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टेलीविजन प्रोडक्शन: अंधेरी सुरंग में जलती मशाल

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प्रस्तुति- राकेश मानव


अवधेश कुमार यादव/ टेलीविजन को भले ही ‘बुद्धूबक्शा‘ कहा जाता है, लेकिन सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का पिछला 22 बरस इसके नाम रहा है। इस द्श्य-श्रव्य माध्यम ने अपने चमक और दमक के दम पर न केवल समाज में बदलते मूल्यों व संदर्भो को प्रतिष्ठापित किया है, बल्कि मानव जीवन को अर्थपूर्ण बनाने में अग्रणी भूमिका का निर्वह्न भी किया है। यहीं कारण है कि हिन्दी व अन्य प्रांतीय भाषाओं में टेलीविजन से जुड़ी विविध जानकारी देने वाली पुस्तकों का अभाव होने के बावजूद वर्तमान समय में देश के विभिन्न महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में टेलीविजन पाठ्यक्रमों का लगातार विकास हो रहा है। इस संदर्भ में कुछ पुस्तकें उपलब्ध भी हैं तो उनमें टेलीविजन के ऐतिहासिक परिपेक्ष्यों तक सीमित ज्ञान ही हैं। किसी ने टेलीविजन के व्यावहारिक पक्षों को छुने का प्रयास तक नहीं किया है। ऐसे में झारखण्ड केंद्रीय विश्वविद्यालय, रांची के एसोसिएट प्रोफेसर डा. देवव्रत सिंह की नई पुस्तक ‘टेलीविजन प्रोडक्शन‘ अंधेरी सुरंग में जलती मशाल की तरह है।
टेलीविजन की चमक कहें या समय की जरूरत... इससे सम्बन्धित पाठ्यक्रमों में विद्यार्थियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसकी व्यावहारिकता को डा. देवव्रत सिंह ने अपने 18 सालों के कैरियर में काफी नजदिक से देखने व परखने के बाद पुस्तक के रूप में लिखने का सार्थक प्रयास किया है, जो स्वागत योग्य है। इस पुस्तक की पाठ्य सामग्री कुल चैदह अध्यायों में विभाजित है। पहला अध्याय-कार्यक्रम निर्माण है, जिसके अंतर्गत नया आइडिया, नये आइडिये का निर्माण, टेलीविजन कार्यक्रम प्रस्तावना का निर्माण, टेलीविजन निर्माण प्रक्रिया और टेलीविजन निर्माण के मूल तत्व इत्यादि के बारे में बताया गया है।
अध्याय-दो का मुख्य शीर्षक प्रोडक्शन टीम है, जिसमें टेलीविजन निर्माण टीम के सदस्य और उनकी जिम्मेदारी का वर्णन किया गया है। अध्याय-तीन फोटोग्राफी से सम्बन्धित है, जिसमें फोटोग्राफी तकनीकी के उद्भव, कैमरे की बनावट, फोटोग्राफी लैंस के प्रकार, फोटोग्राफी एवं प्रकाश का महत्व, डिजीटल फोटोग्राफी इत्यादि की विस्तृत जानकारी दी गई है।
अध्याय-चार में वीडियो कैमरा का परिचय कराया गया है तथा वीडियो कैमरे की तकनीकी, वीडियो कैमरे के अंग, कैमरा कंट्रोल यूनिट, कैमरा माउंटिंग, कैमरा माउंटिंग के प्रकार, वीडियो कैमरा के प्रकार आदि के बारे में बताा गया है। अध्याय-पांच वीडियो कैमरा संचालन से सम्बन्धित है। इस अध्याय में प्रमुख शाॅट, शाॅट कंपोजिशन के सिद्धांत, विभिन्न शाॅट की उपयोगिता, कैमरा मूवमेंट की व्याख्या की गई है। अध्याय-छह में आडियो शीर्षक के अंतर्गत ध्वनि की प्रकृति, ध्वनि के प्रकार, टेलीविजन निर्माण में ध्वनि का महत्व, माइक्रोफोन की संरचना एवं प्रकार, माइक्रोफोन का प्रयोग इत्यादि का वर्णन किया गया है।
अध्याय-सात में लाइटिंग, अध्याय-आठ में टेलीविजन समाचार लेखन, अध्याय-नौ में वृत्तचित्र आलेख लेखन, अध्याय-दस में टेलीविजन समाचार निर्माण, अध्याय-ग्यारह में टेलीविजन रिपोटिंग, अध्याय-बारह में वीडियो संपादन, अध्याय-तेरह में ग्राफिक्स, मेकअप और सैट डिजाइन और अध्याय-चैदह में टेलीविजन प्रस्तुतिकरण के विविध पहलूओं पर विस्तृत पूर्वक चर्चा की गई है। 
इस पुस्तक में विद्यार्थियों की सुविधा व सहुलियत के हिसाब से स्थान-स्थान पर चित्रों का प्रयोग कर जटिल जानकारी को सामान्य तरीके से समझाने और बताने का प्रयास किया गया है। सभी अध्यायों के अंत में महत्वपूर्ण प्रश्न और अभ्यास कार्य हैं। इससे पुस्तक की महत्ता स्वतः सिद्ध हो जाती है। कहने का तात्पर्य है कि पुस्तक में केवल सैद्धांतिक पक्षों का वर्णन कर पाठ्य सामग्री को बोझिल नहीं बनाया गया, बल्कि व्यवहारिक पक्षों का उल्लेख कर अनुपयोगी बनाने का प्रयास भी किया गया है। इस कार्य को डा. देवव्रत सिंह ने बड़ी सहजता और सरलता पूर्वक कर लिया है, क्योंकि उन्होंने टेलीविजन इंटरनेशनल (टी.वी.आई.), जी न्यूज तथा एशिया न्यूज इंटरनेशनल (ए.एन.आई.) में विभिन्न पदों पर व्यवहारिक प्रशिक्षण के साथ ‘टेलीविजन चैनलों की विषय वस्तु‘ पर डाक्टरेट उपाधि हासिल की है। पुस्तक के प्रारंभ में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला का आमुख प्रकाशित है, जिसमें पुस्तक को इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के विद्यार्थियों और अध्येताओं (विशेषकर टेलीविजन प्रोडक्शन) के लिए उपयोगी बताया गया है, लेकिन पुस्तक में लेखक की कलम से प्रस्तावना या प्राक्कथन का अभाव है, जिसकी कमी गंभीर पाठकों को सदैव खलती रहेगी।
पुस्तक की भाषा सरल व सुस्पष्ट है। टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में प्रयोग होने वाले बहुचर्चित तथा तकनीकी शब्दों को ज्यों का त्यों हिन्दी भाषा में लिख दिया गया है। पुस्तक पढ़ने समय किसी कार्यशाला में उपस्थित होने जैसा आभास होता है। 
पुस्तक : टेलीविजन प्रोडक्शन                                      
लेखक : डा. देवव्रत सिंह
प्रकाशक : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्र्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल-462011
मूल्य : 175/-
पृष्ठ : 167
(समीक्षक उच्चतर शिक्षा विभाग, हिमाचल प्रदेश में पत्रकारिता एवं जनसंचार के सहायक प्रोफेसर हैं )

हिन्दी पत्रकारिता

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हिन्दी पत्रकारिताकी कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित् इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्ठा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य ‘भारतमित्र’ (सन् 1878 ई, में) ‘सार सुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और ‘उचित वक्ता’ (सन् 1880 ई.) के जीर्ण पृष्ठों पर मुखर है।
वर्तमान में हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का झण्डा चंहुदिश लहरा रहा है।

भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का आरम्भ और हिन्दी पत्रकारिता

भारतवर्षमें आधुनिक ढंग की पत्रकारिताका जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबईऔर मद्रासमें हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके (Hickey) का "कलकत्ता गज़ट"कदाचित् इस ओर पहला प्रयत्न था। हिंदीके पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन अंग्रेजीपत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी।
इन अंतिम वर्षों में फारसी भाषामें भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था। 18वीं शताब्दी के फारसी पत्र कदाचित् हस्तलिखित पत्र थे। 1801 में 'हिंदुस्थान इंटेलिजेंस ओरिऐंटल ऐंथॉलॉजी' (Hindusthan Intelligence Oriental Anthology) नाम का जो संकलन प्रकाशित हुआ उसमें उत्तर भारत के कितने ही "अखबारों"के उद्धरण थे। 1810 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र "हिंदोस्तानी"प्रकाशित करना आरंभ किया। 1816 में गंगाकिशोर भट्टाचार्य ने "बंगाल गजट"का प्रवर्तन किया। यह पहला बंगला पत्र था। बाद में श्रीरामपुरके पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र "समाचार दर्पण"को (27 मई 1818) जन्म दिया। इन प्रारंभिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बँगला भाषाके 'समाचारचंद्रिका'और "संवाद कौमुदी", फारसी उर्दू के "जामे जहाँनुमा"और "शमसुल अखबार"तथा गुजराती के "मुंबई समाचार"के दर्शन होते हैं।
यह स्पष्ट है कि हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्ली का "उर्दू अखबार" (1833) और मराठीका "दिग्दर्शन" (1837) हिंदी के पहले पत्र "उदंत मार्तंड" (1826) के बाद ही आए। "उदंत मार्तंड"के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह साप्ताहिक पत्र था। पत्र की भाषा पछाँही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के संपादकों ने "मध्यदेशीय भाषा"कहा है। यह पत्र 1827 में बंद हो गया। उन दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलना असंभव था। कंपनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी "उदंत मार्तंड"को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी।

हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण

1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेन्दुने "हरिश्चंद्र मैगजीन"की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र "हरिश्चंद्र चंद्रिका"नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेन्दु का "कविवचन सुधा"पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था; परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में "हरिश्चंद्र मैगजीन"से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। "उदंत मार्तंड"के बाद प्रमुख पत्र हैं :
बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872) और बोधा समाचार (1872)।
इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था "समाचार सुधावर्षण"जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में "बनारस अखबार" (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक "सुधाकर"और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से "प्रजाहितैषी"का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसादका "बनारस अखबार"उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष 'कवि वचनसुधा'का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेन्दु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि "हरिश्चंद्र मैगजीन"के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।

हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग : भारतेन्दु युग

हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेन्दु का "हरिश्चंद्र मैगजीन"था ओर नागरीप्रचारिणी सभाद्वारा अनुमोदनप्राप्त "सरस्वती"। इन 27 वर्षों में प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परंतु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में "विचारपत्र"ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेन्दु की पत्रकारिता थी। "कविवचनसुधा" (1867), "हरिश्चंद्र मैगजीन" (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका" (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिक, 1874) के रूप में भारतेन्दु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा"के "पंच"पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेन्दु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेन्दु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया।"हिंदी प्रदीप", "भारतजीवन"आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।

भारतेन्दु के बाद

भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्मा, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी "प्रेमधन" (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेन्दु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891) और बाबू देवकीनंदन खत्रीएवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894)। 1895 ई. में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका"का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में "सरस्वती"और "सुदर्शन"के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।
इन 25 वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेन्दु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही "बालाबोधिनी" (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं - "भारतभगिनी" (हरदेवी, 1888), "सुगृहिणी" (हेमंतकुमारी, 1889)। इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाजऔर सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुरजैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों में ही पाते हैं। आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हिन्दी की गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।
आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से "हिंदी प्रदीप" (1877), ब्राह्मण (1883), क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेन्दु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894) और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही।

तीसरा चरण : बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस वर्ष

बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित "सरस्वती" (1903-1918) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए - जैसे उपन्यास 1901, हिंदी नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 19012। केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में "समालोचक" (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित "इतिहास" (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। परंतु सरस्वती ने "मिस्लेनी" () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे "भारतेन्दु" (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बाँकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1910) और इंदु (1909)। "सरस्वती"और "इंदु"दोनों हिन्दी की साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं। "सरस्वती"के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीऔर "इंदु"के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।
परंतु राजनीतिक क्षेत्र में हिन्दी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं हो सका। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। परंतु कलकत्ता हिंदी प्रदेश से दूर पड़ता था और स्वयं हिंदी प्रदेश को राजनीतिक दिशा में जागरूक नेतृत्व कुछ देर में मिला। हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय "हिंदुस्तान" (1883) है जो अंग्रेजी और हिंदी में कालाकाँकर से प्रकाशित होता था। दो वर्ष बाद (1885 में), बाबू सीताराम ने "भारतोदय"नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक विचारधारा का वाहन बनना पड़ा। वास्तव में उन्नीसवीं शतब्दी में कलकत्ता के भारत मित्र, वंगवासी, सारसुधानिधि और उचित वक्ता ही हिंदी प्रदेश की रानीतिक भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें कदाचित् "भारतमित्र"ही सबसे अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल और महाराष्ट्र लोक जाग्रति के केंद्र थे और उग्र राष्ट्रीय पत्रकारिता में भी ये ही प्रांत अग्रणी थे। हिंदी प्रदेश के पत्रकारों ने इन प्रांतों के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया और बहुत दिनों तक उनका स्वतंत्र राजनीतिक व्यक्तित्व विकसित नहीं हो सका। फिर भी हम "अभ्युदय" (1905), "प्रताप" (1913), "कर्मयोगी", "हिंदी केसरी" (1904-1908) आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं। प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से "कलकत्ता समाचार", "स्वतंत्र"और "विश्वमित्र"प्रकाशित हुए, बंबई से "वेंकटेश्वर समाचार"ने अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से "विजय"निकला। 1921 में काशी से "आज"और कानपुर से "वर्तमान"प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। फलत: बीसवीं शती के पहले बीस वर्षों को हम हिंदी पत्रकारिता का तीसरा चरण कह सकते हैं।

आधुनिक युग

1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे। फलत: साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्व पाने लगे। 1921 के बाद गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुंच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हिन्दी पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।
1921 के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं-
स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा, चाँद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशालभारत (1928), त्यागभूमि (1928), हंस (1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश (1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवनसाहित्य (1940), विश्वभारती (1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945), हिमालय (1946) आदि।
वास्तव में आज हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आई और अनेक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। आज हमारे मासिक पत्र जीवन और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी ध्यान जाने लगा है। साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। वहाँ हमें साहित्य का सक्रिय, सप्राण, गतिशील रूप प्राप्त होता है।
राजनीतिक क्षेत्र में इस युग में जिन पत्रपत्रिकाओं की धूम रही वे हैं -
कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925), हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929), सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932), विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत (1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति (1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943), लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942) और सन्मार्ग (1943), जनवार्ता (१९७२)।
इनमें से अधिकांश साप्ताहिक हैं, परंतु जनमन के निर्माण में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का संबंध है वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चौथे युग के पत्रों में धरती और आकाश का अंतर है। आज पत्रसंपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला है। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में "आज" (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि "आज"ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्रसंपादक और पत्रकार दिए हैं।
आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हिन्दी पत्रकारिता भी नई कोटि की है और उसमें भी मुख्यत: हमारे मध्यवित्त वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक औ राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिंब भास्वर है। वास्तव में पिछले २०० वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्रपत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बँगला के "कलेर कथा"ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है। हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। एक तरह से उन्नीसवीं शती में साहित्य कही जा सकनेवाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही पहले-पहल सामने आई है। भाषाशैली के निर्माण और जातीय शैली के विकास में पत्रों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, परंतु बीसवीं शती के पहले दो दशकों के अंत तक मासिक पत्र और साप्ताहिक पत्र ही हमारी साहित्यिक प्रवृत्तियों को जन्म देते और विकसित करते रहे हैं। द्विवेदी युगके साहित्य को हम "सरस्वती"और "इंदु"में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं, वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ पत्रपत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परंतु फिर भी विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्रपत्रिकाएँ हैं ही। वस्तुत: पत्रपत्रिकाएँ जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है।

१९९० के बाद

90 के दशक में भारतीय भाषाओं के अखबारों, हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में अमर उजाला, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण आदि के नगरों-कस्बों से कई संस्करण निकलने शुरू हुए। जहां पहले महानगरों से अखबार छपते थे, भूमंडलीकरण के बाद आयी नयी तकनीक, बेहतर सड़क और यातायात के संसाधनों की सुलभता की वजह से छोटे शहरों, कस्बों से भी नगर संस्करण का छपना आसान हो गया। साथ ही इन दशकों में ग्रामीण इलाकों, कस्बों में फैलते बाजार में नयी वस्तुओं के लिए नये उपभोक्ताओं की तलाश भी शुरू हुई। हिंदी के अखबार इन वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का एक जरिया बन कर उभरा है। साथ ही साथ अखबारों के इन संस्करणों में स्थानीय खबरों को प्रमुखता से छापा जाता है। इससे अखबारों के पाठकों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है। मीडिया विशेषज्ञ सेवंती निनान ने इसे 'हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार'कहा है। वे लिखती हैं, “प्रिंट मीडिया ने स्थानीय घटनाओं के कवरेज द्वारा जिला स्तर पर हिंदी की मौजूद सार्वजनिक दुनिया का विस्तार किया है और साथ ही अखबारों के स्थानीय संस्करणों के द्वारा अनजाने में इसका पुनर्विष्कार किया है।
1990 में राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षणकी रिपोर्ट बताती थी कि पांच अगुवा अखबारों में हिन्दी का केवल एक समाचार पत्र हुआ करता था। पिछले (सर्वे) ने साबित कर दिया कि हम कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं। इस बार (२०१०) सबसे अधिक पढ़े जाने वाले पांच अखबारों में शुरू के चार हिंदी के हैं।
एक उत्साहजनक बात और भी है कि आईआरएस सर्वे में जिन 42 शहरों को सबसे तेजी से उभरता माना गया है, उनमें से ज्यादातर हिन्दी हृदय प्रदेश के हैं। मतलब साफ है कि अगर पिछले तीन दशक में दक्षिण के राज्यों ने विकास की जबरदस्त पींगें बढ़ाईं तो आने वाले दशक हम हिन्दी वालों के हैं। ऐसा नहीं है कि अखबार के अध्ययन के मामले में ही यह प्रदेश अगुवा साबित हो रहे हैं। आईटी इंडस्ट्री का एक आंकड़ा बताता है कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं में नेट पर पढ़ने-लिखने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है।
मतलब साफ है। हिन्दी की आकांक्षाओं का यह विस्तार पत्रकारों की ओर भी देख रहा है। प्रगति की चेतना के साथ समाज की निचली कतार में बैठे लोग भी समाचार पत्रों की पंक्तियों में दिखने चाहिए। पिछले आईएएस, आईआईटी और तमाम शिक्षा परिषदों के परिणामों ने साबित कर दिया है कि हिन्दी भाषियों में सबसे निचली सीढ़ियों पर बैठे लोग भी जबरदस्त उछाल के लिए तैयार हैं। हिन्दी के पत्रकारों को उनसे एक कदम आगे चलना होगा ताकि उस जगह को फिर से हासिल सकें, जिसे पिछले चार दशकों में हमने लगातार खोया।

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नूर इनायत ख़ान
नूर इनायत ख़ानभारतीयमूल की ब्रिटिशगुप्तचरथीं, जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्धके दौरान मित्र देशोंके लिए जासूसी की। ब्रिटेन के स्पेशल ऑपरेशंस एक्जीक्यूटिव के रूप में प्रशिक्षित नूर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांसके नाज़ी अधिकार क्षेत्र में जाने वाली पहली महिला वायरलेस ऑपरेटर थीं। जर्मनीद्वारा गिरफ्तार कर यातना दिए जाने और गोली मारकर उनकी हत्या किए जाने से पहले द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वे फ्रांस में एक गुप्त अभियान के अंतर्गत नर्स का काम करती थीं। फ्रांस में उनके इस कार्यकाल तथा उसके बाद आगामी 10 महीनों तक उन्हें यातना दी गई और पूछताछ की गयी, किन्तु पूछताछ करने वाले नाज़ी जर्मनीकी खुफिया पुलिस गेस्टापो द्वारा उनसे कोई राज़ नहीं उगलवाया जा सका। उनके बलिदान और साहस की गाथा युनाइटेड किंगडमऔर फ्रांस में प्रचलित है। उनकी सेवाओं के लिए उन्हें युनाइटेड किंगडम एवं अन्य राष्ट्रमंडल देशोंके सर्वोच्च नागरिक सम्मान जॉर्ज क्रॉससे सम्मानित किया गया। उनकी स्मृति में लंदनके गॉर्डन स्क्वेयर में स्मारक बनाया गया है, जो इंग्लैण्डमें किसी मुसलमानको समर्पित और किसी एशियाईमहिला के सम्मान में इस तरह का पहला स्मारक है। विस्तार से पढ़ें...

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याकएक पशु है जो तिब्बत के ठण्डे तथा वीरान पठार, नेपाल और भारत के उत्तरी क्षेत्रों में पाया जाता है।

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बज्जिका भाषा बिहार और निकटवर्ती क्षेत्रों में प्रचलित है।
बज्जिकामुख्यतः बिहारमें तिरहुतप्रमंडल के चार जिले शिवहर, सीतामढी,मुजफ्फरपुर, वैशालीएवं दरभंगाप्रमंडल के समस्तीपुरएवं मधुबनीजिला के पश्चिमी भाग में बोली जाने वली एक भाषा है। भारतमें २००१ की जनगणना के अनुसार इन जिलों के लगभग १ करोड़ १५ लाख लोग बज्जिका बोलते हैं। नेपालके रौतहट एवं सरलाही जिला एवं उसके आस-पास के तराई क्षेत्रों में बसने वाले लोग भी बज्जिका बोलते हैं। वर्ष २००१ के सर्वेक्षण के अनुसार नेपाल में २,३८,००० लोग बज्जिका बोलते है। उत्तर बिहारमें बोली जाने वाली दो अन्य भाषाएँ भोजपुरीएवं मैथिलीके बीच के क्षेत्रों में बज्जिका सेतु रुप में बोली जाती है। विस्तार में...

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राष्ट्रीय प्रेस दिवस

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प्रस्तुति-- सजीली सहाय, हिमानी सिंह


राष्ट्रीय प्रेस दिवस
राष्ट्रीय प्रेस दिवस
विवरण'राष्ट्रीय प्रेस दिवस'भारतमें मनाये जाने वाले राष्ट्रीय दिवसों में से एक है। यह दिन एक स्वतंत्र और जिम्मेदार प्रेस की मौजूदगी का प्रतीक है।
देशभारत
तिथि16 नवम्बर
शुरुआत16 नवम्बर, 1966
उद्देश्य'राष्ट्रीय प्रेस दिवस'पत्रकारों को सशक्त बनाने के उद्देश्य से स्वयं को फिर से समर्पित करने का अवसर प्रदान करता है।
संबंधित लेखपत्रकारिता, समाचार पत्र, भारत में समाचार पत्रों का इतिहास, वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट
अन्य जानकारी4 जुलाई, 1966को भारतमें प्रेस परिषद की स्थापना की गई थी, जिसने 16 नवम्बर, 1966से अपना विधिवत कार्य शुरू किया था। तभी से 16 नवम्बर को 'राष्ट्रीय प्रेस दिवस'के रूप में मनाया जाता है।
राष्ट्रीय प्रेस दिवस (अंग्रेज़ी: National Press Day) प्रत्येक वर्ष'16 नवम्बर'को मनाया जाता है। यह दिन भारतमें एक स्वतंत्र और जिम्मेदार प्रेस की मौजूदगी का प्रतीक है। विश्व में आज लगभग 50 देशों में प्रेस परिषद या मीडिया परिषद है। भारत में प्रेस को 'वाचडॉग'एंव प्रेस परिषद इंडिया को 'मोरल वाचडॉग'कहा गया है। राष्ट्रीय प्रेस दिवस, प्रेस की स्वतंत्रता एंव जिम्मेदारियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है।

शुरुआत

प्रथम प्रेस आयोग ने भारतमें प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा एंव पत्रकारितामें उच्च आदर्श कायम करने के उद्देश्य से एक प्रेस परिषद की कल्पना की थी। परिणाम स्वरूप 4 जुलाई, 1966को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई, जिसने 16 नवम्बर, 1966 से अपना विधिवत कार्य शुरू किया। तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष 16 नवम्बर को 'राष्ट्रीय प्रेस दिवस'के रूप में मनाया जाता है।

उद्देश्य

'राष्ट्रीय प्रेस दिवस'पत्रकारों को सशक्त बनाने के उद्देश्य से स्वयं को फिर से समर्पित करने का अवसर प्रदान करता है।

पत्रकारिता का क्षेत्र

वर्तमान समय में पत्रकारिता का क्षेत्र व्यापक हो गया है। पत्रकारिता जन-जन तक सूचनात्मक, शिक्षाप्रद एवं मनोरंजनात्मक संदेश पहुँचाने की कला एंव विधा है। समाचार पत्रएक ऐसी उत्तर पुस्तिका के समान है, जिसके लाखों परीक्षक एवं अनगिनत समीक्षक होते हैं। अन्य माध्यमों के भी परीक्षक एंव समीक्षक उनके लक्षित जनसमूह ही होते हैं। तथ्यपरकता, यथार्थवादिता, संतुलन एंव वस्तुनिष्ठता इसके आधारभूत तत्व है। परंतु इनकी कमियाँ आज पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत बड़ी त्रासदी साबित होने लगी हैं। पत्रकार चाहे प्रशिक्षित हो या गैर प्रशिक्षित, यह सबको पता है कि पत्रकारिता में तथ्यपरकता होनी चाहिए। परंतु तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर, बढ़ा-चढ़ा कर या घटाकर सनसनी बनाने की प्रवृति आज पत्रकारितामें बढ़ने लगी है।[1]

खबरों में निहित स्वार्थ

खबरों में पक्षधरता एवं अंसतुलन भी प्रायः देखने को मिलता है। इस प्रकार खबरों में निहित स्वार्थ साफ झलकने लग जाता है। आज समाचारों में विचार को मिश्रित किया जा रहा है। समाचारों का संपादकीयकरण होने लगा है। विचारों पर आधारित समाचारों की संख्या बढ़ने लगी है। इससे पत्रकारिता में एक अस्वास्थ्यकर प्रवृति विकसित होने लगी है। समाचार विचारों की जननी होती है। इसलिए समाचारों पर आधारित विचार तो स्वागत योग्य हो सकते हैं, परंतु विचारों पर आधारित समाचार अभिशाप की तरह है।

मीडिया तथा समाज

पत्रकारिताआज़ादी से पहले एक मिशन थी। आज़ादी के बाद यह एक प्रोडक्शन बन गई। बीच में आपात काल के दौरान जब प्रेस पर सेंसर लगा था, तब पत्रकारिता एक बार फिर थोड़े समय के लिए भ्रष्टाचार मिटाओं अभियान को लेकर मिशन बन गई थी। धीरे-धीरे पत्रकारिता प्रोडक्शन से सेन्सेशन एवं सेन्सेशन से कमीशन बन गई है। परंतु इन तमाम सामाजिक बुराइयों के लिए सिर्फ मीडिया को दोषी ठहराना उचित नहीं है। जब गाड़ी का एक पुर्जा टूटता है तो दूसरा पुर्जा भी टूट जाता है और धीरे-धीरे पूरी गाड़ी बेकार हो जाती है। समाज में कुछ ऐसी ही स्थिति लागू हो रही है। समाज में हमेशा बदलाव आता रहता है। विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं। ऐसी अवस्था में समाज असमंजस की स्थिति में आ जाता है। इस स्थिति में मीडिया समाज को नई दिशा देता है। मीडिया समाज को प्रभावित करता है, लेकिन कभी-कभी येन-केन प्रकारेण मीडिया समाज से प्रभावित होने लगता है।[1]

मीडिया 'समाज का दर्पण एवं दीपक'

मीडिया को 'समाज का दर्पण एवं दीपक'दोनों माना जाता है। इनमें जो समाचार मीडिया है, चाहे वे समाचार पत्रहों या समाचार चैनल, उन्हें मूलतः समाज का दर्पण माना जाता है। दर्पण का काम है समतल दर्पण की तरह काम करना, ताकि वह समाज की हू-ब-हू तस्वीर समाज के सामने पेश कर सकें। परंतु कभी-कभी निहित स्वार्थों के कारण ये समाचार मीडिया समतल दर्पण की जगह उत्तल या अवतल दर्पण की तरह काम करने लग जाते हैं। इससे समाज की उल्टी, अवास्तविक, काल्पनिक एवं विकृत तस्वीर भी सामने आ जाती है। तात्पर्य यह है कि खोजी पत्रकारिता के नाम पर आज पीली व नीली पत्रकारिता हमारे कुछ पत्रकारों के गुलाबी जीवन का अभिन्न अंग बनती जा रही है। भारतीय प्रेस परिषद ने अपनी रिपोर्ट में कहा भी है कि "भारतमें प्रेस ने ज्यादा गलतियाँ की है एंव अधिकारियों की तुलना में प्रेस के ख़िलाफ़ अधिक शिकायतें दर्ज हैं।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.01.1राष्ट्रीय प्रेस दिवस : 16 नवम्बर(हिन्दी)वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 05 नवम्बर, 2014।

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अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस

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 प्रस्तुति-- स्वामी शरण, राकेश मानव,



अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस
अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस
विवरण'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस''3 मईको मनाया जाता है। मीडिया की आज़ादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है।
तिथि'3 मई'
शुरुआतइस दिवस को मनाने का निर्णय वर्ष1991में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के 'जन सूचना विभाग'ने मिलकर किया था।
विशेष'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस'प्रेस की स्वतंत्रता का मूल्यांकन, प्रेस की स्वतंत्रता पर बाहरी तत्वों के हमले से बचाव और प्रेस की सेवा करते हुए दिवंगत हुए संवाददाताओं को श्रद्धांजलि देने का दिन है।
संबंधित लेखपत्रकारिता, भारत में समाचार पत्रों का इतिहास
अन्य जानकारीसमूचे विश्व में सूचना तक सुलभ पहुंच के बारे में बढ़ती चिंता को देखते हुए 'भारतीय संसद'द्वारा 2005में पास किया गया 'सूचना का अधिकार क़ानून'बहुत महत्‍वपूर्ण हो गया है। इस क़ानून में सरकारी सूचना के लिए नागरिक के अनुरोध का निश्चित समय के अंदर जवाब देना बहुत जरूरी है।
अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवसप्रत्येक वर्ष '3 मईको मनाया जाता है। प्रेस किसी भी समाज का आइना होता है। प्रेस की आज़ादी से यह बात साबित होती है कि उस देश में अभिव्यक्ति की कितनी स्वतंत्रता है। भारतजैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता एक मौलिक जरूरत है। आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहाँ अपनी दुनिया से बाहर निकल कर आसपास घटित होने वाली घटनाओं के बारे में जानने का अधिक वक्त हमारे पास नहीं होता। ऐसे में प्रेस और मीडिया हमारे लिए एक खबर वाहक का काम करती हैं, जो हर सवेरे हमारी टेबल पर गरमा गर्म खबरें परोसती हैं। यही खबरें हमें दुनिया से जोड़े रखती हैं। आज प्रेस दुनिया में खबरें पहुंचाने का सबसे बेहतरीन माध्यम है।

शुरुआत

'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस'मनाने का निर्णय वर्ष1991में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के 'जन सूचना विभाग'ने मिलकर किया था। इससे पहले नामीबियामें विन्डंहॉक में हुए एक सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था कि प्रेस की आज़ादी को मुख्य रूप से बहुवाद और जनसंचार की आज़ादी की जरूरत के रूप में देखा जाना चाहिए। तब से हर साल '3 मई'को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वीतंत्रता दिवस'के रूप में मनाया जाता है।

