दिनेश-दोहावली
"दशानन"
1 - अवगुण कठिन निशाचरी,पर गुणग्राही ज्ञान।
वेदशास्त्र ज्ञाता बड़ा, जपता शिव का नाम।।
2- तंत्र मंत्र की सिद्धियाँ, विद्याओं का ज्ञान।
महारथी था ज्योतिषी, गूढ़ मर्म संज्ञान।।
3- विशेश्रवा का वंश था,मातु कैकसी लाल।
ऋषि मुनियों के शाप से,जन्म दशानन बाल।।
4- दश ग्रीवा के रूप का,मिला उसे वरदान।
दशों दिशाओं का उसे,दिया शंभु ने ज्ञान।।
5- रक्ष सभ्यता का उसे,करना था विस्तार।
ऋषियों के आदेश को,किया सदा स्वीकार।।
6- ऋषि मुनियों के वंश में,मिला सतत सम्मान।
निज बल पौरुष से किया,अमिय सुधा रसपान।।
7- सारे गुण अवगुण बने,होता जब अभिमान।
काम क्रोध मद लोभ को,देता जब सम्मान।।
8- रावण के पुतले जला,देते ये संदेश।
वृत्ति आसुरी छोड़ दो, ये राघव का देश।।
9- काम क्रोध मद लोभ का,दहन करो तुम आज।
इसी आसुरी वृत्ति से,विफल होत सब काज।।
10- रावण सम दानी नहीं,नहीं जगत विद्वान।
कारण ही उपहास का,दुराचरण अभिमान।।
हमारा संविधान
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प्रथम राष्ट्रपति देश के,राजेंदर था नाम।
किये सदारत फिर हुआ,संविधान का काम।।-१
अधिवक्ता थे राष्ट्र के, ज्ञानी थे विद्वान।
आदर्शों के पुंज थे,पूजित परम महान।।-२
'बाबा साहब'साथ थे,उद्भट थे विद्वान।
दिया आपने राष्ट्र को,रच कर एक विधान।।-३
गुण गाता है आज तक,पूरा जगत जहान।
संविधान को रच दिया,अनुपम कार्य महान।।-४
माह नवम्बर में हुआ,वर्ष रहा उनचास।
षट विंशति तारीख को,पूरा हुआ प्रयास।।-५
सन पचास में जब बना,देश यहाँ गणतंत्र।
पहन लिया इस देश ने,संविधान का यंत्र।।-६
किये आत्म अर्पित इसे,'हम भारत के लोग'।
लिखी गयी 'प्रस्तावना',समरसता का योग।।-७
द्वादश हैं अनुसूचियाँ, बाइस इसके भाग।
अनुच्छेद के साथ ही,शोभित कई प्रभाग।।-८
अधिकारों के साथ ही,मौलिक हैं कर्तव्य।
लक्षण यही विचित्र है,संविधान है भव्य।।-9
संविधान के मूल में,मौलिक हैं अधिकार।
रक्षा करने के लिए,न्याय तंत्र तैयार।।-१०
समता संप्रभुता लिए,लोकतंत्र गणराज्य।
बने अनेको राज्य हैं,फिर भी हैं अविभाज्य।।-११
कुछ तो भारत देश मे, शासित केंद्र प्रदेश।
संघीय शासन है यहाँ, ऐसा अद्भुत देश।।-१२
कार्यपालिका भी यहाँ, व्यवस्थापिका साथ।
न्यायपालिका का रहे, सबके सिर पर हाथ।।-१३
संविधान की भावना,तीनो एक समान।
हैं स्वतंत्र तीनो यहाँ,सबकी अपनी शान।।-१४
संविधान ही धर्म है,गीता और कुरान।
अति पवित्र यह ग्रंथ है,मिले मान सम्मान।।-१५
संसद की गरिमा बचे,झंडे का सम्मान।
हो अखंड इस देश मे,संविधान का मान।।-१६
