"भारत आब्जर्वर पोस्ट"में तीन कविताएं
कृषक
मंडियां उठती हैं, गिरती हैं।
नेता आते हैं और जाते हैं।
सत्ताएं बनती और पलटती हैं।
पर वह वहीँ का वहीँ खड़ा रहता है
कभी गेहूं की तरह, तो कभी धान की तरह।
तो कभी मकई की बालियों की तरह।
जब खेतों में कुछ भी नहीं होता
वह तब भी खड़ा होता है
धरती के पाले में अपने पावं गड़ाए
एक पुतले की तरह अपनी बाहें फैलाए
निष्प्राण! और पक्षी सोचते हैं
वह जिन्दा है।
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किसान का दुःख
किसानो का दुःख शायद
मैं पूरी तरह से न समझ पाऊं,
पर आधा जरूर समझती हूँ
क्योंकि, मेरे पूर्वज किसान थे
अपनी धरती से जुड़े हुए।
मेहनतकशों के संग बांटते थे वे
हवा, बारिश, धूप और फसल।
मेरे पूर्वजों के पूर्वज
धरती के पहले किसान थे,
अपनी फसल और दुःख दर्द के पूरे मालिक।
मेरे मन में आज भी वे रोपते हैं एक फसल
हर मौसम में। उनके पसीने की बूंदें
मेरे माथे पर चुहचुहाती हैं।
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हरी आंखों का सपना
मेरे मन के बीज पर हथौड़ी से मार कर देखना
उसके टूटने पर उससे उगता
एक किसान मिलेगा।
अपनी हरी आंखों
और दो पत्तों के हाथों से
मेरा आखरी सपना वही पूरी करेगा।
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© कल्पना सिंह
Photo: Ariful Haque
"भारत आब्जर्वर पोस्ट"के संपादक ओंकारेश्वर पांडेय का हार्दिक धन्यवाद.
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