Quantcast
  • Login
    • Account
    • Sign Up
  • Home
    • About Us
    • Catalog
  • Search
  • Register RSS
  • Embed RSS
    • FAQ
    • Get Embed Code
    • Example: Default CSS
    • Example: Custom CSS
    • Example: Custom CSS per Embedding
  • Super RSS
    • Usage
    • View Latest
    • Create
  • Contact Us
    • Technical Support
    • Guest Posts/Articles
    • Report Violations
    • Google Warnings
    • Article Removal Requests
    • Channel Removal Requests
    • General Questions
    • DMCA Takedown Notice
  • RSSing>>
    • Collections:
    • RSSing
    • EDA
    • Intel
    • Mesothelioma
    • SAP
    • SEO
  • Latest
    • Articles
    • Channels
    • Super Channels
  • Popular
    • Articles
    • Pages
    • Channels
    • Super Channels
  • Top Rated
    • Articles
    • Pages
    • Channels
    • Super Channels
  • Trending
    • Articles
    • Pages
    • Channels
    • Super Channels
Switch Editions?
Cancel
Sharing:
Title:
URL:
Copy Share URL
हिन्दी
RSSing>> Latest Popular Top Rated Trending
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
NSFW?
Claim
0


X Mark channel Not-Safe-For-Work? cancel confirm NSFW Votes: (0 votes)
X Are you the publisher? Claim or contact us about this channel.
X 0
Showing article 1041 to 1060 of 3437 in channel 7710543
Channel Details:
  • Title: पत्रकारिता / जनसंचार
  • Channel Number: 7710543
  • Language: Hindi
  • Registered On: January 7, 2013, 6:45 pm
  • Number of Articles: 3437
  • Latest Snapshot: March 11, 2025, 11:15 pm
  • RSS URL: http://asbmassindia.blogspot.com/feeds/posts/default?alt=rss
  • Publisher: http://asbmassindia.blogspot.com/
  • Description: पत्रकारिता (मीडिया) का प्रभाव समाज पर लगातार बढ़ रहा है। इसके बावजूद यह पेशा अब संकटों से घिरकर...
  • Catalog: //ferricyanogen13.rssing.com/catalog.php?indx=7710543
Remove ADS
Viewing all 3437 articles
Browse latest View live
↧

चीनी भाषा और साहित्य

March 14, 2017, 4:38 am
≫ Next: होली पर सोशल मीडिया के चटकारे / अनूप शुक्ल
≪ Previous: पत्रकारिता का इतिहास
$
0
0



 स्वामी शरण 
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
चीनी साहित्यअपनी प्राचीनता, विविधता और ऐतिहासिक उललेखों के लिये प्रख्यात है। चीनका प्राचीन साहित्य "पाँच क्लासिकल"के रूप में उपलब्ध होता है जिसके प्राचीनतम भाग का ईसा के पूर्व लगभग 15वीं शताब्दी माना जाता है। इसमें इतिहास (शू चिंग), प्रशस्तिगीत (शिह छिंग), परिवर्तन (ई चिंग), विधि विधान (लि चि) तथा कनफ्यूशियस (552-479 ई.पू.) द्वारा संग्रहित वसंतऔर शरद-विवरण (छुन छिउ) नामक तत्कालीन इतिहास शामिल हैं जो छिन राजवंशों के पूर्व का एकमात्र ऐतिहासिक संग्रह है। पूर्वकाल में शासनव्यवस्था चलाने के लिये राज्य के पदाधिकारियों को कनफ्यूशिअस धर्म में पारंगत होना आवश्यक था, इससे सरकारी परीक्षाओं के लिये इन ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य कर दिया गया था।
कनफ्यूशिअस के अतिरिक्त चीन में लाओत्स, चुआंगत्सऔर मेन्शियस आदि अनेक दार्शनिक हो गए हैं जिनके साहित्य ने चीनी जनजीवन को प्रभावित किया है।

अनुक्रम

  • 1जनकवि चू य्वान
  • 2थांग कालीन कविता
  • 3आधुनिक काव्य
  • 4प्राचीन कथासाहित्य
  • 5थांगकालीन कथा साहित्य
  • 6उपन्यास
  • 7आधुनिक कथा साहित्य
  • 8चीनी नाटक
    • 8.1आधुनिक नाट्य साहित्य
  • 9बाहरी कड़ियाँ

जनकवि चू य्वान

चू य्वान् (340-278 ई.पू.) चीन के सर्वप्रथम जनकवि माने जाते हैं। वे चू राज्य के निवासी देशभक्त मंत्री थे। राज्यकर्मचारियों के षड्यंत्र के कारण दुश्चरित्रता का दोषारोपण कर उन्हें राज्य से निर्वासित कर दिया गया। कवि का निर्वासित जीवन अत्यंत कष्ट में बीता। इस समय अपनी आंतरिक वेदना को व्यक्त करने के लिये उन्होंने उपमा और रूपकों से अलंकृत "शोक" (लि साव) नाम के गीतात्मक काव्य की रचना की। आखिर जब उनके कोमल हृदय को दुनिया की क्रूरता सहन न हुई तो एक बड़े पत्थर को छाती से बाँध वे मिली (हूनानप्रांत में) नदी में कूद पड़े। अपने इस महान कवि की स्मृति में चीन में नागराज-नाव नाम का त्यौहार हर साल मनाया जाता है। इसका अर्थ है कि नावें आज भी कवि के शरीर की खोज में नदियों के चक्कर लगा रही हैं।

थांग कालीन कविता

थांग राजाओं का काल (600-900 ई.) चीन का स्वर्णयुग कहा जाता है। इस युग में काव्य, कथा, नाटक और चित्रकला आदि में उन्नति हुई। वास्तव में चीनी काव्यकला "प्रशस्ति गीत"से आरंभ हुई, चू युवान् की कविताओं से उसे बल मिला और थांगयुग में उसने पूर्णता प्राप्त की। इस युग की 48,900 कविताओं का संग्रह सन् 1907 में 30 भागों में प्रकाशित हुआ है। इस कविताओं में प्राकृतिक सौंदर्य, प्रेम, विरह, राजप्रंशसा तथा बौद्ध और ताओ धर्म के वर्णनों की मुख्यता है। संक्षिप्तता चीनी काव्य का गुण माना जाता है, इसलिये लंबे ऐतिहासिक काव्य चीन में प्राय: नहीं लिखे गए। चित्रकलाकी भाँति सांकेतिकता इस कविता का दूसरा गुण रहा है। चीनी वाक्यावली में विभक्ति, प्रत्यय, काल और वचनभेद, आदि के अभाव में पूर्वोपर प्रसंग आदि से ही काव्यगत भावों को समझना पड़ता है, इसलिये चीनी कविता को हृदयंगम करने में कुछ अभ्यास की आवश्यकता है।
लि पो (705-762 ई.) इस काल के एक महान कवि हो गए हैं। बहुत दिनों तक वे भ्रमण करते रहे, फिर कुछ कवियों के साथ हिमालयप्रस्थान कर गए। वहाँ से लौटकर राजदरबार में रहने लगे, लेकिन किसी षड्यंत्र के कारण उन्हें शीघ्र ही अपना पद छोड़ना पड़ा। अपनी आंतरिक व्यथा व्यक्त करते हुए कवि ने कहा है :
मेरे सफेद होते हुए वालों से एक लंबा, बहुत लंबा रस्सा बनेगा,
फिर भी उससे मेरे दु:ख की गहराई की थाह नहीं मापी जा सकती।
एक बार रात्रि के समय नौकाविहार करते हुए, खुमारी की हालत में, कवि ने जल में प्रतिबिंबित चंद्रमा को पकड़ना चाहा, लेकिन वे नदी में गिर पड़े ओर डूब कर मर गए।
तू फू (712-770 ई.) इस काल के दूसरे उल्लेखनीय महान कवि हैं। अपनी कविता पर उन्हें बड़ा गर्व था। युद्ध, मारकाट, सैनिक शिक्षा आदि का चित्रण तू फू ने बड़ी सशक्त शैली में किया है। उनके समय में चीन पतन की ओर जा रहा था जिससे सामाजिक जीवन अस्तव्यस्त हो गया था। विदेशी आक्रमण के कारण राजकरों में वृद्धि हो गई थी और सैनिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी। तत्कालीन शासकों की दशा का चित्रण करते हुए कवि ने लिखा है :
मैं अपने सम्राट् को याआ और शुन के समान महान बनाना चाहता हूँ और अपने देश के रीतिरिवाज पुन: स्थापित करना चाहता हूँ।
अपने अंतिम दिनों में भयंकर बाढ़ आने पर तू फू दस दिन तक वृक्षों की जड़ें खाकर निर्वाह करते रहे। उसके बाद मांस मदिरा का अत्यधिक सेवन करने के कारण उन्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।
पो छू यि (772-486 ई.) इस युग के दूसरे श्रेष्ठ कवि हैं। स्वभाव से वे बहुत रसिक थे। लाओत्स के "ताओ ते चिंग"पर व्यंग्य करते हुए कवि ने कहा है : "जो जानता है वह कहता नहीं और जो कहता है वह जानता नहीं।"
ये लाओ त्स के वाक्य हैं। लेकिन इस हालत में स्वयं लाओत्स के "पाँच हजार से अधिक शब्दों का"क्या होगा?
पो छू यि की माँ फूलों का सौंदर्य निरीक्षण करते करते कुएँ में गिर पड़ी थी, इसपर सहृदय कवि की लेखनी द्वारा फूलों की प्रशंसा में और "नया कूप"नाम की कविताएँ लिखी गईं। "चिरस्थायी दोष"नाम की कविता में कवि ने सम्राट् मिंग ह्वांग (685-762 ई.) के अध:पतन का मार्मिक चित्र उपस्थित किया है। "कोयला बेचनेवाला", "राजनीतिज्ञ", "टूटी बाँहवाला बूढ़ा"आदि व्यंग्यप्रधान कविताएँ भी कवि की लेखनी से उद्भूत हुई हैं। भाषा की सरलता के कारण उनकी कविताओं ने जनसाधारण में प्रसिद्ध पाई है।

आधुनिक काव्य

विषय, भाव और आकार प्रकार की दृष्टि से प्राचीन कविता का क्षेत्र बहुत सीमित था। एक कविता में प्राय: 4 या 8 पंक्तियाँ रहती थी जो अलग अलग नहीं लिखी जाती थी, विरामचिह्न भी इसमें नहीं रहते थे जिससे कविता समझने में कठिनाई होती थी। प्रथम विश्वयुद्धके बाद भारत की भाँति चीन में भी आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए जिससे साहित्यिक क्षेत्र में जागृति दिखाई देने लगी। 4 मई 1919 के क्रांतिकारी आंदोलन के उपरांत चीनी कविता में जनसाधारण के संघषों के चित्रण का सूत्रपात हुआ।
चीनी कविता को नवीन रूप देनेवालों में को मो-रो का नाम सबसे पहले आता है। उन्होंने प्रकृति, धरती, समुद्र, सूर्य आदि की प्रशंसा में एक से एक सुंदर कविताओं की रचना कर चीनी साहित्य को आगे बढ़ाया है। सन् 1921 में प्रकाशित "देवियाँ"नाम के इनके कवितासंग्रह में विद्रोह के साथ साथ आशावाद स्पष्ट दिखाई देता है। इसी समय च्यांग क्वांग-त्स ने रूस की अक्टूबर क्रांतिपर प्रेरणादायक कविताओं की रचना की। इन कविताओं में हाथ में बंदूक लेकर शत्रु से लड़ने के लिये कवि ने अपने देश के नौनिहालों को ललकारा है।
सन् 1930 में चीनी में वामपक्षीय लेखकसंघ की स्थापना हुई। इस समय कोमिंगतांग सरकार ने अनेक तरुण साहित्यिकों को गिरफ्तार करके मौत के घाट उतार दिया। इनमें ह् ये-फिंग (सुप्रसिद्ध लेखिका तिङ् लिङ्के पति) और यिन् फूनामक कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं। सन् 1931 में चीनी लेखकों का एक संघ बना जिससे प्रेरणा प्राप्त कर यू फेंग, त्सांग के-छिया, वांग या-फिंग और ट्येन छूयेन आदि कवियों ने अकाल, भुखमरी, किसानों और जमींदारों का संघर्ष, विद्रोह, हड़ताल आदि अनेक सामयिक विषयों पर रचनाएँ प्रस्तुत कीं।
आय छिंगवर्तमान युग के लोकप्रिय कवि माने जाते हैं। उन्होंने "वह सोया है", "काली लड़की गाती है", "जहाँ काले आदमी रहते हैं"आदि भावपूर्ण कविताएँ लिखीं। "वह दूसरी बार प्राणों की तिलांजलि देता है"नामक कविता में कवि ने एक घायल किसान सिपाही का मार्मिक चित्र उपस्थित किया है जो नगर की सड़क पर बड़े गर्व से कदम उठाकर चलता है। युद्धोत्तरकालीन कवियों में य्वान् शुइ-पो, लि चि, हो छि-फांग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। य्वान् शुइ-पो, लि चि, हो छि-फांग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। य्वान् शुई पो ने लोकगीत की शैली में "बिल्लियाँ"नामकी व्यंग्यात्मक कविता की रचना की। लिचि की "अंग क्वेइ और लि श्यांग श्यांग"नामक कविता चीन में अत्यंत प्रसिद्ध है, यह भी गीत शैली में लिखी गई है। सन् 1954 की भयंकर बाढ़ का सामना करने के लिये वू हान् की जनता को जोश दिलाते हुए हो छि-फांग ने एक भावपूर्ण कविता लिखी। इसी तरह आय छिंग, शिह फांग-यू और लि ट्येन-थिन् आदि प्रगतिशील कवियों ने शांतिरक्षा पर सुंदर रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।

प्राचीन कथासाहित्य

सभ्यता के आदिम काल में ह्वांगहो नदी की उपत्यका में जीवनयापन करते हुए चीन के लोगों को प्राकृतिक शक्तियों के विरुद्ध जोरदार संघर्ष करना पड़ा जिससे इस देश के निवासियों का यथार्थवादी विश्वासों की ओर झुकाव हुआ; भारतवर्ष की भाँति आध्यात्मिक तत्वों और पौराणिककथाकहानियों का विकास यहाँ नहीं हो सका। प्राकृतिक देवी देवताआं के प्रति भय अथवा आदर की भावना से प्रेरित होकर आदिम मानव के मुख से जो स्वाभाविक संगीत प्रस्फुटित हुआ वही आदिम कविता कहलाई। शनै: शनै: मनुष्य ने प्राकृतिक शक्तियों पर विजय पाई, उसका संघर्ष कम होता गया और अवकाश मिलने पर कथा कहानियों की आर उसकी रुचि बढ़ती गई।
प्राचीन चीन में क्लासिकल साहित्य का इतना अधिक महत्व था कि उपन्यासों और नाटकों को साहित्य का अंग ही नहीं माना जाता था। चीनी का "श्याओ श्वो"शब्द उपन्यास और कहानी दोनों अर्थो में प्रयुक्त होता है। इससे मालूम होता है कि आधुनिक कथा साहित्य का विकास बाद में हुआ।

थांगकालीन कथा साहित्य

थांगकालीन राजवंशों के पूर्व कहानी साहित्य केवल परियों और भूत प्रेत की कहानियों तक सीमित था उसके बाद "अद्भुत कहानियाँ" (चीनी में छ्वान छि) लिखी जाने लगीं, लेकिन तत्कालीन विद्वानों के निबंधों की तुलना में ये निम्न कोटि की ही समझी जाती थीं। क्रमश: कहानी साहित्य में प्रगति हुई और थांगकाल में चरित्रप्रधान कहानियों की रचना होने लगी। कुछ कहानियाँ क्लासिकल लिखी गई तथा कुछ व्यंग, प्रेम और शौर्यप्रधान। छेन श्वान्-यु ने "भटकती हुई आत्मा", लि छाओ-वेइ ने "नागराज की कन्या"और य्वान् छेंग ने "यिंग यिंग की कहानी"नामक भावपूर्ण प्रेम कहानियों की रचना की। इन दिनों पढ़े लिखे लोग सरकारी परीक्षाएँ पास करके उच्च पद पाने के स्वप्न देखा करते थे और अंत में असफल होने से जीवन से निराश हो बैठते थे- इसका मार्मिक चित्रण पाई शिंग-छ्येन की "वेश्या की कहानी", लि कुंग-त्सो की "दक्षिण के उपराज्य की राज्यपाल", शेंग या छिह की "छिन का स्वप्न"और शेंग छें-त्सि की "तकिए के नीचे"कहानियों में बड़ी कुशलतापूर्वक किया गया है।
मिंग और मंचू काल में भी कहानी साहित्य लिखा गया। ल्याओ छाई छिह इ (अद्भुत कहानियाँ) मंचू काल की प्रसिद्ध कहानियाँ हैं, लेखक का नाम है फू सुंग-लिंग।

उपन्यास

चीनी उपन्यासों का आरंभ मंगोल राजवंशों के काल से होता है। इस समय युद्ध, षड्यंत्र, प्रेम, अंधविश्वास और यात्रा आदि विषयों पर उपन्यासों की रचना हुई। ले क्वान् चिंग का लिख हुआ सान का चिह येन इ (तीन राजधानियों की प्रेमाख्यायिका) युद्ध प्रधान ऐतिहासिक उपन्यास है जिसमें युद्ध के दृश्य, चतुर सेनापतियों के षड्यंत्र ओर रणकौशल आदि का आकर्षक शैली में वर्णन किया गया है। इसी लेखक का दूसरा उपन्यास शुई हू (जल का तट) है। इसमें सुंगच्यांग और उसके साथियों के कृत्यों का वर्णन है। उस काल में प्रचलित कथा कहानियों के आधार पर लेखक ने बड़े परिश्रमपूर्वक यह रचना प्रस्तुत की है। "अनिष्ट की पराजय"इस लेखक की तीसरी रचना है जिसमें पेइचाउ के नागरिक वांग त्स के कृत्यों का वर्णन है। वांग त्स ने किसी जादू के बल से विद्रोह किया था लेकिन वह सफल न हो सका।
मिंग काल में अनेक नए उपन्यासों की रचना हुई। छिन फिंग मेइ (सुवर्ण कमल) मिंग काल का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है जिसमें सुंगकालीन भ्रष्ट जीवन का प्रभावशाली चित्रण है। इसके लेखक वांग शिह-छेंग हैं जिनकी मृत्यु 1593 में हुई। लेखक की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष पश्चात् उपन्यास का प्रकाशन हुआ। मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक सामग्री का अध्ययन करने के लिये यह उपन्यास बहुत महत्व का है। सुप्रसिद्ध चीनी यात्री युवान् च्वांग की भारत यात्रा पर आधारित शी यू चि (पश्चिम की यात्रा) इस काल की दूसरी रचना है। इसके लेखक वू छेंग-येन माने जाते हैं; इन्होंने लोकप्रचलित कथाओं को बटोरकर 100 अध्यायों में यह सुंदर उपन्यास लिखा। सरल और लोकप्रिय शैली में लिखी गई इस रचना में सुन वू-कुंग नाम का बुद्धभक्त वानरराज, पश्चिम की ओर प्रयाण करते हुए चीनी यात्री की पद पद पर रक्षा करता है। यू छ्या ओ लि इस काल की एक दूसरी बृहत्काय रचना है; अनेक स्थलों पर इसमें पुनरावृत्ति भी हुई है। यह उपन्यास अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं। इसमें एक शिक्षित युवक की प्रेमकहानी है जो सुंदरियों से प्रेम करता है। पुनर्जन्म और कर्मफल को यहाँ मुख्य कहा गया है। लिएह को च्वान् उपन्यास के लेखक का नाम भी अज्ञात है। लेखक का दावा है कि उसकी इस असाधारण कृति की प्रत्येक घटना यथार्थता पर आधारित है और इसे उपन्यास की अपेक्षा इतिहास कहना ही अधिक उपयुक्त है। इस काल का दूसरा प्रसिद्ध उपन्यास छिंग ह्वा य्वान् है। सम्राज्ञी वू के राज्य की घटनाओं का इसमें वर्णन है। यह सम्राज्ञी सन् 684 में राजसिंहासन पर बैठी और 20 वर्ष तक राज्य करती रही। फिंग शान लेंग येन उच्च कोटि की साहित्यिक शैली में लिखा हुआ उपन्यास है। इसमें फिंग और येन नामक दो तरुण विद्यार्थियों की प्रेम कहानी है जो शान और लेंग नाम की कवयित्रियों की साहित्यिक प्रतिभा से आकृश्ट होकर उनसे प्रेम करने लगते हैं। अर तोउ मेइ उपन्यास में पितृभक्ति, मित्रता ओर पड़ोसियों के प्रति कर्तव्य को मुख्य बताया है।
हुंग लौ मंग (लाल भवन का स्वप्न) चीन का अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास है जो मंचू काल में ईसवी सन् की 17वीं शताब्दी में लिखा गया था। इसके लेखक का नाम है त्साओ श्यवे छिन (ई. 1724-1764 ई.) इस उपन्यास का पुराना नाम "चट्टान की कहानी"था। लेखक ने अनेक पांडुलिपियों के आधार पर बड़े परिश्रम से इसे लिपिबद्ध किया। उपन्यास की प्रेमकथा बोलचाल की सरल और आकर्षक शैली में लिखी गई है। सामंती समाज का सूक्ष्म चित्रण करते हुए यहाँ शासक वर्ग की बुराइयों का पर्दाफाश किया गया है। बीच बीच में हास्य और करुण रस के आख्यान हें जो उच्च कोटि की कविताओं से गुंफित हैं। यह कृति 24 भागों में और 4000 पृष्ठों में प्रकाशित हुई है; इसमें 9 लाख शब्द हैं और 448 पात्र। मंचू राजाओं ने इसे उच्छृंखलतापूर्ण और अनैतिक बताकर इसे नष्ट कर देने की षोघणा की थी। इस युग का दूसरा सुप्रसिद्ध उपन्यास है "विद्वानों का जीवन"। इसके लेखक वू छिंग-त्स (ई. 1701-1754) हैं। ये दोनों ही उपन्यास पिछलें 200 वर्षो से चीन में बड़े चाव से पढ़े जाते रहे हैं और दोनों ही जनतांत्रिक विचारधारा की प्रतिष्ठा में सहायक हुए हैं। मंचू राजाओं के काल में शासकों का भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था और उनमें छोटे छोटे स्वार्थो के लिये युद्ध हुआ करते थे। विद्वान् प्राय: शासकों के नियंत्रण में रहते और सहायता से शासक प्रजा पर मनमाना अत्याचार करते थे। विद्वानों का नैतिक अध:पतन अपनी सीमा को लाँघ गया था। सरकारी परीक्षाएँ पास करके धन और मान प्राप्त करना, बस यही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य रह गया था। इन्हीं सब बातों का चित्रण कुशल लेखक ने व्यंग्यपूर्ण शैली में किया है।

आधुनिक कथा साहित्य

आधुनिक चीनी साहित्य का आरंभ प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुआ। युद्ध के कारण आथ्रिक ओर राजनीतिक क्षेत्रों में जो परिवर्तन हुए उनसे नैतिकता के मापदंड ही बदल गए, जीवन की गति तीव्र हो गई और जीवन में अधिक पेचीदगी और जटिलता आ गई। इसी समय से चीनी साहितय में एक प्रगतिशील यथार्थवादी धारा का जन्म हुआ जिससे चीन के तरुण लेखकों को नया साहित्य सर्जन करने की प्रेरणा मिली।
चीन के गोर्की कहे जानेवाले लु शुन (1881-1936) आधुनिक चीनी साहित्य में मौलिक कहानियों के जन्मदाता कहे जाते हैं। अपनी लेखनी द्वारा उन्होंने सामंती समाज पर करारे प्रहार किए हैं। कला और जीवन का वे घनिष्ट संबंध स्वीकार करते हैं। लु शुन समाज के नग्न और वीभत्स चित्रण से ही संतोष नहीं कर लेते बल्कि समाजवादी यथार्थता के ऊपर आधारित जीवन के वास्तविक लेकिन आस्थापूर्ण चिद्ध भी उन्होंने प्रस्तुत किए हैं। "साबुन की टिकिया"कहानी में पितृभक्ति की परंपरागत भावना पर तीव्र प्रहार किया गया है। "आह क्यू की सच्ची कहानी"लु शुन की दूसरी श्रेष्ठ कृति है जिसमें अपनी "लाज"को बचाने की हीन मनोवृत्ति पर करारा व्यंग्य है। "मनुष्यद्वेषी"कहानी में बुद्धिजीवियों के स्वप्नों पर कठोर आघात है। "मेरा पुराना घर"और "नए वर्ष का बलिदान"कहानियों में ग्रामीण किसानों का हृदयद्रावक चित्रण है। अनेक महत्वपूर्ण आलोचनात्मक निबंध भी लु शुन ने लिखे हैं।
आधुनिक चीनी साहित्यिक आंदोलन के नेता माओ तुन (जन्म 1896) अनेक यथार्थवादी उपन्यासों और कहानियों के सफल लेखक हैं। सन् 1926 से लेकर 1932 तक इन्होंने "इंद्रधनुष", "एक पंक्ति में तीन"और "सड़क"आदि उपन्यासों की रचना की है। इनका "मध्यरात्रि"उपन्यास चीनी साहित्य की श्रेष्ठतम कृति मानी जाती है। साम्राज्यवादी शोषण के कारण उद्योग धंधों की कमी से चीन किस संकटापन्न अवस्था से गुजर रहा था, इसका यहाँ मार्मिक चित्रण है। "बसंत के रेशमी कीड़े"और "लिन् परिवार की दूकान"नामक कहानियों से माओ तुन को ख्याति मिली है। लाओ श (जन्म 1897) चीन के दूसरे सुप्रसिद्ध लेखक हैं। इनके "रिक्शावाला"उपन्यास ने अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है। "लाओ लि के प्रेम की खोज"और "खिलाड़ियों का देश"आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। अभी हाल में लाओ श ने "नामरहित पहाड़ी जिसका नाकरण अब हुआ है"नामक उपन्यास लिखा है। तिङ् लिङ् चीन की क्रांतिकारी महिला हैं। सन् 1927 से ही इन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। कोमिंगतांग की पुलिस द्वारा अपने पति हू ये-फिंग की निर्मम हत्य कर दिए जाने पर ये कोमिंगतांग सरकार के विरुद्ध जोर से कमा करने लगीं। देशभक्ति के कारण तिङ् लिङ् को जल की यातनाएँ भी सहनी पड़ीं। इनकी "जल"नामक कहानी में प्रलयकारी बाढ़ को रोकने के लिये किसानों के संघर्ष का सशक्त शैली में चित्रण किया गया है। "जब मैं लाल आकाश गाँव में थी"नामक कहानी में जापानी सिपाहियों के बलात्कार का शिकार बनी एक नवयुवती का सहानुभूतिपूर्ण चित्र प्रस्तुत है। सन् 1950 में तिङ् लिङ् की उत्तर शान्सी पर "वायु और सूर्य"नाम की रचना प्रकाशित हुई। "सांगकान नदी पर सूर्य का प्रकाश"नामक उपन्यास पर इन्हें स्तालिन पुरस्कार दिया गया। इस उपन्यास का विषय भूमिसुधार है जो लेखिका के अनुभव के आधार पर लिखा गया है। पा छिन (जन्म 1904) ने "बसंत", "शरत्"और "दुर्दांत नदी"आदि सफल उपन्यासों की रचना की है। इन रचनाओं में नवयुवकों के विचारों में अंतविंरोधों के सुंदर चित्रण मिलते हैं। यहाँ जगह जगह सामंती व्यवस्था के प्रति घृणा और क्रांतिकारियों के प्रति आदर का भाव व्यक्त किया गया है। पा छिन की सर्वश्रेष्ठ रचना "परिवार"है। यह उनकी बाल्यवस्था अनुभवों पर आधारित है। चाओ शु लि (जन्म 1905) की रचनाओं में किसानों का संघर्ष तथा नए समाज में प्रेम का चित्रण प्रस्तुत है। लेखक ने गाँवों में किसानों की सहकारी संस्थाओं को संगठित करने का अनुभव प्राप्त किया है। चा ओ शु लि की "श्याओ अ हइ का विवाह"और लि यू त्साय् की "तुकांत कविताएँ"नाम की कहानियाँ काफी लोकप्रिय हुई हैं। "लि के गाँव में परिवर्तन"इनका सफल उपन्यास है। अभी हाल में चाओ शु लि का "सानलिवान गाँव"नाम का एक और सुंदर उपन्यास प्रकाशित हुआ है जिससे उन्हें साहित्यिक जगत् में विशेष ख्याति मिली है। चा ओ शु-लि भाषा के धनी हैं, इनकी भाषा सरल और प्रभावोत्पादक है।
अन्य अनेक उपन्यासकार और कहानी लेखक भी चीन में हुए हैं जिन्होंने जनवादी साहित्य का निर्माण कर मानवता के उत्थान में योग दिया है। चाओ मिंग सन् 1932 से ही वामपक्षीय लेखकसंघ की सदस्या रही हैं। लेखिका का "शक्ति का स्त्रोत"उपन्यास उनके कारखानों में काम करने के अनुभवों पर आधारित है। खुंग छ्वये और य्वान् छिंग पति पत्नी हैं, दोनों ने मिलकर"पुत्रियाँ और पुत्र"नामक एक सशक्त उपन्यास लिखा है जिसमें जापानी सेना के खिलाफ किसान गोरिल्लों के युद्ध का प्रभावशाली वर्णन है। चौ लि-पो (जन्म 1908) ने अपनी रचनाओं में भूमिसुधार के चित्र प्रस्तुत किए हैं। "तूफान"नामक उपन्यास पर इन्हें स्तालिन पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है। पिघला हुआ इस्पात चौ लि-पो का एक और सुंदर उपन्यास है जो हाल में ही प्रकाशित हुआ है। का ओ यू-पाओ ने सेना में भर्ती होने के बाद अक्षरज्ञान प्राप्त किया था। उनकी आत्मकथा में उपन्यास जैसा आंनद मिलता है। यांग श्य्वो न "पर्वत और नदियों के तीन हजार लि"नामक उपन्यास लिखा है जिसमें रेल मजदूरों का चित्रण है। लेइ छ्या ने "यालू नदीपर वसंत"और आयु बू ने "पर्वत और खेत"नामक उपन्यासों की रचना की है।
उपन्यासों के साथ आधुनिक कहानी साहित्य की भी यथेष्ट श्रीवृद्धि हुई। अभी हाल में चीनी कहानियों के अंग्रेजी अनुवादों के कुछ संग्रह प्रकाशित हुए हैं। "घर की यात्रा तथा अन्य कहानियाँ"नामक संग्रह में आय बू, लि छुन्, छि श्यवे-पेइ, लि उ पाइ-यू, मा फंग, लिउ छेन, छुन् छिग, नान तिंग आदि लेखकों की रचनाएँ संमिलित हैं। "नदी पर उषाकाल तथा अन्य कहानियाँ"और "नवजीवन का निर्माण"नामक संग्रहों में भी चीन के तरुण लेखकों की रचनाएँ संग्रहीत हैं।

चीनी नाटक

चीनी नाटकों का इतिहास काफी पुराना है। भारतवर्ष की भाँति देवी देवता या राजाओं महाराजाओं के समक्ष किए जानेवाले प्राचीन नृत्य ही इन नाटकों के मूलआधार है। थांग राजवंशों के काल में मिंग ह्वांग नामक सम्राट् ने राजदरबारियों के मनोरंजन के लिये लड़के लड़कियों की नाट्यसंस्था खोली। आगे चलकर विलासप्रिय सुंग राजाओं के काल (960-1278 ई.) में नाट्यकला की उन्नति हुई, लेकिन इस कला का पूर्ण विकास हुआ मंगोल राजाओं के समय (1200-1368 ई.)। इस युग में एक से एक सुंदर नाटकों की रचना हुई। छ्वान् छु श्यवान त्स छि के 8 भागों में 100 नाटकों का संग्रह छपा है। वांग शि-फू का लिखा हुआ शि श्यांग चि (पश्चिम भवन की कहानी) इस काल के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में गिना जाता है। इसमें वायु, पुष्प, हिम और ज्योत्स्ना आदि संबंधी अनेक संवाद प्रस्तुत हैं जिनसे प्रेम और षड्यंत्र की सूचना मिलती है। नाटक की आख्यायिका अत्यंत साधारण होने पर भी बड़े कलात्मक ढंग से रंगमंच पर उपस्थित की जाती है। पात्रों की बोलचाल, उनका उठना बैठना और चलना फिरना आदि क्रियाएँ बड़ी मंद गति और कोमलता के साथ संपन्न होती हैं। छि छुन् श्यांग (चाओ परिवार का अनाथ) इस काल का दूसरा लोकप्रिय नाटक है जिसमें ईसा के पूर्व छठी शताब्दी के एक मंत्री की कहानी है जो अपने शत्रु की हत्या का षड्यंत्र रचता है।
मिंग काल (1368-1644 ई.) में शिल्प आदि की दृष्टि से नाट्य साहित्य में प्रगति हुई। इस युग की साहित्यिक भाषा में शब्द बहुल सैकड़ों नाटक प्रकाश में आए, कुछ में 48 अंकों तक का समावेश किया गया। का ओत्स छेंग का लिखा हुआ फी या ची (सितार कहानी) इस काल का श्रेष्ठ नाटक माना जाता है। सन् 1704 में यह पहली बार खेला गया था। इसके विभिन्न संस्करणों में 24 से लेकर 42 दृश्य तक प्रकाशित हुए हैं। इसमें राजभक्ति, पितृभक्ति और पतिसेवा का सुंदर चित्रण प्रस्तुत हुआ है।
मंचू राजवंशों के काल (1644-1900 ई.) में चीनी नाट्य साहित्य की लोकप्रियता में वृद्धि हुई। इस समय प्राय: युद्धसंबंधी नाटकों की रचना ही अधिक हुई। "शाश्वत युवावस्था का प्रासाद"इस काल की एक श्रेष्ठ कृति है जिसे हुंग शेंग ने सन् 1688 में प्रस्तुत किया। इस नाटक में सम्राट् मिंग ह्वांग और उसकी प्रेमिका यांग युह्वान् की करुण कहानी का सुंदर चित्रण है।

आधुनिक नाट्य साहित्य

नए चीन में जननाट्यों की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई है। वहाँ सैकड़ों तरह के नाटक खेले जाते हैं और नाटकघरों में दर्शकों की भीड़ लगी रहती है। सान छा खौ (तीन सड़कों का बड़ा रास्ता) नामक नाट्य में सुंगकाल की घटना पर आधारित एक षड्यंत्र की कहानी है। सुंग वू कुंग (जादूगर वानर) एक दूसरा लोकप्रिय नाटक है। इसमें रंगमंच पर भीषण युद्ध के साहसपूर्ण दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं। अभिनीत होने पर इस नाटक में प्रसिद्ध अभिनेता लिन् शाओ छुन् ने वानर का अभिनय किया था। पीकिंग, उत्तर चीन, शेचुआन, शांसी आदि भिन्न भिन्न प्रांतों के गीतिनाट्य (आपेरा) भी चीन में अत्यंत प्रसिद्ध हैं। पीकिंग के गीतिनाट्य में चीन के सुप्रसिद्ध अभिनेता मे ला फांग ने स्त्रियों का अभिनय किया। इसमें "मछुओं का प्रतिशोध", "स्वर्ग में तूफान""ग्वाला और गांव की लड़की"आदि नाट्य प्रसिद्ध हैं। चेकियांग गीतिनाट्य शांघाई में बहुत लोकप्रिय है। इसमें स्त्रियाँ ही पुरुष और स्त्री दोनां का अभिनय करती हैं। "ल्यांग शान पो और चू यिंग थाय"इसका सुप्रसिद्ध नाट्य है। कैंटन गीतिनाट्य कैंटन, हांगकांग, मलाया और इंडोनेशिया में लोकप्रिय हुए हैं।
जननाट्यों की माँग बढ़ जाने से आजकल चीन के तरुण लेखक नाटक लिखने में जुट गए हैं। को मो-रो ने महान कवि चुयुवान् के चरित पर आधारित सुंदर नाटक की रचना की है। लाओ श ने "हमारा राष्ट्र सर्वप्रथम है"और माओ तुन ने "छिंगमिंग त्योहार के पूर्व और पश्चात्"नाटक लिखे हैं। त्साओ यू का "गर्जन, वर्षा और सूर्योदय"तथा छेन पो छेन का "लड़कों के लिये काम"नाटक सुप्रसिद्ध हैं। लि छि ह्वा ने "संघर्ष और प्रतिसंघर्ष", तू इन ने "नई वस्तुओं के आमने सामने", आन पो ने "नोमिन नदी में बसंत की बहार", हू ति ने "लाल खुफिया", शा क फू ने "हथियारों से", छेन छि-तुंग ने "दरिया और पहाड़ों के उस पार"तथा श्या येन ने "परीक्षा"नामक सुंदर नाटकों की रचना कर चीनी साहित्य की समृद्ध बनाया है।

बाहरी कड़ियाँ

  • चीनी भाषा तथा लिपि (प्रयास, हिन्दी चिट्ठा)
  • Romance of the Three Kingdoms EBook in Color! - Free Download
  • MCLC Resource Center--Literature - bibliography of scholarly studies and translations of modern Chinese literature
  • Chinese Text Sampler - Annotated collection of classical and modern Chinese literary texts
  • Chinese Text Project - Early classical texts with English and modern Chinese translations
  • http://www.china-on-site.com/comicindex.php - manhua retellings of old Chinese legends
  • WuxiaWorld - English translations of Wuxia genre novels
  • Renditions - English translations of modern and classical Chinese literature
  • China the Beautiful - Chinese Art and Literature - Early classical texts
  • Chinese Text Sampler: Readings in Chinese Literature, History, and Popular Culture - Annotated Collection of Digitized Chinese Texts for Students of Chinese Language and Culture
  • China Banned Books Essential Reading List - on Amazon.Com
श्रेणियाँ:
  • चीनी भाषा
  • विश्व की भाषाएँ
  • साहित्य
↧
Search

होली पर सोशल मीडिया के चटकारे / अनूप शुक्ल

March 16, 2017, 7:35 am
≫ Next: आंकड़ों से भरी होगी पत्रकारिता
≪ Previous: चीनी भाषा और साहित्य
$
0
0











व्यंग्य


सोशल मीडिया पर बरस रही हास्य-व्यंग्य की नई फुहार : अनूप शुक्ल 

प्रस्तुति- स्वानी शरण



image
[आज राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में ’हास्य के बदलते रंग-ढंग’ पर चार पेज के परिषिष्ट में अपन का लेख भी छपा। इसके संयोजक आलोक पुराणिक रहे। लेख छपने की खुशी जो है सो तो है ही सबसे ज्यादा मजे की बात यह है कि इसी बहाने हम युवा लेखक हो गये। टाइपिंग की गलतियां जो रहीं सो रहीं लेकिन सम्पादकीय कतरनी से कई गलतबयानी टाइप भी हो गयीं। ब्लॉगों लेखकों के पंच संतोष त्रिवेदी के खाते में जमा हो गये। अरविन्द जी से तिवारी उड़ गया। नाम तो कई लोगों के छूट गये। जिसके भी छूटे उससे यही कहना है- आपके बारे में अलग से विस्तार से लिखना है इसलिये सबके साथ शामिल नहीं किया। फ़िलहाल बांचिये हमारा लेख। बाकी के भी पोस्ट करते हैं जल्दी ही। ]
आज सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का सबसे शक्तिशाली मंच है। फ़ेसबुक, ट्विटर पर किसी भी समसामयिक घटना पर आम जनता की चुटीली टिप्पणियां देखने को मिलती हैं। पहले यह काम ब्लॉग पर होता था। हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआती दिनों के लेखन पर टिप्पणी करते हुये कवि, संपादक अनूप सेठी ने जनवरी ,2005 में नया ज्ञानोदय में अपने लेख, ’अभिव्यक्ति का नया चैप्टर-ब्लॉग’ में लिखा था:
“जहां साहित्य के पाठक कपूर की तरह हो गये हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी करने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कराता, हंसता, खिलखिलाता, जीवन से सराबोर गद्य। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिंदी का नया चैप्टर है।”
ब्लॉग ने अनगिनत लोगों को अभिव्यक्ति का मौका दिया है। लेखक और पाठक के बीच से संपादक हट गया। इधर लिखा, उधर छाप दिया। कानपुर से कोई लेख होते ही उधर कुवैत से जीतेन्द्र चौधरी की चुलबुली टिप्पणी पर अनूप शुक्ल मुस्कराते हुये कोई जबाब देने की सोचे तब तक उधर अमेरिका से ई-स्वामी या अतुल अरोरा की फ़ड़कती टिप्पणियां आ गयीं। टिप्पणियों का सिलसिला आगे बढते हुये देखते हैं कि घंटे भर में पोर्टलैंड से इन्द्र अवस्थी जबाबी लेख का लिंक सटा हुआ है। इस लेख अन्त्याक्षरी में रविरतलामी के गजल की तर्ज पर व्यंजल या फ़िर कनाडा से समीर लाल की मुंडलिया भी जुड जाती।
अभिव्यक्ति की सहजता और आजादी ब्लॉगिंग का प्राणतत्व रहा। ब्लॉग की इस खूबी के चलते ही हास्य-व्यंग्य के लेखकों का विस्फ़ोट सा हुआ। कुमायूंनी चेली के नाम से ब्लॉग लिखने वाली शेफ़ाली पाण्डेय ’मजे का अर्थशास्त्र’ की लेखिका बन जाती हैं, ’बैसवारी’ और ’टेड़ी उंगली’ के नाम से ब्लॉगिंग करने वाले संतोष त्रिवेदी ’सब मिले हुये हैं’ छपाकर उदीयमान व्यंग्यकार बनते हैं।
ब्लॉग के माध्यम से जो लेखक सामने आये उनकी अभिव्यक्ति की अनगढ ताजगी गजब की लगती रही। पंच जबरदस्त हैं। 2006 में आवारा आशिका का चित्रण करते हुये निधि श्रीवास्तव लिखती हैं- ’मौसम की तरह कुछ लोग भी चिपचिपे होते हैं ।’ पेशे से चार्टेड एकाउंटेंट शिवकुमार मिश्र ने ’दुर्योधन की डायरियां’ लिखीं। आज घटित हुई किसी घटना को दुर्योधन के नजरिये से देखा। भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर शिवकुमार मिश्र के दुर्योधन अपनी डायरी में लिखते हैं:
“पता नहीं ये किसान क्या चाहते हैं. ये साल भर चिल्लाते रहते हैं कि खेती-बाड़ी से इनका पेट नहीं भरता और जब ज़मीन को रथ उद्योग के लिए ले लिया गया ओ बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं. मैं पूछता हूँ; ऐसी ज़मीन में खेती करने का क्या फायदा जो पेट न भर सके? खेती-बारी से किसानों को ही जब खाने को नहीं मिलता तो ऐसी ज़मीन से मालगुजारी उगाहना राजमहल के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन जाती है. कितना अच्छा होता अगर ये ज़मीन हस्तिनापुर में रह जाती और इन किसानों को ले जाकर किसी सागर को अर्पण कर सकते.”
पढाई से आई.आई.टी. कानपुर से गणित-ग्रेजुएट अभिषेक ओझा अपनी नौकरी में किसी लोन की मंजूरी करने में खतरे की गणना से जब भी मौका पाते हैं अपने पटनिहा किस्से में बदलते समय की दास्तान लिखते हैं:
“माने इतना तेजी से हमेशा बदलाव आता है कि हमीं लोग इतना कुछ देख लिए? पंद्रह पैसा के पोस्ट कार्ड से व्हाट्सऐप तक ! हमको लगता है पहिले ज़माना धीरे धीरे अपडेट होता था. ई फ़ोन के देखिये पता नहीं भीतरे भीतर दिन भर का अपडेट करते रहता है. हमारे खाने पीने के फ्रिकवेंसी से जादे इसका अपडेट होता है. ओहि गति से दुनिया भी अपडेट हो रही है.”
शेफ़ाली पांडेय ’ये क्या लगा रखी है असहिष्णुता, असहिष्णुता ?’ में साहित्यकार के मुंह से कुछ बयान दिलाने के पहले उसका परिचय कराती हैं। देखिये क्या स्तर है पढाई का साहित्यकार का:
“साहित्य क्या होता है यह सवाल आप मुझसे कर रहे हैं मुझसे ? साहित्य के क्षेत्र में मेरा दखल इतना है साहब कि आप सुनेंगे तो चौंक जाएंगे । मैं रोज़ सुबह दो अखबार पढता हूँ । एक - एक खबर को बारीकी पढता हूँ । अपहरण, बलात्कार,छेड़छाड़ और हत्या की सारी ख़बरें मुझे मुंहजबानी याद रहती हैं ।“
बाद में पोस्ट लिखने की और सहजता के चलते हिन्दी ब्लॉगिंग से जुडे लोग फ़ेसबुक से जुड गये। लेखन की आवृत्ति बढी पोस्ट का साइज घटा। लम्बी पोस्टों की जगह छुटकी टिप्पणियों ने ले ली और हास्य व्यंग्य के घराने में वनलाइनर की धमाकेदार इंट्री हुई।
ब्लॉगिग से फ़ेसबुक की तरफ़ आने की प्रक्रिया में हास्य-व्यंग्य लेखकों का महाविस्फ़ोट हुआ। देखा-देखी लोग लेखन के मैदान में आये। साल भर तक पाठक की हैसियत से टिप्पणी करने वाले राजेश सेन धड़ल्ले से अखबारों में छपने लगते हैं। लोग इंतजार करते हैं कि आज रंजना रावत किस विषय पर अपनी चुटीली टिप्पणियां करती हैं या फ़िर अंशुमाली रस्तोगी आज किसकी फ़िरकी लेने वाले हैं।
ये तो कुछ उदाहरण हैं जिनका जिक्र किया यहां मैंने इसके अलावा अनगिनत लेखक प्रतिदिन हास्य-व्यंग्य लिख रहे हैं सोशल मीडिया की सुविधा का उपयोग। हरेक के सैकडों पाठक हैं जो उनके लेख का इंतजार करते हैं। शंखधर दुबे ऐसे ही एक लेखक हैं जो शिक्षा व्यवस्था की राजनीति पर लिख रहे हैं। अब तक सत्तर से ऊपर किस्से लिख चुके हैं। बस पालिश करते ही छपने लायक। आंचलिक तेवर में लिखा गया ’लप्पूझन्ना’ नेट पर मौजूद एक बेहतरीन उपन्यास अनछपा उपन्यास है।
सोशल मीडिया ने नये हास्य-व्यंग्य लेखक को लिखने, छपने का मौका देने के हास्य व्यंग्य के लेखकों को आपस में जोड़ने का काम भी किया है। अरविन्द तिवारी, प्रेम जन्मेजय, सुभाष चन्दर, सुशील सिद्धार्थ, निर्मल गुप्त अर्चना चतुर्वेदी, इन्द्रजीत कौर, अलंकार रस्तोगी, अनूप मणि त्रिपाठी , अभिषेक अवस्थी से लेकर सुरजीत , आरिफ़ा अविस से परिचय ही न हुआ होता अगर इनकी रचनायें फ़ेसबुक पर न पोस्ट हुई होती। यहां लेखकों का जमावड़ा न हुआ होता तो न ’शेष अगले अंक में’ (अरविन्द) और न ही ’ब से बैंक’ (सुरेश कान्त) । न ’नारद की चिन्ता’( सुशील सिद्धार्थ) खरीद पाते न ही हरामी चरित्रों का बेतरतीब कोलाज ’अक्कड़-बक्कड’ (सुभाष चन्दर) से रूपरू हो पाते।
सोशल मीडिया में लेखकों के आपस में जुड़ने के क्रम में तमाम पुराने प्रयोग नये रूप में भी हो रहे हैं। लतीफ़ घोंघी और ईश्वर शर्मा (दोनों दिवंगत) की नब्बे के दशक में की हुई व्यंग्य की जुगलबंदी की तर्ज पर सितम्बर’2016 को शुरु हुई व्यंग्य की जुगलबंदी में अब तक लगभग 200 लेख लिखे जा चुके हैं। इसमें हर रविवार को दिये विषय़ पर व्यंग्य लेख व्यंग्य लेख लिखे जाते हैं। इन लेखकों में पुरानी पीढी के अरविन्द तिवारी से लेकर सबसे नयी पीढी की आरिफ़ा एविस लेख लिखती हैं। देखा देखी तमाम सिद्ध और फ़ेसबुकिया साथी लेखक देवेन्द्र पाण्डेय, राजीव (विवेक) रंजन श्रीवास्तव, मनोज कुमार , कमलेश पाण्डेय आदि भी अपने लेख लिखते हैं। ’व्यंग्य की जुगलबंदी’ का स्तर इस बात से समझा जा सकता है कि हर बार इसमें शामिल कोई न कोई लेख किसी न किसी राष्ट्रीय दैनिक अखबार में किसी न किसी रूप में छपता है।
सोशल मीडिया ने लेखक ही नहीं प्रकाशक भी बनाये हैं। अनूप शुक्ल (फ़ुरसतिया) और पल्लवी त्रिवेदी के हास्य-व्यंग्य पढते-पढते जयपुर के कुश रुझान प्रकाशन बनाकर इनकी किताबें छापते हैं। छह महीने में बिना किसी तामझाम के ’बेवकूफ़ी का सौंदर्य’ और ’अंजाम-ए-गुलिश्तां क्या होगा’ की पंद्रह सौ से ऊपर प्रतियां आनलाइन बेच लेते हैं। दो अनजान से लेखकों को सेलिब्रिटी लेखक टाइप बना देते हैं। फ़िर आज के सबसे लोकप्रिय व्यंग्यकार आलोक पुराणिक का ’कारपोरेट प्रपंचतंत्र’ छापते हैं।
यह सोशल मीडिया पर हास्य-व्यंग्य के लेखन को मिली स्वीकार्यता ही है कि अब ’ईबुक’ और ’प्रिन्ट आन डिमांड’ की सुविधा के बाद तो लेखक अपनी किताब खुद छाप और बेच सकता है। अनूप शुक्ल अपनी पहली किताब ’पुलिया पर दुनिया’ और हाल ही में अलंकार रस्तोगी का दूसरा व्यंग्य संग्रह ’सभी विकल्प खुले हैं’ इस बात का उदाहरण है कि लोग ई-बुक और प्रिंट ऑन डिमांड की किताबें भी खरीदकर बांचते हैं।
सोशल मीडिया की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें लेखक की रेपुटेशन को नहीं उसके लेखन को भाव मिलता है। नाम नहीं काम चलता है। अगर आप ठीक-ठाक और नियमित लिखते हैं तो आपको देर-सबेर पाठक मिलेंग॥ पाठक जो अपनी टिप्पणियों से आपके लेखन को सराहता तो है ही इशारों ही इशारों आपको ठोंक पीट कर सराहता (संवारता) भी है और अगर जमे रहे और सीखते रहे मजाक-मजाक में आपको अच्छा लेखक भी बना सकता है।
तो सोच क्या रहे हैं? आज से ही लिखना शुरु कीजिए अपना हास्य-व्यंग्य लेखन और शामिल होईये नामचीन लेखकों की कतार में। देखिये अनगिनत पाठकों की टिप्पणियां और पसंद आपके लेख का इंतजार कर रही हैं। आपका समय शुरु होता है अब !
(अनूप शुक्ल के फ़ेसबुक वाल से साभार)
विषय:व्यंग्य
रचना कैसी लगी:


नई पोस्ट

पुरानी पोस्ट

Related Post

एक टिप्पणी भेजें

avatar
Reply
डा गिरिराजशरण अग्रवाल
9:58 am
कुछ वर्ष पहले तक होली के अवसर पर हास्य-व्यंग्य से भरपूर कविताएँ प्रकाशित हुआ करती थीं. आज ऐसी रचनाओं का अभाव खलने लगा है. हास्य छ्पता भी है तो उसमें भरपूर फूहड़पन होता है, आप इस दिशा में भी कुछ कीजिए. (गिरिराज शरण अग्रवाल)

रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

1.5 लाख गूगल+ अनुसरणकर्ता, 1500से अधिक सदस्य
/ 2,500से अधिक नियमित ग्राहक
/ प्रतिमाह 10,00,000(दस लाख)से अधिक पाठक
/ 10,000से अधिक हर विधाकी साहित्यिक रचनाएँ प्रकाशित
/ आप भी अपनी रचनाओं कोविशाल पाठक वर्ग कानया विस्तार दें, आज ही रचनाकारसेजुड़ें.रचनाकारमें प्रकाशनार्थ रचनाओं का स्वागत है.अपनी रचनाएँ rachanakar@gmail.com पर ईमेल करें.अधिक जानकारी के लिएयह लिंकदेखें - http://www.rachanakar.org/2005/09/blog-post_28.html
विश्व की पहली, यूनिकोडित हिंदी की सर्वाधिक प्रसारित, समृद्ध व लोकप्रिय ई-पत्रिका - रचनाकार




Google
मनपसंद रचनाएँ खोजकर पढ़ें
गूगल प्ले स्टोर से रचनाकार ऐप्प https://play.google.com/store/apps/details?id=com.rachanakar.orgइंस्टाल करें. image

विविध विधाओं में से चुनें और पढ़ें:

  • आलेख(3184)
  • ई-बुक(304)
  • उपन्यास(186)
  • कला जगत(101)
  • कविता(2458)
  • कहानी(1705)
  • कहानी संग्रह(145)
  • चुटकुला(70)
  • पाक कला(22)
  • लघुकथा(547)
  • व्यंग्य(1612)
  • संस्मरण(392)
  • साहित्यिक गतिविधियाँ(141)

रचनाकार की रचनाएँ अपने ईमेल में नियमित पढ़ने के लिए अपना ई-मेल पता नीचे दिए बक्से में भरें तथा सदस्यता लें पर क्लिक करें:
प्रेषण फ़ीडबर्नर द्वारा

Follow by Email

Enter your email address to subscribe to this blog and receive notifications of new posts by email.


  • ▼  2017 (344)
    • ▼  March (108)
      • पटकथा लेखन का तकनीकी तरीका डॉ. विजय शिंदे
      • उर्दू हास्य व्यंग्य - "जवानी और बुढ़ापा " / - डॉ....
      • व्यंग्य / व्यंग्य में सरोकार / अंशु माली रस्तोगी
      • जीवन सत्यता की परिभाषा / अखिलेश कुमार भारती
      • प्रेम न जानत कोय / मनीष कुमार सिंह
      • व्यंग्य / नागनाथ सांपनाथ का चुनावी उत्सव / एम. एम...
      • सुशील सिद्धार्थ--कुछ बेतरतीब नोट्स / ज्ञान चतुर्वे...
      • ओमप्रकाश दीपक के नाम शरद जोशी, राजकमल चौधरी और उपे...
      • गुड़ी पड़वा-नवसंवत्‍सर-नववर्ष-वर्ष प्रतिपदा / मानस...
      • श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग - गिलहरी पर...
      • सुनिए आकाशवाणी पर होली पर प्रसारित हास्य-व्यंग्य ग...
      • शब्द संधान / बौछारें / डा० सुरेन्द्र वर्मा
      • हास्य-व्यंग्य : दहशत पैदा करनेवाले नारे / कुबेर
      • हास्य-व्यंग्य : कबीर का नगर भ्रमण / कुबेर
      • जोगीरा हास्य व्यंग की अनूठी विधा / डॉ. राधेश्याम द...
      • सोशल मीडिया पर बरस रही हास्य-व्यंग्य की नई फुहार :...
      • होली विशेष आयोजन - होली की कविताएँ
      • शब्द संधान / रंग बरसे / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
      • सामाजिक प्रतिबद्धताओं से सजा व्यंग्य संग्रह: शोरूम...
      • होली विशेष आयोजन - धरती सहित आकाश को रंग दो ! / अन...
      • रश्मि शुक्ल की कविताएँ - मेरा अनोखा अनुभव
      • होली विशेष आयोजन : होली की हुड़दंग / शोभा श्रीवास्...
      • होली पर्व विशेष आयोजन : सामुदायिक बहुलता का पर्व ह...
      • माह की कविताएँ - होली विशेष आयोजन
      • होली विशेष आयोजन - सुशील शर्मा के होली के तांका, स...
      • शबनम शर्मा की कविताएँ
      • होली विशेष आयोजन : बुरा न मानो होली है - हिंदी व्य...
      • होली विशेष आयोजन : मंजुल भटनागर की कविताएँ
      • बाल कहानी / दुश्मन मधुमक्खियां / राजेश मेहरा
      • प्रभा मुजुमदार की ताज़ा कविताएँ - शब्द
      • होली विशेष आयोजन : 'अपशब्द –विवेचनम’ / यशवंत कोठार...
      • शब्द संधान / बाज़ार / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
      • नाटक समीक्षा : "सामाजिक मूल्यों पर हावी होता रुपया...
      • रमेशराज के बालमन पर आधारित बालगीत
      • संतोष तिवारी पर संतोष करना सरल नहीं / अनामी शरण बब...
      • “घड़ा पाप का भर रहा ” पठनीय तेवरी संग्रह / डॉ. हरिस...
      • ‘विरोध-रस’ विवादपूर्ण / डॉ. सुधेश व अन्य समीक्षाएँ...
      • नयी विधा के पुरोधा कविवर रमेशराज / डॉ. रामकृष्ण शर...
      • विलक्षण प्रतिभा के धनी रचनाकार हैं रमेशराज / ज्ञान...
      • “बुलंदप्रभा” में आलोकित तेवरीकार रमेशराज / डॉ. अभि...
      • “ऊधौ कहियो जाय“ तेवरी-शतक में विरोधरस का प्रवाह /...
      • तेवरीकार रमेशराज किसी परिचय के मोहताज नहीं / डॉ. भ...
      • समीक्षा : पुस्तक- “ विचार और रस “ में रस पर नवचिन...
      • राष्ट्र-भाव को जगाती रमेशराज की ‘ राष्ट्रीय बाल कव...
      • अनेक तेवरी-संग्रहों का एक ही पुस्तकाकार रूप- “ रमे...
      • समीक्षा : मौलिक चिंतनपरक शोधकृति “ विरोधरस “ / डॉ....
      • समीक्षा : विरोध की कविता : “ जै कन्हैयालाल की “ / ...
      • काव्य की आत्मा और रस / रमेशराज
      • डॉ. नामवर सिंह की रस-दृष्टि या दृष्टि-दोष / रमेशर...
      • डॉ. गोपाल बाबू शर्मा की कविता-यात्रा / रमेशराज
      • ईबुक - उनका बेटा - राकेश भ्रमर का कहानी संग्रह
      • ई-बुक - वह लड़की - राकेश भ्रमर का कहानी संग्रह
      • एकात्म मानववाद की प्रासंगिकता / डॉ.चन्द्रकुमार जै...
      • व्यंग्य श्री सम्मान-2017 की रपट - अनूप शुक्ल
      • महिला दिवस विशेष : अनचाही बेटियाँ / जावेद अनीस
      • होली विशेष रचना : जब फागुन रंग झमकते हों / रीमा दी...
      • युगीन यथार्थ का आईना : "आईना- दर- आईना"
      • शब्द संधान / वास प्रवास / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
      • होली विशेष आयोजन : बुरा न मानो होली है - रचनाकारों...
      • उस सर्द मौसम में - बृजमोहन स्वामी "बैरागी"की कवित...
      • खरोंच - स्वराज सेनानी
      • शेष जो था ......(कहानी ) / अमरपाल सिंह ‘आयुष्कर’
      • अजन्मा कर्ज़दार : अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष क...
      • अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस - 8 मार्च पर विशेष / ना...
      • विश्व महिला दिवस पर 8 मार्च पर विशेष / मातृशक्ति ...
      • “Crusader or Conspirator?” के लेखक - पी.सी.पारख - ...
      • शब्द संधान / बात की बात / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
      • प्राची - जनवरी 2017 : समीक्षा / प्रेम की घनीभूत अ...
      • प्राची - जनवरी 2017 / शोध लेख / सामाजिक परिवर्तन क...
      • प्राची - जनवरी 2017 : साहित्यिक तीर्थ श्रीनाथद्वार...
      • प्राची - जनवरी 2017 : अखबार वाला / प्रभात दुबे
      • प्राची - जनवरी 2017 : पहले पन्ने की सूचना / दिनेश ...
      • प्राची - जनवरी 2017 : काव्य जगत
      • प्राची - जनवरी 2017 : व्यंग्य / नए वर्ष की शुभकामन...
      • प्राची - जनवरी 2017 : कहानी / नया साल मुबारक हो / ...
      • प्राची - जनवरी 2017 : उजाड़ में आवाज के परिन्दे / र...
      • प्राची - जनवरी 2017 : एकान्त श्रीवास्तव की कविताएँ...
      • प्राची - जनवरी 2017 : सौभरि से योगीराज तक / विवेक ...
      • प्राची - जनवरी 2017 : कहानी / मां-बेटी / राधाकृष्ण...
      • प्राची - जनवरी 2017 : कथाकार राधाकृष्ण के संबंध मे...
      • प्राची - जनवरी 2017 : निराला आत्महंता आस्था : दूधन...
      • प्राची - जनवरी 2017 : कहानी / रक्तपात / दूधनाथ सिं...
      • प्राची - जनवरी 2017 : साठोत्तर पीढ़ी के अनूठे कथाक...
      • प्राची - जनवरी 2017 - दूधनाथ सिंह से रणविजय सिंह स...
      • प्राची - जनवरी 2017 - आत्मकथ्य : मेरा लेखन - दूधना...
      • प्राची - जनवरी 2017 : आपने कहा है - दिसम्बर अंक ऐत...
      • प्राची - जनवरी 2017 - संपादकीय : नसबंदी बनाम नोटबं...
      • भारतीय संस्कृति का आधार -धर्म ,समन्वय और आचार / सु...
      • उधो, मन न भए दस बीस / सुशील शर्मा
      • लघुकथा - जागती आँखों के सपने - सुशील शर्मा
      • आगरा की सात एतिहासिक नगर संरचनायें - डॉ.राधेश्याम...
      • 2 लघुकथाएँ - राधेश्याम द्विवेदी
      • व्यंग्य-बीमारी है वरदान -वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’
      • हिन्‍दी के वैश्विक संदर्भ : अधुनातन संदर्भ पुस्‍तक...
      • पृथ्वी गरम हो रही है - राजकुमार कुम्भज
      • सुनो ! आज तुम बहुत याद आ रहे हो - विवेक मणि त्रिपा...
      • “भोगश्च मोक्षश्च करस्थएव” – डॉ. अखिलेश्वर त्रिपाठी...
      • हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता - 6 (अंतिम भ...
      • हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता - 5 / शेषनाथ...
      • होली विशेष : शशांक मिश्र भारती की कविताएं
    • ►  February (98)
    • ►  January (138)
  • ►  2016 (1823)
  • ►  2015 (1941)
  • ►  2014 (1023)
  • ►  2013 (1003)
  • ►  2012 (1403)
  • ►  2011 (1075)
  • ►  2010 (905)
  • ►  2009 (641)
  • ►  2008 (524)
  • ►  2007 (350)
  • ►  2006 (202)
  • ►  2005 (97)


विधाएँ

  • आलेख(3184)
  • उपन्यास(186)
  • कला जगत(101)
  • कविता(2458)
  • कहानी(1705)
  • चुटकुला(70)
  • जीवंत प्रसारण(127)
  • तकनीक(28)
  • पाक कला(22)
  • बाल कथा(293)
  • लघुकथा(547)
  • व्यंग्य(1612)
  • संस्मरण(392)
  • साहित्यिक गतिविधियाँ(141)

परिचय


1.5 लाख गूगल+ अनुसरणकर्ता, 1500से अधिक सदस्य
/ 2,500से अधिक नियमित ग्राहक
/ प्रतिमाह 10,00,000(दस लाख)से अधिक पाठक
/ 10,000से अधिक हर विधाकी साहित्यिक रचनाएँ प्रकाशित
/ आप भी अपनी रचनाओं कोविशाल पाठक वर्ग कानया विस्तार दें, आज ही रचनाकार सेजुड़ें.
विश्व की पहली, यूनिकोडित हिंदी की सर्वाधिक प्रसारित, लोकप्रियई-पत्रिका - रचनाकारमें प्रकाशनार्थ रचनाओं का स्वागत है. अपनी रचनाएं इस पते पर ईमेल करें :
rachanakar@gmail.com
डाक का पता:
रचनाकार
रविशंकर श्रीवास्तव
101, आदित्य एवेन्यू, भास्कर कॉलोनी, एयरपोर्ट रोड, भोपाल मप्र 462020 (भारत)

कॉपीराइट@लेखकाधीन.सर्वाधिकार सुरक्षित. बिना अनुमति किसी भी सामग्री का अन्यत्र किसी भी रूप में उपयोग व पुनर्प्रकाशन वर्जित है.

उद्धरण स्वरूप संक्षेप या शुरूआती पैरा देकर मूल रचनाकार में प्रकाशित रचना का साभार लिंक दिया जा सकता है.

इस साइट का उपयोग कर आप इस साइट की गोपनीयता नीति से सहमतहोते हैं.

Google+ Followers

फ़ेसबुक में पसंद करें

संपादक - रवि रतलामी

मेरी फ़ोटो
Ravishankar Shrivastava
You can derive my profile through my blog -

http://raviratlami.blogspot.in

and my site -

http://rachanakar.org

आपका कार्य ही आपका व्यक्तित्व है!
मेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें
रचनाकार© 2016. All Rights Reserved.
Powered by Blogger





  • मुख्यपृष्ठ
  • कहानी
  • उपन्यास
  • लघुकथा
  • कविता
  • आलेख
  • व्यंग्य
  • मुख्यपृष्ठ
  • वर्ग पहेली
  • ताज़ा समाचार
  • छीटें और बौछारें
  • रचनाकार F A Q
  • ↧
    ↧

    आंकड़ों से भरी होगी पत्रकारिता

    March 16, 2017, 7:48 am
    ≫ Next: बदलती रही है पत्रकारिता की भाषा
    ≪ Previous: होली पर सोशल मीडिया के चटकारे / अनूप शुक्ल
    $
    0
    0




    आंकड़े होंगे आगे की पत्रकारिता का आधार



    मुकुल श्रीवास्तव

    प्रस्तुत  स्वामी शरण



    आंकड़े होंगे आगे की पत्रकारिता का आधार
    आंकड़े होंगे आगे की पत्रकारिता का आधार
    वाशिंगटन पोस्ट अखबार के बिकने की खबर की घोषणा के बाद से ही अमेरिकी मीडिया में अखबारों के भविष्य को लेकर बहस जारी है.
    भारत के लिए भी यह बड़ा सबक है क्योंकि अखबारों का जो हाल आज अमेरिका में है, वैसा आने वाले सालों में भारत में भी होगा. इंडियन रीडरशिप सर्वे के चौथी तिमाही की रिपोर्ट के अनुसार भारत के शीर्ष दस हिंदी दैनिकों की औसत पाठक संख्या में 6.12 प्रतिशत की गिरावट आई है, वहीं अंग्रेजी दैनिकों में गिरावट की दर 4.75 प्रतिशत रही. पत्रिकाओं में यह गिरावट सबसे ज्यादा 30.15 प्रतिशत रही. बढ़ते डिजिटलीकरण और सूचना क्रांति ने अखबारों की दुनिया बदल दी है.
    पत्रकारिता के जिस रूप से हम परिचित हैं वह दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है. जब विभिन्न वेबसाइट  और वेब न्यूज पोर्टल पल-पल खबरें अपडेट कर रहे हैं तो समाचार पत्रों की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है. कल के अखबार की खबरें यदि पाठक आज ही इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त कर सकता है तो फिर कल के अखबार की जरूरत ही क्या है! पर भारत के संदर्भ में, जहां निरक्षरों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है और अखबारों से नए पाठक जुड़ रहे हैं, स्थिति अमेरिका जितनी गंभीर नही है. पर चुनौती कोई भी क्यों न हो, अपने साथ अवसर भी लाती है.
    भारत के अखबारों का कंटेंट और उसके प्रस्तुतीकरण का तरीका भी तेजी से बदल रहा है. प्रिंट और डिजिटल दोनों का तालमेल हो रहा है. इस बदलाव में बड़ी भूमिका आंकड़े निभा रहे हैं. वह चाहे पाठकों की पृष्ठभूमि को जानकर उसके अनुसार सामग्री को प्रस्तुत करना हो या समाचार या लेखों में आंकड़ों को शीर्ष भूमिका में रखकर कथ्य को इंफोग्राफिक्स की सहायता से दशर्नीय और पठनीय बना देना. अखबारों के डिजिटल संस्करण इन आंकड़ों के बड़े स्रेत बन रहे हैं. वर्ल्ड वाइड वेब के जनक सर टिम बरनर्स ली का मशहूर कथन है कि ‘डाटा (आंकड़ों) का विश्लेषण ही पत्रकारिता का भविष्य है’.
    आंकड़ा पत्रकारिता, पत्रकारिता का वह स्वरूप है जिसमें विभिन्न प्रकार के आंकड़ों का विश्लेषण करके उन्हें समाचार का रूप दिया जाता है. विकिलीक्स और सूचना के अधिकार के इस दौर में जहां लाखों आंकड़े हर उस व्यक्ति के लिए उपलब्ध हैं जो वास्तव में उनके बारे में जानने का इच्छुक है, वहीं उन आंकड़ों को समाचार रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती है. एक बात जो पत्रकारों और पत्रकारिता के पक्ष में जाती है वह यह है कि भले ही आंकड़े सबके अवलोकन के लिए उपलब्ध हैं, पर उनका विश्लेषण कर उनसे अर्थपूर्ण तथ्य के लिए अखबार अभी भी एक विश्वसनीय जरिया हैं.
    वेबसाइट और पोर्टल पर समाचार का संक्षिप्त या सार रूप ही दिया जाता है क्योंकि डिजिटल पाठक सरसरी तौर पर सूचनाओं की जानकारी चाहते हैं जिससे वे अपडेट रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कम्प्यूटर स्क्रीन और स्मार्ट फोन की स्क्रीन भी तथ्यों के प्रस्तुतीकरण में एक बड़ी बाधा बनती है और शायद इसीलिए आंकड़ों का बेहतरीन विश्लेषण अखबार के पन्नों में होता है. जहां पढ़ने के लिए माउस के कर्सर या टच स्क्रीन को संभालने जैसी कोई तकनीकी समस्या नहीं होती है.
    समाचार पत्र इस तरह की किसी तकनीकी सीमा से मुक्त हैं और चौबीस घंटे में एक बार पाठकों तक पहुंचने के कारण उनके पास पर्याप्त समय भी रहता है, जिससे आंकड़ों का बहुआयामी विश्लेषण संभव हो पाता है. त्वरित सूचना के इस युग में आंकड़ा आधारित पत्रकारिता का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि महज सूचना या आंकड़े उतने प्रभावशाली नहीं होते हैं जितना कि उनका विश्लेषण और उस विश्लेषण द्वारा निकाले गए वे परिणाम जो आम जनता की जिंदगी पर प्रभाव डालते हैं. बात चाहे खाद्य सुरक्षा बिल की हो या मनरेगा जैसी योजनाओं की, सभी में आंकड़ों का महत्वपूर्ण रोल रहा है.
    सरकार अगर आंकड़ों की बाजीगरी कर रही है तो जनता को व्यवस्थित तरीके से आंकड़ा पत्रकारिता के जरिए ही बताया जा सकता है कि इन योजनाओं से असल में देश की तस्वीर कैसी बन रही है. इसमें कोई संशय नहीं है कि भविष्य में हमारे पास जितने ज्यादा आंकड़े होंगे हम उतना ही सशक्त होंगे, पर पाठकों को बोझिल आंकड़ों के बोझ से बचाना भी है और उन्हें सूचित भी करना है और इस कार्य में भारत में अभी भी समाचार पत्र अग्रणी हैं.
    आंकड़ा पत्रकारिता पाठकों अथवा दर्शकों को उनके महत्व की जानकारी प्राप्त करने में मदद करती है. यह एक ऐसी कहानी सामने लाती है जो ध्यान देने योग्य है और पहले से जनता की जानकारी में नहीं है और पाठकों को एक गूढ़ विषय को आसानी से समझने में मदद करती है. दुनिया के बड़े मीडिया समूहों जैसे द गार्डियन, ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन ने इस पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया है.
    माना जा रहा है कि वाशिंगटन पोस्ट ने वर्षो से पंजीकरण द्वारा अपने पाठकों के बारे में जो आंकड़े जुटाए है उनका इस्तेमाल कर अखबार अपनी लोकप्रियता और प्रसार दोनों बढ़ाएगा. यानी डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करके अखबारों की सामग्री को बेहतर करने के लिए  पाठकों की रु चियों और आवश्यकताओं को जानना जरूरी है और इसमें आंकड़ों का प्रमुख योगदान है. द गार्डियन ने तो अपने विशेष डेटा ब्लॉग के जरिये आडियंस के बीच अच्छी-खासी पकड़ बना ली है.
    हालांकि की कुछ लोग यह भी मानते हैं कि डेटा पत्रकारिता वास्तव में पत्रकारिता ही नहीं है, पर यदि इसे थोड़ा करीब से देखा जाए तो किसी को भी इसे पत्रकारिता मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए. डेटा पत्रकारिता सामान्य पत्रकारिता से केवल इस मायने में भिन्न है कि इसमें जानकारी जुटाने के लिए अधिक भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती है. पर आंकड़ों के अथाह सागर में से काम के आंकड़े निकालना भी कोई आसान काम नहीं है. डेटा पत्रकारिता के लिए समाचार का विशिष्ट होना आवश्यक है. इसके लिए आवश्यक है एक मजबूत संपादकीय विवरण, जिसके पास आकर्षक ग्राफिक्स और चित्रों का समर्थन हो.
    भारत इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण इसलिए है कि यहां स्थितियां अमेरिका जैसी नहीं है, जहां इंटरनेट का साम्राज्य फैल चुका है. भारत में डिजिटल और प्रिंट माध्यम, दोनों साथ-साथ बढ़ रहे हैं. वह भी एक दूसरे की कीमत पर नहीं बल्कि दोनों के अपने दायरे हैं. अगर प्रिंट के पाठक कम हो रहे हैं तो नए पाठकों जुड़ भी रहे हैं. नए प्रिंट के पाठक जल्दी ही डिजिटल मीडिया के पाठक हो रहे हैं जिसमें ग्रामीण भारत बड़ी भूमिका निभा रहा है.
    तथ्य यह भी है कि सूचना क्रांति के बढ़ते प्रभाव और सूचना के अधिकार जैसे कानून के कारण आंकड़े तेजी से संकलित और संगठित किए जा रहे हैं. वहां खबरों के असली नायक आंकड़े हैं, जो पल-पल बदलते भारत की वैसी ही तस्वीर आंकड़ों के रूप में हमारे सामने पेश कर रहे हैं, तो अब समाचार तस्वीर के दोनों रुख के साथ-साथ यह भी बता रहे हैं कि अच्छा कितना अच्छा है और बुरा कितना बुरा ह
    ↧

    बदलती रही है पत्रकारिता की भाषा

    March 16, 2017, 11:34 am
    ≫ Next: खबरों का ककहरा
    ≪ Previous: आंकड़ों से भरी होगी पत्रकारिता
    $
    0
    0


    भाषा

    समय के साथ बदली हिंदी पत्रकारिता की भाषा

    पत्रकारिताLeave a comment

    Related Articles

    news_writing

    समाचार लेखन : कौन, क्या, कब, कहां, क्यों और कैसे?

    3 days ago
    thumbnail

    समाचार, सिद्धांत और अवधारणा: समाचार क्‍या है?

    3 days ago
    tv media

    न्यूज मीडिया और अपराध

    15 days ago
    संजय कुमार।
    हालांकि, इलैक्टोनिक मीडिया में आम बोलचाल की भाषा को अपनाया जाता है। इसके पीछे तर्क साफ है कि लोगों को तुंरत दिखाया/सुनाया जाता है यहाँ अखबार की तरह आराम से खबर को पढ़ने का मौका नहीं मिलता है। इसलिए रेडियो और टी.वी. की भाषा सहज, सरल और बोलचाल की भाषा को अपनाया जाता है। कई अखबारों ने भी इस प्रारूप को अपनाया है खासकर हिन्दी के पाठकों को ध्यान में रख कर भाषा का प्रयोग होने लगा है।
    शुरुआती दौर की हिन्दी पत्रकारिता की भाषा साहित्य की भाषा को ओढे हुए थी। ऐसे में हिन्दी पत्रकारिता साहित्य के बहुत करीब थी। जाहिर है इससे साहित्यकारों का ही जुड़ाव रहा होगा। बल्कि हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डालने से यह साफ हो जाता है। 30 मई 1826 में प्रकाशित हिंदी के पहले पत्र ‘‘उदंत मार्तण्ड’’ के संपादक युगल किशोर शुक्ल से लेकर भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, पंडित मदनमोहन मालवीय, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, अंबिका प्रसाद वाजपेयी, बाबू राव विष्णु पराड़कर, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी सहित सैकड़ों ऐसे नाम है जो चर्चित साहित्यकार-रचनाकार रहे हैं। अपने दौर में हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े रहे और दिशा दिया। लेकिन समय के साथ ही हिंदी पत्रकारिता भी बदली है। संपादन, साहित्यकार से होते हुए पत्रकार के हाथों पहुंच गया और हिन्दी पत्रकारिता में हिन्दी भाषा की बिंदी अंग्रेजी बन गयी।
    हिन्दी पत्रकारिता ने आज तकनीक विकास के साथ-साथ भाषायी विकास भी कर लिया है। भाषा को आम-खास के लिहाज से परोसा जा रहा है। जहाँ प्रिंट मीडिया व निजी सेटेलाइट चैनलों की भाषा अलग है वहीं सरकारी मीडिया रेडियो और दूरदर्शन की बिलकुल ही अलग। लेकिन, यह बात अहम है कि आज रेडियो, दूरदर्शन, सेटेलाइट चैनल और सोशल मीडिया पर हिन्दी को तरजीह मिल रही है। हिन्दी का वर्चस्व बढ़ा है, जो पूरे प्रभाव में है।
    जहाँ धीरे-धीरे बदलाव के क्रम में पत्रकारिता से साहित्य और साहित्यकार दूर होते गये। वहीं भाषा में भी बदलाव आता गया। पत्रकारिता की साहित्यिक भाषा के स्थान पर सहज व सरल हिन्दी भाषा जो बोलचाल की भाषा रही है ने पांव जमा लिया। पैमाना बना कि पत्रकारिता की अच्छी भाषा वही है जिससे सूचना/खबर/जानकारी को साफ, सरल तथा सहज तरीके से लोगों तक पहुँचायी जा सके। पत्रकार और पत्रकारिता के उद्देश्य का वास्ता देकर कहा जाने लगा कि लाखों लोगों तक सूचना/खबर/जानकारी पहुँचे और सहजता से आम-खास जनता उसे समझ सकें। यही हुआ, हिन्दी पत्रकारिता में भाषा को आम चलन के तौर पर प्रयोग होते देखा गया।
    मालवीय पत्रकारिता संस्थान, काशी विद्यापीठ के पूर्व निदेशक, राममोहन पाठक की माने तो, ‘वर्तमान दौर की शायद सबसे बड़ी चुनौती पत्रकारिता की भाषा है। पौने दो सौ से ज्यादा साल में भी संचार और जन माध्यमों की एक सर्वस्वीकृति वाली भाषा का प्रारूप नहीं तैयार हो सका है। यह भी सच है कि इस बीच समाज की भाषा भी काफी बदली है और लगातार बदल रही है। बाबूराव विष्णु पराड़कर ने मीडिया की भाषा को आमजन, मजदूर, पनवाड़ी पान बेचने वाले, अशिक्षित या कम शिक्षितों की भाषा बनाने का विचार दिया था।
    इसके साथ ही, वह व्याकरण या शब्द-रचना को भ्रष्ट भी नहीं होने देना चाहते थे। वैश्विक स्तर पर ‘नव परंपरावादी’ कन्जर्वेटिस्ट, स्कूल व्याकरण को बाध्यकारी न मानकर, यह मानता है कि संदेश पहुंचना चाहिए, व्याकरण जरूरी नहीं है। इस आधार पर व्याकरण को न मानने वालों की मीडिया में तादाद बढ़ी है, किंतु इससे एक अनुशासनहीन भाषा संरचना विकसित होने का खतरा है। (देखें-‘‘नई भाषा गढ़ रहा है हिंदी मीडिया’, हिन्दुस्तान लाइव ,30-5-2014)। हुआ भी यही। हिन्दी पत्रकारिता की भाषा को लेकर सवाल उठने लगे। बाबूराव विष्णु पराड़कर की सोच जहाँ दिखी वहीं राममोहन पाठक की चिंता भी। व्याकरण को न मानने वालों की मीडिया में तादाद बढ़ी है। देसज शब्द के साथ-साथ अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन बढ़ता ही गया और आज यह हिन्दी पत्रकारिता का हिस्सा बन चुका है।
    इन सबके बीच आज के दौर में सबसे बड़ी चुनौती हिन्दी पत्रकारिता की भाषा को है। इसे लेकर कोई मापदण्ड तय नहीं हो पाया है। बल्कि कोई प्रारूप भी नहीं है। जिसे जो मन में आया वह करता जा रहा है। जल्द से जल्द और पहले पहल खबर लोगों तक पहुंचने की होड़ में लगे खबरिया चैनलों में कई बार भाषा के साथ खिलवाड़ होते देखा जा सकता है। कहा जा सकता है कि अनुशासनहीन भाषा की संरचना विकसित हो गयी है। खबर के लिए सुबह अखबार के इंतजार को इंटरनेट मीडिया और 24 घंटे खबरिया चैनल ने खत्म कर दिया है। चंद मिनट में घटित घटना लोगों तक पुहंच रहा है। ऐसे में भाषा का की गंभीरता का सवाल सामने आ जाता है।
    हालांकि, इलैक्टोनिक मीडिया में आम बोलचाल की भाषा को अपनाया जाता है। इसके पीछे तर्क साफ है कि लोगों को तुंरत दिखाया/सुनाया जाता है यहाँ अखबार की तरह आराम से खबर को पढ़ने का मौका नहीं मिलता है। इसलिए रेडियो और टी.वी. की भाषा सहज, सरल और बोलचाल की भाषा को अपनाया जाता है। कई अखबारों ने भी इस प्रारूप को अपनाया है खासकर हिन्दी के पाठकों को ध्यान में रख कर भाषा का प्रयोग होने लगा है। इसके पीछे सोच यह है कि हिन्दी के पाठक हर वर्ग से हैं। इसमें पढे़-लिखे, आमजन, मजदूर, पनवाड़ी, चाय विके्रता, अशिक्षित या कम शिक्षित सब शामिल है। बाबूराव विष्णु पराड़कर ने भी मीडिया की भाषा को आमजन, मजदूर, पनवाड़ी, अशिक्षित या कम शिक्षितों की भाषा बनाने का विचार दिया था। हिन्दी के साथ यह देखा जा सकता है। चाय या पान की दूकान हो या ढाबा अशिक्षित या कम शिक्षित यहाँ रखे अखकार को उलट-पुलट कर पढ़ने की कोशिश करते है। टो-टो कर पढ़ते हैं और फिर खबर पर चर्चा भी करते हैं। इन सब के बीच क्षेत्रीय बोलियों का भी समावेश हुआ है। राष्ट्रीय से राजकीय और जिला यानी क्षेत्रीय स्तर पर अखबारों के प्रकाशन से भाषा में बदलाव आया है। क्षेत्रीय और जिले तक सिमटे मीडिया में वहां की बोलियों को स्थान मिल रहा है ताकि पाठक अपने आपको जुड़ा महसूस करें।
    वहीं, यह भी सच है कि मीडिया खुद अपनी भाषा गढ़ रहा है। इसमें अंग्रेजी से आये संपादक और अंगे्रजीदां मालिक की भूमिका अहम रही है। नयी पीढ़ी तक अखबार को पहुंचाने के आड़ में हिन्दी में अंग्रेजी को प्रवेश करा दिया गया है। दिल्ली से प्रकाशित ज्यादातर हिन्दी अखबार की खबरें हिंगलीश हो गयी वहीं, र्शीषक आधा हिन्दी आधा अंग्रेजी में दिया जाता है। इसमें हिन्दी के चर्चित अखबार भी शामिल हुए जो हिन्दी भाषा के लिए जाने जाते थे। वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर की माने तो, ’नवभारत टाइम्स के दिल्ली संस्करण से विद्यानिवास मिश्र विदा हुए ही थे। वे अंग्रेजी के भी विद्वान थे, पर हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बिलकुल नहीं करते थे। विष्णु खरे भी जा चुके थे। उनकी भाषा अद्भुत है। उन्हें भी हिंदी लिखते समय अंग्रेजी का प्रयोग आम तौर पर बिलकुल पसंद नहीं। स्थानीय संपादक का पद सूर्यकांत बाली सँभाल रहे थे। अखबार के मालिक समीर जैन को पत्रकारिता तथा अन्य विषयों पर व्याख्यान देने का शौक है। उस दिनों भी था। वे राजेंद्र माथुर को भी उपदेश देते रहते थे, सुरेंद्र प्रताप सिंह से बदलते हुए समय की चर्चा करते थे, विष्णु खरे को बताते थे कि पत्रकारिता क्या है और हम लोगों को भी कभी-कभी अपने नवाचारी विचारों से उपकृत कर देते थे। आडवाणी ने इमरजेंसी में पत्रकारों के आचरण पर टिप्पणी करते हुए ठीक ही कहा था कि उन्हें झुकने को कहा गया था, पर वे रेंगने लगे। मैं उस समय के स्थानीय संपादक को रेंगने से कुछ ज्यादा करते हुए देखता था और अपने दिन गिनता था। समीर जैन की चिंता यह थी कि नवभारत टाइम्स युवा पीढ़ी तक कैसे पहुँचे(देखें-‘हिंदी पत्रकारिता की भाषा’, हिन्दी समय में प्रकाशित)।
    वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर की टिप्पणी देखें तो हिन्दी पत्रकारिता की भ्रष्ट होती भाषा के पीछे मालिकों की सोच जिम्मेदार है। अंग्रेजी भाषा में विद्वान होने के बावजूद हिन्दी के प्रति संपादकों का समपंर्ण दर्शाता है कि वे भाषा के प्रति सजग थे चाहे वह कोई भी भाषा हो, साथ ही उस भाषा से समझौता नहीं करते थे। हिन्दी पत्रकारिता की भ्रष्ट भाषा को खबरिया चैनलों ने भी खूब बढ़ावा दिया है। समाचार हो या बहस हिन्दी भाषा की टांग तोड़ा जाता है। व्याकरण का गड़बड़ झाला और हिन्दी में अंग्रेजी का तड़का अजीब हालात पैदा कर जाता है। हालांकि अभी भी कुछ मीडिया हाउस व्याकरण के गड़बड़ झाला और हिन्दी में अंग्रेजी के तड़के से परहेज करते है। कोशिश करते हैं कि भाषा भ्रष्ट न हो। लेकिन बाजारवाद के झांझेवाद में फंसा हिन्दी पत्रकारिता कंशमंश की स्थिति में है। बाजारवाद को भले ही दोषी ठहरा दें, यह भी वजह है कि आज पत्रकारिता में वह तेवर नहीं या फिर वह पुरानी बात नहीं जहंा आने वाला शक्स भाषा विद्वान हुआ करता था। भाषा पर पकड़ होती थी। अंग्रेजी हो या हिन्दी उसकी विद्ववता साफ झलकती थी। बदलाव के काल में हिन्दी पत्रकारिता की भाषा बदली तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन सवाल इसके भ्रष्ट होने का है। जो भविष्य के लिए अच्छा नहीं है।
    संजय कुमार दूरदर्शन केन्द्र, पटना में समाचार संपादक हैं.
    संपर्क: 09934293148 ईमेल: sanju3feb@gmail.com
    ↧

    खबरों का ककहरा

    March 16, 2017, 11:39 am
    ≫ Next: ऑन लाइन पत्रकारिता
    ≪ Previous: बदलती रही है पत्रकारिता की भाषा
    $
    0
    0




    समाचार लेखन : कौन, क्या, कब, कहां, क्यों और कैसे?

