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चौपाल से लेकर संसद तक / अनामी शरण बबल

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रांची एक्सप्रेस के लिए पहला विशेष संपादकीय /

 15अक्टूबर 2016


 

 


जमाना बदल रहा है। जमाने के साथ साथ समाज की रीति नीति, पारिवारिक रस्म रिवाज संस्कार और धार्मिक पारिवारिक सामाजिक मान्यताओं के अर्थ भी बदल रहे है। गांव देहात कस्बों से लेकर शहरों नगरो बड़े शहरों और महानगरों का रूप रंग आकार चेहरा जरूरत समस्याओं और सुविधाओं के मायने भी बदल रहे है। 21वी सदी के पहले ही चरण में संचार क्रांति के विस्फोट ने घर परिवार समय समाज और संबंधों के सारे समीकरण बदल डाले है। वर्तमान समय और समाज के साथ आज कदमताल करके रहना और चलना भी जरूरी है। मगर, बदलाव की इस आंधी के बीच एक नया रास्ता बनाना और उसको लक्ष्य मानकर अपनाना आज ज्यादा जरूरी होकर भी खतरनाक सा लगता है।

यह कैसा बदलाव है कि चौपाल से लेकर संसद तक की गरिमा रंगरूप और महत्व पर भी इसका असर दिखने है। संसद और चौपाल जनता के अधिकारों का आईना सा नहीं रह गया प्रतीत होता है। आईना कभी झूठ नहीं बोलता, मगर संसद से लेकर चौपाल यानी जनता के हर वैधानिक अदालत में जनता ही लगातार सबसे पीछे छूटती जा रही है। यों कहें कि चर्चाओं में अब समाज के आखिरी कतार में खड़े लोग की आवाज अब संसद और विधानसभा की गूंज से बाहर हो गए है।  ।

 महान भारत देश को कई नामों से जाना जाता है, मगर हिन्दुस्तान और इंडिया से तुलना करे तो भारत पर इंडिया का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है। इंडिया यानी मॉल मेट्रो मोबाइल म्यूजिक मल्टीप्लेक्स और मैकड़ी (मैकडोनॉल्ड) वाले इंडिया में चमक दमक के साथ मोटर मनी, मल्टी नेशनल कंपनियों, मल्टी स्टोरी अपार्टमेंट, मल्टी जॉब, मल्टी रिलेशन और मल्टी इंकम सोर्स का जलवा ही जलवा है। समाज के ज्यादातर नवधनिको कुबेरों और उधोगपतियों के इंडिया में ही विकास और नौकरियों की सारी संभावनाएं निहित है। यही वह वर्ग है जो सत्ता को कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं अप्रत्यक्ष तौर पर संचालित और संबोधित कर रहा है। इंडिया के दमदार लोगों की वजह से ही आज भारत रंगीन चमक दमक के साथ  महक रहा है। हम दुनियां के सबसे संभावनाशील देशों की कतार में आगे है।  125 करोड़ की आबादी और दुनिया के सबसे यंग देश को लेकर पूरे संसार की आंखे इंडिया पर लगी है और वे यहां कारोबार की अपार संभावनाओं को देखकर भारत में ही पूंजी निवेश करने को उतावला या एकदम व्यग्र भी कह सकते है

इंडिया के प्रभामंडल से भारतीय मीडिया भी लगभग नतमस्तक सा हो गया है। खासकर खबरिया चैनलों जिसे लोगों ने अब भोकाली मीडिया भी कहना चालू कर दिया है। खबरों को लेकर इनके समाजशास्त्रीय समीकरण में खबरों की क्लास और सामाजिक अर्थशास्त्र पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाता है। सही मायने में तो इन न्यूज चैनलो के पास आज न्यूज का गंभीर अकाल है। खासकर खबरों के चौखटे में सी 5 का प्रभाव जगजाहिर है। सी यानी कॉमेडी क्रिकेट क्राइम सिनेमा और सेलेब्रेटी के चमक दमक के बाद ही खबरों का नंबर आता है। मगर सी के कैदखाने से जकड़े तमाम न्यूज चैनलों में न्यूज की बजाय सी का तिलिस्म ही अपने अलग रंग ढंग में दिखता है। सी के फैलते दायरे में कोर्ट सोशल इकॉनामिक्स क्लास कॉरपोरेट कंपनियों कैरेक्टर और करप्शन की  यानी सी की ही धमक तेज हुई है।

 खासकर भोकाली चैनलों में किसी को कैरेक्टलेस या करप्ट बता देना सबसे आसान हो गया है।  खबरो को लेकर भी सी यानी क्लास देखा जाता है। यदि किसी मलीन बस्ती की किसी गरीब मासूम के साथ रेप करने के बाद भी बंदा बहादुर छुट्टा घूम रहा हो तो भी यह खबरिया चैनलों के क्लास के अनुसार खबर  नहीं है। मगर यही घटना किसी सभ्रांत इलाके के किसी अमीरजादी के संग हो जाए तो खबर देने से लेकर पुलिस प्रशासन पर भोकाली रिपोर्टरों का गुस्सा देखने  लायक होता है।

मीडिया के लिए खबरों के साथ यह रंगभेद नीति आज फैशन सा हो गया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिमागी बुखार से करीब 400 लोगों की मौत भी फटाफट चैनलों की नजर में कोई खबर नहीं होती है, मगर किसी अभिनेत्री के नाक टूटने की खबर इन चैनलो के लिए ब्रेकिंग न्यूज से लेकर आधे आधे घंटे की स्पेशल स्टोरी बन जाती है। न्यूज चैनलों में भारत की छवि एक हंसते खेलते मस्त देश की है, जहां पर समस्याओं का होना अजूबा सा है।  इसका खामियाजा भी इनको ही भुगतना पड़ा है। चैनलो ने आम आदमी और उनके सुख दुख की खबरों को क्या काटा कि हिन्दुस्तान में रहने वाले गरीब भारत के करोड़ो लोगो ने अपनी पसंद के जीआरपी से इन चैनलों को ही काट डाला। जिसके तमाम चैनलों के सामने टीआरपी राक्षस भयानक संकट बनकर प्रकट हुआ है।  जितने चैनल चालू हुए उससे कहीं अधिक बंद हो गए और जो चल भी रहे हैं तो उनमें भी ज्यादातर की सांसे उखड़ रही है।

अपने रिपोर्टरों को मौके पर भेजकर समाचार की प्रस्तुति का जमाना भी लद चुका है। अघोषित सरकारी मदद से यह और बात है कि प्रधानमंत्री के पहले अमरीका दौरे की खबर देने के लिए सभी चैनलों के रिपोर्टर एक सप्ताह पहले ही अमरीका में घूम घूमकर माहौल बनाने लगे, और इसका फायदा भी हुआ कि प्रधानमंत्री की पहली अमरीका यात्रा के ग्लोबल और ग्लैमरस न्यूज से अमरीका भी चकाचौंध रह गया। यही हाल नेपाल में आए भीषण भूकंप में भी देखने को मिला। देश के तमाम बड़े चैनलों के रिपोर्टर नेपाल में घूम घूमकर खबरदेने लगे। पांच दिन के बाद भी मलवे में दबे रहकर भी किसी बच्चे के जीवित होने की खबर भी पाठकों तक पहुंची, मगर भूकंप से भारत में मरे 400 लोगों और प्रभावित 250 से ज्यादा शहरों की तबाही को जानने के लिए न किसी चैनलों के पास समय था न संवेदना कि अपने घर आंगन में पसरे मातम पर भी खबरों के दो बूंद आंसू बहा दे ।

 अब इन चैनलों में खबर देने का पूरा अंदाज ही बदल गया है। गिनती पहाड़ा गुना और भाग अंदाज में खबरे दी जाने लगी। पांच मिनट में 50 न्यूज 10 मिनट में 100 और 20 मिनट 200 न्यूज । और वो भी इस गूमान भरे दावे के साथ बिना ब्रेक 200 खबरों देने वाला दुनिया का सबसे तेज बुलेटिन है। फटाफट स्पीड खबरों का नुकसान यह हुआ कि समाज में खबरों का असर ही समाप्त हो गया। चैनल में एकंर चिल्लाता रहे और दूसरी तरफ तमाम नौकरशाहों पर अब कोई असर नहीं पड़ता। चैनलों ने खबरों को ही आत्मदाह सा कर दिया।

खबरों के इस मछली बाजारी भागमभाग के बीच खबरों और आखिरी आदमी तक की खबर तक अपनी पहुंच बनाने पर खास ध्यान दिया जाएगा। दुनिया के सबसे यंग देश भारत के इस राज्य के नागरिकों और नौजवानो को यह भरोसा भी दिलाना चाहेंगे कि समसामयिक जरूरतों के साथ साथ आने वाले कल आज और कल पर भी हमारा ध्यान रहेगा। प्राकृतिक भौगोलिक तौर पर असहज आबाद इस राज्य में हर जगह पहुंचना आज भी एक बड़ी चुनौती है, मगर प्राकृतिक संपदा इस राज्य की सबसे बड़ी निधि  भी है। आर्थिक सामाजिक तौर पर सबसे कमजोर लोग हमारे लिए हमेशा सबसे बड़ी खबर की तरह रहेंगे। संसद की खबरें तो सभी मीडिया छापती है  मगर तमाम सामयिक खबरों के साथ कदमताल करते हुए रांची एक्सप्रेस की नजर में हाशिए पर रह गए लोग भी रहेंगे। खासकर गांव देहात चौपाल से संचालित स्थानीय स्तर की सबसे नीचली प्रशासनिक व्यवस्था ग्राम पंचायत की चौपाली खबरों से लेकर संसद तक की खबरे इसकी निरंतर शोभा बनेंगी।   

         











मल्टी एडिशन युग के खतरे / अनामी शरण बबल

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  अनामी शरण बबल




पिछलेकई सालों से खबरिया और मनोरंजन चैनलों के अलावा धार्मिक चैनलों औरक्षेत्रीय या लोकल खबरिया चैनलों का बढ़ता जलवा फिलहाल थमता-सा दिख रहा है।हालांकि अगले छह महीने के दौरान कमसे कम एक दर्जन चैनलों की योजनाप्रस्तावित है। इन खबरिया चैनलों की वजह से हिन्दी के अखबारों के मल्टीएडिशन का खुमार भी थोड़ा खामोश सा दिखने लगा था।

खासकरएक दूसरे से आगे निकलने के अंधी प्रतियोगिता में लगे दैनिक भास्कर, अमर उजाला औरदैनिक जागरण का मल्टी एडिशन कंपिटीशन फिलहाल रूका हुआ है। अलबता, दैनिकहिन्दुस्तान का मल्टी एडिशन कल्चर इस समय परवान पर है। इस समय थोड़ा अनजानानाम होने के बावजूद बीपीएन टाइम्स और स्वाभिमान टाइम्स का एक ही साथ दोतीन माह के भीतर एक दर्जन से भी ज्यादा शहरों से प्रकाशन की योजना हैरानीके बावजूद स्वागत योग्य है। इनकी  भारी-भारी भरकम योजना निःसंदेह पत्रकारोंऔर प्रिंट मीडिया के लिए काफी सुखद है। उतर भारत के खासकर हरियाणा, पंजाबइलाके में पिछले दो साल के दौरान आज समाज ने भी आठ दस एडिशन चालू करकेहिन्दी प्रिंट मीडिया को नया बल प्रदान किया है।

हिन्दीमें मल्टी एडिशन का दौर 1980 के आस-पास शुरू हुआ था, जब नवभारत टाइम्स केमालिकों ने पटना, लखनऊ, जयपुर आदि कई राजधानी से एनबीटी को आरंभ करकेप्रिंट मीडिया में मल्टी कल्चर शुरू किया। मात्र पांच साल के भीतर हीएनबीटी के मल्टी कल्चर का जादू पूरी तरह उतर गया और धूम-धड़ाके से चालूएनबीटी के खात्मे से पूरा हिन्दी वर्ग सालों तक आहत भी रहा। हालांकि दैनिकजागरण और अमर उजाला से पहले दैनिक आज के दर्जन भर संस्करणों का गरमागरमबाजार खासकर उतरप्रदेश और बिहार में काफी धमाल मचा रखा था। सही मायने में 1989 और 1992 के दौरान दैनिक जागरण के बाद राष्ट्रीय सहारा का राजधानीदिल्ली से प्रकाशन आरंभ हुआ, और आज दोनों के बगैर मुख्यधारा की पत्रकारिताअधूरी है। हालांकि इसी दौरान हंगामे के साथ कुबेर टाइम्स और जेवीजी टाइम्सका भी प्रकाशन तो हुआ, मगर देखते ही देखते ये कब काल कलवित हो गए, इसकाज्यादातरों को पता ही नहीं चला।

1990 के बाद हिन्दीपत्रकारिता का स्वर्णकाल का दौर शुरू हुआ, जब दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, दिव्य हिमाचल, हरिभूमि,  राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, नवभारतआदि कई अखबार एक साथ अलग-अलग इलाकों से प्रकाशन आरंभ करके हिन्दी प्रिंटमीडिया को सबसे ताकतवर बनाया। खासकर बिना शोर हंगामा के मुख्यधारा में शामिल होने या रहने की ललक दिखआए बगैर ही लोकमत और प्रभात कबर ने तो मध्य भारत छोड़कर पूर्वी भारत मैं अपनी बादशाहत अर्जित कर ली। वेस्ट बंगाल तकमें घुसकर प्रभात खबर ने अपनी जड़े इतनी मजबूत कर ली है कि पेपर वार में शायद इसके सामने टिकना हिसी भी बड़े पेपर के लिए सरल नहीं होगा। अपनी गुणवत्ता और भारी भरकम रोचक ज्ञानप्रद सामग्री से लबरेज प्रभात खबर किसी भी पेपर की सुबह की चाय खराब कर सकती है।
प्रभातखबर का मुख्यधारा से अलग उदय एक सुखदसंकेत है, तो नागपुर से निकला लोकमत भी गैरहिन्दी भाषी क्षेत्र से होने के बाद भी हिन्दी के किसी भी बेहतरीन अखबार से किसी भी मामले में 19 नहीं है। लगभग यही हाल दैनिक भास्कर की है। गैरभाषी गुजरात में जाकर हंगामा करने वाले इस भास्कर की गूंज भले ही राजधानी दिव्वी में नहीं है, मगर राजस्थान में शोर बरपाने के बाद बिहार झारखंड में भी इनका सफर हिन्दी पत्रकारिता को ही बल दे रहा है।

नयी सदी में खबरियाचैनलों के तूफानी दौर के सामने  सब कुछ  फीका सा दिखले लगा था। रोजाना एकनये चैनल की शुरुआत, मगर आम दर्शकों की नजर से ओझल इन चैनलों का संस्पेंसआज भी एक पहेली है। नए चैनल को चालू करने से ज्यादा उसको घरों में लगेइडियट बाक्स तक पहुंचाना आज भी एक बड़ा गोरखधंधा है। इसके बावजूद अभी तकखबरिया चैनलों के ग्लैमर को कम नहीं किया जा सका है। अलबता, धन और पगार केमामले में इनका जादू पूरी तरह खत्म-सा हो गया है मगर, फाइव सी के बूते इनचैनलों के बुखार को जनता ने थाम लिया है। व्यस्क होने की बजाय 16-17 साल में भी खबरिया चैनलों के अंदाज में अनाड़ीपन ही है। फिलहाल  जनता की पंसद क्रोसीन दवा बनकर अब इन भोकाल टीवी के लिए खतरे कीघंटी नबनती जा रही है।

ठंडा-सा पड़ा प्रिंट मीडिया पिछलेसाल से एकाएक परवान पर है। हालांकि अमर उजाला से अलग होकर अग्रवाल बंधुओंके एक भाई ने अपने पिता डोरीलाल अग्रवाल के नाम पर ही मिड डे न्यूज पेपरडीएलए के लगभग एक दर्जन संस्करण चालू करके धमाल तो मचाया, मगर साल के भीतरही आधा दर्जन संस्करणों पर ताला लग गया। हिन्दी प्रिंट मीडिया के साथ बंदहोने और फिर से चालू होने का यह लूडो गेम  लगा रहता है।मगर डीएलए को भूल जाए तो जनसंदेश समेत आधा दर्जन अखबार हिन्दी की शोभा है. पंजाब केसरी समूहद्वारा नवोदय टाईम्स को दिल्ली से लाना और धूम धड़ाके से जमा देना यह साबित करता है कि हिन्दी के पाठक अंग्रेजी की चमक दमक ते बाद भी व्यग्र है। यही हिन्दी की ताकत है कि 54 साल पुराने अखबार रांची एक्सप्रेस को पुर्नजीवित करने के लिए एक पत्रकार सुधांशु सुमन ने अपनी पुश्तैनी संपति को इसमें झोक दिया। केवल अपने पाठकों पर यकीन करके सुधांशु सुमन रांची एक्सप्रेस को फिर से प्रतिष्ठित करने मे लगे है। हिन्दी का यही बल है कि फैजाबाद के शीतला सिंह पिछले 50 साल से जनमोर्चा अखबार को ऑक्सीजन दे रहे है. लगभग इसी हाल में बिहार के औरंगाबाद से कमल किशोर पिछले 27 साल से नव बिहार टाईम्स को चला रहे हैं तो इसी शहर से उदय हुए सोन वर्षा टाईम्स दैनिक अखबार भी हिन्दी की गरिमा को जीवित करने में जुटा है। तो केवल झारखंड में ही पिछले पांच साल के दौरान कमसे कम एक दर्जन अखबार उदित हुए । पलामू में राष्ट्रीय नवीन मेल भी हिन्दी के पताके को लहराने में लगा है।

यह भी हैरान करता है कि भले ही अंग्रेजी अखबारों का चलन . व्यापार और प्रभाव के साथ प्रसार भी बढ़ रहा हो मगर पिछले एक दशक में यदि 30 नए हिन्दी अखबार पैदा हुए तो अंग्रेजी में एक दर्जन अखबार भी पाठकों को नहीं मिले । फिर यह मल्टी एडिशन की क्रांति तो केवल हिन्दी में ही है। जिसका जादू उतरने वाला नहीं दिख रहा. अलबता लोकल से भी लोकलाईज हो गए इन पेपरों के कारण राष्ट्रीय अखबार की परिभाषा ही बदल गयी। सारे पेपर एक शहर तक सिमट कर रह गए। खबरों का बाजार बढ़ गया मगर हिन्दी में खबरों का संसार सिकुड़ गया। यही हिन्दी की सबसे कमजोर कड़ी है जिस पर ध्यान दिए बगैर सबसे ज्यादा सबसे अधिक और सबसे आगे रहने के दावे के सामने हिन्दी खुद से ही पिछड़ रही है। अपना आत्म मंथन करना इसको गवारा नही यही हिन्दी की कमी है जिस पर गौर किए बिना ही हिन्दी का अंधा रेस जारी है।  

जीवन में सेक्स टॉनिक समान होता है डा. अंजना संधीर

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मेरे जीवन के कुछ और इडियट्स-6

केवल किताबी ज्ञान से बनी सेक्स की प्रकांड़ ज्ञाता

अनामी शरण बबल

तेरे साथ मैं हूं कदम कदम, मैं सुकूने दिल हूं, करार हूं
तेरी जिंदगी का चिराग हूं , तेरी जिंदगी की बहार हूं

