व्यंग्यकार के रूप में मेरी समझ / ब्रजेश कानूनगो
वैसे तो प्रत्येक विधा में लिखते हुए रचनाकार के सामने हमेशा बहुत सी चुनौतियां होती हैं लेकिन जब व्यंग्य लेखन की बात हो तो मेरा मानना है कि आज के समय में इस विधा में ठीक-ठाक लिखना भी बहुत कठिन है. प्रश्न यहाँ किसी रचनात्मक कौशल में निपुणता का नही है बल्कि रचनाकार के अपने मानस के द्वन्द्व और उसकी अभिव्यक्ति की कठिनाइयों का है।
दरअसल आज व्यंग्यकार की कठिनाई यह है कि जिन बातों और मूल्यहीनता को रचनाकार विसंगति मानता रहा है, वही समाज की नई संस्कृति और नए मूल्य बन चुके हैं। ऐसे में जो विरोधाभास व्यंग्य के लिए आवश्यक होता है, वह वहाँ आसानी से उपस्थित करना बहुत कठिन हो जाता है। झूठ,फरेब,छल,दगाबाजी,दोमुहापन,रिश्वत,दलाली,भ्रष्टाचार आदि कभी सामाजिक शर्म की बातें हुआ करती थीं लेकिन उपभोक्तावादी और अर्थ आधारित समकालीन समाज में इन्हे जरूरी और व्यावहारिक आचरण मान लिया गया है। वस्तुओं से लेकर शरीर और आत्मा तक ऐसा कुछ नही रहा जो बेचा ना जा सके। निजी स्वार्थों और इच्छाओं की पूर्ति के लिए जायज और नाजायज का कोई फर्क अब नही रह गया है। स्थितियाँ तो ऐसी होती जा रही हैं कि कल के अनैतिक मानदंडों और आचरणों को विधिक स्वीकृति प्राप्त हो गई है, सार्वजनिक स्वीकार का कोई प्रतिरोध भी दिखाई नही देता।
इन्ही स्थितियों के बीच पत्र-पत्रिकाओं में कहीं कहीं कुछ ऐसे कॉलम अभी भी बने हुए हैं, जहाँ रचनाकार अपनी व्यंग्यात्मक टिप्पणियों और रचनात्मक अभिव्यक्ति से समाज में मौजूद और आनेवाले खतरों से लोगों को आगाह करने का काम करता है. अखबारों में इन्ही कॉलोमों की बढी हुई मांग के कारण व्यंग्य लेखन की जैसे बाढ़ सी दिखाई देती है. लेकिन यह पता करना भी कम दिलचस्प नहीं है कि इनमें से सचमुच कितने व्यंग्य की श्रेणी में रखे जा सकने के हकदार होते हैं.
मैं जब अपने लिखे हुए व्यंग्य पर एक नजर डालता हूँ तो मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मेरे लिखे व्यंग्य के मूल में भी अखबारों में प्रकाशित होने वाले इन्ही लोकप्रिय कॉलमों की भूमिका रही है. (यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि प्रतिष्ठित नईदुनिया समाचार पत्र में सन 1977 से मेरे व्यंग्य प्रकाशित होने लगे, बाद में देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ आती रहीं. सन 1995 में पहला व्यंग्य संग्रह ‘पुनः पधारें’ तथा 2014 में दूसरा ‘सूत्रों के हवाले से’ आया. कुछ व्यंग्य कहानियां और लघु कथाएं भी प्रकाशित हुईं जो मेरे कहानी संग्रह ‘रिंगटोन’ (2016) में शामिल हैं. बाद के सत्तर से अधिक व्यंग्य रचनाओं की पांडुलिपि तैयार कर ली गयी है.)
