पतझड़ से सूनेपन का अहसास
हमेशा से जून का महीना लाता रहा है आसमान से आग बरसाते हुए दिन व तपती हुई रातों की सौगात; 5 जून 2013 की ऐसी ही तपती हुई रात थी । बिहार यात्रा से वापसी के क्रम में उस रात पटना में, अपने जिस नजदीकी रिश्तेदार के घर पर ठहरा था, वह चौथी मंजिल पर था। पंखे और कूलर से भी किसी तरह की राहत नहीं मिल रही थी। ऐसे में बालकोनी में चहलकदमी करते हुए ख्याल आया कि मित्र त्रिभूवन देव से बात कर दिल्ली की गर्मी के बारे में जाना जाए । क्योंकि अनुभव यही था कि दिल्ली में पटना से कुछ ज्यादा ही गर्मी रहती है, हालचाल जानने की इस कोशिश के क्रम में यह दु:खद सूचना मिली कि राजीव रंजन नहीं रहे। अगले दिन सुबह का कार्यक्रम मनोज बच्चन, वीरेन्द्र सिंह और किशोर केशव जैसे मित्रों के साथ अपने गुरू श्याम शर्मा जी के घर जाकर उनसे मिलने का था। बहरहाल हम मिले लेकिन इस अप्रत्याशित सूचना ने हम सबको बोझिल किए रखा। वहीं बैठकर मित्रो ने एक श्रद्धांजलि सभा का निर्णय लिया, लेकिन उसमें अपनी उपस्थिति नहीं रह पायी क्योंकि उसी शाम हमें अपने इस शहर को छोड़ना था। वैसे तो मौत एक ऐसा कटु सत्य है जिससे बचने का कोई उपाय आज तक नहीं निकल पाया है। लेकिन किसी ऊर्जावान युवा का इस तरह चला जाना, जितना उनके परिवार को झकझोरता है उतना ही उस पूरे कलाकार समुदाय को; जिसके लिए यह किसी कलाकार द्वारा सृजन की असीम संभावनाओं का अंत सा होता है। हालांकि देखा जाए तो इस कलाकार के पास उपलब्धि के नाम पर ऐसी कोई विशेष बात दर्ज नहीं थी, जिसे हम किसी कलाकार की प्रतिभा का पैमाना मान लेते हैं। मसलन राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार, विदेश यात्रायें व छात्रवृति वगैरह वगैरह..।
फिर भी राजीव रंजन का नहीं रहना हमारी पीढ़ी के बिहारी कलाकारों के लिए अगर बड़ा झटका या कहें कि सबसे बड़ा झटका अब भी माना जाता है तो उसकी कई वजहें थीं। वैसे इसे ठीक से जानने- समझने के लिए नब्बे के दशक के पटना और उस दौर के कला परिदृश्य में लौटना होगा। लंबे समय तक चले छात्र आंदोलन के बाद पटना कला महाविद्यालय में वर्ष 1980 से दुबारा पढाई के सिलसिले की शुरूआत हुई थी। पहले से चल रहे डिप्लोमा कोर्स के बाद अब डिग्री यानी बीएफए की डिग्री का रास्ता खुला था। तब हालात यह थे कि 1985 में जब हम पहली बार त्रैवार्षिकी और कला मेला जैसे किसी बड़े कला आयोजन का अनुभव लेने दिल्ली आए थे, तब देश के अन्य हिस्सों से आए कलाकारों को यह समझाना मुश्किल सा होता था कि पटना में भी कोई कला महाविद्यालय है। क्योंकि जिसे हम समकालीन कला की दुनिया कहते हैं उसका कोई भी रास्ता तब पटना तक नहीं पहुंचता था। अलबत्ता एक पतली सी पगडंडी नुमा रास्ता जरूर बनाया था हमारे गुरूजनों ने और वरिष्ठों ने। और तब यह कर पाना इतना मुश्किल था कि इसे असंभव की श्रेणी में ही रखा जा सकता है। कारण जो भी रहा हो