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लालाजी का निवाला / अखिलेश श्रीवास्तव

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कायस्थों का खाना-पीना –

 कड़ी नंबर 1 --
बनारस के अर्दली बाजार में काफी बड़ी संख्या में कायस्थ रहते हैं. अगर आप रविवार को यहां के मोहल्लों से दोपहर में निकलें तो हर घर के बाहर आती खाने की गंघ बता देगी कि अंदर क्या पक रहा है. ये हालत पूर्वी उत्तर प्रदेश के तकरीबन उन सभी जगहों की है, जहां कायस्थ अच्छी खासी तादाद में रहते हैं. बात कुछ पुरानी है. अर्दली बाजार में एक दोस्त के साथ घूम रहा था. पकते लजीज मीट की खुशबु बाहर तक आ रही थी.  दोस्त ने मेरी ओर देखा,  तपाक से कहा, "ललवन के मुहल्लवां से जब संडे में निकलबा त पता लग जाई कि हर घर में मटन पकत बा."
हकीकत यही है. उत्तर भारत में अब भी अगर आप किसी कायस्थ के घर संडे में जाएं तो किचन में मीट जरूर पकता मिलेगा. पूर्वी उत्तर प्रदेश में कायस्थों को लाला भी बोला जाता है. देशभर में फैले कायस्थों की खास पहचान का एक हिस्सा उनका खान-पान है. संडे में जब कायस्थों के घर जब मीट बनता है तो अमूमन बनाने का जिम्मा पुरुष ज्यादा संभालते हैं.
पिछले शनिवार और रविवार जब मैं किताबों और कागजों से कबाड़ हल्का कर रहा था, तब फ्रंटलाइन में छपा एक रिव्यू हाथ आ गया. जो काफी समय पहले पढ़ने के लिए रखा था. शायद इसलिए, क्योंकि वो उस किताब का रिव्यू था जो कायस्थों के खानपान पर आधारित है. इस की काफी तारीफ तब अखबारों और पत्रिकाओं में आई थी. किताब का नाम है "मिसेज एलसीज टेबल". इसकी लेखिका हैं अनूठी विशाल. मिसेज एलसी मतलब मिसेज लक्ष्मी चंद्र माथुर. और टेबल यानि उनके लजीज पाकशाला से सजी टेबल.
माना जाता है कि भारत में लजीज खानों की खास परंपरा कायस्थों के किचन से निकली है. कायस्थों में तमाम तरह सरनेम हैं. कहा जाता है कि खान-पान असली परंपरा और रवायतों में माथुर कायस्थों की देन ज्यादा है. खाने को लेकर उन्होंने खूब इनोवेशन किया. कायस्थों की रसोई के खाने अगर मुगल दस्तरख्वान का फ्यूजन हैं तो बाद में ब्रिटिश राज में उनकी  अंग्रेजों के साथ शोहबत भी.हालांकि पूर्वी उत्तर प्रदेश खासकर इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, जौनपुर में रहने वाले श्रीवास्तव भी खुद को कुछ कम नहीं मानते.
कहा जाता है कि कायस्थों की जमात तब उभर कर आई, जब मुगल भारत आए. फारसी में लिखा-पढ़ी, चकबंदी और अदालती कामकाज के नए तौरतरीके शुरू हुए. कायस्थों ने फटाफट फारसी सीखी और मुगल बादशाहों के प्रशासन, वित्त महकमों और अदालतों में मुलाजिम और अधिकारी बन गए. कायस्थ हमारी पुरातन सामाजिक जाति व्यवस्था में क्यों नहीं हैं, ये अलग चर्चा का विषय है. इसके बारे में भी कई मत हैं. कोई उन्होंने शुद्रों से ताल्लुक रखने वाला तो कोई ब्राह्मणों तो कुछ ग्रंथ क्षत्रियों से निकली एक ब्रांच मानते हैं.

लेखक अशोक कुमार वर्मा की एक किताब है, "कायस्थों की सामाजिक पृष्ठभूमि". वो कहती है, "जब मुगल भारत आए तो कायस्थ मुस्लिमों की तरह रहने लगे. उनके खाने के तौरतरीके भी मुस्लिमों की तरह हो गए. वो बीफ छोड़कर सबकुछ खाते थे. मुगलों के भोजन का आनंद लेते थे. मदिरासेवी थे."
14वीं सदी में भारत आए मोरक्कन यात्री इब्न बबूता ने अपने यात्रा वृत्तांत यानि रिह्‌ला में लिखा, "मुगलों में वाइन को लेकर खास आकर्षण था. अकबर के बारे में भी कहा जाता है कि वो शाकाहारी और शराब से दूर रहने वाला शासक था. कभी-कभार ही मीट का सेवन करता था. औरंगजेब ने तो शराब सेवन के खिलाफ कानून ही पास कर दिया था. अलबत्ता  उसकी कुंवारी बहन जहांआरा बेगम खूब वाइन पीती थी. जो विदेशों से भी उसके पास पहुंचता था. हालांकि अब मदिरा सेवन में कायस्थ बहुत पीछे छूट चुके हैं. लेकिन एक जमाना था जबकि कायस्थों के मदिरा सेवन के कारण उन्हे ये लेकर ये बात खूब कही जाती थी.

