स्थगित करनी पड़ी। इसकी खबरें पटना में कम दिल्ली के अखबारों में अधिक छपीं। इसी तरह प्रदेश में अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रावासों पर अनेक हमले हुए। काफी छात्र घायल हुए। अनेक जगह छात्रावासों पर दबंगों ने कब्जा कर रखा है। यह सब अखबारों को नहीं दिखता। दरअसल सरकार व अखबारों के बीच समरसता की बयार बह रही है। सरकार जो कहती है वही बयार अखबारों में बहती है। आज हालात देखकर लगता है कि लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के शासन तक मीडिया कमोबेश आजाद था। लेकिन पिछले कुछ सालों से इस सुशासनी सरकार ने अघोषित सेंसरशिप की लगाम मीडिया पर लगा रखी है। अब बाजार के नियमों से चल रहा मीडिया अमूमन सरकार के खिलाफ जाने की हिमाकत नहीं करता है। वैसे यह एक राज्य की कहानी नहीं है। अखबारों और समाचार चैनलों को जिन चीजों की जरूरत (विज्ञापन, जमीन, कागज में छूट, टैक्स में रियायत) होती है वह राज्य से मिलती रहती है। बदले में वे सरकारों की जी-हुजूरी में करते हैं। ऐसे में अगर बिहार की बात की जाए तो वहां रीढ़विहीन पत्रकारिता (जिस समय अधिकतर राज्यों में पत्रकारिता का सुर बदलने लगा था) की गलत परंपरा काफी बाद में देखने को मिली। लालू-राबड़ी के शासन तक भी सरकार की आलोचना छप जाती थी। कुछ अखबारों ने तो बाकायदा उनके खिलाफ सीरीज चला रखी थी। लालू ने पहले इन विरोधी खबरों को तरजीह नहीं दी। फिर ऐसी खबरें रुकवाने का उन्होंने कुछ प्रयास किया था। कुछ हद तक कामयाब भी रहे। ऐसे में नीतीश काल में मीडिया की भूमिका को देखने से पहले के समय पर भी नजर डालनी होगी। नीतीश जिस तरह मीडिया को साध रहे हैं उसके कुछ बीज लालू ने ही बो दिए थे। दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री तो उसी समय से बाकायदा फसल काटने लगे थे। यह बात अलग है कि नीतीश जरूरत से ज्यादा ही फसल काटने लगे हैं। मीडिया ने अपनी इस बदली भूमिका में गलत चीजों को देखना, सुनना और इन पर बोलना तक बंद कर दिया है। उसे नीतीश के गांव कल्याण बीघा के लोगों की नाराजगी नहीं दिखती है, जहां के लोग कहते हैं कि केवल सड़क बनने से गांव का विकास नहीं हो जाता। सरकार ने किसानों के लिए क्या किया? गांव की सड़क नहर पर बनी है। खेतों को पानी नहीं मिल रहा है। काम की खोज में मजदूरों का पलायन जारी है। मुख्यमंत्री कल्याण बीघा के लोगों से मिलते हैं पर गांव के किनारे बसे दलितों की सुध नहीं लेते। वहां पानी नहीं है। बिजली नहीं है। स्कूल भी नहीं है। असल में मीडिया ने बदहाल बिहार बनाम बदलते बिहार की ऐसी तस्वीर खींचीं कि लोग चकित रह गए। दोबारा चुनाव जीतने वाले नीतीश का गान होता रहा। वहीं लालू प्रसाद व रामविलास पासवान के प्रति घृणा देखने को मिली। ऐसा करने वाले पत्रकारों को सुशासनी सरकार का मीडिया मैनेजमेंट नहीं दिखा। लालू-राबड़ी के शासन को जंगलराज बताने वाले मीडिया को अपराध के आंकड़े (जिसमें दोनों सरकारों का एक जैसा हाल) भी नहीं दिखते। लालू-राबड़ी के समय 2005 में संज्ञेय अपराध के एक लाख चार हजार सात सौ अठहत्तर मामले थे तो 2010 में एक लाख छब्बीस हजार तीन सौ छियालीस। 2005 में सांप्रदायिक दंगे व फसाद के मामले जहां 7,704 थे वहीं 2010 में 8,189 तक पहुंच गए। सुशासनी सरकार के समय में ही दहेज हत्या के मामले में राज्य दूसरे पायदान तक पहुंच गया। ऐसे सवाल नहीं उठाने के लिए मौजूदा सरकार ने विज्ञापन रूपी प्यार मीडिया पर उड़ेला। इस अतिशय प्यार के लिए उसने बजट बढ़ाने में जरा-सा भी संकोच नहीं किया। बिहार में निजी उद्यम की हालत ठीक नहीं होने के कारण कुल विज्ञापनों में सरकारी विज्ञापनों का हिस्सा काफी बड़ा होता है। लालू-राबड़ी देवी के समय 2005-06 में जहां 4.49 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च हुए थे, वहीं नवंबर 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश साल दर साल विज्ञापनों का बजट बढ़ाती रही। 2009-10 में यह बजट 34.59 करोड़ पर पहुंच गया था।
इसी तरह बिहार के जब राजनीतिक अपराधीकरण की बात होती है तो लालू और उनकी पार्टी को खलनायक बना दिया जाता है, लेकिन यह सवाल नहीं उठाया जाता कि नीतीश कुमार के 30 कैबिनेट मंत्रियों में से 14 पर आपराधिक मुकदमे कायम हैं। जदयू के 114 विधायकों में से 58 पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इसमें 43 पर गंभीर आरोप हैं। इसी तरह भाजपा के 90 विधायकों में 29 दागी हैं। पूरी विधानसभा के 141 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। 2005 में 50 फीसदी विधायकों पर आपराधिक मुकदमे थे तो मौजूदा सरकार में यह आंकड़ा 59 फीसदी है। मीडिया को नियंत्रित करने के लिए विज्ञापन के साथ सरकार एक और रणनीति (इसका इस्तेमाल केंद्र की राजग सरकार ने भी अपने समय में खूब किया था) अपनाती रही है। वह ठसक के साथ प्रबंधन से सरकार विरोधी पत्रकारों को हटाने को कहती है, जिनकी लालू प्रसाद यादव व रामविलास पासवान से नजदीकी है। यानी जो नीतीश के विरोधी हैं। ऐसे पत्रकारों को संस्थान से बाहर करने या तबादला करने के लिए मजबूर किया गया। उनकी जगह अपने भक्त पत्रकारों को आसीन कराया गया। पत्रकारिता में यह एक गंदा और नया चलन है। ऐसे चलन से जाहिर होता है कि मीडिया पहरेदार वाली भूमिका को तिलांजलि दे चुका है। बिहार के लिए दुखद पहलू यह है कि वहां नैतिक जिम्मेदारी न सरकार निभाना चाहती है न मीडिया। मीडिया विश्लेषक आनंद प्रधन कहते हैं—’न्यूज मीडिया का मुंह बंद रखने के लिए राज्य सरकारें हर हथकंडा अपना रही हैं उनमें से कई राज्य सफल भी हैं। लेकिन बिहार का मामला इसलिए खास है क्योंकि यहां न्यूज मीडिया राज्य सरकारों और नेताओं-अधिकारियों के भ्रष्टाचार, घोटालों, अनियमितताओं के खुलासों से लेकर गरीबों और कमजोर वर्गों के पक्ष में मुखर और सक्रिय रहा है। इस कारण बिहार की पत्रकारिता में खासकर 1977 के बाद से एक धार रही है और उसे नियंत्रित करने की कोशिशें उतनी सफल नहीं हो पाईं जितनी अन्य राज्यों में हुईं। यहां तक कि जब 1983 में तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने बिहार के अखबारों और पत्रकारों को नियंत्रित करने के लिए बिहार प्रेस विधेयक लाने की कोशिश की तो राज्य और उसके बाहर पत्रकार संगठनों और जनसंगठनों के आंदोलन के कारण उन्हें अपने पैर खींचने पड़े।” समूह मीडिया की गढ़ी नीतीश की विकास पुरुष और लोकप्रियता वाली छवि धीरे-धीरे धूमिल हो रही है। नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाईटेड (जदयू) की ही बात की जाए तो एक पूरा धड़ा (इन लोगों ने बिहार नवनिर्माण मंच नाम से संगठन बनाया) उनसे खफा है। वह नीतीश के सुशासन की हवा निकाल रहा है। पिछले साल सुशासन का सच नाम की पुस्तिका राज्य में बंटी। इसी तरह उनके खास रहे कुछ लोगों ने उनसे अलग होकर राष्ट्रीय समता पार्टी का गठन किया है। इसमें नीतीश से खफा लोगों को गोलबंद किया जा रहा है। एक तरह से पार्टी के अंदर एक धड़ा उनका विरोध कर रहा है तो बाहर जनता विरोध कर रही है। यह विरोध उन्हें पिछले दिनों अधिकार यात्रा के दौरान देखने को भी मिला। उनसे जुड़े किसी भी विरोध पर नीतीश की आने वाली प्रतिक्रियाएं भी असहज करने वाली होती हैं। विपक्ष की छोडि़ए अपने ही कहते हैं कि वह छोटे मन के नेता हैं। अपनी आलोचना स्वीकार नहीं कर पाते हैं। विरोध होने पर आपा खो बैठते हैं। लेकिन मीडिया ने ऐसी गलत परंपरा डाल दी है कि सुशासनी मुख्यमंत्री को एक भी शब्द अपने और अपनी सरकार के खिलाफ सुनना मंजूर नहीं है। इस कड़ी में बिहार विधान परिषद के कर्मचारी अरुण नारायण और मुसाफिर बैठा का नाम लिया जा सकता है, जिन्हें फेसबुक पर सरकार की नीतियों की आलोचना करने के कारण निलंबित कर दिया गया। कुछ समय पहले सैयद जावेद हसन का सेवा विस्तार रोककर उन्हें परिषद से बाहर कर दिया गया। ये तीनों साहित्य जगत से नाता रखते हैं। इसी तरह जदयू के संस्थापक सदस्यों में रहे लेखक प्रेमकुमार मणि को पार्टी से छह साल के लिए निलंबित कर दिया गया है। कुछ समय बाद उन पर अज्ञात लोगों द्वारा जानलेवा हमला तक हुआ। प्रेमकुमार को पार्टी ने साहित्य के कोटे से विधान परिषद का सदस्य बनाया था। उन्होंने समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग, भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को माने जाने की मांग की थी। साथ ही राज्य सरकार की ओर से गठित सवर्ण आयोग समेत कुछ नीतियों का विरोध किया था। उनकी इस ‘खता’ को सुशासनी मुख्यमंत्री बर्दाश्त नहीं कर सके। इन सभी घटनाओं को अखबारों ने दबाने में ही अपना ‘हुनर’ समझा। विधान परिषद से तीन कर्मचारियों का निलंबन तो एक बानगी है। कहा यह जाता है कि नीतीश सरकार के आने के बाद विधान परिषद से उन सभी लोगों के सफाए का अभियान चला, जिन्हें सभापति रहे प्रो. जाबिर हुसैन ने नौकरी दी थी। इनमें से बड़ी संख्या दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की थी। यह भी संयोग ही रहा कि निलंबित किए गए मुसाबिर बैठा, अरुण नारायण एवं जावेद मुस्तफा भी क्रमश: इन्हीं समुदायों से हैं। फेसबुक पर लिखने के कारण नौकरी से निलंबन की घटना सूचना क्रांति के दौर में चकित करती है। साथ ही अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन भी करती है। लेकिन असलियत यह है कि ऐसे हालात बनाने के लिए मीडिया पूरी तरह जिम्मेदार है। इस छवि गढ़ाऊ मीडिया ने फेसबुक पर टिप्पणी करने मात्रा से नौकरी से निकाले गए लोगों की खबर भी गायब कर दी। हालंाकि इस मसले को लेकर सोशल मीडिया में तीखी बहस देखने को मिली। राज्य में हो रही इस नए तरह की पत्रकारिता की कहानी 2009 में प्रकाशित मीडिया में हिस्सेदारी और 2011 में प्रकाशित बिहार में मीडिया कंट्रोल: बहुजन ब्रेन बैंक पर हमला में विस्तार से छपी। इस लेख में इस्तेमाल किए गए कई आंकड़े इन्हीं किताबों से लिए गए हैं। वैसे अभिव्यक्ति की आवाज दबाने वाले नीतीश कुमार भूल गए कि आपातकाल के समय लिखने-बोलने वालों को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जेल भेजा था। इसका विरोध करने वाले मुखर नेताओं में उनका भी नाम लिया जाता है। वह जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले उस आंदोलन की ही देन हैं। आज वही नीतीश कुमार वैचारिक विरोध करने वालें के खिलाफ क्या नहीं कर रहे हैं। ऐसे में समय-समय पर जो लोग लिखने-बोलने वालों पर कट्टरता के साथ पाबंदी लगाने की वकालत करते हैं, हमले तक करते हैं, उनसे वह अलग कैसे माने जा सकते हैं? नीतीश से खफा पार्टी के आध दर्जन से अधिक नेता यदा-कदा उनके खिलाफ मोरचा खोल रहे हैं। यही वजह है कि राज्य में उनका असर कम होता जा रहा है। इसका असर विश्वविद्यालयों के चुनाव में भी देखने को मिला। पटना विश्वविद्यालय के छात्रासंघ चुनाव में वामपंथी दल के छात्र संगठन एआइएसएफ ने सेंट्रल पैनल के पांच पदों में से दो पर कब्जा जमाया। वहीं भाजपा-जदयू व आरजेडी के छात्र संगठनों को एक-एक सीट मिली। पटना विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार वामपंथी संगठन का असर दूसरे दलों से अधिक दिखा। मगध विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के सेंट्रल पैनल के सभी पांच पद भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) के खाते में गए। मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप समेत इस सरकार के खाते में ढेर सारी खामियां हैं। लेकिन उसके खाते में कुछ अच्छे काम भी हैं। नीतीश ने पहली सरकार में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान किया था। इस दिशा में कदम भी उठाए। सबसे पहले विधायक निधि खत्म की, जिसमें भ्रष्टाचार का खेल चल रहा था। दूसरा कदम मंत्रियों व अफसरों द्वारा संपत्ति का सार्वजनिक ऐलान करने का रहा। तीसरा कदम भ्रष्टाचारी अफसरों की संपत्ति जब्त करने का कानून बनाया गया। अन्य अपराध न सही पर संगठित अपहरण उद्योग पर शिकंजा कसा गया। एक और अहम बात कि अभी तक वह राजनीति में परिवारवाद-रिश्तेदारीवाद से दूर रहे। मीडिया ने इन बातों को भी खूब प्रचारित किया। सवाल यह उठता है कि क्या लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका यही रह गई है? बिहार की बात करें तो आने वाले समय में जनता वोट के जरिए नीतीश को उनकी नीतियों के लिए फिर भी सबक सिखा सकती है लेकिन मीडिया की इस भूमिका के लिए उस पर सवाल कौन उठाएगा? काश! समय रहते बिहार में बनी मीडिया की इस गलत छवि को सुधारा जा सके जिससे आने वाले समय में राज्य की वास्तविक तस्वीर सामने आए और भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जड़ें मजबूत बनी रहें।

क्या भारतीय मीडिया संस्कृति विरोधी है ? सच्चाई जानिये

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क्या आप जानते हैं हम मीडिया को बिकाऊ क्यूँ कहते हैं क्या आप जानते हैंहमारा मीडिया पश्चिमीकरण का समर्थन और भारतीयता का विरोध क्यों करता हैक्या आप जानते हैं टीआरपी के लिए कुछ भी करने वाले मीडिया ने हमेशा श्रीराजीव दीक्षित की उपेक्षा क्यों की है ?
आइये जानते हैं भारत के सारे चैनलों और मीडिया की सच्चाई के बारे में ::
सन् 2005 में एक फ़्रांसिसी पत्रकार भारत दौरे पर आया उसका नाम 'फ़्रैन्कोईस' था, उसने भारत में हिंदुत्व के ऊपर हो रहे अत्याचारों केबारे में अध्ययन किया और उसने फिर बहुत हद तक इस कार्य के लिए मीडिया कोजिम्मेवार ठहराया। फिर उसने पता करना शुरू किया तो वह आश्चर्य चकित रह गयाकि भारत में चलने वाले न्यूज़ चैनल, अखबार वास्तव में भारत के है हीनहींफिर मैंने एक लम्बा अध्ययन किया उसमें निम्नलिखित जानकारी निकलकर आईजो मै आज सार्वजानिक कर रहा हूँ ::
विभिन्न मीडिया समूह और उनका आर्थिक श्रोत :
1. द हिन्दू जोशुआ सोसाईटी, बर्न, स्विट्जरलैंड, इसके संपादक एन॰ राम, इनकी पत्नी ईसाई में बदल चुकी हैं।
2. एनडीटीवीगोस्पेल ऑफ़ चैरिटी, स्पेन, यूरोप
3. सीएनएन, आईबीएन 7, सीएनबीसी…100 % आर्थिक सहयोग साउथर्न बैपिटिस्ट चर्च द्वारा
4. द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, नवभारत, टाइम्स नाउबेनेट एंड कोल्मान द्वारासंचालित, 80% फंड वर्ल्ड क्रिस्चियन काउंसिल द्वारा, बचा हुआ 20% एकअंग्रेज़ और इटैलियन द्वारा दिया जाता है। इटैलियन व्यक्ति का नाम रोबेर्टमाइन्दो है जो यूपीए अध्यक्षा सोनिया गाँधी का निकट सम्बन्धी है।
5. हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तानमालिक बिरला ग्रुप लेकिन टाइम्स ग्रुप के साथ जोड़ दिया गया है।
6. इंडियन एक्सप्रेसइसे दो भागों में बाँट दिया गया है, दि इंडियनएक्सप्रेस और न्यू इंडियन एक्सप्रेस(साउथर्न एडिसन) - Acts Ministries has major stake in the Indian express and later is still with the Indian Counterpart.
7. दैनिक जागरण ग्रुपइसके एक प्रबंधक समाजवादी पार्टी से राज्यसभा में सांसद हैअब आगे कुछ कहने की ज़रूरत नही आप जानते हैं.
8. दैनिक सहारा.... इसके प्रबंधन सहारा समूह देखती है। इसके निदेशक सुब्रोतो राय भी समाजवादी पार्टी के बहुत मुरीद हैं।
9. आंध्र ज्योति..... हैदराबाद की एक मुस्लिम पार्टी एम्आईएम् (MIM ये वहीपार्टी है जो हाइडेराबॅड मे दंगे करते रहते है ) ने इसे कांग्रेस के एकमंत्री के साथ कुछ साल पहले खरीद लिया।
10. दि स्टेट्स मैनकम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया द्वारा संचालित
11. इंडिया टीवी … Independent News Services Private Ltd. received investment from Fuse+ Media, an entity of ComVentures, a venture capital firm based in Palo Alto, California, United States with over $1.5 billion of assets under management. Further investments have valued Independent News Service at Rs. 800 crores.
12. इंडिया न्यूज़ प्रबन्धक कार्तिकेय शर्मा (जेसिका लाल हत्या के आरोपीमनु शर्मा का भाई), जिनके पिता विनोद शर्मा हरयाणा से काँग्रेस विधायकहैं।
13 स्टार टीवी ग्रुपसेन्ट पीटर पोंतिफिसिअल चर्च, मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया।
स्टार न्यूज़ (एबीपी न्यूज़) सदा से ही भारत में हिंदू विरोधी रहा है, दरअसल भारत मेंस्टार न्यूज़ Media Content and Communications Services India Pvt Ltd. नाम की एक कंपनी चलाती है, जिसके मुख्य संपादक शाजी जमानहैं जो शुरू से ही हिंदू विरोधी रहे हैं
[ये सभी लोग कांग्रेस और वामपंथियो के चमचे है]
स्टार न्यूज़ आदर्श की बड़ी बड़ी बातें करता है लेकिन एक न्यूज़ एंकर 'शायमा सहर' के यौन शोषण पर एकदम खामोश है।
इस तरह से एक लंबी लिस्ट है जिससे ये पता चलता है की भारत की मीडियाभारतीय बिलकुल भी नहीं है और जब इनकी फंडिंग विदेश से होती है है तो भलाभारत के बारे में कैसे सोच सकते हैं। अपने को पाक साफ़ बताने वाली मीडियाके भ्रष्टाचार की चर्चा करना यहाँ पर पूर्णतया उचित ही होगा। बरखा दत्तजैसे लोग जो की भ्रष्टाचार का रिकार्ड कायम किये हैं, उनके भ्रष्टाचार कीचर्चा दूर दूर तक है, इसके अलावा आप लोगों को शायद न मालूम हो पर आपको बतादूँ कि ये 100% सही बात है की NDTV की एंकर बरखा दत्त ने ईसाई धर्म स्वीकारकर लिया है।
प्रभु चावला जो की खुद रिलायंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट में फैसलाफिक्स कराते हुए पकड़े गए उनके सुपुत्र आलोक चावला, अमर उजाला के बरेलीसंस्करण में घोटाला करते हुए पकडे गए।
दैनिक जागरण ग्रुप ने अवैध तरीके से एक ही रजिस्ट्रेशन नम्बर पर बिहार मेंकई जगह पर गलत ढंग से स्थानीय संस्करण प्रकाशित किया जो की कई साल बाद मेंपकड़ में आया और इन अवैध संस्करणों से सरकार को 200 करोड़ का घाटा हुआ।
दैनिक हिन्दुस्तान ने भी जागरण के नक्शे कदम पर चलते हुए यही काम कियाउसने भी 200 करोड़ रुपये का नुकसान सरकार को पहुंचाया इसके लिए हिन्दुस्तानके मुख्य संपादक शशि शेखर के ऊपर मुक़दमा भी दर्ज हुआ है। शायद यही कारणहै की भारत की मीडिया भी कालेधन, लोकपाल जैसे मुद्दों पर सरकार के साथ हीभाग लेती है।
सभी लोगों से अनुरोध है की इस जानकारी को अधिक से अधिक लोगो के पासपहुंचाएँ ताकि दूसरो को नंगा करने वाले मीडिया की भी सच्चाई का पता लग सके।

माधवराव सप्रे

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माधवराव सप्रे
माधवराव सप्रे (जून१८७१ - २६ अप्रैल१९२६) के जन्म दमोहके पथरिया ग्राम में हुआ था। बिलासपुरमें मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मेट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुरसे उत्तीर्ण किया। १८९९में कलकत्ता विश्वविद्यालयसे बी ए करने के बाद उन्हें तहसीलदार के रुप में शासकीय नौकरी मिली लेकिन सप्रे जी ने भी देश भक्ति प्रदर्शित करते हए अँग्रेज़ों की शासकीय नौकरी की परवाह न की। सन १९००में जब समूचे छत्तीसगढ़में प्रिंटिंग प्रेस नही था तब इन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से “छत्तीसगढ़ मित्र” नामक मासिक पत्रिका निकाली।[1]हालांकि यह पत्रिका सिर्फ़ तीन साल ही चल पाई। सप्रे जी ने लोकमान्य तिलकके मराठीकेसरीको यहाँ हिंदी केसरीके रुप में छापना प्रारंभ किया तथा साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुरसे हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की। उन्होंने कर्मवीरके प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई।
सप्रे जी की कहानी "एक टोकरी मिट्टी" (जिसे बहुधा लोग “टोकनी भर मिट्टी” भी कहते हैं) को हिंदी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है। सप्रे जी ने लेखन के साथ-साथ विख्यात संत समर्थ रामदासके मराठी दासबोधमहाभारतकी मीमांसा, दत्त भार्गव, श्री राम चरित्र, एकनाथ चरित्र और आत्म विद्या जैसे मराठी ग्रंथों, पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद भी बखूबी किया। १९२४में हिंदी साहित्य सम्मेलनके देहरादूनअधिवेशन में सभापति रहे सप्रे जी ने १९२१में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और साथ ही रायपुर में ही पहले कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। यह दोनो विद्यालय आज भी चल रहे हैं।
माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना, हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, उनकी राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने ११ सितम्बर १९२६ के कर्मवीरमें लिखा था − "पिछले पच्चीस वर्षों तक पं. माधवराव सप्रे जी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।"[2]

संदर्भ

  1. "पत्रकारिता व साहित्य के ऋषि माघव सप्रे" (एचटीएमएल). आरंभ. अभिगमन तिथि: २००९.
  2. "माधवराव सप्रे का महत्व". तद्भव. अभिगमन तिथि: २००९.

बाहरी कड़ियाँ

वेब मीडिया का बढ़ता क्षितिज / वंदना शर्मा

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संवादसेतु

मीडिया का आत्मावलोकन…

Archive for the tag “वेब पत्रकारिता”

वर्तमान दौर संचार क्रांति का दौर है। संचार क्रांति की इस प्रक्रिया में जनसंचार माध्यमों के भी आयाम बदले हैं। आज की वैश्विक अवधारणा के अंतर्गत सूचना एक हथियार के रूप में परिवर्तित हो गई है। सूचना जगत गतिमान हो गया है, जिसका व्यापक प्रभाव जनसंचार माध्यमों पर पड़ा है। पारंपरिक संचार माध्यमों समाचार पत्र, रेडियो और टेलीविजन की जगह वेब मीडिया ने ले ली है।
वेब पत्रकारिता आज समाचार पत्र-पत्रिका का एक बेहतर विकल्प बन चुका है। न्यू मीडिया, आनलाइन मीडिया, साइबर जर्नलिज्म और वेब जर्नलिज्म जैसे कई नामों से वेब पत्रकारिता को जाना जाता है। वेब पत्रकारिता प्रिंट और ब्राडकास्टिंग मीडिया का मिला-जुला रूप है। यह टेक्स्ट, पिक्चर्स, आडियो और वीडियो के जरिये स्क्रीन पर हमारे सामने है। माउस के सिर्फ एक क्लिक से किसी भी खबर या सूचना को पढ़ा जा सकता है। यह सुविधा 24 घंटे और सातों दिन उपलब्ध होती है जिसके लिए किसी प्रकार का मूल्य नहीं चुकाना पड़ता।
वेब पत्रकारिता का एक स्पष्ट उदाहरण बनकर उभरा है विकीलीक्स। विकीलीक्स ने खोजी पत्रकारिता के क्षेत्र में वेब पत्रकारिता का जमकर उपयोग किया है। खोजी पत्रकारिता अब तक राष्ट्रीय स्तर पर होती थी लेकिन विकीलीक्स ने इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग किया व अपनी रिपोर्टों से खुलासे कर पूरी दुनिया में हलचल मचा दी। भारत में वेब पत्रकारिता को लगभग एक दशक बीत चुका है। हाल ही में आए ताजा आंकड़ों के अनुसार इंटरनेट के उपयोग के मामले में भारत तीसरे पायदान पर आ चुका है। आधुनिक तकनीक के जरिये इंटरनेट की पहुंच घर-घर तक हो गई है। युवाओं में इसका प्रभाव अधिक दिखाई देता है। परिवार के साथ बैठकर हिंदी खबरिया चैनलों को देखने की बजाए अब युवा इंटरनेट पर वेब पोर्टल से सूचना या आनलाइन समाचार देखना पसंद करते हैं। समाचार चैनलों पर किसी सूचना या खबर के निकल जाने पर उसके दोबारा आने की कोई गारंटी नहीं होती, लेकिन वहीं वेब पत्रकारिता के आने से ऐसी कोई समस्या नहीं रह गई है। जब चाहे किसी भी समाचार चैनल की वेबसाइट या वेब पत्रिका खोलकर पढ़ा जा सकता है।
लगभग सभी बड़े-छोटे समाचार पत्रों ने अपने ई-पेपर‘यानी इंटरनेट संस्करण निकाले हुए हैं। भारत में 1995 में सबसे पहले चेन्नई से प्रकाशित होने वाले ‘हिंदू‘ ने अपना ई-संस्करण निकाला। 1998 तक आते-आते लगभग 48 समाचार पत्रों ने भी अपने ई-संस्करण निकाले। आज वेब पत्रकारिता ने पाठकों के सामने ढेरों विकल्प रख दिए हैं। वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों में जागरण, हिन्दुस्तान, भास्कर, डेली एक्सप्रेस, इकोनामिक टाइम्स और टाइम्स आफ इंडिया जैसे सभी पत्रों के ई-संस्करण मौजूद हैं।
भारत में समाचार सेवा देने के लिए गूगल न्यूज, याहू, एमएसएन, एनडीटीवी, बीबीसी हिंदी, जागरण, भड़ास फार मीडिया, ब्लाग प्रहरी, मीडिया मंच, प्रवक्ता, और प्रभासाक्षी प्रमुख वेबसाइट हैं जो अपनी समाचार सेवा देते हैं।
वेब पत्रकारिता का बढ़ता विस्तार देख यह समझना सहज ही होगा कि इससे कितने लोगों को रोजगार मिल रहा है। मीडिया के विस्तार ने वेब डेवलपरों एवं वेब पत्रकारों की मांग को बढ़ा दिया है। वेब पत्रकारिता किसी अखबार को प्रकाशित करने और किसी चैनल को प्रसारित करने से अधिक सस्ता माध्यम है। चैनल अपनी वेबसाइट बनाकर उन पर बे्रकिंग न्यूज, स्टोरी, आर्टिकल, रिपोर्ट, वीडियो या साक्षात्कार को अपलोड और अपडेट करते रहते हैं। आज सभी प्रमुख चैनलों (आईबीएन, स्टार, आजतक आदि) और अखबारों ने अपनी वेबसाइट बनाई हुईं हैं। इनके लिए पत्रकारों की नियुक्ति भी अलग से की जाती है। सूचनाओं का डाकघर‘कही जाने वाली संवाद समितियां जैसे पीटीआई, यूएनआई, एएफपी और रायटर आदि अपने समाचार तथा अन्य सभी सेवाएं आनलाइन देती हैं।
कम्प्यूटर या लैपटाप के अलावा एक और ऐसा साधन मोबाइल फोन जुड़ा है जो इस सेवा को विस्तार देने के साथ उभर रहा है। फोन पर ब्राडबैंड सेवा ने आमजन को वेब पत्रकारिता से जोड़ा है। पिछले दिनों मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्ट की ताजा तस्वीरें और वीडियो बनाकर आम लोगों ने वेब जगत के साथ साझा की। हाल ही में दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने गांवों में पंचायतों को ब्राडबैंड सुविधा मुहैया कराने का प्रस्ताव रखा है। इससे पता चलता है कि भविष्य में यह सुविधाएं गांव-गांव तक पहुंचेंगी।
वेब पत्रकारिता ने जहां एक ओर मीडिया को एक नया क्षितिज दिया है वहीं दूसरी ओर यह मीडिया का पतन भी कर रहा है। इंटरनेट पर हिंदी में अब तक अधिक काम नहीं किया गया है, वेब पत्रकारिता में भी अंग्रेजी ही हावी है। पर्याप्त सामग्री न होने के कारण हिंदी के पत्रकार अंग्रेजी वेबसाइटों से ही खबर लेकर अनुवाद कर अपना काम चलाते हैं। वे घटनास्थल तक भी नहीं जाकर देखना चाहते कि असली खबर है क्या\
यह कहा जा सकता है कि भारत में वेब पत्रकारिता ने एक नई मीडिया संस्कृति को जन्म दिया है। अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता को भी एक नई गति मिली है। युवाओं को नये रोजगार मिले हैं। अधिक से अधिक लोगों तक इंटरनेट की पहुंच हो जाने से यह स्पष्ट है कि वेब पत्रकारिता का भविष्य बेहतर है। आने वाले समय में यह पूर्णतः विकसित हो जाएगी।
वंदना शर्मा, अगस्त अंक, २०११

मीडिया क्या है ?

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उद्योग और सेवाएं
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सेवा क्षेत्रक:
मीडिया
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मीडिया जन सूमह तक सूचना, शिक्षा और मनोरंजन पहुंचाने का एक माध्‍यम है। यह संचार का सरल और सक्षम साधन है। जो अर्थव्‍यवस्‍था के समग्र विकास में मुख्‍य भूमिका निभाता है। ऐसे युग में जहां ज्ञान और तथ्‍य आर्थिक राजनैतिक और सांस्‍कृतिक आदान-प्रदान के लिए औजार हैं, देश में सुदृढ़ और रचनात्‍मक मीडिया की मौजूदगी व्‍यष्टियों, सम्‍पूर्ण समाज, लघु और वृह्त व्‍यवसाय और उत्‍पादन गृहों, विभिन्‍न अनुसंधान संगठनों निजी क्षेत्रों तथा सरकारी क्षेत्रों की विविध आवश्‍यकताओं को पूरा करने में महत्‍वपूर्ण है। मीडिया राष्‍ट्र के अंत:करण का रक्षक है और हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में उसे बहुत से कार्य करने है। यह सरकार को विभिन्‍न सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक लक्ष्‍य हासिल करने में सहायता करता है शहरी और ग्रामीण जल समूह को शिक्षित करने, लोगों के बीच उत्तरदायित्‍व की भावना जागृत करने और जरूरत मदों को न्‍याय प्रदान करने में सहायता करता है। इसमें मोटे तौर पर प्रिंट मीडिया जैसे समाचार पत्र पत्रिका, जर्नल और अन्‍य प्रकाशन होते हैं तथा इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया जैसे रेडियो, टेलीविजन इंटरनेट आदि। विश्‍व के बदलते परिदृश्‍य के साथ इसने उद्योग का दर्जा प्राप्‍त कर लिया है। भारत में, मीडिया और मनोरंजन उद्योग में उल्‍लेखनीय परिवर्हन हो रहा है और यह एक सबसे तेज विकसित होता क्षेत्रक है। इसके लिए उत्तरदायी मुख्‍य कारक हैं प्रति व्‍यक्ति / राष्‍ट्रीय आय को बढ़ाना, उच्‍च आर्थिक वृद्धि और सशक्‍त मेक्रो-आर्थिक मूलभूत तत्‍व, और लोक तांत्रिक व्‍यवस्‍था, अच्‍छा शासन साथ ही देश में कानून और व्‍यवस्‍था की अच्‍छी स्थिति। विशिष्‍ट रूप से टेलीविजन उद्योग का उल्‍लेखनीय विकास, फिल्‍म निर्माण और वितरण के लिए नए प्रारूप निजीकरण और रेडियों का विकास, क्षेत्रक के प्रति सरकार की उदारीकृत मनोवृत्ति, अंतरराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों के लिए/से सरलता से पहुंच, अंकीय संचार का आगमन और इसके प्रौद्योगिकीय अभिनव परिवर्तन इस क्षेत्रक के विकास की अन्‍य विशेषताएं हैं। मीडिया उद्योग देश में मजबूत व्‍यापार माहौल का सृजन करने के अतिरिक्‍त सूचना और शिक्षा मुहैया कराने द्वारा राष्‍ट्रीय नीति ओर कार्यक्रमों के प्रति लोगों में जागरूकता लाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस प्रकार से यह राष्‍ट्र निर्माण के प्रयासों में जनता को सक्रिय भागीदार बनने में सहायता करता है।
सूचना और प्रसारण मंत्रालयभारत में मीडिया उद्योग से संबंधित नियमों, विनियमों और कानून के निर्माण एवं प्रशासन के लिए नोडल प्राधिकरण है। यह विभिन्‍न आयु वर्ग के लोगों की बौद्धि और मनोरंजनक आवश्‍यकताओं की पूर्ति करने में लगा हुआ है। और यह राष्‍ट्रीय अखंडता, पर्यावरणीय रक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल और परिवार कल्‍याण निरक्षरता का उन्‍मूलन तथा महिला बच्‍चों और समाज के कमजोर वर्ग से संबंधित मुद्दों की ओर जन समूह का ध्‍यान आकर्षित करता है। यह सूचना के मुक्‍त प्रवाह का अभिगमन के लिए लोगों को सहायता करने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह जन संचार, फिल्‍मों और प्रसारण के क्षेत्र में अंतरराष्‍ट्रीय सहयोग के लिए जिम्‍मेदार है और भारत सरकार की ओर से विदेशी पक्षों के साथ अन्‍योन्‍याय क्रिया करता है :-
  • लोगों के लिए आकाशवाणी (एआईआर) और दूरदर्शन (डीडी) के माध्‍यम से समाचार सेवा प्रदान करना
  • प्रसारण और टेलीविजन नेटवर्क का विकास करना तथा फिल्‍मों का निर्यात एवं आयात का संवर्धन करना
  • सरकार के विभिन्‍न विकासात्‍मक क्रियाकलापों और कार्यक्रमों में अधिकाधिक भागीदारी के लिए लोगों को शिक्षित करना और प्रेरणा देना।
  • सूचना औश्र प्रचार के क्षेत्र में राज्‍य सरकारों और उनके संगठनों के साथ संबंध बनाना
  • देश में फिल्‍मोत्‍सव और सांस्‍कृतिक आदान-प्रदान का आयोजन करना
  • समाचार पत्रों के संबंध में प्रसे और पुस्‍तक पंजीकरण अधिनियम, 1968 को प्रवृत्त करना
  • राष्‍ट्रीय महत्‍व के विषयों को प्रकाशन के माध्‍यम से देश के भीतर और बाहर भारत के बारे में सूचना का प्रचार-प्रसार करना
  • लोक हित के मुद्दों पर सूचना प्रचार के अभियान के लिए अन्‍तर व्‍यैक्ति संचार और पारम्‍परिक लोक कला के रूपों का उपयोग करना
  • केन्‍द्र सरकार की योजनाओं और कार्यक्रमों से संबंधित सरकारी सूचना और मूलडाला का स्‍वीकृति केन्‍द्र के रूप में कार्य करने द्वारा सरकार और प्रेस के बीच सतत सम्‍पर्क के रूप में कार्य करना।
मंत्रालय को निम्‍नलिखित स्‍कंधों में विभाजित किया गया है, अर्थात:-
  • सूचना स्‍कंध– यह नीतिगत मामलों, प्रिंट मीडिया तथा सरकार की प्रेस और प्रचार संबंधी आवश्‍यकताओं पर कार्य करता है। इस स्‍कंध में मीडिया यूनिट निम्‍नलिखित हैं:-

    • प्रेस सूचना ब्‍यूरो
    • फोटो प्रभाग
    • अनुसंधान, अवलोकन और प्रशिक्षण प्रभाग
    • प्रकाशन विभाग
    • विज्ञापन और दृश्‍य प्रचार निदेशालय
    • क्षेत्र प्रकाशन निदेशालय
    • संगीत और नाटक प्रभाग
    • भारत के लिए समाचारपत्र पंजीयक
    • भारतीय प्रेस परिषद
    • भारतीय जनसंचार संस्‍थान।
  • प्रसरण स्‍कंध– यह इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित मामले पर कार्य करता है। यह इस क्षेत्र के लिए नीतियों और रूपरेखा नियमों तथा विनियमों का निर्धारण करता है, जिसमें लोक सेवा प्रसारण, केबल टेलीविजन का प्रचालन, निजी टेलीविजन चैनल, एफएम चैनल, उपग्रह रेडियो, सामुदायिक रेडियो, डीटीएच सेवा आदि का प्रसारण शामिल है। इस स्‍कंध के अंतर्गत संगठन में निम्‍नलिखित शामिल है:-

    • इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया निगरानी केन्‍द्र
    • प्रसार भारती (भारतीय प्रसारण निगम) – इसकी स्‍थापना आयोजन करने और लोगों का मनोरंजन करने के लिए किया गया है और एजेंसियों जैसे:- (i) आकशवाणी और (ii) दूरदर्शन के माध्‍यम से रेडियों और टेलीविजन पर प्रसारण का संतुलित विकास सुनिश्चित करने लिए किया गया है।
    • ब्राडकास्‍ट इंजीनियरिंग कंसल्‍टेंस (रेडियो) लिमिटेड (बीईसीआईएल)

  • फिल्‍म स्‍कंध– यह फिल्‍म क्षेत्रक से संबंधित मामलों पर कार्य करता है। अपने विभिन्‍न यूनिटों के माध्‍यम से यह डाक्‍युमेटरी फिल्‍मों के निर्माण और वितरण में रत है जिनकी आवश्‍यकता आंतरिक और बाहय प्रचार के लिए होती है, फिल्‍म उद्योग से संबंधित विकासात्‍मक और संवर्धनात्‍मक क्रियाकलाप, जिसमें प्रशिक्षण, अच्‍छी सिनेमा का संवर्धन, फिल्‍मोत्‍सव का आयोजन करना, विनियमों का आयात और निर्यात करना आदि शामिल है। इस स्‍कंध के निम्‍नलिखित मीडिया यूनिट हैं:

    • फिल्‍म प्रभाग
    • फिल्‍म प्रमाणन का सिनेमा बोर्ड
    • भारतीय राष्‍ट्रीय फिल्‍म अभिलेखागार
    • राष्‍ट्रीय फिल्‍म विकास निगम
    • भारतीय फिल्‍म और टेलीविजन
    • सत्‍यजीत राय फिल्‍म और टेलीविजन संस्‍थान
    • फिल्‍मोत्‍सव निदेशालय
    • बाल फिल्‍म सोसाइटी

  • समेकित वित्त स्‍कंध– यह मंत्रालय के लेखा का रखरखाव और निगरानी का महत्‍वपूर्ण कार्य ''मुख्‍य लेखा नियंत्रक'' के अ‍धीनस्‍थ कार्यालय के माध्‍यम से करता है।

