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नेपाल के चीन भक्ति की मजबूरी / ऋषभदेव शर्मा

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नेपाल के प्रधानमंत्री की चीन-भक्ति

पड़ोसी देश नेपाल की आंतरिक राजनीति इन दिनों काफी अस्थिर चल रही है। अपनी पुरानी आदत के चलते वहाँ के प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली यदि इसका ठीकरा भारत के सिर फोड़ रहे हैं, तो इसमें अचरज  कैसा? वे तो अपने पिछले कार्यकाल से ही भारत से खार खाए बैठे हैं। वह भी इस हद तक कि अपने देश के हित को दाँव पर लगा कर भी चीन की गोद में चढ़े बैठे हैं। स्वयं सत्तारूढ़ पार्टी उनके अंध भारत-विरोध के चलते दो-फाड़ होने को तैयार है।  गौरतलब है कि ओली ने अपने प्रति पार्टी के भीतर बढ़ते अविश्वास को लेकर भारत पर आरोप मढ़ने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा था कि उनके खिलाफ दिल्ली और काठमांडू स्थित भारतीय दूतावास में साजिश चल रही है। इस पर पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड ने यह तो साफ किया ही कि उनसे भारत नहीं, बल्कि उनकी पार्टी इस्तीफा माँग रही है। साथ ही, माँग भी कर डाली कि अगर वे भारत के खिलाफ आरोपों को साबित नहीं कर सकते, तो इस्तीफा सौंपें। सयानों को लगता है कि प्रधानमंत्री ओली ने भले ही फिलहाल  संसद सत्र को स्थगित करा कर अपनी सत्ता बचा ली हो, लेकिन खतरा टला नहीं है। ज़रूरत पड़ी तो वे अन्य दलों के सांसदों से मिल कर नई पार्टी की घोषणा भी कर सकते हैं। वरना प्रचंड के नेतृत्व में बगावत हो गई, तो ओली कहीं के न रहेंगे!

सयाने याद दिला रहे हैं कि नेपाल में उपस्थित चीनी महिला राजनयिक होउ यान्की के इशारों पर नाचते हुए नेपाली प्रधानमंत्री ने पिछले कुछ समय में कई भारत विरोधी फैसले लिए हैं और चीन से निकटता बढ़ाई है। हालाँकि उनके  ऐसे कई फैसलों का वहाँ विरोध होता रहा है। फिर भी उन्होंने भारत से लगी सीमा पर सेना की तैनाती कर दी थी तथा नेपाली सेना की गोली से एक भारतीय की मौत भी हुई थी। उन पर अब संविधान के नियमों की उपेक्षा और तानाशाही के आरोप भी लग रहे हैं। स्मरणीय है कि सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री ओली ने भारत-नेपाल मैत्री संधि का मूल्यांकन करने की मांग उठानी शुरू कर दी थी। चीन के प्रति उनका अतिरिक्त प्रेम  इस बात से जगजाहिर हो गया कि चीन की जिस बेल्ट एंड रोड परियोजना का भारत सतत विरोध करता रहा है,  उन्होंने नेपाल को उसमें शामिल कर दिया। अंध चीन-भक्ति  में उन्हें न दीखता हो, लेकिन नेपाल के बाकी राजनेता यह देख पा रहे हैं कि  भारत-विरोधी रुख नेपाल के हितों को भारी नुकसान पहुँचा सकता है।

इस तमाम घटनाचक्र में भारत को बहुत सतर्क रह कर कदम बढ़ाने पड़ रहे हैं। ओली सरकार के नक्शा कांड के बावजूद भारत सरकार दोनों देशों के बीच रोटी-बेटी के ऐतिहासिक रिश्ते को नहीं भूल सकती। नक्शा विवाद को समय रहते सुलझाने की अपनी कथित उदासीनता की भरपाई के विचार से ही शायद ओली सरकार के बिगड़े बोलों के बावजूद भारत बेहद संयमित प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। नजदीकी और नाज़ुक रिश्तों को बचाने के लिए व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक-राजनैतिक जीवन में भी बहुत बार ऐसा संयम बरतना ही पड़ता है! इसीलिए तो भारत का विदेश मंत्रालय यह दोहराता नहीं थक रहा कि भारत और नेपाल के सदियों पुराने सभ्यतागत मैत्री संबंध हैं, जो गहरे सांस्कृतिक और सामाजिक संबंधों पर आधारित हैं तथा हम इन संबंधों को लगातार मजबूत करने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। भारत के इस सकारात्मक दृष्टिकोण के चलते ही तो लॉकडाउन के मुश्किल दौर में भी दोनों देशों के बीच व्यापार सुचारु रूप से जारी रहा है। तथापि यह तथ्य अपनी जगह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि अपनी सत्ता बचाने के लिए नेपाल के प्रधानमंत्री महोदय इन तमाम रिश्तों को सूली पर चढ़ाने को आतुर हैं!



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