अहमदाबाद से लेकर अमरीका तक कभी अपनी कविता गजल शेरो शायरी से कभी मुशायरे की जान बन जाने वाली तो अमरीका में जाकर हिन्दी सीखाने के लिए हिन्दी सिनेमा के गानों को अपना माध्यम बनाकर अमरीकी भारतीय समाज में सालों तक बेहद लोकप्रिय रही डा. अंजना संधीर एक मल्टी टैंलेंट विमेन का नाम है । गैर हिन्दी भाषी राज्य गुजरात से होने के कारण हिन्दी गजल शायरी से ये एक जिंदादिल रोचक मोहक और यादगार महिला की तरह समाज में काफी लोकप्रिय है। अलबत्ता शान शऔकत और शोहरत्त के बावजूद काफी सामान्य तथा खासकर मेरके साथ इनका घरेलू बहनापा सा नाता है। जिसके तलते मैं इनकी शोहरत की परवाह किए बिना एक अधिकार के साथ जोर जबरन तक अपनी बात मनवा लेता हूं। माफ करना अंजना दी मैं तुम्हारे नाम के आगे अब डा. नहीं लिख रहा हूं । 56 साल की अंजना संधीर के साथ मेरा नाता भी एकदम अजीब है। हमदोनों 1983 यानी 33 साल से एक दूसरो के जानकार होकर पारिवारिक परिचय के अटूट धागे में बंधे है। मेरे घर के सारे लोग इनको बहुत अच्छी तरह से जानते भी है।
हम भले ही केवल एक बारही मिले पर फोन और जरूरत पड़ने पर उनके ज्ञान और संपर्को से घर बैठे बहुत सारी जानकारी भी हासिल किए। यह मैं भी मानता हूं कि अंजना से मेरा संबंध हमेळा कई रास्तों को जोड़ने वाली पुल की तरह दिखता रहा है।
मेरी अंजना संधीर से पहली आखिरी या इकलौती मुलाकात दिल्ली क्नॉट प्लेस के पास बंगला साहिब रोड के फ्लैट एस- 91 में 1991 में हुई थी। यहां पर मैं दो सबसे घनिष्ठ दोस्त पार्थिव कुमार और परमानंद आर्या के साथ रहता था। इस मुलाकात के 25 साल हो जाने के बाद फिर दोबारा मिलना संभव नहीं हो पाया। अहमदाबाद जाने का मुझे कोई चार पांच मौके मिले , मगर उन दिनो वे अमरीका में शादी कर बाल बच्चों के साथ हिन्दी की मस्ती में मस्त थी। और जब वापस अहमदाबाद लौटी तो फिर मेरा जाना नहीं हो पा रहा है। यानी एक मुलाकात के बाद दोबारा कोई संयोग ही नहीं बना ।
यहां पर भी एक रोचक प्रसंग है कि मेरे दो छोटे भाई उनदिनों अहमदाबाद में ही रहता था। (एक भाई तो आज भी अहमदाबाद में ही है) मेरे और भी कई भाई और रिश्तेदार अभी गुजरात और अहमदाबाद में भी है। पर मेरा संयोग फिलहाल नहीं बन रहा है। मेरे भाई लोग किसी मुशायरा को सुनने गए, तो अंजना संधीर के नाम सुनते ही मेरे भाईयों ने जाकर अपना परिचय दिया। मेरे भाईयों का घरेलू नाम टीटू और संत को तो अंजना भी जानती थी। भरपूर स्वागत करती हुई अंजना ने माईक से पूरे जन समुदाय को बताया कि बिहार में मेरा एक दोस्त भाई है अनामी शरण बबल जिसे मैं कब मिली हूं यह याद भी अब नहीं पर आज अनामी के दो छोटे और मेरे प्यारे भाई यहां पर आए हैं जिनका स्वागत करती हुई मै इनसे गाना गाने का आग्रह भी करती हूं। ना नुकूर के बाद गायन में एक्सपर्ट मेरे भाईयों ने दो गाना सुनाकर महफिल की शोभा में दो एक चांद लगा दिया।
केवल मेरा नाम लेकर भी मेरे करीब पांच सात दोस्तों ने भी अंजना से मुलाकात की और सबके अपने रिश्ते चल भी रहे है। मैं इन बातों को इतना इसलिए घसीट रहा हूं ताकि 30-32 साल पुराने संबंधों की गरमी महसूस की जाए। मगर जब वो एक यौन विशेषज्ञ के रूप में मेरे सामने एक नये चेहरे नयी पहचान और नयी दादागिरी के साथ 1991 में मात्र 31 साल की उम्र में एक अविवाहित सेक्स स्पेशलिस्ट की तरह मिलने जा रही हों तब किसी भी पत्रकार के लिए शर्म हय्या संकोच का कोई मायने नहीं रह जाता। यौन एक्सपर्ट की नयी पहचान मेरे को थोड़ी खटक रही थी, यह एक संवेदनशील प्रसंग है जिस पर बातूनी जंग नही की जा सकती। मेरे मन में भी इस सवाल के साथ दर्जनों सवाल रेडीमेड माल की तरह तैयार थे। दोपहर के बाद अंजना संधीर जब बंग्ला साहिब गुरूद्वारा रोड वाले फ्लैट मे आई। उस समय मेरे दोनों दोस्त मौजूद थे, मगर बातचीत में कोई खलल ना हो इस कारण हमारे प्यारे दोनों दोस्त पास के रीगल या रिवोली सिनेमाघर में पिक्चर देखने निकल गए। ताकि बात में कोई बाधा न हो।
कंडोम को लेकर नागरिकों की प्रतिक्रिया पर डा. अंजना संधीर ने जब लिंटास कंपनी के लिए एड को जब अपनी रिपोर्ट दी। तो जैसा कि उन्होने बताया कि वैज्ञानिक और सामाजिक आधार यौन संबदऔक कंडोम की भूमिका जरूरतऔर सामाजिक चेतना पर इनकी रिपोर्ट से एड कंपनी वाले बहुत प्रभावित हुए और एक विशेष प्रशिक्षम के बाद इनको अपना सेक्स कंसलटेंट के तौर पर अपने साथ जोड़ लिया। सर्वेक्षण रिपोर्ट के आधार महिलाओं की रूचि लालसा जिज्ञासा पसंद नापसंद चाहत मांग इच्छा आदि नाना प्रकार की मानसिक दुविधाओं पर इनके काम को पसंद किया गया और इस शोध को बड़े फलक पर काफी प्रचारित करके मेडिकल शोध की स्वीकृति को वैधानिक मान्यता दी गयी। यानी यौन जीवन के बगैर ही यौन की मानसिकता पर पर डा. अंजना संधीर की ख्याति में इजाफा हुआ।
रसोई ज्ञान के रूप में केवल चाय कॉफी तक ही मैं ज्ञानी था। बातचीत की गरमी के बीच मैं चाय और अल्प खानपान के साथ अंजना जी के प्रवचन को लगातार कायम बनाए रखने के लिए एक ही साथ टू इन वन जैसा काम करता रहा। सेक्स को लेकर एक पुरूष, की उत्कंठा जिज्ञासा मनोभाव से लेकर मानसिक प्रतिबंध और शरम बेशर खुलेपन झिझक की सामाजिक धारणा पर भी मैं प्रहार करता रहा। वे निसंकोच एक बेहद बोल्ड लड़की ( उस समय अविवाहित अंजना जी की उम्र केवल 31 साल) की थी। मैने उनके ज्ञान पर बार बार संदेह जताया और बगैर किसी प्रैक्टिकल के सेक्स पर इतना सारा या यों कहे कि बहुत सारा साधिकार बोलना मुझे लगातार खटका। इसके बावजूद वे तमाम भारतीय यानी करोड़ो विवाहित महिलाओं की सेक्स जिज्ञासा अनाड़ीपन और झिझक शर्म पर भी निंदात्मक वार करती रही।
सेक्स विद्वान बनने की प्रक्रिया के अनुभव पर ड़ा. अंजना ने कहा कि यह एक बेहद अपमानजनक अनुभव सा रहा। बहुत सारी लड़की दोस्तों ने तो साथ छोड़ दी,तो कई लड़कियों के मां पिता ने तो अंजना को अपने घर से निकाल बाहर कर दिया। जिससे इनका मन और दृढ हुआ और लगा कि अब तो सेक्स पर एक गंभीर काम कर लेना ही इसका सर्वोत्तम जवाब होगा। अंजना ने कहा कि सेक्स को लेकर आज भी भारतीय महिलाओं से बात करना सरल नहीं है। भाग्य को मानकर अधिकांश महिलाएं सबकुछ शांति के साथ सहन कर लेती है। सेक्स को लेकर भारतीय महिलाएं शांत निराशावादी होती है जबकि भारतीय पुरूष शक्की आक्रामक और सेक्स में स्वार्थी होता है। सेक्स सर्वेक्षण के बारे में इनका कहना है कि लंबे विवाहित जीवन के बाद भी 60 फीसदी महिलाएं संभोग में संतुष्टि या चरम सुख के दौर से कम या कभी नहीं गुजरी है। ज्यादातर महिलाओं का सेक्स ज्ञान भी लगभग ना के समान ही होता है जबकि पुरूष केवल अपनी संतुष्टि के लिए ही इसमें लिप्त होता है।
सेक्स को जीवन और समाज में किस तरह देखा जाना चाहिए इसपर अंजना का मंतव्य है कि हमारे धर्म शास्त्रों में भी धर्म अर्थ काम मोक्ष में काम को स्थान दिया गया है। सामाजिक संरचना और वंशपरम्परा की वृद्धि में केवल सेक्स ही मूल आधार है। शादी विवाह की अवधारणा भी सेक्स से समाहित है। इसे सामान्य और स्वस्थ्य नजर से देखा जाना चाहिए । मगर सेक्स को लेकर आज भी समाज में हौव्वा है। बगैर सेक्स मानव जीवन रसहीन नीरस चिंताओं कुंठाओं और तनावों से भरा है। सेक्स को अंधेरे बंद कमरे से बाहर निकालकर चर्चा संगोष्ठी और सामाजिक बहस का मुद्दा बनाना होगा तभी सेक्स को लेकर भारतीय समाज का नजरिया बदलेगा। भारत में सेक्स शिक्षा की जरूरत पर भी जोर देती हुई अंजना संधीर का मानना है कि ज्ञान के अभाव में लड़कियों को सेक्स का कोई वैज्ञानिक आधार ही नहीं मालूम है। एक कन्या तन परिपक्व होने से पहले नाना प्रकार के दौर से गुजरती है ,मगर खासकर ग्रामीण भारत में तो माहवारी की सही अवधारणा तक का ज्ञान नहीं है। कंड़ोम की जानकारी पर हंसती हुई डा. अंजना कहती है कि ग्रामीण भारत के पुरूषों में भी सेक्स का मतलब केवल शरीर का मिलन माना जाता है। कंडोम के बारे में इनका कहना है कि गांव देहात में सरकारी वाहन से कभी परिवार नियोजन के प्रचार में लगे स्वास्थ्यकर्मी कंडोम के प्रयोग विधि की जानकारी देते हुए कंडोम को हाथ के अंगूली में लगाकर लगाने की विधि को दिखाकर इस्तेमाल करने की सलाह देते है, मगर मजे कि बात तो यह है कि ज्यादातर पुरूष कंडोम को अपने लिंग में लगाने की बजाय संभोग के दौरान भी कंडोंम को अपनी अंगूली में लगाकर ही अपने पार्टनर के साथ जुड़ते है। और यह मामला भी तब खुला जब कंडोम के उपयोग के बाद भी महिलाओं का गर्भ ठहर गया और पूछे जाने पर ग्रामीण भारत के अबोध लोग यह जानकारी देते। गरीब अशिक्षित ग्रामीण भारत के अबोधपन को यह शर्मसार करती है तो ज्ञान के अभाव को भी दर्शाती है।
भारतीय समाज में सेक्स को लेकर आज भी कुंठित नजरिया है। हस्तमैथुन को लेकर भी समाज में नाना प्रकाऱेण गलत धारणाएं है। डा. संधीर के अनुसार लगभग 100 प्रतिशत लड़के अपनी युवावस्था में किसी न किसी तरह इससे ग्रसित होते है। केवल पांच प्रतिशत लड़के इससे मना करते हैं और मेरी मान्यता है कि वे सारे झूठ बोलते है। एकदम एकखास उम्र में इससे युवा संलग्न होते ही है। और झूठ बोलना उनकी नैतिकता का तकाजा है। डा. संधीर के अनुसार लड़कियों के साथ भी यही हिसाब है और उनका व्यावहारिक समानते का समीकरण भी समान है।
पाश्चात्य देशो के बाबत पूछे जाने पर इनका मानना है कि वहां पर भी लोग अब सेक्स को लेकर अपनी धारणा भारतीयों की तरह संकीर्ण कर रहे है। सेक्स को लेकर खुलेपन और मल्टी रिलेशन को लेकर भी कोई खराबी नहीं माना जाता , मगर अब रोग और अपने आप को सेफ रखने के लिए ही सही वे सेक्स को लेकर अपने साथी पर साथ के अनुसार ही अब विचार करती हैं। संधीर का मत है कि सेक्स जीवन समाज और सामाजिक नैतिकता का सबसे सरस प्रसंग है। इसको दबाने का ही यह गलत परिणाम है कि तमम रिश्तों को सेक्स से जोड दिया गया है। आज के जमाने में ज्यादातर मर्द 45-50 की उम्र पार करते करते सेक्स की कई मानसिक बीमारी और भ्रांतियों से ग्रसित हो जाते है। अपनी इस उम्र के अनुसार होने वाली कमी का इलाज कराने की बजाय इसको छिपाते है। मानसिक तौर पर बीमार समाज की गंदी सोच और सड़क छाप अनपढ़ नीम हकीमों ने यौनरोग को इस तरह आक्रांत कर दिया है कि लोग इसका इलाज कराने की बजाय शक्ति वर्द्धक गोलियों से राहत की तलाश करते है। जिससे बना बनाया खेल और बिगड़ जाता है। पावर गोलियों की शरण में जाकर मरीज इसके जाल से मुक्त नहीं होता और पावरलेस होकर कुंठित हो जाता है। समाज को नीम हकीमी डाक्टरों से सेक्स रोग को मुक्त कराने की जरूरत है तभी सेक्स को लेकर नागरिक सहज सरल और निर्भय होकर अपनी बात सामूहिक चर्चा में करके एक बेहतर इलाज पर एकमत हो सकता है।
उन्मुक्त यौनाचार की नजर में सेक्स को देखे तो जीवन में चरित्र का कोई मायने रहता है ? इच्छा के खिलाफ यौन कर्म एक अपराध है। और जीवन में चरित्र कातो बड़ा महत्व है मगर यह सब पुरूष सत्ता को और प्रबल बनाने की साजिश का हिस्सा है। सेक्स तो मनुष्य को जोडता है। रंग भेद जाति की गहरी छाप समाज में है पर यौन संबंध के समय कोई धर्म कर्म जाति रंग नहीं होता। इसे स्वार्थपूर्ण लाभ का एक नजरिया भी कह सकते हैं, मगर सेक्स की कोई जाति रंग और भेद नहीं होता । यह इसका एक सार्थक पहलू है कि प्यार से समाज में समरसता बढ़ेगी ।
सेक्स पर अंकुश को आप किस तरह देखती है ?
यह भी पुरूष के स्वार्थी पन का उदाहरण है। अपने लिए तो चरित्र का अर्थ कुछ और है और महिलाओं के लिए इनके मायने अलग हो जाते है। यह दबाकर रखने की कुचेष्टा का अंजाम है।
श्लीलता और अश्लीलता को आप किसतरह परिभाषित करेंगी ?
सेक्स अश्लील नहीं होता. यह तो मानव सृजन का मूल आधार है। जीवन की एक सहज जरूरत है। इसे अश्लील कहा और बताया जाता है खजूराहों मंदिर के प्रेमपूर्ण कलाकृतियों को इसीलिए पावन माना जाता है।
प्रेम और संभोग तथा अपनी पत्नी तथा वेश्या के साथ के संबंधों में आप क्या अंतर स्पष्ट करेंगी ?
प्रेम की चरम अभिव्यक्ति का नाम संभोग है। अपने साथी के प्रति पूर्ण निष्ठा समर्पण और भावनात्मक लगाव की सबसे आत्मीय संवाद का ही नाम प्यार भरा संभोग है या आत्मीय समर्पण ही प्यार भरा संभोग होता है। जबकि वेश्या के साथ तो एक पुरूष केवल अपने तनाव को शिथिल करता है। पुरूष मूलत पोलीगेम्स (विविधता की चाहत) और महिलाएं मोनोगेम्स (एकनिष्ठ) होती है।
आज विवाहेतर संबंधों में बढ़ोतरी हो रही है? इसकी मानसिकता और यह कौन सी मोनोगेम्स गेम है ?
आज महिलाएं खुद को जानने लगी है और पुरूषों द्वारा जबरन लगाए गए वर्जनाओं से मुक्ति की चाहत से उबलने लगी है। पुरूषसता के खिलाफ महिलाएं खड़ी हो रही है ।
प्रतिशोध का यह कौन सा समर्पण तरीका है कि किसी और पुरूष की गोद में जाकर खो जाए ?
सेक्स के प्रति समाज में एक स्वस्थ्य और स्वाभाविक नजरिए के साथ सोचने और विचारने की जरूरत है ।
ओह चलिए आप भारतीय सेक्स नीति रीति दर्शन और पाश्चात्य सेक्स में क्या मूल अंतर पाती है ?
हमारे यहां सेक्स एक बंद कमरे का सबसे गोपनीय कामकला शास्त्र की तरह देखा और माना जाता है। वेस्ट में सेक्स मौज और आनंद का साधन है। आम भारतीयों में सेक्स को लेकर तनाव रहता है सेक्स से मन घबराता भी है। वेस्ट में सेक्स को लेकर कोई वर्जना नहीं है वे इसको खुलेपन से स्वीकारते हैं मगर भारत में तो इसको सहज से लिया तक नहीं जाता । जीवन में इसकी अनिवार्यता को भी लोग खुलकर लोग नहीं मानते।
क्या यह नहीं लगता कि पाश्चात्य समाज में औरत की भूमिका एक अति कामुक सेक्सी गुड़िया सी है ?
नर नारी की यौन लालसा और संतुष्टि के निजी आजादी को यौन कामुकता का नाम नहीं दे सकते।
हमारे यहां यौन शिक्षा की जरूरत पर बारबार जोर दिया जाता है भारत में इसका क्या प्रारूप होना चाहिए ?
अश्लील विज्ञापनवों की तरह ही हमा
रे यहां यौन की गंदी विकृत और सतही जानकारी ही समाज में फैला है। सेक्स की पूरी जानकारी को परिवार के साथ जोड़ा जाना चाहे तथा विवाह से पूर्व कोई जानकारी भरे आलेख की जरूरत पर विचार होना चाहिए ताकि एकलस्तर पर भी पढकर लोग अपने बुजुर्गो से इस बाबत विमर्श कर सके। बच्चों की जिज्ञासा शांत हो इसके लिए मां पिता की भूमिका जरूरी है। सेक्स की सही सूचना भर से भी यौन अपराध कुंठा हिंसा और गलत धारणाओं से बचाव संभव है।
क्या केवल अक्षर ज्ञान वाली शिक्षा में यौन शिक्षा को जोडने से समाज में और खासकर बड़े हो रहे बच्चों में निरंकुश आचरण का शैक्षणिक लाईसेंस नहीं मिल जाएगा ?
सेक्स एक बेहद संवेदनशील विषय है और जाहिर है कि इससे कई तरह की आशंकाए भी है । इसको वैज्ञानिक तरीके से लागू करना ही सार्थक और स्वस्थ्य समाज की अवधारणा को बल देगा. तभी कोई सकारात्मक परिणाम मिलेगा
और मान लीजिए कि यदि सेक्स शिक्षा को पढ़ाई में ना जोडा जाए तो क्या समाज में किस तरह का भूचाल आ जाएगा ?
(हंसकर) तुम अब इस सवाल पर मजाक करने पर आ गए हो।
कमाल है अंजना जी सदियों से अनपढ़ निरक्षर हमारे पूर्वजों ने बगैर शिक्षा ग्रहण किए ही इसकी तमाम संवेदनाओं को समझा जाना और माना , तो अब 21 वी सदी से ठीक पहले इसे कोर्स में शामिल कराना कहीं बाजार का तो प्रेशर नहीं है लगता कि सेक्स और कामकला को ही सेल किया जाए। ?
नहीं बाजार के प्रेशर से पहले इसको सेहत के साथ जोडकर देखना होगा कि इससे कितना नुकसान होगा।.
मैं भी तो यहीं तो कह रहा हूं कि बाजार में दवा और औषधि भी आता है. एक भय और हौव्वा को प्रचारित करके अरबों खरबों की दुकानदारी तय की जा रही है और आप इसकी सैद्धांतिक व्याख्या कर रही है ?
नहीं आप काम सेक्स यौन संबंधों को एकदम बाजार की नजर से देख रहे हैं जबकि यह बाजारू नहीं होता।
कमाल है अंजना जी एक तरफ आपका तर्क कुछ और कहता है और दूसरी तरफ आप बाजार विरोधी बातें करने लगती है ?
नहीं तुम इसके मर्म को नहीं समझ रहे हो।
कमाल है अंजना जी मैं तो केवल इसके मर्म और धर्म की बात कर रहा हूं केवल आप ही तो हिमायती बनकर संसार से तुलना करके भारतीय महिलाओं की अज्ञानता पर चिंतित हो रही है। पर चलिए बहुत सारी बाते या यों कहे कि बकवास कर ली आपको बहुत सारी जानकारी देने के लिए शुक्रिया । और इस तरह 1991 में की गयी यह बात उस जमाने की थी संसार में मेल नेट और गूगल अंकल पैदा नहीं हुए थे। टेलीफोन रखना स्टेटस सिंबल होता था और केवल तीन सेकेण्ड बात करने पर एक रूपया 31 पैसे सरकारी खजाने में लूटाने पड़ते थे। यानी यह इंटरव्यू भी बाबा आदम के जमाने की है जहां पर किसी लड़की को सेक्सी कह देने पर अस्पताल जाने की सौ फीसदी संभावना होती थी। यह अलग बात है कि इन 25 साल में अब इतना बदलाव आ गया है कि जब तक किसी लड़की को कोई लड़का सेक्सी ना कहे तबतक लड़की को भी लगता है कि उसके रंग रूप पर कोई सही कमेंट्स ही नहीं की गयी है ।
तेरे साथ मैं हूं कदम कदम, मैं सुकूने दिल हूं, करार हूं
तेरी जिंदगी का चिराग हूं , तेरी जिंदगी की बहार हूं
यदि इस गजल को सेक्स की जरूरत पर भी जोड़ दें तो इसकी खासियत पर कोई असर नहीं पडेगा ।
नोट अपन देश में बढ़ते पोर्न को देखते हुए ही मुझे लगा कि डा, अंजना संधीर के मनभावन प्रवचनों से और लोगों को बताया जाए। हालांकि मैने इस बातचीत को दर्जनों जगह इस्तेमाल कर चुका हूं पर पिछले 15- 16 साल से यह बातचीत अंधेरे में कहीं धूल खा रही थी लिहाजा इसका पाठन सुख ले।
अनामी
27 अक्टूबर 2016