प्रेस की आज़ादी

'संयुक्ते राष्ट्र महासभा'ने भी '3 मई'को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वातंत्रता'की घोषणा की थी। यूनेस्को महासम्मेलन के 26वें सत्र में 1993में इससे संबंधित प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था। इस दिन के मनाने का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार के उल्लघंनों की गंभीरता के बारे में जानकारी देना है, जैसे- प्रकाशनों की कांट-छांट, उन पर जुर्माना लगाना, प्रकाशन को निलंबित कर‍ देना और बंद कर‍ देना आदि। इनके अलावा पत्रकारों, संपादकों और प्रकाशकों को परेशान किया जाता है और उन पर हमले भी किये जाते हैं। यह दिन प्रेस की आज़ादी को बढ़ावा देने और इसके लिए सार्थक पहल करने तथा दुनिया भर में प्रेस की आज़ादी की स्थिति का आकलन करने का भी दिन है। अधिक व्यावहारिक तरीके से कहा जाए, तो प्रेस की आज़ादी या मीडिया की आज़ादी, विभिन्न इलैक्ट्रोनिक माध्यमों और प्रकाशित सामग्री तथा फ़ोटोग्राफ़ वीडियो आदि के जरिए संचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी है। प्रेस की आज़ादी का मुख्य रूप से यही मतलब है कि शासन की तरफ से इसमें कोई दख़लंदाजी न हो, लेकिन संवैधानिक तौर पर और अन्य क़ानूनी प्रावधानों के जरिए भी प्रेस की आज़ादी की रक्षा जरूरी है।[1]
मीडिया की आज़ादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। इस आज़ादी में बिना किसी दख़लंदाजी के अपनी राय कायम करने तथा किसी भी मीडिया के जरिए, चाहे वह देश की सीमाओं से बाहर का मीडिया हो, सूचना और विचार हासिल करने और सूचना देने की आज़ादी शामिल है। इसका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के 'अनुछेद 19'में किया गया है। 'सूचना संचार प्रौद्योगिकी'तथा सोशल मीडिया के जरिए थोड़े समय के अंदर अधिक से अधिक लोगों तक सभी तरह की महत्वपूर्ण ख़बरें पहुंच जाती हैं। यह समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि सोशल मीडिया की सक्रियता से इसका विरोध करने वालों को भी स्वयं को संगठित करने के लिए बढ़ावा मिला है और दुनिया भर के युवा लोग अपनी अभिव्यक्ति के लिए और व्यापक रूप से अपने समुदायों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करने लगे हैं। इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि मीडिया की आज़ादी बहुत कमज़ोर है। यह भी जानना जरूरी है कि अभी यह सभी की पहुंच से बाहर है। हालांकि मीडिया की सच्ची आज़ादी के लिए माहौल बन रहा है, लेकिन यह भी ठोस वास्तविकता है कि दुनिया में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी पहुंच बुनियादी संचार प्रौद्योगिकी तक नहीं है। जैसे-जैसे इंटरनेट पर ख़बरों और रिपोर्टिंग का सिलसिला बढ़ रहा है, ब्लॉग लेखकों सहित और अधिक इंटरनेट पर पत्रकारों को परेशान किया जा रहा है और हमले किये जा रहे हैं।

भारत में प्रेस की स्थिति

भारतजैसे विकासशील देशों में मीडिया पर जातिवाद और सम्‍प्रदायवाद जैसे संकुचित विचारों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने और ग़रीबी तथा अन्‍य सामाजिक बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ाई में लोगों की सहायता करने की बहुत बड़ी जिम्‍मेदारी है, क्‍योंकि लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग पिछड़ा और अनभिज्ञ है, इसलिये यह और भी जरूरी है कि आधुनिक विचार उन तक पहुंचाए जाएं और उनका पिछड़ापन दूर किया जाए, ताकि वे सजग भारत का हिस्‍सा बन सकें। इस दृष्टि से मीडिया की बहुत बड़ी जिम्‍मेदारी है।[1]भारत में संविधानके अनुच्‍छेद 19 (1 ए) में "भाषण और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अधिकार"का उल्‍लेख है, लेकिन उसमें शब्‍द 'प्रेस'का ज़िक्र नहीं है, किंतु उप-खंड (2) के अंतर्गत इस अधिकार पर पाबंदियां लगाई गई हैं। इसके अनुसार भारत की प्रभुसत्ता और अखंडता, राष्‍ट्र की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्री संबंधों, सार्वजनिक व्‍यवस्‍था, शालीनता और नैतिकता के संरक्षण, न्‍यायालय की अवमानना, बदनामी या अपराध के लिए उकसाने जैसे मामलों में अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर पाबंदियां लगाई जा सकती हैं।

सूचना का अधिकार क़ानून

समूचे विश्व में सूचना तक सुलभ पहुंच के बारे में बढ़ती चिंता को देखते हुए 'भारतीय संसद'द्वारा 2005में पास किया गया 'सूचना का अधिकार क़ानून'बहुत महत्‍वपूर्ण हो गया है। इस क़ानून में सरकारी सूचना के लिए नागरिक के अनुरोध का निश्चित समय के अंदर जवाब देना बहुत जरूरी है। इस क़ानून के प्रावधानों के अंतर्गत कोई भी नागरिक सार्वजनिक अधिकरण (सरकारी विभाग या राज्‍य की व्‍यवस्‍था) से सूचना के लिए अनुरोध कर सकता है और उसे 30 दिन के अंदर इसका जवाब देना होता है। क़ानून में यह भी कहा गया है कि सरकारी विभाग व्‍यापक प्रसारण के लिए अपने आँकड़ों तथा दस्तावेज़ों का कम्‍प्‍यूटरीकरण करेंगे और कुछ विशेष प्रकार की सूचनाओं को प्रकाशित करेंगे, ताकि नागरिकों को औपचारिक रूप से सूचना न मांगनी पड़े। संसदमें 15 जून, 2005को यह क़ानून पास कर दिया था, जो 13 अक्टूबर, 2005से पूरी तरह लागू हो गया।[1]
संक्षेप में, यह क़ानून प्रत्‍येक नागरिक को सरकार से सवाल पूछने, या सूचना हासिल करने, किसी सरकारी दस्‍तावेज़ की प्रति मांगने, किसी सरकारी दस्‍तावेज़ का निरीक्षण करने, सरकार द्वारा किये गए किसी काम का निरीक्षण करने और सरकारी कार्य में इस्‍तेमाल सामग्री के नमूने लेने का अधिकार देता है। 'सूचना का अधिकार क़ानून'एक मौलिक मानवाधिकार है, जो मानव विकास के लिए महत्वपूर्ण‍ है तथा अन्‍य मानवाधिकारों को समझने के लिए पहली जरूरत है। पिछले 7 वर्षों के अनुभव से, जब से यह क़ानून लागू हुआ है, पता चलता है कि सूचना का अधिकार क़ानून आवश्‍यकता के समय एक मित्र जैसा है, जो आम आदमी के जीवन को आसान और सम्‍मानजनक बनाता है तथा उसे सफलतापूर्वक जन सेवाओं के लिए अनुरोध करने और इनका उपयोग करने का अधिकार देता है।

संवाददाताओं को श्रद्धांजलि देने का दिन

'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस'प्रेस की स्वतंत्रता का मूल्यांकन, प्रेस की स्वतंत्रता पर बाहरी तत्वों के हमले से बचाव और प्रेस की सेवा करते हुए दिवंगत हुए संवाददाताओं को श्रद्धांजलि देने का दिन है। आज हमारा मीडिया अपना दायित्व ठीक तरीके से नहीं निभा रहा है। कुछ लोगों को छोड़कर श्रद्धांजलि देने का काम भी हमारा मीडिया शायद ही ठीक से कर रहा है। जबकि होना तो ये चाहिए की कम से कम इस दिन तो सारे देश का मीडिया एकजुट होकर इस दिन की सार्थकता को अंजाम देता। कम से कम आज के दिन तो ख़बरों में तड़का लगाने से परहेज करता, किंतु ये भी नहीं होता। ऐसा होने पर टी आर पी पर असर पड़ सकता है, जो की हरगिज बर्दास्त नहीं है।

जनता का आइना

हालांकि प्रेस जहाँ एक तरफ़ जनता का आइना होता है, वहीं दूसरी ओर प्रेस जनता को गुमराह करने में भी सक्षम होता है इसीलिए प्रेस पर नियंत्रण रखने के लिए हर देश में अपने कुछ नियम और संगठन होते हैं, जो प्रेस को एक दायरे में रहकर काम करते रहने की याद दिलाते हैं। प्रेस की आज़ादी को छीनना भी देश की आज़ादी को छीनने की तरह ही होता है। चीन, जापान, जर्मनी, पाकिस्तानजैसे देशों में प्रेस को पूर्णत: आज़ादी नहीं है। यहां की प्रेस पर सरकार का सीधा नियंत्रण है। इस लिहाज से हमारा भारतउनसे ठीक है। आज मीडिया के किसी भी अंग की बात कर लीजिये, हर जगह दाव-पेंच का असर है। खबर से ज्यादा आज खबर देने वाले का महत्त्व हो चला है। लेख से ज्यादा लेख लिखने वाले का महत्तव हो गया है। पक्षपात होना मीडिया में भी कोई बड़ी बात नहीं है, जो लोग मीडिया से जुड़ते हैं, अधिकांश का उद्देश्य जन जागरूकता फैलाना न होकर अपनी धाक जमाना ही अधिक होता हैं।
कुछ लोग खुद को स्थापित करने लिए भी मीडिया का रास्ता चुनते हैं। कुछ लोग चंद पत्र-पत्रिकाओंमें लिखकर अपने समाज के प्रति अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं। छदम नाम से भी मीडिया में लोगों के आने का प्रचलन बढ़ा है। सत्य को स्वीकारना इतना आसान नहीं होता है और इसीलिए कुछ लोग सत्य उद्घाटित करने वाले से बैर रखते हैं। लेकिन फिर कुछ लोग मीडिया में अपना सब कुछ दाव पर लगाकर भी इस रास्ते को ही चुनते हैं और अफ़सोस की फिर भी उनकी वह पूछ नहीं होती, जिसके की वे हक़दार होते हैं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.01.11.2विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस(हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 30 अप्रैल, 2014।
  2. अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस क्या औपचारिकता भर है(हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 30 अप्रैल, 2014।

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जब देव के सूर्य मंदिर ने बदल ली थी अपनी दिशा

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प्रस्तुति-- प्रेम तिवारी



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कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी, कलियुग वर्ष ५११६
बिहार– बिहार के औरंगाबाद जिले के देव स्थित ऎतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी विशिष्ट कलात्मक भव्यता के साथ साथ अपने इतिहास के लिए भी विख्यात है। कहा जाता है कि मंदिर का निर्माण देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है। देव स्थित भगवान भास्कर का विशाल मंदिर अपने अप्रतिम सौंदर्य और शिल्प के कारण सदियों श्रद्धालुओं, वैज्ञानिकों, मूर्ति चोरों, तस्करों एवं आमजनों के लिए आकर्षण का केन्द्र है।
डेढ़ लाख वर्ष पुराना है यह सूर्य मंदिर
काले और भूरे पत्थरों की नायाब शिल्पकारी से बना यह सूर्यमंदिर उड़ीसा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता जुलता है। मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में उसके बाहर ब्राही लिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जड़ा है जिसके अनुसार 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इलापुत्र परू रवा ऎल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि सन् 2014 ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल को एक लाख पचास हजार चौदह वर्ष पूरे हो गए हैं।
विश्व का एकमात्र पश्चिमाभिमुख सूर्यमंदिर है
देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (प्रात:) सूर्य, मध्याचल (दोपहर) सूर्य, और अस्ताचल (अस्त) सूर्य के रूप में विद्यमान है। पूरे देश में यही एकमात्र सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, आर्वाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रू पों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक एवं विस्मयकारी है। जनश्रुतियों के आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किंवदतियां प्रसिद्ध है जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता तो चलता है।
सूर्य पुराण में भी है इस मंदिर की कहानी
सूर्य पुराण के अनुसार ऎल एक राजा थे, जो किसी ऋषि के शापवश श्वेत कुष्ठ रोग से पीडित थे। वे एक बार शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गए। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा सा सरोवर दिखाई पडा जिसके किनारे वे पानी पीने गए और अंजुरी में भरकर पानी पिया। पानी पीने के क्रम में वे यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उनके शरीर के जिन जगहों पर पानी का स्पर्श हुआ उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के गंदे पानी में लेट गए और इससे उनका श्वेत कुष्ठ रोग पूरी तरह जाता रहा।
शरीर में आशर्चजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऎल ने इसी वन में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया। रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है। प्रतिमा को निकालकर वहीं मंदिर बनवाने और उसमे प्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि राजा ऎल ने इसी निर्देश के मुताबिक सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुंड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर यथावत रहने के बावजूद उस मूर्ति का आज तक पता नहीं है। जो अभी वर्तमान मूर्ति है वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन ऎसा लगता है मानो बाद में स्थापित की गई हो।
देवशिल्पी विश्वकर्मा ने एक ही रात में बनाया था सूर्य मंदिर
मंदिर निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने अपने हाथों किया था। कहा जाता है कि इतना सुंदर मंदिर कोई साधरण शिल्पी बना ही नहीं सकता। इसके काले पत्थरों की नक्काशी अप्रतिम है और देश में जहां भी सूर्य मंदिर है, उनका मुंह पूर्व की ओर है, लेकिन यही एक मंदिर है जो सूर्य मंदिर होते हुए भी प्रात:कालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता वरन अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मंदिर का अभिषेक करती हैं।
जनश्रुति है कि एक बार बर्बर लुटेरा काला पहाड़ मूर्तियों एवं मंदिरों को तोड़ता हुआ यहां पहुंचा तो देव मंदिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मंदिर को न तोडें क्योंकि यहां के भगवान का बहुत बड़ा महात्म्य है। इस पर वह हंसा और बोला यदि सचमुच तुम्हारे भगवान में कोई शक्ति है तो मैं रात भर का समय देता हूं तथा यदि इसका मुंह पूरब से पश्चिम हो जाए तो मैं इसे नहीं तोडूंगा। पुजारियों ने सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लिया और वे रातभर भगवान से प्रार्थना करते रहे। सबेरे उठते ही हर किसी ने देखा कि सचमुच मंदिर का मुंह पूरब से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मंदिर का मुंह पश्चिम की ओर ही है। हर साल चैत्र और कार्तिक के छठ मेले में लाखों लोग विभिन्न स्थानों से यहां आकर भगवान भास्कर की आराधना करते हैं भगवान भास्कर का यह त्रेतायुगीन मंदिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देने वाला पवित्र धर्मस्थल रहा है। यूं तो सालों भर देश के विभिन्न जगहों से लोग यहां मनौतियां मांगने और सूर्यदेव द्वारा उनकी पूर्ति होने पर अर्ध्य देने आते हैं।
स्त्रोत : पत्रिका

बिहार में हिन्दी सिनेमा के जनक- राजा जगन्नाथ

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राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह किंकर
मृत्युजंला कुमारी सिन्हा
 प्रस्तुति-- स्वामी शरण धीरज पांडेय

बिहार की धरती पर बिहारवासी द्वारा ही फिल्म निर्माण के क्षेत्र के सफल और सार्थक प्रणेता हैं- देव राज्य के तत्कालीन महाराजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह ‘किंकर’। राजा साहेब ने सन् 1930 में ‘छठ मेला’ नामक 16 एमएम के चार रीलों के एक वृत्तचित्र फिल्म का निर्माण करके बिहार में फिल्म निर्माण की प्रथम नींव डाली थी, जिस कारण उन्हें बिहार का दादा साहब फाल्के कहा जाता है। भारत के सिनेमाई इतिहास में 1913 में दादा साहेब फाल्के ने मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द’ का निर्माण कर फिल्म निर्माण की पहल की थी। देव स्थित सूर्य मंदिर की धार्मिक महत्ता को स्थापित करने के उद्देश्य से राजा साहेब ने इस वृत्त चित्र का निर्माण किया था। फिल्म के निर्माता, लेखक और निर्देशक की भूमिका राजा साहेब ने स्वयं की थी तथा रेखांकन और चित्रांकन गौरी शंकर सिंह रैन जी ने किया था। फिल्म का एडिटिंग लंदन से आए ब्रूनो ने की। देव के सूर्य मंदिर और छठ पूजा की महत्ता और उसकी सम्पूर्णता को उजागर करने वाली कुल चार रीलों की बनी यह डाक्यूमेन्ट्री फिल्म लगभग 32 दिनों में पूरी तरह बनकर तैयार हो गई थी। 1930 में इसका प्रथम प्रदर्शन देव स्थित राजा साहेब के गढ़ के भीतर ही किया गया था। देव राज्य के साथ-साथ औरंगाबाद एवं गया के निकटवर्ती क्षेत्रों के कई नामी-गिरामी कलावंत और लोकप्रिय निवासी इस ऐतिहासिक अवसर पर उपस्थित थे। बिहार में ऐसा प्रथम प्रयास था, जिसमें 1930 में बिहार के सिनेमाई सफर की सफल और सार्थक शुरुआत थी।
14 मार्च 1931 को मुम्बई में भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ का निर्माण किया गया था, जिसके निर्माता-निर्देशक अर्देशीर इरानी थे। राजा साहेब ने अपनी पहली सफलता के बाद महालक्ष्मी मूवी टोन के बैनर तले 1932 में ‘विल्वमंगल’ यानी सूरदास की प्रेमकथा पर एक पूर्ण कथा चित्र टाॅकी फिचर फिल्म का निर्माण किया था, जिसने पूरे देश को चमत्कृत कर दिया था। कथा और संवाद-लेखक थे स्वयं राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह, पटकथा-लेखक एवं निर्देशक थे धीरेन गाँगुली, फिल्म के छायांकन ए.के. सेन और एस. डेविड ने संयुक्त रुप से किया था और इसकी निर्माण व्यवस्था मन्नी गोपाल भट्टटाचार्य ने की थी। फिल्म की शूटिंग देव और गया के विभिन्न स्थलों के साथ-साथ राजा साहेब द्वारा निर्मित कराये गये अस्थायी स्टूडियों में भी की गयी थी। इसके प्रमुख कलाकारों में बिल्वमंगल की भूमिका में गया के वकील अवधबिहारी प्रसाद और चिंतामणि की भूमिका में आरती देवी जिनका मूल नाम था रैचल सोफिया। बालकृष्ण के रुप में महाराज के बड़े पुत्र कुंवर इन्द्रजीत सिंह और स्वयं महाराज ने विल्वमंगल के पिता का चरित्र निभाया था। इन महत्वपूर्ण भूमिकाओं के अलावा छोटे-बड़े किरदारों में देव और गया के कई स्थानीय कलाकारों ने भी अभिनय किया था। फिल्म की सार्वजनिक प्रदर्शन पहली बार 1933 के जनवरी महीने में रतन टाॅकिज, राँची में समारोह पूर्वक सम्पन्न किया गया था तथा बिहार और उड़ीसा के तत्कालीन राज्यपाल सर माॅरिस हेलेट ने उद्घाटन किया था। इस फिल्म निर्माण के लिए राजा साहेब ने 1929 में इंगलैण्ड जाकर फिल्म निर्माण से प्रदर्शन तक की प्रक्रिया में काम आने वाले सभी उपकरण कैमरा, साउन्ड रिकाॅडिंग, एडीटिंग मशीन, टेलीफोटो लेन्स, रिफ्लेक्टर आर्क लैम्प और फिल्म की प्रोसेसिंग मशीन यानी डेवलपमेंट और प्रिंटिंग के विभिन्न साधनों से लेकर प्रोजेक्टर मशीन के साथ सात व्यक्तियों के अमले के साथ उस समय के मशहुर फिल्म एपरेट्स कम्पनी ‘बाॅल एण्ड हेवेल कम्पनी’ से खरीद कर लाये थे।
फिल्म पत्रकार बद्री प्रसाद जोशी द्वारा प्रकाशित चर्चित पुस्तक ‘हिन्दी सिनेमा का सुनहरा सफर’ में इस फिल्म का उल्लेख किया गया है।
देव महाराज जगन्नाथ प्रसाद सिंह की इच्छा अपने बैनर से लगातार फिल्में बनाने की थी, लेकिन 15 जनवरी 1934 को बिहार में आए भयंकर विनाशकारी भूकम्प में सारे मूल्यवान उपकरण एवं मशीन बुरी तरह नष्ट हो गयी और उसी वर्ष अप्रैल माह में राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह की असामयिक मृत्यु हो गई और इसके साथ ही बिहार का सुनहरी फिल्मी सफर अधुरी कहानी बनकर रह गयी।
संदर्भः- यात्रा 2010मृत्युजंला कुमारी सिन्हा

न्यू मीडिया गुरू बालेन्दु शर्मा दाधीच

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बालेन्दु शर्मा दाधीच
प्रमुख हिंदी वेब पोर्टल प्रभासाक्षी डॉट कॉम के समूह संपादक, तकनीकविद् और स्तंभकार बालेन्दु शर्मा दाधीच (English: Balendu Sharma Dadhich) सूचना प्रौद्योगिकी और न्यू मीडिया के क्षेत्र में एक सुपरिचित नाम हैं। उनकी गणना हिंदी और तकनीक के बीच अनुकूलता विकसित करने में जुटे हिंदी-सेवियों में होती है। वे भाषायी पृष्ठभूमि जन्य प्रौद्योगिकीय वंचितता (technology deprivation due to linguistic background) और आंकिक विभाजन (digital divide) के विरुद्ध अभियानों में भी सक्रिय हैं।
हिंदी भाषियों के तकनीकी सशक्तीकरण की दिशा में उन्होंने बहुपक्षीय प्रयास किए हैं। ये हिंदी सॉफ्टवेयरों, वेब अनुप्रयोगों आदि के विकास; मुख्यधारा के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में तकनीकी विषयों पर विशद लेखन; शैक्षणिक संस्थानों में तकनीक, हिंदी और मीडिया से जुड़े विषयों पर नियमित व्याख्यानों और कायर्शालाओं में भागीदारी; सॉफ्टवेयर कंपनियों के एप्लीकेशंस के हिंदीकरण अभियानों (लोकलाइजेशन) में सक्रिय योगदान और केंद्र तथा राज्य सरकारों के तकनीकी विभागों और संस्थानों की योजनाओं-परियोजनाओं में भूमिका के रूप में दिखाई देता है। बालेन्दु शर्मा दाधीच ने यूनिकोड, स्थानीयकरण, मानकीकरण, भाषायी तकनीकी विकास आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण मौलिक लेखन किया है।
वेब और डेस्कटॉप अनुप्रयोग
श्री दाधीच ने 1999 में कंप्यूटर पर हिंदी में काम करने के लिए 'माध्यम'नामक शब्द संसाधक (वर्ड प्रोसेसर) का विकास कर उसे नि:शुल्क उपलब्ध कराया था। सॉफ्टपीडिया द्वारा '100% स्वच्छ सॉफ्टवेयर'का पुरस्कार पाने वाले इस सॉफ्टवेयर की एक लाख से अधिक प्रतियां डाउनलोड हो चुकी हैं। उन्होंने 'प्रभासाक्षी डॉट कॉम'नामक लोकप्रिय हिंदी वेब पोर्टल का विकास भी किया। श्री दाधीच के अन्य योगदानों में यूनिकोड हिंदी संशोधक, दोतरफा हिंदी फॉन्ट परिवर्तक 'सटीक'आदि प्रमुख हैं। कंप्यूटर पर हिंदी में मानक टाइपिंग सिखाने वाले उनके सॉफ्टवेयर 'स्पर्श'का मार्च 2011 में लंदन में लोकार्पण हुआ है। हिंदी से जुड़े उनके प्रमुख अनुप्रयोग/तकनीकी कार्य इस तरह हैं:
  • हिंदी समाचार पोर्टल 'प्रभासाक्षी डॉट कॉम'
  • यूनिकोड हिंदी वर्ड प्रोसेसर 'माध्यम यूनिकोड प्रो'
  • हिंदी वर्ड प्रोसेसर 'माध्यम' (ड्युअल फॉरमैट) TTF-UNICODE
  • हिंदी वर्ड प्रोसेसर 'माध्यम' (अयूनिकोडित) Classic
  • मानक इनस्क्रिप्ट कीबोर्ड आधारित यूनिकोड हिंदी टाइपिंग ट्यूटर 'स्पर्श'
  • हिंदी इंटरफ़ेस युक्त फाइल संपीड़न (ज़िप) सॉफ्टवेयर- 'हिंदीज़िप'
  • हिंदी यूनिकोड इनपुट युक्त चित्र संपादन सॉफ्टवेयर- 'छाया'
  • दोतरफा हिंदी फॉन्ट परिवर्तक 'सटीक'
  • विकृत यूनिकोड पाठ संशोधक (ऑनलाइन)
  • यूनिकोड पर जागरूकता के प्रसार हेतु वेबसाइट लोकलाइजेशनलैब्स.कॉम
  • हिंदी ईबुक प्रोत्साहन परियोजना 'ई-प्रकाशक.कॉम'की मेन्टरिंग
  • विंडोज एक्सपी लोकलाइजेशन तथा हेल्प परियोजना में योगदान।
  • माइक्रोसॉफ्ट विज़ुअल स्टूडियो 2008 लोकलाइजेशन (क्लिप) में योगदान आदि।
तकनीकी लेखन / सक्रियता
तकनीकी विषयों पर 'नवभारत टाइम्स', 'हिंदुस्तान', 'जागरण', 'राष्ट्रीय सहारा', 'राजस्थान पत्रिका', 'आज समाज', 'कादम्बिनी', 'शुक्रवार', 'नंदन'आदि में उनके स्थायी स्तंभ और आलेख प्रकाशित होते हैं। सरकारी तथा निजी टेलीविजन चैनलों और रेडियो पर तकनीक से जुड़े कार्यक्रमों में नियमित भागीदारी के साथ-साथ वे न्यू मीडिया पर भी अत्यधिक सक्रिय हैं। वे हिंदी ब्लॉगिंग के प्रारंभिक हस्ताक्षरों में से एक हैं और उनके दो ब्लॉगों- 'वाह मीडिया' (2005) और 'मतांतर' (2008) की विशिष्ट पहचान है।
श्री दाधीच तकनीक और भाषा के समन्वय में निष्णात हैं। उन्होंने अमेरिका, इंग्लैंड, मॉरीशस, जापान और दक्षिण अफ़्रीका सहित 'भाषा और तकनीक'विषयों से जुड़े अनेक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में सक्रिय हिस्सेदारी की है। श्री दाधीच ने विदेश मंत्रालय की ओर से आयोजित आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन (2007) के दौरान हिंदी तकनीक को लेकर न्यूयॉर्क में लगाई गई अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी के संयोजक की भूमिका निभाई थी और सम्मेलन के वेब पोर्टल का दायित्व भी संभाला था। श्री दाधीच को न्यूयॉर्क (8वें) तथा जोहानीसबर्ग (नौवें) में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलनों के सूचना प्रौद्योगिकी सत्रों के संचालन का गौरव प्राप्त है, जिनमें हिंदी की तकनीकी दुनिया की दिग्गज हस्तियों ने भाग लिया था। जुलाई-अगस्त 2013 में उन्होंने विश्व हिंदी सचिवालय के सौजन्य से आयोजित कार्यक्रमों के तहत दक्षिण अफ़्रीका के डरबन तथा जोहानीसबर्ग शहरों और मॉरीशस में लगभग 500 लोगों को तकनीकी क्षेत्र में हिंदी के प्रयोग के लिए प्रशिक्षित किया।
पुरस्कार एवं मान्यता
  • हिंदी सेवी सम्मान (14 सितंबर 2014 को भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान के हाथों)
  • वैश्विक हिंदी सम्मेलन (मुंबई) में भाषा प्रौद्योगिकी सम्मान (10 सितंबर 2014, गोवा की राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा के हाथों)
  • संसद भवन में 'राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान' 2013
  • एस राधाकृष्णन स्मृति मीडिया अवार्ड 2012
  • राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड (तकनीक) 2011
  • हिंदी अकादमी दिल्ली सरकार का ज्ञान प्रौद्योगिकी पुरस्कार 2010
  • गूगल की ब्लॉग प्रतियोगिता 'है बातों में दम'के विजेताओं में शामिल (2010)
  • माइक्रोसॉफ्ट मोस्ट वेल्युएबल प्रोफेशनल (एमवीपी) 2007-2009
  • रोटरी राजभाषा सम्मान 2009
  • वेब मीडिया के लिए 'न्यूज़पेपर एसोसिएशन ऑफ इंडिया'सम्मान 2009
  • अक्षरम आईटी सम्मान 2008
  • श्रेष्ठ लेखन के लिए खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा विश्व खाद्य दिवस पुरस्कार 1994
बालेन्दु शर्मा दाधीच को राजभाषा हिंदी में कंप्यूटरीय विकास को प्रोत्साहित करने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा गठित की गई तीन समितियों (2009) का सदस्य बनने का गौरव भी प्राप्त है। इन समितियों ने 1. भारत सरकार के संस्थानों (सीडैक आदि) द्वारा विकसित किए गए हिंदी सॉफ्टवेयरों का मूल्यांकन किया। 2. निजी क्षेत्र द्वारा विकसित किए गए हिंदी सॉफ्टवेयरों की समीक्षा की। 3. सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्र में तकनीकी कार्यों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने तथा देश में हिंदी सूचना तकनीक के संदर्भ में जागरूकता बढ़ाने के लिए सुझाव दिए।
पुस्तकें
  • तकनीकी सुलझनें (2013) (बेस्ट सेलर: विमोचन के बाद चार महीने में पहला संस्करण पूरा बिका)
  • मॉरीशसः छोटा भारत (ई-बुक) 2012 (यात्रा संस्मरण) जोहानीसबर्ग में नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान विदेश राज्यमंत्री प्रणीत कौर द्वारा लोकार्पण।
  • सोशल मीडियाः प्रयोग, प्रभाव और प्रवृत्तियाँ (प्रकाशनाधीन)
  • अनोखा तावीज़ (बच्चों के लिए कहानियाँ)
  • परी की बाँसुरी (बच्चों के लिए कहानियाँ)
पृष्ठभूमि
जयपुर (राजस्थान) में जन्मे श्री दाधीच गुड़गाँव (दिल्ली एनसीआर) में रहते हैं। उन्होंने अपनी शिक्षा जयपुर, कुरुक्षेत्र और दिल्ली में पूरी की। वे हिंदी भाषा, कंप्यूटर विज्ञान, प्रबंधन और पत्रकारिता चारों विषयों में स्नातकोत्तर योग्यता धारी हैं।
वे हिंदुस्तान टाइम्स समूह, इंडियन एक्सप्रेस समूह, सहारा समूह और राजस्थान पत्रिका समूह के मीडिया संस्थानों में कार्य कर चुके हैं। प्रिंट, टेलीविजन, रेडियो और ऑनलाइन मीडिया का व्यावहारिक अनुभव रखने वाले बालेन्दु अपने संपादकीय दायित्वों के तहत राजनैतिक सामाजिक मुद्दों पर भी नियमित रूप से लिखते हैं। सम्प्रतिः संपादकीय भूमिकाओं के अतिरिक्त, वे मोरारका औद्योगिक घराने में महाप्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद पर कार्यरत हैं।

बाहरी कडियाँ


नरेंद्र मोदी

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प्रस्तुति-- स्वामी शरण राहुल मानव

 

 

History of Indian Journalism

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1780
The first newspaper in India was published by James Hicky in January 1780. It was called the Bengal Gazette and announced itself as “a weekly political and commercial paper open to all parties but influenced by none”.
Bengal Gazette was a two-sheet paper measuring 12 inches by 8 inches, most of the space being occupied by advertisements. Its circulation reached a maximum of 200 copies. Within six years of Bengal Gazette, four more weeklies were launched in Kolkata (then Calcutta).

