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देश विदेश के कुछ समाचार पत्र

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 समाचार पत्रसंचार का प्रमुख साधन


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"समाचार पत्र"श्रेणी में पृष्ठ

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विश्व के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र

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प्रस्तुति-- मनीषा यादव, हिमानी सिंह,


न्यूज पोस्टन्यूज पोस्ट

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:भाषा के अनुसार समाचार पत्र

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प्रस्तुति-- विनय बिंदास, बलि कोकट
वर्धा


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:अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्र

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प्रस्तुति- इमित्याज, जमील अहमद रजनीश
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मराठी भाषा के समाचार पत्र

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बांग्ला भाषा

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तसलीमा नसरीन

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मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
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प्रस्तुति-- निम्मी नर्गिस जमील अहमद

तसलीमा नसरीन (बांग्ला:তসলিমা নাসরিন) एक बांग्लादेशी लेखिका हैं जो नारीवादसे संबंधित विषयों पर अपनी प्रगतिशील विचारों के लिये चर्चित और विवादित रही हैं। बांग्लादेशमें उनपर जारी फ़तवेकी वजह से आजकल वे कोलकातामें निर्वासन की ज़िंदगी बिता रही हैं। हालांकि कोलकाता में विरोध के बाद उन्हें कुछ समय के लिये दिल्ली और उसके बाद फिर स्वीडन में भी समय बिताना पड़ा है लेकिन इसके बाद जनवरी २०१० में वे भारत लौट आईं। उन्होंने भारत में स्थाई नागरिकता के लिये आवेदन किया है लेकिन भारत सरकार की ओर से उस पर अब तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है।
स्त्री के स्वाभिमान और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए तसलीमा नसरीनने बहुत कुछ खोया। अपना भरापूरा परिवार, दाम्पत्य, नौकरी सब दांव पर लगा दिया। उसकी पराकाष्ठा थी देश निकाला।
नसरीन को रियलिटी शो बिग बॉस 8में भाग लेने के लिए कलर्स (टीवी चैनल)की तरफ से प्रस्ताव दिया गया है। तसलीमा ने इस शो में भाग लेने से मना कर दिया है।[1]

जीवनी

तसलीमा का जन्म २५ अगस्त सन १९६२ को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के मयमनसिंह शहर में में हुआ था। उन्होने मयमन्सिंह मेडिकल कॉलेज से १९८६ में चिकित्सा स्नातक की डिग्री प्राप्त की करने के बाद सरकारी डॉक्टर के रूप में कार्य आरम्भ किया जिस पर वे १९९४ तक थीं। जब वह स्कूल में थीं तभी से ही कविताएं लिखना आरम्भ कर दिया था।

कृतियाँ

उपन्यास

  • लज्जा
  • अपरपक्ष (उच्चारण : ओपोरपोक्ख)
  • निमंत्रण (उच्चारण : निमोन्त्रोन)
  • फेरा

आत्मकथा

  • आमार मेयेबेला
  • द्विखण्डित (उच्चारण : द्विखंडितो)
  • सेई सब अंधकार ( उच्चारण : सेई सोब अंधोकार)
  • अमी भालो नेई, तुमी भालो थेको प्रियो देश

कविता

  • निर्बासितो बाहिरे ओन्तोरे
  • निर्बासितो नारीर कोबिता
  • खाली खाली लागे
  • बन्दिनी ( उच्चारण : बोन्दिनी)

निबन्ध संग्रह

  • नष्ट मेयेर नष्ट गद्य ( नोस्टो मेयेर नोस्टो गोद्दो )
  • छोटो च्होटो दुखो कोथा
  • नारीर कोनो देश नेई

यह भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

बिहार में मीडिया का यथार्थ

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राजनीति VS मीडिया :