मीडिया का भविष्य (vs) भविष्य का मीडिया

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अनामी शरण बबल

(लेख कोई 8 माह पुराना है पर हालात एक से हैं। लिहाजा अब हाजिर है )

कल दिवंगत पत्रकार आलोक तोमर की चौथी पुण्यतिथि में शामिल होने का मौका मिला । आलोक तोमर औरअखिल अनूप दिल्ली के मेरे सब से पहले मित्र रहे है। यह एक संयोग है कि आलोक अब जमाने में नहींहैं तो अखिल अब दिल्ली छोड़ यूपी मे कहीं रहता है। वरिष्ठ पत्रकार आलोक को केवल पत्रकारकहना बेमानी है। जनसत्ता के उदय के साथ ही आलोक तोमर हिन्दी पत्रकारिता में एक स्टार की तरह उभरे और करीब 7-8 साल में बेहतरीन रिपोर्टिंग की। उनकी रपटे ही आज तक उनकी पहचान को और धारदार बनाती है। आलोक तोमर मेरा परिचय तब हुआ था जब मैं सही मायने में पत्रकार भी नहीं बन पाया था। जनसत्ता की खबरों का मेरे उपर अईसा जादू था कि में आलोक जी को पहला पोस्टकार्ड 1994 में डाला, जिसमें बगैर जाने ही भाभी को भी प्रणाम लिख डाला। मगर. लौटती डाक से ही उनका पत्र मिला, जिसमें यह कहकर भाभी को भेजा गया प्रणाम लौटा दिया कि अभी तेरी कोई भाभी नहीं है ।

यादों में आलोक के इस कार्यक्रम में संगोष्ठी का विषय था भविष्य की मीडिया की चुनौतियां.। हालांकि इसपर कोई जोरदार हंगामा सा तो नहीं बरपा। मगर मुझे लग रहा है किसी मीडिया के सामने तो कोई चुनौती है ही नहीं। चुनौती तो तब होती है, जब संघर्ष हो रस्सा कस्सी हो चुनौती से बचने के लिए दम लगाया जा रहा हो। मीडिया तो पहले ही बाजारू धनकुबेरों के सामने घुटने टेक दी है। बाजार और मनी पावर के सामने तो मीडिया ने अपना रंग रूप चेहरा मोहरा आकार प्रकार शक्ल चरित्र चाल चलन तक सब बदल सा लिया है। एड के सामने तो पेपर का पहला पेज कितना भीतर घुस गया है यह अब तलाशना पडता है।

कुछ दिन पहले ही हाथी निशान पर बाहरी दिल्ली से एकाएक एक लफंगा प्रोपर्टी डीलर डीडीए और जमीलोंका दलाल कुबेरपति चुनावी मैदान में उतरा। बसपा मुखिया मायावती द्वारा टिकट दिए जाने के बाद राजधानी की हर तरह की मीडिया पेपर टीवी वेबसाईट से लेकर लोकल चैनल तक के पत्रकार और एड मैनेजरों ने मानों बसपाई नेता के घर पर ही डेरा डालकर विज्ञापन के लिए चाकरी करने लगे। .भविष्य की मीडिया का कल क्या होगा यह मीडिया मालिकों और चाकर संपादकों पर निर्भर नहीं है।
सबकुछ मनी पावक धन दस्युओं की हैसियत और इच्छा पर संभव है कि वो मीडिया को रखैल की तरह रखे या सखा की तरह या औजार की तरह अपने हित में यूज करे।

24 घंटे तक चीखने चिल्लाने वाले भोंपू भोकाल चैनलों को देखकर तो अब शर्म आने लगी है। खबरिया चैनलों में खबक किधर है यह खोजी पत्रकारिता का एक शोधपत्र सा बन गया है। खबरिया चैनलों में तो अपना देश हंसता खेलता मुस्कुराता खुशहाल देश दिखता है। जब तक सौ पचास निर्बल निर्धन लोगों की मौत नहीं होती या आपदा न आ जाए तब तक तो वे इस इडियट बॉक्स के भीतर बतौर एक समाचार तक घुस नहीं पाते। . मीडिया के भविष्य या भविष्य की मीडिया पर चिंता करने का समय नहीं रह गया है। करोड़ों रूपए लगाकर कोई काला पीला धंधा करके अखबार निकालने वाला कुबेर में इतना कहां जिगरा होता है कि वो घाटे के साथ साथ अपने रिश्तों को भी खराब करे। पेपर या दिन रात बजने वाला भोंपू निकाल कर तो वह रातो रात अरबपति बनने या राज्यसभा में घुसने का सपना देखा जाने लगा है। संसदके पीछले दरवाजे से घुसने का यह चोर रास्ता जो बन सा गया है। अपन जेनरल नॉलेज जरा कमजोर है मगर इसी संसद मेंआधादर्जन से ज्यादा अखबार मालिक संपादक पत्रकार केवल चाकरी और चापलूसी के बूते ही सांसद बनर सत्ता सुख ले रहे हैं। , जिसमें अमूमन ज्यादातर कुबेर राज्यसभा में आ ही जाते है।

एक समय था कि अपने काले धंधे को सफेद बनाने के लिए माफिया बिल्डर जैसे लोग मीडिया को एक कवच की तरह अपनाते थे, मगर अब दौर बदल सा गया है अब तो तेजी से बढते हुए मीडिया के धंधे से होने वाली काली कमाई को गति और दिशा देने के लिए मीडिया मालिक बिल्डर प्रोपर्टी डीलर का धंधा बडे पैमाने परअपना कर अपने कारोबार के पॉव को फैला रहे है। मधैशी इलाके का सबसे तेजी से बढ़ता भागता या फैलता पेपर तोगुजराती यात्रा के बाद राजस्थान में जाते ही अखबारी नकाब के उपर बिल्डर प्रोपर्टी डीलर वाला जमीनी दलाल का चेहरा धारण कर लिया। मजे में सत्ता है सरकार है और अपना अखबार है ।

भविष्य की पत्रकारिता या मीडिया पर चिंता करके अपना रक्तचाप बढाना अब बेकार है, क्योंकि तमाम धंधेबाज मीडिया मालिक तो खुद को बाजार के सामने नतमस्तक हो गए है। यह साधारण बिषय नहीं है इस पर अभी बहुत काम होना बाकी है , मगर मैं भाजपा के शिखर नेता लाल कृष्ण आडवाणी की आपातकाल के समय मीडिया पर की गयी एक टिप्पणी के के साथ कलम को विराम दूंगा कि मीडिया की क्यों चिंता करते हो इसे अगर झुकने के लिए कहोगे तो यह नतमस्तक होकर रेंगने लगेगा।

शायद 41 साल पहले लालजी कि यह बात सुनकर ज्यादातर पत्रकार लाल हो गए होंगे मगर आज के माहौल को देखकर तो ज्यादातर पत्रकार मारे शर्म के पानी पानी हो जाएंगे,। क्योंकि पत्रकारों का कोई फ्यूचर नहीं रह गया है मगर एक धंध बनकर पत्रकारिता मीडिया पेपर या भोकाल टीवी का तो शानदार फ्यूचर दिख रहा हैै। बस बाजार और सत्ता के लिहाज से जो भला होगा वही पत्रकारिता होगी। जनता जाएभाड़ में , मगर पबिलक सब कुछ जानती है इसीविए पब्लिक की पसंद की कसौटी पर खरा रहने के लिए तमाम भोकाल मीडिया टीआरपी में फेल हो रहे हैं।
और यही है भविष्य की पत्रकारिता कि कई देशों की कई चैनलों की न्यूजएंकर खबरों की गरमी के साथ साथ अपने तन को उघाडती हुई अपने कपड़ों को फेकती हैं ताकि लोग खबर देखे या न देखे मगर एंकर की गोरांग तन बदन को देखने के लिए न्यूज की वैसाखी पर टिके रहे।

अपन भारत जरा आदर्शवादी देश है। नंगई पसंद इसको भी है मगर संकोच के साथ । एकदम बेशरमी का परदा भी खुल रहाहै, मगर शहरी आधुनिकता अभी उपर ही उपर है, लिहाजा इंडियन भोकालियों में इसे आने में जरासमय लगेगा , मगर यकीन मानिए कि वह दिन भी दूर नहीं कि एड गर्ल की तरह ही न्यूज गर्ल का भी इंडिया में इडियट अवतार होगा और होना ही है। मगर तब तक हम रहे ना रहे मगर यकीनन आंखे इतना पाप अब तक देख चुकी है कि तब मारे शरम कहे या बेशरमी की इंतहा कि तब आंखे भी तन का साथ नहीं देंगी। यही है फ्यूचरकी मीडिया जिसमें जेनरल पब्लिक से बेहतर है कि मैंगो मैन कहकर संबोधित करे क्योंकि मैन की हैसियत भले ही जीरो हो जाए या रह जाए मगर मैंगो की हैसियत उस समय हजारों में तो जरूर होगी या रहेगी।

खबरों का खजाना

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प्रस्तुति- किशोर प्रियदर्शी 

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20 साल में भी दिखती है दो साल की

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प्रस्तुति-- स्वामी शरण




शनिवार, 17 सितंबर 2016




आजकल की लड़कियां कॉलेज जाती हैं और पार्टी करती हैं। इस तरह अपनी लाइफ को खूब एन्जॉय करती हैं लेकिन एक एेसी लड़की है गिरिजा जो 20 साल की उम्र में 2 साल की बच्ची की तरह लगती है। यह लड़की बच्ची की तरह अपने परिवार की गोद में लेटी रहती है। हैरानी वाली बात तो यह है कि गिरिजा अपनी कला की वजह से दुनिया भर में मशहूर है। 
यह लड़की का जन्म बंगलूरू में हुआ है। कंजेनिटल अगेनेसिस नामक बीमारी की शिकार है यह लड़की। इस बीमारी के चलते इसके शरीर के अंग बढ़ नहीं पाते। इसी वजह के कारण वह ढाई इंच तक ही बढ़ पाई है। यह न तो बैठ सकती है और न ही चल सकती है। गिरिजा के माता-पिता उसको इस हालात में देखकर पूरी तरह से टूट जाते हैं। वो चाहते हैं कि उनकी बेटी दूसरे बच्चों की तरह जिंदगी जिए। इस हालात में होते हुए भी गिरिजा लेटे-लेटे ही खूबसूरत पेंटिग्स करती है। अपनी पेंटिग्स से गिरिजा हर महीने 10 हजार कमा लेती है।

धोनी ने क्यों छोड़ी कप्तानी?

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वर्ल्ड कप के बाद दूसरा सबसे अहम टूर्नामेंट आईसीसी चैम्पियंस ट्रॉफ़ी महज़ पांच महीने और वर्ल्ड कप अभी तीन साल दूर है.
धोनी का पहला प्यार क्रिकेट नहीं, फ़ुटबॉल था
कप्तान धोनी के वो 10 बेमिसाल फ़ैसले
कोहली की कप्तानी में किस नंबर पर धोनी?
ऐसा नहीं कि धोनी के कप्तानी छोड़ने के फ़ैसले का अनुमान या उम्मीद नहीं थी, लेकिन इस फ़ैसले का वक़्त ज़रूर चौंकाता है. इसकी क्या प्रमुख वजह हो सकती हैं, ग़ौर कीजिए.
कप्तान कोहली का खेल

पिछले दो साल से टेस्ट कप्तानी संभाल रहे विराट कोहली ने इस आशंका को अपने बल्ले से ख़त्म कर दिया है कि कैप्टेंसी का भार व्यक्तिगत प्रदर्शन पर असर डालता है. कोहली की कप्तानी में भारतीय टीम ने अब तक 22 मुक़ाबले खेले हैं, जिनमें से 14 में जीत दर्ज की. उनकी कप्तानी में जीत का प्रतिशत 63.63 फ़ीसदी है, जो टेस्ट में 27 जीत दिलाकर सबसे ऊपर मौजूद महेंद्र सिंह धोनी (जीत का प्रतिशत 45 फ़ीसदी ) से भी बेहतर है. कप्तान बनने के बाद उन्होंने 22 टेस्ट में 63.96 की औसत से 2111 रन बनाए, जिसमें आठ शतक शामिल हैं.
बल्ले में अब वो बात नहीं
दुनिया धोनी की कप्तानी की कायल रही है. लेकिन सिर्फ़ कप्तानी से काम नहीं चलने वाला. हेलिकॉप्टर शॉट से मशहूर हुए धोनी के बल्ले में वो पुरानी चमक बीते लंबे वक़्त से नहीं दिखी. फ़िनिशिंग का जलवा भी नदारद रहा.
वनडे की बात करें तो साल 2012 से 2016 के बीच हर साल उनका औसत ख़ूब गिरा. साल 2012 में औसत 65.50 पर था, जो साल दर साल लुढ़कते हुए साल 2016 में महज़ 27.80 पर आ गया. दूसरी ओर विराट कोहली वनडे क्रिकेट में भी झंडे गाढ़ रहे हैं. साल 2016 में कोहली ने 10 मैच खेले, जिनमें 92.37 की औसत से 739 रन बनाए.
टी20 में धोनी साल 2016 में 21 मैचों में 47.60 के औसत से 238 रन बना पाए, जबकि इस साल कोहली क्रिकेट के सबसे छोटे फ़ॉर्मेट में भी शानदार साबित हूए. उन्होंने इस साल खेले 15 मैचों में 106.83 के एवरेज से 641 रन बनाए.
टीम का झुकाव कहां

दो शख़्स और दो पूरी तरह अलग शख़्सियत. धोनी जहां कैप्टन कूल के नाम से मशहूर हुए, वहीं आक्रामकता कोहली की पहचान बनी. कोहली की वजह से भारतीय टेस्ट टीम में जो आक्रामकता दिखी, उसे अब वनडे टीम से ज़्यादा दिनों तक दूर रखना मुमकिन नहीं रह गया था. नतीजतन, धोनी का ये फ़ैसला. जाने-माने क्रिकेट कमेंट्रेटर हर्षा भोगले ने भी लिखा है, ''ज़ाहिर है, धोनी को लगा कि अब वक़्त आ चुका है...धोनी की तरह सोचने की कोशिश करें तो लगता है कि कोहली 2019 वर्ल्ड कप में कप्तान होंगे, ऐसे में चैंपियंस ट्रॉफ़ी में भी वही कप्तान होने चाहिए, इसलिए उन्हें अभी से ये ज़िम्मा देना सही है.''
तीन फ़ॉर्मेट, एक कप्तान

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अगर टेस्ट टीम की कप्तानी संभालने के बाद विराट कोहली नाकाम साबित होते, तो उन पर दबाव बढ़ता और धोनी के दोबारा कमान संभालने की मांग उठ सकती थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. कोहली की कप्तानी और बल्ला, दोनों कामयाब रहे और टीम इंडिया को टेस्ट में ख़ासी कामयाबी मिली. साल 2016 में कोहली की कमान में टीम ने एक मैच नहीं हारा. हाल में कोच बने अनिल कुंबले के साथ भी कोहली की अच्छी पट रही है, ऐसे में 2019 वर्ल्ड कप के लिहाज़ से कोहली को हर फ़ॉर्मेट में कप्तानी सौंपने का दबाव बढ़ता जा रहा था.
दूसरी कई टीमों में अलग-अलग फ़ॉर्मेट में अलग कप्तान की रवायत रही है, लेकिन भारत में ऐसा कम ही हुआ है, ऐसे में टेस्ट के बाद वनडे और टी20 की कमान कोहली के पास जाने में ज़्यादा देर नहीं थी.
श्रीनिवासन का जाना


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हाल में कोर्ट का डंडा चला तो क्रिकेट बोर्ड से अनुराग ठाकुर की रवानगी हो गई. लेकिन उनसे पहले आईसीसी और बीसीसीआई समेत क्रिकेट के गलियारों में ऊंचा क़द रखने वाले एन श्रीनिवासन की चला करती थी. वो इंडिया सीमेंट्स के मालिक थे और उनकी टीम चेन्नई सुपर किंग्स की कप्तानी धोनी के हाथों में थी. लेकिन आरोपों में फ़ंसे श्रीनिवासन को जाना पड़ा और आईपीएल की उनकी टीम भी ख़त्म हो गई. ज़ाहिर है, रंग-बिरंगे क्रिकेट में धोनी का पुराना जलवा भी जाता रहा. बोर्ड से लेकर कोचिंग स्टाफ़ तक, हर जगह अब नए लोग दिख रहे हैं और कोहली का मौजू़दा जलवा दिखा रहा है कि उन सभी की पसंद धोनी नहीं, कोहली हैं.
वक़्त भी गजब है. बदलता है, तो हीरो को भी बदल जाता है. और फ़िलहाल हीरो कोहली हैं.
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प्रस्तुति -- राहुल मानव 




