अमेरिकी संसद के निचले सदन, यानी हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी ने पिछले दिनों घोषणा की कि वह एक कमिटी बनाने जा रही हैं जो कोरोना महामारी से निपटने में अमेरिकी संघीय सरकार के तमाम कदमों की समीक्षा करेगी।
यह अमेरिकी लोकतंत्र की मजबूती और उसकी परिपक्वता है कि वहां डोनाल्ड ट्रम्प जैसे अक्खड़ और मनमर्जी चलाने वाले राष्ट्रपति के कार्यकलापों पर कोई सक्षम कमिटी निगाह रखेगी।
लेकिन, सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में?
क्या यहां इस तरह की किसी घोषणा या किसी अधिकार संपन्न कमिटी की हम कल्पना कर सकते हैं जो महामारी से निपटने में भारत सरकार के उठाए जा रहे कदमों की समीक्षा करे और उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक करे?
कोरोना संकट से निपटने के अपने तौर-तरीकों को लेकर ट्रम्प शुरू से ही विवादों में रहे हैं और आज अगर अमेरिका इस महामारी के सामने घुटनों के बल गिरा है तो विश्लेषक इसका एक बड़ा कारण राष्ट्रपति की अदूरदर्शिता को भी मानते हैं, जिसने अपने वैज्ञानिक सलाहकारों की बातों पर ध्यान नहीं दिया और अपनी राजनीति करते रहे।
जैसी की खबरें आ रही हैं, जब 30 जनवरी को भारत में कोरोना ने दस्तक दे दिया था तो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने भारत सरकार को चेतावनी भरी सलाह जारी कर दी थी।
लेकिन, जैसा कि बाद के घटनाक्रमों से स्पष्ट हुआ, भारत सरकार ने मामले को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जिसकी अपेक्षा उससे की जा सकती है।
यह जानना बेहद दिलचस्प है कि समकालीन वैश्विक राजनीति में जितने भी नेता अपने को 'विश्व नेता'मानते हैं, उन्होंने इस संकट काल में अपने देश का नेतृत्व कैसे किया।
लगभग, सारे के सारे 'विश्व नेताओं'ने अपनी असावधानी और अदूरदर्शिता से अपने-अपने देश को भयानक संकट में डाल दिया। अमेरिका के ट्रम्प, रूस के पुतिन, भारत के मोदी, ब्रिटेन के जॉनसन, चीन के जिनपिंग, फ्रांस के मैक्रो आदि जितने भी शक्तिशाली नेता हैं, संकट की इस कसौटी पर कोई खरा नहीं उतरा।
जबकि, अपेक्षाकृत महत्वहीन नेताओं में से अनेक ऐसे निकले जिन्होंने अपने वैज्ञानिक और दूरदर्शी दृष्टिकोण से न सिर्फ अपने देश को इस भयानक महामारी से बचाने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की, बल्कि बाकी देशों के लिये उदाहरण भी प्रस्तुत किया। इनमें न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्दर्न, ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन, वियतनाम के राष्ट्रपति नगुएन फु ट्रॉन्ग, साउथ कोरिया के राष्ट्रपति मून जे इन जैसे नेता शामिल हैं। यहां तक कि भारत के पड़ोसी और बड़ी निर्धन आबादी के बोझ से जूझते बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने भी इस संकट काल में अपने जन संकुल देश को उबारने के लिये जैसी सावधानी और नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया, उसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई।
शक्तिशाली विश्व नेताओं का अहंकार इस आपदा काल में असावधानी और अदूरदर्शिता के रूप में सामने आया और...जब संकट गहराने लगा तो इन्होंने एकायामी फैसले ले कर समाज के बहुत सारे वर्गों के जीवन को और अधिक संकट में डाल दिया।
कोई कमिटी इस तथ्य की पड़ताल करे न करे, इतिहास जरूर पड़ताल करेगा कि आपदा काल में इन विश्व नेताओं ने संकट को न सिर्फ बढ़ने दिया, बल्कि हालात बदतर होने पर इससे निपटने के लिये जिन तौर-तरीकों का इस्तेमाल किया वे लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करने वाले नहीं थे।
ट्रम्प ने अपनी असावधानी और इससे उपजी असफलताओं का ठीकरा पहले चीन पर फोड़ा, फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन पर आरोप लगा कर उसे जारी होने वाले अमेरिकी फंड को रोक दिया। अपने देश के विभिन्न राज्यों के गवर्नरों से उनके सतत विवाद की खबरों ने हालात को और बदतर ही किया।
संकट से निपटने का ट्रम्प का यह अशालीन और अलोकतांत्रिक तौर-तरीका ही था जिसके बारे में एक टीवी साक्षात्कार में बोलते हुए नाओम चोम्स्की ने उनके बारे में कहा..."गैंगस्टर इन द व्हाइट हाउस।"
दुनिया इस वक्त जिस दौर से गुजर रही है वह इतिहास में दर्ज होगा और...जाहिर है, तमाम विश्व नेताओं की नेतृत्व शैलियों और संकट से निपटने के उनके तौर-तरीकों का भी इतिहास विश्लेषण करेगा।
पहले से ही जमीन सूंघ रही भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये कोरोना संकट कोढ़ में खाज की तरह साबित हो रहा है और इससे निपटने के नरेंद्र मोदी के तरीके न संदेहों से परे हैं,न विवादों से।
रिजर्व बैंक की बाहें मरोड़ कर पहले ही एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ खींच लेने वाली सरकार अब फिर से दो लाख करोड़ की बड़ी राशि निकालने की जुगत में है। अर्थशास्त्री इसके दुष्परिणामों की ओर बार-बार संकेत कर रहे हैं, लेकिन, इस सरकार के लिये और इसके समर्थकों के लिये बौद्धिक वर्ग मजाक का पात्र है।
सरकारी कर्मियों/पेंशनरों से हजारों-लाखों करोड़ की कटौती, रिजर्व बैंक के रिजर्व फंड पर अवधारणाओं के विपरीत जा कर हाथ डालना...प्रवासी श्रमिकों के बारे में बिना कुछ सोचे और उनके लिये बिना कुछ सुचिंतित व्यवस्था किये लॉक डाउन की घोषणा, महामारी बढ़ते जाने के बावजूद 19 मार्च तक आवश्यक मेडिकल संसाधनों को दस गुने मुनाफा लेकर निर्यात करते रहने की छूट कारपोरेट को देना, पीएम रिलीफ फंड के रहते पीएम केयर फंड बनाना और उसे ऑडिट या आरटीआई से मुक्त रखना... कोई कमिटी इन कदमों की समीक्षा करे न करे, इतिहास तो जरूर समीक्षा करेगा।
महामारी का यह ऐतिहासिक संकट नरेंद्र मोदी के लिये एक अवसर भी था, लेकिन, इससे निपटने के पहले अध्याय में ही उन्होंने चूक दर चूकों का सिलसिला शुरू कर दिया, जिसका भयानक नतीजा आज अहमदाबाद भुगत रहा है, जिसने अपनी सड़कों पर 'केम छो ट्रम्प'का आयोजन तब देखा जब भारत सहित दुनिया भर में संक्रमण की रफ्तार काबू से बाहर हो रही थी।
संकट के इस दौर में प्रवासी श्रमिकों की फजीहतों का जब इतिहास लिखा जाएगा तो नरेंद्र मोदी पर इतिहास कैसी टिप्पणी करेगा?
किसी कमिटी की रिपोर्ट से बड़ी रिपोर्ट इतिहास की होती है।।।।
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