मेरे पुराने मित्र औऱ शालीन पत्रकार तथा कई अंग्रेज़ी दैनिक समाचारपत्रों के एडिटर रहे एस.निहाल सिंह जिन्हें मैं सुरिंदर जी कहा करता था से कई यादगार मुलाकातें हुई। 7 अक्टूबर, 1980 को बोन के इंसेल होटल से ब्रेसेल्स जाने के लिए जब मैं चेकआउट कर रहा तो लॉबी में मैं सुरिंदर निहाल सिंह को देखकर चौंक गया। दुआ सलाम के बाद जर्मनी आने का सबब पूछा तो बताया कि आपको चुनाव कवर करने के लिए पश्चिम जर्मन सरकार ने आमंत्रित किया था और मुझे सरकार बनने के बाद चुनाव का विश्लेषण करने के लिये। मतलब यह जर्मन सरकार दुनिया को यह बताना और जताना चाहती थी कि हमारे यहां चुनाव से लेकर सरकार गठन करने तक किस तरह की पारदर्शिता बरती जाती है। फिर हंस कर बोले मैं इस इंतज़ार में था कि कब आप कमरा खाली करें और मैं वहां दाखिल होऊं। गले मिलने के बाद फिर मिलने का वादा कर मैं एयरपोर्ट के लिए निकल गया।
मेरा अगला पड़ाव ब्रेसेल्स था। बोन से जिस विमान पर मैं सवार हुआ वह छोटा सा था। उसमें न कोई एयर होस्टेस और न ही कोई चाय पानी पूछने वाला था। विमान ऐसे हिचकोले खा रहा था कि अब गिरा कि तब गिरा। बहरहाल वह ब्रेसेल्स एयरपोर्ट पर सकुशल लैंड कर गया। मैं कमीशन ऑफ यूरोपियन कम्युनिटी का मेहमान था। वहां से टैक्सी लेकर मुझे होटल पहुंचना था। पहुंच गया। अब अगले कार्यक्रम से अनजान होने पर जर्मनी में मिले बेल्जियम के मित्र हर्स्ट कोलमैन को फोन लगाया। वह होटल पहुंच गए, कमीशन की लापरवाही की तरफ1से माफी मांगने लगे। यह वहां की तहज़ीब है, इसमें बेचारे कोलमैन का क्या कसूर। बहरहाल उन्होंने मुझे ब्रुसेल्स घुमाया, अपने घर ले गये, परिवार से मिलवाया और वॉटरलू दिखाया जहां नेपोलियन द ग्रेट पराजित हुआ था।सारी दुनिया को जीतने का संकल्प करने वाले नेपोलियन का पराजय स्थल वॉटरलू ब्रुसेल्स से बाहर है। वहां एक कुएं में नेपोलियन के अस्त्र शस्त्रों के साथ साथ कई यादगार स्मृतियों को सहेज कर रखा गया है।ब्रुसेल्स के बाद मैं लंदन में रहा काफी दिनों तक। मेरा मित्र वेद मित्र मोहला हीथ्रो एयरपोर्ट तक मुझे छोड़ने के लिए आया। वेद और उसकी पत्नी तोशी मेरे आम तौर पर मेज़बान होते हैं जब मैं निजी यात्रा पर लंदन जाता हूं। वेद दिल्ली का रहने वाला है, बाल साहित्यकार है और पेशे से इंजीनियर है।
वेद तो छोड़ कर चला गया। विमान में जब प्रवेश किया तो एक बार फिर हैरानी मेरा इंतज़ार कर रही थी। थोड़ी देर में क्या देखता हूं कि सुरिंदर निहाल सिंह मेरी सीट की बगल सीट पर बैठे हैं। हाथ हिला कर एक दूसरे का अभिवादन किया। फिर एयर होस्टेस से निवेदन कर एक साथ बैठने का इंतज़ाम कर लिया। उन्होंने जर्मन लोकतंत्र की गरिमा बताते हुए कहा कि कैसे एक बार फिर बिना ज़्यादा दिक्कत के एसपीडी और एफडीपी की गठबंधन सरकार बन गई है।उन्होंने ने जर्मन चैरित्रिक खूबी बयान करते1हुए बताया कि 1973 में विली ब्रांट की सरकार एक वोट के बहुमत से सत्ता में आई थी लेकिन क्या मजाल किसी ने दलबदल कर सरकार गिराने की हिम्मत की हो। मई 1974 में ब्रांट को अपनी यूरोपीय शांति का खामियाजा इस मायने में भुगतना पड़ा कि उनके स्टाफ में कोई ऐसा व्यक्ति भर्ती हो गया जो पूर्वी जर्मनी का जासूस था। इस बात का इल्म होते ही ब्रांट ने तुरंत अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। इसे कहते हैं राजनीतिक चरित्र। हम लोग बातें भी कर रहे थे और खा पी भी रहे थे। मैं ने उन्हें अपनी बेल्जियम यात्रा और वॉटरलू के बारे में जानकारी दी। इनके अलावा भी बातों का दौर चलता रहा। हम लोग सारे रास्ते पंजाबी में ही बातचीत करते रहे। पता ही नहीं चला कब हम दिल्ली पहुंच गये।
एस. निहाल सिंह से मेलजोल दिल्ली में भी जारी रहा। कभी इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मिल जाते तो कभी मैं उनके घर भी चला जाता । वह प्रेस क्लब भी आया करते थे। उन्हें किसी तरह का गुमान नहीं था। वह बहुत ही ज़हीन और प्यारे इंसान थे। एक बार संडे मेल का प्रबंधन अंग्रेज़ी संडे मेल के लिए नये एडिटर की तलाश कर रहा था।मुझ से जब सलाह ली गयी तो मैंने एस.निहाल सिंह का नाम सुझा दिया। उन्हें भी यह नाम रुचता दीखा उन्हें यह पता तो था ही कि सुरिंदर निहाल सिंह बहुत धाकड़ एडिटर है। उसने इमरजेंसी की परवाह नहीं की थी और जमकर उसके खिलाफ लिखा था।वह पहला पत्रकार था जो पाकिस्तान में रहते हुए दमदार रिपोर्टिंग किया करता था। मोटा मोटी मैंने उन्हें अंग्रेज़ी संडे मेल की एडिटर शिप के लिए तैयार कर लिया था। बाद में पता नहीं चला प्रबंधन से उनकी क्या बातचीत हुई। इस बाबत न उन्होंने बताया और न ही मैंने पूछना उचित समझा । लेकिन जब हिंदी संडे मेल की लोकार्पण पार्टी हुई तो मेरे आग्रह पर वह उसमें शामिल हुए। उनके साथ मेरा यह चित्र उसी वक़्त का है। हमारी मुलाकातें जारी रहीं। उनकी पत्नी के निधन के बाद वह उदास रहने लग गये थे। उसी गम में ही हमें वह छोड़ कर चले गये। सुरिंदर के पिता गुरुमुख निहाल सिंह दिल्ली के पहले सिख मुख्यमंत्री थे 1955 से 1956 तक। बाद में वह राजस्थान के राज्यपाल भी रहे। गुरुमुख निहाल सिंह के बाद जब सरदार हुकम सिंह को राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया तो राजनीतिक क्षेत्रों में कहा जाने लगा कि लगता है राजस्थान को सिख राज्यपाल अधिक रास आता है। वह शायद इसलिए भी कि सरदार हुकम सिंह के बाद जोगेंद्र सिंह राजस्थान के राज्यपाल बनाये गये थे। बेशक़ आज भी सुरिंदर निहाल सिंह की बहुत याद आती है। उनकी याद को सादर नमन।