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कोरोना पर कुछ सवाल / संजय श्रीवास्तव

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कोरोना पर कुछ और
दिमाग तक कोरोना की दस्तक

देश भर में कोरोना के चलते मानसिक बीमार 20 फीसद बढना भारत के लिये बढे हैं ज्यादा चिंतनीय इसलिये है कि सबसे अधिक मनसिक बीमार यहीं रहते हैं और उनके प्रति सर्वाधिक उपेक्षा भी यहीं होती है



संजय श्रीवास्तव

टीवी पर एक अनुभवहीन उद्घोषिका सामान्य स्वर में पढती है, इस बीच देश में मनोचिकित्सकों के सबसे बड़े एसोसिएशन इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी के सर्वेक्षण ने एक महत्वपूर्ण घोषणा की है। उस्ने बताया है कि देश में मानसिक रोगों से पीड़ित मरीजों की संख्या 20 प्रतिशत बढ़ गई है। मरीजों की यह संख्या देश में  कोरोना के आने के बाद एक हफ्ते के अंदर ही बढ़ी है।

 ऐसे में इसे वैश्विक महामारी को इसका एक कारण मनाने से इनकार नहीं किया जा सकता, ठीक एक ब्रेक के बाद वह आश्चर्य और किंचित घृणा मिश्रित स्वर में चीखने लगती है, इन्हें क्या हो गया है, ये जान बचाने वाली मेडिकल टीम पर ही हमला कर रहे हैं, आइसोलेशन में रखे गये इन रोगियों ने गदर काट रखा है, दो दिन पहले दो ने अस्पताल की छत से कूद  गये थे। अभी तक इस तरह के तकरीबन दर्जन भर मामले आ चुके हैं।.......

संभवत: उद्घोषिका इस तथ्य को नहीं जानती या फिर इस की उपेक्षा कर रही है कि महामारी से उपजा भय, तनाव, निरुपायता,  पीड़ा, भ्रम,  गुस्सा, लोगों के सामान्य व्यवहार को बदल देता है न महज मरीज की बल्कि उसके परिवार, साथ - समुदाय की प्रतिक्रिया पूर्ववत नहीं रहती। तिस पर यदि व्यवस्था के प्रति अविश्वास और अफवाह अपना काम करें तो क्या ही कहना।

 ऐसी स्थिति में लोग अतार्किक तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं और उस के सेवाकर्मियों के भी खिलाफ हो जाते हैं, जान बचाने वालों के जान के ग्राहक बन जाते हैं। जो लोग किसे मरीज के साथ रह रहे हैं, जिनकी शिक्षा का स्तर कम  है, जो अफवाहों, फेक न्यूज से प्रभावित हैं, जो बहुत जागरूक नहीं है उनका इस दौरान दु:ख, तनाव, भ्रम, डर और गुस्सा महसूस करना सामान्य बात है।

कोरोना तन मन दोनों को प्रभावित कर रहा है। कोरोना के विषाणु से देश की आबादी का जितना प्रतिशत शारीरिक तौर संक्रमित या प्रभावित होता है उससे कई गुना लोग कोरोना से पैसा इस महामारी की स्थिति से मानसिक तौर पर प्रभावित हो रहे हैं। कोरोना से संक्रमित मरीजों के लिये जाअंच और निदान तथा इलाज की व्यवस्था है, पर इन के लिये कुछ नहीं। कोरोना से संक्रमित लोगों के कुल तीन फीसदी मरीज दुर्भाग्यशाली ही मरीज जान गंवा रहे हैं।