अटल तिवारी 

प्रस्तुति-- रोहित बघेल, सजीली सहाय
आगरा
 
media-for-saleबिहार में मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप की बात काफी दिनों से चल रही थी। पटना विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में बोलते हुए भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने इसका जिक्र किया तो हंगामा खड़ा हो गया। राज्य सरकार ने उनके बयान को आधारहीन बताया तो विपक्ष ने मीडिया पर पाबंदी लगाने की सरकारी कोशिश को लेकर विधानसभा में आवाज बुलंद की। आरोप-प्रत्यारोप के बीच मामले की जांच के लिए जस्टिस काटजू ने पत्रकार राजीव रंजन नाग की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन कर दिया। समिति सदस्यों ने जांच के दौरान राज्य के 16 जिलों का दौरा किया। उसे बताया गया कि पत्रकारों पर प्रबंधन का दबाव रहता है कि सरकार के खिलाफ खबरें न लिखी जाएं। इससे अखबार को मिलने वाला विज्ञापन रुक सकता है। आंदोलनों एवं जनता से जुड़ी खबरों को तवज्जो नहीं दी जा रही है। जांच रिपोर्ट के अनुसार बिहार सरकार मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है। विज्ञापन रोक देने से लेकर विरोधी खबर लिखने वाले पत्रकार का तबादला करने से लेकर नौकरी से निकलवा दिया जाना आम बात है। कवरेज में विपक्ष की अनदेखी कर सत्तापक्ष की मनमाफिक खबरों को तरजीह दी जा रही है। सरकार अक्सर अपनी खबर छपवाने के लिए पत्रकारों अथवा संपादकीय विभाग को न भेजकर सीधे अखबार के प्रबंधन को भेजती है। प्रबंधन, संपादकीय विभाग पर दबाव बनाकर ये खबरें प्रकाशित कराता है। इसका मूल कारण यह है कि राज्य में मीडिया उद्योग पूरी तरह सरकारी विज्ञापनों पर आश्रित है। जांच टीम ने कहा है—’सरकार के दबाव के चलते ही अखबार भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को कम तरजीह दे रहे हैं। वे केवल राज्य सरकार के विकास और योजनाओं की खबरें ही छाप रहे हैं।’ इस बीमारी से बचने के लिए टीम ने दस से अधिक बिंदु सुझाए हैं। इनमें एक अहम सुझाव राज्य में एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन करने का है, जो नियमों का सख्ती से पालन करते हुए मीडिया को विज्ञापन जारी करे।
प्रेस परिषद के सदस्यों की मुहर लगने से पहले जांच रिपोर्ट ही यह मीडिया के हाथ लग गई। इसमें हुई सरकार की आलोचना पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि परिषद की रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण है। नीतीश के सहयोगी दल भाजपा ने भी काटजू पर हमला बोलते हुए कहा कि वह एक कांग्रेसी की तरह गैरकांग्रेसी सरकारों को निशाना बना रहे हैं। इधर गुजरात और वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर लिखे गए काटजू के एक लेख ने रही—सही कसर पूरी कर दी। राज्यसभा में भाजपा नेता अरुण जेटली ने बाकायदा काटजू के इस्तीफे की मांग कर डाली। हालांकि गैरकांग्रेसी सरकारों को निशाना बनाने वाली तोहमत जड़ते हुए भाजपा नेता यह भूल गए कि फेसबुक पर टिप्पणी करने पर गिरफ्तार की जाने वाली दो लड़कियों के मामले में सबसे पहले काटजू ने ही महाराष्ट्र सरकार को निशाना बनाया था।
खैर! यहां बात बिहार की हो रही है, जहां मुख्य धारा का मीडिया विज्ञापनों की लूट में लगा है। अखबार एक ही पंजीकरण संख्या के आधार पर अनेक जिलों से अपने स्थानीय संस्करण निकाल रहे हैं। मीडिया के इस रवैये को पटना उच्च न्यायालय ने भी गैरकानूनी माना है क्योंकि आरएनआइ से प्राप्त एक पंजीकरण संख्या के आधार पर केवल एक ही स्थान से संस्करण निकाला जा सकता है। प्रेस परिषद की जांच समिति के अध्यक्ष राजीव रंजन नाग कहते हैं—’बिहार में अघोषित आपातकाल जैसे हालात हैं। अखबार एकतरफा तस्वीर पेश कर रहे हैं। घपले, घोटालों, भ्रष्टाचार और अपराध की खबरों को दबा दिया जाता है या दिखाने के लिए काट-छांट के बाद भीतर के पन्नों पर एक कॉलम में छापकर दबा दिया जाता है। दरअसल सरकारी विज्ञापनों पर सरकार का एकाधिकार होने की वजह से मीडिया संस्थानों ने अपने अखबारों को नीतीश सरकार का मुखपत्र बना दिया है, वहां सार्वजनिक हित की खबरों से परहेज किया जा रहा है। ‘
अखबारों में चल रहे विज्ञापनों के इस खेल को परिषद ने पहली बार नहीं रेखांकित किया है। इसके पहले 2010 में परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष जस्टिस जीएन रे ने भी अखबारों में बढ़ते विज्ञापनों व खबरों पर पड़ते उनके असर के संबंध में चिंता जाहिर की थी। उन्होंने कहा था कि ‘प्रेस के लिए विज्ञापन आमदनी का मुख्य स्रोत बन गए हैं। महानगरों में तो अखबारों की कुल आमदनी का लगभग 80 फीसदी विज्ञापनों से आ रहा है। इस वजह से अखबारों में विज्ञापन ही ज्यादा जगह घेरने लगे हैं। समाचार और विज्ञापन का अनुपात लगातार विज्ञापनों के पक्ष में झुक रहा है। अखबारों की नीति और विचारों पर विज्ञापनों का दखल जितना लगता है उससे ज्यादा हो चुका है।’
कारपोरेट युग में मीडिया इतना ताकतवर हो गया है कि वह अपने हित के लिए सभी नियम-कायदे ध्वस्त कर रहा है। दोनों तरफ ‘राजनीति व मीडिया’ से हित साधन की मुहिम चल रही है। इसी के तहत लंबे समय से मीडिया का इस्तेमाल राजनीति को मनमाफिक ढालने में हो रहा है तो मीडिया भी नेताओं का इस्तेमाल कर पूंजी बनाने में लगा है।
बिहार में पिछले सात साल से मीडिया का एकसुरा नीतीश राग चल रहा है। सबसे पहले 2008 में आने वाली कोसी नदी की तबाही की बात। प्रलयंकारी बाढ़ आने पर नीतीश सरकार की लापरवाही पर बिहार की पत्रकारिता मौन रही। वह बाढ़ की विभीषिका को कमतर दिखाने का प्रयास करती रही। सरकारी राहत कार्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती रही। इसी तरह जून 2011 में फारबिसगंज में पुलिस फायरिंग और हिंसा में चार लोगों की मौत का विभिन्न संगठनों व बौद्धिक जगत के लोगों ने विरोध किया, लेकिन अखबारों ने इस कांड को दबाना ही उचित समझा। हां, सोशल मीडिया की वजह से घटना की खबर एवं विरोध की आवाज लोगों तक जरूर पहुंची। नालंदा में शांति कायम करने के बहाने पुलिस ने आम लोगों पर कहर बरपाया। अनुबंध आधारित नौकरी को नियमित करने और वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर सड़क पर उतरे शिक्षकों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। महिलाओं तक को नहीं बख्शा गया। आशा महिलाओं के विरोध प्रदर्शन से लेकर हर आंदोलन का दमन किया जाता रहा है। यह घटनाएं किसी भी लोकतंात्रिक राज्य के लिए कलंक हैं। लेकिन लोकतंत्र का राग अलापने वाली सरकार में ऐसी घटनाएं नहीं दिखनी व छपनी चाहिए सो इसके लिए नीतीश राग में लगा मीडिया अपना काम कर रहा है। शिक्षकों को पीटने (सर्वोच्च न्यायालय ने जिसका संज्ञान लिया) की बात पर सरकार ने उनके अराजक होने की बात कही। यह आरोप जड़ते हुए वह भूल गई कि जून 2012 में रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह की शव यात्रा में शामिल भीड़ को गुंडागर्दी मचाने को खुला छोड़ देने के लिए उसने क्या दलील दी थी? उस समय पुलिस महानिदेशक ने कहा था कि अगर भीड़ पर शिकंजा कसा जाता तो बिहार अराजकता के दौर में जा सकता था। यानी भीड़ को गुंडागर्दी करने की खुली छूट प्रशासन ने दी वहीं अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे शिक्षकों को पुलिस द्वारा पीटने को उसने उचित ठहरा दिया। सरकार की इस संवेदनहीनता पर स्थानीय मीडिया उंगली नहीं उठाता है। सरकार पर उंगली उठाने वाली खबरें प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों में कमोबेश नहीं दिखती। ऐसे में विकल्प के रूप में समाचार के वैकल्पिक माध्यम ‘इसमें सोशल मीडिया एवं कुछ पत्र-पत्रिकाएं’ बचते हैं, जिसमें उसके कारनामों की पोल अवश्य खुल रही है। मीडिया किस तरह पक्षपात करता है इसके लिए पटना उच्च न्यायालय की 2011 की एक टिप्पणी पर नजर डालना जरूरी है। न्यायालय ने टिप्पणी की कि ‘पटना में जंगलराज है, यहां नियम नहीं चलते, ऑफीसर और बाबुओं की मिलीभगत से हर काम संभव है।’ न्यायालय की इस टिप्पणी पर मीडिया ने गौर तक नहीं किया…सवाल उठाने की तो बात छोडि़ए। लेकिन न्यायालय की एक ऐसी ही टिप्पणी को आधार बनाकर मीडिया ने लालू के शासनकाल को जंगलराज घोषित कर दिया था। लेखक प्रमोद रंजन कहते हैं-”आज बिहारी पत्रकारिता का परिदृश्य खुला हमाम है। सरकार में शामिल सामंती ताकतें इस अश्लीलता का चटखारा ले रही हैं जबकि जनांदोलनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी पार्टियों के हिस्से में उसकी नंगई आई है। जितनी धूर्तता से सरकारी उपलब्धियों का ढोल पीटा जा रहा है, उससे कहीं अधिक चालाकी से विरोध की आवाजें सेंसर की जा रही हैं। हर खबर में यह ध्यान रखा जा रहा है कि कहीं मौजूदा सरकार को राजनीतिक नुकसान न हो जाए। …लोकतंत्र के मूलाधार विरोध प्रदर्शनों को मुख्यमंत्री गुंडागर्दी कहते हैं तो अखबार सुशासन और विकास के अवरोधक।”
अखबार ऐसा क्यों कर रहे हैं इसके लिए मीडिया के पूरे तंत्र को समझना होगा। देश में मीडिया कंपनियों का कारोबार फैलता जा रहा है। इसके साथ ही साल-दर-साल उसकी बहुलता कम होती जा रही है। अब वह चंद घरानों में सिमट गया है। ऐसे में राजनीति और कारपोरेट के हाथों वह आसानी से सध रहा है। वह सत्ता एवं कारपोरेट के पक्ष में राय बनाने का काम कर रहा है। मीडिया की इस ताकत को देखते हुए जरूरी है कि वह कैसे काम करता है? किसके कहने पर करता है? किसके हित में करता है, इसकी निगरानी की जाए। बिहार में मुख्यधारा का मीडिया चंद घरानों तक कैसे सिमट गया इसकी गवाही आंकड़े देते हैं। राज्य में हिंदुस्तान टाइम्स समूह व दैनिक जागरण समूह का प्रिंट मीडिया पर एकाधिकार है। इंडियन रीडरशिप सर्वे 2010 की चौथी तिमाही रिपोर्ट के अनुसार राज्य में सबसे अधिक बिकने वाले दस अखबारों की कुल औसत पाठक संख्या 81.01 लाख है। इसमें से 46.25 लाख (57 प्रतिशत) पाठक केवल हिंदुस्तान के पास हैं। हिंदुस्तान टाइम्स की पाठक संख्या जोड़ लें तो इस मीडिया समूह के पास बिहार के टॉप दस अखबारों की 58.37 प्रतिशत पाठक संख्या है। अगर हिंदुस्तान टाइम्स समूह व दैनिक जागरण समूह के अखबारों (हिंदुस्तान, हिंदुस्तान टाइम्स व दैनिक जागरण, आई-नेक्स्ट) की पाठक संख्या मिला लें तो यह संख्या 72.73 लाख हो जाती है। यानी दो मीडिया समूह बिहार के टॉप दस अखबारों के पाठकों का 89.67 प्रतिशत कंट्रोल करते हैं। इस तरह दो मीडिया कंपनियों को साधन (मैनेज) कर बिहार के टॉप दस अखबारों के लगभग 90 फीसदी को मैनेज किया जा सकता है। नीतीश सरकार यही काम कर रही है। पत्रकार दिलीप मंडल लिखते हैं-’नीतीश सरकार (पहली सरकार) के चार साल पूरे होने पर 24 नवंबर 2009 को एक ही दिन 1.15 करोड़ रुपए के विज्ञापन 24 अखबारों को दिए गए। …इन विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा लगभग 72.5 लाख रुपए हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर और आज अखबार को दिए गए। सबसे ज्यादा 37 लाख के विज्ञापन हिंदुस्तान को मिले। इस विज्ञापन के फौरन बाद 31 दिसंबर 2009 को हिंदुस्तान ने एक एसएमएस पोल के नतीजे छापे, जिसके मुताबिक राष्ट्रीय हीरो के तौर पर नीतीश कुमार देश में सबसे आगे रहे।’ नीतीश को हीरो बनाने की यह कहानी एक मीडिया संस्थान की नहीं है। मीडिया द्वारा गढ़ी जाने वाली ऐसी कहानियां अक्सर सामने आती रही हैं। साल 2010 में विधानसभा चुनाव से पहले एनडीटीवी इंडिया समाचार चैनल ने नीतीश को बेहतरीन मुख्यमंत्री का खिताब दिया। दरअसल पैसों से बिकने वाला मीडिया नीतीश के इशारे पर उठ-बैठ रहा है। विकास का कागजी किला बनाकर नीतीश उसी के कारण विकास पुरुष बन गए। मीडिया के बनाए इस विकास पुरुष को दूसरे चुनाव में भी मतदाताओं ने वोटों की गठरी से लाद दिया। इस कागजी किले का एक उदाहरण देखिए। बिहार में कम प्रसार संख्या वाला प्रभात खबर चेतना संपन्न लोगों का अखबार माना जाता रहा है। इसे विज्ञापन कम मिलते थे। मुख्यमंत्री ने इसके विज्ञापन में लगभग तीन गुना तक बढ़ोतरी कर दी। इसका असर भी देखने को मिला। अखबार ने 11 जुलाई 2009 को अपने स्थापना दिवस पर मुख पृष्ठ पर टिप्पणी लिखी: ”नीतीश सरकार के नेतृत्व में बिहार बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है। विश्व बैंक ने पटना को बिजनेस के लिए देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से बेहतर माना है। पिछले तीन सालों में बिहार की आर्थिक विकास दर 10.5 फीसदी हो गई है। हम बिहार को विकसित बनाना चाहते हैं, तो हमें उद्यमी बनना होगा। सूबे में उद्यमिता का माहौल बनाने की दिशा में एक मामूली कोशिश है प्रभात खबर के स्थापना दिवस पर प्रकाशित यह विशेषांक।” उद्यमिता पर केंद्रित इस विशेषांक में पूरी सामग्री ही सरकार का गुणगान करने वाली है, जिसमें उद्यमियों का बिहार की ओर आकर्षित होना। उद्योग घरानों से औद्योगिक निवेश के लिए 92 हजार करोड़ रुपए का प्रस्ताव आना। निवेशकों का तांता लगा रहना आदि-आदि। इस तरह निवेश की बात को लेकर सरकार अखबारों के जरिए फर्जी किले बनाती रही… जबकि धरातल पर स्थानीय व्यापारियों द्वारा महज दस हजार करोड़ के अंदर निवेश किया गया था। मुख्यमंत्री ने यह स्वीकार भी किया कि बाहरी पूंजीपति बिहार में रुचि नहीं ले रहे हैं। इसके बावजूद अखबार जबरन हजारों करोड़ का निवेश करा रहे थे। ये घटनाएं महज कुछ अखबारों की बानगी हैं वरना इस तरह की खबरों से बिहार के अखबार भरे रहे हैं। चापलूस पत्रकारों की एक पूरी जमात मुख्यमंत्री व उनकी सरकार की जी-हुजूरी करने को बेताब रहती है।
इसी तरह नीतीश कुमार बिहार को विशेष राज्य का दरजा दिए जाने की मांग को लेकर बयानबाजी कर रहे थे। इसको लेकर पिछले साल 19 सितंबर को ‘अधिकार यात्रा’ की शुरुआत की। यात्रा से पहले बड़ी रकम उसके प्रचार पर खर्ची। अखबारों को खूब विज्ञापन दिए। राज्य में बड़े-बड़े होर्डिंग लगे। पर, नीतीश की घोषणाओं और जमीनी धरातल पर असमानता को लेकर नाराज लोग यात्रा का जगह-जगह विरोध करने लगे। विरोध इतना बढ़ा कि यात्रा बीच में ही स्थगित करनी पड़ी। इसकी खबरें पटना में कम दिल्ली के अखबारों में अधिक छपीं। इसी तरह प्रदेश में अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रावासों पर अनेक हमले हुए। काफी छात्र घायल हुए। अनेक जगह छात्रावासों पर दबंगों ने कब्जा कर रखा है। यह सब अखबारों को नहीं दिखता। दरअसल सरकार व अखबारों के बीच समरसता की बयार बह रही है। सरकार जो कहती है वही बयार अखबारों में बहती है। आज हालात देखकर लगता है कि लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के शासन तक मीडिया कमोबेश आजाद था। लेकिन पिछले कुछ सालों से इस सुशासनी सरकार ने अघोषित सेंसरशिप की लगाम मीडिया पर लगा रखी है। अब बाजार के नियमों से चल रहा मीडिया अमूमन सरकार के खिलाफ जाने की हिमाकत नहीं करता है। वैसे यह एक राज्य की कहानी नहीं है। अखबारों और समाचार चैनलों को जिन चीजों की जरूरत (विज्ञापन, जमीन, कागज में छूट, टैक्स में रियायत) होती है वह राज्य से मिलती रहती है। बदले में वे सरकारों की जी-हुजूरी में करते हैं। ऐसे में अगर बिहार की बात की जाए तो वहां रीढ़विहीन पत्रकारिता (जिस समय अधिकतर राज्यों में पत्रकारिता का सुर बदलने लगा था) की गलत परंपरा काफी बाद में देखने को मिली। लालू-राबड़ी के शासन तक भी सरकार की आलोचना छप जाती थी। कुछ अखबारों ने तो बाकायदा उनके खिलाफ सीरीज चला रखी थी। लालू ने पहले इन विरोधी खबरों को तरजीह नहीं दी। फिर ऐसी खबरें रुकवाने का उन्होंने कुछ प्रयास किया था। कुछ हद तक कामयाब भी रहे। ऐसे में नीतीश काल में मीडिया की भूमिका को देखने से पहले के समय पर भी नजर डालनी होगी। नीतीश जिस तरह मीडिया को साध रहे हैं उसके कुछ बीज लालू ने ही बो दिए थे। दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री तो उसी समय से बाकायदा फसल काटने लगे थे। यह बात अलग है कि नीतीश जरूरत से ज्यादा ही फसल काटने लगे हैं। मीडिया ने अपनी इस बदली भूमिका में गलत चीजों को देखना, सुनना और इन पर बोलना तक बंद कर दिया है। उसे नीतीश के गांव कल्याण बीघा के लोगों की नाराजगी नहीं दिखती है, जहां के लोग कहते हैं कि केवल सड़क बनने से गांव का विकास नहीं हो जाता। सरकार ने किसानों के लिए क्या किया? गांव की सड़क नहर पर बनी है। खेतों को पानी नहीं मिल रहा है। काम की खोज में मजदूरों का पलायन जारी है। मुख्यमंत्री कल्याण बीघा के लोगों से मिलते हैं पर गांव के किनारे बसे दलितों की सुध नहीं लेते। वहां पानी नहीं है। बिजली नहीं है। स्कूल भी नहीं है। असल में मीडिया ने बदहाल बिहार बनाम बदलते बिहार की ऐसी तस्वीर खींचीं कि लोग चकित रह गए। दोबारा चुनाव जीतने वाले नीतीश का गान होता रहा। वहीं लालू प्रसाद व रामविलास पासवान के प्रति घृणा देखने को मिली। ऐसा करने वाले पत्रकारों को सुशासनी सरकार का मीडिया मैनेजमेंट नहीं दिखा। लालू-राबड़ी के शासन को जंगलराज बताने वाले मीडिया को अपराध के आंकड़े (जिसमें दोनों सरकारों का एक जैसा हाल) भी नहीं दिखते। लालू-राबड़ी के समय 2005 में संज्ञेय अपराध के एक लाख चार हजार सात सौ अठहत्तर मामले थे तो 2010 में एक लाख छब्बीस हजार तीन सौ छियालीस। 2005 में सांप्रदायिक दंगे व फसाद के मामले जहां 7,704 थे वहीं 2010 में 8,189 तक पहुंच गए। सुशासनी सरकार के समय में ही दहेज हत्या के मामले में राज्य दूसरे पायदान तक पहुंच गया। ऐसे सवाल नहीं उठाने के लिए मौजूदा सरकार ने विज्ञापन रूपी प्यार मीडिया पर उड़ेला। इस अतिशय प्यार के लिए उसने बजट बढ़ाने में जरा-सा भी संकोच नहीं किया। बिहार में निजी उद्यम की हालत ठीक नहीं होने के कारण कुल विज्ञापनों में सरकारी विज्ञापनों का हिस्सा काफी बड़ा होता है। लालू-राबड़ी देवी के समय 2005-06 में जहां 4.49 करोड़ रुपए विज्ञापन पर खर्च हुए थे, वहीं नवंबर 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश साल दर साल विज्ञापनों का बजट बढ़ाती रही। 2009-10 में यह बजट 34.59 करोड़ पर पहुंच गया था।
इसी तरह बिहार के जब राजनीतिक अपराधीकरण की बात होती है तो लालू और उनकी पार्टी को खलनायक बना दिया जाता है, लेकिन यह सवाल नहीं उठाया जाता कि नीतीश कुमार के 30 कैबिनेट मंत्रियों में से 14 पर आपराधिक मुकदमे कायम हैं। जदयू के 114 विधायकों में से 58 पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इसमें 43 पर गंभीर आरोप हैं। इसी तरह भाजपा के 90 विधायकों में 29 दागी हैं। पूरी विधानसभा के 141 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। 2005 में 50 फीसदी विधायकों पर आपराधिक मुकदमे थे तो मौजूदा सरकार में यह आंकड़ा 59 फीसदी है। मीडिया को नियंत्रित करने के लिए विज्ञापन के साथ सरकार एक और रणनीति (इसका इस्तेमाल केंद्र की राजग सरकार ने भी अपने समय में खूब किया था) अपनाती रही है। वह ठसक के साथ प्रबंधन से सरकार विरोधी पत्रकारों को हटाने को कहती है, जिनकी लालू प्रसाद यादव व रामविलास पासवान से नजदीकी है। यानी जो नीतीश के विरोधी हैं। ऐसे पत्रकारों को संस्थान से बाहर करने या तबादला करने के लिए मजबूर किया गया। उनकी जगह अपने भक्त पत्रकारों को आसीन कराया गया। पत्रकारिता में यह एक गंदा और नया चलन है। ऐसे चलन से जाहिर होता है कि मीडिया पहरेदार वाली भूमिका को तिलांजलि दे चुका है। बिहार के लिए दुखद पहलू यह है कि वहां नैतिक जिम्मेदारी न सरकार निभाना चाहती है न मीडिया। मीडिया विश्लेषक आनंद प्रधन कहते हैं—’न्यूज मीडिया का मुंह बंद रखने के लिए राज्य सरकारें हर हथकंडा अपना रही हैं उनमें से कई राज्य सफल भी हैं। लेकिन बिहार का मामला इसलिए खास है क्योंकि यहां न्यूज मीडिया राज्य सरकारों और नेताओं-अधिकारियों के भ्रष्टाचार, घोटालों, अनियमितताओं के खुलासों से लेकर गरीबों और कमजोर वर्गों के पक्ष में मुखर और सक्रिय रहा है। इस कारण बिहार की पत्रकारिता में खासकर 1977 के बाद से एक धार रही है और उसे नियंत्रित करने की कोशिशें उतनी सफल नहीं हो पाईं जितनी अन्य राज्यों में हुईं। यहां तक कि जब 1983 में तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने बिहार के अखबारों और पत्रकारों को नियंत्रित करने के लिए बिहार प्रेस विधेयक लाने की कोशिश की तो राज्य और उसके बाहर पत्रकार संगठनों और जनसंगठनों के आंदोलन के कारण उन्हें अपने पैर खींचने पड़े।” समूह मीडिया की गढ़ी नीतीश की विकास पुरुष और लोकप्रियता वाली छवि धीरे-धीरे धूमिल हो रही है। नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाईटेड (जदयू) की ही बात की जाए तो एक पूरा धड़ा (इन लोगों ने बिहार नवनिर्माण मंच नाम से संगठन बनाया) उनसे खफा है। वह नीतीश के सुशासन की हवा निकाल रहा है। पिछले साल सुशासन का सच नाम की पुस्तिका राज्य में बंटी। इसी तरह उनके खास रहे कुछ लोगों ने उनसे अलग होकर राष्ट्रीय समता पार्टी का गठन किया है। इसमें नीतीश से खफा लोगों को गोलबंद किया जा रहा है। एक तरह से पार्टी के अंदर एक धड़ा उनका विरोध कर रहा है तो बाहर जनता विरोध कर रही है। यह विरोध उन्हें पिछले दिनों अधिकार यात्रा के दौरान देखने को भी मिला। उनसे जुड़े किसी भी विरोध पर नीतीश की आने वाली प्रतिक्रियाएं भी असहज करने वाली होती हैं। विपक्ष की छोडि़ए अपने ही कहते हैं कि वह छोटे मन के नेता हैं। अपनी आलोचना स्वीकार नहीं कर पाते हैं। विरोध होने पर आपा खो बैठते हैं। लेकिन मीडिया ने ऐसी गलत परंपरा डाल दी है कि सुशासनी मुख्यमंत्री को एक भी शब्द अपने और अपनी सरकार के खिलाफ सुनना मंजूर नहीं है। इस कड़ी में बिहार विधान परिषद के कर्मचारी अरुण नारायण और मुसाफिर बैठा का नाम लिया जा सकता है, जिन्हें फेसबुक पर सरकार की नीतियों की आलोचना करने के कारण निलंबित कर दिया गया। कुछ समय पहले सैयद जावेद हसन का सेवा विस्तार रोककर उन्हें परिषद से बाहर कर दिया गया। ये तीनों साहित्य जगत से नाता रखते हैं। इसी तरह जदयू के संस्थापक सदस्यों में रहे लेखक प्रेमकुमार मणि को पार्टी से छह साल के लिए निलंबित कर दिया गया है। कुछ समय बाद उन पर अज्ञात लोगों द्वारा जानलेवा हमला तक हुआ। प्रेमकुमार को पार्टी ने साहित्य के कोटे से विधान परिषद का सदस्य बनाया था। उन्होंने समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग, भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को माने जाने की मांग की थी। साथ ही राज्य सरकार की ओर से गठित सवर्ण आयोग समेत कुछ नीतियों का विरोध किया था। उनकी इस ‘खता’ को सुशासनी मुख्यमंत्री बर्दाश्त नहीं कर सके। इन सभी घटनाओं को अखबारों ने दबाने में ही अपना ‘हुनर’ समझा। विधान परिषद से तीन कर्मचारियों का निलंबन तो एक बानगी है। कहा यह जाता है कि नीतीश सरकार के आने के बाद विधान परिषद से उन सभी लोगों के सफाए का अभियान चला, जिन्हें सभापति रहे प्रो. जाबिर हुसैन ने नौकरी दी थी। इनमें से बड़ी संख्या दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की थी। यह भी संयोग ही रहा कि निलंबित किए गए मुसाबिर बैठा, अरुण नारायण एवं जावेद मुस्तफा भी क्रमश: इन्हीं समुदायों से हैं। फेसबुक पर लिखने के कारण नौकरी से निलंबन की घटना सूचना क्रांति के दौर में चकित करती है। साथ ही अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन भी करती है। लेकिन असलियत यह है कि ऐसे हालात बनाने के लिए मीडिया पूरी तरह जिम्मेदार है। इस छवि गढ़ाऊ मीडिया ने फेसबुक पर टिप्पणी करने मात्रा से नौकरी से निकाले गए लोगों की खबर भी गायब कर दी। हालंाकि इस मसले को लेकर सोशल मीडिया में तीखी बहस देखने को मिली। राज्य में हो रही इस नए तरह की पत्रकारिता की कहानी 2009 में प्रकाशित मीडिया में हिस्सेदारी और 2011 में प्रकाशित बिहार में मीडिया कंट्रोल: बहुजन ब्रेन बैंक पर हमला में विस्तार से छपी। इस लेख में इस्तेमाल किए गए कई आंकड़े इन्हीं किताबों से लिए गए हैं। वैसे अभिव्यक्ति की आवाज दबाने वाले नीतीश कुमार भूल गए कि आपातकाल के समय लिखने-बोलने वालों को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जेल भेजा था। इसका विरोध करने वाले मुखर नेताओं में उनका भी नाम लिया जाता है। वह जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले उस आंदोलन की ही देन हैं। आज वही नीतीश कुमार वैचारिक विरोध करने वालें के खिलाफ क्या नहीं कर रहे हैं। ऐसे में समय-समय पर जो लोग लिखने-बोलने वालों पर कट्टरता के साथ पाबंदी लगाने की वकालत करते हैं, हमले तक करते हैं, उनसे वह अलग कैसे माने जा सकते हैं? नीतीश से खफा पार्टी के आध दर्जन से अधिक नेता यदा-कदा उनके खिलाफ मोरचा खोल रहे हैं। यही वजह है कि राज्य में उनका असर कम होता जा रहा है। इसका असर विश्वविद्यालयों के चुनाव में भी देखने को मिला। पटना विश्वविद्यालय के छात्रासंघ चुनाव में वामपंथी दल के छात्र संगठन एआइएसएफ ने सेंट्रल पैनल के पांच पदों में से दो पर कब्जा जमाया। वहीं भाजपा-जदयू व आरजेडी के छात्र संगठनों को एक-एक सीट मिली। पटना विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार वामपंथी संगठन का असर दूसरे दलों से अधिक दिखा। मगध विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के सेंट्रल पैनल के सभी पांच पद भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) के खाते में गए। मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप समेत इस सरकार के खाते में ढेर सारी खामियां हैं। लेकिन उसके खाते में कुछ अच्छे काम भी हैं। नीतीश ने पहली सरकार में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान किया था। इस दिशा में कदम भी उठाए। सबसे पहले विधायक निधि खत्म की, जिसमें भ्रष्टाचार का खेल चल रहा था। दूसरा कदम मंत्रियों व अफसरों द्वारा संपत्ति का सार्वजनिक ऐलान करने का रहा। तीसरा कदम भ्रष्टाचारी अफसरों की संपत्ति जब्त करने का कानून बनाया गया। अन्य अपराध न सही पर संगठित अपहरण उद्योग पर शिकंजा कसा गया। एक और अहम बात कि अभी तक वह राजनीति में परिवारवाद-रिश्तेदारीवाद से दूर रहे। मीडिया ने इन बातों को भी खूब प्रचारित किया। सवाल यह उठता है कि क्या लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका यही रह गई है? बिहार की बात करें तो आने वाले समय में जनता वोट के जरिए नीतीश को उनकी नीतियों के लिए फिर भी सबक सिखा सकती है लेकिन मीडिया की इस भूमिका के लिए उस पर सवाल कौन उठाएगा? काश! समय रहते बिहार में बनी मीडिया की इस गलत छवि को सुधारा जा सके जिससे आने वाले समय में राज्य की वास्तविक तस्वीर सामने आए और भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जड़ें मजबूत बनी रहें।