लेकिन उस दौर में समझा यही जाता था कि कला महाविद्यालय की पढाई का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ कला शिक्षक या कुछ अन्य तरह की नौकरी हासिल करने भर का होना चाहिए। जबकि ऐसा नहीं था कि पहले के छात्रों में प्रतिभा की कोई कमी सी थी, लेकिन इतना जरूर था कि उस कलादृष्टि का किंचित अभाव था जिसका होना किसी सृजनशील कलाकार की पहली जरूरत होती है। अब जैसा कि बताया जा चुका है कि नब्बे का यह दशक वह दौर था जब हम जैसे छात्र अपने प्राध्यापकों और पूर्ववर्ती छात्रों के बताए रास्तों पर चलकर समकालीन कला की दुनिया को जानने-समझने की जद्दोजहद से गुजर रहे थे। ऐसे में ही नए छात्रों का एक बैच आता है संभवत: उसी 1985 में जिसमें शामिल रहते हैं राजीव रंजन भी अपने अन्य सहपाठियों के साथ।
देखते देखते राजीव रंजन, त्रिभूवन देव और उमेश कुमार की एक तिकड़ी उभरती है। यह वही दौर था जब पटना में युवा व छात्र कलाकारों के अलग-अलग समूह अपने- अपने स्तर से कला गतिविधियों को गति देने लगते हैं। इस स्थिति में राजीव रंजन जैसे युवा की उपस्थिति कुछ विशेष मायने रखती थी। जिसका एक बड़ा कारण जहां उसकी स्थानीय संभ्रांत और संपन्न परिवार वाली पृष्ठभूमि थी, वहीं उससे कहीं बड़ी भूमिका उसके खास जज्बे की थी। वो खास जज्बा जिसमें शामिल था किसी भी स्थिति में किसी भी समय और कहीं भी हर किसी के लिए खड़े रहने की इच्छाशक्ति और माद्दा। हमारी पीढ़ी के कई मित्रों की स्मृतियों में ऐसी कई घटनाएं दर्ज हैं जहां राजीव की भूमिका यादगार सी रही। और इसी क्रम में आया 1990 के आसपास और उसके बाद का दौर जब एक-एक कर हममें से अधिकांश ने पटना शहर को बाय-बाय कर अपना नया ठिकाना दिल्ली को बनाया। इन दिल्ली आने वालों में राजीव और उसकी मित्र-मंडली भी थी। यह वह दौर था जब हम में से सबके सब अपनी-अपनी तरह से अपने-अपने संघर्षों में जुटे थे। तब पहली प्राथमिकता थी अपने रहने का ठिकाना तलाशना, ऐसे में इस महानगर के अलग अलग हिस्सों में हम बिखरते चले गए। लेकिन तब भी राजीव और त्रिभुवन जैसे उत्साही युवा महानगर के एक कोने से दूसरे कोने का सफर अक्सर इसलिए तय करते रहे ताकि बिखरे हुए हम जैसों के बीच आपसी संवाद व समन्वय बना रहे । क्योंकि तब दुनिया मेरी मुठ्ठी में वाला मोबाइल का दौर तो नहीं ही आया था और लैंडलाइन मिलना आसान नहीं था। राजीव के प्रयोगधर्मिता की बात करें तो बड़े आकार के कैनवस को अपनाने से लेकर संस्थापन यानी इंस्टालेशन जैसे माध्यम की चुनौती को स्वीकारने में भी आगे रहना उसका सहज स्वभाव था। कतिपय इन्हीं कारणों से हमारी पीढ़ी को उसका जल्दी चला जाना कुछ ज्यादा ही टीस देता है। आज पुण्यतिथि पर नमन व श्रद्धांजलि उत्साह व जज्बे से लबरेज उस नायाब इंसान व कलाकार को, जिसका न होना, आज भी हम सबकी यादों में पतझड़ सा सूनापन ला देता है।
संलग्न सभी फोटो : त्रिभुवन देव के सौजन्य से