दोस्तो, ‘व्यंग्यशाला’ में आपका स्वागत है.
यहाँ ‘व्यंग्य’ के बारे में सीखा-सिखाया जाता है, लेकिन जो सीखे-सिखाए हैं, उन्हें नहीं—उन्हें तो भला कौन सिखा सकता है—बल्कि जो सीखना-सिखाना चाहते हैं, उन्हें, फिर चाहे वे व्यंग्य के क्षेत्र में नए हों या पुराने.
पुरानों को भला सीखने की क्या का जरूरत है?
असली जरूरत उन्हें ही है. क्योंकि सीखने का मतलब अपने को नया करते रहना है, जो पुराने सीखे हुए को हटाकर ही किया जा सकता है. सीखना एक अनवरत प्रक्रिया है और वह सीखे हुए के लिए न सीखे हुए से भी ज्यादा जरूरी है. कोरी स्लेट पर कुछ भी लिखना आसान है, लेकिन जिस स्लेट पर कुछ लिखा जा चुका है, उस पर नया कुछ, पुराने लिखे को मिटाकर ही लिखा जा सकता है. तालाब पर कीचड़ और काई जम जाती है, जानते हैं क्यों? क्योंकि वह हमेशा भरा रहता है, खाली नहीं होता, इसलिए उसमें नया जल आने की गुंजाइश ही नहीं होती. जबकि बरसाती नदी अपने को अनवरत खाली कर रहती है, इसलिए वह बारिश होते ही ताजे पानी से लबालब भर जाती है.
इस जरा-सी पृष्ठभूमि के साथ मैं सुरेश कांत आज व्यंग्यशाला में आप सभी लोगों के सामने यह प्रश्न रख रहा हूँ कि “व्यंग्य आखिर होता क्या है?” यह प्रश्न आज इसलिए प्रासंगिक हो गया है, क्योंकि आज व्यंग्य के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है, वह असल में व्यंग्य नहीं है. रचना में दो-चार पंच डाल देना, पाठकों को येन-केन-प्रकारेण हँसा देना व्यंग्य नहीं है. और साथ ही, व्यंग्यकार का ठप्पा लगाए फिरने वाले द्वारा कुछ भी छींक या खाँस देना भी व्यंग्य नहीं है.
तो फिर व्यंग्य क्या है?
आप सभी मित्र इस पर अपना मत दें, फिर अंत में मैं उन सभी मतों को समेटते हुए अपना मत प्रस्तुत करूँगा. घिसी-पिटी बात कहने से बचें, दूसरे के उगलदान भी न बनें. अपने ज्ञान, अनुभव और समझ से मौलिक बात रखने की कोशिश करें.
आइए, व्यंग्य को समझने की कोशिश करें, ताकि अच्छा व्यंग्य लिखने-पढ़ने में योगदान कर सकें और इस तरह व्यंग्य की मशाल आगे बढ़ा सकें.