मोदी सरकार के 100 दिन यानी सौ दिन

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 शुक्रवार, 5 सितंबर, 2014 को 11:15 IST तक के समाचार

प्रस्तुति-- संत शरण, रीना शरण

केंद्र में नरेंद्र मोदी के सौ दिन पूरे हो गए हैं. इस दौरान मोदी अपने ही किए वादों पर कहां तक खरे उतरे हैं? ज़ुबैर अहमद का आकलन.
मोदी सरकार के पहले सौ दिनों कुछ क़दम ऐसे भी थे जिनपर विवाद हुआ और कुछ हंगामा भी. एक नज़र ऐसे दस क़दमों
नरेद्र मोदी के कार्यकाल के पहले 100 दिनों से साफ़ है कि मोदी का बड़बोलापन कामों में दिखेगा, तभी वाहवाही मिलेगी. सौतिक बिस्वास का आकलन.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के 101 दिन हो गए हैं. क्या है बनारस का हाल?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज कहा कि प्रकृति से प्रेम भारत की संस्कृति में है और हम पूरे ब्रह्मांड को अपना परिवार मानते हैं.
जापान दौरे पर गए प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी ने जापान के सम्राट को गीता भेंट की है और इसे सर्वोत्तम उपहार बताया. साथ ही युवाओं की भी की तारीफ़.

माधवराव सप्रे

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प्रस्तुति-- अनामिका एस.
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

माधवराव सप्रे
माधवराव सप्रे (जून१८७१ - २६ अप्रैल१९२६) के जन्म दमोहके पथरिया ग्राम में हुआ था। बिलासपुरमें मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मेट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुरसे उत्तीर्ण किया। १८९९में कलकत्ता विश्वविद्यालयसे बी ए करने के बाद उन्हें तहसीलदार के रुप में शासकीय नौकरी मिली लेकिन सप्रे जी ने भी देश भक्ति प्रदर्शित करते हए अँग्रेज़ों की शासकीय नौकरी की परवाह न की। सन १९००में जब समूचे छत्तीसगढ़में प्रिंटिंग प्रेस नही था तब इन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से “छत्तीसगढ़ मित्र” नामक मासिक पत्रिका निकाली।[1]हालांकि यह पत्रिका सिर्फ़ तीन साल ही चल पाई। सप्रे जी ने लोकमान्य तिलकके मराठीकेसरीको यहाँ हिंदी केसरीके रुप में छापना प्रारंभ किया तथा साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुरसे हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की। उन्होंने कर्मवीरके प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई।
सप्रे जी की कहानी "एक टोकरी मिट्टी" (जिसे बहुधा लोग “टोकनी भर मिट्टी” भी कहते हैं) को हिंदी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है। सप्रे जी ने लेखन के साथ-साथ विख्यात संत समर्थ रामदासके मराठी दासबोधमहाभारतकी मीमांसा, दत्त भार्गव, श्री राम चरित्र, एकनाथ चरित्र और आत्म विद्या जैसे मराठी ग्रंथों, पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद भी बखूबी किया। १९२४में हिंदी साहित्य सम्मेलनके देहरादूनअधिवेशन में सभापति रहे सप्रे जी ने १९२१में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और साथ ही रायपुर में ही पहले कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। यह दोनो विद्यालय आज भी चल रहे हैं।
माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना, हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, उनकी राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने ११ सितम्बर १९२६ के कर्मवीरमें लिखा था − "पिछले पच्चीस वर्षों तक पं॰ माधवराव सप्रे जी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।"[2]

संदर्भ

  1. "पत्रकारिता व साहित्य के ऋषि माघव सप्रे" (एचटीएमएल). आरंभ. अभिगमन तिथि: २००९.
  2. "माधवराव सप्रे का महत्व". तद्भव. अभिगमन तिथि: २००९.

बाहरी कड़ियाँ

बीबीसी की पत्रकारिता

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बीबीसी पत्रकारिता की पाठशाला




रेडियो की भाषा


  रेडियो की भाषा

प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में अंतर है. भारी भरकम लंबे शब्दों से हम बचते हैं, (जैसे, प्रकाशनार्थ, द्वंद्वात्मक, गवेषणात्मक, आनुषांगिक, अन्योन्याश्रित, प्रत्युत्पन्नमति, जाज्वल्यमान आदि. ऐसे शब्दों से भी बचने की कोशिश करते हैं जो सिर्फ़ हिंदी की पुरानी किताबों में ही मिलते हैं – जैसे अध्यवसायी, यथोचित, कतिपय, पुरातन, अधुनातन, पाणिग्रहण आदि.

एक बात और. बहुत से शब्दों या संस्थाओं के नामों के लघु रूप प्रचलित हो जाते हैं जैसे यू. एन., डब्लयू. एच. ओ. वग़ैरह. लेकिन हम ये भी याद रखते हैं कि हमारे प्रसारण को शायद कुछ लोग पहली बार सुन रहे हों और वे दुनिया की राजनीति के बारे में ज़्यादा नहीं जानते हों.

इसलिए, यह आवश्यक हो जाता है कि संक्षिप्त रूप के साथ उनके पूरे नाम का इस्तेमाल किया जाए. जहाँ संस्थाओं के नामों के हिंदी रूप प्रचलित हैं, वहाँ उन्हीं का प्रयोग करते हैं (संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन) लेकिन कुछ संगठनों के मूल अँग्रेज़ी रूप ही प्रचलित हैं जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वाच.

संगठनों-संस्थाओं के अलावा, नित्य नए समझौतों-संधियों के नाम भी आए दिन हमारी रिपोर्टों में शामिल होते रहते हैं. ऐसे नाम हैं- सीटीबीटी और आइएईए वग़ैरह. भले ही यह संक्षिप्त रूप प्रचलित हो चुके हैं मगर सुनने वाले की सहूलियत के लिए हम सीटीबीटी कहने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते चलते हैं कि इसका संबंध परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध से है. या कहते हैं आइएईए यानी संयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा एजेंसी.

कई बार जल्दबाज़ी में या नए तरीक़े से न सोच पाने के कारण घिसे पिटे शब्दों, मुहावरों या वाक्यों का सहारा लेना आसान मालूम पड़ता है. लेकिन इससे रेडियो की भाषा बोझिल और बासी हो जाती है. ज्ञातव्य है, ध्यातव्य है, मद्देनज़र, उल्लेखनीय है या ग़ौरतलब है – ऐसे सभी प्रयोग बौद्धिक भाषा लिखे जाने की ग़लतफ़हमी तो पैदा कर सकते हैं पर ये ग़ैरज़रूरी हैं.

एक और शब्द है द्वारा. इसे रेडियो और अख़बार दोनों में धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है लेकिन ये भी भाषाई आलस्य का नमूना है. क्या आम बातचीत में कभी आप कहते हैं कि ये काम मेरे द्वारा किया गया है? या सरकार द्वारा नई नौकरियाँ देने की घोषणा की गई है? अगर द्वारा शब्द हटा दिया जाए तो बात सीधे सीधे समझ में आती है और कहने में भी आसान हैः (ये काम मैंने किया. या सरकार ने नई नौकरियाँ देने की घोषणा की है.)

रेडियो की भाषा मंज़िल नहीं, मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता है. मंज़िल है- अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना. इसलिए, सही मायने में रेडियो की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो बातचीत की भाषा हो, आपसी संवाद की भाषा हो. उसमें गर्माहट हो जैसी दो दोस्तों के बीच होती है. यानी, रेडियो की भाषा को क्लासरुम की भाषा बनने से बचाना बेहद ज़रुरी है.

याद रखने की बात यह भी है कि रेडियो न अख़बार है न पत्रिका जिन्हें आप बार बार पढ़ सकें. और न ही दूसरी तरफ़ बैठा श्रोता आपका प्रसारण रिकॉर्ड करके सुनता है.

आप जो भी कहेंगे, एक ही बार कहेंगे. इसलिए जो कहें वह साफ-साफ समझ में आना चाहिए. इसलिए रेडियो के लिए लिखते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि वाक्य छोटे-छोटे हों, सीधे हों. जटिल वाक्यों से बचें.

साथ ही इस बात का ध्यान रखिए कि भाषा आसान ज़रूर हो लेकिन ग़लत न हो.

बीबीसी ऐकेडमी कॉलेज ऑफ़ जर्नलिज़्म

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प्रस्तुति—जमील, इम्तियाज रजा, आलोक झा
वर्धा




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http://www.bbc.co.uk/hindi/images/furniture/button_video.gif बीबीसी हिंदी की भाषा

बीबीसी की हिंदी क्यों विशेष है, यह जानने के लिए उसकी परंपरा को जाननाज़रूरी है. बीबीसी के हिंदी विभाग की जब नींव पड़ी थी, तब हिंदी और उर्दूके बीच दीवारें नहीं बनीं थीं. आज़ादी से पहले का ज़माना था, आम आदमी केबोल चाल की भाषा में हिंदी-उर्दू की मिली जुली रसधारा बहती थी जिसे भारत कीगंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक कहा जाता है.

इस संस्कृति को बीबीसी के मंच से मज़बूत करने वाले कई प्रसारक औरपत्रकार रहे, जैसे बलराज साहनी, आले हसन, पुरूषोत्तम लाल पाहवा, गौरीशंकरजोशी, ओंकारनाथ श्रीवास्तव..... सूची लंबी है, पर बात एक ही हैसमय के साथबीबीसी की हिंदी कठिन और किताबी होने से बची रही.

हमारी नज़र में बीबीसी की हिंदी की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि-
वह ऐसी भाषा है जो आम लोगों की समझ में आती है, यानी आसान है. संस्कृतनिष्ठ या किताबी नहीं है.

दूसरी बात, वह अपने कथ्य के साथ पूरा न्याय करती है. मतलब आप जो कहना चाहें, उसी बात को शब्द व्यक्त करते हैं

वाक्य छोटे होते हैं, सरल होते हैं

और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बीबीसी की हिंदी भारत की गंगाजमुनीसंस्कृति का प्रतीक है. आज भी हमारी हिंदी में हिंदी-उर्दू के शब्द गले मेंबाहें डाले साथ-साथ चलते हैं और ज़रुरत पड़ने पर अँगरेज़ी के शब्दों से भीहाथ मिला लेते हैं.
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बीबीसी संवाददाता एलन लिटिल
इसफ़िल्म में बीबीसी के वरिष्ठ संवाददाता एलन लिटिल बता रहे हैं कि रेडियोके लिए स्पष्ट और प्रभावी भाषा में किस तरह लिखा जाना चाहिए. एलन लिटिल कामानना है कि रेडियो की अच्छी स्क्रिप्ट के लिए दो बातें ज़रूरी हैं--आपकेपास कहने के लिए कुछ होना चाहिए, दूसरे उसे बिल्कुल आसान भाषा में कहा जाए.

इस वीडियो में एलन लिटिल ने कई उदाहरणों के साथ बताया है कि रेडियो केलिए किस तरह लिखा जाना चाहिए. नीचे एलन लिटिल के दो वीडियो हैं जिन परक्लिक करके अच्छी रेडियो स्क्रिप्ट के कुछ गुरूमंत्र हासिल किए जा सकतेहैं.

http://www.bbc.co.uk/hindi/images/furniture/button_video.gif रेडियो लेखन पर एलन लिटिल- पार्ट वन
http://www.bbc.co.uk/hindi/images/furniture/button_video.gif रेडियो लेखन पर एलन लिटिल- पार्ट टू
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http://www.bbc.co.uk/hindi/images/furniture/button_video.gif  रेडियो की भाषा

प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में अंतर है. भारी भरकम लंबे शब्दों से हमबचते हैं, (जैसे, प्रकाशनार्थ, द्वंद्वात्मक, गवेषणात्मक, आनुषांगिक, अन्योन्याश्रित, प्रत्युत्पन्नमति, जाज्वल्यमान आदि.ऐसे शब्दों से भीबचने की कोशिश करते हैं जो सिर्फ़ हिंदी की पुरानी किताबों में ही मिलतेहैं जैसे अध्यवसायी, यथोचित, कतिपय, पुरातन, अधुनातन, पाणिग्रहण आदि.

एक बात और. बहुत से शब्दों या संस्थाओं के नामों के लघु रूप प्रचलित होजाते हैं जैसे यू. एन., डब्लयू. एच. ओ. वग़ैरह.लेकिन हम ये भी याद रखतेहैं कि हमारे प्रसारण को शायद कुछ लोग पहली बार सुन रहे हों और वे दुनियाकी राजनीति के बारे में ज़्यादा नहीं जानते हों.

इसलिए, यह आवश्यक हो जाता है कि संक्षिप्त रूप के साथ उनके पूरे नाम काइस्तेमाल किया जाए. जहाँ संस्थाओं के नामों के हिंदी रूप प्रचलित हैं, वहाँ उन्हीं का प्रयोग करते हैं (संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन)लेकिन कुछ संगठनों के मूल अँग्रेज़ी रूप ही प्रचलित हैं जैसे एमनेस्टीइंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वाच.

संगठनों-संस्थाओं के अलावा, नित्य नए समझौतों-संधियों के नाम भी आए दिनहमारी रिपोर्टों में शामिल होते रहते हैं. ऐसे नाम हैं- सीटीबीटी और आइएईएवग़ैरह. भले ही यह संक्षिप्त रूप प्रचलित हो चुके हैं मगर सुनने वाले कीसहूलियत के लिए हम सीटीबीटी कहने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते चलते हैं किइसका संबंध परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध से है.या कहते हैं आइएईए यानीसंयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा एजेंसी.

कई बार जल्दबाज़ी में या नए तरीक़े से न सोच पाने के कारण घिसे पिटेशब्दों, मुहावरों या वाक्यों का सहारा लेना आसान मालूम पड़ता है. लेकिनइससे रेडियो की भाषा बोझिल और बासी हो जाती है. ज्ञातव्य है, ध्यातव्य है, मद्देनज़र, उल्लेखनीय है या ग़ौरतलब है ऐसे सभी प्रयोग बौद्धिक भाषालिखे जाने की ग़लतफ़हमी तो पैदा कर सकते हैं पर ये ग़ैरज़रूरी हैं.

एक और शब्द है द्वारा. इसे रेडियो और अख़बार दोनों में धड़ल्ले सेप्रयोग किया जाता है लेकिन ये भी भाषाई आलस्य का नमूना है. क्या आम बातचीतमें कभी आप कहते हैं कि ये काम मेरे द्वारा किया गया है? या सरकार द्वारानई नौकरियाँ देने की घोषणा की गई है? अगर द्वारा शब्द हटा दिया जाए तो बातसीधे सीधे समझ में आती है और कहने में भी आसान हैः (ये काम मैंने किया. यासरकार ने नई नौकरियाँ देने की घोषणा की है.)