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मल्टीमीडिया की परिभाषा

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मल्टीमीडिया (बहुमाध्यम) अंग्रेजी के multi तथा media शब्दों से मिलकर बना है। Multi का अर्थ होता है 'बहु'या 'विविध'और Media का अर्थ है 'माध्यम'। मल्टीमीडिया एक माध्यम होता है जिसके द्वारा विभिन्न प्रकार की जानकारियों को विविध प्रकार के माध्यमों जैसे कि टैक्स्ट, आडियो, ग्राफिक्स, एनीमेशन, वीडियो आदि का संयोजन (combine) कर के दर्शकों/श्रोताओं (audience) तक पहुँचाया जाता है।
आजकल मल्टीमीडिया मीडिया का प्रयोग अनेक क्षेत्रों जैसे कि मल्टीमीडिया प्रस्तुतीकरण (Multimedia Presentation), मल्टीमीडिया गेम्स (Multimedia Games) में बहुतायत के साथ होता है क्योंकि मल्टीमीडिया किसी वस्तु के प्रस्तुतीकरण का सर्वोत्तम साधन है।

मल्टीमीडिया का व्यावसायिक प्रयोग

रचनात्मक उद्योगों में - रचनात्मक उद्योग ज्ञान, कला, मनोरंजन, पत्रकारिता आदि के लिये मल्टीमीडिया का प्रयोग करते हैं।
व्यापार में - व्यापारी विज्ञापन के लिये मल्टीमीडिया का प्रयोग करते हैं।
खेल तथा मनोरंजन में - यह तो हम सभी जानते हैं कि खेलों के लिये वीडियो गेम्स के रूप में मल्टीमीडिया का प्रयोग अत्यन्त लोकप्रिय है। सिनेमा जैसे मनोरंजन के क्षेत्र में स्पेशल इफैक्ट देने के लिये मल्टीमीडिया का प्रयोग किया जाता है।
शिक्षा के क्षेत्र में - विद्यार्थियों को आसानी के साथ कम से कम समय में शिक्षा प्रदान करने के लिये मल्टीमीडिया एक वरदान साबित हुई है।
ये तो मल्टीमीडिया के प्रयोग मात्र कुछ ही उदाहरण हैं वरना आज ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं होगा जिसमें मल्टीमीडिया का प्रयोग न किया जाता हो।

मल्टीमीडिया का इतिहास

संभवत अखबार ही पहला जनसंपर्क माध्यम था, जिसमें मल्टीमीडिया का प्रयोग हुआ। 1895 में मारकोनी ने बेतार रेडियो संदेश भेजा था, फिर 1901 में टेलीग्राफ का प्रयोग रेडियो के द्वारा शुरु हुआ, आज भी रेडियो तंरग ऑडियो प्रसारण में प्रयोग हो रहा है।

बाहरी कड़ियाँ

कहीं बेटा बाप बन गया तो कहीं बाप के लिए बेटा बन गए।

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अनामी शरण बबल 


 राजनीति में संबंधों का कोई भूगोल नहीं होता। कौन कब कहां कैसे और किस तरह संबंधोंं में क्यों लोचा मार दे यह भगवान भी नहीं जानते। राजनीति से अरूचि रखने वाले जिस नासमझ शरीफ बेटे को नेताजी ने अंगूली पकड़कर सांसदी से लेकर सीएम तक बना कर छोड़ा य़ा दम लिया। वहीं बेटा एकाएक ज्ञानी ,ध्यानी अंतरजामी बनकर बाप की सालों की मेहनत को पल भर में ही हथिया लिया। बाप को गद्दी से उतारकर नयी पार्टी और सपा के पुराने सिंबल समेत पूरी पार्टी को ही हथिया लिया। बाप की विरासत के हस्तांतरण का भी अपने नेताजी पिताजी मयस्सर नहीं किया।  अपने बापू को पूरी तरह दरकिनार धकेल दिया़ा। अपनी नाक बचाने के लिए बापू नेताजी ने भी आत्मसमर्पण कर खामोशी की चादर ओढ़ ली। अरे बेटा है, क्या फांसी पर चढा दूं का एक बाप विलाप के साथ ही सपा के तुर्रम खान नेताजी ने अपनी गद्दी खाली कर कमान सौंप दी। करीब तीन माह के इस समाजवादी महाभारत से सबकी इज्जत धूमिल(? ) हुई। हालांकि  पार्टी बिरासत के इस महाभारत में पूत समेत नेताजी की भी जीत ही हुई। सपा को गोतियों की पार्टी बनाने की अपेक्षा अपन खानदानी पार्टी बनाकर छोड़ा। इसे विवशता (माने) कहे या मिलीभगत किि दोदशक तक चले मुलायम अमर प्रेम कहानी का भी पुत्र के प्रेशरकुकर के चलते ही सार्वजनिक तौर पर पटाक्षेप हो (करना) गया या पड़ा। मगर इस खेल में नेताजी अपनी साख  मतदाताओं के बाजार में गंवा बैठे।

उधर हंस हंस कर किसी को भी बेआबरू करने में माहिर और जल्लादों की तरह हमला करके उस पर पील पड़ने वाले नवजोत सिंह सिद्दू रिश्तों के मामले में एकदम भोला और ईमानदार निकले। गेदबाजों की कुटाई करने के लिए कुख्यात क्रिकेट बैकग्राउण्ड वाले महारथी आजकल टीवी संसार और क्रिकेट कॉमेंट्री में शेरो शायरी के लिए ज्यादामशहूर है। भाजपा से नाराज चल रहे ज्यादा बोलने में उस्ताद नवजोत ने एकाएक राज्यसभा सांसदी को उछाकर कमल के मुंह पर फेंकते हुए पल भर में ही पार्टी से नाता तोड लिया। आप के भरोसे ही शेर बनने वाले नवजोत को आप ही ने औंधे मुंह गिराकर चौराहे पर अकेले छोड़ दिया। मगर पंजाब के पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदरसिंह ने एक जलसे में नवजोत को बेटा कह कर संबोधितकिया। बेटे के संबोधन का मान रखते हुए अव क्रिकेटर नवजोत ने छक्का मारते हुए कहा कि जब उन्होने बेटा कहा है तो मैं भी एक बेटा का मान रखूंगा। अपने पिता पर किसी तरह की आंच आने से पहले मैं उनके सामने खड़ा रहूंगा। पुत्र की तरह ही अपने पिता के साथ हमेशा खड़ा रहूंगा। उनको बचाना और मिलकर काम करना ही मेरा फर्जहै। उन्होने तो अपनी पारी में मेरे विश्वास को जीता है, मगर अब बारी मेरी है। राजनीति में रहकर भी मैं रिश्तों को सार्थक बनाकरदिखाउंगा। लप्पेबाजी के लिए मशहूर नवजोत को अपने बयानों पर ही कुछ दिनों के बाद .संभवत यकीन हो या ना हो ? मगर फिलहाल 72 साला पूर्व सीएम को एक चहकता बेटा तो नसीब हो ही गया है, जो फिलहास अपने पिता के बारे में यह भी कह ही रहा हैं कि एक बेटा बाप से कभी बड़ा नहीं हो सकता। यानी नवजोत के इस चौके में दर्द है या उल्लास इसका फैसला तो समय नामक अंपायर ही करेगे जिसे सर्वमान्य भी माना जाएगा । फिलहाल तो नवजोतकी नॉट आउट की पारी से सबको यानी पंजे को भी बड़ी उम्मीदें है।


जल्लीकट्टू

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प्रस्तुति -- विकिपीडिया 
जल्‍लीकट्टू
Madurai-alanganallur-jallikattu.jpg
एक युवक एक बैल का नियंत्रण लेने की कोशिश
उपनामचढ़ाई आलिंगन, मंजू मुक्त
सबसे पहले खेला गया400-100 BC [1]
विशेषताएँ
मिश्रित लिंगनहीं
स्थलखुला मैदान
ओलंपिकनहीं
जल्‍लीकट्टू (Jallikattu) तमिल नाडुके ग्रामीण इलाक़ों का एक परंपरागत खेल है जो पोंगलत्यौहार पर आयोजित कराया जाता है और जिसमे बैलों से इंसानों की लड़ाई कराई जाती है.[2]जल्लीकट्टू को तमिलनाडु के गौरव तथा संस्कृति का प्रतीक कहा जाता है। ये 2000 साल पुराना खेल है जो उनकी संस्कृति से जुड़ा है. [3]

इस खेल पर पाबंदी लगाने

जानवरों की सुरक्षा करने वाली संस्था पेटा इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गयी. अदालत ने 2014 में इस खेल पर पाबंदी लगाने का फैसला सुनाया.[2]

सन्दर्भ


जनता के संपादक बलबीर दत्त / अनामी शरण बबल

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अनामी शरण बबल




राजनीति के जंगल में आजकलज्यादातर पुरस्कार और सरकारी सम्मानपांव पैसा पहुंच पौव्वा और जुगाड़ केचलते ही हासिल किया जाता है। पुरस्कार देने का जमाना और मान सम्मान अब कहां?मगर दिल्ली की चकाचौंध से 1500 किलोमीटर दूर रांचीके अपर बाजार के एक साधारण से दफ्तर में बैठकर क्षेत्रीय पत्रकारिता के  मान ज्ञान सम्मान केऔर जनहितों के लिए संघर्ष का जो सत्ता विरोधीचेहरा समाज के सामने रखा, वह वंदनीय है। इन्होने रांची से प्रकाशित इस अखबार को जोप्रतिष्ठा दिलाई है इसके लिए इनको और इनकी साधनहीन पूरी टीम की जितनी भी तारीफ कीजाए वह कम है।ये इस तरह की फौज के कमांडर थे जहां पर बहुत सारी सुविधाओं की चूक हो जाने के बाद भी पत्रकारिता की मान और शान के लिए सब एकजुट हो जाते थे।
आमतौर पर किसी सम्मान या पुरस्कार को अर्जित करके लोग महानऔर सम्मानित से हो जाते हैं। मगर क्षेत्रीय पत्रकारिता के इस पुरोधा संपादक बलवीर दत से ज्यादा पद्मश्री का सम्मान सम्मानित होकरगौरव का सूचक बना है।
पिछले साल मुझे भी कुछ माह रांची एक्सप्रेस सेसंपादक का ऑफर आया। यह एक पत्रकार के रूप में मेरे मित्र सुधांशु सुमन नेदिया था। एक टेलीविजन पत्रकार के रूप मं मैंइनको 20 साल से जानता रहा हूं। हालांकि उन्होने मुझे दिल्ली संस्कतरण में संपादक का ऑफर दिया था।  रांची एक्सप्रेस और बलबीर दत के नाम का इतना तेज मेरे मन में था कि दिल्लीमें रहते हुए 27 साल हो जाने के बाद भी मैने खुद रांची में पांच छहमाह तक रहने की इच्छा जाहिर की। दो तीन किस्तों में दिल्लीरांची आते जातेकरीब ढाई तीन माह तक मैं रांची में रहा।

नयी सत्ता नयी व्यवस्था और नए हालातमें देखा जाए तो जिन सपनों और बदलाव की योजनाओं और इच्छाओं के साथ गयाथा,उसमें कुछ खास नहीं हो पाया। इस बीच पहाड़ी इलाके की कंपकंपी वाली ठंड को देखते हुएमैने दो तीन माह तक दिल्ली लौटने की इच्छा जाहिर की और तमाम कठिनाईयों दिक्कतों के बाद भी मेरे तमाम नखड़़ो को  प्रबंधन ने सिर माथे लिया और मुझे दिल्ली जाने का टिकट थमा दिया। हमलोग में कोई शिकायतनहीं है क्योंकि यह अखबार तो इनके पास अभी सामने आया है, मगर हमारा नाता इनसे 20 साल से एकपत्रकार वाला सबसे प्रमुख रहा था।

 रांची पहुंचते ही जब मैं अपने एकप्रिय सहकर्मी  नवनीत नंदन के साथ जब बलवीर जी के घर पर पहुंचा तोअवाक रह गया। उनके स्टड़ी रूम में चारों तरफ हजारों किताबों का अंबार लगाथा। स्टडी कमरे में चारो तरफ किताबें ठूंसी पड़ी थी। सैकड़ों फाईलों और हजारों कतरनों को देखकर तो मैं दंग रह गया। मैने उनके पांव छूए और उस अखबाक की कमान थामने से पहले आशीष मांगा ।मैने कहा कि सर आपकेअनुभव लेखन और संपादकीय दक्षता के सामने तो मैं कहीं पासंग भर भी नहीं हूं।मगर यह मेरा सौभाग्य भरा संयोग है कि मैं भी उसी रांची एक्सप्रेस का चालक बनरहा हूं जिसको आपने बुलेट ट्रेन बना रखा था।

 पूरे झारखंड में बलबीर दत को बच्चाबच्चा (जो अखबार पढने वाला हो) जानता है। यह अखबार पूरे शहर समेत झारखंड काअपन अखबार सा है। हालांकि जमाने की चमक दमक और बाजारी मारामारी वाले इस राज्य के बलवीर दत्त यहां के  इकलौते संपादक हैं जिनको उपराज्यपाल से लेकर रांची शहर का एक एकरिक्शा वाला भी जानता और अपना मानता है। पत्रकारिता में ये यहां के इकलौते सोशलसंपादक का सर्वमान्य चेहरा की तरह स्थापित है। संपादक का मुखौटा लगाकर तो मैं या मेरे जैसे ही दर्जनों लोग रांची में सक्रिय हैं, मगर किसी की भी धमक जनता में नहीं बनी है। और मैं तो अपर बाजार से फिरायालाल चौक के बीच रास्ते में ही सही राह की खोज में भटकता रह गया।  

इस समय रांची से दर्जन भर अखबार निकल रहेहैं मगर रविवार वाले हरिवंश जी के प्रभात खबर से अलग होने के बाद किस पेपर का संपादक कौन है यह सब मुझ समेत ज्यादतरसपादकभी संभवत नहीं जानते होंगे। मैं भी ढाई माह में यह नहीं जान पाया कि तमामअखबारों के संपादक कौन है। यायों कहे कि पाठकों की नजर में मेरी तरह हीसब अनाम हैं ।

रांचीएक्सप्रेस में बलवीर दत्त जी के साथ काम करने वाले आ. उदय वर्मा जी ने भी इनकी वीरता धीरता और जनता के लिए अंगद की तरह अडिग हो जाने की दर्जनोंकिस्से कहानियोंको सामने रखा। रांची एक्सप्रेस में मेरी एक संक्षिप्त पारी रही। इसके बावजूद मुझे इसबात का हमेशा गौरवबोध रहेगा कि मैने भी उनको देखा और स्नेह प्यार का पात्र बना ।

एक पाठक के रूप में इनकी सजगता देखकर मैं दंग रह गया। यह इस तरह के दीर्घजीवी  संपादक हैं जो अपने रिपोर्टरों को अपनी संपति और अनमोल निधि की तरह सहेजते और संवारते थे। पीछे खड़ा होकर बिना कुछ कहें अपने सहकर्मियों को निखारते थे। इन पर मैं यही कहूंगा कि ये एक अनमोल संपादक पत्रकार हैं जो अपने साथ साथ एक पूरी पीढी को भी संवारते हुए सुरक्षित रखते थे। किसी भी पत्रकार की कोई रपट लेख या कॉलम के छपने पर  सुबह सुबह ये खुद फोन करके वाहवाही दे उसे और बेहतर करने का सुझाव देते। मुझे भी यह सुख कई बारमिला। इतना उदार और बड़े दिल का संपादक भला और कहां मिलेगा ?

