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आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप

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          कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं है. सिर्फ छत्तीस साल पहले की यानी वर्ष १९७५ की बात है ,जब  लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति आंदोलन से देश में दूसरी आज़ादी के लिए सत्याग्रह का माहौल तेजी से बन रहा था.उन्हीं दिनों  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद है कोर्ट का फैसला आया ,जिसमें समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका को स्वीकार कर हाई कोर्ट ने इंदिराजी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया . इन दोनों घटनाओं से इंदिराजी को लगा कि उनकी कुर्सी खतरे में है . उन्होंने अपनी कुर्सी पर मंडराते खतरे को देश पर मंडराता खतरा मान लिया और घबरा गयीं घबराहट में उन्होंने  अपने गलत सिपहसालारों की बातों में आ कर देश में आपातकाल लगा दिया .दिल्ली से ले कर देश के दूर-दराज गाँवों और कस्बों तक अपनी सरकार की आलोचना करने वाले छोटे-बड़े हर विरोधी नेता को उन्होंने गिरफ्तार करवा कर जेलों में डाल दिया . उन्हें इतने से ही संतुष्टि नहीं हुई .चार कदम आगे बढ़ कर उन्होंने संविधान प्रदत्त नागरिकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी भी छीन ली और अखबारों पर सेंसरशिप लागू कर दी  .
        उन दिनों भारत में इलेक्ट्रानिक मीडिया के नाम पर केवल सरकारी रेडियो अर्थात आकाशवाणी और सरकारी टेलीविजन यानी दूरदर्शन का ही बोलबाला था , जिनसे  वैसे भी इंदिरा सरकार को कोई ख़तरा नहीं था . लेकिन देश भर में अखबारों पर लगी सेंसरशिप ने तो जैसे आम जनता की आवाज़ का गला ही घोंट दिया था .  अखबारों में जो कुछ भी छपना होता , संपादक की कलम से नहीं ,बल्कि सेंसर की कैंची से कट-छंट कर ही छपता था.इसलिए देश के जन-जीवन से विपक्ष की आवाज़ गायब हो गयी थी . लोकतंत्र की जुबान सिल चुकी थी . देश में एक गहरी खामोशी का अजीब सा माहौल था. सेंसरशिप के कारण देशवासी एक-दूसरे के राज्यों की घटना-दुर्घटना और अन्य महत्वपूर्ण ख़बरों से वंचित रह गए थे. अल्पज्ञानी सरकारी अधिकारी अखबारों के दफ्तरों में जाकर ख़बरों को उलटते -पुलटते और उन्हें जिन खबरों में सरकार और प्रशासन की आलोचना अथवा खिलाफत का अंदेशा होता , वे उस खबर को छपने से रोक देते थे. ऐसा घुटन भरा माहौल देश में लगभग अठारह महीने तक रहा . संभवतः यह फरवरी १९७७ का महीना था ,जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाने और लोकसभा का आम चुनाव करवाने की घोषणा कर दी . विपक्ष के सारे नेता ,जिनमे सभी  विरोधी दलों के लोग शामिल थे , जेलों से रिहा कर दिए गए . उन लोगों ने एकजुट होकर जनता पार्टी बनायी और चुनाव लड़ा . आपातकाल के जोर-ज़ुल्म से परेशान और नाराज़ जनता ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस को लोकसभा से बाहर का रास्ता दिखा दिया . .जनता पार्टी की सरकार बनी ,हालांकि ज्यादा चल न सकी और अपने ही आंतरिक मतभेदों के चलते ढाई साल में चारों खाने चित्त भी हो गयी , लेकिन देश की जनता ने इंदिरा गांधी के आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप के खिलाफ मतदान कर यह तो बता ही दिया कि एक सभ्य समाज और   लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला करने वालों को वह किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं कर सकती . करीब छत्तीस बरस पहले का यह वाकया आज फिर इसलिए याद आ रहा है ,क्योंकि   इतिहास खुद को दोहराने जा रहा है. महज़ साढ़े तीन दशक में पूरी दुनिया में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनेक नए आविष्कार हुए हैं . संचार क्रान्ति के ज़रिये इंटरनेट ,वेबसाईट उसमे फेसबुक और ब्लॉग जैसे अभिव्यक्ति के ताजातरीन माध्यम करोड़ों लोगों तक पहुँचने लगे हैं .इनके ज़रिये लोग अपने दुःख-सुख की बातें एक-दूसरे से 'शेयर' करते हैं.ज़ाहिर है कि लोग सरकारी भ्रष्टाचार और लालफीताशाही पर भी तो कुछ न कुछ टिप्पणी करेंगे. ये टिप्पणियाँ सरकार के खिलाफ जाएँगी .हो सकता है कि इससे सरकार के खिलाफ जनमत बनने लगे और उसकी कुर्सी हिलने लगे .जैसा कि उन दिनों लोकनायक जयप्रकाश जी के सम्पूर्ण क्रान्ति आंदोलन के दौरान हुआ था ,जब अधिकाँश अखबारों में इस आंदोलन की ख़बरें प्रमुखता से छपा करती थीं . आज अखबारों के साथ-साथ इंटरनेट , वेबसाईट और ब्लॉग लेखन के माध्यम से लाखों-करोड़ों लोग अपने विचार देश के भीतर और सारी दुनिया में फैला रहे हैं . प्रचार और संचार माध्यमों के इन नए अवतारों ने आम नागरिकों के हाथों में दिल की बात कहने ,लिखने और प्रकाशित-प्रसारित करने का नया हथियार दे दिया है. हाल ही में लोकपाल क़ानून की मांग को लेकर दिल्ली में आमरण अनशन पर बैठे समाज सेवी अन्ना हजारे के जन-आंदोलन का सन्देश इन ताजा प्रचार माध्यमों से भी समाज में बहुत दूर तक फैला . ज़ाहिर है कि यह सब सोनियाजी की अध्यक्षता वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन यानी यूं.पी. ए . सरकार खिलाफ ही गया . हालांकि इस सरकार के प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह हैं, लेकिन रिमोट कंट्रोल तो सोनियाजी के हाथों में है,जो स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा जी की पुत्र-वधु हैं . बहरहाल उनकी संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार अब वेब-माध्यमों पर बंधन लगाने जा रही है,बल्कि लगा ही चुकी है . हिन्दी  मासिक पत्रिका 'आऊट-लुक 'के जून २०११ के अंक में प्रकाशित एक समाचार आलेख के अनुसार केन्द्र सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून २००८ में इस वर्ष ११ अप्रेल को गोपनीय तरीके से कुछ ऐसे कठोर प्रावधान जोड़ दिए हैं, जिनसे अब कोई भी नागरिक वेबसाईट, फेसबुक ,ट्विटर आदि किसी भी सायबर संचार माध्यम से सरकारी नेताओं और सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार पर ,उनकी ज्यादतियों पर कुछ भी नहीं लिख पाएगा.  ये  प्रावधान ब्लॉग लेखन पर भी लागू होंगे. सरकार इन माध्यमों में प्रकाशित किसी भी सामग्री को आपत्तिजनक तथा राष्ट्र विरोधी मान कर उन्हें यानी वेब-साईट , सर्च-इंजन अथवा ब्लॉग को अवरुद्ध कर सकती है .क़ानून में  इस बदलाव अथवा संशोधन की अनुमति संसद से नहीं ली गयी.इससे ही सरकार की बदनीयती का सबूत मिल जाता है .देश के प्रबुद्ध नागरिक इसे अदालत में चुनौती भी दे सकते हैं .
          बहरहाल , संशोधित क़ानून के  नए प्रावधानों के अनुसार अगर इंटरनेट पर सरकार को किसी नागरिक की टिप्पणी पर .या उसके आलेख पर आपत्ति है तो इंटरनेट सर्विस प्रदाता को उसे छत्तीस घंटे के भीतर हटाना होगा .अन्यथा सरकार उस पर एकतरफा कार्रवाई कर सकेगी. इसमें तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और एक लाख से दस लाख रूपए तक जुर्माने का भी प्रावधान किया गया है. अब यह सोचने की बात है कि सरकार वेबसाईट पर अथवा ब्लॉग पर किसकी कौन सी टिप्पणी को आपत्तिजनक मानेगी , किस लेख को आपत्तिजनक मान कर उसके लेखक पर राष्ट्र-विरोधी होने का आरोप लगा दिया जाएगा . आज भारत में इंटरनेट पर वेबसाईट और ब्लॉग-लेखन करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. सत्ताधारी दलों के साथ साथ लगभग सभी विरोधी दलों की अपनी-अपनी वेबसाईट है.आडवाणीजी जैसे विपक्ष के कई वरिष्ठ नेता ब्लॉग पर भी सम-सामयिक विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते हैं. वे देश की जन-भावनाओं को भी स्वर देते हैं. स्पष्ट है कि उनका लेखन सरकार के पक्ष में नहीं हो सकता . तब क्या आडवाणीजी भी रास्त्र-विरोधी ठहराए जाएंगे ? भारतीय जनता पार्टी की अपनी वेबसाईट है. उसमे सत्तासीन कांग्रेस की प्रशंसा तो होगी नहीं .तो क्या भाजपा की इस वेबसाईट को भी राष्ट्र विरोधी मान लिया जाएगा ? केन्द्र सरकार निजी टेलीविजन चैनलों के फूहड़ कार्यक्रमों पर तो लगाम नहीं लगा पा रही है , अश्लील फिल्मों पर सेंसर की कैंची नहीं चलवा पा रही है ,शायद इन दोनों माध्यमों से उसे कोई तकलीफ नहीं है ,क्योकि इनसे देश की संस्कृति को तो खतरा हो सकता है .लेकिन देश को हांकने वाली सरकार को खतरा इनसे नहीं है. उसे फेस बुक पर अन्ना हजारे के आंदोलन के समर्थन में आए करोड़ों संदेशों से डर  लगने लगा है .जैसे जयप्रकाश नारायण के अहिंसक आंदोलन से इंदिरा सरकार भयभीत हो गयी थी और उसने जनता पर आपातकाल थोप दिया था .
      मुझे लगता है कि सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून २००८ में चोरी-चोरी चुपके -चुपके किया गया यह बदलाव प्रेस-सेंसरशिप का ही एक नया संस्करण है ,जो हमे छत्तीस साल पहले इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार द्वारा लागू किए गए आपातकाल की याद दिलाता है ,लेकिन आपातकाल हटते ही उन दिनों की इंदिरा कांग्रेस का क्या हश्र हुआ था ,यह आज की सोनिया कांग्रेस को अच्छी तरह याद तो रहना चाहिए . अगर याद नहीं है तो इतिहास के पन्ने पलटकर देख लिया जाए, और यह भी याद रखा जाए कि जब कभी किसी अप्रिय इतिहास ने  खुद को दोहराया है , उस वक्त की सत्ता ने कुछ न कुछ ज़रूर खोया है.
                                                                                         
                                                                                                 भारत प्रहरी

pakistan ka looose motion

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एकाएक ढीले पड़े पाकिस्तान के तेवर

 गुरुवार, 17 जनवरी, 2013 को 07:56 IST तक के समाचार
हिना रब्बानी खर
हिना रब्बानी खर इस समय अमरीका की यात्रा पर हैं
एक दिन पहले तक भारत पर युद्ध भड़काने का आरोप लगा रहीं पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी खर एकाएक नरम पड़ गई हैं. अब वे भारत के साथ बातचीत करना चाहती हैं.
जिस पाकिस्तानी सेना की ओर से संघर्ष विराम के उल्लंघन की ख़बरें लगातार आ रही थीं और जो किसी भी सूरत में झुकने को तैयार नहीं दिख रही थी, उसने भी कहा है कि वह संघर्ष विराम की शर्तों का पालन करेगी.
पर्दे के पीछे या कूटनीतिक स्तर पर एकाएक ऐसा क्या हुआ कि पाकिस्तान के तेवर ढीले पड़ गए, इसकी वजह शायद कुछ समय बाद पता चले लेकिन सतह पर जो दिखता है उससे लगता है कि भारत ने एक के एक बाद जो क़दम उठाए वह एक बड़ी वजह बना.
अनुमान लगाया जा रहा है कि अमरीका की यात्रा पर गईं हिना रब्बानी खर को अमरीका ने रुख़ पलटने के लिए राज़ी किया होगा. या हो सकता है कि आंतरिक अस्थिरता ने पाकिस्तान को मजबूर कर दिया होगा.
अब विशेषज्ञ कह रहे हैं कि आने वाले दिनों में दोनों देशों के बीच तनाव का माहौल घटता हुआ दिखेगा. हालांकि संबंध सामान्य कब तक हो सकेंगे यह कोई नहीं कह पा रहा है.
ये तनाव कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर दो भारतीय सैनिकों की बर्बर हत्या के बाद शुरु हुआ. भारतीय सेना का आरोप है कि पाकिस्तानी सैनिकों ने न केवल भारतीय सैनिकों को मारा बल्कि उनमें से दो के शव के साथ बर्बरता की और एक का सर ही काटकर अपने साथ ले गए.
पाकिस्तान ने इस मामले में पाकिस्तानी सेना के शामिल होने से इनकार किया है. पाकिस्तान भी भारतीय सेना की इसी तरह की कार्रवाई में अपने सैनिक मारे जाने का आरोप लगाता है.

भारत के क़दम

नियंत्रण रेखा
नियंत्रण रेखा पर पिछले दो दिनों में कई बार पाकिस्तान पर संघर्ष विराम के उल्लंघन के आरोप लगे
पाकिस्तान के रवैये को लेकर भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मंगलवार को कड़ा बयान जारी किया था और कहा था कि अब पाकिस्तान से पहले जैसे संबंध संभव नहीं हैं.
इससे पहले भारतीय सेना प्रमुख विक्रम सिंह ने दो टूक शब्दों में कहा था कि पाकिस्तान को सही समय और सही जगह पर जवाब दे दिया जाएगा.
इसके अलावा भारत ने हिंदुस्तान हॉकी लीग में भाग लेने आए पाकिस्तानी हॉकी खिलाड़ियों को वापस भेज दिया और गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन ने महिला क्रिकेट विश्व कप की मेज़बानी से हाथ खींच लिए.
वाइब्रेंट गुजरात के लिए आए पाकिस्तानी व्यापारियों को गुजरात की मोदी सरकार ने सम्मेलन में भाग लेने से पहले ही वापस लौटा दिया और पाकिस्तान के व्यापार मंत्री की आगामी भारत यात्रा को रोकने की घोषणा कर दी थी.
इस बीच भारत ने पाकिस्तान के बुज़ुर्ग नागरिकों को भारत पहुँचने पर वीज़ा दिए जाने की योजना को भी स्थगित करके ये ज़ाहिर कर दिया कि वह संबंधों को एकतरफ़ा नहीं निबाहेगा.

पाकिस्तानी तेवर

सोमवार को भारत और पाकिस्तान के सैन्य अभियान के महानिदेशकों के बीच फ़्लैग मीटिंग हुई तो तनाव की वजह से बातचीत बेनतीजा रही थी.
"हाल की घटनाएं बहुत दुर्भाग्यपुर्ण हैं. हम इस मामले पर विचार विमर्श के लिए विदेश मंत्री स्तर पर बातचीत के लिए तैयार हैं. ताकि इस मामले का निपटारा किया जा सके और हम फिर से युद्ध-विराम की शर्तों के सम्मान की बात कर सकें"
हिना रब्बानी खर
इसके बाद विदेश मंत्री हिना रब्बानी खर का बयान आया कि भारत की ओर से युद्ध भड़काने की कोशिश की जा रही है. तब पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय यह स्वीकार करने को ही राज़ी नहीं था कि उनकी सेना की ओर से कोई ग़लती हुई है.
लेकिन अब हिना रब्बानी खर ने कहा है कि दोनों मुल्कों के बीच जारी तनाव को ख़त्म करने के लिए वो अपने भारतीय समकक्ष से मिलना चाहती हैं.
अमरीका के न्यूयार्क में हिना रब्बानी खर ने कहा, "हाल की घटनाएं बहुत दुर्भाग्यपुर्ण हैं. हम इस मामले पर विचार विमर्श के लिए विदेश मंत्री स्तर पर बातचीत के लिए तैयार हैं. ताकि इस मामले का निपटारा किया जा सके और हम फिर से युद्ध-विराम की शर्तों के सम्मान की बात कर सकें."
पाकिस्तानी विदेश मंत्री का कहना था कि हालांकि 10 दिनों से जारी नियंत्रण रेखा पर जारी झड़पों ने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए हैं लेकिन विवाद को सुलझाने के लिए पाकिस्तान बातचीत के लिए तैयार है.
इससे पहले दोनों देशों के सैन्य अभियानों के महानिदेशकों की टेलीफो़न पर हुई बातचीत में पाकिस्तान की ओर से भरोसा दिलाया गया कि उनके सैनिक संघर्ष विराम का सम्मान करेंगे.
भारतीय सेना के प्रवक्ता जगदीप दहिया ने बीबीसी को बताया, “दोनों देशों के सैन्य अभियान के महानिदेशक नियंत्रण रेखा पर तनाव कम करने पर सहमत हो गए हैं.”
बताया जा रहा है कि पाकिस्तान सैन्य अभियान के महानिदेशक ने भारतीय सैनिक अभियान के महानिदेशक को इस बात का भरोसा दिया है कि नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सैनिक युद्ध विराम की शर्तों को मानेंगे.