बहरहाल, कॉलमो में छपने की अभिलाषा ने मुझसे लिखवाया और फिर यह क्रम आज तक जारी भी है. लेकिन एक बात जो मैं अपने लिखने में हमेशा बनाये रखने की कोशिश करता हूँ उनमें प्रगतिशील जीवन मूल्य, समाजवादी और जनवादी विचारधारा और मनुष्य के प्रति प्रतिबद्धता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए अपने आग्रह। इसी लेखकीय दृष्टि से मैं अपनी दुनिया और समाज को अभिव्यक्त करने की कोशिश में अपने स्वार्थ, आदत और लिखने, छपने की अच्छी बुरी लत के कारण लिखता रहता हूँ। इसे आप कुछ भी कहें, कैसा भी कहें। जो पढ़ें उनका कल्याण हो, जो न पढ़ें उनका भी कोई बुरा नहीं होने वाला।
सो मेरे लिखे से किसी का मन बहल जाएँ, आंसू की कुछ बूँदें छलक पढ़ें, दिल में कुछ थोड़ी सी टीस उठ जाए, कोई ठहाका लगा दे, प्रेम की बरसात होने लगे भीतर, जो थोड़ा बहुत लिखता है वह और ठीक से लिखने लगे मुझे पढ़ते हुए और क्या चाहिए।
व्यंग्य लिखते हुए जिन ख़ास बातों का मैं विशेष ध्यान रखने की कोशिश करता हूँ उसमें से एक यह भी है कि लेख की पठनीयता को किसी तरह जरूर बनाए रखा जाए. व्यंग्य लेखन के प्रश्नों पर मैंने अपनी समझ को कुछ इस तरह बिन्दुवार व्यक्त करने की कोशिश की है-
साहित्य का पाठ
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जब भी हम कुछ पढ़ते हैं, उसका आनन्द लेते हैं तब क्या सचमुच उस पढ़े जाने को 'पाठ'कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए एक बच्चा चली आ रही परम्परा के अनुसार किसी 'चालीसा'का पाठ करना शुरू करता है।एक छोटी सी पोथी से शुरू करता है। पूरी किताब सहजता से पढ़ डालता है। शब्द शब्द उसे आनन्द से भर देते हैं।शब्दों का संगीत लय सहित गूंजने लगता है। यहां भी पठनीयता तो है मगर क्या यहां सचमुच रचना का पाठ हुआ?
एक मित्र 150 पेजों की किताब मात्र 1 घंटे में पढ़ डालते हैं,वहीँ एक मित्र उसके लिए 1 सप्ताह लेते हैं।किताब वही है, लेकिन उसके पाठ में लगने वाला समय पाठक के ऊपर निर्भर है।पहले मित्र के लिए किताब इतनी पठनीय है कि तुरन्त ग्रहण हो जाती है जबकि दूसरे पाठक तक पहुँचने में ज्यादा समय लेती है।यहां पठनीयता तो वही है,पाठक की ग्रहण क्षमता बदल गयी है।
पठनीयता को भाषिक प्रवाह की तरह देखें तो जैसे कोई चिकनी सड़क की सहजता से मुकाम तक पहुंचा देने की खासियत। लेकिन क्या उस सड़क में यात्रा का रोमांच है? कार के शीशों पर परदे चढा लेने से यात्रा के सुन्दर दृश्य विलुप्त नहीं हो जाते हैं। जो यात्रा दुर्गम अनुभवों के लिए ही की जा रही होगी तो सफर में दचके तो लगेंगे ही। पहाड़ के शिखर को छूने को निकले पाठक को अपने साधन भी थोड़े जुटाना ही होंगें।
पठनीयता और शब्द शक्ति
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देखा जाए तो पठनीयता का एक सम्बन्ध ख़ास विधा से भी जुड़ता है। यह भी तय है कि बगैर किसी भाषा के हम किसी भी विधा में कैसी भी रचना की कल्पना नहीं कर सकते। और जब भाषा के लिए विचार करते हैं तो 'शब्द शक्तियों'की बात भी सहज है।
