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सिनेमा के सौ साल

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पत्रकारिता की ताकत

मीडिया में (की) आधी आबादी का सच / इरा झा

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“अंग्रेजी पत्रकार की जिन बातों को हिंदी पत्रकार उसके गुण बताते, उन्हीं बातों को वे अपनी सहकर्मी के चरित्र हनन का औजार बना लेते। मसलन, अंग्रेजी पत्रकार बोले तो तेज-तर्रार और अपनी सहकर्मी बोले तो बदतमीज। अंग्रेजी पत्रकार अपने हकों के लिए लड़े तो जुझारू और हिंदी पत्रकार का आवाज़ उठाना शोशेबाजी। इस तरह की अनेक त्रासदियां महिला पत्रकार को जाने-अनजाने झेलनी पड़ती। महिला पत्रकार के साथ एक कप चाय पीकर धन्य हो जाने वाले साथी उसके प्रमोशन की बात उठते ही बैरी बन जाते हैं।” – वरिष्ठ पत्रकार इरा झा ने अपनी ज़िंदगी के कुछ अनछुए पन्नों को सामने रख कर कई बड़े सवाल उठाए हैं। ये सिर्फ़ उनका सच नहीं बल्कि हिंदी पत्रकारिता से जुड़ी तमाम महिलाओं का है जिन्हें हर रोज मर्दों की बनाई इस दुनिया में अपने हक़ की लड़ाई लड़नी पड़ती है। ये वो सच है जिससे हम और आप नज़रें तो चुरा सकते हैं, लेकिन उसे झुठला नहीं सकते। इरा झाकी ये दास्तान सामयिक वार्ता के मीडिया विशेषांक से साभार आपके सामने है… आप पढ़िए और बताइए कि क्या ये सच नहीं है?

ज़मींदारों और जजों के खानदान की इस लड़की के पत्रकार बनने की कहानी कोई तीन दशक पुरानी है। भारत सरकार में संयुक्त सचिव अपने पिता के साथ छत्तीसगढ़ के दुर्ग से दिल्ली पहुंचकर इस महानगर की नब्ज भांपने की कोशिश कर रही थी कि एक दिन सड़क पार भारतीय जनसंचार संस्थान जाना हो गया। तब ये संस्थान साउथ एक्सटेंशन यानी मेरे आवास के पास था। वहां दिल्ली पाठ्यक्रम के निदेशक डॉ. रामजीलाल जांगिड़ मिल गए। उनसे मिलकर अपनी लिक्खाड़ तबियत और समसामयिक विषयों में दिलचस्पी के बारे में बताया तो बोले- एक कार्यशाला होने वाली है, खेल पत्रकारिता पर। उसमें क्यों नहीं शामिल हो जाती? मैं डेढ़ सौ रुपये देकर कार्यशाला का हिस्सा बन गई।
खेल से कोई लेना-देना न था. पर एशियाड से पहले के दिन थे। पूरी दिल्ली की तस्वीर बदल रही थी। जगह-जगह फ्लाइओवर बन रहे थे। इंदिरा गांधी, नेहरू और तालकटोरा स्डेटियम वगैरह बन रहे थे। अख़बार का कोना-कोना चाट जाने की आदत थी, सो वहां खांटी खेल पत्रकारों के बीच छत्तीसगढ़ के एक कस्बे से आई लड़की ने पत्रकारिता, खेल से संबंधित क्विज में अव्वल स्थान पा लिया। बस तभी लगा कि शायद यही वह मंजिल है जिसका सपना मैं चार साल की नन्हीं उम्र से देखा करती थी। तब मैं खुद को कागज पर अपनी लिखी इबारतें थामे आसमान में उड़ता देखती थी। पर यह पता नहीं था कि ये सपना मुझे पत्रकारिता के रास्ते पर ले जाएगा।
इस बीच मैं संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा के जरिये केंद्रीय सूचना सेवा के लिए चुन ली गई। मेरे पिता को लगा कि क्षमताएं इससे कहीं अधिक हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम किताब को हाथ लगाए बिना ऐसा कमाल कर सकती हो, थोड़ा-बहुत पढ़ लो आईएएस हो जाओगी। बस मुझे तो मनचाही मुराद मिल गई। मैंने उसी दम पिता का सपना ताक पर रखकर अपने सपने को अंजाम देने की कोशिश शुरू कर दी। अभी दो-चार लेख लिखे ही थे कि दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन में मुझे बतौर ट्रेनी नौकरी मिल गई। तब मुझे एक तरह से स्टाफ राइटर का काम दे दिया गया। मेरी जिम्मेदारी थी दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं – सरिता, मुक्ता, भू भारती, गृह शोभा, इत्यादि के लिए किस्म-किस्म के लेख लिखना।

अमूमन लड़कियों
के पास वहां चिट्ठियों की छंटाई और चुटकुले लिखने जैसी जिम्मेदारियां हुआ करती थी। उनके बीच एक कम उम्र की लड़की का लेखन और रिपोर्टिंग कौतूहल का विषय था। उस जमाने में वहां आर.एल. शर्मा, दिनेश तिवारी, विश्राम वाचस्पति, शिरीष मिश्रा, विवेक सक्सेना जैसे लोग थे, जो मेरे हर लेखन पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दिया करते थे। मेरे लिखने के स्टाइल के कायल थे। पर इस खुशनुमा माहौल के बीच दिल्ली प्रेस का अपना अलग घुटन भरा माहौल था। वहां लोग बात तो कर सकते थे पर सिर्फ टायलेट के इर्द-गिर्द। लड़कियों को जींस पहनने की मनाही थी और लड़कों से बातचीत को सीता और राम की आलोचना करने वाले इस संगठन के मालिक तक शक की नज़र से देखते थे। तब कस्बे से आई इस लड़की को महानगर की इस तहजीब का पता न था। लिहाजा दिल्ली प्रेस में विद्रोह कर बैठी। उसने जींस पहनने से लेकर लड़कों से दोस्ती तक वह सबकुछ किया, जिसकी वहां मनाही थी और तब तो हद हो गई जब आदिवासियों पर उसकी एक स्टोरी को मालिक ने उनके सांस्कृतिक शोषण की दास्तान की बजाए नृशास्त्रीय तेवर देना चाहा। और तब उसने दिल्ली प्रेस से नमस्ते कर ली।

अगला मुकाम था निखिल चक्रवतीकी इंडिया प्रेस एजेंसी। इंडिया प्रेस एजेंसी में अगले दिन ही काम मिल गया। पैसों की बात करने की कभी कोई आदत थी नहीं तो वेतन के बारे में नहीं पूछा। दो महीने काम करने के बाद जो पैसे मिले उसे देखकर माथा ठनका पर इसी बीच पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स की नौकरी इंतज़ार कर रही थी। संपादक मंडल मुझे कम उम्र की लड़की होने के नाते लेने को तैयार नहीं था. पर मेरी जिद के आगे उन्हें हथियार डालने पड़े। मुझे लगता था कि पत्रकारिता में कोई बड़ा काम कर गुजरूंगी, पर ऐसा नहीं हुआ।
पटना पहुंचते ही मुझे पता लगा कि वहां और कोई महिला पत्रकार है ही नहीं। हर शख़्स मुझे अजूबे की तरह देखता और कई बार लोगों को मैंने कनपतियां करते हुए सुना। घर में खाने को नहीं और इनके तेवर देखो। दरअसल उन दिनों यह लोगों की कल्पना से परे था कि सिर्फ़ करियर की खातिर किसी संपन्न परिवार की लड़की पटना आकर रिपोर्टिंग कर सकती है। लोग यही समझते कि मैं किसी आर्थिक तौर पर अति मजबूर परिवार की लड़की हूं, जिसे माता-पिता ने लावारिस छोड़ दिया। लोग मुझसे खोद-खोद कर पूछते दिल्ली में कहां रहती हो। पिताजी क्या करते हैं और जवाब सुनकर अविश्वास से ऐसे देखते जैसे किसी परले दर्जे की झूठी से पाला पड़ा है।
जहां तक काम कासवाल है, पटना का माहौल बड़ा संकुचित था। रिपोर्टिंग पर निकलने से पहले मुझे पहनावे से लेकर पेशे तक की सारी हिदायतें दी जातीं। मैं बार-बार उन्हें समझाना चाहती कि मैं एक पेशेवर पत्रकार हूं और अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझती हूं। पर वहां तो जैसे हर दूसरा व्यक्ति मेरा खैरख्वाह बनने पर तुला हुआ था। आज बिहार की पत्रकारिता में लड़कियों का खासा बोलबाला है। तब की तस्वीर आज से एकदम अलग थी। मेरे सामने स्टोरी की बजाए शादी के प्रस्तावों का ढेर था। मानो मेरी ज़िंदगी का यही मकसद हो। पटना में रिहाइश से रिपोर्टिंग तक जैसी जद्दोजेहद करनी पड़ी उसे सोचकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैं जो सोचकर गई थी वैसा कुछ भी न कर पाई। सिवाय इतिहास में यह दर्ज कराने के कि पटना में मैं पहली महिला पत्रकार थी।

पटना के घुटन भरे
माहौल से निजात का पैगाम नवभारत टाइम्स जयपुर में नियुक्ति के तौर पर आया। मैं जयपुर चल पड़ी। 26 लोगों के बीच मैं और मणिमाला, दो लड़कियां। दोनों धुर महात्वाकांक्षी और औरत होने के नाते अपने लिए किसी भी तरह के महत्व की विरोधी। पहुंचने ही पहला जो ड्यूटी चार्ट बना उसमें रात की ड्यूटी करने वालों में अपना नाम न देखकर पांव तले जमीन खिसक गई। ऐसा लगा जैसे किसी ने तमाचा मारा हो। तब नई-नई नौकरी थी और नाइट ड्यूटी को लेकर जबरदस्त उत्साह था। मैंने तुरंत इस्तीफा लिखा और चल पड़ी। पूरे दफ़्तर में हलचल मच गई। हमारे चंद वरिष्ठ साथी मनाने चले आए और बोले – ये क्या बचपना है? नाइट ड्यूटी लगेगी सबकी बारी-बारी से। और उसके बाद तो जैसे नाइट ड्यूटी ही ज़िंदगी हो गई।

जयपुर से दिल्ली पहुंची तो एसपी सिंह मिल गए। जब मैंने उनसे दिल्ली आने के बारे में पूछा तो बोले, नाइट ड्यूटी करनी पड़ेगी। मैंने फट से जवाब दिया नहीं कराएंगे तो नौकरी छोड़ दूंगी और उसके बाद बगैर ऑफ लिए महीनों नाइट ड्यूटी करती रही। तब तक नवभारत टाइम्स में महिलाओं की नाइट ड्यूटी की परंपरा न थी। पर मुझे तो सिर्फ इसी में आनंद आता था। इसकी वजह थी दिन भर अपने मन मुताबिक लिखना-पढ़ना और घूमना और रात में पत्रकारिता का रोमांच।
दिल्ली का प्रोफेशनलमाहौल एकदम अलग था। राजेंद्र माथुर जैसे यशस्वी संपादक और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे रिपोर्टिंग की पैनी नज़र रखने वाले कार्यकारी संपादक। पत्रकारिता का स्वर्णिम युग था वह। माथुर साहब में लेश मात्र भी दंभ न था। वे कभी भी बड़ी सरतलता से आकर डेस्क पर बैठ जाते और ख़बरें मांग कर बनाना शुरू कर देते अक्सर वह बजट और राजनीतिक परिस्थितियों, समसामयिक विषयों पर हम जैसे जूनियर उप संपादकों की राय लेते। कभी-कभी ऐसा लगता था कि इस तरह वह हममें भावी संपादक तलाश रहे हैं। वह हमें विषयों पर झकझोरते, शब्दों से खिलवाड़ करने को कहते। इसके साथ ही हम सबका भरपूर खय्ला भी रखते। अक्सर उन्हें यह कहते सुना गया कि फलां व्यक्ति मायूस क्यों है? फलां के कड़कपन को क्या हुआ या फलां की तबियत कुछ अलील है क्या? कई बार वह हम लड़रकियों से ताजा फैशन की जानकारी लेते, हेयर स्टाइल इत्यादि पर चर्चा करते और खाली वक़्त में अपने कमरे में बुलाकर निजी जीवन पर बातचीत किया करते थे। उनका जाना सचमुच पत्रकारिता के लिए ऐसा नुकसान था, जिसकी भरपाई शायद ही हो पाए।

सुरेंद्र प्रताप सिंह
का अंदाज़ जरा अक्खड़ था, पर वह जो स्टैंड ले लें उससे कभी न मुकरते। पत्रकारिता में उनकी उपलब्धियां कौन नहीं जानता पर सामान्य जीवन में वे बेहद सरल और दोस्ती पसंद इंसान थे। उनका घर और दफ़्तर नौजवानों के लिए खुला रहता। वे नए और योग्य लोगों की हर तरह से मदद करते। कई बार मैंने उन्हें सबसे पहले दफ़्तर आकर पूरे स्टाफ की मेज-कुर्सियां तरतीब से लगाते देखा। उन्हें लोगों से समोसा शेयर करने में कोई हिचक नहीं थी। इन दोनों की खासियत यह थी कि दोनों ही निचली पायदान से संपादक बनने वाले लोग थे और उनमें आज के कारपोरेट संपादकों जैसा दंभ नहीं था।

अब और तब के संपादकों में फर्क यह है कि उनमें टीम के बीच आते ही अपनी लीडरशिप का अहम जाग जाता है। नवभारत टाइम्स में कई संपादक देखे। इनमें सिवाय विष्णु खरे के किसी के व्यक्तित्व में माथुर साहब और एसपी जैसी आभा न दिखाई दी। विष्णु खरे महालिक्खाड़ और विद्वान व्यक्ति थे पर वे डील-डौल, अपने बोलचाल के अंदाज और सरलता के कारण नवभारत टाइम्स में लंबे समय तक न टिक पाए। वरना माथुर साहब की परंपरा के वे ऐसे पोषक साबित होते जिनमें पत्रकारिता की खूबियां भी कूट-कूटकर भरी हुईं हैं।
नवभारत टाइम्स ने मुझे बहुत कुछ दिया। मसलन राष्ट्रीय अख़बारों में स्वतंत्र रूप से राष्ट्रीय संस्करण निकालने का गौरव। नवभारत टाइम्स में तब चीफ सब एडीटर पद तक पहुंचने वाले मैं पहली महिला थी। उससे पहले महिलाएं तो बहुत रहीं पर उनका नाइट ड्यूटी और न्यूज़ से भागना उन्हें इस पद तक न पहुंचा पाया। किरण अरोड़ा ज़रूर न्यूज़ में रहीं, पर उनका रुझान रिपोर्टर बनने की तरफ था, लिहाजा के सांध्य टाइम्स चली गईं। नवभारत टाइम्स में मेरे व्यवहार और काबिलियत से बेहिसाब समर्थक बन गए। जो लोग दूसरों से सीधे मुंह बात न करते वे भी मुझसे बहुत आत्मीयता से पेश आते। इससे मेरे वरिष्ठजनों में एक तरह की आशंका पलने लगी। वे मुझे अपने लिए चुनौती मानकर चलने लगे और मैं एक ऐसी साजिश का शिकार हो गई, जिसकी लड़ाई मुझे सुप्रीम कोर्ट तक लड़नी पड़ी।
मेरे अपने अनुभव का यही निचोड़ था कि हिंदी पत्रकारिता को प्रोफेशनल लड़कियां नहीं बहू, बेटियों और बहनों की दरकार है। यहां सहम कर रहना, मुस्कुराना और हर उल्टे-सीधे निर्देश सिर झुकाकर सुनना ही नियति है। महिला की काबिलियत कभी सामने न आए, इसके लिए हर दम घेराबंदी। अंग्रेजी महिला पत्रकार की दीदें फाड़कर बड़ाई करने वाले हिंदी पत्रकार के लिए बेबाक, काबिल, फैशनपरस्त सहकर्मी महिला हमेशा फिकरेबाजी और ईर्ष्या का विषय रही।अंग्रेजी पत्रकार की जिन बातों को हिंदी पत्रकार उसके गुण बताते, उन्हीं बातों को वे अपनी सहकर्मी के चरित्र हनन का औजार बना लेते। मसलन, अंग्रेजी पत्रकार बोले तो तेज-तर्रार और अपनी सहकर्मी बोले तो बदतमीज। अंग्रेजी पत्रकार अपने हकों के लिए लड़े तो जुझारू और हिंदी पत्रकार का आवाज़ उठाना शोशेबाजी। इस तरह की अनेक त्रासदियां महिला पत्रकार को जाने-अनजाने झेलनी पड़ती। महिला पत्रकार के साथ एक कप चाय पीकर धन्य हो जाने वाले साथी उसके प्रमोशन की बात उठते ही बैरी बन जाते।

पत्रकारिता की इन कड़वी
सच्चाइयों से मुझे भी रू-ब-रू होना पड़ा। नभाटा में मेरे संस्करण निकालने की बात उठते ही मेरे सानिध्य से निहाल जाने वाले साथियों ने मुहिम छेड़ दी। कैसे जाएगी वहां? लड़कियों के बस का काम नहीं है वगैरह वगैरह। ऐन वक़्त पर मेरा नाम ड्यूटी चार्ट से हटा दिया गया। सीधे एसपी के पास जाकर कहा कि मौका दें, न जंचे तो छीन लीजियेगा। लोगों ने इतना भर रखा था कि एसपी एक लड़की को पीटीएस के लोगों के बीच भेजने का जोखिम नहीं लेना चाहते थे। वो समझाने लगे- वहां कितनी गाली-गलौज होती है। तुम्हें देर रात तक रुकना होगा। पर मेरा यह तर्क उन्हें जंच गया कि किसी लड़की ने वहां काम किया ही नहीं है। ये सभी परिवार वाले लोग हैं और मेरे जाने से सूरत बदलेगी।


17 मई को मुझे
नभाटा से निलंबन की चिट्ठी थमा दी गई। मैं करीब साल भर तक निलंबित रही। इस दरम्यान तपती गर्मी में मुझे लेबर गेट पर हाजिरी लगानी पड़ती और बाद में मेरी सेवाएं समाप्त कर दी गईं। भेदभाव और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के एवज में मुझे नाफरमानी और दंगा करने का जुर्म साबित कर नौकरी से निकाल दिया गया। यह लड़ाई मैंने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी और हारी, पर इस बात का संतोष है कि मैंने कभी खुद को लाचार नहीं पाया। संतोष यह है कि मेरा संघर्ष रंग लाया और नभाटा में लड़कियों को तवज्जो मिलने लगी और पुरुषों का कहर कम हुआ।

नभाटा से निकाले जानेके बाद मैं पत्रकारिता के लिए अस्पृष्य हो गई। मेरी बेबाकी और अन्याय न सहने के गुण पर लोगों ने झगड़ालू का मुलम्मा चढ़ाकर ऐसी मार्केटिंग की कि मैं जहां पहुंचती लोग नमस्ते कर देते। मैंने नौकरी का विचार त्याग दिया। सभी अख़बारों के लिए लिखना शुरू किया। ऐसे वक़्त में हिंदुस्तान की नौकरी एक खुशनुमां हवा का झोंका बनकर आई। शंभूनाथ सिंह जीका फोन था- मृणाल जीतुरंत मिलना चाहती हैं। मैंने कहा टांग टूटी हुई है, प्लास्टर बंधा है तो बोले कैसे भी आओ। मृणाल जी ने कहा कि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं पर किसी जानकार और विश्वास के व्यक्ति को भेजना चाहते हैं। फिर मेरी तरफ सवालिया नज़रों से देखा। मैंने कहा न बोलने का सवाल नहीं है। बस आपका फरमान है तो मानूंगी। कुछ निजी सवाल भी थे कि परिवार का क्या होगा। मैं बेटे को साथ लेकर तीसरे दिन चल पड़ी और टूटी टांग घसीट-घसीट कर ही भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन की रिपोर्ट कर डाली।
और उसके साथ ही शुरू हुआ धुआंधार रिपोर्टिंग का सिलसिला। बस्तर के जंगलों और सरगुजा के आदिवासी अंचलों से मेरी ख़बरें तब खूब पढ़ी और सराही गईं। जिस हिंदुस्तान में मुझसे जबरन इस्तीफा मांगा गया उसी की संपादक ने मुझसे कहा – इरा यू मेड मी प्राउड। उन्होंने ही लिखा युअर नेबर्स एन्वी इज युअर एडीटर्स प्राइड। नक्सल कैंप से मेरी रिपोर्ट तो तब पूरे हिंदुस्तान के उन मर्दों के लिए चुनौती थी, जो आज अंदर बैठे हैं। तब तक हिंदी या अंग्रेजी की कम से कम कोई महिला पत्रकार वहां तक जाने की हिम्मत न जुटा पाई थी। हिंदुस्तान के रांची दफ़्तर ने तो अपनी लाचारी जता दी थी। बाद में कई अख़बारों के की पत्रकारों को किसी नामलूम से नक्सल से मिलने के लिए पुरस्कृत किया गया और मेरा इनाम तो पूरी दुनिया के सामने है।
हिंदुस्तान की कहानीफिर कभी। पर इतना ज़रूर है कि काम में मेरे जैसे बिरले मिलेंगे। मैंने कितनी लगन से काम किया इसका ढिंढोरा पीटकर मैं अपनी मेहनत को छोटा नहीं करना चाहती, पर ज़िंदगी में जो भी हासिल किया अपने काम से। अन्याय सहना या ग़लत समझौते करना मेरी फितरत नहीं और मरते दम तक नहीं करूंगी चाहे कितना भी नुकसान क्यों न हो।

Corporate media

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From Wikipedia, the free encyclopedia
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Corporate board interlocks between various U.S. corporations/institutions, and four of the major media/telecom corporations (circled in red), in 2004.
"Corporate media" is a term which refers to a system of mass media production, distribution, ownership, and funding which is dominated by corporations and their CEOs. It is sometimes used as a term of derision to indicate a media system which does not serve the public interest in place of the mainstream media or "MSM," which tends to be used by both the political left and the right as a derisive term.

Contents

Background

Media critics such as Robert McChesney,[1]Ben Bagdikian,[2]Ralph Nader, Jim Hightower,[3]Noam Chomsky,[4]Edward S. Herman,[5] and Amy Goodman suggest that such a media system, especially when allowed to dominate the mainstream media, inevitably will be manipulated by these same corporations to suit their own interests. These critics point out that the main national networks, NBC, CBS, and ABC, as well as most if not all of the smaller cable channels, are owned, funded, and controlled by an interconnected network of large corporate conglomerates and international banking interests, which they say manipulate and filter out news that does not fit their corporate agenda.

Propaganda model

Noam Chomsky and Edward S. Herman have established a propaganda model which purports to explain this bias. The common misinterpretation of this model is that all bias is conscious and centralized. The process however is hypothesized to be decentralized and operates as a confluence of factors that includes the overt pressure from owners and advertisers, but also by the gradual internalization of the biases and values of the corporate owners, leading to self-censorship.
Other factors include the tendency of journalists to avoid doing original research, instead obtaining news from the same few wire services, such as Reuters and Associated Press, which themselves tend to cover the same news under the same perspective. Due to the desire to reduce operation costs, the mainstream media favor news pieces that are pre-made by these news agencies instead of conducting their own reporting.[citation needed]

Impact of public relations on news and public affairs programming

This same economic pressure makes media susceptible to manipulation by government and other corporate sources through the widespread use of press releases, often created by industry-funded public relations firms.[citation needed]

Impact of the corporate media propaganda model on world events and society

The point of view and statements made by governments, officials, military, police, national security organizations (such as the FBI and CIA), as well as various other political offices are regularly reported as facts and are published without any (or very little) fact checking by the corporate media. Perhaps the most infamous current example of the impact of the propaganda model on world events and societies was during the two year period following the 2001 US attacks. During this time, according to a five year in-depth research project conducted by the Centre for Public Integrity; the President of the United States George W. Bush and seven high-ranking officials in his administration made at least 935 false statements about the threat posed to the world and to US national security by Saddam Hussein. These false statements were virtually uncontested by the corporate media and presented as a sound rationale for both the 2003 invasion of Iraq and the "War on Terror". [1] The result was the "manufacturing of consent" for the invasion of Iraq and "The Global War on Terror/ism" in which hundreds of thousands of people have lost their lives to date. As an example, Jessica Yellin on Anderson Cooper 360 admitted being pressured by corporate executives to present positive stories during the run up to the Iraq war.
ANDERSON COOPER 360 Transcript of Jessica Yellin reporting:
COOPER: Jessica, McClellan took press to task for not upholding their reputation. He writes: "The National Press Corps was probably too deferential to the White House and to the administration in regard to the most important decision facing the nation during my years in Washington, the choice over whether to go to war in Iraq. The 'liberal media' -- in quotes -- didn't live up to its reputation. If it had, the country would have been better served." Dan Bartlett, former Bush adviser, called the allegation "total crap." What is your take? Did the press corps drop the ball?
JESSICA YELLIN, CNN CONGRESSIONAL CORRESPONDENT: I wouldn't go that far. I think the press corps dropped the ball at the beginning. When the lead-up to the war began, the press corps was under enormous pressure from corporate executives, frankly, to make sure that this was a war that was presented in a way that was consistent with the patriotic fever in the nation and the president's high approval ratings.
And my own experience at the White House was that, the higher the president's approval ratings, the more pressure I had from news executives—and I was not at this network at the time—but the more pressure I had from news executives to put on positive stories about the president. I think, over time...
COOPER: You had pressure from news executives to put on positive stories about the president?
YELLIN: Not in that exact—they wouldn't say it in that way, but they would edit my pieces. They would push me in different directions. They would turn down stories that were more critical and try to put on pieces that were more positive, yes. That was my experience.
Factcheck.org (Factcheck.org), created by the Annenberg school of Public Policy at the University of Pennsylvania, found hundreds of misrepresentations in political ads that were never corrected by the mainstream media. Studies also show that those who rely on the media for their information have a poor understanding of the issues and are unable to discern misrepresentations in political advertising.[citation needed]
As documented by authors Sheldon Rampton and John Stauber, it is becoming increasingly common for video news releases (VNR) to be created by government and corporations, mimicking TV news story-format, to be used straight into broadcasting in a newscast.[citation needed] Other factors include the cost of litigation. Large corporations tend to sue over any news that are against their interests, causing great expense for the news editors. Even if the litigation is lost, the cost of time and pressure will certainly bias a reporter towards avoiding such possibility.

Interlocking Corporations, Corporate Power, and its Social Influences

To illustrate the growing problem of monocracy, Bagdikian notes that in the 1980s, "less than 1 percent of all corporations, have 87 percent of all sales. [The corporates] are the aristocrats of the American Industrial economy; the remaining 359,500, in terms of their national power, are the peasantry." This conflict continues to arise as "dominant media companies are further [integrating] into the ruling forces of the economy." The directorates of major companies interlock with others and control the content of multiple dominating media and information distribution, i.e. newspapers, magazines, radio and television companies, book publishers, film industries, and even multinational banking investors. They become directly influenced by still other powerful industry, creating the "Endless Chain" of mass media and economic aristocracy (Wardrip-Fruin, 479).
Several issues arise from the fusion; under law and business ethics, the director of a firm is obligated to act in best interest of the company he or she is involved in, and failure to oblige under some circumstances can be a federal crime. This creates a dilemma in the governance of mass media: the same person may be trapped in a situation where working for the best interest for one may damage the other corporation. Another problem which arises is that the same person can abuse his or her power to get away with injustice as exemplified by Bagdikian: "When Sears was accused by the Federal Trade Commission of dishonest advertising and promotion, the Tribune was one of the major papers that failed to carry a word of it... (Wardrip-Fruin, 481)." Here, a market industry was able to conceal their crime of fraud since it was also interlocked with the news media, one of the main distributors of such significant information.
In summary, the concentration of massive media firms that control American public information is troublesome for the potential for deception misleads the public away from reality. The Senate Committee on Governmental Affairs state that these facts raise fundamental issues as they can bear on social issues and possibly control the shape and direction of the nation's economy. It is further derived that "the summits of American business now control or powerfully influence the major media that create American public opinion" (Wardrip-Fruin, 483).

See also

Notes

  1. ^McChesney, Robert. "Rich Media, Poor Democracy", ISBN 0-252-02448-6, University of Illinois Press, 1999; "The Problem with the Media", ISBN 1-58367-105-6, 2004
  2. ^Bagdikian, Ben, "Media Monopoly", ISBN 0-8070-6179-4, Beacon Press, 2000
  3. ^Hightower, Jim, "What Liberal Media?", "There's Nothing in the Middle of the Road Except Yellow Stripes and Dead Armidillos", ISBN 0-06-092949-9, Harper Perennial Press, 1998
  4. ^Manufacturing Consent
  5. ^Manufacturing Consent

References

  • Long, Paul and Wall, Tim : Media Studies: Text, Production and Context, Pearson Education, 2009, http://www.doingmediastudies.com/
  • CNN Anderson cooper 360 May 2008 Jessica Yellin reporting/The Huffington Post
  • Wardrip-Fruin, Noah and Nick Montfort, eds. The New Media Reader. Cambridge: MIT Press, 2003. ISBN 0-262-23227-8. "The Endless Chain" by Ben Bagdikian, pp. 471–483.

External links

bhadas4 media / सुख दुख

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Bhadas

सुख-दुख...

मिर्जापुर जिले के पड़री से खबर है कि एक प्रधानाध्‍यापिका से मारपीट करने की शिकायत पर पुलिस ने राष्‍ट्रीय सहारा के एक संवाददाता को गिरफ्तार किया है जबकि आरोपी ग्राम प्रधान भाग निकाला. जानकारी के अनुसार बेलवन ग्राम निवासी राष्‍ट्रीय सहारा के पत्रकार अवनीश कुमार उर्फ सुरेंद्र कुमार पांडेय ग्राम प्रधान सर्वेश कुमार उर्फ चिंटू पांडेय के साथ प्राथमिक विद्यालय चंडिका पहुंचे तथा प्रधानाध्‍यापिका सोनी गुप्‍ता से एमडीएम और अन्‍य जानकारियां लेने लगे.
: City-based journalist who has never been out of India was denied a visa to Dubai due to a lifetime ban against his name : Mumbai : Imagine the shock Mumbai-based journalist Vijay Kumar Singh experienced when he was refused visa for Dubai on grounds that he has a life-long ban against his name. This, when the man has never travelled out of the country.  Singh, 35, and a resident of Santacruz has been covering the Mantralaya since several years for a national Hindi newspaper.
: पीएलएफआई ने ली है हत्या की जिम्मेवारी : खूंटी : प्रभात खबर के मुरहू प्रतिनिधि जितेंद्र कुमार सिंह की आज मुरहू थाना क्षेत्र में हत्या कर दी गयी. मृतक की जेब में हत्यारों ने एक परचा छोड़ी है. जिसके मुताबिक उसकी हत्या पीएलएफआई ने की है. हालांकि पुलिस का कहना है कि अनुसंधान के बाद ही हत्यारों का खुलासा हो सकता है.
बीपीएन टाइम्स में काम करने वाले एक पत्रकार हरिशंकर सिंह की सेलरी का 14 हजार का चेक बाउंस करना बीपीएन टाइम्स मैनेजमेंट को काफी भारी पड़ा। मामला कोर्ट में जाने के बाद आखिरकार प्रबंधन ने 14 के बदले 18 हजार देकर मामले का निपटारा किया। जानकारी के मुताबिक, हरिशंकर सिंह बीपीएन टाइम्स के दिल्ली ऑफिस में बतौर उपसंपादक काम करते थे। उन्होंने जब अपनी नौकरी छोड़ी तो उन्हें मैनेजमेंट की ओर से 14 हजार का चेक बतौर फाइनल सेटलमेंट के तौर पर दिया गया था। जब उन्होंने चेक अपने अकाउंट में डाला तो स्टॉप पेमेंट करके उनका भुगतान रोक दिया गया।
 : चिट फंड कंपनियों के असल संरक्षक हैं, इस देश की व्यवस्था के बड़े लोग. परदे के पीछे रह कर उन्हें बढ़ानेवाले या पालने-पोसनेवाले. बंगाल में भी बड़े-बड़े नेताओं के नाम आ रहे हैं. एक ताकतवर केंद्रीय मंत्री की पत्नी का नाम भी उछला है. एक मामले में वकील की भूमिका का निर्वाह करने के संबंध में. जेवीजी से लेकर सारधा ग्रुप तक, सारी कंपनियों के पीछे या इस तरह के धंधे में डूबी कंपनियों के असल प्राणदाता, समाज और व्यवस्था के प्रहरी हैं :
सेबी सहारा समूह की मुश्किलें कम नहीं होने दे रहा है. इसकी टोपी उसके सिर पहनाकर अरबों का साम्राज्‍य खड़ा करने वाले सुब्रत रॉय और उनका सहारा समूह पहली बार बुरी तरह मुश्किलों में घिरा है. अपनी दो कंपनियों में निवेशकों से रकम जमा कराने से पहले सेबी के आदेश को हलके में लेना उसक हलक की हड्डी बन गया है. अब न निगलते बन रहा है और ना ही उगलते. सहारा की साम, दाम, दंड और भेद जैसी सारी कवायदें फेल हो रही हैं.
धर्मशाला के समीप दाडऩू में प्रेस फोटोग्राफर श्‍याम शर्मा से कुछ लोगों ने मारपीट कर उनकी सोने की चेन व नकदी छीन ली और कैमरा तोड़ डाला। एक दैनिक समाचार पत्र का प्रेस फोटोग्राफर खनियारा निवासी श्याम कुमार शुक्रवार रात्रि काम खतम करने के बाद घर वापस लौट रहा थे। दाडऩू के समीप बीड़ निवासी सुनील कुमार, देशराज और सुभाष सहित अन्य युवकों ने उसका मोटरसाइकिल रोक लिया। युवकों ने प्रेस फोटोग्राफर से मारपीट की तथा उसकी सोने की चेन, चांदी का ब्रेसलेट छीन लिया तथा कैमरा तोड़ दिया।
समाचार एजेंसी ईएफई के मुताबिक शनिवार को एक पत्रकार की हत्‍या में पांच पुलिस अधिकारियों को अरेस्‍ट किया गया है। दैनिक समाचार पत्र 'फोल्हा डी साओ पाउलो' ने बताया कि पकड़े गए सभी पुलिस अधिकारी मिनस गेरैस राज्य के मध्यवर्ती प्रांत वेल डो आवो की सिविल पुलिस के सदस्य हैं जिनका सम्बंध क्षेत्रीय उग्रवादी समूहों के साथ होने का संदेह जाहिर किया गया है।
''गूगल लंदन'' वाले समलैंगिकों को मिलवाने के काम में भी जुट गए हैं. लंदन स्थित गूगल के आफिस वालों ने अपने यहां काम करने वाले एक शख्स को उसके गे फ्रेंड से समारोहपूर्वक मिलवा दिया. शान आकलैंड ने पिछले शुक्रवार को यूट्यूब के जरिए यह बात उजागर की कि उनका पि‍छले दो वर्षों से अपने ब्‍वॉयफ्रेंड माइकल से अफेयर चल रहा है. शान आकलैंड सैन फ्रांसि‍स्‍को में रहते हैं और वहीं के गूगल ऑफि‍स में काम करते हैं. माइकल गूगल के लंदन आफिस में काम करते हैं और लंदन में ही रहते हैं.
पैसा कमाने के लिए साधना न्‍यूज की आईडी बेचे जाने से लेकर रिपोर्टरों को टार्गेट दिए जाने की खबरें तो पहले भी आती रही हैं, लेकिन इस समूह से जुड़े लोगों पर जब ब्‍लैकमेलिंग और भ्रष्‍टाचार के आरोप लगने लगे तो समूह संपादक एसएन विनोद ने इसकी जांच शुरू करा दी. जांच शुरू होते ही प्रबंधन समेत इस से जुड़े वरिष्‍ठ लोगों में खलबली और बेचैनी मच गई. इसके बाद ये लोग एसएन विनोद के खिलाफ षणयंत्र और साजिश रचने लगे.
कोलकाता : कोलकाता के भवानीपुर थाने में तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद कुणाल घोष के खिलाफ एक और शिकायत दर्ज कराई गई है। शारदा समूह के 'सकालबेला' नाम के अखबार के कर्मचारियों ने कुणाल घोष के खिलाफ यह शिकायत दर्ज कराई है। कुणाल घोष पर जिन धाराओं के तहत मामला दर्ज किया है, इनमें से दो गैर जमानती हैं।
रांची : झारखंड यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट और प्रेस क्लब की बैठक रविवार को यूनियन कार्यालय में हुई। बैठक में खूंटी जिला के पत्रकार जितेंद्र सिंह की नक्सलियों द्वारा की गई हत्या की कड़ी शब्दों में निंदा की गई। इसके अलावा पत्रकार के परिवार को सरकारी प्रावधान के मुताबिक मुआवजा और एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने, मामले की सीआईडी जांच कराने और दोषियों को सजा देने की मांग की गई। बैठक शिव कुमार अग्रवाल प्रताप सिंह, चंद्रकांत गिरी, उदय सिंह, हेमंत झा, प्रदीप अग्रवाल, मनोज मिश्र, धीरेंद्र चौबे, सुदीप सिंह अन्य मौजूद थे।
Yashwant Singh : अगर आपको फेसबुक पर सच्चे साथी की तलाश हो तो बस इतना कीजै कि एक दिन संघियों उर्फ हाफपैंटियों, एक दिन कम्युनिस्टों उर्फ लालझंडा वालों, एक दिन इस्लामिक कट्टरपंथियों और एक दिन कट्टर हिंदूवादियों के खिलाफ टाइट वाला स्टेटस डाल दीजिए... जो जो विरोध करे, उन्हें ब्लाक करिए... बाकी जो बच जाएं, उनमें से परम मूर्ख और परम ज्ञानी की तलाश आसानी से कर लेंगे :)
बरहज तहसील में हिंदुस्‍तान के पत्रकार संतोष उपाध्‍याय के साथ हुई मारपीट की घटना पत्रकारों के आपसी रंजिश का परिणाम है. संतोष उपाध्‍याय बरहज से सटे जयनगर में एक व्‍यक्ति को कुछ रुपये देने गए थे. संतोष जिस व्‍यक्ति को रुपये देने गए थे उसका अपने पट्टीदारों से जमीन का विवाद चल रहा है. जब वे रुपये देकर वापस जा रहे थे तो दूसरे पक्ष के लोगों ने उनकी बाइक रोक ली तथा पूछताछ करने लगे.
लखनऊ। अपट्रॉन की जमीन की नीलामी को लेकर खूब हो-हल्ला मचा हुआ है, लेकिन गोमती नगर स्थित नगर निगम की अरबों रुपए की बेशकीमती 170 एकड़ सरकारी जमीन पर काबिज सहारा इंडिया हाउसिंग पर नगर निगम और नौकरशाही ने चुप्पी साध रखी है। सहारा इंडिया हाउसिंग को 1994 में इस भूमि पर गरीबों को आवास बनाने के लिए आवंटित की गई थी। गरीबों का अशियाना इस बेशकीमती भूमि पर नहीं बन पाया, लेकिन सुब्रत राय सहारा श्री का अशियाना 'सहारा शहर' जरूर जनता को चिढ़ा रहा है। इस भूमि के बारे में नगर निगम और शासन के आला अफसर मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं।
मेरे एक मित्र हैं उर्मिलेश। मैं उन्हें १९८३-८४ से जानता हूं। धीर गंभीर पत्रकारों मे उनकी गिनती होती है। उर्मिलेश का कहना है कि हिंदी पत्रकारिता में दलित और पिछड़ी जाति के लोगों पर अघोषित रोक सी लगी है। आप किसी भी मीडिया हाउस के टॉप टेन लोगों में दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के नाम नहीं बता पाएंगे। पर मुझे लगता है कि मीडिया हाउसेज के टॉप टेन में ब्राह्मण और कायस्थ के अलावा अन्य अगड़ी जाति के लोग भी नहीं के बराबर हैं।
आप मुझे प्रकाश पुरोहित का अंधभक्त कह सकते हैं। मगर प्रवीण खारीवाल और कमल कस्तूरी ने जो लिखा है, उसे पढ़ कर मेरे मन में भी कुछ बातें आई हैं। जब-जब प्रकाश जी ने अपने बेटे सुधांशु को पर्यटन के लिए भेजा, तब-तब मेरे भी मन में सवाल उठे। मगर जो सुधांशु ने रिपोर्टिंग की, उसे पढ़ कर सारे सवाल मिट गए। सुधांशु भले ही प्रकाश जी का बेटा है, मगर लिखता अच्छा है और प्रकाश जी को इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। उनकी प्राथमिकता होती है पठनीय अखबार निकालना। इसके बाद या इसके पहले वे कुछ नहीं जानते।
नई दिल्ली : पत्रकारों और कलाकारों को उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित करने की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए रविवार को यहां 38वां मातृश्री मीडिया पुरस्कार प्रदान किया गया। पीटीआई के खेल संपादक एमआर मिश्रा एवं भाषा के कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव सहित 26 पत्रकारों को इस वर्ष पुरस्कृत किया गया।
ऐसा लगता है मानो सरकार ने भोले-भाले जरूरतमंदों को लूटने का लाइसेंस कुछ लोगों को दे दिया है. इस गोरखधंधे में बड़े अखबारों, न्यूज़ चैनलों की भी हिस्सेदारी नज़र आती है. भोले-भाले गरीब इनकी चाल में फंसते जा रहे है. दुःख तो इस बात का है कि इनकी फ़रियाद तक सुनने वाला कोई नहीं है. उल्टा उपदेश दिया जाता है कि जैसा किया है वैसा भोगो... मध्यप्रदेश में ऐसे 'ज्वेलथीफ' अमीर होते जा रहे हैं और जनता गरीब. सरकार मौन है. मीडिया की मिलीभगत के चलते कोई लगाम की सोच भी नहीं सकता.
न्यूयॉर्क। प्रखर नारीवादी और मशहूर पत्रकार मैरी थॉम का एक सड़क हादसे में निधन हो गया है। वे 68 साल की थीं। मोटरसाइकलें चलाने की शौकीन मैरी बीते शुक्रवार की शाम उत्तरी न्यूयॉर्क के एक राजमार्ग पर अपनी होंडा मागना-750 चला रही थी और उसी दौरान हादसे का शिकार हो गईं। उनके एक रिश्तेदार ने यह जानकारी दी। वे ‘मिस’ पत्रिका की पूर्व संपादक थीं। (भाषा)
सेवा में, श्रीमान यशवंत जी। सादर नमस्कार। महोदय, मेरा नाम मुश्ताक अहमद है। मैं अमर उजाला के बिल्हौर ब्यूरो कार्यालय में विज्ञापन प्रतिनिधि के रूप में पिछले दो सालों से काम कर रहा हूं। मैं ब्यूरो चीफ श्री सत्येंद्र मिश्रा के साथ मिलकर विज्ञापन और खबरों दोनों का काम करता हूं। पहले मेरे पास अमर उजाला अखबार की एजेंसी थी, जिसके कारण मिश्रा जी के सम्पर्क में आया। मिश्रा जी ने मुझको पत्रकार बनाने के लिए कहा तो मैं उनके साथ घूमने लगा।
अमर उजाला, लखनऊ से खबर है कि संपादकीय विभाग में कार्यरत दो सहकर्मियों ने शनिवार की दोपहर जमकर तू-तू-मैं-मैं तथा गाली-ग्‍लौज हुई. नौबत हाथापाई तक भी पहुंच गई परन्‍तु अन्‍य साथियों ने दोनों को अलग करके मारपीट होने से बचा लिया. संपादक इंदुशेखर पंचोली लखनऊ में नहीं है, लिहाजा उन्‍हें मोबाइल के जरिए सूचना दी गई है. संभावना है कि उनके लखनऊ आने के बाद कोई निर्णय लिया जाएगा.
श्रमजीवी पत्रकार यूनियन ने एक आपातकालीन बैठक शेखपुरा जिला भाजपा के खबर के बहिष्कार का निर्णय लिया है। यह भाजपा जिला अध्यक्ष के खिलाफ न्यूज छापने पर प्रभात खबर के पत्रकार  निरंजन कुमार को हटाने के विरोध में किया गया। नगर विकास मंत्री प्रेम कुमार से मीडिया ने पूछा था कि कई मामले के आरोपी तथा वारंटी जिलाध्यक्ष संजीत प्रभाकर किस तरह उनके साथ हैं तथा मंच पर स्पीच देने के साथ मंत्री जी के साथ वाहन में बैठे थे।
इंडिया टुडे समूह के अंग्रेजी अखबार मेल टुडे ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि चिटफंडियों के तूफान की चपेट में आकर पश्चिम बंगाल में कम से कम 2450 मीडियाकर्मी अपनी नौकरी गंवा चुके हैं, जिसमें पत्रकार तथा गैर पत्रकार दोनों शामिल हैं. इसमें सुदीप्‍तो सेन के मीडिया समूह के अलावा एक और चिटफंड कंपनी टॉवर समूह भी शामिल है.
कुछ पत्रकारों की हरकत पूरे समूह को शर्मसार कर देती है, ऐसा ही एक वाकया लगभग एक सप्‍ताह पहले देवरिया जिले के बरहज में हुआ है. हिंदुस्‍तान अखबार के क्षेत्रीय पत्रकार संतोष उपाध्‍याय को रंगरेलिया मनाना भारी पड़ गया. स्‍थानीय लोगों ने उन्‍हें जमकर मारने पीटने के बाद नाली में डूबोया, चेहरे पर गंदगी तक मल दी. सूचना पर पहुंची पुलिस ने उन्‍हें लोगों के चंगुल से बाहर निकाला. इस घटना के बाद से हिंदुस्‍तान की जमकर थू-थू हो रही है.
प्रेमिका को धोखा देकर सगाई रचाने वाले युवक तथा मीडियाकर्मियों के साथ मारपीट करने वाले उसके साथियों को पुलिस ने जेल भेज दिया। यौन शोषण की शिकार युवती ने सीएम को पत्र भेजकर इंसाफ की मांग की है। मेडिकल थाने के कालियागढ़ी निवासी युवती के प्रेमी अमित कुमार को दुष्कर्म और दोस्तों प्रदीप कुमार, संजीव कुमार, अंकित और आशीष को मारपीट की धाराओं में पुलिस ने मेडिकल कराने के बाद जेल भेज दिया।

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गोस्वामी के स्वामी / अनामी शरण बबल

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रमाकांत गोस्‍वामी : पत्रकार से मंत्री बनने का सफर

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अनामीशरणपत्रकारिता से राजनीति में आने वाले पत्रकारों की कोई कमी नहीं रही है, मगर दिल्ली की राजनीति में पिछले 15 साल के दौरान एकाएक (भाग्य) से चमकने वाले राजनीतिज्ञों में कम से कम तीन नामों पर चर्चा जरूर होनी चाहिए। हम यहां पर बात तो करेंगे केवल दिल्ली की शीला सरकार में कल (16 फरवरी) ही जगह पाने वाले (भूत) पूर्व पत्रकार रमाकांत गोस्वामी की। मगर गोस्वामी के बहाने कमसे कम दो और नेताओं का कोई जिक्र ना करना एक बड़ा अपराध सा होगा।
तीनों से मेरा साबका पड़ा है। लिहाजा पार्षद से विधायक और ( जनता के वोट से ज्यादा) किस्मत के धनी महाबल मिश्रा और लाटरी (बाजी) टिकट की बिक्री के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले विजय गोयल की सफलता की कहानी को सामने रखना भी जरूरी है।महज 10 साल के भीतर लाटरी(बाजी) नेता से सांसद और कैबिनेट मंत्री तक बनने वाले विजय गोयल की परियों जैसी सफलता की कहानी के पीछे दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की हर प्रकार की भूमिका रही है। दिवंगत प्रमोद महाजन की वजह से आसमानी सफलता हासिल करने वाले गोयल कभी डीयू नेता भी रहे हैं। अखबार के दफ्तरों में अपने प्रेस नोट्स को लेकर अक्सर ठीक से छपने के लिए अनुनय विनय और प्रार्थना करने वाले गोयल सांसद तक तो पत्रकारों के संपर्क में रहे, मगर पीएम अटल बिहारी वाजपेयी कैबिनेट में मंत्री बनते ही गोयल भाजपा के वरिष्ठ मंत्री बनकर पत्रकारों से परहेज करने लगे।
यही हाल लगभग, पार्षद से सांसद बनने वाले महाबल मिश्रा की रही। पत्रकारों को देखते ही हाथ जोड़ने (इस मामले में सपा नेता मुलायम को भी शर्मसार करने वाले) के लिए मशहूर महाबल में छपास रोग इतना था कि अपने प्रेस रिलीज को लेकर अखबार के दफ्तर तक जाने में कोई गुरेज नहीं होता था। अपनी मासूमियत और इनोसेंट फेस की वजह से महाबल पत्रकारों में काफी लोकप्रिय हो गए और उम्मीद से ज्यादा प्रेस में जगह पाने में हमेशा कामयाब रहे। हालांकि विधायक बनने के बाद महाबल में थोड़ा गरूर आ गया और सांसद बनने के बाद तो थोड़ा बौद्धिक होने का घंमड़ सिर चढ़कर बोलने लगा। यही वजह है कि अब महाबल दिल्ली की राजनीति में महा होने के बाद भी बली बनने का सपना शायद पूरा नहीं कर पाएंगे।
हां तो अभी बात हो रही थी, रमाकांत गोस्वामी की। अपनी पत्रकारीय प्रतिभा से ज्यादा बिरला मंदिर में अपने पुजारी रिश्तेदारों की सिफारिश से दैनिक हिन्दुस्तान में रिपोर्टर की नौकरी पाने वाले रमाकांत गोस्वामी दैनिक हिन्दुस्तान में चीफ रिपोर्टर भी बनने में कामयाब रहे। बात 1996 लोकसभा चुनाव की है। मैं गोस्वामी को जानता तो था, मगर मिलने का मौका कभी नहीं मिला था। कई तरह से बदनाम होने के बावजूद खासकर पत्रकारों में खासे लोकप्रिय भूत(पूर्व) सांसद सज्जन कुमार की जेब में रहने के लिए गोस्वामी ज्यादा बदनाम थे। तालकटोरा रोड़ वाले प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में सज्जन की प्रेस कांफ्रेस थी। हिन्दुस्तान की तरफ से संतोष तिवारी हमलोग के साथ ही बैठे थे, मगर सज्जन के बगल में एक मोटा सा आदमी बैठा था। प्रेस कांफ्रेस के दौरान कई बार सज्जन उससे सलाह लेते तो कई बार अपना मुंह आगे बढ़ाकर वह आदमी भी सज्जन को सलाह देता। आधे घंटे की प्रेस कांफ्रेस के दौरान सज्जन को आठ-दस बार अनमोल सलाह देने वाले के प्रति मेरे मन में कोई खास उत्कंठा नहीं जगी।
प्रेस वार्ता खत्म होने के बाद मैं और ज्ञानेन्द्र सिंह (दैनिक जागरण कानपुर से दिल्ली आए चंद माह भी तब नहीं हुए थे) डीपीसीसी के बाहर खड़े होकर बातचीत में मशगूल थे। तभी मेरी नजर सज्जन कुमार के उसी चम्‍मचे की तरफ गई, जो अब तक दो बार डीपीसीसी के अंदर से निकल कर बाहर खड़ी अपनी कार तक जाकर कोई सामान लेकर अंदर जा चुका था। चंद मिनटों में ही एक बार फिर वही चम्‍मचा एक बार फिर बाहर निकल कर अपनी कार की तरफ जाता हुआ दिखा। मैने ज्ञानेन्द्र से कहा चलो जरा माजरा क्या है देखें? अपनी कार से कुछ सामान निकाल कर वापस डीपीसीसी लौट रहे मोटे सज्जन को देखकर हाथ जोड़ते हुए मैंने कहा, सर आप कौन, पहचाना नहीं? तब तपाक से वह बोला तुम कौन? अपना आपा खोए बगैर धीरज के साथ मैंने जवाब दिया मैं राष्‍ट्रीय सहारा से अनामी और ये दैनिक जागरण से ज्ञानेन्द्र। तब थोड़ा सहज होकर सज्जन के चम्मचे ने कहा अरे, तुमने मुझे नहीं पहचाना? मैं एचटी से गोस्वामी। तब पूरी विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर मैंने फिर कहा नहीं सर नहीं पहचाना। तब सज्जन के चमच्चे ने कहा कमाल है, अरे भाई मैं रमाकांत गोस्वामी हिन्दुस्तान से। अब चौंकने की बारी मेरी थी। मेरी आंखे विस्मय से लगातार फैल रही थी। मैंने कहा कमाल है, सर आप और सज्जन के साथ, तो फिर संतोष तिवारी जी? लगभग सफाई देते हुए गोस्वामी ने कहा अरे सज्जन तो अपने भाई हैं, साथ देना पड़ता है। संतोष कवरेज के लिए आया था। इस सफाई के बाद भी मेरी हैरानी कम नहीं हो रही थी। बात को मोड़ने के लिए गोस्वामी ने शराब की कुछ बोतल और लिफाफे में रखे पकौड़े को दिखाते हुए पूछा खाओगे? जबाव देने की बजाय तपाक से मैंने पूछा क्या आप खाते है? इस पर जोर देते हुए गोस्वामी ने कहा, नहीं मैं तो पंड़ित हूं। तब मैंने पलटवार किया। नहीं सर, मैं तो महापंड़ित हूं, इसे छूता तक नहीं। मेरी बातों से वे लगभग झेंप से गए। इसके बावजूद अपने दफ्तर में कभी आने का न्यौता देकर अपनी पिंड़ छुड़ाई।
लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद मतगणना से एक दिन पहले तालकटोरा स्टेडियम में हो रही तैयारियों का जायजा लेने गया था। वहां पर एक बार फिर गोस्वामी से टक्कर हो गई। इस बार हम दोनों एक दूसरे को पहचान गए। मैंने गोस्वामी से पूछा- सर, परिणाम में क्या होने वाला है? एकदम बेफ्रिक होकर गोस्वामी ने कहा होने वाला क्या है? बस देखते रहो सज्जन भाईसाहब किस तरह जीतते है। इस पर मैंने आपत्ति की और बोला कि मामला कुछ दूसरा ही होने वाला है। तब ठठाकर हंसते हुए गोस्वामी ने कहा, 'तुम अनुभवहीन लोग पोलिटिकल हवा को नहीं जानते।' खैर बात को तूल देने की बजाय मैं दफ्तर लौट आया और अगले ही दिन बीजेपी के कृष्णलाल शर्मा ने सज्जन कुमार को एक लाख 98 हजार मतों से हरा कर सज्जन कुमार एंड़ कंपनी का बोलती ही बंद कर दी थी। हालांकि इसे शर्मा की जीत की बजाय इसे तत्कालीन सीएम साहिब सिंह वर्मा और पूरी बीजेपी की जीत कहें तो भी कोई हैरानी नहीं।
हिन्दुस्तान में नौकरी करने के बावजूद बिरला से ज्यादा सज्जन की वफादारी के लिए (कु) या विख्यात गोस्वामी को सज्जन सेवा का पूरा फल मिला और दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान सज्जन की पैरवी से रमाकांत 1998 में पत्रकारिता से अलग होकर अपने चेहरे पर पोलिटिकल मुखौटा लगाने में कामयाब रहे। निगम सदस्य विधायक होने के नाते गोस्वामी से मेरी एक और मुठभेड़ 2000 या 2001 में हुई। जब वे निगम की एक बैठक में बतौर विधायक एमसीडी सदन में आए। हम पत्रकारों को देखते ही गोस्वामी ने सबों को बेटा- बेटा कहकर प्यार दिखाना शुरू कर दिया। अपने पिता के रूप में थोड़ी देर तक बर्दाश्त करने के बाद अंततः मैने टोका गोस्वामीजी नेता का चेहरा तो ठीक है, मगर हम पत्रकारों के बाप बनने की चेष्टा ना करें। कई और पत्रकारों ने भी जब आपत्ति की तो फिर गोस्वामी खिसक लिए।
सज्जन की वफादारी निभाते हुए ही गोस्वामी ने शीला दीक्षित के भी वफादार साबित हुए। जिसके ईनाम के रूप में गोस्वामी को मंत्री होने का परम या चरम सुख भी हासिल हो गया है। मेरी गोस्वामी से कोई शिकवा शिकायत वाला रिश्ता भी कभी नहीं रहा, इसके बावजूद मंत्री बनने की खबर से न में कोई खुशी नहीं हुई। इसके बावजूद मैं कामना करूंगा कि वे मंत्री की पारी को 2013 तक जरूर नाबाद रहे।
लेखक अनामी शरण बबल दिल्‍ली में पत्रकार हैं.

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हिन्दी पत्रकारिता में हिंदी

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वर्तमानयुग में समाचार पत्र, विशेषकर दैनिक, जनभावना एवं जन आकांक्षाओं के माध्यम हैं। दैनिक पत्रों में समयबध्द कार्यक्रम पर चलना आवश्यक है। सारे विश्व को घटनाक्रम से लेकर राष्ट्रीय, आंचलिक और स्थानीय समाचारों की भरमार में सम्पादकीय विभाग को त्वरित गति से काम करना पड़ता है। इसलिए अनेक बार भाषा में जो कसाव आना चाहिए वह नहीं आ पाता। किंतु अनुभवी उप सम्पादक इस दोष से मुक्त भी रह सकता है। सामान्यत: दैनिक पत्र में उस भाषा का उपयोग करना पड़ता है जो बोध गम्य हो और गरिष्ठ भी न हो। दरअसल दैनिक पत्र का पाठक जल्दी में होता है। कम शब्दों में समाचार सार मिलने पर उसे तृप्ति होती है। अंग्रेजी पत्रों की तुलना में हिन्दी पत्रों में सीमाएं हैं। लेकिन हिन्दी पत्रों का पाठक वर्ग विस्तृत है। इसलिए हिन्दी या भाषायी पत्र लोकप्रिय होते हैं तथा परिवार के प्रत्येक सदस्य द्वारा पढ़े जाते हैं इसलिए अनेक बार प्रचलित मान्यताओं या व्याकरणिक परम्परा का उल्लंघन करना पड़ता है। वास्तव में पत्र की लोकप्रियता या पाठक की विश्वसनीयता ही दैनिक पत्र के अस्तित्व के मापदंड होते हैं। और उनमें भाषा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
देशबन्धु के संस्थापक संपादक स्व. मायाराम सुरजन के अधिकतर लेख 'देशबन्धु' में ही प्रकाशित हुए, लेकिन इसके अलावा कभी उन्होंने आकाशवाणी पर अपने लेख दिए तो कभी विशेष अवसरों पर प्रकाशित स्मारिकाओं व पत्रिकाओं में। उन्होंने अनेक पुस्तकों की भूमिकाएं भी लिखीं और समीक्षा भी। उनकी ऐसी असंकलित सामग्री से चुनकर हम कुछ लेखों को 'देशबन्धु' के इन पन्नों पर प्रकाशित करने जा रहे हैं। इस श्रृंखला में पहला लेख 'हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी' आज यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। अनुमान होता है कि यह लेख 1980 के आसपास कभी किसी वार्ता या परिसंवाद के लिए लिखा गया है।
'हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी' मुझे बहुत अस्पष्ट सा शीर्षक लगता है या यों कहिए कि पत्रकारिता का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि उसे एक शीर्षक में बांध रखना उचित प्रतीत नहीं होता। पत्रों का वर्गीकरण करें तो दैनिक, साप्ताहिक, अर्ध्दसाप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक से त्रैमासिक, अर्ध्दवार्षिक और वार्षिक इस श्रृंखला को फैलाया जा सकता है और इन सबकी अपनी पृथक-पृथक आवश्यकताएं हैं- विशेषकर भाषा की दृष्टि से। जो भाषा दैनिक पत्र के लिए उपयोगी है वह साप्ताहिक और अर्ध्द साप्ताहिक पत्रों के लिए तो ठीक हो सकती है किंतु मासिक और अन्य पत्रों के लिए नहीं, क्योंकि उनके चरित्र ही अलग हैं। दैनिक समाचार पत्र घटना प्रधान होते हैं और मासिक आदि पत्रिकाएं साहित्य प्रधान। इनके बावजूद ये सभी पत्र-पत्रिकाएं पत्रकारिता के दायरे में आती हैं।
वर्तमान युग में पत्रकारिता को एक अलग ही विधा मान लिया गया है। जैसे कि साहित्य से उसका कोई लेन-देन नहीं। इतिहास, संस्कृति, भूगोल आदि का लेखन भी साहित्यिक लेखन से अलग समझा जाने लगा है। लेकिन एक ऐसा समय अवश्य था जब ये लेखन विधाएं भी साहित्य का अंग मानी जाती थीं। मुझे याद है कि जब कभी साहित्य सम्मेलनों के अधिवेशन हुआ करते थे, तब पत्रकार परिषद, इतिहास परिषद आदि के नाम पर कुछ अलग बैठकें भी आयोजित की जाती थीं, जिनमें इन विधाओं की भाषा, शब्दावलि तथा अन्य आवश्यकताओं पर चर्चा हुआ करती थी। अब यह परम्परा समाप्त हो गई है। इसके बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि पत्रकारिता और साहित्य को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। वस्तुत: किसी भी अभिव्यक्ति का स्रोत तो शब्द ही है और शब्द तथा साहित्य एक दूसरे से अलग नहीं हैं। यह अलग बात है कि प्रत्येक श्रेणी की पत्रकारिता की भाषा भिन्न होती है। कहा भी गया है कि Òjournalism is literature written in a hurryÓ
दैनिक समाचार पत्रों पर उक्ति पूरी तरह लागू होती है क्योंकि दैनिक पत्रों को भाषायी आवश्यकता की तत्काल पूर्ति करनी होती है जबकि शेष पत्र-पत्रिकाओं के मुद्रण तथा प्रकाशन के लिए अधिक समय उपलब्ध रहता है।
मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि दैनिक पत्रों द्वारा गढ़े हुए शब्द कालान्तर में साहित्य में स्वीकार कर लिए जाते हैं। आगे चलकर इस विषय पर कुछ और प्रकाश डाला जाएगा।
आप सब जानते हैं, खडी बोली का इतिहास बहुत लम्बा नहीं है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिन्दी अभी भी एक विकासमान भाषा है जिसमें आज के युग की आवश्यकता के अनुसार नए शब्दों का निर्माण और प्रचलन जरूरी है। दूसरे महायुध्द के बाद वैज्ञानिक तथा तांत्रिक (तकनीकी) विकास जिस द्रुतगति से हुआ है, और इन नए शब्दों का प्रचलन दैनिक समाचार पत्रों के माध्यम से ही होता है। दैनंदिन समाचारों में इन शब्दों की पुनरावृत्ति होने के कारण वे जन-स्वीकार्य हो जाते हैं।
1945 में जब मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण किया तब ऐसे कई शब्द बोलचाल में नहीं आए थे, जिनका आज धड़ल्ले से उपयोग होता है। और ये शब्द पत्रकारिता द्वारा ही जन सामान्य या पाठक वर्ग तक पहुंचे, बाद में साहित्य में उनका समावेश हो गया।
जैसा कि मैंने पहिले कहा, दैनिक सावधिक पत्रों की भाषायी समस्याएं अलग-अलग हैं। इसका यह आशय भी नहीं कि दैनिक समाचार पत्र साहित्य से बिल्कुल ही अछूते होते हैं। यह समाचार केवल एक घटना हो सकती है लेकिन वैसा ही दूसरा समाचार साहित्य। मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा:
कोई महिला कुएं पर पानी भरने जाए और पैर फिसल जाने से कुएं में गिरकर उसकी मृत्यु हो जाए। एक अन्य महिला दहेज या सती की बलिवेदी पर चढ़ा दी जाए। समाचार की दृष्टि से दोनों ही घटनाएं हैं। दोनों में महिला की मृत्यु होती है। किंतु पहिली घटना मात्र समाचार है जबकि दूसरी की पृष्ठभूमि में एक मानवीय एवं संवेदनात्मक कथानक छुपा हुआ है। पहिली घटना को सामान्य शब्दों में बनाकर प्रकाशित किया जाता है, जबकि दूसरी के लिए एक पूरा कथानक तैयार किया जाता है, पारिवारिक पृष्ठभूमि, यातनाओं का विवरण और अंत के करुण प्रसंगों को यदि संवेदनशील न बनाया जाए तो उसे पाठकों की या समाज की सहानुभूति नहीं मिलेगी। यही संवेदना-वृत्तांत साहित्य हो जाता है।
जहां तक हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी का प्रश्न है, हमें उसे ऐतिहासिक परिवेश में देखना होगा। मुगल शासन में उर्दू का प्रचलन हुआ। अंग्रेज सरकार आई तो उसने भी हिन्दी को कोई महत्व नहीं दिया। कहीं देवनागरी लिपि स्वीकार कर भी ली गई तो शब्द उर्दू के ही होते थे। जब समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो उत्तर भारत के अधिकांश पत्र उर्दू बहुल भाषा का ही प्रयोग करते थे। समाचार पत्रों में हिन्दी को प्रतिष्ठित कराने का श्रेय महर्षि दयानंद को है। मूलत: गुजराती भाषी होते हुए भी उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान देने की पहल की। उन्होंने यह समाचारपत्रों के द्वारा किया। डॉ. रामरतन भटनागर ने भी अपने शोधग्रंथ में प्रतिपादित किया है कि :
'उर्दू के मध्य में हिन्दी की नींव को दृढ़ करने वाली और भी एक महत्वपूर्ण शक्ति थी और वह वह थी आर्य समाज। अपने मासिक पत्रों तथा समाचार पत्रों के द्वारा उसने हिन्दी के पिष्टपेषण का कार्य किया। सर्वप्रथम 1870 में शाहजहांपुर से मुंशी बख्तावर सिंह ने 'आर्य दर्पण' नामक साप्ताहिक पत्र प्रारंभ किया और उसके बाद से अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आर्य समाज की ओर से होता चला आ रहा है।
वस्तुत: आर्य समाज की स्थापना के पांच वर्ष पूर्व ही दयानंदजी के अनन्य शिष्य श्री बख्तावर सिंह को महर्षि के हिन्दी प्रेम से प्रेरणा मिली। अन्य आर्य समाजी कार्यकर्ताओं ने भी इस परम्परा को पुष्ट किया। यहां तक कि यदि पत्र पर पता उर्दू में लिखा गया हो तो देवनागरी जानने वाले मुंशी की नियुक्ति पर बल दिया गया।
आर्य समाज के इस प्रभाव को पत्रों में भी देखा जा सकता है। अविभाजित पंजाब के आर्य समाजी नेता खुशालचंद खुरसंद 'मिलाप' तथा महाशय कृष्ण 'प्रताप' पत्रों का लाहौर से उर्दू लिपि में प्रकाशन करते थे। किंतु उनकी भाषा हिन्दी हुआ करती थी। यह इसलिए कि उर्दू भाषी पंजाबी पाठक हिन्दी को ग्रहण करना सीखें। ये दोनों पत्र अब नई दिल्ली से प्रकाशित होते हैं। किंतु इस परम्परा का अभी भी पालन किया जा रहा है।
यह भी उल्लेखनीय है कि समाचार पत्रों में हिन्दी को स्थान दिलाने में बंगला भाषियों का बहुत योगदान रहा है। राजा राममोहन राय, महर्षि अरविन्द, अमृतलाल चक्रवर्ती आदि समाज सुधारकों एवं पत्रकारों के इस प्रारंभिक अनुष्ठान के बिना हिन्दी को यह मान्यता प्राप्त होने में और समय लग सकता था। इसी प्रकार मराठी भाषी राष्ट्रप्रेमियों ने पत्रकारिता में हिन्दी का अलख जगाया। लोकमान्य तिलक, बाबूराव विष्णु पराड़कर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, आर.आर. खाडिलकर आदि के नाम भुलाए नहीं जा सकते। पराड़करजी को समाचार पत्रों को एक मानक भाषा देने में अग्रणी माना जाता है। मिस्टर को 'श्री' तथा मेसर्स को 'सर्वश्री' लिखा जाना आज सामान्य है लेकिन उसका प्रारंभ पराड़करजी ने किया। सितम्बर 1956 में जब राष्ट्रीय इंटरिम गवर्नमेंट की स्थापना हुई तो इंटरिम को 'अंतरिम' स्वरूप पराड़करजी ने दिया। इसके पूर्व समाचार पत्र कहीं अन्तरवर्ती, कहीं मध्यावधि या कहीं कुछ और शब्दों का प्रयोग करते थे।
मैं एक और पत्र का उल्लेख करना चाहूंगा। किसी जमाने में बम्बई से प्रकाशित होने वाले 'श्री वेंकटेश्वर समाचार' का। धर्मग्रंथ प्रकाशित करने वाले संस्थान खेमराज श्रीकृष्णदास के स्वामित्व में प्रकाशित होने वाले इस दैनिक में लगभग पौराणिक नाम प्रकाशित किए जाते थे। जैसे कम्बोड़िया को कम्बोज प्रदेश, मद्रास को मद्रिराज आदि। पत्रकारिता को स्व. माखनलाल चतुर्वेदी का भी अनुग्रहित होना चाहिए। एडीटर को सम्पादक या करस्पांडेंट को संवाददाता कहना तो ठीक था लेकिन जर्नलिस्ट को क्या कहा जाए। चतुर्वेदीजी ने उसे 'पत्रकार' शब्द दिया। एडीटोरियल को सम्पादकीय अनुवाद किया जा सकता था, लेकिन लीड आर्टिकल को 'अग्रलेख' कहना दादा ने ही सिखाया।
इस तरह अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जहां हमारे पूर्वज पत्रकारों ने हिन्दी साहित्य को समृध्द किया। हिन्दी समाचार पत्रों में उर्दू शब्दों का प्रयोग कोई असाधारण बात नहीं रह गई है। लेकिन उर्दू के शब्दों को ग्रहण करने की शक्ति सम्पादकाचार्य श्री महावीर प्रसादजी द्विवेदी ने हमें दी। जबलपुर के स्वनामधन्य साहित्यकार श्री गंगाविष्णु पांडे ने एक जगह लिखा कि 'बस' या 'पर्याप्त' के लिए 'काफी' शब्द लिखने की प्रथा आचार्य द्विवेदीजी ने शुरू की। वर्तमान पत्रकारिता में उर्दू के अनेक शब्द प्रचलन में इस प्रकार आ गए हैं कि अब वे विदेशी नहीं लगते। बल्कि यह कहा जाए कि उनके बिना कम से कम दैनिक पत्रों का काम नहीं चलाया जा सकता तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में समाचारपत्रों की अहम् भूमिका रही है। हिन्दी गद्य की उन्नति में भी उनका योगदान नकारा नहीं जा सकता। अनेक साहित्यकार पत्रकारिता से भी गहरे से जुड़े रहे हैं। सर्वश्री प्रेमचंद, बनारसीदास चतुर्वेदी, अज्ञेय, माखनलाल चतुर्वेदी आदि का पत्रकारिता तथा साहित्य दोनों में ही अवस्मिरणीय योगदान रहा है। भाषा के विकास की दृष्टि से भी वह महत्वपूर्ण है। एक समय था जब हिन्दी 'भाषा की अस्थिरता' विवाद का विषय था। लेकिन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने 'भारत मित्र', गोविन्द नारायण मिश्र ने 'बंगवासी' तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अम्बिकाप्रसाद बाजपेयी ने पत्रकारिता की भाषा को स्थायित्व दिया।
पत्रकारिता विधा में अलग-अलग प्रसंगों पर भाषा वैभिन्न होना स्वाभाविक है। यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण आदि निबंध हो सकते हैं तो ग्राम्यजीवन की खोजी रिपोर्टिंग भी कुछ वैसी ही झांकी प्रस्तुत करते हैं। दैनिक पत्रों की भाषा उनसे मेल नहीं खाती।
वर्तमान युग में समाचार पत्र, विशेषकर दैनिक, जनभावना एवं जन आकांक्षाओं के माध्यम हैं। दैनिक पत्रों में समयबध्द कार्यक्रम पर चलना आवश्यक है। सारे विश्व को घटनाक्रम से लेकर राष्ट्रीय, आंचलिक और स्थानीय समाचारों की भरमार में सम्पादकीय विभाग को त्वरित गति से काम करना पड़ता है। इसलिए अनेक बार भाषा में जो कसाव आना चाहिए वह नहीं आ पाता। किंतु अनुभवी उप सम्पादक इस दोष से मुक्त भी रह सकता है। सामान्यत: दैनिक पत्र में उस भाषा का उपयोग करना पड़ता है जो बोध गम्य हो और गरिष्ठ भी न हो। दरअसल दैनिक पत्र का पाठक जल्दी में होता है। कम शब्दों में समाचार सार मिलने पर उसे तृप्ति होती है। अंग्रेजी पत्रों की तुलना में हिन्दी पत्रों में सीमाएं हैं। लेकिन हिन्दी पत्रों का पाठक वर्ग विस्तृत है। इसलिए हिन्दी या भाषायी पत्र लोकप्रिय होते हैं तथा परिवार के प्रत्येक सदस्य द्वारा पढ़े जाते हैं इसलिए अनेक बार प्रचलित मान्यताओं या व्याकरणिक परम्परा का उल्लंघन करना पड़ता है। वास्तव में पत्र की लोकप्रियता या पाठक की विश्वसनीयता ही दैनिक पत्र के अस्तित्व के मापदंड होते हैं। और उनमें भाषा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
मेरी यह भी मान्यता है कि हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश करना एक सही कदम होगा। कुछ स्थानों पर उपयोगिता की दृष्टि से और कुछ जगह राष्ट्रीय एकता के लिए। तमिल को छोड़कर शेष भारतीय भाषायें संस्कृत से ही उपजी हैं। अत: अन्य भाषाओं के शब्द लेने से हिन्दी को परहेज नहीं करना चाहिए। अंग्रेजी के कुछ शब्दों का मराठी में अधिक सारगर्भित अनुवाद हुआ है। जैसे मल्टीपाइंट सेल्स टैक्स को हिन्दी में बहुसूत्रीय बिक्रीकर कहा जाता है और मराठी में प्रतिपद बिक्रीकर। मुझे मराठी अनुवाद अधिक बोधगम्य प्रतीत होता है। ऐसे और भी पारिभाषिक शब्द हैं जिनका अन्य भाषाओं के साथ पारस्परिक आदान-प्रदान होने से हिन्दी समृध्द होगी तथा अन्य भाषाओं के साथ उसकी एकरूपता स्थापित हो सकती है।
हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावलि एक जटिल समस्या हो गई है। एक्जीक्यूटिव इंजीनियर को मध्यप्रदेश में कार्यपालन यंत्री कहा जाता है तो उत्तरप्रदेश में अधिशासी अभियंता। राजस्थान में पदशाषी या पदधारी अभियंता का प्रयोग किया जाता है। शिक्षा क्षेत्र के लेक्चरर, रीडर, प्रोफेसर के लिए भी अलग-अलग रायों में पृथक-पृथक शब्द हैं। डायरेक्टर को मध्यप्रदेश में संचालक और डायरेक्टोरेट के लिए संचालनालय शब्द प्रचलित है जबकि अन्य प्रदेशों में क्रमश: निदेशक और निदेशालय। अपने-अपने प्रदेशों में यह ठीक हो सकता है किंतु किसी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी के लिए मानसिक तौर पर यह विभेद कितना त्रासद होता होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। किसी हिन्दी भाषी पर्यटक के लिए तो यह अजूबा हिन्दी मालूम होगी। यह विषमता दूर की जानी चाहिए।
मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन में यह समस्या उठाते हुए यह सुझाव दिया था कि सभी हिन्दी भाषी रायों की- पारिभाषिक शब्दावलि की अनुशीलन किया जाए तथा सरल शब्दों को ग्रहण कर उसे एकरूपता प्रदान की जाए।  इस प्रस्ताव पर अमल भी हुआ। सभी हिन्दी भाषी रायों के भाषा संचालकों की लगातार बैठकें हुईं। नई शब्दावलि स्वीकार की गई किंतु उस पर अभी तक अमल नहीं किया जा सका। यह विद्रूप जितनी जल्दी दूर किया जा सके, हिन्दी का हित होगा।
यदि हम आक्सफोर्ड डिक्शनरी देखें तो पाएंगे कि कितने ही भारतीय शब्द उसमें शामिल कर लिए गए हैं। धोती, साड़ी, घेराव शब्द हमें वहां मिल जाएंगे। उसी तरह अनेक प्रचलित अंग्रेजी शब्द हमने हिन्दी में ग्रहण कर लिए हैं उन्हें शब्दकोश में स्वीकार कर लेना चाहिए। आज के तकनीकी युग में कितने ही ऐसे शब्द विकसित हुए हैं जिनका हिन्दी में अनुवाद नहीं हो सका। वरन् वस्तुस्थिति यह है कि दैनिक समाचार पत्रों के माध्यम से वे इतने प्रचलित हो गए हैं कि पाठकों ने उन्हें वैसा ही स्वीकार कर लिया है। मेरा आशय यह है कि हमें शब्दों को उनकी धातु से उद्भुत होने की बजाय उनके जनसमाान्य द्वारा ग्रहण कर लिए जाने की स्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिए।
इस प्रसंग में एक तथ्य उल्लेखनीय है। हिन्दी  भाषा क्षेत्र विशाल है तथा भाषा पर आंचलिक प्रभाव जबरदस्त है। वाक्य विन्यास में यह आंचलिकता क्रियापद तक अपना प्रभाव छोड़ती है। इसलिए सारे हिन्दी अंचल में भाषा की एकरूपता की कल्पना कठिन है। यह स्थिति दैनिक समाचार पत्रों पर और अधिक लागू होती है। हालांकि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं उससे अछूती रह सकती है। तथापि एक मानक भाषा बनने के लिए हिन्दी को आंचलिक बोलियों से जोड़ने के प्रयास किया जाना उचित होगा।
हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी के संदर्भ में एक और तत्व का उल्लेख करना चाहता हूं। वह है हिन्दी सम्वाद एजेंसियां। भाषा और यूनीवार्ता ने हिन्दी समाचार सेवा प्रारंभ कर सराहनीय कार्य किया है। किंतु मूलत: वे अंग्रेजी में प्राप्त समाचारों का अनुवाद ही समाचार पत्रों को टेलीप्रिंटर पर देती हैं। इस अनुवाद में भाषा की कसावट का अभाव रहता है। कई जगह तो अनुवाद से अर्थ ही बदल जाता है। संज्ञावाचक शब्दों की त्रुटिपूर्ण सम्प्रेषण एक सामान्य घटना हो गई है। शहर और गांवों के नाम अंग्रेजी हिो से देवनागरी में उतार दिए जाते हैं। सौंसर को 'साउसर' या धार को धर लिखने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता। ये गल्तियां रेल समय दर्शिका या डाकखानों की हिन्दी सूची से ठीक की जा सकती है। लेकिन किसको फुरसत है कि इतना कष्ट उठाए। कई जगह तो नाम या कुलनाम तक गलत दिए जाते हैं। श्रृंगारपूरे को श्रीरंगपुरे या बारपुते को 'बारप्यूट' कह देने में कोई झिझक नहीं होती। हिो में भी इसी प्रकार असावधानी बरती जाती है। हुई को हमेशा 'हुयी' ही लिखा जाएगा। इससे डेस्क पर काम कर रहे सम्पादकों का भाषा ज्ञान भी भ्रष्ट हो रहा है। विस्तारमय से और उदाहरण देना उचित नहीं।
पिछले कुछ वर्षों में समाचार पत्रों पर तो काफी अनुसंधान और विचार हुआ है किंतु पत्रकारिक भाषा का पक्ष लगभग अछूता रह गया है। इन आस्थामूलक प्रयासों तथा कमजोरियों के बावजूद यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि पत्रकारिता ने हिन्दी को समृध्द बनाने में महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। फिर भी हिन्दी को बेहतर बनाने की कोशिश जारी रहना चाहिए।

बिहार प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट झूठी,एकतरफा और मनगढ़ंत !

