साहित्य

जब भी कुछ लिखा, उनकी याद आई

श्री फणीश्वर नाथ रेणु

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उनको पहली बार देख कर बिना किसी से पूछे समझ लिया था, आप निश्चय ही बिहार के प्रसिद्ध राजघराना के सदस्य हैं, जो जमींदारी प्रथा समाप्त होने के पहले ही राजनैतिक घराना में बदल चुका है। अतः उनको देखते ही मेरी आँखों के सामने राजा की पार्टी का झंडा आ जाता, और कानों के पास उस पार्टी के नारे और वक्तव्य आदि गूंजने लगते। … तीन-चार साल तक ऐसा ही होता रहा।

स्पष्ट याद है, सबसे पहले उनको पटना के प्रसिद्ध जनरल स्टोर जे0जी0 कार एंड कंपनी में देखा था। ‘मैला आँचल’ लिखने के पहले राजनीति और पार्टी से मुक्त होकर नेपाली कांग्रेस के लिए हिन्दी और नेपाली में ‘नया कदम’ मासिक पत्र निकाल रहा था। और, पटना की भयानक गर्मी के दिनों, नेपाली राजनीति पर लिखने-लिखाने के लिए रोज कम-से-कम पाँच बोतल बेक्स बीयर खरीदने की जरूरत होती। अपने नेपाली मित्रों के साथ मैं अक्सर जे० जी० कार में जाया करता था। इसलिए, ‘कार कम्पनी’ वाले मुझे नेपाली समझते थे। पहुंचते ही उसके सेल्समैन किसी विदेशी सिगरेट या इम्पोर्टेड सिगार या शराब के ‘एराइवल’ की सूचना देते। काउंटर पर शृंगार तथा शौक की सामग्रियाँ बिखेर कर दिखलाने लगते। … ऐसे ही क्षण में एक दिन मनोहारी सुगंध में बसे रुमाल से उन्नत ललाट का पसीना पोंछते, महीन खादी की धोती और सिल्क का कुरता पहने, तगड़े शरीर और रोबीली मूछोंवाले एक व्यक्ति ने प्रवेश किया। उनके आते ही सेल्समैन से लेकर मैनेजर तक हृदय से प्रसन्न हो गये। फिर, किताब-मैगजीन के काउन्टर से शुरू करके, यार्डले पर्फ्यूम्स, फिपाँ की डबल रोटी (ब्रान ब्रेड), अस्ट्रेलियन क्राफट चीज, मक्खन, कलम और कलमदान वगैरह टोकरी भर चीजें दस-पन्द्रह मिनट में ही चटपट खरीद कर चले गये।

कई दिनों के बाद, ‘प्रिंस होटल’ में देखा। उनके पहुँचते ही बेयरा से लेकर मालिक तारक बाबू तक प्रसन्न, चंचल और तत्पर हो उठे। और, यहां भी दस-ग्यारह व्यक्तियों के लिए शानदार डिनर के प्रमुख और विशेष आइटम लिखवा कर, एडवांस देकर, तीन-चार किस्म के छेने और खोये की मिठाइयों की हाडी और पैकेट बंधवा कर और दो प्लेट फिश फ्राई चखकर, मुंह पोंछते हुए वे दस-पंद्रह मिनट में ही चले गये। नहीं, चले नहीं गये; लौट कर एक ‘आइटम’ और भी लिखवा गये -“तारक बाबू! अरे, पापड़ भी कर लिख लीजिए। …खाना अंग्रेजी ढंग का हो या बांग्ला किस्म का, पापड एकदम आवश्यक है .. तुरंत डकार करवा देता है !!