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प्रेस की स्वतंत्रता / जॉर्ज ऑर्वेल

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[ऑर्वेल ने यह निबंध अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'ऐनिमल फ़ार्म'की प्रस्तावना के रूप में लिखा था, पर इसे छापा नहीं गया। उपन्यास के साथ इसे आज भी नहीं छापा जाता क्योंकि इसको मिला कर जो सच उजागर होता है वो बहुत से मठाधीशों और चेलों को रास नहीं आता और मठ-मालिकों को रास आने का तो सवाल ही नहीं उठता।]

जहाँ तक केन्द्रीय अवधारणा का सवाल है, इस पुस्तक का विचार तो 1937 में आया था, पर इसे  असल में1943 के अंत तक नहीं लिखा गया था। जब तक इसे लिखा गया, यह साफ़ हो चुका था कि इसे छपवाने में काफ़ी दिक्कतें पेश आएंगी (इस बात के बावजूद कि अभी फिलहाल किताबों की इतनी किल्लत है कि कोई भी चीज़ जिसे किताब कहा जा सके 'बिकने' लायक है), और हुआ भी यही कि इसे चार प्रकाशकों द्वारा वापस कर दिया गया। इनमें से केवल एक के पास कोई विचारधारात्मक मंशा थी। दो तो सालों से रूस-विरोधी पुस्तकें छाप रहे थे, और जो बचा उसका कोई स्पष्ट राजनीतिक रंग नहीं था। एक प्रकाशक ने तो पुस्तक को छापने की कार्यवाही शुरू भी कर दी थी, पर आरंभिक इंतज़ाम करने के बाद उसने सूचना मंत्रालय से सलाह लेने का निर्णय लिया, जिसने शायद उसे चेता दिया, या कम-से-कम पुरज़ोर सलाह दी कि इस किताब को न छापे। उसके पत्र से एक उद्धरण पेश है:
मैंने यह तो बताया ही था कि मुझे सूचना मंत्रालय के एक महत्वपूर्ण अधिकारी से 'ऐनिमल फ़ार्म' के बारे में क्या प्रतिक्रिया मिली थी। मुझे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस राय की अभिव्यक्ति ने मुझे गंभीरता से सोचने पर मजबूर कर दिया है ... मैं यह देख पा रहा हूँ कि कैसे इसे हाल के समय में प्रकाशित करना अत्यंत अनुचित माना जा सकता है। अगर यह हर तरह के तानाशाहों और तानाशाहियों पर निशाना साधता तो सब ठीक हो सकता था, पर जिस तरह यह किस्सा चलता है, जैसा कि अब मैं देख सकता हूँ, यह इस तरह रूसी सोवियतों और उनके दो तानाशाहों के विकास पर आधारित है कि इसे केवल रूस पर लागू किया जा सकता है, और कहीं की तानाशाहियों पर नहीं। एक और बात: यह कम बुरा लगने वाला होता अगर किस्से में प्रमुख प्रजाति सुअरों की न होती। [यह स्पष्ट नहीं है कि बदलाव का यह सुझाव श्री ... का अपना विचार है, या यह सूचना मंत्रालय से आया है; पर इसमें आधिकारिक खनक तो सुनाई पड़ती है - ऑर्वेल की टिप्पणी] मेरे ख्याल से सत्ता पर काबिज प्रजाति के रूप में सुअरों का चयन निश्चय ही कई लोगों को बुरा लगेगा, और खास तौर पर ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो कुछ तुनकमिजाज हो, जैसे कि अधिकतर रूसी बेशक होते ही हैं।
इस तरह की बात कोई अच्छा संकेत नहीं है। जाहिर तौर पर यह वांछित नहीं है कि एक सरकारी विभाग के पास ऐसी पुस्तकों को सेंसर करने का अधिकार हो जिन्हें सरकार ने प्रायोजित न किया हो, सिवाय सुरक्षा सेंसरशिप के जिस पर युद्ध के दौरान किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन सोचने तथा बोलने की आज़ादी को सबसे बड़ा खतरा इस समय सूचना मंत्रालय के सीधे हस्तक्षेप से नहीं है, और ना ही किसी सरकारी संस्था से। अगर प्रकाशक और संपादक खुद इस प्रयास में लग जाएंगे कि कुछ विषयों को छपने ना दिया जाए, तो ऐसा इसलिए नहीं है कि उन्हें मुकद्दमे का डर है, बल्कि इसलिए कि उन्हें जनमत का डर है। इस देश में बौद्धिक कायरता वो सबसे बड़ा दुश्मन है जिसका सामना किसी लेखक या पत्रकार को करना पड़ता है, और इस बात की उतनी चर्चा नहीं हुई है जितनी होनी चाहिए।
पत्रकारिता का अनुभव रखने वाला कोई भी सच्चाईपसंद व्यक्ति मानेगा कि इस युद्ध के दौरान आधिकारिक सेंसरशिप कोई खास क्लेशप्रद नहीं रही है। हमें उस तरह के सर्वाधिकारवादी 'समन्वय' का सामना नहीं करना पड़ा हैं जैसा कि अपेक्षा की जा सकती थी। प्रेस की कुछ जायज़ शिकायतें हैं, पर कुल मिला कर सरकार ने ठीक ही व्यवहार किया है और वो अल्पमत के प्रति काफ़ी सहनशील रही है। साहित्यिक सेंसरशिप के मामले में इंग्लिस्तान में डरावना तथ्य यह है कि ऐसी सेंसरशिप अधिकांशतः स्वैच्छिक है। अलोकप्रिय विचारों का मुँह बंद कर दिया गया है, और असुविधाजनक तथ्यों को अंधेरे में रखा गया है, बिना किसी आधिकारिक प्रतिबंध की आवश्यकता के। जो भी लंबे समय तक विदेश में रहा है ऐसे सनसनीखेज़ समाचारों के बारे में जानता होगा - ऐसी बातें जो अपने ही महत्व के बल पर सुर्खियों में आ जाएँ - जिन्हें बरतानवी प्रेस के एकदम बाहर रखा गया, इसलिए नहीं कि सरकार ने दखल दिया बल्कि एक व्यापक अनकहे समझौते के तहत जिसके अनुसार इस तथ्य का ज़िक्र करना 'ठीक नहीं रहेगा'। जहाँ तक दैनिक समाचार पत्रों का सवाल है, यह आसानी से समझा जा सकता है। बरतानवी प्रेस अत्यंत केन्द्रीकृत है, और इसमें से अधिकतर पर तो धनवान लोगों की मिल्कियत है जिनके पास कुछ विशिष्ट विषयों के बारे में बेईमानी बरतने का पूरा-पूरा कारण है। लेकिन इसी तरह की ढकी-छुपी सेंसरशिप पुस्तकों तथा पत्रिकाओं में भी चलती है, और नाटकों में, फ़िल्मों तथा रेडियो में भी। हमेशा हर समय का अपना एक रूढ़िवाद होता है, विचारों का एक समन्वय, जिसके बारे में यह मान लिया जाता है कि हर सही सोच वाला व्यक्ति इससे सहमत होगा। ऐसा, वैसा या कुछ और कहने पर कोई प्रतिरोध तो नहीं होता, पर उसे कहना 'ठीक नहीं' समझा जाता, ठीक वैसे ही जैसे मध्य-विक्टोरियाई समय में किसी महिला की उपस्थिति में पतलून का ज़िक्र करना 'ठीक नहीं' समझा जाता था। जो भी अपने समय के प्रचलित रूढ़िवाद को चुनौती देता है खुद को आश्चर्यजनक प्रभावशीलता के साथ चुप करा दिया पाता है। किसी भी ऐसी राय को जो वास्तव में फ़ैशन के विपरीत ही शायद ही कभी न्यायसंगत सुनवाई मिलती हो, चाहे लोकप्रिय प्रेस में या उच्चवर्गीय पत्रों-पत्रिकाओं में।

प्रेस पर अंकुश की मानसिकता / अमल कुमार श्री

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 संवादसेतु

मीडिया का आत्मावलोकन…


जनमत निर्माण एवं समाज को दिशा-निर्देश देने का महत्वपूर्ण दायित्व प्रेस पर है। जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का सम्बन्ध है भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बन्दूक और बम के साथ नहीं समाचार पत्रों से शुरू हुआ, उक्त बातें जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी ने युगान्तर में कही है, किन्तु जनचेतना की शुरूआत करने वाले इस चतुर्थ स्तम्भ की स्वतंत्रता पर आजादी के पूर्व से ही अंकुश लगाए जाते रहें हैं।
29 जनवरी 1780 को जेम्स अगस्टस हिक्की द्वारा प्रारम्भ किए गए साप्ताहिक कलकत्ता जनरल एडवरटाईजरएवं हिक्की गजटसे भारत में पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत मानी जाती है। इसका आदर्श वाक्य था- सभी के लिए खुला फिर भी किसी से प्रभावित नहीं।हेस्टिंग्स की शासन शैली की कटु आलोचना का पुरस्कार हिक्की को जेल यातना के रूप में मिला।
सत्ता के दमन के विरूद्ध संघर्ष के कारण गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने हिक्की के पत्र प्रकाशन के अधिकार को समाप्त कर दिया। इस समाचार पत्र का संपादन मात्र दो वर्षों (1780–82 तक ही रहा। कालान्तर में भारतीय पत्रकारिता ने इसी साहसपूर्ण मार्ग का अनुसरण करते हुए सत्य एवं न्याय के पक्ष में संघर्ष का बिगुल बजाया। ऐसे में सत्ता से टकराव स्वाभाविक ही था। पराधीन भारत के इतिहास के अनेक पृष्ठ अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के प्रति समाचार पत्रों की आस्था के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। अंग्रेजी सरकार राष्ट्रीय और सामाजिक हितों एवं दायित्वों की आड़ में अपने स्वार्थों के पोषण के लिए प्रेस पर किसी न किसी प्रकार का नियंत्रण बनाये रखना चाहती थी।
लार्ड वेलजली द्वारा सेंसर आदेश, 1799 में) लागू कर दिया गया। समाचार पत्रों के अंत में मुद्रक का नाम व पता प्रकाशित करना अनिवार्य कर दिया गया। संपादक व संचालन के नाम, पते की सूचना सरकार के सचिव को देनी भी अनिवार्य कर दी गई। किसी भी समाचार के प्रकाशन से पूर्व सचिव द्वारा जांच के आदेश के प्रावधान बनाए गए। रविवार को समाचार पत्र के प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी गई। इस सेंसरशिप को लार्ड हेस्टिंग्स ने सन् 1813 में समाप्त कर दिया।
सन् 1823 में एडम गवर्नर जनरल ने एडम अधिनियम जारी किया जिसमें प्रेस के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया गया। सर चाल्र्स मेट्काफ प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति उदार थे। उनके द्वारा सन् 1835 में मेट्काफ एक्टपारित किया गया। इसके साथ-साथ सन् 1823 के एडम एक्टमें भी परिवर्तन किया गया। भारतीय पत्रकारिता को एक बार फिर प्रभावित करने के लिए अंग्रेजी शासन व्यवस्था द्वारा सन् 1857 में गैगिंग एक्ट लागू किया गया और सन् 1823 के एडम एक्टका प्रत्यारोपण किया गया और पुनः लाइसेंस लेने का अधिनियम लागू कर दिया गया। 1864 में वायसराय लार्ड डफरिंग के कार्यकाल में शासकीय गोपनीयता कानून था, जिसका उद्देश्य उन समाचार पत्रों के खिलाफ कार्यवाही करना था जो गुप्त सरकारी दस्तावेज प्रकाशित करते थे।
सन् 1835 के मेट्काफ एक्टसे मुक्ति दिलाने के लिए लार्ड लारेंस ने सन् 1867 में समाचार पत्र अधिनियमलागू किया। इस अधिनियम के अनुसार प्रेस के मालिकों को मजिस्ट्रेट के सम्मुख घोषणा पत्र देना आवश्यक था। सन् 1867 का अधिनियम कुछ संषोधनों के साथ आज भी चला आ रहा है। इसका उद्देष्य छापेखानों को नियंत्रित करना है।
भारतीय समाचारपत्रों को कुचलने के लिए सन् 1878 में वर्नाक्यूलर एक्टलगाया गया। इस कानून के तहत सरकार ने बिना न्यायालय के आदेश के भारतीय भाषाओं के प्रेस के मुद्रकों और प्रकाशकों को जमानत जमा करने तथा प्रतिज्ञा पत्र देने के आदेश दिए, ताकि वह ऐसी बातों का प्रकाशन नहीं करेंगे जिससे सरकार के प्रति घृणा उत्पन्न हो या समाज में वैमनस्य फैले। इसके साथ ही अवांछनीय सामग्री को जब्त करने के आदेश भी दिए गए। इस कानून की भारतीयों ने कड़ी निन्दा की। आंग्ल समाचार पत्रों को इस अधिनियम से मुक्त रखा गया जिससे भारतीयों में रोष और बढ़ गया। सन् 1878 के वर्नाक्यूलर एक्टको 1881 में समाप्त किया गया।
ब्रिटिश सरकार ने सन् 1910 में भारतीय प्रेस अधिनियमलगाया और भारतीय पत्रकारिता पर अपना अंकुश और भी सख्त कर दिया। इस अधिनियम के अंतर्गत मुद्रकों को 7 हजार से लेकर 10 हजार रूपए तक जमानत देने को कहा गया। किसी भी आपत्तिजनक खबर के छपने पर धनराशि जब्त करने का अधिकार मजिस्ट्रेट को दिया गया। यह कानून 12 वर्षों तक प्रभाव में रहा और सन् 1922 में इसे रद्द कर दिया गया।
सन् 1930 में वायसराय इरविन ने देषव्यापी आंदोलन को देखते हुए प्रेस एंड अनआथराइज्ड न्यूज पेपर्सअध्यादेशको मई-जून से लागू कर दिया । इस अध्यादेश द्वारा सन् 1910 की सम्पूर्ण पाबंदियों को पुनः लागू कर जमानत की राशि 500 रूपए से और अधिक बढ़ा दिया गया। इसके अतिरिक्त सरकार ने हैंडबिल व पर्चों पर भी प्रतिबंध लगा दिया।
सन् 1931 में जब पूरा देश एवं राजनेता गोलमेज सम्मेलन में व्यस्त थे तो ब्रिटिश सरकार ने ऐसे समय का पूरा लाभ उठाते हुए प्रेस बिल 1931, के अध्यादेश को कानून के रूप में पारित करा लिया। इसके अंतर्गत सरकार ने समाचारपत्रों के शीर्षक, संपादकीय टिप्पणियों को बदलने का अधिकार भी अपने पास सुरक्षित रख लिया। इसके पश्चात सन् 1935 में भारतीय प्रशासन कांग्रेस के हाथ में आ गया और फलतः समाचार पत्रों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
सन् 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ होते ही कांग्रेस सरकार को पदत्याग करना पड़ा और पत्रों की स्वतंत्रता पुनः नष्ट हो गई, जो सन् 1947 तक चली। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1950 में नया कानून बना जिसके द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को पुनः स्थापित किया गया।
सरकार की छत्रछाया में विकसित होती भारतीय प्रेस की गति को अवरूद्ध करने के प्रयास भी लगभग दो शताब्दी पूर्व प्रारम्भ हो गये थे जो सन् 1947 तक किसी न किसी प्रकार जारी रहे। इन बाधाओं के बावजूद भारतीय प्रेस ने संघर्ष का मार्ग नहीं छोड़ा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश में सन् 1867 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया प्रेस कानून ही कार्य पद्धति में लागू था, जिसमें सर्वप्रथम बड़ा संशोधन सन् 1955 में पहले प्रेस आयोग की सिफारिशों के आधार पर किया गया। इसके साल भर बाद सन् 1956 में रजिस्ट्रार आफ न्यूज पेपर्स आफ इंडिया (आरएनआई) के कार्यालय ने काम शुरू किया। इसके पश्चात आजाद भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता पर दमन का आरम्भ आपातकाल 1974-75 से शुरू हुआ।
चर्चित पत्रकार और मानवाधिकार विशेषज्ञ कुलदीप नैयर ने कहा है कि-
इमरजेंसी भारतीय इतिहास का एक दुखद काल था, जब हमारी आजादी लगभग छिन सी गई थी और आपातकाल आज भी अनौपचारिक रूप से देश में अलग-अलग रूपों में मौजूद है, क्योंकि शासक वर्ग, नौकरशाही, पुलिस और अन्य वर्गों के पूर्ण सहयोग से अधिनायकवादी और लोकतंत्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त है।
आपातकाल के समय भारतीय पत्रकारिता जगत में इलेक्ट्रानिक मीडिया के नाम पर केवल सरकारी रेडियो और सरकारी चैनल अर्थात दूरदर्शन मात्र था, जिनसे वैसे भी तात्कालिक सरकार को कोई खतरा नहीं था, लेकिन देश भर के अखबारों पर लगी सेंसरशिप ने तो जैसे आम जनता की आवाज का गला ही घोंट दिया था। तात्कालिक समय में अखबारों में जो कुछ भी छपना होता था, वो संपादक की कलम से नहीं बल्कि सेंसर की कैंची से कांट-छाट करके छपती थी।
आपातकाल के समय अखबार मालिक अपने दफ्तरों में जाकर खबरों को उलटते पलटते थे और उन्हें जिन खबरों में सरकार की आलोचना व खिलाफत का अंदेशा होता, वे उस खबर को छपने से रोक देते थे। देश में लगभग 19 माह तक ऐसी स्थिति व्याप्त थी। जनता सरकार द्वारा सन् 1978 में द्वितीय प्रेस आयोग का गठन किया गया, इसके गठन का मुख्य उद्देश्य आपातकाल के परिप्रेक्ष्य में प्रेस की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना था। मोरारजी देसाई काल में गठित इस आयोग ने अपनी रिर्पोट सन् 1982 में तैयार की, लेकिन इस चार वर्ष की अवधि में देश का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका था। यहां हमें यह याद रखने की आवश्यक्ता है कि प्रथम आयोग और द्वितीय आयोग के गठन के बीच 26 वर्ष का अंतराल था। इस अंतराल के बाद भारतीय प्रेस में कई परिवर्तन आ चुके थे। इसी क्रम में वर्तमान पत्रकारिता के स्तर में सुधार हेतु तृतीय प्रेस आयोग के गठन का प्रस्ताव रखा गया है।
इन सब प्रतिबंधों के बाद भी वर्तमान समय में चतुर्श स्तंभ की भूमिका नीचे दी गई पंक्तियों से स्पष्ट है-
जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे
चमन बेच देंगे, सुमन बेच देंगे
कलम के सिपाही अगर सो गए तो,
वतन के मसीहा वतन बेच देंगे।।

