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भारत में महिलाएँ

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प्रस्तुति-  डा. ममता शरण / कृति शरण / सृष्टि शरण 
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
ताज परिसर में भारतीय महिलाएँ
ऐश्वर्या राय बच्चन की अक्सर उनकी सुंदरता के लिए मीडिया द्वारा प्रशंसा की जाती है।[1][2][3]

भारत में महिलाओंकी स्थिति ने पिछली कुछ सदियों में कई बड़े बदलावों का सामना किया है।[4][5]प्राचीन काल[6]में पुरुषों के साथ बराबरी की स्थिति से लेकर मध्ययुगीन काल[7]के निम्न स्तरीय जीवन और साथ ही कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा दिए जाने तक, भारतमें महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है। आधुनिक भारतमें महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोक सभा अध्यक्ष, प्रतिपक्ष की नेता आदि जैसे शीर्ष पदों पर आसीन हुई हैं।

अनुक्रम

इतिहास

विशेष रूप से महिलाओं की भूमिका की चर्चा करने वाले साहित्य के स्रोत बहुत ही कम हैं ; 1730 ई. के आसपास तंजावुरके एक अधिकारी त्र्यम्बकयज्वन का स्त्रीधर्मपद्धतिइसका एक महत्वपूर्ण अपवाद है। इस पुस्तक में प्राचीन काल के अपस्तंब सूत्र (चौथी शताब्दी ईपू) के काल के नारी सुलभ आचरण संबंधी नियमों को संकलित किया गया है।[8]इसका मुखड़ा छंद इस प्रकार है:
मुख्यो धर्मः स्मृतिषु विहितो भार्तृशुश्रुषानम हि :
स्त्री का मुख्य कर्तव्य उसके पति की सेवा से जुडा हुआ है।
जहाँ सुश्रूषाशब्द (अर्थात, “सुनने की चाह”) में ईश्वर के प्रति भक्त की प्रार्थना से लेकर एक दास की निष्ठापूर्ण सेवा तक कई तरह के अर्थ समाहित हैं।[9]

प्राचीन भारत

विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था।[10]हालांकि कुछ अन्य विद्वानों का नज़रिया इसके विपरीत है।[11]पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारम्भिक वैदिक काल[12][13]में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वेदिक ऋचाएं यह बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और संभवतः उन्हें अपना पति चुनने की भी आजादी थी।[14]ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं।[15]
प्राचीन भारत के कुछ साम्राज्यों में नगरवधु (“नगर की दुल्हन”) जैसी परंपराएं मौजूद थीं। महिलाओं में नगरवधुके प्रतिष्ठित सम्मान के लिये प्रतियोगिता होती थी। आम्रपाली नगरवधु का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण रही है।
अध्ययनों के अनुसार प्रारंभिक वैदिक कालमें महिलाओं को बराबरी का दर्जा और अधिकार मिलता था।[16]हालांकि बाद में (लगभग 500 ईसा पूर्व में) स्मृतियों (विशेषकर मनुस्मृति) के साथ महिलाओं की स्थिति में गिरावट आनी शुरु हो गयी और बाबरएवं मुगलसाम्राज्य के इस्लामी आक्रमण के साथ और इसके बाद ईसाइयत ने महिलाओं की आजादी और अधिकारों को सीमित कर दिया.[7]
हालांकि जैन धर्म जैसे सुधारवादी आंदोलनों में महिलाओं को धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल होने की अनुमति दी गयी है, भारत में महिलाओं को कमोबेश दासता और बंदिशों का ही सामना करना पडा है।[16]माना जाता है कि बाल विवाह की प्रथा छठी शताब्दी के आसपास शुरु हुई थी।[17]

मध्ययुगीन काल

चित्र:Pastimes15.jpg
देवी राधारानी के चरणों में कृष्ण
समाज में भारतीय महिलाओं की स्थिति में मध्ययुगीन काल के दौरान और अधिक गिरावट आयी[10][7]जब भारत के कुछ समुदायों में सतीप्रथा, बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह पर रोक, सामाजिक जिंदगी का एक हिस्सा बन गयी थी। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जीतने परदाप्रथा को भारतीय समाज में ला दिया. राजस्थान के राजपूतोंमें जौहर की प्रथा थी। भारत के कुछ हिस्सों में देवदासियांया मंदिर की महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ा था। बहुविवाह की प्रथा हिन्दू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थी।[17]कई मुस्लिम परिवारों में महिलाओं को जनाना क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया था।
इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्रों में सफलता हासिल की.[7]रज़िया सुल्तानदिल्लीपर शासन करने वाली एकमात्र महिला सम्राज्ञी बनीं. गोंडकी महारानी दुर्गावती ने 1564 में मुगल सम्राट अकबरके सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था। चांद बीबी ने 1590 के दशक में अकबर की शक्तिशाली मुगलसेना के खिलाफ़ अहमदनगर की रक्षा की. जहांगीर की पत्नी नूरजहाँ ने राजशाही शक्ति का प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल किया और मुगल राजगद्दी के पीछे वास्तविक शक्ति के रूप में पहचान हासिल की. मुगल राजकुमारी जहाँआरा और जेबुन्निसा सुप्रसिद्ध कवियित्रियाँ थीं और उन्होंने सत्तारूढ़ प्रशासन को भी प्रभावित किया। शिवाजीकी माँ जीजाबाई को एक योद्धा और एक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता के कारण क्वीन रीजेंट के रूप में पदस्थापित किया गया था। दक्षिण भारत में कई महिलाओं ने गाँवों, शहरों और जिलों पर शासन किया और सामाजिक एवं धार्मिक संस्थानों की शुरुआत की.[17]
भक्तिआंदोलन ने महिलाओं की बेहतर स्थिति को वापस हासिल करने की कोशिश की और प्रभुत्व के स्वरूपों पर सवाल उठाया.[16]एक महिला संत-कवियित्री मीराबाई भक्ति आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण चेहरों में से एक थीं। इस अवधि की कुछ अन्य संत-कवियित्रियों में अक्का महादेवी, रामी जानाबाई और लाल देद शामिल हैं। हिंदुत्व के अंदर महानुभाव, वरकारी और कई अन्य जैसे भक्ति संप्रदाय, हिंदू समुदाय में पुरुषों और महिलाओं के बीच सामाजिक न्याय और समानता की खुले तौर पर वकालत करने वाले प्रमुख आंदोलन थे।
भक्ति आंदोलन के कुछ ही समय बाद सिक्खोंके पहले गुरु, गुरु नानक ने भी पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के संदेश को प्रचारित किया। उन्होंने महिलाओं को धार्मिक संस्थानों का नेतृत्व करने; सामूहिक प्रार्थना के रूप में गाये जाने वाले वाले कीर्तन या भजनको गाने और इनकी अगुआई करने; धार्मिक प्रबंधन समितियों के सदस्य बनने; युद्ध के मैदान में सेना का नेतृत्व करने; विवाह में बराबरी का हक और अमृत (दीक्षा) में समानता की अनुमति देने की वकालत की. अन्य सिख गुरुओं ने भी महिलाओं के प्रति भेदभाव के खिलाफ उपदेश दिए.

ऐतिहासिक प्रथाएं

कुछ समुदायों में सती, जौहर और देवदासीजैसी परंपराओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और आधुनिक भारत में ये काफ़ी हद तक समाप्त हो चुकी हैं। हालांकि इन प्रथाओं के कुछ मामले भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी देखे जाते हैं। कुछ समुदायों में भारतीय महिलाओं द्वारा परदाप्रथा को आज भी जीवित रखा गया है और विशेषकर भारत के वर्तमान कानून के तहत एक गैरकानूनी कृत्य होने के बावजूद बाल विवाह की प्रथा आज भी प्रचलित है।

सती

सती प्रथा एक प्राचीन और काफ़ी हद तक विलुप्त रिवाज है, कुछ समुदायों में विधवा को अपने पति की चिता में अपनी जीवित आहुति देनी पड़ती थी। हालांकि यह कृत्य विधवा की ओर से स्वैच्छिक रूप से किये जाने की उम्मीद की जाती थी, ऐसा माना जाता है कि कई बार इसके लिये विधवा को मजबूर किया जाता था। 1829 में अंग्रेजों ने इसे समाप्त कर दिया. आजादी के बाद से सती होने के लगभग चालीस मामले प्रकाश में आये हैं।[18] 1987 में राजस्थान की रूपकंवर का मामला सती प्रथा (रोक) अधिनियम का कारण बना.[19]

जौहर

जौहर का मतलब सभी हारे हुए (सिर्फ राजपूत) योद्धाओं की पत्नियों और बेटियों के शत्रु द्वारा बंदी बनाये जाने और इसके बाद उत्पीड़न से बचने के लिये स्वैच्छिक रूप से अपनी आहुति देने की प्रथा है। अपने सम्मान के लिए मर-मिटने वाले पराजित राजपूतशासकों की पत्नियों द्वारा इस प्रथा का पालन किया जाता था। यह कुप्रथा केवल भारतीय राजपूतोंशासक वर्गतक सीमित थी प्रारंभ में और राजपूतों ने या शायद एक-आध किसी दूसरी जाति की स्त्री ने सति (पति/पिता की मृत्यु होने पर उसकी चिता में जीवित जल जाना) जिसे उस समय के समाज का एक वर्ग पुनीत धार्मिक कार्य मानने लगा था। कभी भी भारत की दूसरी लडाका कोमो या जिन्हे ईन्गलिश में "मार्शल कौमे"माना गया उनमें यह कुप्रथा कभी भी कोई स्थान न पा सकी। जाटों की स्त्रीयां युद्ध क्षेत्र में पति के कन्धे से कन्धा मिला दुश्मनों के दान्त खट्टे करते हुए शहीद हो जाती थी। मराठा महिलाएँ भी अपने योधा पति की युधभूमि में पूरा साथ देती रही हैं।

परदा

परदा वह प्रथा है जिसमें कुछ समुदायों में महिलाओं को अपने तन को इस प्रकार से ढंकना जरूरी होता है कि उनकी त्वचा और रूप-रंग का किसी को अंदाजा ना लगे. यह महिलाओं के क्रियाकलापों को सीमित कर देता है; यह आजादी से मिलने-जुलने के उनके अधिकार को सीमित करता है और यह महिलाओं की अधीनता का एक प्रतीक है। आम धारणा के विपरीत यह ना तो हिंदुओं और ना ही मुसलमानों के धार्मिक उपदेशों को प्रतिबिंबित करता है, हालांकि दोनों संप्रदायों के धार्मिक नेताओं की लापरवाही और पूर्वाग्रहों के कारण गलतफ़हमी पैदा हुई है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]

देवदासी

देवदासी दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में एक धार्मिक प्रथा है जिसमें देवता या मंदिर के साथ महिलाओं की “शादी” कर दी जाती है। यह परंपरा दसवीं सदी ए.डी. तक अच्छी तरह अपनी पैठ जमा जुकी थी।[20]बाद की अवधि में देवदासियों का अवैध यौन उत्पीडन भारत के कुछ हिस्सों में एक रिवाज बन गया।

अंग्रेजी शासन

यूरोपीय विद्वानों ने 19वीं सदी में यह महसूस किया था कि हिंदू महिलाएं “स्वाभाविक रूप से मासूम” और अन्य महिलाओं से “अधिक सच्चरित्र” होती हैं।[21]अंग्रेजी शासनके दौरान राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फ़ुले, आदि जैसे कई सुधारकों ने महिलाओं के उत्थान के लिये लड़ाइयाँ लड़ीं. हालांकि इस सूची से यह पता चलता है कि राज युग में अंग्रेजों का कोई भी सकारात्मक योगदान नहीं था, यह पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि मिशनरियों की पत्नियाँ जैसे कि मार्था मौल्ट नी मीड और उनकी बेटी एलिज़ा काल्डवेल नी मौल्ट को दक्षिण भारत में लडकियों की शिक्षा और प्रशिक्षण के लिये आज भी याद किया जाता है – यह एक ऐसा प्रयास था जिसकी शुरुआत में स्थानीय स्तर पर रुकावटों का सामना करना पड़ा क्योंकि इसे परंपरा के रूप में अपनाया गया था। 1829 में गवर्नर-जनरल विलियम केवेंडिश-बेंटिक के तहत राजा राम मोहन राय के प्रयास सतीप्रथा के उन्मूलन का कारण बने. विधवाओं की स्थिति को सुधारने में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के संघर्ष का परिणाम विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1956 के रूप में सामने आया। कई महिला सुधारकों जैसे कि पंडिता रमाबाई ने भी महिला सशक्तीकरण के उद्देश्य को हासिल करने में मदद की.
कर्नाटक में कित्तूर रियासत की रानी, कित्तूर चेन्नम्माने समाप्ति के सिद्धांत (डाक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) की प्रतिक्रिया में अंग्रेजों के खिलाफ़ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। तटीय कर्नाटक की महारानी अब्बक्का रानी ने 16वीं सदी में हमलावर यूरोपीय सेनाओं, उल्लेखनीय रूप से पुर्तगाली सेना के खिलाफ़ सुरक्षा का नेतृत्व किया। झाँसीकी महारानी रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ़ 1857 के भारतीय विद्रोहका झंडा बुलंद किया। आज उन्हें सर्वत्र एक राष्ट्रीय नायिका के रूप में माना जाता है। अवधकी सह-शासिका बेगम हज़रत महल एक अन्य शासिका थी जिसने 1857 के विद्रोह का नेतृत्व किया था। उन्होंने अंग्रेजों के साथ सौदेबाजी से इनकार कर दिया और बाद में नेपाल चली गयीं. भोपाल की बेगमें भी इस अवधि की कुछ उल्लेखनीय महिला शासिकाओं में शामिल थीं। उन्होंने परदाप्रथा को नहीं अपनाया और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण भी लिया।
चंद्रमुखी बसु, कादंबिनी गांगुली और आनंदी गोपाल जोशीकुछ शुरुआती भारतीय महिलाओं में शामिल थीं जिन्होंने शैक्षणिक डिग्रियाँ हासिल कीं.
1917 में महिलाओं के पहले प्रतिनिधिमंडल ने महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों की माँग के लिये विदेश सचिव से मुलाक़ात की जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन हासिल था। 1927 में अखिल भारतीय महिला शिक्षा सम्मेलन का आयोजन पुणे में किया गया था।[16] 1929 में मोहम्मद अली जिन्ना के प्रयासों से बाल विवाह निषेध अधिनियम को पारित किया गया जिसके अनुसार एक लड़की के लिये शादी की न्यूनतम उम्र चौदह वर्ष निर्धारित की गयी थी।[16][22]हालांकि महात्मा गाँधी ने स्वयं तेरह वर्ष की उम्र में शादी की, बाद में उन्होंने लोगों से बाल विवाहों का बहिष्कार करने का आह्वान किया और युवाओं से बाल विधवाओं के साथ शादी करने की अपील की.[23]
भारत की आजादी के संघर्ष में महिलाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. भिकाजी कामा, डॉ॰ एनी बेसेंट, प्रीतिलता वाडेकर, विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, अरुना आसफ़ अली, सुचेता कृपलानीऔर कस्तूरबा गाँधीकुछ प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों में शामिल हैं। अन्य उल्लेखनीय नाम हैं मुथुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख आदि. सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मीकी झाँसी की रानी रेजीमेंट कैप्टेन लक्ष्मी सहगलसहित पूरी तरह से महिलाओं की सेना थी। एक कवियित्री और स्वतंत्रता सेनानी सरोजिनी नायडूभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसकी अध्यक्ष बनने वाली पहली भारतीय महिला और भारत के किसी राज्य की पहली महिला राज्यपाल थीं।

स्वतंत्र भारत

इंदिरा गांधी
भारत में महिलाएं अब सभी तरह की गतिविधियों जैसे कि शिक्षा, राजनीति, मीडिया, कला और संस्कृति, सेवा क्षेत्र, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आदि में हिस्सा ले रही हैं।[7]इंदिरा गांधीजिन्होंने कुल मिलाकर पंद्रह वर्षों तक भारत के प्रधानमंत्रीके रूप में सेवा की, दुनिया की सबसे लंबे समय तक सेवारत महिला प्रधानमंत्री हैं।[24]
भारत का संविधान सभी भारतीय महिलाओं को सामान अधिकार (अनुच्छेद 14), राज्य द्वारा कोई भेदभाव नहीं करने (अनुच्छेद 15 (1)), अवसर की समानता (अनुच्छेद 16), समान कार्य के लिए समान वेतन (अनुच्छेद 39 (घ)) की गारंटी देता है। इसके अलावा यह महिलाओं और बच्चों के पक्ष में राज्य द्वारा विशेष प्रावधान बनाए जाने की अनुमति देता है (अनुच्छेद 15(3)), महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक प्रथाओं का परित्याग करने (अनुच्छेद 51(ए)(ई)) और साथ ही काम की उचित एवं मानवीय परिस्थितियाँ सुरक्षित करने और प्रसूति सहायता के लिए राज्य द्वारा प्रावधानों को तैयार करने की अनुमति देता है। (अनुच्छेद 42)].[25]
भारत में नारीवादी सक्रियता ने 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध के दौरान रफ़्तार पकड़ी. महिलाओं के संगठनों को एक साथ लाने वाले पहले राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों में से एक मथुरा बलात्कार का मामला था। एक थाने (पुलिस स्टेशन) में मथुरा नामक युवती के साथ बलात्कार के आरोपी पुलिसकर्मियों के बरी होने की घटना 1979-1980 में एक बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का कारण बनी. विरोध प्रदर्शनों को राष्ट्रीय मीडिया में व्यापक रूप से कवर किया गया और सरकार को साक्ष्य अधिनियम, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता को संशोधित करने और हिरासत में बलात्कार की श्रेणी को शामिल करने के लिए मजबूर किया गया।[25]महिला कार्यकर्ताएं कन्या भ्रूण हत्या, लिंग भेद, महिला स्वास्थ्य और महिला साक्षरता जैसे मुद्दों पर एकजुट हुईं.
प्रतिभा देवीसिंह पाटिल
चूंकि शराब की लत को भारत में अक्सर महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जोड़ा जाता है,[26]महिलाओं के कई संगठनों ने आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उड़ीसा, मध्य प्रदेशऔर अन्य राज्यों में शराब-विरोधी अभियानों की शुरुआत की.[25]कई भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने शरीयत कानून के तहत महिला अधिकारों के बारे में रूढ़िवादी नेताओं की व्याख्या पर सवाल खड़े किये और तीन तलाक की व्यवस्था की आलोचना की.[16]
1990 के दशक में विदेशी दाता एजेंसियों से प्राप्त अनुदानों ने नई महिला-उन्मुख गैरसरकारी संगठनों (एनजीओ) के गठन को संभव बनाया. स्वयं-सहायता समूहों एवं सेल्फ इम्प्लॉयड वुमेन्स एसोसिएशन (सेवा) जैसे एनजीओ ने भारत में महिलाओं के अधिकारों के लिए एक प्रमुख भूमिका निभाई है। कई महिलाएं स्थानीय आंदोलनों की नेताओं के रूप में उभरी हैं। उदाहरण के लिए, नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर.
भारत सरकार ने 2001 को महिलाओं के सशक्तीकरण (स्वशक्ति) वर्ष के रूप में घोषित किया था।[16]महिलाओं के सशक्तीकरण की राष्ट्रीय नीति 2001 में पारित की गयी थी।[27]
2006 में बलात्कार की शिकार एक मुस्लिम महिला इमराना की कहानी मीडिया में प्रचारित की गयी थी। इमराना का बलात्कार उसके ससुर ने किया था। कुछ मुस्लिम मौलवियों की उन घोषणाओं का जिसमें इमराना को अपने ससुर से शादी कर लेने की बात कही गयी थी, व्यापक रूप से विरोध किया गया और अंततः इमराना के ससुर को 10 साल की कैद की सजा दी गयी। कई महिला संगठनों और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा इस फैसले का स्वागत किया गया।[28]
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन बाद, 9 मार्च 2010 को राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को पारित कर दिया जिसमें संसद और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था है।[29]

समय रेखा

उनकी स्थिति में लगातार परिवर्तन को देश में महिलाओं द्वारा हासिल उपलब्धियों के माध्यम से उजागर किया जा सकता है:
  • 1879: जॉन इलियट ड्रिंकवाटर बिथयून ने 1849 में बिथयून स्कूल स्थापित किया, जो 1879 में बिथयून कॉलेज बनने के साथ भारत का पहला महिला कॉलेज बन गया।
  • 1883: चंद्रमुखी बसु और कादम्बिनी गांगुली ब्रिटिश साम्राज्यऔर भारत में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने वाली पहली महिलायें बनीं.
  • 1886: कादम्बिनी गांगुली और आनंदी गोपाल जोशीपश्चिमी दवाओं में प्रशिक्षित होने वाली भारत की पहली महिलायें बनीं.
  • 1905: कार चलाने वाली पहली भारतीय महिला सुज़ान आरडी टाटा थीं।[30]
  • 1916: पहला महिला विश्वविद्यालय, एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय की स्थापना समाज सुधारक धोंडो केशव कर्वेद्वारा केवल पांच छात्रों के साथ 2 जून 1916 को की गई।
  • 1917: एनी बेसेंटभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसकी पहली अध्यक्ष महिला बनीं.
  • 1919: पंडिता रामाबाई, अपनी प्रतिष्ठित समाज सेवा के कारण ब्रिटिश राजद्वारा कैसर-ए-हिंद सम्मान प्राप्त करने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं.
  • 1925: सरोजिनी नायडूभारतीय मूल की पहली महिला थीं जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं.
  • 1927: अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना की गई।
  • 1944: आसिमा चटर्जी ऐसी पहली भारतीय महिला थीं जिन्हें किसी भारतीय विश्वविद्यालय द्वारा विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया।
  • 1947: 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता के बाद, सरोजिनी नायडूसंयुक्त प्रदेशों की राज्यपाल बनीं और इस तरह वे भारत की पहली महिला राज्यपाल बनीं.
  • 1951: डेक्कन एयरवेज की प्रेम माथुर प्रथम भारतीय महिला व्यावसायिक पायलट बनीं.
  • 1953: विजय लक्ष्मी पंडित यूनाइटेड नेशंस जनरल एसेम्बलीकी पहली महिला (और पहली भारतीय) अध्यक्ष बनीं.
  • 1959: अन्ना चान्डी, किसी उच्च न्यायालय (केरल उच्च न्यायालय) की पहली भारतीय महिला जज बनीं.[31]
  • 1963: सुचेता कृपलानीउत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, किसी भी भारतीय राज्य में यह पद सँभालने वाली वे पहली महिला थीं।
  • 1966: कैप्टेन दुर्गा बनर्जी सरकारी एयरलाइन्स, भारतीय एयरलाइंस, की पहली भारतीय महिला पायलट बनीं.
  • 1966: कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने समुदाय नेतृत्व के लिए रेमन मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त किया।
  • 1966: इंदिरा गाँधीभारत की पहली महिला प्रधानमंत्रीबनीं.
  • 1970: कमलजीत संधू एशियन गेम्समें गोल्ड जीतने वाली पहली भारतीय महिला थीं।
  • 1972: किरण बेदीभारतीय पुलिस सेवा (इंडियन पुलिस सर्विस) में भर्ती होने वाली पहली महिला थीं।[32]
  • 1979: मदर टेरेसाने नोबेल शान्ति पुरस्कार प्राप्त किया और यह सम्मान प्राप्त करने वाली प्रथम भारतीय महिला नागरिक बनीं.
  • 1984: 23 मई को, बचेन्द्री पाल माउंट एवरेस्टपर चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला बनीं.
  • 1989: न्यायमूर्ति एम. फातिमा बीवी भारत के उच्चतम न्यायालयकी पहली महिला जज बनीं.[33]
  • 1997: कल्पना चावला, भारत में जन्मी ऐसी प्रथम महिला थीं जो अंतरिक्ष में गयीं.[34]
  • 1992: प्रिया झिंगन भारतीय थलसेनामें भर्ती होने वाली पहली महिला कैडेट थीं (6 मार्च 1993 को उन्हें कमीशन किया गया)[35]
  • 1994: हरिता कौर देओल भारतीय वायु सेना में अकेले जहाज उड़ाने वाली पहली भारतीय महिला पायलट बनी.
  • 2000: कर्णम मल्लेश्वरी ओलिंपिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं (सिडनी में 2000 के समर ओलिंपिकमें कांस्य पदक)
  • 2002: लक्ष्मी सहगलभारतीय राष्ट्रपति पद के लिए खड़ी होने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं.
  • 2004: पुनीता अरोड़ा, भारतीय थलसेनामें लेफ्टिनेंट जनरल के सर्वोच्च पद तक पहुँचने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं.
  • 2007: प्रतिभा पाटिलभारत की प्रथम भारतीय महिला राष्ट्रपति बनीं.
  • 2009: मीरा कुमार भारतीय संसद के निचले सदन, लोक सभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं.

