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टेलीविजन पत्रकारिता के रोचक तथ्य

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Interesting facts about Television (in Hindi)


टीवी की कहानी 1830 से अब
तक...
http://khirodhar.heck.in

1. 1830 में थाम्स एडिसन और ग्राहम
बेल ने आवाज और फोटो ट्रांसफर करके
दिखाया।
2. 1907 में पहली बार 'टेलिविजन'
शब्द आस्तित्व में आया। और
डिक्शनरी में जोड़ा गया।
3. 1924 में जाॅन ब्रेड ने पहली बार
छायाचित्रो को मूव किया।
4. 1933 में हफ्ते में 2 बार प्रोग्राम
टीवी पर आना शुरू हुआ।
5. 1936 तक दुनिया में लगभग 200
टेलिविजन सेट इस्तेमाल होने लगे।
तब 12 इंच की टीवी स्क्रीन के साथ
बड़े-बड़े उपकरण आते थे।
6. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान टेलिविजन
का इस्तेमाल बढ़ गया। इस समय
टीवी प्रचार करने वाली मशीन की
तरह इस्तेमाल होने लगी। टेबलटाॅप
और कंसोल दो तरह के माॅडल प्रचलन
में आए।
7. पूरी तरह से कलर टीवी प्रसारण
1953 में अमेरिका में ही शुरू हुआ।
8. 1956 में राबर्ट एडलर ने पहला
रिमोट कंट्रोल बनाया।
9. 1962 में AT&T कंपनी ने
टेलीस्टार लाॅन्च किया।
0. 1967 के आसपास अधिकतर
प्रोग्राम कलरफुल आने लगे।
1. 1969 में 'अपोलो 11'पहला
प्रोग्राम ब्राॅडकास्ट हुआ। जिसे
600 मिलियन लोगो ने देखा।
2. 1973 में टीवी की स्क्रीन को और
बड़ा कर दिया गया। इस समय टीवी
का वजन काफी ज्यादा हुआ करता
था।
3. वर्ष 1976 में भारत में टीवी
प्रसारण को ऑल इंडिया रेडियो से
अलग किया गया।
4. 1980 में टीवी के साथ वीसीआर,
गेम्स आदि आने लगे। इसे टीवी की
पॉपुलैरिटी और बढ़ती गई। रिमोट
वाले टीवी ने दस्तक दी और
लोकप्रिय हुए।
5. 1990 के बाद टेलिविजन में कई
बदलाव आए। टीवी का साइज और
क्वालिटी बेहतर हुई। इसी समय
LCD और प्लाज्मा जैसी टेक्नोलाॅजी
के साथ भी एक्सपेरिमेंट चल रहा था।
6. 2000 के बाद VCR की जगह DVD
प्लेयर इस्तेमाल होने लगा। कई
कमर्शियल चैनल आए और टीवी का
स्वरुप बदल गया। अब इडियट बॉक्स
से टीवी स्मार्ट बन गया।
7. 2000 के बाद अब जमाना स्मार्ट
टीवी का है। अल्ट्रा UHD,
बेन्डेवल, 4K, 3D, LCD/LED टीवी
अब ना सिर्फ मनोरंजन का काम कर
रहे है, बल्कि कम्पयूटिंग और
कनेक्टिविटी के लिए भी इस्तेमाल
किए जा रहे है।
8. भारत में टेलीविजन प्रसारण की
शुरुआत दिल्ली से 15 सितंबर,
1959 को हुई थी। 1972 तक
टेलीविजन की सेवाएं अमृतसर और
मुंबई के लिए बढ़ाई गईं। 1975 तक
भारत के केवल सात शहरों में ही
टेलीविजन की सेवा शुरू हो पाई थी।
भारत में कलर टीवी और राष्ट्रीय
प्रसारण की शुरुआत 1982 में हुई।
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Posted by Khirodhar Choudhary on 12:24 PM, 20-Aug-15 • Under: Interesting facts
टीवी की कहानी 1830 से अब
तक...
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1. 1830 में थाम्स एडिसन और ग्राहम
बेल ने आवाज और फोटो ट्रांसफर करके
दिखाया।
2. 1907 में पहली बार 'टेलिविजन'
शब्द आस्तित्व में आया। और
डिक्शनरी में जोड़ा गया।
3. 1924 में जाॅन ब्रेड ने पहली बार
छायाचित्रो को मूव किया।
4. 1933 में हफ्ते में 2 बार प्रोग्राम
टीवी पर आना शुरू हुआ।
5. 1936 तक दुनिया में लगभग 200
टेलिविजन सेट इस्तेमाल होने लगे।
तब 12 इंच की टीवी स्क्रीन के साथ
बड़े-बड़े उपकरण आते थे।
6. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान टेलिविजन
का इस्तेमाल बढ़ गया। इस समय
टीवी प्रचार करने वाली मशीन की
तरह इस्तेमाल होने लगी। टेबलटाॅप
और कंसोल दो तरह के माॅडल प्रचलन
में आए।
7. पूरी तरह से कलर टीवी प्रसारण
1953 में अमेरिका में ही शुरू हुआ।
8. 1956 में राबर्ट एडलर ने पहला
रिमोट कंट्रोल बनाया।
9. 1962 में AT&T कंपनी ने
टेलीस्टार लाॅन्च किया।
0. 1967 के आसपास अधिकतर
प्रोग्राम कलरफुल आने लगे।
1. 1969 में 'अपोलो 11'पहला
प्रोग्राम ब्राॅडकास्ट हुआ। जिसे
600 मिलियन लोगो ने देखा।
2. 1973 में टीवी की स्क्रीन को और
बड़ा कर दिया गया। इस समय टीवी
का वजन काफी ज्यादा हुआ करता
था।
3. वर्ष 1976 में भारत में टीवी
प्रसारण को ऑल इंडिया रेडियो से
अलग किया गया।
4. 1980 में टीवी के साथ वीसीआर,
गेम्स आदि आने लगे। इसे टीवी की
पॉपुलैरिटी और बढ़ती गई। रिमोट
वाले टीवी ने दस्तक दी और
लोकप्रिय हुए।
5. 1990 के बाद टेलिविजन में कई
बदलाव आए। टीवी का साइज और
क्वालिटी बेहतर हुई। इसी समय
LCD और प्लाज्मा जैसी टेक्नोलाॅजी
के साथ भी एक्सपेरिमेंट चल रहा था।
6. 2000 के बाद VCR की जगह DVD
प्लेयर इस्तेमाल होने लगा। कई
कमर्शियल चैनल आए और टीवी का
स्वरुप बदल गया। अब इडियट बॉक्स
से टीवी स्मार्ट बन गया।
7. 2000 के बाद अब जमाना स्मार्ट
टीवी का है। अल्ट्रा UHD,
बेन्डेवल, 4K, 3D, LCD/LED टीवी
अब ना सिर्फ मनोरंजन का काम कर
रहे है, बल्कि कम्पयूटिंग और
कनेक्टिविटी के लिए भी इस्तेमाल
किए जा रहे है।
8. भारत में टेलीविजन प्रसारण की
शुरुआत दिल्ली से 15 सितंबर,
1959 को हुई थी। 1972 तक
टेलीविजन की सेवाएं अमृतसर और
मुंबई के लिए बढ़ाई गईं। 1975 तक
भारत के केवल सात शहरों में ही
टेलीविजन की सेवा शुरू हो पाई थी।
भारत में कलर टीवी और राष्ट्रीय
प्रसारण की शुरुआत 1982 में हुई।
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50 साल से निकल रही है त्रैमासिक पत्रिका संबोधन

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कमर मेवाडी जी के संबोधन को सलाम  

अनामी शरण बबल

राजस्थानके वरिष्ठ साहित्यकार और संबोधन त्रैमासिक पत्रिका के संपादक कमर मेवाड़ी को मैं नहीं जानता हूं अलबत्ता साहित्यिक पत्रिका हंस में अक्सर संबोधन पत्रिका का एक विज्ञापन जरूर देख लेता था.। दर्जनों दफा संबोधन के विज्ञापन को देखने के बावजूद इसको लेकर मन में कोई दिलचस्पी नहीं जगी। एकाएक हंस के ही किसी अंक में जब इसके 50 साल से लगातार प्रकाशित होने वाली पत्रिका संबोधन के विज्ञापन पर जब मेरी नजर गयी तो मेरा माथा ठनका कि संबोधन और 50 साल । मैं पहले तो अपनी जिज्ञासा को रोक नहीं पाया कि कमाल है एक साहित्यिक पत्रिका के 50 साल हो गए और मेरे पास इसका कोई एक भी अंक नहीं है। मैं खुद को थोडा शर्मसार और अबोध सा पा रहा था। मेरे भीतर इस कमर मेवाड़ी नामक साहित्यकार संपादक को लेकर बड़ी जिज्ञासा जगी कि आखिरकार यह हैं कौन जो इतनी शांति और एक तपस्वी की तरह किसी पत्रिका को 50 साल तक प्रकाशित करने के बाद भी खुद को पर्दे के पीछे ही रखते हैं। संबोधन पत्रिका के प्रेम विशेषांक को देखने और अपने पास होने की लालसा बढ़ गयी और मैं किसी भी कीमत पर संबोधन से जुड़ने के लिए लालयित सा हो गया। मेरी उत्कंठा को हवा दी मातृभारती ईबुक लाईव करने वाले डिजिटल प्रकाशक महेन्द्र शर्मा जी ने। वे तमाम प्रेम कहानियों को पुस्तिका के रूप में लाईव करना चाहते थे। हालांकि यह अभी तक तो तय था कि राजसमंद में जाकर इस आयोजन का साक्षी बनू, पर यह मुमकिन नहीं हो सका अलबत्ता मेरे और महेन्द्र शर्मा के मन में अभी भी यह लालसा जीवित है कि संबोधन परिवार से एक बार मिलना बहुत जरूरी सा है। यह कभी भी हो सकता है कि एकाएक  कभी भी मेवाड़ी जी से मिलने मैं राजसमंद पहुंच कर ही दम लूं।
किसी भी जगह से किसी पत्रिका या अखबार को निकालना सरल नहीं होता । बड़ी मेहनत और दिन रात की मेहनत के बाद 10-15 अंक निकलना भी कठिन नहीं होता, क्योंकि मन में लगन जेब में धन और  विज्ञापनों से मिलने वाले धन का आश्वासन जीवित रहता है। मगर चार से आठ माह गुजरते- 2 उत्साह चूकने लगता है, पत्रिका के साथ जुड़े संगी साथी भी छिटकने लगते हैं। यानी तम मन और धन के साथ जुड़ने वाले लोगों की टीम बिखरने लगती है और उस पर पूरे उत्साह और बढ़ चढ़कर धन की मदद और विज्ञापन देने वाले तमाम सज्जन लोग भी कन्नी काटने लगते है। यानी चार छह माह पहले तक कुछ कर गुजरने की सारी योजनें धीरे धीरे खंडित होने लगती है। छोटे शहर मे कम लोगो और सीमित संकुचित साधन संसाधनो के बीच पत्रिका को चलाना नाको चने चबाने से भी कठिन है, फिर कांकरटोली राजसमंद से संबोधन के भविष्य को लेकर सपने देखना भी मुंगेरीलाल के हसीन सपनो जैसा ही था।  मगर कमाल के आप हो कमर मेवाड़ी जी, फिर आप और आपकी पूरी टीम ही वंदनीय है जो किसी न किसी तरह 50 सालो मे कम होने की बजाय कारवां बढ़ता ही चला जा रहा है। यहां पर मैं संबोधन से ज्यादा इस परिवार के महत्व पर ज्यादा जोर दूंगा कि सारे लोग भले ही संबोधन के सूत्र में बंधे है। पर इनके कारण ही संबोधन को यह गौरव प्रतिष्ठा और मान सम्मान मिला। निजी प्रयासों से अपने बूते संबोधन भारतकी पहली पत्रिका है जिसके जीवन में 50 वसंत आए। भले ही संबोधन को नहीं देखा था पर मैं इससे एक सहोदर  देख रहा था। भले ही मेरा सही जन्म वर्ष नवम्बर 1965 की हो ,मगर सरकारी जन्म तो फरवरी 1966 की ही है । इस लिहाज से मैं और संबोधन की आयु करीब करीब एक समान ही है। संबोधन को देखने की ललक को पूरा करने के लिए कमर मेवाड़ी जी से बात करने के सिवा और कोई दूसरा रास्ता जो न था (क्योंकि लघु पत्रिकाओं के प्रकाशन के बाद सभी जगह वितरण की व्यवस्था करना भी तारे तोड़ने के बराबर है। हंस में ही कमर जी का मोबाइल नंबर था और मैने फटाक से फोन करके संबोधन को देखने और इसकी कहानियों को ईबुक में करने की बात रखी। मैने इनसे कहा कि 25 कहानी हैं तो संबोधन को मातृभारती 25 हजार रूपए बतौर पारिश्रमिक भी देगी। मेरी बात सुनते ही कमर जी ने दो टूक कहा कि आप मुझे क्यों देंगे जो लेखक है पारिश्रमिकत आप सीधे उसको दीजिए। इस पर मैने कहा कि मैं कहा कि 25 लोगों के ईमेल और बैंक खाते मंगवाना जटिल काम है  इससे ज्यादा भला है कि सीधे संबोधन के खाते में राशि डाल दी जाए। , मगर पैसे के भुगतान को लेकर कमर जी ने खुद को अलग कर लिया। एक साधनहीन पत्रिका के संपादक की धन को लेकर यह ईमानदारी चकित करती है । खैर अंतत मेवाड़ी जी ने मुझे भी इस मौके पर बुलाया कि खुद आकर इस पत्रिका के परिवार को देखिए, मगर यह संभव ना हो सका।( शायद दो एक माह में कांकरटोली जाना मुमकिन हो)
मेवाड़ी जी से बात करके अपना नाम बताया और संबोधन पत्रिका की एक प्रति की मांग रखी। बिना किसी हिल हुज्जत के उन्होने मेरा पता नोट किया और नौ मार्च को पत्रिका और अपनी कहानियों की एक किताब जिजीविषा और अन्य कहानियां पंजीकृत डाक से भेज दी। मगर हाय री मोदी जी कि भारतीय डाक (Indian post)कि 18 मार्च को पता करने पर ज्ञात हुआ कि अभी तक तो कोई पंजीकृत डाक आयी ही नहीं है, मगर 19 मार्च को डाकिया एक चेकबुक को लेकर घर पर आकर बताया कि आपकी किताब आ गयी है, पर पत्ता गलत लिखा है। मैने उससे बकझक भी की। खैर सोमवार 21 मार्च को आखिरकार कल्याणपुरी डाकघर में जाकर संबोधन पत्रिका को अपने हाथों में लिया। मै बता नहीं सकता कि संबोधन को देखकर कितनी खुशी हुई।  यह महज एक पत्रिका नहीं थी बल्कि एक इतनी दुर्लभ पत्रिका का एक खास अंक है जिसके लिए संबोधन और इसके सदस्यों को 50 साल तक श्रम करनी पड़ी थी। सरकारी खर्चे पर तो आजकल समेत प्रकाशन विभाग की कई पत्रिकाएं 65-70 साल से निकल रही है , मगर 1966 में एक पत्रिका का स्वप्न देखने वाले युवा लेखक कमर मेवाड़ी की जिस लगन समर्पण और संबोधन को भी अपने बच्चों की तरह ही देखभाल करने की अदम्य लालसा का ही यह फल है कि आज भले ही श्री कमर मेवाड़ी 78 साल के बुजुर्ग हो गए , मगर इनकी देखरेख और संरक्षण में पचासा का हो गया संबोधन तमाम साहित्यकारों लेखको को हैरत में डाल देता है। अपने बूते किसी पत्र- पत्रिका को जीवित रखने का दो उदाहरण मेरे मन को हमेशा रोमांचित करता है। फैजाबाद से प्रकासित जनमोर्चा अखबार निकालने वाले श्री शीतला सिंह जी ने इस अखबार को करीब 40 साल से अपने बूते अपने कंधे का आसरा दे चला रहे हैं तो औरंगाबाद बिहार के बारून से नवबिहार टाईम्स नामक एक साप्ताहिक अखबार निकालने वाले कमल किशोर ही वह दूसर उदाहरण हैं जिन्होने धन्ना सेठों पूंजीपतियों की मदद के बगैर ही अपने बूते चलाया। साधन संसाधन जुटाकर नवबिहार टाईम्स की उम्र को 25 साल करने वाले कमल किशोर की यह एक बडी उपलब्धि है।
पत्रिकाओं की बात करे तो अपने बूते   (हालांकि पर्दे के पीछे कई अमीर लेखकों का सहारा था) हंस पत्रिका को जाने माने साहित्यकार राजेन्द्र यादव जी ने 25 साल तक निकाला (अब हमारे बीच यादव जी नहीं हैं तो पत्रिका के संपादन का जिम्मा गया बिहार के धन्ना करोड़पति लेखक रंगकर्मी  और कथाकार संजय सहाय संभाल रहे हैं। श्री संजय के हाथों निसंदेह हंस का भविष्य सुरक्षित है। जब बात हंस की निकल ही गयी है तो यहां पर मैं बता दूं कि जिस हंस पत्रिका को हमलोग प्रेमचंद की पत्रिका हंस मानकर इसको पुर्नजीवित करने का जो श्रेय और गौरव राजेन्द्र यादव एंड पार्टी आज तक देते रहे है, वह केवल एक पक्ष है,  सच कुछ और है। 2005-06  के दौरान मैं अमर उजाला अखबार में दिल्ली का मुख्य संवाददाता था। संयोग से अमर उजाला और हंस पत्रिका का दफ्तर एकदम पास में ही था। इस दौरान यादव जी से मेरी ठीकठाक दोस्ती हो गयी थी। वे हमेशा मुझसे कहते तुम अपनी कहानी दो मैं अगले ही अंक में छापता हूं, जिसे मैं अक्सर यह कहकर टाल देता कि आपको लड़कियों और महिला लेखको के उद्धार से मौका मिले तब ना।
 हां तो मैं हंस पत्रिका के बारे में बता दूं कि हंस का नाम प्रेमचंद के परिजनों से लेने की बजाय राजेन्द्र यादव जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज की वार्षिक पत्रिका हंस के नाम को साभार किया था। यह मेरे लिए बड़ी खबर थी लिहाजा मेरा पत्रकार मन इसको न्यूज बनाने के लिए आतुर हो उठा और राजेन्द्र यादव की सहमति के बाद अमर उजाला के सभी एडिशन में यह खबर छपी कि प्रेमचंद का नहीं हंसराज कॉलेज की पत्रिका है राजेन्द्र यादव का हंस  इस खबर को लेकर बड़ी चर्चा भी रही तो वहीं मैने यादव जी की कॉफी के साथ करीब एक घंटे तक खूब मस्ती की।
यादव जी से मेरा कोई प्यार भरा नाता नहीं था कई बार मैने जमकर आलोचना भी कि मगर हर बार खिलखिला कर हर बात को मस्ती में उड़ा देने की आदत मेरे को हमेशा अचंभित करती थी। जब हंस के 25 साल पूरे हे तो मैने अपना सिर यादव जी के चरणों पर रख दिया और निवेदन किया कि मेरी अब तक की गलतियों  नादानियों को माफ कर देंगे आपने एक पत्रिका को 25 साल तक निकाल कर तमाम पूंजीपतियों को शर्मसार कर दिया।  आपने तो यादव जी एक इतिहास ही रच डाला है। मेरी बात सुनकर वे खुश हुए और गले से लगाते हुए कहा कि चलो तुम खुश हुए तो मोगैंबों भी खुश हुआ।. यह सुनते ही आस पास के लोग ठठाकर हंसने लगे।  
मगर यहां पर संबोधन के संपादक श्री कमर मेवाड़ी जी तो अपने मित्र राजेन्द्र यादव से भी चार कदम आगे निकले। दिल्ली मे रहते हुए जाने अनजाने में हंस दफ्तर एक मठ बन गया था, जहां पर अपनी कहानियों के प्रकाशन के लिए बेताब लेखक लेखिकाओं की फौज यादव के इर्दगिर्द रहती थी। वे इस ग्लैमर को जानते मानते और पहचानते हुए भी अपनाते थे। लिटरेचर ग्लैमर के बीच भी यादव जी ने इतनी आजादी दे रखी थी कि कोई भी आकर सीधे अपनी बात (चाहे कैसी भी हो ) रख और कर सकता था।
 अजीब संयोग है कि मैं अपनी बात संबोधन पर केंद्रित करने के बाद भी हमेशा भटक सा ही जा रहा हूं। पत्रिका की अन्य अंकों तो देखने का सुयोग मुझे नहीं मिला है मगर एक ही अंक में जिस नियोजित तरीके से प्रेम कहानियों का चयन किया है और उसमें एक ही साथ तीन तीन पीढ़ियो के लेखको को एक ही साथ एक ही कवर में देखना ही इस अंक की सबसे बड़ी खासियत बन जाती है।  किसी भी आदमी के जीवन के 50 साल का बहुत महत्व होता है। लगभग 70 प्रतिशत जीवन गुजारने के बाद ही उम्र के 50 वे बसंत का सुयोग हासिल होता है। इस दौरान बाल्यावस्था, किशोरावस्था, यौवनकाल के उपरांत आदमी 45 बसंत के बाद ढलान पर आ जाता है। पच्चास को तो अधेडावस्था कहना ही होगा। इस दौरान एक आदमी को रोजाना नाना प्रकार की दिक्कतों संकटो विपतियों संघर्षो उपलब्धियों से लेकर अपने मंसूबों को पूरा करता है। ठीक संबोधन भी आज अपनी तमाम हसरतो के साथ 50 वें बंसत पर इतरा रहा होगा।
संबोधन के यौवन को देखकर वाकई बहुतों के दिल में छूरी भी चल गयी हो तो हैरानी नहीं क्योंकि इसको मंजिल से भी आगे ले जाने वाले मेवाड़ी जी का नाम आज भी बिना ग्लैमर के अनजान सा ही है। अपनो को फोकस करने की बजाय संबोधन को ही लगातार सर्वोच्च प्राथमिकता देना और अपने साथ जुड़े लोगों की टोली को कांकरटोली में एक साथ रखना भी  हैरान करता है। लगता है कि कांकरटोली नाम के साथ ही इसको यह वरदान भी हासिल है कि जमाना भले ही कितना  आगे क्यों ना चला जाए, लोग भले ही अपने आप को भूल जाए,संयुक्त परिवार के टूटन का असर भले ही आदमी और आदमी तथा रिश्तों को केवल घर और बिस्तर तक ही समेट दे। लोग खून के रंग को भूलने की दुहाई देने लगे मगर कांकरटोली से प्रकाशित संबोधन परिवार की टोली सदैव एकसूत्र में ही बंधी और जुड़ी रहेगी ।  
 यह संबोधन पत्रिका  अब किसी एक कमर मेवाडी जी की अपनी पत्रिका नहीं  रह गयी है। इसे अब पूरे शहर की पत्रिकाकी तरह देखा जाना ही सही होगा।  जिसे टीवी पर अपनी दुकान के विज्ञापन की तरह कांकरटोली राजसमंद के हर घर की यह अपनी पत्रिका की तरह मान्य और स्वीकार्य होने की जरूरत है। पूरे शहर को अब सोचना होगा कि संबोधन  बगैर कमर मेवाड़ी जी के संरक्षण के बाद भी किस तरह और कैसे चलेगी ?  मेवाड़ी जी तो एक योद्धा की तरह मैदान फतह कर ली है। उन्होने अपनी पारी खेल दी है।  मगर अब संबोधन के मार्फत इस कांकरटोली राजसमंद शहर के लोगों को संबोधन की मान प्रतिष्ठा रखनी होगी। बात दूर तलक जाएगी कि तरह ही संबोधन को संबोधित मेरा पत्र भी काफी लंबा हो गया है। खुद को विराम देते हुए मैं चचा गालिब के कुछ शेर के साथ श्री कमर मेवाडी को सलाम करना पसंद करूंगा। .
बकौल गालिब
मुहब्बत में नहीं है फर्क , जीने और मरने का ।   
उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले।।
जरा कर जोर सीने पर कि तीरे-पुर-सितम निकले।
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले ।।.
हजारों ख्वाहिशे ऐसी, कि हर ख्वाहिश पे दम निकले ।
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले ।।


अनामी शरण बबल
पॉकेट- ए-3/154 एच
मयूर विहार फेज 3
दिल्ली- 110096
asb.deo@gmail.com
011-22615150 08882080458








  

मैं अपने दोस्तों का रसिया / अनामी शरण बबल

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( सर मॉर्क टली अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले एक मशहूर पत्रकार है। हीहीसी हिन्दी न्यूज सर्विस के दक्षिण एशिया प्रमुख टली भारत में ही रहते थे और एकसप्ताह में केवल घूमना और सबसे पहले बीबीसी के लिए न्यूज देना ही इनका काम होता था। लगातार बातचीत होने वाले इनकी मित्रमंडली मे तमाम देश के प्रधानमंत्री राष्ट्रपति से लेकर समाज की मुख्यधारा में सबसे पीछे रह गए लोग शामिल थे ( और आज भी है) सर मॉर्कटली जिस सहजता सरलता और स्नेहपूर्वक मुझसे मिले और बहुत सारी पारिवारिक बातें भी हुई। उसके मद्देनजर यह मेरी उच्चश्रृंखलता ही मानी जाएगी कि मैने जिस अंदाज में लेख लिख मारा मानो वे मेरे लंगोटिया यार हो। मगर यही तो र मॉर्क टली की सबसे बड़ी खासियत ौर ताकत हैं कि वे एक पत्रकार से भी बड़े और रल ह्रदय से लैस एक भावुक  इंसान है। और इसी छवि के साथ कज्ञ दक से भारत में रह रहे है. अमूमन भारत में इसी तरह के लोगो को महान भी कहते और मानते है। जिनमें रत्तीभर भी घंमड़ ना हो एेसी ही शांति के दूत की तरह मेरे मन में अंकित सर श्री मॉर्क टली पर मेरा एक छोटा सा संस्मरण । )
 
करीब 12-13 साल पहले की बात । जब मैं एक बार बीबीसी न्यूज रेडियों के दक्षिण एशिया न्यूजब्यूरो हेड सर मार्क टली से मिलने के लिए समय लेकर उनके घर जा ही धमका। क्या शाानदार हिन्दी हैं उनकी । फिर केवल सर टली की ही क्यों उनकी पत्नी (उनका नाम इस समय मैं भूल रहा हूं मगर मैं अपनी डायरी में से नाम तलाश कर जरूर लिखूंगा) की हिन्दी भी बहुत अच्छी ती।कासकर बोलने का मीठा अंदाज से लगता मानो हर शब्द में गुड़ की सोंधी सी मिठास छलक रही हो। दोनों ने मेरा खिलखिलाकर स्वागत किया और एकदम घरेलू सदस्य सा एकदम सहज होकर बातें की। मैं हिन्दी बोलने में थोड़ा हिचक भी रहा था पर मेरी दुविधा भांपकर सर टली बोले मैं केवल हिन्दी में बात करूंगा यदि आपको हिन्दी  नहीं आती है तो अंग्रेजी में बोल कते हैं, मगर मेरा जवाब केवल हिन्दी में ही रहेगा। मुस्कुराते हुए सर टली ने कहा कि मुझे किसी हिन्दी जानने वाले भारतीय से अंग्रेजी में बात करने की तबियत ही नहीं करती। मेरे मन का झिझक और संकोच पूरी तरहखत्म हो गयी थी और एक साथ हम तीनो खिलखिला कर बातचीत में लग गए।  करीब एक घंटे की मुलाकात में भारत, धर्म दर्शन भक्ति संतमत साहित्य कविता भारतीय सिनेमा से लेकर क्रिकेट और आतंकवाद आदि तमाम मुद्दो पर बातचीत से ज्यादा जिरह होती रही। खासकर दिवंगत प्रधानमंत्री स्रीमती गांधी की हत्या पंजाब के खूनी मंजर समेत म्यांगमार में तानासाही सत्ता और पाकिस्तान में दिवंगत राष्ट्रपति भुट्टो की फांसी देने की घटना का भी आंखो देखा हाल बयान करके मंत्र मुग्घ कर दिया। भारत के बारे में भी सर टली का ज्ञान अतुलनीय साथा। शायद बड़े बड़े फन्नेमार भारतीय ज्ञाता भी उनके सामने ज्यादा देर तक ना टिक पाए।
बीच में मैने उनसे पूछा कि टली साहब आप इंडिया में ही क्यों रह गए ? क्या आज कभी मन करता है कि काश आप वापस इंग्लैंड ही लौट जाते ?
 मेरे मन में मार्क टली के अलावा बीबीसी के तेजतर्रार खबरची सतीश जैकब के लिए भी बडी आस्था और सम्मान है। जब पंजाब जल रहा था ( उस समय भारत में तमाम खबरिया न्यूज चैनलों की पैदाइश भी नहीं हुई थी, और तब खबर माने जो बीबीसी बताए ही सही और सच माना जाता था।) मेरे सवाल पर सर टली ने लंबी आह भरी, और बोले कि यार भारत छोड़कर जाऊंगा भी तो कहां ? एकदम मुठ्ठी ताने टली ने हंसकर कहा कि इंडिया जैसा देश पूरे संसार में नहीं है। आप यहां पर अकेला नहीं रह सकते, लोग आपके साथ जबरन संवाद करना चाहते हैं बोलना चाहते है, जुड़ना चाहते है। उन्होने कहा कि आप लोगों पर विश्वास करके तो देखिए अपना नुकसान सहकर भी वे लोग आपकी कसौटी पर खरा ही साबित होंगे। उन्होने कहा कि मेरे तो इंडिया में हजारों दोस्त हैं जो मेरे फोन नहीं करने पर या फोन नहीं आने पर शिकायत करते हैं। लोगों को पता लग जाए कि टली बीमार है तो घर में दर्जनों लोग हाल चाल लेने आ जाते है। कितना अपनापन प्यार और एक दूसरो को लेकर मन में चिंता रहती है। और यह सब केवल इंडिया में ही संभव है। अलबता पाकिस्तान में रह रहे अपने सैकड़ो मित्रों को भी वे याद करना नहीं भूलते।  बकौल टली एक रेखा बना देने से भारत पाक अलग देश नहीं हो गए है, दोनो तरफ के लोगों में आपसी प्यार ललक और खैरियत की चिंता रहती है।. सर टली ने कहा कि मैं अपने दोस्तों के इस अनमोल खजाने को छोड़कर कहां जाउंगा। आज भारत ही मेरा मुल्क हैं, क्योंकि हम प्यार करना जानते है। बकौल टली भारत में रहने का केवल यही लालच है कि जब मेरी मौत भी आएगी तो मेरे चाहने वाले मुझे प्यार करते रहेंगे। मुझे भी एक भारतीय परिवार का हिस्सा माना जाएगा। यह भूमि ही इतनी सुदंर औरप्यारी हैं कि इसको छोड़कर जाने की कहीं तबियत नहीं करती। 
इसी दौरान श्रीमती टली सामान्य शिष्टाचार वश हम तीनों के लिए चाय के संग कुछ नमकीन और मिठाईयां लेकर आती है। मै उनकी तरफ मुखातिब होते हुए पूछा कि आप अपने नाम के साथ टली क्यों नहीं जोड़ती? सवाल सुनते ही मानो उन्हें किसी बिच्छू ने काट खाया हो।  एकदम सावधान मुद्रा में खड़ी होकर बोली नईईईईईईई। मैं क्यों टली को नाम के साथ लेकर चलूं। टली ही जब मेरा है,तो फिर नाम को बिगाड़ने की क्या जरूरत है। मैं उनसे और बाते करना चाह रहा था, मगर उन्होने कहा कि अभी आप टली से बात करे फिर कभी मेरे से बात करने आइए तो हमलोग बहुत सारी बातें करेंगे। फिर मुस्कुराते हुए वे चली गयी। ताकि बात में कोई खलल ना हो। 
सक्रिय पत्रकारिता से सर टली को अलग हुए करीब दो दशक से भी ज्यादा समय हो चुका है। बकौल टली  इसके बावजूद आज भी मेरे नंबर पर (जबकि नंबर तो कई बदल गये है फिर भी) दूर दराज इलाके से कोई फोन आता है तो सामने वाला बंदा बताता है टली साहेब आपको याद है न जब 1982 में आप खड़गपुर में आए थे या 1984 में जब अयोध्या में आए थे तो मैंने ही आपको अपनी मोटरसाईकिल पर बैठाकर फैजाबाद ले गया था। या फिर कोई फोन बनारस से कि टली साहब आपको याद है न जब आप गंगा में नहा रहे थे तो मैं ही आपके सामान की देखभाल कर रहा था। इसी तरह की अमूमन किसी घटना या शहर की याद दिलाते हुए ज्यादातर लोग एकाएक फोन करके  यह मानते हैं कि टली को सब याद ही होगा। लाचारगी से हंसते हुए सर टली ने कहा कि एकाएक तो मुझे किसी घटने की याद नहीं आती, मगर सामने वाले का मन रखना पड़ता है। खड़े होकर फिर खिलखिला कर बोले कि जब वाकई में उसकी याद मेरे मन में घूमने लगती है तो इधर से मैं ही फोन करके उसका हाल चाल पूछ लेता हूं। 
ज्यादातर लोग तो मेरे फोन करने से ही इस कदर निहाल हो जाते हैं मानो उन्हें कोई खजाना मिल गया हो। संबंधों में इतनी उर्जा इतनी तपिश और रिश्ते को बनाए रखने का इतना मोह केवल भारत में ही मुमकिन है और मुझे भारतवासी होने पर गर्व है।

मित्रों, अब कुछ मेरी बात भी।  मैं  सर मार्क टली का कोई किस्सा नहीं सुना रहा था, कि आपलोग दीवाने हुए जा रहे है। मै इसके बहाने यह बताना चाह रहा हूं कि भले ही मैं सर मार्क टली जैसा पत्रकारों का पत्रकार ना बन सकूं (क्योंकि यह अब मेरे हाथ में हैं भी नहीं) पर मैं भी एक नेकदिल निहायत शरीफ ( शरीफा जैसा पिलपिला भी नहीं) और मस्त आदमी जरूर बनना चाहता हूं। मैं खुद अपने सहित सबों से प्यार करता हूं। पेड़ पौधों से लेकर जीव जंतु पशु तक और मजदूर से लेकर अपंग और समाज के सबसे नीचले पायदान पर खडे रामू से लेकर काकू तक मेरे प्यार के सागर में समा जाते है। अपने तमाम सगे संबंधियों रिश्तेदारों नातेदारों सहित दूर दराज के सगों समेत अडोस पडोस के लोगों से भी मैं दिल (फेक कर नहीं)  खोलकर ही प्यार करता हूं। ( मैं नफरत भी करता हूं लोगों से मगर किससे  यह फिर कभी लिखा जाएगा) 
अपने बारे में मैं अपनी ही एक कविता का सहारा ले रहा हूं जिसे मैंने करीब 25-30 साल पहले ही कभी लिखी थी। 
मैं अकेला नहीं/

 मैं कभी अकेला नही होता /
 जो खामोश रह जाऊं /
 खामोशी से सह जाऊं सबकुछ /
 मेरे भीतर बसते हैं करोड़ो लोग / 
फिर भला, 
 मैं कैसे रह सकता हूं खामोश। 

तो मेरे तमाम मित्रगण मैं भी अपने दोस्तों का रसिक हूं, रसिया हूं, मगर,(छलिया नहीं)। मैं आदमी को आदमी की तरह प्यार करता हूं। और दोस्तों के बारे में मशहूर पत्रकार सर मार्क टली की ये अनमोल बाते मुझे सदैव प्रेरित करती है। 

अनामी शरण बबल 

Bindeshwar Pathak Day’ by New York Mayor

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सुलभ संस्थापक बिंदेश्वर पाठख को मिला नायाब सम्मान 

April 14 declared as ‘Bindeshwar Pathak Day’ by New York Mayor

April 14 declared as ‘Bindeshwar Pathak Day’ by New York Mayor
Pathak was presented with the New York Global Leaders Dialogue Humanitarian Award earlier this week.
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By: PTI | New York | Published:April 16, 2016 1:55 pm
Sulabh International founder Bindeshwar Pathak
Sulabh International founder Bindeshwar Pathak

In a rare honour, New York City declared this year’s April 14 as ‘Bindeshwar Pathak Day’ in recognition of the contributions made by the Indian social activist and ‘Sulabh International’ founder for improving the lives of people engaged in the “most dehumanising situation”.

New York City Mayor Bill de Blasio honoured Pathak for his outstanding work to improve health and hygiene and ‘moving the world forward’.

“Pathak has been an example of someone who saw a great injustice, saw something that to many people was impractical and permanent and had the creativity, energy, drive and hope to make the change,” he said at the ceremony on April 14 attended by Pathak, 73, himself.

Pathak was presented with the New York Global Leaders Dialogue Humanitarian Award earlier this week.

The Mayor said Pathak took his vision to help the oppressed and through his work and organisation, created new technology that improved public health and environment and ‘fundamentally changed the reality’ for many communities.
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He presented Pathak with the proclamation declaring April 14, 2016 as Bindeshwar Pathak Day, honouring Pathak for being a “pioneer” in advocating for human rights in India by campaigning for social reforms and developing innovative and environmentally-sound sanitation technologies.

“This visionary humanitarian has improved quality of life for millions and increased opportunities for education and employment.

“I commend Dr Pathak for his outstanding work to improve health and hygiene, provide vocational training, promote gender equality and give dignity and hope to impoverished people in India and far beyond,” the proclamation read.

It added that Pathak’s “lifelong” dedication to championing human rights has helped break the cycle of poverty and disenfranchisement throughout India.

The mayor lauded Pathak for improving the lives of people who worked in the “most dehumanising situation” and being a catalyst of change for them.

Sulabh, which engages nearly 50,000 people, has constructed nearly 1.3 million household toilets and 54 million government toilets based on an innovative design.

Apart from construction of toilets, the organisation is leading a movement to discourage manual cleaning of human waste.
- See more at: http://indianexpress.com/article/india/india-

बाजारवाद तो बेईमान मालिकों का एक बहाना है

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Anami Sharan Babal
Anami Sharan Babalबाजार आदि मात्र एक बहाना है। मीडिया मालिकों को अपनी आय बढ़ते या बड़ाने में हर्ज नहीं केवल पत्रकारों को रकम देने में एक हजार समस्याएं खड़ी हो जाती है। बाजार की गिरफ्त तो एक बहाना है संपादक के नाम पर तमाम अकबार गदहों को संपादक ( ओह) चापलूस नौकर बना रखा है, जो मालिक हित पर ज्यादा जोर देता है। तो इस तरह के पिठ्ठू नालायक नाकाबिल और स्वार्थी संपादक से क्या उम्मीद है कि वो पत्रकारिता की सेवा करेगा। एक समय था कि मीडिया मालिक भीसंपादकों की बातों का सम्मान करते थे, मगर आज तो संपादक मालिकों के यहां हाजिरी बजाने और अपने मातहत कर्मचारियों के पैर काटने की जुगत में लगा रहने वाला खूंखार किस्म का जंतु हो गया है। फिर मालिकों में भी कितना बदलाव आया है? पहले लोग मीडिया में ईमानदारी थी पत्रकारों का सम्मान था और संपादक की गरिमा थी।एर पत्रकार किसी बड़े से बड़े नेता के शिलाफ भी कुछ लिख देता था तो मालिक से लेकर संपादक तक उसके साथ खड़े हो जाते थे, मगर आज बड़ा नेता तो दूर कोई गली मोहल्ला का नेता भी सीधे मालिक का धौंस मारता है, और कमाल की बात मीडिया मालिक हाथ जोडे दरबारी की तरह उसके घर जाकर चाकरी करने लगता है, और नेता ( नेटा) के कहने पर पत्रकार को निकाल बाहर कर दिया जाता है। पहले मालिको में एक गौरव होता था पर आज मीडिया में ज्यादातर चोर घुसखोर बेईमान बिल्डर माफिया ठेकेदार या गलत शलत काम करने वाले ही मीडिया के मालिकों में शुमार होने लगे है। तो इनसे क्या उम्मीद की जाए। न्यूज से ज्यादा पत्रकारों से अपने लिए अपने हित के लिए काम कराना इनकी फितरत है। पहले कोई बिल्डर मीडिया से डरताथा पर आज वही पेपर निकालता है। कुछ पेपर वाले भी बिल्डर बनकर गलत शलत काम करने में हिचक नहीं रहे। कोई अखबार पत्रकारों सेकेवल विज्ञापन वसूलने में लगा है। तो इस तरह के भ्रष्
Anami Sharan Babal
Anami Sharan Babalक्षमा करे आलेख अभी हाकी है। / भ्रष्ट चोर बेईमान मालिकों द्वारा बाजारवाद का नाम देकर अपना लाभ बढाने और पत्रकारों को पैसा देने के नाम पर बाजार वाद घाटे का रोना रोने का बहाना है। इस तरह के बेईमान मीडिया युग में बाजारवाद तो महज एक बहाना है । और बाजारवाद 2 के नारे को प्रचारित करना भी एक तरह से मीडिया का षड़यंत्र है

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एक खेल पत्रिका का शुभारंभ

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‘Khel Today’ launched
New Delhi: ‘Khel Today’, A National Sports Magazine in Hindi inaugurated by eminent Coaches, players and administrators here at Kalkaji Mandir.
Olympic Qualified Table Tennis player Manika batra, former Test Cricketer Chetan Chauhan, Dronacharya awardee wrestling Coach Yashvir Singh among other who graced the launch function. ‘Khel Today’ is a National level monthaly Magazine. On this occasion Manika said in front of huge crowds of Journalists and sports persons “ All the mothers in country should encourage their daughters to participate in sports. My mother has given me all the facilities and devoted time for me to work hard in the field of Table Tennis. I will leave no stone unturned to excel in Rio Olympics”
‘ Khel Today’ has published the Articles of renowned sports person such as Former India cricket Captain Ajit Wadekar, former India opener Chetan Chauhan, Dronacharya awardee wrestling Coach Yashvir Singh], Dronacharya awardee Body Building Coach Bhupender Dhawan, Dronacharya awardee Hockey Coach Harender Singh etc. Journalists with more than twenty five years of experience in Media are part of Editorial team. Ashok Kinker is the consulting Editor, Rakesh Thapliyal is Editor-in-chief and Ranvir Singh is Executive Editor of ‘Khel Today’.
Chetan Chauhan said, As a National President of Krida Bharti, a Sports wing of RSS, I am putting all the efforts to provide coaches and sporting facilities of sports which are popular in ruler areas such as Wrestling. Kabaddi, Kho Kho, volleyball, malkhambh etc.
Mahant Surendra Nath Awdhoot of Kalika Peeth honouerd Olympic Qualified Table Tennis player Manika batra, former Test Cricketer Chetan Chauhan, Dronacharya awardee wrestling Coach Yashvir Singh, International BodyBuilders , who are deciples of Dronacharya awardee Coach Bhupender Dhawan and Lata Gupta, Chairperson of Standing Committee EDMC.
Ashok Kinker's photo.
Ashok Kinker's photo.
Ashok Kinker's photo.
Vishnu RajgadiaCongratulations
Vishnu Rajgadia
Vishnu RajgadiaCongratulations
Debu Mishra
Debu MishraBig congratulations
Arun Kumar
Nalin Chauhan
Nalin Chauhanशानदार आगाज।
Pramod Kumar Saini
Ras Bihari
Ras Bihariबहुत बहुत बधाई। पत्रिका अच्छी है। छा जायेगी।
Anoop Bhatnagar
Anoop BhatnagarCongratulations for new venture. I wish all success.
Girish Upadhyay
Girish Upadhyayहार्दिक बधाई और शुभकामनाएं अशोक जी
Himanshu Ghildiyal
Anita Singh
Anita SinghCongratulations...
Santosh Tewari
Santosh TewariBest wishes Ashok!
Jaishankar Gupta
Jaishankar Guptaसराहनीय प्रयास। हर तरह के सहयोग समर्थन के आश्वासन के साथ खेल टुडे की सफलता और बाजार में टिके रहने की अशेष शुभकामनाएं।
Sanjay Srivastava
Abhimanyu Sinha
Abhimanyu Sinhabahut bahut mubark smile emoticon
Anil Attri
Anil Attriपूरी टीम को शुभकामनाएं।
Girish Srivastav
Girish SrivastavCongratulation of all team, my best wishes Ashok ji
Suman Kumar
Suman KumarBadhai. production ke karan aa nahi paya. Shubhkamnayen hamesha rahengi.