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हरिवंश , संपादक , प्रभात खबर 


prabhat khabarक्षमा के साथ : भारतीय प्रेस परिषद (प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया) की किसी रिपोर्ट के लिए पहली बार यह विशेषण हमने इस्तेमाल किया कि प्रेस परिषद की बिहार रिपोर्ट झूठी है, एकतरफा है, मनगढ़ंत है या पूर्वग्रह से ग्रसित है. या किसी खास अज्ञात उद्देश्य से बिहार की पत्रकारिता और बिहार को बदनाम करने के लिए यह रिपोर्ट तैयार की गयी है. हम ऐसा निष्कर्ष तथ्यों के आधार पर निकाल रहे हैं. इस रिपोर्ट के प्रति ये विशेषण लगाते समय हमें पीड़ा है, क्योंकि प्रेस परिषद एक संवैधानिक संस्था है. उसकी मर्यादा है. अपने प्रोफेशनल कैरियर में हमने अब तक प्रेस परिषद की हर मर्यादा का सम्मान के साथ पालन किया है. हालांकि बिहार पर प्रेस परिषद द्वारा तय टीम ने जो रिपोर्ट दी है, उसका जवाब तुरंत जाना चाहिए था, पर दिल्ली से हमने रिपोर्ट मंगायी. उसका अध्ययन किया. एक – एक तथ्य की जांच की. प्रभात खबर की पुरानी फाइलें निकाल कर मिलान किया. इसमें समय लगा. तब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कैसे प्रेस परिषद की बिहार रिपोर्ट बिहार की पत्रकारिता और प्रभात खबर के संदर्भ में सच से परे है? हम यह सार्वजनिक सवाल उठा रहे हैं. आज के माहौल में हम जानते हैं कि इस तरह की बहस उठाने की कीमत क्या होती है? फिर भी प्रेस परिषद की इस रिपोर्ट में पत्रकारिता से जुड़े गंभीर सवाल उठे हैं. इसलिए इनका स्पष्टीकरण और जवाब जरूरी है. हमें भी फा है कि हमने पत्रकारिता सही रास्ते की है. भूलें और चूक संभव हैं, पर उन्हें सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने का नैतिक साहस भी हमारे पास है. बिहार के प्रसंग में प्रभात खबर हिंदी का पहला अखबार है, जिसने प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस मार्क ंडेय काटजू के बिहार बयान को भी पूरी तरह छापा और उसका दो पेजों में तथ्यगत जवाब भी (देखें प्रभात खबर, पटना संस्करण, मंगलवार, दिनांक 27.03.12). श्री काटजू और उनकी टीम अपने को सबसे निष्ठावान मानते हैं, तो इसका क्या अर्थ यह है कि अन्य लोग गलत हैं? इसलिए प्रेस परिषद की बिहार रिपोर्ट, प्रेसर ऑन मीडिया इन बिहार का जवाब सार्वजनिक रूप से देना जरूरी है. यह सवाल उठाना भी जरूरी है कि इस रिपोर्ट का मकसद क्या है? यह संवैधानिक संस्था पक्षधर कब से होने लगी? बिना तथ्य जाने फतवा जारी करने का अधिकार इन्हें किसने दिया? किसी पर कुछ भी टिप्पणी! हम दूसरे अखबारों का नहीं जानते, पर प्रभात खबर अपने संदर्भ में उठाये गये तथ्यों का जवाब दे रहा है. यह स्पष्ट करना जरूरी है कि अखबारों के कामकाज की प्रक्रिया ऐसी है, जिसके परिणाम तत्काल दिखते हैं. इसमें रोज का रिजल्ट रोज आता है. यहां विलंब संभव नहीं है. यहां पच्चीसों स्तर के काम से रोज गुजरना है. हकीकत यह है कि संपादक भी अखबार छपने के बाद ही अगली सुबह एक साथ पूरे अखबार को देख पाता है. अगले दिन के अखबार की मोटे तौर पर कल्पना एक संपादक को होती है, पर पूरी चीजें साफ नहीं होतीं. संभव है कि इस प्रक्रिया में कहीं किसी स्तर पर गलतियां हुई हों, पर इसका अर्थ यह नहीं कि आप कुछ भी आधारहीन आरोप लगा दें. सवाल तो यह उठना चाहिए कि प्रेस परिषद के वे कौन लोग हैं, जो ऐसे गलत आरोप को बिना जांचे सही ठहरा कर इस संवैधानिक संस्था की गरिमा नष्ट कर रहे हैं?
…दरअसल पत्रकारिता में जिस पाप के लिए इस रिपोर्ट में बिहार सरकार को कोसा जा रहा है, पत्रकारिता का वह दोषपूर्ण मॉडल तो भारत सरकार की नीतियों की देन है. 1991 की अर्थनीति का यह मीडिया में परिणाम है. नयी अर्थनीतियों ने संपादक नामक संस्था को खत्म कर दिया है. पत्रकारिता की धार, सत्व और सच पर परदा डाल दिया है. देश भर में आज अखबारों का मुख्य उद्देश्य प्रॉफिट मैक्सिमाइजेशन है. अखबार आज जिस बिजनेस मॉडल पर चल रहे हैं, उसमें ही इस नयी पत्रकारिता का उद्गम स्नेत है. न्यूज, समाज, देश, मिशन, यह सब पीछे या अतीत की बातें हैं. प्रमोटरों, निवेशकों और अखबार मालिकों का ही दोष नहीं है. पत्रकारिता विधा से भी गंभीरता गायब हो गयी है. कम ही पत्रकार किसी रिपोर्ट पर गहराई से काम या छानबीन करते हैं. किसी ने कोई भड़काऊ बात कह दी, गंभीर आरोप लगा दिया, बिना सिर-पैर जांचे वह अखबार में छप सकती है. आजकल जो भी सत्ता से बाहर होता है, उसका धंधा ऐसे ही आरोपों की राजनीति से चलता है. होना तो यह चाहिए कि जानकारी मिले, तो हर दृष्टि से गहराई में उतर कर छानबीन हो, सभी आधिकारिक पक्ष लेकर वह विषय उठे. बोफोर्स से लेकर अन्य बड़े स्कैंडल इसी रास्ते उजागर हुए. पर हाल के दिनों में या इस आधुनिक दौर में टूजी प्रकरण, अदालत के माध्यम से सामने आया. अन्य बड़े प्रकरण या घोटाले सीएजी के माध्यम से सार्वजनिक हुए. याद करिए गुंडूराव (पूर्व मुख्यमंत्री, कर्नाटक) या अंतुले (पूर्व मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र) वगैरह पर कैसी खोजपरक रपटें छपीं थी कि अनुमान या कयास के लिए जगह नहीं बची. इस नये युग के प्रकाशन घरानों की मजबूरियां अलग हैं. आज एक अखबार निकालना अत्यंत कैपिटल इंटेंसिव (पूंजीपरक) धंधा है. बड़ी पूंजी चाहिए. यह पूंजी आज आती है, विदेशों से एफडीआइ के रूप में या शेयर बाजार के शेयर निवेशकों के माध्यम से. या बैंकों से काफी भारी-भरकम कर्ज व बड़ा सूद की कीमत अदा कर. इस पूंजी को अपना रिटर्न चाहिए, ताकि निवेशकों को लाभांश मिल सके. इस पूंजी की कीमत है, पेड न्यूज का ध्ांधा या पत्रकारिता में पालतू बनना. यह देश में 1991 के बाद ही शुरू हो गया. इन ट्रेंडों को जोड़ कर देखने से मौजूदा पत्रकारिता की समग्र तस्वीर साफ होती है. 2009 में पेड न्यूज के बिहार और झारखंड में पदार्पण पर इसका विरोध हुआ. पर लगभग दो दशकों से यह देश के अन्य हिस्से में चल रहा था. कहीं विरोध नहीं हुआ. पहले कहीं देश में इसका अन्यत्र मुखर विरोध क्यों नहीं हुआ? पूरा मीडिया जगत और राजनीतिक जगत यह सब जानता था, पर बिहार-झारखंड में इसका विरोध पहले यहीं की पत्रकारिता से शुरू हुआ. प्रभात खबर ने यह अभियान शुरू किया, स्वर्गीय प्रभाष जोशी के सान्निध्य, मार्गदर्शन और सहयोग से. देश की राजनीति या जनजीवन में विचारहीनता के दौर में आज भी बिहार की धरती पर पत्रकारिता और राजनीति में विचार जीवित हैं, इसलिए बिहार की धरती से ही पेड न्यूज के खिलाफ मुखर विरोध हुआ. यहीं के विरोध से यह मुद्दा देशव्यापी बना. क्या कभी इस तथ्य के लिए बिहार की पत्रकारिता या राजनीति को किसी ने कांप्लीमेंट (शाबाशी) दिया है. यहां की राजनीति चाहे राजद की हो या अन्य दलों की, सब इसके खिलाफ खड़े हुए. बिहार प्रेस परिषद की रिपोर्ट का रोना है कि ब्रांड मैनेजर या यूनिट हेड वगैरह संपादक बन गये हैं. यह टिप्पणी पढ़ते हुए जांच टीम की अज्ञानता, अनभिज्ञता का एहसास हुआ, क्योंकि पत्रकारिता में आये इस बदलाव को आज हर सजग नागरिक जानता है.
चर्चित संपादक रहे (अब भी मशहूर स्तंभकार) खुशवंत सिंह की ताजा पुस्तक का हवाला देना सबसे प्रासंगिक होगा. विकिंग (पेंग्विन समूह द्वारा प्रकाशित) ने खुशवंत सिंह की खुशवंतनामा पुस्तक छापी है, द लेसनस् आफ माइ लाइफ. 2013 में. अभी कुछेक रोज पहले बाजार में यह आयी है. खुशवंत सिंह देश के बड़े संपादकों में से रहे हैं. 98 वर्ष की उम्र में भी उनका लेखन, तीक्ष्णता और स्पष्टता अद्भुत है. उनसे सहमत-असहमत होना अपनी जगह है. इस पुस्तक में उन्होंने एक अध्याय लिखा है, जर्नलिज्म देन एंड नाउ (पत्रकारिता तब और अब). लगभग साढ़े दस पेज में यह टिप्पणी है. प्रेस काउंसिल की जांच टीम ने बिहार की पत्रकारिता में पतन के लिए जो सवाल उठाये हैं, उसका सबसे सटीक उत्तर खुशवंत सिंह की इस टिप्पणी में मौजूद है. वह कहते हैं कि आज देश में बड़े-बड़े अखबार हैं. उन बड़े राष्ट्रीय अखबारों के नाम भी उन्होंने गिनाये हैं. वह कहते हैं कि इनकी प्रसार संख्या भी अधिक है, पर इनके संपादकों के नाम आज कोई नहीं जानता? क्यों? क्योंकि खुशवंत सिंह की नजर में आज अखबारों को या तो मालिक चला रहे हैं या मालिकों की संतानें. विज्ञापन क्या है, खबर क्या है, किस तरह की चीजें पत्रकारिता में हो रही हैं, इस पर संक्षेप में सुंदर और साफ बातें खुशवंत सिंह की टिप्पणी में है. यह टिप्पणी उस व्यक्ति की है, जिन्होंने देश के दो सबसे बड़े घरानों में सबसे महत्वपूर्ण प्रकाशनों के संपादन का काम किया है. सच यह है कि 1991 के बाद देश के सबसे बड़े अखबारों को ब्रांड मैनेजर चला रहे हैं. इसकी शुरुआत दिल्ली से, और सबसे बड़े अखबारों से हुई है. बात अब इस सीमा से बहुत आगे निकल चुकी है. निजी कंपनियों की प्राइवेट इक्विटी, अनेक बड़े अखबार घरानों ने लिये और उन्हें संपादकीय खबरें देकर प्रोमोट किया. जो कंपनियां कमजोर थीं, उनका प्रचार एजेंट बन कर उनकी संपदा बढ़ायी. ¨पक पत्रकारिता (व्यापार और वाणिज्यिक पत्रकारिता) के खिलाफ, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यूपीए के प्रथम दौर में चंडीगढ़ प्रेस क्लब में तीखा प्रसंग व अनेक स्पेसिफीक सवाल उठाये. कई उदाहरण गिना कर. इस पर प्रेस गिल्ड की समिति भी बनी. क्या माननीय प्रेस परिषद की निगाह में कभी ये मूल सवाल रहे? इस तरह पत्रकारिता में यह क्षरण तो दिल्ली की देन है. देश की अर्थनीतियों की देन है. और दोष बिहार पर? गांवों में किस्सा सुना था, क मजोर की लुगाई (औरत) सबकी भौजाई. बिहार के लोग प्रतिवाद नहीं करते, तो कु छ भी कह दो. देश की पत्रकारिता में पतन को समझने के लिए जरूरी है कि हम पत्रकारिता का अर्थतंत्र पढ़ें, तो बातें साफ होंगी (देखें प्रभात खबर, 20-23 मार्च 2012). पूरे देश में बड़ी पूंजी ने छोटी पूंजी को तबाह कर दिया है. हर क्षेत्र में. पत्रकारिता में भी. पत्रकारिता में गुजरे बीस वर्षो में पूरे देश में न जाने कितने प्रकाशन बंद हुए? यह अत्यंत ज्वलंत विषय है, पर प्रेस परिषद की विद्वान समिति अगर सचमुच ऐसे बुनियादी सवालों पर चिंतित है, तो उसे इसकी जड़ तक जाना होगा, तब बातें साफ होंगी. काश! प्रेस काउंसिल की यह टीम, दिल्ली स्तर पर कोई ऐसी जांच करती, तो शायद पत्रकारिता-मीडिया में आये बदलावों पर एक राष्ट्रीय संवाद होता. अंतत: राष्ट्रीय राजनीति और केंद्र सरकार ही पत्रकारिता में आये इस क्षरण को रोक सकते हैं.
(15.04.2013 को प्रभात खबर, पटना संस्करण में प्रकाशित एक लंबे लेख का अंश)

मीडिया महारथी या सारथी का चुनाव

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समाचार4मीडिया.कॉम इस दौर के उन संपादकों व वरिष्ठ पत्रकारों को जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में मिसाल कायम की है को सम्मानित करने के लिए मीडिया महारथी का आयोजन करने जा रहा है। इन मीडिया महारथियों के चुनाव के लिए आगामी 22 अप्रैल को ज्यूरी मीट का आयोजन इंडियन इस्लामिक कल्चरल सेंटर, नई दिल्ली में किया जायेगा। मीडिया महारथी समारोह का आयोजन 20 मई को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में किया जायेगा।
मीडिया महारथी में उन संपादकों-पत्रकारों से रूबरू करवाया जायेगा, जिन्होंने न केवल अपने संस्थान के माध्यम से, बल्कि अपने व्यकिगत प्रयासों से हिंदी पत्रकारिता व हिंदी पट्टी के पत्रकारों के हित में अग्रणी भूमिका निभाई है।
मीडिया महारथी की सूची में उन्हीं संपादकों व पत्रकारों को शामिल किया गया है जो फिलहाल सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। टॉप 50 हिंदी मीडिया महारथी का चयन समाचार4मीडिया के सम्मानित पाठकों व आदरणीय ज्यूरी के माध्यम से किया जाएगा।
ज्यूरी में बीबीसी हिंदी की पूर्व हेड अंचला शर्मा, मशहूर थियटर कलाकार अरविंद गौण, प्रसिद्ध हिंदी कवि अशोक वाजपेयी,वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वेदिक, पूर्व सीबीआई डायरेक्टर जोगिंदर सिंह, प्रसिद्ध गीतकार निदा फाज़ली, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविधालय के वाइस चांसलर बी के कुठियाला, वरिष्ठ शिक्षाविद व अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार पुष्पेश पंत, लोकसभी टीवी के सीईओ राजीव मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय और लोकसभा के पूर्व जनरल सेक्रेट्री सुभाष कश्यप शामिल हैं।

Voting Criteria

o पत्रकारिता के क्षेत्र में भूमिका और योगदान
o संस्थान जिसमें कार्यरत हैं उसे आगे बढ़ाने में संपादक की भूमिका
o व्यक्तिगत तौर पर पत्रकारिता के क्षेत्र में योगदान
अगर आप इन संपादकों व पत्रकारों के अलावा किसी अन्य संपादकों व वरिष्ठ पत्रकारों को इस सूची जोड़ना चाहते हैं, तो उनका नाम, पद और प्रोफाइल हमें arif@exchange4media.com या mail2s4m@gmail.com पर भेज सकते हैं।


Rules
ऽ ऑनलाइन वोटिंग केवल 25 अप्रैल तक ही खुली है।
ऽ अगर आप इन संपादकों व पत्रकारों के अलावा किसी अन्य संपादकों व वरिष्ठ पत्रकारों को वोट करना चाहते हैं, तो उनका नाम, पद और प्रोफाइल हमें arif@exchange4media.com या mail2s4m@gmail.com पर भेज सकते हैं।
ऽ वोटिंग के साथ साथ अपना नाम, फोन नंबर व ईमेल आइडी जरूर इंट्री करें।
ऽ जूरी द्वारा लिए गए निर्णय ही अंतिम रूप से मान्य होंगे।

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बिहार की पत्रकारिता में जाति की सड़ांध पर सर्वे से असुविधा

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आपभीइतनेदुर्भाग्यशालीहोसकतेहैंकिघोषितशांतिमेंएकआवाजविहीनयुद्धसेजाटकराएं।मुश्किलयहहैकिएकबारआपइसेदेखलेतेहैंतोइसेअनदेखानहींकरसकते।औरएकबारआपनेइसेदेखलिया, तोचुपरहना, कुछकहनाउतनाहीराजनीतिककदमहोजाताहै, जितनाकिबोलना।
अरुंधति राय
By Pramod Ranjan,

सार्वजनिक महत्व की किसी संस्था का सामाजिक अध्ययन अकादमिक किस्म का काम है। लेकिन पूर्वग्रहों से भरे समाज में आप इसकी शुरुआत की मानसिक प्रक्रिया के दौरान ही एक आवाजविहीन युद्ध से जा टकराते हैं। आगे बढ़ने के साथ हर कदम राजनीतिक होता जाता है। अब आप बोलें, चाहे चुप रहें, राजनीति से बच नहीं सकते। बिहार में कार्यरत मीडिया संस्थानों की सामाजिक पृष्‍ठभूमि का सर्वे भी ऐसा ही एक काम है।
आपने अगर इसके नतीजों को देख लिया है तो इस तथ्य को कैसे अनदेखा कर सकते हैं कि इस विशालकाय राज्य के हिंदी-अंग्रेजी मीडिया संस्थानों में ‘फैसला लेने वाले पदों’ पर न कोई आदिवासी है, न दलित, न पिछड़ा, न ही कोई महिला। ( देखें-कुछ मीडिया संस्थानों की नमूना तालिकाएं – 5, 6, 7 और 8 )

सबके सब…

कुछ कागजी अपवादों को छोड़ दें तो एक लाख वर्ग किलोमीटर में गंगा, फल्गु, सोन, कोसी, गंडक, बागमती, कमला, महानंदा, कर्मनाशा आदि नदियों के बीच फैली 9 करोड़ से अधिक की विशाल आबादी की सामाजिक, सांस्कृतिक विवधिता का कोई संकेत यहां मौजूद नहीं है। सब के सब हिंदू, सबके सब द्विज और सबके सब पुरुष!
लगभग तीन साल पहले दिल्ली के मीडिया स्टडीज ग्रुप ने हिंदी-अंग्रेजी राष्‍ट्रीय मीडिया के प्रमुख पदों पर कार्यरत लोगों की सामाजिक पृष्‍ठभूमि का सर्वे किया था। दिल्ली स्थित 37 मीडिया संस्थानों पर किये गये उस सर्वे में हर संस्थान के 10 सर्वोच्च पदों पर काबिज अधिकारियों की सामाजिक पृष्‍ठभूमि के बारे में जानकारी हासिल की गयी थी। राष्‍ट्रीय मीडिया में ‘फैसला लेने वाले’ पदों पर उच्च जाति हिंदू पुरुषों का हिस्सा 71 फीसदी था। पिछड़े 4 फीसदी थे। उच्च जाति हिंदू महिलाओं की मौजूदगी 17 प्रतिशत थी। दलित और आदिवासी की संख्या शून्य थी।
बिहार के मीडिया संस्थानों के सर्वे के लिए शुरू में हमने भी यही तकनीक अपनानी चाही, जिसके उपरोक्त किंकर्तव्यविमूढ़ कर देने वाले परिणाम सामने आये।
राष्‍ट्रीय मीडिया के सर्वे में जिन 37 संस्थानों को शामिल किया गया था, उनमें से अधिकांश का मुख्यालय दिल्ली में ही होने के कारण ‘बड़े’ पदों की संख्या पर्याप्त थी। इसलिए सर्वोच्च 10 पदों को चुनना संभव था। पटना के मीडिया संस्थानों में यह सुविधा न थी।
पटना के मीडिया संस्थानों में हमने 5 पदों (1) संपादक (2) समाचार संपादक (3) ब्यूरो चीफ (4) मुख्य/विशेष संवाददाता और (5) प्रोविंस डेस्क इंचार्ज – को ‘फैसला लेने वाले’ के रूप में चिन्हित किया।
पटना के अनेक मीडिया संस्थानों में उपरोक्त सभी 5 पद भी नहीं हैं। कई अखबारों, समाचार एजेंसियों और इलैक्ट्रॉनिक चैनलों में कार्यरत पत्रकारों की संख्या बहुत कम है तथा यहां कार्यरत कई राष्‍ट्रीय मीडिया संस्थानों के ब्यूरो कार्यालयों में तो अकेले (ब्यूरो) ‘चीफ’ का ही पद है। ऐसी स्थिति में इन पदों के समकक्ष कार्य कर रहे लोगों को भी ‘फैसला लेने वाला’ माना गया। ऐसे पत्रकारों की संख्या किसी संस्थान में 5, कहीं 3, कहीं 2 है तो कहीं अकेले ‘ब्यूरो चीफ’ ही ‘फैसला’ लेते हैं। इसके तहत 42 मीडिया संस्थानों के राज्यस्तरीय सर्वोच्च पदों पर कार्यरत 78 पत्रकारों की सामाजिक पृष्‍ठभूमि जांची गयी। इनमें हिंदी-अंग्रेजी प्रिंट (उर्दू नहीं), इलैक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थान, समाचार एजेंसियां व पत्रिकाएं शामिल थीं।

शुरुआत के शुरू में

सर्वे का विचार वस्तुत: अगस्त, 2008 में कोसी नदी में आयी प्रलंयकारी बाढ़ के बाद आया था। बाढ़ में हजारों लोग मारे गये थे। जिस इलाके में बाढ़ आयी थी, वह यादव और दलित बहुल था। जबकि राज्य में एक ऐसी सरकार थी, जो लोकतंत्र के पिछले पंचबरसा त्योहार में यादव राज खत्म कर चुकने की दुदुंभी बजाती फिर रही थी। इस नयी सरकार के एक घटक (जदयू) का मुख्य वोट बैंक भूमिहार, कुरमी-कोईरी और अत्यंत पिछड़ी जातियां हैं। जबकि दूसरे घटक (भाजपा) का वोट बैंक वैश्यों तथा अन्य सवर्ण जातियों में है। सामंती संस्कार वाली यह सरकार बाढ़ की तबाही के बाद लगभग दो महीने तक पीड़ितों को राहत पहुंचाने में बेहद क्रूर कोताही बरतती रही। इस मामले पर पक्ष और विपक्ष – दोनों की राजनीति अत्यंत निचले किस्म की जाति-आधारित थी। इसके बावजूद बिहार की पत्रकारिता न सिर्फ इस घटिया राजनीति पर मौन थी बल्कि उसमें बाढ़ की विभीषिका को कम से कम कर दिखाने और राज्य सरकार के राहत कार्यों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की होड़ लगी थी।
पत्रकारिता के इस जघन्य दुष्कर्म ने आरंभ में हमें पटना में कार्यरत पत्रकारों की भौगोलिक पृष्‍ठभूमि के सर्वेक्षण के लिए प्रेरित किया। हमारे सामने एक ख्याल था कि क्या राजधानी पटना में कार्यरत पत्रकारों में बहुत कम संख्या कोसी के बाढ़ग्रस्त जिलों के वासियों की है? क्या इसलिए वे अपनी पेशागत जरूरतों के विपरीत बाढ़-पीड़ितों के प्रति इतने कम संवेदनशील हैं? काम शुरू हुआ। हम इसे बेहद आसान समझ रहे थे। हमारी सोच थी कि इसे दो-तीन मित्र मिल कर आसानी से निपटा लेंगे। लेकिन जिस भूखंड में आदमी की मुख्य पहचान जाति हो, वहां क्या शिक्षा और क्या भूगोल, सब द्वितीयक किस्म के परिचय हैं। हम किसी एक पत्रकार से दूसरे पत्रकार का गृह जिला पूछते तो कोई उसे भोजपुर का बताता, तो कोई दरभंगा का। किसी तीसरे से इनमें से सही को चिन्हित करने के लिए जानकारी लेते तो वह उसे नालंदा का निवासी बता देता। पर तीनों, उसकी जो जाति खुद बिना पूछे बता डालते वह सभी मामलों में समान रहती। कुछ मामलों में तो ऐसा हुआ कि हमने किसी पत्रकार मित्र से पूछा कि फलां अखबार का प्रोविंस डेस्क कौन देखता है? उत्तर मिला, ‘जानता हूं, पर नाम याद नहीं आ रहा। वह जो गोरा-गोरा सा है, बाल थोड़े-थोड़े पके हैं। राजपूत है। अलां पार्टी के फलां सिंह का नजदीकी है।’ इस तरह के इन उत्तरों से पत्रकारों की भौगोलिक पृष्‍ठभूमि की जानकारी तो क्या मिलती! जब नाम पूछने पर उत्तर में उनकी जाति सामने आती हो और बोनस के तौर पर उनकी किसी खास नेता से नजदीकी की सूचना…
इसी परिदृश्य में हमने जून, 2009 में इस सर्वे को विस्तृत करने का फैसला किया। बाकायदा सभी मीडिया संस्थानों के ‘राज्य स्तर पर फैसला लेने वाले’ पत्रकारों की सूची तैयार की गयी। उनके नाम, गृह जिला, शिक्षा, धर्म और जाति के कॉलमों को विभिन्न स्रोतों से जानकारी लेकर भरने का काम शुरू किया गया। इसमें हिंदी और अंग्रेजी के 45 संस्थानों के पत्रकारों को रखा गया, जिनमें से 42 संस्थानों के पत्रकारों के धर्म, जाति, लिंग की जानकारी हम जमा कर पाये। गृह जिला से संबंधित सूचनाएं भी कमोबेश जमा हो गयी हैं लेकिन शिक्षा संबंधी कॉलमों को 5 फीसदी भरने में भी हम सफल नहीं हो सके हैं। यह सोचना भी कितना शर्मनाक है कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहां का बौद्धिक तबका अपने साथियों की पहचान उनकी शिक्षा या अन्य व्यक्तिगत गुणों-अवगुणों के आधार पर नहीं, जाति के आधार पर करता है।

इस सर्वेक्षण में ‘फैसला लेने वालों’ की जातिगत पृष्‍ठभूमि के जो नतीजे आये, उनका जिक्र पहले हो चुका है। भौगोलिक और सांस्कृतिक पृष्‍ठभूमि के सर्वे के नतीजे अलग से जारी किये जाएंगे।

उपस्थिति की तलाश

‘फैसला लेने वाले पदों’ पर वंचित तबके के लोग नहीं हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि बिहार की पत्रकारिता में इनकी उपस्थिति शून्य है। भले ही वे कक्षा के दलपति न बन सके हों लेकिन कहीं-कहीं पिछली बेंचों पर तो दिखते ही हैं। इनमें से कई ने अंगूठा भी गंवाया है लेकिन इन एकलव्यों की धनुर्धरता पर संदेह की हिमाकत द्रोणों ने भी नहीं की है।
बिहारी पत्रकारिता में इन तबकों की उपस्थिति (फैसला लेने वाले पदों के अतिरिक्त) जांचने के लिए हमने कुछ और विस्तृत सर्वेक्षण आरंभ किया। इस बार हिंदी-अंग्रेजी के 42 संस्थानों के अलावा पटना से प्रकाशित उर्दू के 5 अखबारों को भी इसमें शामिल किया गया। कुल 47 मीडिया संस्थानों के 230 पत्रकारों को सर्वे में समेटते हुए हमने पाया कि 73 फीसदी पदों पर ऊंची जाति के हिंदुओं (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ) का कब्जा है। अन्य पिछड़ा वर्ग के हिंदू 10 फीसदी, अशराफ मुसलमान 12 फीसदी तथा पसमांदा मुसलमान 4 फीसदी हैं। महिलाओं की उपस्थिति लगभग 4 फीसदी रही। पटना के मीडिया संस्थानों में महज 3 दलित पत्रकार मिले (तालिका-1)। फैसला लेने वाले पदों पर शषित जातियों की शून्य नुमाइंदगी के कारण पिछली सीटों की उपस्थिति कभी-कभार इनके ‘प्रतिनिधित्व’ का भ्रामक आभास भी सृजित करती है।
जून, 2009 के अंत में संपन्न हुए इस सर्वेक्षण में उन्हीं पत्रकारों को शामिल किया गया, जो ‘खबरों’ से जुड़े हैं। फीचर आदि प्रभागों को इसमें शामिल नहीं किया गया। अधिक पत्रकारों वाले अखबारों (हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर और राष्‍ट्रीय सहारा) से अवरोही (ऊपर से नीचे) क्रम में 20-20 पत्रकारों को लिया गया। जबकि अन्य छोटे अखबारों के लगभग सभी पत्रकारों (यह संख्या प्रति अखबार 13 से लेकर 4 तक रही) को शामिल किया गया। यह फार्मूला इलैक्ट्रॉनिक चैनलों पर भी लागू किया गया। दिल्ली समेत अन्य महानगरों से संचालित होने वाले राष्‍ट्रीय मीडिया संस्थानों के पटना प्रमुखों को भी इसमें रखा गया है। ऐसे दैनिक समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज चैनलों और समाचार एजेंसियों के प्राय: दो या एक ही पत्रकार पटना में पदस्थापित हैं। इन सभी को इसमें शामिल किया गया है।

हिंदी प्रिंट : 87/13

बिहार की राजधानी में काम कर रहे हिंदी समाचार पत्रों, पत्रिकाओं के पत्रकारों में 87 फीसदी पत्रकार सवर्ण हिंदू परिवारों से हैं। इनमें 34 फीसदी ब्राह्मण, 23 फीसदी राजपूत, 14 फीसदी भूमिहार तथा 16 फीसदी कायस्थ हैं। हिंदू पिछड़ी-अति पिछड़ी जाति, अशराफ मुसलमान और दलित समाज से आने वाले पत्रकार महज 13 फीसदी हैं। इनमें बिहार की सबसे बड़ी जाति यादव की उपस्थिति सर्वाधिक, लगभग 3 फीसदी है (तालिका-3)। ओबीसी से आने वाले अन्य पत्रकार वैश्य, कुशवाहा, कानू, केवट, कहार और चौरसिया जातियों के हैं। इनकी मौजूदगी प्राय: एक-एक फीसदी है। इसके अतिरिक्त अन्य दर्जनों पिछड़ी-अति पिछड़ी जातियों की कोई नुमाइंदगी न हिंदी-अंग्रेजी प्रिंट में दिखती है, न ही इलैक्ट्रॉनिक में। हिंदी प्रिंट में महिला (उच्च जाति हिंदू) की भागीदारी एक फीसदी है (तालिका-4)

अंग्रेजी प्रिंट : महिलाओं की मौजूदगी

अंग्रेजी अखबारों की स्थिति काना राजा सी है। इसमें महिलाओं की भागीदारी 7 फीसदी है। इसमें से पिछड़ी जाति की 4 फीसदी महिलाओं की मौजूदगी भी ध्यान खींचती है। हिंदू ओबीसी की उपस्थिति हिंदी प्रिंट (9 फीसदी) की तुलना में अंग्रेजी प्रिंट में दुगनी से ज्यादा (19 फीसदी) है। उच्च जाति हिंदुओं का कब्जा यहां 75 फीसदी है। अशराफ मुसलमान 4 प्रतिशत हैं। दलितों की उपस्थिति शून्य है। (तालिका-3 व 4)
हिंदी और अंग्रेजी प्रिंट में एक रोचक अंतर भूमिहार और राजपूतों की संख्या का है। हिंदी प्रिंट की तुलना में यहां इन दो जातियों की संख्या आधी से भी कम (राजपूत 11 फीसदी और भूमिहार 6 फीसदी) हो गयी है। अंग्रेजी प्रिंट पर ब्राह्मणों (36%) तथा कायस्थों (21%) का आधिपत्य दिखता है। (अंग्रेजी प्रिंट में तीन हिंदू ओबीसी, एक ईसाई व एक अशराफ मुसलमान (पुरुष) ‘फैसला लेने वाले’ पद पर भी हैं। हिंदी प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक में इन पदों पर निरपवाद रूप से ऊंची जाति के पुरुष काबिज हैं)

इलैक्ट्रॉनिक : 10 बनाम 90

पिछड़ों के नेता शहीद जगदेव प्रसाद का नारा था – दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा / सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है।यह 1971-72 की बात है। उसके बाद से बिहार की पिछड़ा राजनीति की नदी में बहुत पानी बह चुका। लेकिन इस धारा का सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व ज्ञान की सत्ता पर काबिज होने के रास्तों को पहचानने में नाकाम रहा। सांस्कृतिक सत्ता का तो इनके लिए कोई मोल ही नहीं रहा। 100 में से 90 पर दावा करने वाले जगदेव का एक दूसरा नारा यह भी था – भैंस पालो, अखाड़ा खोदो, राजनीति करो। लालू प्रसाद ने तो 15 साल आईटी को समझने से इनकार करते हुए ही गुजार दिये। पिछड़े नेताओं ने कभी शिक्षा की बात की भी तो वह कई कारणों से साक्षरता से आगे नहीं बढ़ सकी।
बहरहाल, हिंदी-अंग्रेजी इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का सामाजिक परिदृश्य सर्वाधिक एकरस है। इनमें 90 फीसदी पदों पर ऊंची जाति के हिंदुओं का कब्जा है। हिंदू ओबीसी 7 प्रतिशत हैं। अशराफ मुसलमानों की नुमाइंदगी 3 फीसदी है। महिलाएं ज़रूर 10 फीसदी हैं, जो ऊंची जाति के हिंदू परिवारों से आती हैं। दलित यहां भी सिरे से नदारद हैं। (तालिका – 3 व 4)

उर्दू प्रिंट : पसमांदा आंदोलन का प्रभाव

हिंदी और अंग्रेजी प्रिंट मीडिया के विपरीत उर्दू मीडिया की ओर देखना कई मामलों में सुखद है। पटना से उर्दू के पांच दैनिक छपते हैं – कौमी तंजीम, रोजनामा (राष्‍ट्रीय सहारा), संगम, पिंदार और फारूकी तंजीम। आश्चर्यजनक रूप से इनमें से तीन – संगम, पिंदार और फारूकी तंजीम – का मालिकाना हक पसमांदा तबक़े के पास है। इन तीनों के संपादक भी इसी समुदाय के हैं। हिंदी या अंग्रेजी मीडिया के संबंध में फिलवक्त ऐसी कल्पना भी असंभव है। वस्तुत: बिहार में हिंदुओं का सामाजिक न्याय का राजनीतिक आंदोलन अपने विरोधाभासों में घिर कर मरणासन्न स्थिति में है। जबकि पसमांदों का आंदोलन एक जीवंत आंदोलन है। पिछले चार-पांच वर्षों से इसका तेज और तेवर देखते बन रहा है।
पिछड़े हिंदुओं का ‘सामाजिक न्याय’ मुसलमानों को एक इकाई मान कर उनके अशराफ तबके से गठजोड़ करता रहा है, उन्हें भौतिक लाभ पहुंचाता रहा है और उनकी धार्मिक सनक को संरक्षित करता रहा है। इसके विपरीत मुसलमानों के सामाजिक न्याय के आंदोलन – पसमांदा आंदोलन – में हिंदुओं के दलित-पिछड़े तबकों को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति एक सहज और अधिक प्रगतिशील सामाजिक ध्रुवीकरण का वाहक बनने की संभावना रखती है। इस आंदोलन का प्रतिबिंब उर्दू पत्रकारिता पर भी दिखता है। संगम का लक्ष्य प्रत्यक्ष रूप से पसमांदा आंदोलन को गति देने का रहा है। फारूकी तंजीम और पिंदार की संपादकीय नीति भी कमोबेश इस आंदोलन के पक्ष में रही है। जबकि सैयद वर्चस्व वाले कौमी तंजीम और रोजनामा इस आंदोलन का प्रत्यक्ष-परोक्ष विरोध करते रहे हैं। उर्दू अखबारों के कुल पदों में 66 फीसदी प्रतिनिधित्‍व अशराफ तबके का है जबकि पसमांदा तबके के (ओबीसी) पत्रकार 26 फीसदी हैं। इन तथ्यों के साथ यह देखना विचलित करता है कि उर्दू समेत पूरी पत्रकारिता में दलित मुसलमानों और मुसलमान महिलाओं की कोई नुमाइंदगी नहीं है (तालिका-3 व 4)। एक और प्रतिगामी बात यह है कि पसमांदा नेतृत्व वाले उर्दू अखबार भी मुसलमानों के दैनंदिन जीवन पर धर्म की जकड़बंदी को ढीला करने की कोई कोशिश नहीं कर रहे।
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भारत में हिन्दी पत्रकारिता : एक अवलोकन

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हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगालसे हुई और इसका श्रेय राजा राममोहन रायको दिया जाता है। राजा राममोहन राय ने ही सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ा। भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया। समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की। राममोहन राय ने कई पत्र शुरू किये। जिसमें अहम हैं-साल 1816 में प्रकाशित ‘बंगाल गजट’। बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्रहै। इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे। इसके अलावा राजा राममोहन राय ने मिरातुल, संवाद कौमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों में चेतना फैलाई। 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले ‘उदंत्त मार्तण्ड’ को हिंदीका पहला समाचार पत्र माना जाता है।[1]

हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन

भारतमें हिंदीपत्रकारिताका तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन करना कुछ कठिन कार्य है। सर्वप्रथम राधाकृष्ण दास ने ऐसा प्रारंभिक प्रयास किया था। उसके बाद ‘विशाल भारत’ के नवंबर1930के अंक में विष्णुदत्त शुक्ल ने इस प्रश्न पर विचार किया, किन्तु वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे। गुप्त निबंधावली में बालमुकुंद गुप्त ने यह विभाजन इस प्रकार किया –
  • प्रथम चरण – सन् 1845 से 1877
  • द्वितीय चरण – सन् 1877 से 1890
  • तृतीय चरण – सन् 1890 से बाद तक
डॉ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध ‘द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्म’ काल विभाजन इस प्रकार किया है–
  • आरंभिक युग 1826 से 1867
  • उत्थान एवं अभिवृद्धि
    • प्रथम चरण (1867-1883) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग
    • द्वितीय चरण (1883-1900) प्रेस के प्रचार का युग
  • विकास युग
    • प्रथम युग (1900-1921) आवधिक पत्रों का युग
    • द्वितीय युग (1921-1935) दैनिक प्रचार का युग
  • सामयिक पत्रकारिता – 1935-1945
उपरोक्त में से तीन युगों के आरंभिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए। सन् 1867 में ‘कविवचन सुधा’, सन् 1883 में ‘हिन्दुस्तान’ तथा सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन है।[2]
  • काशी नागरी प्रचारणी द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास’ के त्रयोदय भाग के तृतीय खंड में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है –
  1. प्रथम उत्थान – सन् 1826 से 1867
  2. द्वितीय उत्थान – सन् 1868 से 1920
  3. आधुनिक उत्थान – सन् 1920 के बाद
  • ‘ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडिया’ में श्री एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है –
  1. बीज वपन काल
  2. ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव
  3. राष्ट्रीय जागरण काल
  4. लोकतंत्र और प्रेस
  • डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘हिंदी पत्रकारिता’ का अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है –
  1. भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय (सन् 1826 से 1867)
  2. राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति- दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता (सन् 1867-1900)
  3. बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर – इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गांधी युगमें भी विभक्त किया।
  • डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के विविध रूप’ में विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन किया है –
  1. उदय काल – (सन् 1826 से 1867)
  2. भारतेंदु युग – (सन् 1867 से 1900)
  3. तिलक या द्विवेदी युग – (सन् 1900 से 1920)
  4. गांधी युग – (सन् 1920 से 1947)
  5. स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1947 से अब तक)
  • डॉ. सुशील जोशी ने काल विभाजन कुछ ऐसा प्रस्तुत किया है –
  1. हिंदी पत्रकारिता का उद्भव – 1826 से 1867
  2. हिंदी पत्रकारिता का विकास – 1867 से 1900
  3. हिंदी पत्रकारिता का उत्थान – 1900 से 1947
  4. स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता – 1947 से अब तक[2]
उक्त मतों की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों पत्रकारों ने अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग ढंग से किया है। इस संबंध में सर्वसम्मत काल निर्धारण अभी नहीं किया जा सका है। किसी ने व्यक्ति विशेष के नाम से युगका नामकरण करने का प्रयास किया है तो किसी ने परिस्थिति अथवा प्रकृति के आधार पर। इनमें एकरूपता का अभाव है।

हिंदी पत्रकारिता का उद्भव काल (1826 से 1867)

कलकत्तासे 30 मई, 1826 को ‘उदन्त मार्तण्ड’ के सम्पादन से प्रारंभ हिंदी पत्रकारिता की विकास यात्रा कहीं थमी और कहीं ठहरी नहीं है। पंडित युगल किशोर शुक्ल के संपादन में प्रकाशित इस समाचार पत्र ने हालांकि आर्थिक अभावों के कारण जल्द ही दम तोड़ दिया, पर इसने हिंदी अखबारों के प्रकाशन का जो शुभारंभ किया वह कारवां निरंतर आगे बढ़ा है। साथ ही हिंदी का प्रथम पत्र होने के बावजूद यह भाषा, विचार एवं प्रस्तुति के लिहाज से महत्वपूर्ण बन गया।[2]

कलकत्ता का योगदान

पत्रकारिता जगत में कलकत्ता का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रशासनिक, वाणिज्य तथा शैक्षिक दृष्टि से कलकत्ता का उन दिनों विशेष महत्व था। यहीं से 10 मई 1829 को राजा राममोहन रायने ‘बंगदूत’ समाचार पत्रनिकाला जो बंगला, फ़ारसी, अंग्रेज़ीतथा हिंदीमें प्रकाशित हुआ। बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ के 21 जून 1834 के अंक ‘प्रजामित्र’ नामक हिंदी पत्र के कलकत्ता से प्रकाशित होने की सूचना मिलती है। लेकिन अपने शोध ग्रंथ में डॉ. रामरतन भटनागर ने उसके प्रकाशन को संदिग्ध माना है। ‘बंगदूदत’ के बंद होने के बाद 15 सालों तक हिंदी में कोई पत्र न निकला।[2]

हिंदी पत्रकारिता का उत्थान काल (1900-1947)

सन 1900का वर्ष हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में महत्वपूर्ण है। 1900 में प्रकाशित सरस्वतीपत्रिका]अपने समय की युगान्तरकारी पत्रिकारही है। वह अपनी छपाई, सफाई, कागजऔर चित्रों के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई। इसे बंगाली बाबू चिन्तामणि घोष ने प्रकाशित किया था तथा इसे नागरी प्रचारिणी सभा का अनुमोदन प्राप्त था। इसके सम्पादक मण्डल में बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिका प्रसाद खत्री, जगन्नाथदास रत्नाकर, किशोरीदास गोस्वामी तथा बाबू श्यामसुन्दरदासथे। 1903में इसके सम्पादन का भार आचार्य महावर प्रसाद द्विवेदी पर पड़ा। इसका मुख्य उद्देश्य हिंदी-रसिकों के मनोरंजन के साथ भाषा के सरस्वती भण्डार की अंगपुष्टि, वृद्धि और पूर्ति करन था। इस प्रकार 19वी शताब्दी में हिंदी पत्रकारिता का उद्भव व विकास बड़ी ही विषम परिस्थिति में हुआ। इस समय जो भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती उनके सामने अनेक बाधाएं आ जातीं, लेकिन इन बाधाओं से टक्कर लेती हुई हिंदी पत्रकारिता शनैः-शनैः गति पाती गई।[2]

हिंदी पत्रकारिता का उत्कर्ष काल (1947 से प्रारंभ)

अपने क्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आज़ादी के बाद आया। 1947 में देश को आज़ादी मिली। लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ। औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई। जिससे पत्रों का संगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ। रूप-विन्यास में भी सुरूचि दिखाई देने लगी। आज़ादी के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति होने पर भी यह दुख का विषय है कि आज हिंदी पत्रकारिता विकृतियों से घिरकर स्वार्थसिद्धि और प्रचार का माध्यम बनती जा रही है। परन्तु फिर भी यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय प्रेस की प्रगति स्वतंत्रता के बाद ही हुई। यद्यपि स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता ने पर्याप्त प्रगति कर ली है किन्तु उसके उत्कर्षकारी विकास के मार्ग में आने वाली बाधाएं भी कम नहीं हैं।[2]

प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ

भारतके स्वाधीनता संघर्ष में पत्र-पत्रिकाओं की अहम भूमिका रही है। आजादी के आन्दोलन में भाग ले रहा हर आम-ओ-खास कलम की ताकत से वाकिफ था। राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदनमोहन मालवीय, बाबा साहब अम्बेडकर, यशपालजैसे आला दर्जे के नेता सीधे-सीधे तौर पर पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े हुए थे और नियमित लिख रहे थे। जिसका असर देश के दूर-सुदूर गांवों में रहने वाले देशवासियों पर पड़ रहा था। अंग्रेजी सरकार को इस बात का अहसास पहले से ही था, लिहाजा उसने शुरू से ही प्रेस के दमन की नीति अपनाई। 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले ‘उदंत्त मार्तण्ड’ को हिंदीका पहला समाचार पत्र माना जाता है। अपने समय का यह ख़ास समाचार पत्र था, मगर आर्थिक परेशानियों के कारण यह जल्दी ही बंद हो गया। आगे चलकर माहौल बदला और जिस मकसद की खातिर पत्र शुरू किये गये थे, उनका विस्तार हुआ। समाचार सुधावर्षण, अभ्युदय, शंखनाद, हलधर, सत्याग्रह समाचार, युद्धवीर, क्रांतिवीर, स्वदेश, नया हिन्दुस्तान, कल्याण, हिंदी प्रदीप, ब्राह्मण,बुन्देलखण्ड केसरी, मतवाला सरस्वती, विप्लव, अलंकार, चाँद, हंस, प्रताप, सैनिक, क्रांति, बलिदान, वालिंट्यर आदि जनवादी पत्रिकाओं ने आहिस्ता-आहिस्ता लोगों में सोये हुए वतनपरस्ती के जज्बे को जगाया और क्रांति का आह्नान किया।[1]
नतीजतन उन्हें सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। दमन, नियंत्रण के दुश्चक्र से गुजरते हुए उन्हें कई प्रेस अधिनियमों का सामना करना पड़ा। ‘वर्तमान पत्र’ में पंडित जवाहर लाल नेहरूद्वारा लिखा ‘राजनीतिक भूकम्प’ शीर्षक लेख, ‘अभ्युदय’ का भगत सिंह विशेषांक, किसान विशेषांक, ‘नया हिन्दुस्तान’ के साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और फॉसीवादी विरोधी लेख, ‘स्वदेश’ का विजय अंक, ‘चॉंद’ का अछूत अंक, फॉंसी अंक, ‘बलिदान’ का नववर्षांक, ‘क्रांति’ के 1939 के सितम्बर, अक्टूबर अंक, ‘विप्लव’ का चंद्रशेखर अंक अपने क्रांतिकारी तेवर और राजनैतिक चेतना फैलाने के इल्जाम में अंग्रेजी सरकार की टेढ़ी निगाह के शिकार हुए और उन्हें जब्ती, प्रतिबंध, जुर्माना का सामना करना पड़ा। संपादकों को कारावास भुगतना पड़ा।

गवर्नर जनरल वेलेजली

भारतीय पत्रकारिता की स्वाधीनता को बाधित करने वाला पहला प्रेस अधिनियम गवर्नर जनरल वेलेजली के शासनकाल में 1799 को ही सामने आ गया था। भारतीय पत्रकारिता के आदिजनक जॉन्स आगस्टक हिक्की के समाचार पत्र ‘हिक्की गजट’ को विद्रोह के चलते सर्वप्रथम प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। हिक्की को एक साल की कैद और दो हजार रूपए जुर्माने की सजा हुई। कालांतर में 1857 में गैंगिंक एक्ट, 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1908 में न्यूज पेपर्स एक्ट (इन्साइटमेंट अफैंसेज), 1910 में इंडियन प्रेस एक्ट, 1930 में इंडियन प्रेस आर्डिनेंस, 1931 में दि इंडियन प्रेस एक्ट (इमरजेंसी पावर्स) जैसे दमनकारी कानून अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने के उद्देश्य से लागू किए गये। अंग्रेजी सरकार इन काले कानूनों का सहारा लेकर किसी भी पत्र-पत्रिका पर चाहे जब प्रतिबंध, जुर्माना लगा देती थी। आपत्तिजनक लेख वाले पत्र-पत्रिकाओं को जब्त कर लिया जाता। लेखक, संपादकों को कारावास भुगतना पड़ता व पत्रों को दोबारा शुरू करने के लिए जमानत की भारी भरकम रकम जमा करनी पड़ती। बावजूद इसके समाचार पत्र संपादकों के तेवर उग्र से उग्रतर होते चले गए। आजादी के आन्दोलन में जो भूमिका उन्होंने खुद तय की थी, उस पर उनका भरोसा और भी ज्यादा मजबूत होता चला गया। जेल, जब्ती, जुर्माना के डर से उनके हौसले पस्त नहीं हुये।[1]

बीसवीं सदी की शुरुआत

बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलनके प्रचार प्रसार और उन आन्दोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही। कई पत्रों ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रवक्ता का रोल निभाया। कानपुरसे 1920में प्रकाशित ‘वर्तमान’ ने असहयोग आन्दोलन को अपना व्यापक समर्थन दिया था। पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा शुरू किया गया साप्ताहिक पत्र ‘अभ्युदय’ उग्र विचारधारा का हामी था। अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मदनमोहन मालवीय, पंडित जवाहरलाल नेहरूके लेख प्रकाशित हुए। जिसके परिणामस्वरूप इन पत्रों को प्रतिबंध- जुर्माना का सामना करना पड़ा। गणेश शंकर विद्यार्थीका ‘प्रताप’, सज्जाद जहीर एवं शिवदान सिंह चैहान के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाला ‘नया हिन्दुस्तान’ राजाराम शास्त्री का ‘क्रांति’ यशपाल का ‘विप्लव’ अपने नाम के मुताबिक ही क्रांतिकारी तेवर वाले पत्र थे। इन पत्रों में क्रांतिकारी युगांतकारी लेखन ने अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी थी। अपने संपादकीय, लेखों, कविताओं के जरिए इन पत्रों ने सरकार की नीतियों की लगातार भतर्सना की। ‘नया हिन्दुस्तान’ और ‘विप्लव’ के जब्तशुदा प्रतिबंधित अंकों को देखने से इनकी वैश्विक दृष्टि का पता चलता है।[1]

‘चाँद’ का फाँसी अंक

फाँसीवाद के उदय और बढ़ते साम्राज्यवाद, पूंजीवाद पर चिंता इन पत्रों में साफ़ देखी जा सकती है। गोरखपुरसे निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ को जीवंतपर्यंत अपने उग्र विचारों और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण समय-समय पर अंग्रेजी सरकार की कोप दृष्टि का शिकार होना पड़ा। खासकर विशेषांक विजयांक को। आचार्य चतुरसेन शास्त्रीद्वारा संपादित ‘चाँद’ के फाँसी अंक की चर्चा भी जरूरी है। काकोरीके अभियुक्तों को फांसी के लगभग एक साल बाद, इलाहाबादसे प्रकाशित चॉंद का फाँसी अंक क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास की अमूल्य निधि है। यह अंक क्रांतिकारियों की गाथाओं से भरा हुआ है। सरकार ने अंक की जनता में जबर्दस्त प्रतिक्रिया और समर्थन देख इसको फौरन जब्त कर लिया और रातों-रात इसके सारे अंक गायब कर दिये। अंग्रेज हुकूमत एक तरफ क्रांतिकारी पत्र-पत्रिकाओं को जब्त करती रही, तो दूसरी तरफ इनके संपादक इन्हें बिना रुके पूरी निर्भिकता से निकालते रहे। सरकारी दमन इनके हौसलों पर जरा भी रोक नहीं लगा सका। पत्र-पत्रिकाओं के जरिए उनका यह प्रतिरोध आजादी मिलने तक जारी रहा।[1]


Seealso.jpgइन्हें भी देखें: पत्रकारिता एवं भारत में समाचार पत्रों का इतिहास


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.01.11.21.31.4प्रतिरोध के सामूहिक स्वर, परतंत्र भारत में प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ(हिंदी)सृजनगाथा। अभिगमन तिथि: 25 दिसम्बर, 2012।
  2. 2.02.12.22.32.42.5विश्व में पत्रकारिता का इतिहास(हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) आइये सीखें पत्रकारिता (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 25 दिसम्बर, 2012।

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हिन्दी का पहला अखबार / उदन्त मार्तण्ड

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भारत डिस्कवरी प्रस्तुति

उदन्त मार्तण्ड का मुखपृष्ठ

उदन्त मार्तण्ड

उदन्त मार्तण्डहिंदीका प्रथम समाचार पत्रथा। इसका प्रकाशन 30 मई, 1826 ई. में कलकत्तासे एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था। कलकता के कोलू टोला नामक मोहल्ले की 37 नंबर आमड़तल्ला गली से पं. जुगलकिशोर शुक्ल ने सन् 1826 ई. में उदन्त मार्तण्ड नामक एक हिंदी साप्ताहिक पत्र निकालने का आयोजन किया। उस समय अंग्रेज़ी, फारसीऔर बांग्लामें तो अनेक पत्र निकल रहे थे किंतु हिंदी में एक भी पत्र नहीं निकलता था। इसलिए "उदंत मार्तड" का प्रकाशन शुरू किया गया। इसके संपादक भी श्री जुगुलकिशोर शुक्ल ही थे। वे मूल रूप से कानपुर संयुक्त प्रदेश के निवासी थे।

शाब्दिक अर्थ

उदन्त मार्तण्ड का शाब्दिक अर्थ है ‘समाचार-सूर्य‘। अपने नाम के अनुरूप ही उदन्त मार्तण्ड हिंदी की समाचार दुनिया के सूर्य के समान ही था। उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन मूलतः कानपुर निवासी पं. युगल किशोर शुक्ल ने किया था। यह पत्र ऐसे समय में प्रकाशित हुआ था जब हिंदी भाषियों को अपनी भाषा के पत्र की आवश्यकता महसूस हो रही थी। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर ‘उदन्त मार्तण्ड‘ का प्रकाशन किया गया था।[1]

उद्देश्य

उदन्त मार्तण्ड के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए जुगलकिशोर शुक्ल ने लिखा था जो यथावत प्रस्तुत है-
‘‘यह उदन्त मार्तण्ड अब पहले पहल हिंदुस्तानियों के हेत जो, आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेज़ी ओ पारसी ओ बंगाली में जो समाचार का कागज छपता है उसका उन बोलियों को जान्ने ओ समझने वालों को ही होता है। और सब लोग पराए सुख सुखी होते हैं। जैसे पराए धन धनी होना और अपनी रहते परायी आंख देखना वैसे ही जिस गुण में जिसकी पैठ न हो उसको उसके रस का मिलना कठिन ही है और हिंदुस्तानियों में बहुतेरे ऐसे हैं‘‘[1]

समाज के विरोधाभासों पर तीखे कटाक्ष

हिंदी के पहले समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड ने समाज के विरोधाभासों पर तीखे कटाक्ष किए थे। जिसका उदाहरण उदन्त मार्तण्ड में प्रकाशित यह गहरा व्यंग्य है-
‘‘एक यशी वकील अदालत का काम करते-करते बुड्ढा होकर अपने दामाद को वह सौंप के आप सुचित हुआ। दामाद कई दिन वह काम करके एक दिन आया ओ प्रसन्न होकर बोला हे महाराज आपने जो फलाने का पुराना ओ संगीन मोकद्दमा हमें सौंपा था सो आज फैसला हुआ यह सुनकर वकील पछता करके बोला कि तुमने सत्यानाश किया। उस मोकद्दमे से हमारे बाप बड़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठा के दे गए ओ हमने भी उसको बना रखा ओ अब तक भली-भांति अपना दिन काटा ओ वही मोकद्दमा तुमको सौंप करके समझा था कि तुम भी अपने बेटे पाते तक पालोगे पर तुम थोड़े से दिनों में उसको खो बैठे‘‘[1]

प्रकाशन बंद


उदन्त मार्तण्ड
उदन्त मार्तण्ड ने समाज में चल रहे विरोधाभासों एवं अंग्रेज़ी शासन के विरूद्ध आम जन की आवाज़ को उठाने का कार्य किया था। कानूनी कारणों एवं ग्राहकों के पर्याप्त सहयोग न देने के कारण 19 दिसंबर, 1827 को युगल किशोर शुक्ल को उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन बंद करना पड़ा। उदन्त मार्तण्ड के अंतिम अंक में एक नोट प्रकाशित हुआ था जिसमें उसके बंद होने की पीड़ा झलकती है। वह इस प्रकार था-
‘‘आज दिवस लौ उग चुक्यों मार्तण्ड उदन्त। अस्ताचल को जाता है दिनकर दिन अब अंत।।‘‘
उदन्त मार्तण्ड बंद हो गया, लेकिन उससे पहले वह हिंदी पत्रकारिताका प्रस्थान बिंदु तो बन ही चुका था।[1]

विशेष बिंदु

  • यह साप्ताहिक पत्र पुस्तकाकार (12x8) छपता था और हर मंगलवारको निकलता था।
  • इसके कुल 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए थे कि डेढ़ साल बाद दिसंबर, 1827 ई. को इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा।
  • इसके अंतिम अंक में लिखा है- उदन्त मार्तण्ड की यात्रा- मिति पौष बदी 1 भौम संवत् 1884 तारीख दिसम्बरसन् 1827। उन दिनों सरकारी सहायता के बिना, किसी भी पत्र का चलना प्रायः असंभव था।
  • कंपनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को तो डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी "उदंत मार्तंड" को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी।
  • इस पत्र में ब्रजऔर खड़ी बोलीदोनों के मिश्रित रूप का प्रयोग किया जाता था जिसे इस पत्र के संचालक "मध्यदेशीय भाषा" कहते थे।

प्रथम प्रेस आयोग

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प्रथम प्रेस आयोग ने भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा एंव पत्रकारिता में उच्च आदर्श कायम करने के उद्देश्य से एक प्रेस परिषद की कल्पना की थी। परिणाम स्वरूप चार जुलाई 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई जिसने 16 नंवबर 1966 से अपना विधिवत कार्य शुरू किया। तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के रूप में मनाया जाता है।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस, प्रेस की स्वतंत्रता एंव जिम्मेदारियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है।

आज पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक हो गया है। पत्रकारिता जन-जन तक सूचनात्मक, शिक्षाप्रद एवं मनोरंजनात्मक संदेश पहुँचाने की कला एंव विधा है। समाचार पत्र एक ऐसी उत्तर पुस्तिका के समान है जिसके लाखों परीक्षक एवं अनगिनत समीक्षक होते हैं। अन्य माध्यमों के भी परीक्षक एंव समीक्षक उनके लक्षित जनसमूह ही होते है।
मीडिया को समाज का दर्पण एवं दीपक दोनों माना जाता है।दर्पण का काम है समतल दर्पण का तरह काम करना ताकि वह समाज की हू-ब-हू तस्वीर समाज के सामने पेश कर सकें। परंतु कभी-कभी निहित स्वार्थों के कारण ये समाचार मीडिया समतल दर्पण का जगह उत्तल या अवतल दर्पण का तरह काम करने लग जाते हैं। इससे समाज की उल्टी, अवास्तविक, काल्पनिक एवं विकृत तस्वीर भी सामने आ जाती है।

" राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर देश की बदलती पत्रकारिता का स्वागत है बशर्ते वह अपने मूल्यों और आदर्शों की सीमा-रेखा कायम रखें।"

क्यों चाहिए तीसरा प्रेस आयोग / रामशरण जोशी

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: रामशरण जोशी का एक सारगर्भित लेख :  रामशरण जोशी ने यह आधार लेख तीसरे प्रेस कमीशन की जरूरत को रेखांकित करते हुए तैयार किया है। इस पर राजधानी दिल्ली में दो दौर की चर्चाएं हो चुकी हैं। इसे लेकर सुझावों और विचारों का स्वागत रहेगा। इस लेख को भड़ास4मीडिया तक mediamimansaब्लाग के माडरेटर और वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी ने पहुंचाया है।
विगत दो दशकों से हम वैश्वीकरण के परिवेश में जी रहे हैं। इस अवधि में भारतीय गणतंत्र की लगभग सभी महत्वपूर्ण संस्थाएं वैश्विक पूंजीवाद से कम-अधिक प्रभावित हुई हैं। इन संस्थाओं के चरित्र और कार्यशैली में गुणात्मक परिवर्तन आए हैं। इस संबंध में भारतीय राज्य को ही देखें। कभी इसके कर्ता-धर्ता इसे ‘जनकल्याणकारी राज्य’ घोषित करने में गर्व का प्रदर्शन किया करते थे। नेहरू-काल से लेकर राजीव काल तक ‘समाजवाद’ का जयघोष हुआ करता था। आज यह नारा वैश्वीकरण के व्योम में कहीं गुम हो चुका है। अब कर्ताधर्ताओं का बाजारोन्मुख नारा है- सुविधा आपूर्तिकत्र्ता अर्थात भारतीय राज्य अब ‘फैसीलीटेटर’ की भूमिका निभाएगा। यह ‘मुक्त अर्थव्यवस्था’ को उसके चरमोत्कर्ष बिंदु तक पहुंचाने के लिए और बगैर किसी वर्गीय भेदभाव के सभी को ‘समतल मंच’ की सुविधा उपलब्ध कराएगा तथा इस प्रक्रिया में वह कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। यदि इससे किसी प्रकार के बहुआयामी विषमता व असंतुलन पैदा होते हैं तो इन्हें वैश्विक पूंजीवाद के अपरिहार्य परिणाम के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। इस नई दृष्टि के कारण अब राजनीतिक-सामाजिक चिंतक भारत को अमेरिका का ‘ग्राहक राज्य’ (क्लाइंट स्टेट) से परिभाषित करने लगे हैं। कभी यह परिभाषा पाकिस्तान के लिए सुरक्षित रहती थी। अब इस पर पड़ोसी राष्ट्र का एकाधिकार समाप्त हो चुका है।
विगत दो दशकों, विशेष रूप से विगत कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार की जो सुनामी आई है इससे हम सभी परिचित हैं। इस सुनामी ने राष्ट्र की शिखर संस्थाओं को तल तक लील लिया है। घोटालों-महाघोटालों का विस्फोट इसके उदाहरण हैं। इस सिलसिले पर कब व कहां विराम लगेगा, यह अनिश्चित है। राष्ट्र राज्य के नियंताओं ने इस ‘सुनामी परिघटना’ को वैश्विक पूंजीवादीकरण की स्वाभाविक नियति के रूप में अंगीकार कर लिया है। अतः वैश्वीकृत भारत की जनता को इससे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है, ऐसा वातावरण सुनियोजित ढंग से निर्मित किया जा रहा है।
हम परंपरागत रूप से प्रेस या मीडिया को लोकतंत्र का ‘चैथा स्तंभ’ या ‘पहरुआ’ के रूप में देखते-समझते आए हैं। तब देश के प्रत्येक संवेदनशील व जागरूक नागरिक का यह सोचना कत्र्तव्य है कि क्या यह प्रहरी वर्तमान परिवेश में भी अपनी अपेक्षित व वांछित भूमिका निभा रहा है? क्या वैश्वीकरण और सुनामी ने इसके मूलभूत चरित्र को परिवर्तित किया है? सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तरों पर आए परिवर्तनों से यह कितना प्रभावित हुआ है? सवाल यह भी है कि प्रेस या मीडिया ने देश के लिए ‘दिशा बोधक’ की भूमिका निष्ठा पूर्वक निभाई या नहीं? क्या यह भी किसी उद्योग का सिर्फ ‘प्रोडक्ट’ और बाजार की ‘वस्तु’ बन कर रह गया है? क्या इसमें इसकी ऐतिहासिक हस्तक्षेपधर्मिता आज भी जीवित है? आज के परिवर्तित परिवेश और भविष्य के संभावित संकटों के मद्देनजर इन प्रश्नों पर चिंतन-मंथन की गंभीर आवश्यकता है। इस प्रक्रिया में हमारा ध्यान एक नए प्रेस आयोग के गठन की तरफ जाना स्वाभाविक है।
आखिर आज हमें ‘प्रेस आयोग’ क्यों चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर भारतीय पे्रस की विकास व अनुभव यात्रा पर संक्षिप्त दृष्टिपात और वर्तमान परिदृश्य के तथ्यपरक विश्लेषण में निहित है। किसी भी आयोग का केंद्रीय उद्देश्य समकालीन समस्या या चुनौती विशेष का अध्ययन, परीक्षण और समाधान होता है। इसी आधारभूत उद्देश्य को ध्यान में रखकर स्वतंत्र भारत के विभिन्न कालों में अब तक दो ‘प्रेस आयोगों’ का गठन किया जा चुका है। देश का पहला प्रेस आयोग नेहरू काल में 1952 में अस्तित्व में आया था और दो वर्ष के कड़े परिश्रम के पश्चात 1954 में इसने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी थी। दूसरे प्रेस आयोग का गठन देश की पहली गैर-कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में किया था। मोरारजी देसाई काल में गठित इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1982 में तैयार की। लेकिन इस चार वर्ष की अवधि में देश का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका था। 1979 में गैर-कांग्रेसी शासन के प्रयोग की अकाल मृत्यु और 1980 में सत्ता में इंदिरा गांधी की पुनर्वासी हो चुकी थी। यहां हमें यह याद रखने की जरूरत है कि प्रथम आयोग और द्वितीय आयोग के गठन के बीच 26 वर्ष का अंतराल था। इस अंतराल के दौरान भारतीय प्रेस में कई परिवर्तन आ चुके थे। इसकी कार्यशैली बदल चुकी थी। इसमें ढांचागत परिवर्तन आने लगे थे। अतः प्रथम प्रेस आयोग और द्वितीय प्रेस आयोग के गठन की पृष्ठभूमियों की सरसरी पड़ताल यहां प्रासंगिक रहेगी।
वास्तव में प्रेस या मीडिया या अन्य संचार के माध्यम अपने समय का प्रतिनिधित्व करते हैं। काल कोई भी रहे, देश कोई भी रहे, तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक-राजनीतिक घटनाओं व प्रभावों का संचार माध्यमों में प्रतिबिम्बन होता आया है। इतिहास के अनुभव इसके साक्षी हैं। तब भारतीय प्रेस इस सार्विक प्रक्रिया व यथार्थ की अपवाद कैसे हो सकती है? इसका ज्वलंत उदाहरण है 1780 के औपनिवेशिक भारत से शुरू हुई और 2011 के स्वतंत्र भारत तक पहुंची प्रेस-यात्रा की अनुभव कहानी। इस यात्रा में तीन महत्वपूर्ण मोड़ आए हैं पहला मिशनवाद, दूसरा प्रोफेशनलवाद, और तीसरा कामर्शियलवाद। मेरे मत में आज की प्रेस या मीडिया अपनी यात्रा के तीसरे चरण में है। प्रत्येक चरण के अपने अनुभव और प्रभाव हैं। संक्षेप में, भारतीय प्रेस की ऐतिहासिक यात्रा (1780-2011) का अध्ययन एक स्वतंत्र विषय है। यहां सिर्फ इतना कहना पर्याप्त होगा कि भारतीय प्रेस कभी निरपेक्ष नहीं रही, समय सापेक्ष रही है। समय व घटना विशेष के अच्छे या गलत प्रभाव इस पर पड़ते रहे हैं, अर्थ तंत्र और सत्ता तंत्र इसे कम-अधिक प्रभावित करते रहे हैं। आज कामर्शियलवाद, जिसे मैं ‘नग्न धंधवाद’ कहता हूं, के चरण में नकारात्मक प्रवृतियों का वर्चस्व है। यह सर्वविदित और निर्विवाद है।
प्रथम प्रेस आयोग का गठन स्वतंत्र भारत के विकास व निर्माण के महाएजेण्डे की पृष्ठभूमि में किया गया था। यद्यपि यूरोप, विशेष रूप से ब्रिटेन और अमेरिका के समाचार पत्रों के स्थिति-अध्ययन ने भी भारतीय प्रेस आयोग के गठन में भूमिका निभाई थी। इस संदर्भ में ब्रिटेन की प्रेस का ‘royal कमीशन’ का उल्लेख किया जा सकता है। इसी तरह अमेरिका प्रेस की स्थितियों के अध्ययन के लिए ‘हुचिन आयोग’ गठित किया गया था। यहां यह उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्व युद्ध ने यूरो-अमेरिकी प्रेस को गहराई तक प्रभावित किया था। नई परिस्थितियां पैदा हो गई थी। प्रेस का स्वामित्व चरित्र भी बदलने लगा था। कई अखबार बंद हुए, जबकि कुछ एक-दूसरे में समाहित हुए या बिक गए। पत्रकारों, गैर-पत्रकार कार्मिकों और कार्य-स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। अतः परिवर्तित स्थितियों का अध्ययन और तद्जनित समस्याओं का समाधान आवश्यक हो गया था। समुद्रपारीय प्रेस अध्ययनों की रिपोर्टें उदाहरण के रूप में भारतीय प्रेस जगत के समक्ष मौजूद थीं।
भारतीय प्रेस भी युगांतकारी दौर से गुजरा था। गुलाम भारत की स्थितियां और चुनौतियां स्वतंत्र भारत से भिन्न थीं। स्वतंत्रता पूर्व की प्रेस की अंतर्धारा मुख्यतः मिशनवादी, मूल्यवादी और जन उद्देश्यवादी हुआ करती थी। 15 अगस्त 1947 के पश्चात भारतीय प्रेस के कार्य चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन आया। स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष राजनीति और मिश्रित अर्थव्यवस्था में किस प्रकार की भूमिका निभाए, यह मुख्य चुनौती भारतीय प्रेस के समक्ष थी। नव उत्पन्न चुनौतियों के क्या माकूल रेसपांस हो सकते हैं, भारतीय प्रेस को इसकी भी तलाश थी।
अतः देश और प्रेस व्यवसाय की नई परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए जी.एस. राजाध्यक्ष की अध्यक्षता में प्रेस आयोग बनाया गया। गौरतलब यह है कि अध्यक्ष के चयन में ‘इंण्डियन फेडरेशन आॅफ वर्किंग जर्नलिस्ट’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और एक प्रकार से राजाध्यक्ष को पत्रकारों ने ही मनोनीत किया था। इससे स्वतः स्पष्ट है कि उस समय प्रेस और पत्रकारों का क्या महत्व था। इस 10 सदस्यीय आयोग के अन्य सदस्यों में डॉॅ. जाकिर हुसैन, डॉ. सी.पी. रामास्वामी अय्यर, पी.एच. पटवर्धन, चेलापति राव, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. वी.के.आर.वी. राव, जे. नटराजन जैसी हस्तियों को शामिल किया गया था। यह अकारण नहीं था। सरकार चाहती थी कि भारतीय प्रेस भारतीय राष्ट्र राज्य की नई आकांक्षाओं को समझे और राज्य व जनता के बीच उत्तरदायित्वपूर्ण सेतु की भूमिका निभाए।
स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रथम दशक के प्रेस परिदृश्य को निम्न बिंदुओं से रेखाकिंत किया जा सकता हैः

