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बाल सुरक्षा पर पुस्तिका

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बाल-सुरक्षा

आपने जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की प्रसिद्ध उक्ति सुनी होगी - 'मेरी दृष्टि में मानव मुक्ति शिक्षा से ही संभव है।'प्राचीन काल से भारतीय समाज में शिक्षकों का स्थान सबसे ऊँचा रहा है अर्थात् ईश्वर के बाद दूसरा स्थान गुरु का ही आता है ऐसे तो गुरु को परमबह्म कहा गया है।
एक शिक्षक अपनी निजी जिन्दगी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अच्छे शिक्षक अपने छात्र-छात्राओं के दिल में महत्वपूर्ण और पवित्र स्थान रखता है। माता-पिता के बाद शिक्षक ही बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता है तथा उसके व्यक्तित्व को सही रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
आप सब जानते हैं कि प्रत्येक समाज में बच्चों को दुर्व्यवहार, हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है। यदि आप अपने आस-पड़ोस में झाँककर देखें, तो पाएँगे कि छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाने के बजाय मजदूरी के काम में लगे हुए हैं। अधिकाँश बँधुआ माता-पिता अपने बच्चों की पिटाई करते हैं। कक्षा में शिक्षक भी उनकी पिटाई करते या फिर जाति व धर्म के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है। महिला बाल शिशु को जन्म लेने से रोका जाता है। इसके लिए उनकी गर्भ में या फिर जन्म के बाद हत्या कर दी जाती है अथवा फिर उन्हें परिवार या समाज में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। जन्म के बाद बालिकाओं को बाल-विवाह, बलत्कार या फिर तिरस्कार की मार अलग से झेलनी पड़ती है।
हाँ, कई बच्चों की जीवन की यही सच्चाई है। इनमें से कुछ बच्चें आपकी कक्षा या स्कूल में भी होंगे।
एक शिक्षक के रूप में जब आप देखते या सुनते हैं कि एक बच्चा अपमानित हो रहा है या शोषित हो रहा है, तो उस बारे में आप क्या करेंगे ?
क्या आप ...
भाग्य को दोष देंगे ?
  • क्या आप यह तर्क देंगे कि सभी प्रौढ़, बाल अवस्था से गुजरते हुए उस अवस्था तक पहुँचे हैं, तो इसके साथ गलत क्या है ?
  • तर्क देंगे कि यह तो रीति-रिवाज व प्रचलन है इसलिए इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता।
  • गरीबी पर दोष मढ़ेगे।
  • भ्रष्टाचार पर आरोप लगाएँगे।
  • परिवार वालों को दोषी ठहराएँगे कि वे इसके लिए कुछ नहीं करते।
यदि बालक आपका छात्र नहीं हो, तो आप चिंता क्यों करें ?
  • यह पता लगाने की कोशिश करें कि बच्चे को सचमुच सुरक्षा की जरूरत है।
  • तब तक इंतजार करें जब तक कोई साक्ष्य नहीं मिल जाता।
या फिर आप ...
  • यह सुनिश्चित करेंगे कि बच्चा सुरक्षित जगह पर है।
  • बच्चे से बात करेंगे।
  • उसके परिवार वालों से बात करेंगे और उन्हें यह बताएँगे कि प्रत्येक बच्चा को सुरक्षित बाल्यावस्था, उसका अधिकार है और माता-पिता की यह पहली जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों की देखभाल करें।
  • आवश्यक होने पर बच्चे और उसके परिवार की मदद करेंगे।
  • यह पता लगाएँगे कि उस बच्चे की सुरक्षा के लिए क्या खतरा है ?
  • बच्चों के विरुद्ध क्रूर व्यवहार करने वाले या जिनसे बच्चों को सुरक्षा की जरूरत है वैसे व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे।
  • कानूनी सुरक्षा और उपचार की आवश्यकता होने की स्थिति में मामले को पुलिस थाने में दर्ज करवाएँगे।
इस बारे में आपकी प्रतिक्रिया, इस पर निर्भर करेगी कि आप स्वयं को किस नजरिए से देखते हैं। क्या आप स्वयं को मात्र एक शिक्षक या सर्वोच्च प्रदर्शक या प्रेरक या मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं ? क्योंकि शिक्षक या सर्वोच्च प्रदर्शक या प्रेरक या मार्गदर्शक को एक संरक्षक, बचावकर्त्ता एवं सामाजिक बदलाव लाने वाले अभिकर्त्ता की भूमिका भी अवश्य निभानी चाहिए।
आप शिक्षक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ...
  • आप बाल समुदाय और परिवार के प्रमुख अंग हैं। इस तरह, आप उनके अधिकारों को बढ़ावा देने एवं उन्हें सुरक्षा देने के प्रति जिम्मेदार हैं।
  • आप बच्चों के रोल मॉडल या आदर्श हैं और इसके लिए आप कुछ मानक निश्चित करें।
  • आप शिक्षक के रूप में युवा छात्र-छात्राओं की उन्नति, विकास, भलाई और सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार हैं।
  • आपके पद के कारण यह जिम्मेदारी एवं प्राधिकार आपमें व्याप्त है।
  • आप एक शिक्षक से अधिक उच्च हो सकते हैं जो स्कूलों में केवल पाठ्यक्रम पूरा करते व बेहतर परिणाम लाते हैं। आप सामाजिक बदलाव लाने वाले अभिकर्त्ता भी हो सकते हैं।
यह जानकारी विशेष रूप से आपके लिए बनाई गई है। क्योंकि आप बच्चों की मदद कर सकते, उन्हें अपमानित व शोषण का शिकार होने से बचा सकते हैं। यद्यपि हमने संक्षिप्त में कानून की चर्चा की है अतः इस मामले में किसी वकील से कानूनी सलाह लेना उपयोगी होगा।

बाल अधिकारों को समझना

बच्चे कौन हैं?
अंतरराष्ट्रीय नियम के अनुसार बच्चा का मतलब है वह व्यक्ति जिसकी उम्र 18वर्ष से कम है। यह विश्व स्तर पर बालक की परिभाषा है जिसे बाल-अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र संघ संयोजन (यूएनसीआरसी, अंतरराष्ट्रीय कानूनी संस्था) में स्वीकार किया गया है और जिसे दुनिया के अधिकाँश देशों द्वारा मान्यता दी गई है।
भारत ने हमेशा से 18वर्ष से कम उम्र के लोगों को एक अलग कानूनी अंग के रूप में स्वीकार किया है। क्योंकि भारत में 18वर्ष की उम्र के बाद ही कोई व्यक्ति वोट डाल सकता, ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त कर सकता या किसी अन्य कानूनी समझौते में शामिल हो सकता है। 18वर्ष से कम उम्र की लड़की और 21वर्ष के कम उम्र के लड़के की शादी को बाल-विवाह रोकथाम अधिनियम, 1929के अंतर्गत निषिद्ध किया गया है। यद्यपि 1992में यूएनसीआरसी को स्वीकार करने के बाद भारत ने अपने बाल कानून में काफी फेरबदल किया है। उसके अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि वह व्यक्ति जो 18वर्ष से कम उम्र का है और जिन्हें देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता है, वे राज्य से उस प्रकार की सुविधा प्राप्त करने का अधिकारी है।
भारत में कुछ और कानून हैं जो बालकों को अलग ढ़ंग से परिभाषित करता है। लेकिन अब यूएनसीआरसी के प्रावधानों के अनुरूप उसमें बदलाव लाकर दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। जैसा कि पहले कहा गया है कानूनी रूप से बालिकाओं के वयस्क होने की उम्र 18वर्ष और लड़के की 21वर्ष है।
इसका यह मतलब है कि आपके गाँव या शहर में जो युवा 18वर्ष से कम उम्र के हैं वे बालक हैं और उन्हें आपकी सहायता, समर्थन और मार्गदर्शन की जरूरत है।
एक व्यक्ति को बच्चा उसकी उम्र ही बनाता है। यदि किसी व्यक्ति की उम्र 18वर्ष से कम है और उसका विवाह कर दिया गया है और उसका भी बच्चा है तो उसे भी अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार बालक ही माना जाएगा।
मुख्य बिन्दुएँ
  • 18 वर्ष से कम उम्र के सभी व्यक्ति बच्चे हैं
  • बाल्यावस्था एक प्रक्रिया है जिससे होकर प्रत्येक मानव को गुजरना पड़ता है।
  • बाल्यावस्था के दौरान बच्चों को अलग-अलग अनुभव होते हैं।
  • सभी बच्चों को अपमानित और शोषित होने से बचाना जरूरी है
बच्चों पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत क्यों है ?
  • बच्चे जिस वातावरण में रहते, उसके प्रति वयस्क की अपेक्षा वे अधिक संवेदशील होते। इसलिए वे किसी निर्णय व अनिर्णय से अन्य उम्र आयु समूह की अपेक्षा अधिक प्रभावित होते हैं।
  • अधिकतम समाजों में (साथ ही, हमारे समाज में भी) बच्चे को माता-पिता की संपत्ति माना जाता है या फिर वे प्रौढ़ होने की प्रक्रिया में होते या फिर समाज में अपना योगदान देने को तैयार नहीं होते।
  • बच्चे वयस्क लोगों की तरह नहीं दिखते जिनके पास अपना दिमाग, व्यक्त करने को विचार, अपनी पसंद को चुनने का विकल्प तथा निर्णय-निर्माण की क्षमता होती है।
  • प्रौढ़ व्यक्ति द्वारा बच्चे को मार्गदर्शन दिए जाने के बजाए, वे उनके जीवन का निर्णय ही करते हैं।
  • बच्चों के पास मतदान, राजनीतिक प्रभाव या थोड़ी-बहुत भी आर्थिक शक्ति नहीं होती। इस वजह से उनकी आवाज नहीं सुनी जाती है।
बाल अधिकार क्या है?
देश में निर्मित तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बने जिन कानूनों को भारत में स्वीकार किया गया है, उसके अंतर्गत निर्धारित मानक और अधिकारों को पाने का अधिकार उन सभी व्यक्तियों को है जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम है।
भारतीय संविधान

भारतीय संविधान ने सभी बच्चों के लिए कुछ अधिकार निश्चित किए हैं, जिसे विशेष रूप से उनके लिए संविधान में शामिल किया गया है। वे अधिकार इस प्रकार हैं –
  • 6-14 वर्ष की आयु समूह वाले सभी बच्चों को अनिवार्य और ऩिःशुल्क प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद - 21 ए)
  • 14 वर्ष की उम्र तक के बच्चे को किसी भी जोखिम वाले कार्य से सुरक्षा का अधिकार (अनुच्छेद - 24)
  • आर्थिक जरूरतों के कारण जबरन ऐसे कामों में भेजना जो उनकी आयु या क्षमता के उपयुक्त नहीं है, उससे सुरक्षा का अधिकार (अनुच्छेद - 39 ई)
  • समान अवसर व सुविधा का अधिकार जो उन्हें स्वतंत्रत एवं प्रतिष्ठापूर्ण माहौल प्रदान करे और उनका स्वस्थ रूप से विकास हो सके। साथ ही, नैतिक एवं भौतिक कारणों से होने वाले शोषण से सुरक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 39 एफ)
साथ ही, उन्हें भारत के वयस्क पुरुष एवं महिला के बराबर समान नागरिक का भी अधिकार प्राप्त है जैसे -
  • समानता का अधिकार ( अनुच्छेद 14)
  • भेदभाव के विरुद्ध अधिकार ( अनुच्छेद 15)
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून की सम्यक् प्रक्रिया का अधिकार ( अनुच्छेद 21)
  • जबरन बँधुआ मजदूरी में रखने के विरुद्ध सुरक्षा का अधिकार ( अनुच्छेद 23)
  • सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से, समाज के कमजोर तबकों के सुरक्षा का अधिकार ( अनुच्छेद 46)
राज्य को चाहिए कि -
  • वह महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाएँ ( अनुच्छेद 15 (3))
  • अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करे ( अनुच्छेद 29)
  • समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक हितों को बढ़ावा दें (अनुच्छेद 46)
  • आम लोगों के जीवन-स्तर और पोषाहार स्थिति में सुधार लाने तथा लोक स्वास्थ्य में सुधार हेतु व्यवस्था करे (अनुच्छेद 47)
संविधान के अलावे भारत में कई ऐसे कानून हैं जो विशेष रूप से बच्चों के लिए बने हैं। एक जिम्मेदार शिक्षक और नागरिक होने के नाते आप उन्हें और उसकी महत्ता को अवश्य जानते हैं।
बाल-अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन
बाल-अधिकारों पर बने अंतरराष्ट्रीय कानून की महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह बाल अधिकार पर हुए संयुक्त राष्ट्र संयोजन से सम्बद्ध है जिसे सीआरसी कहा जाता है। ये अंतरराष्ट्रीय कानून और भारतीय संविधान व विधि-विधान के साथ मिलकर तय करते हैं कि बच्चों को वास्तव में क्या अधिकार होने चाहिए।
मानव अधिकार सभी लोगों के लिए हैं जिसका उम्र से कोई लेना-देना नहीं है। यद्यपि विशेष दर्जे के कारण बच्चों को वयस्क से अधिक सुरक्षा और मार्गदर्शन की जरूरत है। साथ ही, बच्चों के लिए कुछ विशेष अधिकारों का भी प्रावधान किया गया है।
बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की मुख्य विशेषताएँ -
  • 18 वर्ष की उम्र तक के लड़के और लड़कियों दोनों पर समान रूप से लागू होता है। भले ही वे विवाहित हों और उनके अपने बच्चे भी हों
  • बच्चों के बेहतर हित, भेदभावरहित जीवन और बच्चों के विचारों का सम्मान के सिद्धान्त पर सम्मेलन निर्देशित हों
  • यह परिवार के महत्व तथा ऐसे वातावरण के निर्माण पर जोर देता है जो बच्चों के स्वस्थ विकास और उन्नति में सहायक हो
इसमें सरकार पर यह जिम्मेदारी भी सौंपी गई है कि वे बच्चों के प्रति समाज में स्वच्छ और समान व्यवहार को सुनिश्चित करे।
यह नागरिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के चार सेटों की ओर ध्यान आकर्षित करती है। वे अधिकार हैं -
  • जीने का अधिकार
  • सुरक्षा का अधिकार
  • विकास का अधिकार
  • सहभागिता का अधिकार
जीने के अधिकार में सम्मिलित हैं
  • जीवन का अधिकार
  • स्वास्थ्य का उच्चतम जरूरी मानक प्राप्त करने का अधिकार
  • पोषण का अधिकार
  • समुचित जीवन स्तर प्राप्त करने का अधिकार
  • नाम एवं राष्ट्रीयता पाने का अधिकार
विकास के अधिकार में शामिल हैं -
  • शिक्षा का अधिकार
  • प्रारंभिक बाल्यावस्था में देखभाल एवं विकास हेतु सहायता का अधिकार
  • सामाजिक सुरक्षा का अधिकार
  • अवकाश, मनोरंजन एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों का अधिकार
  • सुरक्षा के अधिकार में सभी प्रकार की स्वतंत्रता सम्मिलित है -
  • शोषण से सुरक्षा का अधिकार
  • अपमान व दुर्व्यवहार से सुरक्षा का अधिकार
  • अमानवीय या निम्न कोटि के व्यवहार से सुरक्षा का अधिकार
  • उपेक्षा से मुक्ति का अधिकार
  • आपातकाल एवं सशस्त्र संघर्ष जैसी विशेष परिस्थितियों में विकलांग आदि को विशेष सुरक्षा व्यवस्था प्राप्त करनेका अधिकार।
सहभागिता के अधिकार में सम्मिलित हैं -
  • बच्चों को अपने विचार के लिए सम्मान पाने का अधिकार
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार
  • उपयुक्त सूचना प्राप्त करने का अधिकार
  • विचार, चेतना एवं धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
सभी अधिकार एक-दूसरे पर निर्भर और अविभाजित हैं। फिर भी, उनकी प्रकृति के कारण दो भागों में विभाजित किया गया है-
त्वरित अधिकार (नागरिक व राजनैतिक अधिकार)- इसमें भेदभाव, दंड, आपराधिक मामलों में पारदर्शी एवं सत्यतापूर्ण सुनवाई का अधिकार, बच्चों के लिए अलग न्यायिक व्यवस्था, जीवन का अधिकार, राष्ट्रीयता का अधिकार, परिवार के साथ पुनर्मिलन का अधिकार आदि। इस श्रेणी के अंतर्गत अधिकाँश सुरक्षा अधिकार आते हैं। इस वजह से इन अधिकारों के लिए तत्काल ध्यान दिए जाने एवं हस्तक्षेप की माँग की जाती है।
प्रगतिशील अधिकार (आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार) - इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और वे अधिकार हैं जिन्हें प्रथम वर्ग में शामिल नहीं किया गया है। इन्हें सीआरसी के अंतर्गत अनुच्छेद 4 में मान्यता दी गई है, जो कहता है - आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के संदर्भ में जहाँ जरूरी हो, सरकार के विभिन्न अँग अंतरराष्ट्रीय सहकारिता के ढाँचे के दायरे में उपलब्ध संसाधनों को लोगों तक पहुँचाने के लिए उचित कदम उठाएँगे।

सुरक्षा का अधिकार

बच्चों को इन चीजों से सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए
शिक्षकगण, यह सुनिश्चित करें कि आपके क्षेत्र के सभी बच्चों को निम्न शोषण से सुरक्षा प्राप्त हों -
  • शोषण
  • अपमान
  • अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार
  • उपेक्षा
सामाजिक, आर्थिक यहाँ तक कि भौगोलिक परिस्थितियों के कारण सभी बच्चों को सुरक्षा की जरूरत होती है। उनमें से कुछ बच्चों की स्थिति ज्यादा ही संवेदनशील होती है जिसपर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत होती है। ये बच्चे हैं -
  • बेघर बच्चे (सड़क किनारे रहने वाले, विस्थापित/ घर से निकाले गए, शरणार्थी आदि)
  • दूसरी जगह से आए बच्चे
  • गली या घर से भागे हुए बच्चे
  • अनाथ या परित्यक्त बच्चे
  • काम करने वाले बच्चे
  • भीख माँगने वाले बच्चे
  • वेश्याओं के बच्चे
  • बाल वेश्या
  • भगाकर लाए गए बच्चे
  • जेल में बंद बच्चे
  • कैदियों के बच्चे
  • संघर्ष से प्रभावित बच्चे
  • प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित बच्चे
  • एचआईवी/एड्स से प्रभावित बच्चे
  • असाध्य रोगों से ग्रसित बच्चे
  • विकलांग बच्चे
  • अनुसूचित जाति या जनजाति समुदाय के बच्चे
मिथक एवं सच्चाईः बाल सुरक्षा
सभी वर्गों में लड़कियाँ जरूरत से ज्यादा कमजोर एवं असहाय होती हैं। बच्चों के अपमान एवं शोषण से संबंधित कुछ प्रचलित मिथक निम्नलिखित हैं -
1. मिथक - बच्चों का कभीभी अपमान या शोषण नहीं किया जाता। समाज अपने बच्चों से प्यार करता है।
सच्चाई - यह सच है कि हम अपने बच्चों से प्यार करते हैं, परन्तु स्पष्ट रूप से यहाँ हम कुछ सच्चाई को भूल रहे हैं। दुनियाभर में बाल-मजदूरों की सबसे बड़ी संख्या भारत में ही है। साथ ही, भारत में सबसे ज्यादा बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं। इसके अतिरिक्त, 0-6 वर्ष आयु समूह में पुरुष-महिला अनुपात भारत में सबसे कम है जो यह दिखाता है कि देश में महिला बाल-शिशु की स्थिति काफी चिंताजनक है। इस प्रकार के शोषण व अन्याय से छोटे बच्चे भी अछूते नहीं हैं जिन्हें या तो दूसरों के हाथों बेच दिया जाता या फिर सीधे उनकी हत्या कर दी जाती है।
2.
मिथक - घर सबसे सुरक्षित जगह है।
सच्चाई - अपने घरों में बच्चों द्वारा सहे जा रहे अत्याचार व शोषण इस विश्वास को गलत साबित कर देता है। बच्चों को हमेशा उनके माता-पिता की निजी संपत्ति के रूप में देखा जाता, जिनका वे किसी भी रूप में उपयोग (या फिर शोषण) कर सकते हैं।

हम कई ऐसी घटनाओं के गवाह हैं जहाँ पिता अपनी बेटियों को हर दूसरे दिन किसी मित्र या अजनबी को पैसा की खातिर बेच रहे हैं। मीडिया द्वारा मामले को उजागर करने के बाद भी ऐसी घटनाएँ हो रही हैं। पिता द्वारा अपनी पुत्री का बलात्कार, महिला भ्रूण हत्या अर्थात् नवजात बालिका शिशु की हत्या-एमिनियोसेन्टिसिसका, चोरी छिपे उपयोग, अंधविश्वास के चलते बच्चों की बलि देना तथा भारत के कुछ भागों में जोगिनी या आदिवासी जैसी प्रथाओं के नाम पर देवी या देवताओं को बालको को समर्पित करना आदि, कुछ गृह आधारित हिंसा के विकट रूप हैं। कम उम्र के बच्चों की शादी करना, बच्चों के प्रति स्नेह नहीं बल्कि देखभाल और पोषण की जिम्मेदारी से दूर हटना है। इससे बच्चों को बीमारी या सदमा भी हो सकता है। इसके अलावा कुछ गंभीर मामले भी हैं, जैसे प्रत्येक घर में बच्चों की पिटाई देश में एक आम बात है। साथ ही, अमीर और गरीब परिवारों में बच्चों के प्रति उपेक्षा की भावना आम बात है जिससे बच्चों में मानसिक तनाव या अवसाद जैसी कई व्यहारात्मक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
3. मिथक - लड़कों के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, न हीं लड़कों को सुरक्षा की जरूरत है।
सच्चाई -
लड़कियों के समान लड़कों का भी शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है। यद्यपि लड़कियों की स्थितियाँ और अधिक संवेदनशील हैं क्योंकि समाज में उन्हें निचले दर्जे पर देखा जाता है। लड़के स्कूल और घर दोनों जगह शारीरिक दंड के शिकार होते हैं। इनमें से कई लड़कों को बाल-श्रम के लिए बेच दिया जाता या फिर उनका यौन शोषण किया जाता है।
4.
मिथक - ऐसा हमारे स्कूलों या गाँवों में नहीं होता।
सच्चाई -
हममें से प्रत्येक यह मानता है कि बच्चों का शोषण केवल घर, स्कूल, गाँव या समुदाय में ही नहीं होता बल्कि कई और जगहों पर भी होता है। यह दूसरे बच्चों को प्रभावित करता है हमें नहीं। यह केवल गरीब परिवार, काम करने वाले वर्ग, बेरोजगारों और अशिक्षित परिवारों में ही घटित होता है। यह मात्र मध्यम वर्ग की समस्याएँ नहीं है। इस तरह की घटनाएँ मुख्य रूप से शहरों में घटित होती न कि गाँवों में, जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है और शोषण के शिकार बच्चें को इन सभी क्षेत्रों में सभी जगह पर हमारी मदद की जरूरत है।
5.
मिथक - शोषणकर्त्ता मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति होते हैं।
सच्चाई -
प्रचलित धारणा के विपरीत शोषणकर्त्ता मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति नहीं होता। बल्कि शोषणकर्त्ता को सामान्य एवं विविध चरित्र वाले व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। बाल-यौन शोषणकर्त्ता अपने कुकर्मों को विभिन्न तरीकों से सही साबित करने की कोशिश करता है। बच्चों को भगाने वाला या व्यापार करने वाला व्यक्ति उसके परिवार का करीबी या परिवार को जानने वाला होता है, जिनके माता-पिता उस पर विश्वास करते हैं। वह उनके विश्वास का गलत लाभ उठाकर बच्चों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करता या उसे भगा ले जाता है।

बाल सुरक्षा का मुद्दा और प्रत्येक शिक्षक को क्या बातें जाननी चाहिए ?
बाल दुर्व्यवहार मुख्यतः सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, जातीय समूहों में घटित होता है। अनुसंधान, प्रलेखन एवं सरकारी हस्तक्षेप और पूर्व वर्षों में नागरिक समूहों द्वारा जुटाई गई तथ्यों के आधार पर निम्नलिखित श्रेणी के बच्चों तथा मुद्दों पर उन्हें सुरक्षा उपलब्ध कराने की बात कही है -
  • लैंगिक भेदभाव
  • जातीय भेदभाव
  • अपंगता
  • महिला भ्रूण हत्या
  • शिशु हत्या
  • घरेलू हिंसा
  • बाल यौन दुर्व्यवहार
  • बाल-विवाह
  • बाल-श्रम
  • बाल-वेश्यावृत्ति
  • बाल-व्यापार
  • बाल-बलि
  • स्कूलों में शारीरिक दंड
  • परीक्षा-दबाव एवं छात्रों द्वारा आत्महत्या
  • प्राकृतिक आपदा
  • युद्ध एवं संघर्ष
  • एचआईवी/एड्स
मिथक एवं सच्चाई: लैंगिक भेदभाव
1. मिथक - बेटा तो चाहिए लेकिन हम उसके लिए चार - पाँच बेटियाँ क्यों पैदा करें। बेटी को बड़ा करना पड़ोसी के बगीचा में पानी देने के समान है। आप उन्हें बड़ा करते हैं, हर तरह से उनकी सुरक्षा करते हैं, उनके विवाह की योजना भी बनाते, दहेज की व्यवस्था करते और इसके बाद वह पराये घर को चली जाती है। इस दृष्टि से देखें तो बेटे वंश परंपरा को आगे बढ़ाते, बुढ़ापे में माता-पिता की देखभाल भी करते और मृत्यु के बाद धार्मिक कर्म-कांड करते हैं। बेटियों को पढ़ाना और शादी की उम्र तक उनके अपने पसंद के कार्य करने के लिए स्वतंत्रता देने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। यह सब मात्र परिवार पर बोझ बढ़ाता है।

सच्चाई - लड़कियों के बारे में इस प्रकार की धारणा पितृ प्रधान समाज में विशेष रूप से पायी जाती है, जिसे चुनौती दिए जाने की जरूरत है। लोग बेटी की अपेक्षा अपने बेटे की शादी पर अधिक खर्च करते हैं। हम सभी बहुत ही चालाक हैं, बेटी की शादी के मौके पर थोड़ा सा दहेज देकर उससे यह कह देते हैं कि उसका अब माता - पिता की संपत्ति पर उसका कोई अधिकार नहीं है। हमेशा यह बात याद रखनी चाहिए कि दहेज देना और लेना कानूनन अपराध है। साथ ही, माता-पिता की संपत्ति से बेटियों को बेदखल करना भी गैर-कानूनी है।

कुछ भी हो हमें जीवन की सच्चाइयों को स्वीकार करना ही होगा। जब हम वृद्धाश्रमों में जाते हैं और वहाँ लाचार बैठे वृद्धों को देखते हैं तो पता चल जाता है कि उनके बेटों ने कितनी अच्छी तरह से माता-पिता की देखभाल की है। जबकि सच तो यह है कि ऐसी कई घटनाएँ सामने आई हैं जहाँ बेटी आगे आकर अपने बूढ़े माँ- बाप की मदद की है।
अतः बालिकाओं को जीने, विकास करने, सुरक्षा और हिस्सेदारी प्राप्त करने का उतना ही हक है जितना कि लड़कों को है। इनमें से किसी भी अधिकार से महिलाओं को वंचित करना लैंगिक भेदभाव एवं गरीबी को स्थायी बनाये रखने के समान है।

शताब्दियों से लड़कियों को जीवन के हर क्षेत्र में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। हम हमेशा यह भूल जाते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था - 'यदि आप एक पुरुष को शिक्षित करते हैं तो इसका मतलब है कि आप एक व्यक्ति को शिक्षा देते हैं , लेकिन यदि आप एक महिला को शिक्षित करते हैं तो इसका मतलब है कि आप पूरी सभ्यता को शिक्षित करते हैं।'

एक बार जब हम अपनी बेटियों का विकास इस तरह से कर दें कि वे भले-बुरे का अंतर समझ सकें और स्वयं के बलबूते तार्किक निर्णय ले सकें, तो उनके संबंध में हमारे मन में व्याप्त अधिकाँश शंकाएँ दूर हो जाएँगी। यह मात्र एक धारणा है कि बालिका को भी वही समान अधिकार है जो किसी अन्य मानव को प्राप्त है। यदि लड़कियों का बचाव और सुरक्षा राष्ट्रीय मुद्दा है तो हमें यह याद रखनी चाहिए कि जिनके पास बेटियाँ हैं और वे उनके सशक्तीकरण की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो इसका मतलब है कि इससे उनमें भीरूता ही बढ़ेगी।

मानव विकास रिपोर्ट 2005 के अनुसार - हर वर्ष 1.2 करोड़ लड़कियाँ जन्म लेती हैं जिनमें से तीस लाख लड़कियाँ अपना 15 वाँ जन्म दिन नहीं मना पाती। इनमें से एक -तिहाई की मृत्यु जन्म के पहले साल में ही हो जाती है और यह अनुमान लगाया गया है कि प्रत्येक छठी महिला की मृत्यु महिला भेदभाव के कारण होती है।

वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार देश में प्रत्येक 1 हजार पुरुषों की तुलना में सिर्फ 933 महिलाएँ हैं। बच्चों के मामले में यह और कम है तथा वर्ष 1991 की जनगणना से यह प्रवृत्ति घटती ही जा रही है। वर्ष 1991 में प्रत्येक 1 हजार लड़कों पर 945 लड़कियाँ थीं जो वर्ष 2001 में घटकर 927 हो गई। कुछ राज्यों में स्थिति काफी चिंताजनक है, जैसे पंजाब में (798), हरियाणा (819), हिमाचल प्रदेश (896) आदि। राजधानी शहर दिल्ली में 1 हजार लड़कों की तुलना में 900 लड़कियाँ हैं। इन राज्यों से लड़के अब अन्य राज्यों से लड़कियाँ खरीद कर शादी कर रहे हैं।
मिथक व सच्चाई: बाल विवाह
मिथक - बाल विवाह हमारी संस्कृति का अंग है। अविवाहित लड़कियाँ बलात्कार और यौन शोषण के दायरे में अधिक हैं इसलिए उनकी कम उम्र में ही शादी कर दी जाती है। अच्छे वर की तलाश और दहेज का मामला बड़े उम्र की लड़कियों के लिए एक बड़ी समस्या है।

सच्चाई - किसी भी कुरीति के लिए संस्कृति को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। यदि बाल विवाह हमारी संस्कृति में शामिल है तो यह गुलामी, जातिवाद, दहेज और सती प्रथा जैसी समस्या है। परन्तु ऐसी कुरीतियों को रोकने के लिए देश में कानून बनाए गए हैं। साथ ही, समाज द्वारा जब कभी इसकी माँग की गई है, तब विधायिका ने इन समस्याओं से निज़ात पाने के लिए उचित कानून बनाए हैं। स्पष्टतौर पर संस्कृति का विकास अवरुद्ध नहीं है।

यद्यपि, अलग - अलग लोगों के लिए अलग-अलग संस्कृति है, जबकि वे एक ही भौगोलिक परिवेश में रहते हैं। भारत में विभिन्न जाति, भाषा एवं धार्मिक समूह है जो अपनी - अपनी संस्कृति अपनाते हैं। भारत विभिन्न संस्कृतियों वाला देश है और गत वर्षों के दौरान इसमें कई बदलाव देखने को मिले हैं।

यदि हम सभी इस बात से सहमत हैं कि बच्चों को सुरक्षा देने की जरूरत है, तो इसे हमारी संस्कृति के माध्यम से दर्शाया जाना चाहिए। वास्तव में सांस्कृतिक रूप से हमें एक समाज के रूप में पहचान बनानी चाहिए जो न केवल अपने बच्चों को प्यार करता है, अपितु हर समय उनकी सुरक्षा भी सुनिश्चित करता है।

बाल- विवाह, बच्चों के अधिकारों के हनन की लम्बी यात्रा की शुरुआत है। लड़कों का बाल-विवाह उतना ही उनके अधिकारों का उल्लंघन है जितना लड़कियों के लिए। यह उनके चयन के अधिकार को छीन लेता और उनकी आयु और क्षमता के परे उन पर पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ डाल देता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस मामले में लड़कियों की स्थिति काफी खराब है।

बाल-वधू के मामले में अक्सर यह देखा जाता है कि वे युवावस्था में हीं विधवा हो जाती व उनके कई बच्चे होते हैं जिनकी देखभाल की जिम्मेदारी उन पर होती है।

क्या आप जानते हैं -
  • जनगणना प्रतिवेदन 2001 के अनुसार लगभग 3 लाख लड़कियाँ जो 15 वर्ष से कम आयु की थीं, एक बच्चे की माँ थीं।
  • 20 से 24 वर्ष की आयु वाली महिलाओं की तुलना में, 10 से 14 वर्ष की उम्र की लड़कियों की मृत्यु बच्चा देते समय अधिक होती है।
  • शीघ्र गर्भवती होने पर भ्रूण हत्या की दर भी बढ़ जाती है।
  • छोटी उम्र की माँ से जन्म लेने वाले बच्चों का वज़न भी काफी कम होता है।
  • युवा माताओं के शिशु की मृत्यु उनके जन्म के पहले साल में होने की संभावना अधिक होती है।
बाल विवाह और मानव व्यापार
  • भारत व मध्य पूर्व के देशों में अधिक उम्र के पुरुष की, कम उम्र की लड़कियों के साथ शादी से उनका शोषण तो होता ही है साथ ही उन्हें वेश्यावृत्ति की ओर भी धकेल दिया जाता है।
  • बाल- विवाह के माध्यम से लड़कियों की मजदूरी और वेश्यावृत्ति के लिए व्यापार किये जाने की भी प्रवृत्ति बढ़ी है।
यह कहना कि शीघ्र विवाह लड़कियों को शोषण से सुरक्षा प्रदान करता है, पूर्णतया गलत है। सच तो यह है कि लोगों से और लड़कियों पर समाज के अन्य लोगों और परिवार के भीतर किये जाने वाले सभी प्रकार के दुर्व्यवहार को शामिल करना है। उन्हें हमेशा विश्वास और आज्ञा-पालन का पाठ पढ़ाया जाता है। बाल-विवाह का तात्पर्य है बालिका का बलात्कार, क्योंकि बच्चों से यह नहीं कहा जाता है कि वह बड़ी हो गई है या छोटी ही है। किसी भी मामले में दूसरे व्यक्ति के माध्यम से सुरक्षा की गारंटी कदापि नहीं दी जा सकती, चाहे वह विवाहित महिला ही क्यों न हो। सभी महिलाएँ चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, युवा हों या वृद्ध औरत, परदे में हों या बाहर हों, बलात्कार या यौन दुर्व्यवहार का लक्ष्य बन सकती हैं। महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराध और अत्याचार इस बात के प्रमाण हैं।

जब हमारे गाँव में अशिक्षित व विवाहित महिलाओं पर बलात्कार होता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे अशिक्षित हैं बल्कि वे कुछ खास जाति या कुछ समूह के प्रति दुर्भावना का शिकार होती हैं। अंततः, शीघ्र विवाह दहेज का समाधान हो सकता है, तो यह गलत धारणा है। पितृ-प्रधान समाज में वर पक्ष, वधू के परिवार वाले पर हमेशा हावी होता है और उनसे आशा की जाती है कि लड़की के परिवार वाले उनकी हर माँग पूरी करें। विवाह के समय दहेज नहीं मिलने पर विवाह के बाद लड़कियों को कई तरह से प्रताड़ित किया जाता है।
मिथक एवं सच्चाई - बाल-मजदूरी
मिथक - बाल मजदूरी की समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता। गरीब माँ - बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने की बजाय चाहते हैं कि उनका बच्चा काम कर परिवार के लिए कुछ आय अर्जित करे। ऐसे बच्चों के पास काम के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। क्योंकि काम नहीं करने से उनके परिवार के सदस्य भूखे मर जाएँगे। इसी प्रकार, यदि वे कार्य करेंगे तो उनमें कुशलता और प्रवीणता भी बढ़ेगी।

सच्चाई - जब हम यह सुनते हैं तो हमें अपने आप से यह पूछना चाहिए कि क्यों कुछ गरीब सभी कठिनाइयों के बावजूद अपने बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं जबकि कुछ नहीं भेजते। सच्चाई यह है कि गरीबी सिर्फ एक बहाना है, जिसके माध्यम से वे अपना हित साधते हैं। बाल-मजदूरी की प्रक्रिया के लिए सामाजिक परिस्थिति भी जिम्मेदार है। सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के भी शिकार बनते हैं। हम सभी जानते हैं कि बच्चों के काम करने के बावजूद परिवार में भुखमरी की स्थिति बनी रहती है और इसका कारण है सामाजिक और आर्थिक मामलों में भेदभाव।

सभी माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा देना चाहते हैं और नहीं तो कम से कम बुनियादी शिक्षा तो अवश्य ही देना चाहते हैं। वैसे अशिक्षित अभिभावक के लिए बच्चों का स्कूल में नामांकन कराना काफी मुश्किल कार्य होता है। नामांकन के लिए जन्म प्रमाणपत्र व जाति प्रमाणपत्र आदि ऐसी अड़चने हैं जिसके कारण वे स्कूलों में बच्चों का नामांकन नहीं करवाते। साथ ही, बच्चों के लिए स्कूल का पाठ्यक्रम भी अत्यंत कठिन होता; क्योंकि एक तो वे स्कूल जाने वाले पहली पीढ़ी के लोग होते और दूसरे उनके माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं होते, इस वजह से स्कूल में मिले गृह कार्य में उनके अभिभावक कोई मदद नहीं कर पाते। साथ ही रूचिकर पढ़ाई, खेलकूद, शारीरिक दंड, जातीय भेदभाव, शौचालय व पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी कुछ ऐसे कारक हैं जो बच्चों को स्कूल से दूर रखते हैं। लड़कियों को पढ़ाने की बजाय उसे छोटे भाई - बहनों की देखभाल के काम में लगा दिया जाता है। चूँकि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बाल सुविधाओं का अभाव है और लोगों के मन में लड़का-लड़की के प्रति भेदभाव व्याप्त है।

वे बच्चे जो काम करते हैं और स्कूल नहीं जाते, वे निरक्षर ही रह जाते हैं और हमेशा अकुशल बने रहते हैं। कारण है कि बच्चे हमेशा अकुशल श्रमिक के भाग बन जाते हैं। ये बच्चे जहाँ कार्य करते हैं वहाँ से निकले रासायनिक व अन्य हानिकारक पदार्थ का उनके स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता और उनका विकास भी अवरुद्ध हो जाता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21(ए) में 6-14 वर्ष की आयु वाले प्रत्येक बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा के अधिकार के प्रावधान के बावजूद समाज में पाये जाने वाले बाल- श्रमिक के कारण, कानूनी स्थिति व वस्तुस्थिति के बीच विरोधाभास उत्पन्न करता है।

यह ध्यान देने वाली बात है कि यदि बच्चों को बाल-मजदूरी से हटा दिया जाए तो उनके स्थान पर वयस्क व्यक्ति को नौकरी मिल सकती है। भारत में बेरोजगार युवाओं की बहुत बड़ी संख्या है जो इन बच्चों की जगह ले सकते हैं और बच्चों को अपनी बाल्यावस्था का आनंद उठाने के लिए मुक्त किया जा सकता है।

विश्व में बाल-मजदूरों की सबसे बड़ी संख्या भारत में ही पाई जाती है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में 5-14 वर्ष की आयु वालों की संख्या 1.25 करोड़ है जो विभिन्न व्यवसायों में काम कर रहे हैं। यद्यपि गैर सरकारी संस्थाएँ मानते हैं कि यह संख्या इससे काफी अधिक है क्योंकि बड़ी संख्या में बच्चे असंगठित क्षेत्र तथा छोटे व घरेलू उद्योगों में कार्य कर हैं जिनकी गिनती बाल मजदूरों के रूप में नहीं हो पाती।

मजदूरी के लिए बच्चों का प्रत्येक दिन अवैध व्यापार किया जा रहा है। बिचौलिए और दलाल गाँव आ रहे हैं और उनके माता - पिता के समक्ष शुभचिंतक के रूप में अपनी छवि दिखाकर देश के विभिन्न भागों में काम करने हेतु बच्चों को ले जा रहे हैं। कर्नाटक, दिल्ली और मुम्बई के विभिन्न औद्योगिक ईकाइयों में कार्य करने के लिए बच्चों को बिहार, बंगाल आदि राज्यों से लाया जा रहा है। तमिलनाडु से बच्चों को उत्तर प्रदेश में मिठाइयाँ बनाने की ईकाइयों तथा हीरा व रत्नों की पॉलिश करने हेतु सूरत लाया जाता है। अतएव मध्यवर्गीय परिवार के घरों में घरेलू मजदूर के रूप में हजारों बच्चे कार्यरत हैं।
बाल-यौन दुर्व्यवहार
मिथक - बाल यौन दुर्व्यवहार हमारे देश में बहुत ही कम है। यह मीडिया की देन है कि वह अच्छाई की जगह बुराई अधिक दिखा रही है। बच्चे या किशोरी कल्पना की दुनिया में विचरण करना, कहानियाँ बनाना और यौन दुर्व्यवहार के बारे में झूठ बोलना सीख गए हैं। गंदे चरित्र वाले लड़कियों के साथ ही अक्सर इस तरह की घटनाएँ होती है।

सच्चाई- बच्चे, चाहे वह कुछ महीने के हों या कुछ दिनों के, वे भी यौन दुर्व्यवहार के शिकार हो सकते हैं। प्रचलित मान्यता के अनुसार कि इससे लड़के भी शिकार होते, जबकि सच तो यह है कि लड़कियाँ इससे गंभीर रूप से पीड़ित होती हैं।

अपनी बाल्यावस्था के कारण मानसिक और शारीरिक रूप से विकलाँग बच्चे इस दुर्व्यवहार के शिकार हो सकते हैं। बाल यौन दुर्व्यवहार लिंग, वर्ग, जाति, समुदाय तथा शहरी और ग्रामीण क्षेत्र, सभी बंधनों को तोड़ देता है।

बच्चों के साथ यौन-दुर्व्यवहार जान -पहचान के आदमी या अजनबी दोनों द्वारा किया जाता यौन दुर्व्यवहार के 90 प्रतिशत मामलों में शोषणकर्त्ता वह व्यक्ति होता जिसे बच्चे जानते और उस पर विश्वास करते हैं। शोषणकर्त्ता उसके/उसकी शक्ति का लाभ उठाता है। अधिकाँश मामलों में दुर्व्यवहार बच्चे के बहुत करीब पड़ोसी होते हैं। कई मामलों में दुराचारी बच्चों के बहुत करीबी, जैसे - उसके पिता, बड़े भाई, चचेरा भाई, चाचा या पड़ोसी होते हैं। यदि दुराचारी परिवार का सदस्य हो तो यह कौटुम्बिक व्यभिचार होगा।

समाज में यौन दुर्व्यवहार एक पृथक् समाज के रूप में विद्यमान है। वेश्यावृत्ति, धार्मिक या सांस्कृतिक क्रियाकलापों के लिए लड़कियों का व्यापार जैसे - देवदासी प्रथा या जोगिनी प्रथा, इसके उदाहरण हैं। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों के दौरान लोगों में काफी जागरूकता आई है और इसे मीडिया ने भी काफी उछाला है। वयस्क महिलाओं पर किये गए अध्ययन से पता चलता है कि इनमें से 75 प्रतिशत महिलाएँ बाल्यावस्था में यौन शोषण का शिकार हुई हैं। अधिकाँश महिलाओं के साथ पारिवारिक सदस्यों या जान-पहचान के लोगों द्वारा दुर्व्यवहार किया जाता है।

बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार करने वाले विवाहित पुरुष भी होते हैं जिनकी अपनी पत्नी के साथ पहले से ही शारीरिक संबंध होता। मान्यता के विपरीत ऐसे व्यक्ति मानसिक रूप से बीमार नहीं होते बल्कि उन्हें सामान्यता व विविधता में वर्गीकृत किया जा सकता है। बाल-यौन दुर्व्यवहार करने वाले विभिन्न तरीकों से अपनी बात रखने और अपनी बचाव करने की कोशिश करते हैं।

कुछ पुरुष इतने लापरवाह होते हैं कि वे ऐसी घटनाओं के लिए न्यायालय में गवाही तक नहीं देना चाहते हैं। बच्चें इतने डरे हुए होते हैं कि वे यौन दुर्व्यवहार के बारे में कुछ कहने या यौन कार्य को देखने से घबराते हैं। पीड़ित कितने साल का है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि दुराचारी हमेशा बलवान होता है। दुराचारी के साथ पीड़ित का तालमेल नहीं होता और वह उस होने वाली प्रक्रिया या दुर्व्यवहार को रोकने में अक्षम होता है। यदि शोषणकर्त्ता परिवार का सदस्य हो तो पीड़िता किसी से कह भी नहीं सकती। प्रायः माताएँ जो दुर्व्यवहार के बारे में जानती है उसे रोकने की स्थिति में नहीं होती क्योंकि वह भी शक्तिहीनता के कारण मूक बनी रह जाती है। परिवार बिखरने या अन्य सदस्यों द्वारा उनकी बात पर विश्वास नहीं करने के कारण वे चुप हो जाती हैं। बच्चों के यौन दुर्व्यवहार की बात को उनके माता-पिता, परिवार के सदस्य या समाज भी अनदेखी कर देता है।

दुर्व्यवहार के बारे में बच्चों द्वारा प्रकट किए गए अधिकाँश मामले सही होते हैं। समाज द्वारा बच्चों के साथ हुए व्यभिचार/यौन दुर्व्यवहार के मामले को काल्पनिक कहानी मानकर पीड़ित बच्चे को ही दोष देना, समस्या का समाधान नहीं है, इसी वजह से आज हमारा चेहरा शर्म से झुका हुआ है।

बच्चे भोले-भाले और संवेदनशील होते हैं। यौन संबंध के बारे में उन्हें बहुत ही कम जानकारी होती है। अतः उन्हें वयस्कों की प्रतिक्रियाओं के लिए कदापि जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यहाँ तक कि यौन संबंध के बारे में जानकारी होने के बावजूद इस प्रकार के दुर्व्यवहार के लिए बच्चों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। कानूनन एक वेश्या के साथ भी बलात्कार हो सकता है और न्यायालय से वह भी न्याय पा सकती है। यौन -दुर्व्यवहार के लिए पीड़ित को दोषी ठहराना सिर्फ अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार न कर इसके लिए बच्चों पर दोष मढ़ने के समान है। कानून के अनुसार 16 वर्ष से कम आयु की महिला या पुरुष के साथ हुए शारीरिक संबंध को बलात्कार माना जाएगा।

