देशबंधु: चौथा खंभा बनने से इंकार-2
। 1954 से 1961 के मध्य पिपरिया से जबलपुर, जबलपुर से नागपुर, नागपुर से ग्वालियर, ग्वालियर से फिर जबलपुर और इस बीच भोपाल के अनेक अल्प प्रवास- कुछ इस तरह मेरा समय बीता। ग्वालियर में मकान मालिक रामचंद्र मोरेश्वर करकरे, हाई कोर्ट के बड़े वकील और कांग्रेस के जाने-माने नेता थे। उनकी प्रतिस्पर्धा में नारायण कृष्ण शेजवलकर का नाम लिया जाता था, जो आरएसएस के नेता थे, आगे चलकर संसद सदस्य बने। उनके बेटे विवेक शेजवलकर अभी ग्वालियर के मेयर हैं।
ग्वालियर के 3 साल के दौरान मैंने न तो सिंधिया महाराजा को देखा न महारानी को; लेकिन महल विरोधी कांग्रेस नेता पंचम सिंह पहाड़गढ़ को अवश्य देखा, जिनके बेटे हरिसिंह हम तरुणों के आदर्श हुआ करते थे। ग्वालियर में ही सुप्रसिद्ध वामपंथी कवि मुकुट बिहारी सरोज का स्नेह आशीर्वाद मुझे मिला। वह फूफा जी के मित्र थे और अक्सर घर आते थे। निकटवर्ती अटेर क्षेत्र के विधायक रामकृष्ण दीक्षित का निवास भी उसी मोहल्ले में था, जिनके बेटे डॉक्टर कृष्ण कमल दीक्षित से आज 60 साल बाद भी दोस्ती कायम है। इस दौरान साम्यवादी ट्रेड यूनियन नेता रामचंद्र सर्वटे व उनके साथ-साथ मोहन अंबर तथा प्रगतिशील धारा के अन्य कवियों से भी परिचय हुआ। जबलपुर के श्याम सुंदर मिश्र उन्हीं दिनों मेरे स्कूल में अध्यापक होकर आए थे, वह आगे चलकर मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के पुनर्गठित राज्य अध्याय के महासचिव चुने गए थे।
बाबूजी भोपाल में थे। नागपुर या ग्वालियर से मेरा भोपाल आना जाना होता था। भोपाल में राज्य प्रजामंडल के तपे हुए नेता, स्वाधीनता सेनानी भाई रतन कुमार और प्रेम श्रीवास्तव बाबूजी के संपादन सहयोगी थे। शाकिर अली खान, चतुर नारायण मालवीय, बालकृष्ण गुप्ता, अक्षय कुमार जैन, मथुरा प्रसाद श्रीवास्तव यानी मथुरा बाबू, मोहिनी देवी यह सब प्रजामंडल के जुझारू नेता थे। इन्होंने ही भोपाल रियासत के विलीनकरण का आंदोलन चलाया था। इन सबके साथ बाबूजी के गहरे संबंध थे।
भोपाल में उन दिनों जनसंघ का तो अता-पता नहीं था, किंतु उद्धवदास मेहता हिंदू महासभा के बड़े नेता थे। पुराने शहर की संरचना में चौक का महत्वपूर्ण स्थान था। बीच में मस्जिद, उसी इमारत में चारों ओर अधिकतर हिंदू व्यापारियों की दुकानें; पास की गली में डॉ. शंकरदयाल शर्मा का पुश्तैनी मकान, मस्जिद के दूसरी ओर गली में श्रीनाथजी का मंदिर- कुल मिलाकर सांप्रदायिक सद्भाव और साझा संस्कृति का मुकाम। इसी शहर के राजधानी बनते साथ एक साल के भीतर सांप्रदायिक दंगे होना अपने आप में हैरतअंगेज था। भोपाल में नई राजधानी की बसाहट शुरू हुई थी। मंत्रियों को भी जहां जैसी जगह मिले, रहते थे। मुझे आते जाते देखे हुए दो-तीन बंगलों की याद है। जहांगीराबाद में छतरपुर के दशरथ जैन और सिवनी की विमला वर्मा के आवास थे। जबलपुर के जगमोहनदास चार बंगला नामक स्थान पर एक बंगले में रहते थे। उनके घर एकाध बार जाने का अवसर मिला। मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू लालघाटी स्थित आईना बंगले में रहते थे।
