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मिथिलेश्वर की यादों में पिताजी

 एक थे प्रो.बी.लाल /  मिथिलेश्वर 

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युवा रचनाकार श्री हरेराम सिंह ने साहित्यिक लगाव के तहत मेरे  गांव बैसाडीह और मेरे घर को जब फेसबुक पर प्रस्तुत किया तो एक फेसबुक मित्र ने मेरे पिताजी की तेजस्विता और विशिष्ट प्रतिभा का स्मरण दिला दिया, जिससे पिताजी की याद मेरे मन में ताजा हो गई।

           प्रो.बी.लाल मेरे पिता थे।उनका नाम वंशरोपन लाल था।उच्च शिक्षा के प्रारंभिक दौर में ही वे कालेज शिक्षक हो गए थे, इस दृष्टि से हमारे पूरे क्षेत्र में प्रो. बी.लाल के नाम से ही जाने जाते थे।अपने समय में उनकी विलक्षण प्रतिभा की चर्चा न सिर्फ मेरे जनपद तक ही सीमित थी,बल्कि पूरे प्रदेश में लोग उन्हें आदर से स्मरण करते थे।

             जैसा कि विदित है, बचपन से ही वे अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के थे,परिणामतः प्रारंभिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक की हर परीक्षा में टाप करते रहे थे।ग्रेजुएशन तक पहुंचते- पहुंचते  उनकी तेजस्विता चरम पर थी, फलतः हमारे प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद की उत्तर पुस्तिका पर जो टिप्पणी की गई थी, वही टिप्पणी मेरे पिताजी की उत्तर पुस्तिका पर भी की गई - Examinee is better than the examiner.उनकी ऐसी तेजस्विता और प्रतिभा को देख कर ग्रेजुएशन के बाद ही उन्हें प्रोफेसर नियुक्त कर लिया गया।

        उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी अदभुत् और विलक्षण स्मरणशक्ति को लेकर थी।उन्होंने जो कुछ पढ़ा था और जो कुछ पढ़ते थे,वह सारा ज्ञान उनकी प्रतिभा में जज्ब होता जाता था, इस दृष्टि से उनकी विद्वता पराकाष्ठा पर थी।ऐसे में छात्र, शोधकर्ता या जिज्ञासु किसी भी विषय में कुछ पूछते तो वे उस विषय का राई- रक्स उजागर करते हुए उसकी अद्यतन स्थिति स्पष्ट कर देते।ऐसे में एक विलक्षण जीनियस के रूप में उनकी ख्याति हमारे क्षेत्र में सर्वत्र कायम हो गई थी।लेकिन उनका निधन अल्पायु में ही हो गया।

          सत्तर के दशक में जब मैने लेखन कार्य शुरू किया और मेरी रचनाएं धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं तब मेरे पिताजी के कुछ वैसे प्रशंसक भी थे,जिन्होंने यह कहना शुरू किया कि प्रो.बी.लाल ने बहुत कुछ लिख कर छोड़ रखा है।उनका यह लड़का उसी में से एक- एक कर अपने नाम पर छपवा रहा है।

       अपने पिताजी की विलक्षण प्रतिभा की ऐसी चर्चाओं ने ही उनके व्यक्तित्व पर "एक थे प्रो.बी.लाल"नामक कहानी की रचना के लिए मुझे प्रेरित किया।इस कहानी का प्रथम प्रकाशन दिनमान टाइम्स में हुआ।यह कहानी मेरे पिताजी के व्यक्तित्व की यथार्थ कथा है।इस कहानी के नाम पर ही मेरा सातवां कहानी संग्रह है - एक थे प्रो. बी.लाल।फिलहाल मेरे श्रेष्ठ और प्रतिनिधि संकलनों की यह मुख्य कहानी है।मेरे पाठकों ने भी इसे खूब पसंद किया है।

       मुझे लगता है कि अगर मेरे पिताजी का निधन  अल्पायु में न हुआ होता तो अपने विषय में स्थायी महत्व का कृतित्व वे अवश्य छोड़ जाते।इस अवसर पर उनकी स्मृति को सादर नमन।


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