जब बच्चे इस दुर्व्यवहार के बारे में बताते हैं तो हमेशा उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाए जाते हैं। तब उसके विश्वास या आस्था का फिर से दुर्व्यवहार होता है। बच्चों की चूक को इस भावना से लिया जाता है कि जैसे उसने अपने व्यवहार से शोषणकर्त्ता को उकसाया हो।
बच्चों पर यौन-दुर्व्यवहार का प्रभाव
दुर्व्यवहार का प्रभाव अल्पकालिक या दीर्घकालिक दोनों हो सकता है -
  • खरोंच, कटना या प्रजनन अँगों से रक्त स्राव या किसी अन्य प्रकार का शारीरिक जख्म।
  • बच्चों में भय, हीनता, तनाव, उत्तेजना एवं यौन निष्क्रियता जैसे भाव का आना और परिवार के सदस्यों से कटे-कटे रहना।
  • बचपन में यौन उत्पीड़न के शिकार युवावस्था में इस प्रकार के संबंधों में असुविधा महसूस कर सकते हैं या उनमें यौन संबंधों के बारे में अतिशय उत्तेजना पैदा हो सकती है।
  • सबसे बड़ी बात यह कि यौन शोषण के अनुभव के परिणामस्वरूप बच्चों का किसी के प्रति व्याप्त विश्वास या आस्था का भी शोषण होता है। इस वजह से वे बहुत दिनों तक परेशान रहते हैं। कभी-कभी घटना के बाद के शेष जीवन पर उसका प्रभाव पड़ता है।
शिक्षण संस्थानों में कानून का उल्लंघन
(क) शारीरिकदंड
मिथक - कभी-कभी बच्चोंमें अनुशासन का पाठ पढ़ाने हेतु उन्हें दंड देना आवश्यक होता है। माता-पिताऔर अध्यापकों को यह अधिकार है कि वे अपने बच्चों को अनुशासन सिखाएँ।

सच्चाई - 'छड़ी को छोड़ो और बच्चों को बिगाड़ो,'ऐसा अधिकाँश अभिभावकों की मान्यता है। वे युवा जो अपने माता-पिता और शिक्षक से पिटाई खाते हैं वे हमेशा यह समझते हैं कि ऐसा करना उनका अधिकार है। वे प्रायः उस सदमें को भूल जाते हैं जिससे वे गुजर चुके हैं अर्थात् जब वे छोटे थे तब उन्होंने कितने प्रकार के दंड भुगते  हैं।

बच्चों में अनुशासन लाने के लिए शारीरिक दंड को ही सही मानदंड माना जाता है। बच्चे अपने माता-पिता, शिक्षकों और गैर अध्यापन स्कूल प्राधिकारियों से मार खाते ही रहते हैं। लगभग सभी स्कूलों में छात्रों को शारीरिक दंड दिया जाता है जिसके कई कारण होते हैं। इसके अलावे, अधिकाँश माता-पिता भी अपने बच्चों की पिटाई करते हैं।

अनुशासन के नाम पर बच्चों की हड्डियाँ या दाँत टूट चुके हैं, उनके बाल खींचे गए हैं और उन्हें अपमानित कार्यों की ओर प्रवृत किया गया है।
शारीरिक दंड का उद्देश्य शक्ति के प्रयोग द्वारा बच्चों में सुधार लाना है न कि उन्हें घायल करना।
शारीरिक दंड के प्रकार
शारीरिक दंड -

  1. दीवाल कुर्सी के रूप में बच्चों को खड़ा रखना।
  2. स्कूल बैग को सिर पर रखना
  3. दिनभर धूप में खड़ा रखना
  4. बच्चों को घुटने पर खड़ा रखकर काम करवाना
  5. बच्चों को बेंच पर खड़ा रखना
  6. हाथों को ऊपर उठाकर खड़ा रखना
  7. पेंसिल को मुँह से पकड़वाना और खड़ा रखना
  8. पैरों के नीचे से हाथों द्वारा कान पकड़वाना
  9. बच्चों के हाथ बाँधना
  10. उठक - बैठक करवाना
  11. कान पकड़कर खड़ा करना
  12. कान मरोड़ना

भावनात्मक दंड

  1. लड़का व लड़की को एक - दूसरे से थप्पड़ मरवाना।
  2. गाली - गलौज करना, भला- बुरा कहना और अपमानित करना।
  3. उसका/उसकी गलती के आधार पर स्कूले के चारों ओर चक्कर लगवाना।
  4. उन्हें कक्षा के पीछे खड़ा करके गृहकार्य पूर्ण करने को कहना।
  5. कुछ दिनों के लिए स्कूल आने से रोक देना
  6. उनके पीठ पर पेपर चिपका कर उसपर लिख देना कि- मैं मूर्ख हूँ, मै गधा हूँ, इत्यादि।
  7. उसे प्रत्येक कक्षा में ले जाकर अपमानित करना
  8. लड़कों की कमीज उतारना।

नकारात्मक सजा

  1. खाली समय और मध्याह्न भोजन के समय बाहर जाने से रोकना।
  2. अँधेरे कमरे में बंद करना।
  3. 3बच्चों के माता-पिता को स्कूल बुलाना या उनके माता-पिता से स्पष्टीकरण पत्र मँगवाना।
  4. बच्चों को घर वापस भेजना या फिर उन्हें स्कूल गेट के बाहर खड़ा रखना।
  5. बच्चों को क्लास रूम में फर्श पर बैठाना।
  6. बच्चों से परिसर की साफ - सफाई करवाना।
  7. बच्चों को खेल मैदान या बिल्डिंग के चारों ओर चक्कर लगवाना।
  8. बच्चों को प्राचार्य के पास भेजना।
  9. वर्ग में शिक्षक के आने तक उन्हें खड़ा रखना।
  10. बच्चों को मौखिक रूप से चेतावनी देना या डायरी व कैलेण्डर में शिकायत पत्र देना।
  11. बच्चों को स्कूल से निकालने की धमकी देना।
  12. बच्चों को खेल या अन्य क्रियाकलापों से वंचित रखना।
  13. उसके परीक्षा में प्राप्तांक को कम करना
  14. तीन दिन स्कूल देर से आने पर उपस्थिति रजिस्टर में एक दिन की अनुपस्थित मानना।
  15. अत्यधिक पाबंदी लगाना।
  16. बच्चों से जुर्माना लेना।
  17. बच्चों को वर्ग में आने से रोकना।
  18. एक घंटी,एक दिन,एक सप्ताह या महीनेभर उसे क्लास में फर्श पर बैठाना।
  19. उसके अनुशासनिक चार्टों पर काले चिह्न अँकित करना
किस तरह शारीरिक दण्ड बच्चे को नुकसान पहुँचाता हैं ?
इस तरह का शारीरीक दण्ड बच्चों के कोमल मन में नकारात्मक मनोविकार पैदा करता है जो बच्चों को चिड़चिड़ा बना देता है। साथ ही उसके मन में आक्रोश और डर की भावना घर कर जाती है।

इस तरह के दण्ड बच्चों के मन में क्रोध, निराशा और अपने आप को नीचा देखने की भावनाओं को उत्पन्न करता है। इसके अलावा, बच्चे अपने आपको बेसहारा और अपमानित समझने लगता हैं। इस कारण वह अपनी क्षमता और स्वाभिमानता को खोने लगता है। इस वजह से वह अपने आप को अलग-थलग रखता व उद्दण्ड व्यवहार करता है। इस वजह से बच्चे अपने उलझनों का समाधान हिंसा और बदला लेना ही समझते हैं।

बच्चे अक्सर बड़ों की नकल करते हैं। बड़ों के हिंसात्मक व्यवहार को देखकर बच्चे भी अपने उलझनों के समाधान के लिए हिंसात्मक व्यवहार को अपनाते हैं और गलती को महसूस नहीं करते। कभी-कभी बच्चे अपने माता - पिता पर ही आक्रामक हो जाते हैं या अध्यापक से भी बदला लेना चाहते हैं। जो बच्चे बचपन में शारीरीक दण्ड के शिकार होते हैं वे ही बच्चे ज्यादातर बड़े होकर अपने सहकर्मी या दोस्तों के साथ मार पीट करते हैं।

शारीरिक दण्ड बच्चे को अनुशासन में लाने का बहुत ही प्रभावहीन तरीका है, जो शायद ही बच्चे को प्रोत्साहित करता है। यह बच्चे के विकास में अच्छे असर डालने की बजाय बुरे असर ही डालता है। यह अत्यंत खतरनाक भी है।

सच में, यह बच्चों पर बहुत हीं उल्टा असर पैदा करता है। बहुत से रास्ते में भटकने वाले और मजदूरी करने वाले बच्चों से, उनके स्कूल से भाग निकलने का या अपने परिवार से अलग हो जाने का या घर से भाग जाने का कारण पूछने पर, इस तरह के शारीरिक दण्ड को ही मुख्य कारण बताते हैं।

बच्चों को अनुशासित करने का हक हमारा है। परन्तु हम उनके सामाजिक विकास और साझेदारी के हक पर अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। असल में, हर सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने का हक ही उन्हें अनुशासित बनाता है। कोई भी धर्म या कानून शारीरिक दण्ड की अनुमति नहीं देता है।

किसी भी परिस्थिति में बच्चों को काबू में लाने का कोई मार्ग नहीं मिले, तो उन्हें शारीरीक दण्ड के माध्यम काबू में लाने का हक किसी को नैतिक या कानूनी तौर पर नहीं है।
  • अनुशासन सिखाया नहीं जाता, बल्कि सीखी जाती है।
  • अनुशासन एक भावना है।
  • अनुशासन एक जिम्मेदारी है।
  • अनुशासन एक आन्तरिक अनुभूति है, उसे थोपने का प्रयत्न करना एक बाहरी प्रयास है।
परीक्षा का बोझ और विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या
मिथकः भारतीय शिक्षा प्रणाली ने सारी दुनिया को इस मामले में जिज्ञासु बना दिया है कि हम किस तरह के योग्य व्यक्ति पैदा कर रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि बहुत से भारतीय पण्डित वैज्ञानिक, इंजीनियर और अन्य क्षेत्र के पेशेवर पाश्चात्य देशों में बस गये है और अपनी मेहनत व लगन की बदौलत अपनी योग्यता सिद्ध कर रहे हैं। प्रतियोगी शिक्षा प्रणाली के साथ कड़ा अनुशासन ही सफलता का मूल कारण है। सभी माँ-बाप अपने बच्चों को उन विद्यालयों में भेजना चाहते हैं जहाँ अच्छा नतीजा निकलता है।

सच्चाईः इसमें कोई शक नहीं कि भारत दुनियाभर में कुशाग्र बुद्धि वाले उम्मीदवार पैदा करता है। परन्तु क्या इसका श्रेय आजकल के विद्यालयों को जाता है या शिक्षा प्रणाली को या उन कुछ गिने चुने बच्चों को जो अपने पारिवारिक, सामाजिक दबाव की परवाह न करते हुए, अपने आप को मानसिक तौर से बहुत मजबूत बना लेते हैं। कठोर प्रतियोगी परीक्षा का दबाव, अपने बच्चों एंव विद्यार्थियों से बढ़ती आशाएँ, बच्चों से अच्छे परिणाम प्राप्त करना सभी विद्यालय एवं अध्यापकों की ख्याति का एक मात्र माध्यम बन गया है। बच्चों में इन बढ़ते दबाव का सामना करने में असमर्थता की वजह से ही, उनमें अवसाद की भावना उत्पन्न हो रही है और उसके फलस्वरुप वे आत्महत्याएँ जैसे कदम उठा रहे हैं। इस कारण योग्य युवाओं का धीरे-धीरे अंत हो रहा है और यदि हम लोग समय रहते इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाले समय में बहुत से योग्य युवकों को गवाँ बैठेंगे।

केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) परिणाम के बाद खराब परिणाम वाले कुछ बच्चे जीवित नहीं रहते। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) की 10वीं व 12वीं कक्षा के परिणाम निकलने के पाँच दिनों के भीतर ही राजधानी दिल्ली में आधे दर्जन विद्यार्थियों ने आत्महत्या कर ली। बाद में कई और विद्यार्थियों  ने आत्महत्या की और इसके लिए प्रयास किये; और इन सब का एक ही कारण था कि वे परीक्षा में असफल हो गये थे।

डॉ. आर.सी. जीलोहा (प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष, मनोचिकित्सा विभाग, जी. बी पन्त व मौलाना आजाद चिकित्सा महाविद्यालय) के अनुसार बच्चों में बढ़ती हुई आत्महत्या के कुछ और गहरे कारण हैं। पहले लोग इस उदासीनता को बच्चों के मामले के साथ नहीं जोड़ा करते थे। अब लोगों को समझ में आ रहा है कि जवान लोग भी उदासीनता का शिकार होते हैं। कम उम्र में यह समस्या और बढ़ जाती क्योंकि इस छोटी आयु में उनमें असफलता को सहन करने की न तो समझ होती और न ही अनुभव ही।

टेली सलाहकार श्रीमती शर्मा कहती हैं माता-पिता एवं शिक्षकों के लिए जरूरी है कि वे विशेषज्ञ सलाह के महत्व को समझें। वे कहती हैं परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने का मतलब यह नहीं कि दुनिया का अन्त हो गया, बल्कि परीक्षा के बाद भी जीवन है, भले ही वे परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन न कर पाये हों। इसी को माता-पिता और शिक्षकों को समझना चाहिए।
स्रोतः स्मृति काक द ट्रिब्यून (चंडीगढ़, शुक्रवार 31 मई, 2002)

इसमे कोई सन्देह नहीं कि हर माता-पिता अपने बच्चे को अच्छे विद्यालयों में पढ़ाना चाहते हैं, जहाँ बच्चों के नतीजे बेहतर हों। लेकिन किसी ने पढ़ने वाले उन बच्चों से पूछा कि क्या, वे उस माहौल में खुश हैं या नहीं। कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को खोना नहीं चाहता है। इससे यह स्पष्ट है कि इस विषय में बच्चों के माता-पिता को भी सलाह की जरूरत है। यदि स्कूलों में इस तरह का दबाव जारी रहा, सभी माँ-बाप सिर्फ यह जानते रहे कि उनके बच्चे कक्षा में कितना अच्छा या बुरा कर रहे हैं; यदि अध्यापक बच्चों के भावनात्मक या मानसिक संवेदनाओं का कदर किये बिना एक बच्चे से दूसरे बच्चे की तुलना करते रहे तो, इस तरह की स्थिति को बदलने में कुछ भी नहीं किया जा सकता है। इसके लिए पहले विद्यालयों में कदम उठाये जाने की जरूरत है और शायद बच्चों के साथ उनके माता-पिता को भी सलाह दी जानी चाहिए।
मिथक एवं सच्चाईः गली एवं फुटपाथ के बच्चे

मिथकः केवल गरीब परिवार के बच्चे ही घर से भागकर रास्तों में भटकने वाले या फुटपाथी बच्चे बन जाते हैं। फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे बुरे होते हैं।

सच्चाईः किसी भी बच्चे पर ध्यान न दिया जाए तो वह घर से भाग सकता है। प्रत्येक बच्चे को शान से रहने का अधिकार है। उसे बंधन या दबाव पसंद नहीं और कोई माता-पिता/परिवार/विद्यालय/ गाँव उस बच्चे को इससे वंचित करता है तो वह उस बच्चे को गवाँ सकता है।

फुटपाथ पर रहने वाले ज्यादातर बच्चे घर से भागे हुए होते हैं। वे अपने घरों से जीवन में अच्छे अवसर प्राप्त करने के लिए या शहरी ठाट-बाट के लिए या पढ़ाई करने के लिए अपने अभिभावकों द्वारा मिल रहे दबाव, पारिवारिक लड़ाई झगड़ों की वजह से घर से शहर भाग जाते हैं और जहाँ वे बहुत ही दयनीय स्थिति में जीवन व्यतीत करते हैं।

फुटपाथ के बच्चे कभी भी खराब नहीं होते। वह जिन परिस्थितियों में रहते हैं वे परिस्थितियाँ ही खराब होती हैं। इन्हें दो वक्त का खाना नहीं मिलता और बुरे व्यवहार के शिकार होते हैं । एक बार वे रास्ते में आ जाते हैं तो वे दुर्व्यवहार और उससे सम्बन्धित समस्याओ में फँस जाते हैं। यह छोटे बच्चे अपने से बड़े बच्चों के सम्पर्क में आकर कचरा चुनने या दूसरे काम जो बिना किसी कष्ट से मिल जाता है या गैर कानूनी काम जैसे जेब काटना, भीख माँगना, नशीले सामानों को बेचने जैसे कामों में लग जाते हैं।

बच्चे निम्न कारणों से घर से भागते हैं -
  • बेहतर जीवन अवसर के लिए
  • शहरी चकाचौंध
  • बड़ों का दबाव
  • खराब पारिवारिक सम्बन्ध
  • अपने माता-पिता द्वारा परित्यक्त किये जाने पर
  • माता-पिता तथा अध्यापकों द्वारा मारे जाने के डर से
  • यौन सम्बन्धी दुर्व्यवहार
  • जातीय भेदभाव
  • लिंग संबंधी भेदभाव
  • अपंगता
  • एचआईवी/ एड्स की वजह से भेदभाव
फुटपाथी बच्चों का यौन शोषण, प्रेक्षण गृह में लाया गया (एक अध्ययन, वर्ष 2003-04) (रिपोर्टः दिप्ती पगारे, जी. एस. मीणा, आर. सी. जीलोहा व एम. एम. सिंह, भारतीय बाल चिकित्सा, सामुदायिक औषधि एवं मनोचिकित्सा विभाग, मौलाना आज़ाद महाविद्यालय। इस अध्ययन के दौरान दिल्ली के एक प्रेक्षण केन्द्र में रहने वाले बालकों के बीच किये गये सर्वेक्षण के दौरान यह बात सामने आई कि उसमें रहने वाले अधिकतर बच्चे फुटपाथ पर रहने वाले थे और उनमें से 38.1 प्रतिशत बच्चे यौन सम्बन्धी दुर्व्यवहार के शिकार थे। उन लोगों का जब अस्पतालों में जाँच कराया गया तो उनमे से 61.1 प्रतिशत बच्चों के शरीर पर जख्म के निशान थे जबकि 40.2 प्रतिशत बच्चों ने उनके साथ हुए यौन दुर्व्यवहार निशान दिखाए। 44 प्रतिशत बच्चों के साथ जबरन यौन दुर्व्यवहार किये और उनमें से 25 प्रतिशत बच्चों में यौन सम्बन्धी रोगों के निशान पाये गये थे। इन बच्चों के यौन शोषण जैसी घटनाएँ अधिकतर अपरिचित व्यक्ति द्वारा ही किया गया था।
मिथक और सच्चाईः एचआईवी / एड्स
मिथकः एचआईवी / एड्स वयस्क लोगों का मामला है। बच्चों को इसमें करने के लिए कुछ नहीं है इसलिए उन्हें इस बारे में जानने की कोई जरूरत नही हैं। उन्हें एचआईवी / एड्स, प्रजनन स्वास्थ्य, शारीरिक संबंध और इससे सम्बन्धित अन्य विषयों के बारे में जानकारी देने से उनका दिमाग दूषित होता है। जब बच्चे इस तरह के परिवारों से आते हैं, जहाँ एचआईवी / एड्स का प्रकोप हो या उसके परिवार के किसी सदस्य पहले कभी एड्स से पीड़ित रहे हैं तो उन बच्चों को अलग रखना चाहिए ताकि एचआईवी / एड्स न फैलें।

सच्चाईः एचआईवी / एड्स के होने का सम्बन्ध उम्र, चमड़ा, रंग, जाति, वर्ग, धर्म, किसी भौगोलिक स्थान, नैतिक विचलन एवं अच्छी व बुरी आदतों से नहीं है। कोई भी व्यक्ति एचआईवी का शिकार हो सकता है। एचआईवी के कारण ही एड्स फैलता है। एचआईवी से पीड़ित व्यक्ति के शरीर से निकले द्रव्य, जैसे वीर्य, संसर्ग द्वार से निकले द्रव्य, खून या माँ के दूध के संपर्क में आने से फैल सकता है। इसके अलावा, एचआईवी पीड़ित व्यक्ति के खून के संपर्क में सुई के साथ नशे के लिए प्रयुक्त की सुई, गोदने व शरीर में भोकने में प्रयुक्त सुई से भी एचआईवी फैलता है।

करोडों बच्चे आज या तो एचआईवी / एड्स के शिकार हैं या उससे प्रभावित हैं। माता - पिता के असमय देहान्त के कारण अनेक बच्चे अनाथ हो जाते है। माता से बच्चे को एचआईवी / एड्स का फैलना साधारण बात है। लेकिन बच्चों के साथ होने वाले यौन दुर्व्यवहार के कारण भी बहुत सारे बच्चे इस रोग के शिकार हो जाते हैं। बच्चों एवं युवाओं में नशीले पदार्थों की वजह से भी इस रोग के होने का खतरा रहता है। इन परिस्थितियों में बच्चों को एचआईवी/एड्स के बारे में जानकारी नहीं देना ठीक नहीं है। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने आपको इस रोग से किस तरह सुरक्षित रखना चाहिये, इस बारे में भी जानकारी प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं करना चाहिए।

एशिया में चीन के बाद भारत में एचआईवी/एड्स पीड़ित लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र एड्स संस्था के अनुसार भारत में 0 से 14 वर्ष उम्र के लगभग 0.16 करोड़ बच्चे एचआईवी के शिकार हैं।

एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार केरल के पराप्पाननगडी के एक सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालय में 6 वर्षीय बबीता राज को स्कूल प्रबंधन ने इसलिए उसके स्कूल आने पर रोक लगा दी क्योंकि उसके पिता की मृत्यु एड्स के कारण हो गई थी। सामाजिक कार्यकर्ताओं की मध्यस्थता के बाद भी उस बच्चे की एचआईवी जाँच कराई गई जिसमें पाया गया कि उसे एचआईवी नहीं है, इसके बावजूद स्कूल प्रबंधन ने उसे स्कूल में दाखिला नहीं दिया। साथ ही, स्थानीय सरकारी विद्यालय में भी उस बच्ची को दाखिला नहीं दिया गया।

स्रोतः फ्यूचर फॉरसेकेन, ह्यूमेन राईट्स वाच, पृष्ठ संख्या 73, 2004

हमें यह समझने की आवश्यकता है कि एचआईवी पीड़ित बच्चे के छूने से या उसके पास बैठने से, उसे आलिंगन करने से, या उसके साथ खेलने से यह रोग नहीं फैलता है। यह सही है कि बच्चों के जानने के अधिकार व सहभागिता मुख्य रूप से इस बात आधारित है कि उसकी रुचि किस काम में है। इस तरह बच्चों को यौन सम्बन्ध, प्रजनन स्वास्थ्य या एचआईवी/ एड्स के बारे में जानकारी देने उम्र सीमा को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। जबकि इस संबंध में सच यह है कि हम बच्चों के इस तरह के प्रश्नों का सामना करने के लिए स्वयं ही मानसिक रूप से तैयार नही हैं।

पहले लोगों को एचआईवी / एड्स के बारे में बतलाने के बजाय उन बच्चों को, जिनके परिवार में एचआईवी/ एड्स के रोगी होते थे, उन्हें स्कूलों से बाहर निकाल दिया जाता था। साथ ही, उन्हें एचआईवी/ एड्स रोग की वजह से मूलभूत सेवाएँ व मौलिक अधिकार के उपभोग से वंचित कर दिया जाता था। भारतीय संविधान के अनुसार सभी व्यक्ति को समानता एवं भेदभाव मुक्त रहने का अधिकार है और जो कोई भी असमानता एवं भेदभाव को बढ़ावा देता है वह दंड का भागी हो सकता है।

अगर हमें यह बात मालूम होती है कि किसी व्यक्ति को एचआईवी पॉजिटिव है तो हमें उस व्यक्ति को उचित इलाज की सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए ताकि स्वस्थ हो सके और इस रोग का प्रसार अन्य लोगों तक न हो सके। अगर उन बच्चों को जिन्हें यह बीमारी होने की संभावना है, विद्यालय से निकाल दिया गया तो हम उनके स्वास्थ्य के बारे में खबर नहीं रख सकते और उनकी मदद भी नहीं कर सकते। इससे खतरा और बढ़ जाता है। भेदभाव के द्वारा दिनोदिन बढ़ते इस रोग को समाप्त नहीं किया जा सकता है।
मिथक तथा सच्चाई - जातीय भेदभाव
मिथकः अस्पृश्यता तथा जातीय भेदभाव अब बीते युग की बातें बन गई हैं । किसी भी हालत में दलित या अनुसूचित जाति / जनजाति के विद्यार्थियों को कभी और कहीं भी जातीय भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है। क्योंकि संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण की सुविधा ने उनके जीवन को सुरक्षित व उत्तम बना दिया है।

सच्चाईः यह बात वास्तव में सही नहीं है। व्यक्ति कम उम्र में भी जातीय भेदभाव का शिकार बन सकता है। वह अपने विद्यालय में, खेल के मैदान में, अस्पताल तथा कई अन्य स्थानों पर जातीय भेदभाव का शिकार हो सकता है। हम लोग समाज के गरीब एवं वंचित वर्ग विशेषकर अनुसूचित जाति एवं जनजाति समुदाय के लोगों की मदद निम्न तरीके से कर उनकी समस्या का समाधान कर सकते हैं-
1) उनके आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों को सुरक्षित कर,
2) उन्हें शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधा के साथ सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर,
3) बाल-मजदूरी तथा भंगी व्यवस्था को दूर कर।
मिथक एवं सच्चाई – अपंगता
मिथकः विकलांगता एक शाप हैं । एक अपंग बच्चे की कोई कीमत नहीं है। ऐसे बच्चे परिवार के लिए भार हैं । वे लोग आर्थिक दृष्टि से अनुत्पादक होते तथा शिक्षा उनके लिए किसी काम की नहीं है। वास्तव में अधिकांश विकलांगता का कोई इलाज भी नहीं है।

सच्चाईःविकलांगता का पूर्वजन्म के क्रियाकलापों से कोई संबंध नहीं है। यह एक प्रकार का रोग है जो गर्भ के दौरान आवश्यक देखभाल की कमी के कारण या फिर वंशानुगत कारणों से वे इस बीमारी से पीड़ित हो जाते हैं। इसके अलावा, यह रोग निम्न कारणों से भी हो सकती हैः
1) आवश्यकता पड़ने पर उचित चिकित्सा के अभाव में,
2) उचित प्रतिरक्षण टीका नहीं लगाने के कारण,
3) दुर्घटना के कारण,
4) घाव व अन्य कारणों से।

साधारणतया मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति सहानुभूति का पात्र होता है। हम यह भूल जाते हैं कि विकलांग को व्यक्तिगत रूप से सहानुभूति के अतिरिक्त भी कुछ जरूरी हक प्राप्त हैं।

अक्सर हम दुर्बलता को कलंक से जोडते हैं। मानसिक रूप से दुर्बल व्यक्ति के परिवार को बहिष्कृत किया जाता है तथा जनसमुदाय उसे तुच्छ दृष्टि से देखता है। शिक्षा प्रत्येक बालक व बालिका के लिए आवश्यक है, चाहे वह साधारण हो या शारीरिक या मानसिक रूप से दुर्बल। क्योंकि शिक्षा शिशु के समग्र विकास में सहायक होता है।

विकलांग बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताएँ होती हैं और हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनकी आवश्यकताओं को पूरी करें। यदि उनको भी अवसर उपलब्ध कराई जाए तो वे भी जीविकोपार्जनजनित कुशलता प्राप्त कर सकते हैं। दुर्बलता दुखांत तभी बनती है जब कि हम उस व्यक्ति को अपने जीवन गुजारने के लिए मूलभूत साधन उपलब्ध कराने में असफल होते हैं।
1) वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार 0-19 वर्ष की आयु की कुल जनसंख्या का 1.67 प्रतिशत बच्चे विकलांग थे
2) योजना आयोग के 10 वीं पंचवर्षीय योजना रिपोर्ट में कहा गया है कि 0.5 से 1.0 प्रतिशत तक सभी बच्चों में मानसिक दुर्बलता पाई जाती है

शिक्षा व्यवस्था में मंदबुद्धि बच्चे द्वारा सामना किये जा रहे बाधाः
1) शारीरिक तथा मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए विशेष विद्यालयों की कमी।
2) दुर्बल बच्चे साधारणतया मंदबुद्धि होते हैं। विद्यालयों में इस तरह के विशेष अध्यापक नहीं होते जो ऐसे विद्यार्थियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएँ।
3) सहपाठियों का असंवेदनशील व्यवहार। साधारणतया शारीरिक तथा मानसिक रूप से विकलांग बच्चे अपने सहपाठियों के उपहास के पात्र होते है क्योंकि वे या तो धीरे-धीरे सीखने वाले होते या फिर शारीरिक रूप से विकलांग होते हैं।
4) विद्यालयों में विकलांग बच्चों के लिए शौचालय एवं बैठने की कुर्सी सहित आधारभूत सुविधाओं की कमी।

समुचित प्रशिक्षण के द्वारा विकलाँग व असामान्य बच्चों में भी ऐसी कुशलता विकसित की जा सकती है जिसके सहारे वह सम्मानीय जिन्दगी जी सकता है। इतना हीं नहीं, यदि कम उम्र में ही बीमारी को पहचानकर इलाज कराया जाए तो अधिकांश दुर्बलताओं एवं अपंगता को ठीक या उससे बचाव किया जा सकता है। इसमें मानसिक रूप से विकलाँगता की स्थिति भी शामिल है जिसका सही समय पर इलाज कर बीमारी को ठीक किया जा सकता व उससे बचाव किया जा सकता है।

संघर्ष व मानव निर्मित आपदा
प्रत्येक विद्यालय एवं शिक्षक को संघर्ष, राजनीतिक लड़ाई, युद्ध या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में बच्चों की देखभाल का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इस तरह की स्थितियों में जी रहे बच्चों के लिए विशेष देखभाल एवं सुरक्षा की जरूरत होती है और यह तभी संभव है जब मानव समुदाय इसकी आवश्यकता महसूस करे।

सुरक्षा एवं कानून

प्रत्येक बच्चें को ऊपर वर्णित किये गये सभी प्रकार के शोषण एवं कष्टकारी स्थिति से सुरक्षा पाने का अधिकार है। एक शिक्षक के रूप में आपको इन मुद्दों के समाधान के तरीके सीखने चाहिए। लेकिन यह तभी संभव है जब आप इससे संबंधित वास्तविक समस्या एवं बच्चों द्वारा झेली जा रही चुनौती के प्रति जागरुक रहें। साथ ही, आपको बच्चों को इस तरह के शोषण से बचाव के लिए देश में बने कानून एवं नीति के बारे में भी जानकारी हो।

ऐसी स्थितियों में रहनेवाले बच्चों को कानूनी सहायता एवं सुरक्षा की जरूरत होती है। एक साधारण गलती अक्सर हमलोग यह करते हैं कि बच्चे को अत्यंत आवश्यकता पड़ने पर भी हम कानूनी कदम नहीं उठाते अर्थात् न्यायालय में कार्यवाही नहीं करते।
अपने - आपसे पूछिये - क्या सामाजिक न्याय की तुलना में परिवार/ समुदाय /समाज / शक्तिशाली समूह द्वारा बहिष्कार का भय अधिक महत्वपूर्ण होनी चाहिए ?
सन् 2003 में कर्नाल जिले के एक गाँव की पाँच लड़कियाँ, विवाह के लिए बेची जा रही दो नाबालिग लड़कियों को बचाने में सफल हुई। ज्योंही उन्होंने बाल विवाह तथा लड़कियों की अवैध बिक्री को रोकने का संकल्प किया, उनके स्कूल के अध्यापकों ने दोषी व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कारवाई करने के लिए आवश्यक कदम उठाने में उनकी सहायता की। इस कार्रवाई पर उन पाँचों लड़कियों को वर एवं वधू पक्ष के परिवारों के लोगों, गाँव के बुजुर्ग के साथ ग्रामीण समुदाय की ओर से तीव्र विरोध शुरू हो गया। साथ ही, उन पाँचों लड़कियों को भी धमकियाँ दी जाने लगी और उनके परिवारवाले भी चाहते थे कि वे इस तरह की कार्रवाई को रोक दें। शुरू में पुलिस भी उस गैर कानूनी कार्रवाई को रोकने के लिए सामने नहीं आई। जब सारे प्रयत्न विफल हो गए तो विद्यालय के अध्यापकों ने स्थानीय समाचार माध्यम की सहायता ली। जब ये बातें चारों तरफ फैल गई तब जाकर पुलिस उस विवाह को रोकने के लिए आगे आकर दोषी व्यक्ति पर मुकदमा दर्ज किया। इन पाँचों लड़कियों को उनके साहसिक प्रयास के लिए 'राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार'से सम्मानित किया गया। अपने असीम धैर्य व साहस तथा सभी प्रकार की बाधाओं के बावजूद विद्यालय के अध्यापकों ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की क्योंकि उनकी सहायता के बिना दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध कठिन कार्रवाई संभव नहीं थी। वास्तव में अध्यापकों ने इस कार्य में अपनी नौकरी को ही नहीं बल्कि अपनी जान की भी बाजी लगाई। लेकिन न्याय पाने की तीव्र इच्छा तथा बाल-सुरक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने इस स्थिति में उनका मार्गदर्शन किया।
इस तरह की कार्रवाइयों को रोकने के लिए आप निम्नलिखित कदम उठाकर दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया शुरू करने में मदद कर सकते हैं
  • पुलिस या 'चाइल्ड लाइन'को सूचित कर,
  • यह सुनिश्चित कर कि 'चाइल्ड लाइन'बच्चों को उचित सलाह तथा कानूनी सेवाएँ उपलब्ध कराती है,
  • इसके लिए जनसमुदाय का समर्थन प्राप्त करना,
  • अंतिम उपाय के रूप में प्रेस या मीडिया को सूचित करना,
  • अपने कानून के बारे में जानकारी प्राप्त कर
सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आधारभूत कानून एवं उस अधिकार के बारे में जानकारी प्राप्त करें जिनकी रक्षा की जानी है। यदि आप बाल अधिकार तथा उसकी संरक्षा के लिए बने कानून से परिचित हैं तभी आप बच्चे या उसके माँ-बाप/ संरक्षक / जनसमुदाय को कानूनी कारवाई के लिए तैयार कर सकते हैं। कभी-कभार पुलिस या प्रशासन भी इस तरह के मामलों में बाधा उत्पन्न करते हैं। कानून के बारे में उचित जानकारी मामले को अच्छी तरह से हल में आपको सशक्त बनाता है।
लिंगः चयनित गर्भपात, कन्या शिशु हत्या तथा बाल हत्या
चयनित गर्भपात प्रक्रिया में शामिल लोगों पर अर्थात् पैदा होने से पूर्व ही कन्या शिशु की गर्भपात के माध्यम से हत्या करानेवालों पर अभियोग चलाने से संबंधित मुख्य कानूनी प्रावधान जन्म पूर्व जाँच तकनीक विनियमन एवं दुरुपयोग निरोध कानून, 1994 (Pre-Natal Diagnostic Techniques (Diagnostic & Prevention of Misuse Act, 1994)) में वर्णित है।
  • यह गर्भ में पल रहे भ्रूण के लिंग निर्धारण के लिए जन्म पूर्व जाँच तकनीक (Pre-Natal Diagnostic Techniques) के विज्ञापन एवं दुरुपयोग को निषेध करता है जिसके परिणामस्वरूप कन्या भ्रूण की हत्या की जाती है।
  • यह कानून विशिष्ट रूप से आऩुवंशिक असामान्यता की स्थिति से बचाव के लिए जन्म पूर्व जाँच तकनीक (Pre-Natal Diagnostic Techniques ) के प्रयोग की अनुमति देता है। लेकिन इसका उपयोग कुछ निश्चित मानदंडों का पालन करते हुए निबंधित संस्थाओं द्वारा ही प्रयोग में लाया जा सकता है।
  • इसमें कानून में दिये गये मानदंडों के उल्लंघन की स्थिति में सजा का भी प्रावधान है।
  • इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति संबंधित अधिकारी को कम से कम तीस दिन के अंदर कदम उठाने के लिए अनुरोध कर सकता हैं तथा उसे अदालत में भी अभियोग दाखिल कर बताना पड़ेगा।
इस कानून के अलावा, भारतीय दंड संहिता, 1860 के निम्न भाग भी महत्वपूर्ण हैं -
  • यदि किसी व्यक्ति के द्बारा हत्या हुई हो (भाग 299 तथा 300)
  • यदि शिशु के जन्म से पहले, स्वैच्छिक रूप से गर्भवती स्त्री को गर्भपात कराने के लिए प्रेरित करें (भाग 312)
  • गर्भस्थ शिशु को जीवित जन्म लेने से रोकना या पैदा होते ही उसे मार देना (भाग 315)
  • गर्भस्थ शिशु की हत्या (भाग 316)
  • 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों को घर से बाहर करना और परित्यक्त करना (भाग 317)
  • किसी बच्चे / बच्ची के शव को फेंककर उसके जन्म को गुप्त रखना (भाग 318)
उपरोक्त अपराधों के दोषियों को दो वर्ष से लेकर आजीवन कारावास या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।
बाल-विवाह
बाल विवाह निषेध कानून, 1929 परिभाषित करता है कि 21 वर्ष से कम आयु के पुरुष एवं 18 वर्ष से कम आयु की महिला को बच्चा समझा जाएगा (भाग 2 (ए)) इसके अंतर्गत बाल विवाह की अनुमति देनेवाले, विवाह संपन्न करानेवाले या इससे संबंध रखनेवाले कई व्यक्तियों को दंडित किया जा सकता हैं । वे इस प्रकार हैं -
  • बाल-विवाह करने वाला वह पुरुष जिसकी आयु 18 साल से अधिक तथा 21 साल से कम है तो उसे 15 दिन की साधारण सजा या 1000 रुपये तक का जुर्माना या दोनों द्वारा दंडित किया जा सकता है (भाग 3)
  • बाल-विवाह करनेवाला पुरुष व्यक्ति की आयु 21 वर्ष से अधिक हो तो उसे जुर्माना के साथ तीन महीने तक की सजा भी हो सकती है। (भाग 4)
  • बाल-विवाह करनेवाला व्यक्ति यदि यह साबित नहीं कर पाता कि उसकी दृष्टि में यह बाल-विवाह नही हैं तो उसे जुर्माने के साथ तीन माह तक की सजा हो सकती है। (भाग 5)
  • वैसे माँ- बाप या संरक्षक या अभिभावक जो बाल-विवाह की अनुमति देते या लापरवाही से इसे रोकने में असफल होते हैं या ऐसे बाल-विवाहों को प्रोत्साहित करने का कोई काम करते हैं तो उन्हें भी दंडित किया जा सकता है (भाग 6)
क्या बाल-विवाह रोका जा सकता है ?

बाल-विवाह निषेध कानून, 1929 के अनुसार बाल-विवाह रोका जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति पुलिस को शिकायत करे कि वैसे विवाह की तैयारियाँ हुई हैं या विवाह होनेवाला है। तब पुलिस ऐसे मामले की जाँच करेगी और मामले को मजिस्ट्रेट के पास ले जाएगी। मजिस्ट्रेट बाल-विवाह को रोकने का आदेश दे सकता है। यदि कोई व्यक्ति बाल-विवाह को रोकने के आदेश का उल्लंघन करता है तो उसे तीन महीने तक की कैद या 1 हजार रुपये जुर्माना या दोनों हो सकता है। बाल-विवाह को उसके संपन्न होने के पहले ही रोकना चाहिए क्योंकि कानून में उल्लिखित आयु संबंधी नियमों का उल्लंघन करके संपन्न होनेवाला विवाह अपने आप अवैध नहीं हो जाता।
बाल-श्रम
बाल (बँधुआ मजदूरी) कानून 1933यह घोषणा करता हैं कि माँ- बाप या संरक्षक या अभिभावक तर्कयुक्त मजदूरी से परे हटकर किसी भुगतान या लाभ के लिए 15 साल से कम उम्र के अपने बच्चे को मजदूरी कराने का समझौता करता है तो वह अवैध एवं अमान्य होगा। इस कानून के तहत इस कार्य में शामिल माँ- बाप या संरक्षक तथा नियोक्ता को भी दंडित किया जा सकता है।

बँधुआ मजदूरी व्यवस्था (समाप्ति) अधिनियम, 1976ऋण चुकाने के लिए किसी व्यक्ति को बँधुआ मजदूरी के लिए बाध्य करने की व्यवस्था को निषिद्ध करता है। यह अधिनियम सभी ऋण शर्तों या समझौतों तथा प्रतिबद्धताओं को भी अमान्य करता है। यह कानून नये सिरे से बँधुआ मजदूरी बनाने की व्यवस्था को भी निषिद्ध करता हैं और सभी बँधुआ मजदूरों के ऋण समझौता को रद्द कर उनको दासता से मुक्त कराता है। एक व्यक्ति को बँधुआ मजदूरी के लिए बाध्य करना कानूनन दंडनीय है। साथ ही, वैसे अभिभावक या माँ - बाप जो अपने बच्चे या परिवार के अन्य सदस्यों को बँधुआ मजदूरी के लिए बाध्य करते हैं या इस तरह का समझौता किसी व्यक्ति से करते हैं तो वे भी (अभिभावक या माँ - बाप) दंडित किये जाएँगे।

बाल श्रम (निरोध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 14 वर्ष के कम उम्र के बच्चों को जोखिम भरे कामों में लगाने को निषिद्ध करता है तथा कम जोखिम भरे कामों में लगाने को नियंत्रित करता है।

बाल न्याय (बालकों की देखभाल व सुरक्षा) अधिनियम 2000इस अधिनियम का भाग 20 जोखिम भरे कार्य में बच्चों को नौकरी देने वाले, उसके लिए उसे प्राप्त करने वाले, उसे बँधुआ मजदूर के रूप में रखने वाले तथा उसकी आमदनी को अपने फायदे के लिए अपने पास रखने वाले व्यक्ति के लिए दंड का प्रावधान करता है।

कुछ अन्य श्रम कानून जो बाल-श्रम को निषिद्ध करता या बाल-श्रमिकों के लिए कार्य दशा का विनियमन करता और इस तरह के कार्यों में शामिल व्यक्ति को इस कानून के तहत गिरफ्तार या सजा दी जा सकती हैः
  • कारखाना अधिनियम 1948
  • कृषक श्रमिक अधिनियम 1951
  • खान अधिनियम 1952
  • व्यापारिक जहाजरानी अधिनियम 1958
  • प्रशिक्षु अधिनियम 1961
  • मोटर परिवहन कामगार अधिनियम 1961
  • बीड़ी व सिगरेट कामगार (शर्त्तें व रोजगार) अधिनियम 1966
  • पश्चिम बंगाल दूकान एवं स्थापना अधिनियम 1963
बलात्कार के लिए अधिकतम 7 वर्ष के दंड का प्रावधान है लेकिन यदि पीड़ित बालिका की उम्र 12 वर्ष से कम हो तथा बलात्कारी अस्पताल, बाल सुधार गृह व पुलिस थाने से जुड़ा व्यक्ति है तो उस मामले में दंड इससे अधिक होगी।

यद्यपि किसी बालक के साथ जबरदस्ती किया गया संभोग भी बलात्कार जैसी कार्रवाई है लेकिन भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत वर्णित बलात्कार कानून इस मामले में लागू नहीं होता है। बालकों के साथ होनेवाले संभोग संबंधी छेड़छाड़ तथा अन्य दूषित व्यवहार को कवर करने के लिए कोई विशेष कानून नहीं हैं, लेकिन भारतीय दंड संहिता का भाग 377 अप्राकृतिक व्यवहार पर उचित नियमन की व्यवस्था करता है।
बाल-व्यापार
देश में बाल-व्यापार के खिलाफ दर्ज मामले की सुनवाई के लिए उपलब्ध कानूनी ढाँचा निम्न हैं -

भारतीय दंड संहिता कोड


भारतीय दंड संहिता में अमानवीय उद्देश्य के लिए बच्चों के साथ धोखाधड़ी, छल-कपट, अपहरण, छिपाकर रखना, आपराधिक धमकी, बच्चों को प्राप्त करना व बच्चों की खरीद-बिक्री करने वालों के लिए दंड का विधान किया गया है।
बाल-न्याय ( बालकों की संरक्षा तथा सुरक्षा) अधिनियम 2000

यह कानून बाल व्यापार के शिकार बच्चों की संरक्षा तथा सुरक्षा की गारंटी तथा ऐसे बालकों को पुनः उसके माता-पिता व परिवार से मिलाने की भी व्यवस्था करता है।


उपरोक्त प्रकार के उस उद्देश्य के लिए किये गये बाल व्यापार में शामिल लोगों को दंडित करने के लिए निम्न विशेष तथा स्थानीय कानूनों का उपयोग किया जा सकता है -
  • आंध्र प्रदेश देवदासी (प्रवेश को निषिद्ध) अधिनियम 1988 या कर्नाटक देवदासी (प्रवेश को निषिद्ध) अधिनियम 1982
  • बम्बई भिक्षाटन निरोध अधिनियम 1959
  • बँधुआ मजदूरी व्यवस्था (निर्मूलन) अधिनियम 1976
  • बाल-श्रम निषेध तथा विनियमन अधिनियम 1986
  • बाल-विवाह रोक अधिनियम 1929
  • संरक्षक तथा आश्रित अधिनियम 1890
  • हिन्दू ग्रहण (गोद) एवं निर्वाह अधिनियम 1956
  • अनैतिक व्यापार (निरोध) अधिनियम 1986
  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000
  • नशीली दवाओं एवं पदार्थ अवैध व्यापार निरोध अधिनियम 1988
  • अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों का निषेध ) अधिनियम 1989
  • मानव अंगों का प्रत्योरोपण अधिनियम 1994
एचआईवी/एड्स
एचआईवी पॉजिटिव लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक विशेष कानून निर्माण की प्रक्रिया में है। बावजूद इसके भारत के संविधान ने सभी नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किये हैं जिससे किसी भी व्यक्ति यहाँ तक कि एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति को वंचित नहीं किया जा सकता
  • सूचित सम्मति का अधिकार
  • गोपनीयता का अधिकार
  • भेदभाव के विरूद्ध अधिकार
सूचित सम्मति का अधिकार
सम्मति स्वतंत्र हों। लेकिन यह बल प्रयोग, गलत रीति, धोखाधड़ी, छल-कपट, गलत प्रभाव, गलत प्रतिरूपण के माध्यम से प्राप्त नहीं की जानी चाहिए। सम्मति की भी सूचना जरूरी है। यह मुख्य रूप से डॉक्टर व रोगी के संबंध में महत्वपूर्ण है। डॉक्टर, रोगी के बारे में बहुत कुछ जानता और रोगी उस पर विश्वास भी करता है। किसी भी चिकित्सकीय प्रक्रिया से पहले डॉक्टर को चाहिए कि वह उस बारे में तथा उससे संबंधित उपलब्ध विकल्प के बारे में रोगी को बताये ताकि वह उस आधार पर निर्णय ले सके कि उसे यह चिकित्सकीय प्रक्रिया जारी रखना है या नहीं।