  • 1. अंग्रेजी प्रेस का वर्चस्व।
  • 2. भाषायी प्रेस की दोयम स्थिति।
  • 3. मूलतः त्रिस्तरीय ढांचा- (क) राष्ट्रीय,
  • (ख) प्रदेश राजधानी स्तरीय और
  • (ग) संभागीय स्तरीय
  • 4. भाषायी प्रेस में निम्न पूंजी और पिछड़ी मुद्रण व्यवस्था। निम्न स्तरीय संपादन व समाचार संकलन और वितरण व्यवस्था।
  • 5. महाजनी पृष्ठभूमि का स्वामित्व व पूंजीतंत्र।
  • 6. स्वः प्रशिक्षित पत्रकार और प्रभावशाली संपादक संस्था।
  • 7. स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की विरासत। मिशन-प्रोफेशन मिश्रित कार्यशैली।
  • 8. राजसत्ता, प्रेस, नौकरशाही और उद्योग के बीच जन विरोधी और अर्थवादी गठबंधन की अनुपस्थिति।
  • 9. राज्य का कल्याणकारी चरित्र और प्रेस की रचनात्मक व वस्तुनिष्ठ भूमिका।
  • 10. विचार व समाचार तथा विज्ञापन के बीच समानुपातिक संतुलन।
  • 11. प्रबंधक हस्तक्षेप नगण्य। संपादक नेतृत्व की सशक्तता।
  • 12. सीमित एकाधिकारवादी चरित्र।
  • 13. पत्रकारों और गैर-पत्रकारों का निम्न वेतन व आय और सादा जीवन। श्रमिक संगठनों की सक्रिय उपस्थिति। वेजबोर्ड का न होना।
  • 14. सीमित घटनाचक्र व मुद्दे। धीमी गतिशीलता। अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा का अभाव। वांछित लाभ का लक्ष्य और बेलगाम मुनाफाखोरी से संकोच।15. प्रेस की समीक्षा व निरीक्षण के लिए किसी केंद्रीय संस्था का अभाव।
  • 15. प्रेस-टाइटलों के पंजीकरण व नियमन का अभाव।
  • 16. भाषायी समाचार एजेंसी की कमी और एजेंसी की आर्थिक आत्मनिर्भरता का अभाव। अंगे्रजी एजेंसियों का वर्चस्व।
  • 17. भारतीय प्रेस का स्वदेशी पूंजी आधारित होना। मटमैली व चिटफंडी पूंजी का अभाव। विदेशी पूंजी-नियोजन को अनुमति नहीं।
  • 18. प्रेस का मूलतः बड़े नगर और मझोले नगर आधारित होना। मेट्रो संस्कृति या संस्करण का उदय न होना।
  • 19. प्रेस की उजली छवि और ऊंची विश्वसनीयता।
सामान्य रूप से इन बिंदुओं की पृष्ठभूमि में प्रथम प्रेस आयोग का जन्म होता है। यह आयोग तत्कालीन प्रेस की सेहत का जायजा लेता है। अपने दो वर्ष के कार्यकाल में इस आयोग का वरिष्ठ पत्रकारों, संपादकों, पे्रसपतियों, पत्रकार-कर्मचारी संगठनों तथा विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के साथ संवाद होता है। सरकारी क्षेत्र के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल रहते हैं। दो वर्ष के गहन डाइग्नोसिस के पश्चात राजाध्यक्ष आयोग रोग निदान के लिए कई ऐतिहासिक सुझाव सरकार को देता है। आयोग की अनेक सिफारिशों में से दो महत्वपूर्ण सिफारिशें थीं:  भारतीय प्रेस परिषद और भारतीय समाचार पत्र पंजीकरण की स्थापना। इन सिफारिशों को ध्यान में रखकर जुलाई 1956 में आर.एन.आई और जुलाई, 1966 में प्रेस काउंसिल आफ इंडिया की स्थापना कर दी जाती है। इसके अतिरिक्त अन्य सिफारिशों को ध्यान में रखकर 1962 में प्रेस परामर्श समिति गठित की जाती है। प्रेस स्वामित्व एकाधिकारवाद को रोकने का सुझाव भी स्वीकार कर लिया जाता है, लेकिन आधे अधूरे मन से। 1971 तक इस मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाती है। इस दिशा में तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री नन्दनी सतपथी और इन्द्र कुमार गुजराल कुछ प्रयास करते भी हैं, और प्रेस को उद्योग से ‘डीलिंक’ करने का प्रस्ताव रखा जाता है। लेकिन प्रेसपतियों के भारी विरोध के कारण इंदिरा सरकार का उत्साह ठंडा पड़ जाता है।
आज 40 वर्ष बाद स्वामित्व एकाधिकार के विकराल और बहुमुखी रूप नजर आ रहे हैं। प्रेस परिषद भी दंतहीन है। इसकी स्थापना का उद्देश्य नेक था, लेकिन जन्म से आज तक यह दंतहीन-पंजाहीन शेरनी से ज्यादा कुछ नहीं है। इसकी दुखभरी गाथा सर्वविदित है।
आयोग ने भारतीय प्रेसपतियों और पत्रकारों को उत्तरदायित्वपूर्ण बनाने की दृष्टि से कई महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए थे। प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा, प्रेस व्यवसाय में उच्च मानदंडों का पालन, संपादक महत्व की रक्षा, वेज बोर्ड का गठन, पृष्ठ मूल्य निर्धारण, सार्वजनिक हितों से संबंधित समाचारों को प्राथमिकता व अबाध प्रसारण, पत्रकारों की उच्चस्तरीय चयन प्रक्रिया, समय-समय पर प्रेस विकास की समीक्षा करना, प्रपंचपूर्ण विज्ञापनों के प्रकाशन को दण्डनीय अपराध घोषित करना, ज्योतिष-भविष्यवाणियों के प्रकाशन को अवांछनीय मानना, पीत व सनसनीखेज पत्रकारिता के विरुद्ध चेतावनी, अंग्रेजी और भाषाई अखबारों के बीच विज्ञापन असंतुलन जैसे कई पहलुओं पर कदम उठाने की सिफारिशें नेहरू-सरकार से की गई थी। उस समय सूचना और प्रसारण मंत्री डाॅ. बी.वी. केसकर हुआ करते थे।
यदि प्रथम प्रेस-आयोग की सिफारिशों पर अमल का गंभीरतापूर्ण विश्लेषण किया जाए तो परिणाम सुखद नहीं निकलेंगे। क्या सरकार समाचार संस्थानों में पृष्ठ मूल्य निर्धारण करा सकी? क्या प्रेस संस्थानों में विज्ञापनदाताओं के निरंतर बढ़ते वर्चस्व को रोक सकी? क्या अखबारों के बीच मूल्य जंग व अस्वस्थ व अनैतिक प्रतिस्पर्धा को रोका जा सका। क्या संपादक संस्था की रक्षा हो सकी? क्या भविष्यवाणियां और अंधविश्वासों के प्रकाशन में कमी लाई जा सकी? क्या पत्रकारों व गैर-पत्रकारों के वेतनमान के लिए गठित विभिन्न वेज बोर्डों की सिफारिशों को प्रेस पतियों से लागू करवाया जा सका? इस प्रकार के कई प्रश्न हैं जो कि प्रथम प्रेस आयोग की दीर्घ कालीन भूमिका की सार्थकता पर सवालिया निशान लगाते हैं। आखिर प्रेस आयोग की अधिकांश सिफारिशों को निष्प्रभावी बनाने के लिए कौन लोग जिम्मेदार है ै? यह प्रश्न उठेगा ही। इसका सहज व स्वाभाविक उत्तर यह है कि यदि तत्कालीन सरकार लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को लोकोन्मुखी, पूंजी वर्चस्व व विषमता मुक्त और सेहतमंद रखने के प्रति प्रतिबद्ध रहती तथा अपनी राजनीतिक इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करती तो कालान्तर में भारतीय प्रेस में ‘नानारूपी फिसलनें’ पैदा नहीं हुई होतीं। फिर भी सीमित सफलताओं और अनेक विफलताओं के बावजूद प्रेस-आयोग के गठन की पहल को एक स्वागत योग्य प्रयोग कहा जाएगा।
सन् 1954 से 1978 के बीच देश की राजनीति और प्रेस जगत में द्रुतगामी परिवर्तन हुए। घटनाओं की फ्रीक्विंसी में तेजी आई। प्रथम आयोग और द्वितीय आयोग के बीच की प्रेस-यात्रा को समझने के लिए यहां चंदेक ऐतिहासिक घटनाओं का स्मरण उपयोगी रहेगा। इस कालावधि में भारत ने 1962 से 1965 और 1971 में क्रमशः चीन तथा पाकिस्तान के साथ युद्धों का सामना किया; संसद में प्रमुख विपक्षी दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का 1964 में विभाजन हुआ; 1964 में नेहरू के निधन के पश्चात उनके उत्तराधिकारी के रूप में पहले लाल बहादुर शास्त्री और बाद में 1966 में इंदिरा गांधी ने देश की सत्ता संभाली; डा. राममनोहर लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद का दबदबा और 1967 में कांग्रेस का विभाजन; इसी दौर में पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन का विस्फोट; 1972-73 में जे.पी. आंदोलन की शुरूआत; 1974 में पोखरण विस्फोट; 1975 में चुनाव याचिका में इलाहाबाद हाईकोर्ट का प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध फैसला; 25 जून का देश में इमरजंसी लागू करना; प्रेस-सेंसरशिप की घोषणा; राजनेताओं व पत्रकारों की गिरफ्तारियां; 1977 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की करारी पराजय; और मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में केंद्र में जनता पार्टी का सत्तारूढ़ होना।
इन राजनीतिक घटनाओं के समानांतर भारतीय प्रेस में भी कई परिवर्तन दर्ज हुए। साक्षरता बढ़ने लगी और भाषाई पत्रकारिता का विस्तार होने लगा। समाचार पत्रों और पत्रकारों एवं कर्मचारियों की संख्या बढ़ने लगी; समाचार कवरेज के नये क्षेत्र (पंचवर्षीय योजनाएं, सहकारी आंदोलन, पंचायती राज आंदोलन, बांध निर्माण व औद्योगीकरण, युद्ध कवरेज, नक्सलबाड़ी आंदोलन; नवभारत निर्माण, मुशहरी-आंदोलन, संपूर्णक्रांति, 1971 में शरणार्थी समस्या आदि) अस्तित्व में आए। प्रदेशों से नए समाचारपत्र प्रकाशित होने लगे। क्षेत्रीय प्रेस समानान्तर शक्ति के रूप में उभरने लगी। भाषाई संपादकों व पत्रकारों के महत्व को सत्ता-गलियारों में मान्यता मिलने लगी। प्रेस की कार्य स्थिति और पत्रकार व कर्मचारियों के वेतनमानों में आंशिक सुधार दर्ज हुए। हिंदुस्थान समाचार, समाचार भारती जैसी भाषाई न्यूज एजेंसियां शुरू हुईं। मुद्रण में काफी परिवर्तन हुए। आफसेट प्रिटिंग की शुरूआत हुई।
महानगरीय और शहरी पाठकों के साथ-साथ कस्बाई व ग्रामीण पाठकों का वर्ग भी धीरे धीरे उभरने लगा। अखबार पहले से अधिक प्रोफेशनल होने लगे। उन्हें विभिन्न माध्यमों से आकर्षक बनाया जाने लगा। यह वह संक्रमण काल था जब भाषाई प्रेसपति अपनी पुरानी महाजनी पूंजी पृष्ठभूमि से उभरकर आधुनिक औद्योगिक पूंजी के युग में प्रवेश के लिए लगभग तैयार हो चुका था। वह परिवर्तित संदर्भों में सोचने लगा था। प्रेस प्रतिष्ठानों में पूंजी नियोजन बढ़ने लगा था। एकाधिकारवादी व बड़े प्रेस प्रतिष्ठान अपना तेजी से आधुनिकीकरण कर रहे थे। मझोले क्षेत्रीय अखबार भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहते थे। मिशनवादी पत्रकारिता नेपथ्य में लगभग खो चुकी थी। इसका स्थान व्यावसायिक पत्रकारिता ने ले लिया था। यही मुख्यधारा की पत्रकारिता थी। सारांश में, इस दो-ढ़ाई दशक के काल में भारतीय प्रेस जगत में ‘पेराडाइम शिफ्ट’ दिखाई देता है।
अलबत्ता इसी काल में 1975 के आपातकाल से भारतीय प्रेस की चारित्रिक निर्बलताएं भी उजागर हुईं हैं। जहां इमरजंसी से देश की राजसत्ता का अलोकतांत्रिक चेहरा सामने आता है, वहीं सेंसरशिप भारतीय प्रेस की अन्तर्निहित नमनीयता व अवसरवादीता को भी बेपर्द करती है। यह स्थापित कर देती है कि प्रेस प्रतिष्ठानों के मालिक और प्रतिष्ठित संपादक व पत्रकार भीतर व बाहर से कितने दनयीय हैं। सत्ता के विरुद्ध डटे रहने की उनकी प्रतिरोधी ऊर्जा कितनी क्षीण है। इमरजेंसी काल में पत्रकारिता के बड़े-बड़े स्तंभ बालू के निकले। इससे प्रेस की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि आधुनिक भारतीय प्रेस ने स्वतंत्रता संघर्ष की पत्रकारिता की विरासत से स्वयं को ‘डी लिंक’ कर लिया है। इस पैराडाइम शिफ्ट का ठोस लाभ प्रेस के प्रभु वर्ग को मिला। सत्ताधीशों और प्रेस स्वामियों को इस बात का अहसास हो गया कि प्रेस के समाचार-विचार नेतृत्व अर्थात् संपादक व पत्रकारों का अनुकूलन किया जा सकता है। इनका आवश्यकतानुसार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके साथ ही संपादकीय नेतृत्व की नमनीय स्थिति के मनवांछित दोहन के युग की शुरूआत हो गई। प्रेस में नई-नई प्रवृतियां उभरने लगीं। प्रबंधन और विज्ञापन संस्था ‘एस्सेर्ट’ करने लगीं। यद्यपि, अपवाद स्वरूप ऐसे संपादक व पत्रकार भी थे जो जेल भी गए और अंत तक पत्रकारिता के उच्च मानदंडों का परचम थामे रखा। उन्होंने सुविधानुसार चोला नहीं बदला। बस! एक ही बाना पहने रखा और वह था दबाव मुक्त व लोकप्रतिबद्ध पत्रकारिता का।
इस घटनाचक्र की पृष्ठभूमि में 1978 में दूसरे प्रेस आयोग का जन्म होता है। इस आयोग ने करीब चार वर्षों तक भारतीय प्रेस, उसके स्वामित्व, उसकी संरचना, व्यावसायिकता, औद्योगिक-व्यापारिक संबंध, भाषाई प्रेस, समाचार एजेंसी, पत्रकारों की कार्य स्थिति, प्रेस का सामाजिक उत्तरदायित्व, प्रेस-स्वतंत्रता, भारतीय प्रेस परिषद की भूमिका, प्रेस बनाम संसद के विशेषाधिकार, प्रबंधकों के हस्तक्षेप के विरुद्ध सुरक्षा व संपादकीय स्वतंत्रता, बड़े अखबारों में प्रबंधकों और संपादक के मध्य ‘बोर्ड आॅफ ट्रस्टी’ की व्यवस्था, समाचार और विज्ञापन के बीच आनुपातिक संबंध, मझौले व लघु समाचार पत्रों की विज्ञापन स्थिति जैसे पक्षों का अध्ययन किया और कई महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं, लेकिन सबसे अधिक ऐतिहासिक व युगांतकारी सिफारिश थी प्रेस का उसके प्रेसेतर उद्योग धंधों से पूर्णरूपेण ‘डीलिंक’ करने की। आयोग का मत थाः
“We think that in the interest of the public, it is necessary to insulate the press from the dominating influence of the other business interests. We propose the enactment of a law in the interest of the general public making it mandatory for persons carrying on the business of publishing a newspaper to severe their connections with other business to the extent indicated hereinafter by us. In this context we are using the expression ‘person’ in its legal sense so as to bring within its ambit individuals, companies, trusts, etc… The central idea underlying the legislation would be that a person carrying on the businesses of publishing a newspaper should not have directly or indirectly, an interest in excess of the prescribed interest’ in any other business, or be in a position of being controlled, directly or indirectly, by any other person or persons having an interest, in excess of the prescribed interest, in any other business. The expression ‘business’ should be defined to mean any thing which occupies the time, atteniton and labour of a person for the purpose of profit but not any activity in the nature of exerciese of a profession.

The commission further said:
“We are conscious that it would be impracticable to make the proposed legislation applicable to all persons carrying on the business of publishing a newspaper one stroke. We are of the view that in the first instance it should be enforced in the case of all persons who are in a position of controlling the publications of one or more daily newspapers with the same or different titles, in one or more languages, the circulation of which, taken single or cumulatively, exceeds one lakh copies per day…”
यह सर्वविदित है कि देश की प्रतिष्ठानी प्रेस या प्रभुवर्गीय समाचार घराने ‘जूट प्रेस’ के रूप में भी विख्यात रहे हैं। महानगरीय स्थित इन बहुसंस्करणीय समाचार-पत्र समूहों के स्वामियों के औद्योगिक व व्यापारिक हित जूट, बैंकिंग, टैक्सटाइल, शुगर, सीमेंट, आटो मोबाइल, प्लांटेशन, स्टील रोलिंग, रबड़, सीमेंट, पेपर मिल, इलेक्ट्रोनिक्स, कृषि-आधारित उद्योग, आयुर्वेदिक दवाइयां जैसे प्रेसेतर औद्योगिक क्षेत्रों से जुड़े रहे हैं। 21वीं सदी में तो इस सूची का और भी विस्तार हो चुका है; रीयल इस्टेट, कंस्ट्रक्शन, शराब-बीयर निर्माण, चिटफंड-सीरियल प्रोडक्शन, फिल्म प्रोडक्शन, आई.टी. सेक्टर जैसे ढेरों नामी-बेनामी उद्योग धंधे इसमें जुड़ गए हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इस सुझाव पर आयोग के सदस्यों के बीच सर्वसम्मति का अभाव रहा। आयोग के चार प्रतिष्ठित सदस्यों ने इस सुझाव का कड़ा विरोध किया। इन सदस्यों में शामिल थे सर्वश्री गिरीलाल जैन, राजेन्द्र माथुर, डा. एस.के. परांजपे और जस्टिस एस.के. मुखर्जी। इस असहमति को लेकर कई प्रकार के विवाद उठे। इसकी कई व्याख्याएं हुईं। लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों आयोग स्वामित्व के केंद्रीकरण को रोकने, और प्रेस तथा ट्रेड व इंडस्ट्री के परस्पर संबंधों का विच्छेद करने में दयनीय रूप से नाकाम रहे हैं। द्वितीय आयोग ने तो इतना स्पष्ट मत व्यक्त किया था कि ‘‘एकाधिकारवादी घरानों से प्रेस को ‘डीलिंक’ करने के लिए’’ सरकार को चाहिए कि देश के ‘‘उच्च आठ समाचार प्रतिष्ठानों का सार्वजनिक अधिभार ग्रहण करे।’’ लेकिन क्या नतीजा निकला? नाकामियां ही हाथ लगीं। संक्षेप में प्रेस सामंतों की शक्ति के समक्ष नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी (1954-1982) तक की सरकारें इस मुद्दे पर सिर्फ नतमस्तक होती रहीं हैं।
इसके अलावा अन्य सुझावों के आलोक में समाचार पत्र विकास आयोग का अभी तक गठन नहीं किया गया; बोर्ड आफ ट्रस्टी की स्थापना भी नहीं हुई; समाचार-विचार और विज्ञापनों के बीच असंतुलन बढ़ रहा है; भविष्यवाणियां प्रचण्डता से प्रकाशित हो रही है; छवि प्रोजेक्शन के लिए विज्ञापन-दुरुपयोग जारी है, एक स्थायी राष्ट्रीय विज्ञापन नीति नहीं है, पत्र सूचना कार्यालय (पी.आई.बी) का पुनर्गठन शेष है।
संक्षिप्त और स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो प्रेस सामंतों ने 1954 से लेकर अब तक पहले से हजार गुना अधिक अपनी सरहदों का विस्तार किया है। वे अधिक शक्तिशाली हुए हैं और भारतीय राष्ट्र राज्य को ललकारने की हैसियत अर्जित कर चुके हैं?
अब हमंे पहले और दूसरे आयोग के सुझावों, अनुभवों और परिणामों के परिप्रेक्ष्य में तीसरे आयोग के गठन के कारणों को रेखाकिंत करने की जरूरत है। 1954 से लेकर 2011 तक के 57 वर्ष के काल में देश और प्रेस में काफी कुछ घट चुका है। अब भारतीय राज्य परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बन चुका है; 2020 तक विश्व की प्रमुख आर्थिक शक्ति बनने के स्वप्न से यह समृद्ध है; अगले कुछ वर्षों में हम चांद पर दस्तक देने वाले हैं। अब परंपरागत भारतीय प्रेस का संबोधन नेपथ्य में खिसक रहा है। इसके स्थान पर भारतीय मीडिया का संबोधन पत्रकारिता क्षितिज पर अपने पूरे ग्लैमर के साथ स्थापित हो चुका है। वास्तव में पांचवें व आठवें दशक की प्रेस और नवउदारवादी अर्थतंत्र की पैदाइश वर्तमान भारतीय मीडिया के बीच समानताएं खोजना लगभग निष्फल कवायद होगी। दोनों के चाल, चरित्र और चेहरे नितान्त भिन्न हैं।
अलबत्ता, स्वामित्व वर्ग की निरतंरता अवश्य बनी हुई है। यह वर्ग नए साधनों, नई टेक्नोलॉजी समुद्रपारीय पूंजी संबंध और नई बहुआयामी गठबंधन शक्ति से निश्चित ही लैस हुआ है। यह स्वयं में स्वतंत्र व दिलचस्प अध्ययन का विषय है।
फिलहाल 21वीं सदी की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए तीसरे आयोग के गठन की, जमीन निम्न आधारों पर तैयार की जा सकती हैः
सर्वप्रथम
  • 1. प्रेस प्रतिष्ठानों में विदेशी पूंजी नियोजन की अनुमति 26 प्रतिशत तक। नेहरू से लेकर इन्द्र कुमार गुजराल तक, किसी भी प्रधानमंत्री ने यह अनुमति नहीं दी थी। वैश्वीकरण के दवाब में वाजपेयी सरकार ने अनुमति प्रदान की।
    2. प्रेस व मीडिया में उच्च पूंजी का वर्चस्व/ विज्ञापनवाद का प्रभुत्व। ब्रांड मैनेजर का निर्णायक उदय।
    3. संपादक संस्था का परोक्ष विलोपीकरण।
    4. अनुबंधित पत्रकार व कर्मचारी प्रथा को प्रोत्साहन। वेज बोर्ड नियमित मानव-शक्ति का क्रमिक लोप। निष्प्रभावी श्रमिक संगठन।
    5. ऊंचा वेतन व सुविधावादी जीवन शैली लेकिन प्रतिष्ठान में असुरक्षा व अनिश्चितता का वातावरण।
    6. प्रशिक्षित पत्रकार व उत्पीड़क प्रतिस्पर्धा।
    7. समाचार पत्रों के बीच अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा और घातक ‘मूल्य जंग’ ‘(प्राइस वार)’। मटमैली पूंजी का समाचार।
    8. क्षेत्रीय भाषाई प्रेस व मीडिया की सत्ता का उदय।
    9. बहु व अंतर्राज्यीय संस्करणों का विस्फोट।
    10. पंचस्तरीय समाचार संरचनाः 1. राष्ट्रीय, 2. प्रदेश राजधानी, 3. संभागीय, 4. जिला स्तरीय और 5. ताल्लुक या तहसील या प्रखंड स्तरीय।
    11. केंद्रीय समाचार डेस्क और परोक्ष केंद्रीय नियंत्रण।
    12. समाचार व मुद्दों का अति स्थानीयकरण। समाचारपत्र का विखंडीकरण और उभरता अलोकतांत्रिक व्यक्तित्व। संवादहीनता व अपरिचितपन की प्रवृतियों का उभरना।
    13. समाचारपत्रों में उभरती विद्रूपता।
    14. प्रेस या मीडिया का प्रोडक्ट में रूपांतरण।
    15. समाचार व विचार और विज्ञापन के बीच गहराता प्रतिशत असंतुलन।
    16. पैसा वसूल समाचार परिघटना। (पेड न्यूज) अर्थात् प्रायोजित समाचार व विचार सामग्री का फलता फूलता व्यापार।
    17. लांबिंग का कारोबार।
    18. स्टिंग आपरेशन।
    19. विदेशी अखबारों का भारतीय फेक्सीमिली संस्करण।
    20. भारतीय लोकमत को प्रभावित करने की रणनीति।
    21. एक व्यक्ति या परिवार या समूह का बहु आयामी संचार माध्यम पर नियंत्रण (प्रेस, चैनल, केबल, आदि।)
    22. अखबारों के इंटरनेट संस्करण और साइबर पत्रकारिता।
    23. अखबार और पत्र-पत्रिकाओं में सेक्स, ग्लैमर, अपराध, अंधविश्वास आदि का बढ़ता प्रभाव।
    24. सूचना-मनोरंजन परिघटना।
    25. आचार संहिता की योजनाबद्ध उपेक्षा।
    26. विकलांग भारतीय प्रेस परिषद।
    27. प्रायोजित व दिखावटी पत्रकार और छद्म स्वतंत्रता।
    28. प्रेस में आंतरिक उपनिवेश का परिवेश।
    29. सोशल मीडिया का उदय।
    30. ओम्बड्समेन की व्यवस्था नहीं।
    31. भाषाई समाचार एजेंसियों का अवसान।
    32. पत्रकारों पर बढ़ते हमले और राज्य की उदासीनता।
    33. जन संघर्षों की खबरों को दबाना।
    34. पेज थ्री संस्कृति को प्रोत्साहित करना।
    35. बडे़ प्रेस घरानों द्वारा संभागीय व जिला स्तरीय संस्करण निकालने के कारण स्थानीय स्तर के अखबारों की दयनीय स्थिति।
    36. पत्रकारों को गैर-पत्रकारीय कार्यों में जोतना।
    37. प्रेस प्रतिष्ठानों में ‘शोध एवं विकास’ पर न्यूनतम ध्यान। संदर्भ विभाग व पुस्तकालय का अभाव।
    38. औद्योगिक व व्यापारिक हितों की रक्षा की दृष्टि से काॅरपोरेट घरानों द्वारा ग्लैमरीकृत पत्रिकाओं का आक्रामक प्रकाशन। बौद्धिक जगत व लोकतंत्र को प्रभावित करने की कोशिशें।
    39. एकाधिकारवादी प्रेस व मीडिया घरानों में देश के लिए ‘एजेंडा निर्धारण’ की उग्र होती प्रवृत्ति।
    40. नवउदारवादी वैश्विक आर्थिक शक्तियों की अविवेकपूर्ण पक्षधरता। स्वदेशी हितों व आवश्यकताओं के प्रति सुनियोजित उदासीनता।
ऐसे और भी अनेक आधार हो सकते हैं जिन्हें चिन्हित करने की आवश्यकता है। लेकिन तीसरे आयोग के केस को आगे बढ़ाने के लिए फिलहाल चिन्हित आधारों पर सोचा जाना चाहिए। क्योंकि मुख्य मुद्दा है लोकतंत्र को जीवित, जीवंत और समतावादी बनाए रखने के लिए ऐसी प्रेस या मीडिया का होना आवश्यक है जोकि हर दृष्टि से दबावमुक्त, जवाबदार और लोकोन्मुखवादी हो। दूसरे प्रेस आयोग का स्पष्ट मत था।
“The press being a prime needs of society, when its machinery is concentrated only in the hands of a few, some of whom indulge in practices which are harmful to the health of society, freedom of the press is in danger as it is employed for a purpose for which it was never indeed. In a system of adult suffrage, freedom of the press becomes meaningless when it is not known on whose behalf and whose benefit this freedom is exercised…”
पिछले वर्षों में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार प्रेस की स्वतंत्रता की दुहाई देकर कतिपय प्रेस सामंतों ने अपने औद्योगिक अपराधों, विदेशी मुद्रा विनिमय उल्लंघन तथा अन्य घोटालों को छुपाने की कुचेष्टाएं की थीं। उन्होंने अपने निजी अपराधों को प्रेस स्वतंत्रता के साथ नत्थी कर दिया था।
यह सर्वविदित है कि प्रेस सामंत और क्षेत्रीय प्रेसपति किस प्रकार केंद्र व राज्य सरकारों पर विभिन्न प्रकार के दबाव डालकर अनगिनित सुविधाएं हथियाते हैं। दूसरे आयोग के बाद इस प्रकार की गतिविधियों में तेजी आई है। एक प्रकार से चुनिंदा तरीके से प्रेस की स्वतंत्रता पर सौदेबाजी की जाती है। इस खेल के खिलाड़ी होते हैं प्रेस प्रभु वर्ग, राजनीतिक दल, काॅरपोरेट घराने, नौकरशाह, बिल्डर, कांट्रेक्टर, भू-माफिया तथा अन्य नवउदित संगठित धनिक व प्रोफेशनल वर्ग। इन तत्वों के कारण लोकहित व जनकल्याण के समाचारों को या तो रोका जाता है या किसी मामूली कोने में प्रकाशित कर दिया जाता है। 2009 के आम चुनावों में पेड न्यूज या न्यूज फिक्सिंग के महाकांड से हम सभी परिचित हैं। हम यह भी जानते हैं कि इस मामले में किस प्रकार प्रेस सामंतों ने भारतीय प्रेस परिषद को प्रभावित करने की कुचेष्टाएं की थीं। पेड-न्यूज के महाकांड में लिप्त समाचार पत्रों के सभी नामों को उजागर नहीं होने दिया गया। परिषद की जांच समिति इस मुद्दे पर विभाजित रही। कतिपय प्रतिबद्ध व जागरूक सदस्यों के कारण नामों का खुलासा हो सका। इस तरह की हरकतों से प्रेस की स्वतंत्रता संकटग्रस्त होने लगती है।
आज भाषाई प्रेस का युग है। देश में दस चोटी के अखबार हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के हैं। आने वाले दशक में भारतीय भाषाओं के पाठकों की संख्या में असाधारण वृद्धि की घोषणाएं की जा रही हैं क्योंकि साक्षरता तेजी से बढ़ रही है। हिंदी राज्यों में पाठकों का बड़ा बाजार, विशेष रूप से ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में, तैयार हो रहा है। बहुराष्ट्रीय निगमों और देशी-विदेशी विज्ञापन इस परिघटना पर नजर गड़ाए हुए हैं क्योंकि पाठक वर्ग उपभोक्ताओं भी होता है। अतः प्रेस व मीडिया के माध्यम से नए सिरे से सांस्कृतिक आक्रमण, उपभोक्ताकरण और लोकमत अनुकूलन का कारोबार चलाया जाएगा। कुल मिलाकर प्रेस व मीडिया में ग्राहक वर्ग पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए बहुआयामी निरंकुशता दिखाई देगी। इस संभावित अराजकता, उच्छृंखलता, निरंकुशता जैसी प्रवृत्तियों से निपटने के लिए कोई तो बंदोवस्त करना होगा। इसके लिए राज्य, पत्रकार वर्ग, लोकवृत के नेता, संवेदनशील प्रेसपति, विधि विशेषज्ञ जैसे व्यक्तियों को सक्रिय होना होगा। इस दृष्टि से तीसरे आयोग की स्थापना की दिशा में बहुस्तरीय कदम उठाने होंगे। यहां इस सच्चाई को गहराई से स्वीकारना होगा कि भविष्य में भाषाई प्रेस की भूमिका काफी चुनौतीपूर्ण रहेगी। अतः इस तथ्य की तरफ खास ध्यान देने की जरूरत है।
यहां यह भी विचारणीय विषय है कि आयोग का कार्यक्षेत्र किस प्रकार का होना चाहिए? चूंकि आज मीडिया त्रिआयामी है अर्थात प्रिंट या प्रेस, दो इलेक्ट्रानिक या चैनल व केबल और तीन इंटरनेट या साइबर। सूचना, समाचार, विचार और मनोरंजन के इन तीन माध्यमों की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए आयोग होना चाहिए। आयोग एक से अधिक भी हो सकते हैं या बहुसमावेशी आयोग बैठाया जा सकता है। लेकिन मेरे मत में इन तीनों माध्यमों की अपनी अपनी विशिष्टताएं, समस्याएं और चुनौतियां हैं। तीनों की कार्यशैलियां भी भिन्न हैं। अतः मुद्रण माध्यम या प्रेस या पत्र-पत्रिकाओं के लिए अलग से स्वतंत्र आयोग का गठन उपयुक्त रहेगा।
अलबत्ता आयोग के कार्याधिकार के लिए तात्कालिक तौर पर निम्न लक्ष्य प्रस्तावित किए जा सकते हैं:
  • भारतीय प्रेस परिषद को वैधानिक दृष्टि से शक्ति सम्पन्न बनाना। कार्रवाई और दण्ड के अधिकारों से लैस करना।
  • प्रेस स्वामित्व स्थिति का गंभीर अध्ययन।
  • एकाधिकार और केंद्रीकरण को समाप्त करने के लिए राष्ट्रीय कानून।
  • समाचार-विचार और विज्ञापन में समानुपातिक संतुलन स्थापित करना/कानून बनाना।
  • एक व्यक्ति या एक समूह या परिवार को एक ही माध्यम रखने का अधिकार।
  • राष्ट्रीय और बड़े प्रेस प्रतिष्ठानों में प्रबंधक और संपादक के बीच प्रबुद्ध वर्ग या नागरिक समाज के प्रतिनिधियों का न्यास मंडल की स्थापना करवाना।
  • संपादक संस्था को पुनर्जीवित करना। प्रबंधक, ब्रांड मैनेजर और विज्ञापन दाताओं के कार्यक्षेत्रों का वैधानिक रूप से निर्धारण और संपादन कार्य क्षेत्र की स्वतंत्रता की बहाली।
  • प्रेस और उद्योग-व्यापार को सख्ती से ‘डीलिंक’ करना।
  • अनुबंध-व्यवस्था की समीक्षा। वेज बोर्ड के प्रावधानों को लागू करवाना।
  • स्थानीय लघु व मझौले समाचार पत्रों को सुरक्षा।
  • विदेशी शक्तियों व पूंजी द्वारा भारतीय अभिमत को प्रभावित करने की कोशिशों की रोकथाम।
  • भाषायी समाचार एजेंसियों की पुनस्र्थापना।
  • कस्बों व ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकारिता शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था।
  • प्रेस विकास आयोग की स्थापना। भाषाई प्रेस पर विशेष ध्यान।
  • डी.ए.वी.पी., पी.आई.बी., आर.एन.आई. और प्रदेशों के जनसंपर्क कार्यालय आदि के कार्यों की विवेचनात्मक समीक्षा आवश्यक है।
  • संस्करणों की संख्या व सीमा क्षेत्र निर्धारण।
  • सोशल ऑडिटिंग की व्यवस्था। प्रेस की जवाबदारी निर्धारण।
  • पत्रकारों की सुरक्षा, स्वतंत्रता और स्थायित्व की व्यवस्था।
  • पूर्व के दोनों आयोगों के सुझावों की समीक्षा और अधूरे कार्यों को पूरा कराने का उत्तरदायित्व।
  • प्रेस में विदेशी पूंजी नियोजन की अनुमति की जांच और भविष्य में इसके रोकथाम के उपाय।
  • मनमोहन सिंह सरकार द्वारा मनोरंजन क्षेत्र में 74 से 100 प्रतिशत और प्रेस में 26 से 49 प्रति की विदेशी पूंजी नियोजन का मार्ग साफ करने की परिस्थितियों और विदेशी दबावों का अध्ययन।
  • राष्ट्रीय प्रेस आयोग के साथ-साथ क्षेत्रीय आयोगों के गठन की आवश्यकता।
  • प्रेसपत्ति, प्रबंधक (विज्ञापन, वितरण मैनेजर आदि) तथा मान्यता प्राप्त संपादक और अन्य वरिष्ठ पदों (संयुक्त संपादक) स्थानीय संपादक, ब्यूरो प्रमुख, चीफ रिपोर्टर आदि) पर आसीन पत्रकार प्रति तीसरे वर्ष अपनी चल-अचल संपत्ति की घोषणा करें।
संदर्भ सामग्री
1- J.P. Chaturvedi: The Indian press at the Crossroads.
2. Robin Jeffry : Indian’s Newspaper Revolution
3. Sevanti Ninan : Headlines from the Heartland
4. समयांतर : मीडिया विशेषांक, फरवरी, 2011
5. रामशरण जोशी: मीडिया विमर्श।
6. रामशरण जोशी: मीडियाः मिशन से बाजारीकरण तक।
7. रामशरण जोशी: मीडिया, मिथ और समाज।

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Amar Radia Tapes


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-एडिटर, भड़ास4मीडिया
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प्रेस आयोग

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Friday, 11 January 2013
पहले प्रेस आयोग (1952-54):


सूचना और प्रसारण भारत में प्रेस की स्थिति में पूछताछ के मंत्रालय द्वारा 23 सितम्बर 1952 पर न्यायाधीश जेएस Rajadhyakhsa की अध्यक्षता में पहले प्रेस आयोग का गठन किया गया था. 11 सदस्य काम कर रहे समूह के अन्य सदस्यों में से कुछ थे डॉ. सी.पी. रामास्वामी अय्यर, आचार्य नरेन्द्र देव, डा. जाकिर हुसैन, और डॉ. VKV राव. यह कारक है, जो प्रभाव और भारत में पत्रकारिता के उच्च मानकों की स्थापना और रखरखाव में देखने के लिए कहा गया था.आयोग ने देश में समाचार पत्र उद्योग के प्रबंधन, नियंत्रण और स्वामित्व,वित्तीय संरचना के रूप में के रूप में अच्छी तरह से अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं में पूछा. आयोग,एक सावधान और विस्तृत अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि दोनों और विशेष रूप से उच्च स्तर पर कर्मचारियों की राजधानी के स्वदेशीकरण किया जाना चाहिए और यह उच्च वांछनीय है कि दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्रों में स्वामीय हितों भारतीय हाथों में मुख्य रूप से बनियान चाहिए था.प्रेस आयोग की सिफारिशों और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत नोट पर विचार करने के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 13 सितंबर, 1955 है, जो भारत में प्रेस के संबंध में बुनियादी नीति दस्तावेज बन गया है पर एक प्रस्ताव पारित किया. संकल्प के रूप में इस प्रकार है: -"मंत्रिमंडल ने सूचना और प्रसारण नोट 4 मई, 1955 को मंत्रालय माना जाता है, और मानना ​​था कि अब तक के रूप में अन्य देशों के नागरिकों द्वारा अखबारों और पत्रिकाओं के स्वामित्व में चिंतित था, समस्या के रूप में वहाँ एक बहुत ही गंभीर नहीं था केवल कुछ ऐसे समाचार पत्रों और पत्रिकाओं थे. कैबिनेट,इसलिए महसूस किया है, कि कोई भी कार्रवाई करने के लिए इन अखबारों और पत्रिकाओं के संबंध में लिया जा सकता है, लेकिन कोई विदेशी स्वामित्व वाली अखबार या पत्रिका, भविष्य में भारत में प्रकाशित किया जाना चाहिए की अनुमति दी जाए कि जरूरत है. कैबिनेट,पर सहमत हुए, लेकिन है कि आयोग है कि विदेशी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं,जो समाचार और समसामयिक मामलों के साथ मुख्य रूप से निपटा बाहर भारतीय संस्करण लाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए, के अन्य सिफारिश सिद्धांत रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए.

                                                                ***पिछले 46 वर्षों के दौरान के बाद से ऊपर संकल्प प्रभाव में आया, कोई विदेशी अखबार या पत्रिका के लिए भारत से प्रकाशित होने की अनुमति दी गई है और न ही घरेलू प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में किसी भी विदेशी निवेश की अनुमति दी गई है.हालांकि,वैश्वीकरण के नए संदर्भ में विदेशी भागीदारी और प्रिंट मीडिया में निवेश के लिए मांग समाचार पत्र उद्योग के एक खंड के द्वारा उठाया गया है. सार्वजनिक बहस है जो इस मुद्दे पर जगह ले ली है, प्रिंट मीडिया की राय विभाजित किया गया है. चूंकि मुद्दे पर अब तक भारत में प्रेस के लिए परिणाम तक पहुँचने, समिति के एक विस्तृत अध्ययन के लिए इस विषय को लेने का फैसला किया. एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया गया था.

                                                                            ***आयोग नियुक्त किया गया क्योंकि आजादी के बाद प्रेस की भूमिका के लिए एक मिशन से व्यवसाय के लिए बदल रहा था. यह पाया गया है कि वहाँ अक्सर समुदायों या समूहों अभद्रता और अश्लीलता और व्यक्तियों पर व्यक्तिगत हमले के खिलाफ निर्देशित घृण्य लेखन का एक बड़ा सौदा था. यह भी कहा कि पीला पत्रकारिता देश में वृद्धि पर किया गया था और विशेष रूप से किसी भी क्षेत्र या भाषा के लिए ही सीमित नहीं है. आयोग, लेकिन पाया गया कि पूरे पर अच्छी तरह से स्थापित, समाचार पत्र, पत्रकारिता के एक उच्च स्तर को बनाए रखा था.यह टिप्पणी की है कि जो कुछ भी प्रेस संबंधित कानून हो सकता है, वहाँ अभी भी आपत्तिजनक पत्रकारिता की एक बड़ी मात्रा में है, जो कानून के दायरे के भीतर नहीं गिरने हालांकि, अभी भी कुछ जाँच की आवश्यकता होगी होगा. यह महसूस किया है कि पेशेवर पत्रकारिता के मानकों को बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका अस्तित्व में मुख्य उद्योग जिसकी जिम्मेदारी संदिग्ध बिंदुओं पर मध्यस्थता करने की और किसी भी अच्छा पत्रकारिता के अतिक्रमण के दोषी की सजा सुनिश्चित करने के लिए किया जाएगा के साथ जुड़े लोगों की एक शरीर लाना होगा व्यवहार. आयोग की एक महत्वपूर्ण सिफारिश स्थापित किया गया एक सांविधिक प्रेस आयोग की राष्ट्रीय स्तर पर, प्रेस लोगों के शामिल है और सदस्यों को रखना.इसकी सिफारिश और की गई कार्रवाई के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है इस प्रकार है:
प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए और पत्रकारिता के उच्च मानकों को बनाए रखने के लिए, एक प्रेस परिषद की स्थापना की जानी चाहिए.
भारतीय प्रेस परिषद ने 4 जुलाई, 1966 को जो 16 नवंबर (इस तिथि पर राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाया जाता है) 1966 से कामकाज शुरू कर दिया पर स्थापित किया गया था.
प्रेस और हर साल की स्थिति के खाते तैयार करने के लिए, भारत (आरएनआई) के लिए अखबार के रजिस्ट्रार की नियुक्ति होना चाहिए.
यह भी स्वीकार कर लिया गया आर.एन.आई. जुलाई 1956 में नियुक्त किया गया था.
अनुसूची मूल्य पृष्ठ शुरू किया जाना चाहिए.
यह भी 1956 में स्वीकार किया गया था.
सरकार और प्रेस के बीच एक सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए, एक प्रेस परामर्शदात्री समिति का गठन होना चाहिए.
इसे स्वीकार कर लिया गया था और 22 सितंबर को एक प्रेस परामर्शदात्री समिति का गठन किया गया था1962.काम कर रहे पत्रकारों को अधिनियम लागू किया जाना चाहिए.
सरकार यह लागू और श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारियों (सेवाओं की शर्तों) और विविध प्रावधान अधिनियम 1955 में स्थापित किया गया था.यह एक तथ्य खोजने के समाचार पत्रों और समाचार एजेंसियों की वित्तीय स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए समिति की स्थापना की सिफारिश की.
एक तथ्यान्वेषी समिति 14 अप्रैल 1972 को स्थापित किया गया था. यह 14 जनवरी 1975 को अपनी रिपोर्ट सौंपी.
प्रेस की स्वतंत्रता के मुख्य सिद्धांतों की रक्षा और एकाधिकार प्रवृत्ति के खिलाफ अखबारों में मदद करने के लिए, एक अखबार वित्तीय निगम का गठन किया जाना चाहिए.
यह सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया गया है और 4 दिसंबर 1970 को भी एक विधेयक लोकसभा में पेश किया गया,
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Friday, 11 January 2013
द्वितीय प्रेस आयोग:

भारत सरकार ने 29 मई, 1978 को द्वितीय प्रेस आयोग का गठन किया है. दूसरे प्रेस आयोग प्रेस न तो एक दौर थमने विरोधी और न ही एक निर्विवाद सहयोगी होना चाहता था. आयोग प्रेस के विकास की प्रक्रिया में एक जिम्मेदार भूमिका निभाने के लिए करना चाहता था. प्रेस व्यापक रूप से लोगों के लिए सुलभ हो सकता है अगर यह अपनी आकांक्षाओं और समस्याओं को प्रतिबिंबित करना चाहिए.शहरी पूर्वाग्रह का सवाल भी आयोग का ध्यान प्राप्त हुआ है. आयोग ने कहा है कि विकास के लिए जगह ले, आंतरिक स्थिरता के रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा की सुरक्षा के रूप में महत्वपूर्ण था.आयोग भी प्रेस की (और इसलिए जिम्मेदारी) को रोकने और deflating सांप्रदायिक संघर्ष में भूमिका पर प्रकाश डाला.भारत के दोनों प्रेस आयोगों प्रेस से कई सम्मानजनक सदस्यों को शामिल किया. पहली बार के लिए पहली प्रेस आयोग की सिफारिश के एक जिम्मेदार प्रेस क्या होना चाहिए की विचार प्रदान करता है. 2 प्रेस आयोग एक स्पष्ट तरीके है कि एक देश में विकास प्रेस के केंद्रीयध्यान केंद्रित हो सकता है, जो खुद का निर्माण होता है एक आत्मनिर्भर औरसमृद्ध समाज बनने चाहिए में तैयार की है. आयोग ने घोषणा की है कि एक जिम्मेदार प्रेस भी एक स्वतंत्र प्रेस और ठीक इसके विपरीत हो सकता है. स्वतंत्रता और जिम्मेदारी मानार्थ लेकिन नहीं विरोधाभासी हैं. मुख्य सिफारिशों के रूप में जानकारी दी जा सकती है:एक प्रयास करने के लिए सरकार और प्रेस के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने के लिए किया जाना चाहिए.छोटे और मध्यम अखबार के विकास के लिए, वहाँ अखबार विकास आयोग की स्थापना होना चाहिए.अखबारों के उद्योगों उद्योगों और वाणिज्यिक हितों से अलग किया जाना चाहिए.अखबार के संपादकों और मालिकों के बीच के न्यासी बोर्ड की नियुक्ति होना चाहिए.अनुसूची मूल्य पृष्ठ शुरू किया जाना चाहिए.छोटे, मध्यम और बड़े अखबार में समाचार और विज्ञापनों के एक निश्चित अनुपात होना चाहिए.अखबारों के उद्योगों को विदेशी पूंजी के प्रभाव से मुक्त किया जाना चाहिए.कोई भविष्यवाणियों अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाना चाहिए.विज्ञापन की छवि के दुरुपयोग को बंद कर दिया जाना चाहिए.सरकार एक स्थिर विज्ञापन नीति तैयार करना चाहिए.प्रेस सूचना ब्यूरो का पुनर्गठन किया जाना चाहिए.प्रेस कानूनों में संशोधन किया जाना चाहिए.।


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भारत के बारे में ये 10 अजीब बातें क्या जानते हैं?

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BBC
रजनी वैद्यनाथन
 बुधवार, 5 जून, 2013 को 11:51 IST तक के समाचार
क्लिक करें भारतके बारे में लिखने वाले आम तौर पर लंबे ट्रैफिक जाम, नौकरशाही, भ्रष्टाचार और योग पर लिखकर अपना लेख पूरा कर लेते हैं. लेकिन कुछ और बातें भी हैं, जो भारत के लोगों के जीवन का हिस्सा हैं, आइए हम आपको बताते हैं ऐसी 10 बातों के बारे में.

कर देने वालों की कमी

एक अरब 20 करोड़ की आबादी वाले इस देश में केवल तीन फ़ीसदी लोग ही कर देते हैं.
इसे इस तरह समझा जा सकता है कि खेती-बाड़ी को कर के दायरे से बाहर रखा गया है और भारत की दो तिहाई आबादी गांवों में रहती है. क्लिक करें अर्थव्यवस्थाका एक बहुत बड़ा हिस्सा असंगठित हैं, इसलिए कर ले पाना थोड़ा कठिन काम है.
कई लोगों का कहना है कि अगर कर देने से बच रहे लोगों से कर वसूला जाए तो देश की आर्थिक समस्याओं से निजात मिल सकती है.

शादी से पहले जासूसी की बढ़ती मांग

मेरे एक दोस्त ने मुझसे कहा था कि उसकी शादी से पहले उसके ससुराल वालों ने यह जानने के लिए कि उसकी कोई प्रेमिका तो नहीं थी, एक जासूस की सेवाएं ली थीं.
हालांकि उसकी प्रेमिका थी. लेकिन जासूस (शुक्र है कि मेरे दोस्त के बारे में) यह पता लगा पाने में नाकाम रहा. इस तरह उसकी शादी हो गई.
भारत में इस तरह की सेवाएं देने वाली कंपनियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. ऐसी क़रीब 15 हज़ार कंपनियां काम कर रही हैं.
एक महिला ने मुझे बताया,‘‘यह जासूसी नहीं है.’’ इस महिला ने अपनी बहन के होने वाले पति के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए एक जासूस की सेवाएं ली थीं. उन्होंने बताया कि लड़के ने कहा था कि वह अच्छे परिवार से है. इसकी तस्दीक करने के लिए ही हमने ऐसा किया.

अख़बारों की बढ़ती प्रसार संख्या

जब पश्चिमी देश अख़बारों के अंत का शोक मना रहे हैं, तब भारत का अख़बार उद्योग तेज़ी से बढ़ रहा है. बढ़ती साक्षरता, क्लिक करें इंटरनेट के उपयोगकी कम दर और देश की बहुत सी भाषाओं का मतलब यह है कि बहुत से लोग अख़बार पढ़ना चाहते हैं.
यहां अख़बार सस्ते भी हैं.समाज के सभी वर्गों में अख़बार के पाठकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. बढ़ती अर्थव्यवस्था की वजह से छोटे और सामुदायिक अख़बारों की संख्या भी बढ़ी है.
अधिक लोग क्लासीफ़ाइड विज्ञापन दे रहे हैं, जो अख़बारों को आर्थिक मदद पहुंचाता है. एक और बात जो महत्वपूर्ण है, वह यह कि आप अपने अख़बारों और पत्रिकाओं को सड़क के किनारे बैठे दुकानदार को बेच सकते हैं.
वह उसे कम क़ीमत पर खरीद कर फिर उसे बेच देगा. लोग एक साल पुरानी पत्रिका पढ़कर भी खुश होंगे, क्योंकि उस पत्रिका का ताज़ा अंक ख़रीद पाना उनके वश में नहीं है.

गाड़ियों के हॉर्न का शोर

अधिकांश ट्रकों के पीछे यह लिखा होता है,‘हॉर्न ओके, प्लीज.’ भारत में हॉर्न बजाना किसी गाड़ी के पीछे आ रही गाड़ी के ड्राइवर को प्रेरित करता है.
इसमें समस्या यह है कि ड्राइवर इसका किफ़ायती उपयोग नहीं करते हैं. एक ऑटो वाले ने मुझे बताया कि वह एक दिन में क़रीब डेढ़ सौ बार हॉर्न बजाता है.
एक ऑटो रिक्शा औसतन 93 डेसिबल तक का शोर पैदा करता है, ट्रैफिक का शोर एक जंबोजेट विमान के उड़ान भरते समय पैदा हुए शोर के बराबर होता है. यह आवाज़ कानफोड़ू होती है.

नौजवान देश

भारत एक जवान देश है. इसकी एक अरब बीस करोड़ की आबादी का आधे से अधिक हिस्सा 25 साल से कम और दो तिहाई 35 साल से कम आयुवर्ग का है. इनमें से बहुत से भारतीयों में अपने देश के प्रति आत्मविश्वास का भाव है.
अब वे पश्चिम की ओर बहुत नहीं देखते हैं. अपने प्रतिद्वंद्वी ब्रुकलिन की तरह मुंबई भी आधुनिक विचारों और फ़ैशन से ओतप्रोत है. बहुत से युवा अपने परंपरागत पेशों को छोड़कर कला के क्षेत्र में करियर बना रहे हैं.
हर जगह संगीत समारोह आयोजित किए जा रहे हैं, बंगलोर, दिल्ली, मुंबई और चेन्नई लाइव म्यूजिक कनसर्ट के केंद्र बनते जा रहे हैं.

हर जगह दिखतीं प्लास्टिक की कुर्सियां

बढ़ता वजन

एक बार जब मैं बैंक गई तो मैनेजर ने हंसते हुए मुझसे कहा कि आप कुछ मोटी हो गई हैं. आमतौर पर वजन बढ़ने को मैं शिकायत के तौर पर मैं लेती हूं, यह इस बात का भी प्रतीक है कि आप स्वस्थ्य दिख रहे हैं.
लेकिन मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि भारत में मोटापा (केवल इंसानों में ही नहीं पशुओं में भी) अब एक महामारी का रूप लेता जा रहा है.
आप मैकडोनल्ड्स या किसी अन्य प्रोसेस्ड फूड की दुकान पर भारतीय को जमकर खाते हुए देख सकते हैं. अधिक उम्र के भारतीय पुरुषों में तोंद का दिखना एक आम बात है.
जबकि बहुत से भारतीय अभी भी कुपोषण की समस्या से जूझ रहे हैं. लाखों लोग रोज भूखे सोते हैं. ऐसे में शहरों में लोगों की कमर का बढ़ना एक आम बात है.

थूकने की आदत

मुंबई में सार्वजनिक जगह पर थूकने वालों पर जुर्माना लगाने के लिए एक थूक निरीक्षक की नियुक्ति की गई है. पान और खैनी खाने वाले बहुत से लोग कहीं भी थूक देते हैं.
इससे लाल रंग का एक निशान बनता है, जिसे आप बहुत सी सफ़ेद दीवारों पर देख सकते हैं. टैक्सियों पर, रिक्शों के पीछे और इमारतों के आगे यह लिखा होना आम बात है कि ‘यहां न थूकें’.
यह कफ देश में तपेदिक (टीबी) फैलने के लिए ज़िम्मेदार है. देश में कोई थूक विरोधी अभियान भी नहीं चल रहा है.

कान साफ़ करने वाले

भारत में कुछ दिनों के लिए रहने वाला व्यक्ति भी यह जान जाता है कि सड़क के किनारे की अर्थव्यवस्था देश के जीवन का एक प्रमुख हिस्सा है. यहां के लोगों की चतुराई और कल्पनाशीलता का कोई मुक़ाबला नहीं है.
यहाँ के लोग आपकी हर तरह से सेवा कर सकते हैं और अपनी चीजें बेच सकते हैं. अगर आपका छाता टूट जाए, तो उसे ठीक करने वाला व्यक्ति आपको मिल जाएगा.
अगर आपका जूता टूट गया है, तो उसे ठीक करने वाला आपके घर आ सकता है. सड़क के किनारे बाल काटवाने के बारे में आपका क्या ख्य़ाल है?
आपको सड़क के किनारे हड्डी ठीक करने वाले बैठे हुए मिल सकते हैं, जो आपकी टूटी हुई हड्डियों को जोड़ते हैं. इनके अलावा कान साफ़ करने वाले भी हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि सदियों पुरानी ये परंपराएं और मज़बूत होती जा रही हैं.
कुछ लोग इस बात पर चिंता जताते हैं कि ये परंपराएं ख़तरे में हैं, क्योंकि युवा पीढ़ी परंपरागत पेशों को छोड़ पढ़ाई और अन्य विकल्पों को अपना रहे हैं. वहीं कुछ अधिकारी उन्हें फुटपाथ से खदेड़ने का प्रयास भी कर रहे हैं.

शनिवार की महिमा

भारत दुनिया के कुछ बेहतरीन वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के लिए घर हो सकता है. लेकिन जब बात पुराने अंधविश्वासों को मानने की आती है, तो तार्किकता बहुत पीछे छूट जाती है.
अलग-अलग लोग अलग-अलग अंधविश्वासों का पालन करते हैं, जैसे कि शनिवार को नए कपड़े नहीं पहना जाता है. रात में घर की सफ़ाई नहीं करते हैं क्योंकि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी वापस लौट जाती हैं.
बाएं हाथ से किसी को कुछ देना नहीं चाहिए. इन बातों का पालन हर भारतीय करता है, चाहे अमीर हो या ग़रीब.
ये बातें आज के समाज का हिस्सा बन चुकी हैं. हर नई गाड़ी के बोनट पर फूलों की माला चढ़ाई जाती है, क्योंकि इसे शुभ माना जाता है. बुरी चीजों से बचने के लिए लोग गाड़ी के अंदर या घर के सामने नींबू और मिर्च टांगते हैं. अशुभ अंकों से बचने के लिए बहुत से विमानों में 13 नंबर की लाइन नहीं होती है.
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संवादसेतु / मीडिया का आत्मावलोकन…

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पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित पत्रकारिता- माखनलाल चतुर्वेदी


वर्तमान समय में पत्रकारिता के कर्तव्य, दायित्व और उसकी भूमिका को लोग संदेह से परे नहीं मान रहे हैं। इस संदेह को वैश्विक पत्रकारिता जगत में न्यूज आफ द वर्ल्ड और राष्ट्रीय स्तर पर राडिया प्रकरण ने बल प्रदान किया है। पत्रकारिता जगत में यह घटनाएं उन आशंकाओं का प्रादुर्भाव हैं जो पत्रकारिता के पुरोधाओं ने बहुत पहले ही जताई थीं। पत्रकारिता में पूंजीपतियों के बढ़ते प्रभाव के बारे में पत्रकारिता के महान आदर्श माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था-
दुख है कि सारे प्रगतिवाद, क्रांतिवाद के न जाने किन-किन वादों के रहते हुए हमने अपनी इस महान कला को पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित कर दिया है। (पत्रकारिता: इतिहास और प्रश्न – कृष्ण बिहारी मिश्र)
भारत की पत्रकारिता की कल्पना हिंदी से अलग हटकर नहीं की जा सकती है, परंतु हिंदी पत्रकारिता जगत में भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। भाषा के मानकीकरण की दृष्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता। माखनलाल चतुर्वेदी भाषा के इस संक्रमण से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने कहा कि-
राष्ट्रभाषा हिंदी और तरूणाई से भरी हुई कलमों का सम्मान ही मेरा सम्मान है।‘(राजकीय सम्मान के अवसर पर)
राष्ट्रभाषा हिंदी के विषय में माखनलाल जी ने कहा था-
जो लोग देश में एक राष्ट्रभाषा चाहते हैं, वे प्रांतों की भाषाओं का नाश नहीं चाहते। केवल विचार समझने और समझाने के लिए राष्ट्रभाषा का अध्ययन होगा, बाकि सब काम मातृभाषाओं में होंगे। ऐसे दुरात्माओं की देश को जरूरत नहीं, जो मातृभाषाओं को छोड़ दें। (पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, शिवकुमार अवस्थी)
पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण एक ऐसा मुद्दा है, जो हमेशा जीवंत रहा है। सरकारी नियंत्रण के बारे में भी माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए अपने जीवनी लेखक से कहा था-
जिला मजिस्ट्रेट मिओ मिथाइस से मिलने पर जब मुझसे पूछा गया कि एक अंग्रेजी वीकली के होते हुए भी मैं एक हिंदी साप्ताहिक क्यों निकालना चाहता हूं तब मैंने उनसे निवेदन किया कि आपका अंग्रेजी साप्ताहिक तो दब्बू है। मैं वैसा समाचार पत्र नहीं निकालना चाहता हूं। मैं एक ऐसा पत्र निकालना चाहूंगा कि ब्रिटिश शासन चलता-चलता रूक जाए। (पत्रकारिताः इतिहास और प्रश्न – कृष्ण बिहारी मिश्र)
माखनलाल चतुर्वेदी ने पत्रकारिता के ऊंचे मानदंड स्थापित किए थे। उनकी पत्रकारिता में राष्ट्र विरोधी किसी भी बात को स्थान नहीं दिया जाता था। यहां तक कि माखनलाल जी महात्मा गांधी के उन वक्तव्यों को भी स्थान नहीं देते थे जो क्रांतिकारी गतिविधियों के विरूद्ध होते थे। सरकारी दबाव में कार्य करने वाली पत्रकारिता के विषय में उन्होंने अपनी नाराजगी इन शब्दों में व्यक्त की थी-
मैंने तो जर्नलिज्म में साहित्य को स्थान दिया था। बुद्धि के ऐरावत पर म्यूनिसिपल का कूड़ा ढोने का जो अभ्यास किया जा रहा है अथवा ऐसे प्रयोग से जो सफलता प्राप्त की जा रही है उसे मैं पत्रकारिता नहीं मानता।‘‘ (पत्रकारिताः इतिहास और प्रश्न- कृष्ण बिहारी मिश्र)

वर्तमान समय में हिंदी समाचारपत्रों को पत्र का मूल्य कम रखने के लिए और अपनी आय प्राप्त करने के लिए विज्ञापनों पर निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि पाठक न्यूनतम मूल्य में ही पत्र को लेना चाहते हैं। हिंदी पाठकों की इस प्रवृत्ति से क्षुब्ध होकर माखनलाल जी ने कहा-
मुफ्त में पढ़ने की पद्धति हिंदी से अधिक किसी भाषा में नहीं। रोटी, कपड़ा, शराब का मूल्य तो वह देता है पर ज्ञान और ज्ञान प्रसाधन का मूल्य चुकाने को वह तैयार नहीं। हिंदी का सबसे बड़ा शत्रु यही है। (पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, शिवकुमार अवस्थी)
माखनलाल चतुर्वेदी पत्र-पत्रिकाओं की बढ़ती संख्या और गिरते स्तर से भी चिंतित थे। पत्र-पत्रिकाओं के गिरते स्तर के लिए उन्होंने पत्रों की कोई नीति और आदर्श न होने को कारण बताया। उन्होंने लिखा था-
हिंदी भाषा का मासिक साहित्य एक बेढंगे और गए बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर यह आश्चर्य नहीं कि वे शीघ्र ही क्यों मर जाते हैं। यूरोप में हर एक पत्र अपनी एक निश्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में नीति की गंध नहीं लगी। यहां वाले जी में आते ही, हमारे समान चार पन्ने निकाल बैठने वाले हुआ करते हैं। उनका न कोई आदर्श और उद्देश्य होता है, न दायित्व। (इतिहास- निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)
पत्रकारिता को किसी भी राष्ट्र या समाज का आईना माना गया है, जो उसकी समसामयिक परिस्थिति का निष्पक्ष विश्लेषण करता है। पत्रकारिता की उपादेयता और महत्ता के बारे में माखनलाल चतुर्वेदी जी ने कर्मवीर के संपादकीय में लिखा था-
किसी भी देश या समाज की दषा का वर्तमान इतिहास जानना हो तो वहां के किसी सामयिक पत्र को उठाकर पढ़ लीजिए, वह आपसे स्पष्ट कर देगा। राष्ट्र के संगठन में पत्र जो कार्य करते हैं वह अन्य किसी उपकरण से होना कठिन है। (माखनलाल चतुर्वेदी, ऋषि जैमिनी बरूआ)
किसी भी समाचार पत्र की सफलता उसके संपादक और उसके सहयोगियों पर निर्भर करती है, जिसमें पाठकों का सहयोग प्रतिक्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समाचारपत्रों की घटती लोकप्रियता के लिए माखनलाल जी ने संपादकों और पाठकों को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखा था-
इनके दोषी वे लोग ही नहीं हैं जो पत्र खरीदकर नहीं पढ़ते। अधिक अंशों में वे लोग भी हैं जो पत्र संपादित और प्रकाशित करते हैं। उनमें अपने लोकमत की आत्मा में पहुंचने का सामर्थ्य नहीं। वे अपनी परिस्थिति को इतनी गंदी और निकम्मी बनाए रखते हैं, जिससे उनके आदर करने वालों का समूह नहीं बढ़ता है।‘(पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, शिवकुमार अवस्थी)
भारतीय पत्रकारिता अपने प्रवर्तक काल से ही राष्ट्र और समाज चेतना के नैतिक उद्देश्य को लेकर ही यहां तक पहुंची है। वर्तमान समय में जब पत्रकार को पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्यों से हटकर व्यावसायिक हितों के लिए कार्य करने में ही कैरियर दिखने लगा है। ऐसे समय में पत्रकारिता के प्रकाशपुंज माखनलाल चतुर्वेदी के आदर्षों से प्रेरणा ले अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ने की आवश्यकता है।
सूर्यप्रकाश