दो दो पूजा को 25 साल के बाद याद करते हुए

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अनामी शरण बबल



पूजा यानी पूजा प्रार्थना मंदिर में जाकर भगवान की वंदना आराधना या अर्चना। मन पूजा को लेकर कैसे शांत हो भला। जब देवी भक्ति महिमा कीर्ति पूजा के नाम के आगे पीछे मनोहर नामों की इतनी लंबी महिमा हो। मंगला चरण से पहले इतने नामों का जंजाल। हां तो मैं इस समय एक नहीं  दो दो पूजा की बात कर रहा हूं। पूजा बेदी और पूजा भट्ट की.    
पिछले दिनों मैं पूजा बेदी की बिंदास बेटी आलिया इब्राहिम के बारे में कुछ सुना, तो मुझे पूजा बेदी यानी बोल्ड बिंदास एंड ब्यूटीफुल पूजा बेदी की याद आ गयी। पूजा बेदी के बारे में मैं सोच ही रही था कि एकाएक दूसरी पूजा यानी पूजा भट्ट यानी दिल है कि मानता नहीं कि हिरोईन और दिल फेंकने के मामले में किसी से कम नहीं और रूपहले पर्दे के नामी निर्देशक महेश भट्ट की पहली या सबसे बड़ी बेटी की भी याद ताजी हो गयी। नाम एक मगर दोनों बालाओं के पीछे टाईटल अलग है। नामी बाप की दोनो एकदम एकसाथ जवान हुई हॉट बिंदास बालाओं से मुझे एक ही साथ एक ही होटल के एक ही कमरे में एक ही समय एक साथ बातचीत करने का मौका मिला। कबीर बेदी और महेश भट्ट दोनो पुराने दोस्त हैं लिहाजा इन दोनों की बेटियं भी बचपन से दोस्त रही है। पारिवारिक संबंधों के चलते इनकी दोस्ती आम हीरोईनों से कहीं ज्यादा बेबाक और खुलेपन की थी।
यह बात कोई 25 साल पहले 1992 की है। अब तो मुझे यह भी ठीक से याद नहीं हैं कि दिल्ली में इनके पीआर को देखने वाले मुकेश से मेरी आखिरी मुलाकात कब हुई थी। मुकेश से मिले 15 साल से ज्यादा तो हो ही गए है। बगैर किसी फोटोग्राफर के आने की शर्तो पर ही दोनों पूजाएं बातचीत के लिए राजी हुई। जब रूपहले पर्दे पर पूजा भट्ट की पहली फिल्म दिल है कि मानता नहीं धूम मचा रही थी और इसके गाने चारो तरफ छाए हुए थे। उधर उसी समय पूजा बेदी की कोई फिल्म के रिलीज के पहले ही कामसूत्र कॉण्डम या कंडोम के विज्ञापनों से बाजार में तहलका मची थी।
कंडोम गर्ल के रूप में विख्यात से ज्यादा इस पहली बहुरंगी रंगीन कामसूत्र के रंगीन पेंच में सेक्स को लेकर मीडिया में खबरों लेखों और इसी बहाने हॉट कामुक फोटो को छापने और सेक्स यानी सेक्सी कंडोम की चर्चा को किसी भी तरह मंदा नहीं पड़ने दिया जा रहा था। कामसूत्र से कामसूत्र की करोड़ों की कमाई (यह आज से 25 साल पहले 1992-93 की कमाई है जनाब) से बाजार गरमाया हुआ था। कंडोंम गर्ल से ज्यादा कामसूत्र गर्ल या सेक्स बनाम सेक्सी गर्ल के रूप में पूजा बेदी की ही चर्चा सबसे ज्यादा हो रही थी या चारो तरफ होती थी।
ज्यादातर दुकानों में तो लोगों ने कंडोम की मांग केवल पूजा बेदी कहकर भी करने लगे थे। कंडोम यानी पूजा देना या पूजा बेदी देना। कंडोम मांगने की सार्वजनिक झिझक को मारकर कामसूत्र ने एकदम छैला टाईप एक लफंगा शैली जिसे अब मॉडर्न स्टाईल भी कहा जाने लगा है को ही मार्केट का टीआरपी बना दिया ।
कामसूत्र ने समाज में कंडोम को लेकर मन में बनी झिझक को असरदार तरीके से तार तार कर दिया है। अब तो ग्राहकों ने मुस्कान के साथ बिना किसी झिझक के ओए पूजा बेदी या पूजा देना की मांगकर कंडोम की डिमांड को ग्लैमरस कर दिया। यही कारण है कि तब कंडोम का सालाना बाजार एक हजार करोड के आस पास का हो गया है। यौन शक्तिवर्द्धक दवाओं के अर्थशास्त्र को भी एक ही साथ मिला दे तो इससे आदमी पावरफूल हुआ है या नहीं यह तो एक गोपनीय सर्वेक्षण का गहन शोधात्मक प्रसंग बन जाएगा मगर तीन दशक के भीतर केवल पावर बेचने वाले खुद को उम्मीद से ज्यादा कमाई करके पावरफूल जरूर बन गए। यौनवर्द्धक दवाओं का क्या आकर्षण है यह इसी से पत्ता या समझा जा सकता है कि इडियट बॉक्स पर रोजाना मल्टीनेशनल कंपनियों को गरियाने वाले रामदेव बाबा भले ही बाल ब्रह्मचारी हो, मगर पावर की शुद्ध देशी दवाईयों को बेचने के मामले में ये भी किसी से पीछे नहीं रहे है। इनकी दवाईयां या शिलाजीत कितनी पावरवाली है यह तो कोई उपयोग करके ही बता सकता है कि पैसा वसूल गेम है पतजंलि के नाम पर पैसे का गंगा स्नान भर है केवल। पावर मेडिसीन का ही इतना आर्कषण है कि बाबा भी इससे कहां बच पाए ?
कंडोम यानी निरोध, और निरोध का मतलब परिवार नियोजन। परिवार नियोजन का एक ही सामाजिक अर्थ होता है हम दो हमारे दो। कंडोम की समाज शास्त्रीय व्याख्या में गांव से लेकर शहर तक एक ही नेशनल शब्दार्थ होता है सुखी परिवार। सुखी परिवार के आईने में कंडोम यानी निरोध है। मगर अब कंडोम के बाजार में मौजूद दर्जनों ब्रांड है। कंडोम की अब बाजारी भाषा में मौज मौका मस्ती और मजा का मस्ताना अंदाज या मर्दाना अंदाज यानी केवल बेफिक्र आनंद मस्ती ही नयी परिभाषा बन गयी है। कंडोंम का अर्थ यानी ज्यादा मजा ज्यादा डॉट्स ज्यादा आनंद यानी सबकुछ आदि इत्यादि।
माफ करना पाठकों इन पूजाओं की कीर्ति पाठ करते करते मैं कुछ ज्यादा ही बक बक करने लगा। हां तो उनके पीआर मुकेश के साथ मैं होटल ताज में जा पहुंचा। मुकेश से यारी होने के कारण वह बार बार मुझे चेता रहा था कि ये सालियां दोनों मुंहफट है, इसलिए तरीके से बात करना नहीं तो बात का हंगामा करेंगी। लड़कियों से बात करने में कोई संकोच तो मैं भी नहीं करता था मगर बिना प्रसंग किसी लड़की से बात करना तो आज भी मेरे लिए सरल नहीं है, मगर जब बात करने का बहाना हो तो बात  बेबात ही सही बात तो करनी पड़ती है। फिर लंबी बात करने या किसी के पेट से कुछ निकलवाने के लिए तो पहले चारा डालकर असर देखना पड़ता है। खैर मैं फिल्म पीआर मुकेश के साथ इन देवियों से लगभग मिलने के करीब आ गया था। कोई फंटूश या छैला नहीं होने के कारण अपन दिल भी थोडा आशंकित था। भीतर ही भीतर मैं अपने आप को ही सांत्वना दे रहा था कि अरे ये सब हीरोईने ही तो हैं कोई आतंकवादी तो नहीं जो गोली मार देगा।  
तीसरे तल पर हमलोग इन अभिनेत्रियों के कमरे के बाहर तक पहुंच गए। उस समय सुबह के 11 बज रहे थे। तब मुकेश ने मुझे दो मिनट बाहर ही खड़ा रहने को कहकर कॉलबेल बजाते हुए अंदर चला गया । दूसरे ही पल वह बाहर आया और मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ ही कमरे के अंदर पहुंच गया। अप्रैल का महीना था और दोनों शॉट्स पहन रखी थी। पूजा बेदी एक्सरसाईज कर रही थी तो पूजा भट्ट अपनी बालों को संवार रही थी। मेरे को देखते ही वे दोनों खिलखिला पड़ी। एकाएक खिलखिलाहट पर मैं भी संकोच में पड़ गया और मुकेश भी थोडा नर्वस सा था। मुकेश ने पूछा क्या बात है मैडम। अपनी हंसी को रोकते हुए पूजा बेदी बोली अरे मैं तो समझ रही थी कि कोई पत्रकार को ला रहे हो, मगर तुम तो किसी कॉलेजी लड़के को उठाकर ले आए। फौरन संयमित होकर मुकेश ने मेरे बारे जरा बढा चढाकर कसीने कसे। बकौल मुकेश क्या बात कर रही है आप। कितने दिनों तक तो दोस्ती का वास्ता देकर मैंने अनामी को इंटरव्यू के लिए राजी किया है और आप मजाक बना रही है। अनामी अईसा है वईसा है आप दिल्ली में तो रहती नहीं हो न, नहीं तो अनामी के नाम से आप पहले चहक जाती। खैर मुकेश की बात सुनकर दोनों पूजाएं लगभग एक साथ ही बोल पड़ी अरे नहीं पत्रकार के नाम पर तो मैं समझी कि दिल्ली वाला जर्नलिस्ट थोड़ा उम्रदराज और चश्मे वाला होगा। पर तुम तो टीशर्ट वाले किसी लड़के को ले आए। हो।फिर जोर जोर से दोनों हंसने लगी। सॉरी जर्नलिस्टजी माफ करना यार। बड़े बिंदास माहौल में मुझे छोड़कर बाहर जा रहे मुकेश ने कहा रिसैप्शन पर मैं आपका इंतजार करूंगा।  
कमरे में अकेला पाते ही मैं बैठने के लिए जगह और साधन देखने लगा। दो अलग अलग बेड के बीच में कुर्सी को घसीटा और धम्म से बैठ गया। मेरे बैठते ही पूजा भट्ट ने कहा कि आप तो कहीं से भी जर्नलिस्ट नहीं लग रहे। इस पर मैं खिलखिला उठा। मेरे हंसने पर व दोनों अवाक सी होकर बोली क्या हुआ मैने तुरंत पलटवार किया कि आपलोग को देखते ही मेरे मन में भी यही सवाल उठा था कि ये दोनों किसी भी तरह हीरोईन सी नहीं लग रही है।  इस पर तेज लहजे में दोनों बोल पड़ी क्या लग रही हूं बताओ न प्लीज। मैं फिर हंसने लगा तो तेज स्वर में इस बार पूजा बेदी चीखी अरे कुछ बोलो भी। तो।  मैने अपने पत्ते फेंके अरे मैं भी तो हीरोईनों से बात करने आया था मगर आपलोग तो एकदम स्कूली बेबी लग रही हो। फोटो तो बहुत हॉट होती है, मगर सामने तो आपलोग हो एकदम नहीं। मेरी बात सुनकर दोनों के चेहरे का पूरा तनाव खत्म हो गया। एक दूसरे को देखकर दोनो ने मुझसे कहा और तुम भी गुड बॉय हो। यह सुनते ही मैं जरा नाराजगी जताने के लहजे में कहा यदि संग में फोटोग्राफर लाने देती तो गुड बॉय भी दोनों गुड गर्ल के साथ अपना फोटू खिंचवा कर जमाने भर को बताता कि ये देखो मैंने दोनों पूजा से बात की है। मगर मेरे पास तो आपलोग से मिलने का कोई सबूत ही कहां है। कि लोगों को बता सकूं कि दोनों देखने में एखदम स्कूली लड़की सी है। मेरी बात सुनकर दोनों खिलखिला पड़ी। (दोस्तों इन हॉट हीरोईनों से मेरी यह बातचीत 1992 अप्रैल माह में हुई थी और उस समय तक जमाने में कम्प्यूटर तो था मगर इंटरनेट गूगल बाबा और मोबाइल नामक खिलौने का अविष्कार नहीं हुआ था। बातचीत करने का एकमात्र साधन ले दे के केवल अंगूली डालकर नंबर घुमाने वाले फोन के मार्फत ही बातचीत होती थी और उस समय दिन में तीन सेकेण्ड जी हं तीन सेकेण्ड बात करने पर सरकार को एक रूपया 31 पैसे देने पड़ते थे। यानी जमाना दादा आदम का था।  
मेरे को आप कहने में दोनों को बड़ी दिक्कत हो रही थी। अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी धड्डले से बोल रही इनलोगों ने मुझे भी आप की बजाय तुम कहने का निवेदन किया ताकि तुम संबोधन कर वे आसानी में बात कर सके।  इस पर मैने उन्हें कहा कि आप बेहिचक मेरे को जो मन में आए कह सकती है । मगर मैं आपलोग को आप ही कहूंगा। हर पेशे का अपना सिद्धांत सीमा और शालीनता होती है। कोई 20-25 मिनट तो हल्की बातों में ही कट गयी। पसंद नापसंद स्टार के बेटे बेटी होने के दुख सुख खानपान और इनकी आदतों से लेकर मीडिया सहित घरेलू टेंशन पर भी बात की। किसी सिनेमा के प्रीमियर से पहले के टेंशन पर भी चर्चा की। यानी जब बातों की रेल स्पीड पकड़ने लगी और किसी में भी कोई संकोच या हिचक नहीं रही तो मैने दोनों से पूछा तो क्या अब हमलोग बात शुरू करे ?
मेरी इस बात पर दोनों एकदम चौंक सी गयी। बात कर ले क्या मतलब ?हम बातचीत ही तो कर हैं। मै भी हैरान होते हुए कहा कि अभी कहां बात कर रहा हूं अभी तो मै केवल आपलोग से जान पहचान कर रहा हूं। कि  कैसा होता है किस तरह की होती है आपलोग की जिंदगी ? और कैसा है रहन सहन बस्स। मैने आपलोग की हीरोपंथी और उसके अनुभव पर तो कुछ जाना ही नही। इस पर फिर रूठने का अभिनय करती हुई बेदी बोली कि और यदि हमलोग ना बात करे तो। इस पर मैं फिर खिलखिला उठा। तब गुस्से में भट्ट बोलती हैं आप बात बेबात पर हंसते कुछ ज्यादा है। इस पर मैं फिर खिलखिला उठा हो सकता है जैसे आप एक्टिंग करती हो तो मैं क्या मुस्कुरा भी नहीं सकता। दोनो ने एक बार फिर एक दूसरे को देखा और बोली तो अब बस्स करे। बिना कुछ कहे मैने अपना नोटबुक बंद करते हुए कहा कोई बात नहीं बहुत मशाला आ गया है काम हो जाएगा।
एकाएक बात खत्म होते देख दोनों व्यग्र सी हो उठी। अरे आपने तो बात ही खत्म कर ली. मैं तो यूं ही मजे ले रही थी। मगर मैं तो मजे नहीं ले रहा हूं । मै तो देश की सुपर स्टार बेटियों से बात कर रहा हूं. आप कोई मेरी दोस्त तो हो नहीं कि जबरन बात करू। इस पर तुनकते हुए पूजा भट्ट ने पूछा कि मान लो तुम्हारी कोई दोस्त होती तो क्या करते। बताइए न प्लीज बताइ न। इस पर दोनों पूजा बच्चों सी मचल उठी। मैंने कहा कि मेरी कहां किस्मत कि आपलोग से दोस्ती करूं पर मेरी कोई दोस्त होती न तो कान पकड़कर पहले खडा करता और फिर जबरन बात करता। एक साथ दोनों बोल पड़ी तो बात करो न कोई रोक रहा है क्या ?
इसी तरह के हास्य वातावरण में मैंने पूछा कि पूरी दुनिया अब आपको कंडोम गर्ल के रूप में पहचानती है? इतनी कम उम्र में सेक्स संभोग वाले इस एड को करने में कोई हिचक या संकोच नहीं लगा?  इसका ऑफर कैसे मिला? मेरी बात सुनते ही बेदी शरमा गयी। फिर बोली मैं तो इस एड के बारे में जानती नहीं थी पर पापा के मार्फत ही यह एड कामसूत्र वाला मैंने की। पापा से यह सुनकर पहले तो मै शरमा रही थी, मगर पापा ने हिम्मत दी और कहा कि आगे देखना पांच सुपर हिट सिनेमा के बाद जो यश और शोहरत अर्जित होता है वो केवल इस एड से ही संभव हो जाएगी। बाद में मेरी मम्मी (प्रोतिमा बेदी) ने भी इस एड को लेकर हिम्मत दी और इसकी स्क्रिप्ट में मम्मी पापा ने बहुत संशोधन किए। कंडोम के बारे में आप क्या जानती हो? मेरे इस सवाल पर हंसती हुई पूज बेदी ने कहा कि कुछ और बात करो। इस पर मैं हैरान रह गया। दो टूक कहा एक कंडोम गर्ल से तो केवल यही सब बातें की जा सकती है। मेरी बातों को सुनकर वे मुंह से जोर की आवाज निकालती हुई हंस पडी। पूजा बेदी ने मुझसे पूछा कि तुम कामसूत्र के बारे में क्या जनते हो?इस पर मैंने अपने बैग से कामसूत्र से दो तीन पैकेट निकाल कर उसके सामने फेंक दिए। जिसे देखकर भी नजर अंदाज करती हुई मुंह से केवल जोरदार सीटी निकालती हुई खिलखिला पड़ी।    
पूरे तमाशे पर पूजा भट्ट हंसते हंसते लोटपोट सी हुई जा रही थी। बेदी मुझसे पूछती है कैसा है। मैने कहा कि अरे यह कोई खाने की तो चीज है नहीं पर आकार में कुछ ज्यादा लंबा है, इसकी लंबाई कम होनी चाहिए थी। इस पर एकदम बेबाक होकर फटाक से बेदी बोल पड़ी तुम्हारा छोटा होगा। एक क्षण तो मैं भी यह सुनकर स्तब्ध सा रह गया और फौरन खुद को संभाला। नहीं पूजा जी मैं तो इंसान हूं। आदमी हूं और इंसानों के तमाम आकार प्रकार को और इसकी लंबाई को इंची टेप से नाप कर ही तो मैं यह कह रहा हूं। चूंकि आप इसकी एड कर रही हो और अगले दो एक साल में मुझे भी इसकी जरूरत पड़ेगी तब तो उस समय मैं केवल आपके चेहरे के कारण इसको नहीं खरीद सकता। आप इसकी एडगर्ल हो तभी मैं इसकी कमी बता रहा हूं। एकाएक मेरी बातें सुनकर वो खूब हंसी। फिर मुझसे पूछी कि कुछ और बात करनी है या मेरा चैप्टर खत्म। उनकी बातें सुनकर मैं हंस पड़ा और खड़ा होकर पूरे अदब से अपनीअंगूली उपर करके कहा आउट।   
दूसरे ही पल जब मैने पूजा भट्ट की तरफ ताका तो उन्होने कुछ कहने की बजाय मेरी आंखों में आंखे डालकर अपनी अंगूलियों को  नचाते हुए संकेतो के मार्फत अपने बारे मे पूछी। मैंने फौरन कहा यदि आदेश हो तो अब आपके साथ बतकही का श्री गणेश करे। मैने फौरन जोडा दिल है कि बात करने से मानता नही। मेरी बातें सुनकर दोनों मुस्कुरा पड़ी।
एक स्टार पुत्रों के अलावा डायरेक्टर के पुत्र पुत्री होने के क्या लाभ और नुकसान है।इस पर दोनो एक साथ बात करनी चाही, तो इस बार भट्ट ने बेदी को कहा यार तू चुप्प भी तो रह मेरे हिस्से में भी कुछ रहने दे ना। भट्ट के कहने पर बेदी जोर से हंसती हुई बोली जा अब मैं ना बोलूंगी तू लगी रह। भट्ट ने कहा स्टारडम के बहुत सारे फायदें और नुकसान होते है। आपको स्ट्रगल नहीं करना पड़ता। आपके पास मौके होते हैं और परिवार भी दो तीन रिस्क लेने का रेडी रहता है। मगर काम पाने के बाद भी हमलोग काम के प्रति गंभीर नहीं होती। जितना एक स्ट्रगलर स्ट्रगल करके कोई दूसरा उपर पहुंचता है, उतना सफर तो हमलोग की जेब में है। कुछ याद करती हुई एकाएक हंस पड़ी। एक कहावत है न कि चांदी क चमच्च लेकर ही स्टारसंस पैदा होते हैं। मगर जनता की कसौटी पर हम ज्यादातर संस एंड गर्ल ठहर नहीं पाते। हमारी योग्यता पर घंमड का गरूर का इतना घना घुन लगा होता है जिसे हमलोग चाहकर उतार नहीं पाती। भट्ट ने कहा कि आगे बॉलीवुड में मेरा फ्यूचर क्या होगा यह मुझे भी पता नहीं, मगर इसकी चिंता हमें नहीं। मेरा बाप मुझसे ज्यादा चिंतित रहता हैं पर ज्यादातर लोग बाजी खत्म होने से पहले होश में नहीं आती। मैं अपनी फिजिक जानती हूं आठ दस सिनेमा करके अंत में पापा की ही मदद करूंगी। डायरेक्शन ही मेरी रुचि और ड्रीम है। हम ज्यादातर लोग एक समान ही है, मगर यहां तो किसी को किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। हम घर में रहकर भी अकेली ही है। स्टारडम का अलग दर्द है जो ज्यादातर लोग नहीं जानते या मानते हैं।
इसी तरह दो चार और सवालों के बाद हमलोग की बातचीत का समापन हुआ। कोई 80 मिनट तक  बातचीत का सिलसिला चला। और अंत में जाने के लिए जब उठा तो बेड पर से उठकर दोनो बालाओं ने हाथ मिलाने के ले अपने हाथ को आगे कर दी। मैने दोनों से हाथ मिलाते हुए कहा कि आपलोग की बातों से ज्यादा नरम और मुलायम तो आपके हाथ है। दोनो बालाओं ने मेरी तारीफ में कहा कि तुमसे बात करती हुई कभी नहीं लगा कि हमलोग दिल्ली वाले किसी जर्नलिस्ट से बात कर रही हो। मैने तुरंत टिप्पणी की इतनी बुरी बात तो मैने नहीं की। तो वे दोनों फिर कह बैठी कि एकदम याराना माहौल में तुमने बात की यह दिल्ली की खासियत है कि मन की सारी बातें हो गयी और बुरी भी नहीं लगी। कमरे के बाहर निकलते समय दोनों पूछ बैठी क्या कभी दोबारा तुमसे मिलना होगा। इस पर मैं क्या कहूं आपलोग का जब मन करे कि इंटरव्यू देना है तो मुकेश को कह सकती है। बात मुझ तक पहुंच जाएगी। और इस तरह दो दो पूजा से मेरी बातचीत के इस यादगार सिलसिले का  पटाक्षेप हुआ। इन दोनों के इंटरव्यू को मैने कई फीचर एजेंसी को दिए।  जिससे ये सैकड़ों पेपरों में छा सी गयी। हालांकि भट्ट से ज्यादा बेदी के जलवों की धूम अधिक रही। अलबत्ता मुकेश के मार्फत कई बार उनके थैंक्स मेरे पास जरूर पहुंचे। मगर दोबारा मिलने का संयोग कभी नहीं बन पाया। और मैं 25 साल पहले की ज्यादातर बातें आपको एक बार फिर रखने की जद्दोजहद में लगा हूं, या बेमानी सी हो गयी इन बातों को आप तक शेयर कर रहा हूं।