तीसरी दफा-बांकीपुर जंक्शन स्टेशन के ‘केलनर’ में। आधे दर्जन से अधिक व्यक्तियों के साथ हड़बड़ाते हुए पहुंचे। उनसे आर्डर लेकर तुरंत तामिल करने के लिए बेयरा बेचैन हो गया: टोस्ट भी, ..केक भी..अरे सेंडविच दे सकोगे? और पाँच, नहीं चार पॉट चाय। गाड़ी खुलने में दस-पन्द्रह मिनट की ही देर है।

और. यहाँ भी सब कुछ दस-पन्द्रह मिनट में सम्पन्न करके तुरंत ही खुलने वाली किसी गाड़ी के कम्पार्टमेन्ट की ओर लपकते हुए चले गये।

मैंने इस दरम्यान कभी भी किसी से उनका परिचय नहीं जानना चाहा। इसकी जरूरत नहीं समझी। क्योंकि, मैं अपने जानते उनका परिचय पा चुका था। कहना नहीं होगा कि उनको हर बार देख कर, थोड़ी देर के लिए, बिहार की राजनैतिक सरगर्मी की नई खबरें, वक्तव्य और भाषण के स्वर गूंजने लगते थे।

नेपाली कांग्रेस के साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन बंद हुआ और राजनीति से इस आखिरी संबंध को भी तोड़कर मैंने मैला आँचल लिखना शुरु किया। लेखन के साथ प्रकाशन की व्यवस्था में व्यस्त रहा। किन्तु इस बीच दो-ढाई वर्षों तक कार कंपनी, पिंटू या प्रिंस होटल, ह्वीलर बुक स्टॉल, खादी इम्पोरियम वैगेरह के सिवा किसी साहित्यिक समारोह में उनको कभी नहीं देखा। असल में उन दिनों पटना की किसी साहित्यिक गोष्ठी, सभा या सम्मेलन से मेरा सम्बन्ध दूर का भी नहीं था।

‘मैला आँचल’ के प्रकाशन के एक साल बाद ‘परती परिकथा’ लिखने के लिए पटना छोड़कर इलाहाबाद चला गया। साल भर तक किताब की लिखाई और छपाई होती रही। राजकमल प्रकाशन के तत्कालीन डायरेक्टर श्री ओम्प्रकाश ने ‘परती परिकथा’ का प्रकाशन समारोह पहले दिल्ली में और फिर पटना में अभूतपूर्व रीति से करने का निश्चय कर लिया था। उस दिन दिल्ली के प्रमुख हिंदी-अंग्रेजी पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर दाहिनी ओर बॉक्स में एक विशेष विज्ञापन प्रकाशित करवाया गया था-‘आज प्रातः दस बजे से बारह बजे तक, राजकमल प्रकाशन, फैज बाजार की दुकान में पुस्तक (परती परिकथा) खरीदने वाले को लेखक से साक्षात्कार और पुस्तक पर हस्ताक्षर पाने का अवसर …

शाम को एक प्रसिद्ध होटल के पूरे विंग में दिल्ली के प्रायः सभी प्रमुख साहित्यकार चाय-पान के लिए एकत्र हुए थे। बैंड बजे थे। भाषण हुए थे। शिवदान सिंह चौहान ने पुस्तक के संबंध में एक लम्बा निबन्ध पाठ किया था।

दिल्ली में यह सब सम्मानपूर्वक संपन्न हो गया। किन्तु, पटना के लिए जब तारीख तय होने लगी तो मैंने ओम्प्रकाश जी से अनुरोध किया था – दिल्ली में प्रकाशन समारोह हो गया। अब फिर क्या? इलाहाबाद की तरह पटना को भी छोड़ दीजिये, कृपा कर। …..अब छोड़िये न !” लेकिन, ओम्प्रकाश जी ने जब एक बार कुछ तय कर लिया तो छोड़ देने की बात सुनता कौन है?

