एक स्कूल का कपाट बंद हो जाने जैसी खबर ने भीतर तक हिला कर रख दिया। यह स्कूल कोई और नहीं पत्रकारिता के अग्रज और आधार स्तम्भ ललित भैया का असमय चले जाना है। मेरे जैसे प्रशिक्षु पत्रकार के लिये तो उनका होना ज़रुरी था लेकिन नियती के सामने हम सब नतमस्तक हैं।
कोई 17 वर्ष का था जब देशबंधु पत्रकारिता सीखने पहुंचा। एकदम अनघढ। तब भोपाल से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक देशबंधु की छपाई रायपुर में होती थी। ललित भैया आकर पेज देख जाते। कहीं कोई गलती होती तो ना केवल उसके बारे में बताते बल्कि उससे जुड़ा इतिहास भी बता जाते। हम लोग चमत्कृत हो जाते। अपने चश्मे को हाथ में रखने की उनकी आदत थी लेकिन कुछ पढ़ना हो तो पहन लेते थे।
कई यादें हैं। कोई 7-8 पेज की ग्रामीण खेलकूद पर रिपोर्ट को लेकर अपने केबिन में गए और मेरा बुलावा आया। थोड़ा सहमे सहमे उनके केबिन में दाखिल हुआ। केबिन में घुसते ही उन्होने मेरी तरफ सवाल उछाला- मनोज ये बताओ कि दुर्गा कालेज कब से ग्रामीण का हो गया। मेरी बोलती बंद हो गई। दुर्गा कालेज रायपुर शहर का प्रतिष्ठित कालेज है। मेरी रिपोर्ट तो खारिज होना ही थी लेकिन एक सबक जो मिला, वह आज भी याद है।
कितनी बड़ी कापी लिख कर कोई भी ले जाएं लेकिन सपाटे से वे पढ़ कर गलती पर निशां लगा देते थे। वे शायद एकमात्र सम्पादक रहे हैं जो देशबंधु के अलावा अन्य अखबारों में नियमित लिखते रहे।
पत्रकारिता का एक बडा शिक्षक आज हमें छोड़ गए हैं। अब हमारी जिम्मेदारी है कि जिस शिद्दत के साथ उन्होंने पत्रकारिता की बड़ी लकीर खिंची है, उसे मिटने ना दें।
सादर