Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all 3437 articles
Browse latest View live

दिल्ली

$
0
0

http://hi.wikipedia.org/s/2ny

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
दिल्ली
—  महानगर  —
ऊपर बहाई मंदिर, बांए इन्डिया गेट, दाएं हुमायुं का मकबरा और बीच में राष्ट्रपति भवन
ऊपर बहाई मंदिर, बांए इन्डिया गेट, दाएं हुमायुं का मकबराऔर बीच में राष्ट्रपति भवन
समय मंडल:आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देशFlag of India.svg भारत
केन्द्र शासित प्रदेशदिल्ली
जिला
मुख्यमंत्रीशीला दीक्षित
उप राज्यपालतेजेंदर खन्ना
महापौरआरती मेहरा
जनसंख्या
घनत्व
महानगर
११,९५४,२१७ (२००७ अनु.) (दूसरा)
• 11,463 /कि.मी. (29,689 /वर्ग मी.)
[1]
आधिकारिक भाषा(एँ)हिन्दी, पंजाबी, उर्दू
क्षेत्रफल
ऊँचाई (AMSL)
1,484 कि.मी² (573 वर्ग मील)
• 239 मीटर (784 फी॰)[2]
आधिकारिक जालस्थल: delhigovt.nic.in
निर्देशांक: 28.61, 77.23दिल्ली (पंजाबी: ਦਿੱਲੀ, उर्दू: دلی, IPA: [d̪ɪlːiː]) , आस-पास के कुछ जिलों के साथ भारतका राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है। इसमें नई दिल्लीसम्मिलित है जो ऐतिहासिक पुरानी दिल्ली के बाद बसा था। यहाँ केन्द्र सरकार की कई प्रशासन संस्थाएँ हैं। औपचारिक रूप से नई दिल्ली भारत की राजधानी है।[तथ्य वांछित]१४८३ वर्ग किलोमीटर में फैला दिल्ली भारत का तीसरा सबसे बड़ा महानगर है। यहाँ की जनसंख्या लगभग १ करोड ७० लाख है। यहाँ बोली जाने वाली मुख्य भाषायें है: हिन्दी, पंजाबी, उर्दू, और अंग्रेज़ी। दिल्ली का ऐतिहासिक महत्त्व उत्तर भारत में इसके स्थान पर है। इसके दक्षिण पश्चिम में अरावलीपहाड़ियां और पूर्व में यमुनानदी है, जिसके किनारे यह बसा है। यह प्राचीन समय में गंगाके मैदान से होकर जानेवाले वाणिज्य पथों के रास्ते में पड़ने वाला मुख्य पड़ाव था।[3]
यमुना नदीके किनारे स्थित इस नगर का गौरवशाली पौराणिक इतिहास है। यह भारत का अतिप्राचीन नगर है। इसके इतिहास का प्रारम्भ् सिन्धु घाटी सभ्यतासे जुड़ा हुआ है। हरियाणाके आसपास के क्षेत्रों में हुई खुदाई से इस बात के प्रमाण मिले हैं। महाभारतकाल में इसका नाम इन्द्रप्रस्थथा। दिल्ली सल्तनतके उत्थान के साथ ही दिल्ली एक प्रमुख राजनैतिक, सास्कृतिक एवं वाणिज्यिक शहर के रूप में उभरी।[4]यहाँ कई प्राचीन एवं मध्यकालीन इमारतों तथा उनके अवशेषों को देखा जा सकता हैं। १६३९में मुगल बादशाह शाहजहाँनें दिल्ली में ही एक चहारदीवारी से घिरे शहर का निर्माण करवाया जो१६७९से १८५७तक मुगल साम्राज्यकी राजधानी रही।
१८वीं एवं १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनीने लगभग पूरे भारत को अपने कब्जे में ले लिया। इन लोगों ने कोलकाताको अपनी राजधानी बनाया। १९११में अंग्रेजी सरकार ने फैसला किया कि राजधानी को वापस दिल्ली लाया जाए। इसके लिए पुरानी दिल्ली के दक्षिण में एक नए नगर नई दिल्ली का निर्माण प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजों से १९४७में स्वतंत्रता प्राप्त कर नई दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् दिल्ली में विभिन्न क्षेत्रों से लोगों का प्रवासन हुआ, इससे दिल्ली के स्वरूप में आमूल परिवर्तन हुआ। विभिन्न प्रान्तो, धर्मों एवं जातियों के लोगों के दिल्ली में बसने के कारण दिल्ली का शहरीकरण तो हुआ ही यहाँ एक मिश्रित संस्कृति नें भी जन्म लिया। आज दिल्ली भारत की एक प्रमुख राजनैतिक, सास्कृतिक एवं वाणिज्यिक केन्द्र है।

अनुक्रम

नामकरण

इस नगर का नाम "दिल्ली" कैसे पड़ा इसका कोई निश्चित संदर्भ नहीं मिलता लेकिन व्यापक रूप से यह माना गया है कि यह एक प्राचीन राजा "ढिल्लु" से सम्बन्धित है। कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि यह देहली का एक विकृत रूप है, जिसका हिन्दुस्तानीमें अर्थ होता है 'चौखट',जो कि इस नगर के सम्भवतः सिन्धु-गंगा समभूमि के प्रवेश-द्वार होने का सूचक है। एक और अनुमान के अनुसार इस नगर का प्रारम्भिक नाम "ढिलिका" था। हिन्दी/प्राकृत "ढीली" भी इस क्षेत्र के लिये प्रयोग किया जाता था जो अन्तत।

इतिहास


लाल किला
दिल्ली का प्राचीनतम उल्लेख महाभारतमें मिलता है जहाँ इसका उल्लेख प्राचीन इन्द्रप्रस्थके के रूप में किया गया है। इन्द्रप्रस्थ पांडवों की राजधानी थी।[5]पुरातात्विक रूप से जो पहले प्रमाण मिले हैं उससे पता चलता है कि ईसा से दो हजार वर्ष पहले भी दिल्ली तथा उसके आस-पास मानव निवास करते थे।[6]मौर्य-काल (ईसा पूर्व ३००) से यहाँ एक नगर का विकास शुरु हुआ। चंदरबरदाईकी रचना पृथ्वीराज रासोमें तोमरराजा अनंगपालको दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि उसने ही 'लाल-कोट' का निर्माण करवाया था और लौह-स्तंभ को दिल्ली लाया। दिल्ली में तोमरो का शासनकाल ९००-१२००इसवीं तक माना जाता है। 'दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया। इस शिलालेख का समय ११७०इसवीं निर्धारित किया गया।
१२०६इसवीं के बाद दिल्ली दिल्ली सल्तनतकी राजधानी बनी। इसपर खिलज़ी वंश, तुगलक़ वंश, सैयद वंशऔर लोधी वंशसमते कुछ अन्य वंशों ने शासन किया। ऐसा माना जाता है कि आज की आधुनिक दिल्ली बनने से पहले दिल्ली सात बार उजड़ी और विभिन्न स्थानों पर बसी, जिनके कुछ अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं। दिल्ली के तत्कालीन शासकों ने इसके स्वरूप में कई बार परिवर्तन किया। मुगल बादशाह हुमायूँ ने सरहिंद के निकट युद्ध में अफ़गानों को पराजित किया तथा बिना किसी विरोध के दिल्ली पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ की मृत्यु के बाद हेमू विक्रमादित्य के नेतृत्व में अफ़गानों नें मुगल सेना को पराजित कर आगरा व दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह अकबरने अपनी राजधानी को दिल्ली से आगरास्थान्तरित कर दिया। अकबर के पोते शाहजहाँ (१६२८-१६५८) ने सत्रहवीं सदी के मध्य में इसे सातवीं बार बसाया जिसे शाहजहानाबाद के नाम से पुकारा गया। शाहजहानाबाद को आम बोल-चाल की भाषा में पुराना शहर या पुरानी दिल्ली कहा जाता है। प्राचीनकाल से पुरानी दिल्ली पर अनेक राजाओं एवं सम्राटों ने राज्य किया हैं तथा समय-समय पर इसके नाम में भी परिवर्तन किया जाता रहा था। पुरानी दिल्ली १६३८के बाद मुग़ल सम्राटों की राजधानी रही। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र था।
१८५७के सिपाही विद्रोहके बाद दिल्ली पर ब्रिटिश शासन के हुकुमत में शासन चलने लगा। १८५७के इस प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्रामके आंदोलन को पूरी तरह दबाने के बाद अंग्रेजों ने बहादुरशाह ज़फ़रको रंगूनभेज दिया तथा भारत पूरी तरह से अंग्रेजो के अधीन हो गया। प्रारंभ में उन्होंने कलकत्ते (आजकल कोलकाता) से शासन संभाला परंतु १९११में उपनिवेशराजधानी को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। १९४७में भारत की आजादी के बाद इसे अधिकारिक रूप से भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया। दिल्ली में कई राजाओं के साम्राज्य के उदय तथा पतन के साक्ष्य आज भी विद्यमान हैं। सच्चे मायने में दिल्ली हमारे देश के भविष्य, भूतकाल एवं वर्तमान परिस्थितियों का मेल-मिश्रण हैं। तोमर शासको मै दिल्ली कि स्थापना का शेय अनंगपाल को जाता है।

जलवायु, भूगोल और जनसांख्यिकी

भौगोलिक स्थिति


दिल्ली में यमुनानदी
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रदिल्ली 1,484 कि.मी. (573 वर्ग मील) में विस्तृत है, जिसमें से 783 कि.मी. (302 वर्ग मील) भाग ग्रामीण, और 700 कि.मी. (270 वर्ग मील) भाग शहरी घोषित है। दिल्ली उत्तर-दक्षिण में अधिकतम 51.9 कि.मी. (32 मील) है और पूर्व-पश्चिम में अधिकतम चौड़ाई 48.48 कि.मी. (30 मील) है। दिल्ली के अनुरक्षण हेतु तीन संस्थाएं कार्यरत है:-
  • दिल्ली नगर निगम:निगम विश्व की सबसे बड़ी नगर पालिका संगठन है, जो कि अनुमानित १३७.८० लाख नागरिकों (क्षेत्रफल 1,397.3 कि.मी. or 540 वर्ग मील) को नागरिक सेवाएं प्रदान करती है। यह क्षेत्रफ़ल के हिसाब से भी मात्र टोक्योसे ही पीछे है।"[7]. नगर निगम १३९७ वर्ग कि.मी. का क्षेत्र देखती है।
  • नई दिल्ली नगरपालिका परिषद: (एन डी एम सी) (क्षेत्रफल 42.7 कि.मी. or 16 वर्ग मील) नई दिल्लीकी नगरपालिका परिषद का नाम है। इसके अधीन आने वाला कार्यक्षेत्र एन डी एम सी क्षेत्र कहलाता है।
  • दिल्ली छावनी बोर्ड: (क्षेत्रफल (43 कि.मी. or 17 वर्ग मील)[8]जो दिल्ली के छावनीक्षेत्रों को देखता है।
दिल्ली एक अति-विस्तृत क्षेत्र है। यह अपने चरम पर उत्तर में सरूप नगर से दक्षिण में रजोकरीतक फैला है। पश्चिमतम छोर नजफगढ़से पूर्व में यमुना नदीतक(तुलनात्मक परंपरागत पूर्वी छोर)। वैसे शाहदरा, भजनपुरा, आदि इसके पूर्वतम छोर होने के साथ ही बड़े बाज़ारों में भी आते हैं। रा.रा.क्षेत्र में उपरोक्त सीमाओं से लगे निकटवर्ती प्रदेशों के नोएडा, गुड़गांवआदि क्षेत्र भी आते हैं। दिल्ली की भू-प्रकृति बहुत बदलती हुई है। यह उत्तर में समतल कृषि मैदानों से लेकर दक्षिण में शुष्क अरावली पर्वतके आरंभ तक बदलती है। दिल्ली के दक्षिण में बड़ी प्राकृतिक झीलें हुआ करती थीं, जो अब अत्यधिक खनन के कारण सूखाती चली गईं हैं। इनमें से एक है बड़खल झीलयमुना नदीशहर के पूर्वी क्षेत्रों को अलग करती है। ये क्षेत्र यमुना पारकहलाते हैं, वैसे ये नई दिल्ली से बहुत से पुलों द्वारा भली-भांति जुड़े हुए हैं। दिल्ली मेट्रोभी अभी दो पुलों द्वारा नदी को पार करती है।
दिल्ली 28.61, 77.23पर उत्तरी भारतमें बसा हुआ है। यह समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालयसे १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदीके किनारे पर बसा है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफं से हरियाणाराज्य तथा पूर्व में उत्तर प्रदेशराज्य द्वारा घिरा हुआ है। दिल्ली लगभग पूर्णतया गांगेय क्षेत्रमें स्थित है। दिल्ली के भूगोल के दो प्रधान अंग हैं यमुनासिंचित समतल एवं दिल्ली रिज (पहाड़ी)। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थित मैदानी उपत्यकाकृषि हेतु उत्कृष्ट भूमि उपलब्ध कराती है, हालांकि ये बाढ़ संभावित क्षेत्र रहे हैं। ये दिल्ली के पूर्वी ओर हैं। और पश्चिमी ओर रिज क्षेत्र है। इसकी अधिकतम ऊंचाई ३१८ मी.(१०४३ फी.) [9]तक जाती है। यह दक्षिण में अरावली पर्वतमाला से आरंभ होकर शहर के पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक फैले हैं। दिल्ली की जीवनरेखा यमुनाहिन्दू धर्ममें अति पवित्र नदियों में से एक है। एक अन्य छोटी नदी हिंडन नदीपूर्वी दिल्लीको गाजियाबादसे अलग करती है। दिल्ली सीज़्मिक क्षेत्र-IVमें आने से इसे बड़े भूकम्पोंका संभावी बनाती है।[10]

जल संपदा

चित्र:DElhi-Water-Chanel.gif
दिल्ली की जल संरचना
भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं।दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था।[11]
व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली आज जिस स्थिति में है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुनाका होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। ५०० ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी संपत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना

ऐसे तो पत्रकारिता बचने से रही / प्रभाष जोशी

$
0
0

मीडिया - No Comments » - Posted on March, 12 at 8:42 am
प्रभाष जोशी

 कहा जा रहा है कि सारा संसार विश्वग्राम हो गया है। इसमें सभी छोटे हैं और बड़ी हैतो सिर्फ टेक्नोलाजी। जिस विज्ञान ने यह कहा कि द वर्ल्ड इज बिकमिंग अ ग्लोबलविलेज, वह ग्लोबल तो जानता था लेकिन विलेज को नहीं जानता था। गांव केवल छोटी सीबस्ती नहीं है बल्कि गांव एक जैविक समाज है। हम जिस टेक्नोलाजी को बढ़ा रहे हैं वहसब चीजों को छोटी करके जैविक समाज को नष्ट करने वाली टेक्नोलाजी है। यानी आदमी छोटाहै, उसकी मशीन उससे बड़ी है। 
मोबाइलतो छोटा है। पर अगर उसके कारण मेरा सीधा संबंध पत्नी से होगा तब पत्नी से ज्यादामहत्वपूर्ण तो मोबाइल बन जाएगा। ये टेक्नोलाजी तार को तार से जोड़ने वाली है, दिल कोदिल से जोड़ने वाली नहीं। तो जिसने भी यह कहा कि दुनिया एक विश्व ग्राम बनती जा रहीहै वह छोटी बस्ती बनाना चाहता था जैविक समाज नहीं। इसका संबंध पत्रकारिता से भी है।पत्रकारिता में मुख्य अब ये नहीं है कि हम अपनी बात दूसरे से क्या कह रहे हैं। सबसेज्यादा महत्वपूर्ण है कि कितनी तेजी से कह रहे हैं और कितनी चमक से कह रहे हैं।यानी फार्म इज मोर इंपार्टेंट दैन कंटेंट। कंटेंट तो हम किसी तरह बना सकते हैं, उसको जितने अच्छे से हम पहुंचाएंगे उतना ही हमारा महत्व है। यह मुख्यत: दो बातों परनिर्भर है। 
मैंकिस्से के जरिए अपनी बात कहूंगा। पिछले साल पंद्रह अगस्त के आसपास चेन्नई में जन्मीइंदिरा नूई को पेप्सी ने अपना सीईओ बना दिया। जब इंदिरा पेप्सी की सीईओ हुईं तोटाइम्स नाऊ के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी ने अपने चैनल पर खबर पढ़ते समय इस घटनाका उल्लेख करते हुए कहा कि वाट एन एचिवमेंट आन इंडिपेंडेंस डेयानी स्वतंत्रतादिवस पर क्या उपलब्धि है। यानी आपने स्वतंत्रता संग्राम इसलिए चलाया कि एक दिन आपकेयहां की लड़की पेप्सी बेचने वाली कंपनी की सीईओ हो जाएगी। क्या इसे स्वतंत्रताआंदोलन की उपलब्धि माना जाए? 
अर्णबगोस्वामी ऑक्सफोर्ड में पढ़े विद्वान आदमी हैं। वे हमारे मित्र हैं। उनको एक क्षण भीनहीं लगा कि मल्टीनेशनल्स के खिलाफ 190 सालों तक लड़ाई लड़ने वाले देश की बेटी केपेप्सी जैसे किसी मल्टीनेशनल के सीईओ होने पर नाचना उचित नहीं है। उन्होंने इसेभारत की बहुत बड़ी उपलब्धि माना। आज हमारा मध्यवर्ग पैसे कमाने का पराक्रम करता हैतो उसे ही भारतीय स्वतंत्रता का पराक्रम मानकर प्रचारित किया जाता है। यानी भारतइसलिए स्वतंत्र हुआ कि हम एक दिन दुनिया में सबसे अमीर देश होंगे और हमारा डंकाअमेरिका में भी बजेगा। ये हमारे पढ़े-लिखे और बहुत ही समझदार वर्ग की धारणा है। 
एकजमाना वह था जब 1946-47 में अजित भट्टाचार्य ने स्टेट्समैन का प्रस्ताव ठुकरा करहिंदुस्तान टाइम्स से पत्रकारिता शुरू की थी। स्टेट्समैन उस जमाने में बहुतप्रतिष्ठित अखबार था और बहुत ज्यादा पैसे देता था। उन्होंने सोचा कि मैं क्यों देशकी स्वतंत्रता के विरूद्ध खड़े रहने वाले अखबार स्टेटसमैन में जाऊं जबकि मेरा देशआजाद हो रहा है। उस समय हिंदुस्तान टाइम्स स्वतंत्रता संग्राम का समर्थक अखबार था।इसलिए स्टेट्समैन की प्रतिष्ठा और पैसा छोड़कर अजित भट्टाचार्य हिंदुस्तान टाइम्समें अप्रेंटिस सब एडीटर हुए। 
मैंइसे देखकर चकित रह गया कि जिस अखबार को अजित बाबू ने काम करने के लिए इसलिए चुना किवह स्वतंत्रता संग्राम का समर्थक अखबार था, उसी का हिंदी अखबार खुद को बेचने के लिएपुलित्जर पुरस्कार दिलवाने की कामना कर रहा है। अब भला पुलित्जर पुरस्कार का भारतीयपत्रकारिता की परंपरा से क्या लेना-देना। पुलित्जर पुरस्कार सिर्फ अंग्रेजी में औरअमेरिकी पत्रकारिता करने वाले को मिल सकता है। भारतीय पत्रकारिता और हिंदी मेंपत्रकारिता करने वाले को वह पुरस्कार कभी नहीं मिल सकता। लेकिन हिंदुस्तान नाम काहिंदी अखबार पुलित्जर पुरस्कार की ओर इसलिए झुक रहा है कि उसके पाठकों को यह लगे किये तो सारे संसार में भारत का डंका पीटने वाला ध्वजावाहक अखबार है। हिंदुस्तान नेहर तरह से यह बताने की कोशिश की है कि इस दौर की रीमिक्स वाली पत्रकारिता ही भविष्यकी पत्रकारिता है। पत्रकारिता में देसी परंपरा की बात तो एंग्री ओल्ड मैन टाईप लोगही करते हैं। 
मैंभारतीय मध्यवर्ग के अमेरिकी प्रेम के बारे मे कह रहा हूं। ये दो उदाहरण मैंने कोईमाखौल उड़ाने के मकसद से नहीं दिए हैं। आधी सदी पत्रकारिता में गुजारने के बाद मुझेकिसी पर कुल्हाड़ी चलाने या किसी पर खुंदक निकालने की कोई इच्छा नहीं हैं। बाइबल मेंकहा है कि ये जो घंटी बज रही है, इसको देखकर चिंतित हो जाओ क्योंकि यह किसी और केलिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए बज रही है। पत्रकारिता में मैं जो भी होते हुए देखताहूं तो लगता है कि मेरे लिए घंटी बज रही है। हमने पत्रकारिता में आधी सदी इसलिएगुजारी कि हमें लगता था कि पत्रकारिता के जरिए समाज में थोड़ा-बहुत शुभ्र परिवर्तनकर सकेंगे। ऐसा नहीं होता तो क्रिकेट खेलते और आज दस करोड़ सालाना लेकर टेलीविजन परमजे से कमेंट्री करते। 
भारतीयपत्रकारिता दुनिया के अन्य देशों की पत्रकारिता से इसलिए भिन्न और श्रेष्ठ हैक्योंकि इसने अपने देश को जगाया और उसे आजाद कराने में अहम भूमिका निभाई। इसमेंलोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी जैसे संपादक हुए, जिन्होंने मानवता को जगाया।महात्मा गांधी ने डरबन में संपादक के नाम पत्र लिखकर शुरूआत की थी। यह पत्रउन्होंने तब लिखा जब उन्हें पगड़ी उतारने को कहा गया था और उन्होंने ऐसा करने सेइनकार कर दिया था। महात्मा गांधी ने अपनी राजनीति की शुरूआत पत्रकारिता के साथ-साथकी। उस समय एक भी नेता ऐसा नहीं था जिसने यह नहीं सोचा हो कि पहले अच्छा अखबारनिकालकर लोगों से बात करनी चाहिए, फिर मुझे नेता बनाना चाहिए। अगरऐसा नहीं होता तो अकबर इलाहाबादी नहीं कहता कि जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।इस तरह की पंक्ति दुनिया की किसी कविता में नहीं मिलेगी। 
अगरहम पत्रकारिता की अपनी परंपरा को छोड़ देंगे तो रेगिस्तान में पानी के लिए तरसनेवाले एक जीव की तरह पड़े रहेंगे। क्योंकि प्राणवायु तो इसी परंपरा से मिलेगी। इस देशका पहला अखबार एक अंग्रेज ने निकाला। हिकी ने अखबार इसलिए नहीं निकाला कि उसकोअंग्रेजी सरकार का गुणगान करते हुए विज्ञापन प्राप्त करना था। अंग्रेज और अंग्रेजीराज होते हुए भी उसने अखबार इसलिए निकाला क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी में जो घोटालेहोते थे, उनका भंडाफोड़ किया जाना उसे आवश्यक लगा। अंग्रेजों को अपने ही आदमी द्वारानिकाले जाने वाला अखबार रास नहीं आया। अंग्रेजी सरकार ने न सिर्फ अखबार बंद करवाया, बल्कि हिकी को तत्काल वापस भेज दिया।
 भारतकी मिट्टी में कुछ ऐसा है कि अंग्रेज भी जब राज करने आता है तो उसके साथ आयापत्रकार भंडाफोड़ करने में लग जाता है। इसलिए मैं चकित हूं कि मनमोहन सिंह के साथकाम करने वाले पत्रकार अमेरिका के साथ हो रहे परमाणु करार की क्यों इतनी तारीफ करतेहैं। हिकी तक को समझ में आता था कि मेरी सरकार क्या गड़बड़ कर रही है। वह जानता था किउसका काम इसकी तारीफ करना नहीं, बल्कि भंडाफोड़ करना है। इसके उलट हमारे सारेअंग्रेजी अखबारों को ये समझ में नहीं आता कि  सवा लाख लोगों को उजाड़कर जो सरदारसरोवर बनाया गया है उसकी बिजली सिर्फ पांच कारपोरेशनों को दी जाती है। इसके अलावापटेलों की एक-आध कालोनियों में ही यह बिजली जाती है। 
जबओंकारा फिल्म मैं देखने गया तो गौर किया कि कई चैनल और अखबार इसके मीडिया पार्टनरहैं। इसके कुछ दिन बाद मैंने आज तकपर ओंकारा फिल्म पर आधारित आधे घंटे काकार्यक्रम देखा। इसमें रितुल जोशी ने बताया कि ओंकारा शेक्सपियर के उपन्यास ओथेलोपर आधारित है। अब उन्हें कौन बताए कि शेक्सपियर ने सिर्फ नाटक और कविता लिखी थी, एकभी उपन्यास या कहानी नहीं। अगर सारे चैनल और अखबार फिल्मों के मीडिया पार्टनर बननेलगे तो लोगों को फिल्म समीक्षा पढ़ने को नहीं मिलेगी। वे तो फिल्मों को प्रमोट करनेमें लगे रहेंगे। इस तरह से महान भारतीय पत्रकारिता आलोचना और समीक्षा की अपनीपरंपरा को खो देगी। क्योंकि फिल्म की समीक्षा करने की बजाए उसे  प्रमोट करना मजबूरीबन जाएगी। 
भारतमें जन्मे और यूरोप में व्यवसाय कर रहे अरुण नायर पिछले साल एलिजाबेथ हर्ले नाम कीएक सुंदर महिला को लेकर भारत आए। वे भारतीय पध्दति से भारत में विवाह करना चाहतेथे। ईसाई पध्दति से इंग्लैंड में वे शादी कर चुके थे। अरुण नायर और एलिजाबेथ हर्लेका फोटो टाइम्स आफ इंडिया ने छापा और शीर्षक दिया यट अनदर इंडियन टेकओवर।वो बड़ेशानदार दिन थे जब मित्तल ने आर्सेलर का अधिग्रहण किया था और टाटा ने कोरस का टेकओवरकिया था। 
टाइम्सआफ इंडिया ने इसके जरिए एलिजाबेथ हर्ले को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में बदल दिया।क्योंकि टेकओवर तो बड़ी कंपनी छोटी कंपनी का करती है। यानी एलिजाबेथ हर्ले प्रेम मेंपड़कर भारतीय पध्दति से शादी करने भारत नहीं आई थी बल्कि एक प्राइवेट कंपनी थी जिसकाटेकओवर अरुण नायर नाम की भारतीय कंपनी ने कर लिया। विवाह की परंपरा को उस अखबार नेटेकओवर की व्यावसायिक परंपरा के साथ खड़ा कर दिया। 
जोधपुरमें राजस्थानी रस्मो-रिवाज के साथ उनकी शादी हुई। विवाह के बाद अरुण के माता पिताने यह कहा कि शादी में उनकी अनदेखी हुई है। इस बात को लेकर झगड़ा चला। इस झगड़े मेंयह बात सामने आई कि एलिजाबेथ हर्ले ने भारतीय पद्धति से ब्याह रचाने को हेलोनामकी लाइफस्टाइल पत्रिका को एक करोड़ चालीस लाख रुपए में पहले ही बेच दिया था। इसलिएभारत में उसका कोई कवरेज नहीं कर सकता था। उस विवाह का पूरा खर्चा एक करोड़ हुआ।यानि एलिजाबेथ हर्ले ने भारतीय पध्दति से ब्याह रचाने में चालीस लाख रुपए बनाए। 
जोधपुरके एक व्यक्ति ने अदालत में केस किया कि इन दोनों ने हमारी विवाह की परंपरा को ठेसपहुंचाया है। कुछ दिन बाद टाइम्स आफ इंडिया में खबर छपी कि भारत कीन्यायपालिका परकरोड़ों केस का दबाव पहले से है और इस आदमी ने एक केस और कर दिया। ये आदमी समझतानहीं है कि इस विवाह के जरिए भारतीय पध्दति को दुनिया के अमीरों के हाथों बेचने काकितना अच्छा अवसर मिला था। 
अगरआप अखबारों को प्रकाशन उद्योग में और समाचार चैनलों को विडियो कंपनी में सीमित करदेंगे तो अंदाजा लगा सकते हैं कि पत्रकारिता का क्या होगा? आजकल अखबार वाले पैसालेकर खबर छापते हैं। चुनावों के दौरान तो उम्मीदवार पन्ने के पन्ने खरीद लेते हैं।इस बाबत एक मालिक ने कहा कि अगर हम पैसे नहीं लेंगे तो हमारे लुच्चे रिपोर्टर पैसाले लेंगे। पिछले दिनों मैं एक जिला मुख्यालय में किसी कार्यक्रम में गया था। वहांमुझे बताया गया कि फलां अखबार का फलां ब्यूरो पांच लाख रुपए में नीलाम हो गया। 
एकस्वराजनाम का अखबार था अपने यहां। उसके मालिक ने कहा कि जब्त हो जाए लेकिनअंग्रेज सरकार द्वारा मांगा जा रहा पैसा नहीं दूंगा। स्वराजके आठ संपादक जिंदगीभर कालापानी के लिए अंडमान भेज दिए गए। क्योंकि वे झुकने के लिए तैयार नहीं हुए, उन्होंने अंग्रेजी सत्ता की परवाह नहीं की। पर आज यह देश की पत्रकारिता का कैसादुर्भाग्य है कि पैसा लेकर खबर लिखी और दिखाई जा रही है। ऐसे में पत्रकारिता काबचना मुश्किल है। आने वाले समय में अगर नीर क्षीर विवेक से हम पत्रकारिता नहींकरेंगे तो अपनी पत्रकारिता की परंपरा पर गर्व नहीं कर सकेंगे। 

स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारों का योगदान ?

$
0
0



भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारों के योगदान की आज चर्चा करनी पड़ रही है, परंतु जिस समय स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था, उस समय इसकी आवश्यकता नहीं थी। सन् 1857 के विप्लव को भारतीय स्वाधीनता संग्राम का पहला युद्ध माना जाता है। उस समय तक समाचारपत्रों का बड़ा प्रचार नहीं हुआ था और आज जिस रूप में समाचारपत्र हमें प्राप्त होते हैं, वह बहुत संभव भी नहीं था। भारत में समाचारपत्र निकले थे लेकिन 1836 में ‘समाचार चन्द्रिका‘ की 250 प्रतियां छपती थीं, ‘समाचार दर्पण‘ की 298 ‘बंगदूत‘ की 70 से भी कम, ‘पूर्णचन्द्रोदय‘ की 100 और ‘ज्ञानेनेशुन की 200। सन् 1839 में कलकत्ता में, जो उस समय भारत की राजधानी थी, यूरोपियनों के 26 पत्र निकलते थे, जिनमें 6 दैनिक थे और 9 भारतीय पत्र थे, जिनमें एक ‘संवाद प्रभाकर‘ 14 जून, 1839 को दैनिक हुआ था। बंगला, हिन्दी, उर्दू और फारसी के जो पत्र कलकत्ता से निकले वे प्रायः सभी साप्ताहिक थे। उसका कारण था, दैनिक पत्रों के लिए सबसे बड़ा साधन और आवश्यकता तार की होती है। कलकत्ता से आगरा होकर बम्बई और बम्बई से मद्रास तथा आगरा से पेशावर तक की तार की लाइनें 1855 में ही खोली गयीं। समाचारपत्रों को एक ही दर पर डाक से भेजने की प्रक्रिया 1857 में शुरू हुई थी। उससे पहले 20 वर्षों तक दूरी के हिसाब से डाक-टिकट देना पड़ता था। समाचारपत्रों को ले जाने लाइनें भी 1857 में शुरू हुईं, जब 274 मील की रेलवे लाइनें खोली गयीं। इस प्रकार इस काल से पहले बहुत प्रचार वाले या दैनिक समाचारपत्रों का आविर्भाव संभव नहीं था, फिर भी देश में ऐसे पत्र निकले जिन्होंने राष्ट्रीय चेतना में बड़ा योगदान दिया। जिनको हम आज देश के बड़े-बड़े नेता मानते हैं, उन्होंने जनता को नेतृत्व, समाचारपत्रों के माध्यम से ही देना शुरू किया। 15 नवम्बर, 1851 को श्री दादाभाई नौराजी ने गुजराती में ‘रास्तगुफ्तार‘ नामक पत्र निकाला था। राजा राममोहन राय का ‘बंगदूत‘ जो एक-साथ बंगला, हिन्दी, फारसी और अंग्रेजी में छपता था, समाज सुधार का पत्र था। और ज्ञानेनेशन भारतीय भाषाओं में शिक्षा की और बंगला भाषा को सरकारी भाषा की मांग करने के लिए प्रसिद्ध था। सन् 1857 में पयामे आज़ादी के नाम से उर्दू तथा हिन्दी में एक पत्र प्रकाशित हुआ जो अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का प्रचारक था और जिसको ज़ब्त कर लिया गया था। जिस किसी के पास उसकी प्रति पायी जाती थी, उसे राजद्रोह का दोषी माना जाता था और कठोर से कठोर सज़ा दी जाती थी। सन् 1857 में ही हिन्दी के प्रथम दैनिक ‘समाचार सुधावर्षण‘ और उर्दू-फारसी के दो समाचारपत्रों ‘दूरबीन‘ और ‘सुलतान-उल-अखबार‘ के विरुद्ध यह मुकदमा चला कि उन्होंने बादशाह बहादुरशाह जफर का एक फरमान छापा जिसमें लोगों से मांग की गयी थी कि अंग्रेजों को भारत से बाहर निकाल दें। इस पत्र के सम्पादक श्री श्यामसुंदर सेन दिन भर की सुनवाई के बाद राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिये गये और इसके बाद ही लार्ड केनिंग का प्रसिद्ध गैगिंग-एक्ट पारित हुआ, जिसमें समाचारपत्रों पर बहुत बंधन लगाये गये थे।

लार्ड केनिंग ने अपने इस भाषण में यह सूचना दी कि भारतीय जनता के हृदय में इन समाचारपत्रों ने, जो भारतीयों द्वारा छपते थे, सूचना देने के बहाने कितना राजद्रोह लोगों के दिलों में भर दिया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी यह टिप्पणी भारतीय द्वारा संचालित पत्रों के संबंध में थी, यूरोपियन पत्रों के सिलसिले में नहीं। इस रिपोर्ट के बाद कहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में, जिसे मुख्यतया सिपाहियों का विद्रोह कहा जाता है या जिसके पीछे नाना साहब, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम या बहादुरशाह ज़फर जैसे राजा-महाराजाओं नवाबों और बादशाहों का असंतोष माना जाता है, भारतीय पत्रकारों से कम प्रभावित नहीं था। ये विचार केवल उत्तर भारत के समाचारपत्रों के बारे में ही नहीं थे, बम्बई के गवर्नर लार्ड एलफिंस्टन ने भी जो बड़े उदार माने जाते थे, इनका समर्थन किया था। इसका परिणाम यह हुआ कि श्री द्वारिकानाथ ठाकुर द्वारा संचालित बंगाल हरकारु‘ पत्र का प्रकाशन 19 सितम्बर से लेकर 24 सितम्बर 1857 तक स्थगित कर दिया गया और उसे प्रकाशित होने का नया लाइसेंस तभी मिला जब उसके सम्पादक ने त्यागपत्र दे दिया। पश्चिमोत्तर प्रांत (यू.पी.) के प्रायः सभी उर्दू पत्र बंद हो गये। कुछ हिन्दी पत्र भी काल कवलित हुए।

भारत में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध संघर्ष के क्षेत्र में जिन समाचारपत्रों का विशेष उल्लेख करना आवश्यक है, उनमें कलकत्ता का ‘हिन्दू पेट्रियट‘ मुख्य था, जिसकी स्थापना 1853 में लेखक व नाटककार श्री गिरीशचंद्र घोष ने की थी और जो श्री हरीशचंद्र मुखर्जी ने नेतृत्व में असाधारण लोकप्रियता प्राप्त कर गया। सन् 1861 में इस पत्र में नाटक ‘नील दर्पण‘ निकला जिसने निलहे गोरे व्यापारियों के विरुद्ध नील की खेती को खत्म करने के लिए आंदोलन चलाया और इसके फलस्वरूप एक नील कमीशन की नियुक्ति हो गयी। बाद में यह पत्र श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर के हाथ में आ गया और श्री ब्रिस्टोदास पाल इसके सम्पादक नियुक्त हुए। इस पत्र ने सरकारी ज्यादतियों का जमकर विरोध किया और यह मांग की कि सरकार की नौकरियों में भारतीयों को प्रवेश दिया जाये। सन् 1878 में जो देशी भाषाई समाचारपत्र विरोधी कानून पास हुआ, उसका इसने कसकर विरोध किया। ‘इंडियन मिरर‘ कलकत्ता का दूसरा ऐसा प्रसिद्ध पत्र था।

उन दिनों बंगाल में जैसोर से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्र चल रहा था जिसका नाम था - ‘अमृत बाज़ार पत्रिका‘। इस पत्र के संचालकों पर सरकारी कर्मचारियों की आलोचना करने का मुकदमा चला और सज़ाएं हुईं। सन् 1871 में यह कलकत्ता से प्रकाशित होने लगा और विशेषतया इसी पत्र को दबाने के लिए 1878 का देशी भाषा पत्र कानून पास हुआ था। लेकिन इस पत्र के सम्पादकों ने जिनमें श्री शिशिर कुमार घोष और श्री मोतीला घोष दो भाई थे, इसे रातोंरात अंग्रेजी का पत्र बना दिया। इसके बाद यह पत्र भारतीय स्वाधीनता संग्राम का प्रबल समर्थक रहा। सन् 1868 में फिर प्रसिद्ध पत्रकार श्री गिरीशन्द्र घोष ने ‘बंगाली‘ नाम से एक साप्ताहिक निकाला था। कुछ दिनों बाद श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इस पत्र को खरीद लिया और इसके बाद यह पत्र बंगाल में ही नहीं, सारे देश में स्वाधीनता संग्राम का एक प्रबल पक्षधर हो गया। उन्होंने एक लेख कलकत्ता हाईकोर्ट के एक निश्चय के बारे में लिखा, जिस सिलसिले में उन्हें एक महीने की सज़ा हुई। श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी कांग्रेस के आदि जनकों में से थे। सन् 1886 से लेकर बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेता रहे और यह समझा जाता रहा कि कांग्रेस जिन दो-तीन नेताओं के बल पर चलती थी उनमें एक श्री बनर्जी थे। वे बंगाल के अपने समय के सर्वोच्च नेता माने जाते थे। वे सर्वप्रथम 1895 में पूना में होने वाले 11वें अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये और यह समझा गया कि कांग्रेस के जीवन का दूसरा चरण उनकी अध्यक्षता से प्रारंभ हुआ। दिसम्बर, 1902 में अहमदाबाद में कांग्रेस का जो 18वां अधिवेशन हुआ, उसके भी वे अध्यक्ष चुने गये।

पूना में 1849 में ‘ज्ञान प्रकाश‘ का प्रकाशन हुआ था। इसका प्रबंध पूना की सार्वजनिक सभा ने ले लिया था और यह सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर बहुत प्रभावशाली ढंग से लिखता था। इसी संगठन ने पूना में कांग्रेस बुलाने का निर्णय किया था। महाराष्ट्र के सार्वजनिक जीवन के एक प्रकार से आदि-संस्थापक श्री महादेव गोबिन्द रानाडे भी इसमें तथा ‘इन्दु प्रकाश‘ जो अंग्रेजी में लिखते थे। कुछ दिनों बाद इस पत्र के सम्पादक श्री कृष्ण शास्त्री चिपलूणकर के पुत्र श्री विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, श्री जी. जी. आगरकर और श्री बाल गंगाधर तिलक ने मिलकर 1 जनवरी, 1881 से मराठी में ‘केसरी‘ और अंग्रेजी में ‘मराठा‘ नामक दो साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किये। ‘डैकेन स्टार‘ नामक अंग्रेजी पत्र के सम्पादक श्री नाम जोशी भी इसमें आ गये और यह पत्र ‘मराठा‘ में मिला लिया गया। कोल्हापुर के दीवान के विरुद्ध एक लेख छापने पर श्री तिलक और श्री आगरकर को सज़ा हुई और बाद में जब 1897 में पूना में प्लेग फैला और कमिश्नर रैंड के अत्याचार असहनीय हो गये तो लोकमान्य तिलक ने 4 मई, 1897 में एक लेख छापा जिसमें लिखा था- ‘‘बीमारी तो एक बहाना है, वास्तव में सरकार लोगों की आत्मा को कुचलना चाहती है। मिस्टर रैंड अत्याचारी हैं और जो कुछ वे कर रहे हैं, वो सरकार की आज्ञा से ही कर रहे हैं, इसलिए सरकार के पास प्रार्थना देना व्यर्थ है।‘‘ इस प्रकार के लेखों के पश्चात् चापेकर बन्धुओं ने 22 जून को श्री रैंड की हत्या कर दी थी। 15 जून को ‘केसरी‘ में श्री तिलक का जो अग्रलेख निकला था, उसको लेकर उन्हें डेढ़ वर्ष की सज़ा दी गयी और इसके बाद लोकमान्य तिलक भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अत्यंत प्रमुख नेता स्वीकार कर लिये गये। उनका ‘केसरी‘ सारे भारत में स्वाधीनता संग्राम का एक प्रबल प्रचारक बन गया जिसने बंग-भंग विरोधी आंदोलन को देशव्यापी बना दिया। और उन्हें 1908 में राजद्रोह संबंधी बैठक, अध्यादेश और विधेयक का विरोध करने के लिए छह वर्ष के काले पानी की सज़ा दी गयी। ‘केसरी‘ और ‘मराठा‘ स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख प्रवर्तक बन गये और सारे देश में उनका आदर्श अनुकरणीय माना गया। नागपुर और बनारस से ‘हिन्दी केसरी‘ निकला और जब 1920 में बनारस से ‘आज‘ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो उस संबंध में दिशा-निर्देश लेने के लिए श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर, लोकमान्य तिलक से मिलने पूना गये थे।

जिस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ, सम्पादकों की कितनी प्रतिष्ठा थी, इसका अंदाज़ इस बात से लग सकता है कि जब श्रीमती एनी बेंसेंट ने 1915 तक के कांग्रेस का इतिहास ‘हाऊ इंडिया रौट फार फ्रीडम‘ नाम से लिखा और उसमें कहा, ‘‘जब हम उन सूचियों को देखते हैं कि कौन लोग उपस्थित थे और उनमें कितने ऐसे हैं जो भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में प्रसिद्ध हो गये। प्रतिनिधियों में उल्लेख किया जा सकता है- प्रसिद्ध भारतीय पत्रों के प्रमुख सम्पादकों का, ‘ज्ञान प्रकाश‘ के, पूना की सार्वजनिक सभा के ‘क्वार्टरली जर्नल‘ के, ‘मराठा‘, ‘केसरी‘, ‘नवविभाकर‘, ‘इंडियन मिरर‘, ‘नाशेन‘, ‘हिन्दुस्तानी‘, ‘ट्रिब्यून‘, ‘इंडियन यूनियन‘, ‘इंडियन स्पैक्टेटर‘, ‘इन्दु प्रकाश‘, ‘हिन्दू‘ और ‘क्रीसेंट‘ के। कितने नाम चमकते हैं परिचित और सम्मानित। यहां पर शिमला से ए.ओ. ह्यूम हैं, कलकत्ता से डब्ल्यू.सी. बनर्जी और नरेन्द्रनाथ सेन हैं, पूना से डब्ल्यू.एस. आप्टे और जी.जी. आगरकर, दादाभाई नौरोजी, के.टी. तेलंग और फीरोज़शाह मेहता हैं जो तब और अब भी बम्बई नगर निगम के नेता हैं और बम्बई से दिनशा ईदुलजी वाचा, बी.एम. मलाबारी और एन.जी. चन्दावरकर, मद्रास से एस. सुब्रामण्य अय्यर और एम. वीर राघवाचारियार हैं और अंतपुर से श्री पी. केशव पिल्लै हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने प्रारंभ से भारतीय आज़ादी के लिए कार्य किया और उनमें से जो आज भी जीवित हैं वह उसी कार्य के लिए अभी भी लगे हुए हैं।‘‘

इस प्रकार हम देखते हैं कि जिन लोगों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम दिन आज़ादी के कार्य में प्रतिनिधियों की सूची में सर्वप्रथम स्थान दिया गया, वे भारतीय समाचारपत्रों के कुछ सम्पादक थे। यह बात सिर्फ श्रीमती एनी बेसेंट ने ही लिखी हो, ऐसा नहीं है। जब कांग्रेस के अध्यक्ष प्रसिद्ध बैरिस्टर श्री ब्योमेशचंद्र बनर्जी ने अपना भाषण दिया तो उन्होंने कहा, ‘‘केवल यही बात नहीं है, इस बैठक में सभी प्रांतों के प्रतिनिधि हैं। प्रायः इस साम्राज्य में जितने भी राजनीतिक संगठन हैं, उनके एक या एक से अधिक प्रतिनिधि यहां मौजूद हैं। जहां तक पत्रकारों का संबंध है- ‘मिरर‘, ‘हिन्दू‘, ‘इंडियन स्पैक्टेटर‘, ‘ट्रिब्यून‘ तथा अन्य पत्रों के संचालकों, सम्पादकों या प्रतिनिधियों की उपस्थिति ने यह सिद्ध कर दिया है कि वे भावनाएं कितनी सर्व-व्यापी हैं, जिनका परिणाम इस बड़ी और स्मारक बैठक के रूप में पल्लवित हुआ है। निस्संदेह ऐतिहासिक काल में कभी भी इतनी महत्वपूर्ण और व्यापक सभा भारत की भूमि में नहीं हुई।‘‘

लेकिन इन सम्पादकों को और समाचारपत्रों को केवल उपस्थित होना ही काफी नहीं माना गया। पहली कांग्रेस का पहला प्रस्ताव मद्रास के ‘हिन्दु‘ के सम्पादक जी. सुब्रामण्य अय्यर ने पेश किया था, जिसमें यह मांग की गयी थी कि सरकार भारतीय प्रशासन की जांच के लिए एक आयोग नियुक्त करे। श्रीमती बीसेंट ने उनके बारे में कहा था कि वे मद्रास के नेताओं में सबसे साहसी और दूर-दृष्टि रखने वाले नेता थे और उन्होंने जिस प्रशंसनीय भाषण के द्वारा प्रथम प्रस्ताव उपस्थित किया, वो बहुत कुछ आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है। दूसरा प्रस्ताव भी कि इंडिया कौंसिल को जो ब्रिटेन में बैठकर भारत पर राज करती है, समाप्त कर दिया जाये, पूना के पत्रकार श्री चिपलूणकर ने पेश किया था और तीसरे प्रस्ताव का समर्थन श्री दादाभाई नौरोजी ने किया था, जिनके पत्र का हम उल्लेख कर चुके हैं। चैथा प्रस्ताव भी उन्होंने पेश किया था और में होने वाली कांग्रेस के अध्यक्ष थे बल्कि उन्होंने अमृतसर की 1893 की कांग्रेस की भी अध्यक्षता की थी। तब वे ब्रिटेन के हाउस आफ कामन्स के भी सदस्य हो गये थे।

कांग्रेस के अन्य अध्यक्षों में अनेक ऐसे थे जो या सम्पादक रहे या जिन्होंने किसी बड़े पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। इनमें प्रमुख थे श्री फीरोज़शाह मेहता, जिन्होंने प्रसिद्ध पत्र ‘बाम्बे क्रोनिकल‘ की स्थापना की। श्री मदनमोहन मालवीय, जिन्होंने ‘दैनिक हिन्दुस्तान‘ का सम्पादन किया तथा साप्ताहिक और दैनिक ‘अभ्युदय‘ निकाला तथा जिनकी प्रेरणा से प्रयाग में ‘लीडर‘ निकला और दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइम्स को राष्ट्रीय पत्र का स्वरूप प्राप्त हुआ। पंडित मोतीलाल नेहरु ‘लीडर‘ पत्र के निदेशक मंडल के प्रथम अध्यक्ष थे और ‘लीडर‘ से जमानत मांगी गयी थी तो उन्होंने कहा था कि जब तक मेरे घर में एक भी ईंट है तब तक मैं ‘लीडर‘ को मरने नहीं दूंगा। उन्होंने ‘इंडीपेंडेंट‘ पत्र की भी स्थापना की। लाला लाजपतराय की प्रेरणा से ‘पंजाबी‘, ‘बंदेमातरम्‘ और ‘पीपुल‘ नाम के तीन पत्र लाहौर से निकले। महात्मा गांधी जब अफ्रीका में थे, तभी उन्होंने ‘इंडियन ओपीनियन‘ नाम का पत्र निकाला था और भारत में आकर ‘यंग इंडिया‘, ‘नवजीवन‘, ‘हरिजन‘ ‘हरिजन सेवक‘ और ‘हरिजन बन्धु‘ जैसे पत्र निकाले। जे.एम. सेनगुप्त और श्री चित्तरंजन दास यद्यपि पत्रकार नहीं थे परंतु उन्होंने ‘और एडवांस‘ ‘फारवर्ड‘ जैसे पत्रों को राष्ट्रीय पत्रों के रूप में चलाया। श्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘नेशनल हेराल्ड‘ पत्र की स्थापना की और उसमें लिखा भी। यद्यपि उन्होंने सम्पादक को लिखने की पूरी आज़ादी दी थी परंतु महत्वपूर्ण प्रश्नों पर वे स्वयं लिखते थे।

जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का संबंध है, भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बंदूक और बम के साथ नहीं, समाचारपत्रों से शुरू हुआ। जिनमें कुछ नाम अत्यंत गौरवशाली है। सर्वप्रथम है- ‘युगांतर‘, जिसका प्रकाशन और सम्पादन श्री अरविन्द घोष के छोटे भाई श्री वारीन्द्र कुमार घोष ने, श्री भूपेन्द्रनाथ दत्त तथा श्री अविनाश भट्टाचार्य की सहायता से किया और बाद में जब समाचारपत्र बंद हो गया तो उसी के कार्यकर्ताओं ने एक क्रांतिकारी दल संगठित किया, जो ‘युगांतर‘ गुट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1908 में इस पत्र की प्रसार संख्या 8 हज़ार प्रतियां थी। जब समाचारपत्रों द्वारा अपराध भड़काने संबंधी कानून के अंतर्गत इसे बंद कर दिया गया तो चीफ जस्टिस सर लारेंस जैकिनसन ने इस पत्र के बारे में लिखा था - ‘‘इनकी हरेक पंक्ति से अंग्रेजों के प्रति विद्वेष टपकता है। हरेक शब्द से क्रांति के लिए उत्तेजना झलकती है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार क्रांति होती है।‘‘ रौलेट रिपोर्ट में भी, जो दस साल बाद लिखी गयी थी, ‘युगांतर‘ के बहुत से उद्धहरण दिये गये, जिससे यह साबित किया जा सके कि किस तरह इस पत्र ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्वेष भड़काया और लोगों को क्रांति के लिए उकसाया। उसमें एक जगह यह मान लिया गया कि इस अखबार की पन्द्रह हज़ार प्रतियां छपती हैं और साठ हज़ार लोग उसे पढ़ते हैं। जब अमरीका में गदर पार्टी की स्थापना हुई तो लाला हरदयाल ने सान फ्रासिंस्को में पार्टी के कार्यालय तथा ‘गदर‘ पत्र के प्रकाशन स्थल का नाम युगांतर आश्रम रखा।

स्वयं ‘गदर‘ अखबार अपने आप में क्रांति का बड़ा दूत था। यह एक वर्ष के काल में ही हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, मराठी और अंग्रेजी में निकलने लगा और कुल मिलाकर इसकी लाखों प्रतियां छपती थीं और भारत से बाहर जहां-जहां भी भारतीय थे, उनको भेजी जाती। यही नहीं उन्हें भारत भी बड़ी चतुराई से भेजा जाता था। जब लाला हरदयाल को अमरीका में गिरफ्तार किया गया और वे अमरीका छोड़कर भारत चले आये तो उनके उत्तराधिकारी पंडित रामचंद्र ने ‘हिन्दुस्तान गदर‘ के नाम से उसका अंग्रेज़ी संस्करण भी निकाला। प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो जाने पर और अमरीका के उसमें सम्मिलित हो जाने पर गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं को अमरीका सरकार ने पकड़ लिया और मुकदमें के दौरान पंडित रामचंद्र को उनके एक प्रतिद्वंद्वी अभियुक्त ने चोरी से बंदूक मंगाकर उन्हें जेल में ही मार डाला और इस प्रकार इस पत्र का प्रकाशन बंद हो गया। परंतु इस पत्र ने 1915 में भारत को स्वाधीन कराने में जो विशाल आंदोलन हुआ, उसमें बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। रौलेट कमेटी ने इस पत्र का स्थान-स्थान पर उल्लेख किया और जिसके पास भी यह पत्र पाया गया, उसे धर पकड़ लिया गया।

विदेशों में समाचारपत्र द्वारा भारतीय स्वाधीनता के लिए प्रयास का इतिहास काफी पुराना है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने प्रारंभ से ही ब्रिटेन में कांग्रेस की एक शाखा स्थापित की, जिसकी ओर से ‘इंडिया‘ नाम का एक पत्र प्रकाशित होता था और उसका खर्च कांग्रेस की ओर से दिया जाता था। जब तक यह कमेटी चली यानी बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक यह पत्र कांग्रेस के दृष्टिकोण को प्रकट करता रहा। सन् 1905 में श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन से ‘इंडियन सोशोलाजिस्ट‘ नाम की एक पत्रिका निकाली। यह पत्र जनवरी में निकला था और भारत भी भेजा जाता था तथा जहां-जहां भारतीय थे, वहां भी भेजा जाता था। 18 फरवरी 1905 को लंदन में एक ‘इंडियन होम रूल‘ सोसायटी की स्थापना की गयी और पहली जुलाई से लंदन में एक ‘इंडिया हाउस‘ या ‘भारत भवन‘ नाम का भारतीय छात्रों का होस्टल खोला गया। जब इसका उद्घाटन हुआ तो श्री दादाभाई नौरोजी और लाला लाजपतराय भी इस मौके पर उपस्थित थे। यह समाचारपत्र इंडिया हाउस में जो राजनीतिक कार्रवाई

‘युगांतर‘ के बाद भारत में ‘बन्देमातरम् पत्र ने राष्ट्रीय आंदोलन में बड़ी भूमिका निभायी। इसकी स्थापना श्री सुबोध चन्द्र मलिक, देशबन्धु चितरंजनदास और श्री बिपिन चन्द्र पाल ने 6 अगस्त, 1906 को श्री अरविन्द घोष के सम्पादकत्व में की थी। श्री अरिविन्द घोष पर मुकदमा चला और उनके साथ ही साथ ‘संध्या‘ के सम्पादक ब्राह्मबांधव उपाध्याय और ‘युगांतर‘ के सम्पादक श्री भूपेन्द्रनाथ दत्त पर भी। जब श्री अरविन्द घोष को सज़ा नहीं हो सकी तो ‘बन्देमातरम्‘ के प्रेस मैनेजर को जल भेज दिया गया। बाद में उन्होंने अंग्रेजी में ‘कर्मयोगी‘ और बंगला में ‘धर्म‘ नामक पत्र निकाले।

जहां तक हिन्दी पत्रों का सम्बन्ध है प्रारंभ में जो पत्र कलकत्ता से निकले, उन्हें सरकारी सहायता की अपेक्षा रहती थी, परंतु इस दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण भूमिका श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की थी, जिन्होंने 1868 में से ‘कवि वचन सुधा नामक एक कविता की पत्रिका निकाली परंतु बाद में उसमें गद्य भी सम्मिलित होता रहा। पहले वह मासिक थी, 1875 में साप्ताहिक हो गयी और अगले दस वर्ष तक हिन्दी तथा अंग्रेजी में निकलती रही। उस पत्र की क्या नीति थी, उसका दिग्दर्शन उसके मुख पृष्ठ पर छपने वाले उस सिद्धांत वाक्य से मिलता है जो इस प्रकार था -

खल-गननसों सज्जन दुखी मति होंहिं, हरिपद मति रहै।

अपधर्म छूटै, स्वत्व निज भारत गहै, करदुख बहै।

बुध तजहिं मत्सर, नारिनर सम होंहिं, जग आनंद लहै।

तजि ग्रामकविता, सुकविजन की अमृतबानी सब कहै।

इस पत्र में इस प्रकार ‘स्वत्व निज भारत गहै, करदुख बहै, नारिनर सम होंहिं‘ जैसे विचार प्रकट किये गये थे, जो उस समय के लिए क्रांतिकारी थे। जब ब्रिटेन के राजकुमार भारत आये तो उनके स्वागत में इस पत्रिका में एक कविता छपी, जिसके बारे में अंग्रेज़ अधिकारियों को समझाया गया कि इसमें श्लेष है और जिस शब्द ‘पाद्याघ्र्य‘ का प्रयोग किया गया है, उसका अर्थ जूतों से पीटना भी हो सकता है। इससे पहले मर्सिया नामक एक लेख के कारण उस पत्र की सरकारी सहायता बंद कर दी गयी और उनके दो अन्य पत्रों ‘हरिश्चन्द्र पत्रिका‘ और ‘बाला-बोधिनी‘ की जो सौ-सौ कापियां सरकार खरीदती थी, वो भी बंद कर दी गयीं। श्री हरिश्चन्द्र ने इसके बाद आनरेरी मजिस्ट्रेटी से इस्तीफा दे दिया। लेकिन यह पत्र बहुत लोकप्रिय हो गया। परंतु इस पत्र से भी अधिक महत्वपूर्ण यह हुआ कि श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जो अन्य मित्र थे जैसे कानपुर में श्री प्रताप नारायण मिश्र तथा इलाहाबाद में पंडित बालकृष्ण भट्ट, उन्होंने दो बड़े राजनीतिक पत्र निकाले जिनका बहुत जबर्दस्त प्रभाव हुआ। इलाहबाद से श्री बालकृष्ण भट्ट का हिन्दी ‘प्रदीप‘ निकला जो 1910 में ‘प्रेस एक्ट‘ के अंतर्गत बंद कर दिया गया। ‘ब्राह्मण‘ पत्र ने कानपुर में राष्ट्रीय पत्रों की परम्परा को जन्म दिया। लाहौर से श्री मुकुन्दराम के सम्पादकत्व में ‘ज्ञान प्रदायिनी‘ पत्रिका निकली। सन् 1885 में कालाकांकर से राजा रामपाल सिंह ने ‘हिन्दोस्थान‘ पत्र निकाला, जिसके प्रथम सम्पादक श्री मदनमोहन मालवीय थे। वे श्री बालकृष्ण भट्ट की परम्परा के थे और उन्होंने न केवल ‘हिन्दोस्थान‘ के द्वारा बल्कि बाद में अन्य पत्रों के द्वारा जिनका हम जिक्र कर चुके हैं, राष्ट्रीय आंदोलन को बढ़ाया। इसी पत्र में श्री बालमुकुन्द गुप्त और श्री अमृतलाल चक्रवर्ती जैसे सम्पादक काम करने आये, जिन्होंने दैनिक पत्रों के क्षेत्र में विशेषतया राजनीतिक पत्रकारिता में बहुत अधिक नाम कमाया।

कलकत्ता का एक प्रसिद्ध हिन्दी समाचारपत्र ‘भारत मित्र‘ था, जो 17 मई 1878 को पाक्षिक पत्र के रूप में निकला। बाद में यह दैनिक हो गया और इस पत्र ने राष्ट्रीय आंदोलन में बहुत बड़ा योगदान दिया। इस पत्र के प्रकाशक श्री दुर्गाप्रसाद मिश्र और श्री छोटू लाल मिश्र कश्मीरी थे। पचास वर्ष तक इस पत्र ने राष्ट्रीयता का प्रचार किया। कश्मीर को हड़पने की ब्रिटिश सरकार की योजना का इसने भंडाफोड़ किया और इसके सम्पादक श्री बालमुकन्द गुप्त ने लार्ड कर्जन के अत्याचारों पर ‘शिवशम्भु के चिट्ठे‘ नाम से जो टिप्पणियां कीं उससे बहुत जन-जागृति फैली। इसी के सम्पादक श्री दुर्गाप्रसाद मिश्र ने ‘उचित वक्ता‘ नामक पत्र भी निकाला। इसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी लिखते थे। कलकत्ता में हिन्दी के कई पत्र निकले, जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के सिलसिले में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। एक ‘स्वतंत्र‘ था जिसे श्री अम्बिका प्रसाद बाजपेयी ने चलाया था और हास्य का पत्र ‘मतवाला‘ था। श्री रामानंद चटर्जी ने अंग्रेजी में ‘माॅडर्न रिव्यू‘ और बंगाल में प्रवासी पत्र ‘प्रकाशित किये। हिन्दी में श्री बनारसीदास चतुर्वेदी के सम्पादकत्व में ‘विशाल भारत‘ निकला, जिसने न केवल विदेशों में रहने वाले भारतीयों की दुर्गति की ओर ध्यान दिलाया। बल्कि संसार की प्रगतिशील विचारधारा से हिन्दी जगत को परिचित कराया।

पंडित सुंदरलाल ने इलाहबाद से ‘कर्मयोगी‘ साप्ताहिक निकाला, जो उग्र विचारधारा का पत्र था और जिसमें अरविन्द घोष के ‘कर्मयोगी‘ तथा लोकमान्य तिलक के ‘केसरी‘ में प्रकाशित लेख भी छपते थे। बहुत शीघ्र ही इसकी प्रसार संख्या दस हज़ार प्रतियां हो गयीं और इससे तंग आकर भारत सरकार ने 1908 और 1910 के दमनकारी कानूनों के अंतर्गत इसे बंद करा दिया। श्री सुन्दरलाल जी की प्रेरणा और सहयोग से श्री शिवनारायण भटनागर ने उर्दू का ‘स्वराज्य‘ पत्र निकाला जिसके नौ सम्पादकों को राजद्रोह के अंतर्गत सज़ा हुई और एक के बाद एक जेल भेजे गये, कई को काले पानी की सजा हुई। बाद में 1910 के प्रेस कानूनों के अंतर्गत यह भी बंद हो गया। श्री सुंदरलाल ने साप्ताहिक ‘भविष्य‘ भी निकाला और वर्षों उसके सम्पादक रहे। उस पत्र के द्वारा उन्होंने राजनीतिक विचारधारा के प्रसार में बड़ा योगदान दिया।

स्वाधीनता प्रेमी हिन्दी पत्रकारों में श्री गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम प्रमुख है। वे भी श्री बालकृष्ण भट्ट के शिष्य थे। सन् 1913 में उन्होंने कानपुर से साप्ताहिक ‘प्रताप‘ का प्रकाशन किया, जो स्वाधीनता आंदोलन का एक प्रमुख प्रचारक बन गया। उनको जब सज़ा मिली, अपने अग्रलेखों या समाचारों के कारण। हिन्दु-मुस्लिम एकता के प्रयास में वे 1931 में शहीद हो गये। सन् 1920 में श्री शिवप्रसाद गुप्त ने, जो कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे, श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर के सम्पादकत्व में जो ‘आज‘ निकाला, वो उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय समाचारों और विचारों का प्रबल समर्थक रहा। यद्यपि श्री पराड़कर उग्रवादी थे और क्रांतिकारी दल के सदस्य होने के नाते कलकत्ता की रोड़ा कम्पनी से कारतूसों की डकैती के मामले में जेल काट चुके थे, परंतु उन्होंने कांग्रेस विचारधारा के प्रसार में बड़ा योगदान दिया। इसी प्रकार आगरा से पंडित श्रीकृष्णदत्त पालिवाल का सैनिक‘ पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रबल राष्ट्रीय पत्र हो गया। इन पत्रों को चाहे ‘प्रताप‘ हो, ‘आज हो‘, ‘अभ्युदय‘ या ‘सैनिक‘ प्रत्येक को स्वाधीनता आंदोलन में बंद होना पड़ता था और उसके सम्पादक और प्रकाशक जेल जाते थे।

दिल्ली में प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता स्वामी श्रद्धानंद ने हिन्दी में ‘वीर अर्जुन और उर्दू में ‘तेज‘ का प्रकाशन शुरू किया। ये दोनों पत्र राष्ट्रीय आंदोलन के प्रबल पक्षधर रहे और स्वामी श्रद्धानंद के बलिदान के बाद पंडित इन्द्र विद्या वाचस्पति और श्री देशबन्धु गुप्त इन्हें चलाते रहे। वे स्वयं भी प्रमुख कांग्रेस नेता रहे।

लाहौर में महाशय खुशहाल चन्द खुरसंद ने ‘मिलाप‘ और महाशय कृष्ण ने उर्दू पत्रों का प्रकाशन किया और ये पत्र भी राष्ट्रीय आंदोलन के प्रचारक रहे। पंजाब में राष्ट्रीय पत्रों की परम्परा काफी पुरानी रही है। सन् 1881 में सरदार दयाल सिंह मजीठिया ने श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के परामर्श से श्री शीतलाकांत चटर्जी के सम्पादकत्व में अंग्रेजी पत्र ‘ट्रिब्यून‘ का प्रकाशन प्रारंभ किया। कुछ दिनों तक श्री बिपिनचन्द्र पाल ने भी इस पत्र में सम्पादन किया और बाद में 1917 से श्री कालीनाथ राय, जो पहले ‘बंगाली‘ पत्र में काम कर रहे थे और जो 1911 में लाला लाजपतराय के ‘पंजाबी‘ पत्र के सम्पादक हुए थे, इसके सम्पादक हो गये और दिसम्बर, 1945 तक इसके सम्पादक रहे। पंजाब के राष्ट्रवादी पत्रकारों में एक अत्यंत गौरवशाली नाम सूफी अम्बा प्रसाद का है, जिन्होंने पंजाब से ‘हिन्दुस्थान‘ ‘देशभक्त‘, और ‘पेशवा‘ जैसे समाचारपत्रों में काम किया था। सन् 1890 में उन्होंने अपने जन्म स्थान मुरादाबाद से एक उर्दू साप्ताहिक ‘जाम्युल इलूम‘ नाम का एक पत्र निकाला था और 1897 में उन्हें एक लेख के कारण उेढ़ साल के लिए जेल भेज दिया गया था। 1901 में वे जेल से छूटे और उन्होंने फिर उसी प्रकार के विचार लिखने शुरू किये, जिसके लिए उन्हें छह वर्ष की जेल हुई और उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। 1906 में जब वे जेल से छूटे तो फिर लाहौर के ‘हिन्दुस्थान‘ पत्र में काम करने लगे। जब सरदार अजीत सिंह ने भारतमाता सोसायटी स्थापित की तो सूफी अम्बा प्रसाद उनके साथ हो गये। बाद में जब सरदार अजीत सिंह को देश निकाला हो गया, तो वे नेपाल भाग गये, लेकिन अंग्रेज सरकार ने उन्हें पकड़वा मंगाया। वे जब तक भारत में रहे, लाला हरदयाल के साथ पुस्तकें लिखने और पत्रों में लेख लिखने का काम करते रहे। बाद में वे ईरान चले गये, वहां जब प्रथम युद्ध के समय ब्रिटिश सेना का ईरान पर कब्जा हो गया तो उन्हें गोलियों से उड़ा दिया गया।

भारत का कोई प्रांत ऐसा नहीं था जिसने राष्ट्रीयता का प्रचार करने वाले पत्रों और पत्रकारों को जन्म न दिया हो। बम्बई से बाम्बे क्रोनिकल‘ तो निकला ही, उसके ही एक सम्पादक श्री बी.जी. होर्नीमैन, ने ‘बाम्बे क्रोनिक‘ को उग्र राष्ट्रीयता का एक प्रबल पत्र बना दिया। तथा बोंबे सेंटीनल निकाला उन्होंने सत्याग्रह सभा की कार्रवाइयों में भाग लिया और जलियांवाला हत्याकांड अत्याचारों की जो रिपोर्टें छापीं, उसके कारण उनके संवाददाता श्री गोवर्धन दास को फौजी अदालत से तीन साल की सजा हुई और श्री होर्नीमैन को जो बीमार थे, पकड़कर इंग्लैण्ड वापस भेज दिया गया। बम्बई में ही श्री अमृतलाल सेठ ने गुजराती ‘जन्मभूमि‘ को जो काठियावाड़ की रियासतों की प्रजा के पत्र के रूप में निकला था, राष्ट्रीय आंदोलन का प्रबल संवाहक बनाया। इसी प्रकार का दूसरा गुजराती पत्र श्री सावंलदास गांधी का ‘सांझ वर्तमान‘ था। श्री सांवलदास गांधी ने सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में महत्वपूर्ण भाग लिया था और जूनागढ़ सरकार के विरुद्ध समानांतर सरकार बनायी थी, जिसने 1947 में जूनागढ़ के नवाब को भारत छोड़कर जाने के लिए विवश किया। सिंध में साधु टी. एल वासवानी ने ‘न्यू टाइम्स‘ निकाला और सिधी पत्र ‘हिन्दू‘ के तीन सम्पादक श्री जयराम दास दौलतराम, डाक्टर चैइथराम गिडवानी और श्री हीरानंद कर्मचंद गिरफ्तार किये गये, प्रेस बंद कर दिया गया और सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। सन् 1932 के आंदोलन में सम्पादक और प्रबंध विभाग के सारे कर्मचारी गिरफ्तार कर लिये गये थे। सन् 1942 में इसका प्रकाशन गांधीजी की अपील पर बंद कर दिया गया।

बिहार के राष्ट्रीय पत्रों में श्री सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा स्थापित ‘सर्चलाइट‘ पत्र श्री मुरली मनोहर सिन्हा के सम्पादकत्व में राष्ट्रीय आंदोलन का बड़ा पक्षधर रहा। बिहार के हिन्दी पत्रों में श्री देवव्रत शास्त्री द्वारा स्थापित ‘नवशक्ति‘ और ‘राष्ट्रवाणी‘ राष्ट्रीय आंदोलन के पत्र रहे। ‘साप्ताहिक योगी‘ और ‘हुंकार‘ ने भी जनजागरण में योगदान दिया। बंगाल में श्री हेमंत प्रसाद घोष ने 1914 में ‘बसुमती‘ की स्थापना की थी और श्री मृणाल कांति घोष, श्री प्रफुल्ल कुमार सरकार, व सुरेशचंद्र मजूमदार ने ‘आनंद बाज़ार पत्रिका‘, जो आज भी बंगला भाषा का सबसे बड़ा पत्र है की स्थापना की। श्री चितरंजन दास ने 1923 में ‘फारवर्ड‘ पत्र निकाला था और इन सब पत्रों का राष्ट्रीय आंदोलन में बड़ा योगदान रहा। मद्रास में श्रीमती एनी बेसेंट ने ‘मद्रास स्टेंडर्ड‘ पत्र को खरीद कर उसका नाम ‘न्यू इंडिया‘ कर दिया और 14 जुलाई 1914 से अपने सम्पादकत्व में उसे निकालना प्रारंभ किया। यह पत्र भी दक्षिण भारत में होम रूल आंदोलन और कांग्रेस आंदोलन का प्रबल पक्षधर था। इस पत्र के विरूद्ध कार्रवाई शुरू की गयी, पहले दो हजार रुपये की और फिर दस हजार रुपये की जमानत मांगी गयी और श्रीमती एनी बेसेंट को नजरबंद कर दिया गया।

स्वतंत्रता आंदोलन में पत्रकारों के योगदान का इतिहास वस्तुतः स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास है क्योंकि या तो पत्र का सम्पादक स्वयं स्वतंत्रता का नेता हो गया या नेता ने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए पत्र निकालना आवश्यक समझा। अगर श्री चितरंजन दास ‘फारवर्ड‘ था तो श्री जे. एम. सेनगुप्त का ‘एडवांस‘ था, श्री मोहम्मद अली का ‘कामरेड‘ था या मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का ‘अल हिलाल‘ था। मौलाना अबदुल बारी ने ‘हमहम‘ निकाला था, सर्वेन्ट आफ इंडिया सोसाइटी ने नागपुर से ‘हितवाद‘। श्री माखनलाल चतुर्वेदी ने पहले जबलपुर से और फिर खण्डवा से ‘कर्मवीर का प्रकाशन किया और श्री विजय सिंह पथिक ने ‘राजस्थान‘ पत्र का, जो बाद में ‘तरुण राजस्थान‘ हो गया। पूना का ‘ज्ञान प्रकाश‘ और ‘इन्दु प्रकाश‘, लखनऊ का ‘एडवोकेट‘ आदि ऐसे अनेकों पत्र और पत्रिकाएं थीं, जिनका नाम स्वाधीनता संग्राम से जुड़ा हुआ है। कुछ ने पत्रकारों की एक नयी श्रृंखला ही उत्पन्न कर दी जिनमें श्री टी. प्रकाशन द्वारा स्थापित मद्रास का ‘स्वराज्य‘ या श्री मूलचंद अग्रवाल द्वारा स्थापित ‘विश्वमित्र‘ उल्लेखनीय हैं। देशी राज्यों में भी बहुत से समाचार पत्र निकले। यद्यपि उन्हें पड़ोस के अंग्रेजी इलाकों से निकालना ज़्यादा सुरक्षित होता। केरल के ‘मुलयाली मनोरमा‘ को सरकार का कोपभाजन होना पड़ा और कालीकट का ‘मातृभूमि‘ तो मलयालम भाषा में स्वाधीनता का प्रबल समर्थक था। इसी प्रकार का पत्र कर्नाटक में हुबली में स्थापित ‘संयुक्त कर्नाटक‘ अथवा मद्रास की तेलगु, आंध्र पत्रिका‘ था या ‘स्वदेश मित्रम‘ जो तमिल में छपता था और उड़िया पत्र समाज का ‘आसाम ट्रिब्यून‘ और ‘नूतन असमिया‘ थे। यदि राष्ट्रीय आंदोलन के पास ये सारे उपलब्ध न होते तो हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप क्या होता, यह कहना कठिन है।

भारतीय संविधान

$
0
0


मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
भारत
Emblem of India.svg
यह लेख यह श्रेणी के सम्बन्ध में है:

भारत की राजनीति

केन्द्र सरकार
संविधान
कार्यकारिणी
विधायिका
न्यायपालिका
स्थानीय
भारतीय आमचुनाव

अन्य देशप्रवेशद्वार:राजनीति
प्रवेशद्वार:भारत सरकार
भारत, संसदीय प्रणालीकी सरकार वाला एक प्रभुसत्तासम्पन्न, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधानके अनुसार शासित है। भारत का संविधान संविधान सभाद्वारा 26 नवम्बर, 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ। 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवसके रूप में मनाया जाता है।

अनुक्रम

संक्षिप्त परिचय

भारत का संविधान दुनिया का सबसे बडा लिखित संविधान है। इसमें 444 अनुच्छेद,तथा १२ अनुसूचियां हैं। परन्तु इसके निर्माण के समय इसमें केवल ८ अनुसूचियां थीं। संविधान में सरकार के संसदीय स्‍वरूप की व्‍यवस्‍था की गई है जिसकी संरचना कुछ अपवादों के अतिरिक्त संघीय है। केन्‍द्रीय कार्यपालिका का सांविधानिक प्रमुख राष्‍ट्रपतिहै। भारत के संविधान की धारा 79 के अनुसार, केन्‍द्रीय संसदकी परिषद् में राष्‍ट्रपति तथा दो सदन है जिन्‍हें राज्‍यों की परिषद् राज्‍यसभातथा लोगों का सदन लोकसभाके नाम से जाना जाता है। संविधान की धारा 74 (1) में यह व्‍यवस्‍था की गई है कि राष्‍ट्रपति की सहायता करने तथा उसे सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रमुख प्रधान मंत्रीहोगा, राष्‍ट्रपति इस मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार अपने कार्यों का निष्‍पादन करेगा। इस प्रकार वास्‍तविक कार्यकारी शक्ति मंत्रिपरिषद् में निहित है जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है जो वर्तमान में मनमोहन सिंह हैं।
मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोगों के सदन (लोक सभा) के प्रति उत्तरदायी है। प्रत्‍येक राज्‍य में एक विधान सभाहै। जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में एक ऊपरी सदन है जिसे विधान परिषद्कहा जाता है। राज्‍यपालराज्‍य का प्रमुख है। प्रत्‍येक राज्‍य का एक राज्‍यपाल होगा तथा राज्‍य की कार्यकारी शक्ति उसमें विहित होगी। मंत्रिपरिषद्, जिसका प्रमुख मुख्‍य मंत्रीहै, राज्‍यपाल को उसके कार्यकारी कार्यों के निष्‍पादन में सलाह देती है। राज्‍य की मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से राज्‍य की विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है।
संविधान की सातवीं अनुसूची में संसद तथा राज्‍य विधायिकाओं के बीच विधायी शक्तियों का वितरण किया गया है। अवशिष्‍ट शक्तियाँ संसद में विहित हैं। केन्‍द्रीय प्रशासित भू- भागों को संघराज्‍य क्षेत्र कहा जाता है।

अनुसूचियाँ

1. पहली अनुसूची - (अनुच्छेद 1 तथा 4) - राज्य तथा संघ राज्य क्षेत्र का वर्णन ।
2. दूसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 59(3), 65(3), 75(6),97, 125,148(3), 158(3),164(5),186 तथा 221] - मुख्य पदाधिकारियों के वेतन-भत्ते भाग-क-राष्ट्रपति और राज्यपाल के वेतन-भत्ते, भाग-ख- लोकसभा तथा विधानसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, राज्यसभा तथा विधान परिषद् के सभापति तथा उपसभापति के वेतन-भत्ते,भाग-ग- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते, भाग-घ- भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षकके वेतन-भत्ते।
3. तीसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 75(4),99, 124(6),148(2), 164(3),188 और 219] - व्यवस्थापिका के सदस्य, मंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों आदि के लिए शपथ लिए जानेवाले प्रतिज्ञान के प्रारूप दिए हैं।
4. चौथी अनुसूची - [अनुच्छेद 4(1),80(2)] - राज्यसभा में स्थानों का आबंटन राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों से।
5. पाँचवी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(1)] - अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जन-जातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित उपबंध।
6. छठी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(2), 275(1)] - असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के विषय मे उपबंध।
7. सातवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 246] - विषयों के वितरण से संबंधित सूची-1 संघ सूची, सूची-2 राज्य सूची, सूची-3 समवर्ती सूची।
8. आठवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 344(1), 351] - भाषाएँ - 22 भाषाओं का उल्लेख।
9. नवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 31 ख ] - कुछ भुमि सुधार संबंधी अधिनियमों का विधिमान्य करण।
10.दसवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 102(2), 191(2)] - दल परिवर्तन संबंधी उपबंध तथा परिवर्तन के आधार पर अ
११ ग्यारवी अनुसूची - पन्चायती राज से सम्बन्धित
१२ बारह्ववी अनुसूची - यह अनुसूची संविधान मे ७४ वे संवेधानिक संशोंधन द्वारा जोडि गई।

इतिहास

द्वितीय विश्वयुद्धकी समाप्ति के बाद जुलाई १९४५ में ब्रिटेनने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा भारत की संविधान सभा के निर्माण के लिए एक कैबिनेट मिशनभारत भेजा जिसमें ३ मंत्री थे। १५ अगस्त, १९४७ को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभाकी घोषणा हुई और इसने अपना कार्य ९ दिसम्बर १९४६ से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मौलाना अबुल कलाम आजादआदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। इस संविधान सभा ने २ वर्ष, ११ माह, १८ दिन मे कुल १६६ दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। भारत के संविधान के निर्माण में डॉ भीमराव अंबेदकरने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसलिए उन्होंने संविधान का निर्माता कहा जाता है।

भारतीय संविधान की प्रकृति

संविधान प्रारूप समिति तथा सर्वोच्च न्यायालय ने इस को संघात्मक संविधान माना है, परन्तु विद्वानों में मतभेद है । अमेरीकी विद्वान इस को छदम-संघात्मक-संविधान कहते हैं, हालांकि पूर्वी संविधानवेत्ता कहते है कि अमेरिकी संविधान ही एकमात्र संघात्मक संविधान नहीं हो सकता । संविधान का संघात्मक होना उसमें निहित संघात्मक लक्षणों पर निर्भर करता है, किन्तु माननीय सर्वोच्च न्यायालय (पि कन्नादासन वाद) ने इसे पूर्ण संघात्मक माना है ।

आधारभूत विशेषताएं

शक्ति विभाजन -यह भारतीय संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है , राज्य की शक्तियां केंद्रीय तथा राज्य सरकारों मे विभाजित होती है शक्ति विभाजन के चलते द्वेध सत्ता [केन्द्र-राज्य सत्ता ] होती है
दोनों सत्ताएँ एक-दूसरे के अधीन नही होती है, वे संविधान से उत्पन्न तथा नियंत्रित होती है दोनों की सत्ता अपने अपने क्षेत्रो मे पूर्ण होती है
संविधान की सर्वोचता - संविधान के उपबंध संघ तथा राज्य सरकारों पर समान रूप से बाध्यकारी होते है [केन्द्र तथा राज्य शक्ति विभाजित करने वाले अनुच्छेद
1 अनुच्छेद 54,55,73,162,241
2 भाग -5 सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय राज्य तथा केन्द्र के मध्य वैधानिक संबंध
3 अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची
4 राज्यो का संसद मे प्रतिनिधित्व
5 संविधान मे संशोधन की शक्ति अनु 368इन सभी अनुच्छेदो मे संसद अकेले संशोधन नही ला सकती है उसे राज्यो की सहमति भी चाहिए
अन्य अनुच्छेद शक्ति विभाजन से सम्बन्धित नही है
3 लिखित सविन्धान अनिवार्य रूप से लिखित रूप मे होगा क्योंकि उसमे शक्ति विभाजन का स्पषट वर्णन आवश्यक है। अतः संघ मे लिखित संविधान अवश्य होगा
4 सविन्धान की कठोरता इसका अर्थ है सविन्धान संशोधन मे राज्य केन्द्र दोनो भाग लेंगे
5 न्यायालयो की अधिकारिता- इसका अर्थ है कि केन्द्र-राज्य कानून की व्याख्या हेतु एक निष्पक्ष तथा स्वतंत्र सत्ता पर निर्भर करेंगे
विधि द्वारा स्थापित 1.1 न्यायालय ही संघ-राज्य शक्तियो के विभाजन का पर्यवेक्षण करेंगे
1.2 न्यायालय सविन्धान के अंतिम व्याख्याकर्ता होंगे भारत मे यह सत्ता सर्वोच्च न्यायालय के पास है ये पांच शर्ते किसी सविन्धान को संघात्मक बनाने हेतु अनिवार्य है
भारत मे ये पांचों लक्षण सविन्धान मे मौजूद है अत्ः यह संघात्मक है परंतु