अमल कुमार श्री

घूस लेने वाले अंदर और देने वाले बाहर (पढ़ा रहे हैं )

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अरविंद छाबड़ा
 गुरुवार, 17 जनवरी, 2013 को 14:24 IST तक के समाचार

अदालत के फैसले के बाद ओम प्रकाश चौटाला को गिरफ्तार कर लिया गया है.
तीन हज़ार से ज़्यादा शिक्षकों को गैरकानूनी रूप से भर्ती करने के आरोप में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और उनके बेटे तो गिरफ्तार हो गए हैं लेकिन शिक्षकों की नौकरी बरक़रार है.
हरियाणा सरकार के एक अधिकारी ने पहचान गोपनीय रखने की शर्त पर बीबीसी को बताया कि इस मुकदमे में शिक्षकों को पार्टी नहीं बनाया गया और इसीलिए उन पर इस फैसले का कोई असर नहीं पड़ा है.
अधिकारी के मुताबिक़ ये सभी अध्यापक अब भी अपनी नौकरी कर रहे हैं.
दिसंबर 1999 और जनवरी 2000 में साक्षात्कार के बाद हरियाणा के 18 ज़िलों में 3,206 शिक्षकों की नियुक्ति की गई थी.
जांच के बाद पता चला कि चुने गए शिक्षकों की सूची को सितंबर 2000 में फर्ज़ी सूची से बदल दिया गया.

लाखों की रिश्वत

दिल्ली की एक अदालत 22 जनवरी को ओम प्रकाश चौटाला और उनके बेटे समेत 53 लोगों को सज़ा सुनाएगी.
इन पर आरोप था कि सभी 3,206 शिक्षकों में हर एक से तीन से चार लाख रुपये की रिश्वत ली गई.
सीबीआई के अधिकारियों का कहना है कि खुद चौटाला ने तत्कालीन निदेशक (प्राथमिक शिक्षा) संजीव कुमार को इस बारे में लिखित आदेश दिया. संजीव कुमार भी इस मामले में अभियुक्त बनाए गए हैं.
इस घोटाले के वक्त हरियाणा के शिक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी भी चौटाला के पास थी. उन्होंने कुमार से कहा कि वो इंटरव्यू की फर्जी सूची तैयार करें.
ये घोटाला उस समय सामने आया जब कुमार एक याचिका के साथ अदालत पहुंचे और उन्होंने इंटरव्यू की मूल सूची दिखाई.
संजीव कुमार के अलावा उन लोगों ने भी अदालत का दरवाजा खटखटाया जिन्हें भर्ती में चुना नहीं गया.

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क्या हो पत्रकार और मीडिया कर्मी की परिभाषा

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हिंदी पत्रकारिता दिवस के मौक़े पर 



आज यानी 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस है। कम से कम आज के दिन ये बहस ज़रूर होनी चाहिए थी कि आज हिंदी पत्रकारिता किस मोड़ पर है। ज़रूरी नहीं कि इस विषय पर चर्चा के लिए सुनामधन्य पत्रकार अपने न्यूज़ चैनलों पर आदर्श पैकेजिंग ड्यूरेशन के तहत 90 सेकेंड की स्टोरी ही दिखाते या अधपके बालों वालों धुरंधरों को बुलाकर बौद्धिक जुगाली करते या फिर हिंदी पत्रकारिता की आड़ में अंग्रेज़ी पत्रकारिता को कम और पत्रकारों को ज़्यादो कोसते। टीवी वालों को क्या दोश दें । बौद्धिक संपदा पर जन्मजात स्वयंसिद्ध अधिकार रखनेवाले प्रिंट के पत्रकारों ने भी डीसी, टीसी तो छोड़िए , सिंगल कॉलम भी इस दिवस की नहीं समझा। कहीं कोई चर्चा नहीं कि क्या सोचकर पत्रकारिता की शुरूआत हुई थी और आज हम कर क्या रहे हैं।
ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी, तकवी शकंर पिल्ले, राजेंद्र माथुर,सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय की ज़माने की पत्रकारिता की कल्पना करना मूर्खता होगी। लेकिन इतना तो ज़रूर सोचा जा सकता है कि हम जो कर रहे हैं , वो वाकई पत्रकारिता है क्या। सब जानते हैं कि भारत में देश की आज़ादी के लिए पत्रकारिता की शुरूआत हुई। पत्रकारिता तब भी हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा कई भाषाओं में होती थी। लेकिन भाषाओं के बीच में दीवार नहीं थी। वो मिशन की पत्रकारिता थी। आज प्रोफोशन की पत्रकारिता हो रही है। पहले हाथों से अख़बार लिखे जाते थे। लेकिन उसमें इतनी ताक़त ज़रूर होती थी कि गोरी चमड़ी भी काली पड़ जाती थी। आज आधुनिकता का दौर है। तकनीक की लड़ाई लड़ी जा रही है। फोर कलर से लेकर न जाने कितने कलर तक की प्रिटिंग मशीनें आ गई हैं। टीवी पत्रकारिता भी सेल्युलायड, लो बैंड, हाई बैंड और बीटा के रास्ते होते हुए इनपीएस, विज़आरटी, आक्टोपस जैसी तकनीक से हो रही है। लेकिन आज किसी की भी चमड़ी पर कोई फर्क नहीं पड़ता। शायद चमड़ी मोटी हो गई है।
आख़िर क्यों अख़बारों और समाचार चैनलों से ख़बरों की संख्या कम होती जा रही है। इसका जवाब देने में ज़्यादातर कथित पत्रकार घबराते हैं। क्योंकि सत्तर –अस्सी के दशक से कलम घिसते –घिसते कलम के सिपाही संस्थान के सबसे बड़े पद पर बैठ तो गए लेकिन कलम धन्ना सेछ के यहां गिरवी रखनी पड़ी। कम उम्र का छोरा ब्रैंड मैनेजर बनकर आता है और संपादक प्रजाति के प्राणियों को ख़बरों की तमीज़ सिखाता है। ज़रूरी नहीं कि ब्रैंड मैनेजर पत्रकार हो या इससे वास्ता रखता हो। वो मैनेजमैंट पढ़कर आया हुआ नया खिलाड़ी होता है। हो सकता है कि इससे पहले वो किसी बड़ी कंपनी के जूते बेचता हो। तेल, शैंपू बेचता हो। वो ख़बर बेचने के धंधे में है। इसलिए उसके लिए ख़बर और अख़बार तेल , साबुन से ज़्यादा अहमियत नहीं रखते। वो सिखाता है कि किस ख़बर को किस तरह से प्ले अप करना है। सब बेबस होते हैं। क्योंकि सैलरी का सवाल है। ब्रैंड मैनेजर सेठ का नुमाइंदा होता है। उसे ख़बरों से नहीं, कमाई से मतलब होता है। अब कौन पत्रकार ख़्वामखाह भगत सिंह बनने जाए।
कुछ यही हाल टीवी चैनलों का भी है। ईमानदारी से किसी न्यूज़ चैनल में न्यूज़ देखने जाइए तो न्यूज़ के अलावा सब कुछ देखने को मिल जाएगा। कोई बता रहा होगा कि धोना का पहले डेढ़ फुट का था अब बारह इंच का हो गया है। ये क्या माज़रा है – समझने के लिए देखिए ..... बजे स्पेशल रिपोर्ट। कोई ख़बरों की आड़ में दो हीरोइनों को लेकर बैठ जाता है और दर्शकों को बताता है कि देखिए ये पब्लिसिटी के लिए लड़ रही हैं। ये लेस्बियन हैं। ये लड़ाई इस उम्मीद से दिखाई जाती है ताकि दर्शक मिल जाए और टीआरपी के दिन ग्राफ देकर लाला शाबाशी दे। कोई किसी ख़ान को लेकर घंटो आफिस में जम जाता है। सबको पता है कि उसकी फिल्म रिलीज़ होने वाली है। ये सब पब्लिसिटी का हिस्सा है। लेकिन वो अपने धुरंधरों के साथ जन सरोकार वाले पवित्र पत्रकारिता की मिशन में लगा होता है।
इसमें कोई शक़ नहीं कि हिंदी पत्रकारिता समृद्ध हुई है। इसकी ताक़त का दुनिया ने लोहा माना है। अंग्रेज़ी के पत्रकार भी थक हार कर हिंदी के मैदान में कूद गए। भले ही उनके लिए हिंदी पत्रकारिता ठीक वैसे ही हो, जैसा कहावत है- खाए के भतार के और गाए के यार के। लेकिन ये हिंदी की ताक़त है। लेकिन इस ताक़त की गुमान में हमने सोचने समझने की शक्ति को खो दिया। एक साथ, एक ही समय पर अलग अलग चैनलों पर कोई भी हस्ती लाइव दिख सकता है। धरती ख़त्म होनेवाली है- ये डरानेवाली लाल- लाल पट्टी कभी भी आ सकती है।
ये सच है कि एक दौर था जब अंग्रेजी की ताक़त के सामने हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्जे की मानी जाती थी। मूर्धन्य लोग पराक्रमी अंदाज़ में ये दावा करते थे- आई डोंट नो क , ख ग आफ हिंदी बट आई एम एडिटर आफ..... मैगज़िन। लेकिन तब के हिंदी के पत्रकार डरते नहीं थे। डटकर खड़े होते थे और ताल ठोककर कहते थे- आई फील प्राउड दैट आई रिप्रजेंट द क्लास आफ कुलीज़ , नॉट द बाबूज़। आई एम ए हिंदी जर्नलिस्ट। व्हाट वी राइट, द पीपुल आफ इंडिया रीड एंड रूलर्स कंपेल्स टू रीड आवर न्यूज़। आज इस तरह के दावे करनेवाले पत्रकारों के चेहरे नहीं दिखते। लालाओं को अप्वाइनमेंट लेकर आने को कहनेवाले संपादक नहीं दिखते। नेताओं को ठेंगे पर रखनेवाले पत्रकार नहीं मिलते। कलम को धार देनेवाले पत्रकार नहीं मिलते । आज बड़ी आसानी से मिल जाते हैं न्यूज़रूम में राजनीति करते कई पत्रकार। मिल जाते हैं उद्योगपतियों के दलाली माफ कीजिएगा संभ्रात शब्दों में लाइजिंनिंग करनेवाले पत्रकार। नेताओं के पीआर करते पत्रकार। चुनाव में टिकट मांगनेवाले पत्रकार। ख़बर खोजनेवाले पत्रकारों को खोजना आज उतना ही मुश्किल है, जितना कि जीते जी ईश्वर से मिल पाना। इसलिए आज 30 मई के दिन हिंदी पत्रकारिता के मौक़े पर ऐसे पत्रकारों को नमन करें , जिन्होने हिंदी को इतनी ताक़त दी कि आज हम अपनी दुकान चला पा रहे हैं। बेशक़ इसके लिए हमें रोज़ी रोटी और पापी पेट की दुहाई देनी पड़ी। लेकिन आज भी शायद हिंदी पत्रकारिता को बचाए रखने का रास्ता बचा हुआ है। खांटी पत्रकारिता करनेवालों को हम आदर सहित हिंदी पत्रकार कहें और दूसरे लंद फंद में लगे सज्जनों को मीडियाकर्मी कहकर पहचानें और पुकारें।

नया प्रेस एक्ट आएगा

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अपने आपको मानसिक रूप से तैयार रखिये. सरकार नया प्रेस एक्ट लाएगी. आने को ये अभी आ रहे पांच राज्यों के विधानसभा तो क्या, आगामी लोकसभा चुनाव के बाद भी आ सकता है. लेकिन उसकी प्रक्रिया अब कभी भी शुरू हो सकती है. सूचना मंत्री अम्बिका सोनी तो यही कह रही हैं. उन ने बताया है कि नए प्रेस अधिनियम पे चर्चा संसद की बिजनेस एडवाइज़री कमेटी में हो सकती है.

नया बिल लाने से पहले सरकार मीडिया जगत में खासकर जस्टिस काटजू के बयानों के बाद छिड़ी बहस पर नज़र रखे हुए है. ज़रूरी नहीं है कि वो सिर्फ मीडिया की माने. पुराना अधिनियम संदर्भहीन हो चुका, वे वो मान रही है. नए बिल में मीडिया की नई विधा, वेब मीडिया शामिल होगी. उस से सम्बंधित नियम भी होंगे. कंटेंट और उसकी भाषा पर सरकार चुप है. लेकिन संसद में ये मसला उठाया गया है. कंटेंट हो न हो, भाषा को लेकर कुछ मानदंड तय हो सकते हैं. लग ये रहा है कि सरकार भारतीय मीडिया को खुला छोड़ते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से बचा के रखने का प्रयास करेगी. इस के लिए उसकी कुछ शर्तें या हिदायतें हो सकती हैं.

ऐसा माना जा रहा है कि खासकर जस्टिस काटजू के प्रेस काउन्सिल का अध्यक्ष बनने के बाद से पिछले एक्ट और अब की स्थितियों में आये बदलाव पर कुछ गहन चिंतन, मनन हुआ है. जस्टिस काटजू के मीडिया के आचरण के सम्बन्ध में आये बयान इसी कारण आये हो सकते हैं. एक बहस की शुरुआत हुई है. ये काउन्सिल और सरकार की तरफ से पहल का संकेत है. बहस आधिकारिक तौर पे भी आगे बढाई जा सकती है. एक्ट लाने से पहले सरकार सब के मन टटोलेगी. मगर जस्टिस काटजू के रहते ज़रूरी नहीं है कि सरकार वही करे जो मीडिया चाहे. वेब मीडिया पे भी दूसरे मीडिया जैसे नियमों का लागू होना मान के चलिए. कपिल सिब्बल के बयान से देश को मानसिक रूप से तैयार करने का काम सरकार कर ही चुकी है. कल रात दिग्विजय सिंह ने एनडीटीवी पे भी यही कहा. उन ने कहा बरखा से कि आप अनचाहे संदेशों या तस्वीरों से निजात पा सकती हैं.