अन्य बीमारीयों की तुलना में एचआईवी का प्रभाव अलग है। इसलिए एचआईवी संबंधी परीक्षण के लिए संबंधित व्यक्ति को सूचित कर उसकी सम्मति प्राप्त करना जरूरी है। अन्य बीमारीयों के संबंध में बताने के बाद प्राप्त की गई सम्मति एचआईवी के लिए लागू नहीं होती। यदि संबंधित व्यक्ति से सूचित सम्मति नहीं ली गई हो तो, इसे उसके अधिकारों का उल्लंघन माना जाएगा और इसके उपचार के लिए वह न्यायालय से अनुरोध कर सकता है।

गोपनीयता का अधिकार
यदि कोई व्यक्ति किसी पर विश्वास कर कोई बात कहता है तो इसका मतलब है कि वह बात गोपनीय बनी रहे। यदि वह व्यक्ति उस गोपनीय बात को किसी तीसरे व्यक्ति को बताता है तो उसे गोपनीयता का उल्लंघन माना जाएगा।

डॉक्टर का प्राथमिक दायित्व रोगी के प्रति है और उसकी यह जिम्मेदारी है कि उसे रोगी द्वारा दी गई सूचना की गोपनीयता बनाये रखे। यदि किसी व्यक्ति की गोपनीयता भंग होती है या होनेवाली है, तो संबंधित व्यक्ति का हक है कि वह अदालत जाकर गोपनीयता के भंग होने की वजह से हुई हानि की क्षतिपूर्ति के लिए न्यायालय से अनुरोध करे।

एचआईवी पीड़ित व्यक्ति अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत जाने से हिचकते हैं क्योंकि इससे उनके बीमारी की जानकारी सार्वजनिक होने का भय रहता है। फिर भी, वह पहचान की गोपनीयता (Suppression of Identity) के माध्यम का प्रयोग कर न्यायालय में छद्म नाम से मुकदमा दायर कर सकता है। इस लाभकारी रणनीति से एड्स पीड़ित व्यक्ति सामाजिक बहिष्कार के भय के बिना न्यायालय से न्याय पा सकता है।

भेदभाव के विरुद्ध अधिकार
समान इलाज पाना मौलिक अधिकार है। भारत के संविधान में यह व्यवस्था है किसी व्यक्ति के साथ लिंग, धर्म, जाति, वंश या जन्म स्थान आदि के आधार पर सामाजिक या पेशेवर रूप से किसी भी सरकार संचालित या सरकारी सहायता प्राप्त संस्था द्वारा भेदभाव नहीं किया जाएगा। साथ ही, लोक स्वास्थ्य का अधिकार भी मौलिक अधिकार है जिसे राज्य सरकार सभी नागरिकों को उपलब्ध कराती है। यदि एचआईवी पॉजिटिव कोई व्यक्ति चिकित्सा सुविधा प्राप्त करना चाहता या किसी अस्पताल में भर्ती होना चाहता है, तो उससे उसे वंचित नहीं किया जा सकता। यदि इस परिस्थिति में संबंधित व्यक्ति को जरूरी सुविधा से वंचित किया जाता है तो वंचित व्यक्ति को अधिकार होगा कि वह उस मामले में कानूनी सहायता प्राप्त करे। एड्स पीड़ित रोगी यदि कार्य करने में सक्षम है और दूसरे कर्मियों को उससे कोई खतरा नहीं है तो उसे नौकरी से नहीं हटाया जा सकता है। यह व्यवस्था मई 1997 में बम्बई उच्च न्यायालय ने दी है।

1992 में भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों को प्रशासनिक आदेश भेजकर निर्देश दिया कि केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा संचालित अस्पतालों या स्वास्थ्य संस्थानों में ऐसी व्यवस्था की जाए कि एचआईवी/एड्स के पीड़ित व्यक्ति (Person Living With HIV & AIDS- PLWHA) के साथ कोई भेदभाव न हो।
स्रोत :एचआईवी/एड्स में कानूनी मुद्दे
शारीरिक दंड
भारत के स्कूलों में शारीरिक दंड को निषेध करने के लिए कोई केन्द्रीय कानून नहीं है। तब भी विभिन्न राज्यों ने अलग से इसे निषिद्ध करने के लिए कानून बनाए हैं। केन्द्र सरकार अभी बाल-शोषण पर कार्य कर रही है जिसके अनुसार बालकों को दिए गये शारीरिक दंड को अपराध माना गया है। इस कानून के अमल में आने तक अन्य उपलब्ध कानून उपयोग में लाए जाएँगे-
भारत के वे राज्य जहाँ शारीरिक दंड को निषिद्ध या बनाये रखे हुए हैं-
राज्य शारीरिक दंड (निषिद्ध या जारी) कानून या नीति
तमिलनाडुनिषिद्धजून 2003 में तमिलनाडु शिक्षा नीति संशोधन अधिनियम 51के माध्यम से राज्य में विद्यार्थियों को सुधारने के उद्देश्य से दी जाने वाली मानसिक व शारीरिक दंड को प्रतिबंधित कर दिया गया।
गोआनिषिद्धThe गोआ बाल अधिनियम 2003 राज्य में शारीरिक दंड को निषिद्ध करता है।
पश्चिम बंगालनिषिद्धकलकत्ता उच्च न्यायालय ने फरवरी 2004 में दिये एक निर्णय में कहा कि राज्य के स्कूलों में बच्चों को बेंत से मारना गैरकानूनी है। इस संबंध में तापस भाँजा ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका की है।
आँध्र प्रदेशनिषिद्धआँध्र प्रदेश के शिक्षा सचिव आई. वी सुब्बा राव ने शारीरिक दंड से संबंधित 1966 के सरकारी आदेश संख्या 1188 के स्थान पर 18 फरवरी 2002 को सरकारी आदेश संख्या 16जारी किया। 2002 के नये कानून में राज्य के सभी शैक्षिक संस्थानों में शारीरीक दंड को प्रतिबंधित कर दिया गया है। इसके अंतर्गत शिक्षा नियम (1966) के नियम 122 में संशोधन भी किया गया। इसके उल्लंघन पर भारतीय दंड संहिता के अधीन सजा दी जाएगी।
दिल्लीBannedसार्थक शिक्षा के लिए अभिभावकों द्वारा याचिका दायर किया गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली स्कूल शिक्षा अधिनियम 1973 के उस प्रावधान को रद्द कर दिया जिसमें स्कूलों में शारीरिक दंड की व्यवस्था थी। दिसंबर 2000 में दिये अपने एक फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली स्कूल शिक्षा अधिनियम 1973 में उल्लिखित शारीरिक दंड का विधान अमानवीय तथा बालकों की प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाला है।
चंडीगढ़निषिद्ध1990 में चंडीगढ़ में शारीरिक दंड को निषिद्ध कर दिया गया।
हिमाचल प्रदेशनिषेध करने का निर्णयइस प्रतिवेदन के बाद कि शारीरिक दंड के कारण बच्चे अपंग हो रहे हैं तो राज्य सरकार ने स्कूलों में शारीरीक दंड पर रोक लगाने का निर्णय किया है।
घरेलू हिंसा
देश में घरेलू हिंसा को रोकने के लिए कोई कानून नहीं है। फिर भी, वर्ष 2000 में बाल न्याय (बालकों की संरक्षा व सुरक्षा) अधिनियम, में माना गया कि जिन लोगों पर बच्चों की जिम्मेदारी थी या किसी खास चीज पर नियंत्रण का कार्य जिनके जिम्मे था उन लोगों द्वारा, बच्चों के साथ क्रूर व्यवहार किया जाता है। इस अधिनियम का भाग 23 बालक के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार के लिए दंड का प्रावधान करता है। इसके अंतर्गत पिटाई या प्रहार करने की घटना, परित्याग, बहिष्कार, जानबूझकर उसके प्रति बरती जा रही लापरवाही की घटना भी शामिल है जिसकी वजह से बच्चों को शारीरिक या मानसिक पीड़ा सहनी पड़ती है।
जातीय भेदभाव
भारत का संविधान निम्न बातों की गारंटी देता है -
  • सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान और सभी को कानूनों का समान संरक्षण प्राप्त है (अनुच्छेद 14)
  • जाति, वर्ण, लिंग, जन्म स्थान या निवास स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 15)
  • नौकरी देने में जाति, वर्ण, लिंग, जन्म या निवास स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 16) · अस्पृश्यता की समाप्ति और किसी भी तरह की अस्पृश्यता दंडनीय अपराध होगा (अनुच्छेद 17)
किसी भी रूप तथा किसी भी कार्य के लिए अस्पृश्यता के प्रचार तथा आचरण को दंडनीय अपराध घोषित करने वाला भारत का पहला कानून नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम 1955 था। यहाँ तक कि अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति को उसकी जाति के नाम से पुकारना, जैसे चमार जाति के व्यक्ति को चमार कहकर बुलाना भी दंडनीय अपराध माना गया है। भारत सरकार ने गैर अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग के लोगों द्वारा अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग के लोगों पर किये जाने वाले विभिन्न प्रकार के भेदभाव एवं हिंसात्मक गतिविधियों के तहत सजा देने के लिए 1989 में अनुसूचित जाति व जनजाति (अत्याचार से सुरक्षा) अधिनियम लागू किया। इसके तहत, इस तरह के अपराध के लिए जिला स्तर पर विशेष अदालत की स्थापना तथा न्यायालय में मुकदमें की जाँच के लिए लोक अभियोजक की नियुक्ति की जाएगी। इससे संबंधित सारे खर्च राज्य सरकार द्वारा वहन किये जाएँगे।
सड़कों एवं फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे
बाल-न्याय (संरक्षण एवं सुरक्षा) अधिनियम 2000 बाल-न्याय (संरक्षण एवं सुरक्षा) अधिनियम 2000 तरुण या बालक (जो 18 वर्ष से कम आयु के हों) के निम्न जरूरतों से संबंधित हैः
  • संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत
  • कानूनी कार्रवाई का सामना
  • इन बच्चों को संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत
  • इन बच्चों को संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत
2 (डी) के अनुसार जिन बच्चों को संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत है, उससे मतलब है -
  • जो बिना घर के या जीविका के साधन के बिना पाया जाता है।
  • जिसके माँ-बाप या संरक्षक देखभाल करने में सक्षम न हों।
  • जो अनाथ या जिसके माँ-बाप ने परित्यक्त कर दिया हो या जो खो गया हो या घर से भागा हुआ बच्चा या फिर काफी जाँच पड़ताल के बाद भी जिसके माँ-बाप का पता नहीं लगाया जा सकता।
  • जो संभोग या अनैतिक कार्य से शोषित, सताया हुआ या पीड़ित हो या जो इस तरह के शोषण के प्रति संवेदनशील हों।
  • जो नशा या बाल-व्यापार से पीड़ित हों
  • जो किसी सशस्त्र संघर्ष, नागरिक प्रतिरोध या प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हों।
बाल-कल्याण समिति: इस कानून के अनुसार प्रत्येक राज्य सरकार को, राज्य के प्रत्येक जिले या जिला-समूह में बालकों की देखभाल, सुरक्षा, इलाज, विकास एवं पुनर्वास के लिए एक या एक से अधिक बाल- संरक्षण एवं सुरक्षा समिति का गठन करना है। यह समिति जरूरतमंद बच्चों के मूलभूत जरूरत की व्यवस्था करेगी और उसके मौलिक अधिकारों की रक्षा करेगी।
समिति के समक्ष प्रस्तुत
कोई भी बालक जिसे संरक्षण एवं सुरक्षा की जरूरत है उसे समिति के समक्ष - विशेष बाल पुलिस ईकाई, निर्दिष्ट पुलिस अधिकारी, लोक सेवक, चाइल्ड लाइन, राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त एवं पंजीकृत स्वयं सेवी संस्था, सामाजिक कार्यकर्ता या राज्य सरकार द्वारा अधिकृत कोई अन्य व्यक्ति या संस्थाएँ या स्वयं बालक / बालिका उपस्थित होकर अपनी बात कह सकता है।

घटना का सुनने जानने के बाद बाल कल्याण समिति उस बच्चे को बाल सुधार गृह भेजने का निर्देश दे सकती है और उस मामले की त्वरित गति से जाँच के लिए किसी सामाजिक कार्यकर्ता या बाल कल्याण अधिकारी को अधिकृत कर सकती है।

जाँच के बाद यदि यह पाया जाता है कि संबंधित बालक का न तो परिवार और न ही कोई प्रत्यक्ष आधार है तो उसे बाल सुधार गृह या आश्रय गृह में तब तक रखने के लिए कहा जा सकता है जब तक कि या तो उसके पुनर्वास के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाती या फिर वह 18 वर्ष के अधिक का नहीं हो जाता।
कानूनी कार्रवाइयों का सामना कर रहे बच्चे
कानून से संघर्षरत बच्चे का मतलब है ऐसे बच्चे जिसपर किसी गैर कानूनी कार्य को करने का अपराध है।

बाल-न्याय बोर्ड
प्रत्येक राज्य सरकार राज्य के प्रत्येक जिले या जिला-समूह में बालकों की देखभाल, सुरक्षा, इलाज, विकास एवं पुनर्वास के लिए एक या एक से अधिक बाल संरक्षण एवं सुरक्षा समिति का गठन करे ताकि कानून से संघर्षरत बच्चे को जमानत दी जा सके और उस बच्चे के हित में उस मामले का निपटारा किया जा सके।

मादक द्रव्य तथा पदार्थों का दुरुपयोग
मादक द्रव्य तथा विषैले पदार्थ अधिनियम 1985
यह कानून मादक द्रव्य तथा विषैले पदार्थों के उत्पादन, अपने पास रखने, उसे कहीं लाने-ले जाने, खरीद-बिक्री को अवैध घोषित करता है, तथा इस कार्य में संलग्न व्यक्ति आदि या इसके अवैध व्यापारी के लिए दंड का प्रावधान करता है।

अपराधी के द्वारा हथियार या हिंसा का उपयोग करना या उपयोग की धमकी देना, नाबालिगों का इस अपराध के लिए उपयोग करना, किसी शिक्षण संस्थान या समाज सेवा केन्द्र में अपराध करने वाले के लिए अधिक दंड का प्रावधान है।

मादक द्रव्य तथा नशीले पदार्थों के अवैध व्यापार निवारण अधिनियम 1988
इस कानून के अनुसार वैसे व्यक्ति जो बालकों को मादक द्रव्यों का अवैध व्यापार के लिए उपयोग करते हैं उन्हें सहयोगी व षडयंत्रकारी के रूप में गिरफ्तार कर उसपर मुकदमा चलाया जा सकता है।

बाल-न्याय (बच्चों की संरक्षा एवं सुरक्षा) अधिनियम 2000
इस अधिनियम का भाग 2 (डी) मादक द्रव्यों के सेवन या व्यापार में लगे असहाय बच्चे को संरक्षण एवं सुरक्षा के लिए जरूरतमंद बच्चे के रूप में परिभाषित किया गया है।

बाल-भिक्षा
जब किसी बच्चे को भिक्षाटन के लिए विवश किया जाता या उसके लिए उपयोग किया जाता, तो वैसे व्यक्ति को निम्न कानून के तहत सजा दी जा सकती है -
बाल-न्याय अधिनियम 2000
किसी किशोर या बच्चे को रोजगार देकर या भिक्षा माँगने के लिए उपयोग किया जाता है तो उसे विशिष्ट अपराध मानकर दोषी के लिए सजा की व्यवस्था है (भाग 24)

बाल-न्याय वास्तव में भिक्षा माँगने जैसे अनैतिक कार्यों के माध्यम से बच्चों का किये जा रहे शोषण, प्रताड़ना, दुरुपयोग को संरक्षा एवं सुरक्षा के लिए जरूरतमंद बच्चे के रूप में स्वीकार करता है।

भारतीय दंड संहिता
भिक्षाटन कराने के लिए नाबालिग बच्चों का अपहरण या अपाहिज बनाना भारतीय दंड संहिता के भाग 363 ए के तहत दंडनीय अपराध है।

बाल-अपराध या कानून से संघर्षरत बच्चे
ऐसे बच्चे जो अपराध करते हैं उन्हें वयस्क व्यक्ति की तुलना में कठोर दंड से रक्षा की जाए और उसे संरक्षा एवं सुरक्षा के लिए जरूरतमंद बच्चे के रूप में स्वीकार किया जाए न कि बाल न्याय (बच्चों की संरक्षा एवं सुरक्षा) अधिनियम 2000 के तहत अपराधी माना जाए।

इस कानून के तहत वैसे प्रत्येक बच्चे जिसपर किसी अपराध के लिए मुकदमा चल रहा है उसे यह अधिकार है कि उसे अनिवार्य रूप से जमानत दी जाए बशर्ते कि उससे किसी के जीवन को या उस बच्चे को कोई खतरा न हो।

किसी तरह के अपराध में शामिल बच्चे को जेल भेजने की बजाय कानून उसके प्रति सुधारवादी रूख अपनाता है और उसे सलाह या चेतावनी देकर निश्चित अवधि को छोड़ देता या फिर उसे बाल-सुधार गृह में भेज दिया जाता है।
4.बच्चों की सुरक्षा के लिए अध्यापक क्या करें
वेब साइट- http://www.wcd.nic.in/
आपने जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की प्रसिद्ध उक्ति सुनी होगी - 'मेरी दृष्टि में मानव मुक्ति शिक्षा से ही संभव है।'प्राचीन काल से भारतीय समाज में शिक्षकों का स्थान सबसे ऊँचा रहा है अर्थात् ईश्वर के बाद दूसरा स्थान गुरु का ही आता है ऐसे तो गुरु को परमबह्म कहा गया है। एक शिक्षक अपनी निजी जिन्दगी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अच्छे शिक्षक अपने छात्र-छात्राओं के दिल में महत्वपूर्ण और पवित्र स्थान रखता है। माता-पिता के बाद शिक्षक ही बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता है तथा उसके व्यक्तित्व को सही रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आप सब जानते हैं कि प्रत्येक समाज में बच्चों को दुर्व्यवहार, हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है। यदि आप अपने आस-पड़ोस में झाँककर देखें, तो पाएँगे कि छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाने के बजाय मजदूरी के काम में लगे हुए हैं। अधिकाँश बँधुआ माता-पिता अपने बच्चों की पिटाई करते हैं। कक्षा में शिक्षक भी उनकी पिटाई करते या फिर जाति व धर्म के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है। महिला बाल शिशु को जन्म लेने से रोका जाता है। इसके लिए उनकी गर्भ में या फिर जन्म के बाद हत्या कर दी जाती है अथवा फिर उन्हें परिवार या समाज में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। जन्म के बाद बालिकाओं को बाल-विवाह, बलत्कार या फिर तिरस्कार की मार अलग से झेलनी पड़ती है। हाँ, कई बच्चों की जीवन की यही सच्चाई है। इनमें से कुछ बच्चें आपकी कक्षा या स्कूल में भी होंगे। एक शिक्षक के रूप में जब आप देखते या सुनते हैं कि एक बच्चा अपमानित हो रहा है या शोषित हो रहा है, तो उस बारे में आप क्या करेंगे ? क्या आप ... · भाग्य को दोष देंगे ? · क्या आप यह तर्क देंगे कि सभी प्रौढ़, बाल अवस्था से गुजरते हुए उस अवस्था तक पहुँचे हैं, तो इसके साथ गलत क्या है ? · तर्क देंगे कि यह तो रीति-रिवाज व प्रचलन है इसलिए इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता। · गरीबी पर दोष मढ़ेगे । · भ्रष्टाचार पर आरोप लगाएँगे। · परिवार वालों को दोषी ठहराएँगे कि वे इसके लिए कुछ नहीं करते। यदि बालक आपका छात्र नहीं हो, तो आप चिंता क्यों करें ? · यह पता लगाने की कोशिश करें कि बच्चे को सचमुच सुरक्षा की जरूरत है। · तब तक इंतजार करें जब तक कोई साक्ष्य नहीं मिल जाता। या फिर आप ... · यह सुनिश्चित करेंगे कि बच्चा सुरक्षित जगह पर है। · बच्चे से बात करेंगे। · उसके परिवार वालों से बात करेंगे और उन्हें यह बताएँगे कि प्रत्येक बच्चे के लिए सुरक्षित बाल्यावस्था, उसका अधिकार है और माता-पिता की यह पहली जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों की देखभाल करें। · आवश्यक होने पर बच्चे और उसके परिवार की मदद करेंगे। · यह पता लगाएँगे कि उस बच्चे की सुरक्षा के लिए क्या खतरा है ? · बच्चों के विरुद्ध क्रूर व्यवहार करने वाले या जिनसे बच्चों को सुरक्षा की जरूरत है वैसे व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे। · कानूनी सुरक्षा और उपचार की आवश्यकता होने की स्थिति में मामले को पुलिस थाने में दर्ज करवाएँगे। इस बारे में आपकी प्रतिक्रिया, इस पर निर्भर करेगी कि आप स्वयं को किस नजरिए से देखते हैं। क्या आप स्वयं को मात्र एक शिक्षक या सर्वोच्च प्रदर्शक या प्रेरक या मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं ? क्योंकि शिक्षक या सर्वोच्च प्रदर्शक या प्रेरक या मार्गदर्शक को एक संरक्षक, बचावकर्त्ता एवं सामाजिक बदलाव लाने वाले अभिकर्त्ता की भूमिका भी अवश्य निभानी चाहिए। शिक्षक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ... वे बाल समुदाय और परिवार के प्रमुख अंग हैं। इस तरह, आप उनके अधिकारों को बढ़ावा देने एवं उन्हें सुरक्षा देने के प्रति जिम्मेदार हैं। · आप बच्चों के रोल मॉडल या आदर्श हैं और इसके लिए आप कुछ मानक निश्चित करें। · आप शिक्षक के रूप में युवा छात्र-छात्राओं की उन्नति, विकास, भलाई और सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार हैं। · आपके पद के कारण यह जिम्मेदारी एवं प्राधिकार आपमें व्याप्त है। · आप एक शिक्षक से अधिक उच्च हो सकते हैं जो स्कूलों में केवल पाठ्यक्रम पूरा करते व बेहतर परिणाम लाते हैं। आप सामाजिक बदलाव लाने वाले अभिकर्त्ता भी हो सकते हैं। यह पुस्तिका विशेष रूप से आपके लिए बनाई गई है। क्योंकि आप बच्चों की मदद कर सकते, उन्हें अपमानित व शोषण का शिकार होने से बचा सकते हैं। यद्यपि हमने संक्षिप्त में कानून की चर्चा की है अतः इस मामले में किसी वकील से कानूनी सलाह लेना उपयोगी होगा। बाल अधिकारों को समझना जरुरी है।
हमेशा यह याद रखें कि स्कूल परिसर के बाहर आपका बच्चों के प्रति कर्तव्य खत्म नहीं हो जाता। आपकी सकारात्मक मध्यस्थता से स्कूल में नामांकन लेने से वंचित रहने वाले बच्चे की जिन्दगी बदल सकती है। इसके लिए आप अपने आपको तैयार करें, उनकी समस्या को समझें और सोचे कि आप उनके लिए क्या कर सकते हैं।
एक बार यदि आप इस समस्या के समाधान के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाते हैं और उनकी समस्या के समाधान के लिए अपने आपको सुसज्जित कर लेते हैं तो आप ऐसे बहुत सारे कार्य कर सकेंगे जो आपने कभी सोचा भी नहीं होगा।
क्या आप बच्चों के लिए प्रिय अध्यापक हैं ? यह आप इस तरह बन सकेंगे.
  • बच्चों के अधिकारों को मानव अधिकार के रूप में समझें और इस तरह का जागरुकता-अभियान समाज में अच्छी तरह चलाएँ।
  • बच्चों में यह मससूस कराएँ कि उनका अपनी कक्षा में प्रतिदिन जाना जरूरी है।
  • सीखने के लिए हमेशा तैयार रहें।
  • बच्चों के दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक बनें
  • बच्चों की कक्षा को रुचिकर एवं सूचनापरक बनाएँ। एकल संचार पद्धति से दूर रहें तथा बच्चों को अपने संदेह और अपनी बात या प्रश्न कहने का पूरा अवसर दीजिए।
  • दुर्व्यवहार, उपेक्षा, सीखने की अव्यवस्थित पद्धति और अन्य नहीं दिखने वाली अयोग्यता को पहचानें और स्वीकार करना सीखें।
  • ऐसे स्थानों पर जहाँ बच्चे अपने विचार, मनोव्यथा, पीड़ा, डर आदि प्रकट करतें हों वहाँ उनके साथ आत्मीय संबंध स्थापित करें। बच्चों के साथ अनौपचारिक बातचीत के माध्यम से व्यस्त रहने की कोशिश कीजिए।
  • अच्छे श्रोता बनें। पाठशाला या घर में बच्चों द्वारा सामना किये जा रहे विभिन्न मुद्दे या समस्याओं को सुनें और उसके साथ बातचीत करें।
  • बच्चों को ऐसी बातों को कहने के लिए प्रोत्साहित करें जो उनके जीवन को प्रभावित करती हैं।
  • प्रभावी सहभागिता के माध्यम से बच्चों की क्षमता को बढ़ाएँ।
  • स्कूल अधिकारियों के साथ बच्चों की बैठकें आयोजित करें।
  • अभिभावक-शिक्षक संघ के बैठक में माता-पिता के साथ बच्चों के अधिकार मुद्दे पर चर्चा करें।
  • शारीरिक दंड को नहीं (ना) कहें अर्थात् रोकें। बच्चों में अनुशासन लाने के लिए वार्तालाप और सलाह जैसे सकारात्मक सहायक तकनीक का इस्तेमाल कीजिए।
  • भेदभाव को रोकिये या उसे नहीं (ना) कहें। अल्पसंख्यक एवं अछूत समूह के बच्चों तक पहुँचने के लिए असरदार कदम उठाएँ।
  • काम करने वाले, यौन-शोषण के शिकार, फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे, घरेलू हिंसा या मादक द्रव्यों के शिकार बच्चें, किसी अपराध के लिए मुकदमा का सामना कर रहे बच्चे या बहला कर लाये गये बच्चों के प्रति आपके मन में पहले से बैठी धारणा एवं भेदभाव जनित व्यवहारों को रोकें।
  • अपने घर और कार्यस्थल पर बाल-श्रम को रोकें।
  • लोकतांत्रिक बनें लेकिन बनावटी या असंरचित नहीं।
  • ऐसी व्यवस्था करें कि बच्चे स्कूल के साथ समाज में भी सुरक्षित रहें। जरूरत पड़े तो पुलिस को बुलाएँ और कानूनी कारवाई करें।
  • बच्चों को अपने विचार बड़ों और समाज के समक्ष प्रकट करने के लिए प्रोत्साहित करें।
  • किसी कार्यक्रम के आयोजन में बच्चों को शामिल करें। उन्हें कुछ जिम्मेदारी दें और उसी समय उनका मार्गदर्शन भी करें।
  • बच्चों को नजदीकी पर्यटन-स्थल और मेले की यात्रा पर ले जाएँ।
  • बच्चों को विचार-विमर्श/वाद-विवाद/ ज्ञान परीक्षण और अन्य मनोरंजक गतिविधियों में व्यस्त रखें।
  • कक्षा में सृजनात्मक गतिविधियों के माध्यम से लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई और सहभागिता को बढ़ावा दें।
  • स्कूल छोड़ने वाले या अनियमित रूप से स्कूल आने वाले लडकियों पर ध्यान रखें ताकि वे इसे दोबारा न दोहराएँ।
  • सभी शिक्षक बच्चों के लिए सुरक्षात्मक वातावरण बनाने और सुदृढ़ करने में मदद कर सकते हैं।
  • आपके अनुभव या जाँच महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वह अकेला आपकी कक्षा में बच्चों की वृद्धि एवं विकास के मूल्याँकन में मदद करेगा। यदि कोई समस्या देखते हैं तो आपको यह पता लगाना चाहिए कि इसका असली कारण क्या हो सकता है।
  • आपको अपने आप से अगला प्रश्न यह पूछना चाहिए कि क्या बच्चे अपने परिवार, रिश्तेदार या दोस्त के दबाव में तो नहीं है?
  • बिना कुछ थोपे, तिरस्कार और परेशानी उत्पन्न किये हुए बच्चों के साथ कुछ समय बिताएँ।
  • बच्चों को रेखा चित्र या पेंटिंग बनाकर, कहानी लिखकर, आपको या स्कूल के मार्गदर्शक/सामाजिक कार्यकर्ता या अपने दोस्त को अपनी समस्या कहने में उसकी मदद करें।.
एक शिक्षक के रूप में आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि एचआईवी पीड़ित या प्रभावित बच्चों के अधिकारों का हनन न हों ?
  • बच्चों को उसकी उम्र और वयस्कता स्तर के आधार पर यौन शिक्षा प्रदान करें।
  • बच्चों को एचआईवी/एड्स के बारे में जानकारी दें। उन्हें बताएँ कि यह बीमारी कैसे फैलता और कैसे एक व्यक्ति को प्रभावित करता है और हम इसे फैलने से कैसे रोक सकते हैं।
  • स्कूल में कक्षाओं में ऐसा माहौल तैयार करें कि एचआईवी/एड्स पीड़ित और प्रभावित बच्चे प्रताड़ित न हों।
बच्चों के लिए सुरक्षात्मक वातावरण के निर्माण और उसे सशक्त करने के लिए बहुत सारे स्तर पर सहभागिता की जरूरत होती है। इसके लिए पारस्परिक विश्लेषण के आधार पर बातचीत, सहभागिता और समन्वय की जरूरत होती है। इसके बहुत सारे तत्व-मूलभूत सेवाओं में सुधार, निरीक्षण परिणाम और व्यक्ति को उसके क्षेत्र के कलाकार या नेता के रूप में पहचान करने जैसे पारंपरिक विकास गतिविधियों से संबंधित होते हैं।

बच्चों के लिए चलायी जा रही सरकारी योजनाओं और उन्हें क्या देना है, इस बारे में शिक्षकों को जागरूक होना चाहिए। ऐसे बच्चों और परिवारों की खोज की जाए जिन्हें सरकारी सहायता की जरुरत हो, और उन्हें किसी उपलब्ध सरकारी योजना के माध्यम से सहायता की जाए। ऐसे बच्चों और परिवारों की सूची आप प्रखंड/तालुका/मंडल पंचायत सदस्य आदि को सीधे दे सकते हैं।

यदि आप बच्चों की रक्षा करना चाहते हैं तो निम्न व्यक्तियों से संपर्क कर सकते हैं -
  • पुलिस
  • अपनी पंचायत/नगर निगम प्रमुख/सदस्य
  • आँगनवाड़ी सेविका
  • नर्स (एएऩएम)
  • प्रखंड/तालुका/मंडल और जिला पंचायत सदस्य
  • प्रखंड विकास पदाधिकारी या प्रखंड विकास एवं पंचायत अधिकारी
  • सामुदायिक विकास पदाधिकारी या सामुदायिक विकास एवं पंचायत अधिकारी
  • जिलाधीश या जिला कलेक्टर
  • नजदीकी बाल कल्याण समिति
  • आपके क्षेत्र का चाईल्ड लाईन संगठन
बच्चों के साथ होने वाले यौन शोषण से संबंधित घटनाओं की पहचान
बाल-यौन शोषण की घटना की पहचान
बच्चों तथा युवाओं के साथ होने वाले यौन शोषण के चिह्न

6-11 वर्ष12-17 वर्ष
लड़कीस्पष्ट रूप से अन्य बच्चों के साथ यौन व्यवहार में शामिल होनायुवा बच्चों के साथ यौन शोषणयुक्त बातचीत करना

मौखिक रूप से यौन शोषण के अनुभव की व्याख्या करनायौन शोषण से संबंधित अनैतिक व्यवहार या पूर्णरूप से यौन संबंध से दूर रहना

गुप्तांगों के बारे में विशेष रुचि रखनाखान-पान में अनियमितता

बड़ों के साथ यौन संबंधअपराध, शर्म और अपमान की वजह से औरों से दूर रहने की कोशिश

किसी पुरुष, महिला या विशिष्ट स्थान के बारे में अचानक डर या अविश्वास पैदा होनाघर से भाग जाना

वयस्क यौन व्यवहार के बारे में अपर्याप्त जानकारीसोने में बाधा, डरावना व रात्रि आतंक
लड़कास्पष्ट रूप से अन्य बच्चों के साथ यौन व्यवहार में शामिल होनायुवा बच्चों के साथ यौन शोषणयुक्त या आक्रामक व्यवहार करना

किसी पुरुष, महिला या विशिष्ट स्थान के बारे में अचानक डर या अविश्वास पैदा होनाआक्रामक व्यवहार

सोने में बाधा, डरावना व रात्रि आतंकबहाना करना और खतरनाक व्यवहार करना

अचानक आक्रामक व्यवहार करना या प्रदर्शन करनाअपराध, शर्म और अपमान की वजह से औरों से दूर रहने की कोशिश

पहले की रुचि का धीरे-धीरे कम होनाआक्रामक व्यवहार
सावधानी- उपर्युक्त लक्षण या संकेत सिर्फ मोटे तौर पर अभिभावकों के मार्गदर्शन के लिए दिये गये हैं कि इस तरह का व्यवहार करने वाला बच्चा खतरे में हैं और संभव है, उसका कारण यौन शोषण हो सकता है। यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि किसी एक लक्षण के आधार पर यह निर्णय नहीं ले लें कि बच्चे/बच्ची के साथ यौन शोषण जैसी घटनाएँ हुई हैं। हालाँकि, आप इसके लिए बहुत सारे लक्षण पर ध्यान दें और अपने विवेक का इस्तेमाल करें।
स्रोत- यूनीसेफ (www.unicef.org )

अक्सर बच्चों को बड़ों की आज्ञा-पालन की बात सिखायी जाती है। लेकिन इस प्रक्रिया में वे यह बताना भूल जाते हैं कि यदि वे बड़ों के किसी व्यवहार को पसंद नहीं करते हैं तो उसे इनकार कर दें। बच्चों को ऐसी स्थितियों में न कहना सिखाएँ।
विकलांग बच्चों के बारे में दस संदेश
  1. विकलांग बच्चों के बारे में पूर्वाग्रहयुक्त नकारात्मक धारणा को रोकें। इसके अंतर्गत विकलांग बच्चों के लिए दुर्बल, अपंग, अपाहिज शब्द के बदले शारीरिक रूप से विकलांग या चलने-फिरने में अक्षम बच्चे, ह्वील चेयर प्रयोग करने वाला बच्चा और बहरे या गूँगे बच्चों के लिए ऐसे बच्चे जो बोलने या सुनने में अक्षम हों और मानसिक रूप से अक्षम बच्चे के लिए 'रिटार्डेड'शब्द प्रयोग किया जा सकता है।
  2. सामान्य बच्चों के समान ही विकलांग बच्चों के प्रति भी समान व्यवहार करें। उदाहरण के तौर पर एक विकलांग विद्यार्थी बिना किसी परेशानी के किशोर लड़के को पढ़ा सकता है। विकलांग बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ अधिक से अधिक बातचीत एवं मेल-जोल रखना चाहिए।
  3. विकलांग बच्चों को खुद के बारे में तथा अपनी सोच और अपने अनुभव को व्यक्त करने की अनुमति दें। विकलांग और सामान्य बच्चों को किसी एक परियोजना पर लगाएँ उन दोनों के बीच पारस्परिक सहभागिता को प्रोत्साहित करें।
  4. बच्चों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करें और उनकी विकलांगता को पहचानें। प्रारंभ में विकलांगता की रोकथाम पूर्व बाल शिक्षा का अंग बनाएँ। यदि शुरुआत में बच्चों में विकलांगता की रोकथाम की जाए तो इसका असर कम रह जाता है।
  5. जिन बच्चों में विकलांगता की पहचान हो गई हो उन्हें आवश्यक और विकासकारी जाँच व प्रारंभिक स्तर पर बचाव के लिए भेजें।
  6. विकलांग बच्चों की जरूरतों के अनुकूल कक्षा, पाठ्य सामग्री तथा पाठ तैयार करें। इस हेतु पीड़ित बच्चों के लिए बड़े अक्षरों का प्रयोग करें, इन्हें कक्षा में सबसे आगे बैठाएँ और कक्षा में इस तरह की व्यवस्था करें कि इस तरह के बच्चे आसानी से आ-जा और अपना कार्य कर सकें।
  7. विकलांग बच्चों की खास जरूरतों के प्रति अभिभावकों, परिवारजनों और संरक्षकों में जागरुकता लाएँ। अभिभावकों को बैठक में तथा एक-एक कर इस बारे में बताएँ।
  8. विकलांग बच्चे के माता-पिता को आसान तरीकों से इस समस्या का हल खोजने एवं बच्चों की जरूरतों को पूरा करने की प्रक्रिया के बारे में बताएँ। साथ ही, उन्हें विकलांग बच्चों के होने वाले शोषण को रोकने के लिए धैर्य रखने में मदद करें।
  9. विकलांग बच्चों के माता-पिता की कुंठा कम करने में सहोदर भाई / बहन और परिवार के अन्य लोगों का मार्गदर्शन करें।
  10. विकलांग बच्चों के अभिभावकों को स्कूल तथा स्कूल के बाहर की गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल करें।
सोर्स - यूनीसेफ (www.unicef.org) बच्चों की मानवीय प्रतिष्ठा के सम्मान के लिए रचनात्मक और अनुशासनात्मक गतिविधियों को अपनाएँ और बढ़ावा दें
  • बच्चों की प्रतिष्ठा का सम्मान करें।
  • समाजोन्मुख व्यवहार, स्व-अनुशासन और चरित्र का विकास करें।
  • बच्चों की सक्रिय सहभागिता को बढ़ाएँ।
  • बच्चों के विकास की जरूरतों और गुणवत्तापूर्ण जीवन का सम्मान करें।
  • बच्चों के प्रेरणात्मक चरित्र और जीवन के बारे में विचारों का सम्मान कीजिए।
  • उन्हें स्वच्छ एवं परिवर्तनकारी न्याय का विश्वास दिलाएँ।
  • एकता को बढ़ावा दें।
स्कूली वातावरण में बदलाव लाना वास्तव में आपके लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी
क्या आपका स्कूल बाल प्रिय है ? यह इस तरह से हो सकता है-
  • छड़ी फेकें और बचपन बचाओ एक नारा और बच्चों, अभिभावकों और समाज के लिए एक संदेश होना चाहिए।
  • सभी स्कूलों में भावनात्मक समस्या एवं मानसिक विकार के लक्षण दिखाने वाले बच्चों की सहायता के लिए एक प्रशिक्षित सलाहकार या मार्गदर्शक अवश्य हों और वह सलाहकार प्रभावित बच्चे एवं उसके अभिभावकों का उचित मार्गशन करें।
  • प्रत्येक स्कूल में सहपाठियों, परिवारों एवं समुदाय के सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता अवश्य होना चाहिए।
  • नियमित व पाक्षिक रूप से अभिभावक-शिक्षक संघ की बैठक एक अनिवार्य विशेषता हों। अभिभावक-शिक्षक संघ, अभिभावक व शिक्षकों के बीच वार्त्ता के लिए एक प्लेटफॉर्म होना चाहिए जहाँ सिर्फ बच्चों के अपने वर्ग के प्रदर्शन पर हीं नहीं अपितु उसके समग्र विकास पर भी चर्चा होनी चाहिए।
  • शिक्षकों के साथ बच्चों के अधिकारों पर नियमित रूप से प्रशिक्षण एवं जागरुकता कार्यक्रम आयोजित होने चाहिए, जैसा कि बहुत सारे स्कूलों द्वारा नियमित रूप से शिक्षकों को अकादमिक प्रशिक्षण के लिए भेजा जाता है।
  • स्कूल के भीतर विकलांग बच्चों को प्रभावित करने वाले मुद्दे पर सहभागिता के लिए एक मंच का निर्माण होना चाहिए।
  • स्कूलों में जीवन कुशल शिक्षा के साथ यौन-शिक्षा को अनिवार्य अंग बनाकर उसके बारे में जानकारी दी जानी चाहिए।
  • बच्चों के लिए स्कूल परिसर के भीतर पीने के पानी एवं शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था होनी चाहिए। लड़कों एवं लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालयों की व्यवस्था हों।
  • टेन्ट या छोटे घरों में चलाये जाने वाले स्कूलों में बच्चों को शौचालय एवं पानी पीने जाने के लिए पर्याप्त रूप से समय की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • स्कूल में विकलांग प्रिय आधारभूत संरचना एवं शिक्षण व अध्ययन सामग्री की व्यवस्था, यह प्रदर्शित करता है कि स्कूल विकलांग बच्चों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील है। ये सभी सुविधाएँ या वे सुविधाएँ जो आपके लिए संभव हों, की उपलब्धता सुनिश्चित करें। इस आवश्यकता को पूरी करने के लिए स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • स्कूल परिसर के भीतर व बाहर कोई दुकानें या विक्रेता नहीं होना चाहिए।
  • स्कूल प्रबंधन अपने अध्यापकों को बच्चों को घरेलू कार्य पर रखने के प्रति हतोत्साहित करें ताकि समाज के अन्य लोग भी उनका नकल करें या उसी तरह का व्यवहार बच्चों के प्रति करें।
  • स्कूल परिसर में मादक द्रव्यों के प्रयोग या किसी भी अन्य प्रकार के दुरुपयोग की देखरेख के लिए जाँच समूह विकसित करें। यह एक अच्छी पहल है जिसे सभी स्कूलों को अपनाना चाहिए।
  • एक नीति-निर्देश तैयार करें और अनुशासनात्मक जाँच के लिए उसका पालन हों। विद्यालय के उन शिक्षकों या कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करें जो स्कूल परिसर में या उसके बाहर बच्चों के साथ यौन दुर्व्यवहार में शामिल हों।
  • स्कूल परिसर के भीतर लिंग, विकलाँगता, जाति, धर्म या एचआईवी/एड्स के आधार पर होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए नीति-निर्देश, नियम व परिनियम बनाएँ।
  • बच्चे, उसके अभिभावक और पंचायत/नगरपालिका परिषद् को मिलाकर स्कूल को एक बाल-सुरक्षा निगरानी ईकाई या सेल का गठन करना चाहिए। इस सेल या ईकाई की यह जिम्मेदारी होगी कि वह उन बच्चों की सूची रखें जिसे देखभाल एवं सुरक्षा की जरूरत है और बाल-शोषण की रिपोर्ट पुलिस या अन्य संबंधित प्राधिकार तक पहुँचाएं।
विषय आधारित मनोरंजक कार्यक्रम जिसमें बच्चे भाग ले सकें
  • विचार-विमर्श/वाद-विवाद/प्रश्न प्रतियोगिता
  • कहानी सुनाना
  • चित्रकला, स्थानीय कला (क्षेत्र विशेष पर आधारित)
  • व्यंग्य रचना/नाटक/रंगशाला
  • बर्तन बनाना और अन्य कारीगरी
  • गुड़िया निर्माण
  • चेहरे की रंगाई (फेस पेंटिंग)
  • छाया चित्रकारी (फोटोग्राफी)
  • पिकनिक और पर्यटन
  • खेल-कूद (बाहरी और भीतरी )
  • प्रदर्शनी
"अच्छे शिक्षक महँगे होते हैं, लेकिन बुरे शिक्षक की बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ती है":बॉब टेलबर्ट

2.96

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संजय वत्स रूडकी Dec 27, 2013 01:31 AM
जानकारी के लिहाज से आलेख उत्तम है
darshan May 24, 2015 03:45 PM
क्या यह सामग्री प्रचार प्रसार के लिए प्रयोग की जा सकती है
मिट्ठूलाल Jun 08, 2015 12:35 PM
समाज के पीड़ित लोगो की मदद आप किस प्रकार
अपना सुझाव दें
(यदि दी गई विषय सामग्री पर आपके पास कोई सुझाव/टिप्पणी है तो कृपया उसे यहां लिखें ।)

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अजब गांवों की गजब कहानियां

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भारत अगर गांवों का देश है तो भारत की विशेषता भी शहरों में नहीं बल्कि गांवों में ही बसती है. दो लाख पैंसठ हजार ग्राम पंचायतों के समुच्चय से जो भारत बनता है वह उस शहरी भारत से बिल्कुल अलग और निराला है जिसमें रहने के लिए हम अभिशप्त हैं. भारत के हर गांव एक स्वतंत्र और संप्रभु ईकाई हैं. उनकी अपनी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था है. इन व्यवस्थाओं का विधिवत आंकलन करके उन्हें समझे बिना भारत को समग्रता में समझना नामुमकिन है. ऐसे में जब हमारा मीडिया निहायत शहरी और केन्द्रीकृत होता जा रहा है एक पत्रिका अगर इस विविधता को समझने और समेटने की कोशिश करे तो किसे अच्छा नहीं लगेगा.
भारत की इसी विविधता को समझने की कोशिश की है दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका संडे इंडियन ने. संडे इंडियन ने नये साल पर जो वार्षिक विशेषांक निकाला है वह भारत के गांवों पर केन्द्रित है. "अजब गांव, गजब कहानी"शीर्षक से इस विशेषांक में भारत के कुछ उन गांवों की कहानियां समेटने की कोशिश की गई है जो न सिर्फ अनूठी हैं बल्कि देखने सुनने में हमें सहसा चौंकाती भी हैं.
मसलन, उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक ऐसा गांव है जो सिर्फ कहने के लिए गांव है जबकि इसकी आबादी किसी कस्बे से कम नहीं है. गमहर की आबादी करीब अस्सी हजार है और इस गांव की विशेषता है कि यहां हर घर से कोई न कोई सेना में तैनात है. गहमर भारत या एशिया ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा गांव है. लेकिन दूसरी तरफ पंजाब के एक ऐसे गांव की भी कहानी है जहां संपन्नता तो है लेकिन रहनेवाले लोग नहीं है. पंजाब का खरोड़ी गांव इतना संपन्न है कि शहर भी चिढ़ जाए लेकिन यहां के निवासी अब यहां नहीं बल्कि अमेरिका और कनाडा में रहते हैं.
शहरों में भले ही अंग्रेजी का बोलबाला हो लेकिन भारत के गांवों की अपनी बोली अपनी भाषा और अपना संस्कार है. भारत की मूल भाषा संस्कृत के बारे में भले ही हमारे शहर भूलना बेहतर विकल्प मानते हों लेकिन कर्नाटक में मत्तूर नाम का एक ऐसा गांव भी है जहां हर कोई संस्कृत बोलता है. संस्कृत ही यहां की संस्कृति है. महाराष्ट्र का शिराला गांव ऐसा है जहां सर्पों के साथ जीने की कला विकसित की गई है. यहां सांप डराते नहीं बल्कि जीने की उम्मीद बंधाते हैं. फिर असम में एक गांव ऐसा भी है जहां प्राचीन तंत्र विद्या को उनके वास्तविक स्वरूप में संभालकर रखा गया है.
ऐसी ही अनेक कहानियों और घटनाओं से भरे इस अंक को निश्चित रूप से संग्रहणीय बनाया जा सकता है. कम से कम अगर कल हम भारत के विविधता भरे गांवों के बारे में जानने चले तो कम से कम हमारे पास कुछ संदर्भ सामग्री तो रहेगी ही.