साम्य न्याय स्वाधीनता,धर्म बने निरपेक्ष।
मानव की गरिमा बढ़े,संविधान सापेक्ष।।-१७
पढ़ना सबको चाहिए,मिले सभी को ज्ञान।
अधिकारों का बोध हो,कर्तव्यों का भान।।-१८
"अर्थतंत्र"
अर्थतंत्र व्याकुल हुआ,अर्थविज्ञ सब दंग।
अभी भरोसा है हमें,लड़ लेंगे हम जंग।।-१
बनें स्वावलंबी यहाँ, यही समय की माँग।
सभी विदेशी वस्तुएँ, दें खूँटी पर टाँग।।-२
करें स्वदेशी जागरण,पुनः करें आयात।
नहीं समझ आता मुझे,ऐसी उल्टी बात।।-३
निज पैरों पर हों खड़े,खुद पर हो विश्वास।
बने नीति इस देश में,जगा सके जो आस।।-४
चलें खेत की ओर हम,मोह शहर का छोड़।
अब तो अपनी सोच की,दशा-दिशा दें मोड़।।-५
कभी 'सीजनल'फल मिले, कभी 'रीजनल'फूल।
होते बड़े मुफ़ीद हैं, इन्हें न जाना भूल।।-६
छिन्न-भिन्न सब देश की,अर्थव्यवस्था तंग।
सभी देश संसार के, हैं हमाम में नंग।।-७
पराधीन हम आज भी, पाये नहीं सुराज।
उत्पादन में आज भी, गैरों के मुहताज।।-८
हरी-भरी धरती यहाँ, एक बड़ा भूभाग।।
पर किसान के पेट में,अभी भूख की आग।।-९
बड़े नियामक लोग हैं, बड़े बड़े विद्वान।
नहीं सफल हैं नीतियाँ, गिरा 'अर्थ'का मान।।-१०
श्रमिक यहाँ श्रमहीन हैं,शिक्षित हैं बेकार।
रोजगार मिलता नहीं,विचलित है सरकार।।-११
"शृंगार/सौंदर्य/प्रणय"
हंसिया सी कटि कामिनी,काट कलेजा खाय।
तीर नयन से मारि कर,उर छलनी कर जाय।।-१
उर सुमेरु पर्वत बना,खग खंजन सा नैन।
मन बसन्त सा हो गया,सुन कोयल सी बैन।।-२
भृकुटी काम कमान सी,करे काम ज्यों तीर।
कमर करधनी देखकर,जगे काम की पीर।।-३
हिरनी जैसी चाल है,कोर कटीले नैन।
मधुर मधुर मुस्कान से,छीने सबका चैन।।-४
हाथों में वरमाल था,मुख पर थी मुस्कान।
मन में शहनाई बजी, दिल ने छेड़ी तान।।-५
बाबुल का घर छोड़कर, आई साजन द्वार।
अरमानों की सेज पर,बाहों का ले हार।।-६
धीरे धीरे आ गई, मधुर मिलन की रात।
रोम-रोम सिहरन उठी,सोच छुवन की बात।।-७
नयन उनीदी सी लगे, बोझिल बीती रैन।
अलसाई सी चाल है,शर्मीले से बैन।।-८
आकर जैसे ही लगा,उस अनंग का तीर।
पुष्पवाण ने हर लिया,चिर विरहन की पीर।।-९
कमर करधनी बज उठी,मुखर हुई मंजीर।
प्रणय साधना को दिया,कोलाहल ने चीर।।-१०
प्रथम मिलन की रात में,ऐसा मीठा घाव।
जीवन भर मिटता नहीं,उसका अमिट प्रभाव।।-११
मीठे-मीठे घाव से,जब सखि हुई अधीर।
समझ लिया तब देखकर,सखि ने सखि की पीर।।-१२
सखियाँ जब पूछन लगी,प्रथम मिलन की बात।
बिना बताए बात ही,समझ आ गई बात।।-१३
सखियाँ भी हँसने लगीं,सुनकर सखि की बात।
प्रथम प्रणय की भी नहीं,मिली उसे सौगात।।-१४
दिनेश श्रीवास्तव