अभिधा,लक्षणा और व्यंजना ,ये तीन ऐसी शब्द शक्तियां हैं जिनमे हम अपने कथन को व्यक्त करते हैं। कोई भी संप्रेषण साधारणतः अभिधा के अंतर्गत होता है, सामान्य सूचनात्मक लेख, रिपोर्टिंग आदि जिनमें सीधे से विषयवस्तु अभिव्यक्त होती है, किंतु जब साहित्य की किसी विधा में रचना आती है तब अभिधा के अलावा,लक्षणा और व्यंजना शक्ति का विवेकपूर्ण उपयोग उसे प्रभावी बनाता है, गुणवत्ता में बेहतरी लाता है।
शब्द शक्तियों का उपयोग रचना को दुरूह बनाकर उसमें बाधक नहीं बनता बल्कि उसे थोड़ा अधिक स्वीकार्य और रचना में कलात्मकता पैदा करता है। शरीर को सीधे सीधे व्यायाम के लिए हिलाने डुलाने से भी एक्सरसाइज तो होती है, मगर यदि संगीत के साथ एरोबिक्स अथवा योगाभ्यास किया जाए तो वह कुछ अधिक स्वीकार्य और अधिक करने के लिए इच्छा जाग्रत करने वाला हो जाता है।
व्यंग्य में लक्षणा और व्यंजना यही काम करते हैं। जिनके अभाव में कोई भी रचना 'सपाट बयानी'से आरोपित की जा सकती है। व्यंग्य तो वहां भी होगा मगर व्यंग्य का श्रृंगार और ख़ूबसूरती नहीं दिखाई देगी। व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियां व्यंग्य रचना की ताकत कही जा सकती है।
इन शक्तियों के कारण रचना की पठनीयता बढ़ जाती है और आगे पढ़ने को लालायित करती है।
पठनीयता एक निर्बाध सफ़र
कई बार किसी व्यंग्य लेख को पढ़ते हुए कुछ अवरोध या स्पीडब्रेकर भी महसूस किये जा सकते हैं। दरअसल, रचनाकार जब किसी एक विषय पर लिखना चाहता है तो उसका यह प्रयास होता है कि उस विषय से सम्बंधित सारे मुद्दों और पक्षों को वह अपने आलेख में समेट ले।
लेख के हर पेरा में वह कुछ कहता भी है लेकिन अगले पेरा में प्रवेश के साथ ही पाठक भौचक्क रह जाता है कि उसकी बात कहाँ से जम्प लगाती कहाँ आ पहुंची। अयोध्या से सीधे अलीगढ़ पहुँच जाना, कुछ अटपटा सा अनुभव हो जाता है पाठक के लिए। इसे 'कहे खेत की और सुने खलिहान की' जैसा भी माना जा सकता है। खेत से खलिहान तक जो पगडंडी जाती है,उस पर से न गुजरते हुए लेखक लंबी कूद लगा देता है,और सारी पठनीयता धराशायी हो जाती है।
इसमें लेखक को विषय वस्तु के विभिन्न दृश्यों और पहलुओं के बीच खूबसूरत कपलिंग करना आना चाहिए। एक पटरी से दूसरी पटरी पर आते समय कोण की बजाय कर्व का प्रयोग करना बेहतर हो सकता है। कुशल व्यंग्यकार अपनी रचना की रेलगाड़ी को आहिस्ता आहिस्ता दिशा परिवर्तित करवाता रहता है। और कुछ ख़ास और अनुभवी लेखक तो पठनीयता बनाये रखने में इतने सिद्धहस्त हो जाते हैं कि पूर्व दिशा में जा रही रेलगाड़ी जब गंतव्य पर रुकती है तो उसका इंजिन पश्चिम की ओर हो जाता है। पाठक को अहसास ही नहीं हो पाता कि दिशा ठीक विपरीत हो चुकी है। कुशल व्यंग्यकार की रचना में पठनीयता कुछ ऐसी ही होती है।
सामयिक सन्दर्भ और पठनीयता
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व्यंग्य रचनाओं में इन दिनों सामयिक घटनाओं और प्रसंगों का सन्दर्भ लेने का चलन बढ़ा है। विशेषतः अखबारों में प्रकाशित होनेवाले दैनिक कॉलोमों में ऐसा कटाक्षपूर्ण या व्यंग्यात्मक अथवा परिहास सहजता से देखा जा सकता है। अखबारों के पाठकों के बीच ये काफी रूचि से पढ़े भी जाते हैं। कुछ तो सबसे पहले इन्हें ही पढ़ना पसंद करते हैं। हर अखबार ऐसे कॉलम इन दिनों जारी रखे है। इस व्यावसायिक समय में साहित्य पृष्ठ भले ही नदारद होते जा रहे हों मगर इन लघु टिप्पणियों की मांग बरकरार है।