भारतीय संविधान मे कुछ विभेदकारी विशेषताए भी है

1 यह संघ राज्यों के परस्पर समझौते से नहीं बना है
2 राज्य अपना पृथक संविधान नही रख सकते है, केवल एक ही संविधान केन्द्र तथा राज्य दोनो पर लागू होता है
3 भारत मे द्वैध नागरिकता नही है। केवल भारतीय नागरिकता है
4 भारतीय संविधान मे आपातकाल लागू करने के उपबन्ध है [352 अनुच्छेद] के लागू होने पर राज्य-केन्द्र शक्ति पृथक्करण समाप्त हो जायेगा तथा वह एकात्मक संविधान बन जायेगा। इस स्थिति मे केन्द्र-राज्यों पर पूर्ण सम्प्रभु हो जाता है
5 राज्यों का नाम, क्षेत्र तथा सीमा केन्द्र कभी भी परिवर्तित कर सकता है [बिना राज्यों की सहमति से] [अनुच्छेद 3] अत: राज्य भारतीय संघ के अनिवार्य घटक नही हैं। केन्द्र संघ को पुर्ननिर्मित कर सकती है
6 संविधान की 7 वींअनुसूची मे तीन सूचियाँ हैं संघीय, राज्य, तथा समवर्ती। इनके विषयों का वितरण केन्द्र के पक्ष मे है
6.1 संघीय सूची मे सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय हैं
6.2 इस सूची पर केवल संसद का अधिकार है
6.3 राज्य सूची के विषय कम महत्वपूर्ण हैं, 5 विशेष परिस्थितियों मे राज्य सूची पर संसद विधि निर्माण कर सकती है किंतु किसी एक भी परिस्थिति मे राज्य केन्द्र हेतु विधि निर्माण नहीं कर सकते
क1 अनु 249—राज्य सभा यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्र हित हेतु यह आवश्यक है [2\3 बहुमत से] किंतु यह बन्धन मात्र 1 वर्ष हेतु लागू होता है
क2 अनु 250— राष्ट्र आपातकाल लागू होने पर संसद को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार स्वत: मिल जाता है
क3 अनु 252—दो या अधिक राज्यों की विधायिका प्रस्ताव पास कर राज्य सभा को यह अधिकार दे सकती है [केवल संबंधित राज्यों पर]
क4 अनु253--- अंतराष्ट्रीय समझौते के अनुपालन के लिए संसद राज्य सूची विषय पर विधि निर्माण कर सकती है
क5 अनु 356—जब किसी राज्य मे राष्ट्रपति शासनलागू होता है, उस स्थिति मे संसद उस राज्य हेतु विधि निर्माण कर सकती है
7 अनुच्छेद 155 – राज्यपालों की नियुक्ति पूर्णत: केन्द्र की इच्छा से होती है इस प्रकार केन्द्र राज्यों पर नियंत्रण रख सकता है
8 अनु 360 – वित्तीय आपातकाल की दशा मे राज्यों के वित्त पर भी केन्द्र का नियंत्रण हो जाता है। इस दशा मे केन्द्र राज्यों को धन व्यय करने हेतु निर्देश दे सकता है
9 प्रशासनिक निर्देश [अनु 256-257] -केन्द्र राज्यों को राज्यों की संचार व्यवस्था किस प्रकार लागू की जाये, के बारे मे निर्देश दे सकता है, ये निर्देश किसी भी समय दिये जा सकते है, राज्य इनका पालन करने हेतु बाध्य है। यदि राज्य इन निर्देशों का पालन न करे तो राज्य मे संवैधानिक तंत्र असफल होने का अनुमान लगाया जा सकता है
10 अनु 312 मे अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान है ये सेवक नियुक्ति, प्रशिक्षण, अनुशासनात्मक क्षेत्रों मे पूर्णत: केन्द्र के अधीन है जबकि ये सेवा राज्यों मे देते है राज्य सरकारों का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है
11 एकीकृत न्यायपालिका
12 राज्यों की कार्यपालिक शक्तियां संघीय कार्यपालिक शक्तियों पर प्रभावी नही हो सकती है।

संविधान की प्रस्तावना

संविधान के उद्देश्यों को प्रकट करने हेतु प्राय: उनसे पहले एक प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व मे सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। प्रस्तावना के माध्यम से भारतीय संविधान का सार, अपेक्षाएँ, उद्देश्य उसका लक्ष्य तथा दर्शन प्रकट होता है। प्रस्तावना यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है इसी कारण यह ‘हम भारत के लोग’ इस वाक्य से प्रारम्भ होती है। केहर सिंह बनाम भारत संघ के वाद मे कहा गया था कि संविधान सभा भारतीय जनता का सीधा प्रतिनिधित्व नही करती अत: संविधान विधि की विशेष अनुकृपा प्राप्त नही कर सकता, परंतु न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए संविधान को सर्वोपरि माना है जिस पर कोई प्रश्न नही उठाया जा सकता है।
संविधान की प्रस्तावना:
" हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद
द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

संविधान के तीन भाग

संविधान के तीन प्रमुख भाग हैं। भाग एक में संघ तथा उसका राज्यक्षेत्रों के विषय में टिप्पणीं की गई है तथा यह बताया गया है कि राज्य क्या हैं और उनके अधिकार क्या हैं। दूसरे भाग में नागरिकता के विषय में बताया गया है कि भारतीय नागरिक कहलाने का अधिकार किन लोगों के पास है और किन लोगों के पास नहीं है। विदेश में रहने वाले कौन लोग भारतीय नागरिक के अधिकार प्राप्त कर सकते हैं और कौन नहीं कर सकते। तीसरे भाग में भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विषय में विस्तार से बताया गया है। • संविधान की प्रस्तावना बाहर सेट मुख्य उद्देश्य है जो संविधान सभा को प्राप्त करने का इरादा है. • 'उद्देश्य' संकल्प पंडित नेहरू द्वारा प्रस्तावित है और संविधान सभा द्वारा पारित, अंततः भारत के संविधान की प्रस्तावना बन गया. • जैसा कि उच्चतम न्यायालयने मनाया है, प्रस्तावना संविधान के निर्माताओं के मन को जानने की कुंजी है. • यह भी भारत के लोगों के आदर्शों और आकांक्षाओं का प्रतीक है. • संविधान (42 वां संशोधन) अधिनियम, 1976 प्रस्तावना में संशोधन और शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और प्रस्तावना के लिए वफ़ादारी जोड़ी. • प्रस्तावना प्रकृति में गैर न्यायोचित है, राज्य के नीति theDirective सिद्धांतों की तरह और कानून की एक अदालत में लागू नहीं किया जा सकता है. यह न तो राज्य के तीन अंगों को मूल शक्ति (निश्चित और वास्तविक शक्ति) प्रदान कर सकते हैं, और न ही संविधान के प्रावधानों के तहत अपनी शक्तियों की सीमा. • संविधान की प्रस्तावना विशिष्ट प्रावधान नहीं ओवरराइड कर सकते हैं. दोनों के बीच किसी भी संघर्ष के मामले में, बाद अभिभावी होगी. तो •, यह एक बहुत ही सीमित भूमिका निभानी है. • उच्चतम न्यायालयने मनाया प्रस्तावना संविधान के प्रावधानों के आसपास अस्पष्टता को दूर करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
प्रस्तावना के प्रयोजन

• प्रस्तावना वाणी है कि यह भारत के लोगों को जो अधिनियमित था अपनाया और खुद को संविधान दिया है. • इस प्रकार, संप्रभुता लोगों के साथ अंत में निहित है. • यह भी लोगों की जरूरत है कि प्राप्त किया जा करने के आदर्शों और आकांक्षाओं को वाणी है. • आदर्शों आकांक्षाओं से अलग कर रहे हैं. जबकि पूर्व हे परमेश्वर के रूप में भारत के संविधान की घोषणा के साथ हासिल किया गया है, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य, बाद न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे, जो अभी तक प्राप्त किया जा शामिल है. आदर्शों आकांक्षाओं को प्राप्त करने का मतलब हैं.
प्रस्तावना

हम, भारत के लोगों, सत्यनिष्ठा से एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य में भारत का गठन करने के लिए और अपने सभी नागरिकों को सुरक्षित हल होने: न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक; सोचा, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता; स्थिति के और अवसर की समानता, और उन सब के बीच बढ़ावा देने व्यक्ति और राष्ट्र की एकता और अखंडता की गरिमा आश्वस्त बिरादरी; हमारी संविधान सभा नवम्बर, 1949 के इस बीस छठे दिन में, एतद्द्वारा, अपनाने करते अधिनियमित और अपने आप को इस संविधान दे.
प्रभु 'संप्रभु' शब्द पर जोर दिया कि भारत के बाहर कोई अधिकार नहीं है जिस पर देश के किसी भी निर्भर रास्ते में है.
समाजवादी 'समाजवादी' शब्द करके, संविधान लोकतांत्रिक साधनों के माध्यम से समाज के समाजवादी पैटर्न की उपलब्धि का मतलब है.
लौकिक • है कि भारत एक 'सेकुलर राज्य' है का मतलब है कि भारत के गैर - धार्मिक या अधार्मिक, या विरोधी धार्मिक नहीं करता, लेकिन बस है कि राज्य में ही धार्मिक और नहीं है "सर्व धर्म Samabhava" प्राचीन भारतीय सिद्धांत निम्नानुसार है. • यह भी मतलब है कि राज्य के नागरिकों के खिलाफ किसी भी तरह से धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा. • राज्य का संबंध धर्म विश्वास करने के लिए सही है या नहीं एक धर्म में विश्वास सहित एक व्यक्ति का निजी मामला हो सकता है. हालांकि, भारत अर्थ है पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्ष नहीं है, अपनी विशिष्ट सामाजिक - सांस्कृतिक वातावरण के कारण.
यह संविधान का एक हिस्सा है? • Kesavananda केरल मामले (1971) की भारती बनाम राज्य में उच्चतम न्यायालयके 1960 के पहले निर्णय खारिज (Berubari मामले) और यह स्पष्ट है कि यह संविधान का एक हिस्सा है और संसद के संशोधन के रूप में सत्ता के अधीन है संविधान के किसी अन्य प्रावधान, संविधान के मूल ढांचे प्रदान के रूप में प्रस्तावना में पाया नष्ट नहीं है. हालांकि, यह संविधान का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं है. • नवीनतम S.R. बोम्मई मामले में, 1993 में तीन सांसद, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी के बारे में, जस्टिस रामास्वामी ने कहा, "संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न हिस्सा है सरकार, संघीय ढांचे की एकता और अखंडता के लोकतांत्रिक रूप. राष्ट्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, सामाजिक न्याय और न्यायिक समीक्षा संविधान के बुनियादी सुविधाओं कर रहे हैं ". • प्रश्न प्रस्तावना जब यह एक बुनियादी सुविधा है संशोधन किया गया था क्यों के रूप में उठता है. 42 संशोधन करके, प्रस्तावना 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' को शामिल करने के लिए संशोधन किया गया था के रूप में यह मान लिया था कि इन संशोधनों को स्पष्ट कर रहे हैं और प्रकृति में योग्यता. वे पहले से ही प्रस्तावना में निहित हैं
लोकतंत्रीय • शब्द का अर्थ है 'डेमोक्रेटिक कि लोगों द्वारा चुने गए शासकों केवल सरकार चलाने का अधिकार है. • भारत 'प्रतिनिधि लोकतंत्र' की एक प्रणाली है, जहां सांसदों और विधायकों को सीधे लोगों द्वारा चुने गए हैं निम्नानुसार है. पंचायतों और नगर पालिकाओं (73 और 74 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992) के माध्यम से जमीनी स्तर पर लोकतंत्र ले • प्रयास किए जा रहे हैं. हालांकि, प्रस्तावना न केवल राजनीतिक, लेकिन यह भी लोकतंत्र सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्रों की परिकल्पना की गई है.
गणतंत्र 'गणतंत्र' शब्द का मतलब है कि वहाँ भारत में कोई वंशानुगत शासक और राज्य के सभी प्राधिकारी हैं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लोगों द्वारा चुने गए मौजूद है.
प्रस्तावना राज्यों है कि प्रत्येक नागरिक उद्देश्यों के लिए सुरक्षित कर रहे हैं 1. न्यायमूर्ति: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक • न्याय के बारे में, एक बात स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के राजनीतिक न्याय के लिए राज्य और अधिक से अधिक कल्याण प्रकृति में उन्मुख बनाने के द्वारा सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने का मतलब हो जाने की उम्मीद है. • भारत में राजनीतिक न्याय सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार द्वारा योग्यता के किसी भी प्रकार के बिना गारंटी है. • जबकि सामाजिक न्याय सम्मान की abolishingjmy Jitle (18 Art.) द्वारा सुनिश्चित किया जाता है और अस्पृश्यता (17 Art.), निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से मुख्य रूप से आर्थिक न्याय की गारंटी है.
2. लिबर्टी: सोचा, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा की • लिबर्टी एक मुक्त समाज का एक अनिवार्य विशेषता है कि एक व्यक्ति के बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक संकायों के पूर्ण विकास में मदद करता है. • भारतीय संविधान छह आर्ट के तहत व्यक्तियों को लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है. 19 और धर्म की कला के तहत स्वतंत्रता का अधिकार. 25-28.
3. की स्थिति, अवसर: समानता • स्वतंत्रता का फल पूरी तरह से जब तक वहाँ स्थिति और अवसर की समानता है महसूस नहीं किया जा सकता है. • हमारा संविधान यह गैरकानूनी बना देता है, धर्म, जाति, लिंग, या सभी के लिए खुला सार्वजनिक स्थानों अस्पृश्यता (17 Art.) को खत्म करने, फेंकने द्वारा और जन्म स्थान (15 Art.) के आधार पर ही राज्य द्वारा किसी भेदभाव सम्मान के खत्म शीर्षक (ArtJ8). • हालांकि, राष्ट्रीय मुख्यधारा में समाज के अब तक उपेक्षित वर्गों को लाने के लिए, संसद अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों (सुरक्षा भेदभाव) के लिए कुछ कानून पारित कर दिया गया है.
4. बिरादरी भाईचारे के रूप में संविधान में निहित भाईचारे की भावना लोगों के सभी वर्गों के बीच प्रचलित मतलब है. यह राज्य धर्मनिरपेक्ष बनाने, समान रूप से सभी वर्गों के लोगों को मौलिक और अन्य अधिकारों की गारंटी, और उनके हितों की रक्षा के द्वारा प्राप्त किया जा मांग की है. हालांकि, बिरादरी एक उभरती प्रक्रिया है और 42 संशोधन द्वारा 'अखंडता' शब्द जोड़ा गया था, इस प्रकार यह एक व्यापक अर्थ दे.

के.एम. मुंशी 'राजनीतिक कुंडली' के रूप में करार दिया. बयाना बार्कर यह संविधान की कुंजी कहता है. ठाकुरदास भार्गव 'संविधान की आत्मा' के रूप में मान्यता दी. शब्द 'समाज के सोशलिस्टिक पैटर्न' अवादी सत्र में 1955 में कांग्रेस द्वारा भारतीय राज्य का एक लक्ष्य के रूप में अपनाया गया था.

संविधान भाग ५ नीति निर्देशक तत्व

भाग 3 तथा 4 मिल कर संविधान की आत्मा तथा चेतना कहलाते हैक्यों कि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए मौलिक अधिकार तथा निति निर्देश देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीति निर्देशक तत्व जनतांत्रिक संवैधानिक विकास के नवीनतम तत्व हैं सर्वप्रथम ये आयरलैंडके संविधान मे लागू किये गये थे। ये वे तत्व है जो संविधान के विकास के साथ ही विकसित हुए है। इन तत्वॉ का कार्य एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। भारतीय संविधान के इस भाग में नीति निर्देशक तत्वों का रूपाकार निश्चित किया गया है, मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व मे भेद बताया गया है और नीति निदेशक तत्वों के महत्व को समझाया गया है।

भाग 4 क मूल कर्तव्य

मूल कर्तव्य मूल सविधान में नहीं थे, इन्हे ४२ वें संविधान संशोधन द्ववारा जोड़ा गया है। ये रूस से प्रेरित होकर जोड़े गये तथा संविधान के भाग ४ (क) के अनुच्छेद ५१ - अ मे रखे गये हैं । ये कुल ११ है ।
51 क. मूल कर्तव्य- भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
(क) संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे ; (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे; (ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे; (घ) देश की रक्षा करे और आह्वान करने किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे; (ङ) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है; (च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उस का परिरक्षण करे; (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे; (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे; (झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे; (ञ) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले; (ट) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।

भाग 5 संघ

पाठ 1 संघीय कार्यपालिका

संघीय कार्यपालिका मे राष्ट्रपति ,उपराष्ट्रपति,मंत्रिपरिषद तथा महान्यायवादी आते है। रामजवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य वाद मे सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका शक्ति को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
  • 1 विधायिका न्यायपालिका के कार्यॉ को पृथक करने के पश्चात सरकार का बचा कार्य ही कार्यपालिका है।
  • 2 कार्यपालिका मॅ देश का प्रशासन, विधियॉ का पालन सरकारी नीति का निर्धारण ,विधेयकॉ की तैयारी करना ,कानून व्यव्स्था बनाये रखना सामाजिक आर्थिक कल्याण को बढावा देना विदेश नीति निर्धारित करना आदि आता है।

राष्ट्रपति

संघ का कार्यपालक अध्यक्ष है संघ के सभी कार्यपालक कार्य उस के नाम से किये जाते है अनु 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति उसमॅ निहित है इन शक्तियॉ/कार्यों का प्रयोग क्रियांवय्न राष्ट्रपति सविन्धान के अनुरूप ही सीधे अथवा अधीनस्थ अधिकारियॉ के माध्यम से करेगा। वह सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी होता है,सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला युद्ध शांति की घोषणा करने वाला होता है वह देश का प्रथम नागरिक है तथा राज्य द्वारा जारी वरीयता क्रम मे उसका सदैव प्रथम स्थान होता है। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है तथा उसकी आयु कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए। राष्ट्रपति का चुनाव, उस पर महाभियोग की अवस्थाएँ, उसकी शक्तियाँ, संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति, राष्ट्रपति की संसदीय शक्ति तथा राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियों का वर्णन इस अध्याय में किया गया है।

उपराष्ट्रपति

उपराष्ट्रपति का राज्य सभा का पदेन सभापति होना--उपराष्ट्रपति, राज्य सभा का पदेन सभापति होगा और अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा: परंतु जिस किसी अवधि के दौरान उपराष्ट्रपति, अनुच्छेद 65 के अधीन राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करता है, उस अवधि के दौरान वह राज्य सभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा और वह अनुच्छेद 97 के अधीन राज्य सभा के सभापति को संदेय वेतन या भत्ते का हकदार नहीं होगा।
65. राष्ट्रपति के पद में आकस्मिक रिक्ति के दौरान या उसकी अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति का राष्ट्रपति के रूप में कार्य करना या उसके कृत्यों का निर्वहन--(1) राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से उसके पद में हुई रिक्ति की दशा में उपराष्ट्रपति उस तारीख तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा जिस तारीख को ऐसी रिक्ति को भरने के लिए इस अध्याय के उपबंधों के अनुसार निर्वाचित नया राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करता है।
(2) जब राष्ट्रपति अनुपस्थिति, बीमारी या अन्य किसी कारण से अपने कृत्यों का निर्वहन करने में असमर्थ है तब उपराष्ट्रपति उस तारीख तक उसके कृत्यों का निर्वहन करेगा जिस तारीख को राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों को फिर से संभालता है।
उपराष्ट्रपति को उस अवधि के दौरान और उस अवधि के संबंध में, जब वह राष्ट्रपति के रूप में इस प्रकार कार्य कर रहा है या उसके कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, राष्ट्रपति की सभी शक्तियाँ और उन्मुक्तियाँ होंगी तथा वह ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का जो संसद, विधि द्वारा, अवधारित करे, और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा।
66. उपराष्ट्रपति का निर्वाचन--(1) उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचकगण के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होगा और ऐसे निर्वाचन में मतदान गुप्त होगा।
(2) उपराष्ट्रपति संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा और यदि संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का कोई सदस्य उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो जाता है तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान उपराष्ट्रपति के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।
(3) कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र तभी होगा जब वह-- (क) भारत का नागरिक है, (ख) पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है, और (ग) राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए अर्हित है।
(4) कोई व्यक्ति, जो भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी के नियंत्रण में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता है, उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र नहीं होगा। स्पष्टीकरण--इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण कोई लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल 2 * * * है अथवा संघ का या किसी राज्य का मंत्री है।
67. उपराष्ट्रपति की पदावधि--(1) उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा: परंतु-- (क) उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; (ख) उपराष्ट्रपति, राज्य सभा के ऐसे संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा जिसे राज्य सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत ने पारित किया है और जिससे लोकसभा सहमत है; किंतु इस खंड के प्रयोजन के लिए कई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो; (ग) उपराष्ट्रपति, अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी, तब तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। 68. उपराष्ट्रपति के पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन करने का समय और आकस्मिक रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति की पदावधि--(1) उपराष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, पदावधि की समाप्ति से पहले ही पूर्ण कर लिया जाएगा। (2) उपराष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से हुई उसके पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, रिक्ति होने के पश्चात्‌ यथाशीघ्र किया जाएगा और रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति, अनुच्छेद 67 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, अपने पद ग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष की पूरी अवधि तक पद धारण करने का हकदार होगा।
69. उपराष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान--प्रत्येक उपराष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने से पहले राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष निम्नलिखित प्ररूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात्‌: -- ईश्वर की शपथ लेता हूँ
मैं, अमुक ---------------------------------कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ, श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूँगा।

मंत्रिपरिषद

संसदीय लोकतंत्र के मह्त्वपूर्ण सिद्धांत 1. राज्य प्रमुख, सरकार प्रमुख न होकर मात्र संवैधानिक प्रमुख ही होता है
2. वास्तविक कार्यपालिका शक्ति, मंत्रिपरिषद जो कि सामूहिक रूप से संसद के निचले सदन के सामने उत्तरदायी होगा के पास होगी
3 मंत्रिपरिषद के सद्स्य संसद के सद्स्यों से लिए जायेंगे

परिषद का गठन

1. प्रधानमंत्री के पद पे आते ही यह परिषद गठित हो जाती है यह आवश्यक नही है कि उसके साथ कुछ अन्य मंत्री भी शपथ ले केवल प्रधानमंत्री ही मंत्रिपरिषद होगा
2 मंत्रिपरिषद की सद्स्य संख्या पर मौलिक संविधान मे कोई रोक नही थी किंतु 91 वे संशोधन के द्वारा मंत्रिपरिषद की संख्या
लोकसभा के सद्स्य संख्या के 15% तक सीमित कर दी गयी वही राज्यों मेभी मंत्रीपरिषद की
संख्या विधानसभा के 15% से अधिक नही होगी पंरंतु न्यूनतम 12 मंत्री होंगे

मंत्रियों की श्रेणियाँ

संविधान मंत्रियों की श्रेणी निर्धारित नही करता यह निर्धारण अंग्रेजी प्रथा के आधार पर किया गया है
कुल तीड़्न प्रकार के मंत्री माने गये है
  • 1. कैबिनेट मंत्री—सर्वाधिक वरिष्ठ मंत्री है उनसे ही कैबिनेट का गठन होता है मंत्रालय मिलने पर वे उसके अध्यक्ष होते है उनकी सहायता हेतु राज्य मंत्री तथा उपमंत्री होते है उन्हें कैबिनेट बैठक मे बैठने का अधिकार होता है अनु 352 उन्हें मान्यता देता है
कृप्या सभी कैबिनेट मंत्रालयों ,राज्य मंत्रालय की सूची पृथक से जोड दे
  • 2. राज्य मंत्रीद्वितीय स्तर के मंत्री होते है सामान्यत उनहे मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार नही मिलता किंतु प्रधानमंत्री चाहे तो यह कर सकता है उन्हें कैबिनेट बैठक मे आने का अधिकार नही होता।
  • 3. उपमंत्रीकनिष्ठतम मंत्री है उनका पद सृजन कैबिनेट या राज्य मंत्री को सहायता देने हेतु किया जाता है वे मंत्रालय या विभाग का स्वतंत्र प्रभार भी नही लेते है।
  • 4. संसदीय सचिवसत्तारूढ दल के संसद सद्स्य होते है इस पद पे नियुक्त होने के पश्चात वे मंत्री गण की संसद तथा इसकी समितियॉ मे कार्य करने मे सहायता देते है वे प्रधान मंत्री की इच्छा से पद ग्रहण करते है वे पद गोपनीयता की शपथ भी प्रधानमंत्री के द्वारा ग्रहण करते है वास्तव मे वे मंत्री परिषद के सद्स्य नही होते है केवल मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है।

मंत्रिमंडल

मंत्रि परिषद एक संयुक्त निकाय है जिसमॆं 1,2,या 3 प्रकार के मंत्री होते है यह बहुत कम मिलता है चर्चा करता है या निर्णय लेता है वहीं मंत्रिमंडल मे मात्र कैबिनेट प्रकार के मंत्री होते है यह समय समय पर मिलती है तथा समस्त महत्वपूर्ण निर्णय लेती है इस के द्वारा स्वीकृत निर्णय अपने आप परिषद द्वारा स्वीकृत निर्णय मान लिये जाते है यही देश का सर्वाधिक मह्त्वपूर्ण निर्णय लेने वाला निकाय है
  • सम्मिलित उत्तरदायित्वअनु 75[3] के अनुसार मंत्रिपरिषद संसद के सामने सम्मिलित रूप से उत्तरदायी है इसका लक्ष्य मंत्रिपरिषद मे संगति लाना है ताकि उसमे आंतरिक रूप से विवाद पैदा ना हो।
  • व्यक्तिगत उत्तरदायित्वअनु 75[2] के अनुसार मंत्री व्यक्तिगत रूप से राष्ट्रपति के सामने उत्तरदायी होते है किंतु यदि प्रधानमंत्री की सलाह ना हो तो राष्ट्रपति मंत्री को पद्च्युत नही कर सकता है।

भारत का महान्यायवादी

भारत का महान्यायवादी संसद के किसी भी सदन का सदस्य न रहते हुए भी संसद की कार्रवाई में भाग ले सकता है ।

प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री की दशा समानों मे प्रधान की तरह है वह कैबिनेट का मुख्य स्तंभ है मंत्री परिषद का मुख्य सद्स्य भी वही है अनु 74 स्पष्ट रूप से मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता तथा संचालन हेतु प्रधानम्ंत्री की उपस्तिथि आवश्यक मानता है उसकी मृत्यु या त्यागपत्र की द्शा मे समस्त परिषद को पद छोडना पडता है वह अकेले ही मंत्री परिषद का गठन करता है राष्ट्रपति मंत्री गण की नियुक्ति उस की सलाह से ही करता है मंत्री गण के विभाग का निर्धारण भी वही करता है कैबिनेट के कार्य का निर्धारण भी वही करता है देश के प्रशासन को निर्देश भी वही देता है सभी नीतिगत निर्णय वही लेता है राष्ट्रपति तथा मंत्री परिषद के मध्य संपर्क सूत्र भी वही है परिषद का प्रधान प्रवक्ता भी वही है परिषद के नाम से लडी जाने वाली संसदीय बहसॉ का नेतृत्व करता है संसद मे परिषद के पक्ष मे लडी जा रही किसी भी बहस मे वह भाग ले सकता है मन्त्री गण के मध्य समन्वय भी वही करता है वह किसी भी मंत्रालय से कोई भी सूचना मंगवा सकता है इन सब कारणॉ के चलते प्रधानम्ंत्री को देश का सबसे मह्त्वपूर्ण राजनैतिक व्यक्तित्व माना जाता है
प्रधानमंत्री सरकार के प्रकार
प्रधानमंत्री सरकार संसदीय सरकार का ही प्रकार है जिसमे प्रधानमंत्री मंत्रि परिषद का नेतृत्व करता है वह कैबिनेट की निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है वह कैबिनेट से अधिक शक्तिशाली है उसके निर्णय ही कैबिनेट के निर्णय है देश की सामान्य नीतियाँ कैबिनेट द्वारा निर्धारित नहीं होती है यह कार्य प्रधानमंत्री अपने निकट सहयोगी चाहे वो मंत्रि परिषद के सद्स्य ना हो की सहायता से करता है जैसे कि इंदिरा गाँधी अपने किचन कैबिनेट की सहायता से करती थी
प्रधानमंत्री सरकार के लाभ
  • 1 तीव्र तथा कठोर निर्णय ले सकती है
  • 2 देश को राजनैतिक स्थाईत्व मिलता है
इससे कुछ हानि भी है
  • 1 कैबिनेट ऐसे निर्णय लेती है जो सत्ता रूढ दल के हित मे हो न कि देश के हित मे
  • 2 इस के द्वारा गैर संवैधानिक शक्ति केन्द्रों का जन्म होता है
कैबिनेट सरकार
संसदीय सरकार का ही प्रकार है इस मे नीति गत निर्णय सामूहिक रूप से कैबिनेट [मंत्रि मंडल ] लेता है इस मे प्रधानमंत्री कैबिनेट पे छा नही जाता है इस के निर्णय सामान्यत संतुलित होते है लेकिन कभी कभी वे इस तरह के होते है जो अस्पष्ट तथा साहसिक नही होते है। 1989 के बाद देश मे प्रधानमंत्री प्रकार का नही बल्कि कैबिनेट प्रकार का शासन रहा है।
प्रधानमन्त्री के कार्य
१- मन्त्रीपरिषद के गठन का कार्य २- प्रमुख शासक ३- नीति निर्माता ४- ससद का नेता ५- विदेश निती का निर्धारक

कार्यकारी सरकार

बहुमत समाप्त हो जाने के बाद जब मंत्रि परिषद त्यागपत्र दे देती है तब कार्यकारी सरकार अस्तित्व मे आती है अथवा प्रधानमंत्री की मृत्यु/ त्यागपत्र की दशा मे यह स्थिति आती है। यह सरकार अंतरिम प्रकृति की होती है यह तब तक स्थापित रहती है जब तक नयी मंत्रिपरिषद शपथ ना ले ले यह इसलिए काम करती है ताकि अनुच्छेद 74 के अनुरूप एक मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति की सहायता हेतु रहे। वी.एन.राव बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालयने माना था कि मंत्रि परिषद सदैव मौजूद रहनी चाहिए यदि यह अनुपस्थित हुई तो राष्ट्रपति अपने काम स्वंय करने लगेगा जिस से सरकार का रूप बदल कर राष्ट्रपति हो जायेगा जो कि संविधान के मूल ढाँचे के खिलाफ होगा। यह कार्यकारी सरकार कोई भी वित्तीय/नीतिगत निर्णय नही ले सकती है क्योंकि उस समय लोक सभा मौजूद नही रहती है वह केवल देश का दैनिक प्रशासन चलाती है। इस प्रकार की सरकार के सामने सबसे विकट स्थिति तब आ गयी थी जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को 1999 मे कारगिल युद्ध का संचालन करना पडा था। किंतु विकट दशा मे इस प्रकार की सरकार भी कोई भी नीति निर्णय ले सकती है।

सुस्थापित परंपराए

एक संसदीय सरकार में ये पंरपराए ऐसी प्रथाएँ मानी जाती है जो सरकार के सभी अंगों पर वैधानिक रूप
से लागू मानी जाती है उनका वर्णन करने के लिये कोई विधान नहीं होता है ना ही संविधान मे किसी देश के शासन के बारे मे पूर्ण वर्णन किया जा सकता है संविधान निर्माता भविष्य मे होने वाले विकास तथा देश के शासन पर उनके प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकते अतः वे उनके संबंध मे संविधान में प्रावधान भी नहीं कर सकते है
इस तरह संविधान एक जीवित शरीर तो है परंतु पूर्ण वर्णन नही है इस वर्णन मे बिना संशोधन लाये परिवर्तन भी नहीं हो सकता है वही पंरपराए संविधान के प्रावधानॉ की तरह वैधानिक नहीं होती वे सरकार के संचालन में स्नेहक का कार्य करते है तथा सरकार का प्रभावी संचालन करने मे सहायक है
पंरपराए इस लिए पालित की जाती है क्योंकि उनके अभाव मे राजनैतिक कठिनाइया आ सकती है इसी कारण उन्हें संविधान का पूरक माना जाता हैब्रिटेन मे हम इनका सबसे विकसित तथा प्रभावशाली रूप देख सकते है
इनके दो प्रकार है प्रथम वे जो संसद तथा मंत्रिपरिषद के मध्य संयोजन का कार्य करती है यथा अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर परिषद का त्यागपत्र दे देना
द्वितीय वे जो विधायिका की कार्यवाहिय़ों से संबंधित है जैसे किसी बिल का तीन बार वाचन संसद के तीन सत्र राष्ट्रपति द्वारा धन बिल को स्वीकृति देना उपस्पीकर का चुनाव विपक्ष से करना जब स्पीकर सत्ता पक्ष से चुना गया हो आदि
सरकार के संसदीय तथा राष्ट्रपति प्रकार
संसदीय शासन के समर्थन मे तर्क
1. राष्ट्रपतीय शासन मे राष्ट्रपति वास्तविक कार्य पालिका होता है जो जनता द्वारा निश्चित समय के लिये चुना जाता है वह विधायिका के प्रति उत्तरदायी भी नेही होता है उसके मंत्री भी विधायिका के सदस्य नही होते है तथा उसी के प्रति उत्ततदायी होंगे न कि विधायिका के प्रति
वही संसदीय शासन मे शक्ति मंत्रि परिषद के पास होती है जो विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है
2. भारत की विविधता को देखते हुए संसदीय शासन ज्यादा उपयोगी है इस मे देश के सभी वर्गों के लोग मंत्रि परिषद मे लिये जा सकते है
3. इस् शासन मे संघर्ष होने [विधायिका तथा मंत्रि परिषद के मध्य] की संभावना कम रहती है क्यॉकि मंत्री विधायिका के सदस्य भी होते है
4 भारत जैसे विविधता पूर्ण देश मे सर्वमान्य रूप से राष्ट्रपति का चुनाव करना लगभग असंभव है
5 मिंटे मार्ले सुधार 1909 के समय से ही संसदीय शासन से भारत के लोग परिचय रखते है ,kfduytjkjoojidsfuhgyuhgihtriijik

भाग पाँच, अध्याय 2, संसद

राज्य सभा

राज्यों को संघीय स्तर पर प्रतिनिधित्व देने वाली सभा है जिसका कार्य संघीय स्तर पर राज्य हितॉ का संरक्षण करना है। इसे संसद का दूसरा सदन कह्ते है इसके सदस्य दो प्रकार से निर्वाचित होते है राज्यॉ से 238 को निर्वाचित करते है तथा राष्ट्रपति द्वारा 12 को मनोनीत करते है। वर्तमान मे यह संख्या क्रमश 233 ,12 है ये सद्स्य 6 वर्ष हेतु चुने जाते है इनका चयन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के द्वारा होता है मत एकल संक्रमणीय प्रणाली से डाले जाते है। मत खुले डाले जाते है.सद्स्य जो निर्वाच्त होना चाहते है देश के किसी भी संसदीय क्षेत्र से एक निर्वाचक के रूप मे पंजीकृत होने चाहिए।

राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ

राज्यसभा के पास तीन विशेष शक्तिया होती है
  1. अनु. 249 के अंतर्गत राज्य सूची के विषय पर 1 वर्ष का बिल बनाने का हक
  2. अनु. 312 के अंतर्गत नवीन अखिल भारतीय सेवा का गठन 2/3 बहुमत से करना
  3. अनु. 67 ब उपराष्ट्रपति को हटाने वाला प्रस्ताव राज्यसभा मे ही लाया जा सकेगा

राज्य सभा का संघीय स्वरूप

  1. राज्य सभा का गठन ही राज्य परिषद के रूप मे संविधान के संघीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व देने के लिये हुआ था
  2. राज्य सभा के सद्स्य मंत्रि परिषद के सदस्य बन सकते है जिससे संघीय स्तर पर निर्णय लेने मे राज्य का प्रतिनिधित्व होगा
  3. राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा महाभियोग तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन मे समान रूप से भाग लेती है
  4. अनु 249,312 भी राज्य सभा के संघीय स्वरूप तथा राज्यॉ के संरक्षक रूप मे उभारते है
  5. सभी संविधान संशोधन बिल भी इस के द्वारा पृथक सभा कर तथा 2/3 बहुमत से पास होंगे
  6. संसद की स्वीकृति चाहने वाले सभी प्रस्ताव जो कि आपातकाल से जुडे हो भी राज्यसभा द्वारा पारित होंगे

राज्य सभा के गैर संघीय तत्व

  1. संघीय क्षेत्रॉ को भी राज्य सभा मे प्रतिनिधित्व मिलता है जिससे इसका स्वरूप गैर संघीय हो जाता है
  2. राज्यॉ का प्रतिनिधित्व राज्यॉ की समानता के आधार पे नही है जैसा कि अमेरिका मे है वहाँ प्रत्येक राज्य को
    सीनेट मे दो स्थान मिलते है किंतु भारत मे स्थानॉ का आवंटन आबादी के आधार पे किया गया है
  3. राज्य सभा मे मनोनीत सद्स्यों का प्रावधान है

राज्य सभा का मह्त्व

  1. किसी भी संघीय शासन मे संघीय विधायिका का ऊपरी भाग संवैधानिक बाध्यता के चलते राज्य हितॉ की संघीय
    स्तर पर रक्षा करने वाला बनाया जाता है इसी सिद्धांत के चलते राज्य सभा का गठन हुआ है ,इसी कारण राज्य सभा को सदनॉ
    की समानता के रूप मे देखा जाता है जिसका गठन ही संसद के द्वितीय सदन के रूप मे हुआ है
  2. यह जनतंत्र की मांग है कि जहाँ लोकसभा सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है विशेष शक्तियॉ का उपभोग करती है
    ,लोकतंत्र के सिद्धांत के अनुरूप मंत्रिपरिषद भी लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होने के लिये बाध्य करते है किंतु ये दो कारण किसी भी प्रकार
    से राज्यसभा का मह्त्व कम नही करते है
  3. राज्यसभा का गठन एक पुनरीक्षण सदन के रूप मे हुआ है जो लोकसभा द्वारा पास किये गये प्रस्तावॉ की पुनरीक्षा करे
    यह मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की कमी भी पूरी कर सकती है क्योंकि कम से कम 12 विशेषज्ञ तो इस मे मनोनीत होते ही है
  4. आपातकाल लगाने वाले सभी प्रस्ताव जो राष्ट्रपति के सामने जाते है राज्य सभा द्वारा भी पास होने चाहिये
  5. राज्य सभा का महत्व यह है कि जहाँ लोकसभा सदैव सरकार से सहमत होती है जबकि राज्यसभा सरकार की नीतिय़ों का निष्पक्ष मूल्याँकन कर सकती है
  6. मात्र नैतिक प्रभाव सरकार पे डालती है किंतु यह लोकस्भा के प्रभाव की तुलना मे ज्यादा होता है

राज्य सभा के पदाधिकारी उनका निर्वाचन ,शक्ति ,कार्य, उत्तरदायित्व तथा पदच्युति

लोकसभा

यह संसद का लोकप्रिय सदन है जिसमे निर्वाचित मनोनीत सद्स्य होते है संविधान के अनुसार लोकसभा का विस्तार राज्यॉ से चुने गये 530, संघ क्षेत्र से चुने गये 20 और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 2 आंग्ल भारतीय सदस्यॉ तक होगा वर्तमान मे राज्यॉ से 530 ,संघ क्षेत्रॉ
से 13 तथा 2 आंग्ल भारतीय सद्स्यॉ से सदन का गठन किया गया है
कुछ स्थान अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति हेतु आरक्षित है
प्रत्येक राज्य को उसकी आबादी के आधार पर सद्स्य मिलते है अगली बार लोकसभा के सदस्यॉ की संख्या वर्ष 2026 मे निर्धारित किया जायेगा वर्तमान मे यह 1971 की जनसंख्या पे आधारित है इससे पहले प्रत्येक दशक की जनगणना के आधार पर सदस्य स्थान निर्धारित होते थे यह कार्य बकायदा 84 वे संविधान संशोधन से किया गया था ताकि राज्य अपनी आबादी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा स्थान प्राप्त करने का प्रयास नही करे
लोकसभा की कार्यावधि 5 वर्ष है पर्ंतु इसे समय से पूर्व भंग किया जा सकता है

लोकसभा की विशेष शक्तियाँ

  1. मंत्री परिषद केवल लोकस्भा के प्रति उत्तरदायी है अविश्वास प्रस्ताव सरकार के विरूद्ध केवल यही लाया जा सकता है
  2. धन बिल पारित करने मे यह निर्णायक सदन है
  3. राष्ट्रीय आपातकाल को जारी रखने वाला प्रस्ताव केवल लोकस्भा मे लाया और पास किया जायेगा

लोकसभा के पदाधिकारी

स्पीकर

लोकसभा का अध्यक्ष होता है इसका चुनाव लोकसभा सदस्य अपने मध्य मे से करते है इसके दो कार्य है
1. लोकसभा की अध्यक्षता करना उस मे अनुसाशन गरिमा तथा प्रतिष्टा बनाये रखना इस कार्य हेतु वह किसी न्यायालय के सामने उत्तरदायी नही होता है
2. वह लोकसभा से संलग्न सचिवालय का प्रशासनिक अध्यक्ष होता है किंतु इस भूमिका के रूप मे वह न्यायालय के समक्ष उत्तरदायी होगा
उसकी विशेष शक्तियाँ
1. दोनो सदनॉ का सम्मिलित सत्र बुलाने पर स्पीकर ही उसका अध्यक्ष होगा उसके अनुउपस्थित होने पर उपस्पीकर तथा उसके भी न होने पर राज्यसभा का उपसभापति अथवा सत्र द्वारा नांमाकित कोई भी सदस्य सत्र का अध्यक्ष होता है
2. धन बिल का निर्धारण स्पीकर करता है यदि धन बिल पे स्पीकर साक्ष्यांकित नही करता तो वह धन बिल ही नही माना जायेगा उसका निर्धारण अंतिम तथा बाध्यकारी होगा
3. सभी संसदीय समितियाँ उसकी अधीनता मे काम करती है उसके किसी समिति का सदस्य चुने जाने पर वह उसका पदेन अध्यक्ष होगा
4. लोकसभा के विघटन होने पर भी उसका प्रतिनिधित्व करने के लिये स्पीकर पद पर कार्य करता रहता है नवीन लोकसभा चुने जाने पर वह अपना पद छोड देता है

स्पीकर प्रोटेम [कार्यवाहक]

जब कोई नवीन लोकसभा चुनी जाती है तब राष्ट्रपति उस सदस्य को कार्यवाहक स्पीकर नियुक्त करता है जिसको संसद मे सदस्य होने का सबसे लंबा अनुभव होता है वह राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करता है
उसके दो कार्य होते है
1. संसद सदस्यॉ को शपथ दिलवाना
2. नवीन स्पीकर चुनाव प्रक्रिया का अध्यक्ष भी वही बनता है

उपस्पीकर

विधायिका[संसद - राज्य विधायिका] मे बहुमत के प्रकार

1. सामान्य बहुमत– उपस्थित सदस्यॉ तथा मतदान करने वालॉ के 50% से अधिक सदस्य ही सामान्य बहुमत है इस बहुमत का सदन की कुल सदस्य संख्या से कोई संबंध नही होता है
भारतीय संविधान के अनुसार अविश्वास प्रस्ताव, विश्वास प्रस्ताव, कामरोको प्रस्ताव, सभापति ,उपसभापति तथा अध्यक्षॉ के चुनाव हेतु सदन के यदि संविधान संशोधन का प्रस्ताव राज्य विधायिकाओं को भेजना हो ,सामान्य बिल , धन बिल, राष्ट्रपति शासन ,वित्तीय आपातकाललगाने हेतु सामान्य बहुमत को मान्यता प्राप्त है यदि बहुमत के प्रकार का निर्देश न होने पर उसे सदैव सामान्य बहुमत समझा जाता है
2. पूर्ण बहुमत– सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ का बहुमत [खाली सीटे भी गिनी जाती है] लोकसभा मे 273, राज्यसभा मे 123 सदस्यॉ का समर्थन . इसका राजनैतिक मह्त्व है न कि वैधानिक महत्व
3. प्रभावी बहुमत- मतदान के समय उपस्थित सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ [खाली सीटॉ को छोडकर] यह तब प्रयोग आती है जब लोक सभा अध्यक्ष उपाध्यक्ष या राज्यसभा के उपसभापति को पद से हटाना हो या जब राज्यसभा उपराष्ट्रपति को पद से हटाने हेतु मतदान करे
4.विशेष बहुमत– प्रथम तीनो प्रकार के बहुमतॉ से भिन्न होता है इसके तीन प्रकार है
[क] अनु 249 के अनुसार- उपस्थित तथा मतदान देने वालॉ के 2/3 संख्या को विशेष बहुमत कहा गया है
[ख] अनु 368 के अनुसार– संशोधन बिल सदन के उपस्थित तथा सदन मे मत देने वालो के 2/3 संख्या जो कि सदन के कुल सदस्य संख्या का भी बहुमत हो [लोकसभा मे 273 सदस्य]इस बहुमत से संविधान संशोधन ,न्यायधीशॉ को पद से हटाना तथा राष्ट्रीय आपातकाल लगाना ,राज्य विधान सभा द्वारा विधान परिषद की स्थापना अथवा विच्छेदन की मांंग के प्रस्ताव पारित किये जाते है
[ग] अनु 61 के अनुसार– केवल राष्ट्रपति के महाभियोग हेतु सदन के कुल संख्या का कम से कम 2/3 [लोकसभा मे 364 सदस्य होने पर]

लोकसभा के सत्र

– अनु 85 के अनुसार संसद सदैव इस तरह से आयोजित की जाती रहेगी कि संसद के दो सत्रॉ के मध्य 6 मास
से अधिक अंतर ना हो पंरपरानुसार संसद के तीन नियमित सत्रॉ तथा विशेष सत्रों मे आयोजित की जाती है
सत्रॉ का आयोजन राष्ट्रपति की विज्ञप्ति से होता है
1. बजट सत्र वर्ष का पहला सत्र होता है सामान्यत फरवरी मई के मध्य चलता है यह सबसे लंबा तथा महत्वपूर्ण सत्र माना जाता है इसी सत्र मे बजट प्रस्तावित तथा पारित होता है सत्र के प्रांरभ मे राष्ट्रपति का अभिभाषण होता है
2. मानसून सत्र जुलाई अगस्त के मध्य होता है
3. शरद सत्र नवम्बर दिसम्बर के मध्य होता है सबसे कम समयावधि का सत्र होता है
विशेष सत्र – इस के दो भेद है 1. संसद के विशेष सत्र.
2. लोकसभा के विशेष सत्र
संसद के विशेष सत्र – मंत्रि परिषद की सलाह पर राष्ट्रपति इनका आयोजन करता है ये किसी नियमित सत्र के मध्य अथवा उससे पृथक आयोजित किये जाते है
एक विशेष सत्र मे कोई विशेष कार्य चर्चित तथा पारित किया जाता है यदि सदन चाहे भी तो अन्य कार्य नही कर सकता है
लोकसभा का विशेष सत्र– अनु 352 मे इसका वर्णन है किंतु इसे 44 वें संशोधन 1978 से स्थापित किया गया है यदि
लोकसभा के कम से कम 1/10 सद्स्य एक प्रस्ताव लाते है जिसमे राष्ट्रीय आपातकाल को जारी न रखने
की बात कही गयी है तो नोटिस देने के 14 दिन के भीतर सत्र बुलाया जायेगा
सत्रावसान– मंत्रिपरिषद की सलाह पे सदनॉ का सत्रावसान राष्ट्रपति करता है इसमे संसद का एक सत्र समाप्त
हो जाता है तथा संसद दुबारा तभी सत्र कर सकती है जब राष्ट्रपति सत्रांरभ का सम्मन जारी कर दे सत्रावसान की दशा मे संसद के
समक्ष लम्बित कार्य समाप्त नही हो जाते है
स्थगन– किसी सदन के सभापति द्वारा सत्र के मध्य एक लघुवधि का अन्तराल लाया जाता है इस से
सत्र समाप्त नही हो जाता ना उसके समक्ष लम्बित कार्य समाप्त हो जाते है यह दो प्रकार का होता है
1. अनिश्चित कालीन 2. जब अगली मीटिग का समय दे दिया जाता है
लोकसभा का विघटन— राष्ट्रपति द्वारा मंत्रि परिष्द की सलाह पर किया है इससे लोकसभा का जीवन समाप्त हो जाता है इसके बाद आमचुनाव ही होते है विघटन के बाद सभी लंबित कार्य जो लोकसभा के समक्ष होते है समाप्त हो जाते है किंतु बिल जो राज्यसभा मे लाये गये हो और वही लंबित होते है समाप्त न्ही होते या या बिल जो राष्ट्रपति के सामने विचाराधीन हो वे भी समापत नही होते है या राष्ट्रपति संसद के दोनॉ सदनॉ की लोकसभा विघटन से पूर्व संयुक्त बैठक बुला ले

विधायिका संबंधी कार्यवाही

/प्रक्रियाबिल/विधेयक के प्रकार कुल 4 प्रकार होते है
1.

सामान्य बिल

– इसकी 6 विशेषताएँ है
1. परिभाषित हो
2. राष्ट्रपति की अनुमति हो
3. बिल कहाँ प्रस्तावित हो
4. सदन की विशेष शक्तियॉ मे आता हो
5.कितना बहुमत चाहिए
6. गतिवरोध पैदा होना
यह वह विधेयक होता है जो संविधान संशोधन धन या वित्त विधेयक नही है यह संसद के किसी भी सदन मे लाया जा सकता है यदि अनुच्छेद 3 से जुडा ना हो तो इसको राष्ट्रप्ति की अनुंशसा भी नही चाहिए
इस बिल को पारित करने मे दोनो सदनॉ की विधायी शक्तिय़ाँ बराबर होती है इसे पारित करने मे सामान्य बहुमत
चाहिए एक सदन द्वारा अस्वीकृत कर देने पे यदि गतिवरोध पैदा हो जाये तो राष्ट्रपति दोनो सद्नॉ की संयुक्त बैठक मंत्रि परिषद की
सलाह पर बुला लेता है
राष्ट्रपति के समक्ष यह विधेयक आने पर वह इस को संसद को वापस भेज सकता है या स्वीकृति दे सकता है या अनिस्चित काल हेतु रोक सकता है

धन बिल

विधेयक जो पूर्णतः एक या अधिक मामलॉ जिनका वर्णन अनुच्छेद 110 मे किया गया हो से जुडा हो धन बिल कहलाता है ये मामलें है
1. किसी कर को लगाना,हटाना, नियमन
2. धन उधार लेना या कोई वित्तेय जिम्मेदारी जो भारत सरकार ले
3. भारत की आपात/संचित निधि से धन की निकासी/जमा करना
4.संचित निधि की धन मात्रा का निर्धारण
5. ऐसे व्यय जिन्हें भारत की संचित निधि पे भारित घोषित करना हो
6. संचित निधि मे धन निकालने की स्वीकृति लेना
7. ऐसा कोई मामला लेना जो इस सबसे भिन्न हो
धन बिल केवल लोकसभा मे प्रस्तावित किए जा सकते है इसे लाने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति आवशय्क है इन्हें पास करने के लिये सदन का सामान्य बहुमत आवश्यक होता है
धन बिल मे ना तो राज्य सभा संशोधन कर सकती है न अस्वीकार
जब कोई धन बिल लोकसभा पारित करती है तो स्पीकर के प्रमाणन के साथ यह बिल राज्यसभा मे ले जाया जाता है राज्यसभा इस
बिल को पारित कर सकती है या 14 दिन के लिये रोक सकती है किंतु उस के बाद यह बिल दोनॉ
सदनॉ द्वारा पारित माना जायेगा राज्य सभा द्वारा सुझाया कोई भी संशोधन लोक सभा की इच्छा पे निर्भर करेगा कि वो स्वीकार करे
या ना करे जब इस बिल को राष्ट्रपति के पास भेजा जायेगा तो वह सदैव इसे स्वीकृति दे देगा
फायनेसियल बिलवह विधेयक जो एक या अधिक मनीबिल प्रावधानॉ से पृथक हो तथा गैर मनी मामलॉ से भी संबधित हो एक फाइनेंस विधेयक मे धन प्रावधानॉ के साथ साथ सामान्य विधायन से जुडे मामले भी होते है इस प्रकार के विधेयक को पारित करने की शक्ति दोनो सदनॉ मे समान होती

संविधान संशोधन विधेयक

अनु 368 के अंतर्गत प्रस्तावित बिल जो कि संविधान के एक या अधिक प्रस्तावॉ को संशोधित करना चाहता है संशोधन बिल कहलाता है यह किसी भी संसद सदन मे बिना राष्ट्रपति की स्वीकृति के लाया जा सकता है इस विधेयक को सदन द्वारा कुल उपस्थित सदस्यॉ की 2/3 संख्या तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा ही पास किया जायेगा दूसरा सदन भी इसे इसी प्रकार पारित करेगा किंतु इस विधेयक को सदनॉ के पृथक सम्मेलन मे पारित किया जायेगा गतिरोध आने की दशा मे जैसा कि सामान्य विधेयक की स्थिति मे होता है सदनॉ की संयुक्त बैठक नही बुलायी जायेगी 24 वे संविधान संशोधन 1971 के बाद से यह अनिवार्य कर दिया गया है कि राष्ट्रपति इस बिल को अपनी स्वीकृति दे ही दे

विधेयक पारित करने मे आया गतिरोध

जब संसद के दोनॉ सदनॉ के मध्य बिल को पास करने से संबंधित विवाद हो या जब एक सदन द्वारा पारित बिल को दूसरा अस्वीकृत कर दे या इस तरह के संशोधन कर दे जिसे मूल सदन अस्वीकर कर दे या इसे 6 मास तक रोके रखे तब सदनॉ के मध्य गतिवरोध की स्थिति जन्म लेती है अनु 108 के अनुसार राष्ट्रपति इस दशा मे दोनॉ सदनॉ की संयुक्त बैठक बुला लेगा जिसमे सामान्य बहुमत से फैसला हो जायेगा अब तक मात्र तीन अवसरॉ पे इस प्रकार की बैठक बुलायी गयी है
1. दहेज निषेध एक्ट 1961
2.बैंकिग सेवा नियोजन संशोधन एक्ट 1978
3.पोटा एक्ट 2002
संशोधन के विरूद्ध सुरक्षा उपाय 1. न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र है
2.संविधान के मूल ढांचे के विरूद्ध न हो
3. संसद की संशोधन शक्ति के भीतर आता हो
4. संविधान की सर्वोच्चता, विधि का शासन तीनॉ अंगो का संतुलन बना रहे
5. संघ के ढाँचे से जुडा होने पर आधे राज्यॉ की विधायिका से स्वीकृति मिले
6. गठबंधन राजनीति भी संविधान संशोधन के विरूद्ध प्रभावी सुरक्षा उपाय देती है क्योंकि एकदलीय पूर्ण बहुमत के दिन समाप्त हो चुके

अध्यादेश जारी करना

अनु 123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है यह तब जारी होगा जब राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाये कि परिस्थितियाँ ऐसी हो कि तुरंत कार्यवाही करने की जरूरत है तथा संसद का 1 या दोनॉ सदन सत्र मे नही है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है यह अध्यादेश संसद के पुनसत्र के 6 सप्ताह के भीतर अपना प्रभाव खो देगा यधपि दोनो सदनॉ द्वारा स्वीकृति देने पर यह जारी रहेगा यह शक्ति भी न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण की पात्र है किंतु शक्ति के गलत प्रयोग या दुर्भावना को सिद्ध करने का कार्य उस व्यक्ति पे होगा जो इसे चुनौती दे अध्यादेश जारी करने हेतु संसद का सत्रावसान करना भी उचित हो सकता है क्यॉकि अध्यादेश की जरूरत तुरंत हो सकती है जबकि संसद कोई भी अधिनियम पारित करने मे समय लेती है अध्यादेश को हम अस्थाई विधि मान सकते है यह राष्ट्रपति की विधायिका शक्ति के अन्दर आता है न कि कार्यपालिका वैसे ये कार्य भी वह मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है यदि कभी संसद किसी अध्यादेश को अस्वीकार दे तो वह नष्ट भले ही हो जाये किंतु उसके अंतर्गत किये गये कार्य अवैधानिक नही हो जाते है राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति पे नियंत्रण
1. प्रत्येक जारी किया हुआ अध्यादेश संसद के दोनो सदनो द्वारा उनके सत्र शुरु होने के 6 हफ्ते के भीतर स्वीकृत करवाना होगा इस प्रकार कोई अध्यादेश संसद की स्वीकृति के बिना 6 मास + 6 सप्ताह से अधिक नही चल सकता है
2. लोकसभा एक अध्यादेश को अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव 6 सप्ताह की अवधि समाप्त होने से पूर्व पास कर सकती है
3. राष्ट्रपति का अध्यादेश न्यायिक समीक्षा का विषय़ हो सकता है

संसद मे राष्ट्रपति का अभिभाषण

यह सदैव मंत्रिपरिषद तैयार करती है यह सिवाय सरकारी नीतियॉ की घोषणा के कुछ नही होता है सत्र के अंत मे इस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाता है यदि लोकसभा मे यह प्रस्ताव पारित नही हो पाता है तो यह सरकार की नीतिगत पराजय मानी जाती है तथा सरकार को तुरंत अपना बहुमत सिद्ध करना पडता है संसद के प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र मे तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत पश्चात दोनॉ सदनॉ की सम्मिलित बैठक को राष्ट्रपति संबोधित करता है यह संबोधन वर्ष के प्रथम सत्र का परिचायक है इन सयुंक्त बैठकॉ का सभापति खुद राष्ट्रपति होता है
अभिभाषण मे सरकार की उपलब्धियॉ तथा नीतियॉ का वर्णन तथा समीक्षा होती है[जो पिछले वर्ष मे हुई थी] आतंरिक समस्याओं से जुडी नीतियाँ भी इसी मे घोषित होती है प्रस्तावित विधायिका कार्यवाहिया जो कि संसद के सामने उस वर्ष के सत्रॉ मे लानी हो का वर्णन भी अभिभाषण मे होता है अभिभाषण के बाद दोनो सद्न पृथक बैठक करके उस पर चर्चा करते है जिसे पर्यापत समय दिया जाता है

संचित निधि

– संविधान के अनु 266 के तहत स्थापित है यह ऐसी निधि है जिस मे समस्त एकत्र कर/राजस्व जमा,लिये गये ऋण जमा किये जाते है यह भारत की सर्वाधिक बडी निधि है जो कि संसद के अधीन रखी गयी है कोई भी धन इसमे बिना संसद की पूर्व स्वीकृति के निकाला/जमा या भारित नहीं किया जा सकता है अनु 266 प्रत्येक राज्य की समेकित निधि का वर्णन भी करता हैsanchit nidhi se koi bhi bina rastrapati k anumati ke tatha sansad k anumati k rashi nahi nikal sakta hai.

भारत की लोक निधि

--- अनु 266 इसका वर्णन भी करता है वह धन जिसे भारत सरकार कर एकत्रीकरण प्राप्त आय उगाहे गये ऋण के अलावा एकत्र करे भारत की लोकनिधि कहलाती है कर्मचारी भविष्य़ निधि को भारत की लोकनिधि मे जमा किया गया है यह कार्यपालिका के अधीन निधि है इससे व्यय धन महालेखानियंत्रक द्वारा जाँचा जाता है अनु 266 राज्यॉ की लोकनिधि का भी वर्णन करता है

भारत की आपातकाल निधि

--- अनु 267 संसद को निधि जो कि आपातकाल मे प्रयोग की जा सकती हो स्थापित करने का अधिकार देता है यह निधि राष्ट्रपति के अधीन है इससे खर्च धन राष्ट्रपति की स्वीकृति से होता है परंतु संसद के समक्ष इसकी स्वीकृति ली जाती है यदि संसद स्वीकृति दे देती है तो व्यय धन के बराबर धन भारत की संचित निधि से निकाल कर इसमे डाल दिया जाता है अनु 267 राज्यॉ को अपनी अपनी आपातकाल निधि स्थापित करने का अधिकार भी देता है

भारित व्यय

--- वे व्यय जो कि भारत की संचित निधि पर बिना संसदीय स्वीकृति के भारित होते है ये व्यय या तो संविधान द्वारा स्वीकृत होते है या संसद विधि बना कर डाल देती है कुछ संवैधानिक पदॉ की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिये यह व्यय प्रयोग लाये गये है अनु 112[3] मे कुछ भारित व्ययॉ की सूची है
1. राष्ट्रपति के वेतन,भत्ते,कार्यालय से जुडा व्यय है
2. राज्यसभा लोकसभा के सभापतियॉ उपसभापतियॉ के वेतन भत्ते
3.ऋण भार जिनके लिये भारत सरकार उत्तरदायी है [ब्याज सहित]
4.सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के वेतन भत्ते पेंशन तथा उच्च न्यायालय की पेंशने इस पर भारित है
5. महालेखानियंत्रक तथा परीक्षक [केग] के वेतन भत्ते
6. किसी न्यायिक अवार्ड/डिक्री/निर्णय के लिये आवशयक धन जो न्यायालय/ट्रिब्न्यूल द्वारा पारित हो
7. संसद द्वारा विधि बना कर किसी भी व्यय को भारित व्यय कहा जा सकता है
अभी तक संसद ने निर्वाचन आयुक्तॉ के वेतन भत्ते पेंशन ,केन्द्रीय सर्तकता आयोगसदस्यॉ के वेतन भत्ते पेंशन भी इस पर भारित किये है

वित्त व्यवस्था पर संसद का नियंत्रण

अनु 265 के अनुसार कोई भी कर कार्यपालिका द्वारा बिना विधि के अधिकार के न तो आरोपित किया जायेगा और न ही वसूला जायेगा अनु 266 के अनुसार भारत की समेकित निधि से कोई धन व्यय /जमा भारित करने से पूर्व संसद की स्वीकृति जरूरी है
अनु 112 के अनुसार राष्ट्रपति भारत सरकार के वार्षिक वित्तीय लेखा को संसद के सामने रखेगा यह वित्तीय लेखा ही बजट है<br /

बजट

1. अनुमानित आय व्यय जो कि भारत सरकार ने भावी वर्ष मे करना हो
2. यह भावी वर्ष के व्यय के लिये राजस्व उगाहने का वर्णन करता है
3. बजट मे पिछले वर्ष के वास्तविक आय व्यय का विवरण होता है
बजट सामान्यत वित्तमंत्री द्वारा सामान्यतः फरवरी के आखरी दिन लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है उसी समय राज्यसभा मे भी बजट के कागजात रखे जाते है यह एक धन बिल है

कटौती प्रस्ताव

—बजट प्रक्रिया का ही भाग है केवल लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है ये वे उपकरण है जो लोकसभा सदस्य कार्यपालिका पे नियंत्रण हेतु उपयोग लाते है ये अनुदानॉ मे कटौती कर सकते है इसके तीन प्रकार है
1.नीति सबंधी कटौती--- इस प्रस्ताव का ल्क्ष्य लेखानुदान संबंधित नीति की अस्वीकृति है यह इस रूप मे होती है ‘-------‘ मांग को कम कर मात्र 1 रुपया किया जाता है यदि इस प्रस्ताव को पारित कर दिया जाये तो यह सरकार की नीति संबंधी पराजय मानी जाती है उसे तुरंत अपना विश्वास सिद्ध करना होता है
2. किफायती कटौती--- भारत सरकार के व्यय को उससीमा तक कम कर देती है जो संसद के मतानुसार किफायती होगी यह कटौती सरकार की नीतिगत पराजय नहीं मानी जाती है
3. सांकेतिक कटौती--- इन कटौतीयों का ल्क्ष्य संसद सदस्यॉ की विशेष शिकायतें जो भारत सरकार से संबंधित है को निपटाने हेतु प्रयोग होती है जिसके अंतर्गत मांगे गये धन से मात्र 100 रु की कटौती की जाती है यह कटौती भी नीतिगत पराजय नही मानी जाती है

लेखानुदान (वोट ओन अकाउंट)

अनु 116 इस प्रावधान का वर्णन करता है इसके अनुसार लोकसभा वोट ओन अकाउंट नामक तात्कालिक उपाय प्रयोग लाती है इस उपाय द्वारा वह भारत सरकार को भावी वित्तीय वर्ष मे भी तब तक व्यय करने की छूट देती है जब तक बजट पारित नही हो जाता है यह सामान्यत बजट का अंग होता है किंतु यदि मंत्रिपरिषद इसे ही पारित करवाना चाहे तो यही अंतरिम बजट बन जाता है जैसा कि 2004 मे एन.डी.ए. सरकार के अंतिम बजट के समय हुआ था फिर बजट नयी यू.पी.ए सरकार ने पेश किया था
वोट ओन क्रेडिट [प्रत्यानुदान] लोकसभा किसी ऐसे व्यय के लिये धन दे सकती है जिसका वर्णन किसी पैमाने या किसी सेवा मद मे रखा जा सक्ना संभव ना हो मसलन अचानक युद्ध हो जाने पे उस पर व्यय होता है उसे किस शीर्षक के अंतर्गत रखे?यह लोकसभा द्वारा पारित खाली चैक माना जा सकता है आज तक इसे प्रयोग नही किया जा सका है
जिलेटीन प्रयोग—समयाभाव के चलते लोकसभा सभी मंत्रालयों के व्ययानुदानॉ को एक मुश्त पास कर देती है उस पर कोई चर्चा नही करती है यही जिलेटीन प्रयोग है यह संसद के वित्तीय नियंत्रण की दुर्बलता दिखाता है

संसद मे लाये जाने वाले प्रस्ताव

अविश्वास प्रस्ताव

लोकसभा के क्रियांवयन नियमॉ मे इस प्रस्ताव का वर्णन है विपक्ष यह प्रस्ताव लोकसभा मे मंत्रिपरिषद के विरूद्ध लाता है इसे लाने हेतु लोकसभा के 50 सद्स्यॉ का समर्थन जरूरी है यह सरकार के विरूद्ध लगाये जाने वाले आरोपॉ का वर्णन नही करता है केवल यह बताता है कि सदन मंत्रिपरिषद मे विश्वास नही करता है एक बार प्रस्तुत करने पर यह प्रस्ताव् सिवाय धन्यवाद प्रस्ताव के सभी अन्य प्रस्तावॉ पर प्रभावी हो जाता है इस प्रस्ताव हेतु पर्याप्त समय दिया जाता है इस पर् चर्चा करते समय समस्त सरकारी कृत्यॉ नीतियॉ की चर्चा हो सकती है लोकसभा द्वारा प्रस्ताव पारित कर दिये जाने पर मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को त्याग पत्र सौंप देती है संसद के एक सत्र मे एक से अधिक अविश्वास प्रस्ताव नही लाये जा सकते है
विश्वास प्रस्ताव--- लोकसभा नियमॉ मे इस प्रस्ताव का कोई वर्णन नही है यह आवश्यक्तानुसार उत्पन्न हुआ है ताकि मंत्रिपरिषद अपनी सत्ता सिद्ध कर सके यह सदैव मंत्रिपरिषद लाती है इसके गिरजाने पर उसे त्याग पत्र देना पडता है निंदा प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाकर सरकार की किसी विशेष नीति का विरोध/निंदा करता है इसे लाने हेतु कोई पूर्वानुमति जरूरी नही है यदि लोकसभा मे पारित हो जाये तो मंत्रिपरिषद निर्धारित समय मे विश्वास प्रस्ताव लाकर अपने स्थायित्व का परिचय देती है है उसके लिये यह अनिवार्य है कामरोको प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाता है यह एक अद्वितीय प्रस्ताव है जिसमे सदन की समस्त कार्यवाही रोक कर तात्कालीन जन मह्त्व के किसी एक मुद्दे को उठाया जाता है प्रस्ताव पारित होने पर सरकार पे निंदा प्रस्ताव के समान प्रभाव छोडता है

संघीय न्यायपालिका

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति

29 जज तथा 1 मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के प्रावधान का वर्णन संविधान मे है अनु 124[2] के अनुसार् मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय इच्छानुसार राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार सर्वोच्च न्यायालयउच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह लेगा वही अन्य जजॉ की नियुक्ति के समय उसे अनिवार्य रूप से मुख्य न्यायाधीश की सलाह माननी पडेगी
सर्वोच्च न्यायालयएडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद 1993 मे दिये गये निर्णय के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के जजों के तबादले इस प्रकार की प्रक्रिया है जो सर्वाधिक योग्य उपलब्ध व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सके भारत के मुख्य न्यायाधीश का मत प्राथमिकता पायेगा वह एक मात्र अधिकारी होगा उच्च न्यायपालिका मे कोई नियुक्ति बिना उस की सहमति के नहीं होती है संवैधानिक सत्ताओं के संघर्ष के समय भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व करेगा राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश को अपने मत पर फिर से विचार करने को तभी कहेगा जब इस हेतु कोई तार्किक कारण मौजूद होगा पुनः विचार के बाद उसका मत राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होगा यद्यपि अपना मत प्रकट करते समय वह सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठम न्यायधीशों का मत जरूर लेगा पुनःविचार की दशा मे फिर से उसे दो वरिष्ठम न्यायधीशों की राय लेनी होगी वह चाहे तो उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की राय भी ले सकता है लेकिन सभी राय सदैव लिखित में होगी
बाद में अपना मत बदलते हुए न्यायालय ने कम से कम 4 जजों के साथ सलाह करना अनिवार्य कर दिया था वह कोई भी सलाह राष्ट्रपति को अग्रेषित नहीं करेगा यदि दो या ज्यादा जजों की सलाह इस्के विरूद्ध हो किंतु 4 जजों की सलाह उसे अन्य जजों जिनसे वो चाहे सलाह लेने से नहीं रोकेगी

न्यायपालिका के न्यायधीशों की पदच्युति

—इस कोटि के जजॉ के राष्ट्रपति तब पदच्युत करेगा जब संसद के दोणो सदनॉ के कम से कम 2/3 उपस्थित तथा मत देने वाले तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव जो कि सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पे लाया गया हो के द्वारा उसे अधिकार दिया गया हो ये आदेश उसी संसद सत्र मे लाया जायेगा जिस सत्र मे ये प्रस्ताव संसद ने पारित किया हो अनु 124[5] मे वह प्रक्रिया वर्णित है जिस से जज पद्च्युत होते है इस प्रक्रिया के आधार पर संसद ने न्यायधीश अक्षमता अधिनियम 1968 पारित किया था इसके अंतर्गत
1. संसद के किसी भी सदन मे प्रस्ताव लाया जा सकता है लोकस्भा मे 100 राज्यसभा मे 50 सद्स्यॉ का समर्थन अनिवार्य है
2. प्रस्ताव मिलने पे सदन का सभापति एक 3 सद्स्य समिति बनायेगा जो आरोपों की जाँच करेगी समिति का अध्यक्ष सप्रीम कोर्ट का कार्यकारी जज होगा दूसरा सदस्य किसी हाई कोर्ट का मुख्य कार्यकारी जज होगा तीसरा सदस्य माना हुआ विधिवेत्ता होगा इस की जाँच रिपोर्ट सदन के सामने आयेगी यदि इस मे जज को दोषी बताया हो तब भी सदन प्रस्ताव पारित करने को बाध्य नही होता किंतु यदि समिति आरोपों को खारिज कर दे तो सदन प्रस्ताव पारित नही कर सकता है
अभी तक सिर्फ एक बार किसी जज के विरूद्ध जांच की गयी है जज रामास्वामी दोषी सिद्ध हो गये थे किंतु संसद मे आवश्यक बहुमत के अभाव के चलते प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सका था

अभिलेख न्यायालय

अनुच्छेद 129 उच्चतम न्यायालयको तथा अनुच्छेद 215 उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है यह संकल्पना अंग्रेजी विधि से ली गयी है अभिलेख न्यायालय का अर्थ अनु 129 सुप्रीम कोर्ट को तथा अनु 215 उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है यह संकल्पना इंग्लिश विधि से ली गयी है अभिलेख न्यायालय का अर्थ
1. न्यायालय की कार्यवाही तथा निर्णय को दूसरे न्यायालय मे साक्ष्य के रूप मे प्रस्तुत किया जा सकेगा
2. न्यायालय को अधिकार है कि वो अवमानना करने वाले व्यक्ति को दण्ड दे सके यह शक्ति अधीनस्थ न्यायालय को प्राप्त नही है इस शक्ति को नियमित करने हेतु संसद ने न्यायालय अवमानना अधिनियम 1971 पारित किया है अवमानना के दो भेद है सिविल और आपराधिक जब कोई व्यक्ति आदेश निर्देश का पालन न करे या उल्लंघ न करे तो यह सिविल अवमानना है पर्ंतु यदि कोई व्यक्ति न्यायालय को बदनाम करे जजों को बदनाम तथा विवादित बताने का प्रयास करे तो यह आपराधिक अवमानना होगी जिसके लिये कारावास/जुर्माना दोनो देना पडेगा वही सिविल अवमानना मे कारावास सम्भव नहीं है यह शक्ति भारत मे काफी कुख्यात तथा विवादस्पद है

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ

अनु 130 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली मे होगा पर्ंतु यह भारत मे और कही भी मुख्य न्यायाधीश् के निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति की स्वीकृति से सुनवाई कर सकेगा
क्षेत्रीय खंडपीठों का प्रश्न- विधि आयोग अपनी रिपोर्ट के माध्यम से क्षेत्रीय खंडपीठों के गठन की अनुसंशा कर चुका है न्यायालय के वकीलॉ ने भी प्राथर्ना की है कि वह अपनी क्षेत्रीय खंडपीठों का गठन करे ताकि देश के विभिन्न भागॉ मे निवास करने वाले वादियॉ के धन तथा समय दोनॉ की बचत हो सके,किंतु न्यायालय ने इस प्रश्न पे विचार करने के बाद निर्णय दिया है कि पीठॉ के गठन से
1. ये पीठे क्षेत्र के राज नैतिक दबाव मे आ जायेगी
2. इनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट के एकात्मक चरित्र तथा संगठन को हानि पहुँच सकती है
किंतु इसके विरोध मे भी तर्क दिये गये है

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार

जनहित याचिकाएँ

– इस प्रकार की याचिकाओँ का विचार अमेरिका ए जन्मा वहाँ इसे सामाजिक कार्यवाही याचिका कह्ते है यह न्यायपालिका का आविष्कार तथा न्यायधीश निर्मित विधि है
जनहित याचिका भारत मे पी.एन.भगवतीने प्रारंभ की थी ये याचिकाँए जनहित को सुरक्षित तथा बढाना चाहती है ये लोकहित भावना पे कार्य करती है
ये ऐसे न्यायिक उपकरण है जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है इनका ल्क्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना तथा कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कार्य करवाने हेतु किया जाता है
ये समूह हित मे काम आती है ना कि व्यक्ति हित मे यदि इनका दुरूपयोग किया जाये तो याचिकाकर्ता पे जुर्माना तक किया जा सकता है इनको स्वीकारना या ना स्वीकारना न्यायालय पे निर्भर करता है
इनकी स्वीकृति हेतु सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नियम बनाये है
1. लोकहित से प्रेरित कोई भी व्यक्ति,संगठन इन्हे ला सकता है
2. कोर्ट को दिया गया पोस्टकार्ड भी रिट याचिका मान कर ये जारी की जा सकती है
3. कोर्ट को अधिकार होगा कि वह इस याचिका हेतु सामान्य न्यायालय शुल्क भी माफ कर दे
4. ये राज्य के साथ ही निजी संस्थान के विरूद्ध भी लायी जा सकती है
इसके लाभ
1. इस याचिका से जनता मे स्वयं के अधिकारों तथा न्यायपालिका की भूमिका के बारे मे चेतना बढती है यह मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को वृहद बनाती है इसमे व्यक्ति को कई नये अधिकार मिल जाते है
2. यह कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कर्तव्य करने के लिये बाधित करती है ,साथ ही यह भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की सुनिशिचतता करती है
आलोचनाएं 1. ये सामान्य न्यायिक संचालन मे बाधा डालती है
2. इनके दुरूपयोग की प्रवृति परवान पे है
इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने खुद कुछ बन्धन इनके प्रयोग पे लगाये है

न्यायिक सक्रियता

न्यायिक सक्रियता का अर्थ न्यायपालिका द्वारा निभायी जाने वाली वह सक्रिय भूमिका है जिसमे राज्य के अन्य अंगों को उनके संवैधानिक कृत्य करने को बाधय करे यदि वे अंग अपने कृत्य संपादित करने मे सफल रहे तो जनतंत्र तथा विधि शासन के लिये न्यायपालिका उनकी शक्तियों भूमिका का निर्वाह सीमित समय के लिये करेगी यह सक्रियता जनतंत्र की शक्ति तथा जन विश्वास को पुर्नस्थापित करती है
इस तरह यह सक्रियता न्यायपालिका पर एक असंवेदनशील/गैर जिम्मेदार शासन के कृत्यों के कारण लादा गया बोझ है यह सक्रियता न्यायिक प्रयास है जो मजबूरी मे किया गया है यह शक्ति उच्च न्यायालय तथा सुप्रीम कोर्ट के पास ही है ये उनकी पुनरीक्षा तथा रिट क्षेत्राधिकार मे आती है जनहित याचिका को हम न्यायिक सक्रियता का मुख्य माधयम मान सकते है
इसका समर्थन एक सीमित सीमा तक ही किया जा सकता है इसके विरोध के स्वर भी आप कार्य पालिका तथा विधायिका मे सुन सकते है इसके चलते ही हाल ही मे सुप्रीम कोर्ट ने खुद संयम बरतने की बात सवीकारी है तथा कई मामलों मे हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है

संविधान विकास में उच्चतम न्यायालय की भूमिका

एक तरफ यह संविधान का संरक्ष्क अंतिम व्याख्याकर्ता, मौलिक अधिकारों का रक्षक ,केन्द्र-राज्य विवादों मे एक मात्र मध्यस्थ है वहीँ यह संविधान के विकास मे भी भूमिका निभाता रहा है इसने माना है कि निरंतर संवैधानिक विकास होना चाहिए ताकि समाज के हित संवर्धित हो ,न्यायिक पुनरीक्षण शक्ति के कारण यह संवैधानिक विकास मे सहायता करता है सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विकास यह है कि भारत मे संविधान सर्वोच्च है इसने संविधान के मूल ढाँचे का अदभुत सिद्धांत दिया है जिसके चलते संविधान काफी सुरक्षित हो गया है इसे मनमाने ढंग से बदला नही जा सकता ह
ै इसने मौलिक अधिकारों का विस्तार भी किया है इसने अनु 356 के दुरूपयोग को भी रोका है
उच्चतम न्यायालयइस उक्ति का पालन करता है कि संविधान खुद नहीं बोलता है यह अपनी वाणी न्यायपालिका के माध्यम से बोलता है

संविधान भाग 6

पाठ 1 राज्य कार्यपालिका

राज्यपाल
राज्यपाल् कार्यपालिका का प्रमुख होता है वह राज्य मे केन्द्र का प्रतिनिधि होता है तथा राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत ही पद पे बना रहता है वह कभी भी पद से हटाया जा सकता है
उसका पद तथा भूमिका भारतीय राजनीति मे दीर्घ काल से विवाद का कारण रही है जिसके चलते काफी विवाद हुए है सरकारिया आयोगने अपनी रिपोर्ट मे इस तरह की सिफारिश दी थी
1. एक राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह के बाद ही राष्ट्रपति करे
2. वह जीवन के किसी क्षेत्र का महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हो
3. वह राज्य के बाहर का रहने वाला हो
4. वह राजनैतिक रूप से कम से कम पिछले 5 वर्शो से राष्ट्रीय रूप से सक्रिय ना रहा हो तथा नियुक्ति वाले राज्य मे कभी भी सक्रिय ना रहा हो
5. उसे सामान्यत अपने पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने दिया जाये ताकि वह निष्पक्ष रूप से काम कर सके
6. केन्द्र पर सत्तारूढ राजनैतिक गठबन्धन का सद्स्य ऐसे राज्य का राज्यपाल नही बनाया जाये जो विपक्ष द्वारा शासित हो
7. राज्यपाल द्वारा पाक्षिक रिपोर्ट भेजने की प्रथा जारी रहनी चाहिए
8. यदि राज्यपाल राष्ट्रपति को अनु 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा करे तो उसे उन कारणॉ ,स्थितियों का वर्णन रिकार्ड मे रखना चाहिए जिनके आधार पे वह इस निष्क़र्ष पे पहुँचा हो
इसके अलावा राज्यपाल एक संवैधानिक प्रमुख है जो अपने कर्तव्य मंत्रिपरिषद की सलाह सहायता से करता है परंतु उसकी संवैधानिक स्थिति उसकी मंत्रिपरिषद की तुलना मे बहुत सुरक्षित है वह राष्ट्रपति के समान असहाय नहीं है राष्ट्रपति के पास मात्र विवेकाधीन शक्ति ही है जिसके अलावा वह सदैव प्रभाव का ही प्रयोग करता है किंतु संविधान राजयपाल को प्रभाव तथा शक्ति दोनों देता है उसका पद उतना ही शोभात्मक है उतना ही कार्यातमक भी है
राज्यपाल उन सभी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग भी करता है जो राष्ट्रपति को मिलती है इसके अलावा वो इन अतिरिक्त शक्तियों का प्रयोग भी करता है
अनु 166[2] के अंर्तगत यदि कोई प्रशन उठता है कि राजयपाल की शक्ति विवेकाधीन है या नहीं तो उसी का निर्णय अंतिम माना जाता है
अनु 166[3] राज्यपाल इन शक्तियों का प्रयोग उन नियमों के निर्माण हेतु कर सकता है जिनसे राज्यकार्यों को सुगमता पूर्वक संचालन हो साथ ही वह मंत्रियों मे कार्य विभाजन भी कर सकता है
अनु 200 के अधीन राज्यपाल अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग राज्य विधायिका द्वारा पारित बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु सुरक्षित रख सकने मे कर सकता है
अनु 356 के अधीन राज्यपाल राष्ट्रपति को राज के प्रशासन को अधिग्रहित करने हेतु निमंत्रण दे सकता है यदि यह संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकता हो
विशेष विवेकाधीन शक्ति
पंरपरा के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति को भेजी जाने वाली पाक्षिक रिपोर्ट के सम्बन्ध मे निर्णय ले सकता है कुछ राज्यों के राज्यपालों को विशेष उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना होता है विशेष उत्तरदायित्व का अर्थ है कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद से सलाह तो ले किंतु इसे मानने हेतु वह बाध्य ना हो और ना ही उसे सलाह लेने की जरूरत पडती हो

राज्य विधायिका

संविधान मे 6 राज्यों हेतु द्विसदनीय विधायिका का प्रावधान किया गया है
उपरी सदन स्थापना तथा उन्मूलन अनु 169 के अनुसार यह शक्ति केवल संसद को है
ऊपरी सदन का महत्व–यह सदन प्रथम श्रेणी का नही होता यह विधान सभा द्वारा पारित बिल को अस्वीकृत संशोधित नहीं कर सकता है केवल किसी बिल को ज्यादा से ज्यादा 4 मास के लिये रोक सकता है इसके अलावा मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की नियुक्ति हेतु इसका प्रयोग हो सकता है क्योंकि यहाँ मनोनीत सदस्यों की सुविधा भी है
विधायिका की प्रक्रियाएँ तीन प्रकार के बिल धन ,फाइनेंस तथा सामान्य होते है ,धन बिल संसद की तरह ही पास होते है ,फाइनेंस बिल केवल निचले सदन मे ही पेश होते है , सामान्य बिल जो ऊपरी सदन मे पेश होंगे व पारित हो यदि बाद मे निचले सदन मे अस्वीकृत हो जाये तो समाप्त हो जाते है
निचले सदन द्वारा पारित बिल को ऊपरी सदन केवल 3 मास के लिये रोक सकता है उसके बाद वे पारित माने जाते है

राज्य न्यायपालिका

राज्य न्यायपालिका मे तीन प्रकार की पीठें होती है एकल जिसके निर्णय को उच्च न्यायालय की डिवीजनल/खंडपीठ/सर्वोच्च न्यायालयमे चुनौती दी जा सकती है
खंड पीठ 2 या 3 जजों के मेल से बनी होती है जिसके निर्णय केवल उच्चतम न्यायालयमें चुनौती पा सकते हैं
संवैधानिक/फुल बेंच सभी संवैधानिक व्याख्या से संबधित वाद इस प्रकार की पीठ सुनती है इसमे कम से कम पाँच जज होते हैं