    पत्रकारिता1 Comment

    Related Articles

    thumbnail

    समाचार, सिद्धांत और अवधारणा: समाचार क्‍या है?

    3 days ago
    tv media

    न्यूज मीडिया और अपराध

    15 days ago
    writing

    हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

    16 days ago
    सुभाष धूलिया।
    परंपरागत रूप से बताया जाता है कि समाचार उस समय ही पूर्ण कहा जा सकता है जब वह कौन, क्या, कब, कहां, क्यों और कैसे सभी प्रश्नों या इनके उत्तर को लेकर लोगों की जिज्ञासा को संतुष्ट करता हो। हिंदी में इन्हें छह ककार ( Five W and a H) के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी में इन्हें पांच ‘डब्ल्यू’, हू, वट, व्हेन, व्हाइ वेह्अर और एक ‘एच’ हाउ कहा जाता है। इन छह सवालों के जवाब में किसी घटना का हर पक्ष सामने आ जाता है लेकिन समाचार लिखते वक्त इन्हीं प्रश्नों का उत्तर तलाशना और पाठकों तक उसे उसके संपूर्ण अर्थ में पहुंचाना सबसे बड़ी चुनौती का कार्य है। यह एक जटिल प्रक्रिया है। पत्रकारिता और समाचारों को लेकर होने वाली हर बहस का केंद्र यही होता है कि इन छह प्रश्नों का उत्तर क्या है और कैसे दिया जा रहा है। समाचार लिखते वक्त भी इसमें शामिल किए जाने वाले तमाम तथ्यों और अंतर्निहित व्याख्याओं को भी एक ढांचे या संरचना में प्रस्तुत करना होता है।
    समाचार संरचना
    सबसे पहले तो समाचार का ‘इंट्रो’ होता है। यह कह सकते हैं कि यह असली समाचार है जो चंद शब्दों में पाठकों को बताता है कि क्या घटना घटित हुई है। इसके बाद के पैराग्राफ में इंट्रो की व्याख्या करनी होती है। इंट्रो में जिन प्रश्नों का उत्तर अधूरा रह गया है उनका उत्तर देना होता है। इसलिए समाचार लिखते समय इंट्रों के बाद व्याख्यात्मक जानकारियां देने की जरूरत होती है। इसके बाद विवरणात्मक या वर्णनात्मक जानकारियां दी जानी चाहिए। घटनास्थल का वर्णन करना, इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि यह घटना के स्वभाव पर निर्भर करता है कि विवरणात्मक जानकारियों का कितना महत्त्व है।
    मसलन अगर कहीं कोई उत्सव हो रहा हो जिसमें अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम चल रहे हों तो निश्चय ही इसका समाचार लिखते समय घटनास्थल का विवरण ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। अगर कोई राजनीतिज्ञ प्रेस सम्मेलन करता है तो इसमें विवरण देने (प्रेस सम्मेलन में व्याप्त माहौल के बारे में बताने) के लिए कुछ नहीं होता और सबसे महत्त्वपूर्ण यही होता है कि राजनीतिज्ञ ने जो कुछ भी कहा और एक पत्रकार थोड़ा आगे बढक़र इस बात की पड़ताल कर सकता है कि राजनीतिज्ञ का प्रेस सम्मेलन बुलाकर यह सब कहने के पीछे क्या मकसद था जो उसने मीडिया (यानि जनता) के साथ शेयर की और जिन बातों को उसने सार्वजनिक किया। यह भी कहा जाता है कि जो बताया जा रहा है वह समाचार नहीं बल्कि जो छिपाया जा रहा है वह समाचार है। ( What is being revealed is not news but what is being canceled is news)
    इसके बाद अनेक ऐसी जानकारियां होती हैं जो ‘पांच डब्ल्यू’ और एक ‘एच’ को पूरा करने के लिए आवश्यक होती हैं और जिन्हें समाचार लिखते समय पहले के तीन खंडों में शामिल नहीं किया जा सका। इसमें पहले तीन खंडों से संबंधित अतिरिक्त जानकारियां दी जाती हैं। हर घटना को एक सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने के लिए इसका पृष्ठïभूमि में जाना भी आवश्यक होता है। ‘क्यो’ और ‘कैसे’ का उत्तर देने के लिए घटना के पीछे की प्रक्रिया पर भी निगाह डालनी आवश्यक हो जाती है। इसके अलावा पाठक इस तरह की घटनाओं की पृष्ठïभूमि भी जानने की प्रति जिज्ञासु होते हैं। मसलन अगर किसी नगर में असुरक्षित मकान गिरने से कुछ लोगों की मृत्यु हो जाती है तो यह भी प्रासंगिक ही होता है कि पाठकों को यह भी बताया जाए कि पिछले एक वर्ष में इस तरह की कितनी घटनाएं हो चुकी हैं और कितने लोग मरे। इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए और वे कहां तक सफल रहे हैं और अगर सफल नहीं हुए तो क्यों? यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि नगर की कितनी आबादी इस तरह के असुरक्षित घरों में रह रही है और इस स्थिति में किस तरह के खतरे निहित हैं आदि।
    एक समाचार की संरचना को मोटे तौर पर इन भागों में बांट सकते हैं :
    • इंट्रो
    • व्याख्यात्मक जानकारियां
    • विवरणात्मक जानकारियां
    • अतिरिक्त जानकारियां
    • पृष्ठभूमि
    एक समाचार की संरचना को दूसरे रूप में तीन मुख्य खंडों में भी विभाजित कर सकते हैं। पहला तो इंट्रो कि ‘क्या हुआ’ इसके बाद अन्य प्रश्नों के उत्तर दिए जा सकते हैं जो ‘क्या हुआ’ को स्पष्ट करते हों। फिर जो कुछ बचा और समाचार को पूरा करने के लिए आवश्यक है उसे आखिरी खंड में शामिल कर सकते हैं।
    भाषा और शैली
    इसके अलावा समाचार लेखन और संपादन के बारे में जानकारी होना तो आवश्यक है। इस जानकारी को पाठक तक पहुंचाने के लिए एक भाषा की जरूरत होती है। आमतौर पर समाचार लोग पढ़ते हैं या सुनते-देखते हैं वे इनका अध्ययन नहीं करते। हाथ में शब्दकोष लेकर समाचारपत्र नहीं पढ़े जाते। इसलिए समाचारों की भाषा बोलचाल की होनी चाहिए। सरल भाषा, छोटे वाक्य और संक्षिप्त पैराग्राफ। एक पत्रकार को समाचार लिखते वक्त इस बात का हमेशा ध्यान रखना होगा कि भले ही इस समाचार के पाठक/उपभोक्ता लाखों हों लेकिन वास्तविक रूप से एक व्यक्ति अकेले ही इस समाचार का उपयोग करेगा।
    इस दृष्टि से जन संचार माध्यमों में समाचार एक बड़े जन समुदाय के लिए लिखे जाते हैं लेकिन समाचार लिखने वाले को एक व्यक्ति को केंद्र में रखना होगा जिसके लिए वह संदेश लिख रहा है जिसके साथ वह संदेशों का आदान-प्रदान कर रहा है। फिर पत्रकार को इस पाठक या उपभोक्ता की भाषा, मूल्य, संस्कृति, ज्ञान और जानकारी का स्तर आदि आदि के बारे में भी मालूम होना ही चाहिए। इस तरह हम कह सकते हैं कि यह पत्रकार और पाठक के बीच सबसे बेहतर संवाद की स्थिति है। पत्रकार को अपने पाठक समुदाय के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। दरअसल एक समाचार की भाषा का हर शब्द पाठक के लिए ही लिखा जा रहा है और समाचार लिखने वाले को पता होना चाहिए कि वह जब किसी शब्द का इस्तेमाल कर रहा है तो उसका पाठक वर्ग इससे कितना वाकिफ है और कितना नहीं।
    उदाहरण के लिए अगर कोई पत्रकार ‘इकनॉमिक टाइम्स’ जैसे अंग्रेजी के आर्थिक समाचारपत्र के लिए समाचार लिख रहा है तो उसे मालूम होता है कि इस समाचारपत्र को किस तरह के लोग पढ़ते हैं। उनकी भाषा क्या है, उनके मूल्य क्या हैं, उनकी जरूरतें क्या हैं, वे क्या समझते हैं और क्या नहीं? ऐसे अनेक शब्द हो सकते हैं जिनकी व्याख्या करना ‘इकनॉमिक टाइम्स’ के पाठकों के लिए आवश्यक न हो लेकिन अगर इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल ‘नवभारत टाइम्स’ में किया जाए तो शायद इनकी व्याख्या करने की जरूरत पड़े क्योंकि ‘नवभारत टाइम्स’ के पाठक एक भिन्न सामाजिक समूह से आते हैं। अनेक ऐसे शब्द हो सकते हैं जिनसे नवभारत टाइम्स के पाठक अवगत हों लेकिन इन्हीं का इस्तेमाल जब ‘इकनॉमिक टाइम्स’ में किया जाए तो शायद व्याख्या करने की जरूरत पड़े क्योंकि उस पाठक समुदाय की सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि भिन्न है।
    अंग्रेजी भाषा में अनेक शब्दों का इस्तेमाल मुक्त रूप से कर लिया जाता है जबकि हिंदी भाषा का मिजाज मीडिया में इस तरह के गाली-गलौज के शब्दों को देखने का नहीं है भले ही बातचीत में इनका कितना ही इस्तेमाल क्यों न हो। भाषा और सामग्री के चयन में पाठक या उपभोक्ता वर्ग की संवेदनशीलताओं का भी ध्यान रखा जाता है और ऐसी सूचनाओं के प्रकाशन या प्रसारण में विशेष सावधानी बरती जाती है जिससे हमारी सामाजिक एकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता हो।
    लेखक उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में कुलपति हैं. वे इग्नू और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन में जर्नलिज्म के प्रोफेसर रह चुके हैं. एकेडमिक्स में आने से पहले वे दस वर्ष पत्रकार भी रहे ह
    ↧
    ↧

    ऑन लाइन पत्रकारिता

    March 16, 2017, 11:47 am
    ≫ Next: संस्कृत- भाषा की पत्रकारिता का गौरवमयी इतिहास
    ≪ Previous: खबरों का ककहरा
    $
    0
    0








    • होम
    • संपादक मंडल
    • पत्रकारिता
    • टेलीविज़न पत्रकारिता
    • कम्युनिकेशन
    • ऑनलाइन पत्रकारिता
    • विशेष आलेख
    • English









    प्रस्तुति- अमन कुमार अमन


    August 15, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता0
     
    New-Media
    शिवप्रसाद जोशी। न्यू यॉर्कर में 1993 में एक कार्टून प्रकाशित हुआ था जिसमें एक कुत्ता कम्प्यूटर के सामने बैठा है और साथ बैठे अपने सहयोगी को समझाते हुए कह रहा है, “इंटरनेट में, कोई नहीं जानता कि तुम कुत्ते हो।” (जेन बी सिंगर, ऑनलाइन जर्नलिज़्म ऐंड एथिक्स, अध्याय एथिक्स एंड ...
    Read More »

    न्यूज़ ब्रेक करता है सोशल मीडिया

    March 29, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता0
    election-and-social-media
    विनीत उत्पल | किसी भी घटना की पहली रिपोर्ट जो पुलिस दर्ज करती है, वह एफआईआर यानी फस्र्ट इनफार्मेशन रिपोर्ट कहलाती है। इस रिपोर्ट में किसी भी घटना की बारीक जानकारी होती है, जो प्रभावित व्यक्ति दर्ज कराता है। उसी तरह वर्तमान समय में सोशल मीडिया तमाम मुख्यधारा की मीडिया ...
    Read More »

    सोशल मीडिया क्या है?

    February 9, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता0
    social-media-tree
    विनीत उत्पल | एक ओर जहां अभिव्यक्ति के तमाम विकल्प सामने आ रहे हैं, वहीं इस पर अंकुश लगाने की प्रक्रिया भी पूरे विश्व में किसी न किसी रूप में मौजूद है। जहां कहीं भी सरकार को आंदोलन का धुआं उठता दिखाई देता है, तुरंत सरकार की नजर सोशल मीडिया ...
    Read More »

    संचार के दायरे को तोड़ता सोशल मीडिया

    February 5, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता1
    social-media
    विनीत उत्पल। सोशल मीडिया एक तरह से दुनिया के विभिन्न कोनों में बैठे उन लोगों से संवाद है जिनके पास इंटरनेट की सुविधा है। इसके जरिए ऐसा औजार पूरी दुनिया के लोगों के हाथ लगा है, जिसके जरिए वे न सिर्फ अपनी बातों को दुनिया के सामने रखते हैं, बल्कि ...
    Read More »

    स्थानीय भाषा में इंटरनेट

    February 1, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता0
    Indian-Languages
    मुकुल श्रीवास्तव | इंटरनेट शुरुवात में किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह एक ऐसा आविष्कार बनेगा जिससे मानव सभ्यता का चेहरा हमेशा के लिए बदल जाएगा | आग और पहिया के बाद इंटरनेट ही वह क्रांतिकारी कारक जिससे मानव सभ्यता के विकास को चमत्कारिक गति मिली|इंटरनेट के विस्तार के साथ ही ...
    Read More »

    इंटरनेट : जीवन शैली में तेजी से बदलाव का दौर

    January 18, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता0
    internet
    मुकुल श्रीवास्तव। इंटरनेट नित नयी तरक्की कर रहा है, इंटरनेट ने जबसे अपने पाँव भारत में पसारे हैं तबसे हर जगत में तरक्की के सिक्के गाड़ रहा है। इंटरनेट न सिर्फ संचार जगत में क्रांतिकारी बदलाव लाने में सफल हुआ है बल्कि हमारे जीवन जीने के सलीके और जीवन शैली ...
    Read More »

    सोशल मीडिया: लिखिए अवश्य पर जोखिम समझते हुए, न्यायालय से तो मिली आजादी

    January 17, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता0
    social_media
    अटल तिवारी। उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बरकरार रखने वाला एक ऐतिहासिक फैसला दिया है। अपने इस फैसले के जरिए न्यायालय ने साइबर कानून की धारा 66 (ए) निरस्त कर दी है, जो सोशल मीडिया पर कथित अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी भी शख्स ...
    Read More »

    परंपराओं से टकराती वेब मीडिया

    January 17, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता0
    web-media
    ओमप्रकाश दास। “यह कहा जा सकता है कि भारत में वेब पत्रकारिता ने एक नई मीडिया संस्कृति को जन्म दिया है। अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता को भी एक नई गति मिली है। अधिक से अधिक लोगों तक इंटरनेट की पहुंच हो जाने से यह स्पष्ट है कि वेब पत्रकारिता ...
    Read More »

    वेब समाचारः पारंपरिक परिभाषाओं से आगे

    January 12, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता0
    web news
    शालिनी जोशी… वेब समाचार आखिर पारंपरिक मीडिया के समाचारों से कैसे अलग है. इसमें ऐसा क्या विशिष्ट है जो इसे टीवी, रेडियो या अख़बार की ख़बर से आगे का बनाता है, उसे और व्यापक बना देता है. कहने को तो वेब समाचार वैसा ही है जैसा पारंपरिक मीडिया का समाचार ...
    Read More »

    वेब जर्नलिज्‍म : नए जमाने के मीडिया को ऐसे समझें

    January 12, 2016ऑनलाइन पत्रकारिता0
    new_media
    विजय के. झा।  प्रिंट और ब्रॉडकास्‍ट के बाद अब जमाना न्‍यू मीडिया का है। जवानी की ओर बढ़ रहे इस मीडिया ने नौजवानों को अपनी ओर खूब खींचा है। न्‍यू मीडिया यानी क्‍या परिभाषा के लिहाज से देखें तो न्‍यू मीडिया में वेबसाइट, ऑडियो-वीडियो स्‍ट्रीमिंग, चैट रूम, ऑनलाइन कम्‍युनिटीज के ...
    Read More »

    सोशल मीडिया एवं हिन्दी विमर्श

    November 20, 2015ऑनलाइन पत्रकारिता0
    social-media-tree
    –डॉ॰रामप्रवेश राय जिस प्रकार हमारी फिल्मों/सिनेमा मे स्क्रिप्ट की मांग के अनुसार ‘एंटेरटेनमेंट’ का तड़का लगता है कुछ उसी प्रकार हिन्दी के बारे मे बात–चीत करते समय हिन्दी–अंग्रेज़ी की प्रतिस्पर्धा का भाव आ जाता है। ऐसा शायद इसलिए भी होता है कि अंग्रेज़ी और यूरोपीय भाषाएँ आधुनिकता के द्योतक के ...
    Read More »

    वास्‍तविक खतरे के आभासी औजार

    October 14, 2015ऑनलाइन पत्रकारिता0
    twitter
    अभिषेक श्रीवास्‍तव। ”मेरे ख्‍याल से हमारे लिए ट्विटर की कामयाबी इसमें है, जब लोग इसके बारे में बात करना बन्‍द कर दें, जब हम ऐसी परिचर्चाएं करना बन्‍द करें और लोग इसका इस्‍तेमाल सिर्फ एक उपयोगितावादी औजार के रूप में करने लगें, जैसे वे बिजली का उपयोग करते हैं। जब ...
    Read More »
    Page 1 of 212»


    Support NewsWriters

    Donate Now

    Recent Posts

    • समाचार लेखन : कौन, क्या, कब, कहां, क्यों और कैसे?

      समाचार लेखन : कौन, क्या, कब, कहां, क्यों और कैसे?

      March 13, 2017
    • साक्षात्कार लेना भी एक कला है…

      साक्षात्कार लेना भी एक कला है…

      March 13, 2017
    • समाचार, सिद्धांत और अवधारणा: समाचार क्‍या है?

      समाचार, सिद्धांत और अवधारणा: समाचार क्‍या है?

      March 13, 2017
    • चुनाव-सर्वेक्षणों की होड़ में पिचकती पत्रकारिता

      चुनाव-सर्वेक्षणों की होड़ में पिचकती पत्रकारिता

      March 13, 2017
    • दुनिया एक, स्वर अनेक : संचार और समाज, ऐतिहासिक आयाम

      दुनिया एक, स्वर अनेक : संचार और समाज, ऐतिहासिक आयाम

      March 13, 2017
    ↧

    संस्कृत- भाषा की पत्रकारिता का गौरवमयी इतिहास

    March 17, 2017, 5:15 am
    ≫ Next: मैथि‍ली पत्रकारिता का इतिहास
    ≪ Previous: ऑन लाइन पत्रकारिता
    $
    0
    0








     

     

    संस्कृत-पत्रकारिता : इतिहास एवं अधुनातन स्वरूप

    Posted onNovember 27, 2016byslabhyankar अभ्यंकरकुलोत्पन्नः श्रीपादः
                  संस्कृत-पत्रकारिता : इतिहास एवं अधुनातन स्वरूप…
    • डॉ. बलदेवानन्द सागर  
    •  
    • प्रस्तुति-- डा.ममता शरण 
              संस्कृत-पत्रकारिता के बारे में कुछ कहने से पहले मैं सुधी पाठकों को ये बताना चाहूँगा कि भले ही, सामान्यरूप से हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य प्रचलित भाषाओं की पत्रकारिता के समान संस्कृत-पत्रकारिता की चर्चा न होती हो; पर आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज, इस इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे आधे दशक में भी, भारत के प्रायः सभी राज्यों और कुछ विदेशों में भी संस्कृत-पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं |
              एक प्रामाणिक समीक्षक के रूप में संस्कृत-पत्रकारिता के विषय में कुछ कहने के लिए अभी मैं मनोमन्थन करके आपके सामने जो कुछ रखने जा रहा हूँ, वो मात्र एक लेखक के रूप में ही नहीं, परन्तु पिछले ४२ वर्षों से आकाशवाणी के साथ-साथ, २२ वर्षों के दूरदर्शन के भी संस्कृत-समाचारों के सम्पादन, अनुवाद और प्रसारण के दीर्घकालीन अनुभवों के आधार पर “संस्कृत-पत्रकारिता के इतिहास एवं अधुनातन स्वरूप” की व्याख्या करने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ |
    संस्कृत-पत्रकारिता का इतिहास-
                           जब भी हिन्दी-पत्रकारिता की बात होती है तो हिन्दी के प्रथम पत्र “उदन्त-मार्तण्ड” [ १८२६ ई., सम्पादक- पं. जुगलकिशोर-शुकुल] का सन्दर्भ अवश्य दिया जाता है | ठीक उसी तरह से, संस्कृत-पत्रकारिता के इतिहास में ईस्वी सन् १८६६ में पहली जून को काशी से प्रकाशित “काशीविद्यासुधानिधिः” का उल्लेख अवश्य होता है | संस्कृत-पत्रकारिता की इस प्रथम-पत्रिका का दूसरा नाम था –“ पण्डित-पत्रिका |”
                          अभी, जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ तो संस्कृत-पत्रकारिता के १५० वर्ष और प्रायः दो महीने पूरे हो रहे हैं | इस बात को ध्यान में रखकर संस्कृत-प्रेमियों और संस्कृतज्ञों के एक राष्ट्रव्यापी स्वैच्छिक-संघठन “भारतीय संस्कृत-पत्रकार संघ” [पञ्जी.] ने इस पूरे वर्ष में राष्ट्रीय-स्तर पर अनेक कार्यशालाओं और संगोष्ठियों के आयोजन का संकल्प किया है | यह तथ्य, इस बात का द्योतक है कि संस्कृत-पत्रकारिता को व्यावहारिक रूप में राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए संस्कृत-कर्मी दिन-रात अथक प्रयास कर रहे हैं |
                        संस्कृत-पत्रकारिता के इतिहास की बात दोहराते हुए कहना चाहूँगा कि “काशीविद्यासुधानिधिः” [१-जून,१८६६] से शुरू हुयी इस संस्कृत-पत्रकारिता की यात्रा में अनेक छोटे-बड़े पड़ाव आये | इस बिन्दु को समझने के लिए लोकमान्य तिलक जी के मराठी-भाषिक ‘केसरी’ का उल्लेख करना चाहूँगा |
                         भारत की भाषाई-पत्रकारिता के इतिहास में, वैसे तो अनेक दैनिक-मासिक पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है किन्तु ‘केसरी’ की बात कुछ ख़ास है | विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, बालगंगाधर तिलक, वामन शिवराम आप्टे, गणेश कृष्ण गर्दे, गोपाल गणेश आगरकर और महादेव वल्लभ नामजोशी के हस्ताक्षरों के साथ ‘केसरी’ का उद्देश्य-पत्र १८८० ईस्वी. की विजयादशमी को मुम्बई के ‘नेटिव-ओपिनियन’ में प्रकाशित कराया गया | ‘केसरी’ के प्रकाशन का निर्णय तो हो गया लेकिन मुद्रण के लिए पूँजी की समस्या थी | अन्ततः नामजोशी की व्यावहारिक-कुशलता के साथ ४-जनवरी १८८१ को पुणे से साप्ताहिक ‘केसरी’ [मराठी] का प्रति मंगलवार को प्रकाशन होने लगा |
                        जिस बात की ओर मैं संकेत करना कहता हूँ, वह है पण्डितराज जगन्नाथ के “भामिनीविलास” का वह समुपयुक्त संस्कृत-श्लोक, जो ‘केसरी’ के उद्देश्य और कार्य को द्योतित करता है | विष्णु शास्त्री चिपलूणकर द्वारा चुना गया और ‘केसरी’ के मुखपृष्ठ पर छपा यह श्लोक इस प्रकार है –
    “स्थितिं नो रे दध्याः क्षणमपि मदान्धेक्षण-सखे !, गज-श्रेणीनाथ ! त्वमिह जटिलायां वनभुवि |   
     असौ कुम्भि-भ्रान्त्या खरनखरविद्रावित-महा-गुरु-ग्राव-ग्रामः स्वपिति गिरिगर्भे हरिपतिः ||”
    [ अर्थात् हे गजेन्द्र ! इस जटिल वन-भूमि में तुम पलभर के लिए भी मत रूको, क्योंकि यहाँ पर पर्वत-गुफा में वह केसरी [हरिपति] सो रहा है जिसने हाथी के माथे-जैसी दिखने की भ्रान्ति में बड़ी-बड़ी शिलाओं को भी अपने कठोर नाखूनों से चूर-चूर [विद्रावित] कर दिया है ]   
                   मेरा विनम्र मन्तव्य यही है कि तत्कालीन भाषाई-पत्रकारिता के लेखक- सम्पादक-प्रकाशक बहुतायत संख्या में या तो संस्कृत के जानकार या विशेषज्ञ थे या संस्कृत के प्रति निष्ठावान् थे और पत्रकारिता के समर्पित कार्य के लिए संस्कृत के समृद्ध साहित्य का आश्रय लेते थे | चूँकि स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए जन-सामान्य की भाषा में संचार और सम्वाद करना ज़रूरी था, इसलिए विभिन्न भारतीय भाषाओं में तुलनात्मक-रूप से अधिक और संस्कृत में कम, पत्र-पत्रिकाएँ छपती रहीं | किन्तु भारत के सभी राज्यों से प्रकाशित होने वाली संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं की बात करें तो किसी एक प्रान्तीय-भाषा या राष्ट्रभाषा हिन्दी या अंग्रेजी-उर्दू की तुलना में समग्ररूपसे संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं की संख्या अधिक मानी जा सकती है | शोध के आधार पर  यह संख्या १२० से १३० के बीच की कही जा सकती है |                                                     
                     इस छोटे-से आलेख में पूरे डेढ़-सौ सालों के इतिहास को विस्तार से देना तो सम्भव नहीं है किन्तु कुछ मुख्य संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करें, तो दो प्रकार की संस्कृत-पत्रिकाएँ बहुतायत से मिलती हैं | एक तो वे जो मुख्यरूप से शोध-पत्रिका के रूप में प्रकाशित होती रहीं और शोध-लेखों, प्राचीन-ग्रन्थों और पाण्डुलिपिओं को ही प्रकाशित करती रहीं | दूसरी वें, जो एक सामान्य साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक पत्रिका के कलेवर में प्रकाशित की जाती थीं, जिनमें प्रायः सभी विषयों की सामग्री छपी मिलती थीं | आज स्थिति में बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है | ऐसा लग रहा है कि संस्कृत-पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल है | आश्वस्ति के साथ कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं जब युवा पीढ़ी के अधिकाधिक युवक-युवतियाँ संस्कृत पढ़ना-लिखना और बोलना पसन्द करेंगे और सामाजिक संचार-माध्यमों में सभी भाषाओं की अपेक्षा संस्कृत-विद्या का अधिक प्रयोग होगा
                   आइये, अब कुछ विशेष पत्र-पत्रिकाओं की बात करें –
                   संस्कृतपत्रकारिता स्वतन्त्रता-संग्राम की एक विशिष्ट उपलब्धि है | नवीन विचारों के सूत्रपात और राष्ट्रीयता की वृद्धि में इस ने अभूतपूर्व योगदान किया है | शोध से ये तथ्य सामने आया है कि ईस्वी सन् १८३२ में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी ने अंग्रेजी और संस्कृत में एक द्विभाषी शोध-पत्रिका प्रकाशित की थी | इस पत्रिका में संस्कृत साहित्य की गवेषणाओं एवं पुरातन सामग्री से आपूरित लेखादि प्रकाशित होते थे | इसने अंग्रेजी पढ़े-लिखे संस्कृतज्ञों के हृदय में नवीन चेतना का संचार किया और राष्ट्र, भाषा एवं साहित्य के प्रति गौरव का भाव जागृत किया |
                  जैसा कि पहले उल्लेख कर चुके हैं, १ जून, १८६६ ई. को काशी-स्थित  गवर्नमेण्ट संस्कृत कॉलेज ने “काशी-विद्यासुधा-निधिः” अथवा “पण्डित” नामक मासिक-पत्र का प्रकाशन किया | काशी से ही १९६७ ई. में “क्रमनन्दिनी” का प्रकाशन आरम्भ हुआ | विशुद्ध संस्कृत की ये दोनों पत्रिकाएँ प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का प्रकाशन करती थीं | इनमें विशुद्ध समाचार-पत्रों के लक्षण नहीं थे | एप्रिल, १८७२ ई. में लाहौर से “विद्योदयः” नए साज-सज्जा के साथ शुद्ध समाचार-पत्र के रूप में अवतरित हुआ | हृषीकेश भट्टाचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका ने संस्कृत-पत्रकारिता को अपूर्व सम्बल प्रदान किया | “विद्योदयः” से प्रेरणा पाकर संस्कृत में अनेक नयी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगीं |
                 बिहार का पहला संस्कृत-पत्र १८७८ ई. में “विद्यार्थी” के नाम से पटना से निकला | यह मासिक पत्र १८८० ई. तक पटना से नियमित निकलता रहा और बाद में उदयपुर चला गया, जहाँ से पाक्षिक रूप में प्रकाशित होने लगा | कुछ समय बाद, यह पत्रिका श्रीनाथद्वारा से प्रकाशित होने लगी | आगे चल कर यह हिन्दी की “हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका” और “मोहनचन्द्रिका” पत्रिकाओं में मिलकर प्रकाशित होने लगी | यह संस्कृत-भाषा का पहला पाक्षिक-पत्र था जिसके सम्पादक पं. दामोदर शास्त्री थे एवं इसमें यथानाम प्रायः विद्यार्थिओं की आवश्यकता और हित को ध्यान में रखते हुए सामग्री प्रकाशित की जाती थी |         
                १८८० ई. में पटना से मासिक ‘धर्मनीति-तत्त्वम्’ का प्रकाशन हुआ, किन्तु इसके विषय में कोई ख़ास जानकारी नहीं मिल पाती है और नहीं इसका कोई अंक उपलब्ध है |
                १७-अक्टूबर, १८८४ ई. को कुट्टूर [केरल] से ‘विज्ञान-चिन्तामणिः’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ | कुछ समय बाद, प्रचारातिरेक के कारण यह पत्रिका पाक्षिक, दशाह्निक और अन्ततः साप्ताहिक हो गयी | नीलकान्त शास्त्री के सम्पादकत्व में यह पत्रिका संस्कृत-पत्रकारिता के विकास में मील का पत्थर सिद्ध हुयी |
                   संस्कृत की समृद्धि, प्रतिष्ठा और शिक्षाप्रणाली के परिष्कार के लिए पं. अम्बिकादत्त व्यास द्वारा १८८७ ई. में स्थापित संस्था ‘बिहार-संस्कृत-संजीवन-समाजः’, संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयासरत रहा | इसकी पहली बैठक ५-एप्रिल, १८८७ ई. में हुयी, जिसकी अध्यक्षता पॉप जॉन् बेन्जिन् ने की थी | इसमें अनेक राज्यों से बहुत-सारे लोग आये थे | सचिव स्वयं पं. अम्बिकादत्त व्यास जी थे | इस समाज द्वारा १९४० ई. में त्रैमासिक के रूप में ‘संस्कृत-सञ्जीवनम्’ का प्रकाशन आरम्भ किया गया था |                                                           
                   १९वीँ शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में बहुत-सारी संस्कृत-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ | राष्ट्रिय-आन्दोलन की दृष्टि से, इन सब में “संस्कृत-चन्द्रिका” और “सहृदया” का विशेष स्थान है | पहले कोलकोता और बाद में कोल्हापुर से प्रकाशित होने वाली “संस्कृत-चन्द्रिका” ने अप्पाशास्त्री राशिवडेकर के सम्पादकत्व में अपार ख्याति अर्जित की | अपने राजनीतिक लेखों के कारण अप्पाशास्त्री को कई बार जेल जाना पड़ा | संस्कृत-भाषा का पोषण और सम्वर्धन, संस्कृत-भाषाविदों में उदार दृष्टिकोण का प्रचार तथा सुषुप्त संस्कृतज्ञों को राष्ट्र-हित के लिए जगाना आदि उद्देश्यों को ध्यान में रखकर “सहृदया” ने राष्ट्रिय-आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी |
                    २०वीं शताब्दी के आरम्भ में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में सारे देश ने स्वदेशी आन्दोलन में भाग लिया था | संस्कृत-पत्रकारिता के लिए ये सम्वर्धन का युग था | उस अवधि में देश के विभिन्न भागों से अनेक संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, जिनमें ‘भारतधर्म’ [१९०१ ई.], ‘श्रीकाशीपत्रिका’ [१९०७ ई.], ‘विद्या’ [१९१३ ई.], ‘शारदा’ [१९१५ ई.], ’संस्कृत-साकेतम्’ [१९२० ई.] वगैरह प्रमुख थीं |  ‘अर्वाचीन संस्कृत साहित्य’ के अनुसार १९१८ ई. में पटना से पाक्षिक ‘मित्रम्’ का प्रकाशन शुरू हुआ था | इसका प्रकाशन ‘संस्कृत-संजीवन-समाज’ करता था |
                 स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में दूसरी प्रमुख संस्कृत-पत्रिकाएँ थीं – ‘आनन्दपत्रिका’ [१९२३ ई.], ‘गीर्वाण’ [१९२४ ई.], ‘शारदा’ [१९२४ ई.], ‘श्रीः’ [१९३१ ई.], ‘उषा’ [१९३४ ई.], ‘संस्कृत-ग्रन्थमाला’ [१९३६ ई.], ‘भारतश्रीः’ [१९४० ई.] आदि | १९३८ ई. में कानपुर से अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य सम्मलेन का मासिक मुखपत्र “संस्कृत-रत्नाकरः” आरम्भ हुआ | श्रीकेदारनाथ शर्मा इसके सारस्वत सम्पादक-प्रकाशक थे | १९४३ ई. में राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ की त्रैमासिक पत्रिका “गंगानाथ झा रिसर्च जर्नल” आरम्भ की गई |    
                स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की प्रमुख संस्कृत-पत्रिकाओं में, ‘ब्राह्मण-महासम्मेलनम्’ [१९४८ ई.], ‘गुरुकुलपत्रिका’ [१९४८ ई.], ‘भारती’ [१९५० ई.], ‘संस्कृत-भवितव्यम्’ [१९५२ ई.], ‘दिव्यज्योतिः’ [१९५६ ई.], ‘शारदा’ [१९५९ ई.], ‘विश्व-संस्कृतम्’ [१९६३ ई.], ‘संविद्’ [१९६५ ई.], ‘गाण्डीवम्’ [१९६६ ई.], ‘सुप्रभातम्’ [१९७६ ई.], ‘संस्कृत-श्रीः’ [१९७६ ई.] ‘प्रभातम्’ [१९८० ई.], ‘लोकसंस्कृतम्’ [१९८३ ई.], ‘व्रजगन्धा’ [१९८८ ई.], ‘श्यामला’ [१९८९ ई.] आदि गिनी जाती हैं |
                   इसी अवधि में [१९७० ई. में] संस्कृत-पत्रकारिता के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक घटना हुयी जिसके महानायक थे – मैसूरू, कर्नाटक के सुप्रसिद्ध संस्कृत-विद्वान्, गीर्वाणवाणीभूषण, विद्यानिधि, पण्डित-कळले-नडादूरु-वरदराजय्यङ्गार्य, जिन्हों ने मैसूरू से “सुधर्मा” नामक दैनिक संस्कृत समाचार-पत्र प्रकाशित कर के विश्व-पत्रकारिता के मञ्च पर संस्कृत-पत्रकारिता का ध्वज फहरा दिया | यद्यपि १९०७ ई., १-जनवरी को थिरुअनन्तपुरम् [केरळ] से “जयन्ती” नामक दैनिक संस्कृत-समाचार-पत्र प्रकाशित कर के श्रीकोमल-मारुताचार्य और श्रीलक्ष्मीनन्द-स्वामी ने एक अभूतपूर्व साहस किया था किन्तु धन और ग्राहक-पाठक के अभाव में इस संस्कृत-दैनिक का प्रकाशन कुछ दिनों बाद ही बन्द करना पड़ा | कालान्तर में, कानपुर से भी कुछ समय तक “सुप्रभातम्” नाम का दैनिक संस्कृत-समाचार-पत्र निकलता रहा किन्तु पाठक-ग्राहक के अभाव में बन्द करना पड़ा |
    संस्कृत-पत्रकारिता का अधुनातन स्वरूप –                              
                      संस्कृत भारत की सांस्कृतिक-धरोहर है | इस राष्ट्र की पहचान और अस्मिता है | स्वतन्त्र-भारत की भाषाई नीति के चक्रव्यूह में न पड़कर आज संस्कृतपत्रकारिता   के क्षेत्र में नित-नूतन हो रहे प्रयोगों की पड़ताल करें तो लगता है कि विश्व की अधिकाधिक भाषाएँ, इस वैज्ञानिक और गणितात्मक वाणी-विज्ञान से लाभान्वित हो रही हैं | computational linguistic science को परिपोषित और सम्वर्धित करने में संस्कृत के शब्दानुशासन से अधिकाधिक मदद ली जा रही है | ऐसे परिदृश्य में किन्हीं कारणों से शिथिल-गति वाली संस्कृत-पत्रकारिता अब, आधुनिक संचार माध्यमों के सर्वविध क्षेत्रों में और सामाजिक संचार माध्यमों में  अपनी उपयोगिता और प्रभाव को स्थापित कर रही है |
                   यदि हम संस्कृत-पत्रकारिता के आधुनिक-युग को इक्कीसवीं शताब्दी का आरम्भ-काल मानें, तो थोड़ा सिंहावलोकन करके बीसवीं शताब्दी के अन्तिम तीन दशकों में हुयी सूचना-क्रान्ति और तकनीकी विकास-प्रक्रिया की समीक्षा को भी व्यापक-परिधि में समझना होगा | आप सुधी पाठक मेरा संकेत समझ गए होंगे |
                   अभी-अभी हमने, संक्षेप में संस्कृत-पत्रकारिता के डेढ़सौ वर्षों के संक्षिप्त इतिहास का विहंगम-अवलोकन किया | इसी शृंखला में एक और ऐतिहासिक घटना हुयी और भारत-सरकार के सूचना-प्रसारण-मन्त्रालय ने आरम्भ में प्रयोगात्मक-रूप से १९७४ ई. के ३०-जून को सुबह ९-बजे, आकाशवाणी के दिल्ली-केंद्र से संस्कृत-समाचारों का प्रसारण करके उन तमाम भ्रान्तियों और मिथकों को ध्वस्त कर दिया, जो कहते थे कि संस्कृत, आम बोलचाल की भाषा नहीं हो सकती है या तकनीकी विचारों को संस्कृत में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है | इस राष्ट्रिय समाचार-प्रसारण की लोकप्रियता और सर्वजन-ग्राह्यता के कारण, कुछ महीनों बाद, पाँच-मिनिट का संस्कृत-समाचारप्रसारण का एक और बुलेटिन शाम को [६.१० बजे] प्रसारित होने लगा | इतना ही नहीं, १९९४ ई. में २१-अगस्त, रविवार को दूरदर्शन ने साप्ताहिक संस्कृत-समाचार प्रसारण आरम्भ करके एक नया कीर्तिमान स्थापित किया | सौभाग्य से, दूरदर्शन से प्रथम संस्कृत-समाचार प्रसारण का सौभाग्य इन पंक्तियों के लेखक को मिला | कुछ वर्षों बाद दूरदर्शन का यह साप्ताहिक प्रसारण, प्रतिदिन पाँच मिनिट के लिए कर दिया गया |
                  इसी काल-खण्ड में, एक और ऐतिहासिक घटना के कारण संस्कृत-पत्रकारिता की मन्द गति तीव्रतर बन गयी | संस्कृत के कुछ उत्साही युवा इन दशकों में संस्कृत को बोलचाल की भाषा बनाने के लिए संगठनात्मक-रूप से सक्रिय थे और राष्ट्रव्यापी अभियान के तहत यह कार्य कर रहे थे | बंगलूरु में कार्यरत “हिन्दू-सेवा-प्रतिष्ठानम्” और अधुनातनरूप में,   “संस्कृत-भारती” तथा “लोकभाषा-प्रचार-समितिः” आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिन्हों ने संस्कृत-पत्रकारिता के अधुनातन स्वरूप को व्यवस्थित और व्यापक बनाकर प्रत्येक संस्कृत-अनुरागी को आश्वस्त किया कि वह दिन दूर नहीं जब भारत का युवा नागरिक संस्कृत में धाराप्रवाह अपनी बात कह सकेगा | इस शृंखला में “संस्कृत-भारती” ने १९९९ ई. में बंगलूरू से मासिक-पत्रिका “सम्भाषण-सन्देशः” प्रकाशित करना आरम्भ किया | यह मासिक-पत्रिका अपनी साज-सज्जा, सरल भाषा और विषय-वैविध्य के कारण देश-विदेश में बहुत लोकप्रिय है |
                            इसी प्रकार से कुछ और पत्र-पत्रिकाएँ हैं – संवित् [ पाक्षिकं पत्रम् ], संस्कृत-बाल-संवादः [ मासिकं पत्रम् ], गीर्वाणी [ मासिकं पत्रम् ], महास्विनी [ षाण्मासिकं पत्रम् ], आरण्यकम् [ षाण्मासिकं पत्रम् ], संस्कृत-सम्मेलनम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], अर्वाचीन-संस्कृतम्      [ त्रैमासिकं पत्रम् ], आर्षज्योतिः [ मासिकं पत्रम् ], संस्कृत-प्रतिभा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-मञ्जरी [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-वार्त्ता [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-विमर्शः [ वार्षिकं पत्रम् ], अभिव्यक्ति-सौरभम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], अतुल्यभारतम् [ मासिकं पत्रम् ], संस्कृतवाणी [ पाक्षिकं पत्रम् ], संस्कृत-सम्वादः [ पाक्षिकं पत्रम् ], संस्कृत-रत्नाकरः [ मासिकं पत्रम्], दिशा-भारती [ त्रैमासिकं पत्रम् ], देव-सायुज्यम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-वर्तमानपत्रम् [ दैनिकं पत्रम् ], विश्वस्य वृत्तान्तम् [ दैनिकं पत्रम् ], संस्कृत-साम्प्रतम् [ मासिकं पत्रम् ], निःश्रेयसम् [षाण्मासिकं पत्रम् ], श्रुतसागरः [ मासिकं पत्रम् ], सेतुबन्धः [ मासिकं पत्रम् ], हितसाधिका [पाक्षिकी पत्रिका], दिव्यज्योतिः [ मासिकं पत्रम् ], रावणेश्वर-काननम् [ मासिकं पत्रम् ], रसना [ मासिकं पत्रम् ], दूर्वा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], नाट्यम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], सागरिका [ त्रैमासिकं पत्रम् ], ऋतम् [ द्विभाषिकं मासिकं पत्रम् ], स्रग्धरा [ मासिकं पत्रम् ], अमृतभाषा [ साप्ताहिकं पत्रम् ], प्रियवाक् [ द्वैमासिकं पत्रम् ], दिग्दर्शिनी [ त्रैमासिकं पत्रम् ], वसुन्धरा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संस्कृत-मन्दाकिनी [ षाण्मासिकं पत्रम् ], लोकप्रज्ञा [ वार्षिकं पत्रम् ], लोकभाषा-सुश्रीः [ मासिकं पत्रम् ], लोकसंस्कृतम् [त्रैमासिकं पत्रम् ], विश्वसंस्कृतम् [ त्रैमासिकं पत्रम् ], स्वरमङ्गला [ त्रैमासिकं पत्रम् ], भारती [ मासिकं पत्रम् ], रचना-विमर्शः [ त्रैमासिकं पत्रम् ], सरस्वती-सौरभम् [ मासिकं पत्रम् ] संस्कृतश्रीः [ मासिकं पत्रम् ], वाक् [ पाक्षिकं पत्रम् ], अजस्रा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], परिशीलनम्    [ त्रैमासिकं पत्रम् ], प्रभातम् [ दैनिकं पत्रम् ], व्रजगन्धा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], संगमनी [ त्रैमासिकं पत्रम् ], विश्वभाषा [ त्रैमासिकं पत्रम् ], भास्वती [ षाण्मासिकं पत्रम् ], कथासरित् [ षाण्मासिकं पत्रम् ], दृक् [ षाण्मासिकं पत्रम् ], वाकोवाकीयम्  [ षाण्मासिकं पत्रम् ], वैदिक-ज्योतिः [षाण्मासिकं पत्रम् ], अभिषेचनम् [षाण्मासिकं पत्रम्], अभ्युदयः [षाण्मासिकं पत्रम्]सत्यानन्दम् [ मासिकं पत्रम् ], संस्कृत-साहित्य-परिषत्-पत्रिका [ त्रैमासिकं पत्रम् ] आदि | इन्होंने संस्कृत-पत्रकारिता के क्षेत्र को अधिक सक्रिय बना दिया है | इसके अलावा संस्कृत की एक न्यूज-एजेन्सी है- News in Sanskrit [ News agency ] Hindustan Samachar | अभी-अभी सूचना मिली है कि पूर्वी दिल्ली से पिछले कुछ दिनों से “सृजन-वाणी” नाम का  दैनिक संस्कृत-समाचार-पत्र प्रकाशित किया जा रहा है | इन सब संस्कृत-पत्रकारों और संस्कृत-कर्मियों को हार्दिक अभिनन्दन और मंगलकामनाएँ !
                    बहुत-सारी ई-पत्रिकाएँ हैं जिनमेंप्राची प्रज्ञा [मासिकी ई-पत्रिका ], जान्हवी [ त्रैमासिकी ई-पत्रिका ], संस्कृत-सर्जना [ त्रैमासिकी ई-पत्रिका ] और सम्प्रति वार्त्ताः [दैनिकं ई-पत्रम् ] आदि प्रमुख हैं |
                  सुधी पाठकों को यह जानकर सुखद आश्चर्य भी होगा कि पिछले तीन साल से www.divyavanee.inके नाम से संस्कृत-भाषिक-कार्यक्रमों को प्रसारित करने वाला एक चौबीस घन्टे का online radio भी है जो कि पाण्डिचेरी से डॉ. सम्पदानंद मिश्र के नेतृत्व में चलाया जा रहा है |  
                 राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थान और श्रीलाल-बहादुर-शास्त्री-राष्ट्रिय-संस्कृत-विद्यापीठ-जैसे संस्थानों और विश्वविद्यालयों ने संस्कृत-पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों को आरम्भ कर दिया है | आशा की जा सकती है कि कुछ ही समय में इन संस्थानों से प्रशिक्षित हो कर संस्कृत के पूर्णकालिक पत्रकार सक्रिय हो जायेंगे |     
                  पिछले दो वर्षों में केरल में चार लघु-चलचित्र संस्कृत-भाषा में बन कर दर्शकों को दिखाए जा चुके हैं | थिरुवनंतपुरम् से मलयालम-भाषिक दृश्यवाहिनी “जनम्” ने २०१५ ई. के २-ओक्टोबर से नियमितरूपसे प्रतिदिन १५-मिनिट्स के लिए संस्कृत-समाचारों का प्रसारण आरम्भ  किया है | इन सब तथ्यों के मद्देनज़र, पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि संस्कृत-पत्रकारिता का भविष्य सकारात्मक और उज्जवल है |  
    • डॉ. बलदेवानन्द सागर
    • baldevanand.sagar@gmail.com
    • 9810 5622 77
    ↧

    मैथि‍ली पत्रकारिता का इतिहास

    March 17, 2017, 5:21 am
    ≫ Next: टेलीविजन पत्रकारिता के विविध आयाम
    ≪ Previous: संस्कृत- भाषा की पत्रकारिता का गौरवमयी इतिहास
    $
    0
    0





    प्रस्तुति-  स्वामी शरण

    मैथिली में पत्रकारिता का अपना गौरवशाली इतिहास है । हितसाधन से लेकर मिथि‍ला आवाज तक की अपनी विशेषता और विविधता रही है । लेकिन मैथि‍ली पत्रकारिता के इतिहास को संकलित करने का काम बहुत कह ही लोगों ने किया । पंडित चन्द्रनाथ मिश्र "अमर"की ‘’मैथिली पत्रकारिता का इतिहास” और डॉ यॊगानन्द झा की “ मैथिली पत्रकारिता के सौ वर्ष“ के साथ साथ विजय भाष्‍कर लिखि‍त ‘’बिहार मे पत्रकारिता का इतिहास’’ इस विषय में उल्लॆखनीय संदर्भ स्रॊत है । 
    सबसे पहले 1905 में मैथि‍ली हितसाधन का प्रकाशन मासिक के रूप में जयपूर में हुआ । संभावनाओं के विपरीत विशाल मैथि‍ली आबादीवाले प्रदेश में इसकी नींव नहीं पड़ी, न ही शुरूआती प्रसार का कार्य यहाँ हुआ । अन्‍य स्‍थान पर ग्रहण कर पल्‍लवित और पुष्‍पि‍त होने के लिए ये बिहार जरूर आई । मैथि‍ली हितसाधन के संपादकीय बोर्ड के प्रमुख थे विद्यावाचस्‍पति मधुसूदन झा । पत्र‍िका ने उँचे आदर्श तय कर रखे थे । सामग्री में व्‍यापक विभिन्‍नता और साहित्‍यि‍क संपन्‍नता थी । फिर भी मैथि‍ली हितसाधन तीन साल से ज्‍यादा नहीं चल पाया । मैथि‍ली प्रकाशन की इस विफलता से पहले ही बनारस के मैथि‍ल विद्वानों का ध्‍यान अपनी ओर खींचा । यहाँ से मैथि‍ल विद्वानों ने 1906 में मिथलिामोद मासिक पत्र की शुरूआत की । इसके संपादक बने महामहोपाध्याय पंडित मुरलीधर झा और अनूप मिश्र एवं सीताराम झा । पंडित मुरलीधर झा ने तब एक समृद्ध पत्रि‍का की नींव रखी । इसकी टिप्‍पणि‍यो, आलोचनाओं, ‍विषय में व्‍यापक विभि‍न्‍नता और व्‍यंगात्‍मक शैली ने मैथि‍ली पाठकों का ध्‍यान बरबस आकृष्‍ट किया और पाठकों के बीच इसने अच्‍छी पैठ बना ली थी । लगभग 14 वर्षो तक निरंतर पंडित मुरलीधर झा इसका संपादन करते रहे । 1920 से 1927 तक इसका संपादन अनूप मिश्र और सीताराम झा ने किया । 1936 में पत्रि‍का को नया स्‍वरूप दिया गया और इसकी नई श्रंखला का संपादकीय दायित्‍व सौंपा गया उपेन्‍द्रनाथ झा को । नए स्‍वरूप में भी पत्रि‍का ने अपनी पुरानी अस्‍मिता कायम रखी । इस पत्रि‍का को टोन शुरू से अंत तक साहित्‍य‍िक ही रहा । 
    1908 वह वर्ष है जब मिथि‍ला मिहिर ने प्रकाशन की दुनिया में दस्‍तक दी । बतौर मासिक शुरू हुई इस पत्रि‍का ने तीन वर्षों में अपना स्‍वरूप बदलकर साप्‍ताहिक कर लिया । 1911 से साप्‍ताहिक मिथि‍ला मिहिर का प्रकाशन शुरू हुआ हो गया । यह दरभंगा महाराज की मिल्‍कियत थी । पर 1912 तक आते-आते लगने लगा कि केवल मैथि‍ली भाषा की पत्रि‍का का चलना शायद मुश्‍कि‍ल हो । इसलिए पत्रि‍का को द्व‍िभाषी बनाकर इसमें हिंदी को भी शामिल कर लिया गया और मिथि‍ला मिहिर मैथि‍ली और हिंदी दोनों की पत्रि‍का हो गई । मिथि‍ला मिहिर के साथ किए गए निरंतर प्रयोगों से यह साफ जाहिर है कि प्रबंधकों का आत्‍मविश्‍वास डगमगाने लगा था और दो साल 1930-31 में इसमें अंग्रेजी मिलाकर इसे त्रिभाषी कर दिया गया । आजादी से पूर्व के इतिहास में दो ही पत्रि‍काएँ ऐसी मिलती है जो द्विभाषी से आगे त्रि‍भाषी अवधारणा लेकर सामने आई । इसके पूर्व राममोहन राय बंगाल में बंगदूत के साथ अभि‍नव प्रयोग कर चुके थे, जिसमें एक साथ अंग्रेजी, बँगला, फारसी और हिंदी के प्रयोग किए गए थे । पर 1930-31 के बाद मिथि‍ला मिहिर अपने द्व‍िभाषी स्‍वरूप में लौट आया और 1954 तक निर्बाध चलता रहा । बाद में यह एक और प्रयोग से गुजरा । 1960 में यह सचित्र साप्‍त‍ाहिक के रूप में सामने आया । बिहार की की पत्रकारिता के इतिहास में यह सबसे प्रयोगधर्मी पत्र साबित हुआ । इसके संपादकों में पंडित विष्‍णुकांत शास्‍त्री (1908-12), महामहोपाध्‍याय परमेश्‍वर झा, जगदीश प्रसाद, योगानंद कुमार (1911-19), जनार्दन झा ‘जनसीदान’ (1919-21), कपिलेश्‍वर झा शास्‍त्री (1922-35) और सुरेन्‍द्र झा सुमन (1935-54) शामिल थे । 1970 के दशक में इसके संपादन का जिम्‍मा सुधांशु शेखर चौधरी पर था । पत्रि‍का के कई संग्रहणीय विशेषांक निकले, जिनमें ‘मिथि‍लांक’ (अंक अगस्‍त 1935) मैथि‍ली पत्रकारिता के लिए एक अमुल्‍य योगदान माना जाता है । 
    1920 के दशक में मैथि‍ली प्रकाशन के प्रयत्‍न बिहार के अलावा बाहर से भी होते रहे । इससे यह भी पता लगता है कि तब भी मिथि‍ला के लोग बाहर भी काफी संखया में फैले हुए थे । प्रकाशनों की अपेक्षा थी कि बाहर रहने के बावजूद अपनी माटी और बोली से एक समर्पण का भाव उनमें मौजूद होगा । इसी भावनात्‍मक लगाव की अभिव्‍यक्‍त‍ि 1920 में मथुरा से प्रकाशि‍त मिथि‍ला प्रभा में हुई, जिसे रामचंद्र मिश्र जैत ने निकाला । अक्‍तूबर 1929 में अजमेर से मैथि‍ल प्रभाकर का प्रकाशन शुरू हुआ । इन पत्रों का उद्देश्‍य समाज हित मे आवश्‍यक सूचनाओं का आदान-प्रदान करने के साथ मैथि‍ल समाज को अपनी जड़ों से जोड़े रखना था । पर मैथि‍ल लोगों के सरंक्षण के अभाव और उदासीनता ने दोनों पत्रों को असमय बंद होने पर मजबूर किया । मिथि‍ला-प्रभा अगस्‍त 1920 से दिसंबर 1924 तक चली और मैथि‍ल प्रभाकर अक्‍तूबर 1929 से दिसंबर 1930 तक । उत्‍साहजनक पाठकीय संरक्षण के अभाव के बावजूद तत्‍कालीन मैथि‍ल पत्रकारों ने हार नहीं मानी, बल्‍कि‍ उन्‍हें इस दिशा में और कोशि‍श करने के लिए प्रेरित ही किया । पर मैथि‍ली पत्रकारिता को अपेक्षाकृत समृद्ध और समर्थ मैथि‍ल समाज का वह स्‍नेह कभी नहीं मिला, जो अपेक्षि‍त था । बहुत साहस और स्‍वत: स्फूर्त प्रेरणा से मिथि‍ला के दो विद्वानों उदित नारायण लाल राय और नंदकिशोर लाल दास ने 1925 में श्री मैथि‍ली का प्रकाशन शुरू किया । उन्‍होंने तत्‍कालीन समय के हिसाब से लोकप्रिय शैली में पत्रि‍का निकाली और एक पेशेवर रंग-रूप देते हुए पूर्व के विपरीत गैर-साहित्‍यि‍क आलेख भी शामिल किए । पर पत्रि‍का केवल दो साल ही चल पाई । यह दौर ऐसा था जिसमें मैथि‍ली पत्रों के संपादक संभवत: यह तय नहीं कर पा रहे थे कि पत्रों का स्‍वरूप साहित्‍यि‍क रखा जाए या गैर साहित्‍यि‍क ? दोनों तरह की पत्रि‍काऍं पहले निकाली जा चुकी थीं और विफल रही थी । बावजूद इसके 1929 में पंडित कामेश्‍वर कुमार और भोला लाल दास ने 1924 में मिथि‍ला नाम की साहित्‍यि‍क पत्र‍िका का प्रकाशन शुरू किया और इसके शि‍ल्‍प में सामाजिक-सांस्‍कृतिक विषय भी शामिल किए । इसका प्रकाशन लहेरिया सराय, दरभंगा विद्यापति प्रेस से शुरू हुआ । इसके संपादकों ने अवैतनिक काम किया और मिथि‍ला ऐसा पत्र बना, जिसने समाज-सुधार को लक्ष्‍य कर कार्टून का प्रकाशन शुरू किया, पर सामाजिक- सांस्‍कृतिक और साहित्‍य‍िक स्‍वरूपवाली पत्रि‍का भी पाठकीय रुचि परिवर्तन करने में विफल रही और 1931 में इसे बंद कर देना पड़ा । 
    बनैली के राजा कुमार कृष्‍णानंद सिंह ने अपने सद्प्रयास से मैथि‍लीं पत्रों को उबारने की एक कोशि‍श की । 1931 में उनके संरक्षण में मिथि‍ला मित्र का प्रकाशन शुरू हुआ, पर इसे उसी साल बंद करना पड़ा । कृष्‍णानंद सिंह ने हिंदी पत्रकारिता को संरक्षण देने में अच्‍छी भुमिका निभाई थी और विशेषांक निकालने के प्रति वे काफी गंभीर रहते थे । इसलिए उनके संरक्षण में निकली हिंदी पत्रि‍का गंगा का पुरातत्‍वांक विशेषांक हो या इस नई-नई मैथि‍ली पत्र‍िका का ‘जानकी-नवमी विशेषांक’, आज तक समृद्ध विरासत के रूप में संरक्षि‍त है । मिथि‍ला-मित्र को प्रकाशन के वर्ष 1931 में ही बंद करना पड़ा, पर पाठकों को यह एक संग्रहणीय विशेषांक दे गया । एक और महत्‍वपूर्ण कोशि‍श हुई बिहार के बाहर से । अजमेर से पंडित रधुनाथ 
    प्रसाद मिश्र ‘पुरोहित’ ने मैथि‍ली बंधु की शुरूआत की । पंडित मिश्र ने इस पत्रि‍का का शि‍ल्‍प तय करने में पर्याप्‍त सावधानी बरती । इसके शि‍ल्‍प से ऐसा लगता है कि विफल रहे मैथि‍ल पत्रों का उन्‍होंने व्‍यापक अध्‍ययन किया और अपने हिसाब से कमियों को पूरा करने की कोशि‍श की । पत्रि‍का का फलक व्‍यापक कर इसके शि‍ल्‍प में समाज और संस्‍कृति‍ के अलावा साहित्‍य विषय तो रखे ही गए, इतिहास को भी इसमें शामिल करके पत्रि‍का को अनुसंधान की दृष्‍ट‍ि से महत्‍वपूर्ण बनाया गया । इस पत्रि‍का की स्‍वीकार्यता पहे के मुकाबले बढ़ी, जिससे इस बात को बल मिलता है कि गंभीर और अनुसंधानात्‍मक सामग्री में मैथि‍ली पाठकों ने अपेक्षाकृत ज्‍यादा रूचि ली । इसलिए पहले चरण में यह चार वर्ष (1939-1943) तक आबाध चली । बीच में इसका प्रकाशन दो वर्षों के लिए स्‍थगित करना पड़ा । 1945 में इसका प्रकाशन पुन: शुरू हुआ और दस वर्षों तक देशव्‍यापी मैथि‍ल समाज का प्रि‍य पत्र बना रहा । 
    दुसरी ओर बिहार में मैथि‍ल पत्रों को लेकर कोशि‍श जारी रही । भुवनेश्‍वर सिंह भुवन ने 1937 में मुजफ्फरपुर से विभूति का प्रकाशन शुरू किया, जो महज एक साल चला । भोला दास ने 1937 में ही दरभंगा से भारती मासिक का प्रकाशन शुरू किया, जो कुछ ही समय चल पाया । 1938 में अजमेर से मैथि‍ली युवक का प्रकाशन शुरू हुआ, जो 1941 तक चला । आगरा से ब्रज मोहन झा ने जीवनप्रभा 1946 में शुरू की, जो 1950 तक चली । एक क्षणि‍क परिवर्तन पत्रि‍काओं के नामकरण में देखने में आया । पहले मैथि‍ल पहचान के लिए ‘मैथि‍ल’ या ‘मिथि‍ला’ शब्‍द पत्रि‍काओं के नाम के लिए आवश्‍यक समझे जाते थे । उस मिथक को इधर के प्रकाशनों ने विभूति और भारती निकालकर तोड़ने की कोशि‍श की । 
    पटना में भी मैथि‍ली पत्रों को लेकर गतिविधि‍याँ बंद नहीं हुई थी । बाबू दुर्गापति सिंह ने संस्‍थापक-संपादक और लक्ष्‍मीपित सिंह ने बतौर प्रबंध-निदेशक के एक सुप्रबंधि‍त माहौल में मिथि‍ला-ज्‍योति का प्रकाशन शुरू किया, पर 1948 में शुरू हुई इस पत्रि‍का को सुप्रबंधन भी 1950 से आगे तक नहीं ले जा पाया । 
    पंडित रामलाल झा ने 1937 में मैथि‍ली साहित्‍य पत्रि‍का की शुरूआत की । इस पत्रि‍का ने साहित्‍य समालोचना के क्षेत्र में एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्‍तुत किया । यह पत्रि‍का भी महज दो साल चल पाई । 
    दरभंगा से प्रकाशि‍त मासिक वैदेही, कोलकाता से प्रकाशि‍त मासिक मिथि‍ला दर्शन, इलाहाबाद से प्रकाशि‍त मैथि‍ली बाल पत्रि‍का बटुक और मैथि‍ल समाचार पांडू, असम से प्रकाशि‍त संपर्क सुत्र और कानपुर से प्रकाशित मासिक मिथि‍ला दूत मैथि‍ली पत्रकारिता की अपवाद रहीं, जिन्‍होंने दो-तीन दशकों तक अपनी उपस्‍थि‍ती बनाए रखी । इनमें वैदैही का संपादन कृष्‍णकांत, अमर आदि ने ;किया । मिथि‍ला दर्शन के संपादन का दायि‍त्‍व डॉ.प्रबोध नारायण सिन्‍हा और डॉ. नचिकेता पर था । इसके अलावा ऐसे मैथि‍ली पत्रों की संख्‍या दर्जनाधिक थीं, जिन्‍होंने जितना हो सका, अपने पत्रकारिता दायित्‍व का निर्वाह किया । मैथि‍ली पत्राकारिता का इतिहास कम से कम –से-कम इनके उल्‍लेख की तो माँग करता है । इनमें दरभंगा से प्रकाशि‍त और सुरेन्‍द्र झा द्वारा संपादित स्‍वदेश 1948, निर्माण (साप्‍ताहिक) और इजोता (मासिक संपादन सुमन और शेखर) स्‍वेदश दैनिक (संपादक-सुमन), दरभंगा से ही प्रकाशि‍त साप्‍ताहिक जनक (संपादन –भोलानाथ मिश्र), यहीं से प्रकाशि‍त मासिक पल्‍लव (संपादक –गौरीनंदन सिंह), कोलकाता से प्रकाशि‍त साप्‍ताहिक सेवक ( संपादक –शुंभकात झा और हरिश्‍चंद्र मिश्र ‘मिथि‍लेंदू’), दरभंगा से प्रकाशि‍त त्रैमासिक परिषद पत्रि‍का (संपादक – सुमन और अमर), मासिक बाल पत्रि‍का धीया-पुता (संपादन-धीरेन्‍द्र), मासिक मैथिली परिजात (संपादक – रामनाथ मिश्र ‘मिहिर’), कोलकाता से प्रकाशि‍त त्रैमासिक कविता संकलन मैथि‍ली कविता ( संपादक – नचिकेता), मासिक (संपादक –कृति नारायण मिश्र और वीरेन्‍द्र मलिक ), दरभंगा से प्रकाशि‍त साप्‍ताहिक मिथि‍ला वाणी (संपादक –योगेन्‍द्र झा), गाजियाबाद से प्रकाशि‍त मैथि‍ली हिंदी द्व‍िभाषी पत्रिका प्रवासी मैथि‍ली ( संपादक –चिरंजी लाल झा) शामिल है । एक साहित्‍य‍िक डाइजेस्‍ट सोना माटी का प्रकाशन पटना से 1969 में शुरू किया गया । बिहार गजट ने मैथि‍ली पत्रों की असफलता का मुख्‍य कारण पाठकों का अभाव तो बताया ही है, साथ ही इस विरोधाभास पर आशर्च्य व्‍यक्‍त किया है कि उत्‍तरी बिहार और नेपाल की तराई की मैथि‍ली बहुल आबादी क्रय शक्‍त‍िसंपन्‍न शिक्षि‍त मैथि‍ल परिवारों के औधोगिक नगरों, मसलन राँची, धनबाद, जमशेदपुर, राउरकेल, मुंबई, वाराणसी और इलाहाबाद में अच्‍छी उपस्‍थि‍ति के बावजूद किसी मैथि‍ली पत्रि‍का ने स्‍थायित्‍व ग्रहण नहीं किया । दरअसल, मिथिला मिहिर के बंद होने के बाद नयी पीढी मैथिली में अखबार का पन्‍ना कैसा होता है, वो भूल चुकी थी । कोलकाता से प्रकाशि‍त मिथि‍ला समाद ने इस कमी को भरा और लोगों को फिर से मैथि‍ली में समाचार पढने का सुख मिला । फिर सौभाग्‍य मिथि‍ला आया जिसने पहली बार टेलिविजन मैथि‍ली समाचार से लोगों को अवगत किया । फिर मिथि‍ला आवाज का दौर आया । मिथि‍ला में हर्ष ध्वनी हुई । लोगों को पहली बार रंगीन मैथि‍ली अखबार पढ़ने का सुख मिला । लेकिन इसे मैथि‍लों की फूटी किस्‍मत ही कही जाय की अपने आरंभ से मात्र दूसरे वर्ष में इसने दम तोड़ दिया । मैथि‍ली पत्रकारिता का ये अंत था । लोगो को अब कागज पर मैथि‍ली अखबार पढ़ना सपने जैसा हो गया है । हलाँकि वेब मीडिया इसमें कुछ हद तक सफल हो पायी है लेकिन कागज पर अखबार पढ़ने का सुख तीन करोड़ मैथि‍लों को कब तक मिलेगा ये कहना मुश्‍कि‍ल है । 
    मैथिली मे वेब पत्रकारिता 
    भारत के लगभग समस्त भाषा मे अखबार, पत्रिका के संग संग उसका ऑनलाइन वर्जन भी बाहर आया है । लेकिन मैथिली में वेब पत्रकारिता अभी भी शैशवाकाल में है । मैथिली में दैनिक पत्र के साथ साथ वेब पत्रिका कि‍ वर्तमान स्थिति अति दयनीय एवं चिन्तनीय है । अखबारी रिपोर्ट के अनुसार विश्वमे लगभग तीन करोड़ मैथिली भाषी है । स्वभाविक रुप से इसके पाठक वर्ग की संख्या अधिक होगी । लेकिन स्थिति दुखद है ! विपुल साहित्य भंडार से हम सब गौरवान्वित होते है । प्रतिभाशाली युवा मैथिल हरेक सेक्टर मे अपनी प्रतिभा का लॊहा मना रहा है । उसके बाद भी सूचना प्रौद्योगिकी के इस युगमे मैथिली मे अखबारी प्रकाशन की समस्या यथावत बनी हुई है । पत्र पत्रिका की कमी हमेशा खटक रही है । मि‍थि‍ला समाद और मिथि‍ला आवाज का ऑनलाइन संस्करण का स्थायी स्थगन भी मैथिली वेब पत्रकारिता के इतिहास में बहुत बड़ी छति थी ।
    इसमें कोई दो राय नहीं है कि मैथि‍ली में साहित्‍यि‍क पत्र पत्रि‍का की भरमार रही है । लेकिन ऑनलाइन पत्रकारिता के क्षेत्र में हम अन्‍य भाषाओं की अपेक्षा काफी पीछे छुट गए है । वेब पत्रकारिता की स्थिति और उपस्थिति ना के ही बराबर है । कुछ जोशि‍लो युवा है जो अपनी तकनीनकी और पत्रकारिय ज्ञान को लेकर इंटरनेट पर सक्रि‍य है । मिथि‍ला से लेकर कोलकाता और दिल्‍ली मुंबई के मैथि‍ल इस कार्य मे लगे हैं । मिथिला मैथिली से संबंधित समस्त राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आर्थिक मुद्दों की बात इन्टरनेट पर ब्लॉगिंग के माध्यम से सामने ला रहे हैं । इतना ही नहि, किछु मिथिला-मैथिली प्रेमी मैथिलीमे न्यूज पॊर्टल भी चला रहे हैं । ऐसे न्यूज पोर्टलों में ई-समाद, मिथिमीडिया, प्राईम न्यूज, मिथि‍ला जिंदाबाद, मिथिला मिरर,ऑनलाईन मिथि‍ला और नव मिथिला कुछ उल्लेखनीय नाम है ।
    प्रारंभिक मैथिल ब्लॉगर ई-समाद, मिथिमीडिया, मिथिला मिरर, मिथिला प्राइम, नव मिथिला आदि मैथिली न्यूज पोर्टलों की गतिविधि, इसके उद्देश्य और उपलब्धी की विवेचना के उपरान्त ये बात स्पष्ट है कि इन्टरनेट पर मिथिला में वेब आधारित पत्रकारिता का उज्जवल भविष्य आने वाला है । जिस तरह से युवा वर्ग मैथि‍ली ब्‍लॉगिंग की और आकर्षीत हो रहे हैं इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाला समय मैथि‍ली वेब पत्रकारिता का स्‍वर्णि‍म युग लाएगा ।
    ↧
    Search

    टेलीविजन पत्रकारिता के विविध आयाम

    March 17, 2017, 5:28 am
    ≫ Next: पत्रकारिता के विभिन्न पहलू
    ≪ Previous: मैथि‍ली पत्रकारिता का इतिहास
    $
    0
    0





    प्रस्तुति-  स्वामी शरण / ,कृति शऱण/ सृष्टि शरण

    विजुअल मीडिया: गुणवत्‍ता से समझौता कभी न करें

    14 days agoटेलीविज़न पत्रकारिता0
    visual media
    मनोरंजन भारती | मैनें उन गिने चुने लोगों में से जिसने अपने कैरियर की शुरूआत टीवी से की। हां, आईआईएससी में पढ़ने के दौरान कई अखबारों के लिए फ्री लांसिंग जरूर की। लेकिन संस्‍थान से निकलते ही विनोद दुआ के परख कार्यक्रम में नौकरी मिल गई। यह कार्यक्रम दूरदर्शन पर ...
    Read More »

    मैं मुख्य समाचारों को कैसे पेश करूं- हेडलाइंस

    16 days agoटेलीविज़न पत्रकारिता1
    headlines
    आलोक वर्मा |  लीड लिखना: लीड की हिंदी मत बनाइए, इसे लीड कहकर ही समझिए क्योंकि इसी शब्द का हर जगह इस्तेमाल होता है। लीड लिखने का मतलब है स्टोरी को शुरू करना…आप कैसे शुरू करें!! कई कापी एडीटर्स का ये मानना है कि अगर आपकी स्टोरी शूरू में ही धड़ाम ...
    Read More »

    कैसे नाम पड़ा ‘आज तक’?

    16 days agoटेलीविज़न पत्रकारिता3
    aajtak-FB-logo_ver2
    क़मर वहीद नक़वी | ‘आज तक’ का नाम कैसे पड़ा ‘आज तक?’ बड़ी दिलचस्प कहानी है. बात मई 1995 की है. उन दिनों मैं ‘नवभारत टाइम्स,’ जयपुर का उप-स्थानीय सम्पादक था. पदनाम ज़रूर उप-स्थानीय सम्पादक था, लेकिन 1993 के आख़िर से मैं सम्पादक के तौर पर ही अख़बार का काम ...
    Read More »

    महान अभिनेता ओमपुरी के जीवन को याद करते हुए….

    January 10, 2017Uncategorized, टेलीविज़न पत्रकारिता0
    _a0fa4d7e-d3d7-11e6-a877-a82e4b02bda2
    फिल्म देखने और समझने के अपने अनुभवों के बीच जब हम ठहर कर अपने आप से पूछते है कि कोई कलाकार, कोई किरदार हमारे लिए महत्वपूर्ण क्यों है या कि उस कलाकार की संपूर्ण कला-यात्रा को कैसे समझा जाए? तो महसूस करते है कि पर्दे पर किसी किरदार, कलाकार की ...
    Read More »

    टेलीविज़न जर्नलिज्म: नए दौर में स्क्रिप्टिंग और पैकेजिंग की चुनौतियां

    April 4, 2016टेलीविज़न पत्रकारिता0
    news-room
    अतुल सिन्हा | टेलीविज़न में स्क्रिप्टिंग को लेकर हमेशा से ही एक असमंजस की स्थिति रही है। अच्छी स्क्रिप्टिंग कैसे हो, कौन सी ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाए जो दर्शकों को पसंद आए और भाषा के मानकों पर कैसी स्क्रिप्ट खरी उतरे, इसे लेकर उलझन बरकरार है। हम लंबे ...
    Read More »

    समाचार संग्रह: खबरें खोज निकालने की समस्या, पर लाएं कहां से?

    March 29, 2016टेलीविज़न पत्रकारिता0
    news collection
    शैलेश एवं ब्रजमोहन | रिपोर्टर के लिए जरूरी नहीं है कि वो खबर में हमेशा अपने सूत्र के नाम का खुलासा करे। रिपोर्टर को अपने सूत्र के बारे में दूसरों को कभी जानकारी नही देनी चाहिए। जरूरी हो, तो रिपोर्टर को अपने सूत्र का नाम छिपाना चाहिए। खासकर तब जब ...
    Read More »

    डेडलाइन को ध्यान में रखकर लिखना

    February 1, 2016टेलीविज़न पत्रकारिता0
    deadline
    आलोक वर्मा | काम के साथ-साथ ही लिखते जाइए जब डेडलाइन सर पर हो तो टुकड़ो में लिखना सीखिए। जैसे-जैसे काम होता जाए आप स्टोरी लिखते जाएं। मान लीजिए कि आपने किसी से फोन पर अपनी स्टोरी के सिलसिले में कुछ पूछा है और दूसरी तरफ से थोड़ा समय लिया ...
    Read More »

    टीवी रिपोर्टिंग सबसे तेज, लेकिन कठिन और चुनौती भरा काम

    January 12, 2016टेलीविज़न पत्रकारिता0
    CNN News room
    शैलेश और डॉ. ब्रजमोहन | पत्रकारिता में टीवी रिपोर्टिंग आज सबसे तेज, लेकिन कठिन और चुनौती भरा काम है। अखबार या संचार के दूसरे माध्‍यमों की तरह टीवी रिपोर्टिंग आसान नहीं। टेलीविजन के रिपोर्टर को अपनी एक रिपोर्ट फाइल करने के लिए लम्‍बी मशक्‍कत करनी पड़ती है। रिपोर्टिंग के लिए ...
    Read More »

    स्टिंग ऑपरेशन के लिए खुफिया कैमरे का चुनाव

    January 2, 2016टेलीविज़न पत्रकारिता0
    spy-camera
    डॉ. सचिन बत्रा | आज के दौर में किसी भी अनियमितता, गैरकानूनी काम, भ्रष्टाचार या षड़यंत्र को उजागर करने के लिए सुबूतों की ज़रूरत होती है। हमारे देश में मीडिया इसी प्रकार सुबूतों को जुटाने के लिए स्टिंग ऑपरेशन करता है और स्पाय यानी खुफिया कैमरों का इस्तेमाल कर गलत ...
    Read More »

    टेलीविज़न जर्नलिज्म: रिपोर्टिंग के प्रकार

    December 30, 2015टेलीविज़न पत्रकारिता2
    tv-journalism
    शैलेश और डॉ. ब्रजमोहन | टेलीविजन पर दर्शकों को सभी खबरें एक समान ही दिखती हैं, लेकिन रिपोर्टर के लिए ये अलग मायने रखती है। एक रिपोर्टर हर खबर को कवर नहीं करता। न्‍यूज कवर करने के लिए रिपोर्टर के क्षेत्र (विभाग) जिसे तकनीकी भाषा में ‘बीट’ कहा जाता है, ...
    Read More »

    टेलीविज़न जर्नलिज्म: रिपोर्टिंग के प्रकार

    December 15, 2015टेलीविज़न पत्रकारिता0
    tv-report
    शैलेश और डॉ. ब्रजमोहन। टेलीविजन पर दर्शकों को सभी खबरें एक समान ही दिखती हैं, लेकिन रिपोर्टर के लिए ये अलग मायने रखती है। एक रिपोर्टर हर खबर को कवर नहीं करता। न्‍यूज कवर करने के लिए रिपोर्टर के क्षेत्र (विभाग) जिसे तकनीकी भाषा में ‘बीट’ कहा जाता है, बंटे ...
    Read More »

    टीवी जर्नलिज्म : जरूरत से ज्यादा तथ्य या सूचनाएं मत भरिए

    December 14, 2015टेलीविज़न पत्रकारिता0
    tv_programming
    आलोक वर्मा। एक अच्छी स्क्रिप्ट वही है जो तस्वीरों के साथ तालमेल बनाकर रखे। आपको ये बात तो पता ही होगी कि मानव मस्तिष्क का दांया हिस्सा तस्वीरों को रचता और गढ़ता है जबकि मस्तिष्क का बायां हिस्सा भाषा को संभालता है- दोनों मस्तिष्कों का सही संतुलन कायम रहना एक ...समाचार लेखन : कौन, क्या, कब, कहां, क्यों और कैसे?
    • March 13, 2017
    • साक्षात्कार लेना भी एक कला है…

      साक्षात्कार लेना भी एक कला है…

      March 13, 2017
    • समाचार, सिद्धांत और अवधारणा: समाचार क्‍या है?

      समाचार, सिद्धांत और अवधारणा: समाचार क्‍या है?