इसका एक अर्थ यह भी है कि सामयिक व्यंग्य लेखों की पठनीयता उनके तात्कालिक सन्दर्भों की वजह से अधिक हैं।यह भी सही है कि इनका पाठक भी एक औसत आम पाठक है। कविता की तरह यह तंज यहां लागू नहीं होता कि 'कवि ही कविता पढ़ते हैं और कवि ही कविता लिखते हैं'। यहां इन लेखों को साहित्यकार और व्यंग्यकार पढ़ने में रूचि उतना नहीं लेता जितना उस अखबार का नियमित पाठक वर्ग।
दो बात मुझे इस स्थिति से स्पष्ट होती है एक यह कि सामयिक सन्दर्भों और विषयों पर लिखे गए की पठनीयता आम पाठकों में ज्यादा होती है। कुछ पाठक जो प्रबुद्धता की पैमाने में थोड़े ऊपर उठ जाते हैं, वे इन लेखों में पठनीयता होने के बावजूद बगैर पढ़े छोड़ भी सकते हैं। दूसरी बात यह कि इनका जीवन उतना ही प्रायः रह पाता है जितना किसी अखबार के उस दिन के अंक का अस्तित्व।
मुझे लगता है एक विवेकी रचनाकार ने ऐसे आलेखों को 'रचना बीज' की तरह लेकर लेख तो अवश्य लिख लेना चाहिए, छपवा भी लेना चाहिए लेकिन एक अरसा बाद, इनकी पुनः खैर खबर लेना उसके लिए लाभदायक हो सकता है। तात्कालिक घटनाक्रम के आतंक और छपास की आस से मुक्त संपादन और घटना के पीछे की 'प्रवत्ति'को विषय बनाकर नया व्यंग्य तैयार किया जा सकता है, जिसकी उम्र और पठनीयता मुझे लगता है दोनों बेहतर और सर्वकालिक होगी।
पठनीयता में भाषिक प्रयोग
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एक प्रश्न अक्सर व्यंग्य में क्षेत्रीय और प्रचलित शब्दों के उपयोग को लेकर भी उठता रहता है। भाषिक प्रयोग किसी भी रचना के सौंदर्य में वृद्धि ही करते हैं। शब्दों के व्यंजनात्मक प्रयोग से रचना खिल उठती है। शब्द फिर क्षेत्रीय भाषा का ही क्यों न हो। इधर तो ठेठ 'इंदौरी'बोली के चौराहे के शब्दों का खूब मजेदार उपयोग होने लगा है। 'भिया', 'क्या केरिये हो'से लेकर 'पेलवान'और 'छरै' भी खूब चल निकला है। सवाल अंततः विषयवस्तु की गुणवत्ता का ही है। मुम्बइया जुबान में कई बेहतर प्रयोग हुए हैं। कई लेखों और रचनाओं में तथा कथित गालियों का प्रयोग तक होता रहा है।लेकिन वहां केवल वही तो नहीं होता। शुरू में अटपटे लग सकते हैं बोलियों के शब्द,लेकिन फिर तो प्रयोग होते होते सब 'सायोनारा'हो ही जाता है।
मुहावरों और लोकोक्तियों से भी पढ़ने वालों में भरपूर रूचि पैदा होती है। खूब प्रयोग किया गया है इनका। कहावतों का तेल निकालकर भी व्यंग्य रचनाएं मैं खुद लिखता रहा हूँ। मगर अब नए मुहावरे गढ़ने का समय आ गया है।
'गुस्से में आदमी कागज फाड़ता है', 'दाढ़ी के पीछे क्या है', 'हर बात जुमला नहीं होती,'जैसे प्रयोग हुए भी हैं। ओल्ड इस गोल्ड तो होता है मगर नई घडावन और कारीगरी भी जरूरी होगी। बशर्ते वह गहने पर खूबसूरत लगे। प्रयोग के पूर्व लेखक ही रचना का पहला पाठक होता है,जरा भी कोई बात उसे भद्दा बनाती हो,उसका मोह त्याग कर निर्ममता से उसे हटा दिया जाए तो पठनीयता पर शायद कोई ख़ास असर नहीं होगा।
सरलता और जटिलता
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साहित्य में एक सवाल सरलता और जटिलता को लेकर भी बहुत उछलता रहता है. एक रचनाकार के तौर पर मेरा मानना है कि साहित्य में सरलता,जटिलता का सवाल सिक्के के दो पहलुओं से निकलकर आता है. पाठक और लेखक दोनों की भूमिका इसमें विमर्श के पूरक बिंदु हो सकते हैं.