1782
Madras Courier was launched in 1782.

1791
Bombay Herald was launched in 1791.

1792
Bombay Courier was launched in 1792. It published advertisements in English and Gujarati.

1799
In 1799, the East India administration passed regulations to increase its control over the press.

1816
The first newspaper under Indian administration appeared in 1816. It was also called Bengal Gazette and was published by Gangadhar Bhattacharjee. It was a liberal paper which advocated the reforms of Raja Ram Mohan Roy.

Raja Ram Mohan Roy himself brought out a magazine in Persian called Mirat-ul-Ukhbar. He also published The Brahmanical Magazine, an English periodical to counteract the religious propaganda of the Christian missionaries of Serampore.

1822
In 1822, the Chandrika Samachar was started in Bengal.

At the same time, Bombay Samachar was started by Ferdunji Marzban. It gave importance to social reform and commercial news in Gujarati.

1826
The first Hindi newspaper Oodunt Martand was published in 1826 from Bengal. However, it could not survive long because of its distant readership and high postal rates. Its place was soon taken by Jami Jahan Numa, a newspaper that was pro-establishment.

1832
In 1832, Bal Shastri Jambhekar launched at Anglo-Marathi newspaper from Pune.


1830-1857
A large number of short-lived newspapers were brought out in this time. Some were in Indian languages like Bengali, Gujarati, Marathi, Urdu and Persian.


1857
The Uprising of 1857 brought out the divide between Indian owned and British owned newspapers. The government passed the Gagging Act of 1847 and the Vernacular Press Act in 1876.
After 1857, the pioneering efforts in newspapers shifted from Bengal to Mumbai. Gujarati press made great progress under the efforts of Ferdunji Marzban and Kurshedji Cama.
Marathi journalism followed close behind with a distinctive educational bias.

1861
In 1861, Mr Knight merged the Bombay Standard, Bombay Times and Telegraph and brought out the first issue of Times of India.

1875
In 1875, the same Mr Knight with the backing of rich merchants from Kolkata started Indian Statesman which was later called as Statesman.
Around the same time, Amrita Bazar Patrika was able to establish itself in Kolkata. Starting out as a vernacular paper, it was constantly in trouble due to its outspokenness. In order to circumvent the strict provision of the Vernacular Press Act, Amrita Bazar Patrika converted itself overnight into an English newspaper.
Amrita Bazar Patrika inspired freedom fighter Lokmanya Tilak to start Kesari in Pune. He used Kesari to build anti-cow killing societies, Ganesh mandals and reviving the Chhatrapati Shivaji cult. He used mass communication as a powerful political weapon.

1905
By 1905, the English and vernacular press had become pretty professional. Political leaders and social reformers were regular contributors to newspapers. Some prominent writers of the time were C Y Chintamani, G A Natesan, N C Kelkar, Phirozshah Mehta and Benjamin Horniman.

Indian news was supplied by special correspondent and government hand-outs (press releases), international news was supplied by Reuters, an international news agency.

1920s and 1930s

  • Newspapers in this period started reflecting popular political opinion. While big English dailies were loyal to the British government, the vernacular press was strongly nationalist.
  • The Leader and Bombay Chronicle were pro-Congress.
  • The Servant of India and The Bombay Chronicle were moderate.
  • The Bande Mataram of Aurbindo Ghosh, Kal of Poona and Sakli of Surat were fiercely nationalist.
  • In 1918, Motilal Nehru started the Independent of Lucknow as a newspaper of extreme Indian opinion.
  • The Home Rule Party started Young India, which later became Mahatma Gandhiji’s mouthpiece.
As more and more Indians started learning English, many became reporters, editors and even owners. The Anglo-Indian press began to lose ground except in Bombay and Calcutta.

In 1927, industrialist G D Birla took over Hindustan Times and placed it on a sound financial footing.
In the same year, S Sadanand started the Free Press Journal, a newspaper for the poor and the middle-class in Mumbai.

Ref: Mass Communication - A Basic Study by Aspi Doctor, Sheth Publishers 

वन मैन आर्मी नरेंद्र मोदी

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प्रस्तुति-- सतीश श्रीवास्तव

बड़ी ख़बरें

विभिन्न प्रकार की हिन्दी पत्रिकाएँ

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प्रस्तुति- स्वामी शरण, राहुल मानव

 

 

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
हिन्दी पत्रिकाएँसामाजिकव्‍यवस्‍था के लिए चतुर्थ स्‍तम्‍भ का कार्य करती हैं और अपनी बात को मनवाने के लिए एवं अपने पक्ष में साफ-सुथरा वातावरण तैयार करने में सदैव अमोघ अस्‍त्र का कार्य करती है। हिन्दीके विविध आन्‍दोलन और साहित्‍यिक प्रवृत्तियाँ एवं अन्‍य सामाजिकगतिविधियों को सक्रिय करने में हिन्दीपत्रिकाओं की अग्रणी भूमिका रही है।

इतिहास

हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से हुई और इसका श्रेय राजा राममोहन रायको दिया जाता है। राजा राममोहन रायने ही सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ा। भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया। समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की। राय ने कई पत्र शुरू किये। जिसमें अहम हैं-साल 1816 में प्रकाशित ‘बंगाल गजट’। बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र है। इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे। इसके अलावा राजा राममोहन रायने मिरातुल, संवाद कौमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों में चेतना फैलाई। 30 मई 1826 को कलकत्तासे पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले ‘उदंत्त मार्तण्ड’ को हिंदी का पहला समाचार पत्र माना जाता है।[1]
इस समय इन गतिविधियों का चूँकि कलकत्ता केन्‍द्र था इसलिए यहाँ पर सबसे महत्‍वपूर्ण पत्र-पत्रिकाएँ - उद्‌दंड मार्तंड, बंगदूत, प्रजामित्र मार्तंड तथा समाचार सुधा वर्षण आदि का प्रकाशन हुआ। प्रारम्‍भ के पाँचों साप्‍ताहिक पत्र थे एवं सुधा वर्षण दैनिक पत्र था। इनका प्रकाशन दो-तीन भाषाओं के माध्‍यम से होता था। ‘सुधाकर'और ‘बनारस अखबार'साप्‍ताहिक पत्र थे जो काशी से प्रकाशित होते थे। ‘प्रजाहितैषी'एवं बुद्धि प्रकाश का प्रकाशन आगरा से होता था। ‘तत्‍वबोधिनी'पत्रिका साप्‍ताहिक थी और इसका प्रकाशन बरेली से होता था। ‘मालवा'साप्‍ताहिक मालवा से एवं ‘वृतान्‍त'जम्‍मू से तथा ‘ज्ञान प्रदायिनी पत्रिका'लाहौर से प्रकाशित होते थे। दोनों मासिक पत्र थे। इन पत्र-पत्रिकाओं का प्रमुख उद्‌देश्‍य एवं सन्‍देश जनता में सुधार व जागरण की पवित्र भावनाओं को उत्‍पन्‍न कर अन्‍याय एवं अत्‍याचार का प्रतिरोध/विरोध करना था। हालाँकि इनमें प्रयुक्‍त भाषा (हिन्‍दी) बहुत ही साधारण किस्‍म की (टूटी-फूटी हिन्‍दी) हुआ करती थी। सन्‌ 1868 ई. में भारतेंदु हरिश्चंद्रने साहित्‍यिक पत्रिकाकवि वचन सुधा का प्रवर्तन किया। और यहीं से हिन्दी पत्रिकाओं के प्रकाशन में तीव्रता आई।[2]
आलोचना, हिंदी, वसुधा, अक्षर पर्व, वागर्थ, आकल्प, साहित्य वैभव, परिवेश, कथा, संचेतना, संप्रेषण, कालदीर्घा, दायित्वबोध, अभिनव कदम, हंस, बयाआदि वे पत्रिकाएँ हैं, जो हिंदी भाषा की समृद्धि का प्रतीक हैं।[3]
यहाँ प्रस्तुत है वर्तमान में भारतऔर विदेशों से प्रकाशित होने वाली महत्वपूर्ण पत्रिकाओं की सूची :

ऑनलाइन साहित्यिक पत्रिकाएं

{{rquote|right|हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाएँ हिंदी साहित्यकी विभिन्न विधाओं के विकास और संवर्द्धन में उल्लेखनीय भूमिका निभाती रहीं हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, आलोचना, यात्रावृत्तांत, जीवनी, आत्मकथातथा शोधसे संबंधित आलेखों का नियमित तौर पर प्रकाशन इनका मूल उद्देश्य है। आधुनिक हिन्दी में जितने महत्वपूर्ण आंदोलन छिड़े, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से छिड़े। न जाने कितने महत्वपूणर्ण साहित्यकार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रतिष्ठित हुए। न जाने कितनी श्रेष्ठ रचनाएँ पाठकों के सामने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से आईं। भारतेंदु युग के साहित्यकारों की केन्द्रीय पत्रिकाएँ थीं – ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’, ‘ब्राह्मण’ या ‘हिंदोस्तान’। द्विवेदी युग और स्वयं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी‘सरस्वती’ उन दिनों की सर्वाधिक प्रतिनिधि पत्रिका थी। मैथिलीशरण गुप्त‘सरस्वती’ की ही देन हैं। छायावादी कवियों के साथ ‘मतवाला’, ‘इंदु’, ‘रूपाभ’, ‘श्री शारदा’ जैसी पत्रिकाओं के नाम जुड़े हैं। माखनलाल चतुर्वेदीका साहित्य तो ‘कर्मवीर’ को जाने बिना जानी ही नहीं जा सकता। हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य ‘हंस’ के पंखों पर चढ़कर नहीं आया। नई कविता की जन्मकुंडली ‘नए पत्ते’, ‘नई कविता’ जैसी पत्रिकाओं ने तैयार की।|"वेब पत्रिका सृजनगाथामें डॉ. हरिसिंह गौर"
पत्रिका का नामसंपादकीय संपर्कवेब संपर्कई-मेल संपर्क
बयासी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन एक्‍सटेंशन-2,गाजियाबाद-201005website
अर्गला210, झेलम हॉस्टल, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110067website
अहा जिंदगी6, द्वारिका सदन, प्रेस कॉम्‍प्‍लेक्‍स, एम0पी0 नगर, भोपाल-462011website
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कथाक्रम'स्‍वप्निका', डी-107, महानगर विस्‍तार, लखनऊ-226006,websitekathakrama@gmail.com
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तद्भव18/271, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016website
नवनीतभारतीय विद्या भवन, 20, म0 मुंशी रोड, मुम्बई-400007,websitenavneet.hindi@gmail.com
प्रभात पुंज403, कृष्णा आंगन, आर.एन.पी. पार्क, भाईंदर (पूर्व) मुंबई-401105website
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हंस पत्रिका2/36, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002,websiteinfo@hansmonthly.in

ऑफलाइन साहित्यिक पत्रिकाएं

पत्रिका का नामसंपादकीय संपर्कवेब संपर्कई-मेल संपर्क
बयाअंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन एक्‍सटेंशन-2, गाजियाबाद-201005website
आजकलप्रकाशन विभाग, सीजीओ कॉम्‍लेक्‍स, लोधी रोड, नई दिल्‍ली-110003

कथादेशसहयात्रा प्रकाशन प्रा. लि., सी-52, जेड-3, दिलशाद गार्डेन, दिल्‍ली-110095



कला-प्रयोजनसंपादक : हेमंत शेष, 40/158, मानसरोवर, जयपुर-३०२०२०प्रकाशक :पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, उदयपुर[1]hemantshesh@rediffmail.com
कहानीकारके. 30/37, अरविंद कुटीर, निकट भैरवनाथ, वाराणसी-221001, उत्तर प्रदेश

कुरुक्षेत्र (पत्रिका)कृषि एवं ग्रामीण रोजगार मंत्रालय, कृषि भवन, नई दिल्‍ली-110001

नया ज्ञानोदयभारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्‍टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, पोस्‍ट बॉक्‍स-3113, नई दिल्‍ली-110003
jananpith@satyam.net.in
पहल101, रामनगर, आधारताल, जबलपुर-4 (मoप्रo)

परिकल्पना समयएस एस -107, परिकल्पना, सेक्टर-N-1, संगम होटल के पीछे,लखनऊ-226024(उ.प्र.)
parikalpana.samay@gmail.com
प्रारम्‍भ शैक्षिक संवादबी-1/84, सेक्‍टर-बी, अलीगंज, लखनऊ-226024

भाषा (पत्रिका)केन्‍द्रीय हिन्‍दी निदेशालय, पश्चिमी खण्‍ड-7, रामकृष्‍ण पुरम,नई दिल्‍ली

मधुमतीराजस्‍थान साहित्‍य अकादमी, सेक्‍टर-4, हिरण मगरी, उदयपुर-313002,
sahityaacademy@yahoo.in
राष्‍ट्रधर्मसंस्‍कृति भवन, राजेन्‍द्र नगर, लखनऊ-226004

वर्तमान साहित्‍ययतेन्‍द्र सागर, प्रथम तल, 1-2, मुकुंद नगर, हापुड़ रोड, गाजियाबाद-201001

समकालीन भारतीय साहित्‍यसचिव, साहित्‍य अकादेमी, रवीन्‍द्र भवन, 35, फिरोजशाह मार्ग, नई दिल्‍ली-110001

समकालीन सरोकारविनीत प्‍लाज़ा, फ्लैट नं0 01, विनीत खण्‍ड-6, गोमती नगर, लखनऊ-226010,

समाज कल्‍याणडॉ. दुर्गाबाई देशमुख समाज कल्याण भवन, बी-12, कुतुब इंस्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110603

बहुवचनसंपादक: अशोक मिश्र, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा

संस्‍कृतिकेन्‍द्रीय सचिवालय ग्रंथागार, द्वितीय तल, शास्‍त्री भवन, डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद मार्ग, नई दिल्‍ली-110001,
editorsanskriti@gmail.com
साहित्‍य अम़ृत4/19, आसफ अली रोड, नई दिल्‍ली-110002,
sahityaamrit@gmail.com
साहित्‍य भारतीउत्‍तर प्रदेश हिन्‍दी संस्‍थान, 6 महात्‍मा गांधी मार्ग, हजरतगंज, लखनऊ-226001

शैक्षिक पलाशराज्‍य शिक्षा केन्‍द्र, बी-विंग, पुस्‍तक भवन, अरेरा हिल्‍स,भोपाल-462011

राजभाषा संवादडॉ॰ जगदीश व्योम, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, प्रतिभूति कागज कारखाना, होशंगाबाद (म.प्र.) 461005

साक्षात्कारप्रधान संपादक- देवेन्द्र दीपक, साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति भवन, बाण गंगा, भोपाल-3 (म.प्र.)

पंजाब सौरभनिदेशक भाषा विभाग पंजाब, भाषा भवन, पटियाला

खनन भारतीवेस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड, कोल स्टेट, सिविल लाइन्स,नागपुर-440001

प्रभात पुंज403, कृष्णा आंगन, आर.एन.पी. पार्क, भाईंदर (पूर्व) मुबंई-401105 (महाराष्ट्र)www.prabhatpunj.comeditor.prabhatpunj@gmail.com
माया इन्डिया6/395 'माया हाउस', मालवीय नगर,जयपुर-302017 (राज०)
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हरिगंधाहरियाणा साहित्य अकादमी, कोठी नं० 169, सेक्टर-12, पंचकूला (हरियाणा)-134112

सम्यक्संपादक: मदनमोहन उपेन्द्र, ए-10, शान्ति नगर (संजय नगर),मथुरा- 281001(उ॰प्र॰)

हाइकु दर्पण (हाइकु कविता की पत्रिका)संपादक: डा० जगदीश व्योम, बी-12 ए / 58-ए, धवलगिरि, सेक्टर-34, नोएडा-201301

मेकलसुता(दोहा विधा की पत्रिका)संपादक- कृष्णस्वरूप शर्मा 'मैथिलेन्द्र', गीतांजलि भवन, म॰आ॰व॰ 08आवासीय मण्डल उपनिवेशिका, नर्मदापुरम् (होशंगाबाद) म॰प्र॰ 461001

सरल चेतनासंपादक-हेमन्त रिछारिया, कोठी बाजार, होशंगाबाद(म॰प्र॰)

शैल सूत्र(गंगा-जमुनी साहित्य की त्रैमासिकी)प्रधान संपादक: आशा शैली, कार रोड, बिन्दुखत्ता, पो० लाल कुआँ, नैनीताल, उत्तराखण्ड -262402asha.shaili@gmail.com

भारतीय मनीषासंपादक- डॉ॰ रमाकान्त श्रीवास्तव, एल॰ 6 \ 96, अलीगंज,लखनऊ (उ॰प्र॰)-226024

सरस्वती सुमनसंपादक-सुरेन्द्र सिंह चौहान "काका", मानसरोवर, छिब्बरमार्ग,देहरादून-248001 उत्तरांचल

व्यंग्य यात्रा(सार्थक व्यंग्य की त्रैमासिकी)संपादक: प्रेम जनमेजय,73- साक्षर अपार्टमेंट्स, ए-3, पश्चिम विहार,नई दिल्ली-110063
vyangya@yahoo.com

ऑनलाइन वेब पत्रिकाएं


महिलाओं पर केन्द्रित हिन्दी पत्रिका वनिता के फरवरी 2009 के अंक का मुखपृष्ट
पत्रिका का नामप्रकारअवधिसंपादकप्रकाशकवेब संपर्क
अखंड ज्योतिमासिकवैज्ञानिक दर्शनडॉ प्रणव पाण्ड्याअखंड ज्योति संस्थान मथुरावेबसाईट
अनंत अविराममासिकओम प्रकाश दीपजय कंप्यूटरविदिशासे प्रकाशित[4]वेबसाईट
अनुभूति[5]साप्ताहिक (ऑनलाइन)साहित्यिक पत्रिकापूर्णिमा वर्मन
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भारत दर्शनऑनलाइनसाहित्यिक पत्रिका
भारत दर्शन, न्यूजीलैंडwebsite
भारत संदेशमासिकराजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, खेल, मनोरंजन इत्यादि।आई सिंहसंयुक्त राज्य अमेरिकावेबसाईट
गीत-पहलऑनलाइनसाहित्यिक पत्रिकाअवनीश सिंह चौहान
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हिन्दी कुंजदैनिक ऑनलाइनसाहित्यिक पत्रिकाआशुतोष दूबेहिंदीकुंज.कॉमवेबसाईट
हिंदीनेस्ट डॉट कॉमसाप्ताहिक ऑनलाइनसाहित्यिक पत्रिकामनीषा कुलश्रेष्ठहिंदीनेस्ट. कॉमवेबसाईट
हिंदुस्तान बोल रहा हैमासिकराजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, खेल, मनोरंजन इत्यादि।जय पाल सिंह चौधरीदेहरादूनwebsite
इंडिया टुडेसाप्ताहिकसमाचार पत्रिका
दि इंडिया टुडे ग्रुपवेबसाईट
जनोक्तिसाप्ताहिकऑन लाइन हिन्दी पत्रिकाजयराम विप्लव
वेबसाईट
पूर्वाभाससाप्ताहिक ऑनलाइनसाप्ताहिक पत्रिकाअवनीश सिंह चौहान
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प्रवक्तादैनिक ऑनलाइनसामाजिक-राजनीतिक पत्रिकासंजीव कुमार सिन्हाप्रवक्ता.कॉमवेबसाईट
परिकल्पना ब्लॉगोत्सवदैनिक ऑनलाइनराजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, खेल, मनोरंजन इत्यादि।रवीन्द्र प्रभातऑनलाइन भारतवेबसाईट
सीमापुरी टाइम्स[6]मासिक (ऑनलाइन)सामाजिक और राजनीतिकराम प्रकाश वर्मा
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सृजनगाथामासिक ऑनलाइनसाहित्यिकजय प्रकाश मानस
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स्वर्गविभाऑनलाइनसाहित्यिक पत्रिकाडॉ श्रीमती तारा सिंहस्वर्गविभा टीम, नवी मुंबई,वेबसाईट
वटवृक्षत्रैमासिकसाहित्यिक पत्रिकारवीन्द्र प्रभातअलीगंज, लखनऊवेबसाईट
विचार मीमांसादैनिक ऑनलाइनसामाजिक-राजनीतिक पत्रिकाकनिष्क कश्यप
वेबसाईट
युग मानसदैनिक ऑनलाइनसाप्ताहिक प्रिंटसाहित्यडॉ सी जयशंकर बाबू

ऑनलाइन/ऑफलाइन विज्ञान पत्रिकाएं

पत्रिका का नामसमपादकीय पतावेब पताई मेल पता
आई.सी.एम.आर.इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च, पी.ओ. बॉक्‍स नं. 4911, अंसारी नगर, नई दिल्‍ली-110029,website[मृत कड़ियाँ]headquarters@icmr.org.in
आविष्कार (पत्रिका)नेशनल रिसर्च डेवलेपमेंट कार्पोरेशन, 20-22, जमरूदपुर सामुदायिक केन्‍द्र, कैलाश कॉलोनी एक्‍सटेंशन, नई दिल्‍ली-48website[मृत कड़ियाँ]
इलेक्ट्रॉनिकी आपके लिएस्‍कोप कैम्‍पस, एन.एच.-12, होशंगाबाद रोड, भोपाल, म.प्र.,websiteelectroniki@electroniki.com
जल चेतनाराष्‍ट्रीय जल विज्ञान संस्‍थान, जल विज्ञान भवन, रूड़की-247667,websiterama@nih.ernet.in
ड्रीम 2047विज्ञान प्रसार, सी-24, कुतुब इंस्‍टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्‍ली-दिल्‍ली-110016,websiteinfo@vigyanprasar.gov.in
दुधवा लाइव77, कैनाल रोड, शिव कालोनी, लखीमपुर खीरी- 262701, उ.प्र.,websiteeditor.dudhwalive@gmail.com
पर्यावरण डाइजेस्‍टडॉ. खुशाल सिंह पुरोहित, 19 पत्रकार कॉलोनी, रतलाम, मप्र 457001,
kspurohit@rediffmail.com
पैदावारइमेज मीडिया ग्रुप, 518, हिंद नगर चौराहा, पुरानी चुंगी, कानपुर रोड, लखनऊ-226012
paidawar@gmail.com
विज्ञान कथा (पत्रिका)प्रधान संपादक : डॉ. राजीव रंजन उपाध्‍याय, संपर्क : भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति, परिसर कोठी काकेबाबू, देवकली मार्ग, फैजाबाद, (उ. प्र.)-224001,
rajeevranjan.fzd@gmail.com
विज्ञान प्रगतिसी.एस.आई.आर., डॉ. के.एस. कृष्‍णन मार्ग, नई दिल्‍ली-110012,websitevp@niscair.res.in

ऑनलाइन/ऑफलाइन महिला पत्रिकाएं

पत्रिका का नामसंपादकीय पतावेब पताई मेल संपर्क
बिंदियाके-25, पर्ल्‍स प्लाजा, सेक्टर-18, नोएडा-201301, उत्तर प्रदेशwebsite
मेरी सहेलीसंपादकीय एवं प्रशासकीय संपर्क : पायोनियर बुक कं0 प्रा0 लि0, सी-14, रॉयल इंडस्ट्रियल एस्‍टेट, 5-बी, नयागांव क्रॉस रोड, वड़ाला, मुम्बई-400031 (महाराष्ट्र)।website
मनोरमा (पत्रिका)मित्र प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

गृहलक्ष्‍मीके-45, जंगपुरा एक्‍सटेंशन, नई दिल्‍ली-110014

महकता आंचलजे-17, जंगपुरा एक्‍सटेंशन, नई दिल्‍ली-110014

वुमेन ऑन टॉपदिशा भारती मीडिया प्रा.लि., ए-96, सेक्‍टर-65, 1 नोएडा-20130 उत्तर प्रदेशwebsiteinfo@dishabharti.com
सखीजागरण प्रकाशन लि., 2, सर्वोदय नगर, कानपुर-208005, उत्तर प्रदेशwebsitejagrancorp@jagran.com
सुषमा पत्रिका13/14, आसफ अली रोड,नई दिल्‍ली-110002

वनितामलयाला मनोरमा, पोस्ट बॉक्स नं 26, कोट्टयम-686 001,केरल, भारतwebsitecustomersupport@mm.co.in

ऑनलाइन/ऑफलाइन फिल्‍मी पत्रिकाएं

हिंदीमें करीब 75 फिल्मी पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। छोटी-बड़ी सब मिलाकर कम से कम तीन दर्जन फिल्मी पत्रिकाएं तो अकेले दिल्लीसे प्रकाशित होती हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से प्रकाशित होने वाली फिल्मी पत्रिकाओं के नाम इस प्रकार हैं-
चित्र भारतीमासिक (कलकत्ता, 1955 से प्रकाशित), सिने चित्रासाप्ताहिक (कलकत्ता, 1955 से प्रकाशित), सिने वाणीसा. (बंबई, 1956 से प्रकाशित), कला संसारसा. (कलकत्ता 1957 से प्रकाशित), सिने सितारामा. (कलकत्ता, 1957 से प्रकाशित), रजत पटपाक्षिक (महू छावनी, 1957 से प्रकाशित), रसभरीमा. (दिल्लीसे प्रकाशित), फिल्मिस्तानमा. (फिरोजपुर, 1958 से प्रकाशित), फिल्म किरणमा. (जबलपुर, 1959 से प्रकाशित), चित्र छायामा. (दिल्ली, 1959 से प्रकाशित), इंदुमतीमा. (दिल्ली, 1959 से प्रकाशित), सिने एक्सप्रेससा. (इंदौर, 1959 से प्रकाशित), चित्रावलीसा. (बंबई, 1959 से प्रकाशित), प्रीतमा. (जोधपुर, 1959 से प्रकाशित), नीलममा. (दिल्ली, 1960 से प्रकाशित), मधुबालामा. (दिल्ली, 1960 से प्रकाशित), मनोरंजनमा. (दिल्ली, 1962 से प्रकाशित), रस नटराजसा. (बंबई, 1963 से प्रकाशित), कजरामा. (कानपुर, 1964), फिल्म अप्सरामा. (दिल्ली, 1964), बबीतामा. (दिल्ली, 1967), सिने पोस्टमा. (दिल्ली, 1968), फिल्म रेखामा. (दिल्ली, 1968), फिल्‍मी कलियांमा. (दिल्ली, 1968), फिल्मांकनसा. (बंबई, 1969), सिने हलचलपा. (अजमेर, 1969 से प्रकाशित), अभिनेत्रीपा. (लुधियाना, 1970 से प्रकाशित), फिल्म शृंगारमा. (दिल्ली, 1970 से प्रकाशित), फिल्मी परियांमा. (लखनऊ, 1970 से प्रकाशित), फिल्म संसारमा. (मेरठ, 1970 से प्रकाशित), फिल्मी कमलमा. (मेरठ, 1970 से प्रकाशित), फिल्म अभिनेत्रीमा. (मेरठ, 1970 से प्रकाशित), पूनम की रातसा. (जबलपुर, 1970 से प्रकाशित), चित्र किरणसा. (बंबई, 1970 से प्रकाशित), सिने हलचल मासिक (दिल्ली, 1971 से प्रकाशित)।
इसके अलावा बंबईसे प्रकाशित उर्वशी (पत्रिका), कलकत्तासे प्रकाशित स्क्रीनहैं। पाक्षिक केवल एक ही निकलती है, माधुरी। मासिक पत्रिकाओं में फिल्‍मी दुनिया, सुषमा पत्रिका, पालकी, फिल्‍मी कलियां, रंग भूमितथा चित्रलेखा (पत्रिका), राजधानी से प्रकाशित होती हैं और रजनी गंधाबंबईमें। इन फिल्मी पत्रिकाओं के अतिरिक्त मेनका, युग छाया, नव चित्र पट, राधिका, फिल्मांजलि, छायाकार, प्रियाभी नियमपूर्वक प्रकाशित हो रही हैं। माधुरीको छोड़ शेष सभी फिल्मी पत्रिकाएं कथा-साहित्य प्रकाशित करती हैं। पालकीऔर आसपासमें अच्छी फिल्मी सामग्री के अतिरिक्त अन्य कई विषयों पर भी सामग्री दी जाती है।[7]
कुछ फिल्मी पत्रिकाओं की जानकारी विस्तार से :
पत्रिका का नामसंपादकीय संपर्कवेब संपर्कई मेल संपर्क
चित्रलेखा (पत्रिका)संपादकीय सह प्रशासकीय संपर्क : 94, बनारसीदास एस्‍टेट, तिमारपुर (निकट माल रोड), दिल्‍ली-110004

फिल्‍मी कलियांसंपादकीय सह प्रशासकीय संपर्क : 4675/21, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्‍ली-110002website
फिल्‍मी दुनियासंपादकीय सह प्रशासकीय संपर्क : 16, दरियागंज,नई दिल्‍ली-110002

ऑनलाइन/ऑफलाइन बाल पत्रिकाएं

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अभिनव बालमनसंपादकीय सह प्रशासकीय संपर्क : 17/239, ज़ेड, 13/59, पंचनगरी, अलीगढ़-202001, उ.प्र.,वेबसाईटabhinavbalmann@gmail.com
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चन्दामामा (बाल पत्रिका)संपादकीय सह प्रशासकीय संपर्क : ऑफिस बी-3, लुनिक इंडस्‍ट्रीज, क्रास रोड ‘बी’, एम.आई.दी.सी., अँधेरी (ईस्ट), मुंबई-400093 (महाराष्ट्र)।वेबसाईटchandamama@chandamama.com
चंपक (बाल पत्रिका)दिल्‍ली प्रेस भवन, ई-3, झंडेवाला एस्‍टेट, रानी झाँसी मार्ग, नई दिल्‍ली-110055,वेबसाईट[मृत कड़ियाँ]article.hindi@delhipress.in
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मलयालम पत्रिका, ‘वनिता’ 26.53 लाख पाठकों के साथ देश की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली पत्रिका हो गई है। हिंदी मासिक पत्रिका, ‘प्रतियोगिता दर्पण’ ने अपनी रीडरशिप में बढ़ोतरी की है। इसकी पाठक संख्या बढ़कर 20.27 लाख हो गई है। और इसने दूसरा स्थान बनाने में सफलता हासिल की है। इसी के साथ, तीसरे स्थान पर रही हिंदी पत्रिका, ‘सरस सलिल’ की पाठक संख्या में भी इजाफा हुआ है। इसकी पाठक संख्या अब 19.45 लाख हो गई है। चौथे स्थान पर, अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका, ‘इंडिया टुडे’ ने अपने कुछ पाठक खोये हैं। इसकी पाठक संख्या 17.57 लाख से घटकर 16.50 लाख रह गई है। पांचवें स्थान पर साप्ताहिक पत्रिका, ‘मलयाला मनोरमा’ 14.13 लाख पाठकों के साथ रही। जबकि, हिंदी साप्ताहिक पत्रिका, ‘इंडिया टुडे’ कुछ पाठकों की कमी के साथ छठे स्थान पर रही। इसकी पाठक संख्या घटकर 11.37 लाख रह गई है। ‘मेरी सहेली’ 11 लाख पाठकों के साथ सांतवें स्थान पर, ‘तमिल कुमदुम’ 10.66 लाख पाठकों के साथ आठवें स्थान पर, हिंदी पत्रिका, ‘गृहशोभा’ 10.61 लाख पाठकों के साथ नौवें स्थान पर और ‘गृह लक्ष्मी’ 10.31 लाख पाठकों के साथ दसवें स्थान पर रही।
—"आईआरएस के 2011 के आंकड़ों के अनुसार"[8]