अधीनस्थ न्यायालय

इस स्तर पर सिविल आपराधिक मामलों की सुनवाई अलग अलग होती है इस स्तर पर सिविल तथा सेशन कोर्ट अलग अलग होते है इस स्तर के जज सामान्य भर्ती परीक्षा के आधार पर भर्ती होते है उनकी नियुक्ति राज्यपाल राज्य मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर करता है
फास्ट ट्रेक कोर्ट– ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
इसके पीछे कारण यह था कि वाद लम्बा चलने से न्याय की क्षति होती है तथा न्याय की निरोधक शक्ति कम पड जाती है जेल मे भीड बढ जाती है 10 वे वित्त आयोग की सलाह पर केद्र सरकार ने राज्य सरकारों को 1 अप्रेल 2001 से 1734 फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित करने का आदेश दिया अतिरिक्त सेशन जज याँ उंचे पद से सेवानिवृत जज इस प्रकार के कोर्टो मे जज होता है इस प्रकार के कोर्टो मे वाद लंबित करना संभव नहीं होता हैहर वाद को निर्धारित स्मय मे निपटाना होता है
आलोचना 1. निर्धारित संख्या मे गठन नहीं हुआ
2. वादों का निर्णय संक्षिप्त ढँग से होता है जिसमें अभियुक्त को रक्षा करने का पूरा मौका नहीं मिलता है
3. न्यायधीशों हेतु कोई सेवा नियम नहीं है
लोक अदालत -- जनता की अदालतें है ये नियमित कोर्ट से अलग होती है पदेन या सेवानिवृत जज तथा दो सदस्य एक सामाजिक कार्यकता ,एक वकील इसके सद्स्य होते है सुनवाई केवल तभी करती है जब दोनों पक्ष इसकी स्वीकृति देते हो ये बीमा दावों क्षतिपूर्ति के रूप वाले वादों को निपता देती है
इनके पास वैधानिक दर्जा होता है वकील पक्ष नहीं प्रस्तुत करते हैं
इनके लाभ– 1.न्यायालय शुल्क नहीं लगते
2. यहाँ प्रक्रिया संहिता/साक्ष्य एक्ट नहीं लागू होते
3. दोनों पक्ष न्यायधीश से सीधे बात कर समझौते पर पहुचँ जाते है
4. इनके निर्णय के खिलाफ अपील नहीं ला सकते है
आलोचनाएँ 1. ये नियमित अंतराल से काम नहीं करती है
2. जब कभी काम पे आती है तो बिना सुनवाई के बडी मात्रा मे मामले निपटा देती है
3. जनता लोक अदालतों की उपस्थिति तथा लाभों के प्रति जागरूक नहीं है

जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति

संवैधानिक प्रावधान स्वतः जम्मू तथा कश्मीर पे लागू नहीं होते केवल वहीं प्रावधान जिनमे स्पष्ट रूप से कहा जाए कि वे जम्मू कश्मीर पे लागू होते है उस पर लागू होते है
जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति का ज्ञान इन तथ्यों से होता है
1. जम्मू कश्मीर संविधान सभा द्वारा निर्मित राज्य संविधान से वहाँ का कार्य चलता है ये संविधान जम्मू कश्मीर के लोगों को राज्य की नागरिकता भी देता है केवल इस राज्य के नागरिक ही संपत्ति खरीद सकते है या चुनाव लड सकते है या सरकारी सेवा ले सकते है
2. संसद जम्मू कश्मीर से संबंध रखने वाला ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती है जो इसकी राज्य सूची का विषय हो
3. अवशेष शक्ति जम्मू कश्मीर विधान सभा के पास होती है
4. इस राज्य पर सशस्त्र विद्रोह की दशा मे या वित्तीय संकट की दशा मे आपात काल लागू नहीं होता है
5. संसद राज्य का नाम क्षेत्र सीमा बिना राज्य विधायिका की स्वीकृति के नहीं बदलेगीं
6. राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति राज्य मुख्यमंत्री की सलाह के बाद करेगी
7. संसद द्वारा पारित निवारक निरोध नियम राज्य पर अपने आप लागू नहीं होगा
8. राज्य की पृथक दंड संहिता तथा दंड प्रक्रिया संहिता है
९।

केन्द्र राज्य संबंध

विधायिका स्तर पर सम्बन्ध

संविधान की सातंवी अनुसूची विधायिका के विषय़ केन्द्र राज्य के मध्य विभाजित करती है संघ सूची मे महत्वपूर्ण तथा सर्वाधिक विषय़ है
राज्यों पर केन्द्र का विधान संबंधी नियंत्रण
1. अनु 31[1] के अनुसार राज्य विधायिका को अधिकार देता है कि वे निजी संपत्ति जनहित हेतु विधि बना कर ग्रहित कर ले परंतु ऐसी कोई विधि असंवैधानिक/रद्द नहीं की जायेगी यदि यह अनु 14 व अनु 19 का उल्लघंन करे परंतु यह न्यायिक पुनरीक्षण का पात्र होगा किंतु यदि इस विधि को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु रखा गया और उस से स्वीकृति मिली भी हो तो वह न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र नहीं होगा
2. अनु 31[ब] के द्वारा नौवीं अनुसूची भी जोडी गयी है तथा उन सभी अधिनियमों को जो राज्य विधायिका द्वारा पारित हो तथा अनुसूची के अधीन रखें गये हो को भी न्यायिक पुनरीक्षा से छूट मिल जाती है लेकिन यह कार्य संसद की स्वीकृति से होता है
3. अनु 200 राज्य का राज्यपाल धन बिल सहित बिल जिसे राज्य विधायिका ने पास किया हो को राष्ट्रपति की सहमति के लिये आरक्षित कर सकता है
4. अनु 288[2] राज्य विधायिका को करारोपण की शक्ति उन केन्द्रीय अधिकरणों पर नहीं देता जो कि जल संग्रह, विधुत उत्पादन, तथा विधुत उपभोग ,वितरण ,उपभोग, से संबंधित हो ऐसा बिल पहले राष्ट्रपति की स्वीकृति पायेगा
5. अनु 305[ब] के अनुसार राज्य विधायिकाको शक्ति देता है कि वो अंतराज्य व्यापार वाणिज़्य पर युक्ति निर्बधंन लगाये परंतु राज्य विधायिका मे लाया गया बिल केवल राष्ट्रप्ति की अनुशंसा से ही लाया जा सकता है

केन्द्र राज्य प्रशासनिक संबंध


अनु 256के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ इस तरह प्रयोग लायी जाये कि संसद द्वारा पारित विधियों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन विधिंयों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन राज्य कार्यपालिका शक्ति आ गयी है । केन्द्र राज्य को ऐसे निर्देश दे सकता है जो इस संबंध मे आवश्यक हो
अनु 257 ----- कुछ मामलों मे राज्य पर केन्द्र नियंत्रण की बात करता है । राज्य कार्यपालिका शक्ति इस तरह प्रयोग ली जाये कि वह संघ कार्यपालिका से संघर्ष ना करे केन्द्र अनेक क्षेत्रों मे राज्य को उसकी कार्यपालिका शक्ति कैसे प्रयोग करे इस पर निर्देश दे सकता है यदि राज्य निर्देश पालन मे असफल रहा तो राज्य मे राष्ट्रपति शासन तक लाया जा सकता है
अनु 258[2] के अनुसार --- संसद को राज्य प्रशासनिक तंत्र को उस तरह प्रयोग लेने की शक्ति देता है जिनसे संघीय विधि पालित हो केन्द्र को अधिकार है कि वह राज्य मे बिना उसकी मर्जी के सेना, केन्द्रीय सुरक्षा बल तैनात कर सकता है
अखिल भारतीय सेवाएँ भी केन्द्र को राज्य प्रशासन पे नियंत्रण प्राप्त करने मे सहायता देती है अनु 262 संसद को अधिकार देता है कि वह अंतराज्य जल विवाद को सुलझाने हेतु विधि का निर्माण करे संसद ने अंतराज्य जल विवाद तथा बोर्ड एक्ट पारित किये थे
अनु 263 राष्ट्राप्ति को शक्ति देता है कि वह अंतराज्य परिषद स्थापित करे ताकि राज्यों के मध्य उत्पन्न मत विभिन्ंता सुलझा सके

निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली/कार्य

1 निर्वाचन आयोग के पास यह उत्तरदायित्व है कि वह निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,निर्देशन तथा आयोजन करवाये वह राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति ,संसद,राज्यविधानसभा के चुनाव करता है
2 निर्वाचक नामावली तैयार करवाता है
3 राजनैतिक दलॉ का पंजीकरण करता है
4. राजनैतिक दलॉ का राष्ट्रीय ,राज्य स्तर के दलॉ के रूप मे वर्गीकरण ,मान्यता देना, दलॉ-निर्दलीयॉ को चुनाव चिन्ह देना
5. सांसद/विधायक की अयोग्यता[दल बदल को छोडकर]पर राष्ट्रपति/राज्यपाल को सलाह देना
6. गलत निर्वाचन उपायॉ का उपयोग करने वाले व्यक्तियॉ को निर्वाचन के लिये अयोग्य घोषित करना
निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ अनु 324[1] निर्वाचन आयोग को निम्न शक्तियाँ देता है
1. सभी निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,नियंत्रण,आयोजन करवाना
2.सुप्रीम कोर्ट के निर्णयानुसार अनु 324[1] मे निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं हो सकती उसकी शक्तियां केवल उन निर्वाचन संबंधी संवैधानिक उपायों तथा संसद निर्मित निर्वाचन विधि से नियंत्रित होती है निर्वाचन का पर्यवेक्षण ,निर्देशन ,नियंत्रण तथा आयोजन करवाने की शक्ति मे देश मे मुक्त तथा निष्पक्ष चुनाव आयोजित करवाना भी निहित है जहां कही संसद विधि निर्वाचन के संबंध मे मौन है वहां निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिये निर्वाचन आयोग असीमित शक्ति रखता है यधपि प्राकृतिक न्याय, विधि का शासन तथा उसके द्वारा शक्ति का सदुपयोग होना चाहिए
निर्वाचन आयोग विधायिका निर्मित विधि का उल्लघँन नहीं कर सकता है और न ही ये स्वेच्छापूर्ण कार्य कर सकता है उसके निर्णय न्यायिक पुनरीक्षण के पात्र होते है
निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ निर्वाचन विधियों की पूरक है न कि उन पर प्रभावी तथा वैध प्रक्रिया से बनी विधि के विरूद्ध प्रयोग नही की जा सकती है
यह आयोग चुनाव का कार्यक्रम निर्धारित कर सकता है चुनाव चिन्ह आवंटित करने तथा निष्पक्ष चुनाव करवाने के निर्देश देने की शक्ति रखता है
सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी शक्तियों की व्याख्या करते हुए कहा कि वह एकमात्र अधिकरण है जो चुनाव कार्यक्रम निर्धारित करे चुनाव करवाना केवल उसी का कार्य है
जनप्रतिनिधित्व एक्ट 1951 के अनु 14,15 भी राष्ट्रपति,राज्यपाल को निर्वाचन अधिसूचना जारी करने का अधिकार निर्वाचन आयोग की सलाह के अनुरूप ही जारी करने का अधिकार देते है

भारत मे निर्वाचन सुधार

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम संशोधन 1988 से इस प्रकार के संशोधन किये गये हैं.
1. इलैक्ट्रानिक मतदान मशीन का प्रयोग किया जा सकेगा. वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव मे इनका सर्वत्र प्रयोग हुआ
2. राजनैतिक दलों का निर्वाचन आयोग के पास अनिवार्य पंजीकरण करवाना होगा यदि वह चुनाव लडना चाहे तो कोई दल तभी पंजीकृत होगा जब वह संविधान के मौलिक सिद्धांतों के पालन करे तथा उनका समावेश अपने दलीय संविधान मे करे
3. मतदान केन्द्र पर कब्जा, जाली मत

त्रुटियां

परस्पर वीरोधी, मिलकत या संपदा का अधिकार मूल अधिकार रहा । कई साल तक शिक्षा का मूल अधिकार न होकर नीति के निदेशक के कारण भ्रष्टाचार में वृद्धि होती रही ओर गरीब, गरीब होते रहें ।

फेडरेशन तथा कनफेडरेशन का भेद

फेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का औपचारिक संगठन
  2. सम्प्रभु तथा स्वतंत्र परंतु उसके संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र नही होते
  3. संघटक संघ से स्वतंत्र होने की शक्ति नही रखते है
  4. संघ तथा उसके निवासियो के मध्य वैधानिक सम्बन्ध होता है [नागरिकता] नागरिको के अधिकार तथा कर्तव्य होते है

कनफेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का ढीला संघठन [रास्त्र मन्डल ]
  2. संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र होते है परंतु खुद कनफेडरेशन मे ये गुण नही होते है
  3. संघटक स्वतंत्र होने की शक्ति रखते है
  4. निवासी परिसंघ के नागरिक नही होते बल्कि उसके संघट्को के नागरिक होते है

शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत

यह सिद्धांत फ्रेंच दार्शनिक मान्टेस्कयूने दिया था उसके अनुसार राज्य की शक्ति उसके तीन भागो कार्य , विधान, तथा न्यायपालिकाओ मे बांट देनी चाहिये
ये सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है
अमेरिकी सविन्धान पहला ऐसा सविन्धान था जिस मे ये सिद्धांत अपनाया गया था
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत भारतीय सविन्धान मे------सविन्धान मे इसका साफ वर्णन ना होकर सकेत मात्र है इस हेतु सविन्धान मे तीनो अंगो का पृथक वर्णन है संसदीय लोकतंत्र होने के कारण भारत मे कार्यपालिका तथा विधायिका मे पूरा अलगाव नही हो सका है कार्यपालिका[मंत्रीपरिषद] विधायिका मे से ही चुनी जाती है तथा उसके निचले सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती है
अनु 51 के अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को पृथक होना चाहिए इस लिये ही 1973 मे दंड प्रक्रिया सन्हिता पारित की गयी जिस के द्वारा जिला मजिस्टृटो की न्यायिक शक्ति लेकर न्यायिक मजिस्टृटो को दे दी गयी थी

बाहरी कडियाँ

[दिखाएँ]
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम

भारतीय संविधान

$
0
0


मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
भारत
Emblem of India.svg
यह लेख यह श्रेणी के सम्बन्ध में है:

भारत की राजनीति

केन्द्र सरकार
संविधान
कार्यकारिणी
विधायिका
न्यायपालिका
स्थानीय
भारतीय आमचुनाव

अन्य देशप्रवेशद्वार:राजनीति
प्रवेशद्वार:भारत सरकार
भारत, संसदीय प्रणालीकी सरकार वाला एक प्रभुसत्तासम्पन्न, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधानके अनुसार शासित है। भारत का संविधान संविधान सभाद्वारा 26 नवम्बर, 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ। 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवसके रूप में मनाया जाता है।

अनुक्रम

संक्षिप्त परिचय

भारत का संविधान दुनिया का सबसे बडा लिखित संविधान है। इसमें 444 अनुच्छेद,तथा १२ अनुसूचियां हैं। परन्तु इसके निर्माण के समय इसमें केवल ८ अनुसूचियां थीं। संविधान में सरकार के संसदीय स्‍वरूप की व्‍यवस्‍था की गई है जिसकी संरचना कुछ अपवादों के अतिरिक्त संघीय है। केन्‍द्रीय कार्यपालिका का सांविधानिक प्रमुख राष्‍ट्रपतिहै। भारत के संविधान की धारा 79 के अनुसार, केन्‍द्रीय संसदकी परिषद् में राष्‍ट्रपति तथा दो सदन है जिन्‍हें राज्‍यों की परिषद् राज्‍यसभातथा लोगों का सदन लोकसभाके नाम से जाना जाता है। संविधान की धारा 74 (1) में यह व्‍यवस्‍था की गई है कि राष्‍ट्रपति की सहायता करने तथा उसे सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रमुख प्रधान मंत्रीहोगा, राष्‍ट्रपति इस मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार अपने कार्यों का निष्‍पादन करेगा। इस प्रकार वास्‍तविक कार्यकारी शक्ति मंत्रिपरिषद् में निहित है जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है जो वर्तमान में मनमोहन सिंह हैं।
मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोगों के सदन (लोक सभा) के प्रति उत्तरदायी है। प्रत्‍येक राज्‍य में एक विधान सभाहै। जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में एक ऊपरी सदन है जिसे विधान परिषद्कहा जाता है। राज्‍यपालराज्‍य का प्रमुख है। प्रत्‍येक राज्‍य का एक राज्‍यपाल होगा तथा राज्‍य की कार्यकारी शक्ति उसमें विहित होगी। मंत्रिपरिषद्, जिसका प्रमुख मुख्‍य मंत्रीहै, राज्‍यपाल को उसके कार्यकारी कार्यों के निष्‍पादन में सलाह देती है। राज्‍य की मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से राज्‍य की विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है।
संविधान की सातवीं अनुसूची में संसद तथा राज्‍य विधायिकाओं के बीच विधायी शक्तियों का वितरण किया गया है। अवशिष्‍ट शक्तियाँ संसद में विहित हैं। केन्‍द्रीय प्रशासित भू- भागों को संघराज्‍य क्षेत्र कहा जाता है।

अनुसूचियाँ

1. पहली अनुसूची - (अनुच्छेद 1 तथा 4) - राज्य तथा संघ राज्य क्षेत्र का वर्णन ।
2. दूसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 59(3), 65(3), 75(6),97, 125,148(3), 158(3),164(5),186 तथा 221] - मुख्य पदाधिकारियों के वेतन-भत्ते भाग-क-राष्ट्रपति और राज्यपाल के वेतन-भत्ते, भाग-ख- लोकसभा तथा विधानसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, राज्यसभा तथा विधान परिषद् के सभापति तथा उपसभापति के वेतन-भत्ते,भाग-ग- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते, भाग-घ- भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षकके वेतन-भत्ते।
3. तीसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 75(4),99, 124(6),148(2), 164(3),188 और 219] - व्यवस्थापिका के सदस्य, मंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों आदि के लिए शपथ लिए जानेवाले प्रतिज्ञान के प्रारूप दिए हैं।
4. चौथी अनुसूची - [अनुच्छेद 4(1),80(2)] - राज्यसभा में स्थानों का आबंटन राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों से।
5. पाँचवी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(1)] - अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जन-जातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित उपबंध।
6. छठी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(2), 275(1)] - असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के विषय मे उपबंध।
7. सातवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 246] - विषयों के वितरण से संबंधित सूची-1 संघ सूची, सूची-2 राज्य सूची, सूची-3 समवर्ती सूची।
8. आठवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 344(1), 351] - भाषाएँ - 22 भाषाओं का उल्लेख।
9. नवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 31 ख ] - कुछ भुमि सुधार संबंधी अधिनियमों का विधिमान्य करण।
10.दसवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 102(2), 191(2)] - दल परिवर्तन संबंधी उपबंध तथा परिवर्तन के आधार पर अ
११ ग्यारवी अनुसूची - पन्चायती राज से सम्बन्धित
१२ बारह्ववी अनुसूची - यह अनुसूची संविधान मे ७४ वे संवेधानिक संशोंधन द्वारा जोडि गई।

इतिहास

द्वितीय विश्वयुद्धकी समाप्ति के बाद जुलाई १९४५ में ब्रिटेनने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा भारत की संविधान सभा के निर्माण के लिए एक कैबिनेट मिशनभारत भेजा जिसमें ३ मंत्री थे। १५ अगस्त, १९४७ को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभाकी घोषणा हुई और इसने अपना कार्य ९ दिसम्बर १९४६ से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मौलाना अबुल कलाम आजादआदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। इस संविधान सभा ने २ वर्ष, ११ माह, १८ दिन मे कुल १६६ दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। भारत के संविधान के निर्माण में डॉ भीमराव अंबेदकरने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसलिए उन्होंने संविधान का निर्माता कहा जाता है।

भारतीय संविधान की प्रकृति

संविधान प्रारूप समिति तथा सर्वोच्च न्यायालय ने इस को संघात्मक संविधान माना है, परन्तु विद्वानों में मतभेद है । अमेरीकी विद्वान इस को छदम-संघात्मक-संविधान कहते हैं, हालांकि पूर्वी संविधानवेत्ता कहते है कि अमेरिकी संविधान ही एकमात्र संघात्मक संविधान नहीं हो सकता । संविधान का संघात्मक होना उसमें निहित संघात्मक लक्षणों पर निर्भर करता है, किन्तु माननीय सर्वोच्च न्यायालय (पि कन्नादासन वाद) ने इसे पूर्ण संघात्मक माना है ।

आधारभूत विशेषताएं

शक्ति विभाजन -यह भारतीय संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है , राज्य की शक्तियां केंद्रीय तथा राज्य सरकारों मे विभाजित होती है शक्ति विभाजन के चलते द्वेध सत्ता [केन्द्र-राज्य सत्ता ] होती है
दोनों सत्ताएँ एक-दूसरे के अधीन नही होती है, वे संविधान से उत्पन्न तथा नियंत्रित होती है दोनों की सत्ता अपने अपने क्षेत्रो मे पूर्ण होती है
संविधान की सर्वोचता - संविधान के उपबंध संघ तथा राज्य सरकारों पर समान रूप से बाध्यकारी होते है [केन्द्र तथा राज्य शक्ति विभाजित करने वाले अनुच्छेद
1 अनुच्छेद 54,55,73,162,241
2 भाग -5 सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय राज्य तथा केन्द्र के मध्य वैधानिक संबंध
3 अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची
4 राज्यो का संसद मे प्रतिनिधित्व
5 संविधान मे संशोधन की शक्ति अनु 368इन सभी अनुच्छेदो मे संसद अकेले संशोधन नही ला सकती है उसे राज्यो की सहमति भी चाहिए
अन्य अनुच्छेद शक्ति विभाजन से सम्बन्धित नही है
3 लिखित सविन्धान अनिवार्य रूप से लिखित रूप मे होगा क्योंकि उसमे शक्ति विभाजन का स्पषट वर्णन आवश्यक है। अतः संघ मे लिखित संविधान अवश्य होगा
4 सविन्धान की कठोरता इसका अर्थ है सविन्धान संशोधन मे राज्य केन्द्र दोनो भाग लेंगे
5 न्यायालयो की अधिकारिता- इसका अर्थ है कि केन्द्र-राज्य कानून की व्याख्या हेतु एक निष्पक्ष तथा स्वतंत्र सत्ता पर निर्भर करेंगे
विधि द्वारा स्थापित 1.1 न्यायालय ही संघ-राज्य शक्तियो के विभाजन का पर्यवेक्षण करेंगे
1.2 न्यायालय सविन्धान के अंतिम व्याख्याकर्ता होंगे भारत मे यह सत्ता सर्वोच्च न्यायालय के पास है ये पांच शर्ते किसी सविन्धान को संघात्मक बनाने हेतु अनिवार्य है
भारत मे ये पांचों लक्षण सविन्धान मे मौजूद है अत्ः यह संघात्मक है परंतु

भारतीय संविधान मे कुछ विभेदकारी विशेषताए भी है

1 यह संघ राज्यों के परस्पर समझौते से नहीं बना है
2 राज्य अपना पृथक संविधान नही रख सकते है, केवल एक ही संविधान केन्द्र तथा राज्य दोनो पर लागू होता है
3 भारत मे द्वैध नागरिकता नही है। केवल भारतीय नागरिकता है
4 भारतीय संविधान मे आपातकाल लागू करने के उपबन्ध है [352 अनुच्छेद] के लागू होने पर राज्य-केन्द्र शक्ति पृथक्करण समाप्त हो जायेगा तथा वह एकात्मक संविधान बन जायेगा। इस स्थिति मे केन्द्र-राज्यों पर पूर्ण सम्प्रभु हो जाता है
5 राज्यों का नाम, क्षेत्र तथा सीमा केन्द्र कभी भी परिवर्तित कर सकता है [बिना राज्यों की सहमति से] [अनुच्छेद 3] अत: राज्य भारतीय संघ के अनिवार्य घटक नही हैं। केन्द्र संघ को पुर्ननिर्मित कर सकती है
6 संविधान की 7 वींअनुसूची मे तीन सूचियाँ हैं संघीय, राज्य, तथा समवर्ती। इनके विषयों का वितरण केन्द्र के पक्ष मे है
6.1 संघीय सूची मे सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय हैं
6.2 इस सूची पर केवल संसद का अधिकार है
6.3 राज्य सूची के विषय कम महत्वपूर्ण हैं, 5 विशेष परिस्थितियों मे राज्य सूची पर संसद विधि निर्माण कर सकती है किंतु किसी एक भी परिस्थिति मे राज्य केन्द्र हेतु विधि निर्माण नहीं कर सकते
क1 अनु 249—राज्य सभा यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्र हित हेतु यह आवश्यक है [2\3 बहुमत से] किंतु यह बन्धन मात्र 1 वर्ष हेतु लागू होता है
क2 अनु 250— राष्ट्र आपातकाल लागू होने पर संसद को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार स्वत: मिल जाता है
क3 अनु 252—दो या अधिक राज्यों की विधायिका प्रस्ताव पास कर राज्य सभा को यह अधिकार दे सकती है [केवल संबंधित राज्यों पर]
क4 अनु253--- अंतराष्ट्रीय समझौते के अनुपालन के लिए संसद राज्य सूची विषय पर विधि निर्माण कर सकती है
क5 अनु 356—जब किसी राज्य मे राष्ट्रपति शासनलागू होता है, उस स्थिति मे संसद उस राज्य हेतु विधि निर्माण कर सकती है
7 अनुच्छेद 155 – राज्यपालों की नियुक्ति पूर्णत: केन्द्र की इच्छा से होती है इस प्रकार केन्द्र राज्यों पर नियंत्रण रख सकता है
8 अनु 360 – वित्तीय आपातकाल की दशा मे राज्यों के वित्त पर भी केन्द्र का नियंत्रण हो जाता है। इस दशा मे केन्द्र राज्यों को धन व्यय करने हेतु निर्देश दे सकता है
9 प्रशासनिक निर्देश [अनु 256-257] -केन्द्र राज्यों को राज्यों की संचार व्यवस्था किस प्रकार लागू की जाये, के बारे मे निर्देश दे सकता है, ये निर्देश किसी भी समय दिये जा सकते है, राज्य इनका पालन करने हेतु बाध्य है। यदि राज्य इन निर्देशों का पालन न करे तो राज्य मे संवैधानिक तंत्र असफल होने का अनुमान लगाया जा सकता है
10 अनु 312 मे अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान है ये सेवक नियुक्ति, प्रशिक्षण, अनुशासनात्मक क्षेत्रों मे पूर्णत: केन्द्र के अधीन है जबकि ये सेवा राज्यों मे देते है राज्य सरकारों का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है
11 एकीकृत न्यायपालिका
12 राज्यों की कार्यपालिक शक्तियां संघीय कार्यपालिक शक्तियों पर प्रभावी नही हो सकती है।

संविधान की प्रस्तावना

संविधान के उद्देश्यों को प्रकट करने हेतु प्राय: उनसे पहले एक प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व मे सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। प्रस्तावना के माध्यम से भारतीय संविधान का सार, अपेक्षाएँ, उद्देश्य उसका लक्ष्य तथा दर्शन प्रकट होता है। प्रस्तावना यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है इसी कारण यह ‘हम भारत के लोग’ इस वाक्य से प्रारम्भ होती है। केहर सिंह बनाम भारत संघ के वाद मे कहा गया था कि संविधान सभा भारतीय जनता का सीधा प्रतिनिधित्व नही करती अत: संविधान विधि की विशेष अनुकृपा प्राप्त नही कर सकता, परंतु न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए संविधान को सर्वोपरि माना है जिस पर कोई प्रश्न नही उठाया जा सकता है।
संविधान की प्रस्तावना:
" हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद
द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

संविधान के तीन भाग

संविधान के तीन प्रमुख भाग हैं। भाग एक में संघ तथा उसका राज्यक्षेत्रों के विषय में टिप्पणीं की गई है तथा यह बताया गया है कि राज्य क्या हैं और उनके अधिकार क्या हैं। दूसरे भाग में नागरिकता के विषय में बताया गया है कि भारतीय नागरिक कहलाने का अधिकार किन लोगों के पास है और किन लोगों के पास नहीं है। विदेश में रहने वाले कौन लोग भारतीय नागरिक के अधिकार प्राप्त कर सकते हैं और कौन नहीं कर सकते। तीसरे भाग में भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विषय में विस्तार से बताया गया है। • संविधान की प्रस्तावना बाहर सेट मुख्य उद्देश्य है जो संविधान सभा को प्राप्त करने का इरादा है. • 'उद्देश्य' संकल्प पंडित नेहरू द्वारा प्रस्तावित है और संविधान सभा द्वारा पारित, अंततः भारत के संविधान की प्रस्तावना बन गया. • जैसा कि उच्चतम न्यायालयने मनाया है, प्रस्तावना संविधान के निर्माताओं के मन को जानने की कुंजी है. • यह भी भारत के लोगों के आदर्शों और आकांक्षाओं का प्रतीक है. • संविधान (42 वां संशोधन) अधिनियम, 1976 प्रस्तावना में संशोधन और शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और प्रस्तावना के लिए वफ़ादारी जोड़ी. • प्रस्तावना प्रकृति में गैर न्यायोचित है, राज्य के नीति theDirective सिद्धांतों की तरह और कानून की एक अदालत में लागू नहीं किया जा सकता है. यह न तो राज्य के तीन अंगों को मूल शक्ति (निश्चित और वास्तविक शक्ति) प्रदान कर सकते हैं, और न ही संविधान के प्रावधानों के तहत अपनी शक्तियों की सीमा. • संविधान की प्रस्तावना विशिष्ट प्रावधान नहीं ओवरराइड कर सकते हैं. दोनों के बीच किसी भी संघर्ष के मामले में, बाद अभिभावी होगी. तो •, यह एक बहुत ही सीमित भूमिका निभानी है. • उच्चतम न्यायालयने मनाया प्रस्तावना संविधान के प्रावधानों के आसपास अस्पष्टता को दूर करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
प्रस्तावना के प्रयोजन

• प्रस्तावना वाणी है कि यह भारत के लोगों को जो अधिनियमित था अपनाया और खुद को संविधान दिया है. • इस प्रकार, संप्रभुता लोगों के साथ अंत में निहित है. • यह भी लोगों की जरूरत है कि प्राप्त किया जा करने के आदर्शों और आकांक्षाओं को वाणी है. • आदर्शों आकांक्षाओं से अलग कर रहे हैं. जबकि पूर्व हे परमेश्वर के रूप में भारत के संविधान की घोषणा के साथ हासिल किया गया है, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य, बाद न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे, जो अभी तक प्राप्त किया जा शामिल है. आदर्शों आकांक्षाओं को प्राप्त करने का मतलब हैं.
प्रस्तावना

हम, भारत के लोगों, सत्यनिष्ठा से एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य में भारत का गठन करने के लिए और अपने सभी नागरिकों को सुरक्षित हल होने: न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक; सोचा, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता; स्थिति के और अवसर की समानता, और उन सब के बीच बढ़ावा देने व्यक्ति और राष्ट्र की एकता और अखंडता की गरिमा आश्वस्त बिरादरी; हमारी संविधान सभा नवम्बर, 1949 के इस बीस छठे दिन में, एतद्द्वारा, अपनाने करते अधिनियमित और अपने आप को इस संविधान दे.
प्रभु 'संप्रभु' शब्द पर जोर दिया कि भारत के बाहर कोई अधिकार नहीं है जिस पर देश के किसी भी निर्भर रास्ते में है.
समाजवादी 'समाजवादी' शब्द करके, संविधान लोकतांत्रिक साधनों के माध्यम से समाज के समाजवादी पैटर्न की उपलब्धि का मतलब है.
लौकिक • है कि भारत एक 'सेकुलर राज्य' है का मतलब है कि भारत के गैर - धार्मिक या अधार्मिक, या विरोधी धार्मिक नहीं करता, लेकिन बस है कि राज्य में ही धार्मिक और नहीं है "सर्व धर्म Samabhava" प्राचीन भारतीय सिद्धांत निम्नानुसार है. • यह भी मतलब है कि राज्य के नागरिकों के खिलाफ किसी भी तरह से धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा. • राज्य का संबंध धर्म विश्वास करने के लिए सही है या नहीं एक धर्म में विश्वास सहित एक व्यक्ति का निजी मामला हो सकता है. हालांकि, भारत अर्थ है पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्ष नहीं है, अपनी विशिष्ट सामाजिक - सांस्कृतिक वातावरण के कारण.
यह संविधान का एक हिस्सा है? • Kesavananda केरल मामले (1971) की भारती बनाम राज्य में उच्चतम न्यायालयके 1960 के पहले निर्णय खारिज (Berubari मामले) और यह स्पष्ट है कि यह संविधान का एक हिस्सा है और संसद के संशोधन के रूप में सत्ता के अधीन है संविधान के किसी अन्य प्रावधान, संविधान के मूल ढांचे प्रदान के रूप में प्रस्तावना में पाया नष्ट नहीं है. हालांकि, यह संविधान का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं है. • नवीनतम S.R. बोम्मई मामले में, 1993 में तीन सांसद, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी के बारे में, जस्टिस रामास्वामी ने कहा, "संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न हिस्सा है सरकार, संघीय ढांचे की एकता और अखंडता के लोकतांत्रिक रूप. राष्ट्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, सामाजिक न्याय और न्यायिक समीक्षा संविधान के बुनियादी सुविधाओं कर रहे हैं ". • प्रश्न प्रस्तावना जब यह एक बुनियादी सुविधा है संशोधन किया गया था क्यों के रूप में उठता है. 42 संशोधन करके, प्रस्तावना 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' को शामिल करने के लिए संशोधन किया गया था के रूप में यह मान लिया था कि इन संशोधनों को स्पष्ट कर रहे हैं और प्रकृति में योग्यता. वे पहले से ही प्रस्तावना में निहित हैं
लोकतंत्रीय • शब्द का अर्थ है 'डेमोक्रेटिक कि लोगों द्वारा चुने गए शासकों केवल सरकार चलाने का अधिकार है. • भारत 'प्रतिनिधि लोकतंत्र' की एक प्रणाली है, जहां सांसदों और विधायकों को सीधे लोगों द्वारा चुने गए हैं निम्नानुसार है. पंचायतों और नगर पालिकाओं (73 और 74 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992) के माध्यम से जमीनी स्तर पर लोकतंत्र ले • प्रयास किए जा रहे हैं. हालांकि, प्रस्तावना न केवल राजनीतिक, लेकिन यह भी लोकतंत्र सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्रों की परिकल्पना की गई है.
गणतंत्र 'गणतंत्र' शब्द का मतलब है कि वहाँ भारत में कोई वंशानुगत शासक और राज्य के सभी प्राधिकारी हैं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लोगों द्वारा चुने गए मौजूद है.
प्रस्तावना राज्यों है कि प्रत्येक नागरिक उद्देश्यों के लिए सुरक्षित कर रहे हैं 1. न्यायमूर्ति: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक • न्याय के बारे में, एक बात स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के राजनीतिक न्याय के लिए राज्य और अधिक से अधिक कल्याण प्रकृति में उन्मुख बनाने के द्वारा सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने का मतलब हो जाने की उम्मीद है. • भारत में राजनीतिक न्याय सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार द्वारा योग्यता के किसी भी प्रकार के बिना गारंटी है. • जबकि सामाजिक न्याय सम्मान की abolishingjmy Jitle (18 Art.) द्वारा सुनिश्चित किया जाता है और अस्पृश्यता (17 Art.), निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से मुख्य रूप से आर्थिक न्याय की गारंटी है.
2. लिबर्टी: सोचा, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा की • लिबर्टी एक मुक्त समाज का एक अनिवार्य विशेषता है कि एक व्यक्ति के बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक संकायों के पूर्ण विकास में मदद करता है. • भारतीय संविधान छह आर्ट के तहत व्यक्तियों को लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है. 19 और धर्म की कला के तहत स्वतंत्रता का अधिकार. 25-28.
3. की स्थिति, अवसर: समानता • स्वतंत्रता का फल पूरी तरह से जब तक वहाँ स्थिति और अवसर की समानता है महसूस नहीं किया जा सकता है. • हमारा संविधान यह गैरकानूनी बना देता है, धर्म, जाति, लिंग, या सभी के लिए खुला सार्वजनिक स्थानों अस्पृश्यता (17 Art.) को खत्म करने, फेंकने द्वारा और जन्म स्थान (15 Art.) के आधार पर ही राज्य द्वारा किसी भेदभाव सम्मान के खत्म शीर्षक (ArtJ8). • हालांकि, राष्ट्रीय मुख्यधारा में समाज के अब तक उपेक्षित वर्गों को लाने के लिए, संसद अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों (सुरक्षा भेदभाव) के लिए कुछ कानून पारित कर दिया गया है.
4. बिरादरी भाईचारे के रूप में संविधान में निहित भाईचारे की भावना लोगों के सभी वर्गों के बीच प्रचलित मतलब है. यह राज्य धर्मनिरपेक्ष बनाने, समान रूप से सभी वर्गों के लोगों को मौलिक और अन्य अधिकारों की गारंटी, और उनके हितों की रक्षा के द्वारा प्राप्त किया जा मांग की है. हालांकि, बिरादरी एक उभरती प्रक्रिया है और 42 संशोधन द्वारा 'अखंडता' शब्द जोड़ा गया था, इस प्रकार यह एक व्यापक अर्थ दे.

के.एम. मुंशी 'राजनीतिक कुंडली' के रूप में करार दिया. बयाना बार्कर यह संविधान की कुंजी कहता है. ठाकुरदास भार्गव 'संविधान की आत्मा' के रूप में मान्यता दी. शब्द 'समाज के सोशलिस्टिक पैटर्न' अवादी सत्र में 1955 में कांग्रेस द्वारा भारतीय राज्य का एक लक्ष्य के रूप में अपनाया गया था.

संविधान भाग ५ नीति निर्देशक तत्व

भाग 3 तथा 4 मिल कर संविधान की आत्मा तथा चेतना कहलाते हैक्यों कि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए मौलिक अधिकार तथा निति निर्देश देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीति निर्देशक तत्व जनतांत्रिक संवैधानिक विकास के नवीनतम तत्व हैं सर्वप्रथम ये आयरलैंडके संविधान मे लागू किये गये थे। ये वे तत्व है जो संविधान के विकास के साथ ही विकसित हुए है। इन तत्वॉ का कार्य एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। भारतीय संविधान के इस भाग में नीति निर्देशक तत्वों का रूपाकार निश्चित किया गया है, मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व मे भेद बताया गया है और नीति निदेशक तत्वों के महत्व को समझाया गया है।

भाग 4 क मूल कर्तव्य

मूल कर्तव्य मूल सविधान में नहीं थे, इन्हे ४२ वें संविधान संशोधन द्ववारा जोड़ा गया है। ये रूस से प्रेरित होकर जोड़े गये तथा संविधान के भाग ४ (क) के अनुच्छेद ५१ - अ मे रखे गये हैं । ये कुल ११ है ।
51 क. मूल कर्तव्य- भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
(क) संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे ; (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे; (ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे; (घ) देश की रक्षा करे और आह्वान करने किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे; (ङ) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है; (च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उस का परिरक्षण करे; (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे; (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे; (झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे; (ञ) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले; (ट) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।

भाग 5 संघ

पाठ 1 संघीय कार्यपालिका

संघीय कार्यपालिका मे राष्ट्रपति ,उपराष्ट्रपति,मंत्रिपरिषद तथा महान्यायवादी आते है। रामजवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य वाद मे सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका शक्ति को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
  • 1 विधायिका न्यायपालिका के कार्यॉ को पृथक करने के पश्चात सरकार का बचा कार्य ही कार्यपालिका है।
  • 2 कार्यपालिका मॅ देश का प्रशासन, विधियॉ का पालन सरकारी नीति का निर्धारण ,विधेयकॉ की तैयारी करना ,कानून व्यव्स्था बनाये रखना सामाजिक आर्थिक कल्याण को बढावा देना विदेश नीति निर्धारित करना आदि आता है।

राष्ट्रपति

संघ का कार्यपालक अध्यक्ष है संघ के सभी कार्यपालक कार्य उस के नाम से किये जाते है अनु 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति उसमॅ निहित है इन शक्तियॉ/कार्यों का प्रयोग क्रियांवय्न राष्ट्रपति सविन्धान के अनुरूप ही सीधे अथवा अधीनस्थ अधिकारियॉ के माध्यम से करेगा। वह सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी होता है,सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला युद्ध शांति की घोषणा करने वाला होता है वह देश का प्रथम नागरिक है तथा राज्य द्वारा जारी वरीयता क्रम मे उसका सदैव प्रथम स्थान होता है। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है तथा उसकी आयु कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए। राष्ट्रपति का चुनाव, उस पर महाभियोग की अवस्थाएँ, उसकी शक्तियाँ, संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति, राष्ट्रपति की संसदीय शक्ति तथा राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियों का वर्णन इस अध्याय में किया गया है।

उपराष्ट्रपति

उपराष्ट्रपति का राज्य सभा का पदेन सभापति होना--उपराष्ट्रपति, राज्य सभा का पदेन सभापति होगा और अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा: परंतु जिस किसी अवधि के दौरान उपराष्ट्रपति, अनुच्छेद 65 के अधीन राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करता है, उस अवधि के दौरान वह राज्य सभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा और वह अनुच्छेद 97 के अधीन राज्य सभा के सभापति को संदेय वेतन या भत्ते का हकदार नहीं होगा।
65. राष्ट्रपति के पद में आकस्मिक रिक्ति के दौरान या उसकी अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति का राष्ट्रपति के रूप में कार्य करना या उसके कृत्यों का निर्वहन--(1) राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से उसके पद में हुई रिक्ति की दशा में उपराष्ट्रपति उस तारीख तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा जिस तारीख को ऐसी रिक्ति को भरने के लिए इस अध्याय के उपबंधों के अनुसार निर्वाचित नया राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करता है।
(2) जब राष्ट्रपति अनुपस्थिति, बीमारी या अन्य किसी कारण से अपने कृत्यों का निर्वहन करने में असमर्थ है तब उपराष्ट्रपति उस तारीख तक उसके कृत्यों का निर्वहन करेगा जिस तारीख को राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों को फिर से संभालता है।
उपराष्ट्रपति को उस अवधि के दौरान और उस अवधि के संबंध में, जब वह राष्ट्रपति के रूप में इस प्रकार कार्य कर रहा है या उसके कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, राष्ट्रपति की सभी शक्तियाँ और उन्मुक्तियाँ होंगी तथा वह ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का जो संसद, विधि द्वारा, अवधारित करे, और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा।
66. उपराष्ट्रपति का निर्वाचन--(1) उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचकगण के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होगा और ऐसे निर्वाचन में मतदान गुप्त होगा।
(2) उपराष्ट्रपति संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा और यदि संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का कोई सदस्य उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो जाता है तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान उपराष्ट्रपति के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।
(3) कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र तभी होगा जब वह-- (क) भारत का नागरिक है, (ख) पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है, और (ग) राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए अर्हित है।
(4) कोई व्यक्ति, जो भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी के नियंत्रण में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता है, उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र नहीं होगा। स्पष्टीकरण--इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण कोई लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल 2 * * * है अथवा संघ का या किसी राज्य का मंत्री है।
67. उपराष्ट्रपति की पदावधि--(1) उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा: परंतु-- (क) उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; (ख) उपराष्ट्रपति, राज्य सभा के ऐसे संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा जिसे राज्य सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत ने पारित किया है और जिससे लोकसभा सहमत है; किंतु इस खंड के प्रयोजन के लिए कई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो; (ग) उपराष्ट्रपति, अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी, तब तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। 68. उपराष्ट्रपति के पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन करने का समय और आकस्मिक रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति की पदावधि--(1) उपराष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, पदावधि की समाप्ति से पहले ही पूर्ण कर लिया जाएगा। (2) उपराष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से हुई उसके पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, रिक्ति होने के पश्चात्‌ यथाशीघ्र किया जाएगा और रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति, अनुच्छेद 67 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, अपने पद ग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष की पूरी अवधि तक पद धारण करने का हकदार होगा।
69. उपराष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान--प्रत्येक उपराष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने से पहले राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष निम्नलिखित प्ररूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात्‌: -- ईश्वर की शपथ लेता हूँ
मैं, अमुक ---------------------------------कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ, श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूँगा।

मंत्रिपरिषद

संसदीय लोकतंत्र के मह्त्वपूर्ण सिद्धांत 1. राज्य प्रमुख, सरकार प्रमुख न होकर मात्र संवैधानिक प्रमुख ही होता है
2. वास्तविक कार्यपालिका शक्ति, मंत्रिपरिषद जो कि सामूहिक रूप से संसद के निचले सदन के सामने उत्तरदायी होगा के पास होगी
3 मंत्रिपरिषद के सद्स्य संसद के सद्स्यों से लिए जायेंगे

परिषद का गठन

1. प्रधानमंत्री के पद पे आते ही यह परिषद गठित हो जाती है यह आवश्यक नही है कि उसके साथ कुछ अन्य मंत्री भी शपथ ले केवल प्रधानमंत्री ही मंत्रिपरिषद होगा
2 मंत्रिपरिषद की सद्स्य संख्या पर मौलिक संविधान मे कोई रोक नही थी किंतु 91 वे संशोधन के द्वारा मंत्रिपरिषद की संख्या
लोकसभा के सद्स्य संख्या के 15% तक सीमित कर दी गयी वही राज्यों मेभी मंत्रीपरिषद की
संख्या विधानसभा के 15% से अधिक नही होगी पंरंतु न्यूनतम 12 मंत्री होंगे

मंत्रियों की श्रेणियाँ

संविधान मंत्रियों की श्रेणी निर्धारित नही करता यह निर्धारण अंग्रेजी प्रथा के आधार पर किया गया है
कुल तीड़्न प्रकार के मंत्री माने गये है
  • 1. कैबिनेट मंत्री—सर्वाधिक वरिष्ठ मंत्री है उनसे ही कैबिनेट का गठन होता है मंत्रालय मिलने पर वे उसके अध्यक्ष होते है उनकी सहायता हेतु राज्य मंत्री तथा उपमंत्री होते है उन्हें कैबिनेट बैठक मे बैठने का अधिकार होता है अनु 352 उन्हें मान्यता देता है
कृप्या सभी कैबिनेट मंत्रालयों ,राज्य मंत्रालय की सूची पृथक से जोड दे
  • 2. राज्य मंत्रीद्वितीय स्तर के मंत्री होते है सामान्यत उनहे मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार नही मिलता किंतु प्रधानमंत्री चाहे तो यह कर सकता है उन्हें कैबिनेट बैठक मे आने का अधिकार नही होता।
  • 3. उपमंत्रीकनिष्ठतम मंत्री है उनका पद सृजन कैबिनेट या राज्य मंत्री को सहायता देने हेतु किया जाता है वे मंत्रालय या विभाग का स्वतंत्र प्रभार भी नही लेते है।
  • 4. संसदीय सचिवसत्तारूढ दल के संसद सद्स्य होते है इस पद पे नियुक्त होने के पश्चात वे मंत्री गण की संसद तथा इसकी समितियॉ मे कार्य करने मे सहायता देते है वे प्रधान मंत्री की इच्छा से पद ग्रहण करते है वे पद गोपनीयता की शपथ भी प्रधानमंत्री के द्वारा ग्रहण करते है वास्तव मे वे मंत्री परिषद के सद्स्य नही होते है केवल मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है।

मंत्रिमंडल

मंत्रि परिषद एक संयुक्त निकाय है जिसमॆं 1,2,या 3 प्रकार के मंत्री होते है यह बहुत कम मिलता है चर्चा करता है या निर्णय लेता है वहीं मंत्रिमंडल मे मात्र कैबिनेट प्रकार के मंत्री होते है यह समय समय पर मिलती है तथा समस्त महत्वपूर्ण निर्णय लेती है इस के द्वारा स्वीकृत निर्णय अपने आप परिषद द्वारा स्वीकृत निर्णय मान लिये जाते है यही देश का सर्वाधिक मह्त्वपूर्ण निर्णय लेने वाला निकाय है
  • सम्मिलित उत्तरदायित्वअनु 75[3] के अनुसार मंत्रिपरिषद संसद के सामने सम्मिलित रूप से उत्तरदायी है इसका लक्ष्य मंत्रिपरिषद मे संगति लाना है ताकि उसमे आंतरिक रूप से विवाद पैदा ना हो।
  • व्यक्तिगत उत्तरदायित्वअनु 75[2] के अनुसार मंत्री व्यक्तिगत रूप से राष्ट्रपति के सामने उत्तरदायी होते है किंतु यदि प्रधानमंत्री की सलाह ना हो तो राष्ट्रपति मंत्री को पद्च्युत नही कर सकता है।

भारत का महान्यायवादी

भारत का महान्यायवादी संसद के किसी भी सदन का सदस्य न रहते हुए भी संसद की कार्रवाई में भाग ले सकता है ।

प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री की दशा समानों मे प्रधान की तरह है वह कैबिनेट का मुख्य स्तंभ है मंत्री परिषद का मुख्य सद्स्य भी वही है अनु 74 स्पष्ट रूप से मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता तथा संचालन हेतु प्रधानम्ंत्री की उपस्तिथि आवश्यक मानता है उसकी मृत्यु या त्यागपत्र की द्शा मे समस्त परिषद को पद छोडना पडता है वह अकेले ही मंत्री परिषद का गठन करता है राष्ट्रपति मंत्री गण की नियुक्ति उस की सलाह से ही करता है मंत्री गण के विभाग का निर्धारण भी वही करता है कैबिनेट के कार्य का निर्धारण भी वही करता है देश के प्रशासन को निर्देश भी वही देता है सभी नीतिगत निर्णय वही लेता है राष्ट्रपति तथा मंत्री परिषद के मध्य संपर्क सूत्र भी वही है परिषद का प्रधान प्रवक्ता भी वही है परिषद के नाम से लडी जाने वाली संसदीय बहसॉ का नेतृत्व करता है संसद मे परिषद के पक्ष मे लडी जा रही किसी भी बहस मे वह भाग ले सकता है मन्त्री गण के मध्य समन्वय भी वही करता है वह किसी भी मंत्रालय से कोई भी सूचना मंगवा सकता है इन सब कारणॉ के चलते प्रधानम्ंत्री को देश का सबसे मह्त्वपूर्ण राजनैतिक व्यक्तित्व माना जाता है
प्रधानमंत्री सरकार के प्रकार
प्रधानमंत्री सरकार संसदीय सरकार का ही प्रकार है जिसमे प्रधानमंत्री मंत्रि परिषद का नेतृत्व करता है वह कैबिनेट की निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है वह कैबिनेट से अधिक शक्तिशाली है उसके निर्णय ही कैबिनेट के निर्णय है देश की सामान्य नीतियाँ कैबिनेट द्वारा निर्धारित नहीं होती है यह कार्य प्रधानमंत्री अपने निकट सहयोगी चाहे वो मंत्रि परिषद के सद्स्य ना हो की सहायता से करता है जैसे कि इंदिरा गाँधी अपने किचन कैबिनेट की सहायता से करती थी
प्रधानमंत्री सरकार के लाभ
  • 1 तीव्र तथा कठोर निर्णय ले सकती है
  • 2 देश को राजनैतिक स्थाईत्व मिलता है
इससे कुछ हानि भी है
  • 1 कैबिनेट ऐसे निर्णय लेती है जो सत्ता रूढ दल के हित मे हो न कि देश के हित मे
  • 2 इस के द्वारा गैर संवैधानिक शक्ति केन्द्रों का जन्म होता है
कैबिनेट सरकार
संसदीय सरकार का ही प्रकार है इस मे नीति गत निर्णय सामूहिक रूप से कैबिनेट [मंत्रि मंडल ] लेता है इस मे प्रधानमंत्री कैबिनेट पे छा नही जाता है इस के निर्णय सामान्यत संतुलित होते है लेकिन कभी कभी वे इस तरह के होते है जो अस्पष्ट तथा साहसिक नही होते है। 1989 के बाद देश मे प्रधानमंत्री प्रकार का नही बल्कि कैबिनेट प्रकार का शासन रहा है।
प्रधानमन्त्री के कार्य
१- मन्त्रीपरिषद के गठन का कार्य २- प्रमुख शासक ३- नीति निर्माता ४- ससद का नेता ५- विदेश निती का निर्धारक

कार्यकारी सरकार

बहुमत समाप्त हो जाने के बाद जब मंत्रि परिषद त्यागपत्र दे देती है तब कार्यकारी सरकार अस्तित्व मे आती है अथवा प्रधानमंत्री की मृत्यु/ त्यागपत्र की दशा मे यह स्थिति आती है। यह सरकार अंतरिम प्रकृति की होती है यह तब तक स्थापित रहती है जब तक नयी मंत्रिपरिषद शपथ ना ले ले यह इसलिए काम करती है ताकि अनुच्छेद 74 के अनुरूप एक मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति की सहायता हेतु रहे। वी.एन.राव बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालयने माना था कि मंत्रि परिषद सदैव मौजूद रहनी चाहिए यदि यह अनुपस्थित हुई तो राष्ट्रपति अपने काम स्वंय करने लगेगा जिस से सरकार का रूप बदल कर राष्ट्रपति हो जायेगा जो कि संविधान के मूल ढाँचे के खिलाफ होगा। यह कार्यकारी सरकार कोई भी वित्तीय/नीतिगत निर्णय नही ले सकती है क्योंकि उस समय लोक सभा मौजूद नही रहती है वह केवल देश का दैनिक प्रशासन चलाती है। इस प्रकार की सरकार के सामने सबसे विकट स्थिति तब आ गयी थी जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को 1999 मे कारगिल युद्ध का संचालन करना पडा था। किंतु विकट दशा मे इस प्रकार की सरकार भी कोई भी नीति निर्णय ले सकती है।

सुस्थापित परंपराए

एक संसदीय सरकार में ये पंरपराए ऐसी प्रथाएँ मानी जाती है जो सरकार के सभी अंगों पर वैधानिक रूप
से लागू मानी जाती है उनका वर्णन करने के लिये कोई विधान नहीं होता है ना ही संविधान मे किसी देश के शासन के बारे मे पूर्ण वर्णन किया जा सकता है संविधान निर्माता भविष्य मे होने वाले विकास तथा देश के शासन पर उनके प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकते अतः वे उनके संबंध मे संविधान में प्रावधान भी नहीं कर सकते है
इस तरह संविधान एक जीवित शरीर तो है परंतु पूर्ण वर्णन नही है इस वर्णन मे बिना संशोधन लाये परिवर्तन भी नहीं हो सकता है वही पंरपराए संविधान के प्रावधानॉ की तरह वैधानिक नहीं होती वे सरकार के संचालन में स्नेहक का कार्य करते है तथा सरकार का प्रभावी संचालन करने मे सहायक है
पंरपराए इस लिए पालित की जाती है क्योंकि उनके अभाव मे राजनैतिक कठिनाइया आ सकती है इसी कारण उन्हें संविधान का पूरक माना जाता हैब्रिटेन मे हम इनका सबसे विकसित तथा प्रभावशाली रूप देख सकते है
इनके दो प्रकार है प्रथम वे जो संसद तथा मंत्रिपरिषद के मध्य संयोजन का कार्य करती है यथा अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर परिषद का त्यागपत्र दे देना
द्वितीय वे जो विधायिका की कार्यवाहिय़ों से संबंधित है जैसे किसी बिल का तीन बार वाचन संसद के तीन सत्र राष्ट्रपति द्वारा धन बिल को स्वीकृति देना उपस्पीकर का चुनाव विपक्ष से करना जब स्पीकर सत्ता पक्ष से चुना गया हो आदि
सरकार के संसदीय तथा राष्ट्रपति प्रकार
संसदीय शासन के समर्थन मे तर्क
1. राष्ट्रपतीय शासन मे राष्ट्रपति वास्तविक कार्य पालिका होता है जो जनता द्वारा निश्चित समय के लिये चुना जाता है वह विधायिका के प्रति उत्तरदायी भी नेही होता है उसके मंत्री भी विधायिका के सदस्य नही होते है तथा उसी के प्रति उत्ततदायी होंगे न कि विधायिका के प्रति
वही संसदीय शासन मे शक्ति मंत्रि परिषद के पास होती है जो विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है
2. भारत की विविधता को देखते हुए संसदीय शासन ज्यादा उपयोगी है इस मे देश के सभी वर्गों के लोग मंत्रि परिषद मे लिये जा सकते है
3. इस् शासन मे संघर्ष होने [विधायिका तथा मंत्रि परिषद के मध्य] की संभावना कम रहती है क्यॉकि मंत्री विधायिका के सदस्य भी होते है
4 भारत जैसे विविधता पूर्ण देश मे सर्वमान्य रूप से राष्ट्रपति का चुनाव करना लगभग असंभव है
5 मिंटे मार्ले सुधार 1909 के समय से ही संसदीय शासन से भारत के लोग परिचय रखते है ,kfduytjkjoojidsfuhgyuhgihtriijik

भाग पाँच, अध्याय 2, संसद

राज्य सभा

राज्यों को संघीय स्तर पर प्रतिनिधित्व देने वाली सभा है जिसका कार्य संघीय स्तर पर राज्य हितॉ का संरक्षण करना है। इसे संसद का दूसरा सदन कह्ते है इसके सदस्य दो प्रकार से निर्वाचित होते है राज्यॉ से 238 को निर्वाचित करते है तथा राष्ट्रपति द्वारा 12 को मनोनीत करते है। वर्तमान मे यह संख्या क्रमश 233 ,12 है ये सद्स्य 6 वर्ष हेतु चुने जाते है इनका चयन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के द्वारा होता है मत एकल संक्रमणीय प्रणाली से डाले जाते है। मत खुले डाले जाते है.सद्स्य जो निर्वाच्त होना चाहते है देश के किसी भी संसदीय क्षेत्र से एक निर्वाचक के रूप मे पंजीकृत होने चाहिए।

राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ

राज्यसभा के पास तीन विशेष शक्तिया होती है
  1. अनु. 249 के अंतर्गत राज्य सूची के विषय पर 1 वर्ष का बिल बनाने का हक
  2. अनु. 312 के अंतर्गत नवीन अखिल भारतीय सेवा का गठन 2/3 बहुमत से करना
  3. अनु. 67 ब उपराष्ट्रपति को हटाने वाला प्रस्ताव राज्यसभा मे ही लाया जा सकेगा

राज्य सभा का संघीय स्वरूप

  1. राज्य सभा का गठन ही राज्य परिषद के रूप मे संविधान के संघीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व देने के लिये हुआ था
  2. राज्य सभा के सद्स्य मंत्रि परिषद के सदस्य बन सकते है जिससे संघीय स्तर पर निर्णय लेने मे राज्य का प्रतिनिधित्व होगा
  3. राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा महाभियोग तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन मे समान रूप से भाग लेती है
  4. अनु 249,312 भी राज्य सभा के संघीय स्वरूप तथा राज्यॉ के संरक्षक रूप मे उभारते है
  5. सभी संविधान संशोधन बिल भी इस के द्वारा पृथक सभा कर तथा 2/3 बहुमत से पास होंगे
  6. संसद की स्वीकृति चाहने वाले सभी प्रस्ताव जो कि आपातकाल से जुडे हो भी राज्यसभा द्वारा पारित होंगे

राज्य सभा के गैर संघीय तत्व

  1. संघीय क्षेत्रॉ को भी राज्य सभा मे प्रतिनिधित्व मिलता है जिससे इसका स्वरूप गैर संघीय हो जाता है
  2. राज्यॉ का प्रतिनिधित्व राज्यॉ की समानता के आधार पे नही है जैसा कि अमेरिका मे है वहाँ प्रत्येक राज्य को
    सीनेट मे दो स्थान मिलते है किंतु भारत मे स्थानॉ का आवंटन आबादी के आधार पे किया गया है
  3. राज्य सभा मे मनोनीत सद्स्यों का प्रावधान है

राज्य सभा का मह्त्व

  1. किसी भी संघीय शासन मे संघीय विधायिका का ऊपरी भाग संवैधानिक बाध्यता के चलते राज्य हितॉ की संघीय
    स्तर पर रक्षा करने वाला बनाया जाता है इसी सिद्धांत के चलते राज्य सभा का गठन हुआ है ,इसी कारण राज्य सभा को सदनॉ
    की समानता के रूप मे देखा जाता है जिसका गठन ही संसद के द्वितीय सदन के रूप मे हुआ है
  2. यह जनतंत्र की मांग है कि जहाँ लोकसभा सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है विशेष शक्तियॉ का उपभोग करती है
    ,लोकतंत्र के सिद्धांत के अनुरूप मंत्रिपरिषद भी लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होने के लिये बाध्य करते है किंतु ये दो कारण किसी भी प्रकार
    से राज्यसभा का मह्त्व कम नही करते है
  3. राज्यसभा का गठन एक पुनरीक्षण सदन के रूप मे हुआ है जो लोकसभा द्वारा पास किये गये प्रस्तावॉ की पुनरीक्षा करे
    यह मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की कमी भी पूरी कर सकती है क्योंकि कम से कम 12 विशेषज्ञ तो इस मे मनोनीत होते ही है
  4. आपातकाल लगाने वाले सभी प्रस्ताव जो राष्ट्रपति के सामने जाते है राज्य सभा द्वारा भी पास होने चाहिये
  5. राज्य सभा का महत्व यह है कि जहाँ लोकसभा सदैव सरकार से सहमत होती है जबकि राज्यसभा सरकार की नीतिय़ों का निष्पक्ष मूल्याँकन कर सकती है
  6. मात्र नैतिक प्रभाव सरकार पे डालती है किंतु यह लोकस्भा के प्रभाव की तुलना मे ज्यादा होता है

राज्य सभा के पदाधिकारी उनका निर्वाचन ,शक्ति ,कार्य, उत्तरदायित्व तथा पदच्युति

लोकसभा

यह संसद का लोकप्रिय सदन है जिसमे निर्वाचित मनोनीत सद्स्य होते है संविधान के अनुसार लोकसभा का विस्तार राज्यॉ से चुने गये 530, संघ क्षेत्र से चुने गये 20 और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 2 आंग्ल भारतीय सदस्यॉ तक होगा वर्तमान मे राज्यॉ से 530 ,संघ क्षेत्रॉ
से 13 तथा 2 आंग्ल भारतीय सद्स्यॉ से सदन का गठन किया गया है
कुछ स्थान अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति हेतु आरक्षित है
प्रत्येक राज्य को उसकी आबादी के आधार पर सद्स्य मिलते है अगली बार लोकसभा के सदस्यॉ की संख्या वर्ष 2026 मे निर्धारित किया जायेगा वर्तमान मे यह 1971 की जनसंख्या पे आधारित है इससे पहले प्रत्येक दशक की जनगणना के आधार पर सदस्य स्थान निर्धारित होते थे यह कार्य बकायदा 84 वे संविधान संशोधन से किया गया था ताकि राज्य अपनी आबादी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा स्थान प्राप्त करने का प्रयास नही करे
लोकसभा की कार्यावधि 5 वर्ष है पर्ंतु इसे समय से पूर्व भंग किया जा सकता है

लोकसभा की विशेष शक्तियाँ

  1. मंत्री परिषद केवल लोकस्भा के प्रति उत्तरदायी है अविश्वास प्रस्ताव सरकार के विरूद्ध केवल यही लाया जा सकता है
  2. धन बिल पारित करने मे यह निर्णायक सदन है
  3. राष्ट्रीय आपातकाल को जारी रखने वाला प्रस्ताव केवल लोकस्भा मे लाया और पास किया जायेगा

लोकसभा के पदाधिकारी

स्पीकर

लोकसभा का अध्यक्ष होता है इसका चुनाव लोकसभा सदस्य अपने मध्य मे से करते है इसके दो कार्य है
1. लोकसभा की अध्यक्षता करना उस मे अनुसाशन गरिमा तथा प्रतिष्टा बनाये रखना इस कार्य हेतु वह किसी न्यायालय के सामने उत्तरदायी नही होता है
2. वह लोकसभा से संलग्न सचिवालय का प्रशासनिक अध्यक्ष होता है किंतु इस भूमिका के रूप मे वह न्यायालय के समक्ष उत्तरदायी होगा
उसकी विशेष शक्तियाँ
1. दोनो सदनॉ का सम्मिलित सत्र बुलाने पर स्पीकर ही उसका अध्यक्ष होगा उसके अनुउपस्थित होने पर उपस्पीकर तथा उसके भी न होने पर राज्यसभा का उपसभापति अथवा सत्र द्वारा नांमाकित कोई भी सदस्य सत्र का अध्यक्ष होता है
2. धन बिल का निर्धारण स्पीकर करता है यदि धन बिल पे स्पीकर साक्ष्यांकित नही करता तो वह धन बिल ही नही माना जायेगा उसका निर्धारण अंतिम तथा बाध्यकारी होगा
3. सभी संसदीय समितियाँ उसकी अधीनता मे काम करती है उसके किसी समिति का सदस्य चुने जाने पर वह उसका पदेन अध्यक्ष होगा
4. लोकसभा के विघटन होने पर भी उसका प्रतिनिधित्व करने के लिये स्पीकर पद पर कार्य करता रहता है नवीन लोकसभा चुने जाने पर वह अपना पद छोड देता है

स्पीकर प्रोटेम [कार्यवाहक]

जब कोई नवीन लोकसभा चुनी जाती है तब राष्ट्रपति उस सदस्य को कार्यवाहक स्पीकर नियुक्त करता है जिसको संसद मे सदस्य होने का सबसे लंबा अनुभव होता है वह राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करता है
उसके दो कार्य होते है
1. संसद सदस्यॉ को शपथ दिलवाना
2. नवीन स्पीकर चुनाव प्रक्रिया का अध्यक्ष भी वही बनता है

उपस्पीकर

विधायिका[संसद - राज्य विधायिका] मे बहुमत के प्रकार

1. सामान्य बहुमत– उपस्थित सदस्यॉ तथा मतदान करने वालॉ के 50% से अधिक सदस्य ही सामान्य बहुमत है इस बहुमत का सदन की कुल सदस्य संख्या से कोई संबंध नही होता है
भारतीय संविधान के अनुसार अविश्वास प्रस्ताव, विश्वास प्रस्ताव, कामरोको प्रस्ताव, सभापति ,उपसभापति तथा अध्यक्षॉ के चुनाव हेतु सदन के यदि संविधान संशोधन का प्रस्ताव राज्य विधायिकाओं को भेजना हो ,सामान्य बिल , धन बिल, राष्ट्रपति शासन ,वित्तीय आपातकाललगाने हेतु सामान्य बहुमत को मान्यता प्राप्त है यदि बहुमत के प्रकार का निर्देश न होने पर उसे सदैव सामान्य बहुमत समझा जाता है
2. पूर्ण बहुमत– सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ का बहुमत [खाली सीटे भी गिनी जाती है] लोकसभा मे 273, राज्यसभा मे 123 सदस्यॉ का समर्थन . इसका राजनैतिक मह्त्व है न कि वैधानिक महत्व
3. प्रभावी बहुमत- मतदान के समय उपस्थित सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ [खाली सीटॉ को छोडकर] यह तब प्रयोग आती है जब लोक सभा अध्यक्ष उपाध्यक्ष या राज्यसभा के उपसभापति को पद से हटाना हो या जब राज्यसभा उपराष्ट्रपति को पद से हटाने हेतु मतदान करे
4.विशेष बहुमत– प्रथम तीनो प्रकार के बहुमतॉ से भिन्न होता है इसके तीन प्रकार है
[क] अनु 249 के अनुसार- उपस्थित तथा मतदान देने वालॉ के 2/3 संख्या को विशेष बहुमत कहा गया है
[ख] अनु 368 के अनुसार– संशोधन बिल सदन के उपस्थित तथा सदन मे मत देने वालो के 2/3 संख्या जो कि सदन के कुल सदस्य संख्या का भी बहुमत हो [लोकसभा मे 273 सदस्य]इस बहुमत से संविधान संशोधन ,न्यायधीशॉ को पद से हटाना तथा राष्ट्रीय आपातकाल लगाना ,राज्य विधान सभा द्वारा विधान परिषद की स्थापना अथवा विच्छेदन की मांंग के प्रस्ताव पारित किये जाते है
[ग] अनु 61 के अनुसार– केवल राष्ट्रपति के महाभियोग हेतु सदन के कुल संख्या का कम से कम 2/3 [लोकसभा मे 364 सदस्य होने पर]

लोकसभा के सत्र

– अनु 85 के अनुसार संसद सदैव इस तरह से आयोजित की जाती रहेगी कि संसद के दो सत्रॉ के मध्य 6 मास
से अधिक अंतर ना हो पंरपरानुसार संसद के तीन नियमित सत्रॉ तथा विशेष सत्रों मे आयोजित की जाती है
सत्रॉ का आयोजन राष्ट्रपति की विज्ञप्ति से होता है
1. बजट सत्र वर्ष का पहला सत्र होता है सामान्यत फरवरी मई के मध्य चलता है यह सबसे लंबा तथा महत्वपूर्ण सत्र माना जाता है इसी सत्र मे बजट प्रस्तावित तथा पारित होता है सत्र के प्रांरभ मे राष्ट्रपति का अभिभाषण होता है
2. मानसून सत्र जुलाई अगस्त के मध्य होता है
3. शरद सत्र नवम्बर दिसम्बर के मध्य होता है सबसे कम समयावधि का सत्र होता है
विशेष सत्र – इस के दो भेद है 1. संसद के विशेष सत्र.
2. लोकसभा के विशेष सत्र
संसद के विशेष सत्र – मंत्रि परिषद की सलाह पर राष्ट्रपति इनका आयोजन करता है ये किसी नियमित सत्र के मध्य अथवा उससे पृथक आयोजित किये जाते है
एक विशेष सत्र मे कोई विशेष कार्य चर्चित तथा पारित किया जाता है यदि सदन चाहे भी तो अन्य कार्य नही कर सकता है
लोकसभा का विशेष सत्र– अनु 352 मे इसका वर्णन है किंतु इसे 44 वें संशोधन 1978 से स्थापित किया गया है यदि
लोकसभा के कम से कम 1/10 सद्स्य एक प्रस्ताव लाते है जिसमे राष्ट्रीय आपातकाल को जारी न रखने
की बात कही गयी है तो नोटिस देने के 14 दिन के भीतर सत्र बुलाया जायेगा
सत्रावसान– मंत्रिपरिषद की सलाह पे सदनॉ का सत्रावसान राष्ट्रपति करता है इसमे संसद का एक सत्र समाप्त
हो जाता है तथा संसद दुबारा तभी सत्र कर सकती है जब राष्ट्रपति सत्रांरभ का सम्मन जारी कर दे सत्रावसान की दशा मे संसद के
समक्ष लम्बित कार्य समाप्त नही हो जाते है
स्थगन– किसी सदन के सभापति द्वारा सत्र के मध्य एक लघुवधि का अन्तराल लाया जाता है इस से
सत्र समाप्त नही हो जाता ना उसके समक्ष लम्बित कार्य समाप्त हो जाते है यह दो प्रकार का होता है
1. अनिश्चित कालीन 2. जब अगली मीटिग का समय दे दिया जाता है
लोकसभा का विघटन— राष्ट्रपति द्वारा मंत्रि परिष्द की सलाह पर किया है इससे लोकसभा का जीवन समाप्त हो जाता है इसके बाद आमचुनाव ही होते है विघटन के बाद सभी लंबित कार्य जो लोकसभा के समक्ष होते है समाप्त हो जाते है किंतु बिल जो राज्यसभा मे लाये गये हो और वही लंबित होते है समाप्त न्ही होते या या बिल जो राष्ट्रपति के सामने विचाराधीन हो वे भी समापत नही होते है या राष्ट्रपति संसद के दोनॉ सदनॉ की लोकसभा विघटन से पूर्व संयुक्त बैठक बुला ले

विधायिका संबंधी कार्यवाही

/प्रक्रियाबिल/विधेयक के प्रकार कुल 4 प्रकार होते है
1.

सामान्य बिल

– इसकी 6 विशेषताएँ है
1. परिभाषित हो
2. राष्ट्रपति की अनुमति हो
3. बिल कहाँ प्रस्तावित हो
4. सदन की विशेष शक्तियॉ मे आता हो
5.कितना बहुमत चाहिए
6. गतिवरोध पैदा होना
यह वह विधेयक होता है जो संविधान संशोधन धन या वित्त विधेयक नही है यह संसद के किसी भी सदन मे लाया जा सकता है यदि अनुच्छेद 3 से जुडा ना हो तो इसको राष्ट्रप्ति की अनुंशसा भी नही चाहिए
इस बिल को पारित करने मे दोनो सदनॉ की विधायी शक्तिय़ाँ बराबर होती है इसे पारित करने मे सामान्य बहुमत
चाहिए एक सदन द्वारा अस्वीकृत कर देने पे यदि गतिवरोध पैदा हो जाये तो राष्ट्रपति दोनो सद्नॉ की संयुक्त बैठक मंत्रि परिषद की
सलाह पर बुला लेता है
राष्ट्रपति के समक्ष यह विधेयक आने पर वह इस को संसद को वापस भेज सकता है या स्वीकृति दे सकता है या अनिस्चित काल हेतु रोक सकता है

धन बिल

विधेयक जो पूर्णतः एक या अधिक मामलॉ जिनका वर्णन अनुच्छेद 110 मे किया गया हो से जुडा हो धन बिल कहलाता है ये मामलें है
1. किसी कर को लगाना,हटाना, नियमन
2. धन उधार लेना या कोई वित्तेय जिम्मेदारी जो भारत सरकार ले
3. भारत की आपात/संचित निधि से धन की निकासी/जमा करना
4.संचित निधि की धन मात्रा का निर्धारण
5. ऐसे व्यय जिन्हें भारत की संचित निधि पे भारित घोषित करना हो
6. संचित निधि मे धन निकालने की स्वीकृति लेना
7. ऐसा कोई मामला लेना जो इस सबसे भिन्न हो
धन बिल केवल लोकसभा मे प्रस्तावित किए जा सकते है इसे लाने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति आवशय्क है इन्हें पास करने के लिये सदन का सामान्य बहुमत आवश्यक होता है
धन बिल मे ना तो राज्य सभा संशोधन कर सकती है न अस्वीकार
जब कोई धन बिल लोकसभा पारित करती है तो स्पीकर के प्रमाणन के साथ यह बिल राज्यसभा मे ले जाया जाता है राज्यसभा इस
बिल को पारित कर सकती है या 14 दिन के लिये रोक सकती है किंतु उस के बाद यह बिल दोनॉ
सदनॉ द्वारा पारित माना जायेगा राज्य सभा द्वारा सुझाया कोई भी संशोधन लोक सभा की इच्छा पे निर्भर करेगा कि वो स्वीकार करे
या ना करे जब इस बिल को राष्ट्रपति के पास भेजा जायेगा तो वह सदैव इसे स्वीकृति दे देगा
फायनेसियल बिलवह विधेयक जो एक या अधिक मनीबिल प्रावधानॉ से पृथक हो तथा गैर मनी मामलॉ से भी संबधित हो एक फाइनेंस विधेयक मे धन प्रावधानॉ के साथ साथ सामान्य विधायन से जुडे मामले भी होते है इस प्रकार के विधेयक को पारित करने की शक्ति दोनो सदनॉ मे समान होती

संविधान संशोधन विधेयक

अनु 368 के अंतर्गत प्रस्तावित बिल जो कि संविधान के एक या अधिक प्रस्तावॉ को संशोधित करना चाहता है संशोधन बिल कहलाता है यह किसी भी संसद सदन मे बिना राष्ट्रपति की स्वीकृति के लाया जा सकता है इस विधेयक को सदन द्वारा कुल उपस्थित सदस्यॉ की 2/3 संख्या तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा ही पास किया जायेगा दूसरा सदन भी इसे इसी प्रकार पारित करेगा किंतु इस विधेयक को सदनॉ के पृथक सम्मेलन मे पारित किया जायेगा गतिरोध आने की दशा मे जैसा कि सामान्य विधेयक की स्थिति मे होता है सदनॉ की संयुक्त बैठक नही बुलायी जायेगी 24 वे संविधान संशोधन 1971 के बाद से यह अनिवार्य कर दिया गया है कि राष्ट्रपति इस बिल को अपनी स्वीकृति दे ही दे

विधेयक पारित करने मे आया गतिरोध

जब संसद के दोनॉ सदनॉ के मध्य बिल को पास करने से संबंधित विवाद हो या जब एक सदन द्वारा पारित बिल को दूसरा अस्वीकृत कर दे या इस तरह के संशोधन कर दे जिसे मूल सदन अस्वीकर कर दे या इसे 6 मास तक रोके रखे तब सदनॉ के मध्य गतिवरोध की स्थिति जन्म लेती है अनु 108 के अनुसार राष्ट्रपति इस दशा मे दोनॉ सदनॉ की संयुक्त बैठक बुला लेगा जिसमे सामान्य बहुमत से फैसला हो जायेगा अब तक मात्र तीन अवसरॉ पे इस प्रकार की बैठक बुलायी गयी है
1. दहेज निषेध एक्ट 1961
2.बैंकिग सेवा नियोजन संशोधन एक्ट 1978
3.पोटा एक्ट 2002
संशोधन के विरूद्ध सुरक्षा उपाय 1. न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र है
2.संविधान के मूल ढांचे के विरूद्ध न हो
3. संसद की संशोधन शक्ति के भीतर आता हो
4. संविधान की सर्वोच्चता, विधि का शासन तीनॉ अंगो का संतुलन बना रहे
5. संघ के ढाँचे से जुडा होने पर आधे राज्यॉ की विधायिका से स्वीकृति मिले
6. गठबंधन राजनीति भी संविधान संशोधन के विरूद्ध प्रभावी सुरक्षा उपाय देती है क्योंकि एकदलीय पूर्ण बहुमत के दिन समाप्त हो चुके

अध्यादेश जारी करना

अनु 123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है यह तब जारी होगा जब राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाये कि परिस्थितियाँ ऐसी हो कि तुरंत कार्यवाही करने की जरूरत है तथा संसद का 1 या दोनॉ सदन सत्र मे नही है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है यह अध्यादेश संसद के पुनसत्र के 6 सप्ताह के भीतर अपना प्रभाव खो देगा यधपि दोनो सदनॉ द्वारा स्वीकृति देने पर यह जारी रहेगा यह शक्ति भी न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण की पात्र है किंतु शक्ति के गलत प्रयोग या दुर्भावना को सिद्ध करने का कार्य उस व्यक्ति पे होगा जो इसे चुनौती दे अध्यादेश जारी करने हेतु संसद का सत्रावसान करना भी उचित हो सकता है क्यॉकि अध्यादेश की जरूरत तुरंत हो सकती है जबकि संसद कोई भी अधिनियम पारित करने मे समय लेती है अध्यादेश को हम अस्थाई विधि मान सकते है यह राष्ट्रपति की विधायिका शक्ति के अन्दर आता है न कि कार्यपालिका वैसे ये कार्य भी वह मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है यदि कभी संसद किसी अध्यादेश को अस्वीकार दे तो वह नष्ट भले ही हो जाये किंतु उसके अंतर्गत किये गये कार्य अवैधानिक नही हो जाते है राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति पे नियंत्रण
1. प्रत्येक जारी किया हुआ अध्यादेश संसद के दोनो सदनो द्वारा उनके सत्र शुरु होने के 6 हफ्ते के भीतर स्वीकृत करवाना होगा इस प्रकार कोई अध्यादेश संसद की स्वीकृति के बिना 6 मास + 6 सप्ताह से अधिक नही चल सकता है
2. लोकसभा एक अध्यादेश को अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव 6 सप्ताह की अवधि समाप्त होने से पूर्व पास कर सकती है
3. राष्ट्रपति का अध्यादेश न्यायिक समीक्षा का विषय़ हो सकता है

संसद मे राष्ट्रपति का अभिभाषण

यह सदैव मंत्रिपरिषद तैयार करती है यह सिवाय सरकारी नीतियॉ की घोषणा के कुछ नही होता है सत्र के अंत मे इस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाता है यदि लोकसभा मे यह प्रस्ताव पारित नही हो पाता है तो यह सरकार की नीतिगत पराजय मानी जाती है तथा सरकार को तुरंत अपना बहुमत सिद्ध करना पडता है संसद के प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र मे तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत पश्चात दोनॉ सदनॉ की सम्मिलित बैठक को राष्ट्रपति संबोधित करता है यह संबोधन वर्ष के प्रथम सत्र का परिचायक है इन सयुंक्त बैठकॉ का सभापति खुद राष्ट्रपति होता है
अभिभाषण मे सरकार की उपलब्धियॉ तथा नीतियॉ का वर्णन तथा समीक्षा होती है[जो पिछले वर्ष मे हुई थी] आतंरिक समस्याओं से जुडी नीतियाँ भी इसी मे घोषित होती है प्रस्तावित विधायिका कार्यवाहिया जो कि संसद के सामने उस वर्ष के सत्रॉ मे लानी हो का वर्णन भी अभिभाषण मे होता है अभिभाषण के बाद दोनो सद्न पृथक बैठक करके उस पर चर्चा करते है जिसे पर्यापत समय दिया जाता है

संचित निधि

– संविधान के अनु 266 के तहत स्थापित है यह ऐसी निधि है जिस मे समस्त एकत्र कर/राजस्व जमा,लिये गये ऋण जमा किये जाते है यह भारत की सर्वाधिक बडी निधि है जो कि संसद के अधीन रखी गयी है कोई भी धन इसमे बिना संसद की पूर्व स्वीकृति के निकाला/जमा या भारित नहीं किया जा सकता है अनु 266 प्रत्येक राज्य की समेकित निधि का वर्णन भी करता हैsanchit nidhi se koi bhi bina rastrapati k anumati ke tatha sansad k anumati k rashi nahi nikal sakta hai.