हिंदी विश्‍वविद्यालय में आध्‍यात्मिकता, मीडिया और सामाजिक बदलाव पर

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वर्धा : समाचार को प्रकाशित कराना मीडिया का एक छोटासा हिस्‍सा है।

मीडिया के केंद्र में सामाजिक बदलाव का अहम तत्‍व है। मीडिया सामाजिक बदलाव का सशक्‍त

और प्रभावशाली माध्‍यम है। उक्‍त प्रतिपादन राष्‍ट्रीय पुस्‍तक न्‍यास के अध्‍यक्ष बलदेव भाई

शर्मा किये। वे महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के जनसंचार विभाग की ओर से

‘आध्‍यात्मिकता, मीडिया और सामाजिक बदलाव’ विषय पर आयोजित राष्‍ट्रीय मीडिया संगोष्‍ठी के

उदघाटन सत्र में बतौर मुख्‍य अतिथि बोल रहे थे। कार्यक्रम की अध्‍यक्षता कुलपति प्रो. गिरीश्‍वर

मिश्र ने की।

 गोष्‍ठी का उदघाटन सोमवार दि. 18 जनवरी को अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ भवन के प्रांगण में

निर्मित माधवराव सप्रे सभा मंडप में किया गया।इस अवसर पर विशिष्‍ट अतिथि के रूप में प्रो.

चंद्रकला पाडिया, कुलपति महाराजा गंगा सिंह विश्‍वविद्यालय बीकानेर तथा भारतीय उच्‍च

अध्‍ययन संस्‍थान, शिमला की अध्‍यक्ष, वक्‍ता के रूप में सुनील अंबेकर, प्रख्‍यात सामाजिक-

सांस्‍कृतिक चिंतक, मुंबई एवं वरिष्‍ठ पत्रकार तथा बीईए, नई दिल्‍ली के महासचिव एन. के. सिंह

तथा संगोष्‍ठी निदेशक प्रो. अनिल कुमार राय तथा जनसंचार विभाग के अध्‍यक्ष डॉ. कृपा शंकर चौबे

मंचासीन थे। 

बलदेव भाई शर्मा ने अपने वक्‍तव्‍य में कहा कि बदलाव तो रोज हो रहे हैं। इंटरनेट और मोबाइल

नई पीढ़ी के बदलाव के संकेत है। परंतु इससे सबका हित नहीं हो रहा है। उन्‍होंने कहा कि भारत में

लोकजागरण से पत्रकारिता की शुरूआत हुई। हमारे संपादको एवं पत्रकारों ने जागरूकता के लिए

मीडिया को हथियार बनाया। महात्‍मा गांधी ने आध्‍यात्मिकता के बल पर बदलाव के लिए कार्य

किया और उन्‍होंने देश और समाज को अपने आचरण से सीख दी।

अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में कुलपति प्रो. गिरीश्‍वर मिश्र ने कहा कि आध्‍यात्मिकता हर बदलाव पर

अतिक्रमण करती है। सीमाओं के पार जाना ही आध्‍यात्मिकता है। हमें सीमित सोच के परे जाकर

कार्य करना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि हम जो बदल रहा है उसके पीछे चले जाते है, इस सोच को

ओर व्‍यक्ति केंद्रितता को छोड़ना होगा। मीडिया और बदलाव का जिक्र करते हुए उन्‍होंने कहा कि

प्रौद्योगिकी के प्रवेश से अदभूत परिवर्तन हो रहे हैं। ज्ञान के विस्‍तार के लिए उसका मूल्‍य क्‍या है

इसका विचार होना जरूरी है।

वरिष्‍ठ पत्रकार तथा बीईए, नई दिल्‍ली के महासचिव एन. के. सिंह ने कहा कि आजकल हम ग्राहक

संस्‍कृति के झंझावात में फसते जा रहे हैं। मॉं की गोद में जो मूल्‍य हमें मिलते है वैसे नहीं मिल

पा रहे है। समाज एक प्रकार जी जड़ता में लिप्‍त होता जा रहा है। उन्‍होंने कहा कि चरित्र निर्माण

की प्रक्रिया को रोक दिया गया है और यही कारण है कि भारत में अमीरी और गरीबी की खाई बढ़ती

जा रही है। उन्‍होंने कहा कि मीडिया को चाहिए कि वह जनभावनाओं को अधिक महत्‍व देकर

सामाजिक बदलाव की दिशा में प्रयास करें।

प्रो. चंदकला पाडिया ने कहा कि नैतिक जीवन के मूल्‍यों को पढ़ाने को सीखाने का काम शिक्षा

संस्‍थानों का है। हमें संवाद की राजनीति करनी चाहिए। उन्‍होंने कहा कि पूंजीवादी समाज

सांस्‍कृतिक और सामाजिक दृष्टि से हमें नियंत्रित कर रहा है।

वक्‍ता के रूप में उपस्थित सुनील अंबेकर ने कहा कि सामाजिक बदलाव के लिए गांधी, सावरकर,

अंबेडकर, तिलक और अरविंद जैसे विभूतियों ने पत्रकारिता की और समाचार पत्रों का सहारा लिया।

उनकी पत्रकारिता में निष्‍ठा, नैतिकता, चरित्र और प्रामाणिकता के साथ सामाजिक सरोकार

महत्‍वपूर्ण तत्‍व थे। उन्‍होंने कहा कि समाज में घट रही घटनाओं के संदर्भ में बदलाव के लिए

नैतिक और आध्‍यात्मिक अधिष्‍ठान जरूरी है। स्‍वागत वक्‍तव्‍य में जनसंचार विभाग के अध्‍यक्ष

डॉ. कृपा शंकर चौबे ने कहा‍ कि पत्रकारिता का जन्‍म ही प्रतिरोध से हुआ है। मीडिया एक उद्योग

बन गया है और उद्योग की कुछ विकृतियां मीडिया में भी प्रवेश कर गयी है। इस अवसर पर

स्‍मारिका तथा मूल्‍यानुगत मीडिया के मायने पुस्‍तक का लोकार्पण अतिथियों द्वारा किया गया।

कार्यक्रम का संचालन प्रो. अनिल कुमार राय ने किया तथा आभार संगोष्‍ठी संयोजक डॉ. अख्‍तर

आलम ने माना।

संगोष्‍ठी का उदघाटन अतिथियों द्वारा दीप प्रज्‍ज्‍वलन एवं विद्यार्थियों द्वारा स्‍वागत एवं

कुलगीत से किया गया। इस अवसर पर अध्‍यापक, अधिकारी, बाहर से आए प्रतिभागी, शोधार्थी तथा

विद्यार्थी बड़ी संख्‍या में उपस्थित थे।

हिंदी विश्‍वविद्यालय में राष्‍ट्रीय मीडिया संगोष्‍ठी का समापन

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तकनीकी बदलाव के साथ चले मीडिया

संगोष्‍ठी के समापन पर वक्‍ताओं ने रखी अपनी राय

: महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के जनसंचार विभाग

की ओर से ‘आध्‍यात्मिकता, मीडिया और सामाजिक बदलाव’ विषय पर 18, 19 एवं 20 जनवरी को

आयोजित तीन दिवसीय राष्‍ट्रीय मीडिया संगोष्‍ठी का समापन बुधवार को माधवराव सप्रे सभामंडप

में किया गया। समापन सत्र की अध्‍यक्षता विश्‍वविद्यालय के अतिथि लेखक प्रो. अजित दलाल ने

की। इस अवसर पर मंच पर इग्‍नू के जनसंचार विभाग के निदेशक शंभू नाथ सिंह, वरिष्‍ठ पत्रकार

अरविंद मोहन, गुरू गोविंद सिंह इंद्रप्रस्‍थ विवि के संचार एवं पत्रकारिता अध्‍ययन केंद्र के निदेशक

प्रो. सी. पी. सिंह उपस्थित थे।

प्रो. अजित दलाल ने महात्‍मा गांधी की पत्रकारिता का उल्‍लेख करते हुए कहा पत्रकारिता और

आध्‍यात्मिकता दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए है। गांधी जी ने इसका उदाहरण अपनी पत्रकारिता और

आचरण से दिया। उन्‍होंने आशा जतायी कि गांधी जी की कर्मभूमि में यह आयोजन संचार माध्‍यमों

में नए परिवर्तन लाने का काम करेगा।

वरिष्‍ठ पत्रकार अरविंद मोहन ने कहा कि तकनीक ने दुनिया ही बदल दी है। परंतु इस बदलाव को

लेकर सच्‍चाई के साथ पत्रकारिता होनी चाहिए। बदलाव को देखना, समझना और इसके अनुसार

चलना ही पत्रकारिता है।  डॉ. शंभूनाथ सिंह ने कहा कि मीडिया की आलोचना पहले से ही होते आ

रही है। उसे इसका पूराना अभ्‍यास है। तकनीक और मीडिया के अंतर्संबंधों का जिक्र करते हुए

उन्‍होंने कहा कि विश्‍वग्राम की सभ्‍यता के अभी केवल निशान भर दिख रहे हैं। इसके परिणाम

आने वाले दिनों में दिखाई देंगे। समापन सत्र का स्‍वागत वक्‍तव्‍य संगोष्‍ठी के निदेशक, विवि के

जनसंचार विभाग के प्रो. अनिल कुमार राय ने दिया। उन्‍होंने कहा कि आध्‍यात्मिकता, मीडिया और

सामाजिक बदलाव’ विषय पर यह दूसरी राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी है और इसका सफल आयोजन मीडिया के

विद्वानों, शोधार्थियों के लिए उत्‍साह भरने का काम करेगा।  उन्‍होंने संगोष्‍ठी में आए सभी

अतिथियों तथा प्रतिनिधियों का आभार जताया। सत्र का संचालन संगोष्‍ठी के संयोजक, जनसंचार

विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ. अख्‍तर आलम ने किया।

विश्‍वसनीयता ही है संचार माध्‍यमों की पूंजी–

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हिंदी विवि में राष्‍ट्रीय मीडिया संगोष्‍ठी

‘मीडिया का राजनीतिक अर्थशास्‍त्र’ पर हुआ विमर्श

वर्धा दि. 20 जनवरी 2016: संचार माध्‍यमों की सबसे बड़ी पूंजी उसकी विश्‍वसनीयता है। संचार

माध्‍यमों को समाज के सरोकारों के साथ जुड़कर अपनी विश्‍वसनीयता का परिचय देना चाहिए।

पत्रकारिता का मिशन सरोकारों से जुड़ा होना चाहिए। उक्‍त विचार महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी

विश्‍वविद्यालय के साहित्‍य विभाग के अध्‍यक्ष प्रो. सूरज पालीवाल ने व्‍यक्‍त किये। वे महात्‍मा

गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के जनसंचार विभाग की ओर से ‘आध्‍यात्मिकता, मीडिया

और सामाजिक बदलाव’ विषय पर आयोजित तीन दिवसीय राष्‍ट्रीय मीडिया संगोष्‍ठी में ‘मीडिया का

राजनीतिक अर्थशास्‍त्र’ विषय पर आयोजित सत्र में अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य दे रहे थे।

संगोष्‍ठी के तीसरे दिन बुधवार को माधवराव सप्रे सभा मंडप में आयोजित सत्र में बीज वक्‍ता के

रूप में गुरू गोविंद सिंह इंद्रप्रस्‍थ विश्‍वविद्यालय, दिल्‍ली के संचार एवं पत्रकारिता अध्‍ययन केंद्र

के निदेशक प्रो. सी. पी. सिंह तथा वक्‍ता के रूप में सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक चिंतक डॉ. भोलानाथ

मिश्र, विश्‍वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका ‘बहुवचन’ के संपादक अशोक मिश्र, भीमराव अंबेडकर

विश्‍वविद्यालय, आगरा के पत्रकारिता विभाग के अध्‍यक्ष गिरिजा शंकर शर्मा, ब्‍लागर अशोक मिश्र,

मेरठ मंचासीन थे। उक्‍त विषय पर आयोजित चर्चा में इंडियन एण्‍ड फॉरेन लैग्विजेज यूनिवर्सिटी,

हैदराबाद की डॉ. कोकिला, विश्‍वविद्यालय के स्‍त्री अध्‍ययन विभाग की प्रभारी डॉ. सुप्रिया पाठक

तथा दूरदर्शन केंद्र ग्‍वालियर के जयंत तोमर ने भी अपनी बात रखी।

बीज वक्‍तव्‍य में प्रो. सी. पी. सिंह ने कहा कि वर्तमान समय में डिजिटल इकॉनॉमी सभी क्षेत्र में

हावी है और संचार माध्‍यम भी इसकी चपेट में है। स्‍मार्टफोन से हमारे हाथ में अखबार और टी.वी.

चैनल आ गए हैं। इस क्षेत्र में मल्टि प्‍लेटफॉर्म कंपनियां आ रही है और वह चैनल, अखबार निकालने

लगे हैं। इससे संचार माध्‍यमों का अर्थशास्‍त्र बदल गया है। इसका नियमन कैसे किया जाए यह बडी

चुनौती है। बहुवचन के संपादक अशोक मिश्र ने राजनीतिक दल और मीडिया के अंतर्संबंधो को उजागर

करते हुए कहा कि पाठक के पास विकल्‍प नहीं है परंतु सोशल मीडिया के रूप में वैकल्पिक मीडिया

जरूर है। उन्‍होंने माना कि सोशल मीडिया से लोगों के पास शक्ति आ गयी है।

डॉ. गिरिजा शंकर शर्मा ने कहा कि भलेही मीडिया में पूंजीवादी आ गये हो परंतु वे इसे नियंत्रित नहीं

कर सकते। डॉ. भोलानाथ मिश्र का कहना था कि टी. वी. के कार्यक्रम दर्शकों की निर्णय क्षमता को

प्रभावित करते हैं। चैनलों पर प्रसारित होने वाले विज्ञापन वास्‍तविकता से परे होते है और इसमें

ग्राहक के नाते दर्शक ठग जाते हैं। डॉ. सुप्रिया पाठक ने कहा कि मीडिया अर्थतंत्र को प्रभावित करता

है। अपराधों पर आधारित कार्यक्रमों में महिलाओं को निशाना बनाया जा रहा है और उन्‍हें विलेन के

रूप में प्रस्‍तुत किया जा रहा है। इससे महिलाओं की नकारात्‍मक छवी प्रस्‍तुत हो रही है। जयंत

तोमर का मानना था कि आर्थिक साम्राज्‍यवाद के चंगुल में समाज फंसता जा रहा है। ब्‍लॉगर डॉ.

अशोक मिश्र ने कहा कि मीडिया बाजार के दबाव के चलते पूंजीवादियों के प्रभाव में आ रहा है।

सामाजिक और सांस्‍कृतिक आंदोलन के रूप में मीडिया हमारे सामने प्रस्‍तुत नहीं हो रहा है। सत्र का

संचालन एवं धन्‍यवाद ज्ञापन जनसंपर्क अधिकारी बी. एस. मिरगे ने किया। इस अवसर पर

प्रतिभागी, शोधार्थी एवं विद्यार्थी बड़ी संख्‍या में उपस्थित थे।

पाकिस्तान में हिन्दू मंदिर गुरूद्वारे

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'पाकिस्तान में हिन्दू' - 37 news result(s)

पाकिस्तान में हिंदुओं के लिए कोई विवाह कानून नहीं, महिलाओं के लिए हुई मुसीबतपाकिस्तान में रह रहे लाखों हिंदुओं के लिए कोई विवाह कानून नहीं है। इस वैधानिक शून्य ने पाकिस्तानी हिंदुओं, खासकर महिलाओं के लिए कई तरह के मुद्दों को जन्म दे दिया है।
वापस जाने की अनुमति नहीं मिली, बुजुर्ग पाक हिन्दू महिला जोधपुर में फंसीभारतीय आव्रजन अधिकारियों द्वारा कथित तौर पर भारत से बाहर जाने की अनुमति नहीं मिलने के कारण पाकिस्तान की एक बुजुर्ग हिन्दू महिला पिछले वर्ष मार्च से भारत में फंसी हुई है।
ऐ पाकिस्तान, बिहार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को अब तेरा ही सहारा ह - रवीश कुमारमैं पाकिस्तान नहीं गया हूं। इसलिए गूगलागमन के ज़रिये पता लगाने का प्रयास किया कि पाकिस्तान में दिवाली कौन मनाता है। सारे सर्च यही बता रहे थे कि पाकिस्तान में हिन्दू दिवाली मनाते हैं। अमित शाह के तर्क के हिसाब से बीजेपी के हारने के बाद क्या उन्हें दिवाली नहीं मनानी चाहिए।
पाकिस्तानी हिन्दुओं को करना होगा और इंतजार, नहीं मंजूर हुआ विवाह कानूनपाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय को अपने विवाह का पंजीकरण करा सकने के लिए अभी और इंतजार करना होगा क्योंकि सांसदों ने देश के प्रथम हिन्दू विवाह कानून को अंतिम मंजूरी देने का फैसला 13 जुलाई तक के लिए टाल दिया।
पाकिस्तानी की अकेली हिन्दू रियासत में ब्याही गई राजस्थान (कानोता) के ठाकुर की बेटीभारत और पाकिस्तान के बीच भले ही सरहद की लकीरें खींच चुकी हों, लेकिन कुछ ऐसे रिश्ते हैं जो सरहद की दीवारों से भी ज़्यादा मज़बूत होते हैं। ऐसा ही कुछ रिश्ता है पाकिस्तान की रियासत उमरकोट का। सिंध में बसा उमरकोट पाकिस्तान की एक मात्र हिन्दू रियासत है।
मनीष शर्मा की नज़र से : पाकिस्तान में हिन्दू होने की सज़ासारे देश में सभी वर्गों का ध्यान रखने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बंगाल की चुनावी रैली में बांग्लादेशी हिन्दुओं का स्वागत करना तो याद रख पाए, लेकिन पाकिस्तान से आए हिन्दुओं को शायद वह भी भूल गए। सो, अब देखना यह है कि क्या मोदी, या कोई और इनकी मुश्किलों को दूर कर पाएगा...
एनडीटीवी की खास रिपोर्ट : पाकिस्तान से भारत आए 450 हिन्दू परिवारों का दर्दइन लोगों पर पाकिस्तान में धर्म परिवर्तन के लिए दबाव डाला जाता था, लेकिन इन लोगों ने धर्म बदलने की बजाय देश ही बदल लिया और अब ये अपने दिन बदलने के इंतजार में समय काट रहे हैं। एनडीटीवी संवाददाता अदिति राजपूत की रिपोर्ट।

मौत को आगोश में लेने की ख्वाईश आखिरकार हो गयी पूरी

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निदा फ़ाज़ली

निदा फ़ाज़ली (चंडीगढ़, 28-Jan-2014)
जन्ममुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली
अक्टूबर 12, 1938 (आयु 77 वर्ष)
ग्वालियर
मृत्यु०८ फ़रवरी २०१६
मुम्बई
भाषाहिंदी, उर्दू
राष्ट्रीयताभारतीय
राष्ट्रीयताभारतीय
मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़लीया मात्र निदा फ़ाज़ली (उर्दू: ندا فاضلی ) हिन्दीऔर उर्दूके मशहूर शायरथे इनका निधन ०८ फ़रवरी २०१६ को मुम्बई में निधन हो गया ।

अनुक्रम

जीवनी

दिल्लीमें पिता मुर्तुज़ा हसन और माँ जमील फ़ातिमा के घर तीसरी संतान नें जन्म लिया जिसका नाम बड़े भाई के नाम के क़ाफ़िये से मिला कर मुक़्तदा हसनरखा गया। दिल्ली कॉर्पोरेशन के रिकॉर्ड में इनके जन्म की तारीख १२ अक्टूबर १९३८ लिखवा दी गई। पिता स्वयं भी शायर थे। इन्होने अपना बाल्यकाल ग्वालियरमें गुजारा जहाँ पर उनकी शिक्षा हुई। उन्होंने १९५८ में ग्वालियर कॉलेज (विक्टोरिया कॉलेज या लक्ष्मीबाई कॉलेज) से स्नातकोत्तर पढ़ाई पूरी करी।

वो छोटी उम्र से ही लिखने लगे थे। निदा फ़ाज़ली इनका लेखन का नाम है। निदा का अर्थ है स्वर/ आवाज़/ Voice। फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है जहाँ से निदा के पुरखे आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फ़ाज़ली जोड़ा।

जब वह पढ़ते थे तो उनके सामने की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी जिससे वो एक अनजाना, अनबोला सा रिश्ता अनुभव करने लगे थे। लेकिन एक दिन कॉलेज के बोर्ड पर एक नोटिस दिखा "Miss Tondon met with an accident and has expired" (कुमारी टंडन का एक्सीडेण्ट हुआ और उनका देहान्त हो गया है)। निदा बहुत दु:खी हुए और उन्होंने पाया कि उनका अभी तक का लिखा कुछ भी उनके इस दुख को व्यक्त नहीं कर पा रहा है, ना ही उनको लिखने का जो तरीका आता था उसमें वो कुछ ऐसा लिख पा रहे थे जिससे उनके अंदर का दुख की गिरहें खुलें। एक दिन सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजरे जहाँ पर उन्होंने किसी को सूरदासका भजन मधुबन तुम क्यौं रहत हरे? बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे?गाते सुना, जिसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियाँ फुलवारी से पूछ रही होती हैं ऐ फुलवारी, तुम हरी क्यों बनी हुई हो? कृष्ण के वियोग में तुम खड़े-खड़े क्यों नहीं जल गईं?वह सुन कर निदा को लगा कि उनके अंदर दबे हुए दुख की गिरहें खुल रही है। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फ़रीदइत्यादि कई अन्य कवियों को भी पढ़ा और उन्होंने पाया कि इन कवियों की सीधी-सादी, बिना लाग लपेट की, दो-टूक भाषा में लिखी रचनाएँ अधिक प्रभावकारी है जैसे सूरदासकी ही उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अराधै ते ईस॥, न कि मिर्ज़ा ग़ालिबकी एब्सट्रैक्ट भाषा में "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?"। तब से वैसी ही सरल भाषा सदैव के लिए उनकी अपनी शैली बन गई।

हिन्दू-मुस्लिम क़ौमी दंगों से तंग आ कर उनके माता-पिता पाकिस्तान जा के बस गए, लेकिन निदा यहीं भारत में रहे। कमाई की तलाश में कई शहरों में भटके। उस समय बम्बई (मुंबई) हिन्दी/ उर्दू साहित्य का केन्द्र था और वहाँ से धर्मयुग/ सारिका जैसी लोकप्रिय और सम्मानित पत्रिकाएँ छपती थीं तो १९६४ में निदा काम की तलाश में वहाँ चले गए और धर्मयुग, ब्लिट्ज़ (Blitz) जैसी पत्रिकाओं, समाचार पत्रों के लिए लिखने लगे। उनकी सरल और प्रभावकारी लेखनशैली ने शीघ्र ही उन्हें सम्मान और लोकप्रियता दिलाई। उर्दू कविता का उनका पहला संग्रह १९६९ में छपा।

करियर

चंडीगढ़ में जश्न-ए-हरियाणा में अपना कलाम पेश करते हुए निदा फाजली, 28 जनवरी 2014
फ़िल्म प्रोड्यूसर-निर्देशक-लेखक कमाल अमरोहीउन दिनों फ़िल्म रज़िया सुल्ताना (हेमा मालिनी, धर्मेन्द्रअभिनीत) बना रहे थे जिसके गीत जाँनिसार अख़्तरलिख रहे थे जिनका अकस्मात निधन हो गया। जाँनिसार अख़्तरग्वालियर से ही थे और निदा के लेखन के बारे में जानकारी रखते थे जो उन्होंने शत-प्रतिशत शुद्ध उर्दू बोलने वाले कमाल अमरोहीको बताया हुआ था। तब कमाल अमरोहीने उनसे संपर्क किया और उन्हें फ़िल्म के वो शेष रहे दो गाने लिखने को कहा जो कि उन्होंने लिखे। इस प्रकार उन्होंने फ़िल्मी गीत लेखन प्रारम्भ किया और उसके बाद इन्होने कई हिन्दी फिल्मों के लिये गाने लिखे।

उनकी पुस्तक मुलाक़ातेंमें उन्होंने उस समय के कई स्थापित लेखकों के बारे मे लिखा और भारतीय लेखन के दरबारी-करणको उजागर किया जिसमें लोग धनवान और राजनीतिक अधिकारयुक्त लोगों से अपने संपर्कों के आधार पर पुरस्कार और सम्मान पाते हैं। इसका बहुत विरोध हुआ और ऐसे कई स्थापित लेखकों ने निदा का बहिष्कार कर दिया और ऐसे सम्मेलनों में सम्मिलित होने से मना कर दिया जिसमें निदा को बुलाया जा रहा हो।

जब वह पाकिस्तान गए तो एक मुशायरे के बाद कट्टरपंथी मुल्लाओं ने उनका घेराव कर लिया और उनके लिखे शेर -
घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो ये कर लें।
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए॥
पर अपना विरोध प्रकट करते हुए उनसे पूछा कि क्या निदा किसी बच्चे को अल्लाह से बड़ा समझते हैं? निदा ने उत्तर दिया कि मैं केवल इतना जानता हूँ कि मस्जिद इंसान के हाथ बनाते हैं जबकि बच्चे को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है।
उनकी एक ही बेटी है जिसका नाम तहरीरहै।

रचनाएँ

चंडीगढ़ में जश्न-ए-हरियाणा में अपना कलाम पेश करते हुए निदा फाजली, 28 जनवरी 2014

कुछ लोकप्रिय गीत

  • तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है (फ़िल्म रज़िया सुल्ताना)। यह उनका लिखा पहला फ़िल्मी गाना था।
  • आई ज़ंजीर की झन्कार, ख़ुदा ख़ैर कर (फ़िल्म रज़िया सुल्ताना)
  • होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है (फ़िल्म सरफ़रोश)
  • कभी किसी को मुक़म्मल जहाँ नहीं मिलता (फ़िल्म आहिस्ता-आहिस्ता) (पुस्तक मौसम आते जाते हैंसे)
  • तू इस तरह से मेरी ज़िंदग़ी में शामिल है (फ़िल्म आहिस्ता-आहिस्ता)
  • चुप तुम रहो, चुप हम रहें (फ़िल्म इस रात की सुबह नहीं)
  • दुनिया जिसे कहते हैं, मिट्टी का खिलौना है (ग़ज़ल)
  • हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी (ग़ज़ल)
  • अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये (ग़ज़ल)
  • टीवी सीरियल सैलाबका शीर्षक गीत

काव्य संग्रह

  • लफ़्ज़ों के फूल (पहला प्रकाशित संकलन)
  • मोर नाच
  • आँख और ख़्वाब के दरमियाँ
  • खोया हुआ सा कुछ (१९९६) (१९९८ में साहित्य अकादमी से पुरस्कृत)
  • आँखों भर आकाश
  • सफ़र में धूप तो होगी

आत्मकथा

  • दीवारों के बीच
  • दीवारों के बाहर
  • निदा फ़ाज़ली (संपादक: कन्हैया लाल नंदन)

संस्मरण

  • मुलाक़ातें
  • सफ़र में धूप तो होगी
  • तमाशा मेरे आगे

संपादित

पुरस्कार और सम्मान

  • १९९८ साहित्य अकादमीपुरस्कार - काव्य संग्रह खोया हुआ सा कुछ (१९९६) पर - Writing on communal harmony
  • National Harmony Award for writing on communal harmony
  • २००३ स्टार स्क्रीन पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म 'सुरके लिए
  • २००३ बॉलीवुड मूवी पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म सुर के गीतआ भी जा'के लिए
  • मध्यप्रदेश सरकार का मीर तकी मीर पुरस्कार (आत्मकथा रुपी उपन्यास दीवारों के बीचके लिए)
  • मध्यप्रदेश सरकार का खुसरो पुरस्कार - उर्दू और हिन्दी साहित्य के लिए
  • महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का श्रेष्ठतम कविता पुरस्कार - उर्दू साहित्य के लिए
  • बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार
  • उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का पुरस्कार
  • हिन्दी उर्दू संगम पुरस्कार (लखनऊ) - उर्दू और हिन्दी साहित्य के लिए
  • मारवाड़ कला संगम (जोधपुर)
  • पंजाब एसोशिएशन (मद्रास - चेन्नई)
  • कला संगम (लुधियाना)
  • पद्मश्री 2013

संबंधित कड़ियाँ

बाहरी कड़ियाँ

दिल में ना हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती निदा फ़ाज़ली

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Nidafazli.jpg
जन्म: 12 अक्तूबर 1938
निधन: 08 फ़रवरी 2016
जन्म स्थान
दिल्ली, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
आँखों भर आकाश, मौसम आते जाते हैं , खोया हुआ सा कुछ, लफ़्ज़ों के फूल, मोर नाच, आँख और ख़्वाब के दरमियाँ, सफ़र में धूप तो होगी
विविध
1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
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प्रतिनिधि रचनाएँ


News Bank / खबर ही खबर है

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  प्रस्तुति- स्वामी शरण

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भाटगिरी युग में पत्रकारिता / हम पत्रकार हैं या भाट

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नोट-- लेख तो बहुत ही बढ़िया हैं पर ...  पत्रकार बेचारे की क्या गलती है?  जनता असली भाट दलाल को तो पहचानती ही नही।   असली दलाल भाट या चम्पू तो दफ्तर में बैठे कुर्सीछाप पत्रकार हैं जो लगातार फोनियादेश  दे रहे है कि इस तरह करो उस तरह करो। अब भाट युग में तो रोजाना सड़क पर धूल चाटने वाला पत्रकार बेचारा क्या जाने दफ्तर और मालिकों की भाटगिरी मगर ...............................

 
(जेएनयू में देशद्रोह को लेकर सियासतदानों की तरह पत्रकार भी दो पालों में बंट गये हैं। दोनों बता रहे हैं कि हमारी कमीज तुम्हारी कमीज से सफेद है जबकि हकीकत यह है कि पत्रकारिता तो बची ही नहीं है। भाटगीरी हो रही है, उस पर भी इतना गुमान !)

हम पत्रकार हैं या भाट !
बिद्याशंकर तिवारी 

जेएनयू में देशद्रोह को लेकर मचे कोहराम में सियासतदानों की तरह मीडिया भी दो पालों में बंट गई है, एक पाले में राष्ट्रभक्त हैं तो दूसरे में धर्मनिरेपक्षता के झंडाबरदार। जो दोनों में से किसी पाले में नहीं हैं तो समझिये कि वे फिर पत्रकार नहीं हैं ! अपने जमाने के ठसक वाले और बेबाक पत्रकार रहे खुशवंत सिंह से जुड़ा एक वाकया याद आ रहा है जिसे उन्होंने खुद लिखा था कि एक बार वो कहीं उड़नखटोले से जा रहे थे, उसी में रामनाथ गोयनका मिल गये, सरदार जी ने सोचा कि पुराने मालिक हैं दुआ-सलाम तो कर ही लेना चाहिए। सो वह उनके पास पहुंच गये। नमस्कार किया। इस उम्मीद से कि वह भी ताइद करेंगे लेकिन गोयनका साहब तो गोयनका ठहरे, भला अपना अंदाज कैसे छोड़ते सो बोले, कहिए भांट जी! खुशवंत सिंह चूंकि इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर रह चुके थे इसलिए गोयनका साहब की आदतों से अच्छी तरह वाकिफ थे, उसी अंदाज में उन्होंने उसे स्वीकार किया, दोनों के बीच कुछ बातें हुर्इं और चलते बने। चाहते तो खुशवंत सिंह इस निजी बातचीत को सार्वजनिक नहीं भी कर सकते थे लेकिन वो ऐसी शख्सियत थे कि बिना लिखे उनके पेट का पानी नहीं पचता, मूड में आया लिख दिया। अब वो अपने बीच नहीं हैं, ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे, साथ में उनकी लेखनी को सहस्त्र सलाम भी। लेकिन मौजूदा दौर की पत्रकारिता पर गोयनका जी के हवाले से वह हकीकत बयां कर गये। जमीनी हकीकत यही है कि हम सब भांट है, कोई किसी के लिए भांटगीरी कर रहा है और कोई किसी के लिए। दरअसल 1991 के बाद आये बाजारवाद के दौर ने पूरी दुनिया को एक बाजार में तब्दील कर दिया है जिसमें हर चीज यहां तक कि दीन, ईमान, भगवान का नाम सब बिकाऊ है और पत्रकारिता भी। पत्रकारों की औकात कंटेट प्रोवाइडर से ज्यादा कुछ भी नहीं है। वर्तमान में देश में लगभग एक लाख समाचार पत्र-पत्रिकाएं छप रही हैं और आठ सौ चैनल हैं। इनमें से कुछ अपवादों को छोड़कर शायद ही कोई बड़ा मीडिया घराना होगा जिसका मीडिया के अलावा दूसरा व्यवसायिक हित न हो। यदि वो समाचार पत्र या चैनल घाटे में चला रहे हैं तो जाहिर सी बात है कि इसके पीछे उनका अपना मकसद है और उसी मकसद के मुखौटा हैं पत्रकार। जेएनयू में देशद्रोह की घटना को लेकर मचे सियासी कोहराम और उसके बाद खबरिया चैनलों पर चल रही गला फाड़ प्रतियोगिता को लेकर वरिष्ठ पत्रकार रवीश ने अपने खास कार्यक्रम ‘ये अंधेरा ही आज के टीवी की तस्वीर’ में गला फाड़ने वाले पत्रकारों अर्णव गोस्वामी, दीपक चौरसिया, संदीप चौधरी व रोहित सरदाना सरीखे एंकरों की खूब खबर ली। ईमानदारी यह बरती कि उसमें खुद को भी शामिल किया। रवीश जन सरोकार की पत्रकारिता करते हैं इसलिए उन्होंने भरसक ईमानदारी बरतने की कोशिश की, उनको खूब दाद भी मिल रही है लेकिन माफ कीजिएगा रवीश जी आपने भी अर्ध सत्य ही दिखाया। क्या आज के दौर में आप और मुझ समेत कोई भी पत्रकार दिल पर हाथ रखकर कह सकता है कि जब वह लिखता है या बोलता है तो वह निरपेक्ष होता है। क्या आप अपने कार्यक्रमों में सवाल पूछते हैं तो उसमें आपका और आपके चैनल का दृष्टिकोण शामिल नहीं होता है। यदि भगवाधारियों के पाले में खड़े चैनलों और उनके एंकरों ने कन्हैया को देशद्रोही साबित करने की जल्दीबाजी की तो क्या आपने टुडे ग्रुप और एबीपी के हवाले से अपने अंदाज में उसे क्लीन चिट देने की हड़बड़ी नहीं दिखाई। गौर फरमाइये, क्या कश्मीर और जेएनयू की परिस्थितियों की तुलना की जा सकती है । यदि घाटी में देश विरोधी नारे लगते हैं तो उसकी इजाजत जेएनयू में भी दी जानी चाहिए। क्या देशद्रोह का अपराध इसलिए कम हो जाता है कि भाजपा कश्मीर में पीडीपी और पंजाब में अकालियों के साथ सत्ता का स्वाद चख रही है। जेएनयू प्रकरण को लेकर इतना हाय तौबा मचा हुआ है और हरियाणा आरक्षण की आग में जल रहा है। यह सबको पता है कि जिस चीज की मांग की जा रही है वह नाजायज है, सुप्रीम कोर्ट उसे नकार चुका है लेकिन इस नाजायज मांग को लेकर मार्च नहीं निकलते, एंकर उस अंदाज में गले का रियाज नहीं करते दिखे। बात सिर्फ ओबीसी में जाटों को आरक्षण देने की ही नहीं है, दूसरी श्रेणियों में भी जो आरक्षण मिले हुए हैं उसका लाभ वही लोग ले रहे हैं जो इसके अधिकारी नहीं हैं किन्तु जब उसकी समीक्षा की मांग उठती है तब जन सरोकार की पत्रकारिता नहीं दिखती। घूरहू राम आज भी गांव में घूर पर गोबर ही फेंक रहे हंै, यह बात अलग है कि उनके हाथ में भी मोबाइल आ गया है, आरक्षण क्या है, यह उन्हें नहीं मालूम है। मालूम भी कैसे हो उसके हक की मलाई तो पासवान और पुनियों का खानदान चाट रहा है। वो भला कब चाहेंगे कि घूरहू भी अपना हक मांगे। सियासतदानों की तो मजबूरी है। चुनाव जीतना है, सरकार बनानी है इसलिए लोगों को गुमराह करके रखना है लेकिन ऐसे मुद्दों पर तो किसी ने गला नहीं फाड़ा, किसी को जिम्मेदारी याद नहीं आई। जिम्मेदारी तब याद आएगी जब इस पर सियासत शुरू होगी और सियासतदान अलग-अलग पालों में खड़े होंगे। तब हम पत्रकार भी प्रबंधन के हित के मुताबिक पालों में खड़े हो जाएंगे और गलाफाड़ प्रतियोगिता शुरू हो जाएगी कि हमारी कमीज तुम्हारी कमीज से झकास है। यह बात दीगर है कि अपनी तो कोई कमीज है ही नहीं, जो प्रबंधतंत्र पहनाता है उसे पहनना पड़ता है लेकिन चूंकि पत्रकार हैं इसलिए इस दंभ को नहीं छोड़ सकते कि हमारी कमीज तुम्हारी कमीज से सफेद है!

Vidya Shanker Tiwari's photo.

बजट 2016 और आर्थिक समीक्षा 2015-2016

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प्रस्तुति- कृति शऱण



आर्थिक सर्वेक्षण

आर्थिक समीक्षा 2015-16 जो वित्त मंत्रालय, भारत सरकार का फ्लैगशिप वार्षिक दस्ताकवेज है, विगत 12 महीनें में भारतीय अर्थव्यवस्था में घटनाक्रमों की समीक्षा करता है, प्रमुख विकास कार्यक्रमों के निष्पादन का सार प्रस्तुत करता है और सरकार की नीतिगत पहलों तथा अल्पावधि से मध्यावधि में अर्थव्यवस्था की संभावनाओं पर विधिवत प्रकाश डालता है। इस दस्तावेज को बजट सत्र के दौरान संसद के दोनों सदनों में पेश किया जाता है।

यह रिपोर्ट एवं क्षेत्रक अर्थव्योवस्था के सभी पहलुओं को शामिल करते हुए विस्तृसत आंकड़ों के साथ निम्नाकित मामलों का सिंहावलोकन करती है:
  • आर्थिक दृष्‍टिकोण, संभावनाएं और नीतिगत चुनौतियां
  • राजकोषीय रूपरेखा
  • हर आंख से आंसू पोंछना: जैम नम्‍बर त्रिसूत्री समाधान
  • निवेश वातावरण: अवरूद्ध परियोजनाएं, बकाया ऋण और इक्‍विटी समस्‍याएं
  • ऋण, संरचना तथा दोहरा वित्‍तीय नियंत्रण: बैंकिंग सेक्‍टर का एक निदान
  • सार्वजनिक निवेश को दुरूस्‍त करना: रेल के माध्‍यम से
  • भारत में क्‍या निर्माण करें? विनिर्मित उत्‍पाद या सेवाएं?
  • कार्बन सब्‍सिडी से कार्बन कर की ओर: भारत का पर्यावरण संबंधी कार्य
  • चौदहवां वित्‍त आयोग-भारत में राजकोषीय संघवाद के लिए निहितार्थ
  • भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की स्‍थिति- सिहांवलोकन
  • लोक वित्‍त
  • मौद्रिक प्रबंधन और वित्‍तीय मध्‍यस्‍थता
  • वैदेशिक एवं सेवा क्षेत्र
  • मूल्‍य, कृषि और खाद्य प्रबंधन
  • औद्योगिक, कारपोरेट और अवसंरचना निष्‍पादन
  • जलवायु परिवर्तन और सतत् विकास
  • सामाजिक अवसंरचना, रोजगार और मानव विकास
यह दस्तावेज नीति निर्धारकों, अर्थशास्त्रियों, नीति विश्लेाषकों, व्यवसायियों, सरकारी एजेंसियों, छात्रो, अनुसंधानकर्ताओं, मीडिया तथा भारतीय अर्थव्यृवस्था के विकास में रुचि रखने वालों के लिए उपयोगी होगा।
राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र द्वारा डिजाइन, होस्ट और विकसित, सूचना वित्त मंत्रालय द्वारा प्रदान की गई है .

