संजय गांधी और कवारंटीन सेंटर
रवि अरोड़ा
संजय गांधी की राजनीति का मैं विरोधी रहा हूँ और आपातकाल में देश भर में हुई तमाम ख़ुराफ़ातों का असली गुनहगार भी उन्हें ही मानता हूँ मगर न जाने क्यों आजकल रह रह कर उनकी याद आती है ।
उनके पाँच सूत्रीय कार्यक्रम यदि देश में लागू हो जाते और हम उनकी नीति यानि बच्चे दो और पेड़ हज़ार का अक्षरश पालन करते तो संभवतः आज देश की यह हालत नहीं होती जो है ।
कोरोना संकट में बेशक सरकारी स्तर पर अनेक महामूर्खताएँ हुई हैं मगर यह भी सच है कि देश की इतनी बड़ी अनपढ़ और जहिल आबादी को सम्भालना भी तो आसान नहीं है। इस महामारी को लेकर लोगों का जो लापरवाही पूर्वक व्यवहार है , वह बेहद शर्मनाक है ।
यही हालात रहे तो लाख प्रयासों के बावजूद इस महामारी को थामा तो नहीं जा सकेगा । देश भर में पहले लॉकडाउन के नाम पर तमाशा हुआ और अब कवारंटीन सेंटरों के नाम पर मज़ाक़ हो रहा है । अव्वल तो इन सेंटरों में समुचित इंतज़ाम नहीं हैं मगर जहाँ हैं उन सेंटरों में ठहराए गए लोग भी कहाँ सहयोग कर रहे हैं । ऊपर से भीषण गर्मी ने सभी व्यवस्थाओं को पलीता लगा दिया है । नतीजा स्कूल , कालेज, पंचायती भवन और बारात घरों में जहाँ जहाँ यह सेंटर बने हैं , वहाँ रोज़ाना बवाल हो रहे हैं । कोढ़ में खाज यह है कि भ्रष्टाचारी अफ़सरशाही लहरें गिनने में लगी है और चाँदी कूटने से फिर भी बाज़ नहीं आ रही है ।
सरकारी आँकड़ा कहता है कि देश में पौने पाँच करोड़ प्रवासी मज़दूर हैं और इनमे से लगभग अस्सी लाख लोगों को ट्रेन और बसों से उनके घर भेजा गया है । अपने घर जाने से पहले श्रमिकों को चौदह दिन के लिए कवारंटीन सेंटर में ठहरना होता है ।
सरकारी स्तर पर देश भर में अधिक से अधिक एक करोड़ लोगों को ही इन सेंटरों में ठहराया जा सकेगा । उधर ग़ैरसरकारी आँकड़ा कहता है कि देश भर में बारह करोड़ प्रवासी मज़दूर हैं और उनमे से एक तिहाई अपने अपने साधनों अथवा पैदल अपने घर पहुँच भी चुके हैं । बिना सरकारी सहायता के घर लौटे लोग किसी प्रकार का कवारंटीन नहीं कर रहे हैं । सरकारी व्यवस्था का भी आलम यह है कि सेंटरों में ठहराए गए लोग भी शाम होते ही अपने घर चले जाते हैं और सुबह चाय-नाश्ते के समय वापिस सेंटर आ जाते हैं ।
गाँव देहात में आपसी रंजिशों के चलते न तो कोई एसे मामलों की शिकायत करता है और न ही अफ़सर इसका संज्ञान लेते हैं । ऐसे भी अनेक समाचार मिले हैं कि अक्सर लोग कवारंटीन सेंटरो से भाग जाते हैं अथवा आख़िरी स्टेशन से पहले चेन पुलिंग कर गाड़ी रोक लेते हैं और सेंटर से बचने के लिए रेलवे स्टेशन पर ही नहीं पहुँचते । घरों में कवारंटीन किए गए लोग तो खुलेआम घूमते मिलते ही हैं ।
नतीजा यह महामारी अब घर घर पहुँच रही है और कुछ ही दिनो में इसका बड़ा केंद्र देश के गाँव देहात होंगे । कल्पना कीजिए कि शहरों में सिमटते कारोबार और घटती नौकरियों के चलते यदि लोग अपने घरों को यूँ ही लौटते रहे तो किसी भी सूरत इतनी बड़ी आबादी को कवारंटीन तो नहीं ही किया जा सकेगा।
उधर कवारंटीन सेंटरों से श्रमिकों के बचने के पीछे अफ़सरशाही की रीति-नीति भी कम नहीं है । आए दिन सेंटरों पर खाने और सुविधाओं के लिए बवाल होते रहते हैं । कहीं पानी नहीं मिल रहा तो कहीं भीषण गर्मी में बिजली का संकट है । एक जगह महिला से बलात्कार हो गया तो दो जगह लोगों को सांप ने काट लिया । सुविधाओं के अभाव सम्बंधी वीडियो वायरल होने पर किरकिरी होते देख अब इन सेंटरों पर मोबाइल फ़ोन ले जानें पर ही बंदिश लगा दी है । पता नहीं कहाँ जाकर ख़त्म होगी यह दुःखभरी कहानी जिसकी असली जड़ तो इतनी बड़ी आबादी ही लगती है । संजय बाबू कुछ ज़्यादा ही जल्दी चले गए आप ।