मीडिया उद्योग ने देश में उदार निवेश क्षेत्र से उललेखनीय लाभ पहुंचाता है। इसके विभिन्‍न खंडों में विदेशी प्रत्‍यक्ष निवेश की अनुमति दी गई है। प्रिंट मीडिया के लिए गैर समाचार प्रकाशन सहित शत प्रतिशत एफडीआई की अनुमति है और समाचार और ताजा मामलों को शामिल करने वाले प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के लिए 26 प्रतिशत तक के एफडीआई (एफआईआई सहित) की अनुमति है। जबकि एफआईआई, एनआरआई और पीआईओ के लिए नए क्षेत्र भी खुले हैं। एफएम रेडियो प्रसारण क्षेत्र में एफडीआई (एफआईआई सहित) को 20 प्रतिशत की अनुमति दी गई है। जबकि एफडीआई और एफआईआई को केबल नेटवर्क, प्रत्‍यक्ष रूप से घर में (डीटीएच) के लिए 49 प्रतिशत तक की अनुमति है (इस सीमा के अंदर एफडीआई का घटक 20 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए), अपलिंकिंग, हब (टेलीपोर्ट) आदि जैसी हार्डवेयर सुविधाओं की स्‍थापना। वर्तमान में भारत में 110 मिलियन टेलीविजन रखने वाले घर हैं, जिनमें से लगभग 70 मिलियन घरों में केबल और सेटेलाइट है और शेष 40 मिलियन घरों को सार्वजनिक प्रसारक द्वारा सेवा प्रदान की जाती है अर्थात दूरदर्शन। इसी प्रकार देश में 132 मिलियन रेडियो सेट हैं। पुन: पिछले कुछ वर्षों में निजी उपग्रह टीवी चैनलों की संख्‍या बहु तेजी से 2000 में एक टीवी चैनल से बढ़कर 31 दिसम्‍बर 2007 तक 273 टीवी चैनल तक पहुंच गई है। समाचार और ताजा मामलों के टीवी चैनल 58 प्रतिशत और गैर समाचार तथा ताजा मामलों के टीवी चैनल कुल अनुमत 273 टीवी चैनलों का 42 प्रतिशत हैं। पूर्व चैनलों की संख्‍या 2000 में केवल 1 से बढ़ कर 31 दिसम्‍बर 2007 को 158 हो गई है, जबकि दूसरे की संख्‍या 0 से 115 तक पहुंच गई है।
मंत्रालय द्वारा अनेक नीतिगत सिद्धांत बनाए जाने के साथ अनेक मार्गदर्शी सिद्धांत तैयार किए जाते हैं ताकि देश में विभिन्‍न जन संचार मीडिया के स्‍वस्‍थ विकास के लिए एक उपयुक्‍त परिवेश बनाया जा सके।
  1. 'टेलीविजन चैनलों के डाउनलिंकिंग के लिए नीतिगत दिशानिर्देश' जिसका निहितार्थ सभी उपग्रहण टेलीविजन चैनलों को डाउनलिंकिंग जिनका भारत में जनता के देखने के लिए डाउनलिंग किया गया/प्राप्‍त किया गया और पारेषण एवं पुन: पारेषण किया गया। इसके अधीन कोई व्‍यक्ति या कम्‍पनी चैनल डाउनलिंक नहीं करेगा जिसका पंजीकरण मंत्रालय द्वारा नहीं किया गया है। इसलिए टेलीविजन उपग्रह प्रसारण सेवा प्रदान करने वाले सभी व्‍यक्ति/कंपनी दूसरे देशों के दर्शकों के साथ भारत में अपलिंक होते हैं तथा कोई भी कंपनी जो ऐसी उपग्रह टेलीविज़न प्रसारण सेवा प्रदान करना चाहता है जो जनता के देखने के लिए भारत में प्राप्‍य हो उसे निर्धारित निबंधनों और शर्तों के अनुसार मंत्रालय से अनुमति प्राप्‍त करने की आवश्‍यकता होगी। नीतिगत दिशानिर्देश कुछ अर्हक मानदण्‍ड आवेदक कंपनी के लिए निर्धारित करता है, जो निम्‍नलिखित हैं:-

  • कंपनी (आवेदक कंपनी) चैनल डाउनलिंक करने की अनुमति के लिए आवेदन करता है, विदेशों से अपलिंक्‍ड होता है वह ऐसी कंपनी होगी जिसका पंजीकरण कंपनी अधिनियम 1956 के अधीन किया गया है इसमें इसका इक्विटी ढांचा, विदेशी स्‍वामित्‍व या प्रबंधन नियंत्रण चाहे जो भी हो।
  • आवेदक कंपनी का भारत में वाणिज्यिक मौजूदगी हो जिसका मुख्‍य व्‍यापार स्‍थान भारत में हो
  • यह या तो उस चैनल का मालिक हो जिसे वह जनता के देखने के लिए डाउनलिंक करना चाहता है या भारत के भूभाग के लिए उसके लिए उसके पास विशिष्‍ट विपणन/वितरण अधिकार हो जिसमें विज्ञापन और चैनल के लिए खरीद राजस्‍व हो और उसे आवेदन के समय पर्याप्‍त प्रमाण जमा करना होगा।
  • यदि आवेदक कंपनी के पास विशिष्‍ट विपणन/और वितरण अधिकार है तो इसके पास विज्ञापन के लिए, खरीद और कार्यक्रम विषय वस्‍तु के लिए चैनल की ओर से संविदा तय करने का भी अधिकार होना चाहिए।
  • आवेदक कंपनी के पास निर्धारित विवरण के अनुसार न्‍यूनतम निवल मूल्‍य होना चाहिए, अर्थात 1.5 करोड़ रु. का निवल मूल्‍य एक चैनल की डाउन लिंकिंग के लिए और प्रत्‍येक अतिरिक्‍त चैनल के लिए एक करोड़ रु. होने चाहिए।
  • इसे कंपनी के सभी निदेशकों के नाम और विवरण तथा मुख्‍य कार्यपालकों के जैसे कि सीईओ, सीएफओ और विपणन प्रमुख आदि की जानकारियां उनके राष्‍ट्रीय सुरक्षा समाशोधन प्राप्‍त करने के लिए देनी चाहिए।
  • इसे तकनीकी विवरण जैसे कि नामकरण, मेक, मॉडल, उपकरण / उपस्‍कर के विनिर्माता का नाम और पता, जिसका उपयोग डाउन लिकिंग और वितरण के लिए किया जाएगा, डाउन लिंकिंग तथा वितरण प्रणाली के ब्‍लॉक योजनाबद्ध आरेख और साथ ही इसे 90 दिनों के लिए निगरानी एवं भण्‍डारण अभिलेख क सुविधा का प्रदर्शन भी करना चाहिए।
  • इसी प्रकार 'भारत से अप लिंकिंग के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत', की अधिसूचना में, जहां आवेदक द्वारा एक अप लिंकिंग हब /टैली पोर्ट की स्‍थापना या एक टीवी चैनल को अपलिंक करने या एक समाचार एजेंसी द्वारा अपलिंक की सुविधा स्‍थापित करने हेतु अनुमति मांगी जाती है तो यह कंपनी भारत में कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत पंजीकृत कंपनी होनी चाहिए। यह कंपनी केवल उन टीवी चैनलों को अपलिंक करेगी, जिन्‍हें मंत्रालय द्वारा विशिष्‍ट रूप से अनुमोदित या अनुमत किया गया है। आवेदक कंपनी के साथ अपलिंकिंग हब / टेली पोर्ट की स्‍थापना के लिए विदेशी इक्विटी धारिता एनआरआई / ओसीबी / पीआईओ सहित 49 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। निवल मूल्‍य आवश्‍यकता चैनल की एक से दस तक क्षमता के लिए 1 करोड़ से 3 करोड़ के बीच होती है। आवेदक कंपनी का स्‍वामी चाहे कोई भी हो, इसकी इक्विटी संरचना या प्रबंधन का नियंत्रण गैर समाचार और ताजा मामलों के टीवी चैनल की अपलिंकिंग के लिए अनुमति पाने का पात्र होगा। निवल मूल्‍य जो एकल टीवी चैनल के लिए आवश्‍यक है, इसकी राशि प्रत्‍येक अतिरिक्‍त चैनल के लिए 1.5 करोड़ रु. और 1 करोड़ रु. है जबकि एक समाचार और ताजा मामलों वाले टीवी चैनल की अपलिंकिंग के लिए एकल टीवी चैनल हेतु निवल मूल्‍य 3 करोड़ रु. और प्रत्‍येक अतिरिक्‍त टीवी चैनल के लिए 2 करोड़ रु. है।

  • मंत्रालय ने भारत में डायरेक्‍ट टू होम (डीटीएच) प्रसारण सेवा प्रदान करने के लिए लाइसेंस प्राप्‍त करने हेतु दिशानिर्देश', जारी किया है, जहां डीटीएच सेवा का अभिप्राय केबल ऑपरेटर जैसे किसी माध्‍यम के पास से आए बगैर ग्राहक के परिसरों को टीवी सिग्‍नल मुहैया कराने हेतु उपग्रह प्रणाली का उपयोग करके कु-बैंड में चैनल टीवी कार्यक्रम का वितरण करना है। दिशानिर्देश के अर्हक मानदण्‍डों में निम्‍नलिखित शामिल हैं :-

    • आवेदक कंपनी भारतीय कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत पंजीकृत के भारतीय कंपनी होनी चाहिए।
    • आवेदक कंपनी में एफडीआई / एनआरआई /ओसीबी / एफआईआई सहित कुल विदेशी इक्विटी धारिता 49 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। विदेशी इक्विटी के अंदर एफडीआई का घटक 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
    • आवेदक कंपनी में भारतीय प्रबंधन नियंत्रण के साथ मंडल में अधिकांश प्रतिनिधित्‍व तथा कंपनी के मुख्‍य कार्यकारी का भारतीय नागरिक होना अनिवार्य है, आदि।

  • एक 'निजी एजेंसियों के माध्‍यम से एफएम रेडियो प्रसारण सेवाओं के विस्‍तार पर नीति (फेज-II)' की घोषणा ऑल इंडिया रेडियो के प्रयासों को पूरकता और पूर्ति प्रदान करने के लिए निजी एजेंसियों के माध्‍यम से एफएम रेडियो नेटवर्क के विस्‍तार हेतु की गई है। इसे ऐसे रेडियो स्‍टेशनों के प्रचालन द्वारा किया जाना है जो स्‍थानीय सामग्री और सार्थकता के साथ कार्यक्रम प्रस्‍तारित करते हैं, ग्राह्यता और उत्‍पादन में फीडेलिटी की गुणवत्ता में सुधार करते हैं, स्‍थानीय प्रतिभा की भागीदारी को प्रोत्‍साहन देते हैं और रोजगार उत्‍पादन करते हैं। ऐसे 21 चैनल प्रथम चरण में पहले से ही कार्यरत हैं। इन 337 चैनलों में से दूसरे चरण के दौरान आशय पत्र 245 चैनलों को प्रदान किया गया, इनमें से सभी चैनलों ने करार नामों पर हस्‍ताक्षर कर दिए हैं। कुल मिलाकर 178 निजी एफएम चैनल भारत में अब तक प्रचालनरत हैं, जिसमें प्रथम चरण के 21 चैनल शामिल है।

  • 'सिनेमेटोग्राफ फिल्‍मों और अन्‍य फिल्‍मों के आयात', के लिए भी है जहां सिनेमेटोग्राफ फीचर फिल्‍मों और अन्‍य फिल्‍मों (जिसमें वीडियो टेप में फिल्‍म, कॉम्‍पैक्‍ट, वीडियो डिस्‍क, लेसर वीडियो डिस्‍क या डिजिटल वीडियो डिस्‍क शामिल हैं) को लाइसेंस के बगैर अनुमत किया गया है। फिल्‍म के आयातक फिल्‍मों के वितरण और प्रदर्शन को शासित बनने वाले सभी प्रयोज्‍य भारतीय कानूनों का अनुपालन करेंगे जिनमें सिनेमेटोग्राफी अधिनियम, 1952 के तहत निर्धारित सार्वजनिक प्रदर्शन प्रमाणपत्र प्राप्‍त करने की अपेक्षाएं शामिल हैं। इसके तहत किसी अनधिकृत नकली फिल्‍म का आयात प्रतिबद्धित है। भारतीय फिल्‍मों का विदेशी रिप्रिन्‍ट का आयात मंत्रालय में लिखित रूप में पूर्वानुमति के बिना अनुमत नहीं होगा।

  • 'प्रसारण सेवा विनियमन विधेयक प्रारूप, 2007' की घोषणा एक क्रमबद्ध रूप में प्रसारण के प्रबंधन और सामग्री को प्रोत्‍साहन, सुविधा और विकास प्रदान करने के लिए की गई है। इस प्रयोजन के लिए इसका लक्ष्‍य एक ऐसे स्‍वतंत्र प्राधिकरण की स्‍थापना है, जिसे भारतीय प्रसारण विनियामक प्राधिकरण कहा जाए और यह शैक्षिक, विकास संबंधी, सामाजिक, सांस्‍कृतिक और अन्‍य जरूरतों के लिए उत्तरदायी रूप से प्रसारण सेवाओं को प्रोत्‍साहन दें तथा लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करें एवं उनके कार्यक्रमों में लोक सेवा संदेश तथा सामग्री आदि को शामिल किया जाए।

  • ऐसी सभी पहलों के परिणामस्‍वरूप भारत में मीडिया उद्योग ने वर्षों से उल्‍लेखनीय वृद्धि दर्शाया है लगभग दो अंकीय वृद्धि हुई है। इसे 437 बिलियन रु. के आकलित आकार से वर्ष 2011 तक एक ट्रिलियन रु. तक बढ़ने का अनुमान है। अधिक पूंजी प्रवाह लाता है और प्रत्‍यक्ष और प्रत्‍यक्ष दोनों प्रकार के रोजगार के लिए महत्‍वपूर्ण मार्ग दर्शाता है। यह विभिन्‍न राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्दों के बारे में लोगों का दृष्टिकोण और विचार बनाने में सहायता करता है इस प्रकार से योजनाओं के निर्माण, नीतियां और कार्यक्रम बनाने में सहायता करता है। यह मनोरंजन देने, सूचना का प्रचार-प्रसार करने, विभिन्‍न मतों का पोषण और विकास करने भारत के नागरिकों को जानकारी, नागरिक बनने में शिक्षित बनाने और सशक्‍त बनाने के लिए शक्तिशाली माध्‍यम है ताकि लोग प्रजातंत्रिक प्रक्रिया में प्रभावी रूप से भाग ले सकें तथा देश की विविध भारतीय संस्‍कृति और योग्‍यता का संरक्षण, संवर्धन और अभिकल्‍पना करने में सहायता करता है।

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    पत्रकारिता की परिभाषा

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    Tuesday, April 21, 2009


    पत्रकारिता : अर्थ और परिभाषा
    पत्रकारिता के लिए अंग्रेजी का शब्द है,'जर्नलिज्म',
    जर्नलिज्म शब्द की व्युत्पति जर्नल शब्द से हुई है। जर्नल शब्द का अर्थ दैनिकी, दैनन्दिनी, रोजनामचा होता है। पत्रकारिता के सन्दर्भ में इसका अर्थ पत्र, अखबार तथा दैनिक होता है।
    सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी के पूर्व अंग्रेजी शब्द पीरिऑडिकल अर्थात्‌ नियतकालीन का प्रयोग होता है। पश्चात्‌ में इसका स्थान लैटिन शब्द डियूरनल और जर्नल ने ले लिया। दैनन्दिन गतिविधियों और राजकीय क्रिया-कलाप का समावेश जर्नल में होता है। इसके अन्तर्गत समाविष्ट विषयों को बीसवीं शताब्दी में गम्भीरता प्रदान की गयी। समालोचना और शोध-विषयों के प्रतिनिधि के रूप में जर्नल को मान्यता दी गयी है।
    फ्रेंच भाषा का एक शब्द है जर्नी। जर्नीशब्द से भी जर्नलिज्म शब्द की उत्पति मानी जाती है जर्नी शब्दा का अर्थ होता है, दैनन्दिन गतिविधियों अथवा घटनाओं की विवरण-प्रस्तुति।
    जर्नल को व्यापकता प्रदान करने वाला शब्द जर्नलिज्म बहुआयामी है। लेख्न, सम्पादन, संकलन तथा इनसे सम्बद्व आकाशवाणी, दूरदर्शन, वीडियो, फिल्म इत्यादि मीडिया भी अन्तर्गत आते हैं।
    विभिन्न द्विानों ने पत्रकारिता की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी है। आइए, उनके दृष्टिकोण से अवगत हों!
    1. सामयिक ज्ञान के व्यवसाय को पत्रकारिता कहते हैं। इस व्यवसाय में आवश्यक तथ्यों की प्राप्ति, सजगतापूर्वक उनका मूल्यांकन तथा सम्यक्‌ प्रस्तुति होती है।
    - सी.जी.मूलर
    2. कला, वृति और जन-सेवा ही पत्रकारिता है।
    - डब्ल्यू.टी. स्टीड
    3. प्रकाशन, सम्पादन, लेखन अथवा प्रसारण सहितसमाचार माध्यम के संचालन के व्यवसाय को पत्रकारिता कहते हैं।
    - न्यू वेवस्टर शब्दकोश
    4. पत्रकारिता पांचवां वेद है, जिसके द्वारा ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी बातों को जानकर अपने बन्द मस्तिष्क को खोलते हैं।
    - इन्दे विद्याचस्पति
    वास्तव में अब समय के साथ-साथ, समाचार पत्र केवल सुबह- शाम की वार्ता के अथवा चर्चा के विषय नहीं रह गये हैं, अपितु वे ज्ञान के प्रसार का महत्वपूर्ण साधन तथा जनता के चिन्तन और आचरण की दृष्टि से लोकतन्त्रीय बनाने का भी सबसे महत्वपूर्ण माध्यम हैं। आरम्भ के दिनों मे समाचारपत्रों का काम केवल लोगों की जानकारी देना और अपने चारों ओर देश अथवा विश्व में जो कुछ घट रहा है, उसके प्रति सचेत करना था, किन्तु जिस तरह किसी भी शिक्षा-प्रद माध्यम का एक अथवा अनेक उद्देश्य के लिए सदुपयोग अथवा दुरूपयोग हो सकता है, उसी तरह समचारपत्राों को 'फोर्थ एस्टेट कहा था और हम भी सहज ही इन्हें लोकतन्त्रीय शासन-तन्त्र का चौथा सबसे महत्वपूर्ण अंग मान सकते है। अन्य तीन स्तम्भ हैं- 1. नगरपालिका 2. न्यायपालिका। उन्नीसवीं शताब्दी में समाचारपत्रों के राजनीतिक अस्तित्व का पता चला। लाडर्स, टेम्पोरल तथा कॉमन्स के बाद पत्रकारिता का महत्व सर्वोपरि है। यदि समाचारपत्र स्वतन्त्र हैं ओर उनके समाचार निष्पक्ष हैं, तो इससे लोगों का मस्तिष्क हर प्रकार के प्रभावों ओर विचारों के लिए खुला रह सकता है। सच तो यह है कि आज-कल समाचारों में अलक्ष्य विचार और यत्र-तत्र, ताड.-मरोड. रहा करती है। इस प्रकार आज के समाचारनपत्रों का पहला उद्देश्य पाठक-पाठिकाओं की राय को किसी न किसी पक्ष में बदलाना हो गया है। वे जनता को बने-बनाये, गढ़-गढ़ाये विचार और पके-पकाये विचार दिया करते है। लोग भी उनको प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर लेते है।, क्योंकि आम आदमी के पास न तो इतनी बुद्वि है, न इतने साधन और समय हैं कि वह समाचारों की सच्चाई को जान सकें, वहीं आज के लिखे-पढ़े लोगों की भी यह कमजोरी है कि वे सुनी हुई बात की बजाय छपी हुई बात पर अधिक भरोसा कर लेते हैं। यही कारण हैं कि लोग अपनी बात के समर्थन में समाचारपत्रों का सन्दर्भ दिया करते है। वे यह भूल जाते हैं कि समाचारपत्रों का सन्दर्भ दिया करते है। वह भूल जाते हे। कि समाचारपत्रों ने अपने दल की नीति के अनुसार अथवा अपनी ही नीति के अनुसार समाचार में झूठ भर दिये है। एक बार विचार का प्रसारण हो गया तो साधनों के अभाव में झूठ और सच को दूध और पानी की तरह अलग-अलग कर पाना कठिन हो जाता है।
    यदि कुता आादमी को काट ले तो यह कोई समाचार नहीं, किनतु यदि आदमी कुते को काट ले जो यह समाचार है।
    समाचारपत्रों का काम केवल ऐसी घटनाओं की जानकारी देना नहीं, जिनमें मानवी अभिरूचि हो ओर किसी समस्या में बौद्विक और भावनात्मक रूप से शामिल हों, बल्कि कहीं इससे अधिक है।
    ऐसे में, सहजता के साथ मस्तिष्क में एक प्रश्न कौंधता है, क्या समाचारपत्राके को वास्तव में स्वतन्त्र और स्वाधीन बनाया जा सकता है+। इसमें निश्चय ही सन्देह है, क्यांकि आज कल समाचार पत्र बड़े-बड़े व्यापारियों के हाथ में है। औंर ये आज 'उद्योग' बन गयें हैं। अन्य सब उद्योगों की तरह इन्हें भी आज लाभ के उद्देश्य से चलाया जाता है और इन सभी तरीकों से चलाया जाता है, जो किसी उद्योग के विकास के लिए आवश्यक होते हैं, फिर आज उस प्राकर की पत्रकारिता अथवा अंग्रेजी में 'येलो जर्नलिज्म' कहा जाता है। यही कारण है कि सही मायने में पत्रकारिता का उद्देश्य लेकर चन?लने वाले पत्र प्रायः पूर्णत सफल नहीं हो पाते।
    इस पीत- पत्रकारिता के सन्दर्भ में भी एक धटनाक्रम है। जो इस प्रकार है। संयुक्त राज्य अमेंरिका में एक पत्रिका निकली थी। उसका कागज ही पीले रंक का था। उसका व्यावसायिक पक्ष यह था कि बच्चों की सहज सुप्रवृतियों

    जनमाध्यम

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    पत्रकारिता में पेशेवर रवैय्या आवश्यक है- पीटर गोल्डिंग

         जनमाध्यम से संबंधित हमारी जानकारी में एक बड़ी चूक संप्रेषक या संचारकर्ता के बारे में किसी भी किस्म की विस्तृत जानकारी का अभाव है; निर्माता, लेखक, सर्जक, प्रबंधक, तकनीकीविद्, पत्रकार और अन्य जिनके निर्णय और विचार जनमाध्यम की प्रस्तुति को आकार देते हैं, इनके बारे में हमें न्यूनतम जानकारी होती है। सांस्थानिक बौध्दिकों और मनोरंजनकर्ताओं आदि जो संचार उद्योग की कार्यशक्ति का निर्माण करते हैं, संख्या में तेजी से वृध्दि हुई है, लेकिन अभी भी सही आंकड़ों का आकलन कर पाना एक मुश्किल काम है। 
          जनगणना के आंकड़े अपर्याप्त लेकिन बुनियादी दिशानिर्देशक आंकड़े हैं। ये बताते हैं कि ' लेखकों, पत्रकारों , और अन्य कामों से जुड़े मजदूरों ' की संयुक्त संख्या में 1951 में 19,086 से 1966 में 31,950 वृध्दि हुई है। इनमें निश्चित तौर पर ज्यादा संख्या विभिन्न किस्म के पत्रकारों की थी जिनका कुल आंकड़ा 24,000 था। इनमें से केवल 3,500 राष्ट्रीय अखबारों में काम करते थे। इनमें से लेखकों की स्थिति ज्यादा सन्दिग्ध थी। अधिकांश लेखकों के पास सांस्थानिक आधार था, ये किसी न किसी पेशे से या ज्यादातर शिक्षाजगत से जुड़े हुए थे, जो ब्रैडबरी के शब्दों में ' साहित्यिक वेतनभोगी ' वर्ग का निर्माण करते हैं। फिन्डलेटर ने 1963 में इनकी संख्या का कुल अनुमान 6,500 और 7,000 के बीच लगाया था, यद्यपि 1972 में 40 प्रतिशत लेखकों की आय उनके लेखन से नहीं आ रही थी, और 56 प्रतिशत की लेखन से आमदनी 500 डॉलर सालाना से भी कम थी।[1] प्रसारणकर्ताओं की संख्या भी उसी तरह भ्रांतिमूलक थी, लेकिन अकेले बी बी सी के पास 1973 में 10,000 से ज्यादा कार्यक्रम निर्माण करनेवाले कर्मचारी थे ( जिसमें अभियांत्रिकी के कर्मचारी शामिल नहीं हैं )।


    कर्मचारियों की माध्यमों के बीच दोलायमान होने के कारण यह तस्वीर और जटिल हो जाती है। बहुत से लोग पत्रकारिता और प्रसारण के बीच स्वतंत्र रूप से काम करते हैं, अपनी प्रतिभा को जो भी माध्यम ज्यादा विकासशील दिखाई देता है और जिसमें काम की संभावना है उसमें नियोजित करते हैं अथवा सांस्थानिक संदर्भ में उपलब्ध अपने आधार का इस्तेमाल दूसरे के लिए उत्पादन में करते हैं। यानि जहाँ वे मूल रूप से काम करते हैं उस संस्थान द्वारा प्रदत्ता सुविधाओं का इस्तेमाल अखबारों और पत्रिकाओं के लिए लेख लिखने में करते हैं। उदाहरण के लिए एक खेल पत्रकार एक फुटबॉल के खिलाड़ी के लिए आत्मकथा लिखता है और ' छाया लेखन ' करता है। माध्यमों के बीच की यह दोलायमान गतिशीलता किसी एक संस्था के लिए पेशेवर प्रतिबध्दता को तरल बनाता है और कला और पेशे के प्रति ज्यादा आम प्रतिबध्दता को प्रोत्साहित करता है, और शायद कैरियर के प्रति ज्यादा व्यक्तिवादी बनाता है। लेकिन माध्यमों के अंदर इस तरह के 'लचीलेपन' का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। विशिष्ट पत्रकारों का अध्ययन बताता है कि इनमें से एक तिहाई स्वतंत्र लेखन से सालाना 500 डॉलर से अधिक कमाते हैं जबकि उच्च पद वाले विशेषज्ञों के लिए अपनी मूल संस्था से अलग अपनी स्वायत्तता स्थापित करने के लिए इस तरह के कामों को हथियार बनाने की जरूरत नहीं है।
        एक पेशेवर समूह की कुल संख्या का जो आंकड़ा पेश किया जाता है वह वास्तव में उस माध्यम की गतिविधियों से गंभीरता से जुड़े हुए लोगों की वास्तविक संख्या को छिपाता है। उदाहरण के लिए, टेलीविजन और पटकथा लेखन से जुड़े लोगों के हितों को देखने वाली संस्था के कुल 1,600 सदस्य हैं। लेकिन संभवत: उनमें से केवल एक दहाई लोग ही कुल निर्मित पटकथा के 90 प्रतिशत का लेखन करते हैं।
         संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी होने के बावजूद भी सर्जनात्मक पेशों में नियुक्तियों की पध्दति बहुत ज्यादा परिवर्तित नहीं हुई है। बहुत बड़ी संख्या में उपलब्धि के बजाए सिफारिश प्रवेश के लिए बड़ी योग्यता मानी जाती है। लेखकों की पृष्ठभूमि से जुड़े तमाम अध्ययन बताते हैं कि वे ज्यादातर मध्यवर्ग से और पुरूष हैं यद्यपि इस तरह के ज्यादातर अध्ययन महत्वपूर्ण लेखकों के लेखन के संदर्भ में अपरिहार्य ऐतिहासिक संकेन्द्रण का शिकार हुए हैं। लारेन्सन ने सन् 1860 से लेकर 1910 के बीच जन्मे या मर गए 170 लेखकों के अध्ययन के द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि उनमें से लगभग आधे ' आक्सब्रिज ' गए , बढ़ी संख्या में ये पेशेवर मध्यवर्ग से थे, और इनमें केवल एक चौथाई स्त्रियाँ थीं। आल्टिक ने कुछ ज्यादा बड़ी समयावधि लेते हुए 20वीं सदी के ह्रासोन्मुखी पेशेवर मध्यवर्ग की चर्चा की है जहाँ से अधिकांश लेखक आते हैं। उसने ' लेखकवर्ग और पाठकवर्ग के बीच बढ़ती दूरियों के जिक्र के साथ जो अध्ययन किया उसमें भी वह इसी तरह के विभाजन पर पहुँचा। '
        पत्रकार इस तरह के गौरवपूर्ण पृष्ठभूमि से अमूमन नहीं आते, छोटे-मोटे पेशों से आते हैं। 'टन्सटाल' के विशेषज्ञ पत्रकारों के पिता 'प्रशासन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण दर्जा रखनेवाले, शैक्षणिक और अन्य पेशों में नौकर थे, इनका उत्पादन या भारी उद्योगों से कोई लेना-देना नहीं था।' विशेषज्ञ अधिकांश पत्रकारों की तुलना में निश्चित रूप से औपचारिक शिक्षा को लेकर गर्व कर सकते थे, और ऐसे विशेषज्ञों का अनुपात जो उच्च शिक्षा तक पहुँचे एक तिहाई है और यह इस पेशे की समग्र स्थिति को देखते हुए बहुत ज्यादा है। पत्रकारिता को कला मानने की धारणा के कारण इस संबंध में किसी भी तरह की सामान्य शिक्षा या विशिष्ट प्रशिक्षण की तुलना में प्रशिक्षणमूलक कार्यक्रम (एप्रेन्टीशिप) की मांग ब्रिटेन के पत्रकारों के विश्वास का केन्द्रबिन्दु है; यद्यपि यह ऐसा विश्वास है जिस पर हाल के वर्षों में बहुत ज्यादा बहस चल रही है। सन् 1969 में प्रशिक्षु पत्रकारों के एक अध्ययन में ब्यॉड बैरेट ने पाया कि ' लगभग आधे विद्यार्थी निम्न मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग की प्रतिष्ठित पृष्ठभूमि से आए थे।' स्कूली पढ़ाई के दौरान लगभग आधे को विश्वविद्यालय में प्रवेश की न्यूनतम अर्हता हासिल थी। फिर भी यह संभव है कि आज का प्रशिक्षु समूह समग्रता में सभी पत्रकारों की तुलना में ज्यादा औपचारिक शिक्षा हासिल किए हुए है, यद्यपि जैसा कि अन्य माध्यम पेशों के साथ भी है बहुत कम आंकड़े उनकी पृष्ठभूमि के विषय में उपलब्ध हैं।
          प्रशिक्षण और प्रवेश के लिए आवश्यक अर्हता हासिल करने के आधार पर औपचारिक नियुक्तियाँ माध्यमगत पेशों में बढ़ते पेशेवराना अंदाज का सूचक है। उदाहरण के लिए नेशनल काउंसिल फॉर द ट्रेनिंग ऑफ जर्नलिस्ट ( 1955 से ) के द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों और फिल्मों और टेलीविजन पाठयक्रमों की विद्यालयों में बढ़ती संख्या इस बात की सूचक है कि माध्यम व्यवसाय में प्रवेश को पेशेवर शिक्षा उपयोगी ढंग से नियंत्रित कर सकती है। पर यह लक्ष्य इस आदर्श के साथ विरोधी मालूम होता है कि सर्जनात्मक पेशों में जिस गुणवत्ता की जरूरत होती है वह जन्मजात होती है या सर्वाधिक सटीक ढंग से 'काम के दौरान' सीखी जाती है। ज्यादा चमक-दमक वाले माध्यमों में प्रवेश की होड़ के साथ जुड़ कर इस विवाद ने प्रशिक्षण कार्यक्रमों के प्रभाव और शक्ति को कम किया है। नियुक्तियों में व्यक्तिगत विशेषीकृत धारणाएँ अभी भी हावी हैं। ब्यॉड बैरेट ने दर्ज किया है कि ' प्रवेश का दायित्व ज्यादातर आवेदनकर्ता के कंधों पर ही होता है- उसे स्वयं को -इस तरह की घोषणा के लिए किसी भी तरह के व्यवस्थित राह के अभाव में - योग्य घोषित करना पड़ता है-----बहुत से पेशेवर पत्रकार और संपादक व्यवस्था की इस कमी को फायदा समझते हैं। बी बी सी ने हाल के वर्षों में अपने निर्माण कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों में कटौती की है और यह कहा है कि ' एक व्यक्ति जो पेशेवर अनुभव प्राप्त करके बी बी सी में नियुक्त होता है उस व्यक्ति की तुलना में जो प्रशिक्षु के रूप में नियुक्त होता है नुकसान में नहीं रहता।'
          माध्यमों में कैरियर का ढाँचा उम्र, माध्यम के प्रकार और विकास की दर के अनुसार अलग-अलग होता है। यदि कोई माध्यम तेजी से विकास कर रहा है ( जैसाकि युध्द के समय बी बी सी ने किया अथवा प्रथम पाँच वर्षों में व्यवसायिक टेलीविजन ने किया) तो उसमें रोजगार और विकास की गति तीव्र होगी और सुरक्षा तथा स्थिरता होगी। ह्रासोन्मुखी माध्यम में , जैसे कि सिनेमा, कैरियर का ढाँचा अनिश्चित होगा और संभवत: इसमें काम करनेवाले एक माध्यम से ज्यादा में पाँव पसारेगें।

    ( पुस्तक अंश- पुस्तक का नाम- जनमाध्यम, लेखक पीटर गोल्डिंग,अनुवाद-सुधा सिंह,प्रकाशक, ग्रंथ शिल्पी,बी-7,सरस्वती कामप्लेक्स,सुभाष चौक,लक्ष्मीनगर,दिल्ली-110092,मूल्य-325रुपये)

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    मालिकों को पत्रकार बताकर पुरस्कार देने का नया धंधा

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    पत्रकारिता के नाम पर कोई कितनी फ्रॉडगिरी कर सकता है। या फिर मौजूदा दौर में पत्रकारिता एक ऐसे मुकाम पर जा पहुंची है, जहां पत्रकारिता के नाम पर धंधा किया भी जा सकता है और पत्रकारों के लिये ऐसा माहौल बना दिया गया है कि वह धंधे में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर धंधे को ही मुख्यधारा की पत्रकारिता मानने लगे। या फिर धंधे के माहौल से जुड़े बगैर पत्रकार के लिये एक मुश्किल लगातार उसके काम उसके जुनुन के सामानांतर चलती रहती है, जो उसे डराती है या फिर वैकल्पिक सोच के खत्म होने का अंदेशा देकर पत्रकार को धंधे के माहौल में घसीट कर ले जाती है।

    दरअसल, यह सारे सवाल मौजूदा दौर में कुकुरमुत्ते की तरह पनपते सोशल मीडिया के विभिन्न आयामों को देखकर लगातार जहन में उतरते रहे हैं लेकिन हाल में ही या कहें 20 जुलाई को देश के 50 हिन्दी के संपादकों/ पत्रकारों को लेकर एक्सचेंज फॉर मीडिया की पहल ने इस तथ्य को पुख्ता कर दिया कि पत्रकार मौजूदा वक्त में बेचने की चीज भी है और पत्रकारिता के नाम का घोल कहीं भी घोलकर धंधेबाजों को मान्यता दिलायी जा सकती है। और समाज के मान्यता प्राप्त या कहें अपने अपने क्षेत्र के पहचान पाये लोगों को ही धंधे का औजार बनाकर धंधे को ही पत्रकारीय मिशन में बदला जा सकता है।
    दर्द या पीडा इसलिये क्योंकि राम बहादुर राय (वरिष्ठ पत्रकार), श्री राजेंद्र यादव ( वरिष्ठ साहित्यकार), श्री पुष्पेश पंत (शिक्षाविद्) श्री सुभाष कश्यप (संविधानविद) श्री असगर वजागत (वरिष्ठ रंगकर्मी), श्री वेद प्रताप वैदिक( वरिष्ठ पत्रकार) श्री निदा फाजली (प्रसिद्ध गीतकार व शायर) प्रो. बी. के. कुठियाला ( कुलपति माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय) श्री राजीव मिश्रा ( सीईओ, लोकसभा टीवी) श्री रवि खन्ना ( पूर्व दक्षिण एशिया प्रमुख, वाइस ऑफ अमेरिका), सरीखे व्यक्तित्वों की समझ को मान्यता देकर डेढ़ सौ पत्रकारों में से पचास पत्रकारों का चयन करता है। बकायदा हर संपादक की तस्वीर और नाम देकर प्रचारिक प्रसारित करता है। लेकिन जब चुनिंदा 50 पत्रकारों के नामों के ऐलान का वक्त आता है तो टॉप के दो पत्रकार दो अखबार के मालिक हो जाते हैं। और इन अखबार मालिका का नाम या तस्वीर ना तो उन डेढ सौ की फेरहिस्त में कहीं दिखायी देता है और तो और जिन सम्मानीय लोगों को ज्यूरी का सदस्य बनाकर पत्रकारों को छांटा भी जाता है, उन्हें भी यह नहीं बताया जाता कि अखबार के मालिक पत्रकार हो चुके हैं या फिर दो अखबार के मालिक श्रेष्ठ पत्रकारों की सूची में जगह पा चुके हैं।
    असल में उन अखबार के मालिकों को नहीं बताया जाता है कि आप पत्रकारो की लिस्ट में सबसे उम्दा पत्रकार, सबसे साख वाले पत्रकार, हिन्दी की सेवा करने वाले सबसे श्रेष्ठ संपादक बनाये जा रहे हैं। जाहिर है यह महज चापलूसी तो हो नहीं सकती। क्योंकि धंधा चापलूसी से नहीं चलता। उसके लिये एक खास तरह के फरेब की जरुरत होती है जो फरेब बड़े कैनवास में मौजूदा पत्रकारिता के बाजारु स्तर को बढता हुआ दिखा दें। फिर पत्रकारिता की साख बनाये रखने के लिये पत्रकारों के बीच मौजूदा वक्त के सबसे साख वाले समाजसेवी अन्ना हजारे को बुला कर विकल्प की सोच और अलग लकीर खिंचने का जायका भी पैदा करने की कोशिश की जाती है।
    लेकिन दिमाग में धंधा बस चुका है तो परिणाम क्या निकलेगा। यकीनन कॉकटेल ही समायेगा। तो जो अन्ना हजारे अपने गांव रालेगण सिद्दी से लेकर मुंबई की सड़कों पर दारु बंदी को लेकर ना सिर्फ संघर्ष करते रहे और उम्र गुजार दी बल्कि जिनके समाज सेवा की पहली लकीर ही दारुबंदी से शुरु होती है, उनसे ईमानदार पत्रकारिता का तमगा लेकर उसी माहौल में दारु भी जमकर उढेली जाती है। और तो और महारथी पत्रकारों को कॉकटेल में नहलाने की इतनी जल्दबाजी कि अन्ना के माहौल से निकलने से पहले ही जाम खनकने लगते हैं। हवा में नशे की खुमारी दौड़ने लगती है।
    अब यहां अन्ना सरीखे व्यक्ति खामोशी ही बरत सकते हैं क्योकि चंद मिनट पहले ही पत्रकारों से देश के लिये संघर्ष की मुनादी कर पत्रकारो को समाज का सबसे जिम्मेदार जो ठहराया। जाहिर है महारथी पत्रकारों की आंखों में उस वक्त शर्म भी रही लेकिन मेजबान की नीयत अगर डगमगाने लगी तो कोई क्या करे। और मेजबान को अगर समूचा कार्यक्रम ही धंधा लगने लगा है तो फिर वहा कैसे कोई पत्रकारिता, नीयत, ईमानदार समझ, मिशन, पत्रकारीय संघर्ष का सवाल उठा सकता है। यह सब तो बाजार तय करते हैं और बाजार से डरे सहमे पत्रकार ही नहीं ज्यूरी सदस्य भी इस कार्यक्रम पर अंगुली नहीं उठा पाते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है। हर कोई खामोश। और पत्रकारिता के नाम पर एक सफल कार्यक्रम का तमगा एक्सचेंज फार मीडिया के कर्ताधर्ता अपने नाम कर लेते हैं। फिर त्रासदी यह कि जिन पचास महारथी पत्रकारों के नाम चुने भी गये उसे दिल्ली के पांच सितारा होटल के समारोह के बाहर अभी तक रखने की हिम्मत ये लोग नहीं दिखा पाये हैं।
    साभार- http://prasunbajpai.itzmyblog.com/से