भारत की लोक निधि

--- अनु 266 इसका वर्णन भी करता है वह धन जिसे भारत सरकार कर एकत्रीकरण प्राप्त आय उगाहे गये ऋण के अलावा एकत्र करे भारत की लोकनिधि कहलाती है कर्मचारी भविष्य़ निधि को भारत की लोकनिधि मे जमा किया गया है यह कार्यपालिका के अधीन निधि है इससे व्यय धन महालेखानियंत्रक द्वारा जाँचा जाता है अनु 266 राज्यॉ की लोकनिधि का भी वर्णन करता है

भारत की आपातकाल निधि

--- अनु 267 संसद को निधि जो कि आपातकाल मे प्रयोग की जा सकती हो स्थापित करने का अधिकार देता है यह निधि राष्ट्रपति के अधीन है इससे खर्च धन राष्ट्रपति की स्वीकृति से होता है परंतु संसद के समक्ष इसकी स्वीकृति ली जाती है यदि संसद स्वीकृति दे देती है तो व्यय धन के बराबर धन भारत की संचित निधि से निकाल कर इसमे डाल दिया जाता है अनु 267 राज्यॉ को अपनी अपनी आपातकाल निधि स्थापित करने का अधिकार भी देता है

भारित व्यय

--- वे व्यय जो कि भारत की संचित निधि पर बिना संसदीय स्वीकृति के भारित होते है ये व्यय या तो संविधान द्वारा स्वीकृत होते है या संसद विधि बना कर डाल देती है कुछ संवैधानिक पदॉ की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिये यह व्यय प्रयोग लाये गये है अनु 112[3] मे कुछ भारित व्ययॉ की सूची है
1. राष्ट्रपति के वेतन,भत्ते,कार्यालय से जुडा व्यय है
2. राज्यसभा लोकसभा के सभापतियॉ उपसभापतियॉ के वेतन भत्ते
3.ऋण भार जिनके लिये भारत सरकार उत्तरदायी है [ब्याज सहित]
4.सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के वेतन भत्ते पेंशन तथा उच्च न्यायालय की पेंशने इस पर भारित है
5. महालेखानियंत्रक तथा परीक्षक [केग] के वेतन भत्ते
6. किसी न्यायिक अवार्ड/डिक्री/निर्णय के लिये आवशयक धन जो न्यायालय/ट्रिब्न्यूल द्वारा पारित हो
7. संसद द्वारा विधि बना कर किसी भी व्यय को भारित व्यय कहा जा सकता है
अभी तक संसद ने निर्वाचन आयुक्तॉ के वेतन भत्ते पेंशन ,केन्द्रीय सर्तकता आयोगसदस्यॉ के वेतन भत्ते पेंशन भी इस पर भारित किये है

वित्त व्यवस्था पर संसद का नियंत्रण

अनु 265 के अनुसार कोई भी कर कार्यपालिका द्वारा बिना विधि के अधिकार के न तो आरोपित किया जायेगा और न ही वसूला जायेगा अनु 266 के अनुसार भारत की समेकित निधि से कोई धन व्यय /जमा भारित करने से पूर्व संसद की स्वीकृति जरूरी है
अनु 112 के अनुसार राष्ट्रपति भारत सरकार के वार्षिक वित्तीय लेखा को संसद के सामने रखेगा यह वित्तीय लेखा ही बजट है<br /

बजट

1. अनुमानित आय व्यय जो कि भारत सरकार ने भावी वर्ष मे करना हो
2. यह भावी वर्ष के व्यय के लिये राजस्व उगाहने का वर्णन करता है
3. बजट मे पिछले वर्ष के वास्तविक आय व्यय का विवरण होता है
बजट सामान्यत वित्तमंत्री द्वारा सामान्यतः फरवरी के आखरी दिन लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है उसी समय राज्यसभा मे भी बजट के कागजात रखे जाते है यह एक धन बिल है

कटौती प्रस्ताव

—बजट प्रक्रिया का ही भाग है केवल लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है ये वे उपकरण है जो लोकसभा सदस्य कार्यपालिका पे नियंत्रण हेतु उपयोग लाते है ये अनुदानॉ मे कटौती कर सकते है इसके तीन प्रकार है
1.नीति सबंधी कटौती--- इस प्रस्ताव का ल्क्ष्य लेखानुदान संबंधित नीति की अस्वीकृति है यह इस रूप मे होती है ‘-------‘ मांग को कम कर मात्र 1 रुपया किया जाता है यदि इस प्रस्ताव को पारित कर दिया जाये तो यह सरकार की नीति संबंधी पराजय मानी जाती है उसे तुरंत अपना विश्वास सिद्ध करना होता है
2. किफायती कटौती--- भारत सरकार के व्यय को उससीमा तक कम कर देती है जो संसद के मतानुसार किफायती होगी यह कटौती सरकार की नीतिगत पराजय नहीं मानी जाती है
3. सांकेतिक कटौती--- इन कटौतीयों का ल्क्ष्य संसद सदस्यॉ की विशेष शिकायतें जो भारत सरकार से संबंधित है को निपटाने हेतु प्रयोग होती है जिसके अंतर्गत मांगे गये धन से मात्र 100 रु की कटौती की जाती है यह कटौती भी नीतिगत पराजय नही मानी जाती है

लेखानुदान (वोट ओन अकाउंट)

अनु 116 इस प्रावधान का वर्णन करता है इसके अनुसार लोकसभा वोट ओन अकाउंट नामक तात्कालिक उपाय प्रयोग लाती है इस उपाय द्वारा वह भारत सरकार को भावी वित्तीय वर्ष मे भी तब तक व्यय करने की छूट देती है जब तक बजट पारित नही हो जाता है यह सामान्यत बजट का अंग होता है किंतु यदि मंत्रिपरिषद इसे ही पारित करवाना चाहे तो यही अंतरिम बजट बन जाता है जैसा कि 2004 मे एन.डी.ए. सरकार के अंतिम बजट के समय हुआ था फिर बजट नयी यू.पी.ए सरकार ने पेश किया था
वोट ओन क्रेडिट [प्रत्यानुदान] लोकसभा किसी ऐसे व्यय के लिये धन दे सकती है जिसका वर्णन किसी पैमाने या किसी सेवा मद मे रखा जा सक्ना संभव ना हो मसलन अचानक युद्ध हो जाने पे उस पर व्यय होता है उसे किस शीर्षक के अंतर्गत रखे?यह लोकसभा द्वारा पारित खाली चैक माना जा सकता है आज तक इसे प्रयोग नही किया जा सका है
जिलेटीन प्रयोग—समयाभाव के चलते लोकसभा सभी मंत्रालयों के व्ययानुदानॉ को एक मुश्त पास कर देती है उस पर कोई चर्चा नही करती है यही जिलेटीन प्रयोग है यह संसद के वित्तीय नियंत्रण की दुर्बलता दिखाता है

संसद मे लाये जाने वाले प्रस्ताव

अविश्वास प्रस्ताव

लोकसभा के क्रियांवयन नियमॉ मे इस प्रस्ताव का वर्णन है विपक्ष यह प्रस्ताव लोकसभा मे मंत्रिपरिषद के विरूद्ध लाता है इसे लाने हेतु लोकसभा के 50 सद्स्यॉ का समर्थन जरूरी है यह सरकार के विरूद्ध लगाये जाने वाले आरोपॉ का वर्णन नही करता है केवल यह बताता है कि सदन मंत्रिपरिषद मे विश्वास नही करता है एक बार प्रस्तुत करने पर यह प्रस्ताव् सिवाय धन्यवाद प्रस्ताव के सभी अन्य प्रस्तावॉ पर प्रभावी हो जाता है इस प्रस्ताव हेतु पर्याप्त समय दिया जाता है इस पर् चर्चा करते समय समस्त सरकारी कृत्यॉ नीतियॉ की चर्चा हो सकती है लोकसभा द्वारा प्रस्ताव पारित कर दिये जाने पर मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को त्याग पत्र सौंप देती है संसद के एक सत्र मे एक से अधिक अविश्वास प्रस्ताव नही लाये जा सकते है
विश्वास प्रस्ताव--- लोकसभा नियमॉ मे इस प्रस्ताव का कोई वर्णन नही है यह आवश्यक्तानुसार उत्पन्न हुआ है ताकि मंत्रिपरिषद अपनी सत्ता सिद्ध कर सके यह सदैव मंत्रिपरिषद लाती है इसके गिरजाने पर उसे त्याग पत्र देना पडता है निंदा प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाकर सरकार की किसी विशेष नीति का विरोध/निंदा करता है इसे लाने हेतु कोई पूर्वानुमति जरूरी नही है यदि लोकसभा मे पारित हो जाये तो मंत्रिपरिषद निर्धारित समय मे विश्वास प्रस्ताव लाकर अपने स्थायित्व का परिचय देती है है उसके लिये यह अनिवार्य है कामरोको प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाता है यह एक अद्वितीय प्रस्ताव है जिसमे सदन की समस्त कार्यवाही रोक कर तात्कालीन जन मह्त्व के किसी एक मुद्दे को उठाया जाता है प्रस्ताव पारित होने पर सरकार पे निंदा प्रस्ताव के समान प्रभाव छोडता है

संघीय न्यायपालिका

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति

29 जज तथा 1 मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के प्रावधान का वर्णन संविधान मे है अनु 124[2] के अनुसार् मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय इच्छानुसार राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार सर्वोच्च न्यायालयउच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह लेगा वही अन्य जजॉ की नियुक्ति के समय उसे अनिवार्य रूप से मुख्य न्यायाधीश की सलाह माननी पडेगी
सर्वोच्च न्यायालयएडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद 1993 मे दिये गये निर्णय के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के जजों के तबादले इस प्रकार की प्रक्रिया है जो सर्वाधिक योग्य उपलब्ध व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सके भारत के मुख्य न्यायाधीश का मत प्राथमिकता पायेगा वह एक मात्र अधिकारी होगा उच्च न्यायपालिका मे कोई नियुक्ति बिना उस की सहमति के नहीं होती है संवैधानिक सत्ताओं के संघर्ष के समय भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व करेगा राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश को अपने मत पर फिर से विचार करने को तभी कहेगा जब इस हेतु कोई तार्किक कारण मौजूद होगा पुनः विचार के बाद उसका मत राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होगा यद्यपि अपना मत प्रकट करते समय वह सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठम न्यायधीशों का मत जरूर लेगा पुनःविचार की दशा मे फिर से उसे दो वरिष्ठम न्यायधीशों की राय लेनी होगी वह चाहे तो उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की राय भी ले सकता है लेकिन सभी राय सदैव लिखित में होगी
बाद में अपना मत बदलते हुए न्यायालय ने कम से कम 4 जजों के साथ सलाह करना अनिवार्य कर दिया था वह कोई भी सलाह राष्ट्रपति को अग्रेषित नहीं करेगा यदि दो या ज्यादा जजों की सलाह इस्के विरूद्ध हो किंतु 4 जजों की सलाह उसे अन्य जजों जिनसे वो चाहे सलाह लेने से नहीं रोकेगी

न्यायपालिका के न्यायधीशों की पदच्युति

—इस कोटि के जजॉ के राष्ट्रपति तब पदच्युत करेगा जब संसद के दोणो सदनॉ के कम से कम 2/3 उपस्थित तथा मत देने वाले तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव जो कि सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पे लाया गया हो के द्वारा उसे अधिकार दिया गया हो ये आदेश उसी संसद सत्र मे लाया जायेगा जिस सत्र मे ये प्रस्ताव संसद ने पारित किया हो अनु 124[5] मे वह प्रक्रिया वर्णित है जिस से जज पद्च्युत होते है इस प्रक्रिया के आधार पर संसद ने न्यायधीश अक्षमता अधिनियम 1968 पारित किया था इसके अंतर्गत
1. संसद के किसी भी सदन मे प्रस्ताव लाया जा सकता है लोकस्भा मे 100 राज्यसभा मे 50 सद्स्यॉ का समर्थन अनिवार्य है
2. प्रस्ताव मिलने पे सदन का सभापति एक 3 सद्स्य समिति बनायेगा जो आरोपों की जाँच करेगी समिति का अध्यक्ष सप्रीम कोर्ट का कार्यकारी जज होगा दूसरा सदस्य किसी हाई कोर्ट का मुख्य कार्यकारी जज होगा तीसरा सदस्य माना हुआ विधिवेत्ता होगा इस की जाँच रिपोर्ट सदन के सामने आयेगी यदि इस मे जज को दोषी बताया हो तब भी सदन प्रस्ताव पारित करने को बाध्य नही होता किंतु यदि समिति आरोपों को खारिज कर दे तो सदन प्रस्ताव पारित नही कर सकता है
अभी तक सिर्फ एक बार किसी जज के विरूद्ध जांच की गयी है जज रामास्वामी दोषी सिद्ध हो गये थे किंतु संसद मे आवश्यक बहुमत के अभाव के चलते प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सका था

अभिलेख न्यायालय

अनुच्छेद 129 उच्चतम न्यायालयको तथा अनुच्छेद 215 उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है यह संकल्पना अंग्रेजी विधि से ली गयी है अभिलेख न्यायालय का अर्थ अनु 129 सुप्रीम कोर्ट को तथा अनु 215 उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है यह संकल्पना इंग्लिश विधि से ली गयी है अभिलेख न्यायालय का अर्थ
1. न्यायालय की कार्यवाही तथा निर्णय को दूसरे न्यायालय मे साक्ष्य के रूप मे प्रस्तुत किया जा सकेगा
2. न्यायालय को अधिकार है कि वो अवमानना करने वाले व्यक्ति को दण्ड दे सके यह शक्ति अधीनस्थ न्यायालय को प्राप्त नही है इस शक्ति को नियमित करने हेतु संसद ने न्यायालय अवमानना अधिनियम 1971 पारित किया है अवमानना के दो भेद है सिविल और आपराधिक जब कोई व्यक्ति आदेश निर्देश का पालन न करे या उल्लंघ न करे तो यह सिविल अवमानना है पर्ंतु यदि कोई व्यक्ति न्यायालय को बदनाम करे जजों को बदनाम तथा विवादित बताने का प्रयास करे तो यह आपराधिक अवमानना होगी जिसके लिये कारावास/जुर्माना दोनो देना पडेगा वही सिविल अवमानना मे कारावास सम्भव नहीं है यह शक्ति भारत मे काफी कुख्यात तथा विवादस्पद है

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ

अनु 130 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली मे होगा पर्ंतु यह भारत मे और कही भी मुख्य न्यायाधीश् के निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति की स्वीकृति से सुनवाई कर सकेगा
क्षेत्रीय खंडपीठों का प्रश्न- विधि आयोग अपनी रिपोर्ट के माध्यम से क्षेत्रीय खंडपीठों के गठन की अनुसंशा कर चुका है न्यायालय के वकीलॉ ने भी प्राथर्ना की है कि वह अपनी क्षेत्रीय खंडपीठों का गठन करे ताकि देश के विभिन्न भागॉ मे निवास करने वाले वादियॉ के धन तथा समय दोनॉ की बचत हो सके,किंतु न्यायालय ने इस प्रश्न पे विचार करने के बाद निर्णय दिया है कि पीठॉ के गठन से
1. ये पीठे क्षेत्र के राज नैतिक दबाव मे आ जायेगी
2. इनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट के एकात्मक चरित्र तथा संगठन को हानि पहुँच सकती है
किंतु इसके विरोध मे भी तर्क दिये गये है

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार

जनहित याचिकाएँ

– इस प्रकार की याचिकाओँ का विचार अमेरिका ए जन्मा वहाँ इसे सामाजिक कार्यवाही याचिका कह्ते है यह न्यायपालिका का आविष्कार तथा न्यायधीश निर्मित विधि है
जनहित याचिका भारत मे पी.एन.भगवतीने प्रारंभ की थी ये याचिकाँए जनहित को सुरक्षित तथा बढाना चाहती है ये लोकहित भावना पे कार्य करती है
ये ऐसे न्यायिक उपकरण है जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है इनका ल्क्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना तथा कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कार्य करवाने हेतु किया जाता है
ये समूह हित मे काम आती है ना कि व्यक्ति हित मे यदि इनका दुरूपयोग किया जाये तो याचिकाकर्ता पे जुर्माना तक किया जा सकता है इनको स्वीकारना या ना स्वीकारना न्यायालय पे निर्भर करता है
इनकी स्वीकृति हेतु सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नियम बनाये है
1. लोकहित से प्रेरित कोई भी व्यक्ति,संगठन इन्हे ला सकता है
2. कोर्ट को दिया गया पोस्टकार्ड भी रिट याचिका मान कर ये जारी की जा सकती है
3. कोर्ट को अधिकार होगा कि वह इस याचिका हेतु सामान्य न्यायालय शुल्क भी माफ कर दे
4. ये राज्य के साथ ही निजी संस्थान के विरूद्ध भी लायी जा सकती है
इसके लाभ
1. इस याचिका से जनता मे स्वयं के अधिकारों तथा न्यायपालिका की भूमिका के बारे मे चेतना बढती है यह मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को वृहद बनाती है इसमे व्यक्ति को कई नये अधिकार मिल जाते है
2. यह कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कर्तव्य करने के लिये बाधित करती है ,साथ ही यह भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की सुनिशिचतता करती है
आलोचनाएं 1. ये सामान्य न्यायिक संचालन मे बाधा डालती है
2. इनके दुरूपयोग की प्रवृति परवान पे है
इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने खुद कुछ बन्धन इनके प्रयोग पे लगाये है

न्यायिक सक्रियता

न्यायिक सक्रियता का अर्थ न्यायपालिका द्वारा निभायी जाने वाली वह सक्रिय भूमिका है जिसमे राज्य के अन्य अंगों को उनके संवैधानिक कृत्य करने को बाधय करे यदि वे अंग अपने कृत्य संपादित करने मे सफल रहे तो जनतंत्र तथा विधि शासन के लिये न्यायपालिका उनकी शक्तियों भूमिका का निर्वाह सीमित समय के लिये करेगी यह सक्रियता जनतंत्र की शक्ति तथा जन विश्वास को पुर्नस्थापित करती है
इस तरह यह सक्रियता न्यायपालिका पर एक असंवेदनशील/गैर जिम्मेदार शासन के कृत्यों के कारण लादा गया बोझ है यह सक्रियता न्यायिक प्रयास है जो मजबूरी मे किया गया है यह शक्ति उच्च न्यायालय तथा सुप्रीम कोर्ट के पास ही है ये उनकी पुनरीक्षा तथा रिट क्षेत्राधिकार मे आती है जनहित याचिका को हम न्यायिक सक्रियता का मुख्य माधयम मान सकते है
इसका समर्थन एक सीमित सीमा तक ही किया जा सकता है इसके विरोध के स्वर भी आप कार्य पालिका तथा विधायिका मे सुन सकते है इसके चलते ही हाल ही मे सुप्रीम कोर्ट ने खुद संयम बरतने की बात सवीकारी है तथा कई मामलों मे हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है

संविधान विकास में उच्चतम न्यायालय की भूमिका

एक तरफ यह संविधान का संरक्ष्क अंतिम व्याख्याकर्ता, मौलिक अधिकारों का रक्षक ,केन्द्र-राज्य विवादों मे एक मात्र मध्यस्थ है वहीँ यह संविधान के विकास मे भी भूमिका निभाता रहा है इसने माना है कि निरंतर संवैधानिक विकास होना चाहिए ताकि समाज के हित संवर्धित हो ,न्यायिक पुनरीक्षण शक्ति के कारण यह संवैधानिक विकास मे सहायता करता है सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विकास यह है कि भारत मे संविधान सर्वोच्च है इसने संविधान के मूल ढाँचे का अदभुत सिद्धांत दिया है जिसके चलते संविधान काफी सुरक्षित हो गया है इसे मनमाने ढंग से बदला नही जा सकता ह
ै इसने मौलिक अधिकारों का विस्तार भी किया है इसने अनु 356 के दुरूपयोग को भी रोका है
उच्चतम न्यायालयइस उक्ति का पालन करता है कि संविधान खुद नहीं बोलता है यह अपनी वाणी न्यायपालिका के माध्यम से बोलता है

संविधान भाग 6

पाठ 1 राज्य कार्यपालिका

राज्यपाल
राज्यपाल् कार्यपालिका का प्रमुख होता है वह राज्य मे केन्द्र का प्रतिनिधि होता है तथा राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत ही पद पे बना रहता है वह कभी भी पद से हटाया जा सकता है
उसका पद तथा भूमिका भारतीय राजनीति मे दीर्घ काल से विवाद का कारण रही है जिसके चलते काफी विवाद हुए है सरकारिया आयोगने अपनी रिपोर्ट मे इस तरह की सिफारिश दी थी
1. एक राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह के बाद ही राष्ट्रपति करे
2. वह जीवन के किसी क्षेत्र का महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हो
3. वह राज्य के बाहर का रहने वाला हो
4. वह राजनैतिक रूप से कम से कम पिछले 5 वर्शो से राष्ट्रीय रूप से सक्रिय ना रहा हो तथा नियुक्ति वाले राज्य मे कभी भी सक्रिय ना रहा हो
5. उसे सामान्यत अपने पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने दिया जाये ताकि वह निष्पक्ष रूप से काम कर सके
6. केन्द्र पर सत्तारूढ राजनैतिक गठबन्धन का सद्स्य ऐसे राज्य का राज्यपाल नही बनाया जाये जो विपक्ष द्वारा शासित हो
7. राज्यपाल द्वारा पाक्षिक रिपोर्ट भेजने की प्रथा जारी रहनी चाहिए
8. यदि राज्यपाल राष्ट्रपति को अनु 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा करे तो उसे उन कारणॉ ,स्थितियों का वर्णन रिकार्ड मे रखना चाहिए जिनके आधार पे वह इस निष्क़र्ष पे पहुँचा हो
इसके अलावा राज्यपाल एक संवैधानिक प्रमुख है जो अपने कर्तव्य मंत्रिपरिषद की सलाह सहायता से करता है परंतु उसकी संवैधानिक स्थिति उसकी मंत्रिपरिषद की तुलना मे बहुत सुरक्षित है वह राष्ट्रपति के समान असहाय नहीं है राष्ट्रपति के पास मात्र विवेकाधीन शक्ति ही है जिसके अलावा वह सदैव प्रभाव का ही प्रयोग करता है किंतु संविधान राजयपाल को प्रभाव तथा शक्ति दोनों देता है उसका पद उतना ही शोभात्मक है उतना ही कार्यातमक भी है
राज्यपाल उन सभी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग भी करता है जो राष्ट्रपति को मिलती है इसके अलावा वो इन अतिरिक्त शक्तियों का प्रयोग भी करता है
अनु 166[2] के अंर्तगत यदि कोई प्रशन उठता है कि राजयपाल की शक्ति विवेकाधीन है या नहीं तो उसी का निर्णय अंतिम माना जाता है
अनु 166[3] राज्यपाल इन शक्तियों का प्रयोग उन नियमों के निर्माण हेतु कर सकता है जिनसे राज्यकार्यों को सुगमता पूर्वक संचालन हो साथ ही वह मंत्रियों मे कार्य विभाजन भी कर सकता है
अनु 200 के अधीन राज्यपाल अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग राज्य विधायिका द्वारा पारित बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु सुरक्षित रख सकने मे कर सकता है
अनु 356 के अधीन राज्यपाल राष्ट्रपति को राज के प्रशासन को अधिग्रहित करने हेतु निमंत्रण दे सकता है यदि यह संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकता हो
विशेष विवेकाधीन शक्ति
पंरपरा के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति को भेजी जाने वाली पाक्षिक रिपोर्ट के सम्बन्ध मे निर्णय ले सकता है कुछ राज्यों के राज्यपालों को विशेष उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना होता है विशेष उत्तरदायित्व का अर्थ है कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद से सलाह तो ले किंतु इसे मानने हेतु वह बाध्य ना हो और ना ही उसे सलाह लेने की जरूरत पडती हो

राज्य विधायिका

संविधान मे 6 राज्यों हेतु द्विसदनीय विधायिका का प्रावधान किया गया है
उपरी सदन स्थापना तथा उन्मूलन अनु 169 के अनुसार यह शक्ति केवल संसद को है
ऊपरी सदन का महत्व–यह सदन प्रथम श्रेणी का नही होता यह विधान सभा द्वारा पारित बिल को अस्वीकृत संशोधित नहीं कर सकता है केवल किसी बिल को ज्यादा से ज्यादा 4 मास के लिये रोक सकता है इसके अलावा मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की नियुक्ति हेतु इसका प्रयोग हो सकता है क्योंकि यहाँ मनोनीत सदस्यों की सुविधा भी है
विधायिका की प्रक्रियाएँ तीन प्रकार के बिल धन ,फाइनेंस तथा सामान्य होते है ,धन बिल संसद की तरह ही पास होते है ,फाइनेंस बिल केवल निचले सदन मे ही पेश होते है , सामान्य बिल जो ऊपरी सदन मे पेश होंगे व पारित हो यदि बाद मे निचले सदन मे अस्वीकृत हो जाये तो समाप्त हो जाते है
निचले सदन द्वारा पारित बिल को ऊपरी सदन केवल 3 मास के लिये रोक सकता है उसके बाद वे पारित माने जाते है

राज्य न्यायपालिका

राज्य न्यायपालिका मे तीन प्रकार की पीठें होती है एकल जिसके निर्णय को उच्च न्यायालय की डिवीजनल/खंडपीठ/सर्वोच्च न्यायालयमे चुनौती दी जा सकती है
खंड पीठ 2 या 3 जजों के मेल से बनी होती है जिसके निर्णय केवल उच्चतम न्यायालयमें चुनौती पा सकते हैं
संवैधानिक/फुल बेंच सभी संवैधानिक व्याख्या से संबधित वाद इस प्रकार की पीठ सुनती है इसमे कम से कम पाँच जज होते हैं

अधीनस्थ न्यायालय

इस स्तर पर सिविल आपराधिक मामलों की सुनवाई अलग अलग होती है इस स्तर पर सिविल तथा सेशन कोर्ट अलग अलग होते है इस स्तर के जज सामान्य भर्ती परीक्षा के आधार पर भर्ती होते है उनकी नियुक्ति राज्यपाल राज्य मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर करता है
फास्ट ट्रेक कोर्ट– ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
इसके पीछे कारण यह था कि वाद लम्बा चलने से न्याय की क्षति होती है तथा न्याय की निरोधक शक्ति कम पड जाती है जेल मे भीड बढ जाती है 10 वे वित्त आयोग की सलाह पर केद्र सरकार ने राज्य सरकारों को 1 अप्रेल 2001 से 1734 फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित करने का आदेश दिया अतिरिक्त सेशन जज याँ उंचे पद से सेवानिवृत जज इस प्रकार के कोर्टो मे जज होता है इस प्रकार के कोर्टो मे वाद लंबित करना संभव नहीं होता हैहर वाद को निर्धारित स्मय मे निपटाना होता है
आलोचना 1. निर्धारित संख्या मे गठन नहीं हुआ
2. वादों का निर्णय संक्षिप्त ढँग से होता है जिसमें अभियुक्त को रक्षा करने का पूरा मौका नहीं मिलता है
3. न्यायधीशों हेतु कोई सेवा नियम नहीं है
लोक अदालत -- जनता की अदालतें है ये नियमित कोर्ट से अलग होती है पदेन या सेवानिवृत जज तथा दो सदस्य एक सामाजिक कार्यकता ,एक वकील इसके सद्स्य होते है सुनवाई केवल तभी करती है जब दोनों पक्ष इसकी स्वीकृति देते हो ये बीमा दावों क्षतिपूर्ति के रूप वाले वादों को निपता देती है
इनके पास वैधानिक दर्जा होता है वकील पक्ष नहीं प्रस्तुत करते हैं
इनके लाभ– 1.न्यायालय शुल्क नहीं लगते
2. यहाँ प्रक्रिया संहिता/साक्ष्य एक्ट नहीं लागू होते
3. दोनों पक्ष न्यायधीश से सीधे बात कर समझौते पर पहुचँ जाते है
4. इनके निर्णय के खिलाफ अपील नहीं ला सकते है
आलोचनाएँ 1. ये नियमित अंतराल से काम नहीं करती है
2. जब कभी काम पे आती है तो बिना सुनवाई के बडी मात्रा मे मामले निपटा देती है
3. जनता लोक अदालतों की उपस्थिति तथा लाभों के प्रति जागरूक नहीं है

जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति

संवैधानिक प्रावधान स्वतः जम्मू तथा कश्मीर पे लागू नहीं होते केवल वहीं प्रावधान जिनमे स्पष्ट रूप से कहा जाए कि वे जम्मू कश्मीर पे लागू होते है उस पर लागू होते है
जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति का ज्ञान इन तथ्यों से होता है
1. जम्मू कश्मीर संविधान सभा द्वारा निर्मित राज्य संविधान से वहाँ का कार्य चलता है ये संविधान जम्मू कश्मीर के लोगों को राज्य की नागरिकता भी देता है केवल इस राज्य के नागरिक ही संपत्ति खरीद सकते है या चुनाव लड सकते है या सरकारी सेवा ले सकते है
2. संसद जम्मू कश्मीर से संबंध रखने वाला ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती है जो इसकी राज्य सूची का विषय हो
3. अवशेष शक्ति जम्मू कश्मीर विधान सभा के पास होती है
4. इस राज्य पर सशस्त्र विद्रोह की दशा मे या वित्तीय संकट की दशा मे आपात काल लागू नहीं होता है
5. संसद राज्य का नाम क्षेत्र सीमा बिना राज्य विधायिका की स्वीकृति के नहीं बदलेगीं
6. राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति राज्य मुख्यमंत्री की सलाह के बाद करेगी
7. संसद द्वारा पारित निवारक निरोध नियम राज्य पर अपने आप लागू नहीं होगा
8. राज्य की पृथक दंड संहिता तथा दंड प्रक्रिया संहिता है
९।

केन्द्र राज्य संबंध

विधायिका स्तर पर सम्बन्ध

संविधान की सातंवी अनुसूची विधायिका के विषय़ केन्द्र राज्य के मध्य विभाजित करती है संघ सूची मे महत्वपूर्ण तथा सर्वाधिक विषय़ है
राज्यों पर केन्द्र का विधान संबंधी नियंत्रण
1. अनु 31[1] के अनुसार राज्य विधायिका को अधिकार देता है कि वे निजी संपत्ति जनहित हेतु विधि बना कर ग्रहित कर ले परंतु ऐसी कोई विधि असंवैधानिक/रद्द नहीं की जायेगी यदि यह अनु 14 व अनु 19 का उल्लघंन करे परंतु यह न्यायिक पुनरीक्षण का पात्र होगा किंतु यदि इस विधि को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु रखा गया और उस से स्वीकृति मिली भी हो तो वह न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र नहीं होगा
2. अनु 31[ब] के द्वारा नौवीं अनुसूची भी जोडी गयी है तथा उन सभी अधिनियमों को जो राज्य विधायिका द्वारा पारित हो तथा अनुसूची के अधीन रखें गये हो को भी न्यायिक पुनरीक्षा से छूट मिल जाती है लेकिन यह कार्य संसद की स्वीकृति से होता है
3. अनु 200 राज्य का राज्यपाल धन बिल सहित बिल जिसे राज्य विधायिका ने पास किया हो को राष्ट्रपति की सहमति के लिये आरक्षित कर सकता है
4. अनु 288[2] राज्य विधायिका को करारोपण की शक्ति उन केन्द्रीय अधिकरणों पर नहीं देता जो कि जल संग्रह, विधुत उत्पादन, तथा विधुत उपभोग ,वितरण ,उपभोग, से संबंधित हो ऐसा बिल पहले राष्ट्रपति की स्वीकृति पायेगा
5. अनु 305[ब] के अनुसार राज्य विधायिकाको शक्ति देता है कि वो अंतराज्य व्यापार वाणिज़्य पर युक्ति निर्बधंन लगाये परंतु राज्य विधायिका मे लाया गया बिल केवल राष्ट्रप्ति की अनुशंसा से ही लाया जा सकता है

केन्द्र राज्य प्रशासनिक संबंध


अनु 256के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ इस तरह प्रयोग लायी जाये कि संसद द्वारा पारित विधियों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन विधिंयों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन राज्य कार्यपालिका शक्ति आ गयी है । केन्द्र राज्य को ऐसे निर्देश दे सकता है जो इस संबंध मे आवश्यक हो
अनु 257 ----- कुछ मामलों मे राज्य पर केन्द्र नियंत्रण की बात करता है । राज्य कार्यपालिका शक्ति इस तरह प्रयोग ली जाये कि वह संघ कार्यपालिका से संघर्ष ना करे केन्द्र अनेक क्षेत्रों मे राज्य को उसकी कार्यपालिका शक्ति कैसे प्रयोग करे इस पर निर्देश दे सकता है यदि राज्य निर्देश पालन मे असफल रहा तो राज्य मे राष्ट्रपति शासन तक लाया जा सकता है
अनु 258[2] के अनुसार --- संसद को राज्य प्रशासनिक तंत्र को उस तरह प्रयोग लेने की शक्ति देता है जिनसे संघीय विधि पालित हो केन्द्र को अधिकार है कि वह राज्य मे बिना उसकी मर्जी के सेना, केन्द्रीय सुरक्षा बल तैनात कर सकता है
अखिल भारतीय सेवाएँ भी केन्द्र को राज्य प्रशासन पे नियंत्रण प्राप्त करने मे सहायता देती है अनु 262 संसद को अधिकार देता है कि वह अंतराज्य जल विवाद को सुलझाने हेतु विधि का निर्माण करे संसद ने अंतराज्य जल विवाद तथा बोर्ड एक्ट पारित किये थे
अनु 263 राष्ट्राप्ति को शक्ति देता है कि वह अंतराज्य परिषद स्थापित करे ताकि राज्यों के मध्य उत्पन्न मत विभिन्ंता सुलझा सके

निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली/कार्य

1 निर्वाचन आयोग के पास यह उत्तरदायित्व है कि वह निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,निर्देशन तथा आयोजन करवाये वह राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति ,संसद,राज्यविधानसभा के चुनाव करता है
2 निर्वाचक नामावली तैयार करवाता है
3 राजनैतिक दलॉ का पंजीकरण करता है
4. राजनैतिक दलॉ का राष्ट्रीय ,राज्य स्तर के दलॉ के रूप मे वर्गीकरण ,मान्यता देना, दलॉ-निर्दलीयॉ को चुनाव चिन्ह देना
5. सांसद/विधायक की अयोग्यता[दल बदल को छोडकर]पर राष्ट्रपति/राज्यपाल को सलाह देना
6. गलत निर्वाचन उपायॉ का उपयोग करने वाले व्यक्तियॉ को निर्वाचन के लिये अयोग्य घोषित करना
निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ अनु 324[1] निर्वाचन आयोग को निम्न शक्तियाँ देता है
1. सभी निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,नियंत्रण,आयोजन करवाना
2.सुप्रीम कोर्ट के निर्णयानुसार अनु 324[1] मे निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं हो सकती उसकी शक्तियां केवल उन निर्वाचन संबंधी संवैधानिक उपायों तथा संसद निर्मित निर्वाचन विधि से नियंत्रित होती है निर्वाचन का पर्यवेक्षण ,निर्देशन ,नियंत्रण तथा आयोजन करवाने की शक्ति मे देश मे मुक्त तथा निष्पक्ष चुनाव आयोजित करवाना भी निहित है जहां कही संसद विधि निर्वाचन के संबंध मे मौन है वहां निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिये निर्वाचन आयोग असीमित शक्ति रखता है यधपि प्राकृतिक न्याय, विधि का शासन तथा उसके द्वारा शक्ति का सदुपयोग होना चाहिए
निर्वाचन आयोग विधायिका निर्मित विधि का उल्लघँन नहीं कर सकता है और न ही ये स्वेच्छापूर्ण कार्य कर सकता है उसके निर्णय न्यायिक पुनरीक्षण के पात्र होते है
निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ निर्वाचन विधियों की पूरक है न कि उन पर प्रभावी तथा वैध प्रक्रिया से बनी विधि के विरूद्ध प्रयोग नही की जा सकती है
यह आयोग चुनाव का कार्यक्रम निर्धारित कर सकता है चुनाव चिन्ह आवंटित करने तथा निष्पक्ष चुनाव करवाने के निर्देश देने की शक्ति रखता है
सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी शक्तियों की व्याख्या करते हुए कहा कि वह एकमात्र अधिकरण है जो चुनाव कार्यक्रम निर्धारित करे चुनाव करवाना केवल उसी का कार्य है
जनप्रतिनिधित्व एक्ट 1951 के अनु 14,15 भी राष्ट्रपति,राज्यपाल को निर्वाचन अधिसूचना जारी करने का अधिकार निर्वाचन आयोग की सलाह के अनुरूप ही जारी करने का अधिकार देते है

भारत मे निर्वाचन सुधार

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम संशोधन 1988 से इस प्रकार के संशोधन किये गये हैं.
1. इलैक्ट्रानिक मतदान मशीन का प्रयोग किया जा सकेगा. वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव मे इनका सर्वत्र प्रयोग हुआ
2. राजनैतिक दलों का निर्वाचन आयोग के पास अनिवार्य पंजीकरण करवाना होगा यदि वह चुनाव लडना चाहे तो कोई दल तभी पंजीकृत होगा जब वह संविधान के मौलिक सिद्धांतों के पालन करे तथा उनका समावेश अपने दलीय संविधान मे करे
3. मतदान केन्द्र पर कब्जा, जाली मत

त्रुटियां

परस्पर वीरोधी, मिलकत या संपदा का अधिकार मूल अधिकार रहा । कई साल तक शिक्षा का मूल अधिकार न होकर नीति के निदेशक के कारण भ्रष्टाचार में वृद्धि होती रही ओर गरीब, गरीब होते रहें ।

फेडरेशन तथा कनफेडरेशन का भेद

फेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का औपचारिक संगठन
  2. सम्प्रभु तथा स्वतंत्र परंतु उसके संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र नही होते
  3. संघटक संघ से स्वतंत्र होने की शक्ति नही रखते है
  4. संघ तथा उसके निवासियो के मध्य वैधानिक सम्बन्ध होता है [नागरिकता] नागरिको के अधिकार तथा कर्तव्य होते है

कनफेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का ढीला संघठन [रास्त्र मन्डल ]
  2. संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र होते है परंतु खुद कनफेडरेशन मे ये गुण नही होते है
  3. संघटक स्वतंत्र होने की शक्ति रखते है
  4. निवासी परिसंघ के नागरिक नही होते बल्कि उसके संघट्को के नागरिक होते है

शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत

यह सिद्धांत फ्रेंच दार्शनिक मान्टेस्कयूने दिया था उसके अनुसार राज्य की शक्ति उसके तीन भागो कार्य , विधान, तथा न्यायपालिकाओ मे बांट देनी चाहिये
ये सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है
अमेरिकी सविन्धान पहला ऐसा सविन्धान था जिस मे ये सिद्धांत अपनाया गया था
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत भारतीय सविन्धान मे------सविन्धान मे इसका साफ वर्णन ना होकर सकेत मात्र है इस हेतु सविन्धान मे तीनो अंगो का पृथक वर्णन है संसदीय लोकतंत्र होने के कारण भारत मे कार्यपालिका तथा विधायिका मे पूरा अलगाव नही हो सका है कार्यपालिका[मंत्रीपरिषद] विधायिका मे से ही चुनी जाती है तथा उसके निचले सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती है
अनु 51 के अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को पृथक होना चाहिए इस लिये ही 1973 मे दंड प्रक्रिया सन्हिता पारित की गयी जिस के द्वारा जिला मजिस्टृटो की न्यायिक शक्ति लेकर न्यायिक मजिस्टृटो को दे दी गयी थी

बाहरी कडियाँ

[दिखाएँ]
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम

भारतीय संविधान

$
0
0


मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
भारत
Emblem of India.svg
यह लेख यह श्रेणी के सम्बन्ध में है:

भारत की राजनीति

केन्द्र सरकार
संविधान
कार्यकारिणी
विधायिका
न्यायपालिका
स्थानीय
भारतीय आमचुनाव

अन्य देशप्रवेशद्वार:राजनीति
प्रवेशद्वार:भारत सरकार
भारत, संसदीय प्रणालीकी सरकार वाला एक प्रभुसत्तासम्पन्न, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधानके अनुसार शासित है। भारत का संविधान संविधान सभाद्वारा 26 नवम्बर, 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ। 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवसके रूप में मनाया जाता है।

अनुक्रम

संक्षिप्त परिचय

भारत का संविधान दुनिया का सबसे बडा लिखित संविधान है। इसमें 444 अनुच्छेद,तथा १२ अनुसूचियां हैं। परन्तु इसके निर्माण के समय इसमें केवल ८ अनुसूचियां थीं। संविधान में सरकार के संसदीय स्‍वरूप की व्‍यवस्‍था की गई है जिसकी संरचना कुछ अपवादों के अतिरिक्त संघीय है। केन्‍द्रीय कार्यपालिका का सांविधानिक प्रमुख राष्‍ट्रपतिहै। भारत के संविधान की धारा 79 के अनुसार, केन्‍द्रीय संसदकी परिषद् में राष्‍ट्रपति तथा दो सदन है जिन्‍हें राज्‍यों की परिषद् राज्‍यसभातथा लोगों का सदन लोकसभाके नाम से जाना जाता है। संविधान की धारा 74 (1) में यह व्‍यवस्‍था की गई है कि राष्‍ट्रपति की सहायता करने तथा उसे सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रमुख प्रधान मंत्रीहोगा, राष्‍ट्रपति इस मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार अपने कार्यों का निष्‍पादन करेगा। इस प्रकार वास्‍तविक कार्यकारी शक्ति मंत्रिपरिषद् में निहित है जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है जो वर्तमान में मनमोहन सिंह हैं।
मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोगों के सदन (लोक सभा) के प्रति उत्तरदायी है। प्रत्‍येक राज्‍य में एक विधान सभाहै। जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में एक ऊपरी सदन है जिसे विधान परिषद्कहा जाता है। राज्‍यपालराज्‍य का प्रमुख है। प्रत्‍येक राज्‍य का एक राज्‍यपाल होगा तथा राज्‍य की कार्यकारी शक्ति उसमें विहित होगी। मंत्रिपरिषद्, जिसका प्रमुख मुख्‍य मंत्रीहै, राज्‍यपाल को उसके कार्यकारी कार्यों के निष्‍पादन में सलाह देती है। राज्‍य की मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से राज्‍य की विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है।
संविधान की सातवीं अनुसूची में संसद तथा राज्‍य विधायिकाओं के बीच विधायी शक्तियों का वितरण किया गया है। अवशिष्‍ट शक्तियाँ संसद में विहित हैं। केन्‍द्रीय प्रशासित भू- भागों को संघराज्‍य क्षेत्र कहा जाता है।

अनुसूचियाँ

1. पहली अनुसूची - (अनुच्छेद 1 तथा 4) - राज्य तथा संघ राज्य क्षेत्र का वर्णन ।
2. दूसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 59(3), 65(3), 75(6),97, 125,148(3), 158(3),164(5),186 तथा 221] - मुख्य पदाधिकारियों के वेतन-भत्ते भाग-क-राष्ट्रपति और राज्यपाल के वेतन-भत्ते, भाग-ख- लोकसभा तथा विधानसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, राज्यसभा तथा विधान परिषद् के सभापति तथा उपसभापति के वेतन-भत्ते,भाग-ग- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते, भाग-घ- भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षकके वेतन-भत्ते।
3. तीसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 75(4),99, 124(6),148(2), 164(3),188 और 219] - व्यवस्थापिका के सदस्य, मंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों आदि के लिए शपथ लिए जानेवाले प्रतिज्ञान के प्रारूप दिए हैं।
4. चौथी अनुसूची - [अनुच्छेद 4(1),80(2)] - राज्यसभा में स्थानों का आबंटन राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों से।
5. पाँचवी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(1)] - अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जन-जातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित उपबंध।
6. छठी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(2), 275(1)] - असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के विषय मे उपबंध।
7. सातवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 246] - विषयों के वितरण से संबंधित सूची-1 संघ सूची, सूची-2 राज्य सूची, सूची-3 समवर्ती सूची।
8. आठवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 344(1), 351] - भाषाएँ - 22 भाषाओं का उल्लेख।
9. नवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 31 ख ] - कुछ भुमि सुधार संबंधी अधिनियमों का विधिमान्य करण।
10.दसवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 102(2), 191(2)] - दल परिवर्तन संबंधी उपबंध तथा परिवर्तन के आधार पर अ
११ ग्यारवी अनुसूची - पन्चायती राज से सम्बन्धित
१२ बारह्ववी अनुसूची - यह अनुसूची संविधान मे ७४ वे संवेधानिक संशोंधन द्वारा जोडि गई।

इतिहास

द्वितीय विश्वयुद्धकी समाप्ति के बाद जुलाई १९४५ में ब्रिटेनने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा भारत की संविधान सभा के निर्माण के लिए एक कैबिनेट मिशनभारत भेजा जिसमें ३ मंत्री थे। १५ अगस्त, १९४७ को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभाकी घोषणा हुई और इसने अपना कार्य ९ दिसम्बर १९४६ से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मौलाना अबुल कलाम आजादआदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। इस संविधान सभा ने २ वर्ष, ११ माह, १८ दिन मे कुल १६६ दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। भारत के संविधान के निर्माण में डॉ भीमराव अंबेदकरने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसलिए उन्होंने संविधान का निर्माता कहा जाता है।

भारतीय संविधान की प्रकृति

संविधान प्रारूप समिति तथा सर्वोच्च न्यायालय ने इस को संघात्मक संविधान माना है, परन्तु विद्वानों में मतभेद है । अमेरीकी विद्वान इस को छदम-संघात्मक-संविधान कहते हैं, हालांकि पूर्वी संविधानवेत्ता कहते है कि अमेरिकी संविधान ही एकमात्र संघात्मक संविधान नहीं हो सकता । संविधान का संघात्मक होना उसमें निहित संघात्मक लक्षणों पर निर्भर करता है, किन्तु माननीय सर्वोच्च न्यायालय (पि कन्नादासन वाद) ने इसे पूर्ण संघात्मक माना है ।

आधारभूत विशेषताएं

शक्ति विभाजन -यह भारतीय संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है , राज्य की शक्तियां केंद्रीय तथा राज्य सरकारों मे विभाजित होती है शक्ति विभाजन के चलते द्वेध सत्ता [केन्द्र-राज्य सत्ता ] होती है
दोनों सत्ताएँ एक-दूसरे के अधीन नही होती है, वे संविधान से उत्पन्न तथा नियंत्रित होती है दोनों की सत्ता अपने अपने क्षेत्रो मे पूर्ण होती है
संविधान की सर्वोचता - संविधान के उपबंध संघ तथा राज्य सरकारों पर समान रूप से बाध्यकारी होते है [केन्द्र तथा राज्य शक्ति विभाजित करने वाले अनुच्छेद
1 अनुच्छेद 54,55,73,162,241
2 भाग -5 सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय राज्य तथा केन्द्र के मध्य वैधानिक संबंध
3 अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची
4 राज्यो का संसद मे प्रतिनिधित्व
5 संविधान मे संशोधन की शक्ति अनु 368इन सभी अनुच्छेदो मे संसद अकेले संशोधन नही ला सकती है उसे राज्यो की सहमति भी चाहिए
अन्य अनुच्छेद शक्ति विभाजन से सम्बन्धित नही है
3 लिखित सविन्धान अनिवार्य रूप से लिखित रूप मे होगा क्योंकि उसमे शक्ति विभाजन का स्पषट वर्णन आवश्यक है। अतः संघ मे लिखित संविधान अवश्य होगा
4 सविन्धान की कठोरता इसका अर्थ है सविन्धान संशोधन मे राज्य केन्द्र दोनो भाग लेंगे
5 न्यायालयो की अधिकारिता- इसका अर्थ है कि केन्द्र-राज्य कानून की व्याख्या हेतु एक निष्पक्ष तथा स्वतंत्र सत्ता पर निर्भर करेंगे
विधि द्वारा स्थापित 1.1 न्यायालय ही संघ-राज्य शक्तियो के विभाजन का पर्यवेक्षण करेंगे
1.2 न्यायालय सविन्धान के अंतिम व्याख्याकर्ता होंगे भारत मे यह सत्ता सर्वोच्च न्यायालय के पास है ये पांच शर्ते किसी सविन्धान को संघात्मक बनाने हेतु अनिवार्य है
भारत मे ये पांचों लक्षण सविन्धान मे मौजूद है अत्ः यह संघात्मक है परंतु

भारतीय संविधान मे कुछ विभेदकारी विशेषताए भी है

1 यह संघ राज्यों के परस्पर समझौते से नहीं बना है
2 राज्य अपना पृथक संविधान नही रख सकते है, केवल एक ही संविधान केन्द्र तथा राज्य दोनो पर लागू होता है
3 भारत मे द्वैध नागरिकता नही है। केवल भारतीय नागरिकता है
4 भारतीय संविधान मे आपातकाल लागू करने के उपबन्ध है [352 अनुच्छेद] के लागू होने पर राज्य-केन्द्र शक्ति पृथक्करण समाप्त हो जायेगा तथा वह एकात्मक संविधान बन जायेगा। इस स्थिति मे केन्द्र-राज्यों पर पूर्ण सम्प्रभु हो जाता है
5 राज्यों का नाम, क्षेत्र तथा सीमा केन्द्र कभी भी परिवर्तित कर सकता है [बिना राज्यों की सहमति से] [अनुच्छेद 3] अत: राज्य भारतीय संघ के अनिवार्य घटक नही हैं। केन्द्र संघ को पुर्ननिर्मित कर सकती है
6 संविधान की 7 वींअनुसूची मे तीन सूचियाँ हैं संघीय, राज्य, तथा समवर्ती। इनके विषयों का वितरण केन्द्र के पक्ष मे है
6.1 संघीय सूची मे सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय हैं
6.2 इस सूची पर केवल संसद का अधिकार है
6.3 राज्य सूची के विषय कम महत्वपूर्ण हैं, 5 विशेष परिस्थितियों मे राज्य सूची पर संसद विधि निर्माण कर सकती है किंतु किसी एक भी परिस्थिति मे राज्य केन्द्र हेतु विधि निर्माण नहीं कर सकते
क1 अनु 249—राज्य सभा यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्र हित हेतु यह आवश्यक है [2\3 बहुमत से] किंतु यह बन्धन मात्र 1 वर्ष हेतु लागू होता है
क2 अनु 250— राष्ट्र आपातकाल लागू होने पर संसद को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार स्वत: मिल जाता है
क3 अनु 252—दो या अधिक राज्यों की विधायिका प्रस्ताव पास कर राज्य सभा को यह अधिकार दे सकती है [केवल संबंधित राज्यों पर]
क4 अनु253--- अंतराष्ट्रीय समझौते के अनुपालन के लिए संसद राज्य सूची विषय पर विधि निर्माण कर सकती है
क5 अनु 356—जब किसी राज्य मे राष्ट्रपति शासनलागू होता है, उस स्थिति मे संसद उस राज्य हेतु विधि निर्माण कर सकती है
7 अनुच्छेद 155 – राज्यपालों की नियुक्ति पूर्णत: केन्द्र की इच्छा से होती है इस प्रकार केन्द्र राज्यों पर नियंत्रण रख सकता है
8 अनु 360 – वित्तीय आपातकाल की दशा मे राज्यों के वित्त पर भी केन्द्र का नियंत्रण हो जाता है। इस दशा मे केन्द्र राज्यों को धन व्यय करने हेतु निर्देश दे सकता है
9 प्रशासनिक निर्देश [अनु 256-257] -केन्द्र राज्यों को राज्यों की संचार व्यवस्था किस प्रकार लागू की जाये, के बारे मे निर्देश दे सकता है, ये निर्देश किसी भी समय दिये जा सकते है, राज्य इनका पालन करने हेतु बाध्य है। यदि राज्य इन निर्देशों का पालन न करे तो राज्य मे संवैधानिक तंत्र असफल होने का अनुमान लगाया जा सकता है
10 अनु 312 मे अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान है ये सेवक नियुक्ति, प्रशिक्षण, अनुशासनात्मक क्षेत्रों मे पूर्णत: केन्द्र के अधीन है जबकि ये सेवा राज्यों मे देते है राज्य सरकारों का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है
11 एकीकृत न्यायपालिका
12 राज्यों की कार्यपालिक शक्तियां संघीय कार्यपालिक शक्तियों पर प्रभावी नही हो सकती है।

संविधान की प्रस्तावना

संविधान के उद्देश्यों को प्रकट करने हेतु प्राय: उनसे पहले एक प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व मे सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। प्रस्तावना के माध्यम से भारतीय संविधान का सार, अपेक्षाएँ, उद्देश्य उसका लक्ष्य तथा दर्शन प्रकट होता है। प्रस्तावना यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है इसी कारण यह ‘हम भारत के लोग’ इस वाक्य से प्रारम्भ होती है। केहर सिंह बनाम भारत संघ के वाद मे कहा गया था कि संविधान सभा भारतीय जनता का सीधा प्रतिनिधित्व नही करती अत: संविधान विधि की विशेष अनुकृपा प्राप्त नही कर सकता, परंतु न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए संविधान को सर्वोपरि माना है जिस पर कोई प्रश्न नही उठाया जा सकता है।
संविधान की प्रस्तावना:
" हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद
द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

संविधान के तीन भाग

संविधान के तीन प्रमुख भाग हैं। भाग एक में संघ तथा उसका राज्यक्षेत्रों के विषय में टिप्पणीं की गई है तथा यह बताया गया है कि राज्य क्या हैं और उनके अधिकार क्या हैं। दूसरे भाग में नागरिकता के विषय में बताया गया है कि भारतीय नागरिक कहलाने का अधिकार किन लोगों के पास है और किन लोगों के पास नहीं है। विदेश में रहने वाले कौन लोग भारतीय नागरिक के अधिकार प्राप्त कर सकते हैं और कौन नहीं कर सकते। तीसरे भाग में भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विषय में विस्तार से बताया गया है। • संविधान की प्रस्तावना बाहर सेट मुख्य उद्देश्य है जो संविधान सभा को प्राप्त करने का इरादा है. • 'उद्देश्य' संकल्प पंडित नेहरू द्वारा प्रस्तावित है और संविधान सभा द्वारा पारित, अंततः भारत के संविधान की प्रस्तावना बन गया. • जैसा कि उच्चतम न्यायालयने मनाया है, प्रस्तावना संविधान के निर्माताओं के मन को जानने की कुंजी है. • यह भी भारत के लोगों के आदर्शों और आकांक्षाओं का प्रतीक है. • संविधान (42 वां संशोधन) अधिनियम, 1976 प्रस्तावना में संशोधन और शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और प्रस्तावना के लिए वफ़ादारी जोड़ी. • प्रस्तावना प्रकृति में गैर न्यायोचित है, राज्य के नीति theDirective सिद्धांतों की तरह और कानून की एक अदालत में लागू नहीं किया जा सकता है. यह न तो राज्य के तीन अंगों को मूल शक्ति (निश्चित और वास्तविक शक्ति) प्रदान कर सकते हैं, और न ही संविधान के प्रावधानों के तहत अपनी शक्तियों की सीमा. • संविधान की प्रस्तावना विशिष्ट प्रावधान नहीं ओवरराइड कर सकते हैं. दोनों के बीच किसी भी संघर्ष के मामले में, बाद अभिभावी होगी. तो •, यह एक बहुत ही सीमित भूमिका निभानी है. • उच्चतम न्यायालयने मनाया प्रस्तावना संविधान के प्रावधानों के आसपास अस्पष्टता को दूर करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
प्रस्तावना के प्रयोजन

• प्रस्तावना वाणी है कि यह भारत के लोगों को जो अधिनियमित था अपनाया और खुद को संविधान दिया है. • इस प्रकार, संप्रभुता लोगों के साथ अंत में निहित है. • यह भी लोगों की जरूरत है कि प्राप्त किया जा करने के आदर्शों और आकांक्षाओं को वाणी है. • आदर्शों आकांक्षाओं से अलग कर रहे हैं. जबकि पूर्व हे परमेश्वर के रूप में भारत के संविधान की घोषणा के साथ हासिल किया गया है, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य, बाद न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे, जो अभी तक प्राप्त किया जा शामिल है. आदर्शों आकांक्षाओं को प्राप्त करने का मतलब हैं.
प्रस्तावना

हम, भारत के लोगों, सत्यनिष्ठा से एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य में भारत का गठन करने के लिए और अपने सभी नागरिकों को सुरक्षित हल होने: न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक; सोचा, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता; स्थिति के और अवसर की समानता, और उन सब के बीच बढ़ावा देने व्यक्ति और राष्ट्र की एकता और अखंडता की गरिमा आश्वस्त बिरादरी; हमारी संविधान सभा नवम्बर, 1949 के इस बीस छठे दिन में, एतद्द्वारा, अपनाने करते अधिनियमित और अपने आप को इस संविधान दे.
प्रभु 'संप्रभु' शब्द पर जोर दिया कि भारत के बाहर कोई अधिकार नहीं है जिस पर देश के किसी भी निर्भर रास्ते में है.
समाजवादी 'समाजवादी' शब्द करके, संविधान लोकतांत्रिक साधनों के माध्यम से समाज के समाजवादी पैटर्न की उपलब्धि का मतलब है.
लौकिक • है कि भारत एक 'सेकुलर राज्य' है का मतलब है कि भारत के गैर - धार्मिक या अधार्मिक, या विरोधी धार्मिक नहीं करता, लेकिन बस है कि राज्य में ही धार्मिक और नहीं है "सर्व धर्म Samabhava" प्राचीन भारतीय सिद्धांत निम्नानुसार है. • यह भी मतलब है कि राज्य के नागरिकों के खिलाफ किसी भी तरह से धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा. • राज्य का संबंध धर्म विश्वास करने के लिए सही है या नहीं एक धर्म में विश्वास सहित एक व्यक्ति का निजी मामला हो सकता है. हालांकि, भारत अर्थ है पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्ष नहीं है, अपनी विशिष्ट सामाजिक - सांस्कृतिक वातावरण के कारण.
यह संविधान का एक हिस्सा है? • Kesavananda केरल मामले (1971) की भारती बनाम राज्य में उच्चतम न्यायालयके 1960 के पहले निर्णय खारिज (Berubari मामले) और यह स्पष्ट है कि यह संविधान का एक हिस्सा है और संसद के संशोधन के रूप में सत्ता के अधीन है संविधान के किसी अन्य प्रावधान, संविधान के मूल ढांचे प्रदान के रूप में प्रस्तावना में पाया नष्ट नहीं है. हालांकि, यह संविधान का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं है. • नवीनतम S.R. बोम्मई मामले में, 1993 में तीन सांसद, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी के बारे में, जस्टिस रामास्वामी ने कहा, "संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न हिस्सा है सरकार, संघीय ढांचे की एकता और अखंडता के लोकतांत्रिक रूप. राष्ट्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, सामाजिक न्याय और न्यायिक समीक्षा संविधान के बुनियादी सुविधाओं कर रहे हैं ". • प्रश्न प्रस्तावना जब यह एक बुनियादी सुविधा है संशोधन किया गया था क्यों के रूप में उठता है. 42 संशोधन करके, प्रस्तावना 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' को शामिल करने के लिए संशोधन किया गया था के रूप में यह मान लिया था कि इन संशोधनों को स्पष्ट कर रहे हैं और प्रकृति में योग्यता. वे पहले से ही प्रस्तावना में निहित हैं
लोकतंत्रीय • शब्द का अर्थ है 'डेमोक्रेटिक कि लोगों द्वारा चुने गए शासकों केवल सरकार चलाने का अधिकार है. • भारत 'प्रतिनिधि लोकतंत्र' की एक प्रणाली है, जहां सांसदों और विधायकों को सीधे लोगों द्वारा चुने गए हैं निम्नानुसार है. पंचायतों और नगर पालिकाओं (73 और 74 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992) के माध्यम से जमीनी स्तर पर लोकतंत्र ले • प्रयास किए जा रहे हैं. हालांकि, प्रस्तावना न केवल राजनीतिक, लेकिन यह भी लोकतंत्र सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्रों की परिकल्पना की गई है.
गणतंत्र 'गणतंत्र' शब्द का मतलब है कि वहाँ भारत में कोई वंशानुगत शासक और राज्य के सभी प्राधिकारी हैं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लोगों द्वारा चुने गए मौजूद है.
प्रस्तावना राज्यों है कि प्रत्येक नागरिक उद्देश्यों के लिए सुरक्षित कर रहे हैं 1. न्यायमूर्ति: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक • न्याय के बारे में, एक बात स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के राजनीतिक न्याय के लिए राज्य और अधिक से अधिक कल्याण प्रकृति में उन्मुख बनाने के द्वारा सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने का मतलब हो जाने की उम्मीद है. • भारत में राजनीतिक न्याय सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार द्वारा योग्यता के किसी भी प्रकार के बिना गारंटी है. • जबकि सामाजिक न्याय सम्मान की abolishingjmy Jitle (18 Art.) द्वारा सुनिश्चित किया जाता है और अस्पृश्यता (17 Art.), निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से मुख्य रूप से आर्थिक न्याय की गारंटी है.
2. लिबर्टी: सोचा, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा की • लिबर्टी एक मुक्त समाज का एक अनिवार्य विशेषता है कि एक व्यक्ति के बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक संकायों के पूर्ण विकास में मदद करता है. • भारतीय संविधान छह आर्ट के तहत व्यक्तियों को लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है. 19 और धर्म की कला के तहत स्वतंत्रता का अधिकार. 25-28.
3. की स्थिति, अवसर: समानता • स्वतंत्रता का फल पूरी तरह से जब तक वहाँ स्थिति और अवसर की समानता है महसूस नहीं किया जा सकता है. • हमारा संविधान यह गैरकानूनी बना देता है, धर्म, जाति, लिंग, या सभी के लिए खुला सार्वजनिक स्थानों अस्पृश्यता (17 Art.) को खत्म करने, फेंकने द्वारा और जन्म स्थान (15 Art.) के आधार पर ही राज्य द्वारा किसी भेदभाव सम्मान के खत्म शीर्षक (ArtJ8). • हालांकि, राष्ट्रीय मुख्यधारा में समाज के अब तक उपेक्षित वर्गों को लाने के लिए, संसद अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों (सुरक्षा भेदभाव) के लिए कुछ कानून पारित कर दिया गया है.
4. बिरादरी भाईचारे के रूप में संविधान में निहित भाईचारे की भावना लोगों के सभी वर्गों के बीच प्रचलित मतलब है. यह राज्य धर्मनिरपेक्ष बनाने, समान रूप से सभी वर्गों के लोगों को मौलिक और अन्य अधिकारों की गारंटी, और उनके हितों की रक्षा के द्वारा प्राप्त किया जा मांग की है. हालांकि, बिरादरी एक उभरती प्रक्रिया है और 42 संशोधन द्वारा 'अखंडता' शब्द जोड़ा गया था, इस प्रकार यह एक व्यापक अर्थ दे.

के.एम. मुंशी 'राजनीतिक कुंडली' के रूप में करार दिया. बयाना बार्कर यह संविधान की कुंजी कहता है. ठाकुरदास भार्गव 'संविधान की आत्मा' के रूप में मान्यता दी. शब्द 'समाज के सोशलिस्टिक पैटर्न' अवादी सत्र में 1955 में कांग्रेस द्वारा भारतीय राज्य का एक लक्ष्य के रूप में अपनाया गया था.

संविधान भाग ५ नीति निर्देशक तत्व

भाग 3 तथा 4 मिल कर संविधान की आत्मा तथा चेतना कहलाते हैक्यों कि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए मौलिक अधिकार तथा निति निर्देश देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीति निर्देशक तत्व जनतांत्रिक संवैधानिक विकास के नवीनतम तत्व हैं सर्वप्रथम ये आयरलैंडके संविधान मे लागू किये गये थे। ये वे तत्व है जो संविधान के विकास के साथ ही विकसित हुए है। इन तत्वॉ का कार्य एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। भारतीय संविधान के इस भाग में नीति निर्देशक तत्वों का रूपाकार निश्चित किया गया है, मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व मे भेद बताया गया है और नीति निदेशक तत्वों के महत्व को समझाया गया है।

भाग 4 क मूल कर्तव्य

मूल कर्तव्य मूल सविधान में नहीं थे, इन्हे ४२ वें संविधान संशोधन द्ववारा जोड़ा गया है। ये रूस से प्रेरित होकर जोड़े गये तथा संविधान के भाग ४ (क) के अनुच्छेद ५१ - अ मे रखे गये हैं । ये कुल ११ है ।
51 क. मूल कर्तव्य- भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
(क) संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे ; (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे; (ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे; (घ) देश की रक्षा करे और आह्वान करने किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे; (ङ) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है; (च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उस का परिरक्षण करे; (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे; (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे; (झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे; (ञ) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले; (ट) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।

भाग 5 संघ

पाठ 1 संघीय कार्यपालिका

संघीय कार्यपालिका मे राष्ट्रपति ,उपराष्ट्रपति,मंत्रिपरिषद तथा महान्यायवादी आते है। रामजवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य वाद मे सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका शक्ति को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
  • 1 विधायिका न्यायपालिका के कार्यॉ को पृथक करने के पश्चात सरकार का बचा कार्य ही कार्यपालिका है।
  • 2 कार्यपालिका मॅ देश का प्रशासन, विधियॉ का पालन सरकारी नीति का निर्धारण ,विधेयकॉ की तैयारी करना ,कानून व्यव्स्था बनाये रखना सामाजिक आर्थिक कल्याण को बढावा देना विदेश नीति निर्धारित करना आदि आता है।

राष्ट्रपति

संघ का कार्यपालक अध्यक्ष है संघ के सभी कार्यपालक कार्य उस के नाम से किये जाते है अनु 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति उसमॅ निहित है इन शक्तियॉ/कार्यों का प्रयोग क्रियांवय्न राष्ट्रपति सविन्धान के अनुरूप ही सीधे अथवा अधीनस्थ अधिकारियॉ के माध्यम से करेगा। वह सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी होता है,सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला युद्ध शांति की घोषणा करने वाला होता है वह देश का प्रथम नागरिक है तथा राज्य द्वारा जारी वरीयता क्रम मे उसका सदैव प्रथम स्थान होता है। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है तथा उसकी आयु कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए। राष्ट्रपति का चुनाव, उस पर महाभियोग की अवस्थाएँ, उसकी शक्तियाँ, संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति, राष्ट्रपति की संसदीय शक्ति तथा राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियों का वर्णन इस अध्याय में किया गया है।

उपराष्ट्रपति

उपराष्ट्रपति का राज्य सभा का पदेन सभापति होना--उपराष्ट्रपति, राज्य सभा का पदेन सभापति होगा और अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा: परंतु जिस किसी अवधि के दौरान उपराष्ट्रपति, अनुच्छेद 65 के अधीन राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करता है, उस अवधि के दौरान वह राज्य सभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा और वह अनुच्छेद 97 के अधीन राज्य सभा के सभापति को संदेय वेतन या भत्ते का हकदार नहीं होगा।
65. राष्ट्रपति के पद में आकस्मिक रिक्ति के दौरान या उसकी अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति का राष्ट्रपति के रूप में कार्य करना या उसके कृत्यों का निर्वहन--(1) राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से उसके पद में हुई रिक्ति की दशा में उपराष्ट्रपति उस तारीख तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा जिस तारीख को ऐसी रिक्ति को भरने के लिए इस अध्याय के उपबंधों के अनुसार निर्वाचित नया राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करता है।
(2) जब राष्ट्रपति अनुपस्थिति, बीमारी या अन्य किसी कारण से अपने कृत्यों का निर्वहन करने में असमर्थ है तब उपराष्ट्रपति उस तारीख तक उसके कृत्यों का निर्वहन करेगा जिस तारीख को राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों को फिर से संभालता है।
उपराष्ट्रपति को उस अवधि के दौरान और उस अवधि के संबंध में, जब वह राष्ट्रपति के रूप में इस प्रकार कार्य कर रहा है या उसके कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, राष्ट्रपति की सभी शक्तियाँ और उन्मुक्तियाँ होंगी तथा वह ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का जो संसद, विधि द्वारा, अवधारित करे, और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा।
66. उपराष्ट्रपति का निर्वाचन--(1) उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचकगण के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होगा और ऐसे निर्वाचन में मतदान गुप्त होगा।
(2) उपराष्ट्रपति संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा और यदि संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का कोई सदस्य उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो जाता है तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान उपराष्ट्रपति के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।
(3) कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र तभी होगा जब वह-- (क) भारत का नागरिक है, (ख) पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है, और (ग) राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए अर्हित है।
(4) कोई व्यक्ति, जो भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी के नियंत्रण में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता है, उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र नहीं होगा। स्पष्टीकरण--इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण कोई लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल 2 * * * है अथवा संघ का या किसी राज्य का मंत्री है।
67. उपराष्ट्रपति की पदावधि--(1) उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा: परंतु-- (क) उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; (ख) उपराष्ट्रपति, राज्य सभा के ऐसे संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा जिसे राज्य सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत ने पारित किया है और जिससे लोकसभा सहमत है; किंतु इस खंड के प्रयोजन के लिए कई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो; (ग) उपराष्ट्रपति, अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी, तब तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। 68. उपराष्ट्रपति के पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन करने का समय और आकस्मिक रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति की पदावधि--(1) उपराष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, पदावधि की समाप्ति से पहले ही पूर्ण कर लिया जाएगा। (2) उपराष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से हुई उसके पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, रिक्ति होने के पश्चात्‌ यथाशीघ्र किया जाएगा और रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति, अनुच्छेद 67 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, अपने पद ग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष की पूरी अवधि तक पद धारण करने का हकदार होगा।
69. उपराष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान--प्रत्येक उपराष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने से पहले राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष निम्नलिखित प्ररूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात्‌: -- ईश्वर की शपथ लेता हूँ
मैं, अमुक ---------------------------------कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ, श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूँगा।

मंत्रिपरिषद

संसदीय लोकतंत्र के मह्त्वपूर्ण सिद्धांत 1. राज्य प्रमुख, सरकार प्रमुख न होकर मात्र संवैधानिक प्रमुख ही होता है
2. वास्तविक कार्यपालिका शक्ति, मंत्रिपरिषद जो कि सामूहिक रूप से संसद के निचले सदन के सामने उत्तरदायी होगा के पास होगी
3 मंत्रिपरिषद के सद्स्य संसद के सद्स्यों से लिए जायेंगे

परिषद का गठन

1. प्रधानमंत्री के पद पे आते ही यह परिषद गठित हो जाती है यह आवश्यक नही है कि उसके साथ कुछ अन्य मंत्री भी शपथ ले केवल प्रधानमंत्री ही मंत्रिपरिषद होगा
2 मंत्रिपरिषद की सद्स्य संख्या पर मौलिक संविधान मे कोई रोक नही थी किंतु 91 वे संशोधन के द्वारा मंत्रिपरिषद की संख्या
लोकसभा के सद्स्य संख्या के 15% तक सीमित कर दी गयी वही राज्यों मेभी मंत्रीपरिषद की
संख्या विधानसभा के 15% से अधिक नही होगी पंरंतु न्यूनतम 12 मंत्री होंगे

मंत्रियों की श्रेणियाँ

संविधान मंत्रियों की श्रेणी निर्धारित नही करता यह निर्धारण अंग्रेजी प्रथा के आधार पर किया गया है
कुल तीड़्न प्रकार के मंत्री माने गये है
  • 1. कैबिनेट मंत्री—सर्वाधिक वरिष्ठ मंत्री है उनसे ही कैबिनेट का गठन होता है मंत्रालय मिलने पर वे उसके अध्यक्ष होते है उनकी सहायता हेतु राज्य मंत्री तथा उपमंत्री होते है उन्हें कैबिनेट बैठक मे बैठने का अधिकार होता है अनु 352 उन्हें मान्यता देता है
कृप्या सभी कैबिनेट मंत्रालयों ,राज्य मंत्रालय की सूची पृथक से जोड दे
  • 2. राज्य मंत्रीद्वितीय स्तर के मंत्री होते है सामान्यत उनहे मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार नही मिलता किंतु प्रधानमंत्री चाहे तो यह कर सकता है उन्हें कैबिनेट बैठक मे आने का अधिकार नही होता।
  • 3. उपमंत्रीकनिष्ठतम मंत्री है उनका पद सृजन कैबिनेट या राज्य मंत्री को सहायता देने हेतु किया जाता है वे मंत्रालय या विभाग का स्वतंत्र प्रभार भी नही लेते है।
  • 4. संसदीय सचिवसत्तारूढ दल के संसद सद्स्य होते है इस पद पे नियुक्त होने के पश्चात वे मंत्री गण की संसद तथा इसकी समितियॉ मे कार्य करने मे सहायता देते है वे प्रधान मंत्री की इच्छा से पद ग्रहण करते है वे पद गोपनीयता की शपथ भी प्रधानमंत्री के द्वारा ग्रहण करते है वास्तव मे वे मंत्री परिषद के सद्स्य नही होते है केवल मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है।

मंत्रिमंडल

मंत्रि परिषद एक संयुक्त निकाय है जिसमॆं 1,2,या 3 प्रकार के मंत्री होते है यह बहुत कम मिलता है चर्चा करता है या निर्णय लेता है वहीं मंत्रिमंडल मे मात्र कैबिनेट प्रकार के मंत्री होते है यह समय समय पर मिलती है तथा समस्त महत्वपूर्ण निर्णय लेती है इस के द्वारा स्वीकृत निर्णय अपने आप परिषद द्वारा स्वीकृत निर्णय मान लिये जाते है यही देश का सर्वाधिक मह्त्वपूर्ण निर्णय लेने वाला निकाय है
  • सम्मिलित उत्तरदायित्वअनु 75[3] के अनुसार मंत्रिपरिषद संसद के सामने सम्मिलित रूप से उत्तरदायी है इसका लक्ष्य मंत्रिपरिषद मे संगति लाना है ताकि उसमे आंतरिक रूप से विवाद पैदा ना हो।
  • व्यक्तिगत उत्तरदायित्वअनु 75[2] के अनुसार मंत्री व्यक्तिगत रूप से राष्ट्रपति के सामने उत्तरदायी होते है किंतु यदि प्रधानमंत्री की सलाह ना हो तो राष्ट्रपति मंत्री को पद्च्युत नही कर सकता है।

भारत का महान्यायवादी

भारत का महान्यायवादी संसद के किसी भी सदन का सदस्य न रहते हुए भी संसद की कार्रवाई में भाग ले सकता है ।

प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री की दशा समानों मे प्रधान की तरह है वह कैबिनेट का मुख्य स्तंभ है मंत्री परिषद का मुख्य सद्स्य भी वही है अनु 74 स्पष्ट रूप से मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता तथा संचालन हेतु प्रधानम्ंत्री की उपस्तिथि आवश्यक मानता है उसकी मृत्यु या त्यागपत्र की द्शा मे समस्त परिषद को पद छोडना पडता है वह अकेले ही मंत्री परिषद का गठन करता है राष्ट्रपति मंत्री गण की नियुक्ति उस की सलाह से ही करता है मंत्री गण के विभाग का निर्धारण भी वही करता है कैबिनेट के कार्य का निर्धारण भी वही करता है देश के प्रशासन को निर्देश भी वही देता है सभी नीतिगत निर्णय वही लेता है राष्ट्रपति तथा मंत्री परिषद के मध्य संपर्क सूत्र भी वही है परिषद का प्रधान प्रवक्ता भी वही है परिषद के नाम से लडी जाने वाली संसदीय बहसॉ का नेतृत्व करता है संसद मे परिषद के पक्ष मे लडी जा रही किसी भी बहस मे वह भाग ले सकता है मन्त्री गण के मध्य समन्वय भी वही करता है वह किसी भी मंत्रालय से कोई भी सूचना मंगवा सकता है इन सब कारणॉ के चलते प्रधानम्ंत्री को देश का सबसे मह्त्वपूर्ण राजनैतिक व्यक्तित्व माना जाता है
प्रधानमंत्री सरकार के प्रकार
प्रधानमंत्री सरकार संसदीय सरकार का ही प्रकार है जिसमे प्रधानमंत्री मंत्रि परिषद का नेतृत्व करता है वह कैबिनेट की निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है वह कैबिनेट से अधिक शक्तिशाली है उसके निर्णय ही कैबिनेट के निर्णय है देश की सामान्य नीतियाँ कैबिनेट द्वारा निर्धारित नहीं होती है यह कार्य प्रधानमंत्री अपने निकट सहयोगी चाहे वो मंत्रि परिषद के सद्स्य ना हो की सहायता से करता है जैसे कि इंदिरा गाँधी अपने किचन कैबिनेट की सहायता से करती थी
प्रधानमंत्री सरकार के लाभ
  • 1 तीव्र तथा कठोर निर्णय ले सकती है
  • 2 देश को राजनैतिक स्थाईत्व मिलता है
इससे कुछ हानि भी है
  • 1 कैबिनेट ऐसे निर्णय लेती है जो सत्ता रूढ दल के हित मे हो न कि देश के हित मे
  • 2 इस के द्वारा गैर संवैधानिक शक्ति केन्द्रों का जन्म होता है
कैबिनेट सरकार
संसदीय सरकार का ही प्रकार है इस मे नीति गत निर्णय सामूहिक रूप से कैबिनेट [मंत्रि मंडल ] लेता है इस मे प्रधानमंत्री कैबिनेट पे छा नही जाता है इस के निर्णय सामान्यत संतुलित होते है लेकिन कभी कभी वे इस तरह के होते है जो अस्पष्ट तथा साहसिक नही होते है। 1989 के बाद देश मे प्रधानमंत्री प्रकार का नही बल्कि कैबिनेट प्रकार का शासन रहा है।
प्रधानमन्त्री के कार्य
१- मन्त्रीपरिषद के गठन का कार्य २- प्रमुख शासक ३- नीति निर्माता ४- ससद का नेता ५- विदेश निती का निर्धारक

कार्यकारी सरकार

बहुमत समाप्त हो जाने के बाद जब मंत्रि परिषद त्यागपत्र दे देती है तब कार्यकारी सरकार अस्तित्व मे आती है अथवा प्रधानमंत्री की मृत्यु/ त्यागपत्र की दशा मे यह स्थिति आती है। यह सरकार अंतरिम प्रकृति की होती है यह तब तक स्थापित रहती है जब तक नयी मंत्रिपरिषद शपथ ना ले ले यह इसलिए काम करती है ताकि अनुच्छेद 74 के अनुरूप एक मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति की सहायता हेतु रहे। वी.एन.राव बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालयने माना था कि मंत्रि परिषद सदैव मौजूद रहनी चाहिए यदि यह अनुपस्थित हुई तो राष्ट्रपति अपने काम स्वंय करने लगेगा जिस से सरकार का रूप बदल कर राष्ट्रपति हो जायेगा जो कि संविधान के मूल ढाँचे के खिलाफ होगा। यह कार्यकारी सरकार कोई भी वित्तीय/नीतिगत निर्णय नही ले सकती है क्योंकि उस समय लोक सभा मौजूद नही रहती है वह केवल देश का दैनिक प्रशासन चलाती है। इस प्रकार की सरकार के सामने सबसे विकट स्थिति तब आ गयी थी जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को 1999 मे कारगिल युद्ध का संचालन करना पडा था। किंतु विकट दशा मे इस प्रकार की सरकार भी कोई भी नीति निर्णय ले सकती है।

सुस्थापित परंपराए

एक संसदीय सरकार में ये पंरपराए ऐसी प्रथाएँ मानी जाती है जो सरकार के सभी अंगों पर वैधानिक रूप
से लागू मानी जाती है उनका वर्णन करने के लिये कोई विधान नहीं होता है ना ही संविधान मे किसी देश के शासन के बारे मे पूर्ण वर्णन किया जा सकता है संविधान निर्माता भविष्य मे होने वाले विकास तथा देश के शासन पर उनके प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकते अतः वे उनके संबंध मे संविधान में प्रावधान भी नहीं कर सकते है
इस तरह संविधान एक जीवित शरीर तो है परंतु पूर्ण वर्णन नही है इस वर्णन मे बिना संशोधन लाये परिवर्तन भी नहीं हो सकता है वही पंरपराए संविधान के प्रावधानॉ की तरह वैधानिक नहीं होती वे सरकार के संचालन में स्नेहक का कार्य करते है तथा सरकार का प्रभावी संचालन करने मे सहायक है
पंरपराए इस लिए पालित की जाती है क्योंकि उनके अभाव मे राजनैतिक कठिनाइया आ सकती है इसी कारण उन्हें संविधान का पूरक माना जाता हैब्रिटेन मे हम इनका सबसे विकसित तथा प्रभावशाली रूप देख सकते है
इनके दो प्रकार है प्रथम वे जो संसद तथा मंत्रिपरिषद के मध्य संयोजन का कार्य करती है यथा अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर परिषद का त्यागपत्र दे देना
द्वितीय वे जो विधायिका की कार्यवाहिय़ों से संबंधित है जैसे किसी बिल का तीन बार वाचन संसद के तीन सत्र राष्ट्रपति द्वारा धन बिल को स्वीकृति देना उपस्पीकर का चुनाव विपक्ष से करना जब स्पीकर सत्ता पक्ष से चुना गया हो आदि
सरकार के संसदीय तथा राष्ट्रपति प्रकार
संसदीय शासन के समर्थन मे तर्क
1. राष्ट्रपतीय शासन मे राष्ट्रपति वास्तविक कार्य पालिका होता है जो जनता द्वारा निश्चित समय के लिये चुना जाता है वह विधायिका के प्रति उत्तरदायी भी नेही होता है उसके मंत्री भी विधायिका के सदस्य नही होते है तथा उसी के प्रति उत्ततदायी होंगे न कि विधायिका के प्रति
वही संसदीय शासन मे शक्ति मंत्रि परिषद के पास होती है जो विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है
2. भारत की विविधता को देखते हुए संसदीय शासन ज्यादा उपयोगी है इस मे देश के सभी वर्गों के लोग मंत्रि परिषद मे लिये जा सकते है
3. इस् शासन मे संघर्ष होने [विधायिका तथा मंत्रि परिषद के मध्य] की संभावना कम रहती है क्यॉकि मंत्री विधायिका के सदस्य भी होते है
4 भारत जैसे विविधता पूर्ण देश मे सर्वमान्य रूप से राष्ट्रपति का चुनाव करना लगभग असंभव है
5 मिंटे मार्ले सुधार 1909 के समय से ही संसदीय शासन से भारत के लोग परिचय रखते है ,kfduytjkjoojidsfuhgyuhgihtriijik

भाग पाँच, अध्याय 2, संसद

राज्य सभा

राज्यों को संघीय स्तर पर प्रतिनिधित्व देने वाली सभा है जिसका कार्य संघीय स्तर पर राज्य हितॉ का संरक्षण करना है। इसे संसद का दूसरा सदन कह्ते है इसके सदस्य दो प्रकार से निर्वाचित होते है राज्यॉ से 238 को निर्वाचित करते है तथा राष्ट्रपति द्वारा 12 को मनोनीत करते है। वर्तमान मे यह संख्या क्रमश 233 ,12 है ये सद्स्य 6 वर्ष हेतु चुने जाते है इनका चयन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के द्वारा होता है मत एकल संक्रमणीय प्रणाली से डाले जाते है। मत खुले डाले जाते है.सद्स्य जो निर्वाच्त होना चाहते है देश के किसी भी संसदीय क्षेत्र से एक निर्वाचक के रूप मे पंजीकृत होने चाहिए।

राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ

राज्यसभा के पास तीन विशेष शक्तिया होती है
  1. अनु. 249 के अंतर्गत राज्य सूची के विषय पर 1 वर्ष का बिल बनाने का हक
  2. अनु. 312 के अंतर्गत नवीन अखिल भारतीय सेवा का गठन 2/3 बहुमत से करना
  3. अनु. 67 ब उपराष्ट्रपति को हटाने वाला प्रस्ताव राज्यसभा मे ही लाया जा सकेगा

राज्य सभा का संघीय स्वरूप

  1. राज्य सभा का गठन ही राज्य परिषद के रूप मे संविधान के संघीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व देने के लिये हुआ था
  2. राज्य सभा के सद्स्य मंत्रि परिषद के सदस्य बन सकते है जिससे संघीय स्तर पर निर्णय लेने मे राज्य का प्रतिनिधित्व होगा
  3. राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा महाभियोग तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन मे समान रूप से भाग लेती है
  4. अनु 249,312 भी राज्य सभा के संघीय स्वरूप तथा राज्यॉ के संरक्षक रूप मे उभारते है
  5. सभी संविधान संशोधन बिल भी इस के द्वारा पृथक सभा कर तथा 2/3 बहुमत से पास होंगे
  6. संसद की स्वीकृति चाहने वाले सभी प्रस्ताव जो कि आपातकाल से जुडे हो भी राज्यसभा द्वारा पारित होंगे

राज्य सभा के गैर संघीय तत्व

  1. संघीय क्षेत्रॉ को भी राज्य सभा मे प्रतिनिधित्व मिलता है जिससे इसका स्वरूप गैर संघीय हो जाता है
  2. राज्यॉ का प्रतिनिधित्व राज्यॉ की समानता के आधार पे नही है जैसा कि अमेरिका मे है वहाँ प्रत्येक राज्य को
    सीनेट मे दो स्थान मिलते है किंतु भारत मे स्थानॉ का आवंटन आबादी के आधार पे किया गया है
  3. राज्य सभा मे मनोनीत सद्स्यों का प्रावधान है

राज्य सभा का मह्त्व

  1. किसी भी संघीय शासन मे संघीय विधायिका का ऊपरी भाग संवैधानिक बाध्यता के चलते राज्य हितॉ की संघीय
    स्तर पर रक्षा करने वाला बनाया जाता है इसी सिद्धांत के चलते राज्य सभा का गठन हुआ है ,इसी कारण राज्य सभा को सदनॉ
    की समानता के रूप मे देखा जाता है जिसका गठन ही संसद के द्वितीय सदन के रूप मे हुआ है
  2. यह जनतंत्र की मांग है कि जहाँ लोकसभा सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है विशेष शक्तियॉ का उपभोग करती है
    ,लोकतंत्र के सिद्धांत के अनुरूप मंत्रिपरिषद भी लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होने के लिये बाध्य करते है किंतु ये दो कारण किसी भी प्रकार
    से राज्यसभा का मह्त्व कम नही करते है
  3. राज्यसभा का गठन एक पुनरीक्षण सदन के रूप मे हुआ है जो लोकसभा द्वारा पास किये गये प्रस्तावॉ की पुनरीक्षा करे
    यह मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की कमी भी पूरी कर सकती है क्योंकि कम से कम 12 विशेषज्ञ तो इस मे मनोनीत होते ही है
  4. आपातकाल लगाने वाले सभी प्रस्ताव जो राष्ट्रपति के सामने जाते है राज्य सभा द्वारा भी पास होने चाहिये
  5. राज्य सभा का महत्व यह है कि जहाँ लोकसभा सदैव सरकार से सहमत होती है जबकि राज्यसभा सरकार की नीतिय़ों का निष्पक्ष मूल्याँकन कर सकती है
  6. मात्र नैतिक प्रभाव सरकार पे डालती है किंतु यह लोकस्भा के प्रभाव की तुलना मे ज्यादा होता है

राज्य सभा के पदाधिकारी उनका निर्वाचन ,शक्ति ,कार्य, उत्तरदायित्व तथा पदच्युति

लोकसभा

यह संसद का लोकप्रिय सदन है जिसमे निर्वाचित मनोनीत सद्स्य होते है संविधान के अनुसार लोकसभा का विस्तार राज्यॉ से चुने गये 530, संघ क्षेत्र से चुने गये 20 और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 2 आंग्ल भारतीय सदस्यॉ तक होगा वर्तमान मे राज्यॉ से 530 ,संघ क्षेत्रॉ
से 13 तथा 2 आंग्ल भारतीय सद्स्यॉ से सदन का गठन किया गया है
कुछ स्थान अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति हेतु आरक्षित है
प्रत्येक राज्य को उसकी आबादी के आधार पर सद्स्य मिलते है अगली बार लोकसभा के सदस्यॉ की संख्या वर्ष 2026 मे निर्धारित किया जायेगा वर्तमान मे यह 1971 की जनसंख्या पे आधारित है इससे पहले प्रत्येक दशक की जनगणना के आधार पर सदस्य स्थान निर्धारित होते थे यह कार्य बकायदा 84 वे संविधान संशोधन से किया गया था ताकि राज्य अपनी आबादी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा स्थान प्राप्त करने का प्रयास नही करे
लोकसभा की कार्यावधि 5 वर्ष है पर्ंतु इसे समय से पूर्व भंग किया जा सकता है

लोकसभा की विशेष शक्तियाँ

  1. मंत्री परिषद केवल लोकस्भा के प्रति उत्तरदायी है अविश्वास प्रस्ताव सरकार के विरूद्ध केवल यही लाया जा सकता है
  2. धन बिल पारित करने मे यह निर्णायक सदन है
  3. राष्ट्रीय आपातकाल को जारी रखने वाला प्रस्ताव केवल लोकस्भा मे लाया और पास किया जायेगा

लोकसभा के पदाधिकारी

स्पीकर

लोकसभा का अध्यक्ष होता है इसका चुनाव लोकसभा सदस्य अपने मध्य मे से करते है इसके दो कार्य है
1. लोकसभा की अध्यक्षता करना उस मे अनुसाशन गरिमा तथा प्रतिष्टा बनाये रखना इस कार्य हेतु वह किसी न्यायालय के सामने उत्तरदायी नही होता है
2. वह लोकसभा से संलग्न सचिवालय का प्रशासनिक अध्यक्ष होता है किंतु इस भूमिका के रूप मे वह न्यायालय के समक्ष उत्तरदायी होगा
उसकी विशेष शक्तियाँ
1. दोनो सदनॉ का सम्मिलित सत्र बुलाने पर स्पीकर ही उसका अध्यक्ष होगा उसके अनुउपस्थित होने पर उपस्पीकर तथा उसके भी न होने पर राज्यसभा का उपसभापति अथवा सत्र द्वारा नांमाकित कोई भी सदस्य सत्र का अध्यक्ष होता है
2. धन बिल का निर्धारण स्पीकर करता है यदि धन बिल पे स्पीकर साक्ष्यांकित नही करता तो वह धन बिल ही नही माना जायेगा उसका निर्धारण अंतिम तथा बाध्यकारी होगा
3. सभी संसदीय समितियाँ उसकी अधीनता मे काम करती है उसके किसी समिति का सदस्य चुने जाने पर वह उसका पदेन अध्यक्ष होगा
4. लोकसभा के विघटन होने पर भी उसका प्रतिनिधित्व करने के लिये स्पीकर पद पर कार्य करता रहता है नवीन लोकसभा चुने जाने पर वह अपना पद छोड देता है

स्पीकर प्रोटेम [कार्यवाहक]

जब कोई नवीन लोकसभा चुनी जाती है तब राष्ट्रपति उस सदस्य को कार्यवाहक स्पीकर नियुक्त करता है जिसको संसद मे सदस्य होने का सबसे लंबा अनुभव होता है वह राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करता है
उसके दो कार्य होते है
1. संसद सदस्यॉ को शपथ दिलवाना
2. नवीन स्पीकर चुनाव प्रक्रिया का अध्यक्ष भी वही बनता है

उपस्पीकर

विधायिका[संसद - राज्य विधायिका] मे बहुमत के प्रकार

1. सामान्य बहुमत– उपस्थित सदस्यॉ तथा मतदान करने वालॉ के 50% से अधिक सदस्य ही सामान्य बहुमत है इस बहुमत का सदन की कुल सदस्य संख्या से कोई संबंध नही होता है
भारतीय संविधान के अनुसार अविश्वास प्रस्ताव, विश्वास प्रस्ताव, कामरोको प्रस्ताव, सभापति ,उपसभापति तथा अध्यक्षॉ के चुनाव हेतु सदन के यदि संविधान संशोधन का प्रस्ताव राज्य विधायिकाओं को भेजना हो ,सामान्य बिल , धन बिल, राष्ट्रपति शासन ,वित्तीय आपातकाललगाने हेतु सामान्य बहुमत को मान्यता प्राप्त है यदि बहुमत के प्रकार का निर्देश न होने पर उसे सदैव सामान्य बहुमत समझा जाता है
2. पूर्ण बहुमत– सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ का बहुमत [खाली सीटे भी गिनी जाती है] लोकसभा मे 273, राज्यसभा मे 123 सदस्यॉ का समर्थन . इसका राजनैतिक मह्त्व है न कि वैधानिक महत्व
3. प्रभावी बहुमत- मतदान के समय उपस्थित सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ [खाली सीटॉ को छोडकर] यह तब प्रयोग आती है जब लोक सभा अध्यक्ष उपाध्यक्ष या राज्यसभा के उपसभापति को पद से हटाना हो या जब राज्यसभा उपराष्ट्रपति को पद से हटाने हेतु मतदान करे
4.विशेष बहुमत– प्रथम तीनो प्रकार के बहुमतॉ से भिन्न होता है इसके तीन प्रकार है
[क] अनु 249 के अनुसार- उपस्थित तथा मतदान देने वालॉ के 2/3 संख्या को विशेष बहुमत कहा गया है
[ख] अनु 368 के अनुसार– संशोधन बिल सदन के उपस्थित तथा सदन मे मत देने वालो के 2/3 संख्या जो कि सदन के कुल सदस्य संख्या का भी बहुमत हो [लोकसभा मे 273 सदस्य]इस बहुमत से संविधान संशोधन ,न्यायधीशॉ को पद से हटाना तथा राष्ट्रीय आपातकाल लगाना ,राज्य विधान सभा द्वारा विधान परिषद की स्थापना अथवा विच्छेदन की मांंग के प्रस्ताव पारित किये जाते है
[ग] अनु 61 के अनुसार– केवल राष्ट्रपति के महाभियोग हेतु सदन के कुल संख्या का कम से कम 2/3 [लोकसभा मे 364 सदस्य होने पर]

लोकसभा के सत्र

– अनु 85 के अनुसार संसद सदैव इस तरह से आयोजित की जाती रहेगी कि संसद के दो सत्रॉ के मध्य 6 मास
से अधिक अंतर ना हो पंरपरानुसार संसद के तीन नियमित सत्रॉ तथा विशेष सत्रों मे आयोजित की जाती है
सत्रॉ का आयोजन राष्ट्रपति की विज्ञप्ति से होता है
1. बजट सत्र वर्ष का पहला सत्र होता है सामान्यत फरवरी मई के मध्य चलता है यह सबसे लंबा तथा महत्वपूर्ण सत्र माना जाता है इसी सत्र मे बजट प्रस्तावित तथा पारित होता है सत्र के प्रांरभ मे राष्ट्रपति का अभिभाषण होता है
2. मानसून सत्र जुलाई अगस्त के मध्य होता है
3. शरद सत्र नवम्बर दिसम्बर के मध्य होता है सबसे कम समयावधि का सत्र होता है
विशेष सत्र – इस के दो भेद है 1. संसद के विशेष सत्र.
2. लोकसभा के विशेष सत्र
संसद के विशेष सत्र – मंत्रि परिषद की सलाह पर राष्ट्रपति इनका आयोजन करता है ये किसी नियमित सत्र के मध्य अथवा उससे पृथक आयोजित किये जाते है
एक विशेष सत्र मे कोई विशेष कार्य चर्चित तथा पारित किया जाता है यदि सदन चाहे भी तो अन्य कार्य नही कर सकता है
लोकसभा का विशेष सत्र– अनु 352 मे इसका वर्णन है किंतु इसे 44 वें संशोधन 1978 से स्थापित किया गया है यदि
लोकसभा के कम से कम 1/10 सद्स्य एक प्रस्ताव लाते है जिसमे राष्ट्रीय आपातकाल को जारी न रखने
की बात कही गयी है तो नोटिस देने के 14 दिन के भीतर सत्र बुलाया जायेगा
सत्रावसान– मंत्रिपरिषद की सलाह पे सदनॉ का सत्रावसान राष्ट्रपति करता है इसमे संसद का एक सत्र समाप्त
हो जाता है तथा संसद दुबारा तभी सत्र कर सकती है जब राष्ट्रपति सत्रांरभ का सम्मन जारी कर दे सत्रावसान की दशा मे संसद के
समक्ष लम्बित कार्य समाप्त नही हो जाते है
स्थगन– किसी सदन के सभापति द्वारा सत्र के मध्य एक लघुवधि का अन्तराल लाया जाता है इस से
सत्र समाप्त नही हो जाता ना उसके समक्ष लम्बित कार्य समाप्त हो जाते है यह दो प्रकार का होता है
1. अनिश्चित कालीन 2. जब अगली मीटिग का समय दे दिया जाता है
लोकसभा का विघटन— राष्ट्रपति द्वारा मंत्रि परिष्द की सलाह पर किया है इससे लोकसभा का जीवन समाप्त हो जाता है इसके बाद आमचुनाव ही होते है विघटन के बाद सभी लंबित कार्य जो लोकसभा के समक्ष होते है समाप्त हो जाते है किंतु बिल जो राज्यसभा मे लाये गये हो और वही लंबित होते है समाप्त न्ही होते या या बिल जो राष्ट्रपति के सामने विचाराधीन हो वे भी समापत नही होते है या राष्ट्रपति संसद के दोनॉ सदनॉ की लोकसभा विघटन से पूर्व संयुक्त बैठक बुला ले

विधायिका संबंधी कार्यवाही

/प्रक्रियाबिल/विधेयक के प्रकार कुल 4 प्रकार होते है
1.