तथागत अवतार तुलसी से एक मुलाकात

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मुबंई के बोरीवली रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद पवई होते कांजुरमार्ग जाते समय एकाएक मेरी नजर आईआईटी कैम्पस की तरफ गई। देखते ही मुझे तथागत अवतार तुलसी की याद आई। वही अवतार तुलसी जिसने सबसे कम उम्र में दसवी की परीक्षा में पास होने के बाद सीधे स्नात्तक करके एक रिकार्ड बनाया था। एमए किए बगैर ही तथागत ने पीएचडी करके डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। बाद में बेंगलुरू और अमरीका
के न्यूजर्सी और कनाडा के कई यूनिवर्सिटी में रिसर्च फेलोशिप के साथ साथ विजीटिंग प्रोफेसर  के रूप में काम किया। सबसे कम उम्र में नोबल पुरस्कार पाने की हसरत रखने वाले अवतार तुलसी को पिछले साल ही आईआईटी मुंबई में दुनिया में सबसे कम उम्र का लेक्चरर होने का मौका मिला था। मुंबई में पहुंचे मुझे दो घंटे भी नहीं हुए थे कि अवतार से मिलने की इच्छा प्रबल हो गई। हूमा मल्टीप्लेक्स के पास जहां मैं ठहरा था वहां से आईआईटी मुंबई नजदीक नहीं होता तो शायद अवतार से मेरी मुलाकात भी नहीं हो पाती।
अवतार तुलसी के पापा प्रोफेसर तुलसी नारायण प्रसाद जी को पटना फोन लगाकर मुबंई का नंबर पूछा। परिचय देते ही अवतार पहचान गया और शनिवार दो अप्रैल को घर पर आने का वादा किया। एक शख्शियत बन जाने के बाद भी उसकी बातों में कहीं से भी गुमान या अहं का पुट नहीं दिखा। अवतार आज एजूकेशन की दुनिया में हीरो बन चुका है। मगर  1995 से लेकर 1998 तक जो संघर्ष अपमान और उपेक्षा का सामना उसे करना पड़ा था वह समय भी तुलसी के बाल मन को काफी आहत किया। इनके पिता तुलसी नारायण के रोजाना के संपर्क में रहने की वजह से अनगढ़ तथागत की हर एक गतिविधि की सूचना रहती थी। दिल्ली में जब कोई भी न्यूजपेपर या न्यूज एजेंसी तथागत के बारे में एक लाईन भी छापने को तैयार नहीं था। उस समय राष्ट्रीय सहारा के संपादक राजीव सक्सेना के भरपूर प्रोत्साहन की वजह से ही यह संभव हो पाया कि दर्जनों छोटी बड़ी खबरों के अलावा तथागत एवं तुलसी नारायण जी का आधे पेज में बड़ा इंटरव्यू राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ। बाद में सबसे कम उम्र में 10 वी पास करने और बाद की सफलता को लेकर तो फिर तथागत मीडिया का चहेता ही बन गया।
अपनी लगन मेहनत और कुछ कर गुजरने की प्रबल महत्वकांक्षा की वजह से ही 23 साल के तथागत ने एक मुकाम हासिल की है। मुंबई में काफी व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद जब तक  तथागत से मुलाकात को लेकर मैं अपना प्रोग्राम तय करता तभी तथागत का फोन आ गया कि अंकल आप बुरा ना माने तो क्या मैं शनिवार की बजाय रविवार की सुबह नौ बजे तक आ सकता हूं। हांलाकि इसके लिए मुझे नौसेना में कभी शान रहे विक्रांत जहाज देखने की पहले से तय कार्यक्रम को रद्द करना पड़ा, मगर मैं करीब 10 साल के बाद तथागत से होने वाली मुलाकात की इच्छा को रोक नहीं सका। नौसेना अधिकारियों के फ्लैट से महज दस मिनट की दूरी पर आईआईटी था। ठीक नौ बजे मैंने तथागत को फोन करके पूछा कि क्या मैं लेने आ जाऊ ? तो मुझे आने को कहने की बजाय दस मिनट में खुद आने को कहकर फोन रख दिया। तथागत को घर में आने को लेकर पूरा परिवार उत्साहित था। तथागत के पिता तुलसी नारायण प्रसाद तो मेरे घर पर कई बार आ चुके थे, मगर मेरी पत्नी ममता तथागत से कई बार फोन पर बात करने के बावजूद वह कभी तथागत से मिली नहीं थी। राकेश सिन्हा समेत उनकी पत्नी रागिनी उनकी चार साल की बिटिया पिहू और मेरी बेटी कृति भी तथागत को देखने के लिए काफी उत्सुक थी।
तथागत को लेने के लिए जबतक मैं कालोनी के गेट तक पहुंचता कि वो सामने से पैदल आता हुआ दिख गया। मैंने तो उसे बालक के रूप में देखा था, मगर सामने लंबा चौड़ा खूबसूरत नौजवान को देख कर मेरा मन खिल उठा। आईआईटी मुंबई का टी शर्ट पहने तथागत को घर में आते ही सारे लोग खिल उठे। एकदम सहज सामान्य और हमेशा मुस्कुराहट बिखेरने वाले इस युवक को देखकर कोई अंदाज भी नहीं लगा सकता कि एक छात्र सा दिखने वाला यह युवक एक इंटरनेशनल टैंलेट है। अपने हम उम्र लड़को को पढ़ाने वाले तथागत की पीड़ा है कि आईआईटी में भी ज्यादातर लोग उसे स्टूडेंट ही समझ बैठते है।
घर में सामान्य स्वागत के बीच ही सारे लोग अपनी सारी उत्सुकताओं के साथ तथागत पर सवालों की बौछार करने लगते हैं। यहां पर मैं साफ कर दूं कि तथागत अवतार तुलसी नाम होने के बावजूद तथागत ने अपने नाम को अब अवतार तुलसी कर लिया है। इस बारो में तथागत ने बताया कि कई साल के अपने विदेश प्रवास के दौरान आमतौर पर तथागत को टटागत या टथागत या टकाटक आदि के गलत ऊच्चारण से परेशान होकर ही तथागत ने विदेशियों की सुविधा के लिए अपने नाम से तथागत को हटा दिया। पिछले दस साल के दौरान दर्जन भर देशों नें रहने और अलग अलग य़ूनिवर्सिटी में रिसर्चर को पढ़ाने वाले तथागत को अपना हिनदुस्तान ही सबसे ज्यादा भाया है। हालांकि भविष्य को लेकर वे अभी ज्यादा आश्वस्त तो नहीं हैं, मगर उनका पक्का इरादा अपने देश में ही रहकर काम और देश का नाम रौशन करने का है।
अलबत्ता वह यह जरूर मानते हैं कि भारत में उन तमाम सुविधाओं की हम उम्मीद या यों कहे कि कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। हमारा देश गरीब और बहुत मामलों में सुविधाहीन भी है। किसी भी सरकार के लिए यह आसान नहीं है।, मगर हमारी सरकार या निजी संस्थानों द्वारा पूरी तरह सुविधाएं उपलब्ध कराने की कोशिश भी नहीं की जाती है। तथागत का मानना है कि विदेशों में जाकर हमारे देश का जीनियस ब्रेन ड्रेन हो रहा है। इसके बावजूद ग्लोबल फोकस के लिए विदेश में जाकर काम करना या अपने लेबल से संपर्को के दायरे को बढ़ाना और बनाना ही पड़ता है।
अपने भावी कार्यक्रमों को लेकर तथागत फिलहाल ज्यादा नहीं सोच रहे है। अपने आपको को स्थापित करने और एक लेक्चरर या एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में खुद को साबित करने में पूरी तरह लगे है। हालांकि उनके चेहरे पर यह पीड़ा साफ तौर पर झलकती है कि शायद वे सबसे कम उम्र के नोबल पाने वाले 25 साल की आयु के रिकार्ड को नहीं तोड़ पाएंगे। यह कहते हुए निराशा के भाव के बाद भी खिलखिलाकर हंसने की कोशिश जरूर करते हैं।
तथागत के फीजिक्स में अब तक करीब एक दर्जन लेख विभिन्न जनरल में छप चुके है। एक शोध पर अब तक 31 रिसर्च हो चुके है। तथागत ने कहा कि किसी भी रिसर्च पेपर पर 50 से ज्यादा रिसर्च होने पर उसे लैंडमार्क मान लिया जाता है। क्वाटंम कम्प्यूटर पर किए जा रहे अपने रिसर्च को लेकर तथागत में काफी उमंग है। कई प्रकार के रिसर्च पर तथागत ने अपनी योजनाओं को आने वाले दिनों में साकार होने की संभावना जाहिर की। हालांकि उन्होनें यह भी माना कि बचपन में संभावित कई रिसर्च फेल हो गए।
पटना निवासी तुलसी नारायण के तीन पुत्रों में सबसे छोटे तथागत ही है। लंबे समय से तुलसी नारायण को जानने के बाद भी तथागत के तीन भाईयों के बाबत मैं नहीं जानता था, और इस मामले में अपने एक दोस्त से बाजी लगाकर 250 रूपये की चपत भी खानी पड़ी थी। तथागत के सबसे बड़े भाई नार्थ इस्ट में एक सेन्ट्रल स्कूल में सीनियर टीचर है। नंबर दो पटना में रहकर वकालत कर रहे है। अभी शादी किसी की नहीं हुई है, मगर कम उम्र होने के बाद भी ज्यादातर लोग तथागत को अपना दामाद बनाने के लिए आतुर है। इस बारे में मुस्कुराहट के साथ तथागत का कहना है कि मेरे से पहले तो लंबी लाईन है।
अपने बारे में बहुत सारी भ्रांतियो को साफ करते हुए तथागत ने कहा कि मैं भी सामान्य तौर पर बचपन चाहकर भी कहां बीता पाया हूं ? तथागत ने कहा कि बचपन को मैं नहीं जानता और इसका दुख अब होता है। सात साल की उम्र में छठी क्लास का स्टूडेंट रहा था। इसके बाद फिर कभी क्लास रूम में नहीं गया। लिहाजा आईआईटी में तो पहले अपने स्टूडेंट के साथ तालमेल बैठाना पड़ा। क्लासरूम के दांवपेंच को नहीं जानता था,और अभी भी नहीं जानता हूं। मगर मेरा यह सौभाग्य था कि आईआईटी मुंबई में पढ़ाने का मौका और मैं जल्द ही एडजस्ट कर गया। एक प्रोफेसर होने के बाद भी ज्यादातर सहयोगी समेत ज्यादातर टीचिंग स्टाफ और सिक्योरिटी वाले अक्सर और अमूमन तथागत को छात्र या प्रोफेसर के रूप में पहचानने में भूल कर जाते है।
घर में आकर तथागत को बहुत अच्छा लगा।. एक पारिवारिक माहौल में करीब तीन घंटा गुजारने के बाद तथागत ने आईआईटी मुंबई चलने का प्रस्ताव रखा। हालांकि हंसते हुए यह भी साफ किया कि फ्लैट में चाय तक की व्यवस्था नही हैं कि मैं कोई सत्कार नहीं कर सकता हूं। आईआईटी घूमने को लेकर राकेश के साथ मेरी पत्नी ममता और बेटी भी साथ हो गई। करीब 40 मिनट में पूरा आईआईटी का चक्कर लगाने के बाद पवई झील समेत फीजिक्स डिपार्टमेंट के अपने रूम में भी ले गया। सबसे अंत में तथागत के कमरे को भी देखना चाहा तो वह बार बार संकोच करने लगा। .उनकी लज्जा को भांपकर कहा कि एक बैचलर का डेरा सामान्य हो ही नहीं सकता। जब हमलोग तथागत के फलैट में गये तो देखा कि एक कमरें में केवल किताबों का जमघट था। कई कार्टून में बेतरतीब किताबें थी। जबकि दूसरे कमरे में भी चारो तरफ बिखरी किताबों पत्रिकाओं और कपड़ो के बीच जमीन पर दो बिस्तर थी। एक बिस्तर पर कपड़े और दो लैपटाप रखे थे। खाना से लेकर चाय तक के लिए भी मेस पर पूरी तरह निर्भर तथागत के पास इतना समय ही नहीं मिल पाता था कि वह बाजार से जाकर सामान्य चीज भी खरीद सके। तथागत की मां इस बार गरमी की छुट्टियों में मुंबई आने वाली है, तब कहीं जाकर तथागत का फ्लैट सामान्य जरूरी चीजों से भर पाएगा ?  मुबंई से लेकर बंगलौर (बेंगलुरू) हो या न्यूजर्सी या कनाडा हो इस इंटेलीजेंट के लिए संघर्ष का दौर अभी रूका नहीं है। यानी मन में नोबल विजेता होने का तो यकीन है, मगर इसमें कितना समय लगेगा इसको लेकर वह आश्वस्त नहीं है। अब देखना है कि तथागत का यह सपना कब साकार होता है, जिसपर कमसे कम ज्यादातर भारतीयों की नजर लगी है।


- अनामी शरण बबल


अनामी शरण बबल सक्रिय पत्रकार हैं। उन्‍होंने राष्‍ट्रीय सहारा, टोटल टीवी और इंडिया न्‍यूज जैसे मीडिया संस्‍थानों में संवाददता से लेकर ब्‍यूरो प्रमुख जैसे पदों पर काम किया है। फिलहाल स्‍वतंत्र लेखन कर रहे हैं और पत्रकारिता पर पुस्‍तकें भी लिख रहे हैं। वह भारतीय जन संचार संस्‍थान के हिन्‍दी पत्रकारिता पाठयक्रम के पहले बैच के छात्र हैं। उनसे उनके मोबाइल नम्‍बर 09868568501, 09015053886 और 08882080458 के जरिये संपर्क किया जा सकता है।

साहित्य की (सति) या सती सावित्री का शर्महीन विलाप

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विभूति नारायण राय एक लफंगा है : मैत्रेयी पुष्‍पा

♦ मैत्रेयी पुष्‍पा
महात्मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीयहिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति वीएन राय लेखिकाओं को ‘छिनाल’ कहकर अपनी कुंठा मिटा रहे हैं और उन्हें लगता है कि लेखन से न मिली प्रसिद्धि की भरपाई वह इसी से कर लेंगे। मैं इस बारे में कुछ आगे कहूं, उससे पहले ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया और कुलपति वीएन राय को याद दिलाना चाहूंगी कि दोनों की बीवियां ममता कालिया और पदमा राय लेखिकाएं हैं, आखिर उनके ‘छिनाल’ होने के बारे में महानुभावों का क्या ख्याल है।
लेखन के क्षेत्र मेंआने के बाद से ही लंपट छवि के धनी रहे वीएन राय ने ‘छिनाल’ शब्द का प्रयोग हिंदी लेखिकाओं के आत्मकथा लेखन के संदर्भ में की है। हिंदी में मन्‍नू भंडारी, प्रभा खेतान और मेरी आत्मकथा आयी है। जाहिरा तौर यह टिप्पणी हममें से ही किसी एक के बारे में की गयी, ऐसा कौन है – वह तो विभूति ही जानें। प्रेमचंद जयंती के अवसर पर कल ऐवाने गालिब सभागार (ऐवाने गालिब) में उनसे मुलाकात के दौरान मैंने पूछा कि नाम लिखने की हिम्मत क्यों न दिखा सके, तो वह करीब इस सवाल पर उसी तरह भागते नजर आये, जैसे श्रोताओं के सवाल पर ऐवाने गालिब में।
मेरी आत्मकथा‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ कोई पढ़े और बताये कि विभूति ने यह बदतमीजी किस आधार पर की है। हमने एक जिंदगी जी है, उसमें से एक जिंदा औरत निकलती है और लेखन में दखल देती है। यह एहसास विभूति नारायण जैसे लेखक को कभी नहीं हो सकता, क्योंकि वह बुनियादी तौर पर लफंगे हैं।
मैं विभूति नारायण केगांव में होने वाले किसी कार्यक्रम में कभी नहीं गयी। उनके समकालीनों और लड़कियों से सुनती आयी हूं कि वह लफंगई में सारी नैतिकताएं ताक पर रख देता है। यहां तक कि कई दफा वर्धा भी मुझे बुलाया, लेकिन सिर्फ एक बार गयी। वह भी दो शर्तों के साथ। एक तो मैं बहुत समय नहीं लगा सकती इसलिए हवाई जहाज से आऊंगी और दूसरा मैं विकास नारायण राय के साथ आऊंगी जो कि विभूति का भाई और चरित्र में उससे बिल्कुल उलट है। विकास के साथ ही दिल्ली लौट आने पर विभूति ने कहा कि ‘वह आपको कब तक बचाएगा।’ सच बताऊं मेरी इतनी उम्र हो गयी है फिर भी कभी विभूति पर भरोसा नहीं हुआ कि वह किसी चीज का लिहाज करता होगा।
रही बात ‘छिनाल’ होनेया न होने की तो जब हम लेखिकाएं सामाजिक पाबंदियों और हदों को तोड़ बाहर निकले, तभी से यह तोहमतें हमारे पीछे लगी हैं। अगर हमलोग इस तरह के लांछनों से डर गये होते, तो आज उन दरवाजों के भीतर ही पैबस्त रहते, जहां विभूति जैसे लोग देखना चाहते हैं। छिनाल, वेश्या जैसे शब्द मर्दों के बनाये हुए हैं और हम इनको ठेंगे पर रखते हैं।
हमें तरस आता हैवर्धा विश्वविद्यालय पर, जिसका वीसी एक लफंगा है और तरस आता है ‘नया ज्ञानोदय’ पर जो लफंगई को प्रचारित करता है। मैंने ज्ञानपीठ के मालिक अशोक जैन को फोन कर पूछा तो उसने शर्मिंदा होने की बात कही। मगर मेरा मानना है कि बात जब लिखित आ गयी हो, तो कार्रवाई भी उससे कम पर हमें नहीं मंजूर है। दरअसल ज्ञोनादय के संपादक रवींद्र कालिया ने विभूति की बकवास को इसलिए नहीं संपादित किया क्योंकि ममता कालिया को विभूति ने अपने विश्वविद्यालय में नौकरी दे रखी है।
मैं साहित्य समाज औरसंवेदनशील लोगों से मांग करती हूं कि इस पर व्यापक स्तर पर चर्चा हो और विभूति और रवींद्र बताएं कि कौन सी लेखिकाएं ‘छिनाल’ हैं। मेरा साफ मानना है कि ये लोग शिकारी हैं और शिकार हाथ न लग पाने की कुंठा मिटा रहे हैं। मेरा अनुभव है कि तमाम जोड़-जुगाड़ से भी विभूति की किताबें जब चर्चा में नहीं आ पातीं, तो वह काफी गुस्से में आ जाते हैं। औरतों के बारे में उनकी यह टिप्पणी उसी का नतीजा है।
((अजय प्रकाश से हुई बातचीत पर आधारित | जनज्वार से नकलचेंपी))
(मैत्रेयी पुष्‍पा। अलीगढ़ जिले के सिकुर्रा गांव में जन्‍म। झांसी जिले के खिल्ली गांव में शुरुआती शिक्षा। बुंदेलखंड कालेज, झांसी से हिंदी साहित्‍य में एमए। उपन्‍यास चाक से चर्चा में आयीं। अब तक पांच उपन्‍यास, दो कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह के अलावा गुड़‍िया भीरत गुड़‍िया नाम से हाल में आत्‍मकथा छप कर आयी। कई सम्‍मान भी मिले।)

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता / श्‍याम कश्‍यप

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हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

पत्रकारिताLeave a comment


हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता हिन्दी साहित्य के विकास का अभिन्न अंग है। दोनों परस्पर एक-दूसरे का दर्पण हैं। इस दृष्टि से दोनों में द्वन्द्वात्मक (डायलेक्टिकल) और आवयविक (ऑर्गेनिक) एकता सहज ही लक्षित की जा सकती है। वस्तुतः हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता हमारे आधुनिक साहित्यिक इतिहास का अत्यंत गौरवशाली स्वर्णिम पृष्‍ठ है। स्मरणीय है कि हिन्दी के गद्य साहित्य और नवीन एवं मीलिक गद्य-विधाओं का उदय ही हिन्दी पत्रकारिता की सर्जनात्मक कोख से हुआ था।
यह पत्रकारिता ही आरंभकालीन हिन्दी समाचार पत्रों के पृष्‍ठों पर धीरे-धीरे उभरने वाली अर्ध-साहित्यिक पत्रकारिता से क्रमश: विकसित होते हुए, भारतेन्दु युग में साहित्यिक पत्रकारिता के रूप में प्रस्फुटित हुई थी।
भारतेन्दु हरिशचन्द्र (सन्1850-1885 ई0) की पत्रिकाओं कविवचनसुधा (1867ई0), हरिशन्द्र मैगज़ीन (1873ई0) और हरिशचन्द्र चंद्रिका (1874ई0) से ही हमें वास्तविक अर्थों में हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के दर्शन होते हैं। हिन्दी की आरंभकालीन साहित्यिक पत्रकारिता से ही हिन्दी गद्य का चलता हुआ रूप निखर कर सामने आया और भारतेन्दु युग से गद्य-विधाओं और गद्य साहित्य की अखंड परंपरा का अबाध आविर्भाव हुआ।
पृष्‍ठभूमि: छापेखानों की और पत्रों की शुरुआत
अठारहवीं शताब्दी में भारत के कई नगरों ,गोआ, बंबई, सूरत, कलकत्ता और मद्रास में अनेक छापेखाने (प्रिंटिंग प्रेस) कायम हो गए थे स हालाँकि, हालैंड में 1430 ई0 में पहले प्रिंटिंग प्रेस के लगभग सवा सदी बाद, गोआ में 1556 ई0 में भारत का पहला प्रेस कायम हुआ था। परमेश्‍वरन थंकप्पन नायर के शब्दों में न केवल, “हिन्दी और उर्दू की पत्रकारिता का जन्म कलकत्ता में हुआ,“ बल्कि “कलकत्ता को पूरे दक्षिण-पूर्व एषिया में पत्रकारिता का जन्म स्थान माना जा सकता है। कलकत्ता से ही 1765 ई0 में एक डच विलियम बोल्ट ने पत्रकारिता के आरंभिक प्रयास किए थे और अंततः 1766 में अपना पहला “नोटिस“ छापा था।
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि, “भारत में पत्रकारिता का आरंभ 1774 ई0 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार की ओर से मुद्रित एवं प्रकाशित “कैलकेटा गज़ेट“ से हुआ था। जो कि सही नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह स्वतंत्र पत्रकारिता नहीं थी। इसलिए अधिकांश विद्वानों का मत है, जो प्रायः स्वीकार्य भी है, कि भारत में पत्रकारिता की शुरुआत एक आयरिश जेम्स ऑगस्टस हिकी ने 27 जून,1780 ई0 को अंग्रेज़ी में “बंगाल गज़ेट ऑफ कैलकेटा एडवरटाइज़र्स“ नामक साप्ताहिक निकाल कर की।
हिन्दी का स्वरूप और हिन्दी पत्रों का आरंभ
डॉ0 शिवमंगल राय के अनुसार ”सन्1779 आते-आते प्रथम भारतीय बाबू राम ने भी कलकत्ता में अपना प्रेस खड़ा कर लिया। हालाँकि प्रिओल्कर और नाइक ने देवनागरी में छपाई का समय 1796 में निर्धारित किया है, जबकि कुछ विद्वान इसे और भी पहले बताते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि 1786 से पहले तक तो कलकत्ता में देवनागरी टाइप ही उपलब्ध नहीं था। परमेश्‍वरन नायर के अनुसार “देवनागरी लिपि में छपाई के काम की शुरुआत कलकत्ता से ही हुई थी“ और वहीं से आरंभकालीन हिन्दी का साहित्य भी प्रचुर मात्रा में लिखा गया था तथा “1827 तक पूरे उत्तर भारत में हिन्दी का स्वरूप उभर कर सामने आ गया था।
इससे स्‍पष्‍ट है कि अंग्रेज़ों द्वारा फोर्ट विलियम से हिन्दी गद्य के तथाकथित ”निर्माण” और देवनागरी लिपि में फारसी-बोझिज्ञ तथाकथित ”हिन्दुस्तानी” भाषा के ”विकास” एवं उसकी ”लोकप्रियता” के दावे निराधार और झूठे प्रमाणित होते हैं। श्रीरामपुर (सीरामपुर) के मिशनरियों के हिन्दी मासिक ”दिग्दर्शन” (1817-18) के दो माह के भीतर ”बेंगाल ग्याजेट” और ”समाचार दर्पण” दो बाँग्ला साप्ताहिक पत्र निकले तथा 30 मई, 1826 को पहला हिन्दी समाचार पत्र साप्ताहिक ”उदंतमार्त्तंड” उदित हुआ। इसके संपादक, मुद्रक और प्रकाशक पं0 युगलकोशोर शुक्ल स्वयं एक सहृदय कवि एवं सुलेक्जक थे; अतः आरंभ से ही इस पत्र का रुझान लगभग अर्ध- साहित्यिक था।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी अपने ”हिन्दी साहित्य का इतिहास” (मुद्रण: सं0 1995) में इसे हिन्दी का पहला पत्र बताते हुए लिखते हैं ”उदंतमार्त्तांडके बाद काशी के ”सुधाकर” और आगरा के ”बुद्धिप्रकाश” आदि के प्रयासों से “अदालती भाषा उर्दू बनाई जाने पर भी, वुक्रम की 20वीं शताब्दी के आरंभ के पहले से ही (यानी सन् 1840-45ई0 के पहले से ही) हिन्दी खड़ी बोली गद्य की परंपरा हिन्दी साहित्य में अच्छी तरह चल पड़ी ; उसमें पुस्तकें छपने लगीं, अखबार निकलने लगे। कहना ना होगा कि इन अखबारों के अर्ध-साहित्यिक रूप से ही क्रमश: साहित्यिक प्तरकारिता का विकास हुआ।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस पत्रकारिता, नवोदित गद्य-साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता का स्वरूप आरंभ से ही राजनीतिक और विचारधारात्मक रहा है। अर्थात उपनिवेशवाद- विरोधी और लोकोन्मुख भले ही उन पत्रकारों और लेखकों ने औपनिवेशिक विदेशी सत्ता, उसके कठोर सेंसरशिप और दमनकारी पेअशासन-तंत्र की आँखों में धूल झोंकते हुए कैसे भी संकेतात्मक, छद्म और प्रतीकवादी तरीके क्यों न अपनाएँ हो। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के जनक भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र ने अपनी आँखों से सन् 1857 का ”गदर”, उसके असफल रहने पर उन प्रथम स्वाधीनता-संग्रामियों का निर्मम नरसंहार और सामान्य भारतवासियों का नृशंस दमन देखा था।
आचार्य शुक्ल 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम से गद्य-साहित्य की परंपरा का संबंध जोड़ते हुए ”इतिहास” में लिखते हैं कि “गद्य-रचना की दृष्टि से ……… संवत 1914 (अर्थात 1857ई0) के बलवे (गदर) के पीछे ही हिन्दी गद्य-साहित्य की परंपरा अच्छी चली“ । इस तरह हम देखते हैं कि हिन्दी पत्रकारिता से ही साहित्यिक पत्रकारिता और गद्य साहित्य का विकास होता है और दूसरे, आरंभकाल से ही जुझारू गद्य-साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता का संबंध हमारे साम्राज्यवाद-विरोधी संग्राम से भी बड़ा प्रत्यक्ष और गहरा था
हिन्दी गद्य का निर्माण
डॉ0 नामवर सिंह इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि “पत्रकारिता को ही लें। सही है कि हिन्दी गद्य का निर्माण स्वाधीनता संग्राम के जुझारु और लड़ाकूपन के बीच हुआ। संघर्ष के हथियार के रूप में निस्संदेह, साहित्य के पहले उसका यह रूप हिन्दी पत्रकारिता, सबसे पहले और सबसे ज़्यादा भारतेन्दु की पत्रकारिता में प्रस्फुटित और विकसित हुआ था।
अशोक वाजपेयी के शब्दों में, “गद्य के निर्माण में पत्रकारिता का भी कुछ न कुछ हाथ होता है। पुराने जमाने से ही था, जो बहुत अच्छे गद्यकार थे ,वे बहुत अच्छे पत्रकार भी थे। इन्हीं तथ्यों को उजागर करते हुए डॅा0 रामविलास शर्मा बहुत पहले यह लिख चुके थे कि “भारतेन्दु से लेकर प्रेमचन्द तक हिन्दी साहित्य की परंपरा में यह बात ध्यान देने योग्य है कि सभी बड़े साहित्यकार पत्रकार भी थे। पत्रकारिता उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी। यह पत्रकारिता एक सजग और लड़ाकू पत्रकारिता थी। प्रेमचंद भी “एक सफल संपादक थे और ”हंस” के ज़रिये उन्होंने साहित्यकारों की एक नई पीढ़ी को शिक्षित किया। कहना न होगा कि साहित्यिक पत्रकारिता की यह भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
भारतेन्दु और प्रेमचंद के अलावा यही बात पं0 महावीरप्रसाद द्विवेदी, निराला, मुक्तिबोध, यशपाल, हरिशंकर परसाई, नामवर सिंह और नंदकिशोर नवल के बारे में भी कही जा सकती है। साहित्य और पत्रकारिता के इन घनिष्‍ठ संबंधों की ओर संकेत करते हुए प्रो0 सूर्यप्रसाद दीक्षित लिखते हैं कि “हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में पत्रकारिता की अनन्य देन रही है। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से युग-प्रवृत्तियों का प्रवर्तन हुआ है, विभिन्न विचारधाराओं का उन्मेश हुआ है और विशिष्‍ट प्रतिबाओं की खोज हुई है। वस्तुतः साहित्य और पत्रकारिता परस्पर पूरक और पर्याय जैसे हैं। शायद इसीलिए लोग पत्रकारिता को ”जल्दी में लिखा हुआ साहित्य” और साहित्य को ”पत्रकारिता का श्रेष्‍ठतम रूप” भी कहते हैं। साहित्यिक पत्रकारिता के प्रसंग में तो यह मणि-काँचन-योग और भी प्रत्यक्ष है ।
एक रोचक घटना: संदर्भ यूरोप का — साहित्यिक पत्रकारिता का उदय
सेंट फॉक्स साहित्यिक पत्रकारिता के आरंभ का बड़ा दिलचस्प विवरण देते हुए बताते हैं कि रेनाडो नामक पेरिस के एक डॉक्टर अपने अस्पताल के रोगियों के मन-बहलाव के लिए अद्भुत घटनाओं, रोचक किस्सों, अलौकिक विवरणों और दिलचस्प खबरों को जमा करके बीमारों को पढ़ने देने लगे। डॉ रेनाडो का विशवास था कि ऐसे मनोरंजन से रोगियों को शांत और प्रसन्न रखा जा सकता है और उन्हें शीघ्र निरोग भी किया जा सकता है। कहना न होगा कि उन्हें इसमें आशातीत सफलता भी मिली।
इससे उत्साहित होकर, पेरिस प्रशासन की अनुमति से, रेनाडो ने 1632 ई0 से ऐसी सामग्री संकलित कर एक नियमित साप्ताहिक पत्रिका शुरु कर दी, जो आम लोगों में भी खासी लोकप्रिय हो गई। रेनाडो के अनुकरण पर पेरिस से ही सांसद डेनिस द” सैलो ने 1650ई0 में ”जर्नल द” सैवेंत्रास“ नामक एक साहित्यिक पत्र आरंभ किया। आइज़क डिज़रेज़ी के मतानुसार साहित्य और समालोचना की यही सबसे पहली पत्रिका है। ऐसी ही दूसरी पत्रिका 1684 में बेल ने निकाली इसका नाम “वावेत्स द“ ला रिपब्लिक द” लेटर्स“ था।
फॉअस के बाद इंग्लैंड से भी अनेक साहित्यिक पत्र निकलने लगे। इनमें डेनियल डेफो का ”द रिव्यू” पहला अंग्रेज़ी पत्र था, जिसके लिए उन्हें 1703 में जेल भी जाना पड़ा था। तत्पश्‍चात रिचर्ड स्टील का ”द टैटलर”, फिर स्टील और ऐडिसन द्वारा मार्च,1711 से मिलकर निकाला गया ”द स्पेक्टेटर” तथा साहित्य समालोचना की विख्यात पत्रिका ”द मंथली रिव्यूज़” के नाम विशेश उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त, “जेंटिलमेन्स मैगज़ीन”, ”द क्रिटिकल” तथा डॉ0 सैम्युल जॉनसन की दोनों सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं ”द रैम्बलर” और ”द आइडलर“ का भी विशेश ऐतिहासिक महत्तव है। अंग्रेज़ी साहित्य के विकास में इनका अमूल्य योगदान माना जाता है
वस्तुतः फ्राँसीसी क्रांति के बाद 1749-50 से तो यूरोप के प्रायः सभी देशों से अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित और लोकप्रिय होने लगीं सयूरोपीय ”रेनाँसाँ” (पुनर्जागरण), मध्य वर्ग के उदय और जातीय चेतना (नैशनेल्टी की चेतना के बोध) के विकास से इस साहित्यिक पत्रकारिता की शुरुआत का सीधा संबंध था, ठीक वैसे ही, जैसे कि कालांतर में भारतीय भाषाओं में —-
विशेष रूप से हिन्दी में, साहित्यिक पत्रकारिता का गहरा संबंध नवोदित भारतीय मध्य वर्ग की उत्तरोत्तर क्रमश: होती हुई लोकतांत्रिक चेतना, जातीय नवोन्मेश और साम्राज्य-विरोधी राश्ट्रीय मुक्ति-संग्राम से भलीभाँति परिलक्षित किया जा सकता है।
संदर्भ
1) ”हिन्दी नवजागरण: बंगीय विरासत” (खंड दो), सं0 शम्भुनाथ और रामनिवास द्विवेदी ;
प्रकाशक: कोल इंडिया लि0, कलकत्ता (1993), पृष्‍ठ 919
2) उपर्युक्त, पृ0 905
3) उपर्युक्त, पृ0 919
4) उपर्युक्त, पृ0 920
5) उपर्युक्त।
6) उपर्युक्त।
7) उपर्युक्त, 907
8) उपर्युक्त, 911
9) ”समाचारपत्रों का इतिहास”, अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी ; ज्ञानमण्डल लि0, वाराणसी (द्वितीय सं0
1953), पृ0 33-34
10) ”हिन्दी साहित्य का इतिहास”, रामचन्द्र शुक्ल ; सं0 2005, प्रकाशन सण्स्थान, नयि दिल्ली, पृ0 309
11) उपर्युक्त, पृ0 312
12) उपर्युक्त, पृ0 307
13) ”पूर्वग्रह”,सं0 अशोक वाजपेयी, अंक 44-45 (मई-अगस्त,1981), नामवर सिंह
14) उपर्युक्त, पृ0 14
15) ”प्रेमचंद और उनका युग”, रामविलास शर्मा ; राजकमल प्रकाशन ;पृ0130
16) उपर्युक्त, पृ0159
17) ”हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता”, सं0 प्रो0 सूर्यप्रसाद दीक्षित , पृ0 3
18) यूरोप के उपरलिखित सभी विवरण, लखनऊ विश्‍वविद्यालय की ”जन-संचार एवं पत्रकारिता” के विशय कौ प्रथम पी0एच0डी0 डिग्री के षोध-प्रबंध (डॉ0ष्याम कष्यप) से लिए गए हैं।
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (2)
साहित्य में आधुनिक चेतना, स्वच्छंद आत्माभिव्यक्ति और व्यक्तिगत पाठक समुदाय के विकास के साथ ही साहित्यिक पत्रकारिता का उदय हुआ था। यूरोप ही नहीं, कुछ अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में, हिन्दी में कतिपय विलंब से यहाँ तक कि अपनी सहोदर उर्दू की तुलना में भी कुछ विलंब से इसका कारण यह था कि अन्य भारतीय भाषाओं और उर्दू की तुलना में हिन्दी में गद्य का विकास देर से हुआ था। भारतेन्दु युग से पहले तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली हिन्दी के इस प्रचलित विभाजन से भी हिन्दी गद्य के स्वाभाविक विकास में बाधा नज़र आती है, लेकिन एक बार उन्नीसवीं षताब्दी के उत्तरार्ध में गति पकड़ लेने के बाद, हिन्दी गद्य और प्रकारांतर से हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता ने अभी हिन्दी के अतिरिक्त दुनिया की किसी भी भाषा में कभी भी ऐसा विभाजन नहीं था और न ही उसे ”धर्म” से जोड़ने की अवैज्ञानिक सोच अपने तीव्र विकास में सबको पीछे छोड़ दिया और वह उत्तरोत्तर प्रगति-पथ पर अग्रसित हो गई। शीग्र ही हम हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को आधुनिक साहित्य के सर्जनात्मक विकास में प्रेरक भूमिका निभाते हुए देखते हैं।
यहाँ इस महत्वपूर्ण तथ्य को भी दृष्टिगत रखना चाहिए कि इस आधुनिक साहित्य और उसकी विविध विधाओं को लोकप्रिय बनाते हुए सामान्य पाठकों और जनसाधारण तक संप्रेशित करने में साहित्यिक पत्रकारिता की लगभग केंद्रीय भूमिका है, लोग एकदम ही साहित्यिक गद्य-विधाओं, विशेष रूप से ब्रजभाषा की तुलना में खड़ी बोली हिन्दी की आधुनिक कविता के पाठक नहीं बन गए थे, खास तौर से मुक्त-छंद और छंद-मुक्त कविता के, किताबों से पहले जनसाधारण, खासकर मध्यम वर्ग के पढ़े-लिखे लोग, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के नियमित पाठक बने थे ; जैसे कि उपन्यासों के पाठक बनने से पहले वे साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले छोटे-छोटे निबंधों, एकांकी नाटकों, प्रहसनों, टिप्पणियों,राजनीतिक व्यग्य-स्तंभों और छोटी कहानियों के नियमित पाठक बने थे स यह अनायास ही नहीं है कि राल्फ फाक्स उपन्यास को बुर्जुआ समाज में ”मध्य वर्ग का महाकाव्य” कहते हैं। इसकी शुरुआत, जैसा कि पहले भी संकेत किया जा चुका है, उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक (”उदंतमार्तंड ;1826ई0) में हो चुकी थी।
भारतेन्दु पूर्व की अर्ध-साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं से उभरने वाली रचनाओं ने खबरों के प्रति उत्सुकता के साथ ही, लोगों में मनोरंजक और साहित्यिक रूझान वाली रचनाओं में भी रुचि जाग्रत करने में बड़ी भूमिका निभायी थी। भारतेन्दु-युग की श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रकारिता ने लोगों की रुचि पढ़ने की ओलृ अधिकाधिक मोड़ते हुए उन्हें हिन्दी साहित्य के जागरूक पाठक बनाया, लोगों ने गंभीर साहित्य पढ़ने की आदत डाल ली, उन्हें टीका-टिप्पणी करने की ओर प्रेरित करके सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से जागरूक बनाया।
साहित्य और पत्रकारिता
साहित्यिक पत्रकारिता और साहित्य की लोकरंजनकारी भूमिका के कारण हि सामान्य पत्र-पत्रिकाएँ भी साहित्यिक विषयों को बराबर स्थान देती थीं। बीसवीं शतब्दी के उत्तरार्ध में भूमंडलीकरण के दौर की शुरुआत से, खास तौर से 1995 के बाद से निजी टेलीविज़न चैनलों और चौबिसों घंटे के न्यूज़ चैनलों के विस्फोट और फलस्वरूप हिन्दी के दैनिक अखबारों द्वारा भी, उनकी रंगारंग अंधी दौड़ की फूहड़ नकल की प्रवृत्ति ने ज़रूर आज यह स्थिति बदल दी है, जिस पर हम आगे यथावसर चर्चा करेंगे स यहाँ यह समझने की आवश्‍यकता है कि अपने आरंभकाल से ही साहित्य और पत्रकारिता का चोली-दामन का संबंध रहा है।
पत्रकारिता का साहित्य के साथ अपने जन्मकाल से बहुत गहरा संबंध बताते हुए राकेश वत्स लिखते हैं कि मानव-यात्रा के “इसी पड़ाव पर (यानी मध्य-वर्गीय लोकतांत्रिक आंदोलनों, राजनीतिक और विचारधारात्मक विकास के पड़ाव पर) आकार साहित्य के संबल की ज़रुरत महसूस हुई स चूँकि पत्र-पत्रिकाएँ ही उसे पाठकों के उस वर्ग तक पहुँचा सकती थीं, ……. पत्रकारिता ने उसकी इस ज़रूरत को पूरा किया। वे आगे बताते हैं कि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ तो मूलतः साहित्य के प्रति समर्पित होती ही हैं, बल्कि शायद ही कोई ऐसा पत्र या पत्रिका होगी जिसमें किसी न किसी रूप में साहित्य के लिए स्थान सुरक्षित नहीं किया जाता होगा। यानी, कविता, कहानी, गज़ल, गीत, निबंध, नाटक, एकांकी, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, शब्दचित्र, रोपोर्ताज़, पुस्तक समीक्षा, आलोचना, उपन्यास- सभी कुछ प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा है। उनका रूप और आकार भले भिन्न-भिन्न रहा हो।
जिन गैर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का गंभीर साहित्य की ओर रूझान नहीं था, वे भी, खासकर दैनिक और साप्ताहिक या पाक्षिक अखबार और पत्रिकाएँ भी ”फिलर” के रूप में लघु-कथाएँ, क्षणिकाएँ और व्यंग्य के नाम पर चुटकुलेबाजी, यानी ”साहित्य” के नाम पर रची जाने वाली सारी सामग्री धड़ल्ले से छापते रहे हैं। यहाँ तक कि फिल्मी समाचार पत्र-पत्रिकाएँ भी इन सबको नज़रंदाज़ नहीं करतीं थीं। कहना न होगा कि साहित्य के नाम पर छपने वाला बड़े पैमाने का यह सारा कूड़ा और स्तरहीन रचनाओं का अंबार श्रेष्‍ठ साहित्य तथा स्तरीय और प्रभावि रचनाओं का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि हर छपा हुआ शब्द साहित्य नहीं होता! फिर भी इससे एक माहौल बनता है, एक वातावरण निर्मित होता है। इससे साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता की लोकप्रियता का विस्तार होता है। लोगों में कम-से-कम पढ़ने की ललक और पाठकीय संस्कृति विकसित होती है। लोगों में साहित्य पढ़ने की आदत पड़ती है।
साहित्यिक पत्रकारिता और ”मास-लिटरेचर” यह समझ लीजिए कि स्वयं श्रेष्‍ठ साहित्य न होते हुए भी ऐसी स्तरहीन रचनाओं का ढेर श्रेष्‍ठ रचनाओं के लिए खाद बनता है। ऐसा साहित्य खुद निकृष्‍ठ होते हुए भी पाठक-संस्कृति और साहित्यिक पत्रकारिता के विकास को गति प्रदान करता है। इसी श्रेणी में आप सस्ते और भावुकतापूर्ण रोमैंटिक उपन्यास तथा तिलिस्मी-ऐयारी और जासूसी उपन्यासों को भी शामिल कर सकते है। आचार्य शुक्ल भी इसी तथ्य को अपने ”हिन्दी साहित्य इतिहास” में रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि, “हिन्दी साहित्य के इतिहास में बाबू देवकीनंदन (खत्री) का स्मरण इस बात के लिए सदा बना रहेगा कि जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किए उतने और किसी ग्रंथकार ने नहीं ”चंद्रकांता” पढ़ने के लिए न जाने कितने उर्दू जीवी लोगों ने हिन्दी सीखी ”चंद्रकांता” पढ़कर वे हिन्दी की और प्रकार की साहित्यिक पुसतकें भी पढ़ चले और अभ्यास हो जाने पर कुछ लिखने भी लगे इसीलिए प्रायः पत्र-पत्रिकाएँ धारावाहिक रूप से उपन्यास और ऐसी कहानियाँ बराबर छापते हैं। इस किस्म के साहित्य को ”मास-लिटरेचर” कहा जाता है और यूरोप तथा अमरीका के समाजशास्त्रियों ने इसकी उपयोगिता और लोकप्रियता पर अनेक दिलचस्प अध्ययन किए हैं।
पहले ”धर्मयुग”, ”साप्ताहिक हिन्दुस्तान”, ”कादंबिनी” और ”सारिका” या विभिन्न दैनिक और साप्ताहिक समाचारपत्रों के रविवारीय पृष्‍ठों में छपने वाली चालू और स्तरहीन रचनाओं तथा ”इंडिया टुडे” (हिन्दी)- जैसी समाचार पत्रिकाओं में छपने वाली बाज़ारू रचनाओं के नियमित पाठक ही, उनकी चेतना में धीरे-धीरे विकास और साहित्यिक रुचि के क्रमषः परिश्कार के अबाद ”कल्पना”, ”प्रतीक”, ”कवि”, ”कृति”, ”कहानी”, ”नई कहानियाँ”, ”लहर”, ”पहल”,”धरातल”, ” आलोचना”,”कथा”, ”समारम्भ”, ”पूर्वग्रह”, ”कसौटी”, ” बहुवचन”, ”समस”, और ”पुस्तकवार्ता” जैसी श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठक भी बनते हैं। कहना न होगा कि इस विशाल पाठक-समुदाय की चेतना में यह विकास और उनकी साघित्यिक रुचि में परिश्कार भी ऐसी साहित्यिक पत्रिकाओं के पठन-पाठन से ही आता है। यहाँ एक विशेश बात यह भी स्मरणीय है कि ”हिन्दी साहित्य का इतिहास” इन श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं में से ही उभरकर सामने आता है। साहित्यिक पत्रकारिता की इस संदर्भ में ऐसी ही द्वंद्वात्मक भूमिका होती है।
साहित्यिक रचनाओं का मूल्यांकन
ध्यान रहे कि साहित्यिक पत्रकारिता, रुचि का यह परिश्कार कृतियों, रचनाओं और रचनाकारों के मूल्यांकन के माध्यम से ही करती है स इस प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता रचनाओं का स्तर निर्धारित करते हुए, अच्छी और श्रेष्‍ठ रचनाओं को स्तरहीन बाज़ारू रचनाओं के भारी-भरकम कूड़े से अलगाती है। वास्तव में, यह छँटा हुआ श्रेणीकरण के बाद साहित्य का भावी इतिहास बनता है।
शॅापेन हॉवर ने साहित्यिक पत्रकारिता की इस अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “साहित्यिक पत्रों का कर्त्तव्य है कि वे युग की युक्तिहीन और निरर्थक रचनाओं की बाढ़ के विरुद्ध मज़बूत बाँध का काम करें। … यों कहें कि नब्बे फीसदी रचनाओं पर निर्दयतापूर्वक प्रहार करने की ज़रूरत है। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ तभी अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकेंगे। इसी प्रसंग में वे आगे लिखते हैं कि,“ अगर एक भी ऐसा पत्र है, जो उपर्युक्त आदर्शों का पालन करता हो, तो उसके डर के मारे प्रत्येक अयोग्य लेखक, हरेक बौड़म कवि, प्रत्येक साहित्यिक चोर, हरेक अयोग्य पद-लोभी, प्रत्येक छंद दार्शनिक और हरेक मिथ्याभिमानी तुक्कड़ काँपेगा ; क्योंकि उसे इस बात का डर रहेगा कि छपने के बाद उसकी घटिया रचना खरी आलोचना की कसौटी पर ज़रूर कसी जाएगी और उपहासास्पद सिद्ध होगी। शॅापन हॉवर की यह मान्यता है निकीक इससे घटिया लेखकों को, जिनकी उँगलियों में लिखने की खुजली उठती है, लकवा मार जाएगा। इससे साहित्य का बड़ा हित होगा, क्योंकि साहुत्य में जो चीज़ बुरी है, वह केवल निरर्थक ही नहीं, बल्कि सचमुच बड़ी हानिकारक भी है, कहना न होगा कि हिन्दी की श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाओं और हमारे श्रेष्‍ठ समालोचकों ने ठीक यही भूमिका निभाई है।
साहित्य का इतिहास और पत्रकारिता इस प्रकार, साहित्यिक पत्रकारिता, जो आज साहित्य के इतिहास की स्रोत-सामग्री और कल का साहित्येतिहास है, दृढ़तापूर्वक अच्छी और बुरी रचनाओं, प्रवृत्तियों तथा साहित्यिक आंदोलनों के बीच निर्णायक फर्क दिखाकर साहित्य के इतिहास के निर्माण में भी अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, साहित्यिक पत्रकारिता, इस तरह, स्तरहीन रचनाओं से स्तरीय और अप्रासंगिक कृतियों से प्रासंगिक लेखन को अलग करती है।
वस्तुतः युग-विशेश की साहित्यिक पत्रकारिता से ही उस युग के साहित्यिक आंदोलनों, बहस-मुबाहिसों, साहित्यिक समस्याओं, प्रश्‍नों और चुनौतियों तथा इन सबके फलस्वरूप उस युग की नई-से-नई साहित्यिक प्रवृत्तियों के उभरने, उनके क्रमश: विकास तथा विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों के आपसी अंतर्विरोधों और अंतर्द्वंद्वों का भी अंतरंग परिचय हम पा सकते हैं। यह युग-विशेश की साहित्यिक पत्रकारिता ही है, जो हमारे समक्ष उस युग-विशेश का भरा-पूरा और कलात्मक प्रतिबिंब प्रस्तुत करती है। इससे हमें अपनी समकालीन समस्याओं और चुनौतियों को समझने में मदद मिलती है तथा भविष्‍य के सर्जनात्मक संघर्षों का परिप्रेक्ष्य भी।
संदर्भ:–
1) ”उपन्यास और लोकजीवन”, राल्फ फाक्स ; पीपीएच, नई दिल्ली, पृ0 31
2) ”जनसंचार”, (सं0) राधेष्याम शर्मा ; राकेश वत्स का लेख ; हरियाणा साहित्य अकादमी, पृ0 201
3) उपर्युक्त , पृ0 205-06
4) उपर्युक्त, पृ0 206
5) ”हिन्दी साहित्य का इतिहास”, रामचन्द्र शुक्ल ; प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्र0 356-57
6) ”हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता”, शीर्षक लखनऊ विश्‍वविद्यालय की जन-संचार एवं पत्रकारिता
विषय की प्रथम पी-एच0डी0 डिग्री के शोध-प्रबंध (प्रो0 श्‍याम कश्‍यप) से।
7) उपर्युक्त
8) उपर्युक्त
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हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (3)

