My article in today's Rashtriya Sahara.
जनसंवाद की आवाज बनती कांग्रेस
कुमार नरेन्द्र सिंह
कोरोना महामारी केवल बीमारी नहीं है, बल्कि उसके कई आयाम हैं। वह मानवीय त्रासदी है. दोषारोपण का औजार है, अंधविश्वास का बाजार है, भ्रष्टाचार है, किसी को सही औऱ किसी को गलत साबित करने का अधिकार है। अर्थशास्त्र है, मनोविज्ञान है और अंतत:राजनीति का हथियार है। अपनी राजनीति को सही साबित करने और उसे निखारने के लिए भारत की तमाम राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने ढंग से अपनी राजनीतिक बिसात बिछा रही हैं। कौन सही या कौन गलत, यह तो आनेवाले दिनों में ही साबित होगा, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस का पलड़ा ही भारी दिखाई दे रहा है।
कोरोना संकट के इस दौर में कांग्रेस पार्टी, विशेषकर राहुल गांधी और प्रियंका बाड्रा ने जिस तरह इकट्ठा किया और उसे कोरोना के खिलाफ जंग में मुस्तैद किया, वह कांग्रेस के लिए संजीवनी बनता दिखाई देन लगा है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में जो कांग्रेस अपनी करारी शिकश्त से पस्त थी और जिस कदर नेतृत्व के संकट से जूझ रही थी, वह विगत दो महीने के कोरोना संकट के दौरान अचानक जनसंवाद की आवाज बनती दिखाई देन लगी है। इस बात से शायद ही कोई इनकार कर सके कि राहुल गांधी देश के वह पहला राजनेता थे, जिन्होंने सरकार और लोगों को कोरोना की भयावहता से आगाह किया था और उसके बाद लगातार सरकार से आग्रह करते रहे थे कि वह कोरोना महामारी को लेकर जल्द से जल्द उचित और कारगर कदम उठाए। लेकिन मोदी सरकार ने उनकी बात को न केवल अनसुना किया, बल्कि उन्हें ही गलत साबित करने का प्रयत्न किया।
मोदी भक्तों ने सोशल मीडिया पर गंध मचाकर रख दिया। वैसे भक्तों की बात क्या की जाए, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर देशवासियों को भ्रम में रखा कि कोरोना से डरने की कोई जररूरत नहीं है। जब पानी सर से गुजरने लगा, तब जाकर उन्हें इसकी भयावहता का भान हुआ और देश में लॉकडाउन लागू किया गया। यूं तो सभी जानते थे कि केवल लॉकडाउन के जरिये कोरोना को पराजित नहीं किया जा सकता, लेकिन सरकार ने हमें समझाया कि जिस तरह 18 दिनों में महाभारत का युद्ध जीत लिया गया था, उसी तरह हम 21 दिनों में कोरोना को मात दे देंगे। प्रधानमंत्री ने देशवासियों से ताली और थाली भी पिटवाई। तर्क दिया गया कि स्वास्थ्यकर्मियों की हौसलाआफजाई के लिए यह जरूरी है। लोगों ने भी सरकार का पूरा साथ दिया और जमकर ताली पीटी और थाली बजाई। यह अलग बात है कि उसी दौर में हमारे डॉक्टर्स और अन्य स्वास्थ्यकर्मी उचित उपकरनणों की कमी से जूझते रहे और सैकड़ों कोरोना के शिकार बन गए। इतना ही नहीं, स्वास्थ्यकर्मियों का मनोबल बढ़ाने के नाम पर अस्पतालों पर फूल बरसाए गए, लेकिन पर्याप्त सुरक्षा उपकरण मुहैया नहीं कराए जा सके।
जब विपक्षी दलों, विशेषकर राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने स्वास्थ्यकर्मियों के पास पर्याप्त सुरक्षा किट न होने की बात उठायी, तो उनका मजाक उड़ाया गया। हमरे प्रधानमंत्री को यह भी नहीं दिखाई दिया कि देश के अनेक जगहों पर स्वास्थ्यकर्मियों ने सुरक्षा उपकरणों की मांग करते हुए हड़ताल का सहारा लिया। विडंबना यह कि सरकार ने उल्टे स्वास्थ्यकर्मियों पर ही कार्रवाई करने की धमकी दे डाली। इतना ही नहीं, सरकार के समर्थक अपनी ही सरकार के गाइडलाइन्स की धज्जियां उड़ाते रहे, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी।