सन्दर्भों की जानकारी और ज्ञान के अभाव में भी पाठकों को कोई रचना जटिल लग सकती है। इसमें न सिर्फ पाठक को अपने को तैयार करना होता है बल्कि समालोचक या टीकाकार की भूमिका भी यहां बड़ी महत्वपूर्ण हो जाती है। कोइ भी रचनाकार जानबूझकर अपनी रचना को जटिल नहीं बनाना चाहता। उसका अभीष्ट तो सामान्यतः यही होता है कि जो कुछ वह अनुभव कर रहा है वह कलागत सौन्दर्य के साथ उसी तरह पाठक/श्रोता तक पहुंच सके। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति बन सके। अपवाद तो हर कहीं हो सकते हैं।
जीवन की जटिलताओं को सरलता से अभिव्यक्त कर देना, हरेक लेखक के लिए शायद आसान काम नहीं होता। ज्यादातर लेखक तो जीवन की जटिलताओं तक पहुंचने में ही कतरा जाते हैं. कइयों के पास अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त सरल शब्दावली ,भाषा शैली के अभाव के चलते उचित प्रयोग का भी संकट खड़ा होने की संभावना बनी रहती है।
हरेक शब्द की अपनी सत्ता और आभा मंडल होता है।सम्पूर्ण कथातत्व की अभिव्यक्ति और सही संप्रेषण और कहे गए को सही अर्थ देने के लिए उपयुक्त शब्दों का प्रयोग रचना में सौंदर्य का कारक बनता है।इस सौंदर्य में कभी व्यंजना और लक्षणा शक्तियां उभरती हैं विशेषतौर पर व्यंग्य लेखन में। समर्थ रचनाकार शब्दों के सही इस्तेमाल से जटिल से जटिल सन्दर्भों को सरलता से पाठक के गले उतार देने में सफल होता है।
इन्ही प्रयासों में थोड़ी कमी रचना को दुरूह भी बना सकती है,लेकिन इसकी परवाह सामान्यतः अब ज्यादा की नहीं जाती। हमें छद्म साहित्य से अलग हटकर ही विचार करना चाहिए.
किसी भी रचना में पाठ के स्तर पर बाहरी और आतंरिक कईं परतें होती हैं, जिसके कारण भी जटिलता/सरलता का सवाल खड़ा हो जाता है। किसी भी वास्तु की मेक्रो और माइक्रो बनावट की तरह रचना भी ऐसे ही कई पाठों का समुच्चय होती है। पाठक का एनेलेसिस भी पढ़ते हुए मेक्रो और माइक्रो स्तर से गुजरता है. जो पाठक बाहरी परत को छूकर मजा ले लेता है उसके लिए वह रचना जटिल नहीं है. जटिल तो वह तब होती है जब वह भीतरी परत तक पहुँचने में कामयाब नहीं हो पाता. जहां सच्ची रचना की आत्मा निवास करती है.