सामान्य बिल

– इसकी 6 विशेषताएँ है
1. परिभाषित हो
2. राष्ट्रपति की अनुमति हो
3. बिल कहाँ प्रस्तावित हो
4. सदन की विशेष शक्तियॉ मे आता हो
5.कितना बहुमत चाहिए
6. गतिवरोध पैदा होना
यह वह विधेयक होता है जो संविधान संशोधन धन या वित्त विधेयक नही है यह संसद के किसी भी सदन मे लाया जा सकता है यदि अनुच्छेद 3 से जुडा ना हो तो इसको राष्ट्रप्ति की अनुंशसा भी नही चाहिए
इस बिल को पारित करने मे दोनो सदनॉ की विधायी शक्तिय़ाँ बराबर होती है इसे पारित करने मे सामान्य बहुमत
चाहिए एक सदन द्वारा अस्वीकृत कर देने पे यदि गतिवरोध पैदा हो जाये तो राष्ट्रपति दोनो सद्नॉ की संयुक्त बैठक मंत्रि परिषद की
सलाह पर बुला लेता है
राष्ट्रपति के समक्ष यह विधेयक आने पर वह इस को संसद को वापस भेज सकता है या स्वीकृति दे सकता है या अनिस्चित काल हेतु रोक सकता है

धन बिल

विधेयक जो पूर्णतः एक या अधिक मामलॉ जिनका वर्णन अनुच्छेद 110 मे किया गया हो से जुडा हो धन बिल कहलाता है ये मामलें है
1. किसी कर को लगाना,हटाना, नियमन
2. धन उधार लेना या कोई वित्तेय जिम्मेदारी जो भारत सरकार ले
3. भारत की आपात/संचित निधि से धन की निकासी/जमा करना
4.संचित निधि की धन मात्रा का निर्धारण
5. ऐसे व्यय जिन्हें भारत की संचित निधि पे भारित घोषित करना हो
6. संचित निधि मे धन निकालने की स्वीकृति लेना
7. ऐसा कोई मामला लेना जो इस सबसे भिन्न हो
धन बिल केवल लोकसभा मे प्रस्तावित किए जा सकते है इसे लाने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति आवशय्क है इन्हें पास करने के लिये सदन का सामान्य बहुमत आवश्यक होता है
धन बिल मे ना तो राज्य सभा संशोधन कर सकती है न अस्वीकार
जब कोई धन बिल लोकसभा पारित करती है तो स्पीकर के प्रमाणन के साथ यह बिल राज्यसभा मे ले जाया जाता है राज्यसभा इस
बिल को पारित कर सकती है या 14 दिन के लिये रोक सकती है किंतु उस के बाद यह बिल दोनॉ
सदनॉ द्वारा पारित माना जायेगा राज्य सभा द्वारा सुझाया कोई भी संशोधन लोक सभा की इच्छा पे निर्भर करेगा कि वो स्वीकार करे
या ना करे जब इस बिल को राष्ट्रपति के पास भेजा जायेगा तो वह सदैव इसे स्वीकृति दे देगा
फायनेसियल बिलवह विधेयक जो एक या अधिक मनीबिल प्रावधानॉ से पृथक हो तथा गैर मनी मामलॉ से भी संबधित हो एक फाइनेंस विधेयक मे धन प्रावधानॉ के साथ साथ सामान्य विधायन से जुडे मामले भी होते है इस प्रकार के विधेयक को पारित करने की शक्ति दोनो सदनॉ मे समान होती

संविधान संशोधन विधेयक

अनु 368 के अंतर्गत प्रस्तावित बिल जो कि संविधान के एक या अधिक प्रस्तावॉ को संशोधित करना चाहता है संशोधन बिल कहलाता है यह किसी भी संसद सदन मे बिना राष्ट्रपति की स्वीकृति के लाया जा सकता है इस विधेयक को सदन द्वारा कुल उपस्थित सदस्यॉ की 2/3 संख्या तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा ही पास किया जायेगा दूसरा सदन भी इसे इसी प्रकार पारित करेगा किंतु इस विधेयक को सदनॉ के पृथक सम्मेलन मे पारित किया जायेगा गतिरोध आने की दशा मे जैसा कि सामान्य विधेयक की स्थिति मे होता है सदनॉ की संयुक्त बैठक नही बुलायी जायेगी 24 वे संविधान संशोधन 1971 के बाद से यह अनिवार्य कर दिया गया है कि राष्ट्रपति इस बिल को अपनी स्वीकृति दे ही दे

विधेयक पारित करने मे आया गतिरोध

जब संसद के दोनॉ सदनॉ के मध्य बिल को पास करने से संबंधित विवाद हो या जब एक सदन द्वारा पारित बिल को दूसरा अस्वीकृत कर दे या इस तरह के संशोधन कर दे जिसे मूल सदन अस्वीकर कर दे या इसे 6 मास तक रोके रखे तब सदनॉ के मध्य गतिवरोध की स्थिति जन्म लेती है अनु 108 के अनुसार राष्ट्रपति इस दशा मे दोनॉ सदनॉ की संयुक्त बैठक बुला लेगा जिसमे सामान्य बहुमत से फैसला हो जायेगा अब तक मात्र तीन अवसरॉ पे इस प्रकार की बैठक बुलायी गयी है
1. दहेज निषेध एक्ट 1961
2.बैंकिग सेवा नियोजन संशोधन एक्ट 1978
3.पोटा एक्ट 2002
संशोधन के विरूद्ध सुरक्षा उपाय 1. न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र है
2.संविधान के मूल ढांचे के विरूद्ध न हो
3. संसद की संशोधन शक्ति के भीतर आता हो
4. संविधान की सर्वोच्चता, विधि का शासन तीनॉ अंगो का संतुलन बना रहे
5. संघ के ढाँचे से जुडा होने पर आधे राज्यॉ की विधायिका से स्वीकृति मिले
6. गठबंधन राजनीति भी संविधान संशोधन के विरूद्ध प्रभावी सुरक्षा उपाय देती है क्योंकि एकदलीय पूर्ण बहुमत के दिन समाप्त हो चुके

अध्यादेश जारी करना

अनु 123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है यह तब जारी होगा जब राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाये कि परिस्थितियाँ ऐसी हो कि तुरंत कार्यवाही करने की जरूरत है तथा संसद का 1 या दोनॉ सदन सत्र मे नही है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है यह अध्यादेश संसद के पुनसत्र के 6 सप्ताह के भीतर अपना प्रभाव खो देगा यधपि दोनो सदनॉ द्वारा स्वीकृति देने पर यह जारी रहेगा यह शक्ति भी न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण की पात्र है किंतु शक्ति के गलत प्रयोग या दुर्भावना को सिद्ध करने का कार्य उस व्यक्ति पे होगा जो इसे चुनौती दे अध्यादेश जारी करने हेतु संसद का सत्रावसान करना भी उचित हो सकता है क्यॉकि अध्यादेश की जरूरत तुरंत हो सकती है जबकि संसद कोई भी अधिनियम पारित करने मे समय लेती है अध्यादेश को हम अस्थाई विधि मान सकते है यह राष्ट्रपति की विधायिका शक्ति के अन्दर आता है न कि कार्यपालिका वैसे ये कार्य भी वह मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है यदि कभी संसद किसी अध्यादेश को अस्वीकार दे तो वह नष्ट भले ही हो जाये किंतु उसके अंतर्गत किये गये कार्य अवैधानिक नही हो जाते है राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति पे नियंत्रण
1. प्रत्येक जारी किया हुआ अध्यादेश संसद के दोनो सदनो द्वारा उनके सत्र शुरु होने के 6 हफ्ते के भीतर स्वीकृत करवाना होगा इस प्रकार कोई अध्यादेश संसद की स्वीकृति के बिना 6 मास + 6 सप्ताह से अधिक नही चल सकता है
2. लोकसभा एक अध्यादेश को अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव 6 सप्ताह की अवधि समाप्त होने से पूर्व पास कर सकती है
3. राष्ट्रपति का अध्यादेश न्यायिक समीक्षा का विषय़ हो सकता है

संसद मे राष्ट्रपति का अभिभाषण

यह सदैव मंत्रिपरिषद तैयार करती है यह सिवाय सरकारी नीतियॉ की घोषणा के कुछ नही होता है सत्र के अंत मे इस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाता है यदि लोकसभा मे यह प्रस्ताव पारित नही हो पाता है तो यह सरकार की नीतिगत पराजय मानी जाती है तथा सरकार को तुरंत अपना बहुमत सिद्ध करना पडता है संसद के प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र मे तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत पश्चात दोनॉ सदनॉ की सम्मिलित बैठक को राष्ट्रपति संबोधित करता है यह संबोधन वर्ष के प्रथम सत्र का परिचायक है इन सयुंक्त बैठकॉ का सभापति खुद राष्ट्रपति होता है
अभिभाषण मे सरकार की उपलब्धियॉ तथा नीतियॉ का वर्णन तथा समीक्षा होती है[जो पिछले वर्ष मे हुई थी] आतंरिक समस्याओं से जुडी नीतियाँ भी इसी मे घोषित होती है प्रस्तावित विधायिका कार्यवाहिया जो कि संसद के सामने उस वर्ष के सत्रॉ मे लानी हो का वर्णन भी अभिभाषण मे होता है अभिभाषण के बाद दोनो सद्न पृथक बैठक करके उस पर चर्चा करते है जिसे पर्यापत समय दिया जाता है

संचित निधि

– संविधान के अनु 266 के तहत स्थापित है यह ऐसी निधि है जिस मे समस्त एकत्र कर/राजस्व जमा,लिये गये ऋण जमा किये जाते है यह भारत की सर्वाधिक बडी निधि है जो कि संसद के अधीन रखी गयी है कोई भी धन इसमे बिना संसद की पूर्व स्वीकृति के निकाला/जमा या भारित नहीं किया जा सकता है अनु 266 प्रत्येक राज्य की समेकित निधि का वर्णन भी करता हैsanchit nidhi se koi bhi bina rastrapati k anumati ke tatha sansad k anumati k rashi nahi nikal sakta hai.

भारत की लोक निधि

--- अनु 266 इसका वर्णन भी करता है वह धन जिसे भारत सरकार कर एकत्रीकरण प्राप्त आय उगाहे गये ऋण के अलावा एकत्र करे भारत की लोकनिधि कहलाती है कर्मचारी भविष्य़ निधि को भारत की लोकनिधि मे जमा किया गया है यह कार्यपालिका के अधीन निधि है इससे व्यय धन महालेखानियंत्रक द्वारा जाँचा जाता है अनु 266 राज्यॉ की लोकनिधि का भी वर्णन करता है

भारत की आपातकाल निधि

--- अनु 267 संसद को निधि जो कि आपातकाल मे प्रयोग की जा सकती हो स्थापित करने का अधिकार देता है यह निधि राष्ट्रपति के अधीन है इससे खर्च धन राष्ट्रपति की स्वीकृति से होता है परंतु संसद के समक्ष इसकी स्वीकृति ली जाती है यदि संसद स्वीकृति दे देती है तो व्यय धन के बराबर धन भारत की संचित निधि से निकाल कर इसमे डाल दिया जाता है अनु 267 राज्यॉ को अपनी अपनी आपातकाल निधि स्थापित करने का अधिकार भी देता है

भारित व्यय

--- वे व्यय जो कि भारत की संचित निधि पर बिना संसदीय स्वीकृति के भारित होते है ये व्यय या तो संविधान द्वारा स्वीकृत होते है या संसद विधि बना कर डाल देती है कुछ संवैधानिक पदॉ की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिये यह व्यय प्रयोग लाये गये है अनु 112[3] मे कुछ भारित व्ययॉ की सूची है
1. राष्ट्रपति के वेतन,भत्ते,कार्यालय से जुडा व्यय है
2. राज्यसभा लोकसभा के सभापतियॉ उपसभापतियॉ के वेतन भत्ते
3.ऋण भार जिनके लिये भारत सरकार उत्तरदायी है [ब्याज सहित]
4.सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के वेतन भत्ते पेंशन तथा उच्च न्यायालय की पेंशने इस पर भारित है
5. महालेखानियंत्रक तथा परीक्षक [केग] के वेतन भत्ते
6. किसी न्यायिक अवार्ड/डिक्री/निर्णय के लिये आवशयक धन जो न्यायालय/ट्रिब्न्यूल द्वारा पारित हो
7. संसद द्वारा विधि बना कर किसी भी व्यय को भारित व्यय कहा जा सकता है
अभी तक संसद ने निर्वाचन आयुक्तॉ के वेतन भत्ते पेंशन ,केन्द्रीय सर्तकता आयोगसदस्यॉ के वेतन भत्ते पेंशन भी इस पर भारित किये है

वित्त व्यवस्था पर संसद का नियंत्रण

अनु 265 के अनुसार कोई भी कर कार्यपालिका द्वारा बिना विधि के अधिकार के न तो आरोपित किया जायेगा और न ही वसूला जायेगा अनु 266 के अनुसार भारत की समेकित निधि से कोई धन व्यय /जमा भारित करने से पूर्व संसद की स्वीकृति जरूरी है
अनु 112 के अनुसार राष्ट्रपति भारत सरकार के वार्षिक वित्तीय लेखा को संसद के सामने रखेगा यह वित्तीय लेखा ही बजट है<br /

बजट

1. अनुमानित आय व्यय जो कि भारत सरकार ने भावी वर्ष मे करना हो
2. यह भावी वर्ष के व्यय के लिये राजस्व उगाहने का वर्णन करता है
3. बजट मे पिछले वर्ष के वास्तविक आय व्यय का विवरण होता है
बजट सामान्यत वित्तमंत्री द्वारा सामान्यतः फरवरी के आखरी दिन लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है उसी समय राज्यसभा मे भी बजट के कागजात रखे जाते है यह एक धन बिल है

कटौती प्रस्ताव

—बजट प्रक्रिया का ही भाग है केवल लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है ये वे उपकरण है जो लोकसभा सदस्य कार्यपालिका पे नियंत्रण हेतु उपयोग लाते है ये अनुदानॉ मे कटौती कर सकते है इसके तीन प्रकार है
1.नीति सबंधी कटौती--- इस प्रस्ताव का ल्क्ष्य लेखानुदान संबंधित नीति की अस्वीकृति है यह इस रूप मे होती है ‘-------‘ मांग को कम कर मात्र 1 रुपया किया जाता है यदि इस प्रस्ताव को पारित कर दिया जाये तो यह सरकार की नीति संबंधी पराजय मानी जाती है उसे तुरंत अपना विश्वास सिद्ध करना होता है
2. किफायती कटौती--- भारत सरकार के व्यय को उससीमा तक कम कर देती है जो संसद के मतानुसार किफायती होगी यह कटौती सरकार की नीतिगत पराजय नहीं मानी जाती है
3. सांकेतिक कटौती--- इन कटौतीयों का ल्क्ष्य संसद सदस्यॉ की विशेष शिकायतें जो भारत सरकार से संबंधित है को निपटाने हेतु प्रयोग होती है जिसके अंतर्गत मांगे गये धन से मात्र 100 रु की कटौती की जाती है यह कटौती भी नीतिगत पराजय नही मानी जाती है

लेखानुदान (वोट ओन अकाउंट)

अनु 116 इस प्रावधान का वर्णन करता है इसके अनुसार लोकसभा वोट ओन अकाउंट नामक तात्कालिक उपाय प्रयोग लाती है इस उपाय द्वारा वह भारत सरकार को भावी वित्तीय वर्ष मे भी तब तक व्यय करने की छूट देती है जब तक बजट पारित नही हो जाता है यह सामान्यत बजट का अंग होता है किंतु यदि मंत्रिपरिषद इसे ही पारित करवाना चाहे तो यही अंतरिम बजट बन जाता है जैसा कि 2004 मे एन.डी.ए. सरकार के अंतिम बजट के समय हुआ था फिर बजट नयी यू.पी.ए सरकार ने पेश किया था
वोट ओन क्रेडिट [प्रत्यानुदान] लोकसभा किसी ऐसे व्यय के लिये धन दे सकती है जिसका वर्णन किसी पैमाने या किसी सेवा मद मे रखा जा सक्ना संभव ना हो मसलन अचानक युद्ध हो जाने पे उस पर व्यय होता है उसे किस शीर्षक के अंतर्गत रखे?यह लोकसभा द्वारा पारित खाली चैक माना जा सकता है आज तक इसे प्रयोग नही किया जा सका है
जिलेटीन प्रयोग—समयाभाव के चलते लोकसभा सभी मंत्रालयों के व्ययानुदानॉ को एक मुश्त पास कर देती है उस पर कोई चर्चा नही करती है यही जिलेटीन प्रयोग है यह संसद के वित्तीय नियंत्रण की दुर्बलता दिखाता है

संसद मे लाये जाने वाले प्रस्ताव

अविश्वास प्रस्ताव

लोकसभा के क्रियांवयन नियमॉ मे इस प्रस्ताव का वर्णन है विपक्ष यह प्रस्ताव लोकसभा मे मंत्रिपरिषद के विरूद्ध लाता है इसे लाने हेतु लोकसभा के 50 सद्स्यॉ का समर्थन जरूरी है यह सरकार के विरूद्ध लगाये जाने वाले आरोपॉ का वर्णन नही करता है केवल यह बताता है कि सदन मंत्रिपरिषद मे विश्वास नही करता है एक बार प्रस्तुत करने पर यह प्रस्ताव् सिवाय धन्यवाद प्रस्ताव के सभी अन्य प्रस्तावॉ पर प्रभावी हो जाता है इस प्रस्ताव हेतु पर्याप्त समय दिया जाता है इस पर् चर्चा करते समय समस्त सरकारी कृत्यॉ नीतियॉ की चर्चा हो सकती है लोकसभा द्वारा प्रस्ताव पारित कर दिये जाने पर मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को त्याग पत्र सौंप देती है संसद के एक सत्र मे एक से अधिक अविश्वास प्रस्ताव नही लाये जा सकते है
विश्वास प्रस्ताव--- लोकसभा नियमॉ मे इस प्रस्ताव का कोई वर्णन नही है यह आवश्यक्तानुसार उत्पन्न हुआ है ताकि मंत्रिपरिषद अपनी सत्ता सिद्ध कर सके यह सदैव मंत्रिपरिषद लाती है इसके गिरजाने पर उसे त्याग पत्र देना पडता है निंदा प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाकर सरकार की किसी विशेष नीति का विरोध/निंदा करता है इसे लाने हेतु कोई पूर्वानुमति जरूरी नही है यदि लोकसभा मे पारित हो जाये तो मंत्रिपरिषद निर्धारित समय मे विश्वास प्रस्ताव लाकर अपने स्थायित्व का परिचय देती है है उसके लिये यह अनिवार्य है कामरोको प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाता है यह एक अद्वितीय प्रस्ताव है जिसमे सदन की समस्त कार्यवाही रोक कर तात्कालीन जन मह्त्व के किसी एक मुद्दे को उठाया जाता है प्रस्ताव पारित होने पर सरकार पे निंदा प्रस्ताव के समान प्रभाव छोडता है

संघीय न्यायपालिका

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति

29 जज तथा 1 मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के प्रावधान का वर्णन संविधान मे है अनु 124[2] के अनुसार् मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय इच्छानुसार राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार सर्वोच्च न्यायालयउच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह लेगा वही अन्य जजॉ की नियुक्ति के समय उसे अनिवार्य रूप से मुख्य न्यायाधीश की सलाह माननी पडेगी
सर्वोच्च न्यायालयएडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद 1993 मे दिये गये निर्णय के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के जजों के तबादले इस प्रकार की प्रक्रिया है जो सर्वाधिक योग्य उपलब्ध व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सके भारत के मुख्य न्यायाधीश का मत प्राथमिकता पायेगा वह एक मात्र अधिकारी होगा उच्च न्यायपालिका मे कोई नियुक्ति बिना उस की सहमति के नहीं होती है संवैधानिक सत्ताओं के संघर्ष के समय भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व करेगा राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश को अपने मत पर फिर से विचार करने को तभी कहेगा जब इस हेतु कोई तार्किक कारण मौजूद होगा पुनः विचार के बाद उसका मत राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होगा यद्यपि अपना मत प्रकट करते समय वह सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठम न्यायधीशों का मत जरूर लेगा पुनःविचार की दशा मे फिर से उसे दो वरिष्ठम न्यायधीशों की राय लेनी होगी वह चाहे तो उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की राय भी ले सकता है लेकिन सभी राय सदैव लिखित में होगी
बाद में अपना मत बदलते हुए न्यायालय ने कम से कम 4 जजों के साथ सलाह करना अनिवार्य कर दिया था वह कोई भी सलाह राष्ट्रपति को अग्रेषित नहीं करेगा यदि दो या ज्यादा जजों की सलाह इस्के विरूद्ध हो किंतु 4 जजों की सलाह उसे अन्य जजों जिनसे वो चाहे सलाह लेने से नहीं रोकेगी

न्यायपालिका के न्यायधीशों की पदच्युति

—इस कोटि के जजॉ के राष्ट्रपति तब पदच्युत करेगा जब संसद के दोणो सदनॉ के कम से कम 2/3 उपस्थित तथा मत देने वाले तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव जो कि सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पे लाया गया हो के द्वारा उसे अधिकार दिया गया हो ये आदेश उसी संसद सत्र मे लाया जायेगा जिस सत्र मे ये प्रस्ताव संसद ने पारित किया हो अनु 124[5] मे वह प्रक्रिया वर्णित है जिस से जज पद्च्युत होते है इस प्रक्रिया के आधार पर संसद ने न्यायधीश अक्षमता अधिनियम 1968 पारित किया था इसके अंतर्गत
1. संसद के किसी भी सदन मे प्रस्ताव लाया जा सकता है लोकस्भा मे 100 राज्यसभा मे 50 सद्स्यॉ का समर्थन अनिवार्य है
2. प्रस्ताव मिलने पे सदन का सभापति एक 3 सद्स्य समिति बनायेगा जो आरोपों की जाँच करेगी समिति का अध्यक्ष सप्रीम कोर्ट का कार्यकारी जज होगा दूसरा सदस्य किसी हाई कोर्ट का मुख्य कार्यकारी जज होगा तीसरा सदस्य माना हुआ विधिवेत्ता होगा इस की जाँच रिपोर्ट सदन के सामने आयेगी यदि इस मे जज को दोषी बताया हो तब भी सदन प्रस्ताव पारित करने को बाध्य नही होता किंतु यदि समिति आरोपों को खारिज कर दे तो सदन प्रस्ताव पारित नही कर सकता है
अभी तक सिर्फ एक बार किसी जज के विरूद्ध जांच की गयी है जज रामास्वामी दोषी सिद्ध हो गये थे किंतु संसद मे आवश्यक बहुमत के अभाव के चलते प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सका था

अभिलेख न्यायालय

अनुच्छेद 129 उच्चतम न्यायालयको तथा अनुच्छेद 215 उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है यह संकल्पना अंग्रेजी विधि से ली गयी है अभिलेख न्यायालय का अर्थ अनु 129 सुप्रीम कोर्ट को तथा अनु 215 उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है यह संकल्पना इंग्लिश विधि से ली गयी है अभिलेख न्यायालय का अर्थ
1. न्यायालय की कार्यवाही तथा निर्णय को दूसरे न्यायालय मे साक्ष्य के रूप मे प्रस्तुत किया जा सकेगा
2. न्यायालय को अधिकार है कि वो अवमानना करने वाले व्यक्ति को दण्ड दे सके यह शक्ति अधीनस्थ न्यायालय को प्राप्त नही है इस शक्ति को नियमित करने हेतु संसद ने न्यायालय अवमानना अधिनियम 1971 पारित किया है अवमानना के दो भेद है सिविल और आपराधिक जब कोई व्यक्ति आदेश निर्देश का पालन न करे या उल्लंघ न करे तो यह सिविल अवमानना है पर्ंतु यदि कोई व्यक्ति न्यायालय को बदनाम करे जजों को बदनाम तथा विवादित बताने का प्रयास करे तो यह आपराधिक अवमानना होगी जिसके लिये कारावास/जुर्माना दोनो देना पडेगा वही सिविल अवमानना मे कारावास सम्भव नहीं है यह शक्ति भारत मे काफी कुख्यात तथा विवादस्पद है

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ

अनु 130 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली मे होगा पर्ंतु यह भारत मे और कही भी मुख्य न्यायाधीश् के निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति की स्वीकृति से सुनवाई कर सकेगा
क्षेत्रीय खंडपीठों का प्रश्न- विधि आयोग अपनी रिपोर्ट के माध्यम से क्षेत्रीय खंडपीठों के गठन की अनुसंशा कर चुका है न्यायालय के वकीलॉ ने भी प्राथर्ना की है कि वह अपनी क्षेत्रीय खंडपीठों का गठन करे ताकि देश के विभिन्न भागॉ मे निवास करने वाले वादियॉ के धन तथा समय दोनॉ की बचत हो सके,किंतु न्यायालय ने इस प्रश्न पे विचार करने के बाद निर्णय दिया है कि पीठॉ के गठन से
1. ये पीठे क्षेत्र के राज नैतिक दबाव मे आ जायेगी
2. इनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट के एकात्मक चरित्र तथा संगठन को हानि पहुँच सकती है
किंतु इसके विरोध मे भी तर्क दिये गये है

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार

जनहित याचिकाएँ

– इस प्रकार की याचिकाओँ का विचार अमेरिका ए जन्मा वहाँ इसे सामाजिक कार्यवाही याचिका कह्ते है यह न्यायपालिका का आविष्कार तथा न्यायधीश निर्मित विधि है
जनहित याचिका भारत मे पी.एन.भगवतीने प्रारंभ की थी ये याचिकाँए जनहित को सुरक्षित तथा बढाना चाहती है ये लोकहित भावना पे कार्य करती है
ये ऐसे न्यायिक उपकरण है जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है इनका ल्क्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना तथा कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कार्य करवाने हेतु किया जाता है
ये समूह हित मे काम आती है ना कि व्यक्ति हित मे यदि इनका दुरूपयोग किया जाये तो याचिकाकर्ता पे जुर्माना तक किया जा सकता है इनको स्वीकारना या ना स्वीकारना न्यायालय पे निर्भर करता है
इनकी स्वीकृति हेतु सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नियम बनाये है
1. लोकहित से प्रेरित कोई भी व्यक्ति,संगठन इन्हे ला सकता है
2. कोर्ट को दिया गया पोस्टकार्ड भी रिट याचिका मान कर ये जारी की जा सकती है
3. कोर्ट को अधिकार होगा कि वह इस याचिका हेतु सामान्य न्यायालय शुल्क भी माफ कर दे
4. ये राज्य के साथ ही निजी संस्थान के विरूद्ध भी लायी जा सकती है
इसके लाभ
1. इस याचिका से जनता मे स्वयं के अधिकारों तथा न्यायपालिका की भूमिका के बारे मे चेतना बढती है यह मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को वृहद बनाती है इसमे व्यक्ति को कई नये अधिकार मिल जाते है
2. यह कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कर्तव्य करने के लिये बाधित करती है ,साथ ही यह भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की सुनिशिचतता करती है
आलोचनाएं 1. ये सामान्य न्यायिक संचालन मे बाधा डालती है
2. इनके दुरूपयोग की प्रवृति परवान पे है
इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने खुद कुछ बन्धन इनके प्रयोग पे लगाये है

न्यायिक सक्रियता

न्यायिक सक्रियता का अर्थ न्यायपालिका द्वारा निभायी जाने वाली वह सक्रिय भूमिका है जिसमे राज्य के अन्य अंगों को उनके संवैधानिक कृत्य करने को बाधय करे यदि वे अंग अपने कृत्य संपादित करने मे सफल रहे तो जनतंत्र तथा विधि शासन के लिये न्यायपालिका उनकी शक्तियों भूमिका का निर्वाह सीमित समय के लिये करेगी यह सक्रियता जनतंत्र की शक्ति तथा जन विश्वास को पुर्नस्थापित करती है
इस तरह यह सक्रियता न्यायपालिका पर एक असंवेदनशील/गैर जिम्मेदार शासन के कृत्यों के कारण लादा गया बोझ है यह सक्रियता न्यायिक प्रयास है जो मजबूरी मे किया गया है यह शक्ति उच्च न्यायालय तथा सुप्रीम कोर्ट के पास ही है ये उनकी पुनरीक्षा तथा रिट क्षेत्राधिकार मे आती है जनहित याचिका को हम न्यायिक सक्रियता का मुख्य माधयम मान सकते है
इसका समर्थन एक सीमित सीमा तक ही किया जा सकता है इसके विरोध के स्वर भी आप कार्य पालिका तथा विधायिका मे सुन सकते है इसके चलते ही हाल ही मे सुप्रीम कोर्ट ने खुद संयम बरतने की बात सवीकारी है तथा कई मामलों मे हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है

संविधान विकास में उच्चतम न्यायालय की भूमिका

एक तरफ यह संविधान का संरक्ष्क अंतिम व्याख्याकर्ता, मौलिक अधिकारों का रक्षक ,केन्द्र-राज्य विवादों मे एक मात्र मध्यस्थ है वहीँ यह संविधान के विकास मे भी भूमिका निभाता रहा है इसने माना है कि निरंतर संवैधानिक विकास होना चाहिए ताकि समाज के हित संवर्धित हो ,न्यायिक पुनरीक्षण शक्ति के कारण यह संवैधानिक विकास मे सहायता करता है सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विकास यह है कि भारत मे संविधान सर्वोच्च है इसने संविधान के मूल ढाँचे का अदभुत सिद्धांत दिया है जिसके चलते संविधान काफी सुरक्षित हो गया है इसे मनमाने ढंग से बदला नही जा सकता ह
ै इसने मौलिक अधिकारों का विस्तार भी किया है इसने अनु 356 के दुरूपयोग को भी रोका है
उच्चतम न्यायालयइस उक्ति का पालन करता है कि संविधान खुद नहीं बोलता है यह अपनी वाणी न्यायपालिका के माध्यम से बोलता है

संविधान भाग 6

पाठ 1 राज्य कार्यपालिका

राज्यपाल
राज्यपाल् कार्यपालिका का प्रमुख होता है वह राज्य मे केन्द्र का प्रतिनिधि होता है तथा राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत ही पद पे बना रहता है वह कभी भी पद से हटाया जा सकता है
उसका पद तथा भूमिका भारतीय राजनीति मे दीर्घ काल से विवाद का कारण रही है जिसके चलते काफी विवाद हुए है सरकारिया आयोगने अपनी रिपोर्ट मे इस तरह की सिफारिश दी थी
1. एक राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह के बाद ही राष्ट्रपति करे
2. वह जीवन के किसी क्षेत्र का महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हो
3. वह राज्य के बाहर का रहने वाला हो
4. वह राजनैतिक रूप से कम से कम पिछले 5 वर्शो से राष्ट्रीय रूप से सक्रिय ना रहा हो तथा नियुक्ति वाले राज्य मे कभी भी सक्रिय ना रहा हो
5. उसे सामान्यत अपने पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने दिया जाये ताकि वह निष्पक्ष रूप से काम कर सके
6. केन्द्र पर सत्तारूढ राजनैतिक गठबन्धन का सद्स्य ऐसे राज्य का राज्यपाल नही बनाया जाये जो विपक्ष द्वारा शासित हो
7. राज्यपाल द्वारा पाक्षिक रिपोर्ट भेजने की प्रथा जारी रहनी चाहिए
8. यदि राज्यपाल राष्ट्रपति को अनु 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा करे तो उसे उन कारणॉ ,स्थितियों का वर्णन रिकार्ड मे रखना चाहिए जिनके आधार पे वह इस निष्क़र्ष पे पहुँचा हो
इसके अलावा राज्यपाल एक संवैधानिक प्रमुख है जो अपने कर्तव्य मंत्रिपरिषद की सलाह सहायता से करता है परंतु उसकी संवैधानिक स्थिति उसकी मंत्रिपरिषद की तुलना मे बहुत सुरक्षित है वह राष्ट्रपति के समान असहाय नहीं है राष्ट्रपति के पास मात्र विवेकाधीन शक्ति ही है जिसके अलावा वह सदैव प्रभाव का ही प्रयोग करता है किंतु संविधान राजयपाल को प्रभाव तथा शक्ति दोनों देता है उसका पद उतना ही शोभात्मक है उतना ही कार्यातमक भी है
राज्यपाल उन सभी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग भी करता है जो राष्ट्रपति को मिलती है इसके अलावा वो इन अतिरिक्त शक्तियों का प्रयोग भी करता है
अनु 166[2] के अंर्तगत यदि कोई प्रशन उठता है कि राजयपाल की शक्ति विवेकाधीन है या नहीं तो उसी का निर्णय अंतिम माना जाता है
अनु 166[3] राज्यपाल इन शक्तियों का प्रयोग उन नियमों के निर्माण हेतु कर सकता है जिनसे राज्यकार्यों को सुगमता पूर्वक संचालन हो साथ ही वह मंत्रियों मे कार्य विभाजन भी कर सकता है
अनु 200 के अधीन राज्यपाल अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग राज्य विधायिका द्वारा पारित बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु सुरक्षित रख सकने मे कर सकता है
अनु 356 के अधीन राज्यपाल राष्ट्रपति को राज के प्रशासन को अधिग्रहित करने हेतु निमंत्रण दे सकता है यदि यह संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकता हो
विशेष विवेकाधीन शक्ति
पंरपरा के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति को भेजी जाने वाली पाक्षिक रिपोर्ट के सम्बन्ध मे निर्णय ले सकता है कुछ राज्यों के राज्यपालों को विशेष उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना होता है विशेष उत्तरदायित्व का अर्थ है कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद से सलाह तो ले किंतु इसे मानने हेतु वह बाध्य ना हो और ना ही उसे सलाह लेने की जरूरत पडती हो

राज्य विधायिका

संविधान मे 6 राज्यों हेतु द्विसदनीय विधायिका का प्रावधान किया गया है
उपरी सदन स्थापना तथा उन्मूलन अनु 169 के अनुसार यह शक्ति केवल संसद को है
ऊपरी सदन का महत्व–यह सदन प्रथम श्रेणी का नही होता यह विधान सभा द्वारा पारित बिल को अस्वीकृत संशोधित नहीं कर सकता है केवल किसी बिल को ज्यादा से ज्यादा 4 मास के लिये रोक सकता है इसके अलावा मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की नियुक्ति हेतु इसका प्रयोग हो सकता है क्योंकि यहाँ मनोनीत सदस्यों की सुविधा भी है
विधायिका की प्रक्रियाएँ तीन प्रकार के बिल धन ,फाइनेंस तथा सामान्य होते है ,धन बिल संसद की तरह ही पास होते है ,फाइनेंस बिल केवल निचले सदन मे ही पेश होते है , सामान्य बिल जो ऊपरी सदन मे पेश होंगे व पारित हो यदि बाद मे निचले सदन मे अस्वीकृत हो जाये तो समाप्त हो जाते है
निचले सदन द्वारा पारित बिल को ऊपरी सदन केवल 3 मास के लिये रोक सकता है उसके बाद वे पारित माने जाते है

राज्य न्यायपालिका

राज्य न्यायपालिका मे तीन प्रकार की पीठें होती है एकल जिसके निर्णय को उच्च न्यायालय की डिवीजनल/खंडपीठ/सर्वोच्च न्यायालयमे चुनौती दी जा सकती है
खंड पीठ 2 या 3 जजों के मेल से बनी होती है जिसके निर्णय केवल उच्चतम न्यायालयमें चुनौती पा सकते हैं
संवैधानिक/फुल बेंच सभी संवैधानिक व्याख्या से संबधित वाद इस प्रकार की पीठ सुनती है इसमे कम से कम पाँच जज होते हैं

अधीनस्थ न्यायालय

इस स्तर पर सिविल आपराधिक मामलों की सुनवाई अलग अलग होती है इस स्तर पर सिविल तथा सेशन कोर्ट अलग अलग होते है इस स्तर के जज सामान्य भर्ती परीक्षा के आधार पर भर्ती होते है उनकी नियुक्ति राज्यपाल राज्य मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर करता है
फास्ट ट्रेक कोर्ट– ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
इसके पीछे कारण यह था कि वाद लम्बा चलने से न्याय की क्षति होती है तथा न्याय की निरोधक शक्ति कम पड जाती है जेल मे भीड बढ जाती है 10 वे वित्त आयोग की सलाह पर केद्र सरकार ने राज्य सरकारों को 1 अप्रेल 2001 से 1734 फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित करने का आदेश दिया अतिरिक्त सेशन जज याँ उंचे पद से सेवानिवृत जज इस प्रकार के कोर्टो मे जज होता है इस प्रकार के कोर्टो मे वाद लंबित करना संभव नहीं होता हैहर वाद को निर्धारित स्मय मे निपटाना होता है
आलोचना 1. निर्धारित संख्या मे गठन नहीं हुआ
2. वादों का निर्णय संक्षिप्त ढँग से होता है जिसमें अभियुक्त को रक्षा करने का पूरा मौका नहीं मिलता है
3. न्यायधीशों हेतु कोई सेवा नियम नहीं है
लोक अदालत -- जनता की अदालतें है ये नियमित कोर्ट से अलग होती है पदेन या सेवानिवृत जज तथा दो सदस्य एक सामाजिक कार्यकता ,एक वकील इसके सद्स्य होते है सुनवाई केवल तभी करती है जब दोनों पक्ष इसकी स्वीकृति देते हो ये बीमा दावों क्षतिपूर्ति के रूप वाले वादों को निपता देती है
इनके पास वैधानिक दर्जा होता है वकील पक्ष नहीं प्रस्तुत करते हैं
इनके लाभ– 1.न्यायालय शुल्क नहीं लगते
2. यहाँ प्रक्रिया संहिता/साक्ष्य एक्ट नहीं लागू होते
3. दोनों पक्ष न्यायधीश से सीधे बात कर समझौते पर पहुचँ जाते है
4. इनके निर्णय के खिलाफ अपील नहीं ला सकते है
आलोचनाएँ 1. ये नियमित अंतराल से काम नहीं करती है
2. जब कभी काम पे आती है तो बिना सुनवाई के बडी मात्रा मे मामले निपटा देती है
3. जनता लोक अदालतों की उपस्थिति तथा लाभों के प्रति जागरूक नहीं है

जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति

संवैधानिक प्रावधान स्वतः जम्मू तथा कश्मीर पे लागू नहीं होते केवल वहीं प्रावधान जिनमे स्पष्ट रूप से कहा जाए कि वे जम्मू कश्मीर पे लागू होते है उस पर लागू होते है
जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति का ज्ञान इन तथ्यों से होता है
1. जम्मू कश्मीर संविधान सभा द्वारा निर्मित राज्य संविधान से वहाँ का कार्य चलता है ये संविधान जम्मू कश्मीर के लोगों को राज्य की नागरिकता भी देता है केवल इस राज्य के नागरिक ही संपत्ति खरीद सकते है या चुनाव लड सकते है या सरकारी सेवा ले सकते है
2. संसद जम्मू कश्मीर से संबंध रखने वाला ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती है जो इसकी राज्य सूची का विषय हो
3. अवशेष शक्ति जम्मू कश्मीर विधान सभा के पास होती है
4. इस राज्य पर सशस्त्र विद्रोह की दशा मे या वित्तीय संकट की दशा मे आपात काल लागू नहीं होता है
5. संसद राज्य का नाम क्षेत्र सीमा बिना राज्य विधायिका की स्वीकृति के नहीं बदलेगीं
6. राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति राज्य मुख्यमंत्री की सलाह के बाद करेगी
7. संसद द्वारा पारित निवारक निरोध नियम राज्य पर अपने आप लागू नहीं होगा
8. राज्य की पृथक दंड संहिता तथा दंड प्रक्रिया संहिता है
९।

केन्द्र राज्य संबंध

विधायिका स्तर पर सम्बन्ध

संविधान की सातंवी अनुसूची विधायिका के विषय़ केन्द्र राज्य के मध्य विभाजित करती है संघ सूची मे महत्वपूर्ण तथा सर्वाधिक विषय़ है
राज्यों पर केन्द्र का विधान संबंधी नियंत्रण
1. अनु 31[1] के अनुसार राज्य विधायिका को अधिकार देता है कि वे निजी संपत्ति जनहित हेतु विधि बना कर ग्रहित कर ले परंतु ऐसी कोई विधि असंवैधानिक/रद्द नहीं की जायेगी यदि यह अनु 14 व अनु 19 का उल्लघंन करे परंतु यह न्यायिक पुनरीक्षण का पात्र होगा किंतु यदि इस विधि को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु रखा गया और उस से स्वीकृति मिली भी हो तो वह न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र नहीं होगा
2. अनु 31[ब] के द्वारा नौवीं अनुसूची भी जोडी गयी है तथा उन सभी अधिनियमों को जो राज्य विधायिका द्वारा पारित हो तथा अनुसूची के अधीन रखें गये हो को भी न्यायिक पुनरीक्षा से छूट मिल जाती है लेकिन यह कार्य संसद की स्वीकृति से होता है
3. अनु 200 राज्य का राज्यपाल धन बिल सहित बिल जिसे राज्य विधायिका ने पास किया हो को राष्ट्रपति की सहमति के लिये आरक्षित कर सकता है
4. अनु 288[2] राज्य विधायिका को करारोपण की शक्ति उन केन्द्रीय अधिकरणों पर नहीं देता जो कि जल संग्रह, विधुत उत्पादन, तथा विधुत उपभोग ,वितरण ,उपभोग, से संबंधित हो ऐसा बिल पहले राष्ट्रपति की स्वीकृति पायेगा
5. अनु 305[ब] के अनुसार राज्य विधायिकाको शक्ति देता है कि वो अंतराज्य व्यापार वाणिज़्य पर युक्ति निर्बधंन लगाये परंतु राज्य विधायिका मे लाया गया बिल केवल राष्ट्रप्ति की अनुशंसा से ही लाया जा सकता है

केन्द्र राज्य प्रशासनिक संबंध


अनु 256के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ इस तरह प्रयोग लायी जाये कि संसद द्वारा पारित विधियों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन विधिंयों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन राज्य कार्यपालिका शक्ति आ गयी है । केन्द्र राज्य को ऐसे निर्देश दे सकता है जो इस संबंध मे आवश्यक हो
अनु 257 ----- कुछ मामलों मे राज्य पर केन्द्र नियंत्रण की बात करता है । राज्य कार्यपालिका शक्ति इस तरह प्रयोग ली जाये कि वह संघ कार्यपालिका से संघर्ष ना करे केन्द्र अनेक क्षेत्रों मे राज्य को उसकी कार्यपालिका शक्ति कैसे प्रयोग करे इस पर निर्देश दे सकता है यदि राज्य निर्देश पालन मे असफल रहा तो राज्य मे राष्ट्रपति शासन तक लाया जा सकता है
अनु 258[2] के अनुसार --- संसद को राज्य प्रशासनिक तंत्र को उस तरह प्रयोग लेने की शक्ति देता है जिनसे संघीय विधि पालित हो केन्द्र को अधिकार है कि वह राज्य मे बिना उसकी मर्जी के सेना, केन्द्रीय सुरक्षा बल तैनात कर सकता है
अखिल भारतीय सेवाएँ भी केन्द्र को राज्य प्रशासन पे नियंत्रण प्राप्त करने मे सहायता देती है अनु 262 संसद को अधिकार देता है कि वह अंतराज्य जल विवाद को सुलझाने हेतु विधि का निर्माण करे संसद ने अंतराज्य जल विवाद तथा बोर्ड एक्ट पारित किये थे
अनु 263 राष्ट्राप्ति को शक्ति देता है कि वह अंतराज्य परिषद स्थापित करे ताकि राज्यों के मध्य उत्पन्न मत विभिन्ंता सुलझा सके

निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली/कार्य

1 निर्वाचन आयोग के पास यह उत्तरदायित्व है कि वह निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,निर्देशन तथा आयोजन करवाये वह राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति ,संसद,राज्यविधानसभा के चुनाव करता है
2 निर्वाचक नामावली तैयार करवाता है
3 राजनैतिक दलॉ का पंजीकरण करता है
4. राजनैतिक दलॉ का राष्ट्रीय ,राज्य स्तर के दलॉ के रूप मे वर्गीकरण ,मान्यता देना, दलॉ-निर्दलीयॉ को चुनाव चिन्ह देना
5. सांसद/विधायक की अयोग्यता[दल बदल को छोडकर]पर राष्ट्रपति/राज्यपाल को सलाह देना
6. गलत निर्वाचन उपायॉ का उपयोग करने वाले व्यक्तियॉ को निर्वाचन के लिये अयोग्य घोषित करना
निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ अनु 324[1] निर्वाचन आयोग को निम्न शक्तियाँ देता है
1. सभी निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,नियंत्रण,आयोजन करवाना
2.सुप्रीम कोर्ट के निर्णयानुसार अनु 324[1] मे निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं हो सकती उसकी शक्तियां केवल उन निर्वाचन संबंधी संवैधानिक उपायों तथा संसद निर्मित निर्वाचन विधि से नियंत्रित होती है निर्वाचन का पर्यवेक्षण ,निर्देशन ,नियंत्रण तथा आयोजन करवाने की शक्ति मे देश मे मुक्त तथा निष्पक्ष चुनाव आयोजित करवाना भी निहित है जहां कही संसद विधि निर्वाचन के संबंध मे मौन है वहां निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिये निर्वाचन आयोग असीमित शक्ति रखता है यधपि प्राकृतिक न्याय, विधि का शासन तथा उसके द्वारा शक्ति का सदुपयोग होना चाहिए
निर्वाचन आयोग विधायिका निर्मित विधि का उल्लघँन नहीं कर सकता है और न ही ये स्वेच्छापूर्ण कार्य कर सकता है उसके निर्णय न्यायिक पुनरीक्षण के पात्र होते है
निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ निर्वाचन विधियों की पूरक है न कि उन पर प्रभावी तथा वैध प्रक्रिया से बनी विधि के विरूद्ध प्रयोग नही की जा सकती है
यह आयोग चुनाव का कार्यक्रम निर्धारित कर सकता है चुनाव चिन्ह आवंटित करने तथा निष्पक्ष चुनाव करवाने के निर्देश देने की शक्ति रखता है
सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी शक्तियों की व्याख्या करते हुए कहा कि वह एकमात्र अधिकरण है जो चुनाव कार्यक्रम निर्धारित करे चुनाव करवाना केवल उसी का कार्य है
जनप्रतिनिधित्व एक्ट 1951 के अनु 14,15 भी राष्ट्रपति,राज्यपाल को निर्वाचन अधिसूचना जारी करने का अधिकार निर्वाचन आयोग की सलाह के अनुरूप ही जारी करने का अधिकार देते है

भारत मे निर्वाचन सुधार

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम संशोधन 1988 से इस प्रकार के संशोधन किये गये हैं.
1. इलैक्ट्रानिक मतदान मशीन का प्रयोग किया जा सकेगा. वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव मे इनका सर्वत्र प्रयोग हुआ
2. राजनैतिक दलों का निर्वाचन आयोग के पास अनिवार्य पंजीकरण करवाना होगा यदि वह चुनाव लडना चाहे तो कोई दल तभी पंजीकृत होगा जब वह संविधान के मौलिक सिद्धांतों के पालन करे तथा उनका समावेश अपने दलीय संविधान मे करे
3. मतदान केन्द्र पर कब्जा, जाली मत

त्रुटियां

परस्पर वीरोधी, मिलकत या संपदा का अधिकार मूल अधिकार रहा । कई साल तक शिक्षा का मूल अधिकार न होकर नीति के निदेशक के कारण भ्रष्टाचार में वृद्धि होती रही ओर गरीब, गरीब होते रहें ।

फेडरेशन तथा कनफेडरेशन का भेद

फेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का औपचारिक संगठन
  2. सम्प्रभु तथा स्वतंत्र परंतु उसके संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र नही होते
  3. संघटक संघ से स्वतंत्र होने की शक्ति नही रखते है
  4. संघ तथा उसके निवासियो के मध्य वैधानिक सम्बन्ध होता है [नागरिकता] नागरिको के अधिकार तथा कर्तव्य होते है

कनफेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का ढीला संघठन [रास्त्र मन्डल ]
  2. संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र होते है परंतु खुद कनफेडरेशन मे ये गुण नही होते है
  3. संघटक स्वतंत्र होने की शक्ति रखते है
  4. निवासी परिसंघ के नागरिक नही होते बल्कि उसके संघट्को के नागरिक होते है

शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत

यह सिद्धांत फ्रेंच दार्शनिक मान्टेस्कयूने दिया था उसके अनुसार राज्य की शक्ति उसके तीन भागो कार्य , विधान, तथा न्यायपालिकाओ मे बांट देनी चाहिये
ये सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है
अमेरिकी सविन्धान पहला ऐसा सविन्धान था जिस मे ये सिद्धांत अपनाया गया था
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत भारतीय सविन्धान मे------सविन्धान मे इसका साफ वर्णन ना होकर सकेत मात्र है इस हेतु सविन्धान मे तीनो अंगो का पृथक वर्णन है संसदीय लोकतंत्र होने के कारण भारत मे कार्यपालिका तथा विधायिका मे पूरा अलगाव नही हो सका है कार्यपालिका[मंत्रीपरिषद] विधायिका मे से ही चुनी जाती है तथा उसके निचले सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती है
अनु 51 के अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को पृथक होना चाहिए इस लिये ही 1973 मे दंड प्रक्रिया सन्हिता पारित की गयी जिस के द्वारा जिला मजिस्टृटो की न्यायिक शक्ति लेकर न्यायिक मजिस्टृटो को दे दी गयी थी

बाहरी कडियाँ

[दिखाएँ]
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम

भारतीय संविधान

$
0
0


मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
भारत
Emblem of India.svg
यह लेख यह श्रेणी के सम्बन्ध में है:

भारत की राजनीति

केन्द्र सरकार
संविधान
कार्यकारिणी
विधायिका
न्यायपालिका
स्थानीय
भारतीय आमचुनाव

अन्य देशप्रवेशद्वार:राजनीति
प्रवेशद्वार:भारत सरकार
भारत, संसदीय प्रणालीकी सरकार वाला एक प्रभुसत्तासम्पन्न, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। यह गणराज्य भारत के संविधानके अनुसार शासित है। भारत का संविधान संविधान सभाद्वारा 26 नवम्बर, 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ। 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवसके रूप में मनाया जाता है।

अनुक्रम

संक्षिप्त परिचय

भारत का संविधान दुनिया का सबसे बडा लिखित संविधान है। इसमें 444 अनुच्छेद,तथा १२ अनुसूचियां हैं। परन्तु इसके निर्माण के समय इसमें केवल ८ अनुसूचियां थीं। संविधान में सरकार के संसदीय स्‍वरूप की व्‍यवस्‍था की गई है जिसकी संरचना कुछ अपवादों के अतिरिक्त संघीय है। केन्‍द्रीय कार्यपालिका का सांविधानिक प्रमुख राष्‍ट्रपतिहै। भारत के संविधान की धारा 79 के अनुसार, केन्‍द्रीय संसदकी परिषद् में राष्‍ट्रपति तथा दो सदन है जिन्‍हें राज्‍यों की परिषद् राज्‍यसभातथा लोगों का सदन लोकसभाके नाम से जाना जाता है। संविधान की धारा 74 (1) में यह व्‍यवस्‍था की गई है कि राष्‍ट्रपति की सहायता करने तथा उसे सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रमुख प्रधान मंत्रीहोगा, राष्‍ट्रपति इस मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार अपने कार्यों का निष्‍पादन करेगा। इस प्रकार वास्‍तविक कार्यकारी शक्ति मंत्रिपरिषद् में निहित है जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री है जो वर्तमान में मनमोहन सिंह हैं।
मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोगों के सदन (लोक सभा) के प्रति उत्तरदायी है। प्रत्‍येक राज्‍य में एक विधान सभाहै। जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में एक ऊपरी सदन है जिसे विधान परिषद्कहा जाता है। राज्‍यपालराज्‍य का प्रमुख है। प्रत्‍येक राज्‍य का एक राज्‍यपाल होगा तथा राज्‍य की कार्यकारी शक्ति उसमें विहित होगी। मंत्रिपरिषद्, जिसका प्रमुख मुख्‍य मंत्रीहै, राज्‍यपाल को उसके कार्यकारी कार्यों के निष्‍पादन में सलाह देती है। राज्‍य की मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से राज्‍य की विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है।
संविधान की सातवीं अनुसूची में संसद तथा राज्‍य विधायिकाओं के बीच विधायी शक्तियों का वितरण किया गया है। अवशिष्‍ट शक्तियाँ संसद में विहित हैं। केन्‍द्रीय प्रशासित भू- भागों को संघराज्‍य क्षेत्र कहा जाता है।

अनुसूचियाँ

1. पहली अनुसूची - (अनुच्छेद 1 तथा 4) - राज्य तथा संघ राज्य क्षेत्र का वर्णन ।
2. दूसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 59(3), 65(3), 75(6),97, 125,148(3), 158(3),164(5),186 तथा 221] - मुख्य पदाधिकारियों के वेतन-भत्ते भाग-क-राष्ट्रपति और राज्यपाल के वेतन-भत्ते, भाग-ख- लोकसभा तथा विधानसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, राज्यसभा तथा विधान परिषद् के सभापति तथा उपसभापति के वेतन-भत्ते,भाग-ग- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते, भाग-घ- भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षकके वेतन-भत्ते।
3. तीसरी अनुसूची - [अनुच्छेद 75(4),99, 124(6),148(2), 164(3),188 और 219] - व्यवस्थापिका के सदस्य, मंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों आदि के लिए शपथ लिए जानेवाले प्रतिज्ञान के प्रारूप दिए हैं।
4. चौथी अनुसूची - [अनुच्छेद 4(1),80(2)] - राज्यसभा में स्थानों का आबंटन राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों से।
5. पाँचवी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(1)] - अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जन-जातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित उपबंध।
6. छठी अनुसूची - [अनुच्छेद 244(2), 275(1)] - असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के विषय मे उपबंध।
7. सातवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 246] - विषयों के वितरण से संबंधित सूची-1 संघ सूची, सूची-2 राज्य सूची, सूची-3 समवर्ती सूची।
8. आठवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 344(1), 351] - भाषाएँ - 22 भाषाओं का उल्लेख।
9. नवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 31 ख ] - कुछ भुमि सुधार संबंधी अधिनियमों का विधिमान्य करण।
10.दसवीं अनुसूची - [अनुच्छेद 102(2), 191(2)] - दल परिवर्तन संबंधी उपबंध तथा परिवर्तन के आधार पर अ
११ ग्यारवी अनुसूची - पन्चायती राज से सम्बन्धित
१२ बारह्ववी अनुसूची - यह अनुसूची संविधान मे ७४ वे संवेधानिक संशोंधन द्वारा जोडि गई।

इतिहास

द्वितीय विश्वयुद्धकी समाप्ति के बाद जुलाई १९४५ में ब्रिटेनने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा भारत की संविधान सभा के निर्माण के लिए एक कैबिनेट मिशनभारत भेजा जिसमें ३ मंत्री थे। १५ अगस्त, १९४७ को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभाकी घोषणा हुई और इसने अपना कार्य ९ दिसम्बर १९४६ से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मौलाना अबुल कलाम आजादआदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। इस संविधान सभा ने २ वर्ष, ११ माह, १८ दिन मे कुल १६६ दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। भारत के संविधान के निर्माण में डॉ भीमराव अंबेदकरने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसलिए उन्होंने संविधान का निर्माता कहा जाता है।

भारतीय संविधान की प्रकृति

संविधान प्रारूप समिति तथा सर्वोच्च न्यायालय ने इस को संघात्मक संविधान माना है, परन्तु विद्वानों में मतभेद है । अमेरीकी विद्वान इस को छदम-संघात्मक-संविधान कहते हैं, हालांकि पूर्वी संविधानवेत्ता कहते है कि अमेरिकी संविधान ही एकमात्र संघात्मक संविधान नहीं हो सकता । संविधान का संघात्मक होना उसमें निहित संघात्मक लक्षणों पर निर्भर करता है, किन्तु माननीय सर्वोच्च न्यायालय (पि कन्नादासन वाद) ने इसे पूर्ण संघात्मक माना है ।

आधारभूत विशेषताएं

शक्ति विभाजन -यह भारतीय संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है , राज्य की शक्तियां केंद्रीय तथा राज्य सरकारों मे विभाजित होती है शक्ति विभाजन के चलते द्वेध सत्ता [केन्द्र-राज्य सत्ता ] होती है
दोनों सत्ताएँ एक-दूसरे के अधीन नही होती है, वे संविधान से उत्पन्न तथा नियंत्रित होती है दोनों की सत्ता अपने अपने क्षेत्रो मे पूर्ण होती है
संविधान की सर्वोचता - संविधान के उपबंध संघ तथा राज्य सरकारों पर समान रूप से बाध्यकारी होते है [केन्द्र तथा राज्य शक्ति विभाजित करने वाले अनुच्छेद
1 अनुच्छेद 54,55,73,162,241
2 भाग -5 सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय राज्य तथा केन्द्र के मध्य वैधानिक संबंध
3 अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची
4 राज्यो का संसद मे प्रतिनिधित्व
5 संविधान मे संशोधन की शक्ति अनु 368इन सभी अनुच्छेदो मे संसद अकेले संशोधन नही ला सकती है उसे राज्यो की सहमति भी चाहिए
अन्य अनुच्छेद शक्ति विभाजन से सम्बन्धित नही है
3 लिखित सविन्धान अनिवार्य रूप से लिखित रूप मे होगा क्योंकि उसमे शक्ति विभाजन का स्पषट वर्णन आवश्यक है। अतः संघ मे लिखित संविधान अवश्य होगा
4 सविन्धान की कठोरता इसका अर्थ है सविन्धान संशोधन मे राज्य केन्द्र दोनो भाग लेंगे
5 न्यायालयो की अधिकारिता- इसका अर्थ है कि केन्द्र-राज्य कानून की व्याख्या हेतु एक निष्पक्ष तथा स्वतंत्र सत्ता पर निर्भर करेंगे
विधि द्वारा स्थापित 1.1 न्यायालय ही संघ-राज्य शक्तियो के विभाजन का पर्यवेक्षण करेंगे
1.2 न्यायालय सविन्धान के अंतिम व्याख्याकर्ता होंगे भारत मे यह सत्ता सर्वोच्च न्यायालय के पास है ये पांच शर्ते किसी सविन्धान को संघात्मक बनाने हेतु अनिवार्य है
भारत मे ये पांचों लक्षण सविन्धान मे मौजूद है अत्ः यह संघात्मक है परंतु

भारतीय संविधान मे कुछ विभेदकारी विशेषताए भी है

1 यह संघ राज्यों के परस्पर समझौते से नहीं बना है
2 राज्य अपना पृथक संविधान नही रख सकते है, केवल एक ही संविधान केन्द्र तथा राज्य दोनो पर लागू होता है
3 भारत मे द्वैध नागरिकता नही है। केवल भारतीय नागरिकता है
4 भारतीय संविधान मे आपातकाल लागू करने के उपबन्ध है [352 अनुच्छेद] के लागू होने पर राज्य-केन्द्र शक्ति पृथक्करण समाप्त हो जायेगा तथा वह एकात्मक संविधान बन जायेगा। इस स्थिति मे केन्द्र-राज्यों पर पूर्ण सम्प्रभु हो जाता है
5 राज्यों का नाम, क्षेत्र तथा सीमा केन्द्र कभी भी परिवर्तित कर सकता है [बिना राज्यों की सहमति से] [अनुच्छेद 3] अत: राज्य भारतीय संघ के अनिवार्य घटक नही हैं। केन्द्र संघ को पुर्ननिर्मित कर सकती है
6 संविधान की 7 वींअनुसूची मे तीन सूचियाँ हैं संघीय, राज्य, तथा समवर्ती। इनके विषयों का वितरण केन्द्र के पक्ष मे है
6.1 संघीय सूची मे सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय हैं
6.2 इस सूची पर केवल संसद का अधिकार है
6.3 राज्य सूची के विषय कम महत्वपूर्ण हैं, 5 विशेष परिस्थितियों मे राज्य सूची पर संसद विधि निर्माण कर सकती है किंतु किसी एक भी परिस्थिति मे राज्य केन्द्र हेतु विधि निर्माण नहीं कर सकते
क1 अनु 249—राज्य सभा यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्र हित हेतु यह आवश्यक है [2\3 बहुमत से] किंतु यह बन्धन मात्र 1 वर्ष हेतु लागू होता है
क2 अनु 250— राष्ट्र आपातकाल लागू होने पर संसद को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार स्वत: मिल जाता है
क3 अनु 252—दो या अधिक राज्यों की विधायिका प्रस्ताव पास कर राज्य सभा को यह अधिकार दे सकती है [केवल संबंधित राज्यों पर]
क4 अनु253--- अंतराष्ट्रीय समझौते के अनुपालन के लिए संसद राज्य सूची विषय पर विधि निर्माण कर सकती है
क5 अनु 356—जब किसी राज्य मे राष्ट्रपति शासनलागू होता है, उस स्थिति मे संसद उस राज्य हेतु विधि निर्माण कर सकती है
7 अनुच्छेद 155 – राज्यपालों की नियुक्ति पूर्णत: केन्द्र की इच्छा से होती है इस प्रकार केन्द्र राज्यों पर नियंत्रण रख सकता है
8 अनु 360 – वित्तीय आपातकाल की दशा मे राज्यों के वित्त पर भी केन्द्र का नियंत्रण हो जाता है। इस दशा मे केन्द्र राज्यों को धन व्यय करने हेतु निर्देश दे सकता है
9 प्रशासनिक निर्देश [अनु 256-257] -केन्द्र राज्यों को राज्यों की संचार व्यवस्था किस प्रकार लागू की जाये, के बारे मे निर्देश दे सकता है, ये निर्देश किसी भी समय दिये जा सकते है, राज्य इनका पालन करने हेतु बाध्य है। यदि राज्य इन निर्देशों का पालन न करे तो राज्य मे संवैधानिक तंत्र असफल होने का अनुमान लगाया जा सकता है
10 अनु 312 मे अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान है ये सेवक नियुक्ति, प्रशिक्षण, अनुशासनात्मक क्षेत्रों मे पूर्णत: केन्द्र के अधीन है जबकि ये सेवा राज्यों मे देते है राज्य सरकारों का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है
11 एकीकृत न्यायपालिका
12 राज्यों की कार्यपालिक शक्तियां संघीय कार्यपालिक शक्तियों पर प्रभावी नही हो सकती है।

संविधान की प्रस्तावना

संविधान के उद्देश्यों को प्रकट करने हेतु प्राय: उनसे पहले एक प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व मे सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। प्रस्तावना के माध्यम से भारतीय संविधान का सार, अपेक्षाएँ, उद्देश्य उसका लक्ष्य तथा दर्शन प्रकट होता है। प्रस्तावना यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है इसी कारण यह ‘हम भारत के लोग’ इस वाक्य से प्रारम्भ होती है। केहर सिंह बनाम भारत संघ के वाद मे कहा गया था कि संविधान सभा भारतीय जनता का सीधा प्रतिनिधित्व नही करती अत: संविधान विधि की विशेष अनुकृपा प्राप्त नही कर सकता, परंतु न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए संविधान को सर्वोपरि माना है जिस पर कोई प्रश्न नही उठाया जा सकता है।
संविधान की प्रस्तावना:
" हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद
द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

संविधान के तीन भाग

संविधान के तीन प्रमुख भाग हैं। भाग एक में संघ तथा उसका राज्यक्षेत्रों के विषय में टिप्पणीं की गई है तथा यह बताया गया है कि राज्य क्या हैं और उनके अधिकार क्या हैं। दूसरे भाग में नागरिकता के विषय में बताया गया है कि भारतीय नागरिक कहलाने का अधिकार किन लोगों के पास है और किन लोगों के पास नहीं है। विदेश में रहने वाले कौन लोग भारतीय नागरिक के अधिकार प्राप्त कर सकते हैं और कौन नहीं कर सकते। तीसरे भाग में भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विषय में विस्तार से बताया गया है। • संविधान की प्रस्तावना बाहर सेट मुख्य उद्देश्य है जो संविधान सभा को प्राप्त करने का इरादा है. • 'उद्देश्य' संकल्प पंडित नेहरू द्वारा प्रस्तावित है और संविधान सभा द्वारा पारित, अंततः भारत के संविधान की प्रस्तावना बन गया. • जैसा कि उच्चतम न्यायालयने मनाया है, प्रस्तावना संविधान के निर्माताओं के मन को जानने की कुंजी है. • यह भी भारत के लोगों के आदर्शों और आकांक्षाओं का प्रतीक है. • संविधान (42 वां संशोधन) अधिनियम, 1976 प्रस्तावना में संशोधन और शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और प्रस्तावना के लिए वफ़ादारी जोड़ी. • प्रस्तावना प्रकृति में गैर न्यायोचित है, राज्य के नीति theDirective सिद्धांतों की तरह और कानून की एक अदालत में लागू नहीं किया जा सकता है. यह न तो राज्य के तीन अंगों को मूल शक्ति (निश्चित और वास्तविक शक्ति) प्रदान कर सकते हैं, और न ही संविधान के प्रावधानों के तहत अपनी शक्तियों की सीमा. • संविधान की प्रस्तावना विशिष्ट प्रावधान नहीं ओवरराइड कर सकते हैं. दोनों के बीच किसी भी संघर्ष के मामले में, बाद अभिभावी होगी. तो •, यह एक बहुत ही सीमित भूमिका निभानी है. • उच्चतम न्यायालयने मनाया प्रस्तावना संविधान के प्रावधानों के आसपास अस्पष्टता को दूर करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
प्रस्तावना के प्रयोजन

• प्रस्तावना वाणी है कि यह भारत के लोगों को जो अधिनियमित था अपनाया और खुद को संविधान दिया है. • इस प्रकार, संप्रभुता लोगों के साथ अंत में निहित है. • यह भी लोगों की जरूरत है कि प्राप्त किया जा करने के आदर्शों और आकांक्षाओं को वाणी है. • आदर्शों आकांक्षाओं से अलग कर रहे हैं. जबकि पूर्व हे परमेश्वर के रूप में भारत के संविधान की घोषणा के साथ हासिल किया गया है, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य, बाद न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे, जो अभी तक प्राप्त किया जा शामिल है. आदर्शों आकांक्षाओं को प्राप्त करने का मतलब हैं.
प्रस्तावना

हम, भारत के लोगों, सत्यनिष्ठा से एक संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य में भारत का गठन करने के लिए और अपने सभी नागरिकों को सुरक्षित हल होने: न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक; सोचा, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता; स्थिति के और अवसर की समानता, और उन सब के बीच बढ़ावा देने व्यक्ति और राष्ट्र की एकता और अखंडता की गरिमा आश्वस्त बिरादरी; हमारी संविधान सभा नवम्बर, 1949 के इस बीस छठे दिन में, एतद्द्वारा, अपनाने करते अधिनियमित और अपने आप को इस संविधान दे.
प्रभु 'संप्रभु' शब्द पर जोर दिया कि भारत के बाहर कोई अधिकार नहीं है जिस पर देश के किसी भी निर्भर रास्ते में है.
समाजवादी 'समाजवादी' शब्द करके, संविधान लोकतांत्रिक साधनों के माध्यम से समाज के समाजवादी पैटर्न की उपलब्धि का मतलब है.
लौकिक • है कि भारत एक 'सेकुलर राज्य' है का मतलब है कि भारत के गैर - धार्मिक या अधार्मिक, या विरोधी धार्मिक नहीं करता, लेकिन बस है कि राज्य में ही धार्मिक और नहीं है "सर्व धर्म Samabhava" प्राचीन भारतीय सिद्धांत निम्नानुसार है. • यह भी मतलब है कि राज्य के नागरिकों के खिलाफ किसी भी तरह से धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा. • राज्य का संबंध धर्म विश्वास करने के लिए सही है या नहीं एक धर्म में विश्वास सहित एक व्यक्ति का निजी मामला हो सकता है. हालांकि, भारत अर्थ है पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्ष नहीं है, अपनी विशिष्ट सामाजिक - सांस्कृतिक वातावरण के कारण.
यह संविधान का एक हिस्सा है? • Kesavananda केरल मामले (1971) की भारती बनाम राज्य में उच्चतम न्यायालयके 1960 के पहले निर्णय खारिज (Berubari मामले) और यह स्पष्ट है कि यह संविधान का एक हिस्सा है और संसद के संशोधन के रूप में सत्ता के अधीन है संविधान के किसी अन्य प्रावधान, संविधान के मूल ढांचे प्रदान के रूप में प्रस्तावना में पाया नष्ट नहीं है. हालांकि, यह संविधान का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं है. • नवीनतम S.R. बोम्मई मामले में, 1993 में तीन सांसद, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी के बारे में, जस्टिस रामास्वामी ने कहा, "संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न हिस्सा है सरकार, संघीय ढांचे की एकता और अखंडता के लोकतांत्रिक रूप. राष्ट्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, सामाजिक न्याय और न्यायिक समीक्षा संविधान के बुनियादी सुविधाओं कर रहे हैं ". • प्रश्न प्रस्तावना जब यह एक बुनियादी सुविधा है संशोधन किया गया था क्यों के रूप में उठता है. 42 संशोधन करके, प्रस्तावना 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' को शामिल करने के लिए संशोधन किया गया था के रूप में यह मान लिया था कि इन संशोधनों को स्पष्ट कर रहे हैं और प्रकृति में योग्यता. वे पहले से ही प्रस्तावना में निहित हैं
लोकतंत्रीय • शब्द का अर्थ है 'डेमोक्रेटिक कि लोगों द्वारा चुने गए शासकों केवल सरकार चलाने का अधिकार है. • भारत 'प्रतिनिधि लोकतंत्र' की एक प्रणाली है, जहां सांसदों और विधायकों को सीधे लोगों द्वारा चुने गए हैं निम्नानुसार है. पंचायतों और नगर पालिकाओं (73 और 74 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992) के माध्यम से जमीनी स्तर पर लोकतंत्र ले • प्रयास किए जा रहे हैं. हालांकि, प्रस्तावना न केवल राजनीतिक, लेकिन यह भी लोकतंत्र सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्रों की परिकल्पना की गई है.
गणतंत्र 'गणतंत्र' शब्द का मतलब है कि वहाँ भारत में कोई वंशानुगत शासक और राज्य के सभी प्राधिकारी हैं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लोगों द्वारा चुने गए मौजूद है.
प्रस्तावना राज्यों है कि प्रत्येक नागरिक उद्देश्यों के लिए सुरक्षित कर रहे हैं 1. न्यायमूर्ति: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक • न्याय के बारे में, एक बात स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के राजनीतिक न्याय के लिए राज्य और अधिक से अधिक कल्याण प्रकृति में उन्मुख बनाने के द्वारा सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने का मतलब हो जाने की उम्मीद है. • भारत में राजनीतिक न्याय सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार द्वारा योग्यता के किसी भी प्रकार के बिना गारंटी है. • जबकि सामाजिक न्याय सम्मान की abolishingjmy Jitle (18 Art.) द्वारा सुनिश्चित किया जाता है और अस्पृश्यता (17 Art.), निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से मुख्य रूप से आर्थिक न्याय की गारंटी है.
2. लिबर्टी: सोचा, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और पूजा की • लिबर्टी एक मुक्त समाज का एक अनिवार्य विशेषता है कि एक व्यक्ति के बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक संकायों के पूर्ण विकास में मदद करता है. • भारतीय संविधान छह आर्ट के तहत व्यक्तियों को लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है. 19 और धर्म की कला के तहत स्वतंत्रता का अधिकार. 25-28.
3. की स्थिति, अवसर: समानता • स्वतंत्रता का फल पूरी तरह से जब तक वहाँ स्थिति और अवसर की समानता है महसूस नहीं किया जा सकता है. • हमारा संविधान यह गैरकानूनी बना देता है, धर्म, जाति, लिंग, या सभी के लिए खुला सार्वजनिक स्थानों अस्पृश्यता (17 Art.) को खत्म करने, फेंकने द्वारा और जन्म स्थान (15 Art.) के आधार पर ही राज्य द्वारा किसी भेदभाव सम्मान के खत्म शीर्षक (ArtJ8). • हालांकि, राष्ट्रीय मुख्यधारा में समाज के अब तक उपेक्षित वर्गों को लाने के लिए, संसद अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों (सुरक्षा भेदभाव) के लिए कुछ कानून पारित कर दिया गया है.
4. बिरादरी भाईचारे के रूप में संविधान में निहित भाईचारे की भावना लोगों के सभी वर्गों के बीच प्रचलित मतलब है. यह राज्य धर्मनिरपेक्ष बनाने, समान रूप से सभी वर्गों के लोगों को मौलिक और अन्य अधिकारों की गारंटी, और उनके हितों की रक्षा के द्वारा प्राप्त किया जा मांग की है. हालांकि, बिरादरी एक उभरती प्रक्रिया है और 42 संशोधन द्वारा 'अखंडता' शब्द जोड़ा गया था, इस प्रकार यह एक व्यापक अर्थ दे.

के.एम. मुंशी 'राजनीतिक कुंडली' के रूप में करार दिया. बयाना बार्कर यह संविधान की कुंजी कहता है. ठाकुरदास भार्गव 'संविधान की आत्मा' के रूप में मान्यता दी. शब्द 'समाज के सोशलिस्टिक पैटर्न' अवादी सत्र में 1955 में कांग्रेस द्वारा भारतीय राज्य का एक लक्ष्य के रूप में अपनाया गया था.

