व्यक्त होकर ही आदमी व्यक्ति होता है / भारत यायावर
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जीवन में कुछ लोग मिलते हैं जो सुंदर, सुरुचिपूर्ण और आकर्षक लगते हैं। लेकिन वे जल्दी खुलते नहीं हैं।अव्यक्त रहने वाले ऐसे लोगों को जानना-समझना मुश्किल होता है। इसीलिए वे रहस्यमय दिखाई देते हैं। फिर भी लगता है कि उनके भीतर बहुत कुछ है, जिसे देखा नहीं मैंने। अव्यक्त होकर भी वे आकर्षक होते हैं। "बनास जन"पत्रिका के संपादक पल्लव ऐसे ही व्यक्ति हैं। उनसे फरवरी 2019 के भारतीय भाषा परिषद, कलकत्ता द्वारा आयोजित साहित्यिक पत्रकारिता पर आयोजित समारोह में पहली बार भेंट हुई। मगर औपचारिक संवाद के अलावा कुछ नहीं हुआ। फिर उन्होंने रेणु पर लिखी जा रही जीवनी का एक अंश छापा। वे फेसबुक पर मेरे मित्र हैं। लेकिन किसी के लेखन पर टिप्पणी नहीं करते। उन्होंने एक दिन किसी के कथन को उद्धृत किया था। मैंने उनसे आग्रह किया कि अपने चिंतन को भी कभी-कभार प्रकट कीजिए, इसपर उन्होंने जवाब दिया कि इससे आत्म-प्रचार हो जाता है। तबसे मैं सोच में पड़ा हुआ हूं कि अपनी सोची हुई बात कहने से आत्म-प्रचार कैसे हो जाता है ?
आदमी व्यक्त होकर ही व्यक्ति बनता है। व्यक्ति में अभि उपसर्ग लगने से व्यक्ति अभिव्यक्ति में रूपांतरित हो जाता है। सुंदर, सुचिंतित, सुविचारित व्यक्ति ही अभिव्यक्ति है। सघन साधना और कठोर परिश्रम कर भाषा की परिपक्वता अर्जित कर ही अभिव्यक्ति संभव हो पाती है। श्रुत-अश्रुत -पूर्व अव्यक्त ध्वनियों और वाणी को प्रकट करना ही अभिव्यक्ति का परम लक्ष्य है। खोज की अनवरत प्रक्रिया उसका सहवर्ती है। जटिल और उलझी हुई ज्ञान की अनेक शिराओं को सुलझा कर प्रकट करने की कोशिश भी अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाती है। जीवन के बीहड़ और दुर्गम और दुर्लभ प्रसंगों को उजागर करने से उसकी रोचकता बढ़ती है तथा उसका स्वरूप संवरता है।
अव्यक्त को अभिव्यक्त करना वैसा ही जैसे निराकार को साकार करना। जैसे अंधकारमय वातावरण को ज्योतिर्मय कर जगमगा देना। व्यक्ति का अभिव्यक्ति बनना परम पद की प्राप्ति है। लेकिन इसे आत्मप्रचार कहना इसकी सरासर अवहेलना है। आत्म का प्रसार और प्रसारण एक उपलब्धि है।
संचार माध्यमों ने इस दुस्तर कार्य को सहज बनाया है। भवभूति जिस समधर्मा की आकांक्षा पालकर लिख रहे थे, वह आज किसी देश के किसी शहर में सरलता से मिल जाता है।
प्रचारित-प्रसारित होना सभ्यता का उज्ज्वल वरदान है। अभिव्यक्ति अस्तित्व की अस्मिता है और यह जब फैलती है तो मानवता के प्रति कल्याण की भूमिका निभाती है।
लेकिन अभिव्यक्ति जब दूषित मानसिकता से प्रकट होती है तब वह जीवन में ज़हर घोलती है। ऐसे में वह अपने स्वरूप में नहीं रह जाती और व्यक्त की गई चेतना अभि व्यक्ति की जगह कु व्यक्ति के रूप में स्थापित हो जाती है।
पल्लव अपने को अभिव्यक्त करने से डरते हैं। हिचकते हैं कि कहीं उनकी बातों से लोग नाराज़ न हो जाएं।उनका आकर्षण कहीं खत्म न हो जाए। या वह कौन-सी बात है जिसके कारण वे कुछ भी कहने से डरते हैं?