जो मॉइक्रो तक नहीं पहुँच पाता वह जटिलता में उलझ जाता है लेकिन जैसे ही वह भीतर उतरता है, आनन्द से भर उठता है, ख़ुशी में 'मिल गया मिल गया'का नाद करता बगैर टॉवेल लपेटे आर्केमिडीज की तरह अध्ययन कक्ष से बाहर दौड़ लगा देता है। यह अनुभूति किसी साधक की आत्मा के परमात्मा से मिलन की ख़ुशी जैसी होती है। लगता है हिमालय में भटकते हुए यकायक फूलों की घाटी में पहुँच गए हों. यह होता है रचना के असली पाठ को पा लेने का अद्भुत सुख।
विचारधारा और प्रतिबद्धता
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जब हम साहित्य की बात करते हैं तो प्रायः उसका आशय सामान्यतः उन रचनाओं से होता है जो निबंध, कहानी, नाटक,लघुकथा, व्यंग्य आदि जैसी गद्य अथवा गीत,गजल,कविता आदि जैसी पद्य विधाओं में अभिव्यक्ति का माध्यम होती हैं।
जो व्यक्ति यदि थोड़ा बहुत भी साहित्य में रूचि रखता है, वह भली भांति जानता है कि केवल कुछ शब्दों को तरतीब से रख देना भर, जिसका कोई अर्थ निकल कर आ जाए, जरूरी नहीं कि वह साहित्य की श्रेणी में रखा ही जाएगा । दरअसल,साहित्यिक अभिव्यक्ति सामान्य संप्रेषण से थोड़ा अलग मामला होता है।
साहित्य की प्रत्येक विधा का अपना मुहावरा और सौंदर्य शास्त्र होता है, जिसके अंदर उस विधा की रचनाएं ख़ूबसूरत और प्रभावी बन पाती हैं। ये अलग बात है कि देश काल के हिसाब से इनकी प्रकृति में कुछ बदलाव अवश्य होते रहते हैं। लेकिन जो चीजें साहित्य में नितांत जरूरी मानी गयी है उनमें प्रमुख यह है कि रचनाओं का जन्म अनुभूतियों और संवेदनाओं के प्रभाव से ही संभव होता है। जो व्यक्ति संवेदनशील है वही सृजन भी कर पाता है। अपनी संवेदनाओं को अपनी भाषा और शब्द देकर , अपनी अनुभूति को सबकी अनुभूति में रूपांतरित करने का प्रयास करता है, बस यही साहित्यिक अभिव्यक्ति है और वह सहृदय व्यक्ति रचनाकार है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात सृजन के संदर्भ में यह भी है कि चीजों को, घटनाओं को रचनाकार किस भिन्न दृष्टि से देखता है। दृष्टि का यही अंतर एक समान प्रसंगों , दृश्यों, सन्दर्भों को अलग अलग ढंग से अभिव्यक्त करने का अलग अलग रास्ता निर्धारित कर देता है। यहीं से साहित्य में विचार धारा का सवाल सामने आता है।
उदाहरण के लिए जंगल में कटे पड़े पेड़ के ठूंठ को देखकर कोई अपने घर में ईंधन के रूप में पाकर खुश हो लेता है, दूसरा व्यक्ति आरा मशीन में पट्टे निकलवाकर फर्नीचर का रूप देने की दृष्टि से उसे देखता है।कोइ शिल्पकार उसमें किसी मूर्ती को देख पाने की दृष्टि रखता है तो कोई कवि उसे एक जीवन की समाप्ति की तरह देखकर किसी करूण गीत की रचना के लिए उद्वेलित हो जाता है। इसी तरह प्रत्येक रचनाकार का चीजों को देखने का एक नजरिया होता है, और उस सन्दर्भ में उसकी अपनी पक्षधरता भी होती है।
बहुत पुराना उदाहरण है कि चाँद में कोई प्रेमकवि अपनी महबूबा के सुन्दर चहरे की कल्पना कर कविता लिखता है तो दूसरा किसी भूखे व्यक्ति के लिए रोटी की तलाश चाँद में करता है। यही साहित्य में विचारधारा के अंतर की तरह है।