मैला आँचल की प्रसिद्धि के साथ ही पटना की साहित्यिक राजनीति में थोड़ी सरगरमी आ गयी थी। पुस्तकों के प्रशंसकों से अधिक मेरे व्यक्तित्व के विरुद्ध प्रचार करनेवालों के स्वर मुखर थे। सो तामझाम के साथ प्रकाशन समारोह कर के वैसे मित्रों की क्रोधाग्नि अथवा ईर्ष्यानल को और भड़काना मैं उचित नहीं समझता था। किन्तु ओम्प्रकाश जी ने इसी कारण से इसको सर्वथा उचित और वाजिब कर्तव्य समझकर पटना में भी वही सब किया। यहाँ के प्रमुख पत्रों के मुखपृष्ठ पर विशेष विज्ञापन प्रकाशित कराये गये। मैं सुबह नौ बजे ही तैयार होकर राजकमल प्रकाशन की पटना शाखा में जा बैठा। हां, बैठने के पहले ओम्प्रकाश जी से कह दिया था – आप चिराग तले रौशनी देखने की उम्मीद बेकार कर रहे हैं। यह दिल्ली नहीं। ग्राहक नहीं आयेगा। आना भी चाहेगा तो उसको पटना कॉलेज के पास रोक दिया जायेगा। संभवतः पोस्टर भी चिपकाये गये हो, पर्चे भी वितरित हुए हों।

हम दुकान पर बैठे, ऐसी ही बातें कर रहे थे कि सामने एक जीप आकर रुकी और उससे उतर कर आने लगे-मेरे अनुमान के अनुसार-‘राजा पार्टी के वही…। मेरा दिल धड़का। परती परिकथा में राजा पार्टी और राजा पार्टी के एकमात्र नेता को थोड़ी परोक्ष चर्चा है! संभवतः: विरोध करने वाली प्रतिभाओं ने कुछ उलटा-सीधा समझा दिया है, इनको। निश्चय ही यह दुकान में आकर कड़कती आवाज में पूछेंगे – “कहाँ है वह लेखक? कौन है वह लेखक? मैं ओम्प्रकाश जी से सिर्फ इतना ही कह सका – “राजा कामरूप नारायण।”

“प्रणाम-प्रणाम!” दुकान में प्रवेश करने से पहले ही फुटपाथ पर से ही उन्होंने हंसकर सभी का एक सार्वजनिक अभिवादन किया। दुकान में आकर बोले-“शायद, मैं पहला ग्राहक नहीं हो सका। … चला तो था सुबह ९ बजे ही। लेकिन अब क्या बतावें? अब तक कोई ग्राहक नहीं आया? ..तब, लाइये-एक प्रति तुरंत। पहले हस्ताक्षर वाला काम….”

तब तक दुकान के सामने एक गाड़ी और आकर रुकी। वे उतावले हो गये – “लाइये भाई!”

ओम्प्रकाश जी ने रजिस्टर पर नाम लिखने के लिए पूछा- “आपका शुभ नाम?”

“ओ! रजिस्टर भी ‘मेनटेन’ कर रहे हैं। .. नाम लिखा जाये-कामता प्रसाद सिंह ‘काम’।”

मेरे मुंह से एक हल्की-सी चीख जैसी आवाज निकली – आँ…य!

उन्होंने मेरे खुले हुए मुंह की ओर देखते हुए पूछा –  “क्यों, क्या हुआ?”

मैं कुर्सी छोड़कर खड़ा हो गया और दोनों हाथों से उनकी हथेली पकड़कर हकलाते हुए बोला-“काम जी! मैं आपका पाठक और प्रशंसक रेणु। आपके यात्रा विवरण, रेखा चित्र और रेडियो टॉक पढ़-सुनकर न जाने कब आपकी शैली का भक्त…लेकिन … लेकिन… क्या बताऊं … पिछले तीन-चार साल से मैं आपको देखता रहा हूं और आपको राजा पार्टी का राजा समझता रहा हूं। पता नहीं क्यों … मैं क्या बताऊं? अभी आपको गाड़ी से उतरता देखकर मैं आपका वही परिचय ओम्प्रकाश जी से भी दे रहा था। पूछिये न… ओ हो, तो आप .. काम जी है!”