      March 13, 2017
    • चुनाव-सर्वेक्षणों की होड़ में पिचकती पत्रकारिता

      चुनाव-सर्वेक्षणों की होड़ में पिचकती पत्रकारिता

      March 13, 2017
    • दुनिया एक, स्वर अनेक : संचार और समाज, ऐतिहासिक आयाम

      दुनिया एक, स्वर अनेक : संचार और समाज, ऐतिहासिक आयाम

      March 13, 2017

    Find us on Facebook

    ↧
    ↧

    पत्रकारिता के विभिन्न पहलू

    March 17, 2017, 5:38 am
    ≫ Next: सोशल मीडिया बनाम न्यू मीडिया के मायने
    ≪ Previous: टेलीविजन पत्रकारिता के विविध आयाम
    $
    0
    0



     

     

    संचार, समाचार लेखन, संपादन, विज्ञापन, टेलीविजन, रेडियो, फीचर व ब्रांड प्रबंधन


    संचार

    प्रस्तुति-  स्वामी शरण 
    संचार एक तकनीकी शब्द है जो अंग्रेजी के कम्यूनिकेशन का हिन्दी रूपांतरण है। इसका अर्थ होता है, किसी सूचना या जानकारी को दूसरों तक पहुंचाना। इसके माध्यम से मनुष्य के सामाजिक संबंध बनते और विकसित होते हैं। मानवीय समाज की समस्त प्रक्रिया संचार पर आधारित है। इसके बिना मानव नहीं रह सकता। प्रत्येक मनुष्य अपनी जाग्रतावस्था में संचार करता है अर्थात बोलने सुनने सोचने देखने पढ़ने लिखने या विचार विमर्श में अपना समय लगाता है। जब मनुष्य अपने हाव भाव संकेतों और वाणी के माध्यम से सूचनाओं का आदान प्रदान करता है तो वह संचार कहलाता है।

    संचार की परिभाषा

    · संकेतों द्वारा होने वाला संप्रेषण संचार है – लुडबर्ग
    · मनुष्य के कार्यक्षेत्र विचारों व भावनाओं के प्रसारण व आदान प्रदान की प्रक्रिया संचार है – लीलैंड ब्राउन
    · संचार एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को भेजे गये संदेश के संप्रेषण की प्रक्रिया है – डैनिस मैक कवैल
    · संचार समानुभूति का विनिमय है – कौफीन और शाँ
    · संचार वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सूचना व संदेश एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचे – थीयो हैमान

    संचार प्रक्रिया

    संचार प्रक्रिया में संदेश भेजने वाला प्रेषक कहलाता है और संदेश प्राप्त करने वाला प्राप्तकर्ता। दोनों के बीच एक माध्यम होता है जिसके सहयोग से प्रेषक का संदेश प्राप्तकर्ता के पास पहुंचता है। प्राप्तकर्ता के दिल दिमाग पर प्रभाव डालता है जिससे सामाजिक सरोकारों में बदलाव आता है। देश तथा विदेश में मनुष्य की दस्तकें बढ़ती है इसलिये संचार प्रक्रिया का पहला चरण प्रेषक होता है। इसे इनकोडिंग भी कहते है । इनकोडिंग के बाद विचार सार्थक संदेश के रूप में ढल जाता है। जब प्राप्तकर्ता अपने मस्तिक में उक्त संदेश को ढाल लेता है तो संचार की भाषा में डीकोडिंग कहतें हैं। डीकोडिंग के बाद प्राप्तकर्ता उस संदेश का अर्थ समझता है। वह अपनी प्रतिक्रिया प्रेषक को भेजता है। तो उस प्रक्रिया को फीडबैक कहतें हैं।

    संचार के कार्य

    संचार प्रक्रिया निम्नलिखित कार्यों को संपंन करती है –
    · सूचना या जानकारी देना ।
    · संचार से जुड़े व्यक्तियों को प्रेरित और प्रभावित करना।
    · संचार व्यक्तियों समाजों और देशों के बीच संबंध स्थापित करता है।
    · संचार विभिन्न तथ्यों विचारों मसलों पर व्यापक विचार विमर्श करने में सहायक होता है।
    · मनुष्यों का मनोरंजन करना संचार का एक महत्वपूर्ण कार्य है।
    · संचार राष्ट्र की आर्थिक व औद्योगिक उन्नति में सहायक होता है।

    संचार के प्रकार:

    अंत:व्यक्तिक संचार

    यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसकी परिधि में स्वंय व्यक्ति होता है। मनुष्य अपने अनुभवों घटनाओं व्यक्तियों प्रभावों एवं परिणामों का आकलन करता है। संदेश प्राप्त करने वाला और संदेश भेजने वाला स्वंय ही होता है। आत्मक विश्लेषण आत्मविवेचन आत्मप्रेरणा आदि इसी प्रकार के संचार कहलाते हैं। अर्थात दूसरे शब्दों में कह सकते है जब एक व्यक्ति अकेला अपने आप से बात करता है तो उसे स्वगत संचार कहा जाता है। क्योंकि वह स्वयं से ही संचार करता है।

    अंतरवैयक्तिक संचार

    जब व्यक्ति एक दूसरे बातचीत करता है तो उसे अंतरवैयक्तिक संचार कहते हैं। बातचीत सामने बैठकर टेलीफोन मोबाइल पेजर संगीत चित्र ड्रामा लोककला इत्यादि से हो सकती है। इस संचार प्रक्रिया में संदेशों का प्रेषण मौखिक भी हो सकता है और स्पर्श मुस्कुराहट आदि से भी। इसमें प्रतिपुष्टि तुरंत हो सकती है। संदेश प्रेषक और संदेश ग्राहक की निकटता इस प्रकार के संचार की सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है।
    अंतरवैयक्तिक संचार दुतरफा प्रक्रिया है अर्थात स्त्रोता संदेश प्राप्त करते ही प्रतिक्रया देता है। यह संचार प्रक्रिया गतिशील होता है।

    समूह संचार

    जब व्यक्तियों का समूह आमने सामने बैठकर विचार विमर्श, विचार गोष्ठी वाद विवाद कार्य शिविर सार्वजनिक व्याख्यान इंटरव्यू आदि करता है तो उसे समूह संचार कहते है। यह बहुत प्रभावशाली होता है। क्योंकि इसमें वक्ता को अपने अपने क्षेत्र में अभिव्यक्ति का अवसर मिलता है। स्कूल कॉलेज प्रशिक्षण केन्द्र चौपाल रंगमंच कमेटी हॉल जैसे प्रमुख स्थानों पर संचार गतिशील होता । दूसरे शब्दों में समूह संचार उन व्यक्तियों के बीच संभव है जो किसी उद्देश्य के लिये अमुख स्थान पर एकत्र होते हैं।

    जन संचार

    जनसंचार का अर्थ विस्तृत आकार के बिखरे हुये समूह तक संचार माध्यमों द्वारा संदेश पहुंचाना है। पर इस प्रकार के संचार में भी किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता होती है। रेडियो टेलीविजन टेपरिकार्डर फिल्म वीडियो कैसेट सीडी के अलावा समाचारपत्र पत्रिकायें पुस्तकें पोस्टर इत्यादि इसके माध्यम कहलाते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य बहुत विशाल है इसे किसी परिधि में रखना कठिन है। वर्तमान समाज में जनसंचार का कार्य सूचना प्रेषण विश्लेषण ज्ञान एवं मुल्यों का प्रसार तथा मनोरंजन करना है।

    प्रभावी समाचार लेखन के गुर

    मनुष्य एक सामाजिक और जिज्ञासु प्राणी है। वह जिस समूह, समाज या वातावरण में रहता है उस के बारे में और अधिक जानने को उत्सुक रहता है। अपने आसपास घट रही घटनाओं के बारे में जानकर उसे एक प्रकार के संतोष, आनंद और ज्ञान की प्राप्ति होती है, और कहीं न कहीं उसे उसकी इसी जिज्ञासा ने आज सृष्टि का सबसे विकसित प्राणी भी बनाया है। प्राचीन काल से ही उसने सूचनाओं को यहां से वहां पहुंचाने के लिए संदेशवाहकों, तोतों व घुड़सवारों की मदद लेने, सार्वजनिक स्थानों पर संदेश लिखने जैसे तमाम तरह के तरीकों, विधियों और माध्यमों को खोजा और विकसित किया। पत्र के जरिये समाचार प्राप्त करना भी एक पुराना माध्यम है जो लिपि और डाक व्यवस्था के विकसित होने के बाद अस्तित्व में आया, और आज भी प्रयोग किया जाता है। समाचार पत्र रेडियो टेलिविजन, मोबाइल फोन व इंटरनेट समाचार प्राप्ति के आधुनिकतम संचार माध्यम हैं, जो छपाई, रेडियो व टेलीविजन जैसी वैज्ञानिक खोजों के बाद अस्तित्व में आए हैं।

    समाचार की परिभाषा

    सामान्य मानव गतिविधियों से इतर जो कुछ भी नया और खास घटित होता है, समाचार कहलाता है। मेले, उत्सव, दुर्घटनाएं, विपदा, सरकारी बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सरकारी सुविधाओं का न मिलना सब समाचार हैं। विचार घटनाएं और समस्याओं से समाचार का आधार तैयार होता है। किसी भी घटना का अन्य लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव और इसके बारे में पैदा होने वाली सोच से समाचार की अवधारणा का विकास होता है। किसी भी घटना विचार और समस्या से जब काफी लोगों का सरोकार हो तो यह कह सकते हैं कि यह समाचार बनने योग्य है।
    समाचार किसी बात को लिखने या कहने का वह तरीका है जिसमें उस घटना, विचार, समस्या के सबसे अहम तथ्यों या पहलुओं तथा सूचनाओं और भविष्य में पड़ने वाले प्रभावों को व्यवस्थित तरीके से लिखा या बताया जाता है। इस शैली में किसी घटना का ब्यौरा कालानुक्रम के बजाये सबसे महत्वपूर्ण तथ्य या सूचना से शुरु होता है।

    कुछ परिभाषाएंः  

     किसी नई घटना की सूचना ही समाचार है: डॉ निशांत सिंह
    • किसी घटना की नई सूचना समाचार है: नवीन चंद्र पंत
    • वह सत्य घटना या विचार जिसे जानने की अधिकाधिक लोगों की रूचि हो: नंद किशोर त्रिखा
    • किसी घटना की असाधारणता की सूचना समाचार है: संजीव भनावत
    • ऐसी ताजी या हाल की घटना की सूचना जिसके संबंध में लोगों को जानकारी न हो: रामचंद्र वर्मा
    इसके अलावा भी समाचार को निम्न प्रकार से भी परिभाषित किया जाता हैः
    • जो हमारे चारों ओर घटित होता है, और हमें प्रभावित करता है, वह समाचार है।
    • जिस घटना को पत्रकार लाता व लिखता तथा संपादक समाचार पत्र में छापता या दिखाने योग्य समझ कर टीवी में प्रसारित करता है, वह समाचार है। (क्योंकि यदि वह छपा ही नहीं या टीवी पर दिखाया ही नहीं गया तो फिर समाचार कहां रहा।)
    • समाचार जल्दी में लिखा गया इतिहास है। कोई भी समाचार अगला समाचार आने पर इतिहास बन जाता है।
    • समाचार सत्य, विश्वसनीय तथा कल्याणकारी होना चाहिए। जो समाज में दुर्भावना फैलाता हो अथवा झूठा हो, समाचार नहीं हो सकता। सत्यता समाचार का बड़ा गुण है।
    • समाचार सूचना देने, शिक्षित करने और मनोरंजन करने वाला भी होना चाहिए।
    • समाचार रोचक होना चाहिए। उसे जानने की लोगों में इच्छा होनी चाहिए।
    • समाचार अपने पाठकों-श्रोताओं की छह ककार (5W & 1H, What, when, where, why, who and How) (क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ, क्यों हुआ किसके साथ हुआ और कैसे हुआ,)की जिज्ञासाओं का शमन करता हो तथा नए दौर की नई जरूरतों के अनुसार भविष्य के संदर्भ में एक नए सातवें ककार-आगे क्या (6th W-What next) के बारे में भी मार्गदर्शन करे।
    समाचार का सीधा अर्थ है-सूचना। मनुष्य के आस-पास और चारों दिशाओं में घटने वाली सूचना। समाचार को अंग्रेजी के न्यूज का हिन्दी समरुप माना जाता है। हालांकि ‘न्यूज’ (NEWS) शब्द इस तरह तो नहीं बना है, परंतु इत्तफाकन ही सही इसका अर्थ और प्रमुख कार्य चारों दिशाओं अर्थात नॉर्थ, ईस्ट, वेस्ट और साउथ की सूचना देना भी है।

    समाचार को बड़ा या छोटा बनाने वाले तत्वः

    अक्सर हम समाचारों के छोटा या बढ़ा छपने पर चर्चा करते हैं। अक्सर हमें लगता है कि हमारा समाचार छपना ही चाहिए, और वह भी बड़े आकार में। साथ ही यह भी लगता है कि खासकर हमारी अरुचि के समाचार बेकार ही आवश्यकता से बड़े आकारों या बड़ी हेडलाइन में छपे होते हैं।
    आइए जानते हैं क्या है समाचारों के बड़ा या छोटा छपने का आधार। इससे पूर्व मेरी 1995 के दौर में लिखी एक कुमाउनी कविता ‘चिनांण’ यानी चिन्ह देखेंः
    आजा्क अखबारों में छन खबर
    आतंकवाद, हत्या, अपहरण,
    चोर-मार, लूट-पाट, बलात्कार
    ठुल हर्फन में
    अर ना्न हर्फन में
    सतसंग, भलाइ, परोपकार।
    य छु पछ्यांण
    आइ न है रय धुप्प अन्यार
    य न्है, सब तिर बची जांणौ्क निसांण
    य छु-आ्जि मस्त
    बचियक चिनांड़।
    किलैकि ठुल हर्फन में
    छपनीं समाचार
    अर ना्न हर्फन में-लोकाचार।
    य ठीक छु बात
    समाचार बणनईं लोकाचार
    अर लोकाचार-समाचार।
    जसी जाग्श्यरा्क जागनाथज्यूक
    हातक द्यू
    ऊंणौ तलि हुं।
    संचि छु हो,
    उरी रौ द्यो,
    पर आ्इ लै छु बखत।
    जदिन समाचार है जा्ल पुर्रै लोकाचार
    और लोकाचार छपा्ल ठुल हर्फन में
    भगबान करों
    झन आवो उ दिन कब्भै। 

    हिन्दी भावानुवाद 

    आज के अखबारों में हैं खबर
    आतंकवाद, हत्या, अपहरण
    चोरी, डकैती व बलात्कार की
    मोटी हेडलाइनों में
    और छोटी खबरें
    सतसंग, भलाई व परोपकार की।
    यह पहचान है
    अभी नहीं घिरा है धुप्प अंधेरा।
    यह नहीं है पहचान, सब कुछ खत्म हो जाने की
    यह है अभी बहुत कुछ
    बचे होने के चिन्ह।
    क्योंकि मोटी हेडलाइनों में छपते हैं समाचार
    और छोटी खबरों में लोकाचार।
    हां यह ठीक है कि
    समाचार बन रहे लोकाचार
    जैसे जागेश्वर में जागनाथ जी की मूर्ति के हाथों का दीपक
    आ रहा है नींचे की ओर।
    सच है,
    आने वाली है जोरों की बारिश प्रलय की
    पर अभी भी समय है
    जब समाचार पूरी तरह बन जाऐंगे लोकाचार,
    और लोकाचार छपेंगे मोटी हेडलाइनों में।
    ईश्वर करें
    ऐसा दिन कभी न आऐ।
    यानी उस दौर में समाचारों के कम ज्ञान के बावजूद कहा गया है कि समाचार यानी कुछ अलग होने वाली गतिविधियां बड़े आकार में सामान्य गतिविधियां लोकाचार के रूप में छोटे आकार में छपती हैं। इसके अलावा भी निम्न तत्व हैं जो किसी समाचार को छोटा या बड़ा बनाते हैं। इसमें इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता है कि उस समाचार में शब्द कितने भी सीमित क्यों ना हों। प्रथम पेज पर कुछ लाइनों की खबर भी बड़ी खबर कही जाती है। वहीं एक या डेड़-दो कालम की खबर भी ‘बड़ी’ होने पर पूरे बैनर यानी सात-आठ कालम में भी पूरी चौड़ी हेडिंग तथा महत्वपूर्ण बिंदुआंे की सब हेडिंग या क्रासरों के साथ लगाई जा सकती है।
    1. प्रभाव-समाचार जितने अधिक लोगों से संबंधित होगा या उन्हें प्रभावित करेगा, उतना ही बड़ा होगा। किसी दुर्घटना में हताहतों की संख्या जितनी अधिक होगी, अथवा किसी दल, संस्था या समूह में जितने अधिक लोग होंगे, उससे संबंधित उतना ही बड़ा समाचार बनेगा।
    2. निकटता-समाचार जितना निकट से संबंधित होगा, उतना बड़ा होगा। दूर दुनिया की किसी बड़ी दुर्घटना से निकटवर्ती स्थान की छोटी घटना को भी अधिक स्थान मिल सकता है।
    3. विशिष्ट व्यक्ति (VIP)-जिस व्यक्ति से संबंधित खबर है, वह जितना विशिष्ट, जितना प्रभावी व प्रसिद्ध होगा, उससे संबंधित खबर उतनी ही बड़ी होगी। अलबत्ता, कई बार वास्तविक समाचार उस वीआईपी व्यक्ति के व्यक्तित्व में दब कर रह जाती है।
    4. तात्कालिकता-कोई ताजा घटना बड़े आकार में छपती है, लेकिन उससे भी कुछ बड़ा न हो तो आगे उसके फॉलो-अप छोटे छपते हैं। इसी प्रकार समाचार पत्र छपते के दौरान आखिर समय में प्राप्त होने वाली महत्वपूर्ण खबरें, पहले से प्राप्त कम महत्वपूर्ण खबरों को हटाकर भी बड़ी छापी जाती हैं। पत्रिकाओं में भी छपने के दौरान सबसे लेटेस्ट महत्वपूर्ण समाचार बड़े आकार में छापा जाता है।
    5. एक्सक्लूसिव होना-यदि कोई समाचार केवल किसी एक समाचार पत्र के पास ही हो, तो वह उसे बड़े आकार में प्रकाशित करता है। लेकिन वही समाचार यदि सभी समाचार पत्रों में होने पर छोटे आकार में प्रकाशित होता है।

    समाचार के मूल्य

    समाचार को बड़ा या छोटा यानी कम या अधिक महत्व का बनाने के लिए निम्न तत्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, इन्हें समाचार का मूल्य कहा जाता है।
    1 व्यापकता: समाचार का विषय जितनी व्यापकता लिये होगा, उतने ही अधिक लोग उस समाचार में रुचि लेंगे, इसलिए वह बड़े आकार में छपेगा।
    2 नवीनता:जिन बातों को मनुष्य पहले से जानता है वे बातें समाचार नही बनती। ऐसी बातें समाचार बनती है जिनमें कोई नई सूचना, कोई नई जानकारी हो। इस प्रकार समाचार का बड़ा गुण है-नई सूचना, यानी समाचार में नवीनता होनी चाहिये। कोई समाचार कितना नया या तत्काल प्राप्त हुआ हो, उसे जानने की उतनी ही अधिक चाहत होती है। कोई भी पुरानी या पहले से पता जानकारी को दुबारा नहीं लेना चाहता। समाचार पत्रों के मामले में एक दिन पुराने समाचार को ‘रद्दी’ कहा जाता है, और उसका कोई मोल नहीं होता। वहीं टीवी के मामले में एक सेकेंड पहले प्राप्त समाचार अगले सेकेंड में ही बासी हो जाता है। कहा जाने लगा है-News this second and History on next second.
    3 असाधारणता:हर समाचार एक नई सूचना होता है, परंतु यह भी सच है कि हर नई सूचना समाचार नही होती। जिस नई सूचना में कुछ असाधारणता होगी वही समाचार कहलायेगी। अर्थात नई सूचना में कुछ ऐसी असाधारणता होनी चाहिये जो उसमें समाचार बनने की अंतरनिहित शक्ति पैदा होती है। काटना कुत्ते का स्वभाव है। यह सभी जानते हैं। मगर किसी मनुष्य द्वारा कुत्ते को काटा जाना समाचार है। क्योंकि कुत्ते को काटना मनुष्य का स्वभाव नही है। जिस नई सूचना में असाधारणता नहीं होती वह समाचार नहीं लोकाचार कहलाता है।
    4 सत्यता और प्रमाणिकता: समाचार में किसी घटना की सत्यता या तथ्यात्मकता होनी चाहिये। समाचार अफवाहों या उड़ी-उड़ायी बातों पर आधारित नही होते हैं। वे सत्य घटनाओं की तथ्यात्मक जानकारी होते हैं। सत्यता या तथ्यता होने से ही कोई समाचार विश्वसनीय और प्रमाणिक होते हैं।
    5 रुचिपूर्णता: किसी नई सूचना में सत्यता होने से ही वह समाचार नहीं बन जाती है। उसमें अधिक लोगों की दिलचस्पी भी होनी चाहिये। कोई सूचना कितनी ही आसाधारण क्यों न हो अगर उसमें लोगों की रुचि न हो, तो वह सूचना समाचार नहीं बन पायेगी। कुत्ते द्वारा किसी सामान्य व्यक्ति को काटे जाने की सूचना समाचार नहीं बन पायेगी। कुत्ते द्वारा काटे गये व्यक्ति को होने वाले गंभीर बीमारी की सूचना समाचार बन जायेगी क्योंकि उस महत्वपूर्ण व्यक्ति में अधिकाधिक लोगों की दिलचस्पी हो सकती है।
    6 प्रभावशीलता: समाचार दिलचस्प ही नही प्रभावशील भी होने चाहिये। हर सूचना व्यक्तियों के किसी न किसी बड़े समूह, बड़े वर्ग से सीधे या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़ी होती है। अगर किसी घटना की सूचना समाज के किसी समूह या वर्ग को प्रभावित नही करती तो उस घटना की सूचना का उनके लिये कोई मतलब नही होगा।
    7 स्पष्टता: एक अच्छे समाचार की भाषा सरल, सहज और स्पष्ट होनी चाहिये। किसी समाचार में दी गयी सूचना कितनी ही नई, कितनी ही असाधारण, कितनी ही प्रभावशाली क्यों न हो, लेकिन अगर वह सूचना सरल और स्पष्ट भाषा में न हो तो वह सूचना बेकार साबित होगी। क्योंकि ज्यादातर लोग उसे समझ नहीं पायेंगे। इसलिये समाचार की भाषा सीधी और स्पष्ट होनी चाहिये।

    समाचार लेखन और संपादन

    परिचय:मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए वह एक जिज्ञासु प्राणी है। मनुष्य जिस समुह में, जिस समाज में और जिस वातावरण में रहता है वह उस बारे में जानने को उत्सुक रहता है। अपने आसपास घट रही घटनाओं के बारे में जानकर उसे एक प्रकार के संतोष, आनंद और ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसके लिये उसने प्राचीन काल से ही तमाम तरह के तरीकों, विधियों और माध्यमों को खोजा और विकसित किया। पत्र के जरिये समाचार प्राप्त करना इन माध्यमों में सर्वाधिक पुराना माध्यम है जो लिपि और डाक व्यवस्था के विकसित होने के बाद अस्तित्व में आया। पत्र के जरिये अपने प्रियजनों मित्रों और शुभाकांक्षियों को अपना समाचार देना और उनका समाचार पाना आज भी मनुष्य के लिये सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है। समाचारपत्र रेडियो टेलिविजन समाचार प्राप्ति के आधुनिकतम साधन हैं जो मुद्रण रेडियो टेलीविजन जैसी वैज्ञानिक खोज के बाद अस्तित्व में आये हैं।

    समाचार की परिभाषा

    लोग आमतौर पर अनेक काम मिलजुल कर ही करते हैं। सुख दुख की घड़ी में वे साथ होते हैं। मेलों और उत्सव में वे साथ होते हैं। दुर्घटनाओं और विपदाओं के समय वे साथ ही होते हैं। इन सबको हम घटनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर लोगों को अनेक छोटी बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांव कस्बे या शहर की कॉलोनी में बिजली पानी के न होने से लेकर बेरोजगारी और आर्थिक मंदी जैसी समस्याओं से उन्हें जूझना होता है। विचार घटनाएं और समस्यों से ही समाचार का आधार तैयार होता है। लोग अपने समय की घटनाओं रूझानों और प्रक्रियाओं पर सोचते हैं। उनपर विचार करते हैं और इन सबको लेकर कुछ करते हैं या कर सकते हैं। इस तरह की विचार मंथन प्रक्रिया के केन्द्र में इनके कारणों प्रभाव और परिणामों का संदर्भ भी रहता है। समाचार के रूप में इनका महत्व इन्हीं कारकों से निर्धारित होना चाहिये। किसी भी चीज का किसी अन्य पर पड़ने वाले प्रभाव और इसके बारे में पैदा होने वाली सोच से ही समाचार की अवधारणा का विकास होता है। किसी भी घटना विचार और समस्या से जब काफी लोगों का सरोकार हो तो यह कह सकतें हैं कि यह समाचार बनने योग्य है।
    समाचार किसी बात को लिखने या कहने का वह तरीका है जिसमें उस घटना, विचार, समस्या के सबसे अहम तथ्यों या पहलुओं के सबसे पहले बताया जाता है और उसके बाद घटते हुये महत्व क्रम में अन्य तथ्यों या सूचनाओं को लिखा या बताया जाता है। इस शैली में किसी घटना का ब्यौरा कालानुक्रम के बजाये सबसे महत्वपूर्ण तथ्य या सूचना से शुरु होता है।
    •       किसी नई घटना की सूचना ही समाचार है : डॉ निशांत सिंह
    •       किसी घटना की नई सूचना समाचार है : नवीन चंद्र पंत
    •       वह सत्य घटना या विचार जिसे जानने की अधिकाधिक लोगों की रूचि हो : नंद किशोर त्रिखा
    •       किसी घटना की असाधारणता की सूचना समाचार है : संजीव भनावत
    •       ऐसी ताजी या हाल की घटना की सूचना जिसके संबंध में लोगों को जानकारी न हो : रामचंद्र वर्मा

    समाचार के मूल्य

    1 व्यापकता : समाचार का सीधा अर्थ है-सूचना। मनुष्य के आस दृ पास और चारों दिशाओं में घटने वाली सूचना। समाचार को अंग्रेजी के न्यूज का हिन्दी समरुप माना जाता है। न्यूज का अर्थ है चारों दिशाओं अर्थात नॉर्थ, ईस्ट, वेस्ट और साउथ की सूचना। इस प्रकार समाचार का अर्थ पुऐ चारों दिशाओं में घटित घटनाओं की सूचना।
    2 नवीनता: जिन बातों को मनुष्य पहले से जानता है वे बातें समाचार नही बनती। ऐसी बातें समाचार बनती है जिनमें कोई नई सूचना, कोई नई जानकारी हो। इस प्रकार समाचार का मतलब हुआ नई सूचना। अर्थात समाचार में नवीनता होनी चाहिये।
    3 असाधारणता: हर नई सूचना समाचार नही होती। जिस नई सूचना में समाचारपन होगा वही नई सूचना समाचार कहलायेगी। अर्थात नई सूचना में कुछ ऐसी असाधारणता होनी चाहिये जो उसमें समाचारपन पैदा करे। काटना कुत्ते का स्वभाव है। यह सभी जानते हैं। मगर किसी मनुष्य द्वारा कुत्ते को काटा जाना समाचार है क्योंकि कुत्ते को काटना मनुष्य का स्वभाव नही है। कहने का तात्पर्य है कि नई सूचना में समाचार बनने की क्षमता होनी चाहिये।
    4 सत्यता और प्रमाणिकता : समाचार में किसी घटना की सत्यता या तथ्यात्मकता होनी चाहिये। समाचार अफवाहों या उड़ी-उड़ायी बातों पर आधारित नही होते हैं। वे सत्य घटनाओं की तथ्यात्मक जानकारी होते हैं। सत्यता या तथ्यता होने से ही कोई समाचार विश्वसनीय और प्रमाणिक होते हैं।
    5 रुचिपूर्णता: किसी नई सूचना में सत्यता और समाचारपन होने से हा वह समाचार नहीं बन जाती है। उसमें अधिक लोगों की दिसचस्पी भी होनी चाहिये। कोई सूचना कितनी ही आसाधरण क्यों न हो अगर उसमे लोगों की रुचि नही है तो वह सूचना समाचार नहीं बन पायेगी। कुत्ते द्वारा किसी सामान्य व्यक्ति को काटे जाने की सूचना समाचार नहीं बन पायेगी। कुत्ते द्वारा काटे गये व्यक्ति को होने वाले गंभीर बीमारी की सूचना समाचार बन जायेगी क्योंकि उस महत्वपूर्ण व्यक्ति में अधिकाधिक लोगों की दिचस्पी हो सकती है।
    6 प्रभावशीलता : समाचार दिलचस्प ही नही प्रभावशील भी होने चाहिये। हर सूचना व्यक्तियों के किसी न किसी बड़े समूह, बड़े वर्ग से सीधे या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़ी होती है। अगर किसी घटना की सूचना समाज के किसी समूह या वर्ग को प्रभावित नही करती तो उस घटना की सूचना का उनके लिये कोई मतलब नही होगा।
    7 स्पष्टता : एक अच्छे समाचार की भाषा सरल, सहज और स्पष्ट होनी चाहिये। किसी समाचार में दी गयी सूचना कितनी ही नई, कितनी ही असाधारण, कितनी ही प्रभावशाली क्यों न हो अगर वह सूचना सरल और स्पष्ट भाष में न हो तो वह सूचना बेकार साबित होगी क्योंकि ज्यादातर लोग उसे समझ नहीं पायेंगे। इसलिये समाचार की भाषा सीधीऔर स्पष्ट होनी चाहिये।उल्टा पिरामिड शैली

    ऐतिहासिक विकास

    इस सिद्धांत का प्रयोग 19 वीं सदी के मध्य से शुरु हो गया था, लेकिन इसका विकास अमेरिका में गृहयुद्ध के दौरान हुआ था। उस समय संवाददाताओं को अपनी खबरें टेलीग्राफ संदेश के जरिये भेजनी पड़ती थी, जिसकी सेवायें अनियमित, महंगी और दुर्लभ थी। यही नहीं कई बार तकनीकी कारणों से टेलीग्राफ सेवाओं में बाधा भी आ जाती थी। इसलिये संवाददाताओं को किसी खबर कहानी लिखने के बजाये संक्षेप में बतानी होती थी और उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण तथ्य और सूचनाओं की जानकारी पहली कुछ लाइनों में ही देनी पड़ती थी।

    लेखन प्रक्रिया

    उल्टा पिरामिड सिद्धांत : उल्टा पिरामिड सिद्धांत समाचार लेखन का बुनियादी सिद्धांत है। यह समाचार लेखन का सबसे सरल, उपयोगी और व्यावहारिक सिद्धांत है। समाचार लेखन का यह सिद्धांत कथा या कहनी लेखन की प्रक्रिया के ठीक उलट है। इसमें किसी घटना, विचार या समस्या के सबसे महत्वपूर्ण तथ्यों या जानकारी को सबसे पहले बताया जाता है, जबकि कहनी या उपन्यास में क्लाइमेक्स सबसे अंत में आता है। इसे उल्टा पिरामिड इसलिये कहा जाता है क्योंकि इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य या सूचना पिरामिड के निचले हिस्से में नहीं होती है और इस शैली में पिरामिड को उल्टा कर दिया जाता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण सूचना पिरामिड के सबसे उपरी हिस्से में होती है और घटते हुये क्रम में सबसे कम महत्व की सूचनायें सबसे निचले हिस्से में होती है।समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड शैली के तहत लिखे गये समाचारों के सुविधा की दृष्टि से मुख्यतः तीन हिस्सों में विभाजित किया जाता है-मुखड़ा या इंट्रो या लीड, बॉडी और निष्कर्ष या समापन। इसमें मुखड़ा या इंट्रो समाचार के पहले और कभी-कभी पहले और दूसरे दोनों पैराग्राफ को कहा जाता है। मुखड़ा किसी भी समाचार का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है क्योंकि इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्यों और सूचनाओं को लिखा जाता है। इसके बाद समाचार की बॉडी आती है, जिसमें महत्व के अनुसार घटते हुये क्रम में सूचनाओं और ब्यौरा देने के अलावा उसकी पृष्ठभूमि का भी जिक्र किया जाता है। सबसे अंत में निष्कर्ष या समापन आता है। समाचार लेखन में निष्कर्ष जैसी कोई चीज नहीं होती है और न ही समाचार के अंत में यह बताया जाता है कि यहां समाचार का समापन हो गया है।
    मुखड़ा या इंट्रो या लीड : उल्टा पिरामिड शैली में समाचार लेखन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू मुखड़ा लेखन या इंट्रो या लीड लेखन है। मुखड़ा समाचार का पहला पैराग्राफ होता है, जहां से कोई समाचार शुरु होता है। मुखड़े के आधार पर ही समाचार की गुणवत्ता का निर्धारण होता है। एक आदर्श मुखड़ा में किसी समाचार की सबसे महत्वपूर्ण सूचना आ जानी चाहिये और उसे किसी भी हालत में 35 से 50 शब्दों से अधिक नहीं होना चाहिये। किसी मुखड़े में मुख्यतः छह सवाल का जवाब देने की कोशिश की जाती है दृ क्या हुआ, किसके साथ हुआ, कहां हुआ, कब हुआ, क्यों और कैसे हुआ है। आमतौर पर माना जाता है कि एक आदर्श मुखड़े में सभी छह ककार का जवाब देने के बजाये किसी एक मुखड़े को प्राथमिकता देनी चाहिये। उस एक ककार के साथ एक-दो ककार दिये जा सकते हैं।
    बॉडी: समाचार लेखन की उल्टा पिरामिड लेखन शैली में मुखड़े में उल्लिखित तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण समाचार की बॉडी में होती है। किसी समाचार लेखन का आदर्श नियम यह है कि किसी समाचार को ऐसे लिखा जाना चाहिये, जिससे अगर वह किसी भी बिन्दु पर समाप्त हो जाये तो उसके बाद के पैराग्राफ में ऐसा कोई तथ्य नहीं रहना चाहिये, जो उस समाचार के बचे हुऐ हिस्से की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण हो। अपने किसी भी समापन बिन्दु पर समाचार को पूर्ण, पठनीय और प्रभावशाली होना चाहिये। समाचार की बॉडी में छह ककारों में से दो क्यों और कैसे का जवाब देने की कोशिश की जाती है। कोई घटना कैसे और क्यों हुई, यह जानने के लिये उसकी पृष्ठभूमि, परिपेक्ष्य और उसके व्यापक संदर्भों को खंगालने की कोशिश की जाती है। इसके जरिये ही किसी समाचार के वास्तविक अर्थ और असर को स्पष्ट किया जा सकता है।
    निष्कर्ष या समापन :समाचार का समापन करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि न सिर्फ उस समाचार के प्रमुख तथ्य आ गये हैं बल्कि समाचार के मुखड़े और समापन के बीच एक तारतम्यता भी होनी चाहिये। समाचार में तथ्यों और उसके विभिन्न पहलुओं को इस तरह से पेश करना चाहिये कि उससे पाठक को किसी निर्णय या निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद मिले।

    समाचार संपादन

    समाचार संपादन का कार्य संपादक का होता है। संपादक प्रतिदिन उपसंपादकों और संवाददाताओं के साथ बैठक कर प्रसारण और कवरेज के निर्देश देते हैं। समाचार संपादक अपने विभाग के समस्त कार्यों में एक रूपता और समन्वय स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देता है।

    संपादन की प्रक्रिया

    रेडियो में संपादन का कार्य प्रमुख रूप से दो भागों में विभक्त होता है।
    1. विभिन्न श्रोतों से आने वाली खबरों का चयन
    2. चयनित खबरों का संपादन :  रेडियो के किसी भी स्टेशन में  खबरों के आने के कई स्रोत होते हैं। जिनमें संवाददाता, फोन, जनसंपर्क, न्यूज एजेंसी, समाचार पत्र और आकाशवाणी मुख्यालय प्रमुख हैं। इन स्रोतों से आने वाले समाचारों को राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर खबरों का चयन किया जाता है।  यह कार्य विभाग में बैठे उपसंपादक का होता है। उदाहरण के लिए यदि हम आकाशवाणी के भोपाल केन्द्र के लिए समाचार बुलेटिन तैयार कर रहे हैं तो हमें लोकल याप्रदेश स्तर की खबर को प्राथमिकता देनी चाहिए। तत् पश्चात् चयनित खबरों का भी संपादन किया जाना आवश्यक होता है। संपादन की इस प्रक्रिया में बुलेटिन की अवधि को ध्यान में रखना जरूरी होता है। किसी रेडियो बुलेटिन की अवधि 5, 10 या अधिकतम 15मिनिट होती है।

    संपादन के महत्वपूर्ण चरण

    1.  समाचार आकर्षक होना चाहिए।
    2.  भाषा सहज और सरल हो।
    3.  समाचार का आकार बहुत बड़ा और उबाऊ नहीं होना चाहिए।
    4. समाचार लिखते समय आम बोल-चाल की भाषा के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
    5. शीर्षक विषय के अनुरूप होना चाहिए।
    6.  समाचार में प्रारंभ से अंत तक तारतम्यता और रोचकता होनी चाहिए।
    7.  कम शब्दों में समाचार का ज्यादा से ज्यादा विवरण होना चाहिए।
    8.  रेडियो बुलेटिन के प्रत्येक समाचार में श्रोताओं के लिए सम्पूर्ण जानकारी होना
     चाहिये ।
    9.   संभव होने पर समाचार स्रोत का उल्लेख होना चाहिए।
    10.  समाचार छोटे वाक्यों में लिखा जाना चाहिए।
    11.  रेडियो के सभी श्रोता पढ़े लिखे नहीं होते, इस बात को ध्यान में रखकर भाषा और शब्दों का चयन किया जाना चाहिए।
    12. रेडियो श्रव्य माध्यम है अतः समाचार की प्रकृति ऐसी होनी चाहिए कि एक ही बार सुनने पर समझ आ जाए।
    13. समाचार में तात्कालिकता होना अत्यावश्यक है। पुराना समाचार होने पर भी इसे अपडेट कर प्रसारित करना चाहिए।
    14. समाचार लिखते समय व्याकरण और चिह्नो पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, ताकि समाचार वाचक आसानी से पढ़ सके।

    समाचार संपादन के तत्व

    संपादन की दृष्टि से किसी समाचार के तीन प्रमुख भाग होते हैं-
    1. शीर्षक-किसी भी समाचार का शीर्षक उस समाचार की आत्मा होती है। शीर्षक के माध्यम से न केवल श्रोता किसी समाचार को पढ़ने के लिए प्रेरित होता है, अपितु शीर्षकों के द्वारा वह समाचार की विषय-वस्तु को भी समझ लेता है। शीर्षक का विस्तार समाचार के महत्व को दर्शाता है। एक अच्छे शीर्षक में निम्नांकित गुण पाए जाते हैं-
    1.  शीर्षक बोलता हुआ हो। उसके पढ़ने से समाचार की विषय-वस्तु का आभास  हो जाए।
    2.  शीर्षक तीक्ष्ण एवं सुस्पष्ट हो। उसमें श्रोताओं को आकर्षित करने की क्षमता हो।
    3.  शीर्षक वर्तमान काल में लिखा गया हो। वर्तमान काल मे लिखे गए शीर्षक घटना की ताजगी के द्योतक होते हैं।
    4. शीर्षक में यदि आवश्यकता हो तो सिंगल-इनवर्टेड कॉमा का प्रयोग करना चाहिए। डबल इनवर्टेड कॉमा अधिक स्थान घेरते हैं।
    5.  अंग्रेजी अखबारों में लिखे जाने वाले शीर्षकों के पहले ‘ए’ ‘एन’, ‘दी’ आदि भाग का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। यही नियम हिन्दी में लिखे शीर्षकों पर भी लागू होता है।
    6. शीर्षक को अधिक स्पष्टता और आकर्षण प्रदान करने के लिए सम्पादक या   उप-सम्पादक का सामान्य ज्ञान ही अन्तिम टूल या निर्णायक है।
    7.  शीर्षक में यदि किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख किया जाना आवश्यक हो तो  उसे एक ही पंक्ति में लिखा जाए। नाम को तोड़कर दो पंक्तियों में लिखने से  शीर्षक का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है।
    8.  शीर्षक कभी भी कर्मवाच्य में नहीं लिखा जाना चाहिए।
    2. आमुख- आमुख लिखते समय ‘पाँच डब्ल्यू’ तथा एक-एच के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। अर्थात् आमुख में समाचार से संबंधित छह प्रश्न-Who, When, Where, What और Howका अंतर पाठक को मिल जाना चाहिए। किन्तु वर्तमान में इस सिद्धान्त का अक्षरशः पालन नहीं हो रहा है। आज छोटे-से-छोटे आमुख लिखने की प्रवृत्ति तेजी पकड़ रही है। फलस्वरूप इतने प्रश्नों का उत्तर एक छोटे आमुख में दे सकना सम्भव नहीं है। एक आदर्श आमुख में 20 से 25 शब्द होना चाहिए।
    3. समाचार का ढाँचा-समाचार के ढाँचे में महत्वपूर्ण तथ्यों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करना चाहिए। सामान्यतः कम से कम 150 शब्दों तथा अधिकतम 400 शब्दों में लिखा जाना चाहिए। श्रोताओं को अधिक लम्बे समाचार आकर्षित नहीं करते हैं।
     समाचार सम्पादन में समाचारों की निम्नांकित बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है-
      1. समाचार किसी कानून का उल्लंघन तो नहीं करता है।
      2.  समाचार नीति के अनुरूप हो।
      3.  समाचार तथ्याधारित हो।
      4.  समाचार को स्थान तथा उसके महत्व के अनुरूप विस्तार देना।
      5.  समाचार की भाषा पुष्ट एवं प्रभावी है या नहीं। यदि भाषा नहीं है तो उसे   पुष्ट बनाएँ।
      6.  समाचार में आवश्यक सुधार करें अथवा उसको पुर्नलेखन के लिए वापस   कर दें।
      7.  समाचार का स्वरूप सनसनीखेज न हो।
      8.  अनावश्यक अथवा अस्पस्ट शब्दों को समाचार से हटा दें।
      9.  ऐसे समाचारों को ड्राप कर दिया जाए, जिनमें न्यूज वैल्यू कम हो और उनका उद्देश्य किसी का प्रचार मात्र हो।
     10. समाचार की भाषा सरल और सुबोध हो।
     11. समाचार की भाषा व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध न हो।
     12. वाक्यों में आवश्यकतानुसार विराम, अद्र्धविराम आदि संकेतों का समुचित प्रयोग हो।
     13.  समाचार की भाषा में एकरूपता होना चाहिए।
     14.    समाचार के महत्व के अनुसार बुलेटिन में उसको स्थान प्रदान करना।
    समाचार-सम्पादक की आवश्यकताएँ
    एक अच्छे सम्पादक अथवा उप-सम्पादक के लिए आवश्यक होता है कि वह समाचार जगत में अपने ज्ञान-वृद्धि के लिए निम्नांकित पुस्तकों को अपने संग्रहालय में अवश्य रखें-
    1. सामान्य ज्ञान की पुस्तकें।
    2. एटलस।
    3. शब्दकोश।
    4. भारतीय संविधान।
    5. प्रेस विधियाँ।
    6. इनसाइक्लोपीडिया।
    7. मन्त्रियों की सूची।
    8. सांसदों एवं विधायकों की सूची।
    9. प्रशासन व पुलिस अधिकारियों की सूची।
    10. ज्वलन्त समस्याओं सम्बन्धी अभिलेख।
    11. भारतीय दण्ड संहिता (आई.पी.सी.) पुस्तक।
    12. दिवंगत नेताओं तथा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से सम्बन्धित अभिलेख।
    13. महत्वपूर्ण व्यक्तियों व अधिकारियों के नाम, पते व फोन नम्बर।
    14. पत्रकारिता सम्बन्धी नई तकनीकी पुस्तकें।
    15. उच्चारित शब्द

    समाचार के स्रोत

    कभी भी कोई समाचार निश्चित समय या स्थान पर नहीं मिलते। समाचार संकलन के लिए संवाददाताओं को फील्ड में घूमना होता है। क्योंकि कहीं भी कोई ऐसी घटना घट सकती है, जो एक महत्वपूर्ण समाचार बन सकती है। समाचार प्राप्ति के कुछ महत्वपूर्ण स्रोत निम्न हैं-
    1. संवाददाता-टेलीविजन और समाचार-पत्रों में संवाददाताओं की नियुक्ति ही इसलिए होती हैकि वह दिन भर की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकलन करें और उन्हें समाचार का स्वरूप दें।
    2. समाचार समितियाँ-देश-विदेश में अनेक ऐसी समितियाँ हैं जो विस्तृत क्षेत्रों के समाचारों को संकलित करके अपने सदस्य अखबारों और टीवी को प्रकाशन और प्रसारण के लिए प्रस्तुत करती हैं। मुख्य समितियों में पी.टी.आई. (भारत), यू.एन.आई. (भारत), ए.पी. (अमेरिका),  ए.एफ.पी. (फ्रान्स), रॉयटर (ब्रिटेन)।
    3. प्रेस विज्ञप्तियाँ- सरकारी विभाग, सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत प्रतिष्ठान तथा अन्य व्यक्ति या संगठन अपने से सम्बन्धित समाचार को सरल और स्पष्ट भाषा में  लिखकर ब्यूरो आफिस में प्रसारण के लिए भिजवाते हैं। सरकारी विज्ञप्तियाँ चार प्रकार की होती हैं।
    (अ) प्रेस कम्युनिक्स- शासन के महत्वपूर्ण निर्णय प्रेस कम्युनिक्स के माध्यम से समाचार-पत्रों को पहुँचाए जाते हैं। इनके सम्पादन की आवश्यकता नहीं होती है। इस रिलीज के बाएँ ओर सबसे नीचे कोने पर सम्बन्धित विभाग का नाम, स्थान और निर्गत करने की तिथि अंकित होती है। जबकि टीवी के लिए रिर्पोटर स्वयं जाता है
    (ब) प्रेस रिलीज-शासन के अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण निर्णय प्रेस रिलीज के द्वारा समाचार-पत्र और टी.वी. चैनल के कार्यालयों को प्रकाशनार्थ भेजे जाते हैं।
    (स) हैण्ड आउट- दिन-प्रतिदिन के विविध विषयों, मन्त्रालय के क्रिया-कलापों की सूचना हैण्ड-आउट के माध्यम से दी जाती है। यह प्रेस इन्फारमेशन ब्यूरो द्वारा प्रसारित किए जाते हैं।
    (द) गैर-विभागीय हैण्ड आउट- मौखिक रूप से दी गई सूचनाओं को गैर-विभागीय हैण्ड आउट के माध्यम से प्रसारित किया जाता है।
    4. पुलिस विभाग-सूचना का सबसे बड़ा केन्द्र पुलिस विभाग का होता है। पूरे जिले में होनेवाली सभी घटनाओं की जानकारी पुलिस विभाग की होती है, जिसे पुलिसकर्मी-प्रेस के प्रभारी संवाददाताओं को बताते हैं।
    5. सरकारी विभाग-पुलिस विभाग के अतिरिक्त अन्य सरकारी विभाग समाचारों के केन्द्र होते हैं। संवाददाता स्वयं जाकर खबरों का संकलन करते हैं अथवा यह विभाग अपनीउपलब्धियों को समय-समय पर प्रकाशन हेतु समाचार-पत्र और टीवी कार्यालयों को भेजते रहते हैं।
    6. चिकित्सालय-शहर के स्वास्थ्य संबंधी समाचारों के लिए सरकारी चिकित्सालयों अथवा बड़े प्राइवेट अस्पतालों से महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।
    7. कॉरपोरेट आफिस-निजी क्षेत्र की कम्पनियों के आफिस अपनी कम्पनी से सम्बन्धित समाचारों को देने में दिलचस्पी रखते हैं। टेलीविजन में कई चैनल व्यापार पर आधारित हैं।
    8. न्यायालय-जिला अदालतों के फैसले व उनके द्वारा व्यक्ति या संस्थाओं को दिए गए निर्देश समाचार के प्रमुख स्रोत हैं।
    9. साक्षात्कार-विभागाध्यक्षों अथवा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के साक्षात्कार समाचार के महत्वपूर्ण अंग होते हैं।
    10. समाचारों का फॉलो-अप या अनुवर्तन-महत्वपूर्ण घटनाओं की विस्तृत रिपोर्ट रुचिकर समाचार बनते हैं। दर्शक चाहते हैं कि बड़ी घटनाओं के सम्बन्ध में उन्हें सविस्तार जानकारी मिलती रहे। इसके लिए संवाददाताओं को घटनाओं की तह तक जाना पड़ता है।
    11. पत्रकार वार्ता-सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थान अक्सर अपनी उपलब्धियों को प्रकाशित करने के लिए पत्रकारवार्ता का आयोजन करते हैं। उनके द्वारा दिए गए वक्तव्य समृद्ध समाचारों को जन्म देते हैं।
    उपर्युक्त स्रोतों के अतिरिक्त सभा, सम्मेलन, साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम,विधानसभा, संसद, मिल, कारखाने और वे सभी स्थल जहाँ सामाजिक जीवन की घटना मिलती है, समाचार के महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं।

    सम्पादन व सम्पादकीय विभाग

    सम्पादन व सम्पादकीय विभाग पत्रकारिता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है। किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका अथवा अन्य जनसंचार माध्यम का स्तर उसके सम्पादन व सम्पादकीय विभाग पर निर्भर करता है। सम्पादकीय विभाग जितना सक्रिय, योग्य व व्यावहारिक होगा, वह मीडिया उतना ही अधिक प्रचलित व ख्याति प्राप्त होगा। इसलिए पत्रकारिता को समझने के लिए इस कार्य व विभाग की जानकारी होना अति आवश्यक है।
    किसी भी समाचार-पत्र या पत्रिका की प्रतिष्ठा, उसका नाम, उसकी छवि उसके संपादक के नाम के साथ बनती-बिगड़ती है। सम्पादक किसी अच्छी फिल्म को बनाने वाले उस निर्देशक की तरह होता है, जिसे हर बार एक अच्छा अखबार या पत्रिका बनानी होती है। इस काम में उसकी प्रतिभा और उसकी कबिलियत तो महत्व रखती ही है, उसकी टीम और उसके सहयोगियों की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है। इस सम्पादकीय टीम के साथ-साथ जो एक अन्य महत्वपूर्ण चीज होती है। वह है पत्र या पत्रिका का सम्पादकीय पृष्ठ। पत्रिकाओं में जहां सम्पादकीय पृष्ठ प्रारम्भ में होता है वहीं अखबारों में इसकी जगह बीच के पृष्ठों में कहीं होती है।
    कुल मिला कर संपादक, सम्पादकीय विभाग और सम्पादकीय पृष्ठ किसी भी पत्र-पत्रिका की सफलता और श्रेष्ठता के सूत्रधार होते हैं। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के कार्यालयों में समाचार विभिन्न श्रोतों, जैसे संवाददाताओं तथा एजेंसियों से प्राप्त होते हैं। कई बार विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों, विभिन्न सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों इत्यादि की ओर से भी प्रेस रिलीज दी जाती हैं। इन सबको समाचार कक्ष में ‘डेस्क’ पर एकत्र किया जाता है। सारी सामग्री अलग-अलग तरह की होती है। उप-सम्पादक इन सब प्राप्त समाचार-सामग्री की छंटनी, वर्गीकरण, आवश्यक सुधार करते हैं, साथ ही काटते-छांटते या विस्तृत करते हैं और उन्हें प्रकाशन योग्य बनाते हैं। यह पूरी प्रक्रिया ‘सम्पादन’ के अन्तर्गत आती है।
    सम्पादकीय विभाग ‘समाचार पत्र का हृदय’ कहा जा सकता है। कुशल सम्पादन पत्र को जीवन्त और प्राणवान बना देता है। सम्पादकीय विभाग मुख्यतः समाचार, लेख, फीचर, कार्टून, स्तम्भ, सम्पादकीय एवं सम्पादकीय टिप्पणियों आदि सारे कार्यों से जुड़ा होता है। यह विभाग सम्पादक या प्रधान सम्पादक के नेतृत्व में कार्य करता है। इनकी सहायता के लिए कार्य करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं, जो सहायक सम्पादक, संयुक्त सम्पादक, समाचार सम्पादक, विशेष सम्पादक व उप सम्पादक इत्यादि होते हैं, जो समाचार संकलन से लेकर सम्पादन की विविध प्रक्रियाओं से विभिन्न स्तरों पर सम्बद्ध होते हैं।
    किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका में सम्पादन का कार्य एक चूनौतीपूर्ण कार्य है, जिसे पत्र-पत्रिका का सम्पादन मण्डल पूर्ण करता है। इस सम्पादन मण्डल का मुखिया सम्पादक कहलाता है। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सभी सामग्री की उपयोगिता व महत्व के लिए सम्पादक ही जिम्मेदार होता है। सम्पादक मण्डल द्वारा पत्र में एक पृष्ठ पर नवीन व समसामयिक विचार, टिप्पणी, लेख एवं समीक्षाएं लिखी जाती हैं, जो राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक अथवा अन्य समसामयिक विषयों पर आधारित हो सकती है। इन टिप्पणियों को सम्पादकीय कहते हैं, और जिस पृष्ठ पर पर यह लिखी जाती हैं, उसे सम्पादकीय पृष्ठ कहते हैं। किसी भी समाचार पत्र का यह सबसे महत्वपूर्ण पृष्ठ होता है।
    हालांकि वर्तमान दौर में समाचार पत्रों में सम्पादक की भूमिका एक रचनाकार पत्रकार से बदलकर प्रबन्धक पत्रकार जैसी हो गयी है मगर इसके बाद भी सम्पादक का महत्व खत्म नहीं हुआ है और आज भी किसी भी पत्रकार के लिए संपादक बनना एक सपने की तरह ही है।सम्पादन एवं सम्पादकीय किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका के लिए महत्वपूर्ण शब्द हैं। सम्पादन का तात्पर्य किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका के लिए समाचारों व लेखों का चयन, उनको क्रमबद्ध करना, सामग्री का प्रस्तुतीकरण निश्चित करना, संशोधित करना, उनकी भाषा, व्याकरण और शैली में सुधार एवं विश्लेषण करना और उन्हें पाठकों के लिए पठनीय बनाना है।
    सम्पादन कार्य को सम्पादित करने हेतु सम्पादक के नेतृत्व में कार्य करने वाली टीम को सम्पादकीय मण्डल या सम्पादकीय विभाग कहा जाता है। सम्पादकीय विभाग के प्रत्येक सदस्य का कार्य महत्वपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण होता है।
    सम्पादकीय विभाग में एक स्टिंगर से लेकर पत्र के सम्पादक तक के अपने-अपने उत्तरदायित्व व योग्यतायें होती हैं। जिनका निर्वाह करते हुये वे एक समाचार पत्र-पत्रिका को पाठकों के बीच लोकप्रिय व पठनीय बनाकर प्रस्तुत करते हैं। सम्पादन का अर्थ
    ‘सम्पादन’ का शाब्दिक अर्थ कार्य सम्पन्न करना है। किसी भी कार्य को वह अंतिम रूप देना, जिस रूप में उसे प्रस्तुत करना हो, यह ही सम्पादन कहलाता है। किसी भी समाचार पत्र-पत्रिका में समाचार श्रोतों से समाचार एकत्रित कर उसे पाठकों के लिए पठनीय बनाना ही सम्पादन है।
    किसी पुस्तक का विषय या सामयिक पत्र के लेख आदि अच्छी तरह देखकर, उनकी त्रुटियां आदि दूर करके और उनका ठीक क्रम लगा कर उन्हें प्रकाशन के योग्य बनाना भी संपादन है। वास्तव में सम्पादन एक कला है, जिसमें समाचारों, लेखों व किसी समाचार पत्र-पत्रिका में प्रकाशित की जाने वाली सभी तरह की सामग्री का चयन, उसको क्रमबद्ध करना, सामग्री का प्रस्तुतीकरण निश्चित करना, उसे संशोधित करना, उसकी भाषा, व्याकरण और शैली में सुधार करना, विश्लेषण करना आदि सभी कार्य सम्मिलित हैं। पृष्ठों की साज-सज्जा करना, शुद्ध और आकर्षक मुद्रण कराने में सहयोग करना भी ‘सम्पादन’ का अंग है।
    पत्रकारिता सन्दर्भ कोश में ‘सम्पादन’ का अर्थ इस प्रकार बताया गया हैः ‘‘अभीष्ट मुद्रणीय सामग्री (समाचारों, लेखों एवं अन्य विविध रचनाओं आदि) का चयन, क्रम-निर्धारण, मुद्रणानुरूप संशोधन-परिमार्जन, साज-सज्जा तथा उसे प्रकाशन-योग्य बनाने के लिए अन्य अपेक्षित प्रक्रियाओं को सम्पन्न करना। आवश्यकता पड़ने पर मुद्रणीय सामग्री से सम्बन्धित प्रस्तावना, पृष्ठभूमि सम्बन्धी वक्तव्य अथवा अभीष्ट टिप्पणी आदि प्रस्तुत करना भी सम्पादन के अन्तर्गत आता है।’’
    जे.एडवर्ड मरे के अनुसार – “Because copy editing is an art, the most important ingredient after training and talent, is strong motivation. The copy editor must care. Not only should he know his job, he must love it. Every edition, every day. No art yields to less than maximum effort. The copy editor must be motivated by a fierce professional pride in the high quality of editing.’’
    ‘सम्पादन’ आसान काम नहीं है। यह अत्यन्त परिश्रम-साध्य एवं बौद्धिक कार्य है। इसमें मेधा, निपुणता और अभिप्रेरणा की आवश्यकता होती है। इसलिए सम्पादन कार्य करने वाले व्यक्ति को न केवल सावधानी रखनी होती है, बल्कि अपनी क्षमताओं, अभिरूचि तथा निपुणता का पूरा-पूरा उपयोग भी करना होता है। उसे अपने कार्य का पूरा ज्ञान ही नहीं होना चाहिए, बल्कि उसमें कार्य के प्रति एकनिष्ठ लगाव भी होना चाहिए।
    समाचार-पत्र कार्यालय में विभिन्न श्रोतों से समाचार प्राप्त होते हैं। संवाददाता (रिपोर्टर), एजेंसियां व कई बार विभिन्न संस्थाओं, राजनीतिक दलों इत्यादि की ओर से प्रेस रिलीज प्रेषित किए जाते हैं। इन सबको समाचार-कक्ष में ‘डेस्क’ पर एकत्र किया जाता है। सारी सामग्री अलग-अलग तरह की होती है। उप-सम्पादक इन सब प्राप्त समाचार-सामग्री की छंटनी व वर्गीकरण करते हैं, तथा उनमें यथावश्यक उनमें सुधार करते हैं, काटते-छांटते या विस्तृत करते हैं और उन्हें प्रकाशन योग्य बनाते हैं। यह पूरी प्रक्रिया ‘सम्पादन’ के अन्तर्गत आती है।
    इस प्रक्रिया के अंतर्गत अनेक श्रोतों से प्राप्त समाचारों को संघनित कर मिलाना, एक आदर्श समाचार-कथा (न्यूज स्टोरी) तैयार करना, आवश्यकता पड़ने पर उसका पुनर्लेखन करना इत्यादि बातें सम्मिलित हैं। सम्पादक केवल काट-छांट तक ही सीमित नहीं हैं, उसमें अनुवाद करना, समाचारों को एक तरह से अपने रंग में रंगना भी शामिल है। वैचारिक दृष्टि से, विशेष रूप से कई बार समाचार-पत्र की रीति-नीति के अनुसार सम्पादक के जरिए उनमें वैचारिक चमक भी पैदा की जाती है।
    अतः सम्पादन पत्रकारिता में वह कला है जो समाचार को पाठकों के लिए रूचिकर, मनोरंजक, तथ्यपूर्ण व ज्ञानवर्धक बनाकर परोसती है।

    विज्ञापन के माध्यम एवं प्रकार

    विज्ञापन का उद्देश्य अपने मकसद की पूर्ति के लिए अपने संदेश को अधिक से अधिक लोगों तक संप्रेषित करना है। ताकि विज्ञापनकर्ता को अधिक से अधिक लाभ हो सके। विज्ञापन करने वाला यानी विज्ञापनकर्ता अपना संदेश देने के लिए विज्ञापन के विभिन्न माध्यमों का इस्तेमाल करता है। विज्ञापन का संदेश लोगों तक पहुचाने के लिए विज्ञापनकर्ता जिन प्रमुख चीजों पर निर्भर रहता है उनमें बाजार, विज्ञापन का संदेश, विज्ञापन की बनावट के साथ-साथ विज्ञापन के माध्यम की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
    विज्ञापन की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि विज्ञापन का संदेश किस उपभोक्ता समूह अथवा वर्ग के लिए तैयार किया गया है? किस वर्ग अथवा उपभोक्ता समूह को लक्ष्य किया जाना है ? और विज्ञापनकर्ता विज्ञापन के जरिए क्या हासिल करना चाहता है ? लेकिन इन सब बातों के अलावा विज्ञापन की सफलता एक और चीज पर भी निर्भर करती है, वह चीज है विज्ञापन का माध्यम। विज्ञापन माध्यम का आशय विज्ञापन को दर्शक, पाठक, श्रोता या उपभोक्ता तक पहुंचाने वाले माध्यम से है। अलग-अलग परिस्थितियों मे यह माध्यम अलग-अलग प्रकार के होते हैं और किसी विज्ञापन को किस प्रकार के लक्ष्य समूह तक पहुँचाना है, इस बात की सफलता सही माध्यम के चयन पर ही निर्भर करती है।
    वस्तुतः माध्यम विज्ञापन के कथ्य अथवा संदेश और विज्ञापन के उपभोक्ता अथवा लक्ष्य समूह के बीच की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। विज्ञापन का उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है जब उसका माध्यम सही हो। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि यदि किसी व्यक्ति को दिल्ली से मुम्बई जाना हो और उसके पास काम के लिए दो तीन घंटे का ही समय हो तो ऐसी स्थिति में वह यदि सड़क के माध्यम से अथवा रेल के माध्यम से यात्रा करेगा तो निर्धारित समय में लक्ष्य तक पहुंच ही नहीं पाएगा। लेकिन यदि वह हवाई मार्ग को माध्यम बनाएगा तो निश्चित रूप से वह निर्धारित समय में अपनी यात्रा पूरी कर पाएगा और लक्ष्य तक समय पर पहुँच जाएगा। ठीक यही बात विज्ञापन के बारे में भी लागू होती है। माध्यम सही नहीं होगा तो विज्ञापन सही जगह तक पहुंच ही नहीं सकेगा।
    विज्ञापन को माध्यम के आधार पर कई श्रेणियों में बांटा जा सकता है। उद्देश्य, संदेश, बनावट और प्रसार क्षेत्र के आधार पर भी विज्ञापनों के अलग-अलग वर्ग हैं। विज्ञापन का समग्र अध्ययन करने के लिए इस सब की जानकारी होना जरूरी है क्योंकि इसकी समझ के बिना विज्ञापन और पत्रकारिता के रिश्ते को समझा ही नहीं जा सकता । आज उपभोक्ता और बाजार के विशेषज्ञ दोनों इस बात को समझने लगे हैं कि बाजार की लड़ाई जीतने में विज्ञापन की क्या भूमिका है। इसलिए अब विज्ञापनकर्ता भी माध्यम के चयन के बारे में अधिक सतर्क हो गए हैं।
    विज्ञापन के माध्यम
    विज्ञापन माध्यम वस्तुतः वे साधन हैं जो उत्पादक या सेवा से सम्बद्ध सूचना या संदेश को उपभोक्ता तक पहुंचाने का काम करते हैं। माध्यम उत्पाद या सेवा और उपभोक्ता के बीच मध्यस्थता का काम करते हैं। विज्ञापन के लिए सही माध्यम का चयन करना एक प्रकार से विज्ञापन की सफलता की चाबी हासिल करना है। यह उसकी सफलता का मूलमंत्र है। किसी भी विज्ञापन का निर्माण करते समय सबसे पहले इस बात को ध्यान में रखा जाता है कि उसका प्रसार किस माध्यम से किया जाना है।
    माध्यम के चयन के बाद ही विज्ञापन के निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है। हर माध्यम के लिए विज्ञापन का निर्माण भी अलग-अलग तरह से होता है। माध्यम के अनुरूप ही विज्ञापन की भाषा, संदेश और डिजाइन तय की जाती है। उसी के अनुरूप विज्ञापन की कॉपी लिखी जाती है।
    विज्ञापनों के प्रकार
    माध्यम के आधार पर विज्ञापनों को निम्न प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।
    1. प्रकाशन माध्यम
    2. प्रसारण माध्यम
    3. डाक विज्ञापन
    4. वाह्य विज्ञापन
    5. सचल विज्ञापन
    6. उपहार विज्ञापन
    विज्ञापन माध्यमों को उनकी विकास यात्रा के आधार पर भी दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। विज्ञापन के प्रारम्भिक माध्यम और विज्ञापन के आधुनिक माध्यम। हालाँकि इस वर्गीकरण का अर्थ यह नहीं है कि विज्ञापन के जो प्रारम्भिक माध्यम थे वो अब उपयोग में नहीं लाए जाते। उनका आज भी बखूबी इस्तेमाल होता है। आधुनिक माध्यम अपेक्षाकृत नए हैं और उनमें अब भी बदलाव और विकास जारी है।
    विज्ञापन के प्रारम्भिक माध्यम
    विज्ञापन का इतिहास मानव सभ्यता के इतिहास से जुड़ा माना जा सकता है। मिश्र के पिरामिड या चीन की दीवार एक प्रकार से अपने दौर की महान सम्यताओं के विज्ञापन ही थे। राजवंशों के राजचिन्ह, ध्वज आदि भी एक प्रकार के विज्ञापन ही थे। सभ्यता के विकास के साथ-साथ संचार के माध्यम भी बदलते रहे हैं, और उन्ही के साथ विज्ञापनों का स्वरूप और माध्यम भी बदलता रहा है। प्राचीन सभ्यताओं में डुगडुगी बजाकर राजाज्ञा का वाचन किया जाता था, जो एक प्रकार का प्रारम्भिक विज्ञापन ही था। चित्रों द्वारा भी सूचनाएं दी जाती थीं। अशोक के स्तम्भ और उन पर उत्कीर्ण लेख भी एक तरह के विज्ञापन ही हैं। बौद्ध धर्म प्रचारकों के धर्म संदेश भी एक प्रकार से धर्म का विज्ञापन ही होते थे और इन संदेशों ने बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार में अभूतपूर्व भूमिका भी निभाई थी। सन् 1440 में आधुनिक मुद्रण कला के आविष्कार के साथ ही विज्ञापन कला को भी एक नया आयाम मिल गया और परचों (हैण्डबिल) तथा पोस्टरों के जरिए विज्ञापन किए जाने का सिलसिला शुरू हो गया ।
    प्राचीन शहर पम्पई के अवशेषों में दुकानों की दीवारों पर इस तरह के प्रतीक चिन्ह मिले हैं जिनसे यह पता चलता था कि वहां पर कौन सी वस्तु उपलब्ध है। प्राचीन रोम और ग्रीस की दुकानों के बाहर भी चिन्ह होते थे। इसी प्रकार सिंधु घाटी के अवशेषों में प्राप्त मोहरें भी एक प्रकार का प्रतीक चिन्ह या ट्रेड मार्क ही थीं। इस तरह के सभी चिन्हों, प्रतीकों या मोहरों को विज्ञापन के बाह्य माध्यम कहा जा सकता है। ये बाह्य माध्यम विज्ञापन के सबसे प्रारम्भिक माध्यम हैं। दीवारों, सावर्जनिक स्थलों तथा यातायात के साधनों पर चित्रित किए जाने वाले विज्ञापन वाह्य माध्यम कहलाते हैं।
    1473 में अंग्रेजी भाषा में पहला प्रतीक चिन्ह मुद्रित कर विलियम कैक्सटोन ने पहले मुद्रित विज्ञापन के निर्माण का सूत्रपात किया और 1477 में उसी ने अंगे्रजी में पहला पोस्टर (हैण्ड बिल) छाप कर मुद्रित विज्ञापन की शुरूआत की। 16वीं और 17वीं सदी में अधिकतर विज्ञापन अंगे्रजी के हाथ से लिखे हुए पोस्टरनुमा हैण्ड बिलों के रूप में ही होते थे। 1622 में वीकली न्यूज आॅफ लन्दन का प्रकाशन शुरू हुआ और 1625 में पहली बार इसमें एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ जो एक जहाज के आने की सूचना देता था। मुद्रित माध्यमों में पहला व्यावसायिक विज्ञापन 1652 में प्रकाशित कॉफी का विज्ञापन था। 1657 में चॉकलेट और 1658 में चाय का पहला विज्ञापन प्रकाशित हुआ था।
    प्रारम्भिक विज्ञापन माध्यमों में वाह्य माध्यमों और मुद्रित माध्यमों के साथ-साथ डाक माध्यमों का भी अहम स्थान है। उन्नीसवीं सदी में राजकीय डाक सेवा शुरू होने के साथ ही अमेरिका और यूरोप सहित भारतीय उपमहाद्वीप में भी डाक माध्यम का इस्तेमाल विज्ञापनों के प्रसार के लिए प्रारम्भ हो गया। भारत में कपड़ा उत्पादकों और पुस्तक प्रकाशकों ने अपने उत्पादों के प्रचार के लिए डाक द्वारा मुद्रित प्रचार सामग्री उपभोक्ताओं तक पहुंचाने की शुरूआत की थी।
    विज्ञापन के आधुनिक माध्यम
    1840 में अमेरिकी में वॉलनी पामर ने मुद्रित विज्ञापन माध्यम के रूप में पत्र-पत्रिकाओं का व्यावसायिक उपयोग प्रारम्भ कर दिया था। वह पत्र-पत्रिकाओं में स्थान खरीद लेता और विज्ञापनकर्ताओं से अधिक मूल्य लेकर उन्हें बेच देता था। यानी यह एक प्रकार से आधुनिक विज्ञापन एजेंसी का प्रारम्भिक रूप था। 1873 तक अमेरिका में ‘लेविस’ जींस मुद्रित माध्यमों में विज्ञापन के जरिए एक ‘ब्रांड’ बन चुकी थी। इसी तरह 1876 में कोका कोला को भी एक ब्रांड के रूप में पहचान मिल गई थी।
    मगर विज्ञापन के आधुनिक माध्यम के रूप में मुद्रित माध्यमों को व्यापक पहचान बीसवीं सदी में ही मिल पाई। प्रथम विश्य युद्ध के बाद पुर्ननिर्माण के दौर में जरूरी चीजों की मांग में बेतहाशा वृद्धि हो जाने से विज्ञापन की आवश्यकता और उपयोग में भी जबर्दस्त इजाफा हुआ और इसी के साथ मुद्रित माध्यमों के विज्ञापनों में कला पक्ष और कॉपी लेखन पर भी अधिक ध्यान दिया जाने लगा। इसी दौर में डाक के जरिए विज्ञापन के एक और माध्यम का प्रचलन भी शुरू हुआ। डायरेक्ट मेल नामक यह माध्यम चुनिंंदा लोगों के पास सीधे उत्पाद भी जानकारी डाक द्वारा पहुँचाता था। बड़े उत्पादों के प्रचार में यह माध्यम भी एक प्रभावशाली माध्यम साबित हुआ।
    1928 में पहली बार रेडियो का उपयोग विज्ञापन के माध्यम रूप में किया गया और इसी के साथ श्रव्य माध्यम के रूप में विज्ञापन के लिए एक और माध्यम उपलब्ध हो गया। रेडियो के विज्ञापन जल्द ही लोकप्रिय हो गए। 1950 के दशक में इंग्लैण्ड में सिनेमा घरों में दिखाए जाने के लिए 50 सेकेण्ड से 2 मिनट तक की अवधि की विज्ञापन फिल्में भी बनाई जाने लगी थीं जो दृश्य माध्यम के रूप में विज्ञापन के एक और माध्यम की शुरूआत थीं। इन फिल्मों ने अनेक उत्पादों को रातों रात लोकप्रिय बना दिया और इसी कारण यह माध्यम भी बेहद लोकप्रिय माध्यम बन गया। आज के टेलीविजन विज्ञापनों का जन्म भी इसी से हुआ है। इसी दौर में छोटे उत्पादकों ने सिनेमाघरों में स्लाइड के जरिए अपने उत्पादों के विज्ञापन की शुरूआत की, यह भी जल्द ही एक लोकप्रिय माध्यम बन गया ।
    आज टीवी से भी अधिक नए विज्ञापन माध्यम विज्ञापन जगत में हलचल मचा रहे है। आॅन लाइन कम्प्यूटर सेवा, होम शापिंग ब्राडकास्ट और मोबाइल तथा इंटरनेट ने नए विज्ञापन माध्यमों को जन्म दे दिया है, साथ इंटरनेट या ई-मेल के जरिए विज्ञापन को सारी दुनिया में भी पहुँचाया जाना सम्भव हो गया है। इन नए माध्यमों की लागत भी काफी कम है।
    विज्ञापन के प्रकाशन माध्यम
    प्रकाशन माध्यम या मुद्रण माध्यम विज्ञापन का बहुत पुराना माध्यम है। मुद्रित माध्यमों में समाचार पत्र और पत्रिकाएं दोनों ही शामिल हैं जो उपभोक्ताओं को सूचनाएं और संदेश देकर प्रभावित करती हैं। डायरेक्ट मेल और कैटलॉग आदि भी प्रकाशन माध्यम का हिस्सा हैं। विज्ञापन के प्रकाशन माध्यमों की विशिष्टता इस बात में है कि इस माध्यम के जरिए विज्ञापन एक छोटी सी जगह में बड़ी कलात्मकता से अपनी बात उपभोक्ताओं अथवा ग्राहकों तक संप्रेषित कर देते हैं।
    समाचार पत्र :
    आज विज्ञापन समाचार पत्र उद्योग की रीढ़ माने जाते हैं। समाचार पत्रों में तरह-तरह के विज्ञापनों की भरमार भी देखी जा सकती है। समाचार पत्रों का मुख्य कार्य दिन-प्रतिदिन की खबरें समाज के व्यापक हिस्से तक पहुँचाना है, मगर साथ ही ये समाचार देने के साथ-साथ निर्धारित शुल्क लेकर विज्ञापन भी प्रकाशित करते हैं।
    समाचार पत्रों के ऐतिहासिक परिदृश्य पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि समाचार पत्रों ने अपने विकास के पहले चरण से ही विज्ञापन प्रकाशित करना शुरू कर दिया था। साक्षरता और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ समाचार पत्रों की लोकप्रियता बढ़ी तो इनमें विज्ञापन प्रकाशित करने की उपादेयता भी बढ़ती गई। आज दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक सभी तरह के समाचार पत्रों में विज्ञापनों की भरमार देखी जा सकती है। क्षेत्रीय, प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर के सभी अखबार संसाधन जुटाने के लिए विज्ञापनों के लिए जगह सुरक्षित रखते हैं, और इस स्थान को येन-केन प्रकारेण विज्ञापनों से भरते भी हैं।
    जनसंपर्क अभियान के तहत विभिन्न औद्योगिक व व्यावसायिक प्रतिष्ठान तथा सरकारी व गैर-सरकारी प्रतिष्ठान समाचार पत्रों में विज्ञापन देते हैं। कभी-कभी विशिष्ट अवसरों पर उत्पाद या सेवा के विज्ञापन को अधिक प्रभाव के साथ प्रस्तुत करने के लिए विशेष परिशिष्ट भी प्रकाशित किये जाते हैं। केंद्र और राज्य सरकारें भी अपने मंत्रालयों की महत्वपूर्ण सूचनाओं और योजनाओं को जनता तक पहुंचाने के लिए समाचार-पत्रों में विज्ञापन प्रकाशित करवाती हैं। राष्ट्रीय समारोहों के अवसर पर भी महत्वपूर्ण विज्ञापन प्रकाशित करवाए जाते है।
    समाचार पत्रों में विज्ञापन देने के लाभ और सीमाएँदोनों ही हैं। समाचार-पत्र में विज्ञापन का प्रकाशन इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों (टेलीविजन तथा रेडियो) की अपेक्षा सस्ता होता है। एक निश्चित भौगालिक सीमा में रहने वाले समूह के हिसाब से विज्ञापन क्षेत्रीय अथवा प्रांतीय अखबारों में दिए जा सकते है। राष्ट्रीय स्तर पर उत्पाद तथा सेवाओं संबंधी विज्ञापन के लिए राष्ट्रीय समाचारपत्रों में विज्ञापन की भाषा और प्रस्तुति में उपभोक्ता की मनोवृति को ध्यान में रखते हुए, समय-समय पर बदलाव लाकर अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
    किंतु समाचारपत्र विज्ञापन की अपनी कुछ सीमाएं अथवा कमियां भी हैं। सबसे बड़ी कमी है इसका अल्पकालिक जीवन। इसकी जीवन-अवधि केवल एक दिन की होती है, इसके बाद यह रद्दी हो जाता है। निरक्षर और अशिक्षित उपभोक्ताओं या ग्राहकों के लिए समाचारपत्र के विज्ञापन निरर्थक होते हैं।
    समाचार पत्र-पत्रिकाऐं एक सीधा विज्ञापन माध्यम है जो सम्भावित ग्राहकों या उपभोक्ताओं की बड़ी संख्या तक संदेश पहुँचाता है। यह अपेक्षाकृत सस्ता माध्यम है। समाचार पत्रों के विज्ञापन की लागत विज्ञापन के आकार, स्थान और समाचार पत्र की वितरण संख्या के आधार पर तय होती है। समाचार पत्रो विज्ञापन के जरिए स्थानीय सूचनाएं पहुँचाने के लिए भी आदर्श माध्यम हैं।
    डायरेक्ट मेल :
    डायरेक्ट मेल आधुनिक दौर का एक ऐसा मुद्रित विज्ञापन माध्यम है जिसका प्रयोग कुछ चुनिंदा उपभोक्ताओं को ही लक्ष्य बनाकर किया जाता है। इस माध्यम में संदेश सार्वजनिक न होकर सिर्फ उन्हीं लोगों तक पहुंचता है जिनके पास इसे भेजा जाता है। इस माध्यम के द्वारा विज्ञापनकर्ता उपभोक्ता से सीधा संवाद करता है क्योंकि इसमें विज्ञापन को सीधे उपभोक्ता तक भेज दिया जाता है। विज्ञापनकर्ता अपने चुने हुए उपभोक्ताओं या लक्ष्य समूह तक अपने उत्पाद या विषय की जानकारी पत्र, प्रचार सामग्री, फोल्डर आदि के जरिए भेजता है।
    इस माध्यम के जरिए कुछ चुने हुए सम्भावित या पुराने उपभोक्ताओं तक विज्ञापनकर्ता का संदेश सीधे पहुँचता है इसलिए इसका असर भी अधिक होता है। बड़े उत्पादों के मामले में यह माध्यम अधिक असर कारक है। उदाहरणार्थः किसी एक कंपनी से कार खरीद चुके ग्राहक के पास वही कंपनी जब अपनी नई कार के बारे में डायरेक्ट मेल से सूचना भेजती है तो ग्राहक पर उसका अधिक असर होता है। इस माध्यम में संदेश विस्तृत और सूचनाप्रद होता है, जिससे उपभोक्ता को उत्पाद की पूरी जानकारी हो जाती है। लेकिन यह तुलनात्मक रूप से मंहगा माध्यम है क्योंकि इसमें संदेश पर व्यय अधिक होता है।
    कैटलॉग :
    कैटलॉग या सूची पत्र भी एक उपयोगी विज्ञापन माध्यम है। यूरोपीय देशों में एक दौर में कैटलॉग के जरिए खूब विज्ञापन किए जाते थे। कैटलॉग किसी विशेष कंपनी या फर्म के विभिन्न उत्पादों के बारे में विस्तार से जानकारी देते हैं। इनमें विज्ञापनकर्ता के विभिन्न उत्पादों का मूल्य, गुणवत्ता रंग, आकार प्रकार, विशेषताओं व उपयोग आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी जाती है।
    कैटलॉग कई प्रकार के होते है। जैसे खुदरा कैटलॉग, व्यावसायिक कैटलॉग और उपभोक्ता कैटलॉग आदि।
    कलैण्डर :
    कलैण्डर भी विज्ञापन का एक महत्वपूर्ण मुद्रित माध्यम है। कलैण्डर प्रायः हर घर में लगे होते हैं। यह एक ऐसा प्रभावी माध्यम है जो हर वक्त नजर पड़ने पर उपभोक्ता को उत्पाद की याद दिलाता रहता है। कलैण्डर दो प्रकार के होते हैं। एक वो जिनमें सिर्फ तारीखें होती हैं और विज्ञापनकर्ता का नाम पता और उत्पाद आदि की जानकारी होती है। दूसरी तरह के कलैण्डरों में आकर्षक चित्र, तस्वीरें आदि होती है, देवी देवताओं के चित्र होते हैं, और इन चित्रों के नीचे या उपर विज्ञापनकर्ता का परिचय होता है। बड़े कारपोरेट घरानों से लेकर सार्वजनिक प्रतिष्ठान और निजी संस्थान कलैण्डरों को विज्ञापन माध्यम के रूप में इस्तेमाल करते रहते हैं।
    फोल्डर और पैम्फलेट :
    ये स्थानीय विज्ञापन के सस्ते माध्यम हैं। पैम्फलेट प्रायः छोटे आकार के रंगीन पतले कागज पर मुद्रित किए जाते हैं और इनमें स्थानीय सेवाओं या उत्पादों के बारे में सूचनाएं दी जाती हैं। पैम्फलेट या तो हाथों हाथ बांट दिए जाते हैं या समाचार पत्रों के साथ वितरित किए जाते हैं। स्थानीय स्तर पर प्रयोग किए जाने वाले इस माध्यम का असर तत्काल होता है।
    फोल्डर भी एक प्रकार के पैम्फलेट हैं, जिनमें पैम्फलेट की अपेक्षा अधिक अच्छे कागज का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे कागज छपाई के बाद मोड़े (फोल्ड किए) जाते हैं, इसीलिए इन्हें फोल्डर कहा जाता है। फोल्डर में एक उत्पाद या एक संस्थान के एकाधिक उत्पादों के बारे में विस्तृत जानकारी दी जाती है। फोल्डर में शीर्षक, उपशीर्षक, चित्र, ब्रांड आदि का विस्तार से प्रयोग होता है। फोल्डर का प्रयोग पर्यटन सम्बन्धी सूचनाओं के प्रसार के लिए भी खूब होता है।
    विज्ञापन के प्रसारण माध्यम
    विज्ञापन के प्रसारण माध्यमों में श्रव्य-दृश्य माध्यम शामिल हैं। यह प्रसारण माध्यम विज्ञापन के सबसे बड़े और प्रभावशाली माध्यम हैं, जिनके जरिए विज्ञापनों को व्यापक प्रचार और उन्नत रूप मिला है। रेडियो और टेलीविजन इस श्रेणी के प्रमुख माध्यम हैं।
    रेडियो :
    रेडियो एक श्रव्य माध्यम है। जो विश्व व्यापी है। ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरी इलाकों तक, हर कहीं इसकी पहंुच है। यह एक ऐसा माध्यम है, जो निरक्षर लोगों तक भी विज्ञापन का संदेश पहुँचा सकता है। भारत में कृषि, ग्रामीण उपभोक्ता वस्तुओं और जनहित की योजनाओं तथा कार्यक्रमों के लिए इसकी अत्यधिक उपयोगिता है।
    माध्यम के रूप में रेडियो का उपयोग कर विज्ञापनों को अनेक स्वरूपों में प्रस्तुत किया जा सकता है, जैसे –
    1. सामान्य उद्घोषणा के तौर पर
    2. नाटकीय संवादों के जरिए
    3. किसी खास व्यक्ति की आवाज में विज्ञापित वस्तु की प्रशंसा या
    4. उपयोगिता बताकर अथवा
    5. लोकगीतों, संगीत और ध्वनि प्रभावों की मदद से।
    रेडियो विज्ञापनों में लोकगीतों और संगीत का प्रयोग इन्हें अति विशिष्ट बना देता है। ऐसे अनेक रेडियो विज्ञापन हैं, जो अपनी सुरीली धुन और गेय शैली के कारण लोगों की जुबान पर चढ़ गए। हाल के वर्षों में एफएम रेडियो का तेजी से विकास होने के कारण अब शहरी क्षेत्रों में भी रेडियो विज्ञापनों की लोकप्रियता खूब बढ़ गई है।
    हालाँकि दृश्य माध्यमों के विज्ञापनों की तुलना में रेडियो में उद्घोषणा के रूप में प्रस्तुत विज्ञापन अधिक समय तक उपभोक्ताओं की स्मृति में नहीं रह पाते ।
    टेलीविजन
    टेलीविजन आज विज्ञापन का सर्वाधिक प्रचलित और लोकप्रिय विज्ञापन माध्यम बन गया है। पश्चिम की तुलना में भारत में टेलीविजन का आगमन अपेक्षाकृत नया है। देश में 1976 में दूरदर्शन से पहली बार विज्ञापनों का प्रसारण हुआ मगर आज दूरदर्शन देश का सबसे प्रभावी विज्ञापन माध्यम है। बड़ी-बड़ी कंपनियां, कारपोरेट हाऊस, संस्थाएं और संगठन अपने उत्पादों अथवा सेवाओं के विज्ञापन टेलीविजन पर प्रसारित करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। टेलीविजन द्वारा प्रसारित होने वाले विज्ञापनों में दृश्य और श्रव्य प्रभावों के साथ-साथ संगीत और विज्ञापित वस्तु की विशेषताएं बताने के लिए विशेष प्रभावों का भी इस्तेमाल किया जाता है, जो टेलीविजन को एक सर्वाधिक प्रभावशाली विज्ञापन माध्यम के रूप में स्थापित करता है। यह एक चमत्कारिक और बहुसंवेदी माध्यम है जो विज्ञापनकर्ता को अपनी बात पूरी तरह संप्रेषित करने का पूरा-पूरा अवसर देता है।
    टेलीविजन के विज्ञापन उपभोक्ता और उत्पाद के बीच की दूरी को बहुत कम कर देते हैं। उपभोक्ता उत्पाद की खूबियों को सजीव ढंग से देखता है, इसलिए उस पर इन विज्ञापनों का असर भी अधिक होता है। इन विज्ञापनों के सीधे प्रभाव के कारण उपभोक्ता का निर्णय प्रक्रिया पर भी सकारात्मक प्रभाव होता है।
    टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले विज्ञापन मुख्यतः दो प्रकार के होते है।
    1. स्पॉट विज्ञापन
    2. प्रायोजित कार्यक्रम
    स्पॉट एडवरटिजमेंट या समयबद्ध विज्ञापन बहुत छोटी अवधि के होते हैं। इस तरह के विज्ञापनों में उत्पाद की गुणवत्ता, खूबियों, मूल्य आदि के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी जाती है। इनमें उत्पाद को आकर्षक रूप में प्रस्तुत किया जाता है और प्रायः इनका प्रभाव चैंकाने वाला होता है। इस तरह के कार्यक्रम न्यूज चैनलों में समाचारों के बीच-बीच में, खेलों के प्रसारण के दौरान बीच-बीच में या अन्य चैनलों में कार्यक्रमों के बीच में कहीं भी दिखाए जा सकते हैं। क्रिकेट के मैचों में तो हर ओवर के बाद या किसी खिलाड़ी के आऊट होने पर भी इस तरह के विज्ञापन दिखा दिए जाते हैं।
    प्रायोजित कार्यक्रम इस तरह के विज्ञापन हैं जो दीर्घ अवधि के लिए किसी विशेष उत्पाद का प्रचार करते है। उदाहरणार्थः यदि किसी विशेष चैनल में 30 मिनट के किसी खास कार्यक्रम का नियमित प्रसारण होता है तो ऐसे किसी कार्यक्रम को किसी विशेष उत्पाद की ओर से प्रायोजित कर दिया जाता है। तब प्रायोजक का नाम भी ऐसे कार्यक्रम से जुड़ जाता है और कार्यक्रम के दौरान कई बार प्रायोजक का उल्लेख किया जाता है। मनोरंजन चैनलों में इस तरह के प्रायोजित कार्यक्रमों की भरमार होती है। क्रिकेट में तो कई बार पूरी प्रतियोगिता ही किसी खास प्रायोजक द्वारा प्रायोजित होती है और ऐसे मैचों के सजीव प्रसारण में बार-बार प्रायोजक का जिक्र होता रहता है।
    टेलीविजन के विज्ञापन ब्रांड का महत्व बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाते हैं, सचिन तेंदुलकर या महेंद्र सिंह धौनी जैसे बड़े खिलाड़ियों या सिने कलाकारो को किसी खास उत्पााद के ब्रांड एम्बेसेडर के तौर पर प्रस्तुत कर विज्ञापनकर्ता बड़ा लाभ पा सकता है, उसका उत्पाद रातों-रात लोकप्रिय हो सकता है।
    टेलीविजन ने जहां भाषा और लिपि की सीमाएं खत्म कर दी है, वहीं इस माध्यम में एक बड़ी कमी यह है कि टेलीविजन यह बेहद खर्चीला माध्यम है। टेलीविजन विज्ञापन की निर्माण प्रक्रिया जटिल है और इसमें लागत भी अधिक आती है। साथ ही यदि विज्ञापन बार-बार नहीं दिखाया जाता तो इस बात की भी आशंका रहती है कि वह उपभोक्ता तक पहुंच भी पाया है अथवा नहीं।
    फिल्म व वीडियो :
    सिनेमा भी एक खास प्रकार का श्रव्य-दृश्य विज्ञापन का माध्यम है। इसका इस्तेमाल सिनेमाघरों में लघु फिल्मों या स्लाइड्स के जरिए उत्पादों का प्रचार-प्रसार करने के लिए किया जाता है। इस माध्यम की खूबी यह है कि इसमें इस बात की गारंटी होती है कि इसे एक निश्चित दर्शक वर्ग देखेगा ही। फिल्म माध्यम में स्थानीय उत्पादों के साथ-साथ मशहूर ब्रांड भी अपने विज्ञापन करते हैं।
    कई बार कोई विशेष उत्पाद किसी पूरी फीचर फिल्म के साथ ही इस तरह के अनुबंध कर लेता है कि फिल्म में उसी के उत्पाद मसलन होटल, रेस्तरां, विमान सेवा, प्रतिष्ठान आदि का प्रदर्शन कहानी के हिस्से के रूप में कर दिया जाता है।
    उदाहरणार्थ किसी फिल्म का नायक विमान यात्रा कर रहा है तो फिल्म में उसे किसी विशेष विमान सेवा के विमान से जाते हुए दिखाया जाता है। दृश्यों में उस विमान सेवा के कर्मचारी, विमान आदि भी दिखा दिए जाते हैं। यह विज्ञापन का एक महंगा तरीका है।
    फिल्मों की तरह से ही वीडियो फिल्मों के जरिए भी विज्ञापन किए जाते हैं। आजकल स्थानीय तौर पर चलने वाले केबल नेटवर्क वीडियो फिल्मों के जरिए स्थानीय उत्पादों का विज्ञापन जमकर करने लगे हैं।
    इंटरनेट :
    इंटरनेट आज विज्ञापन का सबसे नया और विस्तृत माध्यम बन चुका है। अंतराष्ट्रीय व्यापार जगत आज इंटरनेट का इस्तेमाल कर अपने उत्पादों का विज्ञापन कर रहा है और अपना प्रचार-प्रसार कर रहा है। वेब एडवरटाईजिंग यानी इंटरनेट के जरिए विज्ञापन आज एक तेजी से लोकप्रिय हो रहा विज्ञापन माध्यम बन गया है। इंटरनेट के जरिए विज्ञापन अधिक महंगा भी नहीं है और इसका प्रसार क्षेत्र असीमित है इसलिए इसका असर भी व्यापक होता है। फिर भी इंटरनेट अभी सर्व जन का विज्ञापन माध्यम नहीं बन सका है और इसकी पहंचु एक खास वर्ग तक ही सीमित है। यही हाल मोबाइल विज्ञापनों का भी है।
    कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में विज्ञापन के दृश्य-श्रव्य माध्यम ही सर्वाधिक प्रभावशाली और असरदार माध्यम बन गए हैं और तकनीक के विकास के साथ-साथ इन माध्यमों का भी उत्तरोत्तर विकास होता जा रहा है।