अब इस विचारधारा को आप चाहें तो किसी वाद की रोशनी में भी व्याख्यायित कर सकते हैं। प्रगतिवाद, गांधीवाद, बाजारवाद, वामपंथी, दक्षिणपंथी, दलित चेतना, स्त्री चेतना के अलग अलग खानों में वर्गीकृत भी करके बात की जाती रही है। ये सब देखने और अभिव्यक्त करने के भिन्न रास्ते हैं जिन पर साहित्य की रेल गाड़ियां दौड़ती रहती हैं।
दरअसल हर कथन एक राजनीतिक स्टेटमेंट होता है। चुनावी राजनीति से इस बात की तस्दीक कृपया न करें। 'पार्टनर तेरी पॉलिटिक्स क्या है? यह एक जरूरी प्रश्न है। रचनाकार की अन्ततः एक दृष्टि और पक्षधरता का होना उसके लेखन को एक पहचान देता है। इसके साथ साथ उसका सामाजिक विवेक भी चलता है। वस्तुतः यही विवेक रचनाकार की पक्षधरता और राजनीतिक दृष्टि का निर्धारक भी होता है।
व्यंग्य लेखन में भाषा और शैली में चुटकियां,विट, हास्य,आदि भले ही चलते रहें, विषयवस्तु के निर्वाह में रचनाकार का सामाजिक विवेक और उसकी राजनीतिक चेतना जाहिर हो ही जाती है। परसाई जी ,शरद जोशी से लेकर आज के हमारे वरिष्ठ व्यंग्यकारों की रचनाओं को पढ़ने के बाद उनके सामाजिक सरोकार और पक्षधरता को आसानी से समझा जा सकता है।
अपने समय की विसंगतियों पर रचनाकारों को व्यंग्य लिखने में यही चेतना बहुत मदद करती है और रचना को श्रेष्ठ बना देती है। राजनीतिक दृष्टि से सम्पन्न और सामाजिक विवेक से दिशा प्राप्त करने वाला लेखक सचमुच महत्वपूर्ण व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठा अर्जित कर लेता है।
दुःख इस बात का है कि समकालीन व्यंग्य लेखन में कुछ को छोड़कर ऐसे व्यंग्यकारों की संख्या बहुत कम नजर आती है जो अपनी रचनाओं में चेतना संपन्न दिखाई देते हों।
यह बिलकुल निश्चित है कि कोई भी रचना हो, उसमें रचनाकार की विचारधारा और उसकी पक्षधरता अवश्यम्भावी उपस्थित होती है । स्पष्टतः भले ही एक दम सामने दिखाई न दे लेकिन उसका आंतरिक प्रवाह रचना और उसके समग्र लेखन कर्म में अवश्य देखा जा सकता है।
हम यहाँ यदि सौदेश्य ,सार्थक, यथार्थवादी, जन पक्षधर साहित्य के परिप्रेक्ष्य में कहें तो विचारधारा की पटरी पर लेखक विशेष की ट्रेन सुगमता से दौड़ती है. और महत्वपूर्ण रचना होने का मान पा लेती है।
नये समय के नये सवाल
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नये समय के नये सवालों का सामना करते हुए व्यंग्य का हस्तक्षेप केवल व्यंग्य में ही विचारणीय नहीं है, बल्कि हरेक विधा में विमर्श के योग्य बिंदु है। सार्थक लेखन की तो यह अनिवार्यता ही होना चाहिए की वह अपने समय के सवालों, चुनौतियों के सन्दर्भों को साथ लेकर चले। व्यंग्य में तो यह और भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।जिस दौर में टेक्नोलॉजी का विकास हो गया हो, स्त्रियों की आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में बदलाव आया हो।कोई व्यंग्यकार पत्नी द्वारा बेलन से पति की खोपडिया तोड़ डालने जैसे विषयों पर कलम घिस रहा हो, उसे कैसे मान्यता दी जानी चाहिए। यह एक मात्र उदाहरण है,ऐसे कई प्रसंग और विषय दिख जाते हैं जो व्यंग्य को बहुत पीछे ढकेल देने का काम करते हैं।