संस्कृति

पूरे भारत में महिलाएं साड़ी (शरीर के चारों और घेरकर पहना जाने वाला एक लंबा कपड़े का टुकड़ा) और सलवार कमीज पहनती हैं। बिंदीमहिलाओं के श्रृंगार का एक हिस्सा है। परंपरागत रूप से विवाहित हिंदू महिलाएं लाल बिंदी और सिंदूर लगाती हैं लेकिन अब ये महिलाओं के फैशन का हिस्सा बन गयी हैं।[36]
रंगोली (या कोलम) एक परंपरागत कला है जो भारतीय महिलाओं में बहुत लोकप्रिय है।

शिक्षा और आर्थिक विकास

1992-93 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में केवल 9.2% घरों में ही महिलाएं मुखिया की भूमिका में हैं। हालांकि गरीबी की रेखा से नीचे के परिवारों में लगभग 35% को महिला-मुखिया द्वारा संचालित पाया गया है।[37]

शिक्षा

गुजरात में कंप्यूटर क्लास
हालांकि भारत में महिला साक्षरता दर धीरे-धीरे बढ़ रही है लेकिन यह पुरुष साक्षरता दर से कम है। लड़कों की तुलना में बहुत ही कम लड़कियाँ स्कूलों में दाखिला लेती हैं और उनमें से कई बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देती हैं।[25] 1997 के नेशनल सैम्पल सर्वे डेटा के मुताबिक केवल केरलऔर मिजोरमराज्यों ने सार्वभौमिक महिला साक्षरता दर को हासिल किया है। ज्यादातर विद्वानों ने केरल में महिलाओं की बेहतर सामाजिक और आर्थिक स्थिति के पीछे प्रमुख कारक साक्षरता को माना है।[25]
अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम (एनएफई) के तहत राज्यों में 40% केंद्र और केन्द्र शासित प्रदेशोंमें 10% केंद्र विशेष रूप से महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।[कृपया उद्धरण जोड़ें]वर्ष 2000 तक लगभग 0.3 मिलियन (तीन लाख) एनएफई केन्द्रों द्वारा तकरीबन 7.42 मिलियन (70 लाख 42 हज़ार) बच्चों को सेवा दी जा रही थी जिनमें से से लगभग 0.12 मिलियन (12 लाख) विशेष रूप से लड़कियों के लिए थे।[कृपया उद्धरण जोड़ें]शहरी भारत में लड़कियाँ शिक्षा के मामले में लड़कों के लगभग साथ-साथ चल रही हैं। हालांकि ग्रामीण भारत में लड़कियों को आज भी लड़कों की तुलना में कम शिक्षित किया जाता है।
अमेरिका के वाणिज्य विभाग की 1998 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में महिलाओं की शिक्षा की एक मुख्य रुकावट अपर्याप्त स्कूली सुविधाएं (जैसे कि स्वच्छता संबंधी सुविधाएं), महिला शिक्षकों की कमी और पाठ्यक्रम में लिंग भेद हैं (ज्यादातर महिला चरित्रों को कमजोर और असहाय दर्शाया गया है।[38]

श्रमशक्ति की भागीदारी

आम धारणा के विपरीत महिलाओं का एक बड़ा प्रतिशत कामकाजी है।[39]राष्ट्रीय आंकड़ा संग्रहण एजेंसियाँ इस तथ्य को स्वीकार करती हैं कि श्रमिकों के रूप में महिलाओं की भागीदारी को लेकर एक गंभीर न्यूनानुमान है।[25]हालांकि पारिश्रमिक पाने वाले महिला श्रमिकों की संख्या पुरुषों की तुलना में बहुत ही कम है। शहरी भारत में महिला श्रमिकों की एक बड़ी संख्या मौजूद है। एक उदाहरण के तौर पर सॉफ्टवेयर उद्योग में 30% कर्मचारी महिलाएं हैं। वे पारिश्रमिक और कार्यस्थल पर अपनी स्थिति के मामले में अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबरी पर हैं।
ग्रामीण भारत में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में कुल महिला श्रमिकों के अधिक से अधिक 89.5% तक को रोजगार दिया जाता है।[37]कुल कृषि उत्पादन में महिलाओं की औसत भागीदारी का अनुमान कुल श्रम का 55% से 66%% तक है। 1991 की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में डेयरी उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी कुल रोजगार का 94% है। वन-आधारित लघु-स्तरीय उद्यमों में महिलाओं की संख्या कुल कार्यरत श्रमिकों का 51% है।[37]
श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ सबसे प्रसिद्ध महिला व्यापारिक सफलता की कहानियों में से एक है। 2006 में भारत की पहली बायोटेक कंपनियों में से एक - बायोकॉन की स्थापना करने वाली किरण मजूमदार-शॉ को भारत की सबसे अमीर महिला का दर्जा दिया गया था। ललिता गुप्ते और कल्पना मोरपारिया (दोनों भारत की केवल मात्र ऐसी महिला व्यवासियों में शामिल हैं जिन्होंने फ़ोर्ब्स की दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में अपनी जगह बनायी है) भारत के दूसरे सबसे बड़े बैंक, आईसीआईसीआई बैंक को संचालित करती हैं।[40]

भूमि और संपत्ति संबंधी अधिकार

अधिकांश भारतीय परिवारों में महिलाओं को उनके नाम पर कोई भी संपत्ति नहीं मिलती है और उन्हें पैतृक संपत्ति का हिस्सा भी नहीं मिलता है।[25]महिलाओं की सुरक्षा के कानूनों के कमजोर कार्यान्वयन के कारण उन्हें आज भी ज़मीन और संपत्ति में अपना अधिकार नहीं मिल पाता है।[41]वास्तव में जब जमीन और संपत्ति के अधिकारों की बात आती है तो कुछ क़ानून महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं।
1956 के दशक के मध्य के हिन्दू पर्सनल लॉ (हिंदू, बौद्ध, सिखों और जैनों पर लिए लागू) ने महिलाओं को विरासत का अधिकार दिया. हालांकि बेटों को पैतृक संपत्ति में एक स्वतंत्र हिस्सेदारी मिलती थी जबकि बेटियों को अपने पिता से प्राप्त संपत्ति के आधार पर हिस्सेदारी दी जाती थी। इसलिए एक पिता अपनी बेटी को पैतृक संपत्ति में अपने हिस्से को छोड़कर उसे अपनी संपत्ति से प्रभावी ढंग से वंचित कर सकता था लेकिन बेटे को अपने स्वयं के अधिकार से अपनी हिस्सेदारी प्राप्त होती थी। इसके अतिरिक्त विवाहित बेटियों को, भले ही वह वैवाहिक उत्पीड़न का सामना क्यों ना कर रही हो उसे पैतृक संपत्ति में कोई आवासीय अधिकार नहीं मिलता था। 2005 में हिंदू कानूनों में संशोधन के बाद महिलाओं को अब पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाते हैं।[42]
1986 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक वृद्ध और तलाकशुदा मुस्लिम महिला, शाहबानोके हक में फैसला सुनते हुए कहा कि उन्हें गुजारा भत्ता मिलना चाहिए. हालांकि कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं ने इस फैसले का जोर-शोर से विरोध किया और उनहोंने यह आरोप लगाया कि अदालत उनके निजी कानून में हस्तक्षेप कर रही है। बाद में केंद्र सरकारने मुस्लिम महिला (तलाक संबंधी अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम को पारित किया।[43]
इसी तरह ईसाई महिलाओं ने तलाक और उत्तराधिकार के समान अधिकारों के लिए वर्षों तक संघर्ष किया है। 1994 में सभी गिरजाघरों ने महिला संगठनों के साथ संयुक्त रूप से एक कानून का मसौदा तैयार किया जिसे ईसाई विवाह और वैवाहिक समस्याओं का क़ानून (क्रिस्चियन मैरेज एंड मैट्रिमोनियल काउजेज बिल) कहा गया। हालांकि सरकार ने प्रासंगिक कानूनों में अभी तक कोई संशोधन नहीं किया है।[16]

महिलाओं के विरुद्ध अपराध

पुलिस रिकॉर्ड में महिलाओं के खिलाफ भारत में अपराधों का उच्च स्तर दिखाई पड़ता है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने 1998 में यह जानकारी दी थी कि 2010 तक महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की विकास दर जनसंख्या वृद्धि दर से कहीं ज्यादा हो जायेगी.[25]पहले बलात्कार और छेड़छाड़ के मामलों को इनसे जुड़े सामाजिक कलंक की वजह से कई मामलों को पुलिस में दर्ज ही नहीं कराया जाता था। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ दर्ज किये गए अपराधों की संख्या में नाटकीय वृद्धि हुई है।[25]

यौन उत्पीड़न

1990 में महिलाओं के विरुद्ध दर्ज की गयी अपराधों की कुल संख्या का आधा हिस्सा कार्यस्थल पर छेड़छाड़ और उत्पीड़न से संबंधित था।[25]लड़कियों से छेड़छाड़ (एव टीजिंग) पुरुषों द्वारा महिलाओं के यौन उत्पीड़न या छेड़छाड़ के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक चालबाज तरकीब (युफेमिज्म) है। कई कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट) महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं के लिए "पश्चिमी संस्कृति"के प्रभाव को दोषी ठहराते हैं। विज्ञापनों या प्रकाशनों, लेखनों, पेंटिंग्स, चित्रों या किसी एनी तरीके से महिलाओं के अश्लील प्रतिनिधित्व को रोकने के लिए 1987 में महिलाओं का अश्लील प्रतिनिधित्व (निषेध) अधिनियम पारित किया गया था।[44] 1997 में एक ऐतिहासिक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल में महिलाओं के यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक मजबूत पक्ष लिया। न्यायालय ने शिकायतों से बचने और इनके निवारण के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश भी जारी किया। बाद में राष्ट्रीय महिला आयोग ने इन दिशा-निर्देशों को नियोक्ताओं के लिए एक आचार संहिता के रूप में प्रस्तुत किया।[25]

दहेज

1961 में भारत सरकार ने वैवाहिक व्यवस्थाओं में दहेज़ की मांग को अवैध करार देने वाला दहेज निषेध अधिनियम पारित किया।[45]हालांकि दहेज-संबंधी घरेलू हिंसा, आत्महत्या और हत्या के कई मामले दर्ज किये गए हैं। 1980 के दशक में कई ऐसे मामलों की सूचना दी गयी थी।[39]
1985 में दहेज निषेध (दूल्हा और दुल्हन को दिए गए उपहारों की सूचियों के रख-रखाव संबंधी) नियमों को तैयार किया गया था।[46]इन नियमों के अनुसार दुल्हन और दूल्हे को शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए. इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए. हालांकि इस तरह के नियमों को शायद ही कभी लागू किया जाता है।
1997 की एक रिपोर्ट[47]में यह दावा किया गया था कि दहेज़ के कारण प्रत्येक वर्ष कम से कम 5,000 महिलाओं की मौत हो जाती है और ऐसा माना जाता है कि हर दिन कम से कम एक दर्जन महिलाएं जान-बूझकर लगाई गयी "रसोईघर की आग"में जलाकर मार दी जाती हैं। इसके लिए उपयोग किया जाने वाला शब्द है "दुल्हन की आहुति" (ब्राइड बर्निंग) और स्वयं भारत में इसकी आलोचना की जाती है। शहरी शिक्षित समुदाय के बीच इस तरह के दहेज़ उत्पीड़न के मामलों में काफी कमी आई है।

बाल विवाह

भारत में बाल विवाह परंपरागत रूप से प्रचलित रही है और यह प्रथा आज भी जारी है। ऐतिहासिक रूप से कम उम्र की लड़कियों को यौवनावस्था तक पहुँचने से पहले अपने माता-पिता के साथ रहना होता था। पुराने जमाने में बाल विधवाओं को एक बेहद यातनापूर्ण जिंदगी देने, सर को मुंडाने, अलग-थलग रहने और समाज से बहिष्कृत करने का दंड दिया जाता था।[23]हालांकि 1860 में बाल विवाह को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था लेकिन आज भी यह एक आम प्रथा है।[48]
यूनिसेफ की "स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन-2009"की रिपोर्ट के अनुसार 20-24 साल की उम्र की भारतीय महिलाओं के 47% की शादी 18 साल की वैध उम्र से पहले कर दी गयी थी जिसमें 56% महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों से थीं।[49]रिपोर्ट में यह भी दिखाया गया कि दुनिया भर में होने वाले बाल विवाहों का 40% अकेले भारत में ही होता है।[50]

कन्या भ्रूण हत्या और लिंग के अनुसार गर्भपात

भारत में पुरुषों का लिंगानुपात बहुत अधिक है जिसका मुख्य कारण यह है कि कई लड़कियां वयस्क होने से पहली ही मर जाती हैं।[25]भारत के जनजातीय समाज में अन्य सभी जातीय समूहों की तुलना में पुरुषों का लिंगानुपात कम है। ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि आदिवासी समुदायों के पास बहुत अधिक निम्न स्तरीय आमदनी, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मौजूद हैं।[25]इसलिए कई विशेषज्ञों ने यह बताया है कि भारत में पुरुषों का उच्च स्तरीय लिंगानुपात कन्या शिशु हत्या और लिंग परीक्षण संबंधी गर्भपातों के लिए जिम्मेदार है।
जन्म से पहले अनचाही कन्या संतान से छुटकारा पाने के लिए इन परीक्षणों का उपयोग करने की घटनाओं के कारण बच्चे के लिंग निर्धारण में इस्तेमाल किये जा सकने वाले सभी चिकित्सकीय परीक्षणों पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया है। कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में कन्या शिशु ह्त्या (कन्या शिशु को मार डालना) आज भी प्रचलित है।[25]भारत में दहेज परंपरा का दुरुपयोग लिंग-चयनात्मक गर्भपातों और कन्या शिशु ह्त्याओं के लिए मुख्य कारणों में से एक रहा है।

घरेलू हिंसा

घरेलू हिंसा की घटनाएं निम्न स्तरीय सामाजिक-आर्थिक वर्गों (एसईसी) में अपेक्षाकृत अधिक होती हैं।[51]घरेलू हिंसा कानून, 2005 से महिलाओं का संरक्षण 26 अक्टूबर 2006 को अस्तित्व में आया।[51]

तस्करी

अनैतिक तस्करी (रोक) अधिनियम 1956 में पारित किया गया था।[52]हालांकि युवा लड़कियों और महिलाओं की तस्करी के कई मामले दर्ज किये गए हैं। इन महिलाओं को वेश्यावृत्ति, घरेलू कार्य या बाल श्रमके लिए मजबूर किया जाता रहा है।

अन्य चिंताएं

स्वास्थ्य
भारत में महिलाओं की औसत आयु की प्रत्याशा आज कई देशों की तुलना में कहीं कम है लेकिन इसमें पिछले कुछ वर्षों में धीरे-धीरे सुधार देखा जा रहा है। कई परिवारों, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों और महिलाओं को परिवार में पोषण संबंधी भेदभाव का सामना करना पड़ता है और ये कमजोर एवं कुपोषित होती हैं।[25]
भारत में मातृत्व संबंधी मृत्यु दर दुनिया भर में दूसरे सबसे ऊंचे स्तर पर है।[16]देश में केवल 42% जन्मों की निगरानी पेशेवर स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा की जाती है। ज्यादातर महिलाएं अपने बच्चे को जन्म देने के लिए परिवार की किसी महिला की मदद लेती हैं जिसके पास अक्सर ना तो इस कार्य की जानकारी होती है और ना ही माँ की जिंदगी खतरे में पड़ने पर उसे बचाने की सुविधाएं मौजूद होती हैं।[25]यूएनडीपी मानव विकास रिपोर्ट (1997) के अनुसार 88% गर्भवती महिलाएं (15-49 वर्ष के आयु वर्ग में) रक्ताल्पता (एनीमिया) से पीड़ित पायी गयी थीं।[37]
परिवार नियोजन
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में औसत महिलाओं के पास अपनी प्रजनन क्षमता पर थोड़ा या कोई नियंत्रण नहीं होता है। महिलाओं, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं के पास गर्भनिरोध के सुरक्षित एवं आत्म-नियंत्रित तरीके उपलब्ध नहीं होते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली नसबंदी जैसे स्थायी तरीकों या आईयूडी जैसे लंबी-अवधि के तरीकों पर जोर देती है जिसके लिए बार-बार निगरानी की जरूरत नहीं होती है। कुल गर्भनिरोधक उपायों में 75% से अधिक नसबंदी होती है जिसमें महिला नसबंदी कुल नसबंदी में तकरीबन 95% तक होती है।[25]

उल्लेखनीय भारतीय महिलाएं

इन्हें भी देखें: श्रेणी:विकिपरियोजना हिन्द की बेटियाँ
कला और मनोरंजन
एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी, गंगूबाई हंगल, लता मंगेशकरऔर आशा भोंसलेजैसी गायिकाएं एवं वोकलिस्ट और ऐश्वर्या रायजैसी अभिनेत्रियों को भारत में काफी सम्मान दिया जाता है। आंजोली इला मेनन प्रसिद्ध चित्रकारों में से एक हैं।
खेल
हालांकि भारत में सामान्य खेल परिदृश्य बहुत अच्छा नहीं है, कुछ भारतीय महिलाओं ने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। भारत की कुछ प्रसिद्ध महिला खिलाड़ियों में पी.टी. उषा, जे. जे. शोभा (एथलेटिक्स), कुंजरानी देवी (भारोत्तोलन), डायना एडल्जी (क्रिकेट), साइना नेहवाल (बैडमिंटन), कोनेरू हम्पी (शतरंज) और सानिया मिर्जा (टेनिस) शामिल हैं। कर्णम मल्लेश्वरी (भारोत्तोलक) ओलंपिक पदक (वर्ष 2000 में कांस्य पदक) जीतने वाली भारतीय महिला हैं।
राजनीति
भारत में पंचायत राज संस्थाओं के माध्यम से दस लाख से अधिक महिलाओं ने सक्रिय रूप से राजनीतिक जीवन में प्रवेश किया है।[41] 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों के अनुसार सभी निर्वाचित स्थानीय निकाय अपनी सीटों में से एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित रखते हैं। हालांकि विभिन्न स्तर की राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं का प्रतिशत काफी बढ़ गया है, इसके बावजूद महिलाओं को अभी भी प्रशासन और निर्णयात्मक पदों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है।[25]
साहित्य
भारतीय साहित्य में कई सुप्रसिद्ध लेखिकाएं, कवियित्रियों और कथा-लेखिकाओं के रूप में जानी जाती हैं। इनमें से कुछ मशहूर नाम हैं सरोजनी नायडू, कमला सुरैया, शोभा डे, अरुंधति रॉय, अनीता देसाई. सरोजिनी नायडूको भारत कोकिला कहा जाता है। अरुंधति रॉय को उनके उपन्यास द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स के लिए बुकर पुरस्कार (मैन बुकर प्राइज) से सम्मानित किया गया था।
वाणिज्य
2013 अक्टूबर/नवंबर में भारत की लगभग आधे बैंक व वित्त उद्योग की अध्यक्षता महिलाओं के हाथ में थी।

इन्हें भी देखें

  • भारत में नारीवाद
  • महिला अधिकार
  • सिख धर्म में महिलायें
  • हिंदू धर्म में महिलायें
  • भारत में कामुकता
  • भारतीय महिला कलाकारों की सूची
  • भारतीय फिल्म अभिनेत्रियों की सूची
  • नृत्य में भारतीय महिलाएं
  • महिला आरक्षण विधेयक

सन्दर्भ


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    बाह्य कड़ियां


    पत्रकारिता पर कुछ उल्लेखनीय लेख

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     प्रस्तुति-  प्रियदर्शी किशोर / गणेश प्रसाद

    संवादसेतु

    मीडिया का आत्मावलोकन…

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    हिन्दी पत्रकारिता की दशा और दिशा

    वर्तमान समय में हिन्दी भाषा को और व्यापक रूप देने के लिए जो संघर्ष चल रहा है उससे सभी भली-भांति परिचित हैं। क्या आपको लगता है कि पत्रकारिता जगत में भी हिन्दी भाषा का जो प्रयोग हो रहा है वह सही प्रकार से नहीं हो रहा है? इसमें भी कहीं कुछ त्रुटियां या अशुद्धियां व्याप्त है, क्या हिन्दी भाषा के वर्तमान प्रयोग की स्थिति पूरी तरह से उचित और अर्थ पूर्ण है?
    वर्तमान में जो मीडिया में हिन्दी का स्तर गिरता जा रहा है, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता स्तर है। हर व्यक्ति अपने को अंग्रेजी भाषा बोलने में गौरवान्वित महसूस करता है। इसके उत्थान के लिए सबसे पहले हमें ही शुरूआत करनी होगी क्योकि जब हम शुरूआत करेंगे तभी दूसरा हमारा अनुसरण करेगा।
    सोहन लाल भारद्वाज, राष्ट्रीय उजाला
    संस्कृत मां, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है, ऐसा कथन डा. फादर कामिल बुल्के का है, जो संस्कृत और हिन्दी की श्रेष्ठता को बताने के लिए सम्पूर्ण है। मगर आज हमारे देश में देवभाषा और राष्ट्रभाषा की दिनों-दिन दुर्गति होती जा रही है। या यूं कह लें कि आज के समय में मां और गृहिणी पर नौकरानी का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा है तो गलत नहीं होगा। टीवी के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे धकेलना शुरू कर दिया और वहां प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिन्दी की जैसे नीम के पेड़ पर करेला चढ़ गया हो। इसी प्रकार से रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होता चला गया। मैं ये बात अंग्रेजी का विरोध करने के लिए नहीं कह रहा हूं, बल्कि मेरी ये बात तो हिन्दी के ऊपर अंग्रेजी को प्राथमिकता देने पर केन्द्रित है।
    अवनीश सिंह राजपूत, हिन्दुस्थान समाचार
    हिन्दी पत्रकारिता स्वतंत्रता पूर्व से ही चली आ रही है और आजादी के आंदोलन में इसका बहुत बड़ा योगदान भी रहा है, लेकिन आज जो मीडिया में हिन्दी का स्तर गिरता दिखाई दे रहा है, वह पूरी तरह से अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रभाव के कारण हो रहा है। आज मीडिया ही नहीं बल्कि हर जगह लोग अंग्रेजी के प्रयोग को अपना भाषाई प्रतीक बनाते जा रहे हैं। इसके लिए सभी को एकजुट होकर हिन्दी भाषा को प्रयोग में लाना होगा।
    धर्मेन्द्र सिंह, दैनिक हिन्दुस्तान
    अगर आज आप किसी को बोलते है कि यंत्र तो शायद उसे समझ न आए लेकिन मशीन, शब्द हर किसी की समझ में आएगा। इसी प्रकार आज अंग्रेजी के कुछ शब्द प्रचलन में हैं, जो सबके समझ में है। इसलिए यह कहना कि पूर्णतया हिन्दी पत्रकारिता में सिर्फ हिन्दी भाषा का प्रयोग ही हो यह तर्क संगत नहीं है। हां, यह जरूर है कि हमें अपनी मातृभाषा का सम्मान अवश्य करना चाहिए और उसे अधिक से अधिक प्रयोग में लाने का प्रयास करना चाहिए।
    नागेन्द्र, दैनिक जागरण
    हिन्दी दिवस मतलब चर्चा-विमर्श, बयानबाजी, मानक हिन्दी बनाम चलताऊ हिन्दी। हिन्दी के ठेकेदार और पैरोकार की लफ्फाजी। बस करो यार! भाषा को बांधो मत, भाषा जब तक बोली से जुड़ी है, सुहागन है। जुदा होते ही वह विधवा के साथ-साथ बांझ बन जाती है। वह शब्दों को जन्म नहीं दे पाती। बंगाली, मराठी, गुजराती, उर्दू, फारसी, फ्रेंच, इटालियन कहीं से भी हिन्दी से मेल खाते शब्द मिले, उसे उठा लो। बरसाती नदी की तरह। सबको समेटते हुए। तभी तो हिन्दी समंदर बन पाएगी। रोक लगाओगे तो नाला, नहर या बहुत ज्यादा तो डैम बन कर अपनी ही जमीं को ऊसर करेगी। कॉर्पोरेट मीडिया तो इस ओर ध्यान दे नहीं रहा। हां, लोकल मीडिया का योगदान सराहनीय जरूर है। अरे हां, ब्लॉगरों की जमात को भी इसके लिए धन्यवाद।
    चंदन कुमार, जागरण जोश.कॉम
    हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है और हमें इसका सम्मान करना चाहिए लेकिन समाज में कुछ ऐसे लोग हैं जो हिन्दी के ऊपर उंगली उठाकर हिन्दी का अपमान करते रहते हैं। बात करें पत्रकारिता की तो हिन्दी पत्रकारिता में आजकल हिन्दी और इंग्लिश का मिला जुला रूप प्रयोग किया जा रहा है जो कि हमारे हिसाब से सही नहीं है। मैं आपको बता दूं कि हिन्दी के कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल न करने से वह धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं जो हमारे लिए शर्म का विषय है। मैं अपने हिन्दी-भाषियों से निवेदन करता हूं कि हिन्दी को व्यापक रूप देने में सहयोग करें और हिन्दी को गर्व से अपनी राष्ट्रभाषा का दर्जा दें।
    आशीष प्रताप सिंह, पीटीसी न्यूज
    भाषाई लोकतंत्र का ही तकाजा है कि नित-नए प्रयोग हों। हां, पर वर्तनी आदि की गलतियां बिल्कुल अक्षम्य है। त्रुटियां-अशुद्धियां तो हैं ही। उचित और अर्थपूर्ण तो जाहिर है कि नहीं है। लेकिन यह सवाल इतना महत्वपूर्ण नहीं है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है भाषा के अर्थशास्त्र का सवाल। हिन्दी दिवस पर इस बारे में बात होनी चाहिए।
    कुलदीप मिश्रा, सीएनईबी
    पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग अपनी सहूलियत के हिसाब से होता रहा है। यह जो स्थिति है उसका एक कारण हिंदी के एक मानक फान्ट का ना होना भी है। ज्यादातर काम कृति फान्ट में होता है लेकिन जगह-जगह उसके भी अंक बदल जाते है। कहीं श्रीदेव है तो कहीं ४सी गांधी और न जाने कितने फान्ट्स की भरमार है। अब पत्रकारिता में काम करने वाला कोई भी व्यक्ति एक संस्थान से दूसरे संस्थान में जाते समय फान्ट की समस्या से रूबरू होता है। इसलिए यहां हिंदी का प्रयोग सहूलियत के अनुसार हो रहा है, लेकिन पिछले कुछ दिनों में यूनिकोड के आने से कुछ स्थिरता जरूर आई है। दूसरी बड़ी समस्या यह है कि हम अभी भी यही मानते हैं कि अंग्रेजी हिंदी से बेहतर है। इसलिए जान- बूझकर हिंदी को हिंगलिश बना कर काम करना पसंद करते हैं और ऐसा मानते हैं कि अगर मुझे अंग्रेजी नहीं आती तो मेरी तरक्की की राह दोगुनी मुश्किल है। पत्रकारिता भी आम समाज से अलग नहीं है, उसने भी अन्य बोलियों के साथ-साथ विदेशी भाषा के शब्दों को अपना लिया है।
    विकास शर्मा, आज समाज

    सितम्बर अंक २०११

    सौदेबाजी की राह पर पत्रकारिता: अशोक टंडन

    भारत में पत्रकारिता ने अपनी शुरूआत मिशन के तौर पर  की थी जो धीरे-धीरे पहले प्रोफेशन और फिर कामर्शियलाइजेशन में तब्दील हो गई। आज पत्रकारिता कमर्शियलाइजेशन के दौर से भी आगे निकल चुकी है जिसके संदर्भ में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विशवविद्यालय के पूर्व निदेशक अशोक टंडन से बातचीत के कुछ अंश यहां प्रस्तुत है।  

    पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ इस दौरान आपके क्या अनुभव रहें ?
    दिल्ली विश्वविद्यालय से जब मैं राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहा था तो उस समय कुछ पत्रकारों को देखकर इस क्षेत्र की ओर आकर्षण बढ़ा। एम.ए. पूरी करने के बाद वर्ष 1970 में मुझे हिन्दुस्थान समाचार से विश्वविद्यालय बीट कवर करने का मौका मिला। वर्ष 1972 में मैंने पीटीआई में रिपोर्टिंग शुरू की और वहां विश्वविद्यालय, पुलिस, दिल्ली प्रशासन, संसद, विदेश मंत्रालय समेत लगभग सभी बीट कवर की। 28 वर्षों के दौरान मैंने लगभग 28 देशों की यात्राएं की। पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करना चुनौतीपूर्ण होता है।
    अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारिता के आपके क्या अनुभव रहें?
    अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रकारिता के लिए पहले अपने देश को समझना होता है। भारत में जब वर्ष 1980 के दशक की शुरूआत में नान अलाइनमेंट समिट और कामनवेल्थ गेम्स समिट हुई तो उसमें रिपोर्टिंग का अवसर मिला। वर्ष 1985 में मुझे विदेश मंत्रालय की बीट सौंपी गई। इस दौरान भारत के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के साथ विदेश जाने का मौका मिला। वर्ष 1988 में मुझे पीटीआई लंदन का संवाददाता नियुक्त कर दिया गया। जब कोई पत्रकार विदेश में रहकर पत्रकारिता करता है तो उसका फोकस अपने देश पर ही रहता है।
    आप पूर्व प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार के रूप में कार्य कर चुके हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय में आपका क्या अनुभव रहा?
    वर्ष 1998 में लंदन से जब वापिस आया तो प्रधानमंत्री कार्यालय में काम करने का मौका मिला। इस दौरान अपने साथी पत्रकारों से सहयोग करने का कार्य किया। आमतौर पर पत्रकार मेज के एक तरफ और अधिकारी दूसरी तरफ होता है। यहां मैंने मेज के दूसरी तरफ का भी अनुभव किया। प्रधानमंत्री कार्यालय में रहते हुए देशभर के पत्रकारों व विश्व के कुछ पत्रकारों के साथ सरकार की ओर से वार्तालाप किया जो एक अलग अनुभव रहा।
    मीडिया में कमर्शियलाइजेशन का दौर कब से आया?
    वर्ष 1947 से पहले पत्रकारिता को मिशन माना जाता था, वर्ष 1947-75 तक मीडिया में प्रोफेशन का दौर था। आपातकाल के खत्म होने के बाद पत्रकारिता में गिरावट आनी शुरू हो गई थी और वर्ष 1991 से उदारीकरण के कारण मीडिया में कमर्शियलाइजेशन का दौर आया। लेकिन पेड न्यूज के दौर में पत्रकारिता के लिए कमर्शियल शब्द भी छोटा पड़ रहा है।
    वर्तमान समय में पत्रकारिता जगत में आप क्या बदलाव देखते हैं?
    वर्तमान दौर में सौदेबाजी की पत्रकारिता हो रही है। यदि किसी को मीडिया द्वारा कवरेज करवानी है तो उसका मूल्य पहले से ही निर्धारित होता है। कमर्शियल में समाचार पेड नहीं होता, विज्ञापन के जरिए पैसा कमाया जाता है लेकिन अब पत्रकारिता में डील हो रही है। जो लोग इसको कर रहे है वह इसे व्यावसायिक पत्रकारिता मानते हैं। पत्रकारिता में 10 साल पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। हालांकि पूरा पत्रकारिता जगत ही खराब है, मैं ऐसा नहीं मानता। पत्रकारिता में कुछ असामाजिक तत्वों के कारण पूरे पत्रकारिता जगत पर आक्षेप लगाना सही नहीं है।
    वर्तमान समय में जहां चौथे स्तम्भ की भूमिका पर सवालिया निशान खड़े किए जा रहें हैं, ऐसी दशा में क्या आपको लगता है कि इसमें कोई सुधार हो सकता है?
    पत्रकारिता के स्तर में गिरावट जरूर आई है। यदि कोई बहुराष्ट्रीय कम्पनी अगर अपना उत्पाद बाजार में लेकर आती है तो उसे मीडिया के माध्यम से समाचार के रूप में प्रस्तुत करवाती है। राजनैतिक दलों द्वारा भी चुनाव के समय मीडिया से डील किया जाता है और संवाददाता के जरिए उम्मीदवार का प्रचार कराया जाता है। पत्रकारिता को बचाने वाले अब कम ही लोग रह गए हैं और अन्य धक्का देकर निकल रहे हैं, लेकिन मीडिया में अब भी कई लोग ईमानदारी से काम कर रहे हैं। पत्रकारिता में अभी स्थिति वहां तक नहीं पहुंची कि कुछ सुधार नहीं किया जा सकता। अच्छी पत्रकारिता आवाज बनकर उठेगी। भारतीय समाज की खूबी है कि यहां कोई भी विकृति अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुंचती, उसे रास्ते में ही सुधार दिया जाता है। पत्रकारिता में अब तक जो भी निराशाजनक स्थिति सामने आई है वह अवश्य चिंता की बात है। लेकिन जब सीमा पार होने लगती है तो कोई न कोई उसे अवश्य रोकता है। भारत में पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है।
    हाल ही में हुए जन आन्दोलन पर मीडिया कवरेज का क्या रूख रहा?
    इलेक्ट्रानिक मीडिया घटना आधारित मीडिया है। घटना यदि होगी तो लोग उसे देखेंगे और इससे चैनल की टीआरपी बढ़ेगी। कुछ लोगों का आरोप है कि मीडिया खुद घटना बनाता है जो काफी हद तक ठीक भी है। प्रिंस जब गड्ढे में गिरा तो उसे तीन दिन तक दिखाया गया जिसके कारण अन्य महत्वपूर्ण खबरें छूट गई। वहीं अन्ना के आंदोलन को भी मीडिया ने पूरे-पूरे दिन की कवरेज दी जो कुछ हद तक सही था क्योंकि आम जनता टेलीविजन के माध्यम से ही इस आन्दोलन से जुड़ी। मीडिया के प्रभाव के कारण यह आन्दोलन सफल हो पाया। हालांकि सरकार ने इस दौरान मीडिया की आलोचना की क्योंकि यह कवरेज उनके पक्ष में नहीं था। मीडिया की कवरेज का ही नतीजा था कि लोगों ने इस आन्दोलन के जरिए अपनी भड़ास निकाली। यदि ऐसा नहीं होता तो इसका परिणाम हानिकारक होता। मीडिया के माध्यम से ही विदेशों में भी लोगों ने इस आन्दोलन को देखा। चीन ने तो चिंता भी व्यक्त की कि भारत का मीडिया चीन के मीडिया को बिगाड़ रहा है। भारत का मीडिया स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है। जब मैं प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत था तो गर्व महसूस किया कि विदेशों में भारतीय लोकतन्त्र की सराहना की जाती है। वह भारत की न्यायिक स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के कारण भारत के मीडिया को जीवन्त मीडिया की संज्ञा देते हैं।
    विश्व की चार सबसे बड़ी समाचार समितियां विदेशी ही है। क्या आपको लगता है कि उनका प्रभाव भारतीय मीडिया पर भी है?
    यह चारों समाचार समितियां बहुराष्ट्रीय हैं और इनका मानना है कि यह स्वतन्त्र पत्रकारिता कर रही हैं लेकिन यह समाचार समिति भी किसी देश की ही है और इनके लिए देश का हित सर्वोपरि होता है। यहां राष्ट्रहित व निजी हित विरोधाभासी है। ए.पी. अमेरिका की प्रतिष्ठित समाचार समिति है। इसे सबसे पहले प्रिंट के लिए शुरू किया गया और 180 देशों में फैलाया गया। इसके पीछे उद्देश्य था कि पूरी दुनिया सूचना के तंत्र को अमेरिका के नजरिए से देखे। चीन भी आर्थिक महाशक्ति बनने के साथ अपनी समाचार समिति शिन्हुआ को विश्व में फैला रहा है। वहीं दूसरी ओर भारत आर्थिक महाशक्ति के रूप में तो उभर रहा है लेकिन दुर्भाग्यवश सूचना के क्षेत्र में हम काफी पीछे हैं। सूचना के क्षेत्र में हम पहले की अपेक्षा सिकुड़ रहे हैं। प्रसार भारती, आकाशवाणी व दूरदर्शन पहले से सिकुड़ गए हैं। भारतीय समाचार समितियों की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। हमारे देश में न तो सरकारी मीडिया का विकास हुआ और न ही समाचार समितियों को विस्तृत होने दिया गया। भारत में स्थित शिन्हुआ के ब्यूरो में 60 व्यक्ति रायटर्स के ब्यूरो में 250 व्यक्ति व एपी के ब्यूरो में 350 व्यक्ति कार्यरत है। यह समाचार समितियां भारत को विश्व में अपने चश्मे से प्रस्तुत कर रही हैं। जिस तरह भारत के फिल्म उद्योग ने विश्व में अपनी पहचान बनाई है, उसी तरह हमें सूचना के क्षेत्र में भी आगे बढ़ना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका।
    पाशचात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण आज अंग्रेजी भाषा का जो प्रचलन बढ़ा है, ऐसे में हिन्दी पत्रकारिता को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
    हिन्दी पत्रकारिता की हम जब भी चर्चा करते हैं तो हम उसको अंग्रेजी के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं जो गलत है। हिन्दी अंग्रेजी की प्रतिस्पर्धी भाषा नहीं है। भारतीय पत्रकारिता ने अंग्रेजी भाषा को कभी भी अपना प्रतिस्पर्धी नहीं माना लेकिन जब भी हिन्दी पत्रकारिता को बढ़ाने की बात की गई तो हमने कह दिया कि अंग्रेजी के कारण ऐसा नहीं हो रहा। पिछले 10 सालों में हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार हुआ है। मैं नहीं मानता कि अंग्रेजी के कारण हिन्दी पत्रकारिता को नुकसान पहुंचा है। शिक्षा में बढ़ोतरी के साथ हिन्दी के स्तर में भी वृद्धि हुई है। आज हिन्दी भाषी समाचार चैनलों की संख्या अंग्रेजी भाषी चैनलों से कहीं अधिक है। भारत में अंग्रेजी भाषा वर्ष 1947 से पहले ब्रिटिष शासन की देन है। अमेरिका के महाशक्ति बनने के कारण आज अंग्रेजी वैश्विक भाषा बन गई है। जिन देशों को अंग्रेजी नहीं आती थी, वह अंग्रेजी सीख रहे हैं। भारत को अंग्रेजी का लाभ वर्तमान समय में मिल रहा है।
    नेहा जैन, सितम्बर अंक २०११

    पत्रकारिता के प्रकाशपुंज बाबूराव विष्णु पराड़कर


    भारत में पत्रकारिता का उद्भव पुनर्जागरण और समाज कल्याण के उद्देश्य से हुआ था। महात्मा गांधी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महर्षि अरविंद आदि युगपुरूष पत्रकारिता की इसी परंपरा के प्रस्थापक थे, जिसने पत्रकारिता को देशहित में कार्य करने के लिए लक्ष्य और प्रेरणा दी। पत्रकारिता में उनके आदर्श ही पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी के लिए दिशा-निर्देश के समान हैं, जिन पर चलकर पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी अपनी इस अमूल्य विधा के साथ न्याय कर सकती है। पत्रकारिता की अमूल्य विधा वर्तमान समय में अपने संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है। दरअसल पत्रकारिता में यह संक्रमण उन आशंकाओं का अवतरण है, जिसकी आशंका पत्रकारिता के युगपुरूषों ने बहुत पहले ही व्यक्त की थी। संपादकाचार्य बाबूराव विष्णुराव पराड़कर ने भविष्य में पत्रकारिता में बाजारवाद, नैतिकता के अभाव और पत्रकारों की स्वतंत्रता के बारे में कहा था-
    पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है। (संपादक पराड़कर में उद्धृत)
    पराड़कर जी का यह कथन वर्तमान दौर की पत्रकारिता में चरितार्थ होने लगा हैं, जब पत्रकारों की कलम की स्याही फीकी पड़ने लगी है और समाज हित जैसी बातें बेमानी होने लगी हैं। इसका कारण पत्रकार नहीं बल्कि वे मीडिया मुगल हैं जो मीडिया के कारोबारी होते हैं। पत्रकारिता पर पूंजीपतियों के दखल और उसके दुष्प्रभावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
    पत्र निकालने का व्यय इतना बढ़ गया है कि लेखक केवल अपने ही भरोसे इसमें सेवा प्राप्त नहीं कर सकता। धनियों का सहयोग अनिवार्य हो गया है। दस जगह से धन संग्रह कर आप कंपनी बनाएं अथवा एक ही पूंजीपति पत्र निकाल दे, संपादक की स्वतंत्रता पर दोनों का परिणाम प्रायः एक सा ही होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रों की उन्नति के साथ-साथ पत्रों पर धनियों का प्रभाव अधिकाधिक परिमाण में अवश्य पड़ेगा।‘(इतिहास निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)
    बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण समाचारपत्र के स्वरूप और समाचारों के प्रस्तुतिकरण में आ रहे बदलावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
    पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरण मूलक अपराधों का चित्ताकर्षक वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रूचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं। (प्रथम संपादक सम्मेलन 1925 के वृंदावन हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय वक्तव्य से)
    पराड़कर जी का यह कथन वर्तमान समय में और भी प्रासंगिक लगता है, जब खबर के बाजार में मीडिया मुगल अश्लील खबरों के माध्यम से बाजार पर हावी होने के प्रयास में रहते हैं। पत्रकार को देश के समसामयिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों के बारे में जानकारी अवश्य होनी चाहिए। तभी वह अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। इसका वर्णन करते हुए पराड़कर जी ने कहा था –
    मेरे मत से संपादक में साहित्य और भाषा ज्ञान के अतिरिक्त भारत के इतिहास का सूक्ष्म और संसार के इतिहास का साधारण ज्ञान तथा समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय विधानों का साधारण ज्ञान होना आवश्यक है। अर्थशास्त्र का वह पण्डित न हो पर कम से कम भारतीय और प्रान्तीय बजट समझने की योग्यता उसमें अवश्य होनी चाहिए।‘(इतिहास निर्माता पत्रकार, अर्जुन तिवारी)
    अभी हाल ही में प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की थी कि मीडिया अब जज की भूमिका अदा करने लगा है,‘यह कुछ अर्थों में सही भी है। पत्रकारों पर राजनीति का कलेवर हावी होने लगा है, पत्रकारिता के राजनीतिकरण पर टिप्पणी करते हुए पराड़कर जी ने कहा था-
    आज का पत्रकार राजनीति और राजसत्ता का अनुकूल्य उपलब्ध करने के लिए उनके मुहावरे में बोलने लगा है। उपभोक्ता संस्कृति के अभिशाप को लक्ष्य कर राजनेताओं की तरह आवाज टेरने वाले पत्रकार स्वयं व्यावसायिक चाकचिक्य के प्रति सतृष्ण हो गए हैं और उपभोक्ता संस्कृति ही इनकी संस्कृति बनती जा रही है।  (पत्रकारिता इतिहास और प्रश्न, कृष्णबिहारी मिश्र)
    संपादकाचार्य पराड़कर जी की पत्रकारिता का लक्ष्य पूर्णतः स्वतंत्रता प्राप्ति के ध्येय को समर्पित था। पराड़कर जी ने अपने उद्देश्य की घोषणा इन शब्दों में की थी-
    शब्दों में सामर्थ्य का भरें नया अंदाज।
    बहरे कानों को छुए अब अपनी आवाज।
    5 सितंबर, 1920 को आज की संपादकीय टिप्पणी में अपनी नीतियों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था-
    हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश के गौरव को बढ़ावें, अपने देशवासियों में स्वाभिमान संचार करें।
    पराड़कर जी की पत्रकारिता पूर्णतः ध्येय समर्पित पत्रकारिता थी, जिसका वर्तमान पत्रकार पीढ़ी में सर्वथा अभाव दिखता है। बाबूराव विष्णु पराड़कर पत्रकारिता जगत के लिए सदैव स्मरणीय आदर्श पत्रकार हैं। पत्रकारिता के सही मूल्यों को चरितार्थ करने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी की पत्रकारिता के पदचिन्ह वर्तमान पत्रकार पीढ़ी के लिए पथप्रदर्शक के समान हैं।
    सूर्यप्रकाश, सितम्बर अंक २०११

    पूंजी प्रवाह के आगे नतमस्तक पत्रकारिता

    लोकतंत्र में पत्रकारिता ही एक ऐसा पेशा है जिसे सामाजिक सरोकारों का सच्चा पहरूआ कह सकते हैं क्योंकि पत्रकारिता का लक्ष्य सच का अन्वेषण है। सामाजिक शुचिता के लिए सच का अन्वेषण जरूरी है। सच भी ऐसा कि जो समाज में बेहतरी की बयार को निर्विरोध बहाये जिसके तले हर मनुष्य खुद को संतुष्ट समझे।
    पत्रकारिता का उद्भव ही मदांध व्यवस्था पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से हुआ था लेकिन आज की वर्तमान स्थिति में यह बातें बेमानी ही नजर आ रहीं हैं। खुद को आगे पहुंचाने और लोगों की भीड़ से अलग दिखने की चाह में जो भी अनर्गल चीज छापी या परोसी जा सकती हैं, सभी किया जा रहा है। अगर आज की पत्रकारिता को मिशन का चश्मा उतार कर देखा जाये तो स्पष्ट ह¨ता है कि मीडिया समाचारों के स्थान पर सस्ती लोकप्रियता के लिए चटपटी खबरों को प्राथमिकता दे रही है।
    एक दौर हुआ करता था जब पत्रकारिता को निष्पक्ष एवं पत्रकारों को श्रद्धा के रूप में देखा जाता था। जो समाज के बेसहारों का सहारा बन उनकी आवाज को कुम्भकर्णी नींद में सोए हुक्मरानों तक पहुंचाने का माद्दा रखती थी। उस दौर के पत्रकार की कल्पना दीन-ईमान के ताकत पर सत्तामद में चूर प्रतिष्ठानों की चूलें हिलाने वाले क्रांतिकारी फकीर के रूप में होती थी। यह बात अब बीते दौर की कहानी बन कर रह गयी है। आज की पत्रकारिता के सरोकार बदल गये हैं और वह भौतिकवादी समाज में चेरी की भूमिका में तब्दील हो गयी है। जिसका काम लोगों के स्वाद को और मजेदार बनाते हुए उनके मन को तरावट पहुंचाना है। देश के सामाजिक चरित्र के अर्थ प्रधान होने का प्रभाव मीडिया पर भी पड़ा है और आज मीडिया उसी अर्थ लोलुपता की ओर अग्रसर है, या यूं कहिए की द्रुत गति से भाग रही है। इस दौड़ में पत्रकारिता ने अपने चरित्र को इस कदर बदला है कि अब समझ ही नहीं आता कि मीडिया सच की खबरें बनाती है या फिर खबरों में सच का छलावा करती है, लेकिन जो भी हो यह किसी भी दशा में निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं है।
    पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है सूचना, ज्ञान और मनोरंजन प्रदान करना। किसी समाचार पत्र को जीवित रखने के लिए उसमें प्राण होना आवश्यक है। पत्र का प्राण होता है समाचार, लेकिन बढ़ते बाजारवाद और आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण विज्ञापन इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि पत्रकारिता का वास्तविक स्वरूप ही बदल गया है। राष्ट्रीय स्तर के समाचारों के लिए सुरक्षित पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर भी अर्द्धनग्न चित्र विज्ञापनों के साथ प्रमुखता से प्रकाशित हो रहे हैं। समाचार पत्रों का सम्पादकीय जो समाज के बौद्धिक वर्ग क¨ उद्वेलित करता था, जिनसे जनमानस भी प्रभावित होता था, उसका प्रयोग आज अपने प्रतिद्वन्द्वी को नीचा दिखाने के लिए किया जा रहा है। इससे पत्रकारिता के गिरते स्तर और उसकी दिशा को लेकर अनेक सवाल खडे़ हो गये हैं। फिल्म अभिनेत्रियों की शादी और रोमांस के सम्मुख आम महिलाओं की मौलिक समस्याएं, उनके रोजगार, स्वास्थ्य उनके ऊपर होने वाले अत्याचारों से संबंधित समाचार स्पष्ट रूप से नहीं आ पा रहें हैं। यदि होता भी है तो बेमन, केवल दिखाने के लिए।
    पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो समझ आता है कि भारत में पत्रकारिता अमीरों के मनोरंजन के साधन के रूप में विकसित होने की बजाय स्वतंत्रता संग्राम के एक साधन के रूप में विकसित हुई थी। इसलिए जब सन् 1920 के दशक में यूरोप में पत्रकारिता की सामाजिक भूमिका पर बहस शुरू हो रही थी, भारतीय पत्रकारिता ने प्रौढ़ता प्राप्त की। सन् 1827 में राजा राममोहन राय ने पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था- ‘मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबंध उपस्थित करूं जो उनके अनुभव को बढ़ाएं और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हो। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं और प्रजा को उनके शासकों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था से परिचित कराना चाहता हूं ताकि जनता को शासन अधिकाधिक सुविधा दे सके। जनता उन उपायों से अवगत हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पाई जा सके और अपनी उचित मांगें पूरी कराई जा सके। वर्तमान में राजा रामम¨हन राय की यह बातें केवल शब्द मात्र हैं जिन पर चलने में किसी भी पत्रकार की कोई रूचि नहीं है। आखिर उसे भी समाज में अपनी ऊंचाईयों को छूना है। आज के समय में मीडिया अर्थात् पत्रकारिता से जुड़े लोगों का लक्ष्य सामाजिक सरोकार न होकर आर्थिक सरोकार हो गया है। वैसे भी व्यवसायिक दौर में सामाजिक सरोकार की बातें अपने आप में ही बेमानी हैं। सरोकार के नाम पर अगर कहीं किसी कोने में पत्रकारिता के अंतर्गत कुछ हो भी रहा है तो वो भी केवल पत्रकारिता के पेशे की रस्म अदायगी भर है।
    पत्रकारिता के पतित पावनी कार्यनिष्ठा से सत्य, सरोकार और निष्पक्षता के विलुप्त होने के पीछे वैश्वीकरण की भूमिका भी कम नहीं है। सभी समाचार-पत्र अन्तर्राष्ट्रीय अर राष्ट्रीय समाचारों के बीच झूलने लगे हैं। विदेशी पत्रकारिता की नकल पर आज अधिकांश पत्र सनसनी तथा उत्तेजना पैदा करने वाले समाचारों को सचित्र छापने की दौड़ में जुटे हैं। इन्टरनेट से संकलित समाचार कच्चे माल के रूप में जहां इन्हें सहजता से उपलब्ध हो रहे हैं, वहीं प्रौद्योगिकी का उपयोग कर अपने पत्रों को क्षेत्रीय रूप दे रहे हैं, जिसके कारण पत्रकारिता का सार्वभौमिक स्वर ही विलीन होने लगा है। ऐसी पत्र-पत्रिकाएं व टेलीविजन चैनल जो गे डे यानी कि समलैंगिकता दिवस मनाते हैं संस्कृति की रक्षा की बातों को मोरल पोलिसिंग कहकर बदनाम करने की कोशिशें करते हैं, भारतीय परंपरराओं और जीवन मूल्यों का मजाक उड़ाते हैं, खुलकर अश्लीलता, वासनायुक्त जीवन और अमर्यादित आचरणों का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि यह सब वे पब्लिक डिमांड यानी कि जनता की मांग पर कर रहे हैं। परन्तु वास्तविकता यही है कि बाजारवाद से लाभान्वित होने के प्रयास में दूसरों पर दोषारोपण करके स्वयं को मुक्त नहीं किया जा सकता।
    आज यदि महात्मा गांधी, राजा राममोहन राय, बाबू राव विष्णु पराड़कर या माखनलाल चतुर्वेदी जीवित होते तो क्या वे इसे सहन कर पाते, क्या उन जैसे पत्रकारों की विरासत को आज के पत्रकार ठीक से स्मरण भी कर पा रहे हैं\ क्या आज के पत्रकारों में उनकी उस समृद्ध विरासत को संभालने की क्षमता है\ ये प्रश्न ऐसे हैं जिनके उत्तर आज की भारतीय पत्रकारिता को तलाशने की जरूरत है, अन्यथा न तो वह पत्रकारिता ही रह जाएगी और न ही उसमें भारतीय कहलाने लायक कुछ होगा। इसके अलावा पत्रकारिता के लिए बड़ा खतरा गलत दिशा में बढ़ा कदम है, जिसके लिए बाजारवादी आकर्षण से मुक्त होकर पुनः स्थापित परंपरा का अनुसरण करना ही होगा, तभी पत्रकारिता की विश्वसनीयता बढ़ेगी। मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को पीत पत्रकारिता एवं सत्ताभोगी नेताओं के प्रशस्ति गान के बजाय जनमानस के दुःख दर्द का निवारण, समाज एवं राष्ट्र के उन्नयन के लिए निःस्वार्थ भाव से कर्तव्य-पालन करना होगा, तभी वह लोकतंत्र में चौथे स्तंभ का अस्तित्व बनाये रखने में सफल हो सकेंगे।
    आकाश राय, अगस्त अंक 2011

    मिशन से प्रोफेशन तक का सफर

    आजादी से पहले पत्रकारिता मिशन के रूप में थी। गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू राव विष्णु पराड़कर, महात्मा गांधी, जुगल किशोर जैसे पत्रकारों ने अंग्रेजों की यातनाएं सहने के बावजूद भी अपने कलम की धार को पैना बनाए रखा और देश की आजादी में अपना सम्पूर्ण योगदान दिया। आजादी के बाद पत्रकारिता का व्यावसायीकरण होने के आरोप लगते रहे हैं। कहा जाता है कि आज पत्रकारिता मिशन न होकर केवल अपने निजी हितों की पूर्ति कर रहा है। आधुनिक भारतीय पत्रकारिता ने स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत से स्वयं को डी लिंक कर लिया है। आप इससे कहां तक सहमत हैं ?
    मेरे विचारों में आज की पत्रकारिता निश्चित रूप से व्यवसायीकरण के झूले में झूल रही है। पत्रकारिता को जिन लोगों ने उज्ज्वल बनाया वे समझौतावादी नहीं थे। उस दौर के हमारे सामने गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू राव विष्णु पराड़कर, लाला लाजपत राय आदि उदाहरण हैं, जो पत्रकारिता समाज सेवा के लिए किया करते थे। उस दौर के उदाहरण तो हमें याद हैं लेकिन आज के दौर में हम ऐसे कितने ईमानदार लोगों के नाम गिना सकते हैं, शायद इक्का या दुक्का ही ऐसे लोग होंगे जो इस देश के समाज के उत्थान में कलम के सच्चे सिपाही हैं। खबर की कीमत आज के आधुनिक पत्रकार जान पा रहे हैं कि जिस खबर से पैसा न निकले वे खबर नही है। खबर से पैसा कितना निकल सकता है सभी समाचार उद्योग ये ही देखते हैं।
    अरूण कुमार (लेगेसी इंडिया)

    ये बात सही है कि आज पत्रकारिता व्यावसायिक है। पहले लोगों का जीवन खेती पर निर्भर था। आज औद्योगिकीकरण का दौर है। लोग शहर में नौकरी की तलाश में आते हैं। ऐसे में उनके पास आजीविका का साधन केवल नौकरी ही होती है और यदि वे किसी मिषन के लिये अपना जीवन दांव पार लगा भी दे तो क्या वो संस्था उसके परिवार की जिम्मेदारी लेगी, ये वही भारत है, जहां सीमा पर शहीद हुये जवानों की विधवा मुआवजे के लिये आजीवन सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाती रहती है।
    रिचा वर्मा (आकाशवाणी)
    अंग्रेजों की यातनाएं सहने के बावजूद भी गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू राव विष्णु पराड़कर, महात्मा गांधी, जुगल किशोर जैसे पत्रकारों ने अपने कलम की धार को पैना बनाए रखा बिल्कुल सही। सवाल यह है कि ये बड़े नाम किसके लिए लिख रहे थे, स्वयं के लिए, लोक-हित के लिए। हम व्यवसाय के लिए लिख रहे हैं। हमारे कलम की स्याही मीडिया मालिक खरीदता है, इसलिए उसकी धार भी वही तय करता है। पत्रकारिता के मिशन की बजाय राहुल के यूपी मिशन पर ध्यान दें, तरक्की जल्दी होगी। वरना पैर में हवाई चप्पल और कंधे पर झोले के सिवाय पत्रकारिता हमें कुछ नहीं दे सकती। हां, अगर व्यवस्था से लड़ने का इतना ही जूनून है तो पत्रकारों को पहले खुद की लड़ाई लड़नी होगी। 10-20 हजार में खुश होकर मालिक के अहसानों के तले दबने के बजाय मीडिया में ही काम करने वाले आईटी, मैनेजमेंट कर्मियों के समान वेतन की लड़ाई लड़नी होगी। जो खुद की लड़ाई नहीं लड़ सकता, वह पत्रकारिता की लड़ाई क्या खाक लड़ेगा.
    चंदन कुमार (उप-संपादक, जागरण जोश.कॉम)

    ये सही है कि आजादी से पूर्व पत्रकारिता एक मिशन के रूप में थी और आज पत्रकारिता मिशन न होकर केवल अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति भर रह गयी है। मैं इसे थोड़ा अलग नजरिए से भी देखता हूं, पहले भले ही पत्रकारों के विचार अलग-अलग रहें हों मगर सभी का मकसद एक था, सिर्फ और सिर्फ आजादी। आज भी वैचारिक तौर पर पत्रकारों में भिन्नता तो दिखती है मगर साथ ही एक मकसद विहीन पत्रकारिता की अंधी दौड़ में भी वो शामिल दिखाई देते हैं, जो पहले नहीं था। ऐसे में पत्रकारिता के भी मायने बदले हैं, काम का तरीका बदला है स्वरूप बदला है।
    अनूप आकाश वर्मा (पंचायत संदेश, संपादक)

    आज की पत्रकारिता मिशन से हटकर केवल प्रोफेशन बन गयी है! किसी भी मीडियाकर्मी को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि उसके द्वारा बनायी गयी न्यूज का क्या प्रभाव पड़ता है और उसका क्या औचित्य है ? मतलब सिर्फ इस बात से है कि उसे उस खबर के बदले रकम मिलती है या नहीं। वो रकम जिसके जरिये वो अपना और अपने परिवार को सुख सुविधाएं दिला सके। ऐसे में किसी पर आरोप लगाना कि वह कर्म के बजाये अर्थ को महत्व देने लगा है सही नहीं होगा क्योंकि कहीं न कहीं उसने समाज के बदलते परिवेश के साथ समझौता कर लिया है और ये कहना कि समाज की दिशा गलत है, ठीक नहीं!
    आकाश राय (हिन्दुस्थान समाचार)

    आजादी के पहले पत्रकारिता मिशन थी लेकिन धीरे धीरे जब समाज का विकास हुआ तो पत्रकारिता का भी विकास हुआ। सभी अखबार और चैनल टीआरपी की होड़ में जुट गए। इसके लिए उन्हें अपने जमींर से समझौता करते हुए पूंजी की ओर झुकना पड़ा, इसीलिए पैसा कमाने के चक्कर में पत्रकारिता का धीरे धीरे व्यावसायीकरण होने लगा। आज पत्रकारिता भी पैसा कमाने और रोजी रोटी चलाने का जरिया बन गई है।
    आशीष सिंह (पीटीसी न्यूज)

    पत्रकारिता आज एक व्यवसाय है ये बात एक दम साफ है इसमें कोई दो राय नहीं हैं। रामदेव और अन्ना के मामले में मीडिया की भूमिका सबके सामने है। अपनी स्वतंत्रता का रोना रोने वाली मीडिया ने सरकार का बचाव कुछ ऐसे किया कि कोई अंधा और विवेकहीन भी समझ जाये की मीडिया कितनी स्वतंत्र है। उसके बाद एक के बाद एक कई घटनाएं चाहे मुंबई ब्लास्ट के बाद राहुल वाणी, कश्मीर में तिरंगा या फिर दिग्गी राजा की हर बात पर संघ को बदनाम करने की नाकाम कोशिश, मीडिया ने इन सबको खूब जोर शोर से छापा और अपना मिशन दिखाया। सभी लोग भ्रष्टाचारी हैं या बेईमान हैं ऐसा कहना गलत है लेकिन हर बार बेईमानी को मजबूरी बता देना किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है।
    विकास शर्मा (आज समाज)
    अगस्त अंक, २०११

    पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित पत्रकारिता- माखनलाल चतुर्वेदी