    टेलीविजन न्यूज

    भारतीय पौराणिक ग्रंथ महाभारत की कथा में संजय द्वारा धृतराष्ट्र के पास बैठे-बैठे महाभारत के युद्व क्षेत्र का आंखों देखा हाल सुनाने का उल्लेख भले ही मिलता हो मगर आधुनिक टेलीविजन के इतिहास को अभी 100 वर्ष भी पूरे नहीं हुए हैं। सन् 1900 में पहली बार रूसी वैज्ञानिक कोंस्तातिन पेस्र्की ने सबसे पहली बार टेलीविजन शब्द का इस्तेमाल चित्रों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने वाले एक प्रारम्भिक यंत्र के लिए किया था। 1922 के आस-पास पहली बार टेलीविजन का प्रारम्भिक सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ था। 1926 में इंग्लैण्ड के जॉन बेयर्ड और अमेरिका के चाल्र्स फ्रांसिस जेनकिंस ने मैकेनिकल टेलीविजन के जरिए चित्रों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने का सफल प्रयोग किया।
    पहले इलेक्ट्रानिक टेलीविजन का आविष्कार रूसी मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक ब्लादीमिर ज्योर्खिन ने 1927 में किया। हालांकि इसकी दावेदारी जापान, रूस, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन भी करते रहे हैं कि पहला इलेक्ट्रानिक टेलीविजन उनके देश में बनाया गया। बहरहाल 1939 में पहली बार अमेरिकी रेडियो प्रसारण कंपनी आरसीए ने न्यूयार्क विश्व मेले के उद्घाटन और राष्ट्रपति रूजवैल्ट के भाषण का सीधा टेलीविजन प्रसारण किया। बीबीसी रेडियो 1930 में और बीवीसी टेलीविजन 1932 में स्थापित हो गया था। इसने 1936 के आस पास कुछ टीवी कार्यक्रम बनाए भी। इसी बीच दूसरा विश्वयुद्व छिड़ जाने से टीवी के विकास की रफ्तार कम हो गई।
    1 जुलाई 1941 को अमेरिकी कंपनी कोलम्बिया ब्रॉडकास्टिंग सर्विस ने न्यूयार्क टेलीविजन स्टेशन से रोजाना 15 मिनट के न्यूज बुलेटिन की शुरूआत की। यह प्रसारण सीमित दर्शकों के लिए था। विश्वयुद्व की समाप्ति के बाद तकनीकी विकास के दौर में 1946 में रंगीन टेलीविजन के आविष्कार ने टीवी न्यूज के विकास में एक बड़ी छलांग का काम किया। 50 के दशक में अमेरिकी प्रसारण कंपनी एनबीसी और एनसीबीएस ने रंगीन न्यूज बुलेटिन शुरू किए तो बीबीसी टीवी ने भी दैनिक न्यूज बुलेटिन शुरू कर दिए। 1980 में टेड टर्नर ने सीएनएन के 24 घंटे के न्यूज चैनल की शुरूआत की। 24 घंटे का यह न्यूज चैनल जल्द ही लोकप्रिय हो गया और 1986 में स्पेस शटल चैलेजंर के दुघर्टनाग्रस्त होने के सजीव प्रसारण ने इसे बहुत ख्याति प्रदान की। लगभग 10 वर्ष बाद 1989 में ब्रिटेन में भी रूपर्ट मर्डोक ने लन्दन से स्काई न्यूज के नाम से 24 घंटे का न्यूज चैनल शुरू किया जबकि टीवी न्यूज में काफी नाम कमा चुके बीबीसी को 24 घंटे का न्यूज चैनल शुरू करने के लिए 1997 तक इन्तजार करना पड़ा। आज विश्व के प्रायः हर देश में एक से अधिक न्यूज चैनल हैं। पश्चिमी टीवी न्यूज चैनलों का एकाधिकार और दबदबा भी अब कम होता जा रहा है और अल जजीरा जैसे चैनल टीवी खबरों की दुनिया में पश्चिमी एकाधिकार को कड़ी चुनौती देने लगे हैं।
    भारत में टेलीविजन का आगमन 1959 में हो गया था। प्रारम्भ में यह माना गया था कि भारत जैसे गरीब देश में इस महंगी टैक्नोलॉजी वाले माध्यम का कोई भविष्य नहीं है। लेकिन धीरे-धीरे यह धारणा खुद ब खुद बदलती चली गई। 1964 में दूरदर्शन पर पहली बार न्यूज की शुरूआत हुई। शुरू में यह रेडियो यानी आकाशवाणी के अधीन था। इसका असर दूरदर्शन के समाचारों पर भी दिखाई देता था। लेकिन 1982 में दिल्ली एशियाई खेलों के आयोजन, एशियाड के साथ ही देश में रंगीन टेलीविजन की शुरूआत हो गई और यहीं से दूरदर्शन के समाचारों में एक नए युग की शुरूआत भी हुई। इसी दौर में हिंदी के अलावा उर्दू, संस्कृत और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के न्यूज बुलेटिन भी शुरू हुए। संसदीय चुनावों के कवरेज ने दूरदर्शन न्यूज को काफी लोकप्रिय बनाया मगर उसे अभी निजी चैनलों की चुनौती नहीं मिली थी।
    भारतीय टेलीविजन में निजी क्षेत्र का खबरों की दुनिया में प्रवेश 1994 में हुआ। पहले जैन टीवी और फिर जी टीवी ने न्यूज बुलेटिन शुरू किए। पहला चौबीस घंटे का न्यूज चैनल भी जैन टीवी का ही था जो अधिक समय तक चल नहीं पाया। जी न्यूज ने 1 फरवरी 1999 को चौबीस घंटे का न्यूज चैनल शुरू किया जो आज भी चल रहा है। इसी बीच बीओआई ने भी न्यूज चैनल शुरू किया, मगर खर्चीले प्रबन्धन ने उसे भी जल्द ही डुबा दिया। लेकिन भारत में टीवी न्यूज को सही मायनों में स्थापित करने का श्रेय अगर किसी को दिया जा सकता है तो वो है ‘आज तक’। यह 17 जुलाई 1995 को आज तक 20 मिनट के न्यूज बुलेटिन के तौर पर दूरदर्शन में शुरू हुआ था। सुरेन्द्र प्रताप सिंह के कुशल संपादन व प्रस्तुतिकरण ने जल्द ही आजतक को सर्वश्रेष्ठ और विश्वसनीय समाचार बुलेटिन बना दिया। इसकी सफलता की नींव पर 31 दिसम्बर 2000 को आज तक के 24 घंटे के निजी न्यूज चैनल की शुरूआत हुई जो अब भी सर्वश्रेष्ठ बना हुआ है।
    आज देश में 100 से अधिक निजी न्यूज चैनल हैं और सब अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ खबरों की दुनिया में अपना प्रदर्शन कर रहे हैं। तकनीक के सस्ते होते जाने से भी टीवी न्यूज का विस्तार तेजी से हुआ है। पहले न्यूज चैनल शुरू करने में 50 करोड़ से अधिक खर्च आता था तो आज महज कुछ करोड़ रूपयों में न्यूज चैनल शुरू हो जाता है। मगर तकनीक सस्ती होने के साथ ही टीवी न्यूज में भी सस्तापन आने लगा है, गम्भीरता और लोक जिम्मेदारी की भावना कम होने से साथ-साथ सनसनी और नाटकीयता बढ़ने लगी है। टीवी न्यूज के भविष्य के लिए यह शुभ संकेत नही कहे जा सकते, मगर विशेषज्ञ मानते हैं कि यह दौर जल्द ही खत्म हो जाएगा।
    रेडियो 
    इलेक्ट्रानिक मीडिया का पहला क्रातिकारी कदम रेडियो को माना जाता है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में सन् 1895 में इटली के वैज्ञानिक गुगलीनो मारकोनी ने बेतार संकेतों को इलेक्ट्रोमैग्नेटिक हार्टीजियन तरंगों द्वारा प्रसारित करने में सफलता हासिल कर रेडियो की अवधारणा को जन्म दिया। जल्द ही रेडियो, टेलीफोन और बेतार का तार समुद्री यातायात में संचार का प्रमुख साधन बन गये। प्रथम विश्व युद्ध में सैनिक संचार और प्रचार के लिए भी रेडियो का खूब इस्तेमाल हुआ था। विश्व युद्व के बाद रेडियो का इस्तेमाल जनसंचार मीडिया के तौर पर किए जाने के लिए परीक्षण शुरू हुए और 1920 में अमेरिका के पिट्सवर्ग में दुनिया का पहला रेडियो प्रसारण केन्द्र स्थापित हुआ। 23 फरवरी 1920 को मारकोनी की कंपनी ने भी चैम्सफोर्ड, इंग्लैण्ड से अपने पहले रेडियो कार्यक्रम का सफल प्रसारण किया। 14 नवम्बर 1922 को लन्दन में ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कंपनी की स्थापना हुई। मारकोनी भी इसके संस्थापकों में एक थे। एक जनवरी 1927 को इस कंपनी को ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कार्पोरेशन, बीबीसी मंे परिवर्तित कर दिया गया।
    भारत में 8 अगस्त 1921 को टाइम्स आॅफ इण्डिया के मुम्बई कार्यालय ने एक विशेष रेडियो संगीत कार्यक्रम का प्रसारण कर भारत में रेडियो प्रसारण की नींव रखी। इस प्रसारण को पुणे तक सुना गया था। इसी के साथ पश्चिम की तरह भारत में भी शौकिया रेडियो क्लबों की स्थापना होने लगी। 13 नवम्बर 1923 को कोलकाता से रेडियो क्लब आॅफ बंगाल ने और 8 जून 1924 को बाम्बे रेडियो क्लब मुम्बई ने अपने प्रसारण शुरू किए। साथ ही चेन्नई, करांची तथा रंगून में भी ऐसे ही प्रसारण केन्द्र शुरू हो गए। आर्थिक अभावों के कारण प्रायः ये सभी रेडियो क्लब दीर्घजीवी नहीं रह पाए लेकिन इसके बावजूद रेडियो की लोकप्रियता कम नहीं हुई।
    23 जुलाई 1927 को चेन्नई में इण्डियन ब्राडकास्टिंग कंपनी (आईबीसी) का विधिवत उद्घाटन तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन द्वारा किया गया। उस समय भारत में कुल 3594 रेडियो सेट थे। तब रेडियो सेट रखने के लिए सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता था। लगातार घाटे के कारण जल्द ही आईबीसी को बंन्द करने की नौबत आ गई लेकिन रेडियो सुनने के आदी हो चुके लोगों के तीव्र विरोध के कारण सरकार ने इसका प्रसारण जारी रखने का फैसला किया और 1 अपै्रल 1930 को इण्डियन स्टेट ब्राडकांस्टिंग सर्विस की स्थापना हुई जो बाद में आकाशवाणी में परिवर्तित हो गई।
    आज आकाशवाणी दुनिया का सबसे बड़ा रेडियो नेटवर्क हो चुका है। एक अरब से अधिक लोगों तक इसकी पहुंच है। देश भर में आकाशवाणी के 250 से अधिक छोटे बड़े केन्द्र हैं। 25 से अधिक भाषाओं और 150 से अधिक बोलियों में इसके कार्यक्रम प्रसारित होते है। एफएम (फ्रीक्वेंसी मोड्युलेटर) सेवा की शुरूआत के साथ भारत में रेडियो को एक नया जीवन मिला है। आज आकाशवाणी के साथ-साथ प्रायः हर बड़े शहर में एक दो निजी एफएम रेडियो प्रसारण हो रहें है, और लोगों को मनोरंजन के साथ सूचना भी उपलब्ध करा रहे है।
    रेडियो टैक्नोलॉजी के डिजीटल हो जाने से भी रेडियो को नया जीवन मिल गया है और अब तो वल्र्ड स्पेस रेडियो भी भारत में उपलब्ध है। देश में आज 25 करोड़ से अधिक रेडियो सेट हैं और आज भी दूर दराज के इलाकों में सूचना और संचार का यह सबसे भरासेमंद साधन है।
    हालांकि रेडियो के और भी कई उपयोग हैं, मसलन पुलिस व सेना इसे अपने विभागीय संचार तंत्र के रूप में इस्तेमाल करते हैं। विमान यात्राओं के संचालन में भी इसका प्रयोग होता है। समुद्री यात्राओं, पर्वतारोहण अभियानों व अन्य साहसिक अभियानों में भी इसका इस्तेमाल संचार के विश्वस्त साधन के रूप में किया जाता है। वैसे तो ध्वनि की रफ्तार 345 मीटर प्रति सेकेंड होती है लेकिन रेडियो प्रसारण की तकनीक के कारण इसकी गति 1,86,000 मील प्रति मिनट हो जाती है। इसी कारण रेडियो के जरिए लाखों मील दूर तक की बात हम एक सैकेंड से भी कम समय में सुन लेते हैं।
    रेडियो क्योंकि बोले जाने वाले शब्दों का माध्यम है। इसलिए इसके समाचारों की भाषा भी प्रिंट्र मीडिया के समाचारों से कुछ अलग होती है। इसलिए रेडियो के लिए समाचार बनाते समय कुछ सावधानियां जरूरी हैं।
    1- समाचार में शब्दों का चयन ऐसा होना चाहिए कि वो श्रोता को आसानी से समझ में आ जाएं।
    2- वाक्य छोटे-छोटे होने चाहिये और उनमें शब्द आम बोलचाल की भाषा के
    होने चाहिए।
    3- सरलता रेडियो समाचार लेखन का सबसे जरूरी तत्व है, अतः रेडियो समाचार सरल ढंग से लिखा जाना चाहिए।
    4- चूंकि श्रोता के पास रेडियो समाचार को अखबार की तरह फिर से पढ़ पाने की सुविधा नहीं होती इसलिए महत्वपूर्ण सूचना व जरूरी अंश को एक से अधिक बार लिखा जाना चाहिए लेकिन इस तरह कि वह सिर्फ दोहराव ही
    न लगे ।
    5- रेडियो समाचारों में उपर्युक्त, पूर्ववर्णित, निम्नलिखित, पिछले पैराग्राफ में
    आदि शब्दों से एकदम बचना चाहिए।
    इस प्रकार कहा जा सकता है कि रेडियो निःसंदेह आज भी इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों में अग्रणी है और एफएम की युवाओं के बीच बढ़ती लोकप्रियता ने इसे एक प्रकार से फिर से पुर्नजीवित कर दिया है और एक बार फिर लोग रेडियो की ओर से मुड़ने लगे हैं।

    फीचर

    फीचर को अंग्रेजी शब्द फीचर के पर्याय के तौर पर फीचर कहा जाता है। हिन्दी में फीचर के लिये रुपक शब्द का प्रयोग किया जाता है लेकिन फीचर के लिये हिन्दी में प्रायः फीचर शब्द का ही प्रयोग होता है। फीचर का सामान्य अर्थ होता है – किसी प्रकरण संबंधी विषय पर प्रकाशित आलेख है। लेकिन यह लेख संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाले विवेचनात्मक लेखों की तरह समीक्षात्मक लेख नही होता है।फीचर समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली किसी विशेष घटना, व्यक्ति, जीव – जन्तु, तीज – त्योहार, दिन, स्थान, प्रकृति – परिवेश से संबंधित व्यक्तिगत अनुभूतियों पर आधारित वह विशिष्ट आलेख होता है जो कल्पनाशीलता और सृजनात्मक कौशल के साथ मनोरंजक और आकर्षक शैली में प्रस्तुत किया जाता है। अर्थात फीचर किसी रोचक विषय पर मनोरंजक ढंग से लिखा गया विशिष्ट आलेख होता है।

    फीचर के प्रकार·

    • सूचनात्मक फीचर
    • व्यक्तिपरक फीचर
    • विवरणात्मक फीचर
    • विश्लेषणात्मक फीचर
    • साक्षात्कार फीचर
    •  इनडेप्थ फीचर
    • विज्ञापन फीचर
    •  अन्य फीचर
    फीचर की विशेषतायें
    • किसी घटना की सत्यता या तथ्यता फीचर का मुख्य तत्व होता है।
    • एक अच्छे फीचर को किसी सत्यता या तथ्यता पर आधारित होना चाहिये।
    • फीचर का विषय समसामयिक होना चाहिये।
    • फीचर का विषय रोचक होना चाहिये या फीचर को किसी घटना के दिलचस्प पहलुओं पर आधारित होना चाहिये।
    • फीचर को शुरु से लेकर अंत तक मनोरंजक शैली में लिखा जाना चाहिये।
    • फीचर को ज्ञानवर्धक, उत्तेजक और परिवर्तनसूचक होना चाहिये।
    • फीचर को किसी विषय से संबंधित लेखक की निजी अनुभवों की अभिव्यक्ति होनी चाहिये।
    • फीचर लेखक किसी घटना की सत्यता या तथ्यता को अपनी कल्पना का पुट देकर फीचर में तब्दील करता है।
    • फीचर को सीधा सपाट न होकर चित्रात्मक होना चाहिये।
    • फीचर कीभाषा सरल, सहज और स्पष्ट होने के साथ–साथ कलात्मक और बिंबात्मक होनी चाहिये।

    फीचर लेखन की प्रक्रिया

    • विषय का चयन
    • सामग्री का संकलन
    • फीचर योजना

      विषय का चयन

      किसी भी फीचर की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितना रोचक, ज्ञानवर्धक और उत्प्रेरित करने वाला है। इसलिये फीचर का विषय समयानुकूल, प्रासंगिक और समसामयिक होना चाहिये। अर्थात फीचर का विषय ऐसा होना चाहिये जो लोक रुचि का हो, लोक – मानव को छुए, पाठकों में जिज्ञासा जगाये और कोई नई जानकारी दे।

      सामग्री का संकलन

      फीचर का विषय तय करने के बाद दूसरा महत्वपूर्ण चरण है विषय संबंधी सामग्री का संकलन। उचित जानकारी और अनुभव के अभाव में किसी विषय पर लिखा गया फीचर उबाऊ हो सकता है। विषय से संबंधित उपलब्ध पुस्तकों, पत्र – पत्रिकाओं से सामग्री जुटाने के अलावा फीचर लेखक को बहुत सामग्री लोगों से मिलकर, कई स्थानों में जाकर जुटानी पड़ सकती है।

      फीचर योजना

      फीचर से संबंधित पर्याप्त जानकारी जुटा लेने के बाद फीचर लेखक को फीचर लिखने से पहले फीचर का एक योजनाबद्ध खाका बनाना चाहिये।

      फीचर लेखन की संरचना

      ·         विषय प्रतिपादन या भूमिका
      ·         विषय वस्तु की व्याख्या
      ·         निष्कर्ष

      विषय प्रतिपादन या भूमिका

      फीचर लेखन की संरचना के इस भाग में फीचर के मुख्य भाग में व्याख्यायित करने वाले विषय का संक्षिप्त परिचय या सार दिया जाता है। इस संक्षिप्त परिचय या सार की कई प्रकार से शुरुआत की जा सकती है। किसी प्रसिद्ध कहावत या उक्ति के साथ, विषय के केन्द्रीय पहलू का चित्रात्मक वर्णन करके, घटना की नाटकीय प्रस्तुति करके, विषय से संबंधित कुछ रोचक सवाल पूछकर।  भूमिका का आरेभ किसी भी प्रकार से किया जाये इसकी शैली रोचक होनी चाहिये मुख्य विषय का परिचय इस तरह देना चाहिये कि वह पूर्ण भी लगे लेकिन उसमें ऐसा कुछ छूट जाये जिसे जानने के लिये पाठक पूरा फीचर पढ़ने को बाध्य हो जाये।

      विषय वस्तु की व्याख्या

      फीचर की भूमिका के बाद फीचर के विषय या मूल संवेदना की व्याख्या की जाती है। इस चरण में फीचर के मुख्य विषय के सभी पहलुओं को अलग – अलग व्याख्यायित किया जाना चाहिये। लेकिन सभी पहलुओं की प्रस्तुति में एक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष क्रमबद्धता होनी चाहिये। फीचर को दिलचस्प बनाने के लिये फीचर में मार्मिकता, कलात्मकता, जिज्ञासा, विश्वसनीयता, उत्तेजना, नाटकीयता आदि का समावेश करना चाहिये।

      निष्कर्ष

      फीचर संरचना के इस चरण में व्याख्यायित मुख्य विषय की समीक्षा की जाती है। इस भाग में फीचर लेखक अपने ऴिषय को संक्षिप्त रुप में प्रस्तुत कर पाठकों की समस्त जिज्ञासाओं को समाप्त करते हुये फीचर को समाप्त करता है। साथ ही वह कुछ सवालों को पाठकों के लिये अनुत्तरित भी छोड़ सकता है। और कुछ नये विचार सूत्र पाठकों से सामने रख सकता है जिससे पाठक उन पर विचार करने को बाध्य हो सके।

    फीचर संरचना से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण पहलू

    शीर्षक
    किसी रचना का यह एक जरुरी हिस्सा होता है और यह उसकी मूल संवेदना या उसके मूल विषय का बोध कराता है। फीचर का शीर्षक मनोरंजक और कलात्मक होना चाहिये जिससे वह पाठकों में रोचकता उत्पन्न कर सके।
    छायाचित्र
    छायाचित्र होने से फीचर की प्रस्तुति कलात्मक हो जाती है जिसका पाठक पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। विषय से संबंधित छायाचित्र देने से विषय और भी मुखर हो उठता है। साथ ही छायाचित्र ऐसा होना चाहिये जो फीचर के विषय को मुखरित करे फीचर को कलात्मक और रोचक बनाये तथा पाठक के भीतर विषय की प्रस्तुति के प्रति विश्वसनीयता बनाये।

    ब्रांड प्रबंधन

    ब्रांड प्रबंधन को समझने से पूर्व समझें कि ब्रांड क्या है।
    ब्रांड किसी कंपनी द्वारा अपने उत्पादों को दी गई वह पहचान है, जो उत्पाद के नाम, लोगो और ट्रेडमार्क आदि के रूप में प्रदर्शित की जाती है।
    ब्रांडों का ही कमाल है कि आज कई ऐसी वस्तुएें भी हैं जो अपनी वास्तविक पहचान या नाम के बजाय अपने ब्रांड के नाम से ही जानी जाती हैं।
    जैसे: ताले को हरीसन का ताला, अल्मारी को गोदरेज की अल्मारी, वनस्पति घी को डालडा, डिटरजेंट पावडर को सर्फ, टूथ पेस्ट को कोलगेट को उनकी कंपनी के नाम से जाना जाता है।
    कुछ ऐसे उत्पाद भी हैं, जिनकी कंपनियों के नाम ही उस उत्पाद के नाम के रूप में स्थापित हो गये हैं, जैसे फोटो स्टेट की जीरोक्स मशीन, टुल्लू पंप व जेसीबी मशीन। गौरतलब है कि जीरोक्स, टुल्लू व जेसीबी कंपनियों के नाम हैं, न कि उत्पाद के लेकिन उत्पाद के नाम के रूप में यही प्रचलन हैं।
    ब्रांड का लाभ यह है कि इसके जरिये सामान्य वस्तु को भी असामान्य कीमत पर बेचा जा सकता है।
    ब्रांड से एक ओर जहां उच्च गुणवत्ता की उम्मीद की जाती है, तो दूसरी ओर उसके उपभोक्ताओं को किसी ब्रांड वाले उत्पाद के प्रयोग से आम लोगों से हटकर दिखने की आत्म संतुष्टि भी मिलती है।
    ब्रांड को विकसित करने में गारंटी, वारंटी जैसी बिक्री बाद सेवाओं की काफी बड़ी भूमिका रहती है, जिसके जरिये उत्पाद के प्रति अपने प्रयोगकर्ताओं, ग्राहकों के मन में अपनत्व, विश्वास का भाव जागृत किया जाता है। और कोई उत्पाद यदि इन तरीकों से ब्रांड के रूप में स्थापित हो जाता है तो फिर ब्रांड की बडी धनराशि में खरीद-बिक्री भी की जाती है।

    क्या है ब्रांड :

    ब्रांड उत्पाद की कंपनी के नाम व ‘लोगो’का सम्मिश्रण है, जिसकी अपनी छवि से उपभोक्ताओं के बीच उस उत्पाद का जुड़ाव उत्पन्न होता है। ब्रांड की पहचान कंपनी के लोगो व मोनोग्राम से होती है। जैसे एडीडास, नाइकी, बाटा, टाटा आदि ब्रांड के लोगो व मोनोग्राम एक खास तरीके के चिन्ह के साथ लिखे जाते हैं।
    आने वाला समय ब्रांड का:
    बीते दौर में कुछ गिनी-चुनी चीजें ही ब्रांड के साथ मिलती थीं, जैसे वाहन, गाड़ियां, अल्मारी, टूथपेस्ट, साबुन, तेल, जूते व भोजन सामग्री में चाय।
    लेकिन बदलते दौर में कपड़ों के साथ ही सोना, हीरा जैसे महंगे आभूषणों से लेकर भोजन सामग्री में चावल, आटा, दाल, तेल, नमक, चीनी व सब्जी आदि भी ब्रांड के साथ बेचने की प्रक्रिया शुरु हो गई है। और वह दिन दूर नहीं जब अंडे, मांस व फल जैसे उत्पाद भी ब्रांड के नाम से बेचे जाएेंगे।

    ब्रांड विकसित करने की प्रक्रिया:

    1. गुणवत्ता :
    ब्रांड का सर्वप्रमुख गुण उसकी गुणवत्ता है। उपभोक्ता किसी उत्पाद को उसका ब्रांड देखकर सबसे पहले इसलिये खरीदते हैं कि वह उस उत्पाद की गुणवत्ता के प्रति अपनी ओर से बिना किसी जांच किये संतुष्ट महसूस करते हैं। उन्हें पता होता है कि अमुख ब्रांड के उत्पाद की गुणवत्ता हर बार ठीक वैसी ही होगी, जैसी उन्होंने पिछली बार उस उत्पाद में पाई थी।
    उदाहरण के लिये यदि उपभोक्ता किसी ब्रांड के सेब या आलू खरीदते हैं तो हमें हर बार समान आकार व स्वाद के सेब या आलू ही प्राप्त होंगे।
    लिहाजा, ब्रांड विकसित करने के लिये सबसे पहले उत्पाद की गुणवत्ता तय की जाती है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि गुणवत्ता से तात्पर्य उत्पाद की गुणवत्ता सर्वश्रेष्ठ होना नहीं वरन तय मानकों के अनुसार होना है।
    2. श्रेष्ठ होने की आत्म संतुष्टि :
    किसी ब्रांड के उत्पाद को उपभोक्ता इसलिये भी खरीदते हैं कि उसके प्रयोग से वह सर्वश्रेष्ठ उत्पाद का प्रयोग करने का दंभ पालता है और दूसरों को ऐसा प्रदर्शित कर आत्म संतुष्टि प्राप्त करता है।
    इसी भाव के कारण अक्सर धनी वर्ग के उपभोक्ता खासकर वस्त्रों, जूतों व गाड़ियों जैसे प्रदर्शन करने वाले उत्पादों को बड़े शोरूम से खरीदना पसंद करते हैं, और दोस्तों के बीच स्वयं की शेखी बघारते हुऐ उस शोरूम से उत्पाद को खरीदे जाने की बात बढ़-चढ़कर बताते हैं।
    वहीं कई लोग जो ऐसे बड़े शोरूम से महंगे दामों में उत्पाद नहीं खरीद पाते वह उस ब्रांड के पुराने उत्पाद फड़ों से खरीदकर झूठी शेखी बघारने से भी गुरेज नहीं करते।
    अर्थशास्त्र के सिद्धांतों में भी खासकर लक्जरी यानी विलासिता की वस्तुओं की कीमतों के निर्धारण को मांग व पूर्ति के सिद्धांत से अलग रखा गया है। ब्रांड के नाम पर सामान्यतया उत्पाद अपने वास्तविक दामों से कहीं अधिक दाम पर बेचे जाते हैं, और उपभोक्ता इन ऊंचे दामों को खुश होकर वहन करता है, वरन कई बार कम गुणवत्ता के उत्पादों को भी अधिक दामों में खरीदने से गुरेज नहीं करता।
    3. विज्ञापन एवं प्रस्तुतीकरण:
    विज्ञापन एवं प्रस्तुतीकरण की ब्रांड के निर्माण में निर्विवाद तौर पर बड़ी भूमिका होती है। विज्ञापन व प्रस्तुतीकरण दो तरह से ब्रांड की छवि के उपभोक्ताओं के मन में विस्तार व स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
    पहला, विज्ञापन व प्रस्तुतीकरण से नये उपभोक्ता उत्पाद के प्रति आकर्षित होते हैं। दूसरे, उसे प्रयोग कर चुके उपभोक्ताओं में अपने पसंदीदा ब्रांड के विज्ञापनों को देखकर अन्य लोगों से कुछ अलग होने का भाव जागृत होता है।
    4. गारंटी एवं वारंटी :
    गारंटी एवं वारंटी खरीद बाद सेवाओं की श्रेणी में आते हैं। यदि किसी उत्पाद को खरीदे जाने के बाद भी कंपनी उसके सही कार्य करने की गारंटी देती है, और कोई कमी आने पर उसे दुरुस्त करने का प्रबंध करती है तो उपभोक्ता उस उत्पाद पर आंख मूँद कर विश्वास कर सकते हैं। यही विश्वास ब्रांड के प्रति उपभोक्ता के जुड़ाव को और मजबूत करता है।
    कई बार उपभोक्ता एक ब्रांड को खरीदने के बाद दूसरे ब्रांड के उत्पाद में मौजूद गुणों का लाभ न ले पाने की कमी व निराशा महसूस करता है। गारंटी व वारंटी उसके इस भाव को कम करने तथा खरीदे गये ब्रांड के प्रति उसके प्रेम को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।

    भूमंडलीकरण का मीडिया पर प्रभाव

    भूमंडलीकरण यानी (Globalization) आज के दौर में कमोबेश सर्वाधिक चर्चित शब्द है। वास्तव में इस शब्द का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख भारतीय मिथकों, धर्मग्रंथों में “वसुधैव कुटुंबकम्”के रूप में मिलता है। “वसुधैव कुटुंबकम्” के माध्यम से एक “विश्व ग्राम” की कल्पना की गई थी, जो अपने तब के अर्थ के विपरीत इतर रूप में आज साकार होता नजर आता है।

    भूमंडलीकरण की चुनौतियां:

    आज के दौर में भूमंडलीकरण से तात्पर्य दुनिया के संचार माध्यमों से आपस में जुड़ जाने और करीब आ जाने से लिया जाता है। इस तरह अत्याधुनिक संचार माध्यमों के जरिये जहां एक सेकेंड से भी कम दूरी में संदेशों, समाचारों को दुनिया के हर कोने में प्रसारित किया जा सकता है, वहीं यह प्रक्रिया इतनी तेजी से हुई है कि इसे ‘सूचना विष्फोट” तक कहा जा रहा है। वहीं इसके कुछ बुरे प्रभाव भी पड़े हैं।
    भूमंडलीकरण ने बीते दो दशकों में भारत जैसे महादेश के समक्ष कई नई चुनौतियां खड़ी की हैं। अत्यधिक सूचनाओं को संभालने में अफरा-तफरी जैसा माहौल है। जन संचार माध्यम भी पल-प्रतिपल बदल रहे हैं। और व्यापक अर्थाें में भूमंडलीकरण जन संचार को बाजारीकरण में तब्दील कर रहा है।
    आज के दौर में मीडिया के लिये आफत बने एफडीआईभी इसी भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप हैं।

    भूमंडलीकरण और एफडीआई :

    उल्लेखनीय है कि भारत देश की आजादी के बाद शुरुआती नीतियां विदेशी आयात को हतोत्साहित करने वाली थीं। केवल सरकार ही गिने-चुने क्षेत्रों में आयात व विदेशी निवेश कर सकती थी। लेकिन धीरे-धीरे देश में विकास की गति बढ़ाने के नाम आयात व विदेशी निवेश को छूट मिलने लगीं।
    1990 के दशक में भारत में भूमंडलीकरण की शुरुआत होने लगी, और देश की नीतियां कमोबेश विदेशी निवेश के मामले में उलट गईं। विदेशी निवेश को बढ़ावा मिलने लगा। अब कोई भी व्यक्ति विदेशी उत्पाद खरीद सकता था।
    1992 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई (फारन डाइरेक्ट इन्वेस्टमेंट) के लिये झिझक के साथ रास्ते खुलने लगे। मीडिया को अलग रखते हुऐ कुछ क्षेत्रों में 26 प्रतिशत एफडीआई को अनुमति दे दी गई।
    लेकिन 1999 तक एफडीआई की हवा भूमंडलीकरण की आंधी बन चुकी थी। आकर्षक ग्लेज्ड कागज पर छपीं विदेशी पत्र-पत्रिकाऐं पहले-पहल भारत आने लगीं। बेहतर गुणवत्ता व साज-सज्जा के कारण यह भारतीय पत्र-पत्रिकाओं के मुकाबले अधिक बिकते थे, जिनसे मुकाबला करने के लिये भारतीय मीडिया भी तकनीकी संवर्धन (Technical Enhancement) के लिये एफडीआई की मांग करने लगे। परिणामस्वरूप पूर्व में इसकी धुर विरोधी रही अटल विहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने पहली बार मीडिया में भी 26 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत दे दी।
    इसके साथ ही देश में केबल और इसके जरिये विदेशी चैनलों की बाढ़ आ गई, जिनसे मुकाबले के लिये देश के अनेक मीडिया संस्थानों ने भी बड़े एफडीआई का सहारा लिया। लेकिन एफडीआई की शर्तें काफी कठिन थीं, इस कारण अपेक्षा के विपरीत अधिक मीडिया संस्थान एफडीआई से दूर ही रहे।

    एफडीआई और विज्ञापनों के लिये गला काट प्रतिस्पर्धा

    लेकिन हालात ऐसे हो गये कि एफडीआई का सहारा लेने वाले संस्थान जहां एफडीआई की कड़ी शर्ताें से छुटकारा पाने के लिये, तो अन्य बिना एफडीआई के ही विदेशी मीडिया का मुकाबला करने के लिये विज्ञापनों का सहारा लेने लगे। परिणामस्वरूप विज्ञापन लेने के लिये आज के दौर की मीडिया की सबसे बड़ी परेशानी, विज्ञापनों के लिये मीडिया संस्थानों में गला काट प्रतिस्पर्धा प्रारंभ हो गई, और इस तरह भूमंडलीकरण के कारण मीडिया का पूरा परिदृश्य ही बदल गया।

    भूमंडलीकरण बनाम बाजारवाद-उत्पाद बना मीडिया, बिकने को बैठा बाजार में

    वास्तव में भूमंडलीकरण को आज के परिप्रेश्य में बाजारवाद का ही एक पर्यायवाची शब्दतक कहा जाने लगा है। अधिक लाभ कमाने की होड़ में मीडिया आज जो बिकता है वही लिखता या दिखाताहै। इलेक्ट्रानिक व प्रिंट दोनों तरह की मीडिया इसकी गिरफ्त में हैं। बाजारवाद के प्रभाव में एक ओर खबरें बाजार और विज्ञापनदाताओं से प्रभावित हो रही हैं, दूसरी ओर भाषा के स्तर पर जबर्दस्त ह्रास हो रहा है। एक ओर स्थानीय भाषाओं का पुट खबरों में जुड़ रहा है तो दूसरी ओर बाजार के चलताऊ शब्द तेजी से आ रहे हैं। हिंदी ने जरूर स्वयं को, स्वयं की दुनिया में सबसे बड़ी पाठक संख्या होने के कारण आगे बढ़ाया है पर अंग्रेजी को स्वयं पर हावी होने देने की शर्त पर। हिंदी मीडिया में अंग्रेजी शब्दों की इतनी भरमार है कि “हिंग्लिश”जैसे नये शब्द पैदा हो गये हैं। यह भाषा हिंदी के शुद्धतावादियों को कदापि पसंद नहीं आ रही, अलबत्ता युवा पीढ़ी जरूर ऐसी स्थितियों से गद्गद् है। लेकिन सर्वमान्य तथ्य है कि भाषा का जबर्दस्त ह्रास हुआ है।
    कंटेंट पर प्रभाव:
    इसी तरह कंटेंट के मामले में एक ओर मीडिया जहां अधिक लाभ कमाने के फेर में छोटे शहरों, कश्बों की ओर जाता चला जा रहा है, ऐसे में राष्ट्रीयता का हासभी होता जा रहा है। स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में अब राष्ट्रीय खबरें कम ही दिखती हैं, और इसी तरह राष्ट्रीय चैनलों, पत्रों में छोटे शहरों की बड़ी खबरों को भी जगह नहीं मिलती।
    अधिक लाभ की कोशिश में कम मानदेयपर संवाददाता पत्रकार रखे जा रहे हैं, और जब तक वह अनुभवी होकर अधिक वेतन की मांग करते हैं, उन्हें संस्थान से बाहर का रास्ता दिखाकर अनुभवहीन नये लोगों को कम खर्च पर लाने को वरीयता दी जाती है, इसका प्रभाव भी खबरों के कंटेंट पर साफ दिख जाता है।

    लाभ :

    भूमंडलीकरण के नुकसान ही नहीं, कई लाभ भी हैं। वास्तव में आज हम भारत में जिस तरह सूचना प्रौद्योगिकी के मामले में अमेरिका, यूरोप सहित दुनिया के किसी भी देश की बराबरी पर आ गऐ हैं। देश की बड़ी जनसंख्या इंटरनेट से जुड़ गई है। फेसबुक व ट्विटर सरीखी सोशियल साइटों पर विचार साझा कर रहे हैं, अखबारों के इंटरनेट संस्करण और ई-पेपर उनके छपने से पूर्व ही अपने कंप्यूटर और मोबाइल पर पढ़ रहे हैं। मोबाइल के जरिये ही दुर्घटना की फोटो तत्काल पहुंचाकर समाचारों में तेजी ला रहे हैं, यह प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर भूमंडलीकरण के कारण ही है। डिश के माध्यम से देश-दुनिया के मनचाहे चैनलों तक हमारी पहुंच है और हम दुनिया के किसी कोने में भी अपनी लोक भाषा के कार्यक्रम तथा अपने छोटे शहरों की खबरें ले पा रहे हैं, या अपने बिछुड़ गये मित्रों से तथा दुनिया भर के अनजाने लोगों से संपर्क व दोस्ती कर पा रहे हैं। कंम्यूटर, मोबाइल पर ही लाखों रुपये के लेन-देन कर पा रहे हैं तो यह भी कहीं न कहीं भूमंडलीकरण का ही लाभ है।

    समुदाय संचालित विकास (Society Driven Development)

    समुदाय संचालित विकास यानी (Society Driven Development) को सामान्यतया CDD भी कहा जाता है। विकास की इस नई अवधारणा में समुदाय को न केवल विकास का प्रमुख अंग माना जाता है, वरन समुदाय स्वयं ही अपनी विकास योजनाओं का संचालन करता है।
    इसके तहत योजनाओं के संचालन की जिम्मेदारी समुदाय को दे दी जाती है, समुदाय के लोग ही योजना को बनाने से लेकर उसके क्रियान्वयन और आगे संचालन में मुख्य भूमिका निभाते हैं, जबकि सरकारी विभाग तकनीकी के स्तर पर उनकी मदद करते हैं।
    वर्ष 1970 से सर्वप्रथम विकास में सहभागिता यानी  PARTICIPATION की बात शुरू हुई थी, जबकि 1990 के बाद से विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी विकास कार्यों के लिये धन देने वाली वैश्विक संस्थाओं ने समुदाय संचालित विकास के आधार पर ही योजनाएें चलानी शुरू कीं।
    समुदाय संचालित विकास के तहत समुदाय स्वयं अपने संसाधनों का बेहतर उपयोग करते हुऐ अपनी जरूरत की योजनाएें बनाता है। गांव के गरीब ग्रामीणों को भी साझेदार यानी पार्टनर का दर्जा दे दिया जाता है।

    समुदाय संचालित विकास की विशेषताएें

    1. समुदाय संचालित विकास आवश्यकता पर आधारित होती है।
    2. इसमें क्षेत्र की जरूरत के आधार पर समस्याओं के समाधान तलाशे जाते हैं।
    3. प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रित उपयोग किया जाता है।
    4. निर्णयों की शक्ति समुदाय के हाथ में दे दी जाती है।
    5. शक्ति का विकेंद्रीकरण समुदाय संचालित विकास की बड़ी विशेषता है।

    समुदाय संचालित विकास के लाभ

    1. Demand Driven Approach : समुदाय संचालित विकास आवश्यकता यानी पर आधारित होता है।
    2. Site Specific Solutions : इसमें क्षेत्र की जरूरत के अनुसार समाधान मिल जाते हैं।
    3. Decentralisation (विकेंद्रीयकरण): पंचायतों जैसे स्थानीय प्रशासनिक इकाइयां व संस्थाएें कार्य कराती हैं। इस प्रकार सत्ता का विकेंद्रीकरण होता है। छोटे-छोटे निर्णयों के लिये सरकार या बड़े अधिकारियों का मुंह नहीं ताकना पड़ता।
    4. Institutional Arrangements : समुदाय के लोग स्वयं सहायता समूहों-एनजीओ, संबंधित सरकारी विभागों के अधिकारियों, कर्मियों, ग्राम पंचायत सहित कई संस्थाओं से जुड़े लोग मिलकर कार्य करते हैं। इस प्रकार सामुदायिक सहभागिता के जरिये बहुत से लोगों के ज्ञान का उपयोग होता है, व कार्य बेहतर होते हैं।
    5. Participation (भागेदारी): Participatory Development Communication यानी विकास सहभागी संचार के जरिये विभिन्न वर्गों के बीच संचार तथा भागेदारी होती रहती है। हर किसी के उपयोगी विचारों को योजना में शामिल किया जाता है।
    6. Low Maintenance Cost (मितव्ययिता) : योजनाओं के संचालन (Running Cost) में मितव्ययिता रहती है।
    7. अधिक पारदर्शिता : सरकारी विभागों, समुदाय, सामाजिक संस्थाओं आदि के एक साथ मिलकर कार्य अधिक पारदर्शिता से होते हैं। सबको पता होता है कि क्या कार्य हो रहे हैं, और क्यों तथा किस तरह हो रहे हैं।
    8. इस प्रकार कार्यों की गुणवत्ता अन्य किसी प्रविधि से बेहतर होती है।

    समुदाय संचालित विकास की हानियां

    हर किसी प्रविधि की भांति समुदाय संचालित विकास पद्धति में कार्य करने की भी अनेक हानियां हैं।
    1. Elite Domination : अक्सर समर्थ लोग विकास योजनाओं को अपने पक्ष में मोड़कर उनके लाभ हड़प जाते हैं। क्योंकि असमर्थ और योजना के वास्तविक जरूरतमंद लोग समर्थों की उपस्थिति में अपनी बात नहीं रख पाते हैं। इसलिये उन्हें योजनाओं के लाभ भी नहीं मिल पाते हैं।
    2. अधिक संस्थाओं की भागेदारी होने के कारण अक्सर उनके बीच में समन्वय स्थापित करने की दिक्कत आती है। इस कारण कार्य समय पर पूरे नहीं हो पाते हैं।
    3. लाल फीताशाही भी समुदाय संचालित विकास की राह में बड़ा रोढ़ा है। पुरानी व्यवस्था के अभ्यस्त लोग व अधिकारी जल्दी इसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं।
    4. संस्थाएें, सरकारी विभागीय अधिकारी अपनी मानसिकता में परिवर्तन नहीं ला पाते हैं। इस कारण भी समुदाय संचालित विकास का लाभ समाज को नहीं मिल पाता है।
    समुदाय संचालित विकास के महत्वपूर्ण अंग: समुदाय संचालित विकास के दो महत्वपूर्ण अंग हैं।
    अ. Opinion Leaders :‘Two Step Theory’ में ओपिनियन लीडर्स की उपयोगिता बताई गई है। ओपिनियन लीडर्स-
    1. Heavy Media Users होते हैं।
    2. ज्ञान वैशिष्ट्य :उन्हें विषय का विशिष्ट ज्ञान (Specialized knowledge) होता है।
    3. वह बड़ी हैसियत (High Esteem) वाले लोग होते हैं।
    वहीं कार्ट्ज (Kartz) के अनुसार ओपिनियन लीडर्स की शख्शियत बड़ी व विश्वसनीय होती है। वह ज्ञानवान होते हैं, और समाज में उनकी बात सुनी और मानी जाती है। लोग उन्हें पसंद करते हैं।
    ब.Change Agents:चेंज एजेंट्स वे लोग हैं जो समुदाय संचालित विकास की नई अवधारणा को समाज के लोगों को समझाकर इसे उनके लिये ग्राह्य बनाते हैं।
    उनका मुख्य कार्य इस बदलाव के लिये भूमिका बनाना होता है।
    1. वह मूलत: स्थानीय लोग ही होते हैं।
    2. इस प्रकार एक तरह से वह समुदाय एवं सरकारी एजेंसी के बीच फैसीलिटेटर (Facilitator) की भूमिका निभाते हैं।
    3. वह संचार के माध्यमों का प्रयोग कर समुदाय के लोगों को उन्हीं की भाषा में योजना के गुण-दोष (खासकर गुण) समझाते हैं।
    4. ग्रामीणों से सूचनाएें, उनके विचार लेते हैं, उनकी समस्याओं, आपत्तियों का समाधान तलाशते हैं, और अपने मूल कार्य के उद्देश्य को पूरा करते हुऐ उन्हें योजना के लिये राजी करते हैं।
    पत्रकारिता के विभिन्न
    ↧

    सोशल मीडिया बनाम न्यू मीडिया के मायने

    March 17, 2017, 5:50 am
    ≫ Next: 'टीवी में इस प्रकार करे अपनी रिपोर्टिंग
    ≪ Previous: पत्रकारिता के विभिन्न पहलू
    $
    0
    0




    नया मीडिया (इंटरनेट, सोशल मीडिया, ब्लॉगिंग, गूगल और फेसबुक आदि) : इतिहास और वर्तमान

    न्यू मीडिया-New Media

     



    प्रस्तुति- स्वामी शरण


    आज का दौर ‘न्यू मीडिया’ का है। वह दौर गया जब समाचारों को जल्दी में लिखा गया इतिहास कहने के साथ ही ‘News Today-History Tomorrow’कहा जाता था, अब तो ‘News This Moment-History Next Moment’का दौर है। बिलों को जमा करने, नौकरी-परीक्षा के फॉर्म भरने-जमा करने, फोन करने, पढ़ने व खरीददारी आदि के लिए लम्बी लाइनों का दौर बीते दौर की बात होने जा रहा है, और जमाना ‘लाइन’ में लगने का नहीं रहा, ऑनलाइन’ होने का आ गया है। ऐसी स्थितियां न्यू मीडिया की वजह से आई हैं। न्यू मीडिया के साथ स्वयं भी यही हो रहा है। वह स्वयं भी लगातार स्वरूप बदल रहा है। देश को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘डिजिटल इंडिया’ बनाने की बात कर रहे हैं। अपने ताजा अमेरिका दौरे के दौरान डिजिटल इंडिया को रफ्तार देने सिलिकॉन वैली के दौरे पर पहुंचे प्रधानमंत्री के कुछ वक्तव्य न्यू मीडिया की बानगी पेश करते हैं:
    • दुनिया बदलने वाले आइडियाज सिलिकॉन वैली से ही निकलते हैं।
    • मैं आप में से अनेक से दिल्ली, न्यूयार्क, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर मिल चुका हूं। यह हमारे नए पड़ोसी हैं।
    • अगर फेसबुक एक देश होता, तो जनसंख्या के मामले में दुनिया में तीसरे नंबर का देश होता।
    • मोदी ने कहा-जुकरबर्ग दुनियां को जोड़ने का कार्य कर रहे हैं।
    • सूचना प्रोद्योगिकी ने आज के दौर को‘Real Time Information’यानी ‘वास्तविक समय की सूचनाओं’ का बना दिया है।  पहले जनता के सरकारों को उनकी गलतियां बताने के लिए पांच साल में समय मिलता था, पर आज वह हर पांच मिनट में ऐसा कर सकते हैं ।
    • उन्होंने 27 सितंबर को गूगल के मुख्यालय पहुंचकर गूगल के भारतीय मूल के सीईओ सुंदर पिचई के साथ गूगल का 17वां जन्म दिन भी मनाया।
    • दुनिया ने कम्प्यूटिंग से संचार तक, मनोरंजन से शिक्षा तक, डॉक्यूमेंट प्रिंट करने से प्रॉडक्ट प्रिंट करने तक और इंटरनेट ऑफ थिंग्स तक, काफी कम समय में काफी लंबा रास्ता तय कर लिया है।
    • आजकल गूगल के टीचरों को कम प्रेरणादायक और बड़े-बुजुर्गों को ज्यादा बेकार बना दिया है, जबकि ट्विटर ने हर किसी को रिपोर्टर बना दिया है।
    • अब आप जग रहे हैं या सोए हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है कि आप ऑनलाइन हैं या ऑफलाइन।युवाओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण बहस बन गई है कि एंड्राइड, आईओएस या विंडोज में से किसे चुनना चाहिए।
    • यहां तय हुआ कि भारत गूगल के साथ मिलकर 500 से ज्यादा रेलवे स्टेशनों पर वाई-फाई लगाएगा। माइक्रोसॉफ्ट के साथ देश के पांच लाख गांवों में कम लागत में बॉडबैंड की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी।
    • जब आप सोशल मीडिया या एक सर्विस के विस्तार के पैमाने और गति के बारे में सोचते हैं तो आपको यह मानना ही पड़ता है कि उम्मीद के मुहाने पर लंबे वक्त से खड़े लोगों की जिंदगी भी इसके साथ-साथ बदली जा सकती है। मित्रो, इसी धारणा से पैदा हुआ है-डिजिटल इंडिया।
    • हम चाहते हैं कि हमारे नागरिक हर ऑफिस में अत्यधिक कागजान के बोझ से मुक्त हो जाएं। हम बिना कागजों के लेन-देन करना चाहते हैं। हम हर नागरिक के लिए डिजिटल लॉकर सेट-अप करेंगे, जिसमें वह अपने निजी दस्तावेज रख सकें, जो कई विभागों में काम आ सकते हैं।

    इंटरनेट क्या है ?

    इंटरनेट कम्प्यूटरों को आपस में बिना तार के जोड़ने वाले नेटवर्कों का नेटवर्क यानी न्यू मीडिया का मूलभूत कारक है। Internet & Mobile Association of India की ताजा रिपोर्ट (अक्टूबर 2015) के अनुसार भारत में 35 करोड़ से अधिक लोग इंटरनेट का प्रयोग कर रहे हैं। विश्व के 160 से अधिक देश इसके सदस्य हैं, और दुनिया में सवा चार अरब से अधिक लोग इसके प्रयोगकर्ता हैं। यही कारण है कि इसे विश्व का नेटवर्क माना जाता है। यह विश्व भर के शैक्षणिक, औद्योगिक, सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं और व्यक्तियों को आपस में जोड़ता है। यह विश्व भर के अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर काम करने वाली नेटवर्क प्रणालियों को एक मानक प्रोटोकोल के माध्यम से जोड़ने में सक्षम हैं। इसका कोई केंद्रीय प्राधिकरण नहीं है। मात्र विभिन्न नेटवर्कों के बीच परस्पर सहमति के आधार पर इसकी परिकल्पना की गई है। यह सहमति इस बात पर है कि सभी प्रयोक्ता संस्थाएँ इस पर संदेश के आदान-प्रदान के लिए एक ही पारेषण (Transmission) भाषा या प्रोटोकोल का प्रयोग करेंगी। सन 1969 में विंटर सर्फ ने इंटरनेट सोसायटी का गठन किया था और कुछ मेनफ्रेम कंप्यूटरों को परस्पर जोड़ दिया था। इंटरनेट सोसायटी मात्र स्वैच्छिक संस्थाओं का संगठन है, जो इंटरनेट के मानकों का निर्धारण करती है और उसके माध्यम से तकनीकी विकास पर नजर रखती है।

    कंप्यूटर नेटवर्क क्या है ?:

    कंप्यूटर नेटवर्क स्वतंत्र और स्वायत्त कंप्यूटरों का संकलन है। इन्हें कई तरीकों से आपस में जोड़ा जा सकता है। एक कार्यालय या स्कूल, अस्पताल आदि के बहुत छोटे सीमित क्षेत्र के कम्प्यूटरों को आपस में जोड़ने के नेटवर्क को लोकल एरिया नेटवर्क (Local Area Network)या LAN कहा जाता है। वहीं 1 से 2 किमी की परिधि में विभिन्न कंप्यूटरों को परस्पर जोड़ने के नेटवर्क को Metropolitan Area Network- ‘MAN’कहा जाता है। लगभग 40 से 50 किमी से अधिक की परिधि में फैले कंप्यूटर नेटवर्क को Wide Area Network- ‘WAN’कहा जाता है। इंटरनेट के प्रयोग कंप्यूटर को ‘होस्ट’ (Host)कहा जाता है और उसे एक विशिष्ट नाम दिया जाता है। इस विशिष्ट नाम में होस्ट का नाम और प्रयोग क्षेत्र (Domain Name)का उल्लेख होता है। प्रयोग क्षेत्र के भी कई भाग होते हैं, जिनसे होस्ट के संगठन की जानकारी मिलती है। अमेरिका की एक संस्था ‘एनआईसी’ द्वारा होस्ट का नामकरण किया जाता है। प्रत्येक कंप्यूटर वस्तुतः दूसरे कंप्यूटर को विशिष्ट अंकों से पहचानता है, किंतु मनुष्य के लिए शाब्दिक नाम की पहचान ज्यादा सहज है, इसलिए प्रत्येक कंप्यूटर या होस्ट को प्रयोक्ताओं की सुविधा के लिए शाब्दिक नाम से ही पुकारा जाता है। वस्तुतः आंतरिक प्रोटोकोल एक ऐसी विशिष्ट संख्या है, जिससे इंटरनेट पर होस्ट को पहचाना जा सकता है।

    अन्तरजाल-Internet की विकास यात्रा और इतिहास:

    सर्वप्रथम 1958 में ग्राहम बेल ने टेलीफोन की खोज की, जिससे बाइनरी डाटा संचारित करने वाले मॉडम की शुरुआत भी हुई। आगे 1962 में जेसीआर लिकलिडर ने कम्प्यूटरों के जाल यानी इंटरनेट का प्रारंभिक रूप तैयार किया था। 1966 में डारपा (मोर्चाबंदी प्रगति अनुसंधान परियोजना अभिकरण) (DARPA) ने आरपानेट के रूप में कम्प्यूटर जाल बनाया, जो कि चार स्थानों से जुडा था। 1969 में अमेरिकी रक्षा विभाग के द्वारा स्टैनफोर्ड अनुसंधान संस्थान के कंप्यूटरों की नेटवर्किंग करके इंटरनेट की संरचना की गई। 1971 में संचिका अन्तरण नियमावली (FTP) विकसित हुआ, जिससे संचिका अन्तरण करना आसान हो गया। बाद में इसमें भी कई परिवर्तन हुए और 1972 में बॉब कॉहन ने अन्तर्राष्ट्रीय कम्प्यूटर संचार सम्मेलन में इसका पहला सजीव प्रदर्शन किया। इंटरनेट नाम: शुरुआत में अमरीकी सेना ने इंटरनेट का निर्माण किया। अमेरिकी सेना की सूचना और अनुसंधान संबंधी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए 1973 में ‘यूएस एडवांस रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी’ ने कम्प्यूटरों के द्वारा विभिन्न प्रकार की तकनीकी और प्रौद्योगिकी को एक-दूसरे से जोड़कर एक ‘नेटवर्क’ बनाने तथा संचार संबंधी मूल बातों (कम्यूनिकेशन प्रोटोकॉल) को एक साथ एक ही समय में अनेक कम्प्यूटरों पर नेटवर्क के माध्यम से देखे और पढ़े जाने के उद्देश्य से एक कार्यक्रम की शुरुआत की। इसे ‘इन्टरनेटिंग प्रोजेक्ट’ नाम दिया गया जो आगे चलकर ‘इंटरनेट’के नाम से जाना जाने लगा। 1980 के दशक के अंत तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेटवर्क सेवाओं व इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और इसका इस्तेमाल व्यापारिक गतिविधियों के लिये भी किया जाने लगा। इसी वर्ष बिल गेट्स का आईबीएम के साथ कंप्यूटरों पर एक माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम लगाने के लिए सौदा हुआ। आगे आगे 1 जनवरी 1983 को आरपानेट (ARPANET) एक बार पुनः पुर्नस्थापित हुआ, और इसी वर्ष इंटरनेट समुदाय के सही मार्गदर्शन और टीसीपी/आईपी के समुचित विकास के लिये अमरीका में इंटरनेट एक्टीविटी बोर्ड (IAB) का गठन किया गया। इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फोर्स तथा इंटरनेट रिसर्च टास्क फोर्स इसके दो महत्त्वपूर्ण अंग है। इंजीनियरिंग टास्क फोर्स का काम टीसीपी/आईपी प्रोटोकोल के विकास के साथ-साथ अन्य प्रोटोकोल आदि का इंटरनेट में समावेश करना है। जबकि विभिन्न सरकारी एजन्सियों के सहयोग के द्वारा इंटरनेट एक्टीविटीज बोर्ड के मार्गदर्शन में नेटवर्किंग की नई उन्नतिशील परिकल्पनाओं के विकास की जिम्मेदारी रिसर्च टास्क फोर्स की है जिसमें वह लगातार प्रयत्नशील रहता है। इस बोर्ड व टास्क फोर्स के दो और महत्त्वपूर्ण कार्य हैं-इंटरनेट संबंधी दस्तावेजों का प्रकाशन और प्रोटोकोल संचालन के लिये आवश्यक विभिन्न आइडेन्टिफायर्स की रिकार्डिग। आईडेन्टिफायर्स की रिकार्डिग ‘इंटरनेट एसाइन्ड नम्बर्स अथॉरिटी’ उपलब्ध कराती है जिसने यह जिम्मेदारी एक संस्था ‘इंटरनेट रजिस्ट्री’ (आई. आर.) को दे रखी है, जो ‘डोमेन नेम सिस्टम’ यानी ‘डीएनएस रूट डाटाबेस’ का भी केन्द्रीय स्तर पर रखरखाव करती है, जिसके द्वारा डाटा अन्य सहायक ‘डीएनएस सर्वर्स’ को वितरित किया जाता है। इस प्रकार वितरित डाटाबेस का इस्तेमाल ‘होस्ट’ तथा ‘नेटवर्क’ नामों को उनके यूआरएल पतों से कनेक्ट करने में किया जाता है। उच्चस्तरीय टीसीपी/आईपी प्रोटोकोल के संचालन में यह एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, जिसमें ई-मेल भी शामिल है। उपभोक्ताओं को दस्तावेजों, मार्गदर्शन व सलाह-सहायता उपलब्ध कराने के लिये समूचे इंटरनेट पर ‘नेटवर्क इन्फोरमेशन सेन्टर्स’ (सूचना केन्द्र) स्थित हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जैसे-जैसे इंटरनेट का विकास हो रहा है ऐसे सूचना केन्द्रों की उच्चस्तरीय कार्यविधि की आवश्यकता भी बढ़ती जाती है। इसी वर्ष नवंबर 1983 में पहली क्षेत्रीय नाम सेवा पॉल मोकपेट्रीज द्वारा सुझाई गई। तथा इंटरनेट सैनिक और असैनिक भागों में बाँटा गया। 1984 में एप्पल ने पहली बार फाइलों और फोल्डरों, ड्रॉप डाउन मेनू, माउस, ग्राफिक्स आदि युक्त ‘आधुनिक सफल कम्प्यूटर’ लांच किया। 1986 में अमरीका की ‘नेशनल सांइस फांउडेशन’ ने एक सेकेंड में 45 मेगाबाइट संचार सुविधा वाली ‘एनएसएफनेट’ सेवा का विकास किया जो आज इंटरनेट पर संचार सेवाओं की रीढ़ है। इस प्रौद्योगिकी के कारण ‘एनएसएफनेट’ बारह अरब सूचना पैकेट्स को एक महीने में अपने नेटवर्क पर आदान-प्रदान करने में सक्षम हो गया। इस प्रौद्योगिकी को और अधिक तेज गति देने के लिए अमेरिका के ‘नासा’ और ऊर्जा विभाग ने अनुसंधान किया और ‘एनएसआईनेट’ और ‘ईएसनेट’ जैसी सुविधाओं को इसका आधार बनाया। आखिर 1989-90 मे टिम बर्नर्स ली ने इंटरनेट पर संचार को सरल बनाने के लिए ब्राउजरों, पन्नों और लिंक का उपयोग कर के विश्व व्यापी वेब-WWW (वर्ल्ड वाइड वेब-डब्लूडब्लूडब्लू) से परिचित कराया। 1991 के अन्त तक इंटरनेट इस कदर विकसित हुआ कि इसमें तीन दर्जन देशों के पांच हजार नेटवर्क शामिल हो गए, जिनकी पहुंच सात लाख कम्प्यूटरों तक हो गई। इस प्रकार चार करोड़ उपभोक्ताओं ने इससे लाभ उठाना शुरू किया। इंटरनेट समुदाय को अमरीकी फेडरल सरकार की सहायता लगातार उपलब्ध होती रही क्योंकि मूल रूप से इंटरनेट अमरीका के अनुसंधान कार्य का ही एक हिस्सा था, और आज भी यह न केवल अमरीकी अनुसंधान कार्यशाला का महत्त्वपूर्ण अंग है, वरन आज की इंटरनेट प्रणाली का बहुत बड़ा हिस्सा भी शिक्षा व अनुसंधान संस्थानों एवं विश्व-स्तरीय निजी व सरकारी व्यापार संगठनों की निजी नेटवर्क सेवाओं से ही बना है। 1996 में गूगल ने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में एक अनुसंधान परियोजना शुरू की जो कि दो साल बाद औपचारिक रूप से काम करने लगी। 2009 में डॉ स्टीफन वोल्फरैम ने ‘वोल्फरैम अल्फा’ की शुरुआत की।

    इंटरनेट यानी अन्तरजाल की विकास यात्रा

    • 1958 ग्राहम बेल ने टेलीफोन की खोज की, जिससे बाइनरी डाटा संचारित करने वाले मॉडम की शुरुआत भी हुई।
    • 1962 में जेसीआर लिकलिडर ने कम्प्यूटरों के जाल यानी इंटरनेट का प्रारंभिक रूप तैयार किया। वे चाहते थे कि कम्प्यूटर का एक एसा जाल हो, जिससे आंकड़े, आदेश और सूचनायें भेजी जा सकें।
    • 1966 में डारपा (मोर्चाबंदी प्रगति अनुसंधान परियोजना अभिकरण) (DARPA) ने आरपानेट के रूप में कम्प्यूटर जाल बनाया।
    • 1969 में इंटरनेट अमेरिकी रक्षा विभाग के द्वारा स्टैनफोर्ड अनुसंधान संस्थान के कंप्यूटरों की नेटवर्किंग करके इंटरनेट की संरचना की गई।
    • 1972 में बॉब कॉहन ने अन्तर्राष्ट्रीय कम्प्यूटर संचार सम्मेलन में इसका पहला सजीव प्रदर्शन किया। 1979 में ब्रिटिश डाकघरों का पहला अंतरराष्ट्रीय कंप्यूटर नेटवर्क बना कर इस नयी प्रौद्योगिकी का उपयोग करना आरम्भ किया गया।
    • 1973 में ‘यूएस एडवांस रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी’ ने कम्प्यूटरों के द्वारा विभिन्न प्रकार की तकनीकी और प्रौद्योगिकी को एक-दूसरे से जोड़कर एक ‘नेटवर्क’ बनाने तथा संचार संबंधी मूल बातों (कम्यूनिकेशन प्रोटोकॉल) को एक साथ एक ही समय में अनेक कम्प्यूटरों पर नेटवर्क के माध्यम से देखे और पढ़े जाने के उद्देश्य से ‘इन्टरनेटिंग प्रोजेक्ट’ नाम के एक कार्यक्रम की शुरुआत की, जो आगे चलकर ‘इंटरनेट’के नाम से जाना गया।
    • 1980 में बिल गेट्स का आईबीएम के साथ कंप्यूटरों पर एक माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम लगाने के लिए सौदा हुआ।
    • 1980 के दशक के अंत तक नेटवर्क सेवाओं व इंटरनेट उपभोक्ताओं में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व वृद्धि हुई और इसका इस्तेमाल व्यापारिक गतिविधियों के लिये भी किया जाने लगा।
    • 1983 में इंटरनेट समुदाय के सही मार्गदर्शन और टीसीपी/आईपी के समुचित विकास के लिये अमरीका में ‘इंटरनेट एक्टिविटीज बोर्ड’ का गठन किया गया। इंटरनेट इंजीनियरिंग टास्क फोर्स तथा इंटरनेट रिसर्च टास्क फोर्स इसके दो महत्त्वपूर्ण अंग है। इंजीनियरिंग टास्क फोर्स का काम टीसीपी/आईपी प्रोटोकोल के विकास के साथ-साथ अन्य प्रोटोकोल आदि का इंटरनेट में समावेश करना है। जबकि विभिन्न सरकारी एजन्सियों के सहयोग के द्वारा इंटरनेट एक्टीविटीज बोर्ड के मार्गदर्शन में नेटवर्किंग की नई उन्नतिशील परिकल्पनाओं के विकास की जिम्मेदारी रिसर्च टास्क फोर्स की है जिसमें वह लगातार प्रयत्नशील रहता है। इस बोर्ड व टास्क फोर्स के दो और महत्त्वपूर्ण कार्य हैं-इंटरनेट संबंधी दस्तावेजों का प्रकाशन और प्रोटोकोल संचालन के लिये आवश्यक विभिन्न आइडेन्टिफायर्स की रिकार्डिग। आईडेन्टिफायर्स की रिकार्डिग ‘इंटरनेट एसाइन्ड नम्बर्स अथॉरिटी’ उपलब्ध कराती है जिसने यह जिम्मेदारी एक संस्था ‘इंटरनेट रजिस्ट्री’ (आई आर) को दे रखी है, जो ही ‘डोमेन नेम सिस्टम’ यानी ‘डीएनएस रूट डाटाबेस’ का केन्द्रीय रखरखाव करती है, जिसके द्वारा डाटा अन्य सहायक ‘डीएनएस सर्वर्स’ को वितरित किया जाता है। इस प्रकार वितरित डाटाबेस का इस्तेमाल ‘होस्ट’ तथा ‘नेटवर्क’ नामों को उनके यूआरएल पतों से कनेक्ट करने में किया जाता है। उच्चस्तरीय टीसीपी/आईपी प्रोटोकोल के संचालन में यह एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, जिसमें ई-मेल भी शामिल है। उपभोक्ताओं को दस्तावेजों, मार्गदर्शन व सलाह-सहायता उपलब्ध कराने के लिये समूचे इंटरनेट पर ‘नेटवर्क इन्फोरमेशन सेन्टर्स’ (सूचना केन्द्र) स्थित हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जैसे-जैसे इंटरनेट का विकास हो रहा है ऐसे सूचना केन्द्रों की उच्चस्तरीय कार्यविधि की आवश्यकता भी बढ़ती जाती है।
    • 1983 की एक जनवरी को आरपानेट (ARPANET) पुर्नस्थापित हुआ। इसी वर्ष एक्टीविटी बोर्ड (IAB) का गठन हुआ। नवंबर में पहली प्रक्षेत्र नाम सेवा (DNS) पॉल मोकपेट्रीज द्वारा सुझाई गई।
    • 1984 में एप्पल ने पहली बार फाइलों और फोल्डरों, ड्रॉप डाउन मेनू, माउस, ग्राफिक्स आदि युक्त ‘आधुनिक सफल कम्प्यूटर’ लांच किया।
    • 1986 में अमरीका की ‘नेशनल सांइस फांउडेशन’ ने एक सेकेंड में 45 मेगाबाइट संचार सुविधा वाली ‘एनएसएफनेट’ सेवा का विकास किया जो आज भी इंटरनेट पर संचार सेवाओं की रीढ़ है।
    • 1989-90 में टिम बेर्नर ली ने इंटरनेट पर संचार को सरल बनाने के लिए ब्राउजरों, पन्नों और लिंक का उपयोग कर के विश्व व्यापी वेब (WWW) वर्ल्ड वाइड वेब-डब्लूडब्लूडब्लू से परिचित कराया।
    • 1991 के अन्त तक इंटरनेट इतना विकसित हो गया कि इसमें तीन दर्जन देशों के पांच हजार नेटवर्क शामिल हो गए, और इंटरनेट की पहुंच सात लाख कम्प्यूटरों तक हो गई तथा चार करोड़ उपभोक्ताओं ने इससे लाभ उठाना शुरू कर दिया।
    • 1996 में गूगल ने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में एक अनुसंधान परियोजना शुरू की जो कि दो साल बाद औपचारिक रूप से काम करने लगी।
    • 2009 में डॉ स्टीफन वोल्फरैम ने ‘वोल्फरैम अल्फा’ की शुरुआत की।

    भारत में इंटरनेट

    भारत में इंटरनेट 1980 के दशक मे आया, जब एर्नेट (Educational & Research Network) को भारत सरकार के इलेक्ट्रानिक्स विभाग और संयुक्त राष्ट्र उन्नति कार्यक्रम (UNDP) की ओर से प्रोत्साहन मिला। सामान्य उपयोग के लिये इंटरनेट 15 अगस्त 1995 से उपलब्ध हुआ, जब विदेश सचांर निगम लिमिटेड (VSNL) ने गेटवे सर्विस शुरू की। भारत मे इंटरनेट प्रयोग करने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है, और वर्तमान 400 मिलियन यानी 40 करोड़ से अधिक लोगों तक इंटरनेट की पहुंच हो चुकी है, जो कि देश की कुल जनसंख्या का करीब 33 फीसदी और दुनिया के सभी इंटरनेट प्रयोक्ता देशों के हिसाब से महज 10 फीसदी है। मौजूदा समय में इंटरनेट का प्रयोग जीवन के सभी क्षेत्रों-सोशल मीडिया, ईमेल, बैंकिंग, शिक्षा, ट्रेन इंफॉर्मेशन-रिजर्वेशन, ऑनलाइन शॉपिंग, अंतरिक्ष प्रोद्योगिकी, बीमा, विभिन्न बिल घर बैठे जमा करने और अन्य सेवाओं के लिए भी किया जा रहा है।

    भारत में एक साल में बढ़े दस करोड़ नए इंटरनेट यूजर !

    भारत ने टेलीफोन उपभोक्ताओं की संख्या के मामले में कब अमेरिका को पीछे छोड़ा, यह बात शायद ज्यादातर लोग भूल चुके हैं। अलबत्ता ताजा खबर यह है कि इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या के मामले में भी भारत दिसंबर 2015 में अमेरिका से आगे निकल जाएगा। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया और आईएमआरबी की ताजा रिपोर्ट कहती है कि दिसंबर तक भारत में इंटरनेट यूजर्स की संख्या 40 करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। आज चीन इस मामले में पहले और अमेरिका दूसरे नंबर पर है। भारत ने यह करिश्मा यूं कर दिखाया कि पिछले एक साल में उसने इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या में 49 फीसदी का भारी-भरकम इजाफा किया है। रिपोर्ट कहती है कि भारत को एक करोड़ के आंकड़े से दस करोड़ तक पहुंचने में एक दशक लगा था और दस करोड़ से बीस करोड़ तक पहुंचने में तीन साल लगे। लेकिन तीस करोड़ से चालीस करोड़ तक पहुंचने में सिर्फ एक साल लगा है। इस रफ्तार को देखते हुए आने वाले वर्षो में भारत में इंटरनेट के प्रयोग की स्थिति क्या होगी, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। (बालेन्दु शर्मा दाधीच द्वारा राष्ट्रीय सहारा (उमंग) में 22 नवम्बर 2015 के अंक में लिखे गए एक लेख के अनुसार) 

    इस्टोनिया में इंटरनेट

    इस्टोनिया में इंटरनेट पूर्णतया मुफ्त है। यहां पूरे देश में वायरलेस इंटरनेट (वाई फाई) की फ्री एक्सेस है। यहां देश की आबादी के 78 फीसद यानी 9,99,785 इंटरनेट प्रयोक्ता हैं। इस प्रकार यह छोटा सा देश तकनीकी तौर पर पॉवर हाउस बन गया है। यहां एयरपोर्ट से लेकर समुद्रतट या जंगल में, हर जगह इंटरनेट की पहुंच है। यहां 25 फीसदी वोटिंग भी ऑनलाइन होती है, तथा इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड भी उपलब्ध रहते हैं। यहां अभिभावक अपने बच्चों की स्कूल की डेली एक्टीविटी, टेस्ट के नंबर और होमवर्क को ऑनलाइन देख सकते हैं। यहां एक बिजनेस ऑनलाइन सेटअप तैयार करने में महज 18 मिनट का समय लगता है। यहां इंटरनेट का अधिकतर उपयोग ई-कॅामर्स और ई-गवर्नमेंट सेवाओं के लिए होता है। यहां प्रेस और ब्लागर ऑनलाइन कुछ भी कहने के लिए फ्री हैं। इस मामले में इस्टोनिया ने अमेरिका को पीछे कर दूसरे स्थान पर छोड़ दिया है। ब्रांडबैंड से अधिकतर सुसज्जित यह देश डिजिटल वर्ल्ड का एक मिथक बन कर उभरा है।

    अमेरिका में इंटरनेट

    अमेरिका की जनसंख्या 313 मिलियन हैं, जहां 245 मिलियन लोग इंटरनेट के प्रयोग कर्ता हैं। यहां पर इंटरनेट की पहुंच 78 फीसदी है और इस देश के लोग विश्व की 11 फीसदी आबादी इंटरनेट के प्रयोग कर्ता के तौर पर शामिल हैं। इस्टोनिया के बाद इंटरनेट पर सबसे अधिक स्वतंत्रता अमेरिका, जर्मन, ऑस्ट्रेलिया, हंगरी, इटली और फिलीपींस है। यह देश दुनिया के अन्य देशों की तुलना में इंटरनेट पर अधिक स्वतंत्रता देता है। यहां पर कांग्रेसनल बिल का विरोध कर रही हैं, जिसका इरादा प्राइवेसी और नॉन अमेरिकी वेबसाइट होस्टिंग को लेकर है। आधे से अधिक अमेरिकी इंटरनेट पर टीवी देखते हैं। यहां पर मोबाइल पर इंटरनेट का उपयोग हेल्थ, ऑन लाइन बैंकिंग, बिलों का पेमेंट और सेवाओं के लिए करते हैं। इस प्रकार अमेरिका विश्व का सबसे अधिक इंटरनेट से जुड़ा हुआ देश है।

    जर्मनी में इंटरनेट

    जर्मनी में इंटरनेट का उपयोग सबसे अधिक सोशल मीडिया के उपयोग के लिए किया जा रहा है। वहीं अब अपनी अन्य जरूरतों, बैंकिग, पर्सनल वर्क आदि के लिए भी किया जा रहा है। पिछले पांच वर्षो में जर्मनी में ब्राडबैंड सेवाएं काफी सस्ती उपलब्ध हो रही हैं। इसकी कीमत इसकी स्पीड आदि पर निर्भर करती है। यहां पर इंटरनेट से टीवी और टेलीफोन सेवाएं भी एक साथ मिलती हैं। यहां की 73 फीसदी आबादी के घरों तक इंटनेट की पहुंच उपलब्ध है। जर्मनी के स्कूलों में छात्रों को फ्री में कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। जर्मनी में 93 फीसदी प्रयोग कर्ता के पास डीएलएस कनेक्शन है। जर्मनी की आबादी 81 मिलियन डॉलर है और 67 मिलियन इंटनेट प्रयोग कर्ता हैं। यहां 83 फीसदी इंटरनेट की एक्सेस है और विश्व के इंटरनेट प्रयोग कर्ता की संख्या में यहां के लोगों की तीन फीसदी हिस्सेदारी है।

    इटली में इंटरनेट

    इटली में इंटरनेट तक 58.7 फीसदी लोगों की पहुंच है। यहां 35,800,000 लोग इंटरनेट के प्रयोग कर्ता हैं। यहां 78 फीसदी लोग ईमेल भेजने और पाने के लिए इंटरनेट का प्रयोग किया जाता है। इसके दूसरे नंबर पर 67.7 फीसदी प्रयोग कर्ता ने नॉलेज के लिए और 62 फीसदी प्रयोग कर्ता ने गुड्स एंड सर्विसेज के लिए किया है। एक सर्वे के अनुसार 34.1 मिलियर मोबाइल प्रयोग कर्ता ने इंटरनेट को एक्सेस किया। इटली में इंटरनेट (6 एमबीपीज, अनलिमिटेड डाटा केबिल्स एडीएसएल) 25 यूरो डॉलर में प्रतिमाह के रेट से उपलब्ध है।

    फिलीपींस में इंटरनेट

    फिलीपींस में 10 लोगों में से केवल तीन लोगों तक ही इंटरनेट की पहुंच है। हालांकि इस देश का दावा है कि यह सोशल मीडिया के लिए विश्व का एक बड़ा सेंटर है। फिलीपींस में प्रयोग कर्ता को इंटरनेट पर सबसे अधिक स्वतंत्रता मिली हुई है। यहां के लोग बिना किसी बाधा के इंटरनेट का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं। फिलीपींस की कुल जनसंख्या (2011 के अनुसार) 1,660,992 है, जिनमें से 32.4 फीसदी लोगों तक इंटनेट की पहुंच है। फिलीपींस के इंटरनेट प्रयोग कर्ता की संख्या 33,600,000 हैं। यहां पर लोग सबसे अधिक इंटरनेट का उपयोग सोशल मीडिया के लिए करते हैं।

    ब्रिटेन में इंटरनेट

    ब्रिटेन की आबादी लगभग 63 मिलियन है और यहां पर लगभग 53 मिलियन इंटरनेट प्रयोग कर्ता है। इंटरनेट की एक्सेस 84 फीसदी लोगों तक है, जो विश्व के कुल प्रयोग कर्ता की संख्या का दो फीसदी हैं। यहां पर उच्च स्तर पर इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वातंत्रता मिली हुई है। लेकिन हाल के वर्षो में सोशल मीडिया ट्विटर और फेसबुक पर लगाए आंशिक प्रतिबंध ने इंटरनेट पर पूर्ण स्वतंत्रता वाले देश की श्रेणी से बाहर कर दिया है। यहां पर इन सोशल मीडिया के सेवाओं पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। यूके में 86 फीसदी इंटरनेट प्रयोग कर्ता वीडियो साइट्स पर विजिट करते हैं। यहां प्रयोग कर्ता प्रति माह 240 मिलियन घंटे ऑन लाइन वीडियो कंटेंट देखते हैं।

    हंगरी में इंटरनेट

    हंगरी में 59 फीसदी लोग इंटरनेट के प्रयोग कर्ता हैं। पिछले 1990 से डायल अप कनेक्शनों की संख्या बढ़ी है। यहां वर्ष 2000 से ब्राडबैंड कनेक्शनों की संख्या में काफी तेजी आई। यहां 6,516,627 इंटरनेट प्रयोग कर्ता हैं। यहां के प्रयोग कर्ता अधिकतर कॉमर्शियल और मार्केटिंग मैसेज के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं।

    ऑस्ट्रेलिया में इंटरनेट

    ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या 22,015,576 है, जिसमें से 19,554,832 इंटरनेट प्रयोग कर्ता हैं। ऑस्ट्रेलिया में इंटरनेट पर ऑनलाइन कंटेट में प्रयोग कर्ता को काफी हद तक स्वतंत्रता मिली हुई है। वह सभी राजनीतिक, सोसाइटल डिस्कोर्स, ह्यूमन राइट के उल्लंघर आदि की जानकारी हासिल कर लेता है। ऑस्ट्रेलिया में इंटरनेट की उपलब्धता दर 79 फीसदी है। ऑस्ट्रेलिया के लोग अपने घरों से कई काम अपने मोबाइल पर कर लेते हैं।

    अर्जेंटीना में इंटरनेट

    अर्जेंटीना में पहली बार 1990 में इंटरनेट का उपयोग वाणिज्यक उपयोग के लिए शुरू किया गया था, हालाकि पहले इस पर एकेडमिक दृष्टिकोण से फोकस किया जा रहा था। दक्षिणी अमेरिका का यह अब सबसे बड़ा इंटनेट का उपयोग करने वाला देश है। यहां की अनुमानित जनसंख्या 42,192,492 है, जिसमें 28,000,000 लोग इंटरनेट प्रयोग कर्ता हैं। यह कुल संख्या के लगभग 66.4 फीसदी है। यहां 20,048,100 लोग फेसबुक पर हैं।

    दक्षिण-अफ्रीका में इंटरनेट

    दक्षिण-अफ्रीका में पहली इंटनेट कनेक्शन 1998 में शुरू किया गया था। इसके बाद इंटरनेट का कार्मिशियल उपयोग 1993 से शुरू हुआ। अफ्रीका महाद्वीप में विकास की तुलना में दक्षिण अफ्रीका 13 वां सबसे अधिक इंटनेट की एक्सेस वाला देश है। इंटरनेट के उपयोग के मामले में यह देश अफ्रीका के अन्य देशों से कही आगे है। एक अनुमान के अनुसार यहां की जनसंख्या 48,810,427 है, जिनमें से 8,500,000 इंटरनेट प्रयोग कर्ता हैं।

    जापान में इंटरनेट

    जापान में इंटरनेट का उपयोग अधिकतर ब्लॉगिंग के लिए करते हैं। जापान की संस्कृति में ब्लॉग बड़ा रोल अदा करते हैं। औसतन जापन का एक प्रयोग कर्ता 62.6 मिनट अपने समय का उपयोग ब्लॉग पर करता है। इसके बाद दक्षिण कोरिया के प्रयोग कर्ता हैं, जो 49.6 मिनट और तीसरे स्थान पर पोलैंड के प्रयोग कर्ता हैं, जो 47.7 मिनट अपना वक्त ब्लांग पर देते हैं।

    ब्राजील में इंटरनेट

    यहां 42 फीसदी लोग हर दिन सोशल मीडिया के लिए इंटरनेट का उपयोग करते हैं। 18 से 24 साल आयु वर्ग के युवा सबसे अधिक इंटनेट का उपयोग कर रहे हैं। मैट्रोपोलिटन शहरों में इंटरनेट का उपयोग टीवी देखने के लिए बहुत अधिक हो रहा है।

    तुर्केमेनिस्तान में इंटरनेट की सबसे अधिक महंगी सेवा

    दुनिया में इंटरनेट की सबसे अधिक महंगी सेवा तुर्केमेनिस्तान में है। यहां अनलिमिटेड इंटनेट एक्सेस के लिए इंटरनेट प्रयोग की कीमत डॉलर की दर से 2048 है, जो एक माह में 6,821.01 डॉलर तक पहुंच जाती है। यहां सबसे सस्ती इंटरनेट सेवा 43.12 डॉलर प्रति माह में प्रयोग कर्ता को 2 जीबी 64 केबीपीएस की दर ही मिल पाती है। जबकि रूस में हाई स्पीड अनलिमिटेड इंटरनेट लगभग 20 डॉलर प्रति माह है।

    सबसे तेज इंटरनेट स्पीड दक्षिण कोरिया में

    एक रिपोर्ट के मुताबिक, इंटरनेट की तेज स्पीड होने पर एक परिवार साल भर में इंटरनेट पर होने वाले खर्च में से करीब 5 लाख रुपये बचा सकता है। इसमें सबसे ज्यादा पैसा एंटरटेनमेंट, ऑन लाइन डील, डेली सर्च और ट्रैवल में इस्तेमाल होने वाले इंटरनेट के रूप में बचा सकता है। औसत वर्ल्ड वाइड डाउनलोड स्पीड 58 किलोबाइट प्रति सेकंड है। दक्षिण कोरिया में इंटरनेट की औसत स्पीड दुनिया में सबसे अधिक है। यहां की स्पीड 2202 केबीपीएस है। पूर्वी यूरोपीय देश रोमानिया दूसरे स्थान पर 1909 और बुल्गारिया तीसरे स्थान पर 1611 केबीपीएस के साथ है। स्पीड के मामले में हांगकांग में इंटरनेट की औसत पीक (अधिकतम) स्पीड 49 एमबीपीएस है। जबकि अमेरिका में 28 एमबीपीएस है।