साहित्यिक पत्रकारिता का सामान्य पत्रकारिता से अंतर और उसका विशिष्‍ट स्वरूप अब तक कुछ उभर आया होगा। समाचारपत्र (या समाचार पत्रिकाएँ) जहाँ सूचना पर बल देते हुए सामान्य ज्ञान प्रेषित करते हैं, वहीं साहित्यिक पत्रकारिता का उद्देष्य सांस्कृतिक चेतना और परिवेश में परिश्कार लाते हुए पाठक को विषिश्ट ज्ञान प्रशिष्‍ट करना होता है। इसलिए इस क्षेत्र में प्रशिष्‍ट साहित्य-विवेक और विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सूक्ष्म एवं अंतरंग परिचय की आवश्‍यकता होती है। साहित्य और पत्रकारिता का अंतर रेखांकित करते हुए नेमिशरण मित्तल बताते हैं कि, “साहित्य का मूल लक्षण उसका शास्वत स्वरूप तथा चिरंतन तत्व है, किन्तु पत्रकारिता तात्कालिकता, सामयिकता और क्षणभंगुरता के आयामों में कैद होती है, वैसे तो साहित्य में भी सरसता और सुबोधता पर बल दिया जाता है, लेकिन उसके प्रशिष्‍ट काला-चरित्र के कारण जटिलता तथा दुर्बोधता और अनेकार्थकता को भी दुर्गुण नहीं माना जाता, साहित्यिक पत्रकारिता की भाषा शैली पर इसका कुछ-न-कुछ असर तो पड़ता ही है।
सामान्य पत्रकारिता जहाँ लोकमत के निर्माण और उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम होती है, वहीं साहित्यिक पत्रकारिता लोकरंजन, लोक-शिक्षण और जनरुचि के परिश्कार का प्रयास करती है स इसीलिए उसका स्वरूप वैचारिक, संवेदनात्मक और मनोरंजनपरक होता है, लेकिन यहाँ ”संवेदनात्मक” का अर्थ तथाकथित ”शुद्ध साहित्य” के झंडावरदारों की समाज-निरपेक्ष और विचारधारा से परहेज प्रचारित करने वाली कृत्रिम और रहस्यात्मक संवेदना से नहीं है। इसी तरह ”मनोरंजन” का अर्थ व्यावसायिक और बाजारू पत्रिकाओं के फूहड़ और विकृतिपूर्ण समाज-विरोधी और सस्ते मनोरंजन से नहीं है। कहना न होगा कि साहित्यिक पत्रकारिता का उद्देश्‍य मुक्तिबोध की ”ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान” की अवधारणा को अपना आदर्श मान कर चलना चाहिए स श्रेष्‍ठ-साहित्य के आदर्शों और उद्देश्‍यों से भिन्न आदर्श और उद्देश्‍य साहित्यिक पत्रकारिता के हो ही नहीं सकते। दोनों एक न होते हुए भी अन्योन्याश्रित हैं।
साहित्यिक पत्रकारिता का चरित्र स्वरूप
साहित्यिक पत्रकारिता के चरित्र-निरूपण और उसके प्रशिष्‍ट स्वरूप पर विचार करेत हुए हमें गंभीर साहित्यिक पत्रिकाओं को फिल्म, संगीत, राजनीति और धर्म आदि की तरह ”साहित्य” का भी धंधा करने वाली व्यावसायिक पत्रिकाओं से अलगाकर देखना चाहिए। यह अंतर आज़ादी के पहले से रहा है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि ऐसा अंतर साहित्यिक पत्रकारिता के जन्म के समय से ही रहा है। शुरु से ही साहित्यिक पत्रिकाएँ सदैव सत्ता-तंत्र और व्यवसाय-तंत्र से जुड़ी या उनकी हितपोशक प्रतिष्‍ठानी और सेठाश्रित पत्रिकाओं से अलग, बल्कि विरोधी रही हैं, भले ही इस विरोध तथा प्रतिरोध की शैली उसका स्वरूप कितना ही भिन्न-भिन्न क्यों न हो।
यह अंतर ”उदंतमार्तंड”. ”सुधाकर”, ”प्रजाहितैशी” या ”पयाम-ए-आज़ादी” का ”बनारस अखबार” जैसे पत्रों से साफ झलकता है। यह अंतर भारतेन्दु की ”कविवचनसुधा” और धड़फले के हाथ में जाने के बाद की स्तरहीन और पतित ”कविवचनसुधा” में और भी प्रत्यक्ष है। यह अंतर ”सरस्वती” (महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन-काल की), ”माधुरी”, ”मतवाला”, ”सुधा”, ”चाँद”, ”हंस”(प्रेमचंद के संपादन-काल से लेकर अमृत राय-रामविलास शर्मा-शिवदानसिंह चौहान के प्रगतिवादी-काल तक का), ”विप्लव”, ”नय साहित्य”, ”रूपाभ” सहित ऐसी ही अनेक छोटी-बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं तथा बाजारू और व्यावसायिक पत्रिकाओं के बीच सदैव रहा है। कहना न होगा कि हमारा ” हिन्दी साहित्य का इतिहास” इन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं से ही अस्तित्व में आया है।
आज़ादी के बाद यह अंतर ”कल्पना”, (बदरी विशाल पित्ती एवं अन्य), ”समालोचक” (रामविलास शर्मा), ”प्रतीक” (अज्ञेय), ”नया पथ” (यशपाल एवं अन्य), ”कृति” (श्रीकांत वर्मा), ”आलोचना” (नामवर सिंह), ”वसुधा” (हरिशंकर परसाई), ”कहानी” (श्रीपत राय), ”लहर” (प्रकाश जैन और मनमोहिनी) और ”नई कहानियाँ” (कमलेश्‍वर, फिर भीष्‍म साहनी) जैसी श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाओं तथा व्यावसायिक घरानों की प्रतिष्‍ठानी और सेठाश्रयी पत्रिकाओं –”धर्मयुग”, ”साप्ताहिक हिन्दुस्तान”, ”ज्ञानोदय”, ”सारिका”, ”निहारिका” और ”कादम्बिनी” आदि के बीच बड़ा स्पष्‍ट रहा है। यह अंतर सारी दुनिया में और विश्‍व की प्रायः अभी भाषाओं की साहित्यिक पत्रिकाओं और राजसत्ता (भले ही उसे ”जनसत्ता” का झूठा नाम दें) या धनसत्ता की होतपोशक प्रतिष्‍ठानी पत्रिकाओं में रहा है। इस अंतर के कारण ही दुनिया-भर में साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में ”लघुपत्रिका” या ” लिटिल मैगज़ीन” आंदोलन होते रहे हैं।
लघु-पत्रिका आंदोलन

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के संदर्भ में जब उपर्युक्त अंतर और फलस्वरूप विचारधारात्मक संघर्ष बहुत तीव्र हो गया तो सन् 60 के बाद साहित्यिक और व्यावसायिक पत्रिकाएँ एक-दूसरे के विरुद्ध एक बड़ी लड़ाई में भिड़ गईं, यह लड़ाई कमोबेश आज भी जारी है, इस सातवें दशक के मध्य में ही हिन्दी में ”लघु-पत्रिका” आंदोलन के रूप में ऐसा जबर्दस्त साहित्यिक विस्फोट हुआ कि सेठाश्रयी और व्यावसायिक प्रतिष्‍ठानी पत्र-पत्रिकाओं का पूरी तरह भट्ठा बैठ गया। उनमें श्रेष्‍ठ रचनाओं और श्रेष्‍ठ साहित्यकारों का टोटा पड़ गया।
हिन्दी के युवा और युवतर लेखकों-कवियों और आलोचकों ने इन पत्रिकाओं के खिलाफ सफल्क और ज़ोरदार ”बहिष्‍कार” अभियान चलाया, यहाँ तक कि प्रतिष्ठित बुजुर्ग कवि-लेखक भी इन पत्रिकाओं में छपने से हिचकिचाने लगे, इनमें छपने वाले लेखक साहित्यिक मान्यता और साहित्यिक प्रतिष्‍ठा के लिए तरसते रह गए, जो प्रतिष्ठित और लोकप्रिय लेखक इनमें छपता था, उसे पूरे साहित्य-जगत का विरोध और बहिष्‍कार झेलना पड़ता था।
हिन्दी का यह लघु-पत्रिका आंदोलन इतना लोकप्रिय और प्रभावी सिद्ध हुआ कि प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में साहित्यिक लघु-पत्रिकाओं का ज्वार आ गया। स्मरणीय है कि ऐसे ही विचारधारात्मक और सर्जनात्मक संघर्ष में से ही यूरोप में ”प्रोटेस्ट मूवमेंट” उभरकर सामने आए थे तथा विश्‍व-भर में छा गए थे, हिन्दी में उभरा यह ”लघु-पत्रिका आंदोलन” अब तो एक तरह से साहित्येतिहास और साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास का भी अंग बन चुका है। कालांतर में साहित्यिक पत्रिकाओं के च्वरूप में भारी परिवर्तनों के बाद भी उनके लिए ”लघु-पत्रिका” या ”अव्याओकर लोक-प्रचलितवसायिक” पत्रिका नाम ही सर्वमान्य और रूढ़ होकर लोक-प्रचलित हो चुका है। वास्तव में, ऐसी पत्रिकाएँ ही साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं, मानी जाती हैं।
नया दौर: ”वाम वाम वरम दिशा …….”
सन् साठ के बाद एक जबर्दस्त आंदोलन की तरह आरंभ हुआ लघु-पत्रिकाओं का यह अभियान अनेक उतार-चढ़ावों के बाद, सत्तर और अस्सी के दशकों में प्रगतिशील और वामपंथी रुख अख्तियार कर लेता है। इसकी परिणति इस रूप में होती है कि एक ओर जहाँ उपर्युक्त प्रतिष्‍ठानी पत्रिकाएँ या तो बंद हो जाती हैं अथवा अप्रासंगिक होकर अपना प्रभाव खो देती हैं, वहीं ” आलोचना” (नामवर सिंह एवं नंद किशोर नवल) के अलावा ”पहल” (ज्ञानरंजन), ”लहर” (प्रकाश जैन और मनमोहिनी), ”प्रगतिशील वसुधा” (कमला प्रसाद), ”उत्तरार्ध” (सव्यसाची), ”कथा” (मार्कण्डेय), ”कलम” (चंद्रबली सिंह), ” ओर” (विजेन्द्र्), ”क्यों” (मोहन श्रोत्रिय और स्वयं प्रकाश),” आरम्भ” (नरेश सक्सेना और विनोद भारद्वाज),”धरातल” (नंदकिशोर नवल), ”कथा” (मार्कण्डेय), ”समासम्भ” (भैरवप्रसाद गुप्त),”इसलिए” (राजेश जोशी) और ”कसौटी” (नंदकिशोर नवल)– जैसी श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने दौर की साहित्यिक पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुछ पुरानी और प्रतिष्ठित लघु-पत्रिकाएँ तथा कई नई पत्रिकाएँ चंद अविस्मरणीय विशेषांक प्रकाशित कर धीरे-धीरे पृष्‍ठभूमि में चली गईं।
दैनिक समाचारपत्रों में साहित्यिक पत्रकारिता
प्रायः सभी दैनिक, पाक्षिक और साप्ताहिक अखबारों में हमें छिट-पुट साहित्यिक रूझान उनके रविवारीय संसकारणों में तो दिखता है, लेकिन इस क्षेत्र में उनका कोई महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय योगदान नहीं दिखता, अपवाद स्वरूप, प्रमुख प्रगतिशील दैनिक ”जनयुग” में न केवल यह साहित्यिक-विचारधारात्मक रूझान स्पशष्‍ट नज़र आता है, बल्कि उसका रविवारीय परिशिष्‍ट मुख्यतः साहित्य को ही समर्पित होता था, कुल चार पृष्‍ठों के इस परिषिष्‍ट में एक विचारधारत्मक अग्रलेख और छोटे से बच्चों के कोने के अलावा शेष प्रायः तीन-साढ़े तीन पृष्‍ठ साहित्य को ही समर्पित होते थे।
”जनसत्ता” ने भी अपने रविवारीय परिषिश्ट में इस परंपरा का मंगलेश डबराल के संपादन में निर्वाह किया। इसीतरह जब तक राजेंद्र माथुर रहे ”नवभारत टाइम्स” ने भी कुछ स्थान साहित्यिक पत्रकारिता के लिए दिया। लेकिन कालांतर में इस श्रेष्‍ठ परंपरा का अवसान हो गाया, नब्बे के दशक के मध्य तक भूमंडलीकरण की आँधी में साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के पैर उखड़ने लगे स धीरे-धीरे आज हम एक ऐसे विचार-शून्य — या कहें प्रायोजित मीडिया के प्रायोजित विचारों में डूबते -उतराते अपढ़ समाज और सांस्कृतिक-शून्‍यता की ओर बह रहे हैं, एक ऐसा समाज जहाँ उपभोक्तावाद के दलदल की ओर ढकेलती अपसंस्कृति की गहरी ढलान है।
अंतिम उल्लेखनीय प्रयास

इस स्थिति से निकलने की कोशिश में देश भर के उत्तर भारत के हिन्दीभाषी, प्रमुख साहित्यकारों-संपादकों की 29-30 अगस्त,1992 को कलकत्ता में साहित्यिक लघु-पत्रिकाओं की पहली राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी हुई। इसी कड़ी में 14-15 मई, 1991 को जमशेदपुर में राष्‍ट्रीय समन्वय समिति गठित की गई। लेकिन साहित्यिक पत्रकारिता को पुनः उसके श्रेष्‍ठ और उच्चतर धरातलों पर प्रतिष्ठित कर पाने के सभी प्रयास आशातीत रूप में फलप्रद नहीं हो पाए।
मुख्य बात यह है कि ये सभी साहित्यिक पत्रिकाएँ अपने कलेवर, आकार और साज-सज्जा में भले ही ”लघु” पत्रिकाएँ थीं, अपने प्रभावी साहित्यिक मूल्यांकन, श्रेष्‍ठ रचनाओं के प्रकाशन और प्रतिभाशाली नए लेखकों की नई से नई पीढ़ियाँ तैयार करके उन्हें प्रशिक्षित करने की दृष्टि से बिल्कुल भी लघु या छोटी नहीं कही जा सकतीं स ये अपनी अंतर्वस्तु (कन्टेन्ट) और वैचारिक प्रतिबद्धता की दृष्टि से निस्संदेह बड़ी- बहुत बड़ी पत्रिकाएँ ही कही जाएँगी। अपने युग की प्रतिनिधि और भावी साहित्येतिहास का कच्चा माल, एक तरह से साहित्य रचना और मूल्यांकन के प्रशिक्षण के संस्थान, विश्‍वविद्यालय !!
वास्तव में, ये सभी पत्र-पत्रिकाएँ सत्ता-तंत्र और व्यवसाय-तंत्र की तथाकथित ”बड़ी” और रंगीन, सेठाश्रयी, बाजारू पत्रिकाओं से भिन्न, यथार्थ में साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं, चाहे इन्हक पत्रिकाएँ ”गैर-व्यावसायिक पत्रिकाएँ” कहा जाए या ”प्रतिष्‍ठान-विरोधी” और ”श्रमजीवा पत्रिकाएँ” कहा जाए अथवा लोक-प्रचलित ”लघु-पत्रिकाएँ” , साहित्यिक पत्रकारिता के श्रेष्‍ठ और सच्चे प्रतिमान हमें इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं में दृष्टिगोचर होते हैं।
संदर्भ:-
1) ”पत्रकारिता और संपादन कला”, (सं0 डॉ0 रामप्रकाश) में नेमिशरण का लेख, पृ0 116
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (4)
अब तक के विवेचन से यह तो स्पष्‍ट हो ही जाता है कि साहित्यिक पत्रकारिता मात्र तकनीक नहीं, बल्कि भाषिक और विचारधारात्मक चेतना भी है। भाषिक संवेदना और वैचारिक चेतना के साथ ही वह साहित्य और अन्य ललित कलाओं की तरह खुद भी एक सर्जनात्मक और कलात्मक रूप है।
कला भी और विज्ञान भी
जैसा कि ऊपर कहा गया है, साहित्यिक पत्रकारिता एक कला है— एक ऐसी कला जो अपने सर्वोच्च स्तरों पर सर्जनात्मक साहित्य से होड़ करती है। कह सकते हैं कि कला और सर्जनात्मक संगठन का समन्वित प्रयास लेखक अगर लिख कर सृजन करता है, तो एक श्रेष्‍ट साहित्यिक पत्रकार अपनी संगठनात्मक क्षमता, संपादन सामर्थ्य और वस्तुनिष्‍ट आलोचनात्मक विवेक से साहित्य को कलात्मक गतिशील रूप, नवोन्मेश की चेतना और लोकोन्मुख प्रगतिशील दिशा दे सकता है। कहना न होगा कि इन कलात्मक और संगठनात्मक साहित्यिक प्रयासों को भी व्यापक अर्थ में सर्जनात्मक ही कहा जाएगा।
इस दृष्टि से देखें तो भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, रामविलास शर्मा, यशपाल, हरिशंकर पएासाई और नामवर सिंह की साहित्यिक पत्रकारिता किस लेखक के सर्जनात्मक और कलात्मक प्रयासों से कम है, इसीलिए, और ठीक इन्हीं अर्थों में, श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रकारिता एक विज्ञान भी है। कहना न होगा कि अपने खास अर्थों में आज के संचार क्रांति के उत्तर-औद्योगिक परिदृश्‍य में साहित्यिक पत्रकारिता भी— सामाजिक चेतना को एक सुनिश्चित रूप एवं दिशा देने में तथा साथ ही लोकमत की सूक्ष्म प्रक्रिया को प्रभावित करने में अपना विशेष योगदान देती है। सामान्य पत्रकारिता की तुलना में साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता की यह भूमिका, प्रक्रिया के स्तर पर, अधिक जटिल एवं सूक्ष्म तथा प्रभाव की दृष्टि से अधिक स्थायी किन्तु लगभग अदृश्‍य होती है। साहित्यिक पत्रकारिता लोकमत-निर्माण और लोक-शिक्षण का कार्य भी परोक्ष ढंग से करती है। इस प्रकार वह समाज की विचार-चेतना के विकास में और व्यापक सांस्कृतिक एवं सामाजिक जनरुचि के परिश्कार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है स वह भी संचार-क्रांति की कार्य प्रणाली और नियमों – अवधारणाओं का कमोबेश अनुसरण करती है।
एक सामान्य पत्रकार और संपादक की तरह साहित्यिक पत्रकार और संपादक को भी आज की अधुनातन प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी, कलात्मक रूप-सज्जा और मूल्यांकन में वैज्ञानिक वस्तुपरकता का अभ्यस्ज्ञान की जात तथा विज्ञान की जानकारी से लैस होना चाहिए। एक कुशल साहित्य संपादक और साहित्यिक पत्रकार के पास वैज्ञानिक की वस्तुनिष्‍ठता और सर्जक कलाकार की अंतष्चेतना, दोनों का होना लगभग अनिवार्य है।
साहित्यिक पत्रकारिता के विविध रूप और भेद

साहित्यिक पत्रकारिता के इस स्वरूप-विस्लेशण और चरित्र-निरुपण के बाद, उसके उन प्रमुख भेदों पर भी विचार करना प्रासंगिक होगा जिनके आधार पर हम उसकी विभिन्न शाखाओं अथवा अलग- अलग क्षेत्रों के आधार पर उसका विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है —-
1) प्रस्तुतिकरण के आधार पर ;(2) अवधिपरक विभाजन ; (3) विधापरक विभाजन ; (4) भाषिक आधार पर ; (5) प्रकाशकीय आधार पर ; तथा (6) विचारधारापरक विभाजन
1)प्रस्तुतिकरण के आधार पर विभाजन
यह सुज्ञात है कि आज समूची पत्रकारिता का विभाजन प्रस्तुति के आधार पर, दो अलग- अलग सर्वथा स्वतंत्र क्षेत्रों में हो चुका है: (क) प्रिंट मीडिया ; और (ख) इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। इसी तरह, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी, इसी आधार पर तीन भिन्न क्षेत्रों में सक्रिय है: (क) रेडियो (ख) टेलीविज़न और वेब-मीडिया (न्यू-मीडिया)। समग्र जनसंचार और पत्रकारिता का ही एक अभिन्न अंग होने के कारण साहित्यिक पत्रकारिता का भी प्रस्तुतिकरण के आधार पर इन स्वतंत्र क्षेत्रों में विभाजन किया जा सकता है। इन क्षेत्रों में प्रस्तुत की जाने वाली श्रव्य ( ऑडियो) और दृश्‍य-श्रव्य (ऑडियो- विज़ुअल) साहित्यिक सामग्री साहित्यिक पत्रकारिता है।
इनके अंतर्गत विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। पहले यह सामग्री पत्र-पत्रिकाओं में छपती थी ; अब रचना पाठ और पुस्तक समीक्षा से लेकर साहित्यिक सभा-सम्मेलनों की रपटें, साहित्यकारों के बीच वाद-विवाद या संवाद और बहस या विमर्ष तहा प्रतिष्ठित बड़े लेखकों से साक्षात्कार, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर कार्यक्रम आदि रेडियो, टेलीविज़न और इंटरनेट पर प्रसारित होते हैं। यू-ट्यूब आदि पर स्थायी रूप से भी उपलब्ध रहते हैं।
2) अवधिपरक विभाजन:
इसी तरह साहित्यिक पत्रकारिता का अवधिपरक विभाजन भी किया जा सकता है। दैनिक और साप्ताहिक समाचारपत्रों के विपरीत साहित्यिक पत्रिकाएँ प्रायः मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक और कभी छमाही या सालाना संकलनों के रूप में ही होती हैं। साप्ताहिक ”मतवाला”- जैसे कुछ अपवाद भी होते हैं, जैसे कि पहले दैनिक ”जनयुग” और अब ”जनसत्ता” के साप्ताहिक साहित्यिक परिशिष्‍टों के रूप में दैनिक अखबारों में भी हमें अपवाद-स्वरूप गंभीर साहित्यिक पत्रकारिता के दर्शन होते हैं। अवधि के आधार पर साहित्यिक पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रकारिता का विभाजन मुख्यतः तीन तरह से किया जा सकता है: मासिक, द्विमासिक और त्रैमासिक।
लेकिन यह विभाजन केवल नियमित रूप से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं पर ही लागू हो सकता है। लघु-पत्रिका आंदोलन के दौरान जो हज़ारों नहीं भी , तो सैंकड़ों साहित्यिक पत्रिकाएँ निकलीं, वे प्रायः ”अनियतकालीन” ही निकलीं स जो निश्चित अवधि वाली नहीं थीं, वे भी आगे चलकर अनियतकालीन बन गईं और अंततः बंद भी हो गईं स जो निश्चित अवधि में अब भी नियमित रूप से निकल रही हैं, उनमें मासिक ”हंस” (हाल ही में मृत्यु से पूर्व तक सं0 राजेन्द्र यादव) तथा ”पखी” (सं0 प्रेम भारद्वाज) तथा द्विमासिक ”पुस्तकवार्ता” (सं0 भारत भारद्वाज) और त्रैमासिक ” आलोचना”(प्र0सं0 नामवर सिंह)–जैसी प्रतिनिधि पत्रिकाओं का उल्लेख किया जा सकता है। उसी तरह अनियतकालीन पत्रिकाओं के प्रतिनिधित्व में ”पहल” (सं0 ज्ञानरंजन) और ”दस्तावेज़” (सं0 विस्वनाथ प्रसाद तिवारी) का ज़िक्र अकिया जा सकता है। इनमें से ”पहल” का हाल ही में 98 वाँ अंक आया है और ”दस्तावेज़” का 145 वाँ।
3) विधापरक विभाजन:

विापरक विभाजन के अंतर्गत साहित्यिक का विभाजन मुख्यतः चार तरह से किया जा सकता है: (अ) कहानी पत्रिका, (ब) कविता संबंधी पत्रिका, (स) आलोचना और पुस्तक समीक्षा संबंधी पत्रिका तथा (द) सर्वविशय- संग्रह परक पत्रिका। आजकल साहितय की सभी विधाओं को कम या ज़्यादा स्थान देने वाली पत्रिकाएँ ही अधिक हैं। फिर भी, किसी एक मुख्य विधा को प्रमुखता देने के साथ थोड़ी बहुत अन्य सामग्री या कसी दूसरी विधा की चंद रचनाओं को भी शामिल करने वाली साहित्यिक पत्रिकाएँ भी खासी बड़ी संख्या में हैं। लेकिन पुस्तक समीक्षाएँ तो प्रायः प्रत्येक पत्रिका का अनिवार्य अंग हैं।
किसी एक ही विधा दृढ़ता से केंद्रित पत्रिकाएँ अपवादस्वरूप ही कही जा सकती हैं ; जेसे कि पुस्तक समीक्षाओं की पत्रिकाएँ, ”समीक्षा” (सं0 गोपाल राय) और ”पुस्तकवार्ता” तथा कहानी की पत्रिकाएँ ”कहनी” और ”नई कहानियाँ”। कमलेश्‍वर के संपादन में निकलने वाली ”सारिका” भी कहानी-केंद्रित पत्रिका ही थी, जो बंद हो चुकी है। इसी तरह कविता-केंद्रित पत्रिका ”कविता” (सं0 जुगमिंदर तायल और भगीरथ), नेमिचंद्र जैन की ”नटरंग” नाटक” केंद्रीय पत्रिका में थी। आलोचना” है तो मुख्यतः समालोचनाओं और पुस्तक समीक्षाओं की पत्रिका, लेकिन उसमें प्रायः साहित्य, संस्कृति और राजनीति से संबंधित देशी-विदेशी विद्वानों के लेख ( अनुवाद भी) तथा कभी-कभार कोई साक्षात्कार या चंद मौलिक अथवा अनूदित कविताएँ भी स्थान पा जाती हैं।

4) भाषिक आधार पर विभाजन:

कुछ साहित्यिक पत्रिकाएँ हिन्दी के साथ हिन्दी के साथ ही उसकी जनपदीय बोलियों, यथा बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बघेली, भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, नेमाड़ी, पहाड़ी, हरियाणवी, मारवाड़ी और राजस्थानी आदि की रचनाएँ भी छपती हैं। कुछ पत्रिकाएँ इन जनपदीय उपभाषाओं-बोलियों में निकलती हैं, जिन्हें हम विशाल हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता की व्यापक परिधि में गिन सकते हैं। कुछ पत्रिकाएँ हिन्दी के साथ ही उर्दू और अंग्रेज़ी के भी हिस्सों के साथ द्विभाषी निकलती हैं। पहली मिसाल ”शेष” (सं0 और दूसरी महात्मा गाँधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिन्दी विश्‍वविद्यालय की पत्रिका ”हिन्दी: ”भ्प्छक्प्” (सं0 ममता कालिया) कही जा सकती हैं।

5) प्रकाशकीय आधार पर विभाजन:

प्रकाशकीय आधार पर भी साहित्यिक पत्रिकाओं का विभाजन इस तरह किया जा सकता है:
अ) दृढ़्तापूर्वक पूर्णतः साहित्य को समर्पित पत्रिकाएँ, जो मुख्यतः प्रायः ”लघु पत्रिकाओं” की श्रेणी में
आती हैं और इन पर विस्तार से चर्चा की भी जा चुकी है।
ब) प्रकाशकों, विश्‍वविद्यालयों, साहित्यिक संस्थाओं या ऐसे ही प्रतिष्‍ठानों से निकलने वाली साहित्यिक
पत्रिकाएँ। मिसाल के लिए ”आलोचना” (राजकमल प्रकाशन), ”पुस्तक वार्ता” और ”बहुवचन” (म0गाँ0
अं0 वि0वि0वर्धा), ”माध्यम” (हिन्दी साहित्य सम्मेलन) तथा ”नटरंग (नटरंग मटरंग प्रतिश्ठान)- जैसी
पत्रिकाएँ,।
स) उद्योग के स्तर पर व्यावसायिक इज़ारेदार घरानों की मिल्कियत ( ओनरशिप) में निकलने वाली
पत्रिकाएँ, मिसाल सपम ”ज्ञानोदय” ( अब ”नया ज्ञानोदय” नाम से सारिका और ”धर्मयुग” (साहू
जैन का ”टाइम्स गु्रप”), ”साप्ताहिक हिन्दुस्तान” (बिड़ला गु्रप) तथा
द) सरकारी पत्रिकाएँ, लेकिन इस श्रेणी में प्रायः निकृष्‍ट किस्म की पत्रिकाएँ होती है। फिर भी जब कोई अच्छा साहित्यकार उनका संपादक बन जाता है तो कुछ अंक अच्छे निकल जाते हैं। मिसाल के लिए ”पूर्वग्रह” (सं0 अषोक वाजपेयी), ”साक्षात्कार” (सं0 सोमदत्त) और ”आजकल” (सं0 पंकज बिष्‍ट) का नाम उल्लेख किया जा सकता है। साहित्य अकादमी की ”समकालीन भारतीय साहित्य” भी
6) विचारधारापरक विभाजन:

विचारधारा के आधार पर भी साहित्यिक पत्रिकाओं का विभाजन दो तरह का विभाजन है —-
1) राजनीतिक तौर पर ; जैसे कि भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखकों की ”पहल”, ”वसुधा”, ”क्यों”, ” ओर”, आदि पत्रिकाएँ माकपा से जुड़ी ”उत्तरार्ध”, ”कलम” और ”नया पथ” बहुत पहले भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (अविभाजित) ने हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में ”नया साहित्य”, ”नया अदब” और ”इंडियन लिटरेचर” नाम से अत्यंत श्रेष्‍ठ साहित्यिक पत्रिकाएँ प्रकाशित की थीं। लेकिन ये सभी अल्पायु ही साबित हुईं।
दूसरी तरफ, (ख) साहित्यिक आंदोलनों के आधार पर भी विभाजन किया जा सकता है। जैसे कि प्रगतिवादियों का ”हंस” ( अमृत राय), ”विप्लव” (यशपाल), ”वसुधा” (हरिशंकर परसाई) और समालोचक (रामविलास शर्मा)–जैसी साहित्यिक पत्रिकाएँ तो थीं, तो प्रगति-विरोधिायों की ”प्रतीक” (अज्ञेय्), ”निकश” (धर्मवीर भारती) और अन्य परिमलीय, ”नयी कविता” (जगदीश गुप्त एवं अन्य परिमलीय गुट) आजकल विचारधारात्मक आधार पर साहित्यिक पत्रिकाओं का विभाजन पाश्‍चात्‍य अस्तित्ववादी, विखंडनवादी, रूपवादी–जैसी तमाम विचारधाराओं और आंदोलनों से प्रभावित और उनकी प्रचारक पत्रिकाओं तथा प्रगतिशील वामपंथी और भूमंडलीकरण की विरोधी तथा प्रतिबद्ध और प्रतिरोध की संघर्षधर्मी साहित्यिक पत्रिकाओं के बीच किया जा सकता है।
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हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता (5)

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता की शुरुआत, जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है, भारतेन्दु हरिश्‍चंद्र की पत्रिका ”कविवचनसुधा” के 15 अगस्त, 1861 ई0 से, बनारस से प्रकाशन के साथ होती है। भारतेन्दु न केवल आरंभकर्ता थे, बल्कि उन्होंने अपनी नेतृत्वकारी प्रतिभा से साहित्य और पत्रकारिता के बिखरे हुए सारे सूत्रों को समेट कर एक नए युग का सूत्रपात किया। भारतेन्दु की साहित्यिक पत्रकारिता से ही हिन्दी साहित्य की नई-से-नई गद्य-विधाओं की शुरुआत हुई। ”भारतेन्दु-समग्र” के संपादक हेमंत शर्मा ने यह ठीक लिखा है कि, “आज की पत्रकारिता का ऐसा कोई रूप नहीं जिसका बीज भारतेन्दु में न हो’’। उन्होंने साहित्य को देशहित से जोड़कर, अपनी पत्रकारिता के माध्यम से, भाषा-शैली और लोकप्रियता के ऊँचे तथा कलात्मक मानदंड स्थापित किए।
साहित्यिक पत्रकारिता के हमारे अब तक के विवेचन से, सबसे महत्वपूर्ण बात यह उभरकर सामने आती है कि वह प्राचीनकाल के यूनानियों की उस दोधारी कटार की तरह पैदा हुई थी जिसे ग्रीक भाषा में ”स्तिलुस” (STILUS) कहा जाता था। यह लिखने और घोंपने, दोनों कामों में प्रयुक्त होती थी। हमारे 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी चेतना के साथ विकसित इस साहित्यिक पत्रकारिता की एक धार यदि देश को गुलाम बनाने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ओर तनी थी, तो दूसरी धार उनके पिट्ठुओं, देषी रजवाड़ों, ज़मींदारों, महाजनों और धर्म के ठेकेदार पाखंडियों, रूढ़ियों तथा सामाजिक कुरीतियों की ओर तनी थी। हमारे अब तक के वर्णन, विश्‍लेषण और विवेचना से साहित्यिक पत्रकारिता का स्वरूप, उसके क्षेत्र और वर्गीकरण के साथ ही, उसके इतिहास की भी एक हल्की सी रूपरेखा उभरती हुई दृष्टिगोचर हुई होगी। वस्तुतः हमारे इस प्रबंध के प्रस्तुत पाँचवें और अंतिम खंड की विषय-वस्तु भी यही है।

साहित्यिक पत्रकारिता का इतिहास

साहित्यिक पत्रकारिता का इतिहास हमरे साहित्य के इतिहास का अभि का अभिन्न अंग है ; और साहित्य का इतिहास हमारे समग्र साँस्कृतिक और सामाजिक इतिहास का अंग है। इनमें उठने वाली परिवर्तनों की लहरें एक-दूसरे से प्रभावित होती हैं और परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। लेकिन साहित्य के इतिहास की कुछ धीमी गति की तुलना में साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास की गति कुछ तीव्रतर होती है। इसीतरह सा से उस पर तामान्य पत्रकारिता के इतिहास का एक हिस्सा होने की वजह से उस पर तात्कालिकता और एक हद तक समसामयिक दवाबों का भी तुलनात्मक रूप से अधिक असर दिखता है, फिर भी अपने खास चरित्र के कारण साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास, उसके काल-विभाजन, भाषा-शैलीगत विविध परिवर्तनों और प्रवृत्तियों के टकराव या सामंजस्य आदि का अपना वैशिष्‍टय तो होता ही है, मोटे तौर पर हम हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास को मुख्यतः दो बड़े कालखंडों में विभाजित कर सकते हैं: (क) आज़ादी से पहले की साहित्यिक पत्रकारिता ; और (ख) आज़ादी के बाद की साहित्यिक पत्रकारिता, भारत्येन्दु युग से आरंभ करते हुए, हम भारतेन्दु-युग से पहले के कालखंड को इस इतिहास की पृश्ठभूमि भी मान सकते हैं अर्थात ”उदंतमार्त्तांड” के प्रकाशन (30 मई, 1826) से लेकर ”कविवचनसुधा” के प्रकाशन (15 अगस्त, 1867) तक ”भारतेन्दु-पूर्व युग या हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की ”पृष्‍ठभूमि” से आगे के दोनों प्रमुख युगों के भीतर भी हम इस प्रकार कालविभाजन कर सकते हैं —-
क) स्वतंत्रता पूर्व की साहित्यिक पत्रकारिता (1867-1947 ई0)
1) भारतेन्दु-बालमुकुन्द गुप्त युग ; (1867-1902)
2) द्विवेदी-प्रेमचंद युद ; (1900-1935)
3) प्रगतिवादी युग ; तथा (1936-1950-53)
ख) स्वातंत्र्योत्तर साहित्यिक पत्रकारिता (1947 से लेकर आज तक)
1) प्रगति-प्रयोग का द्वंद्व तथा प्रगति-विरोधी विचारधराओं का दौर (1947-1964)
2) लघु पत्रिका आंदोलन का दौर ; (1964- 1974)
3) आपात्काल और उसके बाद का दोर ; तथा (1975-1995)
4) भूमंडलीकरण और उसके प्रतिरोध अन औरका समकालीन दौर (1995 …….)
कालविभाजन का वैज्ञानिक आधार
हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के संदर्भ में छिट-पुट काम तो हुए हैं, लेकिन उसके समग्र विवेचन, वैज्ञानिक काल विभाजन और प्रामाणिक दस्तावेज़ीकरण के आधार पर कोई बड़ा काम अभी तक नहीं हुआ है। कहना न होगा कि इस लिहाज़ से हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता का अभी तक कोई इतिहास है ही नहीं ! लेकिन ”इतिहास” न होने पर भी साहित्यिक पत्रकारिता तो रही है और अब भी अस्तित्व में है ; सक्रिय है, गतिशील है। दरअसल, इसे वस्तुनिष्‍ठ ढंग से और प्रामाणिक तथ्यों एवं कालविभाजन की वैज्ञानिक पद्धति से कालक्रमानुसार (क्रॉनोलौजिकली) लिपि-बद्ध करने की ज़रुरत है। मौजूदा पतनशील दौर में तो और भी ज़रूरत है ; ताकि इस ”इतिहास” की क्रांतिधर्मी चेतना से प्रेरणा लेकर एक नए वनजागरण की मशाल जलाई जा सके।
इतिहास में हम एक नए युग की समाप्ति और नए युग के आरंभ की कोई तिथि निर्धारित करते हैं तो उसका अर्थ यह नहीं कि ठीक उसी दिन से युग बदल गया और तदनुरूप उसकी प्रवृत्तियाँ भी एक से दूसरे युग के दरम्यान एक संक्रमणकाल (ट्राँज़ीशनल पीरियड) होता है ; और कभी-कभी तो यह दौर खासा लंबा खिंच जाता है। दूसरे, एक युग के दौरान ही आगे आने वाले युग की कतिपय प्रवृत्तियाँ, कुछ लक्षण उभरने लगते हैं। इसी तरह युग परिवर्तन हो जाने पर भी पिछले युग या युगों की कुछ-न-कुछ प्रवृत्तियाँ जारी रहती हैं ; धीरे-धीरे तिरोहित होती हैं फिर भी, हम किसी ऐतिहासिक घटना, किसी खास आंदोलन, साहित्यिक पत्रिका या युगांतरकारी व्यक्ति-विशेष और उनकी किन्हीं निश्चित तिथियों को आधार बनाकर कालविभाजन करते हैं ; यथा, स्वाधीनता-पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर से इसी तरह ”कविवचनसुधा” की प्रकाशन-तिथि या ”सरस्वती” का वह अंक जिससे पं0 महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संपादन संभाला अथवा आपात्काल और उसमें सेंसरशिप लागू होने का वर्श या देश में तथाकथित ”नयी आर्थिक नीति” लागू होने से बदली हुई परिस्थितियाँ आदि से इन सबका आधार सामाजिक- आर्थिक परिवर्तन और उनसे प्रभावित राजनीतिक, साँस्क्रतिक और साहित्यिक परिवर्तन आदि होते हैं।
अब हम ”हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास” की अत्यंत संक्षिप्त रूपरेखा, उपर्युक्त सात शीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत करते हुए, युगानुरूप प्रवृत्तियों, आंदोलनों, प्रतिनिधि पत्रिकाओं और इन परिवर्तनों के प्रेरक या वाहक युगांतरकारी व्यक्तियों की भूमिका रेखांकित करने का प्रयास करेंगे। स्मरणीय है कि कोई भी ”इतिहास” पत्र-पत्रिकाओं और व्यक्तियों की नामावली की लंबी-चौड़ी ”सूचि” नहीं होती, ऐसा होने पर वह ”इतिहास” नहीं, रेलवे टाइमटेबल या टेलीफोन डायरेक्टरी बन कर रह जाएगा।
1) भारतेन्दु-बालमुकुन्द गुप्त युग (1867-1902)
”कविवचनसुधा” से हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का सूत्रपात करते हुए, भारतेन्दु ने 15 अक्टूबर, 1873 से पाक्षिक ”हरिश्‍चंद्र मैगज़ीन” का प्रकाशन शुरु किया। ”सुधा” 15 अगस्त, 1867 में मासिक निकली थी। प्रकाशन के दूसरे वर्ष से वह पाक्षिक, फिर 5 सितंबर, 1873 से साप्ताहिक रूप में निकलने लगी थी। ”मैगज़ीन” भी पाक्षिक थी तथा 8 अंकों के बाद जनवरी, 1874 से उसका नाम ”हरिश्‍चंद्र चंद्रिका” हो गया। भारतेन्दु ने स्त्रियों के लिए भी एक पत्रिका ”बाला-बोधिनी” निकाली थी। डॉ0 रामविलास शर्मा ने ”सुधा” को ”एक युग का सजीव इतिहास” और “भारतेन्दु युग का दर्पण” निरूपित करते हुए लिखा है कि वह सच्चे अर्थों में “जनता के हितों के लिए लड़ने वाले निर्मम सैनिक की तरह थी। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि ”सुधा” के बाद यही काम ”मैगज़ीन” और ”चन्द्रिका” ने किया। हिन्दी साहित्य की सभी गद्य-विधाएँ इसी युग में प्रस्फुटित हुईं।
डॉ0 शर्मा ने लिखा है कि भारतेन्दु की पत्रिकाओं का “मूल स्वर देशोन्नति और अंग्रज़ी शासन की नुक्ताचीनी का था और उन्होंने “विभिन्न साँस्कृतिक विषयों को एक ही जगह समेटकर पत्रिका की ऐसी पद्धति चलाई जिसका अनुसरण आगे चलकर हिन्दी की अधिकांश पत्रिकाएँ करती रहीं। भारतेन्दु की पत्रिकाओं के अलावा ”आनंदकादंबिनी” (प्रेमघन), ”भारतेन्दु” (राधाचरण गोस्वामी), ”ब्राह्मण” (प्रतापनारायण मिश्र), ”हिंदी प्रदीप” (बालकृष्‍ण भट्ट), ”सारसुधानिधि” (दुर्गाप्रसाद मिश्र और सदानंद मिश्र) तथा ”भारतमित्र” (बालमुकुन्द गुप्त) इस युग के प्रतिनिधि पत्र-पत्रिकाएँ और उनके यशस्वी संचालक और संपादक हैं, जो भारतेन्दु की इस राह पर दृढ़तापूर्वक जीवनपर्यन्त चले परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत रखो। अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।
बाबू बालमुकुंद गुप्त, पं0 महावीर प्रसाद द्विवेदी के समकालीन थे। डॉ0 शर्मा के अनुसार वे भारतेन्दु युग के ऐसे सिपाही थे जिन्होंने हरिश्‍चंद्र की मृत्यु के बाद सेनापति की कमान संभाली। वे बताते हैं कि ”भारतमित्र” के साथ गुप्त जी का नाम वैसे ही जुड़ा है जेसे ”सरस्वती” के साथ द्विवेदी जी का। डॉ0 शर्मा लिखते हैं कि गुप्तजी “हिन्दी-उर्दू की बुनियादी एकता के प्रबल समर्थक थे। अपनी उग्र राजनीतिक चेतना के कारण वे भारतेन्दु से अधिक बालकृष्‍ण भट्ट के निकट हैं। उनका गद्य ललित और सरस है, इस दृष्टि से वे भारतेन्दु हरिश्‍चंद्र और प्रतापनारायण मिश्र की शैली के अनुवर्ती हैं। किन्तु उनका-सा व्यंग्य उस युग के किसी अन्य लेखक में नहीं है। वाद-विवाद को कलात्मक बना देने में वे अनुपम थे। गुप्त जी इस क्षेत्र में आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में हास्य-व्यंग्य के सिरमौर हरिशंकर परसाई के पूर्वज कहे जा सकते हैं।

2) द्विवेदी-प्रेमचंद युग (1900-1935)

