■■■■ संस्मरण 🌺 © श्याम बिहारी श्यामल ■■■■
■■ वे दिन जो कभी ढले नहीं- 39 ■■
■■ प्रसाद-निराला : एक आत्मसंघर्ष ■■
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मैंने महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'को नहीं देखा! देख पाता तो कैसे, मेरे जन्म के पहले ही उनका महाप्रयाण हो चुका था! इसके बाद भी अगर रह-रह हूक उठे कि मैं निराला को क्यों नहीं देख सका तो ऐसी ज़िद-जबरदस्ती का क्या मतलब! यह सब ठीक से समझने-बूझने के बाद भी मन है कि एक बार टीस जाता है और फ़िर-फ़िर कभी भी यह जागता-जगाता रहता है!
क्या यह जानकी वल्लभ जी से परावर्तित कोई प्रभावान्विति है जो कभी नहीं निकलने के लिए अवचेतन में जा चुभी और टभकती रहती है? उनसे निकली कोई भी प्रेरणा-प्रभाव-किरण भला टीस क्यों बन सकती है क्योंकि उन्हें तो महाप्राण का स्नेह रामकृष्ण जी (निराला जी के पुत्र) से कहीं कम मिला नहीं दिखता!
तब क्या परबत का सौभाग्य देख यह उससे एक राई की बेऔक़ात होड़ या असंगत ईर्ष्या का दिलफेंक उदाहरण है?
अब जो है सो है!
सूरज-चांद छू लेने की इच्छाएं, अवश्य ही पंख से पहले निकल आती होंगी!
1994-95 में धनबाद रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर तीन पर रेलवे के इंटरनल ब्रिज की सीढ़ियों से उतरते हुए 'धपेल'
(उपन्यास : 1998 : राजकमल प्रकाशन) की योजना अचानक बनी थी. साथ में अभिन्न मित्र अनवर शमीम. पलामू का 1993 का अकाल बीत चुका था. बात उस पर, उसी समय पलामू से लौट कर लिखी (और 'रविवारीय आवाज़'में बतौर कवर स्टोरी छपी) मेरी ग्राउंड रिपोर्ट 'मानचित्र पर मचा पलामू'पर चल रही थी. इसमें अकाल क्षेत्र के दयनीय हालात के विवरण थे. भूख से मौतों और उन पर लीपापोती के कुछ मामलों का ज़मीनी डिटेल भी!
इसी क्रम में पता नहीं कैसे-किस बात से जुड़ कर डालटनगंज के निवासी धपेल बाबा का ज़िक्र मेरे मुंह से बाहर आ गया, जो उसी अकाल क्षेत्र में ऐसे कैरेक्टर थे जिसकी योग्यता, उपयोगिता और पहचान ही यही कि वह भोजन असाधारण मात्रा में करते हैं! श्राद्ध के अवसर पर वह अवश्य बुलाए जाते और अधिक से अधिक इस 'विश्वास'के साथ खिलाए जाते कि दिवंगत व्यक्ति की आत्मा को स्वर्ग में अधिकाधिक उपलब्धता-संपन्नता संभव हो सके!
राय साहब की मैगज़ीन शॉप तक पहुंचते-पहुंचते अनवर शमीम ने संवेदन-आवेग में आकर अचानक निश्चयतम दृढ़ता के साथ बोलना शुरू कर दिया, " ...क्या विडंबना है! भूख-अकाल की धरती और वहां धपेल! ..यार! यह तो कंप्लीट उपन्यास का प्लॉट है ...तुम्हारे पास पूरा ग्राउंड डिटेल है, जाकर अकाल की विभीषिका देखकर ही नहीं एक रचनाकार-मन से सब निकट महसूस कर आए हो, छपी रिपोर्ट पढ़कर आंखें भर जा रहीं! ...उसी ज़मीन पर पहले ग्रामीण पत्रकारिता किए हो, तुम से अधिक पलामू के चप्पे-चप्पे को कौन जानता है! ...देर मत करो इसे नोवेल में ढालो !..."