रेडियो की भाषा मंज़िल नहीं, मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता है. मंज़िलहै- अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना. इसलिए, सही मायने में रेडियो की भाषा ऐसीहोनी चाहिए जो बातचीत की भाषा हो, आपसी संवाद की भाषा हो. उसमें गर्माहटहो जैसी दो दोस्तों के बीच होती है. यानी, रेडियो की भाषा को क्लासरुम कीभाषा बनने से बचाना बेहद ज़रुरी है.

याद रखने की बात यह भी है कि रेडियो न अख़बार है न पत्रिका जिन्हें आपबार बार पढ़ सकें. और न ही दूसरी तरफ़ बैठा श्रोता आपका प्रसारण रिकॉर्डकरके सुनता है.

आप जो भी कहेंगे, एक ही बार कहेंगे. इसलिए जो कहें वह साफ-साफ समझ मेंआना चाहिए. इसलिए रेडियो के लिए लिखते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी है किवाक्य छोटे-छोटे हों, सीधे हों. जटिल वाक्यों से बचें.

साथ ही इस बात का ध्यान रखिए कि भाषा आसान ज़रूर हो लेकिन ग़लत न हो.
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शब्दों का प्रयोग



http://www.bbc.co.uk/hindi/images/furniture/button_video.gif शब्दों का प्रयोग

http://www.bbc.co.uk/hindi/images/furniture/button_video.gif  तकनीकी शब्दावली

बीबीसी की हिंदी, अँग्रेज़ी के शब्दों से हाथ मिलाने में परहेज़ नहींकरती.पर सवाल यह उठता है कि किस हद तक. हिंदी में अँग्रेज़ी हो याअँग्रेज़ी में हिंदी.

यहाँ दो बातें समझने की हैं. पहली, इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिकहिंदी में अँग्रेज़ी के बहुत से शब्द इस तरह घुल मिल गए हैं कि पराए नहींलगते. जैसे स्कूल, बस और बस स्टॉप, ट्रक, कार्ड, टिकट.इस तरह के शब्दोंको हिंदी से बाहर निकालने का तो कोई मतलब ही नहीं है. दूसरी ये कि बेवजहअँग्रेज़ी के शब्द ठूँसने का भी कोई अर्थ नहीं.

हिंदी एक समृद्ध भाषा है. अपनी विकास यात्रा में हिंदी ने अँग्रेज़ी हीनहीं, बहुत सी और भाषाओं के शब्दों को अपनाया है जैसे- उर्दू, अरबी, फारसी. यानी अभिव्यक्ति के लिए हिंदी भाषा में कई-कई विकल्प मौजूद हैं. फिरबिना ज़रूरत के अँग्रेज़ी की बैसाखी क्यों लें. (जैसे रंगों के लिए हिंदीमें अपने अनगिनत शब्द हैं फिर इस तरह के वाक्य क्यों लिखे जाएँ कि कार काएक्सीडेंट पिंक बिल्डिंग के पास हुआ’.)

तकनीकी और नए शब्द

कुछ साल पहले तक हमने लैपटॉप, इंटरनेट, वेबसाइट, सर्चइंजन, मोबाइल फ़ोनया सेलफ़ोन का नाम भी नहीं सुना था. अब वे ज़िंदगी का हिस्सा हैं. और जोचीज़ हमारी ज़िंदगी में शामिल हो जाती है, वह भाषा का हिस्सा भी बन जातीहै. बहुत कोशिशें हुईं कि इनके हिंदी अनुवाद बनाए जाएँ लेकिन कोई ख़ाससफलता हाथ नहीं लगी, इसलिए ऐसे तमाम शब्द अब हिंदी का हिस्सा बन चुके हैं.

इसलिए हम सर्वमान्य और प्रचलित तकनीकी शब्दों का अनुवाद नहीं करते.हाँ, अगर हिंदी भाषा में ऐसे शब्दों के अनुवाद प्रचलित हो चुके हैं तो बिनाखटके उनका इस्तेमाल करते हैं- जैसे परमाणु, ऊर्जा, संसद, विधानसभा आदि.

मगर नए शब्दों की बात करते हुए हम उन शब्दों का ज़िक्र भी करना चाहेंगेजो अनुवाद के माध्यम से नहीं, बल्कि मीडिया की नई ज़रुरतों के दबाव मेंहिंदी भाषा से ही गढ़े गए हैं. इनमें सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला शब्दहै- आरोपी.बीबीसी ने भाषा के नए प्रयोगों का सदा स्वागत किया है लेकिनयह समझ पाना मुश्किल है कि आरोपी शब्द कैसे बना.

हिंदी भाषा की प्रकृति और व्याकरण के हिसाब से आरोपी का अर्थ होनाचाहिए- आरोप लगाने वाला लेकिन आजकल ठीक उल्टा प्रयोग हो रहा है, जिस परआरोप लगता है उसे आरोपी कहा जाता है.कुछ उदाहरण देखिए.

दोषी- दोष करने वाला
अपराधी- अपराध करने वाला
क्रोधी- क्रोध करने वाला

भले ही अब मीडिया में बहुत से लोग इस शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल करतेहैं मगर बीबीसी की हिंदी में अपनी जगह नहीं बना पाया. हम यह मानते हैं किभाषा को हर युग की ज़रुरतों के हिसाब से शब्द गढ़ने पड़ते हैं. फिर वही नएशब्द शब्दकोश में शामिल होते हैं. लेकिन नए शब्द बनाते समय मूलमंत्र बस यहीहै कि वे भाषा की प्रकृति के अनुकूल हों.

(
बोलचाल की भाषा के नाम पर कुछ ऐसे भी प्रयोग प्रसारण में होने लगे हैंजो अशिक्षा नहीं तो भाषा के प्रति लापरवाही बरतने की निशानी ज़रूर हैं.सोनू निगम ने अपना करियर दिल्ली में


शुरू करा’, ‘पुलिस से पंगा न लेने कीचेतावनीजैसे प्रयोग भाषा की धज्जियाँ तो उड़ाते ही हैं, इन्हें बरतनेवाले के बारे में भी कोई अच्छी राय नहीं बनाते.)

निष्पक्षता



बीबीसीकी निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए सही शब्दों का चुनाव बेहद ज़रुरी है.मिसाल के तौर पर, आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल हम वहीं करते हैं जहाँ वह किसीके कथन का हिस्सा हो.

जैसे, अमराकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा है कि वे अल क़ायदा के आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब देंगे.
अथवा वहाँ आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल करने में कोई समस्या नहीं जहाँबिना किसी व्यक्ति या संगठन की ओर उँगली उठाए उसका प्रयोग हो. जैसे- भारतसरकार आतंकवाद से निपटने में विफल रही है.

इसी तरह, जिहादी, शहीद, महान नेता, पूज्यनीय जैसे शब्दों का इस्तेमालभी बहुत सोचसमझ कर किया जाना चाहिए. (पाँच आतंकी ढेर, दो पुलिस वाले शहीद’ – इस तरह का शीर्षक पत्रकारिता के नियमों के ख़िलाफ़ है और पत्रकार कीनिष्पक्षता को ख़त्म करता है.)

एक और बात का ध्यान हम रखते हैं. जब तक किसी का अपराध साबित नहीं होता, वह संदिग्ध भले हो, मगर दोषी नहीं होता. इसलिए किसी ऐसी घटना का ब्यौरादेते समय कथित (alleged) शब्द का बहुत महत्व है.

नाम से पहले श्री या श्रीमति के प्रयोग से भी बचने की ज़रुरत है इसलिएकि अगर आप एक व्यक्ति के नाम के साथ श्री या श्रीमति लगाएँ और दूसरेव्यक्ति के नाम के साथ लगाना भूल जाएँ तो इसे पक्षपात समझा जा सकता है.बेहतर है कि हर व्यक्ति के पदनाम का इस्तेमाल करें. जैसेभारत केप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह.. या उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती.....विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी...

पत्रकार राष्ट्रीयता, सरहद, पक्ष-विपक्ष और विवादों से अलग हटकर जनताको सच बताने के कर्तव्य का पालन करता है. इसलिए, बीबीसी में हम इस बात काध्यान रखते हैं कि हम अपनी भारतीयता को पत्रकारिता के धर्म से अलग रखें.भारत के समाचार देते समय हम हमारा देश, हमारी सेना, हमारे नेता जैसे शब्दोंका इस्तेमाल नहीं करते हैं.

कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि बीबीसी आतंकवादी की जगह चरमपंथी शब्द काप्रयोग क्यों करती है. या कश्मीर के मामले में भारत प्रशासित और पाकिस्तानप्रशासित क्यों कहती है.

वजह यह है कि कश्मीर एक विवादास्पद क्षेत्र है और बीबीसी किसी भी विवादमें, किसी एक पक्ष के साथ खड़ी नज़र नहीं आना चाहती. फिर, जो एक की नज़रमें आतंकवादी है, वह दूसरे की नज़र में स्वतंत्रता सेनानी या देशभक्त भी होसकता है.

जब दुनिया में किसी भी विषय पर एक राय नहीं है तब बीबीसी के लिए यह औरभी ज़रुरी हो जाता है कि वह किसी एक राय की हिमायत करती दिखाई न दे.
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इंटरनेट की भाषा


हिंदीवेबसाइट के पाठक आम हिंदी पाठकों से इस मायने में थोड़े अलग हैं कि वेहमेशा विशुद्ध साहित्यिक रुचि रखने वाले पाठक नहीं हैं. वे हिंदी वेबसाइटपर आते हैं तो उसके कई अलग-अलग कारण होते हैं.

वे विदेशों में बसे हैं और अपनी पहचान नहीं खोना चाहते इसलिए अपनी भाषा से जुड़े रहना चाहते हैं.

हिंदी पहली भाषा है और वे अंग्रेज़ी के मुक़ाबले हिंदी को सरल और सहज मानते हैं और समझते हैं.

वे अंग्रेज़ी की वेबसाइटें भी देखते हैं और अक्सर हिंदी से उसकी तुलना करते हैं.

ये पाठक चाहे जो भी हों लेकिन एक बात तय है कि वे भारी-भरकम शब्दों केप्रयोग या मुश्किल भाषा से उकता जाते हैं और जल्दी ही साइट से बाहर निकलजाते हैं.

उन्हें बाँधे रखने के लिए ज़रूरी है कि साइट का कलेवर आकर्षक हो, तस्वीरें हों, छोटे-छोटे वाक्य हों, छोटे पैराग्राफ़ हों और भाषा वह हो जोउनकी बोलचाल की भाषा से मेल खाती हो.

इंटरनेट की भाषा साहित्यिक भाषा से इस मायने में अलग है कि उसको सहज औरसरल बनाने के लिए ज़रूरत पड़े तो अँग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों का भीइस्तेमाल करना पड़ सकता है.जैसे कोर्ट, शॉर्टलिस्ट, अवॉर्ड, प्रोजेक्ट, सीबीआई, असेंबली आदि.

कोशिश रहती है कि उसी रिपोर्ट में कहीं न कहीं इनके हिंदी पर्यायवाचीशब्द भी शामिल हों लेकिन लगातार न्यायालय, पुरस्कार, परियोजना, केंद्रीयजाँच ब्यूरो लिखना पाठक को क्लिष्टता का आभास दिला सकता है.

इसी तरह उर्दू के शब्द भी जहाँ-तहाँ इस्तेमाल हो ही जाते हैं.इनाम, अदालत, मुलाक़ात, सबक़, सिफ़ारिश, मंज़ूरी, हमला आदि ऐसे ही कुछ शब्द हैं.इंटरनेट पर कैसी भाषा का इस्तेमाल हो इसके लिए बस यह ध्यान रखना ज़रूरी हैकि पढ़ने वाले को डिक्शनरी खोलने की ज़रूरत न पड़े और पढ़ते समय उसे ऐसामहसूस हो जैसे यह उसकी अपनी, रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाली भाषा है.

इंटरनेट एक नया और इंटरएक्टिव माध्यम है. यानी दोतरफ़ा संवाद का माध्यमहै. बीबीसी हिंदी डॉटकॉम की भाषा-शैली की गाइड बनाते वक़्त हमने सबसे पहलेइस बात को ध्यान में रखा कि उसके पाठक दुनिया भर में फैले हैं. वे भले हीहिंदी पढ़ते और समझते हैं लेकिन नई टैक्नॉलॉजी के अनेक रास्ते उनके सामनेखुले हैं.

उन्हें बाँधने के लिए ज़रूरी है कि बीबीसी हिंदी डॉटकॉम की भाषा ऐसी होजो उन्हें अपनी लगे.वाक्य छोटे और आसान हों. शीर्षक यानी हेडलाइंसआकर्षक हों. अँगरेज़ी के आम शब्दों की छौंक से अगर बात और सहज होती हो तोकोई हर्ज नहीं.
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अनुवाद



एक भाषा से दूसरी भाषा में अच्छा अनुवाद तभी संभव है जब मूल पाठ की आत्मा को समझा जाए.

बीबीसी हिंदी में वैसे तो अब भारत, पाकिस्तान और अन्य दक्षिण एशियाईदेशों से ज़्यादातर हिंदी में ही रिपोर्टिंग होती है लेकिन फिर भी विश्व कीअन्य घटनाओं की रिपोर्टें अँग्रेज़ी में ही आती हैं क्योंकि हर देश मेंहिंदी जानने वाले संवाददाता नहीं हैं.

ज़ाहिर है, वहाँ अनुवाद की ज़रूरत होती है. अच्छा और सरल अनुवाद तभी होसकता है जब आप अँग्रेज़ी पाठ को दो-तीन बार पढ़कर अच्छी तरह समझ लें. उसकेबाद उसे हिंदी में लिखें.

(
इंटरनेट के लिए लिखते समय शब्दशः अनुवाद का ख़तरा बना रहता है. येपहली बार नहीं है कि...’, ‘सरकार ने ये क़दम ऐसे समय में उठाया है...’, ‘कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बंगलौर से आते हैं...ऐसे वाक्य सीधे सीधेअँग्रेज़ी का शब्दशः अनुवाद हैं.)

कुछ अँगरेज़ी के शब्द जितने जटिल होते हैं, उनके हिंदी अनुवाद भी उतनेही जटिल होते हैं. जैसे- विसैन्यीकरण, निरस्त्रीकरण, वैश्वीकरण, सामान्यीकरण, युद्धक हैलीकॉप्टर, मरीन सैनिक.

अनुवाद को लेकर पहला सिद्धांत ये है कि अनुवाद, अनुवाद न लगे.
दूसरा, जो लिखा है, वह पहले लिखने वाले की समझ में आना चाहिए.
तीसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मक्खी पर मक्खी न बैठाई जाए क्योंकि अँगरेज़ी और हिंदी की प्रकृति में फ़र्क है.
और चौथा सिद्धांत यह है कि डिक्शनरी से कोई भारी-भरकम शब्द खोजने के बजाय आम भाषा में बात समझाई जाए.
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मीडिया का काम भले ही भाषा सिखाने का नहीं, मगर मीडिया के लोग, करोड़ों लोगों के लिए रोल मॉडल होते हैं.

साफ़ उच्चारण के लिए ज़ोर-ज़ोर से बोलकर अभ्यास करना बहुत काम आता है.तभी अक्षर और उनकी ध्वनि साफ़ सुनाई पड़ती है. यहाँ जल्दबाज़ी से काम बिगड़जाता है.

बहुत सारे लोग युद्ध को युद, सुप्रभात को सूप्रभात, ख़ुफ़िया कोखूफिया, प्रतिक्रिया को पर्तिकिरया कहते हैं जो कानों को बहुत खटकता है.

इसी तरह, शब्द हिंदी मूल का हो या उर्दू का, अगर आप बेवजह नुक़्तालगाएँगे तो अनर्थ हो जाएगा जैसे फाटक, बेगम, जारी, जबरन, जंग, जुर्रत, जिस्म, फिर, फल आदि में नुक़्ता नहीं लगता.

मीडिया में रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाले कुछ शब्द ऐसे भी हैं जोनुक़्ते के बिना कानों को बहुत बुरे लगते हैं जैसे- ख़बर, सुर्ख़ी, ज़रुरत, ज़रा, अख़बार, ग़लत, ग़म, ज़बरदस्ती.

अच्छे से अच्छा आलेख, ग़लत उच्चारण या ख़राब उच्चारण की वजह से बर्बादहो सकता है. और कभी कभी तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है. रेडियो न तोअख़बार है, न ही टेलीविज़न.रेडियो सिर्फ़ सुना जा सकता है, इसलिए, सिर्फ़ यह ज़रूरी है कि रेडियो की भाषा स्पष्ट और सरल हो, बल्कि यह भीज़रूरी है कि हर शब्द सही तरह से बोला जाए. शब्द किसी भी भाषा का हो, अगरआपका उच्चारण सही नहीं होगा तो सुनने वाले को बिल्कुल मज़ा नहीं आएगा.