संसद में इस मुद्दे पे बहस सरकार की तरफ से इस मुद्दे पे गंभीरता के संकेत है. सरकार समय के साथ चलेगी. लेकिन भारत में मीडिया के अंश और वंश का अपभ्रंश नहीं होने देगी. वो ये मान के चल रही है कि जहां तक वेब मीडिया पर नकेल का सवाल है तो उसे प्रिंट और टीवी मीडिया का सहयोग मिल सकता है. वो स्थापित मीडिया को समझाने का प्रयास करेगी कि बहुत ज्यादा नेटबाज़ी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया प्रतिस्पर्धा के लिहाज़ से भारतीय मीडिया के लिए मुनासिब नहीं है. बता ही रही है सरकार कि देश में छोटे बड़े 77 हज़ार अखबार तो आज हैं. किसी भी तरह की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से भारतीय बाज़ार और पाठक और भी घटेंगे तो संकट होगा ही. देश के लगभग सभी चैनल भी घाटे में हैं ही. कुछेक बड़े अखबारों को छोड़ दें बाकी अखबारों की आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है. ऐसे में सरकार की सोच के हिसाब से अमल हो भी सकता है. सो, भारत में भविष्य के मीडिया के लिए तैयार रहिये.


Last Updated (Tuesday, 20 December 2011 13

बीबीसी विशेष: आस्था का महाकुंभ

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बुधवार, 16 जनवरी, 2013 को 15:20 IST तक के समाचार
माथे पर चंदन, गले में रुद्राक्ष की माला, तन पर गेरुए रंग का चोगा और हाथों में लैपटॉप. मिलिए कुंभ पहुंचे एक ऐसे बाबा से जो आस्था और फेसबुक का संगम करवा रहे हैं.
मकर संक्रांति पर स्नान के साथ इलाहाबाद में कुंभ शुरु हो गया है. कुछ लोग कह रहे हैं कि ये आस्था है लेकिन कुछ लोग इसे महज़ अंधविश्वास मानते हैं.
ये न तो नागा साधु हैं, न किसी अखाड़े से जुड़े हैं और ना ही बड़े नेता हैं. आम लोगों में घुलमिल जानेवाले ये कल्पवासी महीनों गंगा किनारे रहते हैं.
इलाहाबाद में महाकुंभ की व्यापक तैयारी की गई है. नक्शे में तस्वीरों के ज़रिए जानिए कहाँ-कहाँ क्या व्यवस्था है. बीबीसी हिंदी की विशेष पेशकश.
क्या आपको पता है कि इस बार महाकुंभ के दौरान कितने लोग डुबकी लगाएँगे? या फिर व्यवस्था के स्तर पर क्या तैयारी है?

पिक्चर गैलरी

महाकुंभ में डुबकी लगाने के लिए इलाहाबाद में जमा हुए लोगों के मन में क्या है?
महाकुंभ मे साधुओं के आगमन जारी है. जानिए विदेशियों के लिए क्यों ख़ास है ये महाकुंभ?
जहां मुसलमान भी लिखते हैं राम का नाम क्या उसे ही कुंभ कहते हैं?

तीसरे प्रेस आयोग की जरूरत..

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Written by sidhi Bat   
Tuesday, 31 May 2011 09:30
 







लोकतंत्रको जीवंत और गतिशील बनाए रखने के लिए स्वंतंत्र प्रेस अति आवश्यक है।लेकिन दुर्भाग्य यह है कि लगातार सरकार और औघोगिक घराने प्रेस कीस्वतंत्रता को बाधित करने का काम कर रहे हैं। अखबारों की विश्वसनियताप्रायोजित समाचारों, लांबिग और स्टिंग आपरेशन में फंस गया है।
देश कीपत्रकारिता मिशन के रूप में शुरू होकर प्रोफेशन के रास्ते अब कामर्शियल मेंतब्दील हो गई है। इसीलिए मीडिया और पत्रकारों को ध्यान में रखते हुए तीसरेप्रेस आयोग की जरूरत है। ये विचार वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी का है। वह प्रभाष परंपरा न्यासद्वारा आयोजित तीसरे प्रेस कमीशन के औचित्य विषय पर बोल रहे थे। कार्यक्रमका आयोजन प्रज्ञा संस्थान ने किया था।रामशरण जोशी ने जो दलील और तर्क दिये उससे तीसरे प्रेस आयोग की जरूरत की बात साफतौर पर समझ में आती है. जोशी जी तर्क देते हैं कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में दोप्रेस आयोग का गठन किया जा चुका है. पहले प्रेस आयोग का गठन1952 में किया गया थाजबकि दूसरे प्रेस आयोग का गठन देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार जनता पार्टी ने1978 में किया था.78 में गठित प्रेस आयोग की रिपोर्ट1982 में आ गयी थी. पहले और दूसरेप्रेस आयोग की रपट में दिये गये सुझावों का हवाला देते हुए रामशरण जोशी ने कहा किइनमें से अधिकांश महत्वपूर्ण सुझाव नहीं माने गये लेकिन इसका मतलब यह नहीं हो सकताकि इन आयोगों के गठन की कोई जरूरत ही नहीं थी. रामशरण जोशी का कहना है कि पहले औरदूसरे प्रेस आयोग के बीच26 साल का अंतराल था. लेकिन अब दूसरे प्रेस आयोग कीरिपोर्ट आये29 साल बीत गये हैं.।
ऐसे में प्रेस की कार्यशैली में व्यापक बदलाव आयेहैं, जिसे देखते हुए तीसरे प्रेस आयोग के गठन की जरूरत है.मार्केट स्टेट बनाम नेशन स्टेट का हवाला देते हुए रामशरण जोशी ने कहा कि दूसरेप्रेस आयोग ने ही यह सिफारिश की थी कि अखबारी घरानों को पूंजीपति घरानों से अलगचिन्हित किया जाए. उस आयोग में यह सुझाव भी दिया गया था कि बोर्ड आफ ट्रस्ट का गठनकिया जाना चाहिए ताकि समाचार विचार और विज्ञापन के बीच बढ़ते असंतुलन को रोका जासके. दूसरे प्रेस आयोग ने पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के पुनर्गठऩ की सिफारिश कीथी और राष्ट्रीय विज्ञापन नीति बनाने की सिफारिश की थी. लेकिन इतना वक्त बीत जानेके बाद भी इस दिशा में कोई ठोस का नहीं किया जा सका है. जोशी जी ने कहा कि अगरईमानदारी से देखा जाए तो1952 से लेकर अब तक प्रेस सामंतों ने अपनी सरहदों काविस्तार ही किया है, वे अधिक शक्तिशाली हुए हैं और भारतीय राष्ट्र राज्य को ललकारनेकी हैसियत में आ गये हैं.रामशरण जोशी ने तीसरे प्रेस आयोग की दलील देते हुए कहा कि पहले दूसरे आयोग केगठन, सुझाव और परिणामों के परिप्रेक्ष्य में तीसरे प्रेस आयोग के गठन की बात करनीचाहिए. श्री जोशी ने कहा कि अब परंपरागत भारतीय प्रेस इंडियन मीडिया के रूप मेंस्थापित हो चुका है ऐसे में बावन से अब तक सत्तावन साल के मीडिया इतिहास को देखतेहुए तीसरे प्रेस आयोग के गठन की जरूत है जिसमें न केवल प्रिंट मीडिया बल्किइलेक्ट्रानिकऔर वेब मीडिया को भी शामिल किये जाने की जरूरत है. तीसरे प्रेस आयोग परचर्चा के दौरान वरिष्ठ पत्रकार जवारलाल कौल, देवदत्त, अवधेश कुमार, गोपालकृष्ण और मनोज मिश्र ने कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए। इन सुझावों के साथ तैयारदस्तावेज 12 जून की बैठक में रखा जाएगा।प्रभाष जोशी परंपरा न्यास ने आगामी12 जून को इसी मसले पर आगे बात करने के लिएदिल्ली के आईटीओ पर एक बड़ी बैठक का आयोजन किया है जिसमें स्वेच्छा से कोई भीपत्रकार शामिल हो सकता ह. न्यास का कहना है कि वह तीसरे प्रेस आयोग की मांग को आगेबढ़ायेगा और एक ज्ञापन सरकार को नहीं बल्कि संसद को सौंपने की तैयारी कर रहा हैताकि हम सबसे बड़ी पंचायत से कह सकें कि कैसे मीडिया को प्रेस बनाये रखने के लिएतीसरे प्रेस आयोग की जरूरत है. जुलाई में इंदौर में प्रभाष जोशी को याद करने के लिएएक दो दिवसीय सम्मेलन का भी आयोजन किया जा रहा है जिसमें इस मांग को जोर शोर सेउठाया जाएगा। ब्यूरो रिपोर्ट सीधीबातडॉटकॉम
 

बीबीसी / प्रेमचंद पर विशेष

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BBC

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प्रेमचंद पर विशेषकी खोज के 532परिणाम मिले.

पेज 1 का 54

वीडियो/ऑडियो

मीडिया का सबसे बड़ा जरिया है रेडियो पत्रकारिता

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पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सैयद शाह नैयर हुसैन ने आकाशवाणी पटना के समाचार संपादक और लेखक-पत्रकार संजय कुमार की सद्यः प्रकाशित पुस्तक “रेडियो पत्रकारिता” का लोकार्पण करते हुए कहा कि पत्रकारिता के विभिन्न प्रकारों के बारे में तो मालूम था ही लेकिन रेडियो पत्रकारिता के विभिन्न आयामों के बारे में आज इस किताब से जो जानकारी मिली वह काफी महत्वपूर्ण है।
कालेज आफ कामर्स, पटना के उर्दू विभाग द्वारा आयोजित मुशायरा सह पुस्तक विमोचन समारोह को सम्बोधित करते हुए न्यायमूर्ति हुसैन ने कहा कि इस पुस्तक का लोकार्पण करते हुए मुझे गर्व महसूस हो रहा है क्योंकि मीडिया के सबसे सशक्त माध्यम रेडियो से संबंधित यह पुस्तक खासकर मीडिया के छात्रों के लिए काफी उपयोगी है। नालंदा खुला विष्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्रो. डा. कौशलेन्द्र कुमार, कालेज आफ कामर्स के प्राचार्य प्रो. डा. शैलेन्द्र कुमार सिंह, उर्दू विभागाध्यक्ष डा. तारिक फातमी, पटना विश्वविद्यालय के प्रो. डा. एजाज अली अरशद, बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर के उर्दू विभागाध्यक्ष  प्रो. डा.तौकीर आलम और उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार डा. रेहान गनी ने लोकार्पित पुस्तक पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जहां पत्रकारिता के छात्रों के लिए यह पुस्तक उपयोगी है वहीं आम पाठकों के लिए यह रेडियो पत्रकारिता के विविध आयामों की जानकारी देते हुए उनके बीच उत्सुकता पैदा करती है।

पुस्तक के लोकार्पण के बाद मुशायरा का आयोजन किया गया। इसमें सुल्तान अख्तर, डा.एजाज अली अरशद, नसर बल्खी, शकील सहसरामी, जियाउर रहमान जिया, असर फरीदी, प्रेम किरण, चोंच ग्यावी सहित एक दर्जन से अधिक चर्चित शायरों और कवियों ने अपनी शायरी से श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया। इस अवसर पर कई चर्चित साहित्यकार, लेखक व पत्रकार और गणमान्य लोग मौजूद थे।

‘रेडियो ‘रेडियो

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पत्रकारिता के छात्रों के लिए ‘रेडियो पत्रकारिता’’पर महत्वपूर्ण किताब


पत्रकारिता का ताना-बाना आज पूरी तरह बदल गया है। रोज नये-नये तकनीक और पहलू, पत्रकारिता को एक अलग पहचान दिलाने में लगे हैं। सूचना तकनीक के विकास और विस्तार में पत्रकारिता के क्षेत्र इलेक्ट्रानिक मीडिया को दिनों-दिन विस्तार दे रहा है। इसके पारंपरिक संवाद ने माध्यम को अपना बाना बदलने को विवश कर दिया है। बदलते दौर में इंटरनेट, एफ-एम रेडियो, मोबाईल मीडिया जैसे वैकल्पिक माध्यम हमारे जीवन के अंग बनते जा रहे हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया के साथ-साथ रेडियो पत्रकारिता के ताना-बाना का विकसित होना भी स्वाभाविक है। लेखक-पत्रकार संजय कुमार की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘‘ रेडियो पत्रकारिता ’’ इन्हीं पहलूओं को समेटे हुए है।
रेडियो पत्रकारिता आज मीडिया के दौर में स्वतंत्र पाठ्यक्रम के तौर पर विकसित हो रही है। श्रोताओं को बांधे रखने के लिए रेडियो की तकनीक और स्वरूप में बदलाव आ रहा है। डिजीटल में यह कन्वर्ट हो रहा है। अब पाकेट में रेडियो आ चुका है। मोबाइल में रेडियो बजता है। रेडियो पत्रकारिता में हो रहे बदलाव को रेखांकित करता है पुस्तक ‘‘ रेडियो पत्रकारिता ’’।
इस पुस्तक में रेडियो पत्रकारिता खासकर समाचार के विभिन्न पहलुओं पर विशेष तौर से प्रमुखता दी गयी है। पुस्तक में रेडियो पत्रकारिता का इतिहास, समाचार लेखन, समाचार की भाषा, वाइस कास्ट, समाचार वाचन, साक्षात्कार, रेडियो के विभिन्न प्रकार और कार्यक्रमों के साथ-साथ भारत में प्रसारण के इतिहास पर रोशनी डाली गयी है। ‘‘ रेडियो पत्रकारिता ’’ पुस्तक, पत्रकारिता के छात्रों के लिए जहां महत्वपूर्ण है, वहीं पत्रकारिता में रूचि रखने वालों के लिए भी इसमें बहुत कुछ है।
पुस्तक: ‘‘ रेडियो पत्रकारिता ’’
लेखक: संजय कुमार
प्रकाशन वर्ष: 2011
मूल्य: पेपर बैक-रु. 75/-, हार्ड बाउंड-रु. 250/-
प्रकाशक: विशाल पब्लिकेशन, पटना / दिल्ली

पत्रकार की डायरी से बवाल

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पत्रकार की डायरी  पर
                          मचा  बवाल,
 आरएसएस ,बीजेपी  नाराज़ 