    सोशल नेटवर्किंग पर सार्थक विमर्श

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    Saturday, July 27, 2013

    सोशल नेटवर्किंग पर सार्थक विमर्श


    पुस्तक समीक्षा

    -          डॉ. सी. जय शंकर बाबु
    इंटर्नेट के विकास के साथ ही सामाजिक संबंधों-संवादों के कई रूपों, कई सुविधाओं, व्यवस्थाओं और व्यवसायों के उभरने से दुनिया में रिश्तों के कई नए जाल फैल चुके    हैं ।  ऐसी एक नई व्यवस्था जिसमें नए संवादों की असीम संभावनाएँ उभरकर सामने आई हैं, उसे सोशल नेटवर्किंग की संज्ञा से अभिहित किया गया है ।  सोशल नेटवर्किंग के आज कई आयाम समाज के विभिन्न वर्गों को, लगभग सभी अवस्थाओं के लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर उन्हें कई परिचित, अपरिचित लोगों के साथ संवाद बनाए रखने, विचारों, भावनाओं के आदान-प्रदान, ज्ञान-विज्ञान, विशेषज्ञतावाले विषयों में मुक्त एवं उन्मुक्त विमर्श के लिए मंच देने की वजह से इनकी ओर समाज का आकर्षण बढ़ रहा है, विशेषकर युवा पीढ़ी ज्यादा प्रभावित है ।  सोशल नेटवर्किंग के विभिन्न आयामों पर सार्थक एवं सामयिक विमर्श पर केंद्रित एक नई कृति सोशल नेटवर्किंग - नए समय का संवादके शीर्षक से सामने आई है, जिसका संपादक जानेमाने पत्रकार, मीडिया आलोचक और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जन संचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया है ।  सोशल नेटवर्किंग के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक, कूटनीतिक, नैतिकस न्यायिक एवं तकनीकी तथा अन्य आयामों पर केंद्रित लेख इस कृति में शामिल हैं ।  इसमें कुल 26 लेख शामिल हैं जिनमें 21 लेख हिंदी में और शेष 5 लेख अंग्रेजी में हैं ।  
    मीडिया क्षेत्र से जुड़े जाने-माने पत्रकार, आलोचक, आचार्य आदि की लेखनी से सृजित इन लेखों के माध्यम से सोशल नेटवर्किंग के लगभग तमाम आयामों पर सविस्तार सार्थक विमर्श को स्थान दिया गया है ।  मुक्त सूचना का समय शीर्षक से इस कृति के संपादकीय में संजय द्विवेदी जी ने लिखा है कि – आज ये सूचनाएं जिस तरह सजकर सामने आ रही हैं कल तक ऐसी करने की हम सोच भी नहीं सकते थे ।  संचार क्रांति ने इसे संभव बनाया है ।  नई सदी की चुनौतियाँ इस परिप्रेक्ष्य में बेहद विलक्षण हैं ।  इस सदी में यह सूचना तंत्र या सूचना प्रौद्योगिकी ही हर युद्ध की नियामक है, जाहिर है नई सदी में लड़ाई हथियारों से नहीं, सूचना की ताकत से होगी ।  जर्मनी को याद करें तो उसने दूसरे विश्वयुद्ध में ऐतिहासिक जीतें दर्ज कीं, वह उसकी चुस्त-दुरुस्त टेलीफोन व्यवस्था का ही कमाल था ।  सूचना आज एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गई  है ।...... फेस बुक, ब्लाग और ट्विटर ने जिस तरह सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण किया है उससे प्रभुवर्गों के सारे रहस्य लोकों की लीलाएं बहुत जल्दी सरेआम होंगी ।  काले कारनामों की अंधेरी कोठरी से निकलकर बहुत सारे राज जल्दी ही तेज रौशनी में चौंधियाते नजर आएंगे ।  बस हमें, थोड़े से जूलियन असांजे चाहिए । (पृ.2,3)
    उन्मुक्त सूचनातंत्र के इस युग में सोशल नेटवर्किंग की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालते हुए द्विवेदी जी की संपादकीय वाणी इस विचार को भी बल देती है कि, सोशल नेटवर्किंग आज हमारे होने और जीने में सहायक बन गयी है ।  इस अर्थ में मीडिया का जनतंत्रीकरण भी हुआ है ।  आम आदमी इसने जुबान दी है ।  इसने भाषाओं को, भूगोल की सीमाओं को लांघते हुए एक नया विश्व समाज बना लिया है ।  इसकी बढ़ती ताकत और उसके प्रभावों पर इक बातचीत की शुरूआत इस किताब के बहाने हो रही है । (पृ.3)  माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने इंटर्नेट आधारित सोशल नेटवर्किंग को मानवता के लिए वरदानके रूप में माना है ।  उनका विचार है कि सोशल नेटवर्किंग के कारण से मानवीय संपर्कों और संबंधों की सीमाएं अंकन हो गईं ।  प्रो. कुठियाला जी का विचार है – इंटरनेट आधारित जो संवाद की प्रक्रियाएँ आर्थिक लाभ के लिए किया जाए, उसी से आर्थिक और सामाजिक विषमताएँ दूर होंगी ।  इंटरनेट की अपनी प्रकृति ऐसी है कि यह अपने ही डिजिटल गैपको समाप्त करने की क्षमता रखती है ।  (पृ.15)
    इस कृति में शामिल लेखों में शोशल नेटवर्किंग के कई आयामों पर सविस्तार सार्थक चर्चा हुई है ।  कुछ लेखों के शीर्षक ही ऐसे हैं कि वे इस नए संवाद के विभिन्न आयामों पर सहज विश्वेषण प्रस्तुत करते हैं – जैसे अंतरंगता का जासूस (प्रकाश दुबे), मनचाही अभिव्यक्ति का विस्तार (कमल दीक्षित), कहाँ पहुँचा रहे हैं अंतरंगता के नए पुल (विजय कुमार), टाइम किलिंग मशीन (प्रकाश हिंदुस्तानी), अप संस्कृति की गिरफ्त में (संजय कुमार), खतरे आसमानी भी हैं और रूहानी भी (संजय द्विवेदी), सावधानी हटी-दर्घटना घटी (आशीष कुमार अंश), कानूनी सतर्कता का सवाल (डॉ. सी. जय शंकर बाबु), इक्कीसवीं सदी का संचार (डॉ. सुशील त्रिवेदी), आभासी दुनिया की हकीकतें (तृषा गौर), ‘A Replica of the Social Realities’ (Ranu Tomar) आदि ।
    लेडी श्रीराम कालेज, दिल्ली में पत्रकारिता विभाग की अध्यक्ष वर्तिका नंदा ने एक पाती फेसबुक के नामशीर्षक से अपने लेख में सोशल नेटवर्किंग के प्रभाव का विश्लेषण कुछ आंकडों के माध्यम से इस रूप में की है – नए आँकड़े बड़ी मजेदार बातें बताते हैं ।  अगर दुनिया-भर के फेसबुक यूजर्स की संख्या को आपसे में जोड़ लिया जाए, तो दुनिया की तीसरी सबसे अधिक आबादी वाला देश हमारे समाने खड़ा होगा ।  अब, जबकि आबादी का 50 प्रतिशत हिस्सा 30 से कम उम्र का है, तुम स्टेटस सिंबल बन चुके हो ।  आधुनिक बाजार का 93 प्रतिशत हिस्सा सोशल नेटवर्गिंक साइट्स का इस्तमाल करता है ।  भारतीय युवा तो इस नए नटखट खिलौने के ऐसे दीवाने हो गए हैं कि भारत दुनिया का चौथा सबसे अधिक फेसबुक का इस्तामाल करने वाला देश बन गया है।(पृ.29)
    शिल्प अग्रवाल का अंग्रेजी प्रस्तुत लेख - ‘You are connected’भी ऐसे ही कुछ आँकडें प्रस्तुत करता है –“80,0000000 connections globally, 100 million and more in India – to hundreds of connections in my own list.  All of this under 7 years.  The pace with which these have grown intrigues any min and to the less tech savvy it’s boggling.  But how can anyone stay away from perhaps the most important revolution of modern times.”
    शोध-संवाद और सार्थक विमर्श के लिए इस कृति में शामिल लेखों से काफ़ी महत्वपूर्ण विचार मिल जाते हैं जो सोशल नेटवर्किंग के अतीत, वर्तमान और भविष्य के समग्र प्रभाव का विश्वेषण और पूर्वानुमान भी प्रस्तुत कर देते हैं ।  इनमें अभिव्यक्ति विचार लेखकों के अनुभव और व्यवहार जनित ही नहीं, तथ्यात्मक, तार्किक और सिद्धांतपरक भी है ।  लेखों के सृजन और कृति प्रकाशन के बीच व्यवधान की अधिकता भी कुछ स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि इन लेखों में चर्चित एकाध मुद्दों पर बहस काफ़ी आगे बढ़ भी चुकी है और निरंतर जारी भी है ।  (इन आलेखों के लेखन का माह और वर्ष भी शामिल किया जा सकता था ।)  इस सीमा के बावजूद यह कृति इस विषय क्षेत्र के अध्ययन में लगे मीडिया के छात्रों, शोधार्थियों, मीडिया आलोचकों के लिए निश्चय ही प्रेरक एवं उपयोगी कृति है ।  इस कृति के इस रूप में प्रस्तुति के लिए लेखकगण, संपादक संजय द्विवेदी और यश पब्लिकेशंस, दिल्ली बधाई के पात्र हैं ।  कृति के आवरण (दूसरे) पृष्ठ  पर छपी टिप्पणी में नवभारत टाइम्सके पूर्व संपादक विश्वनाथ सचदेव ने राय दी है कि,एक सर्वथा नए विषय पर इनती सामग्री का एक साथ होना भी नए विमर्शों की राह खोलेगा इसमें दो राय नहीं है ।  पुस्तक की उपयोगिता भी इससे साबित होती है कि इसमें लेखकों ने एक सर्वथा नई दुनिया में हस्तक्षेप करते हुए उसके विविध पक्षों पर सोचने की शुरूआत की है ।
    आज अधिकांश पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं में शायद कंप्यूटर में अक्षर संयोजकों और प्रूफ़ पढ़ने वालों की लापरवाही की वजह से मुद्राराक्षसों का दर्शन (प्रूफ़ की अशुद्धियों का नज़र आना) आम बात बन चुकी है, कम मात्रा में ही क्यों न हो, यह कृति भी इसका अपवाद नहीं है ।  संपादक ने इस कृति को सृजनगाथ डाट काम के संपादक जयप्रकाश मानस को समर्पित किया है ।
    कृति - सोशल नेटवर्किंग - नए समय का संवाद (ISBN: 978-81-926053-6-4), संपादकसंजय द्विवेदीप्रकाशन वर्ष– प्रथम संस्करण 2013, पृष्ठ–115, मूल्य– रु.295, प्रकाशक– यश पब्लिकेशंस, 1/11848 पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली – 110 032

    पत्रकार होने की मान्यता

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    राजनीति के अपराधीकरण पर किये गए विभिन्न अध्ययनों के दौरान जो निष्कर्ष प्राप्त हुआ था, वह आज पत्रकारों के राजनीतिकरण पर भी सटीक बैठ रहा है. मोटे तौर पर विधानमंडलों में अपराधियों की बढ़ती संख्या का कारण यह था कि पहले नेताओं ने अपने प्रतिद्वंदियों को दुश्मन समझ उसे निपटाने के लिए किराए के लिए बाहुबलियों की मदद लेना शुरू किया. बाद में उन अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को लगा कि जब केवल ताकत की बदौलत ही सांसद-विधायक बना जा सकता है, तो बजाय दूसरों के लिए पिस्तौल भांजने के क्यू न खुद के लिए ही ताकत का उपयोग शुरू कर दिया जाय. फलतः वे सभी अपनी-अपनी ताकत खुद के लिए उपयोग करने लगे और ग्राम पंचायतों से लेकर संसद तक अपराधी ही अपराधियों की पैठ हो गयी. इस विषय पर वोहरा कमिटी ने काफी प्रकाश डाला है. तो अब चुनाव प्रणाली में नए-नए प्रयोगों के दौरान भले ही असामाजिक तत्वों पर कुछ अंकुश लगा हो लेकिन यह फार्मूला अब पत्रकारों ने भी अपनाना शुरू कर दिया है.
    हाल तक पत्रकारिता के लिए भी पेड न्यूज़ चिंता का सबब बना हुआ था. लेकिन राडिया प्रकरण के बाद यह तथ्य सामने आया कि कलम को लाठी की तरह भांजने वाले लोगों ने भी यह सोचा कि अगर केवल कलम या कैमरे से ही किसी की छवि बनायी या बिगाड़ी जा सकती हो, तो क्यू न ऐसा काम केवल खुद की बेहतरी के लिए किया जाय? कल तक जो कलमकार नेताओं के लिए काम करते थे, अब वे नेता बनाने या पोर्टफोलियो तक डिसाइड करवाने की हैसियत में आ गए. अगर इस पर लगाम न लगाई गयी तो कल शायद ये भी खुद ही लोकतंत्र को चलाने या कब्जा करने की स्थिति में आ जाय. तो 2G स्पेक्ट्रम खुलासे ने यह अवसर मुहैया कराया है जब पत्रकारिता की सड़ांध को भी रोकने हेतु समय रहते ही प्रयास शुरू कर देना उचित होगा. यह सड़ांध केवल दिल्ली तक ही सिमटा नहीं है बल्कि कालीन के नीचे छुपी यह धूल, गटर के ढक्कन के नीचे की बदबू राज्यों की राजधानियों और छोटे शहरों तक बदस्तूर फ़ैली हुई है.
    संविधान द्वारा आम जनों को मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी का सबसे ज्यादा उपभोग पत्रकारों को करने दे कर समाज ने शायद एक शक्ति संतुलन स्थापित करना चाहा था. अपने हिस्से की आज़ादी की रोटी उसे समर्पित कर के समाज ने यह सोचा होगा कि यह ‘वाच डाग’ का काम करते रहेगा. नयी-नयी मिली आज़ादी की लड़ाई में योगदान के बदौलत इस स्तंभ ने भरोसा भी कमाया था. लेकिन शायद यह उम्मीद किसी को नहीं रही होगी कि यह ‘डॉग’ भौंकने के बदले अपने मालिक यानी जनता को ही काटना शुरू कर देगा. हाल में उजागर मामले का सबसे चिंताजनक पहलू है समाज में मीडिया की बढ़ती बेजा दखलंदाजी.
    निश्चित ही कुछ हद तक मीडिया की ज़रूरत देश को है. लेकिन लोगों में पैदा की जा रही ख़बरों की बेतहाशा भूख ने अनावश्यक ही ज़रूरत से ज्यादा इस कथित स्तंभ को मज़बूत बना दिया है. यह पालिका आज ‘बाज़ार’ की तरह यही फंडा अपनाने लगा है कि पहले उत्पाद बनाओ फ़िर उसकी ज़रूरत पैदा करो. प्रसिद्ध मीडिया चिन्तक सुधीश पचौरी ने अपनी एक पुस्तक में ‘ख़बरों की भूख’ की तुलना उस कहानी ( जिसमें ज़मीन की लालच में बेतहाशा दौड़ते हुए व्यक्ति की जान चली जाती है ) में वर्णित पात्र से कर यह सवाल उठाया है कि आखिर लोगों को कितनी खबर चाहिए? तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ख़बरों की बदहजमी रोकने हेतु उपाय किया जाना समीचीन होगा.
    शास्त्रों में खबर देने वाले को मोटे तौर पर ‘नारद’ का नकारात्मक रूप देकर उसे सदा झगड़े और फसाद की जड़ ही बताया गया है. इसी तरह महाभारत के कथानक में संजय द्वारा धृतराष्ट्र को सबसे पहले आँखों देखा हाल सुनाने की बात आती है. लेकिन महाभारत में यह उल्लेखनीय है कि आँखों देखा हाल सुनाने की वह व्यवस्था भी केवल (अंधे) राजा के लिए की गयी थी. इस निमित्त संजय को दिव्य दृष्टि से सज्जित किया गया था. तो आज के मीडियाकर्मियों के पास भले ही सम्यक दृष्टि का अभाव हो. चीज़ों को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर, अपने लाभ-हानि का विचार करते हुए ख़बरों से खेल कर, व्यक्तिगत पूर्वाग्रह-दुराग्रह के हिसाब से खबर बनाने, निर्माण करने की हरकतों को अब भले ही ‘पत्रकारिता’ की संज्ञा दे दी जाय. भले ही कुछ भी विकल्प न मिलने पर, अन्य कोई काम कर लेने में असफल रहने की कुंठा में ही अधिकाँश लोग पत्रकार बन गए हों, लेकिन आम जनता को आज का मीडिया धृतराष्ट्र की तरह ही अंधा समझने लगा है. तो ऐसी मानसिकता के साथ कलम या कैमरे रूपी उस्तरे लेकर समाज को घायल करने की हरकत पर विराम लगाने हेतु प्रयास किया जाना आज की बड़ी ज़रूरत है.
    लोकतंत्र में चूंकि सत्ता ‘लोक’ में समाहित है, अतः यह उचित ही है कि ख़बरों को प्राप्त करना हर नागरिक का मौलिक अधिकार रहे. लेकिन ‘घटना’ और ‘व्यक्ति’ के बीच ‘माध्यम’ बने पत्रकार अगर बिचौलिये-दलाल का काम करने लगे तो ऐसे तत्वों को पत्रकारिता से बाहर का रास्ता दिखाने हेतु प्रयास किये जाने की ज़रूरत है. जनता को धृतराष्ट्र की तरह समझने वाले तत्वों के आँख खोल देने हेतु व्यवस्था को कुछ कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है. कोई पत्रकार अपने ‘संजय’ की भूमिका से अलग होकर अगर ‘शकुनी’ बन जाने का प्रयास करे, षड्यंत्रों को उजागर करने के बदले खुद ही साजिशों में संलग्न हो जाय तो समाज को चाहिये कि ऐसे तत्वों को निरुत्साहित करे.
    अव्वल तो यह किया जाना चाहिए कि हर खबर के लिए एक जिम्मेदारी तय हो. अगर खबर गलत हो और उससे किसी निर्दोष का कोई नुकसान हो जाय तो उसकी भरपाई की व्यवस्था होना चाहिए. इसके लिए करना यह होगा कि ‘पत्रकार’ कहाने की मंशा रखने वाले हर व्यक्ति का निबंधन कराया जाय. कुछ परिभाषा तय किया जाय, उचित मानक पर खड़े उतरने वाले व्यक्ति को ही ‘पत्रकार’ के रूप में मान्यता दी जाय. कुछ गलत बात सामने आने पर उसकी मान्यता समाप्त किये जाने का प्रावधान हो. जिस तरह वकालत या ऐसे अन्य व्यवसाय में एक बार प्रतिबंधित होने के बाद कोई पेशेवर कहीं भी प्रैक्टिस करने की स्थिति में नहीं होता, उसी तरह की व्यवस्था मीडिया के लिए भी किये जाने की ज़रूरत है. अभी होता यह है कि कोई कदाचरण साबित होने पर अगर किसी पत्रकार की नौकरी चली भी जाती है तो दूसरा प्रेस उसके लिए जगह देने को तत्पर रहता है. राडिया प्रकरण में भी नौकरी से इस्तीफा देने वाले पत्रकार को भी अन्य प्रेस द्वारा अगले ही दिन नयी नौकरी से पुरस्कृत कर दिया गया. तो जब तक इस तरह के अंकुश की व्यवस्था नहीं हो तब तक निरंकुश हो पत्रकारगण इसी तरह की हरकतों को अंजाम देते रहेंगे.
    जहां हर पेशे में आने से पहले उचित छानबीन करके उसे अधिसूचित करने की व्यवस्था है वहाँ पत्रकार किसको कहा जाय यह मानदंड आज तक लागू नहीं किया गया है. आप देखेंगे कि चाहे वकालत की बात हो, सीए, सीएस या इसी तरह के प्रोफेसनल की. हर मामले में कठिन मानदंड को पूरा करने के बाद ही आप अपना पेशा शुरू कर सकते हैं. डाक्टर-इंजीनियर की तो बात ही छोड़ दें, एक सामान्य दवा की दुकान पर भी एक निबंधित फार्मासिस्ट रखने की बाध्यता है. कंपनियों के लिए यह बाध्यता है कि एक सीमा से ऊपर का टर्नओवर होने पर वो नियत सीमा में पेशेवरों को रखे और उसकी जिम्मेदारी तय करे. लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियों का रूप लेते जा रहे मीडिया संगठनों को ऐसे हर बंधनों से मुक्त रखना अब लोकतंत्र पर भारी पड़ने लगा है. चूंकि आज़ादी के बाद, खास कर संविधान बनाते समय पत्रकारों के प्रति एक भरोसे और आदर का भाव था. तो संविधान के निर्माताओं ने इस पेशे में में आने वाले इतनी गिरावट की कल्पना भी नहीं की थी. तो ज़ाहिर है इस तन्त्र पर लगाम लगाने हेतु उन्होंने कोई खास व्यवस्था नहीं की. लेकिन अब बदली हुई परिस्थिति में यह ज़रूरी है कि पत्रकारों के परिचय, उसके नियमन के लिए राज्य द्वारा एक निकाय का गठन किया जाय, अन्यथा इसी तरह हर दलाल खुद को पत्रकार कह लोकतंत्र के कलेजे पर ‘राडिया’ दलता रहेगा.
    लेखक पंकज झा छत्‍तीसगढ़ बीजेपी के मुखपत्र दीपकमल के संपादक हैं.
    Comments
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    kumar
    rajesh kumar 2010-12-22 20:07:46

    jo aadmi har sal apana nam badalta hai. wo patrakaro ke lia manak ki bat kar raha hai. durbhagya ki bat hai
    pahle ye tay kar lo ki ab apna nam nahi badloge fir nasihat dena

    समाचार जगत दम तोड़ देगा
    Prem Arora Kashipur Uttarakhan 2010-12-22 20:14:22

    प्रिये भाई यशवंत,

    पंकज झा जी की बातों की गहराई में जाया जाये तो उनकी बात से मेरे जैसे कई लोग सहमत होंगे जो अब अपने आप को पतरकार कहलाने में शर्म महसूस कर रहें हैं. यशवंत भाई जब भड़ास पहली बार और शयद सबसे पहले मेरे सामने आया था मुझे अहसास नहीं था की हम दिल की बात भी कह पाएंगे. पैर इस मंच के माध्यम से मीडिया का सच सामने आ रहा है यशु भाई अगर कोई भी टी वी चानेल २० हज़ार ले कर अपने चैनल का रिपोर्टर बनाएगा और एक समाचार पटर ५ हज़ार लेकर रिपोर्टर बनाएगा तो किस तरह समाचार जगत दम तोड़ देगा जो धीरे धीरे करके तोड़ भी रहा है. २० हज़ार देकर ५० हज़ार कैसे कमाया जाये यह बिज़नस तो बन ही गया है. हालां की भाजपा भी मीडिया को साधना जानती है par पंकज झा जी ने जिस बेबाकी से इस बहस को शुरू किया है वोह अब लम्बी तो चलेगी ही. खों की भड़ास फॉर मीडिया par जो भी दिल को छूने वाली बात सामने आती है वोह काफी दिनों तक चलती है.

    यशु भाई मेरी और से पंकज झा जी को धनयबाद कहना

    आपका

    प्रेम अरोड़ा काशीपुर

    9012043100

    अदभुत,
    आशीष झा 2010-12-22 21:08:21

    अदभुत, अदभुत, अदभुत, पंकज जी का यह आलेख मीडि‍या में रहने और आनेवाले सभी को पढना चाहि‍ए

    Anonymous 2010-12-22 21:24:54

    70% Gaaon ke desh Bharat mein Patrakaar ban ne ke liya sabse pahle kam se kam 2 saal tak kisi chote se kasbe ya Gaaon se Shuruwat honi chaaiye !
    Ye nahi ki *Jugaad * laga kar 30 saal ki umra mein hi Sampaadak ban kar *Bada Patrakaar* kahlaane ki jugat bhidaanee chaaiye !
    Pankaj ji Dhyaan dijiye !

    Jitendra Dave 2010-12-22 21:31:55

    Good Analysis Pankaj Ji. It is time to introspect. Now a days media became a Powerhouse without any accountability. Media is a part of our social life, hence must be responsible for all its acts.

    truth
    Kamal Tripathi 2010-12-22 22:38:18

    ye un sabhe bhawi patrakaro ke liye sandesh hai, ummed karta hu ki esko padh kar unhe kuch labh hoga, aur wo patrikarita ki garima ko banaye rakhne me apana yogdan dege.......baho umda lekh Pankaj sir......

    Atul shrivastava 2010-12-22 23:19:02

    पंकज जी, आपके लेख की बातों से मैं तो सहमत हूं पर 'राजेश कुमार' जी की जो टिप्‍पणी आपके लेख के साथ है उस पर आपका क्‍या कहना है यदि आप बताएं तो और भी अच्‍छा होगा।

    धन्यवाद.
    पंकज झा. 2010-12-23 00:17:56

    अतुल जी, आप लेख की बातों से सहमत हैं इसके लिए धन्यवाद आपका. लेख के विषय वस्तु पर ही बात हो तो बेहतर, नाम में कुछ भी नहीं रखा है. फ़िर भी अगर जिज्ञासा है तो बता दूं कि मेरे घर का नाम 'पंकज कुमार झा' ही रखा गया था. बाद में मैंने दीक्षा ले ली थी तो गुरूजी ने नाम बदल कर 'जयराम दास' रख दिया था. मूलतः मेरी पढ़ाई-लिखाई आश्रम में ही हुई थी तो सभी प्रमाण पत्र जयराम के नाम से ही थे. पुनः अपने परिवार में वापस आने पर पहचान का थोडा संकट पैदा हो गया तो विहित कानूनी प्रक्रिया द्वारा, एफेडेविट लेकर, अखबारों में इश्तहार देकर मैंने अपना पुराना पहचान वापस पाया. इसमें कुछ भी बुराई नहीं है, और न ही राजेश जी के टिप्पणी की तरह इस नाम बदलने से पत्रकारिता की मानक को कोई चोट पंहुचा है. पत्रकार या रचना कर्म से जुड़े लोग तो वैसे भी अलग नाम से पहचान हासिल करते रहते हैं. उदाहरण नहीं दूंगा, नहीं तो अभी कहा जाने लगेगा कि हम बड़े लोगों से अपनी तुलना कर रहे हैं...खैर.
    प्रेम अरोड़ा साहब,आशीष झा जी, अनिनोमस जी, जितेन्द्र दवे साहब, कमल त्रिपाठी जी ...आप सभी का ह्रदय से आभार. :D

    सहमत
    Journalist 2010-12-23 10:48:15

    पंकज जी
    आपसे बिलकुल सहमत हैं. आपका एक-एक शब्द सत्य है. कुछ तथाकथित पत्रकार पत्रकारिता की पावन गंगा को दूषित करने पर तुले हुए हैं. ऐसे तथाकथित पत्रकार, पत्रकारिता के लिए कलंक हैं.

    अब बात कुमार की, लगता है यह कुमार भी कोई दूषित मानसिकता वाला कोई तथाकथित पत्रकार है, जो आपके सत्य से घबराकर आप पर निजी तौर टिप्पणी कर रहा है.

    mukesh aagrawal 2010-12-23 11:40:05

    बिलकुल ठीक - * शुचिता कि शपथ पहली प्राथमिकता हो

    * ६वा वेतनमान मिले
    * विचारो पे बंदिश न हो
    * संपादक एडिटिंग न करे
    * हर लाइन योग्यता के मानदंडो पर खरी रहे
    * अपराध कि राजनिति और राजनिति का अपराधी करण ,corruption eradiction मूलमंत्र हो
    * graduate फ़र्स्ट क्लास अनिवार्य किया जाय


    - :evil:है न कपोल कल्पना मेरी !
    लेकिन आपका लेख सच्चाई है !

    Ashwani Kumar Roushan 2010-12-23 12:16:14

    @ Mr. Rajesh :- Rajesh ji, Jis prakar se apne es sundar evam vicharniya alekh par par apni pratikriya jahir ki hai wo nischit roop se ghor BHARTSNA ke layak hai. Mahshay jaisa ki aap jante hain PANKAJ JHA jee khud ek patrkar hain aur yadi unhone apne vyawshay se jure kuch ashwikar karne wale tathyon ya yun kahen ki asamajik tatwon ke khilaf awaj uthayi hai to nischit roop se ye bahut hi sarahniya kadam hai. Aur aisa jan parta hai ki LEKHAK mahashay ko aap jaise logon ne hi majboor kiya hai aisa kuch likhne ke liye. Kyunki koi v vyakti jisse kisi ki rozi roti chalti hai wo etni asani se uske khilaf awaj nahi uthata.
    Esliye lekahk mahoday se namra nivedan hai ki apni es awaj ko aise hi apni kalam ki takat se aur buland karte rahein.Naam badalne se kuch nahi hota, Balki ush badle hue naam ke sath bhi fir se es bheer me khash kar Rajesh jee jaise logon ke bich apni pahchan apni wahi garima bana lena (jaisa ki aap kar rahe hain) bahut badi baat hoti hai..Hum sab apke sath hain..Bahut khub mahashay..Aap nischit roop se bahut bade dhanywad ke patra hain.

    samvednasansaar.blogspot.com
    रंजना.. 2010-12-23 12:37:36

    बिलकुल सही कहा आपने...शब्दशः सहमत हूँ....

    जिन दिनों टी वी पर प्रचारित किया जा रहा था कि अब खबर आपके हाथ में होगा..अपने हिसाब से अपने पसंद के खबर आप देख पाएंगे, मुझे अंदेशा हो गया था कि भविष्य हमें यही दिन दिखायेगा,जो आज जगजाहिर है.....

    पर क्या हकीकत सही मायनों में ऐसी हो होनी चाहिए...
    केशव आचार्य 2010-12-23 12:59:27

    इस समय प्रदेश में दो नयेचैनल आ रहै एक 25 हजार लेकर जिले का संवाद दाता बना रहा है दूसरा20 हजार लेकर तहसील और ब्लाक पर नियुक्त कर रहा है...अब आप बताएं की पत्रकारिता के माप दंड कहां से तय हों...जितने भी करोड पति हैं...पैसा चाहे जहां से आया हो..पर सवाल है कि पैसे के दम परशुरू हो रहे इन अखबारों और चैनल के पास पैसा उगाही का जो ये तरीका ..और सबसे बडी बात..जो लोग इन आई डी या ब्यरों को पैसे के दम परखरीदते हैं.... उन्हें...कौन तय करेगा की पत्रकारिता करनी चाहिए या नही...पर क्या एक सवाल है आपसे.....अगर पत्रकारिता के मापदंड कर दिये जाये तो फिर कितने लोग इस दौड में शामिल होगें...
    वैस मेरा एक सबको सुझाव है...
    जीवन जीने के लो नये आइडिया..
    अगर अम्बानी नही तो बनो राडिया...."

    राजेश 2010-12-23 13:02:16

    rajesh kumar..जी परम आदरणीय राजेश जी....जिस तरह से आपने पूरा लेख पढने के बाद अपनी टिप्पणी कही है उससे आपका चूतियापन साफ झलक गया है..पहले सोच पैदा करले बाबू....फिर कूदना टिप्पणी करने में......

    राजकुमार साहू, जांजगीर छत्तीसग 2010-12-23 16:40:13

    पंकज जी, आपने जो मुद्दा उठाया है, वह काबिले तारीफ है। वाकिये में जिस तरह राजनीति का अपराधीकरण हुआ है, वैसे ही पत्रकारिता का राजनीतिकरण भी होता जा रहा है। आज वही सबसे बड़ा पत्रकार माना जाने लगा है, जिसे कोई मंत्री या फिर बड़े नेता जानता-पहचानता हो। इसलिए निश्ष्ति ही पत्रकारिता के लिए मापदण्ड तो तय होना चाहिए, क्योंकि कचरा-बदरा भी पत्रकारिता में आकर मिल गए हैं।

    पंकज झा. 2010-12-24 12:17:54

    केशव आपका सवाल प्रासंगिक है. लेकिन आप Quantity नहीं Quality की चिंता कीजिए. कुछ सामान्य से मापदंड लागू हो जाने के बाद भी लोगों की कोई कमी नहीं रहेगी. लेख में अपन ने जिन-जिन पेशा का उदाहरण दिया है, वहाँ भी हज़ारों-लाखों की संख्या में लोग कार्य कर रहे हैं. तो लोग तो आयेंगे ही लेकिन शायद अच्छे पेशेवराना अंदाज़ लेकर. शुरू से ही यही तय कर कि पत्रकार ही बनना है. आज की तरह नहीं कि कुछ न कर पाए तो चलो पत्रकार बन जाते हैं. धन्यवाद आपका.
    सहमत जी के समर्थन के लिए धन्यवाद. मुकेश जी, आपने भी विचारणीय बात कही है,लेकिन एक बात समझ में नहीं आया. अगर संपादक एडिटिंग न करे तो और क्या करे? अश्विनी जी, रंजना जी, राजेश जी और राजकुमार जी..आप सभी को हार्दिक धन्यवाद.

    केशव आचार्य 2010-12-24 12:23:15

    पकंज दादा...लेकिन करोडो रूपये का बजट लेकर चलने वाले चैनल को क्वांटिटी और क्लालिटी के बीच क्या चाहिए होगा.... क्या क्लालिटी पैसा दिला पायेगी...यदि नहीं मैं जबाव है तो फिर मापदंढ यही रहने दीजिए

    पंज जी को बधाई
    मयंक सक्सेना 2010-12-24 16:30:42

    ये वही पंकज झा हैं जो एक वक्त भोपाल में पत्रकारिता विश्वविद्यालय में बिना प्रवेश परीक्षा के प्रवेश का समर्थन कर रहे थे...परीक्षा में संघ की महिमा गाने वाले प्रश्नों का समर्थन कर रहे थे...आज मानक तय करने की बातें कर रहे हैं...अद्भुत सामंजस्य है समय के हिसाब से बात करने का...कभी संघ की लॉबीइंग (कुठियाला जैसे आपराधिक लोगों की) तो कभी मानकों की बात....बधाई हो पंकज जी दोहरे मापदंडो पर भी खरे उतरने के लिए....

    गलतबयानी.
    पंकज झा. 2010-12-24 16:45:05

    मयंक जी, कृपया तथ्यों के अआधार पर और सच बात करें तो अच्छा लगेगा. माखनलाल से संबंधित मेरा सारा लिखा किसी न किसी साईट पर है. क्या आप कोई एक लिंक दे पायेंगे जिसमें मैंने कभी भी बिना प्रवेश परीक्षा लिए प्रवेश देने का समर्थन किया हो?
    हां आपकी ये बात सही है कि भाजपा से संबंधित सवाल पूछने का मैंने ज़रूर समर्थन किया था. और वो इस आधार पर कि अगर कांग्रेस से संबंधित सवाल पूछे जा सकते हैं तो भाजपा या अन्य राष्ट्रवादी संगठनों से सवाल क्यू नहीं आ सकते? और अपने इस स्टेंड पर मैं आज भी कायम हूं. शायद आपको मालूम हो कि उस परीक्षा में संघ से ज्यादा कांग्रेस को महिमामंडित करने वाले सवालों की संख्या थी.
    इसी तरह कभी मैंने कुठियाला जी या और किसी की व्यक्तिगत तारीफ़ नहीं की और न ही उनका बचाव किया. इसी साईट पर संबंधित लेख में अपन ने सबकी आलोचना करते हुए अपने कनिष्ठ छात्रों से केम्पस की राजनीति से दूर रहने का आग्रह किया था..बस.
    मयंक जी, अपना लेखन सदा दोहरे मानदंडों के खिलाफ में ही रहा है. अगर आप अपने किसी भी बात के समर्थन में कोई भी सबूत ला पाएं तो खुशी होगी मुझे. और सार्वजिनक रूप से स्वीकार भी करूँगा. टिप्पणी के लिए शुक्रिया लेकिन तथ्यों पर आधारित बात करेंगे तो अच्छा लगेगा.

    sahmat
    achchhelal verma 2010-12-24 21:50:36

    हम सहमत हैं

    kuch sach to kuch bhram sa lagta hai
    nandkishore sharma 2010-12-28 13:21:59

    pankaj ji ka yeh kathan ki janta dhritrashtra hai aaj ke samay me bhram sa prateet hota hai lekin ye kehna ki aaj samyak drishtee rakhne wale sanjay ki tarah ke patrakaron ki jaroorat hai bilkul sahi hai aur me is baat ko apna vote bhi deta hoon

    Anonymous 2010-12-30 13:04:45

    Sahi hai. Ganga me dubki lagakar pap dhone ke gyan dene wale pande khud hi pap ki gathri liye chal rahe hain. kya dohra mapdand hai. yadi wastav me patrkar banne ki haisiyat rakhte hain to BJP ka daman chhodkar journalism ko sidhe kyo nahi apnate janab. Behtar hoga khud apne apko sudhare aur bad me gyan bahaye.

    पंकज झा. 2011-01-03 21:22:12

    मैं नीचे की दोनों टिप्पणी को देख नहीं पाया था, इसीलिए विलम्ब हो गया.खैर. पहले नंदकिशोर जी को धन्यवाद उनके समर्थन के लिए. जहां तक जनता को धृतराष्ट्र समझने की बात है तो हम ऐसा नहीं समझते. मैंने ये कहा है कि पत्रकारगण शायद ऐसा सोचते हैं कि जनता अंधी है.जबकि ऐसा है नहीं.
    अनिनोमस साहब से इतना ही कहना चाहूँगा कि मैं बीजेपी के लिए काम करता हूं यह कोई छुपा अजेंडा नहीं है मेरा. जैसा आजकल हो गया है पत्रकारों का. आप बनाइये मानक पत्रकारों के लिए और भरोसा मानिए कि उस मानक में मेरा बीजेपी से होना अयोग्यता होगी तो पत्रकार कहा जाना ही पसंद करूँगा.मैं किसी विचारधारा का बाद में हूं, पत्रकार पहले....धन्यवाद.

    Anonymous 2011-04-18 17:39:32

    s

    कृपया आप लोग भी ऐसे ही लिखें
    हरिओम गर्ग 2011-06-16 01:20:30

    अश्वनी कुमार रोशन का पत्र राजेश जो उन्होंने राजेश क़े नाम लिखा को हिंदी में केन्वेर्ट करने क़े बाद.
    आप भी आगे से अपने पत्र ,अपनी राय, गूगल की इस उपलब्ध सेवा से ऐसे ही लिखें तो दूसरों को पढने में सहूलियत होगी .
    धन्यवाद .
    हरिओम गर्ग Mr . राजेश :- राजेश जी , जिस प्रकार से अपने एस सुन्दर एवं विचारनीय आलेख पर पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कि है वो निश्चित रूप से घोर भर्त्सना क़े लायक है . मह्शय जैसा कि आप जानते हैं पंकज झा जी खुद एक पत्रकार हैं और यदि उन्होंने अपने व्यव्शय से जुरे कुछ अश्वीकार करने वाले तथ्यों या यूँ कहें कि असामाजिक तत्वों क़े खिलाफ आवाज उठाई है तो निश्चित रूप से ये बहुत ही सराहनीय कदम है . और ऐसा जन परता है कि लेखक महाशय को आप जैसे लोगों ने ही मजबूर किया है ऐसा कुछ लिखने क़े लिए . क्यूंकि कोई व् व्यक्ति जिससे किसी कि रोज़ी रोटी चलती है वो इतनी आसानी से उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता .
    इसलिए लेकह्क महोदय से नम्र निवेदन है कि अपनी एस आवाज को ऐसे ही अपनी कलम की ताकत से और बुलंद करते रहे .नाम बदलने से कुछ नहीं होता , बल्कि उश बदले हुए नाम क़े साथ भी फिर से इस भीर में खाश कर राजेश जी जैसे लोगों क़े बीच अपनी पहचान अपनी वही गरिमा बना लेना (जैसा की आप कर रहे हैं ) बहुत बड़ी बात होती है ..हम सब आपके साथ हैं ..बहुत खूब महाशय ..आप निश्चित रूप से बहुत बड़े धन्यवाद क़े पात्र हैं .

    बेशर्मी तेरा ही आसरा है
    हरिओम गर्ग 2011-06-16 02:08:43

    भाई पंकज जी, हालांकि आपका यह लेख दिसंबर 2010 में लिखा हुआ है .पर मेरी नज़र में आज ही आया . आज की तारीख में अन्य किसी भी काम से ज्यादा आसान और फायदेमंद काम पत्रकारिता हो गया है .साथ ही लोगों को यह सम्मानजनक भी दिखाई देता है .पर इस सुविधा को लोगों ने बदनाम कर डाला है .पिछले तीस सालों से ज्यादा समय से इस क्षेत्र में हूँ 26साल तक तो अकेले "पंजाब केसरी"से जुड़ारहा हूँ . पर देख रहाहूं क़ि इस का जो पतन पिछले 5 -7 सालों में हुआ उसे देखकर तो अब अपनेआपको पत्रकार कहने में भी शर्म होने लगी है .
    आज तो आठवीं पास भी पत्रकार बनकर चोथवसूली करते हुए बहुत से देखे जासकते हैं .किसी अखबार का रिपोर्टर बनने क़े लिए मेनेजमेंट को मंत्री तक से सिफारिश करवाकर पत्रकार बननेवाले को पिछले कुछ सालों दलाली क़े ज़रिये लाखों कमाते हमने देखा है .अब पत्रकारिता में नैतिकता ,आदर्श ,ईमानदारी, सच्चाई, सुचरिता की बातें करने वालों को बेवकूफ मानाजाता है . p c में बगेर आमंत्रण क़े इसलिए पहुँचते हैं की भोजन और गिफ्ट जो मिल जाते हैं .पत्रकारों क़े नाम पर ऐसे लोगों को पीठ पीछे तो लोग गालियाँ तक निकालते देखे जासकते हैं पर इनके लिए बेशर्मी ही सब कुछ है .बहरहाल .
    अब मुझे तो नहीं लगता क़ि पत्रकारों क़े लिए किसी तरह क़े मानक तय किये जासकते हैं ,यह काजल की वो कोठरी हो चुकी है जिससे बचकर खुद को निकाल सकने वाला कोई "बिरला "ही होगा .
    हरिओम गर्ग
    बीकानेर .