महेन्द्र सिंह धोनी के रांची में

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अनामी शरण बबल


झारखंड की राजधानी रांची शहर को खासकर युवकों द्वारा आजकल  धोनी वाला रांची या धोनी का शहर भी कहा जाता है।मूलत: बिहारी होने के नाते रांची शहर को लेकर मेरे मन में कभी भी कोई खास रोमांच नहीं रहा था। बिहारी होने के बाद भी सबसे कम बिहार को ही मैने देखा है। इससे कहीं ज्यादा और कई कई बार यूपी हरियाणा पंजाब को देखने का सुयोग मिला। बिहार में रहते रांची जाने का पहला मौका 1983 में मिला था। इसके बाद रांची जाने के दो एक मौके और लगे जिसे जाना  या न जाना भी कहा जा सकता है।

पिछले साल सितम्बर माह में रहने के ख्याल से पहुंचा तो शहर के चारो तरफ रांची के छोरा पर बनी एमएस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी के पोस्टर लगे थे। झारखंड के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित अखबार रांची एक्सप्रेस में बतौर संपादक मैं अभी लोगों से मिल ही रहा था कि धोनी को लेकर अखबार के दफ्तर में चर्चों का बाजार गरम सा पाया। धोनी के कोच चंचल भट्टाचार्य को लेकर मेरे मन में भी बड़ा सेलेब्रेटी वाला आकर्षण था, और रांची एक्सप्रेस के सहकर्मियों से परिचित होते समय मैं उस समय दंग रह गया कि धोनी के कोच चंचल दा भी इसी अखबार में खेल संपादक है। मैं पूरे जोश उल्लास और बेपनाह खुशी के साथ चंचल दा मिला। चंचल दा की सरलता सादगी और विनम्रता मुझे हमेशा चौंकाती। उनका सादा जीवन और स्टारडम से दूर रहना मुझे भी भाया। उनकी यह सादगी मुझे लगातार यह प्रेरणा भी देती कि स्टार को पैदा करने वाला कोई कोच स्टार बनकर काम नहीं कर सकता। एक गुरू को हमेशा शांत निर्मल और सबके लिए एक समान बने रहना ही जरूरी होता है। स्टार बनकर तो कोई कोच फिर कोई नया धोनी पैदा नहीं सकता। आज तो ज्यादातर लोग थोडा सा धन और शोहरत पाते ही बोलचाल का लहजा अपना चाल चलन चेहरा और चरित्र तक बदल डालते हैं। मगर वहीं एक स्टार गुरू तो हमेशा सादा गुरू ही था। तभी तो स्टारों को ही पैदा करेगा। बच्चों को निखारेगा।

चंचल दा के साथ अक्सर दर्जनों बाल खिलाडियों की फौज भी रांची एक्सप्रेस के दफ्तर में आती रहती थी। दो बार तो चंचल दा के संकेत पर न जाने कितने और किन किन खेल के उभरते खिलाडियों नें संपादक जी के पैर छूए। जानता तो मैं किसी को नहीं था पर उनके उज्जवल भविष्य और नेशनल प्लेयर बनने की शुभकामनाएं देने के सिवा मेरे पास और कुछ भी नहीं था। जिसे मैने पूरी उदारता से सभी बच्चौं के सिर पर हाथ रखकर दे दिए।   

लगता है मानो एक जमाने में रांची एक्सप्रेस का दफ्तर भी क्रिकेट का कहवाघर सा रहा होगा। जहां पर क्रिकेट के बहसों का बाजार गरम रहा करता होगा। एक तरफ धोनी के कोच शांत नरम दिल बहुत ही सौम्य से चंचलजी तो दूसरी तरफ अपने जमाने के तूफानी बल्लेबाज रहे त पन दोर्राई थे। जिनकी लप्पेबाजी की गूंज और धमक सालों बीत जाने पर भी बनी हुई है। 65 साल के सबसे यंग सबसे अनुभवी पत्रकार के साथ क्रिकेटर कमेंटेटर और मल्टी सब्जेक्ट पर अधिकार रखने वाले उदय वर्मा थे। बकौल वर्मा तपन मूलत:हिटर था, मगर गेंद को उठाकर मारने की बजाय कम उच्चाई पर सीधे छक्का चौक्का मारने का कमाल केवल तपन ही करता था।

धोनी के बारे में रांची शहर के ज्यादातर लोगों के पास कोई न कोई अपना निजी किस्सा कहानी अनुभव मिलेगा। उदय जी के अनुसार स्टेडियम में हमलोग खेलते थे तो धोनी गेंद उठाकर लाने या पानी पीलाने के लिए या कोई न कोई बहाने साथ रहना चाहता था। लंबे लंबे बाल के कारण यह सबों का प्यारा भी था। धोनी की शरारतों पर रौशनी डालते हुए उदय जी ने बताया कि अमूमन वो स्कूल से सीधे मैदान में आता था तो कई बार हमलोगों के लंच खा लेता और बड़ी मासूमियत से बता भी देता था। धोनी के खेल के बारे में कहा कि यह अनगढ़ खिलाडी था। समय की मांग के साथ खुद धोनी ने खुद को बदला और विकेटकीपिंग की परम्परागत तरीके से अलग अपनी एक शैली विकसित की। बल्लेबाजी का भी यही हाल रहा, खासकर हेलीकॉप्टर शॉट जिसे धोनी शॉट की तरह भविष्य में मान लिया जाएगा। यह शॉट धोनी का अविष्कार है। शहरी खिलाडियों की तरह धोनी कॉपीबुक स्टाईल का प्लेयर ना होकर अपने अदांज में शॉट की नयी परिभाषा लिखने वाला खिलाडी है ।

एक तरफ अक्टूबर के पहले हफ्तें में धोनी रिलीज होने वाली थी तो लगा मानो पूरे शहर में उन्मादी हालत है। धोनी को गरियाने वाले भी काफी लोग मिले, मगर उन लोगों की भी तादात कम नहीं थी जो धोनी के स्टार बनने के बाद रांची शहर को एक जंपिग पैड सिटी की तरह देखते हैं। मुझे भी यह जानकर हैरानी हुई कि दिल्ली समेत आसपास, के कई राज्यों के दर्जनों लड़के आज रांची में ही कहीं न कहीं पर किसी न किसी से कोचिंग लेकर धोनी बनने का सपना देख रहे है। धोनी के बहाने रांची में कोडिंग का बाजार भी काफी गरम है। खिलाड़ी रह चुके करीब एक दर्जन पूर्व किलाडी कोचिंग अकादमी में कहीं न कहीं आगे पीछे से अपवी सेवाएं दे रहे हैं। रांची के कई खिलाड़ी तो आजकल दिल्ली के कई स्कूलों में बतौर कोच अपनी सेवा देने में लगे हैं।   

रांची एक्सप्रेस की तिकड़ी किसी मल्टीप्लेक्स में धोनी के पहले शो के बाद दफ्तर में आकर फिल्म की ही चर्चा कर रहे थे। उदय जी ने मुझे भी शो देखने का न्यौता दिया था। धोनी के कोच चंचल दा अमूमन धोनी को लेकर खामोश ही रहते थे। बाद में पता लगा कि पैसा कमाने में धोनी आज भले ही अरबों में खेल रहे हो, मगर धोनी पर ही चंचल दा के हजारों रूपए आज भी बाकी है, जिसे डूबा हुआ ही माना जाए। अलबता धोनी आज भी चंचल दा के पैर छूकर ही अपना सम्मान जताता है। केवल धोनी के कोच के कारण ही रांची में इनकी धमक भी है। फिर  धोनी ही क्यों झारखंड का शायद ही कोई खिलाड़ी ( किसी भी खेल का क्यों ना हो) दर्जनों ओलंपियन भी चंचल दा के चहेते है। चंचल दा की वजह से मैं भी दर्जोनों खिलाडियों से मिला और देखा। वरिष्ठ पत्रकार उदय वर्मा जी ने बताया कि सिनेमा में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे इसको धोनी का सही चित्रण माना जाए। चूंकि यह सिनेमा है इस कारण इसकी पटकथा में सफलता वाले आईटम को ही प्रमोट किया गया। रांची की पृष्ठभूमि पर धोनी की कहानी है मगर सिनेमा में रांची शहर ही नदारद है। धोनी के जीवन के असली पात्रों का न दिखाया जाना भी इसका सबसे कमजोर पक्ष है। मगर सिनेमा कैसी है इस पर बहस करने की बजाय यह माना जाना चाहे कि यह आज के एक सबसे लोकप्रिय खिलाड़ी की स्टोरी है, लिहाजा धोनी चलेगा धोनी के नाम से सिनेमा चलेगी।  फिल्म से ज्यादा धोनी का नाम चल रहा है। और इसतरह के बॉयोपिक पिक्चरों की यही खासियत भी होती है।

आज इडियट बॉक्स पर दो सप्ताह की पब्लिसिटी के बाद धोनी का प्रसारण हुआ। जिसे पावर सप्लाई कपनी      बीएसईएस (यमुना पावर) की आंख मिचौनी के बाद मैं केवल 50 फीसदी ही देख सका। इसके कुछ अंश को मैंने तपन जी के मोबाईल पर रांची में भी देखा था। सिनेमा के अंशों को दिखाने की जो ललक या उन्मादी इच्छा तपन जी में देखकर मैं दंग सा रह गया। फिल्म कैसी लगी इस पर कोई टिप्पणी करने से ज्यादा कुछ पुराने यादगार मैचों के मुख्यांश को देखना ही ज्यादा मनभावन लगा। खासकर पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मुर्शरफ का धोनी और उनके बालों के प्रति दिखाएं गए प्यार वाले अंश को फिर से देखना भी काफी सुहावन लगा। अलबत्ता धोनी की दो दो लव स्टोरी में पहले प्रेम की दिवंगत नायिका का एकाएक ना रहना भी काफी मार्मिक दर्दनाक लगा। जो सुदंरता के मामले में धोनी की मौजूदा पत्नी साक्षी से भी अधिक सुदंर और मोहक थी। 

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World Association of Newspapers and News Publishers

From Wikipedia, the free encyclopedia
World Association of Newspapers
AbbreviationWAN-IFRA
Formation1948
TypeINGO
HeadquartersParis France
Region served
Worldwide
Official language
English, French, German
Parent organization
UNESCO
WebsiteWAN-IFRA website
The World Association of Newspapers and News Publishers (WAN-IFRA) is a non-profit, non-governmental organization made up of 76 national newspaper associations, 12 news agencies, 10 regional press organisations, and many individual newspaper executives in 100 countries. The association was founded in 1948, and, as of 2011, represented more than 18,000 publications globally.
In July 2009, WAN merged with IFRA, the research and service organisation for the news publishing industry, to become the World Association of Newspapers and News Publishers (WAN-IFRA).[1]
WAN's objectives are to defend and to promote freedom of the press, to support the development of newspaper publishing, and to foster global co-operation. It has provided consultation for UNESCO, the United Nations, and the Council of Europe.
According to WAN, from 2007 to 2011, global newspaper advertising dropped 41% to $76 billion.[2]

Contents

History

The earliest organization that has since become WAN-IFRA was FIEJ, the international federation of newspaper editors founded in 1948 by survivors of the clandestine press of France and the Netherlands to fight for survival of a free press worldside.
IFRA's origins emerged from INCA (International Newspaper Colour Association), founded in 1961 when European publishers began to introduce the use of colour in newspapers; it was the world's leading association for newspaper and media publishing. In 1970, it became IFRA (the INCA FIEJ Research Association) to treat the rapidly developing technical side of the publishing industry.
On 1 July 2009, the World Association of Newspapers (WAN) and IFRA merged into a new organization: the World Association of Newspapers and News Publishers (WAN-IFRA). The two organisations had been discussing a merger, on and off, for more than five years, and had built up several similar products and services and had an increasing overlap in membership.

Identity and mission

WAN-IFRA is a trade association with a human rights mandate. Its first objective is the defence and promotion of press freedom and the economic independence of newspapers, which is an essential condition to that freedom. It is also an industry think tank for new strategies, business models, and operational improvements.[1]
WAN-IFRA's stated mission is: "To be the indispensable partner of newspapers and the entire news publishing industry worldwide, particularly our members, in the defence and promotion of press freedom, quality journalism and editorial integrity and the development of prosperous businesses and technology."[1]

Headquarters

WAN-IFRA carries out its work from headquarters in Darmstadt, Germany, and in Paris, France, with subsidiaries in Singapore, India, Spain, France, and Sweden.[1]

World Editors Forum

The World Editors Forum (WEF) is the organisation for editors within the World Association of Newspapers and News Publishers. It is a network dedicated to bringing together editors from around the world to share ideas, experiences, and research on how to face the challenges of the future. Its main missions are to represent these editors, to defend editorial excellence, to provide editorial services, and to define the future of journalism. The WEF is also involved in defending free speech and promoting the right of the public to truthful information.

Golden Pen of Freedom Award

WAN administers the annual Golden Pen of Freedom Award to recognize a journalist or media organisation that has made an outstanding contribution to the defence and promotion of freedom of the press.[3]

Monitoring journalists killed

Since 1998, WAN has maintained annual tallies of media employees killed around the world. The worst year on record is 2006, when 110 media employees died in the line of duty.[4]

References



समाचार पत्र और समाचार प्रकाशकों के वर्ल्ड एसोसिएशन

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समाचार पत्र और समाचार प्रकाशकों के वर्ल्ड एसोसिएशन

विकिपीडिया, मुक्त विश्वकोश से
समाचार पत्र के वर्ल्ड एसोसिएशन
संक्षिप्तवैन-IFRA
गठन 1948
प्रकारINGO
मुख्यालयपेरिसफ्रांस
क्षेत्र में सेवा
दुनिया भर
आधिकारिक भाषा
अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन
माता पिता के संगठन
यूनेस्को
वेबसाइटवैन-IFRA वेबसाइट
समाचार पत्र और समाचार प्रकाशकों के वर्ल्ड एसोसिएशन(वैन-IFRA)एक है गैर लाभ , गैर सरकारी संगठन 76 राष्ट्रीय से बना अखबारसंघों, 12 समाचार एजेंसियों , 10 क्षेत्रीय प्रेस संगठनों, और कई अलग-अलग अखबार के अधिकारियों के 100 देशों में।संघ ने 1948 में स्थापित किया गया था, और 2011 के रूप में, दुनिया भर में 18,000 से अधिक प्रकाशनों का प्रतिनिधित्व किया।
जुलाई 2009 में, वान IFRA, समाचार प्रकाशन उद्योग के लिए अनुसंधान और सेवा संगठन के साथ विलय कर दिया, समाचार पत्र और समाचार पब्लिशर्स(वैन-IFRA)के वर्ल्ड एसोसिएशनबनने के लिए।[1]
वैन के उद्देश्यों की रक्षा के लिए और बढ़ावा देने के लिए कर रहे हैं प्रेस की स्वतंत्रता , अखबार के विकास का समर्थन करने के लिए प्रकाशन , और वैश्विक सहयोग को बढ़ावा के लिए।इसके लिए परामर्श प्रदान की गई है यूनेस्को , संयुक्त राष्ट्र , और यूरोप की परिषद
वान के अनुसार, 2007 से 2011 तक वैश्विक अखबार के विज्ञापन 41% $ 76 अरब के लिए गिरा दिया।[2]

इतिहास

जल्द से जल्द संगठन है कि जब से वैन-IFRA बन गया है FIEJ, के गुप्त प्रेस के बचे द्वारा 1948 में स्थापित किया अखबार के संपादकों के इंटरनेशनल फेडरेशन था फ्रांसऔर नीदरलैंडमें एक स्वतंत्र प्रेस worldside के अस्तित्व के लिए लड़ने के लिए।
IFRA के मूल Inca (इंटरनेशनल न्यूजपेपर कलर एसोसिएशन), 1961 में स्थापित किया गया से उभरा जब यूरोपीय प्रकाशकों के समाचार पत्रों में रंग का उपयोग शुरू करने के लिए शुरू किया;यह दुनिया के अखबार और मीडिया प्रकाशन के लिए अग्रणी संघ था। 1970 में, यह प्रकाशन उद्योग के तेजी से विकसित तकनीकी पक्ष के इलाज के लिए IFRA (Inca FIEJ रिसर्च एसोसिएशन) बन गया।
समाचार पत्र और समाचार प्रकाशकों के वर्ल्ड एसोसिएशन (वैन-IFRA): 1 जुलाई 2009, समाचार पत्र के वर्ल्ड एसोसिएशन (वैन) और IFRA एक नए संगठन में विलय कर दिया।दो संगठनों के पांच वर्ष से अधिक के लिए एक विलय पर चर्चा की गई थी, पर और बंद, और कई इसी तरह के उत्पादों और सेवाओं के ऊपर का निर्माण किया था और सदस्यता में एक बढ़ती हुई ओवरलैप था।

पहचान और मिशन

वैन-IFRA एक है व्यापार संघएक साथ मानव अधिकारों केजनादेश।इसका पहला उद्देश्य रक्षा और प्रेस की स्वतंत्रता को बढ़ावा देने और अखबारों के आर्थिक स्वतंत्रता है, जो कि स्वतंत्रता के लिए एक आवश्यक शर्त है।यह भी एक उद्योग है थिंक टैंकनई रणनीति, व्यापार मॉडल, और परिचालन में सुधार के लिए।[1]
वैन-IFRA के घोषित मिशन है: "समाचार पत्र के अपरिहार्य साथी और पूरी खबर प्रकाशन उद्योग दुनिया भर में, विशेष रूप से हमारे सदस्यों, रक्षा और प्रेस की स्वतंत्रता, गुणवत्ता पत्रकारिता और संपादकीय अखंडता और समृद्ध कारोबार और प्रौद्योगिकी के विकास को बढ़ावा देने में हो। "[1]

मुख्यालय

वैन-IFRA में मुख्यालय से अपने काम से बाहर किया जाता Darmstadt , जर्मनी , और पेरिस , फ्रांस, में सहायक के साथ सिंगापुर , भारत , स्पेन , फ्रांस और स्वीडन[1]

विश्व संपादकों फोरम

विश्व संपादकों फोरम (डब्ल्यूईएफ) समाचार पत्र और समाचार प्रकाशकों के वर्ल्ड एसोसिएशन के भीतर संपादकों के लिए संगठन है।यह एक नेटवर्क एक साथ विचारों, अनुभवों, और कैसे भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए अनुसंधान पर साझा करने के लिए दुनिया भर से संपादकों लाने के लिए समर्पित है।इसका मुख्य मिशन इन संपादकों का प्रतिनिधित्व करने के संपादकीय उत्कृष्टता की रक्षा के लिए, संपादकीय सेवाएं प्रदान करने के लिए, और के भविष्य को परिभाषित करने के लिए पत्रकारिताडब्ल्यूईएफ भी मुक्त भाषण बचाव और सच्चा जानकारी को जनता के अधिकार को बढ़ावा देने में लगे हैं।

स्वतंत्रता पुरस्कार के गोल्डन पेन

वान वार्षिक प्रशासन करता फ्रीडम अवार्ड के गोल्डन पेनएक पहचान करने के लिए पत्रकारया मीडिया संगठन है कि रक्षा और प्रेस की स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिए एक उत्कृष्ट योगदान दिया है।[3]