अरविंद कुमार सिंह


अयोध्या से बहुत करीब ही बस्ती जिले की सीमा में मेरा गांव पड़ता है। गांव के पड़ोस में ही सरयू नदी बहती है और कई बार वहां से अयोध्या की झलक भी साफ-साफ दिख जाती है। दूसरी तरफ मनोरमा और रामरेखा नदी हैं। ये दोनों छोटी पर ऐतिहासिक महत्व की नदियां हैं। हमारे गांव से ही कभी-कभी हिमालय के दर्शन भी हो जाते हैं। बचपन में अयोध्या के मेले में मैं कई बार गया।
उस दौरान की अयोध्या की रौनक की यादें आज भी दिलो-दिमाग में ताजा हैं। अयोध्या के मेले में एक बार खो भी गया था। पर वे दिन और थे और तब अयोध्या दुनिया भर में उतनी विख्यात नहीं थी जितनी राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के गरमाने के बाद हुई। अब तो बहुत से लोगों को राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद ही अयोध्या का पर्याय ही लगता है लेकिन सच्चाई यह नहीं है। एक दौर वह भी था जब देश के तमाम हिस्सों से हजारों लोग शांति की तलाश में अयोध्या पहुंचते थे और महीनों रुकते भी थे। पर खास तौर पर 1989-90 के बाद खास मौकों पर अयोध्या किसी सैनिक छावनी जैसी लगती है। अयोध्या की कई ऐतिहासिक इमारतों पर उग रहे झाड़-झंखाड़ की फिक्र भले ही किसी को न हो पर यहां  सुरक्षा तामझाम पर करोड़ो रूपए खर्च हो रहे हैं। बीते तीन दशकों के अयोध्या के बदलाव का मैं साक्षी रहा हूं।
जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहा था तभी 1983-84 में इलाहाबाद में जनसत्ता का संवाददाता नियुक्त हो गया। कुछ समय बाद फैजाबाद मंडल का काम भी  मेरे पास आ गया। उसके बाद दिल्ली में चौथी दुनिया, अमर उजाला और जनसत्ता एक्सप्रेस में रहने के दौरान भी मैं अयोध्या विवाद से जुड़े विभिन्न आयोजनों को कवर करता रहा और अयोध्या के साथ विभिन्न धर्म नगरियों का भ्रमण भी करता रहा। अमर उजाला में तो एक दशक से अधिक के मेरे कार्यकाल का काफी हिस्सा अयोध्या विवाद को कवर करते हुए ही बीता था। शिलान्यास से लेकर तमाम मंदिरों के ध्वंश और अंततोगत्वा बाबरी मस्जिद ध्वंश से लेकर बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाओं और अयोध्या के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने उतार-चढ़ाव का भी मैं साक्षी रहा हूं।
अयोध्या विवाद: एक पत्रकार की डायरी वस्तुत: आंखो देखी घटनाओं का ब्यौरा है। इनका अपना ऐतिहासिक महत्व है क्योंंकि पुस्तक में विभिन्न कालखंडों और परिस्थितियों का तिथिवार ब्यौरा दिया गया है। वैसे तो अयोध्या पर पुस्तक लिखने के लिए बीते कई वर्षों से मेरे मुझे जोर देते रहे हैं। उनका कहना था कि अयोध्या और उसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आपने इतना काम किया है तो आपको किताब लिखनी चाहिए। इतिहास और पुरातत्व का विद्यार्थी रहने के नाते मैने इसके विभिन्न पक्षों पर बारीकी से देखने का प्रयास भी लगतार किया था। अपने पूर्व संपादक श्री संतोष भारतीय और श्री संजय सलिल के सुझाव पर 1993-94 के दौरान विश्व हिंदू परिषद की पड़ताल करते हुए  एक किताब लिखने की शुरूआत भी मैने की थी पर अतिशय व्यस्तता के नाते, काम आगे बढऩे के बावजूद  किताब अधूरी रही। कुछ माह पूर्व मेरे मित्र और विख्यात रचनाकार श्री पंकज चतुर्वेदी और श्री ललित शर्मा ने दबाव बनाया कि आपने इस विषय पर इतना काम किया है तो उसे संकलित कर तिथिवार संपादन के साथ किताब लिखनी चाहिए। यह इस विषय पर अनुसंधान करने वालों के साथ ही मीडिया के छात्रों और आम पाठकों सबके लिए उपयोगी होगी। इस बीच में मेरे साथी श्री त्रिलोकीनाथ उपाध्याय ने कुछ विशेष रिपोर्टो को लिखवा कर पुस्तक की भूमिका तैयार करने में मेरी मदद की।
मुझे पहले लगता था कि जब पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्री पी.वी. नरसिंहराव से लेकर फैजाबाद के पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक स्व. डी. बी. राय तक की किताबें इस विषय पर आ चुकी हैं तो एक और किताब का औचित्य क्या है? पर इन किताबों को पढऩे के बाद मैंने पाया कि इनमें जमीनी हकीकत के बजाय अपने को सही साबित करने का प्रयास अधिक था। मैंने तो जो घटनाएं अपनी आंखों से देखी हैं, वे सभी बिना नमक-मिर्च लगा कर प्रस्तुत की हैं। कुछ माह पूर्व लिब्रहान आयोग ने 17 साल की अपनी जांच के बाद भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। उस रिपोर्ट पर हंगामा भी मचा। मैने लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट और संसद की बहस को पढऩे के बाद पाया कि अयोध्या का सच वही नहीं है जो कहा जा रहा है। बहुत सी बातों को और उसकी पृष्ठभूमि तक न तो लिब्रहान आयोग गया न ही संसद। मुझे लगा कि यही किताब के लिए सही समय है। आंखों देखी घटनाएं लखनऊ और दिल्ली में बैठ कर तैयार किसी भी जांच आयोग की रिपोर्ट से कहीं अधिक और दस्तावेजी महत्व की होती हैं।
एक छोटी सी धर्मनगरी में एक इमारत को कैसे तिल का ताड़ बनाया गया और कैसे उसका अंतर्राष्ट्रीयकरण किया गया, किस तरह से लोगों में घृणा फैलायी गयी, कौन-कौन से प्रयास चले इन सबका ब्यौरा इस पुस्तक में एक साथ मिल जाता है। बाबरी मस्जिद का ध्वंश तो बहुत से पत्रकारों की आंखों देखी थी लेकिन मैने इस दौरान इससे जुड़ी कई खबरें ब्रेक भी की हैं। इस किताब के पहले खंड में दिसंबर 1992 में घटित घटनाओं का ब्यौरा है, जबकि दूसरे खंड बाबरी विध्वंश: पूर्व भूमिका में दिसंबर से पूर्व की वर्ष 1992 की सभी प्रमुख घटनाओं का विवरण दिया गया है। तीसरे खंड कैसे गरमाया अयोध्या आंदोलन में 1989 से 1991 तक की प्रमुख घटनाओं पर रोशनी डाली गयी है। चौथे खंड में जनवरी 1993 से जुलाई 2005 के दौरान के राजनीतिक दांव-पेंच का वर्णन है।
इनमें से कुछ रिपोर्टें ऐसी भी शामिल हैं, जिनमें मेरे अन्य साथियों ने भी मुझे मदद की थी। मैं उन सबके प्रति ह्रदय से आभारी हूं। मैं इस बात को स्वीकारता हूं कि खास तौर पर अयोध्या विवाद के संदर्भ में 1989-92 के दौरान हिंदी पत्रकारिता के एक बड़े वर्ग ने  विध्वसंक भूमिका निभायी थी। हमारे कुछ पत्रकार साथी तो जयश्रीराम ब्रांड की पत्रकारिता में संलग्न हो गए थे, जबकि कई अखबारों ने सांप्रदायिक विषवमन को अपनी नीति का हिस्सा मान लिया था। विवाद इतना तूल पकड़ गया था कि विश्व हिंदू परिषद या बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के छोटे से आयोजन को कवर करने सैकड़ों देशी-विदेशी पत्रकार पहुंच जाते थे। खुद विहिप ने भी पत्रकारों को दो श्रेणियां बना दी थी-रामभक्त और रामद्रोही या बाबरी समर्थक पत्रकार। मुझे नहीं पता कि मैं उनकी किस श्रेणी में था। पर मैं इस बात का गवाह हूं कि बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय सबसे ज्यादा वही पत्रकार पीटे गए थे जो आंखों देखी लिखने में यकीन रखते थे।
मैं अपने पत्रकारिता के शुरुआती काल से ही अयोध्या के विभिन्न पक्षों पर लिखता रहा हूं। इसके बाद 1986 में दिल्ली में चौथी दुनिया का संवाददाता बनने के बाद साधु-संतों तथा अल्पसंख्यक संगठनों की बीट मेरे पास ही रही। अमर उजाला में 1990 से 2001 के दौरान के मेरे कार्यकाल में अयोध्या विवाद लगातार मेरी बीट का हिस्सा रहा। हिंदी के विभिन्न अखबारों की तुलना में अमर उजाला की स्थिति अलग थी। वहां महत्वपूर्ण मौकों पर अयोध्या में पूरी टीम भेजी जाती थी और बिना किसी बयार में बहे आंखों-देखी खबरों को उसी साहस के साथ प्रकाशित भी किया जाता था। हालांकि अयोध्या कांड ने उस समय पश्चिमी उ.प्र. में सबसे ताकतवर अखबार होने के बावजूद अमर उजाला का प्रसार डगमगा दिया था। वहीं अतिरंजित कवरेज वाले आज जैसे अखबार तेजी से इस इलाके में अपना प्रसार बढ़ा रहे थे।
1990 के अंत में अमर उजाला की गिरती प्रसार संख्या को रोकने की रणनीति के तहत आगरा में एक उच्चस्तरीय बैठक हुई। हम सबकी राय जानने के बाद अमर उजाला के अध्यक्ष और प्रधान संपादक श्री अशोक अग्रवाल ने बहुत साहसिक फैसला लिया और कहा कि प्रसार संख्या गिरे या बढ़े, अमर
विहिप की तरफ से पत्रकारों को जारी किए गए प्रेस कार्ड
विहिप की तरफ से पत्रकारों को जारी किए गए प्रेस कार्ड
उजाला में वही छपेगा जो सच होगा। अखबार होने के नाते समाज के प्रति हमारा सबसे ज्यादा दायित्व बनता है और दंगा भडक़ाने वाली पत्रकारिता हम किसी कीमत पर नहीं करेंगे। इसी बैठक में संवाद संकलन के लिए खुले दिल से पैसा खर्च करने का फैसला भी लिया गया और नेटवर्क को और मजबूत बनाया गया। शायद इसी साहसिक नीतिगत फैसले के नाते मैं बहुत कुछ बेबाकी से लिख पाया और वह उसी तरह से छपा भी।
अयोध्या विवाद से जुड़े देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले महत्वपूर्ण आयोजनों को तो मैं कवर करता ही था, अयोध्या के प्रमुख आयोजनों को भी मेरे नेतृत्व में अलग-अलग संस्करणों से पहुंची एक बड़ी और व्यवस्थित टीम पूरी तन्मयता से कवर करती थी।  इस नाते मैं इस किताब का वास्तविक प्रेरक अमर उजाला के प्रधान संपादक श्री अशोक अग्रवाल को मानता हूं और उनके प्रति विशेष आदर और आभार प्रकट करता हूं। इसी के साथ जनसत्ता के पूर्व संपादक स्व. श्री प्रभाष जोशी, चौथी भारतीय, श्री प्रबाल मैत्र, श्री रामशरण जोशी, श्री कमर वहीद नकवी, श्री रामकृपाल और श्री जोसेफ गाथिया  के प्रति विशेष आभारी हूं। अमर उजाला के हमारे साथी रहे सर्वश्री आशीष अग्रवाल, अजीत अंजुम, अनिल सिन्हा, अतुल सिन्हा, श्याम लाल यादव, दिलीप मंडल, आलोक भदौरिया, अखिलेश सिंह, भानुप्रताप सिंह, सुनील छइयां, असद और  सुभाष गुप्ता के प्रति भी मैं आभारी हूं।  इसी के साथ ही भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य और जनमोर्चा के संपादक श्री शीतला सिंह, त्रियुग नारायण तिवारी, श्री वी.एन.दास, सुश्री सुमन गुप्ता आदि से मुझे अयोध्या में काफी सहयोग मिला। मेरे करीबी मित्र सुभाष चंद्र सिंह (दैनिक जागरण), कृपाशंकर चौबे, अन्नू आनंद, पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ, जयप्रकाश पांडेय, विख्यात छायाकार जगदीश यादव, श्री अरुण खरे और हिमांशु द्विवेदी (हरिभूमि), के सहयोग के प्रति भी विशेष आभार प्रकट करना जरूरी समझता हूं। लेकिन इस रचना को साकार करने में मेरे अनुज तुल्य रवींद्र मिश्र, संजय त्यागी, श्री मनोज कुमार, श्री जयप्रकाश त्रिपाठी और श्री मृणाल पौश्यायन का विशेष योगदान रहा है।
साथ ही मैं विशेष आभारी हूं विख्यात लेखक श्री प्रेमपाल शर्मा और प्रतिष्ठित कवि श्री तहसीन मुनव्वर का, जो अपने अंदाज में लगातार पूछते रहे कि कितना काम आगे बढ़ा? इस नाते कोई शिथिलता नहीं आने पायी। पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर मैं अपनी पुत्रियों गरिमा सिंह तथा निवेदिता कुमारी अयोध्या विवाद पर अरविंद कुमार सिंह की किताब का कवर पेजसिंह के श्रम को भला कैसे भुला सकता हूं जिनके प्रयासों से ही मेरा लेखन संरक्षित रह सका है। इसी तरह भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के वरिष्ठ अधिकारी डा.पी.के.शुक्ला और डा.शबी अहमद ने अयोध्या के इतिहास से जुड़े विविध पक्षों पर बार-बार मेरा मार्गदर्शन किया। मैं अपने से जुड़े सभी मित्रों और परिजनों को इस रचना में मददगार मानते हुए उनके योगदान की सराहना करता हूं। श्री ललित शर्मा (शिल्पायन प्रकाशन) के प्रति खास तौर पर मैं आभार व्यक्त करता हूं, जिन्होंने विशेष रुचि लेकर इस पुस्तक को प्रकाशित किया है। लेकिन कोई भी रचना स्वयं में पूर्ण नहीं होती है। उसमें कुछ कमियां रह जाती हैं और कुछ न कुछ सुधार की गुंजाइश भी होती है। अपने इस प्रयास में मैं कितना सफल-विफल रहा, यह फैसला मैं पाठकों पर ही छोड़ता हूं। 
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह की नई किताब 'अयोध्या विवाद : एक पत्रकार की डायरी' के आमुख का यहां प्रकाशन किया गया है अरविंद से संपर्क 09810082873 के जरिए किया जा सकता है.