प्रेस पर अंकुश की मानसिकता


जनमत निर्माण एवं समाज को दिशा-निर्देश देने का महत्वपूर्ण दायित्व प्रेस पर है। जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का सम्बन्ध है भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बन्दूक और बम के साथ नहीं समाचार पत्रों से शुरू हुआ, उक्त बातें जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी ने युगान्तर में कही है, किन्तु जनचेतना की शुरूआत करने वाले इस चतुर्थ स्तम्भ की स्वतंत्रता पर आजादी के पूर्व से ही अंकुश लगाए जाते रहें हैं।
29 जनवरी 1780 को जेम्स अगस्टस हिक्की द्वारा प्रारम्भ किए गए साप्ताहिक कलकत्ता जनरल एडवरटाईजरएवं हिक्की गजटसे भारत में पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत मानी जाती है। इसका आदर्श वाक्य था- सभी के लिए खुला फिर भी किसी से प्रभावित नहीं।हेस्टिंग्स की शासन शैली की कटु आलोचना का पुरस्कार हिक्की को जेल यातना के रूप में मिला।
सत्ता के दमन के विरूद्ध संघर्ष के कारण गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने हिक्की के पत्र प्रकाशन के अधिकार को समाप्त कर दिया। इस समाचार पत्र का संपादन मात्र दो वर्षों (1780–82 तक ही रहा। कालान्तर में भारतीय पत्रकारिता ने इसी साहसपूर्ण मार्ग का अनुसरण करते हुए सत्य एवं न्याय के पक्ष में संघर्ष का बिगुल बजाया। ऐसे में सत्ता से टकराव स्वाभाविक ही था। पराधीन भारत के इतिहास के अनेक पृष्ठ अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के प्रति समाचार पत्रों की आस्था के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। अंग्रेजी सरकार राष्ट्रीय और सामाजिक हितों एवं दायित्वों की आड़ में अपने स्वार्थों के पोषण के लिए प्रेस पर किसी न किसी प्रकार का नियंत्रण बनाये रखना चाहती थी।
लार्ड वेलजली द्वारा सेंसर आदेश, 1799 में) लागू कर दिया गया। समाचार पत्रों के अंत में मुद्रक का नाम व पता प्रकाशित करना अनिवार्य कर दिया गया। संपादक व संचालन के नाम, पते की सूचना सरकार के सचिव को देनी भी अनिवार्य कर दी गई। किसी भी समाचार के प्रकाशन से पूर्व सचिव द्वारा जांच के आदेश के प्रावधान बनाए गए। रविवार को समाचार पत्र के प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी गई। इस सेंसरशिप को लार्ड हेस्टिंग्स ने सन् 1813 में समाप्त कर दिया।
सन् 1823 में एडम गवर्नर जनरल ने एडम अधिनियम जारी किया जिसमें प्रेस के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया गया। सर चाल्र्स मेट्काफ प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदार थे। उनके द्वारा सन् 1835 में मेट्काफ एक्टपारित किया गया। इसके साथ-साथ सन् 1823 के एडम एक्टमें भी परिवर्तन किया गया। भारतीय पत्रकारिता को एक बार फिर प्रभावित करने के लिए अंग्रेजी शासन व्यवस्था द्वारा सन् 1857 में गैगिंग एक्ट लागू किया गया और सन् 1823 के एडम एक्टका प्रत्यारोपण किया गया और पुनः लाइसेंस लेने का अधिनियम लागू कर दिया गया। 1864 में वायसराय लार्ड डफरिंग के कार्यकाल में शासकीय गोपनीयता कानून था, जिसका उद्देश्य उन समाचार पत्रों के खिलाफ कार्यवाही करना था जो गुप्त सरकारी दस्तावेज प्रकाशित करते थे।
सन् 1835 के मेट्काफ एक्टसे मुक्ति दिलाने के लिए लार्ड लारेंस ने सन् 1867 में समाचार पत्र अधिनियमलागू किया। इस अधिनियम के अनुसार प्रेस के मालिकों को मजिस्ट्रेट के सम्मुख घोषणा पत्र देना आवश्यक था। सन् 1867 का अधिनियम कुछ संषोधनों के साथ आज भी चला आ रहा है। इसका उद्देष्य छापेखानों को नियंत्रित करना है।
भारतीय समाचारपत्रों को कुचलने के लिए सन् 1878 में वर्नाक्यूलर एक्टलगाया गया। इस कानून के तहत सरकार ने बिना न्यायालय के आदेश के भारतीय भाषाओं के प्रेस के मुद्रकों और प्रकाशकों को जमानत जमा करने तथा प्रतिज्ञा पत्र देने के आदेश दिए, ताकि वह ऐसी बातों का प्रकाशन नहीं करेंगे जिससे सरकार के प्रति घृणा उत्पन्न हो या समाज में वैमनस्य फैले। इसके साथ ही अवांछनीय सामग्री को जब्त करने के आदेश भी दिए गए। इस कानून की भारतीयों ने कड़ी निन्दा की। आंग्ल समाचार पत्रों को इस अधिनियम से मुक्त रखा गया जिससे भारतीयों में रोष और बढ़ गया। सन् 1878 के वर्नाक्यूलर एक्टको 1881 में समाप्त किया गया।
ब्रिटिश सरकार ने सन् 1910 में भारतीय प्रेस अधिनियमलगाया और भारतीय पत्रकारिता पर अपना अंकुश और भी सख्त कर दिया। इस अधिनियम के अंतर्गत मुद्रकों को 7 हजार से लेकर 10 हजार रूपए तक जमानत देने को कहा गया। किसी भी आपत्तिजनक खबर के छपने पर धनराशि जब्त करने का अधिकार मजिस्ट्रेट को दिया गया। यह कानून 12 वर्षों तक प्रभाव में रहा और सन् 1922 में इसे रद्द कर दिया गया।
सन् 1930 में वायसराय इरविन ने देषव्यापी आंदोलन को देखते हुए प्रेस एंड अनआथराइज्ड न्यूज पेपर्सअध्यादेशको मई-जून से लागू कर दिया । इस अध्यादेश द्वारा सन् 1910 की सम्पूर्ण पाबंदियों को पुनः लागू कर जमानत की राशि 500 रूपए से और अधिक बढ़ा दिया गया। इसके अतिरिक्त सरकार ने हैंडबिल व पर्चों पर भी प्रतिबंध लगा दिया।
सन् 1931 में जब पूरा देश एवं राजनेता गोलमेज सम्मेलन में व्यस्त थे तो ब्रिटिश सरकार ने ऐसे समय का पूरा लाभ उठाते हुए प्रेस बिल 1931, के अध्यादेश को कानून के रूप में पारित करा लिया। इसके अंतर्गत सरकार ने समाचारपत्रों के शीर्षक, संपादकीय टिप्पणियों को बदलने का अधिकार भी अपने पास सुरक्षित रख लिया। इसके पश्चात सन् 1935 में भारतीय प्रशासन कांग्रेस के हाथ में आ गया और फलतः समाचार पत्रों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
सन् 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ होते ही कांग्रेस सरकार को पदत्याग करना पड़ा और पत्रों की स्वतंत्रता पुनः नष्ट हो गई, जो सन् 1947 तक चली। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1950 में नया कानून बना जिसके द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को पुनः स्थापित किया गया।
सरकार की छत्रछाया में विकसित होती भारतीय प्रेस की गति को अवरूद्ध करने के प्रयास भी लगभग दो शताब्दी पूर्व प्रारम्भ हो गये थे जो सन् 1947 तक किसी न किसी प्रकार जारी रहे। इन बाधाओं के बावजूद भारतीय प्रेस ने संघर्ष का मार्ग नहीं छोड़ा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश में सन् 1867 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया प्रेस कानून ही कार्य पद्धति में लागू था, जिसमें सर्वप्रथम बड़ा संशोधन सन् 1955 में पहले प्रेस आयोग की सिफारिशों के आधार पर किया गया। इसके साल भर बाद सन् 1956 में रजिस्ट्रार आफ न्यूज पेपर्स आफ इंडिया (आरएनआई) के कार्यालय ने काम शुरू किया। इसके पश्चात आजाद भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता पर दमन का आरम्भ आपातकाल 1974-75 से शुरू हुआ।
चर्चित पत्रकार और मानवाधिकार विशेषज्ञ कुलदीप नैयर ने कहा है कि-
इमरजेंसी भारतीय इतिहास का एक दुखद काल था, जब हमारी आजादी लगभग छिन सी गई थी और आपातकाल आज भी अनौपचारिक रूप से देश में अलग-अलग रूपों में मौजूद है, क्योंकि शासक वर्ग, नौकरशाही, पुलिस और अन्य वर्गों के पूर्ण सहयोग से अधिनायकवादी और लोकतंत्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त है।
आपातकाल के समय भारतीय पत्रकारिता जगत में इलेक्ट्रानिक मीडिया के नाम पर केवल सरकारी रेडियो और सरकारी चैनल अर्थात दूरदर्शन मात्र था, जिनसे वैसे भी तात्कालिक सरकार को कोई खतरा नहीं था, लेकिन देश भर के अखबारों पर लगी सेंसरशिप ने तो जैसे आम जनता की आवाज का गला ही घोंट दिया था। तात्कालिक समय में अखबारों में जो कुछ भी छपना होता था, वो संपादक की कलम से नहीं बल्कि सेंसर की कैंची से कांट-छाट करके छपती थी।
आपातकाल के समय अखबार मालिक अपने दफ्तरों में जाकर खबरों को उलटते पलटते थे और उन्हें जिन खबरों में सरकार की आलोचना व खिलाफत का अंदेशा होता, वे उस खबर को छपने से रोक देते थे। देश में लगभग 19 माह तक ऐसी स्थिति व्याप्त थी। जनता सरकार द्वारा सन् 1978 में द्वितीय प्रेस आयोग का गठन किया गया, इसके गठन का मुख्य उद्देश्य आपातकाल के परिप्रेक्ष्य में प्रेस की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना था। मोरारजी देसाई काल में गठित इस आयोग ने अपनी रिर्पोट सन् 1982 में तैयार की, लेकिन इस चार वर्ष की अवधि में देश का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका था। यहां हमें यह याद रखने की आवश्यक्ता है कि प्रथम आयोग और द्वितीय आयोग के गठन के बीच 26 वर्ष का अंतराल था। इस अंतराल के बाद भारतीय प्रेस में कई परिवर्तन आ चुके थे। इसी क्रम में वर्तमान पत्रकारिता के स्तर में सुधार हेतु तृतीय प्रेस आयोग के गठन का प्रस्ताव रखा गया है।
इन सब प्रतिबंधों के बाद भी वर्तमान समय में चतुर्श स्तंभ की भूमिका नीचे दी गई पंक्तियों से स्पष्ट है-
जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे
चमन बेच देंगे, सुमन बेच देंगे
कलम के सिपाही अगर सो गए तो,
वतन के मसीहा वतन बेच देंगे।।

अमल कुमार श्रीवास्तव, अगस्त अंक, २०११

वेब मीडिया का बढ़ता क्षितिज


वर्तमान दौर संचार क्रांति का दौर है। संचार क्रांति की इस प्रक्रिया में जनसंचार माध्यमों के भी आयाम बदले हैं। आज की वैश्विक अवधारणा के अंतर्गत सूचना एक हथियार के रूप में परिवर्तित हो गई है। सूचना जगत गतिमान हो गया है, जिसका व्यापक प्रभाव जनसंचार माध्यमों पर पड़ा है। पारंपरिक संचार माध्यमों समाचार पत्र, रेडियो और टेलीविजन की जगह वेब मीडिया ने ले ली है।
वेब पत्रकारिता आज समाचार पत्र-पत्रिका का एक बेहतर विकल्प बन चुका है। न्यू मीडिया, आनलाइन मीडिया, साइबर जर्नलिज्म और वेब जर्नलिज्म जैसे कई नामों से वेब पत्रकारिता को जाना जाता है। वेब पत्रकारिता प्रिंट और ब्राडकास्टिंग मीडिया का मिला-जुला रूप है। यह टेक्स्ट, पिक्चर्स, आडियो और वीडियो के जरिये स्क्रीन पर हमारे सामने है। माउस के सिर्फ एक क्लिक से किसी भी खबर या सूचना को पढ़ा जा सकता है। यह सुविधा 24 घंटे और सातों दिन उपलब्ध होती है जिसके लिए किसी प्रकार का मूल्य नहीं चुकाना पड़ता।
वेब पत्रकारिता का एक स्पष्ट उदाहरण बनकर उभरा है विकीलीक्स। विकीलीक्स ने खोजी पत्रकारिता के क्षेत्र में वेब पत्रकारिता का जमकर उपयोग किया है। खोजी पत्रकारिता अब तक राष्ट्रीय स्तर पर होती थी लेकिन विकीलीक्स ने इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग किया व अपनी रिपोर्टों से खुलासे कर पूरी दुनिया में हलचल मचा दी। भारत में वेब पत्रकारिता को लगभग एक दशक बीत चुका है। हाल ही में आए ताजा आंकड़ों के अनुसार इंटरनेट के उपयोग के मामले में भारत तीसरे पायदान पर आ चुका है। आधुनिक तकनीक के जरिये इंटरनेट की पहुंच घर-घर तक हो गई है। युवाओं में इसका प्रभाव अधिक दिखाई देता है। परिवार के साथ बैठकर हिंदी खबरिया चैनलों को देखने की बजाए अब युवा इंटरनेट पर वेब पोर्टल से सूचना या आनलाइन समाचार देखना पसंद करते हैं। समाचार चैनलों पर किसी सूचना या खबर के निकल जाने पर उसके दोबारा आने की कोई गारंटी नहीं होती, लेकिन वहीं वेब पत्रकारिता के आने से ऐसी कोई समस्या नहीं रह गई है। जब चाहे किसी भी समाचार चैनल की वेबसाइट या वेब पत्रिका खोलकर पढ़ा जा सकता है।
लगभग सभी बड़े-छोटे समाचार पत्रों ने अपने ई-पेपर‘यानी इंटरनेट संस्करण निकाले हुए हैं। भारत में 1995 में सबसे पहले चेन्नई से प्रकाशित होने वाले ‘हिंदू‘ ने अपना ई-संस्करण निकाला। 1998 तक आते-आते लगभग 48 समाचार पत्रों ने भी अपने ई-संस्करण निकाले। आज वेब पत्रकारिता ने पाठकों के सामने ढेरों विकल्प रख दिए हैं। वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों में जागरण, हिन्दुस्तान, भास्कर, डेली एक्सप्रेस, इकोनामिक टाइम्स और टाइम्स आफ इंडिया जैसे सभी पत्रों के ई-संस्करण मौजूद हैं।
भारत में समाचार सेवा देने के लिए गूगल न्यूज, याहू, एमएसएन, एनडीटीवी, बीबीसी हिंदी, जागरण, भड़ास फार मीडिया, ब्लाग प्रहरी, मीडिया मंच, प्रवक्ता, और प्रभासाक्षी प्रमुख वेबसाइट हैं जो अपनी समाचार सेवा देते हैं।
वेब पत्रकारिता का बढ़ता विस्तार देख यह समझना सहज ही होगा कि इससे कितने लोगों को रोजगार मिल रहा है। मीडिया के विस्तार ने वेब डेवलपरों एवं वेब पत्रकारों की मांग को बढ़ा दिया है। वेब पत्रकारिता किसी अखबार को प्रकाशित करने और किसी चैनल को प्रसारित करने से अधिक सस्ता माध्यम है। चैनल अपनी वेबसाइट बनाकर उन पर बे्रकिंग न्यूज, स्टोरी, आर्टिकल, रिपोर्ट, वीडियो या साक्षात्कार को अपलोड और अपडेट करते रहते हैं। आज सभी प्रमुख चैनलों (आईबीएन, स्टार, आजतक आदि) और अखबारों ने अपनी वेबसाइट बनाई हुईं हैं। इनके लिए पत्रकारों की नियुक्ति भी अलग से की जाती है। सूचनाओं का डाकघर‘कही जाने वाली संवाद समितियां जैसे पीटीआई, यूएनआई, एएफपी और रायटर आदि अपने समाचार तथा अन्य सभी सेवाएं आनलाइन देती हैं।
कम्प्यूटर या लैपटाप के अलावा एक और ऐसा साधन मोबाइल फोन जुड़ा है जो इस सेवा को विस्तार देने के साथ उभर रहा है। फोन पर ब्राडबैंड सेवा ने आमजन को वेब पत्रकारिता से जोड़ा है। पिछले दिनों मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्ट की ताजा तस्वीरें और वीडियो बनाकर आम लोगों ने वेब जगत के साथ साझा की। हाल ही में दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने गांवों में पंचायतों को ब्राडबैंड सुविधा मुहैया कराने का प्रस्ताव रखा है। इससे पता चलता है कि भविष्य में यह सुविधाएं गांव-गांव तक पहुंचेंगी।
वेब पत्रकारिता ने जहां एक ओर मीडिया को एक नया क्षितिज दिया है वहीं दूसरी ओर यह मीडिया का पतन भी कर रहा है। इंटरनेट पर हिंदी में अब तक अधिक काम नहीं किया गया है, वेब पत्रकारिता में भी अंग्रेजी ही हावी है। पर्याप्त सामग्री न होने के कारण हिंदी के पत्रकार अंग्रेजी वेबसाइटों से ही खबर लेकर अनुवाद कर अपना काम चलाते हैं। वे घटनास्थल तक भी नहीं जाकर देखना चाहते कि असली खबर है क्या\
यह कहा जा सकता है कि भारत में वेब पत्रकारिता ने एक नई मीडिया संस्कृति को जन्म दिया है। अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता को भी एक नई गति मिली है। युवाओं को नये रोजगार मिले हैं। अधिक से अधिक लोगों तक इंटरनेट की पहुंच हो जाने से यह स्पष्ट है कि वेब पत्रकारिता का भविष्य बेहतर है। आने वाले समय में यह पूर्णतः विकसित हो जाएगी।
वंदना शर्मा, अगस्त अंक, २०११

मिशन, प्रोफेशन और कामर्शियलाइजेशन…

एक समय आएगाजब हिंदी पत्र रोटरी पर छपेंगेसंपादकों को ऊंची तनख्वाहें मिलेंगीसब कुछ होगा किन्तु उनकी आत्मा मर जाएगीसम्पादकसम्पादक न होकर मालिक का नौकर होगा।
स्वतंत्रता आंदोलन को अपनी कलम के माध्यम से तेज करने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने यह बात कही थी। उस समय उन्होंने शायद पत्रकारिता के भविष्य को भांप लिया था। पत्रकारिता की शुरूआत मिशन से हुई थी जो आजादी के बाद धीरे-धीरे प्रोफेशन बन गया और अब इसमें कामर्शियलाइजेशन का दौर चल रहा है।
स्वतंत्रता आंदोलन को सफल करने में पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उस समय पत्रकारिता को मिशन के तौर पर लिया जाता था और पत्रकारिता के माध्यम से निःस्वार्थ भाव से सेवा की जाती थी। भारत में पत्रकारिता की नींव रखने वाले अंग्रेज ही थे। भारत में सबसे पहला समाचार पत्र जेम्स अगस्टस हिक्की ने वर्ष 1780 में बंगाल गजटनिकाला। अंग्रेज होते हुए भी उन्होंने अपने पत्र के माध्यम से अंग्रेजी शासन की आलोचना की, जिससे परेशान गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने उन्हें प्रदत्त डाक सेवाएं बंद कर दी और उनके पत्र प्रकाशन के अधिकार समाप्त कर दिए। उन्हें जेल में डाल दिया गया और जुर्माना लगाया गया। जेल में रहकर भी उन्होंने अपने कलम की पैनी धार को कम नहीं किया और वहीं से लिखते रहे। हिक्की ने अपना उद्देश्य घोषित किया था-
“अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिए अपने शरीर को बंधन में डालने में मुझे मजा आता है।”
हिक्की गजट द्वारा किए गए प्रयास के बाद भारत में कई समाचार पत्र आए जिनमें ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाजें उठने लगी थी। समाचार पत्रों की आवाज दबाने के लिए समय-समय पर प्रेस सेंसरशिप व अधिनियम लगाए गए लेकिन इसके बावजूद भी पत्रकारिता के उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं आया। भारत में सर्वप्रथम वर्ष 1816 में गंगाधर भट्टाचार्य ने बंगाल गजट का प्रकाशन किया। इसके बाद कई दैनिक, साप्ताहिक व मासिक पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिन्होंने ब्रिटिश अत्याचारों की जमकर भत्र्सना की।
राजा राम मोहन राय ने पत्रकारिता द्वारा सामाजिक पुनर्जागरण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। ब्राह्मैनिकल मैगजीनके माध्यम से उन्होंने ईसाई मिशनरियों के साम्प्रदायिक षड्यंत्र का विरोध किया तो संवाद कौमुदी द्वारा उन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार करने का प्रयास किया। मीरात-उल-अखबारके तेजस्वी होने के कारण इसे अंग्रेज शासकों की कुदृष्टि का शिकार होना पड़ा।
जेम्स बकिंघम ने वर्ष 1818 में कलकत्ता क्रोनिकलका संपादन करते हुए अंग्रेजी शासन की कड़ी आलोचना की, जिससे घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें देश निकाला दे दिया। इंग्लैंड जाकर भी उन्होंने आरियेंटल हेराल्ड पत्रमें भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों को उजागर किया।
हिन्दी भाषा में प्रथम समाचार पत्र लाने का श्रेय पं. जुगल किशोर को जाता है। उन्होंने 1826 में उदन्त मार्तण्ड पत्रनिकाला और अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों की आलोचना की। उन्हें अंग्रेजों ने प्रलोभन देने की भी कोशिश की लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया और आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए भी पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रवाद की मशाल को और तीव्र किया।
1857 की विद्रोह की खबरें दबाने के लिए गैगिंग एक्ट लागू किया। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के नेता अजीमुल्ला खां ने दिल्ली से पयामे आजादी निकाला जिसने ब्रिटिश कुशासन की जमकर आलोचना की। ब्रिटिश सरकार ने इस पत्र को बंद करने का भरसक प्रयास किया और इस अखबार की प्रति किसी के पास पाए जाने पर उसे कठोर यातनाएं दी जाती थी। इसके बाद इण्डियन घोष, द हिन्दू, पायनियर, अमृत बाजार पत्रिका, द ट्रिब्यूनजैसे कई समाचार पत्र सामने आए।
लोकमान्य तिलक ने पत्रकारिता के माध्यम से उग्र राष्ट्रवाद की स्थापना की। उनके समाचार पत्र मराठा और केसरी, उग्र प्रवृत्ति का जीता जागता उदाहरण है। गांधीजी ने पत्रकारिता के माध्यम से पूरे समाज को एकजुट करने का कार्य किया और स्वाधीनता संग्राम की दिशा सुनिश्चित की। नवभारत, नवजीवन, हरिजन, हरिजन सेवक, हरिजन बंधु, यंग इंडिया,आदि समाचार पत्र गांधी जी के विचारों के संवाहक थे। गांधी जी राजनीति के अलावा अन्य विषयों पर भी लिखते थे। उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को भी उजागर कर इसे समाप्त करने पर बल दिया। गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से प्रताप नामक पत्र निकाला जो अंग्रेजी सरकार का घोर विरोधी बन गया। अरविंद घोष ने वंदे मातरम, युगांतर, कर्मयोगी और धर्मआदि का सम्पादन किया। बाबू राव विष्णु पराड़कर ने वर्ष 1920 में आज का संपादन किया जिसका उद्देश्य आजादी प्राप्त करना था।
आजादी से पहले पत्रकारिता को मिशन माना जाता था और भारत के पत्रकारों ने अपनी कलम की ताकत आजादी प्राप्त करने में लगाई। आजादी मिलने के बाद समाचार पत्रों के स्वरूप में परिवर्तन आना स्वाभाविक था क्योंकि उनका आजादी का उद्देश्य पूरा हो चुका था। समाचार-पत्रों को आजादी मिलने और साक्षरता दर बढ़ने के कारण आजादी के बाद बड़ी संख्या में समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा। साथ ही रेडिया एवं टेलीविजन के विकास के कारण मीडिया जगत में बड़ा बदलाव देखा गया। स्वतंत्रता से पहले जिस पत्रकारिता को मिशन माना जाता था अब धीरे-धीरे वह प्रोफेशन में बदल रही थी।
वर्ष 1947 से लेकर वर्ष 1975 तक पत्रकारिता जगत में विकासात्मक पत्रकारिता का दौर रहा। नए उद्योगों के खुलने और तकनीकी विकास के कारण उस समय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में भारत के विकास की खबरें प्रमुखता से छपती थी। समाचार-पत्रों में धीरे-धीरे विज्ञापनों की संख्या बढ़ रही थी व इसे रोजगार का साधन माना जाने लगा था।
वर्ष 1975 में एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर काले बादल छा गए, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर मीडिया पर सेंसरशिप ठोक दी। विपक्ष की ओर से भ्रष्टाचार, कमजोर आर्थिक नीति को लेकर उनके खिलाफ उठ रहे सवालों के कारण इंदिरा गांधी ने प्रेस से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली। लगभग 19 महीनों तक चले आपातकाल के दौरान भारतीय मीडिया शिथिल अवस्था में थी। उस समय दो समाचार पत्रोंद इंडियन एक्सप्रेसऔर द स्टेट्समेनने उनके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की तो उनकी वित्तीय सहायता रोक दी गई। इंदिरा गांधी ने भारतीय मीडिया की कमजोर नस को अच्छे से पहचान लिया था। उन्होंने मीडिया को अपने पक्ष में करने के लिए उनको दी जाने वाली वित्तीय सहायता में इजाफा कर दिया और प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी। उस समय कुछ पत्रकार सरकार की चाटुकारिता में स्वयं के मार्ग से भटक गए और कुछ चाहकर भी सरकार के विरूद्ध स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को नहीं प्रकट कर सकें। कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो सत्य के मार्ग पर अडिग रहें। आपातकाल के दौरान समाचार पत्रों में सरकारी प्रेस विज्ञप्तियां ही ज्यादा नजर आती थी। कुछ सम्पादकों ने सेंसरशिप के विरोध में सम्पादकीय खाली छोड़ दिया। लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी एक पुस्तक में कहा है-
“उन्होंने हमें झुकने के लिए कहा और हमने रेंगना शुरू कर दिया।”
1977 में जब चुनाव हुए तो मोरारजी देसाई की सरकार आई और उन्होंने प्रेस पर लगी सेंसरशिप को हटा दिया। इसके बाद समाचार पत्रों ने आपातकाल के दौरान छिपाई गई बातों को छापा। पत्रकारिता द्वारा आजादी के दौरान किया गया संघर्ष बहुत पीछे छूट चुका था और पत्रकारिता अब पेशे में तब्दील हो चुकी थी।भारत में एक और ऐसी घटना घटी जिसने पत्रकारिता के स्वरूप को एक बार फिर बदल दिया। वर्ष 1991 की उदारीकरण की नीति और वैश्वीकरण के कारण पत्रकारिता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा और पत्रकारिता में धीरे-धीरे कामर्शियलाइजेशन का दौर आने लगा।
आम जनता को सत्य उजागर कर प्रभावित करने वाले मीडिया पर राजनीति व बाजार का प्रभाव पड़ना शुरू हो गया। पत्रकारों की कलम को बाजार ने प्रभावित कर खरीदना शुरू कर दिया। वर्तमान दौर कामर्शियलाइजेशन का ही दौर है, जिसमें मीडिया के लिए समाचारों से ज्यादा विज्ञापन का महत्व है। बाजार में उपलब्ध उत्पादों का प्रचार समाचार बनाकर किया जा रहा है। आज समाचार का पहला पृष्ठ भी बाजार खरीदने लगा है। वहीं पिछले कुछ दिनों में पत्रकारिता में भ्रष्टाचार के जो मामले सामने आए उसको देखकर पत्रकारिता का उद्देश्य धुंधला होता नजर आता है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में जिस तरह कुछ पत्रकारों की भूमिका सामने आई उसको देखकर अब आम जन का विश्वास भी मीडिया से हट रहा है।
आजादी से पहले पत्रकारों ने किसी भी प्रलोभनों में आए बिना निःस्वार्थ भाव से अपना कर्तव्य निभाया था। अंग्रेजों द्वारा प्रेस पर रोक लगाने के बाद भी उन्होंने अपनी कलम को नहीं रोका, लेकिन आज परिस्थितियां बदलती नजर आ रहीं हैं। पत्रकारिता आज सेवा से आगे बढ़कर व्यवसाय में परिवर्तित हो चुकी है। यहां पर एक बार फिर पराड़कर जी के वही शब्द याद आते हैं जिनमें उन्होंने पत्रकारिता के भविष्य को भांप लिया था-
“एक समय आएगा, जब हिंदी पत्र रोटरी पर छपेंगे, संपादकों को ऊंची तनख्वाहें मिलेंगी, सब कुछ होगा किन्तु उनकी आत्मा मर जाएगी, सम्पादक, सम्पादक न होकर मालिक का नौकर होगा।”
नेहा जैन, अगस्त अंक, २०११

धुंधले होते सपने, मीडिया संस्थान की देन

पत्रकार शब्द सुनते ही हाथ में कलम, पैरों में हवाई चप्पल व कंधे पर एक झोला टांगे हुए व्यक्ति दिखाई देता है, जो देश की समस्यों पर गहन विचार करता है, लेकिन वास्तविकता में वर्तमान समय में इसका परिदृश्य बदल रहा है। पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र की ओर युवाओं का आकर्षण बढ़ा है जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह बदल रहा परिदृश्य ही है। पत्रकारिता के क्षेत्र में अधिकतर युवा मीडिया के ग्लैमर का हिस्सा बनने के सपने संजोए आते है। किंतु धीरे-धीरे उन्हें जब वास्तविकता से चित-परिचित होना पड़ता है तो उनके यह सपने धुंधले होते जाते है कि यहां अपना स्थान प्राप्त करना बड़ा सरल है।
इसका एक कारण जगह-जगह पर दुकानों की तरह खुलते मीडिया के शिक्षण संस्थान भी है। यह शिक्षण संस्थान व्यावहारिक ज्ञान की अपेक्षा किताबी ज्ञानों पर अधिक जोर देते हैं। जिसके कारण विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान के अभाव में मीडिया जगत में स्वयं का स्थान बना पाने में अपने को असहज महसूस करता है।
विश्वविद्यालय तथा अनुदान प्राप्त कालेजों मे चल रहे पत्रकारिता कोर्सों में दी जा रही शिक्षा गुणवत्ता की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। यहां पिछले डेढ़ दशक से वही घिसा-पिटा कोर्स पढ़ाया जा रहा है। इस तकनीकी युग में जब हर दिन एक नई तकनीक का विस्तार और आविष्कार हो रहा है तो वहां इस कोर्स की क्या अहमियत होगी! एक ओर जहां थ्रीडी, नए कैमरा सेटअप, न्यू मीडिया का प्रचलन बढ़ गया है, तो वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम ज्यों का त्यों ही है।
इन कॉलेजों या संस्थानों में यह भी ध्यान नहीं दिया जाता कि वह इन छात्रों की प्राथमिक जरूरतें पूरी कर रहे हैं या नहीं। पत्रकारिता के क्षेत्र में अध्ययनरत विद्यार्थी को व्यवहारिक प्रशिक्षण के लिए प्रयोगशाला, उपकरणों व अच्छे पुस्तकालय की आवश्यकता होती है पर अधिकांश संस्थानों द्वारा इस समस्या की ओर ध्यान केन्द्रित नहीं किया जाता है। यह संस्थान मोटी फीस के बाद भी पुराने ढर्रे पर चलने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं।
विडम्बना यह है कि विश्वविद्यालय के इन छात्रों ने किसी कैमरे के लेंस से यह झांककर भी नहीं देखा कि इससे देखने पर बाहर की दुनिया कैसी दिखाई देती है़, पत्रकारिता में दाखिला लेने और अपने तीन साल कॉलेज में बिताने के बदले छात्रों को एक डिग्री दे दी जाती है। ये एक ऐसा सर्टिफिकेट होता है जो किसी छात्र को बेरोजगार पत्रकार बना देता है। कुछ डिग्रीधारकों को  चवन्नी पत्रकारिता करने का अवसर मिल जाता है तो उन्हें सफल होने में कई साल लग जाते हैं। इसका कारण यह है कि उसे जो पढ़ाई के समय पर सिखाया जाना चाहिए था. उसे वह धक्के खाने के बाद सीखने को मिलता है। इस कारण कुछ छात्रों में इतनी हताशा घर कर जाती है कि वे पत्रकारिता को प्रणाम कर किसी और व्यवसाय को चुन लेते हैं।
यह कॉलेज तथा संस्थान न केवल उदीयमान पत्रकारों के भविष्य के साथ धोखा और भटकाव की स्थिति उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं, अपितु भविष्य की पत्रकारिता को प्रश्न चिन्हों की ओर धकेल रहे हैं। जल्द ही कुछ उपाय करने होंगे ताकि गुणवत्ता वाले पत्रकार उभर सकें। इसके लिए कम्प्यूटर की बेहतर शिक्षा, लैब और लाइब्रेरी की जरूरतों को पूरा करने के साथ ही देश और दुनिया की सही समझ विकसित करने का काम भी इन संस्थानों को करना होगा।
वंदना शर्मा, जुलाई अंक, २०११

सोशल नेटवर्किंग साइट्स का युवा पीढ़ी पर प्रभाव

जब से समाज की स्थापना हुई है तब से मनुष्य समाज में रहने वाले अन्य लोगों के साथ निरंतर संपर्क साधता रहता है। इसी संपर्क साधने की प्रक्रिया में विकास के चलते नई खोज हुई और सोशल नेटवर्किग साइट्स अस्तित्व में आई। इन साइट्स के जरिए लोग एक दूसरे से संपर्क स्थापित करते हैं। युवा पीढ़ी के लिए यह जानकारी प्राप्त करने, मनोरंजन तनाव से मुक्त रहने, नए लोगों से पहचान बनाने का साधन बन गया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर वह अपनी बात अपने संपर्क के लोगों के साथ सांझा करते हैं।
अपने शुरूआती दौर में सोशल नेटवर्किंग साइट एक सामान्य सी दिखने वाली साइट होती थी और इसके जरिए उपयोगकर्ता एक-दूसरे से चैटरूम के जरिए बात करते थे और अपनी निजी जानकारी व विचार एक-दूसरे के साथ बांटते थे। इन साइट्स में द वेल, (1985, ‘द ग्लोब डाट काम, 1994, ट्राईपोड डाट काम (1995 शामिल थीं। 90 के दशक से इन साइट्स में बदलाव आया और इसमें फोटो, वीडियो, संगीत, शेयरिंग, आनलाइन गेम्स, विज्ञान, कला. ब्लागिंग, चैटिंग, आनलाइन डेटिंग जैसी तमाम सुविधाएं बढ़ीं। भारत में सबसे ज्यादा प्रयोग होने वाली वेबसाइट्स में फेसबुक, ट्विटर व आरकुट शामिल हैं। इसके अलावा हाय फाइव, बेबो, याहू 360, फ्रेंड ज़ोर्पिया आदि कई सोशल नेटवर्किंग साइट उपलब्ध हैं। फेसबुक फरवरी 2004 में लांच हुई थी जिसने बहुत कम समय में युवाओं के बीच पहुंच बनाकर प्रसिद्धि पाई । वहीं आरकुट वर्ष 2004 में बनाई गई थी जिस पर गूगल इंक का स्वामित्व है। ट्विटर वर्ष 2006 में जैक डर्सी द्वारा बनाई गई थी । इसके प्रयोगकर्ता अपने एकाउंट से कोई भी संदेश छोड़ते है जिसे ट्वीटर कहा जाता है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में शोध कर रहीं शोधार्थी पंकज द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शोध किया जा रहा है और इस शोध का प्रयोजन यह जानना है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स निजी एवं सामाजिक समस्याओं पर निर्णय लेने में युवाओं को कैसे प्रभावित करती है\ क्या यह किसी मुद्दे पर युवाओं की सोच में परिवर्तन कर सकती है\ क्या सोशल नेटवर्किंग साइट आज सूचनाओं एवं मनोरंजन का एक तीव्र माध्यम बन गई है, क्या युवा पीढ़ी इन साइट्स की आदी हो चुकी है\
इसमें कोई शक नहीं है कि आज जीवनशैली को इंटरनेट ने बहुत प्रभावित किया है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी की इस नई तकनीक ने विष्व की सीमाओं को तोड़ दिया है। मैकलुहन के शब्दों में पूरी दुनिया एक वैश्विक ग्राम में बदल चुकी है।
इंटरनेट ने आज विश्व के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए आज कोई भी व्यक्ति एक-दूसरे से कहीं से भी संपर्क साध सकता है। इसका प्रयोग करने वाले युवाओं की संख्या निरंतर बढ़ रही है। न्यू मीडिया के इस साधन पर यह शोध कार्य महत्वपूर्ण है।
शोधार्थी- पंकज, सीडिंग इंस्टीट्यूट फार मीडिया स्टडीज (जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी)

मीडिया की परिपक्वता पर सवाल

न्यूज ऑफ द वर्ल्डसाप्ताहिक समाचार पत्र के बंद होने से मीडिया जगत में हलचल मच गई है। आर्थिक रूप से संपन्न पत्र न्यूज ऑफ द वल्र्ड ब्रिटेन का लोकप्रिय समाचार पत्र था। राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को उठाने के लिए प्रसिद्ध यह पत्र कालांतर में अपने मार्ग से भटककर लोगों के निजी जीवन में तांक-झांक करने और मनोरंजन सूचना के नाम पर सस्ती एवं सनसनीखेज सामग्री प्रस्तुत करने लगा था। भारतीय मीडिया की भूमिका पर भी जब-जब सवाल उठते हैं, तर्क दिया जाता है कि भारतीय पत्रकारिता अपनी शैशव अवस्था में है, जबकि अमेरिका और ब्रिटेन की पत्रकारिता की परिपक्वता का उदाहरण देते हुए कहा जाता है कि भारतीय मीडिया समय के साथ उस स्तर तक पहुंच जाएगी। लेकिन यहां प्रश्न उठता है कि इस परिपक्वता का मतलब क्या है? अमेरिका और ब्रिटेन को आदर्श मानने से क्या भारत भी न्यूज ऑफ द वल्र्ड जैसी पत्रकारिता करेगा?  उस आदर्श तक पत्रकारिता उठकर पहुंचेगी या गिरकर?  इस पर पत्रकारों के विचार इस प्रकार से हैं-
न्यूज ऑफ द वर्ल्डपत्र पर हुए विवाद और अब उसके बंद होने से वैश्विक स्तर पर मीडिया में नैतिकता और बाजारवाद को लेकर बहस शुरू हो गयी है। इस बहस ने एक बार फिर भारतीय मीडिया को कटघरे में खड़ा कर दिया है। आज भारतीय मीडिया ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां वो नैतिकता और आदर्शों की बलि चढ़ाकर बाजारवाद के चंगुल में फंसा नजर आ रहा है। आज खबरें, खबरें नहीं बल्कि विज्ञापन नजर आ रहीं है और साथ ही साथ समाचारों के फुटपाथीकरण ने भारतीय मीडिया की साख को गहरा आघात पहुंचाया है। भारतीय मीडिया पर आए दिन सवाल खड़े हो रहे हैं, विश्वसनीयता भी कम हुई है। बाजारीकरण का मीडिया पर खासा प्रभाव देखने को मिल रहा है। खबरों और मीडिया के बिकने के आरोपों के साथ-साथ कई नए मामले भी सामने आ रहे हैं। ऐसे में भारत में पत्रकारिता को किसी तरह अपने बूढ़े कन्धों पर ढो रहे पत्रकारों के माथे पर बल जरूर दिखाई दे रहे हैं। उनको यही चिंता है कि ये बच्चा बड़ा कब होगा। भारत में प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रानिक मीडिया के मुकाबले ज्यादा परिपक्व नजर आता है, लेकिन वो भी बाजार के हाथों मजबूर है। ऐसे में मैं उम्मीद करता हूं कि भारतीय मीडिया जल्द ही अपनी शैशव अवस्था से बाहर आएगा और अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभाएगा।
हिमांशु डबराल, आज समाज
कुछ दशक पहले मीडिया एक मिशन के रूप में जानी जाती थी, लेकिन वर्तमान समय में मीडिया व्यावसायिक हो गई है। आज कुकुरमुत्तों की तरह अखबार और चैनल खुल रहें हैं. टीआरपी की अंधी दौड़ में मीडिया अपने मार्ग से भटकती हुई नजर आ रही है, जबकि दर्शकों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। मेरे विचारानुसार पत्रकारिता को व्यवसाय न मानकर मिशन के रूप में देखा जाए तो ज्यादा बेहतर होगा
आशीष प्रताप सिंह, पीटीसी न्यूज, दिल्ली
सार्थक पत्रकारिता वही है जो देश के हित को ध्यान रखे। तात्कालिक लाभ कमाने के लिए सनसनीखेज पत्रकारिता का दुरूपयोग उसका भविष्य अंधकार की ओर ले जाएगा। हमें भारतीय पत्रकारिता को ब्रिटेन के संदर्भ में देखने की जरूरत नहीं है। पत्रकारिता के मूल्य विदेशी न होकर हमारे अपने होने चाहिए। पत्रकारिता में पूंजी का प्रभुत्व कम और देश सेवा का अधिक होना चाहिए। आदर्श पत्रकारिता माखनलाल चतुर्वेदी और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे महान दिग्गजों की थी जिसे पत्रकारिता का शैशव काल कहा जा रहा है । हमें उसी शैशव अवस्था की ओर वापस लौटना होगा।
विमल कुमार सिंह, भारतीय पक्ष
भारतीय पत्रकारिता शैशवावस्था में है! मैं नहीं मानता। रही बात सीखने की तो इसकी कोई सीमा या उम्र नहीं होती। न्यूज ऑफ द वल्र्ड बंद हो गया, हंगामा पसर गया। क्या इससे पत्रकारिता व्यवसाय से परे हटकर समाज सेवा में लग जाएगी, ऐसा नहीं होने वाला है। पत्रकार नौकरी करता है। उसे भी भूख लगती है, ऊपर उठने की ललक उसमें भी है, सबसे तेज के चक्कर में वह भी गलतियां करता है। यही उसके पेशे का उसूल है। और हां, पेशा और आदर्श को मिलाकर मत देखिए, बड़ा घाल-मेल है। नौकरी खतरे में पड़ जाएगी।‘‘
चंदन कुमार, जागरण जोश डाट काम
वर्तमान समय में मीडिया की भूमिका वाकई संदेह के घेरे में है, लेकिन इसके लिए मीडिया को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। कभी समाज और कद्दावर लोगो के हिसाब से कुछ करना पड़ता है तो कभी खुद की मजबूरी में, पर सच यही है कि गलत हो रहा है। जहां तक बात विदेशी मीडिया की नकल करने का है तो किसी की कॉपी करना एकदम गलत है, हां उससे कुछ बेहतर तथ्य निकाल कर खुद का विकास करना सही है। परिपक्वता के लिए खुद की समझ को परखना जरूरी है कि आखिर व्यक्ति या संस्था विशेष क्या चाहता है और उसके लिए किस प्रकार के मार्ग को अपनाता है- समझौते का या सिद्धांत का.
आकाश राय, हिन्दुस्थान समाचार
वर्तमान समय में समाचारपत्रों में एक सबसे बड़ी कमी यह आ रही है कि यहां हिन्दी भाषा पर अधिक जोर न देते हुए अंग्रेजी पर दिया जा रहा है। इसलिए मेरे विचार से अगर वास्तव में भारतीय पत्रकारिता की गरिमा बनाएं रखना है तो हमें अपनी मातृभाषा पर अधिक जोर देना चाहिए। हमें किसी भी अन्य भाषा का प्रयोग कर महान बनने से अच्छा है कि अपनी मातृभाषा पर गर्व करें।
सोहन लाल, राष्ट्रीय उजाला
यह चिंता की बात है कि मीडिया नकारात्मक चीजों को आगे ला रहा है जिससे समाज पर बुरा असर पड़ रहा है। मीडिया समाज, देश और सत्ता के बीच में सकारात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहन दे क्योंकि यही एक माध्यम है जो देश-दुनिया में नकारात्मक को सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है। समाचार पत्र और समाचार चैनल यदि सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ चलें तो यह भारत के प्रगतिशील समाज की प्रगति के लिए बहुत अच्छा होगा।
अवनीश राजपूत, विश्व हिन्दू वायस, वेब पोर्टल  

क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी


गणेश शंकर विद्यार्थी! यह एक नाम ही नहीं बल्कि अपने आप में एक आदर्श विचार है। वह एक पत्रकार होने के साथ-साथ एक महान क्रांतिकारी और समाज सेवी भी थे। पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्य को निभाते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। उनका समस्त जीवन पत्रकारिता जगत के लिए अनुकरणीय आदर्श है। विद्यार्थी जी का जन्म अश्विन शुक्ल 14, रविवार सं. 1947,1890 ई.) को अपने ननिहाल इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में हुआ था। उनकी माता का नाम गोमती देवी तथा पिता का नाम मुंशी जयनारायण था। गणेश शंकर विद्यार्थी मूलतः फतेहपुर(उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। उनके पिता ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे। गणेश शंकर विद्यार्थी का बाल्यकाल भी ग्वालियर में ही बीता तथा वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई।
विद्यारंभ उर्दू से हुआ और 1905 ई. में भेलसा से अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की। 1907 ई. में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला कालेज में प्रवेश लिया। उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और इलाहाबाद के हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे। सन १९०८ में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर के करेंसी ऑफिस में ३० रुपये मासिक पर नौकरी की, लेकिन एक अंग्रेज अधिकारी से झगड़ा होने के पश्चात् विद्यार्थी जी ने इस नौकरी को त्याग दिया। नौकरी छोड़ने के पश्चात् सन १९१० तक विद्यार्थी जी ने अध्यापन कार्य किया । यही वह समय था जब विद्यार्थी जी ने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य, हितवार्ता आदि पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखना प्रारंभ किया।
सन १९११ में गणेश शंकर विद्यार्थी को सरस्वती पत्रिका में महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ समय बाद सरस्वती, छोड़कर वह अभ्युदय में सहायक संपादक हुए जहां विद्यार्थी जी ने सितम्बर १९१३ तक अपनी कलम से राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाने का कार्य किया। दो ही महीने बाद 9 नवंबर, 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से निकाला। गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही उनकी पत्रकारिता समर्पित है। प्रताप पत्र में अंग्रजों की दमनपूर्ण नीति की मुखर आलोचना के कारण सरकार ने प्रताप का प्रकाशन बंद करवाकर गणेश शंकर विद्यार्थी पर राजद्रोह का मुकदमा लगाकर जेल भेज दिया।
अंग्रेजों की इस दमनपूर्ण कार्रवाई के बाद भी गणेश शंकर विद्यार्थी की राष्ट्रवादी कलम की प्रखरता कम न हो सकी। जेल से छूटने के बाद आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को मुक्त हस्त से आर्थिक सहयोग करने लगी। इस का परिणाम यह हुआ कि विद्यार्थी जी ने २३ नवम्बर १९१९ से साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन दैनिक समाचार पत्र के रूप में प्रारंभ कर दिया। विद्यार्थी जी के दैनिक पत्र प्रताप का प्रताप ऐसा था कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध व्यापक स्तर पर जन-जागरण हुआ। कहा जाता है कि स्वाधीनता आन्दोलन की अग्नि को प्रखर करने वाले समाचार पत्रों में प्रताप का प्रमुख स्थान था।
लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से प्रताप की पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन मजिस्ट्रेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली। अंग्रेजों का कोपभाजन बने विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921 में भी जेल की सजा दी गई परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को कम नहीं किया। विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन की क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूंजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया। विद्यार्थी जी वह पत्रकार थे जिन्होंने अपने प्रताप की प्रेस से काकोरी कांड के नायक रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी का प्रकाशन किया। गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप ही वह पत्र था जिसमें भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में छद्म नाम से पत्रकारिता की थी। विद्यार्थी जी का सम्पूर्ण पत्रकार जीवन ही राष्ट्रवाद, भारतीय संस्कृति, साम्प्रदायिक सद्भाव को समर्पित रहा।
पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी साम्प्रदायिकता के भी स्पष्ट विरोधी थे। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी सुनाये जाने पर देशभर में भड़के साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में विद्यार्थी जी ने अपना जीवन भी दांव पर लगा दिया। इन्हीं दंगों के दौरान गणेश शंकर विद्यार्थी निस्सहायों को बचाते हुए शहीद हो गए।
गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या के पश्चात् महात्मा गाँधी ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में उनको श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि मुझे यह जानकर अत्यंत शोक हुआ कि गणेश शंकर विद्यार्थी अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके जैसे राष्ट्रभक्त और स्वार्थहीन व्यक्ति की मृत्यु पर किस संवेदनशील व्यक्ति को कष्ट नहीं होगा।’’
पं जवाहरलाल नेहरु ने दुःख व्यक्त करते हुए कहा यह जानकर अत्यंत दुःख हुआ कि हमारे प्रिय मित्र और राष्ट्रभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी की साम्प्रदायिक दंगे में हत्या कर दी गई है। गणेश शंकर की शहादत एक राष्ट्रवादी भारतीय की शहादत है, जिसने दंगों में निर्दोष लोगों को बचाते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
कलम का यह सिपाही असमय ही चला गया लेकिन उनकी प्रेरणाएं पत्रकारिता जगत और समस्त देश को सदैव प्रेरित करती रहेंगी। पत्रकारिता जगत के इस अमर पुरोधा को सादर नमन…..

सूर्यप्रकाश, जुलाई अंक, २०१२

दाम मजदूर से कम, काम मालिक की निगरानी

पत्रकारिता के प्रारम्भिक दौर में इसे अभिव्यक्ति के साथ-साथ जनजागरण का माध्यम माना जाता था। किन्तु वर्तमान परिवेश में बदल रही पत्रकारिता की दिशा और दशा दोनों ही चिन्ता का विषय बनते जा रहें हैं। पत्रकारिता जगत में हो रहे इस परिवर्तन में कौन सी प्रक्रिया उचित है? इसके बारे में हम यहां राष्ट्रदेव पत्रिका के संपादक श्री अजय मित्तल जी से उनके विचार जानने का प्रयास कर रहें हैं-
प्रश्न 1 आपका पत्रकारिता के क्षेत्र में आने का क्या उद्देश्य रहा ?
उत्तर- पत्रकारिता चुनौतिपूर्ण व्यवसाय है। जो सत्ता सारी व्यवस्थाओं की निगरानी करती है, उसकी भी निगरानी करने का दायित्व पत्रकार का है। इसीलिए समाज को कुछ वैचारिक बदल की ओर अग्रसर करने के लिए मैंने पत्रकारिता को चुना जिससे आम लोग समाज में सकारात्मक परिवर्तन के लिए अपना योगदान दे सकें।
 प्रश्न 2 वर्तमान समय में आप पत्रकारिता के क्षेत्र में क्या बदलाव देखते है ?
उत्तर- आज पत्रकारिता अपने मार्ग से भटक रही है। पत्रकारिता के आधार पर प्राप्त शक्तियों का पत्रकार दुरूपयोग कर रहे हैं। पहले पत्रकार देश में हो रहे घपलों, घोटालों व भ्रष्टाचार को उजागर करते थे लेकिन अब वह इसका हिस्सा बन रहे हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जिस तरह शीर्ष पत्रकारों का नाम आया उससे पत्रकार की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में सभी स्तरों के पत्रकार प्रेस को प्राप्त अधिकारों को अपने विशेषाधिकार समझने लगे हैं और इसका दुरुपयोग कर रहे हैं। स्वयं की सहूलियत के लिए पत्रकार ऐसा करते हैं। उनमें अब समाज के दिशा निर्देशक के बजाए राजनेता के गुण आ रहे हैं।
प्रश्न 3 राष्ट्रीय महत्व के मुददों पर मीडिया की भूमिका और प्रभाव को आप किस प्रकार से देखते हैं?
उत्तर- सामान्य आदमी के पास न तो तथ्यों की जानकारी होती है और न ही विश्लेषण क्षमता। तथ्य और उनका विश्लेषण वह मीडिया से ही प्राप्त करता है। मीडिया ने आम आदमी की इसी कमजोरी का लाभ उठाकर अपनी इच्छानुसार तथ्यों और विश्लेषणों को प्रस्तुत करना और उसके अनुसार समाज को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। मीडिया को अगर भ्रष्टाचार से कुछ प्राप्त होने की उम्मीद होती है तो वह तथ्यों में बदलाव कर देती है या उसे खत्म ही कर देती है। वहीं मीडिया को यदि कुछ निजी लाभ नहीं मिलता तो वह उन्हीं तथ्यों को खोजी पत्रकारिता का नाम दे देती है। ऐसे पत्रकार अपने प्रभाव का दुरुपयोग कर समाज को अधूरे तथ्य, अर्द्ध-सत्य, असत्य बताकर पत्रकारिता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
 प्रश्न 4 आपकी पत्रिका राष्ट्रदेव ग्रामीण क्षेत्रों में जाती है। ग्रामीण पाठकों के बारे में आपका क्या अनुभव रहा है?
उत्तर- ग्रामीण पाठक देश की समस्याओं के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। वह अपने स्थानीय परिवेश से बाहर जाकर राष्ट्र स्तर पर विचार करना चाहते हैं, देश के इतिहास, महापुरूषों को जानना चाहते हैं। वह पत्रिका के राष्ट्रीय विचारों का बड़ी संख्या में स्वागत करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के पाठकों के बीच किए गए सर्वे के दौरान पता चला कि वह देश के बारे में सोचने की ललक रखते हैं और इसीलिए वह राष्ट्रीय विचारों को पढ़ना भी पसंद करते हैं।
 प्रश्न 5 आप अपनी पत्रिका के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास करते रहे हैं। क्या आज का मीडिया राष्ट्रवाद के प्रश्न पर अपनी भूमिका का निर्वाह सही ढंग से कर रहा है?
उत्तर- राष्ट्रीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले पत्रों का स्वर राष्ट्रहित के अनुकूल है। अंग्रेजी मीडिया भारतीय परिवेश व संस्कृति को नहीं समझती। वह देश की समस्याओं और यहां के परिवेश को पश्चिमी चश्मे से निहारती है और विश्लेषण प्रस्तुत करती है। अक्सर यह देखा गया है कि जो अखबार राष्ट्रवाद के समर्थक थे उनकी प्रसार संख्या में अच्छी वृद्धि हुई है और जिन्होंने पंथ-निरपेक्षता के नाम पर राष्ट्रवाद को गिराने का कार्य किया वह ज्यादा नहीं चल पाए।
प्रश्न 6 वर्तमान समय में व्यवस्था परिवर्तन को लेकर चल रहे आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में जनजागरण के विषय पर मीडिया की भूमिका कितनी उपयोगी साबित हुई है?
उत्तर- चाहे अन्ना का आंदोलन हो या बाबा रामदेव का सौभाग्य से मीडिया ने अच्छा प्रदर्शन किया। मीडिया ने अच्छे पक्षों को लगभग ठीक प्रकार से प्रस्तुत किया। इसीलिए राजनेताओं ने इन आंदोलनों को बदनाम करने के लिए कार्रवाई की। मीडिया इस समय व्यवस्था परिवर्तन के मुद्दे पर लगभग समान और अनुकूल विचार रख रहा है।
 प्रश्न 7 आप उत्तर प्रदेश पत्रकार एसोसिएशन मेरठ के अध्यक्ष हैं। पत्रकारों की कौन सी प्रमुख समस्याएं हैं, जिनको लेकर पत्रकार को लड़ाई लड़ने की आवश्यकता पड़ती है?
उत्तर- पत्रकारों, विशेषकर जो छोटे और मंझले पत्रों में काम कर रहे हैं, के सामने सबसे बड़ी समस्या वेतन की है। छोटे अखबारों में तो वेतन सरकार द्वारा अकुशल कर्मियों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है। छोटे अखबारों में पत्रकारों को मिट्टी ढोनेवाले मजदूरों को मिलने वाले वेतन से भी आधा वेतन मिलता है। जबकि पत्रकारों की बड़ी संख्या इन्हीं छोटे एवं मंझले समाचार पत्रों व चैनलों में कार्यरत हैं। वहीं पत्रकारों के लिए काम के घंटे भी बहुत अधिक है जिसके कारण वह न तो अपना श्रेष्ठतम योगदान दे सकते हैं और न ही उन्हें अध्ययन के लिए समय मिल पाता है। यह स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। इसके अलावा पत्रकारों के बेहतर भविष्य के लिए बीमा जैसी योजनाएं भी होनी चाहिए। आज यह आवश्यक है कि पत्रकार आर्थिक रूप से इस लायक तो हो कि वह वर्तमान और भविष्य की चिंता से मुक्त रह सकें।
 प्रश्न 8 जेडे हत्याकांड से एक बार फिर पत्रकारों की सुरक्षा का मुददा सामने आया है। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए आपके अनुसार क्या कदम उठाए जाने चाहिए?
उत्तर- पत्रकारों के लिए सुरक्षा नीति बनाए जाने की आवश्यकता है। यह संभव नहीं है कि हरेक पत्रकार के साथ एक अंगरक्षक चल सके लेकिन इसके लिए बेहतर कानून होना चाहिए। राज्य स्तर पर कर्मचारियों के काम में बाधा डालने वाले पर कार्रवाई का कानून बना हुआ है, लेकिन पत्रकार को उसके काम के लिए धमकी अथवा रूकावट को इस कानून के दायरे में नहीं लिया जाता। पत्रकारों के विरूद्ध आपराधिक मामले की जांच भी जिले के एसपी स्तर के अधिकारी की देखरेख में होनी चाहिए क्योंकि छोटे स्तर के पुलिस अधिकारियों तक अपराधियों की पहुंच होती है। यह जिला स्तर का पुलिस अधिकारी पत्रकार-संबंधी किसी भी मामले की जांच की जानकारी राज्य शासन को भी नियमित भेजे।
प्रश्न 9 वर्तमान समय में किस पत्रकार की पत्रकारिता आपको आदर्श पत्रकारिता के सबसे निकट दिखाई देती है?
उत्तर- पत्रकारिता क्षेत्र सेवा क्षेत्र है। पांचजन्य समाचार पत्र आज कम वेतन में भी समाज को सर्वोत्कृष्ट दे रहा है। आजादी से पहले बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकारों की पत्रकारिता बड़ी आदर्श थी। उन्होंने अपने समाचार पत्र आज, और रणभेरी में अंग्रजों के खिलाफ जमकर लिखा और किसी भी प्रकार के प्रलोभन में नहीं आए। मेरे विचार में वर्तमान समय में ऐसी ही पत्रकारिता की आवश्यकता है जैसी पराड़कर जी के द्वारा की गई थी। वैसे तो हिन्दी पत्रकारिता की नींव ही त्याग, बलिदान और संघर्ष पर रखी गई थी। आदि संपादक जुगल किशोर शुक्ल ने अपने उदंत मार्तण्ड नामक हिंदी के प्रथम पत्र को सरकारी प्रलोभनों से दूर रखकर आर्थिक कठिनाइयों से ही चलाया। आज के पत्रकार को इन उदाहरणों को भूलना नहीं चाहिए।
नेहा जैन, जुलाई अंक, २०११

सत्ता नहीं, पाठक करें मीडिया की समीक्षा: महात्मा गांधी


पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी को ऐसा लगता है जैसे पत्रकारिता जगत वर्तमान समय में संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है पत्रकारिता के बारे में उस समय भी कुछ बातों पर पत्रकार चिंतित थे जिस समय को भारतीय पत्रकारिता का उत्कृष्ट समय कहा जाता है। भारतीय पत्रकारिता का आरंभिक दौर राष्ट्रवाद के जनजागरण को समर्पित था। यह समय भारत के स्वाधीनता आन्दोलन का समय था। भारत की स्वाधीनता को प्राप्त करने की दिशा में तत्कालीन पत्रकारिता और पत्रकारों की महती भूमिका रही थी। उस समय में पत्रकारों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ जिनके लिए राष्ट्र की स्वाधीनता ही परम ध्येय था. लेकिन उस समय में भी पत्रकारिता में विज्ञापन, पत्रकार का कर्तव्य और पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण आदि समस्याएं थीं, जिनके बारे में महात्मा गाँधी जैसे अग्रणी नेता और पत्रकार ने भी बहुत कुछ लिखा था। महात्मा गाँधी ने तत्कालीन समाचार पत्रों में विज्ञापन के बढ़ते दुष्प्रभाव पर लिखा था-
मैं समझता हूं कि समाचारपत्रों में विज्ञापन का प्रकाशन बंद कर देना चाहिए। मेरा विश्वास है कि विज्ञापन उपयोगी अवश्य है लेकिन विज्ञापन के माध्यम से कोई उद्देश्य सफल नहीं हो सकता है। विज्ञापनों का प्रकाशन करवाने वाले वे लोग हैं जिन्हें अमीर बनने की तीव्र इच्छा है। विज्ञापन की दौड़ में हर तरह के विज्ञापन प्रकाशित होने लगे हैं जिनसे आय भी प्राप्त होती है। आधुनिक नागरिकता का यह सबसे नकारात्मक पहलू है जिससे हमें छुटकारा पाना ही होगा। हमें गैर आर्थिक विज्ञापनों को प्रकाशित करना होगा जिससे सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। लेकिन इन विज्ञापनों को भी कुछ राशि लेकर प्रकाशित करना चाहिए। इसके अलावा अन्य विज्ञापनों का प्रकाशन तत्काल बंद कर देना चाहिए। (इंडियन ओपिनियन, ४ सितम्बर, १९१२)
महात्मा गाँधी ने पत्रकारिता के सिद्धांत और पत्रकार के कर्तव्यों के बारे में भी लिखा था। महात्मा गाँधी ने पत्रकारिता और पत्रकार के कर्तव्यों के बारे में सविस्तार उल्लेख करते हुए लिखा था कि -
मैं महसूस करता हूं कि पत्रकारिता का केवल एक ही ध्येय होता है और वह है सेवा। समाचार पत्र की पत्रकारिता बहुत क्षमतावान है, लेकिन यह उस पानी के समान है जो बांध के टूटने पर समस्त देश को अपनी चपेट में ले लेता है और समस्त फसल को नष्ट कर देता है। (सत्य के साथ प्रयोग अथवा आत्मकथा)
समाचारपत्र लोकतंत्र के स्थायीकरण में किस प्रकार से सहायक हो सकते हैं इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा -
वास्तव में आदर्श लोकतंत्र की आवश्यकता क्या है, तथ्यों की जानकारी या सही शिक्षा निश्चित तौर पर सही शिक्षा। पत्रकारिता का कार्य लोगों को शिक्षित करना है न कि आवश्यक-अनावश्यक तथ्यों एवं समाचारों से उनके विवेक को सीमित कर देना। एक पत्रकार को हमेशा इस बारे में स्वतंत्र रहना चाहिए कि उसे कब और कौन सी रिपोर्ट करनी है। इसी प्रकार से एक पत्रकार को केवल तथ्य जुटाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। बल्कि आगे होने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान होना भी पत्रकार के लिए आवश्यक है।(महात्मा गाँधी- तेंदुलकरः महात्मा १९५३, पेज २४७)
महात्मा गाँधी ने समाचार में प्रकाशित समस्त जानकारियों को पूर्णतः सच मानने से भी इनकार किया है। वे समाचार पत्रों के माध्यम से राय बनाने के भी सख्त विरोधी थे। उन्होंने कहा समाचारपत्रों को केवल तथ्यों की जानकारी के लिए पढ़ा जाना चाहिए, लेकिन समाचारपत्रों को यह आज्ञा नहीं दी जा सकती है कि वे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त कर दें। उन्होंने समाचारपत्रों को पूर्णतः विश्वसनीय न मानते हुए कहा-
पश्चिमी देशों की तरह पूरब में भी समाचार पत्र को गीता, बाईबल और कुरान की तरह से माना जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है जैसे समाचार पत्रों में ईश्वरीय सत्य ही लिखा हो। मैं समाचारपत्र के माध्यम से राय बनाने का विरोधी हूं। समाचारपत्रों को केवल तथ्यों की जानकारी के लिए ही पढ़ा जाना चाहिए, लेकिन समाचारपत्रों को यह आज्ञा नहीं दी जा सकती है कि वे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त कर दें। मैं पत्रकार मित्रों से केवल यही कहूंगा कि वे समाचारपत्रों में केवल सत्य ही प्रकाशित करें, कुछ और नहीं।
जनसंचार माध्यमों की स्वायत्ता और सरकारी नियंत्रण एक ऐसा मुद्दा है जो हमेशा ही जीवंत रहा है। यह उस समय में भी था जब भारत में पत्रकारिता अपने शैशव काल में थी। महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश लोगों पर समाचारपत्रों के व्यापक प्रभाव का अध्ययन किया। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ब्रिटिश सरकार किस प्रकार से समाचार पत्रों को अपने पक्ष में माहौल तैयार करने के लिए अपने प्रभाव में लेती थी। ब्रिटिश लोगों को ध्यान में रखते हुए महात्मा गाँधी ने भारतीय पत्रकारिता जगत को चेताया कि-
ब्रिटिश जनता के लिए उनका समाचार पत्र ही उनका बाईबल होता है। वे अपनी धारणा समाचारपत्रों के माध्यम से ही बनाते हैं। एक ही तथ्य को विभिन्न समाचार पत्रों में विभिन्न तरीकों से दिया जाता है। समाचार पत्र उस पार्टी के मुताबिक लिखते हैं जिस पार्टी का वे समर्थन करते हैं। हमें ब्रिटिश पाठकों को आदर्श मानते हुए यह देखना चाहिए कि समाचारपत्रों के अनुसार ही इनकी विचारधारा में किस प्रकार से बदलाव आता है। ऐसे लोगों के विचारों में बहुत जल्दी-जल्दी परिवर्तन होते रहते हैं। ब्रिटेन में कहा जाता है कि प्रत्येक सात वर्ष के पश्चात पाठकों की राय में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार से लोग उनके शिकंजे में आ जाते हैं जो एक अच्छे वक्ता अथवा नेतृत्वकर्ता होते हैं। इसको संसद भी कह सकते हैं। यह लोग अपनी सत्ता को जाते हुए नहीं देख सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति उनके और सत्ता के बीच में आता है तो वे उसकी आँख भी निकाल सकते हैं।
महात्मा गाँधी ने लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ पत्रकारिता को व्यापक अधिकार देने की भी पैरोकारी की। महात्मा गाँधी ने कहा-‘
प्रेस की आजादी ऐसा बहुमूल्य विशेषाधिकार है जिसे कोई भी राष्ट्र भूल नहीं सकता है।
महात्मा गाँधी ने कहा कि ऐसी परिस्थिति में जब संपादक ने समाचार पत्र में कुछ ऐसी सामग्री प्रकाशित कर दी हो उसे क्या करना चाहिए, क्या उसे सरकार से माफी मांगनी चाहिए, नहीं, बिल्कुल नहीं। यह सत्य है कि संपादक ऐसी सामग्री प्रकाशित करने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन एक बार प्रकाशन के पश्चात वापस लेना भी उचित नहीं है।
किसी भी समाचारपत्र की सफलता मुख्यत संपादक की कार्यशैली और योग्यता पर ही निर्भर करती है। महात्मा गाँधी ने संपादकों के कार्य के विषय में अपने विचार स्पष्ट करते हुए लिखा-
पत्रकारिता को चैथा स्तम्भ माना जाता है। यह एक प्रकार की शक्ति है, लेकिन इसका गलत प्रयोग एक अपराध है। मैं एक पत्रकार के नाते अपने पत्रकार मित्रों से अपील करता हूं कि वे अपनी जिम्मेदारी को महसूस करें और बिना किसी अन्य विचार के केवल सत्य को ही प्रस्तुत करें।  समाचारपत्रों में लोगों को शक्तिशाली तरीके से प्रभावित करने की क्षमता है। इसलिए संपादकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई गलत रिपोर्ट न चली जाए जो लोगों को उत्तेजित करती हो। संपादक और उसके सहायकों को इस बारे में हमेशा जागरूक रहना चाहिए कि वे किस समाचार को किस तरह से प्रस्तुत करते हैं। किसी स्वतंत्र राष्ट्र में सरकार के लिए प्रेस पर नियंत्रण रख पाना असंभव है। ऐसे में पाठकों का यह उत्तरदायित्व है कि वे प्रेस की समीक्षा करें और उन्हें सही रास्ता दिखाएं। समाज का प्रबुद्ध वर्ग भड़काऊ समाचारपत्रों को नकार देगा।
सूर्यप्रकाश, जुलाई अंक, २०११
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कौन है अब आम आदमी का पत्रकार

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7 January 2011 5 Comments
भूपेन सिंह
प्रणयरॉय, राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त, अरुण पुरी, रजत शर्मा, राघव बहल, चंदनमित्रा, एमजे अकबर, अवीक सरकार, एन राम, जहांगीर पोचा और राजीव शुक्ला कापरिचय क्या है? ये पत्रकार हैं या व्यवसायी? बहुत सारे लोगों को ये सवालबेमानी लग सकता है। लेकिन भारतीय मीडिया में नैतिकता का संकट जहां पहुंचाहै, उसकी पड़ताल के लिए इन सवालों का जवाब तलाशना बहुत जरूरी हो गया है। इसलिहाज से पत्रकारीय मूल्यों और धंधे के बीच के अंतर्विरोधों का जिक्र करनाभी जरूरी है।
जो लोगन्यूज मीडिया को वॉच डॉग, समाज का प्रहरी यालोकतंत्र का चौथा स्तंभ जैसा कुछ मानते हैं, वे अपेक्षा करते हैं कि मीडियासामाजिक सरोकारों से जुड़ा काम करेगा। वे नहीं मानते कि खबर सिर्फ एकउत्पाद है, जिसका धंधा किया जाना है। टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप उन्नीस सौनब्बे के दशक में समीर जैन के प्रभाव में आने के बाद से ही इस बात कोसामाजिक स्वीकृति दिलाने के प्रोपेगैंडा में जुटा है कि खबरें बिक्री कीवस्तु के अलावा और कुछ नही हैं। इसलिए इस अखबार में संपादक की बजाय ब्रैंडमैनेजर हावी होते जा रहे हैं, जो तय करते हैं कि अखबार में वहीं खबर छपेगी, जो उनकी नजर में बिकाऊ हो।
एक पत्रकार सेहम लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष मेंखड़ा होने की अपेक्षा करते हैं। पत्रकार का धंधेबाज बन जाना इस पेशे कीनैतिकता पर सवाल खड़ा करता है। व्यवसायी हमेशा पूंजी और मुनाफे की दौड़ मेंशामिल होता है। पत्रकार अगर व्यवसायी बनेगा तो निश्चित तौर पर व्यवसायी औरपत्रकार के हित आपस में टकराएंगे। पत्रकारीय हितों को मुनाफे के हित बाधितकरेंगे। यहां पर पत्रकारिता का इस्तेमाल मुनाफा कमाने के लिए होने लगेगा, इस बात में कोई शक नहीं।
पेड न्यूज औरनीरा राडिया परिघटना के सामने आने के बादये बात साबित हो गयी है कि हमारे यहां पत्रकारिता, धंधेबाजी का पर्यायबनती जा रही है। इस संकट का मूल कारण जहां मीडिया का धंधेबाज बनना है, वहींधंधेबाज मीडिया ने कई पत्रकारों को भी दलालों में बदल दिया है। ऐसी मीडियाकंपनियों में उच्च पदों पर काम करने वाले पत्रकारों को बड़ी-बड़ी अश्लीलतनख्वाहों के साथ कंपनी के शेयर का एक हिस्सा भी दिया जाता है। जाहिर है किऐसा करके उसे कंपनी को मुनाफे में लाने के लिए पत्रकारिता करने काप्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव बनाया जाता है। पत्रकारिता और धंधे के बीच कीलाइन के धुंधला होने से वामपंथी रुझान के माने जाने वाले कई तीसमार खांपत्रकार भी इस खेल में शामिल होकर धन्य हो रहे हैं। अब ये सवाल उठाने कावक्त आ गया है कि कुछ साल पहले तक के सामान्य पत्रकार आखिर करोड़पति-अरबपतिकैसे बने हैं। नेताओं से संपत्ति की घोषणा करने और उसके स्रोत बताने कीमांग करने वालों को अब ऐसे लोगों से भी सवाल पूछना पड़ेगा कि वे अपनीसंपत्ति का ब्‍योरा दें।
आज अगरमीडिया के पतन की गाथा को समझना है तो उसके लिएइसके ऑनरशिप पैटर्न यानी मालिकाने की असलियत को समझना जरूरी होगा। अब येबात किसी से छिपी नहीं है कि किसी भी मीडिया हाउस से कैसी खबरें बाहरनिकलेंगी, उसके लिए सबसे ज्यादा प्रभावी उसका मालिक ही होता है। वहां कामकरने वाले पत्रकार अगर मालिक की मंशा के खिलाफ एक भी खबर सामने लाएंगे, तोअगले पल ही उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। आर्थिक उदारीकरण के दौर मेंशातिर लोग जानते हैं कि सीधे दलाली करने में कई मुश्किलें आ सकती हैं।इसलिए अगर कोई भी धंधा चमकाना है, तो मीडिया के मालिकाने में अपना हिस्सारखना जरूरी है। अंबानी बंधुओं ने कई मीडिया घरानों में ऐसे ही अपना पैसानहीं लगाया है!
अब असली बातपर अगर आएं, तो प्रणय रॉय अगर एनडीटीवी केमालिक हैं तो क्या एक पत्रकार के तौर पर उनके आर्थिक हित मालिक प्रणय रॉयसे नहीं टकराते। यही बात सीएनएन-आईबीएन के मालिक राजदीप सरदेसाई, एनडीटीवीके मालिकाने में हिस्सेदार बरखा दत्त, टीवी 18 के मालिक राघव बहल, इंडियाटीवी के मालिक रजत शर्मा, पायनियर के मालिक चंदन मित्रा, न्यूज 24 के मालिकराजीव शुक्ला, द संडे गार्डियन के मालिक एमजे अकबर, आनंद बाजार पत्रिका, टेलीग्राफ और स्टार न्यूज के मालिक अवीक सरकार, द हिंदू के मालिक एन राम औरइंडिया टुडे ग्रुप के मालिक अरुण पुरी के संदर्भ में भी पूछी जानी चाहिए। (इस मामले में अवीक सरकार और एन राम अपवाद हैं, आनंद बाजार पत्रिका समहू औरद हिंदू समूह जिनको पारिवारिक विरासत में मिला, लेकिन सवाल यहां भी जस कातस है कि कोई एक ही व्यक्ति पत्रकार और मालिक क्यों रहे?)। इन लोगों नेपत्रकारिता से मालिक बनने का सफर क्यों और कैसे तय किया है, इस पूरेगोरखधंधे से अगर पर्दा हट जाए तो राडिया कांड से मिलता-जुलता एक और कांडसामने आ सकता है। मालिक-पत्रकारों की श्रेणी में सबसे ज्यादा चौंकाने वालानाम है न्यूज एक्स के मालिक जहांगीर पोचा का। कभी लंदन में पोचा की गहरीमित्र रही नीरा राडिया ही उसके कर्मचारियों की तनख्वाह दिया करती थी।राडिया और पोचा के बीच बातचीत के टेप सामने आने के बाद ये बात जाहिर होचुकी है। इस बात का भी पता चल चुका है कि बिजनेस वर्ल्ड का संपादक रहने केदौरान पोचा ने राडिया के क्लाइंट रतन टाटा की तारीफ में कई खबरें प्रकाशितकी थीं।
अब तककई ऐसी बातें सामने आ भी चुकी हैं। जो पत्रकारसे मीडिया मुगल बने ऐसे लोगों के भयानक अतीत की तरफ इशारा करने वाली है। दसंडे गार्डियन में प्रणय रॉय के बारे में छपी खबरें इस बात का ज्वलंतप्रमाण हैं। पत्रकारिता की आड़ में कैसे-कैसे खेल हो रहे हैं, इसे समझने केलिए ये जानना भी दिलचस्प होगा कि पिछले एक-दो दशक में कई पत्रकार, मालिकबन चुके हैं और कई मालिक पत्रकार की खाल ओढ़े अवतरित हो रहे हैं। इस पूरेघालमेल का मकसद दोनों हाथों से मलाई बटोरने के अलावा और कुछ नहीं है। इससिलसिले में नई दुनिया के मालिक अभय छजलानी का पत्रकारिता के हिस्से कापद्मश्री हड़प लेना एक मजेदार उदाहरण हो सकता है। पत्रकारों और मालिकों केएक-दूसरे के क्षेत्र में इतनी आसानी से छलांग लगाने की वजह से भारतीयपत्रकारिता बेईमानी और झूठ-फरेब का पर्याय बनती जा रही है। इस सब के बावजूदपत्रकारों का एक बड़ा हिस्सा है। जो श्रम बेचकर सम्मान अर्जित करने परभरोसा करता है, सरोकारों की पत्रकारिता करता है। जिसे मीडिया के दलाली मेंबदलने का गुस्सा है। अच्छी बात है कि ऐसे लोगों का गुस्सा फूटकर अब सामनेआने लगा है। भले ही मालिक बने पत्रकार अपनी कंपनियों में पत्रकारों को उनकेअधिकार न दे रहे हों, पत्रकार संगठनों को पनपने न दे रहे हों, इस बात केखिलाफ आम पत्रकारों की एकता की सुगबुगाहट एक बार फिर शुरू हो चुकी हैं।
पिछले दिनोंप्रेस क्लब ऑफ इंडिया में राजदीप सरदेसाईबरखा के कामों को सही साबित करने की कोशिश कर रहे थे तो उनके खिलाफ आमपत्रकारों का गुस्सा फूट पड़ा। राजदीप का कहना था कि हो सकता है कुछपत्रकार बरखा की प्रसिद्धि से जलने की वजह से भी उसके खिलाफ बोल रहे हों।उन्हें इस बात का करारा जवाब उसी मीटिंग में मौजूद पत्रकार पूर्णिमा जोशीने बहुत अच्छी तरह दिया। बीच-बीच में राजदीप की हूटिंग सुनकर उनकी पत्नी औरसीएनएन-आईबीएन की एंकर सागरिका घोष को भयानक कष्ट हो रहा था। आम पत्रकारोंका गुस्सा उनके लिए अशिष्ट था। इन पंक्तियों के लेखक के पीछे बैठी वेबोलती रही कि बातचीत में कोई सोफिस्टिकेशन तो होना ही चाहिए। राजदीप औरसागरिका को उस दिन पता चला कि स्टूडियो में कैमरे के सामने मनमाने प्रवचनदेने और जनता के सामने बोलने में कितना फर्क होता है। बाद में दिन की घटनासे परेशान सागरिका ने ट्वीटर पर लिखा कि आम आदमी पत्रकार और सेलेब्रिटीपत्रकारों के बीच एक वर्गयुद्ध छिड़ चुका है। जाहिर है कि इसमें आम आदमीपत्रकार का जिक्र हिकारत के तौर पर था। यहां यह याद दिलाना जरूरी है किराजदीप खुद नीरा राडिया से आपत्तिजनक बात करते हुए पकड़े गये हैं। लेकिन अबतक वे बड़ी शान से पत्रकारिता की आड़ में मालिकों की संस्था एडिटर्स गिल्डऑफ इंडिया के अध्यक्ष बने हुए हैं।
मीडिया की नैतिकतामें आ रही गिरावट को अगर रोकना हैतो एक छोटा सा कदम ये हो सकता है कि धंधेबाजों को धंधेबाजों के तौर पर हीपहचाना जाए। अखबारों और न्यूज चैनलों का धंधा करने वालों के लिए भी कड़ेनियम बनाये जाएं ताकि वे पत्रकारिता का इस्तेमाल अपने दूसरे धंधों कोचमकाने में न कर सकें। इस लिहाज से क्रॉस मीडिया होल्डिंग और क्रॉस बिजनेसहोल्डिंग पर लगाम लगाना जरूरी है। यानी ऐसा न होने पाये कि एक व्यक्तिफिल्म बनाये और अपने समाचार माध्यम में उसका प्रचार भी करे या कोई धन्नासेठ अपने दो नंबर के धंधों को चलाने और सत्ता की दलाली के लिए मीडिया कामालिक बनकर उसका मनमाना उपयोग करे। प्राइवेट ट्रीटीज (मीडिया कंपनी दूसरीव्यावसायिक कंपनी में हिस्सेदारी के बदले उसका मुफ्त में प्रचार करे) कामामला भी मीडिया की नैतिकता के खिलाफ है। इस मामले में मालिकों कीमुनाफाखोरी के मुकाबले श्रमजीवी पत्रकारों की एकता इस गतिरोध को तोड़ने मेंमहत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। ईमानदार पत्रकारों की सामाजिक-आर्थिकन्याय के आंदोलनों में हिस्सेदारी ही हमारे सामने एक नए मीडिया परिदृश्य कीरचना कर सकती है।
(समयांतर के जनवरी अंक में प्रकाशित)
http://mohallalive.com/wp-content/uploads/2010/10/Bhupen.jpg(भूपेन सिंहयुव पत्रकार और प्राध्‍यापक। वाम आंदोलनों से जुड़ाव। सहारा समय, स्‍टारन्‍यूज और जी न्‍यूज में लंबे समय तक नौकरी करने के बाद इन दिनोंपूर्णकालिक रूप से अध्‍यापन कार्य से जुड़े हैं।
कई अखबारों में नियमित रूप से लिखते हैं। सिनेमा में खासी दिलचस्‍पी है।
उनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