अगर उर्दू के शब्दों का प्रयोग करें तो पहले यह जान लें कि उनमेंनुक़्ता लगता है या नहीं. कुछ अति उत्साही लोग शायद यह समझते हैं कि किसीभी शब्द में नुक़्ता लगा देने भर से, वह उर्दू का शब्द बन जाता है. ज़रासोचिए जलील शब्द को बोलते समय अगर ज के नीचे नुक़्ता लग गया तो वह बन जाएगाज़लील. अर्थ का अनर्थ हो जाएगा.

हर व्यक्ति को अपनी भाषा अपनी क्षमता के अनुसार गढ़नी चाहिए. यानी अगरआप ख़बर शब्द साफ़ नहीं बोल सकते तो समाचार कहें, युद्ध शब्द का सहीउच्चारण करना मुश्किल लगता है तो लड़ाई कह सकते हैं. प्रक्षेपास्त्र कहनाकोई ज़रुरी नहीं. मिसाइल शब्द अब आम हो गया है.बात तो यह है कि हरव्यक्ति की भाषा का अपना अलग रंग होता है. और होना भी चाहिए.
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अनुवाद



एक भाषा से दूसरी भाषा में अच्छा अनुवाद तभी संभव है जब मूल पाठ की आत्मा को समझा जाए.

बीबीसी हिंदी में वैसे तो अब भारत, पाकिस्तान और अन्य दक्षिण एशियाईदेशों से ज़्यादातर हिंदी में ही रिपोर्टिंग होती है लेकिन फिर भी विश्व कीअन्य घटनाओं की रिपोर्टें अँग्रेज़ी में ही आती हैं क्योंकि हर देश मेंहिंदी जानने वाले संवाददाता नहीं हैं.

ज़ाहिर है, वहाँ अनुवाद की ज़रूरत होती है. अच्छा और सरल अनुवाद तभी होसकता है जब आप अँग्रेज़ी पाठ को दो-तीन बार पढ़कर अच्छी तरह समझ लें. उसकेबाद उसे हिंदी में लिखें.

(
इंटरनेट के लिए लिखते समय शब्दशः अनुवाद का ख़तरा बना रहता है. येपहली बार नहीं है कि...’, ‘सरकार ने ये क़दम ऐसे समय में उठाया है...’, ‘कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बंगलौर से आते हैं...ऐसे वाक्य सीधे सीधेअँग्रेज़ी का शब्दशः अनुवाद हैं.)

कुछ अँगरेज़ी के शब्द जितने जटिल होते हैं, उनके हिंदी अनुवाद भी उतनेही जटिल होते हैं. जैसे- विसैन्यीकरण, निरस्त्रीकरण, वैश्वीकरण, सामान्यीकरण, युद्धक हैलीकॉप्टर, मरीन सैनिक.

अनुवाद को लेकर पहला सिद्धांत ये है कि अनुवाद, अनुवाद न लगे.
दूसरा, जो लिखा है, वह पहले लिखने वाले की समझ में आना चाहिए.
तीसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मक्खी पर मक्खी न बैठाई जाए क्योंकि अँगरेज़ी और हिंदी की प्रकृति में फ़र्क है.
और चौथा सिद्धांत यह है कि डिक्शनरी से कोई भारी-भरकम शब्द खोजने के बजाय आम भाषा में बात समझाई जाए.
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मीडिया का काम भले ही भाषा सिखाने का नहीं, मगर मीडिया के लोग, करोड़ों लोगों के लिए रोल मॉडल होते हैं.

साफ़ उच्चारण के लिए ज़ोर-ज़ोर से बोलकर अभ्यास करना बहुत काम आता है.तभी अक्षर और उनकी ध्वनि साफ़ सुनाई पड़ती है. यहाँ जल्दबाज़ी से काम बिगड़जाता है.

बहुत सारे लोग युद्ध को युद, सुप्रभात को सूप्रभात, ख़ुफ़िया कोखूफिया, प्रतिक्रिया को पर्तिकिरया कहते हैं जो कानों को बहुत खटकता है.

इसी तरह, शब्द हिंदी मूल का हो या उर्दू का, अगर आप बेवजह नुक़्तालगाएँगे तो अनर्थ हो जाएगा जैसे फाटक, बेगम, जारी, जबरन, जंग, जुर्रत, जिस्म, फिर, फल आदि में नुक़्ता नहीं लगता.

मीडिया में रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाले कुछ शब्द ऐसे भी हैं जोनुक़्ते के बिना कानों को बहुत बुरे लगते हैं जैसे- ख़बर, सुर्ख़ी, ज़रुरत, ज़रा, अख़बार, ग़लत, ग़म, ज़बरदस्ती.

अच्छे से अच्छा आलेख, ग़लत उच्चारण या ख़राब उच्चारण की वजह से बर्बादहो सकता है. और कभी कभी तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है. रेडियो न तोअख़बार है, न ही टेलीविज़न.रेडियो सिर्फ़ सुना जा सकता है, इसलिए, सिर्फ़ यह ज़रूरी है कि रेडियो की भाषा स्पष्ट और सरल हो, बल्कि यह भीज़रूरी है कि हर शब्द सही तरह से बोला जाए. शब्द किसी भी भाषा का हो, अगरआपका उच्चारण सही नहीं होगा तो सुनने वाले को बिल्कुल मज़ा नहीं आएगा.

अगर उर्दू के शब्दों का प्रयोग करें तो पहले यह जान लें कि उनमेंनुक़्ता लगता है या नहीं. कुछ अति उत्साही लोग शायद यह समझते हैं कि किसीभी शब्द में नुक़्ता लगा देने भर से, वह उर्दू का शब्द बन जाता है. ज़रासोचिए जलील शब्द को बोलते समय अगर ज के नीचे नुक़्ता लग गया तो वह बन जाएगाज़लील. अर्थ का अनर्थ हो जाएगा.

हर व्यक्ति को अपनी भाषा अपनी क्षमता के अनुसार गढ़नी चाहिए. यानी अगरआप ख़बर शब्द साफ़ नहीं बोल सकते तो समाचार कहें, युद्ध शब्द का सहीउच्चारण करना मुश्किल लगता है तो लड़ाई कह सकते हैं. प्रक्षेपास्त्र कहनाकोई ज़रुरी नहीं. मिसाइल शब्द अब आम हो गया है.बात तो यह है कि हरव्यक्ति की भाषा का अपना अलग रंग होता है. और होना भी चाहिए.
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महत्वपूर्ण इन्टरनेट लिंक

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Useful Links



परमाणु ऊर्जा विभाग

परमाणु ऊर्जा विभाग
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भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र मुम्बई
http://www.barc.gov.in/

परमाणु ऊर्जा शिक्षण संस्था
http://www.aees.gov.in

टाटा मूलभूत अनुसंधान केंद्र मुम्बई
http://www.tifr.res.in

School of Mathematics, TIFR Mumbai
http://www.math.tifr.res.in

School of Natural Sciences, TIFR Mumbai
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School of Technology andComputer Science, TIFR Mumbai
http://www.tcs.tifr.res.in

Graduate Studies, TIFR Mumbai
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National Centre for Biological Science, Bangalore
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National Centre for Radio Astrophysics, Pune
http://ncra.tifr.res.in

International Centre for Theoretical Science, TIFR Mumbai
http://www.icts.res.in

होमी भाभा विज्ञान शिक्षा केन्द्र, मुम्बई
http://www.hbcse.tifr.res.in

National Initiative on Undergraduate Science (NIUS), HBCSE Mumbai
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होमी भाभा प्राथमिक विज्ञान पाठ्यक्रम
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विज्ञान ओलम्पियाड, मुम्बई
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भारत सरकार

भारत सरकार
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भारत विकास प्रवेशद्वार
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हिन्दी फोन्ट, हिन्दी सॉफ्टवेयर, राजभाषा विभाग

राजभाषा विभाग भारत सरकार
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माईक्रोसॉफ्ट भाषा इण्डिया
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फॉण्ट परिवर्तक
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सम्पूर्ण फाइल (.txt) के फोण्ट को यूनिकोड फोण्ट में बदलने हेतु
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ओपन आफिस में हिन्दी वर्तनी जाँचक (Spell Check) संस्थापित करने हेतु मार्गदर्शन
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विश्वविद्यालय

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नकली विश्वविद्यालय की राज्यवार सूची
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नकली विश्वविद्यालय की राज्यवार सूची
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स्कूल/विद्यालयीन शिक्षा

स्कूल रिपोर्ट कार्ड
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स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग
http://mhrd.gov.in/schooleducation

केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड
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केन्द्रीय विद्यालय संगठन
http://kvsangathan.nic.in

नवोदय विद्यालय समिति
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परमाणु ऊर्जा शिक्षण संस्था
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तकनीकी शिक्षा विभाग

तकनीकी शिक्षा
http://mhrd.gov.in/technical_edu_hindi

अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद
http://www.aicte-india.org/

छात्रवृत्ति एवं शिक्षा ऋण

राष्ट्रीय प्रतिभा खोज (National Talent Search)
http://www.ncert.nic.in/programmes/talent_exam/index_talent.html

किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना (KVPY)

http://www.kvpy.org.in

छात्रवृत्ति एवं शिक्षा ऋण
http://education.nic.in/scholarship/scholarship.asp
 

J N Tata Endowment (विदेश में उच्च शिक्षा के लिए)

http://www.dorabjitatatrust.org
CENTRE FOR THE STUDY OF CULTURE AND SOCIETY
http://cscs.res.in/fellowships
भारत की अन्य छात्रवृत्तियों की सूची
http://www.scholarshipsinindia.com/
http://www.dst.gov.in/whats_new/advertisements.htm

सर रतन टाटा ट्रस्ट
http://www.srtt.org

राष्ट्रीय विज्ञान केन्द्र

राष्ट्रीय विज्ञान संचार एवं सूचना स्रोत संस्थान (NISCAIR)
http://www.niscair.res.in

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST)
http://dst.gov.in

विज्ञान प्रसार
http://www.vigyanprasar.gov.in/sitenew/

विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी राष्ट्रीय परिषद (NCSTC)
http://dst.gov.in/scientific-programme/s-t_ncstc.htm

राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद (National Council of Science Museums)
http://www.ncsm.gov.in

विज्ञान अकादमी

 भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली
http://insaindia.org/index.php

भारतीय विज्ञान अकादमी, बेंगलौर
http://www.ias.ac.in

राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, इलाहाबाद
http://nasi.nic.in

हिन्दी भाषा में कार्यरत संस्थाएं

केंद्रीय हिन्दी संस्थान, अगरा
http://www.hindisansthan.org/hi/index.htm

राष्ट्रीय अनुवाद मिशन, मैसूर
http://www.ntm.org.in

भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर
http://www.ciil.org

शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत संस्थाएं/गैर सरकारी संगठन (NGO)

एकलव्य
http://eklavya.in

नवनिर्मिति

http://www.navnirmiti.org

दिगंतर
http://www.digantar.org

विक्रम ए साराभाई कम्मुनिटी साइंस सेंटर
http://www.vascsc.org

सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट
http://www.dorabjitatatrust.org/

ईस्ट एण्ड वेस्ट एजुकेशनल सोसायटी
http://www.eastwestindia.org

प्रथम
http://www.pratham.org/

अक्षरा
http://www.akshara.org.in/

अजीम प्रेमजी फॉउण्डेशन
http://www.azimpremjifoundation.org/

सेन्टर फॉर एन्वायरमेन्ट एजुकेशन
http://www.ceeindia.org/cee/index.html

मुस्कान
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मराठी विज्ञान परिषद्
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कृष्णमूर्ती फॉउण्डेशन
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सेन्टर फॉर लर्निंग
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Jidnyasa Trust Thane
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ग्राम मंगल
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EnviroVigil
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डोरस्टेप स्कूल
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विज्ञान आश्रम
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अगस्तय फॉउन्डेशन
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नवनिर्मिति
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मुक्त आंगन विज्ञान शोधिका (पुलस्तय) IUCAA's Children's Science Centre
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विनिमय
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हिन्दी विज्ञान/साहित्यिक पत्रिकाएँ

कविता कोश
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संदर्भ - शिक्षा की त्रैमासिक पत्रिका (एकलव्य)
http://www.eklavya.in/go/index.php?option=com_content&task=category&sectionid=13&id=51&Itemid=72

स्रोत (एकलव्य)
http://eklavya.in/go/index.php?option=com_content&task=category&sectionid=13&id=56&Itemid=81

चकमक (एकलव्य)
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Fake Universities

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Fake Universities


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    Bihar

  1. Maithili University/Vishwavidyalaya, Darbhanga, Bihar.
    Delhi
  2. Commercial University Ltd., Daryaganj, Delhi.
  3. United Nations University, Delhi.
  4. Vocational University, Delhi.
  5. ADR-Centric Juridical University, ADR House, 8J, Gopala Tower, 25 Rajendra Place, New Delhi - 110 008.
  6. Indian Institute of Science and Engineering, New Delhi.
    Karnataka
  7. Badaganvi Sarkar World Open University Education Society, Gokak, Belgaum, Karnataka.
    Kerala
  8. St. John’s University, Kishanattam, Kerala.
    Madhya Pradesh
  9. Kesarwani Vidyapith, Jabalpur, Madhya Pradesh.
    Maharashtra
  10. Raja Arabic University, Nagpur, Maharashtra.
    Tamil Nadu
  11. D.D.B. Sanskrit University, Putur, Trichi, Tamil Nadu.
    West Bengal
  12. Indian Institute of Alternative Medicine, Kolkatta.
    Uttar Pradesh
  13. Varanaseya Sanskrit Vishwavidyalaya, Varanasi (UP) Jagatpuri, Delhi.
  14. Mahila Gram Vidyapith/Vishwavidyalaya, (Women’s University) Prayag, Allahabad, Uttar Pradesh.
  15. Gandhi Hindi Vidyapith, Prayag, Allahabad, Uttar Pradesh.
  16. National University of Electro Complex Homeopathy, Kanpur, Uttar Pradesh.
  17. Netaji Subhash Chandra Bose University (Open University), Achaltal, Aligarh, Uttar Pradesh.
  18. Uttar Pradesh Vishwavidyalaya, Kosi Kalan, Mathura, Uttar Pradesh.
  19. Maharana Pratap Shiksha Niketan Vishwavidyalaya, Pratapgarh, Uttar Pradesh.
  20. Indraprastha Shiksha Parishad, Institutional Area,Khoda,Makanpur,Noida Phase-II, Uttar Pradesh.
  21. Gurukul Vishwavidyala, Vridanvan, Uttar Pradesh.
* Bhartiya Shiksha Parishad, Lucknow, UP - the matter is subjudice before the District Judge - Lucknow

www.ugc.ac.in

चुनाव में मीडिया से कौन डरता है

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प्रस्तुति-- किशोर प्रियदर्शी, धीरज पांडेय



मीडिया से कौन डरता है

10 Feb 2009, 1000 hrs IST,स्वतंत्र जैन,नवभारत टाइम्स  
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भारत में मीडिया और इसके मैसिंजर पिछले कुछ दिनों से सबके निशाने पर हैं। कहना कठिन है कि इसका कारण मीडिया से बढ़ती अपेक्षाएं हैं या फिर मीडिया की अपनी भूमिका निष्पादन में असफलता। सरकार मीडिया को केबल एक्ट में संशोधन कर रेगुलेट करना चाहती है, तो पाठकों या जनता का आरोप है कि मीडिया बाजार का दास बन गया है।

दूसरी तरफ, इंटरनैशनल प्रेस इंस्टीट्यट का आकलन है कि भारत दुनिया में पत्रकारों अर्थात मैसिंजरों के लिए दुनिया में तीसरी सबसे खतरनाक जगह है। यहां से ज्यादा ख़तरा सिर्फ इराक और पाकिस्तान में है। मीडिया को एक तरफ लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, उससे बहुत सारे कर्तव्यों के निर्वाह की अपेक्षा की जाती है, पर मीडिया के अधिकार क्या हों, इस पर चर्चा कभी नहीं होती है। मीडिया का एक मात्र अधिकार- अभिव्यक्ति का अधिकार भी सत्ता प्रतिष्ठानों की नजर में खटक रहा है।

इस राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य के सदंर्भ में मंदी के मार झेलते मीडिया उद्योग के एक कर्मी के नाते पिछले दिनों मुझे इस वाक्य का एक नया अर्थ समझ में आया। 'मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है'। चौथा, पहला नहीं, आखिरी। कतार में खड़े बापू के आम आदमी की तरह!