संविधान भाग ५ नीति निर्देशक तत्व

भाग 3 तथा 4 मिल कर संविधान की आत्मा तथा चेतना कहलाते हैक्यों कि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए मौलिक अधिकार तथा निति निर्देश देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीति निर्देशक तत्व जनतांत्रिक संवैधानिक विकास के नवीनतम तत्व हैं सर्वप्रथम ये आयरलैंडके संविधान मे लागू किये गये थे। ये वे तत्व है जो संविधान के विकास के साथ ही विकसित हुए है। इन तत्वॉ का कार्य एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। भारतीय संविधान के इस भाग में नीति निर्देशक तत्वों का रूपाकार निश्चित किया गया है, मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व मे भेद बताया गया है और नीति निदेशक तत्वों के महत्व को समझाया गया है।

भाग 4 क मूल कर्तव्य

मूल कर्तव्य मूल सविधान में नहीं थे, इन्हे ४२ वें संविधान संशोधन द्ववारा जोड़ा गया है। ये रूस से प्रेरित होकर जोड़े गये तथा संविधान के भाग ४ (क) के अनुच्छेद ५१ - अ मे रखे गये हैं । ये कुल ११ है ।
51 क. मूल कर्तव्य- भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
(क) संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे ; (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे; (ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे; (घ) देश की रक्षा करे और आह्वान करने किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे; (ङ) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है; (च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उस का परिरक्षण करे; (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे; (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे; (झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे; (ञ) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले; (ट) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।

भाग 5 संघ

पाठ 1 संघीय कार्यपालिका

संघीय कार्यपालिका मे राष्ट्रपति ,उपराष्ट्रपति,मंत्रिपरिषद तथा महान्यायवादी आते है। रामजवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य वाद मे सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका शक्ति को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
  • 1 विधायिका न्यायपालिका के कार्यॉ को पृथक करने के पश्चात सरकार का बचा कार्य ही कार्यपालिका है।
  • 2 कार्यपालिका मॅ देश का प्रशासन, विधियॉ का पालन सरकारी नीति का निर्धारण ,विधेयकॉ की तैयारी करना ,कानून व्यव्स्था बनाये रखना सामाजिक आर्थिक कल्याण को बढावा देना विदेश नीति निर्धारित करना आदि आता है।

राष्ट्रपति

संघ का कार्यपालक अध्यक्ष है संघ के सभी कार्यपालक कार्य उस के नाम से किये जाते है अनु 53 के अनुसार संघ की कार्यपालक शक्ति उसमॅ निहित है इन शक्तियॉ/कार्यों का प्रयोग क्रियांवय्न राष्ट्रपति सविन्धान के अनुरूप ही सीधे अथवा अधीनस्थ अधिकारियॉ के माध्यम से करेगा। वह सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च सेनानायक भी होता है,सभी प्रकार के आपातकाल लगाने व हटाने वाला युद्ध शांति की घोषणा करने वाला होता है वह देश का प्रथम नागरिक है तथा राज्य द्वारा जारी वरीयता क्रम मे उसका सदैव प्रथम स्थान होता है। भारतीय राष्ट्रपति का भारतीय नागरिक होना आवश्यक है तथा उसकी आयु कम से कम ३५ वर्ष होनी चाहिए। राष्ट्रपति का चुनाव, उस पर महाभियोग की अवस्थाएँ, उसकी शक्तियाँ, संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की स्थिति, राष्ट्रपति की संसदीय शक्ति तथा राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियों का वर्णन इस अध्याय में किया गया है।

उपराष्ट्रपति

उपराष्ट्रपति का राज्य सभा का पदेन सभापति होना--उपराष्ट्रपति, राज्य सभा का पदेन सभापति होगा और अन्य कोई लाभ का पद धारण नहीं करेगा: परंतु जिस किसी अवधि के दौरान उपराष्ट्रपति, अनुच्छेद 65 के अधीन राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है या राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करता है, उस अवधि के दौरान वह राज्य सभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा और वह अनुच्छेद 97 के अधीन राज्य सभा के सभापति को संदेय वेतन या भत्ते का हकदार नहीं होगा।
65. राष्ट्रपति के पद में आकस्मिक रिक्ति के दौरान या उसकी अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति का राष्ट्रपति के रूप में कार्य करना या उसके कृत्यों का निर्वहन--(1) राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से उसके पद में हुई रिक्ति की दशा में उपराष्ट्रपति उस तारीख तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा जिस तारीख को ऐसी रिक्ति को भरने के लिए इस अध्याय के उपबंधों के अनुसार निर्वाचित नया राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करता है।
(2) जब राष्ट्रपति अनुपस्थिति, बीमारी या अन्य किसी कारण से अपने कृत्यों का निर्वहन करने में असमर्थ है तब उपराष्ट्रपति उस तारीख तक उसके कृत्यों का निर्वहन करेगा जिस तारीख को राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों को फिर से संभालता है।
उपराष्ट्रपति को उस अवधि के दौरान और उस अवधि के संबंध में, जब वह राष्ट्रपति के रूप में इस प्रकार कार्य कर रहा है या उसके कृत्यों का निर्वहन कर रहा है, राष्ट्रपति की सभी शक्तियाँ और उन्मुक्तियाँ होंगी तथा वह ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का जो संसद, विधि द्वारा, अवधारित करे, और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसी उपलब्धियों, भत्तों और विशेषाधिकारों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, हकदार होगा।
66. उपराष्ट्रपति का निर्वाचन--(1) उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचकगण के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होगा और ऐसे निर्वाचन में मतदान गुप्त होगा।
(2) उपराष्ट्रपति संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा और यदि संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का कोई सदस्य उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो जाता है तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान उपराष्ट्रपति के रूप में अपने पद ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।
(3) कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र तभी होगा जब वह-- (क) भारत का नागरिक है, (ख) पैंतीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका है, और (ग) राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए अर्हित है।
(4) कोई व्यक्ति, जो भारत सरकार के या किसी राज्य की सरकार के अधीन अथवा उक्त सरकारों में से किसी के नियंत्रण में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता है, उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने का पात्र नहीं होगा। स्पष्टीकरण--इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण कोई लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल 2 * * * है अथवा संघ का या किसी राज्य का मंत्री है।
67. उपराष्ट्रपति की पदावधि--(1) उपराष्ट्रपति अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक पद धारण करेगा: परंतु-- (क) उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; (ख) उपराष्ट्रपति, राज्य सभा के ऐसे संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा जिसे राज्य सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत ने पारित किया है और जिससे लोकसभा सहमत है; किंतु इस खंड के प्रयोजन के लिए कई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो; (ग) उपराष्ट्रपति, अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी, तब तक पद धारण करता रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता है। 68. उपराष्ट्रपति के पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन करने का समय और आकस्मिक रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति की पदावधि--(1) उपराष्ट्रपति की पदावधि की समाप्ति से हुई रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, पदावधि की समाप्ति से पहले ही पूर्ण कर लिया जाएगा। (2) उपराष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से हुई उसके पद में रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचन, रिक्ति होने के पश्चात्‌ यथाशीघ्र किया जाएगा और रिक्ति को भरने के लिए निर्वाचित व्यक्ति, अनुच्छेद 67 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, अपने पद ग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष की पूरी अवधि तक पद धारण करने का हकदार होगा।
69. उपराष्ट्रपति द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान--प्रत्येक उपराष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करने से पहले राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष निम्नलिखित प्ररूप में शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा, अर्थात्‌: -- ईश्वर की शपथ लेता हूँ
मैं, अमुक ---------------------------------कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ, श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूँगा।

मंत्रिपरिषद

संसदीय लोकतंत्र के मह्त्वपूर्ण सिद्धांत 1. राज्य प्रमुख, सरकार प्रमुख न होकर मात्र संवैधानिक प्रमुख ही होता है
2. वास्तविक कार्यपालिका शक्ति, मंत्रिपरिषद जो कि सामूहिक रूप से संसद के निचले सदन के सामने उत्तरदायी होगा के पास होगी
3 मंत्रिपरिषद के सद्स्य संसद के सद्स्यों से लिए जायेंगे

परिषद का गठन

1. प्रधानमंत्री के पद पे आते ही यह परिषद गठित हो जाती है यह आवश्यक नही है कि उसके साथ कुछ अन्य मंत्री भी शपथ ले केवल प्रधानमंत्री ही मंत्रिपरिषद होगा
2 मंत्रिपरिषद की सद्स्य संख्या पर मौलिक संविधान मे कोई रोक नही थी किंतु 91 वे संशोधन के द्वारा मंत्रिपरिषद की संख्या
लोकसभा के सद्स्य संख्या के 15% तक सीमित कर दी गयी वही राज्यों मेभी मंत्रीपरिषद की
संख्या विधानसभा के 15% से अधिक नही होगी पंरंतु न्यूनतम 12 मंत्री होंगे

मंत्रियों की श्रेणियाँ

संविधान मंत्रियों की श्रेणी निर्धारित नही करता यह निर्धारण अंग्रेजी प्रथा के आधार पर किया गया है
कुल तीड़्न प्रकार के मंत्री माने गये है
  • 1. कैबिनेट मंत्री—सर्वाधिक वरिष्ठ मंत्री है उनसे ही कैबिनेट का गठन होता है मंत्रालय मिलने पर वे उसके अध्यक्ष होते है उनकी सहायता हेतु राज्य मंत्री तथा उपमंत्री होते है उन्हें कैबिनेट बैठक मे बैठने का अधिकार होता है अनु 352 उन्हें मान्यता देता है
कृप्या सभी कैबिनेट मंत्रालयों ,राज्य मंत्रालय की सूची पृथक से जोड दे
  • 2. राज्य मंत्रीद्वितीय स्तर के मंत्री होते है सामान्यत उनहे मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार नही मिलता किंतु प्रधानमंत्री चाहे तो यह कर सकता है उन्हें कैबिनेट बैठक मे आने का अधिकार नही होता।
  • 3. उपमंत्रीकनिष्ठतम मंत्री है उनका पद सृजन कैबिनेट या राज्य मंत्री को सहायता देने हेतु किया जाता है वे मंत्रालय या विभाग का स्वतंत्र प्रभार भी नही लेते है।
  • 4. संसदीय सचिवसत्तारूढ दल के संसद सद्स्य होते है इस पद पे नियुक्त होने के पश्चात वे मंत्री गण की संसद तथा इसकी समितियॉ मे कार्य करने मे सहायता देते है वे प्रधान मंत्री की इच्छा से पद ग्रहण करते है वे पद गोपनीयता की शपथ भी प्रधानमंत्री के द्वारा ग्रहण करते है वास्तव मे वे मंत्री परिषद के सद्स्य नही होते है केवल मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है।

मंत्रिमंडल

मंत्रि परिषद एक संयुक्त निकाय है जिसमॆं 1,2,या 3 प्रकार के मंत्री होते है यह बहुत कम मिलता है चर्चा करता है या निर्णय लेता है वहीं मंत्रिमंडल मे मात्र कैबिनेट प्रकार के मंत्री होते है यह समय समय पर मिलती है तथा समस्त महत्वपूर्ण निर्णय लेती है इस के द्वारा स्वीकृत निर्णय अपने आप परिषद द्वारा स्वीकृत निर्णय मान लिये जाते है यही देश का सर्वाधिक मह्त्वपूर्ण निर्णय लेने वाला निकाय है
  • सम्मिलित उत्तरदायित्वअनु 75[3] के अनुसार मंत्रिपरिषद संसद के सामने सम्मिलित रूप से उत्तरदायी है इसका लक्ष्य मंत्रिपरिषद मे संगति लाना है ताकि उसमे आंतरिक रूप से विवाद पैदा ना हो।
  • व्यक्तिगत उत्तरदायित्वअनु 75[2] के अनुसार मंत्री व्यक्तिगत रूप से राष्ट्रपति के सामने उत्तरदायी होते है किंतु यदि प्रधानमंत्री की सलाह ना हो तो राष्ट्रपति मंत्री को पद्च्युत नही कर सकता है।

भारत का महान्यायवादी

भारत का महान्यायवादी संसद के किसी भी सदन का सदस्य न रहते हुए भी संसद की कार्रवाई में भाग ले सकता है ।

प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री की दशा समानों मे प्रधान की तरह है वह कैबिनेट का मुख्य स्तंभ है मंत्री परिषद का मुख्य सद्स्य भी वही है अनु 74 स्पष्ट रूप से मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता तथा संचालन हेतु प्रधानम्ंत्री की उपस्तिथि आवश्यक मानता है उसकी मृत्यु या त्यागपत्र की द्शा मे समस्त परिषद को पद छोडना पडता है वह अकेले ही मंत्री परिषद का गठन करता है राष्ट्रपति मंत्री गण की नियुक्ति उस की सलाह से ही करता है मंत्री गण के विभाग का निर्धारण भी वही करता है कैबिनेट के कार्य का निर्धारण भी वही करता है देश के प्रशासन को निर्देश भी वही देता है सभी नीतिगत निर्णय वही लेता है राष्ट्रपति तथा मंत्री परिषद के मध्य संपर्क सूत्र भी वही है परिषद का प्रधान प्रवक्ता भी वही है परिषद के नाम से लडी जाने वाली संसदीय बहसॉ का नेतृत्व करता है संसद मे परिषद के पक्ष मे लडी जा रही किसी भी बहस मे वह भाग ले सकता है मन्त्री गण के मध्य समन्वय भी वही करता है वह किसी भी मंत्रालय से कोई भी सूचना मंगवा सकता है इन सब कारणॉ के चलते प्रधानम्ंत्री को देश का सबसे मह्त्वपूर्ण राजनैतिक व्यक्तित्व माना जाता है
प्रधानमंत्री सरकार के प्रकार
प्रधानमंत्री सरकार संसदीय सरकार का ही प्रकार है जिसमे प्रधानमंत्री मंत्रि परिषद का नेतृत्व करता है वह कैबिनेट की निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है वह कैबिनेट से अधिक शक्तिशाली है उसके निर्णय ही कैबिनेट के निर्णय है देश की सामान्य नीतियाँ कैबिनेट द्वारा निर्धारित नहीं होती है यह कार्य प्रधानमंत्री अपने निकट सहयोगी चाहे वो मंत्रि परिषद के सद्स्य ना हो की सहायता से करता है जैसे कि इंदिरा गाँधी अपने किचन कैबिनेट की सहायता से करती थी
प्रधानमंत्री सरकार के लाभ
  • 1 तीव्र तथा कठोर निर्णय ले सकती है
  • 2 देश को राजनैतिक स्थाईत्व मिलता है
इससे कुछ हानि भी है
  • 1 कैबिनेट ऐसे निर्णय लेती है जो सत्ता रूढ दल के हित मे हो न कि देश के हित मे
  • 2 इस के द्वारा गैर संवैधानिक शक्ति केन्द्रों का जन्म होता है
कैबिनेट सरकार
संसदीय सरकार का ही प्रकार है इस मे नीति गत निर्णय सामूहिक रूप से कैबिनेट [मंत्रि मंडल ] लेता है इस मे प्रधानमंत्री कैबिनेट पे छा नही जाता है इस के निर्णय सामान्यत संतुलित होते है लेकिन कभी कभी वे इस तरह के होते है जो अस्पष्ट तथा साहसिक नही होते है। 1989 के बाद देश मे प्रधानमंत्री प्रकार का नही बल्कि कैबिनेट प्रकार का शासन रहा है।
प्रधानमन्त्री के कार्य
१- मन्त्रीपरिषद के गठन का कार्य २- प्रमुख शासक ३- नीति निर्माता ४- ससद का नेता ५- विदेश निती का निर्धारक

कार्यकारी सरकार

बहुमत समाप्त हो जाने के बाद जब मंत्रि परिषद त्यागपत्र दे देती है तब कार्यकारी सरकार अस्तित्व मे आती है अथवा प्रधानमंत्री की मृत्यु/ त्यागपत्र की दशा मे यह स्थिति आती है। यह सरकार अंतरिम प्रकृति की होती है यह तब तक स्थापित रहती है जब तक नयी मंत्रिपरिषद शपथ ना ले ले यह इसलिए काम करती है ताकि अनुच्छेद 74 के अनुरूप एक मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति की सहायता हेतु रहे। वी.एन.राव बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालयने माना था कि मंत्रि परिषद सदैव मौजूद रहनी चाहिए यदि यह अनुपस्थित हुई तो राष्ट्रपति अपने काम स्वंय करने लगेगा जिस से सरकार का रूप बदल कर राष्ट्रपति हो जायेगा जो कि संविधान के मूल ढाँचे के खिलाफ होगा। यह कार्यकारी सरकार कोई भी वित्तीय/नीतिगत निर्णय नही ले सकती है क्योंकि उस समय लोक सभा मौजूद नही रहती है वह केवल देश का दैनिक प्रशासन चलाती है। इस प्रकार की सरकार के सामने सबसे विकट स्थिति तब आ गयी थी जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को 1999 मे कारगिल युद्ध का संचालन करना पडा था। किंतु विकट दशा मे इस प्रकार की सरकार भी कोई भी नीति निर्णय ले सकती है।

सुस्थापित परंपराए

एक संसदीय सरकार में ये पंरपराए ऐसी प्रथाएँ मानी जाती है जो सरकार के सभी अंगों पर वैधानिक रूप
से लागू मानी जाती है उनका वर्णन करने के लिये कोई विधान नहीं होता है ना ही संविधान मे किसी देश के शासन के बारे मे पूर्ण वर्णन किया जा सकता है संविधान निर्माता भविष्य मे होने वाले विकास तथा देश के शासन पर उनके प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकते अतः वे उनके संबंध मे संविधान में प्रावधान भी नहीं कर सकते है
इस तरह संविधान एक जीवित शरीर तो है परंतु पूर्ण वर्णन नही है इस वर्णन मे बिना संशोधन लाये परिवर्तन भी नहीं हो सकता है वही पंरपराए संविधान के प्रावधानॉ की तरह वैधानिक नहीं होती वे सरकार के संचालन में स्नेहक का कार्य करते है तथा सरकार का प्रभावी संचालन करने मे सहायक है
पंरपराए इस लिए पालित की जाती है क्योंकि उनके अभाव मे राजनैतिक कठिनाइया आ सकती है इसी कारण उन्हें संविधान का पूरक माना जाता हैब्रिटेन मे हम इनका सबसे विकसित तथा प्रभावशाली रूप देख सकते है
इनके दो प्रकार है प्रथम वे जो संसद तथा मंत्रिपरिषद के मध्य संयोजन का कार्य करती है यथा अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर परिषद का त्यागपत्र दे देना
द्वितीय वे जो विधायिका की कार्यवाहिय़ों से संबंधित है जैसे किसी बिल का तीन बार वाचन संसद के तीन सत्र राष्ट्रपति द्वारा धन बिल को स्वीकृति देना उपस्पीकर का चुनाव विपक्ष से करना जब स्पीकर सत्ता पक्ष से चुना गया हो आदि
सरकार के संसदीय तथा राष्ट्रपति प्रकार
संसदीय शासन के समर्थन मे तर्क
1. राष्ट्रपतीय शासन मे राष्ट्रपति वास्तविक कार्य पालिका होता है जो जनता द्वारा निश्चित समय के लिये चुना जाता है वह विधायिका के प्रति उत्तरदायी भी नेही होता है उसके मंत्री भी विधायिका के सदस्य नही होते है तथा उसी के प्रति उत्ततदायी होंगे न कि विधायिका के प्रति
वही संसदीय शासन मे शक्ति मंत्रि परिषद के पास होती है जो विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है
2. भारत की विविधता को देखते हुए संसदीय शासन ज्यादा उपयोगी है इस मे देश के सभी वर्गों के लोग मंत्रि परिषद मे लिये जा सकते है
3. इस् शासन मे संघर्ष होने [विधायिका तथा मंत्रि परिषद के मध्य] की संभावना कम रहती है क्यॉकि मंत्री विधायिका के सदस्य भी होते है
4 भारत जैसे विविधता पूर्ण देश मे सर्वमान्य रूप से राष्ट्रपति का चुनाव करना लगभग असंभव है
5 मिंटे मार्ले सुधार 1909 के समय से ही संसदीय शासन से भारत के लोग परिचय रखते है ,kfduytjkjoojidsfuhgyuhgihtriijik

भाग पाँच, अध्याय 2, संसद

राज्य सभा

राज्यों को संघीय स्तर पर प्रतिनिधित्व देने वाली सभा है जिसका कार्य संघीय स्तर पर राज्य हितॉ का संरक्षण करना है। इसे संसद का दूसरा सदन कह्ते है इसके सदस्य दो प्रकार से निर्वाचित होते है राज्यॉ से 238 को निर्वाचित करते है तथा राष्ट्रपति द्वारा 12 को मनोनीत करते है। वर्तमान मे यह संख्या क्रमश 233 ,12 है ये सद्स्य 6 वर्ष हेतु चुने जाते है इनका चयन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के द्वारा होता है मत एकल संक्रमणीय प्रणाली से डाले जाते है। मत खुले डाले जाते है.सद्स्य जो निर्वाच्त होना चाहते है देश के किसी भी संसदीय क्षेत्र से एक निर्वाचक के रूप मे पंजीकृत होने चाहिए।

राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ

राज्यसभा के पास तीन विशेष शक्तिया होती है
  1. अनु. 249 के अंतर्गत राज्य सूची के विषय पर 1 वर्ष का बिल बनाने का हक
  2. अनु. 312 के अंतर्गत नवीन अखिल भारतीय सेवा का गठन 2/3 बहुमत से करना
  3. अनु. 67 ब उपराष्ट्रपति को हटाने वाला प्रस्ताव राज्यसभा मे ही लाया जा सकेगा

राज्य सभा का संघीय स्वरूप

  1. राज्य सभा का गठन ही राज्य परिषद के रूप मे संविधान के संघीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व देने के लिये हुआ था
  2. राज्य सभा के सद्स्य मंत्रि परिषद के सदस्य बन सकते है जिससे संघीय स्तर पर निर्णय लेने मे राज्य का प्रतिनिधित्व होगा
  3. राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा महाभियोग तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन मे समान रूप से भाग लेती है
  4. अनु 249,312 भी राज्य सभा के संघीय स्वरूप तथा राज्यॉ के संरक्षक रूप मे उभारते है
  5. सभी संविधान संशोधन बिल भी इस के द्वारा पृथक सभा कर तथा 2/3 बहुमत से पास होंगे
  6. संसद की स्वीकृति चाहने वाले सभी प्रस्ताव जो कि आपातकाल से जुडे हो भी राज्यसभा द्वारा पारित होंगे

राज्य सभा के गैर संघीय तत्व

  1. संघीय क्षेत्रॉ को भी राज्य सभा मे प्रतिनिधित्व मिलता है जिससे इसका स्वरूप गैर संघीय हो जाता है
  2. राज्यॉ का प्रतिनिधित्व राज्यॉ की समानता के आधार पे नही है जैसा कि अमेरिका मे है वहाँ प्रत्येक राज्य को
    सीनेट मे दो स्थान मिलते है किंतु भारत मे स्थानॉ का आवंटन आबादी के आधार पे किया गया है
  3. राज्य सभा मे मनोनीत सद्स्यों का प्रावधान है

राज्य सभा का मह्त्व

  1. किसी भी संघीय शासन मे संघीय विधायिका का ऊपरी भाग संवैधानिक बाध्यता के चलते राज्य हितॉ की संघीय
    स्तर पर रक्षा करने वाला बनाया जाता है इसी सिद्धांत के चलते राज्य सभा का गठन हुआ है ,इसी कारण राज्य सभा को सदनॉ
    की समानता के रूप मे देखा जाता है जिसका गठन ही संसद के द्वितीय सदन के रूप मे हुआ है
  2. यह जनतंत्र की मांग है कि जहाँ लोकसभा सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है विशेष शक्तियॉ का उपभोग करती है
    ,लोकतंत्र के सिद्धांत के अनुरूप मंत्रिपरिषद भी लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होने के लिये बाध्य करते है किंतु ये दो कारण किसी भी प्रकार
    से राज्यसभा का मह्त्व कम नही करते है
  3. राज्यसभा का गठन एक पुनरीक्षण सदन के रूप मे हुआ है जो लोकसभा द्वारा पास किये गये प्रस्तावॉ की पुनरीक्षा करे
    यह मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की कमी भी पूरी कर सकती है क्योंकि कम से कम 12 विशेषज्ञ तो इस मे मनोनीत होते ही है
  4. आपातकाल लगाने वाले सभी प्रस्ताव जो राष्ट्रपति के सामने जाते है राज्य सभा द्वारा भी पास होने चाहिये
  5. राज्य सभा का महत्व यह है कि जहाँ लोकसभा सदैव सरकार से सहमत होती है जबकि राज्यसभा सरकार की नीतिय़ों का निष्पक्ष मूल्याँकन कर सकती है
  6. मात्र नैतिक प्रभाव सरकार पे डालती है किंतु यह लोकस्भा के प्रभाव की तुलना मे ज्यादा होता है

राज्य सभा के पदाधिकारी उनका निर्वाचन ,शक्ति ,कार्य, उत्तरदायित्व तथा पदच्युति

लोकसभा

यह संसद का लोकप्रिय सदन है जिसमे निर्वाचित मनोनीत सद्स्य होते है संविधान के अनुसार लोकसभा का विस्तार राज्यॉ से चुने गये 530, संघ क्षेत्र से चुने गये 20 और राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 2 आंग्ल भारतीय सदस्यॉ तक होगा वर्तमान मे राज्यॉ से 530 ,संघ क्षेत्रॉ
से 13 तथा 2 आंग्ल भारतीय सद्स्यॉ से सदन का गठन किया गया है
कुछ स्थान अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति हेतु आरक्षित है
प्रत्येक राज्य को उसकी आबादी के आधार पर सद्स्य मिलते है अगली बार लोकसभा के सदस्यॉ की संख्या वर्ष 2026 मे निर्धारित किया जायेगा वर्तमान मे यह 1971 की जनसंख्या पे आधारित है इससे पहले प्रत्येक दशक की जनगणना के आधार पर सदस्य स्थान निर्धारित होते थे यह कार्य बकायदा 84 वे संविधान संशोधन से किया गया था ताकि राज्य अपनी आबादी के आधार पर ज्यादा से ज्यादा स्थान प्राप्त करने का प्रयास नही करे
लोकसभा की कार्यावधि 5 वर्ष है पर्ंतु इसे समय से पूर्व भंग किया जा सकता है

लोकसभा की विशेष शक्तियाँ

  1. मंत्री परिषद केवल लोकस्भा के प्रति उत्तरदायी है अविश्वास प्रस्ताव सरकार के विरूद्ध केवल यही लाया जा सकता है
  2. धन बिल पारित करने मे यह निर्णायक सदन है
  3. राष्ट्रीय आपातकाल को जारी रखने वाला प्रस्ताव केवल लोकस्भा मे लाया और पास किया जायेगा

लोकसभा के पदाधिकारी

स्पीकर

लोकसभा का अध्यक्ष होता है इसका चुनाव लोकसभा सदस्य अपने मध्य मे से करते है इसके दो कार्य है
1. लोकसभा की अध्यक्षता करना उस मे अनुसाशन गरिमा तथा प्रतिष्टा बनाये रखना इस कार्य हेतु वह किसी न्यायालय के सामने उत्तरदायी नही होता है
2. वह लोकसभा से संलग्न सचिवालय का प्रशासनिक अध्यक्ष होता है किंतु इस भूमिका के रूप मे वह न्यायालय के समक्ष उत्तरदायी होगा
उसकी विशेष शक्तियाँ
1. दोनो सदनॉ का सम्मिलित सत्र बुलाने पर स्पीकर ही उसका अध्यक्ष होगा उसके अनुउपस्थित होने पर उपस्पीकर तथा उसके भी न होने पर राज्यसभा का उपसभापति अथवा सत्र द्वारा नांमाकित कोई भी सदस्य सत्र का अध्यक्ष होता है
2. धन बिल का निर्धारण स्पीकर करता है यदि धन बिल पे स्पीकर साक्ष्यांकित नही करता तो वह धन बिल ही नही माना जायेगा उसका निर्धारण अंतिम तथा बाध्यकारी होगा
3. सभी संसदीय समितियाँ उसकी अधीनता मे काम करती है उसके किसी समिति का सदस्य चुने जाने पर वह उसका पदेन अध्यक्ष होगा
4. लोकसभा के विघटन होने पर भी उसका प्रतिनिधित्व करने के लिये स्पीकर पद पर कार्य करता रहता है नवीन लोकसभा चुने जाने पर वह अपना पद छोड देता है

स्पीकर प्रोटेम [कार्यवाहक]

जब कोई नवीन लोकसभा चुनी जाती है तब राष्ट्रपति उस सदस्य को कार्यवाहक स्पीकर नियुक्त करता है जिसको संसद मे सदस्य होने का सबसे लंबा अनुभव होता है वह राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करता है
उसके दो कार्य होते है
1. संसद सदस्यॉ को शपथ दिलवाना
2. नवीन स्पीकर चुनाव प्रक्रिया का अध्यक्ष भी वही बनता है

उपस्पीकर

विधायिका[संसद - राज्य विधायिका] मे बहुमत के प्रकार

1. सामान्य बहुमत– उपस्थित सदस्यॉ तथा मतदान करने वालॉ के 50% से अधिक सदस्य ही सामान्य बहुमत है इस बहुमत का सदन की कुल सदस्य संख्या से कोई संबंध नही होता है
भारतीय संविधान के अनुसार अविश्वास प्रस्ताव, विश्वास प्रस्ताव, कामरोको प्रस्ताव, सभापति ,उपसभापति तथा अध्यक्षॉ के चुनाव हेतु सदन के यदि संविधान संशोधन का प्रस्ताव राज्य विधायिकाओं को भेजना हो ,सामान्य बिल , धन बिल, राष्ट्रपति शासन ,वित्तीय आपातकाललगाने हेतु सामान्य बहुमत को मान्यता प्राप्त है यदि बहुमत के प्रकार का निर्देश न होने पर उसे सदैव सामान्य बहुमत समझा जाता है
2. पूर्ण बहुमत– सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ का बहुमत [खाली सीटे भी गिनी जाती है] लोकसभा मे 273, राज्यसभा मे 123 सदस्यॉ का समर्थन . इसका राजनैतिक मह्त्व है न कि वैधानिक महत्व
3. प्रभावी बहुमत- मतदान के समय उपस्थित सदन के 50% से अधिक सदस्यॉ [खाली सीटॉ को छोडकर] यह तब प्रयोग आती है जब लोक सभा अध्यक्ष उपाध्यक्ष या राज्यसभा के उपसभापति को पद से हटाना हो या जब राज्यसभा उपराष्ट्रपति को पद से हटाने हेतु मतदान करे
4.विशेष बहुमत– प्रथम तीनो प्रकार के बहुमतॉ से भिन्न होता है इसके तीन प्रकार है
[क] अनु 249 के अनुसार- उपस्थित तथा मतदान देने वालॉ के 2/3 संख्या को विशेष बहुमत कहा गया है
[ख] अनु 368 के अनुसार– संशोधन बिल सदन के उपस्थित तथा सदन मे मत देने वालो के 2/3 संख्या जो कि सदन के कुल सदस्य संख्या का भी बहुमत हो [लोकसभा मे 273 सदस्य]इस बहुमत से संविधान संशोधन ,न्यायधीशॉ को पद से हटाना तथा राष्ट्रीय आपातकाल लगाना ,राज्य विधान सभा द्वारा विधान परिषद की स्थापना अथवा विच्छेदन की मांंग के प्रस्ताव पारित किये जाते है
[ग] अनु 61 के अनुसार– केवल राष्ट्रपति के महाभियोग हेतु सदन के कुल संख्या का कम से कम 2/3 [लोकसभा मे 364 सदस्य होने पर]

लोकसभा के सत्र

– अनु 85 के अनुसार संसद सदैव इस तरह से आयोजित की जाती रहेगी कि संसद के दो सत्रॉ के मध्य 6 मास
से अधिक अंतर ना हो पंरपरानुसार संसद के तीन नियमित सत्रॉ तथा विशेष सत्रों मे आयोजित की जाती है
सत्रॉ का आयोजन राष्ट्रपति की विज्ञप्ति से होता है
1. बजट सत्र वर्ष का पहला सत्र होता है सामान्यत फरवरी मई के मध्य चलता है यह सबसे लंबा तथा महत्वपूर्ण सत्र माना जाता है इसी सत्र मे बजट प्रस्तावित तथा पारित होता है सत्र के प्रांरभ मे राष्ट्रपति का अभिभाषण होता है
2. मानसून सत्र जुलाई अगस्त के मध्य होता है
3. शरद सत्र नवम्बर दिसम्बर के मध्य होता है सबसे कम समयावधि का सत्र होता है
विशेष सत्र – इस के दो भेद है 1. संसद के विशेष सत्र.
2. लोकसभा के विशेष सत्र
संसद के विशेष सत्र – मंत्रि परिषद की सलाह पर राष्ट्रपति इनका आयोजन करता है ये किसी नियमित सत्र के मध्य अथवा उससे पृथक आयोजित किये जाते है
एक विशेष सत्र मे कोई विशेष कार्य चर्चित तथा पारित किया जाता है यदि सदन चाहे भी तो अन्य कार्य नही कर सकता है
लोकसभा का विशेष सत्र– अनु 352 मे इसका वर्णन है किंतु इसे 44 वें संशोधन 1978 से स्थापित किया गया है यदि
लोकसभा के कम से कम 1/10 सद्स्य एक प्रस्ताव लाते है जिसमे राष्ट्रीय आपातकाल को जारी न रखने
की बात कही गयी है तो नोटिस देने के 14 दिन के भीतर सत्र बुलाया जायेगा
सत्रावसान– मंत्रिपरिषद की सलाह पे सदनॉ का सत्रावसान राष्ट्रपति करता है इसमे संसद का एक सत्र समाप्त
हो जाता है तथा संसद दुबारा तभी सत्र कर सकती है जब राष्ट्रपति सत्रांरभ का सम्मन जारी कर दे सत्रावसान की दशा मे संसद के
समक्ष लम्बित कार्य समाप्त नही हो जाते है
स्थगन– किसी सदन के सभापति द्वारा सत्र के मध्य एक लघुवधि का अन्तराल लाया जाता है इस से
सत्र समाप्त नही हो जाता ना उसके समक्ष लम्बित कार्य समाप्त हो जाते है यह दो प्रकार का होता है
1. अनिश्चित कालीन 2. जब अगली मीटिग का समय दे दिया जाता है
लोकसभा का विघटन— राष्ट्रपति द्वारा मंत्रि परिष्द की सलाह पर किया है इससे लोकसभा का जीवन समाप्त हो जाता है इसके बाद आमचुनाव ही होते है विघटन के बाद सभी लंबित कार्य जो लोकसभा के समक्ष होते है समाप्त हो जाते है किंतु बिल जो राज्यसभा मे लाये गये हो और वही लंबित होते है समाप्त न्ही होते या या बिल जो राष्ट्रपति के सामने विचाराधीन हो वे भी समापत नही होते है या राष्ट्रपति संसद के दोनॉ सदनॉ की लोकसभा विघटन से पूर्व संयुक्त बैठक बुला ले

विधायिका संबंधी कार्यवाही

/प्रक्रियाबिल/विधेयक के प्रकार कुल 4 प्रकार होते है
1.

सामान्य बिल

– इसकी 6 विशेषताएँ है
1. परिभाषित हो
2. राष्ट्रपति की अनुमति हो
3. बिल कहाँ प्रस्तावित हो
4. सदन की विशेष शक्तियॉ मे आता हो
5.कितना बहुमत चाहिए
6. गतिवरोध पैदा होना
यह वह विधेयक होता है जो संविधान संशोधन धन या वित्त विधेयक नही है यह संसद के किसी भी सदन मे लाया जा सकता है यदि अनुच्छेद 3 से जुडा ना हो तो इसको राष्ट्रप्ति की अनुंशसा भी नही चाहिए
इस बिल को पारित करने मे दोनो सदनॉ की विधायी शक्तिय़ाँ बराबर होती है इसे पारित करने मे सामान्य बहुमत
चाहिए एक सदन द्वारा अस्वीकृत कर देने पे यदि गतिवरोध पैदा हो जाये तो राष्ट्रपति दोनो सद्नॉ की संयुक्त बैठक मंत्रि परिषद की
सलाह पर बुला लेता है
राष्ट्रपति के समक्ष यह विधेयक आने पर वह इस को संसद को वापस भेज सकता है या स्वीकृति दे सकता है या अनिस्चित काल हेतु रोक सकता है

धन बिल

विधेयक जो पूर्णतः एक या अधिक मामलॉ जिनका वर्णन अनुच्छेद 110 मे किया गया हो से जुडा हो धन बिल कहलाता है ये मामलें है
1. किसी कर को लगाना,हटाना, नियमन
2. धन उधार लेना या कोई वित्तेय जिम्मेदारी जो भारत सरकार ले
3. भारत की आपात/संचित निधि से धन की निकासी/जमा करना
4.संचित निधि की धन मात्रा का निर्धारण
5. ऐसे व्यय जिन्हें भारत की संचित निधि पे भारित घोषित करना हो
6. संचित निधि मे धन निकालने की स्वीकृति लेना
7. ऐसा कोई मामला लेना जो इस सबसे भिन्न हो
धन बिल केवल लोकसभा मे प्रस्तावित किए जा सकते है इसे लाने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति आवशय्क है इन्हें पास करने के लिये सदन का सामान्य बहुमत आवश्यक होता है
धन बिल मे ना तो राज्य सभा संशोधन कर सकती है न अस्वीकार
जब कोई धन बिल लोकसभा पारित करती है तो स्पीकर के प्रमाणन के साथ यह बिल राज्यसभा मे ले जाया जाता है राज्यसभा इस
बिल को पारित कर सकती है या 14 दिन के लिये रोक सकती है किंतु उस के बाद यह बिल दोनॉ
सदनॉ द्वारा पारित माना जायेगा राज्य सभा द्वारा सुझाया कोई भी संशोधन लोक सभा की इच्छा पे निर्भर करेगा कि वो स्वीकार करे
या ना करे जब इस बिल को राष्ट्रपति के पास भेजा जायेगा तो वह सदैव इसे स्वीकृति दे देगा
फायनेसियल बिलवह विधेयक जो एक या अधिक मनीबिल प्रावधानॉ से पृथक हो तथा गैर मनी मामलॉ से भी संबधित हो एक फाइनेंस विधेयक मे धन प्रावधानॉ के साथ साथ सामान्य विधायन से जुडे मामले भी होते है इस प्रकार के विधेयक को पारित करने की शक्ति दोनो सदनॉ मे समान होती

संविधान संशोधन विधेयक

अनु 368 के अंतर्गत प्रस्तावित बिल जो कि संविधान के एक या अधिक प्रस्तावॉ को संशोधित करना चाहता है संशोधन बिल कहलाता है यह किसी भी संसद सदन मे बिना राष्ट्रपति की स्वीकृति के लाया जा सकता है इस विधेयक को सदन द्वारा कुल उपस्थित सदस्यॉ की 2/3 संख्या तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा ही पास किया जायेगा दूसरा सदन भी इसे इसी प्रकार पारित करेगा किंतु इस विधेयक को सदनॉ के पृथक सम्मेलन मे पारित किया जायेगा गतिरोध आने की दशा मे जैसा कि सामान्य विधेयक की स्थिति मे होता है सदनॉ की संयुक्त बैठक नही बुलायी जायेगी 24 वे संविधान संशोधन 1971 के बाद से यह अनिवार्य कर दिया गया है कि राष्ट्रपति इस बिल को अपनी स्वीकृति दे ही दे

विधेयक पारित करने मे आया गतिरोध

जब संसद के दोनॉ सदनॉ के मध्य बिल को पास करने से संबंधित विवाद हो या जब एक सदन द्वारा पारित बिल को दूसरा अस्वीकृत कर दे या इस तरह के संशोधन कर दे जिसे मूल सदन अस्वीकर कर दे या इसे 6 मास तक रोके रखे तब सदनॉ के मध्य गतिवरोध की स्थिति जन्म लेती है अनु 108 के अनुसार राष्ट्रपति इस दशा मे दोनॉ सदनॉ की संयुक्त बैठक बुला लेगा जिसमे सामान्य बहुमत से फैसला हो जायेगा अब तक मात्र तीन अवसरॉ पे इस प्रकार की बैठक बुलायी गयी है
1. दहेज निषेध एक्ट 1961
2.बैंकिग सेवा नियोजन संशोधन एक्ट 1978
3.पोटा एक्ट 2002
संशोधन के विरूद्ध सुरक्षा उपाय 1. न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र है
2.संविधान के मूल ढांचे के विरूद्ध न हो
3. संसद की संशोधन शक्ति के भीतर आता हो
4. संविधान की सर्वोच्चता, विधि का शासन तीनॉ अंगो का संतुलन बना रहे
5. संघ के ढाँचे से जुडा होने पर आधे राज्यॉ की विधायिका से स्वीकृति मिले
6. गठबंधन राजनीति भी संविधान संशोधन के विरूद्ध प्रभावी सुरक्षा उपाय देती है क्योंकि एकदलीय पूर्ण बहुमत के दिन समाप्त हो चुके

अध्यादेश जारी करना

अनु 123 राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति देता है यह तब जारी होगा जब राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाये कि परिस्थितियाँ ऐसी हो कि तुरंत कार्यवाही करने की जरूरत है तथा संसद का 1 या दोनॉ सदन सत्र मे नही है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है यह अध्यादेश संसद के पुनसत्र के 6 सप्ताह के भीतर अपना प्रभाव खो देगा यधपि दोनो सदनॉ द्वारा स्वीकृति देने पर यह जारी रहेगा यह शक्ति भी न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण की पात्र है किंतु शक्ति के गलत प्रयोग या दुर्भावना को सिद्ध करने का कार्य उस व्यक्ति पे होगा जो इसे चुनौती दे अध्यादेश जारी करने हेतु संसद का सत्रावसान करना भी उचित हो सकता है क्यॉकि अध्यादेश की जरूरत तुरंत हो सकती है जबकि संसद कोई भी अधिनियम पारित करने मे समय लेती है अध्यादेश को हम अस्थाई विधि मान सकते है यह राष्ट्रपति की विधायिका शक्ति के अन्दर आता है न कि कार्यपालिका वैसे ये कार्य भी वह मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है यदि कभी संसद किसी अध्यादेश को अस्वीकार दे तो वह नष्ट भले ही हो जाये किंतु उसके अंतर्गत किये गये कार्य अवैधानिक नही हो जाते है राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति पे नियंत्रण
1. प्रत्येक जारी किया हुआ अध्यादेश संसद के दोनो सदनो द्वारा उनके सत्र शुरु होने के 6 हफ्ते के भीतर स्वीकृत करवाना होगा इस प्रकार कोई अध्यादेश संसद की स्वीकृति के बिना 6 मास + 6 सप्ताह से अधिक नही चल सकता है
2. लोकसभा एक अध्यादेश को अस्वीकृत करने वाला प्रस्ताव 6 सप्ताह की अवधि समाप्त होने से पूर्व पास कर सकती है
3. राष्ट्रपति का अध्यादेश न्यायिक समीक्षा का विषय़ हो सकता है

संसद मे राष्ट्रपति का अभिभाषण

यह सदैव मंत्रिपरिषद तैयार करती है यह सिवाय सरकारी नीतियॉ की घोषणा के कुछ नही होता है सत्र के अंत मे इस पर धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया जाता है यदि लोकसभा मे यह प्रस्ताव पारित नही हो पाता है तो यह सरकार की नीतिगत पराजय मानी जाती है तथा सरकार को तुरंत अपना बहुमत सिद्ध करना पडता है संसद के प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र मे तथा लोकसभा चुनाव के तुरंत पश्चात दोनॉ सदनॉ की सम्मिलित बैठक को राष्ट्रपति संबोधित करता है यह संबोधन वर्ष के प्रथम सत्र का परिचायक है इन सयुंक्त बैठकॉ का सभापति खुद राष्ट्रपति होता है
अभिभाषण मे सरकार की उपलब्धियॉ तथा नीतियॉ का वर्णन तथा समीक्षा होती है[जो पिछले वर्ष मे हुई थी] आतंरिक समस्याओं से जुडी नीतियाँ भी इसी मे घोषित होती है प्रस्तावित विधायिका कार्यवाहिया जो कि संसद के सामने उस वर्ष के सत्रॉ मे लानी हो का वर्णन भी अभिभाषण मे होता है अभिभाषण के बाद दोनो सद्न पृथक बैठक करके उस पर चर्चा करते है जिसे पर्यापत समय दिया जाता है

संचित निधि

– संविधान के अनु 266 के तहत स्थापित है यह ऐसी निधि है जिस मे समस्त एकत्र कर/राजस्व जमा,लिये गये ऋण जमा किये जाते है यह भारत की सर्वाधिक बडी निधि है जो कि संसद के अधीन रखी गयी है कोई भी धन इसमे बिना संसद की पूर्व स्वीकृति के निकाला/जमा या भारित नहीं किया जा सकता है अनु 266 प्रत्येक राज्य की समेकित निधि का वर्णन भी करता हैsanchit nidhi se koi bhi bina rastrapati k anumati ke tatha sansad k anumati k rashi nahi nikal sakta hai.

भारत की लोक निधि

--- अनु 266 इसका वर्णन भी करता है वह धन जिसे भारत सरकार कर एकत्रीकरण प्राप्त आय उगाहे गये ऋण के अलावा एकत्र करे भारत की लोकनिधि कहलाती है कर्मचारी भविष्य़ निधि को भारत की लोकनिधि मे जमा किया गया है यह कार्यपालिका के अधीन निधि है इससे व्यय धन महालेखानियंत्रक द्वारा जाँचा जाता है अनु 266 राज्यॉ की लोकनिधि का भी वर्णन करता है

भारत की आपातकाल निधि

--- अनु 267 संसद को निधि जो कि आपातकाल मे प्रयोग की जा सकती हो स्थापित करने का अधिकार देता है यह निधि राष्ट्रपति के अधीन है इससे खर्च धन राष्ट्रपति की स्वीकृति से होता है परंतु संसद के समक्ष इसकी स्वीकृति ली जाती है यदि संसद स्वीकृति दे देती है तो व्यय धन के बराबर धन भारत की संचित निधि से निकाल कर इसमे डाल दिया जाता है अनु 267 राज्यॉ को अपनी अपनी आपातकाल निधि स्थापित करने का अधिकार भी देता है

भारित व्यय

--- वे व्यय जो कि भारत की संचित निधि पर बिना संसदीय स्वीकृति के भारित होते है ये व्यय या तो संविधान द्वारा स्वीकृत होते है या संसद विधि बना कर डाल देती है कुछ संवैधानिक पदॉ की स्वतंत्रता बनाये रखने के लिये यह व्यय प्रयोग लाये गये है अनु 112[3] मे कुछ भारित व्ययॉ की सूची है
1. राष्ट्रपति के वेतन,भत्ते,कार्यालय से जुडा व्यय है
2. राज्यसभा लोकसभा के सभापतियॉ उपसभापतियॉ के वेतन भत्ते
3.ऋण भार जिनके लिये भारत सरकार उत्तरदायी है [ब्याज सहित]
4.सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के वेतन भत्ते पेंशन तथा उच्च न्यायालय की पेंशने इस पर भारित है
5. महालेखानियंत्रक तथा परीक्षक [केग] के वेतन भत्ते
6. किसी न्यायिक अवार्ड/डिक्री/निर्णय के लिये आवशयक धन जो न्यायालय/ट्रिब्न्यूल द्वारा पारित हो
7. संसद द्वारा विधि बना कर किसी भी व्यय को भारित व्यय कहा जा सकता है
अभी तक संसद ने निर्वाचन आयुक्तॉ के वेतन भत्ते पेंशन ,केन्द्रीय सर्तकता आयोगसदस्यॉ के वेतन भत्ते पेंशन भी इस पर भारित किये है

वित्त व्यवस्था पर संसद का नियंत्रण

अनु 265 के अनुसार कोई भी कर कार्यपालिका द्वारा बिना विधि के अधिकार के न तो आरोपित किया जायेगा और न ही वसूला जायेगा अनु 266 के अनुसार भारत की समेकित निधि से कोई धन व्यय /जमा भारित करने से पूर्व संसद की स्वीकृति जरूरी है
अनु 112 के अनुसार राष्ट्रपति भारत सरकार के वार्षिक वित्तीय लेखा को संसद के सामने रखेगा यह वित्तीय लेखा ही बजट है<br /

बजट

1. अनुमानित आय व्यय जो कि भारत सरकार ने भावी वर्ष मे करना हो
2. यह भावी वर्ष के व्यय के लिये राजस्व उगाहने का वर्णन करता है
3. बजट मे पिछले वर्ष के वास्तविक आय व्यय का विवरण होता है
बजट सामान्यत वित्तमंत्री द्वारा सामान्यतः फरवरी के आखरी दिन लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है उसी समय राज्यसभा मे भी बजट के कागजात रखे जाते है यह एक धन बिल है

कटौती प्रस्ताव

—बजट प्रक्रिया का ही भाग है केवल लोकसभा मे प्रस्तुत किया जाता है ये वे उपकरण है जो लोकसभा सदस्य कार्यपालिका पे नियंत्रण हेतु उपयोग लाते है ये अनुदानॉ मे कटौती कर सकते है इसके तीन प्रकार है
1.नीति सबंधी कटौती--- इस प्रस्ताव का ल्क्ष्य लेखानुदान संबंधित नीति की अस्वीकृति है यह इस रूप मे होती है ‘-------‘ मांग को कम कर मात्र 1 रुपया किया जाता है यदि इस प्रस्ताव को पारित कर दिया जाये तो यह सरकार की नीति संबंधी पराजय मानी जाती है उसे तुरंत अपना विश्वास सिद्ध करना होता है
2. किफायती कटौती--- भारत सरकार के व्यय को उससीमा तक कम कर देती है जो संसद के मतानुसार किफायती होगी यह कटौती सरकार की नीतिगत पराजय नहीं मानी जाती है
3. सांकेतिक कटौती--- इन कटौतीयों का ल्क्ष्य संसद सदस्यॉ की विशेष शिकायतें जो भारत सरकार से संबंधित है को निपटाने हेतु प्रयोग होती है जिसके अंतर्गत मांगे गये धन से मात्र 100 रु की कटौती की जाती है यह कटौती भी नीतिगत पराजय नही मानी जाती है

लेखानुदान (वोट ओन अकाउंट)

अनु 116 इस प्रावधान का वर्णन करता है इसके अनुसार लोकसभा वोट ओन अकाउंट नामक तात्कालिक उपाय प्रयोग लाती है इस उपाय द्वारा वह भारत सरकार को भावी वित्तीय वर्ष मे भी तब तक व्यय करने की छूट देती है जब तक बजट पारित नही हो जाता है यह सामान्यत बजट का अंग होता है किंतु यदि मंत्रिपरिषद इसे ही पारित करवाना चाहे तो यही अंतरिम बजट बन जाता है जैसा कि 2004 मे एन.डी.ए. सरकार के अंतिम बजट के समय हुआ था फिर बजट नयी यू.पी.ए सरकार ने पेश किया था
वोट ओन क्रेडिट [प्रत्यानुदान] लोकसभा किसी ऐसे व्यय के लिये धन दे सकती है जिसका वर्णन किसी पैमाने या किसी सेवा मद मे रखा जा सक्ना संभव ना हो मसलन अचानक युद्ध हो जाने पे उस पर व्यय होता है उसे किस शीर्षक के अंतर्गत रखे?यह लोकसभा द्वारा पारित खाली चैक माना जा सकता है आज तक इसे प्रयोग नही किया जा सका है
जिलेटीन प्रयोग—समयाभाव के चलते लोकसभा सभी मंत्रालयों के व्ययानुदानॉ को एक मुश्त पास कर देती है उस पर कोई चर्चा नही करती है यही जिलेटीन प्रयोग है यह संसद के वित्तीय नियंत्रण की दुर्बलता दिखाता है

संसद मे लाये जाने वाले प्रस्ताव

अविश्वास प्रस्ताव

लोकसभा के क्रियांवयन नियमॉ मे इस प्रस्ताव का वर्णन है विपक्ष यह प्रस्ताव लोकसभा मे मंत्रिपरिषद के विरूद्ध लाता है इसे लाने हेतु लोकसभा के 50 सद्स्यॉ का समर्थन जरूरी है यह सरकार के विरूद्ध लगाये जाने वाले आरोपॉ का वर्णन नही करता है केवल यह बताता है कि सदन मंत्रिपरिषद मे विश्वास नही करता है एक बार प्रस्तुत करने पर यह प्रस्ताव् सिवाय धन्यवाद प्रस्ताव के सभी अन्य प्रस्तावॉ पर प्रभावी हो जाता है इस प्रस्ताव हेतु पर्याप्त समय दिया जाता है इस पर् चर्चा करते समय समस्त सरकारी कृत्यॉ नीतियॉ की चर्चा हो सकती है लोकसभा द्वारा प्रस्ताव पारित कर दिये जाने पर मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को त्याग पत्र सौंप देती है संसद के एक सत्र मे एक से अधिक अविश्वास प्रस्ताव नही लाये जा सकते है
विश्वास प्रस्ताव--- लोकसभा नियमॉ मे इस प्रस्ताव का कोई वर्णन नही है यह आवश्यक्तानुसार उत्पन्न हुआ है ताकि मंत्रिपरिषद अपनी सत्ता सिद्ध कर सके यह सदैव मंत्रिपरिषद लाती है इसके गिरजाने पर उसे त्याग पत्र देना पडता है निंदा प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाकर सरकार की किसी विशेष नीति का विरोध/निंदा करता है इसे लाने हेतु कोई पूर्वानुमति जरूरी नही है यदि लोकसभा मे पारित हो जाये तो मंत्रिपरिषद निर्धारित समय मे विश्वास प्रस्ताव लाकर अपने स्थायित्व का परिचय देती है है उसके लिये यह अनिवार्य है कामरोको प्रस्ताव--- लोकसभा मे विपक्ष यह प्रस्ताव लाता है यह एक अद्वितीय प्रस्ताव है जिसमे सदन की समस्त कार्यवाही रोक कर तात्कालीन जन मह्त्व के किसी एक मुद्दे को उठाया जाता है प्रस्ताव पारित होने पर सरकार पे निंदा प्रस्ताव के समान प्रभाव छोडता है

संघीय न्यायपालिका

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति

29 जज तथा 1 मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के प्रावधान का वर्णन संविधान मे है अनु 124[2] के अनुसार् मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय इच्छानुसार राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार सर्वोच्च न्यायालयउच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह लेगा वही अन्य जजॉ की नियुक्ति के समय उसे अनिवार्य रूप से मुख्य न्यायाधीश की सलाह माननी पडेगी
सर्वोच्च न्यायालयएडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद 1993 मे दिये गये निर्णय के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के जजों के तबादले इस प्रकार की प्रक्रिया है जो सर्वाधिक योग्य उपलब्ध व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सके भारत के मुख्य न्यायाधीश का मत प्राथमिकता पायेगा वह एक मात्र अधिकारी होगा उच्च न्यायपालिका मे कोई नियुक्ति बिना उस की सहमति के नहीं होती है संवैधानिक सत्ताओं के संघर्ष के समय भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व करेगा राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश को अपने मत पर फिर से विचार करने को तभी कहेगा जब इस हेतु कोई तार्किक कारण मौजूद होगा पुनः विचार के बाद उसका मत राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होगा यद्यपि अपना मत प्रकट करते समय वह सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठम न्यायधीशों का मत जरूर लेगा पुनःविचार की दशा मे फिर से उसे दो वरिष्ठम न्यायधीशों की राय लेनी होगी वह चाहे तो उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की राय भी ले सकता है लेकिन सभी राय सदैव लिखित में होगी
बाद में अपना मत बदलते हुए न्यायालय ने कम से कम 4 जजों के साथ सलाह करना अनिवार्य कर दिया था वह कोई भी सलाह राष्ट्रपति को अग्रेषित नहीं करेगा यदि दो या ज्यादा जजों की सलाह इस्के विरूद्ध हो किंतु 4 जजों की सलाह उसे अन्य जजों जिनसे वो चाहे सलाह लेने से नहीं रोकेगी

न्यायपालिका के न्यायधीशों की पदच्युति

—इस कोटि के जजॉ के राष्ट्रपति तब पदच्युत करेगा जब संसद के दोणो सदनॉ के कम से कम 2/3 उपस्थित तथा मत देने वाले तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव जो कि सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पे लाया गया हो के द्वारा उसे अधिकार दिया गया हो ये आदेश उसी संसद सत्र मे लाया जायेगा जिस सत्र मे ये प्रस्ताव संसद ने पारित किया हो अनु 124[5] मे वह प्रक्रिया वर्णित है जिस से जज पद्च्युत होते है इस प्रक्रिया के आधार पर संसद ने न्यायधीश अक्षमता अधिनियम 1968 पारित किया था इसके अंतर्गत
1. संसद के किसी भी सदन मे प्रस्ताव लाया जा सकता है लोकस्भा मे 100 राज्यसभा मे 50 सद्स्यॉ का समर्थन अनिवार्य है
2. प्रस्ताव मिलने पे सदन का सभापति एक 3 सद्स्य समिति बनायेगा जो आरोपों की जाँच करेगी समिति का अध्यक्ष सप्रीम कोर्ट का कार्यकारी जज होगा दूसरा सदस्य किसी हाई कोर्ट का मुख्य कार्यकारी जज होगा तीसरा सदस्य माना हुआ विधिवेत्ता होगा इस की जाँच रिपोर्ट सदन के सामने आयेगी यदि इस मे जज को दोषी बताया हो तब भी सदन प्रस्ताव पारित करने को बाध्य नही होता किंतु यदि समिति आरोपों को खारिज कर दे तो सदन प्रस्ताव पारित नही कर सकता है
अभी तक सिर्फ एक बार किसी जज के विरूद्ध जांच की गयी है जज रामास्वामी दोषी सिद्ध हो गये थे किंतु संसद मे आवश्यक बहुमत के अभाव के चलते प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सका था

अभिलेख न्यायालय

अनुच्छेद 129 उच्चतम न्यायालयको तथा अनुच्छेद 215 उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है यह संकल्पना अंग्रेजी विधि से ली गयी है अभिलेख न्यायालय का अर्थ अनु 129 सुप्रीम कोर्ट को तथा अनु 215 उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है यह संकल्पना इंग्लिश विधि से ली गयी है अभिलेख न्यायालय का अर्थ
1. न्यायालय की कार्यवाही तथा निर्णय को दूसरे न्यायालय मे साक्ष्य के रूप मे प्रस्तुत किया जा सकेगा
2. न्यायालय को अधिकार है कि वो अवमानना करने वाले व्यक्ति को दण्ड दे सके यह शक्ति अधीनस्थ न्यायालय को प्राप्त नही है इस शक्ति को नियमित करने हेतु संसद ने न्यायालय अवमानना अधिनियम 1971 पारित किया है अवमानना के दो भेद है सिविल और आपराधिक जब कोई व्यक्ति आदेश निर्देश का पालन न करे या उल्लंघ न करे तो यह सिविल अवमानना है पर्ंतु यदि कोई व्यक्ति न्यायालय को बदनाम करे जजों को बदनाम तथा विवादित बताने का प्रयास करे तो यह आपराधिक अवमानना होगी जिसके लिये कारावास/जुर्माना दोनो देना पडेगा वही सिविल अवमानना मे कारावास सम्भव नहीं है यह शक्ति भारत मे काफी कुख्यात तथा विवादस्पद है

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ

अनु 130 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली मे होगा पर्ंतु यह भारत मे और कही भी मुख्य न्यायाधीश् के निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति की स्वीकृति से सुनवाई कर सकेगा
क्षेत्रीय खंडपीठों का प्रश्न- विधि आयोग अपनी रिपोर्ट के माध्यम से क्षेत्रीय खंडपीठों के गठन की अनुसंशा कर चुका है न्यायालय के वकीलॉ ने भी प्राथर्ना की है कि वह अपनी क्षेत्रीय खंडपीठों का गठन करे ताकि देश के विभिन्न भागॉ मे निवास करने वाले वादियॉ के धन तथा समय दोनॉ की बचत हो सके,किंतु न्यायालय ने इस प्रश्न पे विचार करने के बाद निर्णय दिया है कि पीठॉ के गठन से
1. ये पीठे क्षेत्र के राज नैतिक दबाव मे आ जायेगी
2. इनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट के एकात्मक चरित्र तथा संगठन को हानि पहुँच सकती है
किंतु इसके विरोध मे भी तर्क दिये गये है

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार

जनहित याचिकाएँ

– इस प्रकार की याचिकाओँ का विचार अमेरिका ए जन्मा वहाँ इसे सामाजिक कार्यवाही याचिका कह्ते है यह न्यायपालिका का आविष्कार तथा न्यायधीश निर्मित विधि है
जनहित याचिका भारत मे पी.एन.भगवतीने प्रारंभ की थी ये याचिकाँए जनहित को सुरक्षित तथा बढाना चाहती है ये लोकहित भावना पे कार्य करती है
ये ऐसे न्यायिक उपकरण है जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है इनका ल्क्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना तथा कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कार्य करवाने हेतु किया जाता है
ये समूह हित मे काम आती है ना कि व्यक्ति हित मे यदि इनका दुरूपयोग किया जाये तो याचिकाकर्ता पे जुर्माना तक किया जा सकता है इनको स्वीकारना या ना स्वीकारना न्यायालय पे निर्भर करता है
इनकी स्वीकृति हेतु सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नियम बनाये है
1. लोकहित से प्रेरित कोई भी व्यक्ति,संगठन इन्हे ला सकता है
2. कोर्ट को दिया गया पोस्टकार्ड भी रिट याचिका मान कर ये जारी की जा सकती है
3. कोर्ट को अधिकार होगा कि वह इस याचिका हेतु सामान्य न्यायालय शुल्क भी माफ कर दे
4. ये राज्य के साथ ही निजी संस्थान के विरूद्ध भी लायी जा सकती है
इसके लाभ
1. इस याचिका से जनता मे स्वयं के अधिकारों तथा न्यायपालिका की भूमिका के बारे मे चेतना बढती है यह मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को वृहद बनाती है इसमे व्यक्ति को कई नये अधिकार मिल जाते है
2. यह कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कर्तव्य करने के लिये बाधित करती है ,साथ ही यह भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की सुनिशिचतता करती है
आलोचनाएं 1. ये सामान्य न्यायिक संचालन मे बाधा डालती है
2. इनके दुरूपयोग की प्रवृति परवान पे है
इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने खुद कुछ बन्धन इनके प्रयोग पे लगाये है

न्यायिक सक्रियता

न्यायिक सक्रियता का अर्थ न्यायपालिका द्वारा निभायी जाने वाली वह सक्रिय भूमिका है जिसमे राज्य के अन्य अंगों को उनके संवैधानिक कृत्य करने को बाधय करे यदि वे अंग अपने कृत्य संपादित करने मे सफल रहे तो जनतंत्र तथा विधि शासन के लिये न्यायपालिका उनकी शक्तियों भूमिका का निर्वाह सीमित समय के लिये करेगी यह सक्रियता जनतंत्र की शक्ति तथा जन विश्वास को पुर्नस्थापित करती है
इस तरह यह सक्रियता न्यायपालिका पर एक असंवेदनशील/गैर जिम्मेदार शासन के कृत्यों के कारण लादा गया बोझ है यह सक्रियता न्यायिक प्रयास है जो मजबूरी मे किया गया है यह शक्ति उच्च न्यायालय तथा सुप्रीम कोर्ट के पास ही है ये उनकी पुनरीक्षा तथा रिट क्षेत्राधिकार मे आती है जनहित याचिका को हम न्यायिक सक्रियता का मुख्य माधयम मान सकते है
इसका समर्थन एक सीमित सीमा तक ही किया जा सकता है इसके विरोध के स्वर भी आप कार्य पालिका तथा विधायिका मे सुन सकते है इसके चलते ही हाल ही मे सुप्रीम कोर्ट ने खुद संयम बरतने की बात सवीकारी है तथा कई मामलों मे हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है

संविधान विकास में उच्चतम न्यायालय की भूमिका

एक तरफ यह संविधान का संरक्ष्क अंतिम व्याख्याकर्ता, मौलिक अधिकारों का रक्षक ,केन्द्र-राज्य विवादों मे एक मात्र मध्यस्थ है वहीँ यह संविधान के विकास मे भी भूमिका निभाता रहा है इसने माना है कि निरंतर संवैधानिक विकास होना चाहिए ताकि समाज के हित संवर्धित हो ,न्यायिक पुनरीक्षण शक्ति के कारण यह संवैधानिक विकास मे सहायता करता है सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विकास यह है कि भारत मे संविधान सर्वोच्च है इसने संविधान के मूल ढाँचे का अदभुत सिद्धांत दिया है जिसके चलते संविधान काफी सुरक्षित हो गया है इसे मनमाने ढंग से बदला नही जा सकता ह
ै इसने मौलिक अधिकारों का विस्तार भी किया है इसने अनु 356 के दुरूपयोग को भी रोका है
उच्चतम न्यायालयइस उक्ति का पालन करता है कि संविधान खुद नहीं बोलता है यह अपनी वाणी न्यायपालिका के माध्यम से बोलता है

संविधान भाग 6

पाठ 1 राज्य कार्यपालिका

राज्यपाल
राज्यपाल् कार्यपालिका का प्रमुख होता है वह राज्य मे केन्द्र का प्रतिनिधि होता है तथा राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत ही पद पे बना रहता है वह कभी भी पद से हटाया जा सकता है
उसका पद तथा भूमिका भारतीय राजनीति मे दीर्घ काल से विवाद का कारण रही है जिसके चलते काफी विवाद हुए है सरकारिया आयोगने अपनी रिपोर्ट मे इस तरह की सिफारिश दी थी
1. एक राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह के बाद ही राष्ट्रपति करे
2. वह जीवन के किसी क्षेत्र का महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हो
3. वह राज्य के बाहर का रहने वाला हो
4. वह राजनैतिक रूप से कम से कम पिछले 5 वर्शो से राष्ट्रीय रूप से सक्रिय ना रहा हो तथा नियुक्ति वाले राज्य मे कभी भी सक्रिय ना रहा हो
5. उसे सामान्यत अपने पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने दिया जाये ताकि वह निष्पक्ष रूप से काम कर सके
6. केन्द्र पर सत्तारूढ राजनैतिक गठबन्धन का सद्स्य ऐसे राज्य का राज्यपाल नही बनाया जाये जो विपक्ष द्वारा शासित हो
7. राज्यपाल द्वारा पाक्षिक रिपोर्ट भेजने की प्रथा जारी रहनी चाहिए
8. यदि राज्यपाल राष्ट्रपति को अनु 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा करे तो उसे उन कारणॉ ,स्थितियों का वर्णन रिकार्ड मे रखना चाहिए जिनके आधार पे वह इस निष्क़र्ष पे पहुँचा हो
इसके अलावा राज्यपाल एक संवैधानिक प्रमुख है जो अपने कर्तव्य मंत्रिपरिषद की सलाह सहायता से करता है परंतु उसकी संवैधानिक स्थिति उसकी मंत्रिपरिषद की तुलना मे बहुत सुरक्षित है वह राष्ट्रपति के समान असहाय नहीं है राष्ट्रपति के पास मात्र विवेकाधीन शक्ति ही है जिसके अलावा वह सदैव प्रभाव का ही प्रयोग करता है किंतु संविधान राजयपाल को प्रभाव तथा शक्ति दोनों देता है उसका पद उतना ही शोभात्मक है उतना ही कार्यातमक भी है
राज्यपाल उन सभी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग भी करता है जो राष्ट्रपति को मिलती है इसके अलावा वो इन अतिरिक्त शक्तियों का प्रयोग भी करता है
अनु 166[2] के अंर्तगत यदि कोई प्रशन उठता है कि राजयपाल की शक्ति विवेकाधीन है या नहीं तो उसी का निर्णय अंतिम माना जाता है
अनु 166[3] राज्यपाल इन शक्तियों का प्रयोग उन नियमों के निर्माण हेतु कर सकता है जिनसे राज्यकार्यों को सुगमता पूर्वक संचालन हो साथ ही वह मंत्रियों मे कार्य विभाजन भी कर सकता है
अनु 200 के अधीन राज्यपाल अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग राज्य विधायिका द्वारा पारित बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु सुरक्षित रख सकने मे कर सकता है
अनु 356 के अधीन राज्यपाल राष्ट्रपति को राज के प्रशासन को अधिग्रहित करने हेतु निमंत्रण दे सकता है यदि यह संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकता हो
विशेष विवेकाधीन शक्ति
पंरपरा के अनुसार राज्यपाल राष्ट्रपति को भेजी जाने वाली पाक्षिक रिपोर्ट के सम्बन्ध मे निर्णय ले सकता है कुछ राज्यों के राज्यपालों को विशेष उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना होता है विशेष उत्तरदायित्व का अर्थ है कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद से सलाह तो ले किंतु इसे मानने हेतु वह बाध्य ना हो और ना ही उसे सलाह लेने की जरूरत पडती हो

राज्य विधायिका

संविधान मे 6 राज्यों हेतु द्विसदनीय विधायिका का प्रावधान किया गया है
उपरी सदन स्थापना तथा उन्मूलन अनु 169 के अनुसार यह शक्ति केवल संसद को है
ऊपरी सदन का महत्व–यह सदन प्रथम श्रेणी का नही होता यह विधान सभा द्वारा पारित बिल को अस्वीकृत संशोधित नहीं कर सकता है केवल किसी बिल को ज्यादा से ज्यादा 4 मास के लिये रोक सकता है इसके अलावा मंत्रिपरिषद मे विशेषज्ञों की नियुक्ति हेतु इसका प्रयोग हो सकता है क्योंकि यहाँ मनोनीत सदस्यों की सुविधा भी है
विधायिका की प्रक्रियाएँ तीन प्रकार के बिल धन ,फाइनेंस तथा सामान्य होते है ,धन बिल संसद की तरह ही पास होते है ,फाइनेंस बिल केवल निचले सदन मे ही पेश होते है , सामान्य बिल जो ऊपरी सदन मे पेश होंगे व पारित हो यदि बाद मे निचले सदन मे अस्वीकृत हो जाये तो समाप्त हो जाते है
निचले सदन द्वारा पारित बिल को ऊपरी सदन केवल 3 मास के लिये रोक सकता है उसके बाद वे पारित माने जाते है

राज्य न्यायपालिका

राज्य न्यायपालिका मे तीन प्रकार की पीठें होती है एकल जिसके निर्णय को उच्च न्यायालय की डिवीजनल/खंडपीठ/सर्वोच्च न्यायालयमे चुनौती दी जा सकती है
खंड पीठ 2 या 3 जजों के मेल से बनी होती है जिसके निर्णय केवल उच्चतम न्यायालयमें चुनौती पा सकते हैं
संवैधानिक/फुल बेंच सभी संवैधानिक व्याख्या से संबधित वाद इस प्रकार की पीठ सुनती है इसमे कम से कम पाँच जज होते हैं

अधीनस्थ न्यायालय

इस स्तर पर सिविल आपराधिक मामलों की सुनवाई अलग अलग होती है इस स्तर पर सिविल तथा सेशन कोर्ट अलग अलग होते है इस स्तर के जज सामान्य भर्ती परीक्षा के आधार पर भर्ती होते है उनकी नियुक्ति राज्यपाल राज्य मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर करता है
फास्ट ट्रेक कोर्ट– ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
ये अतिरिक्त सत्र न्यायालय है इनक गठन दीर्घावधि से लंबित अपराध तथा अंडर ट्रायल वादों के तीव्रता से निपटारे हेतु किया गया है
इसके पीछे कारण यह था कि वाद लम्बा चलने से न्याय की क्षति होती है तथा न्याय की निरोधक शक्ति कम पड जाती है जेल मे भीड बढ जाती है 10 वे वित्त आयोग की सलाह पर केद्र सरकार ने राज्य सरकारों को 1 अप्रेल 2001 से 1734 फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित करने का आदेश दिया अतिरिक्त सेशन जज याँ उंचे पद से सेवानिवृत जज इस प्रकार के कोर्टो मे जज होता है इस प्रकार के कोर्टो मे वाद लंबित करना संभव नहीं होता हैहर वाद को निर्धारित स्मय मे निपटाना होता है
आलोचना 1. निर्धारित संख्या मे गठन नहीं हुआ
2. वादों का निर्णय संक्षिप्त ढँग से होता है जिसमें अभियुक्त को रक्षा करने का पूरा मौका नहीं मिलता है
3. न्यायधीशों हेतु कोई सेवा नियम नहीं है
लोक अदालत -- जनता की अदालतें है ये नियमित कोर्ट से अलग होती है पदेन या सेवानिवृत जज तथा दो सदस्य एक सामाजिक कार्यकता ,एक वकील इसके सद्स्य होते है सुनवाई केवल तभी करती है जब दोनों पक्ष इसकी स्वीकृति देते हो ये बीमा दावों क्षतिपूर्ति के रूप वाले वादों को निपता देती है
इनके पास वैधानिक दर्जा होता है वकील पक्ष नहीं प्रस्तुत करते हैं
इनके लाभ– 1.न्यायालय शुल्क नहीं लगते
2. यहाँ प्रक्रिया संहिता/साक्ष्य एक्ट नहीं लागू होते
3. दोनों पक्ष न्यायधीश से सीधे बात कर समझौते पर पहुचँ जाते है
4. इनके निर्णय के खिलाफ अपील नहीं ला सकते है
आलोचनाएँ 1. ये नियमित अंतराल से काम नहीं करती है
2. जब कभी काम पे आती है तो बिना सुनवाई के बडी मात्रा मे मामले निपटा देती है
3. जनता लोक अदालतों की उपस्थिति तथा लाभों के प्रति जागरूक नहीं है

जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति

संवैधानिक प्रावधान स्वतः जम्मू तथा कश्मीर पे लागू नहीं होते केवल वहीं प्रावधान जिनमे स्पष्ट रूप से कहा जाए कि वे जम्मू कश्मीर पे लागू होते है उस पर लागू होते है
जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति का ज्ञान इन तथ्यों से होता है
1. जम्मू कश्मीर संविधान सभा द्वारा निर्मित राज्य संविधान से वहाँ का कार्य चलता है ये संविधान जम्मू कश्मीर के लोगों को राज्य की नागरिकता भी देता है केवल इस राज्य के नागरिक ही संपत्ति खरीद सकते है या चुनाव लड सकते है या सरकारी सेवा ले सकते है
2. संसद जम्मू कश्मीर से संबंध रखने वाला ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती है जो इसकी राज्य सूची का विषय हो
3. अवशेष शक्ति जम्मू कश्मीर विधान सभा के पास होती है
4. इस राज्य पर सशस्त्र विद्रोह की दशा मे या वित्तीय संकट की दशा मे आपात काल लागू नहीं होता है
5. संसद राज्य का नाम क्षेत्र सीमा बिना राज्य विधायिका की स्वीकृति के नहीं बदलेगीं
6. राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति राज्य मुख्यमंत्री की सलाह के बाद करेगी
7. संसद द्वारा पारित निवारक निरोध नियम राज्य पर अपने आप लागू नहीं होगा
8. राज्य की पृथक दंड संहिता तथा दंड प्रक्रिया संहिता है
९।

केन्द्र राज्य संबंध

विधायिका स्तर पर सम्बन्ध

संविधान की सातंवी अनुसूची विधायिका के विषय़ केन्द्र राज्य के मध्य विभाजित करती है संघ सूची मे महत्वपूर्ण तथा सर्वाधिक विषय़ है
राज्यों पर केन्द्र का विधान संबंधी नियंत्रण
1. अनु 31[1] के अनुसार राज्य विधायिका को अधिकार देता है कि वे निजी संपत्ति जनहित हेतु विधि बना कर ग्रहित कर ले परंतु ऐसी कोई विधि असंवैधानिक/रद्द नहीं की जायेगी यदि यह अनु 14 व अनु 19 का उल्लघंन करे परंतु यह न्यायिक पुनरीक्षण का पात्र होगा किंतु यदि इस विधि को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु रखा गया और उस से स्वीकृति मिली भी हो तो वह न्यायिक पुनरीक्षा का पात्र नहीं होगा
2. अनु 31[ब] के द्वारा नौवीं अनुसूची भी जोडी गयी है तथा उन सभी अधिनियमों को जो राज्य विधायिका द्वारा पारित हो तथा अनुसूची के अधीन रखें गये हो को भी न्यायिक पुनरीक्षा से छूट मिल जाती है लेकिन यह कार्य संसद की स्वीकृति से होता है
3. अनु 200 राज्य का राज्यपाल धन बिल सहित बिल जिसे राज्य विधायिका ने पास किया हो को राष्ट्रपति की सहमति के लिये आरक्षित कर सकता है
4. अनु 288[2] राज्य विधायिका को करारोपण की शक्ति उन केन्द्रीय अधिकरणों पर नहीं देता जो कि जल संग्रह, विधुत उत्पादन, तथा विधुत उपभोग ,वितरण ,उपभोग, से संबंधित हो ऐसा बिल पहले राष्ट्रपति की स्वीकृति पायेगा
5. अनु 305[ब] के अनुसार राज्य विधायिकाको शक्ति देता है कि वो अंतराज्य व्यापार वाणिज़्य पर युक्ति निर्बधंन लगाये परंतु राज्य विधायिका मे लाया गया बिल केवल राष्ट्रप्ति की अनुशंसा से ही लाया जा सकता है

केन्द्र राज्य प्रशासनिक संबंध


अनु 256के अनुसार राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ इस तरह प्रयोग लायी जाये कि संसद द्वारा पारित विधियों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन विधिंयों का पालन हो सके । इस तरह संसद की विधि के अधीन राज्य कार्यपालिका शक्ति आ गयी है । केन्द्र राज्य को ऐसे निर्देश दे सकता है जो इस संबंध मे आवश्यक हो
अनु 257 ----- कुछ मामलों मे राज्य पर केन्द्र नियंत्रण की बात करता है । राज्य कार्यपालिका शक्ति इस तरह प्रयोग ली जाये कि वह संघ कार्यपालिका से संघर्ष ना करे केन्द्र अनेक क्षेत्रों मे राज्य को उसकी कार्यपालिका शक्ति कैसे प्रयोग करे इस पर निर्देश दे सकता है यदि राज्य निर्देश पालन मे असफल रहा तो राज्य मे राष्ट्रपति शासन तक लाया जा सकता है
अनु 258[2] के अनुसार --- संसद को राज्य प्रशासनिक तंत्र को उस तरह प्रयोग लेने की शक्ति देता है जिनसे संघीय विधि पालित हो केन्द्र को अधिकार है कि वह राज्य मे बिना उसकी मर्जी के सेना, केन्द्रीय सुरक्षा बल तैनात कर सकता है
अखिल भारतीय सेवाएँ भी केन्द्र को राज्य प्रशासन पे नियंत्रण प्राप्त करने मे सहायता देती है अनु 262 संसद को अधिकार देता है कि वह अंतराज्य जल विवाद को सुलझाने हेतु विधि का निर्माण करे संसद ने अंतराज्य जल विवाद तथा बोर्ड एक्ट पारित किये थे
अनु 263 राष्ट्राप्ति को शक्ति देता है कि वह अंतराज्य परिषद स्थापित करे ताकि राज्यों के मध्य उत्पन्न मत विभिन्ंता सुलझा सके

निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली/कार्य

1 निर्वाचन आयोग के पास यह उत्तरदायित्व है कि वह निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,निर्देशन तथा आयोजन करवाये वह राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति ,संसद,राज्यविधानसभा के चुनाव करता है
2 निर्वाचक नामावली तैयार करवाता है
3 राजनैतिक दलॉ का पंजीकरण करता है
4. राजनैतिक दलॉ का राष्ट्रीय ,राज्य स्तर के दलॉ के रूप मे वर्गीकरण ,मान्यता देना, दलॉ-निर्दलीयॉ को चुनाव चिन्ह देना
5. सांसद/विधायक की अयोग्यता[दल बदल को छोडकर]पर राष्ट्रपति/राज्यपाल को सलाह देना
6. गलत निर्वाचन उपायॉ का उपयोग करने वाले व्यक्तियॉ को निर्वाचन के लिये अयोग्य घोषित करना
निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ अनु 324[1] निर्वाचन आयोग को निम्न शक्तियाँ देता है
1. सभी निर्वाचनॉ का पर्यवेक्षण ,नियंत्रण,आयोजन करवाना
2.सुप्रीम कोर्ट के निर्णयानुसार अनु 324[1] मे निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं हो सकती उसकी शक्तियां केवल उन निर्वाचन संबंधी संवैधानिक उपायों तथा संसद निर्मित निर्वाचन विधि से नियंत्रित होती है निर्वाचन का पर्यवेक्षण ,निर्देशन ,नियंत्रण तथा आयोजन करवाने की शक्ति मे देश मे मुक्त तथा निष्पक्ष चुनाव आयोजित करवाना भी निहित है जहां कही संसद विधि निर्वाचन के संबंध मे मौन है वहां निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिये निर्वाचन आयोग असीमित शक्ति रखता है यधपि प्राकृतिक न्याय, विधि का शासन तथा उसके द्वारा शक्ति का सदुपयोग होना चाहिए
निर्वाचन आयोग विधायिका निर्मित विधि का उल्लघँन नहीं कर सकता है और न ही ये स्वेच्छापूर्ण कार्य कर सकता है उसके निर्णय न्यायिक पुनरीक्षण के पात्र होते है
निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ निर्वाचन विधियों की पूरक है न कि उन पर प्रभावी तथा वैध प्रक्रिया से बनी विधि के विरूद्ध प्रयोग नही की जा सकती है
यह आयोग चुनाव का कार्यक्रम निर्धारित कर सकता है चुनाव चिन्ह आवंटित करने तथा निष्पक्ष चुनाव करवाने के निर्देश देने की शक्ति रखता है
सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी शक्तियों की व्याख्या करते हुए कहा कि वह एकमात्र अधिकरण है जो चुनाव कार्यक्रम निर्धारित करे चुनाव करवाना केवल उसी का कार्य है
जनप्रतिनिधित्व एक्ट 1951 के अनु 14,15 भी राष्ट्रपति,राज्यपाल को निर्वाचन अधिसूचना जारी करने का अधिकार निर्वाचन आयोग की सलाह के अनुरूप ही जारी करने का अधिकार देते है

भारत मे निर्वाचन सुधार

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम संशोधन 1988 से इस प्रकार के संशोधन किये गये हैं.
1. इलैक्ट्रानिक मतदान मशीन का प्रयोग किया जा सकेगा. वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव मे इनका सर्वत्र प्रयोग हुआ
2. राजनैतिक दलों का निर्वाचन आयोग के पास अनिवार्य पंजीकरण करवाना होगा यदि वह चुनाव लडना चाहे तो कोई दल तभी पंजीकृत होगा जब वह संविधान के मौलिक सिद्धांतों के पालन करे तथा उनका समावेश अपने दलीय संविधान मे करे
3. मतदान केन्द्र पर कब्जा, जाली मत

त्रुटियां

परस्पर वीरोधी, मिलकत या संपदा का अधिकार मूल अधिकार रहा । कई साल तक शिक्षा का मूल अधिकार न होकर नीति के निदेशक के कारण भ्रष्टाचार में वृद्धि होती रही ओर गरीब, गरीब होते रहें ।

फेडरेशन तथा कनफेडरेशन का भेद

फेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का औपचारिक संगठन
  2. सम्प्रभु तथा स्वतंत्र परंतु उसके संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र नही होते
  3. संघटक संघ से स्वतंत्र होने की शक्ति नही रखते है
  4. संघ तथा उसके निवासियो के मध्य वैधानिक सम्बन्ध होता है [नागरिकता] नागरिको के अधिकार तथा कर्तव्य होते है

कनफेडरेशन

  1. दो या अधिक संघटको का ढीला संघठन [रास्त्र मन्डल ]
  2. संघटक सम्प्रभु तथा स्वतंत्र होते है परंतु खुद कनफेडरेशन मे ये गुण नही होते है
  3. संघटक स्वतंत्र होने की शक्ति रखते है
  4. निवासी परिसंघ के नागरिक नही होते बल्कि उसके संघट्को के नागरिक होते है

शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत

यह सिद्धांत फ्रेंच दार्शनिक मान्टेस्कयूने दिया था उसके अनुसार राज्य की शक्ति उसके तीन भागो कार्य , विधान, तथा न्यायपालिकाओ मे बांट देनी चाहिये
ये सिद्धांत राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है
अमेरिकी सविन्धान पहला ऐसा सविन्धान था जिस मे ये सिद्धांत अपनाया गया था
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत भारतीय सविन्धान मे------सविन्धान मे इसका साफ वर्णन ना होकर सकेत मात्र है इस हेतु सविन्धान मे तीनो अंगो का पृथक वर्णन है संसदीय लोकतंत्र होने के कारण भारत मे कार्यपालिका तथा विधायिका मे पूरा अलगाव नही हो सका है कार्यपालिका[मंत्रीपरिषद] विधायिका मे से ही चुनी जाती है तथा उसके निचले सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती है
अनु 51 के अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को पृथक होना चाहिए इस लिये ही 1973 मे दंड प्रक्रिया सन्हिता पारित की गयी जिस के द्वारा जिला मजिस्टृटो की न्यायिक शक्ति लेकर न्यायिक मजिस्टृटो को दे दी गयी थी

बाहरी कडियाँ

[दिखाएँ]
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम

लार्ड मैकाले का भाषण

$
0
0


फरवरी १८३५ को ब्रिटिश संसद में दिया लार्ड मैकाले का भाषण)-

"मैंने भारत की ओर-छोर की यात्रा की है पर मैंने एक भी आदमी ऐसा नहीं देखा जो भीख मांगता हो या चोर हो। मैंने इस मुल्क में अपार संपदा देखी है। उच्च उदात्त मूल्यों को देखा है। इन योग्यता मूल्यों वाले भारतीयों को कोई कभी जीत नहीं सकता यह मैं मानता हूं, तब तक; जब तक कि हम इस मुल्क की रीढ़ ही ना तोड़ दें, और भारत की रीढ़ है उसकी आध्यात्मिक और सांस्क्रतिक विरासत।
इसलि

दोषी कौन? मैकाले या हम?