    इंटरनेट शब्दावली

    • अटैचमेन्ट या अनुलग्नकःयह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी भी प्रकार की फाइल मेल संदेश के साथ जोडकर इंटरनेट के माध्यम से किसी को भी भेजी या प्राप्त की जा सकती है।
    • आस्की (ASCII):इसका अर्थ ‘अमेरिकन स्टैण्डर्ड कोड फोर इंफर्मेशन इंटरचेंज’ है। यह नोट पैड मे सुरक्षित किये जाने वाले टेक्स्ट का बॉयडिफाल्ट फार्मेट है। यदि आप नोट पैड मे किसी टेक्स्ट को प्राप्त कर रहे है तो वह फार्मेट ASCII है।
    • ऑटो कम्प्लीटःयह सुविधा ब्राउसर के एड्रेस बार मे होती है। इसके शुरू मे कुछ डाटा टाइप करते ही URL पूर्ण हो जाता है। इसके लिये जरूरी है कि वह URL पहले प्रयोग किया गया हो।
    • एंटी वाइरस प्रोग्रामःइस प्रोग्राम मे कम्प्यूटर की मेमोरी मे छुपे हुए वाइरस को ढूंढ निकालने या सम्भव हो तो, नष्ट करने की क्षमता होती है।
    • बैंडविड्थःइसके द्वारा इंटरनेट की स्पीड नापी जाती है। बैंडविड्थ जितनी अधिक होगी, इंटरनेट की स्पीड उतनी ही ज्यादा होगी।
    • ब्राउसरःवर्ल्ड वाइड वेब पर सूचना प्राप्त करने मे मददगार सॉफ्टवेयर को ब्राउसर कहते है। गूगल क्रोम, मोजिला फायर फॉक्स और इंटरनेट एक्सप्लोरर सर्वाधिक प्रचलित ब्राउसर है। पूर्व में नेटस्केप नेवीगेटर आदि भी लोकप्रिय थे। यह ऐसे सॉफ्टवेयर होते हैं, जो HTML और उससे संबंधित प्रोग्राम को पढ़ सकते हैं।
    • बुकमार्कःब्राउसर मे एक सुविधा, जिसकी मदद से प्रयोग किए जा रहे लिंक पर बाद में सीधे पहुंचा जा सकता है। इंटरनेट एक्सप्लोरर मे यह फेवरेट कहलाता है।
    • केशे या टेम्परेरी इंटरनेट एक्सप्लोररःसर्फिंग के दौरान वेब पेज और उससे संबंधिंत चित्र एक अस्थायी भन्डार मे ट्रांसफर हो जाते है। यह तब तक नही हटते है, जब तक इन्हे हटाया न जाये या ये रिपलेस न हो जायें।
    • कुकीःयह वेब सर्वर द्वारा भेजा गया डेटा होता है, जिसे ब्राउसर द्वारा सर्फर के कम्प्यूटर मे एक संचिका मे स्टोर कर लिया जाता है।
    • डिमोड्यूलेशनःमोडेम से प्राप्त एनालॉग डेटा को डिजिटल डेटा मे बदलने की प्रक्रिया डिमोड्यूलेशन कहलाती है।
    • डाउनलोडःकिसी फोटो, वीडियो आदि को इंटरनेट के माध्यम से वर्ल्ड वाइड वेब से अपने कम्प्यूटर पर कॉपी करने की प्रक्रिया डॉउनलोड कहलाती है।
    • क्षेत्रीय नाम पंजीकरणःकिसी भी कम्पनी को अपनी विशिष्ट पहचान कायम रखने के लिये अपनी कम्पनी का नाम पंजीकरण करवाना होता है। यह प्रक्रिया इंटरनेट सर्विस प्रोवाडर की देख-रेख मे चलती है।
    • ई-कॉमर्सःइंटरनेट पर व्यापारिक लेखा-जोखा रखने की प्रक्रिया और नेट पर ही ख्ररीद-बिक्री की प्रक्रिया ई-कॉमर्स कहलाती है।
    • होम-पेजःवेब ब्राउसर से किसी साइट को खोलते ही जो पृष्ठ सामने खुलता है, वह उसका होम पेज कहलाता है।
    • FAQ  (frequently asked question) : वेबसाइट पर किसी खास विषय से जुडे प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किए जा सकते हैं।
    • डायल-अप कनेक्शनःएक कम्प्यूटर से मोडेम द्वारा इंटरनेट से जुडे किसी अन्य कम्प्यूटर से स्टेंडर्ड फोन लाइन पर जुड़े कनेक्शन को डायल अप कनेक्शन कहते है।
    • डायल-अप नेटवर्किंगःकिसी पर्सनल कम्प्यूटर को किसी अन्य पर्सनल कम्प्यूटर पर, LAN और इंटरनेट से जोडने वाले प्रोग्राम को ‘डायल अप नेटवर्किंग’ कहते है।
    • डायरेक्ट कनेक्शनःकिसी कम्प्यूटर या LAN और इंटरनेट के बीच स्थायी सम्पर्क को डायरेक्ट कनेक्शन कहा जाता है। यदि फोन कनेक्शन कम्पनी से टेलीफोन कनेक्शन लीज पर लिया जाता है, तो उसे लीज्ड लाइन कनेक्शन कहते है।
    • HTML (हाइपर टेक्स्ट मार्कअप लेंग्वेज) :वर्ल्ड वाइड वेब पर डाक्यूमेंट के लिये प्रयोग होने वाली मानक मार्कअप भाषा HTML भाषा कहलाती है।
    • HTTP(हाइपर टेक्स्ट ट्रांसफर प्रोटोकाल):वर्ल्ड वाइड वेब पर सर्वर से किसी प्रयोग कर्ता तक दस्तावेजों को ट्रांसफर करने वाला कम्यूनिकेशन प्रोटोकाल HTTP कहलाता है।

    सामाजिक या सोशल मीडिया

    आज के दौर को सोशल मीडिया का दौर भी कहा जाता है। सोशल मीडिया में स्वयं की सक्रिय भागेदारी होती है, जिससे प्रयोक्ता अधिक अपनापन महसूस करता है, वह खुलकर अपनी बात रख सकता है, और अपनी कृतियों पर दूसरों की प्रतिक्रियाएं चाहता है, और उनकी उम्मीद में अधिक सक्रिय रहता है। सोशल मीडिया की ही ताकत है कि 2004 में आया फेसबुक अगर एक देश होता, तो जनसंख्या के मामले में दुनिया में तीसरे नंबर का देश होता। जनवरी 2009 (कहीं फ़रवरी 2010 का भी उल्लेख) में उक्रेन के 37 साल जन कूम द्वारा मेरिका के 44 साल के ब्रायन एक्टन के साथ मिलकर शुरू किये गए व्हाट्सएप्पके दुनियां में 90 करोड़ उपयोगकर्ता हो गए हैं। हमारे कई नेता आजकल दिनभर में ट्विटर पर के ‘ट्वीट’ करके समाचार चैनलों और समाचार पत्रों की सुर्ख़ियों में छाये रहते हैं। पिछले दिनों ललित मोदी लन्दन में बैठकर भारत की पूरी राजनीति को अपने ‘ट्वीटस’ से मनमाफिक तरीके से घुमाये रहे।

    सोशियल नेटवर्किंग साइट्सः

    सोशियल नेटवर्किंग साइट्स इंटरनेट माध्यम पर उपलब्ध ऐसी साइट्स हैं, जिन पर हम अपने संपर्कों का दायरा बढ़ाते हुऐ अधिकाधिक लोगों तक अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। सोशियल नेटवर्किंग साइट्स एक तरह की वेबसाइट्स हैं, जिनसे जुड़कर इस साइट पर जुड़े अन्य लोगों से भी जुड़ा जा सकता हैं। चूंकि इन साइट्स पर देश-दुनिया के अरबों लोग जुड़े रहते हैं, इसलिये इनसे जुड़ने पर हम परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इन लोगों से जुड़ जाते हैं, या जुड़ सकते हैं। इन लोगों में हमारे वर्तमान और कई बार बरसों पूर्व बिछड़ चुके दोस्त तथा सैकड़ों-हजारों किमी दूर रह रहे परिजन, मित्र हो सकते हैं, जिनसे हम इन साइटों पर जुड़ने के बाद बिना किसी शुल्क के जितनी देर चाहें, चैटिंग या संदेशों के माध्यम से बात, विचार-विमर्श कर सकते हैं। अपने विचारों को ब्लॉग लिखकर पूरी दुनिया के सामने रख सकते हैं, यही नहीं एक-दूसरे से फोटो और वीडियो भी देख सकते हैं। और अब तो वीडियो कॉल के जरिये आमने-सामने बैठे जैसे बातें भी कर सकते हैं, जबकि अन्य किसी माध्यम से ऐसे वार्तालाप बेहद महंगे होते हैं। लिहाजा सोशियल साइट्स काफी लोकप्रिय होती जा रही हैं।

    सोशियल नेटवर्किंग साइट्स का मनोविज्ञान:

    यह भी पढ़ें : दूसरों से बेहतर दिखने की कोशिश में फेसबुक पर अपनी फोटो डालते हैं लोग
    यह भी पढ़ें : दूसरों से बेहतर दिखने की कोशिश में फेसबुक पर अपनी फोटो डालते हैं लोग
    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। खुद को अधिक पापुलर दिखाने का उसे शौक रहता है। अधिक पापुलर दिखना यानी अधिक दोस्त होना। सोशियल नेटवर्किंग साइट्स मनुष्य के इसी मनोविज्ञान को खूब भुना रही हैं। दूसरे, व्यक्ति अपने किसी विचार पर तत्काल बहुत से लोगों की प्रतिक्रियायें जानना चाहता है। मीडिया में भी ऐसे “टू-वे कम्युनिकेशन”की ही अपेक्षा की जाती है। सोशियल साइटें तत्काल प्रतिक्रिया और तारीफें दिलाकर मनुष्य के इस मनोविज्ञान की पूर्ति करती रहती हैं। आस्ट्रेलिया की कंपनी यू-सोशल तथा कई अन्य कंपनियां तो सोशियल साइटों पर पैंसे देकर दोस्त उपलब्ध कराने का गोरखधंधा भी करने लगी हैं। इनका दावा है कि 125 पाउंड देने पर एक हजार दोस्त उपलब्ध कराऐंगे। पर अक्सर ऐसे दोस्त व कंपनियां फर्जी ही होती हैं। आज के दौर में दुनिया में दो तरह की सिविलाइजेशन यानी संस्कृतिकरण की बात भी कही जाने लगी है, वर्चुअल और फिजीकल सिविलाइजेशन। सोशियल मीडिया इसी वर्चुअल सिविलाइजेशन का एक स्टेशनहै। कहा जा रहा है कि आने वाले समय में जल्द ही दुनिया की आबादी से दो-तीन गुना अधिक आबादी इंटरनेट पर होगी। दरअसल, इंटरनेट एक ऐसी टेक्नोलाजी के रूप में हमारे सामने आया है, जो उपयोग के लिए सबको उपलब्ध है और सर्वहिताय है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स संचार व सूचना का सशक्त जरिया हैं, जिनके माध्यम से लोग अपनी बात बिना किसी रोक-टोक के रख पाते हैं। यही से सामाजिक मीडिया का स्वरूप विकसित हुआ है। सामाजिक या सोशल मीडिया के कई रूप हैं जिनमें कि इंटरनेट फोरम, वेबलॉग, सामाजिक ब्लॉग, माइक्रो ब्लागिंग, विकीज, सोशल नेटवर्क, पॉडकास्ट, फोटोग्राफ, चित्र, चलचित्र आदिसभी आते हैं। अपनी सेवाओं के अनुसार सोशल मीडिया के लिए कई संचार प्रौद्योगिकी उपलब्ध हैं। सामाजिक मीडिया अन्य पारंपरिक तथा सामाजिक तरीकों से कई प्रकार से एकदम अलग है। इसमें पहुंच, आवृत्ति, प्रयोज्य, ताजगी और स्थायित्व आदि तत्व शामिल हैं। इंटरनेट के प्रयोग से कई प्रकार के प्रभाव होते हैं। निएलसन के अनुसार ‘इंटरनेट प्रयोक्ता अन्य साइट्स की अपेक्षा सामाजिक मीडिया साइट्स पर ज्यादा समय व्यतीत करते हैं’। माइक्रो ब्लॉगिंग की यह बिधा विख्यात हस्तियों को भी लुभा रही है। इसीलिये ब्लॉग अड्डा ने अमिताभ बच्चन के ब्लॉग के बाद विशेषकर उनके लिये माइक्रो ब्लॉगिंग की सुविधा भी आरंभ की है।

    सोशियल मीडिया का इतिहासः

    1994 में सबसे पहला सोशल मीडिया जीओ साइट के रूप में सामने आया। इसका उद्देश्य एक ऐसी वेबसाइट बनाना था, जिससे लोग अपने विचार और बातचीत आपस में साझा कर सकें। वर्तमान में विश्व में जो करीब 2.2 अरब लोग इंटरनेट का प्रयोग करते हैं, उनमें से फेसबुक पर एक अरब, ट्विटरर पर 20 करोड़, गूगल प्लस पर 17.5 करोड़, लिंक्ड इन पर 15 करोड़ से अधिक सदस्य हैं। सोशल साइट के प्रति लोगों की दीवानगी इससे समझी जा सकती है कि एक अध्ययन के अनुसार लोग फेसबुक पर औसतन 405 मिनट, ट्विटर पर 21 मिनट, लिंक्डइन पर 17 मिनट व गूगल प्लस पर तीन मिनट व्यतीत करते हैं।

    सोशल मीडिया के लाभ/सकारात्मक प्रभाव:

    1. संपर्कों का दायरा बढ़ाते हुऐ अधिकाधिक लोगों तक अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।
    2. अपने विचार, फोटो और वीडियो चाहें तो पूरी दुनिया या अपने दोस्तों के बीच शेयर कर सकते हैं। इन पर त्वरित प्रतिक्रिया- ‘टू-वे कम्युनिकेशन’भी प्राप्त कर पाते हैं।
    3. अपने विचारों को ब्लॉग लिखकर पूरी दुनिया के सामने रख सकते हैं, और अब तो वीडियो कॉल के जरिये आमने-सामने बैठे जैसे बातें भी कर सकते हैं, जबकि यह सुविधा अन्य माध्यमों से बेहद महंगी है।
    4. अपनी लिखी सामग्री को ‘लाइब्रेरी’ के रूप में हमेशा के लिए सहेज कर भी रख सकते हैं, तथा इसे जब चाहे तब स्वयं भी, और चाहे तो पूरी दुनियां के लोग भी उपयोगी होने पर ‘सर्च’ कर प्राप्त कर सकते हैं।
    5. सोशल साइट पूर्व में छूटे दोस्तों को मिलाने और नए वर्चुअल दोस्त बनाने और दुनिया को विश्व ग्राम यानी ‘ग्लोबल विलेज’ बनाने का माध्यम भी बना है।
    6. अपनी बात, विचार बिना किसी रोक-टोक के रख पाते हैं।
    7. सदुपयोग करें तो सोशल मीडिया ज्ञान प्राप्ति का उत्कृष्ट माध्यम बन सकता है। इसके माध्यम से मित्रों से उपयोगी पाठ्य सामग्री आसानी से प्राप्त की जा सकती है, और सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जा सकता है।
    8. अन्ना एवं रामदेव के आंदोलन में दिखी सोशियल साइट्स की ताकत: वर्ष 2013 में समाजसेवी अन्ना हजारे के आंदोलन को दिल्ली से पूरे देशव्यापी बनाने में सोशियल साइट्स की बड़ी भूमिका देखी गई। सही अर्थों में इस दौरान सोशियल साइट्स ने समाज को मानों हाथों से हाथ बांध एक सूत्र में पिरो दिया। स्वामी रामदेव के आंदोलन में भी सोशियल साइट्स की बड़ी भूमिका रही। देश में राजनीतिक परिवर्तन, आर्थिक नीतियों, धार्मिक व सांस्कृतिक मुद्दों पर भी सोशियल साइट्स पर खूब चर्चा रही। इस से संबंधित विषयों पर कई अलग ग्रुप, पेज और कॉज यानी बड़े मुद्दे तैयार कर उन पर भी लोग अलग से चर्चा होने लगी।

    सोशियल नेटवर्किंग साइट्स के नकारात्मक प्रभाव:

    1. सामाजिक मीडिया के व्यापक विस्तार के साथ-साथ इसके कई नकारात्मक पक्ष भी उभरकर सामने आ रहे हैं। पिछले वर्ष मेरठ में हुयी एक घटना ने सामाजिक मीडिया के खतरनाक पक्ष को उजागर किया था। वाकया यह हुआ था कि एक किशोर ने फेसबुक पर एक ऐसी तस्वीर अपलोड कर दी जो बेहद आपत्तिजनक थी। इस तस्वीर के अपलोड होते ही कुछ घंटे के भीतर एक समुदाय के सैकडों गुस्साये लोग सडकों पर उतार आए। जब तक प्रशासन समझ पाता कि माजरा क्या है, मेरठ में दंगे के हालात बन गए। प्रशासन ने हालात को बिगडने नहीं दिया और जल्द ही वह फोटो अपलोड करने वाले तक भी पहुुंच गया। लोगों का मानना है कि परंपरिक मीडिया के आपत्तिजनक व्यवहार की तुलना में नए सामाजिक मीडिया के इस युग का आपत्तिजनक व्यवहार कई मायने में अलग है। नए सामाजिक मीडिया के माध्यम से जहां गडबडी आसानी से फैलाई जा सकती है, वहीं लगभग गुमनाम रहकर भी इस कार्य को अंजाम दिया जा सकता है। हालांकि यह सच नहीं है, अगर कोशिश की जाये तो सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों को आसानी से पकड़ा जा सकता है, और इन घटनाओं की पुनरावृति को रोका भी जा सकता है। इससे पूर्व लंदन व बैंकुवर में भी सोशल मीडिया से दंगे भड़के और दंगों में शामिल कई लोगों को वहां की पुलिस ने पकडा और उनके खिलाफ मुकदमे भी दर्ज किए। मिस्र के तहरीर चौक और ट्यूनीशिया के जैस्मिन रिवोल्यूशन में इस सामाजिक मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका को कैसे नकारा जा सकता है।
    2. विश्वसनीयता का अभाव : विश्वसनीयता का अभाव सोशल मीडिया की सबसे बड़ी कमजोरी है। यही कमजोरी सोशल मीडिया को ‘मीडिया माध्यम’ कहे जाने पर भी सवाल उठा देती है। क्योंकि ‘विश्वसनीयता’ ‘मीडिया माध्यम’ की पहली और सबसे आवश्यक शर्त और विशेषता है।
    3. अवांछित सूचनाओं की भरमार :  सोशल मीडिया की वजह से आज हमारे जीवन में सूचनाओं की भरमार हो गयी है। इसीलिए इस दौर में ‘सूचना विस्फोट’ होने की बात भी कही जाती है। लेकिन यह भी सच है कि उपलब्ध सूचनाओं में अधिकाँश अवांछित होती हैं। इसीलिए कई बार हम सैकड़ों-हजारों की संख्या में आने वाली अनेक सूचनाओं को बिना पढ़े भी आगे बढ़ जाते हैं, और कई बार ऐसा करने पर वांछित और जरूरी सूचनाएँ भी बिना पढ़े निकल जाती हैं। यहां तक कहा जाने लगा है कि आज का युग ‘सूचनाओं का युग’ जरूर है पर ज्ञान का नहीं। यानी सूचनाओं में ज्ञान की कमी है।
    4. धन-समय की बर्बादी: यदि अधिकाँश सूचनाएँ अवांछित हों तो निश्चित ही नया मीडिया धन और समय की बर्बादी ही है। इसका उपभोग करने के लिए ‘स्मार्ट फोन’ खरीदने से लेकर ‘नेट पैक’ भरवाने में धन तो पल-पल संदेशों के आने पर मूल कार्यों को छोड़कर उनकी और ध्यान आकृष्ट करना पड़ता है। व्हाट्सएप्प पर तो अवांछित होने के बावजूद हर फोटो को ‘डाउनलोड’ करना पड़ता है, जिससे ‘डाटा’ और ‘फोन या कार्ड की मेमोरी’ की बर्बादी होती है।
    5. राष्ट्रीय सहारा 08.10.2015
      राष्ट्रीय सहारा 08.10.2015
      लत, तलब और मानसिक बीमारी का कारण :शहरी युवाओं को इंटरनेट व सोशल मीडिया की लत सी लग गई है। इसे प्रयोग करते-करते इसकी किसी नशे जैसी ‘तलब’ लग जाती है। इंटरनेट के लती लोग मोबाइल को आराम देने के लिए ही सो पा रहे हैं। इस तरह यह अपने प्रयोगकर्ताओं को मानसिक रूप से बीमार भी कर रहा है। एसोसिएट चैंबर ऑफ कॉमर्श (एसोचेम) की वर्ष 2014 की देश के कई मेट्रो शहरों में कराए गए एस सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार 8 से 13 वर्ष की उम्र के 73 फीसदी बच्चे फेसबुक जैसी सोशल साइटों से जुड़े हुए हैं, जबकि उन्हें इसकी इजाजत नहीं है। शोधकर्ताओं के अनुसार इन बच्चों के 82 फीसदी माता-पिताओं ने बच्चों को खुद का समय देने के बजाय उन्हें व्यस्त रखने के लिए खुद ही बच्चों के नाम से फेसबुक अकाउंट्स बनाए थे। वहीं अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया में मनोविज्ञान के प्रोफेसर टिमोथी विल्सन नकी ‘साइंस मैगजीन’ में छपी रिपोर्ट के अनुसार 67 फीसद पुरुष और 25 फीसद महिलाएं मोबाइल, टैब, कम्प्यूटर, टीवी, म्यूजिक व बुक आदि इलेक्ट्रानिक गजट के बिना 15 मिनट भी सुकून से नहीं रह पाए और विचलित हो गए, तथा उन्होंने इसकी जगह इलेक्ट्रिक शॉक लेना मंजूर कर लिया। टिमोथी के अनुसार हमारा दिमाग ‘मल्टी टास्किंग’ का अभ्यस्त हो गया है, तथा हम ‘हाइपर कनेक्टेड’ दुनिया में रह रहे हैं, तथा इसके बिना जीना हमें बेहद मुश्किल और कष्टदायी लगता है। आज लोग आमने-सामने की मुलाकात की जगह ‘वर्चुअल संवाद’ करना अधिक पसंद कर रहे हैं। सलाह दी जा रही है कि अधिकतम दिन में दो-तीन बार 15-20 मिनट का समय ही इनके निश्चित करना चाहिए।
    6. भेड़चालःपिछले दिनों जबकि मशहूर गायक जगजीत सिंह जीवित थे, उन्हें ट्विटर पर श्रद्धांजलि दे दी गई। माइक्रो ब्लगिंग साइट ट्विटर पर 25 सितंबर 2011 को मशहूर गजल गायक जगजीत सिंह की मौत की अफवाह ने उनके चाहने वालों के होश उड़ा दिए। हर कोई उन्हें श्रद्धांजलि देने लगा। देखते ही देखते (RIP Jagjit Singh) यानी रेस्ट इन पीस जगजीत सिंह ट्वीट ट्विटर ट्रेंड्स में सबसे ऊपर आ गया। गौरतलब है कि इस दौरान जगजीत सिंह ब्रेन हेमरेज के बाद मुंबई के लीलावती अस्पताल में भर्ती थे। डाक्टरों ने बताया कि ब्रेन सर्जरी के बाद उनकी हालत स्थिर बनी हुई है। ट्विटर ट्रेंड्स में जिसने भी रेस्ट इन पीस जगजीत सिंह ट्वीट देखा, वह भेड़चाल में जगजीत सिंह को श्रद्धांजलि देने लगा। बाद में, जैसे-जैसे लोगों को अपनी गलती का एहसास हुआ, तो फिर माफी मांगने और ट्वीट डिलीट करने का सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन, फिर भी श्रद्धांजलि देने वालों की संख्या माफी मांगने वालों के मुकाबले कहीं ज्यादा रही।
    7. मूल कार्य पर पड़ता नकारात्मक प्रभाव:सोशल नेटवर्किंग साइटें नई पीढ़ी के लोगों को जोड़ने का अच्छा जरिया भले ही हों, मगर इसके कई नुकसान भी झेलने पड़ रहे हैं। इंडस्ट्री चैंबर एसोचौम ने दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई, इंदौर, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़ और कानपुर में करीब 4,000 कार्पोरेट कर्मचारियों द्वारा दिए गए जवाब पर आधारित अपनी एक नई स्टडी के आधार पर बताया है कि कार्पोरेट सेक्टर के कर्मचारी दफ्तरों में हर रोज औसतन एक घंटा वक्त ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों पर बरबाद कर रहे हैं, जिससे उनकी करीब साढ़े 12 फीसदी प्रोडक्टिविटी यानी उत्पादकता पर खासा असर पड़ रहा है। इसी कारण कई आईटी कंपनियों ने इन साइटों का इस्तेमाल बंद करने के लिए अपने सिस्टम्स में साफ्टवेयर लगा दिए हैं।
    8. रिश्तों में विश्वास का अभाव:अक्सर सोशियल नेटवर्किंग साइट्स पर दोस्ती के साथ ही खासकर लड़के-लड़कियों में मित्रता के खूब रिश्ते बनते हैं। ऐसे अनेक वाकये चर्चा में भी रहते हैं कि अमुख ने फेसबुक जैसी सोशियल साइट्स के जरिये बने रिश्तों को विवाह के बंधन में तब्दील कर दिया, अथवा शादी के नाम पर धोखाधड़ी हुई। वर्चुअल मोड में बातचीत होने की वजह से कई बार बेमेल संपर्क बनने की बात भी प्रकाश में आई। लेकिन दूसरी ओर भाई-बहन जैसे रिश्तों को यहां कमोबेश नितांत अभाव ही दिखता है। एक फेसबुक मित्र के अनुसार अनेक लड़कियां उनकी वॉल पर भाई का संबोधन करती हैं, पर रक्षाबंधन के दिन मात्र एक ने उन्हें ऑनलाइन राखी का फोटो टैग किया।
    9. फ्लर्ट का माध्यमःसच्चाई यह है कि सोशियल साइट्स पर अधिकांश युवा खासकर आपस में फ्लर्ट ही कर रहे हैं। यहां तक कि इंटरनेट पर कई ऐसी साइट्स भी तैयार हो गई हैं जो युवाओं को सोशियल साइट्स पर फ्लर्ट करना सिखा रही हैं।
    10. अश्लीलता को मिल रहा बढ़ावा:सोशियल नेटवर्किंग साइट्स पर काफी हद तक अश्लीलता को बढ़ावा मिल रहा है। आप यहां अपनी बहन की सुंदर फोटो भी लगा दें तो उस पर थोड़ी देर में ही ऐसी-ऐसी अश्लील टिप्पणियां आ जाऐंगी, कि आपके समक्ष शर्म से उस फोटो को हटा लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा।
    11. प्राइवेसी को खतरा:सोशल नेटवर्किंग साइट्स अक्सर उपयोगकर्ता की निजी जिंदगी का आइना होती हैं। यही वजह है कि कंपनियां भी आजकल अपने कर्मचारियों की व्यक्तिगत जिंदगी के बारे में जानने के लिए ऐसी सोशियल वेबसाइट्स में घुसपैठ कर रही हैं। इस तरह कर्मचारियों की प्राइवेसी खतरे में है। कई कंपनियां अपने यहां कर्मचारियों को तैनात करने से पूर्व उनके सोशियल साइट्स के खातों को भी खंगाल रही हैं, जहां से उन्हें अपने भावी कर्मचारियों के बारे में अपेक्षाकृत सही जानकारियां हासिल हो जाती हैं। इसी तरह शादी-विवाह के रिश्तों से पूर्व भी लोग सोशियल साइट को देखने लगे हैं।

    सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रभावों पर सोशल मीडिया पर कुछ रोचक चुटकुले भी बेहद चर्चित हो रहे हैं :

    1. पहले दो लोग झगडते थे, तो तीसरा छूडवाने जाता था. आजकल तीसरा वीडियो बनाने लगता है ।
    2. ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप अपने प्रचंण्ड क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है कि हर नौसिखीया क्रांति करना चाहता है…
    • कोई बेडरूम में लेटे लेटे गौहत्या करने वालों को सबक सिखाने की बातें कर रहा है तो……
    • किसी के इरादे सोफे पर बैठे-बैठे महंगाई-बेरोजगारी या बांग्लादेशियों को उखाड फेंकने के हो रहे हैं…
    • हफ्ते में एक दिन नहाने वाले लोग स्वच्छता अभियान की खिलाफत और समर्थन कर रहे हैं ।
    • अपने बिस्तर से उठकर एक गिलास पानी लेने पर नोबेल पुरस्कार की उम्मीद रखने वाले लोग बता रहे हैं कि मां बाप की सेवा कैसे करनी चाहिये ।
    • जिन्होंने आज तक बचपन में कंचे तक नहीं जीते वह बता रहे हैं कि ‘भारत रत्न’ किसे मिलना चाहिए ।
    • जिन्हें ‘गली क्रिकेट’ में इस शर्त पर खिलाया जाता था कि बॉल कोई भी मारे पर अगर नाली में गयी तो निकालना उसे ही पड़ेगा वो आज कोहली को समझाते पाये जायेंगे कि उसे कैसे खेलना है ।
    • देश में महिलाओं की कम जनसंख्या को देखते हुये उन्होंने नकली ID बना कर जनसंख्या को बराबर कर दिया है ।
    • जिन्हें यह तक नहीं पता कि हुमायूं बाबर का कौन था वह आज बता रहे हैं कि किसने कितनों को काटा था ।
    • कुछ दिन भर शायरियाँ ऐसे पेलेंगे जैसे ‘गालिब’ के असली उस्ताद तो वे ही हैं।
    • जो नौजवान एक बालतोड़ हो जाने पर रो-रो कर पूरे मोहल्ले में हल्ला मचा देते हैं वह देश के लिये सर कटा लेने की बात करते दिखेंगे ।
    • इनके साथ किसी भी पार्टी का समर्थक होने में समस्या यह है कि बिना एक पल गंवाए ‘भाजपा’ समर्थक को अंधभक्त, ‘आप’ समर्थक को ‘उल्लू’ और ‘काँग्रेस’ समर्थक को ‘बेरोजगार’ करार दे देते हैं।
    • जिन्हें एक कप दूध पीने पर दस्त लग जाते हैं, वे हेल्थ की टिप दिए जा रहे हैं
    • वहीँ  समाज के असली जिम्मेदार नागरिक नजर आते हैं ‘टैगिये’, इन्हें ऐसा लगता है कि जब तक ये गुड मॉर्निंग वाले पोस्ट पर टैग नहीं करेंगे तब तक लोगों को पता ही नही चलेगा कि सुबह हो चुकी है ।
    • जिनकी वजह से शादियों में गुलाब-जामुन वाले स्टॉल पर एक आदमी खड़ा रखना जरूरी होता है,वो आम बजट पर टिप्पणी करते पाये जाते हैं…
    • कॉकरोच देखकर चिल्लाते हुये दस किलोमीटर तक भागने वाले पाकिस्तान को धमका रहे होते हैं कि-“अब भी वक्त है सुधर जाओ”।
    3. पहले लोग घर पर आते थे तो उन्हें ‘पानी’ के लिए पूछने वाले बच्चे अच्छे माने जाते थे। अब आते ही मोबाईल चार्ज करने के लिए पूछने वाले बच्चे अच्छे माने जाते हैं। आगंतुक भी कहीं पहुंचते ही मोबाइल चार्जर ही पहले मांगता है।

    कुछ प्रमुख सोशियल नेटवर्किंग साइट्स:

    फेसबुक, ट्विटर, लिंक्ड-इन, फ्लिकर, गूगल प्लस, टू, माईस्पेस, वे एन, इन्स्टाग्राम (जून 2012 में शुरू) विण्डोज़ लाइव मॅसेञ्जर, ऑर्कुट, गूगल+, व्हाट्सएप्प व नेट लॉग के साथ ही यूट्यूबभी सोशियल नेटवर्किंग साइट्स में गिने जाते हैं। इनके अलावा भी बाडू, बिग अड्डा, ब्लेक प्लेनेट, ब्लांक, बजनेट, क्लासमेट्स डॉट काम, कोजी कॉट, फोटो लॉग, फ्रेंडिका, हॉटलिस्ट, आईबीबो, इंडिया टाइम्स, निंग, चीन के टॅन्सॅण्ट क्यूक्यू,  टॅन्सॅण्ट वेइबो, क्यूजो़न व नॅटईज़, फ़्रांस के हाब्बो, स्काइप, बीबो, वीकोण्टैक्ट,  सहित 100 से अधिक सोशियल नेटवर्किंग साइट भी देश-दुनिया में प्रचलित हैं। बहरहाल, अपने अच्छे-बुरे प्रभावों के बावजूद आज सोशियल साइट्स आमतौर पर इंटरनेट व कंप्यूटर का प्रयोग करने वाले बड़ी संख्या में लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गये हैं। एक बार लोग इन्हें प्रयोग करने के बाद थोड़ी-थोड़ी देर में यहां अपनी पोस्ट पर आने वाली टिप्पणियों को देखने से स्वयं को रोक नहीं पाते। यह अलग बात है कि बहुत लोग इनका प्रयोग अपने अच्छे-बुरे विचारों के प्रसार के लिये कर रहे हैं तो अन्य इनके जरिये अपने समय और धन का दुरुपयोग भी कर रहे हैं।

    फेसबुकःUntitled

    • फेसबुक एक सोशल नेटवर्किंग साइट है, जिसका आरंभ हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की एक डोरमेट्री में चार फरवरी 2004 को एक छात्र मार्क जुकेरबर्ग नेकिया था। तब इसका प्रारंभिक नाम ‘द फेसबुक’था। कॉलेज नेटवर्किग जालस्थल के रूप में आरंभ के बाद शीघ्र ही यह कॉलेज परिसर में लोकप्रिय होती चली गई। कुछ ही महीनों में यह नेटवर्क पूरे यूरोप में पहचाना जाने लगा। अगस्त 2005 में इसका नाम फेसबुककर दिया गया। धीरे-धीरे उत्तर अमरीका की अन्य सबसे नामचीन स्टेनफर्ड तथा बोस्टन विश्व विद्यालयों के छात्रों के लिए भी इसकी सदस्यता को खोल दिया गया। बाद में 13 वर्ष की आयु से ऊपर के व्यक्ति के लिए फेसबुक की सदस्यता स्वीकृत हुई।
    • मई 2011 की एक उपभोक्ता रिपोर्ट सर्वे के अनुसार, 7.5 मिलियन 13 साल से नीचे की उम्र के एवं 5 मिलीयन 10 साल के नीचे की उम्र के बच्चे भी आज फेसबुक के सदस्यहैं।
    • सन 2009 तक आते आते, फेसबुक सर्वाधिक उपयोग में ली जानेवाली , व्यक्ति से व्यक्ति के सम्पर्क की वेब साईट बन चुकी थी। इधर फेसबुक ने भारत सहित 40 देशों के मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों से समझौता किया है। इस करार के तहत फेसबुक की एक नई साइट का उपयोग मोबाइल पर निःशुल्क किया जा सकेगा।
    • ट्विटर पर 140 कैरेक्टर के ‘स्टेट्स मैसेज अपडेट’ को अनगिनत सदस्यों के मोबाइल और कंप्यूटरों तक भेजने की सुविधा थी, जबकि फेसबुक पर सदस्य 500 लोगो को ही अपने प्रोफाइल के साथ जोड़ सकते हैं या मित्र बना सकते हैं।

    फेसबुक से जुड़े कुछ तथ्य

    1. फेसबुक पर बराक ओबामा की जीत संबंधी पोस्ट 4 लाख से अधिक लाइक के साथ फेसबुक पर सबसे ज्यादा पसंद किया गया फोटो बन गया।
    2. फेसबुक के 25 फीसदी से ज्यादा यूजर्स किसी भी तरह के प्राइवेसी कंट्रोल को नहीं मानते।
    3. इस सोशल नेटवर्किंग साइट के जुड़े हर व्यक्ति से औसत रूप से 130 लोग जुड़े हैं।
    4. फेसबुक के साथ 850 मिलियन सक्रीय मासिक यूजर्स जुड़े हुए हैं।
    5. इस नेटवर्किंग वेबसाइट के कुल यूजर्स में से 21 प्रतिशत एशिया से हैं, जो इस की महाद्वीप की कुल आबादी के चार प्रतिशत से कम है।
    6. 488 मिलियन यूजर्स रोज मोबाइल पर फेसबुक चलाते हैं।
    7. फेसबुक पर सबसे ज्यादा पोस्ट ब्राजील से किए जाते हैं। वहां से हर माह लगभग 86 हजार पोस्ट किए जाते हैं।
    8. 23 प्रतिशत यूजर्स रोज पांच या उससे अधिक बार अपना फेसबुक अकाउंट चेक करते हैं।
    9. फेसबुक पर 10 या उससे अधिक लाइक्स वाले 42 मिलियन पेज है।
    10. 1 मिलियन से अधिक वेबसाइट्स अलग अलग तरह से फेसबुक से जुड़ी हुई है।
    11. 85 प्रतिशत महिलाएं फेसबुक पर अपने दोस्तों से परेशान हैं।
    12. फेसबुक ने 2012 में रूस, दक्षिण कोरिया, जापान, भारत और ब्राजील में अपने सक्रीय यूजर्स की संख्या में 41 फीसदी का इजाफा किया है।
    13. इस सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट पर रोज 250 मिलियन फोटो रोज डाले जाते हैं।
    14. 2012 तक फेसबुक पर 210,000 साल का संगीत बज चुका था।
    15. यहां पर सेक्स से जुड़ी लिंक्स की संख्या अन्य लिंक्स की की अपेक्षा 90 प्रतिशत ज्यादा थी।
    16. 2012 में फेसबुक पर 17 बिलियन लोकेशन टैग्ड पोस्ट और चेक इन थे
    17. फेसबुक के माध्यम से 80 प्रतिशत यूजर्स विभिन्न ब्रांड्स से जुड़े।
    18. फेसबुक के 43 प्रतिशत यूजर्स पुरुष है वहीं 57 फीसदी महिलाएं।
    19. अप्रैल में फेसबुक की कुल आय का 12 प्रतिशत हिस्सा जिग्ना गेम का था।
    20. बीटूसी कंपनियों को 77 प्रतिशत और बीटूबी कंपनियों को 43 प्रतिशत ग्राहक फेसबुक से मिले थे।
    21. सिर्फ एक दिन में ही फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग विश्व के 23 वें सबसे अमीर लोगों की लिस्ट में शामिल हो गए। 28 साल के मार्क जुकरबर्ग ने 18 मई 2012 को फेसबुक के शेयर पब्लिक के लिए निकाले थे जिससे फेसबुक को करोड़ो डॉलर की आमदनी हुई।
    22. करीब 55 फीसदी अभिभावक अपने बच्चों का फेसबुक पर पीछा करते हैं.
    23. रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि फेसबुक पर लोग अपने मौजूदा जीवनसाथी के बजाय पूर्व जीवनसाथी से ज्यादा जुड़े होते हैं।
    24. बरसों तक इंटरनेट की दुनिया पर राज करने वाली गूगल कंपनी ने माना है कि सोशल नेटवर्किंग साइटों को नजरअंदाज करना उसकी सबसे बड़ी गलती रही। ऐसी गलती, जिसकी भरपाई अब नहीं की जा सकती है।फेसबुक का जब जन्म भी नहीं हुआ था, तब गूगल ने ऑर्कुट के तौर पर सोशल मीडिया चलाया था, जो भारत और ब्राजील के अलावा कहीं और नहीं चल पाया। इसके बाद गूगल का बज भी फेल हो गया और अब कंपनी ने अपना पूरा ध्यान गूगल़ पर लगाया है लेकिन उसकी कामयाबी भी सीमित है। गूगल ने पिछले दशक में इंटरनेट की दुनिया पर राज किया, और उसकी लोकप्रियता का यह आलम था कि गूगल को अंग्रेजी भाषा में क्रिया मान लिया गया और उसे शब्दकोषों में जगह मिल गई। एलेक्सा डॉट कॉम के मुताबिक अब भी वह पहले नंबर की वेबसाइट बनी हुई है, जबकि फेसबुक दूसरे नंबर पर है। लेकिन कभी कभी फेसबुक उससे पहला नंबर छीन लेता है।
    25. फेसबुक की ताजा तिमाही रिपोर्ट में कहा गया है कि 1.18 अरब प्रयोग कर्ता में से 1.41 करोड़ फर्जी हैं।

    ट्विटर:

    ट्विटर की शुरुआत इंटरनेटपर 21 मार्च 2006में हुई। ट्विटर मूलतः एक मुफ्त लघु संदेश सेवा (SMS) व माइक्रो-ब्लॉगिंग तरह की सोशल मीडिया सेवा है जो अपने उपयोगकर्ताओं को अपनी अद्यतन जानकारियां, जिन्हें ट्वीट्स कहते हैं, एक दूसरे को भेजने और पढ़ने की सुविधा देता है। इस कारण यह टेक-सेवी यानी आधुनिक संचार माध्यमों का प्रयोग करने वाले उपभोक्ताओं, विशेषकर युवाओं में खासी लोकप्रिय हो चुकी है। ट्वीट्स अधिकतम 140 अक्षरों तक के हो सकते हैं, जो उपयोगकर्ता प्रेषक के द्वारा भेजे जाते हैं। इन्हें उपयोगकर्ता के फॉलोअर देख और दुबारा प्रेषित (Retweet) कर सकते हैं। चूंकि केवल फॉलोअर ही किसी के ट्वीट्स  को देख सकते हैं, इसलिए ट्विटर पर उपयोगकर्ताओं को फॉलो करने की होड़ रहती है, और लोगों की प्रसिद्धि उनके फोलोवर्स की संख्या के रूप में दिखाई देती है। हालाँकि ट्विटर यह सुविधा भी देता है कि इसके उपयोगकर्ता अपने ट्वीट्स को अपने फोलोवर्स मित्रों तक सीमित कर सकते हैं, या डिफ़ॉल्ट विकल्प में मुक्त उपयोग की अनुमति भी दे सकते हैं। उपयोगकर्ता ट्विटर वेबसाइट या, या बाह्य अनुप्रयोगों के माध्यम से भी ट्वीट्स भेज और प्राप्त कर सकते हैं। इंटरनेटपर यह सेवा निःशुल्क है, लेकिन एसएमएस के उपयोग के लिए फोन सेवा प्रदाता को शुल्क देना पड़ सकता है। ट्विटर कई सामाजिक नेटवर्क माध्यमों जैसे माइस्पेस और फेसबुक पर भी काफी प्रसिद्ध हो चुका है।
    ट्विटर उपयोगकर्ता वेब ब्राउज़र के साथ ही ईमेल और फेसबुक जैसे वेब एप्लीकेशन्स से भी अपने ट्विटर खाते को अद्यतित यानी अपडेट कर सकते हैं।  अमेरिकामें 2008 के राष्ट्रपति चुनावों में दोनों दलों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने आम जनता तक ट्विटर  के माध्यम से अपनी पहुंच बनाई थी। बीबीसी व अल ज़जीरा जैसे विख्यात समाचार संस्थानों से लेकर अमरीका के राष्ट्रपतिपद के प्रत्याशी बराक ओबामा भी ट्विटर पर मिलते हैं। हाल के दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर शशि थरूर, ऋतिक रोशन, सचिन तेंदुलकर, अभिषेक बच्चन, शाहरुख खान, आदि भी ट्विटर पर दिखाई दिये हैं। अभी तक यह सेवा अंग्रेजी में ही उपलब्ध थी, किन्तु अब इसमें स्पेनिश, जापानी, जर्मन, फ्रेंचऔर इतालवी सहित अन्य कई भाषाएं भी उपलब्ध होने लगी हैं।
    ट्विटर, अलेक्सा इंटरनेटके वेब यातायातविश्लेषण के द्वारा संसार भर की सबसे लोकप्रिय वेबसाइट के रूप में 26वीं श्रेणी पर बताई गयी है। फरवरी 2009 में compete.comब्लॉग के द्वारा ट्विटर को सबसे अधिक प्रयोग किये जाने वाले सामाजिक नेटवर्क के रूप में तीसरा स्थान दिया गया था।

    ब्लॉगिंगः

    ‘ब्लॉग’ शब्द ‘वेब’ और ‘लॉग’ द्वारा मिलकर बने शब्द ‘वेबलॉग’ का संक्षिप्त रूपहै, जिसकी शुरूआत 1994 में जस्टिन हॉल ने ऑनलाइन डायरी के रूप मेंकी थी। जबकि पहली बार ‘वेबलॉग’ शब्द का प्रयोग 1997 में जॉन बर्जन नेकिया था। औपचारिक रूप से देखें तो सर्वप्रथम वेबलॉग को पहली बार अपनी निजी साइट पर लाने वाले व्यक्ति हैं पीटर महारेल्ज, जिन्होंने सन 1999 मेंइस काम को अंजाम दिया था। जबकि पहली मुफ्त ब्लॉगिंग की शुरूआत करने का श्रेय पियारा लैब्स के इवान विलियम्स और मैग होरिहान कोजाता है, जिन्होंने अगस्त 1999 में ‘ब्लॉगर’ नाम से ब्लॉग साइट का प्रारम्भकिया, जिसे बाद में गूगल ने खरीद लिया। इस प्रकार इंटरनेट के द्वारा संचार की वेबसाइट के द्वारा शुरू हुई प्रक्रिया ब्लॉग तक आते-आते न सिर्फ बेहद सहज और सुलभ हो गयी है, वरन अपनी अनेकानेक विशेषताओं के कारण हर दिल अजीज भी बनती जा रही है।

    हिंदी में ब्लॉगिंगः

    Untitledवर्ष 1999 में अंग्रेजी ब्लॉगिंग की शुरूआत होने के बावजूद हिन्दी ब्लॉगिंग को प्रारम्भ होने में पूरे चार साल लगे। पहला हिन्दी ब्लॉग ‘नौ दो ग्यारह’ 21 अप्रैल 2003 में आलोक कुमार नेलिखा। इसके पीछे मुख्य वजह रही हिन्दी फांट की समस्या और उसके लेखन की विधियां। साथ ही लोगों के बीच तकनीकी जानकारी का अभाव भी इसके प्रसार में बाधक रहा। अज्ञानता के इस अंधकार को तोड़ने का पहला प्रयास रवि रतलामी ने वर्ष 2004 में ऑनलाइन पत्रिका ‘अभिव्यक्ति’ में ‘अभिव्यक्ति का नया माध्यम- ब्लॉग’ शीर्षक से लेखलिखकर किया, लेकिन इस रोशनी को मशाल का रूप अक्टूबर 2007 में ‘कादम्बिनी’ में प्रकाशित बालेंदु दाधीच के लेख ‘ब्लॉग बने तो बात बने’के द्वारा मिला। वर्तमान में हिन्दी ब्लॉगों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। अब पुरूष और महिलाएँ ही नहीं, बच्चे भी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में आ चुके हैं और अपनी लोकप्रियता के झण्डे गाड़ रहे हैं। आज राजनीति, साहित्य, कला, संगीत, खेल, फिल्म, सामाजिक मुद्दों पर ही नहीं विज्ञान और मनोविज्ञान जैसे गूढ़ विषयों पर भी न सिर्फ ब्लॉग लिखे जा रहे हैं, वरन सराहे भी जा रहे हैं। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि न सिर्फ दैनिक समाचार पत्र और मासिक पत्रिकाएँ ब्लॉगों की सामग्री को नियमित रूप से अपने अंकों में प्रकाशित कर रही हैं, वरन विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी समीक्षाओं के कॉलम भी लिखे जाने लगे हैं। चूंकि ब्लॉग एक अलग तरह का माध्यम है, इसलिए इसके अपने कुछ पारिभाषिक शब्द भी हैं, जो ब्लॉग की दुनिया में खूब प्रचलित हैं। जो लोग ब्लॉग के स्वामी हैं अथवा ब्लॉग लिखने में रूचि रखते हैं, वे सभी लोग ब्लॉगर के नाम से जाने जाते हैं और ब्लॉग लिखने की प्रक्रिया ‘ब्लॉगिंग’ कहलाती है। इसी प्रकार ब्लॉग में लिखे जाने वाले सभी लेख ‘पोस्ट’ के नाम से जाने जाते हैं। अपने पसंदीदा ब्लॉगों में प्रकाशित होने वाली अद्यतन सूचनाओं से भिज्ञ होने के लिए जिस तकनीक का सहारा लिया जाता है, वह आरएसएस फीड के नाम से जानी जाती है, जबकि जो वेबसाइटें अपने यहां पंजीकृत समस्त ब्लॉगों की ताजी पोस्टों की सूचना देने का कार्य करती हैं, वे ‘एग्रीगेटर’ के नाम से जानी जाती हैं। आमतौर से हिन्दी में भी ये शब्द इसी रूप में प्रचलित हैं, पर कुछ अनुवाद प्रेमियों ने ब्लॉग के लिए ‘चिट्ठा’, ब्लॉगर के लिए ‘चिट्ठाकार’ और ब्लॉगिंग के लिए ‘चिट्ठाकारिता’ जैसे शब्द भी गढ़े हैं, जो यदा-कदा ही उपयोग में लाए जाते हैं।

    ब्लॉग की लोकप्रियता के प्रमुख कारणः

    अक्टूबर, 2007 में ‘कादम्बिनी’ में प्रकाशित अपने लेख में बालेन्दु दाधीच ने उसका परिचय देते हुए लिखा था-‘ब्लॉग का लेखक ही संपादक है और वही प्रकाशक भी है। यह ऐसा माध्यम है, जो भौगोलिक सीमाओं और राजनीतिक-सामाजिक नियंत्रण से लगभग मुक्त है। यहां अभिव्यक्ति न कायदों में बंधने को मजबूर है, न अलकायदा से डरने को, न समय की यहाँ समस्या है, न सर्कुलेशन की।’ब्लॉग लिखना ईमेल लिखने के समान आसान है। यह सम्पादकीय तानाशाही से पूरी तरह से मुक्त है। इसके लिए न तो किसी प्रेस की जरूरत है, न डिस्ट्रीब्यूटर की, न किसी कंपनी की और न ही ढ़ेर सारे रूपयों की। यह बिलकुल फ्री सेवा है, जो कहीं भी अपने घर में बैठकर, पार्क में टहलते हुए, रेस्त्रां में खाना खाते हुए या फिर किसी मूवी को इन्ज्वॉय करते हुए उपयोग में लाई जा सकती है। इसके लिए जरूरत होती है सिर्फ एक अदद कम्प्यूटर, लैपटॉप या पॉमटॉप अथवा मोबाईल की, जिसमें इंटरनेट कनेक्शन जुड़ा होना चाहिए। चूंकि सर्च इंजन ब्लॉगों की सामग्री का समर्थन करते हैं, इसलिए ब्लॉग के लिए पाठकों की कोई समस्या नहीं होती। इसके साथ ही ब्लॉग समय, स्थान और देश-काल से परे होते हैं। इन्हें ईमेल की तरह न सिर्फ विश्व के किसी भी स्थान में बैठकर पढ़ा जा सकता है, वरन लिखा भीजा सकता है। किताबों, पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के विपरीत ब्लॉग दोतरफा संचार का माध्यमहैं, जिसमें लिखकर, बोलकर, चित्रित करके अथवा वीडियो के द्वारा अपनी बात पाठकों तक पहुंचाई जा सकती है। यही कारण है कि पाठक न सिर्फ इसका लुत्फ लेते हैं, वरन लेखक से जीवंत रूप में संवाद भी स्थापित कर सकते हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि यह सब त्वरित गति के साथ सम्पन्न होता है। कभी-कभी तो यह प्रक्रिया इतनी तीव्र होती है कि इधर ब्लॉग पर लेख प्रकाशित हुआ नहीं कि उधर पाठक का कमेंट हाजिर। इसके अतिरिक्त ब्लॉग की एक अन्य विशेषता भी है, जो उसे संचार के अन्य माध्यमों से विशिष्ट बनाती है। वह विशेषता है ब्लॉग की पठनीयता की उम्र।एक अखबार की सामान्य उम्र जहां एक दिन, मासिक पत्रिका की औसत आयु जहाँ एक माह होती है, वहीं ब्लॉग की जिन्दगी अनंतकाल की होती है। एक बार इंटरनेट पर जो सामग्री लिख दी जाती है, वह जबरन न मिटाए जाने तक सदा के लिए सुरक्षित हो जाती है और उसे कोई भी व्यक्ति कभी भी और कहीं भी पढ़ सकता है, यानी भौगोलिक सीमाएं भी नहीं होती हैं।

    कैसे बनते हैं ब्लॉग?

    वर्तमान में ब्लॉग लेखन विधा इतनी लोकप्रिय हो चुकी है कि लगभग हर चर्चित वेबसाइट मुफ्त में पाठकों को ब्लॉग बनाने की सुविधा प्रदान करती है। लेकिन बावजूद इसके आज भी ब्लॉग बनाने के लिए जो साइटें सर्वाधिक उपयोग में लाई जाती हैं, वे हैंब्लॉगर, वर्ड प्रेस और टाईप पैड।
    ब्लॉग बनाने के लिए सिर्फ एक अदद ईमेल एकाउंट की जरूरत होती है। यह ईमेल किसी भी कंपनी (जी-मेल, याहू, रेडिफ, हॉटमेल आदि) का हो सकता है। यदि इच्छुक व्यक्ति को ब्लॉग बनाने की औपचारिक जानकारी हो, तो सीधे ब्लॉग बनाने की सुविधा देने वाली किसी भी साइट को खोलकर और उसमें अपना ईमेल पता लिखकर ‘साइन अप’ करके और बताए गये निर्देशों का पालन करते हुए ब्लॉग बनाया जा सकता है। लेकिन यदि इच्छुक व्यक्ति को ब्लॉग बनाने की प्रक्रिया का समुचित ज्ञान न हो, तो किसी भी सर्च इंजन (गूगल, याहू आदि) को खोल कर उसमें ‘ब्लॉग बनाने की विधि’ अथवा ‘हाऊ टू क्रिएट ए ब्लॉग?’ सर्च करके इस सम्बंध में जानकारी जुटाई जा सकती है।

    विज्ञान पर ब्लॉगिंगः

    हिन्दी में आज कई अच्छे विज्ञान ब्लॉग लिखे जा रहे हैं। लेकिन जहाँ तक पहले विज्ञान सम्बंधी ब्लॉग की बात है, तो इसका श्रेय ‘ज्ञान-विज्ञान’ को जाता है, जिसकी शुरूआत जनवरी 2005 में हुई। यह एक सामुहिक ब्लॉग था, जो दुर्भाग्यवश नियमित ब्लॉग नहीं बन सका। इस तरह से देखें तो हिन्दी के पहले सक्रिय विज्ञान ब्लॉग का श्रेय डा. अरविंद मिश्र के सितम्बर 2007 से नियमित रूप से प्रकाशित हो रहे ‘साईब्लॉग’ को जाता है। इस पर नियमित रूप से विज्ञान के विविध पहलुओं पर केन्द्रित चर्चा देखने को मिलती रहती है। हिन्दी में विज्ञान ब्लॉगिंग को बढ़ावा देने में ‘साइंटिफिक वर्ल्ड’ और ‘साइंस ब्लॉगर्स एसोसिएशन’ का विशेष योगदान रहा है। 28 फरवरी, 2008 से प्रारम्भ होने वाला ‘तस्लीम’ ब्लॉग को जहाँ हिन्दी के पहले सामुहिक विज्ञान ब्लॉग का दर्जा प्राप्त है, वहीं ‘साइंस ब्लॉगर्स एसोसिएशन’ हिन्दी के सबसे सक्रिय और सबसे बड़े सामुहिक ब्लॉग के रूप में जाना जाता है। वर्तमान में स्तरीय विज्ञान ब्लॉगों की संख्या पांच दर्जन के आसपास है। इन ब्लॉगों में विविध क्षेत्रों और विविध विषयों पर न सिर्फ रोचक वैज्ञानिक सामग्री का प्रकाशन होता है, वरन वैज्ञानिक विषयों पर बहसों का भी आयोजन किया जाता है। किन्तु इनमें से बहुत से ब्लॉग ऐसे भी हैं, जो अपने प्रारम्भिक काल में तो नियमित रूप से अपडेट होते रहे, लेकिन बाद में ये अपरिहार्य कारणों से निष्क्रिय हो गये। लेकिन इसके बावजूद हिन्दी में सक्रिय ब्लॉगों की संख्या कम नहीं है। ऐसे ब्लॉगों में तस्लीम (http://www.scientificworld.in/), विज्ञान गतिविधियाँ (www.sciencedarshan.in), ‘न जादू न टोना’ (http://www.sharadkokas.blogspot.in), एवं सर्प संसार (http://snakes-scientificworld.in/) का स्थान प्रमुख है। इनके अलावा साइंस ब्लॉगर्स एसोसिएशन, साई ब्लॉग, वॉयजर, विज्ञान विश्व, सौरमंडल, अंतरिक्ष, क्यों और कैसे विज्ञान में, इमली इको क्लब, डायनमिक, साइंस फिक्शन इन इंडिया, हिन्दी साइंस फिक्शन, स्वास्थ्य सब के लिए, मीडिया डॉक्टर, स्पंदन, आयुष वेद, मेरा समस्त, हमारा पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान, स्वास्थ्य सुख, क्लाइमेट वॉच, सुजलाम, हरी धरती एवं खेती-बाड़ी। आम जनता में वैज्ञानिक मनोवृत्ति जागृत करने वाले इन ब्लॉगों पर मुख्य रूप से पिछले दिनों में जिन विषयों को प्रमुखता से उठाया गया है उनमें एक ओर जहाँ ज्योतिष, तंत्र-मंत्र, भूत-पिशाच, विज्ञान के प्रयोगों के द्वारा दिखाये जाने वाले तथाकथित चमत्कारों की चर्चा शामिल है, वहीं अंधविश्वास के कारण घटने वाली घटनाओं के तार्किक विवेचन, तथा उनके समाजशास्त्रीय प्रभावों एवं मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर भी प्रकाश डाला गया है। यदि ब्लॉग जगत की गतिविधियों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया जाए, तो यह बात भी निकल कर सामने आती है कि जैसे-जैसे ब्लॉग जगत में वैज्ञानिक लेखन को बढ़ावा मिला है, वैसे-वैसे अवैज्ञानिक एवं अंधविश्वास के पोषक ब्लॉगर धीरे-धीरे लुप्तप्राय होते जा रहे हैं। इससे स्वतः स्पष्ट है कि ब्लॉग लेखन वैज्ञानिक मनोवृत्ति के विकास के नजरिए से एक उपयोगी विधा है। यदि विज्ञान संचार में रूचि रखने वाले विज्ञान संचारक इस माध्यम का समुचित उपयोग करें तो विज्ञान संचार की मुहिम को आसानी से आम जनता के बीच लोकप्रिय बनाया जा सकता है।

    गूगल:

    गूगल की शुरुआत 1996 में एक रिसर्च परियोजना के दौरान लैरी पेज तथा सर्गी ब्रिन नेकी। उस वक्त लैरी और सर्गी स्टैनफौर्ड युनिवर्सिटी, कैलिफोर्निया में पीएचडी के छात्र थे। उस समय, पारंपरिक सर्च इंजन सुझाव (रिजल्ट) की वरीयता (Preference) वेब-पेज पर सर्च-टर्म की गणना से तय करते थे, जब कि लैरी और सर्गी के अनुसार एक अच्छा सर्च सिस्टम वह होगा जो वेबपेजों के ताल्लुक का विश्लेषण करे। इस नए तकनीक को उन्होनें पेज रैंक (Page Rank) का नाम दिया। इस तकनीक में किसी वेबसाइट की प्रासंगिकता/योग्यता का अनुमान, वेबपेजों की गिनती, तथा उन पेजों की प्रतिष्ठा, जो आरम्भिक वेबसाइट को लिंक करते हैं के आधार पर लगाया जाता है। 1996 में आईडीडी इन्फोर्मेशन सर्विसेस के रॉबिन लि ने “रैंकडेक्स” नामक एक छोटा सर्च इंजन बनाया था, जो इसी तकनीक पर काम कर रहा था। रैंकडेक्स की तकनीक लि ने पेटेंट करवा ली थी और बाद में इसी तकनीक पर उन्होंने बायडु नामक कम्पनी की स्थापना चीन में की। पेज और ब्रिन ने शुरुआत में अपने सर्च इंजन का नाम “बैकरब” रखा था, क्योंकि यह सर्च इंजन पिछले लिंक्स (back links) के आधार पर किसी साइट की वरीयता तय करता था। अंततः, पेज और ब्रिन ने अपने सर्च इंजन का नाम गूगल (Google) रखा। गूगल अंग्रेजी के शब्द ‘googol’ की गलत वर्तनीहै, जिसका मतलब है−वह नंबर जिसमें एक के बाद सौ शून्य हों। नाम ‘गूगल” इस बात को दर्शाता है कि कम्पनी का सर्च इंजन लोगों के लिए जानकारी बड़ी मात्रा में उपलब्ध करने के लिए कार्यरत है। अपने शुरुआती दिनों में गूगल स्टैनफौर्ड विश्वविद्यालय की वेबसाइट के अधीन google.stanford.eduनामक डोमेन से चला। गूगल के लिए उसका डोमेन नाम 15 सितंबर 1997 को रजिस्टर हुआ। सितम्बर 4, 1998 को इसे एक निजी-आयोजित कम्पनी में निगमित किया गया। कम्पनी का पहला ऑफिस सुसान वोज्सिकि (उनकी दोस्त) के गराज मेलनो पार्क, कैलिफोर्निया में स्थापित हुआ। क्रेग सिल्वरस्टीन, एक साथी पीएचडी छात्र, कम्पनी के पहले कर्मचारी बने। गूगल विश्व भर में फैले अपने डाटा-केंद्रों से दस लाख से ज्यादा सर्वर चलाता है और दस अरब से ज्यादा खोज-अनुरोध तथा चौबीस पेटाबाईट उपभोक्ता-संबंधी डाटा संसाधित करता है।

    गूगल की विकास यात्रा:

    • 1996: गूगल की शुरुआत।
    • 1997: 15 सितंबर को गूगल के लिए उसका डोमेन नाम रजिस्टर हुआ।
    • 1998: 4 सितम्बर को गूगल को एक निजी-आयोजित कम्पनी में निगमित किया गया।
    • 1999: ब्लॉगर की शुरुआत।
    • 1997: 15 सितंबर को गूगल डॉट कॉम एक डोमेन नेम के रूप में पंजीकृत हुआ।
    • 2004: जनवरी में आर्कुट की शुरुआत हुई। आगे इसी वर्ष एक अप्रेल को जी-मेल की शुरुआत की गई, जिसके वर्तमान में 425 मिलियन प्रयोग कर्ता हैं। जुलाई में फोटो के लिए पिकासा की शुरुआत हुई, और अक्टूबर में भारत के बेंगलौर और हैदराबाद में गूगल के कार्यालय खुले।
    • 2005: अप्रेल में यूट्यूब पर पहला वीडियो पोस्ट हुआ। यूट्यूब तब गूगल का हिस्सा नहीं था। वर्तमान में यूट्यूब पर हर मिनट 100 से अधिक घंटे लंबे वीडियो अपलोड होते हैं, और दुनिया में लोग प्रति माह छः बिलियन घंटे यूट्यूब पर वीडियो देखते हैं।
    • 2005: जून में उपग्रह आधारित गूगल अर्थ की शुरुआत हुई, जिस पर वर्चुअल मोड में पूरी दुनिया की सैर की जा सकती है।
    • 2006: अप्रेल में गूगल ट्रªासलेट की अंग्रेजी और अरबी भाषाओं से शुरुआत हुई। वर्तमान में इसके जरिए हिंदी सहित दुनिया की 70 से अधिक भाषाओं के अनुवाद की सुविधा उपलब्ध है।
    • 2006: अक्टूबर में गूगल ने यूट्यूब का अधिग्रहण कर लिया।
    • 2007 : नवंबर में गूगल ने मोबाइल के लिए एंड्रोइड सुविधा शुरू की।
    • 2008: सितंबर में गूगल क्रोम नाम से नया इंटरनेट ब्राउजर की शुरुआत हुई। वर्तमान में 750 मिलियन लोग इसका प्रयोग करते हैं।
    • 2008: आईफोन के लिए पहले गूगल मोबाइल एप की शुरुआत हुई।
    • 2009: फरवरी में ट्विटर पर पहला संदेश जारी हुआ। मार्च में फोन के लिए गूगल वॉइस की शुरुआत हुई, आगे 2013 में गूगल प्लस और हैंग आउट्स में भी गूगल वॉइस का प्रयोग संभव हुआ।
    • 2012: दिसंबर में यूट्यूब पर ‘गंगम स्टाइल’ डांस के वीडियो ने पहली बार और इकलौते एक बिलियन लोगों द्वारा देखे जाने का रिकॉर्ड बनाया।
    • 2014: सितंबर में गूगल ने एंड्रोइड फोनों की भारत में शुरुआत की।
    • 2015 :नवंबर माह में गूगल ने अपनी नई कंपनी एल्फाबेट के लिए BMW के पास मौजूद alphabet.comडोमेन नाम खरीदने में असफल रहने पर अनूठा abcdefghijklmnopqrstuvwxyz.comडोमेन नाम खरीद लिया है। नई कंपनी का डोमेन नाम abc.xyzदिखाई देगा। बताया गया है कि गूगल/अल्फाबेट कंपनी 1800 डोमेन नामों की मालिक है।

    भारतीय चुनाव में मदद

    इस बीच गूगल ने भारत को आने वाले आम चुनाव में मदद का फैसला किया है। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक भारतीय चुनाव आयोग के साथ गूगल का समझौता हो गया है, जिसके तहत वह ऑनलाइन वोटरों के रजिस्ट्रेशन में मदद करेगा। अगले छह महीने तक गूगल आयोग को अपने संसाधन मुहैया कराएगा। इससे वोटर इंटरनेट पर ही पता लगा पाएंगे कि उनका नाम किस मतदान केंद्र में शामिल है और वे वहां पहुंचने के लिए गूगल मैप की सहायता भी ले सकेंगे।

    Online jihadयह भी पढ़ें : ‘ऑनलाइन जिहाद से लड़ेंगे फेसबुक, गूगल, ट्विटर’

    मीडिया की गलती से ‘मृत’ महिला पायलट सुमिता को फेसबुक पर कहना पड़ा-‘जिंदा हूं मैं’

    स्वयं को जिन्दा बताने वाली सुमिता की फेसबुक पोस्ट
    स्वयं को जिन्दा बताने वाली सुमिता की फेसबुक पोस्ट
    गलतियां सब से होती हैं। अब तक नए/सोशल मीडिया पर होने वाली गलतियों की कई खबरें आती रही हैं। लेकिन ताजा खबर परंपरागत मीडिया द्वारा नए मीडिया की मदद से की गई बड़ी गलती की है, जिसका निराकरण आखिर सोशल मीडिया की ओर से ही किया गया है। हुआ यह कि बीती 23 नवंबर को जम्मू कश्मीर में मां वैष्णो देवी के आधार शिविर कटरा से सांझी छत के लिए मात्र तीन मिनट की उड़ान पर जाते वक्त एक हेलीकॉप्टर गिद्ध से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। इस दुर्घटना में उत्तराखंड आपदा के दौरान भी बचाव कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिला हेलीकॉप्टर पायलट केरल निवासी सुमिता विजयन सहित जम्मू के चार और दिल्ली के दो तीर्थयात्रियों की दर्दनाक मौत हो गई थी। घटना की त्वरित कवरेज के फेर में पहले सभी इलेक्ट्रानिक चैनलों ने बिना ठोस छानबीन किए और बाद में सभी समाचार पत्रों ने सुमिता विजयन के फेसबुक पेज से उनकी फोटो निकालकर लगा दी। लेकिन घटना के दो दिन बाद मीडिया में अपनी फोटो देखकर दुबई में रह रही सुमिता विजयन को सफाई देनी पड़ी कि वे जिंदा हैं। यह गलतफहमी दोनों का नाम एक होने और दुबई की सुमिता के भी इंडियन एयरलाइंस के इंजीनियरिंग विंग के कर्मचारी की बेटी होने और इंडियन एयर लाइंस आइडियल स्कूल से पढ़ाई किए होने के साम्य की वजह से हुई।

    इन्टरनेट-नए मीडिया की दुनिया की ताज़ा ख़बरें :

    जियो के साथ देश में इंटरनेट की नयी पीढ़ी-‘डेटागिरी’ का आगाज, पहले महीने ही जुड़े 1.6 करोड़ ग्राहक :

    रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने 10 करोड़ ग्राहकों को जोड़ने के लक्ष्य के साथ 5 सितंबर 2016 को मुफ्त वॉयल कॉल, मुफ्त एसएमएस, मुफ्त रोमिंग और सबसे सस्ते डेटा की ‘रिलायंस जियो-4जी’ सुविधा देने का दावा करते हुये धमाकेदार शुरुआत की, और सितम्बर महीने के 26 दिनों में ही 1.6 करोड़ नए ग्राहकों को जोड़ने का विश्व रिकोर्ड बना दिया। रिलायंस जियो के ‘वेलकम ऑफर’ में तीन माह यानी 31 दिसंबर तक के लिये सभी सुविधाएं मुफ्त देने और आगे आम लोगों के केवल पांच पैंसे प्रति एमबी यानी 50 रुपये प्रति जीबी की सस्ती दर पर डेटा देने और छात्रों को 25 प्रतिशत अतिरिक्त डेटा व स्कूल-कॉलेज में मुफ्त वाई-फाई देने का ऐलान किया गया, जिसका असर शेयर मार्केट में अन्य दूरसंचार कंपनियों के शेयरों में 10 प्रतिशत की टूट के रूप में देखने को भी मिला। इसके बाद देश की अन्य दूरसंचार कंपनियां भी जियो के मुकाबले को कमर कस रही हैं। और उनकी इस कोशिश में देश की तीन शीर्ष दूरसंचार कंपनियांे-भारती एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया ने हाल में हुई नीलामी में जियो के एक गीगा हर्ट्ज से कुछ कम 4जी स्पेक्ट्रम हासिल कर लिये हैं। इस नीलामी से सरकार को 5.6 लाख करोड़ रुपये मिलने की उम्मीद है। बैंक ऑफ अमेरिका के मेरिल लिंच ने इस पर अपनी रिपोर्ट में कहा-‘हमारा विश्वास है कि तीनों शीर्ष कंपनियों के पास पर्याप्त 4जी स्पेक्ट्रम है, जिससे जरिये वे जियो को कड़ी टक्कर दे सकते हैं। इसके साथ ही हमें छोटी कंपनियों का तेजी से एकीकरण देखने को मिलेगा।’
    इधर देश की मौजूदा सबसे बड़ी सार्वजानिक दूरसंचार कंपनी बीएसएनएल ने निजी कम्पनियों से प्रतिस्पर्धा कर अपनी मोबाइल ब्राडबैंड क्षमता को दोगुना कर 600 टैरोबाईट (टीबी) प्रतिमाह करने की योजना बनायी है। बताया गया है की बीएसएनएल अपनी बेहतर 3 जी व अन्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए नवम्बर माह तक अपनी क्षमता को दक्षिण भारत में 600 और अन्य क्षेत्रों में 450 टीबी करेगी।

    जल्द मिलेगा 4जी से 20 गुना अधिक गति वाला 5जी इंटरनेट

    5gभारत में इधर 4जी आया ही है, कि उधर चीन, जापान और दक्षिण कोरिया में 4जी से 20 गुना अधिक गति वाले 5जी नेटवर्क की तैयारी जोर पकड़ गयी है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 5जी इंटरनेट से पूरी एचडी फिल्म 1 सेकेंड में डाउनलोड की जा सकेगी। डेटा को एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक डेटा के एक पैकेट को पहुंचाने में लगने वाले समय को लेटेंसी कहते हैं। 4जी के मामले में जहां लेटेंसी रेट 10 मिली सेकेंड होता है, वहीं 5जी में यह गति 1 मिली सेकेंड की होगी। 5जी नेटवर्क के अत्याधुनिक एप्लीकेशन के जरिये स्वचालित गाड़ियां भी नियंत्रित की जा सकेंगे। 5जी का व्यवसायिक इस्तेमाल वर्ष 2020 से होने की संभावना है, किंतु दक्षिणी कोरिया ने 2018 के शीत ओलंपिक खेलों तक इसे शुरू करने का लक्ष्य रखाा है।

    ह्वाट्सएप की टक्कर में उतरा गूगल का ऐप ‘एलो’ और स्काइप के मुकाबले ‘डुओ’:

    गूगल ने ह्वाट्स ऐप के मुकाबले के लिये अपना ‘एलो’ नाम का मैसेजिंग ऐप शुरू किया है, साथ ही ‘गूगल असिस्टेंट’ की भी शुरुआत की गई है, जो जरूरत पड़ने पर सहायता उपलब्ध कराने के साथ बातचीत जारी रखने में सहायता भी उपलब्ध कराता है। एलो इंटरनेट के जरिये निगरानी की व्यवस्था तथा स्मार्ट जवाब, फोटो, इमोजी तथा 200 स्टिकर साझा करने की विशेषताओं तथा भारतीय उपयोगकर्ताओं के लिये ‘हिंग्लिश’ में स्मार्ट जवाब देने की क्षमता से भी युक्त है। एलो की घोषणा गूगल ने मई 2016 में वीडियो कॉलिंग ऐप डुओ के साथ की थी, जिसे कि गूगल ने स्काइप से मुकाबले के लिये उतारा है।

    पांचवी पीढ़ी के स्मार्टफोन के लिए खोजा गया बेहतर एंटीना

    प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की ओर से लंदन से जारी ताजा रिपोर्ट के अनुसार फिनलैंड के वैज्ञानिकों ने एक नया डिजिटल एंटिना विकसित किया है। इससे अगली यानी पांचवी पीढ़ी के स्मार्टफोनों की क्षमता बढ़ जाएगी। शोधकर्ताओं का दावा है कि नए एंटिना से डाटा ट्रांसफर की रफ्तार सौ से हजार गुना तक ज्यादा हो जाएगी। इसके अलावा ऊर्जा की भी कम खपत होगी। रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा समय में स्मार्टफोन की स्क्रीन के ऊपर और नीचे एंटिना लगाए जाते हैं। इस कारण टच स्क्रीन पूरे फोन पर नहीं लग पाती है। जबकि आल्टो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के अनुसार नया एंटिना अपेक्षाकृत कम जगह घेरेगा। इससे स्मार्टफोन के डिस्प्ले को ज्यादा बड़ा किया जा सकेगा और डिजाइन करने वालों को भी ज्यादा छूट मिल सकेगी। इससे कम ऊर्जा की खपत होगी और बैटरी भी ज्यादा देर तक चलेगी। विशेषज्ञों के अनुसार इस एंटीना के साथ सभी तरह के स्मार्टफोन में डाटा ट्रांसफर सिर्फ एक एंटिना से हो सकेंगे, तथा जीपीएस, ब्लूटूथ और वाई-फाई के लिए अलग से एंटिना की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। साथ ही रेडिएशन भी मौजूदा एंटीना से ज्यादा बेहतर होगा। इससे पांचवीं पीढ़ी के स्मार्टफोन को नया स्वरूप देने में भी आसानी होगी।

    इन्टरनेट-नए मीडिया की दुनिया की ताज़ा ख़बरें :

    जियो के साथ देश में इंटरनेट की नयी पीढ़ी-‘डेटागिरी’ का आगाज, पहले महीने ही जुड़े 1.6 करोड़ ग्राहक :

    रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने 10 करोड़ ग्राहकों को जोड़ने के लक्ष्य के साथ 5 सितंबर 2016 को मुफ्त वॉयल कॉल, मुफ्त एसएमएस, मुफ्त रोमिंग और सबसे सस्ते डेटा की ‘रिलायंस जियो-4जी’ सुविधा देने का दावा करते हुये धमाकेदार शुरुआत की, और सितम्बर महीने के 26 दिनों में ही 1.6 करोड़ नए ग्राहकों को जोड़ने का विश्व रिकोर्ड बना दिया। रिलायंस जियो के ‘वेलकम ऑफर’ में तीन माह यानी 31 दिसंबर तक के लिये सभी सुविधाएं मुफ्त देने और आगे आम लोगों के केवल पांच पैंसे प्रति एमबी यानी 50 रुपये प्रति जीबी की सस्ती दर पर डेटा देने और छात्रों को 25 प्रतिशत अतिरिक्त डेटा व स्कूल-कॉलेज में मुफ्त वाई-फाई देने का ऐलान किया गया, जिसका असर शेयर मार्केट में अन्य दूरसंचार कंपनियों के शेयरों में 10 प्रतिशत की टूट के रूप में देखने को भी मिला। इसके बाद देश की अन्य दूरसंचार कंपनियां भी जियो के मुकाबले को कमर कस रही हैं। और उनकी इस कोशिश में देश की तीन शीर्ष दूरसंचार कंपनियांे-भारती एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया ने हाल में हुई नीलामी में जियो के एक गीगा हर्ट्ज से कुछ कम 4जी स्पेक्ट्रम हासिल कर लिये हैं। इस नीलामी से सरकार को 5.6 लाख करोड़ रुपये मिलने की उम्मीद है। बैंक ऑफ अमेरिका के मेरिल लिंच ने इस पर अपनी रिपोर्ट में कहा-‘हमारा विश्वास है कि तीनों शीर्ष कंपनियों के पास पर्याप्त 4जी स्पेक्ट्रम है, जिससे जरिये वे जियो को कड़ी टक्कर दे सकते हैं। इसके साथ ही हमें छोटी कंपनियों का तेजी से एकीकरण देखने को मिलेगा।’
    इधर देश की मौजूदा सबसे बड़ी सार्वजानिक दूरसंचार कंपनी बीएसएनएल ने निजी कम्पनियों से प्रतिस्पर्धा कर अपनी मोबाइल ब्राडबैंड क्षमता को दोगुना कर 600 टैरोबाईट (टीबी) प्रतिमाह करने की योजना बनायी है। बताया गया है की बीएसएनएल अपनी बेहतर 3 जी व अन्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए नवम्बर माह तक अपनी क्षमता को दक्षिण भारत में 600 और अन्य क्षेत्रों में 450 टीबी करेगी।

    जल्द मिलेगा 4जी से 20 गुना अधिक गति वाला 5जी इंटरनेट

    5gभारत में इधर 4जी आया ही है, कि उधर चीन, जापान और दक्षिण कोरिया में 4जी से 20 गुना अधिक गति वाले 5जी नेटवर्क की तैयारी जोर पकड़ गयी है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 5जी इंटरनेट से पूरी एचडी फिल्म 1 सेकेंड में डाउनलोड की जा सकेगी। डेटा को एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक डेटा के एक पैकेट को पहुंचाने में लगने वाले समय को लेटेंसी कहते हैं। 4जी के मामले में जहां लेटेंसी रेट 10 मिली सेकेंड होता है, वहीं 5जी में यह गति 1 मिली सेकेंड की होगी। 5जी नेटवर्क के अत्याधुनिक एप्लीकेशन के जरिये स्वचालित गाड़ियां भी नियंत्रित की जा सकेंगे। 5जी का व्यवसायिक इस्तेमाल वर्ष 2020 से होने की संभावना है, किंतु दक्षिणी कोरिया ने 2018 के शीत ओलंपिक खेलों तक इसे शुरू करने का लक्ष्य रखाा है।

    ह्वाट्सएप की टक्कर में उतरा गूगल का ऐप ‘एलो’ और स्काइप के मुकाबले ‘डुओ’:

    गूगल ने ह्वाट्स ऐप के मुकाबले के लिये अपना ‘एलो’ नाम का मैसेजिंग ऐप शुरू किया है, साथ ही ‘गूगल असिस्टेंट’ की भी शुरुआत की गई है, जो जरूरत पड़ने पर सहायता उपलब्ध कराने के साथ बातचीत जारी रखने में सहायता भी उपलब्ध कराता है। एलो इंटरनेट के जरिये निगरानी की व्यवस्था तथा स्मार्ट जवाब, फोटो, इमोजी तथा 200 स्टिकर साझा करने की विशेषताओं तथा भारतीय उपयोगकर्ताओं के लिये ‘हिंग्लिश’ में स्मार्ट जवाब देने की क्षमता से भी युक्त है। एलो की घोषणा गूगल ने मई 2016 में वीडियो कॉलिंग ऐप डुओ के साथ की थी, जिसे कि गूगल ने स्काइप से मुकाबले के लिये उतारा है।

    पांचवी पीढ़ी के स्मार्टफोन के लिए खोजा गया बेहतर एंटीना

    प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की ओर से लंदन से जारी ताजा रिपोर्ट के अनुसार फिनलैंड के वैज्ञानिकों ने एक नया डिजिटल एंटिना विकसित किया है। इससे अगली यानी पांचवी पीढ़ी के स्मार्टफोनों की क्षमता बढ़ जाएगी। शोधकर्ताओं का दावा है कि नए एंटिना से डाटा ट्रांसफर की रफ्तार सौ से हजार गुना तक ज्यादा हो जाएगी। इसके अलावा ऊर्जा की भी कम खपत होगी। रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा समय में स्मार्टफोन की स्क्रीन के ऊपर और नीचे एंटिना लगाए जाते हैं। इस कारण टच स्क्रीन पूरे फोन पर नहीं लग पाती है। जबकि आल्टो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के अनुसार नया एंटिना अपेक्षाकृत कम जगह घेरेगा। इससे स्मार्टफोन के डिस्प्ले को ज्यादा बड़ा किया जा सकेगा और डिजाइन करने वालों को भी ज्यादा छूट मिल सकेगी। इससे कम ऊर्जा की खपत होगी और बैटरी भी ज्यादा देर तक चलेगी। विशेषज्ञों के अनुसार इस एंटीना के साथ सभी तरह के स्मार्टफोन में डाटा ट्रांसफर सिर्फ एक एंटिना से हो सकेंगे, तथा जीपीएस, ब्लूटूथ और वाई-फाई के लिए अलग से एंटिना की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। साथ ही रेडिएशन भी मौजूदा एंटीना से ज्यादा बेहतर होगा। इससे पांचवीं पीढ़ी के स्मार्टफोन को नया स्वरूप देने में भी आसानी होगी।

    जल्द फेसबुक देगा अच्छी पोस्ट डालने वालों को पैंसे कमाने का मौका

    फेसबुक जल्द ‘टिप जार’ नाम का एक ऐसा फीचर लाने की तैयारी कर रहा है, जिस पर यूजर किसी अच्छी पोस्ट को ‘लाइक’ करने के बजाए ‘कैश टिप’ दे पाएंगे। संभवतया यह फीचर लाइक बटन की ही तरह काम करेगा। इस तरह के सिस्टम को माइक्रोपेमेंट कहा जाता है। पूर्व में फ्लैटर जैसी कुछ कंपनियां यूजर्स को कुछ पैंसे कमाने, विज्ञापनों से प्राप्त आय को अपने उपयोगकर्ताओं में बांटने का अवसर देते हैं, लेकिन वे कम प्रचार के कारण सफल नहीं हो पाए। उम्मीद की जा रही है कि अधिक सदस्य संख्या होने की वजह से फेसबुक पर यह प्रयोग सफल रहेगा। इससे फेसबुक पर अच्छी पोस्ट डालने वालों को कुछ आय भी हो सकेगी।
    भारत सरकार ने ट्राई के प्रत्येक कॉल ड्रॉप पर एक रुपए का जुर्माना लगाने के निर्णय को सही ठहराते हुए सर्वाेच्च न्यायालय में कहा है कि देश की चार-पांच मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनिया रोजाना 250 करोड़ कमा रही हैं, और इसके बावजूद ये अपने नेटवर्क को सुधारने पर कार्य नहीं कर रही हैं।

    इंटरनेट के प्रसार में है पॉर्न का बड़ी भूमिका

    एक वीडियो मीडिया रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में इंटरनेट का विस्तार ईमेल, गेमिंग या गूगल की वजह से नहीं वरन पॉर्न यानी अश्लील सामग्री की वजह से हुआ है। 90 के दशक में लोगों को ऑनलाइन आने के लिये प्रेरित करने में पॉर्न की बड़ी भूमिका रही है। भारत में शुरुआती दिनों में आम लोगों के लिये इंटरनेट का मतलब एक तरह से पॉर्न ही था। रिपोर्ट के अनुसार वीडियो स्ट्रीमिंग की शुरुआत करने का श्रेय यूट्यूब को नहीं, वरन पॉर्न इंडस्ट्री को जाता है, जिन्होंने सबसे पहले अपने वेब पेजों पर डाले थे, और पॉर्न इंडस्ट्री की वजह से ही बड़ी कंपनियों को अहसास हुआ कि वीडियो में बहुत ज्यादा क्षमता है। फ्लॉपी डिस्क से लेकर सीडी, डीवीडी और फ्लैश ड्राइव तक के विस्तार के साथ ही क्लाउड स्टोरेज और अधिक स्पीड वाले इंटरनेट कनेक्शन लेने में भी पॉर्न का बड़ा योगदान रहा है। यही नहीं, ऑनलाइन पेमेंट का प्रयोग भी लोगों ने पहले पहल अपना पसंदीदा पॉर्न कंटेंट सब्स्क्राइब करने के लिये ही किया था। वहीं भारत में लोगों को पहले मोबाइल और अब स्मार्टफोन अपनाने के लिये प्रेरित करने और मोबाइल डेटा पैक्स की खरीद बढ़ाने में भी पॉर्न का बड़ा योगदान रहा है। वहीं आगे उम्मीद की जा रही है कि भविष्य में आने वाले वर्चुअल रियलिटी हैंडसेट को लोकप्रिय बनाने में भी पॉर्न अपना योगदान देगा, क्योंकि बड़ी पॉर्न वेबसाइट्स ने वर्चुअल रियलिटी वाला पॉर्न तैयार करना शुरू कर दिया है।

    शुरुआत में केवल एक रुपये देकर मिलने लगे लैपटॉप

    भारत में उपभोक्ताओं, खासकर बच्चों को उनके बालपन से ही लैपटॉप लेने के लिये आकर्षित करने के लिये ऐसे-ऐसे ऑफर आ रहे हैं कि कोई इनसे बच नहीं सकता। प्रसिद्ध कंपनी डेल ने 18 अप्रैल 2016 से मई 2016 माह के बीच बच्चों के लिये एक ऐसी योजना जारी की है, जिसके तहत कोई अभिभावक अपने बच्चों के लिये शुरुआत में केवल एक रुपए देकर और आगे छह माह की बिना ब्याज की किश्तें देकर लैपटॉप खरीद सकते हैं। इस ऑफर का नाम ‘बैक टू स्कूल’ दिया गया है, जिसके तहत 4जी सिरीज के लैपटॉप दिए जाएंगे। साथ में 999 रुपए देकर दो साल के लिए ‘डेल नेक्स्ट बिजनेस डे ऑनसाइट वारंटी’ का विकल्प भी दिया गया हैं।

    गुजरात में एक दिन के इंटरनेट बैन से लगी 1500 करोड़ रुपए की चपत

    गुजरात में 18 अप्रैल 2016 को पाटीदार आरक्षण को लेकर राज्य में भड़की आग के मद्देनजर एक दिन के लिये एहतियात के तौर पर इंटरनेट बैन किया गया। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इस कारण एक दिन में 1500 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। इस कारण इंटरनेट से पैंसे भेजने, ई-कॉमर्श पर खरीददारी करने या मोबाइल ऐप के इस्तेमाल से टैक्सी बुकिंग करने जैसी रोजमर्रा की चीजों में लोगों को काफी दिक्कतें झेलनी पड़ीं। इस दिन नेट बैंकिंग की सेवाओं में 90 फीसद से अधिक गिरावट देखी गई। गुजरात में बैंकों के द्वारा होने वाले लेनदेन का लगभग 10 फीसद हिस्सा इंटरनेट बैंकिंग के माध्यम से होता है, जबकि देश भर में मोबाइल और इंटरनेट द्वारा होने वाले लेन-देन का 13 फीसद हिस्सा गुजरात में होता है। गौरतलब है कि इस दिन यानी 18 अप्रैल सोमवार को चार दिनों के बाद बैंक खुले थे। इससे समझा जा सकता है कि आगे इंटरनेट सेवाएं देश की अर्थव्यवस्था को कितना और किस हद तक प्रभावित कर सकती हैं।

    भविष्य में फिजिकल कंप्यूटर्स का अंत हो जाएगा: सुंदर पिचाई

    गूगल को लगता है कि भविष्य में कंप्यूटर का चलन खत्म हो जाएगा. कंपनी के सीईओ सुंदर पिचाई के मुताबिक एक दिन कंप्यूटर ‘फिजिकल डिवाइस’ नहीं रहेंगे. पिचाई ने गुरुवार को पैरंट कंपनी ऐल्फाबेट के शेयरहोल्डर्स को भेजे लेटर में लिखा, ‘भविष्य की तरफ देखें तो ‘डिवाइस’ का कॉन्सेप्ट खत्म हो जाएगा। वक्त के साथ कंप्यूटर (किसी भी रूप में) एक इंटेलिजेंट असिस्टेंट बनकर दिन भर आपकी मदद करेगा।’ भले ही अभी स्मार्टफोन्स की चौकोर टच स्क्रीन पर ज्यादातर ऑनलाइन ऐक्टिविटी हो रही है, मगर पिचाई का मानना है कि आर्टिफिशल इंटेलिजेंस से बिना आकार वाले कंप्यूटर्स का विकास हो रहा है। पिचाई ने कहा, ‘हम मोबाइल-फर्स्ट से आर्टिफिशल इंटेलिजेंस-फर्स्ट वाली दुनिया की तरफ बढ़ रहे हैं।’ पिचाई एक तरह से अपनी प्लेबुक के बारे में बात कर रहे थे, क्योंकि गूगल आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और इससे जुड़ी टेक्नॉलजी पर काम कर रहा है। इसके एडवांस्ड सॉफ्टवेयर पहले से ही गूगल फोटो और गूगल ट्रांसलेट जैसी वेब सर्विसेज को चला रहे हैं। मैजिक लीप नाम की स्टार्टअप के प्रमुख इन्वेस्टर्स में गूगल भी शामिल है। इस स्टार्टअप ने ऑगमेंटेड रिऐलिटी सिस्टम बनाने के लिए 1 बिलियन डॉलर से ज्यादा फंड इकट्ठा किया है। यह सिस्टम लोगों के आसपास वर्चुअल 3डी तस्वीरें और अन्य जानकारियां दिखा सकता है। संभव है कि पिचाई इसी तरह की टेक्नॉलजी की बात कर रहे थे।

    जून 2017 तक देश में हो जायेंगे 45 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता

    आईएमएआई व आईएमआरबी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार जून 2017 तक भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 45 करोड़ हो जायेंगे। जबकि दिसंबर 2016 में देश में इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या 43.2 करोड़ थी। इनमें से 26.9 करोड़ प्रयोक्ता शहरी थे। शहरी इंटरनेट प्रयोक्ताओं का घनत्व 60 प्रतिशत रहा है, और इसमें स्थायित्व देखने को मिला है, जबकि ग्रामीण भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं का घनत्व केवल 17 प्रतिशत है, और यहां यानी गांवों में इंटरनेट के विकास व विस्तार की बड़ी संभावनाएं हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं की वृद्धि मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में ही हो रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में यदि ठीक से प्रयास किये जायें तो ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी 75 करोड़ प्रयोक्ताओं के शामिल होने की संभावना है। रपट में यह भी कहा गया है कि शहरी इंटरनेट प्रयोक्ताओं में से 13.72 करोड़ यानी 51 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों के लगभग 7.8 करोड़ यानी 48 प्रतिशत प्रयोक्ता दैनिक इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, और देश में डिजिटाइजेशन के बाद इंटरनेट लोगों की जरूरत बन गया है।

    आ गया पहला 5जी स्मार्ट फोन

    एक रिपोर्ट के अनुसार वार्सिलोना में आयोजित मोबाइल वर्ल्ड कांग्रेस (एमडब्लूसी-2017) में जेडटीई कंपनी की ओर से दुनिया का पहला मोबाइल नेटवर्क की पांचवी पीढ़ी की 5 जी तकनीक पर आधारित ‘गीगाबाइट स्मार्टफोन’ पेश किया गया है। कंपनी का दावा है कि यह 2020 तक दुनिया में आने जा रही 5 जी तकनीक को सपोर्ट करेगा। इस नये 5जी स्मार्टफोन के बारे में कहा गया है कि इसकी डाउनलोडिंग स्पीड 1जीबी प्रति सेकेंड की होगी। यह 4जी की मौजूदा तकनीक से 10 गुना अधिक तेज है। क्वॉलकॉम के लेटेस्ट स्नैपड्रैगन 835 प्रोसेसर युक्त इस स्मार्टफोन से एक पूरी फिल्म केवल एक सेकेंड में डाउनलोड की जा सकेगी। बताया गया है कि दक्षिण कोरियाई कंपनी कैरियर केटी कॉर्प का लक्ष्य प्योंग चैंग में 2018 में 5जी नेटवर्क का ट्रायल करने की योजना है।

    2021 तक 5 जी मोबाइल कर जायेंगे 15 करोड़ का आंकड़ा पार

    5 जी नेटवर्क के बारे में बताया गया है कि 5 जी तकनीक से डाटा स्पीड 100 गीगा बाइट प्रति सेकेंड तक पहुंच जायेगी, जिससे 100 फिल्में एक साथ एक सेकेंड में डाउनलोड हो सकेंगी। 5 जी तकनीक में न्यू रेडियो एक्सेस (एनएक्स), नई पीढ़ी का एलटीई एक्सेस और बेहतर कोर नेटवर्क होगा, जिससे डाटा के तीव्र आदान-प्रदान के साथ ही ‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’ यानी आईओटी की सुविधा भी मिल सकेगी। इस तकनीक का उपयोग करने के लिये आज के 10-20 मेगा हर्ट्ज की चैनल बैंड विड्थ वाले मोबाइल उपयोगी नहीं होंगे, बल्कि दो गीगा हर्ट्ज की चैनल बैंड विड्थ वाले मोबाइलों की जरूरत पड़ेगी। इससे वीडियो ट्रेफिक 22 गुना तक बढ़ जायेगा और स्मार्टफोन के प्रयोक्ता लाइव फीड्स प्राप्त कर पायेंगे, यानी स्मार्टफोन टेलीविजन की तरह हो जायेंगे। वहीं दूरसंचार उपकरण निर्माता कंपनी एरिक्सन की मोबिलिटी रिपोर्ट की मानें तो विश्व में वर्ष 2021 तक 5 जी सुविधा से युक्त मोबाइल फोनों की संख्या 15 करोड़ पर पहुंच जायेगी, और 4 जी की तुलना में 5 जी मोबाइलों की बिक्री अधिक तेजी से बढ़ेगी। सबसे अधिक बढ़ोत्तरी दक्षिण कोरिया, जापान, चीन व अमेरिका में होगी।

    क्या हैं 1जी, 2जी, 3जी, 4जी व 5जी तकनीकें ?