    आभार्.
    पंकज झा 2011-06-16 10:28:49

    बहुत आभारी हूं गर्ग साहब उत्साह बढाने के लिए...सादर/पंकज झा.

    vah bhai vah
    sudhir awasthi 2011-07-03 08:24:00

    sir aapkee dhardar lekhni aur ptrkarita ke chhetr men vyapk soch meel ka ptthr hai. sudhir awasthi

    gazab lekh hai janab
    faisal khan 2011-07-03 19:03:18

    pankaj ji is lekh ke liye apko bahut-bahut badhayi apne is lekh mai shabdon ka chunao bhi kamal ka kiya hai .pankaj ji ab patrkar ban ne ke liye kisi bhi yogyeta ki zaroorat nahi hai zaroorat hai sirf jaib mai paisa hone ki anti dheeli hote hi channel ki ID letter card hath mai aur patrkar tayyar uske baad mai lootna shru jisme channel ka hissa zaroor rakhna chahiye warna shikayat ka ambvar.ab to log patrkar ko aik dalal samajhte hain aur jo kafi had tak sahi bhi hai jo jitna bada patrkar(tatakathith)uske utne hi bade rate hai.magar koi kehne sun ne wala to hai nahi afsaron ne bhi ab aise patrkaron ko bhao dena band kar diya hai ghar mai bethkar khush hote hain ki ham bade patrkar hain magar asal mai dutkar ke hi qabil hain..faisal khan (saharanpur)9412230786

    आभार.
    पंकज झा. 2011-07-04 16:10:21

    फैसल खान साहब और सुधीर अवस्थी साहब...बहुत ही आभारी हूं उत्साह बढाने के लिए. सादर/पंकज.

    naarad vaani
    naarad muni 2011-07-08 11:26:01

    india ka ek state hai mp
    mp ka sambhag hai CHAMBAL jo daakuon ke liye jana jaata raha hai.
    isi mp ka ek shahar hai SHEOPUR
    jahan patrakarita ke naam par giroh pal rahe hain.
    logon ko dara-dara kar chhal rahe hain.
    zyadatar bhoo-maafiya hain, jinke tamaam saare dhandhe hain.
    prashasan par pakad hai, akhbaar ki akad hai.
    pollice se yaari hai, gundon se naatedaari hai.
    yeh safedposh kameene apni press tak ko dhoka de rahe hain,
    chor-uchakkon ko aage badhne ka moka de rahe hain.
    kuchh ke baap diwaliya bankar daulat chhod gaye haim.
    kuchh auron ka diwala nikalne par tule hain.
    hay bhagwan............kya hoga shareefon aur sahookaaron ka.....?

    naarad muni 2011-07-08 11:29:48

    india ka ek state hai mp
    mp ka sambhag hai CHAMBAL jo daakuon ke liye jana jaata raha hai.
    isi mp ka ek shahar hai SHEOPUR
    jahan patrakarita ke naam par giroh pal rahe hain.
    logon ko dara-dara kar chhal rahe hain.
    zyadatar bhoo-maafiya hain, jinke tamaam saare dhandhe hain.
    prashasan par pakad hai, akhbaar ki akad hai.
    pollice se yaari hai, gundon se naatedaari hai.
    yeh safedposh kameene apni press tak ko dhoka de rahe hain,
    chor-uchakkon ko aage badhne ka moka de rahe hain.
    kuchh ke baap diwaliya bankar daulat chhod gaye haim.
    kuchh auron ka diwala nikalne par tule hain.
    hay bhagwan............kya hoga shareefon aur sahookaaron ka.....?

    dineshsingh 2011-07-11 15:33:42

    :D
    bilkul sahi hai ki press perorter banne ke liye kam se kam graduate hona chahiye

    bihar main aatankwadi govt. acridation le sakte ha
    Akhilesh 2013-01-05 23:50:26

    koi bhi aantakwadi bihar main suchna jan sampark bibhag per das-bis hazar kharch matra kar ke sarkari manyata prapt patrakar ban sakta hai- details aap dekh sakte hain dmission.org main. grih mantrayalay bihar aur kendra sarkar ko bhi suchna de di gayi hai. local builder, criminals, dalal(anparh) hotal wale, driver, naukar bhi yaha sarkari acridated journalist hai. pl. comment after logon dmission.org
    -akhilesh, editor, Democratic Mission. Patna-m.9835199430

    nari ki vartman awastha kya ye bhi nahi hai
    Akhilesh 2013-01-05 23:58:22

    eSa ukjh gwW] ftls balku dks cukus okyk Hkxoku Hkh vktrd le> ugha ik;k gSA eSa vcyk ds uke ij lcyk gwWA esjs ekjs ikuh Hkh ugha ekaxrsA
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    geesa tuu djus ds lkFk lkFk lkjh ekj.k \'kfDr;ka ekStwn gSaA gesa rks Hkxoku Hkh le> ugha ik;k] balku dh D;k vkSdkr gSA iwjs fo\'o esa jk\"Vªifr gks ;k Hkaxh lc ij vly esa jkt ge gh djrs gSaA fu.kZ; Hkh ge gh ysrs gSa dh enZ D;k djsxk vkSj mls gh djkus esa mldh HkykbZ gSA iwjk fo\'o gekjh lqUnj lh fn[kus okyh [krjukd dykbZ esa gSA ge ehBk tgj gSa ftls balku p[kus ds yksHk esa f/js&f/js ejrk gSA
    ge vius [ksy esa fdrus balkuksa dks vkRegR;k;sa djkbZ vkSj fdruksa dks IkQkalh ij p


    jha sahab thanks
    shaielsh kuamr 2013-02-15 21:11:19

    aap nai jo kaha ek dam sahi kaha es tarah kai channel ko band kar dena chahiye ,kuch channel wale hi patrkarita ko ek dam badnam kar diya hai ,sachchiyi ko samne lane kai bajay use chipate hai ,aur yeh channel wale bhi blackmaler ko hi apne pas rakhte hai .is tarah to patrkarita badnam ho jayega ,

    क्यो होगा आप का ?

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    सामाजिक आंदोलनों से निकले अरविंद केजरीवाल ने जब राजनीतिक दल बनाने की घोषणा की तो इसने एक बड़े वर्ग को चौंकाया. इसको लेकर तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं. लोग इस बात पर चर्चा करते हुए दिखाई दिए कि केजरीवाल का राजनीति में आने का फैसला सही है या गलत. सही और गलत का प्रश्न इस बात से भी उपजा कि क्या एक सामाजिक आंदोलन का राजनीतिक आंदोलन में सफलता से तब्दील हो पाना संभव है. क्या जनलोकपाल के विषय पर जुटने वाली भीड़ एक राजनीतिक दल को दिए जाने वाले वोटों में बदली जा सकती है ? और सबसे बड़ा प्रश्न यह कि क्या वे राजनीति का एक वैकल्पिक ढांचा तैयार कर पाने में सफल होंगे. ऐसा नहीं है कि इन सभी प्रश्नों का पूरा जवाब लोगों को मिल गया है. ये सवाल आज भी अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी (आप) के सामने बने हुए हैं, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि अब कई लोगों को आम आदमी पार्टी इन प्रश्नों का जवाब देने की दिशा में काम करती हुई दिखाई देने लगी है. हाल ही में अरविंद द्वारा किए गए 15 दिन के उपवास में ऊपर लिखे कई सवालों के जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की जा सकती है. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के उस बयानरूपी सवाल के जवाब की भी, जिसमें वे कहती हैं ‘इन लोगों को पता ही नहीं है कि इन्हें क्या चाहिए.' शीला को भले ही अरविंद और उनकी टीम भ्रमित लोगों की मंडली दिखाई दे, लेकिन अरविंद की राजनीति के तौर-तरीकों को अगर हम ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि वे चुनावी अखाडे़ में दो-दो हाथ करने के लिए बेहद सोच-समझकर, बड़ी मजबूती के साथ प्लानिंग कर रहे हैं. अरविंद के निशाने पर सबसे पहले 2013 का दिल्ली विधानसभा चुनाव ही है. पार्टी की इस चुनाव को लेकर की जा रही तैयारियों से पता चलता है कि वह दिल्ली में अपना असर पैदा करने के लिए जबर्दस्त व्यूह-रचना कर रही है. विधानसभा की सभी 70 सीटों को लेकर 'आप' की विशेष तैयारी जारी है. पार्टी के लोगों से पता चलता है कि हर सीट के लिए लगभग अलहदा रणनीति तैयार की जा रही है. बिजली-पानी के मुद्दे को लेकर 15 दिन के अरविंद के उपवास को देखें तो साफ दिखाई देता है कि उन्होंने काफी हद तक अपना वोटर चुन लिया है. पार्टी बनाने के फैसले के बाद अरविंद का यह संभवतः पहला सबसे बड़ा कार्यक्रम था. दिल्ली के जिस सुंदर नगरी इलाके में उन्होंने उपवास किया उस क्षेत्र के नाम में सुंदर शब्द होने के अलावा शायद ही यहां कुछ और सुंदर हो. जिस तरह से अधिकांश चमचमाते भारतीय शहरों के भीतर एक दूसरा शहर भी मौजूद होता है, उसी तरह दिल्ली को आइना दिखाने का काम सुंदर नगरी जैसे इलाके करते हैं. इस क्षेत्र में दिल्ली शहर के वे लोग रहते हैं जो यहां बुनियादी सुविधाओं के मामले में हाशिये पर हैं. यही वोटर अरविंद के निशाने पर है. जो मुद्दे उठाकर अरविंद ने अपनी राजनीति का श्रीगणेश किया है वे समाज के सबसे निचले पायदान पर आने वाले लोगों के जीवन से जुड़े हैं. दिल्ली में पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के साथ रहे इस वोटर को लेकर पार्टी को उम्मीद है कि उनकी बुनियादी समस्याओं को आवाज़ देकर वह इन्हें अपने पाले में कर लेगी. जानकारों का मानना है कि जिन मुद्दों को उठाकर अरविंद ने अपनी राजनीति का श्रीगणेश किया है वे सामाजिक संरचना के सबसे निचले पायदान पर आने वाले लोगों के जीवन से जुड़े हैं. उन्होंने गरीबों और वंचितों के मुद्दे को उठाया है. यही वह तबका है जो चुनावों में वोट करता है. ऐसे में अरविंद की यह रणनीति उनकी सफलता की संभावना को थोड़ा मजबूत कर देती है. ‘आप’ के नेता संजय सिंह कहते हैं, 'जेजे कॉलोनी, स्लम, गांव, अवैध कॉलोनी जैसे पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाले लोग ही हमारे मुख्य टार्गेट हैं. हम उन्हें उनका हक दिलाने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं.' सुंदर नगरी में अरविंद का अनशन कई मायनों में महत्वपूर्ण था. इसके जरिए अरविंद ने लंबे समय से अपने ऊपर लग रहे उस आरोप का भी जवाब दिया जिसके तहत यह कहा जाता रहा है कि अरविंद और उनकी पूरी टीम के निशाने पर मध्य वर्ग है. लोग जनलोकपाल आंदोलन का उदाहरण देते हुए कहते कि कैसे यह आंदोलन सिर्फ और सिर्फ मध्य वर्ग तक सीमित था और इसलिए अरविंद की राजनीतिक यात्रा भी उसी मध्य वर्ग पर केंद्रित रह कर आगे बढ़ेगी. लेकिन सुंदर नगरी में अरविंद के अनशन ने उस छवि को कमजोर किया है. जिस तरह से उपवास का आयोजन हुआ वह भी बड़ा रोचक है. आज के समय में नेता अगर किसी तरह के उपवास या अनशन पर हों तो वे चारों तरफ समर्थकों का समंदर चाहते हैं. वहीं अरविंद के उपवास में नजारा थोड़ा अलग था. शुरुआत में बड़ी संख्या में समर्थकों के उपवास स्थल पर पहुंचने के बाद वहां एक बड़े बैनर पर सूचना चिपका दी गई, जिसमें लिखा था ‘समर्थकों से अनुरोध है कि वे यहां ना आएं बल्कि अपने-अपने वार्डों में जाकर आम लोगों से मिलें.’ 'आप' के नेताओं के मुताबिक वह न सिर्फ दिल्ली की सभी सीटों पर आगामी विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए कमर कस चुकी है बल्कि उसके नेता बीजेपी और कांग्रेस को पछाड़ते हुए सत्ता में आने का दम भी भर रहे हैं. लेकिन क्या सिर्फ एक खास तबके के मसले को उठाकर उसे टार्गेट करते हुए पार्टी चुनाव में सफल हो सकती है? संजय कहते हैं, 'समाज का मध्य वर्ग और बौद्धिक तबका तो हमारे साथ पहले से ही था, अब वंचित वर्ग भी तेजी से हमारे साथ जुड़ रहा है. ऐसे में हमें हर वर्ग का समर्थन मिल रहा है.' पार्टी का दावा है कि हाल के उसके उपवास को दिल्ली के लगभग साढ़े दस लाख लोगों ने अपना लिखित समर्थन दिया है. दिल्ली में अपने साथ बड़ी संख्या में जुड़ रहे लोगों का उदाहरण देते हुए पार्टी उस दिन की घटना का भी जिक्र करती है जब 272 ऑटो और विभिन्न अन्य माध्यमों से बड़ी संख्या में लोग लाखों लोगों के हस्ताक्षर सौंपने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के आवास की ओर गए थे. लेकिन क्या यह इतना ही आसान है जितना संजय की बातों से लग रहा है? अरविंद ने जिस तरह से बिजली-पानी के मुद्दे को उठाकर अपनी राजनीति की शुरुआत की है वह राजनीति के विश्लेषकों की निगाह में उन्हें कहां ले जाती दिखती है? जनसत्ता के संपादक ओम थानवी कहते हैं, 'देखिए, इनका दो तरह से प्रभाव पड़ सकता है. पहला ये लोगों में चेतना पैदा करने का काम कर सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो इससे वैकल्पिक राजनीति की संभावना मजबूत होगी. और दूसरा, यह जनता के सामने एक ऐसा विकल्प पेश करेगा जिसकी नीयत, चरित्र और उद्देश्य को लेकर कोई संदेह नहीं है. ऐसे लोगों को चुनने का विकल्प जनता के पास होगा.' आम आदमी पार्टी अपनी राजनीतिक क्षमता का पहला प्रदर्शन 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में करने वाली है और यहां की राजनीति के दोनों प्रमुख दल काफी समय तक उन्हें यह कहकर कमतर बताते रहे कि ये एनजीओ वाले लोग हैं राजनीति इनके बस की बात नहीं. लेकिन पिछले कुछ समय से स्थिति कुछ बदली-सी नजर आने लगी है. जब से 'आप' ने दिल्ली में आक्रामकता के साथ राजनीतिक तैयारी शुरू की है तब से कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों में एके-सी बेचैनी दिख रही है. यह बेचैनी चुनाव करीब आने के साथ और बढ़ती जा रही है. आगामी विधानसभा चुनाव में ‘आप’ के संभावित प्रभाव को लेकर जब तहलका ने दिल्ली की पूर्व मेयर और भाजपा नेता आरती मेहरा से प्रश्न किया तो उनका कहना था, ‘देखिए, इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस और बीजेपी दोनों के वोट काटेगी. वो अगले चुनाव में खेल बना-बिगाड़ सकती है .’ जब बीजेपी, जो राज्य में विपक्ष में है, की नेता इस बात को स्वीकार कर रही हों कि ‘आप’ आगामी चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगा तो फिर ऐसी स्थिति में यह जानना भी दिलचस्प होगा कि इस बारे में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी की क्या राय है. मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के संसदीय सचिव मुकेश शर्मा भले ही कांग्रेस को इससे किसी तरह के नुकसान होने की संभावना से इनकार करते हैं लेकिन साथ में वे यह भी जोड़ते हैं कि 'आप' की लड़ाई बीजेपी से है. दोनों में विपक्ष के स्थान को लेकर संघर्ष होगा कि कौन विधानसभा में विपक्ष में बैठेगा. मुकेश की बातों में एक गंभीर अर्थ छिपा है. वह यह कि भले ही वे अपनी पार्टी को 'आप' के कारण किसी तरह के नुकसान की बात से इनकार कर रहे हों लेकिन रोचक यह है कि वे उसको बीजेपी के बराबर भी लाकर खड़ा कर रहे हैं. ‘आप’ को कांग्रेस के एक नेता द्वारा विपक्ष के रूप में स्वीकार करना भी 'आप' के प्रति कांग्रेस की बदली सोच को ही दर्शाता है. दोनों पार्टियों के विभिन्न नेता ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत में 'आप' को लेकर चिंतित नजर आते हैं. आम आदमी पार्टी को लेकर दोनों दलों में गंभीर मंथन चल रहा है. उससे होने वाले संभावित नुकसान की काट ढूंढ़ने की तैयारी की जा रही है. दोनों दल अपने यहां उन विभीषणों की पहचान कर रहे हैं जो देर-सवेर ‘आप’ के पाले में जा सकते हैं. इन पार्टियों को पता है कि यह समस्या उस समय और बढ़ेगी जब टिकट बांटने का वक्त आएगा. तब जो सदस्य पार्टी से नाराज होंगे वे 'आप' का जाप कर सकते हैं. राजनीतिक विश्लेषक अभय दुबे कहते हैं, ‘‘आप’ को आगामी चुनावों में कोई चमकदार सफलता मिलने की उम्मीद तो नहीं दिखाई देती लेकिन हां, उसे उन लोगों का साथ जरूर मिल सकता है जो भाजपा और कांग्रेस दोनों से नाराज चल रहे हैं.' आगामी चुनावों में 'आप' की भूमिका को जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर विवेक कुमार एक जीतने वाली पार्टी के बजाय वोट काटने वाली पार्टी के रूप में ही देखते हैं. वे कहते हैं, 'देखिए, दिल्ली चुनाव को ही अगर हम लें तो ये लोग वोटकटुआ पार्टी की भूमिका में तो आ सकते हैं लेकिन विजयी पार्टी की भूमिका में नहीं.' आम आदमी पार्टी अपनी छवि को लेकर इस लाइन पर काम कर रही है कि वह खुद को बाकी अन्य राजनीतिक दलों से अलग दिखा सके. आम आदमी पार्टी भले ही आज राजनीतिक अखाड़े में दांव आजमाने के लिए तैयार दिख रही हो लेकिन उसके तौर-तरीकों पर आज भी सामाजिक आंदोलनों की छाप होने की बात कही जा रही है. अभय कहते हैं, 'अरविंद केजरीवाल आज राजनीति में हैं लेकिन वो और उनकी पार्टी एक जुझारू सामाजिक आंदोलन की तरह ही काम रह रहे हैं. जिस तरह की गोलबंदी पार्टी कर रही है उसका मोड राजनीतिक नहीं वरन सामाजिक आंदोलन वाला ही है.' पार्टी से जुड़े समाज विज्ञानी योगेंद्र यादव अभय की बात से सहमत होते दिखते हैं जब वे कहते हैं, ‘हां, हम लोग एक राजनीतिक दल हैं भी और नहीं भी.’ पार्टी से जुड़े लोग भी इस बात को मानते हैं कि 'आप' अपनी छवि को लेकर इस लाइन पर काम कर रहा है कि खुद को अन्य राजनीतिक दलों से अलग दिखा सके. योगेंद्र शायद पार्टी के इसी विचार को रेखांकित करते हैं जब वे कहते हैं, 'हम वैसे ही दिखना चाहते हैं जैसे नेता नहीं होते.' आम लोगों की राय भी ‘आप’ को लेकर मिली-जुली ही है. लोगों से बातचीत में दो तरह की बातें सामने आती हैं. पहली प्रतिक्रिया उनकी है जो यह मान चुके हैं कि इस देश में कुछ नहीं बदलने वाला और ऐसे में अरविंद और उनके साथी भी बाद में जाकर अन्य दूसरों की तरह ही हो जाएंगे. वहीं दूसरी प्रतिक्रिया अरविंद के इतिहास और उनके काम के आधार पर एक मौका देने का मन बनाती सी दिखाई देती है. आम आदमी पार्टी के पास कोई जातीय या कहें वर्गीय समर्थन की पूंजी नहीं है, जो हमारे देश में प्रायः किसी राजनीतिक दल के अस्तित्व में आने के समय उसके पास होती है. यह एक चुनौती होने के साथ 'आप' के लिए एक अवसर भी है जहां वह नागरिक समाज के आधार पर एक ऐसे नए वर्ग का निर्माण करे जिसकी राजनीति जाति, धर्म और संप्रदाय के संकीर्ण हितों से बाहर निकलकर एक व्यापक सामाजिक हित से जुड़ती हो. आने वाले सालों में अगर 'आप' को कुछ भी सफलता मिलती है तो यह आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल से ज्यादा वैकल्पिक राजनीति के लिए उम्मीद जगाने वाली बात होगी. at 03:27 Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to Facebook Labels: 'आप’ का क्या होगा? 0 comments: Post a Comment Newer Post Older Post Home twitterfacebookgoogle pluslinkedinrss feedemail You can also receive Free Email Updates: Translator Translate this 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"आम आदमी पार्टी" कुछ खूबीयां और कुछ कमियों के साथ ... कारगिल शहीद विक्रम बत्रा का संछिप्त जीवन परिचय :: जापानियों ने महिला को बचाने के लिए ट्रेन झुका द... अमेरिका की कश्मीर पर गिद्ध निगाह आलोचना से भड़के कांग्रेसियों ने बंद कराया होटल इल्लुमिनाती नेटवर्क कैसे काम करता है त्रिकोण देखें... अमेरिका दो मुह वाला सांप इल्लुमिनाति एक सीक्रेट सोसाइटी बस, हो गया भारत निर्माण ? क्या हम सच में आज़ाद है? अपने मालिकों की पोलिसियों पर सवाल उठने की सजा । सरदार की आम की टोकरी चन्द्रशेखर आज़ाद के जन्मदिवस पर विशेस Message of Arvind Kejriwal लाल बहादुर शास्त्री आपको लगता हैं कभी इस देश में कुछ बदलेगा!! " माँ का क़र्ज़ " (एक प्रेरक लघु कथा) ------------=====)♥ गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभका... अमेरिकन अध्यापिका के सवाल और भारतीय छात्र के जवाब ... भगत सिंह के विरुद्ध गवाही देने वाले " अंधभक्त की कहानी " "नशीब से ज्यादा और समय से पहले ना किसी को मिला है ... ****अन्दर कि खबर**** स्वराज हमारा हक है और हम इसे लेकर ही रहेंगे भाजपा-कांग्रेस में अंतर क्या है? संचार की क्रान्ति और अपनों से दूर होते हम आप के बड़ते कदम और उस पर उठते सवालों के जवाब " गुरु का सच्चा चेला "(अरविन्द केजरीवाल) ///*** एक घोर मोदी भक्त फेसबुकिये का इंटरव्यू ***... पहाड़ पर आपदा बहुगुणा के कुनबे की 'लाटरी' वर्तमान सिस्टम की पोल खोलती एक लघु कथा (मिड-डे मिल... मंगल पांडे के जन्मदिवस पर विशेष 5 बेटियों से 20 साल तक रेप करता रहा बाप एक और आपदा की आहट और सोई सरकार भारतीयों की तरफ सोई प्रजा पर एक लघु कथा भारतीय राजनीति में बदलाव की आहत "आम आदमी पार्टी" भारतीय राजनीती :- साम्प्रदायिकता और मोदी शहीदों से ज्यादा महत्वपूर्ण नेहरु, इंदिरा, गाँधी प... प्रकृति का आश्चर्य नारिलता फूल हो रहा भारत निर्माण (कविता) जाती और सम्प्रदाय के नाम पर राजनीती बंद हो दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी का वार्तालाप "फ्लाइंग सिक्ख" मिल्खा सिंह सिस्टम किसी का नही होता (एक प्रेरक कथा) लीडर कैसा हो? :- एक प्रेरक कथा (अब्दुल कलाम के जीव... सहारा की खबर पर मीडिया क्यों है मौन? बुर्के में रहने दो बुरका ना उठाओ, बुरका जो उठ गया ... 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    समुद्री डाकूओ के चंगूल से मुक्त हुए

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    'जब समुद्री डाकुओं ने हमें बंधक बना लिया'...

    समुद्री लुटेरों की कैद से रिहा होने के बाद लौटे प्रीतम साहू घर वालों के साथ.
    प्रीतम साहू ने इंजीनियरिंग में स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद मर्चेंट नेवी में अपना करियर बनाने का सपना देखा और एक निजी माल वाहक जहाज़ पर नौकरी कर ली.
    सफ़र के पहले ही चरण में उनके साथ वो सब कुछ हुआ जो वो कभी किस्से कहानियों में ही पढ़ा करते थे. वे उन 22 लोगों में थे जिन्हें सोमालियाके समुद्रीडाकुओं नें एक साल से भी ज्यादा बंधकबनाए रखा.
    पूरा एक साल पानी के जहाजपर बिताने के बाद आखिरकार प्रीतम रिहा हुए और छत्तीसगढ़ में अपने घर राजनंदगांव पहुंचे. बीबीसी से एक लंबी बातचीत में प्रीतम साहू ने अपनी आपबीती सुनाई. पेश है प्रीतम के अनुभवों की कहानी उन्हीं की जुबानी जो उन्होंने बीबीसी संवाददाता सलमान रावी से बाँटे.
    समंदर की खामोश लहरों के दरम्यां
    29 फरवरी 2012 की शाम मौसम बेहद साफ़ था. तकरीबन पौने चार बजे के आसपास समंदर की खामोश लहरों के दरम्यां हमारा जहाज एमटी रॉयल ग्रेस हिंद महासागर के बीचो बीच बढ़े चले जा रहा था.एक महीने तक दुबई के बंदरगाहपर रहने के बाद हमारा जहाज़ निकल चुका था. बीच समंदर में आते आते जहाज़ ने अपनी रफ्तार पकड़नी शुरू कर दी. चूंकि दुबई के बंदरगाह पर हमने माल उतार दिया था इसलिए जहाज़ खाली था.
    हमारे जहाज की उम्र 30 साल हो चुकी थी और वह दिन भर में 200 नॉटिकल मील का ही सफ़र तय कर सकता था. हम समुद्री डाकुओं के डर की वजह से सोमालियासे काफी दूरी बनाते हुए चल रहे थे.
    ओमान पार कर चुके थे और हमारा गंतव्य था नाइजीरिया. हमारा जहाज भी नाइजीरिया का था और उसका मालिक भी वहीं रहता है. इस सफर के बीच में हमें दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन शहर में भी रुकना था.
    ( ये रिपोर्ट बीबीसी संवाददाता सलमान रावी से बातचीत पर आधारित है. डायरी के अगले भाग में पढ़िए किस तरह खाने और दवाइयों के आभाव में बंधकों ने जहाज़ पर गुज़ारा किया.)
    गोलियां चलाते हुए वो हमारे जहाज़ तक पहुँचे
    सोमालिया के आसपास मालवाहक जहाजों पर लुटेरों का खतरा बना रहता है.
    तभी समंदर में दूर मछुआरों का एक जहाज़ नज़र आया. थोडा अटपटा सा भी लगा कि बीच समंदर में मछुआरों के जहाज़ का भला क्या काम? फिशिंग बोट तो ज़्यादातर सागर किनारे ही रहते हैं. फिशिंग बोट का किनारे से समंदर के इतने बीच में नज़र आना थोडा अस्वाभाविक था.थोड़ी देर में हमारी नज़र एक 'स्पीड बोट' पर पड़ी. वो तेज़ी के साथ हमारे जहाज़ की तरफ आ रही थी. दूरबीन से देखा उसमे 9 से 10 लोग सवार थे. करीब आते आते उन्होंने गोलियां चलानी शुरू कर दी थी. उनके पास आधुनिक हथियार थे.
    गोलियां चलाते हुए वो हमारे जहाज़ तक पहुँच चुके थे. हम कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि स्पीड बोट की रफ़्तार बहुत तेज़ थी. वहां से भागने का कोई उपाय नहीं था.
    स्पीड बोट से आए लोगो ने हमारे जहाज़ पर रस्सियां फेंकनी शुरू कर दी और उसके सहारे ऊपर चढ़ने लगे. अब तक हमें आभास हो चुका था कि ये समुद्री डाकू ही हैं.
    जहाज़ पर कुल 22 लोग थे
    फिर बंदूकें भिड़ा कर उन्होंने हमें बंधक बना लिया. हमारे जहाज़ पर कुल 22 लोग थे, जिसमे 17 भारतीय, तीन नाईजीरियाई, एक बांग्लादेशी और एक पाकिस्तानी शामिल हैं.मैं उस वक़्त इंजन रूम में काम कर रहा था तभी ऊपर केबिन से हमें फोन आया सब ऊपर आ जाओ. ऊपर पहुंचे तो सब बंधक बने हुए थे. हमें भी उन्ही के साथ कतार में खड़ा कर दिया गया.
    समुद्री डाकुओं का मूड ख़राब था. इन में से सभी को अंग्रेजी नहीं आती थी. सिर्फ एक या दो ही ऐसे थे जो अंग्रेजी में बात कर सकते थे.
    हमारे जहाज़ पर क़ब्ज़ा करने वाले समुद्री डाकुओं का नेतृव कर रहा था छोटे क़द का 'गैन्नी'. वह बड़ा ही डरावना दिख रहा था. उसका एक दांत सोने का था.
    बंदूकों के साए में बंधक बने रहे
    प्रीतम के लिए वो सफर कभी न भूलने वाला सफर बन गया.
    सबसे पहले उन्होंने मछुआरों की कश्ती को छोड़ दिया. हमने उन्हें डीज़ल और खाना दिया. फिर वो कश्ती वहां से चली गई. हमें लगा कि ये मछुआरों की कश्ती ईरान की थे और उसमे 11 लोग सवार थे. फिर वो कश्ती वहां से चली गई.समुद्री डाकू अमूमन मछुआरों की कश्तियों का इस्तेमाल बड़े जहाज़ पकड़ने के लिए करते हैं. अब समुद्री डाकुओं का क़ब्ज़ा हमारे जहाज़ पर पूरी तरह हो गया था.
    तभी गैन्नी ने घोषणा की कि वो अब हमारे जहाज़ का कप्तान है और जहाज़ को सोमालिया की तरफ मोड़ दिया गया. उनके पास 'ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम' (जीपीएस) था और उसी के हिसाब से हमारे सफ़र की दिशा तय की गयी.
    इस बीच जहाज़ के हमारे सभी साथी बंदूकों के साए में बंधक बने रहे. सभी समुद्री डाकुओं के पास एके-47 रायफलें थीं. इस गिरोह के बड़े ओहदेदारों के पास माऊज़र थे. उनके पास रॉकेट लांचर भी थे.
    वे बेहद क्रूर थे, किसी को हिलने भी नहीं देते
    इस बीच सबको जहाज़ के ब्रिज पर ही बंधक बनाए रखा गया. उन्होंने हमारे जहाज़ के मालिक के बारे में पूछा और जहाज़ पर हमारे नाइजीरियाई साथिओं से कहा कि वो मालिक को फोन कर बता दें कि जहाज़ हाइजैक कर लिया गया है.हमने समुद्री डाकुओं से कहा कि हमारा जहाज़ पुराना है, खाली है और मालिक ज्यादा पैसे नहीं दे सकेगा. हमने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि वो हमारे जहाज़ से चल कर दूसरे किसी जहाज़ को हाईजैक कर लें और हमें छोड़ दें.
    मगर नाईजीरियाई साथियों ने उनसे कह दिया कि मालिक पांच अरब डालर तक दे सकता है क्योंकि वो काफी पैसे वाला है. समुद्री डाकुओं ने कहा कि जहाज़ पर कुछ नहीं है तो वे मालिक से हमारी जान की कीमत वसूलेंगे.
    शुरूआत में वे बेहद क्रूर थे. वो किसी को हिलने भी नहीं देते थे. हमारे तीसरे इंजीनियर साथी ने एक दो क़दम चलने की कोशिश की तो उन्हें बुरी तरह पीटा गया.
    (प्रीतम की डायरी के पहले भाग में आपने पढ़ा कि किस तरह उनका जहाज़ हाईजैक किया गया. अगले भाग में पढ़िए किस तरह खाने और दवाइयों के आभाव में उन्होंने जहाज़ पर गुज़ारा किया. ये रिपोर्ट बीबीसी संवाददाता सलमान रावीसे बातचीत पर आधारित है.)

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    अरुंधति राय का लेख

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    अरुंधति राय का शानदार लेख       Share on FacebookShare on Twitter
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    By PARCHA OUT.COM TEAM , SPECIAL REPORT
    May 18, 2012 05:01 pm



    अरुंधति राय का यह शानदार लेख अपने समय का महाकाव्य है, जब लेखक-संस्कृतिकर्मियों का एक हिस्सा साम्राज्यवादी प्रचारतंत्र का हिस्सा बना हुआ है. जब सरकारों और प्रशासन के भीतर तक साम्राज्यवाद की गहरी पैठ को दशकों गुजर चुके हैं और व्यवस्थाएं वित्त पूंजी और उसके एजेंटों के हाथों बंधक बना दिए जाने को जनवाद के चमकदार तमाशे के साथ प्रस्तुत कर रही हैं. जब जनता के संसाधनों की लूट को विकास का नाम देकर फौज और अर्धसैनिक बल देश के बड़े इलाके में आपातकाल लागू कर चुके हैं. यह आज के दौर का महाकाव्य है, जब अपनी रातों को वापस छीनने का सपना समाज को पूरी तरह बदल डालने की लड़ाई के साथ मिल जाता है. समयंतार सेभारत भूषणका अनुवाद. 
    यह मकान है या घर? नए भारत का मंदिर है या उसके प्रेतों का डेरा? जब से मुम्बई में अल्टामॉंन्ट रोड पर रहस्य और बेआवाज सरदर्द फैलाते हुए एंटिला का पदार्पण हुआ है, चीजें पहले जैसी नहीं रहीं। ‘ये रहा’, मेरे जो मित्र मुझे वहां ले गए थे उन्होंने कहा, ‘ हमारे नए शासक को सलाम बजाइये।‘
    एंटिला भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी का है। आज तक के सबसे महंगे इस आशियाने के बारे में मैंने पढ़ा था, सत्ताईस मंजिलें, तीन हेलीपैड, नौ लिफ्टें, हैंगिंग गार्डन्स, बॉलरूम्स, वेदर रूम्स, जिम्नेजियम, छह मंजिला पार्किंग, और छह सौ नौकर-चाकर। आड़े खड़े लॉन की तो मुझे अपेक्षा ही नहीं थी- 27 मंजिल की ऊंचाई तक चढ़ती घास की दीवार, एक विशाल धातु के ग्रिड से जुड़ी हुई। घास के कुछ सूखे टुकड़े थे; कुछ आयताकार चकत्तियां टूटकर गिरी हुई भी थीं। जाहिर है, ‘ट्रिकल डाउन’ (समृद्धि के बूंद-बूंद रिस कर निम्न वर्ग तक पहुंचने का सिद्धांत) ने काम नहीं किया था।
    मगर ‘गश-अप’ (ऊपर की ओर उबल पर पहुंचने का काम) जरूर हुआ है। इसीलिए 120 करोड़ लोगों के देश में, भारत के 100 सबसे अमीर व्यक्तियों के पास सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के एक चौथाई के बराबर संपत्ति है।
    राह चलतों में (और न्यूयार्क टाइम्स में भी) चर्चा का विषय है, या कम-अज-कम था, कि इतनी मशक्कत और बागवानी के बाद अंबानी परिवार एंटिला में नहीं रहता। पक्की खबर किसी को नहीं। लोग अब भी भूतों और अपशकुन, वास्तु और फेंगशुई के बारे में कानाफूसियां करते हैं। या शायद ये सब कार्ल मार्क्स की गलती है। उन्होंने कहा था, पूंजीवाद ने ‘अपने जादू से उत्पादन के और विनिमय के ऐसे भीमकाय साधन खड़े कर दिए हैं, कि उसकी हालत उस जादूगर जैसी हो गई है जो उन पाताल की शक्तियों को काबू करने में सक्षम नहीं रहा है जिन्हें उसी ने अपने टोने से बुलाया था। ‘
    भारत में, हम 30 करोड़ लोग जो नए, उत्तर-आइएमएफ (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) ‘आर्थिक सुधार’ मध्य वर्ग का हिस्सा हैं उनके लिए – बाजार – पातालवासी आत्माओं, मृत नदियों के सूखे कुओं, गंजे पहाड़ों और निरावृत वनों के कोलाहलकारी पिशाच साथ-साथ रहते हैं: कर्ज में डूबे ढाई लाख किसानों के भूतों जिन्होंने खुद अपनी जान ले ली थी, और वे 80 करोड़ जिन्हें हमारे लिए रास्ता बनाने हेतु और गरीब किया गया और निकाला गया के साथ-साथ रहते हैं जो बीस रुपए प्रति दिन से कम में गुजारा करते हैं।
    मुकेश अंबानी व्यक्तिगत तौर पर 2,000 करोड़ डॉलर (यहां तात्पर्य अमेरिकी से), जो मोटे तौर पर 10 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा ही होता है, के मालिक हैं। रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआइएल), 4,700 करोड़ डॉलर (रु. 23,5000 करोड़) की मार्केट कैपिटलाइजेशन वाली और वैश्विक व्यवसायिक हितों, जिनमें पेट्रोकेमिकल्स, तेल, प्राकृतिक गैस, पॉलीस्टर धागा, विशेष आर्थिक क्षेत्र, फ्रेश फूड रीटेल, हाई स्कूल, जैविक विज्ञान अनुसंधान, और मूल कोशिका संचयन सेवाओं (स्टेम सैल स्टोरेज सर्विसेज) शामिल हैं, में वे बहुतांश नियंत्रक हिस्सा रखते हैं। आरआइएल ने हाल ही में इंफोटेल के 95 प्रतिशत शेयर खरीदे हैं। इंफोटेल एक टेलीविजन संकाय (कंजोर्टियम) है जिसका 27 टीवी समाचार और मनोरंजन चैनलों पर नियंत्रण है इनमें सीएनएन-आइबीएन, आइबीएन लाइव, सीएनबीसी,आइबीएन लोकमत और लगभग हर क्षेत्रीय भाषा का ईटीवी शामिल है। इंफोटेल के पास फोर-जी ब्रॉडबैंड का इकलौता अखिल भारतीय लाइसेंस है; फोर-जी ब्रॉडबैंड ”तीव्रगति सूचना संपर्क व्यवस्था(पाइप लाइन)” है जो, अगर तकनीक काम कर गई तो, भविष्य का सूचना एक्सचेंज साबित हो सकती है। श्रीमान अंबानी जी एक क्रिकेट टीम के भी मालिक हैं।
    आरआइएल उन मुट्ठी भर निगमों (कॉर्पोरेशनों) में एक है जो भारत को चलाते हैं। दूसरे निगम हैं टाटा, जिंदल, वेदांता, मित्तल, इंफोसिस, एसार और दूसरी रिलायंस (अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप अर्थात एडीएजी) जिसके मालिक मुकेश के भाई अनिल हैं। विकास के लिए उनकी दौड़ योरोप, मध्य एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका तक पहुंच गई है। उन्होंने दूर-दूर तक जाल फैलाए हुए हैं; वे दृश्य हैं और अदृश्य भी, जमीन के ऊपर हैं और भूमिगत भी। मसलन, टाटा 80 देशों में 100 से ज्यादा कंपनियां चलाते हैं। वे भारत की सबसे पुरानी और विशालतम निजी क्षेत्र की बिजली पैदा करनेवाली कंपनियों में से हैं। वे खदानों, गैस क्षेत्रों, इस्पात प्लांटों, टेलीफोन, केबल टीवी और ब्रॉडबैंड नेटवर्क के मालिक हैं और समूचे नगरों को नियंत्रित करते हैं। वे कार और ट्रक बनाते हैं, ताज होटल श्रंखला, जगुआर, लैंड रोवर, देवू, टेटली चाय, प्रकाशन कंपनी, बुकस्टोर श्रंखला, आयोडीन युक्त नमक के एक बड़े ब्रांड और सौंदर्य प्रसाधन की दुनिया के बड़े नाम लैक्मे के मालिक हैं। आप हमारे बिना जी नहीं सकते: बड़े आराम से उनके विज्ञापन की यह टैगलाइन हो सकती है।
    ऊपर को बढ़ो वचनामृत के अनुसार, आप के पास जितना ज्यादा है, उतना ही ज्यादा आप और पा सकते हैं।