इस कालखंड का मेरा जो अति स्मरणीय प्रसंग है वह पंडित नेहरू को निकट से देखने का है। नए राज्य में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का नए सिरे से गठन हुआ। शिक्षा मंत्री डॉ. शंकर दयाल शर्मा आयोजन समिति के अध्यक्ष बनाए गए और मायाराम सुरजन स्वागत मंत्री। यह 1958 की बात है। विधानसभा अध्यक्ष पंडित कुंजीलाल दुबे ने उद्घाटन कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी और उद्घाटन के लिए स्वयं नेहरू जी पधारे थे। एक बार फिर बाबूजी ने बाई और मेरे लिए कार्यक्रम में पहुंचने की व्यवस्था की। 4 साल की नन्हीं बहन ममता भी साथ में थी। कार्यक्रम समाप्त हुआ। नेहरू जी मंच से उतरे। ममता को न जाने क्या सूझी कि बाई की गोद से उतर नेहरू जी के सामने जा खड़ी हो गईं। उन्होंने देखा और आवाज दी- देखो भाई किस की बच्ची है, गिर ना जाए। इस तरह हम भाई-बहनों में एक ममता को ही नेहरू जी का सीधा आशीर्वाद मिल पाया।
अखबार अथवा प्रेस और सत्तातंत्र के जटिल संबंधों को समझने की मेरी शुरुआत 1961 में हुई, जब मैं हायर सेकंडरी की परीक्षा देकर ग्वालियर से लौटा और जबलपुर में कॉलेज के प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने के साथ-साथ बाबूजी के संचालन-संपादन में प्रकाशित नई दुनिया, जबलपुर (बाद में नवीन दुनिया) में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार काम सीखना प्रारंभ किया। यह किस्सा आगे बढ़े उसके पहले मैं चाहूंगा कि आप निम्नलिखित पैराग्राफ पढ़ लें-
''प्रछन्न कम्युनिस्ट समाचार पत्र के प्रछन्न कम्युनिस्ट संपादक के प्रछन्न कम्युनिस्ट पुत्र जबलपुर विश्वविद्यालय के प्रछन्न कम्युनिस्ट व्याख्याता की प्रछन्न कम्युनिस्ट पत्नी के पास अंग्रेजी पढ़ने जाते हैं।''
आश्चर्य मत कीजिए कि लगभग इन्हीं शब्दों में यह पैराग्राफ जबलपुर के दैनिक "युगधर्म"के अग्रलेख अथवा संपादकीय के रूप में प्रकाशित हुआ था। यह 1962 की बात है। जनसंघ के तत्कालीन बड़े नेता अटलबिहारी वाजपेयी के निकट संबंधी जनसंघी पत्रकार भगवतीधर बाजपेयी इस अखबार के संपादक थे। यह लेख उनकी अपनी कलम से लिखा गया या उनके निर्देश पर किसी अन्य ने लिखा यह बताना संभव नहीं है; लेकिन इसमें जो चार पात्र है उनमें एक बाबूजी हैं, दूसरा मैं हूं, तीसरे प्रोफेसर बैजनाथ शर्मा हैं और चौथी उनकी पत्नी अंग्रेजी की विदुषी श्रीमती सरला शर्मा हैं। प्रो. शर्मा हमारे गांव के थे। 