    वर्तमान समय में पत्रकारिता के कर्तव्य, दायित्व और उसकी भूमिका को लोग संदेह से परे नहीं मान रहे हैं। इस संदेह को वैश्विक पत्रकारिता जगत में न्यूज आफ द वर्ल्ड और राष्ट्रीय स्तर पर राडिया प्रकरण ने बल प्रदान किया है। पत्रकारिता जगत में यह घटनाएं उन आशंकाओं का प्रादुर्भाव हैं जो पत्रकारिता के पुरोधाओं ने बहुत पहले ही जताई थीं। पत्रकारिता में पूंजीपतियों के बढ़ते प्रभाव के बारे में पत्रकारिता के महान आदर्श माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था-
    दुख है कि सारे प्रगतिवाद, क्रांतिवाद के न जाने किन-किन वादों के रहते हुए हमने अपनी इस महान कला को पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित कर दिया है। (पत्रकारिता: इतिहास और प्रश्न – कृष्ण बिहारी मिश्र)
    भारत की पत्रकारिता की कल्पना हिंदी से अलग हटकर नहीं की जा सकती है, परंतु हिंदी पत्रकारिता जगत में भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। भाषा के मानकीकरण की दृष्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता। माखनलाल चतुर्वेदी भाषा के इस संक्रमण से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने कहा कि-
    राष्ट्रभाषा हिंदी और तरूणाई से भरी हुई कलमों का सम्मान ही मेरा सम्मान है।‘(राजकीय सम्मान के अवसर पर)
    राष्ट्रभाषा हिंदी के विषय में माखनलाल जी ने कहा था-
    जो लोग देश में एक राष्ट्रभाषा चाहते हैं, वे प्रांतों की भाषाओं का नाश नहीं चाहते। केवल विचार समझने और समझाने के लिए राष्ट्रभाषा का अध्ययन होगा, बाकि सब काम मातृभाषाओं में होंगे। ऐसे दुरात्माओं की देश को जरूरत नहीं, जो मातृभाषाओं को छोड़ दें। (पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, शिवकुमार अवस्थी)
    पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण एक ऐसा मुद्दा है, जो हमेशा जीवंत रहा है। सरकारी नियंत्रण के बारे में भी माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए अपने जीवनी लेखक से कहा था-
    जिला मजिस्ट्रेट मिओ मिथाइस से मिलने पर जब मुझसे पूछा गया कि एक अंग्रेजी वीकली के होते हुए भी मैं एक हिंदी साप्ताहिक क्यों निकालना चाहता हूं तब मैंने उनसे निवेदन किया कि आपका अंग्रेजी साप्ताहिक तो दब्बू है। मैं वैसा समाचार पत्र नहीं निकालना चाहता हूं। मैं एक ऐसा पत्र निकालना चाहूंगा कि ब्रिटिश शासन चलता-चलता रूक जाए। (पत्रकारिताः इतिहास और प्रश्न – कृष्ण बिहारी मिश्र)
    माखनलाल चतुर्वेदी ने पत्रकारिता के ऊंचे मानदंड स्थापित किए थे। उनकी पत्रकारिता में राष्ट्र विरोधी किसी भी बात को स्थान नहीं दिया जाता था। यहां तक कि माखनलाल जी महात्मा गांधी के उन वक्तव्यों को भी स्थान नहीं देते थे जो क्रांतिकारी गतिविधियों के विरूद्ध होते थे। सरकारी दबाव में कार्य करने वाली पत्रकारिता के विषय में उन्होंने अपनी नाराजगी इन शब्दों में व्यक्त की थी-
    मैंने तो जर्नलिज्म में साहित्य को स्थान दिया था। बुद्धि के ऐरावत पर म्यूनिसिपल का कूड़ा ढोने का जो अभ्यास किया जा रहा है अथवा ऐसे प्रयोग से जो सफलता प्राप्त की जा रही है उसे मैं पत्रकारिता नहीं मानता।‘‘ (पत्रकारिताः इतिहास और प्रश्न- कृष्ण बिहारी मिश्र)

    वर्तमान समय में हिंदी समाचारपत्रों को पत्र का मूल्य कम रखने के लिए और अपनी आय प्राप्त करने के लिए विज्ञापनों पर निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि पाठक न्यूनतम मूल्य में ही पत्र को लेना चाहते हैं। हिंदी पाठकों की इस प्रवृत्ति से क्षुब्ध होकर माखनलाल जी ने कहा-
    मुफ्त में पढ़ने की पद्धति हिंदी से अधिक किसी भाषा में नहीं। रोटी, कपड़ा, शराब का मूल्य तो वह देता है पर ज्ञान और ज्ञान प्रसाधन का मूल्य चुकाने को वह तैयार नहीं। हिंदी का सबसे बड़ा शत्रु यही है। (पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, शिवकुमार अवस्थी)
    माखनलाल चतुर्वेदी पत्र-पत्रिकाओं की बढ़ती संख्या और गिरते स्तर से भी चिंतित थे। पत्र-पत्रिकाओं के गिरते स्तर के लिए उन्होंने पत्रों की कोई नीति और आदर्श न होने को कारण बताया। उन्होंने लिखा था-
    हिंदी भाषा का मासिक साहित्य एक बेढंगे और गए बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर यह आश्चर्य नहीं कि वे शीघ्र ही क्यों मर जाते हैं। यूरोप में हर एक पत्र अपनी एक निश्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में नीति की गंध नहीं लगी। यहां वाले जी में आते ही, हमारे समान चार पन्ने निकाल बैठने वाले हुआ करते हैं। उनका न कोई आदर्श और उद्देश्य होता है, न दायित्व। (इतिहास- निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)
    पत्रकारिता को किसी भी राष्ट्र या समाज का आईना माना गया है, जो उसकी समसामयिक परिस्थिति का निष्पक्ष विश्लेषण करता है। पत्रकारिता की उपादेयता और महत्ता के बारे में माखनलाल चतुर्वेदी जी ने कर्मवीर के संपादकीय में लिखा था-
    किसी भी देश या समाज की दषा का वर्तमान इतिहास जानना हो तो वहां के किसी सामयिक पत्र को उठाकर पढ़ लीजिए, वह आपसे स्पष्ट कर देगा। राष्ट्र के संगठन में पत्र जो कार्य करते हैं वह अन्य किसी उपकरण से होना कठिन है। (माखनलाल चतुर्वेदी, ऋषि जैमिनी बरूआ)
    किसी भी समाचार पत्र की सफलता उसके संपादक और उसके सहयोगियों पर निर्भर करती है, जिसमें पाठकों का सहयोग प्रतिक्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समाचारपत्रों की घटती लोकप्रियता के लिए माखनलाल जी ने संपादकों और पाठकों को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखा था-
    इनके दोषी वे लोग ही नहीं हैं जो पत्र खरीदकर नहीं पढ़ते। अधिक अंशों में वे लोग भी हैं जो पत्र संपादित और प्रकाशित करते हैं। उनमें अपने लोकमत की आत्मा में पहुंचने का सामर्थ्य नहीं। वे अपनी परिस्थिति को इतनी गंदी और निकम्मी बनाए रखते हैं, जिससे उनके आदर करने वालों का समूह नहीं बढ़ता है।‘(पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, शिवकुमार अवस्थी)
    भारतीय पत्रकारिता अपने प्रवर्तक काल से ही राष्ट्र और समाज चेतना के नैतिक उद्देश्य को लेकर ही यहां तक पहुंची है। वर्तमान समय में जब पत्रकार को पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्यों से हटकर व्यावसायिक हितों के लिए कार्य करने में ही कैरियर दिखने लगा है। ऐसे समय में पत्रकारिता के प्रकाशपुंज माखनलाल चतुर्वेदी के आदर्षों से प्रेरणा ले अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ने की आवश्यकता है।
    सूर्यप्रकाश

    धुंधले होते सपने, मीडिया संस्थान की देन

    पत्रकार शब्द सुनते ही हाथ में कलम, पैरों में हवाई चप्पल व कंधे पर एक झोला टांगे हुए व्यक्ति दिखाई देता है, जो देश की समस्यों पर गहन विचार करता है, लेकिन वास्तविकता में वर्तमान समय में इसका परिदृश्य बदल रहा है। पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र की ओर युवाओं का आकर्षण बढ़ा है जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह बदल रहा परिदृश्य ही है। पत्रकारिता के क्षेत्र में अधिकतर युवा मीडिया के ग्लैमर का हिस्सा बनने के सपने संजोए आते है। किंतु धीरे-धीरे उन्हें जब वास्तविकता से चित-परिचित होना पड़ता है तो उनके यह सपने धुंधले होते जाते है कि यहां अपना स्थान प्राप्त करना बड़ा सरल है।
    इसका एक कारण जगह-जगह पर दुकानों की तरह खुलते मीडिया के शिक्षण संस्थान भी है। यह शिक्षण संस्थान व्यावहारिक ज्ञान की अपेक्षा किताबी ज्ञानों पर अधिक जोर देते हैं। जिसके कारण विद्यार्थी व्यावहारिक ज्ञान के अभाव में मीडिया जगत में स्वयं का स्थान बना पाने में अपने को असहज महसूस करता है।
    विश्वविद्यालय तथा अनुदान प्राप्त कालेजों मे चल रहे पत्रकारिता कोर्सों में दी जा रही शिक्षा गुणवत्ता की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। यहां पिछले डेढ़ दशक से वही घिसा-पिटा कोर्स पढ़ाया जा रहा है। इस तकनीकी युग में जब हर दिन एक नई तकनीक का विस्तार और आविष्कार हो रहा है तो वहां इस कोर्स की क्या अहमियत होगी! एक ओर जहां थ्रीडी, नए कैमरा सेटअप, न्यू मीडिया का प्रचलन बढ़ गया है, तो वहीं दूसरी ओर विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम ज्यों का त्यों ही है।
    इन कॉलेजों या संस्थानों में यह भी ध्यान नहीं दिया जाता कि वह इन छात्रों की प्राथमिक जरूरतें पूरी कर रहे हैं या नहीं। पत्रकारिता के क्षेत्र में अध्ययनरत विद्यार्थी को व्यवहारिक प्रशिक्षण के लिए प्रयोगशाला, उपकरणों व अच्छे पुस्तकालय की आवश्यकता होती है पर अधिकांश संस्थानों द्वारा इस समस्या की ओर ध्यान केन्द्रित नहीं किया जाता है। यह संस्थान मोटी फीस के बाद भी पुराने ढर्रे पर चलने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देते हैं।
    विडम्बना यह है कि विश्वविद्यालय के इन छात्रों ने किसी कैमरे के लेंस से यह झांककर भी नहीं देखा कि इससे देखने पर बाहर की दुनिया कैसी दिखाई देती है़, पत्रकारिता में दाखिला लेने और अपने तीन साल कॉलेज में बिताने के बदले छात्रों को एक डिग्री दे दी जाती है। ये एक ऐसा सर्टिफिकेट होता है जो किसी छात्र को बेरोजगार पत्रकार बना देता है। कुछ डिग्रीधारकों को  चवन्नी पत्रकारिता करने का अवसर मिल जाता है तो उन्हें सफल होने में कई साल लग जाते हैं। इसका कारण यह है कि उसे जो पढ़ाई के समय पर सिखाया जाना चाहिए था. उसे वह धक्के खाने के बाद सीखने को मिलता है। इस कारण कुछ छात्रों में इतनी हताशा घर कर जाती है कि वे पत्रकारिता को प्रणाम कर किसी और व्यवसाय को चुन लेते हैं।
    यह कॉलेज तथा संस्थान न केवल उदीयमान पत्रकारों के भविष्य के साथ धोखा और भटकाव की स्थिति उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी हैं, अपितु भविष्य की पत्रकारिता को प्रश्न चिन्हों की ओर धकेल रहे हैं। जल्द ही कुछ उपाय करने होंगे ताकि गुणवत्ता वाले पत्रकार उभर सकें। इसके लिए कम्प्यूटर की बेहतर शिक्षा, लैब और लाइब्रेरी की जरूरतों को पूरा करने के साथ ही देश और दुनिया की सही समझ विकसित करने का काम भी इन संस्थानों को करना होगा।
    वंदना शर्मा, जुलाई अंक, २०११

    सोशल नेटवर्किंग साइट्स का युवा पीढ़ी पर प्रभाव

    जब से समाज की स्थापना हुई है तब से मनुष्य समाज में रहने वाले अन्य लोगों के साथ निरंतर संपर्क साधता रहता है। इसी संपर्क साधने की प्रक्रिया में विकास के चलते नई खोज हुई और सोशल नेटवर्किग साइट्स अस्तित्व में आई। इन साइट्स के जरिए लोग एक दूसरे से संपर्क स्थापित करते हैं। युवा पीढ़ी के लिए यह जानकारी प्राप्त करने, मनोरंजन तनाव से मुक्त रहने, नए लोगों से पहचान बनाने का साधन बन गया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर वह अपनी बात अपने संपर्क के लोगों के साथ सांझा करते हैं।
    अपने शुरूआती दौर में सोशल नेटवर्किंग साइट एक सामान्य सी दिखने वाली साइट होती थी और इसके जरिए उपयोगकर्ता एक-दूसरे से चैटरूम के जरिए बात करते थे और अपनी निजी जानकारी व विचार एक-दूसरे के साथ बांटते थे। इन साइट्स में द वेल, (1985, ‘द ग्लोब डाट काम, 1994, ट्राईपोड डाट काम (1995 शामिल थीं। 90 के दशक से इन साइट्स में बदलाव आया और इसमें फोटो, वीडियो, संगीत, शेयरिंग, आनलाइन गेम्स, विज्ञान, कला. ब्लागिंग, चैटिंग, आनलाइन डेटिंग जैसी तमाम सुविधाएं बढ़ीं। भारत में सबसे ज्यादा प्रयोग होने वाली वेबसाइट्स में फेसबुक, ट्विटर व आरकुट शामिल हैं। इसके अलावा हाय फाइव, बेबो, याहू 360, फ्रेंड ज़ोर्पिया आदि कई सोशल नेटवर्किंग साइट उपलब्ध हैं। फेसबुक फरवरी 2004 में लांच हुई थी जिसने बहुत कम समय में युवाओं के बीच पहुंच बनाकर प्रसिद्धि पाई । वहीं आरकुट वर्ष 2004 में बनाई गई थी जिस पर गूगल इंक का स्वामित्व है। ट्विटर वर्ष 2006 में जैक डर्सी द्वारा बनाई गई थी । इसके प्रयोगकर्ता अपने एकाउंट से कोई भी संदेश छोड़ते है जिसे ट्वीटर कहा जाता है।
    पत्रकारिता के क्षेत्र में शोध कर रहीं शोधार्थी पंकज द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर शोध किया जा रहा है और इस शोध का प्रयोजन यह जानना है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स निजी एवं सामाजिक समस्याओं पर निर्णय लेने में युवाओं को कैसे प्रभावित करती है\ क्या यह किसी मुद्दे पर युवाओं की सोच में परिवर्तन कर सकती है\ क्या सोशल नेटवर्किंग साइट आज सूचनाओं एवं मनोरंजन का एक तीव्र माध्यम बन गई है, क्या युवा पीढ़ी इन साइट्स की आदी हो चुकी है\
    इसमें कोई शक नहीं है कि आज जीवनशैली को इंटरनेट ने बहुत प्रभावित किया है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी की इस नई तकनीक ने विष्व की सीमाओं को तोड़ दिया है। मैकलुहन के शब्दों में पूरी दुनिया एक वैश्विक ग्राम में बदल चुकी है।
    इंटरनेट ने आज विश्व के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए आज कोई भी व्यक्ति एक-दूसरे से कहीं से भी संपर्क साध सकता है। इसका प्रयोग करने वाले युवाओं की संख्या निरंतर बढ़ रही है। न्यू मीडिया के इस साधन पर यह शोध कार्य महत्वपूर्ण है।
    शोधार्थी- पंकज, सीडिंग इंस्टीट्यूट फार मीडिया स्टडीज (जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी)

    क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी


    गणेश शंकर विद्यार्थी! यह एक नाम ही नहीं बल्कि अपने आप में एक आदर्श विचार है। वह एक पत्रकार होने के साथ-साथ एक महान क्रांतिकारी और समाज सेवी भी थे। पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्य को निभाते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। उनका समस्त जीवन पत्रकारिता जगत के लिए अनुकरणीय आदर्श है। विद्यार्थी जी का जन्म अश्विन शुक्ल 14, रविवार सं. 1947,1890 ई.) को अपने ननिहाल इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में हुआ था। उनकी माता का नाम गोमती देवी तथा पिता का नाम मुंशी जयनारायण था। गणेश शंकर विद्यार्थी मूलतः फतेहपुर(उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। उनके पिता ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे। गणेश शंकर विद्यार्थी का बाल्यकाल भी ग्वालियर में ही बीता तथा वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई।
    विद्यारंभ उर्दू से हुआ और 1905 ई. में भेलसा से अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की। 1907 ई. में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला कालेज में प्रवेश लिया। उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और इलाहाबाद के हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे। सन १९०८ में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर के करेंसी ऑफिस में ३० रुपये मासिक पर नौकरी की, लेकिन एक अंग्रेज अधिकारी से झगड़ा होने के पश्चात् विद्यार्थी जी ने इस नौकरी को त्याग दिया। नौकरी छोड़ने के पश्चात् सन १९१० तक विद्यार्थी जी ने अध्यापन कार्य किया । यही वह समय था जब विद्यार्थी जी ने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य, हितवार्ता आदि पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखना प्रारंभ किया।
    सन १९११ में गणेश शंकर विद्यार्थी को सरस्वती पत्रिका में महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ समय बाद सरस्वती, छोड़कर वह अभ्युदय में सहायक संपादक हुए जहां विद्यार्थी जी ने सितम्बर १९१३ तक अपनी कलम से राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाने का कार्य किया। दो ही महीने बाद 9 नवंबर, 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से निकाला। गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही उनकी पत्रकारिता समर्पित है। प्रताप पत्र में अंग्रजों की दमनपूर्ण नीति की मुखर आलोचना के कारण सरकार ने प्रताप का प्रकाशन बंद करवाकर गणेश शंकर विद्यार्थी पर राजद्रोह का मुकदमा लगाकर जेल भेज दिया।
    अंग्रेजों की इस दमनपूर्ण कार्रवाई के बाद भी गणेश शंकर विद्यार्थी की राष्ट्रवादी कलम की प्रखरता कम न हो सकी। जेल से छूटने के बाद आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को मुक्त हस्त से आर्थिक सहयोग करने लगी। इस का परिणाम यह हुआ कि विद्यार्थी जी ने २३ नवम्बर १९१९ से साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन दैनिक समाचार पत्र के रूप में प्रारंभ कर दिया। विद्यार्थी जी के दैनिक पत्र प्रताप का प्रताप ऐसा था कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध व्यापक स्तर पर जन-जागरण हुआ। कहा जाता है कि स्वाधीनता आन्दोलन की अग्नि को प्रखर करने वाले समाचार पत्रों में प्रताप का प्रमुख स्थान था।
    लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से प्रताप की पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन मजिस्ट्रेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली। अंग्रेजों का कोपभाजन बने विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921 में भी जेल की सजा दी गई परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को कम नहीं किया। विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन की क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूंजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया। विद्यार्थी जी वह पत्रकार थे जिन्होंने अपने प्रताप की प्रेस से काकोरी कांड के नायक रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी का प्रकाशन किया। गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप ही वह पत्र था जिसमें भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में छद्म नाम से पत्रकारिता की थी। विद्यार्थी जी का सम्पूर्ण पत्रकार जीवन ही राष्ट्रवाद, भारतीय संस्कृति, साम्प्रदायिक सद्भाव को समर्पित रहा।
    पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी साम्प्रदायिकता के भी स्पष्ट विरोधी थे। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी सुनाये जाने पर देशभर में भड़के साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में विद्यार्थी जी ने अपना जीवन भी दांव पर लगा दिया। इन्हीं दंगों के दौरान गणेश शंकर विद्यार्थी निस्सहायों को बचाते हुए शहीद हो गए।
    गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या के पश्चात् महात्मा गाँधी ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में उनको श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि मुझे यह जानकर अत्यंत शोक हुआ कि गणेश शंकर विद्यार्थी अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके जैसे राष्ट्रभक्त और स्वार्थहीन व्यक्ति की मृत्यु पर किस संवेदनशील व्यक्ति को कष्ट नहीं होगा।’’
    पं जवाहरलाल नेहरु ने दुःख व्यक्त करते हुए कहा यह जानकर अत्यंत दुःख हुआ कि हमारे प्रिय मित्र और राष्ट्रभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी की साम्प्रदायिक दंगे में हत्या कर दी गई है। गणेश शंकर की शहादत एक राष्ट्रवादी भारतीय की शहादत है, जिसने दंगों में निर्दोष लोगों को बचाते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
    कलम का यह सिपाही असमय ही चला गया लेकिन उनकी प्रेरणाएं पत्रकारिता जगत और समस्त देश को सदैव प्रेरित करती रहेंगी। पत्रकारिता जगत के इस अमर पुरोधा को सादर नमन…..

    सूर्यप्रकाश, जुलाई अंक, २०१२

    दाम मजदूर से कम, काम मालिक की निगरानी

    पत्रकारिता के प्रारम्भिक दौर में इसे अभिव्यक्ति के साथ-साथ जनजागरण का माध्यम माना जाता था। किन्तु वर्तमान परिवेश में बदल रही पत्रकारिता की दिशा और दशा दोनों ही चिन्ता का विषय बनते जा रहें हैं। पत्रकारिता जगत में हो रहे इस परिवर्तन में कौन सी प्रक्रिया उचित है? इसके बारे में हम यहां राष्ट्रदेव पत्रिका के संपादक श्री अजय मित्तल जी से उनके विचार जानने का प्रयास कर रहें हैं-
    प्रश्न 1 आपका पत्रकारिता के क्षेत्र में आने का क्या उद्देश्य रहा ?
    उत्तर- पत्रकारिता चुनौतिपूर्ण व्यवसाय है। जो सत्ता सारी व्यवस्थाओं की निगरानी करती है, उसकी भी निगरानी करने का दायित्व पत्रकार का है। इसीलिए समाज को कुछ वैचारिक बदल की ओर अग्रसर करने के लिए मैंने पत्रकारिता को चुना जिससे आम लोग समाज में सकारात्मक परिवर्तन के लिए अपना योगदान दे सकें।
     प्रश्न 2 वर्तमान समय में आप पत्रकारिता के क्षेत्र में क्या बदलाव देखते है ?
    उत्तर- आज पत्रकारिता अपने मार्ग से भटक रही है। पत्रकारिता के आधार पर प्राप्त शक्तियों का पत्रकार दुरूपयोग कर रहे हैं। पहले पत्रकार देश में हो रहे घपलों, घोटालों व भ्रष्टाचार को उजागर करते थे लेकिन अब वह इसका हिस्सा बन रहे हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जिस तरह शीर्ष पत्रकारों का नाम आया उससे पत्रकार की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में सभी स्तरों के पत्रकार प्रेस को प्राप्त अधिकारों को अपने विशेषाधिकार समझने लगे हैं और इसका दुरुपयोग कर रहे हैं। स्वयं की सहूलियत के लिए पत्रकार ऐसा करते हैं। उनमें अब समाज के दिशा निर्देशक के बजाए राजनेता के गुण आ रहे हैं।
    प्रश्न 3 राष्ट्रीय महत्व के मुददों पर मीडिया की भूमिका और प्रभाव को आप किस प्रकार से देखते हैं?
    उत्तर- सामान्य आदमी के पास न तो तथ्यों की जानकारी होती है और न ही विश्लेषण क्षमता। तथ्य और उनका विश्लेषण वह मीडिया से ही प्राप्त करता है। मीडिया ने आम आदमी की इसी कमजोरी का लाभ उठाकर अपनी इच्छानुसार तथ्यों और विश्लेषणों को प्रस्तुत करना और उसके अनुसार समाज को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। मीडिया को अगर भ्रष्टाचार से कुछ प्राप्त होने की उम्मीद होती है तो वह तथ्यों में बदलाव कर देती है या उसे खत्म ही कर देती है। वहीं मीडिया को यदि कुछ निजी लाभ नहीं मिलता तो वह उन्हीं तथ्यों को खोजी पत्रकारिता का नाम दे देती है। ऐसे पत्रकार अपने प्रभाव का दुरुपयोग कर समाज को अधूरे तथ्य, अर्द्ध-सत्य, असत्य बताकर पत्रकारिता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
     प्रश्न 4 आपकी पत्रिका राष्ट्रदेव ग्रामीण क्षेत्रों में जाती है। ग्रामीण पाठकों के बारे में आपका क्या अनुभव रहा है?
    उत्तर- ग्रामीण पाठक देश की समस्याओं के बारे में जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। वह अपने स्थानीय परिवेश से बाहर जाकर राष्ट्र स्तर पर विचार करना चाहते हैं, देश के इतिहास, महापुरूषों को जानना चाहते हैं। वह पत्रिका के राष्ट्रीय विचारों का बड़ी संख्या में स्वागत करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के पाठकों के बीच किए गए सर्वे के दौरान पता चला कि वह देश के बारे में सोचने की ललक रखते हैं और इसीलिए वह राष्ट्रीय विचारों को पढ़ना भी पसंद करते हैं।
     प्रश्न 5 आप अपनी पत्रिका के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जगाने का प्रयास करते रहे हैं। क्या आज का मीडिया राष्ट्रवाद के प्रश्न पर अपनी भूमिका का निर्वाह सही ढंग से कर रहा है?
    उत्तर- राष्ट्रीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले पत्रों का स्वर राष्ट्रहित के अनुकूल है। अंग्रेजी मीडिया भारतीय परिवेश व संस्कृति को नहीं समझती। वह देश की समस्याओं और यहां के परिवेश को पश्चिमी चश्मे से निहारती है और विश्लेषण प्रस्तुत करती है। अक्सर यह देखा गया है कि जो अखबार राष्ट्रवाद के समर्थक थे उनकी प्रसार संख्या में अच्छी वृद्धि हुई है और जिन्होंने पंथ-निरपेक्षता के नाम पर राष्ट्रवाद को गिराने का कार्य किया वह ज्यादा नहीं चल पाए।
    प्रश्न 6 वर्तमान समय में व्यवस्था परिवर्तन को लेकर चल रहे आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में जनजागरण के विषय पर मीडिया की भूमिका कितनी उपयोगी साबित हुई है?
    उत्तर- चाहे अन्ना का आंदोलन हो या बाबा रामदेव का सौभाग्य से मीडिया ने अच्छा प्रदर्शन किया। मीडिया ने अच्छे पक्षों को लगभग ठीक प्रकार से प्रस्तुत किया। इसीलिए राजनेताओं ने इन आंदोलनों को बदनाम करने के लिए कार्रवाई की। मीडिया इस समय व्यवस्था परिवर्तन के मुद्दे पर लगभग समान और अनुकूल विचार रख रहा है।
     प्रश्न 7 आप उत्तर प्रदेश पत्रकार एसोसिएशन मेरठ के अध्यक्ष हैं। पत्रकारों की कौन सी प्रमुख समस्याएं हैं, जिनको लेकर पत्रकार को लड़ाई लड़ने की आवश्यकता पड़ती है?
    उत्तर- पत्रकारों, विशेषकर जो छोटे और मंझले पत्रों में काम कर रहे हैं, के सामने सबसे बड़ी समस्या वेतन की है। छोटे अखबारों में तो वेतन सरकार द्वारा अकुशल कर्मियों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है। छोटे अखबारों में पत्रकारों को मिट्टी ढोनेवाले मजदूरों को मिलने वाले वेतन से भी आधा वेतन मिलता है। जबकि पत्रकारों की बड़ी संख्या इन्हीं छोटे एवं मंझले समाचार पत्रों व चैनलों में कार्यरत हैं। वहीं पत्रकारों के लिए काम के घंटे भी बहुत अधिक है जिसके कारण वह न तो अपना श्रेष्ठतम योगदान दे सकते हैं और न ही उन्हें अध्ययन के लिए समय मिल पाता है। यह स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। इसके अलावा पत्रकारों के बेहतर भविष्य के लिए बीमा जैसी योजनाएं भी होनी चाहिए। आज यह आवश्यक है कि पत्रकार आर्थिक रूप से इस लायक तो हो कि वह वर्तमान और भविष्य की चिंता से मुक्त रह सकें।
     प्रश्न 8 जेडे हत्याकांड से एक बार फिर पत्रकारों की सुरक्षा का मुददा सामने आया है। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए आपके अनुसार क्या कदम उठाए जाने चाहिए?
    उत्तर- पत्रकारों के लिए सुरक्षा नीति बनाए जाने की आवश्यकता है। यह संभव नहीं है कि हरेक पत्रकार के साथ एक अंगरक्षक चल सके लेकिन इसके लिए बेहतर कानून होना चाहिए। राज्य स्तर पर कर्मचारियों के काम में बाधा डालने वाले पर कार्रवाई का कानून बना हुआ है, लेकिन पत्रकार को उसके काम के लिए धमकी अथवा रूकावट को इस कानून के दायरे में नहीं लिया जाता। पत्रकारों के विरूद्ध आपराधिक मामले की जांच भी जिले के एसपी स्तर के अधिकारी की देखरेख में होनी चाहिए क्योंकि छोटे स्तर के पुलिस अधिकारियों तक अपराधियों की पहुंच होती है। यह जिला स्तर का पुलिस अधिकारी पत्रकार-संबंधी किसी भी मामले की जांच की जानकारी राज्य शासन को भी नियमित भेजे।
    प्रश्न 9 वर्तमान समय में किस पत्रकार की पत्रकारिता आपको आदर्श पत्रकारिता के सबसे निकट दिखाई देती है?
    उत्तर- पत्रकारिता क्षेत्र सेवा क्षेत्र है। पांचजन्य समाचार पत्र आज कम वेतन में भी समाज को सर्वोत्कृष्ट दे रहा है। आजादी से पहले बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकारों की पत्रकारिता बड़ी आदर्श थी। उन्होंने अपने समाचार पत्र आज, और रणभेरी में अंग्रजों के खिलाफ जमकर लिखा और किसी भी प्रकार के प्रलोभन में नहीं आए। मेरे विचार में वर्तमान समय में ऐसी ही पत्रकारिता की आवश्यकता है जैसी पराड़कर जी के द्वारा की गई थी। वैसे तो हिन्दी पत्रकारिता की नींव ही त्याग, बलिदान और संघर्ष पर रखी गई थी। आदि संपादक जुगल किशोर शुक्ल ने अपने उदंत मार्तण्ड नामक हिंदी के प्रथम पत्र को सरकारी प्रलोभनों से दूर रखकर आर्थिक कठिनाइयों से ही चलाया। आज के पत्रकार को इन उदाहरणों को भूलना नहीं चाहिए।
    नेहा जैन, जुलाई अंक, २०११

