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चीन पर लगाम जरूरी हैं / ऋषभदेव शर्मा

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विस्तारवाद पर नकेल ज़रूरी

चीन को इस खबर से ज़ोर का झटका लगा होगा कि अमेरिकी सीनेट ने हांगकांग की संप्रभुता की रक्षा के लिए सर्वसम्मति से एक विधेयक पास किया है। कहना न होगा कि चीन द्वारा  पूर्व ब्रिटिश कॉलोनी हांगकांग पर अवांछित नियंत्रण थोपने तथा प्रदर्शनकारियों पर अत्याचार करने से पैदा हुए तनाव के तोड़ के लिए ही अमेरिका यह विधेयक लाया है। उल्लेखनीय है कि कुछ दिन पूर्व संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग भी चीन को हांगकांग में चीन विरोधी प्रदर्शनकारियों के शोषण और उत्पीड़न के साथ ही हांगकांग की आज़ादी के दमन का दोषी मान चुका है।

जगजाहिर है कि चीन को भले ही संयुक्त राष्ट्र में वीटो अधिकार प्राप्त हो, लेकिन उसका मानव अधिकार का रिकार्ड बेहद खराब रहा है। कोरोना विषाणु के प्रसार में चीन की संदिग्ध भूमिका के कारण दुनिया भर के मुल्क उस पर खार खाए बैठे हैं। उसे पाठ पढ़ाने के लिए उसकी जिन कमज़ोर रगों को ये मुल्क पकड़ने के मूड में हैं, हांगकांग में चीन की दमनकारी भूमिका उनमें से एक है और अमेरिका यह विधेयक इसी उद्देश्य से लाया है।

गौरतलब है कि हांगकांग ब्रिटिश शासन से 1997 में 'एक देश, दो व्यवस्था'के तहत 50 साल के लिए चीन के अधिकार में आया, लेकिन  उसे खुद के भी कुछ अधिकार मिले हैं। इसमें अलग न्यायपालिका और नागरिकों के लिए आजादी के अधिकार शामिल हैं। परंतु चीन इन अधिकारों का सम्मान नहीं करता। यही वजह है कि इन दिनों वह संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग के भी निशाने पर है।

सयाने बताते हैं कि आयोग ने इस विषय पर अपने आधिकारिक बयान में कहा है कि संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र विशेषज्ञों ने चीन से लगातार संपर्क किया है और वहाँ नागरिकों की मूलभूत आजादी को दबाए जाने को लेकर चिंता व्यक्त की है। आयोग ने साफ साफ आरोप लगाया है कि हांगकांग  में होने वाले चीन विरोधी  प्रदर्शनों और लोकतंत्र की वकालत करने वालों को दबाया जाता है। याद रहे कि इस मुद्दे पर  संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी अमेरिका और ब्रिटेन की अपील पर अनौपचारिक चर्चा हो चुकी है। लेकिन चीन के रवैये पर इन बातों का कोई असर होता दीखता नहीं। उलटे, वह हांगकांग के दमन के लिए पिछले दिनों 'राष्ट्रीय सुरक्षा कानून'भी ले आया है।

आम तौर से यह माना जाता है कि लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित करने के लिए सरकारों को कम से कम बल का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन मानव अधिकार आयोग के बयान में यह खुलासा किया गया है कि चीन ने अपनी पुलिस को 'अत्यधिक बल प्रयोग'  की इजाजत दे रखी है।  यही नहीं, हांगकांग के प्रदर्शनकारियों पर पुलिस  को 'केमिकल एजेंट्स'तक इस्तेमाल करने की छूट हासिल है। पुलिस स्टेशनों में खुद पुलिस द्वारा महिला प्रदर्शनकारियों के यौन शोषण की घटनाएँ कई बार मीडिया की सुर्खियाँ बन चुकी हैं। लेकिन मजाल कि चीन सरकार के कान पर जूँ भी रेंगी हो! हर बार वह हांगकांग को अपना आंतरिक मामला बताकर बच निकलती है। राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत चीन ने हांगकांग के वित्त से लेकर आव्रजन तक सभी सरकारी विभागों पर सीधा अधिकार जमा लिया है। इसका विरोध स्वाभाविक है। लेकिन विरोध की हर आवाज़ को चीन क्रूरता से कुचल रहा है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि गुस्साए अमेरिका को चीन की मनमानी पर अंकुश लगाने की अपनी कोशिशों पर अंतरराष्ट्र्रीय बिरादरी का समर्थन मिलेगा।  इन कोशिशों में एक कदम यह भी है कि चीन पर हांगकांग में मानव अधिकारों और मूल स्वतंत्रता को अहमियत न देने का आरोप लगाते हुए  अमेरिका ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के उन अधिकारियों को वीजा न देने का फैसला लिया है, जो हांगकांग की स्वायत्तता और मानवाधिकारों को खत्म करने के लिए जिम्मेदार हैं।