$
0
0

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
लेखक : डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री
सम्पर्क : 15, डोरसेटड्राइव, अल्फ्रेडटन, बेलारेट, विक्टोरिया 3350 आस्ट्रेलिया
ईमेल  : agnihotriravindra@yahoo.com
अपनी वर्तमान शिक्षा की जिन बातों को लेकर समाज में असंतोष है उनमें से एक है "शिक्षा के माध्यम" के रूप में अंग्रेजी का बढ़ता प्रयोग. एक विषय के रूप में अंग्रेजी की आवश्यकता के प्रति तो राजा राम मोहन राय जैसे नेता ही जागरूक कर चुके थे, जिसने कहीं-कहीं माध्यम का रूप भी ले लिया था, फिर भी अंग्रेजी का शिक्षा के माध्यम के रूप में अधिकृत और व्यवस्थित प्रयोग लार्ड मैकाले के उस विवरण पत्र (1835) का परिणाम था जो उसने ब्रिटेन की संसद के नए आज्ञा-पत्र (चार्टर 1833) को व्यावहारिक रूप देने के लिए तैयार किया था. आज्ञा-पत्र को अंतिम रूप देने से पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टरों ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए 5 सितम्बर 1827 को गवर्नर जनरल को पत्र में लिखा कि शिक्षा के लिए निर्धारित धन उच्च और मध्य वर्ग के ऐसे भारतीयों की शिक्षा पर ही खर्च किया जाए जो हमारे शासन के लिए "एजेंट" का काम करें. उस समय स्कूल चलाने वाले प्राय: तीन तरह के लोग थे  :
1. कंपनी के कर्मचारी/व्यापारी, जो अपने बच्चों के लिए इंग्लैंड के स्कूलों जैसी शिक्षा देना चाहते थे.
2. ईसाई मिशनरी जो मुख्य रूप से ईसाई धर्म की शिक्षा देते थे. मिशनरियां धर्म प्रचार का काम सामान्यतया समाज के निर्धन लोगों के बीच करती थीं. अत: वे अपनी शिक्षा में किसी व्यवसाय की शिक्षा भी शामिल करते थे ताकि धर्मान्तरित लोगों का आर्थिक स्तर सुधर सके, और
3. भारतीय जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों थे जिनमें से क्रमश: पाठशाला/आश्रम, मकतब/मदरसे वाली शिक्षा देना चाहते थे।
यों तो इन सभी की नज़र उक्त राशि पर लगी हुई थी, पर ईसाई मिशनरी इस पर अपना विशेषाधिकार समझते थे.

मैकाले के सम्बन्ध में यह जान लेना उपयोगी होगा कि जब ब्रिटिश पार्लियामेंट ने "गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1833" पास किया तो मैकाले को गवर्नर जनरल काउन्सिल (जिसे सुप्रीम काउन्सिल ऑफ़ इंडिया कहते थे) का विधि सदस्य (law member) नियुक्त किया. अत: मैकाले 1834 में भारत आया. यहाँ उसे "कमेटी ऑफ़ पब्लिक इंस्ट्रक्शन" का अध्यक्ष भी बनाया गया. इस कमेटी में दस सदस्य थे जिनमें से आधे सदस्य तो संस्कृत, फारसी, अरबी की शिक्षा जारी रखने के समर्थक थे, पर शेष आधे अंग्रेजी की और यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने के पक्ष में थे. इस विवाद को समाप्त कंपनी के कर्मचारी और करने और कंपनी के डायरेक्टरों की इच्छा को लागू करने की दृष्टि से मैकाले ने अपने विवरण-पत्र में तीन नीतिगत बातें कहीं :
1. हमें अपना राज्य सुदृढ़ करने के लिए ऐसे लोग चाहिए जो रक्त और रंग में तो भारतीय हों, पर रुचियों में, दृष्टिकोण में, नैतिकता में और बुद्धि में अँगरेज़ हों. ऐसे लोग तभी तैयार किए जा सकते हैं जब उन्हें यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाए. अत: हमें यह राशि "यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान" (इसी को अब हम लोग "आधुनिक ज्ञान-विज्ञान" कहने लगे हैं) के प्रसार पर खर्च करनी चाहिए.
2. इसके लिए अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना होगा क्योंकि भारतीय भाषाएँ इतनी अविकसित और गंवारू हैं कि उन्हें यूरोपीय भाषाओं से संपन्न किए बिना उनमें यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का अनुवाद तक संभव नहीं.
3. यह शिक्षा सबको नहीं, समाज के केवल विशिष्ट वर्ग को देनी चाहिए. यह विशिष्ट वर्ग ही इस ज्ञान-विज्ञान का प्रसार देश के अन्य लोगों में देशी भाषाओं के माध्यम से (कृपया इन शब्दों पर ध्यान दें, "देशी भाषाओं के माध्यम से") कर लेगा. इसे ही शिक्षा-शास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली में "अधोमुखी निस्यन्दन सिद्धांत (downward filtration theory)" कहते हैं. मैकाले के निम्नलिखित शब्द ध्यान देने योग्य हैं
"We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern… a class of persons Indian in blood and colour , but English in tastes, in opinions, in morals and in intellect. To that class we may leave it to refine the vernacular dialects of the country, to enrich those dialects with terms of science borrowed from western nomenclature, and to render them by degrees fit vehicles for conveying knowledge to the great mass of the population.” (Selections from Educational Records, Part-1, Edited by H. Sharp; Reprint Delhi : National Archives of India, 1965, Pages 107 – 117 )

शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग अंग्रेजी शासन-काल में ही स्वयं मैकाले की दृष्टि में कोई "स्थायी व्यवस्था" नहीं, केवल "तात्कालिक अस्थायी व्यवस्था" थी क्योंकि मैकाले का अंतिम उद्देश्य सामान्य जनता में यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का प्रसार "देशी भाषाओं के माध्यम" से करना था, पर हमने "स्वतंत्र भारत" में अंग्रेजी माध्यम को ही "स्थायी व्यवस्था" बना दिया. तो अस्थायी व्यवस्था को स्थायी बनाने का अपराधी कौन है? मैकाले या हम?

गवर्नर जनरल बेंटिंक ने इस विवरण पत्र को स्वीकार कर लिया. साथ ही, अंग्रेजी शिक्षा के प्रति भारतीयों को आकर्षित करने, कंपनी के माल की बिक्री बढ़ाने तथा कंपनी का व्यय कम करने की दृष्टि से उसने कंपनी की सरकारी नौकरी में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को कम वेतन पर ऊँचे पद देने शुरू कर दिए. पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और अँगरेज़ इस देश के उद्योग-धंधों को जिस तरह नष्ट कर चुके थे और परिणामस्वरुप अर्थ व्यवस्था की जो दुर्दशा हो चुकी थी (उक्त यूरोपीय जातियों के आने से पहले इस देश की जो आर्थिक स्थिति थी, विश्व व्यापार में उसका जो स्थान था और इन जातियों ने जिस तरह से उस सबको नष्ट किया - उसका विस्तार से अध्ययन सुन्दर लाल की "भारत में अंग्रेजी राज", रमेश चन्द्र दत्त आई.सी.एस. की "भारत का आर्थिक इतिहास", सुरेन्द्र नाथ गुप्त की "सोने की चिड़िया और लुटेरे अंग्रेज़" जैसी पुस्तकों में किया जा सकता है), उसके परिप्रेक्ष्य में नौकरी का आकर्षण अत्यंत स्वाभाविक ही था. अत: भारत के विशाल मध्यम वर्ग में अंग्रेजी शिक्षा की मांग बढ़ने लगी. शायद इसीलिए मैकाले के विवरण-पत्र को कुछ शिक्षा-शास्त्री "मील का पत्थर" कहते हैं, तो कुछ इसे "खतरनाक रपटीला मोड़" बताते हैं.

आर्थिक दृष्टि से जर्जर होते समाज में हमें अंग्रेजी कल्पवृक्ष की सुखद छाया जैसी प्रतीत हुई जहाँ सरकारी नौकरी के सारे ऐशो- आराम तुरंत मिल सकते थे.

इस विवरण से यह तो स्पष्ट ही है कि भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग अंग्रेजी शासन-काल में ही स्वयं मैकाले की दृष्टि में कोई "स्थायी व्यवस्था" नहीं, केवल "तात्कालिक अस्थायी व्यवस्था" थी क्योंकि मैकाले का अंतिम उद्देश्य सामान्य जनता में यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का प्रसार "देशी भाषाओं के माध्यम" से करना था, पर हमने "स्वतंत्र भारत" में अंग्रेजी माध्यम को ही "स्थायी व्यवस्था" बना दिया. तो अस्थायी व्यवस्था को स्थायी बनाने का अपराधी कौन है? मैकाले या हम? हमने तो जापान, कोरिया, चीन जैसे देशों तक से कुछ सीखने का प्रयास नहीं किया जिन्होंने यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान पहले यूरोपीय भाषाओं में सीखा अवश्य, पर फिर उसे अपनी भाषाओं के माध्यम से अपने देश में फैलाकर विश्व के प्रमुख देशों में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया. जापान ने जब 19वीं शताब्दी के अंत में अपनी शिक्षा को नई चाल में ढालने का प्रयास किया तो अनेक युवाओं को पढ़ने के लिए यूरोप-अमरीका भेजा, जिन्होंने वापस आकर उस ज्ञान को अपने देश में जापानी भाषा के माध्यम से ही फैलाया. ज्ञान-विज्ञान का माध्यम जब कोई विदेशी भाषा होती है तो उसके तमाम शब्द हमें रटने पड़ते हैं क्योंकि उनके अर्थ हम नहीं समझते. इसके विपरीत अपनी भाषा के शब्दों के अर्थ में एक पारदर्शिता होती है. जैसे, अंग्रेजी का "affidavit" तो हम रटते हैं, पर उसके लिए हिंदी शब्द "शपथ पत्र" का अर्थ अपने आप में स्पष्ट हो जाता है. यही कारण है कि जापानियों ने यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान के लिए अपने शब्द बनाकर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान अपने देशवासियों के लिए बोधगम्य बना दिया. जैसे, "बैरोमीटर" को वे sei-u-kei (धूप-वर्षा मापक), या "एस्बेस्टस" को द्मड्ढत्त्त् -थ्र्ड्ढद (पत्थर की रुई) कहते हैं. जापान जैसे देशों की प्रगति का यह मूल रहस्य है. मैकाले और बेंटिंक की उन नीतियों का ही यह परिणाम है कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद हम सामान्यतया रक्त और रंग से ही "भारतीय" बचे रह जाते हैं, रुचियों और दृष्टिकोण से नहीं. तभी तो हमारे लिए ज्ञान-विज्ञान का अर्थ और इतिहास "यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान" से ही शुरू होता है और वहीं खत्म. मैकाले विशिष्ट वर्ग को ही शिक्षा देना चाहता था, हम स्वतंत्र होने और देश पर "जनतंत्र" का लेबल लगाने के बाद भी शिक्षा की ऐसी ही योजनाएँ बनाते हैं जिनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा विशिष्ट वर्ग के लिए ही आरक्षित रहे. जिन "अविकसित और गंवारू" भारतीय भाषाओं को विकसित करने की ज़िम्मेदारी मैकाले ने हम पर डाली थी, हमने केवल उस ज़िम्मेदारी से नहीं, उन भाषाओं से भी अपना नाता तोड़ लिया है. मैकाले-बेंटिंग की नीतियों के हमने नए-नए आयाम ढूंढ लिए हैं. उन्होंने अंग्रेजी को "यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करने का साधन" बताया था, हमने उसे "सरकारी नौकरी का लाइसेंस" मानकर अपनाया. आर्थिक दृष्टि से जर्जर होते समाज में हमें अंग्रेजी कल्पवृक्ष की सुखद छाया जैसी प्रतीत हुई जहाँ सरकारी नौकरी के सारे ऐशो-आराम तुरंत मिल सकते थे. परिणाम यह हुआ कि "अंग्रेजी" तो देश के कोने- कोने में फैल गई, पर "ज्ञान-विज्ञान" लुप्त हो गया. यही कारण है कि आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी आज तक अज्ञान, अविद्या, अंधविश्वास की उन्हीं अंधी गलियों में भटक रहा है जिनमें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति भटकता रहता है. अंग्रेजी पढ़ा सामान्य व्यक्ति ही नहीं, विज्ञान का प्रोफ़ेसर, डॉक्टर, इंजीनियर भी किन्हीं अदृश्य शक्तियों से इतना अधिक आतंकित है कि अपने नए मकान की रक्षा के लिए मकान पर काली हांडी लटकाना आवश्यक मानता है. अपनी रक्षा के लिए हाथ की अँगुलियों में रंग-बिरंगे पत्थरों वाली अंगूठियाँ पहनता है. भौगोलिक तथ्यों को जानते हुए भी सूर्य/चन्द्र ग्रहण के अवसर पर देवताओं को संकट से उबारने के लिए स्नान-ध्यान-पूजा-पाठ करता है. "पंडितों" को खाना खिलाकर अपने "स्वर्गस्थ" पितरों का पेट भरता है. ऐसी ही मानसिकता के कारण वह तो कंप्यूटर का उपयोग भी "जन्मपत्री" तैयार करने के लिए करता है. जो अंग्रेजी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की वाहिका बताई गई थी, उसका हमने ज्ञान-विज्ञान से तो सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया, पर रुचियों में अँगरेज़ होने का प्रमाण देते हुए अंग्रेजी को पूरी श्रद्धा से इस तरह अपना लिया कि केवल नौकरी के काम नहीं, बल्कि अपने निजी और सामाजिक जीवन के छोटे-बड़े काम भी उसी भाषा में करने लगे. हम तो उसे मंदिर की देवी मानकर उसकी पूजा करने लगे हैं. तभी तो विवाह जैसे जीवन के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवसर के निमंत्रण पत्र हों या दीपावली, नव वर्ष, विवाह की वर्षगांठ, जन्मदिवस जैसे अवसरों के शुभकामना सन्देश, घर के दरवाजे पर लगने वाला नामपट हो या दुकान पर लगने वाला बोर्ड, छोटी-मोटी गोष्ठी में बात करनी हो या संसद में चर्चा, हिंदी फिल्मों/नाटकों के पुरस्कार वितरण समारोह हों या संगीत आदि के कार्यक्रम - हम सभी काम अंग्रेजी में करते हैं. अब तो धार्मिक प्रवचन भी हम अंग्रेजी में करने लगे हैं. जहाँ तक नौकरी का संबंध है, पहले वह सरकारी क्षेत्र में ही अंग्रेजी के माध्यम से मिलती थी, पर कालांतर में निजी क्षेत्र को भी सरकार का अनुसरण करना पड़ा. इसके बावजूद लोगों का विश्वास था कि स्वतंत्रता मिलने पर स्थिति अवश्य बदलेगी. इस विश्वास का ही परिणाम था कि जब देश को आज़ादी मिलनी निश्चित हो गई, तो प्रसिद्ध उद्योगपति टाटा ने मुंबई में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को हिंदी सिखाने की व्यवस्था की; पर जब संविधान-सभा ने अंग्रेजी जारी रखने का निश्चय कर लिया तो टाटा ने भी हिन्दी सिखाने की व्यवस्था समाप्त कर दी. संविधान-सभा के निर्णय ने सामान्यजन को यह स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया कि देश भले ही स्वतंत्र हो गया हो, अगर सम्मान के साथ जीना है तो अंग्रेजी की ऑक्सीजन पर ही जीना होगा क्योंकि देश अंग्रेजों के शासन से ही आज़ाद हुआ है, अंग्रेजी के शासन से नहीं.
आज नौकरी मिले या न मिले, पर अंग्रेजी के चक्कर में हम "शिक्षा का अर्थ और उसका उद्देश्य" जैसी सब बातें भूल चुके हैं. शिक्षा-शास्त्री पुकार-पुकार कर कहते आ रहे हैं कि बच्चे के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक आदि सभी प्रकार के विकास के लिए मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से शिक्षा देना अनिवार्य है. चाहे ब्रिटिश काल के हंटर कमीशन (1882), सैडलर कमीशन (1917) आदि हों या स्वतंत्र भारत के राधाकृष्णन कमीशन (1948), मुदालिअर कमीशन (1952), कोठारी कमीशन (1964) आदि हों, शिक्षा सम्बन्धी सभी आयोगों ने एक स्वर से यही सिफारिश की है कि माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा (जो जीविकोपार्जन हेतु स्वत: पूर्ण भी हो) अनिवार्य रूप से मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा के ही माध्यम से देनी चाहिए, पर हमारा अंग्रेजी-प्रेम इन बातों को सुनना ही नहीं चाहता. कहा ही गया है कि प्रेम अंधा-बहरा होता है. परिणाम यह हुआ है कि अंग्रेजी माध्यम की जो परम्परा ज्ञान-विज्ञान की खोज के लिए समर्पित विश्वविद्यालयों से शुरू हुई थी, वह धीरे-धीरे माध्यमिक और प्राथमिक से होते हुए अब नर्सरी - प्रि-नर्सरी स्कूलों से भी आगे बढ़कर घरों में घुस आई है जहाँ दुध-मुँहे बच्चों की भाषा सीखने की शुरुआत hand, finger, eyes, ear, nose, से और गिनती की शुरुआत one, two... से होने लगी है. अभी तक हम यही सोचते थे कि इस प्रकार अंग्रेजी माध्यम का प्रयोग शिक्षा सम्बन्धी सभी आयोगों की सिफारिशों के विपरीत है, पर अब तो अंग्रेजी प्रेमियों के प्रवक्ता बनकर हमारे स्वतंत्र भारत के "Knowledge Commission' (पाठक क्षमा करें, पर डर है कि कहीं इसे देवनागरी लिपि में लिखना या हिंदी में "ज्ञान आयोग" कहना इसका अपमान न हो जाए) के चेयरमैन मि. सैम पित्रोदा ने स्पष्ट सिफारिश की है कि पूरे देश में हर प्रकार की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही होना चाहिए. सैम पित्रोदा और उन जैसे "विद्वानों" ने मान लिया है कि शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग ही आज अलादीन का वह जादुई चिराग है जो शिक्षा के प्रसार की कमी, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, बेरोज़गारी आदि तरह- तरह की सभी समस्याओं को हल करके हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर सकता है.
लोगों ने मान लिया है कि अंग्रेजी माध्यम से दी गई शिक्षा की गुणवत्ता उच्च स्तर की, और भारतीय भाषा माध्यम की निम्नस्तर की होती है. विभिन्न बोर्डों की परीक्षाओं में या अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षाओं में जब कभी भारतीय भाषा माध्यम के बच्चे "टाप" करते हैं तो दिलजले लोग उसे "अंधे के हाथ बटेर" कह देते हैं. वे इसे मातृभाषा का प्रभाव मानने को तैयार ही नहीं. उनकी इस मानसिकता के कारण देश के सीमित संसाधन और अमूल्य शक्ति गाँव-गाँव में तथाकथित इंग्लिश मीडियम के स्कूल खोलने में नष्ट हो रही है.
लोग बड़े आग्रहपूर्वक कहते हैं कि आज के युग में अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है. उनके इस कथन से असहमति का तो प्रश्न ही नहीं, क्योंकि कतिपय कामों के लिए अंग्रेजी का ज्ञान वास्तव में आवश्यक हो गया है, पर इस तथ्य की उपेक्षा कैसे कर दी जाए कि "अंग्रेजी की शिक्षा" और "अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा" एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं. आज के युग में अंग्रेजी का ज्ञान केवल हमारे लिए नहीं, विश्व के अन्य लोगों के लिए भी आवश्यक है. इसीलिए रूसी, चीनी, जापानी, फ्रांसीसी, जर्मन, स्पेनिश आदि वे लोग भी अंग्रेजी का अध्ययन कर रहे हैं जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है, पर वे अपनी सारी शिक्षा की व्यवस्था "अंग्रेजी माध्यम से" नहीं करते. आज विश्व में केवल आर्थिक नहीं, अन्य भी अनेक दृष्टियों से जो स्थान जापान, कोरिया, चीन आदि देशों का है, हमारा देश उनसे हर क्षेत्र में दूर, बहुत दूर, बहुत ही दूर केवल इसलिए है क्योंकि हमने अपने बच्चों के विकास के मार्ग में अंग्रेजी माध्यम की दीवार खड़ी कर रखी है. इस सच्चाई को हम जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा है.
अपने अंग्रेजी-प्रेम के कारण हम भावी पीढ़ी के प्रति अनेक "अपराध" करते आ रहे हैं . हम यह भूल गए हैं कि जहाँ तक भाषा सीखने का प्रश्न है वह कक्षा-कक्ष में कम, "विशिष्ट भाषायी परिवेश" में अधिक सीखी जाती है. बच्चा स्कूल में अंग्रेजी "पढ़कर" आता है, पर उस पढ़े हुए को "सीखने" के लिए उसे अंग्रेजी का परिवेश मिलता ही नहीं. जो परिवेश मिलता है वह या तो पूरी तरह मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा का होता है, या फिर मिश्रित. अत: बच्चे का अंग्रेजी पर अपेक्षित अधिकार हो ही नहीं पाता. हमारी आज की फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में हुई. उनके पिता डॉ. हरिवंश राय "बच्चन" अंग्रेजी के ही एम.ए. थे, पी-एच.डी. थे, और वह भी इंग्लैंड से. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के ही शिक्षक थे. माँ तेजी बच्चन भी अंग्रेजी की ही एम.ए. थीं और अपने समय के अंग्रेजी के अप्रतिम विद्वान् प्रो. अमरनाथ झा की शिष्या थीं. दूसरे शब्दों में, अमिताभ को विद्यालयी और पारिवारिक दोनों ही प्रकार के परिवेश अंग्रेजी सीखने की दृष्टि से अनुकूलतम मिले. इसके बावजूद उनका अंग्रेजी पर अपेक्षित अधिकार नहीं हो पाया. अपने "ब्लॉग" में उन्होंने लिखा है कि मैं अंग्रेजी व्याकरण में कमजोर था. इसलिए सेंट स्टीफन कॉलेज (दिल्ली) के प्रिंसिपल के कहने के बावजूद बी.ए. (आनर्स) अंग्रेजी में नहीं किया (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 11 अगस्त, 2009, पृष्ठ 15). हर बच्चे को तो वैसा भी पारिवारिक परिवेश नहीं मिल सकता जैसा अमिताभ को मिला. अत: सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन बच्चों को अंग्रेजी पर आधा-अधूरा अधिकार पाने के लिए भी कितना संघर्ष करना पड़ता होगा और उसके बाद भी इस पीड़ा को जन्म भर ढोना पड़ता होगा कि मुझे ठीक से अंग्रेजी नहीं आती. सैम पित्रौदा तो अमरीका में बस चुके हैं, उन्होंने वहां अध्ययन भी किया है, पर इस देश का हर बच्चा न विदेश जा सकता है न वहां अध्ययन कर सकता है.
विश्व में केवल आर्थिक नहीं, अन्य भी अनेक दृष्टियों से जो स्थान जापान, कोरिया, चीन आदि देशों का है, हमारा देश उनसे हर क्षेत्र में दूर, बहुत ही दूर केवल इसलिए है क्योंकि हमने अपने बच्चों के विकास के मार्ग में अंग्रेजी माध्यम की दीवार खड़ी कर रखी है.
++
स्वतंत्र भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग देश को दो भागों में बाँट रहा है - "इंडिया" और "भारत". महात्मा गाँधी ने जो बात राजभाषा के सन्दर्भ में कही थी, आज वह शिक्षा के माध्यम के बारे में भी उतनी ही सही है.
हमने मनोवैज्ञानिकों की बताई इस बात को भी भुला दिया है कि बाल्यावस्था में भाषा सीखने का अर्थ केवल कुछ शब्द रट लेना नहीं है. बाल्यावस्था में तो भाषा के माध्यम से बच्चे के मन में "संकल्पनाओं" के निर्माण की, "अमूर्तीकरण" की प्रक्रिया शुरू होती है जो उसके मानसिक विकास का, चिंतन और विचार करने का अर्थात् भावी जीवन का आधार होती है, नींव होती है. अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा के कारण बच्चों में यह प्रक्रिया बाधित होती है. इसी तथ्य को ध्यान में रखकर राष्ट्रपिता ने कहा था, ""अगर हम अंग्रेजी के आदी नहीं हो गए होते तो यह समझने में हमें देर नहीं लगती कि अंग्रेजी के शिक्षा के माध्यम होने से हमारी बौद्धिक चेतना जीवन से कटकर दूर हो गई है, हम अपनी जनता से अलग हो गए हैं."" अंग्रेजी के कारण जनता से अलग होने का ही एक उदाहरण है भोपाल गैस दुर्घटना जैसी त्रासदी से पीड़ित जनता के दर्द को महसूस करने के बजाय हमारे नेताओं का पीड़ा देने वाले लोगों को बचाने का भरसक प्रयास करना या जनता के खून- पसीने की कमाई "चुराकर" विदेशों में अपने नाम से जमा करना.
इस वास्तविकता की भी हमने पूरी तरह उपेक्षा कर दी है कि हर सामान्य बच्चे में मातृभाषा (प्रथम भाषा) सीखने की जैसी क्षमता जन्मजात होती है वैसी दूसरी, तीसरी, चौथी... भाषा सीखने की नहीं होती. हमने तो अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था करके हर बच्चे पर यह जिम्मेदारी डाल दी है कि अंग्रेजी पर मातृभाषा जैसा अधिकार अर्जित करो. इसमें असफल रहने पर हम बच्चे को "पिछड़ा हुआ", "फिसड्डी", "नालायक", "अयोग्य", "मंद बुद्धि" घोषित कर देते हैं. लगभग चार दशक पूर्व जब मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था, तब मैंने एक शोध के माध्यम से कतिपय माध्यमिक शिक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रमों/परीक्षा परिणामों का विस्तृत अध्ययन किया था जिसके निष्कर्ष विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए थे. उस समय कई बोर्डों में अंग्रेजी के दो कोर्स थे - अनिवार्य अंग्रेजी (सबके लिए) और वैकल्पिक अंग्रेजी (जो स्वेच्छा से इसे पढ़ना चाहें उनके लिए). अनिवार्य अंग्रेजी का परीक्षा परिणाम जहाँ 45 से 58 प्रतिशत तक रहा, वहीं वैकल्पिक अंग्रेजी का 88 से 97 प्रतिशत तक रहा. परीक्षा परिणाम के इस अंतर के कारणों का विश्लेषण करने पर ध्यान गया कि वैकल्पिक अंग्रेजी का अध्ययन वही करता है जो इसका लाभ अपने भावी जीवन में देख रहा है, इसलिए जिसकी रुचि इस भाषा के सीखने में है और जिसे इसके लिए सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं. इसके विपरीत अनिवार्य अंग्रेजी का अध्ययन रुचिशील-अरुचिशील, सामर्थ्यवान-सामर्थ्यहीन, सुविधा प्राप्त- सुविधाहीन सभी को विवशता में करना पड़ता है. यही कारण है कि अनिवार्य अंग्रेजी का परीक्षा परिणाम अनिवार्य गणित (58-79 प्रतिशत) और अनिवार्य सामान्य विज्ञान (62-75 प्रतिशत) तक से कम रहा, जबकि गणित और विज्ञान कोई सरल विषय नहीं. जरा विचार कीजिए कि जब एक विषय के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता लगभग आधे बच्चों को असफल रहने के लिए मजबूर कर रही है तो शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता कितने बच्चों का भविष्य चौपट कर रही होगी - यह सहज कल्पना का विषय है या गहन अनुसन्धान का?
अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों की प्रकृति-प्रदत्त शक्तियों का अधिकाधिक विकास हो, वे अपनी सामर्थ्य के अनुरूप अधिक से अधिक योग्य बनें, देश के किसी वर्ग विशेष के नहीं, बल्कि सभी बच्चों को आगे बढ़ने का न्यायसंगत अवसर मिले ताकि पूरे देश की प्रतिभा विकसित होकर देश के विकास का साधन बने, देश के बच्चे देश पर भार नहीं, देश की सम्पदा बनें और इस देश को आगे बढ़ाएं, तो उसका सबसे पहला अनिवार्य उपाय है - शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग. स्वतंत्र भारत में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग देश को दो भागों में बाँट रहा है - "इंडिया" और "भारत". महात्मा गाँधी ने जो बात राजभाषा के सन्दर्भ में कही थी, वह शिक्षा के माध्यम के बारे में भी उतनी ही सही है. उनके शब्द थे, ""अगर स्वराज अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों का और उन्हीं के लिए होने वाला है तो निस्संदेह अंग्रेजी ही राजभाषा होगी, लेकिन अगर स्वराज हमारे देश के करोड़ों भूखों मरने वालों, करोड़ों निरक्षरों, पीड़ितों और दलित जनों का भी है और इन सबके लिए होने वाला है तो हमारे देश में हिंदी ही एकमात्र राजभाषा हो सकती है."" शिक्षा के माध्यम के सन्दर्भ में और पूरे देश के सभी बच्चों के सन्दर्भ में बस इसमें "हिंदी" के स्थान पर "भारतीय भाषाएँ" शब्द रख दीजिए. राष्ट्रपिता के इन मर्मभेदी शब्दों के बाद भी क्या किसी और टिप्पणी की आवश्यकता रह जाती है?

Eight Elements of News

$
0
0




 Presentation Transcript

  • 1. 8 Elements of News What is news? Why is it news? Why is it published?
  • 2. Timeliness The news happened recently (since the last edition) It’s new , otherwise, we’d call it “olds” Almost every story has some timeliness aspect For example: A teen driver is hit by another car at the intersection of Miller and Russell today, in the newspaper tomorrow.
  • 3. Currency No, not as in money It’s related to something else in the news. For example: A story on how many accidents have occurred at this intersection in the last few years.
  • 4. Conflict War, elections, sports Any time there is a struggle For example: In an election year a lot of stories about the election are news. The conflict in Iraq is news.
  • 5. Consequence The subject of a story has an impact on how people live their lives. For example: A story on a new curfew that will take effect, or a street that is under construction, or a scientific breakthrough
  • 6. Prominence Elected, wealthy, famous For example: If I choke on a pretzel, it’s not news. When the president does, it is news.
  • 7. Proximity Closeness, either because of geographical proximity or because of relationship For example: News about the area (geographical) or news about things of interest/concern to locals (relationship).
  • 8. Human Interest “ Warm and fuzzy” feeling For example: Olympic athlete bios, Dateline “Survivor Stories”
  • 9. Oddity Weird stuff For example: Something bizarre that just doesn’t fit anywhere else
  • 10. Three goals of journalism Inform Educate Entertain

Elements of News

$
0
0


| February 11, 2011 | Comments (18)

1. Timeliness. Based on the idea that news is something you didn’t know before which is significant or interesting to a group of readers, news items are basically timely or immediate. In other words, items are fresh and new as usually indicated in the news by the use of words “today” or “yesterday” or “at present time” and the use of the present tense in news headline as one principle in journalism. Although news is basically timely, it may not be always new or fresh, for it  can be the development of an old event. There are news that are drawn from the historic past and are made to come alive by playing on or reporting the newest angle or latest development of the story. For example: Jose P. Rizal’s death in 1896 will always be presented on its newest angle as readers recall his death anniversary.
2. Popularity. Popular or prominent persons, places, or events make news. persons become popular due to their position, rank, wealth, intellect, talent, skill, personality, and achievement. Well-known places make news due to their tourism value, historical, political, economical, and social significance. Popular events are usually those that involve a multitude of people or some well-known personalities as in the case of the NBA games, Miss Universe Pageant, and film festivals. Most of the events or activities or any gathering that involves the president of the country is newsworthy. Besides, the president of a country is a significant figure and is undoubtedly a popular person. So even if the incident is routinary like the raising of the flag, if the president of a country does it on a certain occasion, it is a page one story.
3. Nearness. What readers consider interesting and important can be news but the degree of interest and importance will vary from place to place and from one set of readers to another. What is news in the province may not be news in Manila. What is important or interesting to high schoolers may not be that significant to professionals or businessmen. Nearness to the event affects readers’ interest. Reports or events that happen nearest to the readers or to those that directly involve them will be most interesting to them. However, nearness is not merely physical, it can also be emotional. As such news in Japan will be more of interest to the Japanese than to the Filipinos. But a report on the life of Filipinos in Americawill be interesting to the people of the Philippines because of family ties or emotional links. The election of a Filipino-American lawyer, Ben Cayetano, as governor of Hawaii has dramatically touched the Filipino nation as the story was prominently displayed on page one of the local papers.
4. Conflict. Events of ideas that involve physical or mental struggle, though these are not encouraged, would make news. These range from wars, rebellion, crimes, chaos, duel, or fist fight, and from games, competitions and even writing contests. As the various elements or criteria overlap, one event may have two or more elements portrayed as in a “word war” of two prominent personalities on a very significant issue. For this example of event, there are at least three dominant elements reflected: conflict, popularity or prominence, and significance.
5. Significance. Persons, places, events, or things that are of value, use, and significance are necessarily interesting to a set of readers. The reading public has to be warned of an approaching typhoon, an impending war, rise in prices of commodities and services, and bandits at large, even of new tax exemptions or measures. If it is worthknowing, then that must be news. Why should people be informed of such events of significance? It is because the newspapers has to serve the public and make people be more prepared and better equipped to face the trying times and life’s difficulties and tragedies.
6. Unusualness. Anything that deviates from the normal or usual flow of happenings attracts attention and, therefore, to some extent, are of interest to readers. The writer’s watchful eye, nose for news, and keen senses are for catching the peculiar, the special, the odd, the unique, the different, the rare, and the bizarre. Of course, you have heard of the Siamese twins, the mudfish baby with human lips, the three-legged cock, and thing like one for Ripley’s.
7. Emotions. Events, situations or ideas that cater to the emotions of people(not only those that tickle the minds), also make news. The poor, the street children, the disabled, the sick, — AIDS victims, are subject of emotional news reporting. Human interest situations draw various feelings from readers. Such may make the readers do something about some particular tragic events. For instance, reports on the victims of earthquakes influence readers to react to some charitable knocks to their hearts. Dramatic events like suicide, coup de tat, massacre, or hunger strikes appeal to the emotions of people, and are, therefore, newsworthy.
8. Gender. Newspapers cater to different groups of readers due to the varying interests and activities of men, women, and “in betweens”. A news is created when women invade men;s usual territories or vice-versa. Like when women first went into space exploration, or when a woman ruled a nation or when men dominated the cuisine and even reigned the laundering which society considers places for women. Example: When former President Corazon Aquino became the first Philippine woman president and when she was subsequently chosen as Time Magazine’s Woman of the Year, these two instances made big events for newspapers.
9. Progress. Reports on progress, whether physical, mental, economic, emotional, or social, constitute good news. Newspapers carry both good and bad news, for people learn from both events. It is just sad to note that generally speaking, some newspapers if not all the local papers consider “bad news as news”and “good news as no news.” The advent of development communication in the Philippine setting is good news. More developed countries in Asia like Singapore, Malaysia, and Thailand practised development journalism in such a way that freedom of the press is utilized in support to the economic growth of the country as in writing articles to support government programs aimed at improving the quality of life of the people is a healthy measure for the Philippines media to practice.

10. Change. Changes that affect the majority or certain groups of people make news. Some of these changes are change in administration and policies,  change of name or popular places or events, changes of weather, fluctuating rates of exchange, change of partners of party mates, change of schedule or postponement and other major or even insignificant changes that may pave way for big events.  While some changes are unexpected, there are also expected ones.
11. Names and Numbers. Figures, statistics, numbers, and series of names also make news. Many names would also make many readers. Numbers or figures are parts of reports on a good number of newsworthy events like election results, scores in games, ratings in examinations, and percentage of passing, vital statistics for beauty pageants, number or fatalities  or casualties in catastrophes, accidents, and battles; prices of goods and services, increase in salaries, and other events that deal with figures. Names and numbers usually come together for these are two basic facts that reporters need to complete their news stories.

एक महीने बाद: बलात्कार पर खुलकर हो रही है बाते

$
0
0
 

मोबाइल पर ख़बरें

 बुधवार, 16 जनवरी, 2013 को 14:59 IST तक के समाचार

दिल्ली में बलात्कार की घटना को एक महीना हो गया है.
राजधानी दिल्ली में एक 23 वर्षीय युवती के बर्बर बलात्कार और हत्या की वारदात को 16 जनवरी को पूरा एक महीना हो गया.
इस एक महीने में बहुत कुछ दिखा, युवाओं का गुस्सा, सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल, टीवी पर बहस और नेताओं के कुछ करने के वादे, कुछ करने के इरादे.
फिर ख़बरें बदलीं, कुंभ और नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी, साथ ही बदल गए टीवी पर बहस के मुद्दे, नेताओं के आरोप और तल्ख बयान.
पर बलात्कार की घटना को लेकर जो गुस्सा था, क्या वो शांत हुआ या अब भी बुलबुले की तरह कभी भी फटने को तैयार है? और सुरक्षा व्यवस्था, क्या वो पुख़्ता हुई या अब भी लचर है?
या परेशानी कुछ और थी और उसका हल इतना पेचीदा कि एक महीना तो उस रास्ते को ढूंढने के लिए भी नाकाफ़ी है? जानिए बीबीसी संवाददाताओं के अनुभव और आकलन.

'खुलकर हो रही है बात'


पारुल अग्रवाल
दिल्ली बलात्कार मामले ने एक बड़ा बदलाव जो किया है वो ये है कि सेक्स, महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा और बलात्कार जैसे मुद्दों पर अब समाज का वो तबका भी सड़कों पर, दफ्तरों में, घरों में खुलकर बात करता दिख रहा है जो अभी तक इन शब्दों और घटनाओं का ज़िक्र केवल दबे-छिपे ढंग से करता था.
कुछ दिनों पहले अपने घर के नीचे पान की एक दुकान पर जमा रिक्शेवालों को बलात्कार मामले पर बात करते सुना. सुनकर हैरानी हुई कि ज़्यादातर रिक्शेवाले ‘सोच में बदलाव’ का जुमला इस्तेमाल कर रहे थे.
दफ्तर से घर लौटते जिस टैक्सी में आमतौर पर तेज़ संगीत या मैच की कमेंट्री सुनाई देती थी उस टैक्सी के ड्राइवर ने जब दिल्ली बलात्कार मामले पर बात शुरु की तो मुझे लगा कि वो घटना के बारे में मुझसे अंदर की जानकारी या आगे क्या होगा ये जानना चाहते हैं.
लेकिन पूरा रास्ता इस बातचीत में बीता कि इन बलात्कारियों ने जो किया उस पर पुरुष कितने शर्मिंदा हैं और सड़कों पर महिलाओं को इज़्ज़त मिले इसके लिए किस तरह ड्राइवर, क्लीनर, ऑटो चालकों और टैक्सी ड्राइवरों के लिए बकायदा क्लास लगाई जानी चाहिए.
सोच कितनी बदलेगी ये तो समय बताएगा लेकिन करोलबाग जैसे बाज़ारों से गुज़रते हुए खोमचे-ठेले वालों, आम दुकानदारों और चायवालों का खुलकर ‘बलात्कार’ पर बात करना और एक महिला ग्राहक के पहुंचने पर ठिठकने के बजाए बात जारी रखना वाकई सकारात्मक लगता है.

'घबराहट और डर कुछ बढ़ गया है'


दिव्या आर्य
मैंने खुद को कभी मर्दों से कमज़ोर नहीं समझा, शारीरिक तौर पर तो कतई नहीं. दिल्ली में पली-बढ़ी हूं तो ज़ाहिर है कई बार छेड़ी गई हूं, लेकिन हर बार जवाब दिया, कभी सहमी नहीं बल्कि कोशिश की कि जवाब इतना बुलंद हो कि वो लड़का अगली बार कुछ ऐसा करने से पहले मुझे याद करे.
जब दिल्ली में ये वारदात हुई तो मैं लंदन में थी, एक बेहद सुरक्षित विदेशी शहर, जहां देर रात अकेले घूमने में डर नहीं लगता, पुलिस पर भरोसा है और मर्दों में आम तौर पर महिलाओं की इज़्ज़त ज़्यादा.
दस दिन पहले दिल्ली लौटी हूं, तब तक इस केस के बारे में इतना पढ़ा और सुना कि अंदर ही अंदर एक घबराहट पसरने लगी है. वही मेट्रो, ऑटो और सड़कों पर चलने में पीछे पलटकर कुछ ज़्यादा ही देखने लगी हूं.
मानो अपने शहर लौटकर जैसे उसकी नब्ज़ पकड़ने में दिक्कत हो रही है.
खुद में इस बदलाव को भांपकर नाराज़ भी हूं और विचलित भी. लेकिन मैं अकेली नहीं. मेरी कई सहेलियों ने भी इस अजीब डर की चर्चा की है, मानो इस वारदात ने बलात्कार के ख़तरे के अहसास को, शायद फ़िलहाल के लिए ही, पर और नज़दीक ला दिया है.

'पुलिस का रवैया बदला है'


सारा हसन
पिछले एक महीने में महिलाओं के प्रति दिल्ली पुलिस के रुख में मैंने काफी फर्क देखा है. दिसंबर की उस वारदात के बाद दिल्ली पुलिस से तीन बार वास्ता पड़ा.
दो बार ट्रैफिक पुलिसवालों से बलात्कार के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के चलते बंद सड़कों के बारे में पूछा और एक बार एक सड़क दुर्घटना के बारे में पुलिसकर्मी से पूछताछ की.
तीनों बार हैरान हुई कि ना सिर्फ़ पुलिसवाले बेहद अदब से पेश आए बल्कि विस्तार से समझाकर पूरी जानकारी दी. ना सिर्फ़ ये बताया कि कौन सी सड़कें बंद हैं, बल्कि ये भी कि घर जाने के लिए कौन सा रास्ता लेना सही होगा.
ऐसा तो पहले कभी नहीं देखा, खुश भी हुई और मन में एक उम्मीद जगी कि शायद वो दिन दूर नहीं जब महिलाएं ज़रूरत पड़ने पर पुलिस के पास जाने से हिचकेंगी नहीं.

'विरोध करने का इरादा और पक्का हुआ'


टिंकू रे
मैं एक ऐसी महिला नहीं जो जल्दी से डर जाऊं. इंग्लैंड में पली-बढ़ी और अमरीका में काम किया. हमेशा से मज़बूत और आत्मनिर्भर होने पर फख़्र रहा है.
कॉलेज के दिनों में कोलकाता में रही, एक बार एक लड़के ने बस में मुझसे बद्तमीज़ी करने की कोशिश की तो मैंने खूब शोर मचाया, और महिला यात्रियों ने साथ दिया औऱ उस आदमी को बस से उतरना पड़ा.
मुझे सबका साथ मिला, ये मेरी खुशकिस्मती थी, लेकिन दिल्ली ऐसा शहर नहीं है. तजुर्बे यहां भी हुए पर उनसे अकेले ही निपटना पड़ा.
लेकिन दिसंबर में एक छात्रा के साथ बलात्कार के भयानक हादसे के बाद तो किसी भी तरह के अत्याचार के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करने का मेरा इरादा और पक्का हो गया है.
अपनी 15 साल की बेटी के साथ सड़क पर चलती हूं और कोई उसे घूरकर देखता है, तो रुक जाती हूं, उसको तब तक घूरती हूं जब तक वो पलटकर चला ना जाए. कभी तो ये उन्हें शर्मिंदा करता है पर मैं जानती हूँ कई बार बहुत नाराज़ भी करता है.
इसलिए अपनी बेटियों को हमेशा बेहद चौकन्ना रहने को कहती हूं. मैं कई जगह रही हूं पर दिल्ली हमेशा सबसे असुरक्षित महसूस हुई और इस एक महीने में भी महिलाओं की ओर पुरुषों के रवैये में कुछ ख़ास नहीं बदला.

इसे भी पढ़ें

गुणात्मक अनुसंधान

$
0
0

गुणात्मक अनुसंधानकई अलग शैक्षणिक विषयों में विनियोजित, पारंपरिक रूप से सामाजिक विज्ञान, साथ ही बाज़ार अनुसंधान और अन्य संदर्भों में जांच की एक विधि है.[1]गुणात्मक शोधकर्ताओं का उद्देश्य मानवीय व्यवहार और ऐसे व्यवहार को शासित करने वाले कारणों को गहराई से समझना है. गुणात्मक विधि निर्णय के न केवल क्या , कहां , कबकी छानबीन करती है, बल्कि क्योंऔर कैसेको खोजती है. इसलिए, बड़े नमूनों की बजाय अक्सर छोटे पर संकेंद्रित नमूनों की ज़रूरत होती है.
गुणात्मक विधियां केवल विशिष्ट अध्ययन किए गए मामलों पर जानकारी उत्पन्न करती हैं, और इसके अतिरिक्त कोई भी सामान्य निष्कर्ष केवल परिकल्पनाएं (सूचनात्मक अनुमान) हैं. इस तरह की परिकल्पनाओं में सटीकता के सत्यापन के लिए मात्रात्मक पद्धतियों का प्रयोग किया जा सकता है.

अनुक्रम

इतिहास

1970 के दशक तक, वाक्यांश 'गुणात्मक अनुसंधान' का उपयोग केवल मानव-विज्ञान या समाजशास्त्र के एक विषय का उल्लेख करने के लिए होता था. 1970 और 1980 दशक के दौरान गुणात्मक अनुसंधान का इस्तेमाल अन्य विषयों के लिए भी किया जाने लगा, और यह शैक्षिक अध्ययन, सामाजिक कार्य अध्ययन, महिला अध्ययन, विकलांगता अध्ययन, सूचना अध्ययन, प्रबंधन अध्ययन, नर्सिंग सेवा अध्ययन, राजनैतिक विज्ञान, मनोविज्ञान, संचार अध्ययन और कई अन्य क्षेत्रों में अनुसंधान का महत्वपूर्ण प्रकार बन गया. इस अवधि में उपभोक्ता उत्पादों में गुणात्मक अनुसंधान होने लगा, जहां शोधकर्ता नए उपभोक्ता उत्पादों और उत्पाद स्थिति/विज्ञापन के अवसरों पर जांच करने लगे. प्रारंभिक उपभोक्ता अनुसंधान अग्रदूतों में शामिल हैं डेरियन, CT में द जीन रेइली ग्रूप के जीन रेइली, टैरीटाउन, NY में जेरल्ड शोएनफ़ेल्ड एंड पार्टनर्स के जेरी शोएनफ़ेल्ड और ग्रीनविच, CT में कॉले एंड कंपनी के मार्टिन कॉले, साथ ही लंदन, इंग्लैंड के पीटर कूपर तथा मिशन, ऑस्ट्रेलिया में ह्यू मैके.[कृपया उद्धरण जोड़ें]वैसे गुणात्मक बनाम मात्रात्मक अनुसंधान के उचित स्थान के बारे में असहमति जारी रही है. 1980 और 1990 दशक के अंत में मात्रात्मक पक्ष की ओर से आलोचनाओं की बाढ़ के बाद, डेटा विश्लेषण की विश्वसनीयता और अनिश्चित विधियों के संबंध में परिकल्पित समस्याओं से निबटने के लिए गुणात्मक अनुसंधान की नई पद्धतियां विकसित हुईं.[2]इसी दशक के दौरान, पारंपरिक मीडिया विज्ञापन खर्च में एक मंदी रही, जिसकी वजह से विज्ञापन से संबंधित अनुसंधान को अधिक प्रभावी बनाने में रुचि बढ़ गई.
पिछले तीस वर्षों में पत्रिका प्रकाशकों और संपादकों द्वारा गुणात्मक अनुसंधान की स्वीकृति बढ़ने लगी है. इससे पहले कई मुख्यधारा की पत्रिकाओं का झुकाव प्राकृतिक विज्ञान आधारित तथा मात्रात्मक विश्लेषण वाले शोध लेखों की ओर था[3].

मात्रात्मक अनुसंधान से भेद

(सरल शब्दों में - गुणात्मक से तात्पर्य है गैर संख्यात्मक डेटा संग्रहण या ग्राफ़ या डेटा स्रोत की विशेषताओं पर आधारित स्पष्टीकरण. उदाहरण के लिए, यदि आपसे विविध रंगों में प्रदर्शित थर्मल छवि को गुणात्मक दृष्टि से समझाने के लिए कहा जाता है, तो आप ताप के संख्यात्मक मान के बजाय रंगों के भेदों की व्याख्या करने लगेंगे.)
प्रथमतः, मामलों का इस आधार पर उद्देश्यपूर्ण चुनाव हो सकता है कि वे कतिपय विशेषताओं या प्रासंगिक स्थानों के अनुसार हैं या नहीं. दूसरे, शोधकर्ता की भूमिका या स्थिति पर अधिक गंभीरता से ध्यान दिया जाता है. यह इस वजह से कि गुणात्मक अनुसंधान में शोधकर्ता द्वारा 'तटस्थ' या मीमांसात्मक स्थिति अपनाने की संभाव्यता को व्यवहार में और/या दार्शनिक रूप से अधिक समस्यात्मक माना गया है. इसलिए गुणात्मक शोधकर्ताओं से अक्सर अनुसंधान की प्रक्रिया में अपनी भूमिका पर विचार करने और अपने विश्लेषण में इसे स्पष्ट करने को प्रोत्साहित किया जाता है. तीसरे, जहां गुणात्मक डेटा विश्लेषण विस्तृत विविध रूप ग्रहण कर सकता है, वहीं यह मात्रात्मक शोध से भाषा, संकेत और तात्पर्य पर संकेंद्रण तथा साथ ही, अतिसरल और अलगाव के बजाय समग्र और प्रासंगिक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से भिन्न हो जाता है. फिर भी, विश्लेषण के व्यवस्थित और पारदर्शी दृष्टिकोण को लगभग हमेशा ही यथातथ्यता के लिए आवश्यक माना जाता है. उदाहरण के लिए, कई गुणात्मक विधियों में शोधकर्ताओं को ध्यानपूर्वक डेटा कोड करने और एक सुसंगत और विश्वसनीय तरीके से विषयों पर विचार और प्रलेखित करने की अपेक्षा की जाती है.
संभवतः सामाजिक विज्ञान में प्रयुक्त गुणात्मक और मात्रात्मक अनुसंधान का अधिक पारंपरिक भेद, पर्यवेक्षण (अर्थात् परिकल्पना-सृजन) उद्देश्य के लिए या उलझन में डालने वाले मात्रात्मक परिणामों की व्याख्या के लिए गुणात्मक तरीक़ों के इस्तेमाल में है, जबकि मात्रात्मक पद्धतियों का उपयोग परिकल्पनाओं के परीक्षण के लिए किया जाता है. इसका कारण यह है कि सामग्री की वैधता की स्थापना को - कि क्या वे उन मानों को मापती हैं जिन्हें शोधकर्ता समझता है कि वे माप रही हैं? - एक गुणात्मक अनुसंधान के ताकत के रूप में देखा जाता है. जबकि मात्रात्मक पद्धतियों को संकेंद्रित परिकल्पनाओं, माप उपकरणों और प्रायोगिक गणित के माध्यम से अधिक निरूपक, विश्वसनीय और सटीक माप प्रदान करने वाले के रूप में देखा गया है. इसके विपरीत, गुणात्मक डेटा को आम तौर पर ग्राफ या गणितीय संदर्भ में प्रदर्शित करना मुश्किल है.
गुणात्मक अनुसंधान का उपयोग अक्सर नीति और कार्यक्रम मूल्यांकन अनुसंधान के लिए किया जाता है क्योंकि वह मात्रात्मक दृष्टिकोण की तुलना में कतिपय महत्वपूर्ण प्रश्नों का अधिक कुशलता और प्रभावी ढंग से उत्तर दे सकती है. यह विशेष रूप से यह समझने के लिए है कि कैसे और क्यों कुछ परिणाम हासिल हुए हैं (सिर्फ़ इतना ही नहीं कि परिणाम क्या रहा) बल्कि प्रासंगिकता, अनपेक्षित प्रभावों और कार्यक्रमों के प्रभाव के बारे में महत्वपूर्ण सवालों का जवाब देने के लिए भी, जैसे कि: क्या अपेक्षाएं उचित थीं? क्या प्रक्रियाओं ने अपेक्षानुरूप काम किया? क्या प्रमुख घटक अपने कर्त्तव्यों को पूरा करने में सक्षम थे? क्या कार्यक्रम का कोई अवांछित प्रभाव रहा था? गुणात्मक दृष्टिकोण में प्रतिक्रियाओं की अधिक विविधता के मौके अनुमत करने के अलावा अनुसंधान प्रक्रिया के दौरान ही नए विकास या मुद्दों को अनुकूल बनाने की क्षमता की सुविधा मौजूद है. जहां गुणात्मक अनुसंधान महंगा और संचालन में ज़्यादा समय ले सकता है, कई क्षेत्र ऐसे गुणात्मक तकनीकों को लागू करते हैं, जो अधिक सारगर्भित, किफ़ायती और सामयिक परिणाम देने के लिए विशेष रूप से विकसित किए गए हों. इन अनुकूलनों का एक औपचारिक उदाहरण है त्वरित ग्रामीण मूल्यांकन, पर ऐसे और भी कई मौजूद हैं.

डेटा संग्रहण

गुणात्मक शोधकर्ता डेटा संग्रहण के लिए कई अलग दृष्टिकोण अपना सकते हैं, जैसे कि बुनियादी सिद्धांत अभ्यास, आख्यान, कहानी सुनाना, शास्त्रीय नृवंशविज्ञान या प्रतिच्छाया. कार्य-अनुसंधान या कार्यकर्ता-नेटवर्क सिद्धांत जैसे अन्य सुव्यवस्थित दृष्टिकोण में भी गुणात्मक विधियां शिथिल रूप से मौजूद रहती हैं. संग्रहित डेटा प्रारूप में साक्षात्कार और सामूहिक चर्चाएं, प्रेक्षण और प्रतिबिंबित फील्ड नोट्स, विभिन्न पाठ, चित्र, और अन्य सामग्री शामिल कर सकते हैं.
गुणात्मक अनुसंधान परिणामों को व्यवस्थित तथा रिपोर्ट करने के लिए अक्सर डेटा को पैटर्न में प्राथमिक आधार के रूप में वर्गीकृत करता है.[कृपया उद्धरण जोड़ें]गुणात्मक शोधकर्ता आम तौर पर सूचना एकत्रित करने के लिए निम्न पद्धतियों का सहारा लेते हैं: सहभागी प्रेक्षण, गैर सहभागी प्रेक्षण, फील्ड नोट्स, प्रतिक्रियात्मक पत्रिकाएं, संरचित साक्षात्कार, अर्द्ध संरचित साक्षात्कार, असंरचित साक्षात्कार और दस्तावेजों व सामग्रियों का विश्लेषण[4].
सहभागिता और प्रेक्षण के तरीक़े सेटिंग दर सेटिंग व्यापक रूप से भिन्न हो सकते हैं. सहभागी प्रेक्षण प्रतिक्रियात्मक सीख की रणनीतिहै, न कि प्रेक्षण की एकल पद्धति[5]. सहभागी प्रेक्षण में [1]शोधकर्ता आम तौर पर एक संस्कृति, समूह, या सेटिंग के सदस्य बनते हैं और उस सेटिंग के अनुरूप भूमिका अपनाते हैं. ऐसा करने का उद्देश्य शोधकर्ता को संस्कृति की प्रथाएं, प्रयोजन और भावनाओं के प्रति निकटस्थ अंतर्दृष्टि का लाभ उपलब्ध कराना है. यह तर्क दिया जाता है कि संस्कृति के अनुभवों को समझने के प्रति शोधकर्ताओं की क्षमता में अवरोध उत्पन्न हो सकता है अगर वे बिना भाग लिए निरीक्षण करते हैं.
कुछ विशिष्ट गुणात्मक विधियां हैं फोकस समूहों का उपयोग और प्रमुख सूचक साक्षात्कार. फोकस समूह तकनीक में शामिल होता है एक मध्यस्थ जो किसी विशिष्ट विषय पर चयनित व्यक्तियों के बीच एक छोटी चर्चा को आयोजित करता है. यह बाज़ार अनुसंधान और प्रयोक्ता/कार्यकर्ताओं के साथ नई पहल के परीक्षण की विशेष रूप से लोकप्रिय विधि है.
गुणात्मक अनुसंधान का एक पारंपरिक और विशेष स्वरूप संज्ञानात्मक परीक्षण या प्रायोगिक परीक्षण कहलाता है जिसका उपयोग मात्रात्मक सर्वेक्षण मदों के विकास के लिए किया जाता है. सर्वेक्षण मदों का अध्ययन प्रतिभागियों पर प्रयोग किया जाता है ताकि मदों की विश्वसनीयता और वैधता की जांच की जा सके.
शैक्षिक सामाजिक विज्ञान में अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाले गुणात्मक अनुसंधान दृष्टिकोण में निम्नलिखित शामिल हैं:
  1. संस्कृतियों की जांच के लिए प्रयुक्त नृवंशविज्ञान अनुसंधान, जहां सिद्धांत के विकास में मदद के उद्देश्य से डेटा संग्रहित और वर्णित किया जाता है. यह विधि "जाति-सुव्यवस्था" या "लोगों की कार्यप्रणाली" भी कहलाती है. प्रयोज्य नृवंशविज्ञान शोध का एक उदाहरण है, एक विशेष संस्कृति का अध्ययन और उनके सांस्कृतिक ढांचे में किसी एक विशेष बीमारी की भूमिका के बारे में उनकी समझ.
  2. महत्वपूर्ण सामाजिक अनुसंधान शोधकर्ताओं द्वारा यह समझने के लिए प्रयोग किया जाता है कि कैसे लोगों के बीच संप्रेषण और प्रतीकात्मक अर्थों का विकास होता है.
  3. नैतिक जांच नैतिक समस्याओं का एक बौद्धिक विश्लेषण है. इसमें बाध्यता, अधिकार, कर्तव्य, सही और ग़लत, चुनाव आदि के संदर्भ में नैतिकता का अध्ययन शामिल है.
  4. मूलभूत अनुसंधान, विज्ञान के लिए नींव की जांच, मान्यताओं का विश्लेषण करता है और यह निर्दिष्ट करने के लिए तरीक़ों को विकसित करता है कि नई सूचना के प्रकाश में किस तरह ज्ञान का आधार बदलना चाहिए.
  5. ऐतिहासिक अनुसंधान, वर्तमान स्थिति के संदर्भ में विगत और वर्तमान घटनाओं की चर्चा को अनुमत करता है, और लोगों को सोचने और वर्तमान मुद्दों और समस्याओं के संभाव्य समाधान उपलब्ध कराने का मौक़ा देता है. ऐतिहासिक अनुसंधान हमारे ऐसे सवालों का जवाब देने में मदद करता है: हम कहां से आए हैं, हम कहां पर हैं, हम अब क्या हैं और हम किस दिशा में जा रहे हैं?
  6. बुनियादी सिद्धांत एक आगमनात्मक प्रकार का अनुसंधान है, जो उन प्रेक्षणों या डेटा पर आधारित या "स्थापित" है जिनसे उसका विकास हुआ है; वह विविध डेटा स्रोतों का इस्तेमाल करता है जिनमें शामिल हैं मात्रात्मक डेटा, अभिलेखों की समीक्षा, साक्षात्कार, प्रेक्षण और सर्वेक्षण.
  7. घटना-क्रिया-विज्ञान, अन्वेषणाधीन व्यक्तियों द्वारा परिकल्पित किसी घटना की "स्वानुभूतिमूलक वास्तविकता" को वर्णित करता है; यह घटना का एक अध्ययन है.
  8. दार्शनिक अनुसंधान, क्षेत्र विशेषज्ञों द्वारा अध्ययन या व्यवसाय के किसी विशिष्ट क्षेत्र की सीमाओं के भीतर आयोजित किया जाता है, अध्ययन के किसी भी क्षेत्र में सबसे योग्य व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त बौद्धिक विश्लेषण का उपयोग, ताकि परिभाषाओं को स्पष्ट कर सकें, नैतिकता को पहचान सकें, या अपने अध्ययन के क्षेत्र में किसी मुद्दे से संबंधित मूल्यवान निर्णय ले सकें.

डेटा विश्लेषण

व्याख्यात्मक तकनीक
गुणात्मक डेटा का सर्व सामान्य विश्लेषण पर्यवेक्षक प्रभाव है. अर्थात्, विशेषज्ञ या दर्शक प्रेक्षक डेटा की जांच करते हैं, एक धारणा बनाने के ज़रिए उसे समझते हैं और अपने प्रभाव को संरचनात्मक और कभी-कभी मात्रात्मक रूप में रिपोर्ट करते हैं.
कोडिंग
कोडिंग इस अर्थ में एक व्याख्यात्मक तकनीक है कि दोनों डेटा को सुव्यवस्थित करते हैं और कुछ मात्रात्मक पद्धतियों में उन निर्वचनों को प्रवर्तित करने के लिए साधन उपलब्ध कराते हैं. अधिकांश कोडिंग में विश्लेषक को डेटा के पठन और उसके खंडों को सीमांकित करना पड़ता है. प्रत्येक खंड पर एक "कोड" का लेबल लगा होता है - आम तौर पर एक शब्द या छोटा वाक्यांश, जो यह जताता है कि कैसे संबद्ध डेटा खंड अनुसंधान के उद्देश्यों को सूचित करते हैं. जब कोडिंग पूरा हो जाता है, विश्लेषक निम्न के मिश्रण के माध्यम से रिपोर्ट तैयार करता है: कोड के प्रचलन का सारांश, विभिन्न मूल स्रोत/संदर्भों के पार संबंधित कोड में समानताओं और विभिन्नताओं पर चर्चा, या एक या अधिक कोडों के बीच संबंध की तुलना.
कुछ उच्च संरचना वाले गुणात्मक डेटा (उदा., सर्वेक्षणों से विवृत्तांत प्रतिक्रियाएं या दृढ़तापूर्वक परिभाषित साक्षात्कार प्रश्न) आम तौर पर सामग्री के अतिरिक्त विभाजन के बिना ही कोडित किए जाते हैं. इन मामलों में, कोड को अक्सर डेटा की ऊपरी परत के रूप में लागू किया जाता है. इन कोडों के मात्रात्मक विश्लेषण आम तौर पर इस प्रकार के गुणात्मक डेटा के लिए कैप्स्टोन विश्लेषणात्मक क़दम है.
कभी-कभी समकालीन गुणात्मक डेटा विश्लेषण कंप्यूटर प्रोग्राम द्वारा समर्थित होते हैं. ये प्रोग्राम कोडिंग के व्याख्यात्मक स्वभाव को नहीं निकालते, बल्कि डाटा संग्रहण/पुनर्प्राप्ति में विश्लेषक की दक्षता को बढ़ाने और डेटा पर कोड लागू करने के उद्देश्य को पूरा करते हैं. कई प्रोग्राम संपादन और कोडिंग के संशोधन क्षमता की पेशकश करते हैं, जो काम साझा करने, सहकर्मी समीक्षा, और डेटा के पुनरावर्ती परीक्षण को अनुमत करते हैं.
कोडिंग विधि की एक लगातार होने वाली आलोचना है कि यह गुणात्मक डेटा को मात्रात्मक डेटा में बदलने का प्रयास करता है, जिससे डेटा की विविधता, समृद्धि, और व्यक्तिगत स्वभाव समाप्त हो जाता है. विश्लेषक पूरी तरह अपने कोड की परिभाषा के प्रतिपादन और उन्हें अंतर्निहित डेटा के साथ बख़ूबी जोड़ते हुए, कोडों की मात्र सूची से अनुपस्थित समृद्धि को वापस लाकर इस आलोचना का जवाब देते हैं.
प्रत्यावर्ती पृथक्करण
कुछ गुणात्मक डेटासेटों का बिना कोडिंग के विश्लेषण किया जाता है. यहां एक सामान्य विधि है प्रत्यावर्ती पृथक्करण, जहां डेटासेटों का सारांश निकाला जाता है, और फिर उनको संक्षिप्त किया जाता है. अंतिम परिणाम एक अधिक सुसंबद्ध सार होता है जिन्हें आसवन के पूर्ववर्ती चरणों के बिना सटीक रूप से पहचानना मुश्किल होता है.
प्रत्यावर्ती पृथक्करण की एक लगातार की जाने वाली आलोचना यह है कि अंतिम निष्कर्ष अंतर्निहित डेटा से कई गुणा हट कर होता है. हालांकि यह सच है कि ख़राब प्रारंभिक सारांश निश्चित रूप से एक त्रुटिपूर्ण अंतिम रिपोर्ट उत्पन्न करेंगे, पर गुणात्मक विश्लेषक इस आलोचना का जवाब दे सकते हैं. वे कोडन विधि का उपयोग करने वाले लोगों की तरह, प्रत्येक सारांश चरण के पीछे तर्क के दस्तावेजीकरण द्वारा, जहां बयान शामिल हों डेटा से और जहां बयान शामिल ना हों, मध्यवर्ती सारांशों से उदाहरणों का हवाला देते हुए ऐसा करते हैं.
यांत्रिक तकनीक
कुछ तकनीक गुणात्मक डेटा के विशाल सेटों को स्कैन करते हुए तथा छांटते हुए कंप्यूटरों के उत्तोलन पर निर्भर करते हैं. अपने सर्वाधिक बुनियादी स्तर पर, यांत्रिक तकनीक डेटा के भीतर शब्द, वाक्यांश, या टोकन के संयोग की गिनती पर निर्भर होते हैं. अक्सर सामग्री विश्लेषण के रूप में संदर्भित, इन तकनीकों के आउटपुट कई उन्नत सांख्यिकीय विश्लेषणों के प्रति उत्तरदायी होते हैं.
यांत्रिक तकनीक विशेष रूप से कुछ परिदृश्यों के लिए अधिक उपयुक्त हैं. एक ऐसा परिदृश्य ऐसे विशाल डेटासेटों के लिए है जिसका प्रभावी ढंग से विश्लेषण मानव के लिए बस संभव नहीं, या उनमें आवेष्टित सूचना के मूल्य की तुलना में उनका विश्लेषण लागत की दृष्टि से निषेधात्मक है. एक अन्य परिदृश्य है जब एक डाटासेट का मुख्य मूल्य उस सीमा तक है जहां वह "लाल झंडा" (उदा., चिकित्सीय परीक्षण में रोगियों के लंबे जर्नल डेटासेट के अंतर्गत कुछ प्रतिकूल घटनाओं की रिपोर्ट के लिए खोज) या "हरा झंडा" (उदा., बाज़ार के उत्पादों की सकारात्मक समीक्षा में अपने ब्रांड का उल्लेख खोजना) लिए हुए है.
यांत्रिक तकनीक की एक सतत आलोचना मानव अनुवादक का अभाव है. और जहां इन तरीकों के स्वामी कुछ मानवीय निर्णयों की नकल करने के लिए अत्याधुनिक सॉफ्टवेयर लिखने में सक्षम हैं, "विश्लेषण" का अधिकांश हिस्सा बिना मानव के है. विश्लेषक अपने तरीकों के सापेक्ष मूल्य को या तो क) डेटा के विश्लेषण के लिए मानव टीम को काम पर रखने और उनके प्रशिक्षण द्वारा या ख) किसी कार्रवाई योग्य पिंड को अनदेखा छोड़ते हुए, डेटा को अछूता जाने देते हुए, प्रमाणन द्वारा प्रतिक्रिया जताते हैं.

निदर्शनात्मक मतभेद

समकालीन गुणात्मक अनुसंधान अन्य बातों के साथ-साथ वैधता, नियंत्रण, डेटा विश्लेषण, सत्तामीमांसा, और ज्ञान-मीमांसा की संकल्पनात्मक और वैचारिक चिंताओं को प्रभावित करने वाले कई अलग निदर्शनों से किया जाता है. पिछले 10 वर्षों में आयोजित शोध अधिक व्याख्यात्मक, आधुनिकोत्तर, और आलोचनात्मक व्यवहारों के प्रति विशिष्ट झुकाव लिए हैं[6]. गुबा और लिंकन (2005) समकालीन गुणात्मक अनुसंधान के पांच प्रमुख निदर्शनों की पहचान करते हैं: निश्चयात्मक, निश्चयोत्तर, आलोचनात्मक सिद्धांत, रचनात्मक और सहभागी/सहकारी[7]. गुबा और लिंकन द्वारा सूचीबद्ध प्रत्येक निदर्शन, मूल्य-मीमांसा, अभिप्रेत अनुसंधान कार्रवाई, अनुसंधान प्रक्रिया/परिणामों का नियंत्रण, सत्य और ज्ञान की नींव के साथ संबंध, वैधता (नीचे देखें), पाठ प्रतिनिधित्व और शोधकर्ता/प्रतिभागियों की आवाज़. और अन्य निदर्शनों के साथ अनुरूपता के स्वयंसिद्ध मतभेदों द्वारा अभिलक्षित हैं. विशेष रूप से, स्वयंसिद्धि में वह सीमा शामिल हैं जहां तक निदर्शनात्मक चिंताएं "उन तरीक़ों से एक दूसरे के प्रति बाद में ठीक बैठाई जा सकती हैं, जो दोनों के एक साथ अभ्यास को संभव कर सके"[8]. निश्चयात्मक और निश्चयोत्तर निदर्शन स्वयंसिद्ध मान्यताओं को साझा करते हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर आलोचनात्मक, रचनावादी, और सहभागी निदर्शनों के साथ अतुलनीय हैं. इसी तरह, आलोचनात्मक, रचनावादी, और सहभागी निदर्शन कुछ मुद्दों पर स्वयंसिद्ध हैं (जैसे, अभिप्रेत कार्रवाई और पाठ का प्रतिनिधित्व).

अनुसमर्थन

गुणात्मक अनुसंधान का एक केंद्रीय मुद्दा है वैधता (जो विश्वसनीयता और/या निर्भरता के रूप में भी जाना जाता है). वैधता को स्थापित करने के कई अलग तरीक़े हैं, जिनमें शामिल हैं: सदस्य जांच, साक्षात्कारकर्ता पुष्टीकरण, सहकर्मी से जानकारी लेना, लंबे समय तक विनियोजन, नकारात्मक मामला विश्लेषण, लेखांकनक्षमता, पुष्टिकरणक्षमता, बराबर समझना, और संतुलन. इनमें से अधिकांश तरीकों को लिंकन और गुबा (1985) ने गढ़ा है, या कम से कम व्यापक रूप से वर्णित किया है[9].

शैक्षिक अनुसंधान

1970 दशक के अंत तक कई प्रमुख पत्रिकाओं ने गुणात्मक शोध लेखों का प्रकाशन आरंभ कर दिया[3]और कई नई पत्रिकाएं उभरीं जिन्होंने गुणात्मक अनुसंधान पद्धतियों के बारे में केवल गुणात्मक अनुसंधानपरक अध्ययनों और लेखों को प्रकाशित किया[10].
1980 और 1990 दशक में, नई गुणात्मक अनुसंधान पत्रिकाओं का ध्यान संकेंद्रन विविध विषयक हो गया, जो गुणात्मक अनुसंधान के पारंपरिक मूल यथा नृविज्ञान, समाजशास्त्र और दर्शन से परे देखने लगीं[10].
नई सहस्राब्दी ने प्रति वर्ष कम से कम एक नई गुणात्मक शोध पत्रिका के प्रवर्तन सहित, गुणात्मक अनुसंधान के क्षेत्र में विशेषज्ञता रखने वाली पत्रिकाओं की संख्या में नाटकीय वृद्धि देखी.

इन्हें भी देंखे

  • विश्लेषणात्मक प्रेरण
  • वृत्त अध्ययन
  • सामग्री विश्लेषण
  • आलोचनात्मक नृवंशविज्ञान
  • विवेचनात्मक सिद्धांत
  • द्वंद्वात्मक अनुसंधान
  • भाषण विश्लेषण
  • शैक्षणिक मनोविज्ञान
  • प्रजाति-वर्गीकरण
  • नृवंशविज्ञान
  • फ़्लाइव्बजर्ग बहस
  • संकेंद्रण समूह
  • बुनियादी सिद्धांत
  • भाष्यविज्ञान
  • ऑनलाइन शोध समुदाय
  • सहयोगी कार्रवाई अनुसंधान
  • घटना-क्रिया विज्ञान
  • फ़िनॉमिनोग्राफ़ी
  • गुणात्मक अर्थशास्त्र
  • मात्रात्मक अनुसंधान
  • गुणात्मक विपणन अनुसंधान
  • गुणात्मक मनोवैज्ञानिक अनुसंधान
  • प्रतिचयन (वृत्त अध्ययन)
  • सार्थकता
  • सैद्धांतिक नमूना

नोट

  1. डेनज़िन, नॉर्मन के. और लिंकन, युवोना एस.((सं.). (2005). द सेज हैंडबुक ऑफ़ क्वालिटेटिव रिसर्च (तीसरा सं.). थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज. ISBN 0-7619-2757-3
  2. टेलर, 1998
  3. 3.03.1लोसेक, डोनिलीन आर. और काहिल, स्पेन्सर ई. (2007). "पब्लिशिंग क्वालिटेटिव मैनुस्क्रिप्ट्स: लेसन्स लर्न्ड". सी. सील, जी. गोबो, जे.एफ़.गुब्रियम, और डी.सिल्वरमैन (सं.), क्वालिटेटिव रिसर्च प्रैक्टिस: कन्साइस पेपरबैक एडिशन , पृ. 491-506. लंदन: सेज. ISBN 978-1-7619-4776-9
  4. मार्शल, कैथरीन और रोसमैन, ग्रेशेन बी. (1998). डिजाइनिंग क्वालिटेटिव रिसर्च . थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज. ISBN 0-7619-1340-8
  5. लिंडलोफ़, टी.आर., और टेलर, बी.सी. (2002) क्वालिटेटिव कम्यूनिकेशन रिसर्च मेथड्स: दूसरा संस्करण.थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज पब्लिकेशन्स, इंक ISBN 0-7619-2493-0
  6. गुबा, ई.जी. और लिंकन, वाई.एस. (2005). "पैराडिग्मैटिक कॉन्ट्रोवर्सिस, कॉन्ट्रडिक्शन्स, एंड एमर्जिंग इन्फ्लुएंसस" एन.के. डेन्ज़िन और वाई.एस. लिंकन (सं.) द सेज हैंडबुक ऑफ़ क्वालिटेटिव रिसर्च (तीसरा संस्करण), पृ. 191-215. थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज. ISBN 0-7619-2757-3
  7. गुबा, ई.जी., और लिंकन, वाई.एस. (2005). "पैराडिग्मैटिक कॉन्ट्रोवर्सिस, कॉन्ट्रोवर्सिस, कॉन्ट्रडिक्शन्स, एंड एमर्जिंग इन्फ्लुएंसस" एन.के. डेन्ज़िन और वाई.एस. लिंकन (सं.) द सेज हैंडबुक ऑफ़ क्वालिटेटिव रिसर्च (तीसरा संस्करण), पृ. 191-215. थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज. ISBN 0-7619-2757-3
  8. गुबा, ई.जी. और लिंकन, वाई.एस. (2005). "पैराडिग्मैटिक कॉन्ट्रोवर्सिस, कॉन्ट्रोवर्सिस, कॉन्ट्रडिक्शन्स, एंड एमर्जिंग इन्फ्लुएंसस" (पृ. 200). एन.के.डेन्ज़िन और वाई.एस. लिंकन (सं.) द सेज हैंडबुक ऑफ़ क्वालिटेटिव रिसर्च (तीसरा संस्करण), पृ. 191-215. थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज. ISBN 0-7619-2757-3
  9. लिंकन वाई. और गुबा ई.जी. (1985) नैचुरलिस्ट इन्क्वाइरी , सेज पब्लिकेशन्स, न्युबरी पार्क, सी.ए.
  10. 10.010.1डेन्ज़िन, नॉर्मन के. और लिंकन, युवोना एस. (2005). "इंट्रोडक्शन: द डिसिप्लीन एंड प्रैक्टिस ऑफ़ क्वालिटेटिव रिसर्च". एन.के.डेन्ज़िन और वाई.एस. लिंकन (सं.) द सेज हैंडबुक ऑफ़ क्वालिटेटिव रिसर्च (तीसरा संस्करण), पृ. 1-33. थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज. ISBN 0-7619-2757-3

संदर्भ

  • एडलर, पी.ए. और एडलर, पी. ( 1987). मेंबरशिप रोल्स इन फ़ील्ड रिसर्च . न्यूबरी पार्क, सीए: सेज. ISBN 978-0-8039-2760-5
  • बेकर, हावर्ड एस., द एपिस्टेमॉलोजी ऑफ़ क्वालिटेटिव रिसर्च . यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस, 1996. 53-71. [एथ्नोग्राफ़ी एंड ह्लूमन डेवलपमेंट: कॉन्टेक्स्ट एंड मीनिंग इन सोशल एन्क्वायरी / रिचर्ड जेसर, ऐनी कोल्बी, और रिचर्ड ए. श्यूडर द्वारा संपादित] OCLC 46597302
  • बोअस, फ्रांज़ (1943). हाल का नृविज्ञान. साइन्स , 98, 311-314, 334-337.
  • क्रेसवेल, जे.डब्ल्यू. (2003). रिसर्च डिजाइन: क्वालिटेटिव, क्वांटिटेटिव, एंड मिक्स्ड मेथड अप्रोचस.थाउसंड ओक्स, सीए: सेज पब्लिकेशन्स.
  • डेनज़िन, एन.के. और लिंकन, वाई.एस. (2000). हैंडबुक ऑफ़ क्वालिटेटिव रिसर्च (दूसरा संस्करण).थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज पब्लिकेशन्स.
  • डीवाल्ट, के.एम. और डीवाल्ट, बी.आर.(2002). पार्टिसिपेंट ऑब्सरवेशन.वॉलनट क्रीक, सी.ए.: आल्टामिरा प्रेस.
  • फिशर, सी.टी. (सं.) (2005). क्वालिटेटिव रिसर्च मेथड्स फ़ॉर साइकॉलोजिस्ट्स: इंट्रोडक्शन थ्रू एंपरिकल स्टडीज़.
अकाडेमिक प्रेस. ISBN 0-12-088470-4.
  • फ़्लाइव्बजर्ग, बी. (2006). "Five Misunderstandings About Case Study Research."Qualitative Inquiry, vol. 12, no.2, April 2006, pp. 219-245.
  • गिड्डेन्स, ए. (1990). द कॉन्सीक्वेन्स ऑफ़ मॉडर्निटी.स्टैनफोर्ड, सी.ए.: स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस.
  • हॉलिडे, ए.आर. (2007). डूइंग एंड राइटिंग क्वालिटेटिव रिसर्च, दूसरा संस्करण.लंदन: सेज पब्लिकेशन्स
  • कामिन्स्की, मारेक एम. (2004). गेम्स प्रिसनर्स प्ले.प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस. ISBN 0-691-11721-7.
  • माहोने, जे और गोएर्ट्ज़. जी. (2006) अ टेल ऑफ़ टू कल्चर्स: कॉन्ट्रास्टिंग क्वांटिटेटिव एंड क्वालिटेटिव रिसर्च, पोलिटिकल अनालिसिस, 14 , 227-249.doi:10.1093/pan/mpj017
  • मालिनोवस्की, बी. (1922/1961). आर्गोनाट्स ऑफ़ द वेस्टर्न पैसिफ़िक . न्यूयॉर्क: ई.पी.डट्टन.
  • माइल्स, एम.बी. और हबरमैन, ए.एम.(1994). क्वालिटेटिव डेटा एनालिसिस . थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज.
  • पामेला मेकुट, रिचर्ड मोरहाउस. 1994 बिगिनिंग क्वालिटेटिव रिसर्च. फ़ाल्मर प्रेस.
  • पैटन, एम.क्यू. (2002). क्वालिटेटिव रिसर्च एंड इवाल्युएशन मेथड्स (तीसरा संस्करण).थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज पब्लिकेशन्स.
  • पावलुच डी. और शफ़िर डब्ल्यू. तथा मियाली सी.(2005). डूइंग एथ्नोग्राफ़ी: स्टडिइंग एवरीडे लाइफ़ . टोरोंटो, ऑन कनाडा: कैनेडियन स्कॉलर्स प्रेस.
  • चार्ल्स सी. रेजिन, कंस्ट्रक्टिंग सोशल रिसर्च: द यूनिटी एंड डाइवर्सिटी ऑफ़ मेथड , पाइन फोर्ज प्रेस, 1994, ISBN 0-8039-9021-9
  • स्टेबिन्स, रॉबर्ट ए. (2001) एक्स्प्लोरेटरी रिसर्च इन द सोशल साइन्सस . थाउसंड ओक्स, सी.ए.: सेज.
  • टेलर, स्टीवन जे. बोगडन, रॉबर्ट, इंट्रोडक्शन टु क्वालिटेटिव रिसर्च मेथड्स, विले, 1998, ISBN 0-471-16868-8
  • वैन मानेन, जे. (1988) टेल्स ऑफ़ द फ़ील्ड: ऑन राइटिंग एथ्नोग्राफ़ी, शिकागो: यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस.
  • वोल्कॉट, एच.एफ़. (1995). द आर्ट ऑफ़ फ़ील्डवर्क . वॉलनट क्रीक, सी.ए.: आल्टामिरा प्रेस.
  • वोल्कॉट, एच.एफ़. (1999). एथ्नोग्राफ़ी: अ वे ऑफ़ सीइंग . वॉलनट क्रीक, सी.ए.: आल्टामिरा प्रेस.
  • ज़िमन, जॉन (2000). रियल साइन्स: व्हाट इट इज़ एंड व्हाट इट मीन्स . केम्ब्रिज, ब्रिटेन: कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस.

बाह्य लिंक

पृष्ठ मूल्यांकन देखें
इस पन्ने का मूल्यांकन करें।
विश्वसनीय
निष्पक्षता
पूर्ण
अच्छी तरह से लिखा हुआ।

News style

$
0
0

e

From Wikipedia, the free encyclopedia
Jump to: navigation, search
News style (also journalistic style or news writing style) is the prose style used for news reporting in media such as newspapers, radio and television. News style encompasses not only vocabulary and sentence structure, but also the way in which stories present the information in terms of relative importance, tone, and intended audience.
News writing attempts to answer all the basic questions about any particular event - who, what, when, where and why (the Five Ws) and also often how - at the opening of the article. This form of structure is sometimes called the "inverted pyramid", to refer to the decreasing importance of information in subsequent paragraphs.
News stories also contain at least one of the following important characteristics relative to the intended audience: proximity, prominence, timeliness, human interest, oddity, or consequence.