1961 में विश्वविद्यालय में व्याख्याता बनकर आए तो शुरुआत में हमारे घर पर ही ठहरे थे। गांव के रिश्ते से मैं आज भी उन्हें चाचा कहता हूं। मैं द्वितीय वर्ष का विद्यार्थी, 17 वर्ष का तरुण, अंग्रेजी पाठ्यक्रम में मार्गदर्शन लेने चाची के पास जाता था तो इसमें संपादकीय लिखने की बात किस हिसाब से उठती थी? लेकिन जब अखबार का उद्देश्य लोक शिक्षण न होकर संकीर्ण मतवाद का प्रसार करना हो, समाज में वैमनस्य व कटुता उत्पन्न करना हो, राजनीति की दिशा संविधान से दूर मोड़ देना हो, तो ऐसे एक नहीं, हजार प्रयत्न हो सकते हैं। जिस तरह से हमारे चरित्र हनन की कोशिश की गई, वैसा न जाने कितने लोगों के साथ कब-कब हुआ होगा!! वर्तमान परिदृश्य को देखकर कह सकता हूं कि शायद यही तो ट्रोल आर्मी का प्रारंभिक स्वरूप या प्रोटोटाइप था।
लेकिन मैं अपना किस्सा सुनाने क्यों बैठ गया, क्योंकि 1961 की फरवरी में युगधर्म ने जो किया था, वह तो जबलपुर को सांप्रदायिकता की भट्टी में झोंक देने का काम था। उस साल फरवरी में जबलपुर में आजादी के बाद देश का सबसे बड़ा हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ था, जिसमें सैकड़ों लोगों की जानें चली गई थीं। जबलपुर के पास एक गांव में एक झोपड़ी में 13 मुसलमान आग लगाकर मार डाले गए थे। सेना बुलाने की नौबत आ गई थी। कर्फ्यू तो लग ही गया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस तांडव को राष्ट्रीय शर्म निरूपित किया था और इसकी पहली चिंगारी भड़काने का काम युगधर्म के उस अत्यंत आपत्तिजनक, मर्यादाहीन और असंतुलित शीर्षक ने किया था जो उन्होंने अखबार के मास्टहेड (पत्र का नाम) के ऊपर छापा था। भावनाएं भड़कने में देर न लगी थी।
1962 के आम चुनाव की तैयारियां कुछ ही हफ्तों में शुरू होने वाली थी। उसके पहले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर चुनाव में फायदा उठाने की यह सोची-समझी साजिश थी। उस समय जबलपुर से कांग्रेस विचारधारा का अखबार "नवभारत"भी निकलता था, लेकिन वह लंबे समय से ढुलमुल नीति पर ही चल रहा था। बाबूजी के संपादन में "नई दुनिया जबलपुर"ने न सिर्फ नैतिकता और जिम्मेदारी का परिचय दिया, बल्कि शांति स्थापना के लिए भी दिन-रात मेहनत की। पंडित नेहरू ने श्रीमती सुभद्रा जोशी और बेगम अनीस किदवई की 2 सदस्यीय अध्ययन टीम जबलपुर भेजी तो उन्होंने और उनके अलावा देश-विदेश से आए पत्रकारों, राजनीतिज्ञों व अन्य नेताओं ने भी इस सकारात्मक भूमिका का संज्ञान लिया।
प्रसंगवश 1962 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से भारतीय जनसंघ ने अटल बिहारी वाजपेयी को खड़ा किया तो उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी सुभद्रा जोशी ने करारी शिकस्त दी। बाजपेयी जी चुनावी सभाओं में सुभद्राजी पर विवाहिता होकर मांग न भरने जैसी हल्की टीका करते थे, तो सुभद्राजी का जवाब होता था- लक्ष्मण ने तो भाभी सीता के चरणों के ऊपर नहीं देखा था। देवर समान वाजपेयी मेरी मांग का सिंदूर देख रहे हैं। इन दोनों प्रसंगों से आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरा प्रशिक्षण किन परिस्थितियों में प्रारंभ हुआ।
#देशबन्धु में 18 जून 2020 को प्रकाशित