अन्न योजना का विस्तार
प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के नवंबर तक विस्तार की घोषणा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना विश्वमारी के भयावह संक्रमण के इस दौर में एक बार फिर उन अनेक साधनहीन निर्धन परिवारों की सुध ली है, जिनके पास जमा पूँजी तो है ही नहीं, सुदीर्घ लॉकडाउन के कारण रोटी रोजी के भी लाले पड़े हुए हैं। अनलॉक का दूसरा चरण चालू होने के बावजूद इनकी दिनचर्या के ढर्रे पर लौटने के कोई खास आसार दिखाई नहीं देते। इसलिए यह योजना विस्तार उन्हें बड़ी राहत देने वाला साबित होगा।
किसी भी कल्याणकारी लोकतांत्रिक समाज में सरकार की पहली चिंता अपनी जनता के अन्न-जल की व्यवस्था की होती है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार के इस संकल्प को एक बार फिर दोहराना उचित समझा कि देश में कोई गरीब भाई-बहन भूखा नहीं सोएगा। उन्होंने याद दिलाया कि लॉकडाउन के दौरान देश की सर्वोच्च प्राथमिकता रही कि ऐसी स्थिति न आए कि किसी गरीब के घर में चूल्हा न जले। इसके लिए उन्होंने केंद्र सरकार के अलावा उचित ही राज्य सरकारों और सिविल सोसायटी के लोगों के प्रयासों की भी सराहना की।
यह बात अलग है कि कुछ आलोचकों को उनके इस संबोधन से भी शिकायत है। वे पूछ रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने भारत-चीन तनाव पर कुछ भी क्यों नहीं कहा। अब उन्हें कौन समझाए कि जिस समय दोनों देश इस तनाव को कम करने के बारे में उच्च स्तरीय चर्चाओं में संलग्न हैं, खुले में कोई बयान देना न तो शालीनता होती, न बुद्धिमत्ता। यह सोच कर किसी को भी हँसी आ सकती है कि आलोचक समुदाय इस पर चर्चा नहीं करना चाहता कि प्रधानमंत्री ने क्या कहा। उसे तो इस बात की चिंता खाए जा रही है कि क्या-क्या कहे बिना छोड़ दिया। यह समुदाय जाने क्यों यह भूल जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर बात को कहने या न कहने का स्थान और समय अपने हिसाब से चुनते हैं। दो दिन पहले ही तो 'मन की बात'में उन्होंने चीन के साथ तनाव के संदर्भ में 'आत्मनिर्भर भारत'की ओर ध्यान खींचा था। अब कोरोना से पैदा समस्याओं के संदर्भ में 'अन्न योजना'के विस्तार की घोषणा करते हुए भला चीन को बीच में क्यों लाया जाए? पर क्या कहिए, सियासत में रहने के लिए छिद्रान्वेषण में पारंगत होना भी ज़रूरी है। ऐसे पेशेवर सियासतदानों को यह भला क्यों नागवार न गुज़रता कि योजना-विस्तार की ज़रूरत बताते हुए प्रधानमंत्री ने गुरुपूर्णिमा और सावन से लेकर छठ पूजा तक की चर्चा की। उन्हें शिकायत है कि अमुक-अमुक त्योहारों का नाम और क्यों नहीं लिया गया! वे भूल रहे हैं कि यह भारतवर्ष है; और यहाँ अन्न योजना के 80 करोड़ लाभार्थियों की पहचान का आधार उनकी आर्थिक दशा है, पाकिस्तान की तरह धर्म और संप्रदाय नहीं। इन लाभार्थियों की सुविधा के लिए ही देश भर में 'एक राशनकार्ड'की व्यवस्था की जा रही है।
यही नहीं, सयाने इस बहस में भी ज़ोर शोर से मुब्तिला हैं कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के इस विस्तार के सियासी मायने क्या हैं। उन्हें लगता है कि इस योजना को नवंबर तक बढ़ाने का कारण बिहार विधानसभा के आसन्न चुनाव हैं। बात सही भी हो सकती है। अचानक तालाबंदी से सबसे अधिक प्रभावित होने वालों में वे प्रवासी मजदूर अवश्य शामिल हैं जो रोजगार चले जाने पर बड़े शहरों में इस हद तक फँस गए थे कि प्रदर्शन तक की नौबत आ गई। इन मज़दूरों में सबसे बड़ा प्रतिशत बिहार से आता है। इसलिए अगर पधानमंत्री ने दो बार उनके लोक पर्व छठ का उल्लेख किया, तो वह निरुद्देश्य तो नहीं ही होगा। यानी, प्रधानमंत्री के मन में राजनीतिक लक्ष्यवेध की मंशा रही हो सकती है। पर इससे कोरोना महाकाल में गरीबों के लिए इस सहायता की ज़रूरत और महत्ता कम नहीं हो जाती।
आशा की जानी चाहिए कि नवंबर तक कोरोना का प्रकोप ढल जाएगा!000