    कारोबारियों का साकार होता सपना
    हर चीज के निजीकरण के युग ने भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना दिया है। फिर भी, किसी पुराने ढंग के अच्छे उपनिवेश की भांति, इसका मुख्य निर्यात इसके खनिज ही हैं। भारत के नए भीमकाय निगम (मेगा-कॉर्पोरेशन) – टाटा, जिंदल, एसार, रिलायंस, स्टरलाइट – वे हैं जो धक्कामुक्की करके उस मुहाने तक पहुंच गए हैं जो गहरे धरती के अंदर से निकाला गया पैसा उगल रहे हैं। कारोबारियों का तो जैसे सपना साकार हो रहा है – वे वह चीज बेच रहे हैं जो उन्हें खरीदनी नहीं पड़ती।
    कॉर्पोरेट संपत्ति का दूसरा मुख्य स्रोत है उनकी भूमि के भंडार। दुनिया भर में कमजोर और भ्रष्ट स्थानीय सरकारों ने वॉल स्ट्रीट के दलालों, कृषि-व्यवसाय वाले निगमों और चीनी अरबपतियों को भूमि के विशाल पट्टे हड़पने में मदद की है। (खैर इसमें पानी नियंत्रण तो शामिल है ही)। भारत में लाखों लोगों की भूमि अधिग्रहित करके निजी कॉर्पोरेशनों को – विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड), आधारभूत संरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) परियोजनाओं, बांध, राजमार्गों, कार निर्माण, रसायन केंद्रों, और फॉर्मूला वन रेसों के लिए ‘जन हितार्थ’ दी जा रही है। (निजी संपत्ति की संवैधानिक पवित्रता गरीबों के लिए कभी लागू नहीं होती)। हर बार स्थानीय लोगों से वादे किए जाते हैं कि अपनी भूमि से उनका विस्थापन या जो कुछ भी उनके पास है उसका हथियाया जाना वास्तव में रोजगार निर्माण का हिस्सा है। मगर अब तक हमें पता चल चुका है कि सकल घरेलू उत्पाद की दर में वृद्धि और नौकरियों का संबंध एक छलावा है। 20 सालों के ‘विकास’ के बाद भारत की श्रमशक्ति का साठ प्रतिशत आबादी स्वरोजगार में लगी है और भारत के श्रमिकों का 90 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में कार्य करता है।
    आजादी के बाद, अस्सी के दशक तक, जन आंदोलन, नक्सलवादियों से लेकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन तक, भूमि सुधारों के लिए, सामंती जमींदारों से भूमिहीन किसानों को भूमि के पुनर्वितरण के लिए लड़ रहे थे। आज भूमि और संपत्ति के पुनर्वितरण की कोई भी बात न केवल अलोकतांत्रिक बल्कि पागलपन मानी जाएगी। यहां तक कि सर्वाधिक उग्र आंदोलनों तक को घटा कर, जो कुछ थोड़ी सी जमीन लोगों के पास रह गई है, उसे बचाने के लिए लडने पर पहुंचा दिया गया है। गांवों से खदेड़े गए, छोटे शहरों और महानगरों की गंदी बस्तियों और झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वाले दसियों लाख भूमिहीन लोगों का, जिनमें बहुसंख्य दलित एवं आदिवासी हैं, रेडिकल विमर्श तक में कोई उल्लेख नहीं होता।
    जब गश-अप उस चमकती पिन की नोक पर संपत्ति जमा करता जाता है जहां हमारे अरबपति घिरनी खाते हैं, तब पैसे की लहरें लोकतांत्रिक संस्थाओं पर थपेड़े खाती हैं- न्यायालय, संसद और मीडिया पर भी, और जिस तरीके से उन्हें कार्य करना चाहिए उसे गंभीर जोखिम में डाल देती हैं। चुनावों के दौरान के तमाशे में जितना अधिक शोर होता है, हमारा विश्वास उतना ही कम होता जाता है कि लोकतंत्र सचमुच जीवित है।
    भारत में सामने आनेवाले हर नए भ्रष्टाचार के मामले के सामने उसका पूर्ववर्ती फीका लगने लगता है। 2011 की गर्मियों में टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया। पता चला कि कॉर्पोरेशनों ने एक मददगार सज्जन को केंद्रीय दूरसंचार मंत्री बनवाकर चार हजार करोड़ डॉलर (दो लाख करोड़) सार्वजनिक धन खा लिया, उन महोदय ने टू-जी दूरसंचार स्पेक्ट्रम की कीमत बेहद कम करके आंकी और अपने यारों के हवाले कर दिया। प्रेस में लीक हुए टेलीफोन टेप संभाषणों ने बताया कि कैसे उद्योगपतियों का नेटवर्क और उनकी अग्र कंपनियां, मंत्रीगण, वरिष्ठ पत्रकार और टीवी एंकर इस दिनदहाड़े वाली डकैती की मदद में मुब्तिला थे। टेप तो बस एक एमआरआई थे जिन्होंने उस निदान की पुष्टि की जो लोग बहुत पहले कर चुके थे।
    निजीकरण और दूरसंचार स्पेक्ट्रम की अवैध बिक्री में युद्ध, विस्थापन और पारिस्थितिकीय विनाश शामिल नहीं हैं। मगर भारत के पर्वतों, नदियों और वनों के मामले में ऐसा नहीं है। शायद इसलिए कि इसमें खुल्लमखुल्ला लेखापद्धति घोटाले जैसी स्पष्ट सरलता नहीं है, या शायद इसलिए कि यह सब भारत के ‘विकास’ के नाम पर किया जा रहा है, इस वजह से मध्य वर्ग के बीच इसकी वैसी अनुगूंज नहीं है।
    कैसा संयोग?
    2005 में छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड की राज्य सरकारों ने बहुत सारे निजी कॉर्पोरेशनों के साथ सैकड़ों समझौता-पत्रों (एमओयू) पर दस्तखत कर मुक्त बाजार के विकृत तर्क को भी धता बताकर खरबों रुपए के बॉक्साइट, लौह अयस्क और अन्य खनिज उन्हें कौडिय़ों के दाम दे दिए। (सरकारी रॉयल्टी 0.5 प्रतिशत से 7 प्रतिशत के बीच थी। )
    टाटा स्टील के साथ बस्तर में एक एकीकृत इस्पात संयंत्र के निर्माण के लिए छत्तीसगढ़ सरकार के समझौतापत्र पर दस्तखत किए जाने के कुछ ही दिनों बाद सलवा जुड़ूम नामक एक स्वयंभू सशस्त्र अर्धसैनिक बल का उद्घाटन हुआ। सरकार ने बताया कि सलवा जुड़ूम जंगल में माओवादी छापामारों के ‘दमन’ से त्रस्त स्थानीय लोगों का स्वयंस्फूर्त विद्रोह है। सलवा जुड़ूम सरकार वित्त और शस्त्रों से लैस तथा खनन निगमों से मिली सब्सिडी प्राप्त एक आधारभूमि तैयार करने का ऑपरेशन निकला। दीगर राज्यों में दीगर नामों वाले ऐसे ही अर्धसैनिक बल खड़े किए गए । प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि माओवादी ‘सुरक्षा के लिए भारत में एकमात्र और सबसे बड़ा खतरा हैं’। यह जंग का ऐलान था।
    2 जनवरी, 2006 को पड़ोसी राज्य ओडिशा के कलिंगनगर जिले में, शायद यह बताने के लिए कि सरकार अपने इरादों को लेकर कितनी गंभीर है, टाटा इस्पात कारखाने की दूसरी जगह पर पुलिस की दस पलटनें आईं और उन गांव वालों पर गोली चला दी जो वहां विरोध प्रदर्शन के लिए इकट्ठा हुए थे। उनका कहना था कि उन्हें जमीन के लिए जो मुआवजा मिल रहा है वह कम है। एक पुलिसकर्मी समेत 13 लोग मारे गए और सैंतीस घायल हुए। छह साल बीत चुके हैं, यद्यपि सशस्त्र पुलिस द्वारा गांव की घेरेबंदी जारी है मगर विरोध ठंडा नहीं पड़ा है।
    इस बीच सलवा जुडूम छत्तीसगढ़ में वनों में बसे सैकड़ों गांवों से आग लगाता, बलात्कार और हत्याएं करता बढ़ता रहा। इसने 600 गांवों को खाली करवाया, 50,000 लोगों को पुलिस कैंपों में आने और 350,000 लोगों को भाग जाने के लिए विवश किया। मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि जो जंगलों से बाहर नहीं आएंगे उन्हें ‘माओवादी उग्रवादी’ माना जायेगा। इस तरह, आधुनिक भारत के हिस्सों में, खेत जोतने और बीज बोने जैसी कामों को आतंकवादी गतिविधियों के तौर पर परिभाषित किया गया। कुल मिला कर सलवा जुडूम के अत्याचारों ने माओवादी छापामार सेना के संख्याबल में बढ़ोत्तरी और प्रतिरोध में मजबूती लाने में मदद की। सरकार ने 2009 में वह शुरू किया जिसे ऑपरेशन ग्रीन हंट कहा जाता है। छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में अर्धसैनिक बलों के दो लाख जवान तैनात किए गए।
    तीन वर्ष तक चले ‘कम तीव्रता संघर्ष’ के बाद जो बागियों को जंगलों से बाहर ‘फ्लश’ (एक झटके में बाहर निकालने) करने में कामयाब नहीं हो पाया, केंद्र सरकार ने घोषणा की कि वह भारतीय सेना और वायु सेना तैनात करेगी। भारत में हम इसे जंग नहीं कहते। हम इसे ‘निवेश के लिए अच्छी स्थितियां तैयार करना’ कहते हैं। हजारों सैनिक पहले ही आ चुके हैं। ब्रिगेड मुख्यालय और सैन्य हवाई अड्डे तैयार किए जा रहे हैं। दुनिया की सबसे बड़ी सेनाओं में से एक सेना अब दुनिया के सबसे गरीब, सबसे भूखे, और सबसे कुपोषित लोगों से अपनी ‘रक्षा’ करने के लिए लड़ाई की शर्तें (टर्म्स ऑफ एंगेजमेंट) तैयार कर रही है। अब महज आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) के लागू होने का इंतजार है, जो सेना को कानूनी छूट और ‘शक की बिन्हा ‘ पर जान से मार देने का अधिकार दे देगा। कश्मीर, मणिपुर और नागालैंड में दसियों हजार बेनिशां कब्रों और बेनाम चिताओं पर अगर गौर किया जाए तो सचमुच ही सेना ने स्वयं को बेहद संदेहास्पद बना दिया है।
    तैनाती की तैयारियां तो चल ही रही हैं, मध्य भारत के जंगलों की घेरेबंदी जारी है और ग्रामीण बाहर निकलने से, खाद्य सामग्री और दवाइयां खरीदने बाजार जाने से डर रहे हैं। भयावह, अलोकतांत्रिक कानूनों के अंतर्गत माओवादी होने के आरोप में सैकड़ों लोगों को कैद में डाल दिया गया है। जेलें आदिवासी लोगों से भरी पड़ी हैं जिनमें बहुतों को यह भी नहीं पता कि उनका अपराध क्या है। हाल ही में सोनी सोरी, जो बस्तर की एक आदिवासी अध्यापिका हैं, को गिरफ्तार कर पुलिस हिरासत में यातनाएं दी गईं। इस बात का ‘इकबाल’ करवाने के लिए कि वे माओवादी संदेशवाहक हैं उनके गुप्तांग में पत्थर भरे गए थे। कोलकाता के एक अस्पताल में उनके शरीर से पत्थर निकाले गए। वहां उन्हें काफी जन आक्रोश के बाद चिकित्सा जांच के लिए भेजा गया था। उच्चतम न्यायालय की हालिया सुनवाई में एक्टिविस्टों ने न्यायाधीशों को प्लास्टिक की थैली में पत्थर भेंट किए। उनके प्रयासों से केवल यह नतीजा निकला कि सोनी सोरी अब भी जेल में हैं और जिस पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग ने सोनी सोरी से पूछताछ की थी उसे गणतंत्र दिवस पर वीरता के लिए राष्ट्रपति का पुलिस पदक प्रदान किया गया।

    मास मीडिया की सीमाएं
    हमें मध्य भारत की एन्वाइरनमेन्टल और सोशल रीइंजीनियरिंग के बारे में सिर्फ व्यापक विद्रोह और जंग की वजह से खबरें मिल पाती हैं। सरकार कोई सूचना जारी नहीं करती। सारे समझौता-पत्र (एमओयू) गोपनीय हैं। मीडिया के कुछ हिस्सों ने, मध्य भारत में जो कुछ हो रहा है, उस ओर सबका ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की है। परंतु ज्यादातर मास-मीडिया इस कारण कमजोर पड़ जाता है कि उसकी कमाई का अधिकांश हिस्सा कॉर्पोरेट विज्ञापनों से आता है। पर अब तो रही सही कसर भी पूरी हो गई है। मीडिया और बड़े व्यवसायों के बीच की विभाजक रेखा खतरनाक ढंग से धुंधलाने लगी है। जैसा कि हम देख चुके हैं, आरआइएल 27 टीवी चैनलों का करीब-करीब मालिक है। मगर इसका उल्टा भी सच है। कुछ मीडिया घरानों के अब सीधे-सीधे व्यवसायिक और कॉर्पोरेट हित हैं। उदाहरण के लिए, इस क्षेत्र के प्रमुख दैनिक समाचारपत्रों में से एक – दैनिक भास्कर (और यह बस एक उदाहरण है) – के 13 राज्यों में चार भाषाओं के, जिनमें हिंदी और अंग्रेजी दोनों शामिल हैं, एक करोड़ 75 लाख पाठक हैं। यह 69 कंपनियों का मालिक भी है जो खनन, ऊर्जा उत्पादन, रीयल एस्टेट और कपड़ा उद्योग से जुड़े हैं। छत्तीसगढ़ उच्च-न्यायालय में हाल ही में दायर की गई एक याचिका में डी बी पावर लिमिटेड (दैनिक भास्कर समूह की कंपनियों में से एक) पर कोयले की एक खुली खदान को लेकर हो रही जन-सुनवाई के परिणाम को प्रभावित करने हेतु कंपनी की मिल्कियत वाले अखबारों द्वारा ”जानबूझ कर, अवैध और प्रभावित करनेवाले तरीके” अपनाने का आरोप लगाया गया। यहां यह बात प्रासंगिक नहीं कि उन्होंने परिणाम को प्रभावित करने की कोशिश की या नहीं। मुद्दा यह है कि मीडिया घराने ऐसा करने की स्थिति में है। ऐसा करने की ताकत भी उनके पास है। देश के कानून उन्हें ऐसी स्थिति में होने की इजाजत देते हैं जो हितों के गंभीर टकराव वाली स्थितियां हैं।
    देश के और भी हिस्से हैं जहां से कोई खबर नहीं आती। बहुत ही कम जनसंख्या वाले पर सैन्यीकृत उत्तर-पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश में 168 बड़े बांध बनाये जा रहे हैं जिनमें अधिकतर निजी क्षेत्र के हैं। मणिपुर और कश्मीर में ऊंचे बांध बनाये जा रहे हैं जो समूचे जिलों को डुबो देंगे, ये दोनों ही अत्यंत सैन्यीकृत राज्य हैं जहां सिर्फ बिजली की कटौती का विरोध करने के लिए भी लोगों को मारा जा सकता है। (ऐसा कुछ ही हफ्तों पहले कश्मीर में हुआ। ) तो वे बांध का निर्माण कैसे रोक सकते हैं?
    विकृत सपने
    गुजरात का कल्पसर बांध सर्वाधिक भ्रांतिकारी है। इसकी योजना खंभात की खाड़ी में एक 34 किमी लंबे बांध के रूप में बनाई जा रही है जिसके ऊपर एक दस लेन हाइवे और एक रेलवे लाइन भी होगी। समुद्र के पानी को बाहर कर गुजरात की नदियों के मीठे पानी का जलाशय बनाने का इरादा है। (यह बात और है कि इन नदियों की अंतिम बूंद तक पर बांध बना दिया गया है और रासायनिक निस्सारण से ये जहरीली हो चुकी हैं। ) कल्पसर बांध को, जो समुद्र सतह को बढ़ाएगा और समुद्र तट की सैकड़ों किलोमीटर की पारिस्थितिकी को बदल देगा, दस साल पहले ही एक हानिकारक विचार मान कर खारिज कर दिया गया था। इसकी अचानक वापसी इसलिए हुई है क्योंकि धोलेरा विशेष निवेश क्षेत्र (स्पेशल इंवेस्टमेंट रीजन या एसआइआर) को पानी की आपूर्ति की जा सके जो भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर के सबसे कम पानी वाले भूभागों में से एक में स्थित है। एसईजेड का ही दूसरा नाम है एसआइआर, मतलब ‘औद्योगिक पार्कों, उपनगरों (टाउनशिप) और मेगाशहरों’ का स्वशासित कॉर्पोरेट नरक (डिस्टोपिया)। धोलेरा एसआइआर को दस लेन राजमार्गों के जाल से गुजरात के अन्य शहरों से जोड़ा जाएगा। इन सब के लिए पैसा कहां से आएगा?
    जनवरी, 2011 में महात्मा (गांधी) मंदिर में गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी ने 100 देशों से आये 10,000 अंतर्राष्ट्रीय कारोबारियों के सम्मेलन की अध्यक्षता की। मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार उन्होंने गुजरात में 45,000 करोड़ डॉलर निवेश करने का वादा किया है। फरवरी-मार्च, 2002 में हुए 2,000 मुसलमानों के कत्लेआम की दसवीं बरसी की शुरुआत के मौके पर ही वह सम्मेलन होने वाला था। मोदी पर न केवल हत्याओं की अनदेखी करने का बल्कि सक्रिय रूप से उन्हें बढ़ावा देने का भी आरोप है। जिन लोगों ने अपने प्रियजनों का बलात्कार होते, उन्हें टुकड़े-टुकड़े होते और जिंदा जलाये जाते देखा है, जिन दसियों हजार लोगों को अपना घर छोडऩे के लिए मजबूर किया गया था, वे अब भी इंसाफ के हल्के से इशारे के मुंतजिर हैं। मगर मोदी ने अपना केसरिया दुपट्टा और सिंदूरी माथा चमकदार बिजनेस सूट से बदल लिया है और उन्हें उम्मीद है कि 45,000 करोड़ डॉलर का निवेश ब्लड मनी (मुआवजे) के तौर पर काम करेगा और हिसाब बराबर हो जाएगा। शायद ऐसा हो भी जाए। बड़ा व्यवसाय उत्साह से उनका समर्थन कर रहा है। अपरिमित न्याय का बीजगणित रहस्यमय तरीकों से काम करता है।
    धोलेरा एसआइआर छोटी मात्रियोश्का गुडिय़ों में एक है, जिस नरक की योजना बनाई जा रही है उसकी एक अंदर वाली गुडिय़ा। ये दिल्ली मुंबई औद्योगिक गलियारे (डीएमआइसी) से जोड़ा जायेगा, डीएमआइसी एक 1500 किमी लंबा और 300 किमी चौड़ा औद्योगिक गलियारा होगा जिसमें नौ बहुत बड़े औद्योगिक क्षेत्र, एक तीव्र-गति मालवाहक रेल लाइन, तीन बंदरगाह और छह हवाई अड्डे, एक छह लेन का बिना चौराहों (इंटरसेक्शन) वाला द्रुतगति मार्ग और एक 4000 मेगावाट का ऊर्जा संयंत्र होगा। डीएमआइसी भारत और जापान की सरकारों और उनके अपने-अपने कॉर्पोरेट सहयोगियों का साझा उद्यम है और उसे मेकिंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट ने प्रस्तावित किया है।
    डीएमआइसी की वेबसाइट कहती है कि इस प्रोजेक्ट से लगभग 18 करोड़ लोग ‘प्रभावित’ होंगे। वास्तव में वे किस प्रकार प्रभावित होंगे यह नहीं बताया गया। कई नए शहरों का निर्माण किए जाने का अनुमान है और अंदाजा है कि 2019 तक इस क्षेत्र की जनसंख्या वर्तमान 23.1 करोड़ से बढ़कर 31.4 करोड़ हो जाएगी। क्या आपको याद है कि आखिरी बार कब किसी राज्य, निरंकुश शासक या तानाशाह ने दसियों लाख लोगों की जनसंख्या को स्थानांतरित किया था? क्या यह प्रक्रिया शांतिपूर्ण हो सकती है?
    भारतीय सेना को शायद भर्ती अभियान चलाना पड़ेगा ताकि जब उसे भारत भर में तैनाती का आदेश मिले तो शर्मिंदगी का सामना न करना पड़े। मध्य भारत में अपनी भूमिका की तैयारी में भारतीय सेना ने सैन्य मनोवैज्ञानिक परिचालन (मिलिटरी साइकोलॉजिकल ऑपरेशंस) पर अपना अद्यतन सिद्धांत सार्वजनिक रूप से जारी किया, जो ‘वांछित प्रवृत्तियों और आचरण पैदा करने वाली खास विषय वस्तुओं को बढ़ावा देने के लिए चुनी हुई लक्षित जनता तक संदेश संप्रेषित करने की नियोजित प्रक्रिया’ का खाका खींचती है ‘जो देश के राजनीतिक और सैनिक उद्देश्यों की प्राप्ति पर असर डालती है’। इसके अनुसार ‘अभिज्ञता प्रबंधन’ की यह प्रक्रिया, ‘सेना को उपलब्ध संचार माध्यमों’ के द्वारा संचालित की जायेगी।
    अपने अनुभव से सेना को पता है कि जिस पैमाने की सामाजिक इंजीनियरिंग भारत के योजनाकर्ताओं ने सोची है उसे केवल बलपूर्वक प्रबंधित और कार्यान्वित नहीं किया जा सकता। गरीबों के खिलाफ जंग एक बात है। मगर हम जैसे बाकी बचे लोगों के लिए- मध्य वर्ग, सफेदपोश कर्मी, बुद्धिजीवी, ‘अभिमत बनाने वाले’ – तो यह ‘अभिज्ञता प्रबंधन’ ही चाहिए होगा। और इसके लिए हमें अपना ध्यान ‘कॉर्पोरेट परोपकार’ की उत्कृष्ट कला की ओर ले जाना होगा।

    खुशी का उत्खनन

    हाल के दिनों में प्रमुख खनन समूहों ने कला को अंगीकार कर लिया है – फिल्में, कला और साहित्यिक समारोहों की बढ़ती भीड़ ने नब्बे के दशक की सौंदर्य प्रतियोगिताओं को लेकर पाए जाने वाले जुनून की जगह ले ली है। वेदांता, जो फिलहाल बॉक्साइट के लिए प्राचीन डोंगरिया कोंध जनजाति की जन्मभूमि को बेतहाशा खोद रही है, युवा सिने विद्यार्थियों के बीच ‘क्रिएटिंग हैपिनेस’ नामक फिल्म प्रतियोगिता प्रायोजित कर रही है। इन विद्यार्थियों को वेदान्ता ने संवहनीय विकास अर्थात सस्टेनेबल डेवलपमेंट पर फिल्में बनाने हेतु नियुक्त किया है। वेदान्ता की टैगलाइन है ‘माइनिंग हैपिनेस’ (खुशी का उत्खनन)। जिंदल समूह समकालीन कला पर केंद्रित एक पत्रिका निकालता है और भारत के कुछ बड़े कलाकारों की सहायता करता है (जो स्वाभाविक है कि इनका माध्यम स्टेनलेस स्टील है। ) तहलका न्यूजवीक थिंक फेस्ट (चिंतन महोत्सव)का एसार समूह प्रमुख प्रायोजक था जिसमें वादा किया गया था कि दुनिया के अग्रणी चिंतकों के बीच, जिनमें बड़े लेखक, एक्टिविस्ट और वास्तुविद फ्रैंक गैरी तक शामिल थे, तेजतर्रार बहसें हाई आक्टेन डिबेट्स होंगीं। (ये सब गोवा में हो रहा था, जहां एक्टिविस्ट और पत्रकार भीमकाय अवैध खनन घोटालों को उजागर कर रहे थे और बस्तर में युद्ध में एस्सार की भूमिका सामने आने लगी थी।) टाटा स्टील और रिओ टिंटो (जिसका अपना ही घिनौना इतिहास है) जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल (वैज्ञानिक नाम- दर्शन सिंह कन्सट्रक्शन्स जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल) के मुख्य प्रायोजकों में थे जिसको कला-मर्मज्ञों ने ‘धरती का महानतम साहित्यिक उत्सव’ कहकर विज्ञापित किया है। काउन्सेलेज ने, जो टाटा की स्ट्रेटेजिक ब्रांड मैनेजर है, फेस्टिवल का प्रेस तंबू प्रायोजित किया। दुनिया के बेहतरीन और प्रतिभाशाली लेखकों में से कई जयपुर में प्रेम, साहित्य, राजनीति और सूफी शायरी पर बातें करने के लिए जमा हुए थे। उनमें से कुछ ने सलमान रुश्दी की प्रतिबंधित पुस्तक सैटनिक वर्सेज का पाठ करके उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बचाव करने की कोशिश की। हर टीवी फ्रेम और अखबारी तस्वीर में, लेखकों के पीछे टाटा का लोगो (और उनकी टैगलाइन- वैल्यूज स्ट्रांगर दैन स्टील -इस्पात से मजबूत मूल्य) एक सौम्य और परोपकारी मेजबान के रूप में छाया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुश्मन कथित रूप से हिंसक मुसलमानों की वह भीड़ थी जो, जैसा कि आयोजकों ने हमें बताया, वहां इकठ्ठा हुए स्कूली बच्चों तक को नुकसान पहुंचा सकती थी। (हम इस बात के गवाह हैं कि मुसलमानों के बारे में भारत सरकार और पुलिस कितनी असहाय हो सकती है। ) हां, कट्टरपंथी देवबंदी इस्लामी मदरसे ने रुश्दी को फेस्टिवल में बुलाये जाने का विरोध किया। हां, कुछ इस्लामवादी निश्चय ही आयोजन स्थल पर विरोध प्रदर्शित करने के लिए एकत्रित हुए थे और हां, भयावह बात यह है कि आयोजन स्थल की रक्षा करने के लिए राज्य सरकार ने कुछ नहीं किया। वह इसलिए कि पूरे घटनाक्रम का लोकतंत्र, वोटबैंक और उत्तर प्रदेश चुनावों से उतना ही लेना-देना था जितना इस्लामवादी कट्टरपंथ से। मगर इस्लामवादी कट्टरपंथ के विरुद्ध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई ने दुनिया भर के अखबारों में जगह पाई। यह अहम् बात है कि ऐसा हुआ। मगर फेस्टिवल के प्रायोजकों की जंगलों में चल रहे युद्ध, लाशों के ढेर लगने और जेलों के भरते जाने में भूमिका के बारे में शायद ही कोई रिपोर्ट हो। या फिर गैरकानूनी गतिविधि प्रतिबंधक विधेयक या छतीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा विधेयक के बारे में कोई रिपोर्ट जो सरकार-विरोधी बात सोचने तक को संज्ञेय अपराध बनाते हैं। या फिर लोहंडीगुडा के टाटा इस्पात संयंत्र को लेकर अनिवार्य जन सुनवाई के बारे में, जो स्थानीय लोगों की शिकायत के अनुसार वास्तव में सैकड़ों मील दूर जगदलपुर में जिलाधीश कार्यालय के प्रांगण में किराये पर लाए गए पचास लोगों की उपस्थिति में और हथियारबंद सुरक्षा के बीच हुई। उस वक्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां थी? किसी ने कलिंगनगर का जिक्र नहीं किया। किसी ने जिक्र नहीं किया कि भारत सरकार को जो विषय अप्रिय हैं उन पर – जैसे श्रीलंका के युद्ध में तमिलों के नरसंहार में उसकी गुप्त भूमिका या कश्मीर में हाल में खोजी गईं बेनिशान कब्रें- काम करने वाले पत्रकारों, अकादमिकों और फिल्म बनाने वालों के वीजा अस्वीकृत किए जा रहे हैं या उन्हें एअरपोर्ट से सीधे निर्वासित कर दिया जा रहा है।
    मगर हम पापियों में कौन पहला पत्थर उछालने वाला था? मैं तो नहीं, जो कॉर्पोरेट प्रकाशन गृहों से मिलने वाली रॉयल्टियों पर गुजर करती हूं। हम सब टाटा स्काई देखते हैं, टाटा फोटॉन से इंटरनेट पर विचरण करते हैं, टाटा टैक्सियों में घूमते हैं, टाटा होटलों में रहते हैं, टाटा की चीनी मिट्टी के कप में अपनी टाटा चाय की चुस्कियां लेते हैं और उसे टाटा स्टील से बने चम्मच से घोलते हैं। हम टाटा की किताबें टाटा की किताबों की दुकान से खरीदते हैं। हम टाटा का नमक खाते हैं। हम घेर लिए गए हैं।
    अगर नैतिक पवित्रता के हथौड़े को पत्थर फेंकने का मापदंड होना है, तो केवल वे ही लोग योग्य हैं जिन्हें पहले ही खामोश कर दिया गया है। जो लोग इस व्यवस्था से बाहर रहते हैं; जंगल में रहने वाले अपराधी घोषित कर दिए लोग, या वे जिनका विरोध प्रेस कभी कवर नहीं करता, या फिर वे शालीन विस्थापित जन जो इस ट्राइब्यूनल से उस ट्राईब्यूनल तक साक्ष्यों को सुनते हैं और साक्ष्य बनते, घूमते हैं।
    मगर लिट्फेस्ट ने हमें वाह! वाह! का मौका तो दिया ही। ओपरा आईं। उन्होंने कहा भारत मुझे पसंद आया और मैं बार-बार यहां आउंगीं। इसने हमें गौरवान्वित किया।
    ये उत्कृष्ट कला का प्रहसनात्मक अंत है
    वैसे तो टाटा लगभग सौ सालों से कॉर्पोरेट परोपकार में शामिल है, छात्रवृत्तियां प्रदान कर और कुछ बेहतरीन शिक्षा संस्थान व अस्पताल चलाकर। पर भारतीय निगमों को इस स्टार चेंबर, या कैमेरा स्टेलाटा में हाल ही में आमंत्रित किया गया है। कैमेरा स्टेलाटा वैश्विक कॉर्पोरेट सरकार की वह चमचमाती दुनिया है जो उसके विरोधियों के लिए तो मारक है मगर वैसे इतनी कलात्मक है कि आपको उसके अस्तित्व का पता ही नहीं चलता।

    परोपकार की धारा
    इस निबंध में आगे जो आने वाला है, वह कुछ लोगों को किंचित कटु आलोचना प्रतीत होगी। दूसरी ओर, अपने विरोधियों का सम्मान करने की परंपरा में, इसे उन लोगों की दृष्टि, लचीलेपन, परिष्करण और दृढ़ निश्चय की अभिस्वीकृति के तौर पर भी पढ़ा जा सकता है, जिन्होंने अपनी जिंदगियां दुनिया को पूंजीवाद के लिए सुरक्षित रखने हेतु समर्पित कर दी हैं।
    उनका सम्मोहक इतिहास, जो समकालीन स्मृति से धुंधला हो गया है, अमेरिका में बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में आरंभ हुआ , जब दानप्राप्त फाउंडेशनों के रूप में कानूनन खड़े किए जाने पर कॉर्पोरेट परोपकार ने पूंजीवाद के (और साम्राज्यवाद) के लिए रास्ते खोलने वाले और मुस्तैद निगहबानी करने वाले की भूमिका से मिशनरी गतिविधियों की जगह लेनी शुरू की। अमेरिका में स्थापित किए गए शुरुआती फाउंडेशनों में थे कार्नेगी स्टील कंपनी के मुनाफों से मिले दान से 1911 में कार्नेगी कारपोरेशन; और स्टैण्डर्ड आयल कंपनी के संस्थापक जे. डी. रॉकफेलर के दान से 1914 में बना रॉकफेलर फाउंडेशन। उस समय के टाटा और अंबानी।
    रॉकफेलर फाउंडेशन द्वारा वित्तपोषित, प्रारंभिक निधि प्राप्त या सहायता प्राप्त कुछ संस्थान हैं संयुक्त राष्ट्र संघ, सीआइए, काउंसिल फॉर फॉरेन रिलेशंस, न्यूयॉर्क का बेहद शानदार म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट और बेशक न्यूयॉर्क का रॉकफेलर सेंटर (जहां डिएगो रिविएरा को म्यूरल दीवार से तोड़ कर हटा दिया गया था क्योंकि उसमें शरारतपूर्ण ढंग से मूल्यहीन पूंजीपतियों और वीर लेनिन को दर्शाया गया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उस दिन छुट्टी मना रही थी। )
    जे.डी. रॉकफेलर अमेरिका के पहले अरबपति और दुनिया के सबसे अमीर आदमी थे। वे दासता-विरोधी, अब्राहम लिंकन के समर्थक थे और शराब को हाथ नहीं लगाते थे। उनका विश्वास था कि उनका धन भगवान का दिया हुआ है जो निश्चय ही उनके प्रति दयालु रहा होगा।

    प्रस्तुत हैं ‘स्टैण्डर्ड आयल कंपनी’ शीर्षक पाब्लो नेरुदा की एक शुरुआती कविता के अंश:

    न्यूयॉर्क के उनके थुलथुल बादशाह लोग
    सौम्य मुस्कराते हत्यारे हैं
    जो खरीदते हैं रेशम, नायलॉन, सिगार,
    हैं छोटे-मोटे आततायी और तानाशाह ।
    वे खरीदते हैं देश, लोग, समंदर, पुलिस, विधान/ सभाएं,
    दूरदराज के इलाके जहां गरीब इकट्ठा करते हैं/ अनाज
    जैसे कंजूस जोड़ते हैं सोना,
    स्टैंडर्ड आयल उन्हें जगाती है,
    वर्दियां पहनाती है,
    बताती है कि कौन-सा भाई है शत्रु उनका।
    उसकी लड़ाई पराग्वे वासी लड़ता है
    और बोलीवियाईजंगलों में इसकी मशीनगनों के साथ भटकता है।
    पेट्रोलियम की एक बूंद के लिए मार डाला गया/ एक राष्ट्रपति,
    दस लाख एकड़ रेहन रखता है,
    उजाले से मृत पथरायी हुई एक सुबह तेजी से /दिया जाता है मृत्युदंड ,
    बागियों के लिए एक नया कैदखाना
    पातागोनिया में, एक विश्वासघात, पेट्रोलियम/चांद के तले
    गोलियों की छिट पुट आवाजें, राजधानी में
    मंत्रियों को उस्तादी से बदलना,
    राजधानी में, एक फुसफुसाहट
    तेल की लहरों जैसी
    और फिर प्रहार। आप देखेंगे
    कि कैसे स्टैंडर्ड आयल के शब्द चमकते हैं/ बादलों के ऊपर,
    समंदरों के ऊपर, आपके घर में
    अपने प्रभाव क्षेत्र को जगमगाते हुए।
    करों से मुक्ति का मार्ग
    अमेरिका में जब पहले-पहल कॉर्पोरेट धनप्राप्त फाउंडेशनों का आविर्भाव हुआ तो वहां उनके उद्गम, वैधता और उत्तरदायित्व के अभाव को लेकर तीखी बहस हुई। लोगों ने सलाह दी कि अगर कॉर्पोरेशनों के पास इतना अधिशेष है, तो उन्हें मजदूरों की तनख्वाहें बढ़ानी चाहिए। (उन दिनों अमेरिका में भी लोग ऐसी बेहूदा सलाहें दिया करते थे। ) इन फाउंडेशनों का विचार, जो आज मामूली बात लगता है, दरअसल कारोबारी कल्पना की एक ऊंची छलांग था। करों से मुक्त वैध संस्थाएं जिनके पास अत्यधिक संसाधन और लगभग असीमित योजनाएं हों – जवाबदेही से पूर्णत: मुक्त, पूर्णत: अपारदर्शी – आर्थिक संपत्ति को राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी में बदलने का इससे बढिय़ा तरीका और क्या हो सकता है? सूदखोरों के लिए अपने मुनाफों के एक रत्तीभर प्रतिशत को दुनिया को चलाने में इस्तेमाल करने का इससे बढिय़ा तरीका और क्या हो सकता है? वरना बिल गेट्स जो, खुद कहते हैं कि वे कंप्यूटर के बारे में भी एक-दो चीजें ही जानते हैं, सिर्फ अमेरिकी सरकार के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया भर की सरकारों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि नीतियां तैयार करते पाए जाते हैं?
    विगत वर्षों में जब लोगों ने फाउंडेशनों द्वारा की गई कुछ सचमुच अच्छी चीजें (सार्वजनिक पुस्तकालय चलाना, बीमारियों का उन्मूलन) देखीं- वहीं कॉर्पोरेशनों और उनसे पैसा प्राप्त फाउंडेशनों के बीच का सीधा संबंध धुंधलाने लगा। अंतत: वह पूरी तरह धुंधला पड़ा गया। आज तो अपने आप को वामपंथी समझने वाले तक उनकी दानशीलता स्वीकारने से शर्माते नहीं हैं।
    1920 के दशक तक अमेरिकी पूंजीवाद ने कच्चे माल और विदेशी बाजार के लिए बाहर नजर डालना शुरू कर दिया था। फाउंडेशनों ने वैश्विक कार्पोरेट प्रशासन के विचार का प्रतिपादन शुरू किया। 1924 में रॉकफेलर और कार्नेगी फाउंडेशनों ने मिलकर काउंसिल फॉर फॉरेन रिलेशंस (सीएफआर – विदेश संबंध परिषद) की स्थापना की जो आज दुनिया का सबसे शक्तिशाली विदेश नीति दबाव-समूह है। सीएफआर को बाद में फोर्ड फाउंडेशन से भी अनुदान मिला। सन 1947 के आते-आते सीएफआर नवगठित सीआईए को पूरा समर्थन देने लगा और वे साथ मिलकर काम करने लगे। अब तक अमेरिका के 22 गृह-सचिव (सेक्रेटरी ऑफ स्टेट) सीएफआर के सदस्य रह चुके हैं। सन 1943 की परिचालन समिति में, जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ की योजना बनाई थी, पांच सीएफआर सदस्य थे, और आज न्यूयॉर्क में जहां सं.रा.संघ का मुख्यालय खड़ा है वह जमीन जे.डी. रॉकफेलर द्वारा मिले 850 करोड़ डॉलर के अनुदान से खरीदी गई थी।
    1946 से लेकर आज तक विश्व बैंक के सभी ग्यारह अध्यक्ष – वे लोग जो स्वयं को गरीबों का मिशनरी बतलाते हैं – सीएफआर के सदस्य रहे हैं। (जॉर्ज वुड्स इसके अपवाद हैं और वे रॉकफेलर फाउंडेशन के ट्रस्टी और चेज-मैनहटन बैंक के उपाध्यक्ष थे। )
    सद्भावना का अंतरराष्ट्रीय चेहरा
    ब्रेटन वुड्स में विश्व बैंक और आइएमएफ (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) ने निर्णय लिया कि अमेरिकी डॉलर को विश्व की संचय मुद्रा (रिजर्व करंसी) होना चाहिए और यह कि वैश्विक पूंजी की पैठ को और बढ़ाने के लिए जरूरी होगा कि एक मुक्त बाजार व्यवस्था में प्रयुक्त व्यवसायिक कार्यप्रणालियों का सार्वभौमीकरण और मानकीकरण किया जाए। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे गुड गवर्नेंस (जब तक डोरी उनके हाथों में रहे) और रूल ऑफ लॉ अर्थात कानून-व्यवस्था (बशर्ते कानून बनाने में उनकी चले) की संकल्पना और सैकड़ों भ्रष्टाचार-विरोधी कार्यक्रमों (उनकी बनाई हुई व्यवस्था को सरल और कारगर बनाने हेतु) को बढ़ावा देने के लिए इतना पैसा खर्च करते हैं। विश्व की दो सर्वाधिक अपारदर्शी और जवाबदेह-रहित संस्थाएं गरीब देशों की सरकारों से पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की मांग करती फिरती हैं।
    ये देखते हुए कि एक के बाद दूसरे देश के बाजारों को बलपूर्वक और जबरदस्ती वैश्विक वित्त के लिए खुलवाकर विश्व बैंक ने तीसरी दुनिया की आर्थिक नीतियों को लगभग निर्देशित किया है, कहा जा सकता है कि कॉर्पोरेट परोपकार आज तक का सबसे दिव्य धंधा साबित हुआ है।
    कॉर्पोरेट-धनप्राप्त फाउंडेशन अभिजात क्लबों और थिंक-टैंकों (चिंतन मंडलियों) की व्यवस्था के द्वारा अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हैं और अपने खिलाडिय़ों को शतरंज की बिसात पर इन विशिष्ट क्लबों और थिंक-टैंकों के जरिये बैठाते हैं। इनके सदस्य साझा होते हैं और घूमते दरवाजों से अंदर बाहर होते रहते हैं। खासकर वामपंथी समूहों के बीच जो विभिन्न षड्यंत्र-गाथाएं प्रचलन में हैं, उनके उलट इस व्यवस्था के बारे में कुछ भी गोपनीय, शैतानी और गुप्त-सदस्यता जैसा नहीं है। जिस तरह कॉर्पोरेशन शैल (नाममात्र) के लिए पंजीकृत कंपनियों और अपतट (ऑफशोर) खातों का इस्तेमाल पैसे के हस्तांतरण और प्रबंधन के लिए करते हैं, यह तरीका उससे बहुत अलग नहीं है। फर्क इतना ही है कि यहां प्रचतिल मुद्रा ताकत है, पैसा नहीं।
    सीएफआर का अंतर्राष्ट्रीय समतुल्य है तीन आयामी आयोग, जिसकी स्थापना 1973 में डेविड रॉकफेलर, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज्बीग्न्येफ ब्रजिन्स्की (अफगान मुजाहिद्दीन अर्थात तालिबान के पूर्वज का संस्थापक-सदस्य), चेज-मैनहटन बैंक और कुछ अन्य निजी प्रतिष्ठानों ने मिलकर की थी। इसका उद्देश्य था उत्तरी अमेरिका, योरोप और जापान के अभिजातों के बीच मैत्री और सहकार्य का एक चिरस्थायी बंधन तैयार करना। ये अब एक पंचकोणीय आयोग बन गया है क्योंकि इसमें अब भारत और चीन के सदस्य भी शामिल हैं। (सीआइआइ के तरुण दास; इनफोसिस के पूर्व-सीईओ एन.आर.नारायणमूर्ति; गोदरेज के प्रबंध निदेशक जमशेद एन. गोदरेज, टाटा संस के निदेशक जमशेद जे. ईरानी; और अवंता समूह के सीईओ गौतम थापर)।