हिंदी के बिना देश का विकास संभव नहीं- त्रिवेदी

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25, September 2012
DINKAR
नई दिल्ली।हिंदीसाहित्य के प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती पर उन्हें याद कियागया और इस मौके पर कुछ रचनाकारों को सम्मानित किया गया। मशहूर पर्यावरणविदऔर ग्लोबल युनिवर्सिटी (नगालैंड) के कुलपति प्रियरंजन त्रिवेदी ने कहा किहिंदी के विकास के बिना देश का विकास नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि हिंदीकी वजह से ही देश के पहचान है और वह हमें एक सूत्र में बंधती है। त्रिवेदीइंद्रप्रस्थ इंडिया इंटरनेशल के तत्वधान में आयोजित राष्ट्र कवि रामधारीसिंह दिनकर जयंती समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि हमारी शिक्षापद्धिति ठीक नहीं है जिसकी वजह से बेरोजगारी बढ़ी है। उन्होंने कहा किपर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी भी हमारी है और इसे हर स्तर पर ठीक करनाहोगा, तभी हम राष्ट्रकवि दिनकर के उन सपनों को पूरा कर पाएंगे, जो सपनाउन्होंने देखा था। संस्था के महासचिव अंजनी कुमार राजू ने कहा कि हमेंदिनकर के जीवन से प्रेरणा लेनी होगी, जिन्होंने हिंदी का परचम हमेशा बुलंदरखा। आज हम हिंदी को भूलते जा रहे हैं जबकि हिंदी हमें बेहतर ढंग सेसंप्रेषित करती है। राजू ने अफसोस जताया कि राजनीति से जुड़े लोग दिनकरजयंती को भी गंभीरता से नहीं लेते हैं।

उन्होंने कहा कि एक केंद्रीय मंत्रीको जब हमने आयोजन के लिए न्योता तो उन्होंने कहा कि समारोह में हम हिंदीमें बात करेंगे तो हम दक्षिण के जिस प्रदेश से आते हैं, वहां हमारा विरोधहोगा। राजू ने दिनकर की रचनाओं की चर्चा करते हुए कहा कि जरूरत इस बात कीहै साहित्य के जरिए फिर से क्रांति लाई जाए। संस्था के अध्यक्ष डॉ जी पी एसकौशिक ने कहा कि दिनकर जी की रचनाएं हमें बेहतर समाज बनाने के लिए प्रेरितकरती हैं। उन्होंने बताया कि हम यह कार्यक्रम और भव्य तरीके से मनानाचाहते ते और इस कार्यक्रम के लिए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से समय मांगागया था लेकिन वर्तमान राजनीतिक हलचल की वजह से राष्ट्रपति भवन से जो संदेशमिला उसमें कहा गया कि अक्तूबर या नवंबर की कोई तारीख आपको दी दाएगी। कौशिकने कहा कि हम दो महीने बाद दिनकर जी को याद करने के बहाने जुटेंगे और भव्यकार्यक्रम करेंगे। इस मौके पर सांसद प्रदीप सिंह, अधिवक्ता रामनगीना सिंहऔर निशलेश ने भी दिनकर के साहित्यिक योगदान पर अपनी बात रखी। इस मौके परअनिल सुलभ, फजल इमाम मल्लिक, डा. कौशलेंद्र नारायण, रविकांत सिंह को दिनकरसाहत्यि रत्न सम्मान से नवाजा गया। समाजसेवा के क्षेत्र में जहांगीर, रणजीतकुमार और ओमप्रकाश ठाकुर को सम्मानित किया गया।