    हाल के दिनों में 4जी तकनीक काफी चर्चा में है। मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों में 4जी सेवा को लांच करने की जंग छिड़ी हुई है। एयरटेल ने जहां भारत में सर्वप्रथम कोलकाता से अप्रैल 2012 में इस सेवा की शुरुआत की थी, वहीं रिलायंस जियो ने 5 सितंबर 2016 को देश भर में बड़े पैमाने पर 4जी की सेवाएं मुफ्त देकर तहलका ही मचा दिया। जबकि वोडाफोन सहित अन्य कंपनियां भी इसे शुरू कर रही हैं। इसलिये जानते क्या है कि मोबाइल सेवा की इन अलग-अलग जेनरेशन की तकनीकों में क्या अंतर हैः
    1जी तकनीक:
    1जी तकनीक दुनिया में वायरलेस टेलीफोनी की पहली तकनीक मानी जाती है। एनालॉग सिग्नल पर आधारित यह तकनीक पहली बार 1980 में सामने आई और 1992-93 तक इसका इस्तेमाल किया जाता रहा। पहली बार अमेरिका में 1जी मोबाइल सिस्टम ने इस तकनीक का प्रयोग किया था। इसमें डेटा की आवाजाही की रफ्तार 2.4 केवीपीएस थी। इस तकनीक की बड़ी खामी इसमें रोमिंग का ना होना था। इसमें मोबाइल फोन पर आवाज की क्वालिटी काफी खराब थी, साथ ही यह बैटरी की भी बहुत अधिक खपत करता था। इस तकनीक पर चलने वाले मोबाइल हैंडसेट बेहद भारी हुआ करते थे।
    2जी तकनीक:
    2जी तकनीक की शुरुआत 1991 में फिनलैंड में हुई। अभी भी प्रयोग की जाने वाली यह तकनीक ग्लोबल सिस्टम फॉर मोबाइल कम्यूनिकेशन पर आधारित तकनीक है, जिसे संक्षिप्त रूप में जीएसएम टेक्नॉलजी कहा जाता है। इस तकनीक में पहली बार डिजिटल सिग्नल का प्रयोग किया गया। इस तकनीक से माध्यम से फोन कॉल के अलावा पिक्चर मैसेज, टेक्स मैसेज और मल्टीमीडिया मैसेज भेजे जाने लगे। इस तकनीक की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इसे इस्तेमाल करने से काफी कम ऊर्जा की खपत होती है और फोन की बैटरी काफी ज्यादा चलती है। यह तकनीक मुख्य रूप से आवाज के सिग्नल को प्रसारित करती है। 2जी तकनीक पर डेटा के आने-जाने की रफ्तार अधिकतम 50,000 बिट्स प्रति सेकेंड तक तथा डाउनलोड और अपलोड की अधिकतम स्पीड 236 केवीपीएस (किलो बाइट प्रति सेकंड) होती है। इसके एडवांस वर्जन को 2.5जी और 2.7जी नाम भी दिये गये थे, जिसमें डेटा के आदान-प्रदान की रफ्तार और भी बढ़ गई थी।
    3जी तकनीक:
    3जी तकनीक की शुरुआत 2001 में जापान में हुई। इस तकनीक का मानकीकरण इंटरनेशनल टेलेकम्यूनिकेशन यूनियन (आईटीयू) ने किया था। इस तकनीक के माध्यम से टेक्स्ट, तस्वीर और वीडियो के अलावा मोबाइल टेलीविजन और वीडियो कांफ्रेसिंग या वीडियो कॉल किया जा सकता है। इस तकनीक ने दुनिया में क्रांति ला दी और मोबाइल फोन की अगली पीढ़ी यानी स्मार्टफोन को बढ़ावा दिया। 3जी तकनीक में डेटा के आने-जाने की रफ्तार 40 लाख बिट्स प्रति सेकेंड तक होती है। 3जी तकनीक का जोर मुख्य रूप से डेटा ट्रांसफर पर है। 2जी तकनीक के मुकाबले 3जी की एक अहम खासियत यह है कि यह आंकड़ों के आदान-प्रदान के लिए अधिक सुरक्षित (इनक्रिप्टेड) है। 3जी तकनीक की अधिकतम डाउनलोड स्पीड 21 एमवीपीएस और अपलोड स्पीड 5.7 एमबीपीएस होती है। इस तकनीक ने मोबाइल फोन के लिए एप बनाने का रास्ता खोल दिया। अलबत्ता, 3जी तकनीक में 2जी के मुकाबले काफी अधिक बैटरी की खपत होती है।
    4जी तकनीक:
    4जी तकनीक की शुरुआत साल 2000 के अंत में हुई। इसे मोबाइल तकनीक की चौथी पीढ़ी कहा जाता है। इस तकनीक के माध्यम से 100 एमबीपीएस से लेकर 1 जीबीपीएस तक की स्पीड से डेटा का डाउनलोड-अपलोड किया जा सकता है। यह ग्लोबल रोमिंग को सपोर्ट करता है। यह तकनीक 3जी के मुकाबले कहीं सस्ती तकनीक है। साथ ही इसमें सुरक्षा के फीचर्स भी ज्यादा हैं। लेकिन यह 3जी के मुकाबले कहीं अधिक बैटरी की खपत करती है। 4जी तकनीक से लैस मोबाइल फोन में जटिल हार्डवेयर प्रणाली की जरूरत होती है, इसलिए 3जी फोन के मुकाबले 4जी के फोन महंगे होते हैं। 4जी तकनीक की आधारभूत संरचनाओं को तैयार करने में महंगे उपकरण लगाने होते हैं। हालांकि जैसे-जैसे यह तकनीक आम होती जाएगी, फोन और नेटवर्क इक्विपमेंट्स दोनों की कीमतों में कमी आएगी। फिलहाल 4जी तकनीक दुनिया के काफी कम देशों में उपलब्ध है जिनमें मुख्यतः विकसित देश शामिल हैं। 3जी तकनीक की सबसे बड़ी खामी जहां इसमें डेटा का न्यूनतम स्पीड लगभग 2.5जी के बराबर होना है। वहीं 4जी तकनीक की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें खराब से खराब नेटवर्क में भी कम से कम 54एमवीपीएस की रफ्तार मिल सकती है।
    5जी तकनीक:
    5जी तकनीक की शुरुआत साल 2010 में हुई। इसे मोबाइल नेटवर्क का पांचवी पीढ़ी कहा जाता है। यह ‘वायरलेस वर्ल्ड वाइड वेब’ (मोबाइल इंटरनेट) को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इस तकनीक में बड़े पैमाने पर डेटा का आदान-प्रदान किया जा सकता है। इसमें एचडी क्वालिटी के वीडियो के साथ मल्टीमीडिया न्यूजपेपर प्रसारित किये जा सकते हैं। साथ ही इस तकनीक से वीडियो कॉलिंग के क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी। इस तकनीक में ‘अल्ट्रा हाइ डेफिनिशन क्वालिटी’ की आवाज का प्रसारण किया जा सकता है। इस तकनीक में 1 जीवीपीएस से अधिक स्पीड से डेटा की आवाजाही हो सकती है, हालांकि अभी तक इसकी अधिकतम स्पीड डिफाइन नहीं की गई है, क्योंकि अभी यह कांसेप्ट के दौर में है और इस पर काम चल रहा है। इस तकनीक की सबसे बड़ी खूबी रियल टाइम में बड़े से बड़े डेटा का आदान-प्रदान होगा। साथ ही यह तकनीक संवर्धित वास्तविकता (अगर्मेंटेड रियलिटी) के क्षेत्र में नया रास्ता खोलेगी, यानि इसके माध्यम से फोन कॉल पर दो लोग बिल्कुल आमने-सामने बात कर पाने में सक्षम होंगे। विभिन्न साइंस फिक्शन और फंतासी कथाओं में जिस प्रकार व्यक्ति आपके आगे आभासी रूप में उपस्थित हो जाता है और आप उससे आमने-सामने बात करने में सक्षम होते हैं। इस तकनीक से ऐसा करना संभव हो सकेगा। अनुमान के मुताबिक 5जी तकनीक साल 2020 तक धड़ल्ले से प्रयोग में आने लगेगी। फिलहाल ब्रिटेन की राजधानी लंदन में साल 2020 तक 5जी तकनीक लगाने की तैयारी चल रही है।

    2020 तक 119 अरब डॉलर तक पहुंच जायेगा ई-कॉमर्स का कारोबार

    शोध संस्थान ई-मॉर्गन स्टैनली रिसर्च द्वारा फरवरी 2016 में पेश रिपोर्ट में किये गये अनुमान के अनुसार 2020 तक भारत का ई-कॉमर्स मार्केट मौजूदा 102 डॉलर से बढ़कर 119 अरब डॉलर पर पहुंच जायेगा। रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति सेकेंड तीन इंटरनेट प्रयोगकर्ता जुड़ते हैं, और भारत इस मामले में दुनिया में दूसरे स्थान पर आ गया है। इससे सबसे बड़ा लाभ विदेशी कंपनियों को हो रहा है, जो भारत को एक उभरते हुए ई-कॉमर्स बाजार के रूप में देख रही हैं। इस बाजार में महिलाओं की बड़ी भागेदारी खरीददारों के रूप में है, जो ई-कॉमर्स का लाभ घर बैठे खरीददारी कर उठाने लगी हैं। रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण भारत में कई महिलाएं जल्लीकट्टू के लिये बैलों से लेकर अपना अचार, पापड़, जैम व सॉस से लेकर सजावट के सामान इंटरनेट के जरिये बेच रही हैं, और कई अपने घर से ऑनलाइन ई-कॉमर्स शॉप चला रही हैं। एक अध्ययन के अनुसार भारत में इंटरनेट का प्रयोग करने वाले 96.6 प्रतिशत लोग ऑनलाइन शॉपिंग करते हैं, फलस्वरूप पूरे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारत सबसे आगे हो गया है।
    हमारे देश में ही इंटरनेट पर कई समाचार पत्रों की ई-वेबसाईट्स ही नहीं वेब पोर्टल्स भी लोगों तक आसानी से समाचार, सूचनाएं और जानकारी प्रेषित कर रहे हैं। जरूरत है तो बस इतनी कि चंद बटनों को आपकी उंगली का इशारा मिले। हमारे देश में 8 अप्रेल 1998 को न्यूज ट्रेक द्वारा ई-मेल अखबार जारी किया गया था। उस दौर में एक पाठक के लिए उसका खर्च 25 पैसे आया था और उस दौर में इसके 45 हजार पाठकोंको यह अखबार नियमित पहंुचाया जाता था। लेकिन आज नवतकनीक के दौर में आप और हम अपने मोबाइल पर ही पल-पल हो रहे बदलाव को जानसकते हैं। एक समय आएगा जब आप अपने मोबाइल की टॉर्च से दीवार पर ही वर्चुअल समाचार पढ़ पाएंगे और वे भी दृश्यों के साथ।

    सस्ती वाई-फाई सुविधा देने के लिये बनेंगे पीडीओ

    भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकारी यानी ‘ट्राई’ ने 9 मार्च 2017 को वाई-फाई उपकरणों पर आयात शुल्क आम लोगों को सस्ती दरों पर वाई-फाई सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए ‘पब्लिक डाटा आफिस’ यानी ‘पीडीओ’ तथा ‘एग्रीगेटर’ उपलब्ध कराने का विचार रखा है। ट्राई का कहना है कि पीडीओ स्थापित करने के लिए एक नई रूपरेखा बनाते हुए पीडीओ के साथ एग्रीगेटर को यानी पीडीओए को सार्वजनिक वाई फाई सेवा मुहैया कराने की इजाजत देनी चाहिए। ट्राई का मानना है कि इन कदमों से सार्वजनिक हॉट स्पाट की संख्या बढ़ेगी तथा देश में इंटरनेट सेवाएं और वहनीय होंगी। नियामक का कहना है कि वाई-फाई पहुंच बिंदुओं के लिए उपकरण आयात शुल्क ढांचे पर वाणिज्य मंत्रालय के साथ समन्वय बिठाते हुए पुनर्विचार होना चाहिए। नियामक के अनुसार इससे भी इंटरनेट सेवा उपलब्ध कराने की लागत में कमी आएगी। इसमें कहा गया है, ‘पीडीओ को सार्वजनिक तौर पर वाई-फाई सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए बिना किसी खास लाइसेंस के यह सेवा देने की अनुमति होनी चाहिए। हालांकि उन्हें इसके लिए दूरसंचार विभाग की तरफ से पंजीकरण की आवश्यकता होनी चाहिए। इसमें उनके लिए ई-केवाईसी, और रिकार्ड रखने की आवश्यकता होगी।’

     एक मिनट में इंटरनेट पर होता है बहुत कुछ

    एक मिनट में इंटरनेट पर क्या-क्या होता है, इस पर एक दिलचस्प अध्ययन सामने आया है। इसके अनुसार :-
    • एक मिनट में सात लाख एक हजार 389 लोग फेसबुक पर लॉगइन करते हैं।
    • ह्वाट्सएप पर दो करोड़ आठ लाख संदेश भेजे और प्राप्त किए जाते हैं।
    • ट्विटर पर तीन लाख 47 हजार 222 ट्वीट्स किये जाते हैं।
    • इंस्टाग्राम पर 34 हजार 194 नए पोस्ट्स डाले जाते हैं।
    • ई-कॉमर्श कंपनी ऐमजॉन पर दो लाख तीन हजार 596 डॉलर यानी करीब एक करोड़ 35 लाख रुपए का सामान बेचा जाता है।
    • दुनिया के सबसे बड़े सर्च इंजन गूगल पर 24 लाख सर्च किए जाते हैं।
    • यूट्यूब पर 27 लाख 80 हजार वीडियो देखे जाते हैं।
    • 13 करोड़ ई-मेल भेजे जाते हैं।
    • कैब सर्विस-ऊबर पर 1389 राइड्स बुक होती हैं।
    • ऐपल के ऐप स्टोर से 51 हजार ऐप डाउनलोड होते हैं।
    • जॉब वेबसाइट लिंक्डइन पर 120 से ज्यादा नये अकाउंट खुलते हैं।
    • वाइन पर 10 करोड़ 40 लाख वाइन लूप्स देखे जाते हैं।
    • म्यूजिक स्ट्रीमिंग वेबसाइट स्पॉटीफाई पर 38 हजार 52 घंटे का म्यूजिक सुना जाता है।
    ↧

    'टीवी में इस प्रकार करे अपनी रिपोर्टिंग

    March 17, 2017, 10:45 am
    ≫ Next: पत्रकारिता के भविष्य पर चर्चा उमर फ़ारूक़
    ≪ Previous: सोशल मीडिया बनाम न्यू मीडिया के मायने
    $
    0
    0

     

     

    टेलीविज़न जर्नलिज्म: रिपोर्टिंग के प्रकार



    प्रस्तुति- प्रियदर्शी किशोर / धीरज पांडेय
     


    Related Articles

    visual media

    विजुअल मीडिया: गुणवत्‍ता से समझौता कभी न करें

    14 days ago
    headlines

    मैं मुख्य समाचारों को कैसे पेश करूं- हेडलाइंस

    16 days ago
    aajtak-FB-logo_ver2

    कैसे नाम पड़ा ‘आज तक’?

    16 days ago
    शैलेश और डॉ. ब्रजमोहन |टेलीविजन पर दर्शकों को सभी खबरें एक समान ही दिखती हैं, लेकिन रिपोर्टर के लिए ये अलग मायने रखती है। एक रिपोर्टर हर खबर को कवर नहीं करता। न्‍यूज कवर करने के लिए रिपोर्टर के क्षेत्र (विभाग) जिसे तकनीकी भाषा में ‘बीट’ कहा जाता है, बंटे होते हैं और वो अपने निर्धारित विभाग के लिए ही काम करता है।
    रिपोर्टिंग दो प्रकार की होती है। एक तो जनरल रिपोर्टिंग या रूटिन रिपोर्टिंग कहलाती है, जिसमें मीटिंग, भाषण, समारोह जैसे कार्यक्रम कवर किए जाते हैं। दूसरी होती है खास रिपोर्टिंग। खास रिपोर्टिंग का दायरा काफी बड़ा है। इसमें राजनीति, व्‍यापार, अदालत, खेल, अपराध, कैंपस (कॉलेज, विश्‍वविद्यालय की गतिविधियां), स्‍थानीय निकाय, फिल्‍म, सांस्‍कृतिक और खोजपरक (Investigative) गतिविधियां आती हैं।
    राजनीतिक रिपोर्टिंग के तहत पार्टियों के प्रेस कॉन्‍फ्रेंस, संसद, विधानसभा, मंत्रालय, राजनीतिक पार्टियां और उसके नेता, राजनयिकों और दूसरे देशों की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखी जाती है। आमतौर पर राजनीतिक रिपोर्टिंग का जिम्‍मा वरिष्‍ठ पत्रकारों को सौंपा जाता है।
    व्‍यापार और आर्थिक खबरों को कवर करने वाले रिपोर्टरों के लिए जरूरी है कि उन्‍हें अर्थशास्‍त्र, कॉमर्स की अच्‍छी समझ हो। अर्थ व्‍यवस्‍था से जुड़़ी तकनीकी बातें आम लोगों से जुड़ी हुई होती हैं, लेकिन लोगों को इसका सही ज्ञान नहीं होता। सरकार का कौन सा आर्थिक कदम लोगों के लिए फायदेमंद है और कौन सा नुकसान पहुंचाने वाला, सरकार की आर्थिक नीतियों का आने वाले दिनों में क्‍या असर होगा, इसे आसान भाषा में लोगों तक वही रिपोर्टर पहुंचा सकता है, जिसकी आर्थिक पहलुओं पर पकड़ मजबूत होगी। अर्थशास्‍त्र की जानकारी रखने वाले विद्यार्थियों के लिए बिजनेस रिपोर्टर बनना एक बढि़या विकल्‍प है।
    अदालत- बहुत सी खबरें ऐसी होती है, जिनका स्रोत अदालतें होती हैं। अदालत में कई तरह के ऐसे मामले दायर होते हैं या फैसले होते हैं, जिनका आम आदमी की जिन्‍दगी से भले ही सरोकार न हो, लेकिन उसे जाने की जिज्ञासा सभी लोगों में होती है। इसलिए अदालत की खबरों को गवर करने का जिम्‍मा ज्‍यादातर ऐसे रिपोर्टर को सौंपा जाता है जिसे कानून की जानकारी हो। कानून की पढ़ाई कर चुके विद्यार्थियों के लिए कोर्ट की रिपोर्टिंग आसान होती है। अदालती खबरों को कवर करने से पहले रिपोर्टर को अदालत की अवमानना (अपमान) का कानून अच्छी तरह जान लेना चाहिए।
    खेल- खेलों में आमतौर पर सभी की दिलचस्‍पी होती है और खेल टीवी के लिए बहुत ही महत्‍वपूर्ण क्षेत्र है। ये एक ऐसा विषय है, जिसमें अमूमन सभी लोगों की रूचि होती है। ये जरूरी नहीं है कि खेल पत्रकार बनने के लिए रिपोर्टर खुद भी खिलाड़ी हो। लेकिन ये जरूरी है कि रिपोर्टर को क्रिकेट, हॉकी, फुट‍बॉल और टेनिस जैसे लोकप्रिय खेलों की बारीकी से समझ हो। उसे खेलों के तकनीकी शब्‍दों का भी भरपूर ज्ञान होना चाहिए और दुनियाभर में होने वाले खेल टूर्नामेंटों पर बराबर नजर रखनी चाहिए। परवेज अहमद कहते हैं कि खेल दरअसल भरपूर एक्‍शन है इसलिए इस क्षेत्र के रिपोर्टर को भी ज्‍यादा एक्टिव रहने की जरूरत होती है। अच्‍छा खेल रिपोर्टर वही है, जो हर खेल की बारीकियों को समझता है, साथ ही खेल की तकनीक, खिला‍डि़यों, खेल जगत के बदलते माहौल, खेल प्रशासन और खेल सियासत पर भी पैनी नजर रखता है।
    अपराध की खबरों को कवर करने वाले रिपोर्टर से आईपीसी, सीआरपीसी की जानकारी रखने की उम्‍मीद की जाती है। साथ ही जरूरी है कि पुलिस प्रशासन में भी उसकी अच्‍छी पैठ हो।
    कैंपस (कॉलेज, यूनिवर्सिटी), स्‍थानीय निकाय (नगर निगम, नगरपालिका) की खबरों को कवर करने का जिम्‍मा कम अनुभवी रिपोर्टरों को सौंपा जाता है। ज्‍यादातर नए रिपोर्टर इन्‍हीं विभागों का चक्‍कर लगाकर अपने करियर की शुरूआत करते हैं।
    फिल्‍म और सांस्‍कृतिक गतिविधियां खास रिपोर्टर कवर करते हैं। इस फील्‍ड में काम करने के लिए जरूरी है कि रिपोर्टर को सिनेमा और टीवी में इंटरटेनमेंट से जुड़ी तमाम बातों की जानकारी हो। फिल्‍मों या टीवी सीरियलों में काम करने वाले हीरो-हिरोइन सेलिब्रेटी होते है, इसलिए ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों की इन पर नजर होती है और इनकी हर छोटी-बड़ी बातों में लोगों की रूचि होती है। इसके अलावा देश-विदेश के संगीत, नृत्‍य और दूसरी सांस्‍कृतिक गतिविधियों की बारीकी से जानकारी भी जरूरी है । सांस्‍कृतिक गतिविधियां भी इंसान की जिन्‍दगी का हिस्‍सा हैं और लोगों का इससे मनोरंजन होता है। इसी से जुड़ा एक और क्षेत्र है लाइफ स्‍टाइल और फैशन, जिस पर पैनी नजर रखने वाला रिपोर्टर अच्‍छा नाम कमा सकता है।
    इन्‍वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग – खास रिपोर्टिंग में खोजपरक (इन्‍वेस्टिगेटिव) रिपोर्टिंग सबसे चुनौती भरा काम है। इसके जरिए रिपोर्टर पर्दे के पीछे की असली कहानी लोगों के सामने लाता है। इसमें सार्वजनिक जगहों, संस्‍थाओं में जारी भ्रष्‍टाचार या ऐसे मामले आते हैं, जिसमें ज्‍यादा लोगों की रूचि हो। आमतौर पर इसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अपराध और विकास से जुड़े मामले शामिल होते हैं।
    दूसरी रिपोर्टिंग से इन्‍वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग इस मायने में भी अलग है, क्‍योंकि इसमें परिस्थितियां अलग होती हैं। सब कुछ गुपचुप होता रहता है और आरोपी की कोशिश होती है कि वो कोई सबूत नहीं छोड़े। इसमें सवाल पूछने का तरीका भी अलग होता है। खबर निकालनी हो, तो आरोपी से सीधे नही पूछ सकते कि आप घूस लेते हैं या नहीं।
    इन्‍वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग में आम रिपोर्टिंग से ज्‍यादा समय, संसाधन और ताकत खर्च करनी पड़ती है। क्‍योंकि जरूरी नहीं है कि एक या दो बार की कोशिश में ही रिपोर्टर पूरी खबर निकाल लाए। साथ ही इसमें सारी जानकारी रिकॉर्ड करनी पड़ती है, ताकि सबूत पुख्‍ता हों।
    स्टिंग ऑपरेशन – इन्‍वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग का ही एक रूप स्टिंग ऑपरेशन है। टेलीविजन में स्टिंग ऑपरेशन, रिपोर्टिंग की सबसे आधुनिक तकनीक है और ये खबरों की सच्‍चाई से लोगों को रू-ब-रू कराने का सबसे प्रभावशाली जरिया भी है। ये वो माध्‍यम है जिसके जरिए समाज के सफेदपोश लोगों, बड़े नेताओं, अफसरों, सेलिब्रि‍टीज के काले चेहरे उजागर होते रहे हैं। स्टिंग ऑपरेशन में रिपोर्टर स्‍पाई या छिपे हुए कैमरे का इस्‍तेमाल करता है और टारगेट व्‍यक्ति को इसकी जानकारी नहीं होती कि वो, जो कुछ बोल या कर रहा है, वो सब गुपचुप कैमरे में कैद भी हो रहा है। कई तरह के स्‍पाई कैमरे बाजार मे मिलते हैं। इन्‍हें कलम, टाई से लेकर बटन तक में छिपाकर रिपोर्टर अपने साथ ले जा सकता है।
    भारत में स्टिंग ऑपरेशन की शुरूआत तहलका नाम की एजेंसी ने की थी। इसने बीजेपी में चंदा के नाम पर लाखों रूपये लेने का भंडाफोड़ किया और पार्टी के अध्‍यक्ष बंगारू लक्ष्‍मण को पद छोड़ना पड़ा था। अलग-अलग न्‍यूज चैनलों में अब तक कई स्टिंग हो चुके हैं। इसमें आजतक का ‘ऑपरेशन दूर्योधन’, स्‍टार न्‍यूज का ‘ऑपरेशन चक्रव्‍यूह’, IBN7 का ‘ऑपरेशन माया’, एनडीटीवी का ‘ऑपरेशन बीएमडब्‍ल्‍यू’ खास माना जा सकता है।
    ‘ऑपरेशन दूर्योधन’ और ‘ऑपरेशन चक दे’, स्टिंग ऑपरेशन के सबसे अच्‍छे उदाहरण हैं। ऑपरेशन चक दे में रिपोर्टर ने इंडियन हॉकी फेडरेशन के अधिकारियों को पैसा लेकर खि‍लाडि़यों का चुनाव करते हुए पकड़ा था और इसका नतीजा ये निकला कि फेडरेशन के अध्‍यक्ष के.पी.एस. गिल और आरोपी अधिकारियों को पद से हटना पड़ा।
    कोबरा पोस्‍ट और आजतक ने स्टिंग ‘ऑपरेशन दूर्योधन’ के जरिए संसद में सवाल पूछने के लिए सांसदों के घूस लेने का भंड़ाफोड़ कर देश की राजनीति में तहलका मचा दिया था। इस खबर के बाद संसद से ग्‍यारह सांसदों की सदस्‍यता भी जाती रही।
    कोबरा पोस्‍ट और आजतक ने भले ही इस खबर को ब्रेक किया, लेकिन क्‍या आपने कभी सोचा है कि ये खबर रिपोर्टर के पास कैसे पहुंची होगी। निश्चिततौर पर इस खबर को बाहर लाने के लिए रिपोर्टर ने खुफिया तकनीक का असरदार इस्‍तेमाल किया। सबसे पहले सांसदों के निजी सचिवों या करीबी लोगों से उनके बारे में जानकारी इकट्ठा की। यह पता किया कि सवाल पूछने के लिए सांसद पैसा लेते हैं या नही। प्रारंभिक सूचना तो निजी सचिव या कर्मचारियों से मिल कई, लेकिन रिपोर्टर के सामने सबसे बड़ी चुनौती उसे साबित करने की थी। इसके लिए उसने स्‍पाई कैमरे का इस्‍तेमाल किया। उसने सबसे पहले सांसदों को लिखित सवाल दिए और स्‍पाई कैमरे के जरिए सवाल को पढ़कर रिकॉर्ड किया, ताकि साबित हो कि संसद में पूछा जाने वाला सवाल रिपोर्टर ने ही दिया है। फिर सवाल को संसद में भिजवाया।
    इस काम के लिए सांसदों को इस तरह पैसे दिए कि लेन-देन स्‍पाई कैमरे में रिकॉर्ड हो जाए। फिर रिपोर्टर ने संसद में सवाल का जवाब आने तक इंतजार किया। सांसद को सवाल देने, उसे संसद में सवाल पूछने के लिए पैसा देने और उसका जवाब आने तक एक सर्कल पूरा हुआ। रिपोर्टर को इस काम में सात-आठ महीने लगे और लोगों तक इस खबर को पहुंचाने के लिए रिपोर्टर को तब तक इंतजार करना पड़ा।
    इन्‍वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग या स्टिंग ऑपरेशन में रिपोर्टर को जासूस की तरह काम करना पड़ता है। आमतौर पर ये नहीं बताता कि वो रिपोर्टर है, बल्कि वा जिस खबर को कवर कर रहा होता है, उससे जुड़ी किसी काल्‍पनिक संस्‍था का प्रतिनिधि बन जाता है। ‘ऑपरेशन दुर्योधन’ के रिपोर्टर एक काल्‍पनिक व्‍यापार संगठन के प्रतिनिधि बनकर सांसदों से मिले, तो ‘ऑपरेशन चक दे’ के रिपोर्टर एक काल्‍पनिक खेल संगठन के प्रतिनिधि बन गए।
    टीवी न्‍यूज में स्टिंग ऑपरेशन शुरू से ही विवाद में रहा है और इसकी विश्‍वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं। 2007 में एक चैनल ने दिल्‍ली में एक स्‍कूल टीचर का स्टिंग ऑपरेशन दिखाया था, जिसकी विश्‍वसनीयता को लेकर खासा बवाल हुआ। इस घटना के बाद सभी टीवी चैनलों ने स्टिंग ऑपरेशन के लिए अपने नियम कड़े कर दिए। बड़े चैनलों में स्टिंग ऑपरेशन के लिए अब एडिटर की इजाजत जरूरी है। कई चैनलों ने तो स्टिंग ऑपरेशन के लिए बाकायदा सर्कुलर जारी कर गाइड लाइन तय कर दी है और जूनियर रिपोर्टरों से स्टिंग ऑपरेशन कराने या उन्‍हें स्‍पाई कैमरा इस्‍तेमाल करने की मनाही कर दी गई है।
    आशुतोष के मुताबिक स्टिंग ऑपरेशन खबर करने का एक असरदार तरीका है और उतना ही जरूरी है, जितना खोजी पत्रकारिता के दूसरे तरीके। लेकिन इसका इस्‍तेमाल तभी होना चाहिए, जब आप इस नतीजे पर पहुंच जाएं कि एक खास खबर को कवर करने के लिए बाकी सभी तरीकों से काम नहीं बनेगा।
    उनका ये भी कहना है कि स्टिंग ऑपरेशन में सावधानी बरतने की काफी जरूरत होती है। रिपोर्टर पहले ये सुनिश्चित कर ले, कि वो जिस खबर को करने जा रहा है, वो खबर सही है। वो देख ले कि खुफिया कैमरा और दूसरे सभी सामान (Equipments) दुरूस्‍त हैं। क्‍योंकि स्टिंग ऑपरेशन में दूसरा मौका मिलने की संभावना ज्‍यादा नही होती है। किसी भी नए रिपोर्टर के भरोसे स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम देना खतरे से खाली नही। स्टिंग ऑपरेशन किसी वरिष्‍ठ पत्रकार की देखरेख में पूरा किया जाना चाहिए।
    संदीप चौधरी कहते हैं कि देश, समाज के बड़े हित से जुड़ी खबरों के लिए ही स्टिंग ऑपरेशन किया जाना चाहिए। आम खबरों के लिए स्टिंग ऑपरेशन का इस्‍तेमाल सही नहीं है।
    निजी चैनलों के संगठन, न्‍यूज ब्रॉडकास्‍टर्स एसोसिएशन (एनबीए) के स्टिंग ऑपरेशन के लिए गाइडलाइन जारी की है। एनबीए के मुताबिक :
    1- स्टिंग ऑपरेशन जनहित में केवल तभी किए जाने चाहिए, जब जरूरी सूचना को हासिल करने के लिए कोई दूसरा रास्‍ता नहीं हो और यह कोई गैरकानूनी तरीका अपनाये बगैर, किसी को प्रलोभन दिे बगैर किया जाना चाहिए। इस दौरान निजता के वैधानिक अधिकारों का ख्‍याल रखा जाना चाहिए।
    2- ब्रॉडकास्‍टर्स को केवल तभी स्टिंग ऑपरेशन का सहारा लेना चाहिए, जब ऐसा करना संपादकीय दृष्टि से उचित हो और किसी गलत काम का, खास तौर पर सार्वजनिक जीवन से जुड़े व्‍यक्तियों की सच्‍चाई को उजागर करना हो।
    3- कोई भी स्टिंग ऑपरेशन संपादकीय प्रमुख की सहमति लेकर ही किया जाना चाहिए और ब्रॉडकास्टिंग कंपनी के प्रबंध निदेशक या मुख्‍य कार्यकारी अ‍धिकारी को भी सभी स्टिंग ऑपरेशन के बारे में पूर्व सूचित किया जाना चाहिए।
    4- स्टिंग ऑपरेशन किसी अपराध के संबंध में सबूत जुटाने के लिए किया जाना चाहिए, न कि किसी को लालच देकर अपराध करने के लिए उकसाया जाए।
    ब्रेकिंग न्‍यूज- पल-पल की खबर दर्शक तक पहुंचाना ही कामयाब रिपोर्टर की पहचान है। जैसे ही कोई महत्‍वपूर्ण घटना घटे, उसे तुरन्‍त और बाकी चैनलों से पहले अपने दर्शक तक पहुंचाना टीवी रिपोर्टर की सबसे अहम जिम्‍मेदारी होती है। किसी भी महत्‍वपूर्ण घटना को तुरन्‍त दर्शक तक पहुंचाना, ब्रेकिंग न्‍यूज है। यानी खबर इतनी बड़ी हो, जिसका असर देश और समाज के बड़े तबके पर व्‍यापक हो। खबर इतनी बड़ी हो कि टीवी पर चल रही तमाम खबरों को रोक दिया जाए और न्‍यूज व्‍हील तोड़कर उस खबर को तुरंत दर्शकों तक पहुंचाया जाए। मतलब बड़ी खबर की पहली झलक ब्रेकिंग न्‍यूज है। खबर की ये पहली झलक, ब्रेकिंग न्‍यूज की शक्‍ल में लोगों को चौंकाती है और ऐसी खबरें ही रिपोर्टर को भीड़ में सबसे अलग दिखाती है। इसमें ख्‍याल रखने वाली बात है कि कोई पुरानी घटना ब्रेकिंग न्‍यूज नहीं है, लेकिन पुरानी घटना किसी दिलचस्‍प या नाटकीय मोड़ पर पहुंचती है, तो वो ब्रेकिंग न्‍यूज हो सकती है।
    आशुतोष कहते हैं कि ब्रेकिंग न्‍यूज माने वो खबर, जो इतनी बड़ी है कि सबको उसकी फौरन जानकारी देना अनिवार्य है। जैसे कि प्रधानमंत्री का इस्‍तीफा या फिर इस्‍तीफे की पेशकश या रेल दुर्घटना, जिसमें दर्जनों लोगों की मरने की आशंका हो या कोई आतंकवादी विस्‍फोट, जिसमें लोगों की जान गई हो। ब्रेकिंग न्‍यूज दर्शकों को फौरन बतानी होती है, इसलिए रिपोर्टर के सामने स‍बसे बड़ी चुनौती होती है, खबर को सही-सही देने की और खबर देते समय भाषा के इस्‍तेमाल में संयम बरतने की। खबरों मे एकुरेसी तो वैसे भी जरूरी है, लेकिन ब्रेकिंग न्‍यूज, जैसे कि प्रधानमंत्री के इस्‍तीफे की बात गलत हो जाए, तो आप समझ स‍कते हैं कि ये कितनी गैरजिम्‍मेदाराना और खतरनाक बात हो सकती है। ब्रेकिंग न्‍यूज में स्‍पीड के साथ एकुरेसी और भाषा पर संयम रिपोर्टर के लिए बड़ी चुनौती है।
    प्रबल प्रताप सिंह के मुताबिक खबर अपनी अहमियत खुद बताती है। हर वो खबर ब्रेकिंग न्‍यूज है, जो किसी न किसी रूप में लोगो को झकझोड़े, अचंभित करे और सोचने पर मजबूर करे।
    रिपोर्टर की प्रतिभा की असली पहचान ब्रेकिंग न्‍यूज से ही होती है। क्‍योंकि ब्रेकिंग न्‍यूज अचानक होने वाली बड़ी घटना है, जिसे सटीक और सही तरीके से दर्शकों तक पहुंचाना, किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं। ब्रेकिंग न्‍यूज चौकाने वाली वो सूचना है, जिसे एक रिपोर्टर सबसे पहले अपने दर्शकों तक पहुंचाता है और ये काम एक गुमनाम पत्रकार भी, जो भले ही किसी कस्‍बे में क्‍यों न रहता हो, बखूबी कर सकता है। ये सोचना गलत है कि ब्रेकिंग न्‍यूज सिर्फ बड़े शहरों में ही मिल सकती है।
    देश-दुनिया को प्रभावित करने वाली घटनाएं कहीं भी हो सकती हैं और नजर पैनी हो, तो इसे सबसे पहले लोगों के सामने लाकर एक अदना पत्रकार भी रातोंरात दुनिया की नजर में हीरो बन सकता है। नोएडा के निठारी गांव से बच्‍चों के गायब होने की खबरें लगातार आ रही थीं, लेकिन शुरूआती दौर में किसी रिपोर्टर ने इसकी गहराई से छानबीन नहीं की, नहीं तो, ये केस पुलिस की तफ्तीश से नहीं, टीवी रिपोर्टर के कैमरे से सबसे पहले लोगों के सामने आता।
    ब्रेकिंग न्‍यूज के लिए आसपास की घटनाओं पर नजर रखना जरूरी है और इसके लिए टीवी रिपोर्टर को भी नियमित रूप से अखबार पढ़ना चाहिए। अखबारों में छपी एक छोटी सी खबर भी हलचल मचा स‍कती है। अखबारों पर सिर्फ पैनी नजर रखने की जरूरत होती है। कई बार अनायास ही रिपोर्टर के हाथ बड़ी खबर लग सकती है। छोटी-मोटी खबरों की पड़ताल के दौरान ऐसा संभव हो सकता है। यहां पर एक बात मजाक लग सकती है, लेकिन कुत्‍ते की तरह रिपोर्टर में भी न्‍यूज सूंघने की क्षमता हो, तो साधारण रिपोर्टर भी रातोंरात मीडिया में हीरो बन सकता है।
    पुरानी महत्‍वपूर्ण खबरों पर नजर भी, रिपोर्टर को ब्रेकिंग न्‍यूज दे सकती है। ज्‍यादातर बड़ी खबरें भी दो-चार दिन सुर्खियों में रहने के बाद टीवी स्‍क्रीन से गायब हो जाती हैं। लोग भी उस खबर को भूल जाते हैं और रिपोर्टर भी उसे नजरअंदाज कर देता है। लेकिन घटना की जांच-पड़ताल तो चलती रहती है और उसका लगातार फॉलोअप किसी न किसी दिन रिपोर्टर को ब्रेकिंग न्‍यूज दे सकता है। किसी बड़े नेता या सेलिब्रिटी के विवादास्‍पद बयान भी ब्रेकिंग न्‍यूज हो सकते हैं।
    सावधानियां
    ब्रेकिंग न्‍यूज के लिए कुछ साव‍धानियां हैं, जिसका पालन करना हर रिपोर्टर का फर्ज है।
    ब्रेकिंग न्‍यूज की पुष्टि होते ही रिपोर्टर को सबसे पहले इसकी जानकारी असाइनमेंट डेस्‍क को देनी चाहिए। उसे खबर की मुख्‍य बातें जरूर नोट करा देनी चाहिए, ताकि सही खबर ही दर्शकों तक जाए। रिपोर्टर की फोन पर दी गई जानकारी, न्‍यूज रूम में कई हाथों से होती हुई दर्शकों तक पहुंचती है और ये लिखी हुई न हों, तो डेस्‍क पर गलती की गुंजाइश बढ़ जाती है।
    परवेज अहमद कहते हैं कि ब्रेकिंग न्‍यूज सबसे पहले रिपोर्टर को ही चौंकाती है और चन्‍द लम्‍हों में ही रिपोर्टर को तौलना होता है कि वो खबर दर्शकों तक पहुंचाए या नहीं। खबर कितनी भी बड़ी हो, उसे भेजने की जितनी भी जल्‍दी हो, रिपोर्टर का पहला फर्ज है कि उसकी पुष्टि करे। रिपोर्टिंग का सबसे अच्‍छा फॉर्मूला है कि गलत खबर देने से बेहतर है कि खबर न दी जाए। इसलिए ब्रेकिंग न्‍यूज में जल्‍दबाजी की जगह अच्‍छा है कि थोड़ी देर से ही दर्शकों को सच्‍ची और पूरी खबर दी जाए।
    रिपोर्टर को चाहिए कि अपने सूत्र से सुनिश्चित किए बिना खबर ब्रे‍क न करे। अनुमान पर चलना खतरनाक हो सकता है। सूत्र से खबर की पुष्टि हर हाल मे होनी चाहिए। जिस खबर पर तनिक भी सन्‍देह हो, वो खबर किसी भी रूप में दर्शकों तक नहीं पहुंचाई जानी चाहिए। अधूरी जानकारी पर खबर ब्रेक न करें।
    ब्रेकिंग न्‍यूज देने से पहले याद रखें। खबर देने वाला स्रोत, रिपोर्टर को मूर्ख भी बना सकता है। मुमकिन है कि वो रिपोर्टर को किसी विवाद में फंसाना चा‍हता हो। इसलिए खबर की सावधानी से जांच करें। खबर की सच्‍चाई के बारे में पूरी तरह पता करें और उसकी गुत्थियों को समझने के लिए रिपोर्टर अपने दिमाग का इस्‍तेमाल जरूर करें, ताकि किसी झंझट में न फंसे। याद रखें, खबरों के मामले में लापरवाही की कोई माफी नहीं है।
    खबर साम्‍प्रदायिक मुददे से जुड़ी हो तो, ज्‍यादा सावधानी बरतने की जरूरत है। ध्‍यान रखें,
    – खबर में सीधे तौर पर सम्‍प्रदायों के नाम का उल्‍लेख न करें।
    – खबर किसी एक सम्‍प्रदाय का पक्ष लेता हुए न दिखे।
    – खबर से रिपोर्टर और चैनल की निष्‍पक्षता पर आंच न आए।
    – भाषा संयमित हो, भावनाओं को भड़काने वाली न हो।
    – तथ्‍यों में पूरी सच्‍चाई हो।


    न्‍यूज फ्लैश- ब्रेकिंग न्‍यूज की तरह न्‍यूज फ्लैश का भी टीवी न्‍यूज में खास अहमियत है। आशुतोष के मुताबिक न्‍यूज फ्लैश यानी वो खबर जो ज्‍यादा बड़ी न हो, लेकिन दर्शकों को फौरन बताना जरूरी हो। उनका कहना है कि इसके लिए न्‍यूज व्‍हील तोड़ना जरूरी नही है।

    स्‍पेशल स्‍टोरी- किसी विषय या मौके पर की गई खास स्‍टोरी स्‍पेशल स्‍टोरी कहलाती है। कई बार सामाजिक सरोकार का कोई मुददा इतना अधिक चर्चित हो जाता है कि लोग उसके बारे में ज्‍यादा जानना चा‍हते हैं। मसलन श्रीलंका में भारत वनडे सीरीज जीतकर पहली बार इतिहास बनाता है और कप्‍तान महेन्‍द्र सिंह धोनी की कामयाबी में एक और सितारा जुड़ जाता है। ऐसे में धोनी के क्रिकेट सफर पर स्‍पेशल स्‍टोरी दिखाई जा सकती है। विदर्भ या बुंदेलखंड में सूखे की मार झेल रहे किसानों की मुश्किलों पर बनाई गई स्‍पेशल स्‍टोरी, समाज के हर तबके का ध्‍यान खींच सकती है।

    एक्‍सक्‍लूसिव- एक्‍सक्‍लूसिव रिपोर्ट, रिपोर्टर की खास स्‍टोरी होती है। एक्‍सक्‍लूसिव खबर का मतलब है कि वो खबर किसी और चैनल या अखबार के पास नहीं है।

    आशुतोष कहते हैं ऐसी खबरें एक्‍सक्‍लूसिव हैं, जो सिर्फ आपके पास या फिर आपके चैनल या अखबार के पास ही हो। वो खबर दूसरों के पास नहीं है।
    इसमें ध्‍यान रखने वाली बात ये है कि खबर खास होने के साथ ही, उसका आयाम भी इतना बड़ा होना चाहिए कि दर्शकों के बड़े हिस्‍से को उसे जानने की दिलचस्‍पी हो। राज्‍य, देश या दुनिया के बड़े हिस्‍से पर उसका प्रभाव हो, और मुददा कहीं न कहीं जनहित से भी जुड़ा हो। उसमें दी जा रही जानकारी बिल्‍कुल नई हो, और वो अपने दर्शकों को सावधान और सचेत करने के साथ, उनकी जानकारी भी बढ़ाती हो।

    एक्‍सक्‍लूसिव खबरें, आम खबरों से अलग हटकर होती हैं और इसका संदेश भी खास होता है। ऐसी खबरें आर्थिक, राजनीतिक या सांस्‍कृतिक किसी भी क्षेत्र की हो सकती है।

    फॉलोअप- किसी घटना के खत्‍म होने के बाद, उसमें होने वाले विकास पर नजर रखना फॉलोअप कहलाता है। उदाहरण के लिए किसी सनसनीखेज हत्‍या के बाद पुलिस की जांच-पड़ताल और अदालत में अंतिम फैसले तक उस पर नजर रखना फॉलोअप कहलाएगा। बड़ी घटनाओं में दर्शकों में उत्‍सुकता बनी रहती है और वो उस घटना का अंजाम भी जानना चाहते हैं।

    कोई जरूरी नहीं कि घटना के सामने आते ही उसके बारे में पूरी जानकारी मिल जाए या उस पर लोगों की प्रतिक्रिया तुरंत मिल जाए। इसलिए हर बड़ी घटना पर लगातार नजर बनाए रखने की जरूरत होती है। खबर पर नजर रखने और उसमें लगातार होने वाले डवलपमेंट से लोगों को अपडेट करते रहना ही फॉलोअप है।
    फॉलोअप सिर्फ बड़ी खबरों की ही होनी चाहिए। खबर से जुड़ी हर नई बात स्‍टोरी में शामिल होनी चाहिए। इससे लोगों को घटना के बारे में ताजा जानकारी मिलती रहेगी और स्‍टोरी में ताजगी बनी रहेगी।

    फॉलोअप इसलिए भी जरूरी है कि हर घटना एक क्रम से घटित होती है। शुरूआती दौर में खबर को पूरा मान लेना नासमझी होगी। हर रोज कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं, जिसका दूरगामी असर होता है और ऐसी खबरों पर लगातार नजर रखने की जरूरत भी होती है। रिपोर्टर को ध्‍यान रखना चाहिए कि खबर चाहे कितनी ही बड़ी क्‍यों न हो, उस पर लगातार नजर नहीं रखी जाए और घटनाक्रम में होने वाले डवलपमेंट को नजरअंदाज कर दिया जाए, तो उस खबर का व्‍यापक असर नहीं हो सकता।
    किसी भी घटना का तभी महत्‍व है, जब वो लोगों को प्रभावित करे। एक पूरी खबर, लोगों को केवल ये ही नहीं बताती कि क्‍या हुआ है, बल्कि क्‍यों हुआ, और उस घटना का प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष रूप से किन लोगों पर असर हुआ, इसकी भी जानकारी देती है। इसके अलावा खबर की अहमियत तभी है, जब ये भी पता चले कि उसका दूरगामी असर क्‍या होगा।

    रिपोर्टर को ध्‍यान रखना चाहिए कि कई बार फॉलोअप की स्‍टोरी, पहली स्‍टोरी से बेहतर हो सकती है और फॉलोअप वाली स्‍टोरी का असर भी पहली स्‍टोरी से व्‍यापक हो सकता है। इसलिए उसे अपनी किसी भी स्‍टोरी को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। मुमकिन है कि फॉलोअप वाली स्‍टोरी से ही रिपोर्टर को स्‍कूप मिल जाए।

    फॉलोअप की अ‍हमियत अमेरिका के वॉटरगेट काण्‍ड से समझी जा सकती है। कहानी चोरी की एक छोटी घटना से शुरू हुई थी, लेकिन रिपोर्टर ने लगातार अपनी पड़ताल जारी रखी और वॉटरगेट स्‍कैंडल सामने आया। मतलब कोई घटना होती है, तो तत्‍काल उस घटना की अ‍हमियत खुलकर सामने नहीं आती। सरकार, प्रशासन या आरोपी, बहुत सी जरूरी बातें छिपा लेते हैं। लेकिन लगातार पड़ताल के बाद उस घटना की असली कहानी तभी सामने आती है, जब रिपोर्टर ये जानने की कोशिश करे कि पर्दे के पीछे कुछ और भी जानकारी है या नहीं। फॉलोअप खासतौर पर उन हालात में बहुत जरूरी है, जब घटना तुरन्‍त घटी हो और उससे जुड़े कुछ सवालों का जवाब नहीं मिल रहा है। जरूरी है कि घटनाक्रम जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाए, दर्शकों तक उसी क्रम में जानकारी भी पहुंचाई जाए। अगर इस तरह न्‍यूज कबर हो, तो दर्शकों के बीच रिपोर्टर और चैनल की विश्‍वसनीयता बढ़ती है।
    शैलेश:बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान दैनिक जागरण के लिए रिपोर्टिंग। अमृत प्रभात (लखनऊ, दिल्ली) में करीब 14 साल तक काम। रविवार पत्रिका में प्रधान संवाददाता के तौर पर दो साल रिपोर्टिंग। 1994 से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में। टीवीआई (बी.आई.टीवी) आजतक में विशेष संवाददाता। जी न्यूज में एडिटर और डिस्कवरी चैनल में क्रिएटिव कंसलटेंट। आजतक न्यूज चैनल में एग्जीक्यूटिव एडिटर रहे । प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 35 साल का अनुभव। अभी जल्द एयर होने वाले चैनल न्यूज़ वर्ल्ड इंडिया का दायित्व संभाला है।
    डॉ. ब्रजमोहन:नवभारत टाइम्स से पत्रकारिता की शुरूआत। दिल्ली में दैनिक जागरण से जुड़े। 1995 से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में। टीवीआई (बी.आई.टीवी), सहारा न्यूज, आजतक, स्टार न्यूज, IBN7 जैसे टीवी न्यूज चैनलों और ए.एन.आई, आकृति, कबीर कम्युनिकेशन जैसे प्रोडक्शन हाउस में काम करने का अनुभव। IBN7 न्यूकज चैनल में एसोसिएट एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर रहे । प्रिंट और इलेक्ट्रॉंनिक मीडिया में 19 साल का अनुभव।

    ↧

    पत्रकारिता के भविष्य पर चर्चा उमर फ़ारूक़

    March 17, 2017, 11:21 am
    ≫ Next: मीडिया लेखन (टीवी-रेडियो) की चुनौतियां और तकनीक
    ≪ Previous: 'टीवी में इस प्रकार करे अपनी रिपोर्टिंग
    $
    0
    0






    उमर फ़ारूक़
    उमर फ़ारूक़
    बीबीसी संवाददाता, हैदराबाद से

     प्रस्तुति- गणेश प्रसाद 

     

    कुछ देशों में समाचारपत्रों का प्रसार और प्रभाव घटा है
    हैदराबाद में गत सप्ताह 16वें वर्ल्ड एडिटर्स फोरम और 62वें वर्ल्ड न्यूज़पेपर कांग्रेस के लिए विश्व भर के बड़े समाचार पत्रों के जो संपादक और मालिक जमा हुए थे, उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि अनेक कारणों से समाचार पत्रों की घटती लोकप्रियता और कम होती प्रसार संख्या से कैसे निपटा जाए.
    वर्ल्ड एडिटर फोरम में तो पूरा एक सत्र ही पत्रकारिता और समाचार पत्रों के भविष्य पर केन्द्रित था और वक्ताओं ने जो कुछ कहा उससे स्पष्ट था कि इस अहम और संवेदनशील मुद्दे पर उनके विचार बंटे हुए हैं.
    लेकिन यह बात सभी ने मानी की विश्व के अधिकतर देशों और विशेषकर अमरीका और यूरोप में समाचार पत्रों का प्रसार और प्रभाव घट रहा है. लेकिन भारत, चीन और ब्राज़ील सहित कुछ देशों में मामला उसके बिलकुल उलट है और वहां प्रसार बढ़ रहा है.
    इस पर पत्रकारिता की दुनिया की कुछ जानी मानी हस्तियों ने अपनी राय व्यक्त की.
    मेरी दृष्टि से तो समाचार पत्रों का भविष्य अच्छा ही है क्योंकि आप छपे हुए समाचार पत्र के बिना एक अच्छी पत्रकारिता की कल्पना भी नहीं कर सकते. समाचार पत्र न हों तो फिर पत्रकारिता ही खतरे में पड़ जाएगी
    ज़ैवियर विडाल फ़ोल्क, अध्यक्ष वर्ल्ड एडिटर्स फ़ोरम
    वर्ल्ड एडिटर्स फ़ोरम के अध्यक्ष ज़ैवियर विडाल फ़ोल्क का कहना था, ''मेरी दृष्टि से तो समाचार पत्रों का भविष्य अच्छा ही है क्योंकि आप छपे हुए समाचार पत्र के बिना एक अच्छी पत्रकारिता की कल्पना भी नहीं कर सकते. समाचार पत्र न हो तो फिर पत्रकारिता ही ख़तरे में पड़ जाएगी. आप वो लिखित विषयवस्तु कहाँ से लाएंगे जो लोगों को प्रभावित कर सकती है.''
    वहीं टाइम्स ऑफ़ इंडिया के प्रधान संपादक जयदीप बोस ने कहा, ''पत्रकारिता का भविष्य तो है लेकिन उसका अंदाज़ बदलना होगा. मैं यह नहीं मानता कि नागरिक पत्रकारिता या ब्लॉग्स या ऐसी ही नई चीज़ें क्लासिक पत्रकारिता को ख़त्म कर सकती हैं. नई पीढ़ी आ रही है और हमें यह देखना है की हम नई तकनीक का उपयोग करते हुए किस तरह समाचार पत्रों को नए पढने वालों के लिए आकर्षक बना सकते हैं.''
    पत्रकारिता का भविष्य तो है लेकिन उसका अंदाज़ बदलना होगा. हमें यह देखना है की हम नई तकनीक का उपयोग करते हुए किस तरह समाचार पत्रों को नए पढने वालों के लिए आकर्षक बना सकते हैं
    जयदीप बोस, प्रधान संपादक, टाइम्स ऑफ़ इंडिया
    जयदीप बोस ने कहा कि आज भारत में समाचार पत्रों को उन समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ रहा है जो अमेरिका और यूरोप में हैं.
    लेकिन उनका कहना था कि हो सकता है की 10 वर्षों में यहाँ भी वही स्थिति उत्पन हो जाए.
    इस समय तो जिस तरह साक्षरता बढ़ रही है, लोगों की आमदनी बढ़ रही है और इंग्लिश भाषा पढ़ने वालों की संख्या बढ़ रही है. उस हिसाब से तो समाचार पत्रों की प्रसार संख्या भी बढती रहेगी.
    बंगलादेश के स्टार न्यूज़पेपर के सीईओ और प्रकाशक महफूज़ अनाम ने कहा, ''अगर आज समाचार पात्र कमज़ोर पड़ गए हैं और उनका भविष्य अँधेरे में दिखाई दे रहा है तो इसके लिए हम सम्पादक और पत्रकार ही जिम्मेवार हैं, क्योंकि हम ने ही अपने माध्यम पर भरोसा छोड़ दिया है.''
    उन्होंने कहा, ''समाचार पत्रों की सबसे ख़राब हालत अमरीका में है और उससे हमें यह सीख मिलती है की गत 40 वर्षों में वो कौन सा काम था जो समाचार पत्रों को नहीं करना चाहिए था.''
    साउथ एशिया फ्री मीडिया असोसिएशन के अध्यक्ष और 'साउथ एशिया'के संपादक इम्तियाज़ आलम ने पाकिस्तान के समाचार पत्रों का ज़िक्र करते हुए कहा कि वहां इनका प्रसार पहले से ही कम है क्योंकि वहां साक्षरता कम है.
    उन्होंने कहा कि अब तो टीवी चैनलों ने रही सही कसर भी तोड़ दी है और नई पीढ़ी अधिकतर इन्टरनेट की और देख रही है.
    अब 24 घंटे पुरानी ख़बर के लिए कोई समाचार पत्र का इंतज़ार क्यों करेगा जबकि वो ख़बर पहले ही टीवी चैनल पर आ चुकी हो, उस पर बहस हो चुकी हो.
    वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पड़गांवकर ने कहा, ''इंटरनेट और मोबाइल के बावजूद भारत और दक्षिणी एशिया में समाचार पत्रों का भविष्य उज्ज्वल है. विशेष कर भारत, चीन, जापान और विएतनाम जैसे कई देश हैं जहाँ इनकी प्रसार संख्या बढ़ रही है.''
    उन्होंने कहा, ''यह भी सही नहीं है की भारत में 19-20 वर्ष के युवा समाचार पत्र नहीं पढ़ते. यह पश्चिमी देशों की राय है. भारत में हर चीज़ बढ़ रही है. साक्षरता के चलते आगामी 15 वर्षों में समाचार पत्र और फैलेंगे. अंग्रेजी से ज़्यादा, भारत की प्रांतीय भाषाओं में वृद्घि होगी.''
    जबकि मलयालम दैनिक मध्यम के संपादक अब्दुल रहमान का कहना था, ''केरल में शत प्रतिशत साक्षरता है और अभी इन्टरनेट या टीवी का ज़्यादा प्रभाव समाचार पत्रों पर नहीं पड़ा है लेकिन पत्रिकाओं पर ज़रूर पड़ा है. इस समय समाचार पत्रों को इन्टरनेट की तुलना में टीवी न्यूज़ चैनलों से ज़्यादा खतरा है.
    ↧
    ↧

    मीडिया लेखन (टीवी-रेडियो) की चुनौतियां और तकनीक

    March 18, 2017, 9:55 am
    ≫ Next: भविष्य की पत्रकारिता पर एक नजर
    ≪ Previous: पत्रकारिता के भविष्य पर चर्चा उमर फ़ारूक़
    $
    0
    0







     प्रस्तुति-  प्रियदर्शी किशोर / धीरज पांडेय

    Related Articles
    opinion-poll

    चुनाव-सर्वेक्षणों की होड़ में पिचकती पत्रकारिता

    5 days ago
    social-media-tree

    पत्रकारों का भविष्य और भविष्य की पत्रकारिता

    16 days ago
    news-future

    भविष्य का मीडिया: क्या हम तैयार हैं?

    17 days ago
    उमेश चतुर्वेदी।मीडिया के लिए लेखन साहित्यिक लेखन से अलग है। साहित्यिक लेखन में जहां शब्दजाल रचे जाने की लेखक के सामने स्वतंत्रता होती है। वह अपने शब्दों के विन्यास में अपनी भावनाओं को बांधकर एक कसी हुई कथा लिख सकता है। लेकिन निश्चित तौर पर उसका अपना निश्चित पाठक वर्ग होगा। पत्रकारिता की भाषा में जिसे लक्षित समूह यानी Target Audience कहा जाता है, उसके बारे में आम अवधारणा है कि पत्रकारिता के पाठक या दर्शक वर्ग की समझ साहित्यिक पाठक वर्ग की तुलना में कहीं ज्यादा सामान्य होती है। लिहाजा माना जाता है कि वह गंभीर और संष्लिष्ट भाषा को पचा नहीं पाएगा। इसलिए सहज भाषा का इस्तेमाल करने की सीख हर अनुभवी मीडियाकर्मी हर नए मीडियाकर्मी को देता है।
    सहजता के नाम पर एक तर्क बोलचाल की भाषा का भी दिया जाता है। सहज भाषा का यह प्रवाह जब तक संप्रेषण को आसान बनाता रहे, तब तक इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता। लेकिन इसके भी अपने खतरे हैं। अपनी हिंदी में तो यह खतरा कुछ ज्यादा ही बढ़ रहा है। यहां बोलचाल के नाम पर ना सिर्फ अंग्रेजी के उन शब्दों के प्रयोग भी धड़ल्ले से हो रहे हैं, जिनके लिए हिंदी के सहज शब्द उपलब्ध हैं। दुनिया में हर भाषा दूसरी भाषाओं की शब्द संपदा को अपनी जरूरत के मुताबिक अभिव्यक्ति को प्रवाहमान बनाने के लिए अपनाती रहती है। लेकिन उनकी शर्त बस इतनी सी होती है कि वे दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनाकर उन्हें अपनी भाषिक संस्कृति में ढाल लेती हैं। उन्हें अपने व्याकरणिक नियमों में बांधती है और उन्हें अपनी परंपरा और संस्कृति में ऐसे रचाती-खपाती हैं, जिन पर बाहरी का मुलम्मा नजर भी नहीं आता। हिंदी ने भी कुछ सालों पहले तक इसी तरह विदेशी भाषाओं के शब्दों को अपनाया और उन्हें रचाते-खपाते रही। लेकिन पिछले कुछ साल से यह परंपरा टूट रही है। अब हिंदी के नए अगुआ अंग्रेजी के शब्द स्वीकार तो कर रहे हैं। लेकिन उन्हें खपाते नहीं, बल्कि अंग्रेजी के व्याकरणिक विन्यास को भी पूरी दबंगई से स्वीकार कर रहे हैं। ऐसा भाषिक अनाचार शायद ही दुनिया में कहीं और नजर आए।
    अपने देश में टेलीविजन का विस्तार आपाधापी के साथ उदारीकरण के दौर में हुआ, लिहाजा यहां टीवी सामग्री निर्माण की आधारभूत सैद्धांतिकी विकसित नहीं हुई। चुकि यूरोप और अमेरिका में टेलीविजन पचास क दशक में ही आ गया, लिहाजा वहां एक सैद्धांतिकी ना सिर्फ विकसित हुई है, बल्कि वह कामयाबी के तौर पर कार्य भी कर रही है। लेकिन यह भी सच है कि आज के दौर में टेलीविजन न्यूज रूप में खबरों का दबाव बढ़ा है, इसलिए सैद्धांतिकी कई बार प्रसारण के दबाव में पीछे रह जाती है। क्यांेकि कई खबरों की उम्र बहुत कम होती है, फिर भी टीवी सामग्री निर्माण की मान्य सैद्धांतिक निम्न है-
    1. सबसे पहले विषय की तलाश
    2. शूटिंग, इंटरव्यू, बाइट लेना
    3. शूटिंग के बाद उचित विजुअल/बाइट का सेलेक्शन (चयन)
    4. स्पेशल इफेक्ट की तैयारी, जरुरी ग्राफिक्स का निर्माण
    5. समग्री के लिए स्क्रिप्ट लेखन
    6. तैयार स्टोरी को डिजिटल फॉर्म में तैयार करना
    7. डिजिटल स्टोरी को अपनी साइट, सिस्टम में प्रकाशित करना, नेट पर अपलोड करना
    चूंकि टेलीविजन जनसंचार का सबसे लोकप्रिय व सशक्त माध्यम है। लिहाजा इसमें ध्वनियों के साथ-साथ दृश्यों का भी ना सिर्फ समावेश होता है, बल्कि उस पर जोर होता है। इसके लिए समाचार लिखते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि शब्द व पर्दे पर दिखने वाले दृश्य में समानता हो और कहीं दोनों बेमेल नजर नहीं आएं।
    टेलीविजन खबरों के विभिन्न चरण :
    टेलीविजन में कोई भी सूचना निम्न चरणों या सोपानों को पार कर दर्शकों तक पहुँचती है –
    • फ़्लैश या ब्रेकिंग न्यूज
    • ड्राई एंकर
    • फ़ोन इन
    • एंकर-विजुअल
    • एंकर-बाइट
    • लाइव
    • एंकर-पैकेज
    जाहिर है कि हर चरण के लिए लेखन की प्रक्रिया अलग होती है। फ्लैश में वन लाइनर या दो लाइनों में खबर पेश की जाती है। ड्राई एंकर का मतलब कि खबर को एंकर सिर्फ जुबानी पढ़कर सुनाए। ऐसा इसलिए होता है कि तब तक या तो विजुअल नहीं आए होते हैं या फिर जरूरी तैयारी नहीं होती है। इस बीच संवाददाता से संपर्क होता है तो उससे फोन पर खबर ली जाती है। इसे फोन इन या फोनो कहा जाता है। इस बीच विजुअल आ जाता है। तब विजुअल के जरिए खबर की जानकारी एंकर देता है। उसे एंकर विजुअल कहा जाता है। फिर घटनास्थल से पीड़ित या खबर बनाने वाली बाइट आ जाती है। तब उसकी बाइट को एंकर पेश करता है। उसे एंकर बाइट कहा जाता है। फिर हो सकता है कि तब तक वहां लाइव प्रसारण देने वाली वैन पहुंच गई हो। इसलिए रिपोर्टर से सीधे घटना की खबर ली जाती है। इसे लाइव कहा जाता है। आखिर में पैकेज बनाया जाता है। जिसमें ये सारे तत्व होते हैं। पैकेज के दो उदारहरण निम्नलिखित हैं-
    उदाहरणार्थ-एक टेलीविजन स्क्रिप्ट
    एंकर
    रेल यात्रियों को नए साल में रेलवे की तरफ से राहत की सौगात मिलेगी..अब यात्रियों को बिना पेन्ट्री कार वाली ट्रेनो में भी पसंद का खाना पसंदीदा समय पर मिलेगा…. इस ई-कैटरिंग सेवा की शुरूआत दिसंबर के आखिरी हफ्ते से शुरू हो जाएगी.इसके लिए रेलवे दो टोल फ्री नंबर जारी करेगा..जिस पर यात्री फोन या एसएमएस करके अपनी पसंद का खाना अपनी सीट पर मंगवा सकेगा.

    रोल पैकेज
    वीओ 1
    बिना पेन्ट्री कार वाली ट्रेनों में यात्रा करने वाले यात्रियों को अब स्टेशन पर उतर कर खाने के लिए भटकना नहीं होगा….. GFX IN नए साल में सभी 143 बिना पेन्ट्री कार वाली ट्रेनों में ई-कैटरिंग की सुविधा शुरू कर दी जाएगी..रेलवे इसके लिए दो टॉल फ्री नंबर के साथ साथ इंटरनेट पर भी टिकट बुकिंग के समय फूड बुकिंग की भी सुविधा शुरू करेगा.GFX OUT..फिलहाल दिल्ली से चलने वाली 6 ट्रेनों में इसकी शुरूआत दिसंबर में कर दी जाएगी.
    बाईट-अधिकारी
    वीओ2
    ई-कैटरिंग की सुविधा के लिए कुछ शर्ते भी हैं. GFX IN सिर्फ कंफर्म टिकट वाले यात्रियों को हीं ये सुविधा मिलेगी.. यात्री 18001034139 और 1204383892 नंबर पर फोन करके खाना बुक कर पाएंगे. फोन से बुक कराते वक्त यात्रियों को अपना पीएनआर बताना होगा. इसके बाद पीएनआर की जांच करने के बाद यात्री को मेन्यू बताया जाएगा और उसे कब खाना चाहिए ये पूछा जाएगा.ऑर्डर बुक होने पर यात्री के फोन पर मैसेज आ जाएगा..और मेल आईडी पर ईमेल चला जाएगा..रेलवे के टॉल फ्री 139 नंबर पर भी खाना बुक किया जा सकेगा.GFX OUT रेलवे की इस सेवा का यात्रियों ने स्वागत किया है..
    बाईट- यात्री
    वीओ3
    दरअसल खाना लेने के लिए ट्रेन से उतरते वक्त जल्दबाजी में कई बार यात्रियों के साथ अनहोनी भी हो जाती है..कई बार उनकी ट्रेन तक छूट जाती है.लिहाजा रेल मंत्रालय ने यात्रियों की सुविधा के लिए ई-कैंटरिंग की व्यवस्था शुरू करने का फैसला लिया है.
    रेडियो सामग्री निर्माण
    अमेरिका और यूरोप में टेलीविजन के पहले से ही रेडियो काम कर रहा है, लिहाजा वहां रेडियो निर्माण की तकनीक और प्रविधि एक ही सैद्धांतिकी के तहत विकसित की गई है। उसका तरीका भी मोटा-मोटी टीवी सामग्री निर्माण की ही तरह होता है। सिर्फ अंतर इतना होता है कि रेडियो में पूरा जोर आवाज यानी ऑडियो प्रोडक्शन पर होता है, जबकि टेलीविजन में विजुअल एक अतिरिक्त अंग होता है। टेलीविजन चूंकि दृश्य माध्यम है, लिहाजा वहां विजुअल इफेक्ट, ग्राफिक्स, के जरिए प्रोडक्शन को प्रभावशाली बनाने की कोशिश होती है, जबकि रेडियो में आवाज के मॉड्यूलेशन यानी सही उतार-चढ़ाव के जरिए नाटकीयता डालकर प्रभाव डालने और बढ़ाने की कोशिश की जाती है। इसकी मोटी-मोटी रूपरेखा निम्नलिखित होती है-
    1. विषय का चुनाव
    2. जरूरी व्यक्तियों, विषेषज्ञों से रेडियो इंटरव्यू
    3. इंटरव्यू और आवाज की रिकॉर्डिग के बाद सही बाइट और आवाज की छंटाई
    4. स्क्रिप्ट लेखन
    5. स्क्रिप्ट के मुताबिक रिकॉर्डिंग
    6. ऑडियो और जरूरी बाइट के साथ स्क्रिप्ट के मुताबिक संपादन
    7. तैयार स्टोरी को डिजिटल फॉर्मेट में बदलकर इंटरनेट या वेबसाइट पर लोड करना
    ये तो हुई कार्यक्रम निर्माण और उसके लिए लेखन की बात..रेडियो के लिए समाचार लेखन कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण कार्य है। चूंकि रेडियो श्रव्य माध्यम है, लिहाजा इसमें शब्द एवं आवाज का महत्व होता है। रेडियो एक रेखीय माध्यम है। रेडियो समाचार की संरचना उल्टा पिरामिड शैली पर आधारित होती है। उल्टा पिरामिड शैली में समाचर को तीन भागों बाँटा जाता है-इंट्रो, बॉडी और समापन। इसमें तथ्यों को महत्त्व के क्रम से प्रस्तुत किया जाता है, सर्वप्रथम सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण तथ्य को तथा उसके उपरांत महत्त्व की दृष्टि से घटते क्रम में तथ्यों को रखा जाता है।
    रेडियो समाचार-लेखन के लिए बुनियादी बातें :
    • समाचार वाचन के लिए तैयार की गई कॉपी साफ़-सुथरी ओ टाइप की हुई होनी चाहिए ।
    • कॉपी को ट्रिपल स्पेस में टाइप किया जाना चाहिए।
    • पर्याप्त हाशिया छोडा़ जाना चाहिए।
    • अंकों को लिखने में सावधानी रखनी चाहिए।
    • संक्षिप्ताक्षरों और ज्यादातर कठिन संयुक्ताक्षरों के प्रयोग से बचा जाना चाहिए।
    यहां एक बात और जाहिर करना चाहूंगा कि लेखन चूंकि एक कला है और जिस तरह हर कलाकार की अपनी शैली, अपनी रचनात्मकता होती है, उस तरह हर मीडियाकर्मी की अपनी शैली होती है। अखबारी लेखन में स्वर्गीय आलोक तोमर ने अपनी रचनात्मकता की काफी धमक महसूस कराई। हिंदी में टेलीविजन खबरों के लेखन में अपने लंबे रचनात्मक अनुभव से कह सकता हूं कि अंशुमान त्रिपाठी जैसा टीवी खबर का लेखक शायद ही कोई होगा।
    उमेश चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार हैं और प्रिंट और टेलीविज़न मीडिया में लम्बा अनुभव है. उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन से प्रशिक्षण प्राप्त किया है.
    ↧

    भविष्य की पत्रकारिता पर एक नजर

    March 18, 2017, 10:10 am
    ≫ Next: भारतीय मीडिया vs पत्रकारिता
    ≪ Previous: मीडिया लेखन (टीवी-रेडियो) की चुनौतियां और तकनीक
    $
    0
    0



     

    प्रस्तुति-  गणेश प्रसाद

     

    दैनिक हिंदुस्तान की संपादक मृणाल पांडे ने अपने लेख में कुछ अहम मुद्दे उठाए हैं. पहला मुद्दा पत्रकारिता के गिरते स्तर से जुड़ा है. मृणाल पांडे ने रविवार को अपने कॉलम कसौटी में लिखा है कि “यह एक विडंबना ही है कि जिस वक्त दुनिया के अनेक महत्वपूर्ण अखबारों के जनक और वरिष्ठ पत्रकार, इंटरनेट और अभूतपूर्व आर्थिक मंदी की दोहरी चुनौतियों से जूझते हुए नई राहें खोज रहे हैं, वहीं हमारे देश में (संभवत: पहली बार) लहलहा चले ज्यादातर भाषाई अखबारों को यह गलतफहमी हो गई है कि लोकतंत्र का यह गोवर्धन जो है, उन्हीं की कानी उंगली पर टिका हुआ है। इसलिए वे कानून से भी ऊपर हैं”।

    यही नहीं अखबारों की हकीकत को बयां करने के बाद वो पत्रकारों के एक सच को बड़ी बेबाकी से बयां करती हैं. उनके मुताबिक “ऐसे तमाम उदाहरण आपको वहां मिल जाएंगे, जहां हिन्दी पत्रकारों ने छोटे-बड़े शहरों में मीडिया में खबर देने या छिपाने की अपनी शक्ति के बूते एक माफियानुमा दबदबा बना लिया है”। वो इसे और भी आगे बढ़ाती हैं। वो कहती हैं कि चंद भाषाई पत्रकार दलाली के स्तर पर उतर आए हैं। “वो (पत्रकार) सरकारी नियुक्तियां, तबादलों और प्रोन्नतियों में बिचौलिया बनकर गरीबों से पैसे भी वसूल रहे हैं और भ्रष्ट सत्तारूढ़ नेताओं को मुफ्त में ओबलाइज करके उनसे सस्ते में जमीनी और खदानी पट्टे हासिल कर रहे हैं, इसके भी कई चर्चे हैं”।

    साफ है कि मृणाल पांडे ने भाषाई संस्थानों और पत्रकारों पर ये बहुत संगीन आरोप लगाए हैं। लेकिन अपने इस लेख में उन्होंने किसी एक संस्था और पत्रकार का नाम तक नहीं लिया है। ये बहुत ही जनरलाइज्ड स्टेटमेंट है और ऐसे स्टेटमेंट का कोई मतलब नहीं होता। मगर मृणाल पांडे कोई मामूली शख्स नहीं हैं। वो एक अनुभवी पत्रकार हैं। एक बड़े और सम्मानित अखबार की संपादक हैं। कई किताबें लिख चुकी हैं। इसलिए उनके आरोपों को गंभीरता से लेना चाहिये। सोचना चाहिये कि ये स्थिति क्यों हुई है? क्यों पत्रकारों का सम्मान घटा? और क्यों पत्रकार दलाल बन गए? इसे समझना आसान नहीं है मगर ज्यादा मुश्किल भी नहीं।

    मृणाल के लेख से उठे सवालों का आधा जवाब उनके लेख के पहले हिस्से में हैं। आधा इसलिए कि उन्होंने आधा सच ही लिखा है। शायद पूरा सच लिखने का साहस उनमें नहीं था। मृणाल लिखती हैं कि “पाठकों को सबसे सस्ता अखबार देने की होड़ में अखबार दामी विज्ञापनों के बूते अपनी असली लागत से कहीं कम (लगभग 1/10वीं) कीमत पर बेचे जाते रहे हैं। और इधर बाजार की मंदी के कारण वह विज्ञापनी प्राणवायु लगातार घटती जा रही है”।

    यहां पाठकों को सबसे सस्ता अखबार देने की होड़ नहीं थी। जब टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स में दाम कम करने की होड़ शुरू हुई तो यकीनन उसका मकसद ज्यादा से ज्यादा पाठक बटोरना था। मगर इसलिए नहीं कि ज्यादा अखबार बेच कर ज्यादा मुनाफा कमाएंगे, बल्कि इसलिए कि कंपनियों को ये कहा जा सके कि हमारा अखबार सबसे ज्यादा बिकता है (छपता है) इसलिए आप हमें विज्ञापन ज्यादा दें। इस तरह इन बड़े अखबारों ने पाठकों के पैसे से ज्यादा अहमियत विज्ञापनों को दी। यही वजह है कि आगे चल कर इन्होंने पाठकों से ज्यादा हित कंपनियों का साधा। विज्ञापनों के लिए ये पाठकों के हितों से समझौता करने में गुरेज नहीं करते। कुछ खबरों को दबाने और कुछ खबरों को खेलने का मकसद भी कंपनियों से संबंधों के आधार पर तय होता है।

    अब इसी सच का दूसरा पहलू। आप सबको मालूम होगा कि कुछ दिन पहले अखबारों के नुमाइंदों ने सरकार के सामने आर्थिक मंदी से उठी मुश्किलों का जिक्र किया था। जिसके बाद सरकारी विज्ञापनों का कोटा बढ़ा दिया गया। प्राणवायु पंप होने लगी। फेंफड़ों में नई जान आ गई। आखिर सरकारी विज्ञापन किसके जरिये मिलते हैं? नेता और अधिकारियों के जरिये। जब नेता और अधिकारियों का अहसान इन अखबारों पर इतना बड़ा हो तो ये उनके खिलाफ कैसे लिखें और कैसे छापे? ये दलाली का एक बड़ा सच है। निचले स्तर पर मौजूद भाषाई पत्रकारों और अखबारों की इतनी औकात नहीं कि वो पत्रकारिता के मुंह पर कालिख पोत सकें... उनकी इतनी हैसियत नहीं कि वो लोकतंत्र का सौदा कर सकें... सच यही है कि ये काम बड़े अखबारों और बड़े पत्रकारों ने किया है। इसलिए भला तो यही होता कि मृणाल पांडे अपना निशाना सबसे पहले उन बड़े दलालों की तरफ साधती। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। फिर भी उन्होंने आधा ही सही एक सच बयां करने का साहस तो किया है। इसके लिए उन्हें साधुवाद।

    अब मृणाल का एक और आरोप। उन्होंने ये आरोप इंटरनेट और ब्लॉग जगत के कुछ गिद्धों पर लगाए हैं। मृणाल लिखती हैं कि “इंटरनेट पर कुछेक विवादास्पद पत्रकारों ने ब्लाग जगत की राह जा पकड़ी है, जहां वे जिहादियों की मुद्रा में रोज कीचड़ उछालने वाली ढेरों गैर-जिम्मेदार और अपुष्ट खबरें छाप कर भाषायी पत्रकारिता की नकारात्मक छवि को और भी आगे बढ़ा रहे हैं। ऊंचे पद पर बैठे वे वरिष्ठ पत्रकार या नागरिक उनके प्रिय शिकार हैं, जिन पर हमला बोल कर वे अपने क्षुद्र अहं को तो तुष्ट करते ही हैं, दूसरी ओर पाठकों के आगे सीना ठोंक कर कहते हैं कि उन्होंने खोजी पत्रकार होने के नाते निडरता से बड़े-बड़ों पर हल्ला बोल दिया है। यहां जिन पर लगातार अनर्गल आक्षेप लगाए जा रहे हों, वे दुविधा से भर जोते हैं, कि वे इस इकतरफा स्थिति का क्या करें? क्या घटिया स्तर के आधारहीन तथ्यों पर लंबे प्रतिवाद जारी करना जरूरी या शोभनीय होगा? पर प्रतिकार न किया, तो शालीन मौन के और भी ऊलजलूल अर्थ निकाले तथा प्रचारित किए जाएंगे”। ये मसला बहुत गंभीर है। अगर कोई सिर्फ अपनी क्षुद्र अहम् को तुष्ट करने के लिए और बतौर खोजी पत्रकार स्थापित करने के लिए ऐसा कर रहा है तो उसे दंड मिलना चाहिये। किसी को भी यह हक नहीं कि वो बिना किसी सबूत दूसरों पर कोई आरोप लगाए या फब्तियां कसे। ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिये। केस दर्ज किया जाना चाहिये। लेकिन केस न्याय पाने की मंशा से दर्ज हो तो ठीक है, परेशान करने की मंशा से नहीं। हाल ही में कुछ पत्रकारों ने पत्रकारों पर और कुछ अखबारों ने पत्रकारों पर जो केस दर्ज किये हैं उनमें न्याय पाने की मंशा कम अपनी ताकत के जरिये दूसरों को परेशान करने की मंशा ज्यादा रही है।

    इसी से जुड़ी एक और बात। अखबार अगर पत्रकारिता का अतीत और वर्तमान हैं तो इंटरनेट और ब्लॉग भविष्य। एक संवेदनशील शख्स अपने भविष्य को हेय दृष्टि से देखे ये सही नहीं। इंटरनेट और ब्लॉग ने ये सुविधा दी है कि कोई पत्रकार अगर चाहे तो मुफ्त में या फिर चंद पैसों में अपनी बात पाठकों तक पहुंचा सके। वो बात जिसे छापने और दिखाने का साहस ना तो अखबारों में है और ना ही टीवी न्यूज चैनलों में। इस लिहाज से देखें तो ब्लॉग और इंटरनेट ने बहुत से पत्रकारों को अपना कर्म और धर्म पूरा करने की सहूलियत दी है। साथ ही पत्रकारों पर संस्थाओं की तरह से हो रहे अन्याय के विरुद्ध बोलने के मंच दिया है। सूचना के अधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी को नया आयाम दिया है। ये बहुत बेहतरीन चीज है और इसलिए जब मृणाल ये कहती हैं कि “क्या आप जानते हें कि आज भी इंटरनेट पर 85 प्रतिशत खबरों का स्रोत प्रिंट मीडिया ही है। वजह यह, कि सर्च इंजिन गूगल हो अथवा याहू, दुनियाभर में अपने मंजे हुए संवाददाताओं की बड़ी फौज तैनात करने की दिशा में अभी किसी इंटरनेट स्रोत ने खर्चा नहीं किया है। और वह करे भी, तो रातोंरात अखबार के कुशल पत्रकारों जैसी टीम वह खड़ी नहीं कर सकेंगे” तो वो गलत कहती हैं। इससे जाहिर होता है कि उन्हें इंटरनेट का “क...ख...ग...” भी नहीं मालूम। यही तो इंटरनेट की खासियत है कि उसे ऐसा कुछ भी करने की जरूरत नहीं। अमेरिका से लेकर भारत के एक छोटे कस्बे में बैठा लेखक अपनी ब्लॉग या साइट पर जो कुछ भी लिख रहा है वो पूरी दुनिया के लिए उपलब्ध है। अगर आपको जरूरत हो तो आप उस खबर या विचार को पढ़ें। उसके बारे में तहकीकात कर लें। एक दो जगहों से उसकी जांच कर लें। अगर वो बात गलत है तो उसे छोड़ दें। अगर सही है तो उसका इस्तेमाल कर लें। घर और दफ्तरों में बैठ कर लिख रहे हजारों, लाखों, करोड़ों की संख्या में ये लोग ही तो इंटरनेट की असली ताकत हैं। ये इंटरनेट के रिपोर्टर, लेखक, विचारक और संपादक... सबकुछ हैं। गूगल तो सर्च इंजन है और इस सर्च इंजन ने इंटरनेट के इन तमाम रिपोर्टरों, लेखकों और विचारकों को एक दूसरे से जोड़ दिया है।

    अब आखिरी बात। अगर किसी अखबार में इंटरनेट विंग है तो उस वेब विंग का अपना अलग अस्तित्व है। जिस तरह आप अखबार के मालिक के तमाम कारोबारों को अखबार का कारोबार नहीं मान सकते ठीक उसी तरह वेबसाइट को भी अखबार की मिल्कियत नहीं समझना चाहिये। ये भी नहीं समझना चाहिये कि वेबसाइट पर काम कर रहा पत्रकार किसी मायने में अखबारों के दिग्गज पत्रकारों से कमतर है। हो सकता है कि कम्प्यूटर के सामने बैठ कर ठुक... ठुक करता वही नया पत्रकार भविष्य में पत्रकारिता का नाम रोशन कर जाए।
    Posted by समरेंद्रat 11:42 AM

    2 comments:

    sanjaygroversaid...
    बेबाक विश्लेषण से भरी काबिल-ए-शाबासी पोस्ट। अब इसे मत हटा दीजिएगा।
    March 31, 2009 at 4:32 PM
    विवक कुमारsaid...
    खबरें प्रकाशित करने से रोकने का आदेश देने से कोर्ट का इनकार

    एचटी मीडिया बनाम भड़ास4मीडिया : सुनवाई की अगली तारीख 24 जुलाई

    शैलबाला-प्रमोद जोशी प्रकरण से संबंधित खबरें भारत के नंबर वन मीडिया न्यूज पोर्टल भड़ास4मीडिया पर पब्लिश किए जाने के खिलाफ एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट में दायर केस की पहली सुनवाई आज हुई। वादी एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी की तरफ से दायर केस में भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह और तीन अन्य को प्रतिवादी बनाया गया है। हाईकोर्ट में दर्ज इस केस संख्या सीएस (ओएस) 332/2009 की सुनवाई हाईकोर्ट के कोर्ट नंबर 24 में विद्वान न्यायाधीश अनिल कुमार ने की।

    इस दौरान एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी की तरफ से हाजिर हुए वकील ने केस निपटारे तक भड़ास4मीडिया पर एचटी मीडिया और इससे जुड़े लोगों से संबंधित खबरें प्रकाशित न करने देने का आदेश पारित करने का अनुरोध कोर्ट से किया। इस बाबत एचटी मीडिया और अन्य की तरफ से कोर्ट में अर्जी भी दी गई थी। कोर्ट ने इस अनुरोध को ठुकरा दिया। प्रतिवादियों की तरफ से दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील निलॉय दासगुप्ता ने कोर्ट को जानकारी दी कि कुछ प्रतिवादियों ने नोटिस 29 मार्च को रिसीव किया है और एक प्रतिवादी के पास अभी तक नोटिस सर्व नहीं हुआ है। इस पर कोर्ट ने वादी एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी के वकील को सभी प्रतिवादियों को नोटिस समेत सभी जरूरी दस्तावेज मुहैया कराने के आदेश दिए। प्रतिवादियों को अगले चार हफ्तों में जवाब दाखिल करने को कहा गया है। मामले की अगली सुनवाई की तारीख 24 जुलाई तय की गई है। प्रतिवादियों के वकील निलॉय दासगुप्ता ने बाद में बताया कि एचटी मीडिया और प्रमोद जोशी की तरफ से जो केस दायर किया गया है, उससे संबंधित जो नोटिस प्रतिवादियों के पास भेजा गया है, उसमें कई चीजें मिसिंग हैं। उदाहरण के तौर पर नोटिस के पेज नंबर 117 पर जिस कांपैक्ट डिस्क के होने का उल्लेख किया गया है, वो नदारद है। साथ ही सभी प्रतिवादियों को अभी तक नोटिस सर्व नहीं हुआ है। ऐसे में कोर्ट ने वादियों के वकील को सभी दस्तावेज व कागजात प्रतिवादियों को उपलब्ध कराने के निर्देश दिए हैं। वेबसाइट पर वादियों से संबंधित कंटेंट पब्लिश न करने को लेकर जो अनुरोध कोर्ट से किया गया, उसे नामंजूर कर दिया गया।
    April 2, 2009 at 5:46 PM
    Post a Comment
    Newer PostOlder PostHome
    Subscribe to: Post Comments (Atom)

    custom search

    Google
    Custom Search

    धर्म को राजनीति से अलग किया जा सकता है?