मीठी मीठी यादों से भरे कॉलेज के वे मोहक दिन

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अनामी शरण बबल



अतीत की याद मनभावन लागे
ज्यों दूर के ढोल सुहावन लागे

( कॉलेज में मेरे साथ मेरी मोहक यादों को ना भूलने योग्य बनाने में अपनी भूमिका निभाने वाले समस्त मित्रों वरिष्ठ आदरणीय गुरूजनों समेत साथ पढने वाले  
मित्रों समेत कॉलेज में उस समय पढने वाले समस्त दोस्तों साथियों की याद में समर्पित है यह छोटा सा संस्मरण। आप सभी के कारण ही मैं 30 साल गुजर जाने के बाद भी इन मीठी मीठी यादों से भरे कॉलेज के वे मोहक दिन में ही खुद को अक्सर संलग्न पाता हूं।)


अपने अतीत में एक लंबे अंतराल के बाद झांकना मन को भावविभोर कर देता है। हालांकि बहुत सारी बातें तो मन की पटरी से उतर भी जाती हैं, मगर अतीत की तमाम मोहक यादें सदा पटरी पर ही बनी रहती है। 1981 में मैट्रिक पास करने के बाद पढ़ने के लिए दयालबाग आगरा में मेरा नाम लिखवाया गया मगर घर से बाहर निकलते ही मानों मैं  बेहय्या होकर बहक गया, और मेरी तंद्रा तब टूटी जब इंटरमीडिएट (कृषि) की परीक्षा में फेल हो गया।  कृषि में मेरी कोई दिलचस्पी पहले भी नहीं थी पर मेरे पापाजी का मन कृषि में नाम लिखवाने का ही था। मैं पहले से ही मना कर रहा था कि पापाजी इसमें ही मेरा नाम लिखवा कर माने।  पर पापाजी के नाक काटकर अभी घर लौटने के अभी एक माह भी नहीं हुपआ था कि एक दिन सुबह सुबह मुझे फिट पडा और मैं एपिलेप्सी का मरीज हो गया। करीब छह माह में 30-32 बार फिट पड़े होंगे। इसका बेहतर ईलाज रांची के डॉक्टर के के सिन्हा ने किया। और 1983 में मैं स्वस्थ्य हुआ। ईलाज के बाद फिर  फिट पड़ने बंद हो गए। और मैं औरंगाबाद के एक इंटरमीडिएट कॉलेज से किसी तरह 1983 में पास हुआ । जिले के सबसे बडे कॉलेज के रूप में विख्यात सिन्हा कॉलेज में बीए में नाम लिखवाया। कॉलेज के तमाम गुरूओं से परिचित होते हुए 1986 में बीए जिसे स्नातक भी कहा जाता है पास हो गया। बीए ऑनर्स हिन्दी से मैने करने की फैसला किया। और सच में 30 साल के बाद यह कहने और स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि यह 9-10 माह मेरे शैक्षणिक जीवन का सबसे सुदंर मोहक और यादगार लम्हा रहा। बाद में भले ही भारतीय जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली में भी धमाल किया, पर 1986-87 सत्र मेरे लिए आज भी लाजबाव ही है।  
एक दिन मैंने अपने पापा से श्री झा जी से किस तरह का संबंध है के बारे में पूछा। पापा ने बताया कि झा जी के एक साले उनके साथ बिजली विभाग में ही काम करते थे। उनके साथ पापाजी भी कई बार श्री झा जी के यहां गए थे, लिहाजा मेरे पापा के साथ भी वे साले का मजाकिया रिश्ता ही रखते थे। जीजा साला का रिश्ता मेरे पापा के साथ था पर लगता था कि वे मजाक और उलाहना का रिश्ता मेरे संग ही निभाते थे।  मुझे उलाहना देने में वे कभी नहीं चूकते। और आज जब इन रिश्तों के बीच मैं अपने गुस्ताखियों पर गौर करता हूं वाकई लगता है कि वे मेरी तमाम उदंडताओं को किस सहजता के साथ माफ या नजरअंदाज कर देते थे। 
ऑनर्स में नामांकन के बाद जब मैं पहले दिन कमरे में घुसा ही था कि कमरे में लड़कियों की भीड़ देखकर मैं घबराकर उल्टी पांव वापस बाहर निकल भागा। मुझे लगा कि मै गलती से कोई दूसरे कमरे में घुस आया हूं। बाहर आकर देखा कि कमरे में तो अपने झा जी ही है। खैर किसी तरह मैं फिर कमरे में प्रवेश करने की हिम्मक की। अभी कमरे में ठीक से घुस भी नहीं था कि झा जी ने मजाकिया लहजे में पूछा कहां भागे जा रहा था लाला। ( वे अमूमन मुझे इसी नाम से पुकारते थे) तब तक तो मैं थोडा संभल गया था।. भाग नहीं रहा था सर इतनी सारी लड़कियों को देखकर मुझे लगा कि मैं गलती से किसी और कमरे में चला गया हूं। . मेरी बात पर कमरे में ठहाका लगा। मैं बैठने की बजाय खड़े होकर लड़कियों की गिनती करने लगा। इस पर फिर तपाक से झाजी बोले बैठो न लाला क्या कर रहे हो ?  मैं उनकी तरफ मुड़ते हुए कहा और ये 17 नहीं 18  है सर। मेरी बात को सर भी नहीं समझे तपाक से बोले कि क्या 18 ।  मैं अभी तक खड़ा ही था  मैने बड़ी मासूमियत से कहा सर क्लास में 18 लड़कियां और लड़के केवल आठ । इनको संभाला कैसे जाएगा । तो क्या तुम्हें कोई दिक्कत हो रही है ?नहीं सर दिक्कत तो आपको होगी मैं तो केवल गिनती गिन रहा था। मेरी बकवास से श्री झा जी फट पडे और उलाहना भरे अंदाज में बोले ठीक है ठीक है लाला चल तू बैठ मैं सब संभाल लूंगा। मैं फिर खडा होकर तपाक से कह डाला कि हां सर आपके बाद मैं भी सबको संभाल कर रखूंगा। इस पर अपनी कुर्सी से उठकर वे मेरे सामने आ गए और हिटलरी अंदाज में बोले  चल बता तू लाला कि कैसे इन लोगों को संभालकर रखेगा। तबतक मैं लगभग सभी लड़कियों को एक नजर देख चुका था। कमरे का पूरा माहौल एकदम खिलखिलाहट से भर गया था। तमाम लड़के लडकी मंद मंद तो कोई खुलकर हंसने में तल्लीन था। पूरे हिम्मत के साथ मैने कहा कि सर इनमें दो तीन तो मेरी मौसी हैं दो तीन मेरी मौसियों की सहेली है और कईयों के पापा तो मेरे पापा के संग काम करते है। बाकी दो चार अनजानी सी हैं तो सब काबू में रहेगी। काबू सुनते ही श्री झा जी फिर बौखला गए तू लाला इन्हे काबू में रखेगा । मैने हाथ जोड़कर एकदम दंडवत मुद्रा में सबिनय कहा कि मेरी क्या हिम्मत है सर इन देवियों को काबू में रखने की। इनको देखदेख कर तो हमलोग काबू में रहेंगे। इस पर श्री झा जी भी मुस्कुरा पडे, और क्लास के सभी छात्र छात्राएं भी हंसने लगे। वे सहज और सामान्य होते हुए बोले चल लाला सीट संभाल । हम सभी लड़के तो परिचित थे ही । अलबत्ता दो एक को छोड़कर और से बात नहीं हुई थी। सामान्य औपचारिक बातें कर क्लास खत्म हुआ। गुरूजी के कमरे में रहते ही सारी छात्राएं एक एक कर बाहर निकल गयी, तब कहीं जाकर हमारे झा जी भी कमरे से बाहर हुए। सबों के बाहर जाते ही कमर में सन्नाटे के साथ रह गए बाकी हम लड़के जो ठहाका मार कर हंस पड़े। मेरी हाजिर जवाबी पर मेरे दोस्तों ने दाद देते हे कहा कि अनामी भाई गजब तुमने तो आज सबों से जमकर मस्ती की। तो यह था बीए ऑनर्स का मेरा पहला दिन ।

मैं पढ़ने में कोई बडा उस्ताद नहीं था, पर मेरी समझने की क्षमता लगभग ठीक ठाक थी। एक बार गौर से सुन लेने के बाद बिषय सार की समझ हो जाती है और मैं उसको अपनी भाषा में लिखने का प्रयास करता था । मैं किताबें तो कई बार कई जगह से पार ( जिसे चुरा ली भी कह सकते है) कर दी है। मां और नानी के बक्से से और पापा की जेब से महीने में कई बार रुपए भी निकाल लेता था। उस समय तो दस पांच रूपए की ही बड़ी कीमत होती थी लिहाजा छोटी छोटी चोरियां लंबे समय तक चली मगर किसी की पकड़ में नहीं आयी। अलबत्ता हम सभी भाई इस पॉकेटमारी से परिचित थे।  लिहाजा अपने त्रिदेव बंधुओं को मुंह बंद रखने का जुर्माना भी देना पड़ता था। इसके अलावा चोरी करने की न आदत्त है न प्रवृति। परीक्षा में लोग कैसे चोरी कर लेते हैं यह तो मैं आज तक नहीं समझ सका।  पढाई के दौरान मेरी बहुत सारी कविताएं भी छपती रहती थी और एक संपादित किताब भी दिल्ली से छपी थी। साहित्य पढने का नया चस्का लगा था, और उस पर पटना के एक वीकली पेपर स्पिलंटर के लिए मैं लगातार रिपोर्टिंग भी करता था। पटना के ज्यादातर पत्रकार मेरे मित्र तो नहीं मेरे आदरणीय थे ( बाद में दिल्ली में रहते हुए भले ही वे फिर मेरे दोस्त हो गए) और मैं किसी भी खबर को आज पाटलिपुत्र टाईम्स प्रदीप तथा आर्यावर्त में छपवा लेता था। (1984-87 ) के दौरान हिन्दुस्तान दैनिक जागरण आदि का पटना में आगमन नहीं हुआ था। यानी एक तरह से मैं कवि लेखक और पत्रकार का दंभ तो नहीं पर खुद को औरो से अलग थलग मानकर ही चलता था।
हिन्दी पढाने वालों में श्री झा जी के अलावा परम आदरणीय उपाध्याय जी तथा आधुनिक साहित्य श्री गुप्तेश्वर सिंह पढ़ाते थे। मैं इन दोनों का भी स्नेह पात्रों में था। एक तरफ श्री उपाध्याय जी तुलसी सूरदास कबीर भूषण विद्यापति आदि के गीतों को जिस माधुर्य्यरस के साथ गाकर पढ़ाते थे, वह अतुलनीय होता था ।  बाद में दिल्ली मे रहते हुए श्री उपाध्याय जी की पढाई शैली को याद करके महसूस हुआ कि वाकई वे कितने सहज तरीके से बच्चों को अपनी बात समझाते थे। वहीं श्री गुप्तेश्वर जी की पकड़ आधुनिक साहित्य में काफी गहरी थी। बात बात पर धूमिल मुक्तिबोध सर्वश्रवर दयाल सक्सेना  रघुवीर सहाय राही मासूमं रजा काशीनाथ सिंह आदि इत्यादि लेखकों का जिक्र करते रहते थे और यह संयोग था कि ज्यादातर समकालीन साहित्यिक पत्रिकाएं मेरे पास होती थी लिहाजा मैं भी उल्लेखित लेखकों का जानकार निकलता था। नया नया साहित्य का मुल्ला होने के कारण अपने मित्रों से भी बहुत सारी बातें सुन चुका था, लिहाजा उनके ज्ञान धरातल पर मैं एकदम बराबर ठहरता था, इस कारण उनसे मेरी पटती भी थी। हिन्दी विभागाध्यक्ष श्री झा जी से तो मेरा प्यार मुहब्बत उलाहना कटाक्ष का रिश्ता जारी ही था।
बीए ऑनर्स क्लास मे  मात्र 25 छात्रों में 18 लड़कियों का होना अमूमन कॉलेज में चर्च का प्रसंग रहता था। चूंकि मेरा घर कॉलेज से 14 किलोमीटर दूर एक कस्बा देव में था, इस कारण सुबह वाली बस पकड़नी पड़ती थी । जिससे कॉलेज आने वाले बहुत सारे लड़कों में मैं भी समय से पहले ही आ जाता था। लिहाजा कॉलेज प्रांगण में बने एक चबूतरा ही हम तमाम लड़कों का अड्डा होता था। मेरा क्लास रूम भी सामने ही था तो वहीं लड़कियां का कॉमन रूम भी सामने ही था। यानी सभी लड़कियों का क्लास से पहले या बाद में जमघट इसी एक कमरे के कॉमन रूम में ही होता था। लिहाजा दर्जनों रिकशे से थोडी थोडी देर के बाद रंग बिरंगे वेश भूषा साज सज्जा और महक चहक से रंगीन परियों फुलझड़ी सी कन्याओं का आगमन होता रहता था, तो कॉलेज प्रांगण में मौजूद मेरे सहित सैकड़ों लड़कों की निगाह भी उधर ही लगी रहती थी, कि देखे अब इसमें कौन आई और अब तक कौन नहीं आई है। बहुत लोग तो बाकायदा कौन लड़की कब आ रही है इसका पूरा विवरण तक रखते थे।  बहुत सारे लड़कों द्वारा शिष्ट अशिष्ट कटाक्ष फब्तियो  समेत सामूहिक ठंडी आहों कराहों का भी सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता था। जिसके उपरांत मुस्कान और ठहाके का बेशर्म सिलसिला भी चालू रहता।
अपने क्लास की तमाम लड़कियों से तो मैं परिचित हो गया था( अलबत्ता चार पांच कन्याओं के अलावा आज केवल तीन का ही नाम याद है। बाकी का तो सही मायने मे मुझे चेहरा भी एकदम याद नहीं है। पर लगभग एक माह के अंदर ही छात्र छात्राओं के बीच माहौल स्वस्थ्य सा हो गया था। बेझिझर किसी भी बिषय पर बात कर लेना अपने पाठ्यक्रम के बाबत चर्चा कर लेना या गरमागरम बहस नुमा माहौल भी दूसरे क्लास के छात्रों के लिए कौतुहल से ज्यादा नमकीन न्यूज ही बनता दिखने लगा।
हमारे परम आदरणीय प्रोफेसरों के पीछे पूंछ की तरह आने और इनसे पहले निकल जाने की आदत या परम्परा पर मुझे बडी बैचेनी सी महसूस होती थी। अक्सर लगता था कि क्या हमलोह इतने अशिष्ट वनमानुष  से हैं क्या कि लडकियों का इतना बडा जत्था भी बगैर गुरूजन के हमलोग के साथ सहज होकर एक साथ नहीं बैठने का साहस नहीं करती। मगर हकीकत तो यह है कि लडकियों का क्लास में सामान्य तौर पर ना बैठे रहना ही हम लडकों के लिए ही ज्यादा सुकून दायी था। मैने देखा कि किसी भी कन्या को लेकर कुछ भी बोल देने वाले किसी भी लड़के में लड़की के सामने मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं थी। मैने कई बार सीधे  अपनी वीणा ( मौसी)  से प्रतिवाद करने के बाद भी उनलोगों को क्लास रूम में एक साथ बैठे रहने के लिए राजी नहीं कर पाया। दो एक दिन बाद ही नर नारी के समान अधिकारों पर कोई मामला उठा। मैं खडा होकर जोर जोर से बोलने लगा कि नारी को समानता का अधिकार एकदम नहीं मिलना चाहिए। किस बात की समानता। जिस नारी या लड़की में पुरूषों के साथ बैठने की हिम्मत ना हो उसके लिए समानता या बराबरी की बात करना भी बेमानी है। मेरे ओजस्वी प्रवचन का जोरदार प्रभाव पड़ा और ज्यादातर छात्राओं ने काफी ना नुकूर करने के बाद सभी देवियां राजी हो गयी कि क्लासरूम में एक साथ बैठने मे कोई हर्ज नहीं है।  सबसे दबंग हमारी वीणा ने फिर आशंका प्रकट की तुम नहीं जानते अनामी लोग क्या कहेंगे। इस पर मैं खिलखिला पडा। मेरी खिलखिलाहट से अचंभित सारी लडकियों ने रोष जताया कि इसमें हंसने वाली क्या बात है कि तुम हंसने लगे। इस पर मैने कहा कि तुमलोग क्या समझती हो कि इससे पहले लोग तुमलोग के बारे में कुछ नहीं कहते है। अरे जितनी बाते और टीका टिप्पणियां तुमलोग पर होती है या की जाती है न उसे यदि एक बार भी तुमलोग सुन लो तो चेहरा शर्म से लाल हो जाए। मैने अपनी तरफ से जोडा कि जब तुमलोग पर कोई बोलता है जिसे सुनकर मैं शर्मसार हो जाता हूं भला तो तुमलोग का क्या हाल होगा। दो चार लड़कियों ने जोर देकर पूछा कि क्या कहते हैं जरा बताओ न  बताओ तो सही। इस पर मैं फिर खिलखिला उठा और दोनों हाथ कान पर ले जाकर पूरे अभिनय अंदाज में कहा कि तुम लोग क्या मुझे इतना बेशर्म समझ रखा है कि जिन बातों को मैं सुन नहीं सकता उसको मैं तुमलोग को बता सकता हूं। तब दो चार लड़कियों ने अपना पैर पटकते हुए कहा कि सबसे बडा गुंडा तो तुम हो जिसके मन मे जो आए बोलने दो न इसका हम पर क्या असर पड़ता है। हिम्मत है किसी में तो सामने आकर तो कोई कहे। इन फूलकुमारियों को एकाएक फूलन देवी बनते देखकर मेरा मन मयूर  नाच उठा। पूरे उल्लास और  जोर से कहा यही तो मैं बोल रहा हूं कि किसमें दम है हिम्मत है जो तुमलोग के सामने आकर बोल दे । मगर तुमलोग इस हिम्मत को अपनी ताकत बनाओगी तब न। बात को आगे बढाते हुए कहा कि एक कहावत है कि हाथी चले बाजार और कुत्ता भूंके हजार । मगर क्या कभी किसी हाथियों को भागते देखा है। मेरा यह जोशवर्द्धक प्रयास पूरी तरह सफल रहा। और अगले ही दिन हमारे क्लास की तमाम सुकोमलांगियॉ कॉमनरूम  की बजाय सीधे क्लास रूम में थी। मैं कमरे में घुसते ही ताली बजाकर सबो का स्वागत किया। पूरा दिन शानदार रहा। मगर और तो और हमारे पूज्य गुरूजनों को ही लड़कियों की यह आजादी कुछ रास नहीं आई और महिला आंदोलन और स्त्री स्वतंत्रता का यह परचम फिर अपने एक महिला कॉमन कमरे में ही सिमट गयी। और मेरा पूरा प्रयास बुरी तरह फ्लॉप कर दिया गया। अलबत्ता लड़कियों की यह दो दिवसीय आजादी का यह मुहिम मुझ पर भारी पड़ा और तमाम लड़को मे मुझे महीन गुंडा का तगमा दे डाला। हंस हंस कर आग लगान वाला महीन गुंडा।
मेरे पापा तक भी यह बात पहुंच गयी कि मैने तमाम लड़कियों को बहका करके कुछ गलत शलत कराया है। रात को दप्तर से लौटते ही पापा एकदम गरम थे। तुम कॉलेज में पढने गए हो या गुंडई करने जाते हो। आजकल कॉलेज में तेरा बडा नाम हो रहा है। मैं एकदम निरीह और अबोध सा पापा के सामने जाकर अपनी सफाई में केवल यही कहा कि आपके ऑफिस में काम करने वाले तीन लोगों की बेटियां हमारे साथ पढती है। मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। कल आप उन लड़कियों से यह जरूर पूछे कि क्या हो रहा है कॉलेज में। उसके बाद जो मन में आ आप कर सकते है। मैं क्यों अपनी सफाई दूं। मेरे तार्किक सफाई से पापा जी नरम तो पड़ गए पर काफी देर तक मां पर बौखलाते रहे। मैंने फिर कहा कि पापा इस बारे में आप कल बात करके तो देखिए पर जो बोल रहा है क्या वो इस लायक है कि उसकी बातों पर यकीन किया जाए ?  मेरे पापा जी ने चिंता प्रकट की बेटा कौन यकीन करने लायक है या नहीं यह जरूरी नहीं है जरूरी यह देखना होता है कि आखिरकार बात कैसे फैल रही है। तेरे को कुछ नहीं होगा पर इसका क्या प्रभाव दूसरों पर पडता है इस पर कौन सोचेगा। कोई भी बात या काम करो तो यह जरूर देखो कि इसका दूसरे पर क्या असर पड़ रहा है। मुझे पापा की बातों में दम लगा और मैने कहा पापा मै बोल जरूर ज्यादा जाता हूं पर गलत शलत काम तो नहीं करता। मै भी  इस घटना पर शांत रहा और पापा की तरफ से ही इसका असर देखना चाह रहा था। दो एक दिन बाद ही पापा बड़े अच्चे मूड में घर लौटे और मेरी पढाई से लेकर मेरे संगी साथियों का भी हाल चाल पूछना चालू कर दिया। मैं फौरन भांप गया कि बढिया प्रतिक्रिया मिली है और यह सब उसी का असर है। मुंह हाथ धोकर पापा मेरे साथ पढने वाली लड़कियों के बहाने मेरी तारीफ में जुटे रहे। मैने पूछ लिया कि लगता है पापा कि आप आज अभिराम चाचा के घर गए थे। तो फिर पापा एकदम खुल गए और मेरे साथ पढने वाली तीन चार लड़कियों का नाम लेकर उनकी सकारात्मक प्रतिक्रियाओं समेत पढाई और हाजिर जवाबी की खुले मन से प्रशंसा की। पापा जी से अपनी तारीफ सुनना यह हमसब भाईयों के लिए चौदहवी का चांद सा था।  पर मै इस घटना को पचाकर अगले दो दिन तक थोडा खामोश और अनमना सा रहा.। मेरे इस तरह के व्यावहार से ज्यादातर लोगों को बडी हैरानी हो रही थी.। खासकर हमारी वीणा रुके न रूकी क्या बात है अनामी क्या हुआ। यूं ही मुंह बनाए हो या कोई बात है ?  इस पर मैने कहा अरे यार तुमलोग को जो कुछ भी मेरे से शिकायत हो तो सीधे कहो न । सीधे मेरे बाप के पास जाकर कहने की क्या जरूरत थी। फिर हमने किसके साथ क्या कुछ अईसा वईसा तो कुछ बोला तक नहीं है। फिर भी मैं साफ कर दूं कि भले ही मैं ज्यादा बोल देत हूं पर तुम सबलोग से भी ज्यादा सभ्य शालीन तमीजदार कमीजदार और शर्मदार हूं। वीणा मेरे साथ हो गयी और बोली क्या हुआ। मैं बौखलाते हुए कहा कि मुझे क्या पता कि क्लास रूम की बात घर तक ले जाना कहां सही है। फिर मैं तो कोई टेढी मेढी और दो अर्थी बाते भी करता ही नहीं। मेरे पापाजी ने तो मेरी इज्जत ही उतार दी है। इस पर पापा के साथ काम करने वाले कई लोगों की तीन चार लड़कियां सामने आ गयी। अरे चाचा जी से तो हमलोग ने तुम्हारी कोई शिकायत नहीं की थी। हमलोग तुम्हारे बारे में ही बात कर रहे थे पर शिकायत तो नहीं कि और शिकायत किस बात की करते ।  मैं भी खुद को पूरी तरह लाचार दिखाकर पूछा कि बस मेरी शिकायत करने के अलावा और कोई बात नहीं थी। मैने कहा कि तुमलोग को देखकर तो पहले ही दिन से मेरा ब्लडप्रेशर बढ गया था क्योंकि किसी को बोल दो वीणा मेरी मां और मौसियों से बोल देगी और किसी पर कटाक्ष कर दूं तो सीमा मेरी मौसी से बोल देगी। पापा के दफ्तर के कई जासूस मेरे साथ है ही.। मैं तो एकदम 32 दांतो के बीच जिह्रवा की तरह फंसा हूं भाई।  मेरे इस नाटकीय प्रलाप का अच्छा खासा असर रहा। मेरे दुख से आहत होकर पापा के सीनियर श्री अभिराम सिंह की बेटी ( इसका नाम याद नहीं है मित्रों माफ करना ) ने उसी दिन शाम को पापा को पकड़कर हमारे दुख पर विलाप की । पापा ने एकदम चकित होकर उसको शांत कराया। तो अगले दिन मेरी शामत थी। मेरे बनावटी विलाप पर ज्यादातर फूलनदेवियों ने अपना उग्र रूप दिखाया। मेरी लानत मलानत की और मुझे भी इनसे सार्वजनिक तौर पर क्षमा याचना मांगनी पडी, तब कहीं जाकर बिन बुलाए आफत से राहत मिली।.

1987 मे संभवत मार्च का महीना होगा। पढाई लगभग खतम हो रहे थे। एक दिन बडी सीरियस मूड में वीणा मेरे पास आई. अनामी मुझे तुमसे बहुत जरूरी बात करनी है। एकाएक इन उग्रवादियों के गंभीर हाव भाव को देखकर तो मैं भी थोडा संजीदा हो गया। फिर उसने एक लड़की का नाम लेकर पूछी कि वो तुम्हें कैसी लगती है?मैं इस सवाल पर खिलखिला उठा। तभी खीजते हुए वह फिर सवाल दोहरायी। तब मैने फौरन कहा कि भई मुझे तो दुनिया की समस्त लड़कियां भोली भाली भली सुदंर अच्छी और प्यारी लगती है। खासकर तुमलोग तो और ज्यादा। मैं तो किसी लड़की को बुरा कह ही नहीं सकता। मैं जरा दर्शन बघारते हुए आगे बढा कि जिसने मुझे तुम्हे और उसको बनाया है उसके निर्माण पर भला मैं क्या कोई टीका टिप्पणी कर सकता हूं। मेरे भाषण से मेरी सब साथिने बोर सी हो उठी थी.. वीणा भी थोडी क्रोधित सी हो गयी. और जोर से बोली मजाक नहीं एकदम गंभीरता से बताओं न। इस पर मैं शांत होकर पूछा कि बात क्या है ?तो फिरर वीणा ने बताया कि वो तुमसे प्यार करती है और शादी करना चाहती है। वीणा की बात सुनकर मैं एकदम हतप्रभ रह गया। तब तक वीणा के समर्थन में एक साथ चार पांच लड़कियों नें उसका पक्ष लेते हुए सिफारिश की। बात की गंभीरता को कम करने के लिए मैं एकदम से मुस्कुरा उठा। अरे भई मैं एक भला तुम कितनी लड़कियों से शादी करूंगा ?इस पर एक साथ उसकी सिफारिश करने को आतुर लड़कियों ने जोर देकर कहा हमलोग उसके बारे में कह रहे हैं अपने बारे में नहीं। मैंने फिर कटाक्ष किया मुझे तो लगा कि तुम सब एक साथ ही मेरे उपर टूट पडी हो। तभी किसी ने पीछे से मजाक उडाया आईने मे शक्ल देखी है अपनी। इस पर मैं पूरी तरह खिलखिला उठा। सब कुछ तो ठीक है बस तेरे से रंग में ही थोडा श्यामला हूं बस्स। बात कहां तो शादी की हो रही थी और देखते ही देखते पूरे प्रसंग की रासलीला हो गयी।. तब माहौल को संयमित करने के लिए वीणा ने अपने तोप को दोबारा दागा। इस पर मैं कहा कि लगता है कि तुम एकदम पागल हो इस तरह की बाते कहीं इस तरह की जाती है। तुम तो मेरी मां को जानती हो सीधे उनसे ही जाकर बात करो। तो उसको लगा कि दांव अभी हाथ में ही है।  तपाक से वीणा ने अपना तार झंकृत की तो तुम्हें तो पसंद है न ?इस पर मैने  सीधे कहा कि नहीं जिस लड़की में सामने और सीधे कहने की हिम्मत ना हो तो उसके साथ फिर कैसी शादी ?फिर वीणा झंकृत हुई. नहीं वो थोडा शरमा रही थी. तो फिर उसको शरमाने दो न। मेरे साथ शादी ना होकर ही उनका भला होगा । जानती हो यदि वह एकदम सामने आकर यही प्रपोजल देती न तो मैं तो हाथ पकड़कर उसको आज ही अपने घर ले जाता। यह तो मुझे नहीं पता कि मेरा क्या होगा पर अगले 6-7 साल तो मेरी शादी नहीं होगी, यदि उसकी भी शादी कहीं नहीं हुई तो तुम मुझे बताना फिर मैं उसके साथ शादी जरूर कर लूंगा।
हमारे कॉलेज में नए प्रिसिपल श्री सिद्धेश्वर सिंह का आगमन हुआ। अनुशासन प्रिय और सख्त प्रशासक के रूप में विख्यात श्री सिंह के आते ही चौपाली  मजनूओं पर सबसे पहले लगाम लगा दी गयी। चबूतरे वाली रोजाना की चौपाल होनी बंद हो गयी तो एक ही साथ दीवानापन के भी बहुत सारे मामले रूक गए। जाड़े में दूप सेंकने पर भी रोक सी लगी रही। उधऱ प्रिसिपल साहब ने अपने कमरे को भी चमका डाला। गेट पर पर्दा टंग गया और पहले की तरह बेधड़क अंदर घुसने पर रोक लग गयी। श्री सिंह साहब को भी कॉलेज में आए अभी दो माह भी नहीं हुए थे कि कॉलेज की फुटबॉल टीम और जिले की बिहार पुलिस  के बीच मैच खेला गया। जिसमें हमारे कॉलेज के रणबांकुरों ने पुलिस पर तीन गोल की बढ़त ले ली। अपनी हार से बौखलाए पुलिस टीम के खिलाडियों ने गेंद की बजाय कॉलेजी खिलाडियों पर निशाना साधना चालू कर दिया और देखते ही देखते हमारे पांच खिलाड़ी खून से तर ब तर घायल होकर मैदान से बाहर हो गए। पुलिस टीम द्वारा खिलाडियों की मदद करने की बजाय बूट पहने ही कईयों के हाथ और छाती पर भी पुलिसिया खिलाडी सवार हो गए। तब तक पुलिस टीम दो गोल करके कॉलेज की बढत को भी कम कर दी। लगातार अपने खिलाडियों को जानबूझकर घायल करते देख सैकड़ो छात्रों ने हो हल्ला हंगामा करके विरोध जताया तो पुलिस ने जमकर छात्रों पर ही  लाठियां भांज दी। और इस तरह फुटबॉल का यह खूनी मैच अधूरा ही रहा। पुलिस से चोटिल खिलाडियों को उपचार के लिए प्रशासन से पटना भेजने की मांग की गयी, मगर तत्कालीन युवा और तेजतर्रार एडीएम सुनील कुमार सिंह ने इस मांग को नकार दिया। अगले दिन सुबह कॉलेज आते ही इस घटना की जानकारी हम जैसो दूर से आने वाले तमाम छात्रों को मिली तो हमारे प्रिंसिपल श्री सिंह की अगुवाई में सैकडों छात्रों ने एडीएम के दफ्तर का घेराव कर डाला। श्री सिंह के साथ मुश्किल से हम 10-12 छात्र ही अंदर गए थे। पर एडीएम का तेवर काफी सख्त था और वो किसी भी हालात में चोटिल छात्रों को पटना भेजने तथा पुलिसिया खिलाडियों के खिलाफ एक्शन लेने को राजी नहीं था। हमारे प्रिंसिपल साहब को भी वे मि. सिंह मि. सिंह कहकर ही संबोधित कर रहा था। बात बनते ना देखकर मैं फौरन बाहर भागा और पुलिस प्रशासन तथा एडीएम के खिलाफ जमकर नारेबाजी करने के लिए अपने छात्रों को उकसाया। और देखते ही देखते चारो तरफ नारे गूंजने लगे और पूरा माहौल तनावग्रस्त हो गया।
जब मैं अंदर आया तो एडीएम मेरे उपर बौखला गया और तुरंत नारे को बंद कराने पर जोर दिया। मैने कमान अपने हाथ में ली और एडीएम को आगाह किया कि मि, सिंह अभी आप हमारे प्रिंसिपल साहेब को नहीं जानते। ये तुम जैसे सैकड़ो आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को पैदा करने वाली फैक्टरी है। अभी चार फोन पटना घूमा देंगे न तो दर्जनों तुमसे सीनियर अधिकारी इनके पांव छूने के लिए लाईन लगा देंगे। और आप इनसे बदतमीजी से बात कर रहे हो। हम सबके सम्मान के ये प्रतीक है और इनके साथ ही इस तरह का बर्ताव। आप क्या पटना भेजोगे अब पटना से फोन आएगा कि क्या कर रहे हो। प्रिंसिपल साहब के पीछे आकर मैने कहा कि यदि ये एक आवाज बुलंद कर दे न तो आपके दफ्तर का हाल मटियामेट हो जाएगा। इतना कहकर मैं अपने प्रिसिपल को लेकर कमरे से बाहर निकलने लगा तो एडीएम एकदम हाथ जोडकर माफी मांगी और 10 मिनट के अंदर ही पटना भेजने के लिए दो एम्बुंलेंस  सहित सारी व्यवस्था करने का इधर उधर निर्देश देने लगा। हमारे प्रिंसिपल साहेब को फिर से कमरे मैं बैठाकर एडीएम वे अपने दरबान को चाय और समोसे लाने का आदेश फरमाय।  जब तक समोसे का स्वाद लिया जाता तब तक सारी व्यवस्था हो गयी। देख रेख के लिए तीन चार लोगों के साथ तीन गाडियों से आठ छात्र खिलाडियों को एक अधिकारी के साथ पटना भेजा गया। उधऱ गाडी पटना की तरफ गयी और इधर जमकर हंगामा हुआ। नारेबाजी के साथ विजयी मुद्रा में हमलोग प्रिंसिपल के साथ कॉलेज लौटे,। तो उन्होने फौरन मुझे बुलवाया। नाम आदि पूछा और जमकर तारीफ की और यह भी कह डाला कि तुम्हारा जब भी मन करे बिना पूछे मेरे दफ्तर में आ जाया करो।  और जब मैं बाहर निकला तो लड़कों ने मुझे अपनी गोद में उठा लिया। कईयो ने कहा कि आज तुमने कॉलेज की लाज रख ली अनामी। इस पर सबों के समक्ष झुककर मैने इस तरह की बाते न करने की सलाह दी कि कॉलेज हम सबसे बडा और गैरव क् प्रतीक है मित्र। मैं तो केवल एक अदना सा छात्र हूं. छात्रों की भीड़ ने जमकर तालियां बजाते हे मेरी बात का समर्थन किया।
यूं तो रोजाना कॉलेज का दिन बड़ा मन भावन सा ही होता था, पर एक दिन हमारे झाजी ने सभी लड़कियों समेत मुझे भी हिदायत दी कि कल मैं सबका नोट्स चेक करूंगा सो कल सब नोट्स लेकर आना।  इस पर वीणा समेत कई लड़कियों ने मेरी खिल्ली सी उडाई। अब कल तो तुम्हें भी नोट्स लाना ही पड़ेगा। हमारी सहपाठिने हमेशा मुझे नोट्स बनाने और दिखाने के लिए कहती थी औरे मैं हमेशा यही कहता था कि मैं किसी पेपर का नोट्स नहीं बनाता। मेरी बातों पर किसी को भी यकीन नहीं था। सबो का आरोप था कि तुम नोट्स दिखाना ही नहीं चाहते। इस कारण वे लोग इस मामले में मुझसे नाराज सी रहती थी। अगले दिन सारे छात्रों ने तरह तरह के जिल्द और रंगीन आवरण में नोट्स ला लाकर श्री झा जी को दिखाना चालू किया। और मजे की तो यह बात कि नोट्स को देखते हुए हमारे सर श्री झा जी ने सबों को डीविजन भी बॉटना शुरू कर दिया। मसलन, वीणा तू एकदम फस्र्ट आएगी और तू सीमा जरा इसको ठीक कर लो तो तेरा भी नंबर वन पक्का है। सर द्वारा रेवड़ी के भाव दिए जा रहे डीविजन से अभिभूत होकर हमारी तमाम संगी साथिनों का दिल बाग बाग हो रहा था। वहीं श्री झा जी भी अपने छात्रों की तैयारी से अभिभूत थे। नोट्स दिखाने की अब मेरी बारी थी, तो मैं अपना चेहरा लिए खाली हाथ बिना नोट्स के उनके सामने जाकर खड़ा था। खाली हाथ मुझे देखकर वे फिर भड़क उठे, अपना नोट्स निकालो न । मैं भी तो देखू कि तेरी क्या तैयारी है। इस पर मैने कहा कि सर मैने तो कोई नोट्स ही नहीं बनाया है। यह सुनते ही मानो कोई भूचाल आ गया हो, वे एकदम खड़े हो गए और नाराजगी के साथ बोले कि लाला तू इस बार फेल हो जाएगा। मैने तुरंत उनकी बातों को काटते हुए कहा कि सर जिस तरह से आप नोट्स देखकर इन्हें डीविजन से नवाज रहे हैं, क्या यह हो जाएगा।  मेरी बातों को अनसुना करते हुए श्री झा जी ने नाटकीय अंदाज में सभी छात्रों को संबोधित किया कि एक थे हमारे राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद जिनको देखकर ही सबकुछ याद हो जाता था और ये है देव के राजेन्द्र बाबू के सुपुत्र अनामी शरण जिनको भी सब कुछ याद है। इनको नोट्स बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। श्री झा जी ने क्लास रूम में ही यह सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर दी कि लाला तू इस बार जरूर फेल होगा। मैने तुरंत उनकी बातों को काटा और मैंने भी सबके सामने ही कह डाला कि सर फेल तो दूर क्लास में सबों से ज्यादा नंबर केवल मेरा ही होगा। मेरी बातों पर पूरा क्लास खिलखिला पडा। श्री झा जी के गुस्से के दौर में भी पूरा क्लास मेरी लानत मलानत पर मंद मंद मुस्कुरा रहा था। और क्लास में श्री झा जी के संग नोक झोंक में मेरी खाल नुचाई समारोह का मेरे समस्त संगी साथी मजा ले रहे थे।
 परीक्षा के दिन करीब आ रहे थे तो एक दिन अकेले में श्री झा जी ने कहा कि कल हाफ फीस माफी का इंटरव्यू है , समय पर आ जाना। मैने उनसे कहा कि मेरा तो फीस आप माफ करवा ही देंगे। इस पर फिर वे झुंझला उठे हां हां क्यों नहीं मैं क्या तेरे बाप का नौकर हूं। मैने अपने कान पकडते हुए कहा कि सर यह तो मैने नहीं कहा। तो वे मुस्कुरा उठे और मेरे सिर पर प्यार से एक धौल जमा दिया।
अगले दिन इंटरव्यू होना था । सबों को मेरे इंटरव्यू पर उत्कंठा थी। अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष श्री बामनदास जी इंटरव्यू ले रहे थे। मेरी बारी आते ही उन्होने रामचरित्रमानस के रचयिता समेत तीन सामान्य से सवाल पूछे, और मैने तीनो सवाल के प्रति अनभिज्ञता प्रकट की तो वे बौखला गए। अंत में आजिज होकर मुझसे पूछा कि आपको पता क्या है ?मैने तुरंत कहा कि सर मैं बीए ऑनर्स का छात्र हूं और आप सवाल तो मेरे स्टैणडर्ड का पूछे। इससे पहले कि श्री बामनदास जी कुछ बोलते श्री झा जी ही बीच में उबल पड़े चल चल भाग यहां से हमें स्टैण्टर्ट का उपदेश देने लगा।  मैं बाहर निकला तो कई दोस्तों  ने मुझसे पूछा कि क्या क्या सवाल पूछ रहे है यार?तो मैने अपने इंटरव्यू का हाल बयान कर दिया और साथ ही यह भी कहा कि देखना मेरा तो माफ हो ही जाएगा। और सच में अगले दिन जब फीस माफी की जो लिस्ट लगी तो समें मेरा भी नाम था।
लगभग पढाई खत्म होने ही वाला था कि एक दिन तमाम लड़कियों ने मुझे टोका कि कल जरा ठीक ठाक कपड़े पहनकर आना। मैं इस सवाल पर चौंका कि अभी तक मैं खराब कपड़े पहनता था क्या ?सलीके की साज सज्जा से ज्यादा मुझे रफ टफ कपड़ो का पहनावा ही सहज सरल और आरामदेह लगता था और आज भी लगता है। मैने वीणा से पूछा कि किस तरह के कपड़े पहन कर आंऊ कुछ तो बताओ। किसी ने इस पर कुछ कहा पर मैं संभवत कुछ कम पुराने कपड़े ही पहनकर कॉलेज आया तो सबों ने मुझे उलाहना दे डाला कि आज फोटोग्राफी है इसलिए बन ठन कर आए हो। हमारे क्लास की तमाम लड़कियों ने तो दूसरे ड्रेश भी लाए थे और क्लासरूम के पीछे वाले कमरे में साज ऋंगार करने में सब बिजी थी। मैं लडकियों के ड्रेशिंग रूम मे गया और फौरन बाहर निकल आया। किसी से आईना मांगा तो एक साथ हमारी साथिनों ने उपहास किया कि तैयार हो लो ठीक से फोटू को तो दिल से चिपकाकर रखोगे। मैने तुरंत पूछा किसके लिए यह तो बताओ। तब कईयो ने कहा कि एक साथ 18 लड़कियों के संग की फोटो को तो रखोगे ही। मैने भी पूछा कि क्या तुमलोग रखोगी तो कईयों ने कहा कि तुम जैसा मजेदार लड़का साथ में पढा है तो फोटो तो रखनी ही पड़ेगी। मै मुंहफट की तरह कह डाला कि मगर मैं फोटो नहीं रखूंगा। और आज भी यह सामूहिक फोटो मेरे पास नहीं है। और इसका मुझे आज बहुत दुख और मलाल भी है कि मेरी एक मिनट की वाचालता जिसे मूर्खता ही कहना ज्यादा बेहतर होगा ने मुझे एक सुदंर यादगार फोटो से वंचित कर दिया। हालांकि फोटोग्राफी के लिए मेरे मित्र समान अखैरी प्रमोद आए थे मगर मैं उनसे यह दुर्लभ फोटो ले न सका। सच तो यह है कि आज मैं इस फोटो के लिए श्री अखौरी प्रमोद जी से भी कहा तथा साथ में पढ़ने वाली सुश्री सीमा के भाई किशोर प्रियदर्शी से भी कहा कि वो अपनी बहन से बात करे मगर कोई फायदा नहीं हुआ।  अलबत्ता मैं वीणा से संपंर्क नहीं कर पाया । शायद कभी बिहार गया तो इस बार उनसे मिलकर फोटो के लिए जरूर बात करूंगा।      