द्विवेदी जी के संपादन काल की ”सरस्वती” को “आधुनिक हिन्दी साहित्य का ज्ञान-कांड“ बताते हुए डॉ0 शर्मा ने इस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का उच्च मूल्यांकन किया है। वे लिखते हैं कि ”सरस्वती मर्यादा तथा हिन्दी की अन्य पत्र-पत्रिकाओं में इस समय जो सामग्री निकली, उससे यदि सुधा और हंस में निराला और प्रेमचंद के लेखों की तुलना करें तो यह तथ्य स्पष्‍ट हो जाएगा कि प्रेमचंद की यथार्थवादी धारा और निराला की छायावादी धारा, दोनों द्विवेदी युग से जुड़ी हुई हैं। इसी तरह भाई के भारतेन्दुकालीन लेखकों के भावबोध से द्विवेदी जी के भाव-बोध का अंतर दिखाई देता है। अंतर विचारधारा में नहीं है, अंतर है भाषा और साहित्य की परख में महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनकी ”सरस्वती” का मह्त्व यह है कि उन्होंने हिन्दी नवजागरण की बिखरी हुई असंगठित शक्ति को एक जगह एकताबद्ध और संगठित किया।
स्मरणीय है कि ”सरस्वती” द्वारा द्वेवेदी जी के संपादन में 1903 ई0 से यह ऐतिहासिक युगांतर शुरु करने से पहले यह भूमिका माधवराव सप्रे के संपादन में ”छत्तीसगढ़ मित्र” (सन 1900से) आरंभ कर चुका था। डॉ0 नारद के शब्दों में, “माधवदास सप्रे का कृतित्व हिन्दी लेखकों की एक पूरी पीढ़ी तैयार कर देने के लिए भी दृष्‍टव्‍य रहेगा। पं0 महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं0 श्रीधर पाठक, पं0 कामताप्रसाद गुरु, पं0 गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, पं0 जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, पं0 रामदास गौड़ तथा पं0 नागीश्‍वर मिश्र प्रभुति अन्य अनेक लेखक ऐसे थे जिनकी प्रारंभिक रचनाओं को ”छत्तीसगढ़ मित्र” ने बड़े ही उत्साह से प्रकाशित किया। कहना न होगा कि सप्रे जी बाद में भी ”सरस्वती” में द्विवेदी जी के एक नियमित सहयोगी लेखक के रूप में हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता और हिन्दी नवजागरण में अपना बहुमूल्य योगदान देते रहे। आलोचक रामचन्द्र शुक्ल का ”इतिहास” और उपन्यासकार और पत्रकार प्रेमचंद तथा हिन्दी कविता में छायावाद, नए यथार्थवाद और छन्द-मुक्त प्रगतिवादी नयी कविता का सूत्रपात करने वाले, साथ ही एक प्रखर पत्रकार सूर्यकान्त त्रिपाठी ”निराला” इसी युग की देन हैं। प्रेमचंद के संपादन काल की ”माधुरी” भी (जिसके संपादक मंडल में प्रेमचंद थे) इस हिन्दी नवजागरण के ”ज्ञान कांड” में ”सरस्वती” और ”छत्तीसगढ़ मित्र” की सहोदर पत्र-पत्रिकाएँ थीं।
इनके अलावा, इस युग की अन्य महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में पं0 चंद्रधर शर्मा गुलेरी का अल्पायु ”समालोचक” (1901-02) जयशंकर प्रसाद की ”इंदु” पहले माखनलाल चतुर्वेदी, फिर गणेश शंकर विद्यार्थी, बालकृष्‍ण शर्मा ”नवीन” के संपादन में ”प्रभा”, ”रामरख सहगल की क्रांतिकारी पत्रिका ”चाँद ” (जिसमें छ: नामों, यथा बलवंत सिंह, से भगतसिंह लिखते थे और जिसके जब्तषुदा ”फाँसी” अंक को उन्होंने ही तैयार किया था), अल्पायु ”साहित्य”, ”साहित्य समालोचक”, ”श्री शारदा” और वीणा के नाम उल्लेखनीय हैं। इन साहित्यिक पत्रिकाओं और साहित्यिक पत्रकारों-लेखकों के अलावा दैनिक ”वर्तमान” के संपादक रमाशंकर अवस्थी, शिवपूजन सहाय, राधामोहनद गोकुल जी, सत्यभक्त, इतिहासज्ञ काशीप्रसाद जायसवाल, श्‍यामाचरण राय, जनार्दन भट्ट, डॉ0 बेनीप्रसाद, बैरिस्टर मन्निलाल, रामनारायण शर्मा, नाथूराम प्रेमी, कृष्‍णानंद जोशी, गंगाधर पंत, ईश्‍वरदास मारवाड़ी, नवजादिकलाल श्रीवास्तव, शिवप्रसाद गुप्त, त्रिमूर्ति शर्मा, गिरिजा प्रसाद द्विवेदी, देवीप्रसाद गुप्त, सुंदरराज, सत्यदेव, जगन्नाथ खन्ना, गिरीन्द्रमोहन मिश्र, मधुसूदन शर्मा, वीरसेन सिंह, बदरीदत्त पांडे, संतराम, सीताराम सिंह, शिवप्रसाद शर्मा, धनीराम बख्‍शी, द्वारिकानाथ मैत्र, सिद्धेश्‍वर शर्मा, पृथ्वीपाल सिंह, गुलजारीलाल चतुर्वेदी, श्‍यामसुंदर वर्मा, प्रेम वल्लभ जोशी, रामनारायण मिश्र, कामताप्रसाद गुरु और मिश्र बंधु के नाम उल्लेखनीय हैं। डॉ0 बेनीप्रसाद और राधामोहन गोकुल जी अपने नामों के अलावा ”सत्यशोधक” और ”प्रत्यक्षदर्शी” के नामों से भी लिखते थे।
अंत में, जैसे हम भारतेन्दु-युग के बारे में डॉ0 रामविलास शर्मा की पुस्तकों ”भारतेन्दु हरिश्‍चंद्र और हिन्दी नवजागरण” तथा ”भारतेन्दु-युग और हिन्दी भाषा की विकास परंपरा” से जान सकते हैं, ठीक उसी प्रकार, द्विवेदी-प्रेमचंद युग का भरा-पूरा जीवंत चित्र हमें डॉ0 शर्मा की ”महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण” तथा ”प्रेमचंद और उनका युग” पुस्तकों में मिलेगा। ये चारों कालजयी कृतियाँ हिन्दी साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास की अमूल्य धरोहर तथा अनिवार्यतः पठनीय हैं।
3) प्रगतिवादी युग (1936-1950-53)
साहित्य के इतिहासकार प्रगतिवादी के युग को अप्रैल, 1936 से 1953 तक मानते हैं। इसका आधार प्रेमचंद की अध्यक्षता में 9-10 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में सम्पन्न प्रगतिशील लेखक संघ (PWA) का स्थापना सम्मेलन है। कुछ लोग 1949-50 तक तो कुछ 1953 तक इसकी कालावधि मानने के पीछे यह तर्क देते हैं कि आज़ादी के बाद कम्युनिस्टों और प्रगतिशील लेखकों के सरकारी दमन और पार्टी की रणदिवे लाइन के संकीर्णवादी दौर में आंतरिक कलह तथा गुटबाजी की वजह से प्रलेसं0 का निष्क्रिय हो जाना स दूसरे लोग, इसके विपरीत मार्च,1953 में दिल्ली सम्मेलन में रामविलास शमजार्ने के नेतृत्व और महासचिव पद से हट जाने के बाद संगठन वास्तव में समाप्त हो गया था और सभी प्रगतिशील पत्र-पत्रिकाएँ भी एक-एक करके बंद हो गईं थीं। अपवाद स्वरूप, सिर्फ हरिशंकर परसाई की ”वसुधा” अवश्‍य 1958 तक निकलती रही।
इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्यिक पत्रकारिता का सबसे क्रांतिकारी, तेजस्वी और साथ ही कलत्मक रूप हमें प्रगतिशील दृष्टिकोण वाली पत्र-पत्रिकाओं और उनके लेखकों-संपादकों के कृतित्व में ही नज़र आता है। ऐसी पत्र-पत्रिकाएँ भारतेन्दु की पत्रिकाओं से लगातार प्रलेसं0 की स्थापना (1936) तक बराबर निकलती रही हैं। इनकी मुख्य विषयवस्तु ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की गुलामी से देश की आज़ादी और स्वतंत्र भारत को एक जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणतंत्र बनाने के उद्देश्‍य से मज़दूरों, किसानों और तमाम मेहनतकशों से प्रतिबद्धता तथा उनकी समस्याओं को उठाना रही। शोषण-विहीन समाज के स्वप्न और हर तरह के शोषण और दमन का यथार्थ चित्रण करते हुए उसका प्रतिरोध तथा फासीवाद एवं युद्ध के विरोध में शांति और सोवियत संघ का समर्थन ”प्रगतिवादी” साहित्य तथा पत्रकारिता का उद्देश्‍य रहा है। इस दृष्टि से जिन महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं का नामोल्लेख किया जा सकता है, उनमें ”हंस” (प्रेमचंद, उनकी मृत्यु के बाद अमृतराय), ”विप्लव” (यशपाल), ”रूपाम” (पंत), ”नया साहित्य” ,”लोकयुद्ध”, ”जनयुग”, (तीनों कम्युनिस्ट पार्टी), ”चकल्लस”, ”उच्छृंखल” (दोनों अमृतलाल नागर), ”जनता”, ”संघर्ष”, ”नया सवेरा” ,”उदयन” ”वसुधा” (परसाई), ”समालोचक” (राम विलास शर्मा), ”नया पथ” (यशपाल एवं अन्य) और मुक्तिबोध के संपादन में सोख्ताजी का साप्ताहिक ”नया खून” आदि प्रमुख हैं। सभी पत्र-पत्रिकाएँ ठेठ प्रगतिवादी थीं।
4) प्रगति का द्वंद्व तथा प्रगति-विरोधी विचारधाराओं का दौर (1947-1964)
दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद यूरोप और अमेरिका में अंध-कम्युनिस्ट विरोध के साथ ही अस्तित्ववाद, रूपवाद, नयी समीक्षा, संरचनावाद और ऐसी ही तरह-तरह की दार्शनिक, साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आज़ादी के बाद इन आंदोलनों और विचारधाराओं का खासा असर दिखाई देने लगा था। साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में ”प्रगति” और ”प्रयोग” का द्वंद्व तो 1943 में अज्ञेय के संपादन में ”तारसप्तक” के प्रकाशन से ही परिलक्षित होने लगा था ; लेकिन 1947 से अज्ञेय के ”प्रतीक” के प्रकाशन के साथ ही इस संघर्श का स्वरूप भी बदलने लगा था।
पहले जहाँ (”तारसप्तक” और कुछ बाद तक) एक ही प्रगतिवादी परिधि में दो विरोधी दृष्टिकोणों में टकराव था ; जिसे ”प्रगति” बनाम ”प्रयोग” के द्वंद्व का नाम दिया जाता है। इस टकराव का केंद्र आलोचना और कविता के क्षेत्र बने स बाद में नयी कहानी भी षामिल हो गई स एक ही प्रगतिशील धारा के अंतर्गत एक ओर जहाँ रामविलास शर्मा, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि थे ; तो दूसरी ओर ”प्रगतिवाद” की रूढ़ समझ के विरोध में मुक्तिबोध, शमषेर बहादुर सिंह, हरिषंकर परसाई और नामवर सिंह थे, जो नए-नए प्रयोगों को ज़ोरदार वकालत करते थे ।
आज़ादी के बाद अज्ञेय ने ”दूसरा सप्तक” और ”तीसरा सप्तक” के माध्यम से नए ”प्रयोगों” की वकालत को खींचकर ”प्रयोगवाद” के सिद्धांतों और आंदोलन में बदल दिया। दुनिया भर में जिस शीत युद्ध की अंध-कम्युनिस्ट-विरोधी लहर का प्रभाव छाने लगा था, हिन्दी में भी कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम” के प्रवक्ता के तौर पर ”प्रतीक” और ” अज्ञेय” के नेतृत्व में इसकी गोलबंदी होने लगी। जल्दी ही ”नयी कविता” पत्रिका (सं0 जगदीश गुप्त) और ”परिमल” संस्था ( अज्ञेय, जगदीश गुप्त, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीकांत वर्मा, विजयदेव नारायण साही आदि) ने भी इस मोर्चे में शामिल होकर ज़ोरदार प्रगति-विरोधी अभियान छेड़ दिया।
प्रगतिशील लेखक संघ, उसकी विचारधारा से जुड़े मंचों, पत्र-पत्रिकाओं के अवसान के बाद इन प्रगति-विरोधियों को खुला मैदान मिल गया। राजनीतिक सत्ता और धनसत्ता के परोक्ष और प्रत्यक्ष समर्थन तथा तमाम प्रतिष्‍ठानी सेठाश्रयी पत्र-पत्रिकाओं के विशाल मंच उपलब्ध होने पर एकबारगी तो साहित्यिक पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्रों में इनकी ही सर्वत्र विजय-पताका लहराने लगी। लेकिन तब भी सतह के नीचे प्रगतिशील साहित्य की एक शक्तिशाली सृजनात्मक अंतर्धारा प्रवाहित रही जो समय पाकर कालांतर में एक बार फिर उभरी।

5) लघु-पत्रिका आंदोलन का दौर (1964-74)

भारत पर 1962 में चीन के हमले और 1964 में नेहरू जी कि मृत्यु के बाद एक ओर जहाँ हरेक क्षेत्र में स्वतंत्र्योत्तर व्यामोह से मोह-भंग हो रहा था, वहीं दूसरी ओर नेहरूवादी एकछत्र सत्ता के बुर्जुआ लोकतंत्र में अंतर्विरोध और दरारें पड़ने लगी थीं तथा समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की विरोधी तमाम तरह की दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी- अवसरवादी ताकतें, मुख्यतः साम्प्रदायिक और हिह्दुत्ववादी-पुराणपंथी शक्तियाँ गोलबंद होकर शक्तिशाली हो रही थीं। उन्हें अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों, उनकी बहुराष्‍ट्रीय पूंजी तथा देशी इज़ारेदार पूंजीपति घरानों और उनकी पत्र-पत्रिकाओं का भरपूर समर्थन था। इसका असर तमाम साँस्कृतिक क्षेत्रों और साहित्यिक पत्रकारिता पर भी प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था। सरकारी, अर्ध-सरकारी और प्रतिष्‍ठानी पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही ”धर्मयुग”, ”सारिका”, ”साप्ताहिक हिम्दुस्ताम”, ”ज्ञानोदय” जैसी सेठाश्रयी पत्रिकाओं ने प्रगतिशील सोच के लेखकों, विशेष रूप से नए लेखकों के लिए प्रकाशन के अपने सभी दरवाज़े बंद कर दिए। इसी के विरोध में हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में 1964-65 से जबर्दस्त लघु-पत्रिका आंदोलन चला; जिसकी विस्तृत चर्चा पिछले पृष्‍ठों में की जा चुकी है।
इस दौर में विशेष बात यह हुई कि 1967 में नक्सलवादी आंदोलन के साँस्कृतिक क्षेत्रों खासकर साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में उसका ज़ोरदार असर देखा गया। लघु-पत्रिकाओं का खासा बड़ा हिस्सा तथा नौजवान लेखकों-संस्कृतिकर्मियों का बहुमत इस ओर आकर्शित होने लगा। उधर कम्युनिस्ट पार्टी में 1964 में विभाजन के बाद माकपा और भाकपा से जुड़े लेखकों-पत्रकारों की पत्र-पत्रिकाओं ने भी नए सिरे से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया। फलस्वरूप 1969-70 से लघु-पत्रिका आंदोलन के इस दूसरे दौर ने एक शक्तिशाली नामपंथी मोड़ ले लिया। इस दौर की परिणति मई,1975 में गया में ”राष्‍ट्रीय प्रगतिशील लेखक महासंघ” के नाम से देश की सभी भाषाओं के प्रगतिशील लेखकों के मंच का पुनर्गठन हुआ। इसके बाद तो प्रायः 1995 तक मुख्यतः और प्रायः 2000 तक प्रायः साहित्यिक पत्रकारिाता में मार्क्सावादी विचारधारा तथा व्यापकतथा प्रगतिशील और वामपंथी दृष्टिकोण से प्रतिबद्ध लेखकों, संपादकों तथा पत्र-पत्रिकाओं का ही वर्चस्व कायम रहा। इस दौर की साहित्यिक पत्रकारिता का विस्तृत उल्लेख भी हम पिछले पृष्‍ठों में कर चुके हैं।

6) आपात्काल और परवर्ती दौर (1975-95)

देश में जून, 1975 में आपातकाल और फलस्चरूप कठोर ”सेंसरशिप” लागू होने के बाद हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता ने एक बार फिर भारतेन्दु युगीन पत्रकारिता की कलात्मक संकेतधर्मिता, प्रतीकवाद और कूटनीति का सहारा लिया। इसमें भी मुख्यतः तीन धाराएँ दिखाइ देती हैं। एक तो उन दक्षिणपंथी-साम्प्रदायिक पक्ष के लेखकों-पत्रकारों की धारा, जो आपात्काल, सेंसरशिप औएा इंदिरा-विरोध के तेवरों के साथ मुख्यतः अंध-कम्युनिस्ट विरोध और सोवियत-विरोध की नीतियों की प्रचारक थी।
दूसरी धारा कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखकों, पत्रकारों और संपादकों की थी, जो आपात्काल, सेंसरशिप और तत्कालीन सत्ता के विरोध के साथ ही दक्षिणपंथी, साम्प्रदायिक और सत्ता-लोलुप फासिस्ट शक्तियों को भी बेनकाब कर रही थी। लेकिन सबसे ज़्यादा तादाद उन अवसरवादी लेखकों-पत्रकारों और साहित्यिक पत्रिकाओं की थी जो सत्ता की चापलूसी और जी-हज़ूरी में झुक गईं थीं। तमाम प्रतिष्‍ठानी और सेठाश्रयी पत्र-पत्रिकाएँ इसी रीढ़-विहीन तीसरी धारा में थीं। उनके लेखकों में भी ऐसे ही अवसरवादी तत्वों का बहुमत था।
स्मरणीय है, कि हर तरफ से चौतरफा हमलों की शिकार भाकपा से जुड़ी पत्रिका ”पहल” ही हुई स उधर ”जनयुग” ने ”प्री-सेंसरशिप” को मानने से इनकार कर दिया तथा सेंसरशिप के विरोध में कोरे पृष्‍ठों और काली पट्टियों के साथ सारिका” छापने की वजह से भाकपा से जुड़े संपादक कमलेश्‍वर को टाइम्स ऑफ इंडिया ने बर्खास्त कर दिया। यही नहीं, इससे कुछ अर्सा पहले, प्रगतिशील लेखक संघ के राष्‍ट्रीय अध्यक्ष तथा भाकपा से जुड़े महान व्यंग्यलेखक और पत्रकार हरिशंकर परसाई पर राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( आर0एस0एस) के हुदुत्व सैनिकों ने उनके घर में घुसकर दिन-दहाड़े लाठियों से संघातक हमला किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि तमाम तरह के अवसरवादियों , पाखंडी कायरों और नकली शहादत का मुखौटा पहनने वाले नौटंकीबाज़ लेखक-पत्रकारों तथा साहित्यिक पत्रिकाओं के विपरीत, वामपंथी और प्रगतिशील क्षेत्रों की साहित्यिक पत्रकारिता ने ही, इस दौर में भी अपनी सच्ची संघर्शशील भूमिका निभाई !
7) भूमंडलीकरण और उसके प्रतिरोध का समकालीन दौर (1995 ……)
आज हमारा समाज भूमंडलीकरण के ऐसे दोर से गुज़र रहा है जहाँ, मनुष्‍य एक श्रोता या पाठक से बदलकर मात्र उपभोक्ता और साथ ही स्वयं उपभोग की ”वस्तु” में …. वह भी बाज़ार की एक ”पण्य-वस्तु” के रूप में बदल चुका है। इसके विस्तार में न जाते हुए, यहाँ हम यही कहना चाहेंगे कि अब संस्कृति की जगह पतित अप-संस्कृति ने ले ली है और ज्ञान की जगह ”सूचना” मात्र में से वह भी वही सूचना, जो दुनिया में ”सूचना-नियंत्रण” करने वाली बहुराष्‍ट्रीय सूचना-सत्ताएँ तय करती हैं। दूसरे, सूचना की जगह ”गलत सूचना” (डिस-इन्फोरमेशन) और दुश्‍प्रचार तथा प्रायोजित आम-राय और विश्‍व- अभिमत से इस तरह अब आपके मस्तिष्‍क को, आपके विचारों को भी नियंत्रित किया जा रहा है और फूहड़ मनोरंजन की आदत डाली ज रही है। इस तरह धीरे-धीरे हम एक अपढ़ समाज की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में साहित्यिक पत्रकारिता के आगे सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह लोगों में सांस्कृतिक विवेक, स्वतंत्र कला-चेतना और विचारोत्तेजक,किन्तु संवेदनात्मक साहित्य के प्रति रुचि पैदा करे। इसके लिए वह प्रिंट ही नहीं, बल्कि ”इलेक्ट्रॉनिक” विशेष रूप से ”न्यू मीडिया” के वैकल्पिक साधनों के प्रयोगात्मक अवसर तलाश करे। भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के इस दौर में साहित्यिक पत्रकारिता को भी संगठित और व्यापक वैकल्पिक शक्ति बनकर प्रतिरोधाओं का शस्त्र बनना होगा। एक नए नवजागरण का लोकप्रिय अग्रदूत !!
संदर्भ:–
1) ”पत्रकारिता और संपादन कला”, (सं0 रामप्रकाश), में नेमिशरण मित्तल का लेकह, पृ0 116
2) ”भारतेन्दु-समग्र”,(सं0 हेमन्त शर्मा), की भारतेन्दु को पढ़ने के बाद शीर्षक ”भूमिका”
3) उपर्युक्त
4) ”परंपरा का मूल्यांकन”, रामविलास शर्मा ; राजकमल प्रकाशन, पृ0110
5) ”महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, रामविलास षर्मा ,राजकमल प्रकाशन, पृ0 381
6) उपर्युक्त, पृ0 72
7) उपर्युक्त, पृ0 281
8) उपर्युक्त, पृ0 366
9) म0 प्र0 में हिन्दी पत्रकारिता: एक शताब्दी, डॉ0 कैलाश नारद, पृ0 39
10) भूमंडलीकरण और बाज़ार के बारे में विस्तृत अध्ययन के लिए प्रो0 (डॉ0) कमल नयन काबरा तथा
प्रो0 (डॉ0) पुष्पेश पंत की पुस्तकें देखिए


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भूगोल की भूमिका किसी घटना से संबंधित समाचार के प्रभाव तक ही सीमित नहीं है, समाचार की रचना में भी भूगोल अहम किरदार निभाता है। समाचार क्या है? इसके उत्तर में कह सकते हैं कि वह मानवीय गतिविधियों और विश्व में घटने वाली प्राकृतिक घटनाओं का प्रतिबिंबीकरण है। जहां भी उपर्युक्त घटनाएं या गतिविधियां होने की जानकारी मिलेगी, संवाददाता सीधे वहीं का रुख करेगा। खेल संवाददाताओं के संदर्भ में हम पूरी तरह इस सत्यता को परिघटित होता हुआ देख सकते हैं। कोई भी संवाददाता रेडियो या टेलीविजन सुन-देखकर कभी भी मैच की खबर नहीं लिखता। वह स्वयं मैदान पर जाता है, खेल और खिलाड़ियों को देखता है और अपने समाचार में उस आंखों देखे वर्णन को लिखता है। इसी प्रकार, राजनीतिक संवाददाताओं को स्वयं संसद अथवा सम्मेलनों में उपस्थित होकर समाचारों का संकलन करना होता है।
जनसंचार माध्यमों के समकालीन विश्लेषक प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित समाचारों के संकलन की उपर्युक्त व्याख्या को बेहद सपाट और सरलीकृत बता सकते हैं। उनके दृष्टिकोण के अनुसार, किसी समाचार का संघटन कई प्रक्रियाओं का सम्मिलित परिणाम होता है, इनमें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त वक्तव्य, संवाददाता की अपनी परख, सामाजिक और नैतिक दृष्टि से उसके प्रति दृष्टिकोण, पेशेगत कुशलता, व्यावसायिक आवश्यकता और समाचार की प्रस्तुति का उद्देश्य शामिल है। पत्रकार, विशेष रूप से अन्वेषी पत्रकार, काफी पहले से ही यह महसूस करते रहे हैं कि समाचार लेखन घटनाओं के सपाट वर्णन से कहीं बढ़कर है और तथ्य तथा सही संदर्भों को जानने के लिए घटनाक्रम की गहराई में जाने की आवश्यकता होती है। इस दृष्टिकोण के मतानुसार, समाचार किसी लौह अयस्क की तरह है, जिसे खोजने, खदान से निकालने और फिर संश्लेषित करने की आवश्यकता होती है। इस दृष्टिकोण के मतावलंबी पत्रकार गर्वीले स्वर में स्वयं को ‘खोजी संवाददाता’ कहना पसंद करते हैं, जो सूचना-समाचार नामक रत्न को ढूंढ़ निकालता है। इस प्रकार का संवाददाता जीवनभर यायावर बना रहता है और तथ्यान्वेषण में संलग्न रहता है।
समाचार संकलन की यह शैली, जिसमें संवाददाता से समाचार स्रोत तक पहुंचने और वहां विभिन्न व्यक्तियों से विस्तृत बातचीत करके तथ्य जुटाने की अपेक्षा की जाती है, पत्रकार को एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करती है। इससे पत्रकार की शख्सियत को अतिरिक्त महत्व मिल जाता है। इसके लिए जरूरी है कि संवाददाता सरकारी और महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों में अधिकारियों तथा कामकाजी कर्मचारियों के साथ अच्छे तालमेल के संबंध स्थापित करे। ऐसे संवाददाता के लिए अन्य वांछित तत्वों में जिज्ञासा, आलोचनात्मक दृष्टि और साधनों की प्रचुरता शामिल है।
एक संवाददाता के लिए भौतिक वास्तविकता यह भी है कि एक समय पर वह एक ही स्थान पर समाचार संकलित कर सकता है। इसी के दृष्टिगत उसके लिए कार्यक्षेत्र (ठमंज) निर्धारण की आवश्यकता हुई। निर्धारित कार्यक्षेत्र में काम करने के अभ्यास से पत्रकार समाचार संकलन की कला में निपुण होता है और साथ ही उसे समाचार व्यवसाय की परंपरा तथा संस्कृति का ज्ञान भी होता चलता है। नवोदित संवाददाता पुलिस थाने, अदालत, नगर निगम, सरकारी अस्पताल और अन्य ऐसे ही सार्वजनिक स्थलों पर हर दिन जाकर अपने लिए समाचार स्रोतों को विकसित करता है, खबर को जानने-समझने की कुशलता हासिल करता है और अपनी लेखन कला को भी मांजता चलता है। स्पष्टतः भूगोल का यही महत्व भी है।
समाचार प्रतिष्ठानों में पत्रकारों की वरिष्ठता और प्रतिष्ठा को स्थापित करने में भूगोल सदैव अहम भूमिका निभाता है। टेलीग्राफ प्रणाली के उपयोग में आने के बाद दूरदराज स्थानों-राजधानियों, महानगरों, व्यावसायिक केन्द्रों पर सभी प्रमुख समाचार-पत्रों और एजेंसियों ने अपने कार्यालय बनाए और वहां संवाददाता नियुक्त किए। जिन पत्रकारों का कार्य मुख्यालय तक सीमित रहा, उनके लिए भी घटनास्थल पहुंचकर समाचार जुटाना निर्धारित दायित्व में ही शामिल रहा। जिन समाचार प्रतिष्ठानों के प्रबंधन ने अपने खर्च सीमित रखने के लिए संवाददाताओं की यात्राओं पर अंकुश रखा, उन्होंने भी समाचार संकलन के लिए टेलीफोन और फैक्स जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराना आवश्यक समझा। पत्रकारों का यह दावा निर्विवाद रूप से सही है कि घटनास्थल पर जाकर समाचार संकलन का महत्व सर्वोपरि है। अनेकानेक समाचार-कथाएं इस प्रकार की होती हैं, जिनका तथ्यपरक वर्णन और विवेचन संवाददाता तभी सही ढंग से कर सकता है, जब वह घटना का प्रत्यक्षदर्शी बने और स्वयं उसे महसूस करके, उससे जुड़कर खबर को लिखे। यद्यपि इस प्रक्रिया में भी एक विशेष दोष है और वह यह कि ऐसे संवाददाता खबर का दर्पण या आईना बनकर रह जाते हैं, वे उसका विश्लेषण नहीं कर पाते। अब इंटरनेट युग में बढ़ते आर्थिक दबावों ने पत्रकारिता को अनिवार्य रूप से तथ्यपरक या वस्तुनिष्ठ बना दिया है।
भूगोल नामक तत्व ने समाचार की परंपरागत परिभाषा को अन्य कई प्रकार से भी प्रभावित किया। सरकारी एजेंसियों और राजनीति से संबंधित समाचार हमेशा पाठक के लिए अहम होते हैं, क्योंकि वे उसके दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं। इन समाचारों के संकलन के लिए संवाददाता को निरंतर सरकारी प्रतिष्ठानों के संपर्क में रहना होता है। पुलिस थाने या निगम कार्यालय इसके उदाहरण हैं, जहां घटनाएं निरंतर दर्ज या घटित होती रहती हैं। पत्रकारिता के नए संदर्भों ने दर्शाया कि इस वैचारिक मान्यता में कुछ महत्वपूर्ण दोष हैं। सबसे बड़ा दोष यह है कि स्थानीय समाचारों की तलाश को अधिक प्रमुखता देने के कारण बहुत-सी आम खबरें संवाददाता की नजर से ओझल रह जाती हैं। निश्चित रूप से ये समाचार जनजीवन से सीधा संबंध रखते हैं। उदाहरण के लिए, 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध और 1980 के दशक के पूर्वार्द्ध में जब ऊर्जा संबंधी आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ, तो उसके समाचार बहुत ही महत्वहीन और अधूरे ढंग से पेश किए गए।
इसका कारण उस समय के संवाददाताओं में इस विषय के प्रति जानकारी, रुचि और उसके आर्थिक प्रभावों की अज्ञानता थी। बाद में जब इस संकट ने राजनीतिक आकार ग्रहण कर लिया, तब जाकर इन समाचारों को मुखपृष्ठ पर स्थान मिलना आरंभ हुआ। यहां आकर समाचार संकलन की वह परंपरागत परिभाषा पिछड़ी हुई और एक हद तक अनुपयोगी मानी गई। वस्तुतः यह द्वंद्वात्मक स्थिति है, क्योंकि समाचारों और भूगोल के पारस्परिक संबंधों को कभी भी नकारा नहीं जा सकता, न आज और न भविष्य में। समाचारों की दृष्टि से सरकारी सूचनाओं व जानकारियों का जनता तक पहुंचाना उसकी आवश्यकता भी है और अधिकार भी। सरकारी निर्णय हर नागरिक के जीवन को प्रभावित करते हैं। निगरानी के अभाव में नौकरशाही निकम्मी और भ्रष्ट हो जाती है। अधिकारी अनसुनी करने लगते हैं। संवाददाता पत्रावलियों का अवलोकन करके, अधिकारियों से मिलकर और कर्मचारियों से जानकारियां जुटाकर ही समाचार के रूप में जनोपयोगी तथ्य जनता के समक्ष प्रस्तुत कर सकते हैं।
इंटरनेट इस परिदृश्य को काफी-कुछ बदल चुका है और यह प्रक्रिया अभी जारी है। नेट ने ‘आभासी भूगोल’ की रचना कर दी है, जिसने ‘स्थान’ के परंपरागत अर्थ को नई परिभाषा दे दी है और घटनास्थल पर जाकर समाचार संकलन का महत्व बहुत सीमित कर दिया है। अब सरकारी पत्रावलियों का ज्यादातर विवरण नेट पर उपलब्ध है। इस सामग्री को जुटाने के लिए घटनास्थल की ‘यात्रा’ निरर्थक हो चुकी है। कहीं भी बैठकर सरकारी निर्णयों का विवरण जुटाया जा सकता है। यहां तक कि कुछ संवाददाताओं के विशेष कार्यक्षेत्र को अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो अब राजधानी में समाचार संकलन का भी कोई अतिरिक्त महत्व नहीं रह गया है। घर पर कम्प्यूटर है और इंटरनेट की सुविधा है, तो क्लिक करने के साथ ही वांछित जानकारी उपलब्ध है। ‘घटनास्थल का भूगोल’ नेट में समाहित हो चुका है।
यदि दुराग्रहवश कोई संवाददाता सूचना-सामग्री के लिए स्वयं स्रोत तक जाने का उद्यम करता भी है, तो उसका एक नुकसान यह है कि अपने कार्यालय में उसे जो अन्य स्रोत और संसाधन उपलब्ध हैं, उनसे वह वंचित रह जाता है। समय और घटनास्थल पर उपस्थित रहने की परंपरागत परिभाषा के विपरीत आज कोई भी पत्रकार इंटरनेट पर एकसाथ कितने ही स्थानों के आंकड़े बेहद तेज रफ्तार के साथ जुटा सकता है, जबकि संबंधित कार्यालय में पहुंचकर उसे एकांगी और सीमित जानकारियों से ही संतोष करना पड़ेगा। इससे उसका समय और ऊर्जा दोनों नष्ट होंगी। इंटरनेट की सूचना-क्रान्ति ने पत्रकार के लिए समूचे संसार की सूचनाओं को कम्प्यूटर के परदे पर प्रस्तुत कर दिया है।
ऑनलाइन न्यूज ने किसी विशेष समाचार-कथा के अनुसंधान के लिए भी संवाददाताओं के यात्रा विकल्पों को बहुत ही सीमित कर दिया है। ई-मेल ऐसा नया स्रोत है, जिसकी सहायता से पत्रकार अपने क्षेत्रीय कार्यालयों तथा अन्य स्रोतों से आवश्यक जानकारियां हासिल कर सकता है, उस विषय के ऐसे विशेषज्ञों से भी विभिन्न सूचनाएं प्राप्त कर सकता है, जो देश से बाहर रहते हैं। इसी प्रकार किसी सूचना या समाचार की पृष्ठभूमि जानने के लिए संवाददाता को भारी-भरकम पत्रावलियों में सिर खपाने की जरूरत नहीं रह गई है। विश्व के तमाम बड़े और समृद्ध पुस्तकालय भी आज इंटरनेट से जुड़े हुए हैं। दिन या रात में कभी भी पुस्तकालयाध्यक्ष से संपर्क स्थापित करके वहां के अभिलेखागार से वांछित जानकारियां जुटाई जा सकती हैं।
परंपरागत और इंटरनेट युग की पत्रकारिता में एक बड़ा अंतर यह है कि पहले संवाददाता को अपने स्रोत के रूप में संबंधित या क्षेत्रीय व्यक्तियों पर निर्भर करना पड़ता था। संवाददाता कई बार परस्पर विरोधी पक्षों से बात करके मान लेता था कि समाचार संकलन का कार्य पूरा हो गया है। अब इंटरनेट पर अधिकाधिक सूचनाएं उपलब्ध हैं, तो कोई भी पत्रकार किसी भी प्रकार का तथ्य प्राप्त करने के लिए आंकड़े, सांख्यिकीय विवरण तथा अन्य दस्तावेज एक क्लिक से हासिल कर सकता है। किसी भी समाचार की बुनावट के लिए यही मूलभूत सामग्री होती है।
संवाददाता को इंटरनेट का एक अतिरिक्त लाभ और है। उसे अब आधी-अधूरी जानकारियों, अधूरी स्मृतियों, दोषपूर्ण दृष्टिकोण और स्वार्थवश भ्रमित करने वाले मानव स्रोतों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं रह गई है। आज संवाददाता स्वयं अनुसंधान और विश्लेषण करके तथा उससे निष्कर्ष निकालकर अधिक विश्वसनीय व तथ्यपरक समाचार तैयार करने में सक्षम हो चुका है। एक समाचार के लिए तथ्य जुटाने, उसे विकसित करने और स्रोत पर अनावश्यक निर्भर न होने की क्षमता उसने प्राप्त कर ली है। हम इस तरह भी कह सकते हैं कि पत्रकार आज पहले की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी, आधुनिक, सूक्ष्मदर्शी और सबल औजारों से सन्नद्ध है। उसके समाचारों में गणित और विश्लेषण ज्यादा प्रभावी हो गया है। वह आंकड़ों का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत कर सकता है, जो उसके समाचार को गहराई तथा अर्थवत्ता प्रदान करते हैं। वह अपनी सूचनाओं का नए तरीके से वर्गीकरण कर सकता है, उन्हें आवश्यकतानुसार नई पहचान दे सकता है और उनके आधार पर नए निष्कर्ष निकाल सकता है।
सही है कि सूचना-संचार के लिए आज का दौर संक्रमण का है। एक ओर, जहां अभी पत्रकारिता परंपरागत औजारों और तौर-तरीकों को छोड़कर विश्लेषणात्मक लेखन-शैली के नए कौशल की ओर बढ़ रही है, वहीं अभी यह भी नहीं कहा जा सकता कि संवाददाताओं ने पूर्व प्रचलित परिपाटी से मुक्ति पा ली है। आज भी समाचार कक्ष में समाचारों के चयन और उनकी कार्यसूची का फैसला लेते समय उन्हीं बिंदुओं पर जोर दिया जाता है, जो स्थानीयता, मानवीय संबंधों और दैनंदिन घटनाओं से ताल्लुक रखते हैं। इसके बावजूद पत्रकारिता की कार्य-संस्कृति में परिवर्तन और उसके प्रभावों का एक स्पष्ट परिणाम हम उन अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के रूप में देख सकते हैं, जो हाल के वर्षों में उन्हीं समाचार-कथाओं को प्राप्त हुए, जिनकी रचना इंटरनेट जैसे स्रोतों के आधार पर की गई। वस्तुतः निरंतर चलते रहने वाले सर्वेक्षणों से यह तथ्य बार-बार प्रमाणित हो रहा है कि युवा पाठक समाचार की नई रचना-शैली की ओर अधिक आकृष्ट है। उसे हर दिन के घटनाक्रम के साथ-साथ सूचनारंजन प्रधान समाचार अधिक भाते हैं। इन समाचारों में भी स्थानीयता का पुट आवश्यकीय तत्व के रूप में विद्यमान रहना चाहिए।
कनाडा में हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार, सामयिक समाचारों के लिए वहां के 80 प्रतिशत नागरिक सायंकालीन टेलीविजन समाचार बुलेटिनों को देखना पसंद करते हैं। इस सर्वेक्षण के अन्य निष्कर्षों के अनुसार, कनाडा की 76 प्रतिशत आबादी अब भी दैनिक समाचार-पत्र पढ़ती है, जबकि केवल 26 प्रतिशत लोग साप्ताहिक समाचार-पत्रिकाएं और 20 प्रतिशत लोग इंटरनेट का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार के निष्कर्ष अमेरिका में भी सामने आए। 1980 के दशक तक जहां समाचार-पत्र अमेरिकियों का सबसे विश्वसनीय और लोकप्रिय माध्यम था, वहीं 1990 के दशक के बाद से उसमें निरंतर गिरावट दर्ज हो रही है।
21वीं शताब्दी के आरंभ से केवल दो वर्ष पूर्व 69 प्रतिशत अमेरिकियों का कहना था कि टेलीविजन समाचार बुलेटिन उनका मुख्य स्रोत है, जबकि 53 प्रतिशत अमेरिकी यू ट्यूब व अन्य माध्यमों तथा केवल 23 प्रतिशत समाचार-पत्रों को ही अपना मुख्य माध्यम मानते थे। पाठकों और दर्शकों की रुचि में इस परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारण पत्रकारों, संवाददाताओं, समीक्षकों तथा समाचार प्रस्तोताओं के प्रति घटती विश्वसनीयता रही है। इसकी वजह से आम जनता में समूचे जनसंचार माध्यमों के प्रति नकारात्मकता की एक नई धारणा ने स्थान बना लिया है। विश्वसनीयता का यह संकट नया है और इसके तीन प्रमुख कारक माने जा सकते हैं। पहला, तकनीकी अभिनवीकरण (Technological Innovation), दूसरा, सामाजिक संबंधों में परिवर्तन और तीसरा, समकालीन राजनीतिक सूचना संचार-व्यवस्था के प्रति पत्रकारीय दृष्टिकोण में बदलाव। हाल के वर्षों में तमाम गैरतानाशाही और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में जनसंचार को आकर्षित और प्रभावित करने के लिए राजनीतिक दल ऐसे प्रपंच और हथकंडे अपनाने लगे हैं, जिनके प्रति स्वयं संचार माध्यमों की संदिग्धता बनी रहती है। समाचारकर्मियों के लिए यह निर्णय कठिन हो जाता है कि उनकी घोषणाओं, कार्यक्रमों और उद्देश्यों को समाचार का रूप दिया जाए या नहीं, क्योंकि आम नागरिकों के लिए उनसे इतर बहुत सारे मुद्दे ऐसे होते हैं, जो समाज के लिए कहीं अधिक उपयोगी और हितकर हैं।
जनसंचार के संबंध में हुए सभी अध्ययन इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि संचार माध्यमों का मानव समुदाय पर सीधा और उल्लेखनीय प्रभाव होता है, किन्तु इस प्रभाव का स्वरूप और दायरा कितना है, इस पर अभी तक कोई सहमति नहीं बन सकी है। इसके बावजूद पत्रकारिता का दायित्व है कि निहित स्वार्थों के लिए राजनीतिक दलों को जनसंचार की शक्तियों का उपयोग करके जनता को भरमाने के प्रयासों में सफल न होने दिया जाए।
हर्षदेव नवभारत टाइम्स के समाचार संपादक रहे चुके हैं. यह सामग्री लेखक की प्रकाशनाधीन पुस्तक ‘ऑनलाइन पत्रकारिता’ के एक अध्याय से ली गई है।
ईमेल- deoharsh1@gmail.com