    चंद्रास्वामी यानी संत सत्ता संपंति सौदों और संबंधों के विवादास्पद स्वामी

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    अनामी शरण बबल 


    चंद्रास्वामी को सत्ता के विवादास्पद स्वामी कहें या दलाल कहें, कोई अंतर नहीं पड़ता, सब चलेगा। राजस्थान के मामूली से एक युवक ने सता और हथियारों की दलाली के लिए संतई का नकाब क्या ओढा कि इनके दरबार में भारतीय सत्ता के शीर्षस्थ चेहरों से लेकर विदेशों के तमाम विवादास्पद सौदागरों से लेकर राजा महाराजाओं, लड़कियों और सत्ता के दलालों ने अपने कारोबार को बढाने के लिए इस चंद्रास्वामी का दामन थामा। हालांकि 198- से लेकर 1996 का समय इस स्वामी के जीवन का चंद्रकाल था। इनके परम शिष्य चंद्रशेखर और पीवी नरसिम्हा राव तो देश के प्रधानमंत्री रहे। दूसरों के जीवन में आए शनि और राहू केतु को ठीक करने वाले बहरोड़ राजस्थान के चंद्रास्वामी के जीवन में भी 1996 के बाद ग्रह और नक्षत्रों का एेसा कुचक्र चला कि फिर वे इससे पार नहीं पा सके। गुमनामी बदनामी के भंवर में स्वामी इस तरह उलझते गए कि खुद को संभालना भी इनके लिए मुमकिन ना रहा। और दक्षिण दिल्ली के कुतुब होटल के पीछे स्वामी की विवादास्पद कोठी ही अंत तक इनके लिए कालघर साबित हुआ। कभी सत्ता की नब्ज थामने वाले चंद्रास्वामी के निधन की खबर अभी अभी खबरिया टीवी के किसी न्यूज चैनल के टीकर न्यूज में दे्खी। स्वाामी के अवसान की खबर पाते ही उनके साथ मुलाकात की पांच सात लम्हों की यादें ताजी हो गयी। दो तीन मुलाकात तो अपने बड़े भाई समान दिल्ली के धुरंधर पत्रकार दिवंगत आलोक तोमर के साथ हुई.थी। इसो यों भी कहा जा सकता है कि चंद्रास्वामी से मेरी मुलाकात कराने का श्रेय हमारे सदाबहार आलोक तोमर को ही जाता है। समय सूत्रधार पत्रिका के लिए 1992 में इंटरव्यू का समय तय कराने का श्रेय भी हमारे आलोक तोमर भैय्या को ही जाता है। समय सूत्रधार पत्रिका में इंटरव्यू छपने के बाद स्वामी मेरे लिए बड़े मुनाफा के सूत्र बने।
    चंद्रास्वामी के साथ हुई पांच छह मुलाकातों को कई इंटरव्यू का रूप देकर मैने इसे कई फीचर एंजेसियों को दे डाला। जिससे ना केवल मुझे कुछ आर्थिक लाभ के साथ साथ स्वामी का इंटरव्यू भी सैकड़ों अखबारों में यदा कदा तो कभी लगातार गाहे बेगाहे कई साल तक छपते रहा। यानी स्वामी के कारण मेरा ups भी बढ़ता रहा या गया। स्वामी से आखिरी मुलाकात 20008 मे हुई. जब मैं टाटा मोबाईल के साथ एक बिल भुगतान के विवाद में उपभोक्ता अदालत में कुतुब होटल के पीछे जाना पड़ता था। इसी दौरान एक बारगी मन में स्वामी से मिलने की इच्छा प्रबल हुई तो बीमार से चल रहे प्रभाहीन चंद्रास्वामी एंड कंपनी से मिलन हो पाया। मगर मिलने पर मुझे आलोक तोमर की याद दिलाकर ही अपनी पहचान बतानी पड़ी. तब कहीं जाकर स्वामी मुझे पहचान सके। भारतीय जनमानस और अखबारी दुनिया से भी चंद्रास्वामी लापता हो गए है। मेरी यादों के जंगल से भी स्वामी लगभग लापता हो गए है। एकाएक प्रकट ही तब हुए जब उनके नहीं रहने की खबर देखी। इन पर यह महज एक औपचारिक नमन है। बतौर श्रद्धांजलि इन पर एक लेख का मशाला मेरे पास है। जिसे जरूर कभी शब्दार्थ दिया जाएगा। चंद्रास्वामी भले ही अब हमारे बीच नहीं रहे, मगर संतई चादर ओढ़कर सत्ता के शीर्षस्थ ओहदें पर बैठे लोगों को दुनिया के सबसे बदनाम हस्तियों से मुलाकात करने कराने के लिए स्वामी जैसे ही चांद की शरण लेनी पड़ती है। इसी दलाली के संतई आवरण के चांद यानी चंद्रास्वामी के जीवन का अंतिम काल भी संकटग्रस्त रहा. इनके तारणहार लगभग सभी शिष्य परलोक चले गए और जो इस भूलोक पर हैं भी तो शायद ही किसी में इतना दम हो कि वे भोडसी आश्रम के बलियाटेकी नेता चंद्रशेखर की तरह दुनियां के सबसे बदनाम हस्ती को भी बेखौफ होकर अपना मित्र या अपने लोग कहने की ताकत रखता हो। यानी मित्र मंडली में भी स्वामी के दिन लद गए हैं। पर राजनीति पर अंकुश रखने वाले स्वामी के जीवन लीला पर संभव है कि बहुत सारी कहानियां फिर देखने और पढने को मिले। प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत रहस्मयी स्वामी के बारे में जितना भी लिखा जाए वह कम है. एेसे सदाबहार विवादास्पद स्वामी की जीवनलीला की काफी मस्त मजेदार सा है।




    चंबल के 10 कुख्यात डकैतों की कहानी

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    10 डकैतों की रोचक कहानी, कोई फौजी तो कोई डॉक्‍टरी छोड़ बना बागी

    10 डकैतों की रोचक कहानी, कोई फौजी तो कोई डॉक्‍टरी छोड़ बना बागी
    मध्‍यप्रदेश के चंबल, शिवुपरी, मुरैना, चित्रकूट, रीवा के इलाकों में कई दशकों तक डाकुओं का खौफ रहा है। बताया जाता है ये पहले दस्‍यु बागी कहलाते थे और इनका काम सिर्फ डकैती करना था। धीरे-धीरे पैटर्न बदलता गया और इन डाकुओं ने अपहरण का काम शुरु कर दिया। ये राजनीति और जमीन झगड़ों के निपटारे में लग गए। तो आइए बात करते हैं डकैत मान सिंह, ददुआ और पानसिंह तोमर जैसे 10 बड़े नाम हैं जिन्‍होंने पूरे क्षेत्र में आतंक फैलाया।


    1. मलखान सिंह :-

    डाकू मलखान सिंह ने अपने गांव के सरपंच पर आरोप लगाया था कि उसने मंदिर की जमीन हड़प ली। मलखान ने जब इसका विरोध किया तो सरपंच ने उसे गिरफ्तार करवा दिया और उसके एक मित्र की हत्‍या करवा दी। यह बात मलखान को रास नहीं आई और उसने राइफल उठा ली और खुद को बागी घोषित कर दिया। इसके बाद मलखान धीरे-धीरे बड़ा डाकू बन गया। हालांकि बाद में उसने सरेंडर भी कर दिया था।


    2. पान सिंह तोमर :-
    डाकुओं की इस लिस्‍ट में पान सिंह तोमर का नाम सबसे ज्‍यादा चर्चित है। पान सिंह तोमर पर एक फिल्‍म भी बन चुकी है। बताते हैं कि डकैत बनने से पहले पान सिंह सेना में सूबेदार के पद पर तैनात थे। वह सात सालों तक लंबी बाधा दौड़ में राष्‍ट्रीय चैंपियन भी रहा। तोमर ने जमीनी विवाद के बाद अपने रिश्‍तेदार बाबू सिंह की हत्‍या कर दी और खुद को बागी घोषित कर दिया। हालांकि बाद में 60 सदस्‍यीय पुलिस दल के साथ हुई मुठभेड़ में 10 साथियों के साथ मारा गया।


    3. फूलन देवी :-
    फूलन देवी के डाकू बनने के पीछे हमारा समाज ही जिम्‍मेदार है। रेप का बदला लेने के लिए फूलन देवी को 16 साल की उम्र में ही डाकू बनना पड़ा। फूलन के साथ जिन 22 लोगों ने बालात्‍कार किया था, उन्‍हें एक लाइन में खड़ाकर गोली मार दी। हालांकि इसके बाद साल 1983 में उसने सरेंडर कर दिया था। जेल से छूटने के बाद वह राजनीति से जुड़ गईं। मिर्जापुर से वह दो बार सांसद भी रह चुकी हैं। 2001 में फूलन की गोली मारकर हत्‍या कर दी गई थी।


    4. मान सिंह :-
    मान सिंह ने साल 1935 से लेकर 1955 के बीच तकरीबन 1,112 डकैती को अंजाम दिया था। उसने 182 हत्‍यांए की जिसमें 32 पुलिस अधिकारी भी शामिल थे। साल 1955 में सेना के जवानों ने मान सिंह और उसके पुत्र सूबेदार सिंह की गोली मारकर हत्‍या की दी थी।


    5. शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ :-
    शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ ने 16 मई 1978 को 22 साल की उम्र में पहली हत्‍या की थी। साल 1986 में ददुआ ने एक व्‍यक्‍ित को पुलिस का मुखबिर बता हत्‍या कर दी। उसने 9 अन्‍य लोगों की भी निर्ममता से हत्‍या कर दी थी। 22 जुलाई 2007 को ददुआ अपने गिरोह के अनय सदस्‍यों के साथ पुलिस मुठभेड़ में मारा गया।


    6. माथो सिंह :-
    1960-70 के दशक में चंबल के बीहड़ों में इसका आतंक चलता था। 23 मर्डर 500 किडनैपिंग करने वाले इस डकैत ने 500 साथियों के साथ जयप्रकाश नारायण के सामने सरेंडर किया था। माथो सिंह खुद को बागी मानता था। वह ज्‍यादातर अमीरों के घर पर डैकती डालता था।


    7. सीमा परिहार :-
    13 साल की आयु में डकैत लाला राम और कुसुमा नाइन ने उसका अपहरण कर लिया था। जिसके बाद सीमा ने भी डाकू बनने का मन बना लिया था। सीमा परिहार ने 70 लोगों की हत्‍यांए की और 200 लोगों का अपहरण किया। साल 2000 में उसने यूपी पुलिस के समक्ष सरेंडर कर दिया। राजनीति में हाथ अजमाने के सीमा ने टीवी रियल्‍टी शो में भी काम किया।


    8. मोहर सिंह :-
    मोहर सिंह को दतिया जिले में अपहरण के लिए 2006 में पांच साल के लिए जेल भेजा गया था जहां से वह 2012 में रिहा हुआ। जेल से छूटते ही मोहर सिंह ने अपनी पत्‍नी और बेटी की हत्‍या कर लाश को सिंध नदी में फेंक दिया था। 16 साल तक बीहड़ में रहे डाकू मोहर सिंह पर 550 मुकदमे थे जिनमें 400 हत्‍याओं का आरोप था। जेल में 8 साल सजा काट चुके पूर्व दस्‍यु मोहर सिंह फिलहाल सामाजिक कार्यों से जुड़ा हुआ है।


    9. निर्भय गुज्‍जर :-
    एक समय 40 गावों में निर्भय सिंह गुज्‍जर ने अपनी धाक जमा रखी थी। सरकार ने उसके ऊपर 2.5 लाख रुपये का इनाम भी रखा था। 2005 में मुठभेड़ में उसे मार दिया गया। निर्भस खूबसूरत महिला दस्‍युओं के कारण भी मशहूर था। इनमें सीमा परिहार, मुन्‍नी पांडे, पार्वती ऊर्फ चमको प्रमुख थीं।


    10. पुतली बाई :-
    चंबल में पुतली बाई का नाम पहली महिला डकैत के रूप में दर्ज है। खूबसूरत पुतलीबाई पर सुल्‍ताना डकैत की नजर पड़ी। पुतलीबाई अपना घर-बार छोड़कर सुल्‍ताना के साथ बीहड़ों में रहने लगी। सुल्‍ताना के मारे जाने के बाद पुतलीबाई गिरोह की सरदार बनी। 1950 से 1956 तक बीहड़ों में उसका जबरदस्‍त आतंक रहा। पुतलीबाई 23 जनवरी 1956 को शिवपुरी के जंगलो में पुलिस मुठभेड़ में मारी गई।

    पत्रकार vs पत्रकारिता / राजेश त्रिपाठी

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    ..आज पत्रकारिता दिवस है.... यानी इसको "जानने"का खास दिन....!
    जो पत्रकार साथी पत्रकारिता को जान चुके हैं, पहचान चुके हैं, समझ चुके हैं....और उसे पूरी शिद्दत से निभा रहे हैं... उन्हें कोशिश: बधाई.....!
    जो जानने, समझने और निभाने का प्रयास कर रहे हैं.... उन्हें बहुत बहुत बधाई....!
    परन्तु उन्हें केवल बधाई..... जो पत्रकारिता को न जानना चाहते हैं.... न पहचाना चाहते हैं.... न समझना चाहते हैं....और न उस पर चलना ही चाहते हैं....
    सम्भवतः देवर्षि नारद से चली आ रही यह गौरवशाली परम्परा आज भी उतनी ही ताकतवर है.... जितनी देवर्षि के समय में रहने की बात आती है....!
    बस एक फर्क दिखता है.... "सहिष्णुता"का...!
    प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ-साथ इस समय पोर्टल न्यूज का भी जमाना है....!
    परन्तु एक बात बिल्कुल कामन है कि.... वे चाहे जो लिखें.... चाहे जो दिखायें.... चाहे जो परोसें.... हमें देखना-सुनना-पढ़ना ही होगा....हमारी उसमें रुचि हो अथवा न हो...!
    मगर "वे"अपनी मर्जी के बिना अपने वाल, अपने पन्ने, अपने स्क्रीन पर और कुछ भी पढ़ना - देखना स्वीकार नहीं कर सकते....!
    आखिर पत्रकारिता को जीने वाले बन्धु या बन्धु की विपरीत जेन्डर की भी लोग... यह क्यों नहीं एहसास कर पाते कि उनकी खबरों पर तो लोग सहिष्णु बने रहें.... मगर वे सहिष्णु नहीं रह सकते....!
    कोई पत्रकार हो सकता है.... मगर उसके पहले वह इंसान तो होता ही होता है....हाड़ - मास से बना तो वह भी होता है....उसके भी देखने - सुनने - समझने - परखने में मानवीय चूक हो सकती है.... ईष्या - राग - द्वेष - काम - क्रोध का भाव परिस्थिति वश ही सही उत्सर्जित हो सकता है....!
    मगर कुछ ने यह मान ही लिया है कि वह पत्रकार हो चुके हैं.... इसलिए इस सबसे "वे"विलग हो चुके हैं.... जबकि नारद कथा बताती है कि सर्वोच्च नैतिकता के जमाने में भी मानव दुर्बलता कुछ पल के लिए ही सही मगर अन्दर तक घर कर गई थी....!
    क्या पत्रकारिता दिवस पर कुछ आत्ममंथन हो सकता है ...?
    मनो.... बस ऐसे ही पूछ रहे थे.....!

    न्यू मीडिया” / मीडिया का आत्मावलोकन…

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    प्रस्तुति- अनिल कुमार सिंह

    फेसबुक क्रांति के नौ वर्ष

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    4 फरवरी को दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक ने अपने जीवन का नौवां वसंत देखा। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्र मार्क जुकरबर्ग ने 4 फरवरी, 2004 को फेसबुक की शुरूआत फेसमैश के नाम से   की थी। शुरू में यह हार्वर्ड के छात्रों के लिए ही अंतरजाल का काम कर रही थी, लेकिन शीघ्र ही लोकप्रियता मिलने के साथ इसका विस्तार पूरे यूरोप में हो गया। सन 2005 में इसका नाम परिवर्तित कर फेसबुक कर दिया गया। दुनिया भर में 2.5 अरब उपयोगकर्ताओं वाली फेसबुक में भी वक्त के साथ कई आयाम जुड़ते चले गए। सन 2005 में फेसबुक ने अपने उपयोगकर्ताओं को नई सौगात दी, जब उसने उन्हें फोटो अपलोड करने की भी सुविधा प्रदान की।
              फेसबुक के सफर का यह सबसे महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी कदम था, जिसने वर्चुअल दुनिया को नए आयाम देने का काम किया। फोटो अपलोड करने की सुविधा इस लिए क्रांतिकारी कदम थी, क्योंकि फोटो के माध्यम से विचारों की अभिव्यक्ति को जीवंतता मिली। बदलते वक्त और बदलते समाज का आईना बनी फेसबुक से देखते ही देखते नौ वर्षों में अरबों लोग जुड़े। सन 2006 के सितंबर माह में फेसबुक ने 13 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को फेसबुक से जुड़ने की स्वतंत्रता प्रदान की। इससे इसका दायरा और भी व्यापक हुआ। प्रारंभ में फेसबुक का उपयोग सोशल नेटवर्क स्थापित करने और नए लोगों से जुड़ने के लिए ही होता रहा। लेकिन वक्त की तेजी के साथ ही फेसबुक को भी नए आयाम मिले। संगठित मीडिया की चुनी हुई और प्रायोजित खबरों की घुटन से निकलने के लिए भी सामाजिक तौर पर सक्रिय लोगों ने फेसबुक का प्रयोग किया। दिसंबर 2010 में विश्व ने अरब में क्रांति का अदभुत दौर देखा, अद्भुत इसलिए कि अरब के जिन देशों में कई दशकों से तानाशाही शासन चल रहा था, वहां लोगों ने सड़कों पर उतरकर मुखर प्रदर्शन किया। प्रदर्शन ही नहीं तानाशाहियों को सत्ता से खदेड़ने का काम किया। समस्त विश्व उस समय हतप्रभ रह गया कि यह कैसे हुआ ?
           जिस अरब में आम लोग सरकार की नीतियों की आलोचना करने से भी डरते थे, वहां सत्ता विरोधी ज्वार अचानक कैसे आया। इसका उत्तर केवल यही था, सोशल मीडिया के कारण। ट्यूनीसिया, मिस्र, यमन, लीबिया, सीरिया, बहरीन, सउदी अरब, कुवैत, जार्डन, सूडान जैसे पूर्व मध्य एशिया और अरब के देशों ने क्रांति की नई सुबह को देखा। इसका कारण यही था कि वहां के सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा संचार माध्यमों पर लागू लौह परदा के सिद्धांत का विकल्प लोगों को सोशल मीडिया के रूप में मिल गया। सरकारी मीडिया आमजन की जिस आवाज और गुस्से को मुखरित होने से रोक देता था, सोशल मीडिया ने उसका विकल्प और जवाब आम जन के सामने रखा।
                   सरकारी बंदिशों, संपादकीय नीति और समाचार माध्यमों पर बने बाजारू दबावों से मुक्त सोशल मीडिया ने आमजन की आवाज को मंच प्रदान कर मुखरित करने का कार्य किया। सोशल मीडिया द्वारा उभरी इस क्रांति का सबसे लोकप्रिय वाहक बना फेसबुक। एक समय पर अनेकों लोगों के संवाद करने की सुविधा, विचारों को आदान-प्रदान करने का मंच, जिसमें शब्दों की सीमा में बंधे बिना अपने विचारों को अभिव्यक्त किया जा सकता है। फेसबुक की इसी विशेषता ने आमजन के बीच चल रहे विचारों के प्रवाह को दिशा प्रदान की। अपनी व्यस्त जिंदगी में लोगों ने फेसबुक के माध्यम से अपने विचारों को एक-दूसरे को सहज ढंग से पहुंचाया और राजनीतिक-सामाजिक समस्याओं के प्रति जनांदोलनों की नींव रखी जाने लगी। सोशल मीडिया जनित यह आंदोलन अरब देशों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि अमरीका के वाल स्ट्रीट होते हुए, यह दुनिया के सबसे बड़े  लोकतंत्र के जंतर-मंतर तक पहुंच गए। अमरीका में वाल स्ट्रीट घेरो आंदोलनहुआ, जिसमें अमीर देश का तमगा धारण किए अमरीका के नागरिकों ने आंदोलन किया और देश के संसाधनों का 1 प्रतिशत लोगों के हाथों में सिमटना चिंताजनक बताया। अमरीका में हुए इस आंदोलन ने दुनिया भर का ध्यान खींचा। इस आंदोलन ने बताया कि दुनिया का शीर्ष देश कहलाने वाले अमरीका में भी किस पर गैरबराबरी व्याप्त है। आंदोलनों की इस बयार से भारत भी अछूता नहीं रहा और यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और नीतिगत असफलताओं को लेकर जंतर-मंतर से सड़कों तक सत्ता विरोधी आंदोलन के स्वर मुखरित हुए। यह आंदोलन सोशल मीडिया और उसके प्रमुख घटक फेसबुक की ही देन थे।
                फेसबुक के नौवें जन्मदिन से कुछ दिन पूर्व ही एक आंदोलन और हुआ। दिल्ली में हुए गैंगरेप के विरोध में आंदोलन। यह आंदोलन तो पूरी तरह उसी जमात का था, जिसे फेसबुकिया या सोशल मीडिया के क्रांतिकारी कहा जाता रहा है। यह कहना ठीक ही होगा कि अपने नौंवा वर्षों के संक्षिप्त समय में फेसबुक ने नई उंचाईयों को छुआ है और मुख्यधारा की मीडिया से अलग भी वैयक्तिक राय की स्वतंत्रता प्रदान करते हुए विभिन्न आंदोलनों को मूर्त रूप दिया है। उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में भी फेसबुक नए पायदान चढ़ता जाएगा और वर्चुअल दुनिया की यह क्रांतिकारी बुक आने वाले वक्त में भी आमजन की आवाज को मुखरता प्रदान करती रहेगी।

    फेसबुक का बढ़ता जाल


    आज का युग इंटरनेट का युग है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने आज देश-विदेश में पूरी तरह से अपनी पकड़ मजबूत कर ली है। लोगों का अधिकतर समय अब इन्हीं साइट्स पर बीतने लगा है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने हजारों किलोमीटर की दूरियों को तो जैसे खत्म सा कर दिया है। ट्विटर, आरकुट, माई स्पेस, गूगल प्लस या लिंक्ड इन जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स की फेहरिस्त में फेसबुक सबसे पहले नम्बर पर शुमार है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज आंदोलनों की शुरूआत ही फेसबुक से होती है। मिस्र में सरकार का तख्ता पलट कर देने वाले आंदोलन की शुरूआत भी फेसबुक द्वारा ही की गई थी। वायल गोनिम एक आनलाइन कार्यकर्ता ने एक गुमनाम पेज बनाया और लोगों को तहरीर चैक पर इकट्ठा होने की अपील की। यह आंदोलन 250 लोगों की मौत का कारण बनने के बावजूद सफल रहा और ऐतिहासिक भी।
    फेसबुक के जरिये आज उपयोगकर्ता अपनी व दोस्तों-रिश्तेदारों की फोटो, वीडियो या अन्य बातें सबके साथ साझा करते हैं। दूर रहने वाले दोस्तों के साथ बातें करने और उनके साथ जुड़े रहने का यह एक ऐसा माध्यम है जिससे हर दिन नये-नये लोग जुड़ रहे हैं। फेसबुक की शुरूआत 4 फरवरी 2004 को हुई। इसे अभी एक दशक भी नहीं हुआ है कि विश्व में इसके कुल उपयोगकर्ता 75 करोड़ हैं। वर्तमान समय में भारत विश्व में फेसबुक उपयोगकर्ता की सूची में 8वें पायदान पर है। फेसबुक ने हाल ही में हैदराबाद में अपना एक कार्यालय खोला है। भारत में लाखों लोग फेसबुक से जुड़े हुए हैं। हालांकि गूगल की गूगल प्लस सोशल नेटवर्किंग सेवा ने इसके कुछ उपयोगकर्ताओं का रूख अपनी ओर तो किया है लेकिन अब भी फेसबुक ही सबसे आगे है।
    भारत में फेसबुक का इतने बड़े स्तर पर प्रचलित होने के पीछे कारण यह है कि आज की पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति की ओर बड़ी तेजी से अग्रसरित हो रही है। देश में लाखों युवा मोबाइल से फेसबुक पर लाग इन करते हैं। एप्पल जैसी कंपनियों ने अब ऐसे फोन निकाले हैं जो बिना इंटरनेट कनेक्शन के फेसबुक तक पहुंच रखने में सक्षम हैं। फेसबुक केवल बातचीत का जरिया न होकर और भी कई भूमिकाएं अदा कर रहा है। इन दिनों फेसबुक एक सशक्त और लोकप्रिय माध्यम बनकर उभरा है जो जनता के विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन चुका है। भारत में यह अन्ना की आवाज बनी है तो अमेरिका में ओबामा की। हाल ही में फेसबुक पर अन्ना के आंदोलन को मिला जनसमर्थन इसका प्रमाण है। देश भर में लाखों लोग अन्ना द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ षुरू किए गए आंदोलन इंडिया अगेंस्ट करप्शन‘नाम के पेज के साथ फेसबुक पर जुडे़। फेसबुक पर सबसे अधिक युवाओं की संख्या होने से इस आंदोलन को युवाओं का समर्थन भी अधिक मिला। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रमेश गौतम का मानना है
    आंदोलन आज फेसबुक से शुरू होते हैं और आलोचना का लोकतंत्र भी नए मीडिया से बना है।
    आज सामाजिक मुद्दों पर लोग लगातार अपनी राय रखते हैं। पिछले कुछ माह तक भूमि अधिग्रहण पर चली किसानों और सरकार के बीच की लड़ाई में भी लोगों ने फेसबुक पर बहस छेड़कर किसानों का समर्थन किया। इनके अलावा भी फेसबुक पर लोगों ने एक-दूसरे को किसी विशेष मुद्दे या लक्ष्य को लेकर संयुक्त रूप से जोड़ने के लिए कुछ आनलाइन कम्युनिटी और ग्रुप भी बनाए हुए हैं। हाल ही में फेसबुक पर एक हिन्दू स्ट्रगल कमेटी‘बनाई गई है जो सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा कानून‘के विरोध में है। इसी प्रकार से यूथ अगेंस्ट करप्शन नाम से भी युवाओं की एक कमेटी बनायी गई है। इसी तरह एक ही कालेज या कंपनी के सहकर्मी, कविताएं या शेरो-शायरी पसंद करने वाले युवा और इनके साथ गैरसरकारी संस्थाएं भी अपने ग्रुप बनाकर लोगों को जोड़े हुए हैं जो सभी के बीच संपर्क बनाने का काम करता है। इनसे हटकर देखा जाए तो आज फेसबुक युवाओं को नौकरियां भी दिला रहा है।
    संभावनाओं को देखते हुए बहुत सी कंपनियों ने फेसबुक पर अपने जाब पेज बनाए हुए हैं। इनके जरिये बहुत से युवाओं को नौकरी मिली है। कई युवाओं को फेसबुक से फ्रीलांसिंग का भी काम मिला है। युवाओं ने अपनी फेसबुक वाल पर अपने काम से जुड़ी जानकारियां दी हैं जो उन्हें नौकरी के लिए प्रस्ताव दिलाने में मददगार साबित होती हैं। फेसबुक पर कई कंपनियों ने अपने उत्पादों के विज्ञापन दिए हुए हैं जिससे कम खर्च में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ई-मार्केटिंग में भी बढ़ोत्तरी हुई है। फेसबुक उभरते हुए लेखकों के लिए एक मंच बन चुका है जो पुस्तक के विमोचन से पहले पुस्तक का कुछ अंश पाठकों की नजरों में लाने के लिए सहायक है। अब सरकारी निकायों ने अपने काम को मुस्तैदी के साथ करने के लिए खुद को फेसबुक से जोड़ लिया है। दिल्ली नगर निगम, दिल्ली पुलिस और ट्रैफिक पुलिस ने फेसबुक के माध्यम से लोगों की समस्याओं का निवारण किया है। ऐसा बताया जा रहा है कि जल्दी ही रेलवे विभाग भी फेसबुक पर शिरकत करेगा।
    दफ्तरों की ही बात की जाए तो इसका एक और पक्ष सामने आया है। कुछ निजी कंपनियों के साथ-साथ सरकारी दफ्तरों में भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बैन लगा दिया गया है ताकि कर्मचारी इनसे अलग हटकर अपने काम पर अधिक ध्यान दें।
    जहां फेसबुक एक ओर लोगों के बीच सेतु का काम कर रहा है वहीं दूसरी ओर फेसबुक लोगों को भटकाव की ओर भी लेकर जा रहा है। आजकल फेसबुक पर कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा फर्जी एकाउंट बनाए जाते हैं। लंदन में हो रहे दंगों की शुरूआत का कारण भी फेसबुक ही था। लंदन के ही दो युवकों ने फेसबुक पर एकाउंट बनाकर लोगों को आगजनी और लूटपाट के लिए उकसाया।
    कुछ झूठे एकाउंट ऐसे होते हैं जो किसी बड़ी शखि़सयत के नाम पर होते हैं। हाल ही में, फेसबुक पर ब्रिटेन की मशहूर पाप सिंगर लेडी गागा की मौत की अफवाह उड़ाई गई जिससे लोग काफी हैरान हुए। इससे पहले भी फेसबुक बहुत से विवादों का केन्द्र बिन्दु रहा है। पिछले साल पाकिस्तान में फेसबुक पर बैन लगा दिया गया क्योंकि फेसबुक पर एक प्रतियोगिता आयोजित की गई थी कि लोग अपने तरीके से पैगंबर मोहम्मद की पेंटिंग बनाएं। पाकिस्तान में लगातार विरोध प्रदर्षन के बाद फेसबुक को बैन कर दिया गया। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी ने अश्लीलता फैलाने का हवाला देकर फेसबुक को बैन किया हुआ है। विशेषज्ञों का मानना है कि चीन में ऐसा इसीलिए किया गया है ताकि वहां लोकतंत्र न पनप पाए और लोग एक-दूसरे से न जुड़ पाएं। चीन फेसबुक और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स के साथ अब तक लाखों वेबसाइट्स को भी बंद कर चुका है। फेसबुक का गलत तरीके से प्रयोग करने के संदर्भ में एक और उदाहरण सामने आया है। फेसबुक इन दिनों काल गर्ल्स के लिए एक बाजार बन कर उभर रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक 85 प्रतिशत काल गर्ल्स ने फेसबुक पर अपने एकांउट बनाए हुए हैं। उन्होंने लोगों को फंसाने और ग्राहकों को लुभाने के लिए कामुक तस्वीरें भी लगाई हुई हैं जिसे वे अपडेट करती रहती हैं।
    जिन देशों में फेसबुक है वहां उपयोगकर्ता की लापरवाही के कारण फेसबुक पर कई हैकर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज पासवर्ड चोरी कर लेते हैं। फेसबुक का सबसे बड़ा खतरा है कि इस पर उपयोगकर्ता की निजी जानकारियों तक कोई भी पहुंच सकता है और गलत फायदा उठा सकता है। कंपनियां अपने विज्ञापन के साथ कुछ जानकारियां भी डालती हैं जिससे कई बार कंपनी के डाटा हैक कर लिए जाते हैं। हाल ही में यू-ट्यूब पर एक अनजान हैकिंग समूह ने आपरेशन फेसबुक नाम से एक वीडियो अपलोड की है जिसमें व्यक्ति का चेहरा दिखाए बिना यह बताया गया है कि 5 नवम्बर 2011 को हम दुनिया की चहेती फेसबुक को खत्म कर देंगे, जिससे 75 करोड़ उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता खत्म हो जाएगी। इससे बचने के लिए फेसबुक से लगातार जुड़ते लोगों को तो यही सलाह दी जा सकती है कि वे इसका उपयोग करने से पहले इसकी पूर्ण जानकारी अवश्य ले लें।
    वंदना शर्मा, सितम्बर अंक, २०११