    द ऐस्पन इंस्टीट्यूट स्थानीय अभिजातों, व्यवसायिकों, नौकरशाहों, राजनीतिकों का एक अंतर्राष्ट्रीय क्लब है जिसकी शाखाएं बहुत से देशों में हैं। ऐस्पन इंस्टीट्यूट की भारतीय शाखा के अध्यक्ष तरुण दास हैं। गौतम थापर सभापति हैं। मैकंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट (दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे के प्रस्तावक) के कई वरिष्ठ पदाधिकारी सीएफआर के, ट्राईलैटरल कमीशन के, और द ऐस्पन इंस्टीट्यूट के सदस्य हैं।
    द फोर्ड फाउंडेशन (जो किंचित अनुदार रॉकफेलर फाउंडेशन का उदारवादी रूप है, हालांकि दोनों लगातार मिलकर काम करते हैं) की स्थापना 1936 में हुई। हालांकि उसे अक्सर कम महत्त्व दिया जाता है, पर फोर्ड फाउंडेशन की एकदम साफ और पूर्णत: स्पष्ट विचारधारा है और यह अपनी गतिविधियां अमेरिकी गृहमंत्रालय के साथ बहुत नजदीकी से तालमेल बैठाकर चलाता है। लोकतंत्र और ‘गुड गवर्नंस’ (सुशासन)को गहराने का उनका प्रोजेक्ट मुक्त बाजार में कारोबारी कार्यप्रणालियों के मानकीकरण और कार्यक्षमता को बढ़ावा देने की ब्रेटन वुड्स स्कीम का ही हिस्सा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद, जब अमेरिकी सरकार के शत्रु नंबर एक के तौर पर फासिस्टों की जगह कम्युनिस्टों ने ले ली थी, शीत युद्ध से निपटने के लिए नई तरह की संस्थाओं की जरूरत थी। फोर्ड ने आरएएनडी (रिसर्च एंड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन या रैंड) को पैसा दिया जो एक सैन्य थिंक-टैंक है और उसने शुरुआत अमेरिकी रक्षा विभाग के लिए अस्र अनुसंधान के साथ की। 1952 में ‘मुक्त राष्ट्रों में घुसपैठ करने और उनमें अव्यवस्था फैलाने के अनवरत साम्यवादी प्रयत्नों’ को रोकने के लिए उसने गणतंत्र कोष की स्थापना की, जो फिर लोकतांत्रिक संस्थानों के अध्ययन केंद्र में परिवर्तित हो गया । उसका काम था मैकार्थी की ज्यादतियों के बिना चतुराई से शीत युद्ध लडऩा। भारत में करोड़ों डालर निवेश करके जो काम फोर्ड फाउंडेशन कर रहा है- कलाकारों, फिल्मकारों और एक्टिविस्टों को दीए जाने वाली वित्तीय मददें, विश्वविद्यालयीन कोर्सों और छात्रवृत्तियों हेतु उदार अनुदान – उसे हमें इस नजरिए से देखना होगा।
    फोर्ड फाउंडेशन के घोषित ‘मानवजाति के भविष्य के लक्ष्यों ‘ में स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय जमीनी राजनीतिक आंदोलनों में हस्तक्षेप करना है। अमेरिका में इसने क्रेडिट यूनियन मूवमेंट को सहायता देने के लिए अनुदान और ऋण के तौर पर करोड़ों लाख डॉलर मुहैया करवाए। 1919 में शुरू हुए क्रेडिट यूनियन मूवमेंट के प्रणेता एक डिपार्टमेंट स्टोर के मालिक एडवर्ड फाइलीन थे। मजदूरों को वहन किए जाने योग्य ऋण उपलब्ध कराकर उपभोक्ता वस्तुओं के लिए एक विशाल उपभोक्ता समाज (मास कंजम्प्शन सोसाइटी) बनाने में फाइलीन का विश्वास था- जो उस समय एक क्रांतिकारी विचार था। दरअसल यह विचार केवल आधा ही क्रांतिकारी था, क्योंकि फाइलीन का जो विश्वास था उसका दूसरा आधा हिस्सा था राष्ट्रीय आय का अधिक समतापूर्ण वितरण। फाइलीन के सुझाव का पहला आधा हिस्सा पूंजीपतियों ने हथिया लिया और मेहनतकश लोगों को लाखों डॉलर के ‘एफोर्डेबल’ ऋण वितरित कर अमेरिका के मेहनतकश वर्ग को हमेशा के लिए कर्जे में रहने वाले लोगों में बदल दिया जो अपनी जीवन शैली को अद्यतन करते रहने के लिए हमेशा भागदौड़ में लगे रहते हैं।
    बहुत सालों बाद यह विचार बांग्लादेश के दरिद्र देहाती क्षेत्र में ‘ट्रिकल डाउन’ (रिसकर) होकर पहुंचा जब मुहम्मद युनुस और ग्रामीण बैंक ने भूखे मरते किसानों को माइक्रोक्रेडिट (लघु वित्त) उपलब्ध करवाया जिसके विनाशकारी परिणाम हुए। भारत में लघुवित्त कंपनियां सैकड़ों आत्महत्याओं के लिए जिम्मेदार हैं- सिर्फ 2010 में ही आंध्र प्रदेश में 240 लोगों ने खुदकुशी की। हाल ही में एक राष्ट्रीय दैनिक ने एक ऐसी अठारह वर्षीय लड़की का खुदकुशी करने से पहले लिखा पत्र प्रकाशित किया था जिसे उसके पास बचे आखिरी 150 रुपए, जो उसकी स्कूल की फीस थी, लघुवित्त कंपनी के गुंडई करने वाले कर्मचारियों को देने पर मजबूर होना पड़ा। उस पत्र में लिखा था, ‘मेहनत करो और पैसा कमाओ। कर्जा मत लो। ‘
    गरीबी में बहुत पैसा है, और चंद नोबेल पुरस्कार भी।
    स्वयंसेवा का मार्ग
    1950 के दशक तक कई एनजीओ और अंतर्राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थानों को पैसा देने के काम के साथ-साथ रॉकफेलर और फोर्ड फाउंडेशन ने अमेरिकी सरकार की लगभग शाखाओं के तौर पर काम करना शुरू कर दिया था। अमेरिकी सरकार उस वक्त लातिन अमेरिका, ईरान और इंडोनेशिया में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारें गिराने में लगी हुई थी। (यही वह समय है जब उन्होंने भारत में प्रवेश किया जो गुटनिरपेक्ष था पर साफ तौर पर उसका झुकाव सोवियत संघ की तरफ था। ) फोर्ड फाउंडेशन ने इंडोनेशियाई विश्वविद्यालय में एक अमेरिकी-शैली का अर्थशास्त्र का पाठ्यक्रम स्थापित किया। संभ्रांत इंडोनेशियाई छात्रों ने, जिन्हें विप्लव-प्रतिरोध (काउंटर इंसर्जंसी) में अमेरिकी सेना के अधिकारियों ने प्रशिक्षित किया था, 1965 में सीआईए-समर्थित तख्ता-पलट में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसमें जनरल सुहार्तो सत्ता में आये। लाखों कम्युनिस्ट विद्रोहियों को मरवाकर जनरल सुहार्तो ने अपने सलाहकार-मददगारों का कर्जा चुका दिया।
    बीस साल बाद चिली के युवा छात्रों को, जिन्हें शिकागो ब्वायज के नाम से जाना गया, शिकागो विश्वविद्यालय (जे.डी. रॉकफेलर द्वारा अनुदान प्राप्त) में मिल्टन फ्रीडमन द्वारा नवउदारवादी अर्थशास्र में प्रशिक्षण हेतु अमेरिका ले जाया गया। ये 1973 में हुए सीआइए-समर्थित तख्ता-पलट की पूर्वतैयारी थी जिसमें साल्वाडोर आयेंदे की हत्या हुई और जनरल पिनोशे के साथ हत्यारे दस्तों, गुमशुदगियों और आतंक का राज आया जो सत्रह वर्ष तक चला। (आयेंदे का जुर्म था एक लोकतांत्रिक ढंग से चुना हुआ समाजवादी होना और चीले की खानों का राष्ट्रीयकरण करना। )
    1957 में रॉकफेलर फाउंडेशन ने एशिया में सामुदायिक नेताओं के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार की स्थापना की। इसे फिलीपीन्स के राष्ट्रपति रेमन मैग्सेसे का नाम दिया गया जो दक्षिण-पूर्व एशिया में साम्यवाद के खिलाफ अमेरिका के अभियान के महत्त्वपूर्ण सहयोगी थे। 2000 में फोर्ड फाउंडेशन ने रेमन मैग्सेसे इमर्जंट लीडरशिप पुरस्कार की स्थापना की। भारत में कलाकारों, एक्टिविस्टों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच मैग्सेसे पुरस्कार की बड़ी प्रतिष्ठा है। एम.एस. सुब्बलक्ष्मी को यह पुरस्कार मिला था और उसी तरह जयप्रकाश नारायण और भारत के बेहतरीन पत्रकार पी. साइनाथ को भी। मगर जितना फायदा पुरस्कार से इन लोगों का हुआ उस से अधिक इन्होंने पुरस्कार को पहुंचाया। कुल मिला कर यह इस बात का नियंता बन गया है कि किस प्रकार का ‘एक्टिविज्म’ स्वीकार्य है और किस प्रकार का नहीं।

    दिलचस्प यह कि पिछली गर्मियों में हुए अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की अगुआई तीन मैग्सेसे पुरस्कार-प्राप्त व्यक्ति कर रहे थे – अण्णा हजारे, अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी। अरविन्द केजरीवाल के बहुत से गैर-सरकारी संगठनों में से एक को फोर्ड फाउंडेशन से अनुदान मिलता है। किरण बेदी के एनजीओ को कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स से पैसा मिलता है।
    भले ही अण्णा हजारे स्वयं को गांधीवादी कहते हैं, मगर जिस कानून की उन्होंने मांग की है- जन लोकपाल बिल- वह अभिजातवादी, खतरनाक और गांधीवाद के विरुद्ध है। चौबीसों घंटे चलने वाले कॉर्पोरेट मीडिया अभियान ने उन्हें ‘जनता’ की आवाज घोषित कर दिया। अमेरिका में हो रहे ऑक्युपाइ वॉल स्ट्रीट आंदोलन के विपरीत हजारे आंदोलन ने निजीकरण, कॉर्पोरेट ताकत और आर्थिक ‘सुधारों’ के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। उसके विपरीत इसके प्रमुख मीडिया समर्थकों ने बड़े-बड़े कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार घोटालों (जिनमें नामी पत्रकारों का भी पर्दाफाश हुआ था) से जनता का ध्यान सफलतापूर्वक हटा दिया और राजनीतिकों की जन-आलोचना का इस्तेमाल सरकार के विवेकाधीन अधिकारों में और कमी लाने एवं और अधिक निजीकरण की मांग करने के लिए इस्तेमाल किया। (2008 में अण्णा हजारे ने विश्व बैंक से उत्कृष्ट जन सेवा का पुरस्कार लिया। ) विश्व बैंक ने वाशिंगटन से एक वक्तव्य जारी किया कि यह आंदोलन उसकी नीतियों से पूरी तरह ‘मेल खाता’ है।
    बहुलतावाद का मुखौटा
    सभी अच्छे साम्राज्यवादियों की तरह परोपकारीजनों ने अपने लिए ऐसा अंतर्राष्ट्रीय काडर तैयार और प्रशिक्षित करने का काम चुना जो इस पर विश्वास करे कि पूंजीवाद और उसके विस्तार के तौर पर अमेरिकी वर्चस्व उनके स्वयं के हित में है। और इसीलिए वे लोग ग्लोबल कॉर्पोरेट गवर्नमेंट को चलाने में वैसे ही मदद करें जैसे देशी संभ्रांतों ने हमेशा उपनिवेशवाद की सेवा की है। इसलिए फाउंडेशन शिक्षा और कला के क्षेत्रों में उतरे जो विदेश नीति और घरेलू आर्थिक नीति के बाद उनका तीसरा प्रभाव क्षेत्र बन गया। उन्होंने करोड़ों डॉलर अकादमिक संस्थानों और शिक्षाशास्त्र पर खर्च किए (और करते जा रहे हैं)।

    अपनी अद्भुत पुस्तक फाउंडेशंस एंड पब्लिक पॉलिसी: द मास्क ऑफ प्ल्युरलिज्म में जोन रूलोफ्स बयां करती हैं कि किस तरह फाउंडेशनों ने राजनीति विज्ञान को कैसे पढ़ाया जाए इस विषय के पुराने विचारों में बदलाव कर ‘इंटरनेशनल’ (अंतर्राष्ट्रीय) और ‘एरिया’ (क्षेत्रीय) स्टडीज (अध्ययन) की विधाओं को रूप दिया। इसने अमेरिकी गुप्तचर और सुरक्षा सेवाओं को अपने रंगरूट भर्ती करने के लिए विदेशी भाषाओं और संस्कृति में विशेषज्ञता का एक पूल उपलब्ध करवाया। आज भी सीआइए और अमेरिकी विदेश मंत्रालय अमेरिकी विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों और प्रोफेसरों के साथ काम करते हैं जो विद्वत्ता को लेकर गंभीर नैतिक सवाल खड़े करता है।
    जिन लोगों पर शासन किया जा रहा है उन पर नियंत्रण रखने के लिए सूचना एकत्रित करना किसी भी शासक सत्ता का मूलभूत सिद्धांत है। जिस समय भूमि अधिग्रहण और नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध भारत में बढ़ता जा रहा है, तब मध्य भारत में खुल्लमखुल्ला जंग की छाया में, सरकार ने नियंत्रण तकनीक के तौर पर एक विशाल बायोमेट्रिक कार्यक्रम का प्रारंभ किया, यूनिक आइडेंटीफिकेशन नंबर (विशिष्ट पहचान संख्या या यूआइडी) जो शायद दुनिया का सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी और बड़ी लागत की सूचना एकत्रीकरण परियोजना है। लोगों के पास पीने का साफ पानी, या शौचालय, या खाना, या पैसा नहीं है मगर उनके पास चुनाव कार्ड या यूआइडी नंबर होंगे। क्या यह संयोग है कि इनफोसिस के पूर्व सीईओ नंदन नीलकेणी द्वारा चलाया जा रहा यूआइडी प्रोजेक्ट, जिसका प्रकट उद्देश्य ‘गरीबों को सेवाएं उपलब्ध करवाना’ है, आइटी उद्योग में बहुत ज्यादा पैसा लगाएगा जो आजकल कुछ परेशानी में है? (यूआइडी बजट का मोटा अंदाज भी भारत सरकार के वार्षिक शिक्षा खर्च से ज्यादा है। ) इतनी ज्यादा तादाद में नाजायज और ”पहचान रहित” – लोग जो झुग्गियों में रहने वाले हैं, खोमचे वाले हैं, ऐसे आदिवासी हैं जिनके पास भूमि के पट्टे नहीं- जनसंख्या वाले देश को ‘डिजीटलाइज’ करने का असर यह होगा कि उनका अपराधीकरण हो जायेगा, वे नाजायज से अवैध हो जायेंगे। योजना यह है कि एन्क्लोजर ऑफ कॉमंस का डिजिटल संस्करण तैयार किया जाए और लगातार सख्त होते जा रहे पुलिस राज्य के हाथों में अपार अधिकार सौंप दिए जाएं।
    आंकड़ों का जुनून
    आंकड़े जमा करने को लेकर नीलकेणी का जुनून बिल्कुल वैसा ही है जैसा डिजिटल आंकड़ा कोष, ‘संख्यात्मक लक्ष्यों’ और ‘विकास के स्कोरकार्ड’ को लेकर बिल गेट्स का जुनून है। मानो सूचना का अभाव ही विश्व में भूख का कारण हो न कि उपनिवेशवाद, कर्जा और विकृत मुनाफा-केंद्रित कॉर्पोरेट नीति।
    कॉर्पोरेट-अनुदान से चलने वाले फाउंडेशन समाज-विज्ञान और कला के सबसे बड़े धनदाता हैं जो ‘विकास अध्ययन’, ‘समुदाय अध्ययन’, ‘सांस्कृतिक अध्ययन’, ‘व्यवहारसंबंधी अध्ययन’ और ‘मानव अधिकार’ जैसे पाठ्यक्रमों के लिए अनुदान और छात्रवृत्तियां प्रदान करते हैं। जब अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने अपने दरवाजे अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों के लिए खोल दिए, तो लाखों छात्र, तीसरी दुनिया के संभ्रांतों के बच्चे, प्रवेश करने लगे। जो फीस का खर्चा वहन नहीं कर सकते थे उन्हें छात्रवृत्तियां दी गईं। आज भारत और पाकिस्तान जैसे देशों में शायद ही कोई उच्च मध्यमवर्गीय परिवार होगा जिसमें अमेरिका में पढ़ा हुआ बच्चा न हो। इन्हीं लोगों के बीच से अच्छे विद्वान और अध्यापक ही नहीं आए हैं बल्कि प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, अर्थशास्त्री, कॉर्पोरेट वकील, बैंकर और नौकरशाह भी निकले हैं जिन्होंने अपने देशों की अर्थव्यवस्थाओं को वैश्विक कॉर्पोरेशनों के लिए खोलने में मदद की है।
    अर्थशास्त्र और राजनीति-विज्ञान के फाउंडेशनों की ओर मित्रवत संस्करण के विद्वानों को फेलोशिप, अनुसंधान निधियों, अनुदानों और नौकरियों से नवाजा गया। जिनके विचार फाउंडेशनों की ओर मित्रवत नहीं थे उन्हें अनुदान नहीं मिले, हाशिये पर डाल अलग-थलग कर दिया गया और उनके पाठ्यक्रम बंद कर दिए गए। धीरे-धीरे एक खास तरह की सोच- एकमात्र सर्वआच्छादित और अत्यंत एकांगी आर्थिक विचारधारा की छत के नीचे सहिष्णुता और बहुसंस्कृतिवाद (जो क्षण भर में नस्लवाद, उन्मत्त राष्ट्रवाद, जातीय उग्रराष्ट्रीयता, युद्ध भड़काऊ इस्लामोफोबिया में बदल जाता है) का भुरभुरा और सतही दिखावा – विमर्श पर हावी होने लगा। ऐसा इस हद तक हुआ कि अब उसे एक विचारधारा के तौर पर देखा ही नहीं जाता। यह एक डीफॉल्ट पोजीशन बन गई है, एक प्राकृतिक अवस्था। उसने सामान्य स्थिति में घुसपैठ कर ली, साधारणता को उपनिवेशित कर लिया और उसे चुनौती देना यथार्थ को चुनौती देने जितना बेतुका या गूढ़ प्रतीत होने लगा। यहां से ‘और कोई विकल्प नहीं’ तक तुरंत पहुंचना एक आसान कदम था।
    शुक्र है ऑक्युपाइ आंदोलन का कि अब जाकर अमेरिकी सड़कों और विश्वविद्यालयीन परिसरों में दूसरी भाषा नजऱ आई है। इस विपरीत परिस्थिति में ‘क्लास वार’ और ‘हमें आपके अमीर होने से दिक्कत नहीं, पर हमारी सरकार को खरीद लेने से दिक्कत है’ लिखे हुए बैनर उठाये छात्रों को देखना लगभग अपने आप में इंकलाब है।
    अपनी शुरुआत के एक सदी बाद कॉर्पोरेट परोपकार कोका कोला की मानिंद हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है। अब करोड़ों गैर-लाभ संस्थाएं हैं, जिनमें बहुत सारी जटिल वित्तीय नेटवर्क के द्वारा बड़े फाउंडेशनों से जुड़ी हुई हैं। इन सारी संस्थाओं को मिलाकर इस ‘स्वतंत्र’ सेक्टर की कुल परिसंपत्ति 45,000 करोड़ डॉलर है। उनमें सबसे बड़ा है बिल गेट्स फाउंडेशन (2,100 करोड़ डॉलर), उसके बाद लिली एन्डाउमेंट (1,600 करोड़ डॉलर) और द फोर्ड फाउंडेशन (1,500 करोड़ डॉलर)।
    जब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने संरचनात्मक समायोजन या स्ट्रक्चरल एड्जस्टमेंट्स के लिए दबाव बनाया और सरकारों से स्वास्थ्य, शिक्षा, शिशु पालन और विकास के लिए सरकारी खर्च जबरदस्ती कम करवाया, तो एनजीओ सामने आये। सबकुछ के निजीकरण का मतलब सबकुछ का एनजीओकरण भी है। जिस तरह नौकरियां और आजीविकाएं ओझल हुई हैं, एनजीओ रोजगार का प्रमुख स्रोत बन गए हैं, उन लोगों के लिए भी जो उनकी सच्चाई से वाकिफ हैं। जरूरी नहीं कि सारे एनजीओ खराब हों। लाखों एनजीओ में से कुछ उत्कृष्ट और रैडिकल काम कर रहे हैं और सभी एनजीओ को एक ही तराजू से तौलना हास्यास्पद होगा। परन्तु कॉर्पोरेट या फाउंडेशनों से अनुदान प्राप्त एनजीओ वैश्विक वित्त की खातिर प्रतिरोध आंदोलनों को खरीदने का तरीका बन गए हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे शेयरहोल्डर कंपनियों के शेयर खरीदते हैं और फिर उन्हें अंदर से नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। वे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र अथवा सेंट्रल नर्वस सिस्टम के बिंदुओं की तरह विराजमान हैं, उन रास्तों की तरह जिन पर वैश्विक वित्त प्रवाहित होता है। वे ट्रांसमीटरों, रिसीवरों, शॉक एब्जॉर्बरों की तरह काम करते हैं, हर आवेग के प्रति चौकस होते हैं, सावधानी बरतते हैं कि मेजबान देश की सरकारों को परेशानी न हो। (फोर्ड फाउंडेशन जिन संस्थाओं को पैसा देता है उनसे प्रतिज्ञापत्र पर दस्तखत करवाता है जिनमें ये सब बातें होती हैं)। अनजाने में (और कभी-कभी जानबूझकर), वे जासूसी चौकियों की तरह काम करते हैं, उनकी रपटें और कार्यशालाएं और दीगर मिशनरी गतिविधियां और अधिक सख्त होते राज्यों की और अधिक आक्रामक होती निगरानी व्यवस्था को आंकड़े पहुंचाते हैं। जितना अशांत क्षेत्र होगा, उतने अधिक एनजीओ वहां काम करते पाए जायेंगे।
    शरारती ढंग से जब सरकार या कॉर्पोरेट प्रेस नर्मदा बचाओ आंदोलन या कुडनकुलम आणविक संयंत्र के विरोध जैसे असली जनांदोलनों की बदनामी का अभियान चलाना चाहते हैं, तो वे आरोप लगाते हैं कि ये जनांदोलन ‘विदेशी वित्तपोषित’ प्राप्त एनजीओ हैं। उन्हें भली-भांति पता है कि अधिकतर एनजीओ को, खासकर जिन्हें अच्छी राशि मिलती है, को कॉर्पोरेट वैश्वीकरण को बढ़ावा देने का आदेश मिला हुआ है न कि उसमें रोड़े अटकाने का।
    अपने अरबों डॉलर के साथ इन एनजीओ ने दुनिया में अपनी राह बनाई है, भावी क्रांतिकारियों को वेतनभोगी एक्टिविस्टों में बदलकर, कलाकारों, बुद्धिजीवियों और फिल्मकारों को अनुदान देकर, उन्हें हौले से फुसलाकर उग्र मुठभेड़ से परे ले जाकर, बहुसंस्कृतिवाद, जेंडर, सामुदायिक विकास की दिशा में प्रवेश कराकर- ऐसा विमर्श जो पहचान की राजनीति और मानव अधिकारों की भाषा में बयां किया जाता है।
    न्याय की संकल्पना का मानव अधिकारों के उद्योग में परिवर्तन एक ऐसा वैचारिक तख्तापलट रहा है जिसमें एनजीओ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मानव अधिकारों का संकीर्ण दृष्टि से बात करना एक अत्याचार-आधारित विश्लेषण की राह बनाता है जिसमें असली सूरत छुपाई जा सकती है और संघर्षरत दोनों पक्षों को- मसलन, माओवादी और भारत सरकार, या इजराइली सेना और हमास- दोनों को मानव अधिकारों के उल्लंघन के नाम पर डांट पिलाई जा सकती है। खनिज कॉर्पोरेशनों द्वारा जमीन कब्जाना या इजरायली राज्य द्वारा फिलिस्तीनी भूमि को कब्जे में करना, ऐसी बातें फुटनोट्स बन जाती हैं जिनका विमर्श से बहुत थोड़ा संबंध होता है। कहने का मतलब यह नहीं कि मानव अधिकारों की कोई अहमियत नहीं। अहमियत है, पर वे उतना अच्छा प्रिज्म नहीं हैं जिसमें से हमारी दुनिया की भयानक नाइंसाफियों को देखा जाए या किंचित भी समझा जाए।
    नारीवाद का भटकाव
    एक और वैचारिक तख्ता पलट का संबंध नारीवादी आंदोलन में फाउंडेशनों की सहभागिता से है। भारत में ज्यादातर ‘अधिकृत’ नारीवादी और महिलाओं के संगठन क्यों 90,000 सदस्यीय क्रांतिकारी महिला आदिवासी संगठन जैसे संगठनों से सुरक्षित दूरी बनाये रखते हैं जो अपने समुदायों में पितृसत्ता और दंडकारण्य के जंगलों में खनन कॉर्पोरेशनों द्वारा हो रहे विस्थापन के खिलाफ लड़ रहे हैं? ऐसा क्यों है कि लाखों महिलाओं की उस भूमि से बेदखली और निष्कासन, जिसकी वे मालिक हैं और जिस पर उन्होंने मेहनत की है, एक महिलावादी मुद्दा नहीं है?
    उदारवादी नारीवादी आंदोलन के जमीन से जुड़े साम्राज्यवाद-विरोधी और पूंजीवाद-विरोधी जनांदोलनों से अलग होने की शुरुआत फाउंडेशनों की दुष्टता भरी चालों से नहीं हुई। यह शुरुआत साठ और सत्तर के दशक में हुए महिलाओं के तेजी से हो रहे रैडिकलाइजेशन के अनुरूप बदलने और उसे समायोजित करने में उस दौर के आंदोलनों की असमर्थता से हुई। हिंसा और अपने पारंपरिक समाजों में यहां तक कि वामपंथी आंदोलनों के तथाकथित प्रगतिशील नेताओं में मौजूद पितृसत्ता को लेकर बढ़ती अधीरता को पहचानने में और उसे सहारा और आर्थिक सहयोग देने हेतु आगे आने में फाउंडेशनों ने बुद्धिमानी दिखाई। भारत जैसे देश में ग्रामीण और शहरी वर्गीकरण में फूट भी थी। ज्यादातर रैडिकल और पूंजीवाद-विरोधी आंदोलन ग्रामीण इलाकों में स्थित थे, जहां महिलाओं की जिंदगी पर पितृसत्ता का व्यापक राज चलता था। शहरी महिला एक्टिविस्ट जो इन आंदोलनों (जैसे नक्सली आंदोलन) का हिस्सा बनीं, वे पश्चिमी महिलावादी आंदोलन से प्रभावित और प्रेरित थीं और मुक्ति की दिशा में उनकी अपनी यात्राएं अक्सर उसके विरुद्ध होतीं जिसे उनके पुरुष नेता उनका कर्तव्य मानते थे: यानी ‘आम जनता’ में घुल-मिल जाना। बहुत सी महिला एक्टिविस्ट अपने जीवन में होने वाले रोजमर्रा के उत्पीडऩ और भेदभाव, जो उनके अपने कामरेडों द्वारा भी किए जाते थे, को खत्म करने के लिए ‘क्रांति’ तक रुकने के लिए तैयार नहीं थीं। लैंगिक बराबरी को वे क्रांतिकारी प्रक्रिया का मुकम्मल, अत्यावश्यक, बिना किसी किस्म की सौदेबाजी वाला हिस्सा बनाना चाहती थीं न कि क्रांति के उपरान्त का वायदा। समझदार हो चुकीं, क्रोधित और मोहभंग में महिलाएं दूर हटने लगीं और समर्थन और सहारे के दूसरे माध्यम तलाशने लगीं। परिणामत: अस्सी का दशक खत्म होते-होते, लगभग उसी समय जब भारतीय बाजारों को खोल दिया गया था, भारत जैसे देश में उदारवादी महिलावादी आंदोलन का बहुत ज्यादा एनजीओकरण हो गया था। इन में से बहुत से एनजीओ ने समलैंगिक अधिकारों, घरेलू हिंसा, एड्स और देह व्यापार करने वालों के अधिकारों को लेकर बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया है। मगर यह उल्लेखनीय है कि उदार नारीवादी आंदोलन नई आर्थिक नीतियों के विरोध में आगे नहीं आये हैं, बावजूद इसके कि महिलाएं इनसे और भी ज्यादा पीड़ित हुई हैं। धन वितरण को हथियार की तरह इस्तेमाल करके, फाउंडेशन ‘राजनीतिक’ गतिविधि’ क्या होनी चाहिए इसको काफी हद तक निर्धारित करने में सफल रहे हैं। फाउंडेशनों के अनुदान संबंधी सूचनापत्रों में आजकल बताया जाता है कि किन बातों को महिलाओं के ‘मुद्दे’ माना जाए और किन को नहीं।
    महिलाओं के आंदोलन के एनजीओकरण ने पश्चिमी उदार नारीवाद को (सबसे ज्यादा वित्तपोषित होने के कारण) नारीवाद क्या होता है का झंडाबरदार बना दिया है। लड़ाइयां, हमेशा की तरह, महिलाओं की देह को लेकर लड़ी गईं, एक सिरे पर बोटोक्स को खींच कर और दूसरे पर बुर्के को। (और फिर वे भी हैं जिन पर बोटोक्स और बुर्के की दोहरी मार पड़ती है।) जब महिलाओं को जबरदस्ती बुर्के से बाहर लाने की कोशिश की जाती है, जैसा कि हाल ही में फ्रांस में हुआ, बजाय यह करने के कि ऐसी परिस्थितियां निर्मित की जाएं कि महिलाएं खुद चुनाव कर पाएं कि उन्हें क्या पहनना है और क्या नहीं, तब बात उसे आजाद करने की नहीं उसके कपड़े उतारने की हो जाती है। यह अपमान और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का काम हो जाता है। बात बुर्के की नहीं है। बात जबरदस्ती की है। महिलाओं को जबरदस्ती बुर्के से बाहर निकालना वैसा ही है जैसे उन्हें जबरदस्ती बुर्का पहनाना। जेंडर को इस तरह देखना, मतलब सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संदर्भ के बिना, उसे पहचान का मुद्दा बना देता है, सिर्फ पहनावे और दिखावे की चीजों की लड़ाई। यही वह था जिसने अमेरिकी सरकार को 2001 में अफगानिस्तान पर हमला करते समय पश्चिमी महिलावादी समूहों की नैतिक आड़ लेने का मौका दिया। अफगानी औरतें तालिबान के राज में भयानक मुश्किलों में थीं (और हैं)। मगर उन पर बम बरसा कर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला था।
    एनजीओ जगत में, जिसने अपनी अनोखी दर्दनिवारक भाषा तैयार कर ली है, सब कुछ एक विषय बन गया है, एक अलग, पेशेवरी, विशेष अभिरुचि वाला मुद्दा। सामुदायिक विकास, नेतृत्व विकास, मानव अधिकार, स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रजननीय अधिकार, एड्स, एड्स से संक्रमित अनाथ बच्चे- इन सबको अपने-अपने कोटर में हवाबंद कर दिया गया है और जिनके अपने-अपने विस्तृत और स्पष्ट अनुदान नियम हैं। फंडिंग ने एकजुटता को इस तरह टुकड़े-टुकड़े कर दिया है जैसा दमन कभी नहीं कर पाया। गरीबी को भी, महिलावाद की तरह, पहचान की समस्या के तौर पर गढ़ा जाता है। मानो गरीब अन्याय से तैयार नहीं हुए बल्कि वे कोई खोई हुई प्रजाति हैं जो अस्तित्व में हैं, और जिनका अल्पकालिक बचाव समस्या निवारण तंत्र (एनजीओ द्वारा व्यक्तिगत आपसी आधार पर संचालित) द्वारा किया जा सकता है और दीर्घकालिक बचाव सुशासन या गुड गवर्नंस से होगा। वैश्विक कॉर्पोरेट पूंजीवाद के शासनकाल में यह बोल कर बताने की जरूरत नहीं।
    गरीबी की चमक
    भारतीय गरीबी, जब भारत ‘शाइन’ कर रहा था उस दौरान कुछ थोड़े वक्त के नेपथ्य में चले जाने के बाद , फिर से कला के क्षेत्र में आकर्षक विषय के तौर पर लौट आई है, इसका नेतृत्व स्लमडॉग मिलियनेयर जैसी फिल्में कर रही हैं। गरीबों, उनकी गजब की जीजीविषा और गिरकर उठने की क्षमता की इन कहानियों में कोई खलनायक नहीं होते – सिवाय छोटे खलनायकों के जो नेरेटिव टेंशन और स्थानिकता का पुट देते हैं। इन रचनाओं के लेखक पुराने जमाने के नृशास्त्रियों के आज के समानधर्मा जैसे हैं, जो ‘जमीन’ पर काम करने के लिए, अज्ञात की अपनी साहसिक यात्राओं के लिए सराहे जाते और सम्मान पाते हैं। आप को इन तरीकों से अमीरों की जांच-परख शायद ही कभी देखने को मिले।
    ये पता कर लेने के बाद कि सरकारों, राजनीतिक दलों, चुनावों, अदालतों, मीडिया और उदारवादी विचार का बंदोबस्त किस तरह किया जाये, नव-उदारवादी प्रतिष्ठान के सामने एक और चुनौती थी: बढ़ते असंतोष, ‘जनता की शक्ति’ के खतरे से कैसे निबटा जाए? उसे वश में किया जाए? विरोधकर्ताओं को पालतुओं में कैसे बदलें? जनता के क्रोध को किस तरह खींचा जाए और अंधी गलियों की ओर मोड़ दिया जाये?
    इस मामले में भी फाउंडेशनों और उनके आनुषंगिक संगठनों का लंबा और सफल इतिहास है। साठ के दशक में अमेरिका में अश्वेतों के सिविल राइट्स मूवमेंट (नागरिक अधिकार या समानता के आंदोलन) की हवा निकालना और उसे नरम करने और ‘ब्लैक पावर’ (अश्वेत शक्ति)के ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ (अश्वेत पूंजीवाद) में यशस्वी रूपांतरण में उनकी भूमिका इस बात का प्रमुख उदाहरण है।
    जे डी रॉकफेलर के आदर्शों के अनुसार रॉकफेलर फाउंडेशन ने मार्टिन लूथर किंग सीनियर (मार्टिन लूथर किंग जूनियर के पिता) के साथ मिलकर काम किया। मगर स्टूडेंट नॉनवायलेंट कोआर्डिनेशन कमेटी (एसएनसीसी या छात्र अहिंसक समन्वय समिति) और ब्लैक पैंथर्स (काले चीते) जैसे अधिक आक्रामक संगठनों के उभरने के बाद उनका प्रभाव कम हो गया। फोर्ड और रॉकफेलर फाउंडेशन दाखिल हुए। 1970 में उन्होंने अश्वेतों के ‘नरम’ संगठनों को डेढ़ करोड़ डॉलर दिए। यह लोगों को अनुदान, फेलोशिप, छात्रवृत्तियां, पढ़ाई छोड़ चुके लोगों के लिए रोजगार प्रशिक्षण कार्यक्रम और कालों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों के लिए प्रारंभिक धन के रूप में मिले। दमन, आपसी झगड़े और पैसों के जाल ने रेडिकल अश्वेत आंदोलन को धीरे-धीरे कुंद कर दिया।
    मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, नस्लवाद और वियतनाम युद्ध के निषिद्ध संबंध को चिह्नित किया था। परिणामस्वरूप उनकी हत्या के बाद उनकी स्मृति तक सुव्यवस्था के लिए विषभरा खतरा बन गई। फाउंडेशनों और कॉर्पोरेशनों ने उनकी विरासत को नया रूप देने के लिए काफी मेहनत की ताकि वह मार्केट-फ्रेंडली स्वरूप में फिट हो सके। फोर्ड मोटर कंपनी, जनरल मोटर्स, मोबिल, वेस्टर्न इलेक्ट्रिक, प्रॉक्टर एंड गैंबल, यूएस स्टील, मोंसैंटो और कई दूसरों ने मिलकर 20 लाख डॉलर के क्रियाशील अनुदान के साथ द मार्टिन लूथर किंग जूनियर सेंटर फॉर नॉनवाइलेंट सोशल चेंज (मार्टिन लूथर किंग जूनियर अहिंसक सामाजिक बदलाव केंद्र) की स्थापना की। यह सेंटर किंग पुस्तकालय चलाता है और नागरी अधिकार आंदोलन के पुरालेखों का संरक्षण करता है। यह सेंटर जो बहुत सारे कार्यक्रम चलाता है उनमें कुछ प्रोजेक्ट ऐसे रहे हैं जिनमें उन्होंने ‘अमेरिकी रक्षा विभाग (यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस), आम्र्ड फोर्सेस चैप्लेंस बोर्ड (सशस्त्र सेना पुरोहित बोर्ड) और अन्यों के साथ मिलकर काम किया है’। यह मार्टिन लूथर किंग जूनियर व्याख्यान माला ‘द फ्री इंटरप्राइज सिस्टम : एन एजेंट फॉर नॉनवाइलेंट सोशल चेंज’ (मुक्त उद्यम व्यवस्था: अहिंसक सामाजिक बदलाव के लिए एक कारक) विषय पर सहप्रायोजक था।
    ऐसा ही तख्तापलट दक्षिण अफ्रीका के रंग-भेद विरोधी संघर्ष में करवाया गया। 1978 में रॉकफेलर फाउंडेशन ने दक्षिण अफ्रीका के प्रति अमेरिकी नीति को लेकर एक अध्ययन आयोग का गठन किया। रिपोर्ट ने अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) में सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव के बारे चेताया और कहा कि सभी नस्लों के बीच राजनीतिक सत्ता की सच्ची हिस्सेदारी हो, यही अमेरिकी के सामरिक और कॉर्पोरेट हितों (अर्थात दक्षिण अफ्रीका के खनिजों तक पहुंच) के लिए शुभ यही होगा।
    फाउंडेशनों ने एएनसी की सहायता करना शुरू कर दिया। जल्द ही एएनसी स्टीव बीको की ब्लैक कॉन्शसनेस मूवमेंट (अश्वेत चेतना आंदोलन) जैसे अधिक रैडिकल आंदोलनों पर चढ़ बैठी और उन्हें कमोबेश खत्म कर के छोड़ा। जब नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने तो उन्हें जीवित संत घोषित कर दिया गया, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह 27 साल जेल में बिता चुके स्वतंत्रता सेनानी थे बल्कि इसलिए कि उन्होंने वाशिंगटन समझौते को पूरी तरह स्वीकार कर लिया था। एएनसी के एजेंडे से समाजवाद पूरी तरह गायब हो गया। दक्षिण अफ्रीका के बहुप्रशंसित महान ‘शांतिपूर्ण परिवर्तन’ का मतलब था कोई भूमि सुधार नहीं, कोई क्षतिपूर्ति नहीं, दक्षिण अफ्रीका की खानों का राष्ट्रीयकरण भी नहीं। इसकी जगह हुआ निजीकरण और संरचनात्मक समायोजन। मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका के सर्वोच्च नागरी अलंकरण -द ऑर्डर ऑफ गुड होप – से इंडोनेशिया में कम्युनिस्टों के हत्यारे,अपने पुराने समर्थक और मित्र जनरल सुहार्तो को सम्मानित किया। आज दक्षिण अफ्रीका में मर्सिडीज में घूमने वाले पूर्व रैडिकलों और ट्रेड यूनियन नेताओं का गुट देश पर राज करता है। और यह ब्लैक लिबरेशन (अश्वेत मुक्ति) के भरम को हमेशा बनाये रखने के लिए काफी है।
    दलित पूंजीवाद की ओर
    अमेरिका में अश्वेत शक्ति का उदय भारत में रैडिकल, प्रगतिशील दलित आंदोलन के लिए प्रेरणा का स्रोत था और दलित पैंथर जैसे संगठन ब्लैक पैंथर जैसे संगठनों की प्रतिबिंबन थे। लेकिन दलित शक्ति भी ठीक उसी तरह नहीं पर लगभग उन्हीं तौर-तरीकों से दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों और फोर्ड फाउंडेशन की खुली मदद से विभाजित और कमजोर कर दी गई है। यह अब दलित पूंजीवाद के रूप में बदलने की ओर बढ़ रही है।
    पिछले साल दिसंबर में इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट थी: ‘दलित इनक्लेव रेडी टू शो बिजऩेस कैन बीट कास्ट’। इसमें दलित इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (डिक्की) के एक सलाहकार को उद्धृत किया गया था। ‘हमारे समाज में दलितों की सभा के लिए प्रधान मंत्री को लाना मुश्किल नहीं है। मगर दलित उद्यमियों के लिए टाटा या गोदरेज के साथ दोपहर के खाने पर या चाय पर एक तस्वीर खिंचवाना एक अरमान होता है – और इस बात का सबूत कि वे आगे बढ़ेहैं,’ उन्होंने कहा। आधुनिक भारत की परिस्थिति को देखते हुए यह कहना जातिवादी और प्रतिक्रियावादी होगा कि दलित उद्यमियों को नामी-गरामी उद्योगपतियों के साथ बैठने (हाई टेबल पर जगह पाने) की कोई जरूरत नहीं। मगर यह अभिलाषा, अगर दलित राजनीति का वैचारिक ढांचा होने लगी तो बड़े शर्म की बात होगी। और इस से उन करोड़ों दलितों को भी कोई मदद नहीं मिलेगी जो अब भी अपने हाथों से कचरा साफ करके जीविका चलाते हैं- अपने सिरों पर आदमी की विष्ठा ढोते हैं।
    वामपंथी आंदोलन की असफलताएं
    फोर्ड फाउंडेशन से अनुदान स्वीकार करने वाले युवा दलित स्कॉलरों के प्रति कठोर नहीं हुआ जा सकता। भारतीय जाति व्यवस्था के मलकुंड से बाहर निकलने का मौका उन्हें और कौन दे रहा है? इस घटनाक्रम का काफी हद तक दोष और शर्मिंदगी दोनों ही भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के सर है जिसके नेता आज भी मुख्यत: ऊंची जातियों से आते हैं। इसने सालों से जाति के सिद्धांत को मार्क्सवादी वर्ग विश्लेषण में जबरदस्ती फिट करने की कोशिश की है। यह कोशिश सिद्धांत और व्यवहार दोनों में ही बुरी तरह असफल रही है। दलित समुदाय और वाम के बीच की दरार पैदा हुई दलितों के दृष्टि संपन्न नेता भीमराव अंबेडकर एवं ट्रेड यूनियन नेता और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य एस.ए.डांगे के बीच के झगड़े से। 1928 में मुंबई में कपड़ा मिल मजदूरों की हड़ताल से अंबेडकर का कम्युनिस्ट पार्टी से मोहभंग शुरू हुआ। तब उन्हें अहसास हुआ कि मेहनतकश वर्ग की एकजुटता के सारे शब्दाडंबरों के बावजूद पार्टी को इस बात से कोई आपत्ति न थी कि बुनाई विभाग से ‘अछूतों’ को बाहर रखा जाता है (और वे सिर्फ कम वेतन वाले कताई विभाग के योग्य माने जाते हैं) इसलिए कि उस काम में धागों पर थूक का इस्तेमाल करना पड़ता था और जिसे अन्य जातियां ‘अशुद्ध’ मानती थीं।
    अंबेडकर को महसूस हुआ कि एक ऐसे समाज में जहां हिंदू शास्त्र छुआछूत और असमानता का संस्थाकरण करते हैं, वहां ‘अछूतों’ के लिए, उनके सामाजिक और नागरी अधिकारों के लिए तत्काल संघर्ष करना उस साम्यवादी क्रांति के इंतजार से कहीं ज्यादा जरूरी था जिसका आश्वासन था। अंबेडकरवादियों और वाम के बीच की दरार की दोनों ही पक्षों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। इसका मतलब यह निकला है कि दलित आबादी के बहुत बड़े हिस्से ने, जो भारत के मेहनतकश वर्ग की रीढ़ है, सम्मान और बेहतरी की अपनी उम्मीदें संविधानवाद, पूंजीवाद और बसपा जैसे राजनीतिक दलों से लगा ली हैं, जो पहचान की राजनीति के उस ब्रांड का पालन करते हैं जो महत्त्वपूर्ण तो है पर दीर्घकालिक तौर पर गतिहीन है।
    अमेरिका में, जैसा कि हमने देखा, कॉर्पोरेट-अनुदानित फाउंडेशनों ने एनजीओ संस्कृति को जन्म दिया। भारत में लक्ष्य बना कर किए जाने वाले कॉर्पोरेट परोपकार की गंभीरतापूर्वक शुरूआत नब्बे के दशक में, नई आर्थिक नीतियों के युग में हुई। स्टार चेंबर की सदस्यता सस्ते में नहीं मिलती। टाटा समूह ने उस जरूरतमंद संस्थान, हार्वर्ड बिजनेस स्कूल, को पांच करोड़ डॉलर और कॉर्नेल विश्वविद्यालय को भी पांच करोड़ डॉलर दान किए। इनफोसिस के नंदन निलकेणी और उनकी पत्नी रोहिणी ने 50 लाख डॉलर येल विश्वविद्यालय के इंडिया इनिशिएटिव को शुरूआती निधि के तौर पर दान किए। महिंद्रा समूह द्वारा अब तक का सबसे बड़ा एक करोड़ डॉलर का अनुदान पाने के बाद हार्वर्ड ह्युमैनिटीज सेंटर का नाम अब महिंद्रा ह्युमैनिटीज सेंटर हो गया है।
    यहां पर जिंदल समूह, जिसके खनन, धातु और ऊर्जा में बड़े निवेश हैं, जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल चलाता है और जल्द ही जिंदल स्कूल ऑफ गवर्नमेंट एंड पब्लिक पॉलिसी शुरू करने वाला है। (फोर्ड फाउंडेशन कांगो में एक विधि महाविद्यालय चलाता है।) इनफोसिस के मुनाफों से मिले पैसे से चलने वाला नंदन नीलकेणी द्वारा अनुदानित द न्यू इंडिया फाउंडेशन समाज विज्ञानियों को पुरस्कार और फेलोशिप देता है। ग्रामीण विकास, गरीबी निवारण, पर्यावरण शिक्षा और नैतिक उत्थान के क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए जिंदल एल्युमिनियम से अनुदान प्राप्त सीताराम जिंदल फाउंडेशन ने एक-एक करोड़ रुपए के पांच नगद पुरस्कारों की घोषणा की है। रिलायंस समूह का ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओ.आर.एफ.), जिसे फिलहाल मुकेश अंबानी से धन मिलता है, रॉकफेलर फाउंडेशन के अंदाज में ढला है। इससे रिसर्च ‘फेलो’ और सलाहकारों के तौर पर गुप्तचर सेवाओं के सेवा निवृत्त एजेंट, सामरिक विश्लेषक, राजनेता (जो संसद में एक दूसरे के खिलाफ होने का नाटक करते हैं), पत्रकार और नीति निर्धारक जुड़े हैं।
    ओ.आर.एफ. के उद्देश्य बड़े साफ-साफ प्रतीत होते हैं: ‘आर्थिक सुधारों के पक्ष में आम सहमति तैयार करने हेतु सहायता करना। ‘ और ‘पिछड़े जिलों में रोजगार निर्मिति और आणविक, जैविक और रसायनिक खतरों का सामना करने के लिए समयोचित कार्यनीतियां बनाने जैसे विविध क्षेत्रों में व्यवहार्य और पर्यायी नीतिगत विकल्प तैयार करके’ आम राय को आकार देना और उसे प्रभावित करना।
    ओ.आर.एफ. के घोषित उद्देश्यों में ‘आणविक, जैविक और रसायनिक युद्ध’ को लेकर अत्यधिक चिंता देखकर मैं शुरू में चक्कर में पड़ गई। मगर उसके ‘संस्थागत सहयोगियों’ की लंबी सूची में रेथियोन और लॉकहीड मार्टिन जैसे नाम देख कर हैरानी कम हुई। ये दोनों कंपनियां दुनिया की प्रमुख हथियार निर्माता हैं। 2007 में रेथियोन ने घोषणा की कि वे अब भारत पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। क्या यह इसलिए है कि भारत के 3,200 करोड़ डॉलर के रक्षा बजट का कुछ हिस्सा रेथियोन और लॉकहीड मार्टिन द्वारा तैयार हथियारों, गाइडेड मिसाइलों, विमानों, नौसेना के जहाजों और निगरानी उपकरणों पर खर्च होगा?
    हथियार क्यों चाहिए?
    हथियारों की जरूरत जंग लडऩे के लिए होती है? या जंगों की जरूरत हथियारों के लिए बाजार तैयार करने के लिए होती है? जो भी हो योरोप, अमेरिका और इजऱाइल की अर्थव्यवस्थाएं बहुत कुछ उनके हथियार उद्योग पर निर्भर हैं। यही वह चीज है जो उन्होंने चीन को आउटसोर्स नहीं की।