ब्लॉगिंग के विस्तार से ब्लॉगरों के बीच प्रतिस्पर्धात्मक चुनौती

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वार्षिक ब्लॉग विश्लेषण-२०१०

 !!
१९९९ में आरम्भ हुआ ब्लॉग वर्ष २०१० में ११ साल का सफर पूरा कर चुका है ,वहीं हिंदी ब्लॉग ७ साल का । गौरतलब है कि पीटर मर्होत्ज ने १९९९ में ‘वी ब्लॉग’ नाम की निजी वेबसाइट आरम्भ की थी, जिसमें से कालान्तर में ‘वी’ शब्द हटकर मात्र ‘ब्लॉग’ रह गया। ब्लॉग की शुरुआत में किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक दिन ब्लॉग इतनी बड़ी व्यवस्था बन जायेगा कि दुनिया की नामचीन हस्तियाँ भी अपने दिल की बात इसके माध्यम से कहने लगेंगी। आज पूरी दुनिया में १५ करोड़ से ज्यादा ब्लॉगर्स हैं तो भारत में लगभग ३५ लाख लोग ब्लॉगिंग से जुड़े हुए हैं। इनमें करीब २५ हजार हिन्दी ब्लॉगर हैं, इस संख्या को देखा जाए तो हिंदी में ब्लोगिंग अभी भी संक्रमण के दौर में है ।
हिन्दीभाषी किसी मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त करने, भड़ास निकालने, दैनिक डायरी लिखने, खेती-किसानी की बात करने से लेकर तमाम तरह के विषयों पर लिख रहे हैं।आज तो ब्लॉगिंग केवल एक शौक या अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं रहा बल्कि ब्लॉगर अपने ब्लॉग की लोकप्रियता के अनुसार लाखों रुपए हर महीने कमा रहे हैं। कंपनियाँ अपने उत्पादों का प्रचार करने के लिए ब्लॉगरों की मदद लेती हैं और विज्ञापन देने वाली कंपनियाँ विज्ञापन पोस्ट करने के लिएकिन्तु ऐसा हिंदी में अभी संभव नहीं हो पाया इसका एक मात्र कारण है हिंदी में ब्लोगिंग का व्यापक विस्तार न होना ।
हिंदी ब्लॉगिंग वर्ष-२०१० में ७ वर्ष पूर्ण कर चुकी है । यह सुखद पहलू है कि विगत कई वर्षों की तुलना में वर्ष-२०१० में हिंदी ब्लोगिंग समृद्धि की ओर तेज़ी से अग्रसर हुई है । इस वर्ष लगभग ८ से 10 हजार के बीच नए ब्लोगर्स का आगमन हुआ है , किन्तु सक्रियता के मामले में इस वर्ष आये ब्लोगर्स में से केवल ५०० से १००० के बीच ही सक्रिय हैं और सार्थक लेखन के मामले में ३०० के आसपास ।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि तपी जमीन को कुछ ठंडक देने का काम हुआ , लेकिन विकासक्रम की द्रष्टि से अन्य भाषाओं की तुलना में बहुत संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता । हिंदी ब्लोगिंग की सात वर्षों की इस यात्रा में अमूमन यही देखा गया कि यह ब्लॉगरों के लिए एक ऐसा धोबीघाट रहा ,जहां बैठकर वे अपने घर से लेकर गली-मोहल्ले तक की तमाम मैली चादरों को धोने का काम करते रहे और सुखाते रहे ।
दो अत्यंत दुखद बातें हुई हिंदी ब्लॉगजगत में । पहली यह कि ११ मई को ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का विवादास्पद आलेख आया -कौन बेहतर ब्लॉगर है शुक्ल या लाल? फिर तो हिंदी ब्लॉगजगत में ऐसा घमासान मचा कि लगभग एक पखवारे तक हिंदी ब्लॉग जगत को संकटग्रस्त बनाए रखा ……राजीव तनेजा ने पूरी घटना को व्यंग्यात्मक लहजे में कुछ यूँ रखा -मुकद्दर का सिकंदर कौन ? दूसरी अत्यंत दु:ख की बात यह हुई कि इस वर्ष अचानक महावीर शर्मा जी का निधन हो गया । उनकी मृत्यु से हिंदी ब्लॉगजगत की अपूरणीय क्षति हुयी है इसमें कोई संदेह नहीं की हम सभी ने एक प्रेरक मार्गदर्शक को खो दिया ।इस वर्ष चिट्ठा चर्चा के माध्यम से होने वाली खेमेवाजी पर भी प्रश्न खड़े किये गए और अनूप शुक्ल जैसे प्रारंभिक ब्लोगर की कथित विवादास्पद टिप्पणियों पर भी छतीसगढ़ में चर्चा हुयी ब्लोगर मीट के दौरा. उस ब्लोगर मीट में चिट्ठा चर्चा के नाम से डोमेन लेने की भी बात हुयी ….पूरा प्रकरण पर नज़र डालने के लिए संजीत त्रिपाठी का यह पोस्ट देखें- कथन: विनीत, राजकुमार ग्वालानी, अनूप शुक्ल और झा जी के आलोक में यह पोस्ट -आइए कुछ बात करें अब छत्तीसगढ़ ब्लॉगर मीट की रपट पर मिली टिप्पणियों पर। इनमें सबसे खास ध्यान देने लायक हैं विनीत कुमार, राजकुमार ग्वालानी और अनूप शुक्ल जी की। दरअसल ये टिप्पणी ही नहीं बल्कि पोस्टनुमा टिप्पणी हैं इसलिए इनकी चर्चा अलग से आवश्यक है। एकदम मुद्दे पर है। चिट्ठा चर्चा का डोमेन लेने के मुद्दे पर दिए गए ब्लॉग पोस्ट्स के अलावा मिसफ़िट, सारथी, अलबेला खत्री, बिना लाग लपेट के जो कहा जाए वही सच हैं, टिप्पणी चर्चा, ज़िम्दगी के मेले, कुछ भी कभी भी, मसिजीवी आदि पर आई पोस्ट पर भी नज़र डाली जा सकती है !
इस दौरान एक काम और हुआ -डा अरविन्द मिश्र के अनुसार – कुछ रुग्ण और व्यथित मानसिकता के लोगों ने मिलकर डॉ अरविन्द मिश्र की नारी विरोधी ,उद्दंड ,इमेज प्रोजेक्ट की और काफी हद तक सफल भी रहे ।
वर्ष-२०१० का जहां तक सवाल है यह महसूस किया गया कि ब्लोगिंग के तीब्र विस्तार से ब्लोगरों के बीच प्रतिस्पर्धात्मक चुनौती पैदा हुई है । इस बार यह भी महसूस किया गया हिंदी ब्लॉगजगत में कि ब्लॉग की विश्वसनीयता का मापदंड बनाया जाए ताकि सार्थक और निरर्थक ब्लॉगों में अंतर किया जा सके, पर ऐसा सोचने वालों के बिपरीत एक वर्ग ऐसा भी उभरा जो पूरी दृढ़ता के साथ यह बताने की बार-बार कोशिश की कि यह कतई संभव नहीं है, क्योंकि ब्लोगिंग दुनिया भर के नव साक्षरों के लिए यह एक अनूठी प्रयोगशाला है। ऐसा भला और कौन सा माध्यम है जहां आदमी बिना कोई बड़ी पूंजी खर्च किए किसी भी बड़ी हस्ती के साथ कंधा जोड़ कर खड़ा हो जाए? इसलिए इसे किसी नियम-क़ानून में नहीं बांधा जा सकता …!
वर्ष-२०१० में हिंदी ब्लोगिंग के प्रति ज्यादा से ज्यादा रुझान पैदा करने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम चलाये गए । १६ वर्गों में सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने वाले चर्चित ब्लोगरों के लिए तथा हिंदी ब्लोगिंग में सकारात्मक लेखन को बढ़ावा देने के लिए संवाद डोट कॉम ने संवाद सम्मान की घोषणा की । दो चिट्ठाकारों क्रमश: बसंत आर्य और ललित शर्मा को फगुनाहट सम्मान से नवाजा गया । ताऊ डोट इन के द्वारा बैशाखनंदन सम्मान की घोषणा की गयी । पहली बार इंटरनेट पर लोकसंघर्ष पत्रिका और परिकल्पना के द्वारा प्रायोजित ब्लॉग उत्सव मनाया गया । ब्लोगोत्सव-२०१० में सृजनात्मक उपस्थिति को आधार मानते हुए पहली बार किसी भाषा के ब्लॉग द्वारा ५१ ब्लोगरों के लिए एक साथ सारस्वत सम्मान (लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान -२०१० ) की उद्घोषणा की गयी । शिबना प्रकाशन के द्वारा इस वर्ष माह दिसंबर में ब्लोगर एवं गीतकार राकेश खंडेलवाल को सम्मानित करने की उद्घोषणा की गयी !
ललित शर्मा ने इस वर्ष सकारात्मक चिट्ठों की चर्चा के लिए ब्लॉग4 वार्ता आरंभ किया , वहीं चिट्ठा चर्चा पर अनूप शुक्ल, रवि रतलामी, डा अनुराग,मनोज कुमार, तरुण,मसिजीवी, चर्चा मंच पर डॉ.रुपचन्द्र शास्त्री “मयंक”,मनोज कुमार , संगीता स्वरुप, वन्दना और ब्लोग४वार्ता पर ललित शर्मा,शिवम् मिश्रा, अजय झा, संगीता पुरी चर्चा हिंदी चिट्ठों की पर पंकज मिश्रा , समय चक्र पर महेंद्र मिश्र और झा जी कहीन पर अजय कुमार झा आदि के द्वारा लगातार चिट्ठों को प्रमोट करने का महत्वपूर्ण कार्य किया गया ।इसी वर्ष लखनऊ ब्लोगर्स असोसिएशन के द्वारा अलवेला खत्री को चिट्ठा हास्य रत्न से अलंकृत करते हुए सम्मानित किया गया , वहीं संजीत त्रिपाठी को हिंदी ब्लोगिंग में उल्लेखनीय योगदान के लिए सृजगाथा ने सम्मानित किया । दो साल पहले चिट्ठाकारी से अस्थायी संन्यास लेकर चले गये ई -पंडित की इस वर्ष फरवरी माह में वापसी हुई । विनीत कुमार ने भी ब्लोगिंग में तीन वर्ष का सफ़र पूरा कर लिया । इस वर्ष हिंदी में एक बेहतर ब्लॉग “जानकी पूल” लेकर आये प्रभात रंजन । १५ जून को डा सुभाष राय ने हिंदी ब्लोगिंग की संभावनाओं और खतरों से आगाह किया ।इस वर्ष तीन महत्वपूर्ण ब्लॉग परिकल्पना के माध्यम से आये, हिंदी ब्लोगिंग के दस्तावेजीकरण हेतु ब्लॉग परिक्रमा , हिंदी जगत की गतिविधियों को प्राणवायु देने के उद्देश्य से शब्द सभागार तथा गीत-ग़ज़ल-कविता-नज़्म के क्षेत्र में सक्रिय नए -पुराने रचनाकारों को एक मंच प्रदान करने हेतु वटवृक्ष, यह ब्लॉग इंटरनेट की मशहूर कवियित्री रश्मि प्रभा के संचालन में सितंबर में शुरू हुआ और लोकप्रियता का नया मुकाम बनाने में सफल भी हुआ ।
साहित्यांजलि के नाम से परिकल्पना की एक और पहल हुई इस वर्ष जिसके अंतर्गत साहित्यिक कृत्यों का प्रकाशन होगा । अभी इसपर रवीन्द्र प्रभात का नया उपन्यास ” ताकि बचा रहे गणतंत्र ” की कड़ियाँ प्रकाशित हो रही है ।अंधविश्वास के प्रति अपनी मुहीम के अंतर्गत जाकिर अली रजनीश इस वर्ष एक नया ब्लॉग लेकर आये जिसका नाम है सर्प संसार । लगभग एक दर्जन ब्लॉग के संचालक अविनाश वाचस्पति लेकर आये मैं आपसे मिलना चाहता हूँ और अजय कुमार झा ब्लॉग बकबक ।इस वर्ष मनोज कुमार का भी एक नया ब्लॉग विचार आया !इसी वर्ष कुअंर कुसुमेश का नया ब्लॉग भी आया, जो सृजनात्मक अभिव्यक्ति की सार्थक प्रस्तुति कही जा सकती है !
इस वर्ष बिभिन्न शहरों में काफी संख्या में ब्लोगर सम्मलेन और गोष्ठियां हुई ,२२ फरवरी को राँची में जमा हुए कलकतिया और झारखण्डी ब्लॉगर,अमिताभ मीत (कोलकाता),शिव कुमार मिश्रा (कोलकाता),बालकिशन (कोलकाता),शम्भू चौधरी (कोलकाता),रंजना सिंह (जमशेदपुर),श्यामल सुमन (जमशेदपुर),पारूल चाँद पुखराज (बोकारो),संगीता पुरी (बोकारो),मनीष कुमार (राँची),नदीम अख्तर (राँची),घनश्याम श्रीवास्तव उर्फ घन्नू झारखंडी (राँची),डॉ॰ भारती कश्यप (राँची),निराला तिवारी (राँची),संध्या गुप्ता (दुमका),सुशील कुमार (चाईंबासा),शैलेश भारतवासी (दिल्ली),लवली कुमारी (धनबाद),अभिषेक मिश्र (वाराणसी) आदि। १२ अप्रैल को लखनऊ में हास्यकवि अलवेला खत्री की उपस्थिति में उपस्थित हुए लखनऊ के ब्लोगर । लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन और संवाद डोट कौम के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस ब्लोगर संगोष्ठी में श्रीमती अलका मिश्रा, श्रीमती सुशीला पुरी, श्रीमती उषा राय, श्रीमती अनीता श्रीवास्तव, श्री अमित कुमार ओम, श्रीमती मीनू खरे, श्री रवीन्द्र प्रभात, श्री मो० शुएब, श्री हेमंत, श्री विनय प्रजापति, श्री जाकिर अली रजनीश आदि ब्लोगर्स उपस्थित हुए ।२५ अप्रैल को मुम्बई ब्लोगर मीट का आयोजन हुआ, जिसमें विभारानी, बोधिसत्व, आभा मिश्रा, विमल कुमार, अभय तिवारी, राज सिंह, अनिल रघुराज, यूनुस खान, अनीता कुमार, घुघुती बासुती, ममता, जादू, रश्मि रविजा, विवेक रस्तोगी ने शिरकत की । २६ अगस्त को आगरा में अवीनाश वाचस्पति की अध्यक्षता में उपस्थित हुए आगरा और उसके आसपास के ब्लोगर,जयपुर हिन्‍दी ब्‍लॉगर मिलन में तकनीक के एक नए पक्ष से परिचय हुआ अर्थात लिंक पर क्लिक करके आप टेलीफोन समाचार सुन भी सकते हैं। जयपुर में आयोजित पहले हिन्‍दी ब्‍लॉगर मिलन का समाचार इस नए माध्‍यम से प्रसारित हुआ। ०६ जून को मेरठ में ब्लोगर्स गोष्ठी हुई जिसमें अबिनाश वाचस्पति, सुमित प्रताप सिंह, मिथिलेश दुबे आदि उपस्थित हुए । २२ मई को दिल्ली ब्लोगर मिलन का कार्यक्रम हुआ, जिसमें जय कुमार झा, रतन सिंह शेखावत, एम वर्मा, राजीव तनेजा, संगीता पुरी, विनोद कुमार पाण्डे, बागी चाचा, पी के शर्मा, ललित शर्मा, अमर ज्योति, अविनाश वाचस्पति, संजू तनेजा, मानिक तनेजा, मयंक सक्सेना, नीरज जाट, अंतर साहिल, मयंक, आशुतोष मेहता, शाहनवाज़ सिद्दिकी, राहुल राय, डाँ वेद व्यथित, राजीव रंजन प्रसाद, अजय यादव, अभिषेक सागर, डाँ प्रवीन चोपड़ा, प्रतिभा कुशवाहा, प्रवीण कुमार शुक्ला, खुशदीप सहगल, इरफान खान, योगेश कुमार गुलाटी, उमाशंकर मिश्रा, सुलभ जायसवाल, चंडीदत्त शुक्ल, राम बाबू सिंह, अजय कुमार झा, देवेन्द्र गर्ग, घनश्याम बघेला, सुधीर कुमार आदि उपस्थित हुए । १३ नवंबर को मशहूर ब्लोगर समीर लाल समीर के भारत आगमन पर दिल्ली में नुक्कड़ के संचालक अवीनाश वाचस्पति की अगुआई में उनका शानदार स्वागत हुआ । २१ नवंबर को रोहतक में ब्लोगर मीट हुए , जिसमें राज भाटिया, ललित शर्मा, अजय झा, खुशदीप सहगल, अंतर सोहिल , संगीता पुरी, शहनवाज़, नीरज जाट, संजय भास्कर, योगेन्द्र मौदगिल , राजीव तनेजा आदि उपस्थित हुए और ०१ दिसंबर को संस्कारधानी जबलपुर में जबलपुर ब्लागर्स द्वारा “हिंदी विकास और संभावनाएं” विषय पर संगोष्टी आयोजित की गई जिसमें रायपुर छत्तीसगढ़ से ललित शर्मा ,जी. के अवधिया , हैदराबाद से विजय कुमार सतपति और समीर लाल ( उड़न तश्तरी) उपस्थित हुए ।
किन्तु २७ अगस्त को पांच दिवसीय ‘ब्लॉग लेखन के द्वारा विज्ञान संचार‘ कार्यशाला का आयोजन लखनऊ में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौ्द्यौगिकी संचार परिषद, नई दिल्ली एवं तस्लीम के संयुक्त तत्वाधान में किया,बरकतुल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल एवं देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर के पूर्व कुलपति एवं प्रसिद्ध शिक्षाविद श्री महेन्द्र सोढ़ा,साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन के अध्यक्ष डा0 अरविंद मिश्र,जाने पहचाने ब्लॉगर श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, इंडियन साइंस कम्युनिकेशन सोसाइटी के अध्यक्ष डा0 वी0 पी0 सिंह,अमित ओम,ब्लॉग तकनीक के महारथी रवि रतलामी और शैलेष भारतवासी,“एक आलसी का चिठ्ठा” फेम के ब्लॉगर श्री गिरिजेश राव,राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद के निदेशक डा0 मनोज पटैरिया,जानी पहचानी ब्लॉगर अल्पना वर्मा,प्रख्यात रचनाकार हेमंत द्विवेदी, लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन के अध्यक्ष रवीन्द्र प्रभात, लोकसंघर्ष पत्रिका के रणधीर सिंह, सुमन, मोहम्मद शुएब, जीशान हैदर जैदी,अल्का मिश्रा,समाजसेवी ईं0 राम कृष्ण पाण्डेय और ‘तस्लीम’ के महामंत्री जाकिर अली ‘रजनीश’की उपस्थिति रही। देश में पहली बार सांस ब्लोगिंग पर आधारित इस प्रकार के आयोजन हुए ।
९ -१० अक्तूबर को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के द्वारा ब्लोगिंग की आचार संहिता पर हुई दो दिवसीय संगोष्ठी को इस वर्ष की महत्वपूर्ण गतिविधियाँ कही जा सकती है । ९ अक्टूबर को ‘हिंदी ब्लॉगिंग की आचार-संहिता’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला एवं संगोष्ठी का उद्‍घाटन विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूति नारायण राय ने किया।संगोष्ठी में उदयपुर,राजस्थान से पधारीं डॉ.(श्रीमती) अजित गुप्ता,“दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा” के विश्वविद्यालय विभाग के हैदराबाद केंद्र के विभागाध्यक्ष और प्रोफ़ेसर डॉ. ऋषभ देव शर्मा,वरिष्ठ कवि श्री आलोकधन्वा,जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. अनिल राय ‘अंकित’,‘चिट्ठा चर्चा’ के संचालक व लोकप्रिय ‘फुरसतिया’ ब्लॉग के लेखक अनूप शुक्ल, लखनऊ से रवीन्द्र प्रभात, जाकिर अली रजनीश ,भड़ास4मीडिया डॉट कॉम’ के यशवंत सिंह, हिंद युग्म के शैलेश भारतवासी ,अहमदाबाद से आये संजय वेंगाणी, उज्जैन से पधारे सुरेश चिपलूनकर, पानीपत से विवेक सिंह, दिल्ली से हर्षवर्धन त्रिपाठी,दिल्ली से हीं अवीनाश वाचस्पति, मेरठ से अशोक कुमार मिश्र, वर्धा से श्रीमती रचना त्रिपाठी, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी,दिल्ली से विनोद शुक्ल,मुम्बई से श्रीमती अनिता कुमार, बंगलोर से प्रवीण पांडेय, कोलकाता से डॉ. प्रियंकर पालीवाल, छतीसगढ़ से संजीत त्रिपाठी, डॉ.महेश सिन्हा तथा प्रमुख ब्लॉगर और आप्रवासी कवयित्री डॉ. कविता वाचक्नवी आदि उपस्थित थे। पहली बार हिंदी ब्लोगिंग की किसी सार्वजनिक संगोष्ठी में देश के प्रमुख साईबर विशेषज्ञ पवन दुग्गल उपस्थित हुए ।
ब्लोगिंग में ठलुआते हुए प्रमोद तांबट का एक साल पूरा हुआ इस वर्ष और पहले ही वर्ष में वे ब्लोगोत्सव-२०१० में शामिल भी हुए और सम्मानित भी । विगत वर्ष हिंदी ब्लोगिंग में लालू प्रसाद यादव और मनोज बाजपाई जैसी बिहार की चर्चित हस्तियाँ शामिल हुई थी, इस वर्ष नितीश कुमार का भी ब्लॉग आया ।
अभी तक आप ब्लॉग लिखते रहे हैं, माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर के जरिए १४० अक्षरों में अपनी बात कहते रहे हैं, सेलेब्रिटी को फॉलो कर उनके दिल की बात जानते रहे हैं, फेसबुक-ऑकरुट जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर स्टेटस अपडेट कर अपना हाल दुनिया को बताते रहे हैं या अपने दोस्तों-परीचितों का हाल जानते रहे हैं। लेकिन, वर्ष -२००९ में ब्लॉगिंग की दुनिया में मीठी आवाज का रस घुलना शुरू हुआ और इस वर्ष की समाप्ति तक पूरे परवान पर है यह ‘वॉयस ब्लॉगिंग’ की दुनिया।
ज्ञान दत्त पाण्डेय ने मानसिक हलचल पर १५ जनवरी २०१० को अपने पोस्ट में ब्लोगिंग की सीमाएं बतायी है वहीं इस आलेख की प्रतिक्रया में समीर लाल समीर का कहना है कि ” वेब तो दिन पर दिन स्मार्ट होता ही जा रहा है, जरुरत है हमारे कदम ताल मिलाने की. जितना तेजी से मिल पायेंगे, उतनी ज्याद उपयोगिता सिद्ध कर पायेंगे.माला भार्गव के आलेख के लिंक के लिए अति आभार !”
१२ मार्च २०१० को परिकल्पना पर यह महत्वपूर्ण घोषणा की गयी कि हिंदी ब्लॉग जगत को आंदोलित करने के उद्देश्य से परिकल्पना ब्लॉग उत्सव का आयोजन किया जाएगा । यह आयोजन १६ अप्रैल२०१० को शुरू हुआ हिंदी के मशहूर चित्रकार इमरोज के साक्षात्कार , हिंदी ग़ज़लों के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अदम गोंडवी की ग़ज़लों, देश के प्रमुख व्यंग्यकार अशोक चक्रधर की शुभकामनाओं से । अंतरजाल पर यह आयोजन लगभग दो महीनों तक चला ।इस उत्सव का नारा था – ” अनेक ब्लॉग नेक हृदय ” । इस उत्सव में प्रस्तुत की गयी कतिपय कालजयी रचनाएँ , विगत दो वर्षों में प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण ब्लॉग पोस्ट , ब्लॉग लेखन से जुड़े अनुभवों पर वरिष्ठ चिट्ठाकारों की टिप्पणियाँ ,साक्षात्कार , मंतव्य आदि ।विगत वर्ष-२००९ में ब्लॉग पर प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण कवितायें, गज़लें , गीत, लघुकथाएं , व्यंग्य , रिपोर्ताज, कार्टून आदि का चयन करते हुए उन्हें प्रमुखता के साथ ब्लॉग उत्सव के दौरान प्रकाशित किये गए ।कुछ महत्वपूर्ण चिट्ठाकारों की रचनाओं को स्वर देने वाले पुरुष या महिला ब्लोगर के द्वारा प्रेषित ऑडियो/वीडियो भी प्रसारित किये गए ।उत्सव के दौरान प्रकाशित हर विधा से एक-एक ब्लोगर का चयन कर , गायन प्रस्तुत करने वाले एक गायक अथवा गायिका का चयन कर तथा उत्सव के दौरान सकारात्मक सुझाव /टिपण्णी देने वाले श्रेष्ठ टिप्पणीकार का चयन कर उन्हें सम्मानित किया गया । साथ ही हिन्दी की सेवा करने वाले कुछ वरिष्ठ चिट्ठाकारों को विशेष रूप से सम्मानित किया गया । पहली बार एक साथ लगभग ५१ ब्लोगरों को परिकल्पना सम्मान से नवाज़ा गया ।
इसी दौरान ताऊ ने बुढऊ ब्लागर एसोसियेशन की स्थापना कर दी हुक्का गुड गुड़ाते हुए …….. कौन कौन बुढाऊ ब्लागर वहां पहुचे ये देखिये…….लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन के तर्ज पर इस वर्ष कानपुर ब्लोगर असोसिएशन, आजमगढ़ ब्लोगर असोसिएशन और जूनियर ब्लोगर असोसिएशन की भी स्थापना हुई ।
बी एस पावला , हिंदी ब्लॉगजगत के सबसे जिंदादिल ब्लॉगर , जिन्हें संवाद डोट कॉम ने वर्ष-२००९ का ब्लॉग संरक्षक का सम्मान दिया । १७ जून २०१० के अपने पोस्ट में उन्होंने कहा है कि -”ब्लॉगिंग की दुनिया में एक अनोखा ब्लॉग-संकलक, एग्रीगेटर कर रहा आपका इंतज़ार” । बी एस पावला के द्वारा संचालित ‘प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा HEADLINE ANIMATOR’ इस वर्ष योजनाबद्ध तरीके से निष्क्रिय किया गया । प्रिंट मीडिया ब्लॉग को ही वेबसाईट का रूप दे कर http://www.blogsinmedia.com/बनाया गया है।अपने कथन के अनुसार बी एस पावला ने इसे कार्य रूप में परिवर्तित भी किया,जो इस वक्त यह सरपट चल रहा http://www.blogsinmedia.com/ ।
व्यंग्य वर्ग से परिकल्पना सम्मान-२०१० पाने वाले अविनाश वाचस्पतिने २६ अप्रैल २०१० को ब्लोगोत्सव-२०१० पर एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि ” हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की ताकत को कम करके आंकना बिल्‍कुल ठीक नहीं है “०५ मई २०१० को मुहल्ला लाईव पर विनीत कुमार ने कहा कि ” ज्ञानोदय में हिंदी ब्लोगिंग पर शुरू हुआ उनका स्तंभ ” । अपनी आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए आलेख में उन्होंने कहा है कि -”ब्लॉग के बहाने पहले तो वर्चुअल स्पेस में और अब प्रिंट माध्यमों में एक ऐसी हिंदी तेजी से पैर पसार रही है जो कि देश के किसी भी हिंदी विभाग की कोख की पैदाइश नहीं है। पैदाइशी तौर पर हिंदी विभाग से अलग इस हिंदी में एक खास किस्म का बेहयापन है, जो पाठकों के बीच आने से पहले न तो नामवर आलोचकों से वैरीफिकेशन की परवाह करती है और न ही वाक्य विन्यास में सिद्धस्थ शब्दों की कीमियागिरी करनेवाले लोगों से अपनी तारीफ में कुछ लिखवाना चाहती है। पूरी की पूरी एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जो निर्देशों और नसीहतों से मुक्त होकर हिंदी में कुछ लिख रही है। इतनी बड़ी दुनिया के कबाड़खाने से जिसके हाथ अनुभव का जो टुकड़ा जिस हाल में लग गया, वह उसी को लेकर लिखना शुरू कर देता है। इस हिंदी को लिखने के पीछे का सीधा-सा फार्मूला है जो बात जैसे दिल-दिमाग के रास्ते कीबोर्ड पर उतर आये उसे टाइप कर डालो, भाषा तो पीछे से टहलती हुई अपने-आप चली आएगी।”
“जबसे ब्लोगिंग की लत लगी है हमको, हमेशा परेशान रहते हैं। ना दिन में चैन और ना रात में नींद। दिमाग रूपी आकाश में ब्लोग, ब्लोगर, पोस्ट, टिप्पणियाँ रूपी मेघ ही घुमड़ते रहते हैं। परेशान रहा करते हैं कि आज तो ले-दे के पोस्ट लिख लिया है हमने पर कल क्या लिखेंगे? कई बार मन में आता है कि कल से हर रोज लिखना बंद। निश्चय कर लेते हैं कि आज के बाद से अब सप्ताह में सिर्फ एक या दो पोस्ट लिखेंगे पर ज्योंही आज बीतता है और कल है कि है। तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा और अंगुष्ठ याने कि सारी की सारी उँगलियाँ रह-रह कर कम्प्यूटर के कीबोर्ड की ओर जाने लगती हैं। जब तक एक पोस्ट ना लिख लें, चैन ही नहीं पड़ता। पर रोज-रोज आखिर लिखें तो लिखें भी क्या? ” यह मैं नहीं कह रहा हूँ ऐसा कहा है जी के अवधिया ने अपने ब्लॉग धान के देश में पर १२ जुलाई २०१० को “बड़ी बुरी लत है ब्लोगिंग की “१४ अगस्त २०१० को अफलातून ने यही है वह जगह पर “ब्लॉगिंग के चार साल : आंकड़ों में ” प्रस्तुत किया है । छींटे और बौछारें पर ०४ नवंबर २०१० को रवि रतलामी ने टेक्नोराती ब्लॉग सर्वे का व्योरा प्रस्तुत किया है और कहा है कि “टेक्नोराती ब्लॉग सर्वे 2010 आंकड़े – क्या ब्लॉगिंग पुरूषों की बपौती है?”
२५ फरवरी को उड़न तश्तरी पर प्रकाशित ऑपरेशन कनखुजरा में मनुष्य और बाघ को लेकर की गयी टिप्पणी को पाठकों ने काफी सराहा । वहीँ डा अनवर जमाल के द्वारा ०२ अगस्त को मन की दुनिया पर कथा के दर्पण में सच को प्रतिबिम्बित करने का एक अनूठा प्रयास किया गया । ०१ अप्रैल मुर्ख दिवस पर शरद कोकाश ने व्यंग्य के माध्यम से ब्लोगिंग से जुड़े महत्वपूर्ण पहलूओं पर प्रकाश डाला , शीर्षक था -बाल (ब्लॉग ) ना बाँका कर सके जो जग बैरी होय….२९ अप्रैल को नन्ही ब्लोगर पाखी ने चिड़िया टापू की सैर के माध्यम से एक सुन्दर यात्रा वृत्तांत प्रस्तुत किया । २७अगस्त को सफ़ेद घर पर ब्लॉग महंत………..ब्लॉगिंग का ककहरा पढ़ते मिस्टर मदन…….आलू का जीजा……..ढेला ढोवन…….सतीश पंचम का व्यंग्य आया जिसे पाठकों ने काफी सराहा वहीँ ३१ अगस्त को सरस पायस पर सूर्य कुमार पाण्डेय की एक बहुत ही सारगर्भित कविता प्रकाशित हुई ।१६ अगस्त को भला बुरा ब्लॉग ने ५०० वीं पोस्ट लिखी । २७ अक्तूबर को मैं मुरख तुम ज्ञानी पर वर्धा सम्मलेन का पोस्टमार्टम किया गया। १८ नवंबर को स्वास्थ सबके लिए पर ब्लोगिंग और तनाव से संबंधित महत्वपूर्ण पहलूँ को उकेरा ।
१६ मार्च कों विवेक सिंह न ब्लोगिंग कों पत्र लिख कर कहा कि उदास मत हो ब्लोगिंग । ०९ अप्रैल को मा पलायनम पर मनोज मिश्र ने मित्र मिलन की अजब कहानी से अवगत कराया । ११ अप्रैल को ब्लोग्स पंडित ने जी -८ से ब्लॉग जगत में एक नयी क्रान्ति से पाठकों को रूबरू कराया ।३१ जुलाई को प्रवीण जाखर ने कहा कि साइबर सुरक्षा खतरे में : एक्सक्लूसिव पड़ताल २१ अगस्त को डायरी में मनीषा पाण्डेय नकसबे में बसे रबीश कुमार की चर्चा की । एक महत्वपूर्ण सर्वेक्षण करते हुए आशीष खंडेलवाल ने हिंदी ब्लॉग टिप्स पर 100 से ज़्यादा फॉलोवर वाले हिन्दी चिट्ठों के शतक की जानकारी दी । १७ जुलाई को जानकी पूल पर मनोहर श्याम जोशी की बातचीत प्रकाशित की गयी । सृजन यात्रा में सुभाष नीरव ने अपनी सृजनात्मक यात्रा से अवगत कराया । राजीव तनेजा ने हंसते रहो पर अत्यंत सारगर्भित व्यंग्य प्रस्तुत करते हुए कहा है कि हे पार्थ!…अर्जुन गाँडीव उठाए तो किसके पक्ष में?… ।दिव्य नर्मदा ने ब्लोगिंग की आचार संहिता : कुछ सवाल उठाये हैं ।
१८ नवंबर को दबीर निउज ने अपने एक आलेख में बताया कि फेसबुक की लोकप्रियता 5 साल की मेहमान ….०३ दिसंबर को अपने एक आलेख में भारतीय नागरिक ने यह सूचना दी कि अभी तीन दिन पहले तक wikileaks.org ठीक-ठाक ढ़ंग से खुल रही थी। लेकिन आज यह साइट नहीं खुल पा रही। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस साइट को प्रतिबन्धित कर दिया गया है।
………वर्ष-२०१० में जो कुछ भी हुआ उसे हिंदी चिट्ठाजगत ने किसी भी माध्यम की तुलना में बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की है। कुछ ब्लॉग ऐसे है जिनकी चर्चा विगतवर्ष-२००९ में भी हुयी थी और आशा की गई थी की वर्ष- २०१० में इनकी चमक बरक़रार रहेगी । सिनेमा पर आधारित तीन ब्लॉग वर्ष-२००९ में शीर्ष पर थे । एक तरफ़ तो प्रमोद सिंह के ब्लॉग सिलेमा सिलेमा पर सारगर्भित टिप्पणियाँ पढ़ने को मिलीं थी वहीं दिनेश श्रीनेत ने इंडियन बाइस्कोप के जरिये निहायत ही निजी कोनों से और भावपूर्ण अंदाज से सिनेमा को देखने की एक बेहतर कोशिश की थी । तीसरे ब्लॉग के रूप में महेन के चित्रपट ब्लॉग पर सिनेमा को लेकर अच्छी सामग्री पढ़ने को मिली थी । यह अत्यन्त सुखद है की उपरोक्त तीनों ब्लोग्स में से महेन के चित्रपट को छोड़कर शेष दोनों ब्लोग्स वर्ष २०१० में भी अपनी चमक और अपना प्रभाव बनाये रखने में सफल रहे हैं ।
इसीप्रकार जहाँ तक राजनीति को लेकर ब्लॉग का सवाल है तो अफलातून के ब्लॉग समाजवादी जनपरिषद, नसीरुद्दीन के ढाई आखर, अनिल रघुराज के एक हिन्दुस्तानी की डायरी, अनिल यादव के हारमोनियम, प्रमोदसिंह के अजदक और हाशिया का जिक्र किया जाना चाहिए। ये सारे ब्लोग्स वर्ष २००९ में भी शीर्ष पर थे और वर्ष २०१० में अनियमितता के बावजूद शीर्ष पर न सही किन्तु अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल जरूर हुए हैं ।
वर्ष २००९ में सृजनात्मक ब्लोग्स की श्रेणी में सुरपेटी, कबाड़खाना, ठुमरी, पारूल चाँद पुखराज का चर्चित हुए थे , जिनपर सुगम संगीत से लेकर क्लासिकल संगीत को सुना जा सकता था , पिछले वर्ष रंजना भाटिया का ब्लॉग ने भी ध्यान खींचा था और जहाँ तक खेल का सवाल है, एनपी सिंह का ब्लॉग खेल जिंदगी है पिछले वर्ष शीर्ष पर था। पिछले वर्ष वास्तु, ज्योतिष, फोटोग्राफी जैसे विषयों पर भी कई ब्लॉग शुरू हुए थे और आशा की गई थी कि ब्लॉग की दुनिया में २०१० ज्यादा तेवर और तैयारी के साथ सामने आएगा। यह कम संतोष की बात नही कि इस वर्ष भी उपरोक्त सभी ब्लोग्स सक्रीय ही नही रहे अपितु ब्लॉग जगत में एक प्रखर स्तंभ की मानिंद दृढ़ दिखे । निश्चित रुप से आनेवाले समय में भी इनके दृढ़ता और चमक बरकरार रहेगी यह मेरा विश्वास है ।
यदि साहित्यिक लघु पत्रिका की चर्चा की जाए तो पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष ज्यादा धारदार दिखी मोहल्ला । अविनाश का मोहल्ला कॉलम में चुने ब्लॉगों पर मासिक टिप्पणी करते हैं और उनकी संतुलित समीक्षा भी करते हैं। इसीप्रकार वर्ष २००९ की तरह वर्ष-२०१० में भी अनुराग वत्स के ब्लॉग ने एक सुविचारित पत्रिका के रूप में अपने ब्लॉग को आगे बढ़ाया हैं।
पिछले वर्ष ग्रामीण संस्कृति को आयामित कराने का महत्वपूर्ण कार्य किया था खेत खलियान ने , वहीं विज्ञान की बातों को बहस का मुद्दा बनाने सफल हुए थे पंकज अवधिया अपने ब्लॉग मेरी प्रतिक्रया में । हिन्दी में विज्ञान पर लोकप्रिय और अरविन्द मिश्रा के निजी लेखों के संग्राहालय के रूप में पिछले वर्ष चर्चा हुयी थी सांई ब्लॉग की ,गजलों मुक्तकों और कविताओं का नायाब गुलदश्ता महक की ,ग़ज़लों एक और गुलदश्ता है अर्श की, युगविमर्श की , महाकाव्य की, कोलकाता के मीत की , “डॉ. चन्द्रकुमार जैन ” की, दिल्ली के मीत की, “दिशाएँ “की, श्री पंकज सुबीर जी के सुबीर संवाद सेवा की, वरिष्ठ चिट्ठाकार और सृजन शिल्पी श्री रवि रतलामी जी का ब्लॉग “ रचनाकार “ की, वृहद् व्यक्तित्व के मालिक और सुप्रसिद्ध चिट्ठाकार श्री समीर भाई के ब्लॉग “ उड़न तश्तरी “ की, ” महावीर” ” नीरज ” “विचारों की जमीं” “सफर ” ” इक शायर अंजाना सा…” “भावनायें… ” आदि की।इस वर्ष हिंदी ब्लोगिंग को नयी दिशा देने के उद्देश्य से कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में श्रेष्ठ सहयोगी की भूमिका में दिखे एडवोकेट रंधीर सिंह सुमन यानी इस वर्ष की उनकी गतिविधिया को nice कहा जा सकता है ! फिल्म अभिनेता सलमान खान की तरह सलीम खान भी इस वर्ष लगातार विवादों में घिरे रहे, इसके बावजूद वे अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए संवाद सम्मान और लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान ससे नवाजे गए !
इसी क्रम में हास्य के एक अति महत्वपूर्ण ब्लॉग “ठहाका ” हिंदी जोक्स तीखी नज़र current CARTOONS बामुलाहिजा चिट्ठे सम्बंधित चक्रधर का चकल्लस और बोर्ड के खटरागी यानी अविनाश वाचस्पति तथा दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका आदि की । वर्ष २००९ के चर्चित ब्लॉग की सूची में और भी कई महत्वपूर्ण ब्लॉग जैसे जबलपुर के महेंद्र मिश्रा के निरंतर अशोक पांडे का -“ कबाड़खाना “ , डा राम द्विवेदी की अनुभूति कलश , योगेन्द्र मौदगिल और अविनाश वाचस्पति के सयुक्त संयोजन में प्रकाशित चिट्ठा हास्य कवि दरबार , उत्तर प्रदेश के फतेहपुर के प्रवीण त्रिवेदी का “ प्राइमरी का मास्टर “ , लोकेश जी का “अदालत “ , बोकारो झारखंड की संगीता पुरी का गत्यात्मक ज्योतिष , उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर सकल डीहा के हिमांशु का सच्चा शरणम , विवेक सिंह का स्वप्न लोक , शास्त्री जे सी फ़िलिप का हिन्दी भाषा का सङ्गणकों पर उचित व सुगम प्रयोग से सम्बन्धित सारथी , ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल और दिनेशराय द्विवेदी का तीसरा खंबा आदि की चर्चा वर्ष -२००९ में परिकल्पना पर प्रमुखता के साथ हुयी थी और हिंदी ब्लॉगजगत के लिए यह अत्यंत ही सुखद पहलू है , की ये सारे ब्लॉग वर्ष-२०१० में भी अपनी चमक बनाये रखने में सफल रहे हैं ।
जून-२००८ से हिंदी ब्लॉगजगत में सक्रिय के. के. यादव का वर्ष-२०१० में प्रकाशित एक आलेख अस्तित्व के लिए जूझते अंडमान के आदिवासी ,वर्ष-२००८ से दस ब्लोगरों क्रमश: अमित कुमार यादव, कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, रश्मि प्रभा, रजनीश परिहार, राज यादव, शरद कुमार, निर्मेश, रत्नेश कुमार मौर्या, सियाराम भारती, राघवेन्द्र बाजपेयी के द्वारा संचालित सामूहिक ब्लॉग युवा जगत पर इस वर्ष प्रकाशित एक आलेख हिंदी ब्लागिंग से लोगों का मोहभंग ,२४ जून २००९ से सक्रीय और लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान से सम्मानित वर्ष की श्रेष्ठ नन्ही ब्लोगर अक्षिता पाखी के ब्लॉग पर प्रकाशित आलेख डाटर्स-डे पर पाखी की ड्राइंग… १० नवम्बर-२००८ से सक्रीय राम शिव मूर्ति यादव का इस वर्ष प्रकाशित आलेख मानवता को नई राह दिखाती कैंसर सर्जन डॉ. सुनीता यादव, २६ अगस्त -२००८ से सक्रीय सामूहिक ब्लॉग साहित्य शिल्पी (जिसके मुख्य संचालक हैं राजिव रंजन प्रसाद ) पर इस वर्ष प्रकाशित पोस्ट बस्तर के वरिष्ठतम साहित्यकार लाला जगदलपुरी से बातचीत ,दिसंबर-२००८ से सक्रीय ब्लोगर त्रिपुरारी कुमार शर्मा का ब्लॉग तनहा फलक पर प्रकाशित पोस्ट हिंदुस्तान की हालत ,जनवरी-२००८ से सक्रीय राम कुमार त्यागी के कविता संग्रह पर प्रकाशित पोस्ट अकेला हूँ तो क्या हुआ ? , मेरी आवाज़ पर प्रकाशित आलेख पश्चताप, गान्धी और मेरे पिता, शोध का सोच और आत्मनिर्भरत पर प्रभाव ,२० जनवरी -२०१० में मनोज कुमार, संगीता स्वरूप, रेखा श्रीवास्तव, अरुण चन्द्र राय, संतोष गुप्ता, परशुराम राय, करण समस्ती पुरी, हरीश प्रकाश गुप्त आदि ब्लोगर के सामूहिक संचालन में प्रकाशित ब्लॉग राजभाषा पर प्रकाशित पोस्ट आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए ,सितंबर-२००९ से सक्रीय लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान /बैसाखनंदन सम्मान से सम्मानित ब्लोगर मनोज कुमार का पोस्ट फ़ुरसत में … बूट पॉलिश!,मई-२००७ से सक्रीय वन्दना गुप्ता का वर्ष-२०१० में प्रकाशित आलेख :”पिता का योगदान” और “राष्ट्रमंडल खेलों का असर ?” ,अप्रैल- २००९ से सक्रीय और लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान से सम्मानित शिखा वार्शनेय का आलेखक्या करें क्या ना करें ये कैसी मुश्किल हाय.२१ सितंबर-२००८ से सक्रीय रेखा श्रीवास्तव के अपने ब्लॉग पर वर्ष-२०१० में प्रकाशित एक आलेख का शीर्षक और यू आर एल …..किसी की आँख का आंसूं! आदि को पाठकों की सर्वाधिक सराहना प्राप्त हुयी है .
हिन्दी ब्लॉगिंग में “एकल” लिखने वालों तथा यदि इसमें “समूह” ब्लॉग भी जोड़ दिया जाये तो, फ़िलहाल “1000 सब्स्क्राइबर क्लब” के सदस्य गिने-चुने ही हैं, लेकिन जिस रफ़्तार से हिन्दी ब्लॉगरों की संख्या बढ़ रही है और पाठकों की संख्या भी तेजी से विस्तार पा रही है, जल्दी ही 1000 सब्स्क्राइबर की संख्या बेहद मामूली लगने लगेगी और जल्दी ही कई अन्य ब्लॉगर भी इसे पड़ाव को पार करेंगे।०६ दिसम्बर के अपने पोस्ट में सुरेश चिपलूनकर ने कहा है कि महाजाल ब्लॉग के 1000 सब्स्क्राइबर हो गये हैं।
हिंदी ब्लोगिंग को प्राणवायु देने के उद्देश्य से चिट्ठाजगत लगातार सक्रिय रहा इस वर्ष भी, किन्तु हिंदी के बहुचर्चित एग्रीगेटर ब्लोगवाणी का अचानक बंद हो जाना इस वर्ष की महत्वपूर्ण घटना है, ब्लोगवाणी के बंद होने के पश्चात हमारीवाणी आयी, जिसका उद्देश्य है हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ तथा विदेशी भाषाओँ में लिखने वाले भारतियों को अपनी आवाज़ रखने के लिए एक उचित मंच उपलब्ध करना तथा भारतीय भाषाओँ तथा लेखन को एक नई सोच के साथ प्रोत्साहित करना, क्योंकि हमारीवाणी का उद्देश्य लेखकों के लिए अपना ब्लॉग संकलक उपलब्ध करना है, तो इसमें सबसे अधिक ध्यान इस बात पर है कि लेखकों की भावनाओं का पूरा ख्याल रखाजाए । इसीवर्ष इन्डली भी आयी और इसने भी भारतीय ब्लॉग को प्रमोट करने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही है । इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे समूह में http://www.feedcluster.com/ के सहयोग से कई छोटे-छोटे एग्रीगेटर भी कार्यरत है जैसे – आज का हस्ताक्षर, परिकल्पना समूह,महिलावाणी, अपनी वाणी, अपनी माटी , लक्ष्य आदि । हलांकि जिस दृढ़ता के साथ ब्लॉग प्रहरी का आगमन हुआ , वह हिंदी ब्लॉगजगत में लंबी रेस का घोड़ा नहीं बन सका ।
वर्ष-२०१० की शुरुआत में जिस ब्लॉग पर मेरी नज़र सबसे पहले ठिठकी वह है शब्द शिखर , जिस पर हरिवंशराय बच्चन का नव-वर्ष बधाई पत्र !! प्रस्तुत किया गया ।हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग का कोई भी लम्‍हा कहीं नहीं गया है। सब स्‍मृतियों में है। ब्‍लॉगिंग के इस ‘ठंडा ठंडा कूल कूल’ को बिल्‍कुल मत भूलें और न किसी को भूलने दें। ब्‍लॉगिंग के झूले में सदा ही झूलें। पोस्‍टों और टिप्‍पणियों के हिंडोले में डोलें। ब्‍लॉग बो लें। पोस्‍टों को सींचें और टिप्‍पणियों को भी मत भींचें। इन तीनों का होना विश्‍वास का प्रतीक है। इसे जीवन में रचने बसने दें।ऐसा बताया की-बोर्ड के खटरागी ने अपने पोस्ट हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग का आने वाला हर पल हर बरस मंगलमय हो (अविनाश वाचस्‍पति)।मुर्दा पीटना बन्द कर कुछ अच्छा सोचें नये साल में… कुछ ऐसा ही कहा सिद्दार्थ शंकर त्रिपाठी ने सत्यार्थ मित्र पर अपने इस पोस्ट में । विगत वर्ष परिकल्पना ब्लॉग विश्लेषण -२००९ में एक महत्वपूर्ण ब्लॉग हिंदी टेक ब्लॉग की चर्चा नहीं की जा सकी थी कारण था वर्ष के आखिरी महीनो में उस ब्लॉग का आना । इसलिए परिकल्पना पर पहली चर्चा मैंने इसी ब्लॉग से शुरू की । इस वर्ष की शुरुआत में ममता टी वी का स्थानान्तरण हो गया गोवा से इटानगर ।
१५ जनवरी को हिंदी टेक ब्लॉग पर एक महत्वपूर्ण जानकारी इंटरनेट पर हिंदी पत्रिकाओं के संबंध में दी गयी ।उल्लास की संभावनायें लेकर आता है नववर्ष । न जाने कितनी शुभाकांक्षायें, स्वप्न, छवियाँ हम सँजोते हैं मन में नये वर्ष के लिये । अनगिन मधु-कटु संघात समोये अन्तस्तल में विगत वर्ष का विहंग उड़ जाता है शून्य-गगन में । हम नये फलक के लिये उत्सुक हो उठते हैं । क्या-क्या चाहते हैं, क्या-क्या सोचते हैं, क्या फरियाद है हमारी हमारे राम से – अपने प्रिय कवि ’कैलाश गौतम’ की रचना से रूबरू कराया हिमांशु ने – “नये साल में रामजी…” । कुछ मेरी कलम से पर रंजना (रंजू भाटिया ) ने कहा ” झूमता हुआ नया साल फिर आया ” । गत्यात्मक ज्योतिष पर संगीता पुरी ने कहा कि वर्ष-२०१० ही क्यों उसके बाद आने बाले वर्ष भी मंगलमय हो ।यदि ब्लॉग पर बसंत की बात की जाए तो सबसे पहले मैं चर्चा करना चाहूंगा घुघूती बासूती का जिन्होंने एक प्यारी सी कविता के माध्यम से यह प्रश्न किया कि क्या यही है बसंत ? । वहीं दफ अतन पर अपूर्व ने एक प्यारा सा गीत प्रस्तुत किया जो पूर्व में हिंद युग्म पर प्रकाशित किया जा चुका है । महाकवि निराला को याद करते हुए परिकल्पना पर शुरू हुआ “बसंतोत्सव ” जिसके अंतर्गत हिंदी के कालजयी साहित्यकारों के साथ- साथ आज के कुछ महत्वपूर्ण कवियों की वसंत पर आधारित कवितायें प्रस्तुत लगभग महीने भर की गयी और फगुनाहट की यह बयार थमी होली की मस्ती के साथ . इसमें कवितायें भी थी , व्यंग्य भी , ग़ज़ल भी , दोहे भी और वसंत की मादकता से सराबोर गीत भी और अंत में फगुनाहट सम्मान की उद्घोषणा । स्वप्न मञ्जूषा “अदा” ने काव्य मंजूषा पर अनोखे अंदाज़ में प्रस्तुत किया ब्लॉग में फाग । ताऊ ने कहा कि मेरा गधा राम प्यारे अभी भी होली की तरंग में है । इसी दौरान संजीव तिवारी ने आरंभ में फगुनाहट सम्मान के अंतर्गत वोटिंग में छत्तीसगढ़ के ब्लोगरों की सहभागिता पर प्रश्न उठाते बहुत सुन्दर पोस्ट लिखा “आभासी दुनिया के दिबाने और भूगोल के परवाने ” । etips blog ने कुछ ब्लॉग जो सचमुच कर रहे है हिंदी और ब्लॉग की सेवा से अवगत कराया ।
जिस प्रकार जीवन के चार आयाम होते हैं उसी प्रकार हिंदी चिट्ठाकारी की भी चार सीढियां है जिससे गुजरकर हिंदी चिट्ठाकारी संपूर्ण होता है ।प्रथम सीढ़ी – भावना ….जिससे दिखती है लक्ष्य की संभावना ,संभावना से प्रष्फुटित होता है विश्वास ,विश्वास से दृढ़ता , दृढ़ता से प्रयास ….!यानी दूसरी सीढ़ी – प्रयास ….प्रयास परिणाम कम शोध है…यह तभी सार्थक है जब कर्त्तव्य बोध है । यानी तीसरी सीढ़ी – कर्त्तव्य….कर्त्तव्य से होता है समन्वय आसान…और यही है उत्तरदायित्व का प्रत्यक्ष प्रमाण । यानी चौथी सीढ़ी है – उत्तरदायित्व…..जिसमें न भय , न भ्रम , न भ्रान्ति होती है…..केवल स्वावलंबन के साथ जीवन में शांति होती है…..तो -
आईये अब आगे बढ़ते हुए वर्ष के कुछ उपयोगी और सार्थक पोस्ट पर नज़र डालते हैं , क्योंकि ब्लॉग लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है अपने सामाजिक सरोकार के प्रति सजग रहना और ब्लोगिंग के माध्यम से दूसरों को उत्प्रेरित करना , ऐसा ही कारनामा कर दिखाया ब्लोगर राजकुमार सोनी ने । राजकुमार सोनी ने अपने ब्लाग बिगुल पर बड़ी बेबाकी से अनाथ आश्रम के बच्चों और संचालक के साथ हुए अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाया , उन्होंने कहा कि “जीवन में पहली बार ऐसे कमीनों से मुलाकात हो रही है जिन्हें देखकर मैं क्या कोई भी यह कहने का मजबूर हो जाएगा कि बस अब इस धरती का अंत निकट है।” वहीँ अनिल पुसदकर ने एक ब्लोगर की हिम्मत और ताक़त से समाज और राजनीति के कथित ठेकेदारों को अवगत कराते हुए अपने ब्लॉग आमिर धरती गरीब लोग पर कहा कि -”थानेदारों को भ्रष्ट कहना आपकी ईमानदारी नही बेबसी का सबूत है गृहमंत्री जी!” वहीं डॉ.कुमारेन्द्र सिंह ने वित्त मंत्री को माफ़ करिए कहते हुए कहा है कि उनकी नादानी को नजर अंदाज किया जाये……
इस वर्ष महिला आरक्षण को लेकर भी बहुत सारे पोस्ट आये, जिसमें से एक है ललित डोट कौम पर ललित शर्मा का यह पोस्ट -गांव बसा नहीं डकैत पहले पहुंचे……..महिला आरक्षण । अपने इस पोस्ट में ललित शर्मा का कहना है कि “अभी अभी ही महिला आरक्षण विधेयक पास हुआ है राज्य सभा से और इसे कानून बनने में कुछ समय और लगेगा ……. लेकिन इसमें मिले महिला आरक्षण अधिकारों पर सेंध लगाने की क्या कहें…….. सीधे सीधे डाका डालने ने मनसूबे बान्धे जाने लगे हैं…… !” इसी दौरान अजित गुप्ता का कोना पर डॉ. श्रीमती अजित गुप्ता के एक संस्मरण पर मेरी नज़र पड़ी , शीर्षक है – ना मेल है और ना ही फिमेल है………!
२४ जनवरी को पंकज मिश्रा ने हिंदी चिट्ठों की चर्चा के क्रम में अत्यंत उपयोगी प्रश्न उठाये कि “मुंबई बम कांड का अपराधी आजकल मराठी भाषा का बहुत प्रयोग कर रहा है ,अदालत के सवाल जवाब मे भी वह मराठी भाषा का प्रयोग करता है..राज साहब ठाकरे तो बहुत खुश होगे कि कोई तो उनकी पीडा समझता है :)न्युज चैनल अखबार समाचार सभी जगह कसाब के इस भाषा प्रयोग का चर्चा हो रहा है और उन खबरिया बाजार मे कोई भी माई का लाल ये पुछने की जुर्रत नही कर रहा है कि ऐसे अपराधी से जेल मे दोस्ती कौन किया है जो उसको मराठी भाषा और सभ्यता सिखा रहा है ..क्या यह एक नेक काम है कि आप जेल के समय मे उस्का टाईम पास कर रहे है भाषा सिखाकर ?
हिंदी ब्लॉग जगत में इस वर्ष कई अजीबो गरीब घटनाएँ हुई , जिसमें से एक ऐसी घटना हुई कि ब्लोगरों को काफी दिनों तक बेनामी टिप्पणियों से संबंधित खतरों पर चर्चा के लिए मजबूर होना पडा । वह घटना थी किसी छद्म नामधारी कुमार जलजला की व्यथित कर देने वाली टिप्पणियों को लेकर । अपनी,उनकी,सबकी बातें पर रश्मि रविजा ने जलजला को एक खुला पत्र लिखा , जिसमें उन्होंने कहा कि -”कोई मिस्टर जलजला एकाध दिन से स्वयम्भू चुनावाधिकारी बनकर.श्रेष्ठ महिला ब्लोगर के लिए, कुछ महिलाओं के नाम प्रस्तावित कर रहें हैं. (उनके द्वारा दिया गया शब्द, उच्चारित करना भी हमें स्वीकार्य नहीं है) पर ये मिस्टर जलजला एक बरसाती बुलबुला से ज्यादा कुछ नहीं हैं, पर हैं तो कोई छद्मनाम धारी ब्लोगर ही ,जिन्हें हम बताना चाहते हैं कि हम इस तरह के किसी चुनाव की सम्भावना से ही इनकार करते हैं।”१७ मई २०१० को छतीसगढ़ के बस्तर में नक्सलियों ने पहली बार यात्री बस को बारुदी सुरंग से उडा दिया। बस मे यात्रियों के साथ कुछ जवान भी सवार थे। इसमें लगभग ५० लोगों की मौत हो गयी ।देश में एक इतनी बड़ी घटना हो गई जिसको सारा मीडिया चीख-चीख कर बता रहा था , किन्तु अपने को मीडिया के समकक्ष समझने वाला ब्लाग जगत में कुछ विशेष खलबली नहीं देखी गयी , फिर भी नक्सली समस्या पर एक आध ब्लॉग जो बोला उसमें पहला नाम आता है डा सत्यजित साहू का जिन्होंने अपने ब्लॉग पोस्ट में कहा कि “मेरे देश में अशांति लानें वालों ,यहाँ की जमीं को खुनी रंग से संगने वालों ,इंसानों की इस बेरहमी से जन लेने वालों ,कातिल ,हत्यारे ,जालिम हो हो तुम , तुम्हारा अंत अब नजदीक ही है ,इस तरह से तुमने जनता और जवानों का क़त्ल किया है ,की क़त्ल ही तुमसे अब अपना हिसाब लेगा ,अवाम की ताकत को तुमने पहचना नहीं है ,इस धरती की नियत को जाना नहीं है ,इस धरती को अब उठकर खड़ा होना होगा, जम्हूरियत को ही अब तुम्हारा हिसाब करना होगा,अपराधियों ,हत्यारे नक्सलियों ,तुम्हारा अंत अब निकट ही है ……! कलम बंद में शशांक शुक्ला ने कहा आखिर नक्सलियों को क्या चाहिए ?सद्भावना दर्पण में गिरीश पंकज ने पूछा किसुन्दर-प्यारे बस्तर में ये हिंसा भरे नज़ारे कब तक ॥? छतीसगढ़ पर उदय ने कहा कौन कहता है कि नस्लवाद एक विचारधारा है ?
२६ जून २०१० को माईकल जैक्सन को याद करते हुए कुमायूनी चिली में शेफाली पाण्डेय ने कहा कि “दुःख से भरा , देखा जब चेहरा ….बोल उठे यमराज …..मत हो विकल , बेटा माईकल ! मरने के बाद , कौन सा दुःख…..सता रहा है तुझको ,सब पता है मुझको …!” संवेदनाओं के पंख पर २६ जून को डा महेश परिमल का एक आलेख आया जिसमें उन्होंने अंदेशा व्यक्त किया कि …हम सब अघोषित आपातकाल की ओर… अब पेट्रोल-डीजल और केरोसीन के दाम बढ़ गए। रसोई गैस भी महँगी हो गई। सरकार ने अपना रंग अब दिखाना शुरू कर दिया है। पहले भी यही कहा जाता रहा है कि कांग्रेस व्यापारियों की सरकार है,इसका गरीबों से कोई लेना-देना नहीं है। महँगाई काँग्रेस शासन में ही बेलगाम हो जाती है। एक तो मानसून आने में देर हो रही है। दूध, बिजली के दाम अभी-अभी बढ़े हैं। उस पर सरकार का यह रवैया, आम आदमी को बुरी तरह से त्रस्त करके रख देगा। २५ जून १९७५ को देश में आपातकाल की घोषणा हुई थी। उसी तारीख को इस बार पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस और केरोसीन के दाम बढ़ाकर सरकार ने हम सबको एक अघोषित आपातकाल की तरफ धकेल दिया हैलोकसंघर्ष-परिकल्पना द्वारा आयोजित ब्लागोत्सव-2010 में वर्ष की श्रेष्ठ नन्ही चिट्ठाकारा का ख़िताब अक्षिता (पाखी) को मिलाने पर आकांक्षा यादव का कहना था कि आजकल के बच्चे हमसे आगे है ।
सृजन ही वह माध्यम है जिससे समाज समृद्ध होता है, किन्तु सृजन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है कार्टून्स । यदि ब्लॉग जगत में सक्रिय कार्टूनिस्टों की बात की जाए तो इस वर्ष लोकसंघर्ष- परिकल्पना ने काजल कुमार को ब्लोगोत्सव-2010 के आधार पर वर्ष के श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट का खिताब दिया । वैसे ब्लॉग जगत में इस वर्ष जिन कार्टूनिस्टो की सार्थक उपस्थिति देखी गयी उसमें से प्रमुख हैं काजल कुमार, इरफ़ान खान,अनुराग चतुर्वेदी , कीर्तिश भट्ट , अजय सक्सेना , कार्टूनिस्ट चंदर , राजेश कुमार दुबे, अभिषेक आदि ।
जब सृजन की बात चली है तो सबसे पहले आपको मैं बता दूं कि वेब पत्रिका तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित, साहित्य, संस्कृति, विचार और भाषा की मासिक पोर्टल सृजनगाथा डॉट कॉम के चार वर्ष पूर्ण होने पर चौंथे सृजनगाथा व्याख्यानमाला का आयोजन ६ जुलाई, को स्थानीय प्रेस क्लब, रायपुर में किया गया था। इसमें कविता के सफ़र पर अच्छी चर्चा हुई । इस अवसर पर संजीत त्रिपाठी का सम्मान सृजनगाथा टीम ने किया।
आईये उन ब्लॉग्स की ओर रुख करते हैं जहां बसती है साहित्य की आत्मा । इस दिशा में पहला ब्लॉग है जाकिर अली रजनीश के हमराही जिसमें उन्होंने अदम गोंडवी की ग़ज़ल प्रकाशित की “सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे, मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है। साधना वैद्य ने कहा – अनगाये रह गए गीत! राजतन्त्र में खुशबू फूलों की…. । सूर्यकान्त गुप्ता के कुछ अटपटे कुछ चटपटे दोहे ,शानू शुक्ला की- कुछ हाइकु कवितायेँ ,बग़ावत के कमल खिलते हैं.. ,गिरीश पंकज का-”गीतालेख”./ अबला गैया हाय तुम्हारी है यह दुखद कहानी.., संजीव तिवारी का – छत्तीसगढ़ की संस्‍कृति से संबंधित महत्‍वपूर्ण लिंक,ई-साहित्‍य और हिन्‍दी ब्‍लॉग : सार्थक अभिव्‍यक्ति का एक झरोखा – ब्‍लॉग जगत पर एक विहंगम दृष्टि वशिनी शर्मा की। अन्तर सोहिल की कविता – आशिकी म्है तेज घनी छोरां सै भी छोरी सैं ,राजकुमार सोनी की – पोस्टर कविताएं,जी.के. अवधिया ने कहा – इक समुन्दर ने आवाज दी मुझको पानी पिला दीजिये………..!
वर्ष-२०१० में सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने वाले ब्लोग्स की सूची में उड़न तश्तरी, ताऊ डाट इन, मानसिक हलचल, लो क सं घ र्ष!, ज्ञान दर्पण, दीपक भारतदीप का चिंतन, दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका, हिन्द-युग्म, ललितडॉटकॉम, Hindi Blog Tips, दीपक भारतदीप की शब्द- पत्रिका, चिट्ठा चर्चा, फुरसतिया, काव्य मंजूषा, शब्दों का सफर, नुक्कड़, उच्चारण, देशनामा, रचनाकार, मेरा पन्ना, ओशो – सिर्फ एक, भड़ास blog, ब्लॉगोत्सव २०१०, परिकल्पना, कस्‍बा, कबाड़खाना, अनवरत, राजतन्त्र, दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका, अमीर धरती गरीब लोग, प्रवक्‍ता, तीसरा खंबा, क्वचिदन्यतोअपि, छींटें और बौछारें, आरंभ, कुछ इधर की कुछ उधर की, दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका, नारी, दीपक भारतदीप की शब्दलेख सारथी-पत्रिका, मेरी शेखावाटी,मेरी दुनिया मेरे सपने,सारथी हिन्दी चिट्ठा, आम जन, अदालत, अग्निमन, Vyom ke Paar…व्योम के पार, अमृता प्रीतम की याद में…..,TSALIIM,चर्चा हिन्दी चिट्ठों की !!!,अनसुनी आवाज,अर्पित ‘सुमन’,स्व प्न रं जि ता,चक्रधर की चकल्लस,अविनाश वाचस्पति,अज़दक,जिंदगी : जियो हर पल, उन्मुक्त,चोखेर बाली,महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar),ब्लॉग मदद,आरंभ Aarambha,चिट्ठे सम्बंधित कार्टून,ब्लाग चर्चा “मुन्ना भाई” की,ITNI SI BAAT,चैतन्य का कोना,डॉ. चन्द्रकुमार जैन,चराग़े-दिल,चर्चा पान की दुकान पर,वटवृक्ष,क्रिएटिव मंच-Creative Manch,Hindi Tech Blog,दालान,दाल रोटी चावल,डाकिया डाक लाया,मानवीय सरोकार,Darvaar दरबार,DHAI AKHAR ढाई आखर,एक हिंदुस्तानी की डायरी,स्वप्नलोक,संवेदनाओं के पंख,आइये करें गपशप,एक लोहार की, ghaur bati,गत्‍यात्‍मक चिंतन,पाल ले इक रोग नादां…,गीत कलश,ग़ज़लों के खिलते गुलाब,घुघूतीबासूती,एक आलसी का चिठ्ठा,सद्भावना दर्पण,हँसते रहो Hanste Raho,आदिवासी जगत,हाशिया,”हिन्दी भारत”,Hasya Kavi Albela Khatri,HIndi Jokes,हा र मो नि य म,इंडियन बाइस्कोप,साईब्लाग [sciblog],ब्लॉगरों के जनमदिन,janshabd,झा जी कहिन,Kajal Kumar’s Cartoons काजल कुमार के कार्टून,कल्पनाओं का वृक्ष,कोसी खबर..,खेत खलियान KHET KHALIYAN,सुदर्शन,मेरी रचनाएँ ,मेरी भावनायें…,Lucknow Bloggers’ Association लख़नऊ ब्‍लॉगर्स असोसिएशन,महाशक्ति,मंथन,महावीर,स म य च क्र,प्रत्येक वाणी में महाकाव्य…,मैत्री,mamta t .v.,मनोरमा,मसिजीवी,खिलौने वाला घर,mehek,परवाज़…..शब्दों के पंख,नीरज,निरन्तर,मौन के खाली घर में… ओम आर्य,******दिशाएं******,…पारूल…चाँद पुखराज का……,गुलाबी कोंपलें,पिताजी,An Indian in Pittsburgh – पिट्सबर्ग में एक भारतीय,चाँद, बादल और शाम,पुण्य प्रसून बाजपेयी,प्रत्यक्षा,प्राइमरी का मास्टर,” अर्श “,रेडियोनामा,रेडियो वाणी,सफर – राजीव रंजन प्रसाद,अनुभूति कलश,सच्चा शरणम्,कुछ मेरी कलम से kuch meri kalam se **,,…,रेखा की दुनिया,आशियाना,इक शायर अंजाना सा…,शब्द सभागार,समाजवादी जनपरिषद,जिंदगी के रंग,Science Bloggers’ Association,शब्द-शब्द अनमोल,शस्वरं,पास पड़ोस,सुबीर संवाद सेवा,बावरा मन,कार्टून धमाका…!,सुर-पेटी,तीखी नज़र,तेताला,ठुमरी,टूटी हुई बिखरी हुई,मेरी कलम से,वीर बहुटी,विज्ञान» चर्चा,लावण्यम्` ~अन्तर्मन्`,जोगलिखी:संजयबेंगाणीकाहिन्दी ब्लॉग,TheNetPress.Com,व्यंग्यलोक,ना जादू ना टोना, युग-विमर्श (YUG -VIMARSH), गत्यात्मक ज्योतिष, ब्लॉग परिक्रमा आदि !
इसमें से कुछ ब्लॉग ऐसे हैं जो वर्ष-२०१० में आये हैं किन्तु इससे जुड़े हुए मूल ब्लॉग की चर्चा वर्ष-२००९ में की जा चुकी है और विस्तार के अंतर्गत उन्हें विषय से जुड़े अन्य ब्लॉग इस वर्ष लाने पड़े, ऐसे ब्लॉग की संख्या एक दर्जन के आसपास है ।
इन्टरनेट पर उपलब्ध हिंदी पत्रिकाओ में अनुभूति,अभिव्यक्ति,प्रवक्‍ता समाचार-विचार वेबपोर्टल,पाखी हिंदी पत्रिका,अरगला इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका,तरकश – हिन्दी का लोकप्रिय पोर्टल,एलेक्ट्रॉनिकी -एलेक्ट्रॉनिक्स, कम्प्यूटर, विज्ञान एवं नयी तकनीक की मासिक पत्रिका,सृजनगाथा- साहित्य, संस्कृति और भाषा की मासिक ,अनुरोध : भारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठापन का अनुरोध,ताप्तीलोक, कैफे हिन्दी, हंस – हिन्दी कथा मासिक,अक्षय जीवन – आरोग्य मासिक पत्रिका,अक्षर पर्व – साहित्यिक वैचारिक मासिक,पर्यावरण डाइजेस्ट – पर्यावरण चेतना का हिन्दी मासिक,ड्रीम २०४७ – विज्ञान प्रसार की मासिक पत्रिका (पीडीएफ),गर्भनाल ( प्रकाशक : श्री आत्माराम शर्मा ),मीडिया विमर्श,वागर्थ : साहित्य और संस्कृति का समग्र मासिक,काव्यालय,कलायन पत्रिका,निरन्तर – अब सामयिकी जालपत्रिका में समाहित,भारत दर्शन – न्यूजीलैण्ड से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका,सरस्वती (कनाडा से),अन्यथा – magazine of Friends from India in America,परिचय – सायप्रस से अप्रवासी भारतीयों की हिन्दी पत्रिका,Hindi Nest dot Com, तद्भव, उद्गम : हिन्दी की साहित्यिक मासिका,कृत्या : कविताओं की पत्रिका, Attahaas : हास्य पत्रिका, रंगवार्ता : विविध कलारुपों का मासिक,क्षितिज – त्रैमासिक हिन्दी साहित्यिक पत्रिका,इन्द्रधनुष इण्डिया : साहित्य और प्रकृति को समर्पित,सार-संसार : विदेशी भाषाओं से सीधे हिंदी में अनूदित साहित्य की त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका,लेखनी – हिन्दी और अंग्रेजी की मासिक जाल-पत्रिका,मधुमती – राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका,साहित्य वैभव – संघर्षशील रचनाकारों का राष्ट्रीय प्रतिनिधि,विश्वा,सनातन प्रभात,हम समवेत,वाङ्मय – त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका,समाज विकास – अखिल भारतीय मारवाडी सम्मेलन की पत्रिका,गृह सहेली,साहित्य कुंज – पाक्षिक पत्रिका,लोकमंच,उर्वशी – सहित्य और शोध के लिये समर्पित़ डा०राजेश श्रीवास्तव शम्बर द्वारा सम्पादित वेब पत्रिका प्रतिमाह प्रकाशित,संस्कृति – सांस्कृतिक विचारों की प्रतिनिधि अर्द्धवार्षिक पत्रिका, प्रेरणा , जनतंत्र , समयांतर , में केवल साहित्य कुञ्ज वर्ष -२०१० में अनियमित रही , शेष सभी पत्रिकाओं ने अपनी सक्रियता को बनाए रखा ।
वर्ष-२०१० में ब्लॉग पर हिंदी में कई विषयों पर सामग्री उपलब्ध कतिपय ब्लॉग द्वारा उपलब्ध कराई गयी । यह देखकर संतोष हुआ कि ब्लॉग साहित्य को नकारने वाले कुछ लोग ब्लॉग पर लगभग प्रत्येक विधा का साहित्य उपलब्ध कराने की दिशा में सक्रिय रहे । कविता व कहानी के साथ-साथ तत्कालीन साहित्यिक जानकारी लगातार परोसी गयी । आज भले ही हिंदी साहित्य ब्लॉग पर अपनी शैशवास्था में हो पर आने वाला समय निश्चित रूप से उसी का है, ऐसा मेरा मानना है ।
आज भले ही हिंदी के साहित्यकारों की पहुंच ब्लॉगों पर लगभग १० प्रतिशत के आसपास ही है। लेकिन इंटरनेट उपयोगकर्त्ताओं की बढ़ती संख्या आस्वस्त करती है कि हिंदी का दायरा अब देश की सीमाएं लांघकर दुनिया भर में अपनी पैठ बना रहा है । अनेक सामूहिक ब्लॉग साहित्यकारों-लेखकों को एक दूसरे के क़रीब ला रहा हैं। फलत: उन्हें एक दूसरे के द्वारा किए गए लेखन के संबंध में जानकारी मिलती है।
साहित्यकारों /संस्कृतिकर्मियों की विश्राम स्थली के रूप में विख्यात इन वेब पत्रिकाओं के अतिरिक्त कुछ ऐसे ब्लॉग हैं जो हिंदी साहित्य को समृद्ध करने और साहित्यिक कृतियों को प्रकाशित करने की दिशा में सक्रिय रहे इस वर्ष । इस वर्ष ब्लॉग पत्रिकाओं के रूप में अपनी पहचान और स्तरीयता बनाए रखने में जो ब्लॉग सफल रहा उसमें पहला नाम आता है हिंद युग्म का । हिंद युग्म एक तरह से हिंदी ब्लोगिंग में साहित्य को प्रतिष्ठापित करने की दिशा में क्रान्ति का प्रतीक है , दूसरा नाम आता है -रचनाकार का , उसके बाद साहित्य शिल्पी और फिर विचार मीमांशा , नारी का कविता ब्लॉग, नारी ,हिंदी साहित्य मंच,हिंदी साहित्य,हिंदी साहित्य,साहित्य ,साहित्य वैभव ,मोहल्ला लाईव, साखी,वटवृक्ष, सृजन (सुरेश यादव ), वाटिका, मंथन, महावीर, शब्द सभागार, राजभाषा, लोकसंघर्ष पत्रिका, राजभाषा हिंदी , गवाक्ष, काव्य कल्पना, ब्लोगोत्सव-२०१०, साहित्यांजलि, कुछ मेरी कलम से ,चोखेर वाली, नवोत्पल ,युवा मन , सुबीर संवाद सेवा, अपनी हिंदी , हथकढ , हिंदी कुञ्ज , पढ़ते पढ़ते , तनहा फलक, आवाज़ , नयी बात, कबाडखाना , कारवां , सोचालय, पुरवाई ,एक शाम मेरे नाम ,साहित्य सेतु कबीरा खडा बाज़ार में आदि ।
कुछ ऐसे व्यक्तिगत ब्लॉग जो ब्लोगरों की निजिगत रचंनाओं से भरे है, किन्तु उनकी सृजनधर्मिता का कायल है हिंदी ब्लॉगजगत । वर्ष-२०१० में जिन व्यक्तिगत ब्लॉग पर सृजनधर्मिता काफी देखी गयी उसमें प्रमुख है – उड़न तश्तरी,फुरसतिया, सद्भावना दर्पण, आखर कलश,…..मेरी भावनाएं, काव्य मंजूषा, यमुनानगर हलचल, कुछ कहानियां कुछ नज्में, विचार , गीत…मेरी अनुभूतियाँ , बिखरे मोती, स्पंदन, खिलौने वाला घर , एक सवाल तुम करो, नन्हा मन, कविता, नज्मों की सौगात, ठाले बैठे , वीर बहुटी , अनुशील,शब्द शिखर, उत्सव के रंग , बाल दुनिया , काव्य कल्पना, अफरा-तफरीह, जख्म जो फूलों ने दिए , एक प्रयास, ज़िन्दगी एक खामोश सफ़र , स्वप्न मेरे , देखिये एक नज़र इधर भी , कविता रावत ,कुछ मेरी कलम से, अमृता प्रीतम की याद में ,सदा ,ज्ञान वाणी ,गीत मेरे ,दो बातें एक एहसास की ,न दैन्यं न पलायनम , मिसफिट सीधी बात ,दिशाएँ ,अर्पित सुमन, बाबरा मन , कोना एक रुबाई का ,सत्यार्थ मित्र,संवाद ,पारुल चाँद पुखराज का,हिंदी भारत , ज़िन्दगी कि आरज़ू , मसि कागद ,मेरे विचारों की दुनिया..श्याम स्म्रिति( The world of my thoughts,shyamsmrtiie modern manusmriti…), हमराही , गुस्ताख ,आदि ।
अब तक यही कहा जाता रहा है कि ब्लॉग पर प्रकाशन की स्वतन्त्रता के कारण जो साहित्य परोसा जा रहा है वह स्तरीयता और प्रभाव के दृष्टिगत मानक के बिपरीत है , किन्तु इस वर्ष कुछ ब्लोगरों ने उस मिथक को तोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है, जिसमें प्रमुख हैं – अशोक चक्रधर,रवि रतलामी,समीर लाल समीर,गिरीश पंकज,हिमांशु कंबोज,रश्मि प्रभा,डा कविता वाचकनवी,निर्मला कपिला,रश्मि रविजा,रन्जू भाटिया,शिखा वार्ष्णेय,महफूज़ अली,गिरीश बिल्लोरे ‘मुकुल’,जय प्रकाश मानस,अविनाश वाचस्पति,अनूप शुक्ल,अलवेला खत्री,जाकिर अली रजनीश,डा श्याम गुप्त,स्वप्न मंजूषा अदा,शरद कोकाश,डा ऋषभ देव शर्मा,अनिता कुमार ,डा अजीत गुप्ता,प्रेम जनमेजय,जगदीश्वर चतुर्वेदी,दिविक रमेश,खुशदीप सहगल ,राम त्यागी,अनुराग शर्मा,महावीर शर्मा,सुभाष नीरव,रवीन्द्र प्रभात,बसंत आर्य ,ओम आर्य,राजेन्द्र स्वर्णकार,प्रमोद सिंह ,दीपक मशाल,अविनाश,सुदर्शन,डॉ. टी एस दराल,महेन्द्र वर्मा,बबली ,कविता रावत ,सुज्ञ ,देवेन्द्र पाण्डे ,संजीव तिवारी ,महेंद्र मिश्र,वाणी गीत ,परमजीत सिंह बाली ,डॉ. मोनिका शर्मा ,प्रवीण त्रिवेदी ,रावेन्द्र कुमार रवि ,इस्मत ज़ैदी ,पारुल पुखराज ,ज्योति सिंह ,पूनम श्रीवास्तव,संगीता स्वरूप ,वन्दना,शाहिद मिर्ज़ा,शोभना चौरे,राहुल सिंह ,श्री पी सी गोदियाल ,अशोक कुमार पाण्डेय,मीनू खरे,हेमंत कुमार ,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी,विनीता यशस्वी ,मिता दास ,लावण्या शाह ,पंकज नारायण ,कुलवंत हैप्पी,कुसुम कुसुमेश,राजेश उत्साही,दिगम्बर नासवा,वन्दना अवस्थी दुबे,ZEAL,प्रज्ञा पाण्डेय ,आशा जोगलेकर ,आकांक्षा यादव ,ललित शर्मा,के के यादव,मनोज कुमार ,लक्ष्मी शंकर बाजपाई,शेफालिका वर्मा,मिता दास,जयकृष्ण राय तुषार,दीपक बाबा,अर्पिता ,सदा ,डॉ. अनुराग ,अनिल कांत , झरोखा ,उपेन्द्र ,महेन्द्र वर्मा ,प्रवीण पाण्डेय ,प्रवीण शाह,सुशीला पुरी,संजय भास्कर ,राजेश्वर वशिष्ठ ,डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ,अभिषेक ओझा,सुनील गज्जाणी,राजेश्वर वशिष्ठ ,अशोक बजाज,अमिताभ श्रीवास्तव,रानी विशाल,डॉ. दिव्या,अमिताभ मीत,अनामिका की सदायें ,अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी,राजेश उत्साही ,डॉ. दिव्या ,डॉ. मोनिका शर्मा,रचना दीक्षित ,इस्मत ज़ैदी ,सूर्यकांत गुप्ता ,प्रवीण त्रिवेदी ,गिरिजा कुलश्रेष्ठ ,अशोक बजाज ,नूतन नीति,अराधना चतुर्वेदी मुक्ति,वन्दना गुप्ता,मुकेश कुमार सिन्हा,ज्योत्सना पाण्डेय,डा सुभाष राय,सरस्वती प्रसाद,सुमन मीत,खतेलू,अपर्णा,रेखा श्रीवास्तव,विजय कुमार सपत्ति, अपराजिता कल्याणी ,साधना वैद,राजीव कुमार,शेफाली पाण्डेय,नीलम पुरी,अख्तर खान अकेला,संगीता स्वरुप,खुशबू प्रियदर्शनी ,प्रिया चित्रांसी ,नरेन्द्र व्यास नरेन्,राज कुमार शर्मा राजेश,किशोर कुमार खोरेन्द्र,पंकज उपाध्याय,सत्य प्रकाश पाण्डेय,राम पति, एम वर्मा,आलोक खरे,सुमन सिन्हा,नीलम प्रभा,सुधा भार्गव,प्रीति भाटिया,जेन्नी शबनम,अरुण सी राय,प्रतीक माहेश्वरी,डोरोथी,शेखर सुमन,अविनाश चन्द्र,अनिता निहलानी,मुदिता गर्ग,अंजना (गुडिया ),पूजा,अशोक बजाज,क्षितिजा,सीमा सिंघल,अनुपम कर्ण,दीप्ती शर्मा,बबिता अस्थाना,हरिहर झा,अनुपमा पाठक,अर्चना वर्मा,अर्चना देशपांडे,तौशिफ हिन्दुस्तानी,शिशुपाल प्रजापति,अनवारुल हसन,डा आदित्य कुमार,डा मान्धाता सिंह,एजाजुल हक़,जावेद ए जाफ्हरी,गुफरान मोहम्मद,ज्योति वर्मा,फिरदौस खान,लोकेन्द्र,रचना त्रिपाठी,प्रबल प्रताप सिंह,संतोष कुमार प्यासा,सर्बत एम जमाल,सुधीर गुप्ता चक्र,अरविन्द कुमार शर्मा,अशोक मेहता,अताउर रहमान,आवेश,वेद व्यथित,गोपाल जी श्रीवास्तव,डा निरुपमा वर्मा,पवन मेराज,प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) ,रजनीश राज,राकेश पाण्डेय,आचार्य संजीव वर्मा सलिल,सिद्धार्थ कलहंस,सचिन अग्रवाल,उमेश मिश्र,विकास कुमार,अपर्णा बाजपाई,डा अयाज़ अहमद,डी पी मिश्रा,असलम कासमी,हरीश सिंह, एजाज़ अहमद इद्रिशी,घनश्याम मौर्या,हिमांशु पन्त,दुर्गेश कुमार,डा अज़मल खान,आनंद पाण्डेय,विनोद परासर,प्रकाश पाखी,अंबरीश श्रीवास्तव,अंकुर कुमार अश्क,डा कृष्ण मित्तल,दर्शन लाल बबेजा,वीणा,डा अनवर जमाल,अरुणेश मिश्र,मनीष मिश्र,रेखा सिन्हा,शाजिद,सह्वेज मल्लिक,शिवम् मिश्रा,शाहनवाज़,शेषनाथ पाण्डेय,नीरज गोस्वामी,गौतम राजरिशी,पंकज सुबीर,रवि कान्त पाण्डेय,प्रकाश सिंह अर्श,संगीता सेठी,शमा कश्यप,डा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर,विनोद कुमार पाण्डेय,राम शिव मूर्ति यादव,अमित कुमार,प्रवीण पथिक,शोभना चौधरी शुभी,विनय प्रजापति नज़र,हर्षवर्द्धन,अशोक कुमार मिश्र,डा महेश सिन्हा,संजीत त्रिपाठी,प्रियरंजन पालीवाल,जी के अवधिया,इंदु पुरी,विवेक रस्तोगी,रूप सिंह चंदेल,अशोक कुमार पाण्डेय ,देवेन्द्र प्रकाश मिश्रा,चिराग जैन,राकेश खंडेलवाल,सोनल रस्तोगी,संजीव तिवारी,विवेकानंद पांडे,यशवंत मेहता यश,श्यामल सुमन, पवन चन्दन,दीपक शुक्ल,अजित कुमार मिश्र,सुरेश यादव,अमित केशरी,राज कुमार ग्वालानी,पंडित डी के शर्मा बत्स, पंकज मिश्र,मसिजीवी,संगीतापुरी,उदय,एस एम मासूम,विवेक सिंह ,प्रकाश गोविन्द,माधव,दीपक भारतदीप,शैलेश भारतवासी,रतन सिंह शेखाबत,कुंवर कुशुमेश,प्रभातरंजन,अरविन्द श्रीवास्तव,अक्षिता पाखी,प्रताप सहगल,प्रमोद तांबट,योगेन्द्र मौदगिल, डा आशुतोष शुक्ल,एच पी शर्मा,अजित राय,हिमांशु,चंडी दत्त शुक्ल,सिद्दार्थ जोशी,संगीता मनराल,राजीव तनेजा,पद्म सिंह,उपदेश सक्सेना,नरेश सिंह राठौड़,गगन शर्मा,कनिष्क कश्यप,विजय तिवारी किसलय,ब्रिज मोहन श्रीवास्तव,मानव मेहता,राजीव रंजन प्रसाद (साहित्य शिल्पी ),त्रिपुरारी कुमार शर्मा,रोहिताश कुमार,शेखर कुमावत,जितमोहन झा ,बृज शर्मा,अंकुर गुप्ता ,चन्द्रकुमार सोनी,पवनकुमार अरविन्द,जयराम विप्लव,अमरज्योति,अमलेंदु उपाध्याय,विनीत कुमार, शिरीष खरे,इष्ट देव संकृत्यायन,शिव नारायण,श्रुति,सुशील वकलिबास आदि ।
जहां तक मुद्दों की बात है, इस वर्ष प्रमुखता के साथ छ: मुद्दे छाये रहे हिंदी ब्लॉगजगत में । पहला बिभूती नारायण राय के बक्तव्य पर उत्पन्न विवाद, दूसरा नक्सली आतंक,तीसरा मंहगाई,चौथा अयोध्या मामले पर कोर्ट का फैसला,पांचवां कॉमनवेल्थ गेम में भ्रष्टाचार और छठा बराक ओबामा की भारत यात्रा ।इन्हीं छ: मुद्दों के ईर्द-गिर्द घूमता रहा हिंदी ब्लॉगजगत पूरे वर्ष भर ।
साझा संवाद, साझी विरासत, साझी धरोहर, साझा मंच आप जो मान लीजिये हिंदी ब्लॉग जगत की एक कैफियत यह भी है । विगत कड़ियों में आपने अवश्य ही महसूस किया होगा कि हम इस विश्लेषण के माध्यम से यही बातें पूरी दृढ़ता के साथ आपसे साझा करते आ रहे हैं , कुछ यादों, कुछ इबारतों और कुछ तस्वीरों के मार्फ़त ।
जिक्र करना चाहूंगा एक ऐसे परिवार का जो पद-प्रतिष्ठा-प्रशंसा और प्रसिद्धि में काफी आगे होते हुए भी हिंदी ब्लोगिंग में सार्थक हस्तक्षेप रखता है । साहित्य को समर्पित व्यक्तिगत ब्लॉग के क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम उभरकर सामने आया है वह शब्द सृजन की ओर , जिसके संचालक है इस परिवार के मुखिया के के यादव । ये जून -२००८ से सक्रिय ब्लोगिंग से जुड़े हैं । इनका एक और ब्लॉग है डाकिया डाक लाया । यह ब्लॉग विषय आधारित है तथा डाक विभाग के अनेकानेक सुखद संस्मरणों से जुडा है ।
आकांक्षा यादव इनकी धर्मपत्नी है और ये हिंदी के चार प्रमुख क्रमश: शब्द शिखर, उत्सव के रंग, सप्तरंगी प्रेम और बाल दुनिया ब्लॉग की संचालिका हैं और इनकी एक नन्ही बिटिया है जिसे पूरा ब्लॉग जगत अक्षिता पाखी (ब्लॉग : पाखी की दुनिया ) के नाम से जानता है, इस वर्ष के श्रेष्ठ नन्हा ब्लोगर का अलंकरण पा चुकी है , चुलबुली और प्यारी सी इस ब्लोगर को कोटिश: शुभकामनाएं !
इनसे जुड़े हुए दो नाम और है एक राम शिवमूर्ति यादव और दूसरा नाम अमित कुमार यादव , जिन्होनें वर्ष -२०१० में अपनी सार्थक और सकारात्मक गतिविधियों से हिंदी ब्लॉगजगत का ध्यान खींचने में सफल रहे हैं । ये एक सामूहिक ब्लॉग भी संचालित करते हैं जिसका नाम है युवा जगत । यह ब्लॉग दिसंबर-२००८ में शुरू हुआ और इसके प्रमुख सदस्य हैं अमित कुमार यादव, कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, रश्मि प्रभा, रजनीश परिहार, राज यादव, शरद कुमार, निर्मेश, रत्नेश कुमार मौर्या, सियाराम भारती, राघवेन्द्र बाजपेयी आदि ।
जनबरी-२००८ से सक्रिय ब्लॉगिंग में आये राम कुमार त्यागी इस वर्ष अचानक शीर्ष रचनात्मक फलक पर दिखाई दिए । उन्होंने अपने कतिपय आलेखों से हिंदी ब्लॉगजगत को आत्म केन्द्रित करवाने में सफलता पायी । इस वर्ष उन्हें लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान से भी नवाज़ा गया । इनका प्रंमुख ब्लॉग है कविता संग्रह । इनका कहना है कि “इस साल हिन्दी ब्लोगिंग में थोडा सक्रीय हुआ तो बहुत सारे दोस्त बने, कई पाठक भी मिले और कई पुरुष्कार भी ! हिन्दी ब्लॉग्गिंग के हिसाब से ये मेरे लिए काफी उपलब्धि वाला वर्ष रहा !एक छोटा सा लेख अपने पिता के महान और प्रेरणादायी कार्यक्रमों के बारे में भी लिखा और जिस हिसाब से मित्रों ने मुझे अपना स्नेह दिखाया उससे यह जरूर सिद्ध हुआ कि हिन्दी ब्लॉग्गिंग लेखन के साथ साथ एक परिवार का वातावरण भी प्रदान कराती है !” इनका मुख्य ब्लॉग है -मेरी आवाज़ ।
इस क्रम के अगले ब्लॉगर हैं सितंबर-२००९ से सक्रिय मनोज कुमार , जो कोलकाता स्थित रक्षा मंत्रालय में कार्यरत हैं ।वेहद प्रखर चिट्ठा चर्चा कार , यशस्वी ब्लोगर और हिंदी के अनुरागी मनोज कुमार का प्रमुख ब्लॉग है – मनोज , इस ब्लॉग पर वर्ष-२०१० में फुर्सत में…बूट पोलिश काफी चर्चित रहा । ये एक सामूहिक ब्लॉग से भी जुड़े हैं जिसका नाम है राज भाषा , इसके प्रमुख सदस्यों में मनोज कुमार, संगीता स्वरूप, रेखा श्रीवास्तव, अरुण चन्द्र राय, संतोष गुप्ता, परशुराम राय, करण समस्ती पुरी, हरीश प्रकाश गुप्तआदि हैं ।
०१ सितंबर -२००९ से हिंदी ब्लॉगिंग में आये नए और प्रतिभाशाली ब्लोगर मानव मेहता ने इस वर्ष अपनी प्रतिभा और योग्यता के बल पर अपनी एक अलग पहचान बनायी ।
दिसंबर-२००८ से सक्रिय त्रिपुरारी कुमार शर्मा ने भी इस वर्ष हिंदी ब्लोगिंग में पाठकों को आकर्षित किया । इस वर्ष के प्रारंभ में यानी १६ जनवरी को एक प्रखर ब्लोगर और कवियित्री का आगमन हुआ , नाम है सुमन कपूर यानी सुमन मीत । ये पूरे वर्ष भर अपनी सुन्दर और भावपूर्ण रचनाओं से हिंदी ब्लॉगजगत को अभिसिंचित करती रही । मई-२०१० से इन्होनें दूसरा ब्लॉग भी शुरू किया जिसका नाम है अर्पित सुमन । इसी वर्ष मार्च महीने में एक और ब्लोगर ने अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई जिसका नाम है शेखर कुमावत ।
मई-२००७ से सक्रिय ब्लोगिंग में कार्यरत वन्दना भी इस वर्ष काफी लोकप्रिय रही , इनके तीन ब्लॉग क्रमश: ज़िन्दगी एक खामोश सफ़र , एक प्रयास और ज़ख्म जो फूलों ने दिए हैं । इस वर्ष की अपनी गतिविधियों के बारे में इनका कहना है कि “सिर्फ इतनी कि आज काफी ब्लोगर्स जानने लगे हैं कि वन्दना नाम की ब्लोगर भी इस जाल जगत के महासागर की छोटी सी बूँद है ………..इस साल गूगल प्रतियोगिता “है बातों में दम ” में भाग लिया था और एक आलेख “राष्ट्रमंडल खेलों का असर ?” पर पुरस्कार स्वरुप टी-शर्ट प्राप्त हुई थी गूगल की तरफ से ………….बाकी सप्तरंगी प्रेम , वटवृक्ष,काव्यलोक जैसे ब्लोग्स पर मेरी रचनायें प्रकाशित होती रहती हैं और अभी इ-पत्रिका गर्भनाल पर कुछ रचनायें भेजी हैं जो अगले महीने के अंक में प्रकाशित होंगी ।”
इस क्रम में एक और प्रमुख नाम है विजय कुमार सपत्ति , जो वर्ष-२००८ से सक्रिय ब्लोगिंग में हैं । इनका प्रमुख ब्लॉग है ख़्वाबों के दामन में , कविताओं के मन से ,आर्ट बाई विजय कुमार सपत्ति , भारतीय कॉमिक्स , अंतर्यात्रा , हृदयम आदि है ।
अप्रैल -२००९ से सक्रिय शीखा वार्ष्णेय ने भी इस वर्ष अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रही है । वर्ष-२०१० में इन्हें दो प्रमुख सम्मान क्रमश: लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान-२०१० तथा वैशाखनंदन कांस्य सम्मान-२०१० से नवाज़ा गया ।
“… मन के भावों को कैसे सब तक पहुँचाऊँ कुछ लिखूं या फिर कुछ गाऊँ । चिंतन हो जब किसी बात पर और मन में मंथन चलता हो उन भावों को लिख कर मैं शब्दों में तिरोहित कर जाऊं । सोच – विचारों की शक्ति जब कुछ उथल -पुथल सा करती हो उन भावों को गढ़ कर मैं अपनी बात सुना जाऊँ जो दिखता है आस – पास मन उससे उद्वेलित होता है उन भावों को साक्ष्य रूप दे मैं कविता सी कह जाऊं….!” ऐसे कोमल शब्दों के साथ हिंदी ब्लॉगजगत की सतत सेवा करने वाली संगीता स्वरुप गीत भी इस वर्ष काफी चर्चा में रही । उन्हें इस वर्ष श्रेष्ठ टिप्पणीकार का ब्लोगोत्सव-२०१० के अंतर्गत परिकल्पना सम्मान -२०१० से और शारदा साहित्य मंच खटीमा (उद्धम सिंह नगर ) का साहित्य श्री सम्मान से नवाज़ा गया । इस वर्ष इनका पोस्ट सच बताना गांधारी काफी चर्चित रहा ।