कॉलेज के सुनहरे दिनों के बीच में ही संभवत फरवरी 1987 में किसी दिन एक अखबार में भारतीय जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली का एक विज्ञापन छपा था। जिसमें हिन्दी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को शुरू करने की सूचना थी। पहले पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिखित परीक्षा के लिए आवेदन मांगे गए थे। मैने भी प्रवेश के लिए त्तत्काल फॉर्म भर दिए तो अप्रैल में लिखित परीक्षा भी पटना में जाकर दे आया। एक तरफ मैं बीए ऑनर्स की तैयारी में था तभी पत्रकारिता के लिए भी एक दिमागी शैतानी शुरू हो गयी। लिखित परीक्षा में पास होने के बाद मई में इंटरव्यू होना था। जिसके लिए मैं दिल्ली गया और मेरा चयन भी हो गया। इधर एक जुलाई से पहला सत्र 1987-88 आरंभ हो रहा था और  उधर ऑनर्स की भी परीक्षाएं उसी समय में हो रही थी। मेरा आखिरी पेपर 26 जुलाई को था और तब तक उधर की पढाई का एक माह खत्म होने वाला था। पर क्या करता ऑनर्स की परीक्षा तो देनी ही थी। पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के शुरू में दिल्ली में जाकर दो चार क्लास की और छात्रावास के एक कमरें में ताला जड़ कर 20 दिन के लिए वापस बिहार आ गया।
इस बीच दिल्ली का पत्ता लिखा दो पोस्टकार्ड लेकर जुलाई के किसी दिन  चिलचिलाती धूप में मैं श्री झा जी के घर पहुंचा। वे एकाएक मुझे देखकर चौक पडे। मैने दोनो पोस्टकार्ड उनके घर में टंगे एक कैलेण्डर में स्टेप्लर से टांक दिया। और विनय स्वर में कहा कि सर मैं फेल तो नहीं करूंगा पर मेरा चाहे जो परिणाम हो उसकी सूचना केवल आप देंगे। गौरतलब है कि 1986-87 में मोबाईल नामक खिलौने का ईजाद नहीं हुआ था, लिहाजा डाकघरों के महत्व तो था पर आदमी का आदमी से  सूचना और संचार बडा दुर्लभ था। मैं झा जी के यहां बैठा ही था कि उनकी धर्मपत्नी एक प्लेट में मिठाई लेकर आई। मैने उनके चरण स्पर्श किए। उन्होने मिठाई खाने पर जोर दिया तो मैने कहा कि आंटी जी अभी तो मिठाई किसी भी सूरत में नहीं खाउंगा, क्योंकि मेरे और सर के बीच पास और फेल होने की बाजी लगी हुई है। वैसे तो मैं सर को पराजित कर रहा हूं मगर मेरा परीक्षा परिणाम क्या रहा इसकी जानकारी के लिए ही पोस्टकार्ड देने आय़ा हूं। उनके जोर देने पर भी मैं मिठाई नहीं ली। अलबत्ता बीए आनर्स की आखिरी परीक्षा के दिन मैने अपने समस्त साथियों से हाथ जोडकर तमाम गुस्ताखियों बदतमीजियों ज्यादा बोलने से दिल दुखाने या कभी लक्ष्मणरेखा पार कर जाने की तमाम उदंडताओं के लिए क्षमा मांगी । मैने कहा कि यार कॉलेज का मेरा यह 10-11 माह की मधुर याद जीवन भर तुम लोगों की याद दिलाएगी। मेरे तमाम संगी साथिनों ने भी भावुक होकर अपनी शुभकामनाएं दी और मैं उसी रात गया से ही दिल्ली चला गया। परीक्षा परिणाम आने पर श्री झा जी दोनों पोस्टकार्ड पर अपनी तमाम शुभकामनाओं के साथ यह बताया कि कॉलेज में सबसे ज्यादा नंबर तुमको ही आया है। उन्होने बिहार लौटने पर मिलने का आदेश दिया।  बिहार लौटने पर जब मैं उनके घर गया तो वे मुझे अपनी छाती से लगाते हुए कहा कि मैं तुमको समझ नहीं सका अनामी। यह सुनकर मैं उनके चरमों पर जा गिरा और अपनी तमाम उदंडताओं के लिए माफी मांगी। श्री झा जी ने बताया कि परीक्षाफल आने पर हमारे प्रिंसिपल श्री सिंह ने भी उनसे मेरे परिणाम की जानकारी मांगी थी। उन्होने एक बार कभी कॉलेज आकर मिलने को भी कहा था , पर मेरा यह दुर्भाग्य है कि यह हो नहीं सका और मैं एक छात्र से पत्रकार बनकर सुबह कहीं शाम कहीं घूमता रहा।     






























मीठी मीठी यादों से भरे कॉलेज के वे मोहक दिन (1986-87)
अनामी शरण बबल

 अतीत की याद मनभावन लागे
ज्यों दूर के ढोल सुहावन लागे

( कॉलेज में मेरे साथ मेरी मोहक यादों को ना भूलने योग्य बनाने में अपनी भूमिका निभाने वाले समस्त मित्रों वरिष्ठ आदरणीय गुरूजनों समेत साथ पढने वाले  
मित्रों समेत कॉलेज में उस समय पढने वाले समस्त दोस्तों साथियों की याद में समर्पित है यह छोटा सा संस्मरण। आप सभी के कारण ही मैं 30 साल गुजर जाने के बाद भी इन मीठी मीठी यादों से भरे कॉलेज के वे मोहक दिन में ही खुद को अक्सर संलग्न पाता हूं।)


अपने अतीत में एक लंबे अंतराल के बाद झांकना मन को भावविभोर कर देता है। हालांकि बहुत सारी बातें तो मन की पटरी से उतर भी जाती हैं, मगर अतीत की तमाम मोहक यादें सदा पटरी पर ही बनी रहती है। 1981 में मैट्रिक पास करने के बाद पढ़ने के लिए दयालबाग आगरा में मेरा नाम लिखवाया गया मगर घर से बाहर निकलते ही मानों मैं  बेहय्या होकर बहक गया, और मेरी तंद्रा तब टूटी जब इंटरमीडिएट (कृषि) की परीक्षा में फेल हो गया।  कृषि में मेरी कोई दिलचस्पी पहले भी नहीं थी पर मेरे पापाजी का मन कृषि में नाम लिखवाने का ही था। मैं पहले से ही मना कर रहा था कि पापाजी इसमें ही मेरा नाम लिखवा कर माने।  पर पापाजी के नाक काटकर अभी घर लौटने के अभी एक माह भी नहीं हुपआ था कि एक दिन सुबह सुबह मुझे फिट पडा और मैं एपिलेप्सी का मरीज हो गया। करीब छह माह में 30-32 बार फिट पड़े होंगे। इसका बेहतर ईलाज रांची के डॉक्टर के के सिन्हा ने किया। और 1983 में मैं स्वस्थ्य हुआ। ईलाज के बाद फिर  फिट पड़ने बंद हो गए। और मैं औरंगाबाद के एक इंटरमीडिएट कॉलेज से किसी तरह 1983 में पास हुआ । जिले के सबसे बडे कॉलेज के रूप में विख्यात सिन्हा कॉलेज में बीए में नाम लिखवाया। कॉलेज के तमाम गुरूओं से परिचित होते हुए 1986 में बीए जिसे स्नातक भी कहा जाता है पास हो गया। बीए ऑनर्स हिन्दी से मैने करने की फैसला किया। और सच में 30 साल के बाद यह कहने और स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि यह 9-10 माह मेरे शैक्षणिक जीवन का सबसे सुदंर मोहक और यादगार लम्हा रहा। बाद में भले ही भारतीय जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली में भी धमाल किया, पर 1986-87 सत्र मेरे लिए आज भी लाजबाव ही है।  
एक दिन मैंने अपने पापा से श्री झा जी से किस तरह का संबंध है के बारे में पूछा। पापा ने बताया कि झा जी के एक साले उनके साथ बिजली विभाग में ही काम करते थे। उनके साथ पापाजी भी कई बार श्री झा जी के यहां गए थे, लिहाजा मेरे पापा के साथ भी वे साले का मजाकिया रिश्ता ही रखते थे। जीजा साला का रिश्ता मेरे पापा के साथ था पर लगता था कि वे मजाक और उलाहना का रिश्ता मेरे संग ही निभाते थे।  मुझे उलाहना देने में वे कभी नहीं चूकते। और आज जब इन रिश्तों के बीच मैं अपने गुस्ताखियों पर गौर करता हूं वाकई लगता है कि वे मेरी तमाम उदंडताओं को किस सहजता के साथ माफ या नजरअंदाज कर देते थे। 
ऑनर्स में नामांकन के बाद जब मैं पहले दिन कमरे में घुसा ही था कि कमरे में लड़कियों की भीड़ देखकर मैं घबराकर उल्टी पांव वापस बाहर निकल भागा। मुझे लगा कि मै गलती से कोई दूसरे कमरे में घुस आया हूं। बाहर आकर देखा कि कमरे में तो अपने झा जी ही है। खैर किसी तरह मैं फिर कमरे में प्रवेश करने की हिम्मक की। अभी कमरे में ठीक से घुस भी नहीं था कि झा जी ने मजाकिया लहजे में पूछा कहां भागे जा रहा था लाला। ( वे अमूमन मुझे इसी नाम से पुकारते थे) तब तक तो मैं थोडा संभल गया था।. भाग नहीं रहा था सर इतनी सारी लड़कियों को देखकर मुझे लगा कि मैं गलती से किसी और कमरे में चला गया हूं। . मेरी बात पर कमरे में ठहाका लगा। मैं बैठने की बजाय खड़े होकर लड़कियों की गिनती करने लगा। इस पर फिर तपाक से झाजी बोले बैठो न लाला क्या कर रहे हो ?  मैं उनकी तरफ मुड़ते हुए कहा और ये 17 नहीं 18  है सर। मेरी बात को सर भी नहीं समझे तपाक से बोले कि क्या 18 ।  मैं अभी तक खड़ा ही था  मैने बड़ी मासूमियत से कहा सर क्लास में 18 लड़कियां और लड़के केवल आठ । इनको संभाला कैसे जाएगा । तो क्या तुम्हें कोई दिक्कत हो रही है ?नहीं सर दिक्कत तो आपको होगी मैं तो केवल गिनती गिन रहा था। मेरी बकवास से श्री झा जी फट पडे और उलाहना भरे अंदाज में बोले ठीक है ठीक है लाला चल तू बैठ मैं सब संभाल लूंगा। मैं फिर खडा होकर तपाक से कह डाला कि हां सर आपके बाद मैं भी सबको संभाल कर रखूंगा। इस पर अपनी कुर्सी से उठकर वे मेरे सामने आ गए और हिटलरी अंदाज में बोले  चल बता तू लाला कि कैसे इन लोगों को संभालकर रखेगा। तबतक मैं लगभग सभी लड़कियों को एक नजर देख चुका था। कमरे का पूरा माहौल एकदम खिलखिलाहट से भर गया था। तमाम लड़के लडकी मंद मंद तो कोई खुलकर हंसने में तल्लीन था। पूरे हिम्मत के साथ मैने कहा कि सर इनमें दो तीन तो मेरी मौसी हैं दो तीन मेरी मौसियों की सहेली है और कईयों के पापा तो मेरे पापा के संग काम करते है। बाकी दो चार अनजानी सी हैं तो सब काबू में रहेगी। काबू सुनते ही श्री झा जी फिर बौखला गए तू लाला इन्हे काबू में रखेगा । मैने हाथ जोड़कर एकदम दंडवत मुद्रा में सबिनय कहा कि मेरी क्या हिम्मत है सर इन देवियों को काबू में रखने की। इनको देखदेख कर तो हमलोग काबू में रहेंगे। इस पर श्री झा जी भी मुस्कुरा पडे, और क्लास के सभी छात्र छात्राएं भी हंसने लगे। वे सहज और सामान्य होते हुए बोले चल लाला सीट संभाल । हम सभी लड़के तो परिचित थे ही । अलबत्ता दो एक को छोड़कर और से बात नहीं हुई थी। सामान्य औपचारिक बातें कर क्लास खत्म हुआ। गुरूजी के कमरे में रहते ही सारी छात्राएं एक एक कर बाहर निकल गयी, तब कहीं जाकर हमारे झा जी भी कमरे से बाहर हुए। सबों के बाहर जाते ही कमर में सन्नाटे के साथ रह गए बाकी हम लड़के जो ठहाका मार कर हंस पड़े। मेरी हाजिर जवाबी पर मेरे दोस्तों ने दाद देते हे कहा कि अनामी भाई गजब तुमने तो आज सबों से जमकर मस्ती की। तो यह था बीए ऑनर्स का मेरा पहला दिन ।

मैं पढ़ने में कोई बडा उस्ताद नहीं था, पर मेरी समझने की क्षमता लगभग ठीक ठाक थी। एक बार गौर से सुन लेने के बाद बिषय सार की समझ हो जाती है और मैं उसको अपनी भाषा में लिखने का प्रयास करता था । मैं किताबें तो कई बार कई जगह से पार ( जिसे चुरा ली भी कह सकते है) कर दी है। मां और नानी के बक्से से और पापा की जेब से महीने में कई बार रुपए भी निकाल लेता था। उस समय तो दस पांच रूपए की ही बड़ी कीमत होती थी लिहाजा छोटी छोटी चोरियां लंबे समय तक चली मगर किसी की पकड़ में नहीं आयी। अलबत्ता हम सभी भाई इस पॉकेटमारी से परिचित थे।  लिहाजा अपने त्रिदेव बंधुओं को मुंह बंद रखने का जुर्माना भी देना पड़ता था। इसके अलावा चोरी करने की न आदत्त है न प्रवृति। परीक्षा में लोग कैसे चोरी कर लेते हैं यह तो मैं आज तक नहीं समझ सका।  पढाई के दौरान मेरी बहुत सारी कविताएं भी छपती रहती थी और एक संपादित किताब भी दिल्ली से छपी थी। साहित्य पढने का नया चस्का लगा था, और उस पर पटना के एक वीकली पेपर स्पिलंटर के लिए मैं लगातार रिपोर्टिंग भी करता था। पटना के ज्यादातर पत्रकार मेरे मित्र तो नहीं मेरे आदरणीय थे ( बाद में दिल्ली में रहते हुए भले ही वे फिर मेरे दोस्त हो गए) और मैं किसी भी खबर को आज पाटलिपुत्र टाईम्स प्रदीप तथा आर्यावर्त में छपवा लेता था। (1984-87 ) के दौरान हिन्दुस्तान दैनिक जागरण आदि का पटना में आगमन नहीं हुआ था। यानी एक तरह से मैं कवि लेखक और पत्रकार का दंभ तो नहीं पर खुद को औरो से अलग थलग मानकर ही चलता था।
हिन्दी पढाने वालों में श्री झा जी के अलावा परम आदरणीय उपाध्याय जी तथा आधुनिक साहित्य श्री गुप्तेश्वर सिंह पढ़ाते थे। मैं इन दोनों का भी स्नेह पात्रों में था। एक तरफ श्री उपाध्याय जी तुलसी सूरदास कबीर भूषण विद्यापति आदि के गीतों को जिस माधुर्य्यरस के साथ गाकर पढ़ाते थे, वह अतुलनीय होता था ।  बाद में दिल्ली मे रहते हुए श्री उपाध्याय जी की पढाई शैली को याद करके महसूस हुआ कि वाकई वे कितने सहज तरीके से बच्चों को अपनी बात समझाते थे। वहीं श्री गुप्तेश्वर जी की पकड़ आधुनिक साहित्य में काफी गहरी थी। बात बात पर धूमिल मुक्तिबोध सर्वश्रवर दयाल सक्सेना  रघुवीर सहाय राही मासूमं रजा काशीनाथ सिंह आदि इत्यादि लेखकों का जिक्र करते रहते थे और यह संयोग था कि ज्यादातर समकालीन साहित्यिक पत्रिकाएं मेरे पास होती थी लिहाजा मैं भी उल्लेखित लेखकों का जानकार निकलता था। नया नया साहित्य का मुल्ला होने के कारण अपने मित्रों से भी बहुत सारी बातें सुन चुका था, लिहाजा उनके ज्ञान धरातल पर मैं एकदम बराबर ठहरता था, इस कारण उनसे मेरी पटती भी थी। हिन्दी विभागाध्यक्ष श्री झा जी से तो मेरा प्यार मुहब्बत उलाहना कटाक्ष का रिश्ता जारी ही था।
बीए ऑनर्स क्लास मे  मात्र 25 छात्रों में 18 लड़कियों का होना अमूमन कॉलेज में चर्च का प्रसंग रहता था। चूंकि मेरा घर कॉलेज से 14 किलोमीटर दूर एक कस्बा देव में था, इस कारण सुबह वाली बस पकड़नी पड़ती थी । जिससे कॉलेज आने वाले बहुत सारे लड़कों में मैं भी समय से पहले ही आ जाता था। लिहाजा कॉलेज प्रांगण में बने एक चबूतरा ही हम तमाम लड़कों का अड्डा होता था। मेरा क्लास रूम भी सामने ही था तो वहीं लड़कियां का कॉमन रूम भी सामने ही था। यानी सभी लड़कियों का क्लास से पहले या बाद में जमघट इसी एक कमरे के कॉमन रूम में ही होता था। लिहाजा दर्जनों रिकशे से थोडी थोडी देर के बाद रंग बिरंगे वेश भूषा साज सज्जा और महक चहक से रंगीन परियों फुलझड़ी सी कन्याओं का आगमन होता रहता था, तो कॉलेज प्रांगण में मौजूद मेरे सहित सैकड़ों लड़कों की निगाह भी उधर ही लगी रहती थी, कि देखे अब इसमें कौन आई और अब तक कौन नहीं आई है। बहुत लोग तो बाकायदा कौन लड़की कब आ रही है इसका पूरा विवरण तक रखते थे।  बहुत सारे लड़कों द्वारा शिष्ट अशिष्ट कटाक्ष फब्तियो  समेत सामूहिक ठंडी आहों कराहों का भी सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता था। जिसके उपरांत मुस्कान और ठहाके का बेशर्म सिलसिला भी चालू रहता।
अपने क्लास की तमाम लड़कियों से तो मैं परिचित हो गया था( अलबत्ता चार पांच कन्याओं के अलावा आज केवल तीन का ही नाम याद है। बाकी का तो सही मायने मे मुझे चेहरा भी एकदम याद नहीं है। पर लगभग एक माह के अंदर ही छात्र छात्राओं के बीच माहौल स्वस्थ्य सा हो गया था। बेझिझर किसी भी बिषय पर बात कर लेना अपने पाठ्यक्रम के बाबत चर्चा कर लेना या गरमागरम बहस नुमा माहौल भी दूसरे क्लास के छात्रों के लिए कौतुहल से ज्यादा नमकीन न्यूज ही बनता दिखने लगा।
हमारे परम आदरणीय प्रोफेसरों के पीछे पूंछ की तरह आने और इनसे पहले निकल जाने की आदत या परम्परा पर मुझे बडी बैचेनी सी महसूस होती थी। अक्सर लगता था कि क्या हमलोह इतने अशिष्ट वनमानुष  से हैं क्या कि लडकियों का इतना बडा जत्था भी बगैर गुरूजन के हमलोग के साथ सहज होकर एक साथ नहीं बैठने का साहस नहीं करती। मगर हकीकत तो यह है कि लडकियों का क्लास में सामान्य तौर पर ना बैठे रहना ही हम लडकों के लिए ही ज्यादा सुकून दायी था। मैने देखा कि किसी भी कन्या को लेकर कुछ भी बोल देने वाले किसी भी लड़के में लड़की के सामने मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं थी। मैने कई बार सीधे  अपनी वीणा ( मौसी)  से प्रतिवाद करने के बाद भी उनलोगों को क्लास रूम में एक साथ बैठे रहने के लिए राजी नहीं कर पाया। दो एक दिन बाद ही नर नारी के समान अधिकारों पर कोई मामला उठा। मैं खडा होकर जोर जोर से बोलने लगा कि नारी को समानता का अधिकार एकदम नहीं मिलना चाहिए। किस बात की समानता। जिस नारी या लड़की में पुरूषों के साथ बैठने की हिम्मत ना हो उसके लिए समानता या बराबरी की बात करना भी बेमानी है। मेरे ओजस्वी प्रवचन का जोरदार प्रभाव पड़ा और ज्यादातर छात्राओं ने काफी ना नुकूर करने के बाद सभी देवियां राजी हो गयी कि क्लासरूम में एक साथ बैठने मे कोई हर्ज नहीं है।  सबसे दबंग हमारी वीणा ने फिर आशंका प्रकट की तुम नहीं जानते अनामी लोग क्या कहेंगे। इस पर मैं खिलखिला पडा। मेरी खिलखिलाहट से अचंभित सारी लडकियों ने रोष जताया कि इसमें हंसने वाली क्या बात है कि तुम हंसने लगे। इस पर मैने कहा कि तुमलोग क्या समझती हो कि इससे पहले लोग तुमलोग के बारे में कुछ नहीं कहते है। अरे जितनी बाते और टीका टिप्पणियां तुमलोग पर होती है या की जाती है न उसे यदि एक बार भी तुमलोग सुन लो तो चेहरा शर्म से लाल हो जाए। मैने अपनी तरफ से जोडा कि जब तुमलोग पर कोई बोलता है जिसे सुनकर मैं शर्मसार हो जाता हूं भला तो तुमलोग का क्या हाल होगा। दो चार लड़कियों ने जोर देकर पूछा कि क्या कहते हैं जरा बताओ न  बताओ तो सही। इस पर मैं फिर खिलखिला उठा और दोनों हाथ कान पर ले जाकर पूरे अभिनय अंदाज में कहा कि तुम लोग क्या मुझे इतना बेशर्म समझ रखा है कि जिन बातों को मैं सुन नहीं सकता उसको मैं तुमलोग को बता सकता हूं। तब दो चार लड़कियों ने अपना पैर पटकते हुए कहा कि सबसे बडा गुंडा तो तुम हो जिसके मन मे जो आए बोलने दो न इसका हम पर क्या असर पड़ता है। हिम्मत है किसी में तो सामने आकर तो कोई कहे। इन फूलकुमारियों को एकाएक फूलन देवी बनते देखकर मेरा मन मयूर  नाच उठा। पूरे उल्लास और  जोर से कहा यही तो मैं बोल रहा हूं कि किसमें दम है हिम्मत है जो तुमलोग के सामने आकर बोल दे । मगर तुमलोग इस हिम्मत को अपनी ताकत बनाओगी तब न। बात को आगे बढाते हुए कहा कि एक कहावत है कि हाथी चले बाजार और कुत्ता भूंके हजार । मगर क्या कभी किसी हाथियों को भागते देखा है। मेरा यह जोशवर्द्धक प्रयास पूरी तरह सफल रहा। और अगले ही दिन हमारे क्लास की तमाम सुकोमलांगियॉ कॉमनरूम  की बजाय सीधे क्लास रूम में थी। मैं कमरे में घुसते ही ताली बजाकर सबो का स्वागत किया। पूरा दिन शानदार रहा। मगर और तो और हमारे पूज्य गुरूजनों को ही लड़कियों की यह आजादी कुछ रास नहीं आई और महिला आंदोलन और स्त्री स्वतंत्रता का यह परचम फिर अपने एक महिला कॉमन कमरे में ही सिमट गयी। और मेरा पूरा प्रयास बुरी तरह फ्लॉप कर दिया गया। अलबत्ता लड़कियों की यह दो दिवसीय आजादी का यह मुहिम मुझ पर भारी पड़ा और तमाम लड़को मे मुझे महीन गुंडा का तगमा दे डाला। हंस हंस कर आग लगान वाला महीन गुंडा।
मेरे पापा तक भी यह बात पहुंच गयी कि मैने तमाम लड़कियों को बहका करके कुछ गलत शलत कराया है। रात को दप्तर से लौटते ही पापा एकदम गरम थे। तुम कॉलेज में पढने गए हो या गुंडई करने जाते हो। आजकल कॉलेज में तेरा बडा नाम हो रहा है। मैं एकदम निरीह और अबोध सा पापा के सामने जाकर अपनी सफाई में केवल यही कहा कि आपके ऑफिस में काम करने वाले तीन लोगों की बेटियां हमारे साथ पढती है। मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। कल आप उन लड़कियों से यह जरूर पूछे कि क्या हो रहा है कॉलेज में। उसके बाद जो मन में आ आप कर सकते है। मैं क्यों अपनी सफाई दूं। मेरे तार्किक सफाई से पापा जी नरम तो पड़ गए पर काफी देर तक मां पर बौखलाते रहे। मैंने फिर कहा कि पापा इस बारे में आप कल बात करके तो देखिए पर जो बोल रहा है क्या वो इस लायक है कि उसकी बातों पर यकीन किया जाए ?  मेरे पापा जी ने चिंता प्रकट की बेटा कौन यकीन करने लायक है या नहीं यह जरूरी नहीं है जरूरी यह देखना होता है कि आखिरकार बात कैसे फैल रही है। तेरे को कुछ नहीं होगा पर इसका क्या प्रभाव दूसरों पर पडता है इस पर कौन सोचेगा। कोई भी बात या काम करो तो यह जरूर देखो कि इसका दूसरे पर क्या असर पड़ रहा है। मुझे पापा की बातों में दम लगा और मैने कहा पापा मै बोल जरूर ज्यादा जाता हूं पर गलत शलत काम तो नहीं करता। मै भी  इस घटना पर शांत रहा और पापा की तरफ से ही इसका असर देखना चाह रहा था। दो एक दिन बाद ही पापा बड़े अच्चे मूड में घर लौटे और मेरी पढाई से लेकर मेरे संगी साथियों का भी हाल चाल पूछना चालू कर दिया। मैं फौरन भांप गया कि बढिया प्रतिक्रिया मिली है और यह सब उसी का असर है। मुंह हाथ धोकर पापा मेरे साथ पढने वाली लड़कियों के बहाने मेरी तारीफ में जुटे रहे। मैने पूछ लिया कि लगता है पापा कि आप आज अभिराम चाचा के घर गए थे। तो फिर पापा एकदम खुल गए और मेरे साथ पढने वाली तीन चार लड़कियों का नाम लेकर उनकी सकारात्मक प्रतिक्रियाओं समेत पढाई और हाजिर जवाबी की खुले मन से प्रशंसा की। पापा जी से अपनी तारीफ सुनना यह हमसब भाईयों के लिए चौदहवी का चांद सा था।  पर मै इस घटना को पचाकर अगले दो दिन तक थोडा खामोश और अनमना सा रहा.। मेरे इस तरह के व्यावहार से ज्यादातर लोगों को बडी हैरानी हो रही थी.। खासकर हमारी वीणा रुके न रूकी क्या बात है अनामी क्या हुआ। यूं ही मुंह बनाए हो या कोई बात है ?  इस पर मैने कहा अरे यार तुमलोग को जो कुछ भी मेरे से शिकायत हो तो सीधे कहो न । सीधे मेरे बाप के पास जाकर कहने की क्या जरूरत थी। फिर हमने किसके साथ क्या कुछ अईसा वईसा तो कुछ बोला तक नहीं है। फिर भी मैं साफ कर दूं कि भले ही मैं ज्यादा बोल देत हूं पर तुम सबलोग से भी ज्यादा सभ्य शालीन तमीजदार कमीजदार और शर्मदार हूं। वीणा मेरे साथ हो गयी और बोली क्या हुआ। मैं बौखलाते हुए कहा कि मुझे क्या पता कि क्लास रूम की बात घर तक ले जाना कहां सही है। फिर मैं तो कोई टेढी मेढी और दो अर्थी बाते भी करता ही नहीं। मेरे पापाजी ने तो मेरी इज्जत ही उतार दी है। इस पर पापा के साथ काम करने वाले कई लोगों की तीन चार लड़कियां सामने आ गयी। अरे चाचा जी से तो हमलोग ने तुम्हारी कोई शिकायत नहीं की थी। हमलोग तुम्हारे बारे में ही बात कर रहे थे पर शिकायत तो नहीं कि और शिकायत किस बात की करते ।  मैं भी खुद को पूरी तरह लाचार दिखाकर पूछा कि बस मेरी शिकायत करने के अलावा और कोई बात नहीं थी। मैने कहा कि तुमलोग को देखकर तो पहले ही दिन से मेरा ब्लडप्रेशर बढ गया था क्योंकि किसी को बोल दो वीणा मेरी मां और मौसियों से बोल देगी और किसी पर कटाक्ष कर दूं तो सीमा मेरी मौसी से बोल देगी। पापा के दफ्तर के कई जासूस मेरे साथ है ही.। मैं तो एकदम 32 दांतो के बीच जिह्रवा की तरह फंसा हूं भाई।  मेरे इस नाटकीय प्रलाप का अच्छा खासा असर रहा। मेरे दुख से आहत होकर पापा के सीनियर श्री अभिराम सिंह की बेटी ( इसका नाम याद नहीं है मित्रों माफ करना ) ने उसी दिन शाम को पापा को पकड़कर हमारे दुख पर विलाप की । पापा ने एकदम चकित होकर उसको शांत कराया। तो अगले दिन मेरी शामत थी। मेरे बनावटी विलाप पर ज्यादातर फूलनदेवियों ने अपना उग्र रूप दिखाया। मेरी लानत मलानत की और मुझे भी इनसे सार्वजनिक तौर पर क्षमा याचना मांगनी पडी, तब कहीं जाकर बिन बुलाए आफत से राहत मिली।.

