जाति और धर्म तो छोटी बात, यूपी में अपराधियों के मंदिर कायम हैंं
कानपुर प्रकरण के बाद अपराधी की जाति और धर्म को लेकर बड़ी चर्चाएंं चली है। लेकिन सच यही है कि उसकी जाति भी होती है और धर्म भी। उसका परिवार भी होता है और रिश्तेदार भी। उसकी जाति के नेता भी होते हैं और अफसर भी। सजातीय पुलिस वाले भी उसकी मदद करते हैं। भले ही अपराधी अपनी ही जाति के लोगों की हत्या क्यों न करे लेकिन ऐसा होता है। और पुलिस इसमें खाद पानी डालने का काम करती रही है। पहले डाकू समस्या के दौरान यह समस्या एक अलग रूप में थी। वह समाप्त या लगभग न के बराबर रह गयी तो शहरी या देहाती इलाके के सफेदपोश अफराधियों में यह कहीं और वीभत्स रूप में दिख रही है।
बुंदेलखंड और विंध्य इलाके में सबसे अधिक सक्रिय रहे डाकू ददुआ ने सबसे अधिक ब्राह्रणों की हत्या की। चंबल घाटी में तमाम डाकू जातीय गर्व के तौर पर आज भी जनमानस में मौजूद हैं। आखिर क्या वजह है कि आज भी उत्तर प्रदेश के एक छोर पर मान सिंह का मंदिर कायम है, जिसके बेटे तहसीलदार सिंह भाजपा के टिकट पर मुलायम सिंह से चुनाव लड़े थे। वे खुद इस बात की पुष्टि करते थे कि उन्होंने 100 पुलिस वालों को मारा था। और क्या वजह है कि ददुआ का दूसरे छोर बुंदेलखंड में मंदिर है जिसके बेटे को समाजवादी पार्टी ने राजनातिक शक्ति दी। समर्पण के बाद चंबल के कई डाकुओं ने कांग्रेस का भी प्रचार किया। यही नहीं जब मुलायम सिंह ने फूलन देवी को टिकट दिया था तो भी मिर्जापुर में जाति ही देखी थी। जाति और धर्म एक सच है। और हर राजनीतिक दल इसमें नंगा है। राष्ट्रीय दल थोड़ा बचे हैं लेकिन क्षेत्रीय दलों के कई कई नेता दुर्दांत अपराधियों को कुलदीपक जैसा बताने से गुरेज नहीं करते रहे हैंं। क्या कोई सरकार जातीय स्वाभिमान के प्रतीक डाकुओं के सम्मान मेें बने इन मंदिरों को बंद कराने का साहस कर पायी है।
अगर चंबल यमुना घाटी से लेकर नारायणी के बीहड़ों के डाकू गिरोहों के इतिहास को टटोलें तो पता चलता है कि दस्यु सरदार डोंगरी बटरी से लेकर मान सिंह, लोकमन दीक्षित, बीहड़ों में मान सिंह, मोहर सिंह, माधो सिंह, छिददा माखन, पान सिंह तोमर, पुतलीबाई , मलखान सिंह, छविराम, विक्रम मल्लाह ,फूलन देवी,ददुआ, ठोकिया, हनुमान कुर्मी, निर्भय गुज्जर से लेकर तमाम दुर्दांत डकैत गिरोहों को जातीय आधार पर राजनेताओं ने संरक्षण दिया। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री काल मे मध्य प्रदेश में रमेश सिकरवार ने आत्मसमर्पण किया तो पसंदीदा सिकरवारी इलाके की जेल का भी चयन खुद किया था जो राजपूतों की दबंगई के लिए जाना जाता है। डाकू गिरोह अपनी छवि को बनाए रखने के लिए इलाके मेंं निवेश भी करते थे। लेकिन समय बदला तो सफेदपोश अपराधियों ने नए तरीके से निकाल लिए। टिकट पाने से लेकर ठेका पाने तक।
कोई अपराधी बनता है तो उसके आसपास पहले यही तत्व सबसे आगे होते हैं। अगर नहीं होते हैं तो पुलिस उसके करीबी लोगों, घर परिवार और सजातीय गांव वालों पर ऐसा ठप्पा लगा देती है कि वे न चाह कर भी उनके साथ खड़े होते हैं, जैसे नक्सलियों के साथ आदिवासी खड़े हो जाते हैं। पुलिस की हिस्ट्रीसीट में संरक्षण देने वाले सजातीय लोगों का विवरण और गांवों का भी विवरण होता है।
एक दौर था जबकि अपराध में राजपूत,ब्राह्मण और मुसलमान आगे होते थे। चंबल घाटी को देखें तो 80 के दशक के बाद वे पीछे हो गए और दलित और पिछ़ड़ी जाति के गिरोह सबसे आगे हो गए। यह समस्या समाप्त हुई तो नयी समस्या आ गयी। इस नाते जरूरी है कि अगर कोई अपराधी पैदा हो रहा है तो पुलिस उसकी जाति के लोगों को उसका संरक्षक मान कर सताना बंद करे। अपराधियों को महिमा मंडित करना भी बंद होना चाहिए। और राजनीतिक दल उनको टिकट और शक्ति देना बंद करें। अपराधियों की मदद लेने के बजाय बेहतर होगा कि राजनीतिक दल ग्रामीण इलाकों में नया नेतृत्नाव पैदा करें और अपना संगठन मजबूत करें। क्योकि यही हालत बनी रही तो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेश को बारूद के ढेर पर बैठने से कोई रोक नहीं सकेगा।
( नोट इसमें दो रिपोर्ट भी संलग्न है। एक मेरी लिखी है और एक इटावा में आज के संवाददाता साथी की है। )
(c) अरविंद कुमार सिंह