1 भारतीय रेल पत्रिका का स्वर्णजयंती वर्ष --अरविंद कुमार सिंह

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रेल मंत्रालय रेलवे बोर्ड द्वारा प्रकाशित मासिक हिंदी पत्रिका 'भारतीय रेल' अगस्त, २००९ में अपनी गौरवशाली यात्रा के पचासवें वर्ष में प्रवेश करते हुए स्वर्णजयंती वर्ष मना रही है। भारतीय रेल को इस महादेश की धड़कन और जीवन रेखा कहा जाता है। इसी प्रकार भारतीय रेल पत्रिका नें रेलकर्मियों के साथ अन्य पाठक वर्ग में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है। सौ सालों की इस लंबी अवधि के दौरान जहाँ एक ओर पत्रिका की साज-सज्जा, विषय सामग्री और मुद्रण के स्तर में निखार आया है, वहीं इसके पाठकों की संख्या में भी निरंतर वृद्धि हुई है।
यह पत्रिका रेल प्रशासन, रेलकर्मियों और रेल उपयोगकर्ताओं के बीच एक संपर्क सूत्र का काम भी करती रही है। रेलों से संबंधित तकनीकी विषयों की सरल-सहज भाषा में जानकारी सुलभ कराने में इस पत्रिका का ऐतिहासिक योगदान रहा है। इतना ही नहीं रेलकर्मियों का मनोबल बढ़ाने, उनकी रचनात्मक क्षमता के विकास और अन्य पहलुओं पर भी पत्रिका खरी उतरी है।
भारतीय रेल पत्रिका का पहला अंक १५ अगस्त, १९६० को प्रकाशित हुआ था। श्री बीरबल सिंह, श्री द्वारका नाथ तिवारी, श्री महेन्द्रनाथ सिंह, श्री नयनतारा दास, श्री भक्तदर्शन, श्री सत्येन्द्र सिंह, श्री विपिन बिहारी, श्री मथुरा प्रसाद मिश्र, श्री कमल सिंह समेत कुल २१ लोकसभा सदस्यों के संयुक्त हस्ताक्षर से १५ दिसंबर, १९५८ को तत्कालीन रेल मंत्री श्री जगजीवन राम को पत्र लिखकर हिंदी में पत्रिका शुरू करने का अनुरोध किया था। इसके पूर्व तत्कालीन रेल मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री से भी कई संसद सदस्यों ने मुलाकात कर अनुरोध किया था कि हिंदी में पत्रिका निकलनी चाहिए।
पत्रिका का पहला अंक २६ जनवरी को प्रकाशित, होना निश्चित हुआ था लेकिन यह वर्ष के अंत में १९ दिसंबर, १९५८ को शुरू हो पाई जब तत्कालीन रेल मंत्री श्री जगजीवन राम द्वारा रेलवे बोर्ड के अधिकारियों को इससे संबंधित निर्देश दिये गए। दिल्ली में काक्सटन प्रेस कनाट प्लेस को पत्रिका के प्रकाशन का काम सौंपा गया। 'भारतीय रेल' के पहले अंक की कुल एक हज़ार प्रतियाँ प्रकाशित की गई थीं जिसकी कुल पृष्ठ संख्या कवर सहित ४४ थी।
उस समय भारतीय रेल पत्रिका के संपादक मंडल के सदस्य श्री डी.सी. बैजल (सदस्य कर्माचारी वर्ग) सचिव रेलवे बोर्ड, श्री जी.सी. मीरचंदानी सह निदेशक जनसंपर्क, श्री राममूर्ति सिंह हिंदी अधिकारी रेलवे बोर्ड, श्री वमष्ण गुलाटी संपादक तथा श्री राम चंद्र तिवारी सहायक संपादक, हिंदी थे। हिंदी पत्रिका का सारा दायित्व विख्यात विद्वान और लेखक श्री राम चंद्र तिवारी पर था। वे ही इसके असली कर्ताधर्ता थे और उनके ही सक्षम नेतृत्व में भारतीय रेल एक गरिमामय स्थान पाने में सफल रही।
पत्रिका की वार्षिक चंदा दर सर्व साधारण के लिए छह रुपए रखी गई थी, जबकि रियायती दर पर रेलकर्मियों के लिए चार रुपए थी। एक अंक का मूल्य था ६० नए पैसे। पत्रिका के पहले अंक का मुखपृष्ठ विख्यात कलाकार श्री अमर लाल ने बनाया था। इस पत्रिका के प्रकाशन के अवसर पर तत्कालीन रेल मंत्री श्री जगजीवन राम, रेल उपमंत्री शाहनवाज खां तथा सं. वै. रामस्वामी के बहुत सारगर्भित संदेश भी प्रकाशित किए गए थे। जिसमें कामना की गई थी कि रेल मंत्रालय के प्रयासों को जनता तक पहुँचाने और जनता में रेलों के प्रति सद्भाव बढ़ाने में नई पत्रिका 'भारतीय रेल' पूर्णत: सहायक सिद्ध होगी।
'भारतीय रेल' पत्रिका की शुरुआत में स्थाई स्तंभ थे संपादकीय, सुना आपने, रेलों के अंचल से, भारतीय रेलें सौ साल पहले और अब, कुछ विदेशी रेलों से, क्रीडा जगत में रेलें, मासिक समाचार चयन, रेलवे शब्दावली और हिंदी पर्याय, कविता, कहानी। इसी के साथ पत्रिका को रोचक बनाने के लिए 'भगत जी' कार्टून के माधयम से भी रेलकर्मियों और यात्रियों दोनों के जागरण का प्रयास किया गया था। आगे कुछ और स्तंभ शुरू किए गए तथा पत्रिका दिनों-दिन निखरने लगी।
पहले अंक से ही वरिष्ठतम रेल अधिकारियों के साथ हिंदी के विख्यात लेखकों का स्नेह और मार्गदर्शन इस पत्रिका को मिलता जिसके कारण 'भारतीय रेल' पत्रिका की गुणवत्ता की लगातार सराहना होती रही है। पत्रिका के विशेषांक में रेल मंत्री, रेल राज्य मंत्री समय-समय पर और अध्यक्ष रेलवे बोर्ड तथा अन्य सदस्यगण और क्षेत्रीय रेलों तथा उत्पादन इकाइयों के महाप्रबंधक नियमित लिखते रहे हैं। आचार्य जे.बी. वमपलानी और श्री के.के. बिड़ला से लेकर श्री सुनील दत्त जैसी हस्तियों ने अपने व्यस्ततम समय में कुछ समय निकाल 'भारतीय रेल' के लिए लेख लिखा है। यही नहीं वर्ष १९६० के बाद के सारे रेल बजट विस्तारपूर्वक भारतीय रेल पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। इस नाते अनुसंधानकर्ताओं के लिए भी यह अनिवार्य पत्रिका बनी।
इस पत्रिका में कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए हैं जैसे- पहले अंक में अध्यक्ष रेलवे बोर्ड श्री करनैल सिंह का आलेख 'चित्तरंजन तथा सवारी डिब्बा कारखाना एक स्वप्न की साकार प्रतिमा', श्री हेमेन्द्र प्रसाद घोष का लेख 'भारतीय रेलों की स्थापना के पहले और अब', श्री श्रीनाथ सिंह की कहानी 'गुप्तेश्वर बाबू' और बाल स्वरूप राही की कविता 'यात्रा' तथा श्री वमष्ण गुलाटी का लेख 'खेलगाँव से खेलगाँव तक' पहले अंक से ही भारतीय रेल ने रेलवे के तकनीकी साहित्य को हिंदी में उतारने का कार्य भी किया।
भारतीय रेल पत्रिका का पहला विशेषांक 'रेल सप्ताह अंक १९६१ के नाम से अप्रैल १९६१ में प्रकाशित किया गया। करीब १०० पन्नों के इस विशेषांक का मूल्य सवा रुपए रखा गया था। इस अंक की काफी धूम रही। पत्रिका में समय के साथ तमाम बदलाव आते रहे और कई नए कालम भी जुड़ते रहे। भारतीय रेल के संपादकों में श्री रामचंद्र तिवारी और श्री प्रमोद कुमार यादव के विशेष प्रयासों के कारण उन्हें पत्रकारिता और साहित्य में विशेष योगदान के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान तथा हिंदी अकादमी, दिल्ली समेत कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। श्री यादव का स्नेह आज भी इस पत्रिका को समय-समय पर मिलता रहता है। भारतीय रेल का संपादक मंडल के सम्मानित सदस्य और खासतौर पर निदेशक, सूचना एवं प्रचार, रेलवे बोर्ड का इस पत्रिका के विकास से संबंधित मामलों में नियमित रुचि लेते रहे हैं।
भारतीय रेल पत्रिका को चार-चाँद लगाने में इसके स्थाई स्तंभों का भी विशेष योगदान रहा है। हालाँकि समय के साथ कई स्तंभ बंद हो गए और उनकी जगह नए स्तंभों ने ले ली, लेकिन इसके सभी स्तंभ बेहद लोकप्रिय रहे। शुरुआत में पत्रिका के स्थाई स्तंभ थे- सुना आपने, रेलों के अंचल से, भारतीय रेलें सौ साल पहले और अब, कुछ विदेशी रेलों से, क्रीड़ा जगत में रेलें, मासिक समाचार चयन, रेलवे शब्दावली और हिंदी पर्याय। इसमें रेलवे शब्दावली की अपनी विशेष माँग थी और रेलों में हिंदी को बढ़ावा देने में भी इस स्तंभ ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। आगे के वर्षों में रेल बजट समाचार पत्रों की दृष्टि में, रेलवे समाचार, बहिनों का पन्ना, नई वमतियाँ, नन्हे मुन्ने, नियुक्ति और स्थानांतरण, आत्मनिर्भरता की ओर, महत्वपूर्ण रेलवे संस्थाएँ, रेलों के उत्पादन कारखाने से, माह का सर्वोत्तम चित्र तथा आपके प्रश्न हमारे उत्तर स्तंभ खास सराहे गए।
रेलों के अंचलों की खास खबरों के साथ पत्रिका में परिवहन के अन्य क्षेत्रों के बारे में शुरू से ही उचित सामग्री प्रदान की जाती रही है। स्तरीय साहित्य तो पत्रिका के पहले ही अंक से देखने को मिलता है और अवधी में भी कविताएँ छापी गई हैं। नई कृतियों से पाठकों को अवगत कराने में भी पत्रिका का विशेष योगदान रहा है। इस क्षेत्र में भारतीय रेल को श्री विष्णु स्वरूप सक्सेना और श्री कौटिल्य उदियानी से लेकर जाने-माने लेखक श्री प्रेमपाल शर्मा का लंबे समय से सहयोग मिल रहा है। भारतीय रेल में कई अंकों में तो १०-१५ तक नई किताबों की समीक्षाएँ छपी हैं। इसी तरह बंबई, दिल्ली, कलकत्ता, गोरखपुर, गोहाटी और हैदराबाद की चिट्ठियों का स्थाई स्तंभ भी काफी लोकप्रिय रहा।
पत्रिका के अगस्त, १९६८ के अंक से साज-सज्जा में परिवर्तन कर नारी जगत जैसे स्तंभ भी शामिल किए गए, बच्चों के लिए विशेष और रुचिकर सामग्री प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया और पत्रिका में सभी आयुवर्ग के पाठकों का कुछ न कुछ ज्ञानार्जन हो सके, इस बात का सदा प्रयास किया गया। इसी के साथ सूचना देने पर भी विशेष ध्यान रखा गया। भारतीय रेलों के प्रमुख अफसरों की नाम निर्देशिका भी पत्रिका में शुरुआती दौर में छापी जाती थी और नई सूझ-बूझ के धनी रेल कर्मियों पर केंद्रित एक विशेष कालम भी। कई तरह की परिचर्चाएँ भी पत्रिका में आयोजित की गईं और कई अधिकारियों की विदेश यात्राओं के संस्मरण भी खास चर्चा में रहे।
भारतीय रेल के विशेषांक भी पाठकों द्वारा विशेष रूप से सराहे गए हैं। पत्रिका के वार्षिक विशेषांक की माँग तो सन १९६१ से ही होती रही है पर इसके कई अन्य विशेषांक भी खूब चर्चा में रहे। १९६२ में 'यात्रा विशेषांक' अक्तूबर, १९६४ में 'आत्मनिर्भरता विशेषांक', अक्तूबर, १९६८ में 'पर्यटन विशेषांक', नवंबर १९६५ में 'एशियाई रेल सम्मेलन अंक' खूब सराहे गए और इसमें एशिया की सभी प्रमुख रेल प्रणालियों पर विशेष सामग्री को खासतौर पर मीडिया ने खूब उपयोग किया। जनवरी, १९७६ में प्रकाशित 'ललित नारायण मिश्र स्मृति अंक', अगस्त, १९७६ में प्रकाशित रेलवे निर्माण कार्य विशेषांक तथा नवंबर, १९७६ में प्रकाशित रेलें और 'उद्योग विशेषांक' भी खूब चर्चा में रहा। भारतीय रेल का 'राजभाषा हिंदी अंक' ;फरवरी, १९७६ राजभाषा पर निकले अन्य पत्रिकाओं के विशेषांकों की तुलना में मील का पत्थर माना जाता है। भारतीय रेल का १९७९ में प्रकाशित पर्यटन अंक तो इतना लोकप्रिय हुआ था कि पाठकों की माँग को पूरा करने के लिए उसे पुनर्मुद्रित कराना पड़ा। इस विशेषांक में सभी रेलों की पर्यटन यात्राओं के विवरणों के साथ देश भर के मेले, त्यौहारों, दर्शनीय स्थलों का विवरण भी था। भारतीय रेल का जून, २००९ विशेषांक भी काफी सराहा गया है।

२८ दिसंबर २००९

ब्रिटेन में भी है बलात्कार एक बड़ी समस्या

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 शुक्रवार, 18 जनवरी, 2013 को 02:35 IST तक के समाचार

इंग्लैंड और वेल्स में औसतन हर साल एक लाख बलात्कार के मामले होते हैं
पिछले दिनों दिल्ली की दिल दहला देनेवाली गैंगरेप की घटना पर केवल भारत ही नहीं दुनिया भर में चर्चा हुई, अख़बारों में ख़बरें छपीं, टीवी पर प्रदर्शनकारियों का ग़ुस्सा दिखा, विदेशी लोगों ने जान-पहचान वाले भारतीयों से पूछना शुरू कर दिया – क्या भारत की हालत इतनी ख़राब है?
इस हंगामे के कुछ ही समय बाद ब्रिटेन में एक सरकारी रिपोर्ट आई, बलात्कार और सेक्स अपराधों के बारे में, और इससे जो तस्वीर बनती है वो बताती है कि महिलाओं की स्थिति यहाँ भी कोई कम भयावह नहीं.
लगभग सभी बड़े अख़बारों ने इस रिपोर्ट को अपने पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापा.
एक अख़बार की सुर्खी थी – "Rape: The figures that shame Britain" (बलात्कारः आँकड़े जो ब्रिटेन को शर्मिंदा करते हैं)
ब्रिटेन में पीड़ितों की मदद के लिए काम करनेवाली एक संस्था विक्टिम सपोर्ट के चीफ़ एक्ज़ेक्यूटिव जावेद ख़ान कहते हैं,”इस रिपोर्ट से पता चलता है कि सेक्स अपराध केवल एशिया या अफ़्रीका की समस्या नहीं है, ये सारी दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या है.”
(ब्रिटेन में बलात्कार की स्थिति की पड़ताल पर रिपोर्ट देखिए इस बार बीबीसी हिन्दी के टीवी कार्यक्रम क्लिक करें बीबीसी ग्लोबल इंडिया में)

अपराध

इंग्लैंड और वेल्स में बलात्कार


  • सेक्स अपराध 4,53,000
  • बलात्कार 60,000-95,000
  • दर्ज मामले 54,000
  • सभी मामलों में सज़ा 5,620
  • बलात्कार मामले में सज़ा 1,070
  • बलात्कार के मुक़दमे 675 दिन
  • अन्य मुक़दमे 154 दिन
स्रोतः ब्रिटेन सरकार की रिपोर्ट, वार्षिक औसत

ब्रिटेन में बलात्कार और अन्य सेक्स अपराधों पर रिपोर्ट तो अक्सर आया करती है पर ये सरकारी रिपोर्ट ख़ास बताई जा रही है.
इसमें पहली बार ऐसे अपराधों के अध्ययन के लिए तीन सरकारी महकमों – न्याय मंत्रालय, गृह मंत्रालय और सांख्यिकी विभाग ने साझा अध्ययन किया.
इसमें ब्रिटेन के दो मुख्य प्रांतों इंग्लैंड और वेल्स में तीन साल के अपराधों का औसत निकाला गया.
रिपोर्ट बताती है कि इंग्लैंड और वेल्स में हर साल औसतन चार लाख 73 हज़ार सेक्स अपराध होते हैं. इनमें पुरूषों के साथ होनेवाले अपराध भी शामिल हैं मगर बहुतायत महिलाओं के साथ हुए अपराध की है.
इनमें हर साल बलात्कार की संख्या 60 हज़ार से 95 हज़ार तक होती है.
मगर जहाँ तक सेक्स अपराधों को दर्ज करने की बात है – तो मात्र 54 हज़ार मामले दर्ज हो पाते हैं.
जो मामले दर्ज नहीं हुए उनका अनुमान सर्वेक्षण और सांख्यिकीय गणना के आधार पर निकाला गया है.
वहीं इसकी तुलना भारत से की जाए तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक साल में 24,206 बलात्कार के मामले दर्ज़ हुए.
यानी आँकड़ों को मानें, तो इंग्लैंड-वेल्स में भारत से दोगुना से भी ज़्यादा बलात्कार होते हैं, मगर तब है कि भारत में व्यवस्था को लेकर अनेक सवाल उठाए जाते हैं.
जावेद ख़ान बताते हैं,”दुर्भाग्य से भारत और ब्रिटेन में काफ़ी समानताएँ हैं, ब्रिटेन विकसित देश है, मगर यहाँ भी पीड़ितों में व्यवस्था और न्याय प्रक्रिया पर इतना भरोसा नहीं है कि वो हर मामले को रिपोर्ट करें“.

सज़ा

"दुर्भाग्य से भारत और ब्रिटेन में काफ़ी समानताएँ हैं, ब्रिटेन विकसित देश है, मगर यहाँ भी पीड़ितों में व्यवस्था और न्याय प्रक्रिया पर इतना भरोसा नहीं है कि वो हर मामले को रिपोर्ट करें."
जावेद ख़ान, मुख्य कार्यकारी, विक्टिम सपोर्ट
जिसतरह से भारत में बलात्कार और दूसरे अपराधों पर अंकुश नहीं लगने के लिए क़ानूनी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया जाता है, ठीक उसी तरह का इशारा ब्रिटेन की रिपोर्ट भी करती है.
रिपोर्ट कहती है कि जहाँ हर साल सेक्स अपराध के 4,53,000 मामले होते हैं, वहीं सज़ा मिलती है, केवल पाँच हज़ार, 620 लोगों को.
वहीं बलात्कार के मामले होते हैं 95 हज़ार, और सज़ा होती है केवल एक हज़ार लोगों को, यानी लगभग एक प्रतिशत.
वहीं बलात्कार के मामलों की सुनवाई में यहाँ औसतन 675 दिन लग जाते हैं, यानी लगभग दो साल. जबकि अन्य अपराधों के मुकदमे 154 दिन में निपट जाते हैं.
जावेद ख़ान बताते हैं ब्रिटेन के समाज में भी न्याय प्रक्रिया को और चुस्त किया जाना ज़रूरी है.
मगर वो साथ ही ये भी बताते हैं कि ब्रिटेन का समाज कुछ मामलों में भारत से अलग भी है.
वो कहते हैं,"एक बहुत बड़ा अंतर है कि यहाँ कम-से-कम आँकड़े तो आ रहे हैं, चाहे लंदन हो या कोई गाँव सारे अपराधों के बारे में, उनकी जाँच के बारे में, फिर सज़ा होती है कि नहीं इस बारे में जानकारी हो रही है और इसका विश्लेषण होता है जिसके आधार पर सरकार के सामने कोई बात रखी जा सकती है."
जावेद ख़ान बताते हैं कि भारत जैसे देशों में अभी इस दिशा में बहुत काम होना बाक़ी है, ख़ासकर गाँवों में जहाँ बलात्कार के मामलों को दर्ज़ करने का कोई सिस्टम तैयार नहीं हो सका है.