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{{rquote|right|मुक्तिबोधको जब कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं था, तब ‘कल्पना’ और ‘वसुधा’ ने उन्हें पहचाना। आधुनिक काव्यशास्त्र का मूर्धन्य ग्रंथ ‘एक साहित्यिक की डायरी’ सबसे पहले ‘वसुधा’ में धारावाहिक रूप से छपा। नई कहानी का आंदोलन ‘नई कहानियाँ’ पत्रिका ने छेड़ा और प्रतिष्ठित किया। ‘सारिका’, ‘साक्षात्कार’, ‘पूर्वग्रह’, ‘दस्तावेज’, ‘पहल’, ‘वसुधा’, जैसी पत्रिकाएँ समकालीन साहित्य को जानने-समझने के लिए अनिवार्य हैं। हिन्दी में यदि पत्र-पत्रिकाएँ न होतीं तो बहुत सारा साहित्य छपने से रह गया होता या वक्त पर नहीं छप पाता।|"वेब पत्रिका सृजनगाथामें डॉ. हरिसिंह गौर"

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इन्हे भी देखें

संदर्भ

  1. सृजनगाथा में ज़ाहिद खान का आलेख : प्रतिरोध के सामूहिक स्वर, परतंत्र भारत में प्रतिबंधित पत्र-पत्रिकाएँ
  2. [http://www.rachanakar.org/2009/09/blog-post_15.htmlवेब पत्रिका रचनाकार, वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास में पत्र-पत्रिकाओं की प्रासंगिकता एवं उपादेयता।
  3. वेब दुनिया, हिन्दी में गायत्री शर्मा का आलेख : गौरवशाली भाषा हिंदी
  4. Circulation as Claimed by Publisher for 2005-06
  5. Aanubhuti-A complete classic collection of Hindi Poetry
  6. Seemapuri Times - Hindi News Magazine: Social & Political Magazine
  7. 1976 में वेद प्रकाश वैदिक द्वारा संपादित ग्रंथ हैं हिंदी पत्रकारिता, विविध आयाम में प्रकाशित लेख
  8. समाचार4 मीडिया नें आंकड़ों की जानकारी
  9. http://www.aksharparv.com/index.asp[मृत कड़ियाँ]
  10. http://www.anurodh.net/
  11. http://urvashi.weebly.com/
  12. http://www.kalayan.org/
  13. http://www.abhivyakti-hindi.org/
  14. http://kavitakosh.org/
  15. http://www.gadyakosh.org/gk/
  16. http://www.jankipul.com/
  17. http://www.bhartiyapaksha.com/
  18. http://www.rachanakar.org/
  19. http://www.laghukatha.com/
  20. http://lekhakmanch.com/
  21. http://www.lekhni.net/index2.html
  22. http://www.sahityakunj.net/
  23. http://www.sahityashilpi.com/
  24. http://www.hindikunj.com/
  25. http://www.hindisamay.com/
  26. http://www.parikalpnaa.com/
  27. http://hindi.in.com/
  28. https://news.google.com/news?ned=hi_in
  29. http://www.tehelkahindi.com/
  30. https://www.prabhasakshi.com/
  31. http://www.bbc.co.uk/hindi/
  32. http://www.mediavimarsh.com/[मृत कड़ियाँ]
  33. http://raviwar.com/
  34. http://hindi.webdunia.com/
  35. http://shukrawar.net/
  36. http://khabar.ibnlive.in.com/
  37. http://www.p7news.com/
  38. http://khabar.ndtv.com/
  39. http://aajtak.intoday.in/
  40. http://www.akshyajeevan.com/
  41. http://www.nirogdhampatrika.com/
  42. http://hindi.economictimes.indiatimes.com/
  43. http://www.nafanuksan.com/
  44. http://business.bhaskar.com/
  45. http://www.moltol.in/hindi/
  46. http://moneymantra.net.in/index.php

बाहरी कड़ियाँ

टेलीविजन की एंकर नवज्योत रंधवा

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रजत शर्मा से एक मुलाकात

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प्रस्तुति- स्वामी शरण, राहुल मानव 
बीबीसी एक मुलाक़ात-रजत शर्मा के साथ


संजीव श्रीवास्तव के साथ रजत शर्मा
रजत शर्मा को 'आपकी अदालत'शो से बहुत ख्याति मिली


बीबीसी हिंदी सेवा के विशेष कार्यक्रम 'एक मुलाक़ात'में हम भारत के जाने-माने लोगों की ज़िंदगी के अनछुए पहलुओं से आपको अवगत कराते हैं.
बीबीसी एक मुलाक़ात में इस बार मेहमान हैं भारतीय टेलीविजन के चुनिंदा सितारों में से एक रजत शर्मा.
लोगों का मानना है कि रजत शर्मा ख़ास शख़्सियत हैं जिन्होंने भारतीय न्यूज़ टेलीविजन को नई दिशा दी. आप इस बात से कितना सहमत हैं?
मैं इससे सहमत नहीं हूँ. मैं विनम्रता के लिहाज़ से ऐसा नहीं कर रहा हूँ. मैं आज भी ये मानता हूँ कि रजत शर्मा अदना सा इंसान है. वो रजत शर्मा जो टेलीविज़न पर दिखता है, जो इंडिया टीवी चलाता है वो कोई और है. मैं उसे आलोचक की नज़र से देखता हूँ. उसमें सुधार करने की कोशिश करता हूँ. मैं खुद के उस व्यक्तित्व से दूर रहने की कोशिश करता हूँ जिसकी लोग तारीफ़ करते हैं. मेरे शुरू के 15 साल पत्रकारिता से जुड़े रहे. उसमें चेहरा पर्दे के पीछे रहता है. ये बात आज भी मेरे भीतर मौजूद है.
'आपकी अदालत'न्यूज़ टेलीविज़न पर एक अलग तरह का प्रोग्राम था. इसने आपको और ज़ी को अलग पहचान दी. इसकी शुरुआत कैसे हुई?
बड़ा रोचक किस्सा है. सुभाष चंद्रा ने उन दिनों ज़ी टीवी शुरू किया था. उस समय ज़ी टीवी पर आम आदमियों के लिए जंगली तूफ़ान, टायर पंक्चर, तू चल मैं आया जैसे कार्यक्रम आते थे. एक बार मुंबई-दिल्ली फ्लाइट में मेरी मुलाक़ात सुभाष चंद्रा से हुई. मेरे कॉलेज के दोस्त गुलशन ग्रोवर ने मुझसे कहा कि अगर ज़ी टीवी पर मेरा इंटरव्यू होगा तो हमारे लिए अच्छा रहेगा. फिर मैं सुभाष चंद्रा के पास गया. मैंने उनसे कहा मेरे दोस्त गुलशन ग्रोवर का इंटरव्यू होना चाहिए.
सुभाष चंद्रा ने मुझसे कहा कि मैं ऑनलुकर में आपके इंटरव्यू पढ़ता हूँ. आप क्यों नहीं हमारे लिए इंटरव्यू करते. फिर उन्होंने कहा कि क्या होना चाहिए. मैं लगातार बोल रहा था. उसी रौ में मैंने कह दिया कि एक कटघरा लगाना चाहिए. उसमें नेताओं को बिठाना चाहिए. जनता के सामने उन पर आरोप लगाना चाहिए और हिसाब-किताब लिया जाना चाहिए. फिर हम फ्लाइट से उतर कर घर चले गए.
कुछ दिनों बाद ज़ी टीवी के क्रिएटिव डायरेक्टर कमलेश पांडे का फ़ोन आया कि आपका आइडिया सुभाष चंद्रा जी को बहुत पसंद आया है. मैंने शुरुआत में इनकार कर दिया. फिर बातचीत का सिलसिला एक महीने तक चलता रहा. आखिरकार मैं मान गया. मैंने लालू यादव, केपीएस गिल, कपिल देव से बात की. और इस तरह 16 साल पहले सबसे पहला एपीसोड मैंने लालू यादव के साथ रिकॉर्ड किया.
मेरे ख़्याल से लालू यादव के साथ आपने ‘आपकी अदालत’ दोबारा भी किया?
हाँ. जब मैंने इस प्रोग्राम को ज़ी टीवी से स्टार पर शिफ्ट किया तो फिर लालू यादव के साथ इंटरव्यू किया. जब मैंने इंडिया टीवी शुरू किया तो एक बार फिर लालू यादव को कटघरे में बिठाया.
आपकी अदालत में आपके पसंदीदा मेहमान कौन रहे?
मुझे शाहरुख़ ख़ान ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया. 12 साल पहले शाहरुख़ इतने बड़े स्टार नहीं थे, जितने कि आज हैं. जब वो इंटरव्यू के लिए आए तो उन्होंने ये नहीं कहा कि मुझे सवाल बता दीजिए, क्योंकि मैं तो दूसरे के लिखे डायलॉग बोलता हूँ. उनका जवाब देने का अंदाज़ लाजवाब था. मसलन किसी दर्शक ने उनसे पूछा कि नंबर वन कौन है. उन्होंने तपाक से कहा-मैं. इस पर मैंने उनसे कहा कि कुछ तो विनम्रता होनी चाहिए. मैंने उन्हें श्लोक 'विद्या ददाति विनियम...'सुनाया तो शाहरुख़ का जवाब था, 'थैंक्यू वैरी मच'.
अटल बिहारी वाजपेयी
रजत शर्मा का कहना है कि पिछले 15 साल में उन्होंने वाजपेयी जी के 3 इंटरव्यू किए
इसके अलावा अटल बिहारी वाजपेयी के साथ इंटरव्यू मैं नहीं भूल सकता. पिछले 15 साल में वाजपेयी जी ने मुझे तीन इंटरव्यू दिए हैं.
दो बार मैंने उन्हें अदालत में बुलाया है और एक बार उनके प्रधानमंत्री रहते मैंने उनका इंटरव्यू किया. आम तौर पर वो इंटरव्यू देते नहीं हैं. आपकी अदालत में भी आखिरी वक़्त तक हमें ये पता नहीं था वो आएँगे भी कि नहीं. उनके दामाद रंजन भट्टाचार्य मेरे कॉलेज के दोस्त हैं. उन्होंने भी इंटरव्यू के लिए वाजपेयी जी को मनाने में मेरी मदद की.
वाजपेयी जी के इंटरव्यू के दौरान मैं काफ़ी डरा हुआ था. लेकिन वाजपेयी जी ने किसी सवाल पर आपत्ति नहीं की और हर सवाल का जवाब दिया. मसलन मैंने उनसे एक सवाल पूछा कि आपकी पार्टी कैसे अलग है. उनका जवाब था, हमारी पार्टी आदर्शों, मूल्यों की पार्टी है. ये उस वक़्त की बात है जब शंकर सिंह वाघेला ने भाजपा छोड़ दी थी.
फिर मैंने उनसे पूछा-हाँ, हमने आपकी पार्टी के मूल्य और आदर्श देखे हैं, कैसे विधायकों को जहाज में भरकर ले जाया गया. उनका जवाब था, 'कभी-कभी जवान बेटे की मौत हो जाती है. इसका मतलब ये नहीं कि कोई माँ अपने बेटे को जवान नहीं देखना चाहती. गुजरात में जो हुआ वो दुर्घटना थी. हम कोशिश करेंगे कि ऐसी घटनाएँ दोबारा न हों.'
बाला साहेब ठाकरे के साथ भी इंटरव्यू बहुत दिलचस्प था. मुझे लोगों ने कहा था कि उनसे सवाल पूछना बहुत मुश्किल काम है. मैं पूरी तैयारी के साथ गया था.
मैंने पहला सवाल उनसे पूछा कि सुना है कि मुंबई आपके नाम से कांपती है, उनका जवाब था कि कांपनी चाहिए. मुझसे नहीं कांपेगी तो क्या आपसे कांपेगी. एक सवाल मैंने उनसे कहा कि आपके लोग जब आंदोलन करते हैं तो खून बहता है, तो क्या इन आंदोलनों से भगवान राम खुश होते हैं.
उनका कहना था, भगवान राम का तो पता नहीं, लेकिन मैं खुश होता हूँ. दिलीप कुमार के बारे में मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि दिलीप कुमार मेरे दोस्त थे. वो घर पर आते थे. हम साथ में बीयर पीते थे, चने खाते थे. आज बीयर भी है, चने भी हैं, लेकिन दिलीप कुमार नहीं हैं.
आपकी पसंद के गाने कौन से हैं?
'जय हो'मुझे बहुत पसंद है. इसके अलावा एआर रहमान का 'वंदे मातरम', मुग़ले आज़म का गाना 'तेरी महफिल में किस्मत', 'कजरारे-कजरारे', लगान का गाना 'मितवा'भी मुझे पसंद है. हम दोनों फ़िल्म का गाना 'मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया'बहुत पसंद है.
आप नए अंदाज़ में दिख रहे हैं. आपने नए सूट भी सिलवा लिए हैं. तो क्या राज है इसके पीछे, सिर्फ़ नया प्रोग्राम या फिर कुछ और?
दरअसल, चार साल पहले जब इंडिया टीवी शुरू किया तो तीन साल तक अपने ऊपर ध्यान देने का वक़्त ही नहीं मिला. मुझे अहसास हुआ कि कुछ वज़न भी बढ़ गया है, ऊपर से कैमरा भी आपको और वज़नी बना देता है. फिर मैने साल भर कैमरे से छुट्टी ली. रोज दो घंटे जिम में कड़ा अभ्यास किया. नतीजा ये हुआ कि मैंने करीब 12 किलो वज़न घटाया. कपड़ों का साइज़ भी कम हो गया है. मैं अब भी लगातार व्यायाम कर रहा हूँ.
आपकी मेहनत दिख भी रही है. तो आपने ज़बर्दस्त संकल्प दिखाया?
मुझे लगता है कि हम जिस पेशे में है, ये उसकी ज़रूरत भी है. हम ऐसा नहीं कर सकते कि हम टेलीविज़न पर लोगों को दिखें और अच्छा नहीं दिखें. हमारे मुल्क को इसकी बहुत ज़रूरत है कि लोग अपने सेहत के बारे में जानें और उसका ध्यान रखें.
आपने ‘आपकी अदालत’ को रिलॉन्च किया है?
साल भर से हम ‘आपकी अदालत’ के पुराने शो लोगों को दिखा रहे थे. लोग बोर हो गए थे. फिर हमने नए शो शुरू किए. पहला शो संजय दत्त के साथ किया. संजय दत्त भी नए लुक में आए. उनकी भी नई पारी शुरू हुई है.
बात संजय दत्त की चली है तो वो इन दिनों ज़्यादा फिट नहीं दिख रहे हैं?
आपकी अदालत के इंटरव्यू से पहले मेरी उनसे इस बारे में चर्चा हुई थी. संजय ने माना कि कुछ समय से वो ख़ुद पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे. लेकिन वो जल्द ही कार्बोहाइड्रेड और एल्कोहल आदि छोड़ देंगे.
‘आपकी अदालत’ का अंदाज और तेवर तो नहीं बदला है?
शो का अंदाज़ और तेवर वही है. शो का फॉर्मेट थोड़ा बदला है. ओपनिंग म्यूजिक बदल गया है. इसके अलावा लोगो, कलर में भी थोड़ा बदलाव हुआ है. सवाल पूछने का तरीक़ा नहीं बदला है.
हाँ, ‘आपकी अदालत’ में हम ऐसे लोगों को लाने की कोशिश कर रहे हैं जिनके बारे में लोग ज़्यादा से ज़्यादा जानना चाहते हैं. मसलन दर्शक जल्द ही शिल्पा शेट्टी को आपकी अदालत में देखेंगे.
तो शिल्पा शेट्टी के साथ किस तरह के सवाल पूछे?
मैंने उनसे सब तरह के सवाल पूछे. उनकी बस एक ही शर्त थी कि अक्षय कुमार से उनके रिश्तों पर सवाल न पूछें. इसके अलावा मैंने उनसे जेड गुडी, अपने ब्वॉय फ्रेंड राज कुंद्रा, आईपीएल के बारे में भी सवाल किए.
शाहरुख़ ख़ान
रजत शर्मा का कहना है कि शाहरुख़ ख़ान ने इंटरव्यू के दौरान उन्हें बहुत प्रभावित किया
कोई ऐसा क्षण जब इंटरव्यू करते हुए आप बेहद शर्मिंदा हुए हों?
नहीं. मेरे साथ तो ऐसा नहीं हुआ है, लेकिन लोगों के साथ मैंने कई बार ऐसा किया है.
एक मर्तबा मैं रेणुका चौधरी का इंटरव्यू कर रहा था. मैंने उनसे पूछा कि आपके पति आपके काम में दखलअंदाज़ी तो नहीं करते. इस पर उन्होंने मुझसे कहा कि आपकी शादी हो गई है. मैंने कहा-आपका इरादा क्या है. ये सुनकर वो बहुत शर्मिंदा हुईं.
ऐसे ही उमा भारती से मैंने कहा कि आपको लोग सैक्सी संन्यासिन क्यों कहते हैं. उमा भारती का मुंह लाल हो गया था. इंटरव्यू के बाद भी वो बहुत नाराज़ थीं कि इंटरव्यू में कोई ऐसी बात कैसे पूछ सकता है.
सवाल पूछते हुए आपको हिचकिचाहट होती है क्या?
अदालत में सवाल पूछने से पाँच मिनट पहले अगर आप मुझसे मिलेंगे तो मैं बहुत घबराया हुआ होता हूँ. मुझे लगता है कि मेरा गला सूख रहा है, मैं सवाल नहीं पूछ पाऊँगा. लेकिन जैसे ही शो शुरू होता है, सब बदल जाता है. ईमानदारी से कह रहा हूँ कि जब मैं शो को बाद में देखता हूँ तो मुझे खुद लगता है कि मैंने ऐसा सवाल कैसे पूछ दिया.
पत्रकार से प्रजेंटर या प्रफोर्मर बनने के लिए क्या तैयारी करते हैं?
मैं तैयारी तो बहुत करता हूँ. ‘आपकी अदालत’ करते हुए मुझे 16 साल हो जाएँगे. आज भी जब मैं कोई शो करता हूँ तो तैयारी पूरी करता हूँ. उस शख्सियत के बारे में पूरी जानकारी लेता हूँ. हालाँकि उसमें से 70-80 फ़ीसदी चीज़ें इस्तेमाल नहीं होती, लेकिन इससे मुझे बहुत आत्मविश्वास मिलता है.
आपके बचपन पर लौटते हैं, आपका बचपन कहाँ बीता?
हमारी जड़ें भीलवाड़ा, चित्तौड़ में हैं. मेरा जन्म दिल्ली में हुआ. बचपन को याद करता हूँ तो आज भी तकलीफ़ होती है. आज जितना बड़ा मेरा बाथरूम है, मेरा बचपन इतने बड़े कमरे में बीता. सब्जी मंडी की पुरानी गलियों में तीसरी मंजिल पर. उस कमरे में हम सात भाई, एक बहन और माता-पिता यानी दस लोग रहते थे. नहाने के लिए हम नगर निगम के नल पर जाते थे. नगर निगम के स्कूल में पढ़ता था. रात में पढ़ने के लिए मैं पास के किशनगंज रेलवे स्टेशन पर जाता था.
कई बार खाने को नहीं मिलता था, दो-दो दिन तक हम भूखे रहते थे. जब मैंने अच्छे नंबरों से आठवीं पास की तो हमारी जान-पहचान के एक लेक्चरर ने मेरा दाखिला करोलबाग के रामजस स्कूल में कराया. स्कूल घर से दूर था, बस के पैसे भी नहीं थे. सब्जी मंडी से करोलबाग तक मैं तीन साल तक पैदल गया. जब मैं पैदल जाता था तो ये संकल्प लेता था कि इस ग़रीबी से लड़ना है और अपने परिवार के लिए कुछ करना है. मैं तो जहाँ कहीं जाता हूँ तो अपने इन दिनों का जिक्र ज़रूर करता हूँ. इस देश में और इस मिट्टी में ऐसी बात है जो ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति को भी सफलता के शिखर पर पहुँचा सकती है.
आपके माता-पिता ने आपकी इस सफलता को देखा?
उमा भारती
रजत शर्मा का कहना है कि आपकी अदालत में उमा भारती से कुछ सवाल हो गए थे, जिनसे उमा नाराज हो गई थी
मेरी मां तो मेरी सफलता को नहीं देख सकी. हम उनका ठीक से इलाज नहीं करवा पाए और उनका निधन काफ़ी पहले हो गया. लेकिन मेरे पिता ने इस सफलता को देखा. उनका निधन तीन साल पहले हुआ. वो मेरे दर्शक और आलोचक दोनों थे. उन्हें मुझ पर बहुत गर्व था. मेरे लिए सबसे बड़ा संतोष था कि आखिरी दिनों में उन्होंने खूब धन-दौलत देखी. मैं अपने पिता से कहता था कि सच्चाई का रास्ता मुश्किल का रास्ता है. मैंने बहुत तकलीफ़ देखी है, मैं क्यों इस रास्ते पर जाऊँ. इस पर मेरे पिता कहते थे जीवन एक भट्टी है. अगर सोना होगे तो तपकर बाहर निकल जाओगे. उनकी हर बात में कुछ न कुछ सीख होती थी.
रजत शर्मा अपने बच्चों को क्या सीख देते हैं?
मेरी दो बेटियाँ हैं. बड़ी लड़की श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स में इकोनॉमिक्स ऑनर्स कर रही है. दूसरी लड़की अजमेर के मेयो कॉलेज में पढ़ती है. दोनों लड़कियाँ बोर्डिंग स्कूल में पढ़ी हैं. मैं कोशिश करता हूँ कि जो सीख मुझे मेरे पिता से मिली वो मैं उन्हें दे सकूँ. उनसे देश, संस्कृति और दूसरे मुद्दों पर बातचीत करने की कोशिश करता हूँ.
आपकी बेटियाँ किन मुद्दों पर आपकी आलोचना करती हैं?
मेरी बेटियों को न्यूज़ या मेरे शो में ख़ास दिलचस्पी नहीं है. उनकी पीढ़ी को कुछ और पसंद है. अगर मेरे शो में शाहरुख़ ख़ान, आमिर ख़ान हैं तो उन्हें ये पसंद है, लेकिन अगर शो में लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज या राहुल गांधी होंगे तो उनकी इसमें दिलचस्पी नहीं होती.
तो आप उनकी इस राय से इत्तेफ़ाक नहीं रखते?
नहीं. वो मेरे आलोचक नहीं है. मेरे काम पर उनकी बहुत ज़्यादा टिप्पणियां नहीं होती.
आप श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स में पढ़े हैं. तो पढ़ाई में बहुत अच्छे थे?
मैं बहुत मेधावी तो नहीं था, लेकिन क्योंकि करने को कुछ और नहीं होता था इसलिए सिर्फ़ पढ़ाई करता था. जब मैंने 11वीं पास की तो मैरिट में नाम आया और श्रीराम कॉलेज में दाखिला मिल गया. इससे मेरा जीवन बदल गया. कॉलेज में पहले दिन मेरी मुलाक़ात अरुण जेटली से हुई. वो उस समय कॉलेज यूनियन के अध्यक्ष थे.
अरुण जेटली ने फार्म भरने में मेरी मदद की और कुछ पैसे कम पड़ रहे थे, उसमें भी उन्होंने मेरी मदद की. विजय गोयल, गुलशन ग्रोवर, राकेश ओमप्रकाश मेहरा भी हमारे कॉलेज में थे. ये सब लोग अंग्रेज़ी स्कूलों से पढ़ कर आए थे. मैं हिंदी स्कूल में पढ़ा था. मैंने इन्हें देखकर ही अंग्रेजी़ बोलना सीखा. सबसे अहम बात ये रही कि इन लोगों ने कभी ये भेदभाव नहीं किया कि मैं ग़रीब परिवार से हूँ, पब्लिक स्कूल से नहीं पढ़ा हूँ.
पत्रकार बनने की कब सोची?
पत्रकार बनने की नहीं सोची था. सोचा था कि एम कॉम के बाद बैंक में नौकरी करेंगे और घर का भार कम करेंगे. एम कॉम के रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहा था तभी मेरी मुलाक़ात जयनंदा ठाकुर से हुई. उन्हें रिसर्चर की ज़रूरत थी. उन्होंने इसके लिए मुझे चार सौ रुपये महीने देने का वादा किया. एक दिन मैंने उनसे कहा कि जितनी सूचनाएँ मैं देता हूँ, वो सब तो आप इस्तेमाल नहीं करते. क्या मैं इसे इस्तेमाल कर सकता हूँ. फिर मैंने एक लेख ऑनलुकर पत्रिका को भेजा और उन्होंने इसके लिए मुझे 600 रुपये दिए. ये बात जुलाई 1982 की होगी. ऑनलुकर के एडीटर डीएम सिल्वेरा ने मुझे पत्रिका में बतौर ट्रेनी का ऑफ़र दिया.
इसे किस्मत कहें या कुछ और. 1982 के आखिर में उन्होंने मुझे संवाददाता बना दिया, 1984 में दिल्ली का ब्यूरो चीफ़. फिर 1985 में सिल्वेरा साहब ने इस्तीफ़ा दे दिया. मैगज़ीन के मालिक ने मुझे मुंबई बुलाया और कहा कि हम सोच रहे हैं आपको एडीटर बना दें. इसके बाद प्रीतिश नंदी के साथ मैंने चंद्रास्वामी के ख़िलाफ़ स्टिंग ऑपरेशन किया. मैगज़ीन बहुत अच्छी चली. तीन साल मैं उसका एडीटर रहा. उसके बाद एक साल संडे ऑब्ज़र्बर और फिर तीन साल द डेली में एडीटर रहा. फिर टेलीविज़न में आ गया.
इंटरव्यू के लिहाज़ से सबसे ज़्यादा ख़राब शख्सियत कौन थी?
देखिए, कभी किसी शख्सियत ने मुझे ज़लील करने की कोशिश नहीं की और न ही नाराज़ हुए. लेकिन मुश्किल तब होती है जब सामने वाला जवाब न दे. मोतीलाल वोरा उस समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे. अपने स्वभाव के मुताबिक वो सवालों के जवाब नहीं दे रहे थे. उनके जवाब हाँ-ना में हो रहे थे. तब मैंने उन्हें हाथ जोड़कर कहा कि कुछ तो कहें, नहीं तो प्रोग्राम कैसे चलेगा.
 एक आदमी था जिनसे मैं दोस्ती करना चाहता था, लेकिन बदकिस्मती से मुझे उनका साथ नहीं मिल पाया. वो थे किशोर कुमार. लेखक, डांसर, गायक, अभिनेता, डायरेक्टर और न जाने क्या-क्या
रजत शर्मा
आपकी पसंदीदा टेलीविज़न शख्सियत?
हमारे देश में मैं प्रणॉय राय को सबसे अच्छी टेलीविज़न शख्सियत मानता हूँ. जितने आराम से वो बात करते हैं, उससे मुझे आज भी बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है. मैं उन्हें इस देश का 'फादर ऑफ़ एंकर्स'कहूँगा. उन्होंने टेलीविज़न की दुनिया में काफ़ी योगदान किया है.
समाचारों की दुनिया के अलावा आप क्या करते हैं?
मैं अपने परिवार के साथ वक़्त गुज़ारता हूँ. इसके अलावा मुझे हिंदी फ़िल्में देखने का भी शौक है.
आपकी पसंदीदा फ़िल्म?
मेरी ऑल टाइम फेवरिट फ़िल्म है मुग़ले आज़म. मैंने इसे करीब 100 बार देखा होगा. मुझे लगता है कि इससे बेहतरीन फ़िल्म न कभी बनी है और न कभी बनेगी. इसके अलावा 'दीवार'के डायलॉग भी मुझे बहुत पसंद हैं.
हाल की फ़िल्मों में कौन सी पसंद आई?
हाल की फ़िल्मों में मुझे स्लमडॉग मिलियनेयर पसंद आई. इस फ़िल्म को देखकर मुझे फिर ख़्याल आया कि हिंदुस्तान में ग़रीब से ग़रीब आदमी भी करोड़पति बन सकता है.
फ़िल्म इंडस्ट्री में कोई दोस्त?
बहुत लोग दोस्त हैं. शाहरुख़ से दोस्ती है. अमिताभ बच्चन से बरसों पुरानी दोस्ती है. आमिर ख़ान से भी अक्सर बात होती रहती है. महेश भट्ट से भी विभिन्न मुद्दों पर चर्चा होती है. बहुत लंबी लिस्ट है.
आपकी पसंदीदा अभिनेत्री?
जूलिया रॉबर्ट्स. भारतीय अभिनेत्रियों में मुझे लगता है कि मधुबाला के बाद कोई खूबसूरत अभिनेत्री नहीं आई है. हाँ, रेखा को मैं ऑल टाइम ग्रेट मानता हूँ क्योंकि जिस समय वो फ़िल्मों में आई थी तब उनका चेहरा मोहरा आम था, लेकिन उन्होंने खुद में बहुत बदलाव किया.
आपके खुद के रोल मॉडल हैं?
सच बताऊँ मुझे अब तक कोई रोल मॉडल नहीं मिला है. सबसे थोड़ा-थोड़ा सीखा है. हाँ, एक आदमी था जिनसे मैं दोस्ती करना चाहता था, लेकिन बदकिस्मती से मुझे उनका साथ नहीं मिल पाया. वो थे किशोर कुमार. लेखक, डांसर, गायक, अभिनेता, डायरेक्टर और न जाने क्या-क्या. मुझे नहीं लगता कि उन जैसी कोई दूसरी शख्सियत फ़िल्म इंडस्ट्री में आई है.
आपके जीवन का सबसे खुशनुमा पल?
मैं अब जो जिंदगी जी रहा हूँ, वो खुशनुमा है. मुझे शोहरत भी मिली है. अच्छे बच्चे, पत्नी, दोस्त, ऑफिस. इसलिए मुझे एक-एक लम्हा खूबसूरत लगता है.
खाने में क्या पसंद है?
पसंद तो बहुत कुछ है, लेकिन अब तो कंट्रोल डाइट मिलती है. मुझे तो मूंग की दाल भी छिलके वाली मिलती है. एक दिन मैं घर में पत्नी से बात कर रहा था कि एक समय था जब घर में खाने को कुछ नहीं था और खाने का मन करता था. अब खाने को तो है, लेकिन खा नहीं सकते.
रजत शर्मा उभरते पत्रकारों को क्या टिप्स देंगे?
पत्रकारिता में प्रतिबद्ध लोगों की बहुत कमी है. इस पेशे में सफलता का शॉर्ट कट नहीं है. इसका रास्ता लंबा है और इसमें बेइमानी की गुंजाइश नहीं है. हम इस पेशे में इसलिए नहीं हैं कि पैसे कमाएँ, बड़ा घर बनाएँ. समाज के प्रति हमारी कुछ ज़िम्मेदारी है.
भूत-प्रेत जैसे शो पर आपका क्या कहना है?
हमारे चैनल से ये शिकायत दो-तीन महीने पहले तक थी. मुझे ये कहते हुए कोई हिचकिचाहट नहीं है कि व्यवसायिक कारणों से हमें कुछ ऐसे प्रोग्राम करने पड़े. लेकिन अब स्थिति बदली है. अब हमारे विषय बदल गए हैं. अब हमारे विषय बराक ओबामा हैं, तालेबान हैं, पाकिस्तान है. भारत की राजनीति है. मुझे खुशी है कि इन कार्यक्रमों के बाद भी हमारी रेटिंग कायम है.
आपको स्टारडम कैसा लगता है?
बहुत अच्छा लगता है. मैं ये विनम्र होकर नहीं कह रहा हूँ. हाँ कभी-कभी तकलीफ़ होती है. पाकिस्तान की एक दर्शक ने खून से लिखी एक चिट्ठी मुझे भेजी थी. तब मैं ऐसी चिट्ठियां अपनी पत्नी के सामने रख देता हूँ.
आने वाले दिनों में रजत शर्मा से क्या अपेक्षा रखें?
मुझे लगता है कि समाज ने मुझे बहुत कुछ दिया है. आने वाले दिनों में मेरी कोशिश रहेगी कि मैं समाज को क्या दे सकता हूँ. मैं नई पीढ़ी को पत्रकारिता सिखाना चाहता हूँ. अच्छा टेलीविज़न कैसे हो सकता है. बिना बेइमानी के पैसा कैसे कमाया जा सकता है, ये सिखाना चाहता हूँ. मेरा संकल्प है कि मैं राजनीति में नहीं जाऊँगा.