"लिखना, पढ़ना जैसा वैसा
दारू नहीं पिये तो कायस्थ कैसा"

वैसे पहले ही जिक्र कर चुका हूं. जमाना बदल गया है. खानपान और पीने-पिलाने की रवायतें बदल रही हैं. हरिवंशराय बच्चन दशद्वार से सोपान तक में लिख गए, "मेरे खून में तो मेरी सात पुश्तों के कारण हाला भरी पड़ी है, बेशक मैने कभी हाथ तक नहीं लगाया."

कायस्थों का खाना-पीना- कड़ी नंबर  2

कायस्थ हमेशा से खाने-पीने के शौकीन रहे हैं. लेकिन ये सब भी उन्होंने एक स्टाइल के साथ किया. आज भी अगर पुराने कायस्थ परिवारों से बात करिए या उन परिवारों से ताल्लुक रखने वालों से बात करिए तो वो बताएंगे कि किस तरह कायस्थों की कोठियों में बेहतरीन खानपान, गीत-संगीत और शास्त्रीय सुरों की महफिलें सजा करती थीं. जिस तरह बंगालियों के बारे में माना जाता है कि हर बंगाली घर में आपको अच्छा खाने-पीने, गाने और पढ़ने वाले लोग जरूर मिल जाएंगे, कुछ वैसा ही कायस्थों को लेकर कहा जाता रहा है.
जिस किताब का जिक्र मैने आपसे पहली कड़ी में किया, उसका नाम है मिसेज एलसीज टेबल. अनूठी विशाल की ये किताब तमाम ऐसे व्यंजनों की बात करती है, जिसका इनोवेशन केवल कायस्थों के किचन में हुआ.
मसलन देश में भरवों और तमाम तरह के पराठों का जो अंदाज आप अब खानपान में देखते हैं, वो मुगलों की पाकशाला से जरूर निकले लेकिन उसका असली भारतीयकरण कायस्थों ने किया. मुगल जब भारत आए तो उन्हें भारत में जो यहां की मूल सब्जियां मिलीं, उसमें करेला, लौकी, तोरई, परवल और बैंगन जैसी सब्जियां थीं. उनके मुख्य खानसामा ने करेला और परवल को दस्तरख्वान के लिए चुना, क्योंकि उन्हें लगा कि ये मुगल बादशाह और उनके परिवार को पसंद आएगी. लेकिन उन्होंने एक काम और किया. इन दोनों सब्जियों के ऊपर चीरा लगाकर उन्होंने इसे अंदर से खाली किया और भुना हुआ मीट कीमा डालकर इसे तंदूर में पकाया. बेशक ये जायका लाजवाब था. कायस्थों ने इसे अपने तरीके से पकाया. उन्होंने करेला, बैंगन, परवल में सौंफ, लौंग, इलायची, आजवाइन, जीरे और धनिया जैसे मसालों और प्याज का मिश्रण भरा. कुछ दशक पहले तक किसी और घर में पूरे खड़े मसालें मिलें या नहीं मिलें लेकिन कायस्थों के घरों में ये अलग-अलग बरनियों या छोटे डिब्बों में मौजूद रहते थे. उन्हें हर मसाले की खासियतों का अंदाज था. खैर बात भरवों की हो रही है. खड़े मसालों को प्याज और लहसुन के साथ सिलबट्टे पर पीसा जाता था. बने हुए पेस्ट को कढ़ाई पर भुना जाता था. फिर इसे करेला, बैंगन, परवल, आलू, मिर्च आदि में अंदर भरकर कड़ाही में तेल के साथ देर तक फ्राई किया जाता था. कड़ाही इस तरह ढकी होती थी कि भुनी हुई सब्जियों से निकल रही फ्यूम्स उन्हीं में जज्ब होती रहे. आंच मध्यम होती थी कि वो जले भी. बीच-बीच में इतनी मुलायमित के साथ उस पर कलछुल चलाया जाता था कि हर ओर आंच प्रापर लगती रहे.