1987 मे संभवत मार्च का महीना होगा। पढाई लगभग खतम हो रहे थे। एक दिन बडी सीरियस मूड में वीणा मेरे पास आई. अनामी मुझे तुमसे बहुत जरूरी बात करनी है। एकाएक इन उग्रवादियों के गंभीर हाव भाव को देखकर तो मैं भी थोडा संजीदा हो गया। फिर उसने एक लड़की का नाम लेकर पूछी कि वो तुम्हें कैसी लगती है?मैं इस सवाल पर खिलखिला उठा। तभी खीजते हुए वह फिर सवाल दोहरायी। तब मैने फौरन कहा कि भई मुझे तो दुनिया की समस्त लड़कियां भोली भाली भली सुदंर अच्छी और प्यारी लगती है। खासकर तुमलोग तो और ज्यादा। मैं तो किसी लड़की को बुरा कह ही नहीं सकता। मैं जरा दर्शन बघारते हुए आगे बढा कि जिसने मुझे तुम्हे और उसको बनाया है उसके निर्माण पर भला मैं क्या कोई टीका टिप्पणी कर सकता हूं। मेरे भाषण से मेरी सब साथिने बोर सी हो उठी थी.. वीणा भी थोडी क्रोधित सी हो गयी. और जोर से बोली मजाक नहीं एकदम गंभीरता से बताओं न। इस पर मैं शांत होकर पूछा कि बात क्या है ?तो फिरर वीणा ने बताया कि वो तुमसे प्यार करती है और शादी करना चाहती है। वीणा की बात सुनकर मैं एकदम हतप्रभ रह गया। तब तक वीणा के समर्थन में एक साथ चार पांच लड़कियों नें उसका पक्ष लेते हुए सिफारिश की। बात की गंभीरता को कम करने के लिए मैं एकदम से मुस्कुरा उठा। अरे भई मैं एक भला तुम कितनी लड़कियों से शादी करूंगा ?इस पर एक साथ उसकी सिफारिश करने को आतुर लड़कियों ने जोर देकर कहा हमलोग उसके बारे में कह रहे हैं अपने बारे में नहीं। मैंने फिर कटाक्ष किया मुझे तो लगा कि तुम सब एक साथ ही मेरे उपर टूट पडी हो। तभी किसी ने पीछे से मजाक उडाया आईने मे शक्ल देखी है अपनी। इस पर मैं पूरी तरह खिलखिला उठा। सब कुछ तो ठीक है बस तेरे से रंग में ही थोडा श्यामला हूं बस्स। बात कहां तो शादी की हो रही थी और देखते ही देखते पूरे प्रसंग की रासलीला हो गयी।. तब माहौल को संयमित करने के लिए वीणा ने अपने तोप को दोबारा दागा। इस पर मैं कहा कि लगता है कि तुम एकदम पागल हो इस तरह की बाते कहीं इस तरह की जाती है। तुम तो मेरी मां को जानती हो सीधे उनसे ही जाकर बात करो। तो उसको लगा कि दांव अभी हाथ में ही है।  तपाक से वीणा ने अपना तार झंकृत की तो तुम्हें तो पसंद है न ?इस पर मैने  सीधे कहा कि नहीं जिस लड़की में सामने और सीधे कहने की हिम्मत ना हो तो उसके साथ फिर कैसी शादी ?फिर वीणा झंकृत हुई. नहीं वो थोडा शरमा रही थी. तो फिर उसको शरमाने दो न। मेरे साथ शादी ना होकर ही उनका भला होगा । जानती हो यदि वह एकदम सामने आकर यही प्रपोजल देती न तो मैं तो हाथ पकड़कर उसको आज ही अपने घर ले जाता। यह तो मुझे नहीं पता कि मेरा क्या होगा पर अगले 6-7 साल तो मेरी शादी नहीं होगी, यदि उसकी भी शादी कहीं नहीं हुई तो तुम मुझे बताना फिर मैं उसके साथ शादी जरूर कर लूंगा।
हमारे कॉलेज में नए प्रिसिपल श्री सिद्धेश्वर सिंह का आगमन हुआ। अनुशासन प्रिय और सख्त प्रशासक के रूप में विख्यात श्री सिंह के आते ही चौपाली  मजनूओं पर सबसे पहले लगाम लगा दी गयी। चबूतरे वाली रोजाना की चौपाल होनी बंद हो गयी तो एक ही साथ दीवानापन के भी बहुत सारे मामले रूक गए। जाड़े में दूप सेंकने पर भी रोक सी लगी रही। उधऱ प्रिसिपल साहब ने अपने कमरे को भी चमका डाला। गेट पर पर्दा टंग गया और पहले की तरह बेधड़क अंदर घुसने पर रोक लग गयी। श्री सिंह साहब को भी कॉलेज में आए अभी दो माह भी नहीं हुए थे कि कॉलेज की फुटबॉल टीम और जिले की बिहार पुलिस  के बीच मैच खेला गया। जिसमें हमारे कॉलेज के रणबांकुरों ने पुलिस पर तीन गोल की बढ़त ले ली। अपनी हार से बौखलाए पुलिस टीम के खिलाडियों ने गेंद की बजाय कॉलेजी खिलाडियों पर निशाना साधना चालू कर दिया और देखते ही देखते हमारे पांच खिलाड़ी खून से तर ब तर घायल होकर मैदान से बाहर हो गए। पुलिस टीम द्वारा खिलाडियों की मदद करने की बजाय बूट पहने ही कईयों के हाथ और छाती पर भी पुलिसिया खिलाडी सवार हो गए। तब तक पुलिस टीम दो गोल करके कॉलेज की बढत को भी कम कर दी। लगातार अपने खिलाडियों को जानबूझकर घायल करते देख सैकड़ो छात्रों ने हो हल्ला हंगामा करके विरोध जताया तो पुलिस ने जमकर छात्रों पर ही  लाठियां भांज दी। और इस तरह फुटबॉल का यह खूनी मैच अधूरा ही रहा। पुलिस से चोटिल खिलाडियों को उपचार के लिए प्रशासन से पटना भेजने की मांग की गयी, मगर तत्कालीन युवा और तेजतर्रार एडीएम सुनील कुमार सिंह ने इस मांग को नकार दिया। अगले दिन सुबह कॉलेज आते ही इस घटना की जानकारी हम जैसो दूर से आने वाले तमाम छात्रों को मिली तो हमारे प्रिंसिपल श्री सिंह की अगुवाई में सैकडों छात्रों ने एडीएम के दफ्तर का घेराव कर डाला। श्री सिंह के साथ मुश्किल से हम 10-12 छात्र ही अंदर गए थे। पर एडीएम का तेवर काफी सख्त था और वो किसी भी हालात में चोटिल छात्रों को पटना भेजने तथा पुलिसिया खिलाडियों के खिलाफ एक्शन लेने को राजी नहीं था। हमारे प्रिंसिपल साहब को भी वे मि. सिंह मि. सिंह कहकर ही संबोधित कर रहा था। बात बनते ना देखकर मैं फौरन बाहर भागा और पुलिस प्रशासन तथा एडीएम के खिलाफ जमकर नारेबाजी करने के लिए अपने छात्रों को उकसाया। और देखते ही देखते चारो तरफ नारे गूंजने लगे और पूरा माहौल तनावग्रस्त हो गया।
जब मैं अंदर आया तो एडीएम मेरे उपर बौखला गया और तुरंत नारे को बंद कराने पर जोर दिया। मैने कमान अपने हाथ में ली और एडीएम को आगाह किया कि मि, सिंह अभी आप हमारे प्रिंसिपल साहेब को नहीं जानते। ये तुम जैसे सैकड़ो आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को पैदा करने वाली फैक्टरी है। अभी चार फोन पटना घूमा देंगे न तो दर्जनों तुमसे सीनियर अधिकारी इनके पांव छूने के लिए लाईन लगा देंगे। और आप इनसे बदतमीजी से बात कर रहे हो। हम सबके सम्मान के ये प्रतीक है और इनके साथ ही इस तरह का बर्ताव। आप क्या पटना भेजोगे अब पटना से फोन आएगा कि क्या कर रहे हो। प्रिंसिपल साहब के पीछे आकर मैने कहा कि यदि ये एक आवाज बुलंद कर दे न तो आपके दफ्तर का हाल मटियामेट हो जाएगा। इतना कहकर मैं अपने प्रिसिपल को लेकर कमरे से बाहर निकलने लगा तो एडीएम एकदम हाथ जोडकर माफी मांगी और 10 मिनट के अंदर ही पटना भेजने के लिए दो एम्बुंलेंस  सहित सारी व्यवस्था करने का इधर उधर निर्देश देने लगा। हमारे प्रिंसिपल साहेब को फिर से कमरे मैं बैठाकर एडीएम वे अपने दरबान को चाय और समोसे लाने का आदेश फरमाय।  जब तक समोसे का स्वाद लिया जाता तब तक सारी व्यवस्था हो गयी। देख रेख के लिए तीन चार लोगों के साथ तीन गाडियों से आठ छात्र खिलाडियों को एक अधिकारी के साथ पटना भेजा गया। उधऱ गाडी पटना की तरफ गयी और इधर जमकर हंगामा हुआ। नारेबाजी के साथ विजयी मुद्रा में हमलोग प्रिंसिपल के साथ कॉलेज लौटे,। तो उन्होने फौरन मुझे बुलवाया। नाम आदि पूछा और जमकर तारीफ की और यह भी कह डाला कि तुम्हारा जब भी मन करे बिना पूछे मेरे दफ्तर में आ जाया करो।  और जब मैं बाहर निकला तो लड़कों ने मुझे अपनी गोद में उठा लिया। कईयो ने कहा कि आज तुमने कॉलेज की लाज रख ली अनामी। इस पर सबों के समक्ष झुककर मैने इस तरह की बाते न करने की सलाह दी कि कॉलेज हम सबसे बडा और गैरव क् प्रतीक है मित्र। मैं तो केवल एक अदना सा छात्र हूं. छात्रों की भीड़ ने जमकर तालियां बजाते हे मेरी बात का समर्थन किया।
यूं तो रोजाना कॉलेज का दिन बड़ा मन भावन सा ही होता था, पर एक दिन हमारे झाजी ने सभी लड़कियों समेत मुझे भी हिदायत दी कि कल मैं सबका नोट्स चेक करूंगा सो कल सब नोट्स लेकर आना।  इस पर वीणा समेत कई लड़कियों ने मेरी खिल्ली सी उडाई। अब कल तो तुम्हें भी नोट्स लाना ही पड़ेगा। हमारी सहपाठिने हमेशा मुझे नोट्स बनाने और दिखाने के लिए कहती थी औरे मैं हमेशा यही कहता था कि मैं किसी पेपर का नोट्स नहीं बनाता। मेरी बातों पर किसी को भी यकीन नहीं था। सबो का आरोप था कि तुम नोट्स दिखाना ही नहीं चाहते। इस कारण वे लोग इस मामले में मुझसे नाराज सी रहती थी। अगले दिन सारे छात्रों ने तरह तरह के जिल्द और रंगीन आवरण में नोट्स ला लाकर श्री झा जी को दिखाना चालू किया। और मजे की तो यह बात कि नोट्स को देखते हुए हमारे सर श्री झा जी ने सबों को डीविजन भी बॉटना शुरू कर दिया। मसलन, वीणा तू एकदम फस्र्ट आएगी और तू सीमा जरा इसको ठीक कर लो तो तेरा भी नंबर वन पक्का है। सर द्वारा रेवड़ी के भाव दिए जा रहे डीविजन से अभिभूत होकर हमारी तमाम संगी साथिनों का दिल बाग बाग हो रहा था। वहीं श्री झा जी भी अपने छात्रों की तैयारी से अभिभूत थे। नोट्स दिखाने की अब मेरी बारी थी, तो मैं अपना चेहरा लिए खाली हाथ बिना नोट्स के उनके सामने जाकर खड़ा था। खाली हाथ मुझे देखकर वे फिर भड़क उठे, अपना नोट्स निकालो न । मैं भी तो देखू कि तेरी क्या तैयारी है। इस पर मैने कहा कि सर मैने तो कोई नोट्स ही नहीं बनाया है। यह सुनते ही मानो कोई भूचाल आ गया हो, वे एकदम खड़े हो गए और नाराजगी के साथ बोले कि लाला तू इस बार फेल हो जाएगा। मैने तुरंत उनकी बातों को काटते हुए कहा कि सर जिस तरह से आप नोट्स देखकर इन्हें डीविजन से नवाज रहे हैं, क्या यह हो जाएगा।  मेरी बातों को अनसुना करते हुए श्री झा जी ने नाटकीय अंदाज में सभी छात्रों को संबोधित किया कि एक थे हमारे राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद जिनको देखकर ही सबकुछ याद हो जाता था और ये है देव के राजेन्द्र बाबू के सुपुत्र अनामी शरण जिनको भी सब कुछ याद है। इनको नोट्स बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। श्री झा जी ने क्लास रूम में ही यह सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर दी कि लाला तू इस बार जरूर फेल होगा। मैने तुरंत उनकी बातों को काटा और मैंने भी सबके सामने ही कह डाला कि सर फेल तो दूर क्लास में सबों से ज्यादा नंबर केवल मेरा ही होगा। मेरी बातों पर पूरा क्लास खिलखिला पडा। श्री झा जी के गुस्से के दौर में भी पूरा क्लास मेरी लानत मलानत पर मंद मंद मुस्कुरा रहा था। और क्लास में श्री झा जी के संग नोक झोंक में मेरी खाल नुचाई समारोह का मेरे समस्त संगी साथी मजा ले रहे थे।
 परीक्षा के दिन करीब आ रहे थे तो एक दिन अकेले में श्री झा जी ने कहा कि कल हाफ फीस माफी का इंटरव्यू है , समय पर आ जाना। मैने उनसे कहा कि मेरा तो फीस आप माफ करवा ही देंगे। इस पर फिर वे झुंझला उठे हां हां क्यों नहीं मैं क्या तेरे बाप का नौकर हूं। मैने अपने कान पकडते हुए कहा कि सर यह तो मैने नहीं कहा। तो वे मुस्कुरा उठे और मेरे सिर पर प्यार से एक धौल जमा दिया।
अगले दिन इंटरव्यू होना था । सबों को मेरे इंटरव्यू पर उत्कंठा थी। अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष श्री बामनदास जी इंटरव्यू ले रहे थे। मेरी बारी आते ही उन्होने रामचरित्रमानस के रचयिता समेत तीन सामान्य से सवाल पूछे, और मैने तीनो सवाल के प्रति अनभिज्ञता प्रकट की तो वे बौखला गए। अंत में आजिज होकर मुझसे पूछा कि आपको पता क्या है ?मैने तुरंत कहा कि सर मैं बीए ऑनर्स का छात्र हूं और आप सवाल तो मेरे स्टैणडर्ड का पूछे। इससे पहले कि श्री बामनदास जी कुछ बोलते श्री झा जी ही बीच में उबल पड़े चल चल भाग यहां से हमें स्टैण्टर्ट का उपदेश देने लगा।  मैं बाहर निकला तो कई दोस्तों  ने मुझसे पूछा कि क्या क्या सवाल पूछ रहे है यार?तो मैने अपने इंटरव्यू का हाल बयान कर दिया और साथ ही यह भी कहा कि देखना मेरा तो माफ हो ही जाएगा। और सच में अगले दिन जब फीस माफी की जो लिस्ट लगी तो समें मेरा भी नाम था।
लगभग पढाई खत्म होने ही वाला था कि एक दिन तमाम लड़कियों ने मुझे टोका कि कल जरा ठीक ठाक कपड़े पहनकर आना। मैं इस सवाल पर चौंका कि अभी तक मैं खराब कपड़े पहनता था क्या ?सलीके की साज सज्जा से ज्यादा मुझे रफ टफ कपड़ो का पहनावा ही सहज सरल और आरामदेह लगता था और आज भी लगता है। मैने वीणा से पूछा कि किस तरह के कपड़े पहन कर आंऊ कुछ तो बताओ। किसी ने इस पर कुछ कहा पर मैं संभवत कुछ कम पुराने कपड़े ही पहनकर कॉलेज आया तो सबों ने मुझे उलाहना दे डाला कि आज फोटोग्राफी है इसलिए बन ठन कर आए हो। हमारे क्लास की तमाम लड़कियों ने तो दूसरे ड्रेश भी लाए थे और क्लासरूम के पीछे वाले कमरे में साज ऋंगार करने में सब बिजी थी। मैं लडकियों के ड्रेशिंग रूम मे गया और फौरन बाहर निकल आया। किसी से आईना मांगा तो एक साथ हमारी साथिनों ने उपहास किया कि तैयार हो लो ठीक से फोटू को तो दिल से चिपकाकर रखोगे। मैने तुरंत पूछा किसके लिए यह तो बताओ। तब कईयो ने कहा कि एक साथ 18 लड़कियों के संग की फोटो को तो रखोगे ही। मैने भी पूछा कि क्या तुमलोग रखोगी तो कईयों ने कहा कि तुम जैसा मजेदार लड़का साथ में पढा है तो फोटो तो रखनी ही पड़ेगी। मै मुंहफट की तरह कह डाला कि मगर मैं फोटो नहीं रखूंगा। और आज भी यह सामूहिक फोटो मेरे पास नहीं है। और इसका मुझे आज बहुत दुख और मलाल भी है कि मेरी एक मिनट की वाचालता जिसे मूर्खता ही कहना ज्यादा बेहतर होगा ने मुझे एक सुदंर यादगार फोटो से वंचित कर दिया। हालांकि फोटोग्राफी के लिए मेरे मित्र समान अखैरी प्रमोद आए थे मगर मैं उनसे यह दुर्लभ फोटो ले न सका। सच तो यह है कि आज मैं इस फोटो के लिए श्री अखौरी प्रमोद जी से भी कहा तथा साथ में पढ़ने वाली सुश्री सीमा के भाई किशोर प्रियदर्शी से भी कहा कि वो अपनी बहन से बात करे मगर कोई फायदा नहीं हुआ।  अलबत्ता मैं वीणा से संपंर्क नहीं कर पाया । शायद कभी बिहार गया तो इस बार उनसे मिलकर फोटो के लिए जरूर बात करूंगा।      

कॉलेज के सुनहरे दिनों के बीच में ही संभवत फरवरी 1987 में किसी दिन एक अखबार में भारतीय जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली का एक विज्ञापन छपा था। जिसमें हिन्दी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को शुरू करने की सूचना थी। पहले पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिखित परीक्षा के लिए आवेदन मांगे गए थे। मैने भी प्रवेश के लिए त्तत्काल फॉर्म भर दिए तो अप्रैल में लिखित परीक्षा भी पटना में जाकर दे आया। एक तरफ मैं बीए ऑनर्स की तैयारी में था तभी पत्रकारिता के लिए भी एक दिमागी शैतानी शुरू हो गयी। लिखित परीक्षा में पास होने के बाद मई में इंटरव्यू होना था। जिसके लिए मैं दिल्ली गया और मेरा चयन भी हो गया। इधर एक जुलाई से पहला सत्र 1987-88 आरंभ हो रहा था और  उधर ऑनर्स की भी परीक्षाएं उसी समय में हो रही थी। मेरा आखिरी पेपर 26 जुलाई को था और तब तक उधर की पढाई का एक माह खत्म होने वाला था। पर क्या करता ऑनर्स की परीक्षा तो देनी ही थी। पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के शुरू में दिल्ली में जाकर दो चार क्लास की और छात्रावास के एक कमरें में ताला जड़ कर 20 दिन के लिए वापस बिहार आ गया।
इस बीच दिल्ली का पत्ता लिखा दो पोस्टकार्ड लेकर जुलाई के किसी दिन  चिलचिलाती धूप में मैं श्री झा जी के घर पहुंचा। वे एकाएक मुझे देखकर चौक पडे। मैने दोनो पोस्टकार्ड उनके घर में टंगे एक कैलेण्डर में स्टेप्लर से टांक दिया। और विनय स्वर में कहा कि सर मैं फेल तो नहीं करूंगा पर मेरा चाहे जो परिणाम हो उसकी सूचना केवल आप देंगे। गौरतलब है कि 1986-87 में मोबाईल नामक खिलौने का ईजाद नहीं हुआ था, लिहाजा डाकघरों के महत्व तो था पर आदमी का आदमी से  सूचना और संचार बडा दुर्लभ था। मैं झा जी के यहां बैठा ही था कि उनकी धर्मपत्नी एक प्लेट में मिठाई लेकर आई। मैने उनके चरण स्पर्श किए। उन्होने मिठाई खाने पर जोर दिया तो मैने कहा कि आंटी जी अभी तो मिठाई किसी भी सूरत में नहीं खाउंगा, क्योंकि मेरे और सर के बीच पास और फेल होने की बाजी लगी हुई है। वैसे तो मैं सर को पराजित कर रहा हूं मगर मेरा परीक्षा परिणाम क्या रहा इसकी जानकारी के लिए ही पोस्टकार्ड देने आय़ा हूं। उनके जोर देने पर भी मैं मिठाई नहीं ली। अलबत्ता बीए आनर्स की आखिरी परीक्षा के दिन मैने अपने समस्त साथियों से हाथ जोडकर तमाम गुस्ताखियों बदतमीजियों ज्यादा बोलने से दिल दुखाने या कभी लक्ष्मणरेखा पार कर जाने की तमाम उदंडताओं के लिए क्षमा मांगी । मैने कहा कि यार कॉलेज का मेरा यह 10-11 माह की मधुर याद जीवन भर तुम लोगों की याद दिलाएगी। मेरे तमाम संगी साथिनों ने भी भावुक होकर अपनी शुभकामनाएं दी और मैं उसी रात गया से ही दिल्ली चला गया। परीक्षा परिणाम आने पर श्री झा जी दोनों पोस्टकार्ड पर अपनी तमाम शुभकामनाओं के साथ यह बताया कि कॉलेज में सबसे ज्यादा नंबर तुमको ही आया है। उन्होने बिहार लौटने पर मिलने का आदेश दिया।  बिहार लौटने पर जब मैं उनके घर गया तो वे मुझे अपनी छाती से लगाते हुए कहा कि मैं तुमको समझ नहीं सका अनामी। यह सुनकर मैं उनके चरमों पर जा गिरा और अपनी तमाम उदंडताओं के लिए माफी मांगी। श्री झा जी ने बताया कि परीक्षाफल आने पर हमारे प्रिंसिपल श्री सिंह ने भी उनसे मेरे परिणाम की जानकारी मांगी थी। उन्होने एक बार कभी कॉलेज आकर मिलने को भी कहा था , पर मेरा यह दुर्भाग्य है कि यह हो नहीं सका और मैं एक छात्र से पत्रकार बनकर सुबह कहीं शाम कहीं घूमता रहा।     

चार लाख किराये की ट्रेन सैलानियों के लिए तरस रही है

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  • 6 घंटे पहले
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शाही ट्रेन 'पैलेस ऑन व्हील्स'एक तरह से पटरी पर दौड़ता राजस्थान है.
यह ट्रेन पुराने रजवाड़ों के राजसी ठाठ-बाट के साथ यात्रियों को शाही अंदाज़ में सफ़र करवाने के लिए शुरू की गई थी.
इस ट्रेन में वो कोच लगाए गए थे, जिनका इस्तेमाल पहले के महाराजाओं ने किया था.
हालांकि बाद में 1991 में उन कोचों को बदल दिया गया.
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इस शाही ट्रेन में कुल 22 कोच हैं. जिनमें 14 कोच के नाम पुराने रजवाड़ों; अलवर, भरतपुर, बीकानेर, बूंदी, धौलपुर, डूंगरपुर, जैसलमेर, जयपुर, झालावाड़, जोधपुर, किशनगढ़, कोटा, सिरोही और उदयपुर के नाम पर हैं.ट्रेन के हर कोच में चार केबिन हैं और ये यात्री सैलून ख़ास शैली में सजाए गए हैं.
ढोला मारू और बूंदी शैली के चित्र, जैसलमेर की हवेलियों और सोनार क़िले से लेकर, उदयपुर के शाही मयूर की झलक, यहां मौजूद है.
साथ ही खूबसूरत फर्नीचर, गलीचे, परदे, सुसज्जित बार, महाराजा और महारानी नाम से दो रेस्टोरेंट इस ट्रेन में मौजूद हैं.
ट्रेन में लज़ीज़ खाना, स्पा और राजपूती साफे और पोशाक में तैनात खिदमतगार भी आपकी सेवा में लगे रहते हैं.
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पूरी तरह वातानुकूलित, चैनल, म्यूज़िक, इंटरकॉम, गर्म पानी, अख़बार, पत्रिकाओं सहित अनेक सुविधाएं इस ट्रेन की ख़ासियत हैं.इस ट्रेन में स्टाफ़ के लिए अलग से दो कोच हैं.
पैलेस ऑन व्हील्स का पहला फेरा 1982 में शुरू हुआ था. शुरू के सालों में यह बहुत लोकप्रिय रही, लेकिन पिछले कुछ सालों से इसका आकर्षण कम होता जा रहा है.
2007-2008 से 2013-14 के बीच इस ट्रेन के यात्रियों की संख्या में 43 प्रतिशत की गिरावट आई है.
इस ट्रेन को सबसे बड़ा झटका पिछले महीने लगा जब बुकिंग के अभाव में 30 मार्च का इसका फेरा रद्द करना पड़ा.
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ऐसा कहा गया कि अप्रैल में दिए जाने वाले "लीन सीज़न डिस्काउंट"की वजह से यात्रियों ने अपनी बुकिंग रद्द कर दी थी.लेकिन अप्रैल के महीने में भी महज़ 40 प्रतिशत ही बुकिंग हो पाई.
इसके लिए कुछ लोग नए यात्रा विकल्पों की तरफ लोगों की बढ़ती रूचि को ज़िम्मेदार मानते हैं.
वहीं कुछ लोग इसके लिए राजस्थान पर्यटन विभाग की बुरी व्यवस्था को ज़िम्मेदार मानते हैं.
बेहतर मार्केटिंग की कमी और सड़क मार्ग की यात्रा के लिए सैलानियों को लुभाने की ट्रैवल एजेंट्स की कोशिश को भी, इसका एक कारण बताया जा रहा है.
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वहीं डेक्कन ओडिसी और गोल्डन चेरियट जैसी अन्य शाही ट्रेनों की ओर यात्रियों का रुझान बढ़ रहा है, जो राजस्थान से गुज़रते हुए अन्य प्रदेशों की सैर करवाती हैं.इस ट्रेन को पिछले साल अमरीकी ट्रेवल मैगज़ीन 'कोन्डे नास्ट'ने दुनिया की सर्वश्रेष्ठ ट्रेनों में पांचवां स्थान दिया है.
राज्य की एक दूसरी शाही ट्रेन 'रॉयल राजस्थान ऑन व्हील्स'का किराया इससे कम है, लेकिन पिछले दिसंबर में उसके भी दो फेरों को बुकिंग के अभाव में रद्द करना पड़ा था.
एक विदेशी पर्यटक के लिए, अक्टूबर से मार्च के बीच किसी एक फेरे में सफ़र करने पर पैलेस ऑन व्हील्स का किराया क़रीब 6 हज़ार डॉलर, यानी क़रीब चार लाख रुपये पड़ता है.
भारतीय पर्यटकों के लिए यह किराया क़रीब 3.63 लाख़ रुपये है.
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Image captionरॉयल राजस्थान ऑन व्हील्स ट्रेन
इसका एक सफ़र या एक फेरा सात दिन और आठ रातों का होता है. इसमें ड्रिंक्स के अलावा भोजन, पर्यटक स्थलों का दर्शन और घूमना शामिल है.यह ट्रेन हर साल सितंबर से अप्रैल के बीच चलती है और एक महीने में तीन से चार फेरे लगाती है.
इस ट्रेन के लिए अक्टूबर से मार्च तक का समय पीक सीज़न माना जाता है.
यह ट्रेन राजस्थान पर्यटन विकास निगम की है और इसे भारतीय रेल के सहयोग से चलाया जाता है.
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जब मजदूर बनकर मैं भारत पाकिस्तान ,सीमा पर गया

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अनामी शरण बबल 


जनता का रिपोर्टर 





गरमी का मौसम मुझे सामान्य तौर पर सबसे प्यारा लगता है। अप्रैल माह के आखिरी सप्ताह में मैं आगरा में था। यमुना तट से महज 150 मीटर दूर टीन से बने एक झोपडी में ही हम कई लोग ठहरे थे। चारो तरफ रेत ही रेत थे। दिन में आस पास का पारा 47-48 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता तो रात में कंबल ओढ़कर भी बिस्तर में ठंड लगती थी। सुबह 111 बजे के बाद ही लगता मानो चारो तरफ आग लगी हो। हमलोगके खाना और नाश्ता पहुंचाने वाली गाडी तो रोजाना समय पर आती थी मगर चाय की व्यवस्था हमलोगो ने ही कर ली थी, और देर रात तक चाय कॉफी का मजा लिया जाता था। पीने वाला पानी भी इतना खौलता सा रहता था कि दिल्ली में आकर दर्जनों गिलास पानी पीकर भी प्यास बनी हुई ही थी। इस भीषण गरमी में मुझे हमेशा बीकानेर और भारत पाकिस्तान सीमा पर रेत में झुलसने की याद बार बराबर आती रही।  
बात आज से 22 साल पहले 1994 की है। मुझे राष्ट्रीय सहारा अखबार से जुड़े चौथा ही महीना हुआ था कि मार्च माह के आखिरी सप्ताह  में एक दिन दोपहर में किसी काम से अपने संपादक श्री राजीव सक्सेना के कमरे में घुसा ही था कि उन्होने तुरंत मुढे लपक लिया। अरे बबल मैं बस अभी तुमको बुलाने ही वाला था। कुर्सी से खड़े होकर कहा कि ये मेरे राजस्थान के दोस्त है हरिभाई । इनसे बात करो और मुझे बताओं कि क्या बीकानेर जाओगे। अपने आप को ज्यादा संजीदा और स्मार्ट दिखाने के लिए तुरंत ही कहा कि हां मैं बीकानेर जाउंगा । स्टोरी के बाबत मैं इनसे बात कर एक रूपरेखा बनाकर दिखाता हूं। उन्होने कहा कि ये लोग भी केवल तुम्हारे साथ जाएंगे मैं अकाउंट को बोलकर तुम्हारे नाम दस हजार मंगवा लेता हूं। फिर संपादक जी ने हरे भाई से पूछा कि दस हजार में काम हो जाएगा न ? इतनी रकम पर उन दोनो ने सहमति जता दी, तो शाम तक मेरे पास रूपए भी आ गए और किसी को फोन करके अगले दिन रात में बीकानेर के लिए खुलने वाली ट्रेन में तीन सीट आरक्षित भी करवा दिया।
 मैं संपादक के कमरे में ही बैठकर उन दोनें से स्टोरी पर बात करने लगा। मामला भारत पाक सीमा पर तारबंदी से जुडा था कि शाम को फ्लड लाईट जलाने के लिए जीरो एरिया में भारतीय सैनिक जाकर बल्ब जलाता है और उसी दौरान पाक सीमा की तरफ से सामान की हेराफेरी अदला बदली और तस्करी के सामानों की सीमाएं बदल दी जाती है। उन्होने पास में ही एक साधू की समाधि का भी जिक्र किया जिसके भीतर से सुरंग के जरिए भारत और पाकिस्तान आने जाने का रास्ता है। हरे भाई ने बताया कि इस रास्ते रात में जमकर तस्करी होती है। मैंने सभी स्टोरी मे तो खूब दिलचस्पी ली, मगर इसको किया कैसे जाएगा इस पर वे कोई खास रास्ता नहीं सूझा पा रहे थे। तो खबर कैसे की जाए इसको लेकर दिक्कत बनी हुई थी कि बिना सबूत इतने संगीन इलाके की खबर दी किस तरह जाएगी। मगर तमाम समस्याओं को दूर करते हुए संपादक जी ने कहा कि तुम एकबार इनके साथ जहां जहां ले जाते हैं वहां का माहौल देखकर तो आओ बिना बहादुरी किए लौटना है भले ही कोई न्यूज खबर बने या न बने। अपने संपादक के इस प्रोत्साहन और भरोसे के बाद तो मेरा सीना और चौड़ा हो गया।  

उस समय,सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ ) के प्रमुख थे हमारे जिले के सांसद सतेन्द्र बाबू उर्फ छोटे साहब के बेटे निखिल कुमार। अगले दिन दोपहर में मैं उनके दफ्त में जा पहुंचा। मैं ज्योंहि लिफ्ट से बाहर निकला तो देखा कि निखिल जी लिफ्ट में जाने के लिए दल बल के साथ खड़े थे। मैं तुरंत चिल्लाया निखिल भैय्या मैं अनामी औरंगाबाद बिहार से। औरंगाबाद सुनते ही लिफ्ट में घुसने जा रहे निखिल कुमार एकाएक रूक गए और हाथों से संकेत करके मुझे भी अपने साथ लिफ्ट में बुला लिया। मैं फौरन उनके साथ लिफ्ट में था।. कहो औरंगाबाद में कहां के हो और यहां किसलिए ?मैं हकलाते हुए अपना नाम और पेपर के नाम के साथ ही बताया कि सत्संगी लेन देव का रहने वाला हूं। मैने कहा कि हमे बीकानेर जाकर भारत पाक सीमा को देखना थाक्यों?उनकी गुर्राहट पर ध्यान दिए बगैर कहा कि बस्स भैय्या यूं ही। मेरी बात सुनते ही वे हंसने लगे अरे भाई घूमने जाना हगै तो पार्क में जाओं सिनेमा देखो सीमा को देखकर क्या करोगे चारो तरफ रेत ही रेत है और कुछ नहीं। तब तक मैं अपने अखबार का पत्र भी निकाल कर उनको थमा दिया जिसे देखे बगैर ही वापस करते हुए कहा कि अब तो मैं बाहर निकल गया हूं तुम सोमवार को आओ तो कुछ सोचता हूं। मैं आतुरता के साथ कहा कि सोमवार तक तो लौटना है। इस पर वे बौखला उठे कि बोर्डर देखना क्या मजाक है जो तुम अपनी मर्जी से चाह रहे हो। तबतक लिफ्ट नीचले तल पर आ गयी थी और वे सोमवार को फिर आने को कहकर लिफ्ट से बाहर हो गए। सबसे अंत में मैं भी लिफ्ट से बाहर निकल गया शाम को हमसब लोग अपने दफ्तर में ही          रहे और फिर रात में  नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन से गाडी पकड़कर सुबह सुबह बीकानेर में थे।    
किस मोहल्ले में उनके रिश्तेदार रहते थे यह तो अब याद नहीं मगर वे एक साप्ताहिक अखबार निकालने के अलावा प्रेस से प्रिंटिंग का भी भी काम करते थे। चाय के साथ कमसे कम 10-12 पापड़ साथ में आया। मैं इतने पापड़ देखकर चौंक उठा। मेरे असमंजस को भांपकर हरे भाई ने कहा कि अनामी भाई पापड़ यहां का जीवन है जितना मिले खूब खाओ क्योंकि यहां के पापड़ का स्वाद फिर दोबारा आने पर ही मिलेगा। वाकई इतने लजीज पापड़ फिर दोबारा खाना नसीब नहीं हुआ। हमलोग जल्दी जल्दी तैयार होकर जिलाधिकारी (डीएम) के दफ्तर के लिए रवाना हुए। इस बार मेरे संग स्थानीय पेपर के मालिक संपादक भी साथ थे।कार्ड भेजने के बाद बुलावा आते ही हमलोग बीकानेर के डीएम दिलबागसिंह के कमरे के भीतर थे। ठीक उसी समय की रेडियो या वायरलेस मैसेज वे रिसीव कर रहे थे मगर हमलोग के अंदर आकर बैठते ही इस असमंजस में थे कि वे मैसेज ले या न ले। 30-40 सेकेण्ड की दुविधा को देखते हुए मैं खडा होकर बोला कि सर आप मैसेज तो लीजिए या तो कोई घुपैठिया मारा गया होगा या कोई पकड़ा गया होगा।  इससे बड़ी तो और कोई खबर हो ही नहीं सकती है। मेरी बात सुनकर दिलबाग सिंह ने फिर आराम से मैसेज को रिसीव करके बताया कि एक पकडा और दो मारा गया है। तब हम सबलोग मिलकर जोरदार ठहाका लगाए। संयोग था कि डीएम भी हमलोगो से खुल गए और फौरन सत्कार के लिए कई चीजे मंगवाकर अगवानी की। मगर वे हर बार एक सवाल पर अटक जाते थे कि अनामी आपको यह कैसे पता लगा कि यही खबर हो सकती है। मैने सपाई मे कहा कि पिछले 15 दिन से बीकानेर और सीमा से जुड़ी खबरों को ही पढ़ पढ़ कर यह ज्ञानार्जन किया है कि यहां का पूरा चित्र क्या और कैसा है। बहुत देर तक बात होने के बाद भी वे सरकारी गाडी से सीमा दर्शन कराने पर सहमत नहीं हो सके। मेरे तमाम निवेदन के बाद या साथ में अधिकारियों को भी भेजने या गाडी के तेल का पूरा खर्चा उठाने के लिए भी कहने के बाद भी वे राजी नही हो सके। अंतत:मैने कहा कि आप जब नहीं भेजेंगे तो ठीक है मैं बीकानेर शहर तो घूम लूं। कई दिग्गज लेखक हैं उनसे तो मिल लूं। मगर मेरे लौटने का टिकट आपको कन्फर्म करवाना होगा। इसके लिए वे राजी हो गए। तो मैने भी कहा कि एकदम वादा रहा कि बीकानेर शहर छोडने से पहले आपकी चाय पीकर ही जाउंगा। मैं जब टिकट के लिए रूपये निकालने लगा तो उन्होने रोक दिया कि अभी नहीं पर आपका टिकट आपको देखकर कन्फर्म हो जाएगा तो रकम भी ले ली जाएगी। मैने कहा कि होलिका दहन ( जो अगले तीन दिन बाद था) की रात वाली ट्रेन का टिकट चाहिए। मैने कहा कि शादी के एक साल के बाद तो बीबी पहली बार दिल्ली आई है लिहाजा होली के दिन  तो साथ ही रहना है। इस पर मुस्कुराते हुए डीएम ने कहा कि टिकट कन्फर्म हो जाएगा आप अपना काम निपटाओ।
मार्च माह के अंतिम सप्ताह में मुझे बीकानेर की गरमी असहनीय लग रही थी । मुझे लग रहा था मानो मैं गरम तवा पर चल रहा हूं। मैं गरमी से परेशान था जबकि स्थानीय लोगों को गरमी का खास अहसास नहीं था। डीएम के दफ्तर से बाहर निकले अभी तीन चार घंटे भी नहीं हुए थे कि लगने लगा कि हमलोगों की निगरानी की जा रही है। शाम होते होते साप्ताहिक पेपरके संपादक ने साफ कहा कि आपके बहाने मेरे घर और परिवार पर नजर रखी जा रही है। डीएम की इस वादा खिलाफी पर मैं चकित था। रात में उनके घर पर फोन करके खूब उलाहना दी। कमाल है यार अपनी पूरी जन्मकुण्डली देकर बताकर आया हूं तो मेरे पीछे इंटेलीजेंस लगा दी और बिना बताए कहीं से भी घूम आता तो किसी को पता भी नहीं चलता।  मैने कहा कि आपसे वादा किया है न कि आपके घर पर होकर ही शहर छोडूंगा तो ई एलयूआई वालों को तो हटवाइए। बेचारा जिसके यहां रूका हूं उस पर तो रहम करे। बेशक मेरे को जेल में ठूंस दो पर प्लीज । मेरी शिकायत पर वे लगभग झेंप से गए और एक घंटे में निगरानी हटाने का वादा किया। साथ ही एकदम बेफ्रिक होकर रहने को कहा।
बीकानेर के सबसे मशहूर लेखक यादवेन्द्र शर्मा चंद्र का नंबर मेरे पास था। मैने उनको फोन किया तो जिस प्यार आत्मीयता और स्नेह के साथ रात में किसी भी समय आने को कहा। उनका यह प्यार कि यदि बबल सेठ यहां से मिले बगैर लौट गया तो फिर अगली दफा मेरे धर ठहरना होगा। इतने बड़े लेखक की यह विनम्रता देखकर मेरा मन रात में मिलने को आतुर हो गया। हमलोग बिना फोन किए पास में ही रहने वाले यादवेन्द्र जी के यहां पैदल चल पड़े। अपने घर के बाहर ही वे टहल रहे थे। देखते ही बोले बबल सेठ आ गया और हंसने लगे। जान न पहिचान और बिना मुलाकात के राह चलते नाम लेकर पुकार लेने मैं अचरज में था। रात में करीब दो घंटे तक हजारों बातें हुई और अंत में  उन्होने कहा कि तुम एकदम  मस्त हो बेटा। तब मैने अपनी समस्या बताई कि भारत पाक बोर्डर देखना है पर कोई जुगाड नहीं बैठ रहा है। मेरी बात सुन करवे हंस पड़े और हरेभाई को एक जगह पर जाकर कल सुबह बात करने  की सलाह दी। साथ ही उन्होने मुझे दो तीन दिन तक दाढ़ी नहीं बनाने को कहा। उनसे बिदा लेते समय मैने पूछा कि आप सोते कब हो?तो वे मुस्कुराते हुए बोले कि कभी भी जब जरूरत महसूस हो । नींद को लेकर इनकी विचित्रता पर मैं अवाक सा था। 
अगले दिन सुबह सुबह हरेभाई कहीं गए और दोपहर तक लौटे।आते ही बोले कि बोर्डर पर रोजाना मजदूरो को लेकर एक गाडी जाती है। जिन्हें वहां पर साफ सफाई के साथ साथ सैनिकों के बने टेंटो का भी रख रखाव करनी पड़ती है। सुबह जाने वाले सभी मजदूरों को बीकानेर शहर लौटते लौटते रात हो जाती है।  दो दिन तक तो बोर्डर पर जाने का जुगाड नहीं लग सका, मगर इस बीच बाल दाढी बढाकर ओर बाल के कई जगह से कटवाकर बेढंगा बना डाला।  मैले कुचैले फटे कपडे को ही अपना मुख्य ड्रेश बनाकर इधर उधर घूमता रहा।  और अंत में दो सौ रूपईया की दिहाडी पर मैं मजदूर कमल बनकर भारत पाक सीमा के दर्शन के लिए निकल पडा। शहर के किन रास्तों से होकर हमारी गाडी रेत के सागर में घुस गयी यह तो पता ही नहीं चला मगर  रेतो के बीच भी गाडी 20 किलोमीटर चली होगी। शहर  सीमा क्षेत्र की दूरी लगभग 100 किलोमीटर की है जो दांए से बांए पूरे राजस्थान की सीमा खत्म होते ही पाक सीमा शुरू हो जाती है।
जिस दिन मैं भारत पाक सीमा पर था तो उस दिन मौज मस्ता वाला दिन था। होलिका दहन के काऱण सेना की तैनाती से लेकर इनकी सजगता तथा सावधानी पर भी पर्व का साया दिखता था। रेत के उपर ही होलिका दहन के लिए लकजी से लेकर कुर्सी मेज और पुराने सामानों का जमावड़ा लगा था। मैं गंदे कपड़ो में बेतरतीब ढंग के बाल और गरमी  बेहाल सूखे हुए चेहरे को बारबार पोछता दूसरे मजदूरों के पीछे पीछे घूम रहा था। सीमा पर ही रहने वाल लेबर मैनेजर ने मुझे बुलाया। मैं उसके सामने जाकर खड़ा हो गया। अपना नाम कमल बिहारी बताया तो वह खुश हो गया। बिहार में कहां के हो तो मैने झूठ बोलने की बजाय सच और सही पता बताया सीतालाल गली देव औरंगाबाद बिहार 824202 धाराप्रवाह पता बताने पर उसने कहा कि तुम लेबर तो लग नहीं रहे हो। मैं थोडा नाटक करते हुए कहा कि आपने सही पहचाना मैं तो लेबर हू ही नही। एक आदमी के नाम लेकर पांच छह गंदी -गंदी गालियां निकाली और विलाप किया कि साला नौकरी दिलाने के लिए बुलाया था और खुदे लापता हो गया। अपने दुख को जरा और दयनीय बनाया कि कल बस स्टैणड पर रात में मेरा सामान ही किसी ने चुरा लिया। मेरे पास तो एक पईसा भी नहीं था। वहीं पर किसी ने एक दिन की दिहाडी करने की सलाह दी थी। उसने कहा था कि यहा पर रोजे 200 रूपैया मिलता है। दिल्ली तक तो रेल भाडा जेनरल क्लास में कमे है। मैने फिर उससे पूछा कि क्या आप भी बिहारी है?उसने पूरी सहानुभूति दिखाते हुए पानी पीने को कहा और बताया कि नालंदा का हूं। इस पर मैंने  और खुशी जाहिर की और कुर्सी पर बैठे भोला भाई के लटके पांव पर हाथ लगाते हुए धीरे धीरे दबाना चालू कर दिया। अपनापन दर्शाते हुए कहा कि आप तो एकदमे घर के ही निकले भाई। और खुशामदी स्वर में कहा कि आप चौकी पर तो लेटो भाई मैं मसाज बहुत बढिया करता हूं । पूरे बदन का दर्द देखिएगा पल भर में निकाल देता हूं। चारा डाला मैने कहा कि घर में कोई कभी छठ देव मे करे ना तो केवल हमको बता दीजिएगा। देव में  मेरा बहुत बडा मकान है सारी व्यवस्था हो जाएगी। मैने पूछा कि भईया आपका नाम का है?  करीब 40 साल के इस लेबर मैनेजर ने अपना नाम भोला ( उनकी रक्षा सुरक्षा के लिए यह बदला हुआ नाम है) बताया। मेरे मे रुचि लेते हुए भोला भाई ने कहा कि तुम यहां नौकरी करोगे?रहने खाने पीने के अलावा छह हजार महीना दिलवा देंगे। तुम तो घरे के हो तुम रहोगे तो मैं भी  बेफ्रिक होकर घर जा सकता हूं। मैने और भी रूचि लेते हुए पूछा और  बीबी को कहां रखूंगा। इस पर वह हंसने लगा। बीबी के बारे में तो सोचो भी नहीं।, नहीं तो तेरी बीबी होगी और ये साले सारे हरामखोर सैनिक मौज करेंगे। मैं कुछ ना समझने वाला भाव जताया तो वह खुल गया ।  साल में तीन बार 15-15 दिन के लिए घर जाने की छुट्टी मिलेगी। मैं मायूषी वाला भाव दिखाते हुए अपना चेहरा लटका लिया। तो भोला भाई मेरे पास आकर पूछा कब हुई है तेरी शादी। मैं थोडा शरमाने हुए कहा कि पिछले साल ही भईया पर अभी तक हमदूनो साथे कहां रहे है। ई होली में तो ऊ पहली बार आई है तो मैं साला यहां पर आकर फंसा हूं। भोला भाई ने दो टूक कहा कि बेटा बीबी का मोह तो छोडना होगा उसके लिए तो छुट्टी का ही इंतजार करना पड़ेगा। फिर वो मेरे करीब आकर बोले कि तू चिंता ना कर उसकी भी व्यवस्था करा देंगे। मेरे द्वारा एक टक देखने पर भाई मुझसे और प्यार जताने लगा कि यहां पर सिपाहियों के लिए महीने में लौंडिया लाई जाती है उससे तेरा भी काम चलेगा। बाकी तो जितनी नौकरानियां यहां पर जो काम करती है न किसी को सौ पचास ज्यादा दे देना या भाव मारने वाली के 100 -50 रूपे काट लेना तो सब तेरे को खुश रखेगी। डरते हुए मैने कहा कि कहीं सब मुझको ही न बदनाम कर दे। वे हंसने लगे अरे तेरे को निकाला देगा  तो अपन की भी तो बदनामी होगी, कोई डरने की बात नहीं है। तब मैं भोला भाई के पैर दबाते हुए हंस पडा और कहा ओह भईया मैं सब समझ गया इसीलिए आपको भौजाई की याद नहीं आती है। मेरे यह कहने पर वो खुलकर हंसने लगा। मैं उसके पैरो को एकदम तरीके से मालिश करने और दबाने में लगा रहा। अरे तू यहीं आ जाओ तेरी नौकरी पक्की करा दूंगा। फिर दारू और घर के बहुत सारे सामान की कोई कमी नहीं रहेगी। उसकी बातें सुनकर मैं बहुत खुश होने का अभिनय किया और जल्द ही घर में बीबी को पहुंचाकर आने का पक्का वादा किया। मगर यह चिंता भी जताया कि वो तो भईया अभी अभी आई ही है घर ले जाएंगे तो वहीं ना नुकूर करेगी। भाई ने ज्ञानदान देते हुए कहा कि कह देना कि इसमें पैसा ज्यादा है। पहले जाकर देख तो लूं।  भाई ने कहा कि तेरे को रखने में एक ही फायदा है कि जब तू घर जाएगा तो मैं भी कुछ सामान भेज सकता हूं। इस तरह मेरी मदद ही करोगे और घर से संबंध भी रहेगा। भोला भाई मेरी सेवा और सीधेपन से एकदम खुश हो रहा था। भोला भईया ने मुझे खाना खिलाया और 300 रूपए भी दिए कि इसको रख लो बीकानेर में पैसा देने में ज्यादा देर लगेगी तो तुम फूट लेना ताकि ज्यादा लोगों को तेरा चेहरा याद न रहे। इस पर मैने खुशामद की कि भईया एकाद सौ रूपईया और दे दो न कुछ बीबी के लिए भी सामान खरीद लेंगे। इस पर वो एक बैग दिया। जिसमें कुछ मिठाई एक टॉर्च समेत सैनिको के प्रयोग में आने वाला साबुन तौलिया गंजी अंडरवीयर समेत दाढी बनाने का किट आदि सामान था। जब तू आएगा तो दोनों भाई मिलकर रहेंगे और तुमको पक्का उस्ताद बना देंगे। मैने जोश में आकर कहा कि हां भईया जब हम यहां पर सब संभाल ही लेंगे तो तुम तो भाभी को लाकर बीकानेर में रख भी सकते हो। मेरी बात सुनते ही भोला भाई एकदम उछल पड़ा। मुझे बांहों में भरकर मुझे ही चूमने लगा। अरे वाह आज ही तेरी भौजाई को यह बताता हूं तो वह तो एकदमे पगला जाएगी।  मैं भी जरा जोश और नादानी दिखाते हुए कहा कि तब तो भईया जब कभी भौजाई नालंदा जाएंगी तो मैं भी तो अपनी बीबी को लाकर यहां रख ही सकता हूं ना? इस पर वह खुश होकर बोला कि हां रख तो सकते हो पर बीबियों को शहर में लाकर रखने की खबर को छिपाकर ऱखना होगा। मैं फटाक से भोला भाई के पैर छूते हुए कहा कि आप जो कहोगे वहीं होगा भाई फिर मैं कौन सा बीबी को हमेशा रखूंगा ज्यादा तो आप ही रखेंगे न।मेरी बातो पर एकदम भरोसा करते हुए मुझे एक नंबर देते हुए भोला भाई ने कहा कि जब तू आने लगेगा न तो हमको पहले बताना हम यहां पर सब ठीक करके रखेंगे। और तुम एकाध माह में आ ही जाओ। मैने आशंका जाहिर की कि भईया कोई डर तो नहीं है न यहां पर सैनिकों के साथ रहन होगा। सुने कि ये ससूर साले बडी निर्दयी होते हैं। इस पर हंसते हुए भोला ने कहा कि नहीं रे उनको दारू और मांस समय पर चाहिए । उनसे लगातार मिलते रहो तो ये होते भी दयालू है। इनकी किसी बात को कभी काटना मत। बस यह ध्यान रखना। मैने डरने का अभिनय किया तो भोला भाई हंस पडा।
भोला भाई के साथ गरम रेत में लू के थपोडे खाते हुए मैं बाहर निकला तो बताया कि ई जबसे फेंसिंग (तारबंदी) हुआ है न तब से लाईट जलाने के नाम पर दोनो तरफ के सैनिक साले दारू बदलने और सामान की हेराफेरी भी करते है। बात को न समझते हुए मैंने मूर्खो की तरह बात पर गौर ही नहीं किया। आप यहां कईसे पहुंचे भोला भाई?इस पर भाई ने कहा कि बनारस के एगो बाबू साहब के पास ठेका है मैं तो काम देखने आया था और पांच साल से यहीं पर हूं। मैने मजाकिया लहजे में कहा कि तब तो भईया दो चार दिन तो भौजाई बहुत लड़ती होंगी। इस पर हंसते हुए उन्होने कहा कि पहले नहीं रे जाने के दिन नजदीक आने पर रोज लडाई होती है। यही तो दिक्कत है रे कि नौकरी छोडू कि बीबी को अलग रखना ही ठीक लगता है।  यहां पर कमाई भी ठीक हो जाती है। तू पहले आ तो सही मैं तुमको अपने छोटा भाई की तरह ही रखूंगा। मैने फिर आशंका प्रकट कि भईया सुने हैं कि ये साले होमोसेक्सुअल (समलैंगी) भी होते है। तो इनसे तो बचकर भी रहना होगा। इस पर भोला भाई खिलखिला उठा। अरे ज्यादातोरों का हिसाब फिट रहता है ईलाज के बहाने शहर में ये साले लौंडियाबाजी भी कर आते हैं। ये आपस में ही रगडने वाले एकदम बर्फीले इलाके में होते हैं। मैने कहा कि भईया मैं तो मांस मछली भी न खाता। यह सुनते ही भोला ने कहा कि खाने लगना और जाडा में तो बेटा दारू ही गरम रखेगा ठहाका मारते हुए बोला ने कहा कि साला ई सब नहीं खाएगा और पीएगा तो हंटर गरम नहीं होगा तब साली ये नौकरानियां भी जूते मारेंगी। पाक सैनिको को लालची कहते हुए भोला ने कहा कि उनको भारतीय सैनिकों इतना दारू मिलती नहीं है तो रोजामा भारत से ही दारू की भीख मांगते है। मैं चौंकने का नाटक करते हुए कहा कि साले दारू भी पीते है और हमला भी करते है। इस पर भोला हंसने लगा। सामान्य मौसम और माहौल में तो दोनों तरफ पहले से पता होता है कि आज कुछ करना है। साले पहले से ही मार कर या पकड कर लाते हैं और सीमा के अंदर डालकर मार देते या पकडा हुए को  मीडिया पर दिखा देते है।  मैने कहा कि भाई है वैसे बडी खतरनाक जगह जहां पर जान की कोई कीमत नहीं है। इस पर खुसामदी लहजे में भोला ने कहा कि यहां आकर सेट कर जाओ तो सब ठीक लगेगा। हम कौन से सिपाही है। हम तो इनके लिए सामान मुहैय्या कराने वाले है। वे घिग्घिया कर अपनी पसंद वाली चीज लाने के लिए खुशामद भी तो करते है। अंत में मैं राजी होने का एलान करते हुए कहा कि मेरे रहते तुम भईया एक माह रहोगे तभी काम करूंगा, और सब समझ भी लूंगा। इस पर भोला भाई खुश हो गया और दूसरे कमरे में जाकर फ्रीज से दो तीन मिठाई लाकर दिया। मैंने खाते हुए कहा कि भईया तुम नहीं मिलते और कोई दूसरा पकड़ लेता तो क्या करता? इस पर जोर से हंसते हुए भाई ने कहा कि अगले 15 दिन से पहले जाने ही नहीं देता, और काम करवाने के बाद ही पईसा देता। डरने वाली कोई बात नहीं है। सीमा के नाम पर मजदूर नहीं मिलते हैं। भोला भाई  एकदम  हमेशा मेरे ही साथ रहा और मैं भगवान को बारम्बार धन्यबाद दे रहा था कि हे मालिक यदि भोला भाई की जगह कोई और होता तो मेरा तो आज बैंड ही बज जाता। लौटते समय बस में मेरे सहित 26 मजदूर थे। बस खुलने से पहले भोला भाई मेरे पास आया और खाने के लिए कुछ नमकीन देते हुए सौ रूपए को एक नोट भी पाकेट मे डाल दिया। इस पर मैं गदगद होते हुए उसके पैर छू लिए और वह भी भावुक होकर होली की मुबारकबाद दी। रास्ते भर मैं भोला भाई की मासूमियत और आत्मीय स्वभाव को याद करता रहा। बीकानेर बस अड्डे के पास  मेरे पहुंचने से पहले ही हरे भाई खडे दिख गए. बेताबी के साथ मुझसे मेरा हाल चाल पूछा।  मैने भोला भाई नालंदा वाले की पूरी खबर के साथ ही खाने पीने और 400 रुपए देने की बात कही, तो हरे भाई मुझे बस अड्डे के एक शौचालय में ले जाकर कपड़े बदलवाए। बाहर आकर हम दोने ने चाय पी और वे दिल्ली पहुंचने पर फोन करने को कहा। मैं भी एक ऑटो करके फौरन डीएम कोठी पहुंचने के लिए आतुर हो उठा।  करीब 15 मिनट के बाद ऑटो डीएम दिलबाग सिंह की कोठी के बाहर खडी थी। होलिका दहन भले नहीं हुए थे मगर शहर के चारो तरफ बम धमाको का शोर था।  गेट पर दरबान को राष्ट्रीय सहारा वाला अपना कार्ड दे दिया। कार्ड लेकर भी वो ना नुकूर करने लगा। तब मैने जोर देकर कहा कि तुम जाकर तो दो मेरा टिकट भी यहीं पर हैं और दिलबाग सिंह को यह पता है।  डीएम के नाम को मैं जरा रूखे सूखे अंदाज मे कहा तो इसका गेटकीपर पर अच्छा असर पडा और बिना कुछ कहे वह अंदर चला गया। मै अपना सामान नीचे रखकर उसके आने का इंतजार करने लगा। वह एक मिनट के अंदर आया और मेरे सामान को उठाकर साथ आने को कहा। उधर डीएम भी कमरे से बाहर निकल कर बाहर ही मेरा इंतजार कर रहे थे। खुशी का इजहार करते हुए मैने कहा कि आपको मैने कहा था न कि शहर छोडन से पहले आपसे  मिलकर और आपकी कोठी से ही दिल्ली जाउंगा। मेरी बात सुनकर वे भावुक हो उठे और कहा कि आप यहां से होकर जाओगे इसका मुझे यकीन नहीं था। यह सुनते ही मैं घबराते हुए कहा कि यह क्या कर दिया महाराज । मेरे टिकट को रिजर्व कराने का भरोसा आपने दिया था। इस पर वे खिलखिला पडे अरे अनामी जी आपको भेजने की जिम्मेदारी मेरी रही। वे तीन चार जगह फोन करने लगे और अपने सहायक को चाय पानी लाने का आदेश देते हुए बताया कि आपका टिकट आ रहा है। हंसते हुए बताया कि नाम तो पहले ही भेजा हुआ था पर मैने ही कह रखा था कि जब तक मेरा फोन न आए टिकट बुक नहीं करना है। और इस पर हम दोनों ही एकसाथ मुस्कुरा पडे।  
रात के खाने पर डीएम ने पूछा कि क्या कोई बात बनी। मैं इस पर हंस पडा। वे चौंके कि क्या हुआ।  खाना रोककर मैने कहा कि मैं भारत पाक बोर्डर पर हो आया। वे एकदम असहज हो उठे। मैने कहा कि आपको मैने पहले ही दिन कहा था न कि शहर छोडूंगा तो आपके सामने ताकि आपको लगे कि मैं सही हूं। नहीं तो पता नहीं आप या आपकी पुलिस मेरे उपर क्या केस डाल दे। उन्होने उत्कंठा प्रकट की तो मैने हाथ जोड दी कि सर यह सब मेरा काम नहीं पर सीमा और वहां पर माहौल ठीक है। खाने के बाद मैं एक हजार रूपया निकाल कर ऱखने लगा तो उन्होने मना कर दिया। डीएम दिलबाग सिंह ने कहा कि मिठाई और टिकट मेरी तरफ से है।  उन्होने भी मुझे गले लगाकर कहा कि मैं अनामी आपको कभी भूल नहीं पाउंगा। मेरे निवेदन पर वे मुझे बीकानेर रेलवे स्टेशन के बाहर तक आए और अपने सहायको से कहकर मुझे एसी थ्री में जाकर बैठा दिया। और रास्ते भर डीएम मेरे दिमाग मे छाए रहे। और ठीक होली के दिन मैं अपनी शादी की पहली होली पर अपने घऱ पर अपनी पत्नी के साथ रहा। बाद में संपादर श्री राजीव सक्सेना जी को मैने  वहां की पूरी जानकारी दी तो एक दो लाईट न्यूज बनाने के लिए कहकर उन्होने मेरी हिम्मत और साहस की दाद दी। उधर मैंने भोला भाई को दो बार फोन करके थोडी देर में आने की जानकारी दी तो वब बहुत निराश हुआ। उसने मुझे बार बार अपनी पत्नी की दुहाई दी कि तुप बस  जल्दी से आ जाओ यार मैं तेरे लिए कुछ और उपाय करता हूं। मगर बीबी को छोड़ने या नौकरी को छोडने के सवाल पर मैने अपने संपादक श्री सक्सेना जी को बताया कि एक नौकरी हाथ में लेकर आया हूं।   बीबी के नाम पर बीबी को रखते हुए मैने नौकरी दारू मांस और छोकरी के मनभावन भोलाभाई वाले ऑफर को ही छोड़ना ठीक लगा। जिसस् भोला भाई अपनी बीबी सहित बहुत निराश हुआ होगा।  
 अलबत्ता करीब 10 साल के बाद तब सहारा में ही काम कर रहे इंद्रजीत तंवर राजस्थानव में एकाएक दिलबाग सिंह से कहीं किसी खास मौके पर टकरा गए। सहारा सुनते ही उन्होने मेरा हाल कुशल पूछा और बहुत सारी बाते की। जब तंवर दिल्ली लौटे तो सबके सामने कहा कि बबल भाई  दिलबाग सिंह तो आपका एकदम मुरीद हैं यार । इस पर मेरे मन में दिलबाग सिंह के प्रति सम्मान बढ गया कि सचमुच वे अभी तक मुझे भूल नहीं पाए है । हालांकि इस घटना के हुए 22 साल हो गए फिर भी मेरा मन कभी कभी करता है कि मैं राजस्थान सरकार के सीनियर पीआरओ और अपना लंगोटी यार सीताराम मीणा या भरत लाल मीणा को फोन करके दिलबाग सिंह का नंबर लेकर बात करूं या एक चक्कर लगाकर उनसे मिल ही आउं। पर यह अभी तक नहीं हो सका।