एक मुलाकात सर मार्क टली के साथ

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प्रस्तुति-- स्वामी शरण , किशोर प्रियदर्शी --

मार्क टली
मार्क टली को उनकी पत्रकारिता के लिए नाइटहुड, पद्मश्री, पद्मभूषण से सम्मानिक किया जा चुका है

बीबीसी हिंदी सेवा के विशेष कार्यक्रम 'एक मुलाक़ात'में हम भारत के जाने-माने लोगों की ज़िंदगी के अनछुए पहलुओं से आपको अवगत कराते हैं.
बीबीसी एक मुलाक़ात में इस हफ़्ते के मेहमान हैं बहुत कामयाब, प्रतिभावान, लोकप्रिय और बहुत से पत्रकारों के रोल मॉडल मार्क टली.
जब हम लोग पत्रकारिता में आ रहे थे और कोई भी पत्रकारिता में कुछ करने की कोशिश करता था तो तुलना आपसे या फिर अरुण शौरी से होती थी. कैसा लगता था आपको?
मुझे ये तो पता नहीं कि लोग ऐसा क्यों बोलते थे. मैं ये नहीं कहूँगा कि मेरा करियर सिर्फ़ मेरी मेहनत का नतीजा था. मेरी क़िस्मत और ईश्वर मेरे साथ था.
दरअसल, उस दौर में भारत में टेलीविज़न नहीं था या फिर बहुत कम था. रेडियो सिर्फ़ सरकार के हाथ में था. लोग कहते थे कि ऑल इंडिया रेडियो सरकारी रेडियो है. लोग दूसरे नज़रिए से ख़बरें सुनना चाहते थे तो बीबीसी सुनते थे. मैं बीबीसी से जुड़ा था, इसी वजह से मेरा नाम भी बड़ा हुआ.
आज भी हम जब कभी श्रोताओं या वीआईपी के बीच होते हैं तो लोग पूछते हैं कि वो आपके मार्क टली साहब होते थे, अब कहाँ हैं. तो इस तरह की प्रतिष्ठा या छवि बनाना, यानी बीबीसी यानी मार्क टली. तो इस तरह के करियर के बाद कैसा महसूस होता है?
नहीं. ऐसा कुछ ख़ास महसूस नहीं होता है. ऐसा होगा तो मुझमें घमंड आ जाएगा. घमंड होना पत्रकारिता के लिए अच्छा नहीं है. मैं युवा पत्रकारों से भी यही कहता हूँ कि पत्रकारिता के लिए घमंड सबसे बड़ा पाप है.
ये सोचना कि मैंने बहुत बड़ी स्टोरी लिख दी, मैं बड़ा पत्रकार बन गया, ग़लत है. मसलन, मैंने ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की फाँसी की स्टोरी कवर की थी तो वो मेरी स्टोरी नहीं थी वो भुट्टो की स्टोरी थी. इसलिए जब कभी लोग कहते हैं कि मैं बहुत बड़ा आदमी हूँ तो मुझे डर लगता है कि कहीं मुझमें घमंड न आ जाए.
 इंदिरा गांधी के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कह सकता. कभी वह बहुत मित्रवत व्यवहार करती थीं तो कभी बहुत रूखा. आपातकाल के बाद एक-दो बार मैं डायरेक्टर जनरल के साथ इंदिरा गांधी के पास गया था. वहाँ डायरेक्टर जनरल ने इंदिरा जी से पूछ लिया कि आपको लोगों ने हरा दिया, आप क्या सोचती हैं. इंदिरा गांधी का कहना था कि लोगों को अफवाह फैलाकर गुमराह किया गया है और अधिकतर अफवाहें बीबीसी ने फैलाई हैं
मार्क टली
भुट्टो की तरह ही आपने इंदिरा गांधी हत्याकांड को भी कवर किया था. राजीव गांधी की ट्रांजिस्टर सुनने की तस्वीर. पता नहीं राजीव गांधी ट्रांजिस्टर पर क्या सुन रहे थे, लेकिन लोगों को कहना है कि वो बीबीसी सुन रहे थे?
लेकिन आपको बताना चाहूँगा कि ट्रांजिस्टर पर आवाज़ मार्क टली की नहीं, बल्कि सतीश जैकब की थी. मैं तो ये कहूँगा कि सतीश जैकब का साथ न मिलता तो शायद मेरा भी इतना नाम नहीं होता.
चलिए, शुरुआत में लौटते हैं. आपकी पैदाइश भारत में हुई फिर आप लंदन गए. अपने जीवन के बारे में कुछ बताएँ?
मेरा जन्म कोलकाता के टॉलीगंज में हुआ. मेरे पिता वहाँ एक कंपनी ग्लैंडर रॉबर्ट्सनॉब में पार्टनर थे. ये कंपनी तब बहुत बड़ी हुआ करती थी और इसके कब्ज़े में कोयला खानें, रेलवे और बीमा कंपनी हुआ करती थी. मेरी मां का जन्म बांग्लादेश में छोटी सी जगह ऑकेरा जंक्शन में हुआ था. आज भी वहाँ सिर्फ़ ट्रेन से जाया जा सकता है.
10-15 साल पहले जब मैं ऑकेरा जंक्शन गया तो स्टेशन मास्टर ने मुझसे पूछा कि आप यहाँ क्यों आये हो. तब मैंने उनसे कहा कि मेरी माँ का जन्म यहाँ हुआ है. तो उसका जवाब था कि तब तो आपका नागरिक अभिनंदन होना चाहिए. मैं वहाँ से जल्द ही खिसक गया.
बचपन कलकत्ता में बीता. हम भारतीय बच्चों के साथ नहीं खेलते थे. स्कूल में अंग्रेज़ बच्चों के साथ ही पढ़ते थे. यहाँ तक कि जब मैंने थोड़ी बहुत हिंदी लिखने की कोशिश की तो मेरे पीछे 24 घंटे के लिए एक आया लगा दी गई कि मैं हिंदी ज़बान न सीख सकूँ. मुझे कहा जाता था कि मैं ख़ानसामों या दूसरे नौकरों के ज़्यादा क़रीब न जा सकूँ.
एक बार मेरे माता-पिता के ड्राइवर के साथ मैं हिंदी में गिनती बोल रहा था तो मेरी आया ने मुझे थप्पड़ जमाया और कहा कि ये आपकी ज़बान नहीं है. तो बचपन में हमें हिंदी या बंगाली सीखने का मौक़ा नहीं मिला.
फिर पढ़ाई-लिखाई. स्कूल कॉलेज?
मैं इंग्लैंड में एक पब्लिक स्कूल में पढ़ा. ये लड़कों का स्कूल था. बदमाशी करने या ठीक से पढ़ाई-लिखाई न करने पर टीचर ख़ूब पिटाई किया करते थे. फिर मैं दो साल के लिए फौज में भी गया. लेकिन मुझे फ़ौज क़तई पसंद नहीं आई. फिर मैं केंब्रिज यूनिवर्सिटी गया. वहाँ मैंने इतिहास और धार्मिक पढ़ाई की. मैंने पादरी बनने की सोची थी. लेकिन पढ़ाई नहीं हो सकी.
पाँच साल तक मेरी पढ़ाई दार्जिलिंग में बोर्डिंग में हुई. फिर मैं इंग्लैंड चला गया. 21 साल तक सिर्फ़ पढ़ाई-पढ़ाई हुई. यूनिवर्सिटी पहुँचा तो एक तरह की आज़ादी का अहसास हुआ. तो पढ़ाई बहुत कम करते थे, खेलते-कूदते थे और लड़कियों के पीछे भागते थे.
मार्क टली
मार्क टली भारत के शहर कलकत्ता में पैदा हुए
जब आप 9 साल की उम्र में कोलकाता से इंग्लैंड गए तो कैसा लगा?
मुझे लगा कि मैं बहुत ख़राब जगह आ गया हूँ. इसकी दो-तीन वजहें थी. एक तो वहाँ मौसम बहुत ख़राब था और धूप बहुत कम आती थी. भारत में हमारे पास बहुत नौकर थे, वहाँ अपना काम ख़ुद करना पड़ता था. भारत में मेरे बहुत दोस्त थे, वहाँ ज़्यादा दोस्ती नहीं थी. फिर वहाँ पहुँचते ही स्कूल में मेरा दाख़िला करा दिया गया था. स्कूल अध्यापक बहुत कड़े और सख्त थे. दार्जिलिंग में हमारा स्कूल बहुत अच्छा था.
फ़ौज से आए, कैंब्रिज में इतिहास और थियोलॉजी पढ़ी. फिर बीबीसी से कैसे जुड़े?
ये भी इत्तेफ़ाक़ से हुआ जब मैं पादरी बनने के लिए पूरी पढ़ाई नहीं कर सका. प्रिंसिपल ने मुझे बुलाकर कहा कि आप अच्छे इंसान हैं, लेकिन गंभीर नहीं हैं. इसलिए आप लोगों को उपदेश न दें और पब्लिक हाउस में रहें.
उसके बाद मैंने एक बुज़ुर्ग लोगों की मदद करने वाली एक ग़ैर सरकारी संस्था में चार साल तक काम किया. इत्तेफ़ाक़ से मैंने एक विज्ञापन देखा और बीबीसी में आवेदन किया. लेकिन मुझे पत्रकारिता का मौक़ा नहीं मिला. वहाँ मैं पर्सनल डिपार्टमेंट में था. बाबूगिरी का काम था. मुझे एक साल बाद भारत आने का मौक़ा मिला. भारत जाने के लिए जब मेरा इंटरव्यू हुआ तो उन्हें उम्मीद थी कि मैंने नौ साल भारत में गुज़ारे हैं, इसलिए थोड़ी बहुत हिंदी ज़रूर जानता हूँगा. लेकिन मुझे सिर्फ़ छोटी-मोटी कविता ही आती थी.
तो भारत में जब आए, तभी पत्रकारिता करने का मौका मिला?
दरअसल, भारत में जब आया तो पर्सनल विभाग में ही आया था. यहाँ ज़्यादा काम नहीं था. मैंने ख़ुद से पत्रकार बनने का फ़ैसला किया. मैं टेलीविज़न टीम की मदद किया करता था. मैंने सबसे पहले स्टेट्समैन विंटेज कार रैली पर फ़ीचर किया था. उस दौरान प्रोड्यूसर एक महिला थीं और उन्हें ये फ़ीचर बहुत पसंद आया था.
बचपन में तो आप हिंदी सीख नहीं सके. फिर इंग्लैंड चले गए. तो आप हिंदी बोलना कैसे सीखे?
मैंने हिंदी बोलने की कोशिश तो की थी, लेकिन पत्रकारिता के दौरान व्यस्तता काफ़ी बढ़ गई थी. नियमित रूप से तो हिंदी नहीं सीख सका, लेकिन अख़बार पढ़ लिखकर ही मैंने हिंदी सीखी. मैं हमेशा कहता हूँ कि इस देश के लिए ये बहुत शर्म की बात है कि मैं जब कभी किसी से हिंदी में बात करने की कोशिश करता हूँ तो वो जवाब अंग्रेज़ी में देता है.
क्या आपको भी लगता है कि हिंदी भले ही राष्ट्रभाषा हो, लेकिन एक दौर ऐसा था कि जो लोग अंग्रेज़ी नहीं बोल पाते थे ख़ुद को छोटा महसूस करते थे?
उस दौर में अगर आप लोगों से हिंदी में बात करते थे तो लोग नाराज़ हो जाते थे कि ये आदमी सोचता है कि मैं अंग्रेज़ी नहीं जानता हूँ. मेरा मानना है कि भारत का आत्मविश्वास और बढ़ा है. लेकिन हिंदी बोलने वालों का आत्मविश्वास और बढ़ना चाहिए.
 मुझे लगता है ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के मुक़दमे की सुनवाई की कवरेज बहुत मुश्किल थी. मैं हर शाम को जज के पास जाता था. उनका कहना था कि वो मुझे सब कुछ बताएँगे, लेकिन अगर स्टोरी चलेगी तो वो खंडन कर देंगे. तो ये मेरे लिए बहुत मुश्किल स्थिति थी.
मार्क टली
बतौर पत्रकार आपने बहुत सारी कहानियाँ की हैं. कोई यादगार कहानी?
एक दिलचस्प घटना है. आपातकाल के दौरान विद्याचरण शुक्ला सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे. उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा कि आप लोगों को ख़बरें कहाँ से मिलती हैं. मैंने जवाब दिया कि हमारे पास पत्रकार हैं, हम आकाशवाणी पर ख़बरें सुनते हैं. फिर उन्होंने कहा कि मैं सोचता हूँ कि आप जासूसी करते हैं. मैंने पूछा कि आपको क्यों लगता है कि मैं जासूस हूँ तो उनका कहना था कि अगर आप जासूस नहीं हैं तो फिर आपने हिंदी क्यों सीखी?
विद्याचरण शुक्ला को संजय गांधी का बहुत क़रीबी माना जाता था. हाल ही में टेलीविज़न देख रहा था कि वरुण गांधी मामले में शुक्ला से किसी ने पूछा कि अगर संजय गांधी होते तो क्या करते. शुक्ला का जवाब था कि संजय वरुण को दो थप्पड़ जड़ते. आपका क्या कहना है?
संजय गांधी बहुत ही कड़क मिजाज़ के थे. उनका मानना था कि डंडे के ज़ोर पर सब ठीक हो सकता है. इसलिए आपातकाल बहुत ख़राब था.
श्रीमती इंदिरा गांधी से आपकी मुलाक़ात थी. उनके बारे में आपका क्या कहना है?
इंदिरा गांधी के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कह सकता. कभी वह बहुत मित्रवत व्यवहार करती थीं तो कभी बहुत रूखा. आपातकाल के बाद एक-दो बार मैं डायरेक्टर जनरल के साथ इंदिरा गांधी के पास गया था. वहाँ डायरेक्टर जनरल ने इंदिरा जी से पूछ लिया कि आपको लोगों ने हरा दिया, आप क्या सोचती हैं. इंदिरा गांधी का कहना था कि लोगों को अफवाह फैलाकर गुमराह किया गया है और अधिकतर अफवाहें बीबीसी ने फैलाई हैं.
आख़ीरी बार मैं इंदिरा गांधी से 1983 में कॉमनवेल्थ प्राइम मिनिस्टर कॉन्फ्रेंस में मिला था. मैंने उनका छोटा सा इंटरव्यू लिया. इंटरव्यू के बाद इंदिरा जी ने मुझसे टेप रिकॉर्डर बंद करने को कहा और 10-15 मिनट तक देश के हालात के बारे में चर्चा करती रहीं.
यादगार घटनाओं की बात करें तो?
सबसे आख़िरी घटना अयोध्या की थी. जिस समय वहाँ तोड़फोड़ चल रही थी मैं वहीं मौजूद था. अयोध्या से स्टोरी भेजना संभव नहीं था तब मैं तुरंत फ़ैज़ाबाद गया और वहां से स्टोरी भेजी.
बीबीसी ने सबसे पहले तोड़फोड़ की खबर दी थी. बाद में अयोध्या और फ़ैज़ाबाद के बीच हमें कुछ लोगों ने घेर लिया. मेरे साथ कुछ भारतीय पत्रकार भी थे. मुझे और मेरे भारतीय पत्रकार दोस्तों को एक कमरे में बंद कर लिया.
आपके करियर का सबसे मुश्किल असाइनमेंट?
मुझे लगता है ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के मुक़दमे की सुनवाई की कवरेज बहुत मुश्किल थी. मैं हर शाम को जज के पास जाता था. उनका कहना था कि वो मुझे सब कुछ बताएँगे, लेकिन अगर स्टोरी चलेगी तो वो खंडन कर देंगे. तो ये मेरे लिए बहुत मुश्किल स्थिति थी.
मार्क टली
मार्क टली बीबीसी के सबसे लोकप्रिय पत्रकारों में से एक हैं
आपके करियर की सबसे अच्छी स्टोरी?
मुझे रेलवे बहुत पसंद है. मेरा पसंदीदा विषय है. मैंने कराची से ख़ैबर दर्रे तक रेल यात्रा पर बीबीसी के लिए फ़िल्म बनाई. पेशावर से ख़ैबर दर्रे तक की ऐतिहासिक रेल लाइन कई साल से बंद थी. हमने पाकिस्तान रेलवे से इसे खोलने का आग्रह किया और उन्होंने इसे मान लिया.
आपने दशकों तक भारत में रिपोर्टिंग की. आपकी नज़र में भारत की सबसे बड़ी शक्ति क्या है?
मेरी राय में भारत की सबसे बड़ी ताक़त उसकी स्थिरता है. भारत की सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि यहाँ हर धर्म के लोग हैं. पहाड़ हैं, रेगिस्तान है, समुंदर के किनारे हैं. ये एकजुट देश है और एकजुट रहेगा.
सबसे बड़ी कमज़ोरी क्या है?
मेरी नज़र में सबसे बड़ी कमज़ोरी ये है कि आप लोगों ने अंग्रेज़ राज से बाबूगिरी प्रणाली ली और अब तक ये चल रही है.
बाबूगिरी के बग़ैर देश कैसे चले. कौन सी व्यवस्था लागू की जाए?
अब भी यहाँ थानेदार का सिस्टम है. इंग्लैंड में मॉडर्न पुलिस फ़ोर्स है. आप नहीं कह सकते कि भारत में मॉडर्न पुलिस है. आज भी गांवों में आपको आम शिकायत मिलेगी कि बाबू लोग उनकी सुनवाई नहीं करते हैं. बाबू लोगों की आज भी यही सोच है कि उन्हें लोगों के ऊपर राज करना है.
आपको नाइटहुड, पद्मश्री, पद्मभूषण मिला है. कैसा लगता है?
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे ये सम्मान मिलेंगे. ब्रिटिश उच्चायुक्त ने मुझसे पूछा था कि मैं नाइटहुड की उपाधि लूँगा कि नहीं, तब मैंने उनसे कहा कि मैं पहले ज़माने का हूँ अब का नहीं. उच्चायुक्त ने कहा कि हम तो अब भी आपको इसी ज़माने का मानते हैं.
जब पद्मश्री और पद्मभूषण मिला तो भी बहुत अच्छा लगा.
भारतीयों में आपके पसंदीदा राजनेता?
चौधरी देवीलाल. वो मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे. चुनाव के समय एक बार मैं उनके पास गया. चौधरी साहब ने कहा कि वो बहुत बोर हो गए हैं. मैंने पूछा कि मैंने तो सुना है कि घोषणापत्र में तो बहुत अच्छी बात हुई है. तो उनका जवाब था ‘बेवकूफ़ मैं गिन नहीं सकता कि मैंने कितने चुनाव लड़े, लेकिन इतना कहता हूँ कि मैंने एक भी घोषणा पत्र नहीं पढ़ा.’
 अमरीश पुरी के बारे में एक बात कहना चाहूँगा. जब मुझे नाइटहुड की उपाधि मिली तो पत्रकारों ने मुझसे पूछा कि आपकी और क्या इच्छा है. तो मैंने कहा कि मेरी इच्छा हिंदी फ़िल्मों में एक छोटी भूमिका करने की है, लेकिन उस फ़िल्म में अमरीश पुरी होने चाहिए. कुछ दिनों बाद मुझे एक फ़ोन आया कि मार्क टली साहब मैं आपका दोस्त अमरीश पुरी बोल रहा हूँ और आपकी इच्छा जल्द पूरी होगी. लेकिन दुख की बात है कि इस घटना के कुछ समय बाद उनका देहांत हो गया
मार्क टली
एक बात चौधरी साहब के बारे में बहुत अच्छी थी. उन्हें गांव-गांव में हर आदमी जानता था.
दूसरे, मुझे राजीव गांधी बहुत पसंद थे. मेरी राय में अगर उनकी हत्या नहीं होती तो भारत और तरक्क़ी करता. क्योंकि उन्हें पता था कि क्या करना है.
क्रिकेट का भी आपको बहुत शौक है. आपके पसंदीदा क्रिकेटर?
असलियत ये है कि मैं क्रिकेट में भारतीय टीम का बहुत समर्थन करता हूँ. ख़ासकर आज की टीम को. मुझे महेंद्र सिंह धोनी बहुंत पसंद है. जब मैंने पहली-पहली बार धोनी को देखा तो मैंने अपने आसपास के लोगों से कह दिया था कि वो बहुत आगे जाएँगे.
इनके अलावा सौरभ गांगुली भी मुझे बहुत पसंद हैं. हरभजन सिंह भी मुझे पसंद हैं. हालाँकि वो बहुत उदास नज़र आते हैं.
आपको हिंदी फ़िल्में भी पसंद हैं. आपकी पसंदीदा फ़िल्में?
मुझे हिंदी फ़िल्मों का शौक़ है. ओंकारा, ‘तारे ज़मीं पर’ मुझे पसंद आई. पुरानी फ़िल्मों में मुझे ‘नया दौर’ पसंद है. मुझे अमरीश पुरी बहुत पसंद थे. नसरुद्दीन शाह, सैफ़ अली ख़ान बहुत अच्छे अभिनेता हैं. बोमन ईरानी भी मुझे पसंद हैं.
अमरीश पुरी के बारे में एक बात कहना चाहूँगा. जब मुझे नाइटहुड की उपाधि मिली तो पत्रकारों ने मुझसे पूछा कि आपकी और क्या इच्छा है. तो मैंने कहा कि मेरी इच्छा हिंदी फ़िल्मों में एक छोटी भूमिका करने की है, लेकिन उस फ़िल्म में अमरीश पुरी होने चाहिए. कुछ दिनों बाद मुझे एक फ़ोन आया कि मार्क टली साहब मैं आपका दोस्त अमरीश पुरी बोल रहा हूँ और आपकी इच्छा जल्द पूरी होगी. लेकिन दुख की बात है कि इस घटना के कुछ समय बाद उनका देहांत हो गया.
बीबीसी एक मुलाक़ात में आगे बढ़ें. आप अपनी पसंद के गाने बताएँ?
मुझे ‘सारे जहाँ से अच्छा...’. इसके अलावा ओंकारा का टाइटल गाना ‘ओंकारा’, फ़िल्म जुनून का गाना ‘आज रंग है’, परिणिता का गाना ‘ये हवा गुनगुनाए’ मुझे बहुत पसंद है. लगान फ़िल्म का गाना ‘घनन घनन बरसे रे बदला’ और ज़ुबैदा फ़िल्म का गाना ‘धीमे-धीमे’ भी मुझे पसंद है. कॉमेडी फ़िल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस और तारे ज़मीं के गाने भी मुझे पसंद है. पुरानी फ़िल्म नया दौर के गाने भी मुझे पसंद हैं.
मार्क टली
मार्क टली ने अपनी उम्र का ज़्यादातर हिस्सा भारत में गुज़ारा
अच्छा, आपने भारत में साठ के दशक के बाद से अब तक के चुनाव देखे हैं. भारत में चुनाव में क्या बदलाव आया है?
बहुत बदला है. सबसे बड़ा बदलाव इंतज़ाम में आया है. अब तो चुनाव एक-एक महीने तक चलते हैं. पहले सिर्फ़ कांग्रेस ही राष्ट्रीय पार्टी थी और बाकी़ दूसरी पार्टियां छोटी-मोटी थी. अब दो राष्ट्रीय पार्टियां हैं और छोटी पार्टियों की ताक़त भी बहुत बढ़ी है.
आपको क्या लगता है. इतनी सारी पार्टियों का होना भारत के लिए अच्छा है?
एक बहुत अच्छी बात है कि सिर्फ़ एक ही राष्ट्रीय पार्टी नहीं होनी चाहिए. इन छोटी पार्टियों के उभरने से एक अच्छी बात हुई है कि दलित और ओबीसी को मौका मिला है. 10-15 साल पहले कौन सोच सकता था कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री दलित महिला होगी. और कौन कहेगा कि ये बदलाव अच्छा नहीं है.
आने वाले वर्षों में आप भारत को कहाँ देखते हैं?
आने वाले समय में भारत की आर्थिक प्रगति और तेज़ होगी. राजनीतिक प्रणाली में सुधार होगा. लेकिन ये सुधार तभी होंगे जब आम लोग अपनी आवाज़ बुलंद करेंगे.
आपके शुभचिंतकों को आपसे क्या उम्मीदें रखनी चाहिए?
मैं अभी भारत में आर्थिक सुधारों पर एक किताब लिख रहा हूँ. मेरे हिसाब से ये मेरी आख़िरी किताब होगी. इसके बाद मैं संन्यास ले लूँगा.

सर विलियम मार्क टली

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प्रस्तुति-- स्वामी शरण,सृष्टि शरण


सर मार्क टली

Mark Tully
जन्मविलियम मार्क टली
1936
कोलकाता, भारत
पेशापत्रकार, लेखक
TitleSir
धर्मAnglican Christian
सर विलियम "मार्क"टली, केबीई (जन्म 1936, कलकत्ता, भारत[1]), बीबीसीके नई दिल्लीस्थित ब्यूरो के पूर्व अध्यक्ष हैं। जुलाई 1994 में इस्तीफे से पूर्व उन्होंने 30 वर्ष की अवधि तक बीबीसी के लिए कार्य किया।[2]उन्होंने 20 वर्ष तक बीबीसी के दिल्ली स्थित ब्यूरो के अध्यक्ष पद को संभाला.[3] 1994 के बाद से वे नई दिल्लीसे एक स्वतंत्र (फ्रीलैंस) पत्रकार और प्रसारक के रूप में कार्य कर रहे हैं।[4][5]वर्तमान में वे बीबीसी रेडियो 4 के साप्ताहिक कार्यक्रम समथिंग अंडरस्टुडके नियमित प्रस्तुतकर्ता हैं।[6]

प्रारंभिक जीवन

उनका जन्म कलकत्ता में 1936 में हुआ और वे एक अमीर इंग्लिश एकाउन्टेंट के पुत्र हैं। अपने बचपन के शुरुआती दस साल उन्होंने भारत में ही बिताए लेकिन उन्हें भारतीय लोगों[7][8]के साथ मिलने-जुलने की आजादी नहीं थी, उसके बाद वे अपनी स्कूली शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। उनका शिक्षण ट्वाईफोर्ड स्कूल, मार्लबोरो कॉलेज तथा ट्रिनिटी हॉल, कैम्ब्रिज में हुआ जहां उन्होंने धर्मशास्त्र का अध्ययन किया।[7]कैम्ब्रिज के बाद उन्होंने इंग्लैंड के चर्च में एक पादरी बनने के बारे में सोचा लेकिन लिंकन थियोलॉजिकल कॉलेज में केवल दो सत्रों के बाद इस विचार को त्याग दिया; बाद में उन्होंने स्वीकार किया कि "एक ईसाई पादरी के रूप में व्यवहार करने के लिए (अपनी) कामुकता पर नियंत्रण"के बारे में उन्हें संदेह था।[1]

पत्रकारिता

मार्क टली बीबीसी में 1964 में शामिल हुए और एक भारतीय संवाददाता के रूप में कार्य करने के लिए 1965 में भारत आ गए।[1][4][9]अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने दक्षिण एशियाकी सभी प्रमुख घटनाओं को कवर किया जिनमें शामिल हैं, भारत-पाकिस्तान संघर्ष, भोपाल गैस त्रासदी, ऑपरेशन ब्लू स्टार (और उसके बाद इंदिरा गांधीकी हत्या तथा सिख विरोधी दंगे), राजीव गाँधी की हत्या एवं बाबरी मस्जिद विध्वंस.[5][10][11]
टली ने जुलाई 1994 में तत्कालीन महा निदेशक जॉन बिर्ट के साथ बहस के बाद बीबीसी से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने बिर्ट पर "कॉरपोरेशन को भय द्वारा चलाने"और "बीबीसी को घटिया रेटिंग तथा हतोत्साहित कर्मचारियों वाली एक अपारदर्शी संस्था"में तब्दील करने का आरोप लगाया.[2]

पुरस्कार और सम्मान

टली को 1985 में 'ऑफिसर ऑफ दी ऑर्डर ऑफ दी ब्रिटिश एम्पायर'बनाया गया और 1992 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया।[7]वर्ष 2002[12]में उन्हें नाईटकी उपाधि से सम्मानित किया गया और 2005 में उन्हें पद्म भूषणसम्मान प्रदान किया गया।[13]

पुस्तकें

टली ने भारत पर आधारित कई पुस्तकें लिखीं जिनमें शामिल हैं - इंडिया इन स्लो मोशन (सह-लेखक गिलियन राईट), नो फुल स्टॉप्स इन इंडिया, दी हार्ट ऑफ इंडिया, डिवाइड एंड क्विट, लास्ट चिल्ड्रेन ऑफ दी राज, फ्रॉम राज टू राजीव-40 ईयर्स ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस, इंडिया - 50 इयर्स ऑफ इंडिपेंडेंस, इंडियाज़ अनेंडिंग जर्नीतथा अमृतसर: मिसेस गाँधीज लास्ट बैटल . धर्म के क्षेत्र में सर मार्क ने बीबीसी श्रृंखला के लिए दी लाइव्स ऑफ जीससलिखी और फोर फेसेज: ए जर्नी इन सर्च ऑफ जीसस दी डिवाइन, दी ज्यू, दी रिबेल, दी सेजनामक एक अन्य पुस्तक भी लिखी.
किसी गुमनाम शख्स द्वारा लिखित हिंदुत्व सेक्स एंड एडवेंचरउपन्यास के मुख्य चरित्र और टली में काफी समानताएं हैं। टली ने स्वयं कहा है कि "मैं चकित हूँ कि रोली बुक्स ने इस प्रकार की घटिया साहित्यिक चोरी को प्रकाशित किया और लेखक को एक छद्म नामके पीछे छुपने दिया. यह पुस्तक स्पष्ट रूप से मेरे करियर पर आधारित है, यहां तक कि इसके मुख्य चरित्र का नाम भी मुझसे मिलता है। उस चरित्र की पत्रकारिता अत्यंत घटिया है और हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म पर उसके विचार किसी भी तरह से मेरे विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं। मैं पूरी तरह से उनके साथ असहमत हूँ".[14]

हस्ताक्षर

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संदर्भ

  1. "Mark Tully: The voice of India". London: BBC. 31 दिसम्बर 2001. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  2. Victor, Peter (10 जुलाई 1994). "Tully quits BBC". London: The Independent. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  3. "Media reportage: Interview with Mark Tully". The Hindu. फ़रवरी 20, 2000. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  4. "Mark Tully to give annual Toleration lecture at the University of York". The University of York. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  5. "It's Sir Mark Tully in UK honors list". CNN. December 31, 2001. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  6. "Mark Tully". BBC Radio 4. अभिगमन तिथि: 26 सितंबर 2010.
  7. "Meeting Mark". The Hindu. Jun 18, 2007. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  8. Lakhani, Brenda (2003). "British and Indian influences in the identities and literature of Mark tully and Ruskin Bond". University of North Texas. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  9. Drogin, Bob (Dec 22, 1992). "Profile The BBC's Battered Sahib Mark Tully has been expelled by India, chased by mobs and picketed. He loves his job.". Los Angeles Times. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  10. "After Blue Star". BBC. अभिगमन तिथि: 11 जनवरी 2010.
  11. Tully, Mark (5 दिसम्बर 2002). "Tearing down the Babri Masjid". London: BBC. अभिगमन तिथि: 11 जनवरी 2010.
  12. "An honour, says Tully". Press Trust of India. Jan 01, 2002. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  13. "Padma Bhushan Awardees". Indian government. 2005. अभिगमन तिथि: 25 नवम्बर 2009.
  14. Nelson, Dean (5 अप्रैल 2010). "Former BBC correspondent Sir Mark Tully attacked in novel". The Daily Telegraph (London). अभिगमन तिथि: 27 सितंबर 2010.