    वेब मीडिया का बढ़ता क्षितिज


    वर्तमान दौर संचार क्रांति का दौर है। संचार क्रांति की इस प्रक्रिया में जनसंचार माध्यमों के भी आयाम बदले हैं। आज की वैश्विक अवधारणा के अंतर्गत सूचना एक हथियार के रूप में परिवर्तित हो गई है। सूचना जगत गतिमान हो गया है, जिसका व्यापक प्रभाव जनसंचार माध्यमों पर पड़ा है। पारंपरिक संचार माध्यमों समाचार पत्र, रेडियो और टेलीविजन की जगह वेब मीडिया ने ले ली है।
    वेब पत्रकारिता आज समाचार पत्र-पत्रिका का एक बेहतर विकल्प बन चुका है। न्यू मीडिया, आनलाइन मीडिया, साइबर जर्नलिज्म और वेब जर्नलिज्म जैसे कई नामों से वेब पत्रकारिता को जाना जाता है। वेब पत्रकारिता प्रिंट और ब्राडकास्टिंग मीडिया का मिला-जुला रूप है। यह टेक्स्ट, पिक्चर्स, आडियो और वीडियो के जरिये स्क्रीन पर हमारे सामने है। माउस के सिर्फ एक क्लिक से किसी भी खबर या सूचना को पढ़ा जा सकता है। यह सुविधा 24 घंटे और सातों दिन उपलब्ध होती है जिसके लिए किसी प्रकार का मूल्य नहीं चुकाना पड़ता।
    वेब पत्रकारिता का एक स्पष्ट उदाहरण बनकर उभरा है विकीलीक्स। विकीलीक्स ने खोजी पत्रकारिता के क्षेत्र में वेब पत्रकारिता का जमकर उपयोग किया है। खोजी पत्रकारिता अब तक राष्ट्रीय स्तर पर होती थी लेकिन विकीलीक्स ने इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग किया व अपनी रिपोर्टों से खुलासे कर पूरी दुनिया में हलचल मचा दी। भारत में वेब पत्रकारिता को लगभग एक दशक बीत चुका है। हाल ही में आए ताजा आंकड़ों के अनुसार इंटरनेट के उपयोग के मामले में भारत तीसरे पायदान पर आ चुका है। आधुनिक तकनीक के जरिये इंटरनेट की पहुंच घर-घर तक हो गई है। युवाओं में इसका प्रभाव अधिक दिखाई देता है। परिवार के साथ बैठकर हिंदी खबरिया चैनलों को देखने की बजाए अब युवा इंटरनेट पर वेब पोर्टल से सूचना या आनलाइन समाचार देखना पसंद करते हैं। समाचार चैनलों पर किसी सूचना या खबर के निकल जाने पर उसके दोबारा आने की कोई गारंटी नहीं होती, लेकिन वहीं वेब पत्रकारिता के आने से ऐसी कोई समस्या नहीं रह गई है। जब चाहे किसी भी समाचार चैनल की वेबसाइट या वेब पत्रिका खोलकर पढ़ा जा सकता है।
    लगभग सभी बड़े-छोटे समाचार पत्रों ने अपने ई-पेपर‘यानी इंटरनेट संस्करण निकाले हुए हैं। भारत में 1995 में सबसे पहले चेन्नई से प्रकाशित होने वाले ‘हिंदू‘ ने अपना ई-संस्करण निकाला। 1998 तक आते-आते लगभग 48 समाचार पत्रों ने भी अपने ई-संस्करण निकाले। आज वेब पत्रकारिता ने पाठकों के सामने ढेरों विकल्प रख दिए हैं। वर्तमान समय में राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों में जागरण, हिन्दुस्तान, भास्कर, डेली एक्सप्रेस, इकोनामिक टाइम्स और टाइम्स आफ इंडिया जैसे सभी पत्रों के ई-संस्करण मौजूद हैं।
    भारत में समाचार सेवा देने के लिए गूगल न्यूज, याहू, एमएसएन, एनडीटीवी, बीबीसी हिंदी, जागरण, भड़ास फार मीडिया, ब्लाग प्रहरी, मीडिया मंच, प्रवक्ता, और प्रभासाक्षी प्रमुख वेबसाइट हैं जो अपनी समाचार सेवा देते हैं।
    वेब पत्रकारिता का बढ़ता विस्तार देख यह समझना सहज ही होगा कि इससे कितने लोगों को रोजगार मिल रहा है। मीडिया के विस्तार ने वेब डेवलपरों एवं वेब पत्रकारों की मांग को बढ़ा दिया है। वेब पत्रकारिता किसी अखबार को प्रकाशित करने और किसी चैनल को प्रसारित करने से अधिक सस्ता माध्यम है। चैनल अपनी वेबसाइट बनाकर उन पर बे्रकिंग न्यूज, स्टोरी, आर्टिकल, रिपोर्ट, वीडियो या साक्षात्कार को अपलोड और अपडेट करते रहते हैं। आज सभी प्रमुख चैनलों (आईबीएन, स्टार, आजतक आदि) और अखबारों ने अपनी वेबसाइट बनाई हुईं हैं। इनके लिए पत्रकारों की नियुक्ति भी अलग से की जाती है। सूचनाओं का डाकघर‘कही जाने वाली संवाद समितियां जैसे पीटीआई, यूएनआई, एएफपी और रायटर आदि अपने समाचार तथा अन्य सभी सेवाएं आनलाइन देती हैं।
    कम्प्यूटर या लैपटाप के अलावा एक और ऐसा साधन मोबाइल फोन जुड़ा है जो इस सेवा को विस्तार देने के साथ उभर रहा है। फोन पर ब्राडबैंड सेवा ने आमजन को वेब पत्रकारिता से जोड़ा है। पिछले दिनों मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्ट की ताजा तस्वीरें और वीडियो बनाकर आम लोगों ने वेब जगत के साथ साझा की। हाल ही में दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने गांवों में पंचायतों को ब्राडबैंड सुविधा मुहैया कराने का प्रस्ताव रखा है। इससे पता चलता है कि भविष्य में यह सुविधाएं गांव-गांव तक पहुंचेंगी।
    वेब पत्रकारिता ने जहां एक ओर मीडिया को एक नया क्षितिज दिया है वहीं दूसरी ओर यह मीडिया का पतन भी कर रहा है। इंटरनेट पर हिंदी में अब तक अधिक काम नहीं किया गया है, वेब पत्रकारिता में भी अंग्रेजी ही हावी है। पर्याप्त सामग्री न होने के कारण हिंदी के पत्रकार अंग्रेजी वेबसाइटों से ही खबर लेकर अनुवाद कर अपना काम चलाते हैं। वे घटनास्थल तक भी नहीं जाकर देखना चाहते कि असली खबर है क्या\
    यह कहा जा सकता है कि भारत में वेब पत्रकारिता ने एक नई मीडिया संस्कृति को जन्म दिया है। अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता को भी एक नई गति मिली है। युवाओं को नये रोजगार मिले हैं। अधिक से अधिक लोगों तक इंटरनेट की पहुंच हो जाने से यह स्पष्ट है कि वेब पत्रकारिता का भविष्य बेहतर है। आने वाले समय में यह पूर्णतः विकसित हो जाएगी।
    वंदना शर्मा, अगस्त अंक, २०११

    सामाजिक आंदोलन और न्यू मीडिया

    क्रांति का वाहक बनता न्यू-मीडिया
    समाचार पत्रों और चैनलों में व्यावसायीकरण के प्रभाव के कारण निष्पक्ष विचारों का प्रभाव बहुत कम होता जा रहा है। निष्पक्ष विचार रखने वालों को मीडिया जगत में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ऐसे में न्यू मीडिया एक वरदान के रूप में उभर कर सामने आया है। सस्ता व सुलभ संचार माध्यम होने के कारण इसने काफी कम समय में प्रसिद्धि पाई है। वहीं न्यू मीडिया ने सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय भूमिका निभाई है।
    अरब देशों में हुई जनक्रांति के पीछे न्यू मीडिया का बड़ा योगदान रहा है। सरकार द्वारा समाचार पत्रों और चैनलों पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद वहां की जनता एक-दूसरे से सोशल साइटों के जरिए जुड़ी और जनक्रांति को एक नई दिशा मिली। भारत में भी पिछले कुछ दिनों में हुए आंदोलनों में न्यू मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    आरूषि तलवार को इंसाफ दिलाने के लिए कैंडल लाइट मार्च से लेकर अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के आंदोलनों में जनसमर्थन प्राप्त करने के लिए न्यू मीडिया के माध्यम से लोगों से संपर्क साधा गया। इसके लिए एक ओर फेसबुक जैसी सोशल साइट पर एक पेज बनाकर लोगों को आंदोलन व उसके समय, स्थान की जानकारी दी गई, वहीं मोबाइल फोन पर भी एसएमएस द्वारा लोगों को सूचित किया गया। फेसबुक, ऑरकुट व ट्विटर जैसी सोशल साइट्स पर अब लोग राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर भी जमकर बहस करने लगे हैं जिससे आम जन के बीच जागरूकता आई है।
    ब्लॉग व वेब पोर्टल तो अपना विचार निष्पक्ष रूप से रखने वालों के लिए वरदान साबित हुए हैं। न्यू मीडिया जगत में तो वेब पोर्टलों की बाढ़ सी आ गई है। ख्याति पाने के लिए अधिकतर लोग अपना निजी वेब पोर्टल बनाते हैं। पोर्टलों और ब्लॉग पर राष्ट्रीय मुद्दों पर परिचर्चा होने लगी है। इसका फायदा यह है कि इसमें सभी लोगों को अपने विचार व्यक्त करने का स्थान मिल जाता है जिसके परिणामस्वरूप वह उस मुद्दे में विशेष रूचि लेने लगते हैं।
    यू-ट्यूब पर तो किसी भी मुद्दे से संबंधित वीडियो देखे जा सकते है जिसके कारण इसकी लोकप्रियता तीव्र गति से बढ़ी है। न्यू मीडिया से राजनीतिक हल्कों की नींद भी उड़ गई है। गूगल द्वारा जारी की गई ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र सरकार की ओर से गूगल को कई बार प्रधानमंत्री, कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों और अधिकारियों की आलोचना करने वाली रिपोर्ट्स, ब्लॉग और यू-ट्यूब वीडियो हटा देने को कहा गया।
    जुलाई 2010 से लेकर दिसंबर 2010 के बीच गूगल के पास इस तरह के 67 आवेदन आए जिनमें से 6 अदालतों की ओर से, बाकी सरकार की ओर से आए। यह आवेदन 282 रिपोर्ट्स को हटाने के थे जिनमें से 199 यू-ट्यूब के वीडियो, 50 सर्च के परिणामों, 30 ब्लॉगर्स की सामग्री हटाने के थे। हालांकि गूगल ने इन्हें नहीं हटाया और केवल 22 प्रतिशत में बदलाव किया।
    न्यू मीडिया ने समाज में अलग पहचान बनाई है और इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि इससे युवा पीढ़ी ज्यादा जुड़ रही है। भविष्य में मीडिया के इस नए माध्यम की संभावनाएं और अधिक बढे़गी।
    नेहा जैन, जुलाई अंक, २०११

    न्यू मीडिया और कानून

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    प्रस्तुति- कृति शरण / सृष्टि शरण

        न्यू मीडिया समाज में अभिव्यक्ति का एक ऐसा मंच है जहां पर बोलने को लेकर किसी भी व्यक्ति पर कोई भी पाबंदी लगा पाना लगभग असंभव है। कोई भी व्यक्ति जिसके पास किसी भी प्रकार की सूचना है वह उस सूचना को न्यू मीडिया के जरिये से दुनिया के सामने उजागर कर सकता है।
    यह सूचना किसी तथ्यता पर ही आधारित हो यह जरूरी नहीं है। कोई भी व्यक्ति छद्म नाम से किसी को गैरप्रामाणिक सूचना दे सकता है जिससे कि उस सूचना की जवाबदेही व्यक्ति की नहीं रह जाती। कई बार ऐसा देखने में आता है कि कोई व्यक्ति जो न्यू मीडिया पर नहीं भी होता है उसका कोई फर्जी अकाउण्ट न्यू मीडिया पर खोल दिया जाता है और उस अकाउण्ट के जरिये से व्यक्ति की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाई जा सकती है साथ ही उस व्यक्ति की व्यावसायिक साख का फायदा अपना कार्य करने में भी उठाया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप हाल ही में देखने आया कि जी न्यूज के राजनीतिक संपादक पुण्य प्रसून वाजपेयी का फेसबुक पर कोई अकाउण्ट चलता हुआ मिला, यह खाता पुण्य प्रसून के नाम से चलाया जा रहा था और पुण्य प्रसून जो भी पोस्ट अपने ब्लॉग पर करते थे उस पोस्ट की लिंक को इस खाते पर डाल दिया जाता था। मीडिया का प्रतिष्ठित नाम होने की वजह से कुछ ही समय में इस खाते के मित्र सदस्यों की संख्या पांच हजार को छू गई। मित्रों के द्वारा पुण्य प्रसून को पता चला तो उन्होंने खाते की गतिविधियों से अनभिज्ञता दिखाई। हालांकि इस खाते से कोई गलत कार्य नहीं किया गया किन्तु इस बात की संभावना से मना नहीं किया जा सकता कि उस खाते से किसी व्यक्ति की नौकरी आदि में अप्रोच भी लगाई जा सकती थी। इस प्रकार न्यू मीडिया के द्वारा फर्जी तरीके से व्यावसायिक हितों में उपयोग हो सकता है।
    न्यू मीडिया के द्वारा रोज नए-नए तरीके से कोई ना कोई गैर कानूनी कार्य होने लगा है इसलिए यह जरूरी हो गया है कि न्यू मीडिया को कानून के घेरे में लाया जाए। कानून सिर्फ नकारात्मक नहीं होता। कानून के द्वारा अभिव्यक्ति को एक प्रखरता ही मिलती है। वर्तमान में यदि किसी वेब पोर्टल पर नजर दौड़ाई जाए जहां पर किसी भी ब्लॉग पर किसी को भी कमेण्ट करने की स्वतंत्रता है तो वहां पर बहुत से ऐसे कमेण्ट्स देखने को मिल जाते हैं जो किसी ना किसी दुर्भावना से बहुत ही अनर्गल भाषा में लिखे जाते हैं। ये कमेंट्स बताते हैं कि अभी न्यू मीडिया पर कार्य करने की हमारी शैली परिपक्वता के स्तर तक नहीं पहुंच पाई है। बच्चे हर किसी के घर में होते हैं और हर कोई जानता है कि उनमें परिपक्वता की कमी होती है इसीलिए उनको देखभाल की आवश्यकता होती है, कुछ नियमों की आवश्यकता होती है, कुछ बंधनों की आवश्यकता होती है। ठीक इसी प्रकार जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि न्यू मीडिया के हमारे समाज में दस्तक दिए हुए बहुत अधिक समय नहीं हुआ है। वह अभी अपरिपक्व अवस्था में है। उसे अभी जरूरत है देखभाल की, निगरानी की। जब प्रिंट मीडिया की शुरूआत हुई थी तब बहुत से नियम, कायदे-कानून उस पर लादे गए थे। लोगों ने इन कायदे-कानूनों के कारण सीखा कि कैसे प्रिंट मीडिया का सदुपयोग किया जा सकता है। इन निगरानी का सबसे बड़ा फायदा यह भी रहा कि शुरू से ही प्रिंट मीडिया अपने दुरुपयोग से दूर रही। जिस देश में पूर्ण स्वच्छंदता प्रिंट मीडिया को दी गई वहीं पर उसका दुरुपयोग किया गया। रूपर्ट मर्डोक का ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड ऐसे ही अखबारों में गिना जाता था जिसने मीडिया के किसी कानून को नहीं माना और किसी आचार-संहिता का पालन नहीं किया। उसका परिणाम आज हम सबके सामने है कि आज वह अखबार इतिहास बनकर रह गया है।
    आज का न्यू मीडिया किशोर एवं किशोरियों के जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है। डेली अपडेट, चैटिंग और स्टेटस जांचने में वे अपना काफी समय लगाते हैं। न्यू मीडिया पर सक्रियता नुकसानदायक नहीं है लेकिन इससे जब दूसरों को नुकसान पहुंचने लगे, तब यह खतरनाक साबित हो सकती है। इनके बहाने बच्चों के ऊपर जिस तरह के हमले हो रहे हैं, उन्हें कई बच्चे घरवालों को बताते तक नहीं।
    ग्लोबल मार्केट रिसर्च कम्पनी, इप्सोस द्वारा भारतीय बच्चों पर किए गए सर्वे के अनुसार दस में से तीन भारतीय अभिभावकों का मानना है कि उनका बच्चा सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे फेसबुक और ऑर्कुट के जरिये साइबर बुलिंग का शिकार बना। सर्वे में पाया गया कि 45 प्रतिशत भारतीय पैरेंट्स मानते हैं कि उनके बच्चों का उनके साथियों द्वारा शोषण किया जाता है। 60 प्रतिशत लोगों का मानना है कि साइबर बुलिंग को पंख लगाने का काम सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे फेसबुक आदि के द्वारा हुआ है।
    हाल ही में उत्तराखण्ड के एक नामी गिरामी व्यवसायी की पत्नी का फेसबुक पर फेक अकाउण्ट बनाया गया और उस अकाउण्ट को ऐसे ऑपरेट किया गया कि वह असली अकाउण्ट हो, इस तरह शुरू में दोस्त बना लेने के बाद उस अकाउण्ट पर आपत्तिजनक कंटेंट बनाकर डाला जाने लगा। साइबर दुनिया से अनभिज्ञ उन महिला को जब दोस्तों के द्वारा इसका पता चला तो उन्होंने देहरादून में पुलिस से सम्पर्क किया। पुलिस ने इसको साइबर अपराध के प्रावधान के तहत माना और कार्यवाही करके वह फर्जी फेसबुक अकाउण्ट बन्द करवा दिया।
    इसी तरह एक चार्टर्ड एकाउण्टेंट ने अपने तहत काम कर रहे एक कर्मचारी की तनख्वाह कुछ महीनों से रोक रखी थी जिससे तंग आकर उस कर्मचारी ने चुपके से सीए के व्यावसायिक कम्प्यूटर में एक वाइरस डाल दिया जिससे कि सभी ‘4’ अंक ‘3’ अंक में बदल गए। सीए का तो सारा काम ही चैपट हो गया। उसने पुलिस में शिकायत की। इसको भी साइबर अपराध की श्रेणी में रखा गया और पुलिस ने उस कर्मचारी के ऊपर अपना शिकंजा कसा।
    उपरोक्त उदाहरणों से पता चलता है कि न्यू मीडिया के आ जाने और छा जाने से ही सब-कुछ नहीं हो जाता। न्यू मीडिया को एक सही दिशा में अग्रसरित करने के लिए कुछ कानूनों का होना अत्यंत आवश्यक है। कानूनों की बदौलत ही हम न्यू मीडिया के घातक दुरूपयोगों से बच सकते हैं। किसी के घर में चोरी हो जाए तो चोर को पकड़ कर चोरी गया माल तब भी पकड़ा जा सकता है लेकिन न्यू मीडिया के अपराधों में से ज्यादातर की भरपाई करना लगभग असम्भव होता है। ना तो किसी की प्रतिष्ठा में हुए क्षय को लौटाया जा सकता है और ना ही किसी सीए के कम्प्यूटर के क्षतिग्रस्त हुए आंकड़ों को दोबारा पाया जा सकता है। साइबर मीडिया को इस लाइलाज मर्ज से बचाने का एक यही उपाय है कि ऐसे अपराधों के खिलाफ कड़े से कड़े प्रावधान कानून में रखे जाएं। इन कड़े प्रावधानों के कारण ही ऐसे अपराधों में कमी लाई जा सकती है।
    देखा गया है कि साइबर अपराधों का शिकार ज्यादातर किशोर हो रहे हैं। मसूरी में 13 वर्ष की मेगन मीयर नाम की लड़की थी। उसकी सोशल नेटर्किंग साइट माइस्पेस के जरिये ऑनलाइन दोस्ती हो गई। दोस्त के बारे में वह सोचती थी कि वह उसके जैसा ही है और कहीं आस-पास ही रहने वाला है। लेकिन उसका यह दोस्त एक ऐसे लोगों का ग्रुप था जिसमें वयस्क भी शामिल थे और जिसका मुख्य उद्देश्य इस लड़की को अपमानित करना था। मेगन की दोस्ती में जब खटास आने लगी तो वह बहुत दुखी हुई और उसने आत्महत्या कर ली।
    एक और किशोर उम्र की लड़की ने फेसबुक पर फेक अकाउण्ट बनाकर उसमें ऐसी लड़की के खिलाफ प्रतियोगिता आयोजित की जो एक छात्र पर फिदा थी। अकाउण्ट बनाने वाली लड़की भी उसे चाहती थी। उसने यह अकाउण्ट इसलिए बनाया क्योंकि वह उस लड़के को खुद पाना चाहती थी। इस लड़की की चाल का शिकार होने वाली लड़की बुरी तरह तनाव में आ गई जिससे वह आत्महत्या करने को मजबूर हो गई।
    फेसबुक और माईस्पेस अकाउण्ट के ये मात्र दो उदाहरण मात्र हैं जिसके जरिये किशोरों में उच्च स्तर का तनाव पैदा किया गया। यह दोनों ही साइबर अपराध के केस हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह की साइबर बुलिंग के केवल पांच प्रतिशत केस ही लिखित में दर्ज किए जाते हैं।
    इन उदाहरणों से यह समझने में मदद मिलती है कि साइबर कानूनों की उपयोगिता मात्र कानूनों के अस्तित्व में आने भर से ही पूर्ण नहीं हो जाती। न्यू मीडिया के क्षेत्र में इन कानूनों की उपयोगिता तब है जब ये कानून लोगों की जानकारी में हों और वे जान सकें कि इन कानूनों का उपयोग वे किन-किन परिस्थितियों में कर सकते हैं। अर्थात सरल शब्दों में यह कह सकते हैं कि न्यू मीडिया में कानून की उपयोगिता तो है ही साथ ही सबसे ज्यादा आवश्यकता है कानूनों के बारे में जागरूकता की। कुछ क्षेत्रों में कानूनों को और व्यापक और व्यावहारिक बनाने की भी आवश्यकता है क्योंकि भारत के लिए साइबर क्षेत्र में तकनीकी स्तर पर बहुत ज्यादा काम हो ही नहीं सकता क्योंकि यहां काम करने वाली वेबसाइटों में से ज्यादातर के सर्वर देश से बाहर स्थित हैं जिन पर उन्हीं देशों का कानून चलता है। अगर उस देश के साथ भारत के अच्छे सम्बन्ध हैं तो उससे जानकारी मांगी जा सकती है जिसके भी मिलने की कोई गारंटी नहीं होती और वो जानकारी कितने समय में मिलेगी, इसका भी कोई हिसाब नहीं होता फिर भी न्यू मीडिया जो कि अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बनता जा रहा है को और प्रामाणिक तरीके से उपयोग करने के लिए आवश्यक है कि उस पर कानून उचित रूप से लागू हों। किसी भी बात की प्रामाणिकता के लिए आज भी हम ब्रिटानिका जैसी किताबों पर ही ज्यादा भरोसा करना पसंद करते हैं बजाय कि किसी वेबसाइट पर लिखी जानकारी के क्योंकि प्रिंट माध्यम में उचित कानून बनाए जा चुके हैं। न्यू मीडिया पर आम आदमी का विश्वास बनाने के लिए आवश्यक है कि न्यू मीडिया में भी ऐसे कानून बनाए जाएं जिससे कि प्रामाणिक जानकारी लागों को मिल सके। न्यू मीडिया में कानून की सबसे बड़ी उपयोगिता यही होगी कि साइबर अपराधों में कमी आए और कंटेंट में प्रामाणिकता का अहसास हो सके।

    न्यू मीडिया क्या है?