निगरानी पत्रकारों मारे गए

1998 के बाद से, वान दुनिया भर में मारे गए मीडिया कर्मचारियों की वार्षिक हिसाब बनाए रखा है।जब 110 कर्मचारियों को मीडिया ड्यूटी के दौरान मृत्यु हो गई रिकॉर्ड पर सबसे बुरा साल 2006 है।[4]

संदर्भ

फेसबुक की पत्रकारिता

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प्रस्तुति- स्वामी शरण


फेसबुक और समाचार प्रकाशकों के बीच संबंधों को कम से कम कहने के लिए जटिल है, और 2017 में वैन-IFRA यह बेहतर समझ, पत्रकारिता के लिए एक और अधिक स्थायी व्यापार मॉडल की ओर लक्ष्य पर केंद्रित है।
Facebook के साथ खबर प्रकाशकों की बातचीत कभी कभी पारस्परिक रूप से लाभप्रद है: दोनों नए पहुंचने और मौजूदा दर्शकों के लिए एक मंच के रूप में वितरण, और एक राजस्व भागीदार के रूप में।हालांकि, जबकि फेसबुक प्रकाशक ब्रांडेड सामग्री अभियान का समर्थन करता है, यह भी प्रदर्शन राजस्व के लिए प्रतिस्पर्धा।
यहाँ आप एक प्रकाशक के संदर्भ में फेसबुक के आसपास सबसे अधिक प्रासंगिक कहानियों पर हमारे स्टाफ से सुझाव और विशेषज्ञों के साथ एक संसाधन केंद्र मिलेगा।

ब्लॉग में

फर्जी खबर है, झूठ के प्रसार, और सामाजिक मीडिया प्लेटफॉर्म पर भाषण नफरत एक बेहद चौंकाने वाली घटना अपने आप में है, लेकिन यह भी प्रेस और पेशेवर समाचार संगठनों की स्वतंत्रता के लिए एक महान और बड़ा खतरा है, लिखते हैं ...
हर दिन तथाकथित "नकली खबर"के बारे में अधिक जानकारी लाने के लिए लगता है।मामले में आप विचार विमर्श का पालन नहीं किया और बारीकी से, हम तुम गति को प्राप्त मदद करने के लिए एक सारांश जमा की है बहस।
नॉर्वे के सबसे बड़े अखबार आज प्रकाशित एक खुला पत्रके लिए अपने पहले पन्ने पर ...
मैथियास Döpfner, करिश्माई सीईओ और मीडिया दिग्गज एक्सल स्प्रिंगर के अध्यक्ष, कभी तकनीक दिग्गजों 'संभव मीडिया के दखल पर अपनी चिंता और आलोचना छेडऩे के बारे में विचारशील किया गया है।और ऐसा लगता है फेसबुक और अन्य सोशल प्लेटफॉर्म अपने crosshairs में squarely अब कर रहे हैं - अच्छे कारणों के लिए।
लिज़ बगुला, हफिंगटन पोस्टपर कार्यकारी संपादक,वाशिंगटन पोस्टमें एक डिजिटल संपादक, न्यूयॉर्क टाइम्सऔर वाल स्ट्रीटके रूप में एक लंबे करियर के बाद दो साल के लिए फेसबुकपर पत्रकारिता भागीदारी भाग गया ...
"क्या हम वास्तव में ऐसा करने के बजाय, लगता है, की कोशिश की है 'क्या हम उस बॉक्स के अंदर डाल करने के लिए जा रहे हैं?'  हम सोचते हैं, 'क्या है यह विज्ञापनदाता हासिल करना चाहता है और कैसे हम पर आधारित हमारे वातावरण में सबसे अच्छा उपयोगकर्ता अनुभव बना सकते हैं ...
इस सामाजिक मीडिया वितरण के युग में प्रकाशन पुनर्विचार पर एक दो भाग श्रृंखला का पहला है।यह पहली किस्त में, मीडिया विश्लेषक एंड्रियास फीफरकी परख होती है क्यों प्रकाशकों को उनके कारोबार का एक व्यापक परिप्रेक्ष्य गले लगाने के लिए प्रयास करना चाहिए।दूसरे भाग में, ...
वितरित सामग्री के इस अवलोकन के पहले भाग की तुलना में कम नियुक्त किया गया है एक महीने पहले, अभी तक तो क्या प्रकाशन में एक नई प्रवृत्ति के अपेक्षाकृत स्थिर तस्वीर की तरह दिखाई दिया, कुछ ही हफ्तों बाद में अधिक से अधिक नए वितरण प्रौद्योगिकियों के एक भ्रामक गड़बड़ की तरह दिखता है , जिनमें से कुछ है ...
इस तरह फेसबुक त्वरित लेख के रूप में वितरित सामग्री प्लेटफार्मों के आगमन के प्रकाशकों और मीडिया उत्पादकों के लिए एक बड़ी चुनौती है, कार्रवाई के लिए एक फोन को फिर से परिभाषित करने के लिए क्या पेशेवर मीडिया सब के बारे में है - और oversimplified मान्यताओं सवाल करने के लिए एक शह।एक में के इस दूसरे भाग -...
यह कैसे वितरित सामग्री प्रकाशकों 'सामग्री की रणनीति को प्रभावित करेगा के बारे में एक तीन भाग श्रृंखला के पहले लेख है।अंत में, वान-IFRA प्रमुख उद्योग मीडिया विश्लेषक के साथ सहयोग में इस विषय पर रिपोर्ट की एक श्रृंखला के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करने की योजना बना रही है, ...
फेसबुक के नए एप्लिकेशन, बैठता है कुछ हद तक असुविधाजनक, ट्विटर, एप्पल के समाचार app और Snapchat के बीच।वास्तव में क्या हो रहा है?मीडिया विश्लेषक एंड्रियास फीफर नए एप्लिकेशन और क्या यह प्रकाशकों के लिए इसका मतलब है पर एक करीब देखो लेता है। (यह लेख मूलतः पर तैनात किया गया था ...
न्यूयॉर्क टाइम्सकी रिपोर्ट है कई प्रमुख वैश्विक प्रकाशकों की मेजबानी की सामग्री पर फेसबुक के साथ एक सौदा और एक संभव राजस्व साझा करने के लिए बंद हो सकता है।यह एक हो सकता है ...

संपर्क जानकारी

क्रांति का बीजपत्र : आंचलिक पत्रकरिता

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– अरविंद कुमार सिंह

‘‘खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’’
गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम की रेती से जब ये क्रांतिकारी पंक्तियां अकबर इलाहाबादी की शायरी से जनमानस के दिलों में उतर रही थीं; तो प्रयाग वैसा नहीं था, जैसा आज दिखता है। तीर्थराज की यह धरती क्रांतिकारियों की संगम स्थली थी तो देश की राजनीति की एक प्रमुख धुरी। आनंद भवन, खुसरो बाग और कंपनी गार्डेन का अतीत भारत के महान क्रांतिकारियों की जीवंत कहानियों की कथाभूमि थी। राजकीय संग्रहालय की प्राचीरों के मध्य असंख्य साहित्य की अमर सर्जनाएं और कथाएं जन्मीं। जो देश और दुनिया के मानस पर पूरी आस्था और विश्वास के साथ आज भी जमी हैं और विश्वास है कि क़यामत तक लोगों के दिलों में स्पंदन करती रहंेगी। महान शायर अकबर इलाहाबादी ने ‘तोप’ जैसे घातक हथियार का भी मुकाबला ‘अख़बार’ से करने की बात की तो निश्चित ही इसमें ‘तोप’ से ज़्यादा घातक और मारक क्षमता होगी। अख़बार की यह क्षमता है कि वह व्यक्ति ही नहीं बल्कि व्यवस्था को बदल सकता है। तोप और गोली का लक्ष्य सीमित है लेकिन अख़बार समाज का मानस होता है। वह उसका शिक्षक और प्रशिक्षक भी होता है। क्रांति और शांति का बीजमंत्र उसके गर्भ में पलते हैं तो आंदोलन और परिवर्तन की ज़मीन भी तैयार करता है। दुनिया का पहला अख़बार सन् 1340 में चीन से जब निकला तब तक उसकी इस अपार शक्ति का अंदाजा शायद संसार को नहीं हुआ था।1 हिंदुस्तान को ‘बंगाल गजेट’2 के प्रकाशन के समय ही इसकी ताकत और प्रभाव का अहसास हो गया था।
वैसे ‘संवाद’ की ताकत और क्षमता का परिचय हिंदुस्तान को राजतंत्री शासन और महाभारत काल में ही हो गया था। पौराणिक आख़्यानों में भी ‘नारद’ का चरित्र प्राथमिक पत्रकार का सा दिखता है, तो महाभारत के संजय की दिव्य-दृष्टि, युद्धक्षेत्र के दृश्यों का सजीव चित्रण धृतराष्ट्र से करते हुए दिखाई देती है। पत्रकारिता या अख़बार की यह शक्ति निश्चित ही ‘संवाद’ की शक्ति है, जो मनुष्य की प्राकृतिक शक्ति है, जिसके मूल में जिज्ञासा और रहस्यों से पर्दा उठाना है। संवाद करने और जानने की शक्ति ही पत्रकारिता की वास्तविक शक्ति है। संवाद की इस प्रक्रिया से आगे बढ़कर सन् 1447 में गुटेनबर्ग ने पिं्रटिंग प्रेस का ईजाद कर संसार में प्रिटिंग तकनीकी से क्रांति ला दी। आज की एडवांस तकनीकी के मूल में गुटेनबर्ग के विचारों का ही विस्तार है।
भारतीय संविधान के मूल अधिकारों में ‘वाक् स्वतंत्रता’3 प्रत्येक व्यक्ति को भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। इसी स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है। प्रेस की स्वतंत्रता सामाजिक तथा राजनीतिक समागम का मर्म है। ‘न्यायालयों का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वे प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखें और उन सभी विधियों या प्रशासनिक कार्यवाहियों को अविधिमान्य कर दें जो संवैधानिक समादेश के प्रतिकूल इसमें हस्तक्षेप करती हंै।’4 इसका अर्थ यह है कि ‘प्रत्येेक नागरिक अपने विचारों, विश्वासों और दृढ़ निश्चयों को निर्बाध रूप से तथा बिना किसी रोक-टोक के मौखिक शब्दों द्वारा, लेखन, मुद्रण, चित्रण के द्वारा अथवा किसी अन्य ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है।’5 पत्रकारिता की इस शक्ति को भारतीय संविधान ने संरक्षण प्रदान किया है। यदि कोई सरकार या सरकारी संगठन इस पर रोक या सेंसरशिप लगाने का प्रयास करती है तो यह विधिमान्य नहीं हो सकता है। इसी क्रम में ‘किसी समाचार पत्र पर अनर्गल संेसरशिप लगाना’6 या उसे ‘ज्वलंत सामाजिक विषयों पर अपने या अपने संवाददाताओं के विचारों को प्रकाशित करने से रोकना, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होगा।’7 ‘यह अधिकार नागरिकों को भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर ही नहीं बल्कि इसकी सीमाओं के पार भी प्राप्त है।’8 यह संवाद की ताकत ही है कि हिंदुस्तान मंे पहला अख़बार निकालने की चेष्टा करने वाले विलियम वोल्ट्स ने भी यही इश्तहार (संवाद) जारी किया था। ‘‘मेरे पास बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो मुझे कहना है और जिनका संबंध हर व्यक्ति से है।’’ जिससे ‘घबरायी ‘ईस्ट इंडिया’ कम्पनी ने वोल्टस को बलात् स्वदेश रवाना कर दिया।’9 जिस अखंड हिंदुस्तान को लगभग छह सौ वर्षाें तक विदेशी और विजातीय हमलावरों, आक्रांताओं और शासकों के महत्वाकांक्षाओं के पैरों तले रौंदा गया, जिसकी सभ्यता और संस्कृति की अखंड और अक्षुण्ण परंपरा को विदेशी हमलों से कुचला गया; वह हिंदुस्तानी परंपरा और संस्कृति, लाख-लाख जख़्मों और वैदेशिक वज्रपातों के बाद भी अपनी स्वदेशी सभ्यता और संस्कृति की महक अखिल विश्व में सुवासित करती रही। बावजूद हिंदुस्तान ने जहां विदेशी सभ्यताओं का टकराव झेला है वहीं अपने को, समन्वय के अटूट बंधनों से भी बांधा है। ‘आर्यों और अनार्यों का संघर्ष देखा तो तुर्कों, शकों, हुणों, यूनानियों, सिथिनियों, चर्वरों, डचों, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों और मुगलों का टकराव भी देखा।’10 ‘लूटा, टूटा, बँटा बावजूद मूल से कभी नहीं कटा’, यही ‘हिंदुस्तान’ की पहचान और परंपरा है, जिसे ऋषियों और मुनियों ने सपेरों और फ़कीरों के इस देश को आस्था और विश्वास के अटूट भाव से सींचा है। इस महादेश को जिन विदेशी शासकों ने सबसे अधिक समय तक अपने प्रभुत्व में रखा, वे दुनिया की सबसे बुद्धिमान जातियों में से एक अंग्रेज थे, जिनके साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था। कारण, सूर्य की प्रथम किरणों के देश से लगायत अंतिम किरणों तक के देश, उनके उपनिवेश जो थे। आधी दुनिया से भी अधिक पर राज्य करने वाली क़ौम, हिंदुस्तान की सभ्यता, संस्कृति और समाजशास्त्र पर दो सौ वर्षाें तक अपनी मानसिकता थोपती रही, बावजूद हिंदुस्तानी संस्कृति, अपने मूल्यों और आदर्शों के साथ शाश्वत थी और आने वाले कल में भी शाश्वत रहेगी।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देश के महान क्रांतिकारियों ने अपने लहू से ‘आजादी की देवी’ का शृंगार किया है। स्वतंत्रता आंदोलन की अलख को देश और देश के बाहर ‘दावानल’ में बदल देने की क्षमता जिन कलमकारों और पत्रकारों में थी वे सच्चे मायने में भारत के महान क्रांतिकारी थे, जिनकी कलम की स्याही से क्रांति का बीजमंत्र निकलता था, जो अंग्रेजी हुकूमत की संगे-बुनियाद को हिला कर रख देता था। कलमकारों और नामानिगारों ने अपनी कलम की कीमत, जान देकर या काला पानी की सज़ा पाकर चुकायी। अंडमान निकोबार का ‘सेल्युलर जेल’ क्रांतिधर्मी पत्रकारों और क्रांतिकारियों के बलिदानों की दास्तां का बयान आज भी करता है। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के पन्ने उलटने पर जो दृश्य सामने आता है उसमें हिंदी पत्रकारिता का बीजपत्र ‘उदंत मार्तंड’ (30 मई, 1826) के संपादक युगल किशोर शुक्ल ने कोलकाता (तब कलकत्ता) से जब हिंदी का पहला पत्र निकाला तो उसका ध्येय वाक्य (श्लोक) का अर्थ था-‘‘सूर्य के प्रकाश के बिना जिस तरह अंधेरा नहीं मिटता उसी तरह समाचार सेवा के बिना अज्ञजन जानकार नहीं हो सकते।’’ अर्थात ‘पत्रकारिता के पुरखों को इस बात का अहसास था कि फिरंगियों की लूट-खसोट, अन्याय-अत्याचार- अनाचार पर प्रहार किया जाएगा तो उनके कोप का सामना भी करना पड़ेगा। बावजूद स्वातंत्र्यकामी संपादकों ने निर्भीक कलम चलाई।’11 ‘‘आज’’ ने अपने मुख्य पृष्ठ पर ध्येय वाक्य लिखा, ‘‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।’’ गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘‘प्रताप’’ का ध्येय वाक्य था-‘‘जिनको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है/वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है।’’ इलाहाबाद से प्रकाशित ‘स्वराज’12 का ध्येय वाक्य था-‘‘हिंदुतान के हम हंै, हिंदुस्तान हमारा है।’’ इस अख़बार के ढाई वर्ष की उम्र में 75 अंक निकल सके और कुल 8 संपादक लगे, जिन्हें इसके संपादन/प्रकाशन के कारण 125 साल की सज़ा मिली। यह दुनिया का पहला अख़बार और संपादकों का मंडल था, जिन्होंने इतनी लंबी सज़ा भोगी। बावजूद उनका उत्साह कम नहीं हुआ। एक को सज़ा मिलती तो दूसरा संपादक कार्य संभालने को तैयार हो जाता। इस अखबार में संपादक के लिए विज्ञापन निकलता था-‘‘एक जौ की रोटी और एक प्याला पानी यह शरेह-तनख़्वाह (वेतन) है, जिस पर ‘स्वराज’ इलाहाबाद के वास्ते एक एडीटर मतलूब (आवश्यकता) है।’’ इलाहाबाद से ही प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘चाँद’ (सन् 1922) का ‘‘फाँसी’’ अंक (नवंबर 1928) देश और दुनिया में फाँसी देने के औचित्य, तरीकों और राज्यक्रांतियों पर नई बहस छेड़ती थी जो आज भी हर फाँसी के बाद चलती है। इस अंक को अंग्रेजों ने जब़्त कर लिया था। मृत्युदंड की अमानुषिक प्रथा पर सवाल खड़ा करने वाला चाँद के ‘फाँसी’ अंक में शहीदे आजम भगत सिंह ने भी कई छद्म नामों से लेख लिखा था। कहने का अर्थ है कि देश की क्रांति की ‘दावानल’ को धधकाने में जितना बम और गोली ने काम किया होगा, उससे कई गुना अधिक, पत्र और पत्रकारिता ने किया। राष्ट्रभक्ति को जनांदोलन का रूप देने और आजादी की लड़ाई में सर्वस्व न्यौछावर करने की राष्ट्रीय भावना का प्रसार पत्रकारिता ने ही किया। यही कारण है कि ब्रिटिश सरकार ने इसे हमेशा अंकुश और यातना के शिकंजे में रखा। इसी कारण 19वीं शताब्दी के तीसरे दशक में मद्रास के गवर्नर ‘‘सर टामस मुनरो’ ने प्रेस की आजादी को ‘आंग्ल सत्ता’ की समाप्ति का पर्याय माना’’13 जो आगे चलकर सही साबित हुआ। भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई में क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाएं और पत्रकारों ने जितनी तल्लीनता एवं निडरता से रणभेरी बजाई, उतनी राष्ट्रीय पत्रकारिता ने शायद नहीं। यही कारण है, आंचलिक पत्रकारिता ‘जन’ के ज्यादा निकट रही है।
‘जनमत’ और ‘अभिमत’ तैयार करने में आंचलिक पत्र और पत्रकारों ने महती योगदान दिया। व्यावसायिक एवं लाभ से दूर क्षेत्रीय पत्रकारिता, विशुद्ध रूप से आजादी का ‘मिशन’ लेकर चल रही थीं और अपने स्तर पर उस ‘मिशन’ को जन-जन तक फैलाने में संलग्न थीं। आंचलिक पत्रकारिता इस देश की आत्मा (गांवों) की पत्रकारिता है। भारत जिन वजहों से जाना जाता है उस सभ्यता और संस्कृति के पोषण और संरक्षण की पत्रकारिता है। गाँव और अंचलों के सौंधी माटी और देशीयता के संवर्द्धन की पत्रकारिता है जिसके बिना इस देश आधी अधूरी ही तस्वीर बनती है जिसमें भारत की आत्मा नहीं होती है। अर्थात स्वदेशी पत्रकारिता है। उ.प्र. के बनारस से प्रकाशित पत्र ‘‘बनारस अखबार’’14 हिंदी प्रदेश का पहला अखबार था, जिसे शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ ने प्रकाशित कराया था। 1850 में ‘सुधाकर’15 भी काशी से निकला। इसके दो वर्ष बाद आगरा से ‘बुद्धिप्रकाश’16 निकला। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 15 अगस्त, 1867 में काशी से ‘कविवचन सुधा’ निकाला। हिंदी पत्रकारिता का मूल्यांकन किया जाए तो 1826 से 1884 तक के काल को उद्बोधनकाल कहा जा सकता है, जिसमें उदंत मार्तंड, बंगदूत, समाचार सुधावर्षण, पयामे़ आजादी, कविवचन सुधा और हिंदी प्रदीप के द्वारा पूरे भारत में राष्ट्रीय चेतना का बीजवपन किया गया।
सन् 1885-1919 तक को ‘जागरण काल’ के रूप में, ‘हिन्दोस्थान’, ‘नृसिंह’, ‘स्वराज’, ‘प्रभा’, ‘अभ्युदय’ ने भारतियों में आजादी पाने की अलख जगायी। सन् 1920-1947 तक को ‘क्रांतिकाल’ कहा जा सकता है जिसमें स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु जब भारतवासी जाग उठे तो उन्हें फिरंगियों द्वारा पीड़ित किया गया। बर्बर शासकों के विरुद्ध ‘प्रताप’, ‘कर्मवीर’, ‘सैनिक’, ‘स्वदेश’ तथा गुप्त प्रकाशनों में ‘रणभेरी’, ‘शंखनाद’, ‘तूफान’, ‘चिनगारी’, ‘क्रांति’ और ‘विप्लव’ आदि ने साम्राज्यवाद के सर्वनाश के लिए क्रांति की ज्वाला भड़काई।
यह देश, ग्रामों और अंचलों का गणतंत्र है, जिसमें राष्ट्रीय आंदोलन, आंचलिक पत्रकारिता और पत्रों से मुखर हुई और राष्ट्रीय स्वर बनी। देशीय या भाषाई पत्रों की ताकत से अंग्रेजी सत्ता न केवल विचलित हुई बल्कि दहल भी गई। पूरा देश आंदोलनरत था, क्रांति बीज जो अख़बार और पत्रों ने जन के मानस में बोया था वह ज़वान और क्रांतिधर्मी हो चुकी थी़। तब देश के किसी भी बड़े शहर, चाहे दिल्ली या मुम्बई हो, कोई ऐसा राष्ट्रीय पत्र नहीं था, जो क्रांति की आग को न भड़का रहा था, बल्कि देश के छोटे-छोटे अंचलों एवं कस्बों से निकलने वाले ही पत्र थें, जिनमें देशभक्ति और राष्ट्रीय चेतना कूट-कूट कर भरी हुई थी-‘अंग्रेजी हुकूमत पर वज्रपात की तरह गिर रहे थें’। बड़े पत्र या राष्ट्रीय प्रसार वाले पत्रों की संख्या नगण्य के बराबर थी, जो थे भी, वह अंग्रेजों के थे या उनके संरक्षण में चल रहे थे। अर्थात आंचलिक पत्रकारिता देश में राष्ट्रीय भावना के साथ ही आंचलिक मूल्यों, आदर्शों एवं संस्कृतियों की भी वाहक एवं संरक्षक थी। देश की आंचलिकता इन पत्रों के माध्यम से मुख़रित एवं बलवती हुई और आजादी की लड़ाई में आंचलिक पत्रकारिता ने सबसे अधिक बलिदान दिया। यही कारण है कि 1947 तक आते आते ये आंचलिक पत्र, ब्रितानी सरकार के गले की फाँस बन गए और अंततः उन्हें हिंदुस्तान को अलविदा कह स्वदेश रवाना होना पड़ा। समय की रेखा पर पत्रकारिता के स्वरूप एवं उद्देश्यों में परिवर्तन होते रहे, आजादी की लड़ाई में हथियार बने आंचलिक पत्रकारिता, आजादी के 6 दशक बाद आज वही आंचलिक और भाषाई पत्रकारिता अपने अस्तित्व की रक्षा करने में अक्षम साबित हो रही है। आज अख़बारों कें पन्नों से ग्राम, मोहल्ला और अंचल गायब हैं। नगरों और महानगरों से पटा अख़बार पूरी तरह से व्यावसायिक रूप ग्रहण कर चुके हैं और उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। पत्रकारिता की आत्मा, ‘आंचलिक पत्रकारिता,’ जो वास्तव में स्वदेशी पत्रकारिता है, आज संक्रमण काल से गुजर रही है। गांव में अख़बार, शहरों के विज्ञापन एवं उपभोग के समान तो पहुंच रहे हैं लेकिन गांवों के अख़बारों में, गांव और गिराँव ही गायब हैं। अर्थात क्रांति का बीजपत्र, ‘आंचलिक पत्र’ आज अपने अस्तित्व के संकट के दौर से गुजर रहे हैं। देशीयता और भाषाई पत्रों की ताकत, कार्पोरेट अख़बारों और मीडिया घरानों के सामने मृतप्राय होती जा रही हैं जिसमें सरकारी नीतियाँ सहायक हो रही हैं जो वर्तमान पत्रकारिता का विद्रूप है।
संदर्भ
1. हेरम्ब मिश्र, संवाददाता: सत्ता और महत्ता, पृ. 5, किताब महल, नई दिल्ली
2. द बंगाल गजट आर केलकटा जनरल एडवरटाइजर, जेम्स आगस्टस हिकी, 29 जनवरी, 1780
3. अनुच्छेद-19 (1)(क)
4. एक्सपेे्रस न्यूज पेपर्स प्रा. लि. बनाम् भारत संघ, एआईआर 1995 SC 578; इंडियन एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स बनाम् भारत संघ 1985 SC 641
5. सुभाष कश्यप, हमारा संविधान, पृ. 95, एनबीटी., नई दिल्ली
6. बृजभूषण बनाम दिल्ली, एआईआर-1950, SC 129
7. बीरेन्द्र बनाम पंजाब, एआईआर.1957 SC896
8. मानेका गांधी बनाम भारत संघ, ए.आई.आर. 1978, SC 597 के मामले में न्यायमूर्ति भगवती के अनुसार
9. विजयदत्त श्रीधर, पहला संपादकीय, पृष्ठ 11, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
10. ए.एल.बासम, अदभुत भारत
11. विजयदत्त श्रीधर, पहला संपादकीय, पृ.13
12. 9 नवंबर-1907 सा. उर्दू
13. डाॅ. अर्जुन तिवारी, पत्रकारिता और राष्ट्रीय चेतना का विकास, पृष्ठ 16
14. सा. जनवरी, 1845
15. सा. तारामोहन मिश्र, 1850
16. मुंशी सदासुख लाल, 1882