दरअसल देश में पहली बार भरवों की शुरुआत इसी अंदाज में कायस्थों के किचन में हुई. हर मसाले के अपने चिकित्सीय मायने भी होते थे. यहां तक मुगलों के बारे में भी कहा गया है कि मुगल पाकशाला का मुख्य खानसामा हमेशा अगर किसी नए व्यंजन की तैयारी करता था तो शाही वैद्य से मसालों के बारे में हमेशा राय-मश्विरा जरूर कर लेता था.
चूंकि कायस्थ दरबारों में बड़े और अहम पदों पर थे लिहाजा मुगलिया दावत में आमंत्रित भी रहते थे. 1526 में बाबर ने जब भारत में मुगल वंश की नींव रखी तो अपने साथ मुगल दस्तख्वान भी भारत ले आया. तकरीबन सभी मुगलिया शासक खाने के बहुत शौकीन थे. जहांगीर तो अपनी डायरियों तक में खानपान का जिक्र करता था. अकबर के समय में उनके इतिहासकार अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी और अकबरनामा में उस दौर के खानपान का भरपूर जिक्र किया है. इब्नबबूता ने भी अपने यात्रा वृतांत में भी इसका जिक्र किया है. ये वो दौर था जब मुगल खानपान में ड्रायफ्रुट्स, किशमिश, मसालों और घी का भरपूर प्रयोग होता था. इसे वो अपने साथ यहां भी लाए थे. यानि कहा जा सकता है कि मुगल पाकशाला के साथ खानों की नई शैली और स्वाद भी आया था. ऐसा नहीं है कि भारत में ये सब चीजें होती नहीं थीं या इनका इस्तेमाल नहीं होता था लेकिन इन सारी ही खाद्य सामग्रियों को लेकर तमाम पाबंदियां और बातें थीं.

कायस्थ मुगल दस्तरख्वान के ज्यादातर व्यंजनों को अपनी रसोई तक ले गए लेकिन अपने अंदाज और प्रयोगों के साथ. फर्क ये था कि कायस्थों ने शाकाहार का भी बखूबी फ्यूजन किया. मांसाहार के साथ भी कायस्थों ने ये काम किया. कवाब से लेकर मीट और बिरयानी तक का बखूबी नया अंदाज कायस्थों की रसोई में मिलता रहा.

बिरयानी की भी एक रोचक कहानी है. कहा जाता है कि एक बार मुमताज सेना की बैरक का दौरा करने गईं. वहां उन्होंने मुगल सैनिकों को कुछ कमजोर पाया. उन्होंने खानसामा से कहा कि ऐसी कोई स्पेशल डिश तैयार करें, जो चावल और मीट से मिलकर बनी हो, जिससे पर्याप्त पोषण मिले. जो डिश सामने आई, वो बिरयानी के रूप में थी. बिरयानी में अगर मुगल दस्तरख्वान ने नए नए प्रयोग किए तो कायस्थों ने बिरयानी के इस रूप को सब्जियों, मसालों के साथ शाकाहारी अंदाज में भी बदला. चावल को घी के साथ भुना गया. सब्जियों को फ्राई किया गया. फिर इन दोनों को मसाले के साथ मिलाकर पकाया गया, बस शानदार तहरी या पुलाव तैयार.
अपने घरों में आप चाव से जो पराठे खाते हैं. वो बेशक मुगल ही भारत लेकर आए थे. दरअसल मुगलों की दावत में कायस्थों ने देखा कि फूली हुई रोटी की तरह मुगलिया दावत में एक ऐसी डिश पेश की गई, जिसमें अंदर मसालों में भुना मीट भरा था. इन फूली हुई रोटियों को धी से सेंका गया था. खाने में इसका स्वाद गजब का था. कायस्थों ने इस डिश को रसोई में जब आजमाया तो इसके अंदर आलू, मटर आदि भरा. ये कायस्थ ही थे. जिन्होंने उबले आलू, उबली हुई चने की दाल, पिसी हरी मटर को आटे की लोइयों के अंदर भरकर इसे बेला और सरसों तेल में सेंका तो लज्जतदार पराठा तैयार था. जब अगली बार आप अगर पराठे वाली गली में कोई पराठा खा रहे हों या घर में इसे तैयार कर रहे हों और ये मानें कि ये पंजाबियों की देन हैं तो पक्का मानिए कि आप गलत हैं. असलियत में ये कायस्थों की रसोई का फ्यूजन है.
बात सरसो तेल और घी की चली है, तो ये भी बताता चलता हूं कि इन दोनों का इस्तेमाल भारतीय खाने में बेशक होता था लेकिन बहुत सीमित रूप मे .
मशहूर खानपान विशेषज्ञ केटी आचार्य की किताब ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड में कहा गया है कि चरक संहिता के अनुसार, बरसात के मौसम में वेजिटेबल तेल का इस्तेमाल किया जाए तो वसंत में जानवरों की चर्बी से मिलने वाले घी का. हालांकि इन दोनों के ही खानपान में बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल की सलाह दी जाती थी. प्राचीन भारत में तिल का तेल फ्राई और कुकिंग में ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था. उस दौर में कहा जाता था कि गैर आर्य राजा जमकर घी-तेल का इस्तेमाल करके ताकत हासिल करते हैं. प्राचीन काल में सुश्रुत मानते थे ज्यादा घी-तेल का इस्तेमाल पाचन में गड़बड़ी पैदा करता है. सुश्रुत ने जिन 16 खाद्य तेलों को इस्तेमाल के लिए चुना था, उसमें सरसों को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था. इसके चिकित्सीय उपयोग भी बहुत थे.

ॐ श्री चित्रगुप्ताय नमः 🙏

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