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समाचार की उल्टा पिरामिड शैली

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अवधारणा
उल्टा पिरामिड सिद्धांत समाचार लेखन का बुनियादी सिद्धांत है। यह समाचार लेखन का सबसे सरल, उपयोगी और व्यावहारिक सिद्धांत है। समाचार लेखन का यह सिद्धांत कथा या कहनी लेखन की प्रक्रिया के ठीक उलट है। इसमें किसी घटना, विचार या समस्या के सबसे महत्वपूर्ण तथ्यों या जानकारी को सबसे पहले बताया जाता है, जबकि कहनी या उपन्यास में क्लाइमेक्स सबसे अंत में आता है। इसे उल्टा पिरामिड इसलिये कहा जाता है क्योंकि इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य या सूचना पिरामिड के निचले हिस्से में नहीं होती है और इस शैली में पिरामिड को उल्टा कर दिया जाता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण सूचना पिरामिड के सबसे उपरी हिस्से में होती है और घटते हुये क्रम में सबसे कम महत्व की सूचनायें सबसे निचले हिस्से में होती है।
ऐतिहासिक विकास
इस सिद्धांत का प्रयोग 19 वीं सदी के मध्य से शुरु हो गया था, लेकिन इसका विकास अमेरिका में गृहयुद्ध के दौरान हुआ था। उस समय संवाददाताओं को अपनी खबरें टेलीग्राफ संदेश के जरिये भेजनी पड़ती थी, जिसकी सेवायें अनियमित, महंगी और दुर्लभ थी। यही नहीं कई बार तकनीकी कारणों से टेलीग्राफ सेवाओं में बाधा भी आ जाती थी। इसलिये संवाददाताओं को किसी खबर कहानी लिखने के बजाये संक्षेप में बतानी होती थी और उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण तथ्य और सूचनाओं की जानकारी पहली कुछ लाइनों में ही देनी पड़ती थी।
परिभाषा
किसी समाचार को लिखने या कहने का वह तरीका है जिसमें उस घटना, विचार, समस्या के सबसे अहम तथ्यों या पहलुओं के सबसे पहले बताया जाता है और उसके बाद घटते हुये महत्व क्रम में अन्य तथ्यों या सूचनाओं को लिखा या बताया जाता है। इस शैली में किसी घटना का ब्यौरा कालानुक्रम के बजाये सबसे महत्वपूर्ण तथ्य या सूचना से शुरु होता है।
लेखन प्रक्रिया
समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड शैली के तहत लिखे गये समाचारों के सुविधा की दृष्टि से मुख्यतः तीन हिस्सों में विभाजित किया जाता है – मुखड़ा या इंट्रो या लीड, बॉडी और निष्कर्ष या समापन। इसमें मुखड़ा या इंट्रो समाचार के पहले और कभी – कभी पहले और दूसरे दोनों पैराग्राफ को कहा जाता है। मुखड़ा किसी भी समाचार का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है क्योंकि इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्यों और सूचनाओं को लिखा जाता है। इसके बाद समाचार की बॉडी आती है, जिसमें महत्व के अनुसार घटते हुये क्रम में सूचनाओं और ब्यौरा देने के अलावा उसकी पृष्ठभूमि का भी जिक्र किया जाता है। सबसे अंत में निष्कर्ष या समापन आता है। समाचार लेखन में निष्कर्ष जैसी कोई चीज नहीं होती है और न ही समाचार के अंत में यह बताया जाता है कि यहां समाचार का समापन हो गया है।
मुखड़ा या इंट्रो या लीड
उल्टा पिरामिड शैली में समाचार लेखन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू मुखड़ा लेखन या इंट्रो या लीड लेखन है। मुखड़ा समाचार का पहला पैराग्राफ होता है, जहां से कोई समाचार शुरु होता है। मुखड़े के आधार पर ही समाचार की गुणवत्ता का निर्धारण होता है। एक आदर्श मुखड़ा में किसी समाचार की सबसे महत्वपूर्ण सूचना आ जानी चाहिये और उसे किसी भी हालत में 35 से 50 शब्दों से अधिक नहीं होना चाहिये। किसी मुखड़े में मुख्यतः छह सवाल का जवाब देने की कोशिश की जाती है – क्या हुआ, किसके साथ हुआ, कहां हुआ, कब हुआ, क्यों और कैसे हुआ है।
आमतौर पर माना जाता है कि एक आदर्श मुखड़े में सभी छह ककार का जवाब देने के बजाये किसी एक मुखड़े को प्राथमिकता देनी चाहिये। उस एक ककार के साथ एक – दो ककार दिये जा सकते हैं।
बॉडी
समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड लेखन शैली में मुखड़े में उल्लिखित तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण समाचार की बॉडी में होती है। किसी समाचार लेखन का आदर्श नियम यह है कि किसी समाचार को ऐसे लिखा जाना चाहिये, जिससे अगर वह किसी भी बिन्दु पर समाप्त हो जाये तो उसके बाद के पैराग्राफ में ऐसा कोई तथ्य नहीं रहना चाहिये, जो उस समाचार के बचे हुऐ हिस्से की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण हो। अपने किसी भी समापन बिन्दु पर समाचार को पूर्ण, पठनीय और प्रभावशाली होना चाहिये। समाचार की बॉडी में छह ककारों में से दो क्यों और कैसे का जवाब देने की कोशिश की जाती है। कोई घटना कैसे और क्यों हुई, यह जानने के लिये उसकी पृष्ठभूमि, परिपेक्ष्य और उसके व्यापक संदर्भों को खंगालने की कोशिश की जाती है। इसके जरिये ही किसी समाचार के वास्तविक अर्थ और असर को स्पष्ट किया जा सकता है।
निष्कर्ष या समापन
समाचार का समापन करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि न सिर्फ उस समाचार के प्रमुख तथ्य आ गये हैं बल्कि समाचार के मुखड़े और समापन के बीच एक तारतम्यता भी होनी चाहिये। समाचार में तथ्यों और उसके विभिन्न पहलुओं को इस तरह से पेश करना चाहिये कि उससे पाठक को किसी निर्णय या निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद मिले।


पुरानी बोतल में नयी (राहुल बाबा ) शराब का नया झांसा

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मेरी माँ रो पड़ी, कहा सत्ता ज़हर की तरह है: राहुल

 रविवार, 20 जनवरी, 2013 को 18:26 IST तक के समाचार
राहुल गांधी कांग्रेस के पहले उपाध्यक्ष बनाए गए हैं
कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष पद की कमान संभालने के बाद राहुल गांधी ने रविवार को कहा कि अब कांग्रेस ही उनकी ज़िंदगी है और वो पूरी ताक़त से पार्टी और देश की सेवा करेंगे.
जयपुर में पार्टी के चिंतन शिविर के समापन सत्र में राहुल गांधी ने कहा कि पिछले आठ साल के राजनीतिक जीवन में उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के अनुभवों से बहुत कुछ सीखा है. राहुल का कहना था कि वे इन अनुभवों का प्रयोग अपने आनेवाले राजनीतिक जीवन में करना चाहते हैं.
उन्होंने कहा, "कांग्रेस पार्टी दुनिया का सबसे बड़ा परिवार है लेकिन इसमें बदलाव की ज़रूरत है. मगर सोच-समझ कर. सबको एक साथ लेकर बदलाव की बात करनी है और बदलाव लाना है. प्यार से, सोचसमझ के साथ, सबकी आवाज़ को सुनकर आगे बढ़ना है."
राहुल गांधी ने कहा कि वो सबको एक ही आंख से एक ही तरीके से देखेंगे चाहे वो युवा हो, कांग्रेस कार्यकर्ता हो, बुजुर्ग हो या फिर महिला हो.

'पार्टी में नियम-क़ानून नहीं'

"मैं सबकुछ नहीं जानता. दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो सब कुछ जानता हो. लेकिन कांग्रेस पार्टी में कहीं न कहीं जानकारी ज़रूर है. पार्टी के वरिष्ठ नेताओ से सीखूंगा. आपकी आवाज़ को आगे बढ़ाऊंगा"
राहुल गांधी, कांग्रेस उपाध्यक्ष
राहुल ने कांग्रेस की कार्यप्रणाली पर भी टिप्पणी की और कहा कि पार्टी में शायद किसी को नहीं मालूम कि कांग्रेस का नियम क्या है और ये चलती कैसे है, चुनाव कैसे जीत लेती है.
उनका कहना था, "कांग्रेस गांधी जी का संगठन है और इसमें हिंदुस्तान का डीएनए भरा हुआ है. हमारे विपक्ष के लोग इसे समझ नहीं पाते. कोई कहता है मैं इस जाति की पार्टी हूं, मैं इस धर्म की पार्टी हूं. लेकिन कांग्रेस कहती है कि हम हिंदुस्तान की पार्टी हैं."
राहुल ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं की नेतृत्व क्षमता पर भी अपनी राय रखी.राहुल गांधी ने कहा, "आज नेतृत्व के विकास पर फोकस नहीं किया जाता. आज से पांच-छह साल बाद ऐसी बात होनी चाहिए कि हमारे सामने 40-50 नेता तैयार हों जो देश को चला सकें. हमें ऐसे नेता विकसित करने हैं जो धर्मनिरपेक्ष हों और हिंदुस्तान को समझते हों. ऐसे नेता जिन्हें देख कर लोग कहें कि हम उनके पीछे खड़े होना चाहते हैं."
उन्होंने ये भी कहा कि नेता अगर काम नहीं कर रहा तो उसे आगे नहीं बढ़ाना चाहिए. जिस दिन जनता की आवाज़ कांग्रेस के अंदर गुंजने लगेगी, उस दिन कांग्रेस को कोई नहीं हरा पाएगा.
राहुल गांधी ने कहा, "मैं सबकुछ नहीं जानता. दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो सब कुछ जानता हो. लेकिन कांग्रेस पार्टी में कहीं न कहीं जानकारी ज़रूर है. पार्टी के वरिष्ठ नेताओ से सीखूंगा. आपकी आवाज़ को आगे बढ़ाऊंगा."

भावुक पल

राहुल गांधी को शनिवार को जयपुर में पार्टी उपाध्यक्ष बनाया गया था
भाषण में कई बार राहुल गांधी ने अपनी ज़िंदगी के भावुक पलों को भी सबके साथ बाँटा. नई ज़िम्मेदारी को लेकर मन में चली उधेड़ बुन पर बात करते हुए राहल ने कहा, " आज सुबह मैं चार बजे ही उठ गया और बालकनी में गया. सोचा कि मेरे कंधे पर अब बड़ी जिम्मेदारी है. अंधेरा था, ठंड थी. मैंने सोचा कि आज मैं वो नहीं कहूंगा जो लोग सुनना चाहते हैं. आज मैं वो कहूंगा जो मैं महसूस करता हूं"
उसके बाद उन्होंने अपनी दादी इंदिरा गांधी के निधन के समय को याद करते हुए अपने पिता राजीव गांधी और उनके राजनीतिक संघर्ष को याद किया.
इंदिरा गांधी और राजीव गांधी दोनों ही चरमपंथियों के हाथों मारे गए थे.राहुल गांधी ने कहा कि अगर उम्मीद न हो तो आप बदलाव नहीं ला सकते.

जब माँ रोते हुए आई

पार्टी उपाध्यक्ष का पद मिलने के बाद माँ सोनिया गांधी की क्या प्रतिक्रिया रही. राहुल अपनी ज़िंदगी के इस पल को साझा करने से भी नहीं हिचकिचाए.
इस मौके पर उन्होंने कहा, "पिछली रात मेरी मां मेरे पास आई और रो पड़ी क्योंकि वो जानती हैं कि सत्ता ज़हर की तरह होती है. सत्ता क्या करती है. हमें शक्ति का इस्तेमाल लोगों को सबल बनाने के लिए करना है."
राहुल गांधी जब ये बातें कह रहे थे तो मंच पर बैठे कांग्रेसी नेता खड़े होकर उनका अभिवादन कर रहे थे.
अपने उपाध्यक्षीय भाषण की समाप्ति राहुल ने ये कह कर की कि "कांग्रेस पार्टी अब मेरी ज़िंदगी है. भारत के लोग मेरी जिंदगी हैं और मैं देश के लोगों और पार्टी के लिए लड़ूंगा. मैं अपनी पूरी ताकत से लड़ूंगा और आप सबों का आह्वान करता हूं कि इस लड़ाई में मेरा साथ दें."

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टॉपिक

कांग्रेस की लाचारगी का नाम राहुल गाँधी?

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 शनिवार, 17 नवंबर, 2012 को 12:08 IST तक के समाचार
राहुल गाँधी
राहुल गाँधी को कांग्रेस की चुनाव समन्वय समिति का सर्वेसर्वा बनाना कॉंग्रेस के सामने आखिरी चारा था. राहुल गांधी को मजबूरी कहना एकदम आसान नहीं है. उनकी पूरी पार्टी में ऐसा और कोई नहीं है जिसको राहुल से बेहतर उम्मीदवार बताया जा सके.
कांग्रेस पार्टी दो बार से सरकार चला रहे बुजुर्ग प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के चेहरे के साथ चुनाव में नहीं उतर सकती थे. ना ही उसके पास दूसरा कोई ऐसा नेता है जिसको आगे रख कर वो चुनाव के मैदान में आगे जा सके.
"दरअसल कॉंग्रेस पार्टी यह देख नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के नेतृत्व में चुनाव लड़ कर यह देख चुकी है कि अगर उनके आगे कोई नेहरु गाँधी परिवार का सदस्य ना हो तो जनता उनका साथ नहीं देती"
हरतोष बल
यह देर से हुई घोषणा है पर इसकी उम्मीद सबको लंबे समय से थी. लेकिन इस घोषणा भर से कॉंग्रेस को कोई लाभ मिलेगा....मुझे इसकी कोई संभावना नहीं नज़र आती.

इन्हें नहीं कोई और, उन्हें नहीं कोई ठौर

जो लोग राहुल गाँधी के बिहार और उत्तर प्रदेश में प्रदर्शन की बात कर उनकी नई ज़िम्मेदारी से तुलना कर रहे हैं वो मुझे ठीक नहीं लगता.
एक तो इसलिए क्योंकि वो राज्यों के चुनाव थे. दूसरा उन राज्यों में पार्टी की हालत इतनी बुरी थी कि राहुल गाँधी की जगह कोई भी नेता होता तो पार्टी का यही हश्र होना तय था. इस मामले में तो राहुल गाँधी किसी दूसरे नेता से कमतर साबित हुए हों यह तो नहीं कहा जा सकता.
आज की तारीख़ में राहुल गांधी भले ही बहुत अच्छे नहीं साबित हुए हों लेकिन कॉंग्रेस की नैया के लिए सबसे बेहतर खेवनहार वही हैं.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अभी तक कोई ज़िम्मेदारी सीधे अपने कन्धों पर नहीं ली है और इस नए पद के साथ यह पहली बार होगा कि कॉंग्रेस के चुनाव से जुड़ी हर चीज़ का ज़िम्मा उन पर होगा.
अगर वो अपनी ज़िम्मेदारी को पूरी तरह निभाना चाहते हैं तो उनकी पार्टी को उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करना होगा. आज तक उन्होंने कोई ज़िम्मेदारी नहीं ओढ़ी है और इसका खामियाजा पार्टी ने भुगता है. यही उत्तर प्रदेश में पार्टी के खराब प्रदर्शन की सबसे बड़ी वजह थी.