वर्ष-२००७ से सक्रिय परमजीत वाली भी इस वर्ष कुछ महत्वपूर्ण और सार्थक पोस्टों के कारण चर्चा में रहे । २१ सितंबर २००८ से सक्रिय रेखा श्रीवास्तव इस वर्ष के सर्वाधिक सक्रिय ब्लोगरों में से एक रही हैं । इस वर्ष उनका पोस्ट किसी की आंख के आंसू , अदम्य इच्छाएं सीधी है अपराध की , दाम्पत्य जीवन में दरार और ग्रंथियां , जाऊं तो जाऊं कहाँ और संस्कारों का ढोंग काफी चर्चित रहा ।
सर्वाधिक चर्चित ब्लोगरों की श्रेणी में एक और नाम इस वर्ष प्रमुखता के साथ आया लोकसंघर्ष सुमन , जो १५ मार्च-२००९ से हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय हैं , किन्तु ब्लोगोत्सव-२०१० के साथ ये अचानक चर्चा में आये । ये पूरे वर्ष भर चिट्ठाजगत की सक्रियता सूची में चौथे- पांचवें स्थान पर बने रहे । इस वर्ष इनका पोस्ट गिरगिट भी शरमा जाता है काफी लोकप्रिय रहा ।
२३ सितंबर २००९ से हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय चन्द्र कुमार सोनी की भी पोस्ट की इस वर्ष काफी चर्चा हुई । अगस्त-२००८ से हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय पवन कुमार अरविन्द भी इस वर्ष चर्चा में रहे । इस वर्ष इनका पोस्ट अयोध्या फैसले के निहितार्थ काफी चर्चा में रहा । इस वर्ष अपनी दृढ़ता और साफगोई से रचनात्मक फलक पर प्रमुखता के साथ स्थान बनाने वाली महिला ब्लोगरों में एक नाम डा दिव्या श्रीवास्तव (ZEAL) का आता है , जिनका आगमन वर्ष -२०१० के उत्तरार्द्ध में हुआ है , किन्तु लगभग ९० के आसपास पोस्ट के माध्यम से हिंदी ब्लोगिंग में इन्होने धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है ।
इस वर्ष एक आश्चर्यजनक पहलू और दिखाई दिया कि पुरुष ब्लोगरों की तुलना में महिला ब्लोगर ज्यादा दृढ़ता के साथ हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय रही । यथा घुघूती बासूती, प्रत्यक्षा , नीलिमा, बेजी, संगीता पुरी, लवली, पल्लवी त्रिवेदी, अदा, सीमा गुप्ता, निशामधुलिका, लावण्या, कविता वाचक्नवी, अनीता कुमार, pratibhaa, mamta, रंजना [रंजू भाटिया ], Geetika gupta, वर्षा, डॉ मंजुलता सिंह, डा.मीना अग्रवाल,Richa,neelima sukhija arora, फ़िरदौस ख़ान, Padma Srivastava, neelima garg, Manvinder, MAYA, रेखा श्रीवास्तव, स्वप्नदर्शी, KAVITA RAWAT, सुनीता शानू , शायदा, Gyaana-Alka Madhusoodan Patel, rashmi ravija, अनुजा, अराधना चतुर्वेदी मुक्ति ,तृप्ति इन्द्रनील , सुमन मीत , साधना वैद , सुमन जिंदल, Akanksha Yadav ~ आकांक्षा यादव, उन्मुक्ति, मीनाक्षी, आर. अनुराधा, रश्मि प्रभा, संगीता स्वरुप, सुशीला पुरी, मीनू खरे,नीलम प्रभा , शमा कश्यप, अलका सर्वत मिश्र, मनीषा, रजिया राज, शेफाली पाण्डेय, शीखा वार्ष्णेय, अनामिका, अपनत्व, रानी विशाल, निर्मला कपिला, प्रिया,संध्या गुप्ता, वन्दना गुप्ता , रानी नायर मल्होत्रा, सारिका सक्सेना, पूनम अग्रवाल , उत्तमा, Meenakshi Kandwal, वन्दना अवस्थी दुबे, Deepa, रचना, Dr. Smt. ajit gupta, रंजना, गरिमा, मोनिका गुप्ता, दीपिका कुमारी, शोभना चौरे, अल्पना वर्मा, निर्मला कपिला, वाणीगीत, विनीता यशश्वी, भारती मयंक, महक, उर्मी चक्रवर्ती बबली , सेहर, शेफ़ाली पांडे, प्रेमलता पांडे, पूजा उपाध्याय,कंचन सिंह चौहान, संध्या गुप्ता , सोनल रस्तोगी, हरकीरत हीर, कविता किरण , अर्चना चाव , जेन्नी शबनम , ZEAL” वन्दना, mala , ρяєєтι , Asha , Neelima , डॉ. नूतन – नीति , सुधा भार्गव, Vandana ! ! ! , Dorothy , पारुल , किरण राजपुरोहित नितिला , नीलम ,ज्योत्स्ना पाण्डेय जैसी महिला ब्लागर्स नितांत सक्रिय हैं और अपने अपने क्षेत्र मे बहुत अच्छा लिख रही हैं ।
चिट्ठाचर्चा पर चर्चा करने वाली ब्लॉग जगत की प्रमुख महिला चर्चाकारों में सुश्री नीलिमा, सुजाता, डा0 कविता वाचकनवी और संगीता स्वरुप गीत हैं जिनके द्वारा निरंतरता के साथ विगत २-३-४ वर्षों से पूरी तन्मयता के साथ चिट्ठा चर्चा की जा रही है । इसके अलावा एक और महिला चर्चाकार हैं वन्दना जिनके द्वारा चर्चा मंच पर लगातार अच्छे -अच्छे चिट्ठों से परिचय कराया गया ।
आईये उन ब्लोगरों के बारे में जानें जिन्होनें वर्ष-२०१० में अपनी गतिविधियों से हिंदी ब्लोगिंग को प्राण वायु देने का कार्य किया, इसमें शामिल हैं नए और पुराने, किन्तु सार्थक हस्तक्षेप रखने वाले ब्लोगर !
इस श्रेणी में आईये सबसे पहले मिलते हैं अशोक चक्रधर से । ये हिंदी के मंचीय कवियों में से एक हैं। हास्य की विधा के लिये इनकी लेखनी जानी जाती है। कवि सम्मेलनों की वाचिक परंपरा को घर घर में पहुँचाने का श्रेय गोपालदास नीरज, शैल चतुर्वेदी, सुरेंद्र शर्मा, ओमप्रकाश आदित्य, कुमार विश्वास आदि के साथ-साथ इन्हें भी जाता है। ब्लोगिंग में वर्ष-२००६ से सक्रीय….इनका प्रमुख ब्लॉग है चक्रधर का चक्कलस ।
और अब समीर लाल समीर से , जिनका जन्म २९ जुलाई, १९६३ को रतलाम म.प्र. में हुआ। विश्व विद्यालय तक की शिक्षा जबलपुर म.प्र से प्राप्त कर आप ४ साल बम्बई में रहे और चार्टड एकाउन्टेन्ट बन कर पुनः जबलपुर में १९९९ तक प्रेक्टिस की. सन १९९९ में आप कनाडा आ गये और अब वहीं टोरंटो नामक शहर में निवास… इस वर्ष ब्लोगोत्सव-२०१० में इन्हें वर्ष का श्रेष्ठ ब्लोगर घोषित किया गया ……हिंदी ब्लोगिंग में वर्ष-२००६ से सक्रीय ….इनका मुख्य ब्लॉग है -उड़न तश्तरी ।
आईये आपको मिलवाते है अब वाराणसी निवासी डा अरविन्द मिश्र से , जो वर्ष-२००७ से हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय हैं और तर्क युक्तियों के साथ अभिव्यक्ति में पारंगत भी । इनके पोस्ट तथा इनकी टिप्पणियाँ बरबस ही पाठकों को आकर्षित करती है । विज्ञान विषयक लेखन में इन्हें एकाधिकार प्राप्त है हिंदी ब्लॉगजगत में । इन्हें ब्लोगोत्सव-२०१० में वर्ष का श्रेष्ठ विज्ञान लेखक का अलंकरण प्रदान किया गया है । इन्हें विज्ञान में उच्च कोटि के लेखन के लिए संवाद सम्मान से नवाज़ा गया है । इनका प्रमुख ब्लॉग है -साई ब्लॉग , जबकि इनका सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग है क्वचिदन्यतोअपि….. , ये साईंस ब्लोगर असोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं ।
इसके बाद चलिए चलते हैं अनूप शुक्ल के पास , जिनका जन्म १६ सितंबर, १९६३ को हुई । इन्होनें बी.ई़.(मेकेनिकल), एम ट़ेक (मशीन डिज़ाइन) की शिक्षा ग्रहण कर संप्रति भारत सरकार रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत कानपुर स्थित आयुध निर्माणी में राजपत्रित अधिकारी हैं । ये अगस्त-२००४ से सक्रिय हैं । इनका हिंदी चिट्ठा फुरसतिया और चिट्ठा चर्चा खासा लोकप्रिय है।
आईये अब मिलते हैं रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ़ रवि रतलामी से । ये नामचीन हिन्दी चिट्ठाकार, तकनीकी सलाहकार व तकनीकी अनुवादक हैं। ये मध्य प्रदेश शासन में टेक्नोक्रेट रह चुके हैं। इन्होनें लिनक्स तंत्रांशों के हिन्दी अनुवादों के लिए भागीरथी प्रयास किए हैं। गनोम, केडीई, एक्सएफसीई, डेबियन इंस्टालर, ओपन ऑफ़िस मदद इत्यादि सैकड़ों प्रकल्पों का हिन्दी अनुवाद स्वयंसेवी आधार पर किया है। वर्ष २००७ -०९ के लिए ये माइक्रोसॉफ़्ट मोस्ट वेल्यूएबल प्रोफ़ेशनल से पुरस्कृत हैं तथा केडीई हिन्दी टोली के रूप में प्रतिष्ठित राष्ट्रीय फॉस.इन २००८ से पुरस्कृत हैं। सराय द्वारा FLOSS फेलोशिप के तहत केडीई के छत्तीसगढ़ी स्थानीयकरण के महती कार्य के लिये, जिसके अंतर्गत उन्होंने १ लाख से भी अधिक वाक्यांशों का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद किया, रवि को २००९ के प्रतिष्ठित मंथन पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया।इन्हें ब्लोगोत्सव-२०१० में वर्ष के श्रेष्ठ लेखक का अलंकरण प्रदान किया गया । छीटें और बौछारें तथा रचनाकार इनके प्रमुख ब्लॉग हैं।
अब आईये मिलते हैं हर दिल अजीज ब्लोगर अविनाश वाचस्पति से , जिन्हें सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मान से सम्‍मानित किया है। उनको यह सम्‍मान राजभाषा पुरस्‍कार वितरण समारोह में माननीय सचिव ने विगत दिनों प्रदान किया । अंतर्जाल पर हिन्‍दी के लिए किया गया उनका कार्य किसी परिचय का मोहताज नहीं है। अविनाश जी साहित्य शिल्पी से भी लम्बे समय से जुडे हुए हैं इसके अलावा सामूहिक वेबसाइट नुक्‍कड़ के मॉडरेटर हैं, जिससे विश्‍वभर के एक सौ प्रतिष्ठित हिन्‍दी लेखक जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्‍त उनके ब्‍लॉग पिताजी, बगीची, झकाझक टाइम्‍स, तेताला अंतर्जाल जगत में अपनी विशिष्‍ट पहचान रखते हैं। उन्हें इस वर्ष ब्लोगोत्सव-२०१० में वर्ष के श्रेष्ठ व्यंग्यकार से तथा वर्ष-२००९ के संवाद सम्मान से अलंकृत किया गया है ।
आईये अब मिलते हैं गिरीश पंकज से जो एक बहुआयामी रचनाकार है । ये एक साथ व्यंग्यकार, उपन्यासकार, ग़ज़लकार एवं प्रख्यात पत्रकार हैं । सद्भावना दर्पण नामक वैश्विक स्तर पर चर्चित अनुवाद पत्रिका के संपादक हैं । देश एवं विदेश में सम्मानित । युवाओं के प्रेरणास्त्रोत । सद्भावना, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव के लिए एक विशिष्ट स्थान रखने वाले गिरीश पंकज को पढ़ना अपने आप में एक विशिष्ट अनुभव से गुजरना है । – सृजन-सम्मान …ब्लोगोत्सव-२०१० में इन्हें वर्ष का श्रेष्ठ ब्लॉग विचारक का अलंकरण प्रदान किया गया …..ब्लोगिंग में वर्ष-२००७ से सक्रीय ….इनका मुख्य ब्लॉग है गिरीश पंकज !
अब आईये मिलते हैं एक और चर्चित ब्लोगर जाकिर अली रजनीश से , ये देश के जाने-माने बाल साहित्यकार और सक्रिय ब्लोगर हैं । ये मूलत: विज्ञान विषयक गतिविधियों को प्राणवायु देने की दिशा में लगातार सक्रिय हैं । इन्हें वर्ष-२०१० के श्रेष्ठ बाल साहित्यकार का अलंकरण प्राप्त है । इनके प्रमुख ब्लॉग है मेरी दुनिया मेरे सपने, हमराही और सर्प संसार । ये गैर राजनीतिक संस्था TASLIMके महामंत्री और साईंस ब्लोगर असोसिएसन के सचिव है । इनका बच्चों पर आधारित प्रमुख ब्लॉग है बाल मन ।
जैसे किसी आईने को आप भले ही सोने के फ्रेम में मढ़ दीजिये वह फिर भी झूठ नहीं बोलता । सच ही बोलता है । ठीक वैसे ही कुछ ब्लोग्स हैं हिंदी ब्लॉगजगत में जो हर घटना, हर गतिविधि , हर योजना का सच बयान करते मिलते हैं । वह घटना चाहे किसी छोटी जगह की हो या किसी बड़ी जगह की , चाहे दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बंगलोर, लखनऊ , पटना की हो अथवा सुदूर गौहाटी, डिब्रूगढ़ या सिक्किम में गंगटोक की हो । आपको हर जगह का सचित्र ब्योरा अवश्य मिलेगा उन ब्लोग्स में ।
कहा जाता है कि भारत वर्ष विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों का देश है । सच है । पर इसका एक साथ मेल देखना हो तो रांची निवासी मनीष क़ुमार के ब्लॉग मुसाफिर हूँ यारों पर देख सकते हैं । अप्रैल -२००५ से सक्रिय हिंदी ब्लोगिंग में कार्यरत मनीष क़ुमार का यह ब्लॉग वर्ष-२००८ में आया है और अपनी सारगर्भित अभिव्यक्ति तथा सुन्दर तस्वीरों के माध्यम से हिंदी ब्लॉगजगत में सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हुआ है । इन्हें वर्ष-२००९ का संवाद सम्मान प्रदान किया जा चुका है । सुखद संस्मरणों के गुलदस्ता के रूप में इनका दूसरा ब्लॉग एक शाम मेरे नाम काफी चर्चित है ।
मनीष क़ुमार की तरह ही हिंदी ब्लॉगजगत में एक और घुमक्कर हैं नीरज जाट , जिनका ब्लॉग है मुसाफिर हूँ यारों । आप क्या पढ़ना चाहेंगे यात्रा वृत्तांत, इतिहास, मूड फ्रेश या रेल संस्मरण सब कुछ मिलेगा आपको इस ब्लॉग में । नीरज जाट का अपने बारे में कहना है कि -” घुमक्कडी जिंदाबाद … घुमक्कडी एक महंगा शौक है। समय खपाऊ और खर्चीला। लेकिन यहां पर आप सीखेंगे किस तरह कम समय और सस्ते में बेहतरीन घुमक्कडी की जा सकती है। घुमक्कडी के लिये रुपये-पैसे की जरुरत नहीं है, रुपये -पैसे की जरुरत है बस के कंडक्टर को, जरुरत है होटल वाले को। अगर यहीं पर कंजूसी दिखा दी तो समझो घुमक्कडी सफल है।”
डा.सुभाष राय इस वर्ष हिंदी ब्लॉगिंग के समर्पित व सक्रिय विद्यार्थियों में से एक रहे हैं…निरंतर सीखते जाना और जीवन को समझना ही इनका लक्ष्य रहा हैं । यह हम सभी के लिए वेहद सुखद विषय है कि वे ब्लोगिंग के माध्यम से अपने अर्जित ज्ञान को बांटने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं …… ब्लोगोत्सव-२०१० पर प्रकाशित इनके आलेख : जाति न पूछो साध की को आधार मानते हुए ब्लोगोत्सव की टीम ने इन्हें वर्ष के श्रेष्ठ सकारात्मक ब्लोगर (पुरुष ) का खिताब देते हुए सम्मानित किया हैं । प्रयाग के नार्दर्न इंडिया पत्रिका ग्रुप में सेवा शुरू करके तीन दशकों की इस पत्रकारीय यात्रा में अमृत प्रभात, आज, अमर उजाला , डी एल ए (आगरा संस्करण ) जैसे प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्रों में शीर्ष जिम्मेदारियां संभालने के बाद इस समय लखनऊ में जन सन्देश (हिंदी दैनिक ) में मुख्य संपादक के पद पर कार्यरत, इनके प्रमुख ब्लॉग हैं -बात बेबात और साखी……!
न्याय और न्याय की धाराएं इतनी पेचीदा हो गयी है , कि अदालत का नाम सुनकर व्यक्ति एकबार काँप जाता है जरूर क्योंकि बहुत कठिन है इन्साफ पाने की डगर । हमारा मकसद यहाँ न तो न्यायपालिका पर ऊंगली उठाने का है और न ही किसी की अवमानना का । पर यह कड़वा सच है की हमारी प्रक्रिया इतनी जटिल हो गयी है की इन्साफ का मूलमंत्र उसमें कहीं खोकर रह गया है। आदमी को सही समय पर सही न्याय चाहकर भी नही मिल पाता। ऐसे में अगर कोई नि:स्वार्थ भाव से आपको क़ानून की पेचीदिगियों से रू-ब-रू कराये और क़ानून की धाराओं के अंतर्गत सही मार्ग दर्शन दे तो समझिये सोने पे सुहागा । ऐसा ही इक ब्लॉग है – तीसरा खम्बा. ब्लोगर हैं कोटा राजस्थान के दिनेश राय द्विवेदी,जो १९७८ से वकालत से जुड़े हैं । साहित्य, कानून, समाज, पठन,सामाजिक संगठन लेखन,साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में इनकी रूचि चरमोत्कर्ष पर रही है । ये जून -२००७ से हिंदी ब्लोगिंग में लगातार सक्रिय हैं और प्रत्येक वर्ष इनकी सक्रियता में इजाफा होता रहता है ।
अब एक ऐसे ब्लॉगर की चर्चा , जिन्हें वरिष्ठ ब्लोगर श्री ज्ञान दत्त पाण्डेय ने भविष्य की सम्भावनाओं का ब्लॉगर कहा है ,श्री अनूप शुक्ल ने शानदार ब्लोगर कहा है वहीं श्री समीर लाल समीर ने उनके फैन होने की बात स्वीकार की है । रंजना (रंजू) भाटिया ने स्वीकार किया है कि उनका लिखा हमेशा ही प्रभावित करता है जबकि सरकारी नौकरी में रहते हुए भी अपनी संवेदना को बचाये रखना ….उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं डा अनुराग । नाम है सिद्दार्थ शंकर त्रिपाठी जिनके बारे में बहुचर्चित ब्लोगर डा अरविन्द मिश्र कहते हैं कि -”मैं सिद्धार्थ जी की लेखनी का कायल हूँ -ऐसा शब्द चित्र खींचते है सिद्धार्थ जी कि सारा दृश्य आखों के सामने साकार हो जाता है । उनमें सम्मोहित करने वाली शैली और संवेदनशीलता को सहज ही देखा, महसूस किया जा सकता है और एक प्रखर लेखनी की सम्भावनाशीलता के प्रति भी हम आश्वस्त होते है !” सत्यार्थ मित्र इनका प्रमुख ब्लॉग है । इन्होनें पूर्व की भाँती इस वर्ष भी महत्वपूर्ण पहल करते हुए महात्मा गांधी अंतरार्ष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के तत्वावधान में राष्ट्रीय ब्लोगर संगोष्ठी आयोजित की , जिसकी ब्लॉगजगत में काफी चर्चा हुई । इनकी मौन साधना के बारे में यही कहा जा सकता है कि इस वर्ष इनकी मौन साधना आगे-आगे चलती रही और सारे स्वर-व्यंजन के साथ समय पीछे-पीछे चलता रहा ।
खुशदीप सहगल हिंदी चिट्ठाकारी के वेहद उदीयमान,सक्रीय और इस वर्ष के सर्वाधिक चर्चित चिट्ठाकारों में से एक रहे हैं ! जिनके पोस्ट ने पाठकों को खूब आकर्षित किया और भाषा सम्मोहित करती रही लगातार ….जिनके कथ्य और शिल्प में गज़ब का तारतम्य रहा इस वर्ष ! विगत दिनों ब्लोगोत्सव-२०१० के दौरान उनका व्यंग्य “टेढा है पर मेरा है” और “किसी का सम्मान हो गया ” प्रकाशित हुआ था जिसे आधार बनाते हुए उन्हें ब्लोगोत्सव की टीम ने वर्ष के चर्चित उदीयमान ब्लोगर का अलंकरण देते हुए सम्मानित करने का निर्णय लिया ।
बीते दिनों में बहुत कुछ गुजरा है, बहुत कुछ बदला है समय, समाज और हिंदी ब्लोगिंग में भी। हिंदी ब्लोगिंग इस बदलाव का साक्षी रहा है कदम-दर-कदम । लगातार अच्छे और कुशल ब्लोगरों के आगमन से यह हर पल केवल बदलाव का भागीदार ही नहीं रही है, अपितु बदलाव की अंगराई भी लेती रही है वक़्त-दर-वक़्त । सबसे सुखद बात तो यह है कि हिंदी ब्लोगिंग ने देवनागरी लिपि के माध्यम से हिंदी और उर्दू को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया है ।
कहा गया है कि अभिव्यक्ति की ताक़त असीम होती है और अर्थवान भी । वह संवाद कायम करती है , आपस में जोड़ती है , बिगड़ जाए तो दूरी पैदा करती है और खुश हो जाए तो भावनात्मक एकता का अद्भुत सेतु बना सकती है , वसुधैव कुटुंबकम की संकल्पना साकार कर सकती है । इसे साध लिया तो हर मंजिल आसान हो जाती है । आईये हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय कुछ ऐसे साधकों से आपको मिलवाते हैं जिन्होनें वर्ष-२०१० में अपनी सार्थक साहित्यिक-सांस्कृतिक और सकारात्मक गतिविधियों से हिंदी ब्लोगिंग को अभिसिंचित किया है ।
यदि वरिष्ठता क्रम को नज़रंदाज़ कर दिया जाए तो इस श्रेणी में पहला नाम आता है शैलेश भारतवासी का , जिनका प्रमुख ब्लॉग है हिंद युग्म । ये विगत पांच वर्षों से इंटरनेट पर यूनिकोड (हिंदी) के प्रयोग के प्रचार -प्रसार का कार्य कर रहे हैं । १६ अगस्त १९८२ को सोनभद्र (उ0 प्र0 ) में जन्में शैलेश का ब्लॉग केवल ब्लॉग नहीं एक संस्था है जो हिंदी भाषा, साहित्य,कला, संगीत और इनके अंतर्संवंधों को अपने वैश्विक मंच हिंद-युग्म डोट कॉम के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रयासरत हैं । दुनिया के सभी वेबसाइटो को ट्रैफिक के हिसाब से रैंक देने वाली वेबसाईट अलेक्सा के अनुसार इस ब्लॉग का रैंक एक लाख के आसपास है जो हिंदी भाषा के कला-साहित्य -संस्कृति-मनोरंजन वर्ग के वेबसाईट में सर्वाधिक है । दुनिया की सभी वेबसाइटो के ट्रैफिक पर नज़र रखने वाली वेबसाईट स्टेटब्रेनडोटकॉम के अनुसार हिंद युग्म को प्रतिदिन लगभग ११००० से ज्यादा हिट्स मिलते हैं । भारत का ऐसा कोई कोना नहीं है , जहां पर इसके प्रयासों के बारे में कुछ लोग ही सही, परिचित नहीं है । विश्व में हर जगह , जहां पर हिंदी भाषा भाषी रहते हैं वहां इस ब्लॉग की चर्चा अवश्य होती है ।
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर हैं देश के प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय , जिनका ब्लॉग है प्रेम जनमेजय ।ये व्यंग्य को एक गंभीर कर्म तथा सुशिक्षित मस्तिष्क के प्रयोजन की विधा मानने वाले आधुनिक हिंदी व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैंऔर ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक भी । ये नुक्कड़ से भी जुड़े हैं । इनकी उपस्थिति मात्र से समृद्धि की नयी परिभाषा गढ़ने की ओर अग्रसर है हिंदी ब्लोगिंग । इस वर्ष ब्लोगोत्सव-२०१० पर प्रकाशित हिंदी ब्लोगिंग के विभिन्न पहलूओं पर उनके साक्षात्कार काफी चर्चा में रहे ।
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर हैं डा दिविक रमेश , हिंदी चिट्ठाजगत में सक्रीय एक ऐसा कवि जो २० वीं शताब्दी के आठवें दशक में अपने पहले ही कविता संग्रह ‘रास्ते के बीच’ से चर्चित हुए ! जो ३८ वर्ष की ही आयु में ‘रास्ते के बीच’ और ‘खुली आँखों में आकाश’ जैसी अपनी मौलिक कृतियों पर ‘सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड’ जैसा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले पहले कवि बने । जिनका जीवन निरंतर संघर्षमय रहा है। जो ११ वीं कक्षा के बाद से ही आजीविका के लिए काम करते हुए शिक्षा पूरी की। जो १७ -१८ वर्षों तक दूरदर्शन के विविध कार्यक्रमों का संचालन किया और १९९४ से १९९७ में भारत की ओर से दक्षिण कोरिया में अतिथि आचार्य के रूप में भेजे गए, जहाँ साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किए।ब्लोगोत्सव-२०१० में उन्हें वर्ष के श्रेष्ठ कवि का अलंकरण प्रदान किया गया ।
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर हैं -रवीश कुमार, जिनका प्रमुख ब्लॉग है कस्बा qasba । ये एऩडीटीवी में कार्यरत हैं । ये अपने ब्लॉग पर अपनी ज़िन्दगी के वाकयों, सामयिक विषयों व साहित्य पर खुलकर चर्चा करते हैं, वहीं दैनिक हिन्दुस्तान में प्रत्येक बुद्धवार को ब्लॉग वार्ता के अंतर्गत प्रमुख उपयोगी और सार्थक ब्लॉग को प्रमोट करते है । इनके विषय में बरिष्ठ ब्लोगर रवि रतालामी का कहना है कि “चिट्ठाकारी ने लेखकों को जन्म दिया है तो विषयों को भी। आप अपने फ्रिज पर भी लिख सकते हैं और दिल्ली के सड़कों के जाम पर भी। नई सड़क पर रवीश ने बहुत से नए विषयों पर नए अंदाज में लिखा है और ऐसा लिखा है कि प्रिंट मीडिया के अच्छे से अच्छे लेख सामने टिक ही नहीं पाएँ। हिन्दी चिट्ठाकारी को नई दिशा की और मोड़ने का काम नई सड़क के जिम्मे भले ही न हो, मगर उसने नई दिशा की ओर इंगित तो किया ही है।”
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर है गिरीश मुकुल , जिनके दो मुख्य ब्लॉग है गिरेश बिल्लोरे का ब्लॉग और मिसफिट सीधी बात जिसकी चर्चा इसबार खूब हुई । २९ नवंबर १९६३ को जन्में गिरीश मुकुल एम कोम, एल एल बी की शिक्षा प्राप्त करने के बाद बाल विकास परियोजना अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । आकाशवाणी जबलपुर से नियमित प्रसारण,पोलियो ग्रस्त बचों की मदद के लिए “बावरे-फकीरा” भक्ति एलबम,स्वर आभास जोशी,तथा नर्मदा अमृतवाणी गायक स्वर रविन्द्र शर्मा इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है । इनका मानना है कि हमेशा धोखा मिलने पर भी मामद माँगने वालों से कोई दुराग्रह नहीं होता। मदद मेरा फ़र्ज़ है …!!
इस श्रेणी के अगले ब्लोगर हैं डा० टी० एस० दाराल :मेडिकल डॉक्टर, न्युक्लीअर मेडीसिन फिजिसियन– ओ आर एस पर शोध में गोल्ड मैडल– एपीडेमिक ड्रोप्सी पर डायग्नोस्टिक क्राइटेरिया — सरकार से स्टेट अवार्ड प्राप्त– दिल्ली आज तक पर –दिल्ली हंसोड़ दंगल चैम्पियन — नव कवियों की कुश्ती में प्रथम पुरूस्कार — अब ब्लॉग के जरिये जन चेतना जाग्रत करने की चेष्टा — इनका यह उसूल है, हंसते रहो, हंसाते रहो. — जो लोग हंसते हैं, वो अपना तनाव हटाते हैं. — जो लोग हंसाते हैं, वो दूसरों के तनाव भगाते हैं. बस इन्हीं पवित्र सोच के साथ इन्होनें पूरे वर्ष भर अपनी सक्रियता से पाठकों को आकर्षित किया । इनका प्रमुख ब्लॉग है – अंतर्मंथन और चित्रकथा !
इस श्रेणी के अगले, किन्तु महत्वपूर्ण ब्लोगर हैं ललित शर्मा : ललित शर्मा एक ऐसे सृजनकर्मी हैं जिनकी सृजनशीलता को किसी पैमाने में नहीं बांधा जा सकता ….हम सभी इन्हें गीतकार, शिल्पकार, कवि, रचनाकार आदि के रूप में जानते थे, किन्तु इस वर्ष हम उनके एक अलग रूप से मुखातिव हुए । जी हाँ चित्रकार और पेंटर बाबू के रूप में जब मैंने उनकी पेंटिंग की एक गैलरी लगाई ब्लोगोत्सव-२०१० में , इसमें से कुछ छायाचित्र सेविंग ब्लेड से बनाई गयी थी और कुछ एक्रेलिक कलर से । इनके निर्माण में ब्रुश की जगह सेविंग ब्लेड का प्रयोग किया था तथा उससे ही कलर के स्ट्रोक दिये गए थे । इन्हें ब्लोगोत्सव-२०१० में वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार (आंचलिक ) का अलंकरण प्रदान किया गया । इनके प्रमुख ब्लॉग है – ललित वाणी, अड़हा के गोठ, ललित डोट कोम ,ब्लोग४ वार्ता , शिल्पकार के मुख से आदि है ।
हमारे देश में इस वक्त दो अति-महत्वपूर्ण किंतु ज्वलंत मुद्दे हैं – पहला नक्सलवाद का विकृत चेहरा और दूसरा मंहगाई का खुला तांडव । अगली चर्चा की शुरुआत हम नक्सलवाद और मंहगाई से ही करेंगे ।फ़िर हम बात करेंगे मजदूरों के हक के लिए कलम उठाने वाले ब्लॉग , प्राचीन सभ्यताओं के बहाने कई प्रकार के विमर्श को जन्म देने वाले ब्लॉग और देश के अन्य ज्वलंत मुद्दे जैसे अयोध्या मुद्दा, भ्रष्टाचार आदि ….!
जब मुद्दों की बात चलती है तो एक ब्लॉग अनायास ही मेरी आँखों के सामने प्रतिविंबित होने लगता है । जनसंघर्ष को समर्पित इस ब्लॉग का नाम है लोकसंघर्ष । मुद्दे चाहे जैसे हो, जन समस्याओं से संवंधित मुद्दे हों अथवा राष्ट्रीय , सामाजिक हो अथवा असामाजिक, राजनीतिक हों अथवा गैर राजनीतिक …..सभी मुद्दों पर खुल कर अपना पक्ष रखा इस ब्लॉग ने इस वर्ष । इस वर्ष यह ब्लॉग चिट्ठाजगत की सक्रियता सूची में भी चौथे-पांचवें स्थान पर रहा । अयोध्या मुद्दे पर इनका एक पोस्ट (मंदिर के कोई पुख्ता प्रमाण भी नहीं मिले :विनोद दास ) जहां गंभीर विमर्श को जन्म देता दिखाई देता है वहीँ उनका दूसरा पोस्ट ( पुरातत्ववेता प्रोफ़ेसर मंडल का कथन अयोध्या उत्खनन के संवंध में ) विवादों को ।अपने एक पोस्ट में यह ब्लॉग गिन-गिनकर अयोध्या फैसले के गुनाहगार का नाम गिनाते हैं वहीं अपने एक पोस्ट में यह ब्लॉग कहता है कि दुर्लभ मौक़ा आपने गँवा दिया न्यायाधीश महोदय । दूसरा मुद्दा बराक ओबामा की भारत यात्रा पर यह ब्लॉग बोलता है ” चापलूसी हमारा स्वभाव है ” । भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यह ब्लॉग कहता है कि भ्रष्टाचार पर कौंग्रेस और भाजपा मौसेरे भाई है वहीं इसी विषय पर एक पोस्ट में ये कहते हैं – गुलामी और लूट का खेल तमाशा ।हाल ही प्रकाशित उनका एक आलेख औद्योगिक घरानों की लोकतंत्र के साथ सांठगाँठ को उजागर करता है शीर्षक है -संसद,लोकतंत्र कठपुतलियाँ हैं औद्योगिक कंपनियों की …..!
मुद्दों पर आधारित इस वर्ष का अगला चर्चित ब्लॉग है दुधवा लाईव , इस ब्लॉग पर २४ जुलाई २०१० को विश्व जनसंख्या पर एक सार्गभितआलेख प्रस्तुत किया गया जिसका शीर्षक था “हम दूसरों के कदमों पर कदम रखना कब छोड़ेंगे ? अगला ब्लॉग है चोखेर वाली जिसपर ३१ अक्तूबर को अरुंधती राय के बहाने कई मुद्दे दृढ़ता के साथ उठाये गए , शीर्षक था ‘अरुंधती राय की विच हंटिंग ….! देश का दर्द बांटने वाला देश का चर्चित सामूहिक ब्लॉग हिन्दुस्तान का दर्द पर ०३ मई २०१० को प्रकाशित इस रिपोर्ट का सच क्या है ? पर बेनजीर भुट्टों से संवंधित कई चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में लाए गए ।
“मुझे ये पूरा विश्वास है कि भ्रष्टाचार आज हम भारतीयों का स्वीकृत आचार बन चुका है. क्षमा चाहूंगा, मैं यहां “हम भारतीयों” पर जोर डालना चाहता हूं. क्योंकि, आज एक-दो आदमी या संस्था नहीं, हम सभी भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे हैं। ” ऐसा कहा है आजकल ब्लॉग ने अपने २१ अगस्त के पोस्ट पर जिसका शीर्षक है हम सभी भ्रष्ट हैं ।’राजीव गांधी हों, वीपी सिंह हों या मुलायम सिंह यादव हों, कोई भी मुसलमानों का हमदर्द नहीं है।’ ऐसा कहा है २८ अक्तूबर को सलीम अख्तर सिद्दीकी ने अपने ब्लॉग हक की बात में । मीडिया पर असली मुद्दा छुपाने का आरोप लगाया है रणविजय प्रताप सिंह ने समाचार ४ मीडिया पर वहीँ भड़ास 4 मीडिया पर पंकज झा ने अपने एक पोस्ट में कहा है कि अयोध्या मुद्दे को उत्पात न बनाएं । अनिता भारती ने मुहल्ला लाईव में ०७ अगस्त को पूछा कि मुद्दों को डायल्युट कौन कर रहा है ? जनतंत्र के ३० सितंबर के एक आलेख में सलीम अख्तर सिद्दीकी ने भाजपा पर यह आरोप लगाया है कि राख हो चुके मंदिर मुद्दे में आग लगने की कोशिश हो रही है ।
वर्ष के आखिरी चरणों में भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में जानी मानी हस्तियों ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान शुरू करते हुए देश के भ्रष्टाचार निरोधक तंत्र में कमियों को दूर करने के वास्ते लोकपाल बिल का मजमून तैयार किया और इसे कानून का रूप देने के अनुरोध के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेजा । ब्लॉग पर भी कुछ इसी तरह की चर्चाएँ गर्म रही उस दौरान , यथा- रायटोक्रेट कुमारेन्द्र पर : भ्रष्टाचार का विरोध सब कर रहे हैं, आइये हम सफाया करें । जय जय भारत पर :२ जी स्पेक्ट्रम : ये (भ्रष्टाचार का ) प्रदूषण तो दिमाग को हिला देने वाला है । कडुआ सच पर : भ्रष्टाचार….भ्रष्टाचार ….चलो आज हम हाथ लगा दें । आचार्य जी पर : भ्रष्टाचार । खबर इंडिया डोट कोम पर : भ्रष्टाचार की भारतीय राजनीति मेंविकासयात्रा । ब्लोगोत्सव-२०१० पर : भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए क्या करना चाहिए । ब्लोगोत्सव-२०१० पर : बदलाव जरूरी है… । दबीर निउज में : सुप्रीम कोर्ट की दो टूक भ्रष्टाचार सिस्टम का बदनुमा दाग है । परिकल्पना पर : चर्चा-ए-आम भ्रष्टाचार की आगोश में आवाम और खबर इंडिया डोट कोम पर :भ्रष्टाचार से खोखला हो रहा है देश । ये सभी ब्लॉग भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम को हवा देने का कार्य किया हैं , जो प्रशंसनीय है । इस वर्ष के उत्तरार्द्ध में एक नया ब्लॉग आया मंगलायतन , इस पर भी भ्रष्टाचार से संबंधित मुद्दे उठाये गए ।
भारत ने एक संप्रभुता संपन्न राष्ट्र के रूप में १५ अगस्त -२०१० को ६३ वी वर्षगाँठ मनाई । इस समयांतराल में नि:संदेह एक राष्ट्र के रूप में उसने बड़ी-बड़ी उपलब्धियां प्राप्त की । आई टी सेक्टर में दुनिया में उसका डंका बजता है । चिकित्सा,शिक्षा, वाहन, सड़क, रेल, कपड़ा, खेल, परमाणु शक्ति, अंतरिक्ष विज्ञान आदि क्षेत्रों में बड़े काम हुए हैं । परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र का रुतवा भी हासिल किया है । आर्थिक महाशक्ति बनने को अग्रसर है । मगर राष्ट्र समग्र रूप से विकसित हो रहा है इस दृष्टि से विश्लेषण करें तो बहुत कुछ छूता हुआ भी मिलता है, विकास में असंतुलन दिखाई देता है एवं उसे देश के आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने में सफलता नहीं मिली है । जिससे भावनात्मक एकता कमजोर हो रही है , जो किसी राष्ट्र को शक्ति संपन्न , समृद्धशाली,अक्षुण बनाए रखने के लिए जरूरी है । यह समस्या चिंता की लकीर बढाती है ।
१५ अगस्त से २४ अगस्त तक परिकल्पना पर एक परिचर्चा आयोजित हुई ” क्या है आपके लिए आज़ादी के मायने ? इस परिचर्चा में शामिल हुए लगभग दो दर्जन ब्लोगर । परिचर्चा में शामिल होते हुए समीर लाल समीर ने कहा कि ” पीर पराई समझ सको तो जीवन भर आज़ाद रहोगे , बरना तुम बर्बाद रहोगे । ” रश्मि प्रभा ने कहा कि ” सब शतरंज के प्यादे राजा बनने की होड़ में और ताज पहनानेवाले अनपढ़ , गंवार !” दीगंबर नासवा ने कहा कि “यदि आप आज की पीढ़ी से पूछें तो शायद आज़ाद भारत में आज़ादी का मतलब ढूँढने में लंबा वक़्त लगेगा । ” दीपक मशाल ने कहा कि “यू के में एक मज़दूर भी चैन का जीवन बिता सकता है मगर क्या आज़ाद भारत में ?” सरस्वती प्रसाद ने कहा कि “”यहाँ पर ज़िन्दगी भी मौत सी सुनसान होती है….यहाँ किस दोस्त की किस मेहरबां की बात करते हो….अमां तुम किस वतन के हो कहाँ की बात करते हो !” अविनाश वाचस्पति ने कहा कि “जिस दिन सोने और सपने देखने की आजादी मिल जाए तो समझना संपूर्ण आजादी मिल गई है। इसे हासिल करना दुष्‍कर है, यह मक्‍का मदीना नहीं है, यह पुष्‍कर है।” शीखा वार्ष्णेय ने कहा कि “घर से निकलती है बेटी तो दिल माँ का धड़कने लगता है,जब तक न लौटे काम से साजन दिल प्रिया का बोझिल रहता है,अपने ही घर में हर तरफ़ भय की जंजीरों का जंजाल हैं, हाँ हम आजाद हैं।” गिरीश पंकज ने कहा कि ” आज़ादी मेरे लिए जीने का सामान है,इश्वर का बरदान है !” अर्चना चाव ने कहा कि ” समय के साथ चलो सिर्फ इतना भर कह देने से कुछ नहीं होगा…!” प्रमोद तांबट ने कहा कि ” आज़ादी का फल भोगने की आज़ादी सब को होना चाहिए ।” उदय केशरी ने कहा कि “क्या भारतीय लोकतंत्र की दशा व दिशा तय करने वाली भारतीय राजनीतिक गलियारे के प्रति युवाओं के दायित्व की इति श्री केवल इस कारण हो गई, क्योकि यह गलियारा मुट्ठी भर पखंडियो और भ्रष्ट राजनीतिकों के सडांध से बजबजाने लगा है …!” खुशदीप सहगल ने कहा कि “दुनिया भर में मंदी की मार पड़ी हो लेकिन भारत में पिछले साल अरबपतियों की तादाद दुगने से ज़्यादा हो गई…पहले २४ थे अब ४९ हो गए हैं….वहीं ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ताजा सर्वे के मुताबिक भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या ६४ करोड़ ५० लाख है…ये देश की आबादी का कुल ५५ फीसदी है…!” अशोक मेहता ने कहा कि “अगर हम गौर करें तो ये पायेंगे कि हमने अपने देश को तो अंग्रेजों से आज़ाद करवा लिया, मगर यहाँ के लोग और उनकी सोच को हम अंग्रेजीपन से आजाद नहीं करवा पाए. आज भी हम उसी अंग्रेजीपन के गुलाम हैं. अपने स्कूल, ऑफिस, या सोसाइटी में तिरंगा फेहरा के हम अगर ये समझते हैं कि हमने आज़ादी हासिल कर ली है तो ये गलत है….!” संगीता पुरी ने कहा कि ” हर प्रकार की स्‍वतंत्रता प्राप्‍त करने के लिए , हर प्रकार की स्‍वतंत्रता को बनाए रखने के लिए नागरिकों के द्वारा अधिकार और कर्तब्‍य दोनो का पालन आवश्‍यक है , ये दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। स्‍वतंत्रता का अर्थ उच्‍छृंखलता या मनमानी नहीं होती ।” डा सुभाष राय ने कहा कि “जो समाज आजादी का अर्थ निरंकुशता, उन्मुक्ति या मनमानेपन के रूप में लगाता है, वह भी उसी असावधान पक्षी की तरह नष्ट हो जाता है। अराजकता हमेशा गुलामी या विनाश की ओर ले जाती है। सच्ची आजादी का मतलब ऐसे कर्म और चिंतन के लिये आसमान का पूरी तरह खुला होना है, जो समूचे समाज को, देश को लाभ पहुंचा सके।” प्रेम जनमेजय ने कहा कि ” पहले भी गरीब पिटता था और आज भी गरीबों को पीटने की पोरी आज़ादी है !” इसके अलावा इस महत्वपूर्ण परिचर्चा में शामिल होने वाले ब्लोगर थे -विनोद कुमार पाण्डेय ,एडवोकेट रणधीर सिंह सुमन,राजीव तनेजा , डा दिविक रमेश , दीपक शर्मा , शकील खान , सलीम खान , ललित शर्मा आदि ।
अयोध्या के हनुमानगढ़ी के पास ही ऊंचाई पर रामद्वार मंदिर के पुजारी चंद्र प्रसाद पाठक की व्यथा-कथा कुछ अलग अंदाज़ में सुनाया रबीश कुमार ने कस्बा पर दिनांक १२.०९.२०१० को । वहीं जिज्ञासा पर २४ सितंबर को प्रमोद जोशी ने कहा कि कॉमनवैल्थ खेल के समांतर अयोध्या का मसला काफी रोचक हो गया है। १० अक्तूबर को विचारार्थ पर राज किशोर ने कहा कि “बचपन से ही मैं नास्तिक हूं। फिर भी राम का व्यक्तित्व मुझे बेहद आकर्षित करता रहा है। वैसे, हिन्दू संस्कारों में पले बच्चे के लिए मिथकीय दुनिया में चुनने के लिए होता ही कितना है? राममनोहर लोहिया ने राम, कृष्ण और शिव की चर्चा कर एक तरह से महानायकों की ओर संकेत कर दिया है। पूजने वाले गणेश, लक्ष्मी और हनुमान को भी पूजते हैं। पर राम, कृष्ण और शिव की मोहिनी ही अलग है। इनकी मूर्ति जन-जन के मन में समाई हुई है। मैं अपने को इस जन का ही एक सदस्य मानता हूं। सीता का परित्याग और शंबूक की हत्या, ये दो ऐसे प्रकरण हैं, जो न होते, तो राम की स्वीकार्यता और बढ़ जाती। लेकिन इधर मेरा मत यह बना है कि महापुरुषों का मूल्यांकन उनकी कमियों के आधार पर नहीं, बल्कि उनकी श्रेष्ठताओं के आधार पर किया जाना चाहिए। मैं तो कहूंगा, अपने परिवार और साथ के लोगों के प्रति भी हमें यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। दूसरों की बुराइयों और कमियों में रस लेना मानसिक रुग्णता है।” भडास4मीडिया पर डा नूतन ठाकुर अयोध्या के लिए नेताओं की तरह मीडिया को भी जिम्मेदार ठहराया है । हमारी भी सुनो पर गुफरान सिद्दीकी ने पूछा है कि किसकी अयोध्या ?
जहां तक महंगाई जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों का प्रश्न है १४ जून २०१० को मनोज पर सत्येन्द्र झा कहते है कि ” मंहगाई पहले पैसे खर्च करवाती थी। अब माँ से बेटे को अलग कर के धर दे रही है। इस मंहगाई का. … ऐसी मानसिकता का क्या कहें ? मंहगाई केवल माँ को रखने में ही दिखाई देती है. …(यह एक लघुकथा है जो मूल कृति मैथिली में “अहींकें कहै छी” में संकलित ‘महगी’ से केशव कर्ण द्वारा हिंदी में अनुदित है )।१७ अगस्त २०१० को बाल सजग पर कक्षा-८ में पढ़ने वाले आशीष कुमार की बड़ी प्यारी कविता प्रकाशित हुई है … मंहगाई इतनी बढ़ी है मंहगाई । किसी ने की न जिसकी आवाज सुन मेरे भाई ॥ पूँछा आलू का क्या दाम है भइया । उसने बोला एक किलो का दस रुपया ॥ टमाटर का दाम वो सुनकर । … ०५ अगस्त २०१० को लोकमंच पर यह खबर छपी है कि मंहगाई पर सरकार वेबस है ।आरडी तैलंग्स ब्लॉग पर बहुत सुन्दर व्यंग्य प्रकाशित हुआ है जिसमें कहा गया है कि मंहगाई हमारे देश का गुण है, और हम अपना गुण नष्ट करने में लगे हैं। मैं तो चाह रहा हूं, हर चीज़ मंहगी हो जाए, यहां तक कि आलू भी…ताकि किसी को अगर आलू के चिप्स भी खिला दो, तो वो गुण गाता फिरे कि कितना अच्छा स्वागत किया। पैसे की कीमत भी तभी पता चलेगी, जब पैसा कम हो, और मंहगाई ज्यादा…। सारे रिश्ते नाते, मंहगाई पर ही टिके हैं… जिस दिन मंहगी साड़ी मिलती है, उस दिन बीवी भी Extra प्यार करती है… मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा कि वो जल्द से जल्द मंहगाई बढ़ाए, देश बढ़ाए…!”
आईये अब वर्ष की कुछ यादगार पोस्ट की चर्चा करते हैं , क्रमानुसार एक नज़र मुद्दों को उठाने वाले प्रमुख ब्लॉग पोस्ट की ओर-
ब्रजेश झा के ब्लॉग खंबा में ०१ जनबरी को प्रकाशित पोस्ट “आखिर भाजपा में क्यों जाऊं ? गोविन्दाचार्य ” , जंगल कथा पर ०२ जनवरी को प्रकाशित ऑनरेरी टाईगर का निधन , नयी रोशनी पर ०२ जनवरी को प्रकाशित सुधा सिंह का आलेख स्त्री आत्मकथा में इतना पुरुष क्यों ? ,तीसरा रास्ता पर 02 जनवरी को एक कंबल के लिए ह्त्या, अपराधी कौन ? , इंडिया वाटर पोर्टल पर पानी जहां जीवन नहीं मौत देता है , नुक्कड़ पर ०४ जनवरी को प्रतिभा कटियार का आलेख नीत्शे,देवता और स्त्रियाँ , हाशिया पर ०४ जनवरी को प्रकाशित प्रमोद भार्गव का आलेख कारपोरेट कल्चर से समृद्धिलाने का प्रयास , ०६ जनवरी को अनकही पर रजनीश के झा का आलेख बिहार विकास का सच (जी डी डी पी ) , ०७ जनवरी को उड़न तश्तरी पर सर मेरा झुक ही जाता है, ०७ जनवरी को चर्चा पान की दूकान पर में बात महिमावान उंगली की , ०७ जनवरी को नारी पर दोषी कौन ?,०८ जनवरी को निरंतर पर महेंद्र मिश्र का आलेख बाकी कुछ बचा तो मंहगाई और सरकार मार गयी , ०८ जनवरी को भारतीय पक्ष पर कृष्ण कुमार का आलेख जहर की खेती ,शोचालय पर चांदी के चमचे से चांदी चटाई ,हिमांशु शेखर का आलेख कब रुकेगा छात्रों का पलायन ,१० जनवरी को आम्रपाली पर हम कहाँ जा रहे हैं ? , १० जनवरी को उद्भावना पर थुरुर को नहीं शऊर , हाहाकार पर अनंत विजय का आलेख गरीबों की भी सुनो , अनाम दास का चिट्ठा पर १७ जनवरी को पोलिश जैसी स्याह किस्मत , टूटी हुई बिखरी हुई पर मेरी गुर्मा यात्रा ,१२ जनवरी को ज़िन्द्ज्गी के रंग पर पवार की धोखेवाज़ी से चीनी मीलों को मोटी कमाई, अज़दक पर प्रमोद सिंह का आलेख बिखरे हुए जैसे बिखरी बोली , विनय पत्रिका पर बोधिसत्व का आलेख अपने अश्क जी याद है आपको , पहलू पर २६ जनवरी को ठण्ड काफी है मियाँ बाहर निकालो तो कुछ पहन लिया करो , १२ जनवरी को तीसरी आंख पर अधिक पूँजी मनुष्य की सामाजिकता को नष्ट कर देती है , १३ जनवरी को उदय प्रकाश पर कला कैलेण्डर की चीज नहीं है , भंगार पर ९१ कोजी होम , कल की दुनिया पर बल्ब से भी अधिक चमकीली, धुप जैसी सफ़ेद रोशनी देने वाले कागज़ जहां चाहो चिपका लो , १० जनवरी को दोस्त पर शिरीष खरे का आलेख लड़कियां कहाँ गायब हो रही हैं , १२ जनवरी को हमारा खत्री समाज पर अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष कर रहा है ‘कडा’ शहर , १८ जनवरी को संजय व्यास पर बस की लय को पकड़ते हुए , नुक्कड़ पर कितनी गुलामी और कबतक , २१ जनवरी को गत्यात्मक चिंतन पर चहरे, शरीर और कपड़ों की साफ़-सफाई के लिए कितनी पद्धतियाँ है ?, ज़िन्दगी की पाठशाला पर किसी भी चर्चा को बहस बनने से कैसे रोकें ?, १८ जनवरी को क्वचिदन्यतोअपि……….! पर अपनी जड़ों को जानने की छटपटाहट आखिर किसे नहीं होती ? ,२१ जनवरी को प्राईमरी का मास्टर पर प्रवीण त्रिवेदी का आलेख यही कारण है कि बच्चे विद्यालय से ऐसे निकल भागते हैं जैसे जेल से छूटे हुए कैदी , २६ जनवरी को नुक्कड़ पर प्रकाशित अमिताभ श्रीवास्तव का आलेख मुश्किल की फ़िक्र और ३० जनवरी को मानसिक हलचल पर रीडर्स डाईजेस्ट के बहाने बातचीत ……..
जनवरी महीने के प्रमुख पोस्ट के बाद अब उन्मुख होते हैं फरवरी माह की ओर , प्रतिभा कुशवाहा की इस कविता के साथ , कि -
ओ! मेरे संत बैलेंटाइन
आप ने ये कैसा प्रेम फैलाया
प्रेम के नाम पर कैसा प्रेम “भार” डाला
आप पहले बताएं
प्यार करते हुए आप ने कभी
बोला था अपने प्रिय पात्र से
कि …..
आई लव यू…
यह कविता १४ फरवरी २०१० को ठिकाना पर प्रकाशित हुई , शीर्षक था वो मेरे वेलेन्टाय़इन …. यह दिवस भी हमारे समाज के लिए एक मुद्दा है , नि:संदेह !०२ फरवरी को आओ चुगली लगाएं पर गंगा के लिए एक नयी पहल ,०३ फरवरी को भारतनामा पर रहमान के बहाने एक पोस्ट संगीत की सरहदें नहीं होती , ०३ फरवरी को यही है वह जगह पर प्रकाशित आलेख राष्ट्रमंडल खेल २०१०-आखिर किसके लिए? ,खेल की खबरें पर शाहरूख का शिव सेना को जवाब , रोजनामचा पर अमर कथा का अंत , ०४ फ़रवरी को अजित गुप्ता का कोना पर अमेरिकी-गरीब के कपड़े बने हमारे अभिनेताओं का फैशन , पटियेवाजी पर ठाकुर का कुआं गायब , जनतंत्र पर माया का नया मंत्र, विश करो , जिद करो , दीपक भारतदीप की हिंदी सरिता पत्रिका पर प्रकाशित आलेख विज्ञापन तय करते हैं कहानी आलेख , ०५ फरवरी को कल्किऔन पर पेंड़ों में भी होता है नर-मादा का चक्कर, एक खोज , नारीवादी बहस पर स्त्रीलिंग-पुलिंग विवाद के व्यापक सन्दर्भ , ०५ फरवरी को लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन पर लोकसंघर्ष सुमन द्वारा प्रस्तुत प्रेम सिंह का आलेख साहित्य अकादमी सगुन विरोध ही कारगर होगा , ०२ फरवरी को राजतंत्र पर प्रकाशित आलेख हजार-पांच सौ के नोट बंद होने से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा , १४ फरवरी को कबाडखाना पर नहीं रहा तितली वाला फ्रेडी तथा २२ फरवरी को विचारों का दर्पण में आधुनिकता हमारे धैर्य क्षमता को कमजोर कर रही है आदि ।
मार्च में हिंदी ब्लॉग पर महिला आरक्षण की काफी गूँज रही । समाजवादी जनपरिषद, ध्रितराष्ट्र ,नया ज़माना आदि ब्लॉग इस विषय को लेकर काफी गंभीर दिखे । ०५ मार्च को नारी में ना..री..नारी ,०९ मार्च को वर्त्तमान परिस्थितियों पर पियूष पाण्डेय का सारगर्भित व्यंग्य आया मुझे दीजिये भारत रत्न …….,०६ मार्च को प्रतिभा की दुनिया पर बेवजह का लिखना, १० मार्च को यथार्थ पर क़ानून को ठेंगा दिखाते ये कारनामे ,१० मार्च को अक्षरश: में महिला आरक्षण ,१२ मार्च को ललित डोट कौम पर महिला आरक्षण,१४ मार्च को साईं ब्लॉग पर अरविन्द मिश्र का आलेख बैंक के खाते-लौकड़ अब खुलेंगे घर-घर आकर , १५ मार्च को प्रवीण जाखड पर उपभोक्ता देवो भव: , १८ मार्च को अनुभव पर शहर के भीतर शहर की खोज,१६ मार्च को काशिद पर कौन हसरत मोहानी ?,१८ मार्च को संवाद का घर पर उपभोक्ता जानता सब है मगर बोलता नहीं ,२३ मार्च को लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन पर अशोक मेहता का आलेख आतंकवाद की समस्या का समाधान आदि ।
ये तो केवल तीन महीनों यानी वर्ष के प्रथम तिमाही की स्थिति है , क्या आपको नहीं लगता कि हिंदी ब्लॉग जिसतरह मुद्दों पर सार्थक बहस की गुंजाईश बनाता जा रहा है , यह समानांतर मीडिया का स्वरुप भी लेता जा रहा है ? आईये इस बारे में प्रमुख समीक्षक रवीन्द्र व्यास जी की राय से रूबरू होते हैं ।
रवीन्द्र व्यास का मानना है कि “हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया फैल रही है, बढ़ रही है। इसे मिलती लोकप्रियता आम और खास को लुभा रही है। इसे संवाद के नए और लोकप्रिय माध्यम के रूप में जो पहचान मिली है उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि सीधे लोगों तक पहुँच कर आप उनसे हर बात बाँट सकते हैं, कह सकते हैं।”
इस तकनीक के नवीन युग में अपनी बात कहने के माध्यम भी बदल गये हैं पहले लोगों को इतनी स्वतन्त्रता नहीं थी कि वह अपनी बात को खुले तौर पर सभी के सामने तक पंहुचा सके लेकिन आज के इस तकनीकी विकास ने यह संभव कर दिया है इन्ही नए माध्यमों में एक नया नाम ब्लाग का भी है ये कहना है लखीमपुर खीरी के अशोक मिश्र का जो इसी वर्ष अगस्त में हिंदी ब्लॉगजगत से जुड़े हैं ,आईये चलते हैं उनके ब्लॉग निट्ठले की मजलिसमें, जहां इन्होने दिल्ली विश्वविद्यालय दक्षिण परिसर में पत्रकारिता पाठ्यक्रम से जुड़े छात्रों के ब्लाग की जानकारी दी है ।
दूसरी तिमाही के प्रमुख पोस्ट की चर्चा करें उससे पहले एक ऐसे ब्लॉग पर नज़र डालते हैं जिसपर इस तिमाही में आये तो केवल १२ पोस्ट किन्तु हर पोस्ट किसी न किसी विषय पर गंभीर वहस की गुंजाईश छोड़ता दिखाई दिया , संजय ग्रोवर के इस ब्लॉग का नाम है संवाद घर यानी चर्चा घर । इस घर में ब्लॉग की तो चर्चा नहीं होती , किन्तु जिसकी चर्चा होती है वह कई मायनों में महत्वपूर्ण है । इस पर चर्चा होती है समसामयिक मुद्दों की , समसामयिक जरूरतों की , समाज की, समाज के ज्वलंत मुद्दों की यानी विचारों के आदान-प्रदान को चर्चा के माध्यम से गंभीर विमर्श में तब्दील करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है इस तिमाही में इस ब्लॉग ने, यथा ०१ अप्रैल को फिर तुझे क्या पडी थी वेबकूफ ?,११ अप्रैल को बिन जुगाड़ के छापना , २२ मई को मोहरा अफवाहें फैलाकर….तथा २४ जून को टी वी के पहले टी वी के बाद आदि ।
वर्ष की दूसरी तिमाही में मेरी डायरी पर फिरदौस खान के कई यादगार पोस्ट देखने को मिले , यथा ३० मार्च को मुस्लिम मर्दों पर शरीया कानून क्यों नहीं लागू होता? ,२९ मई को “जान हमने भी गंबायी है वतन की खातिर” ,२७ जून को “लुप्त होती कठपुतली कला” आदि ।
इसके अलावा ०१ अप्रैल को रचना की धरती पर आलोचना की पहली आंख पर “विस्थापन का साहित्य “,०३ अप्रैल को अनिल पाण्डेय का आलेख क्या सानिया की शादी राष्ट्रीय मुद्दा है ?, लडू बोलता है ..इंजिनियर के दिल से पर आलेख सानिया तुम जहां भी रहो खुश रहो पुरुषों ने तुम्हारे लिए क्या किया है ? , एडी चोटी पर ना आना इस देश मेरी लाडो ,०४ अप्रैल को नयी रोशनी पर “भाषा में वर्चस्व निर्माण की प्रक्रिया , १५ अप्रैल को उठो जागो पर विज्ञान की नज़र से क्या पुनर्जन्म होता है ?,१७ अप्रैल को विचार विगुल पर कौन ख़त्म करेगा जातिवाद विचारों का दर्पण पर मीडिया खडी है कटोरा लेके , राजकाज पर शहीदों के शव पर जश्न यही है माओवाद ,१९ अप्रैल को कहाँ गयी वो घड़ों -सुराहियों की दुकानें , २१ अप्रैल को अमीर गरीब लोग पर अनिल पुसदकर का आलेख “जहां दिल ख़ुशी से मिला मेरा वहीं सर भी मैंने झुका दिया , २३ अप्रैल को बतंगड़ पर और भी खेल है इस देश में क्रिकेट के सिवा २६ अप्रैल को सोचालय पर समानांतर सिनेमा तथा २८ अप्रैल को काहे को ब्याहे विदेश पर फोन कुछ पलों के लिए गुणगा हो गया आदि यादगार पोस्ट पढ़े जा सकते हैं ।
यदि मई की बात करें तो ०३ मई को हंसा की कलम से पर एक आलेख आया शहरों के बीच भी है एक जंगल तथा ०६ मई को उपदेश सक्सेना का आलेख आया नुक्कड़ पर कि जनगणना है जनाब मतगणना नहीं एक गंभीर विमर्श को जन्म देता महसूस हुआ वहीं १४ मई को अल्पना पाण्डेय की कलाकृतियों से रूबरू हुए हिंदी ब्लॉग जगत के पाठक ब्लोगोत्सव-२०१० के माध्यम से ।०६ मई ko हलफनामा पर धंधे का मास्टर स्ट्रोक, ०७ मई को घुघूती बासूती पर क्या किसी के कहने पर मैं कलम का रूख बदल लूं , ०८ मई को धम्मसंघ पर पोर्तव्लेयर, पानी और काला पहाड़ , ०९ मई को अमित शर्मा पर कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति” ——— , ०९ मई को दिशाएँ पर मेरी डायरी का पन्ना -२, १० मई को स्वप्न मंजूषा अदा ने अपने ब्लॉग पर एक नया प्रयोग किया पोडकास्ट के माध्यम से ब्लॉग समाचार प्रस्तुत करने का , कल हो न हो पर धोनी का अवसान , ११ मई को वेद-कुरआन पर नियमों का नाम ही धर्म है , १२ मई को जंतर-मंतर पर शेष नारायण सिंह का आलेख मर्द वादी सोच के बौने नेता देश के दुश्मन हैं , १५ मई को आर्यावर्त पर धोनी की कप्तानी बरकरार , १४ मई को बलिदानी पत्रकार पर जातीय आधार पर जनगणना राष्ट्रहित में नहीं , १५ मई को शब्द शिखर पर शेर नहीं शेरनियों का राज ,२५ मई को हारमोनियम पर पी एम , प्रेस कोंफ्रेंस और पत्रकारिता,२७ मई को खबरिया पर कुछ कहता है मणिपुर , २७ मई को तीसरी आंख पर चिन्ता का विषय होना चाहिए सगोत्रीय विवाह, २८ मई को नटखट पर माया के आगे ओबामा फिस्स , २८ मई को दोस्त पर जंगल से कटकर सूख गए माल्धारी तथा ३१ मई को सत्यार्थ मित्र पर ये प्रतिभाशाली बच्चे घटिया निर्णय क्यों लेते हैं ? और हिमांशु शेखर पर प्रतिष्ठा के नाम पर को यादगार पोस्ट की श्रेणी में रखा जा सकता है ।
और प्रथम छमाही के आखिरी महीने जून की बात की जाए तो इस महीने में भी कुछ यादगार पोस्ट पढ़ने को मिले हैं , मसलन – मीडिया डॉक्टर पर आखिर हम लोग नमक क्यों नहीं कम कर पाते ? , तस्वीर घर पर संगेमरमर की नायाब इमारतों की धड़कन सुनो , अनबरत पर सांप सालों पहले निकल गया और लकीर अब तक पित रहे हैं , जुगाली पर क्या हम सामूहिक आत्महत्या की ओर बढ़ रहे हैं , नां जादू न टोना पर इस तरह से आ रही है मृत्यु, देश्नामा पर क्रोध अनलिमिटेड आदि ।
वर्ष की दूसरी तिमाही की एक महत्वपूर्ण घटना पर नज़र डाली जाए तो २३ मई को पश्चिमी दिल्ली के नांगलोई में सर दीनबंधु छोटूराम जाट धर्मशाला में दिल्ली हिन्‍दी ब्‍लॉगरों की एक बैठक संपन्न हुई । आभासी दुनिया के जरिए एक दूसरे से जुडे़ , समाज के विभिन्न वर्गों और देश के विभिन्न्न क्षेत्रों के लेखक और पाठक एक दूसरे के साथ साझे मंच पर न सिर्फ़ लिखने पढने तक सीमित रहे बल्कि उन्होंने आभासी रिश्तों के आभासी बने रहने के मिथकों को तोडते हुए आपस में एक दूसरे के साथ बैठ कर बहुत से मुद्दों पर विचार विमर्श किया। इस बैठक में लगभग ४० से भी अधिक ब्‍लॉगरों ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। शामिल होने वाले ब्‍लॉगर थे श्री ललित शर्मा, श्रीमती संगीता पुरी, श्री अविनाश वाचस्पति, श्री रतन सिंह शेखावत, श्री अजय कुमार झा, श्री खुशदीप सहगल,श्री इरफ़ान, श्री एम वर्मा, श्री राजीव तनेजा, एवँ श्रीमती संजू तनेजा, श्री विनोद कुमार पांडे , श्री पवन चन्दन , श्री मयंक सक्सेना, श्री नीरज जाट, श्री अमित (अंतर सोहिल), सुश्री प्रतिभा कुशवाहा जी, श्री एस त्रिपाठी, श्री आशुतोष मेहता, श्री शाहनवाज़ सिद्दकी ,श्री जय कुमार झा, श्री सुधीर, श्री राहुल राय, डॉ. वेद व्यथित, श्री राजीव रंजन प्रसाद, श्री अजय यादव ,अभिषेक सागर, डॉ. प्रवीण चोपडा,श्री प्रवीण शुक्ल प्रार्थी , श्री योगेश गुलाटी, श्री उमा शंकर मिश्रा, श्री सुलभ जायसवाल, श्री चंडीदत्त शुक्ला, श्री राम बाबू, श्री देवेंद्र गर्ग , श्री घनश्याम बागला, श्री नवाब मियाँ, श्री बागी चाचा आदि ।
एक वेहतरीन लेखक हैं दिनेश कुमार माली, जो पेशे से खनन-अभियंता हैं पर उन्हें नशा है लेखन का। सम्प्रति ओडिशा में कोल इंडिया की अनुषंगी कंपनी महानदी कोल-फील्ड्स लिमिटेड की खुली खदान सम्ब्लेश्वरी, ईब-घाटी क्षेत्र में खान-अधीक्षक के रूप में कार्यरत हैं। इनका एक ब्लॉग है जगदीश मोहंती की श्रेष्ठ कहानियां । उड़ीसा भारत के नक्सल प्रभावित प्रान्तों में एक है। सत्तर के दशक से लेकर आज तक इस खतरनाक समस्या से जूझते उड़ीसा के जनमानस में एक अलग छाप छोड़ने वाले इस आन्दोलन के कुछ अनकहे अनदेखे पक्ष को उजागर करने वाली यह कहानी लेखक का न केवल सार्थक व जीवंत प्रयास है, बल्कि भारतीय कहानियों में अपना एक स्वतन्त्र परिचय रखती है। ‘सचित्र विजया’ पत्रिका में छपने के बाद यह कहानीकार के कहानी संग्रह ‘बीज- बृक्ष – छाया’ में संकलित हुई है। लेखक जगदीश महंती द्वारा इस कहानी में किये गए शैली के नवीन प्रयोग इस कहानी को अद्वितीय बना देती है ।
अब आईये आपको मिलवाते हैं इस वर्ष के द्वितिय तिमाही में ब्लॉग जगत का हिस्सा बने एस.एम.मासूम से जो सेवा निवृत शाखा प्रवन्धक हैं और देश की मर्यादा, सना नियुज़ मुम्बई से जुड़े हैं । इनका iमानना है कि ब्लोगेर की आवाज़ बड़ी दूर तक जाती है, इसका सही इस्तेमाल करें और समाज को कुछ ऐसा दे जाएं, जिस से इंसानियत आप पे गर्व करे / यदि आप की कलम में ताक़त है तो इसका इस्तेमाल जनहित में करें” इन्होनें वर्ष -२०१० के मई महीने में अपना ब्लॉग अमन का पैगाम बनाया ,जिसमें सभी धर्म के लोगों को साथ ले के चलने की कोशिश जारी है . बहुत हद तक इसमें कामयाब भी रहे हैं ये । ये हमेशा जब किसीसे मिलते हैं तो यह सोंच के मिलते हैं कि मैं अपने जैसे इंसान से मिल रहा हूँ ना की किसी हिन्दू , मुसलमान सिख या ईसाई से, और ना यह की किसी अमीर से या ग़रीब से। ये जब किसी को पढ़ते हैं तो यह नहीं देखते कि कौन कह रहा है बल्कि यह देखते हैं कि क्या कह रहा है?’ इनके प्रमुख ब्लॉग हैं अमन का पैगाम, ब्लॉग संसार , बेजवान आदि ।
सबसे अहम् बात यह कि “अमन के पैग़ाम पे सितारों की तरह चमकें” श्रेणी में अलग अलग ब्लोगेर्स ने अपने शांति सन्देश “अमन का पैग़ाम ” से दिए जिनमें से २१ लेख़ और कविताएँ पेश की जा चुकी हैं..’और अनगिनत अभी पेश की जानी है। कोई भी व्यक्ति समाज में शांति कैसे कायम की जाए इस विषय पे अपने लेख़ ,कविता, विचार इन्हें भेज सकता है, उसको उस ब्लोगर के नाम, ब्लॉग लिंक और तस्वीर के साथ ये प्रस्तुत करते रहते हैं ।
जून महीने में एक और ब्लॉग आया नाज़-ए-हिंद सुभाष , ब्लोगर हैं जय दीप शेखर । जय दीप भूतपूर्व वायु सैनिक हैं और सम्प्रति भारतीय स्टेट बैंक में सहायक के पद पर कार्यरत हैं । इस ब्लॉग में मिलेंगे आपको नेताजी से प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष रुप से जुड़े वे तथ्य और प्रसंग, जिन्हें हर भारतीय को- खासकर युवा पीढ़ी को- जानना चाहिए, मगर दुर्भाग्यवश नहीं जान पाते हैं।
इस चर्चा को विराम देने से पूर्व एक एक चर्चाकार की चर्चा , क्योंकि यह ब्लोगर अपने सामाजिक सरोकार रूपी प्रभामंडल के भीतर ही निवास करता है और अच्छे-अच्छे पोस्ट की चर्चा करके हिंदी ब्लॉग जगत को समृद्ध करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । नाम है शिवम् मिश्रा और काम सत्यम शिवम् सुन्दरम से ब्लॉग जगत को अवगत कराना यानी नाम और काम दोनों दृष्टि से साम्य । इन्होनें ब्लोगिंग मार्च’ २००९ में शुरू की … अपना पहला ब्लॉग बनाया … बुरा भला के नाम से … तब से ले कर आज तक ये हिंदी ब्लोगिंग में सक्रिय हैं हाँ बीच में नवम्बर २००९ से ले कर अप्रैल २०१० तक ये इस ब्लॉग जगत से दूर रहे पर केवल तकनीकी कारणों से ! आज ये ९ ब्लोगों से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं जिस में से कि २ ब्लॉग इनके है बाकी सामूहिक ब्लॉग है ! जिन-जिन ब्लोग्स से ये जुड़े हैं उनमें प्रमुख है बुरा भला , जागो सोने वाले, सत्यम नियुज़ मैनपुरी , लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन , नुक्कड़ , ब्लॉग4वार्ता , ब्लॉग संसद , मन मयूर और दुनिया मेरी नज़र से । इन प्रतिभाशाली ब्लोगरों को मेरी शुभकामनाएं !
प्रथम छमाही के यादगार आलेखों/रचनाओं तथा महत्वपूर्ण पोस्ट की चर्चा के बाद आईये चलते हैं दूसरी छमाही में प्रकाशित कुछ यादगार पोस्ट की ओर । दूसरी तिमाही के उत्तरार्ध में हिंदी ब्लॉग टिप्स ने यह जानकारी दी की १०० से अधिक फॉलोवर वाले ब्लॉग की संख्या १०० तक पहुँच चुकी है , यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ, किन्तु यह स्थिति १८ सितम्बर तक की थी । ३१ दिसंबर तक की स्थिति पर गौर करें तो व्यक्तिगत ब्लॉग की श्रेणी में हिंदी ब्लॉग टिप्स १००० प्रशंसकों के संमूह में तथा शब्दों का सफ़र ५०० प्रशंसकों के समूह में एकलौते नज़र आये, जबकि १०० से ४०० प्रशंसकों वाले ब्लॉग की सूची में लगभग १२५ के आसपास , जिनमें से प्रमुख है -महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर,हरकीरत ‘ हीर, दिल की बात छींटें और बौछारें,ताऊ डाट इन,काव्य मंजूषा,मेरी भावनाएं,व्योम के पार ,GULDASTE – E – SHAYARI,लहरें,ज़िन्दगी…एक खामोश सफ़र,पाल ले इक रोग नादां…,Rhythm of words…,प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा,अंतर्द्वंद्व ,Hindi Tech Blog – तकनीक हिंदी में,उच्चारण,नीरज,मेरी कलम – मेरी अभिव्यक्ति,चक्रधर की चकल्लस,अमीर धरती गरीब लोग,गुलाबी कोंपलें,गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष,रेडियो वाणी,उड़न तश्तरी,कुछ मेरी कलम से,वीर बहुटी,ज्ञान दर्पण,मेरी रचनाएँ,चाँद, बादल और शाम,KISHORE CHOUDHARY,सुबीर संवाद सेवा,स्पंदन,संवेदना संसार,प्राइमरी का मास्टर,स्वप्न मेरे,” अर्श “,आरंभ,कुश की कलम,झरोखा ,अमृता प्रीतम की याद में…..,ज़ख्म…जो फूलों ने दिये,आदत.. मुस्कुराने की,मनोरमा,महाशक्ति,अलबेलाखत्री .कॉम ,कुमाउँनी चेली,शस्वरं,ज्योतिष की सार्थकता,मसि-कागद,हिंदीब्लॉगरोंकेजनमदिन,कवि योगेन्द्र मौदगिल,ललितडॉटकॉम,संवाद घर ,गठरी,उल्लास: मीनू खरे का ब्लॉग,क्वचिदन्यतोअपि,शब्द-शिखर,घुघूतीबासूती,संचिका,देशनामा,मेरी छोटी सी दुनिया,जज़्बात,बिखरे मोती,चाँद पुखराज का,अनामिका की सदायें,मनोज,मुझे कुछ कहना है,सच्चा शरणम ,दिशाएं,आनंद बक्षी,नारदमुनि जी,BlogsPundit by E-Guru Rajeev,ज़िंदगी के मेले,अलग सा ,बेचैन आत्मा,काव्य तरंग,मेरी दुनिया मेरे सपने,सरस पायस,नवगीत की पाठशाला,पिट्सबर्ग में एक भारतीय,काव्य तरंग,मुझे शिकायत हे,अदालत,काजल कुमार के कार्टून,अजित गुप्‍ता का कोना,हृदय गवाक्ष,आज जाने कि जिद न करो ,अंधड़,गीत मेरी अनुभूतियाँ,एक आलसी का चिठ्ठा,महावीर , रचना गौड़ ’भारती’ की रचनाएं,एक नीड़ ख्वाबों,ख्यालों और ख्वाहिशों का,कल्पनाओं का वृक्ष,ZEAL, मेरा सागर, कुछ एहसास ‘सतरंगी यादों के इंद्रजाल,वटवृक्ष,परिकल्पना,मुसाफिर हूँ यारों,कुछ भी…कभी भी..,ज्ञानवाणी,आदित्य (Aaditya), लावण्यम्` ~अन्तर्मन्`,समयचक्र,मेरे विचार, मेरी कवितायें,पराया देश,मानसिक हलचल,”सच में!” आदि।
कुछ ब्लॉग जो सामूहिक लेखन से या संग्रहित सामग्री से चलते हैं और जिनके वर्ष-२०१० तक १००० से ज़्यादा प्रशंसक हो चुके हैं, उनमें प्रमुख हैं -भड़ास blog, इसके अलावा १००से ९९९ प्रशंसकों वाले सामूहिक/सामुदायिक ब्लॉग की सूची में स्थान बनाने में सफल रहे -रचनाकार,चिट्ठा चर्चा,नारी, नुक्कड़, TSALIIM,हिन्दीकुंज, Science Bloggers’ Association, हिन्दुस्तान का दर्द, चर्चा मंच, माँ ! ,चोखेर बाली, क्रिएटिव मंच-Creative Manch, ब्लॉग 4 वार्ता, ब्लॉगोत्सव २०१०, लखनऊ ब्लोगर असोसिएशन,कथा चक्र,”हिन्दी भारत”,चर्चा हिन्दी चिट्ठों की, मुहल्ला लाईव , कबाड़खाना आदि।
३१ दिसंबर तक के आंकड़ों के आधार पर Shobhna: The Mystery ९२ प्रशंसकों ,मा पलायनम ! ९५ प्रशंसकों ,THE SOUL OF MY POEMS ९५ प्रशंसकों ,आवाज़ ९६ प्रशंसकों,मानसी ९९ प्रशंसकों के साथ निकटतम स्थिति में रहे हैं ।
बड़ों की चर्चा के बाद आईये बच्चों की ओर उन्मुख होते हैं । बच्चों की बात ही निराली होती है। फिर बच्चों से जुड़े ब्लॉग भी तो निराले हैं। अब तो बाकायदा इनकी चर्चा प्रिंट-मीडिया में भी होने लगी है। ‘ हिंदुस्तान’ अख़बार के दिल्ली संस्करण में १६ सितम्बर, २०१० को प्रकाशित भारत मल्होत्रा के लेख ‘ब्लॉग की क्रिएटिव दुनिया’ में बच्चों से जुड़े ब्लॉगों की इस वर्ष भरपूर चर्चा हुई है । अक्सर विश्लेषण के क्रम में बच्चों का ब्लॉग छूट जाता रहा है , किन्तु इस वर्ष पहली बार किसी नन्हे ब्लोगर (अक्षिता पाखी )को वर्ष का श्रेष्ठ नन्हा ब्लोगर घोषित किया गया और उनकी रचनात्मकता को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया गया इसलिए आईये कुछ नन्हे ब्लोगरों के ब्लॉग पर नज़र डालते हैं ।
जब बड़ों के प्रशंसक इतने ज्यादा हैं तो बच्चे भला कैसे पीछे रह सकते हैं । १०० से ज्यादा प्रशंसकों के समूह में शामिल बाल ब्लॉग सूची में इस वर्ष केवल चार नन्हे ब्लोगर शामिल हुए इनके ब्लॉग है क्रमश: – पाखी , आदित्य ,सरस पायस और मेरी छोटी सी दुनिया……!
इस वर्ष के चर्चित नन्हे ब्लोगरों की सूची में शामिल रहे हैं जो ब्लॉग उनके नाम है- आदित्य, पाखी की दुनिया , नन्हे सुमन , बाल संसार , नन्हा मन , क्रिएटिव कोना , बाल दुनिया, बाल सजग, बाल मन , चुलबुली,नन्ही परी, मेरी छोटी सी दुनिया, माधव , अक्षयांशी, LITTLE FINGER , मैं शुभम सचदेव आदि ।
बच्चों के ब्लॉग को प्रमोट करने हेतु एक चर्चा मंच भी है जिसका नाम है बाल चर्चा मंच जो इन ब्लोग्स की निरंतर चर्चा करके उत्साह वर्द्धन का कार्य करता रहा पूरे वर्ष भर । इस ब्लॉग के ८४ प्रशंसक हैं ।
आज की चर्चा को विराम देने से पूर्व आपको एक ऐसे ब्लॉग से रूबरू कराने जा रहे हैं ,जों एक मंच है और समर्पित है भारत चर्चा को। भारत से सम्बन्धित किसी भी विषय पर आपके विचार चर्चा के लिये आमन्त्रित हैं। भारत विश्व की सर्वाधिक धनी और प्राचीन सभ्यता का स्थान है, जिसका अस्तित्व सदियो तक रहा है, तथा जिसके प्रमाण हमे आज भी मिलते हैं। प्राचीन भारत को विश्व ज्ञान गुरु कहा जाता है। गणित और विज्ञान की कई विधाओं की जन्म-स्थली है यह भूमि। इस मंच पर आप भारत के स्वर्णिम इतिहास के बारे मे अपने विचार रख सकते हैं। भारत तो अनगिनत विविधताओ से भरा देश है। इसे पूर्णतः जानना तो असंभव प्रतीत होता है, परन्तु यह एक प्रयास है और इस प्रयास मे अपना योगदान दीजिए।
विगत वर्ष कतिपय तकनिकी ब्लोग्स के द्वारा हिंदी ब्लोगिंग की सेहत को दुरुस्त करने में अहम् भूमिका अदा की गयी , कुछ समय के साथ अनियमित भी हुए और कुछ काल कलवित भी, किन्तु कुछ ब्लोग्स की भूमिका महत्वपूर्ण बनी रही लगातार , उसमें प्रमुख है श्री रवि रतलामी का ब्लॉग छीटें और बौछारें, आशीष खंडेलवाल का ब्लॉग हिंदी ब्लॉग टिप्स, विनय प्रजापति नज़र का ब्लॉग TECH PREVUE यानी तकनीकी द्रष्टा आदि । इन ब्लोग्स को हिन्दी चिट्ठाजगत में तकनीकी चिट्ठाकारी को लोकप्रिय बनाने हेतु जाना जाता है।
इस वर्ष जनवरी के उत्तरार्द्ध में कई वर्षों की अनियमितता के बाद अचानक श्रीश शर्मा यानी “epandit” का आगमन हुआ । उल्लेखनीय है कि ‘ई-पण्डित’ का आरम्भ २००६ में अधिक से अधिक अन्तर्जाल प्रयोक्ताओं को हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रति आकर्षित करने, नए लोगों की सहायता करने तथा हिन्दी में तकनीकी ब्लॉगिंग को प्रमोट करने (और चिट्ठाकार की गीकी खुजली मिटाने) के लिए किया गया। ‘ई-पण्डित’ तकनीक, हिन्दी कम्प्यूटिंग, हिन्दी टाइपिंग, इनपुट विधियों पर बहुत से लेख लाया। विशेषकर कम्प्यूटर पर यूनिकोड हिन्दी टाइपिंग नामक लेख बहुत ही सराहा गया एवं विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। य़ह पहला लेख था जिसमें कम्प्यूटर पर हिन्दी टाइपिंग के विभिन्न तरीकों को सुव्यवस्थित तरीके से डॉक्यूमेंट किया गया।
‘ई-पण्डित’ महज एक ब्लॉग नहीं एक विचार था, एक दृष्टिकोण, एक स्वप्न कि हिन्दी को भी इण्टरनेट पर अपना उपयुक्त स्थान मिले। हिन्दी की स्थिति तब भी और अब भी अन्य देशों की भाषाओं यथा चीनी, अरबी आदि से बहुत पीछे थी और है। चिट्ठाकारों का स्वप्न था कि इण्टरनेट पर अपनी भाषा हिन्दी की भी अलग दुनियाँ हो। ‘ई-पण्डित’ इसी दिशा में एक अदना सा प्रयास था। दूसरा मुख्य उद्देश्य था कि आम हिन्दी भाषी जिसकी अंग्रेजी तक किञ्चित कारणों से पहुँच नहीं है उसे अपनी भाषा में सरल रुप से तकनीकी जानकारी मिले।
दूसरे उस समय हिन्दी में कोई भी तकनीकी ब्लॉग नहीं था। कुछ चिट्ठाकार यदा-कदा तकनीकी पोस्टें लिखते रहते थे परन्तु कोई सम्पूर्ण, संगठित और विषय आधारित चिट्ठा नहीं था। कुछेक चिट्ठे तकनीकी विषयों पर शुरु हुए पर दो-चार पोस्टें लिखकर गायब भी हो गए। कारण था कि उस समय हिन्दी में तकनीकी पोस्टों को विशेष पढ़ा नहीं जाता था, न तो पर्याप्त हिट्स मिलते थे और न पर्याप्त टिप्पणियाँ। इस कारण कोई भी तकनीकी विषयों पर लिखता न था। यद्यपि इससे कई बार मनोबल गिरता था परन्तु कुछ साथियों के हौसला बढ़ाने और कुछ ही सही लेकिन अच्छी फीडबैक के चलते लेखन जारी रहा। साथ ही एक उम्मीद थी की शायद इससे से प्रेरित होकर भविष्य में कुछ अन्य लोग भी तकनीकी ब्लॉग लिखने लगें। खैर धीरे-धीरे समय के साथ बदलाव आया और ‘ई-पण्डित’ प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय होता गया। इनके अज्ञातवास पर जाने के समय ‘ई-पण्डित’ की लोकप्रियता चरम पर थी और रविरतलामी जी के बाद ‘ई-पण्डित’ के सबसे ज्यादा फीड सबस्क्राइबर थे।
नवम्बर २००७ के दौरान ‘ई-पण्डित’ किञ्चित कारणों से अवकाश (या अज्ञातवास) पर चले गए तथा दो वर्ष पश्चात २७ जनवरी २०१० को वापस आये । खैर हार्दिक खुशी की बात है कि हिन्दी चिट्ठाजगत अब भाषाई अल्पसंख्यक ब्लॉगरों का कुनबा न रहकर विशाल कॉम बन गया है। पुराने समय तकनीक सम्बन्धी अपडेट्स जानने के लिए अंग्रेजी चिट्ठों का रुख करना पड़ता था पर अब बहुत सी खबरें हिन्दी चिट्ठों से ही मिल जाती हैं। उम्मीद है यह स्थिति धीरे-धीरे और सुधरेगी।
मेरी जानकारी में कई तकनीकी चिट्ठे हैं जो वर्ष-२०१० में धमाल मचाते रहे मगर सबकी चर्चा करना संभव नही । तो आईये कुछ चिट्ठों पर प्रकाशित तकनीकी पोस्ट जो मुझे अत्यन्त उपयोगी लगे उसी की चर्चा करते हैं -पहला चिट्ठा है “Raviratlami Ka Hindi Blog ” इस ब्लॉग पर इस वर्ष प्रकाशित १४३ पोस्ट्स में से कुछ पोस्ट जो सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ उनमें प्रमुख है – हिंदी पी डी एफ फाईलों को यूनिकोड वर्ड डाक्यूमेंट में कैसे जोड़ें ?, ५० मजेदार कम्प्यूटिंग कहावतें , सावधान ऊर्जा वचत के लिए अर्थ आवर बन सकता है’डिजास्टर आवर’ , अपने हिंदी ऑफिस में जोडीये एक लाख शब्दों की कस्टम डिक्सनरी , बच्चों के लिए ख़ास -लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम -क्विमो लिनक्स-तथा ऑफिस सूट ….., ये कम्फर्ट स्टेशन क्या होता है ?, ब्लॉग : आईये आचार संहिता को मारे गोली आदि ।
इस वर्ष सर्वाधिक चर्चित तकनीकी ब्लॉग की श्रेणी में रवि रतलामी के ब्लॉग बाद जिस ब्लॉग का नाम शीर्ष फलक पर दिखाई दिया उसमें पहला नाम आता है आशीष खंडेलवाल का , जिनके ब्लॉग का नाम है हिंदी ब्लॉग टिप्स । इसपर प्रकाशित कुछ पोस्ट काफी लोकप्रिय हुए, जिनमें से प्रमुख है – ब्लोग्स पर कॉमेंट से जुडी दो नयी सुविधाएं , सौ से ज्यादा फौलोवर वाले हिंदी चिट्ठों का शतक , एक घंटे में गूगल से ३४९७.६२ रुपये कमाने का मौक़ा आदि ।
इस वर्ष उन्मुक्त पर तकनीकी बातें कम देखने को मिली, किन्तु इसके एक पोस्ट ने मुझे आकर्षित किया वह है हमने भगवान शिव को याद किया और आप मिल गए …! तकनीकी दस्तक पर इस वर्ष मात्र एक पोस्ट प्रकाशित हुआ । इस बार दस्तक ने चार साल पूरे किये , दस्तक पर एक सार्गाभित पोस्ट देखने को मिला यथा IRCTC अब नए अंदाज़ में । अंकुर गुप्ता के हिंदी ब्लॉग पर इस वर्ष कुछ सार्थक और सारगर्भित पोस्ट देखने को मिले यथा -फायरफौक्स अब नए रूप में, फेसबुक को जी मेल से जोड़ें , अंतरजाल.इन , तकनीकी चिट्ठे का शुभारंभ , देशभक्ति संगीत डाऊनलोड करें आदि . kunnublog – Means Total Entertainment पर भी इस वर्ष काफी अच्छे-अच्छे पोस्ट पढ़ने को मिले यथा मेरा नया साईट : किसी भी साईट को अनब्लोक करे , ब्लॉग/ साईट का बैक लिंक कैसे बनाएं, पेज रैंक बढायें , जी मेल का वैक अप बनाकर कंप्यूटर पर सेव करें आदि ।
तकनीकी जानकारी देने में हिंद युग्म का ई -मदद इस वर्ष काफी सक्रिय तो नहीं रहा किन्तु इस वर्ष प्रकाशित उसके दोनों पोस्ट कई अर्थों में काफी महत्वपूर्ण रहा । यथा चैट करके जानिये अंग्रेजी शब्दों के हिंदी अर्थ तथा कृतिदेव ०१० से यूनिकोड से कृतिदेव ०१० प्रवर्तक आदि ।
परिकल्पना के विश्लेषण में विगत वर्ष-२००९ में सर्वाधिक सक्रिय क्षेत्र छत्तीसगढ़ के सक्रीय शहर रायपुर के खरोरा के रहने वाले नवीन प्रकाश २४ अगस्त २००९ को अपना नया चिटठा हिंदी टेक ब्लॉग लेकर आये और ब्लॉग जगत को समर्पित करते हुए कहा कि “बस एक कोशिश है -जो थोडी बहुत जानकारियां मुझे है मैं चाहता हूँ कि आप सभी के साथ बांटी जाए। “
इस वर्ष इस चिट्ठे ने हिंदी ब्लोगिंग में पूरी दृढ़ता के साथ अपना कदम बढाया है और लगातार अपने महत्वपूर्ण विचारो /जानकारियों से हिन्दी चिट्ठाकारी को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।इसके अलावा इधर उधर की , ब्लॉग मदद, टेक वार्ता , ज्ञान दर्पण , तकनीकी संवाद आदि ब्लॉग की भी सक्रियता और प्रासंगिकता बनी रही है इस वर्ष ।
तकनीकी चिट्ठों की प्रासंगिकता और उद्देश्यपूर्ण सक्रियता के सन्दर्भ में तकनीकी चिट्ठाकार विनय प्रजापति का मानना है कि “हिन्दी चिट्ठाजगत से जुड़े सभी ब्लोगर हिन्दी का मान बढ़ाकर भारत का गौरव बढ़ा रहे हैं जबकि अंग्रेजी कोस-कोस में व्याप्त हो चुकी है और उसके बिना तो किसी साक्षात्कार में दाल ही नहीं गलती। हिन्दी के प्रचार-प्रसार को लेकर हम जो भी कर रहे हैं, वह बहुत ही सराहनीय है पर हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जो सब कुछ जानते हैं लेकिन तकनीकि सरल स्रोत उपलब्ध न होने के कारण अपने पृष्ठों पर प्रस्तुतिकरण ठीक से नहीं कर पा रहे हैं, जिससे पाठक के मन से उन्हें पढ़ने की रुचि जाती रहती है और वह टिप्पणी करके या उससे भी बचकर निकल जाता है। ऐसे में तकनीकी जानकारी प्रदान करने वाले चिट्ठों की आवश्यकता महसूस होती है । तकनीकी चिट्ठों के आगमन में लगातार इजाफा हो रहा है और यह इजाफा आने वाले दिनों में हिंदी ब्लोगिंग को निश्चित रूप से समृद्ध करने में अहम् भूमिका निभाएगा , इसमें कोई संदेह नहीं है । “
यहाँ एक और प्रतिभाशाली ब्लोगर की चर्चा आवश्यक प्रतीत हो रही है वे हैं संजय वेंगाणी , जिनके ब्लॉग का नाम है जोग लिखी यानी तरकश.कॉम , इसपर भी समय-समय पर तकनिकी जानकारियाँ दी जाती रही है ।वर्तमान में भारत के अहमादाबाद (कर्णावती) शहर से मीडिया कम्पनी चला रहे हैं , हिन्दी के प्रति मोह राष्ट्रवादी विचारधारा की छाया में पनपा. इन्हें जिस काम में सबसे ज्यादा आनन्द मिलता है वे है अभिकल्पना और वेब-अनुप्रयोगों का ।