अब यह कहानी थोड़ी इतर हो जाएगी कि कैसे बिना देर किए मैंने उपन्यास-लेखन शुरू किया तो पूरी दिनचर्या ही दिन-रात एक तनी रस्सी पर चहलकदमी में तब्दील हो गई! साप्ताहिक कॉलम 'अपना मोर्चा'भी अबाध और अख़बार में हर हफ़्ते उपन्यास 'धपेल'की नई क़िस्त भी, साथ में अख़बार की नौकरी में रोज़ का पहाड़ जैसा दायित्व!
अकेले रहना, घर से निकल दूर जाकर भीम दा के होटल में खाना!
उपन्यास शुरू होते अन्न-दर्शन 24 घंटे में दो से एक बार होते देर न लगी. कागज़ पर क़लम की ज़ारी दौड़ को जानबूझकर बाधित करके अब भोजन करने उतनी दूर कौन जाए! 24 अब अक्सर 36 घंटे भी तब्दील!
बहरहाल, उसी दौरान जब कुछ किस्तों पर दोस्त अनवर शमीम ही नहीं, अग्रज रचनाकार मधुकर सिंह जैसे लोगों की भी अत्यंत सकारात्मक प्रतिक्रियाएं आईं तो आत्मविश्वास बढ़ा कि इस धज्जी-धज्जी दिनचर्या में कुछ बड़ा काम भी कर सकता हूं.
अस्त-व्यस्तता और भूख-प्यास पर हावी होते उत्साह के उन्हीं क्षणों में मन ने ललकारा, एक उपन्यास महाप्राण (निराला) पर लिखो!
अफ़सोस यह कि बाद में इस विचार को मन के भीतर ही भीषण पराजय का मुंह देखना पड़ा. कारण, इस क्रम में जुटाई सामग्री में 'निराला की साहित्य साधना'भी थी. जीवनी वाला खंड पढ़कर हृदय-मन तृप्त तो हो गए लेकिन इच्छा (निराला पर उपन्यास-लेखन) को मटियामेट कर! किस्सागोई का तिलिस्म और भाषा के रस-रंग कोई घोल ले, आजकल जैसे बैठे-बिठाए कुछ भी गढ़ लिया जा रहा और दनादन छपा कर पतंग को ऊपर उठा लेना मुश्किल नहीं रहा, वैसे कोई चाहे तो 'खेल'कर भी ले लेकिन रामविलास जी के संवेदना के स्तर को छू भी पाना आसान कहां!
लेकिन, 'कंथा' ( महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर केंद्रित मेरा आगामी उपन्यास, जो 'नवनीत'में धारावाहिक छप चुका और अब पुस्तकाकार शीघ्र प्रकाश्य है) को कृपया प्रसाद में निराला की भरपाई भी न माना जाए! महाप्राण इसमें अपने पूरेपन में चित्रित हैं और जहां भी प्रसंगवश प्रकटे हैं, ऐसी अमित आभा बिखेरी है कि पहले से अंतिम पन्ने तक का समूचा विस्तार चमक बिछ-बिछ-सी गई है!
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अब संस्मरण का अस्सी के दशक का परिदृश्य :
दुनिया जहां जानकी वल्लभ शास्त्री के गीतों की दीवानी है, वहीं शुरू से मुझे उनका गद्य गहरे आकर्षित करता रहा. एक-एक वाक्य खास ; सुनारी कला- दक्षता की कढ़ाई-कथा बयान करता हुआ. महाकवि प्रसाद विषयक उनके प्रसिद्ध संस्मरण ‘प्रसाद की याद’ का यह अंश देखिये- ‘‘...जहां धरती और आकाश मिलते हैं उसे क्षितिज कहा जाता है ; जहां काव्य और दर्शन मिलें, उस बिन्दु को ‘प्रसाद’ कहा जाना चाहिए? यों धरती और आकाश कहीं नहीं मिलते ; काव्य की नीलिमा और दर्शन की पीतिमा ने नीर-क्षीर की तरह घुल-मिलकर प्रसाद की हरियाली उपजा ली थी! किंतु काव्य और दर्शन परस्पर विरोधी कहां हैं ? क्या प्रसाद का कवि मूलतः भोगी था, जिसे योगी बनाते-बनाते वह टूट गये ? क्या प्रसाद का मन विशुद्ध सौन्दर्योपासक था, जिसे कल्याणी करुणा और समरसता न पची और वह बिखर गया? प्रसाद के गन्धर्व-सुन्दर तन को शिव का मृत्युंजय मन रास नहीं आया ?...’’ इसी में आगे की एक यह भाषा-बानगी- ‘‘...विश्वप्रकृति की लीला अद्भुत है. कौन कह सकता है कि मिट्टी की परतों के नीचे दबे हुए एक छोटे से छोटे बीज की भी वह किस तत्परता से रक्षा करती है ; कैसे उसे अंकुरित होने, बिरवे के रूप में नरम धरती में जड़ें मजबूत करने का अवसर देती है. फूल वसंत की प्रतीक्षा करते थकता कहां है ?