सबकी प्यारी मोबाईल डार्लिंग / अनामी शरण बबल

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अनामी शरण बबल
1

हम सब तेरे प्यार में पागल
ओए मोबाईल डार्लिंग ।
तुम बिन रहा न जाए / विरह सहा न जए / मन की बात कहा न जाए
तेरे बिन मन उदास / जीवन सूना सूना
पल पल / हरपल तेरी याद सताये।।.
लगे न तेरे बिन मन कहीं
मन मचले मृगनयनी सी / व्याकुल तन, मन आतुर, चंचल नयनजग
सूना बेकार लगे जग बिन तेरे
तू जादूगर या जादूगरनी / मोहित सारा जग दीवाना
तू बेवफा डार्लिंग ।।

पर कैसे कहूं तुम्हें / तू है बेवफा डार्लिंग
तू पास आते ही / तुम्हें करीब पाते ही
अपना लगे/ मन खिलखिल जाए
रेगिस्तानी मन में बहार आ जाए
आते ही हाथ में भर जाए मन
विभोर सा हो जाए तन मन पूरा सुकून से
शांत तृप्त हो चंचल मन नयन.।
तेरे करीब होने से लगे सारा जहां हमारा
मुठ्ठी में हो मानो सबकुछ
सब मेरे भीतर अपने दायरे में
खुद भी लगे सबके साथ सबके बीच करीब सबसे निकट
2
तू अकेली
मोबाईल डार्लिंग
सारी भीड़ पर है भारी
मैं तेरा साथी,संगी
केवल तेरा होता हूं कहीं भी कभी भी
होकर तन्हा बाजार में घर बार में
मित्रों के दरबार में/ सड़क चौराहों पार्क बाजार में या पूरे संसार में
हाथ फेरता हूं / टटोलता हूं तुम्हें कभी दिल से लगा लेता हूं
पत्ता नहीं चलता
तू मेरी साया या मैं तेरी काया ?
खोकर तेरे संग
कुछ भेजकर कुछ पाकर संदेश / देता हूं कुछ उपदेश कमेंट्स
तरोताजा हो जाता हूं
खोकर तेरी दुनियां में / होकर मैं मदहोश
घंटो खिला खिला रहता हूं।
पाकर दोस्तों की खबरें
मन ही मन में / मन से गुनगुनाता हूं
तिलिस्मी गलैमर में सब भाता है, सुहाता है।।

3
तू मेरी मोभाईल डार्लिंग
भीड में भीड से बाहर आते ही
तुममे खो जाता हूं / तू ही एक सहारा अपना और हमारा
जब भी जहां भी मिले दो चार हो या दस बीस मोबाईलची
तब केवल तू मोबाईल और तेरी आशिकी
एप्पस डाउनलोड,फोटो,रिचार्ज बैलेंस
लाईट कैंमरा न्यू मॉडल जीबी
नेटवर्क साउण्ड वेट प्राईस
इसी पर होती है केवल गूफ्तगू
कोडवर्ड या इसी शब्दावली में होती है बातें
भूलकर अपना गम अपनी पीडा अपने घर की चिंता
तू है पास मेरी प्यारी मोबाईल डार्लिंग / तो केवल तू और तेरी चिंता
तेरे बाद ही सबकुछ
तेरे साथ ही सबकुछ होता है जीवन में शुरू
सारे गम भूलकर
हम सारे मोबाईलची / खोए ही रह जाते हैं अपने अपने मोबाईल में
तू डार्लिंग कर देती है इतनी बेकरार बेकल चंचल
हर आहट पर मन जाए मचल मचल
लगता है / कोई धड़कन है, रिंगटोन है
हर पल लगे मन में एक खटका / कोई मैसेज या मिसकॉल है
कहीं भी कभी भी / आधी आधी रात में भी
टंगा रहे मन
लगे न मन कहीं ध्यान
केवल तुम पर लगा रहता है मन
हर पल
तुम में ही खोया रहता है मन
शायद कुछ है
हर पल / पल पल मेरे लिए मेरे वास्ते
4
गौर नहीं करता कभी
कब तक या कितना है बैलंस
संग तेरे संग संग तेरे / मैं भी तो होता हूं रोज रिचार्ज
लो बैटरी है बैड न्यूज
सिरहाने करता हूं / रात रात भर अपने ले चार्ज
यकायक उठकर / पहले तुम्हें निहारता हूं
देखता हूं कुछ है क्या / मेरे लिए मेरा कोई संदेश
उन फ्रेण्डस की यादों में खोया उनको भी नहीं भूलता / भूलती
जो पास होकर भी करीब से नहीं लगते दिखते या होते है।
अपना एक सुदंर कोमल संसार है / प्यारा सा परिवार है मन में उसका ही खुमार है ।।

5
तू भी अजीब है मेरी मोबाईल डार्लिंग
जितना चाहताहूं तुमसे दूर बहुत दूर भागना
भाग कहां पाता हूं / और ज्यादा करीब पाता हूं
तेरे में ही मन खोया
तेरे कैमरे का मैं दीवाना / लेलेले सेल्फी से सेल्फ को देखने की ललक चाहत
सेल्फी ने तो मुझे सेलफीस बना डाला
देखने की भूख कभी ना हो कम / अपना ही तन हर पल
हर एंगल से लगे नया नया कुछ अनजाना / चाहत नहीं दीवानगी कोह
अपना ही तन अपनी ही काया स मोहित / अनगिन फोटू पर भी मन में प्यास रहे
देखन की चाह लगे/ अपने को ही अपनी निगाह लगे
अपना ही तन अपनी ही सूरत / अपनी आंखों में / अपनी आंखे ही
कुछ नयी नयी कुछ परायी अनजानी मनभावन लगे
यही दीवानापन तेरी / हर पल मोहित करे सुहावन लागे
अपनी ही काया की माया से मुग्ध मैं
बार बार लेता हूं अपनी ही छवि छाया
देखता हूं तेरे कैमरे में खुद को बार बार
सच मेरी मोबाईल डार्लिंग
रोज रोज पाता हूं / हर बार अपने भीतर बढ़ता प्यार
6
मेरी प्यारी प्यारी सी मोबाईल डार्लिंग
तेरे भीतर खोया / मेरा भी क्या हाल है
फेसबुक वाट्सएप्प टिवटर मैसेंजर याहू गूगल
सबके संग संग / मेरी आकांश्राओं की यह उड़ान है / मन का तूफान है
मैं भी रखता हूं हजारों फ्रेण्डस
देता हूं कमेंट्स करता हूं चैट कुछ पोस्ट शेयर
फिर रखता हूं हिसाब / लेकर कॉपी कलम कैलकुलेटर
क्या है कैसा है / रिएक्शन, लाईक लव कमेंट्स शेयर का
मोबाईली टीआरपी में
मन अपना भी हीरो सा लगे
नंबर देखकर मोहित खुद
तिलिस्मी लोक में मैं / खुद को भी एक तिलिस्म सा पाता हूं
कोई सेलेब्रेटी सा मैं / अपनी ही नजरों मे एक ब्रांड सा पाता हूं
मैं सपनों का सौदागर
मोबाईलची सपनों में जीता हूं / यही भाता है।
इसीलिए मोबाईल के संग
मैं भी मोबाईल बना रहता हूं।
7
मेरी मोबाईल डार्लिंग
तेरे संग / कभी नहीं होता अकेला
यह केवल तेरा ही कमाल है
तेरे संग कभी भी हो जाता हूं तन्हा
मेरे मन में बसा है एक ड्रीमलैंड/ जिसकी तू रानी
इर्द गिर्द हरे भरे हैं सपने मंसूबे
तू ग्लैमरस ड्रीमगर्ल
पल भर भी नहीं सुहाता / जुदा होना
मन के महकते खुशहाल संसार से
तू मेरे गमों का सहारा दिलासा / बेकाबू मन की तरंगों की उड़ान है
तू मेरे सपनों की दुकान है आशाओं इच्छाओं का मैदान है
अतृप्त सपनों की क्रबिस्तान है
हम सपनीले मोबाईलची
सोसाईटी के सबसे डैंजर यंगिस्तान है।।
जिसके हर गम को इसने हर लिया
भीड़ नहीं तन्हाई ने बेकार किया
हम जिंदा लाशे
सोसाईटी में मोबाईलची क्रबिस्तान है।
8
मोबाईल डार्लिंग के प्यार में
यूथ रेगिस्तान बन गए
बोल चाल बोली हाव भाव /रंगोली होली बसंत सब मार डाला
हर आदमी को बीमार बना डाला
नहीं सुहाता जिसे मोबाईल के अलावा / सब डिस्टर्वेंस लगे / प्राईवेसी पर हमला कहे
बेवफा बना तूने/ सबको झूठ की मशीन बना दी
हर आदमी को दुश्मन आस्तीन बना दी।
सच महबूबा
मेरी मोबाईल महबूबा
तू क्या कर गयी।
जो मैकाले नहीं कर पाया / तू काल बनकर सब कर गयी
कुछ दिन महीनों साल में ही
सारा नजारा बदल जाएगा
तेरे आगोश में खोकर
पूर यूथ पावरलेस हो जाएगा।
9
हाय मोबाईल डार्लिंग
तू तो मेरी हो गयी / मैं खुद को ही भूल गया.
मैं बन तेरी कठपुतला-कठपुतली
तेरे इशारों पर नाचता हूं
खोकर आगोश में भूल गया
रिश्तों का तापमान / हंसना खेलना कूदना
प्यार आदर सम्मान को
मैं तेरा मरीज बीमार
भूल गया सबको /जिंदगी की सच्चाई को
तन्हाई को
तेरे संग जीता मरता
मैं इंसान नहीं /मोबाईलची से मोबलाईट हो गया हूं
चलता फिरता डायनामाईट हो गया हूं।
खोकर धीरज सुपर फास्ट हूं।
सबसे डैंजर / हर घर में छिपा बैठा एक बम ब्लास्टहूं।
10
मोबाईल की कसम
सनलाईट की तरह/ ब्रेकिंग न्यूज हाईलाईट हो गया
हम सारे मोबाईलची
चाय कॉफी की तरह
जंतर मंतर पर उबलते उबाईलचियों मानिंद
मोबाईल से मोबलाईट्स हो गया
किसी दिल्ली वालों की तरह डेलहाईट हो गया ।।
सारे मोबाईलचियों की मैं प्यारी / सब पर भारी
सबकी डार्लिंग मैं मोबाईल
पर मेरी डार्लिंग कोई नहीं ।
जो भूल जाए किसी के संग खुद को
वो ईमानदार नहीं
मैं सबकी प्यारी
मगर मेरा कोई प्यार नहीं।


अनामी शरण बबल
asb.deo@gmail.com

पत्रकारिता का इतिहास

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प्रस्तुति-  राहुल मानव - 


मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
पत्रकारिता का इतिहास, प्रौद्योगिकीऔर व्यापारके विकास के साथ आरम्भ हुआ।

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इतिहास

लगता है कि विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोममें हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं)। वास्तव में यह पत्थर की या धातुकी पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे। ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
मध्यकाल में यूरोपके व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे।
15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्गने छापने की मशीन का आविष्कार किया। असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नकल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।

भारत में पत्रकारिता का आरंभ

छापेकी पहली मशीन भारतमें 1674 में पहुंचायी गयी थी। मगर भारत का पहला अख़बार इस के 100 साल बाद, 1776 में प्रकाशित हुआ। इस का प्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनीका भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स था। यह अख़बार स्वभावतः अंग्रेज़ी भाषा में निकलता था तथा कंपनी व सरकार के समाचार फैलाता था।
सब से पहला अख़बार, जिस में विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किये गये, वह 1780 में जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बार ‘बंगाल गज़ेट’था। अख़बार में दो पन्ने थे और इस में ईस्ट इंडिया कंपनीके वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर की पत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी शासकों की आलोचना करने से पर्हेज़ नहीं किया। और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुरमाना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अख़बार भी बंद हो गया।
  • 1790 के बाद भारत में अंग्रेज़ी भाषा की और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिक्तर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
  • 1819 में भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषाका पत्र – ‘संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) था। उस के प्रकाशक राजा राममोहन रायथे।
  • 1822 में गुजराती भाषाका साप्ताहिक ‘मुंबईना समाचार’ प्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
  • 1826 में ‘उदंत मार्तंड’नाम से हिंदीके प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया।
  • 1830 में राममोहन राय ने बड़ा हिंदी साप्ताहिक ‘बंगदूत’का प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेज़ी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। यह कोलकातासे निकलता था जो अहिंदी क्षेत्र था। इस से पता चलता है कि राममोहन राय हिंदी को कितना महत्व देते थे।
  • 1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधारकी भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी – भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो? 1846 में राजा शिव प्रसादने हिंदी पत्र ‘बनारस अख़बार’का प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लखक भारतेंदु हरिशचंद्रने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी है और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। 1868 में भरतेंदु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका ‘कविवच सुधा’ निकालना प्रारंभ किया। 1854 में हिंदी का पहला दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’निकला।

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बाहरी कड़ियाँ

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