परिवर्तन दुनिया का आईना है इसलिए हर वर्ष परिस्थितियाँ बदली हुई होती है । परिस्थितियों का अंतर्द्वंद्व , सोचने-समझने का नज़रिया, वैचारिक दृष्टिकोण और कहने की शैली में बदलाव साफ़ दिखाई देता है । हमारा समाज नयी-नयी चीजें अपना तो रहा है , साथ ही बहुत पुरानी चीजें छोड़ भी रहा है । बीता हुआ २०१० भी इसका गवाह रहा है और आने वाले दिनों में भी यह दौर कायम रहेगा । कुछ लोग कहते हैं कि ब्लॉग डायरी का दूसरा रूप है और दूसरी तरफ ब्लोगर की निजता पर प्रश्न भी उठाये जाते हैं । कुछ ब्लोगर पोस्ट के माध्यम से सफल नहीं हो पाते तो अनावश्यक प्रलाप में निमग्न रहते हैं ताकि मुख्यधारा में बने रह सके । कुछ तो जानबूझकर विवाद को हवा देते हैं और कुछ अपनी सहूलियतों के हिसाब से अपने लिए पैमाने तय कर लेते हैं । यही है हिंदी ब्लोगिंग की सच्चाई ।
सदी के दूसरे दशक का पहला साल २०११ नयी उम्मीदें और उमंगें लेकर आ रहा है । इस वर्ष जनवरी में विकिपीडिया अपनी दसवीं वर्षगाँठ मनायेगा । नेट पर दुनिया के लगभग सभी देशों में उपलब्ध यह विश्वकोष पढ़ने -लिखने वालों के लिए वरदान है । मार्च में सोशल नेटवर्क ट्विटर अपने पांच साल पूरा करेगी । संयोग से उसी दिन विश्व कविता दिवस भी मनाया जाएगा । इसी महीने दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण में जुटे लोग एक घंटे तक बिजली के उपकरणों को बंद करके ‘अर्थ आवर मनाएंगे । उद्देश्य होगा उर्जा की बचत करना और जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को दर्शाना । जून के महीने में ‘आई बी एम ‘ अपनी सौवीं वर्षगाँठ मनाने के साथ हीं यह साबित कर देगी वक़्त के साथ बदलते रहना जरूरी है ।
भारतीय परिदृश्य में ब्लोगिंग की भूमिका की बात करें तो इस वर्ष के प्रारंभ में पांच राज्यों में प्रस्तावित चुनाव पर ब्लोगिंग की ख़ास नज़र देखी जा सकती है । राष्ट्रीय राजधानी के सौ साल पूरे हो रहे हैं इस पर भी हिंदी ब्लॉग की नज़र रहेगी इस वर्ष खासकर दिल्ली के ब्लोगरों की । खट्टी-मीठी यादों के साथ वर्ष-२०१० को हम सभी ने अलविदा कह दिया किन्तु भ्रष्टाचार का सवाल हमें पूरे साल सालता रहा , इस वर्ष भी यह मुद्दा ब्लॉग जगत का हिस्सा बना रह सकता है ऐसी संभावना है । मौजूदा ब्लोगिंग परिदृश्य में विरोधी पक्ष को नीचा दिखाने और उसके मुकावले ज्यादा टिप्पणियाँ बटोरने का सिलसिला अभी जारी रह सकता है , क्योंकि हिंदी ब्लोगिंग अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं हो पाया है । विगत वर्ष के आखिरी क्षणों में प्याज ने लगाई महंगाई में आग , टमाटर और पेट्रोल के ऊँचे दामों से खाद्य मुद्रास्फीति १४.४४ फीसदी तक पहुंची अगले वर्ष में भी रियायत की संभावना कम है , यह भी मुद्दा छाया रहेगा अगले वर्ष ब्लोगिंग में ।
वर्ष-२०१० ब्लोगर गहमागहमी, ब्लोगर मिलन,ब्लोगर संगोष्ठी और ब्लॉग बबाल से भरपूर रहा । हिंदी ब्लोगिंग के चहुमुखी विकासमें भले ही अवरोध की स्थिति बनी रही पूरे वर्ष भर, किन्तु बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका अपने इस आकलन को लेकर करीब-करीब एकमत है कि आने वाला कल हमारा है यानी हिंदी ब्लोगिंग का है ।
इसकों लेकर किन्तु-परन्तु हो सकता है कि हिंदी ब्लोगिंग का विकास अन्य भाषाओं की तुलना में धीमा रहा , लेकिन इसे लेकर किसी को संशय नहीं होना चाहिएकि हिंदी चिट्ठाकारी उर्जावान ब्लोगरों का एक ऐसा बड़ा समूह बनता जा रहा है जो किसी भी तरह की चुनौतियों प़र पार पाने में सक्षम है और उसने अपने को हर मोर्चे पर साबित भी किया है । वस्तुत: विगत वर्ष की एक बड़ी उपलब्धि और साथ ही आशा की किरण यह रही है कि ब्लॉग के माध्यम से वातावरण का निर्माण केवल वरिष्ठ ब्लोगरों ने ही नहीं किया है , अपितु एक बड़ी संख्या नए और उर्जावान ब्लोगरों की हुई है , जिनके सोचने का दायरा बहुत बड़ा है । वे सकारात्मक सोच रहे हैं , सकारात्मक लिख रहे हैं और सकारात्मक गतिविधियों में शामिल भी हो रहे हैं ।
साहित्य और पत्रकारिता से गायब हो चुके यात्रा वृतांतों ने ब्लॉग में अपनी जगह तलाशनी शुरू कर दी है । इसी तलाश के क्रम में इस वर्ष जून के महीने में ललित शर्मा लेकर आये चलती का नाम गाडी । भुखमरी पर चर्चा में अब मीडिया की दिलचश्पी भले ही न रह गयी हो किन्तु ब्लॉग में इस समस्या पर गंभीर लेखन की शुरुआत हो चुकी है यह जानकर संतोष होता है । ब्लॉग का नाम है दोस्त । सचमुच यह दोस्त है संवेदनाओं का , दोस्त है उन भूखों का जो अपनी आवाज़ उचित प्लेटफोर्म पर नहीं उठा पाते , दोस्त है उन बच्चों का जो कुपोषण के कारण हर वर्ष एक बड़ी संख्या में काल कलवित होने की स्थिति में हैं । सवालों से जूझते-टकराते इस ब्लॉग से नए वर्ष में कुछ और सार्थक पहल की उम्मीद की जा सकती है । अब तो इंटरनेट पर लहलहाने लगी है फसलें, सिखाये जाने लगे हैं गेहूं-धान आदि । शिव नारायण के ब्लॉग खेत खलियान ने विगत वर्ष की तरह इस वर्ष भी कुछ सार्थक पोस्ट दिए हैं अपने ब्लॉग पर । उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर फतहपुर से प्रवीण त्रिवेदी वर्त्तमान शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलते हुए इस वर्ष भी नज़र आये , उनका ब्लॉग ‘प्राईमरी का मास्टर’ कई सार्थक और सकारात्मक बहस का गवाह बनने में सफल रहा । संस्मरणों से भरी ब्लॉग की दुनिया में बेजान मुकदमों में सामाजिक प्रसंग ढुन्ढने में सफल रहा इस वर्ष भी अदालत ।
हिंदी ब्लॉग अंतर्विरोधों से भरा है, क्योंकि हम ऐसे ही हैं । एक ओर हम विदेशी संस्कृति से अपनी संस्कृति को बचा कर रखना चाहते हैं , तो दूसरी तरफ उसी को पूरी तरह अपनाने में अपना गौरव समझते हैं । ऐसे में एक ब्लॉग से साक्षात्कार सुखद रहा इस वर्ष । ब्लॉग का नाम है लोकरंग और ब्लोगर हैं गाजियावाद की प्रतिमा वत्स। वहीं अनुभवों के आधार पर बाज़ार के उत्पादों की विवेचना करता एक गृहणी का ब्लॉग ‘सवा सेर शॉपर’ इस वर्ष पूरी तरह अनियमित रहा । ऐसे ब्लॉग का अनियमित होना शालता रहा पूरे वर्ष भर । विगत वर्ष विश्लेषण के दौरान एक आदिवासी ब्लोगर की चर्चा हुई थी और ख़ुशी जाहिर की गयी थी कि जब एक आदिवासी ब्लोगर बन गया है तो प्राचीन मानवीय संस्कृति को ग्लोबलाईज करने में मदद मिलेगी, किन्तु हरिराम मीणा के ब्लॉग आदिवासी जगत पर केवल पांच पोस्ट ही प्रकाशित हुए । पर ये पाँचों पोस्ट आदिवासी संस्कृति को वयां करता हुआ कई महत्वपूर्ण विमर्श को जन्म देने में सफल रहा ।
अंतरजाल पर कुछ वेब पत्रिकाएं हैं जो ब्लॉग को प्रमोट करने की दिशा में सक्रिय है, उसमें प्रमुख है सृजनगाथा, अभिव्यक्ति, अनुभूति, दि सन्दे पोस्ट, पाखी ,एक कदम आगे, गर्भनाल , पुरवाई, प्रवासी टुडे, अन्यथा, भारत दर्शन, सरस्वती पत्र आदि , किन्तु साहित्य कुञ्ज इस वर्ष पूरी तरह अनियमित रहा । इस वर्ष एक और वेब पत्रिका पांडुलिपि का आगमन हुआ जो अनेक साहित्यिक सन्दर्भों को प्रस्तुत करके कम समय में ही अपनी पहचान बनाने में सफल रही है । यह प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका है , जो पूरी तरह अंतरजाल पर सक्रिय नहीं हो पायी है ।
विशुद्ध साहित्यिक सन्दर्भों को सहेजने में पूरे वर्ष मशगूल रहा प्रभात रंजन का ब्लॉग जानकी पुल । बना रहे बनारस पर पूरे वर्ष गंभीर साहित्यिक सामग्रियां परोसी जाती रही , साथ ही रचनाकार ,कृत्या ,साखी ,स स्वरं ,आखर कलश,नेगचार,कांकड़,अनुसिर्जन, शब्दों का उजाला,साहित्य शिल्पी, कागद हो तो हर कोई बांचे,अनुवाद घर,गवाक्ष, सेतु साहित्य,नयी कलम उभरते हस्ताक्षर ,पंचमेल ,उद्धव जी ,पढ़ते-पढ़ते , मोहल्ला लाईव, नया ज़माना , जनपक्ष , जनशब्द , हुंकार , तनहा फलक , वटवृक्ष , पुरविया , काव्य प्रसंग , स्वप्नदर्शी , हरी मिर्च , सरगम ,हरकीरत हीर , संचिका , उदय प्रकाश , शहर के पैगंबरों से कह दो , शहरोज का रचना संसार , कतरनें , समीक्षा , हाशिया , अनकही, आलोचक , जिरह , नास्तिकों का ब्लॉग , नयी रोशनी , दिल की बात , कुछ औरों की कुछ अपनी , पुनर्विचार , हमजवान , गीता श्री , हारमोनियम , रिजेक्ट माल , मेरी डायरी, शरद कोकाश , शुशीला पुरी , दिलें नादाँ , पाल ले एक रोग नादाँ , संजय व्यास ,डा कविता किरण , मुक्तिवोध ,जिंदगी-ए-जिंदगी , हमारी आवाज़ ,जोग लिखी, नयी बात ,मेरी भावनाएं ,खिलौने वाला घर,हिंद युग्म हिंदी कविता, पद्मावली ,जिंदगी एक खामोश सफ़र, , काव्य तरंग,राजभाषा हिंदी, ज्ञान वाणी,यात्रा एक मन की, लम्हों का सफ़र,एहसास अंतर्मन के ,पलकों के सपने,अनुशील,आदत मुस्कुराने की,जज्वात ज़िंदगी और मैं,इक्कीसवीं सदी का इन्द्रधनुष, बस यूँ हीं , रसबतिया, मेरी बात, न दैनयम न पलायनम, उल्लास मीनू खरे का ब्लॉग,अमन का पैगाम,जो मेरा मन कहे,शीखा दीपक, स्वप्न मेरे ,सरोकार,आवाज़ दो हमको,दिल का दर्पण ,सच में, फुलबगिया,चाँद की सहेली, रचना रवीन्द्र, कासे कहें, कुछ मेरी कलम से, नीरज,शाश्वत शिल्प,अनामिका की सदायें , नजरिया , मेरी छोटी सी दुनिया ,हास्य कवि अलवेला खत्री, भाषा सेतु , हुंकार , काजल कुमार के कार्टून , शब्दों का सफ़र ,आखर माया,मेरा सामान ,बचपन, बेचैनआत्मा, अनवरत,कबाडखाना,आवाराहूँ,अनकहीबातें,अलफ़ाज़,ज़िन्दगीकेमेले,चवन्नीचैप,कविताएँ ,बरगद ,क्वचिदन्यतोअपि……….! , अनुनाद , कस्बा , नुक्कड़ ,कर्मनाशा आदि ब्लोग्स पर कतिपय रचनात्मक पोस्ट देखने को मिले हैं इस वर्ष ।
इसप्रकार सक्रियता में अग्रणी रहे श्री समीर लाल समीर और सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी चिट्ठाकारी में अपनी उद्देश्यपूर्ण भागीदारी में अग्रणी दिखे डा अरविन्द मिश्र । रचनात्मक आन्दोलन के पुरोधा रहे श्री रवि रतलामी , जबकि सकारात्मक लेखन के साथ-साथ हिन्दी के प्रचार -प्रचार में अग्रणी दिखे श्री शास्त्री जे सी फिलिप । विधि सलाह में अग्रणी रहे श्री दिनेश राय द्विवेदी और तकनीकी सलाह में अग्रणी रहे श्री आशीष खंडेलवाल । वहीं अनूप शुक्ल समकालीन चर्चा में अग्रणी दिखे और दीपक भारतदीप गंभीर चिंतन में । इसीप्रकार चिट्ठा चर्चा में अग्रणी रहे मनोज कुमार और राकेश खंडेलवाल कविता-गीत-ग़ज़ल में अग्रणी दिखे इस वर्ष ।
महिला चिट्ठाकारों के विश्लेषण के आधार पर हम जिन नतीजों पर पहुंचे है उसके अनुसार साहित्यिक गतिविधियों को प्राण वायु देने में अग्रणी रही रश्मि प्रभा । काव्य रचना में अग्रणी रहीं रंजना उर्फ़ रंजू भाटिया वहीं कथा-कहानी में अग्रणी रहीं निर्मला कपिला , ज्योतिषीय परामर्श में अग्रणी रही संगीता पुरी । टिप्पणियों में अग्रणी रही संगीता स्वरुप वहीं रचनात्मक पहल में अग्रणी रही स्वप्न मंजूषा अदा । समकालीन सोच में अग्रणी रही डा दिव्या श्रीवास्तव यानी ZEAL और गंभीर लेखन में अग्रणी दिखी रश्मि रविजा । सांस्कृतिक जागरूकता में अग्रणी दिखी अल्पना वर्मा वहीं समकालीन सृजन में अग्रणी रही आकांक्षा यादव । डा कविता वाचकनवी सांस्कृतिक दर्शन में अग्रणी रही और नन्हे ब्लोगर की श्रेणी में अग्रणी रही अक्षिता पाखी । इसी क्रम में एक बात और बताना चाहूंगा कि अल्पना देशपांडे इस वर्ष सर्वाधिक चर्चित चित्रकार के रूप में लोकप्रिय हुई , उन्हें लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रिकोर्ड में स्थान मिला, साथ ही वन्दना ने चर्चा मंच के माध्यम से अपना एक अलग मुकाम बनाने में सफल रही ।
प्रतिभाशाली लेखन में सर्वाधिक योगदान देने वालों में श्री सुभाष राय,दिगंबर नासवा,अलवेला खत्री,खुशदीप सहगल,राजीव तनेजा,गिरीश बिल्लोरे मुकुल,महफूज अली, मिथिलेश दुबे,केवलराम,डा सुशील बाकलीवाल,सुरेश चिपलूनकर, हिमांशुपाण्डेय, शिवम् मिश्र ,रेखा श्रीवास्तव ,रचना,उदय,रणधीर सिंह सुमन,मनोज कुमार,डा टी एस दाराल,राम त्यागी,के के यादव ,सतीश पंचम,परमजीत सिंह बाली, संजय ग्रोबर, सतीश सक्सेना, कुमार राधारमण, डा ऋषभ देव शर्मा, घनश्याम मौर्या, डा श्याम गुप्त, जय कुमार झा , संजीत त्रिपाठी, प्रियरंजन पालीवाल,उन्मुक्त, प्रमोद तांबट,अमित कूमार यादव,डॉ महेश सिन्हा ,जाकिर अली रजनीश ,हरीश गुप्त,प्रकाश गोविन्द,संजय झा, संजय भास्कर,संजीव तिवारी,प्रवीण त्रिवेदी,प्रवीण पाण्डेय,राज कुमार ग्वालानी , सुदर्शन ,सिद्धेश्वर, बसंत आर्य ,ओम आर्य, पंकज मिश्र,पवन चन्दन,नीलम प्रभा, मानव मेहता,अविनाश चन्द्र, राजीव कुमार ,शाहिद मिर्ज़ा शाहिद,पंकज त्रिवेदी,राजेश उत्साही,दीपक मशाल,एम वर्मा,सुनील गज्जानी,मुकेश कुमार सिन्हा,नरेन्द्र व्यास नरेन्,पंकज उपाध्याय, सत्य प्रकाश पाण्डेय,अमलेंदु उपाध्याय,ओम पुरोहित कागद, प्रकाश सिंह अर्श,विवेक रस्तोगी,राजेश उत्साही,यशवंत सिंह,राजेन्द्र स्वर्णकार,यशवंत मेहता,देव कुमार झा,सूर्यकांत गुप्ता ,पंकज सुबीर, नीरज गोस्वामी,गौतम राज ऋषि,रवि कान्त पाण्डेय, डा मनोज मिश्र,सलिल शर्मा (चला बिहारी ब्लोगर बनने ),रतन सिंह शेखावत,राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ ,अरविन्द श्रीवास्तव ,प्रवीण शाह,गौरव,सुमन सिन्हा,अभियान भारतीय,प्रतुल,सुज्ञ,अमितशर्मा,महेंद्र वर्मा ,रजनीश तिवारी,विजय माथुर,मयंक भारतद्वाज,सत्यम शिवम्,अपर्णा मनोज भटनागर,दीपक बाबा,विना श्रीवास्तव,कविता रावत,उषा राय,सुरेश यादव, प्रबल प्रताप सिंह,डा महेंद्र भटनागर, तोशी गुप्ता, गगन शर्मा, प्रेम सागर सिंह,अनुराग शर्मा,राजीव
महेश्वरी ,भूषण,आशीष,एस.एम.मासूम,कौशलेन्द्र,कुवंरकुशुमेश,अमितओम,अभिषेक,करणसमस्तीपुरी,डॉअनुराग,राजभाटिया,भारतीय नागरिक,स्मार्ट इन्डियन,डा रूप चन्द्र शास्त्री मयंक,सलीम खान,डा अनिता कुमार, श्रीमती अजित गुप्ता,वन्दना गुप्ता, वन्दना अवस्थी दुबे,सरस्वती प्रसाद, वाणी शर्मा, प्रीति मेहता ,शोभना चौरे,शिखा वार्शनेय ,सदा,रचना,साधना वैद्य,आशा जोगलेकर ,अंशुमाला,सदा,डॉ नूतन निति,इस्मत जैदी,फिरदौस खान ,वाणी गीत,गिरिजा कुलश्रेष्ठ,प्रतिभा कटियार, मीनू खरे, अलका सर्बत मिश्र,मनविंदर भिन्बर,रंजना सिंह,सीमा सिंघल,अराधना चतुर्वेदी मुक्ति, अपराजिता कल्याणी,शेफाली पाण्डेय, ज्योत्सना पाण्डेय,नीलम पुरी, रिज़वाना कश्यप,शमा, रानी विशाल और प्रतिभा कुशवाहा आदि के नाम इस वर्ष शीर्ष पर रहे ।इनके सिवा बहुत से लेखक एवं लेखिका है जो हिंदी भाषा और विभिन्न विषयों पर अच्छी पकड़ रखते हैंऔर ब्लोगिंग के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को धार देने की दिशा में सक्रिय हैं ।
वर्ष -२०१० में श्री दीपक भारतदीप जी के द्वारा अपने ब्लॉग क्रमश: ….. दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका …शब्दलेख सारथी …..अनंत शब्दयोग ……दीपक भारतदीप की शब्द योग पत्रिका …..दीपक बाबू कहीन …..दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका …..दीपक भारतदीप की ई पत्रिका …..दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका …..दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका ……दीपक भारतदीप की शब्द ज्ञान पत्रिका …..राजलेख की हिंदी पत्रिका ….दीपक भारत दीप की अभिव्यक्ति पत्रिका …दीपक भारतदीप की शब्द प्रकाश पत्रिका …..आदि के माध्यम से पुराने चिट्ठाकारों के श्रेणी में सर्वाधिक व्यक्तिगत ब्लॉग पोस्ट लिखने का गौरव प्राप्त किया है ।
इस वर्ष रचनात्मकता के प्रति कटिबद्धता पारुल चाँद पुखराज का …पर देखी गयी । इस ब्लॉग पर पहले तो गंभीर और गहरी अभिव्यक्ति की साथ कविता प्रस्तुत की जाती थी , किन्तु अब गहरे अर्थ रखती गज़लें सुने जा सकती है । सुश्री पारुल ने शब्द और संगीत को एक साथ परोसकर हिंदी ब्लॉगजगत में नया प्रयोग कर रही हैं , जो प्रशंसनीय है ।
वर्ष-२०१० में हास्य को सपर्पित चिट्ठों में सर्वाधिक अग्रणी चिट्ठा रहा ” ताऊ डोट इन ” इस ब्लॉग ने सक्रियता-सफलता और सरसता का जो कीर्तिमान स्थापित किया है वह शायद अबतक किसी भी ब्लॉग को प्राप्त नहीं हुआ होगा । अपनी चुटीली टिप्पणियों के कारण यह ब्लॉग इस वर्ष लगातार सुर्ख़ियों में बना रहा ।इस ब्लॉग की सर्वाधिक रचनाएँ चिट्ठाकारों को केंद्र में रखकर प्रस्तुत की जाती रही और कोई भी ब्लोगर इनके व्यंग्य बाण से आहत होकर न मुस्कुराया हो , ऐसा नहीं हुआ ….यानी यह ब्लॉग वर्ष के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग की कतार में अपना स्थान बनाने में सफल हुआ ।
चिट्ठाकारी में अपने ख़ास अंदाज़ और स्पस्टवादिता के लिए मशहूर हास्य कवि एवं सपर्पित चिट्ठाकार श्री अलवेला खत्री परिकल्पना के लिए विशेष साक्षात्कार देते हुए सीधी बात के अंतर्गत कहा कि- “साहित्य अकादमी की तरह ब्लोगिंग अकादमियां भी बननी चाहियें , जिस प्रकार देहात तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से प्रकाशित होने वाले हिन्दी प्रकाशनों को विशेष मदद मिलती है उसी तर्ज़ पर दूर दराज़ तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के ब्लोगर्स को विशेष सहायता मिलनी ही चाहिए।”
हास्य कवि अलवेला खत्री ने अपनी चुटीली टिप्पणियों से इस वर्ष पाठकों को सर्वाधिक आकर्षित किया । इसके अलावा वर्ष-२०१० में हास्य-व्यंग्य के दो चिट्ठों ने खूब धमाल मचाया पहला है श्री राजीव तनेजा का हंसते रहो । आज के भाग दौर , आपा धापी और तनावपूर्ण जीवन में हास्य ही वह माध्यम बच जाता है जो जीवन में ताजगी बनाये रखता है । इस दृष्टिकोण से राजीव तनेजा का यह ब्लॉग वर्ष-२०१० में हास्य का बहुचर्चित ब्लॉग होने का गौरव हासिल किया है । इनके एक पोस्ट “झोला छाप डॉक्टर ” को वर्ष का श्रेष्ठ व्यंग्य पोस्ट का अलंकरण प्राप्त हुआ है इस वर्ष । के. एम. मिश्र का सुदर्शन हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समाज की विसंगतियों पर प्रहार करने में पूरी तरह सफल रहा इस वर्ष , किन्तु राजीव तनेजा की तुलना में इस ब्लॉग की सक्रियता में थोड़ी शिथिलता देखी गयी ।
सांस्कृतिक नगर वाराणसी के डा अरविन्द मिश्र और राजनैतिक नगरी दिल्ली के अविनाश वाचस्पति अपने स्पष्टवादी दृष्टिकोण के साथ-साथ विभिन्न चिट्ठों पर अपनी तथ्यपरक टिप्पणियों के लिए लगातार चर्चा में बने रहे । डा० अमर कुमार ने इस वर्ष टिप्पणियों के माध्यम से खूब धमाल मचाया । -रवीश कुमार ने महत्वपूर्ण चिट्ठों के बारे में लगातार प्रिंट मिडिया में लिखकर पाठकों को खूब आकर्षित किया । पुण्य प्रसून बाजपेयी अपनी राजनीतिक टिप्पणियों तथा तर्कपूर्ण वक्तव्यों के लिए लगातार चर्चा में बने रहे । एक वरिष्ठ मार्गदर्शक की भूमिका में इस वर्ष दिखे रवि रतलामी ,शास्त्री जे सी फिलिप,दिनेश राय द्विवेदी, जी के अवधिया, गिरीश पंकज, ज्ञान दत्त पाण्डेय, निर्मला कपिला,अनिता कुमार , मसिजीवी आदि ।
हिंदी ब्लोगिंग के लिए सबसे सुखद बात यह रही कि इस वर्ष हिंदी चिट्ठों कि संख्या २२००० के आसपास पहुंची विगत वर्ष की तरह इस बार भी वर्ष का सर्वाधिक सक्रीय क्षेत्र रहा छतीसगढ़ । वर्ष का सर्वाधिक सक्रीय शहर रहा रायपुर । विगत दो वर्षों में सर्वाधिक पोस्ट लिखने वाले नए चिट्ठाकार रहे थे डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक , किन्तु इस बार सर्वाधिक पोस्ट लिखने का श्रेय गया लोकसंघर्ष को । विगत वर्ष की तरह इस बार भी वर्ष में सर्वाधिक टिपण्णी करने वाले चिट्ठाकार रहे श्री समीर लाल । विगत वर्ष-२००९ में हिंदी चिट्ठों की चर्चा करने वाला चर्चित सामूहिक चिटठा था चिट्ठा चर्चा किन्तु इस वर्ष मार्च में आया एक नया चर्चा ब्लॉग “ब्लॉग4वार्ता” ने पोस्ट, चर्चा और लोकप्रियता में चिट्ठा चर्चा से ज्यादा प्रखर दिखा । इसने महज नौ महीनों में २९३ पोस्ट प्रकाशित करके एक नयी मिसाल कायम की, जबकि लगभग तीन दर्जन योगदानकर्ता होने के वाबजूद चिट्ठा चर्चा पर १२ महीनों में केवल १९९ पोस्ट प्रकाशित हुए ।
उल्लेखनीय है कि वर्ष-२०१० में चिट्ठा चर्चा के ६ वर्ष पूरे हुए, यह एक सुखद पहलू रहा हिंदी ब्लोगिंग के लिए, क्योंकि वर्ष-२००४ में ज़ब इसकी शुरुआत हुई थी, तब उस समय हिन्दी ब्लॉगजगत मे गिने चुने ब्लॉगर ही हुआ करते थे। उस समय हिन्दी ब्लॉगिंग को आगे बढाने और उसका प्रचार प्रसार करने पर पूरा जोर था, इसलिए चिट्ठा चर्चा ब्लोगिंग को एक नयी दिशा देने में सफल हुआ, किन्तु विगत वर्षों में इस सामूहिक चिट्ठा पर ठहराव की स्थिति देखी गयी है । यही कारण है कि ब्लॉग4वार्ता अपनी निष्पक्ष गतिविधियों के कारण इस वर्ष अग्रणी बनने में सफल हुआ ।
उल्लेखनीय है कि ललित शर्मा नें पहली वार्ता १० मार्च २०१० की टेस्ट पोस्ट में की ,जबकि पहली (आफ़िसियल) वार्ता ११ मार्च २०११ को ना कोई खर्चा-पढ़ने को मिलेगी ब्लॉग चर्चा —- लेकर आए यशवंत मेहता । इस वार्ता के सदस्य के तीसरे रूप में आए राजीव तनेजा ,उसके बाद संगीतापुरी ने भी ब्लॉग4वार्ता के मंच पर शुरुआत की, उनके द्वारा नए ब्लोगरों की सर्वाधिक चर्चा की गयी । केवल पांच दिनों के अन्दर ही ब्लॉग4वार्ता ने अपना असर दिखानें लगी और ब्लॉग जगत में एक अलग स्थान बनाने में सफल हुई । १६ मार्च को गिरीश बिल्लोरे मुकुल नें चर्चा आरम्भ की,फिर इससे जुड़े राजकुमार ग्वालानी के साथ-साथ सूर्यकान्त गुप्ता ,१५ अप्रैल तक ताऊ रामपुरिया भी आ पहुंचे, फ़िर आया जून का महीना….. “रोज वार्ता लगेगी” के संकल्प पर सभी अडिग थे फलत: रोजाना वार्ता लगती रही। फ़िर वार्ताकार के रूप में आये शिवम मिश्र …. और उन्होनें व्यर्थ वार्ताओं से क्या लाभ लगाकर अपनी पारी की शुरुआत की।११ नवम्बर को ब्लॉग4वार्ता परिवार में इंट्री हुईनवोदित ब्लोगर रुद्राक्ष पाठक की …तत्पश्चात इस टीम से अजय कुमार झा भी जुड़ गए … फ़िर २३ नवम्बर को देव कुमार झा भी ब्लॉग4वार्ता के परिवार में शामिल हो गए । इसप्रकार लोग साथ आते गए और कारवां बनाता गया ! इसी का नतीजा है महज नौ महीनों में ३०० के आसपास पोस्ट (२९३ ) !यही है इस सामूहिक चर्चा ब्लॉग की सबसे बड़ी उपलब्धि,जबकि सर्वाधिक समर्थकों वाला व्यक्तिगत तकनीकी ब्लॉग बना रहाविगत वर्ष की तरह इस वर्ष भी हिंदी ब्लॉग टिप्स ।
इस वर्ष साहित्य-संस्कृति और कला को समर्पित अत्यधिक चिट्ठों का आगमन हुआ, जिसमें प्रमुख है कवियित्री रश्मि प्रभा के द्वारा संपादित ब्लॉग “वटवृक्ष ” । चिट्ठों कि चर्चा करते हुए इस वर्ष मनोज कुमार ज्यादा मुखर दिखे । चुनौतीपूर्ण पोस्ट लिखने में इस बार महिला चिट्ठाकार पुरुष चिट्ठाकार की तुलना में ज्यादा प्रखर रहीं । इस वर्ष मुद्दों पर आधारित कतिपय ब्लॉग से हिंदी पाठकों का परिचय हुआ । मुद्दों पर आधारित नए राजनीतिक चिट्ठों में सर्वाधिक अग्रणी रहा – लोकसंघर्ष …….आदि ।
इस वर्ष का सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा रहा -कॉमनवेल्थ गेम, अयोध्या प्रकरण, विभूति नारायण और रवीन्द्र कालिया प्रकरण, भ्रष्टाचार, घोटाला, मंहगाई आदि ।
वर्ष-२०१० में मेरी निगाह कई ऐसे ब्लॉग पर गयी, जहां स्तरीय शब्द रचनाएँ प्रस्तुत की गयी थी !शब्द का साहित्य के साथ वही रिश्ता है जो ब्लॉग के साथ है !ब्लॉग हमारी इच्छाओं की वह भावभूमि है जहां पहचान का कोई संकट नहीं होता, अपितु विचारों की श्रेष्ठता का बीजारोपण होता है, भावनाओं का विस्तार होता है और परस्पर स्नेह-संवंधों का आदान-प्रदान !
वर्ष-२०१० में कुछ ऐसे ब्लॉग से मैं रूबरू हुआ जिसमें सृजन की जिजीविषा देखी गयी वहीं कुछ सार्थक करने की ख्वाहिश भी !जिसमें जागरूकता और सक्रियता भी देखी गयी तथा जीवन के उद्देश्यों को समझते हुए अनुकूल कार्य करते रहने की प्रवृति भी ! इन ब्लोगरों ने अपने चिंतन को इतना स्पष्ट बनाए रखा कि किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह इसे न ढक पाए ! ये जो कुछ भी निर्णय करे उसमें उद्देश्यों की स्पष्टता रहे और एकाग्रता की सघनता भी !इस प्रवृति को आदर्श प्रवृति कहते हैं तो ऐसे ब्लोगर को आप क्या कहेंगे ?
आदर्श ब्लोगर !
यही न ?
वर्ष -२०१० में हिन्दी ब्लॉगजगत के लिए सबसे बड़ी बात यह रही कि इस दौरान अनेक सार्थक और विषयपरक ब्लॉग की शाब्दिक ताकत का अंदाजा हुआ । अनेक ब्लोगर ऐसे थे जिन्होनें लेखन के दौरान अपने चंदीली मीनार से बाहर निकलकर जीवन के कर्कश उद्घोष को महत्व दिया , तो कुछ ने भावनाओं के प्रवाह को । कुछ ब्लोगर की स्थिति तो भावना के उस झूलते हुए बटबृक्ष के समान रही जिसकी जड़ें ठोस जमीन में होने के बजाय अतिशय भावुकता के धरातल पर टिकी हुयी नजर आयी । जीवन के कर्कश उद्घोष को महत्व देने वाले प्रखर ब्लोगरों में इस वर्ष ज्यादा सार्थक और ज्यादा सकारात्मक नज़र आये शब्दों के सर्जक अजीत वाडनेकर , जिनका ब्लॉग है – शब्दों का सफर । अजीत कहते हैं कि- “शब्द की व्युत्पति को लेकर भाषा विज्ञानियों का नजरिया अलग-अलग होता है । मैं भाषा विज्ञानी नही हूँ , लेकिन जब उत्पति की तलाश में निकालें तो शब्दों का एक दिलचस्प सफर नज़र आता है । “अजीत की विनम्रता ही उनकी विशेषता है । वर्ष-२०१० में इनके ब्लॉग पर प्रकाशित २२४ पोस्टों में से जिन-जिन पोस्ट ने पाठकों को सर्वाधिक आकर्षित किया उनमें से प्रमुख है पहले से फौलादी हैं हम… , फोकट के फुग्गे में फूंक भरना , जड़ से बैर, पत्तों से यारी ,भीष्म, विभीषण और रणभेरी ,[नामपुराण-6]नेहरू, झुमरीतलैया, कोतवाल, नैनीताल ….. आदि !
शब्दों का सफर की प्रस्तुति देखकर यह महसूस होता है की अजीत के पास शब्द है और इसी शब्द के माध्यम से वह दुनिया को देखने का विनम्र प्रयास करते हैं . यही प्रयास उनके ब्लॉग को गरिमा प्रदान करता है .सचमुच यह ब्लॉग नही शब्दों का अद्भुत संग्राहालय है, असाधारण प्रभामंडल है इसका और इसमें गजब का सम्मोहन भी है ….!
इस श्रेणी का दूसरा ब्लॉग है कर्मनाशा !
कर्मनाशा !
विंध्याचल के पहाड़ों से निकल कर काफ़ी दूर तक उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा उकेरने वाली यह छुटकी-सी नदी अंतत: गंगा में मिल जाती है किन्तु आख्यानों और लोक विश्वासों में इसे अपवित्र माना गया है ! आखिर कोई भी नदी कैसे हो सकती है अपवित्र? इस ब्लॉग से जुड़े शब्दों के सर्जक सिद्धेश्वर का कहना है कि “अध्ययन और अभिव्यक्ति की सहज साझेदारी की नदी है कर्मनाशा …..!”
“खोजते – खोजते
बीच की राह
सब कुछ हुआ तबाह।
बनी रहे टेक
राह बस एक…!”
ये पंक्तियाँ सिद्धेश्वर ने अपने ब्लॉग पर लिखे १० फरवरी-२०१० को, जो हिंदी ब्लोगिंग के उद्देश्यों को रेखांकित कर रही है !इसे यदि हिंदी ब्लोगिंग हेतु पञ्च लाईन के रूप में इस्तेमाल किया जाए तो शायद किसी को भी आपत्ति नहीं होगी ,क्योंकि मानव जीवन से जुड़े विविध विषयों को मन के परिप्रेक्ष्य में देखना ही इस ब्लॉग की मूल अवधारणा है ! उपरोक्त दोनों शब्दकार कबाडखाना से जुड़े हैं और श्रेष्ठ कबाडियों की श्रेणी में आते हैं !
शब्द प्राणवान होते हैं,गतिमान होते हैं और इसे गति प्रदान करता है ब्लॉग !इस तथ्य को जिन ब्लोगरों ने दृढ़ता के साथ प्रतिष्ठापित किया उनमें प्रमुख हैं – क्रिएटिव मंच-Creative Manch ….एक ऐसा मंच जहां आप पहुँच कर सृजनशीलता का सच्चा सुख अनुभव करेंगे । इस ब्लॉग के मुख्य संयोजक हैं प्रकाश गोविन्द और उनके प्रमुख सहयोगी हैं मानवी श्रेष्ठा, अनंत , श्रद्धा जैन ,शोभना चौधरी , शुभम जैन और रोशनी साहू ।
इस ब्लॉग से जुड़े चिट्ठाकारों का शरू से यह प्रयास रहा है कि कुछ सार्थक करने का प्रयास किया जाए ! आप कोई भी पोस्ट देख सकते हैं भले ही परिलक्षित न हो किन्तु अत्यंत मेहनत छुपी है हर एक पोस्ट में !साज-सज्जा के लिहाज से आम तौर पर किसी के लिए ऐसी पोस्ट तैयार करना संभव नहीं है ब्लॉग जगत में जैसा कि कहा जाता है यहाँ प्रतिक्रियाएं लेन-देन के अंतर्गत होती हैं ! ऐसे माहौल में ‘क्रिएटिव मंच’ की लोकप्रियता हतप्रभ करती है क्योंकि ‘क्रिएटिव मंच’ कभी कहीं जाकर प्रतिक्रिया नहीं देता ! इसके बावजूद भी किसी भी पोस्ट पर २५ – ३० प्रतिक्रियाएं आना आम बात है !
इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो हमारे लिए प्रेरणा के प्रकाशपुंज हैं । हमें ग़लत करने से वे बचाते हैं और सही करने की दिशा में उचित मार्गदर्शन देते हैं । ऐसे लोग हमारे प्रेरणा स्त्रोत होते हैं । हमारे लिए अनुकरनीय और श्रधेय होते हैं। हिन्दी ब्लॉग जगत की कमोवेश जमीनी सच्चाईयां भी यही है।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके विचार तो महान होते हैं, कार्य महान नही होते । कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके कार्य तो महान होते हैं विचार महान नही होते । मगर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके कार्य और विचार दोनों महान होते हैं । हमारे कुछ हिन्दी ब्लोगर भी इसी श्रेणी में आते हैं जिनकी उपस्थिति मात्र से बढ़ जाती है नए चिट्ठों की गरिमा ।
वर्ष-२०१० में सकारात्मक प्रस्तुति को आधार मानते हुए कुछ ऐसे ब्लॉग का चयन किया है,जिसपर अनुपातिक रूप से पोस्ट तो कम प्रकाशित हुए किन्तु पोस्ट की प्रासंगिकता बनी रही , इसमें साहित्यिक ब्लॉग भी हैं और सामाजिक-सांस्कृतिक भी …………… जिनमें प्रमुख है -
सदा का (सद़विचार) / रमण कॉल का ब्लॉग (इधर उधर की) / युनुस खान का (रेडियो वाणी) / रविश कुमार का (कस्बा qasba ) / डा आशुतोष शुक्ल का (सीधी खरी बात..) / मनोज कुमार का (मनोज) /अमरेन्द्र त्रिपाठी का (कुछ औरों की , कुछ अपनी …)/ प्रेम प्रकाश का ब्लॉग (पूरबिया) / डा रूप चन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ का (शब्दों का दंगल) / राजीव ठेपडा का ब्लॉग (दखलंदाज़ी) / यशवंत माथुर का (जो मेरा मन कहे) / विजय माथुर का (विद्रोही स्व-स्वर में….) / अशोक कुमार पाण्डेय का (जनपक्ष) /रश्मि प्रभा- रवीन्द्र प्रभात का (वटवृक्ष) /रवि रतलामी का (रचनाकार) /मनीष कुमार का (एक शाम मेरे नाम)/ अमितेश का (रंगविमर्श) / आना का ब्लॉग (कविता) / (Lucknow Bloggers’ Association लख़नऊ ब्लॉगर्स असोसिएशन) / ललित कुमार का (राइटली एक्सप्रेस्ड) / पारुल पुखराज का (…….चाँद पुखराज का……) / अनूप शुक्ल का (फुरसतिया) / एस एम मासूम का (अमन का पैग़ाम) / मनोज कुमार का (राजभाषा हिंदी) / अमीत-निवेदिता का (बस यूँ ही) /डा पवन कुमार मिश्र का ब्लॉग (पछुआ पवन (pachhua पवन) / विनीता यशस्वी का (यशस्वी) / जीतेन्द्र चौधरी का (मेरा पन्ना) / केवल राम का (चलते -चलते ….!) / सुमनिका का (सुमनिका) / मनोज कुमार का (विचार) / परमेन्द्र सिंह का (काव्य-प्रसंग) / अनुपमा पाठक का (अनुशील) / दिनेश शर्मा का ब्लॉग (प्रेरणा) / सदा का ब्लॉग (SADA ) / प्रत्यक्षा की (प्रत्यक्षा) / प्रकाश बादल का ब्लॉग (प्रकाश बादल) / (नया सवेरा) / संजय बेंगानी का (जोगलिखी : संजय बेंगाणी का हिन्दी ब्लॉग :: Hindi Blog of Sanjay bengani, Hindi site, tarakash blog, Hindi न्यूज़) / अरविन्द श्रीवास्तव का (जनशब्द) / माधवी शर्मा गुलेरी का ब्लॉग (उसने कहा था ..) / नीरज गोस्वामी का (नीरज) / शास्त्री जे सी फिलिप का (सारथी) /(संकल्प शर्मा . . .) / (विद्रोही स्व-स्वर में….) / दीप्ती शर्मा का (स्पर्श) आदि !
हर क्रिया की प्रतिक्रया होती है, जो चंचलता को बनाए रखती है ! हर वाद के साथ प्रतिवाद होता है, जो चंचलता को बनाए रखता है !हर राग के साथ द्वेष जुडा होता है जो चंचलता को बनाए रखता है !विकास के लिए समभाव की,योग की आवश्यकता होती है !चंचलता को शान्ति में परिवर्तित करने की आवश्यकता होती है !अपने आत्मविश्वास को जगाने की आवश्यकता है, ताकि एक सुन्दर और खुशहाल सह-अस्तित्व की परिकल्पना को मूर्तरूप दिया जा सके ! इसके लिए जरूरी है विचारों की द्रढता, क्योंकि कहा भी गया है कि विचार विकास का बीज होता है !
आईये अब एक ऐसे ही दृढ विचारों वाले ब्लोगर की बात करते हैं,जो ब्लॉग के माध्यम से एक नयी सामाजिक क्रान्ति का उद्घोष कर रहा है नाम है जय कुमार झा और ब्लॉग है-honestyprojectrealdemocracy
ब्लॉगर का कहना है कि -”क्या जनता सिर्फ इसलिए है कि वोट डालकर 5साल के लिए अंधी-बहरी-गूंगी होकर भ्रष्ट नेताओं की अव्यावहारिक,अतर्कसंगत नीतियों को असहाय होकर सहती रहे और यह पूछने को मज़बूर हो कि किससे कहें,कहां जाएं,कौन सुनेगा हमारी? भारत एक गणतंत्र है और अब हम जनता असल मालिक बनकर रहेंगे । क्या आप हैं हमारे साथ? आइए,मिलकर सरकार को आदेश दें।”उपरोक्त विचारों को पढ़कर आपको अंदाजा लग ही गया होगा कि यह ब्लोगर देश और समाज के लिए कुछ करने की जीबटता रखता है,इनके ब्लॉग पोस्ट्स से गुजरते हुए भी यही महसूस होता है !
एक चौंकाने वाला तथ्य आपके सामने रख रहा हूँ कि एक ब्लॉग जिसकी शुरुआत २७ नवम्बर २०१० को हुई ! वर्ष के आखिरी ३५ दिनों में इसपर वैसे तो मात्र १२ पोस्ट प्रकाशित हुए मगर इस ब्लॉग के प्रशंसकों की संख्या ५० के आसपास पहुँच गयी , ब्लॉग का नाम है नज़रिया और ब्लोगर हैं – सुशील बाकलीवाल जबकि -एक पुराना ब्लॉग है अमरेन्द्र त्रिपाठी का कुछ औरों की , कुछ अपनी, जो वर्ष २००९ से ब्लॉगजगत का हिस्सा है, किन्तु इस ब्लॉग पर पूरे वर्ष में केवल १४ पोस्ट ही प्रकाशित हुए !हलांकि इस पर जो भी पोस्ट प्रकाशित हुए हैं वह गंभीर विमर्श को जन्म देने में सक्षम है !
वर्ष-२०१० में हिंदी ब्लॉगजगत को अचानक सदमें में ले गयी ब्लोगवाणी ! कई लोगों ने इसका कारण बताया ब्लोगवाणी का अव्यवसायिक होना तो कईयों ने कहा कि ब्लोगवाणी कुछ लोगों के साथ पक्षपातपूर्ण रबैया अपना रही थी और जब विरोध हुआ तो उसने बोरिया-विस्तार समेट ली ! कारण कुछ भी रहा हो मगर ब्लोवाणी का बंद होना हिंदी ब्लॉगजगत के लिए एक दु:खद पहलू रहा !
वरिष्ठ ब्लोगर श्री रवि रतलामी का मानना है कि -”ब्लॉगवाणी और फिर चिट्ठाजगत की अकाल मृत्यु के पीछे इनका घोर अ-व्यवसायिक होना ही रहा है. मेरे विचार में यदि ये घोर व्यवसायिक होते, अपने सृजकों के लिए नावां कमाकर देने की कूवत रखते और परमानेंट वेब मास्टर रखने, नित नए सपोर्ट व इनफ्रास्ट्रक्चर जुटाने की कवायदें करते रहते तो इनमें सभी में व्यवसायिक रूप से पूर्ण सफल होने की पूरी संभावनाएँ थीं….!” वहीं एक और प्रमुख ब्लोगर श्री जाकिर अली रजनीश का मानना है कि -”वहाँ पर जान बूझकर एक खास प्रकार की नकारात्मक मानसिकता वाली पोस्टों को तो लगातार बढ़ावा दिया जा रहा था पर कम्यूनिष्ट तथा अन्‍य विचारधारा वाले लोगों के ब्लॉग तक नहीं रजिस्टर्ड किये जा रहे थे। जो लोग इसके शिकार बने, उनमें ‘नाइस’ मार्का सुमन जी का नाम सबसे ऊपर है। यहाँ तक तो जैसे-तैसे मामला चल रहा था, लेकिन जब ब्लॉगवाणी ने जानबूझकर पाबला जी को भी अपने लपेटे में ले लिया, तो पानी सिर के ऊपर निकलना ही था, और निकला भी। नतीजतन ब्लॉगवाणी वालों को लगा कि उनका अपमान किया जा रहा है और उन्होंने उसकी अपग्रेडेशन रोक दी।” वहीं डा.अरविन्द मिश्र जी जाकिर भाई के उक्त विचारों से सहमत नहीं थे, उनका कहना था कि -”मैथिली और सिरिल जी ने बिना आर्थिक प्रत्याशा केब्लोगवाणी के माध्यम से हिन्दी ब्लागिंग में जो अवदान दिया उसकी सानी नहीं है ..!”
चिट्ठा-विश्व और नारद का पतन वर्ष-२०१० से पूर्व हो चुका है, किन्तु हिंदी ब्लॉगिंग को प्रमोट करने की दिशा में अग्रणी ब्लॉग एग्रीगेटर ब्लोगवाणी की अकाल मृत्यु पूरे ब्लॉगजगत को चौंका गयी एकबारगी !हिंदी ब्लॉगजगत को सबसे बड़ा झटका लगा वर्ष के आखिरी माह में अनायास ही चिट्ठाजगत के अस्वस्थ हो जाने से, हलांकि अस्वस्थता से उबरकर कुछ ही दिनों में चिट्ठाजगत उठ खडा हुआ था, तब ब्लोगरों, खासकर नए ब्लोगरों में आशा की एक किरण तैर गयी थी ,किन्तु कुछ दिन ज़िंदा रहने के उपरांत चिट्ठाजगत की भी अकाल मृत्यु हो गयी !
उल्लेखनीय है कि चिट्ठाजगत से संदर्भित महत्वपूर्ण सन्दर्भ देते हुए पावला जी ने कहा है कि -” चिट्ठाजगत के पीछे मूलत: 3 व्यक्ति हैं,आलोक कुमार, विपुल जैन, कुलप्रीत (सर्व जी) !आलोक कुमार हिन्दी जाल जगत के आदि पुरूष कहलाते हैं। ये वही हैं जिन्होंने हिन्दी का पहला चिट्ठा “नौ दो ग्यारह” में लिखना शुरू किया और ब्लॉग को चिट्ठा कह कर पुकारा। वर्षों से ये अपनी वेबसाईट “देवनागरी॰नेट” द्वारा दुनिया को अन्तर्जाल पर हिन्दी पढ़ना व लिखना सिखाते आ रहे हैं। 2007 की शुरूआत में आलोक जी ने अपने चिट्ठाजगत की कल्पना को अपने मित्र विपुल जैन के समक्ष रखा और विपुल उनकी कल्पना से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसको वास्तविक रूप देने की ठान ली। विपुल का अपना एक जाल स्थल “हि॰मस्टडाउनलोड्स॰कॉम” है जहाँ से आप अनेक उपयोगी सॉफ्टवेयरों के नवीनतम संस्करण डाउनलोड कर सकते हैं।इस कार्य में अहम मदद की कुलप्रीत सिंह ने। कुलप्रीत कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में पीएचडी हैं और डबलिन, आयरलैंड में कार्यरत हैं। इन्होंने चिट्ठाजगत की संरचना को बनाने में विपुल की खास मदद की है। कुलप्रीत भारतीय बहुभाषीय जालस्थल “शून्य॰इन” के संस्थापक हैं। जहाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में तकनीकी विषयों पर बहस की जाती है।चिट्ठाजगत पर दिखने वाले विभिन्न ग्राफ़िक्स संजय बेंगाणी जी द्वारा प्रदत्त हैं !” यह वर्ष हलांकि एग्रीगेटर के आने और काल कलवित हो जाने के वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, क्योंकि इस वर्ष दो अतिमहत्वपूर्ण ब्लॉग एग्रीगेटर की अकाल मौत हुई है और इसी शोक के बीच कई महत्वपूर्ण ब्लॉग एग्रीगेटर का आगमन भी हुआ है !
आठ माह पूर्व इंडली आई और उसने कई भारतीय भाषाओं में एक साथ ब्लॉग फीड की सुविधा प्रदान किया,इसकी सबसे बड़ी समस्या है ब्लॉग की फीड को ऑटोमैटिक न लेना। ब्लोगवाणी की अकाल मौत के बाद हमारीवाणी अस्तित्व में आई,किन्तु कई प्रकार के अफवाहों के बीच यह अभी भी कायम है !हामारीवाणी की टीम के द्वारा प्रसारित वक्तव्य के आधार पर ” हमारीवाणी की ALEXA रैंकिंग विश्व में 81,000 तक पहुंच चुकी है। इसमें हर दिन सुधार हो रहा है।हमारीवाणी का एक अभिनव प्रयास ये भी है कि एग्रीगेटर को निर्विवाद रूप से चलाने के लिए ब्लॉगजगत से ही मार्गदर्शक-मंडल बनाया जाए। प्रसिद्ध अधिवक्ता और सम्मानित वरिष्ठ ब्लॉगर श्री दिनेशराय द्विवेदी (अनवरत, तीसरा खंभा) ने मार्गदर्शक-मंडल का प्रमुख बनना स्वीकार कर लिया है। लोकप्रिय ब्लॉगर श्री समीर लाल समीर (उड़नतश्तरी), मार्गदर्शक-मंडल के उप-प्रमुख के तौर पर मार्गदर्शन देने के लिए तैयार हो गए हैं। पांच सदस्यीय मंडल के तीन अन्य सदस्य श्री सतीश सक्सेना (मेरे गीत), श्री खुशदीप सहगल (देशनामा), और श्री शाहनवाज़ (प्रेमरस)हैं। हमारीवाणी की पूरी कोशिश रहेगी कि जहां तक संभव हो सके, एग्रीगेटर से विवादों का साया दूर ही रहे। फिर भी कभी ऐसी स्थिति आती है तो मार्गदर्शक मंडल का बहुमत से लिया फैसला ही अमल में लाया जाएगा।”
एक और नया हिंदी ब्लॉग एग्रीगेटर -अपना ब्लॉग हाल ही में चालू हुआ है जो ब्लोगवाणी और चिट्ठाजगत की तरह बेहतरीन, ढेर सारी सुविधाओं वाला, तेज ब्लॉग एग्रीगेटर महसूस हो रहा है !इसके अलावा एक स्वचालित ब्लॉग संकलक यहाँ पर है जिसमें आप रीयल टाइम गूगल सर्च के जरिए संग्रहित ताज़ा 500 हिंदी ब्लॉग पोस्टों को देख सकते हैं. पर चूंकि यह स्वचालित है, और कुछ कुंजीशब्द के जरिए संग्रह करता है, अतः सारे के सारे नवीन ब्लॉग पोस्टें नहीं आ पातीं, फिर भी कुछ पढ़ने लायक लिंक के संग्रह तो मिलते ही हैं !
इस वर्ष एक और ब्लॉग एग्रीगेटर लालित्य पर मेरी नज़र पडी ,यह एग्रीगेटर ललित कुमार का व्यक्तिगत एग्रीगेटर है ,जिसमें उनके द्वारा कुछ उत्कृष्ट ब्लॉग को जोड़ा गया है !ललित कुमार का कहना है कि -” हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में कहा जाता है कि यह अभी तक भी शैशव अवस्था में है। मैं नहीं जानता कि यह कितना सच है लेकिन लालित्य हिन्दी ब्लॉग्स का एक ऐसा एग्रीगेटर है जिसमें केवल अच्छे और उन्नत हो चुके ब्लॉग्स ही संकलित किए जाते हैं। यह ब्लॉग्स केवल तब तक संकलित रहते हैं जब तक उन पर उपलब्ध सामग्री की गुणवत्ता बनी रहती है। इस तरह लालित्य के ज़रिये आपको सीधे, सरल तरीके से उम्दा हिन्दी ब्लॉग्स तक पँहुचने में आसानी होती है !”
कुछ और साईट है जो ब्लॉग को प्रमोट करने की दिशा में कार्य करती है, या फिर जहां आप अपने पसंदीदा ब्लॉग को ढूंढ सकते हैं,जिसमें प्रमुख है ब्लॉग अड्डा ,Woman Who Blog In Hindi , ब्लोग्कुट, इंडी ब्लोगर, रफ़्तार , ब्लॉग प्रहरी, क्लिप्द इन , हिंदी चिट्ठा निर्देशिका, गूगल लॉग , वर्ड प्रेस की ब्लोग्स ऑफ द डे , वेब दुनिया की हिंदी सेवा, जागरण जंक्सन ,बीबीसी के ब्लॉग प्लेटफार्म आदि !साथ ही हिंदी मे ब्लॉग लिखती नारी की अद्भुत रचना यहाँ पढे जा सकते हैं ! इसके अतिरिक्त यदि आपको उन ब्लोग्स के बारे में जानने की इच्छा है जिसे समाचार पत्र में समय-समय पर स्थान दिया गया हो तो आप ब्लोग्स इन मीडिया पर क्लिक कर सकते हैं !
इस वर्ष कुछ ब्लोगरों ने फीड क्लस्टर.कॉम के सहयोग से भी ब्लॉग एग्रीगेटर बनाकर अपने साथियों को परस्पर जोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया है, जिसमें प्रमुख है आज के हस्ताक्षर, परिकल्पना समूह, महिलावाणी , हिन्दीब्लॉग जगत, हिन्दी – चिट्ठे एवं पॉडकास्ट, ब्लॉग परिवार, चिट्ठा संकलक, लक्ष्य, हमर छत्तीसगढ़, हिन्दी ब्लॉग लिंक आदि ।
और चलते-चलते मैं आपको एक ऐसे ब्लॉग पर ले चलता हूँ जो ब्लॉगजगत के वेहद कर्मठ और हर दिल अजीज ब्लॉग संरक्षक श्री बी एस पावला का ब्लॉग है ब्लॉग बुखार,जिसपर आप ब्लॉग से संवंधित महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त कर सकते हैं ! यह ब्लॉग अपने-आप में अनूठा है !
ब्लॉग लेखन एक तेजी से उभरता हुआ क्षेत्र है और लोग तेजी से इसकी ओर आकृष्ट हो रहे हैं। ऐसे में इसके द्वारा विज्ञान संचार की अपार सम्भावनाएं छिपी हुई हैं। ब्लॉग लेखन की सबसे बडी विशेषता यह है कि यह पूरे विश्व में पढा जा सकता है और अनन्त समय तक अंतर्जाल पर सुरक्षित रहता है। इसके साथ ही साथ विश्व के किसी भी कोने से किसी भी सर्च इंजन द्वारा खोजने पर ब्लॉग में उपलब्ध सामग्री तत्काल ही इच्छुक व्यक्ति तक पहुंच जाती है। यही कारण है कि ब्लॉग लेखन द्वारा विज्ञान संचार की अपार सम्भावनाएं बनती हैं। यदि ब्लॉग लेखकों और विज्ञान संचारकों को इसके महत्व एवं प्रक्रिया की समुचित जानकारी प्रदान की जाए, तो विज्ञान संचार के लिए यह एक महत्वपूर्ण क्षेत्र साबित हो सकता है।
जी हाँ ,मैं बात कर रहा हूँ समाजिक एवं वैज्ञानिक चेतना के प्रचार के लिए कार्य करने वाले ब्लॉग की ,जिनके द्वारा केवल ब्लॉग पर ही नहीं,अपितु अनेक कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया जाता है, ताकि जन चेतना को विज्ञान से जोड़ा जा सके !विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान या विद्या है जो विचार, अवलोकन, अध्ययन, और प्रयोग से मिलती है, जो कि किसी अध्ययन के विषय की प्रकृति या सिद्धान्तों को जानने के लिये किये जाते हैं। विज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान की ऐसी शाखा के लिये भी करते हैं, जो तथ्य, सिद्धान्त और तरीकों को प्रयोग और परिकल्पना से स्थापित और व्यवस्थित करती है । इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी भी विषय का क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कह सकते है। ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान के ‘ज्ञान-भण्डार’के बजाय वैज्ञानिक विधि विज्ञान की असली कसौटी है।
इस दिशा में एक ब्लॉग है तस्लीम , जिसके द्वारा विभिन्न स्थानों एवं समयों पर विविध कार्यक्रम सम्पन्न किये जाते रहे हैं तथा वैज्ञानिक जागरूकता के काम को नियमित रूप से सम्पादित किया जाता रहा है।‘तस्लीम‘ द्वारा निष्पादित उक्त गतिविधियों को विद्वतजनों ने न सिर्फ पसंद किया है, बल्कि समाचार पत्रों आदि में इस सम्बंध में प्रकाशित रिपोर्टों आदि ने संस्था का उत्साहवर्द्धन किया है। इसके अतिरिक्त ब्लॉग पर उपलब्ध सामग्री को सम्पूर्ण विश्व में ११ हजार से अधिक पाठकों द्वारा न सिर्फ पढ़ा गया है, बल्कि अपनी टिप्पणियों के द्वारा इसे सराहा और प्रोत्साहित भी किया गया है।‘तस्लीम‘ ने अपने ब्लॉग कार्यशालाओं के माध्यम से विज्ञान संचार के अपने प्रयासों के दौरान यह देखा है कि हिन्दी भाषी लागों में इससे जुड़ने की प्रबल आकांक्षा है किन्तु तकनीकी जानकारी न होने के कारण वे पीछे रह जाते हैं। इस दिशा में तस्लीम के द्वारा किया जा रहा कार्य प्रसंशनीय है ! इस ब्लॉग के ३३९ प्रशंसक हैं ! इस संस्था के अध्यक्ष हैं अब्दुल कवी, उपाध्यक्ष हैं डा0 अरविंद मिश्र, सचिव हैं ज़ाकिर अली ‘रजनीश, ‘ कोषाध्यक्ष हैं अर्शिया अली, सक्रिय सहयोगी हैं जीशान हैदर ज़ैदी !
दूसरा ब्लॉग है साईंस ब्लोगर असोसिएशन,इसकी स्‍थापना 20 दिसम्‍बर 2008 को हुई थी। यह भी अंधविश्वास के प्रति एक अभियान का हिस्सा है, जो ब्लॉग पोस्ट और विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से वैज्ञानिक गतिविधियों को प्राणवायु देने का महत्वपूर्ण कार्य करता है ! इस पर प्रत्येक वर्ष “साईंस ब्लोगर ऑफ़ दी ईयर” का खिताब किसी एक ब्लोगर को प्रदान किया जाता है !यह मंच है विज्ञान के ब्लागरों का, यहाँ होता है विज्ञान का संवाद और संचार ब्लॉग के जरिये और होती हैं विज्ञान और टेक्नोलॉजी की बातें, जन जन के लिए, आम और खास के लिए भी! इनका कहना है कि आप वैज्ञानिक हो तो भी इस ब्लॉग से जुडें, जन संचारक हों तो भी आपका स्वागत है इस ब्लॉग पर ! इस संस्था के अध्यक्ष हैं डा0 अरविंद मिश्र, उपाध्यक्ष हैं ज़ीशान हैदर ज़ैदी,सचिव हैं ज़ाकिर अली ‘रजनीश’, कोषाध्यक्ष हैं अर्शिया अली,तकनीकि निर्देशक हैं विनय प्रजापति तथा इसके सक्रिय सहयोगी हैं रंजना भाटिया,अल्पना वर्मा,मनोज बिजनौरी,जी0के0 अविधया,सलीम खान,डा0 प्रवीण चोपड़ा,अभिषेक मिश्रा,अंकुर गुप्ता,अंकित,हिमांशु पाण्डेय,पूनम मिश्रा और दर्शन बवेजा आदि !
विज्ञान का एक और महत्वपूर्ण ब्लॉग है साईब्लाग [sciblog] , ब्लोगर हैं डा अरविन्द मिश्र !यह ब्लॉग २९ सितंबर -२००७ को अस्तित्व में आया !ब्लॉग पर वैज्ञानिक जागरूकता लाने के उद्देश्य से सक्रिय लोगों में सर्वाधिक चर्चित ब्लोगर हैं डा अरविन्द मिश्र , जिनका इस ब्लॉग को शुरू करने के पीछे जो उद्देश्य रहा है उसके बारे में इनका कहना है कि -” मेरा मानना है कि ब्लॉग एक खुली डायरी है ,वेब दुनिया का एक सर्वथा नया प्रयोग .अभिव्यक्ति का एक नया दौर .एक डायरी चिट्ठा कैसे बन गयी /या बन सकती है मेरा मन स्वीकार नहीं कर पा रहा.फिर चिट्ठे से कच्चे चिट्ठे जैसी बू भी आती है .मगर चूँकि नामचीन चिट्ठाकारों ने इस पर मुहर लगा दी है और यह शब्द भी अब रूढ़ सा बन गया है मैंने पूरे सम्मान के साथ असहमत होते हुए भी इसे स्वीकार तो कर लिया है पर अपने हिन्दी ब्लॉग पर इस प्रयोग के दुहराने की हिम्मत नही कर पाया -इसलिए देवनागरी मे ही अंगरेजी के शब्दान्शों को जोड़ कर काम चलाने की अनुमति आप सुधी जनों से चाहता हूँ.इस ब्लॉग पर मैं विज्ञान के विविध विषयों पर अपना दिलखोल विचार रख सकूंगा .यह ब्लॉग तो अभी इसके नामकरण पर ही आधारित है .आगे विज्ञान की चर्चा होगी …!”
इसके अलावा इस वर्ष जहां-जहां ब्लॉग पर वैज्ञानिक गतिविधियाँ देखी गयीं उसमें प्रमुख Science Fiction in India , विज्ञान गतिविधियां Science Activities , क्यों और कैसे विज्ञान मे , प्रश्न मंच ,ईमली ईको क्लब Tamarind Eco Club ,सर्प संसार (World of Snakes) , Dynamic , स्वच्छ सन्देश: विज्ञान की आवाज़ , विज्ञान की दुनिया… हिंदी के झरोखे से…, विज्ञान हिन्दी वेबसाइट , विज्ञान – विक्षनरी , विज्ञान BBC Hindi , Hash out Science » विज्ञान » चर्चा,विज्ञान , विज्ञान « Hindizen – निशांत का हिंदीज़ेन …, कलिकऑन , विज्ञान मन आदि !
वर्ष-२०१० में स्वास्थ्य संवंधित जागरूकता लाने वाले ब्लॉग की चर्चा
कहा गया है पहला सुख निरोगी काया,स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है !शरीर की रुग्णता के कारण मन की अनेक इच्छाएं पूरी होने से रह जाती है !शरीर में भी प्रकृति ने इतनी शक्ति दी है कि व्यक्ति हर तरह से स्वयं को स्वस्थ रख सके !धर्म-विचार- हास्य -रुदन अपनी जगह है, पर आरोग्यता की शीतल छाया के लिए कोई आयुर्वेद को अपनाता है तो कोई होमियोपैथ तो कोई अंग्रेजी अथवा यूनानी दवाओं को !हिंदी ब्लॉगजगत में स्वास्थ्य सलाह देने वाले ब्लोग्स की काफी कमी है !आयुर्वेद और होमियोपैथ के ब्लॉग तो कुछ अत्यंत स्तरीय है मगर संख्या के लिहाज से अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में काफी कम ! ऐसे में जब स्वास्थ्य परामर्श को लेकर सचालित ब्लोग्स की काफी कमी महसूस होती है वहीं दो ब्लॉग अपनी गतिविधियों से हमें काफी चमत्कृत करते हैं पहला कुमार राधारमण और विनय चौधरी का साझा ब्लॉग स्वास्थ्य सबके लिए और दूसरा लखनऊ निवासी अलका सर्बत मिश्र का ब्लॉग मेरा समस्त !
स्वास्थ्य सबके लिए हिंदी एक ऐसा महत्वपूर्ण ब्लॉग है, जिसमें समस्त असाध्य विमारियों से लड़ने के उपचार बताये जाते हैं ! चूँकि, व्यक्ति अनेक धरातलों पर जीता है, अत: रोग भी हर धरातल पर अलग-अलग स्वरूपों में प्रकट होते हैं ! सबके लिए स्वास्थ्य का अभिप्राय यह है कि हर बीमारी से लड़ने का हर किसी को साहस प्रदान करना !इस ब्लॉग के द्वारा किया जा रहा कार्य श्रेष्ठ और प्रशंसनीय है !
दूसरा ब्लॉग है मेरा समस्त जो पूर्णत: आयुर्वेद को समर्पित है ! आयुर्वेद के सन्दर्भ में ब्लोगर का कहना है कि “आयुर्वेद का अर्थ औषधि – विज्ञान नही है वरन आयुर्विज्ञान अर्थात ” जीवन-का-विज्ञान” है…ऐड्स, थायराइड, कैंसर के अतिरिक्त भूलने की बीमारी, चिड़चिड़ापन आदि से खुद को सुरक्षित रखा जा सकता है,बस आयुर्वेद पर भरोसा होना चाहिये !ब्लोगर अलका मिश्र केवल आलेखों से ही पाठकों को आकर्षित नहीं करती वल्कि आलेखों में उल्लिखित औषधियों के आदेश पर आपूर्ति भी करतीं हैं……!
आयुर्वेद से संवंधित इस वर्ष की प्रमुख पोस्ट इन ब्लोग्स पर देखी जा सकती है अर्थात आयुर्वेद : आयुषमन , आयुर्वेद,पर्यायी व पूरक औषध पद्धती –Indian Alternative Medicine , only my health , अपने विचार, The Art of Living , shvoong .com , वन्दे मातरम्, आयुष्मान, हरवल वर्ल्ड, चौथी दुनिया, ब्रज डिस्कवरी , Dr. Deepak Acharya , दिव्य हिमांचल , उदंती . com , विचार मीमांशा, दिव्ययुग निर्माण न्यास , स्वास्थ्य चर्चा , स्वास्थय के लिये टोटके , प्रवक्ता आदि पर !
जहां तक होमियोपथिक से संवंधित ब्लॉग का सवाल है तो हिंदी ब्लॉगजगत में ज्यादा ब्लॉग नहीं दिखाई देता, एक ब्लॉग है E – HOMOEOPATHIC MIND magazine जिसपर यदाकदा कुछ उपयोगी पोस्ट देखने को मिले हैं ! इस ब्लॉग को वर्डप्रेस पर भी वर्ष-२००९ में बनाया गया, किन्तु नियमित नहीं रखा जा सका !जब होमियोपैथिक की बात चली है तो वकील साहब दिनेश राय द्विवेदी के अनवरत पर विगत वर्ष कुछ महत्वपूर्ण पोस्ट देखे गए , किन्तु आलोचनात्मक ! १० अप्रैल को उनका आलेख आया होमियोपैथी हमारी स्वास्थ्यदाता हो गई ,११ अप्रैल-२०१० को उनका कहना था कि क्या होमियोपैथी अवैज्ञानिक है? इस पोस्ट के प्रकाशन के दो दिन बाद उनका एक और आलेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था होमियोपैथी को अभी अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है !
आयुर्वेदिक पध्‍दति की तरह ही होम्‍योपेथी भी धैर्य की मॉंग करती है। यह एक मात्र ‘पेथी’ है जिसके प्रयोग पशुओं पर नहीं, मनुष्‍यों पर होते हैं। इन दिनों इनका सस्‍तापन कम हो रहा है। यह चिकित्‍सा पध्‍दति भी मँहगी होने लगी है। ऐसा कहना है विष्णु वैरागी का, जबकि मनोज मिश्र का मानना है कि निश्चित रूप से डॉ. हैनिमेन एक विलक्षण व्यक्तित्व थे जिन्हों ने एक नई चिकित्सा पद्धति को जन्म दिया। जो मेरे विचार में सब से सस्ती चिकित्सा पद्धति है। इसी पद्धति से करोड़ों गरीब लोग चिकित्सा प्राप्त कर रहे हैं। यही नहीं करोड़पति भी जब अन्य चिकित्सा पद्धतियों से निराश हो जाते हैं तो इस पद्धति में उन्हें शरण मिलती है….!
“वैज्ञानिकों एवं चिकित्साशास्त्रियों ने विभिन्न प्रकार के अनुसंधानों से यह निश्चित रूप से पुष्टि कर दिया है की मनुष्य के शरीर की रचना एवं शरीर के विभिन्न अंग जैसे मुंह, दाँत, हाथों की अंगुलियाँ,नाख़ून एवं पाचन तंत्र की बनावट के अनुसार वह एक शाकाहारी प्राणी है …..!”ऐसा कहना है स्वास्थ्य विशेषज्ञ राम बाबू सिंह का अपने ब्लॉग एलोबेरा प्रोडक्ट में !०५ जून-२०१० को प्रकाशित इस आलेख का शीर्षक है शाकाहारी बनें स्वस्थ रहें !
वर्ष-२०१० के उत्तरार्द्ध में स्वास्थ्य से संवंधित एक वेहतर ब्लॉग का आगमन हुआ है,जिसका नाम है स्वास्थ्य सुख ! इसकी पञ्चलाईन है निरोगी शरीर -सुखी जीवन का आधार…..३० अक्तूबर-२०१० को सुशील बाकलीवाल द्वारा प्रसारित इस ब्लॉग का पहला आलेख पाठकों को ऐसा आकर्षित किया कि मानों उनका मनोनुकूल ब्लॉग आ गया है हिंदी ब्लॉगजगत में ! इस ब्लॉग को मेरी अनंत आत्मिक शुभकामनाएं !
चिन्ता , क्रोध , आतम ,लोभ , उत्तेजना और तनाव हमारे शरीर के अंगों एवम नाड़ियो मे हलचल पैदा करते हैं , जिससे हमारी रक्त धमनियों मे कई प्रकार के विकार हो जाते हैं । शारीरिक रोग इन्ही विकृतियों के परिणाम हैं ।शारीरिक रोग मानसिक रोगों से प्रभावित होते है । अत्याधिक चिंता , निराशा , आत्म ग्लानी , उदासीनता , जरुरत से ज्यादा खुश दिखना , बहुत बोलना या एक दम चुप रहना , संदेह करना , आत्महत्या के प्रयास बीमारी के लक्षण है । जन्म जात बीमारी को छोड़ कर रेकी के द्वारा सभी बीमारियों का इलाज संभव हैं । रेकी बीमारी के कारण को जड़ मूल से नष्ट करती हैं , स्वास्थ्य स्तर को उठाती है , बीमारी के लक्षणों को दबाती नहीं हैं । रेकी के द्वारा मानसिक भावनायो का संतुलन होता है और शारीरिक तनाव , बैचेनी व दर्द से छुटकारा मिलता जाता हैं ।
रेकी गठिया , दमा , कैंसर , रक्तचाप , फालिज , अल्सर , एसिडिटी , पथरी , बावासीर , मधुमेह , अनिद्रा , मोटापा , गुर्दे के रोग , आंखो के रोग , स्त्री रोग , बाँझपन , शक्तिन्युनता , पागलपन तक दूर करने मे समर्थ है । यदि बीमारी का इलाज शुरू मे ही कर लिया जाये तो रेकी शीघ्र रोग मुक्त कर देती हैं । ऐसा कहना है रेकी विशेषज्ञ डा. मंजुलता सिंह का, ये ब्लोगर भी हैं और इनका ब्लॉग है My Sparsh Tarang ….!
रेकी से संवंधित यह ब्लॉग संभवत: हिंदी का एकलौता ब्लॉग है, जो वर्ष-२००७ से अस्तित्व में है , किन्तु पोस्ट की अनियमितता के कारण यह ब्लॉग आम पाठकों का ध्यान खींचने में पूर्णत:सफल नहीं रहा है,इस वर्ष इसपर केवल तीन पोस्ट ही प्रकाशित हुए हैं !
कुलमिलाकर देखा जाए तो स्वास्थ्य संबंधी जानकारी देने में अभी भी अंग्रेजी या फिर अन्य भाषाओं की तुलना में हिंदी बहुत पीछे है,किन्तु आनेवाले दिनों में वेहतर स्थिति होगी ऐसी आशा की जा रही है !
भारतीय संगीत की गूँज पूरी दुनिया में सुनाई देती है ! संगीत के कारण आज हमारा भारत दुनिया में अपनी एक अलग छवि प्रस्तुत करने में सफल हुआ है ! अपने इस गौरवशाली परंपरा को जीवंत बनाए रखने की दिशा में कई घराने सक्रिय हैं और उन घरानों की जानकारी देने के लिए हिंदी में कई ब्लॉग भी सक्रिय है ,जो भारतीय संगीत की इस परंपरा को आम जन-जीवन से जोड़ते है !
“एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी, ऐसा तो कम ही होता है वो भी हों तनहाई भी, गीतों की बात ही कुछ ऐसी होती है। खुद को ही मैं ढूँढ रहा नज्मों में, कुछ गीतों में और नज्म? वो तो गोया गुलजार के लफ्जों में अगर कहूँ तो -नज़्म उलझी हुई है सीने में/मिसरे अटके हुए हैं होठों पर/उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह। गर किसी मोड़ पे अगर मिल जाऊँ तो बस एक गीत गुनगुना देना…!” ऐसा कहना है तरुण का अपने बारे में, ब्लॉग गीत गाता चल पर ! यह ब्लॉग पूरी तरह भारतीय गीत-संगीत की प्रस्तुति से जुडा है !
इस वर्ष संगीत को समर्पित ब्लॉग्स पर ज्यादा हलचल नहीं देखी गयी , सुर-पेटी पर केवल दो पोस्ट प्रकाशित हुए ,वहीं सुर साधकों से मुलाक़ात पर आधारित ब्लॉग एक मुलाक़ात पर पूरे वर्ष में केवल तीन पोस्ट ही देखे गए !जाने क्या मैंने कही पर केवल चार,शब्द सृष्टि पर केवल एक ही पोस्ट देखे गए,गीतों की महफ़िल पर केवल छ:पोस्ट देखे गए , किन्तु वर्ष-२००६ से हिंदी ब्लॉगजगत का हिस्सा बने एक बेहद खुबसूरत ब्लॉग एक शाम मेरे नाम ने इस वर्ष खूब धमाल मचाया !इस पर कुल ७७ पोस्ट देखे गए इस वर्ष “वार्षिक संगीत माला ” की प्रस्तुति इस ब्लॉग की सबसे बड़ी उपलब्धि है ! इस पर आप फैज़ अहमद फैज़, कातिल शिफाई, परवीन शाकर, अहमद फ़राज़ , सुदर्शन फाकिर आदि कि गज़लें और नज्में ….वर्ष की चुनिन्दा संगीत मालाओं से आप रूबरू हो सकते हैं ! यह ब्लॉग हिंदी का एक नायाब ब्लॉग है !
वर्ष-२०१० में संगीत से जुड़े जिन ब्लॉग्स पर सार्थक पोस्ट की उपस्थिति देखी गयी उसमें प्रमुख है-”ठुमरी”ब्लोगर हैं विमल वर्मा !अपने बारे में विमल कहते हैं कि- “बचपन की सुहानी यादों की खुमारी अभी भी टूटी नही है.. जवानी की सतरंगी छाँह आज़मगढ़, इलाहाबाद,बलिया और दिल्ली मे.. फिलहाल १६-१७ साल से मुम्बई मे..मनोरंजन चैनल के साथ रोजी-रोटी का नाता……!”
न शास्‍त्रीय टप्‍पा.. न बेमतलब का गोल-गप्‍पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्‍तो, है रंगमंच तैयार.. छाया गांगुली की आवाज में फागुन के गीत या फिर कवि नीरज जी की आवाज़ में… ” कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे , ग्रामोफोनीय रिकोर्ड के कबाड़खाने से कुछ रचनाएँ सुननी हो अथवा एक अफ़गानी की आवाज़ में ….जब दिल ही टूट गया ….पूरे वर्ष में केवल १२ पोस्ट और सभी नायाब !
सर्दियों की ठुठुरती रातें…दूर एक वीरान सा महल…घुप्प अँधेरा और किसी के पायल की झंकार…सफ़ेद चोले में लहराता एक बदन…और एक सुरीली आवाज़….जी हाँ ऐसी ही आवाज़ से पूरे वर्ष हमें रूबरू कराता रहा हिंद युग्म का आवाज़ ब्लॉग!मशहूर फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज के साथ – वर्ष २०१० के टॉप गीत सुनना हो तो इस खुबसूरत ब्लॉग पर अवश्य पधारें !
संगीत की बात हो और रेडियो न बजे तो सबकुछ नीरस सा लगता है , ऐसे में रेडियोनामा हमारी उस कमी को पूरा करता है ! यह एक सामूहिक ब्लॉग है और इससे जुड़े हैं-पियूष मेहता, अन्नपूर्णा, ममता, डा.प्रवीण चोपड़ा,अफलातून,युनुस खान, रवि रतलामी, डा अजित कुमार, संजय पटेल, इरफ़ान,काकेश, तरुण, प्रियंकर, अनिता कुमार, सजीव सारथी ,कमल शर्मा ,मनीष कुमार, लावण्या शाह, जगदीश भाटिया, विकास शुक्ला, बी.एस. पावला आदि !
रेडियोनामा रेडियो-विमर्श का सामूहिक-प्रयास है। अगर आप भी रेडियो-प्रेमी हैं और रेडियो से जुड़ी अपनी यादें या बातें इनके साथ साथ बांटना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। अपनी बात आपको हिंदी में लिखनी होगी। अगर आप केवल अंग्रेजी में लिखते हैं तो भी कोई बात नहीं, आपका लेख ये हिंदी -अनुवाद करके प्रकाशित करेंगे। हिन्दी सबंधी तकनीकी सहायता के लिए नि:संकोच आप इनसे संपर्क कर सकते हैं । रेडियोनामा के अलावा यदि आप रेडियो प्रेमी हैं तो यहाँ भी सुन सकते हैं रेडियो -यानी कौल साहब का रेडियो-पन्ना, सागर नाहर की सूची, बीबीसी हिंदी, वॉइस ऑफ अमेरिका हिंदी, हम एफ एम सऊदी अरब, डॉयचे वेले–जर्मनी की हिंदी सेवा, रेडियो जापान की हिंदी सेवा, आकाशवाणी समाचार, रेडियोवर्ल्ड, रेडियो तराना आदि पर !
संवाद सम्मान-२००९ से सम्मानित युनुस खान का ब्लॉग रेडियोवाणी पर इस वर्ष भी अनेक सार्थक पोस्ट देखे गए !मध्‍यप्रदेश के दमोह शहर में पैदा हुए ब्लोगर युनुस खान म0प्र0के कई शहरों में पाले बढ़ें । बचपन से ही संगीत, साहित्‍य और रेडियो में गहरी दिलचस्‍पी थी । सन 1996 से मुंबई स्थित देश के प्रतिष्ठित रेडियो चैनल विविध भारती (vividh bharati) में एनाउंसर के पद पर कार्यरत हैं । नए पुराने तमाम अच्‍छे गीतोंके साथ-साथ दुनिया भर की फिल्‍मों में इनकी गहरी रूचि है । कविताएं और अखबारों में लेखन भी ये यदा कडा करते रहते हैं !इस ब्लॉग पर कुल ३०० पोस्ट प्रकाशित है जो आपका भरपूर मनोरंजन करने में पूरी तरह सक्षम है !
वहीं मिर्जापुर में पैदा हुए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़े और समकालीन जनमत के साथ पटना होते हुए दिल्ली पहुंचे इरफ़ान स्वतंत्र पत्रकारिता,लेखन और ऒडियो-विज़ुअल प्रोडक्शन्स से जुड़े होने के वावजूद हिंदी ब्लोगिंग को समृद्ध करने की दिशा में दृढ़ता के साथ सक्रिय हैं ! इनका ब्लॉग है टूटी हुई बिखरी हुई !इस ब्लॉग पर इस वर्ष कुल २७ पोस्ट प्रकाशित हुए और सब एक से बढ़कर एक !
संगीत की साधना को समर्पित ब्लॉग का यह विश्लेषण तबतक पूर्ण नहीं हो सकता जबतक पारुल चंद पुखराज का ….की चर्चा न हो जाए , क्योंकि यह ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत के लिए विशिष्ट है !युनुश खान की तरह पारुल भी संवाद सम्मान-२००९ से सम्मानित हैं ! इस ब्लॉग पर इस वर्ष ६५ पोस्ट प्रकाशित हुए हैं, जो पूरी तरह साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों और संगीत को समर्पित है !पारुल “पुखराज” को गुलज़ार की ये पंक्तियाँ बहुत पसंद है -”कुछ भी क़ायम नही है,कुछ भी नही…रात दिन गिर रहे हैं चौसर पर…औंधी-सीधी-सी कौड़ियों की तरह…हाथ लगते हैं माह-ओ साल मगर …उँगलियों से फिसलते रहते है…धूप-छाँव की दौड़ है सारी……कुछ भी क़ायम नही है,कुछ भी नही………………और जो क़ायम है,बस इक मैं हूँ………मै जो पल पल बदलता रहता हूँ …!”
इसके अलावा वर्ष-२०१० में गीत-संगीत से जुड़े जिन ब्लोग्स पर सार्थक पोस्ट की प्रस्तुति हुई है, उसमें प्रमुख है – संगीत, किससे कहें , गीतों की महफ़िल, सुख़नसाज़ ,रंगे सुखन , जोग लिखी संजय पटेल की , बाजे वाली गली , दिलीप के दिल से , आगाज़ , कबाड़खाना आदि !इन सारे ब्लोग्स का उद्देश्य रहा है अच्छे संगीत,साहित्य और उससे जुड़े पहलुओं को उजागर करना रहा है, जो प्रशंसनीय है !इनपर सुगम संगीत से लेकर क्लासिकल संगीत को सुना जा सकता है , मन के अंतर में हर क्षण अनेकों भाव उमडते रहतें हैं ,इन्ही भावों को हिन्दी भाषा के माध्यम से अंतर्जाल पर लिखने का प्रयास है अंतर्ध्वनि ! नीरज रोहिल्ला का यह ब्लॉग अन्य ब्लॉग कि तुलना में कुछ अलग है यह संगीत का ब्लॉग नहीं है अनुभूतियों का ब्लॉग है ! इस पर भी अनेक सार्थक पोस्ट देखे गए इस वर्ष !
वर्ष- २००६ से संचालित हास्य-व्यंग्य का प्रमुख ब्लॉग है चक्रधर का चक्कलस ! यह ब्लॉग हिन्दी के श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि अशोक चक्रधर का है ,वर्ष-२०१० में इस पर कुल ५८ पोस्ट प्रकाशित हुए जो वर्ष-२००८ और २००९ में प्रकाशित पोस्ट के बराबर है अर्थात इस वर्ष अशोक चक्रधर जी के इस ब्लॉग पर सक्रियता अचंभित करती है !
इस वर्ष ताऊ डोट इन ने हास्य व्यंग्य को माध्यम बनाकर पाठकों को भरपूर रूप से आकर्षित किया,इस ब्लॉग की सर्वाधिक रचनाएँ चिट्ठाकारों को केंद्र में रखकर प्रस्तुत की जाती रही और कोई भी ब्लोगर इनके व्यंग्य बाण से आहत होकर न मुस्कुराया हो , ऐसा नहीं हुआ ….यानी यह ब्लॉग वर्ष के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग की कतार में अपना स्थान बनाने में सफल हुआ है ,इस ब्लॉग पर इस वर्ष से वैशाखनंदन सम्मान की भी शुरुआत हुई है ! अलग हरियाणवी शैली और प्रस्तुति के कारण यह हिंदी ब्लॉगजगत में रातो-रात मशहूर हो गया है ।वर्ष-२०१० के वहुचर्चित हास्य ब्लोगर ताऊ रामपुरिया ने जहां ब्लॉग पर अनेक प्रयोग किये हैं इस वर्ष, वहीं संजय झाला ने भी पाठकों को हंसा हंसाकर लोटपोट करने में कोई कसर नहीं छोड़ा !
हास्य व्यंग्य पर आधारित ब्लॉग सुदर्शन की सक्रियता लगातार हमें अचंभित करती रही है !विगत दो वर्षों में इस ब्लॉग पर मैंने अनेक अच्छी-अच्छी सामग्रियां देखी है,प्रस्तुतिकरण और भाषा का लालित्य इसकी विशेषता है ,क्योंकि ब्लोगर के.एम .मिश्रा को स्वस्थ हास्य परोसने में महारत हासिल है !यह ब्लॉग पूरी तरह हास्य और व्यंग्य को समर्पित है !देश के लगभग सभी ज्वलंत मुद्दों पर चुटीली टिप्पणियाँ इस वर्ष यहाँ देखने को मिली है !
GWALIOR TIMES हास्‍य व्‍यंग्‍य में पूरे वर्ष में केवल ८ पोस्ट प्रकाशित हुए, वहीं ठहाका में केवल ३ पोस्ट ! दीपकबापू कहिन पर यद्यपि इस वर्ष कुछ अच्छी हास्य-व्यंग्य रचनाएँ देखी गयी, तीखी नज़र पर हास्य-व्यंग्य की क्षणिकाएं लगातार देखने को मिली ।बामुलाहिजा पर कार्टून के माध्यम से आज के सामाजिक ,राजनैतिक कुसंगातियों पर पूरे वर्ष भर व्यंग्य बरसते रहे । कार्टूनिष्ट हैं कीर्तिश भट्ट । current CARTOONS ताज़ा राजनैतिक घटनाक्रमों पर आधारित कार्टून का महत्वपूर्ण चिट्ठा बनने में सफल रहा । कार्टूनिस्ट हैं -चंद्रशेखर हाडा जयपुर ।मजेदार हिंदी एस एम एस चटपटे और मजेदार चुटकुलों अथवा हास्य क्षणिकाओं का अनूठा संकलन बनने में सफल रहा इस वर्ष,वहीं चिट्ठे सम्बंधित कार्टून हिन्दी चिट्ठाजगत में हो रही गतिविधियों को कार्टून रूप में पेश करने की पूरी कोशिश करता रहा विगत वर्ष, किन्तु इस वर्ष यह पूरी तरह अनियमित रहा ।; SAMACHAR AAJ TAK पर आज की ताज़ा खबरें परोसी गयी मगर मनोरंजक ढंग से और यही इस ब्लॉग की विशेषता रही । अज़ब अनोखी दुनिया के काफी दिलचस्प रहा इस वर्ष ।
आईये अब मिलते हैं की बोर्ड के खटरागी से यानी अविनाश वाचस्पति से जिनके ब्लॉग पर हास्य-व्यंग्य और अन्य साहित्यिक समाचार खूब पढ़ने को मिले हैं इस वर्ष । यूँ ही निट्ठल्ला….. का प्रस्तुतीकरण अपने आप में अनोखा , अंदाज़ ज़रा हट के , आप भी पढिये और डूब जाईये व्यंग्य के सरोबर में ।डूबेजी के ब्लोगर श्री राजेश कुमार डूबे जी का कार्टून सामाजिक आन्दोलन की अगुआई करता रहा । दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका पर भी कभी-कभार अच्छी और संतुलित हास्य कवितायें देखने कोमिलती रही , यह ब्लॉग सुंदर और सारगर्भित और स्तरीय है । hasya-vyang पर ब्लोगर हास्य-व्यंग्य के साथ न्याय करता हुआ दिखा ।
सितंबर-२०१० में हास्य-व्यंग्य का एक नया ब्लॉग आया,नाम है वक़्त ही वक़्त कमबख्त !हास्य कविता,व्यंग्य,शायरी व अन्य दिमागी खुराफतों का संकलन (Majaal)है यह !वर्ष-२०१० के आखिरी चार महीनों में इस ब्लॉग पर कुल८९ पोस्ट प्रकाशित हुए जो प्रशंसनीय है !
किसी ने कहा है कि हंसना रवि की प्रथम किरण सा,कानन में नवजात शिशु सा ……हमारा वर्त्तमान इतना विचित्र है कि हमने अपनी सहज-सुलभ विशिष्टताओं को ओढ़ लिया है,आज हर आदमी इतना उदास है कि उसे हंसाने के लिए लाखों जतन करने पड़ते हैं !ऐसे में यदि कोई हमारे उदास चहरे पर हंसी की लालिमा फैलाने की दिशा में कार्य करता है या करती है तो प्रशंसनीय है !हास्य के ऐसे ही एक ब्लॉग से मैं रूबरू हुआ इस वर्ष ,नाम है हास्य फुहार ….इस ब्लॉग को संचालित करने वाली ब्लोगर का कहना है कि “मैं एक घरेलु महिला हूं , हंसो और हंसाओ में विश्वास रखती हूं।”
निरंतर पर भी आप व्यंग्य के तीक्ष्ण प्रहार को महसूस किया गया इस वर्ष । अनुभूति कलश पर डा राम द्विवेदी की हास्य-व्यंग्य कविताओं से हम रू-ब रू हुए । इसी प्रकार योगेन्द्र मौदगिल और अविनाश वाचस्पति के सयुक्त संयोजन में प्रकाशित चिट्ठा है हास्य कवि दरबार पर आपको मिली हास्य-व्यंग्य कविताएं, कथाएं, गीत-गज़लें, चुटकुले-लतीफे, मंचीय टोटके, संस्मरण, सलाह व संयोजन। विचार मीमांशा पर भी पढ़े गए इस वर्ष कुछ उच्च कोटि की हास्य रचनाएँ !
हास्य की चर्चा हो और हास्य कवि अलवेला खत्री की चर्चा न हो तो हिंदी ब्लॉगजगत की कोई भी वह चर्चा अधूरी ही मानी जायेगी, क्योंकि अलवेला खत्री टी वी जगत और मंच के मशहूर हस्ताक्षर है, किन्तु ब्लॉग के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अनुकरणीय है ! चलते-चलते आपको बता दूँ कि नई दिल्ली में 27 जुलाई को हास्य-कविता की कार्यशाला आयोजित हुई, जिसकी अध्यक्षता राष्ट्रीय कविसंगम के अध्यक्ष श्री जगदीश मित्तल ने की। विषय पर व्याख्यान देने के लिए मंच के जाने-माने हस्ताक्षर श्री अरुण जैमिनी, डॉ. प्रवीण शुक्ला,ब्लोगर चिराग़ जैन, डॉ. प्रवीण शुक्ला तथा डॉ.विनय विश्वास मौजूद थे।
आईये अब आपको एक ऐसे ब्लॉग से परिचय करवाते हैं जो संभवत: हिंदी में अनूठा और अद्वितीय है ब्लॉग का नाम है मिसफिट:सीधीबात, ब्लोगर हैं गिरीश बिल्लोरे मुकुल ….हिंदी ब्लॉगजगत में होने वाली हर गतिविधियों पर इनकी तीखी नज़र रहती है और हर आम व ख़ास ब्लोगर के मन की बात पाठको के समक्ष दृढ़ता के साथ परोसना इनकी आदत है !ये अपने ब्लॉग के बारे में बड़े फक्र से कहते हैं कि “जी हां !मिसफ़िट हूं हर उस पुर्ज़े की नज़र में जो हर जो हर ज़गह फ़िट बैठता हो.आप जी आप और आप जो मिसफ़िट हो वो मेरी ज़मात में फ़िट है !!”ऐसे ब्लोगर को अतुलनीय और अद्वितीय न कहा जाए तो क्या कहा जाए ? ये हिंदी ब्लोगिंग में लाईव वेबकास्ट की प्रस्तुति करने वाले पहले ब्लोगर हैं !
कुल मिलाकर देखा जाए तो वर्ष २०१० में हिंदी ब्लॉगिंग में व्यापक विस्तार देखा गया, किन्तु कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर आपसी मतैक्यता का अभाव दिखा, साथ अपनी डफली अपना राग अलापने का सिलसिला इस वर्ष भी जारी रहा !
रवीन्द्र प्रभात
मुख्य संपादक : परिकल्पना ब्लॉगोत्सव
लेखक परिचय:
हिंदी के मुख्य ब्लॉग विश्लेषक के रूप में चर्चित रवीन्द्र प्रभात विगत ढाई दशक से निरंतर साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखनरत हैं । इनकी रचनाएँ भारत तथा विदेश से प्रकाशित लगभग सभी प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा कविताएँ लगभग डेढ़ दर्जन चर्चित काव्य संकलनों में संकलित हैं। इन्होंने सभी साहित्यिक विधाओं में लेखन किया है परंतु व्यंग्य, कविता और ग़ज़ल लेखन में विशेष सक्रिय हैं। लखनऊ से प्रकाशित हिंदी “दैनिक जनसंदेश टाइम्स” के नियमित स्तंभकार, जिसमें व्यंग्य पर इनका साप्ताहिक स्तंभ “चौबे जी की चौपाल ” काफी लोकप्रिय है। “हमसफ़र” और “मत रोना रमजानी चाचा” दो ग़ज़ल संग्रह तथा एक कविता संग्रह “स्मृति शेष” प्रकाशित है । इन्होंने “समकालीन नेपाली साहित्य” में सक्रिय हस्ताक्षरों की रचनाओं का एक संकलन भी संपादित किया है । विगत चार वर्षों से हिंदी चिट्ठों का विहंगम विश्लेषण कर रहे रवीन्‍द्र को “संवाद सम्मान” से वर्ष-२००९ में सम्मानित किया गया। साहित्यिक संस्था “काव्य संगम” के प्रकाशन सचिव,”लख़नऊ ब्लॉगर एसोसिएशन” के अध्यक्ष तथा “प्रगतिशील बज्जिका लेखक संघ” के राष्ट्रीय महासचिव रह चुके हैं । वर्त्तमान में ये अंतरजाल की बहुचर्चित ई-पत्रिका “हमारी वाणी” के सलाहकार संपादक तथा प्रमुख सांस्कृतिक संस्था “अन्तरंग” के राष्ट्रीय सचिव हैं। अनियतकालीन “उर्विजा” ,” फागुनाहट” का संपादन तथा हिंदी मासिक संवाद और “साहित्यांजलि” का विशेष संपादन कर चुके हैं। “ड्वाकरा” की टेली डक्यूमेंटरी फ़िल्म “नया विहान” के पटकथा लेखन से भी जुड़े रहे हैं। जीवन और जीविका के बीच तारतम्य स्थापित करने के क्रम में इन्होंने अध्यापन का कार्य भी किया, पत्रकारिता भी की, वर्त्तमान में ये विश्व के एक बड़े व्यावसायिक समूह में प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं। आजकल लखनऊ में हैं। इस वर्ष इनकी तीन पुस्तकें क्रमश: ताकि बचा रहे लोकतंत्र (उपन्यास) , हिंदी ब्लॉगिंग : अभिव्यक्ति की नई क्रान्ति (संपादित) तथा हिंदी ब्लॉगिंग का इतिहास एक साथ प्रकाशित हुई है है तथा प्रेम न हाट विकाय(उपन्यास ) प्रकाशनाधीन है !
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