    मनुष्यमात्र की भाषायी अथवा कलात्मक अभिव्यक्ति को एक से अधिक व्यक्तियों तथा स्थानों तक पहुँचाने की व्यवस्था को ही मीडिया का नाम दिया गया है। पिछली कई सदियों से प्रिंट मीडिया इस संदर्भ में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है, जहाँ हमारी लिखित अभिव्यक्ति पहले तो पाठ्य रूप में प्रसारित होती रही तथा बाद में छायाचित्रों का समावेश संभव होने पर दृश्य अभिव्यक्ति भी प्रिंट मीडिया के द्वारा संभव हो सकी। यह मीडिया बहुरंगी कलेवर में और भी प्रभावी हुई। बाद में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी साथ-साथ अपनी जगह बनाई, जहाँ पहले तो श्रव्य अभिव्यक्ति को रेडियो के माध्यम से प्रसारित करना संभव हुआ तथा बाद में टेलीविजन के माध्यम से श्रव्य-दृश्य दोनों ही अभिव्यक्तियों का प्रसारण संभव हो सका। प्रिंट मीडिया की अपेक्षा यहाँ की दृश्य अभिव्यक्ति अधिक प्रभावी हुई, क्योंकि यहाँ चलायमान दृश्य अभिव्यक्ति भी संभव हुई। बीसवीं सदी में कंप्यूटर के विकास के साथ-साथ एक नए माध्यम ने जन्म लिया, जो डिजिटल है। प्रारंभ में डाटा के सुविधाजनक आदान-प्रदान के लिए शुरू की गई कंप्यूटर आधारित सीमित इंटरनेट सेवा ने आज विश्वव्यापी रूप अख्तियार कर लिया है। इंटरनेट के प्रचार-प्रसार और निरंतर तकनीकी विकास ने एक ऐसी वेब मीडिया को जन्म दिया, जहाँ अभिव्यक्ति के पाठ्य, दृश्य, श्रव्य एवं दृश्य-श्रव्य सभी रूपों का एक साथ क्षणमात्र में प्रसारण संभव हुआ।
    यह वेब मीडिया ही ‘न्यू मीडिया’ है, जो एक कंपोजिट मीडिया है, जहाँ संपूर्ण और तत्काल अभिव्यक्ति संभव है, जहाँ एक शीर्षक अथवा विषय पर उपलब्ध सभी अभिव्यक्यिों की एक साथ जानकारी प्राप्त करना संभव है, जहाँ किसी अभिव्यक्ति पर तत्काल प्रतिक्रिया देना ही संभव नहीं, बल्कि उस अभिव्यक्ति को उस पर प्राप्त सभी प्रतिक्रियाओं के साथ एक जगह साथ-साथ देख पाना भी संभव है। इतना ही नहीं, यह मीडिया लोकतंत्र में नागरिकों के वोट के अधिकार के समान ही हरेक व्यक्ति की भागीदारी के लिए हर क्षण उपलब्ध और खुली हुई है।
    ‘न्यू मीडिया’ पर अपनी अभिव्यक्ति के प्रकाशन-प्रसारण के अनेक रूप हैं। कोई अपनी स्वतंत्र ‘वेबसाइट’ निर्मित कर वेब मीडिया पर अपना एक निश्चित पता आौर स्थान निर्धारित कर अपनी अभिव्यक्तियों को प्रकाशित-प्रसारित कर सकता है। अन्यथा बहुत-सी ऐसी वेबसाइटें उपलब्ध हैं, जहाँ कोई भी अपने लिए पता और स्थान आरक्षित कर सकता है। अपने निर्धारित पते के माध्यम से कोई भी इन वेबसाइटों पर अपने लिए उपलब्ध स्थान का उपयोग करते हुए अपनी सूचनात्मक, रचनात्मक, कलात्मक अभिव्यक्ति के पाठ्य अथवा ऑडियो/वीडियो डिजिटल रूप को अपलोड कर सकता है, जो तत्क्षण दुनिया में कहीं भी देखे-सुने जाने के लिए उपलब्ध हो जाती है।
    बहुत-सी वेबसाइटें संवाद के लिए समूह-निर्माण की सुविधा देती हैं, जहाँ समान विचारों अथवा उद्देश्यों वाले लोग एक-दूसरे से जुड़कर संवाद कायम कर सकें। ‘वेबग्रुप’ की इस अवधारणा से कई कदम आगे बढ़कर फेसबुक और ट्विटर जैसी ऐसी वेबसाइटें भी मौजूद हैं, जो प्रायः पूरी तरह समूह-संवाद केन्द्रित हैं। इनसे जुड़कर कोई भी अपनी मित्रता का दायरा दुनिया के किसी भी कोने तक बढ़ा सकता है और मित्रों के बीच जीवंत, विचारोत्तेजक, जरूरी विचार-विमर्श को अंजाम दे सकता है। इसे सोशल नेटवर्किंग का नाम दिया गया है।
    ‘न्यू मीडिया’ से जो एक अन्य सर्वाधिक लोकप्रिय उपक्रम जुड़ा है, वह है ‘ब्लॉगिंग’ का। कई वेबसाइटें ऐसी हैं, जहाँ कोई भी अपना पता और स्थान आरक्षित कर अपनी रुचि और अभिव्यक्ति के अनुरूप अपनी एक मिनी वेबसाइट का निर्माण बिना किसी शुल्क के कर सकता है। प्रारंभ में ‘वेब लॉग’ के नाम से जाना जानेवाला यह उपक्रम अब ‘ब्लॉग’ के नाम से सुपरिचित है। अभिव्यक्ति के अनुसार ही ब्लॉग पाठ्य ब्लॉग, फोटो ब्लॉग, वीडियो ब्लॉग (वोडकास्ट), म्यूजिक ब्लॉग, रेडियो ब्लॉग (पोडकास्ट), कार्टून ब्लॉग आदि किसी भी तरह के हो सकते हैं। यहाँ आप नियमित रूप से उपस्थित होकर अपनी अभिव्यक्ति अपलोड कर सकते हैं और उस पर प्राप्त प्रतिक्रियाओं को इंटरैक्ट कर सकते हैं। ‘ब्लॉग’ निजी और सामूहिक दोनों तरह के हो सकते हैं। यहाँ अपनी मौलिक अभिव्यक्ति के अलावा दूसरों की अभिव्यक्तियों को भी एक-दूसरे के साथ शेयर करने के लिए रखा जा सकता है।
    बहुत से लोग ‘ब्लॉग’ को एक डायरी के रूप में देखते हैं, जो नियमित रूप से वेब पर लिखी जा रही है, एक ऐसी डायरी, जो लिखे जाने के साथ ही सार्वजनिक भी है, सबके लिए उपलब्ध है, सबकी प्रतिक्रिया के लिए भी। एक नजरिये से ‘ब्लॉग’ नियमित रूप से लिखी जानेवाली चिट्ठी है, जो हरेक वेबपाठक को संबोधित है, पढ़े जाने के लिए, देखे-सुने जाने के लिए और उचित हो तो समुचित प्रत्युत्तर के लिए भी।
    वास्तव में ‘न्यू मीडिया’ मीडिया के क्षेत्र में एक नई चीज है। यह चीज यूं तो अब बहुत नई नहीं रह गई है लेकिन यह क्षेत्र पूर्णतः तकनीक पर आधारित होने के कारण इस क्षेत्र में प्रतिदिन कुछ ना कुछ नया जुड़ता ही जा रहा है। शुरुआत में जब टेलीविजन और रेडियो नए-नए आए थे तब इनको न्यू मीडिया कहा जाता था। बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब पत्रकारिता के विद्यार्थी न्यू मीडिया के रूप में टेलीविजन और रेडियो को पढ़ा और लिखा करते थे, तकनीक में धीरे-धीरे उन्नति हुई और न्यू मीडिया का स्वरूप भी बदलता चला गया और आज हम न्यू मीडिया के रूप में वह सभी चीजें देखते हैं जो कि डिजिटल रूप में हमारे आस-पास मौजूद हैं। न्यू मीडिया को समझाने की बहुत से लोगों ने अपने-अपने तरीके से कोशिश की है। न्यू मीडिया के क्षेत्र में जाने पहचाने नाम हैं प्रभासाक्षी डॉट कॉम के बालेन्दु शर्मा दाधीच। वे कहते हैं कि-
    यूं तो दो-ढाई दशक की जीवनयात्रा के बाद शायद ‘न्यू मीडिया’ का नाम ‘न्यू मीडिया’ नहीं रह जाना चाहिए क्योंकि वह सुपरिचित, सुप्रचलित और परिपक्व सेक्टर का रूप ले चुका है। लेकिन शायद वह हमेशा ‘न्यू मीडिया’ ही बना रहे क्योंकि पुरानापन उसकी प्रवृत्ति ही नहीं है। वह जेट युग की रफ्तार के अनुरूप अचंभित कर देने वाली तेजी के साथ निरंतर विकसित भी हो रहा है और नए पहलुओं, नए स्वरूपों, नए माध्यमों, नए प्रयोगों और नई अभिव्यक्तियों से संपन्न भी होता जा रहा है। नवीनता और सृजनात्मकता नए जमाने के इस नए मीडिया की स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं। यह कल्पनाओं की गति से बढ़ने वाला मीडिया है जो संभवतः निरंतर बदलाव और नएपन से गुजरता रहेगा, और नया बना रहेगा। फिर भी न्यू मीडिया को लेकर भ्रम की स्थिति आज भी कायम है। अधिकांश लोग न्यू मीडिया का अर्थ इंटरनेट के जरिए होने वाली पत्रकारिता से लगाते हैं। लेकिन न्यू मीडिया समाचारों, लेखों, सृजनात्मक लेखन या पत्रकारिता तक सीमित नहीं है। वास्तव में न्यू मीडिया की परिभाषा पारंपरिक मीडिया की तर्ज पर दी ही नहीं जा सकती। न सिर्फ समाचार पत्रों की वेबसाइटें और पोर्टल न्यू मीडिया के दायरे में आते हैं बल्कि नौकरी ढूंढने वाली वेबसाइट, रिश्ते तलाशने वाले पोर्टल, ब्लॉग, स्ट्रीमिंग ऑडियो-वीडियो, ईमेल, चैटिंग, इंटरनेट-फोन, इंटरनेट पर होने वाली खरीददारी, नीलामी, फिल्मों की सीडी-डीवीडी, डिजिटल कैमरे से लिए फोटोग्राफ, इंटरनेट सर्वेक्षण, इंटरनेट आधारित चर्चा के मंच, दोस्त बनाने वाली वेबसाइटें और सॉफ्टवेयर तक न्यू मीडिया का हिस्सा हैं। न्यू मीडिया को पत्रकारिता का एक स्वरूप भर समझने वालों को अचंभित करने के लिए शायद इतना काफी है, लेकिन न्यू मीडिया इन तक भी सीमित नहीं है। ये तो उसके अनुप्रयोगों की एक छोटी सी सूची भर है और ये अनुप्रयोग निरंतर बढ़ रहे हैं। जब आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, तब कहीं न कहीं, कोई न कोई व्यक्ति न्यू मीडिया का कोई और रचनात्मक अनुप्रयोग शुरू कर रहा होगा।
    न्यू मीडिया अपने स्वरूप, आकार और संयोजन में मीडिया के पारंपरिक रूपों से भिन्न और उनकी तुलना में काफी व्यापक है। पारंपरिक रूप से मीडिया या मास मीडिया शब्दों का इस्तेमाल किसी एक माध्यम पर आश्रित मीडिया के लिए किया जाता है, जैसे कि कागज पर मुद्रित विषयवस्तु का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रिंट मीडिया, टेलीविजन या रेडियो जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से दर्शक या श्रोता तक पहुंचने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। न्यू मीडिया इस सीमा से काफी हद तक मुक्त तो है ही, पारंपरिक मीडिया की तुलना में अधिक व्यापक भी है।
    पत्रकारिता ही क्या, न्यू मीडिया तो इंटरनेट की सीमाओं में बंधकर रहने को भी तैयार नहीं है। और तो और, यह कंप्यूटर आधारित मीडिया भर भी नहीं रह गया है। न्यू मीडिया का दायरा इन सब सीमाओं से कहीं आगे तक है। हां, 1995 के बाद इंटरनेट के लोकप्रिय होने पर न्यू मीडिया को अपने विकास और प्रसार के लिए अभूतपूर्व क्षमताओं से युक्त एक स्वाभाविक माध्यम जरूर मिल गया।
    न्यू मीडिया किसी भी आंकिक (डिजिटल) माध्यम से प्राप्त की, प्रसंस्कृत की या प्रदान की जाने वाली सेवाओं का समग्र रूप है। इस मीडिया की विषयवस्तु की रचना या प्रयोग के लिए किसी न किसी तरह के कंप्यूटिंग माध्यम की जरूरत पड़ती है। जरूरी नहीं कि वह माध्यम कंप्यूटर ही हो। वह किसी भी किस्म की इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल युक्ति हो सकती है जिसमें आंकिक गणनाओं या प्रोसेसिंग की क्षमता मौजूद हो, जैसे कि मोबाइल फोन, पर्सनल डिजिटल असिस्टेंट (पीडीए), आई-पॉड, सोनी पीएसपी, ई-बुक रीडर जैसी युक्तियां और यहां तक कि बैंक एटीएम मशीन तक। न्यू मीडिया के अधिकांश माध्यमों में उनके उपभोक्ताओं के साथ संदेशों या संकेतों के आदान-प्रदान की क्षमता होती है जिसे हम ‘इंटरएक्टिविटी’ के रूप में जानते हैं।
    न्यू मीडिया के क्षेत्र में हिन्दी की पहली वेब पत्रिका भारत दर्शन को शुरु करने वाले न्यूजीलैण्ड के अप्रवासी भारतीय रोहित हैप्पी का कहना है किः-
    ‘न्यू मीडिया’ संचार का वह संवादात्मक स्वरूप है जिसमें इंटरनेट का उपयोग करते हुए हम पॉडकास्ट, आर एस एस फीड, सोशल नेटवर्क (फेसबुक, माई स्पेस, ट्विटर), ब्लाग्स, विक्किस, टैक्सट मैसेजिंग इत्यादि का उपयोग करते हुए पारस्परिक संवाद स्थापित करते हैं। यह संवाद माध्यम बहु-संचार संवाद का रूप धारण कर लेता है जिसमें पाठक/दर्शक/श्रोता तुरंत अपनी टिप्पणी न केवल लेखक/प्रकाशक से साझा कर सकते हैं, बल्कि अन्य लोग भी प्रकाशित/प्रसारित/संचारित विषय-वस्तु पर अपनी टिप्पणी दे सकते हैं। यह टिप्पणियां एक से अधिक भी हो सकती हैं। बहुधा सशक्त टिप्पणियां परिचर्चा में परिवर्तित हो जाती हैं।
    वे फेसबुक का उदाहरण देकर समझाते हैं कि- यदि आप कोई संदेश प्रकाशित करते हैं और बहुत से लोग आपकी विषय-वस्तु पर टिप्पणी करते हैं तो कई बार पाठक वर्ग परस्पर परिचर्चा आरम्भ कर देते हैं और लेखक एक से अधिक टिप्पणियों का उत्तर देता है। वे कहते हैं कि न्यू मीडिया वास्तव में परम्परागत मीडिया का संशोधित रूप है जिसमें तकनीकी क्रांतिकारी परिवर्तन व इसका नया रूप सम्मिलित है। न्यू मीडिया का उपयोग करने हेतु कम्प्यूटर, मोबाइल जैसे उपकरण जिनमें इंटरनेट की सुविधा हो, की आवश्यकता होती है। न्यू मीडिया प्रत्येक व्यक्ति को विषय-वस्तु का सृजन, परिवर्धन, विषय-वस्तु का अन्य लोगों से साझा करने का अवसर समान रूप से प्रदान करता है। न्यू मीडिया के लिए उपयोग किए जाने वाले संसाधन अधिकतर निशुल्क या काफी सस्ते उपलब्ध हो जाते हैं।
    संक्षेप में कह सकते हैं कि न्यू मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसमें लेखक ही संपादक है और वही प्रकाशक भी है। यह ऐसा माध्यम है जो भौगोलिक सीमाओं से पूरी तरह मुक्त, और राजनैतिक-सामाजिक नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र है। जहां अभिव्यक्ति न कायदों में बंधने को मजबूर है, न अल कायदा से डरने को। इस माध्यम में न समय की कोई समस्या है, न सर्कुलेशन की कमी, न महीने भर तक पाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतजार करने की जरूरत। त्वरित अभिव्यक्ति, त्वरित प्रसारण, त्वरित प्रतिक्रिया और विश्वव्यापी प्रसार के चलते ही न्यू मीडिया का स्वरूप अद्वितीय रूप से लोकप्रिय हो गया है।

    न्यू मीडिया के विविध प्रसंग

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    प्रस्तुति- कृति शरण



    'न्यू मीडिया'संचार का वह संवादात्मक (Interactive)स्वरूप है जिसमें इंटरनेट का उपयोग करते हुए हम पॉडकास्ट, आर एस एस फीड, सोशल नेटवर्क (फेसबुक, माई स्पेस, ट्वीट्र), ब्लाग्स, विक्किस, टैक्सट मैसेजिंग इत्यादि का उपयोग करते हुए पारस्परिकसंवाद स्थापित करते हैं। यह संवाद माध्यम बहु-संचार संवाद का रूप धारण कर लेता है जिसमें पाठक/दर्शक/श्रोता तुरंत अपनी टिप्पणी न केवल लेखक/प्रकाशक से साझा कर सकते हैं, बल्कि अन्य लोग भी प्रकाशित/प्रसारित/संचारित विषय-वस्तु पर अपनी टिप्पणी दे सकते हैं। यह टिप्पणियां एक से अधिक भी हो सकती है अर्थात बहुधा सशक्त टिप्पणियां परिचर्चा में परिवर्तित हो जाती हैं। उदाहरणत: आप फेसबुक को ही लें - यदि आप कोई संदेश प्रकाशित करते हैं और बहुत से लोग आपकी विषय-वस्तु पर टिप्पणी देते हैं तो कई बार पाठक-वर्ग परस्पर परिचर्चा आरम्भ कर देते हैं और लेखक एक से अधिक टिप्पणियों का उत्तरदेता है।
    न्यू मीडिया वास्तव में परम्परागत मीडिया का संशोधित रूप है जिसमें तकनीकी क्रांतिकारी परिवर्तन व इसका नया रूप सम्मलित है।
    न्यू मीडिया संसाधन
    न्यू मीडिया का प्रयोग करने हेतु कम्प्यूटर, मोबाइल जैसे उपकरण जिनमें इंटरनेट की सुविधा हो, की आवश्यकता होती है। न्यू मीडिया प्रत्येक व्यक्ति कोविषय-वस्तु का सृजन, परिवर्धन, विषय-वस्तु का अन्य लोगों से साझा करने का अवसर समान रूप से प्रदान करता है। न्यू मीडिया के लिए उपयोग किए जाने वाले संसाधन अधिकतर निशुल्क या काफी सस्ते उपलब्ध हो जाते हैं।
    न्यू मीडिया का भविष्य
    यह सत्य है कि समय के अंतराल के साथ न्यू मीडियाकी परिभाषा और रूप दोनो बदल जाएं। जो आज नया है संभवत भविष्य में नया न रह जाएगा यथा इसे और संज्ञा दे दी जाए। भविष्य में इसके अभिलक्षणों में बदलाव, विकास या अन्य मीडिया में विलीन होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
    न्यू मीडिया ने बड़े सशक्त रूप से प्रचलित पत्रकारिता को प्रभावित किया है। ज्यों-ज्यों नई तकनीक,आधुनिक सूचना-प्रणाली विकसित हो रही है त्यों-त्योंसंचार माध्यमों व पत्रकारिता में बदलाव अवश्यंभावी है।
    वेब पत्रकारिता
    इंटरनेट के आने के बाद अखबारों के रुतबे और टीवी चैनलों की चकाचौंध के बीच एक नए किस्म की पत्रकारिता ने जन्म लिया। सूचना तकनीक के पंख पर सवार इस माध्यम ने एक दशक से भी कम समय में विकास की कई बुलंदियों को छुआ है। आज ऑनलाइन पत्रकारिता का अपना अलग वजूद कायम हो चुका है। इसका प्रसार और प्रभाव करिश्माई है। आप एक ही कुर्सी पर बैठे-बैठे दुनिया भर के अखबार पढ़ सकते हैं। चाहे वह किसी भी भाषा में या किसी भी शहर से क्यों न निकलता हो। सालों और महीनों पुराने संस्करण भी महज एक क्लिक दूर होते हैं।
    ऑनलाइन पत्रकारिता की दुनिया को मोटे तौर पर दो भागों में बांट सकते हैं। १. वे वेबसाइटें जो किसी समाचार पत्र या टीवी चैनल के वेब एडिशन के रूप में काम कर रही हैं। ऐसी साइटों के अधिकतर कंटेंट अखबार या चैनल से मिल जाते हैं। इसलिए करियर के रूप में यहां डेस्क वर्क यानी कॉपी राइटर या एडिटर की ही गुंजाइश रहती है।
    २. वे वेबसाइटें जो न्यूजपोर्टल के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं। यानी इनका किसी चैनल या पेपर से कोई संबंध नहीं होता। भारत में ऐसी साइटों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। काम के रूप में यहां डेस्क और रिपोर्टिंग दोनों की बराबर संभावनाएं हैं। पिछले दिनों कई ऐसे पोर्टल अपनी ऐतिहासिक रिपोर्टिंग के लिए चर्चा में रहे।
    अगर आप खेल, साहित्य, कला जैसे किसी क्षेत्र विशेष में रुचि रखते हैं, तो ऐसी विशेष साइटें भी हैं, पत्रकारिताके क्षितिज को विस्तार दे सकती हैं।
    स्टाफ के स्तर पर डॉट कॉम विभाग मुख्य रूप से तीन भागों में बंटा होता है।
    जर्नलिस्ट : वे लोग जो पोर्टल के कंटेंट के लिए जिम्मेदार होते हैं।
    डिजाइनर : वेबसाइट को विजुअल लुक देने वाले।
    वेब डिवेलपर्स/प्रोग्रामर्स : डिजाइन किए गए पेज की कोडिंग करना, लिंक देना और पेज अपलोड करना।
    इंटरनेट पत्रकारिता में वही सफल हो सकता है, जिसमें आम पत्रकार के गुणों के साथ-साथ तकनीकी कौशल भी हो। वेब डिजाइनिंग से लेकर साइट को अपलोड करने तक की प्रक्रिया की मोटे तौर पर समझ जरूरी है। एचटीएमएल और फोटोशॉप की जानकारी इस फील्ड में आपको काफी आगे ले जा सकती है। आपकी भाषा और लेखन शैली आम बोलचाल वाली और अप-टु-डेट होनी चाहिए।
    यह एक फास्ट मीडियम है, यहां क्वॉलिटी के साथ तेजी भी जरूरी है। कॉपी लिख या एडिट कर देना ही काफी नहीं, उसे लगातार अपडेट भी करना होता है।
    वेब पत्रकारिता लेखन व भाषा
    वेब पत्रकारिता, प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में आधारभूत अंतर है। प्रसारण व वेब-पत्रकारिता की भाषा में कुछ समानताएं हैं। रेडियो/टीवी प्रसारणों में भी साहित्यिक भाषा, जटिल व लंबे शब्दों से बचा जाता है। आप किसी प्रसारण में, 'हेतु, प्रकाशनाधीन, प्रकाशनार्थ, किंचित, कदापि, यथोचित इत्यादि'जैसे शब्दों का उपयोग नहीं पाएँगे। कारण? प्रसारण ऐसे शब्दों से बचने का प्रयास करते हैं जो उच्चारण की दृष्टि से असहज हों या जन-साधारण की समझ में न आएं। ठीक वैसे ही वेब-पत्रिकारिता की भाषा भी सहज-सरल होती है।
    वेब का हिंदी पाठक-वर्ग आरंभिक दौर में अधिकतर ऐसे लोग थे जो वेब पर अपनी भाषा पढ़ना चाहते थे, कुछ ऐसे लोग थे जो विदेशों में बसे हुए थे किंतु अपनी भाषा से जुड़े रहना चाहते थे या कुछ ऐसे लोग जिन्हें किंहीं कारणों से हिंदी सामग्री उपलब्ध नहीं थी जिसके कारण वे किसी भी तरह की हिंदी सामग्री पढ़ने के लिए तैयार थे। आज परिस्थितिएं बदल गई हैं मुख्यधारा वाला मीडिया आनलाइन उपलब्ध है और पाठक के पास सामग्री चयनित करने का विकल्प है।
    इंटरनेट का पाठक अधिकतर जल्दी में होता है और उसे बांधे रखने के लिए आपकी सामग्री पठनीय, रूचिकर व आकर्षक हो यह बहुत आवश्यक है। यदि हम ऑनलाइन समाचार-पत्र की बात करें तो भाषा सरल, छोटे वाक्य व पैराग्राफ भी अधिक लंबे नहीं होने चाहिएं।
    विशुद्ध साहित्यिक रुचि रखने वाले लोग भी अब वेब पाठक हैं और वे वेब पर लंबी कहानियां व साहित्य पढ़ते हैं। उनकी सुविधा को देखते हुए भविष्य में साहित्य डाऊनलोड करने का प्रावधान अधिक उपयोग किया जाएगा ऐसी प्रबल संभावना है। साहित्यि क वेबसाइटें स्तरीय साहित्यका प्रकाशन कर रही हैं और वे निःसंदेह साहित्यिक भाषा का उपयोग कर रही हैं लेकिन उनके पास ऐसा पाठक वर्ग तैयार हो चुका है जो साहित्यिक भाषा को वरियता देता है।
    सामान्य वेबसाइट के पाठक जटिल शब्दों के प्रयोग व साहित्यिक भाषा से उकता जाते हैं और वे आम बोल-चाल की भाषा अधिक पसंद करते हैं अन्यथा वे एक-आध मिनट ही साइट पर रूककर साइट से बाहर चले जाते हैं।
    सामान्य पाठक-वर्ग को बाँधे रखने के लिए आवश्यक है कि साइट का रूप-रंग आकर्षक हो, छायाचित्र व ग्राफ्किस अर्थपूर्ण हों, वाक्य और पैराग्राफ़ छोटे हों, भाषा सहज व सरल हो। भाषा खीचड़ी न हो लेकिन यदि उर्दू या अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों का उपयोग करना पड़े तो इसमें कोई बुरी बात न होगी। भाषा सहज होनी चाहिए शब्दों का ठूंसा जाना किसी भी लेखन को अप्रिय बना देता है।
    हिंदी वेब पत्रकारिता में भारत-दर्शन की भूमिका
    इंटरनेट पर हिंदी का नाम अंकित करने में नन्हीं सी पत्रिका भारत-दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1996से पहली भारतीय पत्र-पत्रिकाओं की संख्या लगभग नगण्य थी। 1995 में सबसे पहले अँग्रेज़ी के पत्र, 'द हिंदू'ने अपनी उपस्थिति दर्ज की और ठीक इसके बाद 1996 में न्यूज़ीलैंड से प्रकाशित भारत-दर्शन ने प्रिंट संस्करण के साथ-साथ अपना वेब प्रकाशन भी आरंभ कर दिया। भारतीय प्रकाशनों में दैनिक जागरण ने सबसे पहले 1997 में अपना प्रकाशन आरंभ किया और उसके बाद अनेक पत्र-पत्रिकाएं वेब पर प्रकाशित होनेलगी।
    हिंदी वेब पत्रकारिता लगभग 15-16 वर्ष की हो चुकी है लेकिन अभी तक गंभीर ऑनलाइन हिंदी पत्रकारिता देखने को नहीं मिलती। न्यू मीडिया का मुख्य उद्देश्य होता है संचार की तेज़ गति लेकिन अधिकतर हिंदीमीडिया इस बारे में सजग नहीं है। ऑनलाइन रिसर्च करने पर आप पाएंगे कि या तो मुख्य पत्रों के सम्पर्क ही उपलब्ध नहीं, या काम नहीं कर रहे और यदि काम करते हैं तो सम्पर्क करने पर उनका उत्तर पाना बहुधा कठिन है।
    अभी हमारे परम्परागत मीडिया को आत्म मंथन करना होगा कि आखिर हमारी वेब उपस्थिति के अर्थ क्या हैं? क्या हम अपने मूल उद्देश्यों में सफल हुए हैं? क्या हम केवल इस लिए अपने वेब संस्करण निकाल रहे है क्योंकि दूसरे प्रकाशन-समूह ऐसे प्रकाशन निकाल रहे हैं?
    क्या कारण है कि 12 करोड़ से भी अधिक इंटरनेट के उपभोक्ताओं वाले देश भारत की कोई भी भाषा इंटरनेट पर उपयोग की जाने वाली भाषाओं में अपना स्थान नहीं रखती? मुख्य हिंदी की वेबसाइटस के लाखों पाठक हैं फिर भी हिंदी का कहीं स्थान न होना किसी भी हिंदी प्रेमी को सोचने को मजबूर कर देगा कि आखिर ऐसा क्यों है! हमें बहुत से प्रश्नों के उत्तर खोजने होंगे और इनके समाधान के लिए ठोस कदम उठाने होंगें।
    न्यू मीडिया विशेषज्ञ या साधक?
    आप पिछले १५ सालों से ब्लागिंग कर रहे हैं, लंबे समय से फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब इत्यादि का उपयोग कर रहे हैं जिसके लिए आप इंटरनेट, मोबाइल व कम्प्यूटर का प्रयोग भी करते हैं तो क्या आप न्यू मीडिया विशेषज्ञ हुए? ब्लागिंग करना व मोबाइल से फोटो अपलोड कर देना ही काफी नहीं है। आपको इन सभी का विस्तृत व आंतरिक ज्ञान भी आवश्यक है। न्यू मीडिया की आधारभूत वांछित योग्यताओं की सूची काफी लंबी है और अब तो अनेक शैक्षणिक संस्थान केवल 'न्यू मीडिया'का विशेष प्रशिक्षण भी दे रहे हैं या पत्रकारिता में इसे सम्मिलित कर चुके हैं।
    ब्लागिंग के लिए आप सर्वथा स्वतंत्र है लेकिन आपको अपनी मर्यादाओं का ज्ञान और मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता की सीमाओं का भान भी आवश्यक है। आपकी भाषा मर्यादित हो और आप आत्मसंयम बरतें अन्यथा जनसंचार के इन संसाधनों का कोई विशेष अर्थ व सार्थक परिणाम नहीं होगा।
    इंटरनेट पर पत्रकारिता के विभिन्न रूप सामने आए हैं -
    अभिमत - जो पूर्णतया आपके विचारों पर आधारित है जैसे ब्लागिंग, फेसबुक या टिप्पणियां देना इत्यादि।
    प्रकाशित सामग्री या उपलब्ध सामग्री का वेब प्रकाशन - जैसे समाचारपत्र-पत्रिकाओं के वेब अवतार।
    पोर्टल व वेब पत्र-पत्रकाएं (ई-पेपर और ई-जीन जिसे वेबजीन भी कहा जाता है)
    पॉडकास्ट - जो वेब पर प्रसारण का साधन है।
    कोई भी व्यक्ति जो 'न्यू मीडिया'के साथ किसी भी रूप में जुड़ा हुआ है किंतु वांछित योग्यताएं नहीं रखता उसे हम 'न्यू मीडिया विशेषज्ञ'न कह कर 'न्यू मीडिया साधक'कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं।
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    आचार संहिता
    प्रेस परिषद् अधिनियम, 1978 की धारा 13 2 ख्र द्वारा परिषद् को समाचार कर्मियों की संहायता तथा मार्गदर्शन हेतु उच्च व्ययवसायिक स्तरों के अनुरूप समाचारपत्रों; समाचारं एजेंसियों और पत्रकारों के लिये आचार संहिता बनाने का व्यादेश दिया गया है। ऐसी संहिता बनाना एक सक्रिय कार्य है जिसे समय और घटनाओं के साथ कदम से कदम मिलाना होगा।
    निमार्ण संकेत करता है कि प्रेस परिषद् द्वारा मामलों के आधार पर अपने निर्णयों के जरिये संहिता तैयार की जाये। परिषद् द्वारा जनरूचि और पत्रकारिता नीत...
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    पत्रकारिता का उद्देश्य
    पत्र- पत्रिकाओं में सदा से ही समाज को प्रभावित करने की क्षमता रही है। समाज में जो हुआ, जो हो रहा है, जो होगा, और जो होना चाहिए यानी जिस परिवर्तन की जरूरत है, इन सब पर पत्रकार को नजर रखनी होती है। आज समाज में पत्रकारिता का महत्व काफी बढ़ गया है। इसलिए उसके सामाजिक और व्यावसायिक उत्तरदायित्व भी बढ़ गए हैं। पत्रकारिता का उद्देश्य सच्ची घटनाओं पर प्रकाश डालना है, वास्तविकताओं को सामने लाना है। इसके बावजूद यह आशा की जाती है कि वह इस तरह काम करे कि ‘बहुजन हिता...
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    रेडियो का इतिहास
    24 दिसंबर 1906 की शाम कनाडाई वैज्ञानिक रेगिनाल्ड फेसेंडेन ने जब अपना वॉयलिन बजाया और अटलांटिक महासागर में तैर रहे तमाम जहाजों के रेडियोऑपरेटरों ने उस संगीत को अपने रेडियो सेट पर सुना, वह दुनिया में रेडियो प्रसारण की शुरुआत थी।
    इससे पहले जे सी बोस ने भारत में तथा मार्कोनी ने सन 1900 में इंग्लैंड से अमरीकाबेतार संदेश भेजकर व्यक्तिगत रेडियो संदेश भेजने की शुरुआत कर दी थी, पर एक से अधिक व्यक्तियों को एकसाथ संदेश भेजने या ब्रॉडकास्टिंग की शुरुआत 1906 में फेसेंडेन ...
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    Manish Nimade
    Manish Nimadeबहुत उत्तम जानकारी है धन्यवाद साहेब