जहां तक सोशल डिस्टैंसिंग की बात है, तो इसका सबसे ज्यादा माखौल सरकारी पक्ष ने ही उड़ाया – कभी सरकार बनाने के लिए तो कभी शादी और सत्संग के लिए। लॉकडाउन जारी रहा और कोरोना का प्रसार होता रहा। अचानक सरकार ने शराब की बिक्री पर प्रतिबंध हटा दिया और लोगों को कोरोना की चपेट में आने के लिए छोड़ दिया। जब सोनिया गांधी ने लॉकडाउन के रोडमैप को लेकर सरकार से सवाल किया, तो उल्टे उन्हें ही भला-बुरा कहा जाने लगा। आज देश में कोरोना रोगियों के संख्या डेढ़ लाख तक पहुंच चुकी है, जबकि लॉकडाउन जारी है। जाहिर है कि सोनिया की बात में दम था कि सरकार के पास लॉकडाउन का कोई रोडमैप नहीं है। सभी जानते हैं कि लॉकडाउन कोरोना का कोई इलाज नहीं है। वह तो केवल मोहलत है कोरोना के खिलाफ बेहतर इंतजाम करने का, लेकिन हम सभी जानते हैं कि लॉकडाउन के दौरान कोरोना से लड़ने के लिए बेहतर रणनीति बनाने और उसे लागू करने में मोदी सरकार पूरी तरह नाकाम रही।
जहां तक लॉकडाउन की बात है, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसकी घोषणा आनन-फानन में बिना किसी सम्यक रणनीति के की गयी। प्रधानमंत्री केवल यह कह कर अपने उत्तरदायित्व से उबर गए कि कि जो जहां है, वहीं रहे। देश के सभी कारोबार बंद हो गये और उनमें काम करनेवाले श्रमिक वहीं फंस गए। मोदी जी के इस आग्रह का न तो फैक्ट्री मालिकों पर असर हुआ और न मकान मालिकों पर कि उन्हें भोजन-पानी मुहैया करायी जाए और मकान मालिक उनसे किराया न मांगें। ऐसे में लाखों मजदूरों की जिंदगी पर बन आयी। उनके लिए न तो पर्याप्त राशन-भोजन का प्रबंध किया गया और न रहने का। भूख से मरने के डर से मजदूरों ने अपने घर को पलायन करने का निर्णय ले लिया और लाखों, करोड़ों मजदूर पैदल ही अपने घर के सफर पर निकल पड़े। लेकिन यही उनकी पीड़ा का अंत नहीं था, रास्ते में जगह-जगह उन्हें पुलिस प्रताड़ना का शिकार भी होना पड़ रहा है।
ऐसे में राहुल गांधी औऱ प्रियंका वाड्रा मजदूरों की पीड़ा जानने और उन्हें राहत पहुंचाने के लिए सड़क पर उतर आए। जाहिर है कि दंभी मोदी सरकार को यह नागवार ही गुजरना था। राहुल ने मजदूरों का हालचाल क्या पूछ लिया, सरकार को ऐसा लगा, जैसे भूकंप आ गया हो। आनन-फानन में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन ने प्रेस कांफ्रेंस करके बताने में जुट गयीं कि राहुल गांधी राजनीति कर रहे हैं। जिस काम के लिए राहुल गांधी की बड़ाई की जानी चाहिए थी, उसके लिए उन्हें कोपभाजन बनाया गया। कायदे से यह काम तो सरकार को स्वयं करना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य कि दो महीने बाद भी सरकार का कोई नुमाइंदा मजदूरों का हालचाल पूछने नहीं आया। ऊपर से तुर्रा यह कि हमने 20 लाख करोड़ रुपये का पैकेज दे दिया। राहुल गांधी ने अपने आचरण से सरकार की संवेदनहीनता को तो उजागर किया ही, देश की व्यापक जनता के साथ खड़ा होने का माद्दा भी दिखाया। इसी तरह जब प्रियंका वाड्रा ने मजदूरों को उनके घर पहुंचाने के लिए 1000 बसों का इंतजाम किया, तो उसे योगी सरकार ने खारिज कर दिया। इसे सत्ता का दंभ और उदंडता नहीं तो और क्या कहा जाए।
इस तथ्य से शायद ही कोई इनकार करे कि कोरोना संकट की शुरुआत से ही कांग्रेस पार्टी सरकार से वाजिब सवाल पूछती रही है और अपने सुझाव भी देती रही है। फरवरी के दूसरे सप्ताह में ही राहुल गांधी ने कोरोनावाइरस को लोगों और देश की आर्थव्यवस्था के लिए एक गंभीर खतरा बता दिया था, लेकिन सरकार ने अपने अहंकार में उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन लगता है कि लोगों ने राहुल गांधी को गंभीरत से लेना शुरू कर दिया है और यह कांग्रेस के लिए एक शुभ संकेत है। आज कांग्रेस मीडिल क्लास सिंड्रॉम से निकल कर गरीबों और वंचितों के साथ जुड़ते दिखाई दे रही है। इसका लाभ उसे कितना मिलेगा, या मिलेगा कि नहीं, कहना जल्दीबाजी होगी।