...आखिर 10.09.35 को वह अवसर भी आया. स्वयं निराला जी मुझे प्रसाद जी से मिलाने ले आये. अस्सी पर वाजपेयी जी के यहां ठहरे हुए थे, मेरे साथ पहले पं. विनोदशंकर व्यास के घर पहुंचे मंदिर-मस्जिद दिखलाते हुए, मतगयन्द गति से सरायगोवर्द्धन-प्रसाद जी के पास ले आये. व्यास जी तब तक वहां पहुंच चुके थे. ...डेढ़ टके लिबास में मैं बड़े-बड़ों के बीच धंसा पड़ता था, थान का टर्रा होना मुझे भाता न था, विवशता थी. प्रसाद जी को हर बार राजसी ठाट में ही टकटक देखा था, ओंठ तक न हिला रहा था कि इस अनदेखी झांकी ने मेरी हीनता हर ली. आज उन्हें देखकर शंकर के संबंध में कालिदास की उक्ति स्मृति में कौंध गयी: ‘न विश्क्मूर्तेरवधार्यते वपूः’! इस घड़ी वह एक गाढ़े की लुंगी और उसी कपड़े की एक आधी बांह की गंजी जिससे रुद्राक्ष झांकता हुआ-सा और काठ की चट्टी पहने हुए गुलाब, सोनजुही, बेला, रजनीगंधा और मुकुलित मालती के कुंज में सिंचाईं के झरने के साथ विचर रहे थे. अप्रत्याशित रूप में निराला को उपस्थित देख स-संभ्रम बारादरी में आ गये. जैसे कपास के गोले को हवा के झीने झकोरे ने गंध की उंगलियों से भरपूर छू दिया हो ; जैसे हरी-हरी पत्तियों के झूमर से किसी फूल के दिये की लौ झिलमिला उठी हो, मेरे अंतर के रोएं-रोएं पुलकित हो रहे थे. कल निराला, आज प्रसाद, यह उन्मत्त आह्लाद कहां अंटता! ’’
यह तो है प्रथम प्रसाद-दर्शन का वर्णन, अब उनसे अंतिम भेंट का यह मार्मिक चित्र देखिये- ‘‘...‘कामायनी’ पूरे अर्थ में प्रकाशित हो चुकी थी. प्रसाद जी ने अपनी प्रतिभा का चरम ऐश्वर्य आधुनिक हिन्दी कविता को अर्पित कर दिया था ; किंतु यह अमर सर्वस्व-दान उनके भौतिक जीवन को बहुत महंगा पड़ा. मन में कैलास बसाकर तन कितने दिन धूल की मलीनता सहता! ...नियन्ता की कठोर कृपा से उनके अंतिम दर्शन भी होने थे. मैं शास्त्राचार्य्य के शेष वर्ष और इंटरमीडिएट की परीक्षाएं देने रायगढ़ से हिन्दू विश्वविद्यालय लौट आया था. बंधुवर कुंवर चंद्रप्रकाश सिंह के साथ प्रसाद जी को देखने की ठहरी. हम गये. रत्नशंकर जी चिकित्सकों की सम्मति का संकेत दे ही रहे थे कि प्रसाद जी ने देख लिया और अपने पास बुलाकर पहले की भांति साहित्यिक चर्चा छेड़ दी. ...सोना पीतल हो चुका था. गुलाब की अपत कंठीली डार ही बच रही थी. वह खाट से लग गये थे. किंतु कोई विश्वास करे न करे, आंखें तब भी चमकीली थीं और चेहरे पर पहले जैसी ही दृढ़ता थी. ’’
■ ज़ारी ■