Contents

Overview

Newspapers generally adhere to an expository writing style. Over time and place, journalism ethics and standards have varied in the degree of objectivity or sensationalism they incorporate. Definitions of professionalism differ among news agencies; their reputations, according to professional standards, and depending on what the reader wants, are often tied to the appearance of objectivity. In its most ideal form, news writing strives to be intelligible to the majority of readers, as well as to be engaging and succinct. Within these limits, news stories also aim to be comprehensive. However, other factors are involved, some of which are derived from the media form, and others stylistic.
Among the larger and more respected newspapers, fairness and balance is a major factor in presenting information. Commentary is usually confined to a separate section, though each paper may have a different overall slant. Editorial policy dictates the use of adjectives, euphemisms, and idioms. Papers with an international audience, for example, usually use a more formal style of writing.
The specific choices made by a news outlet's editor or editorial board are often collected in a style guide; common style guides include the "AP Style Manual" and the "US News Style Book". The main goals of news writing can be summarized by the ABCs of journalism: accuracy, brevity, and clarity.[1]

Terms and structure

Journalistic prose is explicit and precise, and tries not to rely on jargon. As a rule, journalists will not use a long word when a short one will do. They use subject-verb-object construction and vivid, active prose (see Grammar). They offer anecdotes, examples and metaphors, and they rarely depend on colorless generalizations or abstract ideas. News writers try to avoid using the same word more than once in a paragraph (sometimes called an "echo" or "word mirror").

Headline (or hed)

The headline, heading, head or title of a story; "hed" in journalists' jargon.[2] The headline is typically a complete sentence (e.g. "Pilot Flies Below Bridges to Save Divers"), often with auxiliary verbs and articles removed (e.g. “Remains at Colorado camp linked to missing Chicago man”). However, headlines sometimes omit the subject (e.g. “Jumps From Boat, Catches in Wheel”) or verb (e.g. “Cat woman lucky”).

Subhead (or dek or deck)

A phrase, sentence or several sentences near the title of an article or story, a quick blurb or article teaser.[2]

Billboard

Capsule-summary text, often just one sentence, which is put into a sidebar or text-box on the same page to grab the reader's attention as they are flipping through the pages to encourage them to stop and read this article.

Lead (or lede) or intro

The most important structural element of a story is the lead (or "intro" in the UK) — the story's first, or leading, sentence. (Some American English writers use the spelling lede (pron.: /ˈld/), from the archaic English, to avoid confusion with the printing press type formerly made from the metal lead or the related typographical term leading.[3])
Charnley[4] states that "an effective lead is a 'brief, sharp statement of the story's essential facts.'"[5] The lead is usually the first sentence, or in some cases the first two sentences, and is ideally 20-25 words in length. The top-loading principle (putting the most important information first - see inverted pyramid section below) applies especially to leads, but the unreadability of long sentences constrains the lead's size. This makes writing a lead an optimization problem, in which the goal is to articulate the most encompassing and interesting statement that a writer can make in one sentence, given the material with which he or she has to work. While a rule of thumb says the lead should answer most or all of the five Ws, few leads can fit all of these.
To "bury the lead" in news style refers to beginning a description with details of secondary importance to the readers, forcing them to read more deeply into an article than they should have to in order to discover the essential point(s).
Article leads are sometimes categorized into hard leads and soft leads. A hard lead aims to provide a comprehensive thesis which tells the reader what the article will cover. A soft lead introduces the topic in a more creative, attention-seeking fashion, and is usually followed by a nut graph (a brief summary of facts).[6]
Media critics[who?] often note that the lead can be the most polarizing subject in the article. Often critics accuse the article of bias based on an editor's choice of headline and/or lead.[citation needed]
Example lead-and-summary design
NASA is proposing another space project. The agency's budget request, announced today, included a plan to send another person to the moon. This time the agency hopes to establish a long-term facility as a jumping-off point for other space adventures. The budget requests approximately ten trillion dollars for the project. ...
Example soft-lead design
Humans will be going to the moon again. The NASA announcement came as the agency requested ten trillion dollars of appropriations for the project. ...

Nut graph (various spellings)

One or more brief paragraphs that summarise the news value of the story, sometimes bullet-pointed and/or set off in a box. The various spellings are contractions of the expression nutshell paragraph. Nut graphs are used particularly in feature stories (see below).

"Grafs"

Slang for "paragraph."

"Kicker"

A closing paragraph of the story which summarizes the key point and may contain a call-to-action.

Inverted pyramid structure

Journalists usually describe the organization or structure of a news story as an inverted pyramid. The essential and most interesting elements of a story are put at the beginning, with supporting information following in order of diminishing importance.
This structure enables readers to stop reading at any point and still come away with the essence of a story. It allows people to explore a topic to only the depth that their curiosity takes them, and without the imposition of details or nuances that they could consider irrelevant, but still making that information available to more interested readers.
The inverted pyramid structure also enables articles to be trimmed to any arbitrary length during layout, to fit in the space available.
Writers are often admonished "Don't bury the lead!" to ensure that they present the most important facts first, rather than requiring the reader to go through several paragraphs to find them.
Some writers start their stories with the "1-2-3 lead", yet there are many kinds of lead available. This format invariably starts with a "Five Ws" opening paragraph (as described above), followed by an indirect quote that serves to support a major element of the first paragraph, and then a direct quote to support the indirect quote.[citation needed]

Feature style

News stories aren't the only type of material that appear in newspapers and magazines. Longer articles, such as magazine cover articles and the pieces that lead the inside sections of a newspaper, are known as features. Feature stories differ from straight news in several ways. Foremost is the absence of a straight-news lead, most of the time. Instead of offering the essence of a story up front, feature writers may attempt to lure readers in.
While straight news stories always stay in third person point of view, it's not uncommon for a feature article to slip into first person. The journalist will often detail his or her interactions with interview subjects, making the piece more personal.
A feature's first paragraphs often relate an intriguing moment or event, as in an "anecdotal lead". From the particulars of a person or episode, its view quickly broadens to generalities about the story's subject.
The section that signals what a feature is about is called the nut graph or billboard. Billboards appear as the third or fourth paragraph from the top, and may be up to two paragraphs long. Unlike a lede, a billboard rarely gives everything away. This reflects the fact that feature writers aim to hold their readers' attention to the end, which requires engendering curiosity and offering a "payoff." Feature paragraphs tend to be longer than those of news stories, with smoother transitions between them. Feature writers use the active-verb construction and concrete explanations of straight news, but often put more personality in their prose.
Feature stories often close with a "kicker" rather than simply petering out.

Other countries

Due to common concerns of limited space and reader attention, there are broadly similar formats in other cultures, with some characteristics particular to individual countries.

Japan

Written Japanese in general, and news writing in particular, places a strong emphasis on brevity, and features heavy use of Sino-Japanese vocabulary and omission of grammar that would be used in speech. Most frequently, two-character kanji compounds are used to concisely express concepts that would otherwise require a lengthy clause if using spoken language. Nominalization is also common, often compacting a phrase into a string of kanji. Abbreviations are also common, abbreviating a term or kanji compound to just initial characters (as in acronyms); these abbreviated terms might not be used in spoken language, but are understandable from looking at the characters and context. Further, headlines are written in telegram style, yielding clipped phrases that are not grammatical sentences. Larger articles, especially front-page articles, also often have a one-paragraph summary at the beginning.[citation needed]

See also

References

Notes

  1. ^Bill Parks. "Basic News Writing" (PDF). Retrieved 2009-07-29.
  2. ^ ab"What the Heck Is a Hed/Dek? Learning the Lingo in Periodical Publishing By Janene Mascarella". Writersweekly.com. 2005-07-20. Retrieved 2009-07-29.
  3. ^"The Mavens' Word of the Day". Randomhouse.com. 2000-11-28. Retrieved 2009-07-29.
  4. ^Charney 1966
  5. ^Charney 1966:166
  6. ^Unzipped! Newswriting by Chris Kensler

Bibliography

  • Linda Jorgensen. Real-World Newsletters (1999)
  • Mark Levin. The Reporter's Notebook : Writing Tools for Student Journalists (2000)
  • Buck Ryan and Michael O'Donnell. The Editor's Toolbox: A Reference Guide for Beginners and Professionals, (2001)
  • Allan M. Siegal and William G. Connolly. The New York Times Manual of Style and Usage: The Official Style Guide Used by the Writers and Editors of the World's Most Authoritative Newspaper, (2002)
  • M. L. Stein, Susan Paterno, and R. Christopher Burnett, The Newswriter's Handbook Introduction to Journalism (2006)
  • Bryan A. Garner. The Winning Brief: 100 Tips for Persuasive Briefing in Trial and Appellate Court (1999)
  • Philip Gerard, Creative Nonfiction: Researching and Crafting Stories of Real Life (1998)
  • Steve Peha and Margot Carmichael Lester, Be a Writer: Your Guide to the Writing Life (2006)
  • Andrea Sutcliffe. New York Public Library Writer's Guide to Style and Usage, (1994)
  • Bill Walsh, The Elephants of Style: A Trunkload of Tips on the Big Issues and Gray Areas of Contemporary American English (2004)

External links

News broadcasting

$
0
0



News broadcasting is the broadcasting of various news events and other information via television, radio or internet in the field of broadcast journalism. The content is usually either producedlocally in a radio studio or television studionewsroom, or by a broadcast network. It may also include additional material such as sports coverage, weather forecasts, traffic reports, commentary and other material that the broadcaster feels is relevant to their audience.

Contents

Television news

Television news refers to disseminating current events via the medium of television. A "news bulletin" or a "newscast" are television programs lasting from seconds to hours that provide updates on world, national, regional or local news events. Television news is very image-based, showing video of many of the events that are reported. Television channels may provide news bulletins as part of a regularly scheduled news program. Less often, television shows may be interrupted or replaced by breaking news ("news flashes") to provide news updates on events of great importance.

Radio news

Radio news is the same as television news but is transmitted through the medium of the radio. It is more based on the audio aspect rather than the visual aspect. Sound bites are captured through various reporters and played back through the radio. News updates occur more often on the radio than on the television - usually about once or twice an hour.

Structure, content and style

Television

Newscasts, also known as bulletins or news programs, differ in content, tone and presentation style depending on the format of the channel on which they appear, and their timeslot. In most parts of the world, national television networks will have network bulletins featuring national and international news. The top rating shows will often be in the evening at 'prime time', but there are also often breakfast time newscasts of two to three hours in length. Rolling news channels broadcast news 24 hours a day. Many video and audio news reports presented on the Internet are updated 24 hours a day. Local news may be presented by stand-alone local TV stations, local stations affiliated to national networks or by local studios which 'opt-out' of national network programming at specified points. Different news programming may be aimed at different audiences, depending on age, socio-economic group or those from particular sections of society. 'Magazine-style' television shows may mix news coverage with topical lifestyle issues, debates or entertainment content.
Newscasts consist of several a reporter being interviewed by an anchor, known as a 'two-way', or by a guest involved in or offering analysis on the story being interviewed by a reporter or anchor. There may also be breaking news stories which will present live rolling coverage.
Packages will usually be filmed at a relevant location and edited in an editing suite in a newsroom or a remote contribution edit suite in a location some distance from the newsroom. They may also be edited in mobile editing trucks, or satellite trucks, and transmitted back to the newsroom. Live coverage will be broadcast from a relevant location and sent back to the newsroom via fixed cable links, microwaveradio, production truck, satellite truck or via online streaming. Roles associated with television news include a technical director, floor directoraudio technician and a television crew of operators running character graphics (CG), teleprompters and professional video cameras. Most news shows are broadcast live.

Radio

Radio station newscasts can range from as little as a minute to as much as the station's entire schedule, such as the case of all-news radio, or talk radio. Stations dedicated to news or talk will often feature newscasts, or bulletins, usually at the top of the hour, usually between 3 and 8 minutes in length. They can be a mix of local, national and international news, as well as sport, entertainment, weather and traffic, or they may be incorporated into separate bulletins. There may also be shorter bulletins at the bottom of the hour, or three at fifteen minute intervals, or two at twenty minute intervals. All-news radio stations exist in some countries, primarily located in major metropolitan areas such as New York City, Toronto and Chicago, which often broadcast local, national and international news and feature stories on a set time schedule.

News broadcasting by country

Canada

Terrestrial television

Unlike in United States, most Canadian television stations have license requirements to offer locally-produced newscasts in some form. Educational television station are exempt from these requirements; multicultural television stations are also not required to carry news programming, however some stations licensed as a multicultural station do produce local newscasts in varied languages (such as the Omni Television station group). Canadian television stations normally broadcast newscast between two and four times a day: usually at noon; 5, 5:30 and 6 p.m. in the evening, and 11 p.m. at night (there are some variations to this: stations affiliated with CTV usually air their late evening newscasts at 11:30 p.m., due to the scheduling of the network's national evening news program CTV National News at 11 p.m. in all time zones, while most CBC Television-owned stations carry a 10-minute newscast at 10:55 p.m., following The National). Some stations carry morning newscasts (usually starting at 5:30 or 6 a.m., and ending at 9 a.m.). Unlike in the United States, a primetime newscast in the 10:00 p.m. timeslot is uncommon (Global owned-and-operated stations in Manitoba and Saskatchewan, CKND-DT, CFSK-DT and CFRE-DT, are the only television stations in the country carrying a primetime newscast); conversely, pre-5 a.m. local newscasts are also uncommon in Canada, Hamilton, Ontario independent station CHCH-DT, whose weekdaily programming consists largely of local news, is currently the only station in the country that starts its weekday morning newscasts before 5:30 a.m. (the station's morning news block begins at 4 a.m. on weekdays).
Like with U.S. television, many stations use varied titles for their newscasts; this is particularly true with owned-and-operated stations of Global and Citytv (Global's stations use titles based on daypart such as News Hour for the noon and early evening newscasts and News Final for 11 p.m. newscasts, while all six Citytv-owned broadcast stations produce morning news/talk programs under the umbrella title Breakfast Television and its flagship station CITY-DT/Toronto's evening newscasts are titled CityNews). Overall umbrella titles for news programming use the titling schemes "(Network or system name) News" for network-owned stations or "(Callsign) News" for affiliates not directly owned by a network or television system.
CBC Television, Global and CTV each produce national evening newscasts (The National, Global National and CTV National News, respectively), which unlike the American network newscasts do not air against one another as they are scheduled in non-competitive time slots; while Global National airs at the same early evening time slot as the American evening network newscasts, The National's 10 p.m. ET slot competes against primetime entertainment programming on the private broadcast networks, while CTV National News airs against locally-produced 11 p.m. newscasts on other stations. The National, which has aired on CBC Television since 1954, is the longest-running national network newscast in Canada. All three networks also produce weekly newsmagazines The Fifth Estate (aired since 1975), 16:9 (aired since 2008) and W5 (aired since 1966 and currently the longest-running network newsmagazine in Canada).
CTV's Canada AM, which has aired since 1975, is the sole national morning news program on broadcast television in Canada, although it has since been relegated to semi-national status as most CTV owned-and-operated stations west of the Ontario-Manitoba border dropped the program during the Summer and Fall of 2011 in favor of locally-produced morning newscasts. The Sunday morning talk show format is relatively uncommon on Canadian television, the closest program baring similarities to the format was CTV's news and interview series Question Period, this changed when Global debuted the political affairs show The West Block in November 2011.

Cable television

Canada is host to several 24-hour cable news channels, consisting of domestically-operated, U.S.-based cable channels and news channels operated outside of North America. Domestic national news channels include CTV News Channel and Sun News Network, which offer general news programming, Business News Network, which carries business news and The Weather Network, which offers national and local forecasts. The Canadian Broadcasting Corporation operates two national news networks, English-language CBC News Network and French-language RDI. Other Canadian specialty news channels broadcasting in French include general news networks Argent and Le Canal Nouvelles, and MétéoMédia, a French-language sister to The Weather Network.
The Canadian Radio-television and Telecommunications Commission authorizes some cable channels from foreign countries to be carried on cable and satellite operators provided that they are linked to a Canadian network. Amongst news channels, all four major U.S. cable news networks: CNN, HLN, MSNBC and Fox News Channel are available on most providers, along with channels from outside North America such as Al Jazeera English from Qatar, BBC World News from the United Kingdom, Deutsche Welle from Germany and RT from Russia.
Regionally-based news channels are fairly uncommon in Canada in comparison to the United States, with only two 24-hour regional news channels currently in existence, which are based in the province of Ontario, CityNews Channel and CP24, which center on the Toronto area (terrestrial independent station CHCH-DT/Hamilton serves as a de facto regional news channel for the Golden Horseshoe region of Southern Ontario; since August 2009, the station airs rolling local news block on weekday mornings and afternoons (currently airing from 4 a.m.-5 p.m.), along with nightly hour-long newscasts at 6 and 11 p.m.; the remainder of the schedule consists of syndicated programming, movies, imported American network television series and infomercials).

United States

Broadcast television

Local newscasts
Local TV stations in the United States normally broadcast local news 3-4 times a day: 4:30, 5 and 6 a.m. in the morning; noon; 5 and 6 p.m. in the early evening; and 10 or 11 p.m. at night. Some stations carry morning newscasts at 4, 4:30, 7, 8 or 9 a.m., midday newscasts at 11 or 11:30 a.m., late afternoon newscasts at 4 or 4:30 p.m., or early evening newscasts at 5:30 or 6:30 p.m. Many Fox affiliates, affiliates of minor networks (such as The CW and MyNetworkTV) and independent stations air newscasts in the final hour of primetime (i.e., 10 p.m. in the Eastern and Pacific time zones or 9 p.m. in the Mountain and Central time zones in the U.S.). Stations that produce local newscasts typically produce as little as one to as much as ten hours of local news on weekdays and as little as one hour on weekends; news programming on weekends are typically limited to morning and evening newscasts as the variable scheduling of network sports programming usually prevents most stations from carrying midday newscasts (however a few stations located in the Eastern and Pacific time zones do produce weekend midday newscasts).
Since the early 1990s, independent stations and stations affiliated with a non-Big Three network have entered into "news share agreements", in which news production is outsourced to a major network station (usually an affiliate of ABC, NBC or CBS), often to avoid shouldering the cost of starting a news department from scratch. These commonly involve Fox, CW and MyNetworkTV affiliates (and previously affiliated of the now-defunct predecessors of the latter two networks, The WB and UPN) and in some cases, independent stations; however such agreements exist in certain markets between two co-owned/co-managed Big Three affiliates. News share agreements are most common with stations co-owned with a larger network affiliate or whose operations are jointly managed through a shared service or local marketing agreement. In cases where a station with an existing news department enters into a news share agreement, it will result either the two departments merging or the outright conversion of newscast production from in-house to outsourced production. Minor network affiliates involved in news share agreements will often carry far fewer hours of local newscasts than would be conceivable with an in-house news department to avoid competition with the outsourcing partner's own newscasts, as a result, minor network affiliates involved in these NSAs often will carry a morning newscast from 7-9 a.m. (in competition with the national network newscasts instead of airing competing with the Big Three affiliates' newscasts) and/or a primetime newscast at 10 p.m. ET/PT or 9 p.m. CT/MT, with no midday, late afternoon or early evening newscasts.
Unlike international broadcast stations which tend to brand under uniform news titles based solely on network affiliation, U.S. television stations tend to use varying umbrella titles for their newscasts; some title their newscasts utilizing the station's on-air branding (such as combining the network affiliation and channel number with the word "News"), others use franchised brand names (like Eyewitness News, Action News and NewsChannel) for their news programming. Conversely, the naming conventions for a station's newscast are sometimes used as a universal on-air branding for the station itself, and may be used for general promotional purposes, even used in promoting syndicated and network programming. Many stations title their newscasts with catchy names like Daybreak, Good Morning (insert city or region here), First at Four, Live at Five, Eleven @ 11:00 or Nightcast. These names are intended to set one station apart from the rest, especially for viewers who are chosen for audience measurement surveys. If the respondent was unable to provide a channel number or call letters, the newscast title is often enough for the appropriate station to receive Nielsen ratings credit.
Network news programming
The Big Three broadcast television networks produce morning and evening national newscasts (America This Morning, Good Morning America and ABC World News are broadcast by ABC, CBS broadcasts the CBS Morning News, CBS This Morning and the CBS Evening News, and NBC produces Early Today, Today and NBC Nightly News) as well as weekly newsmagazine series (NBC's Dateline, ABC's 20/20 and CBS News Sunday Morning, 48 Hours and 60 Minutes on CBS). Network morning newscasts usually air at 7 a.m. (English-language network morning shows are tape delayed for each time zone, while the Spanish-language morning shows are aired live in all time zones); network evening newscasts usually are broadcast live at 6:30 p.m. on the East coast and broadcast live in both the Eastern and Central time zones, with a secondary live broadcast at 6:30 p.m. Pacific time. Today was the first morning news program to be broadcast on American television and in the world, when it debuted on January 14, 1952; the earliest national evening news program was The Walter Compton News, a short-lived 15-minute newscast that aired on the DuMont Television Network from 1947 to 1948.
All four major English networks and the two largest Spanish networks also carry political talk programs on Sunday mornings (NBC's Meet the Press, ABC's This Week, CBS' Face the Nation, Fox's sole news program Fox News Sunday, Univision's Al Punto and Telemundo's Enfoque); of these programs, Meet the Press holds the distinction of being the longest-running American television program as it has aired since November 6, 1947. CBS and ABC are currently the only networks that produce overnight news programs on weeknights in the form of Up to the Minute and World News Now, respectively; NBC previously produced overnight newscasts at different times, both of which have since been cancelled: NBC News Overnight from 1982 to 1983, and NBC Nightside from 1992 to 1999 (NBC currently does not offer a late night newscast, although the network currently airs the fourth hour of Today, and sister network CNBC's Mad Money on weeknights).
Spanish-language news programs are provided by Univision (which produces early and late evening editions of its flagship evening news program Noticiero Univision seven nights a week, along with weekday afternoon newsmagazine Primer Impacto and weekday morning program Despierta America) and Telemundo (whose flagship evening newscast is Noticiero Telemundo, which unlike Univision and their English-language competitors' national evening news programs airs on weeknights only, along with weekday morning program ¡Levántate! and weekday afternoon newsmagazine Al Rojo Vivo). Fox, The CW and MyNetworkTV do not produce national morning and evening news programs (although Fox made a brief attempt at a morning program in the late 1990s with Fox After Breakfast, and many CW and MyNetworkTV affiliates as well as independent stations air the syndicated news program The Daily Buzz).

Cable television

24-hour news channels are devoted to current events 24-hours per day. They are often referred to as cable news channels. The originator of this format from which the name derives is CNN (as well as CNN International, CNN en Español and CNN-IBN), which originally stood for Cable News Network in reference to the then-new phenomenon of cable television. As satellite and other forms have evolved, the term cable news has become something of an anachronism but is still in common use; many other television channels have since been established, such as BBC World News, BBC News, Sky News, Al Jazeera, ABC News 24, France 24, STAR News, Fox News Channel, MSNBC and ABC News Now. Some news channels specialize even further, such as ESPNews (sports from ESPN); The Weather Channel (weather); CNBC, Bloomberg Television and Fox Business Network (financial).
Conversely, several cable news channels exist that carry news information specifically geared toward a particular metropolitan area, state or region such as NY1 in New York City, Ohio News Network (which is based in Columbus, Ohio, but is carried throughout the state of Ohio), Central Florida News 13 (which is based in Orlando, Florida, but is carried throughout most of Greater Orlando and surrounding areas), Bay News 9 in Tampa, Florida, and NewsChannel 8 in Washington, D.C. These channels are usually owned by a local cable operator and are distributed solely through cable television and IPTV system operators. Some broadcast television stations also operate cable channels (some of which are repeated through digital multicasting) that air the station's local newscasts in the form of live simulcasts from the television station, with rebroadcasts of the newscasts airing in the time period between live broadcasts.
A term which has entered common parlance to differentiate cable news from traditional news broadcasts is network news, in reference to the traditional television networks on which such broadcasts air. A classic example is the cable news channel MSNBC, which overlaps with (and, in the case of breaking world-changing events, pre-empts) its network counterpart NBC News. Most U.S. cable news networks do not air news programming 24 hours a day, often filling late afternoon, primetime and late night hours with news-based talk programs, documentaries and other specialty programming.

Radio

More often, AM stations will air a 6½ minute newscast on the top of the hour, which can be either a local report, a national report from a radio network such as CBS Radio, CNN Radio, Fox News Radio or ABC Radio, or a mix of both local and national content, including weather and traffic reports. Some stations also air a two minute report at the bottom of the hour.
FM stations, unless they feature a talk radio format, usually only air minute-long news capsules featuring a quick review of events and an abbreviated weather forecast, and usually only in drive time periods or in critical emergencies, since FM stations usually focus more on playing music. Traffic reports also air on FM stations, depending on the market.

Canada

Terrestrial television

Unlike in United States, most Canadian television stations have license requirements to offer locally-produced newscasts in some form. Educational television station are exempt from these requirements; multicultural television stations are also not required to carry news programming, however some stations licensed as a multicultural station do produce local newscasts in varied languages (such as the Omni Television station group). Canadian television stations normally broadcast newscast between two and four times a day: usually at noon; 5, 5:30 and 6 p.m. in the evening, and 11 p.m. at night (there are some variations to this: stations affiliated with CTV usually air their late evening newscasts at 11:30 p.m., due to the scheduling of the network's national evening news program CTV National News at 11 p.m. in all time zones, while most CBC Television-owned stations carry a 10-minute newscast at 10:55 p.m., following The National). Some stations carry morning newscasts (usually starting at 5:30 or 6 a.m., and ending at 9 a.m.). Unlike in the United States, a primetime newscast in the 10:00 p.m. timeslot is uncommon (Global owned-and-operated stations in Manitoba and Saskatchewan, CKND-DT, CFSK-DT and CFRE-DT, are the only television stations in the country carrying a primetime newscast); conversely, pre-5 a.m. local newscasts are also uncommon in Canada, Hamilton, Ontario independent station CHCH-DT, whose weekdaily programming consists largely of local news, is currently the only station in the country that starts its weekday morning newscasts before 5:30 a.m. (the station's morning news block begins at 4 a.m. on weekdays).
Like with U.S. television, many stations use varied titles for their newscasts; this is particularly true with owned-and-operated stations of Global and Citytv (Global's stations use titles based on daypart such as News Hour for the noon and early evening newscasts and News Final for 11 p.m. newscasts, while all six Citytv-owned broadcast stations produce morning news/talk programs under the umbrella title Breakfast Television and its flagship station CITY-DT/Toronto's evening newscasts are titled CityNews). Overall umbrella titles for news programming use the titling schemes "(Network or system name) News" for network-owned stations or "(Callsign) News" for affiliates not directly owned by a network or television system.
CBC Television, Global and CTV each produce national evening newscasts (The National, Global National and CTV National News, respectively), which unlike the American network newscasts do not air against one another as they are scheduled in non-competitive time slots; while Global National airs at the same early evening time slot as the American evening network newscasts, The National's 10 p.m. ET slot competes against primetime entertainment programming on the private broadcast networks, while CTV National News airs against locally-produced 11 p.m. newscasts on other stations. The National, which has aired on CBC Television since 1954, is the longest-running national network newscast in Canada. All three networks also produce weekly newsmagazines The Fifth Estate (aired since 1975), 16:9 (aired since 2008) and W5 (aired since 1966 and currently the longest-running network newsmagazine in Canada).
CTV's Canada AM, which has aired since 1975, is the sole national morning news program on broadcast television in Canada, although it has since been relegated to semi-national status as most CTV owned-and-operated stations west of the Ontario-Manitoba border dropped the program during the Summer and Fall of 2011 in favor of locally-produced morning newscasts. The Sunday morning talk show format is relatively uncommon on Canadian television, the closest program baring similarities to the format was CTV's news and interview series Question Period, this changed when Global debuted the political affairs show The West Block in November 2011.

Cable television

Canada is host to several 24-hour cable news channels, consisting of domestically-operated, U.S.-based cable channels and news channels operated outside of North America. Domestic national news channels include CTV News Channel and Sun News Network, which offer general news programming, Business News Network, which carries business news and The Weather Network, which offers national and local forecasts. The Canadian Broadcasting Corporation operates two national news networks, English-language CBC News Network and French-language RDI. Other Canadian specialty news channels broadcasting in French include general news networks Argent and Le Canal Nouvelles, and MétéoMédia, a French-language sister to The Weather Network.
The Canadian Radio-television and Telecommunications Commission authorizes some cable channels from foreign countries to be carried on cable and satellite operators provided that they are linked to a Canadian network. Amongst news channels, all four major U.S. cable news networks: CNN, HLN, MSNBC and Fox News Channel are available on most providers, along with channels from outside North America such as Al Jazeera English from Qatar, BBC World News from the United Kingdom, Deutsche Welle from Germany and RT from Russia.
Regionally-based news channels are fairly uncommon in Canada in comparison to the United States, with only two 24-hour regional news channels currently in existence, which are based in the province of Ontario, CityNews Channel and CP24, which center on the Toronto area (terrestrial independent station CHCH-DT/Hamilton serves as a de facto regional news channel for the Golden Horseshoe region of Southern Ontario; since August 2009, the station airs rolling local news block on weekday mornings and afternoons (currently airing from 4 a.m.-5 p.m.), along with nightly hour-long newscasts at 6 and 11 p.m.; the remainder of the schedule consists of syndicated programming, movies, imported American network television series and infomercials).

See also

References

External links

View page ratings
Rate this page
Trustworthy
Objective
Complete
Well-written

Reporting

$
0
0

From Wikipedia, the free encyclopedia
Jump to: navigation, search

Example of a front page of a report
A report or account is any informational work (usually of writing, speech, television, or film) made with the specific intention of relaying information or recounting certain events in a widely presentable form.
Written reports are documents which present focused, salient content to a specific audience. Reports are often used to display the result of an experiment, investigation, or inquiry. The audience may be public or private, an individual or the public in general. Reports are used in government, business, education, science, and other fields.
Reports use features such as graphics, images, voice, or specialized vocabulary in order to persuade that specific audience to undertake an action. One of the most common formats for presenting reports is IMRAD: Introduction, Methods, Results and Discussion. This structure is standard for the genre because it mirrors the traditional publication of scientific research and summons the ethos and credibility of that discipline. Reports are not required to follow this pattern, and may use alternative patterns like the problem-solution format.
Additional elements often used to persuade readers include: headings to indicate topics, to more complex formats including charts, tables, figures, pictures, tables of contents, abstracts, summaries, appendices, footnotes, hyperlinks, and references.
Some examples of reports are: scientific reports, recommendation reports, white papers, annual reports, auditor's reports, workplace reports, census reports, trip reports, progress reports, investigative reports, budget reports, policy reports, demographic reports, credit reports, appraisal reports, inspection reports, military reports, bound reports, etc.
Reports are very important in all their various forms. They fill a vast array of critical needs for many of society's important organizations. Police reports are extremely important to society for a number of reasons. They help to prosecute criminals while also helping the innocent become free. Reports are a very useful method for keeping track of important information. The information contained in reports can be used to make very important decisions that affect our lives daily.

See also

References

Reports or an explanation about them:
  • Link, Morton and Hill, Winfrey (1970). Hill-Link Minority Report of the Presidential Commission on Obscenity and Pornography. Random House.
  • United States Immigration Commission (1933). Abstracts Of Reports Of The Immigration Commission, With Conclusions And Recommendations And Views Of The Minority. Kessinger Publishing. ISBN 1-4366-1613-1.
The process of writing reports:
  • Blicq, Ronald (2003). "Technically-Write!". Prentice Hall. ISBN 0-13-114878-8.
  • Gerson, Sharon and Gerson, Steven (2005). Technical Writing: Process and Product. Prentice Hall. ISBN 0-13-119664-2.

आप सो गये दास्ताँ कहते-कहते - डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

$
0
0
डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
 
 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री श्रीकान्त जोशी जी का आज आठ जनवरी को प्रात:काल पाँच बजे 76 साल की आयु में  मुम्बई में निधन हो गया ।  श्रीकान्त शंकर जोशी जी का जन्म 21 दिसम्बर, 1936 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले के देवरुख गाँव में हुआ था । आप के पिता का नाम शंकर जोशी था । शंकर जी के चार बेटे और एक पुत्री थी । इन पाँच संतानों में से श्रीकान्त जी सबसे बड़े थे ।  प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद आप उच्च शिक्षा के लिये मुम्बई में आ गये । आपने राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र विषय लेकर  मुम्बई विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की । मुम्बई के गिरगांव में ही आप संघ के स्वयंसेवक बने । बी ए में पढ़ते समय ही आप ने जीवन बीमा निगम में कार्य करना शुरु किया । उन दिनों शिवराज तेलंग जी मुम्बई में ही संघ के प्रचारक थे । श्रीकान्त जी की उनसे बहुत घनिष्ठता थी । उन्हीं की प्रेरणा से आपने नौकरी से त्यागपत्र देने का निर्णय किया और 1960 में त्यागपत्र देकर पूरा समय संघ कार्य को समर्पित करने के लिये प्रचारक जीवन को धारण किया । प्रारम्भ में प्रचारक के नाते नान्देड़ गये । नान्देड़ वही स्थान है यहां भारत को विदेशी शासन से मुक्त करवाने की कामना को लेकर मध्यकालीन भारतीय दश गुरु परम्परा के दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी ने अपनी इहलीला समाप्त की थी । कुछ अरसा महाराष्ट्र में काम करने के बाद आप 1963 में संघ कार्य हेतु असम प्रदेश में गये । असम में आपने निरन्तर पच्चीस साल 1987 तक कार्य किया । 1971 से 1987 तक असम के प्रान्त प्रचारक रहे । प्रारम्भ में आप ने तेजपुर के विभाग प्रचारक का दायित्व संभाला । बाद में वे शिलांग के विभाग प्रचारक बने । 1967 में विश्व हिन्दू परिषद ने गुवाहाटी में पूर्वोत्तर का जनजाति सम्मेलन करने का निश्चय किया । उन दिनों यह सचमुच बहुत कठिन कार्य था । जोशी जी को इस सम्मेलन के संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गई । सम्मेलन की सफलता से जोशी जी की संगठन कुशलता का परिचय मिला ।]
  1969 में स्वामी विवेकानन्द जी की स्मृति में तमिलनाडु में कन्याकुमारी के स्थान पर शिला स्मारक बनाने का उपक्रम प्रारम्भ हुआ । देश भर में लोगों ने उत्साहपूर्वक योगदान देना प्रारम्भ किया । एकनाथ रानाडे सारे देश का प्रवास कर रहे थे । असम में यह ज़िम्मेदारी श्री कान्त जोशी जी पर आई । पूरे पूर्वोत्तर  भारत से लोगों ने इस राष्ट्रीय यज्ञ में उत्साह पूर्वक दान दिया । इस क्षेत्र में विद्या भारती के माध्यम से जनजातियों तक में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में जोशी जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही । जोशी जी जानते थे कि पूर्वोत्तर में सामाजिक समरसता के लिये जनजातियों में संघ कार्य को ले जाना अनिवार्य  है । उन दिनों उन्होंने जनजाति संगठन सेंग खासी से सम्बंध बढ़ाना शुरु किया जिसके कारण बाद में मेघालय में संघ कार्य के विस्तार में बहुत सहायता मिली । जोशी जी का मानना था कि यदि पूर्वोत्तर में राष्ट्रीय क्रियाकलापों को त्वरित करना है तो संघ के अपने स्थायी कार्यालय होने चाहिये । गुवाहाटी , मणिपुर और अगरतल्ला इत्यादि स्थानों पर संघ कार्यालयों के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही ।

       असम के इतिहास में असम आन्दोलन ( 1979-1985) का कालखंड अत्यन्त संवेदनशील माना जाता है । क्षेत्रीयता की भावना ध्रुवान्त तक न जाये और राष्ट्र भाव ओझल न हो पाये , इसके साथ-साथ असम के साथ हो रहे अन्याय का सफलता पूर्वक प्रतिरोध भी हो , इन सभी के बीच संतुलन बिठाना था । उन दिनों जोशी जी ने यह कार्य सफलतापूर्वक किया ।
1987 में उन्हें तत्कालीन सरसंघचालक माननीय बाला साहेब देवरस जी के सहायक का उत्तरदायित्व दिया गया ।1994 में देवरस  जी ने स्वास्थ्य सम्बंधी कारणों से सरसंघचालक का दायित्व त्याग दिया । परन्तु जोशी जी उसके बाद भी उनके सहायक का कार्य करते रहे । वे बाला साहेब देवरस जी के साथ सहायक के नाते 1996 में उनकी मृत्यु पर्यन्त रहे । 1997 से 2004 तक आप ने संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख का दायित्व संभाला । 2004 में वे संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य बनाये गये ।
 2002 में मूच्र्छित हो चुकी भारतीय भाषाओं की एक मात्र संवाद समिति  हिन्दुस्थान समाचार को पुन: सक्रिय करने का उपक्रम प्रारम्भ किया ।यह संवाद समिति 1985 के आसपास सरकारी हस्तक्षेप के कारण बंद हो गई थी । जोशी जी ने 2001 में इस समिति को पुनर्जीवित करने के प्रयास प्रारम्भ किये तो पत्रकारिता जगत में बहुत लोग कहते सुने गये कि यह कार्य असम्भव है । लेकिन जोशी जी ने कुछ वर्षों में ही इस असम्भव कार्य को ही सम्भव कर दिखाया । आज देश के प्रत्येक हिस्से में समिति के कार्यालय कार्यरत हैं ।
 पिछले कुछ दिनों से जोशी जी को खाँसी का प्रकोप हो रहा था । कुछ दिन वे चिकित्सा के लिये केरल भी गये । नागपुर में सभी परीक्षण किये गये जो सामान्य थे । वे विश्राम के लिये दो दिन पहले ही दिल्ली से मुम्बई पहुँचे थे । आज आठ जनवरी को प्रात:काल उनके सीने में दर्द हुआ । अस्पताल को ले जाते समय रास्ते में ही उन्होंने अन्तिम साँस ली । मुम्बई पहुँच रहे हैं ।
 ००००००००००००००००००००००
इस कठिन समय में उनके बिना 

 व्यक्ति जब तक हमारे आसपास होता है, उसका अहसास होते हुए उसके द्वारा किए गए कार्यों की महत्ता को हम श्रेष्ठतम रूप से कई बार आंक नहीं पाते हैं, लेकिन जब वही व्यक्ति अचानक हमारे बीच से चला जाता है तब गहराई से पता चलता है कि जो कल तक हम सभी के साथ थे, उनका होना ही कितना महत्वपूर्ण था। वह कितने श्रेष्ठ थे, कितने उच्चस्तरीय कार्य कर रहे थे। माननीय श्रीकान्त जोशी जी आज हम सभी के बीच नहीं है। बार-बार, रह-रह कर उनका चेहरा सामने आता है मानो कह रहे हैं कि भारत माता के चरणों में अर्पित है फूल मुझसे अनेक सारे।
श्रीकान्त जोशी जी जब तक हमारे बीच रहे, बस चलते ही रहे, गढ़ते ही रहे, उनका एक ही ध्येय वाक्य था, राष्ट्रकार्य कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम। अपने जीवन में मुझ जैसे जाने कितने युवा होंगे, जिन्हें न केवल दिशा दिखाने का कार्य आपने किया, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर और अर्थ-निर्भर भी बनाया। वे जानते थे कि व्यक्ति ऊर्जा का पुंज है, इसकी ऊर्जा यदि सही दिशा की ओर मोड़ दी गई तो यह सृजनात्मक है और यदि यही बुराइयों की तरफ चली गई तो विध्वंस करेगी।
मेरा उनसे पहला संपर्क हिन्दुस्थान समाचार में कार्य करते हुए रेलवे स्टेशन पर आया, तब वे मुंबई से नई दिल्ली की यात्रा पर थे। भोपाल से गुजरते वक्त उन्होंने स्टेशन पर मुझसे मिलने को कहा था। यह श्रीकान्त जोशी जी का व्यक्तित्व ही था, जो पहली मुलाकात निरंतर मिलने वाले सामिप्य में बदल गई। कई-बार उतार-चढ़ाव आए, लेकिन माननीय श्रीकान्त जोशी जी ने मुझ अकिंचन को नहीं छोड़ा। पता ही नहीं चला कि कब वे मेरे अभिभावक बन गए। जब उनके देहावसान की खबर प्रात: मिली तो पहले विश्वास नहीं हुआ, लगा जैसे मैं कोई स्वप्न देख रहा हूँ, वह भी खुली आँखों से, लेकिन जब एक के बाद एक फोन यह जानने के लिए आए क्या ऐसा हुआ? कब, कैसे हुआ? तब यह विश्वास करना ही पड़ा कि अब सिर से घर के बुजुर्ग का साया उठ गया है। इस कठिन समय में उनके बिना कैसा होगा हमारा भविष्य, आज यह सोचकर ही सिहरन दौड़ उठती है।
21 दिसंबर 1936 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के देवरुख ग्राम में श्री शंकर जी के यहाँ बड़े बेटे के रूप में जन्म लेने वाले श्रीकान्त जोशी जी के भविष्य के बारे में किसे पता था कि यह एक दिन देश में तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित चाहता हँू माँ तुझे और भी कुछ दूँ की भावधारा से भारत माता की सेवा करते हुए अपने गाँव-जिला और राज्य का नाम गौरवान्वित करेंगे। आज एक नहीं अनेक देशभक्ति के प्रकल्प हैं जिन्हें सृजनात्मकता-रचनात्मकता और सेवा-सहकार के अप्रीतम उदाहरण कहा जा सकता है, इन्हें खड़ा करने, नन्हें पौधे से विराट वृक्ष बनाने तक का श्रेय श्रीकान्त जोशी जी को जाता है, जिन्होंने रात-दिन देशभर में घूम-घूमकर इन्हें सींचा है।
यह उनकी राष्ट्र कार्य के प्रति अदम्य ललक ही थी जो वे बाल्यकाल में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आ गए। देश आजाद नहीं था, पराधीन देश में जन्म तो लिया, लेकिन मृत्यु उन्हें पसंद नहीं थी। वे उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे ताकि माँ भारती की सेवा और अधिक तन्मयता तथा तार्किकता के साथ की जा सके। आप उच्च शिक्षा प्राप्त करने मुंबई चले आए। राजनीति और अर्थशास्त्र में स्नातक किया, बीमा सेक्टर में नौकरी का अवसर मिला तो उससे जुड़ गए, लेकिन अंत में उन्हें यही लगता रहा कि मैं इस कार्य के लिए नहीं बना हूं। मुंबई संघ प्रचारक शिवराज तेलंग जी, जिनसे घनिष्ठता थी से आपने अपने मन की बात कही। बात आगे बढ़ी-प्रेरणा मिली और श्री जोशी ने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। राष्ट्र कार्य के लिए आजीवन जीवन देने का व्रत ले लिया, उन्होंने प्रचारक जीवन आत्मसात कर लिया।
संघ कार्य का विस्तार और प्रभाव अर्जित करने के लिए श्री जोशी जी को नान्देड़ भेजा गया, वहाँ इन्होंने संघ कार्य को आगे बढ़ाया, श्री जोशी जी के कार्य की यह श्रेष्ठगति ही थी कि उन्हें 1963 में असम भेज दिया गया। तेजपुर के विभाग प्रचारक का जो दायित्व आपने सम्भाला तो आगे प्रांत प्रचारक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी आपके कंधों पर आई। 1971 से 1987 तक प्रांत प्रचारक रहते हुए आपने अपने जीवन के 25 वर्ष असम को दिए। गरीब बच्चों के बीच शिक्षा की अलख जगाने की मंशा से पहला शिशु मंदिर शुरू करते हुए विद्या भारती के माध्यम से आपने सम्पूर्ण असमी समाज में शिक्षा की अलख जगाई। वे शिक्षा के महत्व को जानते थे। देश की आजादी में जिन भारतीयों का अभूतपूर्ण योगदान माना जाता है वे सभी प्राय: उच्च शिक्षित ही थे। भारत के नवनिर्माण और विकास के लिए यह आवश्यक भी था कि देश के संपूर्ण भाग में रहने वाले समूह भले ही वह भाषा-भूषा प्रांत की विविधता रखते हों, लेकिन शिक्षा के स्तर पर उच्च शिक्षित हों। असम में विद्याभारती के विद्यालयों के विस्तार के साथ स्वयंसेवकों को प्रेरणा देकर विद्यालय एवं सुदूर अंचल में निजी महाविद्यालय खुलवाने का श्रेष्ठ परिणाम आज दिखने लगा है। पूर्वोंत्तर भारत अब निरअक्षर जनजातियों का क्षेत्र नहीं रहा।
जब बात आई विश्वहिन्दू परिषद के तत्वावधान में जनजाति सम्मेलन करने की, तो आप ही थे संगठन के समक्ष जिनकी संगठन कुशलता पर सभी को भरोसा था। श्री जोशी जी को इस सम्मेलन की जिम्मेदारी दी गई। आपने विहिप के बैनरतले असम में वृहद और श्रेष्ठ जनजाति सम्मेलन करवाकर अपने संगठन कौशल का परिचय दिया। वे जानते थे कि भारत का सर्वांगीण विकास देश के विकास में पीछे छूट चुकी जनजातियों को साथ लिये बिना असंभव है। सामाजिक समरसता तथा चहुँमुखी विकास के लिए भी जरूरी था कि यहाँ की जनजातियों को उनके आस-पास के समाज के साथ जोड़ा जाए। वे अपने इस कार्य में सफल रहे। उनके मागदर्शन में पूर्वाेत्तर भारत में अनेक सेवा प्रकल्प शुरू हुए, वहीं संघ कार्यालयों का निर्माण हुआ।
यह माननीय श्रीकान्त जोशी जी की संगठन कुशलता थी कि वे असम आंदोलन (80 और 90 के दशक) को अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष दिशा देने में सफल रहे। वे जानते थे कि यदि असमवासियों में क्षेत्रीयता की भावना बलबती हो गई, तो एक राष्ट्र-एक, एक-ध्येय का चिंतन जिसके लिए अभी तक अनेक हुतात्माओं ने अपना बलिदान दिया वह व्यर्थ चला जाएगा। अपने संगठन से आपने असम आंदोलन को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य प्रदान किया।
श्री जोशी जी की एकनाथ रनाडे जी के साथ के वक्त की भी कुछ स्मृतियाँ हैं, जिनका जिक्र यहाँ होना नितांत आवश्यक है। बात है कन्याकुमारी में विवेकानंद की स्मृति में शिला स्मारक के निर्माण की। असम से इस शिला स्मारक के लिए योगदान दिलाने की पे्ररणा देने की जिम्मेदारी एकनाथ जी द्वारा श्री जोशी  को दी गई, देशभर के लोग अपने प्रिय आदर्श की स्मृति में बन रहे स्मारक के लिए खुले मन से दान दे रहे थे। ऐसे में पूर्वोत्तर भारत कैसे पीछे रहता। मा. श्रीकान्त जी ही थे जिन्होंने असम एवं पूर्वोत्तर भारत के लोगों को मुक्तहस्त से विवेकानंद शिला स्मारक में सहयोग देने की प्रेरणा दी।
बात आई कि तत्कालीन संघ के सरसंघचालक मा. बाला साहब देवरस के निजि सहायक बनाए जाने की तो संघ ने श्री जोशी को उनका सहायक चुना। लगातार 10 वर्षों तक वे देवरस जी के सहायक रहे। एक बार वे मुझे अपना संस्मरण सुना रहे थे कि देवरस जी के अस्पताल में भर्ती के दौरान सभी डाक्टरों ने यही मान रखा था कि मैं उनका पुत्र हूँ। आखिर एक डाक्टर ने उनसे पूछ ही लिया कि इतनी सेवा आज के वक्त में कहाँ देखने को मिलती है, श्रेष्ठ पुत्र हो तुम इनके, तब मैंने चिकित्सक को बताया था कि मैं संघ का स्वयंसेवक हूँ और यह जबाव सुन उन डाक्टर ने कहा कि संघ यदि ऐसे सेवा के संस्कार सिखाता है तो मैं भी स्वयंसेवक बनना चाहूँगा। वास्तव में ऐसे थे हमारे मा. श्रीकान्त जोशी जी। किसी भी कार्य को करना तो पूरी तन्मयता से उसमें डूबकर करना।
जब उन्हें 1997 में अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख बनाया गया तो मीडिया में परहेज करने की छवि बना चुके संघ को सभी ने हर दृष्टि से खुलकर विचार-विमर्श करते देखा। रा.स्व.संघ अब किसी के लिए अछूत नहीं रहा। विश्वसंवाद केंद्र का विस्तार और विकास में मा. श्रीकान्त जोशी जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संवाद की नई शैली विकसित की। आद्य पत्रकार नारद मुनि हैं। इसकी स्थापना उन्होंने की। इतने पर भी वे कहाँ रूकने वाले थे, वह निरंतर चल रहे थे, गढ़ रहे थे पल-पल, पग-पग नींव के पत्थर।
 अप्रैल 2002 में आपने बीमार और गरीब पत्रकारों, उनके परिवार की मदद करने की मंशा से राष्ट्रीय पत्रकारिता कल्याण न्यास की स्थापना की। आज यह संगठन प्रतिवर्ष मूर्धन्य पत्रकारों को पत्रकारिता के श्रेष्ठ योगदान के लिए राष्ट्रीय पुरूष-महिला और फोटो पत्रकारिता का सम्मान देता है। वहीं कई पत्रकारों को आर्थिक सहयोग दे चुका है।
राष्ट्रीय पत्रकारिता कल्याण न्यास शुरू करने के बाद आप ने हिन्दुस्थान समाचार बहुभाषी संवाद समिति जो कभी देश की एकमात्र भारतीय भाषाओं की न्यूज एजेंसी थी को पुर्नजीवन देने का संकल्प लिया। देशभर में निरंतर प्रवास और अथक परिश्रम से उसे नया जीवन दिया। जब वे इस कार्य से पत्रकारों और अन्य वरिष्ठजनों से मिलते थे तो सभी का यही कहना था कि हिन्दुस्थान समाचार का पुन: शुरू होना असंभव है, लेकिन यह आपकी जिजीविषा ही थी कि कठोर परिश्रम और निरंतर अपने से लोगों को जोडऩे की प्रवृत्ति के कारण इस सुशुप्त अवस्था में पड़ी संवाद समिति को आपने नया जीवनदान  दे दिया। असंभव अब संभव हो गया समाचार एजेंसी न केवल खड़ी हो गई बल्कि आज देशभर में राज्यों की राजधानी, जिला केंद्रों सहित विदेशों में भी इसके कार्यालय खुल चुके हैं। राष्ट्रवादी पत्रकारों की टोली संपूर्ण भारत में संवाद एजेंसी के साथ उठ खड़ी हुई है।
समग्र ग्राम विकास के बिना भारत का विकास अधूरा है यह जानकर आपने बाला साहब एवं भाऊराव देवरस सेवा न्यास की स्थापना कारंजा-बालाघाट मध्यप्रदेश में की। जो आज ग्रामीण विकास के संदर्भ में अपना श्रेष्ठ योगदान दे रहा है।
अब उनके बिना क्या होगा हमारा! यह सोचने भर से दु:ख का अहसास असीम हो जाता है, फिर एक आशावादी भाव का जागरण भी होता है। जिस श्रेष्ठ पथ के पथिक बनकर उन्होंने जो राह दिखाई है उस पथ के निरंतर पथगामी बने रहे हम सभी। पत्रकारिता में राष्ट्र कार्य की श्रीकांत जी ने जो लौ जलाई है, उस लौ को जलाए रखने का दायित्व आज हम सभी पर आ गया है। ईश्वर शक्ति दे, कि इस दायित्व का निर्वाह करने में हम सक्षम बनें।

दंत विहीन नही है प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ; एन राम

$
0
0



समाचार4मीडिया.कॉम ब्यूरो

‘द हिन्दू’ समाचारपत्र के पूर्व एडिटर-इन-चीफ और प्रकाशक, एन राम के अनुसार, ‘प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया’ अब दंतविहीन संस्था नहीं रह गई है। इसका मख्य कारण ‘पीसीआई’ के नए चेयरमैन और पत्रकारिता में इथिक्स (नैतिकता) और रेगुलेशन पर उभरता बहस है।
एन राम भारतीय न्यूज़ मीडिया पर उभरते बहस का क्रेडिट (श्रेय), ‘प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया’ के अध्यक्ष, मार्कंडेय काटजू को देते हैं। एन राम के अनुसार, “काटजू ने एक बहस की शुरुआत कर दी है, और 90 प्रतिशत लोग वैश्वीकरण के बाद पत्रकारिता और भारत में पत्रकारिता में नैतिकता का क्षरण पर उनके विचारों का समर्थन करते हैं।”
उनके अनुसार, अकेले एक मजबूत अध्यक्ष कोई परिवर्तन नहीं ला सकता है, इसके लिए परिषद को मजबूत करने की जरूरत है। राम ने आगे कहा, “मेरे विचारों में, न्यूज़ मीडिया को बाहर से रेगुलेशन की जरूरत नहीं है बल्कि सेल्फ-रेगुलेशन की जरूरत है। लेकिन पेड न्यूज़ की खबरों के लगातार जारी रहने की घटनाओं के कारण प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को मजबूत करने की जरूरत है।”
पंजाब में, पेड न्यूज़ को डॉक्यूमेंटेड किया गया है। इसका अर्थ यह है कि पेड न्यूज़ की खबरें जारी हैं। राम के अनुसार, भारत के कई भागों में पेड न्यूज़ की खबरें लगातार प्रकाशित हो रहीं है और इसे साबित करने के लिए, पर्याप्त सबूत है। जब उनसे पूछा गया कि क्या ब्रॉडकास्ट न्यूज़ को भी भारतीय प्रेस परिषद के तहत लाना चाहिए जैसा कि जस्टिस काटजू ने कहा है। उन्होंने कहा, “इस पर लंबी बहस की जरूरत है। दोनों मीडिया में बहुत ज्यादा अंतर है। प्रिंट माध्यम में ज्यादातर न्यूज़ होता है लेकिन भारतीय ब्रॉडकास्ट मीडिया में सात से आठ प्रतिशत ही न्यूज़ होता है।”
द हिन्दूमें उनकी भूमिका पर :
एन राम, ‘द हिन्दू’ समाचारपत्र में बोर्ड के सदस्य और प्रकाशक के तौर पर बने रहेंगे। हालांकि, वे दिन-प्रतिदिन के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। वे कंपनी के बिजनेस पक्ष को लगातार अपना सपोर्ट देते रहेंगे। जब उनसे ‘द हिन्दू’ के एजेंडा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने एक्सचेंज4मीडिया समूह से कहा, “बोर्ड के पास कुछ महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। बिजनेस पक्ष को मजबूत करने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है। मैं, अब संपादकीय में हस्तक्षेप नहीं करता। हम अपने संपादकीय को शेयरधारों के हस्तक्षेप से मुक्त रखते हैं।”
टाइम्स ऑफ इंडियाऔर द हिन्दूके एड वार पर
राम ने ‘द हिन्दू’ द्वारा चेन्नई में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के विज्ञापन पर जवाबी कार्यवाई का समर्थन किया है, लेकिन उन्होंने इसे खेल का छोटा सा हिस्सा करार दिया है। राम ने स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के द्वारा टीवीसी में अपने पेज3 पत्रकारिता पर हमला किया गया था, यह मार्केटिंग वालों की ओर से था और संपादकीय विभाग के लोगों का इसको आंशिक समर्थन प्राप्त था। राम ने एक्सचेंज4मीडिया समूह से कहा, “द टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक कैंपेन प्रकाशित किया और यह उसकी प्रतिक्रिया थी।” उन्होंने कहा कि जवाबी विज्ञापन के ऑन एयर जाने से पहले संपादकीय विभाग के लोगों से सहमति ली गई थी। उनके अनुसार, “हमें इससे कोई समस्या नहीं है। हालांकि, हमने कोई कैंपेन की शुरुआत नहीं की, एक बार जब यह आया तो मार्केटिंग टीम वालों के अनुसार, इसकी प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी।”

फिरंगी माननसिकता में जी रही है यूपी.पुलिस

$
0
0


अंग्रेजी राज सी

अरविंद कुमार सिंह
आजादी के बाद भले ही भारत में चारों तरफ बेशुमार बदलाव आये हैं, शासन तथा प्रशासन के तौर तरीकों में भी भारी फेरबदल हुआ है,तथा आम आदमी की सोच और मानसिकता मे भी बहुत फर्क आया है,पर उत्तर प्रदेश की पुलिस आज भी पहले जैसी ही बनी हुई है। आजादी के पहले लोग पुलिस को विदेशी प्रशासन के एक अवयय के रूप मे देखा करते थे। आजादी के बाद इस मानसिकता और दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव आना चाहिए था,पर ऐसा नहीं हुआ। यदि आजादी के ठीक बाद ठोस प्रयास किया गया होता तो पुलिस का मनोबल भी बढ़ता और जनता का नजरिया भी बदलता। पुलिस की मानसिकता को और उसके चरित्र का तत्काल आमूल-चूल परिवर्तन का प्रयास न करना एक ऐतिहासिक भूल थी। अगर सांकेतिक तौर पर पुलिस की वर्दी का रंग खाकी से बदल कर दूसरा कर दिया जाता तो इसी परिवर्तन से ही पुलिस के प्रति दृष्टिïकोण में भारी बदलाव नजर आते। खाकी वर्दी,जो कि आजादी की लड़ाई के दौरान शोषण एवं अत्याचार की प्रतीक थी,उसे कोई सामान्यजन आजादी के बाद कैसे भूल सकता था और पुलिस ने जिस खाकी वर्दी में निरंकुशता का नंगा नाच खेला,वह एकाएक परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्क्रताम का सूत्र मन से स्वीकार कर लेती? वर्तमान संदर्भ में अंग्रेजियत पर आधारित पूरे सिस्टम का परीक्षण जरूरी है।
विरोधी वातावरण में भी उत्तर प्रदेश पुलिस का ब्रिटिश परस्त चरित्र कायम रहा,वह जिस तरह से राष्टï्रवादी आंदोलन के नैतिक मूल्यों के उत्ताल तरंगों से अप्रभावित बनी रही,उन सबके पीछे पुलिस संवर्ग में काम करनेवाले कर्मचारियों और अधिकारियों को दिया गया प्रशिक्षण महत्वपूर्ण और निर्णायक कारण था और इस प्रशिक्षण में फेरबदल किया जाना लाजिमी है। उत्तर प्रदेश में ट्रेनिंग स्कूल से लेकर प्रशासन की बड़ी-बड़ी अकादमियों तक अंग्रेजो द्वारा डाली गयी परंपरा का ही निर्वाह हो रहा है। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि जनसामान्य की सहानुभूति पुलिस को मिले,जिससे उनके शासन को संकट हो। पर आजादी के बाद नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी की संवैधानिक प्रतिबद्दता से शोषक मानसिकतावाला पुलिस बल कैसे तालमेल बिठा सकता है?अंग्रेजो ने पुलिस बल की रूपरेखा सेना की तर्ज पर रखी और प्रशिक्षण में आउटडोर पाठ्यक्रम में मिलिट्री पैट्रन को ही अपनाया गया। मगर सेना को तो सीमापार दुश्मनो से लडऩा होता है। पर आजादी के बाद प्रदेश में मिलिट्री की मान्यताओं को बना कर रखना कहां तक प्रासंगिक है।
मिलिट्री की तर्ज पर जनसामान्य के साथ व्यवहार किया जाना उचित नहीं है। कुल मिला कर जनतांत्रिक माहौल में ऐसा प्रशिक्षण प्राप्त पुलिस तमाम विसंगतियों का शिकार हो गयी है। मिलिट्री प्रशिक्षण का दोष यह भी है और पुलिस जन उच्च अधिकारी की ओर ही निगाह लगाए रहते हैं। सुरक्षा व्यवस्था से लेकर गुप्तचरी जैसे कार्य और यातायात नियंत्रण का काम वे करते हैं। अंग्रेजो ने विवेकशून्य और पहलशक्ति से परे मात्र उच्चाधिकारियों के आदेश पर कार्रवाई करनेवाला बल इस नाते खड़ा किया था कि वे देश की जनता को अपना स्वाभाविक शत्रु मानते थे। प्रशिक्षण केंद्रों पर जिन कर्मचारियों और अधिकारियों की तैनाती होती है,उसे पुलिस में दंड माना जाता है। दंडित अधिकारी जिनको प्रशिक्षण देंगे उनकी हालत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।
प्रशिक्षण में नो आग्र्यूमेंट का सिद्धांत भी सेना के तर्ज पर ही बना है। आज भी ऐसा लग रहा है कि आजादी के इस दौर मे भी अंग्रेजी राज की पुलिस तैयार की जा रही है। ट्रेनिंग कालेज मे अनुशासन के नाम पर आपस में अनुशासनहीनता का जो सिलसिला शुरू होता है,वह दूर तक जाता है। अंग्रेजो ने यह स्थिति एक रणनीति के तहत बनायी थी क्योंकि संवादहीनता से उपजनेवाली कुंठा का प्रतिकूल असर होता। आज सिपाही सारे दायरे तोड़ता जनप्रतिनिधियों के पास जा रहा है,जहां उसकी बात सुनी जाती है। अगर अफसर उसकी बात सुनते तो यह हालत क्यों होती? इस तरह पुलिस बल की कमान धीरे-धीरे जनप्रतिनिधियों के हाथ खिसकती जा रही है। यदि पुलिस के वरिष्ठ अधिकार अपने कनिष्ठों के प्रति संवेदनशील होते तो यह नौबत क्यों आती। प्रशिक्षण में कई खामियां है तथा कई बेईमानी और गाली गलौज तो इस दौरान शरीफ से शरीफ आदमी सीख जाता है। उत्तर प्रदेश के पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों का बाहर निकलता हुआ पेट, बढ़ता हुआ वजन, रोगों का शिकार होना इस बात को दर्शाता है कि पूरे प्रशिक्षण के दौरान शारीरिक फिटनेस के सिद्दांत को सच्ची भावना से नहीं लिया गया था। यह प्रशिक्षण की सबसे बड़ी विफलता है। संस्कार विहीन तथा राष्ट्रीय चरित्र विहीन पुलिस अधिकारी और कर्मचारी कितना घातक हैं सहज अंदाज लगाया जा सकता है।
अंग्रेजों ने अपनी हुकूमत की जड़ों की मजबूती तथा भारतीयों की भावनाओं को कुचलने के लिए जिस पुलिस बल का गठन किया था,वह अत्याचार और आतंक का पर्याय थी। जानेमाने इतिहासकार वी.ए.स्मिथ ने माना था कि दारोगा अपराधियों के बजाय सज्जनो के लिए आतंक थे। आजादी के आंदोलन के दिनो में पुलिस स्वतंत्रता सेनानियों के साथ वही वर्ताव करती थी जो कि चोर डाकुओं के साथ किया जाता है। अंग्रेज ऐसी पुलिस चाहते थे जो कि सरकार के खिलाफ किसी भी अशांति,विरोध या बगावत को कुचल सके। राष्ट्रीय आंदोलन के उभार के बाद तो यह जरूरत और बढ़ गयी थी। जाहिर है कि भारत मे अंग्रेजी राज सेना,पुलिस और नागरिक सेवा इन तीनो पर ही टिका था। मगर पुलिस अंग्रेजी राज का एक अहम स्तंभ थी और उसके सृजनकर्ता लार्ड कार्नवालिस थे,जिसने जमींदारों को पुलिस संबंधी काम से मुक्त करके एक नियमित पुलिस दल की स्थापना की। हालांकि उन्होने भारत की पुरानी थाना व्यवस्था को आधुनिक बनाया तथा यहां अचानक ही ब्रिटेन से भी विकसित पुलिस बल खडा हो गया। कार्नवालिस ने ही थानो के प्रधान (दारोगा)बनाए तथा जिला पुलिस अधीक्षक का पद बनाया। दारोगा तो भारतीय होते थे पर बड़े पदों पर उनको जिम्मेदारियों से मुक्त ही रखा गया। और जैसी पुलिस अंग्रेज बनाना चाहते थे वैसी ही बन गयी।

सुशासन में मीडिया प्रेम / फज़ल इमाम मल्लिक

$
0
0

 

बिहार में प्रेस पर नीतीश का अघोषित सेंसर

E-mailPrintPDF
फजल 


: सरकार के खिलाफ लिखने पर नौकरी जाने का डर : सरकारी भोंपू की तरह बज रहा है राज्‍य का मीडिया 

: बिहार में सब कुछ ठीक है। क़ानून-व्यस्था पटरी पर लौट आई है। विकास चप्पे-चप्पे पर बिखरा है और ख़ुशहाली से लोग बमबम हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। बिहार के अख़बार और समाचार चैनलों से जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है उससे तो बस यही लग रहा है कि बिहार में इन दिनों विकास की धारा बह रही है और निजाम बदलते ही बिहार की तक़दीर बदल गई है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जाहिर है कि इससे गदगद हैं और विकास को देखने अपने लाव-लशकर और गाजे-बाजे के साथ सल्‍तनत को देखने निकले हैं। इस विकास यात्रा का ढिढोरा भी कम पीटा नहीं जा रहा है। नीतीश को टेंट में अकेले बैठा दिखाया जा रहा है, ग्रामीणों के साथ खाना खाते उनकी तस्वीरें हर अख़बार छाप रहा है और चैनल उसे सम्मोहित हो कर दिखा रहा है। कुछ चैनलों ने तो कई-कई घंटे तक किसी प्रायोजित कार्यक्रम की तरह नीतीश की शान में क़सीदे पढ़ते हुए उनके राजशाही ठाठ को दिखाया। उन चैनलों को देखते हुए यह लग रहा था कि हम किसी समाचार चैनल पर समाचार नहीं देख रहे हैं, बल्कि राज्य सरकार का अपना कोई चैनल देख रहे हैं जो नीतीश कुमार के गुणगान में किसी तरह की कोई कंजूसी नहीं दिखाना चाहता है। उन चैनलों में या अख़बारों में यह कहीं नहीं दिखाया गया कि बिहार के उन गांवों में जहां-जहां नीतीश ने पांव धरे थे वहां इन तीन सालों में कितना और कैसा बदलाव आया।
लोकशाही के इस दौर में राजशाही का नमूना इससे पहले दूसरी सरकारों के दौर में तो नहीं ही मिला था। लालू यादव के जंगल राज के दौरान भी नहीं। विकास यात्रा पर निकले नीतीश के ठाठ किसी राजा की तरह थे। नर्तकों और कलाकारों का लाव-लशकर भी उनके साथ पटना से गया था जो रात भर उनका दिल बहलाता। किनकी फ़सलें उजड़ गईं और किनके घरों को तोड़ा गया, इसकी ख़बर कहीं नहीं थी लेकिन विकास यात्रा की तस्वीरें थीं और नीतीश की घोषणाओं का जिक्र था। ठीक वैसी ही घोषणाएं जो इन तीन सालों में नीतीश करते रहे हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि नीतीश अपनी विकास यात्र के दौरान योजनाओं की ही घोषणा ही करते रहे, बिहार के उन गांवों में तीन सालों में क्या कुछ विकास हुआ इसकी जनकारी उन्होंने देने की जहमत तक नहीं उठाई। दरअसल नीतीश की फ़ितरत में यह है भी नहीं। सत्ता में रहते हुए उनमें ख़ुदाई इतनी आ जाती है कि उन्हें अपने सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता है। बिहार में जाहिर है कि इन दिनों नीतीश की ख़ुदाई चल रही है और इसके लिए उन्होंने सबसे बड़े हथियार यानी मीडिया को हर तरह से ‘मैनज’ किया है। इस ‘हर तरह’ को अघोषित सेंसर के तौर पर पाठक पढ़ें तो बात ज्य़ादा साफ़ और समझ में आएगी।
सुशासन और विकास का ढोल पीटने वाले नीतीश कुमार के राज में क्या सचमुच सब कुछ ठीक है और विकास की बयार बह रही है। बिहार और खा़स कर दूर-दराज के गांवों में जाने के बाद तो यह सब बातें महाछलावा और काग़जी ही नजर आती हैं। बिहार, शेखपुरा, सिकंदरा, जमुई, लखीसराय, खगड़िया जिलों का दौरा करें तो सड़कें बद से बदतर। बिजली कब आती है पता नहीं, पीने का साफ़ पानी भी मयस्सर नहीं। पर पटना में अख़बारों में इन सब पर न तो लिखा गया और न छपा। सड़कों का टेंडर सत्ताधारी पार्टी के किन-किन सांसदों व विधायकों ने लिए और सड़कें नहीं बनीं तो इसकी वजह क्या थी। भ्रष्टाचार ऐसा की पार्टी के बड़े से लेकर छोटे नेता तक टेंडर पास कराने के लिए पैसे की मांग करते हैं। सड़कें अदालतों में ज्यादा बन रही हैं। ठेकेदारों के झगड़े अदालतें ही निपटा रही हैं। नहीं मैं ऐसा नहीं कह रहा कि पहले की सरकारों में ऐसा नहीं होता था। ख़ूब होता था। लेकिन अख़बारों या चैनलों में स्याह-सफ़ेद के इस खेल को लेकर हंगामा किया जाता रहा था। पर आज ऐसा नहीं है। भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी नीतीश सरकार और उनकी नौकरशाही की ख़बरें अब अख़बारों में कहीं दिखाई नहीं देतीं।
नीतीश के सखा और पार्टी के महत्‍वपूर्ण नेता शंभू श्रीवास्तव ने बिहार सरकार के कामकाज को लेकर हाल में ही जो टिप्पणी की उससे नीतीश की लफ्फ़ाजी की पोल पट्टी खुल जाती है। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत करते हुए साफ़-साफ़ कहा- नीतीश के तीन साल के शासनकाल में प्रदेश में नौकरशाही हावी है। नौकरशाही में भ्रष्टाचार के कारण ही बिहार में निवेश कम हो रहे हैं, जिससे प्रदेश का औद्योगीकरण नहीं होने से रोजगार की तलाश में यहां से लोगों का दूसरे प्रदेशों में पलायन जारी है और बिहार में उद्योग की स्थापना नहीं होने से रोजगार की तलाश में प्रदेश से पिछले बीस सालों के दौरान करीब एक चौथाई आबादी का पलायन हुआ है और इसके लिए उन्होंने वर्तमान नीतीश सरकार सहित बिहार की सभी पिछली सरकारों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि पिछले 15 सालों के शासन के दौरान प्रदेश में किसी भी क्षेत्र में निवेश हुआ ही नहीं, लेकिन प्रदेश की वर्तमान नीतीश सरकार के तीन सालों के शासनकाल में 92 हजार करोड़ रुपए के निवेश किए जाने को लेकर समझौते किए जा चुके हैं, पर हकीकत यह है कि उसमें से मात्र 600 करोड़ रुपए का ही अब तक निवेश हुआ है, जो बिहार जैसे बड़े प्रदेश के लिए कुछ भी नहीं है। यहां तक कि केंद्र सरकार ने वर्तमान वित्‍तीय वर्ष में बिहार में सात हजार कृषि विपणन केंद्र खोले जाने के लिए 167 करोड़ रुपए आबंटित किए थे, लेकिन प्रदेश के कृषि विभाग के सही समय पर अंकेक्षण और परियोजना रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं किए जाने से राज्य सरकार इसमें से अब तक मात्र 11 करोड़ रुपए ही उठा पाई है। यह नीतीश सरकार के शासन का सच है। यह बातें किसी विपक्ष के नेता ने नहीं कही हैं। जनता दल (एकी) के एक क़द्दावर नेता ने यह बातें कही हैं। लेकिन मीडिया ने सत्ताधारी दल के इस बड़े नेता का यह बयान भी पटना के अख़बारों में उस तरह नहीं छपा, जिस तरह कभी सुशील कुमार मोदी के बयान को नमक-मिर्च लगा कर पटना के अख़बार छापा करते थे।
सवाल पूछा जा सकता है कि सत्ता के बदलाव के साथ ही बिहार में अख़बारों में यह बदलाव आया है। तो जवाब है नहीं। अख़बारों में यह बदलाव आया नहीं है, लाया गया है। सत्ता संभालने के बाद बिहार में सरकार ने सबसे पहला काम मीडिया को ‘मैनेज’ किया और इसके लिए हर वह हथकंडे इस्तेमाल किए गए जो एक तानाशाह या बर्बर शासक करता है। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में बिहार में ‘जंगलराज’ पर लगभग हर रोज कुछ न कुछ विशेष ख़बरें छपती ही रहती थीं। लालू प्रसाद यादव के पिछड़े प्रेम और अगड़े विरोध ने बिहार में पत्रकारों को उनके ख़िलाफ़ कर दिया। यह मुख़ालफ़त घोषित नहीं अघोषित थी। लालू विरोध और नीतीश प्रेम के बीच सवाल यह है कि बिहार में इस पत्रकारिता ने किस का हित साधा है और इसका किसने उपयोग किया है। लालू प्रसाद यादव के पंद्रह साल व नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान मीडिया के रवैये से इन सवालों के जवाब मिलते हैं। पिछले तीन साल के दौरान बिहार में मीडिया में विकास की धारा बह रही है और सुशासन का जादू सर चढ़ कर बोल रहा है।
ख़बरों को बनाने वाले और उसका संपादन करने वाले छोटी सी छोटी ख़बरों में भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि कहीं इससे नीतीश की उजली छवि पर कोई दाग़ तो नहीं लग जाएगा। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में ऐसी बात नहीं थी। तब सुशील कुमार मोदी के बयान को भी आधार बना कर विशेष ख़बरें बना डाली जती थीं। लगभग ऐसी ख़बरें रोज़ छापी और छपवाई जातीं थीं, जिससे राजनीतिक रूप से लालू यादव का नुक़सान हो। पर हैरत की बात यह है कि नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान बिहार के अख़बारों ने एक भी ऐसी ‘विशेष ख़बर’ प्रकाशित नहीं की, जिससे नीतीश का राजनीतिक क़द कम होता हो।
हद तो यह है कि विपक्षी नेताओं तक के बयान सेंसर किए जा रहे हैं। कभी जनता दल (एकी) के प्रवक्ता रहे संजय वर्मा के अख़बारी मित्र उनसे कहते हैं कि नीतीश के ख़िलाफ़ कोई बयान मत छपने के लिए भेजिए, छाप देंगे तो नौकरी चली जाएगी। नीतीश की मानसिकता और नीतियों की वजह से संजय वर्मा ने पार्टी छोड़ दी और पिछले क़रीब एक साल से वे शंकर आजाद और विज्ञान स्वरूप के साथ मिल कर शोषित सर्वण संघर्ष समिति (एसफोर) बना कर नीतीश की कारगुजारियों और बदनीयती की जानकारी बिहार के लोगों को दे रहे हैं। एस फोर लोगों के सामने नीतीश के उस चेहरे को रखने में जुटा है जो दिखता नहीं है और जो चेहरा किसी क्रूर तानाशाह का है। पर दिक्क़त यह है कि सारे सबूत देने के बावजूद पटना के अख़बार उनके बयानों को उस तरह नहीं छापते, जिस तरह छापना चाहिए। सच तो यह है कि राजद के शासनकाल में जिस तरह ख़बरें बनाई जा रहीं थीं, नीतीश के इन तीन सालों में बिहार में ख़बरें दबाई जा रही हैं।
नीतीश कुमार के शासनकाल में अगस्त में कोसी में आई बाढ़ ने गांव के गांव तबाह कर डाले। लोगों का मानना है कि पिछले एक सदी में आई यह सबसे बड़ी आपदा है। ख़ुद नीतीश ने इसे प्रलय कहा। यह बात अलग है कि नीतीश सरकार के आपदा प्रबंधन के आंकड़े इस बाढ़ को बहुत कम कर आंकता है। आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक़ कुछ सौ लोग इस बाढ़ में मारे गए हैं। पर कोसी अंचल जा कर बाढ़ की विनाशलीला का पता लगता है। शंकर आजाद के साथ अभी-अभी सुपौल, मधेपुरा और अररिया के उन इलाकों में जाने का मौक़ा मिला तो तबाही को देख कर दिल परेशान हो गया। लोगों का कहना है कि बाढ़ में कम से कम पचास हजार लोग मारे गए हैं। नीतीश कुमार इन आंकड़ों को दबा रहे है ताकि सहायता को मिले 150  हजार करोड़ की रक़म का घपला किया जा सके। कोसी क्षेत्र में सुपौल से लेकर निर्मली और फिर ललितग्राम, प्रतापपुर, पिपरा, नरपतगंज उधर अररिया के बतनाहा से लेकर फारबिसगंज, बनमखी व पूर्णिया, मधेपुरा के कुमारखंड प्रखंड के रामनगर, मुरलीगंज, बभनगांवा, सुखासन व बिहारीगंज इलाक़े में बाढ़ की विभिषिका पूरी सच्चाई के साथ दिखाई देती है। खेत बालू से पटे हैं, घर तालाब बन गए हैं और इन इलाकों का संपर्क राज्य के दूसरे हिस्सों से लगभग ख़त्म है। सड़क व रेल मार्ग दोनों ही संपर्क टूट चुका है। पटरियां उखड़ी पड़ी हैं और हालत ऐसी है कि फ़िलहाल उसे बनाया भी नहीं जा सकता।
बाढ़ को लेकर नीतीश लाख सफ़ाई दें पर इतना तो साफ़ है कि राज्य सरकार की लापरवाही की वजह से कोसी का तटबंध टूटा था। पर मीडिया संवेदनहीन बना रहा। नीतीश की विकास यात्रा को प्रमुखता से प्रकाशित करने वाले अख़बार या इसका सीधा प्रसारण करने वाले समाचार चैनलों के लिए कोसी की बाढ़ कोई ख़बर नहीं है। वहां क्या हालात हैं और बाढ़ से तबाह हुए लोगों को क्या कुछ राहत मिला है या मिल रहा है उस पर एक भी खोजपरक रिपोर्ट बिहार के अख़बारों में देखने को नहीं मिली। जबकि उन गांवों को फिर से बसने में सालों लग जाएंगे। सरकारी स्तर पर कोसी के बाढ़ प्रभावित इलाकों में ऐसा कुछ नहीं किया गया है, जिसे लेकर उसकी पीठ ठोंकी जाए। पर बिहार के अख़बार ऐसा कर रहे हैं। सरकारी दावों व आंकड़ों को पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापा जा रहा है और बाढ़ की त्रासदी को कम से कम दिखाने की कोशिश की जाती रही है। महीनों बीत जने के बाद भी किसी पत्रकार ने यह हिम्मत नहीं जुटाई कि कोसी के सच को सामने लाया जा सके।
बिहार में सामाजिक न्याय और समाजवाद पर कभी बड़ी-बड़ी बातें कहने वाले और लालू यादव के ‘कुंनबा प्रेम’ पर पन्ने के पन्ने स्याह करने वाले किसी पत्रकार ने नीतीश कुमार के जातीय और नालंदा प्रेम को उजगर करने की जहमत नहीं उठाई। नालंदा जिला के नीतीश कुमार जाति से कुर्मी हैं और उन्होंने पार्टी के महिला व युवा अध्यक्ष पद पर अपने ही जिला के कुर्मी नेताओं को बैठाया है। किसी ने कभी कहा था कि ‘नशेमन लुट ही जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था, यहां तो बेचने वालों ने गुलशन बेच डाला है'। नीतीश पर यह बात पूरी तरह लागू होती है। सिर्फ़ इन दो पदों पर ही वे अपनी बिरादरी और जिले के लोगों को बिठाते तो कोई बात नहीं थी। उन्होंने तो मानव संसाधन विकास मंत्री, मुख्य सचेतक विधान सभा व विधान परिषद, लोकायुक्त, वरिष्ठ उपाध्यक्ष नागरिक परिषद, मुख्यमंत्री के प्रधान व निजी सचिव, अध्यक्ष संस्कृति परिषद व राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के जिलाधिकारी, पटना के ग्रामीण एसपी व पटना मेडिकल कॉलेज के सुपरिटेंडेंट के पदों पर अपनी बिरादरी व गृह जिला के लोगों का ला बिठाया है। थोड़ी पड़ताल की जाए तो यह सूची और भी लंबी हो सकती है पर नीतीश के इस जातीय प्रेम पर पटना के मीडिया में कोई सुगबुगाहट तक नहीं है।
बिहार में पत्रकारिता का यह नया चेहरा है जो नीतीश ने गढ़ा है और उनकी सरकार इसे आकार देने में लगी है। वरना क्या कारण है कि कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से उत्पन्न स्थिति पर अख़बारों में ख़बरें अंदर के पन्नों पर जगह पाती हैं, जबकि इस हड़ताल से बिहार में पूरा तंत्र चरमरा गया है और कामकाज ठप है। लेकिन मीडिया चुप होकर सारा तमाशा देख रही है। हड़ताल पर सरकार अपना पक्ष रखते हुए अख़बारों में विज्ञापन देती है, अगले दिन उसी विज्ञापन के आधार पर अख़बार इसे लीड ख़बर बना कर कर्मचारियों को विलेन बताने की कोशिश में जुट जाते हैं। कभी भारतीय जनता पार्टी चाल, चरित्र और चेहरा की बात करती थी। बिहार के मीडिया के संदर्भ में अब यह कहा ज सकता है कि उसका चाल, चरित्र और चेहरा इन तीन सालों में पूरी तरह बदल गया है।
बिहार में मीडिया इन दिनों भीतर व बाहरी दबावों से जूझ रहा है। बाहरी दबाव पत्रकारों का वह पुराना ‘लालू प्रेम’ है, जिसने सुशील कुमार मोदी के बयानों को आधार बना कर ‘स्पेशल स्टोरी’ बनाई। पर यह बाहरी दबाव बहुत ज़्यादा ख़तरनाक नहीं है। भीतरी दबाव नीतीश कुमार की तानाशाही है और यह ज्‍यादा ख़तरनाक है। नीतीश और उनके सलाहकारों ने बहुत ही सलीक़े से पत्रकारों को अपना मुसाहिब बनाने के लिए हर वह हथकंडा अपनाया, जो सत्ता में बने रहने के लिए जरूरी है। नीतीश के कुछ नजदीकी लोगों की बात माने तो बिहार में पत्रकारों को पालतू व भ्रष्ट बनाने के लिए बाक़ायदा मुहिम छेड़ी गई और पत्रकार इसका शिकार बन कर सरकार के क़सीदे पढ़ने लगे। सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल कर प्रबंधकों को भी स्याह को सफ़ेद करने के लिए ललचाया गया। जाहिर है कि ऐसे में खोजपरक ख़बरें तो छपने से रहीं।
बिहार के कुछ पत्रकारों ने ही यह भी बताया है कि अख़बारों को भेजे गए विपक्षी दलों के बयान तक छपने से पहले मुख्यमंत्री की टेबल पर पहुंचाए जाते हैं। समाचार एजेंसियों तक में ख़ुफ़िया विभाग के अधिकारी घूमते रहते हैं कि कहीं कोई ख़बर सरकार के खि़लाफ़ तो चलाई नहीं जा रही है। यहां तक कि दिल्ली से चलाई गई ख़बरों को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय से निर्देश आते हैं कि सरकार की नकारात्मक छवि वाली ख़बरें नहीं चलाईं जाएं। ऐसा ही निर्देश अख़बारों के दफ़्तरों तक भी पहुंचाए जाते हैं। जाहिर है कि इसके बाद दिल्ली से जारी कोई ख़बर बिहार के अख़बारों में नहीं छपती और छपती भी हैं तो सरकार की नकारात्मक छवि को गौण करने के बाद। बिहार में यह अघोषित सेंसरशिप बहुत ही सुनियोजित ढंग से लागू किया गया है और अख़बारों को अपने हित में इस्तेमाल कर उसे राज्य सरकार का भोंपू बना डाला गया है।
फै़ज अहमद फैज ने कभी कहा था कि ‘मताए लौह-ओ-क़लम छिन गया तो क्या ग़म है, कि ख़ून-ए-दिल में डुबो दी हैं उंगलियां मैंने’, पर बिहार में मीडिया पर पहले बिठा दिए गए हैं और ख़ून-ए-दिल में उंगलियां डुबोने वाला कोई नजर नहीं आ रहा है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र के अख़बारों पर लगाए गए प्रतिबंध को काला क़ानून बताते हुए कभी देश भर के पत्रकारों ने इसका विरोध किया था, आज नीतीश कुमार के अघोषित काला क़ानून पर कहीं कोई सुनगुन तक नहीं। यह बड़ी चिंता की बात है।

लेखक फज़ल इमाम मल्लिक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं तथा जनसत्‍ता से जुड़े हुए हैं. यह लेख उनके ब्‍लॉग सनद से साभार लिया  ग
Viewing all 3437 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>