इस सबके बावजूद सरकार केबल एक्ट बिल लाकर मीडिया की नकेल कसने की अपनी कोशिश में पीछे नहीं रही, हालांकि पीएम के हस्तक्षेप के बाद वह फिलहाल ठंडे बस्ते में चला गया है। मीडिया को कसने की ये कोशिशें किसी सरकार विशेष से ज्यादा हमारे पूरे शासक वर्ग के चरित्र पर प्रकाश डालती हैं। यह अभिजात्य शासक वर्ग जैसे-तैसे इसके लिए तो तैयार हो गया है कि जनता हर पांच साल में एक बार मतदान के जरिए परिवर्तन की अपनी इच्छा को आधे-अधूरे तरीके से व्यक्त कर ले। पर उससे अभी यह बर्दाश्त नहीं होता कि वह मीडिया के माध्यम से रोज बोले। चौबीस घंटे बोले। हजारों -लाखों मुख से बोले और अपनी समझ से बोले।

आश्चर्य नहीं कि भारत के लोकतंत्र के साठ सालों के इतिहास में ही मीडिया रेग्युलेशन की अनेक बहानों से कई-कई कोशिशें हुई हैं। सफल और असफल दोनों। हकीकत यह है कि मीडिया ने जनता और शासक वर्ग के बीच संवाद का सेतु ही नहीं, वरन कई राजपथ, गलियां और पगडंडियं बना दी हैं। पर हम जानते हैं कि उपरोक्त तीनों 'स्तंभ'अलोकतांत्रिक शासन प्रणालियों में भी रहे हैं और हैं। मीडिया की उपस्थिति भी अलोकतांत्रिक प्रणालियों में देखी जा सकती है। जाहिर है एक समाज-शासन कितना लोकतंत्रिक है, वह इससे तय नहीं होता कि उसमें मीडिया है या नहीं, वरन इससे तय होता है कि शासित वर्ग और जनता के बीच संवाद के जो सेतु और मार्ग हैं उनका स्वरूप क्या है। उन मार्ग पर कौन-कौन किस अधिकार से चल सकता है।

क्या वह बराबरी के अधिकार से चल सकता है और संवाद के लिए अपनी मर्जी से साधनों का चुनाव कर सकता है? इस मार्ग पर चलते हुए उसे गलती करने और उसे अपने आप सुधारने का कितना अधिकार है? क्या गलती करने का अधिकार सिर्फ शासक और सत्ता वर्ग को है, जिसे कि वह खुद ही जांच कमेटियां बनाकर ठीक करने और दंडित करने का नाटक भी करता है?

सूचना और ज्ञान के दूरगामी प्रभाव को देखते हुए यह भी मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र के अन्य स्तंभों की तरह मीडिया भी सत्ता का एक केंद्र बन गया है। लोकतंत्र में जनता की आवाज के पहरेदार सत्ता के स्रोत भी बन जाएं तो यह कोई अनहोनी घटना भी नहीं है। पर सत्ता के मूल्यांकन का एक आधार यह भी होता है कि वह अपने शासितों में खुशी का प्रसार करता है। इस पैमाने पर अगर तौलें तो मीडिया से असंतुष्टि की बजाए संतुष्टि के अनेक कारण नजर आते हैं- मनोरंजन से लेकर जागरूकता और सांस्कृतिक एकीकरण से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संचार व बहस -विमर्श का केंद्र बनना।

गौरतलब है कि मीडिया का आशय सिर्फ न्यूज मीडिया ही नहीं है। एंटरटेनमंट मीडिया, इंटरनेट, फिल्में मीडिया के ही एक प्रकार हैं (सभी का बिजनेस मॉडल भी प्राय: एक जैसा ही है) और अभिव्यक्ति के अधिकार से ही अनुशासित होते हैं। तमाम सेंसर बोर्ड की मौजूदगी के बावजूद भारत अगर दुनिया में सबसे अधिक फिल्में बनाता है तो यह सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री की प्रॉडक्शन क्षमता का प्रश्न नहीं है, वरन इसमें लोकतंत्र की भी अहम भूमिका है। दुनिया के किन्हीं भी पांच लोकतांत्रिक और पांच अलोकतांत्रिक देशों के आंकड़े उठाकर देख लीजिए- कल्चरल प्रॉडक्शन की मात्रा, गुणवत्ता और विविधता में लोकतांत्रिक देश अलोकतांत्रिक देशों को बहुत पीछे छोड़ देंगे। कहने की आवश्यकता नहीं कल्चरल प्रॉडक्शन का उत्पादन और उपभोग दोनों एक रचनात्मक प्रक्रिया हैं। दोनों ही प्रक्रियाएं आनंद का कारण भी हैं।

इसके बावजूद बारंबार मीडिया के रेग्युलेशन की यह कोशिश क्या बताती है? कौन है जो मीडिया से इतना डरा हुआ है? पुलिस (कार्यपालिका से) से अपराधी डरते हैं। आम जनता तो डरती ही है। नेता से तो सब डरते हैं। क्या आम, क्या खास। क्या पुलिस और क्या अपराधी। कोर्ट-कचहरी अर्थात न्यायपालिका के चक्कर लगाने से आम आदमी घबराता ही है। पर मीडिया से कौन डरता है - शायद भ्रष्ट और लापरवाह नेता व अधिकारी अर्थात सत्ता-संस्थान के अलावा कोई नहीं डरता। आम जनता तो बिल्कुल नहीं डरती। इस मायने में मीडिया आम जनता के सबसे करीब ठहरता है। फिर भी मीडिया को बांधने और चुप कराने की एक लोकतांत्रिक सरकार की मंशा किस ओर इशारा करती है?
सत्ता-संस्थान के इस 'डर'की जड़ में संभवत: मीडिया की संवाद की भूमिका ही है। एक ईमानदार संवाद पारदर्शिता को जन्म देता है।

मीडिया ने सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया को ही पारदर्शी नहीं बनाया है। सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों को जनता के करीब लाने के साथ-साथ बेपरदा भी किया है। इस प्रक्रिया में जिनके दामन दागदार हैं, वे सामने आ रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि ये लोग आज मीडिया को रेग्युलेट करना चाहते हैं।

यह कहना भी सही नहीं है कि मीडिया और मैसिंजरों से गलतियां नहीं हुई हैं। पर इसमें सिर्फ मीडिया का दोष नहीं है। पारदर्शिता के धरातल पर भारतीय समाज एक बंद समाज है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 2008 इंडेक्स के अनुसार भारत करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में मात्र 3.4 अंकों के साथ 85वें स्थान पर था। वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम सर्वे ने भी 2003 में भारत को सरकारी अधिकारियों की ईमानदारी इंडेक्स में 49 देशों की सूची में 45वें स्थान पर रखा था। सूचना का अधिकार भी समाज और सत्ता के बंद दरवाजों में कोई ज्यादा सेंध नहीं लगा पाया है। बंद समाज का बनावटीपन मीडिया को भी प्रभावित करता है। एकतरफ प्रभावशाली वर्ग सचाई और सूचना का स्वागत नहीं करता है तो दूसरी तरफ टीआरपी की होड़, सत्ता-संस्थानों द्वारा दिए जाने वाले लोभ-लालच ने भी मीडिया को भी अपनी चपेट में लिया है।

जाहिर इसका जवाब रेगुलेशन नहीं स्वायत्तता ही है। ऐसे हालात में जबकि पब्लिक स्पेस का दायरा बढ़ा है वहीं पब्लिक मनी का दुरुपयोग सिर्फ सरकारी महकमे तक सीमित नहीं रहा वरन् कॉरपोरेट वर्ल्ड भी इसमें शामिल हो गया है (संदर्भ - सत्यम प्रकरण), जरूरत इस बात की है मीडिया से बढ़ती अपेक्षाओं को और भी गंभीरता से लेते उसे और स्वायत्त्ता दी जाए न कि मीडिया की ऑंख और कान पर पट्टी बांधी जाए। मीडिया को दी गई यह स्वायत्तता मीडिया को अनुशासित तो करेगी ही, समाज और शासन प्रणाली को भी जिम्मेदार और पारदर्शी बनाएगी।

कुछ और महत्वपूर्ण लिंक

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प्रस्तुति-- आनंद प्रकाश, धीरज, किशोर प्रियदर्शी

भारत सरकार

भारत सरकार
http://goidirectory.nic.in/

भारत का राष्ट्रीय पोर्टल
http://india.gov.in

भारत विकास प्रवेशद्वार
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विदेश मंत्रालय
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हिन्दी फोन्ट, हिन्दी सॉफ्टवेयर, राजभाषा विभाग

राजभाषा विभाग भारत सरकार
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भारतीय भाषाऔं के लिये प्रौद्योगिकी विकास (फोन्ट एवं साफ्टवेयर)
http://ildc.in

सूचना प्रौद्योगिकी विभाग
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प्रगत संगणन विकास केन्द्र
http://www.cdac.in/
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डाउनलोड हिन्दी फोन्ट
http://www.wazu.jp/gallery/Fonts_Devanagari.html
http://www.ffonts.net/Hindi.html
http://devanaagarii.net/fonts/

डाउनलोड यूनिकोड हिन्दी फोन्ट
http://salrc.uchicago.edu/resources/fonts/available/hindi/
http://www.alanwood.net/unicode/fonts.html#devanagari

माईक्रोसॉफ्ट भाषा इण्डिया
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फॉण्ट परिवर्तक
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वेबदुनिया का 'डेटा कनवर्टर - यहाँ सैकड़ों फॉन्ट से यूनिकोड में बदलने की आनलाइन सुविधा है
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सम्पूर्ण फाइल (.txt) के फोण्ट को यूनिकोड फोण्ट में बदलने हेतु
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ओपन आफिस में हिन्दी वर्तनी जाँचक (Spell Check) संस्थापित करने हेतु मार्गदर्शन
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विश्वविद्यालय

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC)
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नकली विश्वविद्यालय की राज्यवार सूची
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भारतीय विश्वविद्यालय संघ (AIU)
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इंदिरा गाँधी राष्ट्रिय मुक्त विश्वविद्यालय
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मुक्त विश्वविद्यालयों/संस्थानों की सूची
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उच्चतर शिक्षा विभाग
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केन्द्रीय विश्वविद्यालय

केन्द्रीय विश्व विद्यालय सूची
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इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, उ.प्र.
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अलीग‌ढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़
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असम विश्वविद्यालय, सिलचर
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अंग्रेजी एवं विदेशी भाषाऐं विश्वविद्यालय, हैदराबाद
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बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ, उ.प्र.
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बनारस (काशी) हिन्दु विश्वविद्यालय, बनारस, उ.प्र.
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दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
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हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
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जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
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महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
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मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद
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मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फाल, मणिपुर
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मिजोरम विश्वविद्यालय, आइजॉल, मिजोरम
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नागालैण्ड विश्वविद्यालय, कोहिमा, नागालैण्ड
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पांडिचेरी विश्वविद्यालय, पांडिचेरी
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सिक्किम विश्वविद्यालय, गंगटोक, सिक्किम
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तेजपुर विश्वविद्यालय, नापाम, तेजपुर, असम
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 हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर, उत्तराखण्ड
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फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची

नकली विश्वविद्यालय की राज्यवार सूची
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स्कूल/विद्यालयीन शिक्षा

स्कूल रिपोर्ट कार्ड
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स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग
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केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड
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केन्द्रीय विद्यालय संगठन
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नवोदय विद्यालय समिति
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परमाणु ऊर्जा शिक्षण संस्था
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तकनीकी शिक्षा विभाग

तकनीकी शिक्षा
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अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद
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छात्रवृत्ति एवं शिक्षा ऋण

राष्ट्रीय प्रतिभा खोज (National Talent Search)
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किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना (KVPY)

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छात्रवृत्ति एवं शिक्षा ऋण
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J N Tata Endowment (विदेश में उच्च शिक्षा के लिए)

http://www.dorabjitatatrust.org
CENTRE FOR THE STUDY OF CULTURE AND SOCIETY
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भारत की अन्य छात्रवृत्तियों की सूची
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सर रतन टाटा ट्रस्ट
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राष्ट्रीय विज्ञान केन्द्र

राष्ट्रीय विज्ञान संचार एवं सूचना स्रोत संस्थान (NISCAIR)
http://www.niscair.res.in

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST)
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विज्ञान प्रसार
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विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी राष्ट्रीय परिषद (NCSTC)
http://dst.gov.in/scientific-programme/s-t_ncstc.htm

राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद (National Council of Science Museums)
http://www.ncsm.gov.in

विज्ञान अकादमी

 भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली
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भारतीय विज्ञान अकादमी, बेंगलौर
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राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, इलाहाबाद
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हिन्दी भाषा में कार्यरत संस्थाएं

केंद्रीय हिन्दी संस्थान, अगरा
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राष्ट्रीय अनुवाद मिशन, मैसूर
http://www.ntm.org.in

भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर
http://www.ciil.org

शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत संस्थाएं/गैर सरकारी संगठन (NGO)

एकलव्य
http://eklavya.in

नवनिर्मिति

http://www.navnirmiti.org

दिगंतर
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विक्रम ए साराभाई कम्मुनिटी साइंस सेंटर
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सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट
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ईस्ट एण्ड वेस्ट एजुकेशनल सोसायटी
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प्रथम
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अक्षरा
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अजीम प्रेमजी फॉउण्डेशन
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सेन्टर फॉर एन्वायरमेन्ट एजुकेशन
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स्रोत (एकलव्य)
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चकमक (एकलव्य)
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भारत-दर्शन, हिन्दी साहित्यिक पत्रिका
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पत्रकारिता में कभी लीडर रहा था लीडर (समाचार पत्र)

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प्रस्तुति-- स्वामी शरण


भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लीडरएक अंग्रेज़ीपत्र है जिसका प्रारंभ मदन मोहन मालवीयजी ने ‘अभ्युदय‘के पश्चात् 24 अक्टूबर, 1910को किया था। 'लीडर'के हिन्दी संस्करण 'भारत'का आरम्भ सन् 1921में हुआ। मालवीय जी ‘लीडर‘ के प्रति सदा संवेदनशील रहे, डेढ़ वर्ष बीतते-बीतते ‘लीडर‘ घाटे की स्थिति में जा पहुंचा। महामना उस दौरान काशी हिंदू विश्वविद्यालयके लिए धन एकत्र करने में लगे हुए थे, जब ‘लीडर‘ के संचालकों ने मालवीय जी को घाटे की स्थिति से अवगत कराया तो वे विचलित हो उठे। उन्होंने कहा कि, ‘‘मैं लीडर को मरने नहीं दूंगा।‘‘ काशी विश्वविद्यालय की स्थापना का कार्य बीच में ही रोककर मालवीय जी ‘लीडर‘ के लिए आर्थिक व्यवस्था के कार्य में जुट गए। पहली झोली उन्होंने अपनी पत्नी के आगे यह कहते हुए फैलाई कि ‘‘यह मत समझो कि तुम्हारे चार ही पुत्रहैं। दैनिक लीडर तुम्हारा पांचवां पुत्र है। अर्थहीनता के कारण यह संकट में पड़ गया है। तो क्या मैं पिताके नाते उसे मरते हुए देख सकता हूं।‘‘ मालवीय जी के अथक प्रयासों से 'लीडर'बच गया।


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भारत में हिंदी पत्रकारिता

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प्रस्तुति-- उपेन्द्र कश्यप, रोहित सिंह बघेल
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगालसे हुई और इसका श्रेय राजा राममोहन रायको दिया जाता है। राजा राममोहन राय ने ही सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ा। भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया। समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की। राममोहन राय ने कई पत्र शुरू किये। जिसमें अहम हैं-साल 1816 में प्रकाशित ‘बंगाल गजट’। बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्रहै। इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे। इसके अलावा राजा राममोहन राय ने मिरातुल, संवाद कौमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों में चेतना फैलाई। 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले ‘उदंत्त मार्तण्ड’ को हिंदीका पहला समाचार पत्र माना जाता है।[1]

हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन

भारतमें हिंदीपत्रकारिताका तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन करना कुछ कठिन कार्य है। सर्वप्रथम राधाकृष्ण दास ने ऐसा प्रारंभिक प्रयास किया था। उसके बाद ‘विशाल भारत’ के नवंबर1930के अंक में विष्णुदत्त शुक्ल ने इस प्रश्न पर विचार किया, किन्तु वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे। गुप्त निबंधावली में बालमुकुंद गुप्त ने यह विभाजन इस प्रकार किया –
  • प्रथम चरण – सन् 1845 से 1877
  • द्वितीय चरण – सन् 1877 से 1890
  • तृतीय चरण – सन् 1890 से बाद तक
डॉ. रामरतन भटनागर ने अपने शोध प्रबंध ‘द राइज एंड ग्रोथ आफ हिंदी जर्नलिज्म’ काल विभाजन इस प्रकार किया है–
  • आरंभिक युग 1826 से 1867
  • उत्थान एवं अभिवृद्धि
    • प्रथम चरण (1867-1883) भाषा एवं स्वरूप के समेकन का युग
    • द्वितीय चरण (1883-1900) प्रेस के प्रचार का युग
  • विकास युग
    • प्रथम युग (1900-1921) आवधिक पत्रों का युग
    • द्वितीय युग (1921-1935) दैनिक प्रचार का युग
  • सामयिक पत्रकारिता – 1935-1945
उपरोक्त में से तीन युगों के आरंभिक वर्षों में तीन प्रमुख पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, जिन्होंने युगीन पत्रकारिता के समक्ष आदर्श स्थापित किए। सन् 1867 में ‘कविवचन सुधा’, सन् 1883 में ‘हिन्दुस्तान’ तथा सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन है।[2]
  • काशी नागरी प्रचारणी द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास’ के त्रयोदय भाग के तृतीय खंड में यह काल विभाजन इस प्रकार किया गया है –
  1. प्रथम उत्थान – सन् 1826 से 1867
  2. द्वितीय उत्थान – सन् 1868 से 1920
  3. आधुनिक उत्थान – सन् 1920 के बाद
  • ‘ए हिस्ट्री आफ द प्रेस इन इंडिया’ में श्री एस नटराजन ने पत्रकारिता का अध्ययन निम्न प्रमुख बिंदुओं के आधार पर किया है –
  1. बीज वपन काल
  2. ब्रिटिश विचारधारा का प्रभाव
  3. राष्ट्रीय जागरण काल
  4. लोकतंत्र और प्रेस
  • डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘हिंदी पत्रकारिता’ का अध्ययन करने की सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन मोटे रूप से इस प्रकार किया है –
  1. भारतीय नवजागरण और हिंदी पत्रकारिता का उदय (सन् 1826 से 1867)
  2. राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति- दूसरे दौर की हिंदी पत्रकारिता (सन् 1867-1900)
  3. बीसवीं शताब्दी का आरंभ और हिंदी पत्रकारिता का तीसरा दौर – इस काल खण्ड का अध्ययन करते समय उन्होंने इसे तिलक युग तथा गांधी युगमें भी विभक्त किया।
  • डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के विविध रूप’ में विभाजन के प्रश्न पर विचार करते हुए यह विभाजन किया है –
  1. उदय काल – (सन् 1826 से 1867)
  2. भारतेंदु युग – (सन् 1867 से 1900)
  3. तिलक या द्विवेदी युग – (सन् 1900 से 1920)
  4. गांधी युग – (सन् 1920 से 1947)
  5. स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1947 से अब तक)
  • डॉ. सुशील जोशी ने काल विभाजन कुछ ऐसा प्रस्तुत किया है –
  1. हिंदी पत्रकारिता का उद्भव – 1826 से 1867
  2. हिंदी पत्रकारिता का विकास – 1867 से 1900
  3. हिंदी पत्रकारिता का उत्थान – 1900 से 1947
  4. स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता – 1947 से अब तक[2]
उक्त मतों की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि हिंदी पत्रकारिता का काल विभाजन विभिन्न विद्वानों पत्रकारों ने अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग ढंग से किया है। इस संबंध में सर्वसम्मत काल निर्धारण अभी नहीं किया जा सका है। किसी ने व्यक्ति विशेष के नाम से युगका नामकरण करने का प्रयास किया है तो किसी ने परिस्थिति अथवा प्रकृति के आधार पर। इनमें एकरूपता का अभाव है।

हिंदी पत्रकारिता का उद्भव काल (1826 से 1867)

कलकत्तासे 30 मई, 1826 को ‘उदन्त मार्तण्ड’ के सम्पादन से प्रारंभ हिंदी पत्रकारिता की विकास यात्रा कहीं थमी और कहीं ठहरी नहीं है। पंडित युगल किशोर शुक्ल के संपादन में प्रकाशित इस समाचार पत्र ने हालांकि आर्थिक अभावों के कारण जल्द ही दम तोड़ दिया, पर इसने हिंदी अखबारों के प्रकाशन का जो शुभारंभ किया वह कारवां निरंतर आगे बढ़ा है। साथ ही हिंदी का प्रथम पत्र होने के बावजूद यह भाषा, विचार एवं प्रस्तुति के लिहाज से महत्त्वपूर्ण बन गया।[2]

कलकत्ता का योगदान

पत्रकारिता जगत में कलकत्ता का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रशासनिक, वाणिज्य तथा शैक्षिक दृष्टि से कलकत्ता का उन दिनों विशेष महत्व था। यहीं से 10 मई 1829 को राजा राममोहन रायने ‘बंगदूत’ समाचार पत्रनिकाला जो बंगला, फ़ारसी, अंग्रेज़ीतथा हिंदीमें प्रकाशित हुआ। बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ के 21 जून 1834 के अंक ‘प्रजामित्र’ नामक हिंदी पत्र के कलकत्ता से प्रकाशित होने की सूचना मिलती है। लेकिन अपने शोध ग्रंथ में डॉ. रामरतन भटनागर ने उसके प्रकाशन को संदिग्ध माना है। ‘बंगदूदत’ के बंद होने के बाद 15 सालों तक हिंदी में कोई पत्र न निकला।[2]

हिंदी पत्रकारिता का उत्थान काल (1900-1947)

सन 1900का वर्ष हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में महत्त्वपूर्ण है। 1900 में प्रकाशित सरस्वतीपत्रिका]अपने समय की युगान्तरकारी पत्रिकारही है। वह अपनी छपाई, सफाई, कागजऔर चित्रों के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई। इसे बंगाली बाबू चिन्तामणि घोष ने प्रकाशित किया था तथा इसे नागरी प्रचारिणी सभा का अनुमोदन प्राप्त था। इसके सम्पादक मण्डल में बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिका प्रसाद खत्री, जगन्नाथदास रत्नाकर, किशोरीदास गोस्वामी तथा बाबू श्यामसुन्दरदासथे। 1903में इसके सम्पादन का भार आचार्य महावर प्रसाद द्विवेदी पर पड़ा। इसका मुख्य उद्देश्य हिंदी-रसिकों के मनोरंजन के साथ भाषा के सरस्वती भण्डार की अंगपुष्टि, वृद्धि और पूर्ति करन था। इस प्रकार 19वी शताब्दी में हिंदी पत्रकारिता का उद्भव व विकास बड़ी ही विषम परिस्थिति में हुआ। इस समय जो भी पत्र-पत्रिकाएं निकलती उनके सामने अनेक बाधाएं आ जातीं, लेकिन इन बाधाओं से टक्कर लेती हुई हिंदी पत्रकारिता शनैः-शनैः गति पाती गई।[2]

हिंदी पत्रकारिता का उत्कर्ष काल (1947 से प्रारंभ)

अपने क्रमिक विकास में हिंदी पत्रकारिता के उत्कर्ष का समय आज़ादी के बाद आया। 1947 में देश को आज़ादी मिली। लोगों में नई उत्सुकता का संचार हुआ। औद्योगिक विकास के साथ-साथ मुद्रण कला भी विकसित हुई। जिससे पत्रों का संगठन पक्ष सुदृढ़ हुआ। रूप-विन्यास में भी सुरूचि दिखाई देने लगी। आज़ादी के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अपूर्व उन्नति होने पर भी यह दुख का विषय है कि आज हिंदी पत्रकारिता विकृतियों से घिरकर स्वार्थसिद्धि और प्रचार का माध्यम बनती जा रही है। परन्तु फिर भी यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय प्रेस की प्रगति स्वतंत्रता के बाद ही हुई। यद्यपि स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता ने पर्याप्त प्रगति कर ली है किन्तु उसके उत्कर्षकारी विकास के मार्ग में आने वाली बाधाएं भी कम नहीं हैं।[2]

प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ

भारतके स्वाधीनता संघर्ष में पत्र-पत्रिकाओं की अहम भूमिका रही है। आजादी के आन्दोलन में भाग ले रहा हर आम-ओ-खास कलम की ताकत से वाकिफ था। राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदनमोहन मालवीय, बाबा साहब अम्बेडकर, यशपालजैसे आला दर्जे के नेता सीधे-सीधे तौर पर पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े हुए थे और नियमित लिख रहे थे। जिसका असर देश के दूर-सुदूर गांवों में रहने वाले देशवासियों पर पड़ रहा था। अंग्रेजी सरकार को इस बात का अहसास पहले से ही था, लिहाजा उसने शुरू से ही प्रेस के दमन की नीति अपनाई। 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले ‘उदंत्त मार्तण्ड’ को हिंदीका पहला समाचार पत्र माना जाता है। अपने समय का यह ख़ास समाचार पत्र था, मगर आर्थिक परेशानियों के कारण यह जल्दी ही बंद हो गया। आगे चलकर माहौल बदला और जिस मकसद की खातिर पत्र शुरू किये गये थे, उनका विस्तार हुआ। समाचार सुधावर्षण, अभ्युदय, शंखनाद, हलधर, सत्याग्रह समाचार, युद्धवीर, क्रांतिवीर, स्वदेश, नया हिन्दुस्तान, कल्याण, हिंदी प्रदीप, ब्राह्मण,बुन्देलखण्ड केसरी, मतवाला सरस्वती, विप्लव, अलंकार, चाँद, हंस, प्रताप, सैनिक, क्रांति, बलिदान, वालिंट्यर आदि जनवादी पत्रिकाओं ने आहिस्ता-आहिस्ता लोगों में सोये हुए वतनपरस्ती के जज्बे को जगाया और क्रांति का आह्नान किया।[1]
नतीजतन उन्हें सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ा। दमन, नियंत्रण के दुश्चक्र से गुजरते हुए उन्हें कई प्रेस अधिनियमों का सामना करना पड़ा। ‘वर्तमान पत्र’ में पंडित जवाहर लाल नेहरूद्वारा लिखा ‘राजनीतिक भूकम्प’ शीर्षक लेख, ‘अभ्युदय’ का भगत सिंह विशेषांक, किसान विशेषांक, ‘नया हिन्दुस्तान’ के साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और फॉसीवादी विरोधी लेख, ‘स्वदेश’ का विजय अंक, ‘चॉंद’ का अछूत अंक, फॉंसी अंक, ‘बलिदान’ का नववर्षांक, ‘क्रांति’ के 1939 के सितम्बर, अक्टूबर अंक, ‘विप्लव’ का चंद्रशेखर अंक अपने क्रांतिकारी तेवर और राजनीतिक चेतना फैलाने के इल्जाम में अंग्रेजी सरकार की टेढ़ी निगाह के शिकार हुए और उन्हें जब्ती, प्रतिबंध, जुर्माना का सामना करना पड़ा। संपादकों को कारावास भुगतना पड़ा।

गवर्नर जनरल वेलेजली

भारतीय पत्रकारिता की स्वाधीनता को बाधित करने वाला पहला प्रेस अधिनियम गवर्नर जनरल वेलेजली के शासनकाल में 1799 को ही सामने आ गया था। भारतीय पत्रकारिता के आदिजनक जॉन्स आगस्टक हिक्की के समाचार पत्र ‘हिक्की गजट’ को विद्रोह के चलते सर्वप्रथम प्रतिबंध का सामना करना पड़ा। हिक्की को एक साल की कैद और दो हजार रूपए जुर्माने की सजा हुई। कालांतर में 1857 में गैंगिंक एक्ट, 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1908 में न्यूज पेपर्स एक्ट (इन्साइटमेंट अफैंसेज), 1910 में इंडियन प्रेस एक्ट, 1930 में इंडियन प्रेस आर्डिनेंस, 1931 में दि इंडियन प्रेस एक्ट (इमरजेंसी पावर्स) जैसे दमनकारी क़ानून अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करने के उद्देश्य से लागू किए गये। अंग्रेजी सरकार इन काले क़ानूनों का सहारा लेकर किसी भी पत्र-पत्रिका पर चाहे जब प्रतिबंध, जुर्माना लगा देती थी। आपत्तिजनक लेख वाले पत्र-पत्रिकाओं को जब्त कर लिया जाता। लेखक, संपादकों को कारावास भुगतना पड़ता व पत्रों को दोबारा शुरू करने के लिए जमानत की भारी भरकम रकम जमा करनी पड़ती। बावजूद इसके समाचार पत्र संपादकों के तेवर उग्र से उग्रतर होते चले गए। आजादी के आन्दोलन में जो भूमिका उन्होंने खुद तय की थी, उस पर उनका भरोसा और भी ज्यादा मजबूत होता चला गया। जेल, जब्ती, जुर्माना के डर से उनके हौसले पस्त नहीं हुये।[1]

बीसवीं सदी की शुरुआत

बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलनके प्रचार प्रसार और उन आन्दोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही। कई पत्रों ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रवक्ता का रोल निभाया। कानपुरसे 1920में प्रकाशित ‘वर्तमान’ ने असहयोग आन्दोलन को अपना व्यापक समर्थन दिया था। पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा शुरू किया गया साप्ताहिक पत्र ‘अभ्युदय’ उग्र विचारधारा का हामी था। अभ्युदय के भगत सिंह विशेषांक में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मदनमोहन मालवीय, पंडित जवाहरलाल नेहरूके लेख प्रकाशित हुए। जिसके परिणामस्वरूप इन पत्रों को प्रतिबंध- जुर्माना का सामना करना पड़ा। गणेश शंकर विद्यार्थीका ‘प्रताप’, सज्जाद जहीर एवं शिवदान सिंह चैहान के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाला ‘नया हिन्दुस्तान’ राजाराम शास्त्री का ‘क्रांति’ यशपाल का ‘विप्लव’ अपने नाम के मुताबिक ही क्रांतिकारी तेवर वाले पत्र थे। इन पत्रों में क्रांतिकारी युगांतकारी लेखन ने अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी थी। अपने संपादकीय, लेखों, कविताओं के जरिए इन पत्रों ने सरकार की नीतियों की लगातार भतर्सना की। ‘नया हिन्दुस्तान’ और ‘विप्लव’ के जब्तशुदा प्रतिबंधित अंकों को देखने से इनकी वैश्विक दृष्टि का पता चलता है।[1]

‘चाँद’ का फाँसी अंक

फाँसीवाद के उदय और बढ़ते साम्राज्यवाद, पूंजीवाद पर चिंता इन पत्रों में साफ़ देखी जा सकती है। गोरखपुरसे निकलने वाले साप्ताहिक पत्र ‘स्वदेश’ को जीवंतपर्यंत अपने उग्र विचारों और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की भावना के कारण समय-समय पर अंग्रेजी सरकार की कोप दृष्टि का शिकार होना पड़ा। खासकर विशेषांक विजयांक को। आचार्य चतुरसेन शास्त्रीद्वारा संपादित ‘चाँद’ के फाँसी अंक की चर्चा भी जरूरी है। काकोरीके अभियुक्तों को फांसी के लगभग एक साल बाद, इलाहाबादसे प्रकाशित चॉंद का फाँसी अंक क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास की अमूल्य निधि है। यह अंक क्रांतिकारियों की गाथाओं से भरा हुआ है। सरकार ने अंक की जनता में जबर्दस्त प्रतिक्रिया और समर्थन देख इसको फौरन जब्त कर लिया और रातों-रात इसके सारे अंक गायब कर दिये। अंग्रेज हुकूमत एक तरफ क्रांतिकारी पत्र-पत्रिकाओं को जब्त करती रही, तो दूसरी तरफ इनके संपादक इन्हें बिना रुके पूरी निर्भिकता से निकालते रहे। सरकारी दमन इनके हौसलों पर जरा भी रोक नहीं लगा सका। पत्र-पत्रिकाओं के जरिए उनका यह प्रतिरोध आजादी मिलने तक जारी रहा।[1]


Seealso.jpgइन्हें भी देखें: पत्रकारिता एवं भारत में समाचार पत्रों का इतिहास


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.01.11.21.31.4प्रतिरोध के सामूहिक स्वर, परतंत्र भारत में प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ(हिंदी)सृजनगाथा। अभिगमन तिथि: 25 दिसम्बर, 2012।
  2. 2.02.12.22.32.42.5विश्व में पत्रकारिता का इतिहास(हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) आइये सीखें पत्रकारिता (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 25 दिसम्बर, 2012।