Raghu Rai vs रघु रॉय

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Raghu Rai pix by Vikramjit Kakati.jpg
Raghu Rai ( 2015 )
Born1942 (age 73–74)
Jhang, British India
NationalityIndian
Occupationphotographer, photojournalist
Years active1965 – present
Raghu Rai (born 1942) is an Indian photographer and photojournalist.[1][2] He was a protégé of Henri Cartier-Bresson, who appointed Rai, then a young photojournalist, to Magnum Photos in 1977. Cartier-Bresson co-founded Magnum Photos.[3]
Rai became a photographer in 1965, and a year later joined the staff of The Statesman, a New Delhi publication. In 1976, he left the paper and became a freelance photographer.[citation needed] From 1982 until 1992, Rai was the director of photography for India Today.[4] He has served on the jury for World Press Photo from 1990 to 1997.[5] He is known for his books, Raghu Rai's India: Reflections in Colour and Reflections in Black and White.[3]

Contents

Early life

Raghu Rai was born in the village of Jhang, Punjab, British India (now in Pakistan).[5][6] He was one of four children.[7]

Career

Rai began photography in 1965, and the following year joined "The Statesman" newspaper as its chief photographer.[citation needed] Rai left "The Statesman" in 1976 to work as picture editor for "Sunday," a weekly news magazine published in Calcutta. Impressed by an exhibit of his work in Paris in 1971, Henri Cartier-Bresson nominated Rai to join Magnum Photos in 1977.[3]
Rai left "Sunday" in 1980 and worked as Picture Editor/Visualizer/Photographer of "India Today" during its formative years. From 1982 to 1991, he worked on special issues and designs, contributing picture essays on social, political and cultural themes.[citation needed]
Rai has specialised in extensive coverage of India. He has produced more than 18 books, including Raghu Rai's Delhi, The Sikhs, Calcutta, Khajuraho, Taj Mahal, Tibet in Exile, India, and Mother Teresa. His photo essays have appeared in many magazines and newspapers including Time, Life, GEO, The New York Times, Sunday Times, Newsweek, The Independent, and the New Yorker.[citation needed]
For Greenpeace, he has completed an in-depth documentary project on the chemical disaster at Bhopal in 1984, which he covered as a journalist with India Today in 1984, and on its ongoing effects on the lives of gas victims.[citation needed] This work resulted in a book, Exposure: A Corporate Crime and three exhibitions that toured Europe, America, India and southeast Asia after 2004, the 20th anniversary of the disaster. Rai wanted the exhibition to support the many survivors through creating greater awareness, both about the tragedy, and about the victims – many who are still uncompensated – who continue to live in the contaminated environment around Bhopal.[8]
In 2003, while on an assignment for Geo Magazine in Bombay City, he switched to using a digital Nikon D100 camera "and from that moment to today, I haven't been able to go back to using film."[9]
He has served three times on the jury of the World Press Photo and twice on the jury of UNESCO's International Photo Contest.[citation needed]

Awards

  • Padmashree in 1972
  • Photographer of the Year from USA (1992)

Exhibitions

  • 2014 In Light of India: Photography by Raghu Rai, Hong Kong International Photo Festival, Hong Kong
  • 2013 Trees (Black and white), New Delhi
  • 2012 My India – FotoFreo, Australia
  • 2007 Les Rencontres d'Arles festival, France
  • 2005 India – Musei Capitolini Centrale Montemartini, Rome, Italy
  • 2005 Bhopal 1984–2004 – Melkweg Gallery, Amsterdam, Netherlands
  • 2004 Exposure – Drik Gallery, Dhaka, Bangladesh; Leica Gallery,Prague, Czech Republic
  • 2003 Exposure: Portrait of a Corporate Crime – University of Michigan, Ann Arbor, USA
  • 2003 Bhopal – Sala Consiliare, Venice, Italy; Photographic Gallery, Helsinki, Finland
  • 2002 Volkart Foundation, Winterthur, Switzerland
  • 2002 Raghu Rai’s India – A Retrospective – Photofusion, London, UK
  • 1997 Retrospective – National Gallery of Modern Art, New Delhi, India.

Collection

  • Bibliothèque Nationale, Paris, France

Books

  • 2014 Vijayanagara Empire: Ruins to Resurrection, Niyogi Books. ISBN 978-93-83098-24-8
  • 2014 The Tale of Two: An Outgoing and an Incoming Prime Minister
  • 2013 Trees, PHOTOINK, India http://www.photoink.net/artist/artistdetail/98/133
  • 2013 Bangladesh: The Price of Freedom, Niyogi Books. ISBN 978-93-81523-69-8
  • 2011 The Indians: Portraits From My Album, Penguin Books. ISBN 978-0-670-08469-2.[10]
  • 2010 India's Great Masters: A Photographic Journey into the Heart of Classical Music[11]
  • 2005 Mother Teresa: A Life of Dedication, Harry N. Abrams, USA
  • 2005 Romance of India, Timeless Books, India
  • 2004 Indira Gandhi: A Living Legacy, Timeless Books, India
  • 2004 Exposure: Portrait Of A Corporate Crime, Greenpeace, Netherlands
  • 2003/04 Saint Mother: A Life Dedicated, Timeless Books, India;Mère Teresa), La Martinière, France
  • 2002 Bhopal Gas Tragedy (with Suroopa Mukherjee), Tulika Publishers, India
  • 2001 Raghu Rai's India – A Retrospective, Asahi Shimbun, Japan
  • 2000 Lakshadweep, UT of Lakshadweep, India
  • 2000 Raghu Rai... in his Own Words, Roli Books, India
  • 1998 Man, Metal and Steel, Steel Authority of India, Ltd., India
  • 1997 My Land and Its People, Vadehra Gallery, India
  • 1996 Faith and Compassion: The Life and Work or Mother Teresa, Element Books, USA
  • 1996/01 Dreams of India, Times Editions, Singapore/Greenwich, UK
  • 1994 Raghu Rai's Delhi, Indus/Harper Collins, India
  • 1991 Khajuraho, Time Books International, India
  • 1990/91 Tibet in Esilio, Mondadori, Italy; (Tibet in Exile), Chronicle Books, USA
  • 1990 Delhi and Agra (with Lai Kwok Kin and Nitin Rai), Hunter Publications, Inc., USA
  • 1989 Calcutta, Time Books International, India
  • 1988 Dreams of India, Time Books International, Singapore; (L'Inde), Arthaud, France
  • 1986/87 Taj Mahal, Times Editions, Singapore; Robert Laffont, France; Rizzoli Publications, USA
  • 1985 Indira Gandhi (with Pupul Jayakar), Lustre Press, India
  • 1984 The Sikhs, Lustre Press, India
  • 1983 Delhi: A Portrait, Delhi Tourist Development Corporation/Oxford University Press, India/UK
  • 1974 A Day in the life of Indira Gandhi, Nachiketa Publications, India

Quotes

"I feel that to be successful in any profession, you need to be passionate and eager to experiment. If photography is your interest, traveling will help you a great deal, as you would get to experiment and learn."[12]
"When I go to a situation, I see something interesting, and I see the enormity and the size of it, and the complexity of it, and I say “Yes God, you’ve shown me this but it’s not enough for me.” So he says “Alright.” Then I keep walking, then he shows me something more complex and bigger. I say “Yes God, It’s nice. But it’s still not enough for me.” So I go on and on and I don’t accept it, and then he knows this child of his is very demanding and restless. And then he opens up and shows me something I have never experienced before. Then I take a picture and say “Thank you God.”[13]

References



  • Raghu Rai: The Man Who Redefined Photojournalism in India
    1. Lee, Kevin (2012-11-16). "Photo Essay: The Magical Streets Of Raghu Rai’s India". Invisible Photographer Asia. Retrieved 2014-09-18.

    External links




  • Imaging India

  • "Pocketful of Rai". TIME. Mar 14, 2011.

  • Lee, Kevin (2012-11-14). "Invisible Interview: Raghu Rai, India – Part 1". Invisible Photographer Asia. Retrieved 2014-09-18.

  • "Raghu Rai". The Guardian. 17 January 2010.

  • "Oh my god! This was what it used to be". MiD DAY. 11 December 2010.

  • Day, Elizabeth (2010-01-17). "Raghu Rai | Interview". The Guardian. Retrieved 2014-09-18.

  • "Picturing disaster". The Hindu. 15 September 2002.

  • Lee, Kevin (2012-11-14). "Invisible Interview: Raghu Rai, India – Part 3". Invisible Photography Asia. Retrieved 2014-09-18.

  • "Sees, Shoots And Leaves". Tehelka Magazine, Vol 8, Issue 9. 5 March 2011.

  • "Ragas in frames". The Hindu. 20 August 2010.

  • "Raghu reigns". The Hindu. 25 July 2009. Retrieved 21 July 2014.

  • नगर सुदंरियों से अपनी प्रेमकहानी- 1

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    नगर सुदंरियों से अपनी प्रेमकहानी- 1
    कोठेवाली मौसियों के बीच मैं बेटा
    अनामी शरण बबल
    एक पत्रकर के जीवन की भी अजीब नियति होती है। जिससे मिलने के लिए लोग आतुर होते हैं तो वह पत्रकारों से मिलने को बेताब होता है। और जिससे मिलने के लिए लोग दिन में भागते है तो उससे मिलने मिलकर हाल व्यथा जानने के लिए एक पत्रकार बेताब सा होता है। अपन भी इतने लंबे पत्रकारीय जीवन में मुझे भी चोर लुटेरो माफिय़ाओं इलाके के गुंड़ो पॉकेटमारो, दलालों रंडियों कॉलगर्लों तक से टकराने का मौका मिल। इनसे हुए साबका के कुछ संयोग रहे कि वेश्याओं या कॉलगर्लों को छोड़ भी दे तो बाकी धंधे के दलालों समेत कई चोर पॉकेटमार आज भी मेरे मूक मित्र समान ही है। बेशक मैं खुद नहीं चाहता कि इनसे मुलाकात हो मगर यदा कदा जब कभी भी राह में ये लोग टकराए तो कईयों की हालत में चमत्कारी परिवर्तन हुआ और जो कभी सैकड़ों के लिए उठा पटक करते थे वही लोग आज लाखों करोड़ों के वारे न्यारे कर रहे हैं। कई बार तो इन दोस्तों ने मदद करने या कोई धंधा चालू करने के लिए ब्याज रहित पैसा भी देने का भरोसा दिय। मगर मैं अपने इन मित्रों के इसी स्नेह पर वारे न्यारे सा हो जाता हूं।
    मगर यह संस्मरण देहव्यापार में लगी या जुड़ी सुंदरियों पर केंद्रित हैं, जिनसे मैं टकराया और वो आज भी मेरी यादों में है। कहनियं कई हैं लिहजा मैं इसकी एक सीरिज ही लिखने वाला हूं। मगर मैं यह संस्मरण 1989 सितम्बर की सुना रहा हूं । मेरी कोठेवाली मौसियां अब कैसी और कहां है यह भी नहीं जानता और इनके सूत्रधार मामाश्री प्रदीप कुमार रौशन के देहांत के भी चार साल हो गए है। तभी एकाएक मेरे मन में यह सवाल जागा कि इस संस्मरण को क्यों न लिखू ? मैं औरंगाबाद बिहार के क्लब रोड से कथा आरंभ कर रहा हूं ,जहां पर इनके कोठे पर या घर पर जाने का एक मौका मुझे अपने शायर मामा प्रदीप कुमार रौशन के साथ मिला था। मुझे एक छोटा सा ऑपरेशन कराना था और एकाएक डॉक्टर सुबह की शिफ्ट में नहीं आए तो उनके सहायक ने कहा कि शाम को आइए न तब ऑपरेशन भी हो जाएगा। मैं अपने बराटपुर वाले ननिहाल लौटना चाह रहा था कि एकएक मेरे मामा ने कहा कि यदि तुम वास्तव में पत्रकार हो और किसी से नहीं कहोगे तो चल आज मैं कुछ उन लोगों से मुलकात कराता हूं जिनसे लोग भागते है। मैं कुछ समझा नहीं पर मैने वादा किया चलो मामा जब आप मेरे साथ हो तो फिर डरना क्या। पतली दुबली गलियों से निकालते हुए मेरे मामा जी एक दो मंजिल मकान के सामने खड़े थे। दरवाजा खटखटाने से पहले ही दो तीन महिलाएं बाहर निकल आयी और कैसे हो रौशन भईया बड़े दिनों के बाद चांद इधर निकला है। क्या बात है सब खैरियत तो है न ? मेरे उपर सरसरी नजर डालते हुए दो एक ने कह किस मेमने को साथ लेकर घूम रहे हो रौशन भाई। अपने आप को मेमना कहे जाने पर मेरे दिल को बड़ा ठेस सा लगा और मैने रौशन जी को कहा चलो मामा कहां आ गए चिडियाघर में। जहां पर इनकी बोलचाल में केवल पशु पक्षियों के ही नाम है। यह सुनते ही सबसे उम्रदराज महिला ने मेरा हाथ को पकड़ ली हाय रे मेरे शेर नाराज हो रहे हो क्या। अरे रौशन भाई किस पिंजड़े से बाहर निकाल कर ला रहे हो बेचारे को। मान मनुहार और तुनक मिजाजी के बीच मैं अंदर एक हॉल में आ गया। जहां पर सोफा और बैठने के लिए बहुत सारे मसनद रखे हुए थे। मैं यहां पर आ तो गया था पर मन में यह भान भी नहीं था कि इन गाने बजाने वालियों के घर का मैं अतिथि बना हुआ हूं। जहां पर हमारे मामा जी के पास आकर करीब एक दर्जन लड़कियों ने बहुत दिनों के बाद आने का उलाहना भी दे रही थी। इससे लग तो यही रहा था कि यहां के लिए वे घरेलू सदस्य से थे। सब आकर इनसे घुल मिल भी रही थी और सलाम भी कह रही थी। । और मैं अवाक सा इन नगर सुदंरियों के पास में ही खड़ा इनकी मीठी मीठी बाते सुन रहा था। दस पांच मिनट में रौशन जी को लेकर उनकी उत्कंठा और मेल जोल का याराना कम हुआ तो निशाने पर मैं था। लगभग सबो का यही कहना था कि रौशन भाई किस बच्चे को लेकर घूम रहे हो। यह संबोधन मेरे लिए बेमौत सा था। पूरे 24 साल का नौजवान होने के बाद भी अपने लिए बच्चा सुनना लज्जाजनक लग रहा था। मैने तुरंत प्रतिवाद किया कि मैं बच्चा या मेमना नहीं पूरे 24 साल का हूं जी। मेरी बात सुनते ही पूरे घर में ठहाकों की गूंज फैल गयी। मैने फिर कहा कि अभी मैं जरा अपने मामा के साथ हूं इसलिए जरा हिचक रहा हूं .....। जब तक मैं आगे कुछ बोलता इससे पहले ही एक 25-26 साल की सुदंर सी लडकी मेर नकल करने लगी नहीं तो मैं सबको बताता कि जवानी दीवानी क्या चीज होती है। लड़की के नकल पर मैं भी जरा शरमा सा गया और घर में एकबार फिर हंसी के ठहाके गूंजने लगी। हंसी ठहाको से भरे इस मीठे माहौल में मामा ने सबको बताया कि यह मेरा भांजा है। इसके बाद तो मानो मेरी शामत ही आ गयी या उनकी खुशियों का कोई ठिकाना नहीं रहा। अब तक मेरे से हंसी मजाक चुहल सी कर रही तमाम देवियां मेरे उपर प्यार जताने दिखाने लगी। कोई अपनी ओढनी से तो कोई अपने पल्लू से मेरे को पोछनें में लग गयी । भांजा सुनते ही मानो वे अपने आपको मेरी मौसी सी समझने लगी। अरे बेटा आया है रे बेटा। मैं पूरे माहौल से अचंभित उनकी खुशियों को देखकर भी अपन दुर्गति पर अधिक उबल नहीं पा रहा था। सयानी से लेकर कम उम्र वाली लड़कियां भी एकएक मेरी मौसी बनकर मेरे को बालक समान समझने लगी, और करीब एक दर्जन इन मौसियों के बीच में लाचार सा घिरा रहा। इस कोठे पर बेटा आया है यह खबर शायद आस पास के कोठे में भी फैला दी गयी हो । फिर क्या था मै मानो चिडियाघर का एक दर्शनीय पशु समान सा हो गया था और हर उम्र की करीब 30-32 महिलाएं मेरा दर्शन करके निहाल सी हो रही थी। सबों का एक ही कहना था रौशन भाई हम कोठेवालियं बड़भागन मानी जाती है यदि कभी कोठे पर रिश्ते में कोई बेटा आ जाए। आपने तो हमलोगों के जन्म जन्म के पाप काट दिए। अपनी आंखों से आरती उतार उतार कर मेरे पर न्यौछावर करती तमाम औरतों के बीच मैं मानो एक खिलौना सा बन गया था। कहीं से लड्डु की एक थाली आ गयी और तब तो मेरा तमाशा ही बन गया। सबों ने मुझे एक एक लड्डु चखने को कहा और मेरे चखे लड्डु को वे लोग पूरे मनोयोग से प्रसाद की तरह खाने लगी। लड्डु खाकर निहाल सी हो रही ये कोठेवालियों ने फिर मुझे नजराना देना भी शुरू कर दिया। मैं एकदम अवाक सा क्या करूं कुछ समझ और कर भी नहीं पा रहा था। और देखते देखते मेरे हाथ में कई सौ रूपये आ गए। मेरी दुविधा को देखते हुए एक उम्रदराज महिला ने कहा कि बेटा सब रख लो,यह नेग है और कोई एक पैसा भी वापस नहीं लेगी। उसी महिला ने फिर कहा कि बताया जाता हैं कि किसी कोठेवाली के कोठे पर यदि रिश्ते में कोई बेटा बिना ग्राहक बने आता है तो वेश्याओं को इस योनि से मुक्ति मिल जाती है। रौशन भाई हमलोगों के भाई हैं और तुम इनके भांजा हो इस तरह तो हम सब के भी तुम बहिन बेटा हुए। तो हम मौसियों के उद्धार के लिए ही मानो तुम आए हो। हम इससे कैसे चूक सकते हैं भला। एकाएक मौसी बन गयी इन कोठेवालियों के स्नेह और दंतकथाओं को सुनकर मैं क्या करू यह तय नही कर पा रहा था। करीब दो घंटे तक चले इस नाटक का मैं हीरो बना अपनी दुर्गति पर शर्मसार सा था। मैने महसूस किया कि न केवल मेरे गालों पर बल्कि हाथ पांव छाती से लेकर बांहों पर भी सैकड़ों पप्पियों के निशान मुझे लज्जित के साथ साथ रोमंचित भी कर रहे थे। बालकांड खत्म होने के बाद पिर पाककला की बेला आ गयी। मेरे पसंद पर बार बार जोर दिया जाने लगा। मैने हथियार डालते हुए कहा कि क्या खाओगे ? यह दुनिया का सबसे कठिन सवाल होता है आप जो बना दोगी सारा और सब खा जाउंगा मेरी मौसियों। पूरे उत्साह और उमंग के साथ इतराती इठलाती कुछ गाती चेहरे पर मुस्कान बिखेरे ये एकाध दर्जन बालाओं को लग रहा था कि मैं कोई देवदूत सा हूं। चहकती महकती इन्हें देखकर मैंने कहा कि अब बस भी करो मेरी मौसियों इतनी तैयारी क्यों भाई । एक जगह तुमलोग बैठो तो सही ताकि सबकी सूरत मैं अपनी आंखों में उतार सकूं ताकि कहीं कभी धोखा न हो जाए। मेरी बात पर सब हंसने लगी और मेरी नकल उतारने वाली मौसी पूरे अदांज में बोली हाय रे हाय। बच्चा मेमना नहीं है बेटा पूरा जवान लौंडा है। देख रही हो न हम मौसियों पर ही लाईन देने लगा। मैने तुरंत जोडा ये लाईन देना क्या होता है मौसी। इस पर एक साथ हंसती हुई मेरी कई कोठेवाली मौसियां मुझ पर ही झपटी साले यह भी हमें ही बताना होगा क्या। फिर मेरे मामा की तरफ मुड़ते हुए कई मौसियों ने कहा कि रौशन भाई इसकी शादी करा दो। नहीं तो यह लाईन देता ही फिरेगा। हंसी मजाक प्यार स्नेह और ठिटोली के बीच मैने कोठेवाली मौसियों से कहा कि आपलोग का सारा प्यार और सामान तो ले ही रहा हूं पर यह पैसे रख लीजिए। इस पर बमकती हुई कईयों ने कहा कि बेटा फिर न कहना। जीवन भर के पुण्य का प्रताप है कि आज यहां पर तुम हो। हम सब धन्य हो गए तुम्हें देखकर अपने बीच बैठाकर पाकर बेटा। इनके वात्सल्य को देखकर मेरा मन भी पुलकित सा हो उठा। 24 साल के होने के बाद भी इन लोगों के बीच मैं एकदम बालक सा ही हो गया था, तभी तो मेरी कोठेवाली मौसियों ने मुझसे जिस तरह चाहा प्रेम किया। और स्नेह की बारिश की।
    खाने पीने की बेला एक बार फिर मेरे लिए जी का जंजाल सा हो गया। मेरी तमाम मौसियों की इच्छा थी कि आधी कचौड़ी खाकर मैं लौटा दूं। आधी कचौड़ी को वे इस तरह ले रही थी मानो कहीं का प्रसाद हो। आधी कचौड़ी खाते खाते मैं पूरी तरह बेहाल हो उठा। मुझसे खाया न जाए फिर भी जबरन मेरे मुंह में कचौड़ी ठूंसने और आधा कौर वापस लेने का यह सिलसिला भी काफी लंबे समय तक चला। तब कहीं जाकर खाने से मुक्ति मिली।
    इसके बाद आरंभ हुआ मेरे जाने का विदाई का समय । तमाम मेरी कोठेवाली मौसियों के रोने का रुदन राग शुरू हो गया। चारो तरफ लग रहा था मानो कोई मातम सा हो। कोई मुझे पकड़े हैं तो कोई अपने से लिपटाएं रो रही है। एक साथ कई कई मौसियां मेरे को पकड़े रो रही है नहीं जाओ बेटा अभी और रूक कर जाना। लग रहा था मानो शादी के बाद लड़की ससुराल जाने से पहले अपने घर वालों के साथ विलाप कर रही हो । बस अंतर इतना था कि मैं रो नहीं रहा था। तभी मेरी नजर नकल करने वाली मौसी पर पड़ी। मैं उसकी तरफ ही गया और हाथ पकड़कर बोला तुम तो न मेरे से लिपट रही हो न रो ही रही हो. क्या बात है मौसी।. इस पर वह एकाएक फूट सी पडी और मेरा हाथ पकड़कर वह जोर जोर से रोने लगी। इतना प्यार और इतना स्नेह को देखकर मैं भी रूआंसा सा हो गया और इनको प्रणाम करने से खुद को रोक नहीं सका। सभी मौसियों के पांव छूने लगा। मेरे द्वारा पैर छूने पर वे सब निहाल सी हो गयी। कुछ उम्र दराज मौसियों ने कहा बेटा फिर कभी आना। एक बार ही तुम आए मगर हम सबों का दिल चुराकर ले जा रहे हो। इस पर मैं भी चुहल करने से बाज नहीं आया। नहीं मौसी दिल को तो अपने ही पास ही रखो चुराना ही पड़ेगा तो एक साथ तुम सबों को चुरा कर अपने पास रख लूंगा। मैंने तो यह मजाक में यह कहा था मगर मेरी बात सुनकर मेरी सारी कोठेवाली मौसियां फफक पड़ी। और मैं एक बार फिर नजराने और प्यार के पप्पियों के चक्रव्यूह में घिर गया। मेरे द्वारा उन तमम मौसियों के पैर छूना इतना रास आया कि मैं उनका हुआ या नहीं यह मैं नहीं कह सकता, पर वे तमाम कोठेवाली मौसियां मेरी होकर मेरे दिल में ही बस गयी।
    Shailendra Kishore Jaruharसंस्मरण की श्रृखला सुन्दर बनेगी
    Sanjay Sinha
    Sanjay Sinhawah bhaiyaa wah likhne ki shaili aisi ki sab kuchh chitrit pratit ho rha tha....agli kadhi ka intezaar hai
    Mohd Rafiq
    Sangeeta Sinha
    Sangeeta Sinhaवाह! अविस्मरणीय संस्मरण भैया 😊
    Sidheshwar Vidyarthi
    Sidheshwar VidyarthiBidaj me mila abhi kuch bach raha hai
    Sant Sinha
    Sant SinhaThey are also human being . Great brother 🙏
    Sant Sinha
    Sant SinhaWaiting your series
    Reena Saran
    Reena SaranHeart touching story 👌🏻👌🏻
    Suresh Sapan
    Suresh Sapanलिखते रहो
    अनामी
    भाई।
    Yogesh Bhatt
    Yogesh Bhattकुछ अलग हटकर-----सीरिज न*1शूरू ।
    कुछ तो बात है-------अलग ।
    Dreem Thakur
    Dreem Thakurबहुत सुन्दर सर।

    नगर सुदंरियों से अपनी प्रेमकहनी -2

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    प्रेमनगर में प्रेम की तलाश 
    (संशोधित)

    अनामी शरण बबल

    दिल्ली में गिर्यसन बॉब रोड कहां पर है? इसका जवाब शायद ही कोई दिल्लीवासी दे पाए, मगर जीबीरोड कहां पर है? इसका जबाव एक बच्चे से लेकर लगभग हर दिल्लीवासी के पास है। नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास में ही है जीबीरोड। यह एक जिस्म की मंडी है। जहां पर सरकार और पुलिस के तमाम दावों के बावजूद पिछले कई सदियों से जिस्म का बाजार गरम होकर मजे से फल फूल रहा है। मगर क्या आपको पता है कि दिल्ली के एक गांव में भी जिस्म का धंधा होता है। वेश्याओं के इस गांव या बस्ती के बारे में क्या आपको कोई जानकरी है?बाहरी दिल्ली के गांव रेवला खानपुर के पास प्रेमनगर एक ऐसा ही गांव या कस्बा है,जहां पर रोजाना शाम( वैसे यह मेला हर समय गुलजार रहता है) ढलते ही यह बस्ती रंगीन हो जाती है। हालांकि पुलिस प्रशासन और कथित नेताओं द्वारा इसे उजाड़ने की यदा-कदा कोशिश भी होती रहती है,  इसके बावजूद बदनाम प्रेमनगर की रंगीनी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। अलबत्ता, महंगाई और आधुनिकता की मार से प्रेमनगर में क्षणिक प्यार का धंधा उदास जरूर होता जा रहा है।
    आज से करीब 20 साल पहले 1996 में अपने दोस्त और बाहरी दिल्ली के सबसे मजबूत संपर्क सूत्रों में एक थान सिंह यादव के साथ इस प्रेमगनर बस्ती के भीतर जाने का मौका मिला। ढांसा रोड की तरफ से एक चाय की दुकान के बगल से होकर हमलोग बस्ती के भीतर दाखिल हुए। चाय की दुकान से ही एक बंदा हमारे साथ हो लिया। कुछ ही देर में हम उसके घर पर थे। उसने स्वीकार किया कि धंधा के नाम पर बस्ती में दो फाड़ हो चुका है। एक वर्ग इस पुश्तैनी धंधे को बरकरार रखना चाहता है, तो दूसरा वर्ग अब इस धंधे से बाहर निकलना चाहता है। हमलोग किसके घर में बैठे थे, इसका नाम तो अब मुझे याद नहीं है, मगर (कहने और समझने के लिए उसका नाम राजू रख लेते हैं) राजू ने  बताया प्रेमनगर में पिछले 300 साल से भी ज्यादा समय से हमारे पूर्वज रह रहे है। अपनी बहूओं से धंधा कराने के साथ ही कुंवारी बेटियों से भी धंधा कराने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता। आमतौर पर दिन में ज्यादातर मर्द खेती, मजदूरी या कोई भी काम से घर से बाहर निकल जाते है।, तब यहां की औरते( लड़कियां भी) ग्राहक के आने पर निपट लेती है। इस मामले में पूरा लोकतंत्र है, कि एक मर्द(ग्राहक) द्वारा पसंद की गई वेश्या के अलावा और सारी धंधेवाली वहां से बिना कोई चूं-चपड़ किए फौरन चली जाती है। ग्राहक को लेकर घर में घुसते ही घर के और लोग दूसरे कमरे में या बाहर निकल जाते है। यानी घर में उसके परिजनों की मौजूदगी में ही धंधा होने के बावजूद ग्राहक को किसी प्रकार का कोई भय नहीं रहता है।
    देखने में बेहद खूबसूरत करीब 30 साल की ( तीन बच्चों की मां) पानी लेकर आती है। एकदम सामान्य शिष्टाचार और एक अतिथि की तरह सत्कार कर रही धन्नो( नाम तो याद नहीं,मगर अपनी आसानी के लिए उसे धन्नो नाम मान लेते है) और उसके पति के अनुरोध पर हमलोग करीब एक घंटे तक वहां रहकर जानकारी लेते रहे। इस दौरान हमें विवश होकर राजू और धन्नों के यहां चाय भी पीनी पड़ी। राजू ने बताया कि रेवला खानपुर में कभी प्रेमबाबू नामक कोई ग्राम प्रधान हुआ करते थे,जिन्होंने इन कंजरों पर दया करके रेवला खानपुर ग्रामसभा की जमीन पर इन्हें आबाद करा दिया। ग्रामसभा की तरफ से पट्टा दिए जाने की वजह से यह बस्ती पुरी तरह वैधानिक और मान्य है। अपना पक्का मकान बना लेने वाले राजू से इस धंधे के विरोध के बाबत पूछे जाने पर वह कोई जवाब नहीं दे पाया। हालांकि उसने माना कि घर का खर्च चलाने में धन्नों की आय का भी एक बड़ा हिस्सा होता है। घर से बाहर निकलते समय थान सिंह ने धन्नों के छोटे बच्चे को एक सौ रूपए थमाया। रूपए को वापस करने के लिए धन्नो और राजू अड़ गए। खासकर धन्नो बोली,नहीं साब मुफ्त में तो हम एक पैसै नहीं लेते। काफी देर तक ना नुकूर करने के बाद अंततः वे लोग किसी तरह नोट रखने को राजी हुए।यह थी मेरी प्रेमनगर की पहली यात्रा, जहां पर जिस्म के धंधे में शामिल होने के बाद भी कोई खुलकर कहने या विरोध जताने का साहस नहीं करता है।