कामता बाबू अचरज भरी हंसी हंसते हुए बोले – “और मैं भी पूरे दो-ढाई साल तक भारी गलतफहमी में था। बिहार राष्ट्र भाषा परिषद का पुरस्कार आपको जब मिला और आपकी तस्वीर छपी तो समझा था कि आप रेण जी हैं। वरना. मैं आपको नेपाल के किसी विद्रोही राणा-परिवार का कोई ‘जंगबहादुर शमशेर’ नौजवान समझ रहा था-हा-हा-हा-हा।”

इसके बाद दुकान में एक सम्मिलित ठहाका लगा, जिसे सुनकर फुटपाथ पर चलनेवाले अचानक रुक गये।

ओम्प्रकाश जी से परिचित होने के बाद ‘काम’ जी उनके प्रकाशन, वितरण-छपाई-सफाई और सूझबूझ-की प्रशंसा करते हुए बोले-“आप दोनों ही मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें। विदेशों में यह सब खूब होता है। लेकिन, अपने यहाँ- खास कर हिन्दी में-प्रकाशन समारोह और उस दिन लेखक से परिचय और हस्ताक्षर पाने का सुअवसर …. वाह भाई, लेखक और पाठक का सम्मान-आपने ही पहली बार किया है। भगवान आपको सफलता दें वाह !!”

‘परती परिकथा’ की एक प्रति हाथ में लेकर ‘सादर भेंट’ के लिए उपयुक्त शब्द ढूँढ रहा था कि ‘काम’ जी ने ताड़ लिया। बोले-“रेणु जी ! जरा सुना जाये। मैं यहाँ किताब खरीदने के लिए आया हूँ और ग्राहक की हैसियत से आपका हस्ताक्षर प्राप्त करने आया हूँ। भेंट वाली प्रति आप मुझे बाद में कभी दे दीजिएगा। कृपया प्रथम ग्राहक होने के सौभाग्य से मुझे वंचित न करें…. ”

किताब की खरीदारी के बाद स्वल्पाहार और चाय का आयोजन देखकर ‘काम’ जी ने हँसते हुए कहा-“विज्ञापन में लेकिन चाय की बात नहीं छपी थी ।”

इसके बाद फिर ठहाका, जिसे सुनकर फिर फुट-पाथ पर आते-जाते लोग हठात् एक क्षण के लिए रुक गये।

इस बीच कई ग्राहक आये। कामता बाबू चाय पीते हुए कई ग्राहक से परिचय पूछते, बातें करते। हिन्दी की किताब खरीद कर पढ़ने के लिए बधाई देते और साथ ही यह कहना नहीं भूलते, लेकिन, प्रथम ग्राहक मैं हूँ | देखिये…

करीब एक घंटा तक बातें करते रहे। इस बीच डॉ० नर्मदेश्वर प्रसाद तथा गोपीकृष्ण जी आये। सभी से कामता बाबू ने कहा – रेणु जी मुझे ‘राजा पार्टी का समझते थे और मैं उनको नेपाल के किसी राणा परिवार का – हा, हा, हा, हाँ। लेकिन, एक अचरज की बात यह है कि आप दोनों के ‘कॉमन फेड’ रहे और इसके बावजूद ऐसी गलतफहमी? देखिये न, हम दोनों ही एक-दूसरे की रचना से परिचित ही नहीं, प्रशंसक भी थे।”

गोपी जी ने कहा – आपने तो ‘जनता’ या ‘केसरी’ जी द्वारा संकलित प्रतिनिधि कहानियां में ‘डायन कोसी’ अथवा…