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद समाज में कई बदलाव हुए है। पाखण्ड,धूर्तताओं ,चालाकियां और सांस्कृतिक प्रदूषण के आगमन के साथ समाज का नैतिक अवमूल्यन हुआ है। बाजारवाद ने हरेक वस्तु को बिकाऊ, यहां तक कि देह,आत्मा और मूल्यों तक की बोलियां लग जाने को अभिशप्त किया है।
परिवारों में रिश्तों की मधुरता और सम्मान के साथ छोटे-बड़ों के बीच का कोमल और संवेदन सूत्र टूटने लगा है। घर के बुजुर्ग हाशिये पर हैं।
दुनिया को जीत लेने की किसी शहंशाह की ख्वाहिश की तरह राजनीति के नायक-महानायक किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखाई देते हैं। सत्ता सुख की खातिर अपने पितृ दलों को डूबते जहाज की तरह कभी भी त्याग देने में नेताओं, प्रतिनिधियों को कोई परहेज नहीं होता। असहमति किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं। आश्वासन और विश्वास जुमलों की तरह इस्तेमाल हो रहे हों।
हिंदीभाषा और देवनागरी लिपि को नष्ट भ्रष्ट करने में उन्ही संस्थानों और अखबारों की मुख्य भूमिका दिखाई देती है जिन पर उनके संरक्षण की उम्मीद लगी रही हो।
नए समय के बहुत से नए सवाल हैं, जिन पर गंभीरता से व्यंग्य लिखे जाना चाहिए। यह समय रम्य रचनाओं और संपादकीय टिप्पणियों से कुछ आगे की अपेक्षा व्यंग्यकारों से करता है।
नामजद परिहास
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इन दिनों अखबारी व्यंग्य लेखन में एक बात जो विशेष रूप से नजर आती है कि अब राजनेताओं के नामों का उल्लेख बहुतायत से किया जाने लगा है। केजरीवाल, राहुल, मोदी, ममता, मुलायम आदि का उल्लेख व्यंग्य रचना में सीधे सीधे होने लगा है। व्यंग्य लेखन में नेताओं के या किसी भी व्यक्ति के नामजद परिहास को मैं ठीक नहीं मानता.
मेरा मानना है कि यह विधा के सौंदर्य की दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता। सड़क के प्रदर्शनों, आंदोलनों में नाम के उल्लेख के साथ जिंदाबाद,मुर्दाबाद की परंपरा रही है,लेकिन व्यंग्य एक साहित्यिक विधा है और उसकी अपनी गरिमा होती है।
ऐसा नहीं है कि व्यक्तिगत रूप से व्यंग्य नहीं लिखे गए, खूब लिखे गए लेकिन वहां भी इस तरह सीधे सीधे नाम नहीं लिया गया। व्यंग्य में व्यक्ति की प्रवत्ति पर व्यंग्य होना ही चाहिए, हास्य भी होना ठीक है लेकिन नामजद परिहास या मखौल उड़ाए जाने को मैं निजी तौर पर ठीक नहीं मानता।
इन दिनों विशेषकर राजनेताओं के व्यक्तिगत नामों के उल्लेख के साथ उनके मखौल उड़ाते हुए किसी भी लेख को प्रकाशन की लगभग गारंटी की तरह माना जाने लगा है, हो तो यह भी रहा है कि यदि लेख की प्रकृति गैर राजनीतिक होती है फिर भी किसी तरह इन नामों को घुसेड़ देने के प्रयास दिखाई दे जाते हैं, जबकि विषय वस्तु से उसका कोई ताल मेल ही नहीं होता।
शरद जोशी जी सहित सभी श्रेष्ठ व्यंग्यकारों ने राजनेताओं को लेकर तीखे व्यंग्य लिखे हैं मगर वहां भी व्यक्ति नहीं बल्कि प्रवत्ति पर निशाना लगाया गया।
और वे सहज रूप से है- परिहास के साथ विसंगति और अटपटे आचरण पर कटाक्ष की तरह आते थे। मखौल की तरह तो कदापि नहीं।
व्यंग्य को नामजद गालियों की दिशा में जाते देख दुःख होता है। बाकी तो जो है सो है ही। मैं अपनी रचनाओं में कोशिश करता हूँ कि ऐसा न हो.
ब्रजेश कानूनगो