    खासकर प्रेमनगर शाम को पूरी तरह रंगीन होकर आबाद हो जाता है।जब ढांसा रोड पर इस बस्ती केआस पास दर्जनों ट्रकों का रेला लग जाता है। देर रात तक बस्ती में देह का व्यापार चलता रहता है। करीब दो साल के बाद प्रेमनगर में फिर दोबारा आने का मौका मिला। 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में  मतदान के दिन बाहरी दिल्ली का चक्कर काटते हुए हमारी गाड़ी रेवला खानपुर गांव के आसपास थी। हमारे साथ राष्ट्रीय सहारा के दो और रिपोर्टर हरीश लखेड़ा (अभी अमर उजाला में) और कांचन आजाद ( अब दिल्ली सरकार मे पीआरओ ) साथ में थे। एकाएक चुनाव के प्रति वेश्याओं की रूचि को जानने के लिए मैने गाड़ी को प्रेमनगर की तरफ मुड़ने को कह। हमारे साथ आए दोनों पत्रकार मित्रों के संकोच के बावजूद धड़धड़ाते हुए मै वहां पर जा पहुंचा, जहां पर सात आठ वेश्याएं (महिलाएं) बैठी थी। मुझे देखते ही एक उम्रदराज महिला का चेहरा खिल उठा। मुझे संबोदित करती हुई एक ने कहा बहुत दिनों के बाद इधर कैसे आना हुआ?मैं भी वहां पर बैठकर सहज होने की कोशिश की। तभी महिला ने टोका ये सब बाबू (दूर कार से उतरकर हरीश और कांचन मेरा इंतजार कर रहे थे) भी क्या तुम्हारे साथ ही है ? एक दूसरी महिला ने चुटकी ली। आज तो तुम बाबू फौज के साथ आए हो। बात बदलते हुए मैंने कहा आज चुनाव है ना, इन बाबूओं को मतदान कहां कहां पर कैसे होता है, यहीं दिखाने निकला था। अपनी बात को जारी रखते हुए मैने सवाल किया क्या तुमलोग वोट डालकर आ गई ?मैने पास में बैठी महिला को टोका जो बड़ी मस्ती में बैठी थी।, किसे वोट दी। मेरी बात सुनकर सारी महिलाएं (और लड़कियां भी) खिलखिला पड़ी। खिलखिलाते हुए किसी और ने टोका बड़ा चालू हो बाबू एक ही बार में सब जान लोगे या कुछ खर्चा-पानी भी करोगे। गलती का का नाटक करते हुए फटाक से अपनी जेब से एक सौ रूपए का एक नोट निकालकर मैनें आगे कर दिया। नोट थामने से पहले उसने कहा बस्सस। मैने फौरन कहा, ये तो तुमलोग के चाय के लिए है, बाकी बाद में। मैंने उठने की चेष्टा की भी नहीं कि देखा कि पास में ही बैठी एक बहुत सुंदर सी महिला ने अपने शिशु को किसी और को थमाकर सामने के कमरे के दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गयी। उधर जाने की बजाय मैं वहीं पर खड़ा हो दोनों हाथ ऊपर करके अपने पूरे बदन को खोलने की कोशिश की। इस पर कई महिलाएं एक साथ सित्कार सी उठी, हाय यहां पर जान क्यों मार रहे हो बाबू,  बदन और खाट अंदर जाकर तोड़ो ना। फिर भी मैं वहीं पर खड़ा रहा और चुनाव की चर्चा करते हुए यह पूछा कि किसे वोट दी ?मेरे सवाल और मेरी मौजूदगी को बड़े अनमने तरीके से लेती हुई सबों ने जवाब देने की बजाय अपना मुंह बिदकाने लगी।  तभी मैने देखा कि 18-20 साल के दो लडके न जाने किधर से आए और इतनी सारी झुंड़ में बैठी महिलाओं की परवाह किए बगैर ही दनदनाते हुए कमरे में घुस गए। दरवाजे पर मेरे  इंतजार में खड़ी वेश्या भी कमरे के अंदर चली गई। दरवाजा अभी बंद नहीं हुआ था, लिहाजा मैं फौरन कमरे की तरफ भागा तो एक साथ कई महिलाओं ने आपति की और जरा सख्त लहजे में अंदर जाने से रोका। सबों की अनसुनी करते हुए दूसरे ही पल मैं कमरे में था। जहां पर लड़कों से लेनदेन को लेकर मोलतोल हो रहा था। एकाएक कमरे में मुझे देखकर उसका लहजा बदल गया। उसने बाहर जाकर किसी और के लिए बात करने पर जोर देने लगी। फौरन 100 रूपए का एक नोट दिखाते हुए मैनें जिद की, जब मेरी बात हो गई है, तब दूसरे से मैं क्यों बात करूं ?इस पर सख्त लहजे में उसने कहा मैं किसी की रखैल नहीं हूं जो तुम भाव और अधिकार दिखा रहे हो। फिलहाल तेरी बारी खत्म हो गयी है अब कमरे से बाहर जाओ। कमरे से बाहर निकलते ही देखा कि पास में ही बैठी तमाम वेश्याओं का चेहरा लाल था। बाबू धंधे का भी कोई लिहाज होता है। किसी एक ने मेरे उपर कटाक्ष किया क्या तुम्हें वोट डालना है?या किसे वोट डाली हो यह पूछते ही रहोगे ?इस पर सारी खिलखिला पड़ी। मैं भी ठिठाई से कहा यहां पर नहीं किसी को तीन चार घंटे के लिए भेजो गाड़ी में और पैसा बताओ ?इस पर सबों ने अपनी अंगूली को दांतों से दबाते हुए बोल पड़ी। हाय रे दईया पैसे वाला है। किसी ने पूरी सख्ती से कहा कोई और मेम को ले जाना। किसी के साथ गाड़ी में, प्रेमनगर की हम औरतें बाहर नहीं जाती। इस बीच कहीं से चाय बनकर आ गई। गरम सी हो रही ये वेश्यएं फौरन नरम सी हो गयी और चाय पीने का अनुरोध करने लगी।  मैनें नाराजगी दिखाते हुए फिर कभी आने का घिस्सा पीटा जवाब दोहरा दिया। इस बीच अब तक कमरा का खुला दरवाजा भीतर से बंद हो चुका था। लौटने के लिए मैं मुड़ा तो दो एक ने चीखकर कटाक्ष की। वर्मा(तत्कलीन मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा) हो या सोलंकी( स्थानीय विधायक धर्मदेव सोलंकी) सब भीतर से खल्लास हैं ,बाबू सब खल्लास।
    प्रेमनगर के बारे में मेरी दो तीन खबरों के छपने के बाद तब पॉयनीयर में (बाद में इंडियन एक्सप्रेस) में काम करने वाली ऐश्वर्या (अभी कहां पर है, इसका पता नही) ने मुझसे प्रेमनगर पर एक रिपोर्ट कराने का आग्रह किया।   यह बात लगभग 2000 की थी। हमलोग एक बार फिर प्रेमनगर की उन्ही गलियों की ओर निकल पड़े। साथ में एक लड़की को लेकर इन गलियों में घूमते देख कर ज्यादातर वेश्याओं को बड़ी हैरानी हो रही थी। कई तरह की भद्दी और अश्लील टिप्पणियों से वे लोग हमें नवाज भी रही थी। मैने कुछ उम्रदराज वेश्याओं को बताया कि ये एक एनजीओ से जुड़ी हैं और यहां पर वे आपलोग की सेहत और रहन सहन पर काम करने आई हैं। ये एक बड़ी अधिकारी है, और ये कई तरह से आपलोग को फायदा पहुंचाना चाहती है। मेरी बातों का इन पर कोई असर नहीं पड़ा। उल्टे टिप्पणी की कि ऐसी ऐसी बहुत सारी थूथनियों को मैं देख चूकी हूं। कईयों ने उपहास किया अपनी हेमामालिनी को लेकर जल्दी यहां से फूटो अपना और मेरा समय बर्बाद ना करो। मैने बल देकर कहा कि चिंता ना करो हमलोग पूरा पैसा देकर जाएंगे। इतना सुनते ही कई वेश्याएं आग बबूला सी हो गई। एक ने कहा बाबू यहां पर रोजाना मेला लगता है,  जहां पर तुम जैसे डेढ़ हजार बाबू आकर अपनी थैली दे जाते है। पैसे का रौब ना गांठों। यहां तो  हमारे मूतने से भी पैसे की बारिश होती है, अभी तुम बच्चे हो बच्चे। हमलोगों की आंखें नागीन सी होती है, एक बार देखने पर चेहरा कभी नहीं भूलती। तुम तो कई बार यहां के शो रूम देखने यहां आ चुके हो। दम है तो कमरे में चलकर बाते कर। मैनें फौरन क्षमा मांगते हुए किसी तरह इन वेश्याओं को शांत करने की गुजारिश में लग गया। एक ने कहा कि हमलोगों को तुम जितना उल्लू समझते हो, उतना हम होती नहीं है। बड़े बड़े फन्ने तीसमार खांन यहां मेमना बनकर जाते है। हम ईमानदारी से केवल अपना पैसा लेती है। एक वेश्या ने जोड़ा, हम रंड़ियों का अपना कानून होता है,मगर तुम एय्याश मर्दो का तो कोई ईमान ही नहीं होता। एकाएक वेश्याओं के इस बौछार से मैं लगभग निरूतर सा हो गया। महिला पत्रकार को लेकर फौरन खिसकना ही उचित लगा। एक उम्रदराज वेश्या से बिनती करते हुए पूछा कि क्या इसे पूरे गांव में घूमा दूं? उसके द्वारा सहमति मिलने पर हमलोग प्रेमनगर की गलियों को देखना शुरू किया। अब हमलोगों ने फैसला किया कि किसी से उलझने या सवाल जवाब करने की बजाय केवल माहौल को देखकर ही हालात का जायजा लेना ज्यादा ठीक रहेगा। हमलोग अभी एक गली में प्रवेश ही किए थे कि गली के अंतिम छोर पर दो लड़कियां और दो लड़कों के बीच पैसे को लेकर मोलतोल हो रही थी। 18-19 साल के लड़के 17-18 साल की ही मासूम सी लड़कियों को 20 रूपए देना चाह रहा था, जबकि लड़कियां 30 रूपए की मांग पर अड़ी थी। लगता है जब बात नहीं बनी होगी तो एक लड़की बौखला सी गई और बोलती है. साले जेब में पैसे रखोगे नहीं और अपना मुंह लेकर सीधे चले आओगे अपनी अम्मां के पास आम चूसने। चल भाग वरना एक झापड़ दूंगी तो साले तेरा केला कटकर यहीं पर रह जाएगा। शर्म से पानी पाना से हो गए दोनों लड़के हमलोगों के मौके पर आने से पहले ही फूट गए। मैं बीच में ही बोल पड़ा, क्या हुआ इतना गरम क्यों हो। इस पर लगभग पूरी बदतमीजी से एक बोली मंगलाचरण की बेला है, तेरा हंटर गरम है तो चल वरना तू भी फूट। मैने बड़े प्यार से कहा कि चिंता ना कर तू हमलोग से बात तो कर तेरे को पैसे मिल जाएंगे। मैनें अपनी जेब से 50 रूपए का एक नोट निकाल कर आगे कर दिया। नोट  को देखकर हुड़की देती हुई एक ने कहा सिर पर पटाखा बांधकर क्या हमें दिखाने आया है, जा मरा ना उसी से। मैने झिड़की देते हुए टोका इतनी गरम क्यों हो रही है, हम बात ही तो कर रहे है। इस पर गंदी सी गाली देती हुई एक ने कहा हम बात करने की नहीं नहाने की चीज है। कुंए में तैरने की हिम्मत है तो चल बात भी करेंगे और बर्दाश्त भी करेंगे। दूसरी ने अपने साथी को उलाहना दी, तू भी कहां फंस रही है साले के पास डंड़ा रहेगा तभी तो गिल्ली से खेलेगा। दोनों जोरदार ठहाका लगाती हुई जाने लगी। मैं भी बुरा सा मुंह बनाते हुए तल्ख टिप्पणी की, तुमलोग भी कम बदतमीज नहीं हो। यह सुनते ही वे दोनों फिर हमलोगों के पास लौट आई। वेश्या के घर में इज्जत की बात करने वाला तू पहला मर्द निकला रे। यहां पर आने वाला मर्द हमारी नहीं हमलोगों के हाथों अपनी इज्जत उतरवा कर जाता है। मैने बात को मोड़ते हुए कहा कि ये बहुत बड़ी अधिकारी है और तुमलोग की सेहत और हालात पर बातचीत करके सरकार से मदद दिलाना चाहती है। इस पर वे लोग एकाएक नाराज हो गई। बिफरते हुए एक ने कहा हमारी सेहत को क्या हुआ है। तू समझ रहा है कि हमें एड(एड़स) हो गया है। तुम्हें पता ही नहीं है बाबू हमें कोई क्या चूसेगा , चूस तो हमलोग लेती है मर्दो को। तपाक से मैनें जोड़ा अभी लगती तो एकदम बच्ची सी हो, मगर बड़ी खेली खाई सी बाते कर रही है। इस पर रूखे लहजे में एक ने कहा जाओ बाबू जाओ तेरे  बस की ये सब नहीं है तू केवल झुनझुना है। उनलोगों की बाते सुनकर जब मैं खिलखिला पड़ा, तो एक ने एक्शन के साथ कहा कि मैं चौड़ा कर दूंगी न तो तू पूरा की पूरा भीतर समा जाएगा। गंदी गंदी गालियों के साथ वे दोनों पलक झपकते गली पार करके हमलोगों की नजरों से ओझल हो गई। पूरा मूड उखड़ने के बाद भी भरी दोपहरी में हमलोग दो चार गलियों में और चक्कर काटते हुए प्रेमनगर से बाहर निकल गए।
    प्रेमनगर पर मेरी कई रिपोर्ट की बड़ी चर्चा हुई। बाहरी दिल्ली के उस इलाके में जाने का तो संयोग लगता रहा, मगर प्रेमनगर को लेकर अब मेरी उत्कंठा नहीं थी। मगर काफी समय के बाद मेरे सबसे बड़े न्यूज सूत्रधार के कहने पर मैं एक बार फिर  थान सिंह यादव के साथ मैं प्रेमनगर में था। इस बर की पूरी प्लनिंग थान सिंह ने की थी। करीब नौ साल के बाद 2009 में यहां आने पर बहुत कुछ बदला बदला सा दिखा। ज्यादातर कच्चे मकान पक्के हो चुके थे। गलियों की रंगत भी बदल सी गयी थी। कई बार यहा आने के बाद भी यहां की जलेबी सी घुमावदार गलियां मेरे लिए पहेली सी ही थी। गांव के मुहाने पर ही एक अधेड़ आदमी से मुलाकात हो गई। हमलोंगों ने यहां आने का मकसद बताते हुए किसी ऐसी महिला या लोगों से बात कराने का आग्रह किया, जिससे प्रेमनगर की पीड़ा को ठीक से सामने रखा जा सके। पत्रकार का परिचय देते हुए उसे भरोसे में लिया। हमने यह भी बता दिया कि इससे पहले भी कई बार यहां आया हूं,मगर अपने परिचय को जाहिर नहीं किया था। अलबता पहले भी कई बार खबर छापने के बावजूद मैंने हमेशा प्रेमनगर की पीड़ा को सनसनीखेज बनाने की बजाय इस अभिशाप की नियति को एक कलंक की तरह ही प्रस्तुत किया था। 
    यह हमारा संयोग ही था कि बुजुर्ग को मेरी बातों पर यकीन आ गया, और वह हमें अपने साथ लेकर घर आ गया। घर में दो अधेड़ औरतों के सिवा दो जवान विवाहिता थी। कई छोटे बच्चों वाले इस घर में उस समय कोई मर्द नहीं था। घर में सामान्य तौर तरीके से पानी के साथ हमारी अगवानी की गई। दूसरे कमरे में जाकर मर्द ने पता नहीं क्या कहा होगा। थोड़ी देर में चेहरे पर मुस्कान लपेटे चारों महिलाएं हमारे सामने आकर बैठ गई। इस बीच थान सिंह ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया था। अपने साथ लाए बिस्कुट, च़ाकलेट और टाफी को आस पास में  खड़ें बच्चों के बीच बॉट दिया। बच्चों के हाथों में ढेरो चीज देखकर एक ने जाकर गैस खोलते हुए चाय बनाने की घोषणा की। इस पर थान सिंह ने अपनी थैली से दो लिटर दूध की थैली निकालते हुए इसे ले जाने क आग्रह किया। इस पर शरमाती हुई चारों औरतों ने एक साथ कहा कि घर में तो दूध है। बाजी को अपने हाथ में आते देखकर फिर थान सिंह ने एक महिला को अपने पास बुलाया और थैली से दो किलो चीनी के साथ चाय की 250 ग्राम का एक पैकेट और क्रीम बिस्कुट के कुछ पैकेट निकाल कर उसे थमाय। पास में खड़ी महिला इन सामानों को लेने से परहेज करती हुई शरमाती रही। सारी महिलाओं को यह सब एक अचंभा सा लग रहा था। एक ने शिकायती लहजे में कहा अजी सबकुछ तो आपलोगों ने लाया है तो फिर हमारी चाय क्या हुई। मैने कहा अरे घर तुम्हारा, किचेन से लेकर पानी, बर्तन, कप प्लेट से लेकर चाय बनाने और देने वाली तक तुम लोग हो तो चाय तो तुमलोग की ही हुई। अधेड़ महिला ने कहा बाबू तुमने तो हमलोगों को घर सा मान देकर तो एक तरीके से खरीद ही लिया। दूसरी अधेड़ महिला ने कहा बाबू उम्र पक गई. हमने सैकड़ों लोगों को देखा, मगर तुमलोग जैसा मान देने वाला कोई दूसरा नहीं देखा। यहां तो जल्दी से आकर फौरन भागने वाले मर्दो को ही देखते आ रहे है।
    इस बीच हमने गौर किया कि बातचीत के दौरान ही घर में लाने वाले बुजुर्ग पता नहीं कब बगैर बताए ही घर से बाहर निकल गए। वजह पूछने पर एक अधेड़ ने बताया कि बातचीत में हमलोग को कोई दिक्कत ना हो इसी वजह से वे बाहर चले गए। हमने बुरा मानने का अभिनय करते हुए कहा कि यह तो गलत है मैंने तो उन्हें सबकुछ पहले ही बता दिया था। खैर इस बीच चाय भी आ गई।
    चारों ने लगभग अपने हथियार डालते हुए कहा अब जो पूछना है बाबू बात कर सकते हो। बातचीत का रूख बताते ही एक ने कहा बाबू तुम तो चले जाओगे, मगर हमें परिणाम भुगतना पड़ेगा। एक बार फिर इमोशनल ब्लैकमेलिंग करते हुए मैने साफ कहा कि यदि तुम्हें हमलोगों पर विश्वास नहीं है तो मैं भी बात करना नहीं चाहूंगा।  यह कहकर मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटना चालू कर दिया। जवान सी वेश्या तपाक से मेरे बगल में आकर बैठती हुई बोली अरे तुम तो नाराज ही हो गए। हमने तो केवल अपने मन का डर जाहिर की थी।  शिकायती लहजे में मैंने भी तीर मारा कि जब मन में डर ही रह जाए तो फिर बात करने का क्या मतलब?इस पर दूसरी ने कहा बाबू हमलोगों को कोई खरीद नहीं सकता, मगर तुमने तो अपनी मीठी मीठी बातों से हमलोगों को खरीद ही लिया है। अब मन की सारी बाते बताऊंगी। फिर करीब एक घंटे तक अपने मन और अपनी जाति की नियति और सामाजिक पीड़ा को जाहिर करती रही।
    बुजुर्ग सी महिला ने बताया कि हमारी जाति के मर्दो की कोई अहमियत नहीं होती। पहले तो केवल बेटियों से ही शादी से पहले तक धंधा कराने की परम्परा थी, मगर पिछले 50-60 साल से अब बहूओं से भी धंधा कराया जाने लगा। हमारे यहां औरतों के जीवन में माहवारी के साथ ही वेश्यावृति का धंधा चालू होता है, जो करीब 45 साल की उम्र तक यानी माहवारी खत्म(रजोनिवृति) तक चलता रहता है। इनका कहना है कि माहवारी चालू होते ही कन्या का धूमधाम से नथ उतारी जाती है। गुस्सा जाहिर करती हुई एक ने कहा कि नथ तो एक रस्म होता है, मगर अब तो पुलिस वाले ही हमारे यहां की कौमा्र्य्य को भंग करना अपनी शान मानते है। नाना प्रकार की दिक्कतों को रखते हुए सबों ने कहा कि शाम ढलते ही जो लोग यहां आने के लिए बेताब रहते हैं, वही लोग दिन में हमें उजाड़ने या घर से बाहर निकालने के लिए लोगों कों आंदोलित करते है। एक ने कहा कि सब कुछ गंवाकर भी इस लायक हमलोग नहीं होती कि बुढ़ापा चैन से कट सके। हमारे यहां के मर्द समाज में जलील होते रहते हैं। बच्चों को इस कदर अपमानित होना पड़ता है कि वे दूसरे बच्चों के कटाक्ष से बचने के लिए स्कूल तक नहीं जाते।  और इ तरह पढ़ाई में भी पीछे ही रह जाते है। नौकरी के नाम पर निठ्ठला घूमते रहना ही हमारे यहां के मर्दो की दिनचर्या और शान है। अपनी घरवाली की कमाई पर ही ये आश्रित होते है।
     एक ने कहा कि जमाना बदल गया है। इस धंधे ने रंगरूप बदल लिया है,मगर हमलोग अभी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे है। बस्ती में रहकर ही धंधा होने के चलते बहुत तरह की रूकावटों के साथ साथ समाज की भी परवाह करनी पड़ती है। एक ने बताया कि हम वेश्या होकर भी घर में रहकर अपने घर में रहते है। हम कोठा पर बैठने वाली से अलग है। बगैर बैलून (कंडोम) के हम किसी मर्द को पास तक नहीं फटकने देती। यही कारण है कि बस्ती की तमाम वेश्याएं सभी तरह से साफ और भली है।
    यानी डेढ सौ से अधिक जवान वेश्याओ के अलावा, करीब एक सौ वेश्याओं की उम्र 40 पार कर गई है। एक अधेड़ वेश्या ने कहा कि लोगों की पसंद 16 से 25 के बीच वाली वेश्याओं की होती है। यह देखना हमारे लिए सबसे शर्मनाक लगता है कि एक 50 साल का मर्द जो 10-15 साल पहले कभी हमारे साथ आता था , वही मर्द उम्रदराज होने के बाद भी आंखों के सामने बेटी या बहू के साथ हमबिस्तर होता है और हमलोग उसे बेबसी के साथ देखती है। एक ने कहा कि उम्र बढ़ने के साथ ही वेश्या अपने ही घर में धोबी के घर की कुतिया सी हो जाती है। इस पर जवान वेश्याओं ने ठहाका लगाया, तो मंद मंद मुस्कुराती हुई अधेड़ वेश्याओं ने कहा कि हंमलोग भी कभी रानी थी, जैसे की तुमलोग अभी है। इस पर सबों ने फिर ठहाका लगाया। हमलोग भी ठहाका लगाकर उनका साथ दिया। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फिर मैनें कहा कुछ और बोलो?किसी ने बेबसी झलकाती हुई बोली और क्या बोलू साहब ?बोलने का इतना कभी मौका कोई कहां देता है ?यहां तो खोलने का दौर चलता है। दूसरी जवान वेश्या ने कहा खोलने यानी बंद कमरे में कपड़ा खोलने का ? एक ने चुटकी लेते हुए कहा कि चलना है तो बोलो बाबू। इस पर एक अधेड़ ने समर्थन करती हुई बोली कोई बात नहीं साब मेहमान बनकर आए थे चाहों तो माल टेस्ट कर सकते हो। एक जवान ने तुरंत जोड़ा साब इसके लिए कोई पैसा भी नहीं लूंगी? हम दोनों एकाएक खड़े हो गए। थान सिंह ने जेब से दो सौ रूपए निकाल कर बच्चों को देते हुए कहा कि अब तुमलोग ही नही चाहती हो कि हमलोग बात करें। इस पर शर्मिंदा होती हुई अधेड़ों ने कहा कि माफ करना बाबू हमारी मंशा तुमलोगों को आहत करने की नहीं थी। हमलोग प्रेमनगर से बाहर हो गए, मगर इस बार इन वेश्याओं की पीड़ा काफी समय तक मन को विह्वल करता रहा। इस बस्ती की खबरें यदा-कदा पास तक आती रहती है। ग्लोवल मंदी मंदी से भले ही भारत समेत पूरा संसार उबर गया हो, मगर अपना सबकुछ गंवाकर भी प्रेमनगर की वेश्याए अपने देह की मंदी से कभी ना उबर पाई है और लगता है कि शायद ही कभी अर्थिक तंगी से उबर  पाएगी ?

    फिर से

    यह बात कोई चार साल पहले 2013 की है।. भरी दोपहरी में मैं जंतर मंतर के टिकट घर के पास ही किसी का इंतजार कर रह था। पास में ही मदर डेयरी आईसक्रीम पार्लर का ठेला भी खडा था। मैं समय काटने के लिए दो आईसक्रीम का स्वाद ले चुका था , मगर इंतजार खत्म नहीं हो रही थी। पास में ही एक मारूति के आस पास खडी कई महिलाएं और बच्चे मुझे निहार रहे थे। उनकी उत्कंठा को मैं पिछले आधे घंटे से देख रहा था, पर उनकी लालसा पर मैं कोई जवाब दूं यह मुझे न सूझ रहा था और न ही अच्छा ही लगता। पर जंतर मंतर के पास ही बैठा मैं भी इन लोगों पर नजर टिकए हुआ था। तभी देखा कि गाडी से उतरकर सभी सात आठ महिलाएं बच्चे मेरी तरफ आने लगे। मेरी काटो तो खून नही। कौन सी आफत या शामत है इसकी आशंका से निपटने के लिए मैं भी मन ही मन तैयार हो रहा था। मेरे चारो तरफ खडे इस जमावड़े मे से ही किसी ने मुझसे पूछा आप पतरकर बाबू हो न ?यह सुनकर मेरी जान में जान आई। अपना सिर उपर किया. मगर मैं किसी को पहचान नहीं सका। अलबता चेहरा कुछ जाना जान सा तो लग रहा था। इन लोगों के खड़े देखकर मैं भी खड़ा हो गया। तबतक दो जवान सी औरते एक साथ बोली आपने हमलोगों को नहीं पहचाना न मगर देखिए हम सारे लोग तो आपको दूर से ही देखकर पहचान गए थे कि आप पतरकर बाबू हो। प्रेमनगर की इन वेश्याओं को तो मैं भी पहचान गया मगर क्नॉटप्लेस में एकदम सहज सामान्य रंग रूप में देखकर तो इन्हें कोई भी नहीं कह सकता कि ये प्रेमनगर की खानदानी वेश्याएं है। मैंने पहचानने की खुशी प्रकट की और प्रेमनगर से बाहर देखकर ही इनकी सही परिचय बताने में झिझका। आईस पार्लर वाले को मैने सात आईसक्रीम देने को कहा। इस पर वे लोग जिद करने लगी कि नहीं आज आप हमलोग की तरफ से खाइए। मैने उनलोगों को मनाया कि तुमलोग का भी खाएंगे मगर गर्मी बहुत ज्यादा है न तो दो भी चल जाएगा। एक जवान सी ने कहा कि हमलोग ने कार खरीदी है। पूरे उत्सह से बोली आकर आप देखिए न। मैं उसके आग्रह को टाल नहीं सका और कार में बैठकर खूब तारीफ भी की। इनलोगों के साथ कोई मर्द दिख नहीं रहा था, मैने पूछा और गाडी कौन चलाकर लाया है ?इस पर सबसे कम उम्र वाली एक लड़की मेरे पास आकर बोली अंकल मैं चलाती हूं। एकदम 17-18 साल की इस लड़की के उत्साह और आत्मविश्वास की मैने सराहना की। साथ ही यह भी पूछा किस क्लास में पढ़ती है ?तो वह चहक कर बोली मैं 12 वी कर रही हूं ओपेन स्कूल से। गाड़ी में साथ चलने के लिए सबों ने पूरा जोर लगाया इस भरोसे पर कि आपको यहीं पर लाकर छोड़ेंगे भी। मैंने फिर कभी आने का वादा करके अपनी जान बचाई। फिर करीब आधे घंटे तक  साथ साथ खड़े होकर आईसक्रीम का स्वाद लिया गया। सभी ने मुझसे मेरे घर का पता पूछ और  कभी घर पर आने की इच्छा प्रकट की। इस पर मैं हंसते हुए कहा कि तुमलोग के आत्मविश्वास को देखकर बहुत अच्छा लगा। कभी घर पर तुमलोग को जरूर बुलाउंगा। इसके बाद कर में सवार होकर प्रेमनगर की ये सुदंरियां फर्राटे के साथ मेरी नजरों से ओझल हो गयी। 

    नगर सुदंरियों से अपनी प्रेमकहानी- 1

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    कोठेवाली मौसियों के बीच मैं बेटा

    अनामी शरण बबल

    एक पत्रकर के जीवन की भी अजीब नियति होती है। जिससे मिलने के लिए लोग आतुर होते हैं तो वह पत्रकारों से मिलने को बेताब होता है। और जिससे मिलने के लिए लोग दिन में भागते है तो उससे मिलने मिलकर हाल व्यथा जानने के लिए एक पत्रकार बेताब सा होता है। अपन भी इतने लंबे पत्रकारीय जीवन में मुझे भी चोर लुटेरो माफिय़ाओं इलाके के गुंड़ो पॉकेटमारो, दलालों रंडियों  कॉलगर्लों तक से टकराने का मौका मिल। इनसे हुए साबका के कुछ संयोग रहे कि वेश्याओं या कॉलगर्लों को छोड़ भी दे तो बाकी धंधे के दलालों समेत कई चोर पॉकेटमार आज भी मेरे मूक मित्र समान ही है। बेशक मैं खुद नहीं चाहता कि इनसे मुलाकात हो मगर यदा कदा जब कभी भी राह में ये लोग टकराए तो कईयों की हालत में चमत्कारी परिवर्तन हुआ और जो कभी सैकड़ों के लिए उठा पटक करते थे वही लोग आज लाखों करोड़ों के वारे न्यारे कर रहे हैं। कई बार तो इन दोस्तों ने मदद करने या कोई धंधा चालू करने के लिए ब्याज रहित पैसा भी देने का भरोसा दिय। मगर मैं अपने इन मित्रों के इसी स्नेह पर वारे न्यारे सा हो जाता हूं।   
    मगर यह संस्मरण देहव्यापार में लगी या जुड़ी सुंदरियों पर केंद्रित हैं, जिनसे  मैं टकराया और वो आज भी मेरी यादों में है। कहनियं कई हैं लिहजा मैं इसकी एक सीरिज ही लिखने वाला हूं। मगर मैं यह संस्मरण 1989 सितम्बर की सुना रहा हूं । मेरी कोठेवाली मौसियां अब कैसी और कहां है यह भी नहीं जानता और इनके सूत्रधार मामाश्री प्रदीप कुमार रौशन के देहांत के भी चार साल हो गए है। तभी एकाएक मेरे मन में यह सवाल जागा कि इस संस्मरण को क्यों न लिखू ?  मैं औरंगाबाद बिहार के क्लब रोड से कथा आरंभ कर रहा हूं ,जहां पर इनके कोठे पर या घर पर जाने का एक मौका मुझे अपने शायर मामा प्रदीप कुमार रौशन के साथ मिला था। मुझे एक छोटा सा ऑपरेशन कराना था और एकाएक डॉक्टर सुबह की शिफ्ट में नहीं आए तो उनके सहायक ने कहा कि शाम को आइए न तब ऑपरेशन भी हो जाएगा। मैं अपने बराटपुर वाले ननिहाल लौटना चाह रहा था कि एकएक मेरे मामा ने कहा कि यदि तुम वास्तव में पत्रकार हो और किसी से नहीं कहोगे तो चल आज मैं कुछ उन लोगों से मुलकात कराता हूं जिनसे लोग भागते है। मैं कुछ समझा नहीं पर मैने वादा किया चलो मामा जब आप मेरे साथ हो तो फिर डरना क्या। पतली दुबली गलियों से निकालते हुए मेरे मामा जी एक दो मंजिल मकान के सामने खड़े थे। दरवाजा खटखटाने से पहले ही दो तीन महिलाएं बाहर निकल आयी और कैसे हो रौशन भईया बड़े दिनों के बाद चांद इधर निकला है। क्या बात है सबखैरियत तो है न ? मेरे उपर सरसरी नजर डालते हुए दो एक ने कह किस मेमने को साथ लेकर घूम रहे हो रौशन भाई। अपने आप को मेमना कहे जाने पर मेरे दिल को बड़ा ठेस सा लगा और मैने रौशन जी को कहा चलो मामा कहां आ गए चिडियाघर में।  जहां पर इनकी बोलचाल में केवल पशु पक्षियों के ही नाम है। यह सुनते ही सबसे उम्रदराज महिला ने मेरा हाथ को पकड़ ली हाय रे मेरे शेर नाराज हो रहे हो क्या। अरे रौशन भाई किस पिंजड़े से बाहर निकाल कर ला रहे हो बेचारे को। मान मनुहार और तुनक मिजाजी के बीच मैं अंदर एक हॉल में आ गया। जहां पर सोफा और बैठने के लिए बहुत सारे मसनद रखे हुए थे। मैं यहां पर आ तो गया था पर मन में यह भान भी नहीं था कि इन गाने बजाने वालियों के घर का मैं अतिथि बना हुआ हूं। जहां पर हमारे मामा जी के पास आकर करीब एक दर्जन लड़कियों ने बहुत दिनों के बाद आने का उलाहना भी दे रही थी। इससे लग तो यही रहा था कि यहां के लिए वे घरेलू सदस्य से थे।  सब आकर इनसे घुल मिल भी रही थी और सलाम भी कह रही थी। । और मैं अवाक सा इन नगर सुदंरियों के पास में ही खड़ा इनकी मीठी मीठी बाते सुन रहा था। दस पांच मिनट में रौशन जी को लेकर उनकी उत्कंठा और मेल जोल का याराना कम हुआ तो निशाने पर मैं था। लगभग सबो का यही कहना था कि रौशन भाई किस बच्चे को लेकर घूम रहे हो। यह संबोधन मेरे लिए बेमौत सा था। पूरे 24 साल का नौजवान होने के बाद भी अपने लिए बच्चा सुनना लज्जाजनक लग रहा था। मैने तुरंत प्रतिवाद किया कि मैं बच्चा या मेमना नहीं पूरे 24 साल का हूं जी। मेरी बात सुनते ही पूरे घर में ठहाकों की गूंज फैल गयी। मैने फिर कहा कि अभी मैं जरा अपने मामा के साथ हूं इसलिए जरा हिचक रहा हूं .....। जब तक मैं आगे कुछ बोलता इससे पहले ही एक 25-26 साल की सुदंर सी लडकी मेर नकल करने लगी नहीं तो मैं सबको बताता कि जवानी दीवानी क्या चीज होती है। लड़की के नकल पर मैं भी जरा शरमा सा गया और घर में एकबार फिर हंसी के ठहाके गूंजने लगी। हंसी ठहाको से भरे इस मीठे माहौल में मामा ने सबको बताया कि यह मेरा भांजा है। इसके बाद तो मानो मेरी शामत ही आ गयी या उनकी खुशियों का कोई ठिकाना नहीं रहा। अब तक मेरे से हंसी मजाक चुहल सी कर रही तमाम देवियां मेरे उपर प्यार जताने दिखाने लगी। कोई अपनी ओढनी से तो कोई अपने पल्लू से मेरे को पोछनें में लग गयी । भांजा सुनते ही मानो वे अपने आपको मेरी मौसी सी समझने लगी। अरे बेटा आया है रे बेटा। मैं पूरे माहौल से अचंभित उनकी खुशियों को देखकर भी अपन दुर्गति पर अधिक उबल नहीं पा रहा था। सयानी से लेकर कम उम्र वाली लड़कियां भी एकएक मेरी मौसी बनकर मेरे को बालक समान समझने लगी, और करीब एक दर्जन इन मौसियों के बीच में लाचार सा घिरा रहा। इस कोठे पर बेटा आया है यह खबर शायद आस पास के कोठे में भी फैला दी गयी हो । फिर क्या था मै मानो चिडियाघर का एक दर्शनीय पशु समान सा हो गया था और हर उम्र की करीब 30-32 महिलाएं मेरा दर्शन करके निहाल सी हो रही थी। सबों का एक ही कहना था रौशन भाई हम कोठेवालियं बड़भागन मानी जाती है यदि कभी कोठे पर रिश्ते में कोई बेटा आ जाए। आपने तो हमलोगों के जन्म जन्म के पाप काट दिए। अपनी आंखों से  आरती उतार उतार कर मेरे पर न्यौछावर करती तमाम औरतों के बीच मैं मानो एक खिलौना सा बन गया था। कहीं से लड्डु की एक थाली आ गयी और तब तो मेरा तमाशा ही बन गया। सबों ने मुझे एक एक लड्डु चखने को कहा और मेरे चखे लड्डु को वे लोग पूरे मनोयोग से प्रसाद की तरह खाने लगी। लड्डु खाकर निहाल सी हो रही ये कोठेवालियों ने फिर मुझे नजराना देना भी शुरू कर दिया। मैं एकदम अवाक सा क्या करूं कुछ समझ और कर भी नहीं पा रहा था। और देखते देखते मेरे हाथ में कई सौ रूपये आ गए। मेरी दुविधा को देखते हुए एक उम्रदराज महिला ने कहा कि बेटा सब रख लो,यह नेग है और कोई एक पैसा भी वापस नहीं लेगी। उसी महिला ने फिर कहा कि बताया जाता हैं कि किसी कोठेवाली के कोठे पर यदि रिश्ते में कोई बेटा बिना ग्राहक बने आता है तो वेश्याओं को इस योनि से मुक्ति मिल जाती है। रौशन भाई हमलोगों के भाई हैं और तुम इनके भांजा हो इस तरह तो हम सब के भी तुम बहिन बेटा हुए। तो हम मौसियों के उद्धार के लिए ही मानो तुम आए हो। हम इससे कैसे चूक सकते हैं भला। एकाएक मौसी बन गयी इन कोठेवालियों के स्नेह और दंतकथाओं को सुनकर मैं क्या करू यह तय नही कर पा रहा था। करीब दो घंटे तक चले इस नाटक का मैं हीरो बना अपनी दुर्गति पर शर्मसार सा था। मैने महसूस किया कि न केवल मेरे गालों पर बल्कि हाथ पांव छाती से लेकर बांहों पर भी सैकड़ों पप्पियों के निशान मुझे लज्जित के साथ साथ रोमंचित भी कर रहे थे। बालकांड खत्म होने के बाद पिर पाककला की बेला आ गयी। मेरे पसंद पर बार बार जोर दिया जाने लगा। मैने हथियार डालते हुए कहा कि क्या खाओगे ?यह दुनिया का सबसे कठिन सवाल होता है आप जो बना दोगी सारा और सब खा जाउंगा मेरी मौसियों। पूरे उत्साह और उमंग के साथ इतराती इठलाती कुछ गाती चेहरे पर मुस्कान बिखेरे ये एकाध दर्जन बालाओं को लग रहा था कि मैं कोई देवदूत सा हूं। चहकती महकती इन्हें देखकर मैंने कहा कि अब बस भी करो मेरी मौसियों इतनी तैयारी क्यों भाई । एक जगह तुमलोग बैठो तो सही ताकि सबकी सूरत मैं अपनी आंखों में उतार सकूं ताकि कहीं कभी धोखा न हो जाए। मेरी बात पर सब हंसने लगी और मेरी नकल उतारने वाली मौसी पूरे अदांज में बोली हाय रे हाय। बच्चा मेमना नहीं है बेटा पूरा जवान लौंडा है। देख रही हो न हम मौसियों पर ही लाईन देने लगा। मैने तुरंत जोडा ये लाईन देना क्या होता है मौसी। इस पर एक साथ हंसती हुई मेरी कई कोठेवाली मौसियां मुझ पर ही झपटी साले यह भी हमें ही बताना होगा क्या। फिर मेरे मामा की तरफ मुड़ते हुए कई मौसियों ने कहा कि रौशन भाई इसकी शादी करा दो। नहीं तो यह लाईन देता ही फिरेगा। हंसी मजाक प्यार स्नेह और ठिटोली के बीच मैने कोठेवाली मौसियों से कहा कि आपलोग का सारा प्यार और सामान तो ले ही रहा हूं पर यह पैसे रख लीजिए। इस पर बमकती हुई कईयों ने कहा कि बेटा फिर न कहना। जीवन भर के पुण्य का प्रताप है कि आज यहां पर तुम हो। हम सब धन्य हो गए तुम्हें देखकर अपने बीच बैठाकर पाकर बेटा। इनके वात्सल्य को देखकर मेरा मन भी पुलकित सा हो उठा। 24 साल के होने के बाद भी इन लोगों के बीच मैं एकदम बालक सा ही हो गया था, तभी तो मेरी कोठेवाली मौसियों ने मुझसे जिस तरह चाहा प्रेम किया। और स्नेह की बारिश की।   
    खाने पीने की बेला एक बार फिर मेरे लिए जी का जंजाल सा हो गया।  मेरी तमाम मौसियों की इच्छा थी कि आधी कचौड़ी खाकर मैं लौटा दूं। आधी कचौड़ी को वे इस तरह ले रही थी मानो कहीं का प्रसाद हो। आधी कचौड़ी खाते खाते मैं पूरी तरह बेहाल हो उठा।  मुझसे खाया न जाए फिर भी जबरन मेरे मुंह में कचौड़ी ठूंसने और आधा कौर वापस लेने का यह सिलसिला भी काफी लंबे समय तक चला। तब कहीं जाकर खाने से मुक्ति मिली।
     इसके बाद आरंभ हुआ मेरे जाने का विदाई का समय । तमाम मेरी कोठेवाली मौसियों के रोने का रुदन राग शुरू हो गया।  चारो तरफ लग रहा था मानो कोई मातम सा हो। कोई मुझे पकड़े हैं तो कोई अपने से लिपटाएं रो रही है। एक साथ कई कई मौसियां मेरे को पकड़े रो रही है नहीं जाओ बेटा अभी और रूक कर जाना। लग रहा था मानो शादी के बाद लड़की ससुराल जाने से पहले अपने घर वालों के साथ विलाप कर रही हो । बस अंतर इतना था कि मैं रो नहीं रहा था। तभी मेरी नजर नकल करने वाली मौसी पर पड़ी। मैं उसकी तरफ ही गया और हाथ पकड़कर बोला तुम तो न मेरे से लिपट रही हो न रो ही रही हो. क्या बात है मौसी।. इस पर वह एकाएक फूट सी पडी और मेरा हाथ पकड़कर वह जोर जोर से रोने लगी। इतना प्यार और इतना स्नेह को देखकर मैं भी रूआंसा सा हो गया और इनको प्रणाम करने से खुद को रोक नहीं सका। सभी मौसियों के पांव छूने लगा। मेरे द्वारा पैर छूने पर वे सब निहाल सी हो गयी। कुछ उम्र दराज मौसियों ने कहा बेटा फिर कभी आना। एक बार ही तुम आए मगर हम सबों का दिल चुराकर ले जा रहे हो। इस पर मैं भी चुहल करने से बाज नहीं आया। नहीं मौसी दिल को तो अपने ही पास ही रखो चुराना ही पड़ेगा तो एक साथ तुम सबों को चुरा कर अपने पास रख लूंगा। मैंने तो यह मजाक में यह कहा था मगर मेरी बात सुनकर मेरी सारी कोठेवाली मौसियां फफक पड़ी। और मैं एक बार फिर नजराने और प्यार के पप्पियों के चक्रव्यूह में घिर गया। मेरे द्वारा उन तमम मौसियों के पैर छूना इतना रास आया कि मैं उनका हुआ या नहीं यह मैं नहीं कह सकता, पर वे तमाम कोठेवाली मौसियां मेरी होकर मेरे दिल में ही बस गयी। 