“अरे नहीं गोपी बाबू! मैं १९४६ से ही कलकत्ता से प्रकाशित होने विश्वमित्र’ में इनकी कहानियाँ पढ़कर मुग्ध होता रहा हूं। बट बाबा, पार्टी का भूत, पहलवान की ढोलक मुझे कहानियों के शीर्षक भी याद हैं।” कामता बाबू ने मुझे फिर अचरज में डाल दिया। अपनी उन कहानियों के पात्रों के नाम तक मैं अब तक भूल चुका था और इनको सब कुछ याद है।

थोड़ी देर के बाद उन्होंने उठते कहा –  “अब आज्ञा मांगने से पहले एक निवेदन। हां-हां, आज शाम को टी-पार्टी में मैं अवश्य आऊँगा-सिन्हा लाइब्रेरी हॉल में ही है ना। निमंत्रण मुझे मिल चुका है। निवेदन है कि कल दोपहर को आपलोग दोपहर का भोज मेरे साथ करें। “जी, होटल में नहीं, मेरे फ्लैट में, आर0 ब्लॉक के फ्लैट नम्बर …”

उनके जाने के बाद हमलोग उनकी साहित्यिक और राजनीतिक गतिविधियों की चर्चा करते रहे।

वहां तथाकथित कई वामपंथी लेखक भी उपस्थित थे। उन्होंने वर्ग संघर्ष और वर्ग चेतना की बात छेड़ दी। मुझे याद है, मैंने कहा था – भाई! रूस और चीन और दुनिया-जहान के लेखकों की बात मैं नहीं जानता …. बिहार के हिन्दी लेखकों में बेनीपुरी जी और और राजा राधिकारमण के बाद यह तीसरा लेखक है, जिसकी अपनी शैली है। रही वर्ग संघर्ष और वर्ग-चेतना की बात। अगर आपने कामता  बाबू की रचनाएं पढ़ी होती तो निश्चय ही ऐसी बात नहीं करते।

उस दिन दोपहर को इलाहाबाद से कमलेश्वर भी आ गये थे। शाम की पार्टी में ‘काम’ जी ने मेरे पास आकर धीरे से कहा-“सुना कि राजा निरबंसिया के लेखक कमलेश्वर जी भी आये हुए हैं। …. मेरा तो उनसे परिचय नहीं। कल दोपहर को …. उनको भी भोजन पर बुलाना ….

मैंने कमलेश्वर जी और कामता बाबू को एक-दूसरे से परिचित कराने का रस्म अदा कर दिया। बाकी काम कामता बाबू ने स्वयं कर लिया। राजा निरबंसिया की तारीफ से शुरू करके कल दोपहर को भोजन करने का आग्रह तथा सामिष भोजी हैं या शाकाहारी-इसकी जानकारी तक।

दूसरे दिन दोपहर को हम कामता बाबू के आर० ब्लॉक स्थित फ्लैट में पहुँचे। ओम्प्रकाश जी सुबह की गाड़ी से इलाहाबाद लौट गये थे। उनके बदले में उनके भानजे श्री दिनेश (अब लोक भारती, इलाहाबाद से संबद्ध) हमारे साथ थे। कामता बाबू के छोटे फ्लैट में हिन्दी और अंग्रेजी की किताबों से ठसाठस भरी हुई कई अलमारियाँ थीं। सभी पुस्तक पर नम्बर चिपकाए हुए थे अर्थात् बजाप्ता कैटलगिंग करके-विषय के अनुसार किताबें रखी गयी थीं। कामता बाबू ने एक अलमारी से अंग्रेजी को कई किताबें निकाल कर  दिखलाते हुए कहा-“देखिए ! इन पुस्तकों पर इनके लेखकों ने प्रकाशन के दिन हस्ताक्षर किए थे….. मैंने चार-गुना अधिक दाम देकर इन्हें प्राप्त किया।”

इसके बाद उन्होंने एक रजिस्टर-बुक निकाल हमारी ओर बढ़ाया “इसमें कुछ अपने विचार अथवा जो जी में आवे-लिख देने की कृपा करें, आप दोनों ही।

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