    एक नज़र में दुनिया

    • मुस्लिमों के खिलाफ आग उगलने के लिए जाने जाते हैं आदित्यनाथ, ये हैं उनके विवादित बयान - आज तक
    • भारत की सबसे लंबी सुरंग खुलने को तैयार, जम्मू और श्रीनगर की दूरी घटी - नवभारत टाइम्स
    • मुठभेड़ : मौके पर मौजूद थे बड़े नक्सली नेता, कवर फायर कर गुंडाधूर को ले गए - Nai Dunia
    • सीजेआई खेहर ने भारत को बताया अनूठा देश, कहा- जितना बड़ा अपराधी, उतनी ऊपर पहुंच - Zee News हिन्दी
    • योगी आदित्यनाथ होंगे उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री, दिनेश शर्मा और केशव मौर्य बने डिप्टी सीएम - एनडीटीवी खबर

    यहां भी स्वागत है

    • मेरे सपने, मेरी तमन्ना
    • हिंदी
    • बात पते की
    • लोकमंच
    • सच की वादी
    • एक हिंदुस्तानी की डायरी

    ख़बरों की दुनिया

    • बीबीसी
    • वेब दुनिया
    • नई दुनिया
    • दैनिक हिंदुस्तान
    • नवभारत टाइम्स

    सीएनएन डॉट कॉम

    • Jake Tapper takes on Trump

    सीएनएन पर सबसे लोकप्रिय

    • Report: MH370 disappearance a criminal investigation, police chief says

    बढ़ता चला कारवां

    Locations of visitors to this page

    चौखंबा... आपके दर तक

    Posts
    Comments

    मेरे मेहमान

    ↧
    Search

    भारतीय मीडिया vs पत्रकारिता

    March 19, 2017, 9:00 am
    ≫ Next: सामाजिक मीडिया vs social media
    ≪ Previous: भविष्य की पत्रकारिता पर एक नजर
    $
    0
    0




    प्रस्तुति-  स्वामी शरण 
    भारतके संचार माध्यम (मीडिया) के अन्तर्गत टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, तथा अन्तरजालीय पृष्ट आदि हैं। अधिकांश मीडिया निजी हाथों में है और बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा नियंत्रित है। भारत में 70,000 से अधिक समाचार पत्र हैं, 690 उपग्रह चैनेल हैं (जिनमें से 80 समाचार चैनेल हैं)। आज भारत विश्व का सबसे बड़ा समाचार पत्र का बाजार है। प्रतिदिन १० करोड़ प्रतियाँ बिकतीं हैं।

    अनुक्रम

    • 1इतिहास एवं विकास
    • 2प्रथम चरण
    • 3द्वितीय चरण
    • 4तृतीय चरण
    • 5सन्दर्भ
    • 6इन्हें भी देखें

    इतिहास एवं विकास

    भारत में मीडिया का विकास तीन चरणों में हुआ। पहले दौरकी नींव उन्नीसवीं सदी में उस समय पड़ी जब औपनिवेशिक आधुनिकता के संसर्ग और औपनिवेशिक हुकूमत के ख़िलाफ़ असंतोष की अंतर्विरोधी छाया में हमारे सार्वजनिक जीवन की रूपरेखा बन रही थी। इस प्रक्रिया के तहत मीडिया दो ध्रुवों में बँट गया। उसका एक हिस्सा औपनिवेशिक शासनका समर्थक निकला, और दूसरे हिस्से ने स्वतंत्रता का झण्डा बुलंद करने वालों का साथ दिया। राष्ट्रवादबनाम उपनिवेशवादका यह दौर 1947 तक चलता रहा। इस बीच अंग्रेज़ीके साथ-साथ भारतीय भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन की समृद्ध परम्परा पड़ी और अंग्रेज़ों के नियंत्रण में रेडियो-प्रसारण की शुरुआत हुई। दूसरा दौरआज़ादी मिलने के साथ प्रारम्भ हुआ और अस्सी के दशक तक चला। इस लम्बी अवधि में मीडिया के प्रसार और गुणवत्ता में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई। उसके विभिन्न रूप भारत को आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनाने के लक्ष्य के इर्द-गिर्द गढ़ी गयी अखिल भारतीय सहमति को धरती पर उतारने की महा-परियोजना में भागीदारी करते हुए दिखाई पड़े।  इसी दौर में टीवी का आगमन हुआ। मुद्रित मीडिया मुख्यतः निजी क्षेत्र के हाथ में, और रेडियो-टीवी की लगाम सरकार के हाथ में रही।
    नब्बे के दशक में भूमण्डलीकरण के आगमन के साथ तीसरे दौरकी शुरुआत हुई जो आज तक जारी है। यह राष्ट्र-निर्माण और जन-राजनीति के प्रचलित मुहावरे में हुए आमूल-चूल परिवर्तन का समय था जिसके कारण मीडिया की शक्ल-सूरत और रुझानों में भारी तब्दीलियाँ आयीं। टीवी और रेडियो पर सरकारी जकड़ ढीली पड़ी।  निजी क्षेत्र में चौबीस घंटे चलने वाले उपग्रहीय टीवी चैनलों और एफ़एम रेडियो चैनलों का बहुत तेज़ी से प्रसार हुआ। बढ़ती हुई साक्षरता और निरंतर जारी आधुनिकीकरण के तहत भारतीय भाषाओं के मीडिया ने अंग्रेज़ी-मीडिया को प्रसार और लोकप्रियता में बहुत पीछे छोड़ दिया। मीडिया का कुल आकार अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा। नयी मीडिया प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई। महज़ दस साल के भीतर-भीतर भारत में भी लगभग वही स्थिति बन गयी जिसे पश्चिम में ‘मीडियास्फ़ेयर’ कहा जाता है।

    प्रथम चरण

    भारत में मीडिया के विकास के पहले चरण को तीन हिस्सों में बाँट कर समझा जा सकता है। पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में ईसाई मिशनरीधार्मिक साहित्य का प्रकाशन करने के लिए भारत में प्रिंटिंग प्रेसला चुके थे। भारत का पहला अख़बार बंगाल गज़टभी 29 जनवरी 1780 को एक अंग्रेज़ जेम्स ऑगस्टस हिकीने निकाला। चूँकि हिकी इस साप्ताहिक के ज़रिये भारत में ब्रिटिश समुदाय के अंतर्विरोधों को कटाक्ष भरी भाषा में व्यक्त करते थे, इसलिए जल्दी ही उन्हें गिरफ्तातार कर लिया गया और दो साल में अख़बार का प्रकाशन बंद हो गया।  हिकी के बाद किसी अंग्रेज़ ने औपनिवेशिक हितों पर चोट करने वाला प्रकाशन नहीं किया।
    उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में कलकत्ताके पास श्रीरामपुरके मिशनरियों ने और तीसरे दशक में राजा राममोहन रायने साप्ताहिक, मासिक और द्वैमासिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया। पत्रकारिता के ज़रिये यह दो दृष्टिकोणों का टकराव था। श्रीरामपुर के मिशनरी भारतीय परम्परा को निम्नतर साबित करते हुए ईसाइयत की श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते थे, जबकि राजा राममोहन राय की भूमिका हिंदू धर्मऔर भारतीय समाज के आंतरिक आलोचक की थी। वे परम्परा के उन रूपों की आलोचना कर रहे थे जो आधुनिकता के प्रति सहज नहीं थे। साथ में राजा राममोहन परम्परा के उपयोगी आयामों को ईसाई प्रेरणाओं से जोड़ कर एक नये धर्म की स्थापना की कोशिश में भी लगे थे। इस अवधि में मीडिया की सारवस्तु पर धार्मिक प्रश्नों और समाज सुधार के आग्रहों से संबंधित विश्लेषण और बहसें हावी रहीं।
    समाज सुधार के प्रश्न पर व्यक्त होने वाला मीडिया का यह द्वि-ध्रुवीय चरित्र आगे चल कर औपनिवेशिक बनाम राष्ट्रीय के स्पष्ट विरोधाभास में विकसित हो गया और 1947 में सत्ता के हस्तांतरण तक कायम रहा।  तीस के दशक तक अंग्रेज़ी के ऐसे अख़बारों की संख्या बढ़ती रही जिनका उद्देश्य अंग्रेज़ों के शासन की तरफ़दारी करना था। इनका स्वामित्व भी अंग्रेज़ों के हाथ में ही था। 1861 में बम्बईके तीन अख़बारों का विलय करके टाइम्स ऑफ़ इण्डियाकी स्थापना भी ब्रिटिश हितों की सेवा करने के लिए रॉबर्ट नाइट ने की थी। 1849 में गिरीश चंद्र घोषने पहला बंगाल रिकॉर्डरनाम से ऐसा पहला अख़बार निकाला जिसका स्वामित्व भारतीय हाथों में था। 1853 में इसका नाम बदल कर 'हिंदू पैट्रियट'हो गया। हरिश्चंद्र मुखर्जीके पराक्रमी सम्पादन में निकलने वाले इस पत्र  ने विभिन्न प्रश्नों पर ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना की परम्परा का सूत्रपात किया। सदी के अंत तक एक तरफ़ तो उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय नेतृत्व का आधार बन चुका था, और दूसरी ओर स्वाधीनता की कामना का संचार करने के लिए सारे देश में विभिन्न भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा था। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता ब्रिटिश शासन को आड़े हाथों लेने में कतई नहीं चूकती थी।  इसी कारण 1878 में अंग्रेज़ों ने वरनाकुलर प्रेस एक्टबनाया ताकि अपनी आलोचना करने वाले प्रेस का मुँह बंद कर सकें। इसका भारत और ब्रिटेन में जम कर विरोध हुआ। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसका गठन हुआ जिसकी गतिविधियाँ उत्तरोत्तर मुखर राष्ट्रवाद की तरफ़ झुकती चली गयीं। भारतीय भाषाओं के प्रेस ने भी इसी रुझान के साथ ताल में ताल मिला कर अपना विकास किया। मीडिया के लिहाज़ से बीसवीं सदी को एक उल्लेखनीय विरासत मिली जिसके तहत तिलक, गोखले, दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, मदनमोहन मालवीयऔर रवींद्रनाथ ठाकुरके नेतृत्व में अख़बारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा था। बीस के दशक में गाँधीके दिशा-निर्देश में कांग्रेस एक जनांदोलन में बदल गयी। स्वयं गाँधी ने राष्ट्रीय पत्रकारिता में तीन-तीन अख़बार निकाल कर योगदान दिया।
    लेकिन इस विकासक्रम का एक दूसरा ध्रुव भी था। अगर इन राष्ट्रीय हस्तियों के नेतृत्व में मराठा, केसरी, बेंगाली, हरिजन, नवजीवन, यंग इण्डिया, अमृत बाज़ार पत्रिका, हिंदुस्तानी, एडवोकेट, ट्रिब्यून, अख़बार-ए-आम, साधना, प्रबासी, हिंदुस्तान रिव्यू, रिव्यू और अभ्युदय जैसे प्रकाशन उपनिवेशवाद विरोधी तर्कों और स्वाधीनता के विचार को अपना आधार बना रहे थे, तो कलकत्ता का स्टेट्समैन, बम्बईका टाइम्स ऑफ़ इण्डिया, मद्रास का मेल, लाहौरका सिविल ऐंड मिलिट्री गज़टऔर इलाहाबादका पायनियरखुले तौर पर अंग्रेज़ी शासन के गुण गाने में विश्वास करता था।
    मीडिया-संस्कृति का यह द्विभाजन भाषाई आधार पर ही और आगे बढ़ा। राष्ट्रीय भावनाओं का पक्ष लेने वाले अंग्रेज़ी के अख़बारों की संख्या गिनी-चुनी ही रह गयी। अंग्रेज़ी के बाकी अख़बार अंग्रजों के पिट्ठू बन गये। भारतीय भाषाओं के अख़बारों ने खुल कर उपनिवेशवादविरोधीआवाज़ उठानी शुरू कर दी।  अंग्रेज़ समर्थक अख़बारों के पत्रकारों के वेतन और सुविधाओं का स्तर भारतीय भाषाओं के प्रकाशनों में कार्यरत पत्रकारों के वेतन आदि से बहुत अच्छा था। ब्रिटिश समर्थक अख़बारों को खूब विज्ञापनमिलते थे और उनके लिए संसाधनों की कोई कमी न थी। उपनिवेशवाद विरोधी अख़बारों का पूँजी-आधार कमज़ोर था। बहरहाल, अंग्रेज़ी पत्रकारिता के महत्त्व को देखते हुए जल्दी ही मालवीय, मुहम्मद अली, ऐनी बेसेंट, मोतीलाल नेहरूआदि ने राष्ट्रवादी विचारों वाले अंग्रेज़ी अख़बारों (लीडर, कॉमरेड, मद्रास स्टेंडर्ड, न्यूज, इंडिपेंडेंट, सिंध ऑब्ज़र्वर) की शुरुआत की। दिल्ली से 1923 में कांग्रेस का समर्थन करने वाले भारतीय पूँजीपति घनश्याम दास बिड़लाने द हिंदुस्तान टाइम्सका प्रकाशन शुरू किया। 1938 में जवाहरलाल नेहरूने अंग्रेज़ी के राष्ट्रवादी अख़बार नैशनल हैरल्डकी स्थापना की। 
    1826 में कलकत्ता से जुगल किशोर सुकुलने उदंत मार्तण्डनामक पहला हिंदीसमाचार पत्र प्रकाशित किया था। हिंदी मीडिया ने अपनी दावेदारी बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पेश की जब गणेश शंकर विद्यार्थीने प्रताप , बालमुकुंद गुप्तऔर अम्बिका शरण वाजपेयीने भारत मित्र , महेशचंद्र अग्रवाल ने विश्वमित्रऔर शिवप्रसाद गुप्त ने आज की स्थापना की। एक तरह से यह हिंदी-प्रेस की शुरुआत थी। इसी दौरान उर्दू-प्रेस की नींव पड़ी। अबुल कलाम आज़ादने अल-हिलाल और अल-बिलाग़ का प्रकाशन शुरू किया, मुहम्मद अली ने हमदर्द का। लखनऊसे हकीकत, लाहौर से प्रताप और मिलापऔर दिल्लीसे तेज़ का प्रकाशन होने लगा।  बांग्ला में संध्या, नायक, बसुमती, हितबादी, नबशक्ति, आनंद बाज़ार पत्रिका, जुगांतर, कृषक और नबजुग जैसे प्रकाशन अपने-अपने दृष्टिकोणों से उपनिवेशवाद विरोधी अभियान में भागीदारी कर रहे थे। मराठीमें इंदुप्रकाश, नवकाल, नवशक्ति और लोकमान्य ; गुजरातीमें गुजराती पंच, सेवक, गुजराती और समाचार , वंदेमातरम्; दक्षिण भारत में मलयाला मनोरमा, मातृभूमि, स्वराज, अल-अमीन, मलयाला राज्यम, देशाभिमानी, संयुक्त कर्नाटक, आंध्र पत्रिका, कल्कि, तंति, स्वदेशमित्रम्, देशभक्तम् और दिनामणि यही भूमिका निभा रहे थे।
    यहाँ एक सवाल उठ सकता है कि यह राष्ट्रीय मीडिया किन मायनों में राष्ट्रीय था? इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी पत्र-पत्रिकाएँ ब्रिटिश शासन की विरोधी थीं, लेकिन उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की दशा और दिशा को लेकर उनके बीच वैसे ही मतभेद थे जैसे कांग्रेस और अन्य राजनीतिक शक्तियों के बीच दिखाई पड़ते थे। ब्रिटिश प्रशासन ने 1924 में मद्रास में एक शौकिया रेडियो क्लब बनाने की अनुमति दी। तीन साल बाद निजी क्षेत्र में ब्रॉडकास्ट कम्पनी ने बम्बई और कलकत्ता में नियमित रेडियो प्रसारण शुरू किया। लेकिन साथ में शौकिया रेडियो क्लब भी चलते रहे।  प्रेक्षकों की मान्यता है कि जिस तरह इन शौकिया क्लबों के कारण अंग्रेज़ों को रेडियो की बाकायदा स्थापना करनी पड़ी, कुछ-कुछ इसी तर्ज़ पर प्राइवेट केबिल ऑपरेटरों के कारण नब्बे के दशक में सरकार को टेलिविज़न का आंशिक निजीकरण करने की इजाज़त देनी पड़ी। 
    बहरहाल, औपनिवेशिक सरकार ने 1930 में ब्रॉडकास्टिंग को अपने हाथ में ले लिया और 1936 में उसका नामकरण ‘आल इण्डिया रेडियो’ या ‘आकाशवाणी’ कर दिया गया।  हैदराबाद, त्रावणकोर, मैसूर, बड़ोदरा, त्रिवेंद्रमऔर औरंगाबादजैसी देशी रियासतों में भी प्रसारण चालू हो गया। रेडियो पूरी तरह से अंग्रेज़ सरकार के प्रचारतंत्र का अंग था। सेंसरशिप, सलाहकार बोर्ड और विभागीय निगरानी जैसे संस्थागत नियंत्रक उपायों द्वारा अंग्रेज़ों ने यह सुनिश्चित किया कि उपनिवेशवाद विरोधी राजनीति के पक्ष में रेडियो से एक शब्द भी प्रसारित न होने पाये।  दिलचस्प बात यह है कि यह अंग्रेज़ी विरासत भारत के आज़ाद होने के बाद भी जारी रही। अंग्रेज़ों के बाद आकाशवाणी को भारत सरकार ने उस समय तक अपना ताबेदार बनाये रखा जब तक 1997 में आकाशवाणी एक स्वायत्त संगठन का अंग नहीं बन गयी।

    द्वितीय चरण

    चूँकि भारतीय मीडिया के दोनों ध्रुवों ने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के पक्ष या विपक्ष में रह कर ही अपनी पहचान बनायी थी, इसलिए स्वाभाविक रूप से राजनीति उसका केंद्रीय सरोकार बनती चली गयी। 15 अगस्त 1947 को जैसे ही सत्ता का हस्तांतरण हुआ और अंग्रेज़ भारत से जाने के लिए अपना बोरिया-बिस्तर समेटने लगे, मीडिया और सरकार के संबंध बुनियादी तौर से बदल गये।  एक तरफ़ तो अंग्रेज़ों द्वारा लगायी गयी पाबंदियाँ प्रभावी नहीं रह गयीं, और दूसरी तरफ़ ब्रिटिश शासन की पैरोकारी करने वाले ज़्यादातर अख़बारों का स्वामित्व भारतीयों के हाथ में चल गया।  लेकिन इससे भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह था कि मीडिया ने राजनीतिक नेतृत्व के साथ कंधे से कंधा मिला कर आधुनिक भारतीय राष्ट्र का निर्माण करना शुरू किया। मीडिया के विकास का यह दूसरा चरण अस्सी के दशक तक जारी रहा।  इस लम्बे दौर के चार उल्लेखनीय आयाम थे :
    1. एक सुपरिभाषित ‘राष्ट्र-हित’ के आधार पर आधुनिक भारत के निर्माण में सचेत और सतर्क भागीदारी की परियोजना,
    2. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करने की सरकारी कोशिशों के ख़िलाफ़ संघर्ष,
    3. विविधता एवं प्रसार की ज़बरदस्त उपलब्धि के साथ-साथ भाषाई पत्रकारिता द्वारा अपने महत्त्व और श्रेष्ठता की स्थापना, और
    4. प्रसारण-मीडिया की सरकारी नियंत्रण से एक सीमा तक मुक्ति।
    स्वतंत्र भारत में सरकार को गिराने या बदनाम करने में प्रेस ने कोई रुचि नहीं दिखाई। लेकिन साथ ही वह सत्ता का ताबेदार बनने के लिए तैयार नहीं था। उसका रवैया रेडियो और टीवी से अलग तरह का था। रेडियो-प्रसारण करने वाली 'आकाशवाणी'पूरी तरह से सरकार के हाथ में थी। 1959 में ‘शिक्षात्मक उद्देश्यों’ से शुरू हुए टेलिविज़न (दूरदर्शन) की प्रोग्रामिंग की ज़िम्मेदारी भी रेडियो को थमा दी गयी थी। इसके विपरीत शुरू से ही निजी क्षेत्र के स्वामित्व में विकसित हुए प्रेस ने सरकार, सत्तारूढ़ कांग्रेस, विपक्षी दलों और अधिकारीतंत्र को बार-बार स्व-परिभाषित राष्ट्र-हित की कसौटी पर कस कर देखा। यह प्रक्रिया उसे व्यवस्था का अंग बन कर उसकी आंतरिक आलोचना करने वाली सतर्क एजेंसी की भूमिका में ले गयी। भारतीय मीडिया के कुछ अध्येताओं ने माना भी है कि अंग्रेज़ों के बाद सरकार को दिया गया प्रेस का समर्थन एक ‘सतर्क समर्थन’ ही था।
    प्रेस ने ‘राष्ट्र-हित’ की एक सर्वमान्य परिभाषा तैयार की जिसे मनवाने के लिए न कोई मीटिंग की गयी और न ही कोई दस्तावेज़ पारित किया गया। पर इस बारे में कोई मतभेद नहीं था कि उदीयमान राष्ट्र-राज्य जिस ढाँचे के आधार पर खड़ा होगा, उसका चरित्र  लोकतांत्रिक और सेकुलर ही होना चाहिए। उसने यह भी मान लिया था कि ऐसा करने के लिए उत्पीड़ित सामाजिक तबकों और समुदायों का लगातार सबलीकरण अनिवार्य है। प्रेस-मालिक, प्रबंधक और प्रमुख पत्रकार अपने-अपने ढंग से यह भी मानते थे कि इस लक्ष्य को वेधने के लिए ग़रीबी को समृद्धि में बदलना पड़ेगा जिसका रास्ता वैकासिक अर्थशास्त्र और मिश्रित अर्थव्यवस्था से हो कर जाता है।  स्वतंत्र भारत की विदेश नीति (गुटनिरपेक्षताऔर अन्य देशों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व) के प्रति भी मीडिया ने सकारात्मक सहमति दर्ज करायी।
    दूसरी तरफ़ सरकार ने अपनी तरफ़ से प्रेस के कामकाज को विनियमित करने के लिए एक संस्थागत ढाँचा बनाना शुरू कर दिया। 1952 और 1977 में दो प्रेस आयोगगठित किये गये। 1965 में एक संविधानगत संस्था प्रेस परिषद्की स्थापना हुई। 1956 में 'रजिस्ट्रेशन ऑफ़ बुक्स एक्ट'के तहत प्रेस रजिस्ट्रार ऑफ़ इण्डिया की स्थापना की गयी। इन उपायों में प्रेस की आज़ादी को सीमित करने के अंदेशे भी देखे जा सकते थे, पर प्रेस ने इन कदमों पर आपत्ति नहीं की। उसे यकीन था कि सरकार किसी भी परिस्थिति में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मिलने वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी का उल्लंघन नहीं करेगी। संविधान में स्पष्ट उल्लेख न होने के बावजूद सर्वोच्च कोर्ट ने इस गारंटी में प्रेस की स्वतंत्रता को भी शामिल मान लिया था। लेकिन प्रेस का यह यकीन 1975 में टूट गया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधीने अपने राजनीतिक संकट से उबरने के लिए देश पर आंतरिक आपातकालथोप दिया। नतीजे के तौर पर नागरिक अधिकार मुल्तवी कर दिये गये, स्वतंत्र अभिव्यक्ति और प्रेस पर पाबंदियाँ लगा दी गयीं। 253 पत्रकार नज़रबंद किये गये, सात विदेशी संवाददाता निष्कासित कर दिये गये, सेंसरशिप थोपी गयी और प्रेस परिषद् भंग कर दी गयी। भारतीय प्रेस अपने ऊपर होने वाले इस आक्रमण का उतना विरोध नहीं कर पाया, जितना उसे करना चाहिए था। किन्तु कुछ ने सरकार के सामने घुटने टेक दिये, पर कुछ ने नुकसान सह कर भी आपातकाल की पाबंदियों का प्रतिरोध किया।
    उन्नीस महीने बाद यह आपातकाल चुनाव की कसौटी पर पराजित हो गया, पर इस झटके के कारण पहली बार भारतीय प्रेस ने अपनी आज़ादी के लिए लड़ने की ज़रूरत महसूस की।  राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने की उसकी भूमिका पहले से भी अधिक ‘सतर्क’ हो गयी। पत्रकारों की सतर्क निगाह ने देखा कि आपातकाल की पराजय के बाद भी राजनीतिक और सत्ता प्रतिष्ठान में प्रेस की स्वतंत्रता में कटौती करने की प्रवृत्ति ख़त्म नहीं हुई है।  इसके बाद अस्सी का दशक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए चलाये गये संघर्षों का दशक साबित हुआ।  1982 में बिहार प्रेस विधेयकऔर 1988 में लोकसभा द्वारा पारित किये गये मानहानि विधेयक को राजसत्ता पत्रकारों द्वारा किये गये आंदोलनों के कारण कानून में नहीं बदल पाये।  दूसरी तरफ़ इंदिरा गाँधी की सरकार द्वारा एक्सप्रेस समाचार-पत्र समूहको सताने के लिए चलाये गये अभियान से यह भी साफ़ हुआ कि किसी अख़बार द्वारा किये जा रहे विरोध को दबाने के लिए कानून बदलने के बजाय सत्ता का थोड़ा सा दुरुपयोग ही काफ़ी है।
    आपातकाल के विरुद्ध चले लोकप्रिय संघर्ष के परिणामस्वरूप सारे देश में राजनीतीकरण की प्रक्रिया पहले के मुकाबले कहीं तेज़ हो गयी। लोकतंत्र और उसकी अनिवार्यता के प्रति नयी जागरूकता ने अख़बारों की तरफ़ नये पाठकों का ध्यान आकर्षित किया। ये नये पाठक निरंतर बढ़ती जा रही साक्षरता की देन थे। बढ़ती हुई प्रसार संख्याओं के फलस्वरूप मुद्रित मीडिया का दृष्टिकोण व्यावसायिक और बाज़ारोन्मुख  हुआ। राजनीतीकरण, साक्षरता और पेशेवराना दृष्टिकोण के साथ इसी समय एक सुखद संयोग के रूप में नयी प्रिंटिंग प्रौद्योगिकी जुड़ गयी। डेक्स-टॉप पब्लिशिंग सिस्टम और कम्प्यूटर आधारित डिज़ाइनिंग ने अख़बारों और पत्रिकाओं के प्रस्तुतीकरण में नया आकर्षण पैदा कर दिया। इस प्रक्रिया ने विज्ञापन से होने वाली आमदनी में बढ़ोतरी की। अस्सी के दशक के दौरान हुए इन परिवर्तनों में सबसे महत्त्वपूर्ण था भाषाई पत्रकारिता का विकास। हिंदी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, असमिया और दक्षिण भारतीय भाषाओं के अख़बारों को इस नयी परिस्थिति का सबसे ज़्यादा लाभ हुआ। अस्सी का दशक इन भाषाई क्षेत्रों में नये पत्रकारों के उदय का दशक भी था। इस विकासक्रम के बाद भाषाई पत्रकारिता ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। नयी सदी में राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण के आँकड़ों ने बताया कि अब अंग्रेज़ी प्रेस के हाथों में मीडिया की लगाम नहीं रह गयी है। सबसे अधिक प्रसार संख्या वाले पहले दस अख़बारों में अंग्रेज़ी का केवल एक ही पत्र रह गया, वह भी नीचे से दूसरे स्थान पर।
    अस्सी के दशक में ही प्रसारण-मीडिया के लिए एक सीमा तक सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने की परिस्थितियाँ बनीं। 1948 में संविधान सभा में बोलते हुए जवाहरलाल नेहरूने वायदा किया था कि आज़ाद भारत में ब्रॉडकास्टिंग का ढाँचा ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी) के तर्ज़ पर होगा। यह आश्वासन पूरा करने में स्वतंत्र भारत की सरकारों को पूरे 42 साल लग गये। इसके पीछे रेडियो और टीवी को सरकार द्वारा निर्देशित राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन के लिए ही इस्तेमाल करने की नीति थी। इस नीति के प्रभाव में रेडियो का तो एक माध्यम के रूप में थोड़ा-बहुत विकास हुआ, पर टीवी आगे नहीं बढ़ पाया। इतना ज़रूर हुआ कि 1975-76 में भारतीय अंतरिक्ष  अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अमेरिकासे एक उपग्रहउधार लिया ताकि देश के विभिन्न हिस्सों में 2,400 गाँवों में कार्यक्रमों का प्रसारण हो सके। इसे 'सेटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलिविज़न एक्सपेरीमेंट' (साइट) कहा गया। इसकी सफलता से विभिन्न भाषाओं में टीवी कार्यक्रमों के निर्माण और प्रसारण की सम्भावनाएँ खुलीं। फिर 1982 में दिल्लीएशियाडका प्रसारण करने के लिए रंगीन टीवी की शुरुआत हुई। इसके कारण टीवी के प्रसार की गति बढ़ी। 1990 तक उसके ट्रांसमीटरों की संख्या 519 और 1997 तक 900 हो गयी। बीबीसी जैसा स्वायत्त कॉरपोरेशन बनाने के संदर्भ में 1966 तक केवल इतनी प्रगति हो पायी कि भारत के पूर्व महालेखा नियंत्रक ए.के. चंदा के नेतृत्व में बनी कमेटी द्वारा आकाशवाणी और दूरदर्शन को दो स्वायत्त निगमों के रूप में गठित करने की सिफ़ारिश कर दी गयी। बारह साल तक यह सिफ़ारिश भी ठंडे बस्ते में पड़ी रही। 1978 में बी.जी. वर्गीज की अध्यक्षता में गठित किये गये एक कार्यदल ने 'आकाश भारती'नामक संस्था गठित करने का सुझाव दिया। साल भार बाद मई, 1979 में प्रसार भारतीनामक कॉरपोरेशन बनाने का विधेयक संसद में लाया गया जिसके तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन को काम करना था। प्रस्तावित कॉरपोरेशन के लिए वर्गीज कमेटी द्वारा सुझाये गये आकाश भारती के मुकाबले कम अधिकारों का प्रावधान किया गया था। जो भी हो, जनता पार्टीकी सरकार गिर जाने के कारण यह विधेयक पारित नहीं हो पाया।
    1985 से 1988 के बीच दूरदर्शन को आज़ादी का एक हल्का सा झोंका नसीब हुआ। इसका श्रेय भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भास्कर घोषको जाता है जो इस दौरान दूरदर्शन के महानिदेशक रहे।  प्रसार भारती विधेयक पारित कराने की ज़िम्मेदारी विश्वनाथ प्रताप सिंहकी राष्ट्रीय मोर्चासरकार ने 1990 में पूरी की। लेकिन प्रसार भारती गठित होते-होते सात साल और गुज़र गये। तकनीकी रूप से कहा जा सकता है कि आज दूरदर्शन और आकाशवाणी स्वायत्त हो गये हैं। लेकिन हकीकत में सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक अतिरिक्त सचिव ही प्रसार भारती का मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) होता है। अगर यह स्वायत्तता है तो बहुत सीमित किस्म की।

    तृतीय चरण

    नब्बे के दशक में कदम रखने के साथ ही भारतीय मीडिया को बहुत बड़ी हद तक बदली हुई दुनिया का साक्षात्कार करना पड़ा। इस परिवर्तन के केंद्र में 1990-91 की तीन परिघटनाएँ थीं : मण्डल आयोगकी सिफ़ारिशों से निकली राजनीति, मंदिर आंदोलनकी राजनीति और भूमण्डलीकरणके तहत होने वाले आर्थिक सुधार।  इन तीनों ने मिल कर सार्वजनिक जीवन के वामोन्मुख रुझानों को नेपथ्य में धकेल दिया और दक्षिणपंथी लहज़ा मंच पर आ गया।  यही वह क्षण था जब सरकार ने प्रसारण के क्षेत्र में 'खुला आकाश'की नीति अपनानी शुरू की। नब्बे के दशक में उसने न केवल प्रसार भारती निगम बना कर आकाशवाणी और दूरदर्शन को एक हद तक स्वायत्तता दी, बल्कि स्वदेशी निजी पूँजी और विदेशी पूँजी को प्रसारण के क्षेत्र में कदम रखने की अनुमति भी दी। प्रिंट मीडिया में विदेशी पूँजी को प्रवेश करने का रास्ता खोलने में उसे कुछ वक्त लगा लेकिन इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में उसने यह फ़ैसला भी ले लिया। मीडिया अब पहले की तरह ‘सिंगल-सेक्टर’ यानी मुद्रण-प्रधान नहीं रह गया। उपभोक्ता-क्रांति के कारण विज्ञापन से होने वाली आमदनी में कई गुना बढ़ोतरी हुई जिससे हर तरह के मीडिया के लिए विस्तार हेतु पूँजी की कोई कमी नहीं रह गयी। सेटेलाइट टीवी पहले केबिल टीवी के माध्यम से दर्शकों तक पहुँचा जो प्रौद्योगिकी और उद्यमशीलता की दृष्टि से स्थानीय पहलकदमी और प्रतिभा का असाधारण नमूना था। इसके बाद आयी डीटीएच प्रौद्योगिकी जिसने समाचार प्रसारण और मनोरंजन की दुनिया को पूरी तरह से बदल डाला। एफ़एम रेडियोचैनलों की कामयाबी से रेडियो का माध्यम मोटर वाहनों से आक्रांत नागर संस्कृति का एक पर्याय बन गया। 1995 में भारत में इंटरनेटकी शुरुआत हुई और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अंत तक बड़ी संख्या में लोगों के निजी और व्यावसायिक जीवन का एक अहम हिस्सा नेट के ज़रिये संसाधित होने लगा। नयी मीडिया प्रौद्योगिकियों ने अपने उपभोक्ताओं को ‘कनवर्जेंस’ का उपहार दिया जो जादू की डिबिया की तरह हाथ में थमे मोबाइल फ़ोनके ज़रिये उन तक पहुँचने लगा। इन तमाम पहलुओं ने मिल कर मीडिया का दायरा इतना बड़ा और विविध बना दिया कि उसके आग़ोश में सार्वजनिक जीवन के अधिकतर आयाम आ गये। इसे ‘मीडियास्फ़ेयर’जैसी स्थिति का नाम दिया गया। 
    प्रिंट मीडिया में विदेशी पूँजी को इजाज़त मिलने का पहला असर यह पड़ा कि रियूतर, सीएनयेन और बीबीसी जैसे विदेशी मीडिया संगठन भारतीय मीडियास्फ़ेयर की तरफ़ आकर्षित होने लगे। उन्होंने देखा कि भारत में श्रम का बाज़ार बहुत सस्ता है और अंतराष्ट्रीय मानकों के मुकाबले यहाँ वेतन पर अधिक से अधिक एक-चौथाई ही ख़र्च करना पड़ता है।  इसलिए इन ग्लोबल संस्थाओं ने भारत को अपने मीडिया प्रोजेक्टों के लिए आउटसोर्सिंग का केंद्र बनाया भारतीय बाज़ार में मौजूद मीडिया के विशाल और असाधारण टेलेंट-पूल का ग्लोबल बाज़ार के लिए दोहन होने लगा। दूसरी तरफ़ भारत की प्रमुख मीडिया कम्पनियाँ (टाइम्स ग्रुप, आनंद बाज़ार पत्रिका, जागरण, भास्कर, हिंदुस्तान टाइम्स) वाल स्ट्रीट जरनल, बीबीसी, फ़ाइनेंसियल टाइम्स, इंडिपेंडेंट न्यूज़ ऐंड मीडिया और ऑस्ट्रेलियाई प्रकाशनों के साथ सहयोग-समझौते करती नज़र आयीं। घराना-संचालित कम्पनियों पर आधारित मीडिया बिज़नेस ने पूँजी बाज़ार में जा कर अपने-अपने इनीशियल पब्लिक ऑफ़रिंग्स अर्थात् आईपीओ प्रस्ताव जारी करने शुरू कर दिये। इनकी शुरुआत पहले एनडीटीवी, टीवी टुडे, ज़ी टेलिफ़िल्म्स जैसे दृश्य-मीडिया ने की। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तर्ज़ पर प्रिंट-मीडिया ने भी पूँजी बाज़ार में छलाँग लगायी और अपने विस्तार के लिए निवेश हासिल करने में जुट गया। ऐसा पहला प्रयास ‘द डेकन क्रॉनिकल’ ने किया जिसकी सफलता ने प्रिंट-मीडिया के लिए पूँजी का संकट काफ़ी-कुछ हल कर दिया।
    दूसरी तरफ़ बाज़ारवाद के बढ़ते हुए प्रभाव और उपभोक्ता क्रांति में आये उछाल के परिणामस्वरूप विज्ञापन-जगत में दिन-दूनी-रात-चौगुनी बढ़ोतरी हुई। चालीस के दशक की शुरुआत में विज्ञापन एजेंसियों की संख्या चौदह से बीस के आस-पास रही होगी। 1979-80 में न्यूज़पेपर सोसाइटी (आईएनएस) की मान्यता प्राप्त एजेंसियों की संख्या केवल 168 तक ही बढ़ सकी थी। लेकिन, भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने अगले दो दशकों में उनकी संख्या 750 कर दी जो चार सौ करोड़ रुपये सालाना का धंधा कर रही थीं। 1997-98 में सबसे बड़ी पंद्रह विज्ञापन एजेंसियोंने ही कुल 4,105.58 करोड़ रुपये के बिल काटे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उपभोक्ता-क्रांति का चक्का कितनी तेज़ी से घूम रहा था। विज्ञापन की रंगीन और मोहक हवाओं पर सवार हो कर दूर-दूर तक फैलते उपभोग के संदेशों ने उच्च वर्ग, उच्च-मध्यम वर्ग, समूचे मध्य वर्ग और मज़दूर वर्ग के ख़ुशहाल होते हुए महत्त्वाकांक्षी हिस्से को अपनी बाँहों में समेट लिया। मीडिया का विस्तार विज्ञापनों में हुई ज़बरदस्त बढ़ोतरी के बिना सम्भव नहीं था।
    प्रिंट-मीडिया और रेडियो विज्ञापनों को उतना असरदार कभी नहीं बना सकता था जितना टीवी ने बनाया। टीवी का प्रसार भारत में देर से अवश्य हुआ, लेकिन एक बार शुरुआत होने पर उसने मीडिया की दुनिया में पहले से स्थापित मुद्रित-माध्यम को जल्दी ही व्यावसायिक रूप से असुरक्षाग्रस्त कर दिया। इस प्रक्रिया में केबिल और डीटीएच के योगदान का उल्लेख करना आवश्यक है। केबिल टीवी का प्रसार और सफलता भारतीयों की उद्यमी प्रतिभा का ज़ोरदार नमूना है। सरकार के पास चूँकि किसी सुसंगत संचार नीति का अभाव था इसलिए नब्बे के दशक की शुरुआत में बहुमंज़िली इमारतों में रहने वाली मध्यवर्गीय और निम्न-मध्यवर्गीय आबादियों में कुछ उत्साही और चतुर लोगों ने अपनी निजी पहलकदमी पर क्लोज़ सरकिट टेलिविज़नप्रसारण का प्रबन्ध किया जिसका केंद्र एक सेंट्रल कंट्रोल रूम हुआ करता था। इन लोगों ने वीडियो प्लेयरों के ज़रिये भारतीय और विदेशी फ़िल्में दिखाने की शुरुआत की। साथ में दर्शकों को मनोरंजन की चौबीस घंटे चलने वाली खुराक देने वाले विदेशी-देशी सेटेलाइट चैनल भी देखने को मिलते थे। जनवरी, 1992 में केबिल नेटवर्क के पास केवल 41 लाख ग्राहक थे। लेकिन केवल चार साल के भीतर 1996 में यह संख्या बानवे लाख हो गयी। अगले साल तक पूरे देश में टीवी वाले घरों में से 31 प्रतिशत घरों में केबिल प्रसारणदेखा जा रहा था। सदी के अंत तक बड़े आकार के गाँवों और कस्बों के टीवी दर्शकों तक केबिल की पहुँच हो चुकी थी। केबिल और उपग्रहीय टीवी चैनलों की लोकप्रियता देख कर प्रमुख मीडिया कम्पनियों ने टीवी कार्यक्रम-निर्माण के व्यापार में छलाँग लगा दी। वे पब्लिक और प्राइवेट टीवी चैनलों को कार्यक्रमों की सप्लाई करने लगे।
    स्पष्ट है कि केबिल और डीटीएच के कदम तभी जम सकते थे, जब पहले पब्लिक (सरकारी) और प्राइवेट (निजी पूँजी के स्वामित्व में) टेलिविज़न प्रसारण में हुई वृद्धि ने ज़मीन बना दी हो। 1982 में दिल्ली एशियाड के मार्फ़त रंगीन टीवी के कदम पड़ते ही भारत में टीवी ट्रांसमीटरों की संख्या तेज़ी से बढ़ी। पब्लिक टीवी के प्रसारण नेटवर्क दूरदर्शन ने नौ सौ ट्रांसमीटरों और तीन विभिन्न सेटेलाइटों की मदद से देश के 70 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र को और 87 % आबादी को अपने दायरे में ले लिया (पंद्रह साल में 230 फ़ीसदी की वृद्धि)। उसका मुख्य चैनल डीडी-वन तीस करोड़ लोगों (यानी अमेरिका की आबादी से भी अधिक) तक पहुँचने का दावा करने लगा। प्राइवेट टीवी प्रसारण केबिल और डीटीएच के द्वारा अपनी पहुँच लगातार बढ़ा रहा है। लगभग सभी ग्लोबल टीवी नेटवर्क अपनी बल पर या स्थानीय पार्टनरों के साथ अपने प्रसारण का विस्तार कर रहे हैं। भारतीय चैनल भी पीछे नहीं हैं और उनके साथ रात-दिन प्रतियोगिता में लगे हुए हैं। अंग्रेज़ी और हिंदी के चैनलों के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं (विशेषकर दक्षिण भारतीय) के मनोरंजन और न्यूज़ चैनलों की लोकप्रियता और व्यावसायिक कामयाबी भी उल्लेखनीय है। सरकार की दूरसंचार नीति इन मीडिया कम्पनियों को इजाज़त देती है कि वे सेटेलाइट के साथ सीधे अपलिंकिंग करके प्रसारण कर सकते हैं। अब उन्हें अपनी सामग्री विदेश संचार निगम (वीएसएनयेल) के रास्ते लाने की मजबूरी का सामना नहीं करना पड़ता। 
    अगस्त, 1995 से नवम्बर, 1998 के बीच सरकारी संस्था विदेश संचार निगम लिमिटेड (वीएसएनयेल) द्वारा ही इंटरनेट सेवाएँ मुहैया करायी जाती थीं। यह संस्था कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और नयी दिल्ली स्थित चार इंटरनैशनल टेलिकम्युनिकेशन गेटवेज़ के माध्यम से काम करती थी। नैशनल इंफ़ोमेटिक्स सेंटर (एनआईसीनेट) और एजुकेशनल ऐंड रिसर्च नेटवर्क ऑफ़ द डिपार्टमेंट ऑफ़ इलेक्ट्रॉनिक्स (ईआरएनयीटी) कुछ विशेष प्रकार के 'क्लोज़्ड यूज़र ग्रुप्स'को ये सेवाएँ प्रदान करते थे। दिसम्बर, 1998 में दूरसंचार विभाग ने बीस प्राइवेट ऑपरेटरों को आईएसपी लाइसेंस प्रदान करके इस क्षेत्र का निजीकरण कर दिया। 1999 तक सरकार के तहत चलने वाले महानगर टेलिफ़ोन निगमसहित 116 आईएसपी कम्पनियाँ सक्रिय हो चुकी थीं। केबिल सर्विस देने वाले भी इंटरनेट उपलब्ध करा रहे थे।
    जैसे-जैसे बीएसएनएल ने अपना शुल्क घटाया, इंटरनेट सेवाएँ सस्ती होती चली गयीं। देश भर में इंटरनेट कैफ़ेदिखने लगे। जुलाई, 1999 तक भारत में 114,062 इंटरनेट होस्ट्स की पहचान हो चुकी थी। इनकी संख्या में 94 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी दर्ज की गयी। नयी सदी में कदम रखते ही सारे देश में कम्प्यूटर बूम की आहटें सुनी जाने लगीं। पर्सनल कम्प्यूटरों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी और साथ ही इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या भी। ई-कॉमर्सकी भूमि तैयार होने लगी और बैंकों ने उसे प्रोत्साहित करना शुरू किया। देश के प्रमुख अख़बार ऑन लाइन संस्करण प्रकाशित करने लगे। विज्ञापन एजेंसियाँ भी अपने उत्पादों को नेट पर बेचने लगीं। नेट ने व्यक्तिगत जीवन की क्वालिटी में एक नये आयाम का समावेश किया। रेलवे और हवाई जहाज़ के टिकट बुक कराने से लेकर घर में लीक होती छत को दुरुस्त करने के लिए नेट की मदद ली जाने लगी। नौकरी दिलाने वाली और शादी-ब्याह संबंधी वेबसाइट्स अत्यंत लोकप्रिय साबित हुईं। वर-वधु खोजने में इंटरनेट एक बड़ा मददगार साबित हुआ। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के सहारे नेट आधारित निजी रिश्तों की दुनिया में नये रूपों का समावेश हुआ।

    सन्दर्भ

    • अम्बिका प्रसाद वाजपेयी (1986), समाचारपत्रों का इतिहास, ज्ञानमण्डल, वाराणसी।
    • हिरण्यमय कार्लेकर (2002), ‘द मीडिया : इवोल्यूशन, रोल ऐंड रिस्पांसिबिलिटी’।
    • एन.एन. वोहरा और सव्यसाची भट्टाचार्य (सम्पा.), लुकिंग बैक : इण्डिया इन ट्वेंटियथ सेंचुरी, एनबीटी और आईआईसी, नयी दिल्ली।
    • मोहित मोइत्रा (1993), अ हिस्ट्री ऑफ़ जर्नलिज़म, नैशनल बुक एजेंसी, कोलकाता।
    • आर. पार्थसारथी (1989), जर्नलिज़म इन इण्डिया : फ़्रॉम द अर्लिएस्ट टाइस्म टु प्रज़ेंट डे, स्टर्लिंग पब्लिशर्स, नयी दिल्ली.
    • एस.पी. शर्मा (1996), द प्रेस : सोसियो-पॉलिटिकल अवेकनिंग, मोहित पब्लिकेशंस, नयी दिल्ली.
    • के. सियुनी (1992), डब्ल्यू. ट्रुएट्शलर और द युरोमीडिया रिसर्च ग्रुप, डायनामिक्स ऑफ़ मीडिया पॉलिटिक्स, सेज पब्लिकेशंस, लंदन.
    • पी.सी. चटर्जी (1987), ब्रॉडकास्टिंग इन इण्डिया, सेज पब्लिकेशंस, नयी दिल्ली.
    • के. बालासुब्रह्मण्यम (1999), द इम्पेक्ट ऑफ़ ग्लोबलाइज़ेशन ऑफ़ मीडिया ऑन मीडिया इमेजिज़ : अ स्टडी ऑफ़ मीडिया इमेजिज़ बिटवीन 1987-1997, अप्रकाशित थीसिस, ओहाइयो स्टेट युनिवर्सिटी, कोलम्बस.
    • यू.वी. रेड्डी (1995), ‘रिप वान विंकल : अ स्टोरी ऑफ़ इण्डिया टेलिविज़न’, डी. फ्रेंच और एम. रिचर्ड्स (सम्पा.), कंटम्परेरी टेलिविज़न : ईस्टर्न पर्सपेक्टिव्ज़, सेज, नयी दिल्ली,
    • पी.सी. चटर्जी (1987), ब्रॉडकास्टिंग इन इण्डिया, सेज पब्लिकेशंस, नयी दिल्ली.
    • के.एस. नायर (1998), ‘ग्रेजुएटिंग फ़्रॉम इनफ़ॉरमेशन साइडवॉक टु हाईवे’, इण्डिया एब्रॉड, 9 अक्टूबर.

    इन्हें भी देखें

    • हिन्दी मीडिया
    • अभिलेखागार
    • प्रेस की स्वतंत्रता
    • प्रोपेगंडा
    श्रेणियाँ:
    • भारत
    • संचार

    दिक्चालन सूची

    • लॉग इन नहीं किया है
    • वार्ता
    • योगदान
    • अंक परिवर्तन
    • खाता बनाएँ
    • लॉग इन
    • लेख
    • संवाद
    • पढ़ें
    • सम्पादन
    • इतिहास देखें

    ↧

    सामाजिक मीडिया vs social media

    March 19, 2017, 9:06 am
    ≫ Next: खुशवंत सिंह के जीवन का दूसरा पहलू
    ≪ Previous: भारतीय मीडिया vs पत्रकारिता
    $
    0
    0



     प्रस्तुति- स्वामी शरण / कृति शरण



    सामाजिक मीडियापारस्परिक संबंध के लिए अंतर्जाल या अन्य माध्यमों द्वारा निर्मित आभासी समूहों को संदर्भित करता है। यह व्यक्तियों और समुदायों के साझा, सहभागी बनाने का माध्यम है। इसका उपयोग सामाजिक संबंध के अलावा उपयोगकर्ता सामग्री के संशोधन के लिए उच्च पारस्परिक मंच बनाने के लिए मोबाइल और वेबआधारित प्रौद्योगिकियों के प्रयोग के रूप में भी देखा जा सकता है।

    अनुक्रम

    • 1स्वरूप
    • 2विशेषता
    • 3व्यापारिक उपयोग
    • 4समालोचना
    • 5इन्हें भी देखें
    • 6सन्दर्भ
    • 7बाहरी कड़ियाँ

    स्वरूप

    सामाजिक मीडिया के कई रूप हैं जिनमें कि इन्टरनेटफोरम, वेबलॉग, सामाजिक ब्लॉग, माइक्रोब्लागिंग, विकीज, सोशल नेटवर्क, पॉडकास्ट, फोटोग्राफ, चित्र, चलचित्र आदि सभी आते हैं। अपनी सेवाओं के अनुसार सोशल मीडिया के लिए कई संचार प्रौद्योगिकी उपलब्ध हैं। उदाहरणार्थ-
    फेसबूक – विश्व का सर्वाधिक लोकप्रिय सोशल साइट
    • सहयोगी परियोजना (उदाहरण के लिए, विकिपीडिया)
    • ब्लॉग और माइक्रोब्लॉग (उदाहरण के लिए, ट्विटर)
    • सोशल खबर ​​नेटवर्किंग साइट्स (उदाहरण के लिए डिग और लेकरनेट)
    • सामग्री समुदाय (उदाहरण के लिए, यूट्यूब और डेली मोशन)
    • सामाजिक नेटवर्किंग साइट (उदाहरण के लिए, फेसबुक)
    • आभासी खेल दुनिया (जैसे, वर्ल्ड ऑफ़ वॉरक्राफ्ट)
    • आभासी सामाजिक दुनिया (जैसे सेकंड लाइफ)[1]

    विशेषता

    सामाजिक मीडिया अन्य पारंपरिक तथा सामाजिक तरीकों से कई प्रकार से एकदम अलग है। इसमें पहुँच, आवृत्ति, प्रयोज्य, ताजगी और स्थायित्व आदि तत्व शामिल हैं। इन्टरनेट के प्रयोग से कई प्रकार के प्रभाव होते हैं। निएलसन के अनुसार ‘इन्टरनेट प्रयोक्ता अन्य साइट्स की अपेक्षा सामाजिक मीडिया साइट्स पर ज्यादा समय व्यतीत करते हैं’।
    दुनिया में दो तरह की सिविलाइजेशन का दौर शुरू हो चुका है, वर्चुअल और फिजीकल सिविलाइजेशन। आने वाले समय में जल्द ही दुनिया की आबादी से दो-तीन गुना अधिक आबादी अंतर्जाल पर होगी। दरअसल, अंतर्जाल एक ऐसी टेक्नोलाजी के रूप में हमारे सामने आया है, जो उपयोग के लिए सबको उपलब्ध है और सर्वहिताय है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स संचार व सूचना का सशक्त जरिया हैं, जिनके माध्यम से लोग अपनी बात बिना किसी रोक-टोक के रख पाते हैं। यही से सामाजिक मीडिया का स्वरूप विकसित हुआ है।[2]

    व्यापारिक उपयोग

    जन सामान्य तक पहुँच होने के कारण सामाजिक मीडिया को लोगों तक विज्ञापन पहुँचाने के सबसे अच्छा जरिया समझा जाता है। हाल ही के कुछ एक सालो में इंडस्ट्री में ऐसी क्रांति देखी जा रही है। फेसबुकजैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर उपभोक्ताओं का वर्गीकरण विभिन्न मानकों के अनुसार किया जाता है जिसमें उनकी आयु, रूचि, लिंग, गतिविधियों आदि को ध्यान में रखते हुए उसके अनुरूप विज्ञापन दिखाए जाते हैं। इस विज्ञापन के सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त हो रहे हैं साथ ही साथ आलोचना भी की जा रही है।[3]

    समालोचना

    सामाजिक मीडिया की समालोचना विभिन्न प्लेटफार्म के अनुप्रयोग में आसानी, उनकी क्षमता, उपलब्ध जानकारी की विश्वसनीयता के आधार पर होती रही है। हालाँकि कुछ प्लेटफॉर्म्स अपने उपभोक्ताओं को एक प्लेटफॉर्म्स से दुसरे प्लेटफॉर्म्स के बीच संवाद करने की सुविधा प्रदान करते हैं पर कई प्लेटफॉर्म्स अपने उपभोक्ताओं को ऐसी सुविधा प्रदान नहीं करते हैं जिससे की वे आलोचना का केंद्र विन्दु बनते रहे हैं। वहीँ बढती जा रही सामाजिक मीडिया साइट्स के कई सारे नुकसान भी हैं। ये साइट्स ऑनलाइन शोषण का साधन भी बनती जा रही हैं। ऐसे कई केस दर्ज किए गए हैं जिनमें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का प्रयोग लोगों को सामाजिक रूप से हनी पहुँचाने, उनकी खिचाई करने तथा अन्य गलत प्रवृत्तियों से किया गया।[4][5]
    सामाजिक मीडिया के व्यापक विस्तार के साथ-साथ इसके कई नकारात्मक पक्ष भी उभरकर सामने आ रहे हैं। पिछले वर्ष मेरठ में हुयी एक घटना ने सामाजिक मीडिया के खतरनाक पक्ष को उजागर किया था। वाकया यह हुआ था कि उस किशोर ने फेसबूक पर एक ऐसी तस्वीर अपलोड कर दी जो बेहद आपत्तीजनक थी, इस तस्वीर के अपलोड होते ही कुछ घंटे के भीतर एक समुदाय के सैकडों गुस्साये लोग सडकों पर उतार आए। जबतक प्राशासन समझ पाता कि माजरा क्या है, मेरठ में दंगे के हालात बन गए। प्रशासन ने हालात को बिगडने नहीं दिया और जल्द ही वह फोटो अपलोड करने वाले तक भी पहुँच गया। लोगों का मानना है कि परंपरिक मीडिया के आपत्तीजनक व्यवहार की तुलना में नए सामाजिक मीडिया के इस युग का आपत्तीजनक व्यवहार कई मायने में अलग है। नए सामाजिक मीडिया के माध्यम से जहां गडबडी आसानी से फैलाई जा सकती है, वहीं लगभग गुमनाम रहकर भी इस कार्य को अंजाम दिया जा सकता है। हालांकि यह सच नहीं है, अगर कोशिश की जाये तो सोशल मीडिया पर आपत्तीजनक व्यवहार करने वाले को पकडा जा सकता है और इन घटनाओं की पुनरावृति को रोका भी जा सकता है। केवल मेरठ के उस किशोर का पकडे जाना ही इसका उदाहरण नहीं है, वल्कि सोशल मीडिया की ही दें है कि लंदन दंगों में शामिल कई लोगों को वहाँ की पुलिस ने पकडा और उनके खिलाफ मुकदमे भी दर्ज किए। और भी कई उदाहरण है जैसे बैंकुअर दंगे के कई अहम सुराग में सोशल मीडिया की बडी भूमिका रही। मिस्र के तहरीर चैक और ट्यूनीशिया के जैस्मिन रिवोल्यूशन में इस सामाजिक मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका को कैसे नकारा जा सकता है।[6]
    सामाजिक मीडिया की आलोचना उसके विज्ञापनों के लिए भी की जाती है। इस पर मौजूद विज्ञापनों की भरमार उपभोक्ता को दिग्भ्रमित कर देती है तथा ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स एक इतर संगठन के रूप में काम करते हैं तथा विज्ञापनों की किसी बात की जवाबदेही नहीं लेते हैं जो कि बहुत ही समस्यापूर्ण है।[7][8]

    इन्हें भी देखें

    • फेसबुक
    • ट्विटर

    सन्दर्भ


  • शी, जहाँ ; रुई, हुवाक्सिया ; व्हिंस्तों, एंड्रू बी. (फोर्थ कमिंग). "कंटेंट शेयरिंग इन अ सोशल ब्रॉड कास्टिंग एनवायरनमेंट एविडेंस फ्रॉम ट्विटर". मिस क्वार्टरली

  • जनसंदेश टाइम्स,5 जनवरी 2014, पृष्ठ संख्या:1 (पत्रिका ए टू ज़ेड लाइव), शीर्षक:आम आदमी की नई ताक़त बना सोशल मीडिया, लेखक: रवीन्द्र प्रभात

  • "फेसबुक पर ग्राहकों के साथ बातचीत के तरीको में सुधार". क्लियरट्रिप डॉट कॉम. २७ जनवरी २०१४. अभिगमन तिथि: १९ फरबरी २०१४.

  • फित्ज़गेराल्ड, बी.  (२५ मार्च २०१३). "डिस अपियरिंग रोमनी". दि हफिंग्टन पोस्ट. अभिगमन तिथि: १९ फरबरी २०१४.

  • हिन्शिफ, डॉन. (१५ फरबरी २०१४). "आर सोशल मीडिया सिलोस होल्डिंग बेक बिज़नस". ZDNet.com. अभिगमन तिथि: १९ फरबरी २०१४.

  • जनसंदेश टाइम्स,5 जनवरी 2014, पृष्ठ संख्या:1 (पत्रिका ए टू ज़ेड लाइव), शीर्षक:आम आदमी की नई ताक़त बना सोशल मीडिया, लेखक: रवीन्द्र प्रभात

  • शेर्विन आदम, आदम (४ सितम्बर २०१३). "स्टाइल ओवर सब्सतांस: वायने रूनी क्लेअरेड ऑफ़ नाइके ट्विटर प्लग". दि इंडिपेंडेंट. अभिगमन तिथि: १९ फरबरी २०१४.

    1. http://www.marketingweek.co.uk/news/nike-rooney-twitter-promo-escapes-censure/4007808.article

    बाहरी कड़ियाँ

    विकिमीडिया कॉमन्स पर सामाजिक मीडियासे सम्बन्धित मीडिया है।
    • अभिव्यक्ति को नई धार देता सोशल मीडिया (देशबन्धु)
    • The Museum of Social Media– सामाजिक मीडिया की वृद्धि और प्रभाव पर विद्वानों के लेखों का संग्रहालय
    श्रेणियाँ:
    • सामाजिक मीडिया
    • सामाजिक संबंध
    ↧
    ↧

    खुशवंत सिंह के जीवन का दूसरा पहलू

    March 20, 2017, 10:10 am
    ≫ Next: संतोष तिवारी पर संतोष करना आसान नहीं / अनामी शरण बबल
    ≪ Previous: सामाजिक मीडिया vs social media
    $
    0
    0





    समरथ को नांही दोष गोंसाईं / अनामी शरण बबल



    विवेक जी आपमें इतना विवेक संयम मान मर्यादा रिश्तों को दूर तक लेकर चलने का धीरज और कलम को कभी भी असंयमित नहीं होने देने का सब्र है। , जिसका मैं हमेशा सत्कार करता हूं सलाम करता हूं, कि आप एकदम खांटी पत्रकार है कि खुद को कभी भी किसी एक के पक्ष में नहीं जाते। खुद को पार्टी बनने से रोक लेने का यह धैर्य्य है। अपनी लक्ष्मण रेखा आप खुद तय करते हैं यह बड़ी बात है। जबकि आजकल ज्यादातर पत्रकार किसी एक के पक्ष में झुककर पार्टी बन जाते हैं। निसंदेह खुशवंत सिंह की लेखनी में दम है और एक हद तक सच्चाई भी. मैं बी लगभग एक दर्जन अनुदित उपन्यास औरभी बहुत कुछ देखा और पढा है। तमाम हालातों को वे अपनी तरह से सामने रखते रहे हैं। मगर वे अमीरी और ताकत के उस परिवार से आते हैं जहां पर सामान्य जन से नाता ना के बराबर होता है। या महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का सहारा लें तो समरथ को नहीं दोष गोंसाई एकदम सच और सही साबित होता है। वहीं खुसवंतजी के पिता (सर) शोभा सिंह के साथ ही शामली के सर की उपाधि से नवाजे गए शादीराम ने भी शोभा सिंह की झूठी गवाही में साथ दिया था। जिसके फलस्वरूप शामली के लोगों ने शादीराम के पूरे परिवार को सामाजिक बहिष्कार कर दिया। इसका असर यह रहा कि शामली में रहते हुए इस परिवार को रोजाना नागरिको की उपेक्षा और कटाक्ष का सामना करना पड़ा। एक गद्दार की तरह शादीराम के परिवार को वेस्ट यूपी ने नकार दिया। हालात तो तब नफरत कीजाहिर हुई जब शादीराम की मौत हुई तो शामली शहर में किसी भी दुकानदार ने कफन तक नहीं दी। परिजनों को सहारनपुर बडौत बागपत और लोनी तक में कफन नहीं मिला। शादीराम के अंतिम संस्कार के लिए दिल्ली से कफन और सामान खरीदकरशामली लाया गया। तब कहीं जाकर पूरे शहर में गद्दार की तरह कुख्यात शादीराम की श्मसान यात्रा पूरी हुई। यह तो खुशवंत सिंह समेत शोभा सिंह का सौभाग्य रहा कि दिल्ली जैसे शहर में ना इनको गद्दार का तगमा मिला और ना ही इनको एक गद्दार के संतान होने की जलालत या सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। हद तो तब हो गयी जब अपने गद्दार पिता की इमेज को सुधारने के लिए शोभा पुत्र खुशवंत जी उनकी याद में एक सालाना जलसा करने लगे. जिसमें शहरी बुद्दिजीवियों द्वारा शोभाा और सुजानसिंह द्वारा अंग्रेजों की चाटूकारी तथा दलाली करके अर्जित धन वैभव सम्मान शोहरत और मालदार रईसी से चकाचौंध इस परिवार के गुणगान करने में विद्वान लोग एक दूसरे से आगे निकलने में नहीं थकते। खुशवंत परिवार के अहसान तले हमेशा झुके रहने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी को एक समय चुनाव लड़ने के लिए खुशवंत सिंह ने दो लाख रूपये का दान दिया था। इस अहसान को सार्वजनिक तौर पर पीएम ने कई बार दोहराया और इस परिवार के अहसान का खुलासा किया। खुशवंत प्रेशर के सामने अपनी और दिल्ली में शीला दीक्षित सरकार की नाक कटाते कटाते मनमोहन एकाएक मौन हो गए। विंडसर प्लेस चौक के नाम परिवर्तन करके मनमोहन सिंह सर शोभा सिंह चौक रखवानाे के लिए राजी हो गए। और यह कहना बेमानी है कि मनमोहन जी के पीछे प्रेशर खुशवंतसिंह का ही था। भला हो मौनी बाबा का कि वे इस मामले में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और एनडीएमसी के मनोनीत सदस्यों से राय मांगी.। कोई और मामला होता तो मुख्यमंत्री शीला नतमस्तक होकर पीएम की बात मान लेती, मगर सर शोभा सिंह के नाम परिवर्तन के बाद होने वाली किरकिरी का ट्रेलर दिखाकर बताकर शीला आंटी जी ने मौनी बाबा को मौन कर दिया। नाम परिवर्तन की फुसफुसाहट की खबर पाते ही मीडिया में हंगामा हो गया। कांग्रेस के ही बिट्टा साहब ने तो धरना प्रर्दशन करके पंजे को शर्मसार कर दिया। बिट्टा के साथ ही दिल्ली में सर शोभा सिंह का नाम गद्दार शोभा सिंह के रूप में उछलने लगा। तब कहीं जाकर मौनी बाबा और खुशवंत जी के मंसूबों पर पानी फिरा। निसंदेह खुशवंत जी एक साहसिक लेखक हैं। समाज की बनी बनायी धारा को तोडने और सामाजिक बंधनों को तोडने मे इनको मजा भी आता है. मगर यही साहस कोई दूसरा कहां कर पाते है। बेशक दिल्ली की शहरी मानसिकता उदारता और अपने आप में ही सिमटे रहने की कूपमंडूकी आदत जिसे लोग आत्मकेंद्रित जीवन को शहरी गौरव भी मानते हैं ने गद्दारी की सजा न तो शोभा सिंह को भोगने दी और ना ही उनके परिजनों को ही गद्दार परिवार के सदस्य होने की पीड़ा झेलने दी। इस मामले में सर शादीराम का छोटे शहर का नागरिक होना ही सबसे शर्मनाक साबित हुआ। खुशवंत सिंह से सवाल करने का न तो कोई समय है और ना ही दिवंगत हो चुके सुजान शोभा खुशवंत और परिवार को गद्दारी की पीडा का अहसास ही है। बेशक खुशवंत सिंह एक बड़े पत्रकार लेखक हो सकते हैं, मगर उनके दामन पर गद्दार पुत्र होने का दाग भी अंकित है। यह अलग प्रसंग है कि महानगर में अब किसके पास समय है कि अतीत के प्रेतों को खंगाल कर फिर से शहीदे आजम भगत सिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त और राजगुरू की फांसी पर 86 साल के बाद आंसू कौन बहाए या किसको याद है कि भगत सिंह की फांसी की सजा के पीछे मशहूर लेखक खुशवंत सिंह के पिता और दिल्ली के क्नॉट प्लेस के निर्माण के ठेकेदार शोभा सिंह की झूठी गवाही का हाथ है। और चलते चलते खुशवंत सिंह की बेशर्मी कहे या सादगी या भोलेपन का नाम दे यह समझ नहीं आता,जब हमारे खुशवंत अपने बाप की होने वाली लानत मलानत पर एक बार कहा था कि इसमें मेरे पिता की क्या गलती थी वे तो केवल तीनों की पहचान की थी। वाह खुशवंत जी के भोलेपन पर मन शर्मसार हो जाता है.. औरतों के वक्ष और नितंबों को तो उनके आकार प्रकार देखकर ही यौनेच्छा की माप तौल करने में माहिर कहे या पारखी माने जाने वाले हमारे खुशवंत सिंह भी भोले बाबा बनकर अपने गद्दार देशद्रोही बाप को सेनानी बनाने की कोशिश करते हुए शर्मिंदा तक नहीं होते। यही खुशवंत सिंहजैसे कद्दावर लेखक औरनिंदक का सबसे कमजोर पहलू है।
    ↧

    संतोष तिवारी पर संतोष करना आसान नहीं / अनामी शरण बबल

    March 21, 2017, 2:48 am
    ≫ Next: प्रबंधन बनाम मीडिया प्रबंधन
    ≪ Previous: खुशवंत सिंह के जीवन का दूसरा पहलू
    $
    0
    0




     अनामी शरण बबल


    यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग है कि मेरे ज्यादातर प्रिय पत्रकारों का समुदाय ही धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है। एकदम दो तीन साल के भीतर साथ छोड़कर इस संसार को अलविदा कर गए पत्रकारों में चाहें आलोक तोमर हो प्रदीप संगम हो  ओमप्रकाश तपस  हो या अब  संतोष तिवारी हो । असामयिक रणछोड़ कर चले जाना या जीवन के खेल में आउट हो जाना हर बार मुझे भीतर तक मर्माहत कर गया । सारे पत्रकारों से मैं घर तक जुड़ा था और प्यार दुलार का नाता बहुत हद तक स्नेहमय सा बन गया था। इनका वरिष्ठ होने के बाद भी यह मेरा सौभाग्य रहा कि इन सबों के साथ अपना बोलचाल रहनसहन नेह से भरा रसमय था। कहीं पर कोई औपचारिकता या दिखावापन सा नहीं था यही कारण रहा कि इनके नहीं होने पर मुझे खुद को समझाने और संभलने में काफी समय लगा।

    फिलहाल तो बात मैं संतोष जी से ही शुरू करता हूं । मेरा इनसे कोई 23 साल पुराना नाता रहा.। भीकाजी कामा प्सेस के करीब एक होटल में शाम के समय कुछ लोगों से मिलने का कार्यक्रम था । मेरे पास अचानक हिन्दुस्तान से संतोष जी का फोन आया, अनामी शाम को एक जगह चलना है तैयार रहना।. मैने जब जिज्ञासा प्रकट की तो वे बौखला गए अरे जब मैं बोल रहा हूं तो फिर इतने सारे सवाल जवाब क्यों ?  बस् इतना जान लो कि जो मेरी नजर में सही और मेरे प्रिय पत्रकार हैं बस्स मैं केवल उन्ही दो चार को बुला भी रहा हूं। उल्लेखनीय है कि इससे पहले तो मेरी संतोष जी से दर्जनों बार फोन पर बातें हो चुकी थी, मगर अपने अंबादीप दफ्तर से 100 कदम से कम की दूरी पर एचटी हाउस की बहुमंजिली इमारत में कभी जाकर मैं संतोष जी से मिला नहीं था।य़ और ना ही कभी या कहीं इनसे मिलने का सुयोग बना था।  मैं फटाफट अपने .काम को निपटाया और फोन करके एचटीहाउस के बाहर पहुंच गया। वहां पर संतोषजी पहले से ही मौजूद थे मुझे देखते ही बोले अनामी ?और मेरे सिर हिलाने पर वे लपक कर मुझे गले से लगा लिया। साले कलम से जितना आक्रामक दिखते हो उतना तीखा और आक्रामक तो तुम लगते ही नहीं। अब इस पर मैं क्या कहता बस्स जोर से खिलखिला पडा तो वे भी मेरे साथ ही ठहाका लगाने लगे। यह थी मेरे प्रति संतोष जी की पहली प्रतिक्रिया ।

    देर रात तक मेहमानों के संग बातें होती रही और साथ में मदिरामय माहौल भी था। जिससे मैं काफी असहज होने लगा तो संतोष जी मुझे कमरे से बाहर ले गए और ज्ञान प्रदान किया । जब तुम कहीं पर पत्रकार के रूप में जाओ तो जरूरी नहीं कि सारा माहौल और लोग तुम्हारी अपेक्षाओं या मन की ही बातें करेंगे।  कहीं पर असामान्य लगने दिखने से बेहतर है कि तुम खान पान पर अपने ध्यान को फोकस कम करके काम और जो बातचीत का सेशन चल रहा है उसमें औरों से हटकर बातें करो ताकि सबों का ध्यान काम पर रहे और खान पान दोयम हो जाए। इन गुरूमंत्रों को बांधकर मैं अपने दिल में संजो लिया और अंदर जाकर बातचीतके क्रम को एक अलग तरीके से अपने अनुसार किया।

    पत्रकारिता के लगभग दो दशक लंबे दौर में बहुत दफा इस तरह के माहौल का सामना करना पडा ,जब अपने साथी मित्रों का ध्यान काम से ज्यादा मदिरा पर रहा तो मैंने अपने अनुसार बहुत सारी बातें कर ली और मदिरा रानी के संग झूले में उडान भर रहे मेरे मित्रों ने मेरी बातों पर कोई खास तवज्जह नहीं दी। जिसके फलस्वरूप मेरी रिपोर्ट हमेशा औरों से अलग और कुछ नयी रहती। या होती थी। जिसपर अगले दिन अपने साथियों से मुझे कई बार फटकार भी खानी पड़ी या कईयों ने मुझे बेवफा पत्रकार का तगमा तक दे डाला था कि खबरों के मामले में यह साला विश्वास करने लायक नहीं है। आपसी तालमेल पर भी न्यूज को लेकर किसी समय सीमा का बंधन नहीं मानेगा।

    तमाम उलाहनों पर भिड़ने की बजाय हमेशा मेरा केवल एक जवाब होता कि न्यूज है तो उसके साथ कोई समझौता नहीं।  इस तरह के किसी भी संग्राम में यदि मैं कामयाब होता या रहता तो संतोषजी का लगभग हमेशा फोन आता वेरी वेरी गुड अनामी डार्लिंग। वे अक्सर मुझे मेरे नाम के साथ डार्लिंग जोडकर ही बोलते थे। मैने उनसे कई बार कहा कि आप जब डार्लिंग कहते हैं तो बबल कहा करें तो लोग समझेंगे कि आप किसी महिला बबली से बात कर रहे हैं। , अनामी पर डार्लिंग जोडने से तो लोग यही नहीं समझ पाएंगे कि आप किसी को अनामी बोल रहे है नामी बोल रहे है या हरामी बोल रहे हैं। मेरी बातें सुनकर वे जोर से ठहाका लगाते नहीं बबल कहने पर ज्यादा खतरा है यार अनामी इतना सुदंर और अनोखा सा इकलौता नाम है कि इसको संबोधित करना ज्यादा रसमय लगता है।  

    इसी तरह के रसपूर्ण माहौल में मेरा नाता चल रहा था. मुझसे ज्यादा तो मुझे फोनकरके अक्सर संतोषजी ही बात करते थे। हमशा एचटी हाउस की जगत विख्यात कैंटीन में मुझे बुलाते और खान पान के साथ हमलोग बहुत मामले में बातं भी कर लिया करते ते। उनका एक वीकली कॉलम दरअसल दिल्ली की समस्याओं पर केंद्रित होता था ।. कई बार मैने कॉलम में दी गयी  गलत सूचनाओं जानकारियों  तथ्यों और आंकड़ो की गलती पर ध्यान दिलाया तो मुझे हमेशा लगा कि शायद यह उनको बुरा लगेगा। मगर एक उदार पत्रकार की तरह हमेशा गलतियों पर  अफसोस प्रकट किया और हमेशा बताने के लिए प्रोत्साहित किया। हद तो तब हो गयी जब कुछ प्रसंगों पर लिखने से पहले घर पर फोन करके मुझसे चर्चा कर लेते और आंकड़ो के बारे में सही जानकारी पूछ लेते। उनके द्वारा पूछे जाने पर मैं खुद को बड़ा शर्मसार सा महसूस करता कि क्या सर आप मुझे लज्जितकर रहे हैं । मैं कहां इस लायक कि आपको कुछ बता सकूं। मेरे संकोच पर वे हमेशा कहते थे कि मैं भला तुमको लज्जित करूंगा। साले तेरे काम का तो  मैं सम्मान कर रहा हूं । मुझे पता है कि इस पर जो जानकारी तुम दोगे वह कहीं और से नहीं मिलेगा ही नहीं ।

    उनकी इस तरह की बातें और टिप्पणियां मुझे हमेशा प्रेरित करती और मुझे भी लगता कि काम करने का मेरा तरीका कुछ अलग है। आंकड़ो से मुझे अभी तक बेपनाह प्यार हैं क्योंकि ये आंकड़े ही है जो किसी की सफलता असफलता की पोल खोलती है। हालांकि अब नेता नौकरशाह इसको लेकर काफी सजग और सतर्क भी हो गए हैं मगर आंकडों की जुबानी रेस में ज्यादातर खेलबाजों की गाड़ी पटरी से उतर ही जाती है। संतो,जी र मेरा प्यार और नेह का नाता जगजाहिर होने की बजाय लगातार फोन र कैंटीन तक ही देखा जाता। हम आपस में क्या गूफ्तगू करते यह भी हमारे बीच में ही रहता।

    एक वाक्या सुनादूं कि जब वे मयूरविहार फेज टू  में रहते थे तो मैं अपने जीवन में पहली और आखिरी बार किसी पर्व में मिठाई का एक पैकेट लेकर खोजते खोजते सुबह उनके घर पर जा पहुंचा। । घर के बाहर दालानव में मां बैठी थी। मैने उनसे पूछा क्या आप संतो,जी की मां है ?मेरे सवाल पर चकित नेत्रों से मुझे देखते हुए  अपने अंचल की लोक भाषा में कुछ कहा जिसका सार था कि हां । मैने उनके पैर छूए और तब मेरा अगला सवालथा कि क्या वे घर पर हैं ?मां के कुछ कहने से पहले ही तब तक भीतर से उनकी आवाज आई जी हा अनामी डार्लिंगजी संतोष जी घर पर हैं आप अंदर आईए। उनकी आवाज सुनकर मां ने जाने का रास्ता बना दिया तो मैं अंदर जा पहुंचा।

    मेरे हाथ में मिठाई का डिब्बा देखकर वे बोल पड़े ये क्या है ?थोडा तैश में बोले गजब करते हो छोटे भाई हो और बड़े भाई के यहां मिठाई लेकर आ गए। अरे बेशरम मिठाई खाने आना चाहिए ना कि लाना । मैं भी थोडा झेंपते हे कहा आज दीवाली था और ऐप दिल्ली के पहले पत्रकार हो जिसके घर मैं आया हूं। तो मुझे ही आखिरी पत्रकार भी रखना जब किसी पत्रकार के यहां जाओगे मिठाई लेकर तो वह तेरी ईमानदारी पर संदेह करेगा कि घर में मिठाई के कुछ डिब्बे आ गए तो लगे पत्रकारों में बॉटकर अपनी चौधराहट दिखाने। कुछ देर के बाद जब मैं जाने लगा तो मुझे मिठाई के दो डिब्बे तमाया एक तो मेरी तरफ से तुमको और दूसरा डिब्बा जो लाया था उसके एवज में यह दूसरा डिब्बा । मै दोनों डिब्बे थामकर जोर से हंसने लगा,तो वे थोडा असहज से होते हे सवाल किया कि क्या हुआ?मैंने कहा कि अब चौधराहट मैं नहीं आप दिखा रहे हैं। फिर हमलोग काफी देर तक खिलखिलाते रहे और अंत में फिर चाय पीकर घर से बाहर निकला। दीपावली या होली पर जब कभी शराब की बोतल या कभी कभी बंद पेटी में दर्जनों बोतल शराब की घर पहुंचा देने पर ही मैं अपने उन मित्रों को याद करता जिनके ले यह एक अनमोल उपहार होती। बाद में कई विधायकों को फोन करके दोबारा कभी भी शराब ना भेजने का आग्रह करना पड़ता ताकि मुझे से कपाने के लिए परिश्रम ना करना पड़े।