    अमेरिका और चीन के बीच के शीत युद्ध में भारत को उस भूमिका के लिए तैयार किया जा रहा है जो रूस के साथ शीत युद्ध में पाकिस्तान ने अमेरिका के सहयोगी के तौर पर निभाई थी। (देख लीजिये पाकिस्तान का हाल क्या हुआ। ) भारत और चीन के बीच के लड़ाई-झगड़ों को जो स्तंभकार और ‘रणनीतिक विश्लेषक’ बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं, देखा जाए तो उनमें से कई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इंडो-अमेरिकन थिंक टैंकों और फाउंडेशनों से जुड़े पाए जायेंगे। अमेरिका के ‘सामरिक सहयोगी’ होने का यह मतलब नहीं कि दोनों राष्ट्राध्यक्ष एक दूसरे को हमेशा दोस्ताना फोन कॉल करते रहें। इस का मतलब है हर स्तर पर सहयोग (हस्तक्षेप)। इसका मतलब है भारत की जमीन पर अमेरिकी स्पेशल फोर्सेस की मेजबानी करना (पेंटागन के एक कमांडर ने हाल ही में बीबीसी से इस बात की पुष्टि की)। इसका अर्थ है गुप्त सूचनाएं साझा करना, कृषि और ऊर्जा-संबंधी नीतियों में बदलाव करना, वैश्विक निवेश हेतु स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्रों को खोलना। इसका अर्थ है खुदरा क्षेत्र को खोलना। इसका मतलब है गैर-बराबर हिस्सेदारी जिसमें भारत को उसके साथी द्वारा मजबूत बांहों में भरकर डांस फ्लोर पर नचाया जा रहा है और उसके नाचने से मना करते ही उसे भस्म कर दिया जाएगा।
    ओ.आर.एफ. के ‘संस्थागत सहयोगियों’ की सूची में आपको रैंड कॉर्पोरेशन, फोर्ड फाउंडेशन, विश्व बैंक, ब्रूकिंग्स इंस्टिट्यूशन (जिनका घोषित मिशन है ‘ऐसी अभिनव एवं व्यावहारिक अनुशंसाएं करना जो तीन वृहत लक्ष्यों को आगे बढ़ाये: अमेरिकी लोकतंत्र को मजबूत करना; सभी अमेरिकियों का आर्थिक और सामाजिक कल्याण, सुरक्षा और अवसर को बढ़ावा देना; और अधिक उदार, सुरक्षित, समृद्ध और सहकारात्मक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था अर्जित करना’। ) उस सूची में आपको जर्मनी के रोजा लक्जमबर्ग फाउंडेशन का नाम भी मिलेगा। (बेचारी रोजा, जिन्होंने साम्यवाद के ध्येय के लिए अपनी जान दी उनका नाम ऐसी सूची में!)
    हालांकि पूंजीवाद प्रतिस्पर्धा पर आधारित होता है, मगर खाद्य श्रंखला के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों ने दिखाया है कि वे सबको मिलाकर चलने और एकजुटता दिखाने में समर्थ हैं। महान पश्चिमी पूंजीपतियों ने फासिस्टों, समाजवादियों, निरंकुश सत्ताधीशों और सैनिक तानाशाहों के साथ धंधा किया है। वे लगातार अपने आप को अनुकूलित कर सकते हैं और नए तरीके निकाल सकते हैं। वे तुरंत विचार करने और अपरिमित नीतिगत चतुराई में माहिर हैं।
    मगर आर्थिक सुधारों के माध्यम से सफलतापूर्वक आगे बढऩे, मुक्त बाजार ‘लोकतंत्र’ बिठाने के लिए लड़ाइयां छेडऩे और देशों पर सैन्य कब्जे जमाने के बावजूद, पूंजीवाद एक ऐसे संकट से गुजऱ रहा है जिसकी गंभीरता अभी तक पूरी तरह सामने नहीं आई है। मार्क्स ने कहा था, ‘ इसलिए बुर्जुआ वर्ग जो उत्पादित करता है, उनमें सबसे ऊपर होते हैं उसकी ही कब्रखोदनेवाले। इनका पतन और सर्वहारा की विजय दोनों समान रूप से अपरिहार्य हैं। ‘

    सर्वहारा वर्ग, जैसा कि मार्क्स ने समझा था, लगातार हमले झेलता रहा है। फैक्टरियां बंद हो गई हैं, नौकरियां छूमंतर हो गई हैं, यूनियनें तोड़ डाली गई हैं। पिछले कई सालों से सर्वहारा को हर संभव तरीके से एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता रहा है। भारत में यह हिंदू बनाम मुस्लिम। हिंदू बनाम ईसाई, दलित बनाम आदिवासी, जाति बनाम जाति, प्रदेश बनाम प्रदेश रहा है। और फिर भी, दुनिया भर में, सर्वहारा वर्ग लड़ रहा है। भारत में दुनिया के निर्धनतम लोगों ने कुछ समृद्धतम कॉर्पोरेशनों का रास्ता रोकने के लिए लड़ाई लड़ी है।
    बढ़ता पूंजीवादी संकट
    पूंजीवाद संकट में है। ट्रिकल-डाउन असफल हो गया है। अब गश-अप भी संकट में है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय आपदा बढ़ती जा रही है। भारत की विकास दर कम होकर 6.9 प्रतिशत हो गई है। विदेशी निवेश दूर जा रहा है। प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय कॉर्पोरेशन पैसों के विशाल ढेर पर बैठे हैं, समझ नहीं आ रहा है कहां पैसा निवेश करें, यह भी समझ नहीं आ रहा कि वित्तीय संकट कैसे खत्म होगा। वैश्विक पूंजी के भीमकाय रथ में यह एक प्रमुख संरचनात्मक दरार है।
    पूंजीवाद के असली ‘गोरकन’ शायद उसके भ्रांतिग्रस्त प्रमुख साबित हों, जिन्होंने विचारधारा को धर्म बना लिया है। उनकी कूटनीतिक प्रदीप्ति के बावजूद उन्हें एक साधारण-सी बात समझने में परेशानी हो रही है: पूंजीवाद धरती को तबाह कर रहा है। विगत संकटों से उसे उबारने वाली दो युक्तियां- जंग और खरीदारी- काम नहीं करने वाली है।
    एंटिला के सामने खड़े होकर मैं देर तक सूर्यास्त होते देखती रही। कल्पना करने लगी कि वह ऊंची मीनार जितनी जमीन से ऊपर है उतनी ही नीचे भी। कि उसमें सत्ताइस-मंजिल लंबा एक सुरंग मार्ग है जो जमीन के अंदर सांप जैसा फैला है। यह भूखों की भांति धरती से संपोषण खींचे जा रही है और उसे धुऐं और सोने में बदल रही है।
    अंबानियों ने अपनी इमारत का नाम एंटिला क्यों रखा? एंटिला एक काल्पनिक द्वीप-समूह का नाम है जिसकी कहानी आठवीं सदी की एक आइबेरियाई किंवदंती से जुड़ी है, जब मुसलमानों ने आइबेरियाई प्रायद्वीपया हिस्पेनिया पर जीत हासिल की, तो वहां राज कर रहे छह विथिगोथिक ईसाई पादरी और उनके पल्लीवासी जहाजों पर चढ़ कर भाग निकले। कई दिन या शायद कई हफ्ते समुद्र में गुजारने के बाद वे एंटिला द्वीप-समूह पर पहुंचे और उन्होंने वहीं बस जाने और नई सभ्यता तैयार करने का फैसला किया। बर्बर लोगों द्वारा शासित अपने देश से पूरी तरह संबंध तोड़ डालने के लिए उन्होंने अपनी नावें जला डालीं।
    अपनी इमारत को एंटिला कहकर, क्या अंबानी अपने देस की गरीबी और गंदगी से संबंध तोड़ डालना चाहते हैं? भारत के सबसे सफल अलगाववादी आंदोलन का क्या यह अंतिम अंक है? मध्यम और उच्च वर्ग का अगल हो कर बाहरी अंतरिक्ष में चले जाना?
    जैसे-जैसे मुंबई में रात उतरने लगी, कड़क लिनन कमीजें पहने और चटर-चटर करते वाकी-टाकी लिए सुरक्षाकर्मी एंटिला के आतंकित करनेवाले फाटकों के आगे नमूदार हुए। रौशनी जगमगाने लगी, शायद भूतों को डराने के लिए। पड़ोसियों की शिकायत है कि एंटिला की तेज रौशनी ने उनकी रात चुरा ली है।शायद वक्त हो गया कि अब हम रात को वापिस हासिल करें।
    (हाशिया ब्लॉगस्पाट से साभार)
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    नेता का अर्थ है- नेत्रों वाला अर्थात जिसके पास अतीत, वर्तमान और भविष्य को देखने, समझने व सुधारने की दृष्टि हो।
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    एक नंबर पैसा से चुनाव जीतना है

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    साक्षात्कार

    हम एक नंबर के पैसे से चुनाव जीत कर दिखाएंगे


    अरविंद केजरीवाल

    आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया है। इन चुनावों को लेकर आम आदमी पार्टी की क्या तैयारी है और दिल्ली की जनता को वे कैसा शासन देना चाहते हैं इस बारे में शुक्रवार प्रतिनिधि नरेन्द्र कुमार वर्मा की उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंशः
    दिल्ली विधानसभा चुनावों को लेकर आपकी पार्टी की रणनीति क्या बिजली-पानी के मुद्दे तक ही सीमित है या आम आदमी की दूसरी प्रमुख समस्याएं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, परिवहन प्रणाली और कानून-व्यवस्था की स्थिति भी आपके घोषणा-पत्र में शामिल है?
    - हमारी पार्टी के घोषणा-पत्र का जो ड्राफ्ट बना है, उसमें भ्रष्टाचार, महंगाई, महिलाओं की सुरक्षा और कानून-व्यवस्था भी अहम मुद्दे हैं। राजनीतिक शक्ति के विकेंद्रीयकरण पर जोर है। हमारे घोषणा-पत्र में यह बात स्पष्ट है कि ऐसे कानून बनाए जाएंगे, जिससे कि ज्यादा से ज्यादा फैसले जनता से पूछ कर लिये जाएं जनता से पूछने की प्रक्रिया यह होगी कि हर नगर निगम के वॉर्ड को दस हिस्सों में बांटा जाएगा और एक हिस्से को कहा जाएगा मोहल्ला। दिल्ली के तीनों नगर निगमों में २७२ वार्ड हैं तो इस तरह २,७२० मोहल्ले बनेंगे। हर महीने हर मोहल्ले की मोहल्ला सभा होगी। मोहल्ला सभा में उस मोहल्ले के मतदाता हिस्सा लेंगे। इसका दिल्ली में हमने पहले सफल परीक्षण भी किया है। हमारी पार्टी के साथ दिल्ली के एक निर्दलीय पार्षद भी जुड़े हैं। उनके साथ हमारी दो सफल मोहल्ला सभाएं हो चुकी हैं। इन सभाओं में दस-बारह हजार लोग थे।
    पहली सभा में इस पार्षद ने लोगों से कहा कि मेरे पास निगम से पत्र आया है जिसमें बताया गया है कि विकास के लिए पचास लाख रुपये का फंड है तो इसे कैसे खर्च किया जाए? पहली मोहल्ला सभा में लोगों ने पार्षद को अपनी-अपनी समस्याएं बतार्इं तो हमें लगा कि इतना पैसा भी कम पड़ जाएगा लेकिन तमाम समस्याओं का हल केवल सवा पांच लाख रुपयों में हो गया। फिर अगली सभा में पार्षद ने कहा कि मेरे फंड से छह गलियां बनी हैं तो आप लोग बताएं कि क्या काम सही हुआ है? लोगों ने पांच गलियों के काम को ठीक बताया लेकिन एक गली के बारे में बताया कि काम सही नहीं हुआ है तो वहीं पर एक समिति बनी और अगली मोहल्ला सभा में निगम के इंजीनियरों और ठेकेदार को मौके पर बुलाया गया, जिन्होंने निरीक्षण करके कहा कि वास्तव में गली सही नहीं बनी है, तो फिर वह गली बनी। तो अगर आम आदमी पार्टी की सरकार बनती है तो हर वॉर्ड और विधानसभा क्षेत्र में मोहल्ला सभा द्वारा ही तय किया जाएगा कि कौन-सा सरकारी प्रोजेक्ट कहां और कैसे बनेगा।
    ऐसा कानून बनाया जाएगा कि मोहल्ले में पड़ने वाले स्कूल, अस्पताल या सामुदायिक केंद्र के कर्मचारी अगर सही ढंग से काम नहीं कर रहे हैं तो मोहल्ला सभा उन्हें सम्मन कर सकती है या उनकी तनख्वाह रोक सकती है। अगर इस तरह का कानून ही बना दिया जाए तो जनता के हाथ में सीधे ताकत आ जाएगी। जो कानून सीधे जनता को प्रभावित करते हैं, उनमें मोहल्ला सभा को शामिल किया जा सकता है जैसे जनलोकपाल कानून बनाना है तो उसका ड्राफ्ट बनाकर सभी मोहल्ला सभाओं के पास भेजिए और उनकी राय लीजिए। इससे कार्यपालिका और विधायिका में जनता का सीधा हस्तक्षेप होगा और जनता जो चाहेगी वही काम होगा। सत्ता के इतने ज्यादा विकेंद्रीकरण से क्या विधायकों और पार्षदों को नहीं लगेगा कि हम किस बात के लिए हैं, हमारी ताकत क्या है? उन्हें लगेगा कि इस तरह तो उनकी सारी शक्तियां छिन जाएंगी?
    - वे हैं किस बात के लिए? वे तो सीधे जनता के प्रतिनिधि हैं। जन प्रतिनिधियों को शक्तिशाली बनाने के लिए थोड़े ही हमारा जनतंत्र बना था। ये तो इन लोगों ने एकदम उल्टा कर दिया है। सारी शक्ति जनता से छीन कर इनके हाथ में सौंप दी है। विधायक या पार्षद के पास कोई पावर नहीं होना चाहिए। वह केवल जनता की बातों को निगम या विधानसभा में लेकर जाए। जनप्रतिनिधि का मतलब ही यह है कि वह जिनका प्रतिनिधित्व करता है, उनकी आवाज को आगे लेकर जाए। जनप्रतिनिधि को तो खुद को शक्तिशाली होना ही नहीं चाहिए। अगर वे शक्तिशाली होते हैं तो यह जनतंत्र का दुर्भाग्य होगा। अगर अपने-अपने इलाके के लोग अपनी समस्याओं के प्रति फैसला लेते हैं तो ८० फीसदी समस्याएं दूर हो जाएंगी।
    देश में न्यायिक सुधारों के बारे में भी आप बात करते रहे हैं। इस दिशा में आपकी पार्टी का क्या रुख है?
    - हां, इस बारे में हमारा कहना है कि न्याय सुलभ और जल्दी मिलना चाहिए, चाहे जितनी भी अदालतें बनानीं पड़ें, बनाई जानी चाहिए, ताकि हर तरह के अपराधों का फैसला मोटे तौर पर छह माह में निपट जाए। किसी भी राज्य की जिम्मेदारी यह होती है कि अपने निवासियों को न्याय व्यवस्था, शिक्षा, रोजगार, पानी, स्वास्थ्य और कानून व्यवस्था दे। अगर वह इन सुविधाओं को नहीं दे पाता तो फिर शासन का क्या मतलब है?
    आपका क्या अनुमान है कि दिल्ली में लोगों को छह माह में न्याय मिल जाएगा इसके लिए कितने न्यायालयों की जरूरत होगी?
    - हमारी पार्टी की एक टीम लगी हुई है। कानूनविद, पूर्व नौकरशाह, तकनीकी विशेषज्ञ, प्रबंध जगत के दिग्गज जैसे ४०० लोगों की एक टीम इन बातों का अध्ययन कर रही है। योगेंद्र यादव अलग-अलग मुद्दों पर उनके साथ समन्वय कर रहे हैं। आपको क्या लगता है कि सचमुच आपकी पार्टी नवंबर तक इस स्थिति में आएगी जो चुनाव के बाद अपनी सरकार बना सके?
    - हमारा तो उद्देश्य दूसरा है। हम कोई सत्ता के लिए तो आए नहीं हैं। हम तो आम आदमी हैं इस देश के। जब भ्रष्टाचार से जनता त्रस्त हो गई तो भ्रष्टाचार के खिलाफ हमने आंदोलन छेड़ा। जब यह लगा कि ये सरकार भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं देने वाली तो हमने यह पार्टी बनाई। यह लड़ाई हमारी नहीं है, जनता की है। हमने अपना कर्तव्य पूरा किया है। अब देखते हैं कि जनता क्या करती है? हमारी पूरी तैयारी है। हम तो जनता पर तन-मन-धन सब कुछ न्योछावर करके बैठे हैं। जनता क्या करेगी, इस बारे में तो कोई कुछ नहीं कह सकता। हम पूरी निष्ठा के साथ अपना काम कर रहे हैं। इस देश की जनता बार-बार इस बात को कहती थी कि ईमानदार लोगों को राजनीति में आना चाहिए तो हमने विकल्प तो दे दिया है। अब जनता तय करे कि उसे यह विकल्प स्वीकार है या नहीं?
    जनता के बीच विश्वास जीतने के लिए राजनीतिक दलों को लंबा वक्त लगाना पड़ता है। दूसरे दलों से अलग रह कर इतने कम वक्त में आप जनता का विश्वास कैसे हासिल करेंगे?
    - अगर हमें भी सत्ता का खेल ही करना होता तो अभी बिजली-पानी के मुद्दे पर हमें भूखे रहने की जरूरत नहीं थी। पिछले साल हम १५ केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ अनशन पर बैठे थे तो वह अनशन करने की जरूरत भी नहीं थी। हमें लगता है कि हमारे और दूसरे दलों के बीच बहुत बड़ा अंतर है। जनता का विश्वास हमारे साथ बढ़ रहा है। हमारे विरोध प्रदर्शनों के दौरान दिल्ली पुलिस के लोग खुद ही कहते हैं कि बीजेपी वालों का प्रदर्शन है एक घंटे में पूरा हो जाएगा लेकिन आम आदमी पार्टी का विरोध प्रदर्शन चलता है तो पुलिस वाले कहते हैं कि ये तो ‘आत्मघाती जत्थे’ हैं। इनसे निबटना बड़ा मुश्किल है। दूसरी पार्टियां प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शित करती हैं। मगर आम आदमी पार्टी वैसा नहीं करती। हम समस्या का समाधान निकालना चाहते हैं। आज भी अगर भारत सरकार जनलोकपाल बिल सही ढंग से पास कर दे तो हम अपनी पार्टी को खत्म कर देंगे। हम यहां पर सत्ता का खेल करने नहीं आए हैं। हम देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के लिए आए हैं। क्या जनलोकपाल विधेयक पास कराना ही आपकी अंतिम मांग है? देश में बहुत से विधेयक बनते हैं और पास भी हो जाते हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं होता? ऐसे में जनलोकपाल कानून बनने से कैसे आपकी पार्टी का उद्देश्य पूरा हो जाएगा?
    - मैंने बहुत कानून पढ़ा है और कानून बनाए भी हैं। अगर किसी कानून के लागू होने में खामियां हैं तो निश्चित रूप से उसकी ड्राफ्टिंग में जानबूझ कर कमियां छोड़ी जाती हैं। हम जब आयकर विभाग में कानून बनाते थे तो हमसे बड़े अफसर कहते थे कि ‘यार’ कुछ कमियां तो छोड़ो, अगर सख्त बना दोगे तो नीचे वाले खाएंगे कैसे?’ यही तो हमारा विवाद था सरकार के साथ। अगर सरकार के ऊपर हम लोकपाल विधेयक छोड़ देते तो वह पास कर देती। वह तो बना कर बैठी है फिर लोग कहते कि कानून तो बना दिया लेकिन सही से लागू नहीं हो रहा। जिस जनलोकपाल का हम ड्राफ्ट बनाकर बैठे हैं, उसका कार्यान्वयन गलत हो ही नहीं सकता। दरअसल जब तक हम सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं करेंगे कोई भी कानून सही ढंग से लागू नहीं हो सकता। हमने सरकार से एक जनलोकपाल मांगा था लेकिन उन्होंने कहा कि न तो हम जनलोकपाल बनाएंगे और न ही भ्रष्टाचार खत्म करेंगे।
    अगर कुछ करना है तो चुनाव जीत कर दिखाओ और कानून बनाओ। फिर हमने तय किया और पार्टी बनाई। अब हम चुनाव लड़ेंगे भी और जीतकर भी दिखाएंगे। एक नंबर के पैसे से लड़कर दिखाएंगे और सच्चाई के बल पर लड़कर दिखाएंगे। हम इस धारणा को भी खत्म करेंगे कि केवल गुंडे ही चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन आज भी हम सरकार को चैलेंज करते हैं कि जनलोकपाल बिल बनाओ हम पार्टी खत्म कर देंगे लेकिन हमें पता है कि वे मानने वाले नहीं हैं, क्योंकि अगर बना दिया तो सारे के सारे जेल जाएंगे।
    अभी आपकी पार्टी का सारा ध्यान दिल्ली पर केंद्रित है। क्या आप अखिल भारतीय स्तर पर आगे चुनाव लड़ने के लिए भी तैयार हैं? क्या लोकसभा चुनावों पर भी अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं?
    - दिल्ली के विधानसभा के चुनावों के नतीजों पर यह सब निर्भर होगा कि लोकसभा चुनावों में हमारी क्या भूमिका होगी। हम चुनाव तो जरूर लड़ेंगे लेकिन कितनी भागीदारी रहेगी और किस-किस हिस्से में लड़ेंगे, यह दिल्ली के नतीजों के बाद तय ही होगा।
    आपके मन में कैसी दिल्ली बनाने का सपना है? एक तो सत्ता के विकेंद्रीकरण वाली दिल्ली बनाने की बात आपने कही है। आपकी दिल्ली आज की दिल्ली से किस तरह अलग होगी?
    - उस दिल्ली में समान विकास होगा। आज आप जो ये बड़े-बड़े फ्लाई ओवर और सड़कें देखते हैं। इनसे पचास मीटर नीचे-या ऊपर जाइए। वह दिल्ली आपको इतनी भयावह लगेगी कि लोग कूड़े के ढेरों पर, नालों के ऊपर रह रहे हैं। पचास फीसदी दिल्ली को आज पीने का पानी नहीं मिलता। हमारे प्रधानमंत्री हर साल लाल किले से कहते हैं कि हम हर गांव में लोगों को पीने का पानी देंगे। देश के गांवों में वे न जाने कब पानी देंगे, आजादी के ६५ साल के बाद दिल्ली तक को भी पीने का पानी नहीं दे पाए। हम साफ-सुथरी दिल्ली सबके सामान विकास की दिल्ली देंगे। हम हर मोहल्ले का सर्वांगीण विकास करेंगे। लोगों को उनकी मूलभूत सुविधाएं मिलेंगी, लोगों को हर सरकारी सुविधा का लाभ मिलेगा।
    देश में इस तरह की राजनीतिक परिपाटी देखने को मिलती है कि छोटी पार्टियों के विधायक चुनाव जीतने के बाद बड़ी पार्टी में चले जाते हैं। आपने अपनी पार्टी के ढांचे में क्या व्यवस्था की है कि ऐसी स्थिति में आपके विधायक इधर से उधर न हो पाएं?
    - यह एक काल्पनिक सवाल है। एक बार आप चुनाव होने दीजिए, नतीजे आपको अपने आप बता देंगे कि क्या होगा। जनतंत्र के अंदर राजनीतिक दल अपने विधायकों के साथ ऐसा कोई एग्रीमेंट नहीं कर सकते कि वे ऐसा नहीं करेंगे। ऐसा कोई कानून नहीं है लेकिन यह समय बताएगा कि आगे क्या होगा।
    भाजपा अक्सर यह आरोप लगाती है कि अरविंद केजरीवाल के पीछे कांग्रेस की शक्ति है, क्योंकि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित उनके बहुत अच्छे दोस्त रहे हैं और भाजपा को पीछे करने के लिए ही कांग्रेस उन्हें आगे बढ़ा रही है?
    - आपने पिछले साल दिग्विजय सिंह के बयान सुने थे। वे कहते थे कि हम आरएसएस की बी टीम हैं। अब ये कह रहे हैं कि हम कांग्रेस की बी टीम हैं। तो पहले ये दोनों मिलकर तय कर लें कि हम किसकी बी टीम हैं? यह कह रहे हैं कि हम भाजपा के वोट काटेंगे तो दिल्ली के पहले तीन विधानसभा चुनावों में तो आम आदमी पार्टी नहीं थी फिर बीजेपी क्यों हार गई? तो सच्चाई यह है कि दिल्ली के अंदर शीला दीक्षित को हराने की बीजेपी की औकात ही नहीं है। बीजेपी दिल्ली के अंदर बहुत कमजोर पार्टी है। उसे हराने के लिए किसी और की जरूरत नहीं है। इसके लिए बीजेपी खुद ही सक्षम है।
    आज उसके छह नेता मुख्यमंत्री के दावेदार हैं और सब एक दूसरे को हराने में लगे हुए हैं। उनमें से चार ने हमसे कहा कि अगर फलां को मुख्यमंत्री का दावेदार बना दिया गया तो हम उसे जीतने नहीं देंगे। लिहाजा ये सब एक दूसरे को हराने में लगे हैं। इस बार भी बीजेपी, कांग्रेस को कोई शिकस्त दे पाएगी, ऐसा नजर नहीं आता। दूसरी बड़ी बात यह कि शीला दीक्षित दिल्ली के अंदर भ्रष्टाचार का एक बड़ा प्रतीक बन गई हैं। पिछले तीन चुनावों में बीजेपी ने जानबूझ कर शीला के खिलाफ कमजोर उम्मीदवार उतारा तो आप खुद देख लीजिए कि सेटिंग किसके बीच है? अब ये अगर कहते हैं कि हम संदीप दीक्षित के दोस्त हैं तो मैं आपको बता दूं कि रॉबर्ट वाड्रा का केस किसने उजागर किया था? वह मैंने उजागर किया था। बीजेपीवालों के पास दो साल पहले रॉबर्ट वाड्रा के वो सारे कागजात मौजूद थे तो मैंने उजागर किए, लेकिन इन दोनों के बीच सैंटिग हो गई थी कि तुम हमारे दामाद (रंजन भट्टाचार्य) को बचाओ, हम तुम्हारे दामाद (रॉबर्ट वाड्रा) को बचाएंगे। इसीलिए ये दोनों आम आदमी पार्टी से घबराए हुए हैं कि अब आम आदमी पार्टी इन्हें शिकस्त देगी। इसलिए ये दोनों पार्टियां आम आदमी पार्टी के ऊपर इस तरह के आरोप लगाती हैं।
    दिल्ली के चुनावों में झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाकों में रहने वाले मतदाता बहुत बड़ी भूमिका तय करते हैं। ऐसा आरोप लगते रहते हैं कि बड़ी पार्टियां वहां शराब और पैसा बांट कर वोट हासिल करती हैं? इस प्रवृत्ति को आप कैसे रोकेंगे?
    - वास्तव में यह बहुत बड़ा चैलेंज है आम आदमी पार्टी के लिए। पैसा और शराब की चुनौती से तो निबटना ही है, साथ ही इन इलाकों के लोगों में जानकारी और साक्षरता बहुत कम है। महंगार्ई से सारे दुखी हैं लेकिन इन इलाके के लोगों को यह नहीं पता है कि महंगाई के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है। इतने कम समय में उन्हें राजनीतिक तौर पर जागरूक करना हमारे लिए वास्तव में चुनौती है। अभी बिजली-पानी के आंदोलन के दौरान हमारे कार्यकर्ता झुग्गी-बस्तियों के दस लाख घरों में गए थे तो हमें उन लोगों से थोड़ी-बहुत उम्मीद तो है कि वे जागरूक हुए हैं। इन लोगों को ये दोनों पार्टियां जागरूक नहीं होने देतीं।
    कितने कार्यकर्ता अभी आपके साथ जुड़े हैं और किस-किस वर्ग के लोग स्वयंसेवक के तौर पर काम करने के लिए आपके पास आ रहे हैं?
    - सात हजार लड़के-लड़कियां दिल्ली में लगे हुए हैं। ये सारे अवैतनिक हैं। सभी स्वयंसेवक के तौर पर काम कर रहे हैं। सारे बाहर से आए हुए हैं। सब उच्च शिक्षित हैं। सभी में व्यवस्था बदलने का जज्बा है। इन लोगों को अरविंद से मोहब्बत नहीं है बल्कि उन्हें एक आशा दिखाई दे रही है कि देश जरूर बदलेगा। दिल्ली के हर पच्चीस घर के बाद हम एक स्वयंसेवक तैयार कर रहे हैं, जिसे स्थानीय प्रभारी कहा जाएगा। अब तक हमारे पास डेढ़ लाख लोग स्थानीय प्रभारी के तौर पर जुड़ चुके हैं। कोई अगर हमसे पूछता है कि अगर आपकी पार्टी से जुड़ेंगे तो क्या फायदा होगा तो हम कहते हैं कि डंडे मिलेंगे, पुलिस की वाटर कैनन झेलनी पड़ेंगी, जेल जाना पड़ेगा, परिवार बर्बाद हो जाएगा। फिर भी लोगों का जज्बा देखिए, लोग हमारे साथ जुड़ रहे हैं।
    दिल्ली के चुनाव में एक लॉबी ऐसी भी है, जो अवैध कॉलोनियां बसाती है। उसमें बिल्डर और प्रॉपर्टी डीलर शामिल हैं। इन लोगों को दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों का आश्रय मिलता है। इनसे आम आदमी पार्टी कैसे निबटेगी?
    - ये ही नहीं बहुत सारी लॉबियां हैं इस बार। बिजली कंपनियां किसी भी हाल में नहीं चाहेंगी कि आम आदमी पार्टी जीते। पानी माफिया बहुत बड़ा है। दिल्ली में सैकड़ों वाटर टैंकरों की कंपनियां हैं, जिन्हें बीजेपी और कांग्रेस के नेता चला रहे हैं। दिल्ली में पानी की कमी नहीं है। इन्हीं नेताओं की कंपनियां पानी की चोरी में लगी हैं इसलिए पानी की समस्या है। इस तरह के माफिया नहीं चाहते कि आम आदमी पार्टी सत्ता में आए। बीजेपी या कांग्रेस में से कोई भी आ जाए, इन्हें किसी से कोई परेशानी नहीं है क्योंकि इनका धंधा चलता रहेगा।
    क्या ऐसी स्थिति में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ हिंसा का खतरा मौजूद है?
    - हां बिल्कुल हो सकती है। हम उसके लिए भी तैयार हैं। हिंसा न हो, इसकी जिम्मेदारी सरकार की है। आम आदमी के कार्यकर्ता जो सफेद टोपी पहनते हैं उसकी क्या अहमियत है? पहले उस पर लिखा होता था ‘मैं अण्णा हूं’ क्या अण्णा आज आपसे दूर हैं? कभी लगता है दूर हैं, कभी लगता है नजदीक हैं?
    - गांधी टोपी अण्णा आंदोलन से ही आई। हमने वहीं से इसे लिया लेकिन अण्णा ने कह दिया कि मेरे नाम का इस्तेमाल नहीं होगा तो हमने उस पर लिख दिया कि ‘मैं आम आदमी हूं।’ वैसे भी टोपी मूल्यों की प्रतीक है। अगर हमारे किसी कार्यकर्ता को सिगरेट भी पीनी होती है तो वह टोपी उतार कर सिगरेट पीता है। लोग टोपी की इज्जत करते हैं। रही बात अण्णा जी की तो अण्णा हमारे साथ हैं। अण्णा के साथ हमारे कोई मतभेद नहीं हैं। उनके साथ हमारे मतभेद हो भी नहीं सकते। वे दस बार डांट लें तो भी वे हमें स्वीकार हैं।
    आपने पिछले दिनों चार-पांच बड़े-बड़े ‘खुलासे’ किए थे। उस सिलसिले को आपने अचानक क्यों रोक दिया? - कोई ऐसा बड़ा केस अभी आया नहीं। अगर आता है तो मैं कल जनता के बीच फिर उसे उजागर कर दूंगा।

    हिन्दी पत्रकारिता दिवस

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    आज हिन्दी पत्रकारिता दिवस है। 184 साल हो गए। मुझे लगता है कि हिन्दी पत्रकार में अपने कर्म के प्रति जोश कम है। तमाम बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। उदंत मार्तंड इसलिए बंद हुआ कि उसे चलाने लायक पैसे पं जुगल किशोर शुक्ल के पास नहीं थे। आज बहुत से लोग पैसा लगा रहे हैं। यह बड़ा कारोबार बन गया है। जो हिन्दी का क ख ग नहीं जानते वे हिन्दी में आ रहे हैं, पर मुझे लगता है कि कुछ खो गया है। क्या मैं गलत सोचता हूँ?