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    · Reply· 13 February 2015 at 11:48
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    Madan Chaudhary
    Madan Chaudharyउमदा जानकारी।

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    · Reply· 23 October 2015 at 16:33
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    गुटनिरपेक्ष समाचार नेटवर्क -
    गुटनिरपेक्ष समाचार नेटवर्क (एनएनएन) नया इंटरनेट आधारित समाचार और फोटोआदान - प्रदान की व्‍यवस्‍था गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्‍य देशों की समाचार एजेंसियों कीव्‍यवस्‍था है
    अप्रैल, 2006 से कार्यरत एनएनएन की औपचारिक शुरूआत मलेशिया के सूचना मंत्री जैनुद्दीनमेदिन ने कुआलालंपुर में 27 जून 2006 को की थी। एनएनएन ने गुटनिरपेक्ष समाचार एजेंसियोंके पूल (एनएएनपी) का स्‍थान लिया है, जिसने पिछले 30 वर्ष गुटनिरपेक्ष देशों के बीचसमाचार आदान प्रदान व्‍यवस्‍था के रूप ...
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    यूनाइ‍टेड न्‍यूज़ ऑफ इंडिया-
    यूनाइटेड न्‍यूज़ ऑफ इंडिया की स्‍थापना 1956 के कंपनी कानून के तहत 19 दिसम्‍बर, 1959 को हुई। इसने 21 मार्च, 1961 से कुशलतापूर्वक कार्य करना शुरू कर दिया। पिछले चारदशकों में यूएनआई, भारत में एक प्रमुख समाचार ब्‍यूरो के रूप में विकसित हुई है। इसनेसमाचार इकट्ठा करने और समाचार देने जैसे प्रमुख क्षेत्र में अपेक्षित स्‍पर्धा भावना को बनाएरखा है।
    यूनाइटेड न्‍यूज़ ऑफ इंडिया की नए पन की भावना तब स्‍पष्‍ट हुई, जब इसने 1982 में पूर्ण रूपसे हिंदी तार

    News-24 / न्यूज़ २४ (इंडिया)

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     प्रस्तुति- अमन कुमार अमन 


    न्यूज़ 24
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    नेटवर्कब्रॉडकास्टटीवीऔर ऑनलाइन
    उद्घोषहर हिन्दुस्तानी का चैनल
    देशभारत
    भाषाहिंदी
    प्रसारण क्षेत्रभारत
    मुख्यालयनई दिल्ली, भारत Ind
    वेबसाइटwww.news24online.com
    उपलब्धता
    उपग्रह
    विडियोकॉन डी2एचचैनल 321
    टाटा स्काईचैनल 461
    न्यूज़ २४ (इंडिया)एक हिन्दी टी वी चैनलहै। यह एक समाचार चैनल है। [1]
    न्यूज 24 24 घंटे हिंदी समाचार टीवी B.A.G. के स्वामित्व वाले चैनल है फिल्म्स एंड मीडिया लिमिटेड
    सुश्री अनुराधा प्रसाद न्यूज 24 से प्रचारित बीएजी नेटवर्क है, जो उत्पादन में विविध हितों के साथ एक मीडिया समूह, टेलीविजन प्रसारण, एफएम रेडियो, न्यू मीडिया वेंचर्स और शिक्षा का हिस्सा है

    अनुक्रम

    प्रतिद्वंदी (कॉम्पिटिटर)

    इन्हें भी देखें

    बाहरी कड़ियाँ

    सन्दर्भ


    भारत में हिन्दी टी वी चैनल

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    प्रस्तुति- राहुल मानव 

    "भारत में हिन्दी टी वी चैनल"श्रेणी में पृष्ठ

    इस श्रेणी में निम्नलिखित 93 पृष्ठ हैं, कुल पृष्ठ 93

    भारतीय कार्टूनिस्ट

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    प्रस्तुति-  कृति शऱण

    कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण

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    प्रस्तुति- स्वामी शरण


    आर॰के॰ लक्ष्मण
    जन्मरासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण
    24 अक्टूबर 1921
    मैसूर, ब्रितानी भारत (कर्नाटक, भारत)
    मृत्यु26 जनवरी 2015 (उम्र 93)
    पुणे, महाराष्ट्र, भारत
    राष्ट्रीयताभारतीय
    शिक्षा प्राप्त कीMaharaja's College, Mysore[*]
    व्यवसायकार्टूनकार, व्यंग्य-चित्रकार
    प्रसिद्धि कारणकॉमन मैनकार्टून
    जीवनसाथी
    संबंधीआर के नारायण (भाई)
    पुरस्कारपद्म भूषण, पद्म विभूषण, रेमन मैगसेसे पुरस्कार
    हस्ताक्षर
    Sign of RKLaxman.jpg
    रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण[1] (संक्षेप में आर॰के॰ लक्ष्मण; २४ अक्टूबर १९२१ – २६ जनवरी २०१५) भारत के प्रमुख हास्यरस लेखक और व्यंग-चित्रकारथे।[2]उन्हें द कॉमन मैननामक उनकी रचना और द टाइम्स ऑफ़ इंडियाके लिए उनके प्रतिदिन लिखी जानी वाली कार्टून शृंखला "यू सैड इट"के लिए जाना जाता है जो वर्ष १९५१ में आरम्भ हुई थी।[3]
    लक्ष्मण ने अपना कार्य स्थानीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में अंशकालिक कार्टूनकार के रूप में अपना कैरियर आरम्भ किया था। जबकि कॉलेज छात्र के रूप में उन्होंने अपने बड़े भाई आर॰के॰ नारायणकी कहानियों को द हिन्दूमें चित्रित किया। उनका पहला पूर्णकालिक कार्य मुम्बई में द फ्री प्रेस जर्नलमें राजनीतिक कार्टूनकार के रूप में आरम्भ किया था। उसके बाद उन्होंने द टाइम्स ऑफ़ इंडियामें कार्य करना आरम्भ कर दिया और कॉमन मैनके चरित्र ने उन्हें प्रसिद्धि दी।

    अनुक्रम

    जन्म और बाल्यावस्था

    आर॰के॰ लक्ष्मण का जन्म मैसूरमें सन् १९२१ में हुआ।[4]उनके पिता प्रधानाचार्य थे और लक्ष्मण उनकी छः सन्तानों में सबसे छोटे थे।[5][6]उनके एक बड़े भाई आर॰के॰ लक्ष्मण उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हुये। लक्ष्मण पाइड पाइपर ऑफ़ डेल्ही (दिल्ली का चितकबरा मुरलीवाला) से प्रसिद्ध हुये।[7]
    उन्हें प्रसिद्धि मिलने से पूर्व ही द स्ट्रैंड, पंच, बायस्टैंडर, वाइड वर्ल्डऔर टिट-बिट्सजैसी पत्रिकाओं में चित्रकारी का कार्य कर चुके थे।[8]शीघ्र ही उन्होंने अपने उपर, फूलों पर, अपने घर की दिवारों पर और विद्यालय में अपने अध्यापकों का विरूप-चित्रणआरम्भ कर दिया; उनकी पीपलका पता चित्रित करने की एक अध्यापक ने प्रशंसा की और उन्हें एक कलाकार नजर आने लगा।[9]इसके अलावा उनपर एक शुरुआती प्रभाव विश्व-प्रसिद्ध ब्रितानी कार्टूनकार डेविड लोका पड़ा।[10]

    व्यवसाय

    आरम्भ में

    लक्ष्मण का प्रारम्भिक कार्य स्वराज्यऔर ब्लिट्ज़नामक पत्रिकाओं सहित समाचार पत्रों में रहा। उन्होंने मैसूर महाराजा महाविद्यालय में पढ़ाई के दौरान अपने बड़े भाई आर॰के॰ नारायण कि कहानियों को द हिन्दूमें चित्रित करना आरम्भ कर दिया तथा स्थानीय तथा स्वतंत्रके लिए राजनीतिक कार्टून लिखना आरम्भ कर दिया। लक्ष्मण कन्नड़ हास्य पत्रिका कोरवंजीमें भी कार्टून लिखने का कार्य किया। यह पत्रिका १९४२ में डॉ॰ एम॰ शिवरम स्थापित की थी, इस पत्रिका के संस्थापक एलोपैथिक चिकित्सक थे तथा बैंगलोर के राजसी क्षेत्र में रहते थे। उन्होंने यह मासिक पत्रिका विनोदी, व्यंग्य लेख और कार्टून के लिए यह समर्पित की। शिवरम अपने आप में प्रख्यात कन्नड हास्य रस लेखक थे। उन्होंने लक्ष्मण को भी प्रोत्साहित किया।
    लक्ष्मण ने मद्रास के जैमिनी स्टूडियोजमें ग्रीष्मकालीन रोजगार आरम्भ कर दिया। उनका प्रथम पूर्णकालिक व्यवसाय मुम्बई की द फ्री प्रेस जर्नलके राजनीतिक कार्टूनकार के रूप में की थी। इस पत्रिका में बाल ठाकरेउनके साथी काटूनकार थे। लक्ष्मण ने द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, बॉम्बे से जुड़ गये तथा उसमें लगभग पचास वर्षों तक कार्य किया। उनका "कॉमन मैन"चरित्र प्रजातंत्र के साक्षी के रूप में चित्रित हुआ।[11][12]

    व्यक्तिगत जीवन

    कार्टूनकार शेखर गुरेराद्वारा आर॰के॰ लक्ष्मण को एक श्रद्धांजली
    लक्ष्मन का पहला विवाह भारतनाट्यमनर्तकी और फ़िल्म अभिनेत्री कुमारी कमला लक्ष्मणके साथ हुआ। कुमारी कमला ने अपना फ़िल्मी कैरियर बाल-कलाकार के रूप में आरम्भ किया था। उनके तलाक के समय तक उनकी कोई सन्तान नहीं हुई तथा लक्ष्मण ने दूसरा विवाह कर लिया। उनकी दुसरी पत्नी क नाम भी "कमला लक्ष्मण"ही था। वो एक लेखिका तथा बाल-पुस्तक लेखिका थीं। लक्ष्मण ने "द स्टार आई नेवर मेट"नामक कार्टून शृंखला और फ़िल्म पत्रिका फिल्मफेयरमें अपनी दूसरी पत्नी कमला लक्ष्मण का "द स्टार आई ऑनली मेट"शीर्षक से कार्टून चित्रित किया। दम्पति के एक पुत्र हुआ।[13]
    सितम्बर २००३ में, उनके बायें भाग को लकवा मार गय। उन्होंने आंशिक रूप से इसके प्रभावों से मुक्ति प्राप्त कर लिया। २० जून २०१० की शाम को लक्ष्मण को मुम्बई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ति करवाया गया और बाद में पुणेस्थानान्तरित किया गया।[14]
    अक्टूबर २०१२ में लक्ष्मण ने पुणे में अपना ९१वाँ जन्मदिन मनाया। शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे, वैज्ञानिक जयन्त नार्लीकरतथा सिम्बायोसिस विश्वविद्यालय के कुलपति एस॰बी॰ मजुमदार ने भी इसमें भाग लिया।[15]

    सम्मान एवं पुरस्कार

    कृतियाँ

    • दि एलोक्वोयेन्ट ब्रश
    • द बेस्ट ऑफ लक्षमण सीरीज
    • होटल रिवीयेरा
    • द मेसेंजर
    • सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया
    • द टनल ऑफ टाईम (आत्मकथा)

    मल्टी-मीडिया

    • इंडिया थ्रू थे आईज ऑफ़ आर. के. लक्ष्मण-देन टू नाउ (सीडी रोम)
    • लक्ष्मण रेखास-टाइम्स ऑफ़ इंडिया प्रकाशन
    • आर. के. लक्ष्मण की दुनिया- सब टीवी पर एक शो

    सन्दर्भ

    टिप्पणी


  • रंगा राव (१ जनवरी २००६) (अंग्रेज़ी में). R. K. Narayan [आर॰के॰ नारायण]. साहित्य अकादमी. पृ. ११. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-260-1971-7. अभिगमन तिथि: ५ फ़रवरी २०१५.

  • वी॰के॰ रामचन्द्रन. "Laxman's-eye view [लक्ष्मण की नेत्र दृष्टि]" (अंग्रेज़ी में). फ्रॉण्टलाइन मैगज़ीन. अभिगमन तिथि: ५ फ़रवरी २०१५.

  • "Times of India cartoonist RK Laxman dies after illness [टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के कार्टूनकार आर॰के॰ लक्ष्मण का बिमारी के बाद निधन]" (अंग्रेज़ी में). बीबीसी. २६ जनवरी २०१५. अभिगमन तिथि: ५ फ़रवरी २०१५.

  • अम्रुत ब्यतनल (२४ अक्टूबर २०११). "The Common Man is still at work [द कॉमन मैन अभी भी कार्य कर रहा है]" (अंग्रेज़ी में). द हिन्दू. अभिगमन तिथि: ५ फ़रवरी २०१५.

  • "RIP RK Laxman: Common Man just lost its first citizen [आरआईपी आरके लक्ष्मण: कॉमन मैन ने अपनी पहली नागरिकता खोई]" (अंग्रेज़ी में). रिडिफ डॉट कॉम. अभिगमन तिथि: ५ फ़रवरी २०१५.

  • Laxman 1998, पृष्ठ 4

  • "RK Laxman passes away [आर॰के॰ लक्ष्मण चल बसे]" (अंग्रेज़ी में). द टाइम्स ऑफ़ इंडिया. २७ जनवरी २०१५. अभिगमन तिथि: ५ फ़रवरी २०१५.

  • Laxman 1998, पृष्ठ 8

  • Laxman 1998, पृष्ठ 11–15

  • Laxman 1998, पृष्ठ 25

  • ऋतु गौरोला खंडूरी, २०१४, Caricaturing Culture in India: Cartoons and History of the Modern World (अंग्रेज़ी में), कैम्ब्रिज यूविवर्सिटी प्रेस

  • Ritu Gairola Khanduri. 2012. "Picturing India: Nation, Development and the Common Man."Visual Anthropology 25(4): 303-323.

  • The uncommon man: R.K. Laxman (1921-2015)

  • "R K Laxman hospitalized after 3 strokes, stable [आर॰के॰ लक्ष्मण को ३ आघातों के बाद अस्पताल में भर्ती करवाया गया, हालत स्थिर]" (अंग्रेज़ी में). द टाइम्स ऑफ़ इंडिया. २१ जून २०१०. अभिगमन तिथि: ५ फ़रवरी २०१५.

    1. टाइम्स न्यूज़ नेटवर्क (२५ अक्टूबर २०१२). "R K Laxman gets double treat on 91st birthday [आर के लक्ष्मण ने ९१वें जन्मदिन पर दोहरा उपचार प्राप्त किया]" (अंग्रेज़ी में). द टाइम्स ऑफ़ इंडिया (पुणे: द टाइम्स ग्रूप). अभिगमन तिथि: ५ फ़रवरी २०१५.

    सन्दर्भ पुस्तकें

    कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग

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    प्रस्तुति- स्वामी शरण 

    Nuvola apps ksig.png
    [[File:
    Tailang01.jpg
    |frameless|upright=1.11|alt=]]
    जन्म26 फ़रवरी 1960
    बीकानेर, राजस्थान, भारत
    मृत्यु6 फ़रवरी 2016 (उम्र 55)
    उपजीविकाकार्टूनिस्ट
    राष्ट्रीयताभारतीय
    प्रमुख पुरस्कारपद्म श्री (शिक्षा एवं साहित्य: २००४)
    जीवन संगीविभा तैलंग
    संतानअदिति तैलंग
    १६ नवम्बर २०१५ को राष्ट्रीय प्रेस दिवस २०१५ के अवसर पर विज्ञानं भवन, नई दिल्ली में भारतीय मीडिया के दो प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग एवं शेखर गुरेरा, विभा तैलंग एवं रेखा गुरेरा के साथ
    सुधीर तैलंग (26 फ़रवरी 1960 – 6 फ़रवरी 2016) भारतीय कर्टूनिस्टथे।

    जीवन

    तैलंग का जन्म भारतीय राज्य राजस्थानके बीकानेरमें हुआ।[1]तैलंग ने अपना पहला कार्टूब १९७० में बनाया और १९८२ में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया,मुम्बईसे अपना कैरियर आरम्भ किया। वर्ष १९८३ में उन्होंने दिल्ली में नवभारत टाइम्समें काम करना आरम्भ किया। उन्होंने इसके अतिरिक्त हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेसऔर द टाइम्स ऑफ़ इंडियाके लिए भी कार्टून बनाये। उन्होंने अपना अन्तिम कार्य एशियन एजके लिए किया। शिक्षा एवं साहित्यके क्षेत्र में उन्हें २००४ का पद्म श्रीपुरस्कार मिला।[2]
    उन्होंने हाल ही में "नो, प्राइम मिनिस्टर"शीर्षक से कार्टून पुस्तक भी जारी की थी।[3]इस पुस्तक में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंहकुछ कार्टून शामिल हैं। उनका मस्तिष्क कैंसर से ६ फ़रवरी २०१६ को निधन हो गया।[4]

    सन्दर्भ


  • "Cartoonist Sudhir Tailang Dies At 55 [कार्टूनकार सुधीर तैलंग का ५५ की आयु में निधन]" (अंग्रेज़ी में). इंडो-एशियन न्यूज़ सर्विस. 6 फ़रवरी 2016. अभिगमन तिथि: 6 फ़रवरी 2016.

  • "Padma Vibhushan for Narlikar and Justice Venkatachaliah [नरलिकर और न्यायमूर्ति वेंकटचलिया के लिए पद्म विभूषण]" (अंग्रेज़ी में). २५ जनवरी २००४. अभिगमन तिथि: ६ फ़रवरी २०१६.

  • "कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग का निधन". बीबिसी हिन्दी. ६ फ़रवरी २०१६.

    1. मोहम्मद उज़ैर शेख (६ फ़रवरी २०१६). "Renowned cartoonist Sudhir Tailang dies of brain cancer in Gurgaon [प्रख्यात कार्टूनिस्ट सुधिर तैलंग का गुड़गाँव में मस्तिष्क कैंसर से निधन]" (अंग्रेज़ी में). इंडिया वेबपोर्टल प्राइवेट लिमिटेड.

    बाहरी कड़ियाँ

    दूरदर्शन नेशनल

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     प्रस्तुति- अमन कुमार अमन


    डीडी नेशनल
    चित्र:डीडी नेशनल
    आरंभ15 सितम्बर 1959 (भारत में)
    स्वामित्वदूरदर्शन
    देशभारत
    मुख्यालयनई दिल्ली, भारत
    बंधु चैनलडीडी इंडिया
    डीडी भारती
    डीडी न्यूज़
    डीडी स्पोर्ट्स
    वेबसाइटआधिकारिक जालस्थल
    उपलब्धता
    उपग्रह
    डीडी फ्री डिशचैनल 01
    डिश टीवीचैनल 115
    टाटा स्काईचैनल 104
    सन डायरेक्ट डीटीएचचैनल 310
    वीडियोकोन डी2एचचैनल 127
    बिग टीवीचैनल 205
    एयरटेल डिजिटल टीवीचैनल 136
    दूरदर्शन नेशनलभारत में एक केन्द्र शासित हिन्दी टीवी चैनल है तथा इस चैनल की पहुँच भारत के लगभग हर हिस्से तक है। यह विभिन्न आयोजनों जैसे गणतंत्र दिवस समारोह, स्वतंत्रता दिवस समारोह, राष्ट्रीय पुरस्कार प्रस्तुति समारोह, राष्ट्रपति और देश के प्रधानमंत्री के भाषण, संसद के संयुक्त सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण, महत्वपूर्ण संसदीय बहसों, रेलवे और सामान्य बजट प्रस्तुतियों, लोक सभा और राज्य सभा में प्रश्न काल, चुनाव परिणाम और विश्लेषण, शपथ ग्रहण समारोह, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं और भारत के लिए महत्वपूर्ण विदेशी गणमान्य व्यक्तियों की यात्राओं डीडी नेशनल पर सीधा प्रसारण होता है। यह विभिन्न शिक्षा से संबधित कार्यक्रमों जैसे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), शैक्षिक प्रौद्योगिकी के केन्द्रीय संस्थान (सीआईईटी) और शिक्षा प्रौद्योगिकी के राज्य संस्थान (एस आई इ टी) के साथ-साथ मनोरंजक कार्यक्रमों का भी प्रसारण करता है।

    डीडी नेशनल द्वारा प्रसारित कार्यक्रम

    खेलों का प्रसारण

    आमतौर पर, भारत में खेले जा रहे एकदिवसीय क्रिकेट तथा 20-20 क्रिकेट जैसे अंतरराष्ट्रीय मैचों का डीडी नेशनलपर सीधा प्रसारण किया जाता है। इस पर 2014 में संपन्न हुए पुरुषों के हॉकी विश्व कपके सेमीफाइनल और फाइनल मुकाबलों के अतिरिक्त उन मुकाबलों का भी प्रसारण किया गया जिसमें भारतशामिल था।

    इन्हें भी देखें

    बाहरी कड़ियाँ

    सन्दर्भ

    भाषानुसार टीवी चैनलों की सूची

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    प्रस्तुति-  खिशोर प्रियदर्शी / धीरज पांडेय

    "टीवी चैनलों की सूची भाषानुसार"श्रेणी में पृष्ठ

    इस श्रेणी में निम्नलिखित 200 पृष्ठ हैं, कुल पृष्ठ 313
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    टीवी चैनलों की सूची

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    प्रस्तुति- किशोर प्रियदर्शी / राहुल मानव

    इस श्रेणी में निम्नलिखित 113 पृष्ठ हैं, कुल पृष्ठ 313
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    दिक्चालन सूची

    भारतीय टीवी चैनल

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    प्रस्तुति- धीरज पांडेय / अमन कुमार अमन 

    "टीवी चैनल"श्रेणी में पृष्ठ

    इस श्रेणी में निम्नलिखित 6 पृष्ठ हैं, कुल पृष्ठ 6

    कार्टून नेटवर्क (भारत)

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    प्रस्तुति- गणेश प्रसाद अमन कुमार अमन


    कार्टून नेटवर्क
    Cartoon Network 2010 logo.svg
    आरंभ१ मई १९९५
    स्वामित्वटर्नर इंटरनेशनल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (टाइम वार्नर इंक.)
    चित्र प्रारूप576i (SDTV)
    1080i (HDTV)
    उद्घोषIt's a Fun Thing!
    देशभारत
    भाषाअंग्रेज़ी
    हिन्दी
    तेलुगु
    तमिल
    प्रसारण क्षेत्रभारतभारत
    नेपालनेपाल
    भूटानभूटान
    श्रीलंकाश्रीलंका
    बांग्लादेशबांग्लादेश
    मुख्यालयबम्बई, भारत
    बंधु चैनलHBO Asia
    CNN International
    WB
    पोगो
    Turner Classic Movies
    Real
    Imagine TV
    वेबसाइटCartoonNetworkIndia.com
    उपलब्धता
    केबल
    इन डिजिटलChannel 325
    हाथवे केबलChannel 400
    FDI डिजिटल टीवी गोवाchannel 30
    GTPL डिजिटल गुजरातchannel 403
    कार्टून नेटवर्क भारतएक भारतीय बाल चैनल है। कार्टून नेटवर्कएक भारतमें प्रसारित होने वाला पूर्व अंग्रेज़ी चैनलहै। कार्टून नेटवर्क इंडिया एक केबल और सेटेलाइट टेलीविज़न चैनल है, जो टर्नर ब्रॉडकास्टिंग के द्वारा बनाई गई है, यह चैनल टाइम वॉर्नर की एक इकाई है जो एनिमेटेड प्रोग्रामिंग केलिए बनी है, जिसका मुख्यालय बम्बई, महाराष्ट्र में है।
    "कार्टून नेटवर्क"का १९९५ में दोहरे चैनल के रूप में भारत में प्रसारण शुरू हुआ,TCM और कार्टून नेटवर्क | टीएनटी और कार्टून नेटवर्क, जिसका प्रसारण ५:३० am से ५:३० pm तक होता था। फिर १ जुलाई २००१ में कार्टून नेटवर्क इंडिया में टर्नर क्लासिक फिल्म की जगह पर २४ घंटे शुरू हुआ, जिसका प्रसारण नेपाल और भूटान में शरू हुआ।
    कार्टून नेटवर्कभारत में हिंदी, अंग्रेज़ी, तेलुगुऔर तमिलमें प्रसारित होता है। कार्टून नेटवर्क भारत के आलावा नेपाल, भूटान, श्रीलंकाऔर बंगलादेशमें भी प्रसारित होती है।


    दिक्चालन सूची

    तेलुगु टीवी चैनल

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    अंग्रेजी टीवी चैनल

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