आम 42 साला अंग्रेजीदां

राहुल गाँधी के व्यक्तित्व की बात करें तो उनका चीज़ों को सुलझाने का तरीका अब तक बड़ा व्यापारिक प्रबंधन वाला रहा है. भारतीय राजनीति कोई व्यापार जगत की तरह नहीं है जहाँ मौजूदा संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल आपका लाभ बढ़ा देता हो.
"राहुल गाँधी 42 साल के बड़े ही सामान्य से अंग्रेज़ी बोलने वाले किसी भी अन्य उच्च वर्गीय आदमी की तरह है जिसका भारत के ज़मीनी हालात से कोई ख़ास जुड़ाव नहीं है."
हरतोष बल,
यहाँ ज़मीनी हकीकत को समझना ज़रूरी होता है और यह राहुल गाँधी ने अब तक किया नहीं है.
एक बात और है कि गाँधी इस भूमिका में हैं यह महज़ इसलिए नहीं की पार्टी वंशवाद की चपेट में है. दरअसल कॉंग्रेस पार्टी नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी के नेतृत्व में चुनाव लड़ कर यह देख चुकी है कि अगर उनके आगे कोई नेहरु गाँधी परिवार का सदस्य ना हो तो जनता उनका साथ नहीं देती.
राहुल गाँधी 42 साल के बड़े ही सामान्य से अंग्रेज़ी बोलने वाले किसी भी अन्य उच्च वर्गीय आदमी की तरह हैं जिसका भारत की ज़मीनी हक़ीक़त से कोई ख़ास जुड़ाव नहीं है.
अब राहुल गाँधी चूंकि चुनाव समन्वय समिति के प्रमुख बन गए हैं तो उन्हें चुनाव में जाने के पहले कुछ मुद्दों का निपटारा करना होगा, खास तौर पर भ्रष्टाचार के मुद्दे का. अब तक जब भी इस मुद्दे पर बात उठती है तो कॉंग्रेस या तो इस पर बात नहीं करती या फिर शशि थरूर जैसे लोगों को दोबारा मंत्री बना देती है.
आम लोगों में उनके इस रुख पर बड़ा गुस्सा है. राहुल गांधी को यह समझना होगा और यही शायद उनकी पहली और सबसे बड़ी चुनौती है.

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सूचना के अधिकार

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    मौलिक अधिकार

    संविधान केतीसरे भाग केअनुच्छेद 12 से 35 तक में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है।
    Tags : fundamental rights , मौलिक अधिकार

    आईटी क्षेत्र के निर्यात पर नास्कॉम का अनुमान

    नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एण्ड सर्विस कंपनीज, नास्कॉम की ताजा रिपोर्ट केअनुसार 2008-09 में देश केसूचनाप्रौद्योगिकी व बिजनेस प्रोसेसिंग आउटसोर्र्सिंग निर्यात 47 अरब डॉलर रहने का अनुमान है।
    Tags : Nasscom estimates on the export of IT , आईटी क्षेत्र के निर्यात पर नास्कॉम का अनुमान

    रेशम सिंह संधू

    भारतीय मूल केरेशम सिंह संधू को ब्रिटिश महारानी की कानूनव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करने वाले हाईशेरिफ पद पर नियुक्त किया गया।
    Tags : resham singh sandhu , रेशम सिंह संधू

    कर संरचना

    भारत की कर संरचना प्रणाली काफी विकसित है। भारतीय संविधान केप्रावधानों केअनुरुप करों व ड्यूटीज को लगाने का अधिकारसरकार केतीनों स्तरों को प्रदान किया गया है।
    Tags : tax structure , VAT , Direct Tax Code , कर संरचना , वैट , प्रत्यक्ष कर संहिता

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    Tags : computer development , कम्प्यूटर का क्रमिक विकास , सूचना प्रौद्योगिकी , information technology

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    रूस केपुरातत्ववेत्ताओं ने दक्षिण साइबेरिया केएक शहर में आर्य सभ्यता केअवशेष खोजने का दावा किया है। ऐसा अनुमान है कि लगभग 4 हजार वर्ष पूर्व इस प्राचीन शहर का निर्माण आर्र्यों ने किया था।
    Tags : The remains of Aryan civilization , आर्य सभ्यता के अवशेष

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    प्रत्येक कार्य केलिए कई अंग मिलकर एक तंत्र बनाते हैं जैसे भोजन के  पाचन केलिए पाचनतंत्र (Digestive system), श्वसन केलिए श्वसन तंत्र आदि।
    Tags : Body Systems , Systems of Body , blood , रक्त , शरीर के तंत्र

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    Tags : V. K. Murti , वी. के. मूर्ति

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    Tags : K. R. Sridhar , के. आर. श्रीधर

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    Tags : mystery of butterfly's color , तितलियों के रंग का रहस्य

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    काफी लंबे अर्से से वैज्ञानिक समुदाय में यह मान्यता रही है कि सर्वप्रथम औजारों केनिर्माता आधुनिक मानव अर्थात होमो सेपियंस थे।
    Tags : oldest tools manufacturer , प्राचीनतम औजारों के निर्माता

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    भिन्न प्रकार केरोग एवं उनके लक्षण बैक्टीरिया से होने वाले रोगवायरस से होने वाले रोग प्रमुख अंत: स्रावी ग्रंथियां एवं उनके कार्ये विटामिन की कमी से होने वाले रोग
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    एंटीबायोटिक अत्यंत महत्वपूर्ण लाइफ सेविंग मेडिसिन होती हैं, जिनका यदि ठीक तरीके से प्रयोग न किया जाये तो सूक्ष्मजीवों में इनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाती है।
    Tags : new discovery for antibiotics resistance , एंटीबायोटिक प्रतिरोध के बारे में नई खोज

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    सहजन एक ऐसा वृक्ष है जो अफ्रीका, मध्य तथा दक्षिणी अमेरिका, भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण-पूर्व एशिया में पैदा किया जाता है।
    Tags : water purification from drumstick seeds , सहजन के बीजों से जल का शोधन

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    दुनिया भर में बाघों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। हालात यहां तक पहुँच गए हैं कि यदि इसे बचाने का प्रयास न किया गया तो जल्दी ही यह जीव लुप्तप्राय हो जाएगा।
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    हाल में दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप केदेश चिली में जबर्दस्त भूकंप आया जिसकी वजह से न केवल जनधन की भारी हानि हुई बल्कि इससे दिन की लंबाई भी पहले की अपेक्षा कम हो गई।
    Tags : Chile earthquake collapsed the day , चिली के भूकंप ने छोटा किया दिन

    ग्लेशियरों के पिघलने की हुई पुष्टि

    माउंट एवरेस्ट से ली गई तस्वीरों से यह बात पूरी तरह से सिद्ध हो गई है कि 89 वर्ष में हिमालय की काफी बर्फ पिघल चुकी है।
    Tags : melting of glaciers Confirmed , ग्लेशियरों के पिघलने की हुई पुष्टि

    फोबोस के उद्भव की गुत्थी सुलझी

    फोबोस मंगल का उपग्रह है, यह कैसे अस्तित्व में आया यह सवाल लंबे समय से पहेली बना हुआ है।
    Tags : The emergence of Phobos Mystery solved , फोबोस के उद्भव की गुत्थी सुलझी

    चंद्रयान के लिए लैंडर विकसित करेगा रूस

    भारत का चंद्रयान-2 मिशन 2013 में चंद्रमा केलिए रवाना होगा। चंद्रयान केरोवर को चंद्रमा की धरती पर उतारने केलिए रूस लैंडर विकसित कर रहा है।
    Tags : Russia will develop lander Chandrayaan , चंद्रयान के लिए लैंडर विकसित करेगा रूस

    शिक्षा के क्षेत्र में जॉब का परिदृश्य

    संचार तकनीकी की सुलभ उपलब्धता से अब यह संभव हो सका है कि देश केप्रत्येक अध्यापक केसंबंध में सभी आवश्यक जानकारी एक साथ एकत्रित हो सके। उसमें परिवर्तन लगातार समाहित होते रहें तथा नीति निर्धारकों तथा प्रबंधन का उत्तरदायित्व निभानेवालों को यह लगातार आवश्यकता पडऩे पर उपलब्ध कराई जा सके।
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    गवर्नमेंट सेक्टर में युवाओं के लिए अवसर

    सरकारी नौकरियों का आकर्षण भारत में शुरुआत से रहा है। यहां तक कि भारत में मुस्लिम और अंग्रेजी शासन केदौरान भी सरकारी नौकरों को समाज में काफी ज्यादा अहमियत दी जाती थी। यह सिलसिला आजादी केबाद काफी लंबे अर्से तक चलता रहा।
    Tags : opportunities in government sector , railways , civil defence , defence , bank , teaching , गवर्नमेंट सेक्टर में युवाओं के लिए अवसर , सिविल सेवा , डिफेंस , टीचिंग , बैंक , रेलवे

    जर्मनी के राष्ट्रपति की भारत यात्रा

    जर्मनी केराष्ट्रपति होस्र्ट कोहलर ने फरवरी, 2010 में भारत की सात दिन की यात्रा की। इनकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाना तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजारों में सुधार केलिए भारत का समर्थन जुटाना था।
    Tags : German President's visit to India , जर्मनी के राष्ट्रपति की भारत यात्रा

    क्षुद्रग्रह के नमूने लेकर लौटा अंतरिक्षयान

    जापान का अंतरिक्षयान सात वर्ष की यात्रा केबाद एक क्षुद्रग्रह केनमूने लेकर वापस लौटा है। हायाबुसा अभियान वर्ष 2003 में शुरू हुआ था, जब इस अंतरिक्षयान को इटोकामा नामक एस्टेरॉयड या क्षुद्रग्रह पर भेजा गया था।
    Tags : space craft returned with samples of asteroid , क्षुद्रग्रह के नमूने लेकर लौटा अंतरिक्षयान

    फेसबुक के सदस्यों की संख्या 50 करोड

    सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक केसदस्यों की संख्या बढ़कर 50 करोड़ को पार कर चुकी है। इस वेबसाइट की शुरुआत 2004 में की गई थी और इतने थोड़े ही वक्त में इसने इतनी बड़ी सफलता प्राप्त कर ली है।
    Tags : 50 million members of Facebook , फेसबुक के सदस्यों की संख्या 50 करोड

    तुर्की के राष्ट्रपति की भारत यात्रा

    भारत केसाथ द्विपक्षीय संबंधों विशेष रूप से आर्थिक संबंधों को नया आयाम देने केउद्देश्य से तुर्की केराष्ट्रपति अब्दुल्ला गुल ने 7-11 फरवरी, 2010 को भारत की यात्रा की। पिछले 15 वर्र्षों केअंतराल केबाद तुर्की केराष्ट्रपति की यह पहली भारत यात्रा थी।
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    अहिछत्र - उ. प्र. केबरेली जिले में स्थिति यह स्थान एक समय पाँचालों की राजधानी थी। आइहोल- यह स्थान कर्नाटक में स्थित है। इसकी मुख्य विशेषता चालुक्यों द्वारा बनवाए गए पाषाण केमंदिर हैं। .........
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    भारत के 50 सबसे बड़े शहर ( जनसंख्यानुसार )

    जनसंख्या के  अनुसारभारत के 50 सबसे बड़े शहर 
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    भारत के प्रमुख शिखर एवं नदियाँ

    भारत केप्रमुख शिखर एवं नदियाँ
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    सरकार की बैंकों के विलय की तैयारी

    केद्रीय वित्त मंत्रालय सरकारी क्षेत्र की बैंकों केआपस में विलय करने की एक कार्ययोजना तैयार कर रही है।
    Tags : Government preparing for the merger of the banks , सरकार की बैंकों के विलय की तैयारी

    औषधियाँ

    औषधियाँ रोगों केइलाज में काम आती हैं। प्रारंभ में औषधियाँ पेड़-पौधों, जीव जंतुओं से प्राप्त की जाती थीं, लेकिन जैसे-जैसे रसायन विज्ञान का विस्तार होता गया, नए-नए तत्वों की खोज हुई तथा उनसे नई-नई औषधियाँ कृत्रिम विधि से तैयार की गईं।
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    आज का दिन - 20 जनवरी 2013 (भारतीय समयानुसार)
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    भारतकोश सम्पादकीय -आदित्य चौधरी
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    यमलोक में एक निर्भय अमानत 'दामिनी'
                 मान लीजिए कोई लड़की यदि बलात्कार का विरोध नहीं करती है... वह नियति मान कर अपनी जान की रक्षा के लिए चुपचाप बिना किसी विरोध के बलात्कार में सहमति दे देती है, जिससे कि कम से कम मार खाने से तो बच जाय और वहाँ पुलिस आ जाती है तो उस लड़की को निश्चित ही वैश्यावृत्ति के जुर्म में गिरफ़्तार किया जाएगा... क्या वह लड़की यह साबित कर पाएगी कि वह वैश्या नहीं है ? ...पूरा पढ़ें
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    एक आलेख
    कुम्भ मेला, इलाहाबाद
         कुम्भ मेलाहिन्दू धर्मका एक महत्त्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुम्भ पर्व स्थल- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैनऔर नासिकमें स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष में इस पर्व का आयोजन होता है। प्रयाग (इलाहाबाद) में संगमके तट पर होने वाला आयोजन सबसे भव्य और पवित्र माना जाता है। इस मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते है। ऐसी मान्यता है कि संगम के पवित्र जलमें स्नान करने से आत्माशुद्ध हो जाती है। ... और पढ़ें

    पिछले विशेष आलेखमैसूर· दिल्ली· अशोक· श्रावस्ती· श्राद्ध
    एक व्यक्तित्व
    हरिवंश राय बच्चन
            हरिवंश राय बच्चनके काव्य की विलक्षणता उनकी लोकप्रियता है। यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि आज भी हिन्दीके ही नहीं, सारे भारतके सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में 'बच्चन' का स्थान सुरक्षित है। हिन्दी में 'हालावाद' के जनक 'बच्चन' की मुख्य कृतियाँ 'मधुशाला', 'मधुबाला' और 'मधुकलश' ने हिंदी काव्य पर अमिट छाप छोड़ी। हरिवंश राय बच्चन के पुत्र अमिताभ बच्चनभारतीय सिनेमाजगत के प्रसिद्ध सितारे हैं। ... और पढ़ें

    पिछले लेखनज़ीर अकबराबादी· राहुल सांकृत्यायन· महादेवी वर्मा· कबीर
    एक पर्यटन स्थल
    संगम, प्रयाग
         प्रयागका आधुनिक नाम इलाहाबादहै। प्रयाग उत्तर प्रदेशका एक प्राचीन तीर्थस्थानहै जिसका नाम अश्वमेधआदि अनेक याज्ञ (यज्ञ) अधिक होने से पड़ा था। प्रयाग का मुस्लिम शासन में 'इलाहाबाद' नाम कर दिया गया था परंतु 'प्रयाग' नाम आज भी प्रचलित है। रामायणमें इलाहाबाद, प्रयाग के नाम से वर्णित है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ संगम स्थलपर भूमिगत रूप से सरस्वती नदीभी आकर मिलती है। इलाहाबाद का उल्लेख भारतके धार्मिक ग्रन्थों में भी मिलता है। वेद, पुराण, रामायणऔर महाभारतमें इस स्थान को प्रयाग कहा गया है। ... और पढ़ें

    पिछले पर्यटन स्थलसाँची· स्वर्ण मंदिर· सूर्य मंदिर कोणार्क· हुमायूँ का मक़बरा
    चयनित चित्र
    शांति स्तूप, लेह

    भारत कोश हलचल
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    गणतंत्र दिवस (26 जनवरी)·हिमाचल प्रदेश स्थापना दिवस (25 जनवरी)·मणिपुर स्थापना दिवस (21 जनवरी)·मेघालय स्थापना दिवस (21 जनवरी)·त्रिपुरा स्थापना दिवस (21 जनवरी)·अरुणाचल प्रदेश स्थापना दिवस (20 जनवरी)

    जन्म दिवस
    रानी गाइदिनल्यू (26 जनवरी)·माइकल मधुसूदन दत्त (25 जनवरी)·सुभाष चंद्र बोस (23 जनवरी)·क़ुर्रतुलऐन हैदर (20 जनवरी)
    पुण्य तिथि
    चन्द्रबली पाण्डेय (24 जनवरी)·होमी जहाँगीर भाभा (24 जनवरी)·भीमसेन जोशी (24 जनवरी)·रास बिहारी बोस (21 जनवरी)·शिवपूजन सहाय (21 जनवरी)·परवीन बाबी (20 जनवरी)·ख़ान अब्दुलगफ़्फ़ार ख़ान (20 जनवरी)
    महत्त्वपूर्ण आकर्षण
    समाचार
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    सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी






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