    पिछले 184 साल में काफी चीजें बदलीं हैं। हिन्दी अखबारों के कारोबार में काफी तेज़ी आई है। साक्षरता बढ़ी है। पंचायत स्तर पर राजनैतिक चेतना बढ़ी है। साक्षरता बढ़ी है। इसके साथ-साथ विज्ञापन बढ़े हैं। हिन्दी के पाठक अपने अखबारों को पूरा समर्थन देते हैं। महंगा, कम पन्ने वाला और खराब कागज़ वाला अखबार भी वे खरीदते हैं। अंग्रेज़ी अखबार बेहतर कागज़ पर ज़्यादा पन्ने वाला और कम दाम का होता है। यह उसके कारोबारी मॉडल के कारण है। आज कोई हिन्दी में 48 पेज का अखबार एक रुपए में निकाले तो दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया का बाज़ा भी बज जाए, पर ऐसा नहीं होगा। इसकी वज़ह है मीडिया प्लानर।

    कौन हैं ये मीडिया प्लानर? ये लोग माडिया में विज्ञापन का काम करते हैं, पर विज्ञापन देने के अलावा ये लोग मीडिया के कंटेंट को बदलने की सलाह भी देते हैं। चूंकि पैसे का इंतज़ाम ये लोग करते हैं, इसलिए इनकी सुनी भी जाती है। इसमें ग़लत कुछ नहीं। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। पर सूचना के माध्यमों की अपनी कुछ ज़रूरतें भी होतीं हैं। उनकी सबसे बड़ी पूँजी उनकी साख है। यह साख ही पाठक पर प्रभाव डालती है। जब कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा करने लगता है, तब वह उस  वस्तु को खरीदने के बारे में सोचना शुरू करता है, जिसका विज्ञापन अखबार में होता है। विज्ञापन छापते वक्त भी अखबार ध्यान रखते हैं कि वह विज्ञापन जैसा लगे। सम्पादकीय विभाग विज्ञापन से अपनी दूरी रखते हैं। यह एक मान्य परम्परा है।



    मार्केटिंग के महारथी अंग्रेज़ीदां भी हैं। वे अंग्रेज़ी अखबारों को बेहतर कारोबार देते हैं। इस वजह से अंग्रेज़ी के अखबार सामग्री संकलन पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं। यह भी एक वात्याचक्र है। चूंकि अंग्रेजी का कारोबार भारतीय भाषाओं के कारोबार के दुगने से भी ज्यादा है, इसलिए उसे बैठने से रोकना भी है। हिन्दी के अखबार दुबले इसलिए नहीं हैं कि बाज़ार नहीं चाहता। ये महारथी एक मौके पर बाज़ार का बाजा बजाते हैं और दूसरे मौके पर मोनोपली यानी इज़ारेदारी बनाए रखने वाली हरकतें भी करते हैं। खुले बाज़ार का गाना गाते हैं और जब पत्रकार एक अखबार छोड़कर दूसरी जगह जाने लगे तो एंटी पोचिंग समझौते करने लगते हैं।

    पिछले कुछ समय से अखबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी कर रहे हैं। टीवी के पास तो अपने मर्यादा मूल्य हैं ही नहीं। वे उन्हें बना भी नहीं रहे हैं। मीडिया को निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे कुछ मूल्यों से खुद को बाँधना चाहिए। ऐसा करने पर वह सनसनीखेज नहीं होता, दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में नहीं झाँकेगा और तथ्यों को तोड़े-मरोड़ेगा नहीं। यह एक लम्बी सूची है। एकबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी होते ही हम दूसरी और गलतियाँ करने लगते हैं। हम उन विषयों को भूल जाते हैं जो हमारे दायरे में हैं।

    मार्केटिंग का सिद्धांत है कि छा जाओ और किसी चीज़ को इस तरह पेश करो कि व्यक्ति ललचा जाए। ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मंत्र है। जो नही है उसका सपना दिखाना। पत्रकारिता का मंत्र है, कोई कुछ छिपा रहा है तो उसे सामने लाना। यह मंत्र विज्ञापन के मंत्र के विपरीत है। विज्ञापन का मंत्र है, झूठ बात को सच बनाना। पत्रकारिता का लक्ष्य है सच को सामने लाना। इस दौर में सच पर झूठ हावी है। इसीलिए विज्ञापन लिखने वाले को खबर लिखने वाले से बेहतर पैसा मिलता है। उसकी बात ज्यादा सुनी जाती है। और बेहतर प्रतिभावान उसी दिशा में जाते हैं। आखिर उन्हे जीविका चलानी है।

    अखबार अपने मूल्यों पर टिकें तो उतने मज़ेदार नहीं होंगे, जितने होना चाहते हैं। जैसे ही वे समस्याओं की तह पर जाएंगे उनमें संज़ीदगी आएगी। दुर्भाग्य है कि हिन्दी पत्रकार की ट्रेनिंग में कमी थी, बेहतर छात्र इंजीनियरी और मैनेजमेंट वगैरह पढ़ने चले जाते हैं। ऊपर से अखबारों के संचालकों के मन में अपनी पूँजी के रिटर्न की फिक्र है। वे भी संज़ीदा मसलों को नहीं समझते। यों जैसे भी थे, अखबारों के परम्परागत मैनेजर कुछ बातों को समझते थे। उन्हें हटाने की होड़ लगी। अब के मैनेजर अलग-अलग उद्योगों से आ रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता के मूल्यों-मर्यादाओं का ऐहसास नहीं है।
    अखबार शायद न रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात पूरे समाज को समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह थी कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाते, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया। इसके अलावा एक तरह का पाखंड भी सामने आया है। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते वक्त दुनियाभर की बातें कहते हैं, पर अंदर अखबार बनाते वक्त कहते हैं, जो बिकेगा वहीं देंगे। चूंकि बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। कम खर्च में स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाना मुश्किल है। 

    चटपटी चीज़ें पेट खराब करतीं हैं। इसे हम समझते हैं, पर खाते वक्त भूल जाते हैं। हमारे मीडिया मे विस्फोट हो रहा है। उसपर ज़िम्मेदारी भारी है, पर वह इसपर ध्यान नहीं दे रहा। मैं वर्तमान के प्रति नकारात्मक नहीं सोचता और न वर्तमान पीढ़ी से मुझे शिकायत है, पर कुछ ज़रूरी बातों की अनदेखी से निराशा है। 

    रूसी पत्रकारिता दिवल

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    रूसी पत्रकारिता दिवस आज

    आज रूस में पत्रकारिता दिवस मनाया जा रहा है। इस दिन सन् 1703 में पहले रूसी समाचारपत्र "वेदोमोस्ती", यानी

     आज रूस में पत्रकारिता दिवस मनाया जा रहा है। इस दिन सन् 1703 में पहले रूसी समाचारपत्र "वेदोमोस्ती", यानी "बुलेटिन" का प्रकाशन शुरू हुआ था। इस समाचारपत्र का पहला और पूरा नाम था- "ज्ञान और स्मृति के लिए मास्को राज्य और अन्य पड़ोसी देशों में हुई सैन्य और अन्य नई घटनाओं का बुलेटिन।" शुरुआत में यह अख़बार मास्को और सेंट-पीटर्सबर्ग में प्रकाशित किया जाता था और इसकी कुल एक हज़ार प्रतियां प्रकाशित की जाती थीं।
    आजकल रूस में समाचार प्रसारण के 90 हज़ार से अधिक साधन हैं जिनमें से लगभग 40 हज़ार समाचारपत्र हैं। अखिल रूसी जनमत सर्वेक्षणों के अनुसार, पिछले दो वर्षों में रूसी पत्रकारों की बात पर पहले की तुलना में अधिक विश्वास किया जाने लगा है और उनके पेशे को सामाजिक महत्व का पेशा माना जाता है।

    आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में खच्चरों का महत्व और योगदान

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      मित्रों!आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में भले ही अभी तक खच्चरों के योगदान पर शोध नहीं किया गया हो पर जिस तरह से हिेंदी पत्रकारिता में खच्चर प्रजाति की तादाद बढ़ रही है उससे यह जरुरी हो गया है कि इस पर शोध किया जाय। मैं अपना यह लघु शोध प्रबंध आपकी नजर कर रहा हूं। मुझे भय है कि कहीं किसी विश्वविद्यालय का पत्रकारिता विभाग मुझे इस पर डाॅक्टरेट न दे दे और मुझे भी अपने नाम के आगे आम लोगों को आतंकित करने वाली उपाधि डा0 का प्रयोग न करना पड़े। पर मित्रों! मेरे भीतर भी आजकल डा0 बनने की लालसा जन्म ले रही है। क्योंकि साधारण नामाक्षरों वालों को लोग विद्वान नहीं मानते और आपका नाम बीपीएल लगता है। बीपीएल नाम वाले लोगों को सेमीनारों, विचार गोष्ठियों इत्यादि में केवल डा0 नामधारी प्रजाति के विद्वतापूर्ण भाषण झेलने के लिए ही आमंत्रित किया जाता है और भात,रायता,सलाद इत्यादि खिलाकर विदा कर दिया जाता है।ऐसा माना जाता है कि जिन लोगों के नाम के आगे डा0 नहीं लगा है उनके पास काफी समय है और उनके समय को लंच विनिमय के जरिये खरीदा जा सकता है। जबकि डा0 नामधारी जंतुओं को खर्च भी मिलता है। आपकी सेवामें यह लघुशोध प्रबंध प्रस्तुत है-
      पत्रकारिता में खच्चरों का आगमन के वैदिक कालीन अवशेष अभी तक नहीं मिले हैं। स्वतंत्रता कालीन पत्रकारिता में भी खच्चरों का इस पेशे में आने का उल्लेख नहीं मिलता। उस समय पत्रकारिता में बहुत जोखिम था इसलिए भी खच्चरों ने इस पेशे में आना ठीक नहीं समझा। खच्चरों में आमतौर पर जोखिम लेने की परंपरा नहीं पाई जाती। पत्रकारिता में खच्चरों का पहला बड़ा आगमन उदारीकरण के बाद हुआ जब पत्रकारिता ने मिशन और प्रोफेशन के बंधन से मुक्त होकर पूर्ण बेशर्मी से विशुद्ध कारोबार का जामा पहन लिया। अखबार और चैनल मालिकों ने सभी तरह के काम करने को तैयार खच्चरों को उच्च स्तर पर नियुक्त करना शुरु किया। बड़े खच्चरों ने छोटे खच्चरों को और छोटे खच्चरों ने जूनियर खच्चरों को नियुक्त किया। इस तरह से पत्रकारिता खच्चरीकरण हो गया। इसीलिए पत्रकारिता में जो नए बाॅस आए हैं उन्हे घोड़े नहीं चाहिए बल्कि खच्चर चाहिए। लेकिन युद्ध जीतने के लिए तो घोड़े ही चाहिए। इतिहास गवाह है कि युद्ध कभी भी खच्चरों नें नहीं जीते। आज के संपादक टाइप के लोग खच्चरों के बड़े मुरीद हैं। क्योंकि वे कभी भी घोड़े नहीं रहे। उनको प्रमोशन घोड़े होने के कारण नहीं बल्कि खच्चर होने के कारण मिला। मैने पहाड़ की खतरनाक पगडंडियों पर कई यात्रायें खच्चर वालों के साथ की हैं। खच्चरों की पहली विशेषता यह है कि हर खच्चर अपने से पहले वाले खच्चर के पीछे चलता है। खच्चर अपना रास्ता अपने हिसाब से नहीं बल्कि अपने से पहले वाले खच्चर के अनुसार चुनता है। खच्चर भावना रहित होता है। वह जीवन की संवेदनायें कभी प्रकट नहीं करता। घोड़ा अक्सर अपने उत्साह,प्रेम और गुस्से को व्यक्त करता है। घोड़ा हर किसी को अपने पर सवार होने का मौका देने का कायल नहीं होता। घोड़ा पहले अपने पर सवार होने वाली की योग्यता को परखता है और इसके बाद ही उसे सवार होने का मौका देता है। घोड़े को सिर्फ डराकर उस पर सवारी नहीं गांठी जा सकती। घोड़ा अयोग्य और नौसिखये सवारों को पटखनी दे देता है। जो लोग अच्छे घुड़सवार होते हैं वे जानते हैं कि घोड़े को समझे बगैर उस पर सवारी नहीं गांठी जा सकती।
      लेकिन खच्चर के साथ सहूलियत यह होती है कि उस पर कोई भी सवार हो सकता है।वह सवार का चुनाव करने में नहीं बल्कि उसे ढ़ोने में यकीन रखता है। उसे हर एक की सवारी के लिए ही डिजायन किया गया है। लेकिन जिस विशेषता के लिए हर जगह खच्चर पसंद किए जाते हैं वह यह है कि खच्चर कभी भी यह पसंद नहीं करता कि उससे आगे कोई बढ़ जाय। इसके लिए खच्चर दौड़ लगाने में यकीन नहीं रखते बल्कि वे आगे बढ़ने की कोशिश करने वाले के आगे आकर उसे गिराने की कोशिश करते रहते हैं। आप कभी किसी पहाड़ी पगडंडी पर खच्चर से आगे जाने की कोशिश करके देखें तो आपको लगेगा कि खच्चर आपको आगे बढ़ने से रोकने के लिए कभी नीचे तो कभी ऊपर की ओर आ जाता है। उसकी कोशिश होती है कि आप उससे आगे न बढ़ें। यदि वह आपको रोक नहीं पा रहा है तो वह आपको गिराने की कोशिश करता है। इसीलिए समझदार खच्चर चालक पहाड़ों की पगडंडियों पर कभी भी खड्ड वाली साइड से आगे नहीं जाते। वे बेंत हाथ में लेकर ऊपर की ओर से आगे जाते हैं। इनके कबीले में माना जाता है कि सबसे आगे वाला खच्चर जिस रास्ते पर जा रहा है वही सबसे उत्तम मार्ग है।यही खच्चरों काजीवन दर्शन है और इनकी सफलता में इसी सूत्र का हाथ है। वरना घोड़ो को विस्थापित कर उनकी जगह पर काबिज हाना कोई बच्चों का खेल तो है नहीं। खच्चर मूलत़ सोचने में यकीन न रखने वाला जीव है। यह न सोचने और बोझा ढ़ोने की अपनी असाधारण योग्यता के कारण ही इसने प्रतिस्पर्धा के सारे आधुनिक सिद्धांतों को उलटपुलट कर दिया है।
      अख्बारों और चैनलों की सारी घुड़सालें आज यदि खच्चरों से पटी हुई हैं तो इसके लिए खच्चरों की ये विशेषतायें ही हैं। अखबारों और चैनलों हर रोज जो लीद बिखरी हुई नजर आती है वह इसी असाधारण रुप से अयोग्य प्रजाति के पराक्रम से संभव हुआ है। लेकिन इस लीद से एक जैविक विकृति की समस्या पैदा हो गई है। खच्चरों की लीद के अत्यधिक संपर्क में रहने से टिटनेस हो जाता है। हिंदी में इसे धनुष्टंकार रोग कहा जाता है। इस रोग से संक्रमित लोग धनुष की तरह झुक जाते हैं। आजकल आप अखबारों और चैनलों को कारपोरेट और सरकारों के आगे धुनष की तरह झुके हुए देखते हैं वह दरअसल खच्चरों की लीद का ही संक्रमण है। खच्चरों ने पत्रकारिता को सोचने और समझने की रुढ़िवादी परंपरा से मुक्ति दिलाई है ,उनका पत्रकारिता में उनका यह योगदान याद रखा जाना चाहिए।उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में पत्रकारिता के खच्चर इसे पूरी तरह से घोड़ों से मुक्त कराकर ही दम लेंगे। तब सही मायनों में हिंदी पत्रकारिता का उत्कर्ष काल शुरु होगा। इति एंड अति।
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    हिंदी पत्रकारिता के विकास में पत्र पत्रिकाओं का योगदान

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    हिंदी भाषा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान
    प्रो.ऋषभदेव शर्मा




    हिंदी पत्रकारिता का प्रश्न राष्ट्रभाषा और खड़ी बोली के विकास से भी संबंधित रहा है। हिंदी भाषा विकास की पूरी प्रक्रिया हिंदी पत्रकारिता के भाषा विश्लेषण के माध्यम से समझी जा सकती है। इस विकास में भाषा के प्रति जागरूक पत्रकारों का अपना अपना योगदान हिंदी को मिलता रहा है। ये पत्रकार हिंदी भाषी भी थे और हिंदीतर भाषा-भाषी भी। इनमें से कई बोली क्षेत्रों के थे, कुछ पहले साहित्यकार थे बाद में पत्रकार बने, तो कुछ ने पत्रकारिता से शुरू करके साहित्य जगत में अपना स्थान बनाया। इन सभी ने अखिल भारतीय स्तर पर बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित किया। इनके लिए हिंदी और राष्ट्रीयता एक दूसरे के पर्याय थे। क्योंकि ये पत्रकार भिन्न भाषा परिवेशों के थे इसलिए हिंदी पत्रकारिता में शैली वैविध्य अपनी चरम अवस्था में दिखाई देता है।
    हिंदी पत्रकारिता का यह सौभाग्य रहा कि समय और समाज के प्रति जागरूक पत्रकारों ने निश्चित लक्ष्य के लिए इससे अपने को जोड़ा। वे लक्ष्य थे राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक उत्थान और लोकजागरण। तब पत्रकारिता एक मिशन थी, राष्ट्रीय महत्व के उद्देश्य पत्रकारिता की कसौटी थे और पत्रकार एक निडर व्यक्तित्व लेकर खुद भी आगे बढ़ता था और दूसरों को प्रेरित करता था। हिंदी के इन पत्रकारों ने न तो ब्रिटिश साम्राज्य के सामने घुटने टेके और न ही अपने आदर्शों से च्युत हुए इसीलिए समाज में इन पत्रकारों को अथाह सम्मान मिला।
    हिंदी पत्रकारिता के विकासक्रम में कुछ पत्रकार प्रकाशस्तंभ बने जिन्होंने अपने समय में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और अनेक युवकों को लक्ष्यवेधी पत्रकारिता के लिए तैयार किया। वास्तव में वह पूरा शुरूआती समय हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। हिंदी के गौरव को स्थापित करने, हिंदी साहित्य को बहुमुखी बनाने, भारतीय भाषाओं की रचनाओं को हिंदी में लाने, हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के महत्व पर टिप्पणी करने तथा इन सबके साथ सामाजिक उत्थान का निरंतर प्रयत्न करने में ये सभी पत्रकार अपने अपने समय में अग्रणी रहे।
    हिंदी प्रदीपके संपादक बालकृष्ण भट्ट केवल पत्रकार ही नहीं, उद्‌भट साहित्यकार भी थे। विभिन्न विधाओं में उन्होंने रचनाएँ कीं जिन्हें  पढ़ने पर यह पता चलता है कि भट्ट जी की शैली में कितना ओज और प्रभाव था। सरल और मुहावरेदार हिंदी लिखना उन्हीं से आगे अपने वाले पत्रकारों ने सीखा। हिंदी पत्रकारिता बालकृष्ण भट्ट की कई कारणों से ऋणी है। एक तो उन्होंने निर्भीक पत्रकारिता को जन्म दिया, दूसरे गंभीर लेखन में भी सहजता बनाए रखने की शैली निर्मित की, तीसरे हिंदी साहित्य की समीक्षा को उन्होंने प्रशस्त किया और चौथे हिंदी पत्रकारिता पर ब्रिटिश साम्राज्य के किसी भी प्रकार के अत्याचार का उन्होंने खुलकर विरोध किया।
    भारतेंदु हरिश्चंद्र (कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन, हरिश्चंद्र चंद्रिका, बालाबोधिनी)हिंदी पत्रकारिता के ही नहीं, आधुनिक हिंदी के भी जन्मदाता माने जाते हैं। भारतेंदु ने अपने पत्रों और नाटकों के द्वारा आधुनिक हिंदी गद्य को इस तरह विकसित करने का प्रयत्न किया कि वह जनसाधारण तक पहुँच सके। संस्कृत और उर्दू - दोनों की अतिवादिता से हिंदी को बचाते हुए उन्होंने बोलचाल की हिंदी को ही साहित्यिकता प्रदान करके ऐसी शैली ईजाद की जो वास्तव में हिंदी की केंद्रीय शैली थी और जिसे बाद में गांधी और प्रेमचंद ने हिंदुस्तानीकहकर अखिल भारतीय व्यवहार की मान्यता प्रदान की। भारतेंदु के लिए स्वभाषा की उन्नति ही सभी प्रकार की उन्नतियों का मूलाधार थी। बालाबोधिनीमहिलाओं पर केंद्रित हिंदी की पहली पत्रिका है। इसमें महिलाओं ने लिखा और भारतेंदु की प्रेरणा से अनेक महिलाएँ हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में आई। ज्ञान विज्ञान की दिशा में हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध करने का कार्य भी भारतेंदु ने ही पहली बार किया। इतिहास, विज्ञान और समाजोपयोगी सामयिक विषयों पर उनकी पत्रिकाओं में उत्कृष्ट सामग्र छपती थी।
    प्रताप नारायण मिश्र (ब्राह्मण)आधुनिक हिंदी के सचेतन पत्रकार माने जा सकते हैं। उन्होंने हिंदी गद्य और पद्य दोनों को नया संस्कार दिया। इनके समय तक प्रचलित हिंदी या तो अरबी-फारसी निष्ठ थी, या संस्कृतनिष्ठ, अथवा उसमें भारतेंदु की तरह बोलियों का असंतुलित मिश्रण था। मिश्र जी ने ठोस हिंदी गद्य को जन्म दिया। देशज, उर्दू और संस्कृत का जितना सुंदर मिश्रित प्रयोग मिश्र जी में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। वे हिंदी की प्रकृति को एक विशिष्ट शैली में ढालने वाले पहले पत्रकार थे।
    महामना मदनमोहन मालवीय (हिंदोस्थान, अद्भुदय, मर्यादा)का हिंदी के प्रति दृष्टिकोण दृढ़ था। वे हिंदी के कट्टर समर्थक थे। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना उन्होंने अपने इसी हिंदी प्रेम के कारण की थी। वे समय-समय पर अनेक पत्रों से संबद्ध हुए।  हिंदी के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत साफ था कि हिंदी भाषा और नागरी अक्षर के द्वारा ही राष्ट्रीय एकता सिद्ध हो सकती है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी हिंदू विश्वविद्यालय और हिंदी प्रकाशन मंडल की स्थापना करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति के उत्थान का रास्ता ही भारत के उत्थान का एक मात्र रास्ता है। मालवीय जी वाणी के धनी थे, जितना प्रभावशाली बोलते थे, उतना ही प्रभावशाली लिखते थे। हिंदी भाषा का ओज उनकी पत्रकारिता से प्रकाशित होता है।
    मेहता लज्जाराम शर्मा (सर्वहित, वेंकटेश्वर समाचार)गुजराती भाषी थे, लेकिन हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया था। उनका दृढ़ विश्वास था कि एक-न-एक दिन पूरे भारत में हिंदी का डंका बजेगा, प्रांतीय भाषाएँ हिंदी की आरती उतारेंगी, बहन उर्दू इसकी बलैया लेगी तथा अंग्रेजी हतप्रभ होकर हिंदी के गले में फूलों की माला पहनाएगी।
    हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं की पत्रकारिता को प्रतिष्ठित करने वाले बाबू बालमुकुंद गुप्त (अखबारे-चुनार, हिंदी बंगवासी, भारतमित्र)ने पत्रकारिता को साहित्य निर्माण और भाषा चिंतन का भी माध्यम बनाया।  गुप्त जी ने भारत मित्रमें महावीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वतीमें प्रयुक्त अनस्थिरताशब्द को लेकर जो लेखमाला लिखी, वह पर्याप्त चर्चा का विषय बनी। इसी तरह उन्होंने वेंकटेश्वर समाचारके मेहता लज्जाराम शर्मा द्वारा प्रयुक्त शेषशब्द पर भी खुली चर्चा की। उनकी ये चर्चाएँ उनकी भाषाई चेतना को व्यक्त करने वाली हैं। वे मूलतः उर्दू के पत्रकार थे इसलिए जब हिंदी की सहज चपलता में व्यवधान होता देखते थे तो विचलित हो जाते थे। उनकी व्यंग्योक्तियाँ अत्यंत प्रखर होती थीं। इससे हिंदी पत्रकारिता को नई शैली भी मिली और निर्भीकता, दृढ़ता और ओजस्विता के साथ विनोदप्रियता का अद्भुत सम्मिश्रण भी। वे वास्तव में राष्ट्रव्यापी साहित्यिक विवादों के जनक और व्यंग्यात्मक शैली के अग्रदूत पत्रकार थे। उर्दू भाषा के साथ वे हिंदी की हिमायत करते थे। उर्दू और हिंदी के विवाद में उन्होंने हमेशा हिंदी का पक्ष लिया।
     आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (सरस्वती)हिंदी पत्रकारिता के शलाक पुरुष हैं। हिंदी के प्रति उनकी धारणा दृढ़ थी। वे उसे सुगठित, सुव्यवस्थित और सर्वमान्य स्वरूप प्रदान करना चाहते थे। सरस्वतीके माध्यम से हिंदी को नई गति और शक्ति देने का जो कार्य द्विवेदी जी ने किया, उसका कोई सानी नहीं है। अपनी दृढ़ता के चलते ही उन्होंने अनेक पत्रकारों और साहित्यकारों को खड़ीबोली हिंदी में लिखने के लिए प्रेरित किया और सरस्वतीमें छापकर उन्हें स्थापित किया। द्विवेदी जी ने हिंदी भाषा के परिष्कार का अनथक प्रयत्न किया और हिंदी में लेखकों तथा कवियों की एक पीढी तैयार की। उनका यह दृढ़ मत था कि गद्य और पद्य की भाषा पृथक पृथक नहीं होनी चाहिए।
    माधव राव सप्रे (छत्तीसगढ मित्र, कर्मवीर)रा्ट्रीयता की प्रतिमूर्ति थे। उनकी हिंदी निष्ठा अपराजेय थी। उनका कहना था, मैं महाराष्ट्रीय हूँ, परंतु हिंदी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है जितना किसी भी हिंदी भाषी को हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि इस राष्ट्रभाषा के सामने भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भूल जाए कि मैं महाराष्ट्रीय हूँ, बंगाली हूँ, गुजराती हूँ या मदरासी हूँ।
     
    हिंदी के मूर्धन्य कथाकार प्रेमचंद का एक प्रेरक स्वरूप उनके जागरूक पत्रकार का भी है। माधुरी’, ’जागरणऔर हंसका संपादन करके उन्होंने अपनी इस प्रतिभा का भी उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया और हिंदुस्तानी शैली को सर्वग्राह्य तथा लोकप्रिय बनाने का महत्व कार्य किया।
    हिंदी के मासिक पत्रों के संपादन में जो ख्याति महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद की है वैसी ही ख्याति दैनिक पत्रों के संपादन में बाबूराव विष्णुराव पराड़कर (आज)की है। दैनिक हिंदी पत्रकारिता के वे आदि-पुरुष कहे जा सकते है। उन्होंने हिंदी भाषा का मानकीकरण ही नहीं, आधुनिकीकरण भी किया और हिंदी की पारिभाषिक शब्द संपदा की अभिवृद्धि की।
    माखनलाल चतुर्वेदी (कर्मवीर, प्रभा, प्रताप)साहित्य, समाज और राजनीति, तीनों को अपनी पत्रकारिता में समेटकर चलते थे। उनकी साहित्य साधना भी अद्भुत थी। उनके भाषण और लेखन में इतना ओज था कि वे भावों को जिस तरह चाहते, प्रकट कर लेते थे। उनका यह स्वरूप भी उनके पत्रों के लिए वरदान साबित हुआ। उनका लेखन हिंदी भाषा के प्रांजल प्रयोग का उदाहरण है। उनका यह कहना था कि ऐसा लिखो जिसमें अनहोनापन हो, ऐसा बोलो जिस पर दुहराहट के दाग न पड़े हों।
    अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी (अभ्युदय, प्रताप)ने हिंदी पत्रकारिता में बलिदान और आचरण का अमर संदेश प्रसारित किया और हिंदी भाषा को ओजस्वी लेखन का मुहावरा प्रदान किया। इसी प्रकार शिवपूजन सहाय (मारवाड़ी सुधार, मतवाला, माधुरी) अकेले ऐसे पत्रकार हैं जिनका हिंदी की विविध शैलियों पर समान अधिकार था।
    स्वातंत्र्योत्तर हिंदी पत्रकारिता में अज्ञेय (प्रतीक, नया प्रतीक, दिनमान, नवभारत टाइम्स)ने साहित्यिक पत्रकारिता को नवीन दिशाओं की ओर मोड़ा। शब्दके प्रति वे सचेत थे इसलिए भाषा और काव्य भाषा पर प्रतीकमें संपादकीय, लेख, चचाएँ, परिचर्चाएँ प्रकाशित होती रहती थीं। अज्ञेय ने दिनमानके माध्यम से राजनैतिक समीक्षा और समाचार विवेचन की शैली हिंदी में विकसित की। उन्होंने नवभारत टाइम्सके साहित्यिक- सांस्कृतिक परिशिष्ट को ऊँचाई प्रदान की जिससे कि दैनिक पत्र का पाठक भी इनके महत्व को समझने लगा।
    धर्मवीर भारती (धर्मयुग) ने सर्वसमावेशी लोकप्रिय पत्रिका की संकल्पना साकार की  जिसमें राजनैतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सामग्री के साथ ही फिल्म, खेल, महिला जगत, बालजगत जैसे स्तंभ सम्मिलित हुए। धर्मवीर भारती की जागरूक दृष्टि ने हिंदी रंगमंच व लोक कलाओं को भी महत्व दिया और नई नई विधाओं जैसे यात्रावृत्तांत, रिपोर्ताज, डायरी आदि में लेखन को भी। इससे हिंदी भाषा की अनेकानेक विधाओं और प्रयुक्तियों का बहुआयामी विकास हुआ।
    आर्येंद्र शर्मा (कल्पना)मूलतः वैयाकरण थे। उनकी पुस्तक बेसक ग्रामर ऑफ हिंदीभारत सरकार ने प्रकाशित की जिसे आज भी हिंदी का मानक व्याकरण माना जाता है। भाषा के प्रति उनकी गंभीरता और अच्छी रचनाओं को पहचानने की विवेकी दृष्टि ने कल्पनाको अपनी एक अलग जगह बनाने में मदद की।
    छठे दशक से हिंदी में विभिन्न नए-नए क्षेत्रों की पत्रकारिता का उभार दिखाई देने लगता है। इसके लिए हिंदी को नई शब्दावली और अभिव्यक्तियों की आवश्यकता पड़ी। वास्तव में किसी भी भाषा से बाह्यजगत की संकल्पनाओं को अपनी भाषा में ले आना और फिर उन्हें स्थापित कर लोकप्रिय बनाना आसान काम नहीं है लेकिन पत्रकारिता हमेशा से इस कठिन कार्य को अपनी पूरी दक्षता और दूरदृष्टि से साधती रही है। फिल्म पत्रकारिताका ही उदाहरण लें तो फिल्मों का जन्म भारत में नहीं हुआ और फिल्म तकनीक से लेकर उसकी वितरण व्यवस्था तक की भाषाई उद्भावना हमारी भाषाओं में नहीं थी। जब भारत में फिल्में बनना शुरू हुईं और उन्हें अपार लोकप्रियता मिली तो पत्रकारिता ने बाह्यजगत के इस विषय क्षेत्र को स्थान दिया और इसकी अभिव्यक्ति का मार्ग बनाया। हिंदी पत्रकारिता में फिल्म पत्रकारिता लोकप्रियता के शिखर पर पहुँची तो इसीलिए कि उसने हिंदी भाषा को फिल्म-प्रयुक्ति की तकनीकी अभिव्यक्ति में भी समर्थ बनाया और पाठकों का ध्यान रखते हुए भाषा में रोचकता और मौजमस्ती की ऐसी छटा बिखेरी कि फिल्म पत्रकारिता की भाषा अपना एक निजी व्यक्तित्व लेकर आज हमारे सामने हैं।
    छायांकन (फोटोग्राफी), ध्वनिमुद्रण (साउंड रिकार्डिंग), नृत्य निर्देशन (कोरियोग्राफी) जैसे पक्ष अनुवाद के माध्यम से पूरे किए गए तो शूटिंग, डबिंग, लोकेशन, आउटडोर, इनडोर, स्टूडियो को अंग्रेजी से यथावत ग्रहण करके हिंदी में प्रचलित किया गया। बॉक्स-आफिस के लिए टिकट-खिड़की जैसे प्रयोगों का प्रचलन हिंदी पत्रकारिता की सृजनात्मक दृष्टि और अंग्रेजी शब्द के संकल्पनात्मक अर्थ के भीतर जाकर हिंदी से नया शब्द ग्ढ़ने की क्षमता का स्वतः प्रमाण है। फिल्मोद्योग जैसे संकर शब्दों की रचना भी हिंदी पत्रकारिता ने बड़ी संख्या में की जो आज अपनी अनिवार्य जगह बना चुके हैं, या कहा जाए कि हिंदी फिल्म पत्रकारिता की प्रयुक्ति का आधार बन चुके हैं। इस संकरता को हिंदी फिल्म पत्रकारिता वाक्य स्तर पर भी स्वीकृति देती है - कैमरा फेस करते हुए मुझे दिक्कत हुई, एग्रीमेंट साइन करने के पहले मैं पूरी स्क्रिप्ट पढ़ता हूँ, न्यूड सीन अगर एस्थेटिक ढंग से फिल्माया जाए तो मुझे कोई उज्र नहीं, ’फ़िजाके प्रीमियर पर सभी स्टार मौजूद थे - इत्यादि।
    इसका तात्पर्य यह है कि फिल्म पत्रकारिता ने हिंदी भाषा के माध्यम से नए अंग्रेजी शब्दों/संकल्पनाओं से भी क्रमशः अपने पाठकों को परिचित कराने का बड़ा काम किया है। वे थ्री-डायमेंशनल के साथ-साथ त्रि-आयामी का और ड्रीम-सीक्वेंस के साथ-साथ स्वप्न-दृश्य का प्रयोग करते चलते हैं। पाठक जिस शब्द को स्वीकृति प्रदान करता है, वह स्थिर हो जाता है और अन्य दूसरे शब्द बाहर हो जाते है। इससे यह भी पता चलता है कि पत्रकारिता किसी प्रयुक्ति-विशेष को बनाने या निर्मित करने का ही काम नहीं करती, बल्कि उसे चलाने, पाठकों तक ले जाकर उनकी सहमति जानने और लोकप्रियता की कसौटी पर इन्हें कसने का भी काम करती है।
    ऐसा ही क्षेत्र खेलकूद पत्रकारिताका भी है। क्रिकेट और टेनिस जैसे जो खेल सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। उनकी संकल्पनात्मकता भारतीय नहीं है। पत्रकारिता ने ही इन्हें हिंदी में उजागर करने का प्रयत्न किया है। खेलकूद की हिंदी पत्रकारिता ने अंग्रेजी भाषा के कई मूलशब्दों को यथावत अपनाया क्योंकि ये शब्द उन्हें पाठकीय बोध की दृष्टि से बाह्य लगे और इसीलिए इनके अनुवाद का प्रयत्न नहीं किया गया। जैसे, स्लिप, गली, मिड ऑन, मिड ऑफ, कवर, सिली प्वाइंट - जैसे शब्द जो क्रिकेट के खेल की एक विशेष रणनीति के शब्द हैं, अतः इस रणनीति को किसी शब्द के अनुवाद द्वारा नहीं, बल्कि शब्द की संकल्पना को हिंदी में व्यक्त करते हुए पाठकों के मानस में स्थापित किया गया। इतना ही नहीं, इन आगत शब्दों के साथ एक और प्रक्रिया भी अपनाई गई जिसे हिंदीकरणकी प्रक्रिया कहा जाता है अर्थात् इन अंग्रेजी शब्दों के साथ रूप-परिवर्तन के लिए हिंदी के रूपिमों को इस्तेमाल किया गया जैसे रन/रनों, पिच/पिचें, विकेट/विकेटों, ओवर/ओवरों इत्यादि। कहीं-कहीं तो इस रूप-परिवर्तन के साथ ही ध्वन्यात्मक परिवर्तन भी हिंदी की अपनी प्रकृति का रखा गया है जैसे कैप्टेन/कप्तान और कैप्टेंसी/कप्तानी। अनुवाद के दोनों स्तर खेलकूद पत्रकारिता की हिंदी में मिलते हैं - शब्दानुवाद और भावानुवाद। शब्दानुवाद के स्तर पर - टाइटिल/खिताब, सेंचुरी/शतक, सिरज/शृंखला, वन-डे/एकदिवसीय आदि को देखा जा सकता है तो भावानुवाद के स्तर पर - एल.बी.डब्ल्यू/पगबाधा, कैच/लपकना आदि को।
    इसका तात्पर्य यह है कि नई प्रयुक्तियों के निर्माण में हिंदी पत्रकारिता सृजनात्मकता को साथ लेकर चलती है। सृजन के अभाव में लोकप्रिय प्रयुक्ति निर्मित नहीं हो सकती। इस अभाव ने ही प्रशासनिक हिंदी को जटिल और अबूझ बना दिया है। इस सृजनात्मकता का हवाला उन अभिव्यक्तियों के जरिए भी दिया जा सकता है जो हिंदी की खेल पत्रकारिता ने विकसित की हैं। इन्हें हम हिंदी की अपनी अभिव्यक्तियाँभी कह सकते हैं, जैसे - पूरी पारी चौवन रन पर सिमट गई। तेंदुलकर ने एक ओवर में दो छक्के और तीन चौके जड़े। भारतीय टीम चौवन रन बनाकर धराशायी हो गई।इनके साथ ही हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी की अभिव्यक्तियों को लोकप्रिय बनाने की प्रक्रिया भी दिखाई देती है -द्रविड़ अपने फॉर्म में नहीं थे। शोहैब अख्तर की गेंदबाजी में किलिंग इंस्टिक्ट दिखाई दिया। रन लेते समय पिच की डेफ्थ नहीं समझ पाए।
       खेलकूद पत्रकारिता ने अंग्रेजी के तकनीकी शब्दों को अपने पाठकों में स्वीकार्यता दिलाई है और वाक्यों के बीच इनका प्रयोग करके धीरे-धीरे इन्हें हिंदी पत्रकारिता की शब्दावली के रूप में स्वीकार्य बना दिया है। नो बॉल, वाइड बॉल, बाउंड्री लाइन, ओवर द पिच, लेफ्ट आर्म, राइट आर्म - जैसे शब्द अब हिंदी पाठक के लिए अनजाने नहीं रह गए हैं। पत्रकारिता ने ये शब्द ही नहीं, इनके संकल्पनात्मक अर्थ भी अपने पाठकों तक पहुँचा दिए है। शब्द गढ़ना एक बात है और शब्दों को लोकप्रिय करके किसी प्रयुक्ति का अंग बना देना दूसरी बात है। हिंदी पत्रकारिता ने इस दूसरी बात को संभव करके दिखाया है। अतः आज यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि बाह्य जगत से संबंधित विभिन्न प्रयुक्तियों/उपप्रयुक्तियों के निर्माण, स्थिरीकरण और प्रचलन में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका स्तुत्य है।
    पत्रकारिता के माध्यम से आज खेल-तकनीक, खेल-प्रशिक्षण पर भी सामग्री प्रकाशित की जाती है। खिलाड़ियों और खेल संगठनों के पदाधिकारियों के साक्षात्कार इसे एक नया आयाम दे रहे हैं। यदि संचार के अन्य माध्यमों को भी यहाँ जोड़ लें तो रेडियो पर कमेंट्री और टीवी पर सीधे प्रसारण में जब से हिंदी को स्थान मिला है, एक विशेष प्रकार की खेलकूद की मौखिक प्रयुक्ति अस्तित्व में आई है। इस पर कुछ शोधकार्य भी हुए हैं जिन्हें और आगे ले जाने की जरूरत है।
    संक्षेप में कहा जाए तो हिंदी पत्रकारिता ने समय के साथ चलते हुए और नवीनता के आग्रह को अपनाते हुए सामाजिक आवश्यकता के तहत हिंदी भाषा विकास का कार्य अत्यंत तत्परता, वैज्ञानिकता और दूरदृष्टि से किया है। सहज संप्रेषणीय भाषा में नई संकल्पनाओं को व्यक्त करने के लिए भाषा-निर्माण या कहें प्रयुक्ति-विकास का जैसा आदर्श बिना किसी सरकारी सहयोग या दबाव के हिंदी पत्रकारिता ने बनाकर दिखाया है, उसे भाषाविकास अथवा भाषानियोजन में सामग्री नियोजन (कॉर्पस डेवलेपमेंट) की आदर्श स्थिति कहा जा सकता है।
    पुनश्च - यह तो हुई हिंदी के विकासमें पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका की चर्चा। लेकिन इधर के कुछ वर्षों में संचार माध्यम (मुद्रित और इलेक्ट्रानिक, दोनों) जिस प्रकार हिंदी को विकृत करते रहे हैं वह अत्यंत चिंतनीय है। अतः कभी अवसर मिलने पर हिंदी के विनाशमें संचार माध्यम की भूमिका पर अलग से विस्तृत चर्चा करेंगे।
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