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संबंधित लेख

भारत के कुछ पुराने अखबार

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पत्रकारिता का इतिहास

पायनियर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लेख का ड्राफ़्टलेख (प्रतीक्षित)
पायनियरब्रिटिश कालीनभारतमें निकलने वाला एक समाचार पत्र था। इससमाचार पत्रकी शुरुआतइलाहाबादसे वर्ष1876ई. में की गई थी।
  • लॉर्ड विलियम बैंटिकवह प्रथमगवर्नर-जनरलथा, जिसने प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया था।
  • कार्यवाहक गर्वनर-जनरलचार्ल्स मेटकॉफ़ने भी 1823 ई. के प्रतिबन्ध को हटाकर समाचार पत्रों को मुक्ति दिलवाई। यहीकारण है कि उसे 'समाचार पत्रों का मुक्तिदाता'भी कहा जाता है।
  • 1857-1858के विद्रोह के बादभारतमें समाचार पत्रों को भाषाई आधार के बजाय प्रजातीय आधार पर विभाजित किया गया।
  • अंग्रेज़ीसमाचार पत्रों एवं भारतीय समाचार पत्रों के दृष्टिकोण में अंतर होता था।जहाँ अंग्रेज़ी समाचार पत्रों को भारतीय समाचार पत्रों की अपेक्षा ढेर सारीसुविधाये उपलब्ध थीं, वही भारतीय समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा था।
  • सभी समाचार पत्रों में 'इंग्लिश मैन'सर्वाधिक रूढ़िवादी एवं प्रतिक्रियावादी था। 'पायनियर'सरकार का पूर्ण समर्थक समाचार-पत्र था।
2
हिंदी प्रदीप
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लेख का ड्राफ़्टलेख (प्रतीक्षित)
हिंदी प्रदीपएक मासिक पत्र था, जो7 सितम्बर, 1877को प्रथम बार प्रकाशित हुआ। यह पत्रबालकृष्ण भट्टद्वारा निकाला गया था औरइसके सम्पादक बालकृष्ण भट्ट थेऔर पृष्ठ संख्या 16 थी। इसमें लेखों के अतिरिक्त नाटक भी प्रकाशित होते थे।
  • आचार्य रामचंद्र शुक्लके अनुसार "'हिंदी प्रदीप'गद्य साहित्य का ढर्रा निकालने के लिए ही"निकाला गया था।
  • कई घोर संकट के बावजूद भी 'हिंदी प्रदीप' 35 वर्षोंतक निरंतर निकलता रहा।
  • इस मासिक पत्र का उद्घाटनभारतेंदुजी के हाथों हुआ था।
  • हिंदी प्रदीप का शुरू होनापत्रकारिताकी दृष्टि सेहिंदी साहित्यके इतिहास में एक क्रांतिकारी घटना थी।
  • इस पत्र ने हिंदीपत्रकारिताको एक नई दिशा प्रदान की। इसका स्वर राष्ट्रीयता, निर्भीकता तथा तेजस्विता का था, अतःअंग्रेज़सरकार इस पर कड़ी निगरानी रखती थी।
  • पत्र में हिंदी साहित्य और पत्रकारिता पर कई प्रकार की सामग्री रहती थी।
  • 'कविवचन सुधा'के बाद 'हिंदी प्रदीप'ही वह पत्र रह गया था, जो अपने पाठकों मेंराष्ट्रीय चेतना जागृत कर सका। सामाजिक और राष्ट्रीय समस्याओं पर स्वतंत्रविचार प्रकाशन के कारण यह पत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गया और 'कविवचनसुधा'के बाद इसे ही सबसे अधिक ख्याति मिली।[1]
3

बनारस अख़बार

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लेख का ड्राफ़्टलेख (प्रतीक्षित)
बनारस अख़बारका प्रकाशनजनवरी, 1845 में हुआ। यह अख़बार गोविन्द नारायण थत्ते के सम्पादन मेंउत्तर प्रदेशसे प्रकाशित हुआ। अख़बार के संचालक राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द थे। अधिकांश लोग इस अख़बार को हीहिन्दीका पहला अख़बार मानते हैं। किंतु इसे हिन्दी भाषी क्षेत्र का प्रथम समाचार पत्र माना जा सकता है।

अरबी तथा फ़ारसी शब्दों का प्रयोग

देवनागरी लिपिके प्रयोग के बावजूद इस अख़बार मेंअरबीऔरफ़ारसी भाषाके शब्दों की बहुतायत थी, जिसे समझना साधारण जनता के लिए एक कठिन कार्य था। पंडितअंबिका प्रसाद वाजपेयीने लिखा है कि "बनारस अख़बार की निकम्मी भाषा का उत्तरदायित्व यदि किसी एकपुरुष पर है तो वे राजा शिवप्रसाद सिंह हैं।"बनारस से ही 1850 में तारामोहन मैत्रेय के संपादन में सुधाकरपत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह पत्रसाप्ताहिक था तथाबंगलाएवंहिन्दीदोनों भाषाओं में प्रकाशित होता था।भाषाकी दृष्टि से समाचार पत्र 'सुधाकर'को हिन्दी प्रदेश का पहला पत्र कहाजाना अधिक उपयुक्त है। 1853 में यह पत्र सिर्फ हिन्दी में ही छपने लगा था।

अन्य अख़बार

'बनारस अख़बार'एवं 'सुधाकर'के बाद कुछ अन्य अख़बारों का भी प्रकाशन हुआ, जिनके नाम निम्नलिखित हैं-
  • 'मार्तण्ड' (11 जून, 1846)
  • 'ज्ञान दीपक' (1846)
  • 'जगदीपक भास्कर' (1849)
  • 'सामदण्ड मार्तण्ड' (1850)
  • 'फूलों का हार' (1850)
  • 'बुद्धिप्रकाश' (1852)
  • 'मजहरुल सरुर' (1852)
  • 'ग्वालियर गजट' (1853)
  • 'मालवा अख़बार' (1894)
मुंशी सदासुखलाल के संपादन मेंआगरासे 'बुद्धि प्रकाश'नाम का यह पत्र पत्रकारिता के दृष्टि से ही नहीं, अपितु भाषा व शैली की दृष्टि से भी ख़ास स्थान रखता है। प्रसिद्ध समालोचकआचार्यरामचंद्र शुक्लने इस पत्र की भाषा की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि "बुद्धि प्रकाश की भाषा उस समय की भाषा को देखते हुए बहुत अच्छी होती थी।"

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समाचार सुधावर्षण
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लेख का ड्राफ़्टलेख (प्रतीक्षित)
समाचार सुधावर्षणहिन्दीका प्रथम दैनिक समाचार पत्र था। इसका सम्पादन सन 1854 में श्यामसुन्दर सेन ने किया। समाचार सुधावर्षण का प्रकाशनकलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) से किया गया था।
  • इस पत्र के प्रकाशन से पूर्वहिन्दीके समाचार पत्रों की संख्या बढ़ने लगी थी और जनसमूह की दृष्टि पत्रकारिता की ओर उन्मुख होने लगी।
  • इसी समय 1854 में श्यामसुन्दर सेन ने समाचार सुधावर्षण का प्रकाशन किया।
  • समाचार सुधावर्षण द्विभाषीय समाचार पत्र था, जोहिन्दीऔरबंगला भाषामें छपता था।
  • पत्र अपनी निर्भीकता एवं प्रगतिशीलता के कारण कई बारअंग्रेज़सरकार का कोपभाजक बना।
  • 1855 में'सर्वहितकारक'आगरासे और 'प्रजा हितैषी'का प्रकाशन हुआ।
  • 'पयामे आज़ादी'1857में निकलने वाला एकमात्र समाचार पत्र था।

5

भारत जीवन

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लेख का ड्राफ़्टलेख (प्रतीक्षित)
भारत जीवनपत्र का प्रकाशन3 मार्च, 1884में किया गया। यह पत्र बाबू रामकृष्ण वर्मा द्वारा प्रकाशित किया गया था।
  • अपने प्रकाशन के समय यह पत्र चार पृष्ठ का हुआ करता था, किंतु बाद में यह आठ पृष्ठों में छपने लगा।
  • भारत जीवन पत्र का वार्षिक मूल्य डेढ़रुपयाथा।
  • यह पत्र 30 वर्षों तक प्रकाशित होता रहा।
  • यह समाचार पत्र एक दब्बू पत्र सिद्ध हुआ था। इसने कभी भी स्वाधीनतापूर्वक साहस से लेखन कार्य नहीं किया।

7

न्दोस्थान

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लेख का ड्राफ़्टलेख (प्रतीक्षित)
हिन्दोस्थानहिन्दी क्षेत्र से प्रकाशित होने वाला प्रथम सम्पूर्ण दैनिक पत्र था।
  • 1885ई. में राजा रामपाल सिंहलन्दनसे इसे 'कालाकांकर' (प्रतापगढ़) ले आए थे।
  • कालाकांकर से इस पत्र केहिन्दीऔरअंग्रेज़ीसंस्करण प्रकाशित होने लगे थे।
  • हिन्दोस्थान पत्रउत्तर प्रदेशसे स्वतंत्रता सेनानी महामनापंडित मदनमोहन मालवीयजी के संपादन में निकला गया था।
  • इस पत्र के सहयोगी के रूप में नवरतन प्रसिद्ध थे।

पन्ने की प्रगति अवस्था












टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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भारत मित्र
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लेख का ड्राफ़्टलेख (प्रतीक्षित)
भारत मित्रकलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) से प्रकाशित होने वाला समाचार पत्र था। यह समाचार पत्र17 मई, 1878को प्रकाशित किया गया था
  • भारत मित्र को जिस समय कलकत्ता में प्रकाशित किया गया, उस समय वहाँ सेहिन्दीका कोई भी पत्र प्रकाशित नहीं होता था।
  • यह समाचार पत्र बड़ा ही प्रसिद्ध और कर्मशील था।
  • इस समाचार पत्र के कुशल संपादन के कारण ही यह अच्छे पत्रों में गिना जाने लगा था।
  • पण्डित हरमुकुन्द शास्त्री भारत मित्र के पहले वैतनिक सम्पादक थे, जिन्हेंलाहौरसे बुलाया गया था।
  • यह पत्र काफ़ी लम्बे समय (37 वर्षों) तक निरंतर चलता रहा।

9
पयामे आज़ादी
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
लेख का ड्राफ़्टलेख (प्रतीक्षित)
पयामे आज़ादीफ़रवरी, 1857मेंदिल्लीसे प्रकाशित होने वाला समाचार पत्र था। इस समाचार पत्र का प्रकाशन प्रसिद्ध क्रांतिकारी अजीमुल्ला ख़ाँ ने किया था।
  • इस पत्र के प्रकाशक एवं मुद्रक नवाबबहादुरशाह जफ़रके पौत्र केदार बख़्त थे।
  • पहले यह यह समाचार पत्रउर्दूमें निकाला गया और बाद मेंहिन्दीमें भी इसका प्रकाशन हुआ।
  • पयामे आज़ादी मेंअंग्रेज़सरकार के विरुद्ध सामग्री होती थी, पत्र ने दिल्ली की जनता में स्वतंत्रता की अग्नि को फैलाया।
  • इसी पत्र मेंभारतका तत्कालीनराष्ट्रीय गीतभी छपा था, जिसकी कुछ पंक्तियाँ निम्नलिखित थीं-
"हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा।।
आज शहीदों ने तुझको, अहले वतन ललकारा।
तोड़ो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा।।"
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Copy editing vs उपसंपादक

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प्रस्तुति-- ज्योति कुमार वर्मा
आगरा
  
(Redirected from Subeditor)

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Copy editing (also copy-editing, copyediting) is the work that an editor does to improve the formatting, style, and accuracy of text. Unlike general editing, copy editing might not involve changing the content of the text. Copyrefers to written or typewritten text for typesetting, printing, publication, broadcastor other independent distribution. Copy editing is done before both typesetting and proofreading, the latter of which is the last step in the editorial cycle.
In the US and Canada, an editor who does this work is called a copy editor. An organisation's highest-ranking copy editor, or the supervising editor of a group of copy editors, may be known as the copy chief, copy desk chief, or news editor. In bookpublishingin the United Kingdom and other parts of the world that follow British nomenclature, the term copy editor is used, but in newspaperand magazinepublishing, the term is sub-editor (or the unhyphenated subeditor), commonly shortened to sub. The senior sub-editor on a title is frequently called the chief sub-editor. As the "sub" prefix suggests, copy editors typically have less authority than regular editors.[1]
The term copy editor may also be spelled as one word or in hyphenated form (copyeditor and copy-editor). The hyphenated form is especially common in the UK; in the U.S. newspaper field, use of the two-word form is more common.

Contents

Overview

The "five Cs" summarize the copy editor's job, which is to make the copy "clear, correct, concise, comprehensible, and consistent." According to one guide, copy editors should "make it say what it means, and mean what it says".[2]Typically, copy editing involves correcting spelling, punctuation, grammar, terminology, jargon, and semantics, and ensuring that the text adheres to the publisher's styleor an external style guide, such as the Chicago Manual of Style or the Associated Press Stylebook. Copy editors may shorten the text, to improve it or to fit length limits. This is particularly so in periodical publishing, where copy must be cut to fit a particular layout, and the text changed to ensure there are no "short lines".
Often, copy editors are also responsible for adding any "display copy", such as headlines, standardized headers and footers, pullquotes, and photo captions. And, although proofreading is a distinct task from copy editing, frequently it is one of the tasks performed by copy editors.
Copy editors are expected to ensure that the text flows, that it is sensible, fair, and accurate, and that any legal problems have been addressed. If a passage is unclear or an assertion seems questionable, the copy editor may ask the writer to clarify it. Sometimes, the copy editor is the only person, other than the writer, to read an entire text before publication and, for this reason, newspaper copy editors are considered the publication's last line of defense.[3]
The role of the copy editor varies considerably from one publication to another. Some newspapercopy editors select stories from wire service copy; others use desktop publishing software to do designand layoutwork that once was the province of design and production specialists.
In the setting of academic publishing, scholarly journals also employ copy editors to prepare manuscripts for publication. To distinguish themselves from copy editors working in journalism, these editors sometimes refer to themselves as manuscript editors.[4]

Changes in the field

http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/5/5a/Example_of_copyedited_manuscript.jpg/220px-Example_of_copyedited_manuscript.jpg
Example of non-professional copy editing in progress
Traditionally, the copy editor would read a printedor written manuscript, manually marking it with editor's correction marks. In large newspapers, the main copy desk was often U-shaped; the chief copy editor sat in the "slot" (the center space of the U), with junior editors arrayed around him on the outside of the U.[5]Chief copy editors are still sometimes called "the slot".[6]Today, the manuscript is more often read on a computer display and text corrections are entered directly.
The nearly universal adoption of computerised systems for editing and layout in newspapers and magazines has also led copy editors to become more involved in design and the technicalities of production. Technical knowledge is therefore sometimes considered as important as writing ability, though this is more true in journalismthan it is in book publishing. Hank Glamann, co-founder of the American Copy Editors Society, made the following observation about ads for copy editor positions at American newspapers:
We want them to be skilled grammarians and wordsmiths and write bright and engaging headlines and must know Quark. But, often, when push comes to shove, we will let every single one of those requirements slide except the last one, because you have to know that in order to push the button at the appointed time.[7]

Traits, skills, and training

Besides an excellent command of language, copy editors need broad general knowledge for spotting factual errors; good critical thinking skills in order to recognize inconsistencies or vagueness; interpersonal skills for dealing with writers, other editors and designers; attention to detail; and a sense of style. Also, they must establish priorities and balance a desire for perfection with the necessity to follow deadlines.
Many copy editors have a college degree, often in journalism, the language the text is written in, or communications. In the United States, copy editing is often taught as a college journalism course, though its name varies. The courses often include news design and pagination.
In the United States, The Dow Jones Newspaper Fund sponsors internships that include two weeks of training. Also, the American Press Institute, the Poynter Institute, the University of North Carolina at Chapel Hill, UC San Diego Extension and conferences of the American Copy Editors Society offer mid-career training for newspaper copy editors and news editors (news copy desk supervisors).
Most U.S. newspapers and publishers give copy-editing job candidates an editing test or a tryout. These vary widely and can include general items such as acronyms, current events, math, punctuation, and skills such as the use of Associated Press style, headline writing, infographicsediting, and journalism ethics.
In both the U.S. and the U.K., there are no official bodies offering a single recognized qualification.
In the U.K., several companies provide a range of courses unofficially recognised within the industry. Training may be on the job or through publishing courses, privately run seminars, or correspondence courses of the Society for Editors and Proofreaders. The National Council for the Training of Journalists also has a qualification for subeditors.

See also

Notes

2.       Julia Armstrong, "Copyediting and proofreading", University of Toronto, p. 2.
§  Peter Lyons and Howard J. Doueck, The Dissertation: From Beginning to End, Oxford University Press, 2010, p. 170.
3.       Williams, Robert H (25 April 1978). "When the 'Last Line of Defense' Failed". The Washington Post,. Retrieved 9 August 2010.
4.       Iverson, Cheryl (2004). ""Copy editor" vs. "manuscript editor" vs...: venturing onto the minefield of titles". Science Editor27 (2): 39–41. Retrieved 19 November 2013.
5.       Bill Walsh. "What's a slot man?". The Slot. Retrieved July 28, 2014.
6.       Deborah Howell (October 28, 2007). "The Power and Perils of Headlines". Washington Post. Retrieved July 28, 2014.
7.       "Workshop: Keeping your copy editors happy". The American Society of Newspaper Editors. 7 August 2002. Archived from the original on 7 February 2006. Retrieved 2 January 2009.

References

External links

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