    इसी तरह 1996 के लोकसभा चुनाव में बाहरी दिल्ली के सांसद सज्जन कुमार  की एक प्रेसवार्ता में मैं संतोषजी के साथ ही था। मगर सज्जन कुमार के बगल में एक मोटा सा आदमी बैठा था । दोनों आपस में कान लगाकर सलाह मशविरा कर रहे थे। बातचीत के दौरान भी अक्सर उनकी कनफुसियाहट जारी रही।  प्रेस कांफ्रेस खत्म होने के बाद मैं दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के तालकटोरा रोड वाले दफ्तर के बाहर खडा ही था कि सज्जन कुमार के उसी मोटे चमच्चे पर मेरी नजर गयी। तीसरी दफा अंदर से निकल कर अपनी गाड़ी तक जाना और लौटने की कसरता के बीच मैने हाथ जोडते हुए अभिवादन के साथ ही पकड़ लिया। माफ करेंगे सर मैं आपको पहचाना नहीं ?दैनिक जारगण के रिपोर्टर ज्ञानेन्द्र सिंह मेरे साथ था। मैने अपना और ज्ञानेन्द्र का परिचय दिया तो वो बोल पडा अरे मैं गोस्वामी एचटी से । मगर इस क्षणिक परिचय से मैं उनको पहचान नहीं सका। तब जाकर हिन्दुस्तान के चीफ रिपोर्टर रमाकांत गोस्वामी का खुलासा हुआ। मैने कहा कि सर आप मैं तो सज्जन का कोई पावर वाला चमच्चा मान रहा था। मेरे यह कहने पर वे झेंप से गए मगर तभी उन्होने हाथ में लिए अंडे पकौडे और निरामिष नाश्ते को दिखाकर पूछा कुछ लोगे ?मैने उनसे पूछा कि क्या आप लेते है ?तो वे एक अंहकार भाव से बोले मैं तो पंडित हूं ?तब मैंने तुरंत पलटवार किया मैं तो महापंडित हूं इसको छूता तक नहीं।  मेरी बातों से वे बुरी तरह शर्मसार हो उठे। मगर कभी दफ्तर में आकर मिलने का न्यौता देकर अपनी जान बचाई। मैने इस घटना को संतोषजी को सुनाया तो मेरी हिम्मत की दाद दी। हंसते हे कहा की ठीक किय़ा जो लोग पत्रकार होकर चमच्चा बन जाने में ज्यादा गौरव मानते हैं उनके साथ इस तरह का बर्ताव जरूरी है।

    शांतभाव से एक प्यार लगाव भरा हमारा रिश्ता चल रहा था कि एकाएक पता लगा कि वे अब दैनिक जागरम में चले गे. इस खबर पर ज्यादा भाव ना देकर मैं अकबार अपने भारतीय जनसंचार संश्थान काल वाले मित्र पेन्द्र पांडेय से मिलने जागरण पहुंचा तो संयोग से वहीं परसंतोषजी से मुलाकात हुई। जागरण के कुछ स्पेशल पेज में आए व्यापक परिवर्तनों पर मैने पेन्द्र से तारीफ री तो पता चला कि आजकल इसे संतोषजी ही देखरहे हैं। तब मैने पूरे उल्लास के साथ उनके काम के ने अंदाज पर सार्थक प्रतिक्रिया दी। मैने यह महसूस किया कि वे हमेशा मेरी बातों या सुझावों को ध्यान से लेते थे। मैने कहा भी कि आप आए हैं तो भगवती जागरण में धुंवा तो प्रज्जवलित होनी ही चाहिए। मेरी बातों को सुनकर संतोषजी ने फिर कहा अनामी तेरी राय विचारों का मैं बड़ा कद्र करता हूं क्योंकि तुम्हारा नजरिया बहुतों से अलग होता है। यहसुनकर मैने अपना सिर इनके समक्ष झुका लिया तो व गदगद हो उठे। उन्होने कहा तेरी यही विन्रमता ही तेरा सबसे बडा औजार है । लेखन में एकदम कातिल और व्यक्तिगत तौर पर एकदम सादा भोला चेहरा। अपनी तारीफ की बातें सुनकर मैं मारे शरम के  धरती में गडा जा रहा था।


    जागऱण छोड़कर उपेन्द्र के साथ चंड़ीगढ बतौर संपादक दैनिक ट्रिब्यून में चले गे। 1990-91 में लेखन के आंधी तूफानी दौर में कई फीचर एजेसियों के मार्फत ट्रिब्यून में मेरी दर्जनों रपट लेख और फीचर छप चुके थे। 193 में मैं जब चंडीगढ़ एक रिपोर्ट के सिलसिसे में गया तो उस समय के ट्रिब्यून संपादक  विजय सहगल जी से मिला। परिचय बताने पर वे एकदम चौंक गए। बेसाख्ता उन्होने कहा अरे अनामी मैं तो अभी तक अनामी शरण बबल को  40-45 साल का समझ रहा था पर  आप तो बहुत सारे प्रसंगों पर रोचक लिखते हैं । सहगल जी की बाते सुनकर मैं भी हंसने लगा। और लगभग यही प्रतिक्रिया थी पहले चौथी दुनिया और बाद में राष्ट्रीय सहारा के पटना ब्यूरो प्रमुख परशुराम शर्मा की।। 1995 में एक दिन नोएडा स्थित सहारा दफ्तर में अचानक वे मुझे मिल गए। परिचय होने पर उन्होने मुझे गले से लगा लिया अरे बाप रे बाप कितना लिखता है तू । मैं तो तुम्हें कोई उम्रदराज अधेड़ सा होने की सोच रहा था पर तू तो एकदम बच्चा निकला। दो दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी उनका स्नेह बरकरार है।  इन टिप्पणियों से जहां पहले मुझे और अधिक लिखने का बल मिलता था, वहीं अब लगता है मानों लिखने का जोश ही उतर सा गया हो। बहुत कुछ लिखना चाहता हूं। उसके लिए सारी तैयारी भी कर लेता हूं मगर लिखने की बारी आते आते काफी समय बीत सा जाता है। मेरी डायरी में सैकड़ों विषय लोग और रिर्पोटों की वेटिंग लिस्ट इतनी लंबी है कि सबों को कन्फर्म करना सरल नहीं लगता। कभी कभी मैं लेखन और लिखने की रफ्तार तथा छपने की लगातार बारिश पर सोचता हूं तो अब मैं खुद चौंक जाता हूं। पहले लगता था कि मेरे हाथ में सरस्वती का वास हो लंबा लिखना मेरा रोग था। कम शब्दों मे लिखना कठिन होता था बस कलम उठाया तो नदिया बह चली वाली हालत थी। पर अब लगता है मैनो लेखन का खुमार ही पूरी तरह खत्म हो गया हो।
    मुझे कई बार चंडीगढ भी बुलाया पर मैं जाकर मिल ना सका। उपेन्द्र पांडेय ने मुझे दिल्ली का भी फोन नंबर दिया और कई बार बताया भी कि संतोष जी अभी दिल्ली में ही हैं, मगर मैं ना मिल सका और ना ही बातचीत ही हो सकी। अभी पिछले ही माह उपेन्द्र ने फोन करके कहा कि अब माफी नहीं मिलेगी तुम चंडीगढ़ में आओ बहुत सारे मित्र तुमसे मिलने के लिए बेताब है।  और मैं भी अप्रैल में दो तीन दिन के लिए जाना चाह रहा था इसी बहाने अपनी मीरा मां औ रमेश गौत्तम पापा समेत अजय गौत्तम और छोटे भाई के साथ एक प्यारी सी बहन से भी मिलता। कभी हजारीबाग में रहकर धूम मचाने वाले ज्योतिषी पंडित ज्ञानेश  भारद्वाज की भी आजकल चंडीगढ में तूती बोल रही है. संतोष जी के साथ एक पूरे दिन रहने और संपादक के काम काज और तमम बातों पर चर्चा करने के लिए मैं अभी मानसिक तौर पर खुद को तैयार ही कर रहा था कि कल रात 11 बजे एकाएक फेसबुक पर भडास4मीडिया में यह खबर देखकर मैं सन्न रह गया। ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे रूठ गए हो मुझसे । कोई उलाहना दे रहे हो कि साले दो साल से बुला रहा हूं तो तेरे को फुर्सत नहीं थी तो ठीक है अब तू चंडीगढ़ आ तो सहीं पर अब मेरे पास भी तुमसे मिलने का समय नहीं।

    मैं इस लेख को देर रात तक जागकर कल ही लिख देना चाह रहा था पर एसा लगा मेरे सामने संतोषजी इस कदर मानों आकर बैठ गए हो कि मेरे लिए उनकी यादों से निकलना और शब्द देना संभव नहीं हो पाया। और अंतत पौने एक बजे रात को मैने अपना कम्प्यूटर बंद दिया। आज सुबह से ही मेरे भीतर संतोषजी समाहित से हैं। लगता है मानो वे मेरे लेख को देख रहे हो और जल्दी जल्दी लिखने को उकसा रहे हो। आमतौर पर मेरे नयन जल्दी सजल नहीं होते मगर हिन्दी पत्रकारिता ने जहां एक सुयोग्य उत्साही और अपने सहकर्मियों को अपने परिवार का सदस्य सा मानकर प्यार और स्नेह देने वाले संतो, तिवारी जैसे कितने लोग बचे हैं। दिल्ली में कितने कम लोग रह गए है, जो अपने सहकर्मियों को साथ हमेशा जुडे रहते थे ?उपेन्द्र पांडेय के लाख उलाहना और आने के लिए प्रेसर बनाने के बाद भी अब तो फिलहाल चंडीगढ जाने का उत्साह ही नरम पड़ गया। किस मुंह से जाउं या किसके लिए ?फिलहाल तो संतोष जी  की अनुपस्थिति गैरमौजूदगी ही मेरे को काट रही है। मुझे बारबार अनामी डार्लिंग की ध्वनि सुनाई पड़ रही है कि दिल्ली जैसे शहर में संतोषजी के अलावा और कौन दूसरा है जो अनामी डार्लिंग कहकर अपना प्यार स्नेह और वात्सल्य दिखला सके।

    और अंत में -----माफ करेंगे प्रदीप संगम जी ओम प्रकाश तपस जी और आदित्य अवस्थी जी । आलोक तोमर जी पर तो एक लेख लिखकर मैं अपना प्यार तकरार इजहार कर चुका हूं। मगर आप तीनों  पर अब तक ना लिखने का कर्ज बाकी है। मेरा एक पूरा एक लेख आपलोगों पर हो यह तो जल्द से जल्द लिखने का मेरा प्रयास होगा। फिलहाल  तो इस मौके पर केवल कुछ यादों की झांकी। संगम जी से मैं सहारनपुर से जुडा था। जिंदगी में बतौर वेतन यह मेरी पहली नौकरी थी। शहर अनजाना और लोग पराय़े। मगर डा. रवीन्द्र अग्रवाल और प्रदीप संगम ने मुझे एक सप्ताह के अंदर  शहर की तमाम बारीक जानकारियों से अवगत कराया। संगम जी के घर के पास में ही मैं भी किराये पर रहता था तो सुबह की चाय के साथ देर रात तक संगम क्लास जारी रहता। भाभी का व्यावहार स्नेह और मिलनसार स्वभाव ने मन के भीतर की लज्जा संकोच को खत्म कर दिया और संगम जी का घर एक तरह से हमारे लिए जब मन चाहा चले गए या मांग लिए सा अपना घर हो गया था। बाद में संगमजी दिल्ली हिन्दुस्तान में आए तो 1988 की बहुत  सारी यादें सजीव हो गयी। हमलोग क्नॉट प्लेस में अक्सर साथ रहते। मगर सपरिवार संगम जी हिमाचल प्रदेस घूमने क्या गए कि पहाड की वादियों में ही एकाएक वे हमलोग से अलविदा कहकर विदाई ले ली।
    यह सदमा था ही कि नवभारत टाईम्स में काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश तपस जी और आदित्य अवस्थी एकाएक हमारे बीच से चले गए।  बात 1994 की है जब मैंने दिल्ली के दो गांवों पर एक स्टोरी की। दिल्ली और साक्षरता अभियान को शर्मसार करने वाले दो गांव पुर और बदरपुर यमुना नदी के मुहाने पर है। मैं जहांगीरपुरी के निर्दलीय विधायक कालू भैय्या को तीन किलोमीटर पैदल लेकर इस गांव में पहुंचा । और मुस्लिम बहुल इस गांव की बदहाली पर मार्मिक रपट की। राष्ट्रीय सहारा में खबर तो पहले छपी मगर हमारे डेस्क के महामहिमों  के चलते यह खबर पहले पेज पर ना लेकर भीतर के किसी पेज में डाल दिया। अगले दिन मैने काफी नाराजगी भी दिखाई मगर चिडिया चूग गयी खेत वाली हालत थी। खबर छपकर भी मर गयी थी, मगर एक सप्ताह के भीतर ही नवभारत टाईम्स के पहले पेज के बॉटम में यही खबर छपी। दिल्ली के दो अंगूठा टेक गांव। खबर छपने पर दिल्ली में नौकरशाही स्तर पर हाहाकार मचा। सरकार सजग हुई और एक माह के अंदर पुर्नवास साक्षरता आदि की व्यवस्था करा दी गयी।  मैने खबर की चोरी पर तपस जी से फोन पर आपत्ति की। मैने कहा कि आपको खबर ही करनी थी तो एकम बार तो मुझसे बात कर लेते मैं आपको और कितने टिप्स दे देता। मेरी बातों पर नाराज होने की बजाय तपस जी ने खेद जताया और मिलने को कहा। और जब हम मिले तो जिस प्यार उमंग उत्साह और आत्मीयता से मुझसे मिले कि मेरे मन का सारा मैल ही धुल गया। हमलोग करीब 16-17साल तक प्यार और स्नेह के बंधन में रहे। इस दौरान बहुत सारी बातें हुई और वे सदैव मुझे अपने प्यार और स्नेह से अभिभूत रखा। मगर एक दिन एकाएक सुबह सुबह तपस जी के भी रूठने की खबर मिली। आदित्य अवस्थी से दर्जन भर मुलाकातों या कभी साथ साथ लंच के बाद भी हम बहुत ज्यादा घनिष्ठ से नहीं थे। मेरा कोई प्यार भरा नाता भी नहीं था, मगर एक दिन उनका फोन आया और दिल्ली पर एक किताब को लेकर अपनी योजना को सामने ऱखते हुए ग्रामीण दिल्ली की बहुत सारी जानकारी आपस में हमलोग शेयर किए। दिल्ली में कभी 364 गांव होते थे। मगर शहरी विकास और नयी दिल्ली की स्थापना के बाद अब दिल्ली में बमुश्किल  200 गांव भी सलामत नहीं है। इसी उजड़ते गांवों की बदहाली पर हमलोग कई मुलाकातों के बाद एक निष्कर्ष पर पहुंचे। दिल्ली विकास प्राधिकरण डीडीए के नाखूनी पंजों से ही आज यहां के गांव कराह रहे है। अपनी पसंद और करीबी सा लगने वाला हर वो,  वो पत्रकार लगातार मेरी नजरों से ओझल हो रहे हैं जिसको मैं भी बहुत पसंद करता हूं।  संतोष तिवारी जी के साथ ही आप सभी को फिर से याद करते हुए बड़ा व्हिवल और भावुक सा महसूसरहा हूं।
    ↧

    प्रबंधन बनाम मीडिया प्रबंधन

    March 26, 2017, 8:57 pm
    ≫ Next: प्रबंदन के प्रकार
    ≪ Previous: संतोष तिवारी पर संतोष करना आसान नहीं / अनामी शरण बबल
    $
    0
    0





     

    प्रबन्धन

    मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

    व्यवसाय एवंसंगठनके सन्दर्भ मेंप्रबन्धन (Management) का अर्थ है - उपलब्ध संसाधनों का दक्षतापूर्वक तथाप्रभावपूर्ण तरीके से उपयोग करते हुए लोगों के कार्यों में समन्वय करनाताकि लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित की जा सके। प्रबन्धन के अन्तर्गतआयोजन (planning), संगठन-निर्माण (organizing), स्टाफिंग (staffing), नेतृत्व करना (leading या directing), तथा संगठन अथवा पहल का नियंत्रण करनाआदि आते हैं।
    संगठन भले ही बड़ा हो या छोटा, लाभ के लिए हो अथवा गैर-लाभ वाला, सेवाप्रदान करता हो अथवा विनिर्माणकर्ता, प्रबंध सभी के लिए आवश्यक है। प्रबंधइसलिए आवश्यक है कि व्यक्ति सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति में अपनाश्रेष्ठतम योगदान दे सकें। प्रबंध में पारस्परिक रूप से संबंधित वह कार्यसम्मिलित हैं जिन्हें सभी प्रबंधक करते हैं। प्रबंधक अलग-अलग कार्यों परभिन्न समय लगाते हैं। संगठन के उच्चस्तर पर बैठे प्रबंधक नियोजन एवं संगठनपर नीचे स्तर के प्रबंधकों की तुलना में अधिक समय लगाते हैं।

    अनुक्रम

    • 1प्रबंध की परिभाषाएँ
      • 1.1अवधारणा
    • 2प्रभावपूर्णता बनाम कुशलता
    • 3प्रबंध की विशेषताएँ
    • 4प्रबंध के उद्देश्य
      • 4.1संगठनात्मक उद्देश्य
        • 4.1.1जीवित रहना
        • 4.1.2लाभ
        • 4.1.3बढ़ोतरी
      • 4.2सामाजिक उद्देश्य
      • 4.3व्यक्तिगत उद्देश्य
    • 5प्रबंध का महत्त्व
    • 6प्रबंध की प्रकृति
      • 6.1प्रबंध एक कला
        • 6.1.1सैद्धांतिक ज्ञान का होना
        • 6.1.2व्यक्तिगत योग्यतानुसार उपयोग
        • 6.1.3व्यवहार एवं रचनात्मकता पर आधारित
      • 6.2प्रबंध एक विज्ञान के रूप में
        • 6.2.1क्रमबद्ध ज्ञान-समूह
        • 6.2.2परीक्षण पर आधारित सिद्धांत
        • 6.2.3व्यापक वैधता
      • 6.3प्रबंध एक पेशे के रूप में
        • 6.3.1भली-भाँति परिभाषित ज्ञान का समूह
        • 6.3.2अवरोधित प्रवेश
        • 6.3.3पेशागत परिषद्
        • 6.3.4नैतिक आचार संहिता
        • 6.3.5सेवा का उद्देश्य
    • 7प्रबंध के स्तर
    • 8प्रबंध के कार्य
      • 8.1नियोजन
      • 8.2संगठन
      • 8.3कर्मचारी नियुक्तिकरण
      • 8.4निदेशन
      • 8.5नियंत्रण
    • 9समन्वय, प्रबंध का सार है
      • 9.1समन्वय की परिभाषाएँ
      • 9.2समन्वय की प्रकृति
      • 9.3समन्वय का महत्व
    • 10इक्कीसवीं शताब्दी में प्रबंध
    • 11प्रबंधन के क्षेत्र, श्रेणियां और कार्यान्वयन
    • 12इन्हें भी देखें
    • 13सन्दर्भ
    • 14बाहरी कड़ियाँ

    प्रबंध की परिभाषाएँ

    पूर्वानुमान करना तथा योजना बनाना, संगठन बनाना, आदेश देना, समन्वय करना ही प्रबन्धन है। -- हेनरी फेयोल[1]
    ("to manage is to forecast and to plan, to organise, to command, to co-ordinate and to control.")
    प्रबंध परिवर्तनशील पर्यावरण में सीमित संसाधनों का कुशलतापूर्वकउपयोग करते हुए संगठन के उद्देश्यों को, प्रभावी ढंग से प्राप्त करने, केलिए दूसरों से मिलकर एवं उनके माध्यम से कार्य करने की प्रक्रिया है। -- क्रीटनर
    "प्रबंध यह जानने की कला है कि क्या करना है तथा उसे करने का सर्वोत्तम एवं सुलभ तरीका क्या है "----एफ.डब्ल्यू.टेलर "

    अवधारणा

    कईलेखकों ने प्रबंध की परिभाषा दी है। प्रबंध शब्द एक बहुप्रचलित शब्द हैजिसे सभी प्रकार की क्रियाओं के लिए व्यापक रूप से प्रयुक्त किया गया है।वैसे यह किसी भी उद्यम की विभिन्न क्रियाओं के लिए मुख्य रूप से प्रयुक्तहुआ है। उपरोक्त उदाहरण एवं वस्तुस्थिति के अध्ययन से यह स्पष्ट हो गयाहोगा कि प्रबंध वह क्रिया है जो हर उस संगठन में आवश्यक है जिसमें लोग समूहके रूप में कार्य कर रहे हैं। संगठन में लोग अलग-अलग प्रकार के कार्य करतेहैं लेकिन वह अभी समान उद्देश्य को पाने के लिए कार्य करते हैं। प्रबंधलोगों के प्रयत्नों एवं समान उद्देश्य को प्राप्त करने में दिशा प्रदानकरता है। इस प्रकार से प्रबंध यह देखता है कि कार्य पूरे हों एवं लक्ष्यप्राप्त किए जाएँ (अर्थात् प्रभाव पूर्णता) कम-से-कम साधन एवं न्यूनतम लागत (अर्थात् कार्य क्षमता) पर हो।
    अतः प्रबंध को परिभाषित किया जा सकता है कि यह उद्देश्यों को प्रभावीढंग से एवं दक्षता से प्राप्त करने के उद्देश्य से कार्यों को पूरा करानेकी प्रक्रिया है। हमे इस परिभाषा के विश्लेषण की आवश्यकता है। कुछ शब्द ऐसेहैं जिनका विस्तार से वर्णन करना आवश्यक है। ये शब्द हैं-
    (क) प्रक्रिया (ख) प्रभावी ढंग से एवं (ग) पूर्ण क्षमता से।
    परिभाषा में प्रयुक्त प्रक्रिया से अभिप्राय है प्राथमिक कार्य अथवाक्रियाएँ जिन्हें प्रबंध कार्यों को पूरा कराने के लिए करता है। ये कार्यहैं- नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निर्देशन एवं नियंत्रण जिन पर चर्चा इसअध्याय में एवं पुस्तक में आगे की जाएगी।
    प्रभावी अथवा कार्य को प्रभावी ढंग से करने का वास्तव में अभिप्रायः दिएगए कार्य को संपन्न करना है। प्रभावी प्रबंध का संबंध सही कार्य को करने, क्रियाओं को पूरा करने एवं उद्देश्यों को प्राप्त करने से है। दूसरे शब्दोंमें, इसका कार्य अंतिम परिणाम प्राप्त करना है। लेकिन मात्र कार्य कोसंपन्न करना ही पर्याप्त नहीं है इसका एक और पहलू भी है और वह हैकार्यकुशलता अर्थात् कार्य को कुशलतापूर्वक करना।
    कुशलता का अर्थ है कार्य को सही ढंग से न्यूनतम लागत पर करना। इसमें एकप्रकार का लागत-लाभ विश्लेषण एवं आगत तथा निर्गत के बीच संबंध होता है। यदिकम साधनों (आगत) का उपयोग कर अधिक लाभ (निर्गत) प्राप्त करते हैं तो हमकहेंगे कि क्षमता में वृद्धि हुई है। क्षमता में वृद्धि होगी यदि उसी लाभके लिए अथवा निर्गत के लिए कम साधनों का उपयोग किया जाता है एवं कम लागतव्यय की जाती है। आगत साधन वे हैं जो किसी कार्य विशेष को करने के लिएआवश्यक धन, माल उपकरण एवं मानव संसाधन हों। स्वभाविक है कि प्रबंध का संबंधइन संसाधनों के कुशल प्रयोग से है क्योंकि इनसे लागत कम होती है एवं अन्तमें इनसे लाभ में वृद्धि होती है।

    प्रभावपूर्णता बनाम कुशलता

    यहदोनों शब्द अलग-अलग होते हुए भी एक दूसरे से संबंधित हैं। प्रबंध के लिएप्रभावी एवं क्षमतावान दोनों का होना महत्त्वपूर्ण है। प्रभावपूर्णता एवंकौशल दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन इन दोनों पक्षों में संतुलनआवश्यक है तथा कभी-कभी प्रबंध को कुशलता से समझौता करना होता है। उदाहरणके लिए प्रभावपूर्ण होना एवं कुशलता की अनदेखी करना सरल है जिसका अर्थ हैकार्य को पूरा करना लेकिन ऊँची लागत पर। उदाहरण के लिए, माना एक कंपनी कालक्ष्य वर्ष में 8,000 इकाइयों का उत्पादन करना है। इस लक्ष्य को पाने केलिए अधिकांश समय बिजली न मिलने पर प्रबंधक प्रभावोत्पादक तो था लेकिनक्षमतावान नहीं था क्योंकि, उसी निर्गत के लिए अधिक आगत (श्रम की लागत, बिजली की लागत) का उपयोग किया गया। कभी-कभी व्यवसाय कम संसाधनों से माल केउत्पादन पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है अर्थात् लागत तो कम कर दी लेकिननिर्धारित उत्पादन नहीं कर पाए। परिणामस्वरूप माल बाजार में नहीं पहुँचपाया इसलिए इसकी माँग कम हो गई तथा इसका स्थान प्रतियोगियों ने ले लिया। यहकार्यकुशलता लेकिन प्रभावपूर्णता की कमी की स्थिति है क्योंकि माल बाजारमें नहीं पहुँच पाया। इसलिए न्यूनतम लागत पर (कुशलतापूर्वक) प्रबंधक लिएलक्ष्यों को प्राप्त करना (प्रभावोत्पादकता) अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकेलिए प्रभावपूर्णता एवं कुशलता में संतुलन रखना होता है।
    साधारणतया उच्च कार्य कुशलता के साथ उच्च प्रभावपूर्णता होती है जो किसभी प्रबंधकों का लक्ष्य होता है। लेकिन बगैर प्रभावपूर्णता के उच्च कार्यकुशलता पर अनावश्यक रूप से जोर देना भी अवांछनीय है। कमजोर प्रबंधनप्रभावपूर्णता एवं कार्यकुशल दोनाें की कमी के कारण होता है।

    प्रबंध की विशेषताएँ

    कुछ परिभाषाओं के अध्ययन के पश्चात् हमें कुछ तत्वों का पता लगता है जिन्हें हम प्रबंध की आधारभूत विशेषताएँ कहते हैं।
    • (क)प्रबंध एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है- किसी भी संगठन केकुछ मूलाधार उद्देश्य होते हैं जिनके कारण उसका अस्तित्व है। यह उद्देश्यसरल एवं स्पष्ट होने चाहिएँ। प्रत्येक संगठन के उद्देश्य भिन्न होते हैं।उदाहरण के लिए एक फुटकर दुकान का उद्देश्य बिक्री बढ़ाना हो सकता है लेकिन‘दि स्पास्टिकस सोसाइटी ऑफ इंडिया’ का उद्देश्य विशिष्ट आवश्यकता वालेबच्चों को शिक्षा प्रदान करना है। प्रबंध संगठन के विभिन्न लोगों केप्रयत्नों को इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु एक सूत्र में बाँधता है।
    • (ख)प्रबंधसर्वव्यापी है- संगठन चाहे आर्थिक हो या सामाजिक याफिर राजनैतिक, प्रबंध की क्रियाएँ सभी में समान हैं। एक पेट्रोल पंप केप्रबंध की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी की एक अस्पताल अथवा एक विद्यालय कीहै। भारत में प्रबंधकों का जो कार्य है वह यू- एस- ए-, जर्मनी अथवा जापानमें भी होगा। वह इन्हें कैसे करते हैं यह भिन्न हो सकता है। यह भिन्नता भीउनकी संस्कृति, रीति-रिवाज एवं इतिहास की भिन्नता के कारण हो सकती है।
    • (ग)प्रबंध बहुआयामी है- प्रबंध एक जटिल क्रिया है जिसके तीन प्रमुख परिमाण हैं, जो इस प्रकार हैं-
    ·         (अ)कार्य का प्रबंध-सभी संगठन किसी न किसी कार्य को करने केलिए होते हैं। कारखाने में किसी उत्पादक का विनिर्माण होता है तो एक वस्त्रभंडार में ग्राहक के किसी आवश्यकता की पूर्ति की जाती है जबकि अस्पताल मेंएक मरीज का इलाज किया जाता है। प्रबंध इन कार्यों को प्राप्य उद्देश्योंमें परिवर्तित कर देता है तथा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के मार्गनिर्धारित करता है। इनमें सम्मलित हैं-समस्याओं का समाधान, निर्णय लेना, योजनाएँ बनाना, बजट बनाना, दायित्व निश्चित करना एवं अधिकारों काप्रत्यायोजन करना।
    ·         (आ)लोगों का प्रबंध- मानव संसाधन अर्थात् लोग किसी भी संगठन कीसबसे बड़ी संपत्ति होते हैं। तकनीक में सुधारों के बाद भी लोगों से कामकरा लेना आज भी प्रबंधक का प्रमुख कार्य है। लोगों के प्रबंधन के दो पहलूहैं-
    (१) प्रथम तो यह कर्मचारियों को अलग-अलग आवश्यकताओं एवं व्यवहार वाले व्यक्तियों के रूप में मानकर व्यवहार करता है।
    (२) दूसरे यह लोगों के साथ उन्हें एक समूह मानकर व्यवहार करता है।प्रबंध लोगों की ताकत को प्रभावी बनाकर एवं उनकी कमजोरी को अप्रसांगिकबनाकर उनसे संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए काम कराता है।
    ·         (इ)परिचालन का प्रबंध-संगठन कोई भी क्यों न हो इसका आस्तित्वकिसी न किसी मूल उत्पाद अथवा सेवा को प्रदान करने पर टिका होता है। इसकेलिए एक ऐसी उत्पादन प्रक्रिया की आवश्यकता होती है जो आगत माल को उपभोग केलिए आवश्यक निर्गत में बदलने के लिए आगत माल एवं तकनीक के प्रवाह कोव्यवस्थित करती है। यह कार्य के प्रबंध एवं लोगों के प्रबंध दोनाें सेजुड़ी होती है।
    • (घ)प्रबंध एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है- प्रबंध प्रक्रियानिरंतर, एकजुट लेकिन पृथक-पृथक कार्यों (नियोजन संगठन, निर्देशननियुक्तिकरण एवं नियंत्रण) की एक शृंखला है। इन कार्यों को सभी प्रबंधक सदासाथ-साथ ही निष्पादित करते हैं। तुमने ध्यान दिया होगा फैबमार्ट मेंसुहासिनी एक ही दिन में कई अलग-अलग कार्य करती हैं। किसी दिन तो वह भविष्यमें प्रदर्शनी की योजना बनाने पर अधिक समय लगाती हैं तो दूसरे दिन वहकर्मचारियों की समस्याओं को सुलझाने में लगी होती हैं। प्रबंधक के कार्योंमें कार्यों की शृंखला समंवित है जो निरंतर सक्रिय रहती है।
    • (ङ)प्रबंध एक सामूहिक क्रिया है- संगठन भिन्न-भिन्न आवश्यकतावाले अलग- अलग प्रकार के लोगों का समूह होता है। समूह का प्रत्येक व्यक्तिसंगठन में किसी न किसी अलग उद्देश्य को लेकर सम्मिलित होता है लेकिन संगठनके सदस्य के रूप में वह संगठन के समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्यकरते हैं। इसके लिए एक टीम के रूप में कार्य करना होता है एवं व्यक्तिगतप्रयत्नों में समान दिशा में समन्वय की आवश्यकता होती है। इसके साथ हीआवश्यकताओं एवं अवसरों में परिवर्तन के अनुसार प्रबंध सदस्यों को बढ़ने एवंउनके विकास को संभव बनाता है।
    • (च)प्रबंध एक गतिशील कार्य है- प्रबंध एक गतिशील कार्य होता हैएवं इसे बदलते पर्यावरण में अपने अनुरूप ढालना होता है। संगठन बाह्यपर्यावरण के संपर्क में आता है जिसमें विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवंराजनैतिक तत्व सम्मिलित होते हैं सामान्यता के लिए संगठन को, अपने आपको एवंअपने उद्देश्यों को पर्यावरण के अनुरूप बदलना होता है। शायद आप जानते हैंकि फास्टफूड क्षेत्र के विशालकाय संगठन मैकडोनल्स ने भारतीय बाजार में टिकेरहने के लिए अपनी खान-पान सूची में भारी परिवर्तन किए।
    • (छ)प्रबंध एक अमूर्त शक्ति है- प्रबंध एक अमूर्त शक्ति है जोदिखाई नहीं पड़ती लेकिन संगठन के कार्यों के रूप में जिसकी उपस्थिति कोअनुभव किया जा सकता है। संगठन में प्रबंध के प्रभाव का भान योजनाओं केअनुसार लक्ष्यों की प्राप्ति, प्रसन्न एवं संतुष्ट कर्मचारी के स्थान परव्यवस्था के रूप में होता है।

    प्रबंध के उद्देश्य

    प्रबंधकुछ उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कार्य करता है। उद्देश्य किसी भीक्रिया के अपेक्षित परिणाम होते हैं। इन्हें व्यवसाय के मूल प्रयोजन सेप्राप्त किया जाना चाहिए। किसी भी संगठन के भिन्न-भिन्न उद्देश्य होते हैंतथा प्रबंध को इन सभी उद्देश्यों को प्रभावी ढंग से एवं दक्षता से पानाहोता है। उद्देश्यों को संगठनात्मक उद्देश्य, सामाजिक उद्देश्य एवंव्यक्तिगत उद्देश्यों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

    संगठनात्मक उद्देश्य

    प्रबंध, संगठन के लिए उद्देश्यों के निर्धारण एवं उनको पूरा करने के लिए उत्तरदायीहोता है। इसे सभी क्षेत्रें के अनेक प्रकार के उद्देश्यों को प्राप्त करनाहोता है तथा सभी हितार्थियों जैसे-अंशधारी, कर्मचारी, ग्राहक, सरकार आदिके हितों को ध्यान में रखना होता है। किसी भी संगठन का मुख्य उद्देश्य मानवएवं भौतिक संसाधनों के अधिकतम संभव लाभ के लिए उपयोग होना चाहिए। जिसकातात्पर्य है व्यवसाय के आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करना। ये उद्देश्य हैं-अपने आपको जीवित रखना, लाभ अर्जित करना एवं बढ़ोतरी।

    जीवित रहना

    किसीभी व्यवसाय का आधारभूत उद्देश्य अपने अस्तित्व को बनाए रखना होता है।प्रबंध को संगठन के बने रहने की दिशा में प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिएसंगठन को पर्याप्त धन कमाना चाहिए जिससे कि लागतों को पूरा किया जा सके।

    लाभ

    व्यवसायके लिए इसका बने रहना ही पर्याप्त नहीं है। प्रबंध को यह सुनिश्चित करनाहोता है कि संगठन लाभ कमाए। लाभ उद्यम के निरंतर सफल परिचालन के लिए एकमहत्त्वपूर्ण प्रोत्साहन का कार्य करता है। लाभ व्यवसाय की लागत एवंजोखिमों को पूरा करने के लिए आवश्यक होता है।

    बढ़ोतरी

    दीर्घअवधि में अपनी संभावनाओं में वृद्धि व्यवसाय के लिए बहुत आवश्यक है। इसकेलिए व्यवसाय का बढ़ना बहुत महत्त्व रखता है। उद्योग में बने रहने के लिएप्रबंध को संगठन विकास की संभावना का पूरा लाभ उठाना चाहिए। व्यवसाय केविकास को विक्रय आवर्त, कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि या फिर उत्पादोंकी संख्या या पूँजी के निवेश में वृद्धि आदि के रूप में मापा जा सकता है।

    सामाजिक उद्देश्य

    समाजके लिए लाभों की रचना करना है। संगठन चाहे व्यावसायिक है अथवा गैरव्यावसायिक, समाज के अंग होने के कारण उसे कुछ सामाजिक दायित्वों को पूराकरना होता है। इसका अर्थ है समाज के विभिन्न अंगों के लिए अनुकूल आर्थिकमूल्यों की रचना करना। इसमें सम्मिलित हैं- उत्पादन के पर्यावरण भिन्नपद्धति अपनाना, समाज के लोगों से वंचित वर्गों को रोजगार के अवसर प्रदानकरना एवं कर्मचारियों के लिए विद्यालय, शिशुगृह जैसी सुविधाएँ प्रदान करना।आगे बॉक्स में एक निगमित सामाजिक दायित्व को पूरा करने वाले संगठन काउदाहरण दिया गया है।

    व्यक्तिगत उद्देश्य

    संगठनउन लोगों से मिलकर बनता है जिनसे उनका व्यक्तित्व, पृष्ठभूमि, अनुभव एवंउद्देश्य अलग-अलग होते हैं। ये सभी अपनी विविध आवश्यकताओं को संतुष्टि हेतुसंगठन का अंग बनते हैं। यह प्रतियोगी वेतन एवं अन्य लाभ जैसी वित्तीयआवश्यकताओं से लेकर साथियों द्वारा मान्यता जैसी सामाजिक आवश्यकताओं एवंव्यक्तिगत बढ़ोतरी एवं विकास जैसी उच्च स्तरीय आवश्यकताओं के रूप मेंअलग-अलग होती हैं। प्रबंध को संगठन में तालमेल के लिए व्यक्तिगत उद्देश्योंका संगठनात्मक उद्देश्यों के साथ मिलान करना होता है।

    प्रबंध का महत्त्व

    प्रबंधएक सार्वभौमिक क्रिया है जो किसी भी संगठन का अभिन्न अंग है। अब हम उन कुछकारणों का अध्ययन करेंगे जिसके कारण प्रबंध इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है-
    • (क)प्रबंध सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है- प्रबंध की आवश्यकता प्रबंध के लिए नहीं बल्कि संगठन के उद्देश्यों कीप्राप्ति के लिए होती है। प्रबंध का कार्य संगठन के कुल उद्देश्य कोप्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत प्रयत्न को समान दिशा देना है।
    • (ख)प्रबंध क्षमता में वृद्धि करता है- प्रबंधक का लक्ष्य संगठनकी क्रियाओं के श्रेष्ठ नियोजन, संगठन, निदेशन, नियुक्तिकरण एवं नियंत्रणके माध्यम से लागत को कम करना एवं उत्पादकता को बढ़ाना है।
    • (ग)प्रबंध गतिशील संगठन का निर्माण करता है- प्रत्येक संगठन काप्रबंध निरंतर बदल रहे पर्यावरण के अंतर्गत करना होता है। सामान्यतः देखागया है कि किसी भी संगठन में कार्यरत लोग परिवर्तन का विरोध करते हैंक्योंकि इसका अर्थ होता है परिचित, सुरक्षित पर्यावरण से नवीन एवं अधिकचुनौतीपूर्ण पर्यावरण की ओर जाना। प्रबंध लोगों को इन परिवर्तनों को अपनानेमें सहायक होता है जिससे कि संगठन अपनी प्रतियोगी श्रेष्ठता को बनाए रखनेमें सफल रहता है।
    • (घ)प्रबंध व्यक्तिगत उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होता है- प्रबंधक अपनी टीम को इस प्रकार से प्रोत्साहित करता है एवं उसका नेतृत्वकरता है कि प्रत्येक सदस्य संगठन के कुल उद्देश्यों में योगदान देते हुएव्यक्तिगत उद्देश्यों को प्राप्त करता है। अभिप्रेरणा एवं नेतृत्व केमाध्यम से प्रबंध व्यक्तियों को टीम-भावना, सहयोग एवं सामूहिक सफलता केप्रति प्रतिबद्धता के विकास में सहायता प्रदान करता है।
    • (ङ)प्रबंध समाज के विकास में सहायक होता है- संगठनबहुउद्देश्यीय होता है जो इसके विभिन्न घटकों के उद्देश्यों को पूरा करताहै। इन सबको पूरा करने की प्रक्रिया में प्रबंध संगठन के विकास में सहायकहोता है तथा इसके माध्यम से समाज के विकास में सहायक होता है। यह श्रेष्ठगुणवत्ता वाली वस्तु एवं सेवाओं को उपलब्ध कराने, रोजगार के अवसरों को पैदाकरने, लोगों के भले के लिए नयी तकनीकों को अपनाने, बुद्धि एवं विकास केरास्ते पर चलने में सहायक होता है।

    प्रबंध की प्रकृति

    प्रबंधइतना ही पुराना है जितनी की सभ्यता। यद्यपि आधुनिक संगठन का उद्गम नया हीहै लेकिन संगठित कार्य तो सभ्यता के प्राचीन समय से ही होते रहे हैं।वास्तव में संगठन को विशिष्ट लक्षण माना जा सकता है जो सभ्य समाज को असभ्यसमाज से अलग करता है। प्रबंध के प्रारंभ के व्यवहार वे नियम एवं कानून थेजो सरकारी एवं वाणिज्यिक क्रियाओं के अनुभव से पनपे। व्यापार एवं वाणिज्यके विकास से क्रमशः प्रबंध के सिद्धांत एवं व्यवहारों का विकास हुआ।
    ‘प्रबंध’ शब्द आज कई अर्थों में प्रयुक्त होता है जो इसकी प्रकृति केविभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं। प्रबंध के अध्ययन का विकास बीते समय मेंआधुनिक संगठनों के साथ-साथ हुआ है। यह प्रबंधकों के अनुभव एवं आचरण तथासिद्धांतों के संबध समूह दोनों पर आधारित रहा है। बीते समय में इसका एकगतिशील विषय के रूप में विकास हुआ है। जिसकी अपनी विशिष्ट विशेषताएँ हैं।लेकिन प्रबंध की प्रकृति से संबंधित एक प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक है किप्रबंध विज्ञान है या कला है या फिर दोनों है? इसका उत्तर देने के लिए आइएविज्ञान एवं कला दोनों की विशेषताओं का अध्ययन करें तथा देखें कि प्रबंधकहाँ तक इनकी पूर्ति करता है।

    प्रबंध एक कला

    कलाक्या है? कला इच्छित परिणामों को पाने के लिए वर्तमान ज्ञान का व्यक्तिगतएवं दक्षतापूर्ण उपयोग है। इसे अध्ययन, अवलोकन एवं अनुभव से प्राप्त कियाजा सकता है। अब क्योंकि कला का संबंध ज्ञान के व्यक्तिगत उपयोग से है इसलिएअध्ययन किए गए मूलभूत सिद्धांतों को व्यवहार में लाने के लिए एक प्रकार कीमौलिकता एवं रचनात्मकता की आवश्यकता होती है। कला के आधारभूत लक्षण इसप्रकार हैं-

    सैद्धांतिक ज्ञान का होना

    कलायह मानकर चलती है कि कुछ सैद्धांतिक ज्ञान पहले से है। विशेषज्ञों नेअपने-अपने क्षेत्रों में कुछ मूलभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है जो एकविशेष प्रकार की कला में प्रयुक्त होता है। उदाहरण के लिए नृत्य, जनसंबोधन/भाषण, कला अथवा संगीत पर साहित्य सर्वमान्य है।

    व्यक्तिगत योग्यतानुसार उपयोग

    इसमूलभूत ज्ञान का उपयोग व्यक्ति, व्यक्ति के अनुसार अलग-अलग होता है। कला, इसीलिए अत्यंत व्यक्तिगत अवधारणा है। उदाहरण के लिए दो नर्तक, दो वक्ता, दोकलाकार अथवा दो लेखकों की अपनी कला के प्रदर्शन में भिन्नता होगी।

    व्यवहार एवं रचनात्मकता पर आधारित

    सभीकला व्यवहारिक होती हैं। कला वर्तमान सिद्धांतों को ज्ञान का रचनात्मकउपयोग है। हम जानते हैं कि संगीत सात सुरों पर आधारित है। लेकिन किसीसंगीतकार की संगीत रचना विशिष्ट अथवा भिन्न होती है यह इस बात पर निर्भरकरती है कि इन सुरों का किस प्रकार से संगीत सृजन में प्रयोग किया गया है, जो कि उसकी अपनी व्याख्या होती है।
    प्रबंध एक कला है क्योंकि, यह निम्न विशेषताओं को पूरा करती है-
    • (क) एक सफल प्रबंधक, प्रबंध कला का उद्यम के दिन प्रतिदिन के प्रबंधमें उपयोग करता है जो कि अध्ययन, अवलोकन एवं अनुभव पर आधारित होती है।प्रबंध के विभिन्न क्षेत्र हैं जिनसे संबंधित पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है।ये क्षेत्र हैं- विपणन, वित्त एवं मानव संसाधन जिनमें प्रबंधक को विशिष्टताप्राप्त करनी होती है। इनके सिद्धांत पहले से ही विद्यमान हैं।
    • (ख) प्रबंध के विभिन्न सिद्धांत हैं जिनका प्रतिपादन कई प्रबंधविचारकों ने दिया है तथा जो कुछ सर्वव्यापी सिद्धांतों को अधिकृत करते हैं।कोई भी प्रबंधक इन वैज्ञानिक पद्धतियों एवं ज्ञान को दी गई परिस्थितिमामले अथवा समस्या के अनुसार अपने विशिष्ट तरीके से प्रयोग करता है। एकअच्छा प्रबंधक वह है जो व्यवहार, रचनात्मकता, कल्पना शक्ति, पहल क्षमता आदिको मिलाकर कार्य करता है। एक प्रबंधक एक लंबे अभ्यास के पश्चात् संपूर्णताको प्राप्त करता है। प्रबंध के विद्यार्थी भी अपनी सृजनात्मकता के आधार परइन सिद्धांतों को अलग- अलग ढंग से प्रयुक्त करते हैं।
    • (ग) एक प्रबंध इस प्राप्त ज्ञान का परिस्थितिजन्य वास्तविकता केपरिदृश्य में व्यक्तिनुसार एवं दक्षतानुसार उपयोग करता है। वह संगठन कीगतिविधियों में लिप्त रहता है, नाजुक परिस्थितियों का अध्ययन करता है एवंअपने सिद्धांतों का निर्माण करता है जिन्हें दी गई परिस्थितियों के अनुसारउपयोग में लाया जा सकता है। इससे प्रबंध की विभिन्न शैलियों का जन्म होताहै। सर्वश्रेष्ठ प्रबंधक वह होते हैं जो समर्पित हैं, जिन्हें उच्चप्रशिक्षण एवं शिक्षा प्राप्त हैं, उनमें उत्कट आकांक्षा, स्वयं प्रोत्साहनसृजनात्मकता एवं कल्पनाशीलता जैसे व्यक्तिगत गुण हैं तथा वह स्वयं एवंसंगठन के विकास की इच्छा रखता है।

    प्रबंध एक विज्ञान के रूप में

    प्रबंधकएक क्रमबद्ध ज्ञान-समूह है किन्हीं सामान्य सत्य अथवा सामान्य सिद्धांतोंको स्पष्ट करता है विज्ञान की मूलभूत विशेषताएँ निम्न हैं-

    क्रमबद्ध ज्ञान-समूह

    विज्ञान, ज्ञान का क्रमबद्ध समूह है। इसके सिद्धांत कारण एवं परिणाम के बीच मेंसंबंध आधारित हैं। उदाहरण के लिए, पेड़ से सेब का टूटकर पृथ्वी पर आने कीघटना गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को जन्म देती है।

    परीक्षण पर आधारित सिद्धांत

    वैज्ञानिकसिद्धांतों को पहले अवलोकन के माध्यम से विकसित किया जाता है और फिरनियंत्रित परिस्थितियों में बार-बार परीक्षण कर उसकी जांच की जाती है।

    व्यापक वैधता

    वैज्ञानिक सिद्धांत, वैधता एवं उपयोग के लिए सार्वभौमिक होते हैं।
    उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर हम कह सकते हैं प्रबंध विज्ञान के रूप में कुछ विशेषताओं को धारण करता है-
    • (क) प्रबंध भी क्रमबद्ध ज्ञान-समूह है। इसके अपने सिद्धांत एवं नियमहैं जो समय-समय पर विकसित हुए हैं। लेकिन ये अन्य विषय जैसे-अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान शास्त्र एवं गणित से भी प्रेरित होता है। अन्यकिसी भी संगठित क्रिया के समान प्रबंध की भी अपनी शब्दावली एवं अवधारणाओंका शब्दकोश है। उदाहरण के लिए हम क्रिकेट अथवा फुटबॉल जैसे खेलों पर चर्चाके समय समान शब्दावली का उपयोग करते हैं। खिलाड़ी भी एक दूसरे से बातचीतकरने में इन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार से प्रबंधकों को भीएक दूसरे से संवाद करते समय समान शब्दावली का प्रयोग करना चाहिए तभी वहअपने कार्य की स्थिति को सही रूप में समझ पाएंगे।
    • (ख) प्रबंध के सिद्धांत, विभिन्न संगठनों में बार-बार के परीक्षण एवंअवलोकन के आधार पर विकसित हुए हैं। अब क्योंकि प्रबंध का संबंध मनुष्य एवंमानवीय व्यवहार से है, इसलिए इन परीक्षणों के परिणामों की न तो सहीभविष्यवाणी की जा सकती है और न ही यह प्रतिध्वनित होते हैं। इन सीमाओं केहोते हुए भी प्रबंध के विद्वान प्रबंध के सामान्य सिद्धांतों की पहचान करनेमें सफल रहे हैं। एफ- डब्ल्यू- टेलर के वैज्ञानिक प्रबंध के सिद्धांत एवंहैनरी फेयॉल के कार्यात्मक प्रबंध के सिद्धांत इसके उदाहरण हैं।
    • (ग) प्रबंध के सिद्धांत, विज्ञान के सिद्धातों के समान विशुद्ध नहींहोते हैं और न ही उनका उपयोग सार्वभौमिक होता है। इनमें परिस्थितियों केअनुसार संशोधन किया जाता है। लेकिन यह प्रबंधकों को मानक तकनीक प्रदान करतेहैं जिन्हें भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में प्रयोग में लाया जा सकता है। इनसिद्धांतों का प्रबंधकों को प्रशिक्षण एवं उनके विकास के लिए भी उपयोगकिया जाता है। स्पष्ट है कि प्रबंध विज्ञान एवं कला दोनों की विशेषताएँ लिएहुए है। प्रबंध का उपयोग कला है। लेकिन प्रबंधक और अधिक श्रेष्ठ कार्य करसकते हैं यदि वह प्रबंध के सिद्धांतों का उपयोग करें। कला एवं विज्ञान केरूप में प्रबंध एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं बल्कि पूरक हैं।

    प्रबंध एक पेशे के रूप में

    सभीप्रकार की संगठन प्रक्रियाओं का प्रबंधन आवश्यक है। आपने यह भी अवलोकनकिया होगा कि संगठनों को उनका प्रबंध करने के लिए कुछ विशिष्ट योग्यताओंएवं अनुभव की आवश्यकता होती है। आपने यह भी पाया होगा कि एक ओर तो व्यवसायनिगमित स्वरूप में वृद्धि हुई है तो दूसरी ओर व्यवसाय के प्रबंध पर अधिकजोर दिया जा रहा है। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि प्रबंध एक पेशा है? इसप्रश्न का उत्तर जानने के लिए आइए पेशे की प्रमुख विशेषताओं का अध्ययन करेंएवं देखें कि क्या प्रबंध इनको पूरा करता है। पेशे की निम्न विशेषताएँ हैं

    भली-भाँति परिभाषित ज्ञान का समूह

    सभी पेशे भली-भाँति परिभाषित ज्ञान के समूह पर आधारित होते हैं जिसे शिक्षा से अर्जित किया जा सकता है।

    अवरोधित प्रवेश

    पेशेमें प्रवेश, परीक्षा अथवा शैक्षणिक योग्यता के द्वारा सीमित होती है।उदाहरण के लिए भारत में यदि किसी को चार्टर्ड एकाउंटेंट बनना है तो उसेभारतीय चार्टर्ड एकाउंटेंट संस्थान द्वारा आयोजित की जाने वाली एक विशेषपरीक्षा को पास करना होगा।

    पेशागत परिषद्

    सभीपेशे किसी न किसी परिषद् सभा से जुड़े होते हैं जो इनमें प्रवेश का नियमनकरते हैं कार्य करने के लिए प्रमाण पत्र जारी करते हैं एवं आधार संहितातैयार करते हैं तथा उसको लागू करते हैं। भारत में वकालत करने के लिए वकीलोंको बार काउंसिल का सदस्य बनना होता है जो उनके कार्यों का नियमन एवंनियंत्रण करता है।

    नैतिक आचार संहिता

    सभीपेशे आचार संहिता से बंधे हैं जो उनके सदस्यों के व्यवहार को दिशा देतेहैं। उदाहरण के लिए जब डॉक्टर अपने पेशे में प्रवेश करते हैं तो वह अपनेकार्य नैतिकता की शपथ लेते हैं।

    सेवा का उद्देश्य

    पेशेका मूल उद्देश्य निष्ठा एवं प्रतिबद्धता है तथा अपने ग्राहकों के हितों कीसाधना है। एक वकील यह सुनिश्चित करता है कि उसके मुवक्किल को न्याय मिले।प्रबंध, पेशे के सिद्धांतों को पूरी तरह से पूरा नहीं करता है। वैसे इसमेंकुछ विशेषताएँ होती हैं जो निम्न हैं-
    • (क) पूरे विश्व में प्रबंध विशेष रूप से एक संकाय के रूप में विकसितहुआ है। यह ज्ञान के व्यवस्थित समूह पर आधारित है जिसके भली-भाँति परिभाषितसिद्धांत हैं जो व्यवसाय की विभिन्न स्थितियों पर आधारित हैं। इसका ज्ञानविभिन्न महाविद्यालय एवं पेशेवर संस्थानों में पुस्तकों एवं पत्रिकाओं केमाध्यम से अर्जित किया जा सकता है। प्रबंध को विषय के रूप में विभिन्नसंस्थानों में पढ़ाया जाता है। इनमें से कुछ संस्थानों की स्थापना केवलप्रबंध की शिक्षा प्रदान करने के लिए की गई है जैसे भारत मेंभारतीय प्रबंध संस्थान (IIM)। इन संस्थानों में प्रवेश साधारणायतः प्रवेश परीक्षा के माध्यम से होता है।
    • (ख) किसी भी व्यावसायिक इकाई में किसी भी व्यक्ति को प्रबंधक मनोनीतअथवा नियुक्त किया जा सकता है। व्यक्ति की कोई भी शैक्षणिक योग्यता हो उसेप्रबंधक कहा जा सकता है। चिकित्सा अथवा कानून के पेशे में डॉक्टर अथवा वकीलके पास वैध डिग्री का होना आवश्यक है लेकिन विश्व में भी प्रबंधक के लिएकोई डिग्री विशेष, कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं है। लेकिन यदि इस पेशे काज्ञान अथवा प्रशिक्षण है तो यह उचित योग्यता मानी जाती है। जिन लोगों केपास प्रतिष्ठित संस्थानों की डिग्री अथवा डिप्लोमा हैं उनकी माँग बहुत अधिकहै इस प्रकार से दूसरी आवश्यकता की पूरी तरह से पूर्ति नहीं होती है।
    • (ग) भारत में प्रबंध में लगे प्रबंधकों के कई संगठन हैं जैसे - आई. एम.ए. (ऑल इंडिया मैनेजमेंट एसोशिएसन)। जिसने अपने सदस्यों के कार्यों केनियमन के लिए आचार संहिता बनाई है। लेकिन प्रबंधकों के ऊपर इस प्रकार केसंगठनों का सदस्य बनने के लिए कोई दवाब नहीं है और न ही इनकी कोई वैधानिकमान्यता है।
    • (घ) प्रबंध का मूल उद्देश्य संगठन को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति मेंसहायता करना है। यह उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना हो सकता है या फिर अस्पतालमें सेवा। वैसे प्रबंध का अधिकतम लाभ कमाने का उद्देश्य सही नहीं है तथा यहतेजी से बदल रहा है। इसलिए यदि किसी संगठन के पास एक अच्छे प्रबंधकों कीटीम है जो क्षमतावान एवं प्रभावी है, तो वह स्वयं वही उचित मूल्य परगुणवत्तापूर्ण उत्पाद उपलब्ध करा कर समाज की सेवा कर रहा है।

    प्रबंध के स्तर

    प्रबंधएक सार्वभौमिक शब्द है जिसे, किसी उद्यम में संबंधों के समूह में एक दूसरेसे जुड़े लोगों द्वारा कुछ कार्यों को करने के लिए उपयोग में लाया जाताहै। प्रत्येक-व्यक्ति का संबंधों की इस शृंखला में किसी न किसी कार्य विशेषको पूरा करने का उत्तरदायित्व होता है। इस उत्तरदायित्व को पूरा करने केलिए उसे कुछ अधिकार दिए जाते हैं अर्थात् निर्णय लेने का अधिकार। अधिकारएवं उत्तरदायित्व का यह संबंध व्यक्तियों को अधिकारी एवं अधीनस्थ के रूपमें एक दूसरे को बाँधते हैं। इससे संगठन में विभिन्न स्तरों का निर्माणहोता है। किसी संगठन के अधिकार शृंखला में तीन स्तर होते हैं-
    (क) उच्च स्तरीय प्रबंध-यह संगठन के वरिष्ठतम कार्यकारी अधिकारीहोते हैं जिन्हें कई नामों से पुकारा जाता है। यह सामान्यतः चेयरमैन, मुख्यकार्यकारी अधिकारी, मुख्य प्रचालन अधिकारी, प्रधान, उपप्रधान आदि के नामसे जाने जाते हैं। उच्च प्रबंध, विभिन्न कार्यात्मक स्तर के प्रबंधकों कीटीम होती है। उनका मूल कार्य संगठन के कुल उद्देश्यों को ध्यान में रखतेहुए विभिन्न तत्वों में एकता एवं विभिन्न विभागों के कार्यों में सामंजस्यस्थापित करना है। उच्च स्तर के ये प्रबंधक संगठन के कल्याण एवं निरंतरता केलिए उत्तरदायी होते हैं। फर्म के जीवन के लिए ये व्यवसाय के पर्यावरण एवंउसके प्रभाव का विश्लेषण करते हैं। ये अपनी उपलब्धि के नए संगठन के लक्ष्यएवं व्यूह-रचना को तैयार करते हैं। व्यवसाय के सभी कार्यों एवं उनके समाजपर प्रभाव के लिए ये ही उत्तरदायी होते हैं। उच्च प्रबंध का कार्य जटिल एवंतनावपूर्ण होता है। इसमें लंबा समय लगता है तो संगठन के प्रतिपूर्णप्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है।
    (ख) मध्य स्तरीय प्रबंध- ये उच्च प्रबंधकों एवं नीचे स्तर के बीचकी कड़ी होते हैं, ये उच्च प्रबंधकों के अधीनस्थ एवं प्रथम रेखीयप्रबंधकों के प्रधान होते हैं। इन्हें सामान्यतः विभाग प्रमुख, परिचालनप्रबंधक अथवा संयंत्र अधीक्षक कहते हैं। मध्य स्तरीय प्रबंधक, उच्च प्रबंधद्वारा विकसित नियंत्रण योजनाएँ एवं व्यूह-रचना के क्रियान्वयन के लिएउत्तरदायी होते हैं। इसके साथ-साथ ये प्रथम रेखीय प्रबंधकों के सभी कार्योंके लिए उत्तरदायी होते हैं। इनका मुख्य कार्य उच्च स्तरीय प्रबंधकोंद्वारा तैयार योजनाओं को पूरा करना होता है। इसके लिए
    • (क) उच्च प्रबंधकों द्वारा बनाई गई योजना की व्याख्या करते हैं,
    • (ख) अपने विभाग के लिए पर्याप्त संख्या में कर्मचारियों को सुनिश्चित करते हैं,
    • (ग) उन्हें आवश्यक कार्य एवं दायित्व सौंपते हैं,
    • (घ) इच्छित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अन्य विभागों से सहयोग करतेहैं। इसके साथ-साथ वे प्रथम पंक्ति के प्रबंधकों के कार्यों के लिएउत्तरदायी होते हैं।
    (ग) पर्यवेक्षीय अथवा प्रचालन प्रबंधक- संगठन की अधिकार पंक्तिमें फोरमैन एवं पर्यवेक्षक निम्न स्तर पर आते हैं। पर्यवेक्षक कार्यबल केकार्यों का प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन करते हैं। इनके अधिकार एवं कर्त्तव्यउच्च प्रबंधकों द्वारा बनाई गई योजनाओं द्वारा निर्धारित होती हैं।पर्यवेक्षण, प्रबंधकों की संगठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकियह सीधे वास्तविक कार्य बल से संवाद करते हैं एवं मध्य स्तरीय प्रबंधकों केदिशानिर्देशों को कर्मचारियों तक पहुँचाते हैं। इन्हीं के प्रयत्नों सेउत्पाद की गुणवत्ता को बनाए रखा जाता है, माल की हानि को न्यूनतम रखा जाताहै एवं सुरक्षा के स्तर बनाए रखा जाता है। कारीगरी की गुणवत्ता, एवंउत्पादन की मात्र कर्मचारियों के परिश्रम, अनुशासन एवं स्वामीभक्ति परनिर्भर करती है।

    प्रबंध के कार्य

    प्रबंधको संगठन से सदस्यों से कार्यों के नियोजन, संगठन, निदेशन एवं नियंत्रणएवं निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संगठन के संसाधनों के प्रयोगकी प्रक्रिया माना गया है।

    नियोजन

    यहपहले से ही यह निर्धारित करने का कार्य है कि क्या करना है, किस प्रकारतथा किसको करना है। इसका अर्थ है उद्देश्यों को पहले से ही निश्चित करनाएवं दक्षता से एवं प्रभावी ढंग से प्राप्त करने के लिए मार्ग निर्धारितकरना। सुहासिनी के संगठन का उद्देश्य है परंपरागत भारतीय हथकरघा एवंहस्तशिल्प की वस्तुओं को खरीदकर उन्हें बेचना। वह बुने हुए वस्त्र, सजावटका सामान, परंपरागत भारतीय कपड़े से तैयार वस्त्र एवं घरेलू सामान को बेचतेहैं। सुहासिनी इनकी मात्र, इनके विभिन्न प्रकार, रंग एवं बनावट के संबंधमें निर्णय लेती है फिर विभिन्न आपूर्तिकर्ताओं से उनके क्रय अथवा उनके घरमें तैयार कराने पर संसाधनों का आवंटन करती है। नियोजन समस्याओें के पैदाहोने से कोई रोक नहीं सकता लेकिन इनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है तथा यहजब भी पैदा होते हैं तो इनको हल करने के लिए आकस्मिक योजनाएँ बना सकतीहैं।

    संगठन

    यहनिर्धारित योजना के क्रियान्वयन के लिए कार्य सौंपने, कार्यों को समूहोंमें बांटने, अधिकार निश्चित करने एवं संसाधनों के आवंटन के कार्य काप्रबंधन करता है। एक बार संगठन के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए विशिष्टयोजना तैयार कर ली जाती है तो फिर संगठन योजना के क्रियान्वयन के लिएआवश्यक क्रियाओं एवं संसाधनों की जांच करेगा। यह आवश्यक कार्यों एवंसंसाधनों का निर्धारण करेगा। यह निर्णय लेता है कि किस कार्य को कौन करेगा, इन्हें कहाँ किया जाएगा तथा कब किया जाएगा। संगठन में आवश्यक कार्यों कोप्रबंध के योग्य विभाग एवं कार्य इकाईयों में विभाजित किया जाता है एवंसंगठन की अधिकार शृंखला में अधिकार एवं विवरण देने के संबंधों का निर्धारणकिया जाता है। संगठन के उचित तकनीक कार्य के पूरा करने एवं प्रचालन कीकार्य क्षमता एवं परिणामों की प्रभाव पूर्णता के संवर्धन में सहायता करतेहैं। विभिन्न प्रकार के व्यवसायों को कार्य की प्रकृति के अनुसारभिन्न-भिन्न ढाँचों की आवश्यकता होती है। इसके संबंध में आप आगे केअध्यायों में और अधिक पढ़ेंगे।

    कर्मचारी नियुक्तिकरण

    सरलशब्दों में इसका अर्थ है सही कार्य के लिए उचित व्यक्ति को ढूँढ़ना।प्रबंध का एक महत्त्वपूर्ण पहलू संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिएसही योग्यता वाले सही व्यक्तियों को, सही स्थान एवं समय पर उपलब्ध कराने कोसुनिश्चित करना है। इसे मानव संसाधन कार्य भी कहते हैं तथा इसमेंकर्मचारियों की भर्ती, चयन, कार्य पर नियुक्ति एवं प्रशिक्षण सम्मिलित हैं।इनफोसिस टेक्नोलॉजी, जो सॉफ्रटवेयर विकसित करती है, को प्रणालीविश्लेषणकर्त्ता एवं कार्यक्रम तैयार करने वाले व्यक्तियों की आवश्यकताहोती है जबकि लैबमार्ट को डिजाइनकर्त्ता एवं शिल्पकारों के टीम की आवश्यकताहोती है।

    निदेशन

    निदेशनका कार्य कर्मचारियों को नेतृत्व प्रदान करना, प्रभावित करना एवंअभिप्रेरित करना है जिससे कि वह सुपुर्द कार्य को पूरा कर सकें। इसके लिएएक ऐसा वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है जो कर्मचारियों को सर्वश्रेष्ठढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित करे। अभिप्रेरणा एवं नेतृत्व-निर्देशन केदो मूल तत्व हैं। कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने का अर्थ केवल एक ऐसावातावरण तैयार करना है जो उन्हें कार्य के लिए प्रेरित करे। नेतृत्व काअर्थ है दूसरों को इस प्रकार से प्रभावित करना, कि वह अपने नेता के इच्छितकार्य संपन्न करें। एक अच्छा प्रबंधक प्रशंसा एवं आलोचना की सहायता से इसप्रकार से निर्देशन करता है कि कर्मचारी अपना श्रेष्ठतम योगदान दे सकें।सुहासिनी के डिजाइनकर्ताओं की टीम ने पलंग की चादरों के लिए सिल्क परभड़कीले रंगों के छापे विकसित किए। यद्यपि यह बहुत लुभावने लगते थे लेकिनसिल्क के प्रयोग के कारण आम आदमी के लिए यह बहुत अधिक महँगे थे। उनके कार्यकी प्रशंसा करते हुए सुहासिनी ने उन्हें सुझाव दिया कि इन सिल्क की चादरोंको वह दीपावली, क्रिसमस जैसे विशेष अवसरों के लिए सहेज कर रखें तथा उन्हेंनियमित रूप से सूती वस्त्रें पर छापें।

    नियंत्रण

    मुख्य लेख : नियंत्रण (प्रबन्धन)
    नियंत्रण को प्रबंध के कार्य के उस रूपमें परिभाषित किया है जिसमें वहसंगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संगठन कार्य के निष्पादन कोनिर्देशित करता है। नियंत्रण कार्य में निष्पादन के स्तर निर्धारित किएजाते हैं, वर्तमान निष्पादन को मापा जाता है। इसका पूर्वनिर्धारित स्तरोंसे मिलान किया जाता है और विचलन की स्थिति में सुधारात्मक कदम उठाए जातेहैं। इसके लिए प्रबंधकों को यह निर्धारित करना होगा कि सफलता के लिए क्याकार्य एवं उत्पादन महत्त्वपूर्ण हैं, उसका कैसे और कहाँ मापन किया जा सकताहै तथा सुधारात्मक कदम उठाने के लिए कौन अधिकृत है। सुहासिनी ने जब पाया किउसके डिजाइनकर्ताओं की टीम ने पलंग की वह चादर बनाई जो उनकी विक्रय के लिएनिश्चित मूल्य से अधिक महँगी थी तब उसने लागत पर नियंत्रण के लिए चादरहेतु कपड़ा ही बदल दिया।
    प्रबंधक के विभिन्न कार्यों पर साधारणतया उपरोक्त क्रम में ही चर्चा कीजाती है जिसके अनुसार एक प्रबंधक पहले योजना तैयार करता है; फिर संगठनबनाता है; तत्पश्चात् निर्देशन करता है; और अंत में नियंत्रण करता है।वास्तव में प्रबंधक शायद ही इन कार्यों को एक-एक करके करता है। प्रबंधक केकार्य एक दूसरे से जुड़े हैं तथा यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कौन-साकार्य कहाँ समाप्त हुआ तथा कौन-सा कार्य कहाँ से प्रारंभ हुआ।

    समन्वय, प्रबंध का सार है

    मुख्य लेख : समन्वय
    किसी संगठन के प्रबंधन की प्रक्रिया में एक प्रबंधक को पाँच एक दूसरे सेसंबंधित कार्य करने होते हैं। संगठन एक ऐसी पद्धति है जो एक दूसरे सेजुड़े एवं एक दूसरे पर आधारित उपपद्धतियों से बनी है। प्रबंधक को इन भिन्नसमूहों को समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक दूसरे से जोड़ना होता है।विभिन्न विभागों की गतिविधियों की एकात्मकता की प्रक्रिया कोसमन्वय (coordination) कहते हैं।
    समन्वय वह शक्ति है जो, प्रबंध के अन्य सभी कार्यों को एक दूसरे सेबांधती है। यह ऐसा धागा है जो संगठन के कार्य में निरंतरता बनाए रखने केलिए क्रय, उत्पादन, विक्रय एवं वित्त जैसे सभी कार्यों को पिरोए रखता है।समन्वय को कभी-कभी प्रबंध का एक अलग से कार्य माना जाता है। लेकिन यहप्रबंध का सार है क्योंकि यह सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किएगए व्यक्तिगत प्रयत्नों में एकता लाता है। प्रत्येक प्रबंधकीय कार्य एक ऐसीगतिविधि है जो स्वयं अकेली समन्वय में सहयोग करती है। समन्वय किसी भीसंगठन के सभी कार्यों में लक्षित एवं अन्तर्निहित हैं।
    संगठन की क्रियाओं के समन्वय की प्रक्रिया, नियोजन से ही प्रारंभ होजाती है। उच्च प्रबंध पूरे संगठन के लिए योजना बनाता है। इन योजनाओं केअनुसार संगठन ढाँचों को विकसित किया जाता है एवं कर्मचारियों की नियुक्तिकी जाती है। योजनाओं का क्रियान्वयन योजना के अनुसार ही यह सुनिश्चित करनेके लिए निर्देशन की आवश्यकता होती है। वास्तविक क्रियाओं एवं उनकीउपलब्धियों में यदि कोई मतभेद है तो इसका निराकरण नियंत्रण के समय कियाजाता है। समन्वय की क्रिया के माध्यम से प्रबंध का समान उद्देश्यों कीप्राप्ति के लिए उठाए गए कदमों में एकता को सुनिश्चित करने के लिएव्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयत्नों की सही व्यवस्था करता है, समन्वय संगठन कीविभिन्न इकाइयों के भिन्न-भिन्न कार्यों एवं प्रयत्नों में एकता स्थापितकरता है। यह प्रयत्नों की आवश्यकता राशि, मात्र, समय एवं क्रमबद्धता उपलब्धकराता है जो नियोजित उद्देश्यों को न्यूनतम विरोधाभास, प्राप्त करने कोसुनिश्चित करता है।

    समन्वय की परिभाषाएँ

    • समन्वय कार्यदल में संतुलन बनाने तथा उसे एक जुट बनाए रखने कीप्रक्रिया है, जिसमें भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के बीच कार्य का सही-सहीविभाजन किया जाता है तथा यह देखा जाता है कि ये व्यक्ति मिलकर तथा एकता केसाथ अपना-अपना कार्य कर सकें। -ई. एफ. एल. ब्रैच
    • समन्वय एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक अधिकारी अपने अधीनस्थों केसामूहिक प्रयासों को एक व्यवस्थित ताने-बाने में बाँधता है तथा समानउद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्य में एकता लाता हैय् -मैक फरलैंडफ्समन्वय अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्यों का इस प्रकार परस्पर मिलान करताहै कि प्रत्येक कर्मचारी के कार्य की गति, प्रगति और श्रेणी दूसरे कर्मचारीके कार्य की गति, प्रगति तथा श्रेणी से मेल खाये तथा आपस में मिलकर संस्थाके समान उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है। -थियो हेमैन

    समन्वय की प्रकृति

    उपरोक्त परिभाषाओं से समन्वय की निम्न विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-
    (क) समन्वय सामूहिक कार्यों में एकात्मकता लाता है- समन्वय ऐसेहितों को जो एक दूसरे से संबंधित नहीं हैं या एक दूसरे से भिन्न हैंउद्देश्य पूर्ण कार्य गतिविधि में एकता लाता है। यह समूह के कार्यों को एककेन्द्र बिंदु प्रदान करता है जो यह सुनिश्चित करता है कि निष्पादन योजनाएवं निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हो।
    (ख) समन्वय कार्यवाही में एकता लाता है- समन्वय का उद्देश्य समानउद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए कार्यवाही में एकता लाना है। यहविभिन्न विभागों को जोड़ने की शक्ति का कार्य करता है तथा यह सुनिश्चितकरता है कि सभी क्रियाएँ संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कीजाएँ। आपने पाया कि लैबमार्ट के उत्पादन एवं विक्रय विभागों को अपनेकार्यों में समन्वय करना होता है जिससे कि बाजार की माँग के अनुसार उत्पादनकिया जा सके।
    (ग) समन्वय निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है- समन्वय कोई एक बार काकार्य नहीं है बल्कि एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। यह नियोजन सेप्रारंभ होता है एवं नियंत्रण तक चलती है। सुहासिनी ठंड के समय के लिएवस्त्रें के संबंध में जून के महीने में ही योजना बना लेती है। तत्पश्चात्वह पर्याप्त कार्यबल की व्यवस्था करती है। उत्पादन योजना के अनुसार ही इसकेलिए लगातार निगरानी रखती है उसे अपने विपणन विभाग को समय रहते बताना होगाकि वह विक्रय प्रवर्तन एवं विज्ञापन के प्रचार के लिए तैयार करें।
    (घ) समन्वय सर्वव्यापी कार्य है- विभिन्न विभागों की क्रियाएँप्रकृति से एक दूसरे पर निर्भर करती हैं इसीलिए समन्वय की आवश्यकता प्रबंधके सभी स्तरों पर होती है। यह विभिन्न विभागों एवं विभिन्न स्तरों केकार्यों में एकता स्थापित करता है। संगठन के उद्देश्य बना विरोध आ सके, प्राप्त करने के लिए सुहासिनी को क्रय, उत्पादन एवं विक्रय विभागों केकार्यों में समन्वय करना होता है। क्रय विभाग का कार्य कपड़ा खरीदना है। यहउत्पादन विभाग की क्रियाओं के लिए आधार बन जाता है और अन्त में विक्रयसंभव हो पाता है। यदि कपड़ा घटिया गुणवत्ता वाला है या फिर उत्पादन विभागद्वारा निर्धारित विशिष्टताएँ लिए हुए नहीं है तो इससे आगे की बिक्री कम होजाएगी। यदि समन्वय नहीं है तो क्रियाओं में एकता एवं एकीकरण के स्थान परपुनरावृत्ति एवं अव्यवस्था होगी।
    (ङ) समन्वय सभी प्रबंधकों का उत्तरदायित्व है- किसी भी संगठन मेंसमन्वय प्रत्येक प्रबंधक का कार्य है उच्च स्तर के प्रबंधक यह सुनिश्चितकरने के लिए कि संगठन की नीतियों का क्रियान्वयन हो, अपने अधीनस्थों के साथसमन्वय करते हैं। मध्यस्तर के प्रबंधक, उच्चस्तर के प्रबंधकों एवं प्रथमपंक्ति के प्रबंधकों, दोनों के साथ समन्वय करते हैं। यह सुनिश्चित करने केलिए कि कार्य योजनाओं के अनुसार किया जाए, प्रचालन स्तर के प्रबंधक अपनेकर्मचारियों के कार्यों में समन्वय करते हैं।
    (च) समन्वय सोचा-समझा कार्य है- एक प्रबंधक को विभिन्न लोगों केकार्यों का ध्यानपूर्वक एवं सोच समझकर समन्वय करना होता है। किसी विभाग मेंसदस्य स्वेच्छा से एक दूसरे से सहयोग करते हुए कार्य करते हैं, समन्वय इससहयोग की भावना को दिशानिर्देश देता है। समन्वय के न होने पर सहयोग भीनिरर्थक सिद्ध होगा और बिना सहयोग के समन्वय कर्मचारियों में असंतोष को हीजन्म देगा।
    इसलिए हम कह सकते हैं कि समन्वय, प्रबंध का पृथक से एक कार्य नहीं हैबल्कि यह उसका सार है। यदि कोई संगठन अपने उद्देश्यों को प्रभावी ढंग सेएवं कुशलता से प्राप्त करना चाहता है तो उसे समन्वय की आवश्यकता होगी। मालामें धागे के समान ही समन्वय प्रबंध के सभी कार्यों का अभिन्न अंग है।

    समन्वय का महत्व

    विभिन्नप्रबंधकीय कार्यों को एकीकृत करना व्यक्तियों एवं विभागों में पर्याप्तमात्र में समन्वयको सुनिश्चित करता है। जैसे समन्वय की समस्या के पैदाहोने के कारण बड़े पैमाने के संगठन में अंतर्निहित निरंतर परिवर्तन कमजोरअथवा निष्क्रिय नेतृत्व एवं जटिलताएं हैं। बड़े संगठनों में इस प्रकार कीजटिलताओं के समन्वय के लिए विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता होती है।
    (क) संगठन का आकार-बड़े संगठनों में लगे बड़ी संख्या में लोगसमन्वय की समस्या को जटिल बना देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप मेंविशिष्ट है। तथा अपनी एवं संगठन की आवश्यकताओं को महसूस करता है। प्रत्येककी अपनी कार्य करने की आदतें हैं, अपनी पृष्ठभूमि हैं, परिस्थितियों सेनिपटने के प्रस्ताव/तरीके हैं तथा दूसरों से संबंध हैं। वैसे एक अकेलाव्यक्ति सदा बुद्धिमानी से कार्य नहीं करता है। उसके व्यवहार को न तो सदाठीक से समझा जाता है और न ही पूरी तरह से उसका पूर्वानुमान लगाया जा सकताहै। इसलिए संगठन की कार्य कुशलता के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्ति एवंसमूह के उद्देश्यों को समन्वय द्वारा एकीकृत कर दिया जाए।
    (ख) कार्यात्मक विभेदीकरण- संगठन के कार्यों को बार-बार विभागों, प्रभागों, वर्गों आदि में बाँटा जाता है। समन्वय की समस्या इसलिए पैदाहोती है क्योंकि अधिकार क्षेत्रें का दृढ़ीकरण हो जाता है और उनके बीच केअवरोधक और भी अधिक मजबूत हो जाते हैं। कई बार यह इसलिए होता है क्योंकिकार्यों का वर्गीकरण युक्ति संगत नहीं होता या फिर प्रबंधक तर्क संगत मार्गन अपना कर अनुभव का मार्ग अपनाते हैं। ऐसे मामलों में संगठन में प्रभावीढंग से कार्य करने के लिए समन्वय आवश्यक है।
    (ग) विशिष्टीकरण- आधुनिक संगठनों में उच्च स्तर का विशिष्टीकरणहै। विशिष्टीकरण का जन्म आधुनिक तकनीकों की जटिलताओं तथा कार्यों एवंइन्हें करने वालों की विविधता के कारण होता है। विशेषज्ञ सोचते हैं कि वेएक दूसरे को पेशे के आधार पर जाँचने के योग्य हैं लेकिन दूसरे लोगों के पासइस प्रकार के निर्णय का कोई पर्याप्त आधार नहीं हो सकता। यदि विशेषज्ञोंको बिना समन्वय एक भूमंडलीय प्रबंधक के सामने चुनौती के कार्य करने कीअनुमति दे दी जाए तो परिणाम काफी मंहगे होंगे। इसीलिए संगठन में लगेविभिन्न विशेषज्ञों के कार्यों में समन्वय हेतु एक रचना तंत्र की आवश्यकताहै।
    समन्वय प्रबंध का सार है। यह कुछ ऐसा नहीं है तकि जिसके लिए एक प्रबंधकआदेश दे। बल्कि यह तो वह चीज है जिसे एक प्रबंधक नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निर्देशन नियंत्रण कार्यों को करते हुए प्राप्त करने काप्रयास करता है। अतः प्रत्येक कार्य समन्वय का अभ्यास है।

    इक्कीसवीं शताब्दी में प्रबंध

    संगठनएवं इनके प्रबंध में परिवर्तन आ रहा है। जैसे-जैसे विभिन्न संस्कृतियोंएवं देशों की सीमाएँ धुंधली पड़ रही हैं एवं संप्रेषण की नयी-नयी तकनीकोंके कारण विश्व को एक वैश्विक गाँव समझा जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय एवंअंतर संस्कृति संबंध भी तेजी से बढ़ रहे हैं। आज का संगठन एक वैश्विक संगठनहै जिसका प्रबंध भूमंडलीय परिदृश्य में किया जाता है।
    सारांश में कह सकते हैं कि एक वैश्विक प्रबंधक वह है जिसके पास ‘हार्ड’ एवं ‘सॉफ्ट’ दोनों प्रकार का कौशल हैं। जो प्रबंधक विश्लेषण करना, व्यूहरचना करना, इंजीनियरिंग एवं प्रौद्योगिकी का ज्ञान रखते हैं उनकी आजभी आवश्यकता है लेकिन विश्वव्यापी सफलता के लिए व्यक्तियों में टीम कैसेकार्य करती है, संगठन कैसे कार्य करते हैं एवं लोगों को किस प्रकार सेअभिप्रेरित कर सकता है, इस सबकी समझ का होना बहुत आवश्यक है।
    उदाहरण के लिए जो प्रबंधक विभिन्न संस्कृतियों में पैठ रखता है वहपश्चिमी यूरोप, गैर अंग्रेजी बोलने वाले देश में कार्य कर सकता है फिरमलेशिया अथवा केन्या जैसे विकासशील देशों में जा सकता है और फिर उसेन्यूयार्क, यू- एस- ए- के कार्यालय में हस्तांतरित किया जा सकता है। वह इनतीनों स्थानों पर तुरंत प्रभावी ढंग से कार्य कर सकेगा।
    वैश्विक प्रबंधक की भूमिका का विकास उसी प्रकार से हुआ है जिस प्रकार सेवैश्विक उद्योग एवं अर्थव्यवस्था का विकास हुआ है। यह एक परिभाषित व्यवसायके सन्दर्भ में एक आयामी भूमिका से बहुआयामी भूमिका में परिवर्तित हो गयाहै जिसके लिए तकनीकी कौशल, सॉफ्रट प्रबंध एवं कौशल एवं विभिन्न संस्कृतियोंको ग्रहण करना एवं सीखने के सम्मिश्रण की आवश्यकता होती है।

    प्रबंधन के क्षेत्र, श्रेणियां और कार्यान्वयन

    • लेखा प्रबंधन (Accounting management)
    • एगाइल प्रबंधन (Agile management)
    • संघ प्रबंधन (Association management)
    • क्षमता प्रबंधन (Capability Management)
    • परिवर्तन प्रबंधन (Change management)
    • वाणिज्यिक परिचालन प्रबंधन (Commercial operations management)
    • संचार प्रबंधन (Communication management)
    • बाधा प्रबंधन (Constraint management)
    • मूल्य प्रबंधन (Cost management)
    • संकट प्रबंधन (Crisis management)
    • गंभीर प्रबंधन अध्ययन (Critical management studies)
    • ग्राहक संबंध प्रबंधन (Customer relationship management)
    • फैसला लेने की शैली (Decision making styles)
    • डिजाइन प्रबंधन (Design management)
    • आपदा प्रबंधन (Disaster management)
    • अर्जित मूल्य प्रबंधन (Earned value management)
    • शैक्षिक प्रबंधन (Educational management)
    • पर्यावरण प्रबंधन (Environmental management)
    • सुविधा प्रबंधन (Facility management)
    • वित्तीय प्रबंधन (Financial management)
    • पूर्वानुमान (Forecasting)

    •  प्रस्तुति --
    • कृति शरण/सृष्टि शरण
    • मानव संसाधन प्रबंधन (Human resources management)
    • अस्पताल प्रबंधन (Hospital management)
    • सूचना प्रौद्योगिकी प्रबंधन (Information technology management)
    • अभिनव प्रबंधन (Innovation management)
    • अंतरिम प्रबंधन (Interim management)
    • खोज प्रबंधन (Inventory management)
    • ज्ञान प्रबंधन
    • भूमि प्रबंधन (Land management)
    • नेतृत्व प्रबंधन (Leadership management)
    • रसद प्रबंधन (Logistics management)
    • जीवन चक्र प्रबंधन (Lifecycle management)
    • मांग पर प्रबंधन (Management on demand)
    • विपणन प्रबंध (Marketing management)
    • सामग्री प्रबंधन (Materials management)
    • कार्यालय प्रबंध (Office management)
    • संचालन प्रबंधन (Operations management)
    • संगठन विकास (Organization development)
    • धारणा प्रबंधन (Perception management)
    • अभ्यास प्रबंधन (Practice management)
    • कार्यक्रम प्रबंधन (Program management)
    • परियोजना प्रबंधन
    • प्रक्रिया प्रबंधन (Process management)
    • प्रदर्शन प्रबंधन (Performance management)
    • उत्पाद प्रबंधन (Product management)
    • लोक प्रशासन (Public administration)
    • सार्वजनिक प्रबंधन (Public management)
    • गुणवत्ता प्रबंधन (Quality management)
    • रिकॉर्ड्स प्रबंधन (Records management)
    • संबंध प्रबंधन (Relationship management)
    • अनुसंधान प्रबंधन (Research management)
    • संसाधन प्रबंधन (Resource management)
    • जोखिम प्रबंधन (Risk management)
    • कौशल प्रबंधन (Skills management)
    • सामाजिक उद्यमिता
    • व्यय प्रबंधन (Spend management)
    • आध्यात्मिक प्रबंधन (Spiritual management)
    • रणनीतिक प्रबंधन (Strategic management)
    • तनाव प्रबंधन (Stress management)
    • आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन (Supply chain management)
    • तंत्र प्रबंधन (Systems management)
    • प्रतिभा प्रबंधन (Talent management)
    • समय प्रबंधन (Time management)
    • प्रौद्योगिकी प्रबंधन (Technological Management)
    • दृश्य प्रबंधन (Visual management)
    ↧
    Remove ADS
    Viewing all 3437 articles
    Browse latest View live

    Search

    • RSSing>>
    • Latest
    • Popular
    • Top Rated
    • Trending
    © 2025 //www.rssing.com
    <script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>