बाह्य कड़ियां

सतीश जैकब से सुनिए इंदिरा गांधी की हत्या का सच

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प्रस्तुति-- ममता शरण,स्वामी शरण

इंदिरा गांधी की हत्या का पूरा सच…आंखों देखी!



(27 साल पहले वक्त ठहर गया था। देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके ही घर में गोलियों से भून दिया गया। पूरे देश को हिला देने वाली इस वारदात को कुछ लोगों ने अपनी आंखों से देखा। आईबीएन7 उन्हीं लोगों की जुबानी सामने ला रहा है 31 अक्टूबर 1984 का पूरा सच।)

नई दिल्ली।उड़ीसा में जबरदस्त चुनाव प्रचार के बाद इंदिरा गांधी 30 अक्टूबर की शाम दिल्ली पहुंची थीं। आमतौर पर जब वो दिल्ली में रहती थीं तो उनके घर एक सफदरजंग रोड पर जनता दरबार लगाया जाता था। लेकिन ये भी एक अघोषित नियम था कि अगर इंदिरा दूसरे शहर के दौरे से देर शाम घर पहुंचेंगी तो अगले दिन जनता दरबार नहीं होगा। 30 तारीख की शाम को भी इंदिरा से कहा गया कि वो अगले दिन सुबह के कार्यक्रम रद्द कर दें। लेकिन इंदिरा ने मना कर दिया। वो आइरिश फिल्म डायरेक्टर पीटर उस्तीनोव को मुलाकात का वक्त दे चुकी थीं।
एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट बताते हैं कि जैसे एक नॉर्मल तरीका होता है। सुबह उठकर आप जनता से मिलते हैं तो उस दिन एक बिजी शिड्यूल था। उनके इंटरव्यू के लिए बाहर से एक टीम आई हुई थी। पीटर उस्तीनोव आए। उन लोगों ने अपना सर्वे किया। ये देखा कि खुली जगह पर इंटरव्यू करना चाहिए। वहां दीवाली के पटाखे पड़े हुए थे। उसको साफ-वाफ करवा कर वैसा इंतजाम करवाया गया तो उसमें कुछ वक्त लग रहा था।
दरअसल पीटर इंदिरा गांधी पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे थे। इस बीच सुबह के आठ बजे इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर के धवन एक सफदरजंग रोड पहुंच चुके थे। धवन जब इंदिरा गांधी के कमरे में गए तो वो अपना मेकअप करा रही थीं। इंदिरा ने पलटकर उन्हें देखा। दीवाली के पटाखों को लेकर थोड़ी नाराजगी भी दिखाई और फिर अपना मेकअप पूरा कराने में लग गईं।
अब तक घड़ी ने 9 बजा दिए थे। लॉन भी साफ हो चुका था और इंटरव्यू के लिए सारी तैयारियां भी पूरी थीं। चंद मिनटों में ही इंदिरा एक अकबर रोड की तरफ चल पड़ीं। यहीं पर पेंट्री के पास मौजूद था हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह। नारायण सिंह की ड्यूटी आइसोलेशन कैडर में होती थी। साढ़े सात से लेकर 8.45 तक पोर्च में ड्यूटी करने के बाद वो कुछ देर पहले ही पेंट्री के पास आकर खड़ा हुआ था। इंदिरा को सामने से आते देख उसने अपनी घड़ी देखी। वक्त हुआ था 9 बजकर 05 मिनट। आर के धवन भी उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। दूरी करीब तीन से चार फीट रही होगी। तभी वहां से एक वेटर गुजरा। उसके हाथ में एक कप और प्लेट थी। वेटर को देखकर इंदिरा थोड़ा ठिठकीं। पूछा कि ये कहां लेकर जा रहे हो। उसने जवाब दिया इंटरव्यू के दौरान आइरिश डायरेक्टर एक-टी सेट टेबल पर रखना चाहते हैं। इंदिरा ने उस वेटर को तुरंत कोई दूसरा और अच्छा टी-सेट लेकर आने को कहा। ये कहते हुए ही इंदिरा आगे की ओर बढ़ चलीं। ड्यूटी पर तैनात हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह के साथ छाता लेकर उनके साथ हो लिया।
तेज कदमों से चलते हुए इंदिरा उस गेट से करीब 11 फीट दूर पहुंच गई थीं जो एक सफदरजंग रोड को एक अकबर रोड से जोड़ता है। नारायण सिंह ने देखा कि गेट के पास सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह तैनात था। ठीक बगल में बने संतरी बूथ में कॉन्सटेबल सतवंत सिंह अपनी स्टेनगन के साथ मुस्तैद खड़ा था।
आगे बढ़ते हुए इंदिरा गांधी संतरी बूथ के पास पहुंची। बेअंत और सतवंत को हाथ जोड़ते हुए इंदिरा ने खुद कहा-नमस्ते। उन्होंने क्या जवाब दिया ये शायद किसी को नहीं पता लेकिन बेअंत सिंह ने अचानक अपने दाईं तरफ से .38 बोर की सरकारी रिवॉल्वर निकाली और इंदिरा गांधी पर एक गोली दाग दी। आसपास के लोग भौचक्के रह गए। सेकेंड के अंतर में बेअंत सिंह ने दो और गोलियां इंदिरा के पेट में उतार दीं। तीन गोलियों ने इंदिरा गांधी को जमीन पर झुका दिया। उनके मुंह से एक ही बात निकली-ये क्या कर रहे हो। इस बात का भी बेअंत ने क्या जवाब दिया ये शायद किसी को नहीं पता।
लेकिन तभी संतरी बूथ पर खड़े सतवंत की स्टेनगन भी इंदिरा गांधी की तरफ घूम गई। जमीन पर नीचे गिरती हुई इंदिरा गांधी पर कॉन्सटेबल सतवंत सिंह ने एक के बाद एक गोलियां दागनी शुरु कीं। लगभग हर सेकेंड के साथ एक गोली। एक मिनट से कम वक्त में सतवंत ने अपनी स्टेन गन की पूरी मैगजीन इंदिरा गांधी पर खाली कर दी। स्टेनगन की तीस गोलियों ने इंदिरा के शरीर को भूनकर रख दिया।
आर के धवन बताते हैं कि उस वक्त भी मैं उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा था। इंदिरा जी भी नीचे देख रही थीं। मैं भी नीचे देखकर चल रहा था। बात कर रहे थे। जैसे ही सिर उठाया तो देखा बेअंत सिंह जो गेट पर था उसने अपनी रिवॉल्वर से गोलियां चलानी शुरू कर दीं। गोलियां चलनी शुरू हुईं तो इंदिरा जी उसी वक्त जमीन पर गिर गईं। तभी सतवंत सिंह ने गोलियों की बौझार शुरु कर दी। जब वो दृश्य मेरे सामने आता है तो दिमाग पागल हो जाता है।
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पीएम के लिए ऐंबुलेंस तक नहीं मिली
हेड कान्सटेबल नारायण सिंह हो या आर के धवन। सब हक्के-बक्के थे। वक्त जैसे थम गया था। दिमाग में खून जमने जैसी हालत थी। तभी बेअंत सिंह ने आर के धवन की ओर देखकर कहा- हमें जो करना था वो हमने कर लिया। अब तुम जो करना चाहो, वो करो। वहां मौजूद सभी लोग एक झटके के साथ होश में आए।
आर के धवन के मन में एक ही बात आई। इंदिरा को जल्द से जल्द हॉस्पिटल पहुंचाया जाए। वो जोर से चीखे-एंबुलेंस।
उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। पास में खड़े एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट ने तुरंत बेअंत और सतवंत को काबू में ले लिया। उनके हथियार जमीन पर गिर गए। उन्हें तुरंत पास के कमरे में ले जाया गया। एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट कहते हैं कि उस वक्त जो हो सकता था किया गया लेकिन चूंकि वो इतना अचानक और अनएक्सपेक्टेड और डिवास्टेटिंग था कि उसको रिकॉल करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है।
अब तक छाता लेकर भौचक्क खड़ा रहा हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह भी हरकत में आया। उसने छाता फेंका और डॉक्टर को बुलाने के लिए दौड़ पड़ा। एक अकबर रोड के लॉन में इंदिरा का इंतजार करते हुए आइरिश डेलिगेशन को फायरिंग की आवाज अजीब सी लगी। फिर उन्हें लगा कि शायद एक बार फिर दीवाली के पटाखे फोड़े गए हैं। डायरेक्टर पीटर उस्तीनोव वहीं पर इंदिरा का इंतजार करते रहे।
इधर आर के धवन ने इंदिरा को उठाने की कोशिश की। तभी बुरी तरह घबराई हुईं सोनिया गांधी भी वहां पहुंच गईं। तब तक कई दूसरे सुरक्षाकर्मी भी उस गेट के पास पहुंच चुके थे। धवन और सोनिया ने मिलकर इंदिरा को उठाया। आर के धवन बताते हैं कि उस वक्त तो यही दिमाग काम किया कि उनको एकदम से हॉस्पिटल ले जाया जाए। मैंने उस वक्त एक एंबुलेंस जो वहां रहती थी उसे बुलाया लेकिन एंबुलेंस नहीं आई। पता चला उसका ड्राइवर चाय पीने गया हुआ था।
एंबुलेंस के पहुंचने की कोई संभावना नहीं थी इसलिए सोनिया-आर के धवन और बाकी सुरक्षाकर्मी इंदिरा गांधी को लेकर एक सफेद एंबेसेडर कार तक पहुंच गए। तय हुआ कि कार से ही इंदिरा को एम्स लेकर जाया जाए। इंदिरा गांधी का सिर सोनिया ने अपनी गोद में रखा। उनके शरीर से लगातार खून बह रहा था।
इस बीच उस कमरे से एक बार फिर फायरिंग की आवाज आई जिसमें सुरक्षाकर्मी बेअंत और सतवंत को लेकर गए थे। यहां बेअंत ने एक बार फिर हमला करने की कोशिश की थी। उसने अपनी पगड़ी में छिपाए चाकू को बाहर निकाल लिया। बेअंत और सतवंत दोनों ने इस कमरे से भागने की कोशिश की लेकिन जवाबी कार्रवाई में सुरक्षाकर्मियों ने बेअंत को वहीं ढेर कर दिया। सतवंत को भी 12 गोलियां लगीं लेकिन उसकी सांसें चल रही थीं।
गोलियों का शोर थमा तो एक और शोर शुरू हुआ। उस सफेद एंबेसेडर के स्टार्ट होने की आवाज जिसमें इंदिरा गांधी को लिटाया गया था। सोनिया एक टक इंदिरा की तरफ देख रही थीं। दूर खड़े आयरिश फिल्म मेकर पीटर उस्तीनोव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ। सुरक्षाकर्मी तेजी के साथ एक तरफ से दूसरी तरफ भाग रहे थे। लॉन में हड़कंप मचा हुआ था। पीटर उस्तीनोव ने एक इंटरव्यू में कहा है-उस वक्त एक अकबर रोड की चिड़ियां और गिलहरियां भी अजीब बर्ताव कर रही थीं। सात मिनट के अंतर पर दो बार फायरिंग की जोरदार आवाज के बावजूद उन पर कोई असर नहीं था। उन परिंदों को जैसे पता था कि गोलियां उन्हें निशाना बनाकर नहीं मारी गईं।
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घायल इंदिरा को सोनिया, धवन लेकर पहुंचे एम्स
एंबेसेडर तेजी के साथ एक अकबर रोड से निकली। आगे बैठे आर के धवन, दिनेश भट्ट और पीछे सोनिया ने इंदिरा का सिर अपनी गोद में रखा हुआ था। ये वो वक्त था जब गांधी परिवार ही नहीं एक और शख्स की जिंदगी बदलने जा रही थी। बीबीसी के संवाददाता सतीश जैकब के एक दोस्त की नजर सोनिया गांधी पर पड़ गई। उस दोस्त ने तुरंत जैकब को फोन मिलाया।
सतीश जैकब कहते हैं-उसने कहा कि एक सफदरजंग रोड के सामने से निकला तो इंदिरा गांधी के घर में से एक एंबुलेंस बाहर आई और मैं पक्का तो नहीं हूं लेकिन उसमें सोनिया गांधी बैठी हुई थीं और पता करो...क्या हुआ।
एक मंझे हुए पत्रकार को इशारा ही काफी था। कुछ तो गड़बड़ हुई है। जैकब ने तुरंत राजीव गांधी के निजी सचिव विन्सेट जॉर्ज को फोन मिलाया। लेकिन मुश्किल ये कि आखिर जॉर्ज से खबर कैसे पता करें।
सतीश जैकब कहते हैं कि जॉर्ज को मैंने फोन किया तो सोचा कि ऐसे सवाल करूं कि वो कुछ छुपा न सके। तो मैंने जॉर्ज से इतना कहा कि ज्यादा सीरियस तो नहीं है मामला। तो उसने कहा कि सीरियस तो नहीं है लेकिन एम्स ले गए हैं। मैंने कहा चलो एम्स चलकर देखते हैं।
इस बीच इंदिरा गांधी को लेकर एंबेसेडर कार तेजी से एम्स की तरफ भागती जा रही थी। वैसे तो एम्स में इंदिरा का पूरा रिकॉर्ड, उनके ब्लड ग्रुप का ब्योरा, सभी कुछ मौजूद था लेकिन अस्पताल पहुंचाने की हड़बड़ी में किसी को याद ही नहीं रहा कि एम्स फोन करके ये बता दिया जाए कि इंदिरा को गोली मारी गई है। घड़ी वक्त दिखा रही थी 9 बजकर 32 मिनट। एम्स पहुंचते ही इंदिरा गांधी को वीआईपी सेक्शन लेकर जाया गया लेकिन वो उस दिन बंद था। धवन उन्हें इमरजेंसी की तरफ लेकर भागे वहां कुछ नौजवान डॉक्टर मौजूद थे। वो मरीज को देखते ही हड़बड़ा गए। तभी किसी का दिमाग काम किया। उसने तुरंत अपने सीनियर कार्डियोलॉडिस्ट को खबर दी। वो सीनियर कार्डियोलॉजिस्ट कोई और नहीं डॉक्टर वेणुगोपाल थे।
डॉक्टर वेणुगोपाल बताते हैं कि हमारे सहयोगी डॉक्टर ने बताया कि आप नीचे आ जाइए इंदिरा गांधी को लेकर आए हैं। उनको देखना है। हम उसी ड्रेस में नीचे गए थे कैजुएलिटी में। जब गए थे तो हमने देखा वो एक ट्रॉली पर लेटी हुई हैं और काफी खून बह रहा।
इस वक्त तक बीसीसी संवाददाता सतीश जैकब भी एम्स पहुंच गए थे। एम्स में तूफान से पहले वाला सन्नाटा था। इंदिरा के शरीर से लगातार खून बह रहा था। इमरजेंसी में तब तक दर्जन भर सीनियर डॉक्टर जुट चुके थे। पहली कोशिश ये कि लगातार बहते खून को रोका जाए। इंदिरा के शरीर का तापमान भी तेजी से नीचे गिर रहा था। डॉक्टरों ने तुरंत उनके फेफड़ों में ऑक्सीजन पहुंचाने वाली मशीन लगाई। ईसीजी मशीन दिखा रही थी उनका दिल मंद गति से धड़क रहा था। इसके बाद डॉक्टरों ने उन्हें हार्ट मशीन भी लगा दी हालांकि उन्हें इंदिरा की पल्स नहीं मिल रही थी। धीरे-धीरे इंदिरा की पुतलियां फैलती जा रही थीं। साफ था कि दिमाग में खून पहुंचना लगभग रुक गया है।
डॉक्टरों की टीम ने उन्हें आठवें फ्लोर के ऑपरेशन थिएटर में ले जाने का फैसला किया। हालांकि जिंदगी का कोई निशान उनके शरीर में नजर नहीं आ रहा था लेकिन फिर भी 12 डॉक्टरों की टीम चमत्कार की आस में उन्हें बचाने की कोशिश में जुट गई। इधर बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब भी तेजी के साथ एम्स पहुंचे। उन्हें ये तो मालूम था कि एक अकबर रोड पर कुछ अनहोनी हुई है लेकिन वो अनहोनी क्या है ये पता करना उनके लिए बड़ी चुनौती थी।
सतीश जैकब बताते हैं कि मैं गाड़ी पार्क करके लिफ्ट से उधर गया। जैसे ही लिफ्ट से बाहर निकला तो देखा एक बुजुर्ग से डॉक्टर मुंह से कपड़ा हटा रहे थे। ऐसा लगता था कि मानो ओटी से आए हों तो मैंने फिर वही किया। मैंने ये नहीं पूछा कि आप किसका क्या कर रहे हो। मैंने पूछा-सब ठीक तो है ना। जान तो खतरे में नहीं है ना। उन्होंने मुझे बड़े गुस्से में देखा। कहा कैसी बात करते हो। अरे सारा जिस्म छलनी हो चुका है तो मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। वहीं आईसीयू के बाहर आर के धवन खड़े थे। चेहरे से ऐसा लग रहा था कि चिंता में हैं। वहां आर के धवन से मैंने इतना कहा कि धवन साहब, ये तो बहुत बुरा हुआ। कैसे हुआ ये तो उन्होंने कहा कि वो अपने घर से निकल पैदल आ रही थीं। वो पीछे-पीछे चल रहे थे अचानक गोलियों की आवाज आई।
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एम्स में चली जिंदगी बचाने की जद्दोजहद
बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब के हाथ में अब पुख्ता खबर थी- देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गोली मारी गई है। इस खबर के साथ वो तुरंत एम्स से बाहर निकल गए। इधर आठवीं मंजिल के ऑपरेशन थिएटर में वेणुगोपाल और बाकी डॉक्टरों ने देखा कि गोलियों ने इंदिरा के लीवर को फाड़ दिया है। छोटी आंत, बड़ी आंत और एक फेफड़े को भी गोलियों ने बुरी तरह नुकसान पहुंचाया था। उनकी रीढ़ की हड्डी में भी गोलियां धंसी हुई थीं। जो एक चीज पूरी तरह सुरक्षित थी वो था इंदिरा का दिल।
डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि पहले तो एक ही मकसद था। उनको बचाने के लिए जहां से खून बाहर आ रहा है उनको सारे को कंट्रोल करना था। वो 4-5 घंटे लगे उनको कंट्रोल करने में। इसी टाइम पर उनका हार्ट फंक्शन, ब्रेन फंक्शन ठीक करने के लिए मशीन पर लगाया। तापमान भी कम कर दिया उनको बचाने के लिए।
लेकिन इंदिरा का शरीर उनका साथ छोड़ रहा था। डॉक्टर बड़ी बारीकी के साथ उनके शरीर से सात गोलियां निकाल चुके थे वक्त निकलता जा रहा था। डॉक्टरों के सामने एक मुश्किल इंदिरा का 0-नेगेटिव ब्लड ग्रुप भी था। भारत में सौ लोगों में से सिर्फ एक का 0-नेगेटिव ब्लड ग्रुप होता है। इंदिरा को बचाने के संघर्ष में डॉक्टरों ने उन्हें 88 बोतल ओ-नेगेटिव खून चढ़ाया।
डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि जितना कुछ हो सकता है किया। ब्लड बैंक ऑफीसर ने काफी कोशिश की। 80 से ज्यादा बोतल लाए वो। ओ नेगेटिव और ए नेगेटिव मिलाकर दिए गए। बहुत कोशिश की ताकि जितनी ब्लीडिंग हुई उसको रिप्लेस किया जा सके।
लेकिन ये 88 यूनिट खून भी बहुत काम ना आया। एक तरह से इंदिरा सिर्फ मशीन के भरोसे जिंदा थीं। ये वो वक्त था जब भगवान का दर्जा पाने वाले डॉक्टरों ने भी हथियार डाल दिए।
डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि ये सब करने के बाद जब ब्लीडिंग बंद कर दी गई। तो फिर उनका हार्ट फंक्शन चालू करने की कोशिश की। जब वो बहुत देर के बाद भी नहीं हुआ तो फिर उसी वक्त हमने थोड़ी देर मशीन पर रखकर फिर फैसला करना पड़ा।
फैसला बहुत मुश्किल था लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। ऑपरेशन थिएटर के बाहर कांग्रेस के दिग्गजों की भीड़ लगी हुई थी। वो मान चुके थे कि अब उनका बचना मुमकिन नहीं। उधर ऑपरेशन थिएटर के बगल वाले कमरे में एक और जद्दोजेहद चल रही थी। इंदिरा की मौत के बाद कौन बनेगा देश का प्रधानमंत्री। राजीव गांधी पश्चिम बंगाल में अपना दौरा रद्द कर दिल्ली पहुंच चुके थे।
सभी की राय थी कि राजीव गांधी को ही देश की सत्ता सौंपी जाए लेकिन सोनिया गांधी अड़ी हुई थीं कि राजीव ये बात कतई मंजूर ना करें। आखिरकार राजीव ने सोनिया को कहा कि मैं प्रधानमंत्री बनूं या ना बनूं दोनों ही सूरत में मार दिया जाऊंगा। राजीव के इस जवाब के बाद सोनिया ने कुछ नहीं कहा। आखिरकार दोपहर 2 बजकर 23 मिनट पर आधिकारिक तौर ये ऐलान कर दिया गया कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी है। ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर इंदिरा का पोस्टमॉर्टम करने के लिए फोरेंसिक विभाग से टी डी डोगरा को भी बुला चुके थे।
डॉक्टर टी डी डोगरा कहते हैं कि उस वक्त दोपहर के 2.10 हुए थे। मुझे बुलाकर बताया गया कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी है। वहां इतनी ज्यादा भीड़ थी कि मुझे लगा लोग ऑपरेशन थिएटर का शीशा तोड़कर भीतर घुस आएंगे। हड़बड़ी में मैं अपने दस्ताने पहनने भी भूल गया था। मेरे सामने चुनौती थी कि उनका बुरी तरह जख्मी शरीर पोस्टमॉर्टम के बाद और ना बिगड़े। उनके शरीर पर गोलियों के 30 निशान थे और कुल 31 गोलियां इंदिरा के शरीर से निकाली गईं।
इस वक्त तक एम्स के बाहर भी हजारों लोगों की भीड़ उमड़ आई थी। पुलिस वालों के लिए उन्हें संभालना मुश्किल हो रहा था। हर तरफ इंदिरा गांधी के नारे गूंज रहे थे। हालत ये हो गई कि इंदिरा समर्थकों को संभालने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा।
लोग इंदिरा की मौत की खबर से बुरी तरह सन्न थे और उतना ही ज्यादा फूट रहा था उनका गुस्सा। हालत ये थी कि विएना के दौरे से लौटकर सीधे एम्स पहुंचे राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह की कार पर भी पथराव कर दिया गया।
ये बहुत बड़े तूफान की आहट थी। लोग रो रहे थे। बिलख रहे थे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि इंदिरा को भी कोई ताकत हरा सकती है। यही वो भीड़ थी जो रोते-रोते जब थक गई तो उसकी जगह गुस्से ने ली। ये गुस्सा आगे क्या करने वाला। इस बात का किसी को कोई एहसास नहीं था।
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बीबीसी ने ही ब्रेक की खबर
बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब तेजी के साथ अपने दफ्तर वापस लौट रहे थे। दिल में तूफान कि इतनी बड़ी खबर है। उनका मन कर रहा था कि जितनी जल्दी हो सके ऑफिस पहुंचें। जैकब ने बताया कि हमें जो कोई भी खबर देनी होती थी वो हम टेलिफोन पर देते थे। वो हमारा रिकॉर्ड होता था तो खबर हमारी आवाज में जाती थी। एक प्रोब्लम ये थी कि उस वक्त एसटीडी वगैरह नहीं थी। इंटरनेशनल कॉल बुक करानी पड़ती थीं। उस दिन मुझे जल्दी कनेक्ट करा दिया। मेरे पास वक्त नहीं था टाइप करने का तो मैंने कहा कि छोटी सी खबर है। मैंने कहा-अभी थोड़ी देर पहले भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर घातक हमला हुआ है।
ये खबर बीबीसी रेडियो पर कुछ देर बाद चली। लेकिन जब चलनी शुरु हुई तो भारत ही नहीं पूरी दुनिया में हड़कंप मच गया। उस वक्त अमेरिका में आधी रात हो रही थी। जानकारी के मुताबिक राष्ट्रपति रीगन को आधी रात में इंदिरा की हत्या की खबर दी गई। अमेरिका से लेकर रूस तक में हड़कंप मच गया। इधर देश के तमाम शहरों में बड़े-बड़े अखबार हरकत में आ चुके थे। ज्यादातर पत्रकारों को उनके घर से बुला लिया गया।
अखबार की मशीनें धड़ाधड़ चलने लगीं। दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, आज, टाइम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समैन भारत का हर अखबार इंदिरा की हत्या की खबर से पट गया। शाम को छपने वाले तमाम अखबार उस दिन कई घंटा पहले छपे। हालत ये थी कि अखबार की कॉपी बाजार में पहुंचते की हाथों-हाथ बिक रही थी लेकिन शाम चार बजे तक दूरदर्शन और आकाशवाणी पर इंदिरा की हत्या की कोई खबर नहीं थी। दुनिया भर में इस खबर का डंका पीटने वाले सतीश जैकब ने खुद ये बात आकाशवाणी के एक अधिकारी से पूछी।
सतीश जैकब ने बताया- वो कहने लगे भाई मैं क्या करूं। इतनी बड़ी खबर है और जब तक कि कोई सीनियर मिनिस्टर या अधिकारी इसको अप्रूव नहीं कर देता मैं इसको ब्रॉडकास्ट नहीं कर सकता। तो मैंने कहा कि क्यों नहीं कराया अप्रूव तो उन्होंने कहा कि प्रेसिडेंट यमन में हैं। होम मिनिस्टर प्रणब मुखर्जी राजीव के साथ पश्चिम बंगाल में हैं। उनका कहना था यहां कोई भी मिनिस्टर नहीं है दिल्ली मैं तो मैं क्या करूं।
बीबीसी के लिए ये भारत में बहुत अहम दिन था। पूरा देश इंदिरा की हत्या की खबर बार-बार सुनने के लिए जैसे बीबीसी रेडियो से चिपक गया था। खुद पश्चिम बंगाल से दिल्ली तक के रास्ते में राजीव गांधी भी बीच-बीच में बीबीसी पर ही खबरें सुनते आ रहे थे।
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जल उठी थी दिल्ली
सुबह से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल चुका था। मैंने देखा कि एम्स में एक अजीब सा तनाव बढ़ता जा रहा था। सैकड़ों की तादाद में वहां सिख भी आए थे। पहले इंदिरा गांधी अमर रहे के नारे भी लगा रहे थे लेकिन धीरे-धीरे वो एम्स से हटने लगे। जैसे-जैसे लोगों को ये पता चला कि इंदिरा की हत्या उनके ही दो सिख गार्डों ने की है। नारों का अंदाज भी बदलने लगा। राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह की कार पर पथराव के बाद इन नारों की गूंज एम्स के आसपास के इलाकों में भी फैलती जा रही थी।
दोपहर ढलते-ढलते एम्स से वापस लौटते लोगों ने कुछ इलाकों में तोड़फोड़ भी शुरू कर दी थी। हॉस्पिटल के पास से गुजरती हुई बसों में से सिखों को खींच-खींच कर बाहर निकाला जाने लगा। दिल्ली में बरसों से रह रहे इन लोगों को अंदाजा भी नहीं था कि कभी उनके खिलाफ गुस्सा इस कदर फूटेगा। धीरे-धीरे बसों से सिखों को खींचकर निकालने का सिलसिला पूरी दिल्ली में फैल गया लेकिन लोगों का गुस्सा यहीं नहीं थमा। पहला हमला 5 बजकर 55 मिनट पर हुआ विनय नगर इलाके में। यहां एक सिख लड़के को बुरी तरह पीटने के बाद उसकी मोटरसाइकिल में आग लगा दी गई। इस आग में पूरी दिल्ली धधकने जा रही थी।
उस वक्त के हालात का अंदाजा लगना मुश्किल है। एक के बाद एक दुकानों के शटर गिर रहे थे। इंदिरा की मौत की घोषणा के बाद पूरे के पूरे बाजारों में सन्नाटा पसर गया। सड़कों पर चल रही गाड़ियां ना जाने कहां गायब हो गईं। ऐसा लगा जैसे कर्फ्यू लगा दिया गया हो लेकिन इस सन्नाटे के बीच सिख विरोधी नारे लगातार बढ़ते जा रहे थे। 31 अक्टूबर के सूरज ने दिन भर में बहुत कुछ देख लिया था। डूबते सूरज की लाल रोशनी भी धीरे-धीरे खत्म हो रही थी लेकिन सूरज के डूबने के बाद भी लाल रोशनी खत्म नहीं हुई। जलते हुए घरों से उठती हुई रोशनी...वो भी तो लाल ही थी।

मार्क टली और सतीश जैकब बता रहे है

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प्रधानमंत्री: किन हालात में और क्यों हुआ ऑपरेशन ब्लू स्टार?