 यह प्रतिशत भी इस की ज्ञात घातकता से तकरीबन दो गुनी है। इन में से अधिकतर पहले से बीमार और बुजुर्ग लोग हैं। बहुतेरे मरीज कुछ दिनों के ईलाज से चंगे हो जा रहे हैं। पर जो लोग कोरोना या उस से चलते बने हालात से मानसिक रूप से प्रभावित हो रहे हैं, भले ही वे किसी उम्र के हों उनमें से बहुत कम ही इस दिमागी संक्रमण से जल्द बाहर निकल पा रहे हैं।
 इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने इसी साल कहा था कि हर पांच में से एक भारतीय किसी न किसी मानसिक रोग का शिकार है। अब इस में बीस फीसदी का मतलब यह कि हर चौथा नागरिक मानसिक बीमार है।   कोरोना के बाद मानसिक रोगियों की संख्या जिस तरह बढी है वह इस लिये भी चिंता की बात है कि पहले भी मानसिक रोगियों के प्रति देश जागरूकता और सुविधाओं की विपन्नता झेल रहा है। कोरोना का प्रकोप दुनिया भर में है।

 दुनिया भर में कोरोना के चलते मानसिक बीमार बढे हैं लेकिन भारत के लिये सबसे ज्यादा चिंतनीय इस लिये है कि सबसे अधिक मनसिक बीमार यहीं रहते हैं और उनके प्रति सर्वाधिक उपेक्षा भी यहीं होती है। शारीरिक स्वास्थ्य कर्मियों की तुलना में मानसिक स्वास्थ्य कर्मी एक प्रतिशत भी नहीं हैं।

लॉकडाउन हमारे देश समाज के लिये नितांत नया अनुभव है। एक रस जीवन जीने वाला, ज्यादातर असुविधाभोगी समाज घरों में महदूद है। किसी से भी न मिलने जुलने से लगातार  समाचार चैनल या टीवी कार्यक्रम देखने से, सोशल मीडिया के संपर्क में रहने से जो बोरियत, घबराहट, चिंता, गुस्सा, भ्रम पैदा हो रहा है वह आगे बढ़कर मानसिक परेशानियों में बदल रहा है।

मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन पहले ही प्रस्तुत कर रखा है कि लंबे समय तक अकेले रहने का असर दिमाग पर किसी दुखद त्रासदी या महामारी सरीखा होता है। लॉकडाउन के दौरान चिंता, निराशा, घबराहट के दौरे, भूख में अचानक वृद्धि, अनिद्रा, अवसाद, मनोदशा में परिवर्तन, भ्रम, भय और आत्महत्या की प्रवृत्ति जैसे मानसिक बदलाव आम है।
अलग थलग पड़ गये लोगों में ज़बरदस्त निराशा, अवसाद, बेचैनी अतिरिक्त सावधानी, खास साफ सफाई, बचाव इत्यादि उस के भीतर नकारात्मकता को बढा देती है।

 महज एक तिहाई वयस्क का व्यवहार ही सामान्य है। अधिकतर लोग हाइपर एक्टिव या फिर हाइपर विगिं ऐसा आम है।   बहुतों का भविष्य का सोच कर दिमाग खराब है।  कुछ लोग मानसिक या शारीरिक परेशानियों के साथ-साथ आर्थिक नुकसान दिमाग हिला देने वाला है क्योंकि कई लोग लॉकडाउन के चलते बिजनेस, नौकरी, कमाई, बचत और यहां तक कि मूलभूत संसाधन भी गंवा चुके हैं।

एक मजदूर सोचता है कि उस को छोड़ा काम क्या फिर मिलेगा। गांव तो पहुंच गया पर नहीं लगता कि आसानी से फिर शहर वापस जा पायेगा। कुछ मजदूर को कैंप में दोनो जून खाना मिलने के बावजूद भविष्य में पैसा न भेज सकने की दशा में गांव के अपने परिवार के अनाथों जैसे भुखमरी में जीने की सोच कर मानसिक बीमार हो रहा है। बहुतों को नहीं पता है कि निकल कर वह काम पर जायेगा या काम से।