ई- न्यूज़पेपर ( epaper) के विकास की कहानी

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प्रस्तुति- राजेश सिन्हा


डॉ. कीर्ति सिंह |प्रिंट पत्रकारिता सभी प्रकार की पत्रकारिताओं की जननी है। ऑनलाइन होने के मुकाम तक पहुंचने के लिए इसे सालों का सफर तय करना पड़ा। स्वरूप, प्रस्तुतिकरण, विषय वस्तु में निरंतर बदलाव करके और नई-नई तकनीकों के साथ सामंजस्य स्थापित कर प्रिंट पत्रकारिता सर्वाधिक परिवर्तन के दौर से गुज़री है। इंटरनेट पर सूचनाओं का कारोबार सीधे रूप में प्रारंभ नहीं हुआ और न ही सीधे भारत में पहली बार ई-समाचारपत्र पैदा हुए। साठ के दशक में अमेरिका में इंटरनेट का जन्म हुआ और आमजन में सूचनाओं का दायरा विस्तृत करने में लगभग बीस साल लग गए। समाचारपत्र प्रकाशक समूह लंबे समय तक ऑनलाइन पब्लिशिंग प्लेटफार्म के रूप में इंटरनेट का सही-सही अनुमान ही नहीं लगा पाए। वर्ल्ड वाइड वेब के आगमन के बाद ही तरीके से ई-समाचारपत्रों का पदार्पण इंटरनेट पर हुआ।ई-समाचारपत्रों का उद्भवदुनियाभर में अस्सी के दशक के अंत में ई-समाचारपत्रों का बीजारोपण हुआ था।
इसी दौरान अमेरिका में कुछ समाचारपत्र समूहों ने कंप्यूटर में संभावनाओं को समझा और डायल-अप बुलेटिन बोर्ड की मदद से अपने पाठकों को समाचार उपलब्ध कराने आरंभ किये। इस सेवा में वर्गीकृत विज्ञापन, मनोरंजन व कारोबारी सूचनाएं और समाचार हेडलाइंस शामिल की गयीं। सन् 1991 में शिकागो ट्रिब्यून कंपनी ने अमेरिका ऑनलाइन में निवेश किया। ई-समाचारपत्रों के विकास से कंप्यूटर और विशेषकर इंटरनेट का तकनीकी विकास जुड़ा हुआ है। इंटरनेट के विस्तार में बेहतर ऑपरेटिंग सिस्टम और ग्राफिक्स यूजर इंटरफेस का बड़ा योगदान रहा है। क्योंकि इसके बाद आम ग्राहक भी कंप्यूटर पर आसानी से माऊस की मदद से काम कर सकता था। आरंभ में अधिकांश कंप्यूटर और इंटरनेट कंपनियों ने अपने ग्राहकों के लिए टेक्सट के रूप में समाचार सेवा आरंभ की। नब्बे के दशक के दौरान द् इलेक्ट्रोनिक ट्रिब ने पहली कंप्यूटर आधारित इलेक्ट्रोनिक न्यूज़पेपर सेवा आरंभ की। ये पेपर बीबीएस सॉफ्टवेयर का उपयोग करता था। इसी अवधि में स्विटजरलैंड में टिम बर्नर्स ली ने हाइपर टेक्सट मार्कअप लैंग्वेज (HTML) ईजाद कर ली।
इंटरनेट आधारित सामग्री के लिए यह भाषा एक बड़ा वरदान साबित हुई। मई 1992 में शिकागो ट्रिब्यून ने दुनिया का पहला ई-समाचार पत्र शिकागो ऑनलाइन के नाम से अमेरिका ऑनलाइन (AOL) की वेबसाइट पर समाचार सेवा आरंभ की थी। क्योंकि शुरूआती काल में किसी भी समाचारपत्र की अपनी अलग से वेबसाइट नहीं होती थी। सन् 1992 में ही चारलो ऑब्जर्वर ने कनेक्ट ऑब्जर्वर नाम से एक समाचार सेवा आरंभ की। इसे भी बीबीएस सॉफ्टवेयर की मदद से देखा जा सकता था। सन् 1992 के मध्य तक अमेरिका और कनाडा में 11 समाचार पत्रों ने इंटरनेट पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी थी। यह साल ई-समाचारपत्रों के लिए शानदार साबित हुआ क्योंकि 9 जून, 1992 को अमेरिकी कांग्रेस ने इंटरनेट के व्यावसायिक प्रयोग से पाबंदी हटा दी।
परिणामस्वरूप इंटरनेट पर ई-समाचारपत्रों का तेज़ी से विकास हुआ। सन् 1993 में पहला वेब ब्राउजर मोजैक भी इसके अगले ही साल 1993 में बाज़ार में उतारा गया। ब्राउज़र की मदद से इंटरनेट पर काम करना काफी आसान हो गया था। सर्फिंग सुविधा की तरक्की के एक माह बाद ही फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग ने दुनिया की पहली पत्रकारिता वेबसाईट आरंभ कर दी थी।वैश्विक धरातल परशिकागो ऑनलाइन के लांच होने के दो साल बाद सन् 1994 में अमेरिका ऑनलाइन के ग्राहकों की संख्या छह लाख को पार कर गयी। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए द् न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसी साल अमेरिका ऑनलाइन पर @Times लॉंच किया। जल्दी ही मिनियापोलिस स्टार ट्रिब्यून ने भी इंटरनेट पर अपनी शुरूआत कर दी। इसी वर्ष दुनिया का पहला और पूरी तरह से वेब आधारित समाचारपत्र द पॉलो अल्टो वीकली शुरू हुआ (केरेल्सन, 2003)। अगले डेढ़ साल में अधिकतर ऑनलाइन समाचारपत्रों की अपनी वेबसाइट अस्तित्व में आ चुकी थीं (हॉल, 2001)। यह छोटी सी अवधि समाचारपत्रों के लिए चुनौतियों से भरी थी।
जैसे ऑनलाइन समाचारपत्रों का लेआउट डिज़ाइन, प्रकाशक के स्तर पर सांगठनिक ढांचा कैसा हो और पाठकों की प्राथमिकताओं व डेमोग्राफिक्स में होने वाले परिवर्तन को किस प्रकार देखा जाये। (मैकएडम्स,1995)।जल्द ही अमेरिका की मीडिया कंपनी टाइम वार्नर ने वेब पर अपनी अलग साइट पाथफाइंडर के नाम से आरंभ की। धीरे-धीरे अमेरिका के सभी बड़े समाचार पत्र समूहों ने अपने ऑनलाइन संस्करण आरंभ करने की योजना बना ली। लॉस एंजिलेस टाइम्स और न्यूयोर्क न्यूज़टुडे ने अपने ऑनलाइन संस्करण शुरू किये। अमेरिका ही नहीं पूरे यूरोप में मीडिया में ऑनलाइन क्रांति को लेकर समाचारपत्र समूहों में उत्साह दिखाई देने लगा। एक अनुमान के अनुसार सन् 1994 के अंत तक पूरे यूरोप में करीब 200 समाचार पत्र अपना ऑनलाइन संस्करण आरंभ कर चुके थे। (डेविड कैर्लसन 2009)एशिया में प्रसारजल्दी ही एशियाई देशों में भी समाचार पत्रों ने इंटरनेट की तरफ कदम बढ़ाना आरंभ कर दिया। सन् 1995 में सिंगापुर बिज़नेस टाइम्स, मेलबोर्न ऐज़, और सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड ने अपने ऑनलाइन संस्करण शुरू कर दिये थे। इस साल के अंत तक ऑनलाइन समाचार पत्रों की संख्या इस प्रकार थी – अमेरिका (208), यूरोप (56), लातिन अमेरिका (16), कनाडा (16), एशिया (11), आस्ट्रेलिया और एशियाई देश (11), न्यूज़ीलैंड (5), अफ्रीका (2)। (डेविड कैर्लसन 2009)वर्ष 1995 में ही समाचार समिति एसोसिएटिड प्रैस ने ऑनलाइन समाचारपत्रों को सूचना पहुंचाने के उद्देश्य से द् वायर नामक अपनी वेब सेवा आरंभ की। वॉल स्ट्रीट जर्नल ने भी इसी वर्ष इंटरएक्टिव संस्करण वेब पर चालू किया लेकिन यह एक पेड वेबसाइट थी जिसके लिए वार्षिक शुल्क चुकाना ज़रूरी था। सन् 1996 में शिकागो ट्रिब्यून अमेरिका ऑनलाइन से अलग अपनी नई न्यूज़पेपर साइट आरंभ की। इस वेबसाइट पर शिकागो ट्रिब्यून ने अपने प्रकाशित संस्करण के सभी हिस्से शामिल किये गये।
ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन (BBC) ने 1997 में ब्रिटेन में वेब  news.bbc.co.uk नाम से अपनी साइट आरंभ की। ऑनलाइन पत्रकारिता की भूमिका एवं महत्व को देखते हुए पुलित्जर बोर्ड ने 1997 में ऑनलाइन प्रकाशित हुई खबरों और लेखों के लिए अलग से पुरस्कारों की घोषणा की। इस समय तक दुनियाभर में अखबारों में इंटरनेट संस्करण आरंभ करने की होड़ शुरू हो चुकी थी। कुछ देशों में  ये विकास दर लगभग दो सौ प्रतिशत भी रही है। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय शेयर बाज़ार में डॉट कॉम कंपनियों की कीमतें आसमान छू रही थीं। सभी बड़े औद्योगिक समूह, जो अन्य उत्पादों में लगे थे, उन्होंने इस नये उभरते कारोबार में रूचि दिखानी आरंभ कर दी थी।इस प्रकार एकाएक सभी समाचार समूह ऑनलाइन मंच पर अपनी पहचान के लिए आकर्षित होने लगे। इसके पीछे ठोस कारणों की तलाश करने हेतु गंभीर अध्ययन हुए। जिनसे कई महत्वपूर्ण तथ्य निकल कर आए। 1999 में की गय़ी पेंग की शोध यहां विशेषतौर से उल्लेखनीय है। इनके अनुसार परंपरागत समाचारपत्रों के ऑनलाइन संस्करणों को आरंभ करने के पीछे प्रमुख कारण अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचना (40%), अधिक आय अर्जित करना (26%) और अपने प्रिंट संस्करणों का अधिक प्रचार (23.9%) करना था। न्यूज़पेपर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका (NAA) के एक अन्य अध्ययन (2002) के मुताबिक अमेरिका में ऑनलाइन समाचारपत्र स्थानीय समाचारों को जानने के लिए मुख्य स्रोत थे। अस्तित्व के लिए संघर्षएक समय के बाद महसूस होने लगा कि इंटनेट संस्करण तेज़ी से आरंभ हो रहे हैं परंतु उनसे आय ना के बराबर हो रही है।
सन् 2001 में अमेरिका और कनाडा में विज्ञापन से होने वाली आय घटने की वजह से बड़े समाचार संगठनों ने अपने ऑनालाइन ऑपरेशन से जुड़े स्टाफ की छंटनी कर दी। अधिक पाठक ना होने के कारण ई-समाचारपत्रों को मिलने वाले विज्ञापन कम होना प्रारंभ हो गये। आय में तेज़ी से आयी इस गिरावट के बाद अनेक ई-समाचारपत्र संकट में घिर गये। इसका एक कारण कंप्यूटर और इंटरनेट से जुड़ी कंपनियों में संकट की स्थिति भी थी। यही वह समय था जब पूरी दुनिया आर्थिक मंदी के चक्र से घिरी हुई थी। इसके अलावा ई-समाचारपत्रों के पास कोई सफल बिज़नेस मॉडल भी नहीं था।आर्थिक संकट के बावजूद परंपरागत समाचार पत्रों की तुलना में ई-समाचारपत्रों ने अपनी विशेषता और उपयोगिता को निरंतर महसूस करवाया। सन् 2002 में निल्सन की अनेक रिपोर्टों ने साबित किया कि वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर आक्रमण के बाद और इराक पर अमेरिकी व अन्य सेनाओं के आक्रमण के बाद पाठकों ने प्रकाशित अखबारों की तुलना में उनके ऑनलाइन संस्करणों का अधिक सहारा लिया। इस दौरान सीएनएन डॉट कॉम और गूगल न्यूज़ पर रिकॉर्ड क्लिक हुए।
भारतीय ई-समाचारपत्रों का सफ़रसन् 1995 में भारत में इंटरनेट का आगमन हुआ और भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कंप्यूटरों से जुड़ने का पहली बार अवसर प्राप्त हुआ। डेविड केर्लसन की टाइमलाइन के अनुसार 1995 के अंत तक आस्ट्रेलिया और एशियाई देशों  में कुल मिलाकर केवल 11 समाचारपत्र ऑनलाइन थे। जबकि सन् 1998 में पूरे एशिया में 223 समाचारपत्र ऑनलाइन हो  चुके थे (Meyer, 1998)। भारत में समाचार-पत्रों को सीधे ऑनलाइन करने की बजाय  सर्वप्रथम नये माध्यम में संभावनाओं की तलाश की गई। बेनेट एंड कॉलमेन जैसी बड़ी कंपनियों ने सूचनाओं के कारोबार के उद्देश्य से इंटरनेट प्रकाशन में हाथ आज़माने की कोशिश की। हालांकि भारतीय परिवेश की सूचनाएं भारत में इंटरनेट आने के पहले ही ऑनलाइन थीं। ये सूचनाएं केवल ग़ैर प्रवासी भारतीयों को ही उपलब्ध होती थी। राजेश जैन नामक् एक भारतीय युवक ने 1995 में भारत में इंटरनेट प्रारंभ होने से पांच महीने पहले यानी मार्च में एक वेब पोर्टल लांच किया। इस पोर्टल के लिए अमेरिका के सर्वर की मदद ली।  वेब पोर्टल का नाम indiaworld.com रखा गया।राजेश जैन के अनुसार यह भारत का पहला वेब पोर्टल था।
पहले पहल इस पर समाचारों व सूचनाओं का प्रकाशन होता था।  सूचनाओं के लिए विषय सामग्री  अलग-अलग मीडिया स्रोतों से जुटाई जाती थी। ये स्रोत थे द इंडियन एक्सप्रेस, इंडिया टुडे, डाटाक्वेस्ट, रिडर्स डाइजेस्ट, केनसोर्स, क्रिसिल, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनोमी, डीएसपी फाइनेंशियल इत्यादि। पोर्टल के लांच होने के दो दिन बाद ही यूनियन बजट को लाइव कवर किया गया। टेलीविज़न सैट लगे एक कमरे में विश्लेषकों और पत्रकारों के एक समूह को  बैठाया गया ताकि टेलीविज़न पर बजट देखकर वे तुरंत अपनी टिप्पणियां दे सकें। जैसे ही टिप्पणियां प्राप्त होती, तुरंत प्रभाव से टाइप कर वेबसाइट पर अपलोड कर दिया गया ।  धीरे-धीरे पोर्टल के मालिक ने ग़ैर समाचार वेबसाइट भी आरंभ की। सबसे पहले khoj.com नाम से अपना सर्च इंजन शुरू किया। उसके बाद खेल, मनपसंद, इंडियालाइन, समाचार, धन, बावर्ची, इतिहास, और न्यूज़एशिया (एशियन क्षेत्रों से समाचार) आदि सेवाएं भी देनी प्रारंभ कर दी। सन् 1999 में सत्यम इंफोवे ने इस पोर्टल को खरीद लिया। वर्तमान में ऑनलाइन समाचारों का उत्पादन एक व्यवसाय की भांति फल-फूल रहा है।
महानगरों, छोटे शहरों और क़स्बों हर कहीं से प्रकाशित एक छोटा सा समाचारपत्र और स्थानीय टेलीविज़न चैनल भी इंटरनेट पर अपनी मौजूदगी बनाए हुए हैं। इंटरनेट पर सूचनाओं के स्थानीयकरण का चलन 2000 के बाद तेज़ी से बढ़ा है। इससे पहले वेब पोर्टल के माध्यम से सभी प्रकार की सामग्री एक ही साइट पर मिलती थी। वेब पोर्टल के माध्यम से सूचनाओं के वितरण का एक उद्देश्य कहीं-न-कहीं इंटरनेट की लोकप्रियता का अनुमान लगाना भी था। इस तरह से 1995 में इंटरनेट में निहित संभावनाओं के मद्देनज़र सभी प्रकार की विषय-सामग्री पोर्टल के माध्यम से उपलब्ध करवाने का चलन शुरू हुआ।  इसी क्रम में 1995 में रिडिफ्यूज़न विज्ञापन एजेंसी के सह संस्थापक अजीत बालकृष्णन ने रेडिफ डॉट कॉम नाम से एक वेब पोर्टल बनाया। रिडिफ अपनी ई-मेल सेवा के लिए सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। सन् 1996 में बैनेट एंड कॉलमैन लिमिटेड कंपनी ने इंटरनेट की दुनिया में आने का फैसला किया। टाइम्स इंटरनेट के प्रेज़ीडेंट सुनील राजशेखर के अनुसार उनकी कंपनी नए माध्यमों में छिपी संभावनाओं को  खोजना चाहती थी।
इसलिए इसने अपने सभी ब्रांडों को ऑनलाइन करने का फैसला लिया। कंपनी का एकमात्र लक्ष्य आर्थिक लाभ कमाना था। सबसे पहले उसने फेमिना और फिल्मफेयर मनोरंजन पत्रिकाओं को ऑनलाइन किया। उसके बाद कंपनी के सर्वाधिक बिक्री होने वाले समाचारपत्रों टाइम्स ऑफ इंडिया और द इकोनोमिक टाइम्स को भी इंटरनेट पर डाल दिया। हालांकि डिजीटल स्वरूप मे इंटरनेट पर दिखने वाले इन समाचारपत्रों की विषय-वस्तु व समाचार प्रकाशित संस्करणों से ही उठायी जाती थी। नये माध्यम में संभावनाओं की तलाश के बाद बीसीसीएल ने भी 1998-99 में आख़िरकार इंडियाटाइम्स डॉट कॉम नाम से एक पोर्टल शुरू कर दिया।  आरंभिक भारतीय ई-समाचारपत्रभारत में ऑनलाइन पत्रकारिता का प्रारंभिक चरण नब्बे के दशक का मध्य माना जाता है। जबकि इस दशक के अंतिम वर्षों को नेट पत्रकारिता के दूसरे चरण की संज्ञा दी गई है। क्योंकि दूसरे चरण में हिंदी समाचारपत्रों ने भी इंटरनेट पर आना शुरू कर दिया था। इंटरनेट हिंदी पट्टी के समाचारपत्र प्रकाशकों के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर आया था। ये बड़ी चुनौती थी हिंदी फोंट का उपलब्ध न होना।
विदेशों से तकनीक तो आयात कर ली गई थी पर उसे अपने परिवेश के अनुरूप ढालकर प्रयोग करने की ज़िम्मेदारी स्वयं भारत की थी।  भारत में ई-समाचारपत्रों की शुरूआत 1995 से ही मानी गई है। जहां तक वेब पत्रकारिता की शुरुआत की बात है तो, 1992 में वर्ल्ड वाइड वेब जारी होने के बाद 1995 तक विश्व में यूजनेट पर करीब ढाई हजार समाचार ग्रुप छा गये। 1995 में चेन्नई से प्रकाशित दैनिक अंग्रेजी पत्र ‘हिन्दू’ ने नेट संस्करण शुरू किया। इसी के साथ देशी वेब पत्रकारिता ने जोर पकड़ा और 1996 में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया और ‘द हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने अपना इंटरनेट संस्करण शुरू किया। और आज इनकी संख्या में दिनों दिन बढ़ोतरी हो रही है। सन् 1997 में दैनिक जागरण ने ‘जागरण डॉट कॉम’, 1998 में अमर उजाला ने ‘अमरउजाला डॉट कॉम’, दैनिक भास्कर ने ‘भास्कर डॉट कॉम’, 1999 में ‘वेबदुनिया डॉट कॉम’ और 2000 में प्रभात खबर ने ‘प्रभातखबर डॉट कॉम’ नाम से अपनी समाचार साइट लॉंच कर दी।जनवरी, 2011 में जागरण समूह ने अंग्रेज़ी में जागरणपोस्ट डॉट कॉम नाम से अपनी नई वेबसाइट लांच की।
लेकिन बेहतर प्रदर्शन न कर पाने के कारण वेबसाइट की काफी आलोचना हुई। जागरण पोस्ट के नाम से लांच यह वेबसाइट हिंदी पट्टी के अख़बारों की दूसरी अंग्रेज़ी वेबसाइट बन गई है। क्योंकि इसके पहले भास्कर समूह ने भी अपनी अंग्रेज़ी सेवा वाली अलग से समाचार वेबसाइट लांच कर दी थी। लगभग एक साल के भीतर ही जागरण समूह ने अपने ई-समाचारपत्र के रंग-रूप, डिज़ाइनिंग को लेकर भी काम किया। याहू कंपनी के साथ किये करार की समाप्ति की घोषणा के साथ ही नए यूआरएल पते के साथ इंटरनेट पर अपनी पुराने ई-समाचारपत्र को नए कलेवर मे प्रस्तुत किया। जनवरी 2012 में जागरण ने नए नाम से www.jagran.com इंटरनेट पर अपना हिंदी ई-समाचारपत्र चालू कर दिया। फ़िलवक्त जागरण समूह का पुराना ई-समाचारपत्र भी www.in.jagran.yahoo.com यूआरएल के साथ इंटरनेट पर देखने को मिल सकता है।
बेहतरी की तरफ कदम
मई, 2011 में प्रवासी भारतीयों को लक्ष्य कर अमरउजाला ने news.amarujala.com नाम से अंग्रेज़ी में अपना ई-समाचारपत्र चालू किया। इस तरह से एक-एक करके फरवरी, मार्च और अप्रैल में अमर उजाला समाचार समूह ने एजूकेशन, क्रिकेट और कॉमपेक्ट नाम से तीन वेबसाइट शुरू की। (एक्सचेंज फॉर मीडिया.कॉम, 19 मई, 2011) जबकि अमर उजाला का हिंदी ई-समाचारपत्र इससे पहले से ही वेब पर उपलब्ध था। अंग्रेज़ी पत्रकारिता के क्षेत्र में पहला ई-समाचारपत्र द हिंदू ने भी साल 2006 में अपने ऑनलाइन संस्करण में कुछ परिवर्तन किए। अपने ई-समाचारपत्र के साथ अपने प्रकाशित दैनिक का पीडीएफ वर्ज़न अर्थात् ई-पेपर संस्करण भी पाठकों को उपलब्ध करवाया।
इसी तर्ज़ पर राजस्थान पत्रिका ने 2008 में अपनी वेबसाइट का पहले से अधिक इंटरएक्टिव एवं वेब आधारित सुविधाओं से भरपूर बनाते हुए नए आकर्षक स्वरूप में पुन: लोकार्पण किया। इंटरनेट पर आगमन के बाद भारतीय ई-समाचारपत्रों के विकास का यह दूसरा दौर कहा जा सकता है। जब समाचार वेबसाइट अपनी प्रस्तुति पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रही हैं। अधिकाधिक यूज़र, हिट रेट्स एवं विज्ञापन जुटाने की प्रतिस्पर्धा में अपने ऑनलाइन संस्करणों को अधिक समृद्ध बनाने मे लगी हैं। यूज़र की सुविधानुरूप मोबाइल संस्करण हेतु अपने अख़बारों के हल्के स्वरूप उपलब्ध करवा रही हैं। ई-समाचारपत्र इस मुक़ाम तक पहुंच चुके हैं कि अब यह कहा जा सके कि लंबे इंतज़ार के बाद इन्होंने अपने लिए पाठक जुटा लिए हैं। परंतु ये नहीं कहा जा सकता कि भारतीय ई-समाचारपत्रों की चुनौतियां ख़त्म हो गई हैं।
यूनिकोड फोंट व क्षेत्रीय भाषाओं पर आधारित नए सॉफ्टवेयर प्रोग्राम ने भाषा संबंधी समस्या को सुलझाया है। विदेशों में ई-समाचारपत्रों की पठनीयता पर हुए शोध बताते हैं कि समाचारपत्रों की प्रकाशित प्रति ऑनलाइन समाचारपत्रों की अपेक्षा पाठकों को अधिक सुविधाजनक लगती हैं। अत: डेस्कटॉप, लैपटॉप, ई-रीडर, मोबाइल स्क्रीन पर असुविधाजनक अनुभव के मद्देनज़र विशेष डिस्पले तकनीक पर काम प्रारंभ हो चुका है। निस्संदेह भारतीय ई-समाचारपत्रों को भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए समय के साथ ख़ुद को संवर्द्धित करने की आवश्यकता महसूस होती रहेगी। और ई-समाचारपत्रों में परिष्कर्ण, संवर्द्धन का ये सिलसिला यूं ही चलता रहेगा। नये माध्यम की निरंतर परिवर्तनशील प्रकृति की बदौलत ई-समाचारपत्रों के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ होना बाक़ी है। विकास की ये प्रक्रिया यहीं थमी नहीं है। बीबीसी हिंदी डॉट कॉम की संपादक सलमा ज़ैदी का मानना है कि ऑनलाइन पत्रकारिता अभी पूरी तरह ज़मीनी स्तर से नहीं जुड़ पायी है। महंगी तकनीक एवं कंप्यूटर, ब्रॉडबैंड कनैक्शन में उच्च क्षमता का अभाव ये तमाम कारण उनके अनुसार ऑनलाइन पत्रकारिता के फैलाव में बाधक हैं। इस तथ्य में सौ प्रतिशत सच्चाई है।
ई-समाचारपत्रों का भविष्य
आज जिस स्वरूप में ई-समाचारपत्र दुनिया भर मे दिखाई दे रहे हैं, वह अत्यधिक संवर्द्धित एवं परिष्कृत स्वरूप है। निरंतर सालों तक कई फेर-बदल के बाद ई-समाचारपत्रों ने मानक शक़्ल अख़्तियार की है। मानक शक्ल से अभिप्राय ई-समाचारपत्रों का ले-आउट, स्वरूप एवं डिज़ाइनिंग, समाचारों का प्रस्तुति का तरीक़ा, नेवीगेश्नल सुविधाएं इत्यादि से है। ठीक इसी दृष्टिकोंण से पश्चिम में अनेक शोधों हुए हैं। ये शोध यह स्पष्ट करते हैं कि ऑनलाइन समाचार सामग्री तीन स्तरों पर जाकर विकसित हुई है। पहले स्तर पर प्रकाशित समाचारपत्र की सामग्री को ही ऑनलाइन संस्करणों के लिए ज्यों का त्यों उपलब्ध करवाया जाता था। ई-समाचारपत्रों का दूसरा चरण वह आया जब विषय-सामग्री को इंटरएक्टिव सुविधाओं जैसे सर्च इंजन, हाइपरलिंक्स और उपयोगकर्ता अपने अनुसार सामग्री को ढाल कर प्रयोग कर सके आदि सुविधाओं के साथ उपलब्ध करवाया जाने लगा। तीसरे स्तर पर जाकर ऑनलाइन समाचारपत्रों के लिए प्रकाशित समाचारपत्र सामग्री से अलग मौलिक सामग्री  का निर्माण किया जाने लगा।
पिछले कुछ सालों के दौरान बाज़ार में विज्ञापनों के बंटवारे पर नज़र डालें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि ई-समाचारपत्रों के पाठकों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ उनकों मिलने वाले विज्ञापनों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है। आय बढ़ने के साथ ही समाचारपत्र समूह अपने इंटरनेट संस्करण कार्यालय में कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ा रहे हैं। निसंदेह कहा जा सकता है कि ई-समाचारपत्रों का भविष्य उज्ज्वल है और ई-समाचारपत्रों की संख्या के साथ-साथ इनके पाठकों की संख्या में भी निरंतर बढोतरी होगी। दिनोंदिन ई-समाचारपत्रों पर उपलब्ध सामग्री की मात्रा और गुणवत्ता बढ़ रही है। अपने पाठकों की पसंद के अनुरूप ई-समाचारपत्र नये प्रयोग कर रहे हैं और पहले से बेहतर और सुंदर बन रहे हैं। भारत में भले ही आज ई-समाचारपत्रों के प्रसार का कोई असर प्रकाशित संस्करणों पर नहीं दिखाई दे रहा लेकिन ऐसा भविष्य में नहीं होगा ये अभी दावे से नहीं कहा जा सकता।

पत्रकारिता के छात्रों के लिए

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टीवी का सबसे बड़ा शत्रु TRP का घनचक्कर?

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तो इसे कहते हैं TRP?





डॉ. देव  व्रत  सिंह |


 भारतीय मीडिया में पिछले एक दशक के दौरान टेलीविजन के संदर्भ में यदि किसी एक शब्दावली का सबसे अधिक प्रयोग हुआ है तो वो है टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट। बार-बार टेलीविजन निर्माता टीआरपी का बहाना बनाकर या तो किसी कार्यक्रम को बंद कर देते हैं या फिर किसी धारावाहिक या रियलिटी शो को जरूरत से अधिक चलाते रहते हैं। जब-जब टेलीविजन के कार्यक्रमों की गुणवत्ता को लेकर बहस छिड़ी निर्माताओं ने दर्शकों की पसंद का तर्क दिया और दर्शकों की पसंद को मापने का तरीका टीआरपी को बनाया गया। जबकि तथ्य ये है कि मीडिया उद्योग के भी बहुत कम लोग जानते हैं कि आखिर टेलीविजन रेटिंग की बारीकियां किस प्रकार तय होती हैं।
 रेडियो और टेलीविजन चैनलों का कारोबार विज्ञापनों से होने वाली आय पर निर्भर करता है। सही मायने में चैनल अपने दर्शकों और श्रोताओं तक विज्ञापनदाताओं को पहुंचने की अनुमति देकर उसके एवज में फीस वसूलते हैं और अपने दर्शकों व श्रोताओं को विज्ञापनदाताओं के सामने परोसते हैं। बाजारवाद व उपभोक्तावाद के युग में कंपनियां प्रतिस्पर्धा के चलते अपने ग्राहकों तक तीव्रता और आसानी से पहुंचना चाहती हैं। मीडिया विज्ञापन का सशक्त माध्यम है लेकिन विभिन्न प्रकार के मीडिया की भीड़ में विज्ञापन कंपनियों को ये पता लगाने में काफी मेहनत करनी पड़ती है कि कौन सा मीडिया विशिष्ट ग्राहक वर्ग तक उन्हें सीधे पहुंचने में मदद करेगा। मीडिया चयन के काम में थोड़ी सी भी गलती से करोड़ों रूपये का विज्ञापन व्यर्थ चला जाता है। मीडिया और बाजार के जानकार गंभीरता और बारीकी से श्रोताओं संबंधी रिपोर्टों का अध्ययन करने के बाद ही किसी निर्णय पर पहुंचते हैं।
टीआरपी टेलीविजन दर्शकों और रेडियो लिसनरशिप सर्वे रेडियो के श्रोताओं की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और पसंद की शोध है जो एक तरफ कंपनियों को विज्ञापन माध्यम चुनने में मदद करती हैं तो दूसरी तरफ चैनलों को भी अपनी लोकप्रियता और आम लोगों की पसंद का अनुमान लगाने में सहायता करती हैं। इसके अलावा शोधकर्ता और अकादमिक लोगों के लिए भी ये सर्वे मीडिया के अध्ययन में सहयोगी बनते हैं।
आरंभिक काल
 सन् 1930में रेडियो श्रोताओं का अध्ययन करने के लिए अमेरिका में पहली बार एक स्वतंत्र एजेंसी कॉपरेटिव एनालिसिस ऑफ ब्रॉडकास्टिंग का गठन किया गया। इस एजेंसी के मालिक क्रोस्ले ने टेलीविजन रिकॉल सर्वे के जरिये रेडियो श्रोताओं के बारे में जानकारी एकत्रित की। सन् 1934में क्लॉड हूपर ने बिजनेस में कदम रखा और हूपररेटिंग भी काफी लोकप्रिय हुई। सन् 1939में ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कोर्पोरेशन ने भी अपनी रेडियो श्रोताओं के बारे में सर्वे करना आरंभ कर दिया था। ए.सी. निल्सन ने पहली बार इस काम के लिए ऑडिमीटर नामक यंत्र का प्रयोग किया। ऑडीमीटर रेडियो में लगा दिया जाता था और ये यंत्र रेडियो के डायल की स्थिति को एक टिकर की मदद से टेप जैसे एक पेपर पर रिकार्ड कर देता था। इससे पहले सभी लोग टेलीफोन के जरिये श्रोताओं से सुने गये कार्यक्रमों के बारे में सवाल पूछ कर ये अनुमान लगाते थे कि कौनसा चैनल अधिक सुना गया था।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद टेलीविजन की लोकप्रियता बढ़ी और इसके दर्शकों के बारे में भी आंकड़ों की जरूरत महसूस हुई। अमेरिका में सन् 1949में जेम्स सिलर ने अमेरिकन रिसर्च ब्यूरो स्थापित किया जो टेलीविजन रेटिंग्स का काम करती थी। ए.सी. निल्सन ने भी ऑडीमीटर की तरह ही पीपुलमीटर नामक एक यंत्र टेलीविजन रेटिंग्स के लिए ईजाद कर लिया। जल्दी ही बीबीसी ने भी इस दिशा में अपना कदम बढ़ा दिया। सन् 1963में अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रैजेंटेटिव में रेडियो और टेलीविजन रेटिंग की निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर सवाल उठा और ऐतिहासिक बहस हुई। इस आलोचना के बाद अमेरिका में कंपनियों ने रेटिंग के सैंपल साइज को पहले से अधिक निष्पक्ष, पारदर्शी और विस्तृत कर दिया। सरकार ने रेटिंग सेवाओं की निगरानी के लिए एक स्वतंत्र ब्रॉडकास्ट रेटिंग कांसिल का निर्माण भी किया। आर्बीट्रोन कंपनी ने सन् 1958में ऐसा मीटर बनया जिससे हर रोज रेटिंग का पता चल जाता था। बाद के काल में ए.सी. निल्सन और आरबीट्रोन के बीच रेटिंग के कारोबार में कड़ी प्रतिस्पर्धा रही।
 टीआरपी की तकनीक
 दुनियाभर में ही रेटिंग का आरंभ टेलीफोन कॉल से जानकारी इकट्ठा करने में हुआ। कार्यक्रम के प्रसारण के दौरान ही ये कंपनियां टेलीफोन करके दर्शकों या श्रोताओं से उनके द्वारा देखे या सुने जाने वाले कार्यक्रम के बारे में जानकारी जुटाती और उसके आधार पर किसी चैनल या कार्यक्रम की लोकप्रियता के बारे में निर्णय सुनाती। लेकिन इस विधि की कई सीमाएं थी। सबसे पहले तो ये आवश्यक नहीं कि रेडियो या टेलीविजन के सभी श्रोताओं या दर्शकों के पास टेलीफोन की सुविधा हो। ऐसे में सैंपल चयन में टेलीफोनधारकों को ही चुनना स्वयं में इस शोध को एकांगी बना देता था। दूसरा कुछ श्रोता कार में या घर से बाहर भी रेडियो का आनंद उठाते हैं। मोबाइल फोन बहुत बाद में आये हैं। इसलिए ऐसे श्रोताओं को टेलीफोन कॉल के सैंपल में शामिल ही नहीं किया जाता था। हालांकि कुछ कंपनियां श्रोताओं से पिछले 24घंटे में सुने गये कार्यक्रमों की जानकारी भी मांगने लगी। जिससे इस शोध के आंकड़ों का विस्तार हो जाता था। बाद में अनेक कंपनियों ने विभिन्न तकनीकी उपकरण का ईजाद करके रेटिंग के कारोबार को अधिक व्यवस्थित और विश्वसनीय बना दिया। फिर भी प्रत्येक सिस्टम की अपनी कमजोरियां और खूबियां बनी रहीं।
 डायरी सिस्टम
इसमें कंपनी श्रोताओं के सैंपल चुनकर उन्हें एक साप्ताहिक डायरी दे देती है और श्रोताओं को उस डायरी में प्रतिदिन सुने या देखे गये कार्यक्रमों के बारे में हर दिन लिखने को कहा जाता था। हर सप्ताह कंपनी का प्रतिनिधि घरों से ये डायरी इकट्ठा कर लेता है और उसमें नोट सारी जानकारी के आधार पर कंपनी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर देती है। इस डायरी में हर दिन के लिए एक पन्ने पर कार्यक्रम के नाम और समय का विवरण दिया जाता है। इस सिस्टम में किसी समय के दौरान परिवार के कितने सदस्यों ने कार्यक्रम विशेष देखा या सुना है ये विवरण भी दिया जाता है। इसके अलावा डायरी सिस्टम से उन लोगों को भी शोध का हिस्सा बनाया जा सकता है जिनके पास फोन नहीं है और जो रेडियो घर से बाहर भी सुनते हैं। लेकिन इस व्यवस्था की एक कमजोरी भी है। इसमें हम पूरी तरह श्रोताओं पर निर्भर हो जाते हैं। अनेक बार दर्शक या श्रोता आलस्य के कारण डायरी भरने का काम नियमित रूप से नहीं करता। कई बार वो ये काम करना भूल जाता है। अनेक बार गलत जानकारियां भरने का डर भी बना रहता है। इन सबके अलावा एक से अधिक चैनलों के बारे में जानकारियां भरना अक्सर पेचीदा हो जाता है और उसके लिए डायरी भी मोटी बन जाती है। जिससे श्रोता डायरी भरने के काम में निरूत्साहित हो जाता है।
 फ्रिक्वैंसी मैचिंग तकनीक
 दर्शकों और श्रोताओं की भूमिका को आंकड़े एकत्रित करने के काम में कम से कम करने करने की कोशिश में निल्सन कंपनी ने ऑडीमीटर और पीपुलमीटर ईजाद किये। निर्धारित सैंपल के तहत दर्शकों के घरों में उनकी सहमति से टेलीविजन सेट में पीपुलमीटर लगा दिया जाता है। दर्शकों को लिखित गोपनीयता के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर के बाद एक सेट टॉप बॉक्स दिया जाता है। इसमें अनेक बटन होते हैं। जब भी परिवार में टेलीविजन देखा जाता है तो कार्यक्रम देखने वाले दर्शकों की संख्या के अनुसार सेट टॉप बॉक्स पर बटन दबा दिया जाता है। जिसमें कंपनी को ये भी जानकारी मिल जाती है कि किस समय परिवार के कौन-कौन से सदस्यों ने टेलीविजन का कौन सा कार्यक्रम देखा। पीपुलमीटर टेलीवजिन सेट की पिक्चर ट्यूब से जुड़ा होता है और टेलीविजन में चल रहे चैनल की फ्रीक्वेंसी को रिकोर्ड करता रहता है। बाद में कंपनी चैनल फ्रिक्वैंसी के इस रिकॉर्ड की मदद से देखे जाने वाले चैनल का नाम पता कर लेती है। इस तकनीक की एक ही कमजोरी है। केबल ऑपरेटर उपग्रह प्रसारण से सिग्नल ग्रहण करके अनेक बार घरों में प्रसारित करते समय उनकी फ्रिक्वेंसी बदल देते हैं। ऐसे में संभव है कि अलग-अलग क्षेत्रों में एक ही चैनल की कई फ्रिक्वैंसी हों। जबकि कंपनी चैनलों की निर्धारित डाउनलिंकिंग फ्रिक्वैंसी से मिलान करके ही ये पता लगाती है कि दर्शक कौन सा चैनल देख रहे हैं।
 पिक्चर मैचिंग तकनीक
 फ्रिक्वैंसी मोनिटरिंग तकनीक की कमजोरी से निजात पाने के लिए एक नई तकनीक भी प्रयोग की जा रही है। पिक्चर मैचिंग तकनीक के तहत पीपुलमीटर पिक्चर ट्यूब में दिखाई जा रही तस्वीर के एक छोटे से हिस्से को निरंतर रिकोर्ड करता रहता है। जबकि कंपनी ऑफिस में भी सभी चैनलों के उसी हिस्से को चौबीस घंटे अलग-अलग रिकोर्ड किया जाता है। बाद में दर्शकों के घरों से प्रत्येक सप्ताह इकट्ठा की गयी रिडिंग का मिलान कम्प्यूटरीकृत तकनीक से कंपनी की रिकोर्ड की गई पिक्चर से की जाती है तो ये पता चल जाता है कि दर्शक विशेष कौनसा चैनल देख रहा था।
 भारतीय संदर्भ
 भारत में पहली बार टीरआरपी इंडियन मार्केट रिसर्च ब्यूरो ने सन् 1983में आयोजित की थी। उसके बाद ओआरजी मार्ग ने भी तीन साल बाद 1986में टेलीविजन रेटिंग की पहल की। आई.एम.आर.बी. ने देश के आठ शहरों में कुल 3600डायरी बांटी और तय किया कि जो भी व्यक्ति पांच मिनट या इससे अधिक देर तक टेलीविजन देखता है वो उनके दर्शक की श्रेणी में शामिल होगा। उस दौर में रामायण की टीआरपी 80प्रतिशत आंकी गयी थी। सन् 1991में उपग्रह चैनलों के आगमन के बाद उनकी लोकप्रियता को मापने के लिए भी यही डायरी का तरीका अपनाया गया। सन् 1995में पहली बार आई.एम.आर.बी. और ओ.आर.जी. मार्ग ने मिलकर पीपुलमीटर का आयात किया। भारत में आयात के बाद प्रत्येक पीपुलमीटर की कीमत 70हजार रूपये पड़ी। अगले ही साल रेटिंग की दिग्गज अमेरीकी कंपनी ए.सी. निल्सन ने आईएमआरबी के साथ हाथ मिलाकर भारत में टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट यान टैम का गठन किया। इसके अलावा ऑपरेशन रिसर्च ग्रुप और मार्केटिंग एंड रिसर्च ग्रुप भी इंडिया टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट (इनटैम) चलाती थी। सन् 2000में टैम ने इनटैम का अधिग्रहण कर लिया और तब से देश में केवल एक ही रेटिंग एजेंसी टैम काम कर रही हैं।
 वर्तमान में टैम तीन प्रकार के आंकड़े अपने ग्राहकों को उपलब्ध कराता है। पहला, कौन से कार्यक्रम देखे जा रहे हैं। दूसरा, किस समय देखे जा रहे हैं। तीसरा, उन्हें कौन देख रहा है। इसके अलावा विभिन्न कार्यक्रमों की रेटिंग और कुल दर्शकों में चैनलों की हिस्सेदारी के आंकड़े भी दिये जाते हैं। देश के 80से अधिक शहरों में फैले पीपुलमीटरों की मदद से टैम लगभग पचास चैनलों के बारे में हर हफ्ते जानकारी जुटाता है। मुख्यतः दर्शकों की उम्र, लिंग, आय, सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि इत्यादि के बारे में विस्तार से जानकारी जुटाई जाती है। रेटिंग एनालाइजर सेवा में टैम अपने ग्राहकों को कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से हर घंटे की रेटिंग का विवरण देती है। दर्शकों के निरंतर बदलते मूड और आदतों के बारे में ऑडिएंस इवैल्यूएटर की मदद ली जाती है। टैम की एडएक्स सेवा भी काफी लोकप्रिय है। इसमें 50से भी अधिक चैनलों पर दिखाये जाने वाले करीब 500उत्पादों के विज्ञापनों का विवरण उपलब्ध कराया जाता है। आजकल ये सब जानकारी टैम ऑनलाइन या सीडी में उपलब्ध कराती हैं।
 विश्वसनीयता का प्रश्न
रेटिंग्स पर निजी कंपनियों का करोड़ों का कारोबार टिका हुआ है। इसलिए ये सवाल अधिक महत्वपूर्ण बन जाता है कि रेटिंग आयोजित करने वाली कंपनी निष्पक्ष रूप से काम करे। रेटिंग के आधार पर टेलीविजन कार्यक्रमों का भविष्य भी तय होता है। यही नहीं, अक्सर निर्माता भी टीआरपी का बहाना बनाकर अपने कार्यक्रमों के पक्ष में माहौल बनाते हैं, इसलिए रेटिंग का सामाजिक महत्व भी बढ जाता है। क्योंकि रेटिंग आजकल टेलीविजन कंटैंट को निर्धारित कर रही हैं। रेटिंग के कारोबार में लगी टैम एक निजी कंपनी है और भारत में इस क्षेत्र में टैम का एकाधिकार है। अनेक मौकों पर टैम की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाये गये हैं। कुछ चैनलों ने तो चुनिंदा बड़े चैनलों को लाभ पहुंचाने का आरोप भी टैम पर लगाया है। कुछ साल पहले पीपुलमीटर जिन घरों में लगाया गया था उनकी गोपनीय सूची लीक हो गयी थी। ऐसे में कोई भी चैनल यदि कुछ पीपुलमीटर वाले घरों में रिश्वत देकर उन्हें सारे दिन एक ही चैनल चलाने के लिए राजी कर ले तो उस चैनल की टीआरपी में जबरदस्त उछाल आ जाएगा।
 लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह अकसर इस शोध के सैंपल साइज को लेकर लगाया जाता है। कुछ साल पहले तक टैम अपना सैंपल साइज 4555बताता था हालांकि ये साइज घटता बढ़ता रहता है। आलोचकों के अनुसार सौ करोड़ की आबादी वाले भारत में मात्र 4555घरों में पीपुलमीटर के आधार पर कैसे किसी कार्यक्रम या चैनल की लोकप्रियता का अंदाजा हो सकता है। सैंपल साइज के छोटा होने का एक बड़ा कारण पीपुलमीटर का काफी महंगा होना है। इसके अलावा जितने ज्यादा शहरों या घरों में पीपुलमीटर लगाये जाएंगे उतने ही कर्मचारियों की संख्या भी बढे़गी।
 सैंपल घरों का चुनाव भी विवाद का कारण है। आलोचक मानते हैं कि सैंपल पूरी तरह भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करता। क्योंकि अधिकांश पीपुलमीटर शहरों में लगाये गये हैं और गावों और छोटे शहरों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। मीडिया रिसर्च यूजर्स कौंसिल (डत्न्ब्) के अनुसार ये सर्वे देश का केवल 38प्रतिशत ही कवर करते हैं। दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भी कुल टेलीविजन घरों के अनुपात में पीपुलमीटर की संख्या काफी कम है। एक तर्क ये भी है कि टैम के मीटर केवल घरों में लगे होने के कारण ये हॉटल, विश्वविद्यालय परिसर, क्लब, कार्यालय इत्यादि को अपने दायरे में शामिल नहीं करते। जबकि बिजनेस चैनल और क्रिकेट तो ऑफिसों में अत्याधिक देखे जाते हैं। इसके अलावा, आजकल दो टीवी सेटों वाले घरों की संख्या भी बढ़ रही है। कुल मिलाकर वर्तमान रेटिंग सिस्टम दर्शकों की संख्या गिनने पर आधारित है ना कि टेलीविजन कार्यक्रमों को देखने की मात्रा पर आधारित।
टैम रेटिंग के विपक्ष में ये भी तर्क दिया जाता है कि ये राष्ट्रीय मनोरंजन चैनलों के पक्ष में पूर्वाग्रह रखती है और स्थानीय और क्षेत्रीय चैनलों को नजरअंदाज करती हैं। दूरदर्शन समेत इनाडू व सन टीवी का मानना है कि उनके दर्शकों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में काफी है जबकि टीआरपी का पूरा ढ़ांचा शहर आधारित होने के कारण उनकी टीआरपी उतनी नहीं दिखाई जाती जितने के वे हकदार हैं। इनाडू टेलीविजन के मालिक रामोजी राव ने तो ग्रामीण रेटिंग यानी टेलीविजन रूरल रेटिंग निकालने का विचार भी दे डाला है। लेकिन इतना भी तय है कि जब तक कोई वैकल्पिक रेटिंग की व्यवस्था आरंभ नहीं होती तब तक सारे उद्योग जगत को टैम रेटिंग पर ही निर्भर रहना पडे़गा और वो भी एकाधिकार के सारे खतरों के साथ। जब-जब रेटिंग की वर्तमान व्यवस्था की आलोचना जोर पकड़ती है विज्ञापन और मीडिया उद्योग सरकार से हस्तक्षेप करने की गुहार लगाता है। लेकिन सरकार का कहना है कि जब तक उसका कोई सीधा हित इसमें नहीं सधता तब तक वो इस पचडे़ में पैर नहीं डालेगी। सन् 2007में ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च कांसिल (ठ।त्ब्) का गठन किया गया। जिसमें रेटिंग के तीनों पक्षों- विज्ञापनदाता, विज्ञापन कंपनियां और मीडिया के संगठन शामिल हैं। मीडिया रिसर्च यूजर्स कौंसिल पहले से काम कर रही है। कहा जा सकता है कि रेटिंग्स के कारोबार को अधिकाधिक बहुआयामी और पारदर्शी बनाने के दबाव का असर दिखने लगा है।
इसमें कोई शक नहीं कि रेटिंग का पूरा कारोबार बाजार की जरूरत के आधार पर आरंभ किया गया है। आज भी रेटिंग्स की महंगी रिपोर्टों के असली उपभोक्ता शोधकर्ता ना होकर विज्ञापनदाता हैं। जिनकी निगाह अपने संभावित ग्राहकों पर रहती है। ऐसे में उभरते शहरी मध्यम वर्ग पर रेटिंग का केंद्रित होना स्वाभाविक है। यही नहीं चैनल भी अधिकाधिक विज्ञापन आकर्षित करने के लिए ये साबित करने पर तुले रहते हैं कि ग्रामीण आबादी नहीं बल्कि शहरी मध्यम वर्ग ही उनके मुख्य दर्शक हैं।
 भविष्य पर एक नजर
तकनीकी कनवर्जेंस पूरी दुनिया में मनोरंजन की तसवीर बदल रहा है। टेलीविजन और रेडियो भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। मोबाइल और इंटरनेट पर रेडियो उपलब्ध होने के बाद रेडियो लिसनरशिप सर्वे को अपना ढांचा बदलना पड़ रहा है, वहीं थ्री जी मोबाइल सेवा और इंटरनेट प्रोटोकोल टेलीविजन के बाद टीवी रेटिंग्स की परिभाषा बदल रही है। अब दर्शक केवल घरों में बैठकर टेलीविजन नहीं देखते। ठीक उसी प्रकार रेडियो सुनने के माध्यम भी बदल रहे हैं। डीटीएच भारत में तेजी से पैर पसार रहा है और वीडियो ऑन डिमांड सेवा से टेलीविजन की दर्शकता का स्वरूप बदल रहा है। श्रोताओं और दर्शकों की पसंद और आदतों पर नब्ज रख पाना अब पहले से अधिक कठिन हो गया है। क्योंकि बदलते मीडिया के अनुरूप दर्शक भी स्वयं को तेजी से ढ़ाल रहे हैं तो स्वाभाविक रूप से रेटिंग एजेंसियों को भी इसी रास्ते पर चलना पड़ेगा।

महत्वपूर्ण शब्दावली

 Arthur Nielsen: ए.सी. निल्सन ने दुनिया में पहली बार श्रोताओं के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए इलैक्ट्रोनिक यंत्र का उपयोग किया और अपने नाम से एक कंपनी बनाई जो बाद में दुनियाभर में रेटिंग्स जगत में छा गयी। दुनियाभर में निल्सन का नाम रेटिंग का पर्याय बन गया है।

Audimeter: अमेरिका के मैसाचुसेट्स ऑफ टैक्नोलोजी ने सन् 1936में रेडियो श्रवण के बारे में जानकारी जुटाने वाले मकैनिकल डिवाइस-ऑडीमीटर बनाया। ये मशीन रेडियो चलाने के दौरान उसके ट्यूनिंग किये गये चैनलों के बारे में प्रत्येक मिनट की जानकारी रिकोर्ड करने में सक्षम थी। इस यंत्र ने ही बाद में पीपुलमीटर के लिए जमीन तैयार की।

 BARC: सन् 2007में तीन मीडिया उद्योग संगठनों ने मिलकर ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च कौंसिल का निर्माण किया। इसमें विज्ञापनदाता, विज्ञापन कंपनियां और मीडिया शामिल हैं। इसका उद्देश्य टेलीविजन और अन्य ऑडियो-विजुअल मीडिया की सही और नयी रेटिंग उपलब्ध करना है।

 DART: दूरदर्शन ऑडिएंस रेटिंग्स यानि डार्ट के नाम से जानी जाने वाली ये रेटिंग दूरदर्शन चैनलों के दर्शकों के बारे में जानकारी जुटाने के लिए आरंभ की गयी थी। स्वयं दूरदर्शन की दर्शक अनुसंधान इकाई डायरी मैथड से ये रिसर्च करती हैं। इसके लिए देशभर में दूरदर्शन केन्द्रों पर रिसर्च ऑफिसर नियुक्त किये गये हैं।
क्पंतल उमजीवकरू रेटिंग के इस तरीके के तहत सैंपल घरों में एक डायरी का वितरण किया जाता है और दर्शक से प्रतिदिन देखे गये कार्यक्रमों और उनके बारे में अपनी पसंद और ना पसंद की जानकारी उसमें भरने का आग्रह किया जाता है। रिसर्च प्रतिनिधि हर हफ्ते ये डायरी एकत्रित कर शोध के लिए आंकडे़ इकट्ठा कर लेता है।

MRUC:मीडिया रिसर्च यूजर्स कौंसिल विज्ञापनदाताओं, विज्ञापन कंपनियों, प्रकाशकों और प्रसारण माध्यमों का एक ऐसा संगठन है जो किसी मुनाफे के उद्देश्य से नहीं चलाया जाता। इसका गठन सन् 1994में किया गया था। वर्तमान में इस संगठन के सभी बडे़ मीडिया कंपनियों समेंत 200से अधिक सदस्य हैं। इसका उद्देश्य अपने सदस्यों को सस्ती, सुलभ और विश्वसनीय श्रोता अनुसंधान सुनिश्चित कराना और सभी प्रकार की रेटिंग सेवा पर निगरानी रखना।

People meter: ये इलेक्ट्रोनिक यंत्र टेलीविजन में पिक्चर ट्यूब के साथ जोड़ दिया जाता है। फ्रिक्वेंसी मोनिटरिंग तकनीक और पिक्चर मैचिंग तकनीक के जरिये पीपुलमीटर टेलीवजिन सेट में चल रहे चैनल विशेष के बारे में बिना किसी व्यवधान डाले जानकारी रिकार्ड कर लेता है। प्रत्येक सप्ताह ये जानकारी एकत्रित करके टीआरपी निकाली जाती है।

TAM: भारत में टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमैंट यानी टैम एकमात्र ऐसी एजेंसी है जो टीआरपी तय करती है। निल्सन और इंडियन मार्केट रिसर्च ब्यूरो की आधे-आधे की साझेदारी वाली ये कंपनी देशभर में फैलेअपने नेटवर्क की मदद से टैम हर हफ्ते टीआरपी की घोषणा करती है।

IMRB: इंडियन मार्केट रिसर्च ब्यूरो देश की सबसे बड़ी मार्केट रिसर्च कंपनी है। आरंभ से ही ये कंपनी टेलीविजन रेटिंग से जुड़ी हुई है। टैम में इस कंपनी की आधी हिस्सेदारी है।

ORG-MARG: ऑपरेशन रिसर्च ग्रुप और मार्केटिंग एंड रिसर्च ग्रुप पहले दो अलग कंपनियां थी।
बाद में दोनों का विलय हुआ। इस कंपनी ने इंडियन टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमैंट यानी इनटैम आरंभ की थी। लेकिन प्रतिस्पर्धा के बाद टैम में इसका विलय हो गया।

डॉ. देव  व्रत  सिंहझारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।
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