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ग्रामीण और शहरी पहचान का भेद



महान रसियन कथाकार और फिल्मकार वसीली शुक्सिन ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके जीवन की एक अजीब विडंबना है कि वे शहरियों के बीच में ग्रामीण और ग्रामीणों के बीच शहरी लगते हैं,इसे इस तरह समझे कि वे जब ग्रामीणों के बीच होते थे तो ग्रामीण उन्हें शहरी समझते थे और शहरी लोग उनको गंवार या गाँव का आदमी(देहाती) समझते थे।कुछ कुछ इसी तरह की विडंबनात्मक स्थितियों में यह नाचीज़ भी खुद को पाता है ,जब साहित्यिक बिरादरी उसे "कुंदन सरकार"समझती है और अधिकारी वर्ग उसे कुंदन सरकार का 'घंटा'समझते हैं। जबकी  सच्चाई यह है कि खाकसार न तो कभी "कुंदन सरकार"था और न "कुंदन सरकार का घंटा"। किन्तु कभी कभी खुद को कुंदन सरकार के गिरे हुए घंटे के करीब अवश्य पाता हूँ और (ज्ञानरंजन जी से क्षमा मांगते हुए )जी करता है कि उठूँ और चीखते हुए बोलूँ - "ऐ मोटे सेठो धनपशुओ और छुईमुई नाज़नीनो! वह दिन दूर नहीं , जब सभ्यता पलटकर वो रपोटा देगी कि तुम सबों की लेड़ीं तर हो जाएगी।"परंतु मुक्तिबोध की तरह कविता में कहने की आदत नहीं और वैसी चीखती चिल्लाती कविता लिखते लजाता हूँ। खैर इस गहन घटाटोप में मेरे जीवन की विडंबना यह है कि संघी मुझे वामी और वामी मुझे संघी समझते हैं जबकि वस्तुस्थिति यह है कि इन सबसे उलट मैं  बांग्ला कवि चंडीदास के शब्दों का सहारा लूं तो - "सबाई उपिरै मानुष सत्तो ,तार उपिरै कोई नाइ।'सबसे ऊपर मनुष्य है ,उसके उपर कोई नहीं, मतलब कोई (ईश्वर भी) नहीं। मेरी आस्था ऐरफ और सिर्फ - जीवन,मनुष्य,मनुष्यता और प्रकृति को बचाने और बनाए रखने में है। तो पार्टनर!मेरी तो यही पॉलिटिक्स है।

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