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<p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>पंजाब में तनाव की शुरुआत ऑपरेशन ब्लू स्टार से करीब छह साल पहले हुई थी, हालांकि उसकी बुनियाद 11 साल पहले ही पड़ गई थी.</b> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> अमृतसर में 13 अप्रैल 1978 को अकालियों और निरंकारियों की भिडंत होती है जिसमें 13 अकाली मारे गए. यहीं से तनाव की शुरुआत होती है.  इस घटना के साथ ही जरनैल सिंह भिंडरांवाले का उदय होता है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> हालांकि, इसकी बुनियाद 1973 में तब रखी गई जब अकाली दल ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित किया था. इसके तहत पार्टी ने मांग की थी कि केंद्र सरकार रक्षा, विदेश नीति, संचार और मुद्रा पर नियंत्रण रखकर अन्य विषयों पर पंजाब को स्वायत्ता दे. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>चिंगारी जो बनी आग </b> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> 9 सिंतबर 1981 को पटियाला से जालंधर जा रही एक कार पर  जांलधर के पास हाईवे पर कुछ सिख बंदूक धारी हमला करते हैं. यह हमला दिनदहाड़े होता है. हिंद समाचार-पंजाब केसरी समूह के संपादक और मालिक लाला जगत नारायण की हत्या की जाती है. संत जरनैल सिंह भिंडरावाले पर हत्या का शक जताया जाता है. हैरानी की बात है कि भिंडरावाले पर संसद के अंदर देश के गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह का बयान आता है कि संत जरनैल सिंह भिंडरावाले को जमानत पर रिहा कर दिया गया है. भिंडरावाले के खिलाफ हत्या का कोई सबूत नहीं मिला है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> http://www.youtube.com/watch?v=gJW1VfQtkaI </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b></b> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>आखिर कौन थे संत जरनैल सिंह भिंडरावाले</b> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> आखिर कौन थे संत जरनैल सिंह भिंडरावाले....क्या इतने बड़े संत थे कि देश के गृह मंत्री को संसद में उनकी रिहाई की घोषणा करनी पड़ी....जो काम अदालत का होता है वो काम गृह मंत्री ने किया. वो भी उस भिंडरावाले के लिए जो पंजाब में आतंकवाद के लिए सीधे सीधे जिम्मेदार था और जिसके कारण हमारी सेना को स्वर्ण मंदिर में घुसना पड़ा. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ और हुई इंदिरा गांधी की हत्या..1977 में इमरजेंसी हटी और आम चुनाव हुए. इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी की जबर्दस्त हार हुई. पंजाब विधानसभा के चुनावों में भी कांग्रेस को सत्ता से हटना पड़ा. वहां अकाली दल की सरकार बनी. ज्ञानी जैल सिंह उस समय पंजाब के एक बड़े नेता हुआ करते थे. उन्होंने इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी को विश्वास में लिया. पंजाब में अकाली दल को राजनीतिक रुप से घेरने की योजना बनाई गई. पंजाब के गांव गांव में सिख धर्म का प्रचार करने वाले 37 साल के एक अनजान से संत जरनैल सिंह भिंडरावाले को चुना गया. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> बीबीसी से जुड़े रहे पत्रकार सतीश जैकब ने मार्क टुली के साथ मिलकर अमृतसर मिसेज गांधी लास्ट बैटल नाम की किताब लिखी है. इसमें कहा गया है कि संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह को अब एक नई पार्टी चाहिए थी ताकि भिंडरावाले का प्रचार प्रसार किया जा सके. 13 अप्रैल 1978 को दल खालसा नाम से नई पार्टी बनी.  अमृतसर के जिस होटल में पार्टी की पहली बैठक हुई थी उसपर 600 रुपये का खर्च आया था और ज्ञानी जैल सिंह ने ये खर्च उठाया था. चंडीगढ़ के उस समय के पत्रकार याद करते हैं कि कैसे जैल सिंह फोन करके दल खालसा पार्टी की विज्ञप्तियां छापने का आग्रह करते थे. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> भिंडरावाले कांग्रेस के लिए काम करने लगे. 1980 के चुनावों में भिंडरावाले ने पंजाब की तीन लोकसभा सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों के समर्थन में चुनाव प्रचार भी किया. इनमें अमृतसर सीट भी शामिल थी. बीबीसी के पैनोरमा कार्यक्रम में इंदिरा गांधी से भिंडरावाले से रिश्तों पर सवाल पूछा गया तो उनका कहना था ...मैं किसी भिंडरावाले को नहीं जानती. लेकिन वो चुनावों के दौरान हमारे एक उम्मीदवार से मिले थे. मुझे उसे उम्मीदवार का नाम याद नहीं आ रहा है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> 1980 में चार राजनीतिक घटनाएं हुई. इंदिरा गांधी की चुनावों में जबरदस्त वापसी हुई. लोकसभा की 529 सीटों में से कांग्रेस को 351 सीटें मिली. ज्ञानी जैल सिंह को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश का गृह मंत्री बनाया. पंजाब विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने अकाली दल को पछाड़ा. जैल सिंह के धुर राजनीतिक विरोधी दरबारा सिंह को को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया गया. कहते हैं कि संजय गांधी ने जानबूझकर ऐसा किया ताकि दोनों विरोधी गुटों के बीच संतुलन बनाया जा सके. इसी साल 23 जून को संजय गांधी की एक हवाई दुर्घटना में अचानक मौत हो गयी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> जवान बेटे की मौत ने इंदिरा गांधी को अंदर से तोड़ के रख दिया. इसका फायदा सत्ता से बाहर हुए अकाली दल ने उठाया. अकाली दल ने 1973 में पारित आनंदपुर साहिब  प्रस्ताव को लागू करने के लिए केन्द्र पर दबाव बनाना शुरू किया. चंडीगढ  को पंजाब की अलग से राजधानी बनाने के साथ साथ रावी और ब्यास नदी के पानी का बड़ा हिस्सा पंजाब को देने की मांग की. पंजाबी भाषा के मामले को भी उठाया जो एक बड़ा मुद्दा बन रहा था. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> 1981 की जनगणना के समय हिन्दू और पंजाबियों के बीच खाई पैदा हो गई. पंजाब केसरी अखबार के संपादक लाला जगत नारायण ने लगातार संपादकीय लिखे. इसमें कहा गया कि पंजाब में इन दिनों 1981 की जनगणना चल रही है. इसमें लोगों से उनकी मातृ भाषा पूछी जा रही है. हिन्दू अपनी मातृ भाषा हिन्दी बताएं न कि पंजाबी. इससे भिंडरावाले नाराज हो गया उसने पंजाबियों की अस्मिता का मामला उठाया और हवा दी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> अमृसतर के गुरु नानक देव विश्वविधालय में भिंडरावाले ने भाषण दिया. यह हिन्दू हमारे साथ धोखा कर रहे हैं. पंजाब में रहते हैं और अपनी मातृ भाषा हिन्दी बताते हैं. पंजाबी नहीं. ऐसा लगता है मानो हमारे सिरों से हमारी पगड़ियां उतार कर फाड़ी जा रही हो. छात्रों ने पूछा कि आप हुक्म दीजिए. इस पर भिंडरावाले ने कहा कि ......हुक्म ....आप लोगों को हुक्म चाहिए ....किस तरह का हुक्म ....क्या आप लोगों को दिखाई नहीं दे रहा ....क्या आप  को दिखाई नहीं देता... </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> 9 सिंतबर 1981 को जगत नारायण पटियाला से जालंधर जा रहे थे.  जालंधर के पास हाइ-वे पर कार पर कुछ सिख बंदूकधारी हमला करते हैं. ये हमला दिनदहाड़े होता है. पंजाब केसरी अखबार के मालिक और संपादक लाला जगत नारायण की हत्या कर देते है. पंजाब केसरी पंजाब का सबसे ज्यादा सर्कुलेशन वाला सबसे लोकप्रिय अखबार है. संत जरनैल सिंह भिंडरावाले को हत्या के आरोप में 15 सिंतबर को गिरफ्तार कर लिया जाता है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> आखिर लाला जगत नारायण की हत्या क्यों की गई. भिंडरावाले को एक अखबार के मालिक संपादक से आखिर क्या दुश्मनी थी. दरअसल भिंडरावाले ने जब सिख अलगाववाद की शुरुआत की तो सबसे पहले हिन्दुओं के धोखे का मुद्दा ही उठाया और उनके निशाने पर लाला जगत नारायण.  सारे फसाद की जड़ में थी 1981 की जनगणना. इसमें लोगों से उनकी मातृ भाषा पूछी जा रही थी. लाला जगत नारायण ने अपने अखबार के जरिए अभियान चलाया था कि हिन्दू अपनी मातृ भाषा हिन्दी कहें न कि पंजाबी. यही बात भिंडरावाले को चुभ गयी थी. </p> <hr class="system-pagebreak" title="भिंडरावाले की गिरफ्तारी और रिहाई" /> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <br /> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>भिंडरावाले की गिरफ्तारी और रिहाई<br /></b><br />13 सिंतबर 1981 यानि हत्या के चार दिन बाद पंजाब सरकार ने भिंडरावाले के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया जिसकी रेडियो और टीवी पर जानकारी भी दी गयी.  वो उस समय हरियाणा के चंडो कला में छुपा था. सतीश जैकब के अनुसार वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने तब खबर दी थी कि गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने खुद हरियाणा के मुख्यमंत्री भजनलाल को फोन करके भिंडरावाले को गिरफ्तार नहीं करने के आदेश दिए थे. यही नहीं, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने सतीश जैकब को बताया था कि भजनलाल ने सरकारी गाड़ी से भिंडरावाले को अमृतसर भिजवा दिया था. दो दिन बाद 15 सिंतबर को भिंडरावाले को उसके मुख्यालय मेहता चौक के एक गुरुदवारे से गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन एक महीने बाद 15 अक्टूबर को भिंडरावाले को रिहा कर दिया गया. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> इंदिरा गांधी के करीबी रही पुपुल जयकर के अनुसार सीधे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हस्तक्षेप के बाद भिंडरावाले को जमानत पर रिहा कर दिया गया. हैरानी की बात है कि गृह मंत्री जैल सिंह ने बाकायदा संसद में भिंडरावाले की रिहाई की घोषणा की.  कहा कि भिंडरावाले के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला है. यानि ये अदालत का नहीं बल्कि सरकार का फैसला था. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> उस समय दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी पर कांग्रेस का कब्जा था. संतोख सिंह इसके अध्यक्ष थे. वो इंदिरा गांधी के भी करीबी थे और भिंडरावाले से भी उनके संबंध थे. संतोख सिंह ने ही भिंडरावाले को रिहा करने की सिफारिश इंदिरा गांधी से की थी. उनका कहना था कि भिंडरावाले के रिहाई से हिंसा में कमी आएगी. इन्ही संतोख सिंह की 21 दिसंबर 1981 को दिल्ली में हत्या कर दी गयी. उनके घर दुख व्यक्त करने राजीव गांधी और गृह मंत्री जैल सिंह भी पहुंचे. वहां भिंडरावाले भी मौजूद था. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> सवाल उठता है कि क्या जैल सिंह और राजीव गांधी को ठीक उसी समय शोक जताने संतोख सिंह के घर जाना जरूरी था जब भिंडरावाले वहां मौजूद था. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> भिंडरावाले जमानत पर रिहा होने के बाद अपने बंदूकधारी अंगरक्षकों के साथ दिल्ली से लेकर मुम्बई तक बेखौफ घूम रहा था. वो शान से कहता था कि इंदिरा सरकार ने मेरे लिए एक हफ्ते में जो किया उसे मैं सालों में भी हासिल नहीं कर सकता था. वो पंजाब के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह की तुलना जकरिया खान से करता था जो मुगल शासकों के दौर में लाहौर में सूबेदार था और सिखों पर जुल्म किया करता था. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> भिंडरावाले ने खालिस्तान की मांग उठानी शुरू कर दी थी, गुरुदवारों में वो खालिस्तान के पक्ष में भाषण दे रहा था और उसे कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों से भी समर्थन मिल रहा था. ऐसे समय में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी  और उनके बेटे कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी एशियाड 82 को सफल बनाने में लगे थे. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> दिल्ली में राजीव गांधी की छत्रछाया में एशियाई खेल हो रहे थे. भिंडरावाले ने दिल्ली में इस दौरान गड़बड़ी फैलाने की चेतावनी दी थी. दिल्ली हरियाणा सीमा सील कर दी गयी. हरियाणा पुलिस के जवान बड़े ही बेरुखे और असभ्य ढंग से सिखों की पड़ताल कर रहे थे. इन सिखों में एयर मार्शल अर्जन सिंह भी शामिल थे जो 1971 की भारत पाकिस्तान लड़ाई के हीरो थे. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> हरियाणा पुलिस .....कहां जा रहे हैं .....डिग्गी खोलो .......पूरी तलाशी होगी. एयर मार्शल अर्जन सिंह ...... दिल्ली जा रहा हूं.<br />हरियाणा पुलिस .....एशियाड के दौरान होने वाले सिखों के प्रदर्शन में तो भाग लेने नहीं जा रहे. अर्जन सिंह ...देखिए मैं एयर मार्शल अर्जन सिंह हूं. एयर फोर्स से .....जरूरी काम से दिल्ली जा रहा हूं. प्रदर्शन से मेरा कोई लेना देना नहीं है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> यही बात लेफ्टिनेट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा से भी पूछी गयी जिन्होंने बांग्लादेश की लड़ाई में पाकिस्तान के 80 हजार सैनिकों को सरेंडर करवाया था. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> खुद कांग्रेस के नेताओं को भी नहीं बख्शा गया. कांग्रेस की सांसद अमरजीत सिंह कौर तो संसद भवन के बाहर पत्रकारों के साथ अपनी आपबीती सुनाते हुए रो ही दी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> अमरजीत सिंह ने कहा था, "मैं अपने पति के साथ दिल्ली आ रही थी. हम दोनों को हरियाणा पुलिस ने बुरी तरह से प्रताड़ित किया. मैंने कहा कि सांसद हूं. अपना पहचान पत्र भी दिखाया लेकिन पुलिस ने तो पगड़ी तक उतारने को कहा."<br /><br />इतना ही नहीं, "पुलिस ने शक के आधार पर करीब डेढ़ हजार  लोगों को गिरफ्तार कर लिया. पूरे पंजाब में इसको लेकर सिखों में जबरदस्त गुस्सा था. इस गुस्से का फायदा भिंडरावाले ने उठाया."</p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> इसके बाद भिंडरावाले की अमृतसर में प्रेस कांफ्रेस होती है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> भिंडरावाले कहता है, "आप सब ने देखा कि किस तरह सिखों को हरियाणा बार्डर पर अपमानित किया गया है. इसमें सेना के वो रिटायर अफसर भी थे जिन्होंने देश के लिए जान लगा दी. अब तो सिखों को ये समझ लेना चाहिए कि सिखों को उस देश में नहीं रहना चाहिए जहां उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक मानकर गंदा सुलूक किया जाता है."</p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>ज्ञानी जैल सिंह बने राष्ट्रपति</b> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> 1982 में ज्ञानी जैल सिंह देश के राष्ट्रपति बनाए गये. इंदिरा को लगा शायद सिख राष्ट्रपति का असर पंजाब के अलगाववादियों पर होगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. दरअसल जैल सिंह हों या  अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल, हरचंद सिंह लोगोंवाल हों या पंजाब के मुख्यमंत्री दरबारा सिहं.... सभी की अपनी अपनी राजनीति थी. ये सभी अपने अपने सियासी नफा नुकसान के नजरिये से पंजाब समस्या को देख रहे थे. लेकिन एक महाराजा की बात इंदिरा गांधी मान लेती तो ऑपरेशन ब्लू स्टार की नौबत नहीं आती. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> इंदिरा गांधी ने अपने बेटे राजीव गांधी को कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया था और राजीव गांधी अपने सलाहकारों के साथ पंजाब समस्या का हल तलाश रहे थे. वो कैप्टन अमरेन्दसिंह को लेकर आए. पटियाला के महाराजा कैप्टन अमरेन्द्र सिंह राजीव गांधी के स्कूल के दोस्त थे. वो बाद में पंजाब के मुख्यमंत्री भी बने. 18 नवंबर 1982 को उनकी अकाली नेताओं से बात हुई और समझौते पर दोनों पक्ष सहमत हो गये. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> इसमें चंडीगढ़ पंजाब को दिया जाना था और नदियों के पानी के बंटवारे पर कमीशन बनाने की बात थी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> लेकिन ये बात हरियाणा के मुख्यमंत्री भजनलाल को लीक हो गयी. उन्होंने इंदिरा गांधी को समझाया कि हरियाणा से बातचीत किये बगैर चंडीगढ और नदियों के पानी पर समझौता करने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं. राजस्थान के मुख्यमंत्री भी संयोगवश उस समय दिल्ली में थे. उन्होंने भी भजनलाल का साथ दिया. समझौता होते होते रह गया. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> ज्ञानी जैल सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि इंदिरा गांधी दरबारा सिंह पर ही पूरा भरोसा करती थी. यहां तक कि गृह मंत्री जैल सिंह से भी पंजाब समस्या पर सलाह लेने से हिचकती थी. जैल सिंह ने यहां तक दावा किया है कि वरिषठ कांग्रेस नेता सरदार स्वर्ण सिंह ने भी अकाली दल के साथ मिलकर समझौता करीब करीब करवा लिया था, लेकिन दरबारा सिंह ने ऐसा होने नहीं दिया. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>हिंसा बढ़ती ही जा रही थी</b> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> पंजाब में हिंसा बढ़ती ही जा रही थी. 25 अप्रैल 1983 को डीआईजी ए एस अटवाल को तब गोली मार दी गयी जब वो स्वर्ण मंदिर में मत्था टेक कर लौट रहे थे. उनके हाथ में प्रसाद था और उनका शव स्वर्ण मंदिर के बाहर खुले में पड़ा हुआ था. पुलिस की हिम्मत ही नहीं थी कि वो अपने अधिकारी का शव अपने कब्जे में ले सके. आखिर मुख्यमंत्री को बीच में आना पड़ा. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> दरबारा सिंह भिंडरावाले को फोन करते हैं.. कहते हैं,  डीआईजी अवतारसिंह अटवाल को गोली मारी गयी है. उनका शव स्वर्ण मंदिर के बाहर पड़ा है. दो घंटे हो गये हैं शव को वहां पड़े. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> भिंडरावाले का जवाब, ...तो इसमें हम क्या कर सकते हैं ... </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> दरबारा सिंह .......आप अपने आदमियों से कहे कि पुलिस को शव ले जाने दिया जाए. कम से कम शव का सही रीतियों से अंतिम संस्कार हो सके. शव के साथ कैसी दुशमनी .... </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> भिंडरावाले ......कह दो अपनी पुलिस से .....लाश ले जाएं ... </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> वाकई में किसी मुख्यमंत्री के लिए ये एक शर्म की बात थी. दरबारा सिंह ने इंदिरा गांधी को स्वर्ण मंदिर में पुलिस भेजने की सलाह दी. इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति जैल सिंह से सलाह मांगी, जिन्होंने मना कर दिया.  दरबारा सिंह उन चुंनिदा नेताओं में थे जो भिंडरावाले के खिलाफ सख्त कदम उठाने की हिम्मत रखते थे लेकिन उनके हाथ बांध दिये गये. भिंडरावाले के हौंसले बुलंद हो गये. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>हिंदुओं पर हमला</b> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> 5 अक्टूबर 1983 को कपूरथला से जालंधर जा रही बस को सिख बंदूकधारियों ने देर रात रोका. हिंदुओं को चुन चुन कर बाहर निकाला गया और एक लाइन में खड़े कर गोली मार दी. छह हिंदुओं को उनके  परिवार की महिलाओं और बच्चों के सामने गोली मारी गयी. इस हत्याकांड के बाद ही पत्रकार तवलीन सिंह भिंडरावाले से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मिली थीं. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> तवलीन सिंह ....कहा जा रहा है कि मारने वाले सिख थे. <br /><br />भिंडरावाले ....तो ...इससे मेरा क्या लेना देना.<br /><br />तवलीन सिंह ....क्या आप हिंदुओं को बस से उतार कर मारने की घटना की निंदा करते हैं ....<br /><br />भिंडरावाले .....मैं क्यों इसकी निंदा करुं ...मैं निंदा करने वाला कौन होता हूं. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> यही तवलीन सिंह ने भिंडरावाले से ये भी पूछा था कि उन्हें कांग्रेस ने बहुत सारा पैसा दिया है ताकि आप अकालियों का खेल खराब कर सकें. भिंडरावाले बुरी तरह से बिफर गये थे. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> इस घटना के अगले ही दिन यानि 6 अक्टुबर के इंदिरा गांधी ने दरबारा सिहं सरकार को हटा दिया. पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. ये इंदिरा गांधी की भारी गलती थी. इससे भिंडरावाले के खिलाफ सख्त लाइन लेने वाले एक बड़े नेता से केन्द्र का सीधा नाता टूट गया. <br /><br />सतीश जैकब तब दरबारा सिंह से मिले थे. उन्होंने इशारों में कहा था कि राष्ट्रपति जैल सिंह के वफादारों ने ये सारा खेल रचा था. इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव रहे पीसी अलेक्जेंडर के अनुसार दरबारा सिंह शिकायत करते रहते थे कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी ज्ञानी जैलसिंह पंजाब की राजनीति में हस्तक्षेप करते रहते थे.  </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> सवाल उठता है कि आखिर इंदिरा गांधी जैसी सख्त महिला भिंडरावाले के खिलाफ कोई सख्त काईवाई करने से हिचक क्यों रही था. कुछ का कहना था कि इंदिरा गांधी चाहती थी कि सिख और हिन्दू बंटे रहे ताकि हिन्दू वोटों का कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकरण हो जाए. दरबार किताब लिखने वाली और राजीव गांधी सोनिया गांधी की बेहद करीबी  पत्रकार तवलीन सिंह ने इसका जवाब दिया है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> तवलीन सिंह ....अभी पंजाब का दौरा करके आई हूं. वहां तो हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> राजीव गांधी ...हूं . हम भी बहुत चिंतित हैं. समझौते की भी काफी कोशिशें हुई हैं पर .... </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> तवलीन सिंह .........मैडम प्राइम मिनिस्टर क्यों कुछ नहीं करती. .... </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> राजीव गांधी ......मैं मम्मी से कई बार कह चुका हूं हमें कुछ करना चाहिए लेकिन इंदिरा जी अपने वरिष्ठ सलाहकारों की ही सुनती हैं. वो सलाहकार इंदिरा जी को यही सलाह देते हैं कि उन्हें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे सिख नाराज हों. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> इंदिरा गांधी के लिए भिंडरावाले कहता था कि दिल्ली की गद्दी पर बैठी बामणी या पंडितजी की बेटी मद्रासी लोगों से घिरी हैं जो पंजाब की हकीकत नहीं समझते. खैर, भिंडरावाले की ताकत बढ़ती जा रही थी. खबरें आ रहीं थी कि दूध के बरतनों और अनाज की बोरियों के आड़ में हथियार स्वर्ण मंदिर में पहुंचाए जा रहे थे. पत्रकार सतीश जैकब बताते हैं कि कैसे उनके सामने स्वर्ण मंदिर में एक आदमी को तलवारों से काट डाला गया था जिसने भिंडरावाले से गद्दारी की थी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>अकाल तख्त पर कब्ज़ा</b> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> भिंडरावाले ने अकाल तख्त पर कब्जा कर लिया था. अकाल तख्त का मतलब एक ऐसा राजसिंहासन जो अनंतकाल के लिए बना हो. इसे सौलहवीं सदी में बनाया गया था. दिल्ली में मुगल दरबार की गद्दी से एक फुट ऊंचा अकाल तख्त बनाया गया था ताकि बताया जा सके कि ईश्वर की जगह बादशाहों से ऊपर होती है. छठे गुरु ने इसका निर्माण करवाया था लेकिन किसी ने अकाल तख्त को अपना निवास नहीं बनाया. जाहिर है कि भिंडरावाले ने अकाल तख्त को अपना आशियाना बनाया तो इसका जमकर विरोध भी हुआ. लेकिन भिंडरावाले ने किसी की परवाह नहीं की. वो वहां बैठता और फरमान जारी करता. प्रेस से भी वहीं मुलाकात करता. वहीं से उसने इंदिरा गांधी को चेतावनी दी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> शांति और हिंसा की जड़ एक ही हैं. हम तो माचिस की तीली की तरह हैं. ये लकड़ी की बनी है और ठंडी हैं. लेकिन आप उसे जलाएंगे तो लपटें निकलेंगी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> फरवरी 1984 में बातचीत का एक और दौर हुआ. दस महीने बाद ही देश में और पंजाब में चुनाव होने थे और इंदिरा गांधी के लिए समझौता करना एक राजनीतिक मजबूरी भी बनती जा रही थी. उधर अकाली भी समझ गये थे कि भिंडरावाले का कद बहुत बढ़ गया है और वो उनके वजूद को ही  कड़ी चुनौती दे सकता है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> विदेश मंत्री नरसिंह राव को कमान सौंपी गयी. उनके साथ थे  कैबिनेट सचिव कृष्णा स्वामी राव साहेब और  इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव पीसी अलेक्जेडर. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> सामने थे अकाली दल के अध्यक्ष प्रकाश सिंह बादल और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबधंक कमेटी के अध्यक्ष गुरुचरणसिंह तोहड़ा. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> नरसिंह राव .....एक कमीशन बनेगा जो आपकी सभी मांगों पर विचार करेगा. आनंदपुर साहब प्रस्ताव पर विचार करेगा. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> तोहड़ा ....हमें मिलेगा क्या ... </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> नरसिंह राव .....चंडीगढ़ पंजाब को दिया जाएगा. बदले में हरियाणा को अबोहर जिला दिया जाएगा, लेकिन ये सब सिफारिशें आयोग करेगा. <br />तोहड़ा और बादल ....मंजूर है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> नरसिंह राव ....इंद्रिरा गांधी जी ने कुछ सिख युवकों पर चल रहे देश द्रोह के मुकदमें भी वापस ले लिए हैं.  लेकिन उनकी एक ही शर्त है ..<br />तोहड़ा ...क्या .. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> नरसिंह राव .....भिंडरावाले को अगर समझौता मंजूर हुआ तभी इसे लागू किया जाएगा ....अब उन्हें और लोगोंवाल  जी को मनाना आपका काम है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> बादल और तोहड़ा इस प्रस्ताव को लेकर स्वर्ण मंदिर गये. वहां उन्हें  हरचंद सिंह लोगोंवाल और भिंडरावाले से मिलना था. लोंगोवाल तुंरत सहमत हो गये . तीनों अब भिंडरावाले के पास गये, लेकिन भिंडरावाले अड़ गये और तनातनी बढ़ गयी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> अगले दिन तोहड़ा राज्यपाल से मिले. उनसे कहा कि भिंडरावाले किसी भी कीमत पर समझौते के लिए तैयार नहीं है. एक हफ्ते बाद ही लोगोंवाल ने घोषणा कर दी कि तीन जून के बाद से गेहूं पंजाब के बाहर ले जाने नहीं दिया जाएगा. ये सीधे सीधे दिल्ली सरकार को चुनौती थी. अब इंदिरा गांधी को किसी फैसले पर पहुंचना ही था. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> इस बीच इंदिरा गांधी को खुफिया एंजेसियों ने खबर दी कि कनाडा, लंदन और अमेरिका में बसे एन आर आई भिंडरावाले के साथ मिलकर षडयंत्र रच रहे हैं. षडयंत्र यही कि बड़े पैमाने पर हिंदुओं का नरसंहार करवाया जाए ताकि वो पंजाब छोडने के लिए मजबूर हो जाएं. उधर देश के अलग अलग भागों में बसे सिख पंजाब में शरण लेने चले आएं. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> इंदिरा गांधी को बताया गया कि भिंडरावाले ने हिंदुओं के नरसंहार की तारीख पांच जून की चुनी है .उन्हें ये भी बताया गया था कि दस जून को भिंडरावाले खालिस्तान राज्य की आजादी की घोषणा करने की फिराक में था. उधर लोगोंवाल का गेहूं बाहर नहीं भेजने का आंदोलन तीन जून से शुरू होना था. यानि इंदिरा गांधी को जो कुछ करना था वो तीन जून से पहले या उसके आस पास ही करना था. इंदिरा गांधी ने स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने का फैसला कर ही लिया. कोड वर्ड रखा गया ऑपरेशन ब्लू स्टार. </p> <hr class="system-pagebreak" title="ऑपरेशन की शुरुआत" /> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <br /> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>ऑपरेशन की शुरुआत</b><br /><br />2 जून 1984, इंदिरा गांधी ने देश के नाम संदेश दिया. रात सवा नौ बजे. पंजाब में निर्दोष सिख और हिन्दू मारे जा रहे हैं, अराजकता फैली है, लूटपाट हो रही है. धार्मिक स्थल अपराधियों और हत्यारों के शरणगाह हो गये हैं.  सिखों और हिंदुओं के बीच नफरत फैलाने का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है. देश की एकता और संपूर्णता को कुछ ऐसे लोग खुलेआम चुनौती दे रहे हैं जो छुपकर धार्मिक स्थल में शरण लिए हुए हैं ....बहुत खून बह चुका है. हमें हमारी भविष्य की ज़िम्मेदारी को पहचानना है. ऐसा भविष्य जिसपर  हम सब को गर्व हो सके. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> अपने भाषण के अंत में इंदिरा गांधी ने अकालियों से अपने आंदोलन को समाप्त करने और शांतिपूर्ण समझौते को स्वीकार कर लेने की अपील की. <br /><br />जब इंदिरा गांधी देश के नाम संदेश दे रही थी उसी दौरान जनरल कुलदीप सिंह बरार की अगुवाई में सेना की नवीं डिवीजन स्वर्ण मंदिर की तरफ बढ रही थीं. तीन जून को अमृतसर से पत्रकारों को बाहर कर दिया गया. फोन सेवा बंद कर दी गयी. पाकिस्तान से लगती सीमा को सील कर दिया गया. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> हालांकि, उस वक्त तक भिंडरावाले को यकीन नहीं था कि सेना स्वर्ण मंदिर में घुसेगी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> 5 जून 1984 शाम 4.30 बजे . </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> स्वर्ण मंदिर के बाहर से लाउडस्पीकर से घोषणा होती है. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> हम स्वर्ण मंदिर परिसर में छुपे हथियार बंद अतिवादियों और आम जनता से अपील करते हैं कि वो बाहर आ जाएं, सरेंडर करे दें. ऐसा नहीं किया तो हमें सेना को अंदर भेजने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> ये अपील बार बार की गयी. सात बजे तक सिर्फ 129 लोग ही बाहर आएं. उन्होंने बताया कि भिंडरावाले के लोग बाहर जाने से रोक रहे हैं. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> 5 जून शाम सात बजे... </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> सेना की कार्रवाई शुरू हुई. रात भर दोनों तरफ से गोलीबारी होती रही. 6  जून सुबह पांच बजकर बीस मिनट पर तय किया गया कि अकाल तख्त में छुपे आतंकवादियों को बाहर निकालने के लिए टैंक लगाने होंगे. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> जिस समय अमृतसर में अकाल तख्त से भिंडरावाले और उनके साथियों को निकालने की कार्रवाई हो रही थी उसी दिन दिल्ली में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच एक बेहद तल्ख बातचीत हुई थी. दरअसल ज्ञानी जैल सिंह को ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरु होने के बाद ही इसकी जानकारी मिली थी और वो बेहद खफा थे. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> उधर स्वर्ण मंदिर मे 6 जून को सुबह से शाम तक लड़ाई चलती रही. आखिर देर रात भिंडरावाले की लाश सेना को मिली और सात जून की सुबह ऑपरेशन ब्लू स्टार खत्म हो गया. अगले तीन दिनों तक मोपिंग अप का काम चला. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> इसी दौरान 8 जून को राष्ट्रपति जैल सिंह ने यहां का दौरा किया. जब वो मंदिर की अंदर ही थे तभी उन्हें निशाना बना कर आतंकवादियों ने गोली भी चलाई थी जो उनकी सुरक्षा में लगे एक अधिकारी के कंधे पर लगी थी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <b>ऑपरेशन ब्लू स्टार में मौतें</b> </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> ले. जनरल बरार के अनुसार ब्लू स्टार में कुल 83 सैनिक मारे गये जिसमें चार अफसर शामिल हैं. इसके आलावा 248 घायल हुए. मरने वाले आतंकवादियों और अन्य की संख्या 492 रही. परिसर से भारी पैमाने पर हथियार बरामद हुए. इसमें एंटी टैंक राकेट लांचर भी थे. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> हैरानी की बात थी कि इतना बड़ा फैसला इंदिरा गांधी ने किया लेकिन देश के राष्ट्रपति और सेना का सुप्रीम कमांडर होने के बावजूद इंदिरा गांधी ने ज्ञानी जैल सिंह को ऑपरेशन ब्लू स्टार की भनक तक नहीं लगने दी. जैल सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्होंने इंदिरा गांधी को हमेशा यही सलाह दी थी कि कोई भड़काऊ कदम नहीं उठाया जाना चाहिए. जैल सिंह कहते हैं कि साफ है कि इंदिरा गांधी उनपर भरोसा नहीं करती थी,  इंदिरा गांधी  की नजर में जैल सिंह की वफादारी संदिग्ध थी. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> ऑपरेशन ब्लू स्टार के खत्म होने के बाद एक बड़ा फैसला केन्द्र सरकार के अफसरों ने लिया. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सुऱक्षा में लगे तमाम सिख गार्ड हटाने का प्रस्ताव तैयार किया गया जिसे प्रधानमंत्री के पास भेजा गया. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> पुपुल जयकर के अनुसार इंदिरा गांधी ने सिख गार्ड हटाने से मना किया तो  बीच का रास्ता निकाला गया. उनकी सुरक्षा में तैनात हर सिख गार्ड के साथ एक गैर सिख गार्ड को लगाने का फैसला हुआ. लेकिन इस फैसले पर पता नहीं क्यों कभी अमल नहीं किया गया. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> ऑपरेशन ब्लू स्टार के लगभग एक महीने बाद श्रीनगर से दिल्ली जा रही इंडियन एयरलाइंस की एक फ्लाइट को चार सिखों ने अपहरण कर लिया. जहाज को जबरन लाहौर ले गये और पाकिस्तान की सरकार से शरण मांगी. उधर इंदिरा गांधी जम्मू कश्मीर की फारुख अब्दुल्ला सरकार को निपटाने में लगी थी वहीं भिंडरावाले के समर्थक खुद को री ग्रुप कर रहे थे. फिर से संगठित हो रहे थे. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> अगले ही दिन इंदिरा गांधी राहुल और प्रियंका को लेकर श्रीनगर चली गयीं. वहां से लौटी तो उडीशा के चुनावी दौरे पर उन्हें जाना पड़ा. वहीं तीस अक्टूबर को इंदिरा गांधी ने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया. जब मैं मरूं तो मेरे खून की एक एक बूंद इस देश... </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> सवाल उठता है कि क्या इंदिरा जी को अपनी मौत का आभास हो गया था. वो हर बार अपनी मौत की बात क्यों करती थी...तीन महीने बाद ही देश में लोकसभा चुनाव होने थे और आयरन लेडी मौत की बातें कर रहीं थीं. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> 31 अक्टूबर 1984, दिल्ली. देश की बेहद लोकप्रिय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी. हत्या करने वाले उन्हीं के सुरक्षा गार्ड थे. दोनों सिख थे. सुबह इंदिरा गांधी की हत्या हुई और उसी दिन देर शाम उनके बेटे राजीव गांधी ने देश के नए प्रधानमंत्री के रुप में शपथ ली. </p> <p xmlns="http://www.w3.org/1999/xhtml"> <br /> </p>