देखना होगा कि बौखलाया हुआ चीन इन गतिविधियों पर किस प्रकार प्रतिक्रिया करता है। भारत को भी इस समय अपने कूटनीतिक कौशल का परिचय देना होगा, ताकि चीन के विस्तारवादी मनसूबों पर नकेल कसी जा सके। 000
[7/4, 10:27] Rs ऋषभ देव शर्मा: 04072020///संपादकीय///
नेपाल के प्रधानमंत्री की चीन-भक्ति

पड़ोसी देश नेपाल की आंतरिक राजनीति इन दिनों काफी अस्थिर चल रही है। अपनी पुरानी आदत के चलते वहाँ के प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली यदि इसका ठीकरा भारत के सिर फोड़ रहे हैं, तो इसमें अचरज  कैसा? वे तो अपने पिछले कार्यकाल से ही भारत से खार खाए बैठे हैं। वह भी इस हद तक कि अपने देश के हित को दाँव पर लगा कर भी चीन की गोद में चढ़े बैठे हैं। स्वयं सत्तारूढ़ पार्टी उनके अंध भारत-विरोध के चलते दो-फाड़ होने को तैयार है।  गौरतलब है कि ओली ने अपने प्रति पार्टी के भीतर बढ़ते अविश्वास को लेकर भारत पर आरोप मढ़ने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा था कि उनके खिलाफ दिल्ली और काठमांडू स्थित भारतीय दूतावास में साजिश चल रही है। इस पर पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड ने यह तो साफ किया ही कि उनसे भारत नहीं, बल्कि उनकी पार्टी इस्तीफा माँग रही है। साथ ही, माँग भी कर डाली कि अगर वे भारत के खिलाफ आरोपों को साबित नहीं कर सकते, तो इस्तीफा सौंपें। सयानों को लगता है कि प्रधानमंत्री ओली ने भले ही फिलहाल  संसद सत्र को स्थगित करा कर अपनी सत्ता बचा ली हो, लेकिन खतरा टला नहीं है। ज़रूरत पड़ी तो वे अन्य दलों के सांसदों से मिल कर नई पार्टी की घोषणा भी कर सकते हैं। वरना प्रचंड के नेतृत्व में बगावत हो गई, तो ओली कहीं के न रहेंगे!

सयाने याद दिला रहे हैं कि नेपाल में उपस्थित चीनी महिला राजनयिक होउ यान्की के इशारों पर नाचते हुए नेपाली प्रधानमंत्री ने पिछले कुछ समय में कई भारत विरोधी फैसले लिए हैं और चीन से निकटता बढ़ाई है। हालाँकि उनके  ऐसे कई फैसलों का वहाँ विरोध होता रहा है। फिर भी उन्होंने भारत से लगी सीमा पर सेना की तैनाती कर दी थी तथा नेपाली सेना की गोली से एक भारतीय की मौत भी हुई थी। उन पर अब संविधान के नियमों की उपेक्षा और तानाशाही के आरोप भी लग रहे हैं। स्मरणीय है कि सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री ओली ने भारत-नेपाल मैत्री संधि का मूल्यांकन करने की मांग उठानी शुरू कर दी थी। चीन के प्रति उनका अतिरिक्त प्रेम  इस बात से जगजाहिर हो गया कि चीन की जिस बेल्ट एंड रोड परियोजना का भारत सतत विरोध करता रहा है,  उन्होंने नेपाल को उसमें शामिल कर दिया। अंध चीन-भक्ति  में उन्हें न दीखता हो, लेकिन नेपाल के बाकी राजनेता यह देख पा रहे हैं कि  भारत-विरोधी रुख नेपाल के हितों को भारी नुकसान पहुँचा सकता है।

इस तमाम घटनाचक्र में भारत को बहुत सतर्क रह कर कदम बढ़ाने पड़ रहे हैं। ओली सरकार के नक्शा कांड के बावजूद भारत सरकार दोनों देशों के बीच रोटी-बेटी के ऐतिहासिक रिश्ते को नहीं भूल सकती। नक्शा विवाद को समय रहते सुलझाने की अपनी कथित उदासीनता की भरपाई के विचार से ही शायद ओली सरकार के बिगड़े बोलों के बावजूद भारत बेहद संयमित प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। नजदीकी और नाज़ुक रिश्तों को बचाने के लिए व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक-राजनैतिक जीवन में भी बहुत बार ऐसा संयम बरतना ही पड़ता है! इसीलिए तो भारत का विदेश मंत्रालय यह दोहराता नहीं थक रहा कि भारत और नेपाल के सदियों पुराने सभ्यतागत मैत्री संबंध हैं, जो गहरे सांस्कृतिक और सामाजिक संबंधों पर आधारित हैं तथा हम इन संबंधों को लगातार मजबूत करने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। भारत के इस सकारात्मक दृष्टिकोण के चलते ही तो लॉकडाउन के मुश्किल दौर में भी दोनों देशों के बीच व्यापार सुचारु रूप से जारी रहा है। तथापि यह तथ्य अपनी जगह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि अपनी सत्ता बचाने के लिए नेपाल के प्रधानमंत्री महोदय इन तमाम रिश्तों को सूली पर चढ़ाने को आतुर हैं!
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