किंग्स कॉलेज लंदन ने हाल ही क्वारैंटाइन और आइसोलेशन के असर से संबंधित दो दर्जन संक्षिप्त शोध पत्रों की समीक्षा पेश की है। मेडिकल जर्नल लैंसेट के पिछले अंक में यह छपी है। इन शोध पत्रों में यह निकल कर आता है कि आइसोलेशन के चलते बड़ों के मुकाबले बच्चों में 4 गुना ज्यादा तनाव होता है।

भावनात्मक अस्थिरता, अवसाद, तनाव, उदासी, चिंता, नींद न आना, चिड़चिड़ापन जैसे मनोवैज्ञानिक बदलाव लंबे समय तक बने रह सकते हैं। काम और जीवन के बीच की रेखा धुंधला गई है। खास तौर पर वर्क फ्रॉम होम करने वालों के लिये। वर्क फ्रॉम होम करने वाले अलग तरह के तनाव में मुब्तिला हैं। किंग्स कॉलेज के शोधकर्ताओं के मुताबिक लोगों से उनकी आजादी छिनने का असर उनके दिमाग पर लंबे समय तक रह सकता है। कई बार सेक्स के लिये खतरा उठाने की प्रवृत्ति और आत्महत्या अथवा आत्मघाती प्रवृत्ति भी बढती है।

सार्स के समय के अध्ययन भी वर्तमान को समझने में बहुत काम के हैं। सार्स के दौरान क्वारैंटाइन में गए 26 फीसदी लोग भीड़ वाली बंद जगहों से महीनों तक भय खाते देखे गये 21 फीसदी लोग किसी सार्वजनिक स्थान पर कई हफ्तों तक गये ही नहीं। बहुतों में ये लक्षण तीन साल तक देखे गये। भविष्य में रासायनिक, जैविक और नाभिकीय अथवा विकिरण वाले हमले के बाद तो इस से बुरी स्थिति होगी। इस से सरकार और प्रतिष्ठान  के साथ आम तथा खास जन कैसे निबटे इस की तैयारी करना , जागरूकता फैलाना बहुत आवश्यक है।

सामुदायिक स्तर पर इसका अभ्यास करने के लिये यह बहुत उचित अवसर था। समाज को इस बात का संदेश और संकेत देने का भी। इस बीमारी के खिलाफ जहां स्वास्थ्य के साथ साथ आर्थिक और सामाजिक स्तर पर कुशलतापूर्ण निबटने की रणनीति बनानी है आवश्यक है, वहीं मानसिक स्थिति से भी पार पाने की सुविचारित नीति बनानी होगी।

फिलहाल बहुत से लोग बहुत नियोजित जीवन जीते हुये समय पर सही खाना, सोना, आराम, काम और उचित व्यायाम कर रहे हैं, सफाई स्वच्छता बनाये हुए हैं अपने हित मीत परिवार तथा संबंधियों से नियमित से संपर्क में हैं, मजे कर रहे हैं। सार्स के समय अध्ययन में पता चला कि परिवार से ज्यादा  इस समय में मित्र काम आये थे, उन्होंने अपनी बातचीत से ज्यादा राहत दी, फोन पर लोगों से बातचीत करें, सकारात्मक बने रहें

 विशसनीय समाचार माध्यम ही देखें, पढें, सुनें वह भी कम समय के लिये।
 लगातार परेशान करने वाली खबरों का लोगों तक पहुंचना उनमें तनाव का स्तर बढ़ाकर उन्हें मानसिक परेशानियों का शिकार बना सकता है, ऐसा विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है। कोरोना वायरस से बिगड़ी स्थितियां को पूरी तरह संभलने में अभी थोड़ा और वक्त और लग सकता है।

 इसलिए बहुत सी जगहों पर लॉक डाउन लंबा भी खिंच सकता है। अमेरिका, इटली, चीन समेत कई देशों में इससे जुड़ी एडवाइजरी और हेल्पलाइन नंबर भी जारी किए गए हैं, हमारे यहां ऐसी व्यवस्था आम नहीं है। ऐसे अधैर्य न दिखलायें, मन को मजबूत बनायें।।।






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