सोशल मीडिया मार्केटिंग, के मायने

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इन्टरनेट मार्केटिंग

 

प्रस्तुति-- मनीषा यादव, हिमानी सिंह  

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
ऑनलाइन विज्ञापन जिसे की इन्टरनेट विज्ञापन भी कहा जाता है, इन्टरनेट के माध्यम से विज्ञापनों को उपभोक्ताओं तक पहुंचाती है। इसके अंतर्गत ई मेल मार्केटिंग, सर्च इंजन मार्केटिंग, सोशल मीडिया मार्केटिंग, विभिन्न प्रकार के दृश्य मीडिया विज्ञापन (वेब बैनर विज्ञापन भी शामिल) तथा मोबाइल विज्ञापन आदि आते हैं। विज्ञापन का यह साधन बहुत ही सशक्त है जिसका उपयोग सही योजना बनाकर किये जाने पर इसके परिणाम बहुत ही सकारात्मक आते हैं। इसके क्षेत्र तथा लक्ष्य लोगों के निर्धारण व उचित स्थान के लिए चुनाव में इन्टरनेट मार्केटिंग विशेषज्ञों की सहायता ली जाती है।[1]ऑनलाइन विज्ञापन व्यापार का बहुत ही बड़ा क्षेत्र है तथा यह इंडस्ट्री बहुत ही तेजी से बढ़ रही है। २०११ के आंकड़ों की माने तो इन्टरनेट विज्ञापन नें यूनाइटेड स्टेट्स में होने वाले टी.वी. विज्ञापनों को कहीं पीछे छोड़ दिया।[2]

इतिहास

हालाँकि शुरुआती दिनों में इन्टरनेट पर विज्ञापन की अनुमति नहीं थी उदहारण के लिए अरपानेट एवं एन-ऍफ़-एस नेट, ऐसे पश्चात नेट सेवा प्रदाताओं की इस सन्दर्भ में स्वीकरणीय नीतियां थीं जिन्होनें व्यापारिक प्रयोजनों से इन्टरनेट के प्रयोग पर लगाम लगा दी। ई मेल, जो की ऑनलाइन विज्ञापन के लिए पहला सर्वमान्य साधन था, बाद में धीरे - धीरे बहुत अधिक प्रयोग में आने लगा तथा फिर इस प्रकार के ई मेल्स को स्पैम नाम दे दिया गया। स्पैम मेसेज का पहली बार बहुत बड़े स्तर पर प्रेषण १९९४ में एंड्रूज विश्व विद्यालय के सिस्टम एडमिन के द्वारा किया गया था, उसने सभी यूज़नेट समाचार ग्रुप्स पर इसे पोस्ट किया था।[1][3][4]

प्रेषण माध्यम

इन्टरनेट पर विज्ञापनों के लिए निम्न साधनों का प्रयोग किया जाता है-
  • दृश्य विज्ञापन
  • वेब बैनर विज्ञापन
  • फ्रेम एड
  • पॉप अप/ पॉप अंडर विज्ञापन
  • फ्लोटिंग विज्ञापन
  • एक्स्पन्डिंग विज्ञापन
  • ट्रिक बैनर
  • इंटरस्टिटियल विज्ञापन
  • टेक्स्ट विज्ञापन
  • सर्च इंजन विज्ञापन
  • सर्च इंजन ऑप्टिमाइजेशन
  • स्पोंसर्ड सर्च
  • सोशल मीडिया मार्केटिंग
  • मोबाइल विज्ञापन
  • ईमेल विज्ञापन
  • चैट विज्ञापन
  • ऑनलाइन क्लासीफाइड विज्ञापन
  • एडवेयर
  • पूरक मार्केटिंग

भुगतान माध्यम

विज्ञापनकर्ता तथा पब्लिशर्स विज्ञापन करने के बदले किये जाने वाले भुगतान को मापने के लिए कई प्रकार की तकनीकों का प्रयोग करते हैं जो कि निम्नवत हैं-
  • भुगतान प्रति माइल
  • भुगतान प्रति क्लिक
  • भुगतान प्रति प्रदर्शन
अन्य भुगतान के माध्यमों में फिक्स खर्चे के विज्ञापन आदि आते हैं। इन सभी के द्वारा विज्ञापनकर्ता विज्ञापन के इच्छुक व्यक्ति या संस्था से विज्ञापन के बदले में भुगतान लेते हैं।[1]

ऑनलाइन विज्ञापन के लाभ

ऑनलाइन विज्ञान के कई लाभ होते हैं। इन विज्ञापनों से जहाँ लागत में कमी आती है वहीँ पर इनकी पहुँच को बड़ी ही आसानी से नापा जा सकता है। इनको उपभोक्ताओं की रूचि के अनुरूप ढालना एवं परिवर्तित करना अपेक्षाकृत रूप से अधिक आसान रहता है वहीँ पर लक्ष्य उपभोक्ताओं का निर्धारण करने में भी खासी मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। ऑफलाइन विज्ञापनों की तुलना में इनकी गति तथा कवरेज भी बहुत ही त्वरित होती है।[5][6]

नियम कायदे

सामान्य तौर से ग्राहक सुरक्षा नियम ऑफलाइन विज्ञापनों की तरह ऑनलाइन विज्ञापनों पर भी लागू होते हैं। अलग अलग देशों नें इनके लिए अलग अलग व्यावहारिक नियमावलियां निकाली हैं।[1]

सन्दर्भ

  1. <"आई ए बी इन्टरनेट एडवरटाईजिंग रेवेनु रिपोर्ट: 2012 फुल इयर रिजल्ट्स". आई ए बी. १२ जून २०१३.
  2. , नीरो (९ मार्च २०१३), गोंजालेस (उल्लिखित १४ जून २०१३). "हाफ ऑफ़ डिसट्रक्टनोइड्स रीडर्स ब्लाक आवर एड्स . नाउ व्हाट ?". डिसट्रक्टनोइड्स.
  3. , ब्रैड (२००८), टेम्पलटन (उल्लिखित १४ जून २०१३). "रिफ्लेकशन्स ओन दी २५थ एनिवर्सरी ऑफ़ स्पैम". टेम्पलटन.
  4. "एन-ऍफ़-एस नेट". लिविंग इन्टरनेट.२०११. उल्लिखित २५ जून २०१३.
  5. शिन, (सितम्बर २०१२), हु, यू ; (उल्लिखित जून २०१३). "परफॉरमेंस बेस्ड प्राइसिंग मॉडल्स इन ऑनलाइन: कास्ट पर क्लीक वर्सेस कास्ट पैर एक्शन". लिविंग इन्टरनेट.२०११.
  6. "इंटरनेट मार्केटिंग सर्विसेज". सुपरमिंड डॉट कॉम.

सामाजिक मीडिया विपणन

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सामाजिक मीडिया विपणनसंगठनों के एकीकृत विपणन संचार योजनाओं का एक नवीन घटक है। एकीकृत विपणन संचार अपने लक्षित बाज़ारों के साथ जुड़ने के लिए संगठनों द्वारा पालन किया जा रहा एक सिद्धांत है। एकीकृत विपणन संचार ग्राहक केंद्रित संदेश तैयार करने के लिए मिश्रित प्रचार तत्व - यथा विज्ञापन, व्यक्तिगत बिक्री, जन संपर्क, प्रचार, प्रत्यक्ष विपणन और बिक्री प्रोत्साहन को समन्वित करता है।[1]पारंपरिक विपणन संचार मॉडल में, सामग्री, आवृत्ति, समय, संगठन द्वारा संचार माध्यम एक बाहरी एजेंट, यानी विज्ञापन एजेंसियां, विपणन अनुसंधान फ़र्म और जन संपर्क फ़र्म के सहयोग के साथ हैं।[2]तथापि, सामाजिक मीडिया के विकास ने ग्राहकों के साथ संगठनों की संप्रेषण पद्धति को प्रभावित किया है। वेब 2.0 के उद्भव में इंटरनेट, लोगों को ऑनलाइन सामाजिक और व्यापार संबंध बनाने, सूचना साझा करने और परियोजनाओं पर सहयोग करने के लिए उपकरणों का एक सेट उपलब्ध कराता है।[3]
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मंच

सामाजिक मीडिया विपणन ग्राहक की मदद के लिए अतिरिक्त माध्यम, ग्राहक और प्रतिस्पर्धी अंतर्दृष्टि पाने का साधन और ऑनलाइन उनकी प्रतिष्ठा के प्रबंधन की विधि उपलब्ध कराते हुए संगठन और व्यक्तियों को लाभ पहुंचाता है। उसकी सफलता को सुनिश्चित करने वाले महत्वपूर्ण कारक हैं उसका अपने ग्राहक के लिए प्रासंगिक होना, उनको वह जो मूल्य प्रदान करता है और उस नींव की मज़बूती जिस पर वह निर्मित है। एक मजबूत नींव एक आधार या मंच का कार्य करता है जिस पर संगठन अपनी सूचना को केंद्रीकृत कर सके और लेख तथा प्रेस विज्ञप्तियों के प्रकाशन जैसे अन्य सामाजिक मीडिया प्रणालियों के माध्यम से अपने हाल के विकास की ओर ग्राहकों को निर्देशित कर सके.[4]
सबसे लोकप्रिय मंचों में शामिल हैं:
एक मज़बूत नींव का लक्ष्य एक ऐसे मंच का निर्माण है जो अपने ग्राहकों को संगठन के साथ संप्रेषण का मौक़ा देते हुए उन्हें आकर्षित करता और समर्थ बनाता है। यह मंच इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह संगठन को अपने ग्राहकों पर संगठन के प्रभावों को मापने और उन पर निगरानी रखने का भी अवसर देता है। सभी मंच हर संगठन के प्रयासों के लिए अनुकूल बनाए गए हैं, जहां मंच द्वारा प्रस्तुत महत्वपूर्ण अवसरों और चुनौतियों जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए, प्राथमिक जनसांख्यिकी को लक्षित किया जा रहा है और अपने ग्राहकों से प्राप्त सूचना के आकलन के लिए मीट्रिक्स का इस्तेमाल किया जा रहा है। कुछ मंचों द्वारा प्रस्तुत उपकरण उनके ग्राहकों द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में दूसरों की तुलना में अधिक उपयुक्त हैं। इस तरह के उपकरणों और ग्राहकों के उदाहरण निम्नतः हैं:
  • संगठन के Facebook पृष्ठ पर पसंद, वॉल पोस्ट और प्रशंसकों का परिमाण
  • नए रिलीज़ों की घोषणा के लिए ट्वीट और ब्लॉग पोस्ट
  • YouTube के निष्पादन अनुसार वीडियो का श्रेणी और दर्जा
  • MySpace पर निष्पादन अनुसार म्यूज़िक पोस्ट

संगठन सामाजिक मीडिया का उपयोग कैसे करते हैं

संगठनों द्वारा विपणन के लिए अधिक प्रभावी रूप से सामाजिक मीडिया का उपयोग करने के लिए, उन्हें यह समझना और स्वीकार करना होगा कि उभरते मंच वर्तमान विपणन पहल के प्रतिस्थापन के बजाय, उनके समग्र विपणन साधनों के अनुपूरक और विस्तार हैं। वे लक्ष्य, जिनके लिए सामाजिक मीडिया का इस्तेमाल किया जा सकता है:
  • ग्राहक सेवा, उदा. ग्राहकों की शिकायतों पर सीधी प्रतिक्रिया
  • प्रसारण अद्यतनीकरण, घोषणाएं, समाचार, उदा. अतिरिक्त जन संपर्क संसाधन
  • प्रचार
  • संगठन पर पर्दे के पीछे एक नज़र
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संगठनों को सफलता के लिए सामाजिक मीडिया हेतु अपने लक्ष्यों को परिभाषित करने की ज़रूरत है। मंचों के बीच लक्ष्य भिन्न हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, ग्राहक सेवा और प्रसारण अद्यतनीकरण के लिए Facebook का इस्तेमाल किया जा सकता है जबकि प्रचार के लिए Twitter का उपयोग हो सकता है। YouTube संगठन के परदे के पीछे का नज़ारा दिखा सकता है। सफलता कारक लक्ष्यों पर निर्भर करता है: एक लक्ष्य हो सकता है प्रचार के परिणामस्वरूप नए ग्राहकों की एक विशिष्ट संख्या; एक और लक्ष्य हो सकता है किसी ग्राहक सेवा स्थिति में एक निर्दिष्ट समय के अंदर सभी ग्राहकों की शिकायतों का जवाब.
चूंकि सामाजिक मीडिया तेज़ गति से उभर रहा है (और समग्रतः अभी हाल ही का है), संगठन अक्सर सामरिक के बजाय स्वभावगत उपस्थिति स्थापित करते हैं।[5]ज्यादातर मामलों में, यह विकास उस हद तक उपयुक्त है जहां संगठन को अपने सामाजिक मीडिया के उपयोग और समग्र विपणन योजना में एकीकरण के लिए रणनीति विकसित करने की आवश्यकता है।
सामाजिक मीडिया आबादी के क्रांतिक जनसमूह द्वारा अपनाया गया है, जिसका मतलब है कि सामाजिक मीडिया में उपस्थिति संगठनों के लिए महत्वपूर्ण है।[6][7]आम तौर पर, बिलकुल नहीं की जगह थोड़ी बहुत आधिकारिक उपस्थिति बेहतर है, भले ही एक विशेष रणनीति परिभाषित नहीं की गई हो. रणनीति और योजना के साथ या उसके बग़ैर-अन्य विपणन पहल के समान ही-सामाजिक मीडिया के प्रयास सफल या असफल हो सकते हैं।
अधिकांश संगठनों के पास उनके विपणन प्रयासों के लिए कर्मचारी मौजूद हैं। जनसंपर्क, विज्ञापन, वेब और मुद्रित संचार ऐसे क्षेत्र हैं जिनके प्रति कार्मिक और संसाधन समर्पित हैं। हालांकि सामाजिक मीडिया, विपणन रणनीतियों में हाल ही का क्षेत्र है, तथापि अधिक सफल संगठनों ने सामाजिक मीडिया से समन्वय स्थापित करने और उसके उपयोग में मदद के लिए समर्पित कर्मचारियों को रखा है। इन व्यक्तियों को संप्रति लोकप्रिय उपकरणों का इस्तेमाल करना होगा, लेकिन जब भी नए साधन आए और विकसित हों, उन नए उभरते साधनों के साथ प्रयोग करने की उन्हें छूट रहेगी.
कुछ संगठन ग्राहकों और सामान्य लोगों के मन में ब्रांड को ताज़ा रखने के लिए अपनी विपणन योजना में सामाजिक मीडिया का सक्रिय रूप से उपयोग करते हैं। एक सामाजिक मीडिया साइट पर संगठन के साथ जुड़ने से, संगठन को ऐसे व्यक्तियों के साथ जुड़े रहने का मौक़ा मिलता है, जो उनके ग्राहक हो भी सकते हैं या नहीं भी, बजाय इसके कि जब उन्हें अतिरिक्त सूचना की तलाश हो तभी उनसे संपर्क के लिए उस पर निर्भर हों.
सामाजिक मीडिया एक विशाल विज्ञापन मंच है। संगठन सामाजिक मीडिया पर साझा विशिष्ट दिलचस्पियों के आधार पर व्यक्तियों को लक्षित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि एक व्यक्ति जॉगिंग के बारे में एक YouTube वीडियो देखता है, एक जूता कंपनी एक विज्ञापन दे सकती है, या एक कॉफी कंपनी ऐसे व्यक्तियों को लक्षित करते हुए विज्ञापन दे सकती है, जो सामाजिक मीडिया साइटों पर पोस्ट करते हैं कि वे थके हैं। सामाजिक मीडिया ने विज्ञापनदाताओं को अत्यंत संकीर्ण रूप से विज्ञापन जाल परिष्कृत करने का मौका दिया है।

उदाहरण

कुछ संगठनों ने सामाजिक मीडिया विपणन पहल कार्यान्वित करते समय फ़ायदे से अधिक नुकसान ही पहुंचाया है; अन्य नए मीडिया मंच पर बहुत सफल रहे. उनकी सफलता की कुंजी थी, द्वार पर ही कॉर्पोरेट रवैया का परित्याग. सामाजिक मीडिया विपणन में, ग्राहकों की नज़र प्रामाणिकता और संगठनों के साथ एक विश्वसनीय संबंध पर है, जिसके साथ वे रिश्ते बना रहे हैं।

सफल अभियान

Dell (डेल)

Dell कंप्यूटर की अपने Direct2Dellमंच सहित मज़बूत ब्लॉगिंग उपस्थिति है। न केवल यह ब्लॉगर्स के लिए नए उत्पादों के बारे में जानने का एक मौका है, बल्कि इसने संगठन की प्रतिष्ठा के सुधार में भी मदद की है। साइट की शुरूआत के बाद से नकारात्मक ब्लॉगों की मात्रा में 49% से 22% तक गिरावट आई है।[8] Dell अपने ग्राहकों के साथ जुड़ने और ब्लॉग के ज़रिए तत्काल उनकी चिंताओं, टिप्पणियों और प्रश्नों का समाधान करने में सक्षम रहा है। Dell ने अपने @DellOutlet खाते के माध्यम से भी माइक्रो ब्लॉगिंग साइट Twitter पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है और अपने अनुयायियों को विशेष छूट की पेशकश द्वारा Twitter से बिक्री में लगभग $3 मिलियन अर्जित किए हैं।

Target (टार्गेट)

Target ग्राहकों के साथ Facebookपर "व्यक्तिगत संपर्क"साधते हुए और ग्राहकों को उनके पसंदीदा उत्पाद प्रस्तुत करते हुए सफल रहा है। Target को इस माध्यम को समझने और ग्राहकों के साथ जुड़ने के लिए फ़ायदेमंद तरीक़े से उसके उपयोग में समय लगा. उन्होंने सीखने का प्रयास किया और समूह को व्यवस्थित करने में ग्राहकों को मदद की अनुमति देकर विशेष रूप से अच्छा कार्य-निष्पादन दर्शाया.

Starbucks (स्टारबक्स)

Starbucks को Facebook, YouTube, Flickr, Twitterऔर उनके अपने ब्लॉगिंग साइट My Starbucks Ideaपर पाया जा सकता है। Starbucks को सबसे अच्छे सामाजिक मीडिया रणनीति रखने वालों में से एक माना जाता है। इसका ध्यान मौजूदा कंपनियों की आवश्यकताओं, ज़रूरतों और पसंद और नए ग्राहक पाने में मदद के लिए उस रिश्ते के निर्माण पर केंद्रित है।[9]

Old Spice (ओल्ड स्पाइस)

Old Spice के 'Man your man could smell like'जैसे विज्ञापनों की ज़बरदस्त सफलता के बाद Old Spice ने मंगलवार 13 जून और बुधवार 14 जून 2010 को वास्तव में परस्पर क्रियात्मक वाइरल अभियान चलाया। उन्होंने Facebook, Twitter, Youtube, Yahoo Answers, Reddit, 4chan और कई अन्य जगहों से "Old Spice Man"किरदार के प्रश्नों को संग्रहित किया और दो दिनों की अवधि में, Youtube पर 180 वीडियो प्रतिक्रियाओं को पोस्ट किया।[10]प्रतिक्रियाओं में Twitter अनुयायी की ओर से शादी का प्रस्ताव[11]और Old Spice Man की भूमिका निभाने वाले अभिनेता का अपनी बेटी को संदेश शामिल था[12]. वीडियो ने अपने पहले 24 घंटों में कुल मिलाकर लगभग 6 मिलियन व्यूज़ हासिल किए, जिसने उसे हाल का सबसे लोकप्रिय वाइरल वीडियो बनाया[10].

असफल अभियान

Volkswagen (वोक्सवैगन)

Volkswagen, MySpace पर अपने प्रयास में असफल रहा था। वे एक विज्ञापन में भूमिका के लिए देख रहे थे जो वे सही दिशा में निर्देशित कर रहे थे, लेकिन उनकी विफलता का कारण था पृष्ठ का अनुरक्षण न करते हुए, अन्य संगठनों को उन्हें अपने अभियान से भटका कर जगह घेरने का अवसर देना.[13]

Wal-Mart (वॉलमार्ट)

Wal-Martने अपने ग्राहकों को खुला संवाद करने का मौक़ा नहीं दिया. इसके बजाय, उन्होंने वॉल पर टिप्पणियों की पोस्टिंग को प्रतिबंधित किया। उन्होंने महसूस किया कि इससे नकारात्मक टिप्पणियों पर नियंत्रण रखने में मदद मिलेगी; जबकि, ग्राहकों ने जल्द वॉल तोड़ते हुए कई नकारात्मक पोस्ट दर्ज किए. सामाजिक मीडिया विपणन में Wal-Mart की विफलता में जुड़ने वाला एक और कारक था कि उन्होंने अपनी मूल दक्षताओं का पालन नहीं किया।[14] Wal-Mart के Facebook पृष्ठ पर "Save Money. Live Better" (धन सहेजें. बेहतर ज़िंदगी गुज़ारें.) का कोई जिक्र नहीं था। इसके बजाय उन्होंने स्टाइल और फ़ैशन पर पृष्ठ को केंद्रित किया।

Nestlé (नेस्ले)

Nestléपर्यावरणवादियों के साथ विवादास्पद स्थिति में फंसा है, जो जल्द ही Facebook पर उनसे चिढ़ गए और Twitter पर एक "twitstorm"की शुरूआत की. इसके अतिरिक्त, एक YouTube वीडियो बनाया गया जो Nestlé द्वारा ताड़ के तेल के निरंतर प्रयोग और वर्षा-वन के विनाश के कारण उन पर प्रहार करता है। Nestlé ने अपने प्रशंसकों से अपने वॉल पर केवल सकारात्मक टिप्पणियां पोस्ट करने के अनुरोध के साथ इस नकारात्मकता के प्रति जैसे-तैसे प्रतिक्रिया जताई.[15][16]

Facebook (फ़ेसबुक)

Facebook ने इन जनसांख्यिकी का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करने का निर्णय लिया। Facebook क़ानूनी तौर पर अपने वेबसाइट पर पोस्ट की गई सूचना पर सर्वाधिकार रखता है और उसने एक विज्ञापन कार्यक्रम तैयार किया जो उस सूचना के समूहन द्वारा Facebook के प्रयोक्ताओं को व्यक्तिगत रूप से और उनको आकर्षित करने वाले विज्ञापन द्वारा हर व्यक्ति को लक्षित करता है। इस रणनीति ने विज्ञापन की दुनिया में एक सनसनी फैलाई. इस प्रकार के विज्ञापन से पहले, पॉप-अप और बैनर में तत्व की कमी के कारण ऑनलाइन विज्ञापन कभी बहुत ज़्यादा प्रभावी नहीं थे। इंटरनेट का उपयोग करते समय अधिकांश लोगों ने इसे कष्टप्रद और ध्यान भंग करने वाला पाया। Facebook द्वारा 400 मिलियन प्रयोक्ताओं से मज़बूत अपनी वेबसाइट पर प्रत्येक व्यक्ति को लक्षित करने के साथ, उसने हर कंपनी के लिए एक लक्ष्य बाज़ार तैयार किया। इसलिए अगर एक ब्राइडल कंपनी Facebook पर विज्ञापित करना चाहती थी तो वह सचमुच सुनिश्चित कर सकती थी कि उनके विज्ञापन केवल वे लोग देख सकें जिनकी सगाई हुई है या जो डेटिंग पर हों, इस आधार पर कि वे कितने आगे जाना चाहते हों. इसने Facebook को प्रति-क्लिक-भुगतान रणनीति के उपयोग की शुरूआत करने का मौक़ा दिया कि इंटरनेट उपयोगकर्ताओं पर प्रभाव की कमी की वजह से अधिकांश विज्ञापनदाता संकोच करते हैं।
Facebook के लिए पे-पर-क्लिक रणनीति के परिणामस्वरूप, जब भी कोई Facebook प्रयोक्ता एक विज्ञापन पर क्लिक करता है, तो हर बार कंपनी विज्ञापन के लिए Facebook को भुगतान करती है। अध्ययनों से पता चला है कि उनसत्तर प्रतिशत से अधिक ऑनलाइन खरीदार Facebook जैसे सामाजिक मीडिया का उपयोग न केवल लोगों तक पहुंचने के लिए करते हैं, बल्कि साथ ही यह भी देखने के लिए कि क्या लोकप्रिय है और क्या फ़ैशनेबल चीज़ है। मूल प्रति-क्लिक-भुगतान रणनीति प्रभावी नहीं थी क्योंकि उपयोगकर्ता नहीं चाहते थे कि उन्हें एक और पृष्ठ पर ले जाया जाए और वहां पर वे ऐसी कोई चीज़ देखें जो उनके लिए आकर्षक ना हो. Facebook की नई लक्ष्यीकरण प्रणाली के ज़रिए प्रति उपयोगकर्ता क्लिक का उनका अनुपात, किसी अन्य प्रतियोगी की तुलना में, यहां तक कि Google से भी, ज़्यादा है। यह समझ में आता है क्योंकि विज्ञापन इस तथ्य के लिए आकर्षक बन जाता है कि उनकी सगाई हो चुकी है या वे फ़ैशन में रुचि रखते हैं।

सगाई के विज्ञापन

Facebook ने न केवल अपने विज्ञापनदाताओं तक पहुंच के लिए, बल्कि Facebook उपयोगकर्ता के लिए भी एंगेजमेंट ऐड्स कहलाने वाले विज्ञापन भी तैयार किए. यह Facebook प्रयोक्ता और सामाजिक मीडिया को तीन अद्वितीय अनुभव अनुमत करता है। पहले आप विज्ञापन पर टिप्पणी कर सकते हैं जो उपयोगकर्ता को यह कहने की छूट देता है कि उसे विज्ञापन या उत्पाद में क्या पसंद या नापसंद है। ये टिप्पणियां Facebook प्रयोक्ता के अन्य मित्र देख सकते हैं। जिससे उनके सामाजिक समूह को यह पता चलता है कि यह या तो बेकार है या बहुत ख़ूब है और उन्हें उसका उपयोग करना चाहिए. दूसरे, मित्रों को ऑनलाइन छोटे उपहार, मुफ़्त ई-तोहफे देना एक लोकप्रिय बात हो गई है। विज्ञापनदाता अब मुफ़्त ई-उपहार बना सकते हैं जो उपयोगकर्ता अपने दोस्तों को दे सकते हैं। अन्त में, उपयोगकर्ता अपने पसंदीदा उत्पाद और संगठनों के मित्र बन सकते हैं, जो उन्हें अपने पसंदीदा कंपनी के Facebook पृष्ठ से जोड़ सकता है। यह उन्हें दुनिया भर में ऐसे लोगों के समूह में डालता है जो इसी तरह के उत्पादों का आनंद उठाते हैं और Apple जैसी कंपनियों को यह देखने का मौक़ा देता है कि दरअसल उनके लक्षित दर्शक कौन हैं।

Apps के माध्यम से विज्ञापन

Facebook पर एक और प्रमुख विपणन संयोजन है अनुप्रयोग. आज तक Facebook पर सबसे अधिक प्रयुक्त कुछ मदों में से एक है अनुप्रयोग. अनुप्रयोग का एक बढ़िया उदाहरण है Farmville. Farmville, जिसके 80 मिलियन से अधिक उपयोगकर्ता है, जो Twitter की वेबसाइट पर संप्रति मौजूद प्रयोक्ताओं से ज़्यादा है। Facebook और उसके विज्ञापन पर इस तरह के अनुप्रयोग की शक्ति अब तक कभी सुनी नहीं गई। संगठन इन-गेम मदों को तैयार कर सकते हैं जो उपयोगकर्ता के फ़ार्म की मदद करते हैं और जो कोई व्यक्ति उस फ़ार्म का दौरा करता है वह उस व्यक्ति के फ़ार्म पर मद, कंपनी का विज्ञापन देख सकता है। यह एक प्रभावी विपणन रणनीति है क्योंकि कई लोग इसे "विपणन"के रूप में नहीं लेते, बल्कि मानते हैं कि कंपनी इस खेल में आपकी मदद कर रहा है। यह इसलिए भी प्रभावी है क्योंकि Farmville के उपयोगकर्ताओं की एक विस्तृत श्रृंखला है और उनके साइट का दौरा करने वाले हर कोई विज्ञापन को देखेंगे.

इन्हें भी देखें

संदर्भ

  1. डब्ल्यू. ग्लिन मैनगोल्ड, डेविड जे. फ़ॉल्ड्स. सोशल मीडिया: द न्यू हाइब्रिड एलिमेंट ऑफ़ द प्रमोशन मिक्स. बिज़नेस होराइज़न्स, जर्नल ऑफ़ द केल्ली स्कूल ऑफ़ बिज़नेस, इंडियाना विश्वविद्यालय
  2. डब्ल्यू. ग्लिन मैनगोल्ड, डेविड जे.फ़ॉल्ड्स. सोशल मीडिया: द न्यू हाइब्रिड एलिमेंट ऑफ़ द प्रमोशन मिक्स. बिज़नेस होराइज़न्स, जर्नल ऑफ़ द केल्ली स्कूल ऑफ़ बिज़नेस, इंडियाना विश्वविद्यालय
  3. http://online.wsj.com/article/SB122884677205091919.html
  4. Imediaconnection
  5. http://www.stephanmiller.com/organic-social-media-marketing/ Stephan Miller.
  6. http://www.marketing-online.co.uk/wiki/Social_Media_Usage_Statistics
  7. http://www.facebook.com/press/info.php?statistics
  8. http://marketingprofs.com
  9. http://www.dirjournal.com/articles/starbucks-social-media/
  10. http://mashable.com/2010/07/15/old-spice-stats/
  11. http://mashable.com/2010/07/14/old-spice-proposal/
  12. http://www.youtube.com/watch?v=JvuYcbgZl-U
  13. http://www.microsoft.com/midsizeorganization/web-v2-marketing-for-organizations.mspx
  14. http://social-media-optimization.com/2007/10/a-failed-facebook-marketing-campaign/
  15. http://www.allfacebook.com/2010/03/the-facebook-nestle-mess-when-social-media-goes-anti-social/
  16. http://news.cnet.com/8301-13577_3-20000805-36.html
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