    नगर सुदंरियों से अपनी प्रेम कहानी -3

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    सिनेमा हॉल में पैसे का प्यार


    अनामी शरण बबल


    यह घटना भी कोई सात आठ साल पहले की है। गरमी के दिन थे और मैं क्नॉट प्लेस के रीगल सिनेमा के सामने बने मेहराब की दीवार के सहारे खडा था। मैं किसी काम से किसी के इंतजार में था मगर अब यह सही सही याद नहीं है। मगर एकाएक मुझे लगा मानो एक महिला अपने हाथों से मुझे धक्का मारते हुए आगे निकल कर खडी हो गयी। टक्कर लगने के बाद जब मेरी तंद्रा टूटी और मैने घूर कर उस महिला को देखा तो सामने खडी महिला मुस्कुराते हुए अपनी एक आंख दबा दी। उसकी इस अदा पर मेरे अंदर जगा विरोध एकएक नरम सा हो उठा। मैने उसको घूरना क्या छोडा कि अगले ही पल वो मेरे सामने खड़ी थी। रीगल में सिनेमा देखना है क्या ?मैंने रूखे स्वर मे जवाब दिया नहीं। काहे भाई जिसके संग चाहो देख सकते हो। 16 से लेकर 36 तक की मिल जाएगी तेरे को। इस पर मैने तीर छोडा सिनेमा देखने का पैसा लेती हो या देती हो ?पईसा क्यों देंगे टिकट के अलावा 200 रूपए और इंटरवल में कुछ खान पान बस्स। तीन घंटे तक एक हीरोईन तेरे बगल में क्या महंगा सौदा है। मैं थोड़ा और खुलते हुए पूछा कि साथ में बैठकर जो सिनेमा देखेगी, उसका  क्या करेंगे हॉल में ?फौरन मेरे हाथों को पकड़ते हुए बोली पर उपर से ढाई घंटे का मजा तो देगी। अधीर होती हुई वह फिर मुझसे पूछी क्या देखना है तो बता तो मैं सबकुछ मैनेज कर दूं । मैने चारा डालते हुए फिर पूछा तू क्या मैनेजर है या गैंग लीडर पहले यह तो बता। इस पर वह बड़े गर्व भाव के साथ अपने बदन को टाईट कर हंसने लगी। इस पर मैं मुस्कुरा उठा. यानी तू मैनेजर है। मेरे यह कहने पर वह शांत भाव से खडी खडी मुस्कुराती रही। एकाएक फिर अधीर होती हुई पूछी कि क्या सिनेमा देखना है ?इस बार मैं उसके हाथों को पकड़कर कहा यार आज तो बहुत जरूरी काम है लिहाजा आज तो संभव ही नहीं है, पर एक बिजनेस डील कर तू मेरे साथ। जिस तरह लड़कियों की तलाश में लोग रहते होंगे तो जाहिर है कि बहुत सारी एय्याश औरतें भी तो गिगेलो मर्दो की तलाश में रहती होंगी। सिनेमा देखने के लिए मैं उनके साथ जा सकता हूं। जो राशि मिलेगी उसमें हम दोनों आधा आधा। मेरी बात सुनकर वो खिलखिला पडी। साले गैर लौंडिया को अपने बगल में बैठाकर सिनेमा देखने में तो तेरी सिनेमाहॉल के बाहर ही फटी जा रही और तू साला उन चूसनियों के साथ सिनेमा देखेगा। मैं भी इसके साथ मुहफट होते हुए बोल पडा तो इसमें क्या हर्ज है। एक बार तू मेरे साथ सिनेमाहॉल मे बैठकर ट्रेनिंग दे देना और क्या। धंधा के लिए तो कुछ करना ही पड़ेगा न। मेरे साथ वो बात भी कर रही थी और कभी कभी एकाएक अधीर सी भी हो जाती थी। वह आगे बताती जा रही थी कि यदि सिनेमा हॉल में साथ नहीं रहना है तो बता सारी व्यवस्थ है 500 से लेकर 2000 तक रूपया निकाल तो यहीं पर एक दर्जन लड़कियों की परेड़ करवा दूंगी। जिसे पसंद करेगा वो अपने साथ लेकर कमरे में चली जाएगी। मैने फिर पूछा और पुलिस का डर। इस पर वो हंसने लगी। सबका हिस्सा होता है। तू इसकी फ्रिक न कर । एकाएक फिर वो उतवली होते हुए मुझसे पूछी तू तो अपनी पसंद बता। इस पर मैने कहा कि अभी से नहीं पहले ही मिनट से बता रहा हूं न कि आज कोई जरूरी काम है। आज तो हो ही नहीं सकता। मेरी बातों को सुनकर वह थोडी मायूष सी होने लगी। इस  पर मैने उससे कहा कि मायूष होने वाले लोग बड़े बिजनेस नहीं करते। तेरे बहाने ही तो मैं भी इस धंधे में उतरने के लिए तुमसे सलाह मशविरा ले रहा हूं। मेरी बातों को सुनकर उसके चेहरे पर फिर मुस्कान लौट आयी। मैने फिर उससे पूछा कि तू केवल मैनेजर ही है य किसी के साथ भी आती जाती हो। करीब 34-35 साल की इस महिला मायूषी से बोल पड़ी कि अरे अब तो हमारे ढलान के दिन आ गए है। हमलोग पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। इस पर मैने उससे कहा कि तू पागल है। अपने उपर तुम खुद ध्यान दोगी नहीं और दूसरों पर इल्जाम लगाओगी । मैने कहा ठीक से आईना देखे तुम्हें कितने दिन हो गए है। अपने रंग रूप को जरा मजे से संवारो तो सही, तू तो आज भी एकदम करीना कपूर से कम नहीं है।  मेरी बातों को सुनकर वो एकदम शरमा गयी। आंखें नीचे करके मुझसे बोल पडी तू मुझे उल्लू बना रहे हो। तिस पर मैने फिर जोर देकर कहा कि हाथ कंगन को आंरसी क्या और पढ़े लिखों को फारसी क्या। तू आज ही घर जाकर केवल अपने आपको आइने में निहारना और अगली मुलाकात में बताना। मेरी बातों को सुनकर वो एकदम निहाल सी हो गयी। मेरे हाथ को पकड़ती हुई बोली तू सही कह रहा है न।.इस पर मैंने उसको एकदम खल्लास कहा तो वह भाव विभोर सी हो गयी। मेरे हाथ को पकड़ कर बोल पडी कि तू मेरे साथ बिना पैसे के भी चल सकता है यार। इतनी मीठी मीठी बात और तारीफ करने वाला तो अब तक कोई दूसरा लौंडा मिला ही नहीं था रे। मैने उसको सावधन करते हे कहा तू कैसी मैनेजर है कि खुद भावुक हुए जा रही है। एक उपदेश हमेशा अपने साथ गिरह बांधकर रखना कि घोडा घास से यारी नहीं करता। मीठी मीठी बाते करने वाले मेरे जैसे चार यार तेरे हो गए न तो तेरी कंगाली के दिन आ जाएंगे। कोई भी हो साला बिन पईसा कैसी दोस्ती । मेरी बात सुनकर वह फिर भाव विभोर सी होती हुई बोली कि साला बातें तो तू अईसी करता है न कि सीधे छाती में समा जाए। उसकी भावुकता को कम करने के लिए मैने पूछा कुल्फी खाएगी ? (रीगल के बाहर उस समय कुल्फी की कीमत दस रूपये थी) जेब से 50 रूपये का एक नोट अभी निकाला भी नहीं था कि वह बोल पड़ी खाउंगीं पर मैं अकेली नहीं हूं। यह सुनते ही मैं चौंक पडा। अकेली जान और मान कर ही मैं मस्ती से जानकारियां ले रहा था, मगर वो अकेली नहीं है यह सुनते ही मैं कांप सा गया। खुद को सामान्य और बेपरवाह दिखाते हुए मैने पूछा किधर है तेरी मंडली?एकाएक उसने अपने दोनों हाथ खड़े किए नहीं कि अगल बहल आंए दांए बांए सामने पीछे से एक साथ रंग बिरंगी सात देवियां मेरे इर्द-गिर्द आकर खडी हो गयी। अलबत्ता सबों ने मुस्कान के साथ मुझे सलाम भी किया। 50 का एक नोट तो मेरे हाथ में ही था कि फिर मैने एक सौ रूपये का एक नोट और निकाला। मैनेजर को धराते हुए कहा कि लो तुमलोग कुल्फी खाओ। मेरे हाथ से नोट लेकर सब मिल जुलकर कुल्फी खाकर हंसती हुई फिर इधर उधर लापता हो गयी और दो कुल्फी लेकर वो मेरे करीब आ गयी। हम दोनों एक साथ कुल्फी खाने लगे। मैने अचरज के साथ कहा अरे यार तेरा तो बड़ा तगड़ा नेटवर्क है। मैं तो तुम्हें अकेली मान रहा था पर तुम तो पूरी फौज के साथ मुझपर नजर ऱखी थी। वो भी इतना तेज कि नंगा करके भी साले को न छोड़ो।   इस पर वो हंसते हुए बोली कि नजर रखना पड़ता है कि इन लड़कियों के साथ कौन किस तरह पेश आ रहा है। गालियां देती हुई बोली इतने हरामखोर लोग होते है कि कमरे में या हॉल में ही लड़कियों पर बाज की तरह झपट जाते हैं और तीन घंटे में ही जन्म जन्म का हिसाब वसूलने लगते है।  मैने डरने का अभिनय करते हुए कहा तब तो अपनी लड़कियों के साथ धूप अगरबती भी दे दिया करो यार ताकि अंदर जाकर सिनेमा और पूजा दोने साथ साथ करके ही कोई बाहर निकले। मेरी बात सुनकर वो खिलखिला पड़ी। अरे अईसा कुछ नहीं होता मगर इंटरवल में अपनी लड़कियों से सांकेतिक तौर पर हाल चाल ले ही लिया जाता है।                        

    अब इतनी सूचना और इसके हर रूप की अनायास जानकरी मिल जाने के बाद मेर मन भी खिसकने का करने लग। अपने पत्रकार वाले दिमाग को अपने बैग में रखते हुए अब हंसी ठिटोली से ही बाहर निकलने का फैसला किया। कुल्फी खाने के बाद मैने पूछा यार अभी तक तुमने अपना नाम नहीं बतायी। तपाक से वो बोली तुमने पूछा ही नहीं। मैंने कहा चल अब तो बता मगर सही वाला नाम बताना नहीं तो सलमा सुल्ताना रेहाना शबना धन्नो जैसा चलताउं झूठा नाम नाही बोलना।  इस पर वो हंसने लगी साला आरी से काटता है और यह भी पूछता है कि दर्द हो रहा है या नहीं। मैंने भी हंसते हुए ही कहा कि साला आऱी से काटना ही हो न तो तेरे आलसपन को काट दूं जवानी में बुढिया मानने वाली तेरी ग्रंथी को काट दूं। अपने उपर ध्यन देगी न तो भरी जवानी में अरूणा इरानी बनने की नौबत नहीं आएगी। अभी तो तू वाकई करीना कपूर से कम नहीं है। मेरी बातों से मानो वह निहाल सी हो गयी। खुद को संभाल नहीं पा रही थी। हंसते हंसते वो दीवर का सहारा ले ली। एकाएक फिर वो मेरे पास आकर आंखों में आंखे डालकर पूछी क्या तू सही कह रहा है ? मैने उसको संजीदगी से कहा भला झूठ बोलकर मेरा क्या जाएगा, पर तेरा तो बहुत कुछ संवर जाएगा। रीगल सिनेमा के दीवार के सहारे वो खड़ी रही और मैं उससे बाते कर रहा था। भावुक होकर वह बोल पडी तू मेरा दोस्त बनेगा ?

    अरे मैं पिछले एक घंटे से तुमको दोस्त मानकर ही तो बात कर रहा हूं अगर तू यह मान रही होगी कि मैं किसी रंडी के दलाल से प्यार फरमा रहा हूं तो तू मूर्ख है। मेरी बत सुनते ही वह चहक उछी। नहीं रे तू अनमोल है तू केवल मेरा दोस्त बन। तेरी दोस्ती पाकर ही मैं निहाल हो जाउंगी, और तू जो कहेगा वही करूंगी पर तू केवल मेरा दोस्त होगा। मैने फिर उसके हाथ को पकड़कर बोला कि तू गलत गलत ट्रैक पर फिर जा रही है। मैं यह कैसे कह दूं कि केवल तेरा हूं मेरे सैकड़ो मित्र हैं और मैं भी तो सैकड़ो के दुख सुख क साझेदर हूं यार। हर दोस्ती की परिभाषा अलग होती है, और अभी तो तू भावना में बही जा रही है खुद को संभालो पागल। एकदम उतावली सी होकर बोली कि फिर तेरे से कब मुलाकात होगी ?  इस पर जोर देते हुए मैने कहा शायद कभी नहीं। तो मैं करीना कपूर लग रही हूं या बंदरिया यह कौन बताएगा रे। . वो एकदम बालसुलभ चिंता के साथ बोल पड़ी।  उसके इस रूप को देखकर मैं भी हंस पड़ा। अरे चिंता ना कर जब करीना लगने लगेगी न तो तेरे आस पास भौंरे मंडराने लगेंगे तो तू खुद समझ जाएगी कि क्या लग रही हो। इस पर वह फिर खिलखिला पड़ी और बोली कि इस करीना का हीरो तो तुमको ही बनना पड़ेगा। मैने उसको सख्त होकर कहा कि हीरो मैं नहीं तेरा कोई यार होगा।

     चल यार मैं भी तुमको याद रखूंगी और जब भी मुझसे मिलने का मन करे तो जहां पर आज खड़ा था न वहीं पर आकर खड़ा रहना तेरी रानी प्रकट हो जाएगी।  मैं इस पर हंस पड़ा और साफ कहा कि तू मेरी रानी नहीं है। हां रे बाबा बातें तो उपदेश की करता है पर इतनी अच्छी बातें करता है कि तेरे को मारने का नहीं तेरे उपर मर जाने का मन करता है।  मैं इस पर यह कहते हुए खदी ग्रामोधोग की तरफ बढ गया कि जब मरने का मन करे तो जरूर बता देना। और दूर से खडी होकर वो मेरे को अपनी आंखो से दूर होते देखती रही।  

    बुलंद हौसले वाली दोनों लड़कियों को आज भी सलाम

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    अनामी शरण बबल


                                                   
    इधर जब से मैने अपनी सबसे अच्ची रिपोर्ट को फिर से लिखने की ठानी है तो
    बहुत सारी कथाओं के नायक नायिकाओं में से ही दो गुमनाम सी लड़कियों (अब औरतें बनकर करीब 50 साल की होंगी) को आज भी मैं भूल नहीं पाया हूं । जिन्होने अपनी हिम्मत और हौसले के बूते वैवाहिक जीवन तक को दांव पर लगा दी। तो दूसरी लड़की ने तो सार्वजनिक तौर पर अपनी साहस से उन तमाम लड़कियों को भी बल दिया होगा जो किसी न किसी आंटियों यानी जिस्म की दलाली करने वाली धोखेबाजों के फेर में पड़ कर कहीं सिसक रही होंगी। हालांकि अब तो मुझे इनका सही सही चेहरा भी याद नहीं है मगर इनकी हिम्मत और हौसले की कहानी को यहां पर लिखने से पहले ही सैकड़ों उन लड़कियों को इनकी कहानी सुना चुका हूं जो अपना घर छोड़कर नगर या महानगर जाने वाली होती थी।
    यह मुलाकात 1990 की है, जब मैं चौथी दुनिया साप्ताहिक अखबार में बतौर  रिपोर्टर काम करता था। आगरा के भगवान सिनेमा पर से दिल्ली के लिए बस पकड़ा ही था। गेट पर ही खड़ा होकर बस के अंदर अपने लिए सीट देख रहा था। पूरे बस में केवल एक ही सीट खाली थी जिसमें एक औरत अपने एक बच्चे के साथ बैठी थी और दूसरा सीट मेरा इंतजार कर रहा था। मैं वहां पर जाकर ज्योंहि बैठने लगा तो चार पांच साल के अबोध बच्चे  ने मासूमियत के साथ बोला अंकल यहां पर आप बैठ जाओगे तो मैं कहां बैठूंगा ?बच्चे की इस मासूमियत पर भला मैं कहां बैठने वाला। गाड़ी खुल चुकी थी और मैं बच्चे के लिए बस में खडा ही था। यह बात उसकी मां को असहज सी लग रही होगी। उन्होने गोद में बच्चे को लेते हुए मुझे बैठने के लिए कहा, मगर मैं खड़ा ही रहा और कोई दिक्कत ना महसूसने को कहा। इस पर प्यारा सा बच्चा मुझसे कुछ कहने के लिए नीचे झुकने का संकेत किया। चलती बस में मैं नीचे झुककर बच्चे के बराबर हो गया तो उसने कहा एक शर्त पर आप यहां बैठ सकते हो?मैं बिना कुछ कहे उसकी तरफ देखने लग तो बालक ने कह कि मम्मी की तबियत ठीक नहीं है, यदि आप मुझे अपनी गोद में बैठा कर ले चल सकते हो तो मैं आपके लिए सीट छोड़ सकत हूं। मैं उसके इस ऑफर पर खुश होते हुए प्यार से उसके गाल मसल डाले। इस पर नाराज होते हुए बालक ने अपनी मम्मी से यह शिकायत कर बैठा कि ये अंकल भी गाल खिंचते है। मेरे और बच्चे के बीच हो रहे संवाद पर आस पास के कई यात्री ठटाकर हंस पड़े, तो वह शरमाते हुए मेरे सहारे ही सीट पर खड़ा हो गया और बैठने से पहले चेतावनी भी दे डाली कि बस में दोबारा यदि गाल खिचोगे तो वहीं पर सीट से उठा दूंगा। मैं भी हंसते हुए कान पकड़कर ऐसा नहीं करने  का भरोसा दिय। सीट पर बैठते ही मैं अपने बैग से कुछ नमकीन टॉफी और बिस्कुट निकाल कर बच्चे को थमाया। जिसे उसकी मम्मी को बुरा भी लग रहा था, मगर इन चीजों को पाकर बच्चा निहाल सा हो गया।
    बच्चा मेरी गोद में सो गया था और मैं भी नींद की झपकियां ले रहा था, तभी बस कहीं पर चाय नाश्ता के लिए रूक गयी। मैने बालक की मां से पूछा कि आप कुछ लेंगी ?इससे पहले की उसकी मम्मी कुछ बोलती उससे पहले ही बालक बोल पड़ा  हां अंकल क्रीम वाली बिस्कुट। बच्चे को गोद में लेकर मैं बस से उतर गया। चाय तो मैं नीचे ही पी लिया और खिड़की से ना नुकूर के बाद भी बालक की मम्मी को एक समोसा और चाय पकडाया। बालक के पसंद वाले बिस्कुट के दो पैकेट लेकर हम दोनें बस में सवार हो गए। बस में सीट पर बैठते ही सामान के बदले कुछ रूपए जबरन पकड़ाने लगी। किसी तरह पैसे नहीं लेने पर मैं उनको राजी किया तो पता चला कि वे आगरा दयालबाग के निकट अदनबाग में रहती है। मैने भी जब दयालबाग से अपने जुड़ाव को बताया तो बच्चे की मां सरला ने भी कहा कि उसके मम्मी पापा भी दयालबाग से ही जुड़े है। बस के चालू होते ही इस बार हमदोनों के बीच बातचीत का सिलसिला भी चालू हो गया। सरला ( जहां तक मुझे याद है कि महिला का नाम सरला ही था) ने बताया कि वह दिल्ली नगर निगम के किसी  प्राईमरी स्कूल में टीचर है। ससुराल के बारे में पूछे जाने पर उसने बताया कि हमलोग में तलाक हो गया है और मैं यमुनापार के गीता कॉलोनी  में रहती हूं, क्योंकि यहां से स्कूल करीब है। पति के बारे में पूछे जाने पर वह रूआंसी हो गयी। सरला ने कहा कि उसका पति कमल रेस्तरां और बार में काम करता था और नौकरी छोड़कर कॉलगर्ल बनने की जिद करता था। वो बार बार कहता था कि तू जितना एक माह में तू कमाती है, उतनी कमाई एक रात में हो सकती है। तीन साल तक मैं किसी तरह उसके साथ रही मगर जब उसने अपनी जिद्द पूरी करने और परेशान करने या फोन पर रूपयों का ऑफर देने का कॉल करने या कराने लगा तो मैं उसके अलग रहने लगी। मेरे तलाक का फैसला 1989 नवम्बर में तय हो गया। सरला ने बताया कि अब वो खुद को बेरोजगार दिखाकर मेरे वेतन से ही पैसे की मांग करने लगा है। कहा जाता है कि लड़कियों के लिए शादी एक कवच होता है, मगर इस तरह के दलाल पति के साथ रहने से तो अच्छा होता है बिन शादी का रहना या अपने नामर्द पति के चेहरे पर जूते मारकर सबको बताना कि इस तरह के पति से बढिया होता है किसी विधवा का जीवन। मैं सफर भर उसकी बाते सुनता रहा और साहस तथा हिम्मत दाद भी दिया। उसने यह भी कहा कि मेरे मकान का मालिक भी इतने सरल और ध्यान रखने वाले हैं कि दिल्ली में भी अपना घर सा ही लगता है।

    मैने सरला से पूछा कि क्या तुम्हारी रिपोर्ट छाप सकता हूं ?तो वह चहक सी गयी। बस्स अपना फोटो या बच्चे की फोटो नहीं छापने का आग्रह की। उसने कहा कि मेरी जो कहानी है, ऐसी सैकड़ों लड़कियों की भी हो सकती है। मैं जरूर चाहूंगी कि यह खबर छपे ताकि पति के वेश में दलाल और पत्नी को ही रंडी बनाने वाले पति और ससुराल का पर्दाफश हो। सरला की यह कहनी चौथी दुनिया में छपी भी और इसकी बड़ी प्रतिक्रिया भी हुई। । चौथी दुनियां की 25 प्रति मैने सरला तक पहुचाने की व्यवस्था करा दिए, मगर आज 26 साल के बाद जब सरला की उम्र भी आज 54-55 से कम नहीं होगी मेरी गोद में बैठा बालक भी आज करीब 30 साल का होगा। तो बेशक इनके संघर्ष की कहानी का दूसरा पहलू आरंभ हो गया होगा । आज जब मैं 26 साल के बाद यह कहानी फिर लिख रहा हूं तो मुझे यह भरोसा है कि वे आज कहीं भी हो मगर अपनी पुरानी पीड़ाओं से उबर कर एक खुशहाल जीवन जरूर जी रही होंगी।


    जिस्म के दलालों से टक्कर

    यह कहानी भी यमुनापार की है। लक्ष्मीनगर के ही किसी एक मोहल्ले में तीन अविवाहित लड़कियं रहती थी और घर में केवल एक बुढा लाचार सा बाप था। इनकी मां की मौत हो चुकी थी और घर में आय के नाम पर केवल चार पांच कमरों के किराये से मिलने वाली राशि थी। मैं सभी लड़कियों को जानता था सभी मुझे अच्छी भली तथा साहसी भी लगती थी। यह कहानी सुमन (बदला हुआ नाम है)  की है। घर में मां के नहीं होने के कारण यह कहा जा सकता है कि इन पर लगाम की कमी थी। मैं इसी घर के आसपास में ही किरायें पर रहता था । सारी बहनें मुझे जानती थी और यदा कदा जब कभी कहीं पर भी मिलती तो नमस्ते जरूर करती। सारी बहने हिन्दी टाईप जानती थी और मुझे किसी न्यूज पेपर में काम दिलाने के लिए कहती भी रहती थी। घर के आस पास में कई ब्यूटी पार्लर खुले थे और इनका धंधा भी धीरे धीरे पांव पसारने लगा था। एक दिन मैं घर पर दोपहर तक था और कुछ लिखने में तल्लीन था कि गली में कोहराम सा मच गया। एकाएक शोर हंगामा और मारपीट तोड फोड़ की तेज आवाजों के बीच मैं बाहर निकलने के लिए कपड़े बदलने लग। तभी जोर जोर से सुमन की आवाज आने लगी। मैं थोड़ा व्यग्र सा होकर जल्दी से बाहर भागा। एक ब्यूटीपार्लर के बाहर हंगामा बरपाया हुआ था। सुमन के हाथ में झाडू था और वह किसी रणचंडी की तरह ब्यूटीपार्लर की मालकिन के सामने खड़ी होकर उसकी बोलती बंद कर रखी थी। गली के ज्यातर लोग भी सुमन के साथ ही थे मगर एकाएक ब्यूटीपार्लर को कबाड़ बना देने का माजरा किसी को समझ नहीं आ रहा था। ब्यूटीपार्लर की मालकिन सुमन के साथ अब भिड़ने लगी थी और बार बार पुलिस को बुलाने का धौंस मार रही थी। इस पर मैं आगे बढा और पूरी बात जाने बगैर ही बीच में टपक सा पड़ा। सुमन को पीछे करके मैने भी धौंस दी कि कि मामला क्या है यह तो अभी पता चल जाएगा मगर तू बार बार पुलिस का क्या धौंस मार रही है। तू पुलिस बुलाती है या मैं फोन करके पुलिस को यहां पर बुलाउं। मेरे साथ कई और लड़के तथा बुजुर्गो के हो जाने के बाद ब्यूटीपार्लर वाली आंटी अपने कबाड़ में तब्दील पार्लर को यूं ही छोड़कर कहीं खिसक गयी। तीनों बहन गली मे ही थी। मैने तीनो को घर में जाने को कहा, मगर वे लोग गली मे लगे मजमे के बीच ही खड़ी रही। थोडी देर के बाद जब मेरी नजर इन तीनों पर पड़ी तो सबसे बड़ी बहन को डॉटते हुए कहा कि इस तमाशे तो खत्म कराना है न तो जाओं सब अंदर और हाथ पकड़कर तीनो बहनों को घर के भीतर धकेल कर बाहर से दरवाजा लगा दिया। थोड़ी देर तक बाजार गरम रहा। सबों को इतनी सीधी लड़की के एकाएक झांसी की रानी बन जाने पर आश्चर्य हो रहा था। मैने भी कहा कि कोई न कोई बात गहरी है तभी यह लड़की फूटी है, मगर हम सबलोगों को सुमन का साथ देना है, क्योंकि हमारे गली मोहल्ले और घर की बात है । इस पर हां हां की जोरदार सहमति बनी और यह तमाशा खत्म हुआ। गली की ज्यादातर महिलाओं ने सुमन के हौसले की सराहना कीऔर यह जानने की पहल की आखिरकार माजरा क्या था अपने घर में ही सुमन ने सभी महिलाओं को बताया कि यह आंटी जबरन रंडी कॉलगर्ल बनाना चाहती थी। नौकरी के नाम पर कभी कभार पैसे देने लगी थी तो जबरन ब्यूटीपार्लर में चेहरे को भी ठीक कर देती थी, यह कहते हुए कि तेरा उधार हिसाब लिख रहीं हूं और नौकरी मिलते ही सब वसूल लूंगी।
    काफी देर तक उसके घर पर गली मोहल्ले की औरतों का मजमा लगा रहा। मैने भी तमाम महिलाओं से यह निवेदन करके ही बाहर निकला कि आप सबको इसका साथ देना हैं, क्योंकि यह आंटी तो हमलोगों के घर की ही किसी लड़की पर घात लगाएगी। मेरी बात पर सबों ने जोरदार समर्थन किया। मैने तीनों को आज घर से बाहर किसी भी सूरत में नहीं निकलने की चेतावनी दी। पता नहीं गली के बाहर या कहीं उसके लोग हो। मेरी बात पर सहमति प्रकट की तो मैं घर से बाहर निकल गया। खराब मूड को ठीक करने के लिए दोपहर के बाद मैं अपने एक पत्रकार मित्र राकेश थपलियाल के घर चल गया और दो एक घंटे तक बैठकर फिर वापस आकर सो गया। राकेश को सारी बातें बताकर मैने कल सुबह कमरे पर आने को कहा.  
    बाहर से खाना खाकर जब मैं रात करीब 10 बजे अपने कमरे पर लौटा। कुछ पढ़ने के लिए किताब या किसी रिपोर्ट को खोज ही रहा था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवज खोलते ही देखा कि तीनों बहनें खड़ी है। मैं कुछ बोलता उससे पहले ही सुमन ही बोल पड़ी आप मेरे घर पर आओ भैय्या आपको कुछ बतान है। मैं चकित नहीं हुआ। मुझे पता था कि वह अपना राज खोलेगी, मगर मेरे से यह बोलेगी इसका तो मुझे भान तक नहीं था। मैने उनलोगों को घर पर जाने को कहा कि मैं अभी आया।  उसके घर में जाते ही मैने कहा कि खाना खा चुका हूं लिहाजा चाय नहीं बनाना प्लीज।  घर में उसके पापा समेत तीनों बहनें खुलकर समर्थन करने के लिए हाथ जोड दी।  यह देखकर मैं बड़ी शर्मिंदगी सा महसूसने लगा और कहा कि यह हाथ जोडने वाली बात ही नहीं है। तुमलोग सामान्य रहो, मगर अभी थोडा संभलकर सावधान रहो क्योंकि आंटी अपने साथ कुछ आदमी को लेकर कल आ सकती है। उसके पाप मेरे पास आकर विनय स्वर में बोले कि कल आप घर पर ही रहें ताकि हमलोग का मनोबल बना रहे। मैने उनके हाथ को पकड़ लिया और कल घर पर ही रहने का भरोसा दिया। इस पर सुमन बोल पड़ी भैय्या तुम तो खुद एक किरायेदार हो और पता नहीं आगे कहां चले जाओगे, मगर जिस हक के साथ आज तुम मेरे साथ खड़े हो गए उसको मैं सलाम करती हूं। कोई अपना भी इस तरह बिना जाने सामने खड़ा नहीं होता। मैं इस परिवार की कृतज्ञता व्यक्त करने पर ही बडा असहज सा महसूसने लगा। इसके बाद सुमन बोल पड़ी आप पर मुझे भरोसा है भैय्या इस कारण आज की घटना क्यों हुई है यह आपको बतान चाहती हूं। मैं बड़ा हैरान परेशान कि क्या बोलूं। मैने कहा कि कहानी बताने की कोई जरूरत नहीं है सुमन मैं तो तुमको जानता हूं और मुझे पूरा भरोसा है कि इसमें तेरी गलती हो ही नहीं सकती। इसके बावजूद वो अपनी कहानी बताने के लिए अडी रही।
    मैं उसके साथ कमरे में था। उसने बताया कि यह आंटी किस तरह इस पर डोरे डाल रही थी। नौकरी दिलाने का भरोसा दे रही थी और करीब एक माह पहले उसने 1500 रूपये भी दी थी। अचानक एक दिन वो बोली तेरी नौकरी वेलकम करने की रहेगी, जो लोग बाहर से गेस्ट आएंगे, तो उनके साथ रहने की नौकरी। माह में ज्यादा से ज्यादा चार पांच बार गेस्ट का वेलकम करने की नौकरी। उसने बताया कि करीब 20 दिन पहले यह आंटी मुझे लेकर एक कोठी में गयी और वो दूसरे  कमरे में बैठी रही। मुझे कमरे के अंदर भेजा। जहां पर थोडी देर तक तो सारे शरीफ बने रहे मगर ड्रीक में कुछ मिलाकर मेरे साथ खेलने लगे और इसे आप मेरा रेप कहो या......जो भी नाम दो मेरे साथ हुआ। यह कहते हुए वह अपना चेहरा छिपाकर रोने लगी। फिर शांत होते हुए बोली कि जब मैं कमरे से बाहर निकली तो यही आंटी बाहर थी और मैं इनसे लिपट कर रोने लगी। तब मेरे पर्स में एक हजार रूपये डालती हुई बोलने लगी होता है होता है दो एक बार में झिझक खत्म हो जाएगी। और मेरे को एक ऑटो में लेकर मुझे घर तक छोड़ दी। मैं कई दिनों तक इसी उहापोह में फंसी रही कि आगे क्या करना है। मैं बाद में इसी निष्कर्ष पर आकर टिक गयी कि इस दलाल आंटी को बेनकाब करना है। इसके बाद वह तुरंत बोली कि रेप की घटना को छिपाकर मैने केवल आंटी पर रंडी बनाने के लिए फंसाने का आरोप लगाया है। और जब आप मेरे साथ खड़े हो तो आपको यह बताना जरूरी था। मैं कमरे में खड़ा होते हुए उसके हाथों को पकड़ लिया। मेरे मन में तेरे लिए इज्जत और बढ़ गयी है सुमन । आगे हमलोग इस घटना को छिपाकर केवल उसकी चालबाजियों को ही खोलना है। वह भैय्या कहती हुई मुझसे लिपट गयी। आप मेरे साथ खड़े हैं तो कोई मेरा बिगाड़ नहीं सकता भैय्या। मैने उसके कहा आंसू पोछ दे और हमलोग कमरे से बाहर निकल गए। तो उसकी दो बहने तथा पापाजी चाय के साथ मेरा इंतजर कर रहे थे। 

    इस घटना के अगले दिन बड़ा धमाल हुआ। अपने कई गुर्गो के साथ आंटी एक बार फिर गली में अवतरित हुई। और गली से ही नाम लेते हुए उनके गुर्गो चुनौती देने लगा। एक रणनीति के साथ हमलोग बाहर निकले तो मुझे देखते ही आंची ने अपने गुर्गो को आगाह किया। अपने साथ एक दर्जन लड़को और दर्जनों महिलाओं की ताकत थी। इस भीड़ को देखकर उसकी टोली सहम सी गयी मगर जुबानी बहादुरी बघारने लगी। चल बाहर निकल कर दिखा तो मैं यह कर दूंगा वह कर दूंगा। इस पर मैं आगे बढा और आंटी को बोला कि इन कुतो को लेकर चली जाओ। तू पुलिस बुलाएगी हमलोग ने तो तेरे खिलफ कल ही एफआईआर भी करा दिया है । और यह भी अगर कोई हमला या मारपीट होती है तो यह तुम्हारे कुत्तो काम होगा। तू कहां भागेगी उन हरामजादों का स्केच भी बनवा लिया है और जिस कोठी में गयी थी न उसका पता भी मिल गया है। साली तेरे साथ साथ तेरे तमाम ग्राहको को भी भीतर ना कराया तो देख लेना। अखबार में खबर छपेगी सो अलग। लड़कियों को रंडी बनाने का धंधा चलाती है। मैने जोर से आवाज दी सुमन जरा एफआईआर की कॉपी तो लाना इन लोगों को पहले भीतर ही करवाते है। लाना जरा जल्दी से लाना तो । मेरे साथ दर्जनों युवकों की एक स्वर में मारने पीटने के बेताब होने का अंदाज ने उनके हौसले को ही तोड़ दिया। गली के युवको ने सारे लफंगों को काफी दूर तक खदेड़ दिया। इसके बाद गली के कई बुजुर्गो ने इनके खिलाफ पुलिस में रपट दर्ज कराने पर सराहना करने लगे और इस तरह ब्यूटी पार्लर की आड़ में जिस्म की धंधा करने वाली एक दलाल को सब लोग ने मिलजुल कर भगा दिया। और मेरे झूठ पर तीनों बहने पेट पकड़ पकड़ कर हंसने लगी कि वाह भैय्या कुछ किए बिना ही रौब मर दिए। ये तीनो बहने अब कहां कैसी और किस तरह रह रही है। यह मैं नहीं जानता, मगर उसकी बहादुरी आज भी मन में जीवित है । कभी कभी खुद पर भी बेसाख्ता हंसने लगता हूं कि इतना हिम्मती और रौब दाब गांठने वाला नहीं होने के बाद भी यह कैसे कर गया।         

    नगर सुदंरियों से अपनी प्रेम कहानी -4

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    जब जीबीरोड की वेश्याओं ने मुझे गर्भवती बना दिया


    अनामी शरण बबल


    यह एक इस तरह की कहानी है जिसको याद करके भी काफी समय तक शर्मसार सा हो जाता था। मगर काफी दिनों के बाद अपने शर्म और संकोच पर काबू पाया। मगर इसको कभी लिखने के लिए नहीं सोचा था। मगर अब जबकि इस घटना के हुए करीब 16 साल हो गए हैं तो मुझे लगने लगा कि इसे भी एक कहानी या संस्मरण की तरह तो लिखना ही चाहिए। अगर कहीं मैं रंगरूप बदलकर या अपनी पहचान छिपाकर कोई बड़ी खबर करना हूं जिसे मीडिया जगत में सराहनीय भी माना जाता है तो फिर कोठे पर जाकर कोई खबर करने में शर्म कैसी। यह एकाएक अजीब हालात वाली कहानी है जिसके लिए ना मैं तैयार था और ना ही जीबीरोड के कोठेवालियां ही। पर संयोग इस तरह का बना कि करीब दो घंटे तक  मैं उनकी लाडली बन गयी। हंसी मजाक और गालियों के इस सिलसिले में एक साथ दर्जनों वेश्याएं मुझ पर निहाल सी हो गयी। और इसे प्यार कहे या दुलार गाल पर दर्जनों हाथ भी पड़े । जिसे यदि थप्पड ना भी कहे तो चोट में बस प्यर से मारा गया थप्पड ही था।  

    नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ से जब कभी भी मैं जीबीरोड होते हुए चवडीबजार या चंदनी बजार की तरफ गया तो उस रात मेरी उचट जाती थी। हर छत की खिड़कियों पर खड़ी  बेशुमार रंग बिरंगी हर उम्र की वेश्याओं द्वारा संकेत करके ग्राहको को बुलाना या सीटी मारकर अपनी तरफ मोहित करने का यह दिलफेंक सिलसिला सुबह से लेकर रात तक चलता ही रहता है। इस तरफ शाम ढले या रात को कभी गुजरा नहीं लिहाजा उस समय के हालात पर ज्यादा कह नहीं सकता मगर दिन के 11 बजे से लेकर शाम चार पांच बजे तक कई बार गुजरा तो हमेशा खिड़की गुलजार रही और खिड़कियों पर हर उम्र की वेश्याएं हमेशा ग्राहको को लुभाती या अश्लील संकेतों से उपर बुलाती ही मिली। जीबी रोड की इन सुदंरियों पर काम करने या इनके जीवन की कथा -व्यथा को जानने  की उत्कंठा मेरे मन में हमेशा जगी रहती थी, मगर मन में इतना साहस ही नहीं था कि कभी कोठे पर जाकर इनसे बात करू। और बात भी करता तो क्या करता । बेवजह समय बर्वाद करने के नाम पर तो वे लोग मुझे इतनी गालियं देती,  जिसे मैं शायद इस जन्म में भूल नही सकता या इतने जूते खाने पड़ते कि चेहरे को ठीक होने में भी समय लगता। अपने संपादक को बताए बिना बहादुरी करने या करते हुए पकड़े जाने पर तो रंडीबाज पत्रकार की तोहमत को इस जन्म में मैं धो ही नहीं सकता। कोठे पर रपट के बहाने कई थे तो साथ ही जीवनभर के लिए बदनामी या कलंक के तमाम खतरे भी जुड़े थे। इन तमाम खतरों के बाद भी मेरे मन की उत्कंठा शांत नहीं हुई थी। मगर मेरे भीतर इतना साहस कहां कि वेश्याओं से अकेले जूझ सकूं। जीबीरोड की वेश्याओं के कई नेता भी हैं जिनसे, संपंर्क करके कभी भी बेखौफ बातचीत की जा सकती है, मगर यह संयोग इस तरह का ही होता मानो उन पर नकेल डालकर बहादुर बना जाए।

    किसी काम से मैं एक बार फिर जीबी रोड की तरफ से ही गुजर रहा था। मैं किसी कोठे की छत पर जाने वाली सीढी के नीचे माहौल से अनजान खड़ा था। आज की अपेक्षा उस समय मैं थोड़ा ज्यादा मोटा सा था।  मेरा एक हाथ पेट पर था और मैं कहीं दूसरी तरफ देख रहा था। मेरे ध्यन में यह था ही नहीं कि मैं किसी कोठे पर जाने वाली सीढी के एकदम करीब या किसी कोठे के एकदम पास में ही खड़ हूं। तभी पीछे से आवाज आई कितने माह का जानू ?पहले तो मैं कुछ समझा नहीं । तभी पीछे से फिर आवाज आई कितने माह का है रे । मैं मुड़कर देखा कि सीढी पर एक महिला (वेश्या) खड़ी होकर मेरा उपहास करते हुए मजाक उड़ा रही है। एक पल को तो मैं यह नहीं समझ पाया कि इस हाल से कैसे निपटा जाए। तभी वो एकबार फिर मेरे सामने आकर बोली किससे है और कितने माह का है रे।  अचानक मैने ठान लिय कि बस्स इसी औरत का नकाब ओढ़कर ही इन वेश्याओं से निपटना है। मैं तुरंत बोल पडा किधर भाग गया था रे हरजाई  अकेली छोड़कर। मैं कहां कहां न तुमको खोजती घूम रही हूं बेवपा। आज मिला है। चल मेरे साथ कोख में आग लगाके किधर भागा था रे। मैने बोलचाल में स्त्री का रूप धारण करके उसको मर्द की तरह संबोधित कर उलाहना देने लगा। मेरी बातों को सुनकर वो हंसने लगी। मेरी बातों से पेट के बल होकर हंसती रही। उसने मुझे कहा चल साली चल यारों से मिलाता हूं। मेरे सामने वो भी मर्द की तरह ही बोलने लगी। एकाएक मेरा हाथ पकड़ कर छत पर ले जाने लगी चल इतने यारों से मिलाउंगा न कि तू यहीं मर मरा जाएगी। अब तक तो मैं भी काफी संभल गया था और ठान लिया कि एकदम स्त्रीलिंग की तरह ही हाव भाव न सही मगर बोलचाल रख कर ही इससे जूझना है। मेरा हाथ पकड़कर वो सीढी पर से ही अपनी सखियों सहेलियों को पुकारने लगी अरे आओ रे एक लौंडिया आई है जो मुझसे पेट से है रे आओ न देख मेरी दुलारी को। छत के उपर वह एक बड़े से कमरे में ले गयी। और मुझसे बोली पानी पीएगी रानी ?मैं हंस पडा और मस्ती के साथ बोल पडा राजा के हाथ से तो जहर पी जाएगी तेरी रानी।  तू पीलाकर तो देख। मेरी बातें सुनकर वो फिर निहाल सी हो गयी। हंसते हुए बोली साली लौंडिया होने का ड्रामा अब बंद भी कर. मैं एकदम निराश होकर बोल पडा और मेरे पेट का क्या  होगा रे हरजाई बेवफा ?मेरी बाते सुनकर वो फिर हंसने लगी। साली ज्यादा याराना दिखाएगी न  तो यहीं पर रख ली जाएगी। तो यहां से भाग कौन रहा है,, तेरे साथ तो जहन्नुम में भी रह लूंगी या रह जाउंगी। मेरी बातों को सुनकर वो फिर हंसते हुए बोली साला लौंडा बन जा बहुत हो गया तेरा नाटक। मैंने भी तीर मारा कि तुम भी गजब मर्द है साला जब तक नौ माह पूरे नहीं होंगे तब तक तो लौंडा कैसे बन सकती हूं। साला इतना भी नहीं जानता है। मेरे द्वारा हर बात पर दोटूक हास्यस्पद जवाब देने से मुझे उपर तक लाने वाली मगर मेरे साथ मर्द की तरह बात करने वाली वेश्या हर बार उछल पड़ती। मेरी बातों से उसकी हंसी रूक नहीं रही थी, और मैं भी हर जवाब को इतना रसीला बनाने में लगा था कि यह मेरे सामने मेरी दीवानी सी नजर आए। हमलोग अभी आपस में उलझे ही थे कि हर उम्र की एक साथ 10-15 रंगीन हसीन वेश्याएं कमरे में आ धमकी। किसी ने कहा क्या हुआ सलमा किसे इश्क फरमा रही है। मेरी तरफ कईयों की नजर गयी तो सबों ने कहा कि साली एक जब तेरे पास पहले से आया हुआ है तो कहीं और जा।  यहां नुमाईश क्यों लगा रखी है अपने यार का। नहीं संभल रहा है तो बोल साले में आग लगाती हूं फिर बकरी बनाकर कमरे में ले जाना। एकाएक धमकने वाली तमाम वेश्याओं का मन उखड़ चुका था और लगता था कि वे बस अब बाहर भागने ही वाली है। तभी मेरे साथ मर्द का रोल कर रही वेश्या ने अपने साथिनों को लताड़ा। नहीं रे यह बात नहीं है यह तो मेरी रानी है और इसके पेट में मेरा पांच माह का बच्चा है। साली खोजते खोजते नीचे मुझे मिल गयी तो अपनी रानी से तुमलोग को मिलाने के लिए उपर लेकर आई हूं। अपनी सहेली की बात सुनते ही कमरे में मौजूद तमाम वेश्याओं का रंग रूप मिजाज और बातचीत का अंदाज ही बदल गया। भीतर भीतर मैं भी थोड़ा नर्वस सा होने लगा कि एक साथ इतनी सुदंरियों को संभला कैसे जाएगा। मगर मैने सोच लिया था कि एकदम रसमलाई से भी रसीली और मीठी बाते उलहना या नकल करूंगा कि ये सब मेरे साथ ही मशगूल रहे।  कईयों ने अपनी सहेली वेश्या पर ही इल्जाम  लगाए बड़ी घाघ है री माशूका भी पालती है और हमलोग से छिपाकर भी रखती है। कईयों ने अपनी साथिन के ही गाल छूते हुए हुए बोली कितने दिन का ये तेरा यार है । कभी बोली बताई तक नहीं। अपनी सहेलियों द्वारा उसी पर संदेह अविश्वास किए जाने पर वो बौखला सी गयी। अरे मेरा यार नहीं है रे ये साला नीचे खडा था और हम दोनों के बीच पेट को लेकर जो भी रसीली और मीठी मीठी बाते हुई वह सबको बताने लगी। पूरी कहानी सुनने के बाद शामत मेरी और मेरे मर्द वेश्या को भी झेलनी पडी। कईयों ने उसकी बातों पर यकीन ही नहीं हो रहा था। सबको लग रहा था मानो मैं इसका वास्तव में यार हूं और आज सबों से मिलाने के लिए ही यह नाटक किया जा रहा है।  कईयों ने उलाहना दी साली हम कौन से तेरे यार को खा जाती, मगर कभी दिखाती तो सही। अकेले अकेले रसगुल्ला खाती रही। मेरे को निहारते हुए कईयों ने कहा इसके तोंद को कम करा नहीं तो नीचे घुटकर मर जाएगी। लौंडा तो ठीक है, कहां से पकड़ी यार यह तो बता । अपने साथिनों की उलाहना और अविश्वास के बीच  मेरा मर्द वेश्या उबल पड़ी अरी चुप भी रहो तुमलोग। मेरी बात तो मान सीढी के नीचे यही साला पेट पर हाथ रखकर दूसरी तरप देख रहा त। मैं तो बस हंसी टिठोली में मजाक की मगर साले ने इतना सटीक और मीठा जवाब दिया कि बस हाथ पकड़कर तुमलोग से मिलवाने उपर तक खींच ले आई। कईयो ने फिर भी उस पर झूठ बोलने का ही इल्जम मढती रही। तू अब तो झूट ना बोल कौन सा मैं तेरे सनम को खाने जा रही हूं, पर साले को जीजा तो कह सकती हूं। इसके समर्थन में एक बार फिर कई वेश्याओं ने अपनी ही साथिन पर फिर संदेह की। अपनी साथिनों के इस अविश्वास को दूर करने के लिए वो मेरे उपर झपट पड़ी। चल भाग यहां से तू साला पांच मिनट के लिए यहां आया और मेरी सभी सहेलियों के मन में संदेह जगा रहा है चल भाग। मैं भी कौन से आफत को अपने पल्ले बांधकर ले आई उपर। यह कहते हुए वो रोने लगी। मैं कोठे से जाने की बजाय  पास में पड़े एक रूमाल से उसके आंसू पोंछते हुए कहा रो मत यार मैं तो जाने ही वाला हूं पर तू क्यों रो रही है। रूमाल से आंसू पोंछने पर उसकी कई सहेली वेश्याएं मुझपर कटाक्ष की, अरे हाथ से भी आंसू पोंछ देता न तो कोई शामत नहीं आ जाती। मैं इस पर बोल पड़ा बिना आंसू पोछे और हाथ पकड़े तो भूचाल आ गया और तुमलोग मुझे पिटवाने के ही फिराक में ही हो क्या ?एक वेश्य मेरे पास आकर बोली इसका क्या नाम है रे तू जानता है ?मेरे द्वारा इंकार किए जाने पर सबो ने फिर से मुझसे पूरी कहानी सुनी और मैं किस तरह उपर ले आया गया की एकरूपता पर विश्वास करने लगी। तो अब मेरे इंटरव्यू का समय था तू क्या करता है इधर क्यों आय़ा था। सवालों की बौछार से निपटने से पहले मैने कहा क्या तुमलोग पानी पिला सकती हो। ज्यादातरों ने गलती का अहसास किया और तुरंत पनी के लिए दो दौड़ पड़ी। दो गिलास पूरा पी लेने के बाद दो चार ने मुझसे पूछा चाय भी पीएगा क्या ?इस पर मैने कहा तू चाय ना बना बाहर से रस और चाय मंगा ले मगर इसका पैसा मैं दूंगा। अपने बैग में रखे एक और बैग को निकाला और तीन सौ रुपए आगे कर दिए। कईयों ने कहा अरे चाय के लिए तो यह बहुत है। मैने फिर कहा तो कुछ नमकीन भी मंगा ले तो तेरे साथ साथ मैं  भी खा लूंगा। फिर मैने पूछा तुमलोग मेरे साथ तो खा ही सकती हो न ?इस, सवाल पर सारी खिलखिला पड़ी। तेरे साथ तो मर बी सकती हूं तू तो केवल खाने के लिए ही पूछ रहा है। बाजी को बिन कहे अपने हाथ में आते देख मैं उठा और सुबकते हुए जमीन पर ही सो गयी अपनी मर्द नेश्या के पास जाकर उठाया और साथ में बैठने को कहा।मेरे देखा देखी कई उसकी सहेलियं भी पस में आ गयी और सबों ने झिझोंड़कर उठाया चल चल मान गए कि वो तेरा नहीं हम सबका यार है यार । उसको मनाने उठाने में कुछ समय लगा तब तक चाय समोसे और रस को लेकर चाय वाला हाजिर हो गया। दो सौ कुछ रूपए का बिल बना । बाकी रुपए मुझे लौटाने लगी तो मैने कहा अगली बार कभी आया तो उसमें जोड लेना। इस पर एक साथ सरी वेश्याएं खिलखिला पड़ी साला बहुत तेज है अगली बार का भी अभी से टिकट कन्फर्म कराके जा रहा है। एक साथ ठहाका लगा और मैं सबको हंसते हुए देखत रहा।                       
        चाय पान के बीच में ही दो एक ने अपने बक्से से नमकीन के पैकेट ले आए औरमस्ती और पूरे आत्मीय माहौल में करीब 15 मिनट तक यह ब्रेक चलता रहा। खानपान खत्म होत ही एक ने पूछा तू बता करता क्या है ?मैं इस पर हंस पड़ा। करूंगा क्या स्टोरी राईटर हूं। इधऱ उधऱ घूमना और कहानी लिखना ही काम है। मैने चारा डालते हुए पूछा कहो तो तुमलोग की भी स्टोरी लिख दूं? मेरे इस सवाल पर कईयो ने कहा हाय हाय मेरी भी कोई स्टोरी है जो लिखेगा?  इस पर मैने तीर मारा अरे क्यों नहीं  तुमलोग को तो मैं दुनिया की सबसे शरीफ ईमानदार और पवित्र महिला मानता हूं। मेरी बातों पर यकीन न करते हुए सभी चकित रह गयी कैसे कैसे कैसे कैसे बता?हमलोग तो दुनिया की सबसे गंदी मानी जाती है। यही तो बात है कि जिसे लोग दुनिया की सबसे गंदी मानती है वो उसी माहौल मे रहकर संतुष्ट है। क्या तुमलोगों ने कभी जंतर मंतर पर धरना दी है। तुम्हारा काम क्या है सब जानते है मगर हम लोगों के काम में कितना दोगलापन है दोगला चरित्र और दो तीन चेहरे वाले हमलोग में तो कदम कदम पर बेईमानी भरा है। जितने तेरे पास आते हैं वे साले हरामखोर अपनी  बीबीओं से दगाबाजी करके आते हैं। मगर तुमलोग तो उपर से लेकर नीचे तक ईमानदार हो क्या कभी किसी से चाहे कोई हो बिस्तर पर साथ देने में भेदबाव करती हो?  तुम्हारी सादगी समर्पण और अपने धंधे के प्रति ईमनदरी देखकर तो लोगों को सबक लेनी चाहिए। मेरे इस प्रवचन क बहुत ही सार्थक असर पड़ा। मेने कह मैं तो तुमलोगो को बहुत पवित्र और ईमानदार मानता था और मानता रहा हूं। मेरी बातो का मानों उनपर जादू सा असर हुआ। वे सब मुझपर मानो न्यौछवर सी हो गयी। अरे तेरे जैसी तो बातें करने वाला कभी यहां पर आया ही नहीं । मैने तुरंत जोड़ा भला आएगा कैसे?मेरे जैसों को कभी ग्राहक माने बिना बुलाएगी न तो ,,,,। इस पर कई चीख पड़ी साले पैसा निकालने में तो मर्दो की जान निकल जती है अगर तेरी बात मानकर कोठे को फ्री कर दी न तो पूरा चांदनी चौक ही कोछे के बाहर लाईन लगाकर खड़ी हो जाएगी।   

    मेरे बैग की तलाशी लेती हुई सुदंरियों ने राष्ट्रीय सहारा के आई कार्ड और विजिटिंग कार्ड निकाल ली। एक ने कह अच्चा तो तू पत्रकार है ?मैने फौरन कहा कि एकदम सही पहचानी मैं इसके लिए ही स्टोरी लिखता हूं। अपनी जिज्ञासा प्रकट करते हुए एक ने पूछा कि तुम इसके लिए काम करते हो या नौकरी महीना वेतन वाला करते हो ?अरे तू मेरे साथ मेरे दफ्तर चल ना मैं लेकर चलता हूं वहां तुम्हें जानता कौन है। चाय भी पिलाउंगा और सबों से अपने दोस्त की तरह परिचय भी कराउंगा। तेरा मन करे तो तू जब चाहे मेरे दफ्तर में आ सकती है। अगर कभी मैं ना भी रहूं तो भी तू मेरे केबिन में बैठकर और चाय पीकर भी जा सकती है। मेरी बातों से चकित होती हुई कईयो नें कहा तुमको हमलोग पर इतना विश्वास है?मैने तीर मारा उससे भी ज्यादा जानेमन। मेरे द्वारा जानेमन क्या कहना मानो सबकी खुशियों का ठिकाना नहीं रहा और बारी बारी से मेरे गालों का ऑपरेशन ही कर डाला। अपना हाथ लगाकर मुझे अपना चेहरा बचाना पड़। सबों ने मेरे कार्ड को अपने पास रखती हुई दफ्तर में फोन करके चाय पीने के लिए आने का वादा किया।  जब मैं जाने लगा तो एक ने मुझसे कहा क्या तुम हमलोग का नंबर नहीं लोगे ?मैं बात को मोड़ते हुए कहा कि जब तुमलोग फोन करोगी या मेरे दफ्तर में आओगी तो संवाद तो बना ही रहेगा। जाने से पहले मैं अपने मर्द बनी साथी से गले लगा और माफी मांगने के अलावा धन्यबाद भी दिया कि यार मैं तेरे प्रति आभार नहीं जता सकता कि तेरे कारण मैं तुम्हारी और तुमसे इतना घुलमिल सका। इस पर वो एकबार फिर मुझ पर मर जाने का डायलॉग दी।. मैने हाथ पकड़कर कहा दोस्ती मरने के लिए नहीं होती बल्कि जिंदा रहकर दोस्ती की मान रखा जाता है। सबों से हाथ मिलाते और हाथ लहराते हुए मैं कोठे की सीढियों से नीचे उतर गया। इस घटना के कोई पांच साल तक मैं सहारा मे ही काम करता रहा, मगर कोठेवाली सुदंरियो ने ना तो कभी मुझे फोन किया और ना ही मेरे दफ्तर में आकर चाय पीने का वादा ही निभाय। अलबत्ता तब कभी कभी मुझे इनसे फोन नंबर नहीं लेने का मलाल जरूर लगा।

    नगर सुदंरियों से अपनी प्रेम कहानी -5

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    रात में एक कॉलगर्ल के साथ रिक्शे पर सफर

    अनामी शरण बबल

    यह बात 1995 की है। तब मयूर विहार फेज-तीन आबाद नहीं हुआ था। इसके आबाद नहीं होने के कारण गाजीपुक डेयरी कोणडली दल्लूपुरा में भी दुकानों की चहल पहल नहीं थी। कहा जा सकता है कि आवगमन की सुविधा भी आज की तरह नहीं थी। शाम ढलते ही पूरा इलाका विरान सूनसन सा हो जाता थ। इसके बावजूद अपराध की घटनाएं ना के बराबर होती थी। कहा जा सकता है कि जब इलाका ही विरान हो जाए तो बेचारे चोर, बदमाश लुटेरे किस पर आजमाईश करते। राष्ट्रीय सहरा मे तमाम रिपोर्टरों को एक दिन नाईट यानी रात 12 बजे तक दफ्तर में रहकर क्राईम की खबरों को देखना होता था। उस समय मेरा नाईट किस दिन था यह तो मुझे अब याद नहीं पर रात में घर तक छोड़ने की व्यवस्ता होने के कारण खास चिंता नही होती थी। देर रात तक दफ्तर में रहकर सभी अखबारों में नाईट कर रहे रिपोर्टर दोस्तों से बात करने तथा पुलिस हेडक्र्वाटर में लगातार फोन घंटियाने का अलग मजा होता था। रात में केवल पत्रकारों को सूचना देने वाले तमाम इंस्पेक्टरों से भी मिले बिना ही हम पत्रकारों की गहरी याराना हो गयी थी। घटना वाले दिन गाड़ी चालक के घर पर कोई बहुत बड़ी आपात स्थिति थी। वो दफ्तर में ही बैठकर मयूर विहार फेज 3 तक मुझे ना छोड़कर गाजीपुर डेयरी वाले पुल एन एच-24 पर ही छोड़ देने का मनुहार कर रहा था। गरमी के दिन थे और इलाके से परिचित होने के नाते मैने भी हरी झंडी दे दी, और मैं पुल के पास साढे बारह बजे उतर गया। पुल से नीचे उतरते समय मैं मान कर चल रहा था कि करीब एक किलोमीटर मुझे गाजीपुर कल्याणपुरी मोड़ तक पैदल जाना है। उसके बाद की सवारी मिली तो ठीक नहीं तो बाबू चरण सिंह की कार तो है ही।  मानसिक तौर पर इसके लिए मैं तैयार भी था कि नीचे उतरते ही देखा कि एक पेड़ के नीचे थोड़ा अंधेरे में एक रिक्शा चालक रिक्शा के साथ बैठा है। रिक्शा देखते ही मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं बस फटाफट पलक झपकते ही रिक्शे पर जा बैठा और फेज-3 चलने को कहा। मेरी बातों को नजर अंदाज करते हुए उसने कहा रिक्शा खाली नहीं है अभी सवारी आने वाली है। सवारी आने वाली है, सुनते ही मेरा माथा ठनका।  क्यों वो तेरी रोजाना की सवारी है।  इसका जवब देते उसका हलक सूख गया और हां और ना करने लगा। कितने दिनों से तेरी सवारी है यह तो बताना ?अब तक वो संभल चुका था और तन कर बोला मैं क्यों बताउं। इस पर मैं गुर्राया साले चल पुलिस से तेरी शिकायत करता हूं कि रात में यह रंड़ियों का दलाल है और उनकी सवारी करता है। मेरी गुर्राहट पर भी वो हल्के स्वर में भुनभुनाता रहा। चल आज देखता हूं तेरी अनारकली को भी साली रात में धंधा से निपटकर रिक्शा से घर जाती है। और तू तो दलाली के चक्कर मे जाएगा जेल। साले पुलिस वालों की कहीं एक बार हाथ लग गयी न तो महीने मे 15 दिन तक यह सिपाहियों को ही ठंडा करती घूमेगी। मेरी बातों से रिक्शा वाला शांत हो गया था। थोड़ी देर बाद फिर मैने फिर पूछा अभी और कितनी देर है उसके आने में। करीब एक बजने वाले थे।  रिकशा वाले ने कहा कि वो कभी भी आ सकती हैं रोजाना वो साढे बारह बजे तक तो आ जाती थी। तो यहां पर वो आती कैसे थी। इस पर रिख्शा वाले ने कहा पुल के उपर कोई कार उनको रोजाना छोडता है। यह सुनते ही मैं हंस पडा साले वो तेरे को उल्लू बनाती है। तू हरामखोर मूर्ख 50 रूपए मे ही खुश है कि इससे  तेरी कमाई हो जाती है, मगर तू भी उसके अपराध में शामिल है। साला जाएगा तू जेल । कितने दिनों से तेरे को उल्लू बना रही है। मेरी बातों का उस पर असर होने लग था। वो भीतर से घबराने लगा था। करीब दो साल से। मैने फिर डॉटा तूने कभी सोचा नहीं कि रात एक बजे आने वाली लौंड़िया कोई शरीफ तो हो नहीं सकती गदहा। देख लेना पुलिस वाले तो साले उसको अपनी रखैल बना लेंगे मगर जाएगा तू भीतर। हम दोनों अभी बातचीत मे लगे ही हुए थे कि रात की अनारकली सामने प्रकट हो गयी। मेरे उपर ध्यान न देते हुए वो रिक्शावले से पूछी क्या माजरा है । उसके आने पर वो थोडा सबल सा महसूसने लगा था । दो मिनट में मेरे एकाएक आगमन और हड़काने की जानकारी दी। मेरे उपर बेरूखी से बोली क्या हंगामा कर रहे हो। इस पर मैं हंस पड़ा हंगामा तू रोजाना करती है और मुझसे पूछती है कि मैं हंगामा कर रहा हूं। उसने कहा क्या मतलब। अभी चल पुलिस थाना सब पता चल जाएगा धंधा रंडी वाला और ताव पुलिस वाला मारती है।. जोर से चीखने लगी क्या बकवास करता है। वहीं तो मैं कह रहा हूं साले को दो साल से पटा रखी हो कि रात में तेरे को ले जाया करे और तेरा काम नाम किसी को भी पता नहीं लगा। वह मेरे से पूठी  तुम कौन हो। मैं कोई रंडा या दलाला नहीं हूं। पुलिस का मुखबिर हूं तेरी कारस्तानी का थाने में पोल खोली जाएगी। फौरन अपना तेवर ठंडा करते हुए बोली क्या मांगता है। मैं तुरंत बोला धंधा करने वाली मुझे क्या देगी, जो चंद रूपयौं को लिए हर जगह बीछ जाए। रिक्शा वाले की तरप ईशारा करते हुए मैने कहा अरे इस  मूरख को तो समझा देती कि यदि कोई सवारी बीच में आ जाए तो उसको ठीक से पटा ले ना कि तोते की तरह तेरे धंधे की कहानी बताने लगे। थोडा नरम पड़ती हुई बोली आपको क्या शिकायत है इससे या मुझसे। मेरी कोई शिकायत नहीं हो सकती, मैं तो मयूर विहारफेज 3 जाने के लिए पूछा तो बकने लग मेरी सवारी है मैं नहीं जा सकता। तो मैं बस तुम्हारा इंतजर कर रहा था कि एक ही साथ फेज-3 चलेंगे। वह तुरंत बोली यह कैसे हो सकता है। मैने कहा कि एक रिक्शे मे दो सवारी बैठ सकते है या तो एक साथ चलो या फिर मैं पहले जाता हूं फिर तेरा तोता  तो तेरे लिए आ ही जाएगा। पर अब इसको मूर्ख बनाना बंद करो रात को एक बजे 50 रूपे देती हो, और यह साला इसी में खुश कि रात में लौंडिया को लेकर जा रहा है। लौंडिया सुनते ही वह चीखी क्या बकते हो । मैंने तुरंत सॉरी कहा तुम ठीक कह रही हो ये लौंडिया नहीं रंडी को लेकर रात में घूमता है मूरख। साले को पकड़े जाने दो जीवन भर रहेगा भीतर। इस बार वो मेरे उपर चीखी क्या रंडा रंडी बक रहा है मैं अभी मजा चखाती हूं। मेरी शराफत का नाजायज फायदा उठा रहे हो। मैं हंसने लगा तू अभी इस लायक ही कहां है कि तेरा फायदा उठा सकू। अगर बात को तूल देनी है तो जहां तेरी मर्जी हो वहां चल और शराफत के साथ अपने धंधे पर पर्दा डाले रखना चाहती है तो मयूर विहर फेज 3 तक साथ साथ मुंह बंद करके चल। रिक्शा वाले को जो तुम दोगी उसमें 25 रूपए मैं भी शेयर कर दूंगा। मेरी बाते सुनकर वो रिक्शे पर बैठ गयी। जब मैं बैठने लगा तो सती सावित्री कुलवंती देवी की तरह मेरे को छिटकाते हुए बोली ठीक से बैठो ठीक से। इस पर मैं भी जोर से बोल पड़ा कि तेरे से चिपकने या चिपक कर बैठने का कोई इरादा या मूड नहीं है। बीच में मैं अपने बैग को रख डाला तो उसको बैठने मैं दिक्कत होने लगी होगी, तो बोली इसको हटाओ मैं नहीं बैठ पा रही हूं। तो मैं क्या करूं, ऐसा करो तुम नीचे बैठ जाओ केवल 15 मिनट की ही तो बात है। मेरी बाते सुनकर फिर वो चीखी बकवास बंद करेगा।  मैने तुरंत जोड़ा मैने तो सारी बकवास बंद कर रखी है, मगर इस बेचारे को छोड दे नहीं तो पुलिस तो तेरी आगे पीछे घूमने लगेगी, मगर इसका तो कोई नहीं है।  मैने फिर रिक्शे वाले को आगाह किया कि यही तेर को अब एक सौ रूपया भी रोजाना दे न तो भी इसका साथ छोड़ दे ,नहीं तो तेरे को भीतर मैं करवा दूंगा मूऱख। मैने उसे पूछा कहां का है रे। मेरी बात पर दबे स्वर में बोला दरभंगा का। यह सुनते ही मैने पांव से एक ठोकर उसको दे मारी । साला गदहा अपने साथ साथ बिहार का भी नाक कटाता है। ठोकर लगते ही उसने रिक्श रोकते हुए रोने लगा। तेरे को भी मजा देती है क्या जो इसके पीछे पागल बना है। इस पर रिक्शा वाला तो खामोश रहा पर मेरे बगल में बैठी देवी फिर चिल्लाने लगी अजीब बदतमीज हो हर बात पर मुझे रंडा रंडी कॉलगर्ल बताए जा रहे हो। मैं नहीं बोल रही हूं इसका मतलब यह नहीं कि तू जो चाहेगा बोल सकता है।

    इस पर मैंने कहा मैं तो शुरू से ही कह रहा हूं कि तू बोल बोल न रोक कौन रहा है। यह तो मेरी शराफत है कि मामले को तूल नहीं दे रहा हूं वर्ना तू भी जानती है कि इन पुलिस वालों के चक्कर में आते ही तेरा धंधा तो हो जाएगा चौपट, मगर रोजाना  इनसे ही निपटने में और कोख गिरने में ही तेरी सारी जवानी खत्म हो जाएगी। मेरी बात सुनते ही रिक्शा पर बैठी बैठी वह रोने लगी। मैने तुरंत नाटक बंद करने को कहा। रिक्शा कोणडली गांव होते हुए  घडौली डेयरी के रास्ते में आ गया । तभी सामने से एक गाडी की लाईट्स पडी। मैं इसको थोडा संभल कर बैठने को कहा । ठीक मेरे सामने पुलिस की जिप्सी रूक गयी। मैं फौरन रिक्शे से उतरा और अपना कार्ड देते हुए कहा कि आज नाईट थी और दफ्तर की गाडी आज ठीक नहीं थी मगर गाजीपुर पुल के नीचे एक रिक्शे पर ये मोहतरमा मिल गयी तो लिफ्ट ले लिया 25 रूपये शेयर करने की शर्त पर। इस पर पुलिस वाला मुस्कुरा पड़ा। ये मोहतरमा कौन है। कोई बीमार है और ई रिक्शा वाला दरभंगा का है। पुलिस वाला हंसते हुए बोला तो पत्रकार जी आपने तो पूरी रिर्पोर्टिंग कर ली है। मैने भी कहा क्या करे रात का मामला है और कोई लड़की हो तो तहकीकात तो करनी ही पड़ती है। मेरी बात सुनकर पुलिस वाला ठहाका लगाया और आगे गाड़ी आगे बढ़ गयी।  वापस रिक्शा पर बैठते ही मोहतरमा बोली कि तू पत्रकर है। मैने फौरन कहा बस इसीलिए आज तू बच गयी। बातचीत करते करते मैं मयूर विहार फेज 3 के बस अड्डे पर आ गया। यहां पर मुटे उतरना था।  मगर महिला ने बताया कि मैं आगे जाउंगी। रिक्शा वाले को नीचे उतरकर मैने एक हाथ जमाते हुए मैने फिर आगाह किया कि साला कमाई कर दलाली ना कर वर्नाजीवन भर के लिए भीतर हो जाएगा। घर गांव में बदनामी होगी सो अलग। और अंत में मैने इस कॉलगर्ल कहे या संभ्रात रंडी को भी सलाह दी कि रिक्शे की सवारी तेरे लिए एकदम सेफ नहीं है। ये तो कहो कि गाजीपुर डेयरी  के हरामजादों को पता ही नहीं है रि तू रोजाना रात में आती है। ये साले तुम्हें इस लायक भी नहीं छोड़ेगें कि खुद को संभाल सको। और जब रात में पुल तक गाडी से आती है तो अपने इश्कखोरों से कहो कि फेज-3 तक छोड़ा करे नहीं तो किसी भी दिन तेरा राम नाम सत्य हो जाएगा।  जब मैं मुड़ने लगा तो वह हाथ जोड़कर रोने लगी। रोते देखकर मैने कहा खुद को संभाल ई रोने धोने का चूतियापा बंदकर। यह कहते हुए मैं अपने घर की तरफ जाने लगा। इस घटना के बाद फेज-3 में ही उससे एक बार बाजार में और दूसरी दफा डीटीसी बस में टक्कर हो गयी। मुझे देखते ही वह शरमाते हुए हाथ जोड दी। बस में तो वह बैठी थी, मगर मेरे को देखते ही अपनी सीट खाली कर दी। मैने उसे सीट पर बैठने को कहा और हाल चाल पूछते के बाद  बस से उतर कर दूसरे बस की राह देखने लगा।    

    देहव्यापार का एक रूप यह भी

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    जब मेरे घर पर ही लड़की बुलाने का ऑफर दिया

    अनामी शरण बबल

    कभी कभी जिन लोगों को हम बहुत आदर और सम्मान से देखते है तो हमेशा पाते हैं कि वहीं आदमी कभी कभी अपनी नीचता के कारण एकदम बौना सा लगने लगता है। इसी तरह की एक घटना मेरे साथ भी हुई कि सैकड़ो कैसेट का एक गायक और जानदार नामदार आदमी को अपने घर से दुत्कार कर निकालना पड़ा। जिस आदमी के करीब होने से जहां मैं खुद को भी गौरव सा महसूस कर रहा था कि अचानक सबकुछ खत्म हो गय। यह घटना 1994 की है। जब एकाएक मेरे एक मित्र ने मेरे घर में आकर इस तरह का ऑफर रख दिया कि मन में आग लग गयी, और ...। घर में मेरे अलावा उन दिनों कोई और यानी पत्नी नहीं थी। मेरी पत्नी का प्रसव होना था। प्रसूति तो दिसम्बर मे होना था मगर वे कई माह पहले ही चली गयी थी। खानपान का पूरा मामला बस्स नाम का ही चल रहा था। होटल ही बडा सहारा था। खैर मेरे फ्लैट के आस पास में ही एक भोजपुरी गायक रहते थे और भोजपुरी संसार में बड़ा नाम था। उस समय तक उनके करीब 250 कैसेट निकल चुके थे। वे लगातार गायन स्टेज शो और रिकॉर्डिग में ही लगे रहते थे। समय मिलने पर मैं माह में एकाध बार उनके घर जरूर चला जाता था। मेरी इनसे दोस्ती या परिचय कैसे हुआ यह संयोग याद नहीं आ रहा है। मगर हमलोग ठीक
    ठीक से मित्र थे। संभव है कि उस समय मयूर विहार फेज-3 बहुत आबाद नहीं था तो ज्यादातर लोग एक दूसरे से जान पहचान बढाने के लिए भी दोस्त बन रहे थे। अपनी सुविधा के लिए हम इस गायक का नाम मोहन रख लेते हैं ताकि लिखने और समझने में आसानी हो सके। हालांकि मैं यहां पर उनका नाम भी लिख दूं तो वे मेरा क्या बिगाड़ लेंगे, मगर हर चीज की एक मर्यादा और सीमा होती है, और इसी लक्ष्मण रेखा का पालन करना ही सबों को रास भी आता है। राष्ट्रीय सहारा अखबर में मेरा उस दिन ऑफ था या मैं छुट्टी लेकर घर पर ही था यह भी याद नहीं हैं । मैं इन दिनों अपने घर पर अकेला ही हूं, यह मोहन को पता था। मैं घर पर बैठा कुछ कर ही रहा हो सकता था कि दरवाजे पर घंटी बजी और बाहर जाकर देखा तो अपने गायक मोहन थे। उस समय शाम के करीब पांच बज रहे होंगे। मैं उनको बैठाकर जल्दी से चाय बनाने लगा। चाय बनाने में मैं उस्ताद हूं, और पाककला में केवल यही एक रेसिपी माने या जो कहे उसमें मेरा कोई मुकाबला नही। हां तो चाय  के साथ जो भी रेडीमेड  नमकीन  के साथ हमलोग गप्पियाते हुए खा और पी भी रहे थे । जब यह दौर खत्म हो गया तो मोहन जी मेरे अकेलेपन और पत्नी से दूर रहने के विछोह पर बड़ी तरस खाने लगे। बार बार वे इस अलगाव को कष्टदायक बनाने में लगे रहे। मैं हंसते हुए बोला कि आपकी शादी के तो 20 साल होने जा रहे हैं फिर भी बडी प्यार है भाई। अपन गयी हैं तो कोई बात नहीं। मामले को रहस्यम रोमांच से लेकर यौन बिछोह को बड़ी सहानुभूति के साथ मेरे संदर्भ से जोडने में लगे रहे। थोडी देर के बाद उनकी बाते मुझे खटकने लगी। मैने कहा कि यार मोहन जी मैं आपकी तरह अपनी बीबी को इतना प्यर नहीं करता कि एक पल भी ना रह सकूं । मेरे लिए दो चार माह अलग रहना कोई संकट नहीं है बंधु। इसके बावजूद वे मेरे पत्नी विछोह पर अपना दर्द  किसी न किसी रूप में जारी ही रखा। मोहन जी के विलाप से उकता कर मैने कहा अब बस्स भी करो यार मैं तो इतना सोचता भी नहीं जितना आप आधे घंटे में बखान कर गए। इस चैप्टर को बंद करे । तभी मेरे पास आकर  मोहन जी ने कहा क्या मैं आपके लिए कोई व्यवस्था करूं। यह सुनते ही मेरा तन मन सुलग उठा पर मैं उनकी तरफ देखता रहा कि यह कहां तक जा सकते है। मेरी खामोशी को सहमति मानकर खुल गए और बताया कि इनका जीजा नोएडा में किसी बिल्डर के यहां का लेबर मैनेजर है। उसने कहा कि आप कहे तो शाम को ही एक औरत को लेकर जीजा यहां आ जाएगा और दो चार घंटे के बाद सब निकल जाएंगे। मेरी तरफ देखे बगैर ही हांक मारी कि जब तक आपकी फेमिली नहीं आती हैं तब तक चाहे तो सप्ताह में दो तीन दिन मौज मस्ती की जा सकती है। मोहन की बाते सुनकर मैने भी हां और ना वाला भाव चेहरे पर लाया। तो वे एकदम खुव से गए अरे बबल जी चिंता ना करो जीजा रोजाना नए नए को ही लाएगा। मुझे क्या करना है मैं सोच चुका था पर इन हरामखोरो के सामने भी कुछ इसी तरह का प्रस्ताव रखने की ठान ली। मैंने कह मोहन आईडिया तो कोई खास बुरा नहीं है पर मैं उसके साथ आ ही नहीं सकता जो 44 के नीचे आई हो। मेरे लिए तो कोई एकदम फ्रेश माल लाना होगा। मेरी बात सुनकर वे चौंके क्या मतलब
    ?एकदम फ्रेश । मोहन जी एक ही शर्त पर मैं अपने घर को रंगमहल बना सकता हूं कि मेरे लिए आपको अपनी बेटी लाना होगा। मेरी बात सुनते ही वे चौंक उठे, कमाल है अनामी जी आप क्या बोल रहे हो। मैने तुरंत कहा इससे कम पर कुछ नहीं।  इसमें दिक्कत क्या है आपका जीजा आपके साथ मिलकर आपकी बहन और अपनी बीबी के साथ दगाबजी कर रहे हो तो एक तरफ बहिन तो दूसरी तरफ बेटी होगी और क्या। मेरे अंदाज से मोहन भांप गया कि बात नहीं बनेगी तो थोडा गरम होने की चेष्टा करने लगा। तब मैं एकदम बौखला उठा और सीधे सीधे घर से निकल जाने को कहा। सारी शराफत बस दिखावे के लिए है। मेरे से यह बात आपने कैसे कर दी यही सोच कर मुझे अपने उपर घिन आ रही है कि तू मेरे बारे में कितनी नीची ख्यालात रखता है।  कंधे पर हाथ लगाया और सीढियों  पर साथ साथ चलते हुए मैने जीवन मे फिर कभी घर पर नहीं आने की चेतावनी दी। इस तरह की एय्याशियों या साझा सेक्स की तो मैं दर्जनों घटनाओं को जानता हूं, पर कभी मैं इस तरह के साझ समूह सेक्स के लिए कोई मुझे कहे या मेरे घर को ही रंगमहल सा बनाने को कहे यह मेरे लिए एकदम अनोखा और नया अनुभव सा था। मैं घर में लौटकर काफी देर तक अपसेट रहा । इस घटना के बारे मैं अपनी पत्नी समेत कईयों को बताया। और इसी बीच मेरे और मोहन के बीच संवाद का रिश्ता खत्म हो गया।

    तभी 1996 में होली के दिन मोहन मेरे घर पर एकाएक आ गए। उसको देखते ही मेरा मूड उखड सा गय पह माफी मांगी मगर होली में यह सामान्य होने के बाद भी मैं यह नहीं देख सका जब मोहन मेरी पत्नी के गालों पर गुलाल और रंग लगाने लगा। यह देखते ही मैं उबल पड़ा और फौरन मोहन को घर से जानवे की चेतावनी दी। तू मित्र लायक नहीं है यार अभी कटुता को भूले एक क्षण भी नहीं हुआ कि तू रंग बदलने लगा। तू बड़ा गायक होगा तो अपने घर का यहां से चल भाग। पर्व त्यौहार में अमूमन घर आए किसी मेहमान के साथ इस तरह की अभद्रता करना कहीं से भी शोभनीय नहीं होता, मगर कुछ संबंधों में सब कुछ जायज होता है।           

    करीब दो साल के बाद मैं अपनी पत्नी को लेकर गांव चिल्ला सरौदा  के पास स्कूल में गया। जहां पर उनको अपने स्कूल की बोर्ड परीक्षा दे रही तमाम लडकियों  से मिलकर हौसला अफजाई के साथ साथ विश करना था। तभी एकाएक एक बार फिर मोहन टकरा गए। उनकी दूसरी बेटी भी बोर्ड की परीक्षा देने वाली थी। मोहन से टीक ठाक मिला तो उन्होने अपनी बड़ी बेटी से मेरी पत्नी का परिचय कराया जिसकी पिछले साल ही शादी हुई थी। वो हमदोनों के पैर छूकर प्रणाम की तो मैं उसको गले लगा लिया । माफ करना बेटा एक बार किसी कारण से तेरे को मैं गाली दे बैठ था पर तू तो परी की तरह राजकुमरी हो । माफ करन बेटा. मेरे इस रूप और एकाएक माफी मांगने से वह लड़की अचकचा गयी। पर मेरे मन में कई सालों का बोझ उतर गया। जिसको बेटी की तरह देखो और उसको ही किसी कारण से कामुक की तरह संबोधित करना वाकई बुरा लगता है। इस घटना के बाद करीब 18 साल का समय गुजर गया, मगर गायक मोहन या इसके परिवार के किसी भी सदस्यों से फिर कभी मुलाकात नहीं हुई।
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